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हरिवंशपुराणे प्रागशोकवनं तत्र सप्तपर्णवनं स्वपाक् । स्याञ्चम्पकवनं प्रत्यक चूतवृक्षवनं युदक् ।।६७२।। वापीकोणसमीपस्था नगा रतिकरामिधाः । स्युः प्रत्येकं तु चत्वारः सौवर्णाः पटहोपमाः ॥६७३॥ गाढाश्चार्द्धतृतीयं ते योजनानां शतद्वयम् । सहस्रोत्सेधविस्तारव्यायामा व्ययवर्जिताः ॥६७४।। तेत्राभ्यन्तरकोणस्था द्वात्रिंशत्सेविताः सुरैः। द्वात्रिंशद्बाह्यकोणस्थाः प्रत्येक वेकचैत्यकाः ॥६७५।। तथैवाम्जनका ज्ञेया नगा दधिमुखास्तथा । एकैकजिनगेहेन पवित्रीकृतमस्तकाः ॥६७६।। प्राङमुखास्ते शतायामाः पञ्चाशद् व्यासयोगिनः । उत्सेधेन गृहा जैनाः पञ्चसप्ततियोजनाः ॥६७७।। अष्टोत्सेधचतुर्यासगाहत्रिद्वारभास्वराः। ते द्विपञ्चाशदाभान्ति नन्दीश्वरजिनालयाः ॥६.८॥ पञ्चचापशतोत्सेधा रत्नकाञ्चनमूर्तयः । प्रतिमास्तेषु राजन्ते जिनानां जितजन्मनाम् ॥६७९।। फाल्गुनाष्टाह्निकायेषु प्रतिवर्ष तु पर्वसु । शकाद्याः कुर्वते पूजां गीर्वाणास्तेषु वेश्मसु ॥६८०।। पूर्वाख्यातचतुःषष्टिवनखण्डान्तरस्थिताः । प्रासादास्तु चतुःषष्टिर्वननामसुराश्रिताः ॥६-१।। द्विषष्टियोजनोत्सेधा एकत्रिंशतमायताः । विस्तृताश्च पुरोद्दिष्टप्रमाणद्वारकाः पुनः ॥६८२॥ परौ नन्दीश्वराम्मोधेररुणद्वीपसागरौ । अन्धकारः पुनः सिन्धोर्ब्रह्मलोकान्तमाश्रितः ॥६८३।। मृदङ्गसदृशाकाराः कृष्णराज्यो विजृम्भिताः । अष्टौ ताश्च घनाकारा बाहस्तस्य व्यवस्थिताः ॥६८४॥
पचास हजार योजन चौड़े हैं ॥६७१।। उनमें पूर्व दिशामें अशोकवन है, दक्षिणमें सप्तपर्णवन है, पश्चिममें चम्पकवन है और उत्तरमें आम्रवन है ।।६७२।। वापिकाओंके कोणोंके समीप रतिकर नामके पर्वत हैं। ये पर्वत प्रत्येक वापिकाके प्रति चार-चार हैं, सुवर्णमय हैं तथा ढोलके आकार हैं ॥६७३।। ढाई सौ योजन गहरे हैं. एक हजार योजन ऊँचे-चौड़े तथा लम्बे हैं और विनाशसे रहित हैं ।।६७४॥ इनमें बत्तीस रतिकर आभ्यन्तर कोणोंमें हैं और बत्तीस बाह्य कोणोंमें । ये सभी देवोंके द्वारा सेवित हैं तथा प्रत्येकपर एक-एक चैत्यालय है ॥६७५||* रतिकरोंकी भांति अंजनगिरि तथा दीर्घ मुख पर्वतोंके मस्तक भी एक-एक जिन-मन्दिरसे पवित्र हैं अर्थात् उन सबपर एक-एक चैत्यालय है ।।६७६।। ये समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख, सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे हैं ॥६७७॥
आठ योजन ऊंचे, चार योजन चौड़े तथा गहरे. तीन-तीन द्वारोंसे देदीप्यमान नन्दीश्वर द्वीपके ये पावन चैत्यालय अतिशय शोभायमान हैं ॥६७८।। उन चैत्यालयोंमें संसारको जीतनेवाले जिनेन्द्र भगवान्की पांच सौ धनुष ऊंची रत्न एवं स्वर्ण निर्मित मूर्तियां विराजमान हैं ॥६७९॥ प्रतिवर्ष फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिकके आष्टाह्निक पर्वोमें सौधर्मेन्द्र आदि देव उन चैत्यालयोंमें पूजा करते हैं ॥६८०|| पहले जिन चौंसठ वनखण्डोंका वर्णन किया गया है उनमें चौंसठ प्रासाद है तथा उन प्रासादोंमें वनोंके नामवाले देव रहते हैं ।।६८१।। वे प्रासाद बासठ योजन ऊंचे, इकतीस योजन लम्बे, इतने ही चौड़े तथा पूर्वोक्त प्रमाणवाले द्वारोंसे सहित हैं ॥६८२॥
नन्दीश्वर समुद्रसे आगे अरुण द्वीप तथा अरुण सागर है वहाँ समुद्रसे लेकर ब्रह्मलोकके अन्त तक अन्धकार ही अन्धकार है ।।६८३।। अरुण समुद्रके बाहर मृदंगके समान आकारवाली
१. व्यायामश्चावणिताः ख. । २. अत्राभ्यन्तरकोणेषु रतिकरवर्णनं चिन्त्यम् । ३. गृहमुखा-म.। ४. तस्या म.।
* रतिकरोंका यह वर्णन भ्रान्तिपूर्ण है क्योंकि रतिकर वापिकाओंके बाह्य कोणोंपर है। आभ्यन्तर कोणोंपर नहीं। इस तरह एक दिशाकी चार बावड़ी सम्बन्धा आठ-आठ रतिकर होते हैं, चारों दिशाओंको मिलाकर बत्तीस होते हैं। यहां आभ्यन्तर और बाह्य दोनों कोणोंमें बत्तीस-बत्तीसका वर्णन किया है इससे चौंसठ रतिकर हो जाते हैं । नन्दीश्वर द्वीपको चारों दिशाओंमें ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर इस तरह सब मिलकर ५२ चैत्यालय सर्वत्र प्रसिद्ध हैं।
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