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हरिवंशपुराणे योजनानि क्षितेरून दशोत्पत्य दशोपरि। विस्तीर्ण पर्वतायाम श्रेण्या विद्याधराश्रिते ॥२२॥ दक्षिणस्यां महाश्रेण्यां पञ्चाशनगराणि च । उत्तरस्या' पुरः षष्टिस्त्रिविष्टेपपुरोपमाः ॥२३॥ योजनानि दशातीत्य पुनः सन्ति पुराण्यतः। सुराणामाभियोग्यानां क्रीडायोग्यान्यनेकशः ॥२४॥ पुनरुत्पत्य पञ्चोव दशयोजनविस्तृता । श्रेणी तु पूर्णभद्राख्या विजयार्द्धसुराश्रिता ॥२५॥ द्विायतनकूटं प्राक् दक्षिणार्द्धकमेव च । खण्डकादिप्रपातं च पूर्णभद्रं ततः परम् ॥२६॥ विजयार्द्धकुमाराख्यं मणिमद्रं ततः परम् । तामित्रगुहकं चान्यदुत्तराद्धं च नामतः ॥२७॥ अन्ते वैश्रवणाख्यं तु मान्ति तानि दधन्ति तम् । नगाग्रे नवकूटानि क्रोशषड़योजनोच्छितिम् ॥२८॥ मूले तन्मात्रमेवैषां मध्येऽप्यूनानि पञ्च तु । साधिकान्युपरि त्रीणि विस्तारस्तेषु भाषितः ॥२९॥ सिद्धायतनकूटे च सिद्धकूटमितीरितम् । पूर्वाभिमुखमाभाति जिनायतनमुज्ज्वलम् ॥३०॥ उच्छायस्तस्य पादोनः क्रोशः क्रोशार्द्धविस्तृतिः । आयामः क्रोश एव स्यात्प्रासादस्याविनाशिनः ॥३१॥ ज्याऽसौ नवसहस्राणि सप्तशस्यपि चाष्टमिः । चत्वारिंश त् कला द्विःषट् मारता तु दक्षिणा ॥३२॥ धनुःपृष्टं पुनस्तस्या षट्षष्टिः सप्तशत्यपि । सहस्राणि नव ज्यायाः साधिका च कलोदितम् ॥३३॥ योजनानां शते द्वे तु साष्टत्रिंशत्कलात्रयम् । धनुषोऽनन्तरस्येय मिषुर्भवति पुष्कला ॥३४॥ सहस्राणि दशामोषां सप्तशस्यपि विंशतिः । एकादशकला ज्यासौ विजयार्द्धनगोत्तरा ॥३५॥ ज्याया दशसहस्राणि धनुःसप्तशतीरितम् । त्रिचत्वारिंशदप्यस्याः कलाः पञ्चदशाधिकाः ॥३६॥ योजनानां प्रसिद्धेषुरष्टाशी तिशतद्वयम् । उत्तरा विजयार्द्धस्य तिस्रश्चापि कलाः कलाः ॥३॥
चूलिका विजयार्द्धस्य योजनानां चतुःशती । षडशीतिमनागना जिनेशेन प्रकीर्तिता ॥३८॥ चाँदीके समान सफेद वर्णवाला है ॥२१॥ पृथिवीसे दश योजन ऊपर चलकर इस पर्वतकी दो श्रेणियाँ हैं जो पर्वतके ही समान लम्बी हैं तथा जिनमें अनेक विद्याधरोंका निवास है ।।२२।। । दक्षिण महाश्रेणीमें पचास और उत्तर महाश्रेणी में साठ नगर हैं, ये सब नगर स्वर्गपुरीके समान हैं ।।२३।। यहाँसे दश योजन और ऊपर चलकर आभियोग्य जातिके देवोंकी क्रीड़ाके योग्य अनेक नगर स्थित हैं ॥२४॥ यहाँसे पांच योजन और ऊपर चढ़कर एक पूर्णभद्र नामकी श्रेणी है जो दश योजन चौड़ी है तथा विजया नामक देवसे आश्रित है अर्थात् जहाँ विजयार्ध देवका निवास है ।।२५।। इस विजयाध पर्वतपर नौ कूट हैं जिनमें पहला सिद्धायतन, दूसरा दक्षिणार्धक, तीसरा खण्डकप्रपात, चौथा पूर्णभद्र, पांचवां विजयार्धकुमार, छठवाँ मणिभद्र, सातवाँ तामिस्रगुहक, आठवाँ उत्तराधं और नौवां वैश्रवण कूट है। ये नौ कूट पर्वतके अग्रभागपर सुशोभित हैं तथा सवा छह योजन ऊंचाईको धारण करते हैं ॥२६-२८॥ इन पर्वतोंका विस्तार मूलमें सवा छह योजन, मध्य में कुछ कम पाँच योजन और ऊपर कुछ अधिक तीन योजन कहा गया है ।।२२।। सिद्धायतन कूटपर पूर्व दिशाको ओर सिद्धकूट नामसे प्रसिद्ध अत्यन्त उज्ज्वल जिनमन्दिर सुशोभित है ।।३०।। इस अविनाशी जिनमन्दिरकी ऊँचाई पौन कोश, चौडाई आध कोश और लम्बाई एक कोश है ॥३१॥ भरत क्षेत्रके अधं भागमें विजयाध पर्वतको दक्षिण प्रत्यञ्चा नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला प्रमाण विस्तृत है ॥३२।। प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठका विस्तार नौ हजार सात सौ छयासठ योजन तथा कुछ अधिक एक कला प्रमाण कहा गया है ।।३३।। इस निकटस्थ धनुषका बाण दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला प्रमाण है ||३४|| विजयाध पर्वतकी उत्तर प्रत्यंचा दश हजार सात सो सत्ताईस योजन तथा ग्यारह कला प्रमाण है ॥३५।। इस उत्तर प्रत्यंचाका धनुःपृष्ठ दश हजार सात सौ तैंतालीस योजन तथा कुछ अधिक पन्द्रह कला प्रमाण है ॥३६॥ विजयार्धके इस उत्तर धनुःपृष्ठका बाण दो सौ अठासी योजन तथा तीन कला प्रमाण है ॥३७॥ जिनेन्द्रदेवने विजयाधं पर्वतकी चूलिका कुछ कम चार सौ छयासी योजन १. पुनः म., क. । २. स्वर्गपुरीसन्निभाः । ३. भागा द्वादश कीर्तिताः म. ।
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