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हरिवंशपुराणे योजनानि त्रिनवति विगव्यूतानि चोच्छुितम् । गाधतो योजनाई स्यात् सरिद्विस्तारतोरणम् ॥१५॥ सर्वप्रकारतः सिन्धुः समाना गङ्गया ततः । आविदेहाच्च सरितां द्विगुणं जिबिकादिकम् ।।१५१॥ तोरणान्यवगाहेन समस्तानि समानि तु । वसन्ति तेषु सर्वेषु दिक्कुमार्यो यथायथम् ।।१५२॥ षट्सप्तति कलाषटकं योजनानां शतद्वयम् । गत्वाऽद्रौ रोहितास्यातो निपत्य श्रीगृहेऽगमत् ।।१५। शतानि षोडशादौ तु रोह्या पञ्चयुतानि सा । कलाश्चागम्य पञ्चागाद् गिरेः पञ्चाशदन्तरम् ॥१५४॥ तावदेव गता शैले हरिकान्तोत्तरां दिशम् । समुद्रं पश्चिमं याता प्राप्य कुण्डं शतान्तरम् ॥१५५॥ चतुःसप्ततिसंख्यानि शतानि कलया हरित् । एकविंशतिमागम्य निषधे ह्यपतच्छते ॥१५६॥ सीतोदापि गिरिं गत्वा तावदेव चतुःशती। उल्लङ घ्यापतदद्रेः सा योजनानां शतद्वये ॥१५॥ तावदेव समागत्य सीतासौ नीलपर्वते । तावत्येव समापत्य प्राग्विदेहान् बिभेद च ॥१५॥ दक्षिणामिः समा नद्यः षड्मिस्ताश्च षडुत्तराः । यथायोग्यं प्रपाताद्यः प्रतिपाद्याः प्रतिद्विकम् ॥१५९॥ गङ्गा चैव नदी रोह्या हरित् सीता च पूर्वगाः । नारी सुवर्णकला च सरक्ताः परगाः पराः ॥१६॥ श्रद्धावान् विजयावांश्च पद्मवांश्चापि गन्धवान् । मध्ये हैमवतादीनां विजयास्तुि वर्तुलाः ॥१६१॥ योजनानां सहस्रं स्यान्मूले विस्तृतिरुच्छितिः । तदधं मस्तके मध्ये पञ्चाशत् सप्तशत्यपि ॥१६२॥ योजनार्द्धन न प्राप्ता नद्यो नाभिगिरीनिमान् । गता प्रदक्षिणा सीतासीतोदे मन्दरं यथा ॥१६३॥
जिस तोरण द्वारसे लवण समुद्र में प्रवेश करती है वह तेरानबे योजन तीन कोश ऊँचा है तथा आधा योजन गहरा है ॥१५०।।
सिन्धु नदी सब प्रकारसे गंगा नदीके समान है केवल विशेषता यह है कि यह पश्चिम लवण समुद्रमें मिली है। गंगा-सिन्धुसे लेकर विदेह क्षेत्र तककी समस्त नदियोंकी जिहिका आदिका विस्तार दूना-दुना जानना चाहिए ॥१५१॥ समस्त नदियोंके तोरण गहराईकी अपेक्षा समान हैं तथा उन समस्त तोरणोंमें यथायोग्य दिक्कुमारी देवियाँ निवास करती हैं ॥१५२॥ रोहितास्या नदी दो सौ छिहत्तर योजन छह कला पर्वतपर बहती है। तदनन्तर पर्वतसे गिरकर श्री देवीके भवनकी ओर गयी है ॥१५३।। रोह्या नदी एक हजार छह सौ पांच योजन पाँच कला पर्वतपर बहकर उससे पचास योजन दूर गिरी है ॥१५४॥ इसी प्रकार हरिकान्ता नदी भी महाहिमवान् पर्वतपर एक हजार छह सौ पचास योजन पाँच कला उत्तर दिशाकी ओर बहकर सो योजन दूर कुण्डमें गिरी है और वहाँसे पश्चिम समुद्रको ओर गयी है ॥१५५।। हरित् नदी सात हजार चार सौ इक्कीस योजन एक कला निषध पर्वतपर बहकर सौ योजन दूरपर गिरी है ॥१५६॥ सीतोदा नदी भी इतनी ही दूर पवंतपर बहती है। तदनन्तर चार सौ योजन ऊँचे आकाशको उल्लंघ कर पर्वतसे दो सौ योजन दूर गिरती है ॥१५७।। सीता नदी भी इतनी ही दूर नील पर्वतपर बहती है और इतनी ही दूर आकाशमें उछलकर पूर्व विदेह क्षेत्रको भेदन करती है ।।१५८॥ उत्तर दिशाकी छह नदियां दक्षिण दिशाको छह नदियोंके समान हैं इसलिए उनके प्रपात आदिका वर्णन दो-दो नदियोंके युगल रूपमें यथायोग्य करना चाहिए ।।१५९॥ गंगा, रोह्या, हरित्, सीता, नारी, सुवर्णकला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व समुद्र की ओर जाती हैं और शेष सात नदियाँ पश्चिम समुद्र की ओर ॥१६०।। हैमवत आदि चार क्षेत्रोंके मध्यमें क्रमसे श्रद्धावान्, विजयावान्, पद्मवान् और गन्धवान् नामके चार गोलाकार विजया पर्वत हैं ॥१६१।। ये पर्वत मूलमें एक हजार योजन, मध्यमें सात सौ पचास योजन और मस्तकपर पांच सौ योजन चौड़े हैं तथा एक हजार योजन ऊँचे हैं ॥१६२॥ इन पर्वतोंका दूसरा नाम नाभि गिरि है जिस प्रकार सीता, सीतोदा नदी मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देती हुई गयी है इसी प्रकार रोह्या, रोहितास्या आदि नदियाँ भो आधा योजन १. तस्यान्तो भ. । २. शतयोजनानन्तरे ।
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