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पञ्चमः सर्गः
प्राप्य पञ्चशतीं प्राचीमावर्तेन निवर्त्य च । गङ्गाकटादपाची सा भारतव्यासमागता ॥३०॥ शतयोजनमाकाशं चाधिकं चातिलध्य सा । न्यपतत्पर्वतारे पञ्चविंशतियोजने ॥१३॥ 'षड्योजनी सगव्यूता विस्तीर्णा वृषभाकृतिः । जिविका योजनार्द्धा तु बाहुल्यायामतो गिरौ ॥१४॥ तयैत्य पतिता गङ्गा गोशृङ्गाकारधारिणी । श्रीगृहाग्रेऽभवद् भूमौ दशयोजनविस्तृता ॥११॥ षष्टियोजनविस्तीर्ण वज्रकुण्डमुखं भवि । अवगाहो दशास्यापि मध्ये द्वीपो व्यवस्थितः ॥१४॥ अष्टयोजनविष्कम्भः सोऽम्भसः क्रोशयोद्धयम् । उस्थितस्तस्य चान्योऽस्ति मूनि वज्रमयोऽचलः ॥१४३।। चत्वारि च गिरिद्वे च तथैकं च दशोन्नतिः । योजनानि स विस्तीर्णो मूले मध्ये च मूर्धनि ।।१४४॥ शिखरे च गिरेस्तस्य मूले मध्ये च मस्तके । ब्रोणि द्वे च सहस्रं च विस्तारेण धनंषि तु ॥१४५।। अन्तः पञ्चशतायाम तदद्धं चापि विस्तृतम् । द्विसहस्रधनुस्तुङ्गं भाति वज्रमय गृहम् ॥१४६॥ अशीतिधनुरुद्विद्धं चत्वारिंशच विस्तृतम् । तत्र वज्रकपाटाख्यं द्वारं वज्रमयं गृहे ॥१७॥ यात्वा दक्षिणतः कुण्डात् क्वचित् कुण्डलगामिनी । गुहायां विजयार्द्धस्य विस्तृता साष्टयोजनीम् ॥१४॥ चतुर्दशसहस्रस्तु प्रवेशे सरितामसौ । साईद्विषष्टिविष्कम्भा प्रविष्टा पूर्वसागरम् ॥१४॥
तीन भाग प्रमाण ऊँचा है ॥१३७|| गंगा नदो अपने निर्गम स्थानसे निकलकर पांच सौ योजन तो पूर्व दिशाकी ओर बही है फिर वलखाती हुई गंगा कूटसे लौटकर दक्षिणको ओर भरत क्षेत्रमें आयो है ।।१३८।। वह गंगा कुछ अधिक सौ योजन आकाशसे उलंघकर पर्वतसे पचीस योजनकी दूरीपर गिरी है ।।१३९||
___हिमवत् पर्वतके दक्षिण तटपर एक जिबिका नामको प्रणाली है जो छह योजन तथा एक कोश चौड़ी है, दो कोश ऊंची तथा उतनी ही लम्बी है और वृषभाकार अर्थात् गोमुखके आकारकी है ॥१४०|| इस प्रणाली द्वारा गंगा, गोशृंगका आकार धारण करती हुई श्रीदेवीके भवनके आगे गिरी है और वहाँ भूमिपर इसका विस्तार दश योजन हो गया है ।।१४।। भूमिपर साठ योजन चौड़ा तथा दश योजन गहरा एक वज्रमुख नामका कुण्ड है इस कुण्डके मध्य में एक द्वीप है जो आठ योजन चौड़ा है तथा पानीसे दो कोश ऊंचा है । इस द्वीपके ऊपर एक वज्रमय पर्वत है जो मलमें चार योजन, मध्यमें दो योजन, तथा अन्तमें एक योजन चौड़ा एवं दश योजन ऊंचा है ॥१४२-१४४।। उस पर्वतके शिखरपर एक सुशोभित वज्रमय भवन है जो मूलमें तीन हजार, मध्यमें दो हजार और अन्तमें एक हजार धनुष विस्तृत है। तथा भीतर पांच सौ धनुष लम्बा, दो सौ पचास धनुष चौड़ा और दो हजार धनुष ऊँचा है ।।१४५-१४६॥ उस भवनका अस्सी योजन ऊँचा तथा चालीस योजन चौड़ा वज्रकपाट नामका वज्रमय द्वार है ॥१४७॥ वजमख कुण्डसे दक्षिणकी ओर जाकर कहीं कुण्डलके आकार गमन करती हुई गंगा विजयाध पर्वतकी गुफामें आठ योजन चौड़ी हो गयी है ।।१४८।। चौदह हजार नदियोंके साथ जहाँ यह गंगा पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश करती है वहाँ इसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजनको हो गयी है ।।१४।। गंगा
-त्रिलोकसार
१. षड्योजनों सगव्यूतां म. । २. योजनाध । ३. कोसदुगदीहवहला वसहायारा य जिदिया संघ ।
छज्जोयणं सकोसं तिस्से गंतण पडिदा सा ॥५८४।। हिमवन्त अन्त मणिमय वरकूड मुहम्मि वसह रूवम्मि । पविसित्तु पडह घारा सय जोयण तुंग ससि धवला ॥१४९॥ छज्जोयण सक्कोशा पणालिया वित्थडा मुणेयवा ।
आयामेण य णेया वे कोसातेत्तिया बहला ॥१५०॥ ४. अजितः म. । ५. याष्टयोजनी क.।
-जम्बू. प्रज्ञप्ति
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