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पञ्चमः सर्गः
हस्तास्त्रयोऽगुलानि स्यादेकविंशतिरेकशः । तेषां दिशान्तरज्यासौ द्वाराणां तु प्रमाणतः ॥३९३॥ अस्या ज्यायाः सहस्राणि सप्ततिर्नव चोदितम् । सह षड्मिश्च पञ्चाशद् गव्यूतित्रितयं तथा ॥३९४॥ धनुःसहस्रमेकं च पुनः पञ्चशतानि तु । द्वात्रिंशच धनुःपृष्टमङ्गुकानां च सप्तकम् ॥३९५॥ चतुर्योजनहीनं तु तदेव परिनिश्चितम् । द्वाराणामन्तरं तेषामन्तरज्ञैः परस्परम् ॥३९६॥ संख्येयद्वीपपर्यन्तो जम्बूद्वीपसमोऽपरः । विजयस्य पुरं तत्र पूर्वस्यां दिशि शोभते ॥३९७॥ तद् द्वादशसहस्राणि विस्तृतं वेदिकायुतम् । चतुस्तोरणसंयुक्तं रुचिरं सर्वतोऽद्भुतम् ॥३९८॥ साष्टभागं त्रिकं चाये मूले तत्तु चतुर्गुणम् । तत्प्राकारस्य विस्तारस्तस्य गाहोऽर्द्धयोजनम् ॥३९९॥ प्राकारस्योच्छ्यस्तस्य सप्तत्रिंशत्तथार्धकम् । गोपुराणि चतुर्दिक्षु प्रत्येकं पञ्चविंशतिः ॥४०॥ एकत्रिंशत्सगव्यूतिविस्तारो गोपुरस्य च । उच्छायो द्विगुणस्तस्माद् गाहः स्यादर्धयोजनम् ॥४०१॥ भूभिभिः सप्तदशभिः प्रासादा गोपुरेषु तु । सर्वरत्नसमाकीर्णा जाम्बूनदमयाश्च ते ॥४०॥ गोपुराणां तु मध्ये स्यादीपपादिकलेणकम् । गव्यतिवहलं व्यासः शतानि द्वादशास्य च ॥४०३॥ पञ्चचापशतव्यासा गन्यूतिद्वयमुच्छ्रिता । चतुस्तोरणसंयुक्ता वेदिका तस्य सर्वतः ॥४०४।। गोपुरेण समो मानैः प्रासादः पुरमध्यगः । अष्टोच्छ्रायश्चतुर्व्यासो द्वारो विजयसेवितः ॥४०५।। सवज्रद्वारवंशश्व हेमरत्नकपाटकः । चतुर्दिक्षु पुनस्तस्य प्रासादास्तत्समानकाः ॥४०६।। तेषामन्ये महादिक्षु चत्वारस्तत्समानकाः। द्वितीयमण्डले ज्ञेयाः प्रासादा रत्नभास्वराः ॥४०७।।
योजन तीन कोश, चौदह सौ चौबीस धनुष, तीन हाथ और इक्कीस अंगुल है ॥३९२-३९३।। इस ज्याके धनुष पृष्ठ का परिमाण, उन्यासी हजार छप्पन योजन, तीन कोश, एक हजार पाँच सौ बत्तीस धनुष तथा सात अंगुल है ॥३९४-३९५।। अन्तरके जाननेवाले आचार्योंने उन द्वारोंका पारस्परिक अन्तर धनुःपष्ठके प्रमाणसे चार योजन कम निश्चित किया है ॥३९६॥
संख्यात द्वीपोंके अनन्तर जम्बू द्वीपके समान एक दूसरा जम्बू द्वीप है उसकी पूर्व दिशामें विजय द्वारके रक्षक विजय देवका नगर सुशोभित है ।।३९७|| वेदिकासे युक्त वह नगर बारह योजन चौड़ा है, चारों दिशाओंके चार तोरणोंसे विभूषित, सब ओरसे सुन्दर और आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला है ॥३९८||
उस नगरके चारों ओर एक प्राकार है, उसका विस्तार अग्र भागमें एक धनुषके आठ भागोंमें तीन भाग तथा मूलमें उससे चौगुना है। इस प्राकारकी गहराई आधा योजन है ।।३९९।। ऊँचाई साढ़े सैंतीस योजन है और इसकी प्रत्येक दिशामें पचीस-पचीस गोपुर हैं ॥४००॥ प्रत्येक गोपुरकी ऊंचाई इकतीस योजन एक कोश है, चौड़ाई उससे दूनी है और गहराई आधा योजन प्रमाण है ।।४०१॥ उन गोपुरोंपर सत्रह-सत्रह खण्डके भवन बने हुए हैं। ये भवन सब प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त तथा स्वर्णमय हैं ।।४०२॥ गोपुरोंके मध्यमें देवोंके उत्पन्न होनेका स्थान है जो एक कोश मोटा और बारह योजन चौड़ा है ।।४०३।। उस उत्पत्ति स्थानके चारों ओर एक वेदिका है जो पाँच सौ धनुष चौड़ी, दो कोश ऊंची और चार तोरणोंसे युक्त है ।।४०४॥
उस नगरके मध्य में एक विशाल भवन है जो प्रमाणमें गोपुरके समान है। और उसका दरवाजा आठ योजन ऊंचा, चार योजन चीड़ा तथा विजय नामक देवके द्वारा सेवित है ॥४०५॥ उस भवनके द्वारका तोरण हीरेका बना है तथा स्वर्ण और रत्नमय उसके किवाड़ हैं। उसको चारों दिशाओंमें उसोके समान विस्तारवाले और भी अनेक भवन बने हुए हैं ।।४०६।। दूसरे मण्डलमें उन भवनोंकी चारों दिशाओं में उन्हींके समान विस्तारवाले, रत्नोंके
१. देवीनामुत्पादस्थानम् । २. तत्स्वामी देवः ।
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