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पञ्चमः सर्गः
भृङ्गारकलशादर्श पात्रीशंखाः समुद्गकाः । पालिकाधूपनीदीपकूर्चाः पाटलिकादयः ॥ ३६४ ॥ अष्टोत्तरशतं तेऽपि कंसतालनकादयः । परिवारोऽत्र विज्ञेयः प्रतिमानां यथायथम् ॥ ३६५॥ गवाक्षगेहजालानि मुक्ताजालानि भान्ति वै । मणिविद्रुमरूपाब्ज किंकिणीजालकानि च ॥ ३६६ ॥ षट् च चत्वारि च द्वे च मूले मध्ये च मस्तके । विस्तृतश्चतुरुच्छ्रायः सौवर्णः क्रोशगाहकः ॥ ३६७॥ अष्टोच्छ्रायश्चतुर्व्यासश्चतुस्तोरणदिङ्मुखः । प्राकारः प्रतिवेश्म स्यात् पञ्चाशत्तुङ्गगोपुरः ॥ ३६८ ॥ सिंहहंसगजाम्भोजदुकूलवृषभध्वजैः । मयूरगरुडाकीर्णश्चक्रमालामहाध्वजैः ॥ ३६९ ॥ दशार्द्धवर्ण मासद्भिर्दशभेदैर्दिशो दश । साशीतिसहस्रान्तैर्भान्ति पल्लविता इव ॥ ३७० ॥ उदम्रो मण्डपोऽप्यग्रे ततः प्रेक्षागृहं बृहत् । स्तूपाश्चैत्यद्रुमाश्चान्ये पर्यङ्कप्रतिमोज्ज्वलाः ॥ ३७१॥ मत्स्य कूर्मं विमुक्तश्च प्रसन्नसलिलः शुभः । दिशि नन्दो हृदः प्राच्यां सिद्धायतनतो भवेत् ॥ ३७२ ॥ "वज्र मूलः सवैडूर्यचूलिको मणिमिश्चितः । विचित्राश्चर्यं संकीर्णः स्वर्णमध्यः सुरालयः ।। ३७३ ।। मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरुः सुदर्शनः । मन्दरः शैलराजश्च वसन्तः प्रियदर्शनः ॥ ३७४ ॥ रखोच्चयो दिशामादिर्लोकनाभिर्मनोरमः । लोकमध्यो दिशामन्त्यो दिशामुत्तर एव च ॥ ३७५ ॥ सूर्याचरणविख्यातिः सूर्यावर्तः स्वयंप्रभः । इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णैः स वर्णितः ॥ ३७६ ॥ इति व्यावर्णितं द्वीपं परिक्षिपति सर्वतः । पर्यन्तावयवत्वेन सास्यैव जगती स्थिता ॥ ३७७ ॥ मूले द्वादश मध्येऽष्टौ चत्वार्यग्रे च विस्तृता । अष्टोच्छ्रयाऽवगाढा तु योजनार्द्धमधो भुवः || ३७८ ॥
यक्षों के युगल खड़े हुए हैं तथा समस्त प्रतिमाएँ सनत्कुमारे और सर्वा यक्ष तथा निर्वृत्ति और श्रुत देवी की मूर्तियोंसे युक्त हैं ॥ ३३३॥ झारी, कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्चं पाटलिका आदि तथा झांझ-मंजीरा आदि एक सौ आठ -एक सौ आठ उपकरण उन प्रतिमाओं के परिवारस्वरूप जानना चाहिए अर्थात् ये सब उनके समीप यथायोग्य विद्यमान रहते हैं || ३६४-३६५ || उन जिनालयों में झरोखे, गृहजाली, मोतियोंकी झालर, रतन तथा मूँगारूप कमल और छोटी-छोटी घण्टियोंके समूह सुशोभित रहते हैं || ३६६ || प्रत्येक जिनमन्दिर में एक-एक प्राकार - कोट है जो मूलमें छह योजन, मध्यमें चार योजन और मस्तकपर दो योजन चौड़ा है । चार योजन ऊँचा है, एक कोश गहरा है तथा सुवर्णं निर्मित है ॥ ३६७॥ इसकी चारों दिशाओं में आठ योजन ऊँचे, तथा चार योजन चौड़े चार तोरण द्वार हैं और पचास योजन ऊँचा इसका गोपुर है || ३६८ || सिंह, हंस, गज, कमल, वस्त्र, वृषभ, मयूर, गरुड़, चक्र और माला के चिह्नोंसे सुशोभित दश प्रकारकी पंचवर्णी महाध्वजाओंसे उन चैत्यालयोंकी दशों दिशाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो लहलहाते हुए नूतन पत्तोंसे ही युक्त हों। वे ध्वजाएँ एक-एक जातिकी एक सौ आठ एक सौ आठ तथा दशों दिशाओंकी मिलाकर एक हजार अस्सी होती हैं ||३३९-३७० ॥ चैत्यालयोंके आगे विशाल सभामण्डप, उसके आगे लम्बा-चौड़ा प्रेक्षागृह, उसके आगे स्तूप और स्तूपोंके आगे पद्मासनसे विराजमान प्रतिमाओंसे सुशोभित चैत्यवृक्ष हैं || ३७१|| जिनालयोंसे पूर्व दिशामें मच्छ तथा कछुआ आदि जल-जन्तुओंसे रहित, एवं स्वच्छ जलसे भरा हुआ नन्द नामका सरोवर है || ३७२ ॥ वज्रमुक, सवैडूर्यचूलिक, मणिचित, विचित्राश्चयंकीणं, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मन्दर, शैलराज, वसन्त, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामन्त्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयम्प्रभ और सुरगिरि"इस प्रकार विद्वानोंने अनेक नामोंके द्वारा सुमेरु पर्वतका वर्णन किया है ||३७३-३७६ ।।
इस प्रकार से वर्णित जम्बू द्वीपको चारों ओरसे जगती घेरे हुए है । यह जगती इसी जम्बू द्वीपका अन्तिम अवयव - भाग है || ३७७|| वह मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन,
१. मेरुपर्वतस्य पर्यायनामानि ।
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