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चतुर्थः सर्गः
तृतीयायाः द्वितीयाया प्रथमायाश्च निःसृतः । तीर्थकृत्त्वं लभेतापि देही दर्शनशुद्धितः ॥३८१॥ बलकेशवचक्रित्वं परिहत्यैव जन्तवः । नरत्वं प्रतिपद्यरन् नरकेभ्यो विनिर्गताः ॥३८२॥ अधोलोकविभागस्ते संक्षेपेण मयोदितः । तिर्यग्लोकविमागस्य शृणु श्रेणिक ! संग्रहम् ॥३८३।।
शार्दूलविक्रीडितम् सूर्याचन्द्रमसामगोचरमधोलोकान्धकारं बुधाः
प्रध्वंस्याऽऽप्तवचःप्रदीपविमवैः सर्वत्रगैः सर्वदा । पश्यन्तः प्रभवन्ति तत्त्वमिति किं चित्रं त्रिलोक्याकृता
वालोके जिनभानुना विरचिते ध्वान्तस्य वा क्व स्थितिः ॥३८४॥
इत्यारिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती अधोलोकसंस्थानवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥
हुआ जीव सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासे तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है ।।३८१।। नरकोंसे निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते ॥३८२।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तेरे लिए अधो लोकके विभागका वर्णन किया। अब तू तिर्यग्लोक-मध्यम लोकके विभागका वर्णन सुन ॥३८३।।
बद्धिमान मनुष्य सब समय. सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले. जिनेन्द्र भगवानके वचन रूपी उत्तम दोपकोंको सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमाके अगोचर अधोलोकके अन्धकारको नष्टकर वस्तुके यथार्थ स्वरूपको देखते हुए प्रभुत्वको प्राप्त होते हैं इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोकमें जिनेन्द्र रूपी सूर्यके द्वारा प्रकाशके उत्पन्न होनेपर अन्धकारका सद्भाव कहाँ रह सकता है ? ॥३८४।। इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत
हरिवंशपुराणमें अधोलोकका वर्णन करनेवाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
१. बुधः म. । २. प्रध्वस्ताप्त । ३. त्रिलोकाकृता-म., विलोक्याकृता-ख., घ, ङ. ।
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