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हरिवंशपुराणे जलप्रमविमानेशो वरुणो वारुणीप्रभः । तथैव पीतनेपथ्यः त्रिमागोन त्रिपल्यकः ॥३२६॥ वल्गुप्रभविमानेशः कौबेरीप्रभुरिष्यते । कुबेरः शुक्लनेपथ्यः सत्रिपल्योपमस्थितिः ।।३२७॥ मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दने बलभद्के । कुटे काञ्चनकैस्तुल्ये कूटनाम्नामरो भवेत् ॥३२॥ नन्दनं मन्दरं कूटं निषधं हिमवच्च तत् । रजतं रजकं नाम्ना तथा सागरचित्रकम् ॥३२९॥ वज्रकूटं विनिर्दिष्टमष्टमं तु मनीषिभिः । दिशं दिशं प्रति द्वे द्वे स्यातां कुटे यथाक्रमम् ॥३३०॥ उच्छायो मूलविस्तारस्तेषां पञ्चशतानि तु । तदधं मस्तके मध्ये त्रिशती पञ्चसप्ततिः ॥३३१॥ दिक्कुमार्यस्तु कूटेषु तेष्विमाः प्रतिपादिताः । मेघङ्करा तु पूर्वा स्यात् तथा मेघवती परा ॥३३२॥ ततः परं प्रसिद्धान्या सुमेघा मेघमालिनी। तोयधारा विचित्रा स्यात् पुष्पमाला स्वनिन्दिता ॥३३३॥ पूर्वदक्षिणदिग्भागे वाप्यो मेरुमहीभृतः । पूर्वा तूत्पलगुल्माख्या नलिना चोत्पला परा ॥३३४॥ उत्पलोज्ज्वलसंज्ञा स्यात् तासां पञ्चाशदायतिः । अवगाहो दश ज्ञेयो विस्तारः पञ्चविंशतिः ॥३३५॥ आसां मध्ये च शक्रस्य प्रासादः समवस्थितः। योजनान्यस्य गव्यूत्या सैकत्रिंशत्त विस्तृतिः ॥३३६।। उच्छायः पुनरुद्दिष्टो द्वाषष्टिश्चाईयोजनः । अवगाहः प्रमाणेन प्रासादस्याईयोजनः ॥३३७॥ सिंहासनं सुरेन्द्रस्य तस्य मध्येऽवतिष्ठते । स्वदिक्षु लोकपालानामासनानि भवन्ति च ॥३३८॥ तस्यैवोत्तरपूर्वस्यामपरोत्तरतोऽपि च । तत्र सामानिकानां तु भान्ति मद्रासनानि तु ॥३३९॥ पुरोऽप्यष्टाग्रदेवीनां तत्र मद्रासनानि हि । सासनाः परिषण्मुख्याः पूर्वदक्षिणतस्तथा ॥३४०॥ मध्यमा दक्षिणस्यां स्याद् बायाश्चापरदक्षिणा । त्रायस्त्रिंशाश्च तत्र स्युः पश्चात्सैन्यमहत्तराः ॥३४१॥ चतसृष्वात्मरक्षाणां दिक्ष मद्रासनान्यपि । आसेव्यतेऽत्र तैरिन्द्रः पूर्वाभिमुखमास्थितः ॥३४२॥
विमानका स्वामी है। इसके वाहन तथा वस्त्राभूषण आदि काले रंगके हैं और इसकी आयु ढाई पल्य प्रमाण है ॥३२५।। वरुण पश्चिम दिशाका राजा है तथा जलप्रभ विमानका स्वामी है। उसकी वेषभूषा पीले रंगकी है और वह तीन भाग कम तीन पल्यको आयुवाला है ॥३२६।। कुबेर उत्तर दिशाका राज्य तथा वल्गुप्रभ विमानका स्वामी है। इसकी वेषभूषा शुक्ल रंगको है तथा आयु तीन पल्य प्रमाण है ॥३२७।। मेरुकी पूर्वोत्तर दिशामें नन्दनवनके बीच कांचन कूटके समान एक बलभद्रक नामका कूट है और उसमें कूट नामधारी बलभद्रक देवका निवास है ॥३२८। वहींपर १ नन्दन, २ मन्दर, ३ निषध, ४ हिमवत्, ५ रजत, ६ रजक, ७ सागर और ८ चित्रक नामके आठ कूट और हैं । ये प्रत्येक दिशामें क्रमसे दो-दो हैं ॥३२९-३३०।। इन कूटोंकी ऊंचाई पांच सौ योजन है तथा मूल भागकी चौड़ाई पांच सौ योजन, मध्यभागको तीन सौ पचहत्तर योजन और ऊध्वंभागकी ढाई सौ योजन है ।।३३१।। इन कूटोंमें क्रमसे १ मेघंकरा, २ मेघवतो, ३ सुमेधा, ४ मेघमालिनी, ५ तोयधारा, ६ विचित्रा, ७ पुष्पमाला और ८ अनिन्दिता ये आठ प्रसिद्ध दिक्कुमारी देवियां निवास करती हैं ॥३३२-३३३।। मेरु पर्वतकी पूर्व-दक्षिण ( आग्नेय ) दिशामें १ उत्पलगुल्मा, २ नलिना, ३ उत्पला और ४ उत्पलोज्ज्वला ये चार वापिकाएं हैं। इनकी लम्बाई पचास योजन, गहराई दश योजन और चौड़ाई पचीस योजन है ।।३३४-३३५।। इन वापिकाओंके मध्यमें इन्द्रका भवन स्थित है । इस भवनकी चौड़ाई इकतीस योजन एक कोश, ऊँचाई साढ़े बासठ योजन और गहराई अर्धयोजन प्रमाण है ।।३३६-३३७।। उस भवनके मध्यमें इन्द्रका सिंहासन है तथा चारों दिशाओंमें चार लोकपालोंके आसन हैं ।।३३८॥ इन्द्रासनसे उत्तर-पूर्व तथा पश्चिमोत्तर दिशामें सामानिक देवोंके भद्रासन हैं ।।३३९।। आगे आठ पट्टरानियोंके भद्रासन हैं, पूर्व-दक्षिण दिशामें सभाके मुख्य-मुख्य अधिकारी देव बैठते हैं, दक्षिणमें मध्यम अधिकारी, दक्षिण-पश्चिममें सामान्य अधिकारी एवं त्रायस्त्रिंश देव तथा उनके पीछे सैन्यके महत्तर देव आसन ग्रहण करते हैं ॥३४०-३४१।। चार दिशाओंमें आत्मरक्ष देवोंके भद्रासन हैं। इन्द्र अपने आसनपर पूर्वाभिमुख
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