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बङ्गदेशान्तःपाति भूपाल राय धनपतसिंह बाहादुर का आगम संग्रह उत्तराध्ययन ४१मा भाग सम्पूर्णतामगमत् कि ओर दूसग्रथम चरमचक्ष के योगसे भुलचूक होय सो पण्डितजन कृपा करके उपयोग पूर्वक खादाय करना।
संबेगौ श्रीमुनि बुटेरायजी तञ्चरणरेण दासानुदास भगवानविजय साधुना संसोधितम् । सम्बत् १९३६ का वैशाख सुदि सप्तमी दिने सम्पूर्ण हुआ। कलकत्ता ११ न करणोयालिस ष्ट्रीट राजकीय यन्त्र
श्रीधीशचन्द्र भट्टाचार्य के द्वारा मुद्रित हुवा।
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श्रौजिन कुपलसूरिजो सदगुरुभ्यो नमः ॥ योगोडो पाखें मिताभिवतातिर्भवतुः महतो जानभाजः सुरवरमहिताः सिहिसौधस्थसिहाः पञ्चाचार उ.टौका
प्रवीणाः प्रगुणगणधराः पाठका बागमानां । लोके लोकेशवन्याः सकलयतिवराः साधुधर्माभिलौनाः। पञ्चाप्येते सदाप्ताः विदधतु कुशल' विघ्ननाथ विधाय ॥१॥ श्रोवोरं चोरसिधू इकविमल गुण' मन्मथारिप्रवातं श्रीपार्ख विघ्नवल्लीवनदलनविधी विस्फुरत् कान्तिधारं। सानन्द चन्द्रभूत्यादृतवचनरसं दत्तकर्णबोधं बन्देह भूरिभक्त्या त्रिभुवनमहितं वाननः काययोगैः ॥२॥ उत्तराध्ययनसूत्रवृत्तयः सन्ति यद्यपि जगत्यनेकशः मुग्धहमदनबोधदीपिका दौपिकामिव तनोम्यहं पुनः ॥३॥ प्राप्तचारुविभवो गिरा गिरः श्रीगुरोश्व विशदप्रभावतः वक्ति लक्ष्मुपपदस्त वल्लभः सज्जना मयि भवन्तु सादरा ॥४॥ युग्म श्वेयसे स्ताहणभृता चतुर्दशशतो सता थोपुण्डरीकमुखाणां या हिपञ्चाशदुत्तरा ॥५॥ सूत्र संयोगा विप्पमुकरम अनगारस्मभिक्षुणो विणयं पाउ करि
संजोगा विप्प मुक्कस्म अणगारमा भिक्खुणो । विणयं पाउ करिस्मामि आणुपुवि' मुह मे ॥१॥ आणा निद्दस करे। श्री जिनाय नमः। उत्तराध्ययननी शब्दार्थ लिखोये के श्री महावोर देवने वार श्री आचारांग भणीने पछे उत्तरायन भणता श्रौशय्यं भवाचार्य पिछी दशवकालिक भण्या पछी श्रोउत्तराध्ययनकहोयेई तथा उत्तर कहता प्रधान अध्ययन ते भणी उत्तराध्ययन कहीये एहने विष छत्तीस अध्ययन के * तथा प्रथम विनय अध्ययन क ह्यो तेस्या भणी गुरु कहे के जे जिननो धर्म ते विनय मूल के विनय धौ मोच हुई उक्त'च मूलाग्री खंधप्पभवो दुम्मस्म
इत्यादि अथवा विणी सा सणे मूलं विणो निवाण साहगो विण्याओ विप्प मुक्कस्म को धम्मो कोतवी विण्याची नाणं माणामोदसणं चरणे हिं तो मुक्खी मुक्खे सुक्यं प्रणावा १ इत्यादिक काररी प्रथम विनयनो स्वरूप कहे के ॥१॥ स. संयोग के प्रकार पूर्वसंयोग माता पितादिक पश्चात् संयोग श्वसुरादिक तथा बाह्यपरिग्रह खेत १ वथर हिरण३ सुवन धन धान दुपद चोपदप कुवीधात बीजोऽभ्यंतर परिबहे मिथ्यात्व १
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा. सं.२०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टीका
अ. १
सूत्र
भाषा
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100000080X
स्यामि आणपुल्विं सुषेहमे १ व्याख्या श्रीसुधर्मा स्वामो जंबू स्वामिनं वक्ति जंबु स्वामिनमुद्दिश्य अन्यानपि शिष्यान् वदति भी शिष्याः अहं आनुपूर्व्या अनुक्रमेण भिक्षोभिचया मधुकरवृत्त्याहारं गृहीत्वा शरीर धारकस्य साधो विनयं प्रादुः करिष्यामि प्रगटौ करिष्यामि मे मम विनयं प्रगटी करिष्यतो यूयं मद्दाक्यं शृणुत यतो जिनशासनस्य मूलं विनयधर्मएव उक्त'च श्रोदशवेकालिके विण्याश्रोणाणं नाणाश्रोदंसणमित्यादि कथं भूतस्य भिक्षोः संयोगात् बाह्याभ्यन्तरमेदेन विविधात् विप्रमुक्तस्य विशेषेण रहितस्य तत्र बाह्यसंयोगो धनधान्यपुत्रमित्रकलत्रादि अचित्तं सचित्तादिरूपः अभ्यन्तरसंयोगो मिष्या ववेदत्रिकास्यादि षट्क कोधादि चतुकरूपः एवंविध विविधसंयोगात् विरतस्य पुनः कीदृशस्य भिक्षोः अनगारस्य न विद्यते अगारं गृहं यस्य स अन गार: अहः तस्य नियत बास रहितस्य १ सूत्रं ॥ आणाणिहस करे गुरुण सुववाय कारए इंगिवागारसंपन्ने सेवियो एति बुधई १ व्याख्या सशिष्यो विनीत इत्युच्यते स इति कः यः शिष्यः आज्ञायास्तीर्थ कर प्रणोतसिद्धान्तवाण्याः निर्देशः उत्सर्ग अपवाद कथनंतस्य कारको भवति अथवा आज्ञायाः गुरुवाक्यस्य निर्देशः प्रामाण्य' आज्ञा निर्देशस्त' करोतीति श्राज्ञानिर्देशकरः पुनर्यः शिथो गुरुणा समौपेपातः स्थितिस्तत्कारक उपपातकारकः गुरुंणां गुरुण मुववाय कारए । दुगिया गार संपन्ने सेविणौएत्ति वुच्चई ॥ २ ॥ आणा निहस करे गुरुण मणुववाय कार क्रोध२ मानश् माया४ लोभ५ हास्य रति७ अरतिप भय शोक १० दुगंका ११ स्त्रीवेद १२ पुरुषवेद १३ नपुंसकवेद १४ विषयकषायादितथी विवध प्रकारे ज्ञानादि भावनाइ' करो प्प परिसहसहिवे करि मु० मूं'काणा के अ घररहित हुवे अणगार भि० निरवद्य भिचाइ प्रवर्त्ते एहवासाधुनो वि विनय पा० प्रगट क करिस्यूँ श्री सुधम्मं स्वामी ये जंबु प्रते कयो अ० अनुक्रमे सु० सांभलि मे मुझने कहि ते थके १ आ० गुरुनी आग्यानी० प्रमा णनो क॰ करणहारहुइ ं गु० गुरुनि दृष्टि अने वचन तेहने विषे मु० रहिवा एहवा कार्यनो क' करणहार एतले गुरु समौपेद्र सूक्ष्म अंगभमुहादिकनी
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रायं धनपतसिंह बाहादुर का श्रा० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टीका Zमोचरे तिष्ठतोत्यर्थः पुनर्यः शिव इङ्गिताकारसम्पनीभवति गुरूणां इङ्गित मानसिकं चेष्टितं जानाति पुनर्गुरुणा आकारं बाह्य शरीर चेष्टितञ्च
जानाति इङ्गितं निपुण मतिगम्य' प्रहत्ति निवृत्ति ज्ञापकं इषत् भूशिरः कम्पनादिक आकारः स्थू लमतिगम्यश्चलनादि सूचको दिशावलोकनादिः * यदुक्त अवलोकनं दिशाना विजृम्भणं भाटकस्य सम्बरणं आसन शिथिलोकरणं प्रस्थितलिङ्गानि चैतानि १ तस्मात् यः शिष्यो गुरो रिङ्गिताकारौ *
सम्यक् प्रकर्षण जानातोति इङ्गिताकारसंपन्नः एतादृशः शिश्चो विणववान् उच्यते २ अथ अविनौतस्य लक्षणमाह आणाणिद्देसकर गुरुणमणववाय
कारण पड़िणोए असंबुद्धे अविणोएत्ति वुच्चई ३ व्याख्या स शिष्योऽविनीत इत्युच्यते यः आज्ञाया स्तीथं करवाक्यस्य गुरोर्वाक्यस्य च अनिर्देशकरः अप्रमाण * कर्ता आचाविराधकः पुनर्योगुरुणा अनुपपातकारको भवति गुरूणा दृविषये स्थितिं न करोति आदेश भयात् दूरंतिष्ठतीत्यर्थः पुनर्यः शिवः
गुरुणा प्रत्यनीकः गुरूणां छलान्वेषी पुनर्यः असंबुवः तत्वस्य अवेत्ता एतादृश लक्षणोऽविनीतो भवति ३ अत्र कूलवालुकस्य दृष्टान्तः ॥ यथा एकस्य आचार्यस्य क्षुल्लकोऽविनीतः तं प्राचार्यः शिक्षार्थ वाचा ताड़यति स क्षलकोरोषं वहति अन्यदा आचार्यस्त न क्षुल्लकेन समं सिद्ध शैल' वन्दितुं गतः तत
पड़िणीए असंबुद्धे अविणौएत्ति वुच्चदू ॥३॥ जहा सुणी पूडू कन्नी निक्कसिज्जडू सब्वसो । एवं दुस्मौल पडिगौए मुहरी ४ आ. अवलोकनादिकनी चेष्टा नो स० जाणपणा सहित हुइ सु० एहवी हुइ ते विनित बु• कहिये २२ हिव अवनितनी खरूप कहिये हे पा.
8 गुरुनि आग्यानी अ० प्रमाण नो क• करणारनी गु० गुरु थको दूर बेसवो करे एहवी हुई ते म. गुरुना कार्यनी क• अणकरणहार प० गुरुनी भाषा
प्रत्यनीक वैरी सरिखो अ• तत्वनी अजाण अ. एहवी हुइ ते अवनित ब. कहोये छ३ हिवे बोजी गाथाई कूलवालूनो दृष्टान्त कहे के एक प्राचा यने एक अवनोत चेली के गुरुनो कधी न कर गक तहने शीख दीये पिण चेलो नमाने अने मन माहिरीसधरे एकवार चेला सहित आचार्य विहार
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करता भव्य जीवने धर्म-संभलावता एकदा प्रस्ताव पर्थ जाता पहाड आयो तिवारे अवसर देखौने चेलो भाग धयो तिहा थो जतरता गुरूने विणास वाने अर्थे चेले सिलामूको गुरूजाणो पग पसारा सिला हैठे वहिगइ नहो तो गुरु विणास पामता तिवारी गुरु चिंतव्यो एचेला धौ अकाल मरणउपज स्ये अने संयमनी विराधना धास्य हिवडा वोली बीये नही एहवो विचारी हेठा उतरीया आचार्ये सर्व शिष्य तेद्या तेवात कसिथनी कही शिष्य सम झाविवा लागा पिण ते मुर्ख माहमु बोले यतः लहु डवड़ा माने नहीं न गिणे सयण सनेह आपण छदे चालता घणा विगूबे तेही तिवारे गुरुई सराप दौधो रे दुरामा स्त्री थौ विनाथ पामि ज्ये एहवो कही गुरे गच्छथौ वाहिर काव्यो तिवारी चेली कहे जाणिये के मोच सिद्यालयतम पासि के गुरु कहे तिमज गुरुनी वचन विहां सिद्ध के तिहा धको ते चेलो गुरुना वचन उथापवा भणौते चेलो तापसाने आश्रम जडू रयो नदीने तटाताप नाक्ये तेणे मार्गे साथ सहाती पावता जावे तिहा आहार ल्ये वर्षाकाले नदोनो तट तपस्याना प्रभाव थी अनिधि पयो ते भणी लाके कूलवालुअो नाम दौधी एहवे अवसर राजगही नगर श्रेणिक राजा राज्य कर चेलणा राणीप्रमुख ३२ अंते उर अने अभय कुमार मंत्रीसर एकदा प्रस्ताव राणी सोहनी स्वप्न लाधी राजा श्रेणिकने को राजा कहे आपण पुत्रनौ प्राप्ति थासौ राणौ कहे तुमारो बचन प्रमाण थाज्यो स्वप्नपाठकाने पूथ्यो स्वप्न पाठक कहे एचवदे स्वप्न माहि मंडलोकनी माता एक स्वप्न देखे एहवो वचन साभलो विप्राने सौख दोधी राजा राणौने कहे आपण कुलने विष जसवन्त भाग्यवन्त पुत्र हुसौ जयर शब्द वधावी प्राणनाथनी वचनप्रमाण करि महिल पधाराा सुखे समाध गर्भ वधवा लागी अनुक्रमे तौजे मासेडोहलो उपनी जे राजा श्रेणकना काल जानी मास खावु हिवे एहवी मनोरथ पूरण नवाई तिवारे राणी दुखी थई पिण राजा श्रेणक नजाणे एकदा प्रस्तावे सखौर राणोने बोलावी पिण राणो वोलो नहो राणोने चिन्तासमुद्रमे बैठोदिठो तोवारे दासोइज राजा श्रेणिक वोनती करौ हे देव न जाण आजस्यो
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं. २०४१ मा भाग
RBRRRRRRRR
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उभाषा
वीचार छ राणी चिन्तातुर दुर्वल शरीर दौसेछे एवातसाभल राजा तुरत महिल पधारा राणी चेलणाने राजा बोलावी पिण बोले नहीं तिवारी राजा थेणिक हाथ गृहो सकोमल वचन बोलावे हे मृगाक्षी है प्रेमप्रिये तुझने कोण दुहवी तिणे करौ चिन्तारूप समुद्रमै पड़ीछे घणे आदरे बोलावी थको बोलौ हाथ जोडो कहे हे महाराज तुम थका कुण दुहवी सके पिण मुझने बोषम डोहलो उपनो छ ते अणपहुते चिन्तातुर घडू छु ते चिन्ता न कहाई तिवारे राजा कहे ते सरवचिन्तानीवारो कही ते प्रमाण चढ़ाविये तिवारी राणी बोली तुमारा काल जानो मांसनो इच्छा उपनी के राजा साभलोहा भणणे राणोनो मनोरथ प्रमाण चढ़ावस्य पिण मन माहि चिन्तव्यो जे काल जी काव्या कोइ जीव नहीं ने राणौने अर्थे नाव तो स्युं जौवी तयअने एहवो मनोरब न पूहचे तो पुरुष पणो तेस्थो कामको एहवो चिन्तवो मनमे धारणा करती सभामाहि आवी वैठो तिवारी एतले अभय कमार आव्या राजाने चित्तातुर देखो अभय कुमार बात पूछो तिवार राजा कहे ताहरो लघु माता चेलणा तेहने माहरेकाल जाने मांस खावानीमनी रथ उपनो के ते पूरातो नयो मृगमास अणावी हृदय उपरि मैली मृगत्व चासो वाडी अने ते छेदी मासना सूला करी राणीने खवाया राजा श्रेणिक मुखे बुंवपाड़े रे माहरा प्राण जाय के जिमर रोव पाड़े तिमर साभलो गर्भ हर्ष पाम्यों पूर्व वैर यो संसार माहे बैर रहवा के अभय कुमार रायने पिण उवारा ने माताना पोण मनोरथ पूराका माताई पिण चिन्तायो एगर्भ पौताने आगलि स्युं सुखदेसी जे गर्भ धको पिताना कालजा सावानी मनसा करो तो भी गर्भ यल जाय तोखरी पाको पिण रधी पाहो नहीं तिवार राणीये गर्भगालवाभचौकईखारखाधा पिणतेहने अमृतधई प्रणम्या उप क्रमौ गरभ गले नहीं नव मास प्रतिपूर्ण हुवा जन्म घयो अशोकचन्द्र नाम दीधी वाडीना महिलमा प्रसूति भणी एजातमात्र उकरडीयेंनांख्या राजा ई खबर करावो तिवार राणो बोलो में तो न खाय दौधो राजा कहे हे प्रोयेए स्थु वात करी पुत्रने अर्थ अनेकउपाय कोज नररूपीयो रत्न किमनाखीये
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ. ४१ मा भाग
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उ० भाषा श्र० १
तिहां थो अणाव्यो तिहां कूकड़े बगुलो करडी तेथे कोणोक एहवं नाम दोधो संसार माहिं माता पिता उपरान्त कुण उपगारी हुसौ यतः चन्द्रचन्दम कर्पूर गोस्तनो शकरादय एतेषां सार मुद्ररत्य जन्मना जनितं मन अनुक्रमे मोटो थयो एहवे इन्द्र महाराज आपण साहमोनी प्रशंसा करी जे भरतस्खेच माहि सम्यक्तधारो राजा श्रेणिक के श्रेणिक सारिखा श्रावक थोड़ा हुसो तेहने क्षायक समक्तसुद्ध के तेहने देवता पिण चलावो न सके एहवु' वचन सांभली अणसहहता देवताइ' साधुनो रूप करो खांधाने विषे जाल धरो राजा श्रेणिक आगलि घई नौकल्यो राजाना सेवक कहे स्वामीचे साधुने वांदो राजा ' साधु जावी वादोने कहे किहीपधारोको देव साधु कहे माक लानो मांस लेवा जांवाका राजा कहे आपणे घरे सर्व मौलसी अर महाराजा तारे दोघे केतलो एक पूरोपडस्य चत्रोजती थया के तेहने मदरा वीना नसरे तुं केतलाने देसी आज वेलानोकल्या ताहरी नीजर चट्या बलता श्रेणिक कहे छे एहवो वचन मबोलो तुमे तुमारी बात करो निःकलङ्की सकलङ्क न हुवे तुंतारा कर्मनु दोष राजानो मन लोगार चुको नजाणी साधवीनो रूपवे श यौवनरूप नौरखने पूरे मासे ने हाट हाट गुल अजमो सूंठ पौपला मूल मांगती देखौ राजाना सुभट कहे जे साधु पूर्व वादी पवित्र या हि साधवो वादो तिवारे राजा ये साधवोने बंदा करो राजा कहे हे पुत्रो आपणे घरे पधारो गरभनो विवाह करस्युं हाट हाट२ क्कुंभमो तिवारे साधवो बोलो केतलानो नोरवाह करसो चन्दनवाला मृगावती प्रमुख स्यं कन्दर्प जीत्यो के ते माहरो कूलदोषराये को एक निर्गुणी सर्व ने सरौखा करे पिण सोवरण स्यामता नहो १ तुमारा कर्मनो दोष राजा लिगार धर्म थी चूको नही साधुसाधवी ऊपरी समभाव निंदा पिए न कीधी देवता मन खुसो थयो प्रत्यक्ष रूप करो रायनो प्रशंसा करे हे महाराज त् धन्य जे कहे माहरे सर्व के प्यारे देवता राजाने वे माटीना गोला देईस्वर्ग पहुता एक गोलो सुनन्दाने दौधी ते मांहि कुंडल युगल नोकल्या तिवारे देवता कहण लागो एसर्व रूपमे करा साधु साधवी तोनीकल के मोचना साधक के
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४९ मा भाग
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पोतानी पापनिदो गोलार राजाने देई स्वर्गे पहुतो एक गोली चेलणाने दोधी ते माहिसुआमला प्रमाण मोतीनो हार अहारे सरो नीकल्यी एहवे * समे श्वेणक बीउर सहित भगवतने वंदना करो पाछा बलता चेलणाई शीतकाले एक साधु ध्यान करतो देखी आपण घरें आवी रात्रे व आवासे * सुतो एहवो वचन कह्यो किम करता हुसो ते वचन सुणो श्रेणिकनामनमे संदेह उपनी ए अंतेउर खोटो एहवी वीचार करौ अभय कुमारने * जाल वानो आदेश देई राजा भगवत पासे गयो भगवत वोल्या चेडानी सातेपुत्रौ सती के एवचन सुणी उतावलसुंपाछा वल्या वलतानगरमै धूम देखी
अभयकुमारने कह्यो जारे भंडा एवचन अभयकुमार सुणि पिताने कह्यो तुमारो वचन थो हुँ मुख थी कई तुजा तिवारे तु दीक्षा लौजे एवचन
तुमारा मुख छो नोकल्यो छ तिवारे पोतानो आज्ञाई अभयकुमार दीक्षा लौधी हिवे कोणीक दुरदंत हुवो लघु भाई हल्लने १ विहल२ वौजीमाता१. * कालिप्रमुख कोणिक सर्व ने कहो राजा श्रेणकने काष्ठ पिंजरे घालौ राजा ११ भागे वहि वल्यो छत्रचामर पोताने अने सिचाणकहाथी अने हारहन ४ विहलने श्रोणिक पाप्योहतो ते हिज राजा श्रेणिकने नित्य नाडो५.. मराव अने भात पाणीनारोध राणी चेलणा दोपहरा कलसीयो१ पाणीनो ले
जाय चोटो मदिराये खरड़ो ते धोई पावे अने उडदनो रोटी करी ले जायते आहार करे आपणाकर्मादिक भोगवे राणी कहे प्री पुत्र जीवाड़ौत्रीसुख * दे त्यो राजा क हे काई गहिलो धई भावो पदार्थ किहा रहे एकदा प्रस्ताव कोणिक जोमवा वेठो छ पासे पूत्र वैठो छ तिणे थाली माहि जीमती : लष नोतकरो पिण कोणके संकानाणीमाने क हे माने पुत्र किसीवाल्हो के जेमेलिगाररौस नहीकरौ तिवारे समा जाणौ चेलणा वाली पुत्र मातापिताने * बल्लभ हुइ पिण पुत्रनेहनाणे तौवारे पूर्वलो वात चेलणा कोणिक आपरा पुत्र आगे कही ताहरौ चौटौ आंगुलौनो लोही ते सारे नाहरे पितारे उदरमे
गयो के एतला. मात्र न जाणे पिण कुल जाणे तुती पीतानी भक्ति रूडौ करे के ए भक्त घणादिन कहावस्ये एहवो वचन साभली वैर गयो नेह
राय धनपत सिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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उ.भाषा:
प्रगव्यो तुरत उठी लोहार तेडाबौ तिवारे पागल थी उपरांतीइ बात कहे पकने मारवा भणी घश लेइ पावे के बौजौवार पावती साभलो राजा
पिके तालपुट नामा विषतालवेदीयो त्वारे तुरत मरण पांम्यो काणौक आवौ बीताव पिण बोले नही यत: प्रतिष्टि विना सुखं धन विना गैहं च भार्या विना विप्रा वेद विना यतौ गुणविना राजा च सैन्यं विना शूरः शस्त्र विना स्त्रियः पति विना पूजा विना देवता एतमर्व न शोभते किमपरं देहं जीवं विना १ मनस्यूं अत्यन्त दुख ऊपनी रोईवालागी घर मांहि रह्यो मुहावे नहीं रायने वियोग चम्मामूको पृष्टचम्पावसावौ तिहां रही सकल साधवा लागी एकदा प्रस्तावे पद्मावती राणौ कोणिकने कहिवा लागी तुंहि राज्यनो धणी पिणहारने हाथी राज्यनो सारता भाई भाग के अने तुम तेहने चाकरौ करी राजा कहे भाई के राणो कहे हाथौमांगीतिवार जाणस्यूं जे एकही के तेखरू तिवारी तेहने कयो तुकाई जाणे तो पिण इम स्त्रोये कान मेरोया हारहाथी मागवानो मनकराव्या कोणिके भाई पासे हारने हाथीमांग्या तिवारी भाई कहिवा लागो हारने हाथौ किम दिवरा विवे तुम राज्य भाग्य मापोतो हारहाधो पापौये इम माहोमांहि चड़ भद्या माणसे सभा मांहि थी उठाद्या काणिक कह्यो जे देश माहि रहो तो हार हाथी मोकल देज्यो एहवु' सांभलो कोणिकने भय करी आपण अंतेउर लेइ नाना पामे विशाला नगरौये पहता प्रभात खबर थई जनासगया कोणक कहे एहवो कुण के जेम्हारा वैरीने राखे एहवे खबर थई जे चेडा राजा कन्हे विसालाये गया तिणवैला कोणौक राजा कालिकुमार आदिदेई १० भाई * है ३३ हजार घोडा ३३ हजार हाथो ३३ हजार रथ ३३ कोडि पायक सहित आवौ विशाला नगरी वौटौ तिवारे चेडो माहाराजा १८ राजा ५७
सहस्र घोड़ा ५७ हजार हाधौ ५७ सहस्र रब ५७ कोड़ि पायकसहित साम्हों पायो पिणचेडे महाराजने एहवौ प्रतिज्ञादिहाडे २ एकवाणमूकै तिण वाले करौ जे अग्रे सरो सेनानी हुइ तेहने जोपे १० दिहाडे कोणिकना कालि प्राददेई दसे बंधव विणास्था तेहवे कोणौक चमरेन्द्र पाराध्यो इन्द्र
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा० सा.उ.४१ मा भाग
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अ.भाषा अ०१.
देह रचा कौधौ चमरेन्द्र इम महाशिलाकण्टक रथ मुशलरणने बिषे दीधा महायुद्ध हुआ एक कोडि अशी लाख पद्या वली सौईते गाबाई पिण इम कहेछ कोणिकय चेडरयो रणं मिकणवेलक्व मणयाणं चमरेण निमाहया वौयदिणे लक्खचलसौयार एग सहस्म सुरो विउदिडी मणमहा विदेहमि दस ४ सहस्म मच्छलोए मेसाओ नरयतिरिएम २ एहयो युद्ध धयो तो पिणविशाला नगरी कोणिक ले न सक्यो श्रीमुनिसुव्रतस्वामीना स्तंभनी महिमा करने तिवारे कोणिक उचाटवान थयो धणेकाले भवितव्यना वस थको आकाशवाणी थई यतः समणे जह कुलवालुए मागहियंगणियं गमिस्मए राया असोग
चंदए विसाला नगरि गहिस्मए जी कुलवाली साधु मागधिका गणिका साथ रमै तो अशोकचंद कोणिक राजा विशाला लेशी एहवी आकाशवाणी * साभली कुलवालुनी खबर करावो नदी तटे रयो जाणो मागधिका गणिका तेडावोने कह्यो अहो गणिका कुलवालुपी साधु दहा आणीयो जाइए + वेश्याये कह्यो हां महाराज पाणइम कहो वोडो कोलो झालोकपटो श्रावकणि थई रथ वेसोनेगइ तिहां जे वांदीकूलवालुप्रत ते गणिका कहिवा लागी * अम् श्राविका जात्राये नोक त्यांचा जिहां देव हुई गुरु हुइ तौहां वांदी वहिरावौ जौमुकु तुमने इहां साभल्या ते भणौ अम्हें आया हिवे तुम्हे अनुग्रह
मया करो मुझतो भातपाणी वहिरी एहवो कही घणे आग्रहे नेपाला मिश्रौत मोदक दौधो लेण साधे लौधा साधुने अतौसार हुवो घणो कष्ट पद्यो तिणे वेश्याये धोवा पखालवा रूपवेयावच्च करौ लाजलोपावौ ओषधे करौ साजो कौधो तिवारे कहिवा लागो अहोवेश्या तुं काईक मांग वेस्यांये कह्यो मुझ साथै आवो राजा कोणिक कड़े तिहां थको सेझवाला मांहि घालौ वेश्याए कुलवालुओ कोणिक कथै ल्याइ कोणिक वोलाव्यो अहो कूलवालु
आजिम विधालानगरी लेवराये तिमकरोतिवार विहांधकी कूलवालुओ विशालानगरी माहिज निमत्तीयानो वेसकरौभमतेषके जो यो जे नगरकीम नही भांजतो जान वले जाण्यो ए मुनि सुव्रत स्वामी स्त'भनी महिमाइ नगरी नथी भांजती तेहवे नगर लोक निमत्तीयो देखी पूच्ची अहो निमत्तिया
राय धनपतसिंघ बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाग
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उ. टीका
अ.
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उत्तर त आचार्यस्य बधाय तेन पृष्टिस्थितेन क्षुल्लकन शिलामुक्ता आयान्ती आचार्येण दृष्ट्वा स्वपादौ प्रसारितौ अन्यथा स आचार्यो मृता भविष्यत् आचार्येण शापोऽस्म क्षुल्लका यदत्तः हे दुरात्मन् त्वं स्त्रोतो विनश्यसि अथ स क्षुलक प्राचार्योयं मिथ्यावादी भवतु इति विचिन्त्य पृथग् भूतस्तापसा अमे गत्वा तिष्ठन्ति तत्रा सन्ननदौकूले आतापनां कुरुते मार्गसमीपे साथ विलोकयति यदि शुद्ध प्राप्नोति तदा आहारं सहाति नीचेत्तदा तपः करोति तस्य आतापना प्रभावेण नदो अन्यत्र व्यू ढ़ाततोलोकरस्य कूलवालक इति नामकृतं इतश्च श्रेणिकं पुत्र काणिको राजा खपत्नौ पद्मावती प्रेरितः स्वभाव हल विहल पार्श्व जनक श्रेणिकार्पित दिव्य कुण्डल अष्टादश सरिक हार सेचनक हस्त्यादिकं वस्तुमार्गितवान् तौच सर्वलाला मातामह चेटक महाराज पार्श्व वैशालिनगरया गतौ कोणिकेन मातामहचेटक महाराज पाोत्सर्व वस्तु सहितौ तौ भ्रातरौ मागिता शरणागत वच्च पञ्चरविरुदं बहतातेन न प्रेषितौ ततो रुष्टः काणिक: समाराधित शक्र चमर प्रभावेण स्वजीवितं रक्षन् अमोघबाणमपि चेटक महाराज संग्राम निर्जित्य विशालिं नगरी मध्ये लिप्तवान् सज्जित वप्राञ्चतां वैशालिं नगरों स कौणिकी रोधयतिस्म नगरी मध्यस्थित श्रीमुनि सुव्रतस्वामिस्त प प्रभावात् तां नगरौं ग्रहोतुं न शक्नोति ततो बहुना कालेन देव तयैवमाकाशे भणितं । समण जह कूलवालए मागहि अङ्गाणि अंरमिस्मए रायायचसोगचन्दए नगरौनो दुख कद भाजसी तैकहिवा लागो जिवारे ए स्तम्भ उपाडौनाखस्यो तिवारी कटक पाछो भाजसौ एहवी लोकाने की कोणिकनाकटकने सङ्कत किधी अमुकडी वेलाई एक मुकाम पाछो देज्यो इम कही नगरलोक पासे स्तभखलाववा माद्यो जहवे लोक पायानी इंटकाढिवा मांडी तेहवे संकेत वधकटक पाछो गयो तिवारी लोकामे चमत्कार उपनी सर्व स्तंभखणनाख्या कोणिक पाको दलबादल लेइ विशालालोवौ कोणिकनौ प्रतिज्ञा पूरी हुइ हार देवताइ संहर लौधो हाथी खाहिमाहि मुओ कुलवालुओ मरि दुरगति गयो एदृष्टांत जाणो गुरूनो अविनौतपणोन करणा१ इति कुलवालुवा
KARNXXXXXXXXXRRACREDIRKONKA
राय धनपतसिंघ बाहादुर का आ. सा. उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका
अ०१
११
वेसालिं नगरि गहिस्सए १ फाणिकने मांबाणी श्रुत्वा स कलवालक श्रमणी विलोक्य मानस्तव स्थितीचातः राजमहादाकारिता मागधिका गणिका तस्याः सर्व कथितं तयापि प्रतिपन्न तं कूलवालक श्रमणमहमत्रानेश्थामौति कपट बाविकाजाता सार्थेन तचागता तं वन्दित्वा भणति स्थान स्थान चैत्यानि साधूश्च वन्दित्वाऽहं भोजनं कुर्वेयूयमत्र श्रुताः तती वन्दनार्थ मागता अनुग्रहं कुरुत प्रासुकमेषणीयं भक्त गीत इति श्रुत्वा कूलवालुक श्रमण स्वस्वा उत्तारकंगतः तया च नेपाल गोटकचूर्ण संयोजिता मोदकादत्ताः तदभक्षणानन्तरं तस्य अतीसारीजात: तया औषधप्रयोगण निवर्तितः प्रक्षा लनोहर्त्तमादिभिस्तया तस्य चित्तं भेदितं स कूलवालक श्रमण स्तस्या माशक्तोऽभूत् तयापि स्व वशीभूत: स कोणिक समीपमानीत: कोपिकनीत' भी कल
बालक थमण यथेयं वैगालि नगरी रह्यते तथा क्रियतां तेनापि तहचः प्रतिपद्य नैमित्तिकवेषेण वैशालि नगर्यभ्यन्तरे गत्वा मुनि सुव्रतस्वामि स्त प & प्रभावी नगरीरतको ज्ञात: नैमित्तिकोयं नगरी लोकः पृष्टः कदा नगरौरोधोऽप गमिष्यति स प्राह यदा एनं स्तू पं यूयं अपनयत तदा नगरौ8
रोधापगमो भवतीति शुत्वा तैलोक स्तथाकतं कूलवालक श्रमणेन बहिर्गत्वा सज्जितः काणिकस्त न तदेवस्तूप प्रभाव रहिता सा नगरौ भग्ना एव पतितः कूलवाक श्रमणः प्रविनीतत्वात् कूलबालक कथा ३ ॥ अथा विनितस्य दोष पूर्व दृष्टान्तमाह ॥ जहा मुणी पूरकणी णिकसिज्जइ सबसी एवं दुस्सिल परिणीए मुहरी निकसिज्जई ४ व्याख्या एवं अमुना प्रकारेण अनेन दृष्टान्तेन दुःशील: दुष्टाचारः प्रत्यनौका गुरुणा षौ पुनर्मुखरौषा चालः एतादृशः कुशिथी दुविनीतो नि:काश्यते गणात् सङ्घाटकात् बाह्यः क्रियते अथवा मुहरीमुखं अरिर्यस्थ स मुखारिरसम्बन्धभाषी प्राक्ततत्वात् मुहरौतिशब्द: केन दृष्टान्तेन निःकाश्यते यथा पूतिकर्णी सटितकर्णी शुनी कुर्कटी सर्वत: सर्वस्थानकात् ग्रहादितः सर्व नि:कायत पत्र सनौनिर्देशोऽ धिक निन्दासूचक: सटित कति बिशेषणेन सर्वाङ्ग कृमि कलाकलं सूचितं इत्यनेन दुर्विनौतवन्याज्य ४ अथ पुनस्तदेव हदयति कणकुण्डगच्च
राय धनपतसिंघ बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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उ. टौका
अ.१
१३
इत्ताणं विठं भुञ्जद सूयर एवं सौलञ्च इत्ताणं दुस्सौले रमईमिए ५ व्याख्या एवं अमुना प्रकारण अनेन दृष्टान्तेन मिए इति मृगी मूर्वोऽविवेको शोलं सम्यगाचारन्त्यका दुःशौले दुष्टाचार रमते अत्र शौल शब्दो विनयाचार सूचक: केन दृष्टान्तेन तदाह यथा शूकरः कणकुण्डक तण्डु लभक्ष्य भृतं भाजनस्य का विष्ठा मुक्त तथा घोलन्त्यला मूर्खः कुशीलं आदत्ते दुःशीलस्य विष्टोपमामूर्खस्य शूकरीपमा तण्ड लभूतभाजनस्य पौलस्योपमासूत्र सुणिया भावं साबस्स सूयरस्म नरस्मय विनए ठविज्ज अप्पाणं इच्छन्तोहियमप्पणो ६ व्याख्या आत्मनो हितं इच्छन् पुरुष: आमानं विनये स्थापयेत् किं कृत्वा. शन: कुर्करस्य पुनः शूकरस्य नरस्य अभावं अशुभं भावं दृष्टान्त निन्द्य' उपमानं सुणिय इति श्रुत्वा पूर्व गाथायां शनौ पूति कर्णीति स्त्रीलिङ्ग
निक्कसिज्जई ॥४॥ कण कुड़ग चत्ताणं विठ्ठ भुजडू सूयरे । एवं सौलं चत्ताणं दुस्मीले रमई मिए ॥५॥ सुणिया
भावं साणम्म सूयरस्म नरस्मय । विणए ठविज्ज अप्याणं दूच्छतो हिय मप्पणी ॥६॥ तम्हा विषय मेसिज्जा सील पडि उपरि दृष्टांत पूरो हुवोऽथाने सूबमाह १ ज. जिमस • कूतरौ पू. कुया काननी एतले रुधिर लोही वहे एहवी कुतरी णि. ते कुतरौ काढिये स० सर्वस्थानक थको एतले जिहां जाय तिहां काढौये ए. एणी पर दु० भूडा आचारनो धणी प० प्रत्य नीक वैरी सारिखो के मु. असंवधभाषे एहवा अव नौत पणो णि काढोये गच्छादिक थको४ क कणतंदुलहनो कु० कुणसडो कुचो च छोडौने वि०विष्ठाम भोगवे सु० सूकर ए० एणी परे अवनौतसौल भलो आचारच. छाडौने दु. भूडा आचारने विषे प्रवर्त मि० पशुमृगसरिखो ते अवनीत ५ सु० सांभलौने भा. दृष्टान्त सा. खाननो सू सूयरनी अनेन अविनित मनुष्यनो दृष्टान्त सांभलौने वि. विनयने विषे ठ० स्थाप पोताना आमाने इ. वांछतो थको हित म. आपणा आमाने ६ अविनय
राय धनपतसिंघ बाहादुर का पा० सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ टौकाअ.१४ निर्देशः कृतः इदानीं शन इति लिङ्गव्यत्ययः प्राक्तत्वात् सूत्रं तम्हा विषयमे सिज्जासीलं पडिलमज्जए बुद्ध पुत्तेनियागंठीननिकसिज्जर का .
व्याख्या तस्मात् कारणात् बुद्ध पुत्रः बुहाना पाचार्याणां पुष व पुत्रो बुङपुत्रः प्राचार्याणां भियः पुनर्नियोगी भाचस्त' अर्थयतीति नियोगार्थी एतादृशः साधुविनयं एषयेत् विनयं कुर्यात् विनयात्यौलं सम्यगाचार प्रतिलभेत स विनयवान् मौलवान् कई इति कस्मादपि स्थानात् न निःकाश्यते सर्वत्राप्याट्रियते अयं परमार्थः विनयवान् सर्वत्र सादरो भवति । सूत्र निस्मन्त सिया मुहरौ बुढाथ अन्तिए सया अजुत्ताणि सिक्सिजानि रहाणिउ वजए ८ व्याख्या अब विनय परिपाटि दर्थयति नितरां अतिशयेन शान्तो निशान्तः क्रोधरहितः साधुः सिया शब्दन स्वात् भवेत् साधुना चमावताभाव्यं पुनः सुशिष्योऽमुखरौ अबाचाल: स्यात् पुनर्बुदानां प्राचार्याणां ज्ञात तत्वाना अन्तिके समीप अर्थयुक्तानि हेयो पादेय सूच कानि सिद्धान्तवाक्यानि शिक्षेत तु पुननिरर्थकानि निःप्रयोजनानि धर्मरहितानि स्त्रीलक्षणसूचकानि काकवात्स्यायनादीनि वर्जयेत् ८ सूत्र अणसासियो
लभेजो । बुद्ध पुत्त नियागढी ननिक्कसिज्जडू कन्हई ॥७॥ निमंते सिया मुहरी बुड्डाणं अंतिए सया। अठ्ठ जुत्ताणि
सिक्खेज्जा निरठाणिउ वज्जए ॥८॥ अणुसासिउ न कुप्येज्जा खंति सैवेज पंडिए खुडहिं सहसंसग्गिं हासं कोडंच भाषा ना दोष देखाद्या त० तेभणौ वि. विनय करे सौ० भलो आचार पा• पांमे ज. जे विनय धको बु० आचार्यने पु० पुवनौ परिनि० मोचार्थी जे
विनीत शिष्य तेहने न० काठीये क० किहां गच्छादिक थकी ७नि निरंतर उपसमवन्त अभ्यन्तर कषाय पातला वाध प्रसान्त पाकार सि• हुइ प. अमुखरौवाचालपणा रहित बु. आचार्यने समौपे विनित शिष्य स. सदाइ अ. जे पदार्थ छांडिवां जाणीवा पादरिया योग्य तेहमी जाणपण तेणे करी
राय धनपतसिंघ बाहादुर का आ. सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टौका
नकुपिज्जा खन्ति मेविज पण्डिए खुइहिं सहसंसमि हासकोडच्च वज्जए ८ व्याख्या पुनर्विनयीसाधुः अनुशासिती गुरुभिः कठोरवचनै स्तर्जितो पिहितं मन्यमानः सन् न कुप्येत् कोपं न कुर्यात् पण्डितस्तत्वज्ञः शान्ति सेवेत क्षमा कुर्वीत पुनः सुसाधु क्षुः बालैः सह अधवा क्षुद्रः पार्श्वस्यादिमि भन्न धर्मः सहसं सर्गसङ्गतिं वर्जयेत् पुनर्हास्यं पुनः क्रौडाञ्च वर्जयेत् । सूत्र माय चण्डालियं कासौ बहुश्रमाय आलवे कालेणब अहिज्जित्ता तोझा इज्जएगगो १० व्याख्या भी शिष्यत्व' चण्डालोकं माकार्षीः चण्डः क्रोधस्तेन अलोक कषाय वशान्मिथ्या भाषणं माकार्षीः पुनर्बहुकं बहु एव बहुकं पाल जाल रूपं त्वं न आलपे: मायाः बहुभाषणात् बहवो दोषाः भवन्ति च पुनः काले प्रथम पौरुषो समये अधीत्य अध्ययनं कृत्वा तत: एककः एकाको सन् ध्यायेत् अधोतं अध्ययनं भवान् चिन्तयेत् एका भावतो द्रव्यतच भावतो रागद्देष रहितः द्रव्यतः पश पण्डकादिरहितोपाययेस्थित: १० सूत्र आहच्च चण्डालियं कान निहु विज्जकया इवि कड़ाडित्तिभासिज्जा अकईनोकड़ित्तिय ११ व्याख्याआहित्यकदाचित् क्रोधादिकषायवशात् अलौकंदुःवतंवत्वा
बज्जए ॥६॥ माय चंडालियं कासी बहुयं माय आलवे कालेणय अहिज्जित्ता तो झाडूज एक्को ॥१०॥
आहच्च चंडालियं कटु ननिन्हवेज्ज कयाइवि कडं कडित्ति भासिज्जा अकड नोकडित्तिय ॥११॥ मा गलियमेव जु• सहित के एहवो सिद्धांत सि सिखोने नि० स्वोयादिकनौ कथा तथा ८ निरर्थक शास्त्र ज्योतिष वैद्यक व० वजे के अ० सूत्रार्थ सौखवताकठन वचने पिण शिखामणिदेतान० कोपन कर ख. क्षमा से मेवे प. पंडित खं० बालक तथा पासत्यादिक सं० संघात सं• संसर्ग परिचय हा हास्य की क्रीडा व० वजे ८ मा० रखे चं. क्रोधादिकने विषे अ० झठो क. बोले ब. घणुर मारखे पो. बोले का. प्रथम पोरगी प्रमुख सिद्धान्त भणीने
राय धनपतसिंघ बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाम
भाषा
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उ० टीका
अ०१
१५
सूत्र
भाषा
बितोतः साधुर्गुरुणां अग्रतो न निवोत कृतस्य दुःकृतस्य अपल पनं गोपनं न विधेयं कृतं कार्यं कृतं एवं भाषेत अकृतं कार्यं कृतं न भाषेत अयं परमार्थः गुरुणां पुरुतः सुशिष्येण सत्यवादिना भाव्य' ११ सूत्र' मागलिय सेवकसं वययमिच्छे पुणे पुणे कसं वदद्दुमाइने पावगं परिवज्जए १२ व्याख्या अथ विनीता विमोतयेोर्हष्टान्तमाह विनीतः साधुः आकोर्णइव सुविनीताख इव गुरो वचनं शिश्चारुपङ्करणयोग्यस्य कार्यस्य प्रवृत्तिसूचकं करणायोग्यस्य कार्यस्य त्तिसूचकञ्चमाइच्छेत् पुनः पुनर्न किन्तु एकवारं ज्ञापितंसन्सर्वस्वकार्यं गुरीबित्तवजानीतेकिं कृत्वाइवकसंवाजनकं दृष्ट्वाइवयथा गलिताखो दुर्विनीत तुरगः अखवारस्यत्राजनकं मइच्छत् तथा विनोतो वचनतर्जनं द्रच्छेत् तथा सुविनीतशिष्यः श्राचार्यस्य आकारं इङ्गितं ज्ञात्वापापानुष्ठानं वर्जयेत् इत्यर्थ: १२ सूत्रंत्रणासवा थूलवया कुसोला मिउ पि चंडंपकरन्ति सौसा चित्ताण चालहुदक्खो ववेचा पसाय एतेहु दुरासयपि १२ व्याख्याश्रथ पुनर्विनीता विनीत योरा चार माह पूर्वार्धेन दुर्विनीत शिष्याणां आचारं वदति एतादृशाः शिष्याः मृदुमपि आचार्य सरलमपि गुरुंचण्ड' कोप सहितं कुर्वन्ति एतादृशाः
कसं वयण मिच्छेपुणो पुणो कसं व दट्ठ, माइन्ने पावगं परिवज्ज ए ॥ १२ ॥ अणासवा थूलबया कुसौला मिउंपि चंडं पकरंति सौसा । चित्ताणुया लहु दुक्खो ववेया पसायए तेहु दुरासयपि ॥ १३ ॥ नापुठ्ठो वागरे किंचि पुट्ठोवा त० तिवारी पछि ज० धर्म ध्यावे ए० एकलो रागद्वेष रहित १० आ० कदाचित चं० क्रोधने वसे अ० ਠੀ क० बोलोने न० नगोपबे गुर बगलक० केवारे पिण लाज भयादि कारणे क० कोधाने कौधो भा० कहीये अ० अणकीधाने इम कहे तो० में न कौधो ११ मा० रखे ग० गलियार अविनित अ० घोड़ानी परे क ताजणा रूप व० वचन आदेश मि० वांछे पु० वारंवार क० ताजणो द० देखिने मा० जातवंत घोड़ो जिम असवारनो मनहोइ
SRXXXXXRRRARXXXXXRRRRRRRA
घ बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
राय
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उ.भाषा
अ०१
तिम चाले जिम जातवंत घोडो असवारने भाव चाले तिम विनित शौश्च गुरुनौ अंगचेष्टा जाणिने गुरुने भावे विचरे प० अनुष्ठानप० सर्वधा वर्जे के १० गुरुना वचन अपकरणहार थू. अनिपुण भाषि भूडा आचारनो धणौ मि. क्रोध रहित जे गुरु होइ तेहने पिण च० क्रोधी प० करसौ. कूशिश्च चि. गुरुने चित्त वर्ते ल• भौघ्र द. बिलम्ब रहित कार्यनो कर्णहार एवं गुणे करि सहित प. प्रशांत कर ते विनौत शिष्य हु• वलौदु. अतौ क्रोधी गुरुने पिण१३ अथ चन्द्ररूद्राचार्यनौ कथा कहीये के उजणी नगरौये चण्डरुद्राचार्य चोमासे रह्या अतिहौरीसालु थोडे बोल्यो घणो रौस चढावे बड़े महामाने उपाययटुकड़े राख्या जेसह इम भेला रही तोरखे गुरुने रौसचढ़े रौसे जौवनाकारज विणसे जे भणौ सिद्धांत माहिं कहूं के यत: कोविसंकि अमयं अहिंसा माणो अरिकिहियमप्यमानी मायाभयं सरणं तुसच लोही दुहं किंहियमाहुतुट्ठौ १ तेहवे अवसर ते नगरमांहि किणहीक व्यवहारीयानी पुत्र नवपरणोतसाला सहितके वौजाई मित्र सहित नगरमध्ये क्रीडा करता आया एहवे अवसर जे वनमाहि जती रह्याछे तिहां कुमार क्रौड़ा करता आव्या तिहां जति घणा वैठादोठा तिहां ते आवो वैठा तेहवे मित्रसाले सगले ही हसौ कह्यो ए तुम पासे दीक्षा ल्ये छ एहने दिक्षा द्यो तेहवे तेणे साधे कह्यो अम्हे न जाणा गुरु जाणे तो तुमे अमने गुरु दिखाडो तिवारी शिष गुरु देख्याद्या तिहां कला गुरू वैठाछे तिहां आव्या हासो माही माहि करतां गुरुवांद्यातिहांसालोहस्थो भगवान दीक्षा लेके हासामिसवार एतले गुरुने रोस उपनो ततकाल पकडी पग विचे माथो चांपी श्लेभानौ रोषे लोच कौधो अने जाण्या रखे एहवे सालो मित्र प्रमुख हुता ते विषाद पाम्या जाण्या हसता अमे कच्चा अने गुरे रौस वसे साचो कौधा प्रने जाडो रखे अमने पिणमूंडौनाखे भयभीत थईने नाठा तेहने नव दीक्षत सुशिये कह्या भगवंत तुमने दहा रहिवानो लाभ नही माहरासगा तुमने दुहवणा अवहोलणा करसो ते भणो आपणो अमेथिजर तेहवेगुर रौसनावस थको कर्कश वचन कच्यो रे पापिष्ट रे दुरात्मा किये कयो त दीक्षा लौजे एहवे
राय धमपतसिंघ बाहादुर का प्रा० सं० २०४१ मा भाग
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प०१
कोदृशाः अनाश्रवाः गुरुवचने अस्थिताः पाश्रवा वचनेस्थित इति हैम: न आश्रवा अनाश्रवाः पुनर्ये स्थूलवच्चसः शूलं अनिपुणं वचो येषान्त स्थल वचसः पषिचार्यभाषिणः पधात्तरान विनीतस्थाचारं वदति चित्तानुगाः आचार्य चित्तानुगामिनः पुनलघु पी दयं चातुर्यन्न उपपता: लप दाच्योपपता: त्वरितं चातुर्य सहिताः एतादृशाः शिथा दुराश्रयं क्रूरमपिसक्रोधं अपि गुरु प्रसादयेयुः प्रसवं कुर्युः १३ अत्र चंड रुद्राचार्यकथा यथा उज्ज बिन्यो चण्डरुद्रमूरिः समायात: सरीषण प्रततिः साधुभ्यः पृथक् एकान्तस्थाने आसनश्चक्रे माभूल्कोपात्यत्ति रितिचित्ते विचारयति इतच इभ्यसुतः
* मुशिष्य क्षमा करी वलो चरण कमलेमस्तगलगावोने वीनवे तेहवे गुरु कहे रे दुष्ट रात्रि गये हुँ देख नही मुझने वृद्धि किम चलाई तिवारी सशिष्य भाषा *
* बोल्योमाहरे खंधे वैसो गुरुने स्कंवसारी विहार कोधो रात्रि अंधारौ शौथने मार्गचालता पग उचानिचा पडे तिवार गुरु शिष्यने मस्तके दंड प्रहार करे तिवार शोषी आपले मन आपणा दोष देखे हुँ पापी मै गरढा गुरुने कष्ट मांहि पाद्या एहवा दोष संपूर्ण आपण देखतां क्षमा करता भावना भावता
पगर मिच्छामि दुक्कड देता एकाग्रचित्ते गुरु उपरि धर्म पोह धरता कर्मनो क्षय कोधी केवल ज्ञान उपनो ज्ञान थको सर्व मार्ग देखावा मांद्या * तिवार गजगति चालवा लायो तिवार गुरू कहिवा लागा सही मारसारकेहवो निरतो चाले के एहवी गति जाणौ गुरे शियन यूयो अहो शिश्च तं
वाट देखे के हा भगवान् इ सर्वदेख छ सूक्ष्मवादरनी पिण विगत जाणौवे के तेहवे गुर पूच्ची काई अतिशय शिषा कहे तुम प्रसाद गुरु कहे प्रति पातौके अप्रतिपाती योषा कहे प प्रतिपाति एहवे साभली गुरे चिंतव्यो एके वली के हमे पापी रोषना वस धको केवलौनौ अशातना कौधौ तिवार खांधा थो उतरी पगे लागो खमावता गुरुने केवल ज्ञान उपनो एहवा मुशिषा जाइये आपणाने गुरुनी कार्य साधे इति चन्द्ररुद्राचार्य कथा त्रयोदशमी गाथा उपरि जाणवौ अथाग्रे सूत्रमाह ना. अखपूच्चो या. नबाले कि थोड़ाइ स. पूच्चो पिण जि. झूठी वन वाले को कोधिने फल लगाडे.
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ. ४१ मा भाग
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प.१
१८४
कोपि नवपरिणीतः सुहृत्परिवतस्तत्रागत्य साधून वन्दत केचित्तभित्र हाँस्थेन प्रोक्तं अमुं प्रव्राजयत साधुभिर्व रमित्यभिधाय गुरुदर्शितः तेपि गुर समीपे गताः तथैव तैरत गुरुभिभूति मानयेति प्रोक्तं तेन नवपरिणीतेन हास्या देव स्वयंभूति रानीता गुरुभिर्बलादेव गृहीत्वा तन्मोच: जत: सुखदः खिबास्तदानष्टाः तस्य तु कृतलोचस्य लघु कर्म तयाऽतः परं मम प्रव्रज्ये वास्तु इति परिणाम: सम्पन्नः ततस्ते नोवं कैलिः सत्यं भूतोऽथ अन्यत्र गम्यते गुरुराह अहो शिथ साम्प्रतं राविर्जाता अहं रावी न पश्यामि तेनस्वस्कन्धे गुरुरारोपित: उच्च नौच प्रदेश मार्गे वहता तेन गुरोः खेद उत्पादितः खिवेन तेन गुरुणाऽस्य शिरसि दण्डाहारा दत्ता: असौ मनसि एवं विचारयति अही महात्माऽय' मये दृशी मवखां प्रापित: इति सम्यग्भावयतः तस्य केवल ज्ञानमुत्पन्न केवल ज्ञानबलेन समप्रदेश एव वहन् गुरुभिरेष उक्त: मारिः सार इति कीदृयः समा वहबसि तेनीन युमत् प्रसादात्मे समं वहनं गुरुभिरुक्त' किं अरे ज्ञानं समुत्पन्न तव तेनोक्त ज्ञानमेव गुरुभिरुक्त प्रतिपाति अप्रतिपाति तैनात अप्रतिपाति गुरु वस्तुहा मया केवली आशा तितः इत्युत्ता तच्छिरसि दण्डप्रहारो त रुधिरप्रवाहं पश्यत: पुनस्तत्क्षामण कुर्वत: केवल ज्ञानमापुरिति विनीत शिथैरौर्भाव्य इति चण्डरुद्राचा र्यस्य कथा नापुट्ठो वागरे किच्चि पुट्ठो वा नालियं वए कोहं असञ्चं कुब्बिज्जा धारिज्जा पियमप्पियं १४ सुविनीत शिष्यः अपृष्टः सन् किञ्चित् व्याटणीयात् न किचित् अपृष्टो वदेत् अथवा अपृष्टोऽल्यं पृष्टोऽप्रष्टः सन् विनीत: किमपि न व्यायौ यात् अपृष्ट अल्पमपि न व्यादितिभावः अथ वा पृष्टः सन् अलोकं न वदेत् पुनः क्रोधं असत्यं कुर्यात् गुरुभिनिर्भसित: कदाचिम: क्रोधः स्यात्तदापि क्रोधं विफलं कुर्यात् अप्रियमपि गुरुवचनं प्रियमिव आत्मनोहित मिव ख ममसिधारयेत् १४ अथ क्रोधस्य असत्यकरण उदाहरणं ॥ यथा कस्यचित् कुल पुत्रस्य भातावैरिणाव्यापादित: अन्यदा कुलपुत्रो जनन्या भणितः पुत्रत्वद भाटधातुकं वैरिणं घातय ततः स वैरो तेन कुलपुत्रेण शीघ्र निजबलात् जीवनाहं गृहीत्वा जननी समीपे पानौत भवतियः पर भ्राघातक
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० १.४१ मा भाग
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४ अनेन खानत्वामहक्कहनि तेनापि उहमितं प्रचण्ड' दृष्ट्वा भयभीतन भणितं यत्र परणागता न हन्यते एतहवं श्रुत्वा कुलपुषेण जननी मुखमवलोकितं ड टीका जनन्या च सत्वमवलव्य उत्पन्न करुणया भणितं हे पुत्र भरणागता नहन्यन्त यतः सरणागयाण विमं भियाण पणयाण वसण पत्ताण रोगी अजनमाण १८ १ सप्प रिसानेव पहरन्ति१ तेन कुलपुत्रेण भणितं कथं रोषं सफली करोमि जनन्या उक्त वम सर्वत्र न रोष: सफलो क्रियते जननी वचनात् स
* तेन मुक्त: तयोश्चरयेषु पतित्वाचामयित्वा चापराध' स गतः एवं क्रोधमसत्वं कुर्यात् इति कुलपुत्रस्य कथा धारिला पिवमप्पियं एतत्पद कया कृ यथा वौतभयपत्तने एकदा महद शिवमुत्पन्न वयो मांत्रिकास्तत्रायाता रानः पुरस कथित वयं पथिवं उपशमविथामः राज्ञा भरि तं। केन प्रका
रेण तेषां मध्ये एकेनोक्त मन्त्रसिहं ममैकं भूतमस्ति तदत्यन्तं रूपवदगीपुर रथ्यादिषु भ्रमत्यः पश्यति स म्रियते यस्तत् दृष्ट्वाऽधोमुखः स्थात् स सर्वरोगै * मुच्यते राज्ञा भणितं अलं अनेन प्रति रोषणेन भूतेन अथ द्वितीये मान्त्रिकेणोक्त मम भूतं महाकायं लम्बोदरं विस्तीर्थ कुक्षि पञ्चशौर्ष एकपादं १ विततरूपं अहासं कुर्वन् दृष्ट्वा योहसति तस्य शिरः सप्तधा स्फुटति यस्तु तद्भूतं धूप पुष्य स्तुत्यादिभिः पूजयति स सर्वरोगमुचते राजीत अनिमापि भूतेन * सतं अथ तौबेन मान्त्रिकेणोक्त ममाप्येवं विध भूतमस्ति परं प्रिया प्रियकारिणचनं दर्थना देवरोगेभ्यो मोचयति रात्रोक्तं एवं भवतु तथा तबगराशिवं * उपशान्त ततो कृपादिजनैः स तौय मान्त्रिकः एवं साधुरपि पूजानिन्दा प्रिया प्रियं सहेत उक्तञ्चलाभालाभे सुखदुःखे जीविते मरणे तथा स्तुतिनिन्दा विधाने च साधवः समचेतसः१स्तुतिनिन्दादौ न रागद्देषवान् साधुभवतौति इति चयोमांत्रिकाण कथाप्रप्याचे वदमे अबो अव्याहु खलुदुहमी अप्पादन्ती
नालियं वए। कोहं असच्चं कुब्वेज्जा धारेज्जा पियमप्पियं ॥१४॥ अप्पाचेव दमेयव्वो अप्पाहु खलु दुइमो। अप्यादतो नहीं एतलेकोधने असत्य कर नि:फल करे धा. खमे पि. इष्ट अनिष्ट गुरुनो वचन साभलीने १४ कोहं असञ्चं कु. ए पद उपरि रागद्देष अण करके कुल
राम धनपतसिंह माहादुर का प्रा. सं. ९.४१ मा भाग
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उ०टीका
अ०१
२०
सुही होइ अस्मिं लोए परत्यय १५ आत्माए वदमितव्यः वशौकर्त्तव्यः हुइति निश्चयेन खलु यस्मात्कारणात् आत्मा दुर्दमो वर्त्तते आत्मानं दमन् जीवः सुखौ भवति अस्मिन् लोके च पुनः परत्र परभवे च सुखी भवति १५ आत्मा दमने दृष्टान्तः यथा एकस्यां पल्लयां द्दौ भ्रातरौ तस्करताय कौस्तः सार्थेन सह गच्छतां साधूनां वर्षाऋतुः प्राप्तः नच तत्र कोपि साधु भक्तोस्ति तेन साधवस्तस्करनायकयोः समौपेगताः साधु दर्शनेन तौ चौरनाय को आनन्दित तान् प्रणम्य कथयतः किं प्रयोजनं भवतां साधुभिर्भणितं अस्माकं वर्षा सुविहर्तुं न कल्पते ततो वर्षावास प्रायोग्य मुपाश्रयं प्रार्थयामः ताभ्यां च सहर्ष साधुना मुपाश्रयोदत्तः तत्र विश्वस्वास्तिष्टन्ति साधवः चौरनायकाभ्यां भणितं अस्माकं गृहेषु सम्पूर्ण भक्तादि गृहीतव्य' साधुभिर्भणितं न कल्पते एकस्मिन् गृहे पिण्ड ग्रहयं साधुना ततः सर्वेषु उचितगृहेषु विहरिष्यामः उपाश्रय दाने नैव भवतां महापुण्य सम्बन्धोजातः उक्तञ्च जादेद्र उवस्मयं मुनि वराय तव नियय जोग जुत्ता तेषं दिवावत्यव्रपाण सयणासणविगप्पा १ तव सक्षम सज्याची नानाभासो जणो बयारोय जीसाहण मवगाह कारी सिज्माय रोतस्म २ पावइ सुर नररितोस कुलप्पत्तीय भोगसामिही नित्यरद्रभवमगारी सिज्जादाषेण साहणं ३ इदं साधुवचः श्रुत्वा तौ अत्यन्त परितुष्टौ तेषां साधुना मुपद्रवं रक्षतः विश्रामणादि भक्तिञ्च कुरुतः सुखेन साधुना वर्षाकालोऽतिक्रान्तः गच्छद्भिः साधुभिस्तयोश्चौरनायक योरन्य व्रत ग्रहणासमर्थयोर्नियाभोजन नियमदत्तः तयो रेव मुपदिष्ट मालिति महीयलं जामिणो सुरयणौ अरा समन्तेयन्ते वित्थलन्ति अफुडं राईए भू माणाउ १ गेहं पवलि श्राउ हयन्ति वमणञ्च मत्थिया कुणइ जूग्राजसोयरन्तह कोलि अउ कुट्ठरोग २ वालो सरस्स भङ्गं कंटोलग्गइगलं मिदारच तालं मिबिम्बद्द अली बञ्जण मज्यंमि भुज्जं तो ३ जीवाण कुन्युमाईण घायणं भायणधो अणाईसु इमा इरयणि भोयण दोसे कोसाहि उत्तर ४ तो स्मिन् दृढ़ते प्रयत्नैर्भवितव्यमिति भणित्वागताः साधवः तावपि चौरनायकौ सपरिवारौ कियन्मार्गमनुगम्य निवृत्तौ मुनि सेवया कृतार्थ त्वं मन्यमानी
MOROORONOURERWORKARAARAKR राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उभाषा
पुत्र दृष्टात जाणवो किणहोक गामें एक कुल पुत्र के तेहनी भाई वरीये विणास्त्री तिवारी तमा वेटाने कहे हे पुत्र ताहारा भाईना विणासणवालाने त विणास ते मातानी वचन लेइ तिणे लड्डे बेटे पापणे वल करो भाईनो मारणहार जीवतोपकटि माता आगलि कयो मोरवंध वांधी खन काढी बोल्यो भात घातक तुझने पाहणु तिवार वैरी भयभीत धके कहे जिहां शरणागत आयाने किम हिणये तिम आहण एहवी वैरीनोवचन साभलीने बेटे माताने कह्यो माता महासवुरनो धणियाणी आपणा वेटाने कहे हे पुत्र आपण सरणागत आवौने न हणीये ज भणी शास्त्रमे कहे के यतः सरणागताण विसं भियाणं पणयाणं विसणपत्ताणं रोगोत्र जंगमाणसप्पुरिसाने वपहरंति १ सत्पुरुषते एतलाने परापर न करे एहवो वचन साभली वेटे कधी हे मात उपनो कोप कोम सफल कर तिवार मा कही है पुत्र सगले रोस सफल न करवी तिवार पछी तेणे आपणा भाइनी मारणहार वैरौने सन्मान देव जी माडो घर मूक्यो तिम वोजे जोवे रोस अपनी हुती उपसमावे यतः उवसमेणहणकोहं उपने क्रोध क्षमाई' अस्त विफल कर इम कुलपुत्र दृष्टान्त १ धारिजापि यमप्पियंए उपरिकथा लोखोये के रूडी वात ग्रहीये माठी झंडीये यथा वीत भय पाटणे अशिवमृगी ऊपने ते उदायन राजा कन्हे विण मंत्रवादो आश्था राजायतेवोलाया तुम्हे कुषको तुम्हे स्थकरो छो तेहवे कह्यो अमे मंत्रवादी छा मंत्रवले भूत एक हित आवे नगर माहिन मे अयौव मृगौ नगर मांहि समावे सिवार पूछे ते भूत तुमारा केहवा के तिवारे ते मांहि पहिलो मंत्रवादी कहे हे राजा माहरो भूत अतिही रूपवंत सौध छ पिण ते भूतने उची दृष्ट सांम्ही जोवे ते मनुष्य मर तेजे भूत देखी नौची जोवे तेहनो रोग जावे निरामय थावे एहवो बचन मंत्रवादीनी सांभली राजाई विसज्या इणरो अमार खपनथो राजाई वौजी मंत्रबादी भूत बोलाव्यो ते कहिवा लागो माहरो भूत अतही कुरूप छ पिण तेहने देखोने न हसे मने मनुष्य ते भूतने स्तवे तेनीरोग हुई अने जे निंदेते मर राजाने पौल विसरज्यो राज बीजी मंत्रवादी वोलाव्यो ते कहे हे राजन् माहरो भूत कुरूप छ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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तिष्ठत: अन्धदा ताभ्या धाटौगताभ्या बहु गोमहिषमानौतं अन्तरालमागें तत्परिवार पुरुषैः केविमहिषो व्यापादितस्तनोजनाय सपरिवारी तो तवखितोकेचित्परिवारपुरुषामद्यानयनार्थ ग्राममध्येगताः महिषव्यापादकैः परस्परमितिविमृष्ट मासाचे विष प्रतिप्यमध्येगतेभ्योदौयततदा बहुगीमारिष भाग पागच्छति सामना इति विमृश्यतै स्तथ वक्तं भवितव्यतावशेन ग्राम मध्ये गतैरपि तथैव सच्चिन्य मद्या विषं प्रचिप्त तवागता: परस्परमिलिताः कूरचित्ताः सर्वेपितौ चौरनायकौतुनिः कटौस्त: तावता सूर्योस्त गतः तौ चौरनायकौ रात्रिभोजन नियमभङ्गभयेन न भुक्तौ अन्धे परस्पर दत्त विषसंयुक्त मद्यमांस भक्षणेन मृताः कुगतिं गताः सोभातरी इहलोके परलोके च सुखोनौ जातौ रात्रिभोजनव्रत ग्रहणेन जिल्बेन्द्रिय दमनात् इति चौरनायक
दृष्टान्तः वरंभ अप्पादन्तो संजमेण तवेणय माहिं परेहिं दमन्तो बन्धणेहिं बहेहिय १६ अथ किश्चितयन् आत्मानं दमयेदित्याह संजमेन च पुन स्तपसा * मया पालादान्तः वयोकती वरं भव्यः अवामा शब्द न देहः आत्मन आधार भूतत्वात् दात: असंयम मार्माविधिहो भव्यः संयमन सप्तदशविधन
सुही होडू असिंलोए परत्यय ॥१५॥ वरं मे अप्या दंतो संजमेण तवेणय। माहं परेहिं दांतो बंधणेहिं पिच जे रुडौ पाडुइदृष्टि साहमुजोवे ते स्तवना कर तथा निन्दा न करे तोही तत्काल रोग बी मुकाई समाधि थाई एहवो वचन राजा सांभली मंत्रवा दौज परितुष्टमान हवो राजाइ ते मान्यो तेणे नगर मांहि धो रोग दूर कौधो सर्वलोकन प्रेमवंत वो तो जे साधु होइ ते बोजा भूतनी परे स्तुति अने निंदा सांभलो राग द्वेष न करे ते पूज्य थाइ तिम साधु पिणवेस रूप थी रहित अंगविभूषा नहीं पिण सर्वजनने कर्मादि कदर्थ थी मूकावे पोते पौण सुख पामे अपरने पिड सुखकारी सार पदार्थ संग्रह करवो जिम भूतनौ परे इति मंत्रवादी दृष्टान्त सम्पूर्णम् । परद्रौनोरंदौरूपपोतानो प्रामा मन द. दमवो प. प्राम. हुवे निचे दु. दोहिलो ते भणी आज दमवोत्र. प्रामाने द. दम्यो चको सु. मुखी थावे घ. हलोकने विष प० पर
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सा... मा भाग
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उ.भाषा
लोकने विषे १५ व• प्रधान भलु मै• मुझने अ. पापणो घामाने द. दम्यो सं• संयमसतरे भेदे करौ त तपस्या वारे भेदे करौ दमवो आत्माने म. रखे पाडुओ भूडो प. प. अनेरे द. दम्यो थको ब. रासडौ प्रमुख बांधणे करौ लाकडौयादिकने वध करीने गाथा १५ १६ मौउ पर कथा लिखिये जिम उपदेस मालामांहि छ तिमज जिम चोर हुतं आपणा कर्मना वस धको जिणे रसना र द्रौवे सखीया हुआ ते दृष्टांत कहे के एक पहाडना गालिमा हिवे भाई चोर पल्लोपतौ तिहां रहे ते सदा चोरि करे नगर गाम मार तिहां विहार करता वरसासाने धुरै साधु पाव्या तिहां कोई साधुनो भक्त श्रावक न थो ते भणो महात्मा चोर पल्लोपतिने मिल्या महात्माने दर्थन पछिपति हरथा प्रणाम करी चोर पूच्चों हे भगवन् तमे अमां लगी विणकारण आव्या तमारी दर्थने घणो पुण्य थाय जे अमारौ भाग्य दशा पूज्य वांद्या तिवारे महात्मा वोल्या जे वरसाने यतीनेहीडवु नकल्प ते भणी वरसाला योग्य वसती रहिवाने द्योती रहीये जोगवहीये तप करौये संयमनिरवाहि तेभणी याला पापी घणी हर्ष पाम्या वली कहे पूज्य आपणे घरे भात पाणी लेन्यो तुमार लीधे अमने घणो लाभ धासौ साधु कहे एकण घरे आहार लोधी न कल्ये ते भणीला भाला भांशी जसौ पने तुमै उपाश्रय दोधी तेहने घर पाहार लेवो शय्यातर घरनो आहार न लेवो उपाश्रय दौधो तेह श्री तुमने मोटो लाभ उपनो जिम सिद्धांत कह छ यतः जोदेइमुणि वराणं उवस्मयं तस्मबहफलं होइ तवसंयमसज्माए पावे सुर नररिडय १ एहवा ऋषिना वचन पन्नीपति भाइ हर्षपाम्या रातिदिवस साधुनी सेवा करे एहवा ऋषोखर तपनियम करतां क्षमादि गुणवहता वर्षाकाल वौती तिवारे साधुव्रतलेवान विषे पल्लीपति बेभाईने हितोपदेश दौधो जरात्रि भोजन न करिवो एहवो नियम देवा मांद्यो तेणे दाक्षिण्या लाज धौ नान को नियम लोधो जतिये रात्रिभोजन नादेखता दोष देखाद्या विहु लोके प्रतिबोध कहे यत: मेधापिपिलिकाहंति यूका कुर्याज्जलोदरं कुरुते मधिकावातं कुष्ठरोगच्च कोलिकं १ कण्टको दारुखणा वितनो तिगलव्यथा व्यंजना
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०४१ मा भाग
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तनिपतित शलविध्यति थोक २ गतिम्म विगले वालेखर भङ्गाय जायत इत्यादयो दृष्टिदोषा सर्वेषां निशभोजने ३ रात्रि जोमसा जहना पेट माकोडी उ.भाषा
जायती बुद्धिजाये जो बोरनी कांटो अथ वावौ जोर दारूबंड कांटो जीमणमाहे आवेतो गले बधा करे व्यंजन सालणा माहे बौछुनौलोरी पावे तो अ०१8 २४ तालुपी बोधे वालकेश जीमणमाई आवेतो स्वरभंग थाई इम अनेक रात्रि भोजन नास गला दौठा दोषजाणवा अने जो रात्रि भोजन करे तो
अवस्य राथ्यो जाइये तिहाँ अंधार अनेक जीवांनो विनाश हुवे एह भणी धर्मवंतने सर्वथा रात्रि भोजन न करवो वली शास्त्रमे कह्यो के यत: उलुक काक मार्जार रनसंवरशकरा अहिलश्चिकगोधाश्च जायते रात्रिभोजनात् १ इम थास्ताक्त प्रकार रात्रिना घणा दोष कहिने वेभायाने नियमने विषे दृढ़चित्तकौना रात्रिभोजनानो नियमलोधी साधु वौहार करी चाल्या जतौनी सेवा करी आपणपुभल मानता के एहवे एक वारतो चोर धाडे गया हुता गाम भाजी गाई भे सढोर घणा प्राण्या ते पाछा आवतां विचाले महिष विणासवा माद्यो तेहनो आमीष केइलेवा लागा केतला एकपुरुष तिहां रह्या केतला एकमद्य लेवाने ग्राम माहि गया हिवे मांसने केलवणहारे एहवोचिंतव्यो अमांसमाहे बिषघातौ गाम माहेला जाणणहारने दौजे एतो मरे आपण भागे घणाढीर आवे ते दुष्टबुद्धितिम भवितव्यतामा वशि धौ गांव माहिले जावणहारे लोभ थी एयी पापवुहिकीवी आपण अईमद्य मांहि विषघातोये आपण नेढो रव हुत आवे एहवो वोमासोवौष घाल्यो जहवे चोर सगला एकठा मौल्या एहवे सूर्य आवस्यो तिवारे ते बेभाई चोरे नायक गुरुनी दौधौ आखडौ रात्रि भोजन नोनेम संभारौ भांजवाना भय थौ अलगौ जइवेठातेन जौम्या जे जौम्या ते विषना प्रयोग थी सार्थसर्वमरण पाम्या
ते सगला कुगति पहता तेवे भाइने गुरुनो दोधौ पाखडौ ऊपरि अतिहौ भाव अपनो गुरु कने नियम लोधी ते जीवता रह्या कुसले घरे आव्या मुखौ *थवा जीव चोरे रसेंद्रौ दमी ते सुखोया थया तिम पोतानो द्रौदम्या सुखी थाई इति चोर कथाः ॥१॥ वरं मे अप्पादतोए उपर सिचानकहाथौनौकथा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० .४१ मा भाग
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उ भाषा
अ०१
K४KAshes
लिखीये के जीम हाथोइ पोतानिई'द्रौई जौतौ तिम जीतौये एक अटवी माहे हाधीयानो यूथ रहेछ ते यूधनो धणी महाविष थी नान्हा जन्म जातहाथौ याने मारे हथिणोने उगारे मनमाहे चिंतवे रखेए मोटा धाये मुझने मारे माहरा यूथनाथथइ वैसे एहवा भय थौ नान्हार कलभविणसे यतः सबं गोवंगविगत्तणामो जगडण विगडणीउय कासौर जतौसौउ पुत्ताय पौयाकण्यकेउ१ कनककेतुराजा आपणा वेटाना सर्व अगोपंगच्छे दावी अनेक प्रकारनौ वेदना कोधौ नाक कान छेदावी पगहाथनी प्रांगुलो छेदौ राजकृष्णा भणी वेटाने वध्यां हुता माहरो राज्य लेसौ इर्ण अभिप्राय जिमतेण राजाई राज्य वांछते जातमात्र विगत कोधा तिम तेणे हाथोद आपणा वालकने विणसे एहवे एकदा कोई हथशौई गर्भधखो त्यारे तिणे हथणोई जायो माहरे गर्भमे जन्महायोनी होस्से एवडु हाधो विणासस्थे तभणी कोणहीक उपाये हथणी गराखवा भणौ पग दूखनो मौसकरौ हलुवेर यूथ थो पाछलो हो किपारे एक दोने प्रावो मोले किवारे वेदोहाडे मिले इम करो तिण हथणोये हाथोयो जन्मो तहवे तौण हथणौयेताप साश्रमनिर्जन जाणौगुप्तथानक वंसजालमांहे हाधौयोजन्मो तेहवे तिण हथणीये तापसाश्रमनिर्जनजाणौ तौमहाथी पिण सुड भरौ वृक्षनौ मूले पाणोनाम तभणो तेतापसासौचानिक नाम दोधी तेवय प्राप्त सवलहाथो धयो केतले काले तेणे हाथो पिताने यूव सहित दौठो मांकने पूछो मायेसकल वसांत क ह्यो ते समाचारपुछो मनमाहिरोस धरो सिंचानके आपण पितानेहणिनेयूषनोधणीधयो सर्वहरणीयाने पाणमनावीपिण मनमाहिंरोस रास्यु जेवलो एवं प्राथमे हयणो फेरप्रसवसो तापसराखस्ये तो मुझने मारस्ये एहवोविचारौ तापसाचमविणास स्यू केतलाएकराख्या वैर कारौथइमौठानौपरे ठामने विणासे ते तापस महादूखोया थया फलफूल लेइन सके तिवारे जाण्या ए कुपावे माहु करे ते भणौ फल लेई राजा श्रेणिक पासे आव्या राजा ने कयो हे राजा न सर्वलक्षणापि सिचानकनाम हाथी ते पाणौनेस्तंभ बंधी जीम अमेसुखे रहौये राजाये आणीयरितंभ वांध्यो तिबारे तेतापसहसिया
हाथ धनपतसिंह बाहादुर का आ• सं० उ०४१ मा भाग
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उ० भाषा
अ०१
२६
3030030
लागा किमवयरकरस्यो है हस्तौ राजा ताहरो बल किहां गयो ते अवौतनो फलपाम्यो एवचनसांभली हाथीने रोस चक्का आलान भांज सांकल सोडता पसाने पूठे धायो तापसना श्राश्रम विद्यास्था सगलाइ तापस हत प्रहत कौधा बली राजा श्रेणिक तिमज पकडावाना उपाय कन्या पिथहाथो वसिनायें तेणे प्रस्तावे तेथे राज्यमौ गोत्रजादेवी तेथे चाबी हाथी समभाव्यं ग्रहो हस्ती राजा गजगतिनाचालणहार सर्वलचण संपूर्ण सांभली रायने स्य माह करके पूर्व भरयंभारो चंपा एहवे नामे नगर वसु नामे विप्र ते महाधनवंत नित्य सहस्र भोजन करे अने वरस प्रतियाग करावे तेहवे जालववारकर राख्यो जे उगरता भात पाणी लेजे घने महीने रूपौयोइमते धरती समारे ब्राह्मण जौमे तिहांखानमंजार आक्ता वारे पिस ते धनदेव श्रावक के तेथे कह्यो पात्र दान दोधे इम लाभ के वसु कहे ब्राह्मण ते पात्र धनदेव कहे पात्र ते साध बसु न माने ते धनदेव साधूने आपणे घरे तेडो भातपांणी पड लाभ्या तेहना पुण्य थौ मरी धनदतनो जीव श्रेणिकने घर नंदा राणौनो पुत्र नन्दखेण हम्रो ते दानफल भोगवेके सुपावनो फल थोडोई अनन्त गुण थया अने तेहने वस्तु घणो हो दोधो पिस अज्ञानना वस थौ सिचानकहा थो थयो ते सम्बन्ध सांभलौ जातौस्मरण उपनो आपदामे भलो विवेक उपनो आपणपे जिहां रायनी हस्तिमाला के तिहां प्रावोउभो रह्यो प्रभाति समे राजायें हाथी भव्यो सांभलीने बधाव्यो अनेक मङ्गलीक करो पाट हस्ती एकदा प्रस्ताव हम विहल कोणिकने विरोधेनासो सिचानिक लेई विशालाइ गया चेडे महाराये राख्या कोणिके विसाला वोटी मनुष्य कोडो मरण पामि पिण विशालाई लेवार नहो नित्य सिंचाकनके चढी रातो वाह दोये कोणिकना कटक मंत्री स पढे अने ३२ सहस्र हाथी सणा मद गलित थाये कोणिक राजा अनेक उपाय कथा पिण हाथो वसिनावे जे कूडे खेठे सर्व ज्ञान करो जाये तिवारी ते उपाय सर्वविफल थाये कोणिकनो कटक दहिनी पर विलोयो तिवार कोषिके को जे कोई हाथोने तेहने मारे तेहने तच सुवर्ण प्रभु तिवारे एकणसुभटहां भयो एकामह' करिस्युं इम
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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________________ * आमा पञ्चेन्द्रियरूपः साधुमार्गे नेतव्यः यथा दुर्षिनौती पखो वृषभोवा उमार्गात् चाजनक न तोदन काठेन मार्मेनीयते तथा यमात्मा पौत्यर्थः उ टौका प.१ पुनर्मनसि एवं चिन्तयेत् अहंपरैः अन्यलोकश्चनैः शालादिभिः च पुनर्बधेलकुच' कुशचपेटा पाजनकादिभिर्दमितो मा भवेयं वदा पचे मम ताडना सर्जनादिभिर्दमनं करिथन्ति तदा मम श्रेयो नास्ति यदुक्त सहकलेवर खेदम चिन्तयन् स्ववशताहि पुनस्तव दुर्लमा बहुतरण सहि * चसि जोवरे परवयेन च तत्र गुणोस्तिते इत्यादि शिक्षया प्रामावशीकर्तश्चः 16 अत्र सिचानक दृष्टान्तः एकस्या अटव्या महत्तरं गजबूवं सति * यूथाधिपतिर्जातं कलभकं विनाशयति अन्धदा तत्र एका करिणौ खगर्भिणी जाता एवं चिन्तयति यदा कथमपि मजवालको जायते तदा प्रमेन * विनाश्यते ततः सा करिणो यूथादपसरति यावता यूथाधिपतिना यूव मवलोक्यते तावता द्वितीये तीये दिवसे सा यूथमध्ये गत्वा मिलति एवं कुर्वत्या तयाऽन्यदा ऋचाश्रमपदं दृष्ट सा तब पागता गुप्त स्थान प्रसूता गजकलभीजातः स गजः कुमारः सह पारामान् सिञ्चति तत * स्तापसैस्तस्य सेचनक इति नाम कृतं स वयःस्थी जातः भ्रमन्त यूथाधिपतिं दृष्ट्वानवोदित बल: समारितवान् स्वयं यूथाधिपतिर्जातः सापसा यम मपि समूल विनाशितधान् मन्मातवाऽन्या करिणी अन्य प्रच्छन मातिष्टतु इतिविचारितवाय ततस्ते कष्टा ऋषयः पुष्फ फलपूर्ण साः बेणिक रान: पाखेंगताः कवितञ्चतैः सर्व लक्षण संपूर्णाहस्ती मेचमक नामा बने तिष्ठति ततः श्रेणिकेम स्वयं तइने गत्वा महता बसेन गृहीत्वा पानीय स पालानस्तम्चे बड़: ऋषिभि स्तवागत्येतिनिर्भसितः गजराजक्ते शौंडीयं गतं प्राप्त त्वयाऽस्मद विनय फलं इति श्रुत्वा स गजः प्रकामं कष्टः स्तनं भंसा तेषां पृष्ठो धावित: ते सर्वेहत प्रहताः कताः प्राप्तोटव्या भग्नाः पुनरपि तैषामाश्रयाः पुनः श्रेणिकः सहज ग्रहवाय गतः पूर्व भवसात देवेन गजष्योक्त वत्सपरेभ्यो दमनात् स्वयं दमन वरमिति सइचः श्रुत्वा स्वयमागत्यालानस्तम्भमाश्रितः वथाहि अस्व स्वयं दमनाहुनी जात: तथा राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. 1 मा भाग
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• टीका
भाषा
ऽन्येषा मपौति पड़िणीयञ्च बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुणा भावी वा जइ वा रहस्से नेव कुज्जा कया इवि १७ अथ पुनर्विनय शिक्षामाह ॥ च * पुनर्बुद्धानां आचार्याणां प्रत्य नोकं शत्रुभावं वाचा वचनेन क्त्वा न कुर्यात् त्वं किं जानासि इत्यादि रूपेण निर्भर्मनां न कुर्यात् अथवा कर्मणा- क्रिया
संस्तारको लानेन चरणादिना सक्दनेन अविनयं न कर्यात् तदपि आवी इति लोकसमक्षं यदिवारहस्यं एकान्त कदापि सुशिष्यो गुरुभिः सह - बहेहिय ॥१६॥ पड़िणीयंच बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुणा। आवीवा जवा रहस्म नेवकुज्जा कयाइवि ॥१७॥ न * कहि वौडो लौधो हाथोने अरथे अनेक पास माद्या कण्टकगत विषमिश्य फलवाणौ त्रिणकोधा पिण ते सर्व विफल नित्य हलविहल उपद्रव कटक ४ माहि कर तिवार तेणेपुरुषेप्रच्छन्न खाई खणावो ते माहि अग्निभरि जपरि सिचत्रणपाथस्या तिणे करी कोई न जाणे एकदिननाल यंत्र राख्या एक दिशि सिह राख्या एक दिसि मनुष्य सौयार रहे एहवे सबकवच हुई हलविहल दोनु भाई सिचानक चढ़ी पूर्ववैर कटकमाहे पाव्या तेण सम हाथी पूरवदिसी
कधी जाणोपगन उपाडे तिवारे अंकुस हाथो ठेले पिण हाथौ न चाले तिवार हल्ल कहे अहो हाथो सिचानक अमने इण वेला तूपिण छ हद्य के तो * कुण भलो थासो एहवो साभलि हाथी चिंतव्यो ए अन्नान थका न जाणे तिवारे वचन संभाव्य अप्पाचेवदर्भअव्वी आपणो आत्मा दमौजे परने दमीये * स्थ घाई अभोमाननावसथो हलविहम भाईने उतारो पोते अग्नि माहे झंप्यो मरोने देवगति पामि हलविहल्ले अतिदुःख कीधी वयरारी महावीरस्वामी
पासे दीक्षा लोधो सुख पाम्या इम आपणो आत्मा दम्या गरज सरे इति सिचानक कथा संपूर्णम् ॥१॥ प०प्रत्यनीक पणी वेरीपणी बु. गुरुनो वा.*
वचने करो गुरुने शिथ इम कहे ते मुझने विपरीत अर्थ कयो अ० अथवा गुरुनो संथारादिक चाप ते कार्ये करौ प्रत्वनीक पणो हुइ प्रगट लोक देखता * ज. जो वा• अथवा र• एकान्त गुरुनो विपरीत पणे मे० नरके क० कठिन बचने करीने सौखामणदेतापिण १७ न० गुरुने समोपे समीपंक्तिन बेसे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा. सा. उ. ४१ मा भान
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स टीका २८
* शत्रु भावं न कुर्यादित्यर्थः शत्रीरपि गुणाग्राह्या दोषावाचं गुरोरपि इति कुमति निरासार्थ कदापि नैव शब्दस्य ग्रहणं १७ न पक्खो नपुरोनेव किच्चाण * पिट्ठो न जुन जरुणाऊरु सयणनीपरिस्मुणे १८ प्रथा सनस्य विधिमाह। विनीत: साधुः पक्षती न निषिदेत् पंक्ति स मावेशात् गुरुणा सहस
मानत्वं स्यात् तस्माहुरोर्वाहुनासह बाहु कृत्वा न तिष्टेत् पुनर्गुरुणां पुरतोऽग्रतोपि न निषोदेत् वन्दनां कुर्वत: पुरुषस्य गुरुणां मुखावलोकनं न स्यात् व याना आचार्याणां पृष्टतापि न स्थातव्य गुरुशिथयोः उभयोरपि मुखादर्शनेन तथा विध रसवत्वाभावः स्थात् न च पुनर्गुरुणां जरुणा जङ्यासह जरुजका र युग्ने त् संघश्येत् अत्यासङ्गात् अविनयः स्यात् पुनः शियो गुरूणां वचन शयनेश व्यायां शयानः सन् आसोनीवान प्रति शृणयात् गुरुभिरक्ते सति शय्यायां स्थिते नैव शिष्येण एवं कुर्म इति न वक्तव्य किन्तु गुरुणा समीपे आगत्य वचन श्रोतव्य इत्यर्थः १८ नेव पत्थियं कुज्जा पक्खपिण्डञ्च सञ्जये पाए पसारिए वावि नचि? गुरुणन्तिए १८ पुनरासन विधिमाह शिष्यः गुराः समीप पर्यस्थिकांनैव कुर्यात् जङ्गो परिपादमीचनं न विधतीत च पुन: पक्षपिण्ड' जानु जङ्कोपरि वस्त्र वेष्टनामिका योगपट्टायिका अथवा बाहुद्दये नैवकाय बधात्मिका गुरुणा पाचन कुर्यात् वा शब्दः पुनरर्थे पुनर्गुरुणा अन्तिके
पक्खो न पुरओ नेव किच्चाण पिढयो। न जजे ऊरणा जर सयणे नो पडिपणे ॥१८॥ नेव पल्हत्वियं कुज्जा
पक्खपिंडव संजए। पाए पसारिए वावि न चिठ्ठ गुरुणतिए ॥१६॥ आयरिएहिं वाहितो तुसिणीओ न कयाइवि । न• गुरूने आगलिन बेसे ने० निषेधार्थ कि. आचार्य ने पि० पूठे न वैसे न० संघट्टी नकर उ० पोतानी साथले करि ऊ गुरुसाथलने स० संथारादिकने * विषे बैठी थको गुरुने उत्तर न दिये १८ ने ने गुमने समोपे वस्त्रनौ पालठीवालीने कुन बैसे प० वाहनो पालठौवालौने पिण नबैसे संयती साधु
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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उन्टौका अ.१
सम्मुखं वा पादौ प्रसार्य न तिष्टेत् २० पायरिएहिं वा हितो तुसियोत्रो न कया ईवि पसायपेहौनियागढी उव चिठे गुरुं सया २० पुन: सुशिष्यः
प्राचार्यगुरुभि ाहत पाइतः सन् तुचोको न भवेत् पत्र कदापि शब्दोग्लानाद्यवस्थाया अपि गुरुभि रामंत्रितः शन्नो सत्या मौनं कृत्वाश्रुतमतं न *कुर्यादित्यर्थः कथं भूतः सुशियः प्रसादप्रेक्षो प्रसाद गुरुणा सेहं प्रेशीतं गोलं यस्वस: प्रसाद प्रेक्षीयतः अन्येषु शिथेषु सत्सु गुरवो मा शब्दयन्ति ततो ४ मम महाग्यमिति मनसि चिन्तयति पुनः कथं भूतः मुशियः नियागट्ठी मोक्षार्थी विनतस्य मोक्षकारणत्वात् सुशियः अनेन विधिनागुरु सदा * उपतिष्ठेत् सेवेत २. पुन विनयशिक्षा वदति पालवन्ते लवन्त वा न निसौइज्ज कयाइवि चाकण पासणं धौरो जो जुत्तं पडिपणे २१ धौरो बुद्धि
मान् यतो यत्नवान् सन् शिथो यहिधेय कार्य गुरुभि रुपदिष्टं तत्कार्य प्रतिशृणुयात् अङ्गी कुर्यात् पूर्व गुरौ पालपति सति ईषत् वदति सति अथवा * गुरो लपति सति वारं २ कथयति सति सुशिष्यो न निषौदेत् गुरुणा कार्ये उक्त सति प्रासनं स्वस्थानन्तजाधौरोधैर्यवान् यत्नेन एकाग्रचित्तेन यत् * गुरुणा कार्य उक्त भवेत् सत्कार्य अङ्गी कुर्यात् इत्यर्थः २१ पासणगी न पुच्छ जा नेवसिज्जा गयो कया पागम्मु कडुओ सन्तो पुच्छिज्जा पचली उडो २२ आसने गतः स्वस्थाने स्थित एव सुशिष्यो गुरुं प्रति सूत्रार्थादिकं न पृच्छेत् तथा पुन: थिजागतो रोगाद्यपद्रवं विना कदापि शयान:
पसाय पेही नियागट्ठी उवचिट्ठ गुरुसया ॥२०॥ पालवंते लवंतेवा ननिसिज्ज कयाइवि। चजण पासणं धीरो *प. पमलाबा पसारिने पिवन वैसेवा. अथवा न.मनरहे गुरुने १८ समीपे पा. गुरुने एकने बा• वीलव्यो थकी तु. पण बोल्यो न रहे क. कृ कदाचित् रोगावस्थाइ पणि प. प्रसाद कीधी मुझ ऊपर प. उ. इम जाणे नि० मोचार्थी थकी इम रहे गु- गुरुने समीपे स. सदा कालने २. पा. * गुरुने एकवार बोलायो अथवा स. वारंवार वोलाव्या थको न येसो रहे क. कदाचित् व्याख्याना दिव्याकुल थयो च• मुकौने पा• पासण धौ• बुद्धि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ.४१ मा भाग
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उ.टोका
सूबादिक न पच्छत् तर्हि किं कुर्यादित्याहगुरो समोपं आगस्य उत्कुटको मुक्तासनः कारणतः पाद पुच्छनादिस्थ: सन् शान्ती वा प्राचसिर्वहाचलिः * सूत्रार्थादिकं पृच्छत् २२ एवं विणय जुत्तम्म सुत्तं अस्थञ्च तदुभयं पुच्छमाणमसौ सम्म वा गरिजाजहासय २३ पाचार्य एवं अमुना प्रकारण
विनययुक्तस्य शिश्वस्य सूत्र अर्थश्च तत् उभयं सूत्रार्थ पृच्छमानस्व उभयं पूर्वोक्त सूत्रार्थ व्याकुर्यात् वदेत् विनयवत: शिश्च स्वाग्रे वा असं गुरु पर म्परातो यथानातं सूत्रार्थ गुरुः कथयेत् इत्यर्थः २३ मुसं परिहर भिक्खू नयउ हारिणिं वए भासादीसं परिहर मायश्च वजए सया २४ भिक्षः
जओ जुत्त पडिमाणे ॥२१॥ पासणगयो नपुच्छेज्जा नेवसेज्जागो कयाइवि। पागम्म बडुओ संतो पुच्छज्जा पंजली उडो ॥२२॥ एवं विणय जुत्तस्म सुत्त पत्य च तदुभयं । पुच्छमाणस्म सीसम्म वागरेज जहा सुयं ॥२३॥
मुसं परिहरे भिक्खू नय ओहारिणि वए। भासा दोसं परिहरे मायंच वज्जए सया ॥२४॥ नलवेज पुट्टो सावन *वंत ज. जे कोई गुरु प्रादेश दीये ते पादर पर थको ५० करे २१ श्रा० पोताने आसण बैठी न० न पूछे गुरुने सूवादिक काई एक ने० संथारे बेठी
म पूछे कदाचित् बहु अतिपणो प्रा. गुरुनेद समीपे भावीने उ. अकडु थयो छ पु. पूरे सूत्रादिक पं० बेहाथ जोडीने २२ ए. एगी पर वि. विनयवंत * शिष्यने सु० सूत्र अने प• अर्थ त० तेबिहे पु० सूत्रार्थ पूछता धका सि. विनीतशिथने वा० सूत्रार्थ कह ज• जिम गुरु समीपे साभस्या तो तिम२३
वलौ विनीत शिथने वचन विनय कहे हे मु. मृषा प० वर्जे भि. साधु न. निचे करौ भाषा वा. न बोले भा० भाषामा दो• दोष ५० परिहरे मा. मावा च शब्द धकी कोधादिक व० वर्जे स. सदार २४ न० वोले पु० पूच्ची थको सा. सावध न. निरर्थक प्रयोजन विना नबोले पर नो मर्म न
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
भागा
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माधुर्मूषा भाषा परिहरेत् च पुनः ओहारिणिं अवधारिणी निश्चयामिका एवं एवंति रूपा भाषा न ब्रुवौत भाषादीषं सावधानुमादनादिकं परि
हरेत् च पुनर्माया वर्जयेत् एकस्या मायायाग्रहणेन अन्येषामपि क्रोधमान लोभादौना ग्रहण सर्वान् कषायान् परिवर्जयेत् कषायाणां वर्जनात् * मृषा भाषायाः वर्जनं स्थादेव कारणाभावे कार्याभावः २४ नलवेज पुढो सावज्जन निरहन मन्मयं अप्पणट्ठा परडा वा उभयस्मन्तरेण वा २५ पुनः
साधु पृष्टः सन् सावद्यस पापबचनं नलपेत् न भाषेत निरर्थकं वचनञ्च न बालपेत् न च मर्मक मर्मरूपं साधुन ब्रूयात् मियतेऽनेनेति मर्म लोक राजविरुहादिक अथवा मर्मणि गच्छतौति मर्मगं यस्मिन् कर्मणि प्रकटौभूत सति मनुष्यस्य मरणमेवस्यात् तदपिवाक्यं प्रात्मार्थ वाऽथ वा परार्थ वाऽथवा अभयार्थ अथवा अन्तरेण प्रयोजनं विनापि च न वदेत् इत्यर्थ: २५ स्वगत दोषत्यागं उक्त्वा उपाधि कतदोषत्यागमाह समरेसु अगारेसु सन्धीसुय महापहे एगीए गथिए सिद्धिनेव चिट्ठन संलवे २६ एतेष स्थानेष एकः एकाको सन् साधुरेकाकिन्या स्त्रिया साईन तिष्ठेत् न च एकाकी साधुरैकया कामिन्या सहसं लपेत् तानि कानि स्थानानि समरेषु गर्दभकुटीरेषु लोहकारशालासु वा तथाऽगारेषु शून्यग्रहेषु तथा सन्धिषु गृहद्दया सरालेष तथा महापथेषु राजमार्गेषु अत्र एकस्याग्रहणं अत्यन्त दुष्टत्व प्रतिपादनार्थ२६ जं मे बहाण सासन्ति सौएण फरमेण वा ममलामुक्तिप हाए पयोतं पडिस्मणे २७ अथ गुरुभिः शिक्षार्थ शिष्यमाणः शिष्यः किं कुर्यादित्याह बुहा गुरवः यत् भे नमसौतेन सौतलवचनेन वाऽथवा परुर्षण
ननिरहुं नमम्मयं । अप्पणट्ठा परछावा उभयस्मत रेणवा ॥२५॥ समरेसु अगारेसु संधीसुअ महापह। एगोएगि * वोले अ. आपणा आमा अर्थे वा अथवा प० पर प्रात्माने अर्थे उ. अर्थ विना निरर्थक भने परनी म न बोले २५ स० लोहार प्रमुखनी 8 शालाने विष पसना घरने विषे संवैधर विचे पातक'हरते संधि हवे म. राजमार्गने विष ए. एकली साध ए. एकला स्त्रीसंघात ने न
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० उ०४१ मा भाग
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का
कठोरवचनेन अनुशासति शिक्षा प्रयच्छन्ति तत् ममताभुत्ति ममलाभाय अप्राप्तवस्तु प्राप्तये भविश्थति इति प्रेक्षया इति बुधा प्रयतः प्रयत्नवान् सन् थियो गुरुवचनं प्रतिशृणुयात् अङ्गी कुर्यात् न च गुरुती कठोरवाक्यात् क्रोधं कुर्यात् २७ अणसासणभावायं दुक्कडस्मय चोयणं हियन्त मबईपत्री
वेसं होइ असाहुणे २८ पबत्ति प्रज्ञावान् प्रानः शिवः उपाये मृदुपरुषणादौ भवं औपायं गुरुशिक्षावाक्यं तथा च पुनः दुःकतस्य प्रेरणं हा किमिदं * दुष्टं कर्मऊतं इत्यादिरूपं तवचनं हितं इहलोक परलोक सुखदं मनुते असाहुणोऽसाधोः कुशिष्यस्य तत् गुरूणां परुषवाक्यं देश्य देषोत्यादकं भवति * २८ इममेवार्थ पुनदृढौ करोति । हिश्र विगय भया वड्डाफरुसंपि अणुसासणं वेसत होइ मूढाणं खतिसोहि करं पयं २८ विगतभयाः सप्तभय रहिताः बुद्धाः ज्ञाततत्त्वा एतादृशाः शिष्याः आचार्य कृत अनुशासनं परुषं अपि कठोरमपि हितं मन्यते मूढाना मूर्खाणा कुशिष्याणां क्षान्ति क्षमाकरं शोधि
थिए सद्धिं नेव चिठ्ठ न संलवे ॥२६॥ जमे बताण सासंति सौएण फर सेणवा । ममलाभोत्ति पहाए पयोत्त पड़िस्मो ॥२७॥ अणुसासण मोवायं दक्वडम्मय चोयणं । हियं तं मन्नई पन्नोवसंहोडू असाहुणो ॥२८॥ हियंविगय
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ. सं. उ.४१ मा भाग
सूब
भाषा
र रहे अभी न० बोले नही २६ जं. जेम० मुझने गुरु अ. ज्ञानादि आचार सौखवे सौ. सकोमल वचने करी वा० अथवा क० कठिन बचने करो शौख
दौये छ म. माहरे लाभने अर्थे दौड़ के पे० एहवी बुद्धि करो पक्ष आदर पर थको प० गुरुनी शौख प्रमाण करे २७ अ० गुरुनी सीखमो० सुकुमाल * कठिन भाषाये ऊपाये करो दु. भंडी कांइक प्राचया पको चो० तेहने सोखनो देवो चो० प्रेरवी हि हितकारी त० तेगुरुनी सौख म. माने प० प्रज्ञा
बंत वेदेष हो थाइ अ० साधु अविनीत मूर्खने सोख देतां २८ हि हितकारी माने विजे साधु सात भय रहित हुद् वु० तत्वना जाण हुइ फ०
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उ० टीका
अ. १
३४
सूत्र
भाषा
करं आत्मशडे रुत्पादक पुनः पदं ज्ञानादिस्थानं एतादृशं गुरुणं शिक्षावचनं द्वेष्यं द्वेषहेतुकं भवति २८ असणे उवचिट्ठेना अणचे अकुथिरे अण हाई निरुट्ठाई मिसी द्रव्जय कुकर -२० सुशिष्यः एतादृशे आसने उपतिष्टेत् कोदृशे आसने तदाह अनुचे द्रव्य ण भावेन अनु गुरारासनात् होने पुनः अकुचे चौत्कारादि शब्दरहिते तादृशस्य आसनस्य शृङ्गाराङ्गत्वात् पुनः स्थिरे आसने समपादे तिष्ठेत् अथ स साधुरौदृशे आसने कोदृशः सन् तिष्ठे तदाह अपत्यायो कार्य सत्यपि अल्प मुत्तिष्ठतीत्येवं शौलेोऽल्पोत्थायौ मुहर्मुह रासनात्र उत्तिष्ठेत् पुनः कौथो निरुत्थायी निमित्तं विनानोत्तिष्ठ त् स्थिरं तिष्ठेत् इत्यर्थः पुनः पुनरुत्थान शीलस्य साधुत्वं न भवेत् पुनः स साधुकोदृशो भवेत् अल्प कुक्कचो भवेत् हस्तपादशिरः प्रमुख शरीरावयवान् अधुन्वानो निश्चलस्तिष्ठेत् इत्यर्थः ३० चरणे विनयरूपामेषग्रामाह कालेण शिक्वमे भिक्खू कालेण्य परिकमे अकालच विवज्जित्ता कालेकालं समा भया बुद्दा फरुसंपि अणुसासणं । वेसंतं होइ मूढाणं खंति सोहि करं पयं ॥२६॥ असणे. उवचिठ्ठ ज्जा अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुठ्ठाई निरुठ्ठाई निसीएज्ज पकुक्कुए ॥ ३० ॥ काले निक्खमे भिक्खू कालेण्य पडिक्कमे । अकालंच कठिन पिण अ० सीख देतां हितकारी माने वे द्वेष कारणौ तं० तेसौख हो० हुइ मूर्खने खं० सोख चमा अने सोममने निर्मलकारी प० ज्ञानादि गुरुनो स्थानक २९ हि० अ० पाट प्रमुख आसपने विषे से अ० गुरुना असण अ० शब्द अणथा ते वि० निश्चल आसणने विषे बेसे अ० प्रयोजने पिण थोडो उठे नि० प्रयोजन विना न उठे न बैसे अ० अणहलावतो थको हाथ प्रमुख ३० हिवे विनित शिष्यने एषणासमिति कहे के का• कालवेलाइ भिक्षाने अर्थे नि० जाइ गोचरौ भि० साधु का कालवेलाइ करोप० गोचरी थी पाको वले बोजी पोरसीद् उपाश्रयभावे च पुनः वलि प्राकालव वर्णीने
***********************************X**X**X**X**X**X********
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ०टोका
अ०१
३५
सूत्र
भाषा
MESSENGER
यरे ३१ वाले प्रस्तावे भिक्षुः साधुनिक्रमेत् भिवार्थं निर्गच्छेत् च पुनः काते एव प्रतिक्रमेत् श्राहारं गृहीत्वा स्वस्थानाय पवादा गच्छेत् कालं अप्रस्ताव विशेषेण वर्जयित्वा क्रियाया असमयन्त्या काले क्रिया योग्य प्रस्तावे एव कालं तत्समय योग्य क्रियासमूहं समाचरेत् कुर्यात् ३२ परिवाडीए न चिट्टेला भिक्यूइते सणश्चरे परिरुवेणएसित्ता मियंकाले भक्वए ३१ भिक्षुः साधु परिपाव्या गृहस्थ गृहे जीमन वारादौ भोजनस्थित पुरुषाणां पंक्ती न तिष्ठेत् तत्र भिचोः प्रप्रौतिशङ्कादि दोष सम्भवात् पुनर्भिक्षुः साधुः दत्ते दाने गृहस्थेन दीयमाने आहारदाने एषणाचरेत् श्राहारदोष विलो कनं कुर्यात् न तु जालोय न स दोषाहारं गृहीयात् तत् शुद्धं आहारं प्रतिरूपेण सुविहित प्राचीन मुनीनां रूपेण यथा पूर्वाचार्यस्यविरकल्प : साधुभिः पात्रे आहारं निर्दोषं गृहीतं तथा गृहीत्वा तदपि आहारं मितं स्तोक' व कुचि पूर्त्तिमात्र गृहीतव्य' अमितभोजने बहुदोष सम्भवात् एवं विधिनाहार आनीय कालेन नमस्कारपूर्वक प्रत्याख्यान पारण समयेन सिद्धान्तोक्त विधिना भचयेत् आहारं कुर्यात् इत्यर्थः ३२ पुनर्गृहस्थ गृहे
विवज्जेत्ता काले कालं समायरे ॥३१॥ परिवाडिए न चिठ्ठे व्जा भिक्तू दत्त सणंचरे । पडिरुवेण एसित्ता मियं का लेग भक्खर ॥३२॥ नाइट्र मणासन्ने नन्नेसिं चक्खुफास । एगो चिठ्ठेज्ज भत्तठ्ठा लंघित्ता तं नइक्कमे ॥३३॥ नाइ का० क्रियाने अवसरे का० जे अनुष्ठान जेणिवे लाइ करिवो के स० समाचार ३१ प० जौमवा पांत बैठी हुइ तिहांजभो न रहे ते भिक्षुने अर्थे भि० साधु प० दातारनो दोधु' ए० निर्दोष आहार लेवानी एषणाने विषे च० विचर प० साधने बेसे प० भिचागवेषिने मि० मात्रा का प्रस्तावे सिता न्तोक्तविध जिम छ' तिम भ० जिमे ३२ ना० भिचाचर ऊभो होइ तिहां अतिदूर जमान रहे अतिठू कडो कभी न रहे न० भिक्षारोनी तथा ग्टहस्य
8
राय धनपतसिंह बाहादुर
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उ टीका
8 आहारग्रहण विधिमाह नाइ दूरमणा सबै नबे सिञ्जक्यु फासी एगो चिटेज भत्तट्ठा लकित्तातं न इकमे ३३ साधुहस्थ गृहनअति दूरन्तिष्ठत् पर्व समागत अपर भिवयां निर्गमननिरोधसम्भवात् आहार दूषणस्य अदर्शनाच्च पुनस्तथा अनासबस्तिष्ठेत् आसबेन तिष्ठेत् अपर भिक्षूणां अप्रौति सम्भ
वात् पुनरन्थेषां भिक्षुका पेक्षया गृहस्थानां चचूःस्पर्शतः चक्षुः स्पर्शन तिहत् यथा अन्य भिक्षवः गृहस्थस्य चक्षुः स्प” तिष्ठन्ति तथा न तिष्ठेत् * इत्यर्थः कवं तिष्ठेत् तदाह एकान्त प्रदेशे यथा गृहस्थः एवं न जानाति अयं साधुरन्धभिक्षुनिंगमनं इच्छति एवं एकः पुरा आगत भिक्षु को परि
देष रहिती भक्तार्थ आहारार्थ साधुः पूर्वमागतं भिक्षु लजियित्वा न अतिक्रमेत् उल्लंघ्यन प्रविशेत् इत्यर्थः ३३ नाइ उच्चैव नौए वा नासने नाइ * दूरओ फासुयं परकडं पिण्ड' पडिगाहेज सञ्जए ३४ पुनराहारग्रहण विधिमाह अति उच्चैः स्थाने मालादौ आहारं न गृहौयात् आहारस्य पाहा *रदातुर्वा पतन सम्भवात् च पुन नोचैः स्थाने मालादी आहारं न एलीयात् तत्र च एषणाया असम्भवात् दायकस्य कष्टादिसम्भवाहा अथवाऽति * उच्च :सरसाहारलः अहं लब्धिमान् इत्यभिमान रहित: आहार लब्धेः अहं दौनोस्मि मह्यं कोपि न ददातौति दौन बुद्धिरहितः इति भाव उच्चत्व * नोचत्व रहितः न आसनो न प्रतिनिकटवर्ती यथायोग्यस्थानेस्थितः प्रासुकं निर्दषणं नवकोटिविशुद्ध परततं गृहस्न आत्मार्थ कृतं पिण्डं पाहारं * * संयतो जितेन्द्रियः साधुः प्रतिगृतीयात् ३४ अप्पपाणप्य बौयंमि पडिच्छिन्नमि संबुडे समयं सञ्जए भुञ्ज जयं अप्परिसाडियं ३५ अधा हारकरण * उच्चव नीएवा नासन्ने नाइदरओ। फासुयं परकडं पिडं पडिगाईज्ज संजए ॥३४॥ अप्यपाणप्यवीयंमि पडिकन्न मि
नौ च दृष्टगोचर उभो न रहे ए. रागद्देष रहित हुइ चि. उभी रहे भ• अन्नपाणौ प्रमुखने अर्धे लं भिक्षारीने उलंघौने न० प्रवेश न करे ३३ ना. * दातारथी उचो रहौने तथा नौची उभी रहोने भिक्षा नल्ये ना. तुकडी उभी रहोने भिक्षा न ल्ये अतिदूर उभी रहौने भिक्षा न ये का जिव रहित
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सा.उ.४१ मा भाग
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घटोका
स्थानमाह संयत: साधुरतादृशे स्थाने समकं साधुभिः समञ्जयं यतमानः सन्सुरमुर चवर कस२ कुरड कुरडादि शब्द अकुर्वाण: अपरिसाटितं सिस्थ * पातने न रहितं आहारं भुञ्जोत कोदृशे स्थाने अल्पप्राणे अल्पा: अविद्यमानाःप्राणायत्र तत् अल्पप्राणं तस्मिन् वींद्रियादिजीवरहित अवस्थित प्राग *न्तुक प्राण रहिते पुनः कोदृशे स्थाने अल्पबौजे बीजग्रहणोपलक्षणेन सर्वै केन्द्रियरहिते पुन: कोदृशे प्रतिच्छन्ने सम्पातिमसत्व जीवरक्षार्थ संहते पार्वत: कटकुट्यादिना छादिते अन्यथारंकादि दौनयाचकादौनां याचने दानाभावे निन्दाया उत्पत्ते : प्रदेष सम्भवात् दाने सति पुण्यबन्धसद्भावात् तस्माबिरवद्यस्थाने आहारं कुर्यात् ३५ अधा हारकरणप्रस्तावे वाक्यतनमाह सुकडत्ति सुपक्कित्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे सुनिडिए सुलवित्ति सावज्जं वज्जए मुणो ३६ मुनिरेतादृशं सावद्य सपापं वचनं वर्जयेत् न ब्रुवौत एतादृशं कौदृशं तदाह मुक्ततं इदं अन्नादि पुनः सुपक्क वृतपूरादि सूच्छिन्न मिदं शाकादि सुहृतं कारलकादिस्य कटकत्वं सम्यक् हृतं अथवा वटकादिना मगदसौरककंसारादौनां घृतं सुष्टु हतं तथा पुनर्मतं मुद्दा दिक सुष्टुतं मृतं एतत् आहारं सम्यग निष्टां प्राप्त सरसत्व प्राप्त पुन रिदं आहारं मुलष्टं अखण्डोज्वलतण्डुल हरित मुहादिनिः पन्द्र मेतत् प्रधान * भोजनं इत्यादिकं वचनं वर्जयेत् निरवद्य तु भाषेत यथा क्रमात् मुक्ततं धर्मध्यानादि सुपक्क वचनविज्ञानादि सुष्टुच्छिन्नं स्नेहपाशादि सुष्टुहृतं
संबुडे समयं संजए मुंजे जयं अप्परि साडियं ॥३५॥ मुकड़ेत्ति सुपक्कत्ति सुच्छिन्न सुहडे मडे। सुनिठिए मुलछेत्ति * अचित्त प० परने अर्थनीपायो हुवे पि० आहारने अर्थे प० ग्रहण करे सं० संयतीय ३४ वे इन्द्रौव्यादिक जौव रहित अ० बीजरहित एहवा स्थानकने विषे प० ऊपर ढाक्यो हुइ स. बिहु पासे कवाडादिके करी ढांक्या हुवे सं० आपणा आचार सरोषा आचारवंत बोजा साधु सहित सं० संजती जौमे न. जयणाई अ० अणनांषतो जोमे ३५ भलो कोधोए अबादिक सु० ए भलापकायाए घेवरादि सु० भलो छेद्याशाक पत्रादिक सु० भलो हस्त्रो कपणनो धन
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०४१ मा भाग
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हटौका
* मिथ्यावादि सुष्मृतं पण्डितमरणेन सुनिष्टितं साध्वाचार सुलष्टं व्रतग्रहणं इत्यादि निरवद्य वचनं ब्रूयादित्यर्थः ३६ रमए पण्डिए सासं हयं भह विवाहए वालं समइ सासम्तो गलियस्मं व वाहए ३७ अब गुरुरिति कर्टपदं अनुक्तं अपि गृहौतव्य गुरुः पण्डितान् विनीतशिथान् शासत् शिथा।
ददत् पाठयन् रमते रतिमान् स्यात् प्रसबो भवेदित्यर्थः कइव वाहक इव अखवारः भद्र सुशिक्षित हयं वाहयन् खेलयन् रमते हर्षिती भवेत् बालं मूर्ख शिवं शासत् आचार्यः थाम्यति श्रमं प्राप्नोति कं कइव मस्य खं दुनिीत तुरगं वाहक इव अखवार इव यवाऽववारी दुर्विनौत तुरग वाहयन् * खेदं प्राप्नोति तथा कुशिश्च पाठयन् गुरुर्दुखितो भवेत् इत्यर्थः ३७ खुड्ड्यामेचवेडामे अक्कोसाय बहायमे कलाण मणसासन्तो पावदिद्वित्ति मबई : * ३८ दुर्वि नौत शिवः कल्याचं इहलोकहितं अनुशासतं शिक्षयन्तं प्राचार्य पापदृष्टि रस्येति पापट्टष्टिः अयमाचार्यः पापदृष्टि रस्ति पापकारौ वर्तते
मे मह्यं खुड्डकान् टक्करान् ददाति मे मह्यंञ्चपेटान् ददाति मे मच्चं आक्रोशान् दुर्वचनानि श्रावयति पुनर्भमा बधान कं बादिधातान् ददाति अपरं * सावज वज्जए मुणी ॥३६॥ रमए पंडिए सासं इयं भई ववाहए। बाल समद सासंतो गलियमंव वाहए ॥३०॥
म० भलो मूयो चाडोत्री सु० भलानीपना मोदकादिक सु० स्वादसु० भलाशा भनिक मोदक अखंड सा. सावद्य एहवी भाषा वा वर्जे मु. साधु ३६ हिवे निरवद्य भाषा वोले वोजे प्रकारे अर्थ कहे के सु० भलो पाको ब्रह्मचर्बएणे फाल्यो सु बि. भलो नेह छेद्यो सु ह. भलो हयं अलगो कौधी
आपणी प्रात्मापणे वजन धो मडे० भले मंडित मरणेए मूषोसुनि० भलो पाल्यो इण साधुनी आचारसु ल० भली साधुनी समाचारोएणे पाराधि एहवी भाषा साधु बोले सा० सावध भाषा व० वर्जे मु० साधु ३६ र० रतिमाने साता माने प० गुरु सा० शौखामण देता विनित शिष्यने ह• विनीत घोडानी परे वा शिखाणहारनी पर गुरु शौख दौवे तिवारी अवनौत जेहवो जाणे ते कहे के व० मूर्खने स० खेद पामे सा० सौख देता ग० गलियार अखना
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ० ४१ मा भाग
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समोहितं किमपि न दृश्यते आचार्यः पापः केवलं मद्य टक्करादौन् एव ददाति इति मन्यते न तु हितकारकं आचार्य मनुते ३८ अथ पुनर्विनौत दुपिनोतयोर्वर्थनमाह पुत्तोमे भायनाइत्ति साहकनाण मबई पावदिवौउ अप्पाणं सासंदासित्ति भन्नई ३८ साचः सुशिश्चः कल्याण हितकारकं गुरु गुरु वचनं वा कल्याणकारकं मनुते अयमभिप्रायः यदा सुशिश्थं प्रति प्राचार्यो गुरुः अनुशास्ति तदा सुशियो मनसि एवं जानाति प्राचार्योमै मम पुत्रस्य इव भ्रातुरिव जातः स्वजनस्थ स्वस्य इव अनुशास्ति स्वकीयस्व बुड्याम मच पाठयति पापदृष्टिः कुशिष्यः गुरुणा शास्वमानं प्रामानं दासमिव मनुते अयं मां दास मिव तर्जयति इति मनसि दुःखितो भवति आचार्य निन्दति इत्यर्थः ३८ न कोवए पायरियं अप्पाणं पिनकोवए बुद्धोवघाई . खड्यामे चवेडामे अक्कोसाय वहाय मे । कल्लाण मणुसासंतो पाव दिछित्ति मन्बई ।३८। पुत्तो मे भायनाइत्ति साहु
कल्लाण मन्नई । पावदिहौउ अप्पाणं सासं दासत्ति मन्नई।३। न कोवए आयरियं अप्पाणं पिनकोवए। बुद्धो वधाई
राम धनपतसिंह वालादुर का आ. सं..४१ मा भाग
भागा
वा० शोखामणहारनी परे ३७ टाकरमार के गुरु मे० मुझने च० पेटामार के मे मुझने अ० गालि दौये इके मुझने व० दंडादिके करी व छ मे० मुझने जिम कोटवाल वंदौवान ने मार तिम मार क• हितकारी शौख देता पा. ए गुरु कोटवाल सरिखी पापदृष्टि के ३८ पु० पुत्रनी परे मे. मुझने भा० भाइनो परे ना. नानौलानो परे गुरु मुझने हित कर सा. साधु विनित शिष्य र ते क हितकारी म० माने सौख पा• पापदृष्टी अविनीत प. प्रामा हुइ ते सा. सौखदेतां दा० दासनी पर करी माने जिम दासने शौखा तिमए गुरुने सौख दीये एहवो म. माने ३८ जिम गुरु न कोपे तिम कहे के न० न कोपर्व आ. आचार्य ने गुरुने प. पापणी आत्माने पिण म. नकोपे ७० गुरुनी घातनी करणहार मन हुवे न न हुवे तो ता.
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भाषा
न सिया न सिया तोत्तग वेसए ४. विनीत यिष्यः आचार्य न कोपयेत् तथाऽपरं अपि न कोपयेत् तथा आत्मानं अपि न कोपयेत् पुनः शिष्यो बहोपघातौ आचार्यस्योपघातकारौ न स्यात् युग प्रधानाचार्योपधाति कुशिष्यवन स्यात् तहष्टान्तः कोप्याचार्योऽष्टविध गरी सम्पत् समन्वितो बहुश्रुतः
नसिया निसिया तोत्त गवेसए।४। आयरियं कुवियं नच्चापत्तिएण पसायए। विज्भवज्ज पंजलि उडो वएज्ज न गुरुनी छिद्र ग० गवेषिये ४० बुद्दोव. कदापि रौस उपजे हुते घातन करिवो जिम यूग प्रधानाचार्य नु घात कुशिष्येनौपजाव्यो ते किम कुणएक प्राचार्य * बहु श्रुतमहाशांत प्रकृतिना धणो केतले काले गुरुनेवढपण आव्या जंघावलिखीणथा ते हुँते एकण ग्रामे रया जे भणी सिद्धान्तम इम कयो के बत: जिय * कोहमाण माया जियलोभं छु हंस हे जोधिरा वुढ़ावासे विटिया खवेति चिरसंचयं कम्मं १ क्रोध मांन माया लोभ अनें भूख नोखा जेणे जीती है जे धोर
सत्त्ववंत के ते शरोरने असमर्थपणे एकठामे चो मासे रह्या हुता चिरकालनो पापखपावि तथा पञ्चसमियाति गुत्ता उज्जत्ता संजमतवचरण वाससयंपि वसंता मुणिणा पाराहगाभणिया पंञ्चसमन्ति करिसमिता त्रिहु गुप्ते करी गुप्ता तव संयमने विषे उद्यमवंत के जीवनौरक्षानो कर्णहार वारभेदे तप अने चर्णसतरो कर्णसत्तरी अने माहाव्रत तथा पडिलेहणा प्रमार्जनादि साधु क्रियाने विषे एतलाने उद्यमवंत एहवाजे साधु होई तेवरसनासत रहितो क्षेत्रे आराधिक कहिया तीर्थकरदेवनी प्राज्ञाए चालतां तेरहे लिगार दोष नही गुरुप्रतिश्रावक आविकह्यो भगवन् हे श्रद्धाविहार करवे अक्षम हयातुमे पिए खेवि रहो चारित्र पाराधी तेगुरु तिहां रहिवे थके तेहवो गुरुनो विनय वेया वच्चकरता केतले दीवसे गये हुते शिष्यसोभा उपार्जी तेहनौ प्रसंसागुरु वाषकन्हे कहे एहवे एक शिष्य गुरुने कहे अम्हे स्यूं बलो वेयावच्चकरो न जाणं एवं वरसे अमे वेवावञ्चकरिस्य सर्व साधु कहे वेया वच्चदुःकरके एहाथोनी पाखर हाथो हो उपाडे तेहोज शिष्य बोवे यावच्च वाइ अपर शिव अभिमान वसे कहे अम्हे करिस्य जसनौ वांछाइ पिणजस ते सरज्यलाभे ते केतले
राय धन पतसिंह बाहादुर का श्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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वा
ON. .70
है प्रवत्यापि शान्तः चौरजहाबल: क्वापि ग्राम स्थितः तत्र कुशिष्याः सततं वयात्त्यविधिविधानात् भग्नपरिणामैगुरुमारणार्थ सदोषधादिचिन्ता १० टीका अ.१
* कारकाणामपि श्रावका पुर इति प्रवदन्ति गुरवो अनसनं चिकीर्षत् कि मप्यौ षधादिकं न गृहन्ति इत्युक्ता अन्तप्रान्त माहारं आनौय गुरवे - प्रयच्छन्ति वदन्ति नित्याऽवस्थायित्वे नामनां गृहस्था अतिविशिष्टं न किञ्चिद्यच्छन्ति तत: बाइः संलेखनास्वरूपं गुरुवः पृष्टाः शियाणा कूटम
प्रीतिं च ज्ञात्वा कृतमे वाऽनशनन्तै रिति एव माचार्योपघातौ न स्यादि तिभावःः । पुनः तोबगवेषकोपि न स्यात् यथा दुर्विनौत तुरगः प्राजन
क गवेषको भवेत् तथा मुथियो द्रव्यतो भावतच तोत्रस्य प्राजनकस्य गवेषको न भवेत् द्रव्यतीनं चपेटादि भावतोत्रं व्यधाकारिवचन जेय ४० * आयारियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए विवेज पञ्जलिउडी वइज्जन पुणोति य ४१ सुशिष्य आचार्य गुरु' पत्तिएण प्रौति समुत्पादकेन वचनेन ४ प्रसादयेत् प्रसन्नं कुर्यात् किं कृत्वा कुपितं ज्ञात्वा गुरु सक्रोधं ज्ञात्वा विनीत शिष्यः प्राञ्जलिपुट' सन् क्रुखं आचार्य विध्यापयेत् शान्तं कुर्यात् क्रुद्धस्य
काले सर्व शिथचोमासे अलगा रह्या ते अभिमानी सोथ विनयवेयावच्च गोचरी पाणी थंडले मात्री संधारादिक वार२ मांगता मनउभग्यो हौये दुष्ट भाषा
* बुद्धि चितवी गुरुनो आउखो किमही पूरो थास्थे मरतो दौमे नहीं हतो वडा कलेशमा आवी पद्यो गुरु कदौ मरस्य एहवो चिंतवता इंतां तेणे ग्राम
श्रावक विखासि ओषधादिकमी तुलनाक रे के इम कहि निरसि भातपाणी सुगुरुकने त्यावे निर्स असनादिक देखीने कई आगामका भगवन् श्रावक ती पत्थ पाणी पोषध नही वहिरावे लेणहार न थाके पिणदेणहार तो थाके अने जिहां एक स्थानक घणादि न वहिरता श्रावकने वालहा न लागे एवच न शिथे गुरुने कह्या हिवे एहवा जे विश्वासी साध श्रावकने घर धौ भात पाणी लेतां तेन कल्पे ते किम तिवारे श्रावके चिंतव्यो चाली गुरु समीपे जे पूछे हे भगवन् तुमारी कुण समय जे अणल्यो तुम करी जौन धर्म दौप के लोकाने प्रतिबोध द्यो छो ते तमने महालीभनो कारण शिष्य भात पाणी न
राय धमपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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:
उ० टौका
गुरो र सुशिष्येण एवं वक्तव्य' हे स्वामिन् पुनर एवं न कुर्या ममा पराधोऽयंक्षन्तव्यः ४१ धम्मज्जियञ्च ववहारं बुद्धे हायरिय सया समायरन्ती ४२ ४ ववहार गरहं नाभिगच्छई ४२ साधुस्त व्यवहारं साध्वाचारं आचरन् गहीं न अभि गच्छति व्यवहृयते अङ्गौक्रियते धर्माधिभि रिति व्यवहार स्त
व्यवहारं अङ्गोकुर्वन् मुनि निंदां न प्राप्नोति तं के व्यवहार यो व्यवहारः सदा सर्वदा बुद्ध तितत्त्वैराचरितः पुनर्यश्च व्यवहारो धर्मार्जितः
धर्मेण साधुधर्मेण उत्पादितः कथंभूतं व्यवहारं विशेषेण अपहरति पापं इति व्यपहार स्त' व्यपहारं अनेन प्राणातिपाताद्या श्रवनिवा रकः * साध्वाऽचारो दर्शित: ४२ मणोगयं वक्तगयं जाणित्ता यरियस्मतं परिगिज्म वायाए कम्मण उववायए ४३ सुशिथः आचार्यस्य मनोगतं
पुणोत्तिय ४१॥ धम्मज्जियंच ववहारं बुद्धेहायरियं सया। तमायरं तो ववहारं गरहं नाभिगच्छई।४२ मणोगयं वक्त * वहिरे तेस्थो कारण के एह वचन सांभलौ गुरे चिंतव्यो श्रावकनो वांक काई नौ सदा दिने तेह वोज भाव के ए सर्व कुशिश्वनी वाता श्रावक भाग्य *वंत महाभक्तिवंत पिण कुशिष्यने अप्रतीति उपजस्ये लोक निन्दा करसी तो हिवे सुरवीर थई अणसण लौज गुरुशिष्यने उघायो न कस्यो गुरु अणसण.
साधौ मुक्त पहुंता जौम तिणे कुशिथे गुरुनी घातकौधो तौम वौज शिष्यने न करिवो शिष्यमरौने दूरगति पामी कुपात्र शिथविषे जाणवी इति क्षीण जंघावलदृष्टान्त संपूर्ण हुवो ॥१॥ अ. आचार्याने कु० कोप्या न जाणोने प० प्रतीत उपजे तेह वे वचने करी प. प्रशांत करे बि९ कोपाम्नि उपशमा वे प० वे हाथ जोडीने व इम कहे न० वलीए अपराध हुनहीं करूं तुम्हेखमो ४१ ध० दशविधि यतीधर्म क्षमादिके करी जि. उपा] व्यापारयतीने जे अवश्यमेव करवी पडिलेहणादि बु० तत्त्वना जाण तेणे जे प्रा. आचार पाचखो स. सदा त• ते आचार थको व. प्राचार पाप कम्पनी टालणहार ग. अविनित पणानी निंदानी न पामे ४२ मनोगत भाव तथा वचन थी गुरुनी अभिप्राय जा. जाणिने आ. आचार्य गुरुनो २० ते कार्य प० प्रमाण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ.४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका
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* मनसि स्थित कार्य पुनर्वाक्य गतं कार्य पूर्व ज्ञात्वा पश्चात् तत्कार्य वाचा परिगृह्य अङ्गीकृत्य अहं एतत्कायं करोमौत्युक्त्वा कर्मणा क्रियया नत्कार्य
मुत्पादयेत् गुरोर्मनसि स्थितं गुरूत गुरुणा क्रियमाणं कार्य सुशिये ण त्वरितं विधेय मित्यर्थः ४३ वित्तो अचोइए निशं खिप्प हवडू सुचाइए जहोवई' मुकयं किच्चाई कुबई सया ४ ४ वित्तो विनयादिगुणन प्रसिद्धी विनीत शिथोऽनोदितोऽप्रेरितोपि सर्वेषु कार्येषु नित्यं प्रवर्त्तते कदा चित् स्वयं कार्य कुर्वाणः प्राचार्येण प्रेरित चेत्तदा क्षिप्र' भवति शीघ्रकार्यवद्भवति कार्य कुर्वन् प्राचार्यप्रेरितः शिष्यः एवं न ब्रूयात् अहं तु कार्य करी * म्ये व किं भवदिह थैव प्रलप्यते यथोपदिष्टं सुक्कतं कार्य सदा कुर्वीत एक कार्य वा अथवा कत्यानि वहनि कार्याणि कुर्वीत गुर्वादेशेषु आलस्य न विधेयं प्रसवतया तदेव कार्य त्वरित विधयमित्यर्थः ४ ४ नच्चा नमद् मेहावी लोएकित्तीय जायए हव किच्चाणंसरणं भूयाणं जगई जहा ४५ मेधावी बुद्धिमान्
गयं जाणित्ताय रियस्मउ । तं परिगिज्म वायाए कम्मणा उववायए।४३। वित्ता अचोइए निच्चं खियं हव सुचोइए
जहोवट्ठ सुकयं किच्चाई कुव्वदूसया ।४४॥ नच्चा नम मेहावी लोएकित्ती सजायए। हव किच्चाणं सरणं भू करौने वा• वचने करौ कहे ए कार्य हु करिस्य क. कायाई' नौपजाव करौने उ. ते कार्य संपूर्णकरे ४३ विनीत शिष्य अ. अणप्रेयो नि. सदाई * कार्य करवाने विषे प्रवर्ते खि• विलंब रहित कार्यनी करणहार ह. हुइ सु० रूडौ परे गुरुनी शिखवते थके ज० जिम गुरुने कार्य कयो हुइ तिम करे
सु० कार्य कोधा पछी गुरु प्रशंसा कर एकार्य रूडो कौधो कि एहवा गुरुना कार्य कु० कर स. सदाइ ४ ४ ए अध्ययनमांहि विनौतने जे गुण कह्यो ते न जाणोने न विनयवंत हुइ मै• बुद्धिवंत लो. लोक मांहिकौर्ति स० तेहनी जा. ऊपजे ह० हुइ कि० रूडा अनुष्ठान करिवाने स० आधार भूत
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका 8
रु साधु नमति विनयं करोति किं कृत्वा इति विनयशिक्षा ज्ञात्वा तस्य नमस्थ लोके कीर्तिर्जायते पुनः स विनयवान् साधुः कृत्वाना उचितकार्याणां सरणं * * भवति आवयो भवति केषां का यथा भूतानां तरूणां जगतो पृथ्वी यथा आश्रयभूता तथा सर्वेषां साधुकार्याणां विनयौ साधुरायो भवतीत्यर्थः ४५ पुज्जा जस्म पसोयंति संबुद्दा पुव्वसंथया पसवा लाभइस्मंति विउलं अद्वियं मयं ४६ पूज्याः प्राचार्याः गुरवः यस्य शिष्यस्य प्रसौदन्ति प्रसन्ना भवन्ति ते गुरवः प्रसन्नाः सन्तस्तं शियं प्रति विपुलं अर्थितं विस्तीर्ण वाञ्छितं श्रुतं श्रुतज्ञानं लाभयिष्यन्ति प्रापयिष्यन्ति कथंभूताः पूज्या संबुद्दाः सम्यग्ज्ञाततत्त्वाः पुनः कथंभूताः पूर्वसंस्तुताः पूर्व सम्यकप्रकारेण स्तुताः पठनकालात् पूर्वमेव संस्तुता विनयेन परिचिताः रंजिताः तत्कालविनयस्य कृतिप्रतिक्रियारूपत्वेन तथाविधं प्रसादाजनकत्वात् तेन सर्वदा संस्तुता: अथवा कथंभूतं श्रुतं आर्थिक अर्थो मोक्ष: प्रयोजनं अस्येति आर्थिक अर्थान्मोक्षोत्पादक श्रुतधर्म प्राप
याणं जगईजहा ।४५। पुज्जा जस्म पसीयंति संवुद्धा पुब्वसंथुया। पसन्ना लाभदूरसंति विउल अट्ठियं सुयं ।।६। स
पुज्जसत्येसुविणीय संसए मणीरुडू चिट्ठद् कम्मसंपया। तवो समायारि समाहि संबुडे महज्जुई पंचवयाइँपालि भाषा हैं के भू. जौवने ग० प्रथवो ज० जिम आधार भूत ४५ पु. प्राचार्यादिक जे विनौत शिष्यने सं० तत्त्वना जाणते गुरुने पु० वायण शिष्य लेसे तेह थौ
पहिला सं० विनय करी मेष्या के प. प्रसन्न थका गुरुला• पमाडे दिई वि. विस्तीर्ण घण प० मोक्ष पामवानी हेतु म. श्रुतन्नान ते पमाडे दौजे ४६ स. विनीत शिष पु. बावनीक यात्रवंत सु. रूडो पर टाल्या के सं० संदेह जेथे म. गुरुना मनना जिम रुचि हुइ तिम चि. प्रवर्त्त क. क्रिया दश विध समाचारौ तेणे करौ सं. स. सपनो स. पाचरवी स. समाधि तेथे करौने सं० रूंध्या पाश्रव जेणे ते साधु म मोटी तपनौति तिरी करौ सहित
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा..सं. उ.४१ मा भ
सव
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उ० टोका
अ०१
४५
सुव
भाषा
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यिथन्ति ४६ स पुज्जसत्थे सुविणोयसंसर मयोरुई चिह्न कम्मसंपया तवो समायारि समाहि संबुडे महज्जुई पंचवयाणि पालिया ४७ स सुशिष्यः आचा यो मनोरुचि स्तिष्ठति मनसो रुचिर्नेर्मस्य यस्य स मनरुचिर्निर्मलचित्तः अथवा मनसो गुरोचित्तस्य रुचिर्यस्य स मनोरुचिः गुरुचित्तस्य बुद्धियुक्त इत्यर्थः पुनः कीदृशः सुशिथः कर्मसंपदा दशधा समाचारौकरणसंपदा उपलचितः पुनः कीदृशः पूज्यशास्त्रः पूज्यं सर्वजनश्लाघ्यं शास्त्रं यस्य स पूज्यशास्त्रः गुरुमुखात् अधीतं शास्त्रं विनयपूर्वकं श्रधीतं च पूज्यं शास्त्रं भवत्येव यदुक्तं न हि भवति निर्विगोपकमनुपासित गुरुकुलस्य विज्ञानं प्रकटित पश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य १ पुनः कोट्टशः सुशिष्यः सुविनीतसंशयः सुतरां अतिशयेन विनीतो दूरीकृतः संशयोयस्य स सुविनीतसंशय: अपगत संशयः लम्वरहस्य इत्यर्थः पुनः कोदृशः स तपःसमाचारो समाधिसंवृतः तपसः समाचारी तपः समाचारी तपः समाचरणं समाधिचित्तस्य स्वास्थ्यं स्थिरत्वं तपः समा चारो च समाधिश्च तपःसमाचारो समाधी ताभ्यां संहतो निरुचाश्रवः पुनः कौमः सुशिष्यः महाद्युतिः महतौ द्युतिर्यस्य स महाद्युतिः महातपास्तेजो लेश्या पुलाक लब्धादिसहितो भवति तादृशः सन् पंचमहाव्रतानि पालयित्वा कौदृशो भवति तदाह ४७ सदेवगंधव्यमणुस्मपूए चद्रन्तु देहं मलपंकपुव्वयं सिल्वे वा हवइ सासए देवे आ अमरए महट्टिएत्तिवेमि ४८ स पूर्वोकलचणसहितो मुनिग्नियोशिथः देवैर्द्वादशकल्पवासिभिर्गन्धर्वैन्दे॑वगायनैस्तथा मनुष्यैः पूजितो भवति ततश्च आयुःचये देहं त्यक्ता सिद्धो भवति कथम्भतः सिद्धः शाखतो जन्ममरणरहितः कथम्भतं देहं मलपंकपूर्वक मनुष्यशरीरं हि श्रदारिक' या ।४७। सदेव ग ंधव्व मणुस्म पूइए चत्तु देहं मल पंकपुव्दयं । सिहेवाहव सासए देवेवा अप्परए महिडिएत्ति हुइ पं॰ पञ्चमहाव्रत पालोने स० ते विनीत शिष्य ४७ दे० वैमानिक ज्योतिषि ग० भुवनपति व्यन्तरए ४ जातना देवाने म० मनुष्यपणे पू० पूज्यो ० मूं कोने देहरिर म० लोहोत शुक्र पु० लोहियने शक्रनो पहलो आहार करौने जीव शरीरनो पाइ ते भगौएवे थी जे शरोर उपनो ते मूं किनिद्र
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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॥उत्तराध्ययने विनयाधिकार संपूर्णम् भावितात्मा अणगार बूंटेराय जी तच्छिष्य भगवान विजय साधुना संशोधितम्॥ उन्टौका
शुक्ररेतोजनितं भवति तादृशन्त्यक्ता सिदिभाक स्यात् अथवा देवो भवति देवः कीदृशः अल्परतः अल्यं अविद्यमान रत क्रीडितं मोहनौयजनितं कर्म
यस्य स अल्परतः अथवा अल्परजाः रजोरहितः पुनः कथम्भू तो देवः महर्दिकः महतो ऋद्धिर्यस्य स महर्दिकः ऋद्धिविकुर्वणातया सहितः इति परिसमाप्तौ * एवं अमुना प्रकारेण वा एतदिनय श्रुताध्ययनं ब्रवीमि गणधराद्युपदेशेन नतु स्वबुड्या ब्रवीमि ४८ इति श्रीमद्युत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय * श्रीलक्ष्मौकीर्ति गणिशिश्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां प्रथमाध्ययनार्थ: सम्पूर्णः १ अथ द्वितीयं परौषहाध्ययन' कथ्यते अयच्च विनयः परोषहर्जभिः र कर्तव्यः तस्मात्सु धर्मा स्वामी जम्बूस्वामिन प्रत्याहसूत्र सुधमे आठसन्ते ण भगवया एव मक्खायं इह खलु बावीसं परौसहा समणेण भगवया महावी रेण कासवेण पवेइया जे भिक्खू सच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिजयन्ती पुट्ठोनी विहबिजा इत्यालापक अस्थार्थः पाउसं इति शिष्यस्य
बेमि ।४८। पढ़मं विणयज्य णं सम्मत्तं । सुयं मे आउसं तेणं भगवया एव मक्खाय । इह खलु वावीस परीसहा * सि. सिद्धह, हुइ सा. साखतो दे. अथवा देवता हुइत अ मोटि ऋदिनो धणौ हुवे ४८ ति० कडुछ श्रीमहावीर देव कहे न सांभल्या हुता तिम है
जंबु तुझ प्रते कई कु ए सुधर्मा स्वामौनो वचन इति विनय अध्ययन प्रथमना अर्थ संपूर्ण पहिला अध्ययनने विषे विनय करिवो कयो हिवे वौजा * * अध्ययनने विषे २२ परोसहनो स्वरूप कहे है। सु० सांभस्यो मे० मे आ० हेचिरंजीवी जंबूते, तेथे भ भगवंत ए. एवं प्रकार म०कयो इ. जिनशास
नने विषे ख० निचे बा• बावीसपरिसह स. श्रमण भ० भगवंत म. श्रीमहावीर देवे का काव्यपगोत्रौई प प्रकर्षे स्वयमेव केवलज्ञानेकरी साख्यात
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ. सा. उ. ४१ मा भाग
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आमन्त्रणे हे आयुष्मन् हे शिष्य मे मया श्रुतन्तेणं इति तेन महुरुणा प्रसिद्देन भगवता ज्ञानवता एवं आख्यातं एवं समन्तात्कथितं इह अस्मिन् जिनशासने हे शिष्य हे जम्बू श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपगोत्रण खलु निश्चयेन द्वाविंशति परीषहाः प्रवेदिताः प्रकर्षेण स्वयं साक्षात्कारित्वेन ज्ञाताः तीर्थराणां स्वयं सं बुद्धत्वात् आत्मागमः गणधराणां अनन्तरागमः तीर्थ करेभ्य: यादृशं अर्थ गणधराः खन्ति तादृशं अनन्तर धारयन्ति तस्माइण * राणां अनन्तरागमः गणधरशियाण हि परम्परागमः तस्मात् त्रीमहावीरस्वामिना स्वयमेवज्ञाता: प्रशब्दन स्वयं ज्ञाता: प्रज्ञाता इत्युच्यते परि १
समन्तात्मह्यन्ते साधुभिरिति परोषहाः हाविंशति: यान् हाविंशतिपरोषहान् भिक्षुः साधुः श्रुत्वा गुरुमुखाकणे धृत्वा ज्ञात्वा यथास्वरूपेण तिस्कृत्व भिचाचर्यायां परिव्रजन् साधुस्तै होविंशतिपरिषदः स्पष्टः आनिष्टः सब विहन्थे त संयमरूप शरौरपातन न म्रियते इति सुधर्मास्वामिना प्रोक्त सति जम्बूस्वामी गुरु' प्रति पृच्छति कयरे खलुते बावीसं परौसहा समशेण भगवया महावीरेण कासवेण पवे इयाज भिक्खू सच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयन्ती पुढो नी विहबेजा है स्वामिन् कतरे केते किंनामानः खलुः निश्चयेन खलुशब्दो वाक्यालङ्कार वा दाविंशतिपरौ
समणेशं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवईया। जे भिक्ख सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए। परि
ब्वयं तो पुट्ठो नो विहनिज्जा। कयरखलते बाबीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेईया। जे जाण्या सांभलौने जे. जकार्य साधु सो० परिसहवी गुरु समीपे न० जाणिने जि. परिचित करौने अ० तेपरि सहने जीतीने भि० गोचरौने विषे प० हीडता फिरतां पु. परीसह फरस्यं तिवारे नो. संयमने विष विनामे नही शिष्यने पूछ क. कुण ख.निचे ते बा. वावोस परिसह स. श्रमण तपस्वीइ
राय.धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं. उ..४१ मा भाग
सूव
भागा
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उ० टीका
र
अ०२
४८
सूत्र
भाषा
DRA
808088x
षहाः यान् श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वा अभिभूय भिचाचर्यायां परिव्रजन् साधुर्ये दाविंशतिपरोष हैः स्पष्टः सन् न विहन्यत तदा श्रीसुधर्माम स्वामिनं प्रति वदति इमे खलु ते बावोसं परौसहा समणेयं भगवया महावीरेण पवेद्रया जे भिक्खू सुच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्वायरियाए परिब्बयन्ती पुट्ठो नो विहवेज्जा हे जम्बू इमे वक्षमाणा हृदि वर्त्तमानत्वात् प्रत्यचाः ये त्वया सोढास्ते द्वाविंशति परोषहाः श्रमणेन भगवता महावोरेण काश्यपेन प्रवेदिता यान् परोषहान् श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वा श्रभिभूय भिचाचर्यायां परिव्रजन् साधुः परौषहैः स्पृष्टः सन् न तंजहा तद्यथा तेषां परौषहाणां नामान्युच्यन्ते दिगंका परोस हे १ पिवासा परोस हे २ सोय परोसहे ३ उसिण परोसह ४ दंसमस्य प० ५ अचेल भिक्ख ू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विहंनिज्जा । इमे खलु ते बाबीसं परी सहा समणेणं भगवया महावीरेण कासवेणं पवेईया । जेभिक्ख सोञ्चानञ्चाजिचा अभिभूयभिक्खायरियाए परिव्व यंतो पुठ्ठो नो विहंनिज्जा । दिगि च्छा परिसहे ? पिवासा परोस हे २ सोय परौसहे ३ उसिय परीसह ४ दंस मसग परौसह ५ अचेल परौसहे ६ अरदू परीसहे ७ इत्थी परीस हे ८ चरिया परौसहे निसौहिया
भगवंत ज्ञानवंत म० महावौर देवे का० काश्यप गोवौद्र प० प्रकर्षे केवलग्यान करो स्वयंमेव साचात जाण्यो जे० जे साधु परिसहगुरु समौपे सो० सांभलौने न० जाणोने परिचित करौने अ० ते परिसहाने जोपौने भि० गोचरौने विषे प० हिंडता फिरता पु० परिसहे फरस्यो तिवारे नो० संयमने विषे तं॰तेवावो सपरोसह.कहे के दि०भूष प० सर्वप्रकारे सहे ते भूषनोपरोसह १ पि० तृषानोपरि सह २ सौ० शौतनोपरीसह सह सर्वप्रकारे सहे३ उ०
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ० ४१ मा भाग
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उ०टीका
अ०२
t
82
सूत्र
भाषा
प०५ र ०७ इत्यो प०८ चरिया प०८ निसौहिया प० १० सिज्जा प० ११ अक्कोस प० १२ बह प० १३ जायणा प० १४ अलाभ प० १५ रोग प०१६ तणफास ष०१७ जल्ल प०१८ सकार पुरकारप० १८ पत्रा प०२० अन्नाण प०२१ दंसण प०२२ नामानि सुगमान्येव नवरं अयं विशेष: दिगंका शब्देन देशीय भाषया धोच्यते सा एव षट्कायमर्दनपातकभयेन आहारपाकादिनिवर्त्तनेन दाहाराऽलाभेन वा परिसमन्तात्सयते इति परोषह दिगंधा परोषहः एवं अपरेष्वपि व्युत्पत्तिः कार्याः परोषहानां नामान्युक्वा स्वरूपेणवक्त कामः सम्बन्धार्थमाह गाथा परीसहाणं पविभत्तौ कासवेणं पवेद्रा परौसं हे १० सिज्जा परोस हे ११ अक्कोस परोस हे १२ वह परीसह १३ जायणा परीसह १४ अलाभ परी सह १५ रोग परीस हे १६ तणफास परीस हे १७ जल्ल परीस हे १८ सक्कार पुरक्कार परीसह १६ पन्ना परौसहे २० तापनी परिसह सर्वप्रकारे सहे ४ द० डांसमसादिकनौ कौधौ पौडाने सर्वप्रकारे सहे५ अ० ओढवानो मानोपेतवस्त्र तथा अल्प वस्त्रनो धरवोते परिसह ६ ० संयमने विषे अधीरपणो कांडोवोते परति परोसह ७ इ० खोनो अणवाव्वोते परीसह ८ च० ग्रामादिकने विषे रहवोते चर्यापरिसह नि० माघे बैग रहणो निसोहा परिसह १० सि० उपाय समेभावे रहिवोते शिव्या परीसह ११ अ० अशुभ वचन सांभलौने चमाकरोवोते अक्रोध परीसह १२ To बघता घातकरता चमा करवो ते वधपरोसह १३ जा० सिद्दान्तोक्त विधेद्र याचनालाजवो नही ते याचना परौसह १४ रो० रोगने सावध वैद्यपडी करावे ते रोग प०६ अ० मांगी वस्तुनो अप्राप्तिखेदन करिवोले अलाभ परीसह १६ त तृणादिकनेफर से अधिक वस्त्र न राखेते ढणाना फरसनो प० १७ ज० मेलनोपरौसह १८ स० वस्त्रादिकने आमन्त्रवे १८ पु० उठौ वेठौथावे करौ हर्षादि न करेइ २० प० प्रज्ञा यो उत्कर्ष पणन करे ते प्रज्ञाप० २०
の
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राय धनपतसिंह बाहादुर का भा० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टीका
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68
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०
तम्भे उदा हरिस्मामि आणुपुब्बिं सुषहमे १ हे शिथाः परोषहाणां प्रविभक्तिः पृथक् २ विभाग: प्रविभक्तिः काश्यपेन काश्यपगोत्रीयेण धीमहावीरदेवेन * प्रवेदिता विज्ञान प्रकर्षेण ज्ञाता इत्यर्थः तां परौषहाणां प्रविभक्ति अहं आनुपूर्त्या अनुक्रमेण भै भवतां उदाहरिहष्यामि मे मम कथयिष्यतः तां परोषह
प्रविभक्ति यूयं शृणत१ अत्र सर्वेषु परोष हेषु पूर्व क्षुधायानिर्देशः सर्वष परौषहेषु क्षुधाया दुःसहत्वात् यदुक्त' खहासमायणा नत्थि दिगिच्छा परिगए देहे * तवस्मो भिख वामवं न हिन्दे न हिन्दावर न पए न पयावए २ कालोपब्बंगसङ्कासे किसे धमणिसन्तए मायने असणपाणस्म अदीणमणसीचर ३ दाभ्यां
गाथाभ्यां क्षुधापरीषहजयं वदति तपस्वी साधुर्दिगञ्छा क्षुधा तथा परिगतैव्याप्ते देहे सति न छिन्द्यात् तरूणां फलादिकं स्वयं न त्रोटयेत् न च अपरेण छेदयेत् न च स्वयं अनादिकं शाकादिक न पचेत् न च परेण पाचयेत् नवकोटि शुदिबाधा नकुर्यात् कथम्भूतं तपस्वी धामवान् मनोबलयुक्तः पुनः कीदृशः
अन्नाण परीसह २१ दंसण परीसह २२ परीसहाणं पविभत्ती कासवेण पवेदया तंभे उदाहरिस्मामि आणुपुब्बि सुणे
हमे ॥१॥ दिगिछा परिगए देहे सवस्मी भिक्ख थामवं गछिंदे णछिंदावए न पए नपयावए ॥२॥ काली पब्बंगसंकास ॐ अतवने अजाणपणं करो विखवादनकरते प०२१ दसम्यक्त थो न डोलेत द०२२ प परोसह वा वौसनोस्वरूप क प्रकर्ष ज वारस्वरूपपणे का काश्यप
गोत्रो प परिसही प्रयोछे त तेमे तुम्हे प्रते नु कहिस्य सुधर्मास्वामो जम्बूप्रते कह्या अ. अनुक्रमे वा वीस परीसहो सु-सांभलौ मे मुझने कहता १
दि भूख ए व्यापेथ के दे सरिरने वि सगला परिसहमांहि भूखनीपरोसह सहितां दोहिला जाणवो त तपर्वत भि. साधुव. संयमने विषे बलवंत के *न फलादिक नछेदे स्वयमेव न अनेरा पासि न केदावे फलादिकन अबादिक पचे नहि न अनेरापासि पचावे महौर का कागलौनौ पःजांध अनेसाथ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ•सं• उ• ११ मा भाग
भाषा
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उ.टौका
कालोपर्वाङ्गसङ्कायः कालोकाकजा तस्याः पर्वाणि मध्ये तनूनि भवन्ति अन्त्ये स्थ.लानि भवन्ति तदा काराणि बाहुजङ्घाद्यङ्गानि भवन्ति यस्य तपस्विनः जानुकूर्परादयोऽवयवाः काकजसकामयादृश्यते इत्यर्थः कालापर्वसङ्गाशांग: इतिपाठी युज्यते कालोपर्वाङ्गसङ्कायः इति पाठस्तु प्रार्षत्वात् प्राकृतत्वात्मकाश शब्दस्य परनिपातः अजयब्दस्य पूर्वनिपातः पुनः कथम्भ त तपखो कशः पुनः कथम्भ तं तपखो धमनोसन्ततः धमनोभिर्नाडोभिः सन्तती व्याप्तः यस्य शरीरं नयाभिर्याप्तं दृश्यते इत्यर्थः पुनः कोश स्तपखो अशनपानस्य मायबत्ति मावत: मात्र अब्रपानेन स्वस्यो दरपूर्तिप्रमाणं जानाति यावता आहारण स्वकीयोदरपूर्तिस्यात् तावप्रमाण मेवा हारं गृहोयात् नतु य स्तपस्वो रसादिलोल्या दधिकं गृहातौत्यर्थः इति माबज्ञः पुनर्यस्तपस्वी अदौनं मनी
किसे धमणि संतए । मायने असण पाणस्म अदौण मण सोचरे ॥३॥ तो पुट्ठो पिवासाए दोग'छी लज्ज संजए। लनि संघिढोंचण प्रमुखसंते सरोखो कि साधुनो दुबलो गात्र हुइ ध न साजाले व्याप्त एहवो दूबली होइ तो पिणमा आहारनौ अ. अनादिमात्रा नो जाणक पा. पाशीना अ.अणपाम्य आकुलपणा रहित ३ चित दीन नकरे एहको यको संयममार्गने विषे चाले हिवे भूख परिसह ऊपरि दृष्टतालसोये के उजेणो नगरौई हस्तिमित्र थेष्ठि वमे एकदा तेहने भार्याना मरण यो वैराग्य उपनो तिवारे हस्तिमित्र पुनसहित साधु कन्हें दीक्षा लोधी निरती चारसंघमपाले एक वार साधु साये विहार करतां अटवोई पहुता तिहां हस्तिमिवने कांटो भागो अतिही पीडा ऊपनो चालोबा असमर्थ वयो तेणे वौजे महात्माने कह्यो यही साधी तुम्हे आधा पहुचो हुँ दुखेपोड्यो होंडाइ नहीं इहांभातपांणी पचखोस तिहां साधुने खमावौपिताये अणसण कीधी चेलाने साधु तेडो आधा चाल्या ते हिवे मार्गजातां मोह भाव थो चेला पाको वाप कन्हे पायो ते हिवे पिता सोधी शभध्याने मरी देवता भी चेलो न जाण पितामूनो मुग्धपणा थको पासि भमे भूखी थो पौणतिण चेले वनफलनखाधा भूख सहित पिता देवता मोहे करो पोताना शरीर मांहिपइसौशिक्षाने
राम धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ.४१ मा भाग
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उन्टौका
8 यस्य स अदीनमनाः तपसः पारणादी आहारस्य अप्राप्तौ अपि अदीनचित्त: सन् चरेत् संयममार्ग प्रवत्र्तेत अलब्धे तपसो दिलब्धे देहस्य धारणा
इति बुद्धि चित्तं दधान स्तिष्ठेत् इत्यर्थः यथा हस्तिमित्रपुत्रौ क्षुधायां उत्पबायां ही अपि सचित्ताहारवर्ज की जाती तथाऽन्य रपि साधुभिर्भाव्य मिति अथ तत्कथाः उज्जयिन्यां हस्तिमित्र श्रेष्ठी वत्त ते तस्य हस्तिभूतनामबालकोस्ति अन्यदाहस्ति मित्रवेष्ठिन: प्रिया मृता दुःखगर्भवैराग्य न हस्ति मित्र श्रेष्टौ हस्तिभूतदारकेण समं प्रबजित: अन्य दा दुर्भिः साधुभिः समं विहरबऽसौ हस्तिमित्रसाधु जकटक नगरमार्गाऽटव्यां कण्टकेन विद्वपादोऽग्रे विहतु मक्षमोऽटण्या मेव स्थित: तमक्षमं दृष्ट्वा साधुभिर्भणितं वारकण त्वां मार्गे वहिष्थामी मा विषादं कृथाः तेन भणितं मदायुः स्तीक मेवाऽस्ति । अतोऽहमत्र व भक्त प्रत्यास्यामि यूयं यात मदर्थ मऽत्रस्थितस्यान्यस्य कस्यापि साधीमाभूहिनास: इत्युक्त वन्तन्तंचामयित्वा भक्तपान प्रत्याख्यानं कार यित्वा तत्रैव मुला च अमिच्छन्तमपि चालक रहौत्वा ते साधवश्चेलुः क्षुलकोऽई मार्गात्तान्वि प्रतार्य पिटमीहात्तत्रायातः तावता ग्रहीताऽनशन:
बोल्यो अरे पुत्र कापडीयो भूख्यो वनफलादि आहार किम नहीं किधो हे पिताजी आ अटवी मांहि आहार किहां धौ मौले अने प्राण जावती जावी 8 पिण सचितफल किमवावरीये तिवारी तात कह पावनमाहि जावो इहांना वसणहार तुमने भिक्षा देसो ते चेलो तिहां गयो ते देवताई वनमाहि
हाथ काढो भात पाणी दोधी चेले पाणीवा वखों इम देवता भात पाणी नित्य आप केतले दिने तेणे अटवी मांहि तहज साधु आव्या चेलाने । देखी साधु' पूछो तारो पिता जोवे के चेले क हो पिता अणसण लोधो के जोवे के साधु कहे अम्हने देखाडि ते चेली पोताने देखाड़े है तेहवे ते देवता काया मूको अलगो थयो साधु कहे अ मृतक के चेलो कहे हिवडा जीवताहता साधु कहे पाहार पाणी तु' किहां थी ल्यावतो
तेथे सर्वहतात कयो तिवारमूया जाणोने संसारमांहि माया मोहवरुयो के जिम पिताये भूख सहीती सदगति पामी तिम लानापिण अध्यवसायपल
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सा. उ०४१ मा भाग.
भाषा
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अ०२
निज०मा०
नास मृतो देवोभूत् क्षुल्लको मोग्धपात मृतं न जानाति सुप्तस्य तत्कलेवरस्य पार्ख एव भ्रमति क्षुधातॊपि फलादिकं न रहाति स देवः क्षुल्लकमोहन
निजदेह मधिष्टाय अवदत् वम गच्छ भिक्षायां चलकेन भणितं कुत्र व्रजामि तेन भणितं एष धवनि कुञ्जषु व्रज तत्रिवासिनी जना भिक्षां दास्यन्ति ५३
*तत: तवैति भणित्वा क्षुल्लकस्तत्र गतः धर्मलाभ मुच्चचार स देवो नरनारीरूपं विधाय कर प्रसार्य दिव्यसत्या तस्यै भक्तपानादि ददौ तावद् यावद
दुर्भिक्षे निवृत्त भोजककटक नगरात् पश्चादलिताः साधवस्त नैव मार्गेण तवागताः जीर्ण शवं दृष्ट्वा ज्ञातदिव्य प्रयोगास्त क्षुल्लक गृहीत्वा विजए: . यथा ताभ्यां पिटपुत्राभ्यां क्षुत्परोषहः सोढः तथा साम्प्रतिक मुनिरपि सीढ़व्यः अथ भिक्षार्थ अटतस्तृशाया उदयः स्यात् तदा तत्परीषहोपि सोढव्यः
इम मेवार्थ गाथा इयेनाह तो पुट्ठो पिवासाए दुगच्छौ लज्जसञ्जए सौश्रीदगं न सेवेज्जा विअडस्मे सणञ्चरे ४ छिनावीएस पन्येसु आउरेसु पिवासिए परिसक्तमुहे दोणे तं तितिक्खे परिसहं ५ ग्रामनगरादौ भिक्षार्थ भमन् दुगंछो अनाचारात् भौत: एतादृशो लज्जसंयत: लज्जायां सं सम्यक् * यतते यत्नं कुरुते इति लज्जासंयतो लज्जावान् साधु नहि निर्लज्जो धर्माः तस्मात् लज्ज संयतस्तपस्वी ततः क्षुधापरीषहानन्तरं एव पिपासया
सी उदगन सैवेज्जा वियडस्मे सणं चरे ॥४॥ किनावाएमु पंथेसु आउरे पिवासिए। परिमुक्क मुहादीणे तं भाषा
टाणा नही प्राणजाता पिण सचित आहार न लोधी अने मननी इच्या पिण न कौधौ ते भणौ तिणि चेले २ भूखसहौते चेलाने महात्मा साथे लेगया चेलाने समझायो जे ताहरो पिता परलोक पहु'तो जिम पिताइ चेले भूख परौसहसह्यो तिम बोजा चारित्रीयाने सहिवो भूख व्याप्यां सचित्त आहार न लेवो इति प्रथम परोसह दृष्टांतसंपूर्ण थयो ॥१॥ त. भूखनो परिसह जा. पु. फरस्थो पियो पि० तृषाद दु. अनाचारनो वर्जशहार लज्यायें करौ सं० साधु सो सचित पाणोनी न भोगवे वि. अचित पाणौनी स० एषणा इचाले प्रवर्ते ४ जिहां कोई मनुष्य आवतो नथी प० पंथने विषे आ.
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाषा
सूब
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उ.भाषा४.
अत्यंत आकुल थको शरीर सु. अति उषावंत प० थूक रहित सूकाणी मु• मुख जहनो ते साधु दीनपणा रहित हुइ तं० ते वृषानो ति खम प० परी * सह ५ अथ तृषा परीसहें दृष्टांत: उजणी नगरीये धनमित्र वाणीयो वसे साधु उपदेश सांभलो वैराग वस्ये धनमित्र पुत्र सहित दिक्षा लौधी एकदा
घणा साधां साधि विहार करतां मध्याह्न समे चेलाने अतीही दृष ऊपनी तहवे चालतां बाटे नदी आवी देखी पिताइ मोह थकि चेलान कयो बच्छ पाणी पोवो पछे आलोयण लेजे एहवे की ते चेलो लेवा न वांछ तिहां थको तिण पिताई चिन्तव्यो एचेलो माहरी लाज कर के ते भणी पितासाधु आगले थई भाग गयो तहवे नदी मांहि भावी विस्ये धके पाणीनो पसलो भरी चिंतव्यो जे पाणी पौवु तेहवे उत्तमपणा थकी हौज विचार ऊपनीमेतो पांच महाव्रत उचरोया के मरणय पिण व्रतविराधवो नहीं तेहवे उत्तमपणा थकोषाक्रान्सचारित्रौयोसिहाम्तवचनजाणीमनमैचिंतव्यो एसच्चौतपाणी किम पिवाइ यत: एगस्म उदगबिदुमि जे जीवा जिपवरहिं पसत्ता ते पारवयमित्ता जंबूहीवनमायति १ अस्य जलं तत्य वर्ण जत्यवर्ण तत्वनिच्छत्री अगी ते जवाजसहगया तसा यथा वराचेवर हतूणपरप्याण अप्पाणं जेकुतिसप्पाणंअप्पाएंदिवसाणकएयनासेइ अप्पासं३ इमआलोचौपाणीपाछीमूक्यो इमनिश्च लचित्तशुभध्यान धरतो बषा परीसहसहितो काल करो चेलोदेवताथयो साधुनी दया निमित्तइ तेदेव आवो टूकड़ार गोकुलविकु. जे भणी साधु सुखी घाइ तिवारे पछी आगलि जाता सावने पापो स्वरूपजणावा भणी तेणे देवताइ एक महामानो कांक्ती केली गोकुले राख्यो प्राधे राजइ जहवे महात्मा वस्त्र लेवा पाका वल्या तिणे ठामे पावेतो तिहां अटवि देखौ पिण गोकुलादिकाई दौठो नहीं छगणादिक पिश दौठा नहीं तिवारी चिंतव्यो। ए देवमाया कांबली लेई साधु बीजे ठामे पहुंता तिहां प्रगट देवता थई आपणो धन मित्र पिता साधु ते दासी बोजा सर्व साधु वांद्या धनमित्र बोल्यो मुझने किम न बांधो देवता कहो तुम्हें सचित्तपाणी पौवानी आज्ञा दीधी ते भणी अबंदनीक: मोह बसे मुझने डिगायो तो हु' कगतिपडतो
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. ९.४१ मा भाग
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० टोका
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५५
RAAAAA
तृषया स्पृष्टः सन्सोतोदक' अप्रासुकजलं न सेवेत न पिवेत् इत्यर्थः वियडस्स प्रासुकजलस्य शस्त्रपरिणतस्य रसान्तरं वर्णान्तरञ्च प्राप्तस्य वक्रयादिना शुस्य एषणाय ग्रहणाय चरेत् प्राशुकपानोय ग्रहणाय गृहस्थ गृहे व्रजेत् इत्यर्थः ४ अथ ग्रामनगरादिभ्यो बहिर्वनाटव्यादिमार्गे व्रजन् साधुश्च त् टषया पौडितः स्यात् तदापि तृषापरीषहं सहेत् ननु तत्र साधुना एवं ज्ञातत्र्यं श्रत्र कोपि गृहस्थो दाता न दृश्यते श्रहं स्वयमेव जलं गृहीत्वा पिवामि तदैव मार्गवैषम्य माह किन्नेति एतादृशेषु पथिषु मार्गेषु पूर्वोक्त स्तपखौ पिपासा परोषह तितिक्षेत सहेत कौदृशेषु पथिषु छिन्रो गतः श्रपातो लोकानां गमनागमनं येभ्यस्तै छित्रापाताः तेषु कीदृशः स्वयं तपस्वी श्रातुरः बया आकुलतनुः पुनः कोड: सुपिपासितः सुतरां श्रतिशयेन पिपासितः अत्यन्तं तृषितः पुनः कोदृशः परिशुष्कमुखः गतनिष्टोवनत्वेन शुष्कतालुजिहोष्ठः पुनः कीदृशः एतादृशोपि अदीनः अत्रोज्जयिन्यां धनमित्रकथाः यथा उज्जयिन्यां धन मित्रो वणिक् धनशर्मनान्ना स्वसुतेन समं प्रव्रजितः अन्यदा मार्गे क्षुल्लक स्तृट्पीडित: नदीं दृष्ट्रा पित्रावादि वक्स पिव जलं पश्चादा लोचनया दोषशुद्धिर्भाविमौ इत्युक्ते क्षुल्लकोनेच्छति ततः पिता साधुः स्वशङ्कानिरासार्थं शीघ्रं नदीमुत्तीर्याग्रे गतः चुलो नद्यां प्रविष्टः जलाञ्जलिमुत्क्षिप्य चिन्तित वान् कथञ्जलं पिवामि यतः एग मे उदगबिन्दमि जे जीवा जिणवरहिं पद्मत्ता ते पारवयमित्ता जम्ब होवे न मायन्ति १ जन्य जलं तत्य वर्ण जत्य वर्ण तत्य निच्छत्रो अग्गीतेजवाऊसहगया तसाय पञ्चकवया चैव २ हंतुण परप्याये अप्पाणं जे कुणन्ति सप्पाणं अप्पाणन्दिव सायङ्कर य नासेद्र कप्पा ३ इति संवेगेन जलमंजलितः पचाद्यनेन मुक्त तत स्तु षया मृत्वा स देवो जातः अवधिज्ञाना दवगतपूर्वं भववृत्तान्तेन साधूना मनुकम्पया पथि गोकुलं कसं तत्र तक्रादि शुद्धमिति गृहीत्वा साधवः सुखिनो जाता अग्र चलिताः तेन देवेन स्व स्वरूपज्ञापनार्थं एकस्य साधोविंटिका गोकुले स्थापिता विंटिग्रहणार्थं पायात मुनिवचसा सर्वैरपि साधुभिर्ज्ञात गोकुलाभावे स्तत्र दिव्यमाया जाता तत्पिण्ड भोजनविषयं मिथ्या दु:क्कतं
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उ० टोका
अ०२
५६
सूत्र
भाषा
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दत्तं ततस्तत्रायातेन देवेन पितरं मुक्ता सर्वेसाधवो वन्दिताः पित्तावन्दनकारणं पृष्टः स देवः सर्व खम्टत्तान्तं पितुर्जलपानानुमति च प्रोच गतो देव: स्वस्थानं एवं क्षुल्लकवत् टट परोषहः सोढव्यः अथ क्षुधापिपासापीडितस्य कृशस्य शौतं अपि शरौरे लगति तदपि सोढव्य तदपि गाथाह येमाह चरन्त ं विरयं लूहं सौयं फुसइ एगया नाइवेलं मुखौ गच्छ सुचाणं जिणसासण' ६ न मे निवारण' अस्थि कवित्ताण' न विज्जए अहं तु अगि सेवाम इद्र भिक्खू न चिन्तए ७ एकदा महासीतकालादौ प्रतिमावहनादी कायोत्सर्गे स्थितं तपखिनं शौतं स्पृशेत् शरौर लगेत् तदा स मुनिस्तपस्त्री अति बेलौं स्वाध्यायकरणप्रस्तावं प्रतिक्रम्य शीतभीतः सन् स्थानान्तर' न गच्छ ेत् किं कृत्वा जिन शासने हि जीवोऽन्यः देहयान्यः कीदृशं मुनिं ग्रामानुग्रामं चरन्तं विहरन्तं अथवा मुक्तिनगरानुकूले साधुमार्गे विचरन्तं पुनः कीदृशं लहं रूक्ष स्निग्धभोजनतैलाभ्यङ्गादित्यागेन रूचाङ्ग' पुनः कीदृशं विरतं अग्निप्रचालनात् विरतं तदा पुनः शौतपौडितो भिक्षुरिति न चिन्तयेत् इति न विचारयेत् इतीति किं मे मम छवित्राण देहचर्माच्छादनं शौत निवारण' किमपि न विद्यते नास्ति तेन अहं अग्नि सेवामि इति चिन्तनं अपि न कुर्यात् तदा अग्निसेवनन्तुदूरमेव त्यक्त अत्र भद्रबाहुशिष्याणां कथाः ७ राजग्टहे नगरे चत्वारो वयस्था वणिजः श्रीभद्रबाहुगुर्वन्तिके प्रव्रज्य श्रुतञ्चाधीत्य एकाकि त्वं प्रतिमया विहरन्त स्तत्रैव इयुः तदा हेमन्त तितिक्वे परीसहं ॥५॥ चरंतं विरयं लूहं सौयं फुसइ एगया । ना दूवेलं मुणी गच्छ सोच्चाचं जिणसास ॥६॥
इम गोकुलनो संकेत जणावो देवता स्वस्थानके गयो जिम तेथेचेले तृषा सही तिम बौजे साधुने पिय सहवो इति द्वितीय परीसह दृष्टांत कथा जाणवौर विचरता ग्रामानुग्राम वि० अग्निप्रमुखनो लु० लुखो सरौर सी० एहवा साधुने सौत फू० फरसे शौतकालने विषे ता० सज्माय प्रमुखनो वेलाइ मु० साधु ग० ताढिमटे सो० सांभलोने जि० जिमनी सा० सौख अनेरो प्रते देवे न० नथी माहरे शौत नोवारण घरादिकने विषे छ० शरौर वस्त्रादिकपिण
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राय धनपतसिंह बाहादर का श्र० सं० उ० ४१ मा भाग
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• टोका
श्र० २
५ত
सूत्र
भाषा
आसीत् ते च भिचाभोजन मादाय तृतीयपौरुषां न्यवर्त्तन्त पुरात् पृथक् तेषामेकस्य चरमपौरुषौ वैभाराद्रिगुहाहार अवगाढा तत्रैव सोऽस्थात् द्वितीयः पुरोद्याने टतोयस्तु उद्यानसमीपे चतुर्थस्तु पुराभ्यर्षे तवयो वैभाराद्रिगुहासवः स महासौतव्यथितो रजन्या चाव्ययामे मृतः उद्यानस्थो द्वितीययामे सृतः उद्यानासन्त्रस्तृतोये यामे मृतः पुरास वस्तु पुरोभणाल्पशीतत्वेन चतुर्थे प्रहरं मृतः सर्वेप्येते साधवो बिपद्य दिवं जग्मुः शीत परोषहः सोढव्यः श्रौतकाला दनन्तरं ग्रोमकालस्वा गमनं स्यात् तत्परौषहोपि सोढव्यः उसिणप्परियावेण परिदाहेण तब्जिए विंस वा परितावेण सायंनो परिदेव ८ उन्हा न मे निवारणं अत्थि कवित्ताय नंविज्जई । अहंतु अग्णि सेवामि इद्र भिक्खु नचिंतए ॥७॥ उसिण परिया वेण न• नवी ते भयो अहं तु पुनः वलो अ० अग्नि से० सेव' इ० एहवो भि० साधु न० नचिंतये७ अथ शीत परोसह उपरिदृष्टान्त राजगृहौनगरौद्र च्यार वणिक बसे परस्परमित्र अत्यंत प्रोति जीव एक अमे काया जुदौ संसारना सुख भोगवता रहे एकदा भद्रवाह स्वामी समो सखा च्यारे मिलवांदवा भाव्या देशना सांभली वैराग्य उपनी संसार असार जांयौ भद्रबाह पासे चार मोठा दोचा लोधी सूत्र सिद्धांत भयो पारगामो हुआ एकाकी पणानी प्रतिमाइ रहितां विहार अनुक्रमे करतां वली राजगृही नगरी चाव्या तेहवे २ सौतकाले तौजे पोहरे भात पांणौ वहिरवा गांममे पधास्था गवेषणा करो नगरी थो वाहोर जूजूम्रा श्रव्या अवेरा नौकल्या जीन कल्पो पये साम्हो हाथो आवेतो टले नही सूर्य आथम्यां केडी तथा वस्तो हुवे तिहां रह्यो तिवारे ते पोली वारणे काउसगले रह्यो वौजा साधुने नगर वाहिर सूर्य अस्त हवो तिहां काउसग रह्यो चोथा साधुने नगरवार पोलो वाहिर सूर्य अस्त हुवी तिहां कासग रम्रो हिवे वैभार गिरगुफाने वारचे रह्यो तेहने प्रति होताढपरौसहसहतां राविने पहिलो पोहर कालप्राप्त हुवो वनने साधु रहणवाले विजे पोहरे कालप्राप्त हुवी ते जी नगर बाहिर तेथे चीजे प्रहर सौधो अने चोथा साधु पोलवार तेथे चोथे प्रोहरे काल कीधो नगर परसरे सीतपरीसह
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राय धमपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४.१ मा भाग
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FA
*हितत्तोमहावो सिशामो विपत्थए गायं नो परिसिचिना न वौइज्जाय अप्पयं ८ मेधावी स्थिरबुद्धिमान् साधीभे उपकाले वा शब्दात् परदि ऋतौ * अपि सातं सुखहेतुं प्रति न परिदेवेत कदा मम शरीरे शीतलत्व स्थात् इति न प्रलापं कुर्वीत कीदृशः साधुः उष्णपरितापन यः परिदाघस्त न * तर्जित: ग्रीष्मकाले सूर्यस्या तपन भूमिशिलादयः परितप्ताः सन्ति तत्र साधुरातापनां कुर्वन् तप्तभूमः शिलातो लोहकारशाला समीपत्वा हा परि - दाधन बहिः प्रस्खेदमस्वाभ्यां वहिना वा अन्तश्च तृष्णारूपेण तर्जितोऽतिपीडित: पुनरपि उक्त मर्थमेव दृढयति मेधावी साधरणाभितप्तः सानं मैव प्रार्थयेत् न अभिलषेत् पुनर्गात्र शरीरं नो परिसिञ्चत् न च प्रस्वेदादिसद्भावे प्रामानं वदेह वौजयेत् वौजनेन शरीरस न वातप्रक्षेपं कुर्यात् इत्यर्थ: भत्र परहनकथा यथा तगरानगयों पईमित्राचार्यपाखें दत्तनामा वणिक् भद्रामार्यानिकपुत्रेण समं प्रबजित: पिचा सर्ववैयाहत्यकरशन इतस्ततः परिभ्रम्य भव्यभिचा भोजनसम्पादनेन स बालोऽत्यन्तं सुखौ कृतः उपविष्ट एव भंने कदापि भिवायै न भ्रमति सनिवार्थ स्वभिधार्थच पितुरीव भ्रमणात् अन्यदा पितरि मृते साधुभिः प्रेरितः स बाली ग्रीमे मासे भिक्षार्थङ्गतः तापाभिभूतः प्रोत्तुङ्ग गृहकायाया मुपवियति पुनस्तत उत्तिष्ठति
शनैः शनैाति एवं कुर्वन्त मतिसुकुमारन्त महबककुमारं रूपेण कन्दर्पावतारं दृष्ट्वा काचित्रीषित वणिकभार्या पाकार्य गृहस्थापितवती तया सह ४ सो विषया प्रासक्तोऽभूत् पथ तमाता साधौ पुत्रमोहेन एथलो भूता पर अहंबकर इति निर्घोषययन्तौ चतुष्पधादिषु भ्रमति एकदा गवाक्षस्थेन अहंबकेन तादृशावस्था माता दृष्टवा संजातात्यन्त संवेगः स गवाक्षादुत्तीर्यपादयो पतित्वा मातर मेवाह हे मात: सोऽहमहन्नक इति तद्वचः श्रवणात्
परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसुवा परियावण साय नो परिदेवए ॥८॥ उन्हाहि तत्तो मेहावी सिणाणं नोवि पत्थए। मोडी लागोतेणे कारण मोडो सौधो ए चार मरण पांमी देवता धया पिण पग्नि न सेवी जिम ए चार सौत परीसह सयो तिम वीजा ने पिण सहियो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा. सं. २०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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उ.भाषा अ०२
इतिसौत परौसह उपर दृष्टांत कयो के तापे करौ उन्ही भूमिका यौलादिकेप तापे करौनेप० वान परितेवो भने मैलएवं पने अभ्यंतर घा तेह थी
उपनो दाध ज्वर त तेणे करी पौद्योधको थि उन्हालाने वा प्रश्ववा शरदऋतुने विष प०तापकरौ पौद्योयको साता मो.नवछि जे कहौर मौतल बास्लुंग * २०उन्हे तापे करौ अहि अत्यन्त पौद्यो म मर्यादावंत साधु सिम्रान मो.न बांके गा शरीर नो पांगीई' न सौंचे म. वौजणादिके करौसर्यवायरी न
घाले अव उष्ण परीसह दृष्टांतः तगरा नगर प्रतिही मनोहर तिहां दत्तवाणिक तेहनौ स्वौ भद्रा पुत्र अरहबक ते सुखे रहे एहवे समे अरहनक मित्राचार्य पधाया तहने वांदवा सकल लोक आश्री गुरु धर्मदेसना दौधौ अत्यंत संसारविषयः दुःखमोह पास सांभलौदत्त बने भद्रा पुत्र पहबक साथ ट्रव्यनी कोडौ खरची सौहनौ पर चारित्रधर्भ आदरखो गुरु पासे भणे पिणदत्तने भणवो नावे पाके पडे काना किम चणे इम जो पुत्रने भणवे प्राप पोते गोचरी पांगे की प्रेम थको सखरी वस्तु सुखडो मौठाइ पेड़ा घेवर मुरको मेवाप्रमुख पाणी पोखे पोत अति नौरस आहार करे किवार साधु को
पुत्रने गोचरी पांगरावो तुमने तप के तिवारे कहे वेया बच्चे लाभ के ई पांगरौस एवहरवानी वात न जाणे तिवार साधु कहे प्रागलि दोहिली थास्वे * दत्त कहे हिवड़ा लघु के इम तेहने सरस आहार सुखीयो कौधो केतले काले दत्त नामा साधु पासण करी काल कौधी तिवारे मोडधौरोवा लागो
हे पूज्य हे पिता जी आजका न बोलो हिवे मुझने कुणपुत्र कही वोलावसे अने सखरा मधुरा आहार कुण पोखस्ये हिवेसंजमनी मौर्वाह दीहिलो हुस्ये इम विलाप करतां माता आवो कहे अरे पुत्र मोह न कीजे आखासौ राखी गुरु पौण वालकने गोचरी पंगरावे नही तिवारे गणेश गोचरी कर्ता कई माता भद्रा प्रावो कहे अरे पुत्र मोहन कोजे अखासी साखि गुरु पौणवालकने सुखसे जीयो करौ राखा पिण हिवे एहनी कामविणससौ साधु गोचरी पांगरतो ते भणौ उहाले नगरी माहि गोचरौ साथै गया गणेश आगल थौ चाले अने अरहबक शरीर नो सकमाल अने ऊपर सूर्यनो तापस वेलु उपवा
राय धनपतसिह बाहादुर का श्रा.सं. उ. ४१ मा भाग
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भाषा
प्रावी तेणे ताप करी धाणौनी परमान तु सरिर प्रमेवे षादि पाखो हतो आवौ सानागोखठलिछांहडौये वीसामो लोधी उभी रह्यो तेहवे व्यवहारी यानी स्त्रौ गोखमै झांखो वोलाव्यो अहो सौभाग्य आपनी घरि पवित्र करो तुमे भिक्षा लो इम कहिने तेही मोदक लेइ आवी पौण रूप देख मोह पांमी नेत्रना कटाक्ष लगावौ हाव भाव करी काम वचन कहिवा लागौ माहरे भाग्ये तुमारी आगमन थयो भने प्रो धन तन मन ओवरए शय्या सर्व
तुमारी के हुँ पिण तुमने वांछु छु अनाथ नाथ धाओ ते मधुर वचन सांभलो चारित्र वर्ष थी तिहां रह्यो वलो विचार हिवडांती रहीये वलीगढ पण *दीचा पाली से ते उष्ण पाचोनो पौद्यो तिहा रह्यो षडऋतुना भीग भोगवे के गणेश गुरु पासे घावो कहे अर्हवक आव्यो त्यारे कहे नथी आयी साधा
जो यो पिण न लाधी भद्रा माताइ वात सांभलो जोतां न लाधी तेणे मोह गहिली थइ भमे मुखे अहवकर तुकिहां है इम करती विचर वालक कहे * ए अर्हवक ए पहनक तिहां थी दोडे वस्त्र अचेतन पणे भमता वारमे वरमे तेथे मेरीये भद्रा नौकली हजारा वालक पूछे फौरे के तिवार वालकने 8 सौर भद्रा गहिलो गलियां माहि दौठो मुख अर्हनकर तुकिहां के इम करता एहयो शब्द गोखे सांभली विलाप करती देखौने भद्राने अोलखी हिवे चितवा लागोसहौए माहरौ माता के मे अभागी माताने दुखणौ कोधी अने मे नर्कनो पाऊखो उपाय? इम चितवी गोख थकी उतरीने माताने वोलाबी ई अहवक एहको सांभली हौया वारिवापिने मन ठामि आव्यो पुत्र चादर मोढवा दौधौ स्वस्थ चित्त थइ मन संतोष उपनो माताई वेटो पुल्यो हे पुत्र अाज लगे किहाँ हुतो तिवारी तेणे पहनके पापणपे गोखेउभौ स्त्रो भोगवीते माताने सर्वस्व रूप कह्यो तिवारे पीछे माताई ॐ पुत्रने को है बच्छ चारित्र नखंडए भोग मुकीएकांत चारित्र पाला तिवारी तेणे पुत्र को मे पापीये चारित्रनपले पिण कही तो प्रण सण उचक
तेहवे मावोली बच्छ इमकरि पिच पाप मत करि ए मातानो वचन सांभली हुते वैराग्य थके तप्त मौला उपरि पादोपगमन अणसण लेई क्षण एक
000-00-0RRRRRRRRRRRRXXXXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ० ४१ मा. भाग
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स्वसचित्ता माता तमेवमाह वम भव्यकुलजालस्य तव केयमऽवस्था स प्राह मातचारि पालयितुमहं न शक्नोमि साप्राह तर्हि अनशनं कुरु माह वचसा स सप्तथिलायां सुखा पादोपनमनञ्चकार सम्यग् उष्णपरीषहं विषय समाधिभाग् देवत्वं प्राप्तवान् एवं अन्य रपि साधुभिरुष्ण परोषहः सोढव्यः ततो पौषकालादनन्तरं वर्षाकालः समागच्छति वर्षाकाले दंशमशकादय उत्पश्यन्ते तैय पौडित: सन् तत्परौषहः सोढव्यः पुढीय दंस मसएहिंसमरेव महामुशी नागो सङ्गामसौसे वा सूरो अभिहणे परं १० न सन्तसे न वारिज्जा मपि न पोसए उहवे न हणे पाणे भुञ्चन्ते
गायं नो परिसिंचिज्जा नबीएज्जाय अप्ययं ॥६॥ पुट्ठोय दंस मसएहिं समरेव महामुणी। नागो संगाम सौसेवा
सूरो अभि हणे परं ॥१०॥ पसंतसे अवारज्जा मण पि नपोसए। उवह नहणे पाण मुंजते मंससोणिय ॥११॥ माहि उष्णपरीसह सही मन संबरी जिमतापने जोगे मांखण विघराइ तिमतनविघराणी परिणाम शुद्धयी काल करौ देवताही जिमर्तणे अनिके पहिलो चूकोति मन कर अने जिमछे हडे कामसायो मन ठाम राख्यो तिम करवो इति उष्ण परिसह उपर अर्हवक दृष्टान्य संपूर्णम् अश्वाये सूत्र माह १ पु० फरस्थो पौद्यो द. डांसमसे करीने स० तेडा सममाने आपणा आमा सरोषा जले खुवे म० मोटी साधुजी ना. जिम हाथी संग्राम या ते थक अणणौड मिली हुई एह वा संग्रामने विषे सू. जिम सूरहाथी प. अशी इजीपे ५० वेरौने १० न० डांसमसाने वासवे नही म० मवारे अंतरा यन कर चटको देता म. मने करीने पिण न न कर देष उ. उदासौन पणाने भावे करीन इणे नही पा• जीवने भु० खाता थकां मं• पो तानी मांस अने लोही ११ अब दंसमसकदृष्टान्त चंपानगरोइ' जितशत्रु राजानो पुत्र श्रमणभद्र श्रीधर्मघोष सरिकने प्रतिबोध पांमी दौख्यालोधी केतलें
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा• सं० उ. ४१ मा भाग
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भाषा
उ.टीका मतदारयामा
* मंससोचियं ११ महामुनिमहातपस्सी धमयजन्तुभिः स्पृष्टी भञ्चितः सन् न सन्खमेत् चासं न प्रानुयात् बहुवचनमहात् यूकामखुप सुनसका प्र.२ * दयोपि प्रान्त कौडयो महामुनिः समएव समत्वेन युक्त: अत्र समरे रकारः प्राक्तत्वात् क इव संग्रामशीर्षे रचयिरसि भाग इव हस्तौव कौशी
पस्तौ शूरः यथा शूरोऽभङ्गो हस्ती युधे स्थितः परं गत्वं हन्यात् एवं महामुनि रपि क्रोधादिकं अन्तराम जयेत् दंशादिभि पद्यमायः क्रोधं न कालें विहार करता यमणभद्र ऋषो अटवीर पुंहता तिहां प्रतिमाइ रह्या जे चे भमरा घणा के अने मधु के ऋषि सरौरे मधु है ऋषोखरने शरीरमधु नाटी पका लागा तिवारी भमरा डांसमसादिक प्रावी पीडा जपजावी पिण लिगारमात्र मनधीन चात्यो तिहां रयो नरकनी बेदनाना दुख जपजे चिंतवे पर जीव सिद्धांत मांहि एहवा र नरकना दुख कद्या के ते संभारतो कान धौ यतः नरए सुजार पाइककड कडाई' दुक्खाई परम तिक्साई' कोवबेद ना जीवंतो वास कोडिवी १ नरक माहिजे कर्कश परमतिषण माठि तौववेदना खेत्रादि परमाधांमौनी कोधो वेदना परस्पर बेदना दुखे कुणे वसवोई जो वरम नौकोड लगे वोलेतो पिण बोलो न सके बली मरकना दुख कहे के कर्कश दाह परमाधामौनी कौधौ वेदना पनें भागमा हे पचवो लोहमय कंटक शूली चौंधवो राईज वहा खंडनु' करवो काग साग समलो ढंकादि कैचूटिवो पने शाल्मली इचमाहि पाकर्षवो खांडानौधार सरौखा पांनहा एहवा प्रसिपबाहिबे सारवो तिथे करीने गाव छेदाई बलौ तातो तरुवो उकालि पावर वैतरणो नदो मांहि झूजवें अने ते नारकोने काई सुख नधो तिबारे ऋषोखर डांस मसाना परिसह सहतो विचार इसे जोवें नारकोनि वेदना सहो तथा तिर्यचादिकनी वेदना सहीतो डांसमसा भमराने करडवे ऋषि चूकि इम चिन्त विचित्त निश्चल करौ सह चमा शभ भाव नाई कालकरिने देवलोके गया जिमची श्रमणभद्र ऋषोखरें डांस मसादिकनी परोषह सह्योतिम प्रय
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं. उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०२
६३
सूब
भाषा
कुर्यादित्यर्थः च पुनस्तैः पौडितच न सन्वसेत् उद्देगं न प्राप्त यात् पुनस्तान् दंशादौन् न निवारयेत् तेषां वारये हि श्राहारान्तराः स्यात् मनः अपि न प्रदूषयेत् मनोषि कलुषं न कुर्यात् निवारणं तु दूरतएव त्यक्त' यदि तेषु मनसि अपिक्रोधं न कुर्यात् किन्तु तेषु दंशमशकादिषु दुष्टजीवेषु मांस शाणितं पललरुधिरं भुतानेषु उपेचेत उदासोनभावे वर्त्तेत रागद्वेषरहितो भवेत् प्राणान् तान् दंशमशकादीन् मांसरुधिरं भुञ्जानान् न हन्यात् अत्र श्रमग्रभद्रकथा ११ यथा चम्पायां जितशत्रुनृपस्य पुत्रः श्रमभद्रो युवराजा श्रीधर्मघोषान्त प्रब्रव्य एकाकित्वविहारेण विहरन् अन्यदा शरदि ऋतौ अटव्यां प्रतिमाखितो दंशमशकैः पोद्यमानोऽपि निवल: स्वयमनंशात भुतनरकवेदनास्वरूपं चिन्तयन् समाधिना मृत्वा दिवङ्गतः एवं दंशमशकपरौबहः सोढव्यः अथ च दंशमशकादिभिः पौद्यमानो वस्त्राभाकरो न स्यादतो पचेलपरोषहमाह परिजुदेहिं वत्येहि क्यामिति अचे लए अदुवा सचेलए हुक्व' इद्द भिक्ख ू न चिन्तए १२. एगया अचेलए होइ सचेलए आवि एगया एश्रं धन्म हिनं नचा नाथौनो परिदेवर ११ भिक्षु परिजुन्नेहिं वत्येहिं होक्खामित्ति अचेलए । अदुवा सचेल होक्ख' इइभिक्खू न चिंतए ॥ १२ ॥ एगया अचेलए होइ सचेलएयावि एगया । एयं धम्मं हियं नच्चा नाणौनोपरिदेवए ॥१३॥ गामाणु गामंरीयंतं अणगारंअकिंचण' । परई
साधु खमवो इति दंसमसकपरोसह दृष्टन्त अब अचेल परीसह कट्ठी कहे छे पं० सर्वप्रकार जु० जूने व वस्त्र करोने हु० थास्यूड श्र० वस्त्ररहित एह वा दिन घणा रहितके अ० अथ वाहु स° वस्त्र सहित थास्यू मूझने जूना बस्त्र देखिने कोइक वस्त्र देस्य इ० एहवो दौनपयो भने उत्कर्ष पो भि० साधु न० न चिंतने १२ ए० एक वार जोनकल्पोनी अवस्थाइ अ० वस्त्र रहित पिण हो० हुवे स० वस्त्ररहित हुवे ए० एकवार स्थिवरकल्पोनी
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० भाषा अ०२
६४
अवस्थाइ ए० एब धर्म वस्त्र सहितपणो अने वस्त्र रहित पणो हि० हितकारी न० जागौने ना० ज्ञानवंतो नो० न पामे खेदवस्त्र रहित शीतकाले ह दोहिलो थास्यूं दौनपणो न करे १३ अथ अचेल परीसह दृष्टांत दशार्थपुर नामे नगर सोमदेव नामे पुरोहित तेहने रूढ़ सोमा भार्य्या तेहने पुत्र श्रार्य रचित परदेस जइ १४ विद्या भणी पारगामी थाई श्राव्योराजाने मिलौ महा पसावापामौ महोच्छव सहित आपणे घर आवो पिताने परीला गो माता ने प्रणाम कौधो माता प्रणाम न झाले तिवारे कारण पूछो ते रूढ सोमा श्राविका के तिथे हेते करौने को तेंए हिंसादिक शास्त्र भख्या fपण अजे तांई दृष्टिवाद धर्मशास्त्र भण्यो नहीं ते स्यूं भण्यो तिवारे माताने कहे ए विद्या कुण भणा वसौ तिवारेमाता कहे ताहरो मांगो तोसलि पुचाचार्य जेपा से जाईने भयो तिवारी हां भणौ माताने प्रणाम करो चाल्यो वाटमे से लडीनव आखी अने एक आधी मिली माताने कहा व्यों मुझने से लडी साठी नव मिलौ के माता की साठा नव पूर्व भयो श्रयं रचित उपाश्रये पासे आव्यो पिण विचास्यो किम बोलस' एहवे एक ढट्टर श्रावक उपाश्रये महि प्रवेश कस्तो तिथे रावो आर्य रचित श्रोतोसलीपुत्राचार्य मांगाने वांद्या पास बैठे शिवे को आज नगर मांहि मोटो आडंबरी आव्या गुरु को ए ताहरो भांगे जो के गुरु बोल्या हे आर्य रचित किम आव्या ते कहे दृष्टिवाद भणवा माटे तिवारे कहे ए तो दोख्यालोइ' भाइ' तणे दीक्षा लोधी ग्यारे अंगभण्या के पूर्व विद्या सौखवाने वच्चस्वामी पासे मो कल्पी अंतराले उज्जयनी वासो रही भद्रगुप्ति सूरवांदि वज्जस्वामी पास गयो के तेहवेवव खामो रात्रि स्वप्नो दौठो जे एके शिकवे दुधपौधों ते विचारी प्रभाते चतवे के एहवे आर्यरचित झावी वंदना कौधी तिवारी पूर्वलो वात पूछी सर्व कही भणाववा मांड्यो नव पूर्व भण्यो दसको पूर्व भगतां आलस थयो गुरुने कहे केतली एक भगवो के गुरु कहे बिंदुमात्र भये समुद्र थाके के गुरु थाको जांणी संथा राखौ आचार्य पद दौधो एहवे पाछलि थौ भाई तेडवा आव्यो तेहने प्रति बोधदे दोचा लौधौ तिहां थो विहार करी माता पिता ताई
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आ० सा० उ० ४१ मा भाग
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० :
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ONE
साधुर्वस्त्रेषु परिजौर्येषु सत्सु इति न चिन्तयेत् मनसि न विचारयेत् इतौति किं अहं वस्त्राभाव अचेलको निर्वस्त्रो भविद्यामि न विद्यते चेलं
वस्त्रं यस्य स अचेलकः इति दैन्य न कुर्यात् अथवा एतादृशं जीर्थ स्फटितवस्त्र' मां दृष्ट्वा कश्चिधर्मामा दाता मह्यं वस्त्रं दास्यति तदाहं सचेलको 8 वस्त्रसहितो भविभामौ ति प्रमोदभाग् अपि न स्वात् एतावता वस्त्रस्य अप्राप्तौ वस्त्रस्य प्राप्तौ वाविषादी वाह! वा साधुना न विधेयः प्राप्तयाऽप्राप्ती: * सदृशे न भाव्य मित्यर्थः १२ पुनः साधु रेवं चिन्तयेत् एकदा जिनकल्यावस्थायां साधु रचेलकः स्यात् इय मपि साधो रेवा वस्था स्थविरकल्पे पिदुर्लभ • नेवंदाविवानेदस पुर आव्या देशना दौधौ वैराग्य थी रुद्रसोमा भाई फा रक्षित प्रमुखने दौचा दौधौ तेहवे सोमदेव पिता ते पिण पुत्रपासे रहे लाजना ॐ वस थी कमंडल धोतीयो उपानह आपणी लिंग मूके नहीं एकदा गुरु बालकांन सौखव्यो बीजा साधुने वांदिज्यो पिता सोम देवने मति वांद ज्यो * तिणे बालका तिमज कोधो तिवार सोम कहे तुम्हे माहरा बेटा सर्व वाद्या मुझने किम न वांदो स्यूं दीक्षा न थी लौवी बालकां कह्यो दीक्षा धारी
पासे छवादिक न दुवे एहवी वचन सुणी छत्रनमंडलादि सर्वमे छांद्या पिए एक कडि धोतीयो राखे तेहवे एक साधु अणसण कौधे कालगतहुओ तिहां आचार्य कडि पटी छंडाडिवा भणी साधुने कहे अही साधु एमृत कने कांध करो वह महा पुण्य तिवारे सोमदेव कह्यो हुँ वही सवली गुरु
बोल्या इहां घणा उपसर्ग थावे चेड़ालागे इम दृढ़ चित्ते सोम देवे मृतक लोधी आधेरौ जाता बालके संकेत थो धोतीयो काढ़ी लोधु' बोजो धोतीयो . साधु पहिराव्यो केतलो भूमिज इते बोसरावि गुरु कन्हे पाव्यो गुरु कह्या त्यावी लांबी धोतीयो सोमदेवने पहिरावी तिवार सोमदेव कहे जे सरौर देख
तो हुतो ते दौठो हिवे एहज चोलपटो पर मानोपेत वस्त्र धारी सुधी चारीच पाल्यो तेण पहिली अचेलक परीसरीसह न सधी पके सधी हिम बौजे सहिवो इति अचेलक परीसह दृष्टांत अथाग्रे सूत्रं । वस्त्र रहित संयमने विषे अरति ऊपज वानी संभव ते भणी सातमी अरती परीसह कहे हे यामा
भाषा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा. सं. उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०२
६६
वस्त्रत्वेन पूर्ववस्त्रस्य जौर्णत्वात् नाशे जाते सति अपरवस्त्रप्राप्ताभावेन निमित्तं विनापिनिर्वस्त्रः स्यात् तदा मनसि साधुना इति विचिन्तनौयं इदानीं अहं जिनकल्यावस्था भजामि जिनकल्पौ तुमुनि रचेलक एव तिष्ठति पुन रेकदा स्थविरकल्पावस्थायां वस्त्रस्य धारणेन सचेलकः अपि भवेत् एवं अमुना प्रकारेण वस्त्राभावे जिनकल्पावस्थाचिन्तनेन वस्त्रसद्भावे स्थविरकल्पावस्था चिन्तनेन उभयं धर्मं ज्ञात्वा ज्ञानी साधुन परिदेवेत नो विलापं कुर्वीत कोदृशं धर्मं हितं हितकारकं १२ अन पितृसोमदेव मातृभद्रसोमा भ्रातृफल्गुरक्षितादीनां कथाः । यथा दशपुरे नगर सोमदेवो हिजो स्तितस्य भार्या रुद्रसीमानाम्नो वर्त्तते तयोः पुत्रौ आर्यरचित फल्गुरचितौ स्तः श्रर्यरचितेन पितुर्विद्या पूर्ण गृहोता पश्चात् पाटलिपुरे नगरे अधिकविद्यापठनाय कस्यचि दुपाध्यायस्य पार्श्वे गतः तत्र तेन सांगोपाङ्गाश्चत्वारो वेदाः पठिताः चतुर्दशविद्यास्थानानि गृहीतानि ततो दसपुरं नगरं प्राप्तः नृपादि सकललोकः प्रवेसोत्सवं कृत्वा पूजितच खग्टहे गत्वा मातरपितरौ प्रणत: पिता प्रतीष हर्षवान् जातः माता तु नैव हर्ष मनाग् दर्शयति रक्षितः प्राह हे मात स्त्वं मदध्ययनेन किं न हृष्टाः सा प्राहकि मनेन जीवघातादिनिमित्तेन बहुशास्त्राऽध्ययनेन किं त्वया दृष्टि वादोऽधीतः येन मम हर्ष स्यात् तत स्तेन पृष्टं दृष्टिवादं कास्ति मात्रोक्त इक्षुवाटके स्थितानां तोसलिपुत्राचायीणां समोपेस्ति तत स्तेन भणितं मातः कल्पे तत्र यास्यामि दृष्टिवादभणनार्थं रात्रौ सुप्तः सत्रे वञ्चितयतिदृष्टीनां वादः दृष्टिवाद इति नामाप्यस्य शास्त्रस्य सुन्दर मिति प्रभाते तत् भणनार्थं तत्र चलितः मार्गे प्रथमत एव दसपुरनगर प्रत्यासन्नग्रामवासी पिटमित्र साईनवेत्तुयष्टियुतहस्तो ब्राह्मणी मिलित: कथितच्च तेन श्रहं मिलनार्थं आगतोस्मि ततः स्वागतं परस्परं पृष्टं पश्चादार्यरक्षितेनोक्त' अहं कचित्कार्याय गच्छन्नस्मि इदं साईनवेत्तुयष्टिप्रासृतं मातुर्हस्ते ऽर्पणीयं कथनीय चाहं पूर्व मार्यरचिताय मिलितः अथ तेन तथै वकृतं ततो माता तुष्टा सती चिन्तयति मम पुत्रण सुन्दरं मङ्गलं दृष्टं सार्द्दनवपूर्वास्यध्येष्यति
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राय धनपतसिंह बाहादुर का भा०सं० उ० ४१ मा भाग
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टीका पुत्र प्रार्यरचितोऽपि शुभं शकुनं चिन्तयन् गतं इक्षुवाटकं तत्रै कस्मिन् पार्वे स्थित्वा दृढ़तरवाइवन्दन विधिं दृष्ट्वा उपाश्रयमध्येप्रविष्ट: वन्दिता स्तोसलि
पुत्राचार्याः ते पृष्टं स्वरूप प्रयोजनच्च सर्व मप्युक्त्वा मम दृष्टिवाद मऽध्यापयंत्विति वदन्तं तं सूरयः प्रोचुः यद्यऽस्म दन्तिकं प्रव्रज्यां सतासि तदा तमध्यापयामः तेनोक्त' एव मप्यस्तु ततः स प्रव्रजितः कथयति भगवत्र सकललोकव्याक्षिप्तस्य मम विद्याग्रहण स्वल्प मेव भाविर्तन क्वाप्यन्यत्र गम्यते गुरुभि स्तया कृतं भणितोऽसौ सो पांगानि एकादशांगानि अथ पूर्वपठनार्थ तीसलिपुत्राचार्यरसावार्यरचितः श्रीवञ्चस्वाम्यन्तिके प्रेषितः पथि गच्छन् अयंत्यां श्रीभद्र गुप्तसूरीणां निर्यापनां कृतवान् तैश्चात्य समये प्रोक्त पठता त्वयावजस्वामिमंडल्या न स्थेयं यत स्तुन्मंडलोस्थाता तेनैव सह मियते एवं तच्छिवां श्रुत्वा ततो गतः श्रीववस्वामिपार्श्वेतैश्च रात्री क्षीरभृतं पात्र आगन्तु केन शिष्येण किचिदूनं पौतमिति स्वप्नो दृष्टः तत
स्तेन पृथक् मण्डलों कृत्वा अधीतानि श्रीवजस्वामिपाखें नवपूर्वाणि वजस्वामी तु पृथक् मण्डलो कारण ज्ञात्वा न किश्चित्तस्यो क्तवान् दशमपूर्वी *धिकाराः केचन यावत्तेन पठिता स्तावदशपुराञ्चिरकालविरहादित मारपिप्रमुखकुटम्ब प्रेरितः फलारक्षितो भ्राता तस्याकारणाय समा यातः
आर्यरक्षितेन तव प्रतिबोध्य प्रव्राजितएकदा आर्यरक्षितः श्रीववस्वामिनं पृच्छति भगवव्रतः परं पूर्वपाठः कियानवशिष्टोस्ति ववस्वाम्याह * वत्स त्वया बिंदुमात्र पठितं समुद्रोपमं दशमं पूर्व मस्ति ततोऽसौ थक्क परिणामः प्राह ना ह मत परं पूर्व पाठं कत्तुं शक्नोमि गुरवस्तु दशम पूर्वाईस्य
स्वस्मिन्नेवव्युच्छेदं ज्ञात्वा मौनेन स्थिताः असौ गुरून नुज्ञाप्य स्वसांसारिक वन्दापनार्थ दशपुर नगर प्राप्तः गच्छतस्तस्य गुरुणा सूरिपदं दत्त प्रथा बरचित मूरिस्तत्र स्व माटभगिनी प्रमुख सर्वसांसारिकवर्गो दीक्षां ग्राहितः पिता तु प्रतिबोधितोऽपि साधुलिङ्ग न एताति व जातीयजनानां लग्नां च वहति प्राचार्या दौवाग्रहणाय तस्य बहु कषयन्ति ततः कथति पृथुल वस्त्रयुगल १ यज्ञोपवीत २ कमण्डलु ३ छत्रिका ४ उपानद्भिः ५
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ०४१ मा भाग
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टोका
समञ्चेत् दौचां ददासि तदालामि ततो लाभं दृष्ट्वा तादृशमवतं गुरुः प्रवजितवान् ग्राहितश्चरण करणस्वाध्यायं अन्यदा चैत्यवन्दनार्थ गता आचार्या तत्र साधुशिक्षिता गृहस्थडिम्भका वदन्ति एनं छत्रिणं मुक्त्वा सर्वान् साधुन् वन्दामहे ततः स वृद्धो वक्ति मम पुत्रा न मादय एतं वन्दिताः अहं कस्मात्र वन्दितः किं मया दोधा न होता ते पाहुः कि दीक्षितस्य छन्चकमण्डलादौनिस्युः ततो गुरुषु आगतेषु स हदो वक्ति पुत्र मम डिम्भका अपि हसन्ति ततो न कार्यकत्रेण एवं प्रयोगण क्रमतो धोतिकवस्त्र मुक्ता सर्वन्त्याजित: बहुयस्तथा प्रयोगकरणेपि धौतिक न मुञ्चति अम्बदा एकः साधुर्य होता नशनः खर्ग गतः ततः प्राचार्य वस्य धोतिकत्याजनाय साधुन् प्रत्येवमुक्तं य एनं मृतसाधु व्यत्सृष्टं स्कन्धेन वहति तस्य महत्पुण्य ततः स स्थविरो वक्ति पुत्राऽत्र किं बहुनिर्जरा आचार्गः प्राहुः बाढन्ततः स वक्ति अहं वहामि आचार्या वदन्ति अत्रीप सर्गाजायन्ते चेटकरूपाणि लग्यन्त यदि शक्यतेऽधिसोढुं तदा वरं यदि चोभी भविष्यति तदा शुभमस्याक' भविश्थति एवं स्थिरीक्वत्व स तत्र नियुञ्चितः साधुसावी समुदायः पृष्टौ स्थितः या वत्तेन साधुशवं स्कन्धे समारोप्य वोढमारब्धं तावत्तस्य धौतिक गुरुशिक्षितडिम्भकै राकर्षितं स लज्जया यावत्तत्माधुशव स्वधाम्मुञ्चति तावदन्यै रुक्तमा मुच्च २ एकेन चोलपट्टको दवरकेन कृत्वा कटौ बहः स तु लज्जया तमाधुशवं हारभूमि यावत् उदूध तत्र व्यु त्सृज्य पश्चादागतो वक्ति पुत्राद्य महानुपसर्गो जातः प्राहुराचार्याः आनीयतां धौतिक परिधाप्यतां ततः स वक्ति अथाऽलं धौतिकेन यत् द्रष्टव्य तत् दृष्टमेव अथ चोलपट्टएवास्तु पूर्वन्तै न अचेल परोषहो न सोढः पचासोढः ३ अथ अचेलकस्य शौतादिभिः अरतिः स्यात् अतस्तत्परौषहमाह गामाणगामं रोअन्त' अणगारं अकिञ्चणं अरई अणप्य वेसे तं तितिक्ले परीसहं २४ अरई पिडओ किच्चा विरए आयरक्खिए धम्माराम निरारम्भ उवसन्त मुशौचरे १५ अरतिः संयमऽ धैयं यदा अनगारं अनुप्रवियेत् अरति परोषही मुनिं स्पृशेत् तदा साधु स्तं परीषह तितिक्षेत सहेत किं कुर्वन्त अनगारं ग्रामानुग्राम रोयन्त ग्राम ग्राम अनु इत्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ. ४१ मा भाग
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गुबाम एकं ग्रामं व्रजतो मुनेः अन्तराले आगतं ग्राम अनुग्रामं तत्र विचरन्त' कीदृशं अनगारं अकिञ्चनं न विद्यते किञ्चनं यस्य स अकिञ्चन स्तं * परिग्रहरहितं पुनरुत अवं दृढ़यति मुनिः अरति परिषहे उत्पन्ने सतिअरतिं पृष्टतः कृत्वा दूर कृत्वा धर्मारामः सन् संयममार्गे चरेत् विचरेत् धर्मे पार
मते रतिं करोतौति धर्मारामः पुनः कीदृशः साधुविरतः आश्रवात् रहितः पुनः कीदृशोनिरारम्भः प्रारंभ रहित: पुन: कीदृशः उपशान्तः निःकषायः१५ * पत्र पुरोहित राज पुत्रयोः कथा । यथा अचलपुर जितशत्रु नृपपुत्र अपराजितनामा रोहाचार्य पाखें दीक्षितः अन्यदा विहरन् तगरां नगरौं गतः
तावता उज्जयिन्या आर्यरोहाचार्य शिष्यास्त वागताः पृष्टं साधुना तेन उज्जयिन्या स्वरूपं तै रुन सर्व तत्र वरं वृपपुत्वा अमात्यपुत्रौ साधूनुद्देजयतः * ततो गुरुना आपृष्य स्वचाढव्यबोधार्थ शीघ्र मुज्जयिन्यां गतः तत्र भिक्षावेलायां लोकार्यमाणो पिबाढ़ स्वरेण धर्मलाभ इति पठन् राज कुले प्रविष्टः राजपुत्रा अमात्य पुत्वाभ्यां सोपहास माकारितोऽत्रागच्छतः वन्द्यते तत: संगत: ताभ्यां उक्त' वेमि नर्तित तेनोक्त' बाढं परं युवा वाद यतां तौ तादृशं वादयितुं न जानौत: तत स्तेन तथा तौ कुहितौ पृथक् कतहस्तपादादि सन्धिबन्धनौ यथा अत्यन्त माराठिं कुरुतः तौ तादृशा वेव मुन्ना साधु कपाश्रये समायात: ततो राजा सर्वबलेन तवायत स्तं उपलक्ष्य प्रसादनाय तस्य पादयोः पपात उवाच स्वामिन् सापराधावपि इमौ सजीकार्यों अतः पर मपराध न करिथतः साधुनोक्त यदौ मौ प्रव्रजत स्तदा मचामि राज्ञोक्त एव मध्यस्तु ततस्तौ प्रथमं लोचं तत्वा प्रवा
अण पवेसे तंतितिक्खे परीसह ॥१४॥ अरई पिठो किच्चा विरए आय रक्खिए। धम्माराम निरारंभे उवसंते ग्रामप्रत रो. विचरता प. अणगारने प. परिग्रह रहितने अ. संयमने विषे अधौर्य पणो अ० प्रवेसने विषे त. ते भणी परति रूप ति सहवो प. ४ परीसह प. संयमने विषे अर्घायपण पि. परही करी करौने वि. हिंस्यादि कथौ निवौ एहवो वीरती अ. दुर्गतना हेतु थी प्रामा राख्यो जेणे
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाग
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उभाषा
अ.२
७०
ध. तसाधु धर्मरूपीयो पारामने विषे रतिपम नि आरंभ रहित उ° उपयांत थकी साधु च. चाले संयम मार्गने विष १५ परति परिसह उपरि
कथा अचल पुरनगर जित शत्रु राजा तेहनी पुतु अपरा जितना मातिणे रो हाचार्य पाशें दीक्षा लोधी अन्यदा विहार करता सगरा नगरी गत ४ ते समें अवंती थको आर्य रोहाचार्यानी शिष्य तीहां आव्या पुछ साधु तेने ते कहे अवंती थको आव्या तिणें पुयु तिहां साधु नाभक्ति करणहार
के हवा ते कहे सर्वजनधरमी पण तृपपुत्र साधनाद्देषौ एहवा समाचार सांभली गुर शौथने आज्ञा दौधौजे तुमे जे तुमारा भाग्ने प्रतिवोधी शीघ्र जाश्री तिवार शिथ अवंती पाव्या अनुक्रमें गोचरौनीवे लागो चरिये चाल्या तिवारे लोके वाया रखे राजाने घरे गोचरी जाओ मतौ तिण कहण, न मान्यो राजहार जाइ गाढा साद करी धर्म लाभ उच्चरे राजपुत्र अमात्य पुत्र आवी हा सो करवा लागा आवो तुमने बांदीए तिवार ते पासे गया तिवार साधुप्रत कह तुम स्युजाणोठी तिवारी साधु कहे हमे सर्वजाणीव तिवारते कहे नृत्य करी जाणी साधु कहे कही तेहवो नाचकौ0 ते
कहे अमे वाजाउ ते प्रमाणे नाचसो साधु कहे तुम कहो ते प्रमाणतो वारुवली साधु कहे तुम वाजावस्यो तिम नाचवी अने अमे नाचुते प्रमाणे * तुम वजावस्यो तिवारें तिणे वातमानी वलती साधु भणे जे जे हनी प्रतीज्ञा न पूरवें तेहनेस्यो दंड तिवार बेइकुमर कहे जे जे हनी प्रतिज्ञा न
पूरवे तेहारे जे जीते तेहने मनमाने ते करे इम करी साधुने न चावे अने बेकुमर वजावे तेवाजा प्रमाणे साथ नाच कर साध महा कलापात्र * साधे बेर् कुमरने जीतौ राजौ कोधा तिवारी साध कहे प्रमो अमा राजाण्यानो नाच करौ घेते प्रमाण वाजा वजावा तिवार तिणे वात मानी बेइ
कुमर वाजायजा पने साथ नाच कर तिवारे साध नाचेते प्रमाण वाजानीमेल उतर नही साधु तो वौद्याने बले जीते साधु जीत्या तहाखो तिवारी बेइकुमर कहे स्वामी तुमारो जीत घडू तुमारे चौत्त मानेते दंड करो तौवारे साधर जोहरण संघात मोइकमकुव्या अनुक्रमे साधु थानके पाण्या
. .४१ मा भाग राय धनपतसिंह बाहादुर का आसा
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उ.भाषा
* पण बेकुमरने महावेदनाउपजावी आनंद कर शरीर शितल करौ नांख्यो अनुक्रमे राजाभोजनने अवसर मंदिरमा आवौ कुमरने तेडावें कुमर आवे तो
भोजन कोज तिवारे कुमरना पास वानसेवक कहे महाराज कुमरने महा वेदना के राजा कहे वेदना नो उपाय करी तिवारें जिम जिम उपाय करें तिम तिम वेदना अधिक पाए वलो कुमरनासेवक कहें महाराज इहां साध आव्या इता तिणें बेइकुमरने माहकम मारदीधी रजो हरण संघातें
तिवारें राजा वचन सांभलो कई के साध उपगारो साध उपगार कस्खो हसे एह वोनिहचे हवें कुमरने महा वेदना मरणांत कष्ट मरण भली * पनवेदना नखमाये तिवारी साधुन पूच्यो स्वामौए हनें समाधि कि मथाए तिवारें साधु कहे भेलें कुमर दौख्याले तो समाधि थाए तिवारे माता पिता कहे दोक्षा लेतां वेदन जाए घणो भलो तिवारें कुमरने पूछे तुम दिक्षा लेशो तेसरी रेसाता थाए ति चारित्र ले बाउ जमाल थया
तिवार साध आपणो विद्या अपहपरी सरौरे साता थाई तिवारे तेंहने माता पिताई घणो महोत्सवे दीक्षा लोधी साधुनो आचार सूत्र सौहान्त * भणवी देस नादेवा समर्थ थया अनुक्रमे गुरनो आन्ना लेइ विहार करे रुडेवे राज्यपूत्र चारोच पाले अमात्य पुत्र मनमातिवेज मुझने बलात्
कारे दौशादोधो परं चारित्रपालो देव गते गया अस्मिन् एहवा समयनें विशे कोशांबी नगरी मां तापस श्रेष्ट मरणपामी पोताने घर शुकर थयो तिवार तेहने जाति स्मरण ऊपनी सर्व पोताना सुतादौ कुटंब प्रमुख समस्तने जाणे पण बोलो सके नही अन्यदातस्य सुतते हमें शकरो इणिस शकर पोता नाघरमांसप उपज्यो ते सर्यने जाति स्मरण उपनी तौणतें सर्पने हस्थी तिवारते सर्प नीयो निथको पुवनें घर पुत्र उपच्चा ते बाल कनें पिण जाति स्मरण उपनी तिवारे बालक मनमे चिंतवे आता माहरा पूबनी स्त्री एहने माता किमकह पामाहरी पुत्र तेहनें पिता किम कई इमाणी ते बालक बोले नहो माता पिता जाण्यो आ बालक गुंगोछे इम करता ते बाल कमोटो थयो मोन पण रहें मननीयात कोई जाये
राब धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०४१ मा भाग
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उ० भाषा
अ०२
७२
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नही इम करतां कोइक ज्ञानी गुर आहारने अर्थ धाव्या तिते बालक देखो शरीरनोचेष्टा जोईने साधु बतलावें तिवारे पाडोसण स्त्री बोली की खामो ए बालक जन्मनोज गुगोके तिवारे साधु कहे ओगुंगो न थी हवणा वातो क इम कही एक गाथा कही यत गाथा तापस कि मिण सूत्र वरथपडि वज्ज जाणि यंधम्मं मरि उपारी रगजाओ जाओ पूतस्म पूतति १ अर्थ तापस मरी वरथयो सुवरने पुत्र माथी तिवारे सर्प थयो सर्प हो तिवारी पूर्वनें घरे पत्र थयो एहवी गाथानो अर्थ समझौन ते बालकने प्रतिबोध लागो तिबारे मुखे बोल्यो शुश्रावकथयो एतला समयने विषेसी श्रमात्य पुत्रो जोव देवो महा विदेह तीर्थ करने पूछे स्वामिमाहरो जौव शुलभ बोधी किंवा दुर्लभ बोधी तीवार तीर्थ कर कह त्वं दुर्लभ बोधी कोसंबी नगरीमा गुगानो भाइ बाइस एहवी भगवाननो वचन शृणी ते देवता गुंगा पायें आवे तेंहने बहु द्रव्य आ पौवात कहेड' देवता नाभवथको चवीस ताहरो लघुभाई बाईस बली माताने आनो अकालें दोहली उपजस्ये तिवारेतुं सदा फलग्राम आपजे वली मुझने ध उपजें प्रतिबोध लागे तिमकौजे ए वातनो मुझनें वचन आप तिवारें ते देवता वचन लेई देव देव लोके गयो एतले देवतानो आयु पूर्ण करौ तिहां अवतरे अनुक्रमे मातानें दोहलो श्राम्रनो उपनो तेज वने माता उपजे तिम श्राम्र श्रापी संतोष उपजाया अनुक्रमे जन्म घयो घणो उछाहेंना मदोषो अनुक्रमे ते गुंगी श्रावक उपाश्रय जाय तिवारे लघुभ्राता ने ले जाए तौहां ते वालक साधु ने देखि घणो रुदन करे अनुक्रमेंतें बालक हद थयो तेहने उपदेश साध अपेते दुर्लभ बोहि तेहने किमहो उपदेश नलागेतेतो वचने बंधाणी धर्मशालामा धर्म सांभ लवालेह जाए तेहने उपदेशन लागो एतले ते गुरुंगो श्रावक धर्म सांभली वैराग्य पणे पामो दोचालोधी रूडो चारीत पालो मरण पामौ देवता थयो अनुक्रमे देवताः ज्ञाने करो पूर्व भव वृत्तांत सम स्तदौठो तिवारें देवताने वचनदौधो हतो ते संभारे तौवारे देवता दुर्लभ बोधिनें सुलभ बोि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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करवाने अर्थे देवता देवलोक थकी आवो जलोदरनो रोग उपजाव्यो पछे ते वैद्यनो रूप करौ तेहने पासे इम कर्ह आछोथा एतो स्य आपोश ए असाध्य उभाषा
रोग तदा ते जलोदरौ कहे जे मांगते आपोश तिवार वेद कहे जो माहरो माथे प्राव तो साजो करु' माहरी औषधनो को थलो उठाबजे बीजो काई मांगतो नथौ तिवारी ते वात मानी वैद्यरोग दूर कौधो तौवार तेहने वैद्य माथे लेइ माथे कोथलो दोधी ते कोथलोलेइ साथे भमे एतले देवमाया थकी जिम जिम चाले तिम तिम कोथलो भारी धाए ते भार वहता अतीसार थयो महाखेद पाम्यो जाई सके नहीं अने जाइ तो पाको जलोदर उपजे इम विमाशे इम खेद पामती साथे भमै भमता एक नगर मासा धने सूत्र भणता दौठो तिहां ते वेद भारवाहकने साथें लौधे साधु पाशे जाइ वांद देशना R सांभले देसना सांभली ते भार वाहक प्रते कहे तु दीक्षा लेतो तुझने छोडी तिवार ते भारवाहक कहे हवे दीक्षा लेवी तिहां तहने दीक्षा दीवरावी ॐ देवता देवलोक गयो पुठे तिण दीचा छांडी तिवार वली देवताई जलोदरी कोधी वली वेदरूप देवता आवी तेहने कहे जी दीक्षा लेतो तुझने साजी . कोजे अन्यथा साजो न धाए तिवारे तिणे वलोदीक्षा लेवा वात मानौ तौवारे तेहनो रोग नौवाखो वली दीक्षादिवरावी देवता देवलोक गयो वली तिम रजतोणे दीक्षा छांडी इम एहवी रोते वीण वार दीक्षा दिवरावी वैद्यरूपें देवता तेहनी साधे भमे सुलभ बोधी करवाने अर्थे इम करता विहार करता
मार्गमे गांम आव्यो गाम बलतो दौठो एतले ते वैद एक तणनी भारी लेई गाममा जाए तिवारी ते साधु कहे बलता गाममां वृण लेई कीम प्रवेश करे
छ लज्जा न थी आवती तिवारे वेद कहे तुमे पण क्रोध मान मायालो भमा बलीछी वारवार गृहस्थावासमां जायो छो वारवार तुमने समझावीए के 8 संसार अगन समान तुम किम प्रवेश करी छो इम उपदेश आप तो दुर्लभ बोधिने उपदेश्य न लागे वली तिहां थको विहार कर मांगें अटवी आवी
तिहां देव वैद्यरूप ले ते मार्ग छांडी कांटा घणा तिण पंथे चाले साधु कहे कोम वाट छांडे कांटो लागमे देव कहे तुम कीम शद्ध पंच चारित्र छांडोस
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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टीका
अ०२
७४
भाषा
जितौ तत्र राजपुचो निःशङ्गतो धर्मं करोति इतरस्तु अमर्ष वहति अह' बलेन प्रवाजित इति चेतस्यु देगं वहति परं पालयितो दावपि चारित्र' शु मृत्वा तो दिवं गती अस्मित्र वसरे कौशांब्यां तापस श्रेष्ठो मृत्वा खग्टहे शूकरी जातः तत्र जातिस्मरणं प्राप्तवान् सर्व स्व सुतादि कुटुम्बं प्रत्य भिजानाति परं वक्तुं न किञ्चित् शक्नोति अन्यदा सुतेरेषः शूकरो मारितः स्वग्टहे एव सर्पों जातः तत्रापि जाति स्मरणवान् तैरेव मारितः पुच पुत्रो जातः तत्रापि जातिस्मरण माप स एवं चिन्तयति कथमे तां पूर्व भववधूं मातरं अहं उत्तपामि कथं चे मं पूर्वभवपुत्रं पितर मह मुल्लपामीति विचार्य मौन माश्रित: मूकत्रतभाग् जातः अन्यदा केनचित् चतुर्ज्ञातिना तोधं ज्ञात्वा व शिष्ययो मुखे गाथा प्रेषिता तावस किमिणा मूत्रव्वएण पडिबज्ज जाणि श्रन्धनं मरिजण सूत्ररोरगजाओ पुत्तत्ति १ एतां गाथां श्रुत्वा प्रति बुढो गुरूणां सुश्रावकोऽभूत् एतस्मिन वसरे सोऽमात्य पुत्रजीव देवो महाविदेहे तीर्थङ्करसमीपे पृच्छति भगवन् किमहं सुलभबोधिदुर्लभबोधिर्वा इति प्रश्न प्रोक्तं तीर्थङ्करेण त्वं दुर्लभबोधिः कौशां व्यांमूकवाताभावीति सार रुपी कांटा मा पडो को बलो ते प्रति बोधन पाने वली तिहां थकी एक यचना देहरे जाए तौहां यह एह करे के जोवारे कोई फल फूल ने वैद्य चढ़ावे तीवारे यक्ष अंधा मुख करौ पडे पछे ते यच प्रतं दुर्लभ बोधि की रे अधम त्व' अधोमुखे कौम पड़े के तौवारे ते यच कहे तुमकोम जगत् वंदनीक साधुनो मार्ग छांडे तौवारे साधु कहे तु कुण के सोवार देवता गुंगानी रुप करौ देखाव्यो वली पूर्वला भवनो संबंध कह्यो तौबारे ते कहे इहांस्यो परमार्थ तौवार वे ताब्य पर्वते देव प्रतिमा जुहारवा गया तोहां कोईक सिखना देहरा नाखुणामां दुर्लभ बोधि अने सुलभ बोधि गुगानो रूप स्वकुल युगल रूप थाप्यो ते देखी जाति समरण उपनो दुर्लभ बोधोने तिवारे ते प्रतिबोधाणो श्रद्धा आवी रुडी रौते चारित्र पाले शिवगत लाधौ इम प्रथम अरतो पके रति इम समस्त साधु परति परिसह जौम गुंगे कठिन पणे समकीत आदयो इति अरति परी
999999XXX
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. 64 4
उल्टोका ४ लञ्चोत्तरः स सुरो गती मूकपाखें तस्य बहुद्रव्यं दत्वा प्रोक्तवान् यदाहं त्वमा तुरुदरे उत्पत्स्य तदा तस्था आमदोहदो भविष्यति स दोहदः साम्प्रतं
महर्शित सदाफलाम फलैस्वया तदानीन्तस्याः पुर्णीकार्यः पुनस्वया तथा विधेयं यथा तदानीं मम धर्मप्राप्ति: स्यात् एवं उक्वागता देवः अन्यदा १ देवलोकात् च त्वा स देवस्त स्था गर्भे समुत्पत्वं तस्याश्चामदोहद समुत्पनी मूकेन पूर्वोक्तरीत्या पूरितः पुत्राजात: मूकस्तुतं बाल लघुमपि करे कृत्वा देवान् साधुंश्च वन्दापयति परं स दुर्लभ बोधित्वेन तान् दृष्ट्वा रटति एवं आबालकालादपि भृशं प्रतिबोधितोपि स न बुध्यति ततो मूकः प्रबजिती गतः स्वर्ग' अथ देवो भूतेन मूकजोवेन सदुर्लभबोधि र्बाल: प्रतिबोधिकृते जलोदरव्यथावान् कृत: वैद्यरूपं कृत्वा देवेन उक्त: अहं सर्वरीगोपशमं करोमि जलोदरी वक्ति मम जलोदरोपशान्ति कुरु वैद्ये नोक्त तवासाध्योयं रोगः तथाऽप्यऽहं प्रतौकारं करोमि यदि मम पृष्टौ औषध कोत्वलक समुत्पाट्य ममैव सहागमिष्यसि तेनोक्त एवं भवतु ततो वैद्येन स जलोदरी सज्जोक्कतः समाधि भाग् जातः ततस्तस्योत्पाटमाय औषध कोस्थल कस्तेन दत्त: स तत्पृष्टी भ्रमन् तं कोस्थलक सुत्पाटयति देवमायया स कोत्थलकोऽति भारवान् जातस्तं अतिभार वहन् साखिद्यति परन्त मुत् सृज्य पश्चाहन्तुं न शक्नोति माभूत्यश्चाहतस्यमे पुनर्जलोदर व्यथे ति विमर्श कुर्वन् वैद्यस्यैव पृष्ठो कोत्थलकं वहन् भमति एकदा एकस्मिन् देशे खाध्यायं कुर्वन्तः साधवो दृष्ट्वा तत्रतौ गतौ वैद्येनोक्त त्वं दीक्षां गृहौषसि यथा त्वां मुञ्चामि स भारभम्नो वक्ति यहीष्याम्येव तती वैद्य न अस्य दी क्षादापिता देवे च स्वस्थानङ्गत तेन दोछ परित्यक्ता देवेन पुनरपि तथैव जलोदरं नत्वा वैद्यरूपधरण पुनरऽसौ दीक्षां पाहितः पुनर्गत च देवेन तेन दोचात्यक्ता ढतीयवारं दीक्षां दापयित्वा वैद्यरूपी देवः साई तिष्ठति स्थिरीकरणाय एकदा वृणभारं गृहीत्वा स देवः प्रज्ज्वलडाम प्रविशति * ततस्तेन साधुनोत ज्वलति ग्राम कथं प्रविशसि देवेनोक्त त्वमपि क्रोधमानमायालोभैः प्रचलते गृहवामे वारं २ वार्यमाणोपि पुनःपुन: कथं प्रवि
RRRRRRRRRR:१-१-१९:RRRRRRREKKR
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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सटीका अ०२
शसि वैद्यरूपैन देवेनैवमुक्तीपि स न बुध्यति अन्यदातौ पटव्यां गतौ देवः कण्टकाकुले मार्गे चरति स प्राह कस्मादुन्मार्गेण यासि देवेनोक्तं त्वमपि विशड निर्मलं संयममार्ग परित्यज्य आधिव्याधिरूपे कण्टकाको संसारमार्गे कस्माद्यासि एवं देवेनीक्त ऽपि सन बुध्यते पुन रेकस्मिन् देव कुलेती गती तत्र यक्ष ईमित पूजा पूज्यमानीपि पुनः पुनराधोमुखः पतति स कथयति अहो यक्षस्य अधमत्वं यत्पूज्यमानीप्यऽयमधोमुखः पतति देवेनीक्त त्वम प्येतादृशोऽधमः यहंद्यमानः पूज्यमानोऽपि त्वं पुनः पुनः पतसि ततः स साधुर्वक्तिकस्व देवेन मूकस्वरूपंदर्शितं पूर्वभवसम्बन्धय कथित: स वक्ति अत्र कः प्रत्ययः ततो वैताम्ये चैत्यवन्दापनार्थ देवेनाऽसौ प्रापितः सबै कस्मिन् सिहायतनकोण दुर्लभबोधिदेवेन स्ववीधाय मूकविदितं स्वकुण्डलयुगलं स्थापितं अभूत् तत्तदानीं दर्शितं तत स्तस्य जातिस्मरणं जातं तैनाऽस्य चारित्र दृढताऽभूत् अस्य पूर्व अरतिः पश्चाततिः अथ संयम परति सद्भाव सतिस्त्रीषुई हास्यात् स च परीषही सोढव्यः अतस्तत्परोषहमाह संगी एसमणुस्माणं जाओ लोगंमि इत्थोपी जस्म एषा परिणाया सकउन्तस्म सामणं १६ एव मादाय मेहावी पङ्गभूयायो इत्थीयो नो ताहिं विहविजा चरिज्जत्तगवेसए १० लोक अस्मिन् संसार मनुष्याणां एता स्त्रियः संगी जातास्ति
मुणी चरे ॥१५॥ संगो एस मण स्माण जाओ लोग मि इत्यिो । जस्म एया परिन्नाया मुकडं तस्म सामगं ॥१६॥
एव मादाय मेहावी पंकभूयाओ इथियो। नो ताहिं विहन्ने ज्जा चरेज्जत गवैसए ॥१०॥ एगएव पर लाढे अभि सह कथा संपूर्ण । संथमने विषे अरति ऊपने स्त्रीनो परीसह ऊपजवा नो संभव ते भणी स्त्रीनो ८ परिसह कह , सं० पासक्त था वानी हेतुसंबंधनी करणहारीए. एस्सोम लोकनी जलीक मनुष्यादि इ० स्वोदेवांगनादिके ज. जे साधुने एहवी जाणपणु' हुई एसर्व प्रकारे अनर्थना हेतुपणे ए. सर्व
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ० ४१ मा भाग
सव
भाषा
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उ. टीका * नराणां स्त्रियो बन्धनं वर्त्तते यथा मृगाणां बन्धनं वा गुरादि विद्यते संगच्छते वशीभवति जीवा यस्मात् स सङ्गः बन्धन' इत्यर्थः अत्र मनुष्य ग्रहण अ०२ ७७
तेषामेव मैथुन संज्ञाया आधिक्यात् यथा मक्षिकाणां श्लेभासंगो बन्धनं तथा पुरुषाणां स्त्रियो बन्धनं इत्यर्थः यस्य साधो: एताः स्त्रियः परिसमन्तात् जपरिजया पण्डितबुड्या ज्ञाताः प्रत्याख्यानपरिजया प्रत्याख्याताः परित्यक्ताः अनर्थ हेतुरूपज्ञाताः अत्र प्राकृतत्वात् तृतीयास्थाने षष्टीयेन साधना स्त्रियः एतादृश्यो ज्ञाता तस्य साधो श्रामण्यं सुकृतं साध्वाचारः सफलः १६ मेधावी धर्ममर्यादावान् ताभि: स्त्रीभिर्नविहन्यात् संयम जीवीत घातेन आमानं न विनाशयेत् किन्तु आत्मगवेषकसन् चरेत् आत्मानं गवेषयतीति आत्मगवेषकः किं कृत्वा एवं आदाय एतन् ज्ञात्वा एतत् इति किं स्त्रियः पङ्कभूताः मुक्तिमार्गे कर्दमभूतः मुक्तिपथ प्रवृत्तानां बन्धकत्वेन मालिन्यकारणं स्त्रियस्मन्तौतिज्ञात्वा तस्मात् स्त्रीणां सङ्ग विहाय मया संसारात्
आत्मा निस्तारणीयः इति बुद्धिमान् १७ अत्र स्थूलभद्रकथा यथा पाटलिपुरनगर नवमी नन्दराजा तस्य राज्यचिन्ताकारकः शकडालनामा मन्त्री वर्त्तते तेन खहद्दपुत्रः स्थूलभद्नामा सौलाविलासार्थ तबगराधिवासिन्याः कोशावेश्याया रहे मुक्त स्तव तस्या मार्गितं सुवर्णादि यथेष्टं प्रेषयति हितीयपुत्रः श्रीयकनामा राजाङ्गपार्षवर्ती विहितः अस्मिन्नवसरे तनगरवास्तव्यो वररुचिनामा भट्टो नवौनकतै अष्टोत्तरशतकाव्यैनंद भूपाल प्रत्यहं स्तोति राजा च तस्मै द्रव्यदित्स : शकडालमन्त्रिमुखं विलोकते शकडालमन्त्री तु मिथ्यात्वलदिभीरु तत्काव्यानि स्ताति मन्त्रि प्रशंसां विना राजा न तस्मै किञ्चिहत्ते वररुचिना तु मन्त्रिभार्या स्ववचनामृतेन तोषिता स्वभर्तारं शकडालमन्त्रिण' प्रत्याह वररुचेः काव्यानि त्वया नृपपर्षदि व्याख्येयानि यथास्थितवस्तु प्ररूपण सम्यक्तस्य भूषण मित्यादिखवनितावची युक्त्या तत्काव्यप्रशंसनं प्रतिपत्रं प्रभाते पर्षदि भूपतः पुरी घररुचिप्रो तानि काव्यानि मन्त्रिणा प्रशंसितानि सत् प्रशंसानन्तरमेव राजा वररुचिभट्टाय दीनाराणा मष्टोत्तरशतं दत्त ततः प्रतिदिनं विप्री भूपतः पुरी
राय धनपतसिंह बाहादुर का.आ. सं० उ०४१ मा भाग.
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उ भाषा अ०२
प्रकारे जाणिने छांडे सु० रूडो आचयो त० तेणे यतौइ सा. चारित्र १५ ए. एणी पर पूर्वे सौनो स्वरूप कहे छ एमजाणिने मे० बुद्धिवंत हुइ पं० मुक्ति गांमी पुरुषने कादम सरीखी खता रहिवानी कारण इ. ए स्त्री नो० ते स्त्रीसंघात प्रवर्तीने वि० संयम जीवतव्यने हणे नहि च. पाचरे धर्म अनुष्ठान अत्त० संसार थी आमानो गे० तारण हार हुइ १७ अथ स्त्रीपरिसह दृष्टांत गाथा १६१७ अथ पाडल पुर नामा नगरने विषे नवमी नंद राजानी राज्य धुरंधर अमात्य शकड़ाल नामा मंत्री सर तेहने के पुत्र थूल भद्र वृद्ध पुत्र तेली लावी लासने अर्थे ते नगरने विषे वैश्याने घर यथेष्ट द्रव्य से रहे सुख विलसे संसारना अने पिरीयो लघुपुत्र ते राजानि सेवामा रहे एहवा समयनें विषे ते नगरमा वररुचि नामा भट्ट ते नंद राजाना १०८ दिन प्रते नवा कवित वणवे राजा तेहन बहुद्रव्य आप तिवारी कडाल मनोसर नौरर्थक द्रव्य उडावे मन्त्री सर मिथ्यावादीने मानेन ही नवाकाव्य राजानीप्रशंसासां भली प्रशंसा न कर मन्त्रिप्रशंसा विनाराजान तेहने किच्चित् मात्र आप्यु तिवारे वररुचिभमन्त्रीनीभार्या प्रते अमृतवाणी कहे मन्त्री सर मुझ उपसर कृपा नथी राखता तिवारी स्त्री भरिने कही समझायोतिवार मन्त्रीसर मिथ्यावादीमे माने नहीं स्त्रीना वचन थी वातमानी काव्यनी प्रशंसा करौ तिवारे राजा नित्य नवा काय सांभले १०८ दिनार दिन प्रते पापे इम केतला इक दिवस गया बहु द्रव्य वररुचिने थयो तिवारे ते
मोहवनादि कार्य करें तिवारी मन्त्री मनमा विचार आमिष्यावादि मिथ्यात्व कर्म पापारंभ करे द्रव्य बकौ तदा तिणे राजाने वाखो महाराजाए भट्टजी ४ रण काव्य कहे पारका चोरना काव्य कहे छ तिवारे राजा कहे किम जाणौए मन्त्री कह महाराज माहरी सात पुत्ची के तेहने पूछी देखो तिवार
राजामानौ प्रात समे सभामा राजा पर हेंच बंधावी साते पुचीने बेसाडी ते पुची केहवी बुद्धिवंत प्रथम पुची १ एक वेला नवीन श्लोक काव्यसांभल तांते कहे बीजो बे वेला चौजी तीन वेला सांभलता कहे इम साते पुत्ची कहे एहवे सभामा वररुचि भावी नवा काव्य कह्या तिवारे ते काव्य सांभली
R-RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR.
राध धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४ १ मा भाग
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प्रथम पुची बोलो इम अनुक्रमे साते कुमारीका बोलो तिवारी राजाने परतीत आवी इम दस वौश दिवस थया राजा तेहने कांइ आपे नहीं मान उभाषा अ०२
भंग थयो तिवार तिणे वररुचि भ? जाण्यु जे शकडाल मन्त्रीने एहवी बुद्धिवंत पुत्त्रो के मन्त्रौना प्रपञ्च जाणी तिण वली कोई प्रपञ्च कम्यो के एक नल ६ वणाव्यो गुप्तपणे तिहां नलने मुखे पांच से दौनारनो थैलौनुको पोते नदीमा स्नान करी जोहां नलनो लाकडी उपरौ बेसी ध्यान स्मरण करे सुमरण
पूरो घाए तिवार पग धको नल दाबे ते थको ते हो मणी उडौमुख आगे पडे ए कौतुक लोग देखी अचरीज पामे इम ए बात न वीराजा सांभली जे 8 वररुचिने नित्य गंगा पंच सत दिनार आप ते कौतुक जोवा राजा आवी कौतुक देखी अचरोज पाम्यो राजा तेहनो मान वधार इम करता बीजे दिवस मन्त्रोसर आवोते कोतुक देखो जाण्यु जे इहां कपट तिवारे राजा मन्त्रीसर वररुचि भट्ट आप आपणे स्थानक गया इमकरता चांदणी पूर्णमानी रात्र छ मन्त्रोसर तोहां आवो प्रपञ्च जो इम करता मन्त्रीसर बुद्धि बली तौहां नल गद्यो हतो ते दौठो अनुक्रमे प्रात समे मन्त्रीसरे प्रच्छन्न पुरुष वे सायो तोहां स्नान वेला वररुची आवो ते नलने विषे स्नान करौ हेम मुकेते गुप्त पुरुष दौठो वररुचि स्नान करौ ध्याने बैठा ते वेला तिहां राजा आवो बैठा पुठे धको मंत्री सर आवो गुप्त पुरुषनें तेडो गुप्त वात नो भेदलही ते पुरुषनें कज्यु जे तिहांथी दिनारले आवो तोहांतेव जन बराबर पत्थर भुको आवज्याइम मंत्री सरने सौखप्रमाणे सेवक कार्य करी आव्यो अनुक्रमे राजा समस्त लोक कौतुक जीवा मिल्या तिवारी वररुचीनो ध्यान पूरोथ यो एतलेक लदाबतां पत्थर मूक्यो हतोते मुख आगे आवो पद्यो हवे वार वार पग संघाते कल दाबे तिहां होय तो आवे इम घणोवे लाथई तिवारी वररुचि खिसाणो मान भंगथयो मंत्री सरे तेहनो प्रपंच राजाने वताव्यो राजा मंत्रीसर उपर घणु राजी थयो सा बास दोधो अनुक्रमिते वररुचि मंत्रोसर नाछिद्र जोवे पण तेह नाछिद्रन पामें इमकरता वररुचि पण्डित मंत्रीसर नीदासि संघात प्रितिबांधी तेहने
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं.उ.४१ मा भाग .
R
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मंत्रीसर नाघर नोगुह्य पुछे ते सर्व कहें अधुना हवणा मंत्रौनो पूत्रसरोयो हनी पाणिग्रहण थास्ये ते कहे स्यो कामकरके दासी कहे हमणा छात्र उ.भाषा*
चामर सिंहासण बणावछे सुखासन रथादि वाहण वलीन वीन अव हस्ती दीवर ग्रहणादि नवीनले तिवारे वररुचि विचार जे हवणा अवसर आयो तीवारें नवामोदक वणावी नौसा लौयानें आप अने एकगा था नवौ वणावी सिखावे राय नंद जाणे नही जे सकडाल करेंह नंदराय मारी करीसिरीयो राजठवेह १ एगाथा बालकग लौए गली कहता फिरें अनुक्रमे ए गाथा राजा सुणी राजा मंत्रीने घरे दूतमोकली घरना चरौत्र मंगावे तौवारे दूत तेहनाघरनो सरंजाम जोइ वलतो राजप्रतें कहे महाराज बारुदखानो घाएछे शस्त्रादिक उजवाले छत्र चाम रादिक समस्त वृत्तांत कह तीवार राजा वृत्तांत सुणी मनमांचमके एगाथा छोकरा कहेतें साची तीवार प्रातसमें राजाने मंत्रीमर कोपवंत दौठोज राजा माहरा समस्त कुटबनें घांणी मापीलें तौवारें मंत्री घरे आवौ राजानो कोपनो वृत्तांत सरीयाने जणावी कहें प्रातसमेंहु राजा नौ सभामा जाउ तिवारे तु पाछलथौ आवौ माहरोमस्तक शस्त्रथको छेदजेते कहें पितानो मस्तक किम छेदाए पिता कहें तालवौख भक्षण करस्य
तुझने दोस नही अन्यथा समस्त कुटंब घाणीमा पिलासे' तिवारी वातमानौ प्रातसमें मंत्री राजानी सभा गयो पुठेथको सरीयो आवी पीताने मस्तक 8 शस्त्र प्रहार दोधो मस्तक जुदो थयो तिवार राजा कहें हाहाएस्युं कीधी तिवारेंतें कह राजानी गुनही कीम राखौए तीवारे राजा खिसाणी
थयो मंत्री सरने घणे उच्छव अग्नौदौवरावौ मृतकार्य करावी सरौयाप्रतें राजा कहें तु मंत्रीसरनी मुद्राल्यो तौवारे सरीयो कहे मम वृद्ध भाट स्थूलभद्र वेश्याने घरें बैठोछे राजानो आज्ञा ले सरौयो तेडवा आव्यो अनुक्रमे स्थूलभद्रनें वृषपाशे लाव्यो राय कहे ा मुद्राल्यो स्थूलभटू कहे आलोचौ आवं तिबारे स्थूलभद्र सिरियाप्रतेकहे पिताकि ममरण पाम्योते कहे रायनोसेव कहतो इम सांभलौने वौचायं आकामरूडो नही इम विमासी अशो
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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उ.भाषा
अ.२
कामाजन गुरु पाशे दीक्षालेई लोचकरी राय पाशे आया राय देखी कहे आस्य को तिवारें स्थूलभद्र कहे राय कहण मुणो मै तुमनें कही गयोह तोजे सोची पाउ ते सोची पायी संसारतो उद्विग्नत्वप्रशादेन मम पितामृत तौवार माहरी पण एहवौ गत थास्ये ते माटे पामे स्वयमेव दौख्या लोधी इम राजाने समझावौ वौहार कर इम करता कोई नगरमा संभूत विजय सूरीनो शिष्य थयो अथ एकदा भालमोहे सौरीयो कोश्याने घरे आयो कोश्याने सर्ववृत्तान्त कहे पिता मरणं थुलभद्रा दीक्षा ग्रहणं वररुचि भट्टस्य प्रपञ्चकं कथितं वलि वररुचि ताहरी भग्नी स'रक्त के ते माटे इम करो के तेमदौरापान कर तिम करो ए काम तुम थोथाए वररुचिना प्रसादे पिता मरण पाम्यो थूलभद्र दीक्षा लौधौते जाणवु इम शिखा मण देई घरे आव्यो तौवार ते वेश्याइ उपवेश्याने शिक्षा देई वररुचिने मदिराने विषे रत कराव्यो इम करतां सोरीयो राजानो मन्त्रीसर के अने अनुक्रमे वररुचि मदिरा पान करे ने वृतांत सौरीयाने जणाव्यो एतले एक समे राज सभा पूरी राजा बैठा थका सकडालने संभारे एहवो गुणवान बुद्धि वान् सूरवीर शास्त्रवेत्ता नाहक मरणपायो एस्यो कारण तीवार सोरीयो कहे महाराज राय प्रपञ्च जाणे नहीं राय कहे एहवो कोण प्रपञ्ची जीणे सकडालने हणाव्यो ते कोण के ते कहो तिवार सरौए वररुचोनो वृत्तांत गाथादिक सर्व प्रकाशे वली कहे महाराय ते मदिरा पीए के मांस भक्षण करे के एहवो वात सांभलो राय वररुचिने तेडावे अनुक्रमे राय कहे अहो वररुचि तु केहवो ब्राह्मण मद्य मांसनो लोलपी ते कहे राय एहवो कोम कहीए तिवारे सिरियो कहे महाराज एहने वमन करावीए तिवार राय वैदने आना आपो वमन करावो वैद मदन फलनी चूर्ण आपो वमन कराव्यो वमन करतां मदिरागन्ध प्रसीद्ध नीकली सभा समक्ष स्वजातिय विप्रादिक समस्त वमन देखी तेहने नौंदे राजा कोपानलथई क्रोधे करी कह रे पापिष्ट ते मुझने ठगी वीत्त लोधी प्रपञ्च करी मन्त्री सकडालने हणाव्या तिवार घणो खिष्ट थयो मन्त्री राजानी कोप उपसमावी
RRRRRRRRRRRRRRRRRRR8
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
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उ भाषा अ०२ ८२
तहने सभा धको कढाव्यो तिवारे वररुचि घरे प्रावी खिसाणो धको वौस भक्षण करी मृत याम्यो अथ हिवे संभूत विजय प्राचार्य पीताना थूलभद्रादि ४ शिष्य लेदू पाडली पुरमा चतुर्मासरहवान आव्या अनुक्रमे आचार्य ते नगरमा चार शिष्यने चार स्थानके आज्ञा पापौने पूछे आपणी इच्छा होवे ते कहो तिवार एक शिष्य कहे स्वामि चार मास चार आहारनी पञ्चक्खाण करि दृष्टि विष सर्पना बिल पर रहौस बोजो कहे कूआना भार व? रहीस त्रीजी कह सिंह गुफाने मुखे रहौस थूलभद्र कहे खामि ई वेश्याने घर चोमासे रह स्यु तिवारे गुरु इच्छा प्रमाणे प्राग्या आपी ले गया थूलभद्र कोशानेबारे आव्या कोश्याई घणे हर्षे करौ मोतीडे वधावी मन्दिरमा राखी थूलभद्र प्रथम प्रतिज्ञा करी जे मुझ थकी साठा तीन हाय वेगली रहौने ताहरा मन माने ते हाव भाव कटाक्ष कौजे वैश्या विचार एक वार मंदिरमां तो आवे पछे जोस्य इम करता तिहां रह्या तिवार थूलभद्रने नाना प्रकारना काम जागवाना सरस आहार करावे राग रंग नाच नव नवा कौतुक कर काम बाणकटाक्ष चलावे पण थूलभद्र स्वामि मेरु जिम अचल ते न चले ध्रुव ठामन छंडे ते छांडे समुद्र मर्यादा न मुके पण थूलभद्र मनवचन कायाई नौकरण भाव शुई चारित्र पाले इम करता चार मास वितौत थया पारणे
च्यारे गुरुभाइ समकाले गुरुने वांद्या तिवारी वीण्य शौथने गुरे का प्रावो दुक्कर कारक अने थूलभद्रने विण्य वार दुक्कर कारक कहे तिवारे बौण्यशिष्य ॐ कह स्वामि एवडो अंतर किम जे कौश्याने घरे चित्रसालामा रह सरस आहार नित्य कर किवार उपवास न कखो अने अमेतो धारे मास
उपवास कौधा विषम थानके रहवो क्षिणमात्र निद्रा आवे ताल चूके तो कूत्रामा पडे बीजो कहे सर्पने वौले रहवो इम सिंह गुफाने विषे एहवा कठिन परीसह सह्या तिवारी गुरु कहे ए परिसह सोहिला पण थूलभद्र सम वड कोइ नहीं जौणे जे कोश्या संघाते साढी बार कोडि सोनइ याविलश्या तहने घरमा रही पोताने शील राख्यो तेहने प्रतिबोधौ धाविका कौधौ एमहा मोटा ऋषि चौरासौ चोवीसौ लगे नाम रहस्य इम करता एक शिष्य
FA:08GRXAMRARRRRRRRRORARAK
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टोका
श्र०२
८३
भाषा
टोत्तरशतकाव्यानि न वानि वक्ति स्तुतिप्रान्ते भूपप्रदत्त' दौनाराऽष्टमतं गृह्णाति ततो वृद्धिमान् वररुचिनामा भट्टः शतसहस्रवित्तव्ययेन यागहोमादि करोति मन्त्री तु तथा वर्धमानं मिथ्यात्वं दृष्ट्वा तद्दाननिषेधाय राज्ञः पुर एव मुवाच राजन् श्रस्य ब्राह्मणस्य एतावद्दनं दत्वा कथं कोशचयो विधीयत अयं तु परकाव्यहरणात् कवितस्करोस्ति राम्रोक्त' कि मसौ पुरातनकविकृतानि मत्पुरो वक्ति मन्त्रिणोक्त एतदुक्तानि काव्यानि सप्ताऽपिम मपुत्यू: पठन्ति राजोक्त प्रात रेत दुक्तानि काव्यानि तव सप्तपुत्रीपार्श्वे पाठनीयानि ततो मन्त्रिणा सर्व शिक्षयित्वा सप्तापि पुत्राः प्रभाते भूपपर्षदि जवन्य' तरिताः स्थापिताः ताथ क्रमात् प्रथमा पुत्री एकवारश्रुतसर्वग्रन्यधारिका द्वितीया तु द्विवारश्रुतसर्वग्रन्यधारिका एवं सर्वापि यावत् सप्तमी पुत्री सप्त वारश्रुतसर्वग्रन्यधारिका एतादृशा धारणान्विता सन्ति अथ तत्र समायातो वररुचिः स्वकृतकाव्यानि नृपतेः पुरो वक्त मारभस्तुत्यन्ते भूपतिना उक्त कहे स्वामी ए केतलोक बात के गुरु कहे एहनौ होड नही थाए इम करता वली चउमामे आवे तव शौष्य मनोरथे कोश्याने मदिर श्राव्यो कोश्याइ जा जे थूलभद्रनी होड पर श्राव्या तिथे तेहने चीनसालिमां राख्या एक समे बरसता पाणीमे राग आलापी नृत्य करो काम बांणें बोध्यो चित्तचला व्यो तौणे भोगनौ प्रार्थना करी तिवारे कौश्या कहे थूलभद्र साढिबार कोड सोनइ यालाव्यो ते कड़े ते तो नथौ तिवारे कोश्या कहे रत्नकां बल ल्याबो ऋषि कहेते किहां मौले कोश्या कहे नेपाल देशना राजाने जाचे ते श्रापे तिवारी मुनिवर वरसतां पांणीमा नेपाले गया राजाने जाची रत्न कांबले मार्गे चाले अनुक्रमे अईमार्गे लुटाणो इम बीण बारमार्गमा लुटाणो चौथो वारला कडौनौ भुगलमा बारवरसे कोश्याने मंदिरे आव्यो तिवारे कोश्या ते हने विविध प्रकारे प्रतिबोध देदू समझाव्यो अने हवणातो भुंडा माहारी ताहरी अवस्था भोग थको वितीत थई इम समभावी गुरु पाले मोकले गुरे आली अण दिवरावी इम थूलभद्र स्वीपरीसह जीत्या तीम बीजो जे कोई स्वोपरिसह सह ते अनंतासुखलहे इति स्त्रीपरोसह उपर कथा संपूर्ण ए० एक
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राय धनपतसिंह बाहादुर का भ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उन्टीका: अहो भट्ट एतानि काव्यानि त्वत् कृतानि परकतानि वासोऽवक मत् कप्तान्ये व राज्ञोक्त मेतानि काव्यानि मन्त्रिण: सप्तपुत्रीणां मुखे समायान्ति स १ वक्ति यदि तावक्ष्यन्ति तदाह मसत्यः एवं तेनोक्त जवन्य तराद यक्षानाम्रो प्रथमा पुत्री भूपतः पुरः समागत्य सर्वाणि तानि काव्यानि पपाठ एवं
क्रमात् सर्वापि तानि काव्यानि पेठुः तथाप्रज्ञासद्भावात् ततो निःकासिती राजकुलाहररुचि: भूपेण सभाजनेन च तिरस्कृत: सर्बत्रापमानं प्राप्तः अथ तेने खं कपट प्रारब्धं संध्यायां गङ्गाजलान्तर्यत्रं कृत्वा दौनारपञ्चशतीं मुक्या प्रभाते तत्र गत्वा गङ्गां स्तौति स्तुत्यंन्ते लोकसमक्षं जल्पयन्नग्रन्थि पादेनाक्रम्य हस्ते गृहीत्वा जनेभ्यो दर्शयति मत् स्तुतिरञ्जिता गङ्गा मह्य मेवं दत्ते राज्ञा तु कार्पण्यात्ममासत्कलङ्क मारीण्य तिरस्कारः कृतः इति च ४ वदति तद्दा श्रवणाबज्जितोराज्ञा सर्व वृत्तान्तं शकडालमन्त्रिणोऽग्रे कथयामास मन्त्रिणा तत्र चर प्रेषणेन तज्जालयन्त्र ज्ञात्वा दीनारपञ्चशत
ग्रन्धि मानाय्य स्खकर धृतः प्रभाते तत्र भूपतिः स नगरलोक स्त त्रायातः वररुचिरपि गङ्गां स्तौति स्तुत्यन्ते पादाक्रमणन हस्ताभ्यां च जल मालोडयन्त्र 8 पिन अन्धि मानोति विखिन्त्री वररुचि मन्त्रिणेव मुक्त' भी वररुचे तव कल्ये किं अग्यिक्षेपो विस्मृतः किम्बा क्षिप्तोऽपि दौनारग्रन्धिरन्येना पहृतः
यहा नन्दराज्ये परद्रव्यापहारौ कोपि नास्तौ त्युक्त्वा स ग्रन्थिः सर्वजनानां भूपतेर्वररुचेश्च दर्शितः चरप्रेषणवृत्तान्तश्च प्रकटितः ततो लोकधिगकत: खिनो वररुचिमुख माच्छाद्यः मन्त्रिदत्तच्च ग्रंथि लात्वा स्वग्रह गतः अथ मन्त्रि छिद्राणि विलोकयति परं न पश्यति मन्त्रिग्रहदाया सह स्नेह चकार तडहवार्ताञ्च पृच्छति सापि तत् स्नेहल्लुधा सर्व कथयति अन्यदातस्थाने तया प्रोक्त अधुना श्रीयकविवाह: समायातोऽस्ति राजानं रहे आकारयिष्यते तत् सत्काराय नवीनछत्रचामरसिंहासनशस्त्रादिसामग्री जायमानास्ति ततो वररुचि: छिद्र' मनसि कृत्वा नागरिकडिभान्मोदक दानेने दं पाठयति । रायनन्दनविजानई जंसकडालकरसि नन्दरायमारेउकरि सिरियोराजठवेसि १ पठन्तित तथैव मार्गे २ तद्राजबाटिकां गच्छता
KRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR)
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं० उ०४१ मा भाग
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उटीका
अ०२ ८५
राज्ञा श्रुतं मन्त्रिग्टहे चरा प्रेषिताः तैस्तत्र कत्रादिसामग्री जायमाना दृष्टा राम्रो कविता राजा रुष्टः प्रभाते प्रणामार्थं गतेन मन्त्रिणा क्रोध वह्नि ज्वालमाला कुलो दृष्टः जातं च खकोयसकल कुटुम्ब चयकारिराजकोपस्वरूपं त्वरित मेव पश्चात् स्वग्टहे गतः श्रीयकस्याग्रे राजकोषस्वरूप मुवाच एवं सचिवेन तस्य शिता दत्ता वस कल्प यदाह नृपस्य प्रणामं करोमि तदा त्वया खजेन मच्छिरः केदः कार्यः अन्यथा सर्व कुटुम्बक्षय मसौ करिष्यति मुखक्षिप्ततालपुटविषस्य मम शिरः च्छेदे तव न कोपिदोष इति पैत्रवचस्तेन महता कष्टेन प्रतिपत्र प्रभाते राजोये तथैव कृतं राजपर्षदि हाहाकारो जातः राज्ञोत हे श्रीयक त्वया कि मिदं कृतं श्रीयकः प्राह राजन् मम पिता न प्रयोजनं यत्तवानिष्टं तन्ममाप्यनिष्ट मेवेत्यसौ मया हतः तुष्ट भूपतिः श्रीयकस्य कथयति त्वं मन्त्रिमुद्रा गृहाण तेनोक्त' मम वृद्धभ्राता स्थलभद्रः कोशागृहे तिष्ठति ततः स्थूलभद्रो नृपेणाकारित स्वत्रायातः नृपेणोक्त' मन्त्रिमुद्रा गृहाण तेनोक्त' आलोच्य गृहीथे ततोऽशोकवाटिकायां गत्वालोचयति संसारस्यानित्यतां पिटविनाशकारिण्या मुद्रायाः शाकिन्या त्यागार्हताच आलोच लोचोऽनेन कृतः ग्रहीता स्वयं तपस्या राजसभायां समायातस्यास्य नृपेणोक्त' भी स्थूलभद्र आलोचितं स्थूलभद्रः प्राह लोचितं शिरो मयेत्युक्वागत स्थूलभद्रः कचित्रगरे सम्भूतिविजयसूरेः शिष्यो जातः अथ भ्रातृमोहेन सिरौयकः कोशागृहे अलापनाय गच्छति वदति च कोशे त्वत्पतिर्माता स्थूलभद्रो यतिर्जात स्वत्पतिपिता प्रकडालय चयं गत स्तत्कारणमऽसौ वररुचिर्भहोजेयः स च त्वद्भगिन्या मुपकोशायां रतोस्ति यथेयं अमुं मद्यपानरतं करोति तथा विधीयतां इत्युक्ता सिरोयकः स्वग्टहे गतः अथ कोशावचनात् उपकोशा तं वररुचि' मद्यपानरतं चकार ज्ञात तद्दृत्तान्ता च कोशा मद्यपान मसौ कुर्वन्रस्तौति सिरोयकाया पाचख्यो अन्यदा राजा शकडालमरितः अही गुणवान् शक्तो भक्तो महामन्त्री ममाऽभूत् ईदृशोऽप्यसौ यदित्य मृतस्तो मनसि दूयते इति राजोक्त माकर्ण्य सिरौयकः प्राहः यथे पितेत्य' मृतः तत्र मद्यपान कार्य वररुचि
*X*X*X**X******************* राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४९ मा भाग
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उल्टीका
अ०२
रेव कारणं श्लोकशिक्षण डिभानान्त नै वक्त मित्यादिवाञ्चिकार राजा प्रवच्छ वररुचिः किं मद्यपान करोति सिरोयक प्राहखी दर्शयिष्यामौ त्युक्त्वा स्वस्थाने गत: अथ प्रभाते नृपपर्षदि उपविष्टानां सर्वेषां नराणां करेषु सङ्केतित पुरुषेण कमलानि सिरीयको दापितवान् मदनफलचूर्णमिश्रितं कमलञ्च वररुचये दापितवान् तहन्धमात्राहररुचिना पीतं मद्य तत्रैव वान्त राजा तस्य धिक्कार पूर्व नागरिक विप्रवृन्द वचसा तप्तनपानं कारिक समृतः अथ क्रमादिहरन्तः स्थूलभद्रादि शिष्यसहिताः श्रौसम्भूति विजयाचार्याः पाडलिपुर चतुर्मासक स्थित्यै समायाताः तत्र कः शिष्यः कृत चतु मासिकोपवास: सिंहगुफायां गुर्वाज्ञया स्थितः एकश्च दृष्टिविषसर्पबिलेस्थित: एकं पुनः कूपदारुणि तथैवस्थितः स्थू लभद्रस्त नित्याहारकारी कोशा वेश्यागृहे गुन्निया स्थित: कोशया तु अस्य पुर स्तादृशाहा वभावो विहिता यथा परमयोगीखरोपि द्रवति परमे तस्य मनो न मनाक् क्षुभितं प्रत्युत सा सुशीला श्राविका विहिता शेषं चरित्र तु प्रसिद्द मेव एवं यथा स्यू लभद्रेण स्त्रीपरीषहः सोढ़स्तथाऽपरै रपि साधुभिः सोढव्यः अथ एकत्र स्थितस्य मुनेः स्त्रीप्रसङ्गः स्यात् अतर्या कार्या इतिहतोचर्यापरीषहः सोढव्यः अत स्तमाह एग एव चर लाढे अभिभूय परीसह गामे वा
भूय परीसहे। गामेवा नगरेवावि निगमेवा रायहाणीए ॥१८॥ असमाणी चरै भिक्खू नोय कुज्जा परिग्गह।
असंसत्ती गिहत्य हिं अणिको परिव्वए ॥१६॥ सुसाणे मुन्न गारवा रुक्ख मूलेव एगो अकुक्कुभो निसीएज्जा लो राग हेष रहित च० विहार करे निर्दोष रत हुइ अ० जीतीने प० परीसहाने विषे गो० करण्ये वे गा मने विषे वा० अथवा न० नगरने विषे पिण नि० वाणी यानो वास हुइ तिहां वा० अथबा राजधानीने विषे विहार कर १८ अ० गृहस्थादिकनी मिथाइ रहित च. नवकल्पौविहार करतो
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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उ० टोका
श्र० २ ८७
भाषा
XXXXXXx
नगरे वावि निगमेवा रायहाणिए १८ असमाणो घरे भिक्ख नेय कुज्जा परिग्गहं असंसत्तो गिहत्थेहिं प्रणिकेओ परिव्वर १८ लाटः साधुः एक एव चरेत् लाढयति यापयति आमानं एषणौयाहारेण निर्वाहयतौति लाठः कुत्र कुत्र विचरेत् ग्रामे वा अथवा नगरे अपि अथवा निगमे अथवा राजधान्यां अपि द्रव्येण भावेन च एकाको एव विचरेत् तत्र ग्रामः कण्टकादिवेष्टितः नगरं प्राकारादि युक्त निगमो वणिग्जनस्थानं राजधानी राजस्थानं एतेषु विहारं कुर्यात् परं कीदृशः सन् भिक्षु विचरेत् असमान: सन् न विद्यते समानो यस्य स श्रसमानः गृहस्थ अन्यतोषिलोकभ्यो अधिक: सर्वोत्कृष्टः थको विचरे भि॰ साधुने० नकरे ममता रूप के प० परिग्रहने विषे अ० परिचय संबन्ध अण करतो थको गि० गृहस्थ संघाते अ० घर रहित ५० प्रवर्त्ते छे १८ अथ चर्यापरीसह दृष्टांत सावत्यौ नगरौद्र संगम आचार्य घण वृड पणे ग्लान थया कोइक दिन रह्या पाच से शिष्य हुता गोचरो चाहार अणला भताने विचारी विहार कोधो शुद्ध प्रणाम थौ नगर देवता भक्त हुआ अन्यदा दत्त नामा शिष्य आलोयण निमित्त आव्यो गुरु तेथे उपाश्रये रहतां देखौ चेले चिंतत्र्यो एगुरु नित्य स्थानकवासी प्रमादी इम विमासी ऊपाश्रये रह्य गांम मांहि भिचा अणल हे दत्तमहात्माद् व्यवहारौ यानो पुत्रग्टहस्त देखो ते मन्त्रादि क प्रयोगे साजो कियो तिहां नो आहार लेई ऊपाश्रये श्रव्यो गुरु कह्यो आपणने ए आहार न कल्पे तिवारे चेले कलुष भाव श्रास्खो ते त्रहार चेले कस्यो संध्याये प्रतिक्रमण करतां वलि गुरु बोल्या एदोष आलोवो तिवारे चेलो कहे तुमे प्रमादि को तिवारी गुरुने गुणेरं ज्या नगर देवता तेणे कय ̧ अरे अमाचारौ गुरुगुणवंतना श्री गुणदेखे छे पिण श्रापणा धात्री दोष देखतो अवगुण काई न जोबे इम देवता का गुरुना गुणव शिष्यने बुझव्यो गुरुने पाये लागे जिम संगमाचार्य परौसहसधुं तिम बीजे ऋषोखरे पिण चर्या परिसहसहिवो इति चर्यां परोसह दृष्टांत सु० समसानने विषे वा अथवा सूना घरने विषे रु० बच हेठे राग द्वेष रहित हुइ अ० कुचेष्टा रहित नि० वेसे न० त्रासवे नही प० अमेरा उदरादिक प्रमुखने २० स०
KAARAARAARRRARAARYAARRI राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टीका अ.२
८८
४ पुनः कोदृशः गृहस्थ रसंसक्तः सहस्र : सह सम्मिलितः पुनः कीदृशः अनिकेतः न विद्यते निकेतो गृहं यस्य स अनिकेतः अनगारः एतादृशः सन्
परिव्रजेत् सर्वतो विहरेत् १८ पत्र सङ्गमस्थ विरकथा कोनागपुर सङ्गमस्थविरा बहुश्रुता यथा स्थितोसर्गापवाद निपुणः दुर्भिक्षे गण देशान्तर प्रेष्य स्वयं नगर नवभागौक्तत्व व्यवस्थिताः नगरदेवता च तेषां गुणैः रञ्जिताः अन्धदा तत्र गुरुवन्दनार्थ दत्तनामा शिश्चः समागतः तद्भक्त्यार्थ गुरवः सपात्र तं साई लात्वा भिज्ञायां गतः एकस्येभ्यस्य भद्रकप्रकम् हे बालोयन्तरेण गृहीत: सदा रोदति उपायशतसहस्रकरणेपि व्यन्तरदोषोपशान्ति नजाता गुरुव स्तत्टहे गताः चप्पुटिकाकरणपूर्व मारुद बालेत्युक्तं प्राचार्य तपस्तेजसा व्यन्तरो नष्टः तुष्टा स्तन्मापिल प्रभृति स्वजनास्तेभ्यो मोद कादिक माहारं गाढाग्रहेण दत्तवन्तः ते मोदका स्तस्यैव शिष्यस्य गुरुभिर्दताः स्वयं त अन्तप्रान्त माहारं विद्वत्य मुक्तवन्तः प्रतिक्रमणाऽवसरे तस्य शिष्यस्य पिण्डदोषमालोचयेति गुरुभिरुत' शिष्य चिन्तयति असौ धात्री पिण्ड सदा भुंक्त ममत्वेवं कथयतीति चिन्तनसमये एव तापनार्थ देव तयांन्धकारं विकुर्वितं स भृशं विमति गुरुं प्रति वक्ति अह मात्र दूरस्थो बिभेमि गुरवः प्राहुः एहि मममीपे स वक्ति अस्मिन् घोरान्धकारनाह मागन्तुं शक्नोमि गुरुभि स्थत कतलिप्ता खांगुलौ दर्थिता तदुद्योतेन सोऽत्रायातः परं चिन्तयति गुरवो दीपकं रक्षयन्ति एवं चिन्तयन्नेवासौ देव तया चपेटाभि स्तर्जितः ज्ञातस्वरूपै गुरुभिस्तस्य क्षेत्र नवभागीकरणादिकं स्वस्वरूपं प्रकाशितं यथा सङ्गमस्थविरविहारक्रमा परपर्यायश्चर्यापरिषही अध्यासित स्तथा ग्लानत्वाऽवस्थायामपि क्षेत्र नवभागौकरीनाऽपि चर्यापरीषहो अन्य रध्यासितभ्यः अथ यथा ग्रामादिसु अप्रतिबद्ध न चर्या सह्यते तथा शरी रादिष्वपि अप्रतिवदेन नेषेधको परीसहोपि सहनौयः अतस्तं परोषह माह ससाण सवागारवा रुक्खुमूले च एगी अकुक्कुप्रो निसौइज्जा नय वित्ता सए परं२० तत्व से अत्यमाणम्म उवसम्माभिधारए संकाभित्री न गच्छिज्जा उद्वित्ता अवमासण'२१साधुःएककः एकाको सन् श्मसाने अथवा शून्यागार शून्य
X-RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
राय धनपत सिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१ मा भाग
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गृहे अथवा वृक्षमूले निषौदेत् उपविशेत् परं तत्र कीदृशः सन् अकौकुच्यः नास्ति कौकुच्च'यस्थ स अकौकुच्च कौकुच्च हि भण्डविट्चेष्टा उच्यते तया रहितः सम्यक् साधुमुद्रायुक्तः इत्यर्थः पुनस्माधु स्तत्र निषिस सन् परं अन्य जीवं नवित्रासयेत् तवस्थ जौवं स्थानभृष्ट न कुर्यादित्यर्थः २० पुन स्तदेव दृढ यति तथेति पुन स्तन स्मशानादौ आस्थीयमानस्य भिक्षोर्यदी पसर्गाभवेयु स्तदा तान् उपसर्गान् साधु रभिधारयेत् किमते उपसर्गा वराकाः मम करिथन्ति स्वयमेवो पशाम्य यास्यन्तौति मतिः कर्त्तव्या इत्यर्थः परं संकाभौतः सन् तत आसनात् आतापनास्थानात् उत्थाय अन्यत् आसनं न गच्छेत् आस्थते उपविश्यतेऽस्मिन् इत्यासनं आतापनास्थातं उच्यते २१ अत्र कुरुदत्तसाधुकथा अत्र नैषेधिकौपरीसहः कोर्थः यथा ग्रामादिषु अप्रतिबद्धन चर्यापरीषहः सहनीय स्तथा शरौरेऽप्रतिबड़े न नैषेधिकौपरीषहः सहनीयः नैषेधिको नाम शरीर मित्यर्थः अथ कथा हस्तिनागपुर इभ्य पुचः कुरुदत्त
नामा प्रव्रजितः विहरन् क्रमात् साकेतपुरदूरप्रदेश प्रतिमायां स्थित: तत्र चरमपौरुष्यां गोधनापहारिण चौराः समायाता स्त पृष्टौ त्वरितं गताः * पचाहीस्वामिनः समायाता स्तै चौरमार्गस्वरूपे पृष्ट स यति न किञ्चिद् ब्रूते तत: सञ्जातकोपेस्तैः शिरसिमृत्पालि क्त्वांगाराः क्षिप्ताः स यति मनागनापसृतः तां वेदना मधिसहमान: सिद्धिं गतः एवं नैषेधिकीं परोषहः सोढव्यः अथषेधिक्यां आतापनादि स्थाने स्वाध्यायादिकं कृत्वा शज्जायां
नयवित्ता सए परं ।२०। तत्य से अत्यमाणस्म उवसग्गाभि धारए। संकाभौगो न गच्छज्जा उट्टित्ता अन्न मासण २१ तिहां श्मशानादिकने विष से० तेसाधुने अ० रहतां धकां उ० उपसर्ग उपजे ते अभि०खमै मुझ निश्चलचित्तने ए स्थंकरस्य इम जाणीने सं ते उपसर्ग थी समतो थको स.न जावे उतिहां थी उठौने अ.अनेरे स्थानके २१साधुने विषे निषेध परीसहनी कथा एक हस्ति नागपुरनामा" नगरने विषे धनपति नामा मेठ वसे तेहनी पुत्र कुरुदत्त नाम तौणे साधुनो उपदेश सांभलौने तिवारी पके दीक्षा लिधी अनुक्रमे विहार करता सा कैतपुरनगर थकी वे गला
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टोका अ०२
وع
सूत्र
भाषा
RRORA मा भाग
उपाश्रये आगच्छेत् अतस्तत्परोषह माह उच्चावयाहिं सिज्जाहिं तवस्ती भिक्खु थामवं नाइवेलं विहवेला पावदिट्ठो विहवई २२ पइरिकुवमयं
उच्चा वयाहिं सेज्जाहिं तवस्मी भिक्खु थामवं । नातौवेलं विहन्नेज्जा पावदिट्ठी विनई ॥ २२॥ परिक्कु वस्मयं लघु कल्लाण' अटु पावग ं । कि मेगराइ करिस्मइ एवं तत्य हियासए ॥ २३॥ अक्कोसेज्ज परो भिक्खू न तेसि' पडिस'जले प्रतिमा कावसग करो रहे तिहां गायचोर चोरवाने भाष्या तिथे गाय अपहरी तेथे वाटे नोकल्या ते चोरनी पूठे गामनि वाहिर आवो ते ऋषोखरने पूछो हो महाभाग्य चोर किये बाटे नोकल्या तिवारे मुनौ मौन पणे रह्या तिवारे तिण मस्तके मार्टिनि पालवांध कर अनि मेलि तिथे करि मस्तक बलता महातीव्र वेदना ऊपनी शुभ भावे एहवो मरणांत परोसह सहतो सौधो जिम कुरुदत्त मुनीखरे निसीहोया परिसह सयो तिम बोजे सहवो इति निसोहीया दृष्टांत अथार्थ शिव्यापरीसह दृष्टांत ते भयौ शिय्या परीसह इग्यारमो कहे छे उ० शीतादिक निवारक उच्च उपाश्रय व सामान्य ते त० तपस्वी० भि० साधु था • सीतादिक सहिया समर्थे ना० स्वाध्याय वेलाहर्ष विखवादादिके करौ वि० उलंघे नही पा० पापदृष्टि जे साधु हुइ ते वि० स्वाध्यायादिकनी वेलाइ उलंघे २२ प ० स्त्रीयादिक रहित उ० उपाश्रये ल० पामौने क० शोभनीक के अ० अथवा पा० शोभनोक टणांमये कि० किस्य मुझने मे० मुझने एकरात्र क० करस्य सुख अथवा दुख ए० इणी पर हि० समभावे होइ सुख दुख तेजोवन २३ कोसंबो नगरीइ यज्ञदत्त ब्राह्मणना बे पुत्र सोमदेव सोमदत्त तेथे सोमभूत आचार्य कन्हे दोचा लोधी ते बिदु सिद्धांत भण गुण गौतार्थ यु को बोचाली उर्जणि आव्या संसारीयाने वंदाविवा तिहां देशरोति प्रजाग ते साधुने उसामण दोष ते उसामण महात्मा ए बावरी
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अ०२
लडु कलाणं अदुव पावर्ग किमगराई करिस्मइएवंतस्थ हियासए१३ तपस्वी भिक्षुः उच्चाभिः शय्याभिरुपाययः कृत्वा स्थामवान् भवेत् धैर्ययुक्ती भवेत् कोह उ. टीका
शोभिः राजाभि: उच्चाच अवचाश्च उच्चावचा स्ताभिः उच्चावचाभिः उच्चाः शौतादिरक्षणगुणैर्युक्ताः अवचास्त विपरीताः तादृशीभिः शय्यते यासुताः
शय्याः उपाश्रया उच्यन्ते तत्रीपाश्रयेषु स्थितः साधुः अतिवेलां साधुमर्यादा नविहन्यात् हर्षविषादाभ्यां साधुमर्यादायां तिष्ठेत् सगुणयुक्तां शय्यां * लब्ध्वा हर्षभाक् न स्यात् गुणैर्डीनां शज्जा लञ्चा विषादभाक् न स्यात् पापदृष्टि राचारहीन: उच्चावचाभिः शय्याभिः अतिवेलां साधुमर्यादा विह * न्यात् हर्षविषादयुक्त: स्यात् २२ साधुः प्रतिरिक्त पशुपण्डकसयादिरहितं उपाश्रयं लब्ध्वा तत्र एवं अध्यासौत एवं विचारयेत् कीदृशं उपाश्रयं कल्याण 8 शुभं सुखदायकं अथवा पापकं दुःखदायकं एतादृशं उपाश्रयं प्राप्य एवं विचिन्तयेत् एव मिति किं मे मम अनया एकरात्रि स्थितियोग्यया स्थित्या
किं कार्य एक रात्र ममात्र निवास: करणीयः किं करिष्यति कल्याण' उपाश्रयं प्राप्य इति चिन्तयेत् पुण्यवन्ती जना एतादृशेषु स्थानिषु तिष्ठन्ति अन्य पामरा स्तृणमयमृत्तिकामयेषु निन्य वसन्ति मम तु अस्यां स्थितौ न मम त्व' विधेयं सुखं दुःख वा सहेत जिनकल्पापक्षया एकरात्र एका रात्रिर्यत्र तत् एकरात्र उपाययं वमेत जिनकल्पो हि एकरात्र उपाश्रयं शुभंवा अभंवा सेवेत स्थविरकल्यो मुनिः कतिपय अहोरात्रवासी भवेत् स्थविरकल्पः पञ्चरात्र नगरे वसति २३ अत्र कौशांब्यां यज्ञदत्त हिजपुत्त्रयोः कथा यथा कौशांब्यां यज्ञदत्त द्विजपुत्वी सोमदत्त१ सोमदेव २ नामानौ प्रव्रजितौ गौतार्थों जाती हुते शरौरे व्यथा विषनिश्रित जाणौ वैराग्य थका नदीने तटि काष्ठ उपरि चढि पादपोपगमन असण लोधी तेहवे आकाल दृष्टिना योगे हुती नदौनी पूर आयो काष्ठ सहित बे साधु ताण्या हुता पाणोनी उपसर्ग क्षमतां शुभधांने देवलोके गया जिम तेणे साधु शिय्या परीसह सयो तिम बौज सहिवो इति शिव्यापरीसह दृष्टांतजाणवो अथा मत्र माह अ. आक्रोषवचने करी प. गृहस्थ भि. साधु न. गृहस्थ प्रते प न करे कोप स.जे भणी सरिखो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० उ० ४१ मा भाग.
भाषा
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उ टीका अ०२
अन्यदा तत्पितरौ उज्जयिन्यां गतो तावऽपि साधु विहरन्तौ तत्रगतो तत्र तदा देशरीत्या खट्रह क्रियमाणं विवधौषधमिश्च मद्यापरपर्यायं विकट तयोः स्वजनैर्दत्तन्तौ तत्स्वरूप माजानन्तौ जलविशेषबुद्धा पौतवन्तौ परिणते च तस्मिन् ज्ञातमद्यस्वरूपी तो कतपश्चात् तापी तडैराग्या देवानश नं पादपोपगम नामक नदीतटस्थ काठोपरि प्रपन्नौ ततोऽकालदृष्ट्या नदीपूरेण नावितौ समुद्रान्तः प्रविष्टौ तत्र जलचरोपसर्ग विषह्य दिवङ्गतो इमो हि नौरपूरागमऽपि शय्याता न पृथग्भूतौ एवं शय्यापरोषहः सोढव्यः अथ शय्यास्थितस्य तत्रोपवे जातसति रागद्देषरहितस्य साधीर्यदा कश्चित् शय्यातरीवा शय्यातरादन्यो वा वचनैः आक्रोशे दिति हतो: आक्रोशपरोषहीपि सोढव्यः अतस्तत्परोषहमाह अक्कोसिज्ज परो भिक्खू न तेसिं पडिसञ्जलेसरिसोहीइ बालाणं तम्हाभिक्व न सञ्जले २ ४ सुच्चाण' फरुसाभासा दारुणा गामकण्टगा तुसिणौत्री उर्वहिज्जा न ताओ मणसौकर २५ परः अन्यः कश्चित् यदि भिक्षु साधु आक्रोशेत: दुर्वचनै स्तर्जयेत् तदा तस्मै न प्रतिसंज्वलेत् तस्योपरिक्रोधं न कुर्यात् इत्यर्थः यदि तस्योपरिसाधुरपिक्रोधं कुर्यात् तदा साधुरपिबालानां मूर्खाणां सदृशी भवेत् अत्रदृष्टान्तः यथा कश्चित् क्षपको देवः तयागुणे रावर्जितः सतत मभिवन्धते उच्यते च ममकार्यमावेदनीयं अन्यदा एकेन धिग्जातिना यो/
सरिसो होइ बालाण तम्हा भिक्खू न संजले ।२४। सोच्चाण फरसा भासा दारुणा गाम कंटगा तुसिणीअो उवे
हिज्जा न ताओ मणसीकर ।२५। हो न सजले भिक्खू मणमि न पोसए। तितिक्वं परमं नच्चा भिक्खू धम्झवि . हो. हुइ वा अन्नानि सरिखी थावेत. ते भणी भि० साधु न ते गृहस्थ प्रते न करे कोप २ ४ मु० सांभलौने क० कठोर भा० भाषा बोले क• कांटा सरिखौ भाषा सांभलौने तु. मो न करौने उ. ते कठोर भाषाने लेखे माही गणे नहीं न० ते कठोर भाषाना धणी ऊपरे म वेष न करे २५ अथ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टौका
अ०२
८३
भाषा
मारब्धः सवलबान् तेन क्षुत्तामशरोरोसाधुर्भुविपातितः ताडितच रात्रीदेवतावन्दितु आयाताचपकस्सूष्णीस्थितः ततश्वासौ देवतयाभिहितः भगवान् मयापराधं क्षपकः प्राह त्वया तस्य दुरात्मनोधिग्जातेर्नकिञ्चित् कृतं सोऽवादीत् न मया विशेष कोपि उपलब्धः यथायं श्रमणोऽयं धिग्जाति र अ/क्रोष परिसह दृष्टांत राजग्टहे नगरे अर्जुनमाली भार्या कंदयौ तेहने कुल देवता मुदगर पाणी यच ते वाडी दूकडोयचा यतन तिहां रहे नित्य फलफूले करौ यचने पूजे एकदा तिहां छ पुरुष महादुष्टबुद्दिना धणौ गोठिला एहवे नामे तेसे स्त्री दौठो अति रूपवंत तिवारे ते अर्जुनमालोने बांधी ते यक्ष देखता छए पुरुषे स्त्रीसाथे अनाचार सेव्यो अर्जुन माली देखे के अने मन मे चिंतव्योमे ए यज्ञ आज लगि पूज्यो ते फोक ए यचनौ दृष्टि मुझने बांधी स्त्रोनें एवडो विटंबना करेछे तेभणीए यक्षने आज पछि न पूजिये एहवो चिंतवतांते यचमालीना शरीर अदृस्य पेसौ हाथ मांहि मुहरलेई ते छए yer स्त्री सहित विणास्या इम दिन२ प्रतेकपुरुख सातमौ स्त्री विणासे जिको यच भवन आगलि जावे तेहने ते यक्ष विणासे इम अनेकका लग मावे तेहवेते नगर उद्यानें श्रौमहावीर समो सख्खाके ते सांभली समकितधारी सुदर्शन श्रेष्टिलोकमाता पिता वर्जतां श्रीमहावीरने वंदणा करिवा जातां ते यचा यतन तणोवाट आवे ते सुदर्शन देखो अर्जुन माली वीमुदगरनी प्रहार देवे पिए लागे नहीं ते सुदर्शन बोन्हा नथो तेहना प्रभावथौ यच मालोनोकाया मूकौनाठो तिवारे ते अणसणपारी अर्जुनमालीने पाछलो सम्बन्धजणावोबुझवी श्रीमहावीर पासे गया तिहां धर्म सांगली श्री महावीर कन्हे दौख्यालोधीछे हिवे राजगृही नगरीनें पासे रहेछ तिवारे लोक कहे अरे पापी माहरा वजन विणासौ हिवडा भीक्षु पर्णे आवो इहां भिक्षा मांगे तुझनेंसी भिक्षा एहवा दुष्टवचनघात प्रहार लोकाना सही क्षमा करोछमास लगे छट्ठ २ पारणो करो अंत गडकेवली थई मोखपुहतो जिम अर्जुनमालोइ आक्रोषपरिसह सा तिमवोजे ऋषिश्वरे सहिवो इति श्रो आक्रोषपरौसह दृष्टांत पूरो थयो व्हिवे आगेते
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टीका कोपाविष्टौ दापि समानी सम्पबाविति एव माक्रोशताडनादिभिवालानां सदृशो न भवेदिति भावः तस्मादिक्षुर्न संज्वलेत् गाली श्रुत्वा प्रति
गाली न दद्यात् तदा किं कुर्यादित्वाह सुच्चाणं. साधु तूष्णौको मौनी सन् उपेक्षेत औदासीन्येन तिष्टेत रागद्देषरहितो भवेत् ताः भाषा मनसि 8 न कुर्यात् किं कृत्वा परुषाः कठोराः भाषाः श्रुत्वा कौदृशौ भाषाः दारुणः दारयंति संयमधैर्य विदारयन्तीति दारुणाः पुनः कीदृशीः ग्रामकंटकाः
ग्राम इन्द्रियगण स्तस्य कण्टका इव कण्टकाः ग्रामकण्टकाः दुःखोत्पादकाः यदुक्त चण्डालः कि मयं द्विजाति रथवा शूद्रोथवा तापस: किंवा तत्वनि वेशपलमतिर्योगोखरः कोपि वा इत्य स्खलप विकल्प जल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणोजनैः नोकष्टो न हिचैव इष्टदयो योगोखरी गच्छति १ पुन र्गाली श्रुत्वा इति विचिन्तयेत् ददत ददत गाली र्गालोमतो भवन्तः वय मपि तदभावात् गालिदानप्य शक्ताः जगति विदित मैतदीयते विद्यमानं ददत शविषाणं ये महात्यागिनोपि १ इति विचार्य समत्वेन तिष्ठेत् अत्रार्जुनमालाकारपि कथा ।२५ यथा राज रहे नगरे अर्जुननामा मालिकोस्ति
तस्य प्रिया स्कन्दश्रीनाम्नी वर्तते स स्ववाटिकामार्गस्थ पुराबहिर्मुहरपाणियक्ष निरन्तर खगोत्रदेवत्वेनार्चति अन्धदा वाटिकागतस्य अर्जुनमालि 2 समोपे सा भोज्य एहीत्वा वाटिकायां यान्तो यक्षभवनस्थैः षट्पुरुषैदृष्ट्वा भोगार्थ यक्षभवनांतः प्रवेशिता तदानी मैव तत्र यक्षपूजार्थ मालिक:8
समायातः तं वचा षडपि पुरुषा स्तस्या भोग प्रवृत्ताः स पश्यति एवं च चिन्तयति मया एषः यक्षो मुधै वार्चितः यदै तस्य पुरः इत्य पराभूयते ततो यह स्तच्छरोरं अनुप्रविश्य तान् षडपि पुरुषान् स्त्रीसप्तमान् मारयतिस्म एवं प्रत्यहं मारयति ततो लोकोपि तस्मिन्मार्गे राजराहपुरात् तावनिर्ग कृति यावत् सप्तमारितानस्थः अन्यदा श्रीवौरः समवस्त: नकोपितयेन वन्दनार्थ गच्छति सुदर्शनयेष्टी तु यद्भवति तद्भव तु मयात्वऽवश्य थोपौर स्तत्र गत्वा वदनोब एवेति विचिंत्य तन्मार्गे चलित: तं दृष्ट्वा मालिकशरीरप्रविष्टो मुहरपाणियंक्षी धावितः ततः सुदर्शन थेष्टिनाहत्
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उ.टीका
* सिद्धसाधुशवधर्मसरणं प्रपन्न सागरिक मनशनमपि गृहीतः कार्योत्सर्गेण स्थितं ततो धर्म प्रभावात् स यक्षस्तं प्राक्रमितु न शक्नोति पथात् यक्षो मालिकशरीरं मुक्त्वा गतः स्वस्थीभूतो मालिकः श्रेष्ठिमुखा दौरागमनं श्रुत्वा श्रेष्ठिना सह वन्दनार्थ गतः वीरवचसा प्रतिबुहो दीक्षा गृहीतवान् राज गृहनगरमध्ये एव यहे २ भिक्षार्थ भ्रमति लोकास्तु स्वजनमारकोऽय मित्वा क्रोशान् वदति स मन वचनकायशया तान् अक्रोशान् विषय उत्पत्र केवलज्ञान शिवमगात् एवमन्यैरपि आक्रोशपरोषहः सोढव्यः । अथ कश्चित् आक्रोशको दुर्वचनवादी साधीबंधमपि कुर्यात् तदा तमपि सहेत अतस्तत्यरोषह माह हो न संजले भिक्खू मणंपि न परोसए तितिक्वं परमं नच्चा भिक्खू धम्मं विचिन्तए २६ समणं सञ्चयं दन्तं हणिज्जा कोइ कत्यई नस्थि जीवस्मनामुत्ति एवं पेहेज सञ्जए २७ भिक्षुः साधुर्हतोयध्यादिभिस्ताडितो न संज्वलेत् न क्रोधाभातः स्थात् मनः अपि न प्रहेषयेत् चित्तं सहेषं न कुर्यात् इत्यर्थः किं कृत्वा तितिक्षां क्षमा परमा उत्कष्टां ज्ञात्वा दाशविध साधुधर्मे शान्ति उत्तष्टां विचार्य भिक्षुर्धर्म विचिन्तयेत मम
चिंतए ।२६। समण संजयं दंतं हणिज्जा कोइ कत्थई । नत्थि जीवस्म नासोत्ति एवं पेहेन्ज संजए ।२७। दुक्करं 9 भणी बधपरीसह ते रमीकहे के ह. हयो रौस थको ने नकर कोपभि. जे साधु म० मने पिण न दुष्ट न कर ति क्षमा प० परम उत्कृष्टी धर्म साध
वानो कारण न जाणोने भि० दशविध यतौ धर्म वि० चिन्तवे २६ स.तपस्वीर सं० संयमवंत ९ इंद्रौनी दमण हार हुइ ह.हणे को० कोइ कअनार्यक० ग्राम नगरादिकने विषे न० नथौ था तो जी० माहरा जौवनो ना. विनाश सरीर नो ए. एणी पर पि. विचरै सं० साध २० अथ बध परीसह दृष्टांत यत जंतेहिं पिपलिया बिदु खंदग सौसा नचेव परिकुविया विदिय परमस्थ सारा खमंति जे पंडिया हुती १ ज. घाणीद पौलता हुता * खंदग सूरीना पांच से शिष्य तेहने क्रोध लिगार मात्र न उपनी इसी रहणोई अनेरा साधु जे विदित जाण्यो परमार्थ धर्मनी सार क्षमा जे पंडित हुए
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अ०२
८६
ते सर्व सहे प्राणजाता पिण मार्ग थो न चले रोस नाणे यथा सावत्थोने विषे जितशत्रु, राजा धारिणी राणी तेहनो पुत्र स्कंद कुमार सर्वशास्त्र प्रवीण पंडित गुण करौ प्रवर्ते पुत्री पुरंदर यशा दंडकारण्य देशनो धणी कुम्भकार राजाने परणावी एकदा कुम्भकार राजानी पालिक नामा पुरोहित सावत्थीइ नगरी आव्या जितशत्रुनी सभाइ गुष्टि करतां पालक मन्त्री नास्ति मत थापे ते स्कन्द कुमार शास्त्रनी युक्त करि नास्तीकमत उथाप्यो सभा समक्ष ते पालकने विलखो कोधी लोके हसौ तो आपणे नगरे गयो तेहवे पाछिलि सावस्थिडू स्वान्द कुमार पांचसे राजपुचने परिवार श्रीमुनि सुव्रत पासे दिख्या लिधौ गणधर पदवी पाम्यो एहवे केतले दिवसे मुनि सुव्रत तीर्थकर पूच्छो भगवन् दंडकारख देश हु विहार करी नाति बहीन छ तेहने प्रतिबोध देवा भणी मन चाल्यो छे तुम्हे आग्यायो तिवारे मुनि सुव्रत खामौ कहे तिहां तुमने मरणांत उपसर्ग के तु परिसह नही सहे अने यारसेनिनाणु आराधिक के ते सांभली भवितव्यताना योग थौ दंडकारण्ये वंदाविवा
उद्याने जई ऊतखो तेहवे ते पालक पुरोहित पाछली रौसना वस थी स्कन्द परिवार सहित हणवा बांछतो रात्रि तेणे उद्याने छांना हथीयार 8 भूभिमाहि मांतिन पछे प्रभाते भावी राजानेजणाव्यी जे तुमारी साली संयम भांजी पांच से जोध सहित वनमाहिं पाव्यो छे तुमने विणासो राज लेसो
प्रपञ्च एहवो मे पुच्च्चो के जेन मानो तो तुमने पांचसे हथीयार छाना वाडौ मांहि संताद्या के ते देखाई तिहां थौ राजानो मन ते भंभे ने वनमांहि तेडी हथीयार देखाड्या महात्मा अपरि रौस चब्ये थके ते पांच से पालकने भोलाव्या तिणे अभव्ये नगर माहि घाणी मंडावी रौस नावस थी ऋषोखरां ने घांणी मांहि घालौने निरदय पणे पौलवा लागो ते साधु क्षमा करतां केवल पांमी मोक्ष पोहता पर्छ गुरुने विनास्यों रौस सहित करौ भुवनपति मांहि अग्निकुमार देवता हुओ ओधो मुहपती रक्त खरद्या समलौई पुरंदरयशा आगे नाख्या भाइनी मरण जाण्यो एपापी पालक नाकाम के हिवे
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धर्म एव रचणीयः इति विचिन्तयेत् इत्यर्थः २६ कश्चित् दुष्टः कुत्रचित् अनार्यदेश अमर्थ साधु हन्यात् प्राणापहारं अपि कुर्यात् तदा संयतः साधु उल्टोका रेवं संप्रेक्षेत विचारयेत् एव मिति किं जीवस्य नाशो नास्ति शरीरस्य नाशे विद्यते न च शरीरनारी जीवनाशः कौदृशं साधु संयतं जितेन्द्रियं पुनः अ०२४
* कोदृशं दान्तं क्रोधादि रहितं साधुना मनसि एवं चिन्तनीयं कदाचिदहं अस्मिन् शरीरनाशवसर क्रोधं करिश्चामि तदा मम धर्मरूपजीवितव्यनाशी 8 भविश्थति न चास्मिन् अनित्यदेहे नष्टे मम आत्मनः धर्मस्य च नाशो भावौति यदुक्त दोषो मेऽस्तौति युक्त अपति शपतिवातं विनाज्ञः परोक्षे दृष्ट्याः साक्षा
व साचादिति शपति न मां ताड़येत्ताइयेहा नाशून् मुणाति तान् वाहरति सुगतिदं नैप धर्म ममा हो इत्यं यः कोपे हेतौ सति विशदयति स्या वितस्येष्टसिद्धिः १ अत्र स्कन्दिकशिष्याणां कथा २७ यथा धावत्यां जितशत्रु नृपो धारिणौ प्रिया तयो पुचः स्कन्दकः पुरन्दरयशा पुत्री कुम्भकारकटके * पुरे दण्डक तृपस्य दत्ता तस्य पुरोहितः पालको मिथ्याक अन्यदा श्रावस्त्यां मुनिसुव्रतस्वामो समवसृतः तस्य देशनां श्रुत्वा स्कन्दकः श्रावको
जातः एकदा पालकपुरोहितो दूतत्वेन श्रावस्त्यां प्राप्तः राजसभायां जैनसाधूनाम वर्णवादं वदत् स्कन्देन निरुत्तरीकृत्य निर्धारितः सन् स्कन्दककु मारोपरि रुष्टः छिद्राणि पश्यति अन्यदा स्कन्दक कुमारः श्रीमनिसुव्रतस्वामिपाई पञ्चशतकुमारैः सह प्रव्रजित: गौतार्थो जात: स्वामिनाते कुमार
अग्नि कुमार देवता ग्बाने करौ जोयोतिकोवैर संभाली एक आपणौ बहिन टालि बौजो देश जेतले रायनौ प्राण हुति ते सर्व बाल्या ते देसने आज भाषा
लगि दंड कारण्य कहोई पुरंदर यशादिक्षा लेई तप तपो देवलोक विषे गई स्कन्दकाचार्थना चारसैनिनाण' शिष्य घाणी पौलता कोप्या नधौ अंत गड केवलौ हुवा जिम तेथे बध परोसह सयो तिम बीजे पिण ऋषिसरे बध परीसहसहिवा इति स्कन्दकाचार्यानी शिथनौ कथा दु० दोहिला वैया वच्च उपगार रहित पण भी.पामंत्रिर्ण है विथ मि. सदार प. सङ्केत रहित प्रपगारने भि. साधने स. सर्वपसनादि मे ते साधुने जा. याचो हो. हुवे
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उ० टोका
사
८८
RAJRAS
XERCNCH
शिष्यास्तस्यैव दत्ताः अन्यदा स स्कन्दकः स्वामिनं पृच्छति हे भगवन् भगिनी बन्दापनार्थं गच्छामि स्वामिना भणितं तत्र मारणान्तिकोपसर्गौस्ति स्कन्दकेनोक्त' भगवन् वयमाराधकविराधका वा स्वामिना भणितं त्वां मुक्ता सर्वेप्याराधकाः स्वामिनैव मुक्तपि भवितव्यतावशेन पञ्चशतशिष्यपरि वृतः कुम्भकारकटकपुरे गतः पालकेन तमागच्छन्तं ज्ञात्वा पूर्ववैरं स्मरता साधुस्थितियोगोद्याने षट्विंशदा युधानि भूमौ स्थापितानि स्कन्दकाचा र्यस्तु तत्रैव समवसृतः ततः पालिकेन नृपस्याऽग्रे कथितं महाराज श्रयं स्कन्दकः पञ्चशतसाधवोपि च सहस्रयोधिनः परोषहभग्नास्तव राज्य' गृहौतुकामाः समायाता स्वां हनिष्यन्ति राज्यञ्च गृहीष्यन्ति यदि न प्रत्यय स्तदा उद्यानं विलोकय एभिरायुधानि भूमौ गोपितानि सन्ति नृपेण उद्यानं विलोकितं आयुधानि दृष्टानि क्रोधात्तेन ते साधव स्तस्यैव दत्ताः तेन सर्वेऽपि यन्त्रेण पोलिताः बधपरौषहस्य सम्यग् अधिसहनात् उत्पन्न केवल ज्ञानाः सिद्दाः स्कन्दकाचार्यस्तु सर्वेषां शिष्याणां तथाविधमरणं दृष्ट्वोत्पत्रक्रोधः सर्वस्याप्यस्य देशस्य दाहकोऽहं स्यामिति कृतनिदानो अग्निकुमारेषूत्पन्नः अथाचा र्यस्य रजोहरणं रुधिरलिप्तसन् ग्टन्नैः पुरुषहस्त' ज्ञात्वा चञ्चुपुटेनोत्पाव्य पुरन्दरयशा पुरः पातित सापि महतोमष्टतिञ्चकार साधवो गवेषिता न दृष्टा प्रत्यभिज्ञातानि कम्बलाद्युपकरणानि ज्ञातञ्च तया साधवो मारिता इति ततोधिक्कृत स्तया नृपतिः अहं तव मुखं न पश्यामि प्रव्रजियाम्ये वेति वदन्तों तां स्कन्दकभगिनीं देवाः श्रौमुनिसुव्रतस्वामि समीपे मुक्तवन्तः स्वामिना सा दीचिता ततो अग्निकुमारदेवेन सनगरो देशो दग्धः ततो दण्डकारण्यं जातं अद्यापि तथैव तज्जनैर्भण्यते एभिः साधुभिर्वधपरोषहः सोढ़स्तथापरैरपि सोढव्यः नतु स्कन्दकाचार्यवत्कर्त्तव्य अथ परैरभिहतस्य औषधादिक याज्या स्यात् तस्मात् याज्यापरोषहोपि सोढव्यः प्रत स्तत्परोषह माह दुःकरं खलुभोनिचं अणगारस्स भिक्खुणी सव्वंसे जाइयं होइ नत्थि किचि अजाइयं २८ गोयरग्ग पविट्ठस्स पाणीनो सुप्पसारए से श्री अगारवामुत्ति इइभिक्खु न चिन्तए २८ खलु इति निखयेन भोखामिन् अनगारस्य
************************ राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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.टीका
भाषा
भिक्षोनित्य कष्टं अपरस्य च कदा किञ्चित्कष्ट उत्पद्यते भिक्षोस्तु नित्यमेवकष्टं यदुक्त गात्रभङ्गः स्वरदैन्य प्रस्खेदो वेपथु स्तथा मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचने २ इत्यु क्तत्वात् भिक्षीनित्य महत्कष्ट तरिक कष्टमित्याह से इति तस्य भिक्षोः, सर्व वस्तु याचितं सद्भवति अयाचितं गृहस्थात्
खलु भोनिच्चं अनगारस्म भिक्खुणो। सबसे जादूयं होइनस्थिकिंचि अजादूयं । गोयरग्गपविट्ठस्म पाणीनोसुपसा
रए । सो अगारवासोति दूदू भिक्ख न चिंतए ।२६। परसु घासमेसज्जा भोयणे परिनिट्ठिए लड़े पिंडे अलद्दे वा . न.नस्थि किंकाइ साधुने अ.अणजाचा २८ जिम गाइ चरी तिम थोडं२ आहार ल्ये ते प्रधान गोचरीने विषे पपइठो ते साधु पा.हाथ ना याचवाने अर्थे मुखपसारी नसके तेभणी से० ते मुझने श्रेय आ. गृहवास इ. एहवो भि. साधु न न चिंतवे २८ अथ याचना परीसह दृष्टान्तमाह श्रीने मिना थने पहिले समी सरण श्रीकृष्ण महाराय वांदवा आव्या पौनेमनाथने पूछ्यो हे भगवन् माहरो मरख किम के तिवारी कडं ताहरो भाई जरा कुमारने हाथे मरण हुस्र्य ते वचन सांभली जरा कुमार आपणा भाइनी मरण राखिवा भणी विदेसे गयु वली कृष्ण पूछे स्वामी हारिका एहवीज हुस्यै तिवार प्रभु कहे मद्यपी नगर दाह हुस्ये अने जालगि नगर मांहि घर दौठा आंबिल तप हुस्ये तालगि नगरी नहीं विणसे पछे यौवर्ण जे जिहांर मद्य भांडा हुता ते सघलाई गिरनार पर्वतनी झोलिन खाद्या ए भवितव्यताने योगे एक कुम्भमज्जनो तेणे वने मोटा वृक्षहठे भांजता वौसयो तेकुणे नजाण्यो वलौ हारिका माहे साद पडाव्यो घर२ दौठ दिन२ प्रते एके को आंबिल करवी जिम संकट टले इम वार वरस थयोएकदा यादवाना कुमरगिरनारना वन माहि भमवा लागो देवयोग मद्यनी घडो वीसखी हतो अवै दारुवही एक स्थानके तो भडीई रह्यो दीठी ते पाणी घणे जवाव ते कुमर विठ्ठल
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अ०२
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थया पाका द्वारिका प्रवता तप करो तो दोपायन ऋषि दौठो तिथे कुमरे होपा यनने लात प्रहार करो धणु विडंव्यो जे ए हारिकानी विणास करि स्ये तेहवे ऋषि चिन्तव्यो जे माहरा तपनो प्रभाव हुइ तो हुं मरौने सावाल वृद्ध युयांन हारिका नगरौ दाहने अर्थों होषं एहवो मियाणो बांध्यो तेणे कुमरे ऋषिवचन सांभलौ कृष्णकने आवो सर्ववात कहो पक्छे ऋषिवचन अन्यथा करिवा कृष्ण आवो ऋषौने पगे लागो स्वामी बालक अग्यानी चूका तुमे अपराधखमी बलतो ऋषि कहे लोकनो अपवाद ऋषिनो सराप अन्यथा न थावे पक्छे कृष्ण पाका श्रव्या ऋषि क्रोधे काल करो अग्नि कुमार देवता हुप्रो' ज्ञान करो पाइलो बेर जाग्यो आवो अग्नि पिण मगर मांहि घर दौठ प्रबल तप करे जे तपना प्रभाव थौ बारे वरस नगरमांहि जोर न चाल्यो हिवे बार वरसने छेहडे नगर लोकने सम काल सरौखोज बुद्दिजपनौ घणा हो वरस तप करतां हुवा आज आपणे घर न कौधो तो बोजा घणा हो नगर मांहि करे के तिथे सखो जिम एकने बुद्धि ऊपनौ तिम सहुने बुद्ध उपनी तिम सघले आंबिल तपन कराणो एहवे तिणेद्र लाग पाम्यो छे नगर सघलो दाह कोधो जे दौचा लोइ तो तेने मनाथ पासे मोकल्या बोजा ते नोकल्या ते वायुना आकाष्या हुतां अग्नि मांहिनांखे श्री कृष्ण अने बलदेवनो पराक्रमो मोटे जगया के आपण स्वजनपरिवारसह बलता देखि दुखो हुवा ते बिन बंधव वनवासी नोकल्या तिथे वन जराकुमार रहे तिहा पडता कृष्ण महारायने त्रिस लागौ एहवे एक वचनौ छाया हेठे श्रावो स्ता बलदेव पाणौ लेवा गयो एहवे जराकुमर वनमाहि क्रीडा करता मृगने वरासिबांण मूक्य ते वाण श्री नारायण पगने तलि ते उत्तम पद्म झलके के तिहां आवो लागो जराकुमार आवो देखेतो ए अपराध क्षमो बलतो कृष्ण कहे वीतरागना वचन अन्यथा नथावे तू' ताहरे ठामे जाइ हिवडा वलदेव आवे छे ते तुझने दूहवण करिस्ये जरा कुमर श्रापणे स्थानके गयो पक्रे श्रीकृष्ण जी चिंतवे के ए मुझने मारोगयो मे तो अनेक माया के ए जीव तो जाई इम चिंतवौ श्रार्तध्याने काल करोने अधोगति त्रिजौ नरके
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ०भाषा
४ गया तेहवे बलदेवपाणी लेई तिहां आवे तठे भाइ सूताछई तेहवे बोलावे अही बंधव पाणी पौवो मुझने पाणी आणतावार लागी सही तुम्हेतिरस्या
थया इम विलापथ की मूपो नथी जाणतो नेह थको कृष्णने खंधे उपाडौ इम अनेक मनावणा करता छमास हुवा एहवे एक देवता ब्राह्मणने रूपे थई
मृतक गायनो रूप विकुर्यों तेहने वाछडो चूचें के एहवो स्वरूप बलदेव देखी कहिवा लगो अहो विप्र एहवो विप्रकाई मूई गायने घवरावे के बलतो * ब्राह्मण कहे तु मूर्ख जे मूवाने खंधे ऊपाडतां कुमास थया अनें मूत्री न थी जाणतो वलोवेलूरत नौघाणी करता बलदेव का परे मूर्ख वेलूमाहि
घृत किहां नौकले देवता कछु मूत्रा क दौजोवें इम देवताई बूझव्यो श्री कृष्णने संस्कार करीवे राग्य थको श्रौनेम कहें चारित्रलेई विहार करे अनें जिहां २ भिक्षाने जाइ तिहां २ तेहना रूपमोही स्त्रीसर्वघरना कामकाज मूको जीवे पाछे फिर सर्वकाम विसार एकदा श्रीबलेदेव मुनि भिख्याने
अर्थे ग्राम माहिपसतां कूवाकांठे एक स्त्री बलदेवनी रूपदेखी जीती २ घडाने भरोसें आपणा बेटाने गले रस्मी बांध्यो तेहवें बलदेवे छोडव्यो * तिवारे चिन्तव्यो माहरा रूपने धिक्कार हुओ जे रूप देखाए हबा अनर्थ ऊपजें एरूपपंचेंद्री बालकनी पाप मुझने लागतो ते श्रीबलदेव रूप अनर्थ
हेतु जानि नियम लोधी आज पाछे ग्राममाहिावी भिक्षा न लेवी जे वेड मांहि कोई खडवाही काष्ठबाही तथा सार्थवाही पाव्यातादौइतोल्य
इम चितवी वेडजई रधु तिहां शांतिप्रणाम देखौनें बैठना जाव हरणादिक आश्रये रहें एहवे मृगलो एकजातौ स्मरणथी ते वलभद्र मुनिनी सेवा * करे जिहां साथा तस्या जाणे फालदेतो ऋषिनें जणावें भातपाणी मेलवे एकदाते वनमाहि रथकारसार्थ वाहघणु हर्षपामी भिख्या देवा उठ्यो
भाव सहित मृगभावना भावेछे जेडु मानवौटु' ततो निस्तरत अने बलभद्र सूझती पाहार लेता अईकापौ वृक्ष नौडालिवायने जोगविहु ऊपर ॐ पडौत्रिणेई मरौ पांचमें ब्रह्म देवलोके देवता हा जिम बलदेव ऋषोखर याचना परोसह मह्यंतिम बौजें सहिवौइति श्रीयाचमा परौसह दृष्टांत १४
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ. ४१.मा भाग
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उ. टौका
8 प्रमाणितं किञ्चित् अपि नास्ति तस्माधिक कष्टं भिक्षुजीवित मिति पुनस्तदेव ढयति गोयरगोति गोचराग्र प्रविष्टस्य भिक्षार्थ प्रविष्टस्य साधोः
पाणिहस्तः पिण्डग्रहणार्थ न सुप्रसार्यः सुखेन न प्रसार्यः गौरिव चरति यस्मिन् स मोचरः गोचरे अग्रं प्रधानपिण्डग्रहणं गोचराग्रं तनिमित्तं प्रविष्टस्य गृहे * प्रस्थितस्य भिक्षार्थ करप्रसारण दुःकर भिक्षामार्गण' दुःकरं को नित्य सम्यग् वयुष्मान् नरः भिक्षा मार्गयति तस्मात् अगारवासी गृहवासः श्रेयान् * इति भिक्षुर्मनसि न चिन्तयेत् यथाऽरणे याजापरीषही दुःसही न तथा श्रीमहाकोणे पुरेऽत: स्त्रीणां निजरूपकृत मन) दृष्ट्वा बलदेवर्षिः पुरः प्रवेशं निषेध्य यत एव याजापरीषहं सोढवान् तत्कथा २८ यथा द्वारिकानगर्यामेकदा श्रीनेमिः समवसृतः कृष्णेन द्वारिकाक्षय स्वमरणकारण पृष्टं नेमिना मद्यपान विकलौभूतत्वत्कुमारोपसर्ग समुहू तक्रोधा हौपायनात् हारिकाक्षयः त्वन्मरणञ्च त्वद्वाजराकुमारादेवेति प्रोक्त वासुदेवेन हारिकायां निषिद्ध मपि मद्यपानं भवितव्यतावसेन कृष्णपुत्र कृतं मद्यपानं विकलौभूतै यतैः क्रीडार्थ नगरबहिर्गतै स्त त्रातापना कुर्वन् दीपायनऋषिदृष्टः पर त्वं हारिकाक्षयकारी भविष्यसौ त्यु क्त्वा यष्टिमुष्ट्यादिभि रूपसर्गितः कोपात् हारिकाचयनिदानं चकार तन्मारणा देव मृतः अग्निकुमारेषत्पन्नः तेन च हारिकाक्षयः कृतः कृष्णबलदेवावेव निर्गती अटव्यां वृषाक्रान्तेन वासुदेवेनोक्त' नाहमतः परं चलित' शक्नोमि पानीय मानीयमे देहि ततो बल देवेन पानीयार्थ दूरङ्गत पादोपरिपादं कृत्वा कृष्णः सुप्तः अथ प्रारीव धौनेमिनाथवचन श्रवणसञात भयेन जराकुमारण वनवासं प्रपन्नेन तदानी मित स्ततो भ्रमता तत्र वायातेन मृगचात्या मुक्तवाणेन विद्दपादः कृष्णः पञ्चत्व माप तथापि तत्रा यातेन बलदेवेन मे भ्राता मृत: किन्तु महिलम्बा गमनोत्थ रोषा देष मौनमाश्रितो स्तौति बुद्ध्या तच्छिवं स्वस्कन्धे समुत्पाटितं पूर्वसङ्गतिदेवेन प्रतिबोधे कतै बलदेवेन दीक्षा ग्रहोता एकदा कस्मिंश्चिद्ग्रामे भिक्षा मायातस्य बलदेवस्य रूपं दृष्ट्वा व्यामोहङ्गतया कूपकण्ठस्थया कयाचित्रार्या घटनात्या स्वबालकण्ठ एवपासित: सतो
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं. उ०४१ मा भाग
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उ० टोका
श्र० २ १०२
सूत्र
भाषा
XX RA
बलदेव मुनिना प्रतिबोधिता सा बालगलात् पाशं दूरीचकार ततो भिक्षार्थं ग्रामप्रवेशनियमो गृहीतः वने एव तृणकाष्टहारकेभ्यो भिक्षां गृहाती यदि तेभ्यो न प्राप्नोति तदा तप एवं करोतीति यथा बलदेवेन तुच्छ लोकेम्यापि भिक्षा मार्गिता ततो याज्यापरोषहः सोठ स्तथापरैरपि सोढव्यः एवं याज्यापरौषहे बलदेवकथा अथ याज्जायां न लभेत् तदा अलाभपरौषहोपि सोढव्यः अतः अलाभपरोषह माह परंसु घासमेसिज्जा भो पर fनट्ठिए लडेपिण्डे अलई वा नागुतप्पिन्न पण्डिए ३० अज्जेवाहं नलम्भामि अविलाभो सुए सिया जो एवं पडिसचिव अलाभो तं नतज्जए ३१ साधुः परेषु ग्टहस्थेषु ग्रासं कवलं एषयेत् तत्र च भोजने ओदनादी परिनिष्टिते सम्पूर्णे सिद्ध वा लब्ध प्राप्त सति वा अथवा अलब्ध अल्पे लब्ध अनिष्टे लब्धवा पण्डितो मुनिर्न अनुटप्पेत् लब्धिमानहं यतो मया सम्पर्णमिष्टं वा आहारं लब्ध' अनिष्टे अल्प वा अलब्ध तथा न दूयेत इति अनुक्तोम्यर्थो गृह्यते ३० तदा किं कुर्यादित्याह श्रद्यैव अहं आहारं न लभामि अपि सम्भावनायां सम्भावयामि अद्यैव आहारं न प्राप्त परं सुरइति स्वः प्रभाते आगामि
नाणुतप्पेज्जपंडिए ।३०। अज्जेवाहं नलम्भामि अविलाभो सुएसिया जो एवं पडिमंचिक्ख अलाभोतं नतज्जए ॥३०॥ अथा सूत्रमाह अलाभ परिसह १५ मो कहेके प० गृहस्थना घर विखेषों० आहार म० भो० भोजननी पनेथे ल० ला थके पिं० आहार अ० अण ला थके वा० अथवा ना हर्षविखवादरूप पश्चात्तापनकरे प० पंडित २० अ० आज नथो पामतोएहवी संभाव नाइके लाभ सु० भागलें सि० संभवाना होइ जो॰ जे साधुनें ए॰ एणोपरे य० दोन पणारहितमन एहवो अ० अलाभ परोषह तं० तेसाधुनेन०नजी मथो ते साधु ३१ न जाणो नउ० ऊपनोदु० दुख नानाप्रमुख वे० फोडांदिकवेदनाने दुदु खे पौड्योथको अ० अदीनपणा रहित था थिरकरें प० पोतानि प्रज्ञाथी तिहां हि० रोग अहियासे २३ अलाभपरौसह दृष्टांत पाइले भवे गांमनो पटेल हु'तो पांचसे हलबहावतो एकदा त्रिपुहरे भात पाणी आव्या पूठेचां न लेई हलकोड़ाव्योडाव्यो पनरें
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Na
.
NAL
4
.
.
भाषा
दिने लाभः स्थात् पाहारस्य प्राप्तिर्भवेत् उपलक्षणत्वात् अन्य युरपरद्युः अन्धतरेयु वा मां वा भत् यः साधु रेवं प्रति समोच्यते इति चिन्तयति त साधु अलाभपरोषही न तर्जयेत् न अभिभवेत् ३१ अत्र अलाभपरोषहे कथाहयं लौकिकं १ लोकोत्तरञ्च २ तत्र प्रथम लौकिक कथा न कथ्यते एकदा कण १ बलदेवर सत्यकि ३ दारुका एते चत्वारोऽप्यखापहृता अटव्यां वटवक्षाधी रात्रौ सुप्ताः आद्य प्रहरे दारुको यामिको जातः अन्ये त्तयः सुप्ता ४. से जोबने अंतराय दीधी ते कर्महँढण कुमारने भवि पाम्यो एकदा कष्ण महारायनौ स्त्रौढंढणा तेहनो पुच्च ढंढण कुमार वैराग्य थौ नेमिनाथ पासे
दीक्षा लीधी गोचरी करतां अंतराय कर्मे आहार पाम नहीं साधु जे साधे फिर के ते पिण आहार न पामे बौजे साधे नेम आगलि का गोचरी साथि न जावे तिवारे ढंठण कुमार भगवंत पासे आवौ अभिग्रह लोधो परायो वहिस्युं में न लेवु आपणौ लब्ध आहार मिले तो लेवो इम अभिग्रह पालता घणो काल हुवा एकदा श्रीकृष्णनेमनाथ ने पूच्चो भगवन् अठार हजार सांधां में दुक्कर क्रियानी करण हार कुण के अने आज केवल ग्यान कुण पामसौ तिवारने मिक धु तुमारी पुच ढंढण कुमार दुक्करकारक आज केवल ग्यान पामस्थे ए श्रीनेमनाथनो बचन सांभलिते हवें श्रौद्दारिकाई' पाछा आवतां भिक्षाई भमता ठंढण कुमार गलौमे देख्या भक्ति सहित वंदणा कीधी तेहवे कोई एक व्यवहारी कृष्ण वांदता देखी चिंतव्यो ए मोटी साधु के जेहने कृष्ण वासुदेव वादे तो ए माहरे घरे आवेतो एहने आहार यु एहवो चिंतवौ साधुने बोलायो व्यवहारौये सूझतो मोदिक प्राप्या तेलेई श्रीनेम नाथ पासे प्राध्या गमणागमण पडिकमी पूछे भगवन माहरो अंतराय कर्मक्षय गयो जे मे शव मोदिक लाधा तिहां श्रीनेम कहेए क्लष्णनी लब्धि ताहरी लब्धि नधौ एहवो सांभलि चिन्तव्यो मुझने परलब्धनो आहार न लेवो ते भणी आहार परिठवाने हेत राख माहि चूरता कर्म चूया शुभ भावना धरै धन्ध पौनेमि माहरोपण राख्यो नही तो भंग पडतइम के वलग्या न ऊपनो के तला वर्ष केवल पालि मुक्ति पुहता जिम ढण्टण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं० उ. ४१ मा भाग
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MP
AN
तदानीं क्रोधपिशाचः तवायातः दारुकं प्रत्यार अह मतान् सप्तान् साम्प्रतं भक्षयामि यदि तवेषां रक्षण प्रति रस्ति तदा युद्धं कुरु दारुणीत' बाट १ टीका
नती लग्नं युद्ध यथा १ दारकस्त पियाचं हन्तुं नशक्तीति तथा २ तस्य क्रोधी वईते तथा च दारुकस्य न बुद्दलाभो जातः पराभूतएवदारक: सुप्तः द्वितीये प्रहरी सत्यकि रुत्थितः क्रोधपिशाचेन तथैव जितः बतौबे प्रहरी बलदेवः सोपि तवैवजितः तुर्ये प्रहरै उत्थितं कृष्णं क्रोधपिशाच स्तथैव प्रोक्त वान् कृष्णप्राह मां जित्वा मसहायान् भच्चय ततो यथा क्रोध पिशाचो युध्यति तथा २ कणोऽहो बलवान् एषमल्ल इति तुष्यति यथा कृष्णस्तोषवान् भवति तथा २ पिशाचः क्षीयति एवं कषणेन पिशाचः सर्वथाचौणः स्ववस्त्रमध्येचिप्तः प्रभात ता अंगान् दृष्ट्वा कृष्णेनोक्त कि मैतद्भवतां जातन्ते सर्वेऽपि रात्रिवृत्तान्त' प्राहुः कृष्णन स्ववस्त्रमध्यादाक्लष्य दर्शित एवं कृष्णवयस्तोषवान् भवति सो लाभपरोषहं जेतु शक्नोति अथ द्वितीयं लोकोत्तर ढंढण कुमार कथानकं कथ्यते कस्मि चिट्ठामे कोपिक्तश सरीरी कुटुम्बी वसति अन्येपि बहवस्तत्र कुटुम्बिनी वसन्ति वारकेण ते राजवैष्टि' कुर्वन्ति राजसत्क पञ्च थतहलानि वाहयन्ति एकदा तस्य तणशरीरिणः पञ्चशतहलवाहन वारकः समायातः तेन च वाहिता वृषभाः भक्षपानवेलाया माप्येकोऽधिक थापा दापित स्तदान्तरायं कर्मबदं तो मृत्वाऽसौ बहुकाल मितस्ततः संसार परिभ्रम्य कस्मिविशव कतमुक्ततवशेन द्वारिकायां कृष्णवासुदेवस्य पुत्र त्वेन समुत्पन्नः ढण्टणेति तस्य नाम प्रतिष्ठितं स ठण्टणकुमारः श्रीनेमिपाचे अन्यदा प्रव्रजितः लाभान्तरायवसान्महत्या मपि द्वारिकायां हिंडमानी
न किञ्चिदऽवादि लभते यदि कदाचिल्लभते तदा सर्वथाऽसारमेव ततस्तेन स्वामी पृष्ठः स्वामिना तु सकल: पूर्वभववृत्तान्त स्तस्य कथितः तेन चाऽय २ मऽभिग्रही गृहीतः परलाभो मया न ग्राह्यः अन्यदा वासुदेवेन स्वामिन इति पृष्ठ भगवन् एतावत्सु बमणसहस्रेषु को दुष्करकारक: स्वामिनाङ
ण्टणपिरेव दुकरकारक इति उक्त कृष्णेनोक्त स इदानीं कास्ति स्वामी प्राह त्वं नगरं प्रविशन् तं द्रक्ष्यसि दृष्टः कृपणः धौनमिजिनं प्रणम्य उत्थितः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०४१ मा भाग
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अ०२
उ०टीका
४ पुरहार प्रविशन्तं साधु दृष्टवान् हस्तिस्कन्धा दुत्तौर्य कृष्ण स्तं ववन्देतेनवन्द्यमानोऽयं साधुरकेनेभ्येन दृष्टः चिन्तितं च तेन अहो एष महात्मा कृष्णन
वन्धत एवं चिन्तयत एव तस्य रहे ढस्टर्षिः प्रविष्ट स्तेन मोदकः प्रतिलाभित: ततः स्वामिसमीपे गत्वा पृच्छति मम लाभान्तराय क्षीणः स्वा *मिना उक्त एष वासुदेवलाभ: मम परलाभी न कल्पते इत्युक्ला नगरा बहिर्गत्वा उचितस्वसिले मोदकान् विधिना परिष्ठापयन् शुभध्यानारोहण * केवलोजातः एव मन्थैरपि अलाभपरोषहः सोढव्यः अलाभात् अनिष्टाहारलाभात् अन्त्याहार प्रान्याहार भोजनात् शरीरे रोगा उत्पद्यन्ते अती
रोगपरोषहोपि सोढव्य सतो रोगपरोसहमाह नचा उप्पइयं दुक्ख वेयणाए दुहडिए अदीणो थावए पत्रं पुट्ठी तत्य हियासए ३२ ति गच्छं नाभि नन्देज्जा सञ्चिक्लेत्तगवेसए एवं खुतस्म सामनञ्ज न कुज्जा न कारवे ३३ वेदनया दुक्खार्तितो मुनिः अदौन सन् प्रज्ञां स्थापयेत् बुद्धि स्थिरां कुर्यात्
नच्चा उप्पडूयं दुक्खं वेयणाए दुहडिए अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्य हियासए ॥३१॥ तिगिच्छं नाभिनंदेज्जा संचिक्से त्त गसए एयं खुतस्म सामम जन्न कुज्जा मकारवे ॥३२॥ अचेलगम्म लूहस्म संजयस्म तवस्मिणे तणेसु मुयमाणस्म
होज्जा गाय विराहणा ॥३३॥ आयवस्म निवाएणं अउला हवइवेयणा । एवंनच्चा नसे+ति तंतुजंतण तज्जिया ॥३४॥ भाषा
कुमार अलाभ परिसहसह्यो तिम बौज सहिवो इति अलाभ ऊपर दृष्टांत १५ ति. रोगटालिवाने अर्थेना. अनुमोदे नहिं स. समाधि सहित प्र० चारित्र रूप प्रामानो गवेषक ए. इणे प्रकारेखु. जभणी त. ते रोगवंत साधुने सा. चारित्रपालिवो सही जो जं० जन पोते नहीकर म. अनेरापा सेंन करावे ३२ अथ रोगपरीसह दृष्टांत मथुरानगरौइ जितशवराजा कालइसे नामे गणिकाने रूप मोहे अंले अरमाहिराखिते हुने कालवे सनामा
राय धनपत सिंह बाहादुर का मासं० उ०४१ मा भाग
मत्र
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उ
भाषा
किं कृत्वा दुःखं उत्पतितं उद्भूतं ज्ञात्वा तत्र वेदनायां दुःखे वा रोगपरोषहं अध्यामेत सहेत कीदृशो मुनिः पुट्ठः स्पृष्ठो रोगाप्तः दुःखयतीति दुःख टोका* अ०२
रोगस्तेन आत : पीडित: क्रियते इति दुःखार्तितः तादृशोपि प्रज्ञां स्थापयेत् रोगार्तस्य हि प्रज्ञा चञ्चलास्यात् साधुस्तु रोगसद्भावपि प्रज्ञा स्थिरां 8 एव विदधीत इत्यर्थः तदा रोगात : किं कुर्यादित्याह तौगच्छ मिति साधुरोगार्त्तचिकित्सा रोगप्रतीकारं न अभिनन्दे त् न अनुमन्य त तदा चिकित्मायाः । पुत्र हुी ते धर्म सांभली देख्या लेई मुगशाल नगरोई पुहतो तिहां नो राजा जितशत्रु राजानो बहिनौवी तेहनौ स्त्रीप्रापणा भाइनी हरसनी व्याधि
जाणौ ते गमाडवा भणो आहार मांही ओषध घाली ते आहार दौ, ऋषि औषध मिश्रित जाणे आहार परिठव्यो काया अन्य मानौ अणसण लेई * प्रतिमाई रयो तिण काल वेस कुमरे गृहवास थके रात्रि सियालनी शब्दसांभली अंगी लगू मीकली सौयात पकड़ी प्रणाव्यो तिणे कुमरे कौतुके
हण्यो वे अकाम निर्जराइ मरौने व्यतर धयु तिणे अपणा बेरथकोकालवेस कुमरने सौयालनो वेस करिखावा लागो ते अहियासतो रोग परौसहसहती सोधो जिम तिणे कालवेश साधे रोगपरोसहसह्योतिम बोजें साधु सहिवो ते भणौतृणानाफरमनी १० मो परीसह वस्त्ररहित साधुने तथा अल्प वस्त्रने
ल० लषंवतीने सं• संयमवंतने त तपस्वीने त तृणाने विषई स० सूतविसताइ हु. हुवे गा. शरीरने विषेर् पीडा ३४ प्रा. तडकाने नि० पड़वे प्रकरी अ० अनुभराणा ह. हुवे वे वेदना ए. एणी पर न जाणिने न भोगवे तं० ते वस्त्र जं. ज तृणानी त• पौधोथकोजिन कल्पी साधु हुवे अथ तण 8 स्पर्थ दृष्टांत सावत्थी नगरौई। जितशत्र राजानी पुत्र भद्र कुमार वैराग्य थकी दीक्षा लेई विहार कस्यो केतले अनार्य देश पहुती तिहां राजाना
ओलगूए महात्मा अणदोठे अण ओलखे पूच्चु तु कुण पिण ते ऋषि भाषा अजाणतो बोल्यो नहीं तिहां हेरी करी झाल्यो वस्त्र उरालिया तहने डाभ संघाते बांधी मारौ उपसर्ग कौधो ते सह्यो जिम भद्र कुमार ढणस्पर्श परीसह सा तिम बौजे सहिवो इति कथा कि० मान अण कर वे मेल करौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं.उ.४१ मा भाग
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उ०टीका
NU
करणं कारणच दूरतएव त्यक्त' यदा मनस्यपि चिकित्साचिन्तनं साधुन कुर्यात् कीदृशः साधुरामगवेषकः आत्मानं संयमजीवं गवषयतीति आम गवेषकः एतादृशः सन् सञ्चिक्खे समाधिना तिष्टेत् पौडया पौडितो न क्रन्देत् इत्यर्थः सुयस्मात् कारणात् श्रामण्यं साधुत्वं एयं एतदेव अंइति यस्मात् रोगे समुत्पन्न वयं चिकित्सा न कुर्यात् अन्ये नापि न कारयेत् जिनकल्पिकापेक्षयायमाचारः स्थविरकल्पिकाः पुनः कारयंत्यपि इति वृद्धसंप्रदायः ।
अत्र काल वेशिककथा ३३ मथुरायां जितशत्रुनृपोऽतिसुरूपां कालाख्यां वेश्यां अन्तःपुरेऽक्षिपत् तस्था पुत्र: कालवैश्यकस्तस्य भजनी मुहशैलनगरवामिमा 8 परिणीता अन्यदा स कुमारः शृगालशब्द' श्रुत्वा स्वभृत्यान् अपृच्छत् कस्यायं स्वरः ते रूचे फेरुकवरीयं कुमारेणोक्त फेरुकोऽत्रानीयतां तैरानीतः४.
मृगालः कुमारण हन्यमान खोखोति कुर्वाणो मृतः अकामनिर्जरयाष्यन्तरी जातः अन्यदा कुमारः स्थविरान्तके प्रव्रजित: गौतार्थो जातः एकाको विहरन् प्रतिमा प्रतिपत्र तत्सरिरेरोगी बभूव न चिकित्सा कारयति नाप्यौषधं करोति तथाविधप्रत्याख्यानात् अन्यदा विहरवऽसौ मुहशैलपुर गतः तत्र तबगरस्वामिपरीणीतया तद्भगिन्यार्थोनौषधमिश्रा भिक्षा दत्ता तेन चाजानताझेनौषधमित्र आहारी गृहीतः औषध प्रयोग च ज्ञात भग्नं मे प्रत्याख्यान मित्याधिकरणदोषशंकया भक्त प्रत्याख्यानं पुराइहि तत्र च तेन शृगालजौवेन व्यन्तरीभूतनो पयोगदानेनासौ उपलक्षित: समुत्पन्न वैरेण च नवप्रसूतशिवारूपण खीखोकुर्वता खाद्यमानः शिवोपसर्गम रोग' च सोढवान् एव मान्य रपि रोग: सोढव्यः अथ रोगादि युक्तस्य शयनादौ दुःसह ढणस्पर्श स्यात् अत स्तत्परोषहमाह अचेलगस्म लूहस्म सञ्जयस्मतविस्मणी तणेस सुयमाणस्म हुज्जा गायविराहण ३४ आयवस्म निवारणं अउला हवइ वेयणा एवं नच्चा नसेवंति तंतुजं तणतज्जिया ३५ तपस्विनः संयतस्थ ढणेषु शयमा नस्य तृणैर्गात्रविराधना भवेत् कीदृशस्य संयतस्य अचेल कस्य वस्वरहितस्य पुन: कोदृशस्य रूक्षस्य तैलाभ्यंगादिरहितस्य यदा शरीरे तृणैः क्त्वा पौड़ास्यात्त दाकिं कुर्यादि त्याह आयवस्म ति तृणतर्जिता
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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उन्टीका
स्तुणस्पर्थ पौडिता माधवः तंतुजं वस्त्र' कम्बलादिवस्त्र वा न सेवन्ति न पाचरन्ति किं कृत्वा एवं ज्ञात्वा एव मिति किं पातपस्य निपातन धर्म स्य संयोगेन अतुला वेदना भवति तापसीतवर्षावातादिपौड़ास्माभिः सोलुं न शक्यते अथवा आतष्यते पौद्यते शरीर मनेनेत्या तपः तृणपाषाणादि रप्यु च्यते तस्य संगेनास्मत् परौरे महती वेदना भवति यदि वस्त्रादीनां प्रस्तरणं स्यात् सदास्मत् शरीर तृणादिभिः पौड़ा न स्यात् इति विचित्य वस्त्र * कम्बलादिक न परिग्रहन्ति इति जिमकल्पापेक्षया इद मुक्त वर्तते अत्र भर्षिकथा यथा श्रावस्त्यांजित शत्रुपुत्रो भद्रः प्रबजितः विरुद्ध राज्ये विहरन्
हेरकोयमिति भ्रात्यापनरतः पृष्टोऽप्यब्रुवन् क्रुद्द स्तैः क्षुरेण तक्षिकोदर्भश्च वेष्टयित्वा मुक्तः ततः सतबेदना अधिसे हे एवं तृणस्पर्श परीषहः शेष 8 साधुभिरप्यधि सद्यः अथ तृणादिस्पर्शात् शरीर प्रखेदात् रजः स्पर्शान्मलोपचयः स्यात् तदामल परौषहोपि मोढव्यः अत स्त माह किलिन गाय महावी । पङ्केणय रयेणवाधिंसवापरियावणं सायत्रो परिदेवए ३६ वेइज्जनिज्जरापही आरियं धम्ममणत्तरं जाव सरीर भेउत्ति जन्न कारणधारए ३७
किलगाय मेहावी पंकण वा रएण वा। प्रिंसुवा परितावेणं सायनो परिदेवए ॥३५॥ वेइज्ज निज्जरा पेही
आरियं धम्म मणुत्तरं। जावसरीर भेउत्ति जल्लं काएण धारए ॥३६॥ अभिवायण मम्मुठ्ठाणं सामीकुज्जा निमंतणं व्याप्यो गा. सरिर मर्यादावत मे० बुदेवान पं० परमेवा रहितमल वा अथवा र. रजसहितपर मेवो मेले करीने धिं. उनालाने वा अथवा शरद ऋतुन तापवे करी पीडाणी थको सा. साता सूखनी नवछि ३६ व. वेदे सहे मेलनी परिसह कर्मक्षय वांछती थको आ. चारित्रधर्म अ. प्रधान पडिवज्यो जाणीइ जा जालगे स० सरीरनी भे• विनाश हुवेता लगे एतले ज• मेलका कायाई करी धार २७ अथ मलपरीसह दृष्टांत चंपा नग
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं० उ.४१ मा भाग
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उ टीका 8 मेधावी सावधिसु ग्रोम कालेवा शब्दात् शरदि अपिपरितापेन गाढोमणापंकेन प्रखेदात् आर्दी भूतमलेग अथवा रज साई मलेन परि शथ काठिन्य अ०२ प्राप्त न धूल्या वा क्लिन्नगान: सन् बाधितः शरीरः सन् सातं सुखं न परिदेवे तंमलपहारात् सुखं न वाच्छेत् सातार्थ विलापं न कुर्यादित्यर्थः ३६ ११०
तदा किं कुर्यादित्याह वेयज्जे ति निर्जरापेक्षी कर्मक्षयमीप्मुः साधु स्तावत्कायेन जल धारयेत् देहेन मलं धारयेत् पुनर्वेइज्जमल परीषहं वेदयेत् सहेत तावत्कथं यावत् शरीरस्थ पातः स्यात् साधुः कीदृशः सन् आर्य श्रुतचारित्ररूपं धर्म प्रपन्नः सन् इत्यध्याहारः कीदृशं धर्म अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टं ३७ श्राड सुनन्दहडे भेषजार्थ साधुस्त त्कथा यथा चम्पायां सुनन्दो वणिक दानवान् अन्यदा मलाविलं साधुं दृष्ट्वा मलधारिणं मुक्ताशेषं सर्व साधुनां भव्यं इति जुगुप्सां कृतवान् मृत्वाचासौ कौयं व्याइभ्य पुत्रोऽभूत् स प्रस्तावे दीक्षा ग्रहीतवान् तदानी तत्कर्मोदयेन देहे दुर्गन्धोऽभूत् स यति यंत्र२ याति तत्र रोई सुनंद येष्ठि तेणे एक महात्मा चारित्र पात्र मलिनगात्र आवतो देखौने ते थेष्ठि चितवै ए जन दर्थन महा मेलो अशुचि बौजी सर्व भली एणिए वात जोवा सरीखी नही इम दुगंछा कर्म उपायॊ ते अंत समे कोसंबी नगरौइ व्यवहारी यानो बेटो धयु ते पाछिला भवना उदय थौ शरीरे महादुर्गन्ध उपनी जिहां जावे तिहां लोक दुगंछा करे एहवे एकदा साधना मुख थी सांभल्यो जे दुःख कर्मक्षये काउसग कौया पामे तिणे सिद्धांत वचन प्रमाण करी अटवी मांहि जई एक स्थानिके काउसग करी सासण देवता आराध्यो ते शासन देवताई तेहनी शरीर सुगंध कौधो काउ सग्ग पारौ आपण सान के आवे लोक निन्द्या कर कहे ए महा दीर्भागी देवताने भावें तो सिंह छुवी तिवारी तेणे चिंतव्यो देखी लोकतो केहना नहीं यतः अरंगमित्याह रंगना रङ्गमुच्चते लोकापवाद दुर्य कथं लोकोभिधियते १ लो कहसे तेवली देवता आराधी सहज गंध कोधो तिणे जिम कीधी तिम बोजे ऋषोखरे न करिवो दुगंछा कर्म उपार्जवो नही मलपरीसह सहि इति मलपरीसहए श्रेष्ठिपुत्र दृष्टांत अ. नमस्कारना करवा म० उठौ वैठा धईने पासणीयो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
ROYSAN
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उ टौका
अ.२
१११
उडडाहीभवति ततो गुरुभिस्तस्य भ्रमण निषिद्ध तेन रात्री जिन देवता आराधनार्थ कायोत्सर्गः क्तः तुष्टदेवतया सुगन्धी लतः तथा प्युडाहभवन पुनरप्याराधि तया देवतया सर्व समान गन्धः कृतः अनेनहि साधुना जल्ल परौषहो देवताराधने न सोठः एवमन्यैः साधुभिर्नकार्य अथ समलः साधुः शुचीन् सक्रियमाणान् दृष्ट्वा सत्कारादिन स्पृहयेत् अतस्त त्परौषह माह। अभिवायण मभुट्ठाण सामी कुलानि मन्तण जेता इपडिसेवन्ति नतेसंपेह एमुणो ३८ अणुकसाई अप्पिच्छे अन्नाएसो अलोलुए रसेसुनाणगिज्योज्जा नाणतप्येज्ज परसवं २८ मुनिस्ते इति तेभ्यः न स्पृहयेत् यतः एतेधन्या इति न चिन्तये दित्यर्थः तेभ्यः केभ्यः येतानि प्रतिसेवन्ते तानि कानि स्वामौराजादिः अभिवादनं नमस्कारं अस्मभ्यं कुर्यात् अथवा स्वामी अभ्युत्थानं अस्मभ्यं कुर्यात् असनादि समानं कुर्यात् पुनरस्माक निमन्त्रणं कुर्यात् । एतावता राज्ञानिमन्त्रितान् आहारादिभ्यः प्रार्थित वान् द्रव्यलिङ्गिनः साधून् न कौतयेत् इत्यर्थः पुन: साधुः कीदृशो भवेत्तदाह । अनुत्कषायो सत्कारादिना हर्ष रहित: तादृशो भवेत् नउत्कः अनुत्कः शेतेइत्येवंशौलो अनुकशायौ इति शब्दार्थः यत्र कश्चिदा सनदानाभ्युत्थाननिमन्त्रणादिक' करीति तत्र गमनाय उत्को भवति उत्कण्ठितो न भवति अथवा अण कषायौ सत्कारादिक योन करोति तस्मै क्रोधं अकुर्वाण: अक्रोधः पुनः कीदृशः अल्पेच्छः धर्मापकरण मात्र धारी अनेन निर्लोभत्वमुक्त पुनः कौशाः अन्ना
जेताडू पडिसेवंति नतेसिं पोहए मुणी ॥३०॥ अणुक्कसाई अप्यिच्छे अन्नाएसी अलोलुए। रसेम नाणुगिज्मज्जा ना देवी मा० राजादिक कु० करछे भि भिक्षानौ आमंत्रण जेठी आपणा गच्छना तथा परपाथडीना० ते नमस्कारादिक प० अंगिकार करे के महतौ ऋधि देखिने पे० इ मन कहे मु० साधुपरपा खंडो प्रमुख ए धन्य के ३८ अ० जे साधुनेलोभ थोडो हुए अ० वस्खादिक नौवांछा रहित होइ अ० अज्ञात मिले अहार गवेषे अरस आहारने विखेली लता रहित अलोलूपिर. मधुरादिक ५ रस स्वाद. विखे मा. नाहु ग्रहमाठा रसादिक नीषांका न करे
राय धमपतसिंह बाहादुर का आ. सं. ०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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भाषा
ना सत्कारादिक अणदौधे धके तपें नही प० प्रज्ञावंत साधु ३८ अथ सत्कार परीसहदृष्टांत मथुरानगरौयें जयसिंह राजा सेह, इन्द्रदत्त नामा पुरोहित मिथ्यात्वोछे तेणें गोखवेठा राजमदै चारित्रिया वाटे आवता देखौ गोखथौ हेठा पग करौ जे हवे गुरु गोखथौ हेठा नौंकले तेहवे तेणें मस्तके पगदीधो तेहवो स्वरूप साधुनो श्रावक दौठो तिहासेठएहवी प्रतिज्ञा कौधौ माहरो जीवतव्य प्रमाण जोएपरोहितना पग छेद करीये तिवार श्रेष्टि पुरोहितना छिद्रताक पिणकाई चले नही तिहांधके ते पुरोहितनी स्वरूप गुरुने कह्यो वलतो गुरु कहे महानुभाव महात्मा पूजासत्कार निन्दा ते समगिणे सत्कार असत्कार परीसह सहे वलो श्रेष्टि कहे भगवन् मिथ्या त्वचेद्योजोइये यतः साधूण चेई याणय पडिणीयंतह अवस्वायंच जिण ६ वयणस्म अहियं सव्वत्थामणवार १ साधुनोज्ञान नो उपद्रवकरणहार अवर्ण वादनी बोलण हार जिन बच्चन नो उत्थापक एहने यथा शक्ति शिष्या न देता विराध कहुइ वलोवेष्ठि कहे भगवन् मिथ्या त्वीने सौखदीधी जोईये एवचन सांभली गुरु बलीयेष्टिने पूच्ची हिवणांए परोहितने घरस्य॑ हुवेंछे तिबारे श्रेष्टि कहे एहने नवी अवास नौपनीछे तिहां राजा जोमवानु निहुतस्त्रोछे तिहां राजा प्रावास माहिं जोमवाबेसे तिवार तु राजानो हाथसाही ऊभीराखि कहिजें खामौए घरमांमापे सो हिवडा अवास पडिस्य तिहाथ कुंतेथे वेष्ठि राजा नोतरे आवास माहि आवे पैसे तेहवे राजाने ऊभोराखि कह्यो मतांपधारोएअवास पडिसौतेहवे ततकाल आवास पयो तिबार राजाई कह्यं एस्थु घाटि श्रेष्ठि कह्यो अम्हने ग्यानी गुरे कयो राज हर्ष थको गुरुने पगै लागी वोत रागनो धर्म पडिवज्यो थेष्ठिने ते पुरोहितनी पदवीआपि श्रेष्ठिरानाने आगलि कह्यो स्वामी परोहितोये चारित्नौयाने माथे पग मूक्यो हतो तो एहलोकना फल देखाडिये राजापुरोहितने हडिघाल्योकेतले दिने श्रेष्ठिराजा नेकहे गुरुना पग धोइ पौवेतो मुकजी तिणे हां भरी समस्तलोक समक्ष चरणोदकपायो प्रतिज्ञा सेठ पूरी कौनौ जिम साधु महापुरुष परीसहसयो श्रेष्ठि नथी सह्य तिम
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ०४१ मा भाग
BR-R
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१ टीका
* एसो अज्ञातैषी जाति कुल स द्रव्यनि द्रव्यादिनापरीक्षित: अज्ञात स्तादृशं गृहस्थं आहाराद्यर्थ' एष यतीत्येवं शौल अज्ञातैषी पुनः कीदृशो भवेत् ११३
अलोलुपः सरसाहारलापव्य रहितः पुनः साधुः सरसाहार भक्षणासक्ता वौच्यरसे पुनः अनुग्रहीयात् सरसाहाराभिक्षा न कुर्यादित्यर्थः पुनः पनवं ___णुतप्येज्ज पसवं ॥ ३८॥ सोनूणं मए पुवं कम्मा नाण फलाकडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुठ्ठो केणदू कन्हुई ॥३६॥
अह पच्छा उज्जति कम्मा नाण फला कड़ा। एव मसासि अप्याणं नच्चा कम्म विवागयं ॥४०॥ निरठग मि विरो
सूत्र
भाषा
न करिवो इति सत्कारपरीसह दृष्टांत हिवे प्रज्ञापरीसह २० मो कहेछे से० ते प्रज्ञावंत साधु इम जाणे नू० निश्वेमए मे पू० पूर्वजन्मांतरेइ क० करतो ना. ग्याननौ प्रसंसादिक ग्यानपामि जे. जेणे करतेह नर मनुथपणे अ० जीवादिक पदार्थ जाणुछ पू० पूच्यो धको के० कोइ मनुष्यादिक कोई कस्था न कने विर्षे ४० अ. हिवे वली प० आगमौइ काले उ० जदे आवस्य क० कर्म अ० अग्यान पणुपामि वानो फल जे पूर्वकर्म जन्मांतरे कौधा हताइ ए. एणौ परेंमें स्वस्थपण कर ज. पापणी आत्माने घणी प्रज्ञापा मौने शुभाशुभकर्मना विपाक ४१ अथ प्रज्ञायां दृष्टांतमाह उजेणीइ कालि काचार्य तेहना शिष्य प्रमादी इवा जाणिजे शिज्या तरने कही पांचसे तिहां शिष्य मूकौने गुरे सुवर्ण कूलि तटि पुहताछ तिहां आपणा शिष्यनी * शिय मागरचंद्र चेला कन्हे पहुता पिणते ओलखे नही गुरु पासे रही सागरचंद्र वखाण करे गुरुने पूछे भाहरी वखाणके हवो तुमे घणु यती नाव
खांण सांभल्या हुस्य गुरु कहे तुमा रावखाण रूडो तिम २ अभिमान वाधे लोकनें कहे सर्व जाएछु इम गर्वधरै एहवे जे पूर्व गुरे ५० • साधु मुंक्याहता तिणे प्रभातिथेइ गुरुपोसालमाहिं जोया किहां देखें नही पर्छ शिज्यातर श्रावकने पूछे तो श्रावक कहे तुमनेप्रमादि जाणी विहार
.राय धनषतसिंह बाहादुर का आ-सं० उ०१४मा भाग
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उ टीका अ०२
इति प्रज्ञावान् साधुन अनु तप्येत अन्येषां सत्कारं दृष्ट्वाहा मम कोपि सत् कारं न करोति किमर्थ महं प्रव्रजित: इति चिन्ताप रोन भवेत् ३८ अत्र ११४8
बाद श्रमणयोः कथा यथा मथुरायां इन्द्र दत्तः पुरोहितोस्ति सजिन शासन प्रत्यनौक: स्वगवाक्षस्थः सन् अधीनिर्गच्छतो जैनयतमस्त कोपरिनिज चरणं विततं करोति एवं निरन्तरं कुर्वाणं तं दृष्ट्वा साधुन कोपि कुप्यति परमेक: श्रावकः कुपित: तत्पादच्छेद प्रतिज्ञामकरोत् अन्यानि तच्छि द्राणि अलभ मानेन तेन श्रावकेण तरस्वरूपं गुरोः पुरः कथितं गुरुणोक्त सह्यते सत्कार पुरस्कार परौषहः साधुनेति तेन स्वप्रतिज्ञा कथिता गुरु भिरुक्त अस्य रहे किं जायमान मस्ति तेनोक्त नवौन प्रासादे राजानिमंत्रामाणोस्ति पुरोहितेन गुरुभिरुक्त तर्हिवं तत्प्रसादेन प्रविशन्त राजानं कर धृत्वा प्रासादीयं पतिथतीति कथये अहं च प्रासादं विद्यया पातयिष्यामि ततस्तेन तथा कृते प्रासादः पतितः राज्ञीक्त किमिद खातं श्रेष्टि नोक्त महाराज अनेन तव मारणाय कपटं मण्डितमभूत् तती रुष्टेन राज्ञा स पुरोहितस्तस्य श्रेष्टिनोऽपितः तेन श्रेष्टिना इन्द्रकील के तस्य पादं क्षिवा प्रतिज्ञापूरणार्थञ्च पिष्ठमयं पादं क्वाच्छिन्द्रवान् उक्तवांश्च सर्वन्तत्स्वरूप भुरोहितेनोक्त मतः परं नैवे दृशं करिथामौति जानुकम्मे न श्रावण
कौधो गुरु सुवर्ण भूमिकाई पहुता ते श्रावक महात्माने प्रतिबोधि गुरे कन्हे मोकल्याहिवे ते पांचसे कालिकाचार्यनी परिवार आवतो सांभलौ सागरचन्द्र * सामुहो जाइ ते सागरचन्द्रे पूछ एतला साधु मां गुरु केहा तेहवे शिष्य कहे स्य इहां नी आव्यातहवे सागरचन्द्र कहे एक स्थविरसाधु आव्याछे तिवारी
ते पांचसे कहे इणे सागरचन्द्र गुरुने अवगिण्या न जाण्या इम चिंतवी सर्व शिष्य आवौ पग लागा गुरु प्रते आपरा अवगुण खमाविवा लागा तिवारी ॐ गुरु सागर चन्द्रने का तु गर्व मकरौ सर्वजती सर्व जटाली सर्व वस्तु कोई न जाणे जिम कालकाचार्य प्रज्ञा परीसहसह्यो तिम वौजे सहिवी हिवे * अग्यान परीसहे २१ मी कहे के निरर्थक वि. निवत्यो मे० मैथुन थौ सु० रून्धी पांच'ट्री संवर करौने जो. जीवादिक पदार्थ स• साक्षात् प्रगटना.
RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRB
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ.४१ मा भाग।
भाषा
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टीका
श्र० २
११५
समुक्तः अत्र सत्कार पुरस्कार परौषहः साधुभिः सोढः श्रावकेण तु न सोढ इति अथ सत्कारे सति प्रज्ञा प्रकर्षापकर्ष विफलत्वं न विधेयं अतः प्रज्ञापरोषहापि सोढव्यः सेनूर्णमए पूव्व' कम्मानार फलाकडा जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठोकणेय कहुई 8 ग्रह पच्छा उज्जन्ति कम्माणाण फलाकडा एवमस्मासि अप्पा नचा कमविवागयं ४९ प्रज्ञापरोषहोपि द्विधा सोढव्यः प्रज्ञा प्रकर्षे सति एवं चिन्तनीयं येन कारणेन केनापि पुरुषेण कई कुत्रचित् प्रश्न पृष्टः सन् न अक्षं पुरुष प्रश्नोत्तरं जानामि तत्प्रश्रस्योत्तरं ददामि सेनूनं इति तनूनं मया पूर्व पूर्वजन्मनि ज्ञानफलानि कर्माणि शतानि ज्ञान' फलं येषां तानि ज्ञानफलानि श्रुत ज्ञानाराधनादीनि अथ इदानीं ज्ञानफलानि कर्माणि कृतानि पश्चादुदेष्यन्ति पथादुदयं प्राप्तान्ति कर्मणां विपाकं ज्ञात्वाएवं आत्मानं त्वं आवास्य भो शिष्य न तु प्रज्ञा प्रकर्षे गवं कुर्याः इत्यर्थः प्रज्ञा प्रकर्षे श्रयमर्थः कार्यः अथ प्रकर्ष पक्षे प्रज्ञाहीनत्वे अर्थ वदति येन केनचित्पुरुषेण कस्मिन्चित् सुगमेपि जीवादिप्रश्न पृष्टः सन् अहं नाभिजानामि तदूनं मया पूर्व पूर्वभवे अज्ञान फलानि धर्माचार्य गुरु श्रुतनिन्दारूपाणि कर्माणि कृतानिततोहं प्रज्ञाहीनः सनातोस्मि अथाज्ञानफलानि कृताति कर्माणि अपि पश्चात् अग्रे तनजन्मनि उज्जन्ति उदेवन्ति उदयं प्राप्सान्ति इति कर्मविपाकं ज्ञात्वा एवं आमान' आवासयउदय प्राप्तानां ज्ञानावरणकर्माणां विघाताय यत्नः कार्यः इत्यात्मानं अनुशासयेत्यर्थः अतोहि प्रनोदये हर्षो न विधेयः प्रज्ञाभावे विषादे कतेहि श्रार्त्त ध्यानपरत्वं न स्यात् प्रज्ञापकर्षोपरिकालिका चार्यसागरचन्द्रयोः कथा जय नीतः कालिकाचार्याः प्रमादिनः स्वशिष्यान् मुक्तासुवर्ण कूले स्वशिष्य सागरचन्द्रस्य समीपे प्राप्तासागरचन्द्रस्तु तानेकाकिनः समायातान् नोपल चयति कालिकाचार्या अपि न किञ्चित्स्वस्वरूपोपलक्षणं दर्शयन्ति अन्यदा सागरचन्द्रेण पर्षदि सिद्धान्त व्याख्यानं प्रारब्धंचमत् कृतालोका सागर चंद्रव्या ख्यानं प्रशंसन्ति कालिकाचार्याणां सागरचन्द्रेण पृष्ठं मदृद्व्याख्यानं कीदृशन्तैरुक्त' भव्यन्ते न च आचार्यः समं तर्कवादः प्रारब्धः परन्तुल्य तयावत्तुं
************************************ राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०४०. ४१ मा भाग
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उ.टौ
.FM
शक्नोति भृश्यच मत्वतः अथ शिष्यास्ततः शय्यातरण तिरस्कृताः वषां प्राप्ताः खगुरु' गवषयं तथलिता: कालिकाचार्याः समायान्तीति प्रसिद्धि * कुणाः सुवर्ण भूमौ प्राप्ताः सागरचन्द्रः कालिकाचार्याः समायान्तौति वृवस्य पुरः प्रोक्तवान् बबाह मयापि श्रुतमस्ति सागरचन्द्रस्तेषां सन्मख
मायातः तस्यतः पृष्ठ किमत्र कालिकाचार्याः समायान्तास्मन्ति न वा तेनोक्त' एकीत्र दस्म मायातीस्तिनापरः कोपोति तप्यपाश्रयान्तः समायाता: उपलक्षिता कालिकाचार्याः प्रणतास्तैः सागरचन्द्रेण पश्चादुपलक्ष्य तेषां मिथ्या दुःवतं दत्त' हामया श्रुतलवगर्वाधातिन श्रुतनिधयो यूयमाशातिता
इति च कथित कालिकाचार्यरुक्त वत्स श्रुतगर्यो न कार्यः यथा सागरचन्द्रण 'श्रुतमदः कृतस्तथापरैन श्रुतमदः कार्यः अथ प्रकर्षे गर्वः प्रसाभाव ॐ दैन्य चिन्तन' इत्युभ यथा अशानं अतस्तत्परोषहमपि सोढव्यः इति कारणादज्ञान परीषहमाह निरहुगं मिविरो मेहुणात्री सुसम्बुडी जी सकवं नाभि
जाणामि धम्म कशाणपावर्ग ४२ तवो वहाण मादाय पडिमं पडिवज्जी एवंपि विहरीमे छउमं ननि अहई ४३ अहं निरर्थक अर्थाभाये सति
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
मेहुणाओ सुसंवडो। जोसक्खं नाभिजाणामि धम्म कल्लाण पावग ॥४१॥ तवो वहाण मादाय पडिम पडिवज्जो एवंपि विहरयो मे छउमं ननियट्टई ॥४२॥ नस्थिन्नूणं परेलोए इड्डी वावि तवस्मिणो अदुवा वंतिओ मित्ति इद्द
भिक्खूनचिंतए ॥४३॥ अभूजिणा अथिजिणा अवावि भविस्मई। मुसंते एवमासु दूदू भिक्खू न चिंतए ।४४॥ नधो जाणतो ध० धर्मवस्तु नो स्वभाव क. मोक्षनो हेतु मा० नरकनी हेतु ४२ त० तपभद् महाभद्रादिक प्रतिज्ञा प० उ० सौद्धांत भणता प० भिक्षा निप्रतिमा प० पडिव ने ए. एणी पर विचरतां मे० मुझने छ. छद्मस्थ पणु' न० निवर्तेनही टले नही ४३ अथ अन्नान परौसहदृष्टांत गंगापुर
भाषा
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उभाषा अ०२
नगर वे भाई वैराग्य थी दीक्षा लिधी ते माहिं एक विद्यावंत वौजो मूर्ख जे विद्यावंत ते आचार्य पद पाम्यो अनेक शिष्यने अर्थ विचार कहतां अति वांत खेद खिन्न हुयी तिवार चिंतव्यो भण्यामांहि मूर्ख पणुं भलो जे मूर्ख दौसता गुणयत: मूर्ख त्वं हि सखे ममापि र चितं यस्मिन् यदिष्टौ गुणा निधितो बहु भोजनी पमना नक्त' दिवायायकः कार्याकार्य विचारणांधवधि रोमानापमानसमः प्रायेणामयवजितो दृढवपुर्मुखं सुख' जीवति १ एहवी चिंतवां ग्यानावरणी कर्म ऊपायों केतले दिने कालकरौ देवता हो तिहाथोचवि अहौरने कुले पुत्रवण उत्पन्न ही कालांतरि दौख्या लोधौ तिण उतराध्ययननायोग वहां त्रिण अध्ययन करौ भण्या तेहवे पाछि लाभ वनो कर्म उदय आव्यो आंविलकरी असंखयं अध्ययन भण्या वारे वरस पांवि लतप करी कर्म खपावी केवल ग्यान अपनी जिम तेंण अज्ञान परिसह सह्यो तिमवीजें सहिवी ईत्यज्ञान अहिर पुत्र फथा अग्यान पणाथो सम्यक्त ने विर्ष संदेह सहित थावानी संभवत भणौ दर्शन परीसह २२ मो कहे के न• नथौ नू निवे प० परलोक इ० पामी सही पादिलब्धि रूप ऋद्धि पिण नथो त तपस्वी अ० अथवा वं० वयोम० माहरो आत्मा भोग थौ मस्तकलो चादि करवे करी इ. एहवीभि. साधु न० न चिंतवे ४ ४ पूर्व हुवा जि. जिन सर्वन प्र. के जिनसर्वत्र वर्तमान काल महाविदेह खेत्रने विषे अ० अथवा आगामौर कालेपिण भ. एस्थे जिन सर्वन मु. मृषा ते जिननी आस्ति कहे के ए. इम मा वोले मृषा इ० एहवो भि० साधु न० न चिंतवे ४५ अथ दर्शन परिसह दृष्टांत भूमिपुर नामा नगर आखाढ़ भूति नामा प्राचार्य तहने घणा शिष्य क्रियावंत केतलेक दिवसे आचार्यना मन माहिं एहयोदर्शन सम्यक्त नो संदेह अपनोजेतिथंकर एवा के आगे सौ किंवा नही होसी महाविदेहे जिन के तथा नही छे देवलोक जाइछे किंवा नही जाय के एहवो मनमे संदेह करतोहुवी अनेमाहरा शिष्य घणाचारित्र पालिने स्वर्गे गया ते किणहो पाछो पाविने कच्चो नही कि अम्हे चारित्र थौ देव मुख पाम्या हिवे एक लघु शिश्च संथारो कश्ची तिवारी गुरु कह्यो तुम्हें देवता हुवो
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ.भाषा
अ०२
8 तो अम्ह ने कहि ज्यो हिवे ते शिथनो गुरु उपर राग हुतो अने गुरे कह्यो ताहरो मुझ उपरि मोह छे तू देवता थावे तिवार मुझने प्रावि कही जे जे
मरी हु देवता थयु पिणते प्रावी न कह्यो तिवारी आषाढ़ भूतो आचार्य चिंतवे के चेला बलभ हुता क्रिया कलाप हु'ति जो देवगति पाम्याहता तो कहतो पिण ते देवगति न थी पाम्या एहवी संका उपनौ अने देवता थयो ने तो सुखमे लौन देवीने भोग राता थका नावे गतकालन जाणे हिवे गुर चितव्यो जो लोकनासुख थी काइ' चुकौये इमचारित्र थौ भृष्ट थई गच्छ छांडी एकाएकनीकल्यातहवे लघु शिष्यदेवतानो पासन कंप्याअवधि ज्ञान करी ने देखे तो गुरु चारिच थी पद्या के तो हु' जई राखुइम चितवी देवताइ वाटे गुर पावता जाणी भाटकनी रचना करी गुरु तिहां भावीनजीवा लागा तिहाँ छ मास लगिजोई वली प्राधा चाल्यावली देवताई संयमनी परिक्षाभणी वालक छह भूषण सहित विकुा सहवगुरु विमास्योज यह धर्म पादर स्य तो धन जोई मेतो अने मुझने धन उपाववानी कारण कोई आवे नही तो एवेडिमा वालक हे ते विणसी इम चितवी पालक नाम पृथवी काइ यो पूछो ते विणासी ग्रहणा लेईको लिम घाल्या आगलि जातां अपकाइया ३ वायुकाइया ४ वनस्पसिकाइया ५ समकाया। एहवे नाम वाल कतै मारौ ग्रहणा लेइ झोलीमा घाली गुरु प्राधा चाल्या वली देवताई सार्थवाहनो रूप करी प्राचार्यने वांदी पाहारनी प्राग्रह कीध गुरु शशित थका कहे आज अम्हरिखप नही पाहारनी इम तेण सार्थवाह झोलौ छोडौ देखे बाल कना पाभरण ते गुरुने को है भगवन् पहारा पुत्रनाए ग्रहणा अम्हारा पुत्र किहां इम कह थके गुरु भयभ्रांत थई धूजवा लागी गुरुनाम धरावो एकाम करी वीजाने तुम उपदेश घी भने जो तुमे एकाम करिस्थी ती हुन राखिस्से इम करतां कैडे वाहिर पाई देवमायाइततकाल ग्रहणासहित देखि गुरुने पराभव करीवा लागा तिघारे चार सरणा कीधा तिवार देवताइ चिंतव्यो गुरे सर्वनी गम्यो पिण बोधवीज सम्यक्त नयी नींगम्थी तेकाई नथी विणठी तत्काल पापणो रूपप्रगट करी पूच्यो है भगवन्
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टौका मैथुनात् काम सुखात् विरत: निवृत्त: मैथुनग्रहणं दुस्त्यजत्वात् यतोह दुःकरं कार्य क्तवान् योहं सुसम्बृती जितेन्द्रियोपि साक्षात् स्फुटं धर्म अ०२ 28 वस्तु स्वभावं कल्याणं शभं पापकं अशुभं न अभिजानाति यदि मैथुनानिवृत्ती जितेन्द्रियत्वेपि काचिदर्थ सिद्धिर्ज्ञान सिद्धिर्भवेत् तदा ममज्ञानं उत्पद्ये त
ममतुज्ञानं नोत्पन्नं तदा थाहं मैथुन अत्यजं वृथै वच इन्द्रिय जयं अकरवं पुनरित्थमपि न चिन्तयेत् तपो भद्र महाभद्र सर्वतो भद्रादि उपधान सिद्धान्त पठनो पचाररूपं एक भक्त निर्विवति आचास्त्रीपवासादिकं प्रादाय अङ्गीकृत्य पुन: प्रतिमा भिक्षी रभिग्रह विशेष क्रियां हादशविधां प्रतिपद्यमानस्य मम एवं विहरतः साधुमार्गे विहार कुर्वतोपि छद्मस्थ ज्ञानावरणादिक कर्म न निवर्त्तते अहं तपः करोमि उपधानं वहामि प्रतिमाञ्च धरामि साधुमार्गे विहरामि तथापि केवली न भवामीति न विचारणीयं अयं अज्ञानपरोषहः पत्र अन्नानपरीषह कथा गङ्गातीर हौ भ्रातरी वेराग्यादीक्षा एहोतयन्ती तब को विद्वान् जातः द्वितीयस्तु मूर्खः यो विहान् सोऽनेक शिष्याध्यापनादिना खिन्न एवं चिन्तयति अही धन्योयं मे भ्रातायः सुखेन तिष्ठति निद्रादिकं अवसरे कुर्वस्ति अहं तु शिष्याध्यापनादि कष्टे पतितोस्मोति चिन्तयन् काव्यमिदं चकार मूर्खत्वं हि सखे तुम्हेग छ मांहि यो कदौ नौकल्या हुता वाटे आवतां काई दौठो तिवार गुरु कहे क्षिण एक नाटक जोयो भगवन् सचेत थई ग्यान दृष्टि जीवो तो ते दिन अने आज दिननौराति जोवो तेहवे गुरु मंडलो सूर्य रोद क्षिण थी उत्तरायण दौठो छ मासनो अनतर जाखो तिवार देवता कहे भगवन् तुम ने नाटक जोवतां छमास क्षण प्राप्त हुवा तो अम्हे देवता देवलोक नाटक प्रारंभे एक नाटक ने विषे वे सहस्र वरस जावे इम भीग रंगते मूक्या किम आवे इम आपणो अण आविवानी स्वरूप जणायो धर्मे स्थिर करिदेवता देवलोकेगयु आखाढ़ भूत आचार्य शुद्ध चारोत्रपाली मुक्ति पुंहता आषाढ़ा चार्ये पहिल दर्शन परिसहसयो तिम अन्य साधु सहिवी इति दर्शन परोसह दृष्टांत ए. पूर्व कद्या ते प० परीसह स. सघला वावी से का० काश्यप
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० २०४१ मा भाग
भाषा
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उल्टीका ४ ममापि रुचितं यस्मिन् यदष्टौ गुणाः निबन्सो १ बहु भोजनोर त्रपमना३ नक्त दिवासायकः ४ कार्याकार्य विचारणान्ध बधिरी ५ मानापमान
समः ६ प्रायेणामय वर्जितो . दृढवपु ८ मूर्ख : मुख जीवति । परं नैवं चिन्तयति नानाशास्त्र सुभाषितामृतरसैः श्रोत्रीत्मवं कुर्वतां येषां यान्ति दिनानि पण्डितजनव्यायाम खिन्नात्मनां तेषां जन्म च जीवितञ्च सफलं तैरेव भूर्भूषिता शेषैः किं पशुवदिवेक रहित भूभारभूतैर्नरैः २ एवं पण्डित गुणान् अचिन्तयन् मूर्खगुणांचासतोपि चिन्तयन् ज्ञानावरणीयं कर्मचड्ढादिवं गतः ततखुतो भरतक्षेत्र प्राभौर पुत्रीजातः क्रमेण परिणीतः तस्य पुत्रिकाजाता सा रूपवती अन्यदा अनेकाभोराकृत भृत शकटाः कञ्चिनगरं प्रतिगच्छति असावपि तसाथै घृत भृतं शकटं गृहीत्वा चलितः मार्गे मा पुत्रौ शकट खेट न करोति ततस्तद्रूपव्या मोहितै राभीरपुत्र: अपये खेटतानि शकटानि तानि सर्वाणि भग्नानि तादृशं संसार स्वरूपं दृष्ट्या सनात वैराग्य: स प्राभौरः तां पुत्री उद्दाह्य दीक्षा जग्राह उत्तराध्ययन योगीदहनावसरे असंखयाध्ययनोहेशे कृतं तस्य आभीरभिक्षी नावरणी दयो जात न तदध्ययनमायाति प्राचाम्नान्येव करोति उच्चैःस्वरेण तदध्ययन निर्घोषं करोति एवञ्च कुर्वतस्तस्य दादशवर्षप्रान्त अन्नानपरीषह सम्यग् अधि सहमानस्य केवलज्ञानं समुत्यवं एवं अज्ञानपरीषहे अाभौर साधुकथा यस्य च ज्ञाना जीर्ण स्यात् तेनापि ज्ञानपरोषही न सोढ स्तत्रार्थे स्थूलभद्रकथा स्थूलभद्र स्वामी विहरन् बालमित्र हिज रहेगतः तत्र तं अदृष्ट्वा तद्भायी पृष्ठवान् क्वते पतिर्गत: सा प्राह परदेश धनार्जनार्थ गतोस्ति ततः स्वामौ तहस्तम्भ मूलस्थितं निधिं पश्यन् स्तम्भाभि मुखहस्तं कृत्वा इदमौदृशं सचतादृश इति भणित्वागत: ततः कालान्तरे यहा गतस्य विप्रस्य तद्भार्यया स्थूलभद्र स्वामिवची ज्ञापितं तेन पण्डितन ज्ञातं अत्रावश्यं किञ्चिदस्ति ततः खानितः स्तम्भः लब्धीनिधिः एवं स्थूलभद्रेण जानपरीषही न सोढः शेष साधुभिरपो दृशं न कार्य अथ अज्ञानात् दर्शनोपरिकश्चित् संसयः स्यात् अतस्तत्परोषहः कथ्यते नस्थि नूणं परलीए इड्डी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ टीका
४ वावितवस्मिणो अदुवावच्चिोमित्ति इइभिक्खू न चिन्तए ४४ अभूजिणा अस्थिजिण अदुवावि भविस्मई मुसन्त एवमाहंसु इइभिक्व न चिन्तए ४५ अ०२ ननं इति सम्भावनायां परलोको नास्ति परलोके गत: कोपि नावागत्य वदति तस्मात्प्रत्यक्षस्य अभावान्नास्ति परलोक वा अथवा तपस्विन:
* अपि साधोरपिकाचित् ऋद्धि रामर्षांषध्यादि प्रमुखा काचित्रास्ति न दृश्यते अथवा किंबहुना अहं वञ्चितीस्मि ऋषिभिः स्थगितीस्मि इति ४ भिक्षुर्नचिन्तयेत् ४ ४ तेजिना: केवलिन: एवं आहुः कथयन्तिस्म तत् असत्य एव तत् किन्जिनास्तीर्थ' कराः केबलिनो वा अभूवन पुनर्जिनाः सन्ति
साम्प्रतं वर्तमान काले महाविदेह क्षेत्रादौ सन्ति अथवाऽ भविष्यन्ति इति यदूच स्तत् असत्यं प्रत्यचं अदृश्यमान त्वात् इति विचार क्रियमाणे
सम्यक्त भङ्गः स्यात् तस्मादिति न विचारणीयं सम्यक्त्र परौषहः सोढव्यः अत्र आचार्याषाढसूरि कथा वत्मा भूम्यां आषाढभूति सूरयस्त व गच्छे ॐ योयः कालं करोतितंत' निर्जरयामासुः अन्त्यसमये तेषामेव कथयन्ति युष्माभिः स्वर्गदेवौ भूय मम दर्शनन्द यन्ते चस्वर्गों गच्छन्ति परमाचार्याणां
दर्शनं न ददति तथाच सूरोणां परलोकशङ्का जायते एकदा एको विनेयः प्रकाम स्वभक्तः समाधि मरणसमये सूरिभिरेव मुक्त: तया स्वर्गे देवो भूय * अवश्यं मम दर्शनन्द यं न प्रमाद्य सोपि मृत्वादेवा जातः परं विचित्र रचनानाट्यादि दर्शनेन व्यग्रत्वाबातायात: तावता सूरिभिरवं चिन्तितं
नास्येव परलोकस्तत कोपि नागच्छति यदि परलोकः स्यात्तदा मच्छिष्याः कृत प्रतिज्ञा अपि कथं न दर्शनं दद्युः ततो मयाद्ययावहतानि पालि सानि तपांसि तप्तानि कष्टानि कतानि सर्वाण्यप्य नुष्टानानि मुधाजातानि मुधामया भोगास्त्यक्ताः वञ्चितोहमिति मिथ्यात्वं प्रतिपन्नाः गच्छ मुक्का एकाकि न एव लिङ्गमात्र धरानिर्गताः अवान्तर तेन भक्त शिथेण देवो भूतेन कियदिनानि याववाव्यादि विलोक्य गुरु प्रेमा अत्रायातः मिथ्यात्व गता गुरवो दृष्टाः तत्प्रतिबोधार्थ कस्यचिहामस्य सौमिनाव्य विचक्रे तत्र प्राचार्याः षण्मासान् यावद्राव्य पश्यन्तः क्षुधादिक नानु भूवन्तः नाव्यञ्च
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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ॐ देवेन विसृष्टं आचार्या अग्रतचलिताः ततस्तेनैव सुरेण तेषामाचार्याणां संयम परीक्षार्थ षट्कायनामानः घट्दारकाः सर्वालङ्कार विकुर्विताः प्रथमं पृथ्वीकायिकः कुमारस्तेषामाचार्याणां दृष्ठौ पतित: आचार्या आहुः भो बालभूषणनि ममापय सनार्पयति तदनु सूरिभि रसो गले होतः ततव भयभ्रान्तो बाल: प्राह प्रभो अहं पृथिबौ कायिकः कुमारः अस्यां रौद्राटव्यां त्वां शरणं श्रित: भवादृशाणामेवं कर्तुं न युक्त' स्वामिन् मदुक्ताए का कथा श्रूयतां तथाहि एककुलालः खानौ मृदं खनन् मृदाक्रान्तएवं भणति जणभिक्ख' बलिन्देमि जेणपोसैसिनाईश्री सामिमही अक्क मइजायं सरणीभयं १ एतत् न्यायेन शरणागतस्यापि कथमेवं पराभवं करोषि सूरिभिरुक्त' अति पण्डितो सिबालेत्यु का तदङ्गाभरणानि यहीतानि पात्रे :
क्षिप्तानि गत: पृथिवी कायिकः स्तोकान्तरे गच्छद्भिराचाईितीयो पकायिक नामा बालको दृष्टः सोपि तथैव उवाच तत्कथिता कथा चेयं एकः * पाटलनामा तालाचारः प्रकामं वा गमौसोऽन्यदा गङ्गा श्रोतसि प्रविष्टः तेन चह्रियमाणोऽसौ तटस्थ जनेनाभाऽषि है पाटल प्रान्न किञ्चित्सूक्त पठसोऽवा दोत् जेण रोहन्तिबोआणि जेण जीवन्तिकाछवा तस्मा मज्नेमरिस्मामि जायं सरणीभयं १ एवमप्कायिक कुमारेण कथा उक्ता तथापि तस्याभर पानि तेनाचार्येण अति पण्डितोसि कुमारीत्य का गृहीतानि सोपि तथैवगत: अग्रेऽग्नि कायिक: कुमारस्तस्यापि तथैवोक्ति प्रत्युक्ली तत्कथिता कथाचेदं एकस्य तापसस अग्निना उटजो दग्धः सवक्ति जमहं दिवा यराीय तप्पे मि महुयासिणा तेणमे उडीदडो जायं सरणीभयं १ अस्मि बेवार्थे द्वितीयाकथा कश्चित्पथिकः पथिव्याघ्र भौन्याग्नि शरणं वितः तेनैव तस्यागन्दग्ध स प्राह मएवग्धस्मभीएणं पाओ सरणीको तेण दई मम अङ्ग जायं सरणोभयं १ एवं कथाहयं कथयत: तस्य कुमारस्य तेनाचार्येण तथैवोक्ता आभरणानि रहीतानि अग्रे वायु कुमारी मिलित: तस्य तथैवोक्ति: तत्कथिता कथाचेयं एको धननिचित शरौरो वावुजानि सचान्यदां वायु भग्नः एकोदण्डधारी मार्गे गच्छन् केनाप्युक्त: इंही दृढांगत्वं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ०४१ मा भाग
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उ टौका x कथमोटग्जात: साह जिहा साढेसु मासेसु जोसु हो होइ मारुओ तेणमे भज्जए अङ्ग जायं सरणयोभयं १ एवं कथां कथयतोपि तस्य कुमारस्थ
पाभरणानि तेनाचार्येण गृहोतानि अग्रे च वनस्पति कायिकः कुमारः सोपि तथैवाख्यत् तदुक्ता कथा चेयं एकसिन् सक्षे केषाञ्चित् पक्षिणामा वासोस्ति तत्र बहूनि तेषां अपत्यानि जातानि अन्यदा वृक्षस्य मूला दुत्थिता वल्लो समन्ता इष्टयन्ती हृक्षशिखरमारूढा एकदा तामारुह्य सर्प स्तच्छिता प्राप्तः नौडस्थानि पचि अपत्यानि भक्षितवान् पचिमापिभिरुक्त जावबुच्छं सहं वुच्छ पायवे निरुवहवे मूलागी उट्ठिा वली जायं सरण उभयं? एव मुक्तपि वनस्पति कायकस्याभरणानि तेन आचार्येण गृहोतानि अथवसकाविक: कुमारः कथामाह एकस्मिनगरी परचक्रागमे पुरं प्रविशता ण्डालान् असौच भोत्या जनैर्निष्कास्यमानान् दृष्ट्वा मध्यस्थजनाः केचिदाहुः अविभन्तरिमा भौआ पिल्लन्ती बाहिर जणे दिसं भय हमायगा जायं सरण उभयं १ बसकायिको द्वितीयां कथामाह एकस्मिनगरे राजा स्वयञ्चौर: पुरोहिती भाण्डौवहः तयो रन्यायं दृष्ट्वा लोकाः परस्परं वदन्ति का स्थरा या सयञ्चोरो भडिप्रोय पुरोहियो दिसंभय हनागरगाजायं सरणी भयं १ अथासौ वृतौयां कथामाह एकस्मिन् ग्राम एकस्य ब्राह्मणस्य पुत्रौ यौवन स्थाऽतीव दर्शनीयास्ति तस्यां पितुर्भोगेच्छाऽभूत् परं लज्जातः कस्याप्यग्रे न कथयति दुर्बलोजात: पत्न्या दुर्बलत्व कारणं पृष्ठ स स्वसुता भोगेच्छां प्राह तया प्रोक्तं माविषोद तवेच्छामहं पूरयेण्यामोत्युक्ता माता एकान्त पुत्रों प्राह हे वत्से अस्माक पूर्व पुत्रौ यक्षाभुञ्जन्ति पञ्चाहरस्य दीयते ततो यक्षः कृष्ण चतुर्दश्यां त्वदा वासे समा यास्यति त्वया तस्थापमानं न कार्य रात्री त्वया उद्योती न कार्यः एष मात्रा उती सा पुत्री रात्रि प्रस्त वि स्वग्रह सुप्ता यक्षं साक्षात्पश्यामोति कोतुकेन दीपकः ततः परं सरावसं पुटे रचितस्तेन तगृहान्तरुद्योती न दृश्यते रात्रौ तत्र पिता यक्षरुपः प्रविष्टः तेनेयं भुक्तारत क्लान्तश्च तब व मुप्तो निद्राणश्च अनया च कौतुर्कन शरावसं पुट दूरीकल्व दीपोद्योते दृष्टो जनकः ज्ञातं माकपटं तया चिन्तितं
88888888.066048:0-6RRRRRRRRRREE
राय धनपत सिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टौका *
यावति तवतु मयाने नैव सह विलासः कार्यः इति चिन्तयित्वा जागरित्वेन तेन समं पुनर्भीगान् भुक्ता सासप्ता सोपिसुप्तः हावपि निद्राणी प्रभातपि न जाग्रत: प्राताह्मणी तवागत्यतौ तथा सुप्तौ दृष्ट्वा इमां मागविकां पठति अइ रुग्गाइएविसूरिए चेइए अथू भगए विवायसे भित्तौड़गए वि आयवे सहि मुहिए हुजणेन वुमाई १ व्या० अचिरोहतकेपि च सूर्यकोर्थ प्रथमोदिने रखौ चैत्य स्तूपगते च वायसे अनेन उच्च विवस्वतीत्याह भित्तिगते च आतपे अनेन उच्चतर इत्यर्थः सखि सुखितोहुर्वाक्यालङ्कार जनो न बुध्यते ननिद्रां जहाति अनेनात्मनो दुःखित्वं प्रकटयति साहि भई विरह दुःखिता रात्रौ न निद्रा लब्धवतीति मागधिकार्थः जननी प्रोक्तामिमां मागधिकां श्रुत्वा पुत्रि विनिद्राप्राह तुममेवह अम्बमालवे माहुविमा णीय जक्ख मागयं जक्यो अनहुए हतायए अब माय गवे सता ययं १ व्याख्या तमेव अम्ब मातह इति आमन्त्रणे अलापौः उक्तवती शिक्षा समये यथा माहुत्तिमैवविमाणयत्ति यक्षमागतं विमुख मा कथाः जक्खोयत्ति अयं यक्ष: ननु अयं तातकः पिता है मात: अन्य तातकं गवेषयेति मागधि कार्थः पुनर्माता भणति नवमासह कुच्छिधारिया जस्मापस्म पुरीसमयिं धूया एतएमि गहिश्री हरिप्रो सरणासरणयं १ व्याख्या नवमासान् यावत् या कुक्षौ धारिता यस्याः प्रबवणं पुरोषं च मर्दितं धूया एतएत्ति तया दुहिता मित्ति मे मम गेहिको भर्ता हतः चौरित स्ततो हेतोः शरणं अशरणं मम जात मिति गम्यं हितं कुर्वत्या मम अहितं जातमिति मागधिकार्थः यथा तस्याः पुत्वा मातृपितृभ्यां विनाशः कृतस्तथा माढपितुल्ये न भवता महिनाश: क्रियमाणोस्ति एवं बसकायिकेनोक्त पि स प्राचार्यों न निवर्तते अथ वसकायिकश्चतुर्थो कथामाह एकस्मिन् ग्रामे एकेन ब्राधीन यज्ञार्थ सरोकारिसरः सौपे वनमपि च तवानेकान् पशून् जुबत् हिजो मृतस्तत्रैव ग्रामऽजोऽजनि स चरणार्थ बहिर्याति सरोवनं च पश्यति ततो जातिस्मरणवान् जातः अन्य दा तत्सुतेन यनः कर्तुमारों तदर्थमसावेवाजस्तेन सुतेन तवैव सरोवरे नौयमानो गाढ़वरण पूत्कारं कुर्वन् केनचिन्मुनिना सातिशयज्ञानन दृष्टी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. उ. ४१ मा भाग
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भणितश्व वियडखणवौते छगलतइ पारीविअरुक्स जब पवत्तणतें कौयो काइ मुक्व १ वियडत्ति देशीवचनत: तटाकिकेत्यर्थः यति प्रशौतामिमां २५% मागधिकां श्रुत्वा अजी जातिस्मरणधरी मीनवान् जातः तत्पुत्रेण साधुः पृष्टः कथमसौ मौनौजातः साधुः प्राह अयं त्वत्पिता अथयागकरणादज एवजात:
तत्युले गोक्त अवार्थे अभिज्ञानं कि साधुः प्राह तव ग्रहांगणे भूनिहितं निधि असौ पादाग्रेण दर्शयिष्यति ततस्तथैव तेनाजन कृतं पुत्रस्य अजस्थ च धर्म प्राप्तिईयोरपि देवलोक गतिर्जाता एवं तेन ब्राह्मणेन शरणं मे भविष्यतीति कृत्वा तटाकसमौपे यज्ञारामी विहितः स एवास्य बधस्थानतया भवनेन शरणाद्य मुत्थितमिति शब्दपदं जातं एवं भवन्तोपि शरणागतानामस्माकं अनर्थकारिणी जाताः एवमुक्त पि त्रसकायिक कुमारस्याभरणानि गृहीतानि एवं षण्णामपि कुमारकाणां पंडितवादिनी यूयमित्युक्ता भरणान्यादायाग्रे चलितः सूरिः पुनस्तेन देवेन सम्यक्त परीक्षार्थ दारक कणाद्यलंकता सावका दर्शिता तां दृष्ट्वा सूरिश्व माख्यत् हे प्रवचनोडाहकारिके दूरती ब्रजमुखं मा दर्शय रुष्टया तया उक्त' राईसरिसवमित्ताई परिच्छिहाई पाससि अप्पणी बिलमित्ताई अप्पच्छिहाइ' न पाससि १ तव पतद्ग्रह किमस्तौति तया प्रत्युतीपालब्धस्तथाप्यसो न प्रतिबुद्धः अग्रे चलिता तेन आचार्येण स्कन्धावारगतो राजा दृष्टः तेन राज्ञा प्राचार्यो वन्दितः प्रोक्तच हे प्रभो पात्र कन्धरणासुकमोदकान् गृहाण ततः स पात्रक्षिप्ताभरणदर्शनभोत्याऽवदत् अहमद्याहारं न करिथ राना च हठात् झोलिकांतः पात्र कर्षितं आभरणानि दृष्टानि राजोक्त हे अनार्य किं त्वया मत्पुत्वा व्यापादिता इत्यादिवचने स्तर्जितः समूरिभयभ्रांतो न किञ्चिदक्ति पश्चामायाजालं संहृत्य सशिष्यदेवः प्रकटौभूतः स्ववृत्तान्त अचकचत् एवं चोपदिष्टवान् हे प्रभो यथा त्वया नाव्य पग्यता षण्मासान् यावत् कुत्तृषा न जाता एवं देवा अपि दिव्यनाव्यं पश्यन्ती न किञ्चित् स्मरन्ति नाप्यवागमनीत्माहं कुर्वन्ति यतः सिहांतेप्युक्त संकेत दिवपमा विसयपसत्ता सम्मसकनवा अणहीणमणकज्जा मरभवममुहं न तिसरा १ इत्यादि शिष्यदेववाक्यैः सप्रतिबुद्धः सिहान्तवचनास्था तत्वा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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उ० टौका अ०२
उत्तराध्ययने परिषहाधिकारं संपूर्ण भावितात्मा अणगार बूंटेराय जी तच्छिष्य भगवान विजय साधुना संशोधितम्। पुनः संयमे लौनः पूर्व तेन दर्शन परौषही न सोढः पञ्चासोढः अथ कस्य कर्मण उदये कः परोषहोदयः स्यादित्याह दर्थनमीहनीयोदयात् दर्शनपरौ पहः स्यात् ज्ञानावरणीयोदये प्रज्ञा परोषहः स्यात् तस्यैवोदये अज्ञानपरौषहोपि स्यात् अंतरायकर्मोदयेऽलाभ परौषहः स्यात् चारित्रमोहनीयकर्मोदये आक्रोश १ अरति २ स्त्री ३ नैषेधिक्या ४ अचेल ५ याजा ६ सत्कारा: ७ एते सप्तपरोषहा उत्पद्यन्ते शेषाः एकादशवेदनीय कर्मोदये उत्पद्यन्ते ४५ अथ सर्वोपसंहारगाथामाह एए परौसहा सव्वे कासवेणं पर्वईया जे भिक्खू न विहब्रेजा पुट्ठी केणइकन्हुइत्तिवेमि ४६ एवं हाविंशति: सर्वे परोषहाः काश्यपेन श्रीमहावीरेण प्रवैदिताः प्रकर्षेण ज्ञात्वा यान् ज्ञात्वा भिक्षुः साधुः केनापि परोषहेण स्पृष्टः सन् कुत्रचित् कस्मि चिनदेशे कस्मि चित्काले वा न विहन्येत संयमात् न पायेत ४६ इदं हि कर्मप्रवादनामाष्टमी हि पूर्वस्तस्स सप्तदशं प्राभतं तस्योहारलेशं द्वितीयं अध्ययनं उत्तराध्ययनस्य इति श्रीम दुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मोकोर्ति गणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभ गणिविरचितायां द्वितीयं अध्ययनं संपूर्ण ॥२॥ अथ द्वितीयाध्ययनेन
एए परीसहासचे कासवेणं पवेड्या। जेभिक्खू नविहन्ने ज्जा पुट्ठो केणडू काहु इत्तिबेमि ॥४५॥ परीसहभयणं गोचीई' श्रीमहावीर देवे प० प्ररुप्या छ जे. जे धौर्यवंत भि. साधु न नहणे संयम पु० पौधो थको के बावौस माहिलो एक कुणे कडू परीसह क.8 कोईक स्थानकने विषे इति सुधर्मा स्वामी जंवू स्वामी प्रते इम को ४६ जिममे श्री महावीर कन्हे सांभल्यो हुती तिम है तुझ प्रते कहुछ इति परी सह अध्ययन नार्थ समाप्त २ पाहिले अध्ययनवावीसपरोसहकह्या ते स्थअवौलवी २२ परिसहसह इमशिष्यपूच्चे थके हिवेगुरु कहेछ चार अंगपामता
राम धनपतसिंह चाहादुर का पा०सं० उ० ४१ मा भाग
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उ.टौका
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सूत्र
वृतौयाध्ययनस्य सम्बन्धमाह। किमालम्बनं कृत्वा एते परोषहाः सोढव्याः इति प्रश्ने उत्तरं चतुरंगदुर्लभत्वालंबने न सम्बन्धमाह चत्तारिपरमंगाणि दुलहाणोह जंतुी माणसुत्त सुई सहा संजमंमिय वीरियं १ एतानि चत्वारि परमङ्गाणि परमानि उत्कृष्टानि अङ्गानि मोक्षसाधनोपायानि परमत्वं हि एतेषां प्राप्ति विना मुक्तिप्राप्तेरभावात् कथंभूतानि परमाङ्गानि जन्तो जीवस्य दुर्लभानि एतानि कानि मनुष्यत्व' मनुष्यजन्म पुनः श्रुतिईर्मस्य श्रवणं पुनः बद्धा धर्मे रुचिः पुनः संजमंमि संजमे साध्वाचार पालने वौर्य सामर्थ बलस्य स्कोरणं अत्र चुल्लग पासग धबे जूए रयण यसमिण चकेय चम्मयुगे परमाणू दस दिडता मणु अलंभे १ दश दृष्टांतवत् मनुष्यत्व दुर्लभं उक्त तत्र चोलग दृष्टान्तो यथा चोल्लगं परिपाटी भोजनं तदर्थ कथा कापिल्यनगरे ब्रह्मराजा चलनो भार्या तयोः पुत्वो ब्रह्मदत्तः एकदा मृतः पिता ब्रह्मपुत्वो बाल इति कृत्वा मित्रहय प्रहितो दीर्घपृष्ठनामा राजा तद्राज्य रक्षति चुल
सम्मत्त ॥२॥ चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणी हजंतुणो। माणुसत्तं सुईसद्धा संजमंमियवौरियं ।। समावन्नाण . दुर्लभ के जाणिसम्यक् प्रकारे २२ परोसहा महीयासे सहे ते भणी चौरंगी नामा नौजी अध्ययन वखाणौये के एहवा संवध कह के च तारिक. ' र चार परमंगाणि क. परम उत्कष्टो मोक्षसाधनोपाय दुल्लहाणी हजंतुणी क. दुर्लभ इस संसारमै जीवोकु माणसत्तं क. मनुष्य जन्म १
सुइ क । धर्मका सुणना २ सड़ा क. धर्ममें रुचि। ३ संजमं मियबोरिव क. संजममे वीर्यका फोरणा ४ अश्व हतीयाध्ययने कथा संसार माहि प्राणोने मनुष्यनो भव दुर्लभ के तिण ऊपरि दश दृष्टांत भाव मांहि कह्या ते लोखीये के गाथा जग १ पासग २ धने ३ जये ४ रयीय ५ सुमिण चक्केय ७ चम्म ८ युगं परिमाणु १० दसदि ईतामणय भवि १ ए दश दृष्टांतनो संक्षेप थी समझिवा मात्र भावार्थ लिखीये के विस्तरार्थं वीजा * अंध थो गुरुसमीप धको सांभलवो जाणवो पहिले दृष्टांत चमग कहतां भोजन तेहनी दृष्टांत ते किम जिम बारमो चक्रवर्त्ति ब्रह्मादत्त बाल पणे माता
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ०१४मा भाग
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उ भाषा ४ चूलणौवे विषय विकार करौने परवस छतौ राजा दिर्घ स्थो आसक्तथइ ते ब्रह्मदत्त जाणौ ते दीर्घ रायने प्रतिबोधिवा भणी दृष्टांत देखाद्या एकदा पन्न अ०३ नागणीने गोणससर्प एकठा करौ गोणसने प्रहार मूकी कछु' पर पापिणी गोणस तुम्हने पद्म नागणी केही संग वली अनेरे प्रस्ताव राजहंसौ अने
४ काग लोएकठा करौ काग प्रते का रे पापीकागतीने राजहंसौ नो केही संग इम कहो ता जाणे पाहणी इम दीर्घ राय देखी भयभात घई
चूलणौने कह्यो ई ताहरा पुत्र थी विडु तिण कारण जाइस्य एहवो सांभलौ चूलणी राग करौ कयो हुँविणास स्यूं तु निश्चंत रहे इम कही पुत्र विशासवा भणी ला खनो घर कराव्यो ते कूड मन्त्री खर जाणो कापिल पुरनगरने परसर गंगानदीने उपकण्ठे उडज करी रह्यो तिहां हते सुरङ्गखणावी लाखाहरने प्रांगण प्रांण मूकी पापणी पुत्र ब्रह्मदत्तने पासि मुक्यों एक क्षिणमात्र एह थकी वेगलीम श्राइसि ए पुरुष रतन के 8 एहने जो खम घणो तेणे कारण यतन स्यू' राख्यो जोइये यतः यस्मिन् कुले यः पुरुषप्रधानं स एव यत्नेन हि रक्षणीय तस्मिन् विनष्टे सकलं विनष्ट इति वचनात् एहवा सौखामणतात नौ अंगीकार करी मंत्रीखरनो वेटो रात दिन कुमरनी सेवा कर एक क्षणवेगली न थावे इम करतां कुमर परणावो तेणे घर आयो अरात्रि प्रावि तुलशीइ तिहां अग्नि लगाडी लाक्षाघर गलोर पडीवा लागी तिवारी मंत्रीश्वरने पुढे उठी
का कुमरजी जागो तिवार ब्रह्मदत्त बैठी थयु' विंदु पासे घर प्रज्वलती दौठो परं उत्तम पणा थी तिगार कमन मांहि भयनायो एहवो ४ साहस जाणो परौख्या निमित्त मंत्रीने वैटे कुमर वोलाव्यो कहो जौ हिवे स्यु थास्य तिवारे कुमर कहे जेहवो भवितव्य के तहनी समवाय मिलस्ये
इसी कुमरनो वचन सांभलो मन्त्रोखरने चिंतव्यो ए कुमर साहसनो निधान पुरुषमहाप्रधान के एहने कार्यसिद्धि स्वाधीन हुस्ये यतः उद्यमं साहस धैर्य वलं बुद्धिपराक्रमे पड़ेते यस्य विद्यन्ते तस्य देवोपि शकते ॥१॥ इसी जाणौ बुदिनौ परीक्षा भणी कुमर पूछ कुमर जी जिवार वन माहि दावा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ०भाषा
8 नल लागे तिवारी कोठीने किसो सरणी थावे ते दावा नल थौ किम छूटे इसौ सुणो ब्रह्मदत्त कुमरे कह्य कौडी विलमेपेसे तो छुटे इसे वचने बुदिवली
जाणी मन्त्रौश्वरने पुत्रेकह्यो अहो कुमार आपणपेपुणतो किडौइ जो बिलेपइसौये कुमरे का आपण सरौखो विल किहां जिहां पदसोई तिवारे सरत अपरि घण अंगणी देखायो दहा लातनी प्रहार को इम कह्य ते ब्रह्मदत्तपगनोप्रहार देई सुरंगहार जघाडी हिवे वेजणेसुरंग मार्ग थर् गङ्गातटने उपर आवीवरधनु मन्त्रीखरने भिल्यातिवार पछे मन्चौखरे कर्तुं तुम्हे देशान्तर जावो इहां मतरहिज्यो इसीवचन सांभली तहत्ति करो तैवेजणानौकल्या घण देश भम्या वारे वर्ष लगी घणो धन उपायौँ घणौ स्त्री मिली चतुरङ्ग दल मिल्यो तिहां देशान्तर फिरता ब्राह्मण एक संघात फिरवी साथे थके दुख सख सह्या ते जीवार वीकड़वा लागी तिवारी तेह प्रति ब्रह्मदत्ते का तु ब्रह्मदत्त कापिल्य नगर राजा हुओ सांभली पहिलो प्रावौजे जेहवो मुझ थको अपगार हुस्ये तेहवी करिस्यु बम कह्या अनन्तर ब्राह्मण स्वस्थानकि पहुं तो हिवे ब्रह्मदत्त घणौ कटक सुपरिवस्त्रो कापिल्य पुरनगर आवी दीर्घ राजाने मारी पितानी राज्य लोधी वारे वरसी चक्रवति नो राज्याभिषेक मांद्यो घणां महोच्छव थयु बारमी चक्रवर्ति राज्यपालिवा लागी चपरासी
लाख घोड़ा चौरासी लाख रथ छत्रवे कोड़ पायक नवनिधान चवदे रख चोस सहस्म अंतेजरी एकलाख अट्ठाईस हजार पिंडविलासणी बहुतर ॐ सहस्म महानगरवत्तीस हजार देश वत्तीय सहस्म मुकटबंध राजा वत्तीस लाख वाजिन सोल सहस्र पाटण सोल सहस्र देवता तीन लाख रसोईया 8 नवेकोटि गाम इत्यादिक समृषि गुणे करौ जगमांहि प्रसिद्ध न्याये कष्ट प्रजापालिक संग्राम सूरी एहवी राजाधिराज एक छच पालतो छ खंडमाहि
प्रसिद्ध तिणे ब्राह्मण सांभली अत्यंत हर्ष पामी चक्रवर्त्तिने मिलिवा भणौ कांपित्य पुर आव्यो परं प्रतोली हारपोलीइ चल्यो छतो राजभुवन पासवान 8 लहे तिवारे तिको ब्राह्मण इम चिंतविवा लागी जैह स्यं रात्रिने दिवसे एकठा वे सिवी सूवी चालिवी हुँ'तो तेहनी आज दर्शन पुण दुर्लभ थयु
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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भाषा
एहवो विचित्र कर्मनी गति के इम जाणो मन मांहि चिंतवे छ किण ही ऊपाय विना दर्शन चक्रवर्तिनी सुलभ नही थाये इम चितवी घणी लांबा वांस लेई तेहने अग्रौ पुराणा खासडानो माला करौ वांगाग्रि वांधि स्तभतणीपरौरोपौवइठो तेतले चक्रवर्ति रे वाडी नोक त्यो चक्रवर्तिते ब्राह्मण देखो वंशानि धजा सरौषो माला देखोवोलायो ए कुण छ तेतले एकने कहता दश पनरे तेडौवा गया ब्राह्मण तेडी आंखो तेतले दृष्टिगोचर आयो ते तले
ओलख्यो चक्रवर्ति मनमांहि ओलख्यो दोहिलो वेलानो मित्र जांणी अत्यंत आदर सम्मान देई अभ्युत्थान कोधी एहवी देखौ समस्त मुकटबंध राजाप्रमुख ४ सभा लोक विस्मित लोक थयो ए दरिद्रवां भणीयाने एतलो आदर केहवो इम न जाणे ए महान्त पुरुष छेहडो न देखाडे इणे कारण अपूर्व वस्त्र पहि * रावी आपण अर्धासने पालखौवेसारी आगत स्वागत पूर्वक समाधि पूछौ सहित रेवाडौई जई राजभुवनाहि आव्याछे स्रान मंजन अलंकारमंडित ४ करो भोजन मंडप वेसारी भोजन कराव्यो केतला एक दिन माहो माहिवार्ता विनोद गोष्टि रमल क्रौड़ा करता दिवस उल्या ते तले चक्रवर्ति ब्राह्म
ण प्रते कहूं अही मित्र मुझ कन्हे कुछले ताहर मन रुचि पावे ते भांगि जिम ते तुम्हने देईवाचाऊरण थाउ जे भणी कह्यो राज्यं यातु थियो यातु प्राणा यात मलोमसाः कृतं तेन हारितं ।२। पत्थर रहा विहडे जतु महु तेण घडीय दिवसेणं। सपुरिसा नवयणं काले नगरएन विहडंति ।३। इण कारणे अपणो वाचा प्रतिपालु राज्यलक्ष्मी सफल करु यतः किंताएलच्छौए सेसफल रयणकोस तुलाए जाससयणे हि नभूत्ता। जानहु दिट्ठा रूलजणहिं ।।। तिवार विप्रने एहवी मती आवो जैह भणी मनुष्यने कर्म ने अनुसार बुद्धि ऊपजे सा सा संपद्यते बुद्धिः सा मति सा च भावना। साहायातादृशा जे या यादृशौ भवितव्यता ।। चक्रवर्तिने ब्राह्मण इसी कह्यो स्वामी माही स्त्री के तेहस्युं संगत करो तुम समीपे मांगु राजाई कयो जे इम तो जई पूछ आवो संघात घणा मनुष्य घोडला देई ते ब्राह्मण घरे मोकल्यो राजानी अनुज्ञाईते घरे प्राव्यो घण चन्द स्यं परिवस्यो स्वोरलियाईतधई प्रागत
राम धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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खागत अभ्युत्थानादि घणु कोयो समाधि पूछो भोजन कौया अनंतर स्त्रो पूछौ राजा ब्रह्मदत्त सन्तुष्ट हुत्री के तेह समीप स्यं मांगीये तिवारे स्त्रौर स भाषा:
जाण्यो ए देश भण्डारनो धणी थास्यें तो मुझने छांडी परिषस्ये जे भणौ कयो प्रथम महिला प्रथम घर घोडा चाकरडांह जवमाणस ठाकुर थयो तव १३१ * विरचे बिहु जणांह ।१। इसो जाणौ स्त्रौई भरतार प्रत संवेदीया वाने कब्यो स्वामी आपण ब्राह्मणवां जे घणो देशभंडारादिक मांग स्यो ती ब्राह्मण
क्रिया थी भृष्ट हुस्ये जे भणौ कर्जा के कृषि वाणिज्य गो रक्षा राजसेवा चिकित्सितं यत: अंजलिने अहिनाण नौरन देखे मौठतो जिम पाणो तिम प्राण जतन करता जाइस्य १ रेजोवडा अयाण जां जौवे तां धर्म करौ उडवि जास्ये प्राण तडके लागे वेह जिम २ इम जाणौ धन ध्यान्यनौ तृष्णा छांडीये जे घणा सोना रूपा रनमुक्ताफल मेलौये ते पुण संघात कोई चाले नहीं जे मणिनी कोडि धान्य एकठा करे तो पिण भोगवे जसेर आवे जे घणा मंदिर आवास करावे तो पुणभोगमंचक प्रमाण भूमि प्राये जो एतले घण परिग्रहे स्थो कार्य के सर्व छहडे मूको जावी इण कारण विप्राने दक्षिणा सहित भोजन मांगिवानी कार्य के इम स्विद् ग्राहाणसंवेग दीपाव्यो व्राह्मण अंतरण भावमी अजाण मुग्धपिण तेण वचने राची ततलीज़ प्रमाण करो ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति समीप आवी जेतली स्त्रोई कह्यो हुँतो तेतली माग्यो चक्रवर्ति कहे एस्य माग्यो घणु कान मांगे ब्राह्मण वलतो कधो माहरे घणु' स्य' करवो के मुझने जेतलो तुम्हारी आज्ञा वते तेतला मारे घरे एकको भोजन अम्ह विधु' स्त्रीभरतारने एकेको दीनार दक्षिणा अपावो एतले कहे छते चक्रवर्ति चिन्तयो जेहने जेतलो प्राप्तव्य होइ तेतलोजसं पजे अधिको न घावे जिम कुंभतलाव माहि घालीये तो पुणप्रमाणोपेत पाणी ये अथवा समुद्र माहि पुण घालिये तो ते तली पाणी ले परं प्रधिको लेई न सके तिम एवापडी ब्राह्मण अधिको लेई न सके इसी जाणी तेहनी वचन प्रमाण करी ब्राह्मणौने ब्राह्मण बैवे पहिली पापणे घरमीमन्त्री भक्तिसहित सूर्यपाक रसवती केलवी जिमाडी दक्षिणा देई संतोष्या वीजे दिम
राय धमपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ.भाषा:
अ०३
वोजान निमित्रा भोजन दक्षिणा दोधो परंजे रस सूर्यपाकरसवती जौमतां हुवो तेहने अंतसमे भागि रसनऊपनी सांमुही पश्चात्तापि पद्यी सूर्यषाक रसवती वली किहां लाभस्य वलो चक्रवर्तिने घरवारोकदे आविस्ये एहवी विमासी एकेके दिन घणे घरे जीमतां दक्षिणा लेता छ खण्डपुरो करौ वली चक्रवर्तिने घर सूर्यपाक रसवती जिमवा लहे इम संभवे तिवारी शिष्य कहे हे भगवन् एगाढा दुर्लभ दीसे के तिवारे श्रीगुरु कहे ए दृष्टान्त मनुष्यनाभव लहिवा ऊपरि के जेहवो सूर्यपाक रसवतीनी भोजन तेहवो मनुष्य जन्म कदाचितेव्राह्मण भोजन पावे पर मनुष्य नो भव हारव्यी पामता दुर्लभ हे इति पहिलो दृष्टांत ॥१॥ अथ द्वितीय पासक दृष्टांत । पाडलीपुर नगरि राजा नन्दराज्य पाले तेहने वारे एक ग्राम एक ब्राह्मण वसे ते श्रावक वार व्रत पाले तेहने धरै पुत्र जायो ते दांत सहित देखि माताने अचरोज अपनी तिवार निमितिये पृल्यो एस्य' कारण के निमितिइ कह्यो ए राजा होस्य माता पिताइ चिंतव्यो ए वाप डी जीव राज भोगवी रखे दुर्गति जावे एहवी जाणि कुचला दांत वालकना घसोने जताखा वलि निमितिये ने कह्यो अम्हे बालकना दांत घस्था तिवारी निमितीद्र कह्यो हि विवार राजा हुस्य नाममात्र राजा सर्वमुद्रा व्यापारी एह जहुस्थे इसी सांभली महोच्छव करौने चाणक्य इसी नामदिधी ते पुत्रपाली मोटीकोधी अवसर जांणी पंडित समीप भणाय्यो सर्वकला पारंगामौ ही भला ब्राह्मणनौ पुत्रौ परणावी विशेषे ज्योतष शास्त्रने विषे निपुणपणथयो घणो भाव भेद लहे एकदा नंदराजाने पाट नंदराज्यने विषेथापिवा भणी जम्न वेलाई सिंहासण मांधी जतले राज्यनीवेला थई ज्योतिषी हिण बेला चूका चाण क्य निरसोवेला जाणो मूलगे सिंहासनबैठोतितरे राजपुरुषे देखि कडं अरे सिंहासननेविष पहिलो भिख्या चर वैठो त ऊठाडीवो जो आसण मांडो तेतले चाणक्ये पावौ तिण पासन विषे पाणीपात्र मूक्यो अत्र में पानीयपात्र स्थास्यति ते पिण आणौत्रीजी माद्यो तिहाँ अत्रमै स्थास्थति मकहते दंड
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ० ४१ मा भाग
R
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अ०३
उ.भाषा:
मक्यो एतले राजपदवीनौवेदवीनीवेला तिणे आत्मायति करौ तेतले राजपुरुषे ब्राह्मण अवध्य जाणो गल हथी देववाहिरि काट्यो पछे एक ग्राम का
पडीने वेसेगयो तिहां ग्रहस्थनी पुत्री गुर्विणोछ तेहने चन्द्रमापौवानी डोहली ऊपनीछे ते जाणौ ऊपायकरौ तेदो हलो पूरी इम जायो ए उत्तम हुस्ये ४ तेहने पिण का ए पुत्र तुम्हने भलांनो कारण नथौ एहवो भय उपाय तिणमाग्योपइले दौधो काले मोटो हुओ जांणी लेगयो केतलें काले घणो 8 धन ऊपा एके गांमे गया तिहांडोकरीये' वालकने क्षौर पुरसौ वालके हाथखौर मांहि घाल्यो हाथवल्यो रोइवालागी तिवारे डोकरी कहे तु पिण
चाणक्यनोपरि मूर्खदौसेछे चाणोक्य सुणौ पूछे किम चाणक्य पठित मूर्ख जे देश नगर साध्यां विना पाडलीपुर जासौ एहवौ चाणके साची जाणी तिहां थौ घणुदल लेई देश गामादि साधौ पाडलोपुरनो राज्य लोधी नंदऊ थापौ चंद्रगुप्त राजा हवो आपणपतिण राजाने सर्व मुन्द्रा व्यापारी रथयो एकदा भंडार धन खूटो जांणी बुद्धि करौ एक मोटी मालिरि बांधौ पासे मदिरानो घडी {क्यो लोकने कहेडु पिणपी बुछ राजा पौवेके
तुमें काई न पौवो इम कही पाई पोते कहे अरे लोको मासम कुण द्रव्यनी धणी होसौ माहरे तो एक राज्य मुन्द्रा जनेऊ' मंडल अनेदंसु 8 वणनो कुडौ एहवो कहिनाचे झालिरिपासे पुरुषछे तेहने कहवे झालरि वजावीते बजावे एहवो सांभली एक मदमातो एक व्यवहारीयोवोत्यो
अरे लोको कोइ हस्तौ नित्य बेहजार गाऊ' चाले तेहनौ पद २ लख २ सोनईयां मुंकतो जाउ' तोही हाथी थाके पिण माहरी द्रव्य नथी के - वजारि झालरि एवात मुहतालिखिता जावे वली एक व्यवहारीयो वीस्यो माहरे गाय एतलौछे जहनी मांखण तावौनाखतो गंगा जमुनाना प्रवाहरोको राख तेभणीव जाडो झालरि इम लक्षकोडि द्रव्यव्यवहारी याने पासिलोधी ते पिण खूटोजाणीवलौ धन उपार्जिवानका जे देवता आराध्यो देवताई अजय पासादौधा तेहथौ कोइ जीपौसके नही एहवो ऊपाय करौने सुवर्णमय थाल दौनार भरी आग मुंकि लोकने इम का तुम्हारी
RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ०१४मा भाग
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अ.३
१३४
RERERRRRRRRRRENX
8 दाव पडे तोदीनार भयो थाल तुम्हने पापुंजे अम्हारी दाव पडतो एकदीनार लेउ' इणें प्रकार करि घणालीकरमिषा पावे पर तहने कोईजो पौन २ सके दावतिर्ण जनोपडे तो पागलो किमजीपे इम करौ टकानौ कोडि उपार्जी पिण किणही धन पाछी वालो न सखी एके कठीयारे पिण
दौना रहारौ आजन्मस महनत करी दीनार २ करी थी ते कठीयाराने वलो दुर्लभले कदाचिकठीयाराने बली दौनार मिले तिमए मनुष्यनी भववणु' दुर्लभ लहो हारव्यो बले लहतां दोहिलो कदाचितेहनो दाव वले परं मनुष्यनो भवहारव्यो दोषिलो लाहे एवीजी दृष्टांत जाणवी अथ तृतीयधान्य दृष्टान्त जिम कोइ देवता जम्बूदीप मांहि जैतला धान्यनी जातिछे सालि गोधूम जववरटीकंगूमीठ चिणा चऊला कुलथ उडद मसूर वालोलति उडी अलसोमेथौ तु थरि प्रमुख अनेक ततला धान्य सर्व एकठा करौ पुंज करे मेरुपर्वत थकी उच्चा पिछला ढिग ला थावेत सरव एकठा करि ढिग करीने तहमांहि एक पायली प्रमाण खस २ नादांणा घालो घणु वलद एकठा करीने गाहावे तिम करें जिम एक धान्य जातिको वौजो कण नदीमे पछकोइएकडो करी गरठी जराजौर्ण असौ वर्षनी दुर्वल क्लांत मुखमांहि एकदात नथी दीसतो न मौने वेबडी वलौछे एहवी स्त्रो विहांवसाडीहाथ तहने जूनी सूपडी भागी आपी इम कहे डोकरौए धान्यमांहि एक पाइलीख स २ नादाणा मिलाते सीहोर वीणोकण काढी २ने एपाइ लिभरी तेडोकरौ स्त्री तेख सखसना कणकाढीपा इलीभरौसके तिवार शिष्य की भगवम् एदृष्टांत गाढी टुकर दौसेछे एकदाणी खसखसनी जतले लह तहले तहनी आउखो पूरो हुवे तपाइली किम भराइ तिवार गुरु कह ए दृष्टान्त मनुष्य जन्म ऊपरिछे तिम पाइ लौख खसने कणे भरीने तेहवो मनुक्ष जन्म उत्तम गुणे करो भयो छ जिम ते पाइली भरता दोहिलो छ अथवा कदाचि भरे परं मनुष्यनी जम्महारव्यो वलती लहतां गाठी दीहिलो ए तोजी दृष्टांत जाणिवो।३। हिवे चोधी जूवानी दृष्टांत कहे के किणहीक नगरमी राजा राज्य पाले तेहमी घणी अंत
राब धनपतसिंह बाहादर का प्रा० सं० २०४१ मा भाग
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उ० भाषा अ०३
१३५
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पुरौ घणा पुत्र जाणौ ते वडो पुत्रराज्य भोग थो जाणौ राजाइ युवराज पदे स्थाप्यो राज सूत्र चलावे इम करतो घणो काल वउल्यो एकदा रात्रिमे समे सुतां एहवो अध्यवसाय बड़ा पुत्रना मनमांहि अपनो अहो माहरा भाइ घणा राजा प्रजौन जाणौये केतलो राज्य पालिस्य कालांतरि कुर्णस्य हुस्य स्यु' जाबो राज्य मुझने कि बाहुस्य नही तिए कारण हिवडां छतौ समर्थाई राजा विणासो राज्य लुंग तो रूडी इसी विचारों जाणी प्रभाति अभ्यंतर रसभाना मित्र तेडि आलोचो आपणपेराजा विनासी राज्य लौजे तो तुम्हारो हमारो मनोरथ पुहचे एहवे कह्य' हु'ते किणही कहां कहा किणही ना क' को मध्यस्थ रह्य, परं घणे काने वात पडो प्रच्छन्न किम थावे यतः षट्कर्णी भिद्यते मन्त्रयतुः कर्णो न भिद्यते द्विकर्णो स्यापि मन्त्रस्य ब्रह्माप्यन्त न गच्छति १ तथा कोइ राजानो पुत्रनो खल हुतो तिथे जइ राजाने को स्वामी तुम्हारो बडी पुत्र तुम्हाने विणसवा वांछे के इम जाणो सावधान रहिज्योतिवारे राजाई मनमांहि चिंतव्यो हु' पुत्र उपरि पाडूवो न चिंतवु छोरुकुकोरू होये परं मावोव कुमावौत्र न हुवे पण आणिनो उपाय करोद्र' इस चिंतवो एक न विनसभामंडावो तिथे सभाइ एकसो अठोत्तर स्तंभ कराव्या एकैके स्तंभि अठोत्तरसोर हांसि करावी सभा पूरी राजा बैठी पुत्र जेतला हुता वेतलाई तेहावि तिहां बेसाखा तेह आगलि इम को माता पिता ने कोर सर्वएक सरीखा किसी वामणी भांखि किसी जीमणी तेव्ह भो हुं राज तेहने आपिस्य जो मुझने जूये रमतां पासाना दाव पडतां लगतां एकसो अट्ठोत्तर दाव पडे एतले एकस्त भनी अट्ठोत्तर सो हांसि जोतीने इम वोजो स्तंम अष्टोत्तर सय दाव पडे तो जीतो इम तोजोचो थो एवं अट्ठोत्तर सो स्तंभ जोता ते पुवने राज्यदेशोपर जे एक सो भठोत्तरस्तंभ जोता अट्ठोत्तर सो मा स्तंभनी एक सो सात हांसो जितो एक जोपिवौ थाके अने तेहनो वादन पयो तो वखी वर थकी दामि मांडिया इणे परे से राज्य हाग्यो वल तो हाथ नावे इग्यार हजार कसे चौसट्ट दाव एकठा किम पडे एगाठो दोहोला श्रीगुरु कहे कदाचितेकिणही देवानुभावे राजाने
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० भाषा अ०३
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जौती राज्य ले परं राज्य सरोखो मनुष्य जन्म हाराव्यो प्रमादवसते वलतो लहतो दुर्लभ जाणिवो इति चौथो दृष्टांत |8| हिवे पांचमो रत्ननो दृष्टांत कहे के जिम किणहोक नगरि को एक व्यवहारियो धनवान वसतो तेहने एक रतन टालि बोजा कोणहो कि राणा नो व्यापार नथी हम करते घणा रत्न एकठा करो एकडाबडी भरो जीहां आपसे पैठौ सुवे के तिहां पलंकना पाया नौचलो भूमि गत विधान करो मूकी के तिवारी रत्न स लाई बहु मुला के पिण कोणहोक पुत्र कलत्र आगलि कहे नहीं जे कोई तेहने जोइये ते सह वस्त्र आभरण गंधमालादिक आपे पिण विश्वास किण्ही नो न करे इम जाये हु मननोभेद कहिस्यं तो ए डिकरा सर्व रत्न श्रधा पाछा करो खरच स्ये नगर मांहि चोहटे सभाइ जिहार लोक मि तिहार श्रष्ठने तथा पुत्रने कहे अहो तुम्हारा धननो स्यो फल कांई व्यापार न करे कोई जाये नहीं सर्पनो मणि सरीखी तुम्हारी सम्पदा के कोई वाणी उतर नहीं कोद्र साथ चलावी नहीं किया व्यवहारो नही तो तुम स्याव्यवहारोयाजि म२ लोक कहे तिम२ तेहना पुत्र चारि के ते मन मांहि खोजे अम्हे किस' करु' अम्हने पिता धन देखाडे नहीं जे देखाडे तो म्हे पिण व्यापार करु देशांतरजाउ' वाणिज चलाबु' अम्ह ने सहको जाणे मांडवोया जाणे राजा लगि प्रसिद्ध थाऊ' परं किम करु अम्हने धन न देखाड़े इम चिंतवतां केतली एक काल वडलो तेतले किणहोक नगर थी सगानोकागल आव्योतिष मांहि एहवो लिख्यो अम्हार उच्छव के जे तुम्हे आपण डौले नाव्यातो म्हे तुम्हारे सगा नहीं तुम्हे अम्हारे सगा नथौ एहवो आकरोवचन प्रमाण जाणि सेठ विमासोवा लागोहिवे किम कौजे एक दिसवात्र एक दिशि नदी किहां जाये ते सगानी नगरवेग लोजी जईये तोषणा दिवसलागे जेन जाइयेतो सगानो सेह तुटे सगपिण कि मतो डिये यतः नागडानव खंडेह सगपणस धिनतोडिये भु' उपर भमते हि मिलिये जइ मरोये नही १ इसी जालो ते दिमजावानो एकांत निषय कीधो तिहां चालिवा भणो सामग्री करोबा लागी तिवारी पुत्र चिंतव्यो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ०४१ मा भाग
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स भाषा
५०३
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* ए अवसर के पिताने अम्हारो लघु भ्राता घणो वल्लभ के ते आगलि धननो मर्म कहिस्ये इम जाण लघु भाई तेडी सौखव्यो तु पिता कन्हे धन * पूछि जे बहु डे भाई ते वचन तहत करो जिवार श्रेष्ठ चात्यो तिवारी सहुवोलाविवा लागा केतली एक भूमिका थी सहु पाश चाल्या लघुपुचने कह्यो
पिण पाको वलि तिणे अवसरि लघु पुत्रने कह्यो तात हुँ तुम्ह समौपि शिख पूछौ वलि स्यु सेठि एकांत थई कह्या दौकरा शौख पूछौ पुत्र विनये * करीन पूच्चो तात सांभलो अम्हारी वात तुम्हे चाल्या देशांतरे ते देश इहां थौ छ घणु आंतरि तुम्हने कालघणो लाग स्ये वेतले न जाये किणही नो * केही भाग्य जागिर धन तपस्वी इंसाधनो भंडन एहस्थनी मंडन एकहे के सासू सास तेहनी किसो वे सासइ सो जाणी पिताई पुत्र लघु उपरि
मेह आणी ते रत्न जिण ठाम हुँता ते ठामही कहोई पुत्र पाछी वली वेष्ठि आगलि सिधाया थारे भाई घरे आव्या लघु इ.भाई ये पूच्चो हुतो भाई त्रिने धन देखायो स ह मनाहि हर्षि थया इणे अव सर देश देशथी टांडा आव्या एकेके तांडे पीठीयाना लाखा किराणा देश२ ना घणा आण्या नगरने परसरि ऊतस्या व्यवहारिया घणा वस्तु लेवा गया नायक इम कहे अम्हे रत्न साटे वस्तु देस्थी एवडा रत्न धणा कुण आप तिवार ते श्रेष्ठिने पुत्र चिंतव्यो ए साटो अम्हे करी स्थ इम जाणि तिहां जई साटो कौधो रत्न दौधा वस्तु लोधी विणजा राजे प्राध्या कुंता ते रत्न लेई आपरी ठाम गया तिवार पछौ केतलेक काले श्रेष्ठि आव्यो नगरने परसरे आवते अनेक ठांमरना पुंज दौठा तेणे ऊपरि आपणो अने दौकरानो नाम दौठो देखी
ने चिंतव्यो अम्हारे आज लगी एहवा भारी व्यापार नधौ जाण्या सरीखे नाम घणा हुवे के कोई अनरो हुस्य इम चिंतवती नगर मांहि आव्यो ते तले * कोई सगो मित्यो तिथे इसौने इम कह्यो श्रेष्ठि ताहर पुत्र तुम्हारो नाम प्रगट कखो वलतो श्रेष्ठ पूछो ते किम तिवारे तेथे कह्यो तुम्हारी संच्यो धन विव्यो घणो वस्तु उतरी आज नगरमांहि वोजी व्यापारकोर नवी इसो सांभली येष्ठि घरे आब्धीघरने हार घण लोक मिख्या दौठा वांणि यानापुचाने
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०१०१४मा भाग
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उ.भाषा प्र.३
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8 वस्तु सांभलौर आवे के वेष्ठिने देखि दौकरा प्रमुखसा मुहा आवौ मिल्या आगत स्वागत पूछौ घरमांहि पाखी दौकरा पूच्या ए वडो व्यापार तुम्हे * 8 किहां थी मांद्यो तिवारी पुबे कयोतो ते रत्न वदले एतलाकिराणा लोधा के अम्हे जाणु छ घणोला भ हुस् तिवारे वेष्ठि कहा ते रत्ननी डावडी * मुझने देखाडी जेतले डाबडी दौठो ते तले मुझंगत आवो पद्यो जौवने धन ऊपरि एहवो मोहले इणे अवसरे शौतलोपचार कौधां चेतना वाहुडौ -
श्रेष्ठि वेठो थयो ए डावडो माहरो तेणेज रत्ने करी भरी तिवारी दौकरा तेडा वडी भरौन सकोई किहां थौ भरे जे विण जारा न जाणोई किहां ना 8 तेहना नाम पुण न जाणोई जिहां गयाते पुण ठाम न जाणोई तिहां गया ते पुण ठाम न जाणीइ एहवोदृष्टांत गाढोदोहिलो तिषार श्रीगुरु कहे कदाचि तेडा बडी रत्ने भराई परं जे मनुष्य भव लही प्रमादवसे हारवौई ते लहतां गाढोदोहिलो एतले पांचमो दृष्टांत घयो ।५॥ हिवे छट्ठी स्वप्ननी दृष्टांत कहे छे एक नगर मूल देवसे नामे राजकुमार हुतो ते वाल पणे भणव्यो बहुतरि कलानो जाणहुवी अनुक्रमे योवन वय पोहतो कर्मने वसे जूवानी व्यसन
तेने उपनी तिण विसनने प्रमाण लोक माहि सकलङ्क हुश्री जे भणी कह्यो नह घटा कर पंडुरा सजण दुज्जण हुब सूना देवल सेवीये तुपसाये * जूय २ इण कारणे जिहां जिहां जाई तिहां विश्वास कोइ न कर तिवारे मूल देवे इसी चिंतच्यो मुझने इहां रहता थोभा नहीं यतः माणिपण्डिष्पजे * * विण सणुती देस मावईज माहुज्जण करपल्लवे दंसिज्जत भमिज्ज ।। इसो विमासौ देशांतर भणी नौकल्यो यतः दौसे विवहचरियं जाणिजई सयण
दुज णविशेषो अण्याच करिनजे हिंड जे तेण पुहवीए२ देशांतरे भमतां उजेणि नगरी पायो तिहां कलावंत देवदत्ता वैश्याने आपणी गुण देखाडो रंजवो मांही माहि राग जपनो तिहां रहिवा लागी अने एक गणिकावोजी तेहना घरनी गरढी अकाते मनमांहि घणु दूहवाई पूणे अवसरे ते गणिकाने घरि अचलइसे नाम व्यहारीयो आवे छ तेहने जे जोइये आदि कपूर अंतर लवण ते व्यवहारीयो आप तेह भागलि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० .४१ मा भाग
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है वोजौ अक्काहतो तेणे कह्यो अहो अचल जेणे गुफा केसरि वस्यो करिकुल केरो काल आलसियाल तिहां करे सिंह नही हते स्याल ॥१॥ इस कारण उभाषा
जिहां तु आवे विहां दरिद्री एक मूलदेव पावे तेसाथै सहित रमे खेले ए ताहरी समर्थ पणो केहो अन्हे देवदत्ता वारी पर गुण गहलोछती मानाइ * नही इसी सांभली अचल व्यवहारियो मनमांहि रोसावि एकदा देवदत्ताने घरि आवी केतली एकवार रहो जाते इशी कयो हु गामांतरे सिधावी आवु'
कुं दिन पांच सात लागि स्य इसी कही अचल नौकल्यो ते तले मूलदेव तेहने घरि आव्यो निश्चंत पणे शास्त्रनी गोष्ठि विनोद करिवा लागोदेवदत्ताई पिण कहो अचल व्यवहारो यो गामन्तर सिधाव्यो के इसी जाणि निर्भय छतो तेहने घर रात्रि ने समे रह्यो जेतले प्रहर एक रात्रि बउली ते तले केत * लाइक पुरुष सहित हार आयो एहवी कहो कि वाडि उघाडी इम सांभली देवदत्ता ते मूल देवने कह्यो तुम्ह ढोलीया हेठली केतली कवेला रही जेतले
व्यवहारी यो रहां आवी जाइ पछे नौकल ज्यो इम को हुते पत्यक नीचली लुकी रहा. एहवी अवसर उलख्थी यतः तम एव हि जानाति समयं ना O परो जनः दोपशत्रु दये जावे तममाश्रित्य तिष्ठति १ तेतले असल मांहि आयी वली अकाई भेद सर्व जणव्यो ते आणी पलाज उपरि आवि बैठी
देवदत्ताते आगलो उभी रहौ तेतले व्यवहारौये का अम्हे गांम भणी चाला हुता परं शकुन एहवो थयोतिण पाछा वला हिवे ते शकुननी उपद्रव
उता रिवा भणी काई उपाय कौधो जाइये तिवारे देवदत्ताई का स्वामौ उपाय जाणो ते करो तिवार श्रेष्ठि कन्यो एकहांडिउन्ही पाणि करो त्रांन* * कोजस्ये तत्काल ते करी आण्यो तिवारी तेणे कह्यो पलाजपरि वैशी खान कोज स्यै स्वामी ए पलाक कांविणासो बेष्ठि कह्यो पलाङ्क घणा करावी *देस्य इम कही तिहाज बैठी हांडी माथे घालवामांडी तेथिपाणी मूल देव ऊपरि पडिवालागी पक्के कलतीर पाणी पलाश ऊपरि रेडवा लागी ते जिम मूल देवने शरीर लागे तिमर आधी पाछी था ती जाणी श्रेष्ठि कही अरै पलाश हेठलि स्य के कूतरी अथवा बीजा कोई तेतले नौचली जी
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ.भाषा
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वतां मूलदेव देखो पुरुषां कन्हे सरडावी कढाव्यो यष्टिमुष्टिप्रहार घणा कौधा परं साहसपणो मूक्यो नहीं एहवी देखी इम जायो कोई उत्तम वंसनी पुरुष उपनो के इशो विमासो श्रेष्ठि मुहावी तेह प्रते कयुं जिम तुनेमुकुछु तिम तु पिण मुझने मूको जे एहवीवचन सांभलो तिहां धौ नौकलो एहवो मान म्लान जिहां थावे तिहां किम रहिये इम विमासौ देशांतर भणी निकलयो कन्हे सवल पुण नथौ तथापि चालो जातां २ आगलि अटवी आवो ते मांहि पइठो एक ब्राह्मण संघाते मिलयो ते साये जातां वे पीहर हुया तेतले एक तलाव आव्यो तेहनौ पालिवेठा ब्राह्मण आपका अकेला आहार कौधो परं मूल देवने कांई आप्यो नथौ तिवारे तिणि चिंतव्यो ए विहाणे मुझने देशौ इम करी पाणी पौने आघाचाल्या
दीवमे पिण तिमन ब्राह्मण मलदेवने चिणि लंघन थया चोथे दिवसे अटवीई प्राति पाव्या तिण अवसरि ब्राह्मण का कोई अनेरे * मार्ग जास्थतिवार मूलदेवे का ताहरो स्य नाम ब्राह्मण का माहरा वेनाम छे माता पिता नो दोधु निzण शर्म तिवारी तेहने कहा 'जे मूल * देव मोटी हो सांभले तिवारे तु वहिलो प्रावो जे यतः जे गुण कोधे करे किसी निहोरी तास अवगुण कौधे गुण कर हु वलहारी जास १ इण * कारण मूलदेव उत्तम पुरुषने अवगुणौ नी पुण गुण ले इम कयो मुझ धको जहवा उपगार थासौ ते करिस्यु' इम कही आप पण वे ना तट नगरभणी * पंथ पूछोने चालवा विचालि एक गामो देखि मांहि पइठो तिहां सघले थरे भम्यो परं थोडा उडदनावा कुला लहीं गामथी पाछी वली तलाव भणी
आवतां गांमसम्मुख आवती मासखमणने पारणे ऋषोखर मौलो ते साक्षात् धम्म मूर्ति विख्यात कौर्ति मलि मलिन गात्र पानदेखिही जहरखी तीण प्रदक्षिणा देईवांद्या इसो मनमांहि चिंतवा लागी ए महांत ऋषिश्वरएगामगाहि आहार न पांमे तेभणी लोक सत्व रहौ त अदाता तिणकारण हुबलो आगलेरे गाम आहारलेस्य आजजमे उडद लाधाई ते ऋषीश्वरने आपस्य इम चिंतवौ कहिवा लागी ऋषोखर मुझ कहे उडदनावा कुलाछे
EXKAKKOREKKKKKAKKKEKKKKK6*
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ. ४१ मा भाग
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8 ते तुम्हे लगी तिवारे ऋषिवर सूझती जाणो आहारलौधी तेदेइने अत्यंत उनास पांम्यो वारंवार साधु पाखतौ प्रदक्षिणा देता एहवा बेद मुखे भणेचे ते केहा धवाणं खुनराणं कुम्मा साहुन्ति साहु पारणए वार २ एपदाकहती जाणी सासन देवता आकाशमंडल आवौ वाली अही मूलदेव आगलो विहुपदे जे मांगस्य ते आपस्यू एहवा कह्या अनंतर मूलदेव कह्यो माहरे सर्वपछुती जे एहवा ऋषिश्वरनी दर्शन थयों तिवारे कह्यो देवता नो दर्शन नि:फल न वावै यत: अमोघा वासरे विद्युदमाघ' निशिगर्जितं अमोघं च मुनि र्वाक्य मनाचं देवदर्शन इमताहरे पात्रदान संतुष्ट घई तिबारे मूलदेवका गपियंच देवदत्तंरज सहमंचहत्यौ१ एहवो वचन शासण देवताई प्रमाण करी आपण ठामि पहुतौ तिहांधी मूलदेव आधो * चालयो विचाले आहार करोने संध्याकालि बनातटनगरने परिसरि एक धर्मशालाई तिहां आवौ रात्रिवाशी रह्योतिहां घणा पंथी आवीर एकठा हुवा
पाछलो केतलो एक रात्र छतो मूलदेवचंद्रमा मुखमांहि प्रवेश करती दौठो देखौने जाग्योतेतले तिहां एक वौजी कापडी सूती पिण चन्द्रमानो स्वप्नी * दोठो देखिने ऊव्यो अत्यंत गाढि स्वरिवोजा कापडीयां कम्हेजइ पुछो वालागी पही कही एहना स्थफल थास्यें तिवार एक कापडीयो वालयो अरे
तु एतलानि निद्रामभांजो विहापामाहि एकमाटो रोटो घृत गुड सहित लहिस्ते मूर्ख एतलेज हर्षित हुओ अरे मेरुडो स्वप्न दौठी जेहनी एहवा फल थास्य इशा सांभलि मूलदेव चिंतव्यो अही वापडे भालपणे कहौने फलनोगम्यो एहवा मुर्खपणाई नही करु इम चिंतवी ती जागतो जरा प्रभाति एकवाडो तिहां घणा फल फूल देखि मालीने सहाज्य देईने रजव्यो जिवारे मूल देवजावा लागोते तिवार मालीये घणा फूल अपूर्व फल पाप्या तेलेई नगर मांहि स्वप्न पाठकनो घर पूछतो एकनसं केते आव्यो तिहां हारि घणाचट्ट भह सपरिवस्यो तेहने भणावतो वैठा देखौने नमस्कार करि पागलि फल फूल ढोई अवसर जाणी पूच्चो स्वप्नफल तिवारे ब्राह्मण सांभलौ मूल देवप्रते बोल्यो भोजन अनंतर कहिस्ये मूलदेवि का जिवारे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१ मा भाग
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तुम्हे आदेस देशी तिवार संभलोस्ये इम कहो उठतो धणे आग्रहे भोजन भणी राख्यो भक्तिपूर्वक जौमाडौ सभामंडपे बेसारी कन्यो जे माहरी 8 कन्या परणें तो एहने फल कई एहवा सांभली मूलदेव चिंतवा लागी अही भाग्यनी उदयठांमजावतांसगपिण मिलयो इणे कारण हर्षपाम्यो ॐ ब्राह्मण तिणे ज दिवस परणावौने स्वप्न फलएहवा कयो आज धको सातमे दीवसएगांमनी राजा था इसि ए वचन तहति करी मांन्यो सुखे तिहां
रहितां सातमे दौवसते नंगरनो राजा विणठी परं तेहने पुत्र काई नथी तभणी राज्यना प्रवर्तिक मिला हाथौ वोड शृंगारौ पउतार असवार पाखे माकला ते तिहांथको देवताने अनुभावि नगरमांहि बई वाहौर नौकलया क्रौडा हेते मूल देववाडी मांहि आवी चंपाना वृक्षनौचलिका याई आवोकल सढा लिगजेंद्रे सूडादंडस उपाडौ कुभस्थले वैसाखी छत्र आपणि विकास पाग्यो चमर चलवाला गाइयो खारवकौधो गाजते वाजते अनेकदसुपरि वखो नगरमांहि पईठी वीरसेन राजाई सोनाम दौधो राजाभिषे कहयो राजाधिराजा राज्य पालिवालागी तेहने प्रताप करी सीमाडा राजा आपण प्रावी २ मिला चिदिशि प्रसिद्ध धया उजेणिना राजा सहित प्रतीमांडी देवदता अत्यंत सरम जाणौ तिवार' तिहां तेडावी पटरांणी थापौ तिहां अचल व्यवहारीयो देशांतरे भ्रमणकरतो तिहां आव्यो साथ नगरने परसरि उतारि भेटलेई राजाने मिलवा आष्यो राजा इंते बोलख्यो परतणे राजा ओलख्यो नही राजाई मान सनमान देई अई दाणकरी मुक्यो अनेतेसाचे दाण करिवामाडवौया मोकलया तेहने वस्तु देखाडो तिण व्यवहारौई लोभनेवसे गाठडि गर्मित इति तेन कही दाण चोरी पकड़ी मांडवीए एक गांठि उखेलौ जोर मांही अनेरौ २ बहु । मूला वस्तुनी जाणौ चोरनी परे वाइवांधी तोडीदौन मुख राजा आगलि आणी उभी राख्यो राजाई कयो वाणीया लाभधौ वूडे अईदाणमंकको * तो पिण चोरौन छांडे हिवे राजानौ आंण भांगौतेनी दंड तुम्हने प्राव्यो तिवार अचल गाढो वौहवा लागी थरहर धूज्योछे जाणछे धन गयानी थोडी
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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उ० भाषा बात परंजीवितव्यना संदेह थयो एहंवो देखो राजा बंधन यो कुडाव्यो पहिराष्यो वस्त्र तिवारे देवदत्ताइ कछु' अचल मूल देव राजा श्रापणी वाचा थको उरण थयेोर्छ' तिवारेना बोल तुम्हे सांभारो देवदत्ता नाघरसांहि तुम्हे इम का जिम तुम्हने मूंकु कु' तिम तुमुकने मूकीजीए प्रस्ताव जाणिज्यो तेह' देवदत्ताएमूलदेवद्र इम सांभली पगे लागौ खमाव्यो राजाइ सदांण मूको विसज्यों ते कुशलि आपले घर गयो ते ब्राह्मण निष्ण शर्म मूल देवराजा हओ सांभली तिहां आविने मिलो तेहने एक गांम देव अदृष्ट सेवक करो मोकलगे इस प्रताप दिनकर सरौखो दीपती राजा तिणकापडौद्र' सांभली पछीताव्यो में चंद्रमारा खनरोटलामांहि अलिनो गम्यो मूल देवने इस परिफलो जे बलौहिवे चंद्रमारी स्वप्न देख' मूल देवनीपरि सफल करु इसो जाणि रात्रि चिंतवीर सूये वायरी आहारला परं स्वप्ने चंद्रमाकि मदेखे ए दृष्ठांत दोहिला तिवारे गुरु कहे कदा चिचंद्रमानो स्वप्न हारव्यो वलौ लहे परं मनुष्यजन्म आलिनो गम्बो प्रमादवसे लहतां दुर्लभ एतले दृष्टांत थया ६ हिवे ७मो चक्रनो दृष्टांत कहेको इन्द्रपुर नगरमें' इन्द्रराजा तेहने २२ बेटा तेहवे राजाइ मन्त्रौनी पुत्री परणौ तेहने पुत्र हो तेहनो सुरेन्द्र दत्त नाम दौधो एकदा कोइ वचन छलि राजाइ मन्त्रोनी पेटो छोडौ पौहर रहे मन्त्रीवर आपण वेटीनो बेटो भणायो सास्त्रकलाइ पारंगांमी थयो तेहवे मथुरा नगरौये राजा जित शत्रु तेहनोवेटोनोवृत्तिकन्या तेंद्रम कहे जे कोई राजा राधावेध साधे तिका परण ते तिहां जितशत्रु राजाइ राधावेधमंडाव्यो इम एक मंडप मंडायो मोटो तिहां एक मोटो स्तंभ रापीते स्तंभने मस्तकें एक काष्टनी पूतली मांडीने तेहने तिखे आठ चक्र चार चक्र सृष्टि फिरतां च्यार चक्र संहारि फिरता एहवे मिलियंत्रनो उपाय करो माचारख्यांने तिहां देस २ ना राजकुमार तेडाव्या तिवारी इन्द्रपुरनो राजा आपणा २२ बेटा सहित आव्यो मन्त्री पिस वेटीनो बेटा संघाते भाख्यो सर्व राजा राधावेध साधे पिणकोण होथोन सधाइ तिवारी मन्त्रो को खांमी तुम्हारी
अ०३
१४३
PURRARENES
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राय धनपतसिंह वाहादुर का श्र०सं० उ० ४१ मा भाग
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अ०३
उ भाषा
* पुत्र माहरि पुत्रौई मण्यो ते साधमेते राजाई ते मान्यो तेणें कुमरे तत्काल राधावेधने स्तम्भजई हेठि भाटी कडा हिचढावी तिहां तेलऊकलती
भ्रमरावर्त भमती करी ते तिहां ऊभी रहौने तेलमाहि प्रति विंव आठचक्र स्तंभ पूतलौनौ रतौ दृष्टि उपहरौ मुष्टि धनुखवाण चढावी आठचक्र विचाले करौने काष्ठनो पूतलौना वामी नेत्र तेहनौको कौवांधौ तेनिहति कन्या परणौ राजा प्रधान जपरि राजी इवो जिम सूरेंद्र दत्त कुमार एक वार राधावेवसाध्यो परवी जौवारे न साधे एहवा एदृष्टांत जाणौ वाह्य देखाची हिवे अंतरंग कहेछ जिम ए मंडपति मए संसार जिम स्तंभ उपरि काठनी पूतली तिम मनुष्य जन्म विषे तत्व बुधि जे आठचक्रत आठ कर्म जे सृष्टि संहारते शभा शुभ जाणवा जेहे ठिकलर तोतेलते कषायादिक प्रमाद ते मांहि वर्ततो निरती दृष्टौ ऊपहरी मुष्टौते शुभध्यान तेणें करी पाठकर्मने विवरे थयेहु ते मनुष्य जन्मने विषे तत्व बुद्धि पामते पूतलौनीकी कौवे धेएपुण दोहिलो एकवार कदाचिलही पा लिहारवेता वो जौवारलहतां दुर्लभछे एसातमी दृष्टांत धयो ५ हिवे आठमी कूर्मनो दृष्टांत कहेछ जिम कोई एक माटो द्रह अगाधजल पूरि घणे विस्तारछे तेह अपरि आठ सेवा लना पुड वस्याले तेह माहि अनेक जलचर जीव मच्छ कच्छप * पाटौ नक्र चक्र गाहक मुसमार प्रमुख जौवना घण कुल वसैले तिहति ट्रहने पासे एक वौलनी वृक्षर्छ तेहने विषे अनेक फल परिपक्वछे
तेमाहिलोएक फल टुटौने द्रह मांहि पयो आठसेवालना पुड भेदाणा माटोछिद्र धयो तेतले एक काछिवी गरढो कर्मने योग भमतोर तिण * ठिकाणे आव्यो तिहां अदृष्टपूर्वक छिद्र दौठो देखिनेइसोचितवौवा लागी एस्युंदीसेछे आज लगए दौसती नही इम जांणि तिहां मूखकाढी जाइ
वालागी इणे अवसर प्रासाजी पूर्णमानी राबिछे तिहां सालेकला संपूर्ण चन्द्रमा ग्रहगण नक्षत्र ताराएमंडित निर्मला अमृतश्चावी नयनानन्द कारी जगत्जन तापहारी एहवा दौठो देखिने मनहाहि अत्यन्त आश्चर्य पूरि थयो चिन्तविवा लागी मोठी जे मोठी जे पांचे दौठो इण कारण
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.उ. ४१ मा भाग
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.भाधा
३
१४५
. १ मा भाग
एहवा कौतुक आपणा कुटंब सघलाने देखाडु तो रुडों एहवी चिंतवो गृहमांहि जई सकल परिवार प्रते कयो अरे आवोज़ि तुम्हने अदृष्ट पूर्वक एक आश्चर्य देखाडु एहवी सांभलौ काछिवानिकोड चालि द्रह माहि अत्यंत कोलाहल करौ चोभ जपनो तेतले से वाल उपरि वस्यो छिद्रमुद्राणो काछिवो उरहो परहो भम्यो परं ते छिद्र नलह जोईर थाको विलखी थयो परं ते वले वौजी काछिवी वोलयो तुम भूला कहो तुम्हने चित्त भ्रम थयो कोई कहे सतरोया वहतरोया एहवाज हुवे एहवा कुटंबना वचन सांभलो चित्तने विर्ष पश्चात्ताप करतो विचार हु साचो छतो एण कूडो कौधो हि कोइ ते उपाय के जिण ए पश्चात्ताप मिटे जैबलि एहवी आश्चर्य देख अने एहने एह देखाडु तो साची धाउ' एहवो जाणि वारंवार तिहां आवि जीवे पर किहां थो देखे एह वाह्यदृष्टांत दुर्लभ कह्यो हिवे मनुष्य भव उपरि देखाडौयेछे जिमए द्रह तिमएसंसार जिम पांणि तिम जन्म मरण जिम आठ पुडो सेवाल तिम आठ कर्म जिमका छवी तिम ए संसारी जीव जिम वृक्ष तिम श्रीगुरु जिम फल तिम गुरुना वचन जे छिद्र ते कर्म विवर तेण जिम चंद्र प्रदर्शन जिम सकल सामग्री सहित मनुष्य जन्मनी लहिवो जिम तेणे काविहास्त्री वलवे दुर्लभ कौधो कदाचि वली ते पामे परं मनुष्य जनम प्रमादे हाथी गाठो दुर्लभ के ए सहु मिलौ ८ दृष्टांत धया हिवे नवमो दृष्टान्त झसरनो कहे के असरने समिल दृष्टांत ते किम लोक मांहि असंख्या तस मुद्र के
ते माहि सर्व थो मोटो स्वयंभू रमण समुद्र के काई एक झूसर धको समिल जूई करौ पूर्व समुद्र मांहि असर घाले पश्चिम समुद्र समिलते समौलवली * तिणजभू सरे तिणेज छिद्र अावोवेसे दीहिलो दृष्टांत ते समिल झूसर एकठा किम मिले तिवारी गुरु कह कदादि कहीलनौठेली वायुने पूर आवतौर * कदाचि झसरा स्यू' समिले परं जे मनुष्यनी भवलहि प्रमाद वसे पालिनी गम्या वली लहतां दीहिलो एतले नव दृष्टांत थया ॥६॥ हिवे १. मी परम 8
मायनो दृष्टांत कहोये के ने किम जिम कोई सोल जाति रव एकठा करी तेहनी एक मोटी स्तंभ अतिविग्यान सहित करी तेस्तंभ दयी दिशि उद्योत
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं
१८
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न्याचा सती जातः ब्रह्मदत्तेन तयो रनाचारीज्ञात: शूलाप्रीत पिष्टमय कुकुट कुकु व्यादि सम्बन्ध फलदर्शनेन ताभ्यां स्वानाचारभौताभ्यां कन्या ब्रह्मदत्तस्य परिणायिता अतुटहच कारितं तावता धनु मन्त्रिणातयो: कपटं जातं जतुरटहात् सुरङ्गा खानिता सुरङ्गाहारऽवयं स्थापित मावस्य वरधनुनामस्तत् स्वरूपं ज्ञापितं सुरङ्गामार्गश्च दर्शितः ब्रह्मदत्तस्य वरधनुरनुचरः लतः अन्यदा माट प्रेरिती ब्रह्मदत्तः कन्यासहिती जतरह समः वरधनुः प्रत्यासन एव सुप्तः मध्यरात्री मात्रा ज्वालितं गृहं उस्थिता ब्रह्मदत्त: स्तस्य वरधनुना सुरङ्गामार्गो दर्शित स्तती निर्गत्व वरधनु मित्रेण सह बह्मदत्तो अखद्दय मारुह्य दूरदेशेगतः अत्यन्त पधश्चमादश्वयं मृतं पादचारण मित्रेण सह ब्रह्मदत्तः पृधियां भमति एकदा दौर्घपृष्ठ प्रेषित सुभटं वृन्दं दृष्ट्वा वरधनुः पृथगत: कुमारस्तु एक एव भ्रमन् केनचिहिग्रेण दृष्टः तेन सहाट वौमुत्तीर्णः पृथग् व्रजन्त विप्र प्राह कुमारः भी यदा मम राज्यप्राप्तिः स्यात्तदा त्वया गन्तव्यमिति अथ कुमारी महाराजाजात: चक्रवर्ति पदवी प्राप्तः तदानीं आगतः स ब्राह्मण: उपानत् ध्वज प्रयोगण मिलितः करे जाणे सूर्यनौ कोडि उगी उजवा लोकरे एहवो स्तंभ करौ वली तेढाही ते रन जूजूयां करि गाढा सूक्ष्म वांटौ चूर्ण पर सूधी सरौखो करौ तिण चूर्णे वंश नो नलौ भरो मेरु पर्वतनो चूलिका उपर चढ़ौ फंक सु उडाईने ते पुगल सगले विखेर किहां ईलगार मात्र पिण चूर्ण पद्यी न दौसे तेतले वले * कोई कहे ए परमाणु आवौ एकठा करौ पंच वर्ण रत्न मेलो बलौ तेहवीज स्तंभ करौ तिवारे स्तंभ वलतो तेहवो थातां दोहिली तिवारे गुरु कहे कदा
चिति देवताने अनुभाव ते थाये परं परमाण लगौ देवतानो दृष्टौ नथौ तिण कारणे ए दृष्टांत दोहिलो तथापि कदाचि ए सोहिलीडे पर जे ४ मनुष्य भव लहो प्रभाद वसे आलि हारव्यो वलतो वलौ लहिता दीहिलो ।१०। एवं दश दृष्टांत मनुष्य जन्म उपरि कया एहवो जांणि मनुष्य
भव प्रार्यक्षेत्र श्रावकनी कुलदेव गुरुनी सामग्रौ पांमी श्रौजिन धर्म विषे प्रमाद टालिवो ए दश दृष्टांत संक्षेपे लिख्या इति दश दृष्टांत जाणवा ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०४०४१ मा भाग
भाषा
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05.
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चक्रवर्त्तिना उपलक्षितः कुशलं पृष्ठ प्रोक्तच मनाभौष्ट मार्गय सप्राह ब्राह्मणी पृष्ट्वा मायिष्यामि गत स्तस्थाः समीपं कथितवानेवं चक्रवर्ती मम तुष्टोस्ति किं मार्गयामि तया विमृष्ट प्रवर्धमानः पुरुष स्त्रयाणामपघातकः पूर्वोपार्जित मित्राणां दाराणामथवेश्मनां १ प्रति विमृश्योक्त किं सन्ताप कारिणा बहुपरिग्रहण प्रार्थय भरतक्षेत्र प्रतियहं भोजनं दीनारयुगलच तता विप्र प्रागत्य तथैव चक्रिणं प्रार्थयामास चक्री हसित्वा उवाच भो किमनया विडम्बनया देशग्राम भाण्डारादि प्रार्थय सतदेव प्रार्थयति नान्चत् किमपौति चक्रिणा विचारितं जो जत्ति अस्म अस्थस्म भायणं तस्म तत्ति होइ बुडेवि दाणमेहे न डंगर पाणियं ठाइ १ इति विचिन्त प्रतिपत्र तञ्चक्रिणा प्रथमदिन स्वगृहे सकुटम्बस्य तस्य भोजनं कारितं दीनार युगलच्च दत्तं एवं स ब्राह्मणो भरतक्षेत्र सम्बन्धि समस्तगृहेषु भाजनं गृहीत्वा पुनश्चक्रि रहे भोजनं कर्तुमायाति कदाचिद्दिव्यानुभावात् आयात्यपि
परं मनुष्यावताराअष्टः पुनर्मनुष्यावतार ना यातुं शक्नोतीति मनुष्यत्व दुर्लभतायां चोलग दृष्टान्तः प्रथम: १ पाशाग दृष्टान्ती यथा गालदेशे चणक 3 ग्रामास्ति तत्रचणक ब्राह्मणः श्राद्धः एकदा तस्थ गृहे साधवः स्थिताः तदानीं सदंष्ट्र स्तस्य पुत्रीजात: दर्शित: साधुना साधुभिरुक्त सदंष्ट्रत्वेनासो
राजा भविष्यतीति पित्राविमृष्टं असौ राजा भूत्वा नरकं गमिष्यतीति भौत्वा तस्य दंष्ट्रा धर्षिता पुनस्तादृशः गुरूणां दर्शितः तैरक्त एकपुरुषान्त रिता राजा भविष्यति तस्य बालस्य चाणिक्य इति नामदत्त अथासौ वईमानश्चतुर्दश विद्या स्थानानि पठितवान् कालान्तरेण परिणौत: अन्यदा चाणिक्यभार्या भाविवाहे गता तवान्यापि स द्रव्य पतिकास्तद्भगिन्यो बह्वः समायातास्ताश्च मा पिढ भ्राभिर्बहुमानिताः इयञ्च उपेक्षित प्राया. खिन्ना एवमचिन्तयत् मम पत्युनिईनत्वेन एते पित्रादयोपिमा नमन्यन्ते खिवासती पश्चादा याता चाणिक्येन तस्याः खेद स्वरूपं दृष्टं तया पिल गृहे सर्वांसांसगोनिकानां भगिनीनां मानं खापमानञ्चोक्त चाणिक्यचिन्तयति अलिब पि जोधण इत्तयस्म सयणतणं पयामेइ परमस्थ वधवेण
राय धनपतसिंह बाहादुर का बा•सं• उ. ४१ मा भाग
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4
१४८
उ.टोका ०३४ विलज्जिज्जइमोण विहवेण १ तथा कज्जविहणाण नेही अस्थ विहणाणगी एवंलाए पड़िववेति निव्वहण कुणन्ति जे तेजए विरला २ इति चिन्तयित्वा
द्रव्योपार्जनार्थ नन्दराजाधिष्टिते पाडलोपुर गतः तत्सभायां पूर्वदिग्न्यस्त आसने निषसः तत्र नन्देन समं कश्चिब मित्तिकस्तत्रायातः तेनोक्त एष ब्राह्मणो नन्दवंशस्य छायामतिक्रम्य स्थिती स्तौति तहाक्य श्रवणाद भृत्यै रुत्थापितो दितीव आसने उपविष्टः प्रथमे करवतों स्थापयति तीये दण्डक चतुर्थे जपमालां पञ्चमे यज्ञोपवीतं एवञ्चेष्टां कुर्ववसी नन्द भृत्य : शठ इति कृत्वायध्यादिभिराच्छोटिती हेषमापन स्तदानौमेव मुवाच कोशेन मृत्यैश्च निबदमूलं पुत्रैश्च मित्र श्च विवृत शाखं उत्पादच नन्दं परिवर्त्तयामि महाद्रुमं वायुरिवी अवेगः २ ततीबिवान्तरिती राजा भविश्थामौति संसाधु वचः स्मरन् भाग्यवन्तं पुरुषं विलोकयन्मे दिन्यां भ्रमति अन्यदानन्दस्य मयूरपालकाणां ग्रामेगतः परिबाजक वेषेणचाणिक्यः तत्र मयूरपालक हृदस्य गर्भिखाः स्त्रियायन्द्रपानदोहदञ्जातं तयापित्रादीना मुक्त पित्रादिभिर्य हागतस्य चाणिक्यस्य उक्त चाणिकानोक्त अहं बुद्यादाहदमस्याः पूरयिष्यामि यद्यस्याः पुत्रमष्टवार्षिक मददततै स्तथेति प्रतिपन्न चाणिकान सासच्छिद्र मण्डपे शायिता तन्मुखाभिमुखोच्च स्तर प्रदेशे शर्करामिव दुग्ध भृतस्थाल प्रयोगा विहित: तदिन्दवः तस्यामुखे पातितास्ततस्तद्दोहद पूर्तिर्जाता कालक्रमेण पुत्रजातस्तस्य चन्द्रगुप्त ईति नामदत्त यावत् चन्द्रगुप्त स्तव वईते तावचा विकयोपि देशान्तर धातुर्वादादिकं शिक्षयित्वा पुनस्तत्रागत: स चन्द्रगुप्तो दारिकैः समं राजनीत्या क्रीड़ा कुर्वन् दृष्टः तत्र समागत्य सबालकवाणि कोन याचितः बालकेनोक्त गांग्रहाण चाणिक्येनोक्त गोस्वामी त्वां ताड़यिश्थति तेनोक्त वीरभोग्या वसुन्धरा चाणिकान ज्ञातं अयं महान् उदार चरित इति ज्ञात्वा कस्यचित्प्रत्यासन्न पुरुषस्य पृष्ट' अयं कस्य सतः तेन मातुर्दोहद पूरक' चाणिका' उपलक्ष्य तव पुत्रीयमित्युक्त' चाणिका उवाच बालचल मया समं त्वामहं राजानं करोमि चलितमाणिक्ये न समंबालः परदेश शिक्षितधातुर्वाद द्रव्यबलेन खाकी धनीमलिस: गत्वा पाटलि पुत्र रुई
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं.उ.४१ मा भाग
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उ० टोका
च० ३ १४८
ERXXXX
नन्दो बहिर्निगत्यतेन समं युद्ध ं चकार भग्नयाणिकाः मेलितो लोकः सर्वोपि इतस्तती जगाम चन्द्रगुप्तं लात्वा चाणिको नष्टः नन्दपुरुषा अयानुरुढ़ा स्तं विलोकयन्ति एते त्वागताः अहं तु सवाल: पादचारी अश्वारूढ़ाणामे तेषां पुरः कयास्यामीति ध्यात्वा सरस्तौरस्थितं रजकं दृष्ट्वा चाणिका: प्राह भी रजकमारणाय नन्दभट्टाः समायान्ति तद्वचः श्रुत्वा रजको नष्टः चाणिकाः स्वयं रजको जातः चन्द्रगुप्तस्तु सरसि प्रवेशितः एकोनन्दा ववारस्तत्वा यातः तेन पृष्ठ भो रजकः चन्द्रगुप्तः क्व गत इति रजकः प्राह अस्मिन् सरसि प्रविष्टः अखवारेण स्व घोटकस्तस्यार्पितः खमपि तस्यार्पितं स्वयं तु सरः प्रवेशाय यावत्सज्जो भवति तावता ते नैव खनेन स चाणिकान विधाकृतः पश्चात्सरसो निष्कासितश्चाणिकयेन चन्द्रगुप्तः श्रखम धिरोहितः पथि गच्छता चाणिकेन चन्द्रगुप्तः पृष्ठ: भो यस्यां वेलायां त्वं मयाऽखवारस्य दर्शितः तदा तवमनसि किमभूत् चन्द्रगुप्त नाक्त' मयैवं ज्ञातं ममहिताय एवं ततो दर्शयन्त्रस्तोति चाणिकान ज्ञातं योग्यो यमेव पचाच्चन्द्रगुप्तः क्षुधार्त्ती जातः ततथाणिक्येन कापि स्थाने सद्यो भुक्तस्य वटुकस्य जठरं द्दिधात्य दधिकूरं ग्टहोतं भोजितञ्चन्द्रगुप्तः ततो ग्रामे ग्रामे भिक्षां कुर्व्वन् चाणिक्यो भ्रमति एकदा कस्मि' चिदग्रामे चाणिक्य एकस्या बहाया गृहे भिक्षार्थं गतः तत्र तथा वालकानां भोजनाय भाजने भैरयो चिप्ता एकेन बालेन मध्ये हस्तः क्षिप्तः दग्ध स रोदति तया उक्तं रे मूढ़ त्वमपि चाणिक्यवन्त्र जाणासि चाणिक्येनोक्त' हे मातश्चाणिक्यः कस्मान्मूढ़: तयोक्त पूर्व पार्खानि गृह्यन्ते ततो मध्ये हस्त पात्यते भोजने राज्यग्रहणे च तत् श्रुत्वा गतश्चाणिक्यो हिमवत्पार्श्वे तत्र पर्वत नामा परिव्राजको राजा तेन सह मैत्री कृता वाणिक्येन तस्य प्रस्तावे उक्त ं नन्दराज्य' लात्वाऽईमई त्वया चन्द्रगुप्तेन च भुज्यते प्रतिपन्नं परिव्राजक राजेन ततः सैन्धेन सह हार्वापि चलितौ मार्गस्थ ग्राम नगराणि स्वायत्तोकुरुतः एकदा मार्गे महदेकं नगरमागतं तदुग्गृहीतुं न शक्यते परिव्राजकवेषेण चाणिक्यो नगर मध्ये प्रविष्टः तदन्तर्देवदेवीमूर्त्तयः सप्रभावा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०ड० ४१ मा भाग
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44. .
का दृष्टाः विचित्रया माधया पौरान्विप्रतार्य तासर्वा दूरीक्वताः ततो नगरं होतं क्रमेण स सेन्यौ तौ पाटलीपुत्रपरिसर गती कई तनगरं नन्दी धर्महरिण ३४ निर्गमं अमार्गयत ताभ्यामुक्त एकरथे यावमाति तावत्प्रमाणं वित्तदारामुतादिकं लात्वा निर्गच्छ नन्देन तथैव कृतं एका नन्द पुची रथस्थि तानिर्गच्छन्ती
पुनः पुनश्चन्द्रगुप्त' पश्यति नन्दे न भणितं याहीति सा रथादुत्तीर्य चन्द्रगुप्तरथे गत्वा यावदारुहति तावत्तद्रथे न व आरका भग्नाः अमङ्गसमिति ज्ञात्वा ५
चन्द्रगुप्तेन सा निषिदा चाणिक्ये नोक्तं इमां मा निवारय नवपुरुष युगानि यावत्तव वंशोभावौति प्रतिपन्नं तेन अथ परिव्राजकराज चंद्रगुप्तचाणिक्या * पाटलिपुरमध्ये प्रविष्टाः गता राजरहे राज्यं द्विधा विभज्य रक्षीतं तत्र का विषकन्यास्ति तां दृष्ट्वा परिव्राजकराजः कामविली जात: चाणिक्य न साः
तस्य व दत्ता तस्याः प्रथमं परिष्वङ्ग नैव विषा” जातः यावता चन्द्रगुप्तो विषप्रतौकारं करोति तावता चाणिको न भु कुटिः कृता कर्णे चेमं श्लोकं पठित - वान् तुल्याचं तुलासामर्थ मर्मज्ञ व्यवसायिनं अर्थ राज्यहरं मित्र यो न हन्यात् स हन्यते १ ततश्चन्द्रगुप्तस्तत्प्रतीकाराहरे भूतः परित्राजकराजस्तु मृतः
ततश्चन्द्रगुप्तः संपूर्ण राज्य करोति परं नन्द मनुष्याचौर्येण देशोपद्रवं कुर्वन्ति एकदा चाणिक्यश्चौरदमनोपायं चिन्तयनगराबहिर्गतः तत्र नलदामकुविंदः स्वपुत्व' मत्कोटकैरुच्चारितं दृष्ट्वा कोपात्तेषां बिलं खनित्वा प्रज्ज्वालयन् दृष्टवाणिकान चिन्तीत योग्योयमिति तस्य व तलारत्वं दक्तं पश्चात् स चौरनिग्रह करोति प्रत्युत किञ्चिदुपकारादि न करोति तेन सर्वेपि चौराः प्रकटौकृता: व्यापादिताश्च जातं निष्कण्टकं राज्य अथ कोशार्थ चाणिका उपायं करोति एकदा पाटलिपुत्र सम्बन्धिनी व्यवहारिणो भोजनार्थनाकारिताः भोजनान्ते तेषां चन्द्रहासमदिरा दत्ता ते विलोभूताः तावता चाणिकाः समुत्थाय नृत्यनेवं पठति दोमनधाउरत्ताई' कंचणकुडि आतिदंडंच राया विअमे सत्थी इत्यवितामहोलंवाएहि १ इदं श्रुत्वा परः कश्चित् समुत्थाया जन्मतोपि यन्न प्रकटितं तहदति इतः सहस्रयोजन हस्तिपददेश टंकानां लक्षं अस्ति अत्रार्थे ममापिहोलवादयः अपरः पठति मयातिलाढ कउप्तीस्ति ततो मम
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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१ टीका ते तिला बहुलक्षणा निष्यत्स्यन्ते पवाथै ममापि होलं बादय अन्यः पठति तावन्त्यो मे गावः सन्ति यासां नवनौतेन महागिरिनदीप्रवाही रुध्यते
अपरः प्राह तावत्यो मे वडवाः सन्ति यासां एकदिनजातैः किशोरपुच्छकेथैः पाटलिपुरनभीमण्डलं छादयामि अन्यः प्राह तादृशामशालयः सन्ति * यद्दोजैः प्रत्यहं शालयो नवौना भवन्ति अवार्थे ममापि होलं बादय एवं सर्वेषां बित्तमर्यादा हत्वा चाणिकान यथायोग्य वित्तं गृहीतं अथ चाणिकाः
सुवर्णोपार्ज नापायं चिन्तयन् देवमारराध तुटेन देवेन तस्य जयिनः पाशकादत्ताः चाणिकान तैः पासकैः कश्चिबरः शिक्षित: द्यूतार्थे प्रेरितः स गृहीत सुवर्णटङ्गकस्थालः पुराभ्यन्तरे भ्रमन्नेव वक्ति अहं यदि जयामि तदा सुवर्णटङ्गकं एक हामि मां यदि अन्यो जयति तदा तस्य सुवर्णटङ्गकस्थालमिदं ददामोति श्रुत्वा बहवो जनास्तेन समं द्यतकौड़ां कुर्वन्ति परं हारिमैतव जना आनुवन्ति स तु सर्वत्र जयति एवं पाशक युक्तस्य तत्पुरुषस्य पराजयो दुर्लभ स्तथा मनुष्यत्वप्राप्तिदुर्लभेति पाथकदृष्टान्तः २ धनेति भरतसत्कानि सर्वाण्यपि धान्यानि एकत्र संमौला मध्ये सर्षप प्रस्थ प्रक्षेपः केनचिद्देवेना भिधीयते सर्व एकीकृत्य कस्याश्चिदतिलवाया दीयते तस्या यथा सर्व धान्यानां प्रत्ये क पृथ करण' दुष्करं तथा मनुष्थत्वमपि दुर्लभं ३ एत्ति एका राजा
तस्य अष्टोत्तर शतस्थं भालं कता सभास्ति स्तंभे स्तंभे च १०८ कोणाः सन्ति एकदा तस्य राज्ञः पुत्री राजानं मारयित्वा स्वयं भोक्त मौहति तस्याध्यवसा 8 योमन्त्रिणात्रातः कथितश्च राने राज्ञापि पुत्रा योक्त पुत्रयोस्माकमनुक्रमं न सहते स द्यूतं खेलति यदि जयति तदा तस्य राज्य दीयते य तक्रीडनविधि 8 रयं वर्तते कुमारस्य एकवारंदायो भवति रानो यथेच्छ दाया भवन्ति एवमष्टोत्तरशतस्तंभाना एक काण' अष्टोत्तरशतवारं जयति तदातस्य राज्य
दौयते त्वमप्येवं कुवंति राना उक्त कुमारस्य यथाऽस्य कुमारस्थ एतत्करणं दुष्करं तथा मनुष्य त्वमपि दुर्लभं ४ रयणत्ति एकस्मिनगरे कस्यचिद * व्यवहारिणी नानारत्नानि सं सलोभाव व्यापारयति अन्यदा पितरिदेशान्तरं गतेपुत्र: काटिध्वजथं दूरदेशान्तरीय पुरुषाणां हस्तेतानि दत्तानि जाता:
राय धनपरासिंह बाहादुर का आ-सं० उ०१४मा भाग।
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३
४० टौका * पुवाः कोटिध्वजाः कियताकालेन पिता ग्रहमागत: ज्ञातवान् रत्नविक्रोणनं रोषं विधाय पुत्रानव मचे मम रत्नानि पश्चादापन्तु यथा तत्पश्चादालनं
दुष्करं तथा मनुष्यत्व मपि दुर्लभं सुविणेत्ति प्राटलिपुरात् कला कुशला मूलदेवो राजपुत्रोद्यूत व्यसनात् पित्रापराभूतो निर्गती गुटिका क्त वामन रूप उज्जयनी गतः तत्र तादृशा रूपेणैव तेन वीणकला जनानां दर्शिता विस्मिताजनाः वौणाकलावार्ता सर्वत्र प्रसूता श्रुताच देवदत्तया वेश्यया ततस्तयास्तस्या कारणाय चेटो प्रहिता तया चागत्व एव मुक्त भो वामन त्वां मत्स्वामिनी आकारयति तेनीक्त १ याविचित्र विटकाटि निवृष्टा मद्यमांस निरत निकृष्ट कामला वचसि चेतसि दुष्टातां भजन्ति गणिकां न बिशिष्टाः वामनेन एवमुक्त पि तया चेव्या विचित्रः सामवचनम् हमानौत: देवद तया च तेन समं वीणावादी विहितः वाममेन वोणा कलादिभि देवदत्ताजिता पादयोर्निपत्य एव मूचे भी पुरुष स्वरूपं प्रकटयः अनया कलया ज्ञायते त्वमी दृग्वामनरूपवान्नासि मूलरूपन्त पृथग् भविष्यतीतिवातंरूपं प्रकटय वामनेन वेश्यावचनरञ्जितेन स्वरूपं प्रकटितं सापिभृशं तद्रूप चम स्कृता प्रकाम मागच्च स्वराहतं स्वभोगासक्त चकार अतीवतप्रौति पात्र बभूव अन्यदा पूर्व तस्यां आसक्तवान् व्यवहारि पुत्रोऽचलना मागृह समयातः अकया उक्त वसे इभ्य पुत्र भज मुञ्चेनं निस्व मूलदेवं तयाचोक्त मूलदेवो गुणवान् अयमचलो निर्गुण: अक्कया उक्त उभयोः परीक्षा क्रियते ताभ्यां उभयोः पार्श्वे इक्षवः आनायिताः मूलदेवोनिस्त्वच कर्पूरवासिताः सुसंस्कृता आनौता अचलेन शकट भृत्वा इक्षव आनौताः तथाप्यका वचसा इभ्य पुत्रेण पराभूतो मूलदेवी बेबातट प्रस्थितः अटव्यां गच्छतो मूलदेवस्थोपवासत्रयं जातं चतुर्थ दिवसेकापिग्राम भिक्षायां राहामाषालधाः मूलदेवेन सद्भक्षणार्थ सरसि गचाता कश्चिन्महातपस्वी दृष्टः तदभिमुखं गत्वा निस्तारयमा विस्तारय पात्र व्यादि शहानिमान् भाषान् ग्रहाणेत्युका तेमाषा स्तम्म दत्ता तदा तमाहस सन्तुष्टादेवी गगनमार्गेऽवदत् भी पथिकमार्गय यथेच्छ पदहयेन ततो मूलदेवोऽवदत् धनाणं खुनराण कुम्मासाहुन्ति साहु
RERRRRRRRRRRRRRRORXXXXXXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा.सं.२०४१ मा भाग
TION
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उ० टीका
श्र०३
१५३
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पारणr गणि अच्च देवदत्त रज्ज सहस्रच्च हत्योगं १ तयाचीक्त' दयमपिते सद्यः सम्भवष्यति तस्यामेव रात्रौ देव कुय्यां मूलदेवेन सुप्तेन स्ववदन प्रविश्चन्द्रः स्वप्ने दृष्टः तदानो मेव तत्रैव सुप्त ेन एकेन कार्पाटि केन तादृश एव स्वप्नोदृष्ट: मूलदेवः स्वस्तरादुत्थितो यावत्स्व स्वप्न' विचारयति तावत् सोपि स्वस्वरादुत्थाय स्वगुराः पुरस्तं स्वनमाचख्यौ गुरुरपि त्वमद्य घृत गुडसहित मण्डकं प्रासासोति बभाषे मूलदेवस्तत उत्थाय नगरान्तः स्वप्न पाठक ग्टहे गत्वा धनं विनयं कृत्वा खनपाठकाय स्व स्वपूमाचख्यौ तेनेाक्त सप्तमदिवसे तव राज्य भविष्यतीत्युक्ता स्वपुत्रौ तेन मूलदेवाय परि णायिता अपुत्रो तनगरस्वामी मृतः पञ्चदिव्य मूलदेवस्य राज्य' दत्त' देवदत्ताञ्च गणिकान्तत्रानाय्य मूलदेव राजा स्वराशीचकार अन्यदा तत्र व्यापा रार्थ मागतो चल व्यवहारी राज्ञा मूलदेवेनोपलचितः शक्तमिषेण भृशं पराभूतः खतेजो मूलदेवेन दर्शितं अचल: स्वापराधं चमयामास राज्ञी वसा मूलदेवेन मुक्तः अथ स कापटिकः स्वस्वनानुसारि स्वप्रदर्शनं मूलदेव कुमारं राजानं जातं श्रुत्वा पुनस्ताथ स्वप्रार्थी तस्यामेव देव कु सुप्तः परं तादृशं स्वप्नं न प्राप एवं यथास्य कापटिकस्य तादृश स्वप्रप्राप्तिर्दुः प्राप्या तथा मनुष्य त्वादृभ्रष्टस्य जीवस्य मनुष्यत्वातिदुःप्रापति ६ चक्केति इन्द्रपुरे इन्द्रदत्त राजा तस्य २२ पुत्राः अन्यदा तेन राज्ञा एका मन्त्रिपुवो उठा सा वणिक पुत्रीति परिणीय उपेक्षिता कदापि न भुक्ता एकदा सा ऋतुस्नानं कुर्व्वतो राजा दृष्टा पृष्टञ्च सेवकानां कस्येयं पत्नीतैरुक्तः युष्माकं पत्नी मन्त्रिपुत्रो राजा तदावासे गत्वा सा भुक्ता तस्याः पुत्रोजातः स राजसदृश एव यत उक्त' ऋतुस्रान समयेयं पश्यति नारी तसदृशं जनयति गर्भमिति तथा स्व पितुर्मन्त्रिणो राजभोग स्वभाव गर्भप्रस्तावः प्रोक्तः मन्त्रिणा तु तद्दिनं राजोल्लापाभि ज्ञानादिकं व वहिकायां लिखितं तस्याः पुवोजातः क्रमादृहद्दितः सेो मन्त्रिणैव पालितः कदापि राजोनैव दर्शितः मन्त्रिणा कलाचार्य पार्श्वे ७२ कलाः पाठितः २२ पुत्रास्तु अविनीताः न पठन्ति अथ मथुरायां पुरिजित शत्रु पुत्रौ मिट्टत्ति नात्री कृत राधा बेध
२०
राय धनपतसिंह बाहादुर का अ० सं०ड० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०३ १५४
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वर प्रतिज्ञा स्वयं वर मण्डपे तिष्ठति तत्र २२ पुत्र परि करित इन्द्रदत्त राजागतः मन्त्री अपि स्वपुत्रौ पुत्र' साई लात्वा ते नैवसह तत्रगत: अनेक देशायात राजपुत्रे षूपविष्टेषु सक्स इन्द्रदत्त राजा १२ स्वपुत्रा राधावेध साधनाय उत्थापितास्तैर्यथाक्रमं बाणावली मुक्ता परं मे केनापि राधावेधो साधितः बाणपात द्रव ंस्ततो बभूव सर्वेष्यन्ये राजपुत्राः परस्परं दत्ततालाहसिता इन्द्रदत्तस्य राम्रो महान् खेदोजातः मन्त्रिणोक्त' राजन् कथं खेदो विधोयते मत्पुत्रौजातस्त्वत्पुत्रो वर्त्तते सोऽवश्यं राधावेधं साधयिष्यति प्रोच्चराः पुरः सपुत्र प्रानीतः वहिकालिखितं साभिज्ञान' तद्दिन वर्णा दर्शिता: तेन पुत्रेण स्व पितरं राजानं प्रणम्य राधावेध स्थानेऽधस्तैल भृतकटाहि कासं धान्त ऊई भ्रम चकार पुत्रिका मध्यस्थित कन्यादर्शन पुत्रिका निवेशित दृष्टिरधोवदनेन बाहुनोवस्था पुत्रिका एके नैव बाणेन विद्या साधितो राधाबेधः कन्या च परियौता पितुः परमोहर्षो बभूव २२ राजपुत्राणां महान्विषादः अथ यथा राधावेधचक्र' दुर्भेद्य' तथा मनुश्य त्वमपि दुःप्राप्यमिति ७ चम्प्रेति कच्छप तदुदाहरणं यथा एकोद्रहः सहश्र योजन प्रमाणः सर्वत्र सैवालव्याप्तः क्कापिस्थाने एकं छिद्र कच्छप ग्रीवा प्रमाण एकेन कच्छपेन ग्रौवा प्रसारिता दृष्टं स चन्द्र नक्षत्रचक्र' दृष्ट्वा सस्खकुटम्बा करणाय मध्ये प्रविष्टः स्वकुटम्ब सहित स्तच्छिद्र मितस्ततो गवेषयति परं न पश्यति यथा तस्य तच्छिद्र दुःप्राप्य तथा मनुष्य त्वमपि दुःप्रापमिति ८ जुगेति युगसमिला दृष्टान्तः तथाहि केनचिदेवेन युग' समुद्रस्य पूर्वान्त मुक्त तच्छिद्रानिष्कास्य समिला समुद्रस्य पश्चिमान्त मुक्का सासमिला सागरसलिले नेतस्ततः प्रेर्यमाणा कदाचिद्देव योगेन पुनस्तच्छिद्र' प्रविशेत् न पुनर्मनुष्य जन्म लभेतेति परमाणत्ति केनचिद्देवेन कश्चित् स्तम्भचूर्णीकृतः तस्य परमाण्वो नलिकायां भृताः सा नलिका तेनैव देवेन मेरुमारुह्य फूत्कृता उडीता चेतसतस्तत्परमाणवः तानेकत्र संमील्य पुन स्तत् स्तम्भस्य करण ं यथा दुष्करं तथेदं मनुष्यत्वं भ्रष्टं सत् पुनरपि प्राप्तुं दुष्करमिति १० दृष्टान्ता: समाववाण संसारे नाणा गोत्ता सुजाइस कम्मा
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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उटौका
CAM
शाणाविहाकट्ट पुढीविस्म' भया पया १, संसार समापनाः अत्रण शब्दोवाक्यालङ्कार प्राप्ताः प्रजाः जन्तु समूहाः विश्व मती भवन्ति जगत्पूरकाः भवन्ति किं कृत्वा नानाविधा सुपृथक जातिषु एकेन्द्रियादिषु नाना विधानि कर्माणि कृत्वा कोदृशीषु जातिषु नानागोत्रास नाना बहु प्रकारेण गोत्र नामया सान्ता नाना गोत्रास्तासु नानागोत्रास बहुभिधानासु २ एगया देवलोएम नरएस वि एगया एगया आसरकायं अहाकमेहिं गच्छई ३ एकदा एकस्मिन्काले देवलोकेषु देव उत्पद्यते पुनः स एव जीव एकदा नरके षु नारक उत्पद्यते एकदा पासुरकायं असुर कुमारभावं प्राप्रति एवं जौवो यथा कर्मभिर्गच्छति यस्मिन् समये जीवो यादृशानि यादृग्गति दायकानि कर्माणि बध्नाति तादृशीं गतिं जोषी ब्रज तीत्यर्थः ३ एगया
संसारे नाणागोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणाविहा कट्ठ पुढ़ोविमं भयापया ॥२॥ एगया देवलोएमुनरए सुविएगया।
एगया आमुरं कार्य आहाकमोहिं गच्छई ॥३॥ एगया खत्तिो होडू तो चंडाल बक्कसो। तोकीड पयंगोय तो समापनाः प्राप्ताः संसार ए संसारने विष जीव आवौ उपना नाना गोत्रषु जातिषु नानाप्रकारे गोत्र अने जातिने विष कर्माणि नानाविधानि कृत्वा विवधप्रकारना जूदार कर्म करौने पृथक् विस्वभिता जगत् पूरका प्रजा जाताः पछे जूदार लोकपूरक रुपा २ एकदा देवलोकेषु सौधर्मादिषु एकदा ए जौव देवलोके जाई नरकेषु रत्नप्रभादिषु एकदा जीव आपणी करणीये नररी जाय एकदा असुरकायं भुवनपत्यादिषु याति एकदा प्रस्ताव ए जीव असरकुमार मांहि जाय यथाकरमभिः गच्छति जहां कर्म ए जौवे कौधा तेहवौ गते जाय ३ एकदा क्षत्रियो भवती इम एकदा ए जीव मरौने क्षत्रिय हुवे तत चण्डाल:. शूद्र' बलीए जीव चण्डाल हुवे बुक्कमहुवे बाप शूट माता ब्राह्मणी ते बुक स कहीये तत कौटक: पतङ्गः शलभ: वली कौडी
XXWX860303636860300KKKAKKARN राय धमपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०३ १५६
सूत्र
भाषा
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खत्ति ओहोइ तओ चण्डाल बोकसो तत्र कौडपयं गोय तश्री कुन्यु पिपोलिया ४ जीवः एकदा क्षत्रियोभवति ततोऽनन्तरं सजीवश्चाण्डालो भवति तत बोक्कस्रोपि जोवा भवति यस्य शूद्रः पिता भवति माता ब्राह्मणो भवति तत्पुत्र वोक्कस उच्यते ततस्तत्र जातो धर्मस्य दुर्लभ त्वात् कौटो भवति च पुनः पतङ्गो भवति ततश्च कुन्युर्भवति पिपीलिका कोटिका भवति ग्रन्थान्तरेपि जातिकुलभेदाः उक्ताः सन्ति यस्य ब्राह्मणः पिता शूद्रौ माता भवति सनिषाद उच्यते यस्य ब्राह्मण पिता वैश्य माता भवति स च अम्बुष्ट उच्चते यस्य च निषादः पिता अम्बुष्टा च माता भवति स च बोक्कस इत्युच्यते ४ एव मावजी पौसु पाणिषोकम्मकिव्विसान निष्विज्जन्ति संसारसव्वसु वखत्तिया ५ प्राणिनोजोवाः संसारे एवं अमुना प्रकारेण आवर्त्तयोनिषु न निर्विजन्ते न उद्विग्ना भवन्ति आवर्त्तेन पुनः पुनः परिभ्रमणेन स्पृष्टायोनयः आवर्त्तयोनयस्तेषु चतुरशीति लक्षप्रकारेषु कौदृशाः प्राणिनः कर्मकिल्विषाः कर्मभिः किल्बिषाः मलिनाः अधमावाकेषु केद्र वन उद्दिजन्ते सर्वार्थेषु चत्रियाइवसर्वेचते अर्थाश्च सर्वार्थास्तेषु धन कनकभूमिवनिता गजादि पदार्थेषु चत्रियाराजानइव कु'थु पिपौलिया ॥४॥ वए मावट्ट जोणीमुपाणिणोकम्म किव्विसा । ननिब्बिज्जंतिसंसारे सव्वसुबखत्तिया ॥ ५॥ कम्म संगेहिं संमूढा दुक्खियाबहु वेयणा । अमाणुसामुजोणौमु विणिहम्मंतिपाणिणो । ६ । कम्माणं तु पहाणार आणुपुव्व पतङ्गोओ ए जीव हुओ तत कुंथू पिपलिका किटका ए जोव कू थू कोटक हुवे ४ एवं आवर्त्तयोनिषु इम ए जौव जोनिने विषे परिभ्रमणकरतो प्राणिनः प्राणो कर्मकिल्विषा अधमा प्राणि जीवडा कर्मे मेला के न उद्विग्ना भवन्ति संसारे परं जीव उद्दिग्न नथौ होता संसारमाहिं फरताऊ भगता नथौ हवे काइ धर्म कौजे सर्वार्थेषु चत्रिया: जिम चत्तोराज ऋषि लेतो संतोष न पामे तिम ए जीव संसार फिरतो सन्तोष न पामे ५ कर्मसंयोगे संमूढ़ा एजीव
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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. टीका तथा प्राणिनो पोत्यर्थः ५ कमसंगहि संमूढा दुक्विया बहुवे यणा प्रमाण सास जाणीस विणिहम्मन्ति पाणियो । प्राचिणी जीवाः अमानुषीषु
मनुष्यवर्जितयोनिषु विविहम्मन्ति विशेषेण निहन्यन्ते विशेषण निपात्यन्त अर्थात् एकेन्द्रिय हौन्द्रिय चीन्द्रिय चतुरिन्द्रियेषु वारवार उत्पद्यनी १५७
इत्यर्थः कोहया: प्राणिनः कर्मसङ्गः कर्मसंयोगैः संमूढा संव्याप्ताः पुनः कीदृशाः दुक्विताः पुनः कौदृशाः बहुवेदनाः ६ कम्माणंतुपहापाए आण पुब्बोकयाइओ जोवा सोहि मणुप्पत्ता आब यन्ति मणस्मयं ७ तु पुनर्जीवाः शोधिं दुष्टकर्मनाशस्वरूपां लघु कर्मता अनुप्राप्ताः सन्तो मनुष्यत्वं प्राददते तृजन्म प्राप्नुवन्ति इत्यर्थः कया आनुपूर्त्या अनुक्रमेण शनैः शनैः कदाचित् कर्मणां मनुष्यगति विघ्नकराणां प्रकर्षेण हानि प्रहाणिस्तया प्रहाण्या प्रकर्षण
होनतया ७ माण म विगह लई सुई धम्मस्म दुलहा जं सुच्चा पड़िवज्जंति तवं खंति महिंसयं ८ मानुष्यं विग्रहं लब्धा मानुष्यं शरीरं प्राप्य तस्य धर्म * स्य अतिदुलभा धर्म यवणं दुःप्राप्यमित्यर्थः यं धर्म श्रुत्वा जीवाः तप: उपवासादिक शान्ति क्षमा अहिंस्रता सदयत्वं प्रतिपद्यन्त अनौकुर्वन्ति यस्य
कयाओ । जीवा सोहि मणुपत्ता आययंति मणुस्मयं ७ माणुस्मं विग्गहं लड्डु मुई धम्मस्मदुल्लहा। जंसोच्चा पड़ि 8 कर्मे करोने मूढ़ ते मूर्ख हुवा छ दुखयुक्ताः बहुवेदना स्थः जीवडा दूखियाहुवे घणौ वेदना संसार माहिं फौरतां खर्म अमानुषौषु नरकतिर्य है
गादिषु योनिषु नरकतियंच गतिने विषे जीवडा विशेषेण निपात्य ते कर्मभिः प्राणिनः विशेष करो निपातीइ घालौइ जीव आपठ कर्म ६ कर्मणां प्राधान्यात् कर्मने प्रधानपणे करोने अशभ कर्म खोण हुवा थका आनुपूर्त्या अनुक्रमेण कदाचित् अनुक्रमे फौरतार संसा रमांहि भला कर्मन उदे जोवा शुद्धि मनुष्यां प्राप्ताः जोव निर्मल हुओ मनुष्यगति मांहि आवे प्राणवन्ति स्वीकुर्वन्ति मनुष्यत्वं मनुष्यपणो पाम ७ मानुष्यं देह लब्धा मनुष्य शरीर लाधू मनुष्य हुत्री श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा पर धर्मनू सांभलवो दीहिलोयं धर्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं २०७१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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-
و
الله
1
उ टीका
धम्मस्य श्रवणात् जोवास्तपखिनो भवन्ति क्षमावन्तो भवन्ति दयालवश्च भवन्ति इत्युक्त न बोडादौनां धर्मविषधः कृतः पाहच्च सघण लई सद्धापरम दुलहा सुच्चा नेयाउअंमग बहवे परिभस्मई ८ आहवेति कदाचित् श्रवणं धर्मश्रवण लब्धं प्राप्तं तदा धर्मवाण लब्धाऽपि श्रद्धाधर्मेरुचिः परमदुल्लभा अत्यन्त दुःप्राप्या श्रद्धाया दुर्लभे हेतुमाह बहवो मनुष्याः नैयायिकं न्यायमार्ग जैनमार्ग श्रुत्वा परिभ्रस्यन्ति न्यायमार्गात् स्वलन्त न्याये पञ्चसमवायकारण भवं नैयायिकं पञ्जसमवायकारणवादकं जैनं दर्शनं अत्र सप्त निद्वानां दृष्टान्ताः । तत्र प्रथमनिङ्गवोदाहरण यथा कुडल पुरे श्रीवोरख सा सुदर्शना तस्याः पुचो जमालि: वीरपुत्री प्रियदर्शना तस्य पत्नी तया सह जमालि वीरपादान्त दीक्षां जयाह जमालिना सह पञ्चशत क्षत्रिया: प्रव्रज्याञ्जयडु: प्रियदर्शनया सहस्राः स्त्रियः प्रव्रज्याञ्जगृहु: स्वामिनास्थ विराणामर्थितः स्थविरैश्चास्य एकादशाङ्गान्यध्यापितानि अर्पि तश्च पञ्चशत साधु सहस्र साध्वौ परिवारः अथ जमालिभंगवताऽननुज्ञातः क्रमेण विहारं कुर्वन् श्रावस्तिङ्गतः तिन्दुकोद्याने कोष्टक चैत्वे समवस्त: अन्त प्रान्ताहारै स्तन तस्योत्पन्नोरोगः तेन न शक्नोति ऊपविष्टुं वदति च जमालिः शिवान् प्रतिमदर्थ संस्तारकं कुरुतः शिष्येण संस्तारकः कर्तु मारश्च: उपविष्ट म शनवता जमालिना भणित: शिष्यवतः संस्तारकस्तेनोक्त न कत: किन्तु क्रियमाणोस्ति ततस्तेन चिन्तितं. यद्भगवान् महावीर
वज्जति तवं खंति महिंसयं ॥८॥ अाहच्च सवर्ण लड्डु सद्धा परम दुल्लहा । सुच्चा नेयाउयं मग्गं वहवे परिभाई।। 8 श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते जे धर्म सुणोने परिवर्जे अङ्गोकार कर तपं शांति जोवदया तप बारे भेदे क्षमा जीवदया पलिवर्जे अंगीकार करे धर्मसांभ 8.लवा थको अथ कदाचित् धर्मस्य श्रवणं लब्ध कदाचित् धर्मसांभल्यो गुरुने संजोगे धर्मेच्छापरम दुर्लभाभवति धर्म उपरि सद्दहणा भाववी दोहिली
श्रुत्वानियायिक मार्ग मोक्ष नोदेणहार शुद्ध मार्ग सांभल्यो अङ्गीकार कर जीवाः भ्रष्टाः भवन्ति अङ्गीकार करीने पछे घणाजीव धर्म थी भ्रष्ट होइ ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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04.
४ आखाति क्रियमाणं कृतमिति तमिथ्या प्रत्यक्षमिदं दृश्यते क्रियमाणपि संस्तारक कास्ये नाऽनिष्यन्नत्वा कृतत्वा भावात् एवं स्व मनसि विचार्य सर्वान् 8 व शिष्याना कार्यएव माचष्टे भो शिष्या यद्भगवान् एव माचष्टे कयमाणे कडे चलमाणे चलिए उदौरिजमाणे उदीरिए इत्यादि तत्सर्व मिथ्या * क्रियमा पेपि संस्तारके शयनरूपार्थ साधकत्वाभावेन तत्वा भावादिति जमालिना प्रोक्त केचिनिग्रन्थाएनमर्थ बहधति केचित्र श्रद्दधत येच
बद्दधति ते जमालिमेव उपसंपद्य विचरन्ति येचन श्रद्दधति तएवमाडु: है जमाले श्रीमन्महा चौरस्था यमाशयः यत्क्रियमाणं स्वात्तदेवकृतं
भवति क्रियमाणत्व पर्याय वशिष्टक्कतत्वं क्रियमाणत्व क्तत्व पर्यायाभ्यां पूर्वोत्तरावस्थाभ्यामे कस्मिन्ने वाधै सम्भवति ननुतयोः पृथक् पदार्था * सरसंक्रमी भवतीति वौरवाक्य सत्यताऽस्तौति प्रतिपद्यस्व कयमाणे कडे चलिज्जमाणे चलिए इत्यादि एवन्त: शिष्य तोपि तत्र प्रतिपद्यते
व वामदाग्रह' न मुञ्चति जमालिः तदा ते मुसा जमालिं श्रीमहावीरं प्रतिपवाः शनैः शनै रपरैरपि महापौर प्रति पनाः सत्यसाध्वी अपरिहता प्रियदर्शना जमालिवाक्य सत्वं मन्यमाना पृथिव्यां विचरति एकदा साठा कुम्भा रशालाया मुत्तीर्णा ठङ्केण तस्याः प्रति बोधनाय > वस्त्रातङ्गारः क्षिप्तस्तया च दह्यमान स्व वस्त्रं दृष्ट्वा दग्ध' मम वस्त्रमिति प्रोक्त कुम्भकारेणोक्त साध्धि भवन्मते डज्ममाणं उडू इति नीच्यन्त
तत्कथमिदं प्रोक्त भवत्वा इत्यादि कुम्भकार युक्तिभिः साप्रति बुडाः जमालि प्रतिवीरयाक्य सत्यता युक्तौराख्थत् जमालिस्तु नैव प्रतिपद्यते तहा सहन * साधी परिवतया जमालिमुक्त: श्रीवीरः प्रतिपन्नः एकदा श्रीवोरसं पानगींसमवसतः जमालि स्त समवसरण्ये समागतः श्रीमहावीर प्रत्याह
हे भगवन् तवशिष्या छद्मस्था एव विपत्स्यते अहं पुनः कैवलोजातः अथतं गौतमः प्राह है जमाले त्वं कैवस्यसि तदा त्वं मत् प्रश्नहयष्याख्यानं कुरु केव लिनां हिज्ञानदर्शनेन कचित्सवलतः प्रश्नहयं चेदं लोकः था खती वा शाखतो वा जीवः पाखती वा शाखत इति गौतमेन पृष्ठे जमालि मीनभागवस्थितः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०१४मा भाग
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४० टोका
अ०३
१६०
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तदानों श्रोमहा वोरः प्राह हे जमाले सन्ति मम शिया एके केचिद ये प्रश्रद्दय मिदं व्याख्यान्ति तथाहि हे जमाले अयं लोकः पूर्वत्राभूत् अग्रे भविष्यति साम्प्रतं नास्तीति वक्तु न शक्यते तस्मादयं लोक त्रिकालस्थायित्वेन शास्वतः उत्सर्पिणों विषयो भूज्व सपिणौ विषयो भवति इत्यादि पर्यायै रशाश्वत इति जौवापि विकालविषयत्वेन शाखतः देवत्व मध्यनुत्व पर्याय रशाश्वत इति एव माख्यातं भगवतो वाक्य जमालिनग्रह ततो निष्कान्तः स त्रात्मान' परांश्च व्यङ्गामयन् बहन् वर्षान् यावत् श्रामस्थपर्यायं पालयित्वा वहुभिः षष्टाष्टमादिभिरात्मानं भावयित्वार्थ मासिक्या संलेख नयाऽनयनमाराध्य कग्रमाणे कडेत्ति उत्सूत्रमबालाच्च कालमासे काल' कृत्वालान्तक कल्पेत्रयो दशसागरापमस्थित्याकिल्विष देवत्वेनोत्पत्रः तदुत्स्व प्ररूपणेन चान' तं संसारं समुमार्जितवान् यदुक्त' भगवत्यां चत्तारि पश्चतिरिक्त जाणि यदेव मनुस्त भवग्गहणार संसारं अणपरि यहिता तो पच्छासिज्मसद् बुल्फिकार सव्वदुक्खाण मन्तं करिस्मई इति प्रथम निद्भव जमाल्युदाहरणं १ अथ द्वितीय निह्नवादाहरणं कथ्यते राजग्टहे नगरे गुण शिलके चैत्ये चतुर्दश पूर्वपाठीवसुनामा आचार्य समवसृतः तच्छिष्यस्तिथ गुप्तोति सेोऽनादा सर्वात्म प्रवाद पूर्वस्येद मालापक' पठति यथा एके भत stature जोवेत्तिवत्तव्यंसित्राणोयण समएवन्दोजीवपएसेतिनि संखिज्जा अस' खिज्जा वा जावए गपए सेणवि अणन्तो जोवत्ति वत्तव्य' सि आणोयड सम एवं दोजोवप से तित्रिसंखिज्जा असंखिया वा तम्हा किस पडिपुत्र लोगा गासप एस तुल्लपरसे जीवेत्ति वत्तव्व सित्रा इत्यादि अत्र स प्रतिपत्र: यदि सर्वे जीवप्रदेशा एकप्रदेशहोना जीव व्यपदेशं न लभन्ते सचे कैकः सर्वान्तिमा जीव इति वक्तव्यः स्यात्तद्भावना भावितत्वात् इति तस्यान्तदेशे जौवभ्रान्तिः ततः स आमलकप्पा नगर्याङ्गतः तत्र मित्र श्रीनामाश्रावकेण स्वग्टहेनि मन्त्रितः लड्डुकान्ति मप्रदेश एक सेवतिका खाद्यान्ति मप्रदेश एक एव भृतहण्डिका मध्यादेक एवं कूरादिकरणं भृत ष्टतपात्र मध्यादेक एवबिन्दः एवं सर्ववस्तु सम्बन्धी एकेक प्रदेशोदत्तः पुनः श्राडे नाक्त' भगवन्
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राम धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ० ४१ मा भाग
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४ यूयं प्रतिलाभिताः वयं कता कताः तेनोक्त भी थाई किं त्वयादत्तं बाई नोक्त तम सिद्दान्तानुसारेण मया पूर्ण दत्त अन्तिम अवयवेदत्तेपूणो अवयव १ टीका अ०३
* दत्त: अन्तिम प्रदेशे यथा जीवस्तथा सर्वोप्यवयवी दत्तः अन्तिम प्रदेसे यथा जीवस्तथा सर्वोप्यवयवी अल्यावयचे वक्तव्य इति वौर सिद्धान्तानसारण न किञ्चिन्मयादत्तमस्तोत्यादि युक्तिभिर्मित्र श्री श्राइन स प्रतियोधितः इति श्रौहितीय नियतिष्य गुप्तोदाहरणं एतौ हौनिकवी श्रीवीरे जीवन वा भता
अथ वतीय निवादाहरणं कथ्यते श्रीवौर निर्वाणात् २१४ वर्षेषु गतेषु खेतां बिकायां पालामाद्याने पाषाढाचार्याः स्वथिष्यान् आगाढ योगानहाह * यन्तो उदयशूले नरावौ अकस्मामृताः स्वर्ग जग्मुः तत्रोपयोग दत्ते ने हात् स्वदेहमधिष्टाय शियाणामागाढ योगक्रियाः पूर्णचक्रुः अनाच नवीनमाचार्य * संस्थाप्य सर्वेषां वहत्तान्त निवेद्य स्वस्थानंययुः तच्छिष्यास्ततस्वरूपं दृष्ट्वा अव्यक्तमतं प्रतिषबाः न ज्ञायते कोदेवः कः श्रमणः इति चिन्तयन्ति वदन्ति च नकोपि किञ्चिद्वन्दन्ते सर्वोपि व्यवहारस्तेलु सः एकदा ते सर्वेपि राजगृहं गताः तत्र परमवावकण सूर्यवंशोत्पबेन बलभद्र नृपण तत्प्रतिबोधाय चौरा एते इति मत्वा धृताः यष्टि मुख्यादिभिर्मारिता: ते कनयन्ति भो महाराज त्वं श्रमणोपासकः वयं श्रमणाः कस्मादस्माकमनथं कारयति राजीत एवं माव दन्त युमाक अव्यक्त मतं तदनुसारेण न विघ्नीवयं यद्भवन्तः श्रमणा भवन्मतापेक्षयावयं न श्रमणोपासकाः इत्यादि वाक युक्तिभिः ते प्रतिबुझाइति ढतीय निद्या व्यक्तमत साधूदाहरण ३ अथ चतुर्थं निवादाहरणं वौरात् २२० वर्षेषु गतेषु मिथिलायां लक्ष्मी ग्रहाद्यानमहागिरि शिष्यः काडिना नामास्ति * तस्यापि शिष्योऽखमित्रः अनादाऽनप्रवाद पूर्वस्य नैपुणिक नामक वस्तु पठन् इममालापक पठितवान् यथा सर्व पडुपबने रइया वुच्छिजिस्मन्ति एवं
जाववे माणियन्ति एतदालाप कार्थमसौ इत्थं विचारितवान् सर्वेनैरयिका देवाशय दिव्य च्छेदं प्रासन्तीत्यत्र रहस्यमुक्त तदाऽवश्य सर्वे नैरयिकादयः आणविनश्वराः सन्तौति क्षणक्षयवाद प्ररूपयवसौ एकदा राजग्राहेगतः तत्र शौक्लिक : कुयि तु मारंभे समाह यूयं श्राहाः वयं साधवः कथं कुवात
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
२१
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स.टौका*
श्रावका ऊचुः भवन्मर्तन वयं बाहा भवद्भिदृष्टास्ते विनष्टा वयन्तु नवीनाएवोत्पाः ये भवन्तो यतयः पूर्वमस्माभिदृष्टास्ते विनष्टा यूयन्तुन बौनाएव पक्ष्य
वादित्वाद्भवन्मतस्येति तैः थावकैः स थिचितः प्रतिबुद्धः इति चतुर्थ निहवोदाहरणं अथ पञ्चम निवादाहरणं वोरात् द्विशताष्टाविंशतिवर्षेष २२८ गतेषु * उनका नदीतौर एकस्मिन् खेटवनपुरे उल्लकातौताभिधान वनमस्ति तत्र महागिरिशिष्योधन उल्लकानौत परत तौर तिष्ठति तस्य शिष्यो गङ्गाचार्यः पूर्व तौर तिष्ठति स स्वगुरुवन्दनार्थ परबतौर जिगमिषुर्नद्या मुत्तरन् खल्वाटमस्तकत्वेन अधः शीतं उपरिचातप इति क्रिया वयं युगपदेवाऽनु भवन् जुगवनी नत्यि उवभोगा इति भगद्दचनमन्यथामन्यमानो निह्नवाजातः आचार्यैर्बहु युक्तिभिर्बोधितोपि न मन्यते एकदा स राज रहे वीरप्रभोद्यानमणि नाय कस्य यचभवने उत्तीर्णः तत्र व्याख्या नागतलाकानां पुरः क्रियादयस्य युगपदानुभवा भवतीति स्वमतं प्ररूपयन् यक्षेणमुहर मुत्पाटाको पञ्चदर्थयित्वा तर्जितः अर मयाऽत्रैवसमवस्त वीरमुखाच्छु तं यत् क्रियायस्यानु भवीयुगपन्न भवति समय सूक्षत्वेन युगपदनुभवाभिमानी भ्रमएवेति त्वं विरादप्यधिक एवेति यक्षेणैव स प्रतिबोधितः इति पञ्चमनिनवकथा ५ अथषष्ट निवादाहरणं कथ्यते वौरात्पञ्च यतचतुचत्वारिं पहर्षेषु गतेषु अन्तरनिकापुर्याभूत गृह चैत्यं
तत्र धौगुप्तनामाचार्याः समवसताः तद्दन्दनार्थ प्रत्यासनग्राम रोहगुप्तः शिथः समागच्छन् एकं उदरबड़ लोहपट्ट जम्बूहक्ष शाखाकरञ्च परिव्राजक दृष्ट्वा * पप्रच्छ किमिदमिति स प्राह ज्ञानेन ममादर स्फटति तेनात्र लोह पट्टोवडोस्ति जम्बू होपे च मत्तुल्यः कोपि नास्तीति जम्ब शाखा कर बडास्तीति
परिव्राजकेन तदानीमेव पटहोवादित: नास्ति विखे कश्चित् यो मयासम वादं करीतीतिरीह गुप्तेन कथितः अहंवादः करिस्वामीति वदतापटहोवारितः स परिव्राजक स्ततो राजहारगतः राहगुप्तस्तु गुरुसमीपे समायातः पटहक्षोभकरण वृत्तान्तः कथित: गुरवः ऊचुः वरं न कृतं स विविध विद्या बलवान् यदित्वं स्थाबाद युक्तिभिस्तं वादे पराजेष्यति तदासौ कुविद्याभि स्तवापद्रवं करिश्चति राहगुप्तः प्राह गुरुभिस्तथा मम प्रसादः कार्यः यथा ममवादजयः
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं. २०४१ मा भाग
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टोका
श्र०३
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स्यादुपद्रवञ्चचययः स्यात् गुरुभिस्तस्य मयूरौ न कुलो प्रमुखा विद्या दत्ता रजो हरणचाभि मन्वर दत्तच यदा इमाभिस्तवतस्य पराभवो न तिष्ठति तदा तत् कुविद्याभिमुखमिदं रजीहरणं भ्रामणीयं गुरु वन्दित्वा स राज सभायां गतः तत्र मिलितौवादि प्रतिवादितो राहगुसेनाक्त' बराकार्य परिव्राजकः किं जानाति पूर्वपचो मयास्यैवदत्तः यथेष्टमसौमे प्रश्रयतु परिव्राजकेन चिन्तितं असौ पूर्ण विद्यावान् मया जे तु मशक्यस्ततोऽस्यैव सिहान्त पचमहं गृहामि नासौ व सिद्धान्तपच मुत्थापयिष्यतौति ममैव जयो भवि बतौति विचिन्त्य परिव्राजकेनोक्त' अहं राशिद्दयमङ्गी कुर्वे जीव राशिरजौचराशिश्च पुण्यराशिः पापराशिचेत्यादि बुद्धिमताराहगुप्तेन तदानीं जीवोऽजीवो ना जीवश्च ति राशित्रय मुक्त जीवास्त्र सादयः अजीवा घटादयः नी जीवागृह कोकिलाच्छित्रपुच्छास्ति यथाहि एकस्य दण्डस्य आदिमध्यं अग्रति प्रकारत्रयं एवं सर्वत्रेत्यादि वचोभिः स परिव्राजको निर्लोठितो राहगुप्तस्याभिमुखं वृश्चिकान्मुमेाच रोहगुप्तस्तु मयूरान् श्रमुचत् मयूरैस्तुते सर्वे भचिताः ततः परिव्राजकः सर्पान् अमुचत् राहगुप्तस्तु न वुलन् मुमाच न कुलैस्तु निर्नाशिताः सर्पाः ततः स परिव्राजक उन्दराम्मुमोच राहगुप्तस्तु मार्जारान् मुमोच मार्जारस्ते मंचिताः ततः परिब्राजकेन मृगासुक्ताः रोहगुप्तेन तु व्याघ्राः व्याघ्रे गाभविताः ततः परिब्राजकेन शूकरामुक्ताः राहगुप्त ेन तु सिंहैः शूकराः भचिताः एवं परिब्राजकेन येये जीवामुक्तास्तत्प्रतिपक्षा रे।हगुप्तेन मुक्तास्तैश्चते विनाशिताः श्रथात्यन्त खिचेन परिब्राजकेन गर्दभी मुक्ता राहगुप्त न सारजोहरण महता परिव्राजकस्यैवा परिविष्टां क्तत्वागता ततः सपरिव्राजको राजादिभिर्हीलितो राजद्दाराहले गृहीत्वा बहिः कृतः श्रथ राहगुप्तः परिव्राजकं जित्वा गुरुसमीपे समागतः सर्व वाद स्वरूप' जगौ गुरुणोक्त वरं तं परं त्वया साम्प्रतं राजसभायां गत्वा राशित्रय स्थापना विषयं मिथ्यादुः कृतं देयविन शासने राशिद्दयस्यैव व्यवस्थापनात् रोहगुप्तोऽवदत् मया तादृगायां राजसभायां गत्वा मिथ्या दुष्कृतं दत्वा स्व वचनमप्रमाणीत तु मशक्यं गुरुणा उक्त नावचपाकार्या अवश्यं
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र० सं०० ४५ मा भाग
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किा
तब गत्वा मिथ्या दुकृतं देहि एवं वारं २ गुरुणायमुक्त: खिन्नः प्रकामं धृष्टो भूत्वाऽवदत् राभित्रयमेवास्ति नावकविद्दोष स्ततो गुरुशिष्ययोरीव वादी
लग्नः प्राचार्या: राजदारं गताः शिथेण समं वादकं कर्तुमारे भिरे वादं कुर्वतोस्तोः षण्मासागताः राज्ञा उक्त मम राजकार्य सौदन्ति भवरतां 8 वाद समाप्तिर्नजाता ततीयां तु स्वस्खाने भवन्तः गुरुभिरुक्त कल्यदिवसे वादनिर्सयं करिष्यामि ततः प्रभात राजादि जनपरिहताः गुरवः कुत्वि
काप समानताः तहनिक जगुः देहि जोवान् इति गुरुभिरत तेन कुमार कुमारी हस्ताखाद्यनेके जीवादर्शिताः देहि अजीवानिति गुरुभिरुक्ते तेन घट
पटादयोऽर्था दर्शिता देहिनो जौवानिति गुरुभिरती कुत्रिका पण धनिकः प्राह न सन्ति लोकत्र येनों जीवाः यलोकन ये भवति तदेव कुचिकापण भवति - नान्यत् एवं ४४०. चतुःचत्वारिंशच्छतप्रश्नकरण न निर्लोठितोरोह गुप्तो निर्विषयोक्तः सगणानिव इति कृत्वा निक्कासितः तेन वैशेषिकमतं प्रकटी ४ षटपदार्था स्तेनैव प्ररूपिता इति षष्ठी निवः । अथ सप्तम निङ्गवः वौरात्पञ्चशतचतुरशीति ५८४ वर्षेषु गतेषु दशपुर इक्षुटहोद्याने
पावरचितमूरिः समागतः तस्य गोष्टा माहिल १ फलारक्षित: २ दुर्बलिका पुष्य ३ शेतिशिष्य वयं वर्तते इतञ्च मथुरायां प्रक्रीयावादी उत्थितः तत्र प्रतिवादौ कोपि नास्तोति तवत्य सङ्घन आर्यरक्षितसूर पितं तैश्च तब गोष्टामाहिलो वादलब्धिमानिति प्रेषित: तेन तत्र गत्वा राजसभायां स पराजितः मथुराबाईच गोटामाहिलो वर्षाचतुर्मासकं रक्षितः तावता दशपुर धौार्यरचितसूरिः स्वमरणमासन्न ज्ञात्वा स्वपट्टस्थापनायामेव चिन्त यति बूढीगणहरसहो गो अममाई हिं धौरपुरिसेहिं जोतं ठवेइ अपत्ते जाएंतो सो महापावो १ एवं चिन्तयित्वा सर्वोपि संघ आकारितः तस्याने सूरिणा उक्त अहं गोष्टा माहिलं प्रति घृतघटसदृशो जातः यथा वृतघटात् घृतमपनीयते तदा बहवो वृतबिन्दवस्त व लग्नास्तिष्ठन्ति तथा मया यदा गोठामाहिलः पाठितस्तदा मया स्वकोष्ठे बहवो विद्याशा रक्षिताः फारक्षितं प्रति अहं तैलघटसदृयो जातः यथा तैलघटात लमपनीयते तदा तत्र
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ०४१ मा नाग
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و اقعی عمر
तैलबिन्दवः स्तोका एव तिष्ठन्ति तथा मया यदा फला रक्षितः पाठितस्त दास्य कोठे मया घना विद्या क्षिप्ताः स्तोका एव रचिताः दुर्बलिका पुष्य प्रति * अहं निष्याव घटसदृशो जात: यथा निष्पावघटात् निष्यावा अपनीयन्त तदा नैकोपि तत्र तिष्ठति तथा यदा मया दुर्बलिका पुष्यः पाठित स्तदास्य
कोठे सर्वा: विद्याः चिप्ताः नैकापि विद्या रक्षितास्तौति आर्यरक्षितसूरिणा उक्त सहः प्राह भगवन् दुर्बलिका पुष्य एवाचार्यः क्रियतां तस्य व सर्वविद्या * स्पदत्वेन योग्यत्वात् तदा सङ्कवचः श्रुत्वा पार्यरक्षितसूरिभिः स्वपट्टे दुर्बलिका पुष्यसूरिः कत: उक्त च दुर्बलिका पुष्यस्य गुरुणा वस यथाहं कला रक्षित
गोष्टामाहिलादौना लालनपालनविधी प्रवृत्तस्तथा त्वयापि प्रवर्तितव्य फला रक्षितादीनामपि गुरुणा उक्त यथा भवन्तो ममेवाविधी प्रवत्ता तथा दुर्बलिकापुष्यस्थापि प्रवर्ति तव्य अपिचाई सेवाविधी कृतप्यकतपि न रोषं गतः असौ तु न क्षमिष्यतीति सम्यक् प्रवर्तितव्य इयोपरि पक्षयोरव मुक्या न *शनं क्त्वा थोपार्यरक्षितमूरिदेवलोकं गतः गोष्ठामाहिलेन पुतं गुरोर्देवलोक गमनं त्वरितं तत्र समायातः जनान् पृच्छति की गणधरः स्थापितः जन
स्तु वृतघटादि दृष्टांत प्रतिपादन पूर्व दुर्बलिका पुष्यो गणधरः क्वतइति प्रोक्त गोष्ठामाहिलः पृथगुपाश्रये कियत्कालं स्थित्वा वस्त्रादिमुक्त्वा दुर्बलिका ४ पुष्योपाश्वये समागतः सर्वैरपि साधुभिरस्याभ्युत्थानं कृतं प्राचार्येणापिकथितः कथं पृथगुपायये स्थिताः अत्र व तिष्ठन्तु स नेच्छति आचार्योपाश्रयाविनत्य खोपायये गतः अथ गोष्ठामाहिलः पृथक् स्थितस्मन् जनान् व्यु ग्राहयति परं न कोपि तहच प्रतिपद्यते अन्यदा दुर्बलिका पुष्प सूरयोऽर्थपौरुषर्षी कुर्वन्ति सर्वे साधवः शृखन्ति साधुभिराकारितोपि गोष्ठा माहिलस्तत्र नायाति न शृणोति च यूयमेव मिष्याव घटसमीपऽर्थपौरुषों कृत्वाचार्येत्थितेषु विजांसो नाम शिथोऽनभाषते अष्टम कर्मप्रवादे पूर्वे कर्मप्ररुप्यते तत्र जीवस्य कर्मणः कथं बंधः प्राचार्या भणंति बहर स्पृष्टर निकाचित३ भेदैरात्मकर्मणोबंधः तबाम प्रदेशैः सह आमतन्तु बदसूचिकलाप बहकर्म भवति निकाचितन्ततापि तव कुटित शचिकलाप वद्भवति प्रथमं हि जौवा रागद्देष परिणमैः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०१०१४मा भाग
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उ टीका
Ate AU
कर्मबध्नाति पश्चात्तत्परिणाम अमुञ्चन् तत्कर्मस्पृष्ट करोति नेनैवात्यन्त सक्लिष्ट परिणामन निकाचितं निरुपक्रम करीति तहि उदयगतमेव वेद्यते इति विजय सानामशिष्य कृत प्रष्णस्योत्तरं दुर्बलिका पुष्याचार्यैः कृतं पासबोपाययस्थेन गोष्ठामाहिलेन श्रुतं तत्रैवस्थे न तेनोक्त इसक्षमस्माभिः गुराः समीपन श्रुतं यद्येवं कर्मबह स्पृष्ठ निकाचितं स्यात्तदामोक्षीनस्यात्त दावि सोनामशिष्यो वक्ति कथं तर्हि कर्मवई पृष्टं निकाचितं भवति स आह यथा कञ्चुक: कञ्चकि शरीर स्मृति तथा कर्म आमप्रदेशान् स्पृथति न पुनः चौर नौरनवायेन तत्कर्म आत्मप्रौस्महबद्ध स्पृष्टनिकाचि तत्वभवनेन न क्षौर नौरव देको भावमापद्यते तथात्वे हि कर्म व्युच्छेद एवनस्यादिति गौष्ठा माहिलवचः श्रुत्वा विंशिष्यः प्राह भी गीष्ठामाहिल दुर्वलिका पुष्य प्राचार्या: पूर्वोक्तमेवादिशन्ति गोष्टामाहिलः प्राह इम' न जानन्ति पुनर्विक शिष्यः सूरीन् प्रश्नयति सूरिभिरक्त गोष्टामाहिलोक्त' असत्यमेव यथाऽस्माभिरुक्त श्रीगुरुभिरुक्त तत्रदृष्टान्तः यथायः पिण्डेवह्निः सर्वात्मना सम्बध्यते वियुज्यते च सथात्मप्रदेणैः सह कर्मसम्बध्यते वियुज्यन्ते चेत्यादि दृष्टान्त युक्त्या दिभिर्बदस्पृष्टनिकाचित कर्मस्थापना कता परं गोष्टा माहिलो न मनाते अनादा नवमे पूर्व प्रत्याख्यानाधि कारं गुरवः साधूनामवं पाठयति साहूण जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण पाण इवायं पञ्चक्वामि एयं पच्चक्खाण वविज्जइ इत्यादि आचार्येणोक्ती गोष्टा माहिलः प्राह जावळीवाएत्ति न वक्तव्य एवमुक्त प्रत्याख्यानस्थ सावधिकत्वेन पर लोकाशंसा भवनेन भंगसम्भवात् प्रत्याख्यानं निरवधिक कार्य तथाहि सव्वं पाणा इवायं पञ्च क्वामि अपरि माणाए तिविहं तिविहेण एवं प्रत्याख्यानं कार्य गोष्टामाहिलेनैवमुक्ती विमादिशिष्याः सूरीन् प्रश्नयन्ति सूरयः प्रांडुः प्रत्याख्यानस्य कालावधिकत्वमवश्यं कार्य अनाथा मर्यादापत्त्वाऽकार्यत्वमेव स्यात् परलोकाशंसा सम्भवेन भङ्गो नैव स्थात् जीवनहं सावधं न सेविचे मृतस्य तु अवश्यंभाविनी अविरतिरिति यथोक्तनिर्वाहित्वेन न प्रत्याख्यानभङ्गः एवं श्रीदुर्बलिका पुष्पोक्त सर्वैरप्यङ्गीकृतं अना फला रक्षितादयः स्थविरा एवमेव भणति गोष्टामाहिलस्त सबष्येते
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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ONAur
* न किञ्चिज्जानन्तत वदति स्वोक्तमेव तीर्थकरीक्तमिति स्थापयति आचार्योक्त' स्थविरोक्त च न मनाते तदा समस्तसङ्घन शासनदेव्या कायोत्सर्गः कृतः * सासमागता भणति किं दर्शयति सकेनोक्त व्रज श्रीसौमन्धरतीर्थ करपायें एवञ्च पृच्छा यहीष्टा माहिली भणति तत्मत्वं उत्तयलिकापुष्यादयौ
भवंति तत्मत्यं सा भणति मम पुन: कायोत्सर्गबलं ददत सङ्केन पुन: कायोत्सर्गः कृतः सागता भगवममीपे भगवान् पृष्टः सोक्तं भगवान् प्राह दुर्बलिका पुष्पादयः सम्यग्वादिन: गोष्टा माहिलस्तु मिथ्यावादी निङ्गवः सप्तम इति भगवदुक्तमाकर्ण्य आगताशासनदेवता भगवदुक्त माचख्यौ गोष्टामाहिल: प्राह एषा अल्या ईका तत्र गन्तुमेव न शक्नोति तदा गोष्ठामाहिलस्य एकान्ते दुर्बलिका पुष्याचार्यरेवमुक्त पार्यप्रतिपद्यस्व भगवदुक्त अन्यथा सान त्वं बहिःकरिष्यते स न प्रतिपद्यते तदा सङ्घन सप्तमीयं निङ्गव इति कृत्वा द्वादशविधसम्भोगाइहिःकृतः हादशविध सम्भोगचायं पञ्चकल्प उहि १ सन २ भत्तपाण ३ अंजलिपगहे ४ वायणायणिकाए । अट्ठाण ७ किड् कम्मकरण ८ वेयावच्च करणइय समो सरण सविसेज्जा १. कहाएत्र ११ निमं तणे १२ इति सप्तमो निहवः प्रतिपादित: ७ सप्ताप्येते देशदिसंवादिनी निवाः सम्प्रति प्रसङ्गत एव बहुतरविसम्बादी बोटिका उच्यन्ते छब्बास सरहिं नव्युत्तरहिं ६० तइया सिद्धिगयस्म बौरस्म तोवोडि आणदिही रहवीरपुरे समुष्यमा १ वौरात् षट्शत नव ६०८ वर्षे रथ वीरपुरे दीप कोद्याने समव ६ मृताः आर्य कणाचार्याः तत्र नगरे एकः शिवभूतिनामा सहस्रमलो रानः समीपे समागताः वक्ति तव सेवा करोमि राज्ञीक्त परीक्षा कृत्वा तव सेवा वसरो दास्यते अन्य दा कृष्ण चतुर्दश्यां राज्ञा सावाकारित: उक्त गच्छ अस्थां रावौ श्मशाने इदं मद्यं अयं पशः स्वबलियः तद्दयं गृहीत्वा स तत्र गत: अन्ये पुरुषास्तद्धापनार्थ प्रच्छ बवृत्त्या पश्चात्प्रेषिताः सहस्रमलेन क्षुधार्तेन पशु निहत्य तन्मास भक्षितं मद्यंच पीतं तैः पुरुषैः शिवा फेकारशब्द पिती सन बिभेति पञ्चादागत्य सहस्रमलेन रान्न उक्त मया बलिदत्तः सेवकैरपि तद्दौरत्वमुक्त राज्ञा स्वसेवायां रक्षित: अन्यदा राज्ञा मथुराग्रहणार्थ स्वसेवकाः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं २०४१ मा भाग
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उ टौका
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प्रेषिताः तैः समं सहस्रमलोपि प्रेषित: मार्गेगच्छशिस्त: परस्परमुक्त भो अस्माभिः सम्यग् राज्ञो न पृष्टं का मथुरा प्रायाः सहस्रमले नोक्त हेपि मथुरे ग्राय यत्र दुष्करं तवाहं यास्यामि एवमुक्त्वा स गतः पांडुमथुरायां रहौता च सा बलेन उक्त च सूरेत्यागिनि विदुषि च वसति जनः स च जनाद गुणौ भवति गुणवति धनं धनाच्छोः श्रीमत्या जायते राज्यं १ नगरौं गृहीत्वा स पश्चादायात: राज्ञा तुष्टेन भणितं भो तुष्टोहं मार्गय मनोभौष्टं ततस्ते नोक्त मम देहि सर्वत्र स्वेच्छा भ्रमणं दत्त च राज्ञा अथासौ निरंतरं स्वेच्छया सर्वत्र भ्रमन् रात्री मध्याई अन्त्यप्रहरे वा समायाति कदाचित्रायात्यपि स्वटहे दिवसे यावत्स रहे नायाति तावत्तस्य भार्या न भुङ्क्ते रात्रौ यावबायाति तावत्र स्वपिति अन्यदा सा प्रकामं खिन्ना श्वश्रू प्रत्याह मातस्त्व त्पुत्री ईराने कदाचिदायाति कदाचिदन्त्यप्रहरे समायाति कदाचिवायात्यपि दिवसेपि रात्रावपि चायमकाल एव समायाति अहं निद्रार्ता क्षुधार्ता च तिष्ठामि तदा खत्रा भणितं अद्य त्वया हारंदत्वा शेयं अहं जाग्रतौ स्थास्यामि तद्दिवसं रात्रौ तथैव ततं स मध्यरात्रौ समायातः हारमुवाटयेत्युक्तवान् मात्रा भणितं यत्रास्यां वेलायां हाराणि उद्घातानि भवन्ति तत्र ब्रज स रोषानिर्गतः कृष्णाचार्योपाश्रय एवोद्घाटितो दृष्टः मध्ये प्रविष्टः वन्दित्वा भणति मां प्रव्राजय प्राचार्या न इच्छन्ति तेन स्वयमेवलोचः कृतः ततस्तस्याचाफैलिंग दत्तं आचार्या स्तमादाय ततो विद्वता: कालांतरेण तव व पुनरा याताः राजा तहन्दनार्थमायात: गुरुननुज्ञाप्य सहसमनः स्वगृहे आकारितः तस्य स्वग्रहागतस्य रत्नकम्बलं राज्ञा दत्तं सोपि गुरुसमौपे समायातः गुरुभिस्तद्रनकम्बलं पनापृच्च रहोतं ज्ञात्वा सहस्रमलो उपाययाइहिर्गते सति रत्नकम्बलं खण्डशः कृत्वा यतौनां पादप्रोञ्छनानि कृत्वा दत्तानि स आगतस्तत्वरूपं ज्ञातं स कषाय एव स्थितः अन्यदा गुरुभिर्व्याख्यायां जिनकल्पिका वण्यन्ते जिन कल्पिका द्विविधा पाणिपात्राः पतद्ग्रहधराश्च स प्रावरणा अप्रावरणाश्च त्यादि जिनकल्पिकमार्गों वर्णितः सहस्रमलेन पृष्टं किमसौ मार्ग: साम्प्रतं न क्रियते गुरुभिरक्त स मार्ग: साम्प्रतं शुच्छिद्रोऽस्ति
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०३ २.६८
सूत्र
भाषा
तेनोक्त' यद्येष मार्गोनुष्ठौयते तदा नास्यस्य व्यु च्छ ेदः परलोकार्थिना एष एव मार्गोऽनुष्ठेयः सर्वथा निपरिग्रहत्वमेव श्रेयः सूरिभिरुक्त' धर्मोपकरणमेवेति ननु परिग्रहस्तथाहि जन्तवो बहवः सन्ति दुर्दृश्या मांसचक्षुषां तेभ्यः स्मृतं दयाथं तु रजोहरणधारणं १ आसने शयने स्थाने निक्षेपे ग्रहणे तथा गात्र संकुचने चेष्टं तेन पूर्व प्रमार्जनं २ तथा सम्पातिमा सत्वाः सूक्ष्माय व्यापिनो परं तेषां रचानिमित्त' च विज्ञेया मुखवस्त्रिका २ भवन्ति जन्तवो यस्माहत्रपानेषु कुत्रचित् तस्मात्तेषां परीक्षार्थं पात्रग्रहणमिष्यते ४ अपरञ्च सम्यक्त ज्ञानशीलानि तपचेतीह सिद्धये तेषामुपग्रहार्थाय स्मृतं चौवरधार णम् ५ शौतवातातपैर्दशै र्ममकैश्वापि खेदिताः मासम्यक्तादिषु ध्यानं न सम्यक् सम्बिधास्यति ६ तस्य त्वग्रहणे यस्मात् क्षुद्रप्राणिविनाशनं ज्ञानध्यानोप घातोवा महान् दोषस्तदैवतु ७ य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणादृते तस्य त्वग्रहणं युक्त ं यस्याज्जिन इव प्रभुः ८ जिन कल्पिकस्तु प्रथमसंहननएव भवति इदानीं प्रथम संहननाभावाज्जिन कल्पिक मार्गोऽनुष्ठीयते इत्यादि युक्तिभिर्गुरुणा प्रतिबोधितोपि नासौ प्रतिबुद्धः प्रत्यु तामर्षात् स्वप्रावरणं त्यक्का एकाक्य व वने गतः तस्योद्याने स्थितस्य उत्तरानाम भगिनीवन्दनार्थं गता तं तथाविधं दृष्ट्वा तयापि चौवराणि त्यक्तानि श्रन्यदा भ्रात्रा समं सा नगयी भिचार्थं' प्रविष्टा आवासोपरिस्थया एकया गणिकया दृष्टा अस्मज्जाते लोको मा विरक्तो भवत्विति मत्वा तस्या उरसि शाटिका व्यु त्सृष्टा सा नेच्छति वावा उक्त एषा देवतया दत्तेति भ्रातृवचसा तया शाटिका परिहिता अथ शिवभूतिना कोडिन: कोटवोरखेति शिष्यद्दयं प्रतिबोध्य दोचितं ततो बोटिकमतं मिथ्या दर्शनं प्रवृत्त सुधाने आऊयं मगं बहवे परिभस्साई एतत्पदद्दयो परिसप्त निन्नवोदाहरणानि सुद्रच लह सङ्घच वोरियं पुणदुल्लहं सुद्र'च लहु सइंच वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणावि नोयणं पड़िवज्जए ॥१०॥ माणुसत्तमि आयाओ जोधम्म'
श्रुतिं लब्धां श्रद्धापि जाता जौवे धर्मसांभल्यो सांभलौ सहह्यो धर्मभलो बौयंच पुनदुर्लभं पणिवौयं फोरववुं दोहिलं जीवजांगे के धर्मभलो पिण्थाइ नहीं
२२
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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उल्टीका
बहवे रोवमाणावि नात्रएं पडिबज्जए १० च पुनः श्रुतिलब्धा च पुनः बडा लब्धावौर्य पुनर्दुलभ चारित्र पालनेबलस्कोरणं दुभं बलं स्फोरण दुल भत्वे 8 हेतुमाह यती बहवा जनारीचमाना: अपि धर्मेरुचिं कुर्वाण अपि एतत् वीर्य प्रतिनी प्रतिपद्यन्ते वौर्य नो अङ्गी कुर्वते वेणिकादिवत् १० माण
सत्तमि आयाओ जी धम्म मुच्च सहहे तवस्मौवीरियं लक्षु सम्बुडे निहुणेरयं ११ मनुष्यत्वे आगतः सन्यः धर्म श्रुत्वा वचत्ते स तपस्नौवीर्य लब्धा संहतः सन् निरुडायवः सन् रजः कर्ममल निधुनोति निश्चयेन धुनोति दूरीकरोति मुक्ति प्राप्नोतीत्यर्थः ११ चतुरं ग्याइहैव फलमाह सोही उज्य भूयस्म धम्मोसुद्धस्म चिट्ठई निव्वाण परमं जाय घयसित्तिवपावए १२ ऋजु भूतस्य चतुरङ्गी प्राप्यमोक्ष गमनार्थ सरलौभूतस्य अहिर्मवति कषायकालुथ रहितः स्यात् शुद्धस्य कषाय कालुष्य रहितस्य धर्मस्तिष्टति क्षमादि दशविधधर्मः स्थिरो भवति धरमयुक्तस्य परमं उत्कृष्ट निर्वाणं भाक्षी जायते स जीवन्म तो भवतीत्यर्थः तपस्तेजसा जाज्वल्यमानो भवति कतसिक्तः पावकइव धृतेन हुताग्निरिव १२ विगिच कश्मणीहेड' जसं सक्षिण
सोच्च सद्दहै। तवस्मी बीरियं लडु संवुडे निडुणेरयं ॥११॥ सोही उज्जय भूयस्म धम्मो मुद्धस्म चिट्टई । निव्वाणं
परमं जादू घयं सित्तव्य पावए ॥१२॥ विगिच कम्म णो हेउ जसं संचिणु खतिए पाढवं सरीरं हिच्चा उद्दे परक्कमई
बहवः बद्दधानापि घणां जौवने धमरुचे के धमभलो जाण के न पुनः एनं धर्मप्रतिपद्यन्ते पणि धर्मअङ्गीकार कर नहीं १. मानुष्यत्वे समागतो मनु भाषा
थत्व पण पाम्यो मनुष्य हो यः जीवः धर्म श्रुत्वा महत्तण करोतिधर्मसुशौने सद्दहणा करे तपस्वी वौयं लब्धा पापणी वीर्य तपजपने विषे फोरवे संहतो निरुवा यवः कर्मरजं धुनोति तो संहत होइ पायवहार'धे कर्मरजने फेडे दूरी कर ११ शोधि ऋजभूतस्य मायाई करीने रहित शुद्ध निर्मल हो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०४०४१ मा भाग
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उ० टोका श्र० ३
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सूत्र
भाषा
स्
खन्तिए सरौरं पाढवं हिञ्चा उडूं परक्कमई दिसं १३ शिष्यं प्रति गुरुर्वदति हे साधोत्वं कर्मणोहेतु मिथ्यात्वा विरति कषाय योगादिकं विगिश्च विवेग्धि विवेकं कुरु पृथक् कुरु पुनः चान्त्या चमया कृत्वा यमः संयमं विनयं वासंचिनुसञ्चयः पुनरेवं कुर्वन् पार्थिवं शरीरं हित्वा उदिशंमाक्षं प्रतिप्रका मति भवान् व्रजतित्व ं प्रयासि इत्यर्थः पृथिव्याः भवं पार्थिवं पृथ्वी विकारं १३ विसालसेहिं सौलेहिं जक्खा उत्तर उत्तरा महामुक्कावदिप्पन्ता मनन्ता अपुणब्वयं दृ४ साधवः विसदृशैः श्रत्युक्त हैः शौलैः साधुव्रतैः यचाः देवाः उत्तरोत्तराः सौधर्मादिषु अच्युतान्तेषु तिष्टन्ति इति क्रिया सम्बन्धः देवाः महाशक्लाइव चन्द्रादित्यादय इव देदीप्यमानाः पुनस्ते किं कुर्वाणाः पुनश्चावं मन्यमानाः अतिसौख्यभाक् तथा अपुनर्भरणं मन्यमानाः १४ अप्पियादेव कामाणं कामरूवविउब्विणो उड कप्पे सु चिठ्ठन्ति पुव्वावास सया बह १५ पुन: कौदृशास्ते यच्चा: देवकामान् प्रतिपूर्व भवाचीर्णे : व्रतैर्देव कामान् देवसौख्यानि प्रति अपिताः पुनः कीदृशाः कामरूप विकुर्विणः कामरूप स्वेच्छारूपं विकुर्व्वन्ति विरचयन्तीत्येवं शौलाः कामरूप वि दिसं ॥ १३॥ विसालसेहिं सोलिहिं जक्खा उत्तर उत्तरा | महामुक्काव दिष्यंता मन्नंता अपुणव्वयं ॥ १४ ॥ अप्पियादेव
धर्मः शुद्धिप्राप्तस्य तिष्ठति शुद्धधर्मने विषे रहे छे निर्वाणं परमं उत्कृष्टं याति ते जीव शुद्ध निर्मल हुओ थको मुक्ति जाय ष्टतरिक्त द्रव पावक अग्नि सौंच्चो जौम दोपे निर्मल होवे तिम जौव कर्म रहित निर्मल होइ १२ प्रथक् कुरु कर्मणो हेतु कर्मनुहेतु टूरि करौने यशः पुष्टि कुरु क्षमाया क्षमाये करौ यश उपार्ज्या छे मृण्मयं शरीरं त्यक्ता पार्थिव सप्तधातुमय ओदारिक शरीर छांड़ोने उद्धं गच्छति दिसि उब देवलोके जाई १३ विस्तीर्णैः शोलैः अनुष्ठान विशेषै विस्तोर्ण जे अनुष्ठान क्रौयाकलाप तप जपे करौने देवाः उत्तरउत्तराः देवता होइ एकएक थौ अधिक चढ़ता विमान स्थानं क चन्द्रार्क इव दौप्यमानाः चन्द्रमा सूर्यनौ परे दीपता तेजे विराजमान मन्यमाना अपुनः च्यवे इम नथी जाणता जे अम्हे इहां यो व्यवस्य १४ अर्पिता टोकिता:
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र का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
राय धनपतसिंह बाहादुर
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उ०टोका
श्र० ३ १७२
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सूत्र
भाषा
कुर्विणः अथ तत्र देवलोकेषु कथं यावत्तिष्टन्ति बहूनि पूर्ववर्षशतानि यावत् तिष्ठन्ति बहूनि इति शब्देन असंख्य यानि वर्षशतानि यावदेव सुखानि भुञ्जन्ति पूर्ववर्ष शतायुषामेव चरणयोग्यत्वे विशेषतो देशनो चित्यज्ञापनार्थ मित्य मुपन्यास: बहुभिः पूर्वैर्जघन्येन एवं पत्योपमं भवति बहुभिर्वर्ष तैः पूर्व वभिः पूर्वगतैः सागरापमं भवति तावत्तिष्ठन्ति देवत्व मनु भवन्ति १५ तत्य ठिचा जहाठाणं जक्खा आउकलये चुत्र उवैन्ति माणसचोि सेदसङ्ग भिजायए १६ तत्र देवलोकेषु यथास्थानं स्थित्वा यचादेवा आयुः क्षयेच्च ताः सन्ती मानुषं योनिं उत्पद्यन्ते प्राप्नुवन्ति तत्र दसांगा अभि जायन्त पत्र प्राकृतत्वात् एकवचनं दशभिरंगैः सहवर्त्तन्त इति सदशांगाः अथवा स इतिते इत्यर्थे दयं अङ्गानि येषान्तं दशाङ्गा इति पृथक पदं एक वचनेन कश्चित्रवाङ्गादिरपोति ज्ञापनार्थङ्कानि दशाङ्गानि १५ खेत्तं वत्थं हिरणच पसवो दासपोरुस' चत्तारि कामखन्धाणि तत्यसे उववन्नई १७ ते कामाणं काम रूव विउब्विणा । उट्टं कप्पेसु चिठ्ठति पुव्वा वाससया बहू ॥ १५॥ तत्यङिच्चा जहाठाणं जक्खा आउ क्खए चुया । उवेंति माणसं जोगिंसेदसं गेभि जायइ ॥ १६ ॥ खेत्तं वत्थु हिरणंच पसवी दास पोमसं । चत्तारि काम देवस्त्रीस्पर्शनादीनां पुराकृतदेवता सम्बन्धिया भोगपाम्या के पाहिले पुण्य प्राणीढोया के स्वेच्छारूपकारिणः आपणो इच्छाइ करी नवार रूप करी सुख भोगवे उद्धं कल्पो परिवर्तिषु वैयक विमानेषु उ'चादेवलोक उपरि नवग्रे वेयक उपरे के पूर्वाणि वर्षशतानि च बहुनि वर्षनां सैकडा घणावर्ष आउ भोगवे १५ तत्न स्थिता यथास्थानं तेहस्थानकने विषे रहोने देवाः आयुक्तये चुत्वा देवता श्रापणा आउखा भोगवो पूरा करो चत्र्या देवलोक थको प्राप्न, वन्तौ मानुष्यभवां योनि तिहां थको चवौने मनुष्यनो योनि पामे मनुष्य होइ सअवशेषं पुन्यकर्म च दशाङ्गेषु जायते शेष पुण्य रह्या के वाकी थाके के ते
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्र०सं०७० ४१ मा भाग
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प.३
१७३
उल्टौका देवा स्तव उत्पद्यन्ते तत्र कुत्र यत्र चत्वार एते कामस्वधाः भवन्ति तत्र व यत्र क्षेत्र सम्यक् भवति १ यत्र हिरवं स्वर्ण २ रूप्यं वा ३ यत्र पश्चवा
* घोटक हत्यादयो दास पौरुष चेटकचेटी पत्ति प्रमुखादिक ४ चत्वार एते स्कन्धा वर्तन्ते कामा मनोज्ञ शब्दादयस्तेषां हेतवः स्कन्धा स्तत्पुगल समूहाः
अनेन एक अङ्ग उक्त १७ मित्तवं नाइव होइ उच्चागोए यवस्सवं अप्पायंके महापन अभिजाए जसाबले १८ मित्राणि विद्यन्ते यस्य मित्रवान् १
ज्ञातिविद्यते यस्य स ज्ञातिवान् खजवान २ पुनरुच्च र्गोत्र' यस्य स उच्चैर्गोत्र: ३ पुनर्वर्णवान् सरौरे सहर्ण युक्तः ४ पुनरल्पातकः अल्प पातको यस्य स 8 अल्पातङ्क: ५ पुनः कोदृशो महाप्राज्ञः महतो प्रज्ञायस्य समहाप्राज्ञ: महाबुद्धिः ६ अभिजाती विनीत: ७ पुनर्यशस्वी ८ पुनर्बलौ बलवान् । जशोबले इत्युभयत्र मत्वर्थीय लोपः अङ्ग नवक' इहोक्त १८ भुच्चा माणस्मए भीए अप्पडिरूवे अहाउयं पुर विसुद्ध सहम्मे केवल
खंधाणि तत्थ से उववज्जई ॥१७॥ मित्तवं नायवं होडू उच्चा गोएय वसवं अप्यायके महापन्ने अभिजाए जसो
बले ॥१८॥ भोच्चा माणुस्मए भीए अप्पडिरूवे अहाउयं । पुब्ब विमुद्ध सद्धम्म केवलंबोहि बुझिया॥१६॥ चउरंग भोगवा निमौत्त दशाङ्ग सहौत मनुष्य होवे १६ क्षेत्र ग्रहं रूप्यं नः ग्रामा रामादिशेतुकेतु भयामकं क्षेत्र घेनं १ गृह २ रूप्य ३ पशदासपदातयः पुरुषः त्वगट्टढत्वात् पशदाससेवक पौरुषत्वचत्वारः कामस्कन्धाः स्यु एयार कामनां खंधजीहां होय तत्र सकुलेषु उत्पद्यते तौहां ते पुण्यात्मा जीव भावी उपजे १७ मीत्रवान् जातिमान् भवति मित्रजातिवंत होवे घणा पुरषमित्र करवा बांछे उच्च गोवः वर्णवान् देहवर्णउचा गोत्रहोइ शरीर वर्ण भला होइ अल्पातंके नौरोग: महाप्राज्ञाः रोगरहित हुवे ५ महाबहीवंत होइ अभिजातो विनौतः यशस्वी बलवान् यशवंत होई । बलवंत होइ १० एदशबोल
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं •उ०१४मा भाग
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उ.टोका
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"N.
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उत्तराध्ययने चतुरङ्ग्याधिकारं संपूर्णम् भावितात्मा अणगारबूटेरायजी तच्छिष्यभगवान विजय साधुना संशोधितं । बोहिबुझिया १८ चउर' दुललं नच्चा संजमं पडिवज्जिया तवसा धुयकम्मं से सिद्ध हवइ सासएत्तिबेमि २० युग्म तत्र स मनुथः प्रप्रतिरूपः सर्वोत् * क्लष्टरूपधारी सन् यथायुषं मनुष्यायुषं यावत् मध्यस्य भोगान् भुक्ता पुनर्यथावसरे केवला निष्कलङ्का बोधि सम्यक्त बुहा प्राप्य पुनश्चतुरङ्गी दुर्लभा ज्ञात्वा
संयमं प्रतिपद्य शाश्वतः सिहो भवति कौदृशः स पुरुषः पूर्व विशड सइम: पूर्व पूर्वजन्मनि विशुद्धो निदानरहित: सद्धर्मी यस्य स विशुद्ध सहर्मः पुनः 8 कीदृशः सः तपसा धुतकम्मांशः तपसा दूरीकृतकम्मलेशः इति सुधा स्वामी जंबू स्वामिनं प्रत्याह हे जंबू अहं इति व्रविमौति २० इति श्रीमदुत्तराध्ययन ॐ सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मौकोर्तिगपि शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां हृतीयाध्ययनस्यार्थः समाप्तः ॥३॥ अथ तृतीयाध्ययने चतुरंगौ
दुल्लहं नच्चा संजमं पड़िवज्जिया। तवसा धुय कम्म सेसिडे हवडू सासएत्तिबेमि ॥२०॥ चाउरंगिज्ज सम्मत्त ॥३॥
असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणीयमा हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते कवि हिंसा अजया पामे २८ भुत्ला मानुथकान् भोगान् मनुष्यसम्बन्धिया भोग भोगवौने उपमारहितान् यथायुः जाव जौवं उपमाई रहित एहवा मनुथना सुख जावजीव भोगवौने पूर्वजन्मनि निर्मले प्रशस्य धर्मपाकला भवांतरने विषे जे चारित्रपाल्यां हता ते चारोबवलीअङ्गीकार कर सम्यक्त्वं बुद्ध्या प्राप्य केवलौ भाष्यो धर्मसम्यक्त सहित लेई प्रति बूझे १८ चतुरचं दुर्लभं ज्ञात्वा चार अंगधर्मनां दोहिला जाणीने चारित्रं प्रतिपद्यन्ते चारित्र पडिवर्जे दिख्यालि तपसा स्फोटित कर्मभागः बार भेदे तप करीने कर्मरजने धूणे दूरि कर सिहो भवति साखत: सिधि होइ साखतो इति समाप्तो बौमि २० इति श्रीचतुरंगी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
भाषा
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१७५
उ टौका
दुर्लभोक्ता चतुर्थाध्ययने तां प्राप्य प्रमादस्त्याज्य इत्युच्यते। इति तौयचतुर्थाध्ययनयोः सम्बन्धः । असंखयं जीवियमापमायए जरो विणीयस्मॉनस्थि * ताणं एवं वियाणाहि जणे प्पमत्ते कविहिंसा अजयागहिंति १ हे भव्या जीवितं श्रायुः असंस्कृतं वर्तते यनशतैरपि असतो वईयितु ब्रुटितस्य वा
कर्णवत्सन्धानं कर्तुं अशक्यत्वात् जीवितं हि केनापि प्रकारेण सन्धातुं न शक्यते इत्यर्थः तत: मा प्रमादीः मा प्रमादं कथा इइति निश्चयेन जरया उप नौती जरोपनीतः तस्य वृद्धत्वेन मरणसमीपं प्रापितस्य पुरुषस्य वाणं शरणं नास्ति हे भव्य पुनरेवं विशेषेण जानीहि एवमिति फिविहिंसाः विहंसन धौलाः अति शयेन पापाः कं शरणं गृहोथन्ति तु इति वितर्के कौशा विहिंस्राः अजिता: अजितेन्द्रियाः पुनः कीदृशाः प्रमत्ताः प्रमादिनः इन्द्रियवश वति नां प्रमादिनां पापानां जरामरणाद्युपद्रवे कश्चित् शरण्यो नास्ति जण पमत्त इति प्रथमा बहुवचनस्थान प्राकतत्वात्मप्तम्ये कवचनं १ जे पावकम्मे हिं
गहिंति ॥१॥ जे पाव कम्म हिंधणं मणसा समाययंती अमयं गहाय पहायते पास पयट्ठिए नरे वेराणुबहा नरयं अध्ययन टवार्थ गद्यबंध संपूर्णम् ३ असंस्कृतं जीवितं माप्रमादी प्रमादं मा कार्षी ए आउख' असंस्कृत के व टों थको संध्यो न जाई ते भणी जौवप्रमाद न करे जरोपनौतस्य नाणं शरणं नास्ति जराजीवने अाव्या पछे बढा हुआ उठौ सौ सके नहीं तिवारी सरण एहने कोइ नथी इत्येवं प्रकार जानाहि प्रमादवंत लोका इम जाणीने अहोलोको प्रमाद छांडो विहंसन शौला असंयताः किंशरणं ग्राङ्गन्ति एतले हिंसा करो छो जीव मारी छो इन्द्री आपणा वसि नहो१ जे पाप कर्मभी: धनं मनुष्याः जेमनुष्याः जेमनुष्षपापकरौधन उपार्जे के समां ददत्येवं कुमतिं गृहीत्वा सम्यक् प्रकार आदरौ धनएकठु करो छो ते तुम्हने कोण कुमति लागी ते कुवधे करी त्याला ते नराः पापयुक्ताः ते मनुष्य सर्वधन छांडौने ते मनुष्य किस्था के पास करी बांध्या के पास किस्था स्त्रीधन बेटावेटौ घर प्रमुख पासे करीज कड्या के पाप कर्मानबहा व्याप्ता: नरकेष याति से मनुष्य घणाओ पाप करौमे घशा जीष वयर उपार्जी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
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6
धर्ष मणूसा समाययन्ती अमई गहाय पहाय ते पासपयहिए नर वेराणबडा नरयं उविंति २ जे इति मनुथाः पापकर्मभिधनं अर्जयन्ति ते मनुष्याः अ०४% वैरानुबहाः पूर्वीपार्जितद्देषबंधन बडाः नरकं ब्रजन्ति किं कृत्वा धनं उपार्जयंति अमृतिं यहोवा न मति: अमतिस्ता अमतिं कुमति अफ्रीकत्व अथवा
+ अमृतं आनन्द आनन्दहेतु गृहीत्वा ऐहिकसुखहेतुकं धनं विचार्य किं कृत्वा नरकं व्रजन्ति पापकर्म भिरुपार्जितं धनं प्रहाय त्यजा कौशास्त मनुष्याः
पाथप्रवर्तिताः पाशेषु पुत्र कलत्र धनप्रमुखबन्धनेषु प्रवर्तिताः पाशप्रवर्तिताः धनं हि नरके ब्रजती जीवस्य सार्थे नायाति एकाकी एवमहारम्भ महा परिग्रहवशात् नरकं यान्तीत्यर्थः जरोवणीयस्म हुनस्थिताणं अत्र कथा उज्जयिन्यां जितशत्रु नृपस्य अट्टणमल्लो वर्तते सच प्रतिवर्ष सो पारके गत्वा सिंह गिरिराजः सभायां मनान् विजित्य जयपताका लाति अन्धदा राना एवं चिन्तितं पर देश्यीय मट्टणमलीमसभायां जित्वा बहुद्रव्यं प्राप्नोति मदीयः कोपि मल्लो न जीयते नैतहरं एवं हि ममैव महत्व क्षितिर्जायते इति मत्वा कञ्चिहलवन्त ममिनरं दृष्ट्वा स्वमलं चकार तस्य त्वरितमेव मल्लविद्याः समायाताः मत्सौ मल्ल इति नाम कृतं अन्यदा अट्टणमल्लः सो पारकै समायातस्तेन समं राना मच्छी मल्लस्य युद्ध कारितं जितो मत्सौमनः अट्टणः परा जितः स्वनगर गतः एवं चिन्तयति मत्सोमलस्य तारुण्येन बलवृद्धिः मम तु वाईको न बलहानिः ततोऽन्यं स्वपक्षपातिनं मलं करोमि ततीसी बलवन्त पुरुषं विलोकयन् भृगुकच्छदेश समागतः तत्र हरिणौगाम एकः कर्षकः एकेन करेण हलं वाहयन् द्वितीयेन फलहीयमुत्पाटयन् दृष्टः स भोजनाय स्वस्था नके साई नौत: तस्य बहुभोजनं दृष्ट उत्सर्गसमये च सुदृढ़मल्य पुरीषं दृष्ट्वा मल्लविद्या ग्राहिता फलहौ मल्ल इति नाम कृतं अट्टणः सो पारके फल हो मलं यहोवा गतः राज्ञा मत्सीमलेन समं फलहौमनस्य युद्ध कारितं प्रधमे दिवसे योः समतैव जाता अट्टणेन स्वोत्तारके फलहीमन्नः पृष्टः पुत्र तवाङ्गे क प्रहारा लग्नास्तेन खाङ्गप्रहारस्थानानि दर्शितानि अणन औषधिरसेन तानि स्थानानि तथा मर्दितानि अथासौ पुनर्नवौभूतः मसौमनस्यापि राज्ञा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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उ टौका
* पृष्ट क्व तवाङ्गे प्रहारा लग्ना स्तथा तं दर्शयः फलहोमल्लः पुनर्नवीभूतः श्रूयते मत्सौमल्लोऽभिमानात् स स्वस्थानं न दर्शयति वक्ति च अहं पुनर्नवौभूतः अ०४ १०७ फलही पितरं जयामि द्वितीयदिवसे पुनः युद्धावसरे योरपि साम्यमेव जातं बतौयदिवसे मसौमल्लो जित: फलही मलेन अट्टणेन स्वपराभवः स्मारितः
ततो मसिमले नान्याययुद्धाचरणेन फलहीमलस्य मस्तकं छित्र खिद्रोहणमलो गत उज्जयिनी तत्र विमुक्तयुद्धव्यापारः स्वगृहे तिष्ठति परं जराक्रान्त इति न कम्मै चित् कार्याय क्षम इति खजनैः पराभूयते अन्यदा स्वजनाऽपमानं दृष्ट्वा तदनापृच्छयैव कोशाम्बी नगरौं गतः तत्र वर्षमेकं यावदसायनं भक्षित वान् ततोऽत्यन्त' बलवान् जात: उज्जयिन्यां राजपर्षदि मल्लमहे प्रवर्त्तमाने पुनर्नवागतयौवनेन अट्टणमल्लेन समागत्य राज्ञो नौरङ्गण नाम महामली जितः राना तु मदीयो यं मल्ल पागन्तुकैनानेन मल्लेन जित इति कृत्वा न प्रशंसितः लोकोपि राजप्रशंसामन्तरेण मौनभाक् जात: अट्टणस्तु स्वस्वरूपज्ञाप नाय सभापक्षिण: प्रत्याह भी भी पक्षिणो ब्रुवन्तु अणन नीरङ्गणो जितः ततो राज्ञा उपलक्षितो मदीय एवायं अट्टणमल्ल इति कृत्वा सत्क तः बहुद्रव्य
चास्मै राज्ञा दत्त स्वजनस्तं तथाभूतं श्रुत्वा सन्मुखमागत्य मिलितः सत्कारादि चकार अहणेन चिन्तितं द्रव्यलोभादेते मम साम्प्रतं सत्कारं कुर्वन्ति पश्चा 8.निद्रव्यमामपमानयिथति जरापरिगतस्य मे न कश्चित् वाणाय भविश्थति यावदहं सावधान बलोस्मि तावत्प्रव्रज्यामीति विचार्य गुरीः समीपे अट्टणन * उर्वति ।। तेणे जहा संधि मुहे गहौए स कम्मणा किच्चडू पावकारी। एवं पया पेच्च हंच लोए कडाण कम्मा
* नरगने वोषे जाइर चोरः यथा क्षात्रमुखे रहोत: जिम चोर खाच पाडे माहे पेसतां धणोइ झाल्या स्वकर्मना ततं ते पापकारी प्रापणे कर्मे करौ पाप भाषा
नो करणहार चोरकत्व ते कदर्थे मारौइ इम हे प्रजाः हे लोकः विलोकयध एवं इहलोक परलोके अहीलाकी देखो तुम्हें इणे चोरने दृष्टान्त इह लोकनें विषे जीव कदर्थी इक्तं कृतानां कर्मणां मोचं नास्ति दूर्ण जौवें जे कर्म कौधोछे ते कर्मविणभा गव्यां छुटे नहीं ३ संसार मापन्नः प्राप्ताः परस्पर
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
श्र०४
१७८
सूत्र
भाषा
95303000
दोचा गृहीता इति जरोवणी अस्मनहुत्थिताणं अत्र ग्रहणमल्लकथा समाप्ता तेथे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किवर पावकारी एवं पया पेच इहं च लोए कडाण कम्माण न मुक्त अस्थि ३ यथास्त ेन चौरः सन्धिमुखे खात्र हारे गृहीतः स्वकम्मैणा स्वकीय कृत खात्र चातुर्येण कृत्वा कृत्यते शरीरे च्छिद्यते काष्ठफलके कपि शोर्षाकार उत्कीर्ण खात्र संकीर्ण द्वारेण शरीरं विदार्यते इत्यर्थः कीदृशः चौरः पापकारी अत्र दृष्टान्तः कचिनगरे कस्य चिह्नावहारिणः फल कचिते गृहे केन चिचैोरण प्रकास्कपि शौर्षाक्कृति चाव' दत्त' तत्र प्रविशानन्तः स्थ जागरूक गृहस्वामिना बहिः स्थ चौरेण चाकृष्यमाणो विलपन्नेव मृतः एवं अमुना दृष्टान्तेन प्रजालोकः प्रेत्य परलोके च पुनः इह इहलोके कृत्यते पौद्यते इत्यर्थः इहलोके च धना र्जनार्थं चुत् ढषा सौता तपसहन पर्वतारोहण जलधितरण नृपसेवन संग्रामे प्रहार सहनादि क्लेशेन परभवे च विविध नरकक्षेत्र वेदना परमा धार्मिक विनर्मित व्यथया कृत्यते इत्यर्थः कथं हि परलोके पौयते तत्र हेतुमाह कृतानां उपार्जितानां कन्मणां माचो नास्ति ३ अत्र पुनश्चौरकथा कापि ग्रामे कोपि चौरा दुरारोहे मन्दिरे चात्रं दत्वा द्रव्य' लात्वा खग्टहं गतः प्रत्यूषेक: कि' वदन्तीति वार्त्ता श्रवणाय क्षात्रासन लोकमध्ये गत: लोकास्तु तत्र इत्य' वदन्ति कथमत्र लघोयसि चात्रे चौरः प्रविष्टो निर्गतावेतिलोक वाक्य श्रुत्वा स्वकटो बिलोकयन् भूप नरेष्ट तो व्यापादितश्च ३
ण न मोक्ख श्रत्थि | ३| संसार मावस परस्म अट्टा साहारणं जंच करेद्र कम्म कम्मरस्म ते तस्म उवेदू काले न बंध पुत्र' कलवादि अर्थे संसार माहें फिरतुए जौव साधारण कर्म उपार्जे बाप बेटा स्वौ बेटी एहनें अ वंचक द्रोह करके पापे करो धन ल्यावे सर्व कुटंब खाइके साधारण' यत्करोति कर्म पराइ अर्थे साधारण कर्म करेछे कर्मण ते तस्य कर्मफल विपाक समये जौवारे ते कर्म उदय श्रावे तिवारे न बांधवा वांधवां प्राप्नवंति ते बांधव बांधवपण पाले नही अलगा जादू उभा रहे एजीव आपणौ कमाइ एकलो भोगवे४ द्रव्येणवाण' न लभेत् प्रमादौ
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०० ४१ मा भाग
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उ टीका
R.RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRA
संसार मावन परस्म अट्ठा साहारणाञ्च करेइ कम्म कम्मरमते तस्मउवेयकाले न बन्धवा बन्धवयं उविन्ति ४ संसारं समापन्नः संसारौ जीवः परस्य प्रमादी अर्थ परार्थ परनिमित्त पुत्र मित्र कलत्र स्ववान्धवाद्यर्थ यत्माधारण उभयार्थ' आत्म परनिमित्त यत्कर्म करोति ते मित्र पुत्र कलवादयः खबान्धवास्तस्य पापकर्मकारिण: पुरुषस्य तस्य पापकर्म फलवेदकाले विपाककाले बान्धवतां दुखवंटन भावं न उपयान्ति ४ अत्र अाभौरीवञ्चक कथा क्वापि ग्रामे कोपि वणिक, हट्टे क्रयविक्रय करोति अन्यदा एका आभीरीत? आगता तया भणितं भी रूपकद्दयस्य मेरुतन्देहि तेनोक्त अर्पयामि अर्पितं तया रूपकइय' तेन वणिजा एकस्यैव रूपकस्य रुतं वारद्वयन्तो लयित्वा अपितं सा जानाति ममरूपकद्दयस्य रुतं दत्त वञ्चिता च सात स्याङ्गतायां सचिन्तयति एष रूपको मया मुधालयः ततोहमेव उपभुञ्जामि तस्य रूपकस्य तखण्डादि लात्वा स्वरहे विसर्जितं भार्यायाः कथापितं अद्य घृतपूरा कुर्थात् तया वृतपूराः कृता तावता तदृहे समित्रो जामाता समायातः तस्य व तया त पूराः परिवेषिताः समि वेण तेन भक्षिताः गत: समित्री जामाता वणिक् गृहे समायातः सानं कृत्वा भोजनार्थ मुपविष्टः तया स्वाभाविकमेव भोजनं परिवेषितं वणिग् वदति कथं न कता घतपूराः तया उक्त कृताः प्ररमागन्तुकेन स मित्रेण जामात्रा भक्षिताः स चिन्तयति मया सावराको अभीरौ यञ्चिता परार्थ मैवाय मात्मा पापेन संयोजितः एवं चिन्तयन्नेवासौ शरीर चिन्तार्थ बहिर्गतः तदानीं ग्रोभावर्तते स मध्याह्नवेलायां कत शरीरचिन्ता एकस्य वृक्षस्याधस्तात् विश्वामार्थ मुपविष्टः तेन मार्गेण गच्छन्त साधु दृष्टवान् वणिगुवाच भो साधो विश्वाम्यतां साधुनोक्त भौघ्रं मया स्वकार्ये गन्तव्य वणिजा उक्त भगवान् कोपि परकायें गच्छति साधुः प्राह यथा त्वं खजनार्थ क्लिश्यसि अनेन एकैनैव वचने सबुद्धः प्राह भगवन् यूयंक तिष्ठय साधुना भणितं उद्याने स साधुना समं तत्रगतः तन्मुखाडर्म माकर्ण्य भणति भगवन्नहं प्रव्रजिष्यामि नवरं खजनमापृच्छामि गता निजग्टहे बान्ध
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०3०१४मा भाग
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उ टीका
१८०
वान् भार्याञ्च भणति अत्रापणे व्यवहारती मम तुच्छलाभोस्ति देशान्तरं यास्यामि सार्थ वाहय मनाया तमस्ति एकः सार्थवाही मूलद्रव्यं अर्थ यति इष्टपुरं नयति न च लाभं राहुति द्वितो मूलद्रव्य मर्य यति सह गमनात् लाभञ्च गृह्णाति तत्केन सहगमनं यज्यते तैरुक्त' प्रथमेन सहब्रज अथ स वणिक स्वजनैः समं वने गत्वा उवाच अयं मुनिः परलोक सार्थवाहः स्वकीय मूलद्रव्येण व्यवहारकारयति मोक्षपुरच नयतौति दृष्टान्त दर्शन पूर्वक वजनाना पृच्छत् स वणिक तस्य गुरोः समीपे दौक्षां जग्राहेति वित्तेण ताण न लभे पमत्ते इमं मिलाए अदुवा परस्य दौवपणडेव अण न्तमाहे ने आउ अन्दछु मदठमेव ५ प्रमत्त: प्रमादी मनुष्यः वित्तेन द्रव्येण कृत्वा इमं मिलाए अस्मिन् लोके अथवा परलोकवाणं स्वक्कतकर्मती रक्षणं न लभेत न प्राप्नुयात् वेश्या गृहस्थ पुरोहित पुत्रवत् कस्मिंश्चिनगरे कोपि राजा इन्द्र महोत्सवेसान्तः पुरी निर्गच्छन् निर्घोषं कारयामास सर्वे पुरुषा नगराइहिरायां तुयोत्रस्थास्यति तस्य महादण्डो भविथति तत्र राजवल्लभः पुरोहित पुत्रो वेश्याग्रह प्रविष्टो राजपुरुषधीषणां श्रुत्वापि ततो न निर्गत: राजपुरुषैर्य होतोप्यसौ राजवल्लभत्वेन दप्पं कुर्ववतेभ्यः किञ्चिद्ददौ तेसु राजसमौपनौतः राज्ञा तु आज्ञाभञ्जकत्वेनास्य सूलादण्डः कथितः पुरोहितेन तत्यित्रा सर्वस्व महं ददामौत्यक्त तथापि रानानायं मुक्त: शूलायामारापित एवेति दीप प्रणष्टः प्रणष्टदीपः पुरुषो भावोद्योत रहितः
वावंधवयं उति । ४। वित्तणताणं नलभे पमत्त इमम्मिलोए अदुवापरत्या । दीवप्पण? व अणंतमोहेनेयाउयं दम जोवन लक्ष्मी पणिराखें नही प्रमादौ जीवजाणे जिवारे कर्म उदय आवस्ये तिवारी लक्ष्मी देईने राखौ स अस्मौन लोके अथवा परलोके इहलोकने विष अथवा परलोकने विषे राखो न सके जीवने यथा सम्यक्त रूप प्रदीप प्रनष्टे अनन्त मोहनौयकर्माधिकार जिमकोइक पुरुष हाथ मांहिंदी बोले इने रसकुपिका लेवान अर्थे पेठादौवो गये मार्ग न दौसे ज्ञान दर्शन चारित्रात्मकं मुक्तिमार्ग दृष्ट्वापि अदृष्टमेव स्यात् तिम जीव मुक्तमार्ग दौठो केपणि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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अ०४
पुरुषः यथान यायिक सम्यक् दर्शनादि तत्त्वं दृष्टादृष्टाइव करीति कीदृशः प्रणष्टदौपः पुरुषः अनन्तमाहः अनन्तोऽविनासी माही दर्शनावरण उ टौका मोहनी यामको यस्य स अनन्तमीहः एतादृशः अग्यानी इत्यर्थः अत्र प्राक्ततत्त्वात् षष्ठयर्थे प्रथमापि प्रणष्ट दीपस्य प्रणष्ट सम्यक्त स्य
अनंतमोहस्य उदिता मिथ्यात्वस्य नैयायिक सम्यग्दर्शन तत्वं लब्धामिव स्थात् प्राप्त सम्यक्त्रं अप्राप्त मिव स्यात् तद्दर्शनफलस्याभावात् लब्धस्य १८१
सम्यक्तस्य हानित: अलब्धमेव न केवलं प्रमादौ पुमान् वित्तेन वाणं न लभेत किंतु प्रमादौ त्राणकारणं नरकादिभयनिवारणहेतु मम्यक् ज्ञानादिरत्न वयमपि हन्ति इत्यर्थः अत्र खनिप्रविष्ट धातुर्वादौ पुरुषो यथा प्रणष्टदौपो जातः तस्य दृष्टपूर्वोपि मार्गोऽदृष्टवत् जातः अत्र तत्कथा केचिदातुर्वादिनः सदीपाः सैंधवाः बिलं प्रविष्टा तत्प्रमादाहीपे विध्याते महातमी मोहिताः इतस्ततो भ्रमन्तः प्रचण्डेन विषधरण दष्टा गर्तायां पतिता मृताः एवं प्राप्त सम्यक्ता अपि जीवा महामोह वशात् पुनर्मिथ्यात्व गच्छन्तीति परमार्थः ५ सत्ते सयावीपडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिय आसुपने धोरा महत्ता अवलं
सरीरं भारंडपक्वीवचरपमते ६ प्रतिबुद्धजीवी अनिद्रो अप्रमादी पुमान् अन्येषु सुप्तेष्वपि अविवेकिनरेष निद्रायुक्त षु सत्स्वपि न विश्वसेत् विश्वास नैव * दह,मेव ।५। सुत्त सुयावी पडिबुद्ध जीवी नवीसरी पंड़िय आसु पन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरौरं भारंड पक्खी
8 मोहनीय कर्मने वसे दौठो अणदौठो होय जाय५ सुप्त ष्वपि अविवेकी द्रव्यतो भावतोऽविहान् मूर्खलोक द्रव्यनिद्राई भाव निद्राई सूता के अने पडिते भाषा द्रव्य निद्राभाव निद्रा छोडौने जाय के पण्डितो न विश्वसेत् सौघ्रप्रनः तीक्ष्णप्रज्ञाजूत: पण्डितसाधुविश्वास न कर प्रज्ञावन्त तीक्ष्णबुद्दिनी धणी रौद्राः
मूहर्ताः अबल मृत्युदायकं शरीरं घोर मूहतरौद्र मुहर्त जाय के शरीर प्रबल दुर्बल के मृत्युदायि मुहर्त्तान् ज्ञात्वा अप्रमत्त सन् भारड भारण्डपक्षिवत् अप्रमत्त वरेत् इम जाणोने भारंड पंखौनौ परे अप्रमत थको वौचरे ६ चरेत् धर्मपदानि परिसंकमानः सन् पापथको संकतो चाले संजम विराधे नही यत्
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
सव
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उ.टौका
.
* कुर्यात् कीदृशः स प्राशुप्राज्ञः तत्कालयोगा बुद्धिमान् आश शोघ्र कार्याकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा प्रज्ञा मति यस्य आशुप्राज्ञः यतो मुहुर्ताः कालविशेषा
घोराः प्राणापहारित्वात् रौद्राः शरीरं अबलं बलरहितं भवति मृत्यु दायिमुहर्त्तान् ज्ञात्वा अप्रमत्तः सन् भारण्ड पक्वौवचरः एकोदराः पृथग्यौवाः अन्योन्यफलभक्षिणः प्रमादात्त विनस्यन्ति यथा भारण्डपक्षिणः १ हे साधो तथा तवापि प्रमादात् संयमजीवितस्य भ्रसो भविष्यति अत्र अगडदत्त राजपुत्त्र कथा उज्जयिन्यां जितशत्रु राज्ञोऽमोघरथो नाम रधिकोस्ति तस्य यशोमतौ नाम भार्यास्ति तयोः पुत्रोऽगडदत्तो नाम वर्तते अन्यदा तस्य बालभावपि पिता मृतः सो अभौत्ण' रुदन्तौ मातरं दृष्ट्वा पृच्छति मातर्वारर किं रोदिषि सा प्राह तव पितुः पदं विभूतिं चएषोऽमोध प्रहारी रथिको
भुक्ते त्वं कलाखकुसलस्त न तव हस्ते पितुः पदं विभूतिश्च नायातत्यहमत्यन्त खिन्ना निरन्तरं रोदिमि बालेन भणितं सकोप्यस्ति यो मम कलाः शिक्ष * यति माता प्राह अस्ति कोशांव्यां दृढ़प्रहारौ नामा कलाचार्यस्तत्र त्वामवश्यं कलाकुशलं करिथति अगड़दत्तो गतः कौशांव्या दृष्टो दृढप्रहारी कलाचार्यः
कथितं तेन तस्य मातुःखेदकारणं कलाचार्येण पुत्ववासौ स्वपार्वे रक्षितः स्तोक कालेनैव कलासु कुशलः कृतः अन्यदा राजकुलेप्रेषितः तेन सभायां दर्शिताः कलाः चमत्क तः सकलो लोकः पुनः पुनः साधुवादं अवदत् राजा तु नास्ति किञ्चिदाश्चर्यमिति वदन्न किचिदधिकमुवाच उचिताचारपालना येदं पुनरुवाच कुमार तुभ्य किञ्च ददामि कुमार आह राजस्व साधुकारमपि न दत्म किमन्येन दाननेति अस्मिन्नेवावसरे राजा पोरैरेवं विज्ञप्तः राजन् भवत्यु रे अश्रुतपूर्व चौरेण द्रव्यापहरणं वारं वारं क्रियमाणमस्ति एवञ्च राजलज्जा न तिष्ठति ततो नगररक्षायनः क्रियतां तदैव राजा तला रक्षः आन्नप्तः सप्ताहो रात्रिमध्ये यथा चौरो गृह्यते तथा कर्तव्य तदानीं तत्रस्थाऽगडदत्तः प्राह राजनहं सप्ताहोरात्रिमध्ये चौरं तव चरणमूलमुपने थामि राज्ञा तइचोङ्गीकृतं एवं कुर्बिति वारं२ उक्त ततो दृष्टोऽगडदत्तो राजकुलानिर्गत्य चिन्तयति दुष्टपुरुषास्तस्कराश्च प्राय: पानीयस्थाने नानाविध
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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टोका
श्र० ४
१८३
9849890
लिङ्गधारियो भ्रमतोत्यहं तच्छु उये तटाकोपवनेषु यामीति चिन्तयित्वा नगराइहिरेक एव एकस्य शौतलकायस्य सहकारपादपस्य तले मलिनांबर उपविष्टथौरग्रहणोपायं चिन्तनस्ति तस्यैव सहकारस्य छायामायातः एकः परिव्राजकः स्थूलजानु दीर्घजङ्घः कुमारेण दृष्टचिन्तितञ्च नूनमेभिर्लक्षणैरथं चौरएवेति भणितञ्च तेन परिव्राजकेन वक्स कुतस्त्वमायातः किं निमित्त भ्रमसि ततः कुमारेण भणितं भगवन्ब्रहमुज्जयनीतोऽवागतः चीणविभवो भ्रमामि तेन भणितं पुत्र तवाहं विपुलमर्थं ददामि अगडदत्तेन भणितं तयमानुग्टहीतः सन्तोहिनिष्ककारणमुपकारिणः स्यः एवं तयोरभिलापं कुर्वतोरेव सूर्यास्तङ्गतः रात्रौ तेन त्रिदण्डात् शस्त्रं कर्षितं वचः कच्छ नगरौं याम इति वदब्रेव समुत्थितः सः अगदत्तोपि सशङ्कित स्तमनु गच्छति चिन्तयति च एष एव स तस्कर इति द्वावपि प्रविष्टौ नगरं तत्राति प्रेक्षणीयमतीबाबतं कस्यापोभ्यस्य गृहं दृष्टं तत्रचाव' दत्त' परिव्राजकस्त न्मध्ये प्रविष्टः अगडदत्तो वहिस्थ विन्तयति चौरस्तु मया ज्ञातः परमस्य स्वरूपं सर्वन्तावत्यश्यामीति परिव्राजके नानेक भाण्डभृताः पेव्यएव कर्षिताः अगडदत्तसमौपेताः स्थापयित्वा गतादेव कुले ततोऽनेके भारवाहिनः आनीतास्तेषां शिरसिताः स्थापिताः सर्वेपिगता: पुराद्दहिः तापसः कुमारं प्रत्याह पुत्र व जोद्याने निद्रासुख मनुभवामः इत्युक्त्वा सर्वेपिसृप्ताः निद्राणाथ परिव्राजकच कपट निद्रया सुप्तः अगडदत्तस्तु नैतादृशाणां विश्वास: कार्यः इत्यवधार्यचणं कपटनिद्रया सुष्वा तत उत्थाय वृक्षान्तरितः स्थितः तान् पुरुषान् निद्रावसगतान् जात्वा सपरिव्राजकः कंकपत्रा मारितवान् अगडदत्तस्रस्तरे च समागत्यतं तत्त्रापश्यत् पञ्चादलितस्तावता अगडदत्तेन तदन्तिके समागत्य खज्रप्रहारेण प्रकामंहतः पतितः पृथिव्यां अगडदत्त' प्रत्याह धत्स गृहाणेम' मम खड' ब्रजश्मसान पश्चिमे भागे तत्र भूमिग्टहेभित्तौ स्थित्वा शब्द कुर्याः तत्र मम भगिनौवसति तस्या इमं मम खत्र' दर्शयेः ततः संकेत कथनात् साते भार्या भविष्यति सर्व्व द्रव्यस्वामी त्वं भविष्यसि अहं तु गाढप्रहारान् सृत एवेति मत्स्वरूपं कथयेः प्रगड दत्तस्ततः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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१. टीका अ.४
१८४
खजमादाय तत्रगतः शब्दिता सा आवाता तेन दृष्टा अतीव रूपवती अवदत् कुतस्त्वमावातः सप्राह गृहाणेमं खड्ग तद्दर्शनमात्रेणैवतया सर्वन्तस्य स्व घाट स्वरूपं जातं मनस्य वशीक निगृहनं कृतं अगडदत्तस्तद्ग्रहाभ्यन्तरं नौतः दत्तमासनं तत्र स उपविष्टः तया विशिष्टादरेण शय्यारचिता भणितञ्च खामिन्नत्र विश्राम्यतां तयोत्युक्त सुप्तस्तत्रागड़दत्तः सा यहाइहिनिर्गता तावता अगड़दतेन चिन्तितं अस्थापि विश्वासो नैव कार्य इति शय्यात उत्थाय पन्यत्र गृहकोणे स्थितः स: तया तु शय्यो परिष्टात् पूर्व यन्त्रचालनेनैव मुक्ता शिला पतन्त्या तया शय्यां चूर्णिता साऽत्यन्त हर्षवती दत्ततालं भणति हतो मया भ्राघातकस्ततोऽगड़ दत्तेन त्वरितं सा केशेषु गृहौता भणिता हा दासिकेयं ते धोस्व मा हनिश्चन्ति सा तत्पादयोः पतिता तव चरणो मे शरणमिति बभाण अथ तेन सा मा भयं कुर्बिति आखासिता स्वकर रहौता राजकुले नौता कथितय समस्तो वृत्तान्तः राज्ञो सोऽगड़दत्तः पूजितः प्रशंसितथ एवं अप्रमत्ता इहैव कल्याणभाजी भवन्ति उक्तो द्रव्यमुप्तेषु प्रतिबुद्धजीवि दृष्टान्तः एतावदुत्तराध्ययन बृहहत्तिगतं अगड़दत्ताख्यानं लिखितं अथ कथाग्रन्यलिखितं अगड़दत्ताख्यानं लिख्यते शकपुर सुन्दरतृपः तस्य सुलसा प्रिया तत्म तोऽगड़दत्त: स च सप्तव्यसनानि सेवते लोकानां गृहेचप्यन्यायं करोति लोकैस्तदुपालमा राजी दत्ताः राज्ञा स निर्वासितो गतो वाराणस्यां पवनचण्डोपाध्यायग्रह स्थितः हिसप्तति ७२ कलादान्जातः गृहोद्याने कलाभ्यासं कुर्वन् प्रत्यासन्न ग्रहगवाक्षस्थया प्रधानश्रेष्ठिसतया मदनमञ्जस्तिद्रूपमोहितया च तया प्रक्षिप्त पुष्यस्तवकः सञ्जातप्रौतिस्तन्मय एवजातः अन्यदा तुरगारूढ़ः स नगरमध्ये गच्छवस्ति तावता ईदृशी लोक कोलाहलः श्रुतः यथा किंच लिउच्च समुही किंवा जलिउहु आसणो घोरी किं पत्तिरिउमेण तड़ि दंडो निवडिउ किंवा १ मंठेण विपरिचत्ती मारतो मडिगीयरं पत्ती सवडं मुहं चलंतं कालुब्ब अकारण कुछो २ तावता तेन कुमारण अख मुक्ता सहस्तौगजमदनविद्यया दांत पश्चात्तमारुह्य राजकुलासन मायातो राजा दृष्ट आकारितो मानपूर्व कुमारण तं गजमालानस्तम्भे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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१.टौका
* बहा राज्ञः प्रणामः कृतः राना चिन्तितं कश्चिमहापुरुषोयं यतोत्यन्त विनौती दृश्यते यतः सालीभरेण तोयेण जलहरा फलभरेण तरुसिहरा विणएण अ०४ १८५ यसप्पुरिसा नमन्ति नहुँकस्मइभएण १ ततो विनय रञ्जितेन राजा तस्य कुलादिकं पृष्ट कियान् कलाभ्यासक्कत इत्यपि पृष्टं कुमारस्तुलज्जालु त्वेन
न किञ्चिविनगौ उपाध्यायेन तस्य कुलादिकं सर्वविद्या नैपुण्य कथितं कुमार वृत्तान्त श्रुत्वा चमत् कतो भूपतिः अथ तस्मिनै वावसरे राज्ञः पुरो नगर * लोक: प्राभृतं मुक्ता एव मृचिवान् हे देवत्वनगरं कुवेर सदृशं कियहिनानि यावदासौत् साम्प्रतं घोरपुर तुल्यमस्ति केनापि तस्करण निरन्तरं पुष्यते
अतस्त्व रक्षां कुरु राज्ञातला रक्षा प्राकारिता भृशं वचोभिस्तर्जिताः तैरुक्त महाराज किं क्रियते कोपि प्रचण्डस्तस्करोस्ति बहुपक्रमोपिन दृश्यते ततः कुमारणोक्त राजन्न हंसप्तदिन मध्ये तस्कर कर्षणं चेवकरोमि ततोऽग्नि प्रवेशं करोमौति प्रतिज्ञा कृता राज्ञा तु पुरलोक प्राभृतं कुमाराय दत्त्वं * कुमारस्तत उत्थाय चौरस्थानानि विचारयति वेसाण मन्दिरसु पाणागारस यूयठाणेसु कुल्लूरियवणेसुअ उन्नाणनिवाण सालासु १ मठसुत्र देवलेसुय
चञ्चर चउहसुन्न सालासु एएस ठाणे पाएणंतकरो होइ २ एवं चौरस्थानानि पश्यत: कुमारस्य षट्दिनागताः पश्चात्सप्तम दिने नगराइहि गेलाधः स्थितः चिन्तयति छिज्जउसीसं अह होउबं धणञ्चयउ सब्बहालच्छौ पड़िवन पालणसु पुरिसाण' जंहोइत होउ १ एवं चिन्तयवसौ कुमार इतस्ततो दिगवलोकनं करोति तस्मिन्बवसर एकः परिहित धातुवस्त्रो मुण्डित शिरः कुर्चस्त्रि दण्डधारी चामरहस्तः किमपि बुड़, बुड़ इति शब्द मुखेन कुर्वाणः परिव्राजक स्तत्रायातः कुमारेण दृष्ट श्चिन्तितच्च अयमवश्यञ्चौरः यतोस्य लक्षणानी दृशानि सन्ति करि सुण्डाभुयदण्डो विसाल वच्छस्थ लो पुरुसकेसो नव जुब्बणीरउद्दीरत्तत्थो दौह जकीय १ एवं चिन्तयतः कुमारस्य तेन कथितं अहो सत्पुरुष कस्त्वमायात: केन कारणेन पृथिव्याँ भ्रमसि कुमारण भणितं उज्जयनी तोऽहमसायातः दारिद्रा भग्नी भ्रमामि परिव्राजक उवाच पुत्रत्वं मा खेदं कुरु अद्य तव दारिद्रय छिनद्मि समी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
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१८६
हितमयं ददामि ततो दिवसं यावत्तौ तत्रस्थिती रात्री कुमार सहित चौरः कस्यचिदिभ्य गृहं गतः तत्र क्षात्र दत्तवान् तत्र स्वयं प्रविष्टः कुमारस्तु * बहिस्थितः परिव्राजकन द्रव्य भृताः पेटिकास्त तो बहिष्कर्षिताः ताः ज्ञानमुखे कुमार समीप मुक्त्वा स्वयमन्यत्र क्वचितखा दारिद्र्य भग्नाः पुरुषा अनेक
श्रानौताः तेषां शिरसिताः पेटिका दत्वा कुमारेण समं स्वयं बहिर्गत: सतापस: कुमारं प्रत्येव मुवाच कुमार क्षणमात्र वहे तिष्ठामः निद्रा सुखमनु भवामः परिव्राजकेनेत्युक्त सर्वेपि पुरुषा स्तत्र सप्ताः कपट निद्रया परिव्राजकोपि सुप्तः कुमारोपिनी तादृशाणां विश्वासः कार्य इति कपट निद्रयैव सुप्तः तावतासपरि व्राजक उत्थाय तान् सर्वान् कंकपत्रया मारयामास यावत् कुमार समीपे समायाति तावत् कुमार उत्थायतं खङ्गे न जवाहये जघान छिन्ने जङ्घाइये सतत्र व पतित: कुमारं प्रत्येव मुवाच वत्साहं भुजङ्गनामा चौरः ममेह श्मशाने पाताल ग्रहमस्ति तत्र वीरपत्नी नानौ मम भग्न्यस्ति अटवटपादपस्य मूले गत्वा तस्याः शब्द कुरु यथा साभूमि गृहबार मुद्घाटयति ताञ्चस्व स्वामिमं करोति सङ्केतदानार्थं मत् खगं गृहाणेत्यु त कुमारस्तत् खड्न गृहीत्वा तत्र गत: सतु तव व मृत: कुमारण साशब्दिता आगता द्वार मुद्घाटयामास कुमारण भ्रातः खड्न दर्शयित्वा स्वरूप मुक्त' तस्याः अन्तः खेदो जातः परत्नमुखे खेदं दर्शयामास मध्ये आकारितः कुमारः पल्यले शायितः उक्तञ्च तव विलेपनाद्यर्थ चन्दनादिक महमानयामीति ततोनिर्गता कुमारण चिन्तितं प्रायः स्त्री विश्वासो न कार्यों यतः शास्त्रे इमे दोषाः प्रायो भवन्ति माया अलियं सोमो मूढ़त्तं साहसं असोयत्तं
निस्मन्तियातहच्चिय महिलाणसहावया दोसा १ एतस्यास्तु तथाविध चौर भगिन्यां विश्वासोनैव कार्य इति विचिन्त्य कुमारः शय्यां मुक्ताऽन्यत्र * ग्रहकोणेस्थित: सा बहिर्गत्वा यन्त्र प्रयोगण शय्योपरि शिलां मुमोच तया शय्या चूर्णिता ततः कुमारेण सासद्यः साक्रोशं केशेषु धृता राज्ञः समीप
आनीता प्रोक्तः सर्वोपि वृत्तान्तः राज्ञातडूमि ग्रहात् समस्तं वित्तमानाय्य लोकेभ्यो दत्त कुमारण साजौवन्ती मोचिता पश्चाबृपाय हात् कुमारेण नृप
राम धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०२०४१ मा भाग
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उ० टीका
श्र०४
१८७
XXXXXXXX
सुता कमल सेनानाम्नौ परिणीता नृपेण कुमारस्य सहस्रं ग्रामादत्ताः शतं गजादत्ताः दश सहश्राण्यश्वादत्ताः लक्षं पादा तयो दत्ताः ततः सुखेन कुमार स्तन तिष्ठति भन्दा कलाभ्या स समये यया श्रष्ठितया सह प्रीतिर्जातास्ति तथा मदनमन्नर्य्या कुमार समीपे दूतौ प्रेषिता तथा उक्त तव गुणानुरक्ता तवैवेयंपत्नीभवितु ं वाञ्छति कुमारेणाप्युक्त ं यदा श्रहं शङ्खपुरं यास्यामि तदात्वां गृहीत्वा यास्यामौति तस्यास्त्वया वक्तव्य' अथान्यदा तत्र पित्राप्रेषितानराः कुमाराकरणायसमेताः कुमारस्तु तेषां वचन माकर्ण्य पितुर्मिलनाय भृशमुत्कण्ठितः श्वशुरं पृष्ट्वा कमल सेनया समं चलितः चलनसमये च मदनमञ्जरी श्रकारितासापिकुमारेणसम' चलिताताभ्यां प्रियाभ्यां सहसैन्यकृतः कुमारः पथिचलन् बहन् भिल्लान् सन्मुखमापततो ददर्शतदा कुमार सैन्ये नतैः समं 'युद्ध' कृतं भग्न कुमारसैन्य' भिल्ले लुण्ठितः इतस्ततो गतं भिल्लपतिस्तु कुमार रथे समायातः उत्पन्न बहिना कुमारेण स्वपत्नौ रथाग्रभारी निवेशिता तस्याः रूपेण मोहङ्गतो भिल्लपतिः कुमारेणहतः पतिते च तस्मिन् सर्वेपि भिल्लानष्टाः कुमारस्तेनैव ऐकेन रथेन सह गच्छन्न्रग्रे महतः सार्थस्य मिलितः सार्थोपि सनाथश्वमार्गे चलति कियन्मार्ग गत्वा सार्थिकैः कुमाराय एव मुक्त' कुमारइतः प्रध्वरमार्गे भयं वर्त्तते ततः प्रध्वरमार्ग विहाय अपरेण मार्गेण गम्यते कुमारेणोक्त' किं भयन्ते कथयन्ति अस्मिन् प्रध्वरमार्गे महत्यटवी समेष्यति तस्याः मध्ये महानेकश्चौरो दुर्योधननामा वर्त्तते द्दितौयस्तु गर्जारवं कुर्वन् विषमेागजी वर्त्तते तृतीयो दृष्टि विषसर्पो वर्त्तते चतुर्थो दारुणो व्याघ्रो वर्त्तते एवं चत्वारि भयानि तव वर्त्तन्ते कुमारः प्राह एतेषां मध्ये नैकस्यापि भयं कुरुत चलत सत्वरं मार्गे कुशलेनैव शङ्खपुरे यास्यामः ततः सर्वेपि तस्मिन्नेवा ध्वनि चलिताः अग्रे गच्छतान्तेषां दुर्योधन चौरस्त्रिदण्डभागमिलितः सोपिपान्योहं शङ्खपुरे समास्यामीति वदन् सार्थेन सार्धं चलति मार्गेकः सन्निवेशः समायात स्तदाचिदण्डिना उक्त मम उप लचितायं सन्निवेशो वर्त्तते तेनात्र गत्वा मया दध्यादि आनीयते यदि भवतां रुचिः स्यात् सार्थिकैरुक्तः आनीयतां ततस्तेन तदन्तर्गत्वादध्यादि श्रानीतं
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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१८८
डटौका , विषमिश्रितं कृत्वा सर्वेषां पायिताः मृताः सर्वेसार्थिकाः अगडदत्तेन भार्यादय युतन न पौतमिति न मृतः स विदण्डीपुनः सत्रिवेस मध्ये गत्वा क्रि अ.४
यत्परिवारयुतो रहौत शस्त्र: कुमारमाणाय आयात: कुमारीण खङ्गं ग्रहोत्वा सन्मुखं गत्वाधारसंग्राम करणेन सहतः परिवारस्तु नष्टः भूमौ पतता तेन चौरेण एव मुक्त अहं दुर्योधनचौरः प्रसिद्धः त्वयाहं हती न जोविष्यामि परं मम बहुद्रव्य वर्तते मम भगिनी जयश्रीनानि अस्मिन् वनमध्ये ऽस्ति तत्त्वया गृहीतव्य सा चपनी कार्या कुमारस्तत्रगतः सा पाइता समायाता दृष्टः कुमारी ज्ञातस्तया भ्राढवत्तान्तः तया कुमारीपि गुफामध्ये पाकारितः तत्र गच्छ मदनमत्रर्या वारित: तां तत्र वमुक्ता कुमारोने चलितः कियन्मार्ग' यावहतेन कुमारण प्रचण्ड शुण्डादण्ड प्रभग्न तरुकोटि निष्ट * गिरितटः सवेगं सम्मुख मागच्छन् यम इव रौद्ररूपो गजोदृष्टः तत: कुमारी रथा दुत्तौर्य गजाभिमुखं प्रचलितः उत्तरीय बस्त्रवेष्टिका कृत्वा
गजाने मुमीच गजस्तत् प्रहाराय' शुण्डादण्ड मध: क्षिपन् यावद्दौषत्र तस्तावता कुमार स्तदन्तस्ये पादौ कृत्वा तत् स्कन्धेऽधिरूढः वच कठिनाभ्यां स्वमुष्टिभ्यां तत् कुम्भस्थल इयं जघान कुमारेण प्रकाममितस्ततो भ्रामयित्वा स गजो वशौकतः पश्चात् स गजो गौरिव शान्तौकतो मुक्तश्च तत्रैव पुनः कुमारो रथे निविष्टोग्रे चलितः कियभार्ग' यावइच्छति कुमारस्तावत् कुण्डलीक्कत लालः खरवेण गिरिप्रति छन्दान् विस्तारयन् विद्युच्चञ्चललोचन: सर्वोपमा रसना स्वमुख कुहराविष्कासयन् सिंह: समायातः तेनापि समं कुमारीयुद्ध कृतवान् कुमारण कर्कश प्रहारजर्जरितः सिंहस्तत्रैव पतितः कुमारस्ततोग्रे चलितः सर्वोप्य पद्रवोपि मार्गे विद्ययैव निवर्तितः कुशलेन कुमारः स्त्रौद्यसंवृत्त: शहपुर प्राप्तः प्रवेश महोत्सवः प्रकामं पितृभ्यां कृतः सर्वेषां पौराणां परमानन्दः सम्पन्नः तत्र सुखेन कुमार स्तिष्ठति अन्यदा वसन्त मदन मचर्या सह कुमार एकाक्येवक्रोडा बनेगत: तत्र रात्री मदनमञ्जरौ सर्पण दष्टा मृतेव सञ्चाता कुमारस्तु तम्मोहादग्नौ प्रविशन् गगनमार्गेण गच्छता विद्याधरण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०७०४१ मा भाग
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उल्टौका अ०४
१८८
वारितः विद्याबलेन सा जीविता विद्याधरस्तु स्वस्थान गतः कुमारस्तया समं रात्रिवासार्थ कस्मिविहे व कुलगतः तत्र तां मुक्ता उद्योतकरणाय अग्नि मानेतु कुमारो बहिर्गत: तदानीं तत्र पञ्चपुरुषा पूर्व कुमार हत दुर्योधनचौर भातरः कुमारबधाव पृष्टा वा गता इतस्त तो भान्ताः कुमारच्छल मल भन्तस्ममाग तास्मन्ति तैस्तु तत्रदीपको विहितः मदनमंजर्या तेषां मध्ये लघुभ्रातु रूपं विलोकितं रूपाक्षिप्तया तस्यैव प्रार्थना विहिता त्वं मम भन्भव अहं तव पत्नी भवामि तेनोक्त तव भर्तरि जीवतिसन्ति कथमेवं भवति सा प्राह तमहं मारयिष्यामि तदानीमग्नि गृहीत्वा कुमारस्तत्र प्राप्त: पागच्छन्त कुमारं दृष्ट्वा तया तत्रस्थी दीपो विध्यापितः तत्राया तेन कुमारण पृच्छ अत्रोद्योतः कथ मभूत् तया उक्त' तव हस्थस्याग्ने रेवोद्योत: सरलेन तेन तथैवाङ्गीकृत मदनमा हस्ते खड्नं ग्रहित्वा कुमारीऽग्निप्रज्वालनार्थ ग्रीवामधश्चकार तावता तया कुमारषधार्थ खा' प्रतीकाराविष्कासितं तस्याश्चरित्र दृष्ट्वा चौरलधुधातुबैराग्यमुत्पन्नं पश्चादस्या हस्तात्तेन खलं अन्यत्र पातितं पञ्चापि भ्रातर स्तत्तः काराऽलक्षिताः शनैः शनैर्निर्गताः कस्मिश्चिइने गता स्तत्र चैत्यमेकमुत्तुंगं दृष्ट तत्र सातिशयज्ञानौ साधदृष्टः तत्समीपे तैः पञ्चभिरपि दीक्षा रहीता तदानां पालयन्तः संयम रतास्तत्र व तिष्ठन्ति कुमारण नैतत्किमपि ज्ञातं अथ कुमारस्त त्र मदनमा रात्रिमकासुषित्वा प्रभाते स्वगृहे समायातः कियहिनानन्तरमखापहृतएकएवागड़दत्त कुमारस्तस्मिन्नेव वने तत्र व चैत्ये गतस्तत्र देवान्नमस्कृत्य साधवो वन्दिताः गुरुणादेशनावता कुमारण पृष्ट' भगवन् कएत पञ्चापि भ्रातर इव साधवः कथमेषां वैराग्यमुत्पन्न कथमभि यौवनभरेपि ब्रतं गृहीतं एवं कुमारण पृष्टे गुरुः प्राह सर्व तदीयं वृत्तान्तं कुमारस्तञ्चरित्न श्रुत्वा युवतो स्वरूपमेवं विचिन्तयति अणरज्जति खणेण ऊबईअो खणण पुणी विरजति अबबरागनिरया हलिद्दरागुव्व चलपेमा १ इति विचिन्त्य कुमारोपि वैराग्यात्प्रब्रजित: यथासौ अगड़दत्त: प्रतिबुइजौवो पूर्व द्रव्या सुप्तः पचानावा सुप्तोपि इह लोके परलोके च ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं २०४१ मा भाग
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१८.
नाका मुखी जातः ६ चर पयाई परिस कमाणा जं किंचिपास इहमन्त्रमाणो लाभंतर जीवीयबूहइत्ता पच्छा परिवाय मलावधंसी ७ साधुः सयममार्गे अ०४४ पदानि धर्मस्थानानि परिशमान: चारित्रदूषणानि बिचारयन् चरेत् सयममार्ग विहरेत् किं कुर्वाण: यत् किञ्चिदपि गृहस्थपरिचयादिकं प्रमादपदं
दुश्चिन्तनादिकं बन्धस्यहेतुत्वात्याशं इव मन्यमान: पुन:साधुर्लाभांतरे जीवितं हयित्वा पश्चात्परिज्ञाय मलापध्वंसौ स्यात् कोर्थ:एकस्मालाभात्अन्योलाभी लाभांतरं तस्मिलाभांतरे सति ज्ञानदर्शनचारित्रादीनां लाभविशेष सति जीवितं शरीरं हयित्वा आहारभाटकदानेन धारयित्वा पचालाभप्राप्त रभाव जपरिजया क्वला इमं मम शरोरं अतः परं ज्ञानादिगुणाजकं नास्तौति परिचिन्त्य प्रत्याख्यान परिजया भक्त प्रत्याख्याय अष्टकर्मलक्षणमलस्य अपध्वंस कोनिवारकः स्यात् ७ अत्र मण्डकचौरोदाहरणं उत्तराध्यन बृहहत्तिगतं प्राकृतं सस्कृतीकृत्य लिख्यते वेवातटे मंडिक नामा तुवकचौरः परद्रश्याहरणा सक्त आसीत् स च दिवसे राजमार्गमध्यस्थः पादयोश्रृंगंडानौति वदन् बद्ध पट्टकपादौ मुखे भृशमाक्रन्दन् तुव्रक शिल्प मुपजीवति रात्री च व्यवहारि गृहे चात्त्रं दत्वा बहुधनं गृहाति नगरीद्यानान्तः स्थित भूमिग्रह कूपे सर्व क्षिपति तत्र चास्य भगिनी कन्या तिष्ठति यांचभारवाहकान सावानयति तान् स निषां स्वयं पाद शौचादि बइपचारपूर्वक भोजनपंक्ता मुपवेश्य विषमिश्रित भोजनदानेन मारयति अपर कूपान्तरनिक्षिपति एवं काले.
वचरे प्पमत्तो ॥६॥ चरे पयाडू परिसंकमाणो जंकिंचि पासं दूहमन्नमाणो। लाभतरे जीविय बृहदूत्ता पच्छा परि किञ्चित् अन्यमपि गृहसंस्तवादिपाशं मन्यमानः इम जाणीने संसारनां काम काज गृहस्था न स्यं परिचयपास रूपकरी जाणे इमनरेषिशे लाभांतरे लाभविशेष सति यावद्दिशिष्टतरज्ञानाद्याप्तिः स्यात् तावत् जीवितं धारणीयं जोहांलगे शरीर थको तप जप नीलाभ होइ तिहां लगे शरीर राखे पश्चात् शरीरं त्यक्त्वा कर्ममलं दूरिकुर्यात् पछे आपणौ प्रज्ञा बुडि करौ सर्वपचखौ अणसण लेइ पापरूप मलने फेडे ७ स्वच्छन्दतानिरोधेन उपैति मोक्षं जौव
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० २०४१ मा भाग
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उ टौका
१८
* ब्रजति सति तेन चौरण तबगरं भृशं मुषितं अन्यदा तत्र नगरे मूलदेवो राजा राज्ये उपविष्टः सकवं राजा तत्र संवृत इति तदाख्यान मुच्यते उज्जयिन्यां
नगयीं सर्वगणिका प्रधाना देवदत्ता नामा गणिकास्ति तस्या ग्रहोचलो नामा व्यवहारि पुत्रः परदेशायाती भोगान् भुक्त मार्गितमर्थञ्च ददाति तस्या एव रहे परदेशायाती राजपुत्रो मूलदेवोऽतिरूप सौभाग्य स्तयैवगुणबुद्दयामानितोऽचलः प्रच्छन्नमायाति भोगानपि भुक्त सातु मूलदेवेन एकमेव प्रेमवती बभूव परं अचल स्तत्स्वरूपं न जानाति एकदा देवदत्ता जनन्या उक्त पुत्रि किमेतेन मूलदेवेन नि:स्खेन अचलमेव भज मूलदेवं त्यज देवदत्ता प्राह पयं पण्डितोऽतीव सौन्दर्य्यादि गुणवान् जननी प्राह अस्य मूलदेवस्य नि:स्वत्वेन सर्वेपि गुणगताः अचलस्य स्वस्खत्वेन सर्वेप्यौदार्या दिगुणाः सन्ति यस्यौदार्य तस्य सर्वगुणाधारत्व चेव मन्यसे तदास्य मूलदेवस्य अचलस्यापि च औदार्यपरीक्षां कुरु ततो देवदत्तया एकादासी मूलदेवस्य पार्वे प्रेषिता एकाच अच लस्य पाई हयोरपि दासोइयं प्रत्येकमेव मुवाच देवदत्ता इक्षुयष्ठि मार्गयति तदा मूलदेवः इक्षयष्ठि सगन्धादिना संस्कारं कृत्वापयति तदा देवदत्ता अम्बां प्रत्याह पश्य मूलदेवस्य विवेकितां तदैव अचलेन इक्षुयष्ठिभूतं शकटं प्रेषितं अथ अक्का मूलदेवस्य दृषिणी अचलस्य पाखें गत्वा देवदत्ताया मूलदेवा सक्त स्वरूपमूचे अचलेनोक्त तथा कुरु यथाई मूलदेवं गृहामि तयोक्तमवश्यं मया तद्भोगावसरो ज्ञाप्यः अचलेन तस्यादौनाराष्टगतं दत्तं सा गृहे गत्वा देवदत्ताया इदमकथयत् अचलोऽद्य त्वरितकार्यसमुत्पन्ने क्वचिदग्राम चलितोस्ति सोऽद्य नायास्थति तथाप्यद्य दिनसत्कं भाटकं प्रेषितमस्ति एवमुक्कादौना राष्टशतं तया देवदत्ताया दत्तं देवदत्तयापि मूलदेवस्तदानीमाकारित: सोप्यागतस्तस्थाः शयनीयेसु स्वाभीगे प्रवृत्तः तस्यां वेलायां तयाऽकया मूलदेव देव दत्ता संभोगस्वरूपं अचलस्य ज्ञापितं अचलोऽपि सपरिवार स्तत्रायातः देवदत्ता तं सपरिवारमायातं दृष्ट्वा मूलदेवं शयनौयाधश्चिक्षेपः इतस्ततो वस्त्राणि विस्तारयामास अचलस्तु हार स्वपरिवार मुक्ता तद्दा सम्हान्तर्गत्वा शय नौये उपविष्ट देवदत्ता तु न किञ्चिदुवाच नापि तस्य किञ्चिहिलेपनायुपचार
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं .उ.१४मा भाग
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.टौका
१८२
चकारचलेन शयनौयाधः प्रविष्टो मूलदेवो ज्ञात: तस्या इदमूचे अद्य मयाऽवस्थेनैवाभ्यङ्गनमाने करिश्थे तदा देवदत्तयोक्तं शयनौयवस्त्रविनाशो भविष्यति स आख्यत् तवापूर्व वस्त्रसहितं अपूर्व शयनोयं दास्यामोत्युक्ता तत्वे वाभ्यङ्ग सानं चकार तमलक्लिबो मूलदेवः शय्याधस्थ इतस्तत बलत् अचलेन शय्या वस्त्रमपसार्य केशेषु महोत्वानिक्कासित: उक्त मुच्चवरेण्याहित्वं जौववेव मया मुक्तः अपराधस्तु तवेदृयोस्ति यत्सांप्रतमेव त्वं मयाहन्ध से परं कृपया त्व मुच्यते त्वमपि कदाचिन्ममापराधे ईदृशोभूयाः एवमचलेनोक्तो लज्जितो मूलदेवः कुमार उज्जयिन्यानिर्गतोवेवा तटमार्गे प्रस्थपितः तदा तस्य एकः पुरुषो मिलितः मूलदेवेन पृष्ट'क्क त्वं यास्यसि तेनोक्त वेब्रा तटेयास्यामि मूलदेवेनोक्त अहमपि तत्रैव प्रस्थितीस्मि आवां सहैव व्रजाम: तेनोक्त एवं भवविति * हावपि सहेव प्रस्थितौ तस्य पुरुषस्य शम्बलम्बर्त्तते मूलदेवस्य किमपि शम्बललं नास्ति अन्तरा अटवी समायाता हावण्यटव्यां प्रविष्टौ मूलदेवचिन्तयति.
एष में सम्बलविभागं करिष्यते स च भोजनसमये स्वयं भुक्तं न किञ्चिद्ददाति मूलदेवस्तु चिन्तितं अद्यानेन न किञ्चिहत्त परं कल्पेदास्यति इत्याशयेवाग्रतो गच्छति एवं दिनत्रयं यावन्मूलदेवेन न किञ्चिन्नच न किञ्चिद्भुक्त' चतुर्थदिने मूलदेवेन स पुरुषः पृष्ठः अत्र क्वचित्प्रन्यासन्नी ग्रामोस्तिन वा तेनोक्त' इत स्तिर्यक् प्रदेशनाति दूर ग्रामा वर्त्तते परमहं तत्र नायास्यामि अग्रे यास्यामौत्युक्त्वा स पुरुषोऽग्रे चलितः मूलदेव एकाक्ये व तबगत: भिक्षा ममता च मूलदेवेन राहा कुस्माषालब्धाः तान् वस्त्राञ्चले गृहीत्वा मूलदेवी प्रामावहिर्याति तावतामासोपवास पारणके यतिरेकोभिक्षार्थ ग्रामान्तः प्रविशन् मूलदेवेन दृष्टः भक्त्युलासेनते कुल्याषा मलदेवेन तस्मै साधवे दत्ताः साधुरपि द्रव्य क्षेत्रकालभावशहां स्तान् एहौतवान् मूलदेवेन परमया भक्त्या भणितं धवाएं खुनराणं कुम्मासाहुन्ति साहुपारणए अथ तत् प्रदेशाधिष्ठाया देव्या मूलदेवस्योक्त वत्सए तस्या गाथाया हितौवा यन्मार्गयसि तहदामीति मूलदेवेन गाथा द्वितीयाईमिदं कृतं गणि अञ्चदेवदत्तं दन्ति सहस्मञ्च रज्जञ्च देवतया भणितं एतत्तवाचिरेण भविश्चति ततो मूलदेवी बेबातटे गतः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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स.टीका
१८३
देश्य कुव्यां सुप्तः तत्र कार्य टिकापि बहवः सुप्तास्मन्ति तेषां मध्ये एकेन कार्य टिकेन स्वमुखे प्रविचन्द्री दृष्टः तादृश एव स्वप्नो मुसदेवन दृष्टः कार्य टिकेनतु प्रातरुत्थाय गुरीः पुरः स्वप्न उक्त: गुरुणापित्व मद्य वृत गुड सहितं मण्डक प्राप्मा सौति बभाषे मूलदेवस्तत उत्याय नगरान्तः स्वप्नपाठकगई गत्वा धन विनयं कृत्वा स्वप्नपाठकाय स्वप्रमाचख्यौ तेनोक्त सप्तमदिवसे तव राज्यं भविष्यतीति तस्मिन्नवसरे तत्रा पुत्री राजामृत: सामन्तैमन्चिभिय पदाभिषिक्त: हस्ति सप्तमेदिवसे मूलदेव समीपे समायाना हेषारवञ्चके खपृष्ठौ मूलदेव मध्यारोपितवान् सामन्ताद्यैर्योग्यीयमिति कृत्वा राज्ये अभि षिक्तः सप्तमे दिवसे मूलदेव स्त्र सहव दन्तिराज्य प्राप्तः उज्जयनी तृपण साई प्रौतिञ्चकार अनेक द्रव्य लक्षप्राभूतानि प्रेषितवान् एकदा मूलदेवेन तत्पादं देवदत्ता मागिता तेन प्रौतिपरवशेन प्रेषिता मूलदेवेन वपट्टरानी कता तया समं यथेष्ठ मूलदेवा भोगान् भुंक्त अन्यदा तत्र समुद्रमार्गा दचलः समायात: माण्डपिकैः शुक्लचौर्या बहो मूलदेवराज्ञ: पुर आनौत: मूलदेवराजा उपलक्षितः कथितञ्च त्वौं मामुपलक्षयति साहकस्त्यां नोपलक्षयति त्व महाराजः मूलदेवेनोक्त' सोहं मूलदेव ईत्युक्खा बन्धनान्मोचिती विसर्जितश्च एवं मूलदेवस्तत्र निश्चन्ती: राज्य करीति स मूलदेवी नगर लोकेभ्य चौर पराभवं ज्ञात्वाऽन्य नगर रक्षक कतवान् सोपि चौरं गृहीतुन शक्त: तदा मूलदेवः स्वयं नौलप प्रात्य रात्रौ निर्गत: इतस्त तो भ्रमयन् यत्र सतुबकी मण्डि कचौरोऽस्ति सबै वायातस्त त्याचे कपटनिद्रया सुप्तः अपरेपि दारिद्युभग्नाः पुरुषास्तत्र सुप्तास्मन्ति मखकेन तावता क्रन्द क्वता यावन्मध्यरात्रिः समायाता तदानीं तत उत्थाय सर्वेष्य त्यापितः मूलदेवीप्यु स्थापित: आयां तु मया साई सर्वानपि धनवत: करीमौति वदन तैः साई पुरान्तर्धात्वा एकस्य धनिकस्य रहे चावं दत्वा बहनि धनानि निष्कास्य सर्वेषां तेषां शिरसि पोट्टलकादत्ताः मूलदेवस्य शिरसि एकः पोह लिकादत्तः सर्वेप्यो कत्वा स्वयं खड्डपाणिः पृष्टौ स्थितः श्मशानान्तर्भू मिर्य हे सर्वेपि प्रवेशिता पोडलकधनानि कूपान्तच्चिक्षेप सर्वेषामपि तेषां पाद
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा.सं २०४१ मा भाग
२५
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टीका
अ०४
૪
शौचं तत्त्रस्थया चौर भगिन्यादत्त स्वयं पादचालनञ्चक्रे मूलदेव पादचालनावसरे तत्पादतलेपद्म' दृष्ट्वा कुमार्यादिना चिन्तित कोम्ययं महान् राजेति ज्ञात तौनायं मया विनास्य इति मत्वा तया मूलदैवस्य नेत्र संज्ञाकृता सततो मूलदेवो नष्टः पश्चात्तया चौरस्य स्व भ्रातुरुक्त' एषः पुरुषोनष्टः भ्रातापि गृहीत खगस्तत्पृष्ठौ चलितः मूलदेवोपि प्रत्यासन्न्रमायातं दृष्ट्वा क्वचित् स्थाने बब्बर पाषाण शिवलिङ्ग स्त्रोत्तरीय वस्त्र णाच्छाद्य स्वयमन्तरितः स्थितः कोपा वन चौरेण तत्रागत्य स एवायं पुरुष इति कृत्वा शिवलिङ्ग मस्तके कङ्क लोहमयं खङ्गप्रहारोदत्तः तच्छिवलिङ्ग विधाकृतं हतो मया स पुरुषः इति जानन् स्वस्थाने गत्वा सुप्तः प्रभाते समण्डिक तुनकखतुः पथान्तः समागत्य तथैवक्रं दान् कुर्वन् स्थितः राजा च प्रभाते स्वपुरुषेः स आकारितः राज पुरुषेषु तत्त्रायातेषु तेन चिन्तितं तदानों मया स पुरुषो न हतः किन्तु दृषदावेव खगप्रहारोदत्तः योनष्टः पुरुषः सोवश्य मत्रत्यो राजा ते नैवमे पुरुष माञ्जातु ं प्रेषिताः यामिता वृत्तव अथेतो न नष्टुं शक्यते यज्ञाव्य' तद्भवत्विति चिन्तयन्त्रेवासीतैः पुरुषैः शनै शनैर्व्रजन् राजसभायामानीतः राज्ञाप्यसौ अभ्युत्थानादिना मानितः असने निवेशितः आश्वासितः स्वनेपथ्य समस्तस्य नेपथ्योदत्तः स्वभोज्यसमभोज्यमपिकारितः अन्यदातस्य उक्त स्वभगिनों मम देहि तेन सा दत्ता सा परिणीता राजा स्वप्रे मपात्रौ कृता अन्यदा राजा उक्त द्रव्य मे विलोक्यन्त त्वं धना खकौयोसि ततो मे द्रव्य देहि तत् चिन्ता तु ममैवास्ति तेनराजमार्गितं द्रव्यं दत्त स राजवार्श्वे सुखेन तिष्ठति अन्यदा पुनरपि राज्ञाद्रव्य' मार्गिर्ततेन दप्तराज्ञा तस्य पुनर्महान् सत्कारः कृतः पुनरपि राज्ञाद्रव्य'मार्गितं तेनापि दत्त एवमन्तरान्तरा राज्ञा सत्कारपूर्वतस्य द्रव्यग्गृहीतं भगिनो पृष्टा अवास्त्यस्य किचिनं सा प्राह श्रयं रिक्तीकृतस्त्वया नातः परमस्य किञ्चिद्दनमस्तोति श्रुत्वा रानासौ मण्डिकञ्चौरः शूलायामारोपितः अत्रायमुपनयो बधाय मकार्यकार्यपि मण्डिकचौरो मूलदेवेन यावल्लाभं तावत् रक्षितः तथा धर्मार्थिनापि संयमलाभहेतुकं जीवितं रक्षणीयं यावत्कालं संयमलाभः तावत्कालं जीवितमौषधादिभिः कृत्वा रक्षणौयं नान्यथेति कंद
A
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४ १ मा भाग
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छ टीका
Noc
निरोहण उवेद मोक्व' पासे जहा सिक्वियबम्मधारी पुवाई वासाई चरेपमत्तो सम्हामुणी खिप्प मुवेइ मुक्त ८ साधुच्छ'दी निरोधेन मोक्ष उपेति गुर्वादेशं विनैव प्रवर्तनं छन्दस्तस्य निरोधी निवारणं तेन गुन्निया प्रवन नेन निर्भयस्थानं प्राप्नोति को यथा शिक्षित वर्मधारी अखो यथा यथा शब्द इवार्थे शिक्षा जाता अस्यै ति शिक्षित: वर्मसवाहं धरतीति वर्मधारी सबाह धारकः एतादृशः सुशिक्षितः कवचधारौ चाखोऽम्ववारशिक्षायां स्थित इन्दो निरोधेन स्वेच्छागमननिषेधेन मोक्षं प्राप्नोति निर्भयं स्थान प्राप्नोति शत्रु मिहन्तुं न शक्यते हे साधो पूर्वाणि पूर्वप्रमितानि वर्षाणि यावत् अप्र मत्तः सन् चर साधुमार्गे विहर तस्मात् अप्रमत्तविहारामुनिः क्षिप्रं मोक्षं उपैति ८ अत्र कुलपुत्चशिक्षिताऽवइयोदाहरणं एकेन राज्ञा इयो: कुल पुच्चयोः शिक्षणार्थ अखौ दत्तौ एकेन कुलपुत्त्रेण प्रथमोधावन वलामादि कला शिक्षितो दितीयस्त धितीयकुलपुत्त्रेण न शिक्षित: संग्रामावसर प्रथमोऽसो अथ कः पोतइव संग्रामसागरमवगाह्य पारं गतः सुखी बभूव हितोयस्तु संग्राममध्ये एव मृतः अचायमुपनयो यथासावश्वः कुलपुत्रेण शिक्षितः तथा धमार्थ पि स्वातंत्राविहरतो गुरुशिक्षितः शिवमाप्नोति स पुज्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोवमा सासयवाइयाणं विसीयई सिढिले पाख्यंमि कालेवलौए सरीरस्म भए । यः पुरुषः पूर्व एव अप्रमत्तत्वं न लभेत स पुरुषः पथादपि पूर्वमिव अप्रमत्त त्वं न लभेत एषा शाखतवादिनं निरुपक्रमायुषां उपमा
माय मलावधंसी ॥७॥ छंदं निरोहण उवेदू मोक्खं आसजहा सिक्खियवम्म धारौ। पुळ्याहू वासाडू चरीप्यमत्तो आपणो बन्दो रुधे आपणी चतुराइ कांइ न कर ज वीतराग कह्यों के तिम गुरुनी आज्ञा लईन कर ती माक्ष जाय अश्वी यथा शिक्षित: वापधारो जिम घोड़ा शिक्षित भली पाखर पेहेरावी के असवार नाम न कड़े चाले तो वेरी जीती आवै तिम साधु पणो इच्छा रंधती मीच जाय पूर्वाणि वर्षाणि चरेत् अप्रमत्तः साधू पूर्वबर्ष लगौ अप्रमत्त थको विचरे तस्मात् साधुः शीघ्र उपैति मोक्ष एहवी करणौ करे तो साधू उतावली मोक्ष जाय ८ स पूर्वमेव
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२.४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका
युक्ति: यादृशो जीवः पूर्व स्यात्तादृशः पश्चादपि स्यात् इति शाखतवादिनी वदन्तीत्यर्थः आयुषि सिथिले जाते सति शरीरस्य भेदेकाले उपनौते सति मर अ०४ १८६ निकटे समागते सति विखोदति विषित्रो भवति अत: कारणात् पूर्वमपि पश्चादपि च न प्रमाद्यं खिप्पन सके विवेगमेउ' तम्हा समुट्ठाय पहाय
कामे समिञ्च लोग समया महसौ अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्ती १. हे भव्य क्षिप्र शीघ्र विवेक द्रव्यभावेन सङ्ग त्यागरूपं एतु प्राप्त भवान् न शक्नोति
न समर्थो भवति तस्मात् आत्मरक्षी सन् अप्रमत्तश्च सन् त्वं विचर किं कृत्वा समुत्थाय सम्यक उद्यम विधाय पुन: कि कृत्वा कामान् इन्द्रियविषयान् सूत्र तम्हा मुणिखिप्प मुवेदू मोक्खं ॥८॥ स पुवमेवं नलहेज्जपच्छा एसोवमा सासयवा इयाणं । विसीयई सिढिले आउ
यंमि कालोवणीए सरीरस्म भए। खिप्प नसक्के इ विवेगमेउं तम्हा समुठ्ठाय पहाय कामे। समेच्च लोग समया भाषा ४ न भैलत् पश्चाइम्भ करिष्यामि कोइ जीव इम जाण हवण खाउ पौउ पछे मरणकाले धर्मकरी स पछे कोण जाणे मनना परिणाम किस्था एहोये ते
भणी पेहे लांज धर्म करोइ एषा उपमा शाखतवादीनां निरुप क्रमायुषां पछे धर्मकरीश उपमा शाखतवादी पाउषाना धणीने सोभे बीजाने न शोम विषादं गच्छति शिथिले आयुर्बले सिथलौभूते पहिला धर्म कोई नहीं पछे आऊखू पूर्ण थये जीव घणु विषवाद पमि दुखी थाय कालोपनौते शरीर
भेदे सति मरण पाव्या थका झरे मे धर्म न कौधो हवे माहरो सौगत थासे में प्राण प्रायेण शीघ्र विवेकमान न शक्तीति प्राणी मरणसमे उतावली 8 त्याग रूप विवेक पालौ सके नही तस्मात् समुत्थाय त्या कामान् तिणे कारण कामभोग छांडौने धर्मने विषे उद्यम कर ज्ञात्वा लोक समतया
महर्षिः लोकनुस्वरूप देखौने समता रसे करौ झोलतो थको विचर आत्मारक्षकः चरेत् अप्रमत्तः सन् साधु केहवा छ वात्मानी रक्षक के अप्रमादौ थको
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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उ० टोका
श्र० ४
१८७
सूत्र
भाषा
XXXX*
प्रकर्षेण हात्वा इति प्रहाय त्यक्का पुनः किं कृत्वा लोक प्राणि सम हं समया यत्रुमित्रोपरिसाम्यभावेन समित्य सम्यग् ज्ञात्वा १० अत्र ब्राह्मणोकथा एको ब्राह्मणः परदेशे गत्वा सर्वशास्त्रपारगो भूत्वा खदेमे समायातः तस्य प्रकामपाण्डित्यं दृष्ट्वा एकेन ब्राह्मणेन कन्या दत्ता तेन परिणौता सच लोके भृशं दक्षिणां लभते धनवान् जातः तस्या भार्यायास्ते न बहनि श्राभरणानि दत्तानि सापि तानि स्वाने परिहितान्येव रचति नचांगात्कदाचिदम्युत्तार यति तेनैकदा तस्याः कथितं एष तुलग्रामोस्ति नित्यमाभरणपरिधानमयुक्त कदाचियद्यत्र चौराः समायान्ति तदा तवाङ्गकदर्थना भवति सा प्राह यदा चौराः समायास्यन्ति तदा त्वरितमङ्गादाभरणान्यहमुत्तारयिष्यामि श्रन्यदा तस्या गृहे एव चौराः समायाताः सा तदानीं निबडमङ्गलग्नान्याभरणानि स्वांगादुत्तारयितमसमर्थाः तथैव स्थिता तस्यासाभरणाः पाणाद्यवयवांछित्वा तैर्गृहीताः साच महतीं कदर्थनां प्राप्ता मृता एवमन्येपि प्राकृतकविवाक कालेन विवेकमेतु' शक्नोति समिच्च लोगं समयामहेसी अप्पाण रक्खौ चरमप्पमत्तो व प्रमाद परिहारा परिहारयो वणिग्महिलइयो रुदाहरण एका वणिग्महिला प्रोषित पतिका निजवपुः शुश्रूषा पराग्टहव्यापारेषु प्रमत्ता दासादीनां यथाहं भोजमाद्यपि श्रददाना तैर्मुक्ता ततो गृहागतेन भर्त्ता स्वग्टहे भृत्य विभवहानिं दृष्ट्वा सास्त्रो निष्कासिता ततो वणिजा बहुद्रव्येण श्रन्या परिणीता सा च न स्वदेहश्शुश्रूषां करोति यथाहं भृत्यान् भोजयन्ती कार्येषु नियुञ्जयन्तौ च भर्वा गृहस्वामिनी कृता इहैव जन्मनि प्रथम स्त्रौवत्प्रमादाद्दोषान् प्राप्नोति अप्रमादात् द्वितीय स्त्रीबद्गुणान वाप्नो महेसौ अप्पाण रक्खौ चरप्पमत्तो ॥ १० ॥ मुह २ मोह गुणो जयं तं अणेगरूवा समणं चरं तं फासा फुसंति असमं विचरं जीव रक्षा करतु १० मुहुर्मुह बरिंबारं शब्दादीन् जयंतः साधु केहवा के वारं२ मोहनी जोते के संयममार्गे गच्छन्तु अनेकरूपस्पर्शा स्पृशन्ति अ मञ्जसं अनुकूलं प्रतिकूलं यथा स्यात्तथा नाना प्रकारे साधुने विचरतांने स्पर्धा अनुकूलं यथास्यात् नानाप्रकारना स्पर्श आवोसाधुने फरसे के मूंडा भला
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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१ टीका
तौत्युपनयः १० मुहु मुई माहगुणे जयन्तं अणेगरूवा समणश्वरन्त फासा फुसन्तौ असमञ्चसच्च न तेसु भिक्खू मणसापत्रोसे ११ स्पर्शाः सृश्यन्ते इन्द्रिय
रिति स्पर्शा: शब्दादयो विषयाः श्रमणं साधं असमञ्जसं प्रतिकूलं यथास्यात्तथा स्पृशन्ति साधं प्रति दुःक्खदा भवन्ति कौदृशाः स्पर्शः अनेक रूपाः वयो. १८८ *
8 विंधति विधाः साधु किं कुर्वन्त' मुहुर्मुटु र २ मोहस्य गुणान् जयन्त' शब्दादि विषयान् जयन्त भिक्षुस्तेषु प्रतिलामेषु अनुलोमेषु वान प्रादु
थेत प्रवेषं न कुर्वोत न च हर्षितोपि भवेत् इत्यर्थः ११ मन्दाय फासा बहुली हणिज्जा तहप्पगारेसु मणं न कुष्जा र खेज्ज कोहं विशाइन माण' मायं न मेवेज्ज पहिज्ज लोहं १५ च पुनःसाधुस्तथा प्रकारेषु विषयेषु मनी न कुर्या तथाप्रकारेषु इति कोशेष स्पर्धाः कीदृशाः सन्ति तानाह स्पीः मन्दावर्तन्ते मन्द यन्ति विवेकिनं इति मन्दाः पुनः कीदृशाः स्पाः बहुलोभनीयाबहुलीभयन्ति लोभ मुत्पादयन्तीति बहुलोभनीयाः पुनः साधुः क्रोधं रक्षेन पुनर्मानं
जसंचनतेमुभिक्खूमणसाप उस्मे ॥११॥ मंदाय फासा बहुलो हणिज्जा तहप्पगारसु मणं न कुज्जा। रक्वेज कोहं नतेषु भिक्षुः मनसा प्रदेषं कुर्यात् ते स्पर्थ उपरि साधू हेष न आण ११ मन्दयन्ति विवेकिनमज्ञता नयन्ती मन्दाः प्रचुरः लोभनामा स्त्रीना स्पर्थपुरुषने मन्दपणे मूढ़पणे घणु लोभावेछे तथा प्रकारेषु स्पर्शादिषु मनो न कुर्यात् तथाप्रकार साधूस्त्री तणाहाव भावस्पर्शनने विषे मन स्फे टयेत् क्रोधं विनिवार येत् मानं साधु क्रोध न करे मान फेड़े मायं न सेवयेत् लोभं स्फे टयेत् मायाने न सेवे लोभने टाले १२ ये संस्कृताः तुच्छतत्त्वज्ञाः बौदाद्याः ते संस्कृत
भाषाना बोलणहारतुच्छपरवादी वादना करणहार ते प्रेमद्देषानुगताः परवसाः ते रागद्दे धने वसि पचा परवस पड्या थका फरसे के एते परवादिनी • अन्यतोर्थिकाऽधर्माः तान् निन्दन् ए पर अन्यतौर्थोऽधर्मीने निन्दतो धको अभिलिखेत् जानादीन् गुणान् यापम त्तिः समाप्तो ब्रवीमि साधु संयमनागुण
बांछ संयमने विष वः जिहां लगे शरीरभेद न पामे तिहां लगेधर्मने विर्ष प्रवत्त १३ इति चतुर्थ अध्ययनं असंस्कृतम् संपूर्णम् ॥ अथ अकाममरणं
सूब
राय धमपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०७• ४१ मा भाग
भाषा
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टीका
अ०४
१८८
सूत्र
भाषा
उत्तराध्ययने असंस्कृताधिकारम् सम्पूर्णम् भावितात्मा अणगार श्रीबूटे रायजी तच्छिष्य भगवान विजय साधुना संशोधितम् विनयेत् गर्व॑स्फेटयेत् मायां न सेवेत लोभं प्रसयात् परित्यजेत् जेसङ्ख्या तुच्छ परष्पवाई तेपिज्ज दोसाण गयापरज्मा एए अहम्मुति दुगष्यमाणो क गुणे जावसरौरभेउत्तिवेमि १३ ये परप्रवादिनः संस्कृताः तुच्छाः यदृच्छाभि धानतयानिः साराः तेपिज्जदो साल गया प्रेमहेषानुगताः रागद्वेषानुगताः सन्ति पुनस्तेपरज्माः परवशाः रागद्वेषग्रस्ताः सन्ति एते अधर्महेतु त्वात् श्रधर्माः इति श्रमुना प्रकारेण जुगुप्स, मानः तत्परिचयंनिवारयन् मिन्दायाः सर्वत्र निषेधात् न निन्दत् गुणान् ज्ञानादौन् कांक्षेत अभिलषेत् कथं यावत् शरीर भेदः शरीरस्य भेदः पतनं स्यादित्यर्थः इति प्रमादाप्रमादयो र्हेयो पादेय स्रुचकं असंस्कृत प्रथम पदोपलचितं श्रसंस्कृताख्यं चतुर्थ मध्ययनं सम्पूर्ण ४ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दीपिकायां उपध्याय श्रम कौर्त्तिगणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभ गणिविरचितायां चतुर्थाध्ययनस्यार्थः सम्पूर्णः ॥ ४ अथ पूर्वाध्ययने यावच्छरोर भेद इति ब्रूयतामरण कालेऽपि श्रप्रमादः कार्य इत्युक्तं सचमरण विभाग ज्ञानतः स्यात् अतो मरण भेदमाह इति चतुर्थ पचमयोः सम्बन्धः अस्य सिमहोहंसि एगेतिये दुरुत्तरं तत्यएगे महा पने इमं पहुमुदाहरे १ त्र्याख्या एके महापुरुषागौतमादयः घातिकर्म रहिताः अर्णवात् संसार समुद्रान्तीर्णाः पारं प्राप्ताः कीदृशात् अर्णवात् महौघात् विणएज्जमाणं मायं नसेवेज्जपहेज्जलोहं | १२ || जेसंख्या तुच्छपरप्पवाइतेपेज्ज दोसाणुगया परज्मा एए ग्रह मोति दुग' छमाणोकंखेगुणे जावसरीरभे उत्तिबेमि | १३ || असंख्यज्भयां सम्मत्त' । असवंसि महोहंसि एगेतिनं दुरुत्तरे अध्ययनं प्रारभ्यते ४ अर्णवे महौ घेस सारसमुद्र महा जेहनी प्रवाह के एहवो संसारसमुद्र बोहा मणी के एकः कथित् दुरुत्तरं विषमस्थानं सौर्य एक
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राब धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं ०० १४ मा भाग
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१.टौका
महान् पोधोवस्य समहौषस्तस्मात् अत्र प्राक्ततत्वा विभक्ति व्यत्ययः हे जंबू तत्र देवमनुथ सभायां एकस्मिन् काले अन भरतक्षेत्रे एकस्य तीर्थ करस्य विद्यमानत्वात् एकोमहावीरः इमं प्रश्न प्रष्टव्यार्थ रूपं प्रश्रयोग्य वाक्यं उदाजई उदाहतवान् कथं भूत: एक: महाप्रान्तः महतो केवलामिका * प्रज्ञाञप्तिर्यस्य स महाप्रज्ञः १ सन्तिमय दुवेठाणा अक्वा या मारणंतिया अकाम मरणच्चे व स काम मरणन्तहा २ इमे प्रत्यक्षे स्थान प्राख्याते जीवनि ४ वासावयौ आख्याती पूर्वतीर्थ करैः कथिती कौशद्देस्थाने मारणान्तिके मरणमेव अन्तो मरणान्त स्तन भवं मारणान्तिक तस्मिन् मरणावस्थायां जाते ४
इत्यर्थः तद्दे स्थान एक काम मरणच पुन रन्धत् तथा सकाम मरण अकाम मरण बाल मरण स काम मरण पण्डित मरणचव शब्दीपादपूरणार्थों ॐ मरण सप्तदशधा भावीचीमरण' १ पावधिमरण' अन्तिम ३ बलय ४ वशावर्त ५ अन्तः शल्य । तव ७ पणित ८ बाल ८ मित्र १. छद्मस्थ ११ 8 केवलौ १२ विहायस१३ हपृष्ठ १४ भत्तपरिज्ञा१५ इङ्गिनी.१६ पादपोपगमन १७ १ बालाण अकाम त मरत असयंभवे पण्डियाण सकामं
तु उक्कोसेण सयंभवे १२ बालानां मूर्खाणां अकामं पकामेन अनौमितत्वेन मियते अस्मिन् इति अकाम मरण' असक्तत् वारं वारं भवेत तु पुन: पण्डिता सकामं सहकामे न ईप्सितेन म्रियतेऽस्मिन् इति सकामं मरण यस्मिन् आगते सति असन्त्र स्थ तया उत्सव भूतत्वेन सकामं इव सकामं
तत्यएगे महापन्ने इमंपग्रह मुदाहरे ॥संतिमेय दुवेठाणा अक्खाया मारणंतिया अकाम मरणंचेव सकाम मरणं * महापुरुषतीर्थकर साधु ए संसारसमुद्रतस्या दुस्तरः तत्र एको महाप्राज्ञः तिहां एक महाबुद्धिवन्तः इदं प्रश्न उदाहरेत् कथितवान् एक साधु ए प्रश्न * कहे तो तो १ सन्ति विद्यते मे मम हे स्थानके सन्ति के माहरे दोयस्थानके आख्याताः मारणांतिकाः कया मरणने अवसर एक अकाममरणं निश्चये * न एक स्थानके अकाममरण कर्जा द्वितीयं सकाम मरणं तथा वौजु स्थानक सकाम मरणनी कह्यः २ बालानां मूर्खाणां विवेकरहिता नां प्रकामजे
RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRO
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
सूब
भाषा
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१ टीका प.५ २०१
तादृशं मरण पण्डितानां उत्कृष्ट स क्वत् एक वारं एव भवेत् उत्कर्षेण उपलचितं केवलि सम्बन्धि इत्यर्थः जघन्य न तु शेष चारित्र वत: सप्ताष्टवारान् * भवेत् तस्थिमं पढ मण्ठाण महावीरेण देसियंकामगिद्दे जहा बालेभिसंकूराइकुब्बई ४ तत्रतयोदयोमरणयोर्मध्ये प्रथम स्थानं महावीरेण अकाम मरण
देशितं कथितं तथा येन प्रकारेण कामवाः कामेषु इन्द्रियसुखेषु गृहाः कामग्रवाः विषयिणो जीवाऽत एव बाला मूर्खा भृशं प्रत्यर्थं वारम्बार अकाममरणं अति कुर्वते अशक्तौ अपि मनसा दुष्कर्माणि कृत्वा मुहुर्मुहु नियन्ते इत्यर्थः कीदृशा मूर्खाः क्रूराः ४ जेगिद्दे काम भोगेसु एगे कूडाय गच्छई न मेदिट्टे पर लोए चक्षुदिट्ठा इमारई ५ कामभोगेष यः एकः कश्चित् क्रूरकर्मा पुरुषः कूटाय नरकस्थानाय 'नरकस्थानं गच्छति नरक व्रजति इत्यर्थः कूटं प्राणिनां पीडाकरं स्थान द्वितीयास्थाने चतुर्थी प्राकृतत्वात् अथवाय एकः कश्चित् कामभोगेषु गृहः स कूटाय गच्छति मृषा भाषादिकूट
तहा ॥२॥ बालाणं अकामंतु मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामंतु उक्कोसणं सर्दू भवे ॥३॥ तत्थिमं पढमं ठाणं
महावीरेण देसियं । काम गिद्धे जहा बालेभिसं कूराई कुब्बई ॥४॥ जे गिद्धे काम भोगेसुएगे कूडाय गच्छई। नमे * मूर्खनानी पापना करणहार एहवो मनुष्यने अकाममरण होई असकृत् वारं२ भवेत् बालने अकाममरण बारंवार होई पण्डितानां सकामं तु पण्डितध Bी माणसने सकाममरण होइ उत्कर्षेण केवलौनामेकवारं भवेत् पण्डितने सकाममरण एक जवार होइ३ तब अकाम सकाममर्णयोर्मध्ये प्रथम अकामं
स्थानं पहिलु अकाम मरण स्थानक महावीरेण देशित प्ररूपीतं श्रीमहावीर देवे कह्यं काम लोलुपः सन् यथामूर्खः कामभोगने विषे ग्रह हो थको * वालमूर्ख भृयं अत्यर्थ क्रू राणि हिंसादीनि कर्माणि करोति अतिक्र र हिंसादिक कर्म करे ४ जे आसक्ताः स्त्रीसम्भोगेषु विलेपनादिषु जे मनुष्य काम
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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8 तस्मै प्रवर्तते तं प्रति कविहक्ति भीत्वं धर्म कुरु तदा स वक्ति मया परलोको न दृष्टः इमाइयरतिः कामभोग मुखरतिः चक्षुर्दृष्टा प्रत्यक्षं दृश्यमाना वर्तते ५ हत्या गया इम कामा कालिया जे अणागया को जाणइ पर लोए अस्थि वा नयि वा पुणो ६ इमे कामाः कामभोगाः हस्तागताः हस्ते आगताः हस्तागता स्वाधीना वर्तन्त इत्यर्थः ये अनागताः आगामि जन्मनि भविष्यन्तौति आगामिनः कामभोग सुखास्ते कालिका कालेभवाः कालि काः अनिश्चिताः को जानाति परलोकः परभवः अस्ति वा नास्ति वा इतिभावः ६ जणण सहि होक्खामि इइबाले पगम्भई कामभोगाणराएणं कसं * सम्पडिवज्जई ७ तत: स कामभीग रसग्रहः पुमान् बाल: इति प्रगल्भते इति धायं गृह्णाति इत्युक्त्वा धृष्टो भवति इतौति किं अहं जनेन साई भवि
दिठ्ठ परेलोए चक्खु दिट्ठा दूमा रई ॥५॥ हत्या गया इमे कामा कालिया जे अणागया। को जाणडू परेलोए ____ अस्थिवा नत्विवा पुणो ॥६॥ जणेणसद्धिं होक्खामि इडू बाले पगम्मई । काम भोगाणु राएणं कसंसं पड़िवज्जई ॥७॥ * भोगने विषे रख हुवा के लपटाई रह्या के एक मृषा भाषा गच्छन्ति से एकांति कूडो वोले तथा क्रूरकर्म कर न मे दृष्टः परं लीक: परलोकमे दौठो नथौ ।
चक्षुष्टाई मारतिः एकाम भोग ए स्त्रीनां सुख प्रत्यक्ष दौसे के ५ हस्तागताः इमे कामाः एकाम भोगहस्त प्राप्त के एकाम भोग कुंभोग वु एते. * कालिकाः शब्दाद्याः ये आगताः एकामभोग छोडौने धर्म करो जिम आगे सुख पामो कोण जाणे आगे कि स्य छे भागे कुणे दौठं के को जानाति पर
लोक: कोण जाणे परलोक प्रस्ति वा नास्ति वा के किंवा नही के लोकेन साई भविष्यामि लंपट थकी धठार कर जिम एतला लोकनी गति इस्ये तिम माहरौ पणगति हुस्य इति मूर्खः प्रगल्भ ते अवलंवत इम करौ मूर्ख धौठाई करौ अवलंबे के काम भोगनु रागे न काम भोगने रागे करौ केशंस
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
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१ टीका अ०५ २०३
थामि अयं कामभोग सुख भोक्ताजनी यादृशो भविश्चति तेन साई अहमपि भविथामि सबाल इति उक्ला कामभोगानुरागण कामभोग हेन क्लेशं 8 सम्प्रतिपद्यते क्लेशं इह परत्र च बाधात्मक दुःखं भजते इत्यर्थः ७ तोसे दण्डसमारभईतसेसु थावरेस अ अढाए अणडाए भूयगामं विहं सई ८ ततः * * कामभोगानुरागात् स धागे वान् बसेषु च पुनः स्थावरेषु दण्ड समारभते मनोदण्ड वाकायैः पीडां समारभते अर्थेन द्रव्योत्पादननिमित्त अनर्थेन
निःप्रयोजनेन वा भूतग्रामं भूतानां पृथिव्यप्ते जी वायु वनस्पत्येकेन्द्रियहीन्द्रिय नौन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियादि जीवानां वर्ग विशेषेणहिनस्ति अत्र 8 अजपालकथा यथा एकः पशपाला वटतलेऽजासु सुप्तासु तत्पत्राणि छिद्रौ कुर्वन् अखापहृतन कुतचिदा यातन' कस्यचिद्रासः पुत्रेण दृष्टी भणितश्च
अरे अहं यस्य कथयामि तदक्षौणित्व पातयिष्यसि तेन प्रतिपन्न राजपुत्रेण स स्वनगरनौत: एकदाऽववाहनिकाय गच्छतो राज्ञी चौथि राजपुत्र प्रेरितः सपातयामा स पथात्म राजपुत्री राजाजातः पशपालस्यैव मुवाच वरं वृणुतेनोक्त यत्राहं वसामि तदेव ग्रामं देहि राजा तत्यामन्तस्य दत्तं तेन च तत्र घनास्तम्बवल्ला आरोपिता निष्पन्नेषु चतुम्बेषु गुडेन साईन्तुन्द खण्डानि खादन् गायति अहमपि सिखिज्जा सिक्खियं न निरत्ययं अट्टमट्टप्प सारण खज्जए गुलतुम्बयं १ तेन हि पशपालेन वटपत्राणि अनर्थाय छिद्रितानि अक्षौणि पुनरर्थाय उत्पाटितानि उभयत्रापि प्राणिवधः कृत: इति ८ हिंसे बाले मुसावाई माइले पिसणे सढे भुञ्जमाणे सुरंमंस सेयं मेयं तिमवई ८ सबालः हिंस्रः हिंसनशीलो भवति पुनर्मषावादी भवति
तओ से दंड समारंभ तसैमु थावरेसुय । अठाएय अगट्ठाए भूव गामं विहिंसई ॥८॥ हिंसे बाले मुसाबाई माइल्ले प्रति पद्यते क्लेश पण पड़वजे छ ७ ततः सदण्ड आरम्भ हिंसा समारम्भे ते इस्यो धोठ पणो आदरौने तिवार पछी ते मूरख बसेषु स्थावरेषु जौवेष * बस स्थावरजीवनी विणास कर धनादि कार्याय निरर्थक कार्यने अर्थे निरर्थक बध करे प्राणि न्दं विहिमेब घणा जीवने विध्वंसे मारे ८
राय धनपत सिंह वाहादुर का प्रा.सं.२०११ मा भाग
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14 cH
१ टीका
माइल: मायाकारकः कापट्यवान् पिशुनः परनिन्दक: पुन: शठो वेषाद्यन्यथा करणेन धूत : मूर्यो वा सुरामांसच भुञ्जानाऽपि मे मम एतत् श्रेयः कानि इति मन्यते अतएव शठ इत्यर्थः ८ कायसा वयसामत्त वित्त गिद्ध अइथिस दुही मलं सञ्चिणुई सिसुनागुञ्चमट्टियं १० पुनः कीदृश सका
येनमत्तः पुनःर्वचसामत्तः पुनःवित्त द्रव्ये ग्टनः लोभी च पुनः स्त्रीषु गृहः कायेनमत्तः यतस्ततः प्रवत्तिमान् बलवान् अहं रूपबान् अहं इति इति चिन्त * यन् वचसा आत्मगुणान् कथयन् सुखरोहं इति वा चिन्तयन् उपलक्षणात् मनसा मदाध्यातो धारणादि शक्तिमान् अहं इति चिन्तयन् सदुहोत्ति
इंधा हाभ्यां रागद्देषाभ्यां मलं सञ्चिनुते मलसञ्चयं कुरुते कः कां इव शिशुनाग: अलसो होन्द्रिय जौवविशेषः भूनागः यथा मृत्तिका सञ्चनुते स च स्निग्धतनु तया बहिः प्रदेशे शरीरे रेणुभि रवगुण्यते अन्तश्च मृत्तिकां एव अनाति ततश्च मृत्तिकातो बहिनिसरव सूर्यकिरणे: शुष्यन् विश्थति विन श्यति विनश्य च मृत्तिकाया एव वृद्धि कुरुते तथा सोपिमलं कर्ममलं बई यति कर्मण एव उत्पद्यन्त पुनः कर्ममल वृद्धि करीतीत्यर्थ १० तोपुट्ठी आयङ्केच गिलाणो परितप्पई पभौगो परलोगस्म कम्माणुप्पे हि अप्पणो ११ ततोऽष्टकर्ममल सञ्चयादनन्तरं आतङ्कन रोगन स्पृष्टः सन् ग्लानः ग्लानिं प्राप्तः परितप्यते परिखिद्यते परलोकात् प्रभौतः कथम्भूतः स: आत्मनः कर्मानुपक्षो यदा रोगादिग्रस्ती भवति तदा स्वयं जानाति मम कर्मणां
विपाकोजातः मया पुरायानि अशभानि कर्माणि कतानि तस्मादहं परलोकेपि दुःखौ भविष्यामि इति स्ववतकर्मापेक्षौ खक्कतकर्म विचारक सूत्र पिसुणे सढे । भुज माणे सुरं मंस सेय मेयंति मन्नई ॥६॥ कायसा वयसा मते वित्ते गिद्धे इत्यिम्। दुहओ मलं.
हिंसन् मूर्खः मृषावादी हिंसा करे वाल मृषावाद बोले माइनत्ति मायायुक्तः परदोष भाषको मायाइ करौ सहित चाड़ी खावे निन्दा कर भुजानः सन् मद्यमांसं मद्यमांस खातो थको श्रेय प्रसस्य इति मन्यते श्रेय रुडो करौ माने । कायेन वचसा मदवान् कायाद करौ बचने करीमत्त माती द्रव्ये
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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भाषा
इत्यर्थः ११ सयाम नरएठाणा असौलाणच जागई बालाएं कूरकम्माणं पगाढा जत्थवेयण १२ मेमया नरके स्थानानि श्रुतानि यागतिर्नरकादि
संचिगडू सिसुनागोव्व मट्टियं ॥१०॥ तो पुट्ठो आयंकणं गिलाणो परितप्पई पभीओ पर लोयस्म कम्माण प्येहि अप्पणी ॥११॥ सुयामे नरए ठाणा असीलाणंच जा गई। बालाणं कर कम्माणं पगाढा जत्य वेयणा ॥१२॥ तत्थो ।
ववाइयं ठाणं जहामे तमण्मयं । अहाकम्मे हिं गच्छतो सो पच्छा परितप्पई ॥१३॥ जहा सागडिउजाणं संमं हिच्चा लोलुपा स्त्रीषु लोलुपः वित्त अने स्त्रीविषे राज थको स्त्रीषु छाभ्यां रागद्देषाभ्यां पापां बध्नाति रागद्दे षे करौ पाप बांधे अलस इव मृत्तिका जिमसिशुनाग ६ अलसी आमाटी खाई पेट मांहि माटो रहे पछे तावडे सूकाणथकामरे१ ततः स्पृष्टः आतंके न रोगन पछे रोग आवो फरस्थो ग्लानः सन् परितप्यते 8 खिद्यते ग्लान हुओ पर खेद पामे भौत: सन् परलोकात् परलोक थको बौहतो थको आत्मान: कर्म चौनयति हामया दुष्ट कृतं पापणा कर्म चिंतवे मे 8 मुंडु कौधु ११ तत्र नरकेषु उपपातकं स्थानं उत्पत्तिस्थानं ते नरकुने विष उपजवान स्थानक यथा भवति तनमया श्रुतं अवधारितं ते मेसांभल्यु नही
अवधायु नहीं निज उपार्जित कर्मभि नरके गच्छन् आपणा उपाा कर्म तेणे करो नरकने विषे जातुथको सप्राणी पश्चात् परितप्यते पछे मरण समे ते प्राणी खेद पामे महा भूडौ करणी करौ नरके जाय १२ मे मया नरके स्थानानि श्रुतानि मे नरकस्थानक सांभल्या अशौलाना भील रहिताना या * गति: जे गति यौल रहितपुरुष: बालानां मूर्खाणां क्रूरकर्मणां बालक अचानी मूर्ख क्रूरकर्मना करणहार प्रगाढ़ा दारुणा यत्र वेदना शौती 8
चादिमयो बोहामणौ जोहां सौत उष्णनौ वेदना छे१३ यथा याकटिको जानन् जिम शाकटिकगाडीवान् उद्यानने विष जोतोयको समं महापंथं त्यक्ता
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ० ४१ मा भाग
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१.टोकाx
असौलानां गति विद्यतेयत्रयस्यांगतो कर कम्मणां बालानां मूर्खाणां आत्महितविध्वंसकानां प्रगाढा वेदनास्ति १२ तत्यो ववाइयं ठाणं जहाम तमणुस्म यं अहा कम्महिं गच्छन्ती सोपच्छा परितप्पई १३ तत्र नरकेषु औपपातिकं स्थानं वर्त्तते उपपात भवं औपपातिकं तत्रोपपातिके स्थान अन्तर्मुहर्तादन न्तरं छेदनभेदन ताडन तर्जनादिकं स्यात् यथा यथा तबरकादिस्थानं मे मया अनुश्रुतं वर्त्तते अवधारितं इति चिन्तयन् पश्चात् आयुक्षये यथा कर्मभि गच्छन् स परितप्यति १३ जहा सा गडिउजाणं सम्मं हिच्चा महापहं विसमं ममामीइब्रो अक्वेभमांमि सोयई १४ यथा शाकटिकः समं समीचौन महापथ राजमार्ग हित्वात्यक्ता विषम मार्ग उत्तीर्णः सन् यान शकटं अक्खे धुरि भग्नेसति शोचते शकटं चिन्तयति शकटभङ्गस्य थोकं करोति यताधिग् मां अहं जानन् अपि शकटभङ्ग कष्ट मवाप्तवान् १४ एवं धम्म विउक्कम अहम्म पडिवज्जिया बाले मच्चु मुहं पत्ते अक्वं भयोवसीयई १५ एवं अमुना प्रकारेण धर्म व्युत्क्रम्य विशेषेण उल्लंघ्य अधर्म प्रतिपद्य बालो मूर्खः मृत्युमुखं मरणं मुखं प्राप्तः सन् शोचते शोकं कुरुते कइव अत्रे
भग्ने शाकटिक इव १५ तभी से मरणं तंमि बाले संतस्मई भया अकाम मरणं मरई धुत्तेव कलिण जिए १६ तत: स मूखों मरण ते भयात् संत्रसते * संत्रासं प्राप्नोति अकाम मरणं म्रियते म्रियमाण: सन् शोकं विदधाति क इव धूर्त : द्यूतकारी कलिना द्यूतदोषन जितः केनचित् ततोधिकेन दुष्टेन: जित: ग्रहीतद्रव्यः सन् शोचते तथा शोचते इत्यर्थः अनेन सह मया किमर्थ क्रौड़ा कता अहं हारितः १६ एवं अकाममरणं बालाणं तु पवेइयं एत्ती
महापहं । विसमं मग्ग मोमो अक्खे भग्गंमि सोयई ॥१४॥ एवं धम्म विउक्म्म अहम्म पड़िबज्जिया। बाले मच्च समो मोटो मार्ग जाणतो थको छांडौने बिषममार्गे गंतु प्रवृत्तः विषममार्गे जावा माा गाडु लेईने चक्रमध्ये स्थिते काष्ठे भग्ने शोच्चा ते गाडीनी धुरी भागे थके शोचे पिछतावे १४ एवं धम्म व्यतिक्रम्य उल्लंघे एण दृष्टांत श्री तिर्धकरनी भाष्यो धर्म छाडीने अधर्म प्रतिपद्यते धर्म मार्ग छोडौने अधर्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०७.४१ मा भाग
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सकाममरणं पंडियाणं सहमे १७ बालानां अकाममरणं एतत् प्रवेदितं तु शब्दो निश्चयार्थे मूर्खाणामेव अकाममरणं इत्यर्थः तीर्थकरैः कथितं इत प्रस्तावादनन्तरं मे मम कथयत: पण्डिताना सकाममरणं यूयं शृणथ २७ मरणंपि सपुत्राणं जहामतमणम्म विष्यसबमणाधार्य संजयाणं बुसीमो१८
महं पत्ते अक्खे भग्गेव सोयई ॥१५॥ तत्रो से मरणं तंमि बाले संतम्मईभया। अकाम मरणं मरई धुत्ते वाकलिणा जिए ॥१६॥ एयं अकाम मरणं बालाणं तु पवेयं । एत्तो सकाम मरणं पंडियाणं सुणेहमे ॥१०॥ मरणंपि सपुस्साणं
जहा मे तमणुस्मयं । विष्यसम्म मणाघायं संजयाणं बुसौमओ ॥१८॥ न इमंसब्वेसु भिक्खूसु न इमं सव्वेसु गारिमु मार्ग अङ्गीकार करे बालो मूर्खः मरण मुखं प्राप्तः सन् मूर्ख मरणप्राप्त हुओ थकी धुरी भन्न इव शोच्यते धूरौभाग्या थकां जिम गाडी वान शोचे तिमी शोचे १५ तत: समरणसमये प्राप्ते ते भणी भारी करमी जीव मरणसमें प्राप्त हुवा धका बाल भयात् नरकगति रुपात् संत्रस्यते बालमूर्ख मरणसमे प्राप्त हुआ थका अकाम मरणन मृयते मनुष्य मूर्ख बालमरणे करौने मरे नरके जाये यथा दूतकारः कलिना दायेन जितः सन् शोचते यथा प्रमादी शोच्यते इत्यर्थः जिम जुवारी दावे जौत्यो धको भुरे शोचे तिम पापी जौव शोचे १६ एतत् अकाममरणं ए अकाममरण जाणवो बालाणां मुर्खाणां च प्ररूपितं ए मरण मूर्खने कह्यो इतः सकाम मरणं पंडितानां कथयिष्यामौ शृणुत हिवे पंडितमरण कहस्ये सांभलो पंडितानं मरणं आकर्णय पंडितमरण सांभलो १७ मरणमपि पुण्यवतां पुण्यसहितानां ते सकांममरणपुण्यवंत जौवने हुवे यथा एतत् अनुश्रुतं अवधारीतं जिमत पंडीतमरण गुरुमुखे सांभल्यो के तिम कडु कु विप्रसन्न अनाघातं अनाकुलचित्त' विनरहित के एहवा मनुष्यने संयतानां वश्यात्मनां संयती पापणी आमा वस कौधौ के १५
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०९.१५मा भाग
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१. टीका • अ५
२.८
सपुण्यानां पुण्यवतां संयतानां यथा मे मम मरणं अनुश्रुतं अवधारितं भी भव्या स्तत् सकाम मरणं भवद्धि मनसि धार्य कीदृशं सकाममरणं विप्रसन्न विशेषेण कषायादि मलराहित्ये न प्रसन्न निर्मलं पुनः कीदृशं अनाघातं न विद्यते अघाती यत्नवत्त्वेन अग्धजीवानां संयमजीवितव्यस्य च नाशो यस्मिन् तत् अनाघातं कीयानां संयताना बसौमत्री पार्षत्वात् वश्यवतां वश्यः प्रामा येषां ते वश्यवंतः तेषां जितात्मनामित्यर्थः १८ न मं सवेस भिक्बूस न इमं सब्बेसु गारिस' नाणासोला अगारत्था विसमसौलाय भिक्खुणो १८ इदं पण्डित मरणं सर्वेषां भिषणां साधूनां न भवति किन्तु कषांचित्माधूनां भवेत् यतः अगारस्थाः गृहस्था: नानाथीलाः नानाचारा भवन्ति च पुनर्भिक्षवोपि विषमथौला: विषम' विषदृशं शौलं येषां ते विषमशीलाः केचित्म निदानतपः कारकाः केचित् निदानरहिततपःकारिणः केचिहिमलचारित्रिणः केचिदकुशचारित्रिणः इति कथनेन तीर्थान्तरीयास्त वेशधारिण: दूरतएव उत्सारिताः १८ संति एरोहिं भिक्व हिं गारस्था संयमुत्तरा गारत्थेहिं य सञ्बेहिं साहवो संजमुत्तरा २० एकेभ्यो भित्तभ्यो निशव भग्नचारित्रादिभ्यः
नाणा सौला अगारत्था विसमंसी लाय भिक्खुणो ।१६। संति एरोहिं भिक्खूहिं गारत्या संजमुत्तरा। गारत्थेहिय
सब हिं साहवो संजमुत्तरा ।२०। चौरजिणं न गिणिणं जडी संघाडि मुडिणं । एयाईवि ण ताईति दुस्मीलं परि * नच इदं पंडितमरणं सर्वेषु भिक्षुषु भवन्ति एपण्डितमरण सघलाए साधुने नहोई नच इदं सर्वेषु गृहस्थेषु ए पंडितमरणसघलाइ गृहस्थ ने पौण नहीं
अनेक विविधव्रताः गृहस्था: नानाप्रकारे गृहस्थना आचारछे विषमशीलाः अतिगहनाचारः संयमतपः विषम आचार साधूना छ १८ संति एकेभ्यः कुतौर्थिक भिक्षभ्योः सन्यासी योगी वौहा इत्यादिक कुतीर्थो धको गृहस्थाः संयम अनुत्तराः प्रधानाः एकर गृहस्थ संयम करी प्रधान के गृहस्थेभ्यो
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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ए.टोकापाषणिकुतौषिभ्यश्च अगारस्थाः अपि एहस्थाऽपि संयमुत्तराः सन्ति संयमेन देशविरतिलचीन धर्मेण उत्तराः प्रधानाः सन्ति सर्षपमेरुपर्वतयोरिवां *
*तरमस्ति सर्वेभ्यो विविधत्रिविध प्रत्याख्यानं धरेभ्यः अगारस्येभ्यः साधवः षड्वतकायरक्षकाः सजमे सप्तःदशभेदेन उत्तराः प्रधानाः समीचीनाः सन्ति। २०८
8 अन दृष्टान्तः एकः श्रावक: साधु पृच्छति श्रावकानां साधूनां मिथः कियदन्तरं साधुनोत' मेरुसर्षपोपममन्तरं तत: आकुलीभूत: स श्रावकः पुनः
पृच्छति कुलिंगिनां श्रावकाणां मिथः कियदन्तरं साधुनोक्त मेरुसर्षपोपममन्तरं ततः स धावकः स्वस्थो जातः २० चौराजिणं न गिणिणं जड़ौसंघाडि * मुंडिप एवारिविन तायंति दुस्सौलं परियाग यं २१ एतानि सर्वाणि व्यलिङ्गानि परियागयं प्रव्रज्यां गतं दीक्षां प्राप्त अर्थात् द्रव्यलिङ्गिनं दु:सौ ।
सं न वायते संसारात् दुःकर्मविपाकात् वा न रक्षन्ति एतानि कानि लिङ्गानि तानि आर चौराणि वल्कलानि वल्कलचौरधारित्व अजिनं चर्मचारित्वं नगिणिण नम्नत्वं जडी इति जटाधारित्वं संघाटौत्व वस्त्रसंघातीत्पन्नतया युक्तत्वं कंधा धारित्व मुडिण मुंडत्वं एतानि सर्वाणि द्रव्यलिङ्गानि न मोक्ष
यायं ॥२१॥ पिंडोलएव दुस्मोले नगराओ न मुच्चई भिक्खाएस गिहत्ये वा सुब्बए कम्मई दिवं ।२२। अगारि सामा * सर्वेभ्यः सघला गृहस्व थकी साधवः संयमेन उत्तराः उत्क्रष्टाः साधु भमवंत संजमे करौ उत्कष्ट के २० हौवराणि अजिनं चर्मनिगिणिणं नग्नत्व
8 वस्त्र प्रोढे चर्म पहरे अथवा नग्न रहे जटाधारित्व संघाड़ी कंथा धारित्यं मुंडिणं मुंडीतत्व जटा राखे कंथा राखे माथु मुंडावे एतान्यपि दुःकर्मणा भाषा
नयन्तो नरवन्ति इतला दुःकर्म कीधु ते दुर्गति पडता जीवने राखे नही कीदृशं दुराचार दौक्षा युक्तमपि किस्था के ते दर्शनौ दीक्षा लोधी के पौण * कुमार्ग प्रवाचार प्रवत्तै २१ भिख्यामेव्यपि दुःयौलभिक्षा मांगी भाजीविका कर अने अनाचार सेवे पापकर्म वर्जे नहीं नरकान्न मुच्यते न छुटे वे परं
नरक इतौ कुटे नहीं जीवडी तथा भिक्षको वा एहस्था वा तथा भिक्षकहुश्री अथवा गृहस्थ हुयी शोभनव्रतः सन् देवलोकं गच्छति भला ब्रतपाल
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.स.उ. ११ मा भाग
सूब
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०
दानि भवन्तीत्यर्थः २१ पिंडोलएव दुस्सौले नरगामी न मुच्चई भिक्वाए वा गिहत्ये वा सुब्बए कम्मई दिवं २२ पिंडोलगोपि भिक्षुर्यदि नरकाव मुच्यते ५४ तदा दुःशीलः कषायादि युक्तस्तु नरकान मुच्यते एव पिंडं परदत्तग्रास अवलगते सेवते इति पिंडोलगः अत्र निश्चयमाह भिक्षादीभिक्षुरथवा एहस्थो वा
ॐ भवेत् तयोर्भिक्षादग्गृहस्वयोः साधुवावकयोमध्ये यः सुव्रतः सुष्टुशोभनानि व्रतानि यस्थ: ससुव्रतः सदिवं स्वर्ग क्रमति व्रजतीत्यर्थः अत्रद्रमककथा यथा ॐ राजरहे कथित् द्रमकः उद्यानिकानिर्गतजनभ्यी भिक्षामलभमानी रुष्टः सर्वेषां चूर्णनाय वैभार गिरिशिलाञ्चालयन् शिला तर्निपतितः शिलातले
चूर्णितवपुः सप्तमनरकातः एवं भिक्षुरपि दुर्धानेन दुःशीलत्वानरकमेव गच्छतौति परमार्थः २३ अगारि सामार यङ्गाइ सट्टीकाएण फासए पोसहं दुहीपक्ख' एगराइ न हावए १३ आगारी गृहस्थ: सामायकांगानि सामाय कस्य अङ्गानि सामायकांगानि निःसंकित नि:कांक्षित निर्विति किमिता मूढ दृष्टि प्रमुखाणि कायेन स्पृशति कौश: सन् श्रद्धौ श्रद्धावान् सन् पुनर्य हस्थः उभयोः शक्ल कष्णपक्षयोः पौषधं सेवते चतुर्दशी पूर्णिमा । स्यादिषु पौषधं आहार पौषधादिकं कुर्यात् एकरात्रि अपि एकदिनं अपि न हापयेत् न हानि कुर्यादित्यर्थः रात्रिग्रहणं दिवा ब्याकुलतायां रात्री अपि पौषधं कुर्यात् चेत् एवं नस्यात् तदा चतुर्दशी अष्टमी उहिष्टा महाकल्याणक पूर्णिमाचतुर्मासकत्रयस्य दिवसे पौषधं कुर्यात् सामायिकां गत्वे नैव
दूयंगाई सड्डीकाएण फासए। पोसह दुहओ पक्खं एगराईन हावए ।२३। एवं सिक्खा समावाम गिहवासवि *तुथको देवलोके जाइ २२ गृहस्थः सामायिकांगानि गृहस्थ सामायिकना अंग श्रद्धावान् कायेन स्पृशति श्रद्धावंत श्रावक कायाई' करीने * फरसे पाले सुद्धमने अहोरात्रे : पोषधादिक यो पक्षयोः पोसह घउदस अंधारौ उजालौनो करे सुद्ध भावे एक दिनमपि न हा यति न त्यजति एके रात्रि पणि पोसहनौ हानि न करे जो दिवसे न थाइ तो रात्रे करे २३ एवं शिक्षा समापत्रः सन् इणि प्रिकारे शिक्षा अंगीकार
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०१० ४१ मा भाग
भाषा
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एन्टोका
अ०५
२११
सूत्र
भाषा
सिद्धे भेदे नोपादान मादर स्थापनाथं २३ एवं सिक्ता समावने गिहवासविसुव्वर मुञ्चइ छावपव्यात्रा गष्टक् स लागय २० एक འགྲུ་ ཀས་་ रेण शिचा समापन्नः श्रहाचार सहितः गृहस्थवासे अपि सुव्रतः दादशव्रतधारकः सन् त्वक् पर्वतो मुच्यते त्वक् चर्म पर्वजानु कूर्पर गुल्फादि ततो मुक्तो भवति श्रदारिक सरोरात् मुच्यते पुनः सः श्रादः यच सलोकतां गच्छेत् सहलोकेन वर्त्तते इति स लोकः यचैर्देवैः स लोकः तस्य भावो यच्च स लोकतां देवजातित्व' प्राप्नोतीत्यर्थः अत्र पण्डितमरण प्रस्तावेपि अवसर प्रसङ्गात् बाल पण्डित मरणमुक्त २४ अह जे सम्बुडे भिक्ख दुइ अनयरे सिया सव्यदुःखप्पहोवा देवे वाविमहहिए २५ अथ अनन्तरं यः संहतः पश्चाश्रव निरोधकोभिक्षुः सर्वदुःख प्रहीये मोक्षेऽथवा देवे देवलोके एतयोर्द्वयो स्थानयोर्मध्ये अन्यतरस्मिन् एकस्मिन् स्थानेस्यात् कीदृशो देवः स्यात् महर्द्धिकः महतो ऋद्धिर्यस्य समहाडिक : २५ उत्तरा विमेाहाइ जुई मन्ताण पुब्वसो स माइबाइ जक्वाहिं आवासाइ जसंसिणो २६ दौहाउया डिमन्ता समिधा कामरूविणो अहुणो ववज्रासं कासाभुज्जो अश्चिमालिप्पभा २७ ताणि ठाणापि गच्छन्ति सिक्खित्ता संयमन्तवं भिक्खाए वा मिहत्ये वा जे सन्ति परिनिब्बुडा २८ त्रिभिः कुलक ते भिक्षादाः भिक्षावृत्तयः साधवः अथवा गृहस्थाः श्राह्नाः संयमं पुनस्तपः शिक्षित्वा हृदिष्टत्वा तानि स्थानानि गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति इति तृतीय गाथया सम्बन्धः ते के मिचादा पुनस्ते सुव्वए । मुच्चई छविपव्वा गच्छे जक्वस लोगयं | २४| अह जे संबुडे भिक्वूदोन्ह अन्नयरे सिया । सव्व दुक्खप्पही
करौने गुरु पासे व्रतसामार कल्ये गृहवासेपि सुव्रतः स्यात् घरने विषे रह तो थको सुब्रत होवे भला व्रत पाले मुच्यते श्रदारिकात् शरीरात् श्रदारिक शरीर कांडौने सदेवलोकं गच्छ त् ते देवता स्वर्गे थाद्र २४ अथ यः संहतः साधुः आपणो आमा संवरे वश करे ते साधुषयोः सिद्धदेवयोरन्यतरा स्यात् ते साधु विन्दु' गत मांहि एक कोइ गत पामे सर्वदुःख प्रचोणो वा सिडः स्यात् सर्व दुःखचयकरो सिद्ध होइ सासतो देवोपि महर्षि कः स्यात् जो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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के च गृहस्थाः ये परिनिहताः सन्ति परिसमन्तात् निहताः विधूत कषाय मलाः तानि कानि स्थानानि उत्तराणि सर्वेभ्यो देवलोकेभ्यः उपरिस्था नानि पञ्चानुत्तरविमानानि पुन: कौयानि तानि विमोहानि अन्नानरहितानि येषु स्थानेषु उत्पबां देवानां मिथ्या वाभावात् सम्यक्त भवति इत्यतो विमोहानि पुनः कौयानि युतिमन्तिदीप्सियुतानि प्राक्कतत्वात् लिङ्ग व्यत्ययः पुनः कीदृशानि स्थानानि यार्देवैः समाकीर्णानि सहितानि
सोवा देवेवावि महिडिए ।२५। उत्तरार्दू विमोहाईज्जुईमंतायु पुव्यसो। सामादूगाई जखेहिं पावासाई जसं सिणी ।२६दौहाउया दूडिमता समिछा कामरूविणो । अहुणो ववम संकासा भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ।२७ ताणि
ठाणाणि गच्छति सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाएवा गिहत्येवा जेसंति परिनिव्व डा ॥२८॥ तेसिं सोच्चा सपुज्जा शेष कन रहे तो महरिक देवता थाइ २५ अनुत्तरेषु विगतमोहे अनुत्तरविमानने विष मोहनौ कर्म नथौ जिहां मिथ्यात्वी नही उपजे सम्यक्ती दुवै
दीप्तवंतः अनुक्रमेण सर्वदेव लोक थको न्यौतीवंत के अनुक्रम सर्वदेव लोके समाकौर्णा: व्याप्ताः देवैः विमान केह वाई देवताइ भस्या के इदृशाः पावा * सास्तव यशखिनः एहवा आवास के यशवंत के देवता २६ दीर्घायुषः ऋद्धिवंताः दीर्घ पाउखाना धौ ऋद्धिवंतः समृहाः अतिदीप्ताः स्वेच्छया रूपका * रिण: समूह के वैक्रिय रूपनवा करी सुखभोगवे के प्रधुनीषपन शंकासा: तत्काल जपनासरिखो सूर्यसरिखी प्रभा के जेहनौ भूयो बहवः अर्कस्य सम * प्रभाः वलो घणो के सूर्यनौ माला सरीखी प्रभा क्रांति २७ तानि पूर्वोक्तस्थानानिगच्छन्ति एहवो देवलो कविर्ष एहवे स्थानके जाये ऊपज अभ्यस्य सप्त दयधा सयंमन्त पवार भेद सौखौने सतरे भेदे संयमसौखौने भिक्षुको वा गृहस्थो वा तपस्वी अथवा गृहस्थां जे केचित उपयमंति जिणे आपणी आमा
पाय धनपतसिंह बाहादर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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पुनः कोहयानि पासमन्तात् आहादपूर्वकं दुःखराहित्येन उथत येषु तानि आवासानि कथम्भू तास्ते भिवादाः गृहस्थाश्च यशःखिनः कुत्र चिट्टी कान्तर अत्र गाथायां उक्तानि साधु बाहानां विशेषणनि सन्ति पुन: कौदृशाः भिक्षादागृहस्थजीव देवाः दोहा उयाः दीर्घायुषः पल्यसागरी पमजोविन: पुन: कोदृशाः ऋतिमन्तः रत्नादियुक्ताः पुन: कौदृशाः समृता अत्यन्ताः प्रकटा. पुनः कीदृशाः कामरूपिणः कामं स्वेच्छापूर्व
रूपं येषान्त कामरूपिणः यादृशं रूपं मनसि वाञ्छन्ति तादृशं कुर्वन्तीत्यर्थः पुनः कीदृशाः अधुनोत्पन्न सङ्काया: येषां कान्ति ऋडी दौप्तिवर्ण * दिकं दृष्ट्वा इति ज्ञायते एते इदानी उत्पबा: सन्ति पुनः कोदृशाभूयो अर्चिालिप्रभा: कोटिसूर्यप्रभाः अर्चिषा ज्योतिषा मालन्ते योभन्ते इत्येवं यौला पर्चिालिन:सूर्याः भूयांसश्चतेऽर्चि मालिनश्च भूयोर्चिमालिन स्तहत् प्रभा येषान्ते भूयोर्चिमालिप्रभाः ३८ तेसिसुच्चा स पुज्जाण' सञ्चया
संजयाण बुसीमयो । नसंतसंति मरणंते सौलवंता बहुमुया ।२९। तुलिया विसेस मादाय दयाधम्मम खंतिए।
विप्पसौजा मेहावी तहाभूएण अप्प णो ।३। तो काले अभिप्येए सट्टी तालिसमंतिए। विणएज्ज लोम हरिसं * वसि कौधो के २८ तेषां श्रुत्वा सपूज्यानां सां भली पूज्यने समीपे साधूनां वश्यामनां संयतौ के वसौभूत के जहनो आमानव सन्ति मरणमुप * गते मरण पाव्या थकां मौलवंतो बहुश्रुताः शौलवंतने बहुश्रुतने २८ तोलयित्वा परीक्षां कृत्वा विशेषं गृहीत्वा मेधावी पंडित आपण पुतोलौने विषय
वसौ करौने पादरे दया धर्मस्य चान्त्यादि दयाधन आमा पादरी विशेष प्रसन्नो भवेत् प्रज्ञावान् विशेष पणे प्रसन्न हुवे उपसम करे मेधावी तथाभूतनोप गांत मोहनात्मना शांतिरूप पात्मा करी पापणे ३० ततः मरणकाले सम्पाये मरणकाल प्राप्त हुओ बहावान् तादृशगुरुणां पाखें श्रद्धावंत मरणने
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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अ.५
- उत्तराध्ययने मरणाधिकारम् सम्पूर्ण भावितात्मा अणगार श्रीबूटे रायजौ तच्छिष्य भगवान विजय साधुना संशोधितम् गम्ब सो मी न सन्त सन्ति मरणन्ते सौलवन्ता बहुस्सुया २८ सौलवन्तः साध्वाचारसहिताः बहुश्रुताः साधवी मरणान्ते मरण समीपे समा गते सति न सन्त्रसन्ति न भयं प्राप्नुवन्ति किं कृत्वा तेषां सत्पूज्जानां संयताना भावितभितणां उक्त स्वरूप स्थानप्राप्ति श्रुत्वा पुनः कीदृशाना संय तानां वश्यवता २८ तुलिया विसेसमादाय दयाधम्मस्म खन्तिए विष्यसी इजमेहावी तहाभूएण अप्पणा ३० मेधावी बुद्धिमान् साधुस्तथा भूतेन विषय कषाय रहितेन आत्मना विप्रसौदेत् विशेषेण प्रसन्नतां भजत् किं कृत्वा बालपण्डित मरण तुलिया इति तोलयित्वा परोक्ष पुनविशेष आदाय बालमरणात् परिहतमरणात् च विशेषं विशिष्टत्वं आदाय यहोवा तथैव दया धर्मस्ययति धर्मस्य शान्या क्षमया कृत्वा विशेष प्रादाय अन्येभ्यो धर्मेभ्यः चमया साधु धोविशिष्ठ इति ज्ञात्वा विप्रसौदेत् कषायादिभ्यो विरक्तो भवेदित्यर्थः ३. तो काले अभिप्पए सट्टी तालि समन्तिए विण * जलो महरिसं भेयं देहस्म कंखए ३१ ततः कषायो पशमनानन्तरं काले मरण समये अभिप्रेतसति रुचितसति श्रद्दी श्रद्धावान् अन्तिके गुरुणां समीपे
भयंदेहस्म कंखए ॥३१॥ अहकालंमि संपत्ते आघायायसमुस्मयं । सकाम मरणं मरडूतिगहमन्नयरं मुणित्तिदेमि ।३२॥ समय गुरुने पासे यावत् अतत्त्वज्ञा पुरुषाः ज तत्त्वना अजाण पुरुष के भेदं देहस्य का चयेत् देहौनो भेदवांछे मरण वांछे ३१ अथ काले सम्प्राप्त अथ काल आवी प्राप्त हुी पघातायसमुत्थितं देहत्याग स'लेखणां करौ हर्षे समाधि मरण कर देही छोड़े पाप कर्म स काम मरणं मियते सकाम मरणे करी मरे पयाण भक्तप्रत्याख्यान१'गना ३ पादपोपगम र एतेषां त्रयाणां मध्ये एकेन मरणेन मध्ये मुनिः मयते एचिहुं' मरण मांहि एक
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ.४१ मा भाग
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टोका
श्र० ६
२१५
सूत्र
भाषा
तादृशं भयात्स्फेटयेत् मरणभयं न कुर्यात् देहस्य भेदं कां चेत् शरीरत्यागं अभिलषेत् यादृशो हर्षो दोचावसरे यादृशो हर्षः संलेखनावसरे तादृशो हर्षोमरणसमयेपि विधेयः नभेतव्य मित्यर्थः ३१ ग्रह कालंमि सम्पत्ते श्रधा याय समुस्मयं सकाममरणं मरइई तिसमन्नयरं मुणित्तिबेमि ३२ अथ काले मरणे सम्प्राप्ते सति मुनिः समुच्छयं अभ्यन्तर शरीरं बाह्य शरीरच अभ्यन्तरं कार्मण सरीरं बाह्य श्रदारिक शरीरं बघाय विनाश्य aयाणां सकाममरणानां मध्ये अन्धे तरेण एकेन सकाममरणेन स्त्रियते तानि त्रीणि सकाममरणानि इमानि भक्त प्रत्याख्यान १ गिनी २ पादपोपगमना ३ ख्यानानि यत्र भक्त्यस्य त्रिविधस्य चतुर्विधस्य च आहारस्य प्रत्याख्यानं भक्त प्रत्याख्यान १ यत्र मण्डलं कृत्वा मध्ये प्रविश्य मण्डला हिर्ननिः स्त्रियते तदिङ्गिनी मरणं २ यव छिव चमाखावत् एकेन पार्श्वेन निपत्यते पार्श्वस्य परावर्त्तो न क्रियते तत्पादपोपगमन' ३ एतेषां त्रयाणां मध्य े अन्यतरेण मरणेन म्रियते इति सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिन' प्रति कथयतिस्महे जम्ब श्रहं भगवद्दचसा त्वां ब्रवोमि ३२ इति अकाम सकामकरणौयं अध्ययन' पञ्चमं इति श्रीमदुत्तराध्ययन स्वार्थ दीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्त्तिगणिशिष्य लक्ष्मीबल्लभ गणि विरचितायां अकाम सकाममरणौयाख्यस्य पञ्चमस्यार्थः । ५ पूर्वस्मिन् अध्ययने अकाम सकाममरये उक्त तत्र सकाममरण' निग्रन्यस्य भवति ततो निग्रन्यस्य श्राचारः षष्टे
अकामश्झयणं समत्त'५ । जावंति विज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पं तिबहुसोमूढा संसारं मिश्रण तगे ॥१॥ मरणे करो मरे २२ अकाम मरण अध्ययन कथा टव्वार्थ संपूर्णम् ५ ॥ हिवे छट्टो अध्ययन कहे के ॥ यावंत अतत्वज्ञाः पुरुषाः जेतत्वना अजाण पुरुष सर्वे ते दुःखसंभवाभव॑ति सघलाए दुःखना विभागौ होस्ये दारिद्रोपयुक्ताः भवन्ति अनेक वारान् ते मूर्खाः ते मूर्ख घणौ वार दरिद्रि हुवे दुःख देखे छेदन भेदन तथा संसारे अंतर रहिते मूर्ख अग्यानी अंत संसार माहिलों पाइ फिरे १ आलोच्य पंडितः तस्मात् हे पंहित तेथे कारणे तु' देखि विचार पा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं ०४० १४ मा भाग
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४० टोका
अ०६
२१६
सूव
भाषा
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अध्ययने कथ्यते अयं पञ्चमषष्टाध्ययनयोः सम्बन्ध: जावन्ति विज्जा पुरिसा सव्वते दुक्ख सम्भवा लुप्पन्ति बहुसोमूढाः संसारंमि अनन्तरी १ यावन्तोऽ विद्याः पुरुषाः ते सर्वेपिमूढाः संसारे बहुसो वारम्बारं लुप्यन्ते पाधिव्याधि वियोगादिभिः पौड्यन्ते न विद्यते विद्या सम्यक् ज्ञान' येषान्त अविद्या ra नच कुत्सार्थ वाचकः ये कुत्सितज्ञान सहिताः मिथ्यात्वोपहत चेतसो वर्त्तन्त ते मूर्खाः संसारं दुःखिनो भवन्ति कौट्टथे संसार अनन्तके अपार कौदृशास्तेऽविद्याः दुक्खसम्भवाः दुक्खस्य सम्भवयेषु ते दुक्खसम्भवाः दुःखभाजनमित्यर्थः यावन्तः अविद्या इत्यत्न प्राकृतत्वात् अकारोऽदृश्यः १ अत्र अ विद्या पुरुषोदाहरण' यथा कथित् द्रमको भाग्यात् कापि किञ्चिद प्राप्नुवन् पुराइहिरे कस्मिन् देवकुले रात्रा वुषितः तत्रैकं पुरुष कामकुम्भप्रसादेन यथेष्टभोगान् भुञ्जानं वच्यप्रकामं सेवितवान् तुष्टेन तेनास्य भणितं भो तुभ्यं कामकुम्भ ददामि उत कामकुम्भविधायिकां विद्यां ददामि तेन विद्या साधन पुरवरणादि भौरुणा विद्याभि मन्त्रितं घटमेवमेदेहोति भणितं विद्या पुरुषेण विद्याभि मन्त्रितो घट एव तस्मैदत्तः सोपि तत्प्रसादात् सुखीजातः अन्यदापौतमद्ययं पुरुषस्तं कामकुम्भ मस्तके जत्वा नृत्यन् पातितवान् भग्नः कामकुम्भ स्ततोनासौ किञ्चिदर्थ मवाप्नोति शोचति चैवं यदि मया तदा विद्यागृहौताऽभविष्यत्तदाऽभिमं वानवं कामकुम्भ मकरिष्यं पूर्ववदेवं सुखी अभविष्य एवं अविद्या नराः दुक्खसम्भवाः क्लिशन्ते १ समिक्स पण्डिए तन्हा पासजाई पहे वह अप्पणा सचमेसिज्जा मित्तभूएस कप्पए २ तस्मादन्नानिनां मिष्यात्विनां संसार भ्रमणत्वात् पण्डितः तत्त्वज्ञः आत्मना स्वयमेव समिक्व पंडिए तम्हा पास जाइपहे बहू । अप्पणा सच्च मेसेज्जा मित्ति भूएस कप्पए । २ । माया पियान्हसा रूपात् एकेंद्रियादि जाति यथा न बहुन् संसार रूप पास देखो एकेन्द्रियादिक जोनि मांहि जौव फिर के अज्ञानी आत्मना सत्यं संयमं विलोकयेत् ए संसारनो स्वरूप जाणौने आपणा श्रमाने १७ भेद संयम अने सत्य तेहने विषे थापे मित्र भावं भूतेषु कुर्यात् सर्वजीव थको मैत्रीय भाव करे २
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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परोपदेशं विनवसत्यं एषयेत् सद्रोहितं सत्य अर्थात् सयम अभिलषेत् पुनः पण्डितः भूतेषु पृथिव्यादिषु षटकायेषु मैत्री कल्पयेत् किं कृत्वा बइन् पास जातिपथान् समीक्ष्य पाशाः पारवश्य हेतवः पुत्रकसत्रादि सम्बन्धास्त एव मोहहेतु तया एकेन्द्रियादि जातीनां पन्धानः पाशिजाति पथ्यास्तान् पाशजाति पथान् दृष्ट्वा यदाहि पुत्रकलवादिषु मोहं करोति तदाहि एकेन्द्रियत्वं जौवो बध्नाति २ माया पियागहुसाभाया भज्जापुत्ताय ओरसा नालन्ते ममताणाय लुप्पन्तस्मु स कम्मुणा २ पण्डित: इति विचारयेदिति अध्याहारः कर्त्तव्यः इतौति किं एते ममत्राणाय मम रक्षायै न अलं समर्थाः
भाया भज्जा पुत्ताय ओरसा। नालंते मम ताणाए लुप्पंतस्म स कम्मु णा ।। एय म8 स पेहाए पारी समिय
दंसणे । छिंदे गेहिं सिणेहंच न कंखे पुव्वसंथवं ।४। गवासं मणि कुंडलं पसवो दास पोरुसं। सव मेयं चत्ताएं माता पिताम् षावधूभ्राता माता. पिता वह भाई इत्यादिक भार्या पुत्रास्ते चउरसा स्वयं उत्पादिताः पुत्र ते अंगना ऊपजाव्या न समर्थाः पित्रादयो भवन्ति मम रक्षवाय ए पुच्चादि मुझने कर्म थी पौडा थो नहीं राखी सके सरण पौद्यमानस्य स्वकृतकर्मण जिवारे कर्म प्रावी लागे तिवारे राखण हार कोई नहीं ३ एतत् पूर्वोक्त स्वबुड्या विचार्य ए पूर्वे कह्यो जे अर्थ विचारौने पश्येत् सम्यग् दृष्टिः भलौ दृष्ट करौ देखे मौथ्यात्व छांडे सम्यक्त आदरे किन्द्यात् यह स्नेहं च घर छांडे नेह छांडे न वांछयेत् पूर्वपरिचयं गृहस्थनी परिचय न करे ते गृहस्थवासमै रह्या थका सुख याद न करे ४ गावं अख' मणिः आभरणादयः गाइ अश्व मणिकुण्डल' अजादयः दासपौरुषं झाली दास गुलाम सेवक सर्वगवाखादि पूर्वोक्त त्यक्त्वा इत्यादिक सर्ववानां छोडीने खेच्छारूप धारी भविष्यसि देवता वैक्रियरूपनो धरणहार देवता थाइस ५ रहाराम मनुष्यादि पुन: थावर परिग्रह घर वाग हाट प्रमुख
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं ठ०१४मा भार
भाषा
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4
os
FN
* कथम्भूतस्य मम खकर्मणा पोचमाणस्य एते के मातापितामुषा पुचवधू भ्राता सहोदरः भार्यापनी पुत्राः पुत्रत्वे न मानिता च पुनः औरसाः स्वय
मुत्पादिताः एते सर्वेपि स्वकर्म समुत दुःखात् रक्षणाय न समर्थी भवन्तीत्यर्थः एयम?' सपहाए पामे समौयदंसर्ग छिन्दै रोहिं सिरीच न के खे पुब्बसधवं ४ ममित दर्शन: यमितं ध्वस्त दर्शनं मिष्या दर्शनं येन स शमितदर्शनः अथवा सम्यक् प्रकारेण इतं प्राप्तं दर्थनं सम्यनं येन स समितदर्शन: एतादृशः संयमौएतदर्थ पूर्वोक्त' अर्थ' अथरणादिकं सपेहाए स्वपेक्षया स्वबुध्यापासे इति पश्येत् इदि अवधारयेत् च पुनरीहिं यह रसलाम्पाच पुनः स्नेहं पुचकलवादिषु राग विद्यात् पुनः पूर्व संस्तवः पूर्वपरिचयः एकया प्रामादिवासस्तं न स्मरे ४ गवास' मणिकुण्डलं पसवो दासपोरस सब्वमेयञ्च इनाण' कामरूवी भविस्मसि ५ पुनरपि पण्डितः आत्मानं इति शिक्षयेत् अथवा गुरुः सिष्य प्रत्युपदिश्यति है पात्मन् अथवा हे शिष्य एतत् सर्वत्यक्ता कामरूपी स्वेच्छाचारी भविष्यसि एतेषु ममत्वं त्यजसि तदाइह भवेतु वैनियलब्धि अणिमा महिमा गरिमालधिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशत्व चित्रात्वादिमान् भविष्यसि परलोके च निरतीचार संयमपालनाहेव भवे वै क्रियादि लश्चिमान् त्व भविष्यसि तत्किं तदाह गवाव गावच अखाच * गवाख पुनर्मणिकुण्डल' मणयचन्द्रका याद्याः कुण्डलग्रहणेन अन्य धामण्यलकाराणां ग्रहणं स्यात् सर्वे मणयः सर्वाण्यसकाराणि च इत्यर्थः पशवः अजैडक पक्ष्यपव्याधुत्पादक रोमधारक कुर्करादयश्च दासा राहदासौभ्यः समुत्पनाः दासाश्च पौरुपाच दासपौरुष एते सपि मरणाव पायन्ते इत्यर्थः
कामरूवी भविस्यसि ।। थावरं जंगमं चेव धणं धस उवक्खर पच्चमाणस्म की हिं नालं दुक्खाउ मोयणे ॥६॥ * जंगम परौ ग्रहस्त्री प्रमुख धान्य धनं गृहोपकरणं धनधान्यादि घरनो उपस्कर उपगरण पश्यमानस्य जीवस्य कर्मभिः पापरी कम्मै करौ जीवन पचाई
जाता थका न समर्धा भवन्ति दुःखमोचने ते सर्व दुक्त धकी मुकाववा भणी मुकाववा समर्थ न होर (पामस्थं सुखादि सवयी सर्वतः सर्वभवमिति *
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१मा भार
भाषा
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अ०६
तस्मात्पूर्व एतत् त्वचा संयम परिपालयेदित्यर्थः ५ वावरं जामं चेव धणं धन उवक्खरं पञ्चमायम कस्मेहिं नाल दुक्ला उमो अथे । पुनरेतसर्व वस्तु कर्मभिः पच्चमानस्थ जीवस्य दुःखामोचने अल समर्थ न भवति एतकि स्थावरं गृहादिकं च पुनर्जङ्गमं पुत्वमित्र भृत्यादि पुनर्धनं गणमादिधान्य बौयादि पुनरुपस्कर गृहोपकरचं ६ अष्जत्य सम्वोसच दिमपाणे पियायए नहणे पाशिणोपाणे भववेराउ उवरए ७ साधुः सर्वत: सर्वप्रकारण सव अध्यात्म सुखदुक्खादिकं दिस्म इति दृष्टा सर्वप्रकारेण सर्व सुखदुःक्खादिकं आत्मनिस्थितं ज्ञात्वा सुखदुःखयोर्वेदकं प्रामान ज्ञात्वा इष्ट संयो गादिहेतुभ्यः समुत्पन्नं मुखं सर्वस्यात्मनः प्रियं स्यात् इष्ट वियोगादिहेतुभ्यः समुत्पन्नं दुक्ख सर्वस्यात्मनः अप्रियं ज्ञात्वा इत्यर्थः च पुनः प्राणिनी जीवान्
अज्जत्य सब्बी सव्वं दिस्म पाणे पियायए। नहणे पाणिणी पाणे भय वैराउ उवरए ।७। आयाणं नरयं दिया
नायडूज्ज तणामवि । दोगु'छी अप्पणोपाएदिगं भजेज्ज भोयणं ।। दूहमेगेउ मसंति अपच्चकवाय पावग। आय सुख दुखधान्यादि नरकं हेतवं दृष्ट्वा ए सर्व दुखसुख प्रात्मा धकौ उपजे पर तेह भणी धान्यादिक परिग्रह थको नरकनी हेतु देतो देखौने दिम. दृष्ट्वा एण तथा प्राणिनः प्रियामकान् दृष्ट्वा सर्व जीवने आपापची प्राण वाल्हो के इमजाणीने न हन्यात् प्राणिनां प्राणौन इम जाणीने हणे नहीं मारे नही जीव प्राणौने भवात् वैराच्च उपरती निवृत्तः भयवर ति साधु निवों के ७ धनं धान्यादि नरकहेतु दृष्ट्वा धन धाने करौ बरगनो हेतु देखौने न रातिति अदत्तः वृणमपि तृणामात्र पोण अणदीधी लेवे नहीं पामगहापरः पात्मनः पाने काष्ठादिमये आपणा अामानौ निंदा करे काष्ठना पा पणा पाव मांहि पात्र पहिभिर्दत्त भोजनं भुंजीत साथ दोधी सूझतो आहार जौमे ८ इह जगति एके कैंचित् इति मन्यन्ते ए संसारमांहि केइन
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं उ.४१ मा भाग
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ए०टोका अ०६
२२०
सूत्र
भाषा
RXXX
प्रियामनो दृष्ट्वा प्रियः आमा येषान्ते प्रियात्मनः सर्वे जौवावि इच्छन्तोति जीविउ न मरिज्जिड इति दृष्ट्वा दिविचार्य प्राणिनो जीवस्य प्राणान् इन्द्रियोच्छास निःश्वासा युर्बलरूपान् न हन्यात् भयात् वैरात् च उपरमेत निवर्त्तेत अथवा कथम्भतः साधुः भयात् वैरात् उपरतो निवर्त्तित: इति साधुविशेषण ं कर्त्तव्य ं ७ आयाण' नरयन्दिस्म नायइज्जतणा मवि दोगुच्छौ अप्पणोपाए दिवं भुञ्जिज्जभोयणं ८ साधुस्तृणं' अधिनाय इज्ज इति न आददीत प्रदत्त' न गृहीत किं कृत्वा पादान' नरकं दृष्ट्वा आदीयते इत्यादानं धनधान्यादिकं परि ग्रहं नरकं नरकहेतुत्वात् नरकं ज्ञात्वा इत्यर्थः पुनः साधुः पाएदिव ं पात्रेदत्त गृहस्थेन पात्रमध्ये प्रक्षिप्त' भोजन शहाहारे भुञ्जज्ज इति भुञ्जीत कथम्भतः सन् अप्पणी दुगंको आमनो जुगुप्सीसन् आहारसमये आत्मनिन्दकः सन् अहोधिक् मम आत्मान' अयं आत्मादेहो वा आहारं विनाध करणे असमर्थः किं करोमि धर्मनिर्वाहार्थ मस् भाटकन्दौयते इति चिन्तयन् श्राहारं कुर्यात् न तु बलवीर्य पुष्टाद्यर्थ आहारं विधीयते इति चिन्तयेत् अत्र प्रदत्तपरिग्रहा श्रवश्य निरोधात् अन्येषा मप्याश्रवाणां निरोधोपयुक्त एव ८ इहमेगे उमवन्ति श्रपञ्चकवाय पावगं श्रयरियं विदित्ताण' सव्वदुक्ता विमुचई ८ इह अस्मिन् संसारे एके केचित् काfपलिकादयो ज्ञानवादिनः इति मन्यन्ते इतौति किं पापकं हिंसादिकं अप्रत्याख्याय पापं अनालोच्चापि मनुष्यः आचारिकं स्वकीयमतोद्भवानुष्ठान रियं विदित्ताणं सव्व दुक्खावि मुच्चई ॥६॥ भगंता अकरताय बंध मोक्ख पइमिणा । वाया विरिय मेलेणं समासा अन्यदर्शनो इम माने के पाप अपरित्यज्य पापने श्रणपचखौने पापने निज माचारं विदित्वा ज्ञात्वा आपणो आचार जाणौने सर्व दुःखेभ्यो मुच्यते सर्वदुःख थकी मूकाइ ८ इह जगत् इह विखे एके कुतीर्थ्यादयः एवं मन्यन्त ज्ञानमेव मुक्तिः एवं वदति क्रियां अकुर्वतः क्रिया कार करौ नहीं भणोइजभण्या कोज ए जीव मुक्ति जाइ बन्धमोच स्थापकः बन्धमोचना कहणहार वचनवौर्य वचनाड़म्बरमात्रेण वचनाड़म्बरमा करोने
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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सटौका : समुहं विदित्वा ज्ञात्वा सर्वदुक्खात् विमुच्यते एतावता तत्त्वज्ञानात् मोक्षावाप्तिः इति वदन्ति जैनानां तु ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष: ज्ञानवादिनां तु ज्ञानमेवमु २२१
त्यमिति र भणन्ता अकरिन्ताय बन्धमोक्ख पइविणो वायावौरिय मित्तेण समासासन्ति अप्पयं १० पुनस्तेएव ज्ञानवादिनो वन्धमोक्ष प्रतिन्निन: वाचा वीर्यमात्रेण केवलं वाक् शूरत्वे न आमान समास्वासयन्ति बन्धश्च मोक्षञ्च बन्धमोक्षौ तयोः प्रतिज्ञा आद्यं ज्ञान येषान्त बन्धमोक्ष प्रतिजिनः बन्धमोक्षत्रा इत्यर्थः मनएव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयोः यौवा लिङ्गिता कान्ता तत्रैवा लिङ्गिता सता इत्यादि प्रतिज्ञा कुर्वाणाः ते किं कुर्वत: आत्मान' आखासयन्ति भणन्तीज्ञान अभ्यसन्तः च पुनः अकुर्वन्तः क्रियां अनाचरन्तः प्रत्याख्यानतपः पौषध ब्रतादिकां क्रियां निन्दतः ज्ञानमेव मुक्त्यङ्गतयाङ्गी कुर्वन्त इत्यर्थः नचित्ता तापए भासा कोविज्जाण सासणं विसन्ना पावकम्मे हिं बालापिण्डिय माणिणी ११ पण्डित: मानिनः आत्मानं पण्डित स्मनयाः ज्ञानाहङ्कारधारिणा इति न जानन्ति इति अध्याहारः इतौति किञ्चित्राः प्राकृत संस्कृताद्या षट्भाषा अथवा अन्या अपिदेश विशेषात् नानारूपा भाषा वा पापेभ्यो दुःखेभ्यो न वायन्ते नरक्षन्ते तहिविद्यानां न्यायमीमांसादीनां अनुशासन' अनुशिक्षण विद्यानुशासन कुतः स्त्रीयते न जायते इत्यर्थः अथवा विद्यानां विचित्रमन्वात्मिकानां रोहिणी प्राप्तिका गौरीगन्धादि पोडशविद्या देव्यधिष्टितानां अनुशासन अनुशिक्षण आराधन कुतो नर
सेंति अप्पग ॥१०॥ न चित्ता तापए भासा को विज्जाणु सासणं । विसमा पावकम्म हिं वाला पंडिय स्वस्थौभावं कुर्वन्ति आमानं इम कहोने आपणो आमाने आश्वासना दिइ १. चित्रा संस्कृतादिमयी भाषा जौवं न रक्षति चित्रा संस्कृतादिमयि भाषा: जौवडाने नरक पडता राखे नहीं कुतो विद्यानुशासनं विद्यापठन कुतो रक्षति विद्यानु पढवं जोवे पाप हुँती राखे किन्तु न राखे मना पाप कर्म सु पाप कश्मने विष खूतो छ मध्ये मग्न हुआ मूर्खाः रागद्देषकताः पण्डितमानिनः एवं आत्मानं मन्यते बाल अज्ञानी आपणा अमाने पण्डित करि माने११
राय धनपतसिंह वाहादुर का अस० उ० ४१ मा भाग
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४० टोका अ०६ २२२
सूत्र
भाषा
कात्रायते कोट्टशास्ते वाला तत्त्वन्नाः पुनः कोट्टशास्ते पापकर्मभिर्विषन्नाः विविधं अनेकप्रकारं ययास्यात्तथा सत्राः पापपङ्गेषु कलिता इत्यर्थः १२ जेकेर सरौर सत्ता बनेरूवेय सव्वसो मणसा कायवक्वेयं सव्वे ते दुक्खसम्भवाः १२ ये केचन ज्ञानवादिनः शरीरशक्ताः सन्ति शरीर सुखान्वेषिणः सन्तिः तथा पुनर्येवर्षे शरीरस्य गौरादिके च पुनस्तथा रूपे सुन्दर नयननासादिके च शब्दात् शब्द रखेगन्ध े स्पर्शे च सर्वथा मनसा कायेन वाक्येन सप्ताः संल म्नाः सन्ति ते सर्वे दुक्खसन्भवाः दुक्खस्य सम्भवा दुक्खभाजनं भवन्ति मृगपतङ्ग मौन मधुप मातङ्गवत् इहलोके यथामरण दुक्खभाजः परलोकेप्यार्त्त ध्यानेन मृताः दुक्खिनास्युरित्यर्थः १२ आवब्रादौह मडाण' स'सारंमि अणन्तए तम्हा सव्वदिसम्पस्स अप्पमत्तो परिव्वए १३ ते अज्ञानवादिनो विषयिणः अनन्तके अपारे संसार दौघं अध्वान' दोघं मार्ग आपत्त्राः प्राप्ताः सन्तितस्मात्कारणात् सर्वान्दिशं भवभ्रमणरूपांश्रष्टादशभावदिशः दृष्ट्वासारप्रमत्तः प्रमाद
माणिणो ॥११॥ जे केद्र सरोरे सत्ता व रूवेय सव्वसो । मणसा काय वक्केणं सव्वेते दुक्ख संभवा ॥ १२ ॥ आवस्था दौह मद्दाणं संसारंमि अणं तए । तम्हा सव्व दिसं परम अप्पत्ती परिव्व ॥ १३॥ बहिया उड्ड मादाय नाव
जे केचित् सरोरे सत्वा मूर्च्छिता इह शरीर एमरोरने विषे के इसत्व प्राणी समूर्च्छा के शरीर गौरत्वादिके सुरो कार वर्णे रुपे सर्वप्रकारे रूपे करो वर्षे करौ सर्व प्रकारे करो मनसा कायेन वाक्येन दुःखकरा भवन्ति मनवचनकायाइ करी ते जीव ते सर्वे दुःखयुक्ता भवन्ति ते सघलाइ दुःख सहित होवे १२ प्राप्ता दीर्घ अध्वानं भवभ्रमण रूपं संसार समुद्र तेहने मारी पड्या ते मार्ग किस्या के दौर्घ लांवा के संसार अन्तरहिते वली संसारी किस्या के अंतपार करौने रहौत के तस्मात् कारणात् सर्वदिशं सर्वगत्यागत्यं दृष्ट्वा तिथे कारणे सर्वगति श्रगति देखौने श्रप्रमत्तः परिव्रजेत् अहो साधु ए स्वरूप जाणी
98909840XXXXXXXx
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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टीका * रहितः सन् विचरेत् अष्टादशभावदिशश्च इमा पुढवि १ जलर जलण वाऊ ४ मूला५ वध गा० पोरबौयाय बिट ति१० चल११ पंचदिसतिरि१२
हु नारया१३ देवसंघाया १४ समुच्छिम १५ कम्मा १६ कमगाय १० मण्यातहंतरहीवा १८ भावदिसादिस्म इज संसारौनिययम पाहि इति १ संसार । प्रमादिनी जौवा इमाम अष्टादशभावदिशासु पुनः पुन मंतीत्यर्थः १३ बहिया जडमादाय ना वकखे कया इवि धुव्वकम्मक्खयद्वाए इमं देहं समुइरे १४ साधुः पूर्वकर्मचयार्थ इमं देहं समुद्धरेत् सम्यक् शहाहारेण धारयेत् पुनः कदापि च परोषहोपसर्गादिभिः पौडितोपि न कस्यापि साहाय्य अवका अभिलषेत् अथवा कदापि विषयादिभ्यो न स्पृहयेत् किं कृत्वा बहिया संसाराइहिस्तात् संसाराबहिर्भूतं जालोकाग्रस्थानं मोक्ष प्रादाय अभिलथ १४ विगिंच कम्मुणा हेउ' कालखी परिबए माय' पिंडस्म पाणस्म कडं लहूण भक्खए १५ कालकासो अवसरतः साधुः कर्मणां हेतु कर्मणां कारणं मिथ्था त्वाविरतिकषाय योगादिकं विगिंच विविध पात्मनः सकाशात् पृथक्कत्व परित्यजेस यममार्गे सच्चरेत् कालं स्खक्रियानुष्ठानस्य अवसरं काश्यतीत्येवं शौसः कालकांक्षी पुनः सः साधुः पिण्डस्य आहारस्य तथा पानस्य पानौयस्य मात्रा परिमाणं लब्धा भक्षयेत् यावत्या मात्रया प्रामसंयमनिर्वाहः स्यात्
कंखे कयाइवि पुव्व कम्म खय द्वाए इमं देहं समुद्धरे ॥१४॥ विंगि'च कम्मणोहउं काल कंखी परिव्वए। मायं 8 संसारनी अप्रमत्त थको विचरे १३ संसारात् वहि तोउई इति मोक्षमादाय मनसि चिन्तयित्वा संसार थको उचौमोक्ष तेहने मनमाहिं राखौने ऋद्धि
विषयादिकं न बांख्येत् कदाचित् ऋद्धिविषयादिकने बांछे नही मन मांहि किवार ए पूर्व कर्मचया पूर्वकर्म चयने पर्थे इमं देहं समुहरेत् पालयेत् पूर्व कर्मक्षय करवाने अर्थे देहौने राखे धरे १४ विगंच दूरीतत्य कर्म बंधकारणं इत्यादि कर्मनी हेतु मिथ्या विगंचे दूरि कर कालकची सन् परिव्रजेत् कालवेलार क्रिया करतो थको विचर मात्रा पिण्डस्य प्रवादि पानस्य ज्ञात्वा मात्रा पाहार पाणीनी जांधीने गृहस्थैः स्वार्थे कृतं लब्धाभक्षयेत् एहस्ये
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं.उ. ४१ मा।
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१. टीका अ०६ २२४
तावत्परिमाणं आहारं पानीयं च गृहीत्वा आहारं पानीयं च कुर्यात् इत्यर्थः कथंभूतं पाहारं कई रहस्ये न आत्मार्थ कृतं प्राकृतत्वात् विभक्तिव्यत्ययः१५ संनिहिं च न कुब्बिज्जा लेवमायाइ सजए पक्खो पत्त समादाय निरवेक्लो परिव्वये १६ च पुनः सयतः साधुर्लेपमात्रयापि सविधि न कुर्यात् लेप स्य मात्रा लेपमात्रा तथा लेपमावया सं सम्यक् प्रकारेण निधीयते स्थाप्यते दुर्गतौ आत्मा येन स सविधितगुड़ादिसञ्चय स्तं न कुर्यात् यावता पात्र लिप्य ते तावन्मात्र अपि कृतादिकं न सच येत् भिक्षुराहारं कृत्वा पत्नं समादाय पात्र गृहीत्वा निरपेक्ष: सन् निःस्पृहः सन् परिब्रजेत् साधु मार्गे प्रवर्तत क इव पक्खो इव यथा पक्षी आहारं त्वा पचं तनूरुहमात्र गृहीत्वा उड्डीयते तथा साधुरपि कुक्षिस'वलो भवेत् १६ एसणास मित्रो लज्जूगामे अनि
पिंडस्म पागम कडं लङ्कण भक्खए ॥१५॥ संनिहिंच न कुछ ज्जा लेवमायाए संजए पक्खी पत्त समादाय निर
विक्खो परिव्वए ॥१६॥ एसणा समिओ लज्जूगामे अणियो चरे अप्पमत्तो पमत्तेहिं पिंडवायं गवेसए ॥१०॥ एवं आपणे अर्थेनोपजाव्यो के आहार सूझतो ये १५ सन्निध अबादिकं संसचयन कुर्यात् विगयलिगारमावपिण रात्र राखेनही लेपमात्रमपि साधु सञ्चय * न कुर्यात् लेपमात्र थोड़ी पिणसनघ राखे नहीं पक्षिवत् पक्षं सञ्चयं कृत्वा जिम पंखी उडे तिवारे पांख एकठौ करीने उडे तिम यतौ धाई पौये पात्रां ।
एकठा करौने चाले तथामुनौः निरपेक्षी सन् विचरेत् तिम साधु निरपेक्षी थको विचरे १६ एषणासमिति विषयेसावधान: लज्जावान् साधू लज्जावंत छ। ग्राम नगरादौ अनित्य वास: गाम नगरने विषे अनियत वासी थको विचरे अप्रमत्तः सन् प्रमत्तेभ्यः यहिभ्यः साधु प्रमाद रहित के गृहस्थ प्रमादी के परिगृहपास धौपिंडपाव भिषां विलोकयेत् भिक्षाआहारलिइ सूझतो१७ एवं पूर्वोक्तं स भगवान् उक्तवान् सर्वोत्कृष्टज्ञानौसर्वाधिकदर्शी उत्कृष्टज्ञाननो
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०६ २२५
सूत्र
भाषा
उचरे अप्पमत्तोपमत्तं हिं पिंडवायं गवेसर १७ एषणा समितो निर्दोषाहारग्राही ग्रामे नगरे वा अनियतो नित्यवासरहितः सन् चरेत् सयममार्गे प्रवर्त्तेत कोडमः साधुर्लज्जूर्लज्जालुः लब्जास यमस्तेन सहितः पुनः कौमः अप्रमत्तः प्रमादरहितः पुनः साधुः प्रमत्ते हिं इति प्रमत्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः पिंडपातं भिचां गवेषयेत् गृहीत प्राकृतत्वात्पञ्चमौस्थाने तो १७ एवं से उदाहु अणुत्तरनाको प्रणुत्तरदंसो अणुत्तरनाणदंसणप्नरं अरहा नायपुत् भयवंबेसालिए वियाहिए त्तिवेमि १८ सुधर्मा स्वामी जंबू स्वामिनं प्रत्याह हे जंबू से इति स अर्हन् जातपुत्त्रो महावीर एवं उदाहुः उदाहृतवान् अहं तवाग्रेळे इति व्रवौमि अर्हन् इन्द्रादिभिः पूज्यः ज्ञातः प्रसिद्धः सिद्धार्थचत्रियः तस्य पुत्री ज्ञातपुत्त्रः कोट्टयो महावीरः भगवान् श्रष्टमहाप्रातिहार्याद्यति माहात्म्ययुक्तः पुनः कीदृशः विशालावियला. तस्याः पुत्रो वैशालिक: अथवा विशाला शिष्यास्तीर्थं यमः प्रभृतयोगुणाः अस्येति वैशालिकः पुनः कौथो महावौरः वियाहिए इति व्याख्यात विशेषेण श्राख्याता द्वादशपरिषदासु समवसरणे धर्मोपदेशं व्याख्याता धर्मोपदेशक इत्यर्थः पुनः कीदृशो महावीरः अनुत्तरज्ञानौ सर्वोत्कृष्टज्ञानधारी पुनः कोदृश अनुत्तरदर्शी अनुत्तरं सर्वोत्कष्टं पश्यतीत्येवं शोलोऽनुत्तरदर्शी पुनः कीदृशः अनुत्तरन्ज्ञानदर्शन धरः ज्ञानञ्च दर्शनश्च ज्ञानदर्शने अनुत्तरे च ते ज्ञानदर्शने च अनुत्तरज्ञानदर्शने अनुत्तरज्ञानदर्शने धरतौति अनुत्तरन्ज्ञानदर्शनधरः केवलवरज्ञानदर्शन धारौ इत्यर्थः अत्र पूर्वं अनुत्तरन्नानी अनुत्तरदर्शी इति विशेषणद्वयं उक्ता पुनरनुत्तरन्ज्ञानदर्शनधर इति विशेषणं उक्त तेन केबलन्नान केवलदर्शनयोरेक से उदाहु अणुत्तर नाणी अणुत्तर दंसी । अणुत्तर नाण दंसण धरे अरहा नायपुत्ते भयवं वेसालिए वियाहिए
धणौ सर्वाधिकः दर्शननो धणौ सर्वाधिकज्ञान दर्शनधर: सर्वाधिक ज्ञान दर्शन नो धणी अर्हन् अरिहंत सिद्दार्थ पुत्रः सिद्दार्थ राजानो बेटी समग्र ऐश्वर्यादियुक्तः बिस्तौर्ण शिष्ययुक्तः घणा शिष्यके जेहने सभामध्ये उक्त कथोतवान् इति ब्रवोम १८ इति श्रीलघुनि ग्रन्ययाध्ययनं सम्मत्तं सम्पूर्णम् ६
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राय धनपत सिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टोका
P
अ०६
२२६
सूत्र
भाषा
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उत्तरराध्ययने खुड्डियज्मयणाधिकारम् सं० भावितात्मा अणगार श्रीबूटे रायजी तच्छिष्य भगवान विजय साधुना संशोध समयान्तरेणयुगपदुत्पत्तिः सूचिता अनयोः कथञ्चिदोऽभेदय सूचितः पुनरुक्तदोषोन ज्ञयः १८ इति क्षुल्लकनिग्रन्थित्वाध्ययनं संपूर्ण श्रत्राध्ययने क्षुल्लकस्य साधोर्निर्गन्धित्व मुक्त मित्यर्थः इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दोधिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्त्तिगणिशिष्य लक्ष्मीबल्लभमणिविरचितायां क्षुल्लक निग्र न्यितत्वाध्ययनस्य षष्टस्यार्थः संपूर्ण । ६ । अत्र पूर्वाध्ययने साधोर्निग्रन्यत्व ं उक्त ं तच्चयोरसेषु अग्टघ्नुर्भवति तस्यैवस्यात् रसग्टद्धस्य कष्टमुत्पद्यते तेन रसन्ट द्दस्य कष्टोत्पत्ति दृष्टान्तसूचकं उरभ्रादि पञ्चदृष्टान्तमयं सप्तमं उरभ्रौयास्य कव्यते प्रति षष्ट सप्तमयोः सम्बन्धः जहाएस समुद्दिस्त कोइषोसिज्जएलयं ओयणं जवसन्दिज्जा पोसिज्जा विसयङ्गये १ व्याख्या यथा कोपि कश्चिनिर्दयः पुमान् आदेशं आदिश्यते विधिव्यापारेषु प्रर्यते परिजनो यस्मिन् श्रा गतेस आदेशस्तं प्राघूर्णकं समुद्दिश्य आश्रित्य स्वकाङ्गण स्वकीय गृहाङ्गर्ण एलकं एडक' ऊरणकं पोषयेत् तस्मै एलकाय ओदन' सम्यक् धान्य' यव संमुह माषादिकं दद्यात् ततश्च पोषयेत् पुनः पोषयेदित्युक्त' तत् प्रत्यादरख्यापनार्थं अपिशब्दः सम्भावने संभाव्यतेएव एवंविधः कोपि गुरुकर्मा इत्यर्थः १ पत्रोदा 'हरण ं यथा एक मूरणक' प्रावर्णकार्थं प्रोष्यमाणं लाल्यमान' दृष्ट्वा एको वक्तः खित्रः क्षौरमपिवन् मयामात्रापृष्ठः कथं न वक्तः चौरं पिवसिस आह
तिमि ॥ १८ ॥ खुड्डागज्भयणं समत्तं ६ ॥ जहाएसं समुहिम कोइ पोसेज्ज एलयं । श्रयणं जब संदिज्जा पीसेज्जावि
यथा आदेशं प्राघुर्णकं उद्दिश्य प्राहुण ने निमीत्त उद्देशिने कोपि एलक मौढकं पोषयति कोई मोढाने पोखे पोखे ओदनं भक्त' जवमुद्दादि दद्यात् जव मूंग मोठ तेहने दौजे पुष्टि कुर्यात् स्वकीयांगणे पुष्टि कीजे आपणा घरने आंगणे १ ततः स उरम्भ्रः पुष्टः उपचित मांसः समर्थेौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०७
२२७
सूत्र
भाषा
XXXEXER
मातरेष ऊरणकः सर्वैः लोकैर्पाल्यते व्रोहींचायतें पुत्रइव विविधैरलङ्कारैरलं क्रियते श्रहन्तु मन्दभाग्यः शष्कान्यपि तृणानि न प्राप्नोमि न च निर्मलं पानोयामपि न प्राप्नोति न च मां कोपिला लयति माताप्राह पुत्र अस्यैतानि श्रातुरचिह्नानि यथा मर्तुकाम आतुरो यद्यन्मार्गयति पथ्यमपथ्ये म्बवा तत्तत्सर्वमप्यस्य दौयते अथास्म मारयिष्यते तदा त्वंद्रच्यसि अन्यदा तत्र प्राघूर्णकः समायातः तदर्थन्त मूरणकं मार्यमाणं दृष्ट्वाभीतः सवत्सः पुनस्तन्यपानम कुर्वन् मात्रानुशिष्टः पुत्र किं त्वंभीतोसि पूर्व मयोक्त' न स्मरसि किं श्रातुरचिह्नान्ये तानीति यएव ब्रीहीं वारितः प्रकामं लालितः सएव मार्यते त्वन्तु कान्धेव ढणानि चरितवानसीति माभैषौनैव मारिष्यसे इति मात्रा उक्तीबससुखेनैव स्तन्यपान मकरात् एवं यो यथेष्ट विविधास्वाद लम्पटोऽधर्म माचरति सनरकायुर्बभ्रातीत्यर्थः इति ऊरणकदृष्टान्तः तसे पुट्टे परिवढे जायमेए महोदर पौणिए विउले देहे आए संपरिकइए २ ततः सए लकः कोदृगोजातः ततः स उरभ्रः पुष्टः उपचितमांसः परिवृढः युद्धादौ समर्थः सवैष्वन्येषु उरश्रेषु मुख्यइव दृश्यमाणः पुनः कीदृशः जातमेदाः पुष्टौ
सयं गणे ॥१॥ तओ से पुठ्ठे परिबूढे जायमेए महोदरे । पौणिए विउले देहे । आएसं परिकंखए ॥२॥ जाव नएइ आरसे तावज्जीव से दुही । अह पत्तम्मि आपसे सौसं छित्तूण भुंजई ॥३॥ जहा खलु से उरम्भे एसए जातः तठा केडे उपचितः प्रोढोदरः जातमेदः मातो हुओ मेदहुइ पेट मोटो हुआ पुष्टिर्विशाल देहः पुष्ट हुओ के जेहनी देह प्राघूर्ण बांछति हवे घर नो धणौ प्राहु'णां ने वांछे छे प्राहुणो आवे तो भलो बाइ आदेसने वांछते २ यावत्रायातिप्राघुर्णकः जेतले पांडुणो न आवे तावज्जीवते सदुःखयान्जिहां ताइ ं ते मौढो दुखो थको जौवे अथवा पुरस दूखे करी जोवे अथ प्राप्ति प्राघूर्णेः अथ प्रांणो आव्यो वाट जोता थका मस्तकं छित्वा भूज्यते मस्तक
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१ टीका अ०७
14
भत पतधंधातः पुनः कोहयो महोदरी विद्यालकुचिः पुन कोहयः प्रौणितः यमित भोजनादिना सन्तुष्टीततः एताहणः सन म उरभः विपले विपरी देहेमति प्रादेयं प्राघर्षकं परिकांचति प्रतिच्छति इव २ जावनएइ आएसे तावजीवडू सेदुही अहपत्त मि आए, सीसंच्छित्तण भंजई । सउर भस्तावज्जीवति प्राणान् धारयति कीहमः स दुक्खौ दुक्खं अस्य भावी इति दुक्खौभाविनि भूतोपचारात् यद्यपि वर्तमानकाले र मखमति तथापि दुक्ख पागामि कत्वात् दुःखी उच्यते तावत् इति किं यावत् पाएमा प्राघुणेको ने एति न पागच्छति अथ आदेश प्राप्त सति शौर्ष हित्वा स सरशः पादेशन समं खामिनापि भुज्यते ३ जहामे खलु उरम्भे पाए साए समौहिए एवं बाल पहमिहेई हई न रयाउन ४ यथा स उरमः पादयाय
समीहिए । एवं बाले अहं मिढे दूहई नरया उयं ॥४॥ हिंसे बाल मुसा वाई अडाणमि विलोवए । अम दत्त हरेते __ णे माई कन्न हरे सटे ॥५॥ इत्थी विसय गिद्धेय महारंभ रिग्गह। भुजमाणे सुरं मंसं परिवटे पर दमे ॥६॥ हेदीने खांद मोढाने । यथा स निश्चये नोरमः जीमते खलु निषय स्यं करण प्राघूर्ण कायकल्पित पाहुणाने अर्थे राखीने विणास्योः एवं मूर्या धर्म हिनः इम मूर्खवालक अधर्मो बांछते नरकायुषं बांछे नरक पाउखू ४ प्राण घातको मूर्ख सषावादी जौवमारे झठ बोले अध्वनि मार्गे विलोपको लूटकः वाटपाड़े घर लूटे अन्य रदत्त हरति चौर अदत्तादान लिइ चोरी कर वञ्चकः कस्वार्थ हरिश्थामौ मूर्खः माया करे केहनी धन हरु स दाएहज ध्यान मन माहि रहे ५ नौलोलुप: विषयासबः वलौ बालमुर्ख किस्था के स्त्रौने विष सह हुआ के तीव्रारम्भ परि गृहजुक्त: घणो प्रारम्भ घणो परि ग्रह तेणे युक्त के भंजमानः सुरामांसं मांस खाई मद्य पौई समर्थे अन्धदमनशीलः इसो बलवंत वौजाने दमे ६ अजस्य पक्कमांस
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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अटीका समौहितः कल्पितः एवं इति तथाबालः कार्याकार्य विचाररहितः अधर्मिष्टः मरकायुः इहते इव नरक गतियोग्य कर्मकरणे नरकाय कल्पित इत्यर्थः । अ०७२ हिंसे बाले मुसाबाई पहाणं मि विलोवए अवदत्त हरे तेणे माईक हरे सढे ५ इत्थौ विसयगिय महारभ परिमाहे भुच्चमाणे सुरं मंसं २२८
8 पुरिवूढे परन्दम । अयककर भोईय तन्दिले चिय सोणिए आयुयं नरएकई जहाए संवए लए ७ तिसृभिर्गाथाभिः पूर्वोक्तमेव दृढयति एता * दृयो नरः नारके इति नरकगती नरकायुः अर्थात् नरकस्य आयुकांक्षति नरकगति योग्यकर्मा चरणासनरः नरकगति एव वाञ्छति नरकाय * कल्पितः क करव एलकः पूर्वोक्त उरमः आदेश इव यथा केनचित् पापन यथेसित भोजनेन पोषित उरभः पादेयं इच्छति कौशः सः हिंस्रो हिंसनशीलः पुनः कीदृशः बालो अज्ञानी पुनः कीदृग् अध्वनि विलोपकः जिनमार्गलोपक; पुनः कीदृग् अन्यादत्तहरः अन्येषां प्रदत्त हरतीति अन्धादत्तहरः अदत्तादान मेवी इत्यर्थः पुनः कीदृग् स्तैन्यः चौर्येण कल्पितत्तिः पुनः कोहग्मायौ कापायुक्तः पुनः कीदृक् कस्य अर्थ नु इति वितर्के हरिश्थामौति विचारो यस्य स कबुहरः पुनः कीदृशः शठो वक्राचारः ५ पुनः कीदृशः स्त्री विषयेहः पुनः कीदृशः महारम्भ * परिग्रहः महान्ती पारनपरिग्रही यस्य समहारनपरिग्रहः महारभी पुनर्महापरिग्रही पुनः कीदृशः सुरां मद्य मांस चभु जान पुनः कीदृशः परिबढः * उपचित मांसत्वेन स्थूलः पुनः कीदृशः परंदमः परं अन्य जीवं दमतौति परंदमः परपौडाकारकः आमाथं परजीवोपघातुक इत्यर्थः । पुनः कीदृश * . अयकक्कर भोईय तु'दि चियलोहिए । आउयं नरए कंखे जहाए संवएलए ॥७॥ आसणं सयणं जाणं वित्तं कामेय 8 भोजौ छालानु मांस पण पचायोने करकराटक रतो खाइ प्रौढोदरः उपचित रतः पेटमोटो हुप्रो लोहि पौण उपचित हुो आयुष्क नरक बांति
पाउखु नरक वांछे यथा आदेश प्राघूर्णकं एल वांति जिम प्राणा नेमी ढोवा के इतिम जाणवी ७ आसनं शयनं यानं प्रवहणं विशेषः बाजोठ
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.स.उ.११ मा भाग
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छ० टोका
अ°७
२३०
सूव
भाषा
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अक कर भोजो अजस्य छागादे कर्करं अतिभ्रष्टं यच्चणकवत् भुज्यमानं कर्करायते तमदोदन्तुरं पक्कं शूलाकत मांसन्तत इत्येवं मौलो अज कर्कर भोजी पुनस्तुन्द' अस्यास्तीति तुन्दिलः यथेप्सित भोजनेन वर्द्धितोदरः अतएव चितशोणितः वर्द्धि तरुधिरः रुधिर या अन्येषापपि धातूनां दृषिट से ० पूर्वे हिंसे बाले इत्यादिना रम्भेोक्तिः कथिताः भुवमाणे सुरम्मंसं इत्यनेन दुर्गति गमनभणनात्कष्टोत्पत्तिः कथिताः अथ गाथायेन साचादिहैव कष्टं कथयति आसण सयण' जाण' वित्तङ्कामे अभुमित्रा दुस्साह घण हिचा बहुविणिया रसं ८ तो कम्म गुरुजन्तु पचुष्पन्न परायणें अयव्व आगया एसे मरणन्त मिसोयर 2 ततस्तदनन्तरं प्रत्युन्नपरायणः प्रत्युत्पन्ने प्रत्यक्ष भुज्यमानविषयसुखे परायणः प्रत्युत्पन्न परायणः परलोक सुखना स्तिक वादीजनो मरणान्ते मरणस्य अन्तः सामीप्य मरणान्तः तस्मिन् मरणान्ते मरणे समीपे समागते सति शोचते शोकं कुरुते इति सम्बन्धः तत इति कुतः पूर्वं किं कृत्वा इत्याह आसनं सुखासनादिक' शयनं खट्टा छप्परादिकं हिंडोला दिकं यानं गहिका दिकं वित्तं द्रव्य कामान् विषयान् भुंक्का दुक्वाहृतं दुःखेनाहृयते इति दुःखाहृतं दुक्खोत्पाद्यं धनं त्यक्वा पुनर्बहुप्रचुरं रजः पातकं सच्चि णिया सचित्य समुत्याज्य' एतावता बहुभिः परिग्रहैः पातक उपाय श्रायुषः अन्तेस आरम्भोजीवः शोचते कथम्भूतः सजन्तुः कर्मगुरुः भु'जिया दुस्माहडं धणं हिच्चा वह संचिणिया रयं । ८ । तत्रो कम्म गुरुजंतू पञ्च पण परायणे अयव्व आगया एसे
शय्या प्रवहण गावा॑ प्रमुख द्रव्यं' कामान् शब्दादौन् भूक्का लक्ष्मौकामभोगवोने दुखैरुपार्जितं धनं त्यक्का दुःखे करौने उपायों हतो ते धन छोडौने बहु रजःकर्ममलं उपार्जयित्वा घणा पाप मलसंचौने ८ ततः कर्म गुरु जीवः तिवारे पछी भारी कर्मी जन्तु प्राणी तठाकेड़े वर्त्तमान कांमपरायणः अना गत कालं परलोकं न जानाति वर्त्तमान कालने विषे नरकादिक थको बौहे नहीं जाणे सर्वे हांज के आगे काइ न थौ इम जाणे यथा अजोमो ढ़कः
の
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०७
२३१
सूत्र
भाषा
XXX3
कर्मभिर्गुरुः गुरकर्मा सकइव मरण समये शोचते इत्यर्थः
शोचंते अजइव यथापूर्वी अजः श्रादेशे प्रातुर्णके आगते सति शोचते तथा स आरम्भौ परिग्रहों विषयो जोवः पुनस्तदेव द्रढयति तम्रो आउपरिखौणे चुत्रा देहावि हिंसगा असरौघं दिशम्बाला गच्छन्ति भवसात १० ततः आयुषि परिचीणे सतिते विहिंसकाः विशेषेण हिंसाकारका नरा देहात्च्यताः मनुष्यशरीरादुभ्रष्टासन्तः श्रासुरौयं दिशं गच्छन्ति कोहशास्ते बाला मूर्खा असुराचं रौद्राणां रुद्र कर्मकारिणां द्रयं भावदिशा आसुरीतां पुनः कीदृशास्ते अवशाः परवशाः इन्द्रियवसवर्त्तिनो वा कोहयो असुरों विशन्तमं इति तमोन्धकारं तद्युक्तत्वात् तमः स्तमोमयों नरकगति मितिभावः इति प्रथम एलकस्य दृष्टान्त अथ काकिन्याम्म्र दृष्टान्तमाह जहाका frete हेड' सहस्र 'हारए नरो अपत्य' अम्बगम्भुच्चाराया रज्जन्तु हारए ११ यथा कश्चिन्नरः काकिन्याः हेतोः सहश्रण्टङ्कानां सह श्रहारयेत् काकिणी तु रूपकद्रव्यस्य अयोतिमो भागस्तदर्थं कश्चित् कृपणः टङ्कानां दीनाराणां सहश्रं पातयेत् अतीव मूर्खशिरोमणि अत्र भनुष्य भोग सुखष्य तुच्छत्वेन कप मरणं तंमिसोयए ।। तओ आउ परिखौ चुयादेह विहिंसगा । आसुरीयं दिसं बाला गच्छंति अवसातमं । १० । जहा कामणीएहेउ' सहमहारएन । अपत्यं अंबग भुञ्चा रायारज्जं तु हारए | ११ | एवं माणुस गाकामा देव प्राघुर्णके आगते शोच्यते जोम प्राहुणी आव्या थका मीठो सोचे तौम तथा सप्रांणी मरणांत आगते शोच्यते तिम ते भारिकर्मा प्राणीमरण पाव्या धकां सोचे ततो अनंतर आयुषि परिचीणेतिवारपकौतिहां मनुष्यसम्बन्धी द्यायुखोचीणहोइ थके भ्रष्टदेहाः सन्तः हिंसासवैः मनुष्य सम्बन्धो देही कांड़कांड़ौने नरकगतिदिसि नरकगतिं नरकने विषे जाइ गच्छन्ति अवथाः पापवन्तः पापी मनुष्य नरकने विषे जाइ परवसि घाइ१० यथा काकिण्या हेतु जिमकोइ
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०० १४ मा भाग
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प्र.७
टीका
दिका दृष्टान्तः तु पुनः कचिद्राजा अपथ्य पाम्रफलं भुक्का राज्य हारितवान् हारयेत् वा अत्र भोगसुखस्य तुच्छत्वोपरिकाकिन्धा म दृष्टान्त योदाह २३१ रणे दयते एकेन केनापिद्रमकेण वृत्तिं कुर्वता महापक्रमेण कार्षापण सहस्रमर्जितं सतहासनिकांकटौ बच्चा सार्थेन समग्रह प्रस्थितः मार्गे भोजनार्थ
च एक रूपकं अशौति काकिणीभिर्भित्वा दिने २ एकया काकिण्या भुंक्त एवं मार्गेतेन एकोनाशीति काकिण्यो भक्षिता: एकाकाकिणी अवशिष्टाऽस्ति * साच सद्यः सार्थे चलिते विस्मृता अग्रे गच्छत स्तस्य स्मृतपथमागता एवञ्चतेन चिन्तितं एकदिन भोजनार्थ मे रूपकमैदः कर्तव्यो भविष्यतीति कचित् * वासनिकां सङ्गोप्य पञ्चावितः ततः साकाकिणौ केनचित् हता यावदासनिका स्थानेषु नरायाति तावहासनिकापि केनचिद हता ततोऽसा वुभय
भ्रष्टो यहङ्गतः शोचति अधाम दृष्टान्तो दय ते कस्यचिद्रात्र आम्राजौर्णेन विसूचिका अभूत् वैद्यैर्महता उपक्रमेण तामपनीयोक्त चेदामाणि पुनस्वं * खादसि तदा विनश्यसि ततस्तेन राजा स्वदेशे आमा उत्खातिताः अन्यदा स राजाऽवापतो दूरतर वनेगतः तत्र अम्रवृक्षच्छायाया मुपविष्टः
पक्वान्यामाणि दृष्ट्वा चलचित्तो मन्त्रिणा वार्यमाणोपि भक्षितवान् सदानौमेव मृतः एवं काकिण्याम सदृश मनुष्यकामा सेवनतो बाल नरेण देवका सूत्र
कामाय अंतिए सहम गुणिया भुज्जो आउंकामाय दिबिया ।१२। अणेगवासाणउया जासा पसट्ट उठिई जाणि
मनुष्य एक कोडीने काज सहन हारयेत् कापि नरः सहस्त्र दौनार हार मनुष्यकोइक अहितं आम्रफलं भुक्ता अपथ्य अहित कारी राजाइ आबानु भाषा
* फल खांधु खाइने राजा सज्यं पुनः हारयेत् राजा राजने हार ११ एवं मनुष्यकाः कामभोगाः इम मनुष्यना काम भोग कोडी समान के देवभोगने आगे
समीपे देवताना भोगने पागे देवताना भोग सहन दौनार सरीखा के सहस्रगुणकारैर्भूयः सहस्रगुणे करौ अधीक आयुः कामाश्च दिव्या देवसम्बन्धिया वली मनुष्य आयुखा थौ देवताना आयुखा घणा पल्योपम सागरोपम डुवे देवताना भोग पिण घणा नियुत पूर्व सम्बधिया वर्ष तणो आउखी चौरासौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२०४१ मा भान
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१.टौका
माहार्यते इति परमार्थः ११ एवं माणुस्मगा कामा देवकामाण अन्तिए सहस्मगुणिया भुजी आउँ कामाय दिबिया १२ एवं अमुनाप्रकारण का * किन्याम्रफल दृष्टान्तेन काकिण्यास सदृशाः मानुष्यकाः कामा देवसुखाना अन्तिके देवसुखानां समीपेने या मनुष्यका माहि देवकामानां अग्रे भूयो
वारं२ सहस्र गुणिताः दिव्यकाः कामाश्च यथा मनुष्यकामानां अग्रे वारं२ सहस्र गुणितास्तथा आयुरपि मनुष्थायुर्देवायुषो रन्तर ने य १२ अणे गवा * सा नउया जा सा पत्र वउठिई जाणि जौयंति दुम्मे हा ऊण वाससयाउए १३ प्रज्ञावत: क्रिया सहितज्ञानयुक्तस्य या स्थिति विद्यते सा भवतां अस्माकं * च प्रतीतास्ति तत्र स्थितौयानिअनेकवर्षअयनयुतानिअनेकानि असंख्य यानिवर्षअयनयुतानि येषु तानि अनेकवर्षअयनयुतानि अर्थात् यानि पल्योपमसाग
राणि भवन्ति अत्र प्राक्कतत्वात् अनेकवर्ष अयन युता इति पुलिङ्ग निर्देशः प्राक्तत्वात् अथवा यत्र देवस्थितौ अनेकवर्ष अयन युता यानि इति ये कामा: * भवन्ति तानि सर्वाणि पल्योप सागराणि तत्प्रमाणाआयुषि दिव्य स्थितिविषयभूतानि दुर्मेधयो दुर्बुद्धयः पुरुषाः उने वर्षशतायुषि महावीरस्वामि वारके
मनुथविषयै जीर्यन्ते हार्यन्ते देवयोनियोग्यायुः कामसुखरहिताः क्रियन्ते तुच्छ मनुष्यसुखलब्धाः मूर्खाः देवस्थिति सुखहीना भवन्ति अतएव दुर्मेध सइत्युक्त दुर्दुष्टामेधा येषान्ते दुर्मेध स इति जहा यतिविवणिया मूलजित्तूण निग्गया एगोतस्थलहए लाभं एगो मूलेण प्रागनी १४ एगो मूलम्पि
जीयंति दुर्म हा आणेवाससयाउए ॥१३। जहायतिसिवणिया मूलंघित्तुगनिग्गया। एगोतत्वलहए लाभ एगोमूलेण लाख गुणा कोजे एतले नियुतांग होइ ते प्रांक चौरासी लाख गुण कौजे एतले नियुतांग होइ ते प्रांक चौरासो लाख गुणा कोज एतले नियुक्त होइ * एहवा नियुक्त पल्योपम सागरोपम देवने आउखी वत्त' के १२ अनेक वरस संख्या रहीत अयनयुतं नाम काल विशेषः ८४ लाख बर्ष या सा पुण्यवर्ता स्थितिः एषा सागरोपमा स्थितिः सिद्धान्त ने विषे प्रसिद्ध उत्तष्टी स्थिति होइ यानि वर्षाणि युतानि हारयंति दुर्वद्धि माणस एतली देवता नु' आउखु
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०९.४१ मा भाग
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: हारित्ता आगोतत्यवाणियोववहारेउवमाएसा एवं धम्भे वियाणह१५ अथ द्वाभ्यां गाथाभ्यां व्यवहारोपमा माहयथा चत्रयोवणिजः कस्मात् चित् व्यापा रिण: समीपात् मूलं नौवौद्रव्यं गृहीत्वा स्वकीय नगरात् अपरत्न नगरेगताः अत्र विष वणिग्जनेषु एकः लाभ लभते एको मूलेन नौवोद्रवेण सह समागतः एकः मूलं द्रव्य अपिहारयित्वा द्यूतमद्य परस्त्री वैश्वा सेवनादि कुव्यापारैर्गमयित्वा स्वगृहं आगत: एषा व्यवहारे उपमास्ति एषैव उपमा धर्मपि यूयंजानौथ इत्यर्थः १५ माणुसत्तं भवेमूलं लाभी देवगईभवे मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्वत्तणं धुर्व १६ मनुष्यो मृत्वा मनुष्यएव भवेत् तदा
आगो ।१४। एगो मूलंपि हारित्ता आगो सत्य वाणिो ववहार उवमा एसा एवं धर्म बियाणह ॥१५॥ माणु
सत्तं भवे मूलं लाभो देव गई भवे । मूल केएण जीवाणं नरग तिरक्खत्तणं धुवं ।१६। दुहओ गई बालम्म आवई हार वर्षशतायुः किञ्चित् ऊने ओछे सोवरसे आउखाने लौधे १३ यथा त्रयो वणिक् जिम त्रिणवाणीया मूलराशि गृहानिर्गताः पुजौ लेई * ने घर धको नौकल्या वाणिज्य करवा भणी पिताई' सहस्र दीनार दौधा घर थको एकस्तत्र वणिक् लाभ लभेत् एक लाभ पामे एकः * वणिक् मूलधनेन पागतः एक मूलगो पापणी पूंजी लेई आवे १४ एकोवणिक् व्यवसायं कुर्वन् स्वधनं हारयित्वा एक आपणौ सघली * पूंजी खोइने आगतः तत्र वणिक् आयु तौहां वाणीयो व्यवहार विषये उपमा एषा व्यवहारौ उपमा कहो एवं धर्मेपि जानौते इम धर्मने * विषे पणि दृष्टांत जाणवो १५ मानुष्यत्वं भवेमूलं मनुष्य पण पूंजो सरोखू लाभः देवगतिर्भवेत् देवगति तेलाभ उपाय मूलछेदेन जौवानां
मूल छेद कौधो पूंजी खोहौने नरकत्वं तियंचव ध्रुवं स्यात् मूल छेद्या थी नरक तिर्यच पण पामौइ १६ विधा गतिः नरकगति स्तिर्यग्गतिश्च
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ.४१ मा भाग
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* मनुष्यत्व मूलद्रव्य सदृशं ने यं यो मनुष्य भवात् चु त्वादेवो भवेत् तदा देवत्वं लाभतुत्य यं यत्पुनर्मनुष्याणां नरकस्तिर्यक् त्व प्राप्तिर्भवेत् तदा मूलच्छे ए.टौका
४ देन ध्रुवं निश्चितं दुर्भाग्यत्व सेयं १६ दुही गईबालस्म आवई बह मूलिया देवत्तंमाणसत्तञ्च जनिए लोलयासढे १७ बालस्य मूर्खस्य द्विधा गति
भवेत् कथम्भू तागतिः पावई बहमूलिया आपहध मूलिकाः पापदः विपदोबध स्ताडनादि आपदश्च बधश्च आपदधौ तौ मूलं यस्याः सा प्रापधमलिका जं इति यस्मात् कारणात् स बालो मूर्योदेवत्व' मानुषत्वच हारित: कौदृशः सन् लोलया लाम्पोन जित: पुनः कीदृशः पठः धूर्त: १० तोजिएसद् होइ दुविहं दुग्गइङ्गए दुलहातम्म उम्मग्गा अद्याएस चिरादवि १८ ततो देवत्व मनुष्यत्व जयात् देवगति मनुष्यगति हारणात् स मूर्खः सहारर दुर्गति तो भवति इत्यध्याहार: तस्यबालस्य सूचिरादपि अहाए प्रभूतपि आगामि निकाले उम्मग्गः उन्मजन उन्मज्जातस्याः दुर्गते सकाशानि सतिदुर्लभा वह मूलिया। देवत्तं माणुसतंच जं जिए लोलुया सढे ।१७। तो जिएसई होडू दुविहं दुग्गडूंगए । दुलहा तस्म
उम्मग्गा अदाएमु चिरादवि ।१८। एवं जौयं स पेहाए तुलिया बालंच पंडियं । मूलियंते पवेसंति माणुस्मं जोणि रागद्वेषाकुलितस्थ मूर्खने वैगति नरक अने तिर्यञ्च गति होवे आगच्छति वधकारि का गति: आपदा रुपवधरूपगति तेहनी मूलके यद्यस्मात् देवत्वं मानुषत्वं च यथा हारितं जिणे कारण तिणे मनुष्यं मूर्ख देव पण मणष्य पण हाखो लोलुपः रध्रः शठः मायावान् लोलुपी के स्त्रीने विष पठमाया घणी कर १७ ततः जीवस्य स्वयं भवति सदा तत: तिरी कारणे जीवने सदा होइ विधा दुर्गतिं गतः सन् नरकतियं च नौगति मांहि गयो धको बांध्यो दुर्लभः तस्य निस्तारः अवस्थं हारितः देवगति मनुष्चगति तेहने नरक तिर्यच गति धौ निसरखु' दोहिलु' तिण ते भणी देवगति नरकगति हा ने काले
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.स.तु.४१ मा भाग
'भाषा
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स.टीका ४ भवति निःसरणं दुःकरच वैदित्यर्थः १८ एवं जियं सपहाए तुलियाबालञ्च पण्डियं मूलियन्ते पवेसन्ति माणुसंजीणिमन्तिज१८ एवं अमुना प्रकारेण 08 बास मूख जितं संप्रेच पालोच्य च पुन: बालं मूर्ख पुनः पण्डितं तत्वजन्तु लित्वा तोलयित्वा इतिविचारणीयं इतीति किन्तमनुथा मूलियं मौलिकं मूले
* भवं मौलिक मूलद्रव्य' प्रवियन्ति लभन्ते तेकेये मनुष्या: मानुषं योनि इति प्राप्नुवन्ति ते मूलरक्षक व्यवहारि तुल्याने याः १८ वैमायाहि सिक्वाहिं * जे नरा गिहिसुवया उर्वन्ति माणुसं जोणिं कम्मसञ्चार पाणिणो २० मानुषं योनि के व्रजन्ति तदाह ये नराः विमानाभि विविधप्रकाराभिः शिक्षाभि
मंतिने ।१६। वैमायाहिं सिक्खाहिं जेनरा गिहि सुब्बया। उति माणुसं जोणिं कम्म सच्चाहुपाणिणो ॥२ जेसिं
तु विउला सिक्खा मूलियतेअत्थिया। सीलवंता सवौसेसा अदीणाजंति देवयं ॥२१॥ एवं अदोणवं भिक्खू अगा चिरभूतेपि धणे काले काल गये थके नौरठं दोहिलु छ कोइ प्राणो परदेस गयो बांछे घरे जाउ' ते मार्ग काटे पगे करी तदअावमार्ग १८ एवं अमुना प्रकारेण पलं हारितं सम्प्रेक्ष इर्ण प्रकार वालकने हाखो देखौने तोलयित्वा मूर्खः पुनः पंडित विचारीने मूर्ख पणो अने पंडित पणी ते नराः मूलधन नौ बौयं प्रवेश प्राप्नोति ते मनुथ वीचारीने धर्म अंगीकार कर मानुषी योनि यांति ये पंडिताः पण्डितमाणसमनुष्य नौ जोनि पाम १८ विविध परि पामाभिः शिक्षाभिः विनौत पणानौ भांतिर नो शिक्षाइ करौ गुणव्रत अणुब्रते करी ये नरा गृहस्था अपि मुव्रताः सदाचाराः भवन्ति जे मनुष्य गृहस्थ घका पणिसुब्रत होइ भला व्रत पाले के प्राप्नुवन्ति मानुषर्षी योनि ते मनुश्यनौ योनि पामौने कीदृशाः ते सफलकर्माणः प्राणौन: किस्या से मनुष्य के सफल भला कौधा के जे प्राणी २. येषां पुन: विपुला शिक्षा दर्शनाचारमयौ जे मनुष्यने महाव्रत रूप शिक्षा के ब्रतपाले के मूलादपि अधिकलाभंयुक्ता
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०उ०४१ मा भाग
भाषा
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० टोका
अ०७
२३७
सूत्र
भाषा
सुव्रताः भवन्ति हिणवते सुव्रताय गृहिसुव्रताः गृहीत सम्यक्ता गृहस्थ द्वादसम्रताः ते प्राणिनस्तेजोवाहु इति निश्चयेन मानुषं योनिं उत्पद्यन्ते जेसिंन्तु विउलासिक्ला मूलियन्त भत्थिया सोलवन्ता सवोसेसा अदीणा जंति देवयं २९ व्याख्यातुरेवार्थे येषां जीवानां विपुल वि स्तौर्ण शिक्षाग्रहणा सेवनादिकास्तिते जौवा मूलकमिव नृभवत्वं अतिक्रान्ताः सन्तः देवत्व जान्ति प्राप्नुवन्ति किंभूताः तेजोवाः शीलवंतः सदाचाराः पुनः कथम्भूताः ते सविशेषाः सह विशेषेण उत्तरगुणेन वर्त्तन्ते इति सविशेषाः पुनः कौदृशाः अतएव अदीनाः नदीनाः सन्तोषभाज इत्यर्थः २ १ एवं अदौणवं भिक्खु अगारिं वियाणिया कहन्नु जिचमेलिक्ख जिच्चमाणो न सम्बिदे २२ पण्डितः पुमान् मेलिक ईदृचं जिचं इति जेय श्वेतव्य ं देवगति मनुष्यगति रूपं जीयमानः इन्द्रिय विषयैर्द्धार्यमाणः कथनु न सम्बिदेत् कथं न जानीत अपितु पण्डितः परिज्ञया एवं जानीत एव किं कृत्वा एवं अमुना प्रकारेण अदैन्यवतं सन्तुष्टि भाजन्दितं साधु पुनः अगारिणं गृहस्थं वियाणिया विशेषेणदेव गतिमनुष्य गतित्वा गामित्व लचणेन ज्ञात्वा तस्मात्पण्डितोधर्ममार्गे सावधानोभवेदित्यर्थः २२ जहा कुसग्गे उदयं समुद्देण सममिणे एवं माणमगाकामा देवकामाण अन्तिए २ ३ यथाकुशाग्रे उदकं समुद्रेण समं मन्यतेएवं मानुष्यकाः कामाः देवकानां अन्तिके समोपेत याः १३ कुशम्नमित्ता इमेकामा संनि
रिंच वियाणिया । कह जिच्च मेलिक्वं निच्चमाणानसंविदे | २२ | दारं जहा कुसग्गे उदयं समुद्देण समंमिणे । तिणे मानु भावे मूलपणो मनुष्यनो भव अतिक्रम्यो शीलवन्तः सदाचाराः सविशेषाः सर्वोत्तमाः आचारवन्तः सर्वमांहि उत्तमः दीनभाव रहिताः यांति देवगति' दौनपणे करौ रहित देवपणो पाने २१ एवं अमुना प्रकारेण अदौनवंत साधु एणप्रकारे अदौनवंत साधु दोन भाषा रहित गृहस्थं च ज्ञात्वा साधु पणो ग्टहस्थ पणो जाणौने कथं नु वितकें जित्व द्रह्वं मनमाहि विचारे इद्रौ किम जोतिजे जित्वमानः न जानाति मनुष्य भवजीततो हारी तु
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राय धनपतसिंह बाहादुर का असं ०७० १४ मा भाग
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रुमि आउए कस्महेउ पुरोका जागक्वेमं नसम्बिदे२ ४ संनिरुचे संक्षिप्त आयुषिइमे प्रत्यक्षाः मनुष्य सम्बन्धिनः कामाः कुशाग्रमात्राः सन्तोत्यध्याहारः
एवं सत्यपिजनः कस्यहेतु पुरस्कृत्यकं हेतु किङ्कारणमाश्रित्ययोगच्च पुनः क्षेमं न सम्बिदेन सम्बित्ते योगं क्षेमञ्च कथं न जानातीत्याश्चर्य मित्यर्थः २४ इह 8 कामानियस्म अत्त? अवरजकई सुच्चाने पाउयं मयां जंभुज्जो परिभस्मई २५ इहेति अत्रदृष्टांतपञ्चके क्रमात् अपायबहुलत्वं १ तुच्छत्वं २ प्रायव्ययती लाभ
हारणं समुद्र जलदृष्टान्तं च ज्ञात्वा इह नरभवे कश्चिद्गुरुकर्मा जौवस्तस्य कामात् भोगसुखात् अनिवृत्तस्य आत्मार्थो मोक्षः अवराध्यतिनश्यति विषयिणो * जौवस्व मोक्षो न भवतीत्यर्थः अत्र हेतुमाह जंइति यस्मात् कारणात् स गुरुकर्मा जौवो नैयायिक मार्ग मोक्ष मार्ग श्रुत्वा वारर परिभ्रम्यति संसार . एवं माणुस्मयाकामादेवकामाण अंतिए २३॥ कुसग्गमित्ता इमेकामा सन्निरूईमि आउए। कस्महे पुरा
काउं जोगक्खेमं नसंविदे ॥२४॥ दूह कामानियट्टम्म अत्तठे अवरभाई। सोच्चानेयाउयमग्गं जंभुज्जो परिभ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० २०४१ मा भाग
न जाणे २२ यथा कुशाग्रे उदकं जिमड़ा भने अग्रिपाणी नोबिंदुश्री पुनः समुद्रण समतां करोति समुद्रमा पाणौनौ परे एवं मानुथकाः कामभोगाः । ज्ञातव्याः इम मनुष्यना कामभोग जाणवा देव भोगना समीपे देवताना कामभोग समुद्र सरिखा छ २३ कुसाग्रविंदुप्रमाणाः सन्ति एते काम भोगाः डाभने अग्रभागे पाणौनाटौवका सरीखा मनुष्यना कामभोग के संक्षिप्त आयुषि थोड़ो आऊखे धद किं हेतू आश्रित्य गृहीत्वा किस्य हेतु कारण श्राश्रयीने आगलि करीने योग क्षेमं न जानौते अप्राप्तस्य प्रापणं योगप्राप्तस्य पालनं क्षेमः अनपामौ वस्तुनेइ पामी जेते योग कहौइ पामौ वस्तुने भलोपरि पाली जे ते खेम कहौइ ते जाणीने नहीं २ ४ इह जगति कामेभ्यो अनिहत्तस्य ए जीवडो कामभोग धको निवृत्ति नहीं हुओ के आत्मार्थ स्वर्गादि
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गर्तायां पततौत्यर्थः २५ इह काम नियस्म अत्तट्टे नावरलाई पूइदेह निरोहेण भवेदेवित्ति मे सुयं २६ हे शिश्च मे मया इति युतं इतौति किं इह * * अस्मिन् नरभवे कामात् निवृत्तस्य जीवस्य लघुकर्मण, पायाधी मोक्षो न नश्यति सच पुमान् प्रतिदेहनिरोधेन औदारिक देहत्यागेन शतन पतनविध्वंस
नधर्मात्मकपिण्डाभावेन देवो भवेत् देवशरीरं प्राप्नुयात् २६ इडौजुई जसो वनो आउभं सुह मणत्तरं भुज्जो जत्थ मणस्मेसु तत्व सेउववज्जई २७ स नि* विषयौकामा निवृत्तो जौवस्तत्र मनुष्थेषु भूयो वारंर उत्पद्यते तत्र कुत्र यत्र मनुष्थेषु ऋद्धिः स्वर्णरुप्यरत्नमाणिक्यादिका भवति यत्र द्युतिर्देहस्य कांति 8 भवति पुनर्यत्र यशो भवति पराक्रमादुत्पन्नधर्मविशेषरूपं यशः उच्यते पुनयंत्र वण गांभौर्यादिगुणवर्णनं वर्णः श्लाघा अथवा वर्णशब्देन गौरत्वादि गुणो
स्मई २५॥ दूह कामनियट्टम्म अत्तट्ट नाव रज्जई। पूडूदेह निरोहेणं भवेदेवेत्तिमे सुयं २६॥ इड्डीज्जुहू जसो वसो
आउं मुह मणुत्तरं । भुजोजत्थमणुस्मेमुतत्थरी उववज्जई ॥२७॥ बालस्मपरमबालत्तं अहम्म पडिवज्जिया चिच्चाधम्म अपराधितेनस्थति जे जोवड़ो आपणा आत्माने अपराधे ते गति न सावे श्रुत्वा नेयायिकं मोक्षमार्ग मोक्षनी देणदार शडमार्ग सथो अंगीकार कौधो यत् भूयः परिभ्रष्टाः भवति अङ्गीकार करौने पछे घणा जीव धर्म धको भ्रष्ट होइ जाइ २५ इह मनुष्य भवे काम भीगेभ्यो निवृत्तस्य एवं मनुष्यभवे कामभोगथो नौवर्ल्सने आत्मनः अर्थो न विनस्थति आत्माना अर्थ देवलोकादिक विणसे नही पूतिदेह निरोधेन जदारीक देहत्यागे न औदारौक अप वौत्र सरोर इहां छोडोने भवेत् देवा सिद्धो वा इति मया गुरुसुखात् श्रुते देवता अथवा सिद्ध होवे इम मे गुरु कन्हे सांभल्य २६ ऋद्धिः द्युतिः कान्तिः यशः वर्णः ऋडिकांति शरीरनौ यश प्रसंसनौक वर्ण आयुः सुखं प्रधानं दौर्घ आउखु अने प्रधान सुख के जौहां यत्र भूयः मनुष्येषु नरदेवेषु जे कुलने
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ. ४१ मा भाग
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NA
उत्तराध्ययने एलकामयणाधिकारम् सं० भावितात्मा अणगार श्रीबूटे रायजी तच्छिष्य भगवान बिजय साधना संशोधितं १.टौका
वा पुनर्यत्र आयुः संपूर्ण प्रचरंच भवति पुनर्यत्र सुख भवति एतषां सर्वेषां अनुत्तरपदेन विशेषणं कर्तव्य अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टं देवभवापक्षया एतहक्तव्य २७ बालस्म पस्म बालत्त' अहम पडिवज्जिया चिच्चा धम्म अहम्भिढे नरए उववज्ज २८ हे शिष्यत्वं बालस्य हिताहितज्ञान रहितस्य बालत्व मूर्खत्वं पश्य* स अधमिष्टो बालो धर्म त्यत्रा अधर्म प्रतिपद्य नरके उत्पश्यते २८ धीरस्म परम धौरत्तं सव्वधम्माणवत्तिणो चिचा अधम्म धन्मिठे देवेसु उववज्जई २८ हे शिष्य धौरस्य पण्डितस्य धीरत्व पश्यत्व विचारयधिया राजते इति धौरः धियं बुद्धिं राति ददातौति धीरः तस्य कौशस्य सर्वधर्मानुवर्तिनः सर्वे ये
अधम्मिट्ट नरएमु उववज्जई २८॥ धीरस्मपस्मधीरत्तं सव्वधम्माणु वत्तिणो । चिव्या अधम्म धम्मिट्टे देवेमुउववज्जई २६
तुलियाण बालभाव अबालं चेव पंडिए। चदूऊण बालभावं अबाल सेवदू मुणि तिबेमि ३०॥ एलकमयणं ॥
विषे इतलावाना के तत्र स उत्पद्यते ते कुले मनुष्य पणे उपजे २७ मूर्षस्य पश्य मूर्खत्व' मूर्खपण देखो अधर्मा प्रतिपद्यते अधर्म अङ्गीकार कर के भाषा
* त्यक्त्वा धर्म अधर्मिष्टः धर्मने छोड़ोने अधर्म अङ्गीकार करे के नरकेषु उत्पद्यते नरकने विषे जो उपजे तोहीपणजीवने २८ धौरस्य पश्य धौरत्व धौर * मनुष्य न धौरपणु देखोने सर्वच धर्मानुवर्तिनः सर्वजनी भाषो धर्म तेहना अनुवर्तीते कर छ त्यत्वा अधर्म धर्मिष्टः सन् अधर्म मार्ग छांडौने धर्म
मार्गे प्रवत्यो बको देवेषु उत्पद्यते देवलोकन विषे देवता हुइ २८ तोलयित्वा विचार्य मूर्खस्य मूर्खत्व मूर्खपणो देखौने पण्डितभावं च पण्डित: मुनिः * पण्डितसाधु पण्डीतपणो आदरौ त्यक्ता मूर्खलक्षणं मूर्खपण छांडौने पण्डित सेवते मुनिः इति समाप्तब्रवीमि अबाल भाव पण्डित पणो तत्वार्थ सेवे ३०
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग .
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ON.
.टीका
शान्त्यादयो धर्मास्तान् अनुवर्तितु अनुकूलत्वे न चरितु' शीलं यस्य ससर्वधर्मानुवर्ती तस्य क्षात्यादिदशविध धर्मधारकस्य कीदृशं धौरत्व तदाह सध: मिष्टो धौरः अधर्म स्वक्वा देवेषु उत्पद्यते २८ तुलियाण बालभाव अबालं चैवपंडिए चई जण बालभाव अबाल सेवई मुणोत्तिवैमि ३० मुनिस्तीर्थ करादेशकारौ साधुरैवं अमुना प्रकारेण बालस्थ बालभावं च पुनः पण्डितस्य अबालं पण्डितत्वं तुलिया इति तोलयित्वा णकारो वाक्यालङ्कार पश्चात् पण्डितस्तत्वज्ञः पुमान् बालभावं मूर्खत्वं त्यक्त्वा अबालं पण्डितत्व सेवयेत् अङ्गीकुर्यादित्यर्थः इति अहं ब्रवीमि सुधर्मा स्वामी जंबूवामिनं प्रत्याह ३० इति औरभौयाख्य' सप्तमं अध्ययनं संपूर्ण इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूचार्थ दीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मौकीर्त्तिगणिशिष्य लक्ष्मीबल्लभगणिविरचितायां
सप्तमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ ७॥ अथाष्टमं अध्ययनं कथ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययन विषयत्याग उक्तः स च निर्लोभस्य व भवति ततोऽष्टमं अध्ययनं कपिलस्य * महामुने दृष्टान्त गर्भितंनिर्लोभत्व दृढीकरणं कथ्यते पूर्व कः कपिलः कथञ्च स मुनिर्जातः अतस्तदुत्पत्ति रुचतेयथा कोया यांनगयींजित शत्रु राजाराज्य
करोति तत्र काश्यपो ब्राह्मणः स चतुर्दश विद्यास्थानपारगः पौराणां राजश्चातौवसम्मतः तस्य राज्ञा महतौ वृत्तिर्दत्ता काश्यप ब्राह्मणस्य यथानाम्नी भार्यावर्त्तते तयोः कपिलनामा पुचीस्ति तस्मिन कपिले बाले एव सति काश्यपी ब्राह्मणः कालङ्गतः तदधिकारी राज्ञाऽन्यस्म ब्राह्मणायदत्तः सो अश्वा
रूढ छत्रेण त्रियमाणेन नगरान्त व्रजति एकदातं तथा व्रजन्त दृष्ट्वा यशाभृशं रुरोद कपिलेन पृष्टं मातः किं रोदषौति सा प्राह वत्स तव पिता ईदृश्या 4 अधुवेअसासयंमीसंसारम्मि दुक्खपउराए। किं नामहोज्जतंकम्मयं जेणाहं दुग्गडू नगच्छेज्जा १॥ विजहित्तुपुव्वसं
इति थीएलका अध्ययननो टर संपूर्णम् ॥७॥ अन वे असाखत ए संसार अध्र वनिश्च नहीं प्रशाश्वती के नौश्चल नहीं संसार दुक्ख प्रचुर ए संसार अने कदुक्खे करी भयो छ किस संभावने भवेत् तत कर्म अनुष्ठान पांचसे चोर बोल्या स्वामी रस्यो कोइ अनुष्ठान धर्ममार्ग के येनाहं दुर्गतिं न
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं° . ४१ मा भाग
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ऋड्या पुरान्तर्भमन्नभूत् मृते च पितरित्वयि वा विदुषि सति अयं तवपैत्त्रय पदं प्राप्तस्ततो रोदिमि कपिल ऊचे अहं भणामि यशा आह पुत्र अत्र ४ तव न कोप्ये तीत्या पाठयिथात इतस्त्व श्रावस्त्यां व्रज तत्रत्वत् पिमित्र इन्द्रदत्तो ब्राह्मणस्त्वां पाठयिश्थति कपिल: श्रावस्त्यां तत्समौपङ्गतः तेन पृष्ट कस्त्व' कुत आयातः कपिलेन सर्व स्वस्वरूप मूचे तेन मित्रपुत्रत्वात् सविशेष पाठ्यते परं स्वग्राहे भोजनन्तस्य कारयितुं न शक्यते ततोऽनेन शालि भद्र नामा तवत्यो व्यवहारी प्रार्थितः यथास्थ त्वया निरन्तरं भोज्यन्देयं त्वत्प्रसादाविश्चिन्तीसौ पठति तेनापि प्रतिपन्न कपिल: शालिभद्रग्रहे प्रत्यहं भुक्त इन्द्र दत्त गुरुसमीपेऽध्येति शालिभद्रग्गृहे चैकादासी वर्तते दैवयोगात्तस्या मसौ रक्तोऽभूत् अन्यदा सा गर्भिणीजाता कपिलं प्रत्याह अहं तव पत्नौजाता
ममोदर त्वगर्भोजातः अतस्त्वयामे भरणपोषणादिकार्य कपिलस्तवचन श्रवणादृशं खिन्नः परमामति प्राप न च तस्यां रात्री निद्रां प्राप पुनस्तया भणितं २ स्वामिन् खेदं माकुर्याः मदुक्तमेक मुपायं शृणु अत्र धननामा श्रेष्ठौ वर्तते तस्ययः प्रथमं प्रभात गत्वा वर्धापयति तस्य सवर्ण माषद्दयं ददाति ततस्त्वमद्य
प्रभाते गत्वा प्रथमं वापय यथा सुवर्णमाषड़यं प्राप्न याः कपिलस्तस्यावचः श्रुत्वा मध्यरात्रा वुत्थितस्तस्य धाग्नि अपरः कश्चिमा प्रथमं यायादिति मत्वी मक्ये न गच्छन् कपिलः पुरारक्षक म्हौतः चौरधिया बद्दः प्रभात पुरस्वामिनः पुरोनौत: पुरः स्वामिना पृष्टं कस्त्वं किमर्थमईरात्री निर्गतस्तेन सकलं स्वरूपं प्रकटौवतं सत्यवादित्वात्तस्य तुष्टो राजाप्राह यत् त्वं मार्गयसि तदहं ददामि सप्राह विमृश्य मार्गयिथामि राजाप्राह याहि अशोकवनिकायां विचारय खेठं कपिलस्तत्रगत इति चिन्तयितु मारब्धवान् चेदहं सुवर्णमाषद्दयं मार्गयामि तदा तस्यादास्याः शाटिकामात्र जायते नतु आभरणानि ततः सहस्रं मार्गयामि तदापि तस्य प्राभणानि न जायन्ते ततीहं लक्षं मार्गयामि तदापि ममजात्य तुरङ्गमोत्तम गजेन्द्र प्रवर रथादि सामग्री न जायते ततः कोटिं मार्गयामौति चिन्तयत्नेव स्वयं सम्बेगमागतः सुवर्णमाषद्दयार्थ निर्गतस्थापि ममकोव्यापि तुष्टिर्नजातेति धिगिमा तृष्णामिति विचार्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
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२ स्वमस्तके लोचं कृतवान् शासन देवतया तस्थ रजोहरणादि लिङ्ग मर्पितं कपिलो द्रव्य भावाभ्यां यति भूत्वा रानः पुरः समागतः राज्ञा भणितं त्वया सटीका
* विचारितं स आह जहा लाहो तहा लाही लाहा लोहोपवहुई दोमास कणयकज्ज कोडौएवि न निट्टियमिति विचार्याहं त्यक्तवृष्णः संयमीजातः . २४३ रानोक्त कोटिमपि तवाहं ददामि तेनोक्त सर्वोपि परिग्रहो मया व्युत्सृष्टो नमे कोव्यापि कार्यमित्युक्ता.स श्रमणस्ततोवि हृतः घणमासान् यावत् छद्मस्थ
* एवासीत् पश्चात्केवलौजातः इतच राजगृह नगरान्तराल मार्गे बलभद्र प्रमुखाचौराः सन्ति एतेषां प्रतिबोधीमत्तो भविष्यतीति ज्ञात्वा स कपिल * केवलौ गतः तैदृष्टः प्रोक्तश्च भी श्रमण नृत्यं कुरु केवली प्राहवादकः कोपि नास्ति ततस्ते पञ्चशत चौरास्तालानि कुट्यन्ति कपिल केवलौ गायति तहीत वृत्तमाह अधुवे आसासयंमि संसारंमि दुक्ख पउराए किं नाम हुज्जतं कम्मयं जेणाहं दुग्गडू न गचिज्जा १ भोजना अस्मिन् संसारे तत्कर्मकं किं नाम किं सम्भाव्यते तकि कर्मवर्तते तत् किं क्रियानुष्ठानं वर्तते येन कर्मणा अहं दुर्गतिं नगच्छेयं केवलिनः संशयस्य दुर्गति गमनस्य च उभयो रभावपि प्रतिबोधापेक्षया इति केवली भगवान् इदं आह कथम्भूते संसार अध्रुवे नव नव स्थानक निवास सद्भावात् अस्थिरे पुनः कीदृशे संसारेऽशाश्वतऽनित्ये पुनः कौदृशे संसारे दुःख प्रचुरे दुःखैः शारीरिक मानिसिकः पुष्टैः प्रचुरे पूर्णे जन्मजरा मृत्युसहित १ विजहित्तु पुव्वसंजीगं न सिणेहं कहम्बि कुब्बिज्जा
योग नसिहं कहिं विकुब्वे वज्जा। असिणेह सिणेह करहिंदोसपदोसहिं मुच्चएभिक्खू २॥ ततोनाण दंसणसमग्गे गच्छत् जे धर्मने अंगीकार कस्यां थका हुँ दुर्गतिने बिषे नजाउ १ त्यक्ता पूर्वसंयोग मात्र पित्रादि तिवारी कपिल ऋषि तहना वचन सांभलौने घरनी संबन्ध छाडौने कुत्रापि स्नेहं न कुर्यात् स्नेह कोइ बस्तु उपर न कर स्नेहकारेश्वपि पुत्त्रादिषु स्नेहना करणहार पुत्रकलबादिक ते उपर सनेह न करे एवं कुर्वन् इहलोके परलोकेऽपि दुःखैर्मुच्यते भिक्षु इम करतु साधु इहलोक परलोकना दुःख थौ छूटे २ ततोनन्तरं ज्ञानदर्शनपूर्ण: कपिलमुनि: कपिल
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं ०3०१४मा भाग
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२४४
उ. टीका असिणहसिणे हकरहिं दोसपोमेहिं पमुच्चए भिक्र भिक्षुः साधुः कथञ्चित् कचित् बाह्यान्तरवस्तुनिने हं नकुर्यात् किं कृत्वापूर्वसंजीगं विजहि तुविहाय अ०८ *
ॐ कथम्भू तो भिक्षुः मेहकरैः अस्नेहःस्नेहं कुर्वन्तीति स्नेहकरास्तैः पुत्रकलत्रादि अने होवीतरागः अथवा स्नेहकरेषु प्रस्नेह सप्तमौस्थान हतीया पुनः स भिक्षुर्दोष प्रदोषैः प्रमुच्यतेदोषाश्च प्रदोषाश्चदोषप्रदोषास्तैर्दोष प्रदोषैः प्रमुक्तीभवति प्रकर्षण रहितो भवति दोषैर्मनस्तापादिभिः प्रदोषैः प्रतष्टदोषः परभवे नरकदुक्खैरहितो भवति २तो नाणदसण समग्गेहि अनिमेसाय सब्बजौवाणं तेसिं विमोक्वणवाए भासई मुणिवरोविगयमोहोर ततः अनन्तरं मुनिवरः कपिलः केवलौ सर्वजीवानां हितनिये य सायभाषते हितं पथ्यसदृशं यनितरां अतिशयेन श्रेयः कल्याण हितनिश्चे य संस्तस्मै हितनिय साय किमर्थ
हियनिस्मेसायसव्वजीवाणं तेसिं विमोक्खणट्ठाए भासई मुणिवरोविगयमोहो ३॥ सथं गन्ध कलहंच विष्पजह
तहाविहं भिक्खु । सम्वेसु काम जाएमु पासमाणो नलिप्पई ताई ४॥ भोगामिस दोस विसमे हिय निमेस बुद्धि साधुकिस्यो के ज्ञानदर्शने करो शहौत के सर्वजीवानां हिताय निश्रेयसाय मोक्षाय ते कपिल नामा केवलौ सर्वजौवने हित भणी सर्वजीवने मोक्षभणी तेषां चौराणांचकर्मबन्ध नात् मोचनाय भाषते ते चोरने कर्मबन्ध मूकाववा भणौ संमूनिः विगतमीहः भाषे कपिल केवलौ केहवो के विगत मोह के मोहरहित है भाषे ते कहेछ ३ सर्व ग्रन्थं बाह्याभ्यन्तरं क्रोधादिकषाय रूपं परित्यजेत् वाह्य अंधे द्रव्यादिक अंतरंग क्रोधादिक छोड़े तथाविध कर्म बन्धहेतु भिक्षुः त्यजेत् तथाविध कर्मबन्धन हेतछोडे सर्वेषु कामजातेषु बिषयेषु सर्वकाम जातपांचे प्रकार बिषय शब्द रूप रस गन्ध स्पर्थ ए कर्मबंध हेतु प्रेक्षमाण: सन् दोषैर्न लिप्यते मुनौखर देखतो थको दोषेले पाइ नही ४ भोगा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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NRN
अ०८
ONO30
भाषते नेषां चौराणां विमोक्षणार्थ स्वयन्तु कपिल विमुक्त एवास्ति अथच तेषां चौराणां मोक्षणार्ध आह इत्यर्थः कथम्भू तो मुनिवरः विगतमोहः मोह रहितः कीदृशो मुनिवरः ज्ञानदर्शनसमग्रः ज्ञानदर्शनाभ्यां पूर्णः ३ सब गयं कलहच्च विष्पजह तहाविहं भिक्व सब्बेस कामजाए सु पासमाणी न लिप्यई
ताई ४ किम्भाषते इत्याह भिक्षुः साधुः तथाविधं पूर्वोक्त कर्मबन्धहेतुं सर्वग्रन्थ बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं परिग्रहं विशेषेण प्रजह्यात् परित्यजेत् च ७ पुनर्भिक्षुः कलह क्रोध' चकारात् मानमाया लोभादौन् विप्रजह्यात् पुनः साधुः सर्वेषु कामजातेषु इन्द्रियविषयेषु न लिप्यते न आसक्ती भवेत् किं कुर्वन् * पश्यन् विषयविपाकं चिन्तयन् इत्यर्थः पुनः कीदृशः साधुः ताइवायो सर्वजीवानां अभयदानं दायी, इत्यर्थः ४ भोगामि सदीस विसने हियनिस्मेय बुद्धि
बुच्चत्थे बालेय मन्दिए मूढे बजाई मच्छियाव खेलंमि ५ एतादृशो बालोऽज्ञानी कम्मणा बध्यते कर्मणा बडब संसारात् निर्गन्तु न शक्नोति संसार एवनोद ति कस्मिन् कइव खेले ने मणि मक्षिका जन्तुरिवकथम्भ तो बालीजन: मन्दः धर्मक्रियायां अलसः पुनः कीदृशोमूढः मोहव्याकुलमनाः पुनः कौदृशः
वुच्चत्थे । बालेय मंदिए मूढे बज्नई मच्छिया व खलंमि ५॥ दुपरिच्चया इमे कामा नो मुजहा अधीर पुरिस हिं। एव आमिषं तदेव दोषः तत्र बिखिनः निमग्नः भोगएव आमिष ते दोष मांहि मग्न होइ रह्यो वहितं मोक्षः तयोः बुद्धि विमुखः आपने हितनी कर 8 णहार मोक्ष तेह थको विमुखछेबुनि जहनी मूर्खा मन्दः मूढ़ः नौचकर्म कारक धर्मने विषे आलस कर नीच कर्म कर बध्यते बन्धप्राप्नोति यथा मक्षिका नेमण बधं प्राप्नोतिजिम माखीस लेखम मांहि बन्धाइ तिम संसार मांहि बंधाइ ५ दुक्ख त्याज्या एत काम भोगाः त्यक्त न शका ते ए काम भोग छांडतां दोहिला छांचा जाइ न सुखेन त्यज्यन्ते कातरपुरुषे कायर पुरुषे कामभोग सुखे छांद्या न जाइ अथ पुनः सन्ति सदाचाराः साधवः हवे के साधु भगवंत संसार समुद्र तरवा भणी ये अतरं संसारं तरन्ति जे अतरसंसार तरे यथावणिजः समुद्र तरन्ति जिमवाणिया वाहण करौने समुद्र तरे ६ वयं श्रमणा
राय धनपतसिंह वाहादुर का अस० उ० ४१ मा भाग
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PN
१ टीका
विवषयामिषदोष विषम ः विषया एव पविहेतुत्वात् आमिष विषयामिषन्त देवदोषः जीवस्य दूशण करणत्वात् विषयामिषदीष स्तत्र विशेषेण सनी 8 निमग्नः विषयामिषदोष विषयः पुनः कीदृशः हितः निश्रेय स बुद्धिपर्यस्त हितं आत्मसुख नित्र यसो मोक्षः हितञ्च निघे यसञ्च हित निश्व यसो तयो
विषये याबुद्धिः हितनिश्रेय स बुद्धिस्तस्या शकासात् विशेषेष पर्यस्तः पराङ्मुखः हितनिये य सबुद्धि विपर्यस्तः स्वर्गापवर्गसुखादभ्रष्टः इत्यर्थः ५ टुप रिचया इमे कामानोसुजहा अधोर पुरिसेहिं अहसन्ति सुच्चया साइ जे तरन्ति अतरं वणिया वा ६ इमे प्रसिद्धाकामाः अधौर पुरुष नसुजहाः न.. * सुखे न हातु योग्या इत्यर्थः मिष्टानादि भोजनवत् कीदृथा इमे कामाः अतएव दुःपरित्यजा: अथ केचित् सुव्रताः साधवः सन्ति ये अतरन्तरौतु' * अशक्य संसारन्तरन्तिकइव वणिजइव यथा वणिजाः सामुद्रिकाः व्यापारिणः अतरं महासमुद्र प्रवहणस्तरन्ति अत्र वा भब्दीहि इवार्थे ६ समणा मुएगे वयमाणा पाण बहंमिया अयाणन्ता मन्दानिरयं गच्छन्ति बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ७ एके केचित् कुतीयाः मिथ्यात्विनः पापिकाभि: पाप हेतुकाभिदृष्टिभिः बुद्धिभिः प्राणबधं अधर्म प्रजानन्तः नरकं गच्छन्ति कधभूतास्ते मृगाः अविवेकिनः पुनः कीदृवास्ते मन्दाः जडाः यथा केचित् रोगग्रस्ताभिदृष्टिभिः सम्यग् मार्ग अजानन्तः कस्मिन् चित् दुःक्व व्याप्त मार्गे व्रजन्ति पुनस्ते केचित् कुतीया: किं कुर्वन्तः मुइति वयं श्रमणाः इति ___अहसंति सुव्वया साहू जे तरंति अतरं वणियावा ६॥ समणा मु एगे वयमाणा पाणवहमिया अयाणंता। मंदा : * स्म: एक केचित् परतौर्थिकाः इति वदन्ति केइकपरतीर्थी इम कहे अम्हे यमण साध के प्राणवधं मृगावे अजानन्त: जौवमार धर्मनो मार्ग जारी नहीं 8 मूर्खाः मिथ्यात्व पौड़िताः नरकं गच्छन्तिः मंदमूर्ख मौथ्यात्वं करौ पौद्या धका नरके जाई विवेकहीना: पापदृष्टिभिः मूर्ख विवेके करी होन पापनेज बिषे दृष्ट के जेहनी ७ न हि प्राणवधं अनुजानन् अनुमोदयन् प्राणबध करे वली प्राणी बध करौ अनुमोदना कर कदाचित् सर्व दुक्वेभ्यो न मुच्यते
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०८
२४७
स्व
भाषा
वयमाणाः वदन्तः श्श्रमण धर्मरहिता अपि स्वस्मिन् श्रमणत्व ' मन्यमानाः इत्यर्थः यदि प्राणबधं अपि न जानन्ति तदाऽम्येषां मृषावादादीनान्तु ज्ञानन्तेषु कुतएव सम्भाव्यते कथम्भतास्ते मन्दमिथ्यात्व रोगग्रस्तापुनः कथम्भूतास्ते बालाः विवेकहीनाः विवेकहीनत्व' हितेषां पापशास्त्रेषु धर्मशास्त्रबुद्धित्वात् तद्यथा ब्रह्मण ं ब्राह्मणं' आलभेत इन्द्राय चत्र' आलभेत मरुद्धो वैश्यं तमसे शूद्रं तथा यस्य बुद्धिर्नलिप्येत हत्वा सर्वमिदं जगत् आकाशमिव पङ्क ेन नासौ पापेन लिप्यते १ धर्मोहि बाले रज्ञयः ८ नहुषाण वहं अणजाणे मुञ्चिज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं एवा यरिएहिं अक्वायं जेहिं इमा साहुपत्रत्तो धम्मो तैः श्रायैः पूज्यः श्राचार्यैः एवं आख्यातं इत्युक्त' तैः कैः यैः आचार्यैः अयं साधुधर्मः साध्वाचारः अथवा सम्यग् धर्मः प्रज्ञप्तः कथितः इतीति किं जो प्राणिबधं जौवस्य हिंसां अनुजानन् अनुमोदयन् हुइति निश्येन कदापि सर्वदुःखेभ्यो न मुच्येत अत्र प्राणिबधस्य अनुमोदनाया स्यागात् करणकारणयो रपि त्याग उक्तः प्राणबधकरण कारणानुमतित्यागाच मृषावादा दत्ता दान मैथुन परिग्रहादी नामपि करणकारणानुमतस्वापि निषेधा नरयंगच्छतिबालापावियाहिं दिट्ठीहिं ७॥ नहुपाणवहं अणुजाणे मुचेज्जकयाइ सव्वदुक्वाणं । एवा यरिएहिं अक्खा हिंजेहिं इमोसाहु धम्मोपम्णत्तो ८ ॥ पाणेयनाइ वाएज्जा सेसमौएत्ति बुच्चई । ताई तओसे पावयं कम्म' निज्जाइउदयं
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कदाचित् सर्व दुक्ख थको मुकाइनहो एवं आचार्यै स्तोर्थङ्करैराख्यातं इम तीर्थ' करगण धरे कयं यैः अयं साधु धर्बोप्रज्ञप्तः कथितः जे तीर्थकरे ए साधु धर्म कछु' प्ररुथ्यो ८ प्राणान् नातिपातयेत् विनाशयेत् विनासन करे प्राणो जीवने मारे नहीं ससाधुः समितः कथ्यते ते साधुपांच समिते समितो कहोइ ततो अनन्तरं पापकर्म: निश्चयेन नगच्छति ते पुरस पापने विसे न जाये यथास्थलात् उच्च प्रदेशात् उदकं याति जिम उच्च प्रदेश थौ पाणी ढलो
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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4.
42
. 4 oC . MM
४ यः ८ पाणयना इवा इज्जा से समोइत्ति वुच्चई ताई तोसे पावयं कम्म निज्जाइ उदगं वथलाओ ८ यः साधुः प्राणान् जीवान् न अतिपातयेत्
न विनाशयेत् स्वयं न हिंस्यात् । शब्दात् प्राणहिंसायाः कारणानुमत्योरपिनिषेधः उक्त: सत्राता जीवरक्षाकारौ साधुः समित उच्यते सेइति अथ अनन्तरं सर्वजीवरक्षणात् अनन्तरं ततस्तस्मात् समितात् संमिति गुणयुक्तात्माधोः पापकं कर्म अशुभं कर्मनिर्याति निर्गछति कस्मा कमिव स्थलात् उन्नतभूतलात् उदकं पानीय निर्गच्छति उन्नतभूतले यथा उदकं न तिष्ठति तथा समितसाधौ पातकं न तिष्ठति इत्यर्थः
जगनिस्मिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरहिंच नी तेसिं मारभे दंडं मशसा वयसा कायसा चैव १० जगत् लोकस्तत्र निश्रिताः 8 आश्विता स्तेषु जगविचिते बसेषु थावरेषु च जौवेषु मनसा वचसा च पुनः कार्यनतेषु दंडं न समारभेतबधं न कुर्यादित्यर्थः अत्रो ज्जयिन्यां श्राद्धपुत्रस्य कथा १० अवन्त्यां श्राहमुतचोरहवा मालवकराट् सूपकार हस्ते विक्रौत स्तेन लावकादिमारयेत्युक्त मारयश्चपेटया हतस्तथाप्य मारयन् गाढं कुद्यमानं आरटन् राज्ञा श्रुत्वादृष्ट्यामानौत उक्तश्चकिरेनजीवान् हिंसि सोऽवक् अहंबाडो नहन्मि ततो राज्ञाबला र्यमाणो जौवाबघ्नन् हस्त्यग्रे क्षिप्तोपिनाहन् ततः प्रसन्नस्तं खङ्गा रक्षां चक्र यथा समारपिन प्राणानपिवधेकार्षादेवं प्राणत्यागेप्यन्ये यत्य' सुद्धे सणा:
वघलाओ ॥ जग निम्मिएहिं भएहिं तसनामेहिं थावरहिंच । नातेसिं मारभे दंडं मणसा वयस कायसा चेव १०॥ जाइ तिम पाप जाइ ८ जगनिःसृतेषु लोकामृतेषु पृथ्वीने आश्रयाले भूतप्राणीया बसेषु थावरेषु च एक जौव बस के हाले के वीजा थावर चाले नहीं न तेषां दंडं कुर्यात् ते त्रस थावरने पौडे नहीं मनसा वचसा कायेन निश्चे मन वचनकायाइ करी पौडान ऊपडावे १० शुवा निर्दोषा एषणा ज्ञात्वा शुद्ध निर्दोष एषणा जाणौने तत्र एषणायां स्थापयेत् माधुः प्रात्मानं तौहां साधु आपणा आमाने काजे सूझतो आहार लिइ संयमनिहाय ग्रासं गवेषयेत्
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०८ २४८
सूव
भाषा
燃烧
ओनचाण ं तत्थठविज्ज भिक्व अप्पाण' जायाए घास मेसिज्जा रसगिद्द े न सिया भिक्खाए ११ भिक्षुः साधुः शुद्धोषणां ज्ञात्वा शहाहारग्रहण' विज्ञाय तत्र निर्दोषग्रहण आत्मानं स्थापयेत् पुनः साध्वाचारं वदति भिचाभिचाचरो मुनिर्यवायै शरीरनिर्वाहायग्रासं आहारं एषयेत् गवेषयेत् न पुनः साधर सग्टइः स्यात् ११ पंताणि चैवसे विज्जा सोयपिण्ड पुराण कुम्मासं अदुवकसं पुलाङ्गवा जवणट्ठाय निसेवर मन्यू १२ साधुर्यापनार्थ शरीरनिर्वाहार्थं प्रान्तानि नीरसाणि अन्नपानीयानि सेवेतं च पुनः अन्तानि अपि सेवेत तानि प्रान्तानि श्रन्तानि श्रनपानीयानि कानि इत्याह शीतं पिंडं शौतः शाल्या दिस्तस्यपिण्डः शौतपिण्डस्तं पुनः पुराण कुल्माषं पुराणाः प्रभूतकालं यावत्मचिन्ताः पुराणाश्चते कुल्माषाश्च पुराणकुल्माषाः पुरातन राजमाषास्तान् प्राकृत त्वादेकवचनं अव अथवा वक्कसं अतिनिपीडितरसं तृषमात्र स्थितं वृक्कसंमुद्रादीनां तुषं वा अथवा पुलाकं असारं वल्लचणकादिकं पुनः शरीरधारणार्थं मंथु चदरचूर्णं निषेवेत बदरचूर्णस्यापि रूक्ष तथा प्रतित्व' अत्र यापनार्थं इत्युक्त तेन श्रयमर्थों जयः यदि त्वतिवातादिना तथा पनानैव स्यात्ततो न
सुद्दे संणात्र नञ्चाणं तत्य ट्ठवेज्ज भिक्वू अप्पाण' । जायए घासमेसेज्जारस गिद्धेनसिया भिक्वाए ११। पंताणि चेव सेवेज्जा सीय पिंड पुराण कुम्मासं । अदुबक्कसं पुलाग वा जवणट्ठाए निसेवए मंधु ॥ १२ ॥ जेलक्खणंच सुविच अंग संयमनिर्वाहवा भणी आहारनो गवेषणा करे खिग्धादिषु गृही न स्यात् स्निग्ध आहारने विषे गृह लोलपो न होइ ११ प्रांतानि नौरसानि सेवेत् intre ur आहार लिइ शीतलाहारं जीर्णान् कुलमाषान् पुराणा मौतल उडदवा कुलालौर अथवा मुद्रमाषादिवल्लचिणकादि अथ मुंग उडददाल चिणा प्रमुख यापनार्थ शरीर निर्वाहार्थं मुषु वदिर चुर्ण शरीर निर्वाहा निमीत्त लिइ के १२ यः साधु पुरुषः लचणं स्वप्न शास्त्र जे कोई यती
३२
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४९ मा भाग
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२५०
टोका निषेवेत अपि स्थविरी ग्लानश्च येन आहारण शरौरे सुखं स्यात्तदाहार सेवेत अयमर्थो जयः १२ जे लक्षणंच सुविणंच अंगविज्जं च जपउ' जंति न रहते समणा वञ्चन्ति एवं आयरिएहिं अक्खायं १३ हुइति निश्चयेन ते श्रमणा उच्चन्त आचार्यः एवं आख्यातं तेके ये लक्षणं सामुद्रकशास्त्रोक्त हात्रियत्न
माणं मषातिलादिकं च पुनः स्वप्न स्वप्नशास्त्रं गजारोहणात् भवेद्राज्य श्रौप्राप्तिः श्रीफलागमात् पुत्राप्तिः फलिताम्रस्यसौभाग्य माल्यदर्शनादित्यादि अंग विद्यां अङ्गस्फुरणफलशास्त्र यथाशिरसः स्फुरणे राज्य हृदयस्फ रणे सुख' बाहीश्च मित्र मिलापः जवयोर्भोगसङ्गमः इत्यादि सर्व मिथ्या श्रुतं साधुना न प्रयोज्य मित्यर्थः यदाह धर्मदासगणिक्षमाश्रमणः जोइसनिमित्त अक्सर कोउअ आएसभूयकम्मेहिं करणाणमीयणिज्जे साहुस्म तवक्खी होइ १३ इह जीवियं अनियमित्ता पभट्ठा समाहि जोएहिं ते कामभोगरसगिहा उववज्जति आसुर काए १४ ते कामभोगरसराहा पासुर काये उत्पद्यन्ते किं कृत्वा
विज्जंच जेपउंजंति । नहुतेसमणा वुच्चतिएवं आयरिएहिं अक्खायं ॥१३॥ दूहजीवियं अणियमित्तापमहासमाहिजो
___ गेहिं । तेकामभोगरसगिद्दा उववज्जंतिआसुरेकाए ॥१४॥ तत्तोविय उव्वट्टित्ता संसारंबहु अणुपरियटुंति । बहुकम्म भाषा पुरुषलक्षण स्वप्ननो विचार कहे अंग विद्या अंगस्फुरणादिफलं शरीर फुरके तेहना विचार कह नते श्रमणा: उच्चन्ते एतलांवाना जे कर तेहने साधन
कहौई एवं तीर्थकरै राख्या तं इम तीर्थंकर आचार्ये कह्यो १३ इह जन्मनि जौवतं अनियंत्रिताः नियमरहिताः इहां आपणो आमा तप जप करौने 8 यन्त्र नहीं वसि करे नही प्रभ्रष्टाः समाधि योगेभ्यो समाधि थको भ्रष्ट थयो ते काम रस गृडाः ते पुरुष जे कामभोग रसे ग्टद्ध हुवे के उत्पद्यन्त आसुरे काए असुरकायेषु ते पुरुष असुर निकायमांहि जाइ १४ ततोपि उदबत्त्य असुरनिकायात् ते असुर काय यो नौसरीने संसारं बहु भ्रमन्तिः संसारमाहि
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०1० ४१ मा भाग
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bo
44.
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8 इह अस्मिन् संसारे जीवितं आमानं तपो विधानादिना अनियमित्ता इति अनियंबा अवशौकत्व ते के ये समाधियोगभ्यः प्रभृष्टाः समाधिना स्थैर्येण * योगाः मनी वाक् कायानां एको भावाः समाधियोगास्त भ्यः प्रभृष्टाः प्रकर्षण अध: पतिताः पुनः कीदृशास्ते कामभीगरस गृहाः विषयसेवन स्वादलोलाः * आसुरे कार्य असुरकुमारयोनौ अव अनियत्ता इत्युक्त न किञ्चित् अनुष्ठानं कृत्वा असुरकुमारत्वेन उत्पद्यन्ते नितरां अतिशयेनय मिथ्थानियम्य न निय
म्य अनियम्य उत्कृष्टं तपः अकृत्वा इत्यर्थः १६ तत्तो विय उव्वट्टित्ता संसारं बहुं अणुपरियति बहुकम्मलेवलित्ताणं बीही होइ मुदुल्लहातेसिं १५ ततोपि च ततः असुरनिकायात् उहत्य निसत्य बहु संसारं अनुपर्यटन्ति बडुलं संसारं भ्रमन्ति पुनस्तेषां संसार भ्रमतां बोधिः सम्यक्त लब्धिसदुल्ल भा भवति कथंभूतानां तेषां बहु कर्मलेपलिप्तानां प्रचुरकर्मपङ्ग खरंटितानां १५ कसिण पि जो इम लोगं पडिपुत्र दलिज्जइक्कस्म तेग्णाविसे न तु सिज्जा
लेवलित्ताणं बोही होइसुदुल्लहातेसिं ।१५। कसिणंपि जो इमं लोयं पडिपुण दलज्ज एक्कस्म तेणाविसन तूसज्जा दुइ
टुप्पूरए इमेाया ॥१६॥ जहा लाभोतहा लोभोलाभालोभो पबड्डई। दोमासकयं कज्जं कोडीएवि ननिट्टियं ॥१७॥ परिभ्रमण करे घणो बहु कर्म लेपलिप्तानां घणो जे कर्ममल तेहनो लेप तिणे करी लिपाणा के तेषां पुरुषाणां वोधि जिन धर्म प्राप्ति दुर्लभा भवन्ति ते पुरुषने जिनधर्म नौ प्राप्ति वलौ सम्यक्तनौ प्राप्ति दोहिलि हुवे १५ समस्तमपि इदं लोकं सघलाइ इह लोकने विषे धनादिभि पूर्ण' भृत्वा एकस्य ददाति धनादिके भरोने कोइएक पुरुषने दौजे तेनापि स न तोषयेत् तोपणि ते पुरुष सन्तोषाइ नहीं इत्येवं अयं आमा दुःपूरी असन्तुष्टः ए जीव त्रा मा सन्तोथो न जाई १६ यथा लाभ स्तथा लोभः जिमलाभ होय तिम लोभ बधे हिमाषक नक कार्ये कृतं दोइ मासासो नाने अर्थे मांगवागयो हलो
राय धनपतसिंह वाहादुर का अस० उ०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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* इदुप्य रए इमे आया १६ यदि शब्दस्य अध्याहारः यदि कश्चित् इन्द्रादि देवः एकस्य कस्यचित्पुरुषस्य प्रतिपूर्ण धनधान्यादि पदार्धे में तं कृत्स्नं समस्त उ टोका अ.८
लोकं विख' दद्यात् तदापि तेन धनधान्यादि परिपूर्ण समस्त लोकदानेन स पुरुषो न तुश्चेत् इति हेतोः अयं आत्मा दुःपूरकः दुखेन पूर्यते इति दुःपूरः २५२ दुःपूर एव दुःपूरका १६ जहालाही तहालीही लाहालीही पवई दोमास कयंकज कोडीएव न निद्वियं १७ पूर्वीक्तमध एवं दृष्यति यथालाभस्तथा
लोभः लाभालोभः प्रवईत हिमाषक्ततं हिमाषार्थ हिमाषप्रमितस्वर्णग्रहणाथं कृतं कार्य स्वर्ण कोटिभिरपि न निडियं न निष्टित पूर्ण न जातं इत्यर्थः माषं तु पञ्चगुजाप्रमाण' माषय प्रमितस्वणे न कार्य दास्याः पुष्षतांबूलवस्वा भूषणमूल्यादिरूपं तत्कार्य कोटिद्रव्यं णापि परिए ण नाभूत् स्त्रीमूलाहि तृष्णा इति हेतोः तत्परिहारार्थ गाथा माह १७ नो रक्तसौसु गिजिमज्जा गंडवत्थामणेगचित्तास जाओ पुरिसंपलोभित्ता खेलंति जहावदासहिं १८
राक्षसौष नो ग्यो त् न विश्वसेत् जानादिजीवितापहारात् राक्षसौत्युक्त कथं भूतासु स्त्रीषु गंडवक्षस्मु गंडं गडु स्तदुपमत्वात् उच्च : कुचौ वक्षसि यासा *ता गण्डवक्षस स्तास गंडवक्षस्म उच्च कुच्चस्फोटकवक्षस्कासु वैराग्योत्पादनार्थ कुचयोगण्डूपमानं बीभत्स्योत्पादं उपमानं पुनः कीदृशीषु स्त्रीष अनेकचि त्तासु अनेकेषु पुरुषेष चित्तं यासां ता अनेकचित्तास्तासु अथवा अनेकेषां पुरुषाणां चित्त यासु ता अनेकचित्ता स्तासु अथवा अमेकानि चित्तानि सङ्कला विकल्परूपाणि चिन्तनानि यासां ता अनेक चित्ता स्तासु याः स्त्रियो राक्षसाः पुरुषं कुलीनं मानवं प्रलोभयित्वा त्वमेव मा भर्ती करव मम जीवित ___नोरक्खसीसुगिज्झज्जा गडवत्थासु णेगचित्तासु । जाउपुरिसंपिलोभित्ताखल्लंति जहावदासहिं ।१८। नारीमु नोपगि कोव्यापि न निष्ठितं कोडा न गमे चल्यो पौण स्थौर रह्यो नहीं १७ राक्षसीषु स्त्रीषु न गृहो भवेत् स्त्री राक्षसी छे एहने विषे गृड्न होवु नहीं गंडकुच रूप ग्रन्धियुक्त हृदयास कुचरूप गंड के जेहने हिये अनेक ठाम जेहनो चित्त छ या स्त्रियः पुरुषं या वाक्येन विप्रतार्य जे स्त्री पुरुषने लोभा बौने रमे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.उ. ४१ मा भाग
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बाटोका
k४३
कृत्वमेव मम शरणं इत्यादि वचनैर्वशोक्कत्य प्रोतिमुत्पाद्य तैः पुरुषैः सह रमन्ते क्रीडन्ति के यथा दासै यथा एव दासैः क्रौद्यते ते कुलौनपुरुषा अपि स्त्रीभिF
ामोहिताः सन्तो दास प्राया भवन्ति यथा दासा गम्यतां स्थौयतां इदं कार्य क्रियतां इदं कार्य मा क्रियतां इतिवचनं श्रुत्वा साम्यादेशकारिणी भवन्ति तथा नारीणां वयवर्तिनः पुरुषाः किरा भवतीत्यर्थः १८ नारीसु नोपगिनिज्जा इत्यौ विष्पजहे अणगारे धम्मंच पेसलं नच्चा तत्थ हविज भिक्खू अप्पाण' १८ अनगारः साधुः स्त्रीषु न रहे।त् न यदि कुर्यात् अनगार स्त्रियं विशेषेण प्रजह्यात् परित्यजेत् पुनर्भिक्षुधर्म' ब्रह्मचर्यादिरूपं पेशलं मनोनं ज्ञा वा तत्र धर्म आत्मानं स्थापयेत् १८ इइ ए स धमे अक्वाए कविलेणञ्च विसुद्ध पन्चेण तरिहिंति जे उकाहिंति तेहिं पाराहिया दुवैलोगतिविमि२० इति अमुना प्रकारेण एष धर्म : कपिलेन आख्यातः कथितः कथंभूतेन कपिलेन विशुद्धप्रज्ञे न केवलज्ञानयुक्त न ये पुरुषाः कपिल के वलिनीक्त धर्म करि
भोज्जा इत्यौविप्पजहे अणगारे। धम्म चपेसलं नच्चातत्यठवेज भिक्खू अप्पाणं ॥१६॥ इद् एसधम्म अक्खाएकविले.
णंच विसुद्ध पसणं । तरिहिंतिजेउ काहिति तेहिं अराहिया टुवे लोगत्तिबमि ।२०काविलीयंभयणं सम्मत्तं ॥८॥ * क्रोडन्ति यथा दासोभिः सहखेलावे पुरुषने पछे दासिनोपरि आइ आपणेवशिकर१८ नारौषु नोपग्टव' कुर्यात् स्त्रीने विषेशद्धपण न कर स्त्रियोविविध प्रकारैः त्यजेत् यतोस्त्रोने ऋषोखरादरी नहीं धर्म रम्य ज्ञात्वाधर्म भलोजाणीने तत्रधर्म स्थापयेत्साधु आत्मानं तौहां धर्म ने विषेसाधू आपणा आत्माने थापे१८ इति एषः धर्म: आख्यातं ए धम्म का कपिलेन ऋषिणा विशुद्धप्रने न कपिलकेवलीइ एधम्मपांचसे चोर भागं कर्तुं शुद्ध वुधने धणोइ ते जे धम्म करस्य तेतरस्य तैः पाराधिती ही लोकौतिणि पुण्यामाइ दोइ लोक आराध्या इति समाप्तौ ब्रवीमि२० इति श्रीकपिलमुनि अध्ययन टब्बी संपूर्णम् ॥८॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं ०3०१४मा भाग
भाषा
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उ० टौका
अ०८
२५४
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ष्यन्ति ते पुरुषाः संसारं तरिष्यन्ति पुनस्तैः पुरुषः हो अपि लोको आराधितौ सफलौ कृतौ इत्यर्थः इत्यादि दोधकान् कपिलोक्तानि श्रुत्वा तत्र केचिचौराः प्रथमेनैव दोधकेन प्रतिबुद्धाः केचित् द्वितीयेन एवं पञ्चशतचौरा अपि प्रतिबद्धाः प्रव्राजिताश्व इति कापिलीयं अध्ययनं अष्टमं संपूर्ण । इति श्रीमदुत्तरा ध्ययनस्त्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकौत्ति' गणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां कापिलिकाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ ८ ॥ अथ नवमं अध्ययनं कव्यते श्रष्टमेऽध्ययने हिनिर्लोभत्वं उक्त निर्लोभ पुरुषोहि इंद्रादिभिः पूज्यः स्यात् नवमेऽध्ययने नमि राजर्षिरिन्द्रेण आगत्य भाव पूर्वकं वन्दितः इति अष्टमनवमाध्ययनयोः सम्बन्धः तत्र नमिस्तु प्रत्ये क्रबुद्धः प्रत्येक बुद्धाश्चत्वारः समकालसुरलोकच्यवनप्रत्येक प्रतिबोध प्रव्रज्याग्रहणकेवलज्ञानोत्पत्ति सिडि गमनभाजी जाता स्तेषु प्रथमः करकंडू १ द्वितीयो हिमुखः २ तृतोयो न मि राजा ३ चतुर्थो नग्गति ४ रिति तेषां प्रत्येकबुद्धानां कथा न कं उच्च तत्र प्रथमं करकण्डू कथा यथा करकण्डूकलिङ्केसु पञ्चालेसु यदुम्महो नमौराया विदेहेसु गन्धारस्य निम्बई १ श्रीवासु पूज्य जिनपतिकल्याणकपञ्चका स्ते विनष्टपापायां चम्पायां नगर्यां दधिवाहन नामा नृपोभूत् तस्य चेटकमहाराज पुत्री पद्मावती प्रियाजाता साऽन्यदा गर्भिणौ बभूव गर्भानुभावेन च तस्याईदृशं दोहदमुत्पन्नं अहं पुवेषधरा भत्र धृता तपत्त्रा गजाग्रभागा रूढा श्रारामे सञ्चरामि लज्जया इदं दोहदं भूपतेः पुरोवक्त मशक्ता सा कृशाङ्गी बभूव राजाऽन्यदा तस्याः कृशाङ्ग कारणं पृष्टं अति निर्बन्धेन सा खदोहदङ्कथयामास राजा अत्यन्त तुष्टस्तां पट्टहस्ति स्कन्ध समारोप्य स्वयं तच्छि रसि छत्र' धृतवान् तादृश एव राजा गजारूढ रात्री पञ्चाद्भागेस्थितो वने ययौ तस्मिन् समये तत्र जलदारम्भो वभूव तत्र सलको प्रमुख विविध लक्ष पुष्प गन्धे र्जलसिक्त मृगन्धं श्व विह्वलीभूतः स करो मदोन्मत्तः स्ववासभूमिं स्मरन् अटवीं प्रति अधावत् अखवारैः पदातिभिश्चासौ न सृष्टः तेन गजेन गर्भान्वितया कदलीकोमल शरीरयाराना सार्द्धं स राजा महाटव्यांनीतः सम विषमोबत दूरासवाननेक भावान् पश्यन् भूपतिर्बटमेकमायातं दृष्ट्वा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ० ४१ मा भाग
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टाका अर २३५
भायों प्रतोदम वदत् है भद्रपुरः स्वस्थास्थ वटस्य शाखामे कामवलम्बे धास्व अहमप्येकां शाखामाथियिष्यामि गजस्तु एव मेवया तु एव मुक्ता राजा ॐ वटशाखायां लग्नः राज्ञौतुभयव्यग्रावटावलम्ब कर्तु मक्षमा हस्तिनाऽग्रतोनौता राज्ञातवटादुत्तीर्यशनैः शनैर्मिलित सैन्यः पत्नौविरहदुवितश्चम्पायां प्रविष्टः राज्ञौ दुष्टेन तेन हस्तिना महतो महतौ मटवीं नौता षाकुल: स हस्तौ चतुर्दिक्षुपानीयं पश्यन् एक. सरी दृष्ट्वा तत्याल्या मवतीर्यया वदधः पतति तावत्माराज्ञी वृक्षावलम्बन तत्स्कन्धा दुत्ततार गजस्तु गौमतापित: सरोन्तर्विवेश राज्ञीकं तारं दृष्ट्वा भृशम्भौतासती मनसि एवं चिन्तया मास कचतवगरं कच सायौः कतत्मन्दिरं कसा सुखशया दुक्कर्मणां विपाकात् सर्वमेगत' अथवान वनविचित्र स्वापदेचे प्रमादवशगाया मम मृत्युभवि यति तदा मम दुर्गति रेवेति मत्वाऽप्रमत्ता सतो आराधनां व्यधात् सुक्कतानि अनुमोद्य सर्वजौवेषु क्षमां कृत्वाचानशनं साकारं प्रपदेनमस्कार ध्यायन्ती तत उत्थाय सा एकयादिशागच्छन्ती पुरस्तादेकं तापसं ददर्श तापसे नेयमेवं पृष्ठा वत्से त्वं कस्य पुत्रीकस्य प्रिया आकृत्यै व त्वं मया भूरि भाग्या जाता इयं कातवावस्था कथय वयं अभया: शमिनः स्मः सा रात्री तापसं निर्विकार निर्मलकरं ज्ञात्वा स्ववृत्तान्त शकलं जगौ एतस्याः राज्ञयाः पितु चेटक रानो मित्रेण तेन तापसेन उक्त वत्से त्वयानातः परं चिन्ताकार्या अयम्भव सर्व विपदामास्पदं सर्ववस्तूनाम नित्यता चिन्तनीया एवं प्रतिबोध्य सा राज्ञी तेनतापसेन स्वाश्रमं नौता तस्याः प्राणया शफलैकारिता अथच सदेश सौस्निता नीत्वा स तापस एवं जगाद है पुत्रि अतःपरं हलकष्टा सा वद्याधरा वर्तते सा मुनिभिर्नोसंध्या ततोह पथाहलामि अयं मार्गो दन्तपुरस्य वर्त्तते तत्र दन्तवक्रनामा राजा वर्तते इतः सुसार्थेन त्वं पुरेगच्छे एवं निगद्य स तापसः स्वाश्रमं जगाम राज्ञो तु पुरान्तः साध्युपाश्रये जगाम साध्या पृष्ठे तया सकलोपि वृत्तान्त: कथित: साध्वी तस्या एव मुप देशं ददौ अस्मिन् बनेदुःखागार संसार सुखाभासएव सर्वेषां सर्वोपि भवनिस्तारो भवद्भिस्त्याज्य एव साध्वी वचसा वैराग्यङ्गता सा तदैवदीक्षा जग्राह
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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खबत विघ्नभिया सती सन्तमपि गर्भ न जगौ कालान्तरे तस्या उदरवृद्धौ साध्वया पृष्टं कि मै तत्तवेति तयोक्त मम पूर्वावस्था सम्भवो गर्भो वर्तते मया तु ब्रतविघ्न भयात्रोक्तः ततो महत्तरा साध्वीतां साध्वी उड्डाहभयेन एकान्ते संस्थापयामास काले सा पुत्र प्रसूयरत कंबलेन सम्बौतं पिबनाम मुद्रां कितञ्च क्वत्वा श्मसाने द्राग्मुमोच श्मसानपतिर्जनं गम स्तं बालकन्तथाविध मालोका रहौत्वा च अनपत्यायाः स्वपत्नयाः समर्पयत् सा श्रमणो गुप्त चर्ययातं व्यतिकरं चाला महत्तराया अग्रे एव माचख्यौ मृत एव मया बालो जातस्तती मयात्यक्त: सबालो लोकोत्तर कान्तिर्जनं गमधाम्नि दत्ताप
कर्णिक नामावबधे सा साध्वी सततं बहिब्रजन्ती पुत्रने हैन मातङ्ग्या सह कोमलालापैः सङ्गतिं चक्रे सबालकः प्रतिवैश्मिक बालकै मह क्रीडन् महत्ते * जसा भृशं राजते आगर्भ बहुयाकाद्य पनदोषण तस्य बालकस्य कण्डूलतादोषो भवत् स्वयं राजचेष्टा कुर्वाणः सबाल: परबालैः सामन्तीव देह कण्डू याकरः कारयति ततोलोकैः करकण्डूरिति नाम दत्त सा साधौ तद्ददनविलोकनार्थ मातङ्ग पाटके निरन्तरं याति भिक्षालब्ध' मोदकादि तस्मै ददाति श्रमणत्वेप्यऽपत्यजा प्रौतिस्तस्या दुस्तरति बालकोपि तस्या दृष्टायाः बहुविनयं करोति प्रौतिञ्च दधाति स वालका गड्वर्ष : पितुरादेशात् म शानं रक्षति अन्यदा तस्मिन् श्मसाने रक्षतिसति कोपि साधुर्लघु साधुं प्रति तत् श्मसानस्थ सुलक्षण वंशं दर्यितवान् उक्तवांश्च मूलाच तरङ्गलत इमं वंशमादायः स्व समीप स्थापयति सोऽवश्यं राज्य प्राप्नोति इदं साधुवचस्तेन बालकेन तवस्थेनैकेन दिजेन श्रुतं बिजस्तुतं वंशं आ चतुरङ्गमूलं हित्वा यावद गृहाति तावत्करकण्डू ना तत्करात सर्वथो गृहोतः स्वकरे गृहीत: कलहं कुर्वतो हिजस्य करकण्ड ना उक्त मत् पिटश्मसानवतीत्य वंशं नाहमन्यतः दास्ये स ब्राह्मणः करकण्डू बालवेति हावपिवि वदन्तौ नगराधिकारि पुरोगतौ नगराधिकारिभिर्भणितं अहोबालतवार्य वंशः किं करिष्यति समाह ममायं राज्यं दास्यति तदाधिकारिणः स्मिता एव मुचः यदा तवराज्य' भवति तदा त्वयाऽस्य ब्रामणस्य एकीग्रामोदेयः मिशः ताचः एकीकृत्य खराहमगात्
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
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टीका श्र०८
२५७
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स विप्रोम्य विप्रैः स भूयन्तम्बालं हन्तु मुपाक्रमत् तं द्दिजोपक्रमं ज्ञात्वा करकण्डूपिताजनङ्गमाः स्व कलत्र पुत्रयुक्त स्तन्देशं विहाय भने शत् स कुटम्बः सजनङ्गमः चितितलंक्रामन् कञ्चनपुरञ्जगाम तत्र अपुत्रे नृपे मृते सचिवैरधि वासितस्तुरगः करकण्ड दृष्ट्वा हेषारवं कृतवान् तं सलक्षण' दृष्ट्वा नगर लोक जय जयारवञ्चक्रुः श्रवादितान्यपि वाद्यानि स्वयं निनदुःखयं छत' शिरसिस्थितं ततो मात्यैरपि नवीनानि वस्त्राणि परिधाय सकरकण्ड स्तं अश्वं श्ररुरोह यावन्नगरलोकैः परमप्रमोदेन स पुरान्तः प्रवेश्यते तावद्दिप्रास्तं न च्छोयमिति कृत्वा नमे निरे तदा क्रुद्धः स शिशुस्तं वंशदण्ड' रत्नमिव करे जग्राह अधिष्ठाट देवैर्व्योम्नि इति घुष्ट' इमंराजान मवगणयिष्यति तस्य मूर्ध्नि असौदण्डः पतिष्यति इत्युक्ता सुरास्तच्चिरसि पुष्पवृष्टिञ्चकुः भीताः सन्तो विप्राः तस्य स्तुतित्वा वारम्बार माशीर्वाद मुञ्चरन्ति करकण्ड रेव मुवाच अहो ब्राह्मण एते भवह्निवाण्डाला गर्हितास्ततः सर्वेष्यमीवाटधान वा स्तव्याश्चाण्डालाः संस्कारैर्ब्राह्मणाः कार्या संस्कारादेव ब्राह्मणो जायते न तु जात्या कश्चिद्वाह्मणो भवतीति भवदागम वचनात् अथते ब्राह्मणा प्रकामम्भीतास्तन्नरवाटधानवा स्तव्या चाण्डाला ब्राह्मणौ कृताः १ अत्युत्सवेन काञ्चनपुरे प्रवेशितः सकरकण्डुरमात्यै नृपपट्टे ऽभिषिक्तः क्रमान्महा प्रता पोऽभूत् अन्यदा सवं स प्रतिवादी विप्रस्तं भूपं निशम्य ग्रामाभिलाषुकः सन् करकंडू नृपपर्षदिप्राप्तः करकंडू नोपलक्ष्य तस्य विप्रस्योक्तं तवयदिष्टं तत्क श्रय ब्राह्मणेनोक्त' मदुग्टहं चम्पायां वर्त्तते तेन तद्विषयग्रामं एकमहमीहे अथ करकंडू नृपतिचंपापूरनाथस्य दधिवाहन भूपतेः अस्मै द्विजाय त्वद्दिषय ग्राममेकं देहोति श्राज्ञां प्राहिणोत् आज्ञाहारिणं करकंडू नृपस्य दूतं विस्मितचित्तः कुदेव चम्पापति दधिवाहनः प्राह अरे स म्लेच्छ बालः स मृगतुल्यः करकंडू: सिंहतुल्येन मयासह विरुध्यते परवस्त्वभिलाष भवस्य पातकस्य तव स्वामिनः शुद्धि' मत्खङ्गतीर्थस्खानं दास्यति एवमुक्का दधिवाहनेन तिरस्कृतः सदूतस्तत्र गत्वा करकंडू नृपाय यथार्थमवदत् करकंडू नृपोपि प्रकामं क्रुद्धः स्वसैन्यपरिष्कृत अम्पापुरसमीपे समायातः दधिवाहनोपि पुरीदुर्गं सज्जीकृत्य
२२
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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HA
N
इटीका
स्वयं बहिनिस्मसार उभयोः सैन्यसज्जीभूते यावता योड लग्ने तावमाध्वी नत्रागत्य करकण्ड नृपतिं प्रति एवमूचे अहो करकंडू नृप त्वया अनुचितं पित्रा
सह युद्ध किमारब्धं करकडूनृपः प्राह हे महासति कथमेष दधिवाहनोस्माकं पिता साध्वी स्वस्वरूपमखिलमूचे आर्या मातरं दधिवाहनच पितरं मखा * करकंडू तृपो जहर्ष तथापि करकंडू नृपोभिमानात् स्वपितरं दधिवाहनं नंतु नोमहते तदा साध्वापि दधिवाहनसमौपे गता दधिवाहन भृत्य रुप * लक्षिता दधिवाहनभूपाय राज्ञौ साध्वीरूपासमागतेति वापनिका दत्ता अथ दधिवाहन नृपोपि तां साध्वी ननाम गर्भवृत्तान्त' पप्रच्छ साध्वी ऊचे 8 सोयं ते तनयः येन सह त्वया युद्धमारचं अथ दधिवाहननृपः प्रौतात्मा पादचारौ करकंडू वृपं प्रति गत्वा वत्स उत्तिष्ठेत्युक्त्वा तं उत्थाप्य प्रानिष्य च घिरसि अजिघ्नत् हर्षायु जलसहित स्तीर्थजलैः पुत्रो यं राज्यद्दयेपि दधिवाहनेनाभिषिक्त: दधिवाहनः कर्म विनाशाय स्वयं दीक्षां गृहीतवान् करकंडू तृपो राज्यद्दयं पालयामास चम्पायामेव स्ववासमकरोत् तस्य गोकुलानि इष्टानि आसन संस्थान आकतिवर्णविशिष्टानि गोकुलानि कोटिसंख्यानि तेन मेलितानि सतानि निरन्तरं पश्यन् प्रकामं प्रमोदं लभते अन्वेयुः स्फटिकसमान एको गोवत्स स्तेन गोकुलमध्ये दृष्टः अयं कण्डपर्यन्तदुग्धपानैः प्रत्यहं ।
पोषणीय इति गोपालान् स आदिष्टवान् अन्यदा समास पुष्टतनु बलशाली घनघर्षरशब्द न अन्यवृषभान् त्रासयन् भूपतिना दृष्टः तथापि भूपते स्तस्मिन् ॐ वृषे प्रोतिरेव बभूव साम्राज्यकार्यकरणव्यग्रो भूपतिः कतिचिदर्षाणि यावतीकुलेनायातः अन्यदा तद्दर्शनोत्कण्ठः सभूपतिस्तत्र समायातः सहषः क्व इति 8 गोपालान् भूपतिः पप्रच्छ गोपालै जराजौर्ण पतित दशनी होनबलो वन पटितदेहः कशाङ्गः सदर्शितः तं तथाविधं दृष्ट्वा भवदशां विषमां विचारयन्
करकंडू राजा एवं चिन्तयति यथाऽसौ वृषभः पूर्वावस्था मनोहरां परित्यज्य इमां वृद्धावस्था प्राप्त: तथा सर्वोपि संसारी संसारे नवां भवामवस्था मानोति मोक्षे चैव एकावस्था मोक्षस्तु जिन धर्मादेव प्राप्यते अतो जिनधर्ममेव सम्यगाराधयामीति परं वैराग्य प्राप्तः करकंडू राजा स्वयमेव प्राग्भव संस्कारो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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दयात् प्रतिबुद्धः सद्यः शासनदेव्यर्पितलिङ्गस्तृणवद्राज्य परित्यज्यप्रव्रज्यामहउक्त'च खेत सुजातं सुविभक्तशृङ्ग गोष्टांगणेवौच्च हषं जरात ऋद्धि च वृहिच्च उ टोका
टीका 8 समोच्य बोधान् कलिङ्गराजर्षि रवाप धर्म १ इति करकंडू चरित्र समाप्तं इदानी करकंडू राजा प्रतिबद्ध स्तदानौमेव विमुख राजा प्रतिवुद्ध स्ततो २५६ हिमुखचरित्नं प्रोच्यते काम्मिल्यपुर जयवर्म राजा तस्य गुणमालाप्रियास्ति अन्येा जयवर्मा राजा स्थपतीनव माह अद्भुतं आस्थानमण्डपं कुरुतवास्तुजैस्तै
* भूमिपूजा पुरस्मरं भूमिभागं परोक्ष्य सुमुहुर्ते खातं विरचितं तत्रखाते पञ्चमदिवसे नानामणि मण्डितः खमणिरिव प्रज्वलन् मुकुटो दृष्टः तैविज्ञप्तो राजा
सहर्ष भूमितस्तं मुकुट जग्राह विचित्रवादित्र निर्घोष पूर्व महतोत्सवेन तं मुकुटं खग्राहे प्रावेशयत् वस्त्राद्यैः सत्तताः शिल्पिनी विमानसदृशां अस्थान मण्डप सद्यचक्रुः चित्रकरै स्तत् सद्यएव विचित्रितं भूयः शुद्धमुहत तं मुकुट मस्तके निधाय तस्मिन्नास्थानमण्डपस सिंहासणे निषिसः तमिन् मुकुटे, मूई स्थिते सति रानी मुखवयं दृश्यते तदनुसराजा लोके दिमुखतया विख्यातः अधेयं मुकुटकथा अवन्तौशन चण्डप्रद्योतन श्रुता स्वदूतः प्रहितः दूतोपि तत्र गत्वा विमुखं प्रतिएव मवादीत् राजन् तव मुकुटमिमं चण्डप्रद्योत भूपति गियति यदि तव जीविर्तन कार्य तदा तस्यायं प्रेष्यः एवं दूतवचः श्रुत्वा हि मुखनरेन्द्रः प्रोवाच रे दूत तव स्वामिनः मम मुकुटग्रहणाभिलाषः स्ववस्तु हारणायेव जातोस्ति त्वतन्त्र गत्वा खखामिनं ब्रूयाः शिवा देवी राजौ १ अनलगिरि नामा हस्तौ २ अग्निभौरुनामा रथः ३ लोहजनामा दूतथेति ४ वस्तुचतुष्टयं ममापि तामित्युक्त्वा हिमुखनृपेण स दूतो गले धृत्वा निकासितः उज्जयिनीं गत्वा चण्डप्रद्योताय तहचो निवेदयामास बंदोध चण्डप्रद्योत तृपतिर्गणनायक तुरगगजेन्द्ररथपदाति दलपरिवेष्टितः स्थाने स्थान प्राभूतपूर्वकमभ्यागतानकराजसन्यवईमानबलः पञ्चालदेशसौमं प्राप दिगुणोत्साहीदिमुखनृपः तः सप्तसतैः मेनिकलक्षश्च परिहतचण्डप्रद्योत संमुखमगात् तयोर्धार स'ग्रामो बभूव मुकुटप्रभावात् हिमुख राजस्तदाद्विगुणं भुजबलं प्रससार क्षणेन सकलमपि चण्डप्रद्योतबलं तेन भन्न नष्टंच चण्ड
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं .उ.१४मा भाग
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टाका % प्रद्योतं रथाविपात्व वहा च स्वपुरं निन्येविमुख नृपस्त खावासे भव्यरीत्या रक्षितवान् पन्यदा चण्डप्रद्योतेन प्रकाम स्वरूपां सलावण्या कन्यां दृष्ट्या
8 यामिकानामेवमुक्त अस्य बिमुखराज्ञः कति अपत्यानि सन्ति इयं अंगजाकस्य यामिका जचुः अस्य रानो वनमालापत्नी सप्तसुतान् सुषुवे अन्यदा तया चिन्तितं मया सप्तपुत्रा जाताः लालिताच पुत्री तुनकापि जातेति मन्मनोरथपूर्तये सामदनयक्षमारराध अन्यदा सा कल्पद्रुमकलिका स्वप्ने ददर्श क्रमणमा सुषुवे यक्षोपयाचितं दत्वाऽस्या मदनमञ्जरीति नाम कृतं साम्प्रतं सर्वलोक चमत्कारकारी यौवनागर्भ इयं जातति यामिकवचनं मूत्वा अप्सरी विकं तद्रूपं च दृष्टा कामात चण्डप्रद्योतचिन्तयति इयं चेन्मम पत्नी स्यात्तदा मम जीवितं सफलं स्यात् राज्यभंगोपि मे कल्याणाय जातः यदियं दृष्टा चेदहिमुख राजा इमां मह्यं दत्ते तदा अहमस्य यावज्जौवं सेवको भवामि चण्डप्रद्योतस्येदृशः परिणाम स्तस्य यामिकैज्ञात्वा हिमुखरान कथितः राजा जया यामिक वण्ड प्रद्योतः सभायामानौत: हिमुखराज्ञाऽभ्युत्थानं कृत्वा चण्डप्रद्योतः स्वार्वासने निसेवित: प्रांजलीभूय एवं बभाषे मत्प्राणास्त ववशगा मन्ति मच्छियस्त्वदायत्ता सन्ति त्वं मम प्रभुरसि अहमतःपरं सदैव तव सेवकोस्मि अथ तद्भाववेत्तादिमुखराजा चण्डप्रद्योताय तदैव निजां पुत्रौं ददी ज्योतिर्विद्धिः समुहत दत्ते चण्डप्रद्योत नृपो बिमुखराजपुत्रौं परिणीतवान् करमोचावसरे च तस्मै धनं द्रव्यं दत्तमवन्तीदेशं च दत्तवान् कन्या सहितं चण्ड प्रद्योत स्वदेगे हिमुखी विसर्जितवान् अन्यदा हिमुखनरेन्द्रस्य पुर लोकैरिन्द्रस्तम्भोऽहु तः कृतः पूजितश्च हिमुखनृपोऽपितं भृशं पूजितवान् तस्मिन्महे व्यतीते अन्येदा स्तं इन्द्रस्तम्भ विलुप्तशोभं अमध्यान्तः पतितं बिमुखराजा ददर्श एवं च चिन्तितवान् जनैर्यः पूजितो मणिमाला कुसमादिभिश्च शृङ्गा रित: सोयमिन्द्रस्तनः साम्प्रतमी दृशोजातः यथायं स्तनः पूर्वापरावस्थाभेदमाप्त: तथा सऊपिसंसारीभिना भिवामवस्था प्राप्नोति अवस्था भेदकारणं रागद्देषावैव तत्प्रलयस्तु समताश्रयणाद्भवति समताचममता परित्यागाद्भवति ममतापरित्यागस्त संयमम्बिना न भवतौ तिवैराग्यमापन: शासन देवता
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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8 समर्पितवेषः सर्वविरति सामायिक हिमुख राजस्वयं प्रतिपद्य प्रत्येक बुद्धो वभूव उक्तञ्च बौक्षार्चितं पौरजनैः सुरेश ध्वजञ्च लुप्तं पतितं परतिभूति त्व साभूति हिमुखी निरीक्ष्य बुद्धः प्रपेदे जिनराजधर्म १ इति द्वितीयप्रत्ये कबुद्ध हिमुस्ख चरित्र समाप्त ॥२॥ इदानीं हिमुख राजा प्रति बुद्दस्त
दानी मेवनमि राजा प्रतिबुद्धः अथ तृतीयप्रत्येकबुद्धिनमि चरित्र मुच्यते मालवमण्डल मण्डनं सुदर्शनपुरमस्ति तन मणिरथो राजा तस्य भ्राता युगवाहुर्वर्त्तते तस्य भार्या सुशीला सुरूपा मदन रेखा वर्त्तते सा बालावस्थात आरभ्य सम्यक्त मूल हादशवतानि जग्राह तस्याः पुवचन्द्र यथावर्त्तते अन्य हा मणिरथेन मदनरेखा दृष्ट्वा तद्रूप मोहितो नृप एवं चिन्तयति इयं मदनरेखा मम कथम्बशौ च भवति प्रश्वमं साधारणैः कृत्यैस्ता विखा सयामि पश्चात्कामाभिलाषमपितस्याः समये कारयिर्थ हं दुष्कर कार्य बुद्ध्या किं न सियति एवं चिन्तयित्वा राजा तस्यै ताम्बूल कुसुमवस्त्रा लङ्कारादिकं प्रेषयति सापिनिर्विकाराज्येष्ठ प्रेषितत्वात् सर्व रजाति एकदा मणिरथस्तामै कान्ते स्वय मित्युवाच भद्रे त्वमा भर्तारं विधाय यथेष्टं मुखं भुच्च साजगौ राजन् तव लघुबन्ध सकलने मयि एतादृशं वचनमयुक्त त्वं निष्कलङ्क भूरि सत्वञ्च पञ्चमी लोकपालोसि एवं वदं स्व' किं न लजसे शस्त्राग्नि विषयोगै मृत्युसाधनम्बरं निज कुलाचार रहितं जीवितं न श्रेयः परस्त्री लम्पटाः स्वजीवितं यशश्च नाशयन्ति तया एवं प्रतिबोधितोपि नृपः कदाग्रहं न मुमोच एवञ्च व्यचिन्तयत् यदाऽस्याः प्रौतिपात्र मदनबन्धुर्युगबाहु व्यापाद्यते तदेयं मम वयौ भवति अन्यदा मदनरेखा स्वप्ने पूर्णेन्दं ददर्थ तया युगबाह वेनिवेदित: स्वप्नः युगबाहुना कथितं तव सुलक्षणः पुत्रो भविश्थति तस्या गुरुदेव वन्द नार्चनादीहद मुत्पत्वं युगबाहुर पूरयत् अन्यदा युगबाहुर्वसन्ते मदनरेखया समं उद्याने रस्तुतः तत्रैव रात्री कदलीगृहेसुप्तः परिवारः समन्तात्तद स्टहं वेष्टयित्वा खितः तदावसरं ज्ञात्वा मणिरथ नृपस्तत्र एकाकी समायातः अद्य युवराजा अत्र कथं सुप्तः इति यामिकान् प्रत्युवाच युगबाहुरपि
राय धनपतसिंह वाहादुर काब.स.उ. ४१ मा भाग
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सोका
44
NA
कदलौटहादहि रागत्यमणि रथपादौ न नाम नमतोस्य स्कन्धदेश मणिरथः खगनिक्षेप उवाच एवन्धिग् मे प्रमादतः करात् खङ्ग पतितं मणिरथ अति ताकारेण तद्दुःकर्म ज्ञात्वाऽपि स्वामिनि उपेक्षितः इतोऽवसरे इत्युक्तश्च मणिरधः सद्यः ततोगतः पिघात वात्ती निशम्य चन्द्रयशाः पुत्रोधातचिकित्सक परिवतस्तवायातः चिकित्सकै रन्त्यावस्थागतं युगबाई निरीक्ष धर्म एवास्यौषधमितिप्रोक्त मदनरेखा खभत्तुं रन्त्यावस्थां विलोक्य विधिना आराधनां कारयामास हे दयित मे विज्ञप्तिं शृण धनाङ्गनायेषु मोहन्यज जैनधर्म स्वौ कुरुहितं भजस्व धर्मप्रसादा देव प्रधानं कुटम्बदेह गेहादिकं भवान्तरे प्रासासि सर्वाण्यपि पापानि सिद्ध साक्षिकमालोचय पुण्यानि अनुमोदय सर्वजौवान् चामय अष्टादश पापस्थानानि व्युत्सृज अनशनच्च कुरु शुभभावनां भावय चतुःसरणान्याश्रय परमेष्टि मन्त्रस्मरणं कुरु मनसा सम्यक्त्व माश्रयेत्येवं मदनरेखा वचनानि बद्दधानः पञ्च पामेष्टि मन्वं स्मरन् युग बाहुः परलोकम साधयत् मदनरेखा मनस्येवं व्यचिन्तयत् अथ स्वतन्त्रो ज्येष्ठो ममशीलं विध्वंसयिश्थति ततो निस्मरणावसरी मम साम्प्रतमेवास्तीति निश्चित्य मदनरेखा वेगतो निर्गता सद्य एकाकिन्येव व्रजन्ती उत्पथमाश्रिता कापि महत्वटव्यां प्राप्ता विभावरी विरराम जातं प्रभातन्दव गुरुना स्मरणञ्चकार मध्याहे सा प्राण्यावां फलैरेवाऽकरोत् तस्या मेवा टव्या रात्रौ सुप्ताया स्तस्याः शौल प्रभावेण न किञ्चिनयं बभूव सासती अई रात्री पुत्र' सुषुवे पिलनामानित मुद्रिका तस्याङ्ग'लौ क्षिवा रत्नकम्बलेन वेष्टयित्वा शुचिभूमौ निक्षिप्य मदनरेखा शौचाथ सरसिगता तब मानं कुर्वन्ती जल करिणा शुण्डादण्डेन गृहीता नभसि उत्चिता नभ सोपि पतन्तीचतां कश्चित्तरुण विद्याधरौ वैताब्यं निनाय सा विद्याधरं प्राह बन्धी अह मद्य निशि अटव्यां पुत्रो अजीजनं स तु रत्नकम्बलवेष्टितो मया तवैव मुक्तीस्ति अहन्तु सरसिनानं कुर्वन्ती जलकरिणा उत्क्षिप्ता त्वया गृहीता अत्रा नौता अथ त्वं ततो मत्पुत्र मिहानयमा वा तत्र नय अन्यथा बालस्य बत्र मरणापद्भविष्यति त्वं प्रसौदमा पुत्रेण मेलय पुत्रभिक्षा प्रदानेन त्वं मे दया
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ०४१ मा भाग
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उण्टौका
NA
कुरु सोपि युवा विद्याधर एतस्यां सरागच्चक्षुः क्षिपन् एव मुवाच गधारदेशे रत्नवाहं नाम नगरमस्ति तत्र विद्याधरेन्द्रो मणिचूडो वर्तते अस्य प्रिया
कमलावती मणिप्रभनामानं पुत्र मां असूत यौवनावस्थाच गतस्य मे बेणियं राज्य' दत्वा मणिचूडः स्वयं प्रवच्या जग्राह सचारण मुनि चतुर्ज्ञानौ 8 भूत्वा सांप्रतमष्टमै हौप जिन बिम्बानि नन्तु समायातोस्ति अहं तत्र वन्दिन्तुतं गच्छन भूवं अन्तराले त्वां दृष्ट्वा लात्वा चाहं पुनरवागत: अतःपरं
त्वं मे प्रियाभव तवादेव करोऽहमस्मि तव पुत्र सम्बन्धो मया प्रज्ञप्तौ विद्ययाज्ञात: अखापहतो मिथिलेखर पद्मरयाख्य स्तवायातस्तम्बालं स्वरूपं 8 दृष्ट्वा गृहीत्वा च स्वपाना दत्त स्तत्रायं प्रकामं सुखभागे वास्ति एवं तइचः श्रुत्वा मदनरेखा अचिन्तयत् असो व तन्त्री युवाहतः शौलभङ्गमे करिथती तावत्कालं मे विलम्बः श्रेयान् यावदस्यपिता साधुनबन्द्यते तदुपदेशात् सर्व भविष्यतीति ध्यात्वा मदनरेखाऽवदत् हे भद्र व मां प्रथमं नन्दौखरेनय यथाहं तज्जिन बिम्बानि वन्द पश्चात् कृतकृत्याऽहं तवेसितं करिष्यामि एवन्तयोक्ते सहर्षों मणिप्रभस्ता विमानां तनिधाय नन्दीश्वरद्दौपगतः तत्र साखतजिन बिम्बानि नत्वा मदनरेखा आत्मार्थ मन्यमाना मणिप्रभेण समं चतुर्ज्ञान धरच्चारण श्रमणं प्रासादमण्डपोपविष्ट मणिचूडमुनि प्रणनाम समुनिस्तां सती मत्वा व मुतञ्च लम्पटं मत्वा तथा देशनां विस्तारयामास यथासौ विद्याधरं खदार सन्तोष व्रतं जग्राह मदनरेखाञ्च खां भगिनौर मेने इष्टमानसा सतो व पुत्रस्य कुशलोदन्तं प्रपच्छ मुनिराह महानुभावे शोकं मुक्ता सर्व स्तवृत्तान्तं शृणु जम्बू होपे पुष्कलावतो विजयोस्ति तत्र * मणितोरणपुरौ तस्यां मितयशा राजा स च चक्रर्त्यभूत् तस्य पुष्यवती कान्ता तयोः पुष्य सिंहरन सिंहाभिधानी पुत्रौ अभूतान्ती सदयौ धर्मकर्मतौ8 विनीतौस्तः अन्यदातौ राज्य स्थापयित्वा चक्रवर्ती तपस्यां जग्राहतो हावपि भ्रातरौ चतुरशौति लक्ष पूर्व यावद्रव्य प्रपालतः एकदा चतो दीक्षा गृहीतवन्तौ षोडश पूर्वलक्षाणि यावद्दीक्षां पालयतः अन्ते समाधिना मृत्वाऽच्युत कल्ये सामानिको देवी जातौ ततशुत्वा धातकी खण्डभरत हरि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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४० टोका
अ०८
२६४
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पेण राज्ञः समुद्रदत्ता भार्यासुतौ सागर देवदत्ताभिधानौ धार्मिको जातो अन्यदातौ द्वादशतीर्थं करस्य दृढसुव्रतस्य बहु व्यतिक्रान्ते तोर्थेस गुरु समीपे दोचां ग्टहोतां तृतीये दिवसेतौ दावपि विद्युत्पातेन मृत्वा शुक्र देवलोके महर्द्धि को देवो अभूतां अन्य युस्तौ देवौ अत्रैव भरते श्रीनेमि जिनेश्वरं इति पृष्ठवन्तौ भगवान् नौ अद्यापि कियान् संसार स्तिष्टति स भगवान्प्राह युवयोर्मध्ये एकोऽत्रैव भरते मिथलापुर्यं विजयसेन भूपतेः पद्मरथाख्यः पुत्री भावी एकस्तु सुदर्शनपुरे युगबाहु पुत्रो मदनरेखा कुचिसम्भूतो नमि नामा भविष्यति तस्मिन् भवेद्दावपि युवांशिव पदं प्राप्साथ एवं नेमिजि म वचनं निशम्य निजमायुः पूर्ण विधाय एको मिथिलापुरि पद्मरथो नृपोऽभवत् तेन पद्मरथेन अश्वापहृतेन तस्मिन् वने समायातेन हे महानुभावे स पुत्री दृष्टी गृहीतच मिथिलायां नीत्वा खपने समर्पितः तज्जन्महोच्छवो महान् विहितः अत्रान्तरे तत्र नन्दोखर प्रासादेन्तरिचादेकं विमानमततारतमध्यादेकी दिव्य विभूषाधरः सुरोनिर्गत्यमदन रेखान्त्रिः प्रदक्षिणी कृत्य प्रथमं प्रणनाम पश्चान्म ुनिं प्रणम्य अग्रे निविष्टः सुरः मणिरथ विद्याधरेन्द्रेण विनय विपर्या सकारणं पृष्टः ससुर प्राह श्रहं पूर्वभवेयुगबाहुर्मणि रथनाम्ना बृहद्वावानिहतः अनयाममाराधनाऽनशनादि कृत्यानि कारितानि तत् प्रभावादहमी मोदेवोत्रह्मदेवलोके देवोजातः ततो धर्माचार्यत्वादहमिमां प्रथमं प्रणतः एवं खेचरं प्रतिबोध्य स सुरोमदनरेखां जगौ हे सति त्वं समादिश किन्ते प्रिय कुर्वेसाप्राह मममुक्तिरेव प्रिया नान्यत्किमपि तथापि सुताननं द्रष्टमुक्त कामान्वमितो मिथिलां पुरोनय तत्राहब्रिट तात्मनापरलोकहित' करि ष्यामि इत्युक्त वततां देवो मिथिला पुरीनिनाय तत्र प्रथमं मदनरेखाजिन चैत्यानि नत्वा श्रमणी नामुपाश्रये जगाम वन्दित्वा पुरोनिविष्टान्तां प्रव वर्त्तिना एवं प्रति बोधयामास मूढचेतसो जनाद्दर्माद्दिनाभवक्षय मिच्छन्तोपि मोह वशेन पुत्रादिषु स्नेहं कुर्वन्ति संसारे हिमाल पितृबन्धु भगिनी दयिता वधूप्रियतम पुत्रादीनां अनन्तशः सम्बन्धो जाताः लक्ष्मी कुटम्ब देहादिकं सर्व विनश्वर' धर्मएवैकः शाश्वतः इत्यादि साध्वीवाका : प्रतिबुद्धा
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राय धनपतसिंह बहादुर का आ० सं० छ० ४१ मा भाग
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२८५४
सा सती देवेन पुनदर्शनार्थ प्रार्थिता एवमाह भवद्धि करण प्रेम पूरेण ममालं । अतः परन्तु साध्वौचरणा एव शरण मित्य का साध्वौ समीपे साप्रव्रज्या उ टीका
* जग्राह देवस्तां वन्दित्वा स्वस्थाने जगाम पद्मरथस्य रहे यथायम्बालो वर्द्धते तथा २ तस्यान्ये राजानोऽनमत् ततः परथ राजातस्य बालस्य नमिरिति अ०८
नाम कतबान् वृद्धि ब्रजतस्तस्य बालस्य कलाचार्यसेवनात् सर्वाः कलाः समायाताः सकललोक लोचनहरं यौवनमण्यस्था यातपित्रा च अष्टाधिक सहस्र राजकन्या पाणिग्रहणं कारयितं पद्मरथोऽस्म राज्यं दत्वा वयं तपस्यां यहोवा केवलज्ञानं प्राप्यमीक्षङ्गतवान् नमिराजा प्राज्य राज्यं पालया मास न्यायेन यश: पानमभूत् अथ पूर्व युगबाहुं हत्वा मणिरषवृपः सिद्धमनोरथः स्वधाम जगाम तत्र तदानौमेव प्रचण्ड सर्पण दष्ट स्तुर्य नरकं जगाम हयो नो रूई देहिकां कृत्वा मन्त्रिभिर्युगबाहु पुत्रश्चन्द्र यशराज्ये ऽभिषिक्तः सन्याये न राज्य पालयति अन्यदा नमिराज्ञो धवलकान्तिर्गजो मदोन्मत्त पालान स्तम्भमुन्मूल्य अपरान् हस्तिनोऽखान्मानुष्या न पित्रासयन् चन्द्रयशा नृप नगरसौनि समायातः चन्द्रयथा नृपस्तमागतं श्रुत्वा समन्तात्सु भट वेष्टयित्वा स्वयं वशीकृत्य च जग्राह नमिराजाष्ट भिदिनस्तां वाती श्रुत्वा नमिश्चन्द्र दृशोन्तिके दूतं प्रेषितवान् दूतोपि तत्र गत्वा धवलकरिणं मार्गयामास
कुपितचन्द्रयशाः दूतङ्गले धृत्वा नगराबहिनिष्कासयामास दूतोपिनमः पुरः गत्वा स्वापमानं जगी कुपितो नमिराजाऽतुलसैन्यैवेष्टितोऽच्छिव प्रयाणैः ४ * सुदर्थनपुरसमौप समायातः चन्द्रयशा भूपतिः स्वसैन्यवेष्टितो यावदभिसुखं युद्धार्थञ्चलितः तावदपथ कुनैर्वारिती मन्त्रिभिरेव मूचे स्वामिन् कोड* 8 सज्जीक्तत्य तव साम्प्रतं पुरान्तरेवस्थातुं युक्त' कालविलम्बेन एतत्कार्य कर्तव्य ततश्चन्द्रयशाः कोशितनौभिर्जलायुपस्करैश्च सज्जी कृतवान् नमिस्त & को खसैन्य वेष्टयत् अधः स्थैः सैनिकैः सह अस्थानां सैनिकानां महान संग्रामः प्रवकृतेनमिः कोहभङ्गे विविधानुपायान् करोति चन्द्रयथा * तृपस्तु कोहरचणे विविधान् उपायान् करोति अस्मिन् अवसरे तयोर्माता साध्वी मदनरेखा प्रवर्तिनी अनुज्ञाप्य तत्संग्राम वारणार्थ प्रथमं नमिराज
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग :
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४० टोका अ०८
२६६
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सैन्य समायाता नमि रपितां साध्वीं न नाम आसने चोपविश्य नमेः पुरः सासान्धी एवं बाचं विस्तारयामास अनन्तदुःखैक भाजनेस्मिन् संसारे नृभवं प्राप्यपापैस्त्व ं किं मुह्यसे राजन् तव बन्ध ुना चन्द्रयशा सा स्वयमागतो हस्तीचे गृहीत स्तर्हितेन समं किं युद्ध करोषि क्रुडस्तं न किञ्चिद्देत्सि यदुक्त ं लोभौ पश्येनप्राप्ति' कामिनों कामुकस्तथा भ्रम' पश्ये दथोन्मत्तोन किञ्चिच्चक्रुधाकुलः १ इदं साधौ वचोनिशम्य नमिश्चिन्तयामास अयञ्चन्द्र यशा युगबाहु भवोस्ति अहन्तु पद्मरथपुत्त्रोस्मि द्वयं साधी सद्यवादिनी सतौ कथं ममचानेन समं भ्रातृत्वं वदतीति विमृश्य साधौ प्रत्येवं भाषतेस्म हे पूज्ये असोक्क अहंक भिन्न कुलसम्भवयो मदेतयोः कथं भ्रातृत्वं वदसौति नमिना उक्त साधीप्राह वक्स यौवन ऐश्वर्यभवं मदं मुक्ता यदि शृणोषि तदा सकलं स्वरूपं कथ्यते श्रथ श्रोतु मुसकाय नमि नृपाय सर्वं पूर्वस्वरूपं साधी जगाद पुनरेवं बभाषे सुदर्शनपुरस्वामी युगबाहुस्तवास्य पिता अहं मदनरेखा तवमातेति पद्म रथस्तु तवपालकः पितेति अनेन भ्रात्रासमं माविरोधं कुरु बुझ स्वहितमिति साधौप्रोक्त ं युगबाहु नामाङ्कित करमुद्रा दर्शनतः सर्वं नमिः सत्यं विवे दतां साठ प्रकामञ्चित्तोल्लासेन स्वमातरं मत्वा विशेषावमिः प्रणनाम उवाच च मातर्यत् त्वया प्रोक्त ं तत्सर्वं तथ्यमेव नावकाचिद्विचारणा अस्ति मेयं करमुद्रा युगबाहुसु तत्वं ज्ञापयति अयञ्चन्द्रशामे : ज्येष्ठभ्राता भवत्येव परलोकः कथं प्रत्याज्यते लघुवाट वात्सल्यतो व्येष्ठस त् सन्मुखमायाति तदाह मुचितं विनयं कुर्वन् शोभामुद्दहामि एवं नमि नृपोक्त माकर्ण्य सा साधौ दुर्गाद्दार व ना प्रविश्य राजसौधे जगाम चन्द्रयशा भृपस्तुताम कस्मा दागता मुपलक्ष्य स्वमातरं साधौ विशेषादभ्युत्थाय नतवान् उचितासनोपविष्टान्तां साधौ वृत्तान्तं पृष्टवान् साध्वी सकलवृत्तान्तं नमिराज मिलनं यावत् कथयामास चन्द्रयथा नृपस्तं नमिं निजलघुभ्रातरं मत्वा सभालोकान् प्रत्येकमुवाच सुलभाः सन्ति सर्वेषां पुत्रपत्यादयः शुभाः दुर्लभः सोदरो बन्धुर्लभ्यते सुतैर्यदि १ इत्युक्ता चन्द्रयमा नृपोपि पुराइहिर्निर्गतः नमि रपितं ज्येष्ठभ्रातरं अभ्या गच्छन्त दृष्ट्वा सिंहासना दुत्याय भूतलमिल
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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छिराः प्रणनाम चन्द्रयथा नृपोपि स्वकराभ्यां भूतला दुत्वाप्य भृशमालि लिङ्ग तुल्याकारौ तुल्यवौँ तो एक मापिटसम्भूतत्वेन तदा परमप्रौतिपदं १ टीका 8 जाती लोकैः सहोदरौ जातो चन्द्रयशा नृपस्तु तदानोमेव न मिबन्धवेसुदर्शनपुर राज्यं ददौ स्वयं संग्रामाङ्गण मध्ये दीक्षां ललौ क्रमेण राज्यद्वयं
पालयबमिः क्षिती प्रचण्डाज्ञां जन्ने अन्यदानमैर्वपुषि दाघन्वरोजातः पूर्व कर्मदोषच तस्य षण्मासिकी पीडामहती उत्पन्ना निद्रामपि न लेभे अन्तः पुरी नूपरशब्दापि कर्णशूलाय आसन् नमि राजो दाघव्वरशान्तये स्वयं चन्दनं घर्षवन्तौना अन्तपुरीणां बलयशब्दाः रोममुभल्ल प्राया बभूवुः तत्रता भिवलयानि समस्तान्युत्तारितानि एक मालाय रक्षितं तदानीं शब्दाश्रवणेन नमिना कचिनिकटस्थः सेवकः पृष्टः कथमधुना करणशब्दान श्रूयते तेनोक्त स्वामिन् भवत् पौडाकरत्वेनान्तः पुरोभिः कङ्कणान्युत्तारितानि एकैकं मङ्गलाय रक्षितमितिनै कैक कङ्कणशब्दाः श्रूयते परस्पर वर्षा भावात् एवं तहचः श्रुत्वा प्रतिवुद्धो नमिरवं चिन्तयामास यथा संयोगतः शभा अशुभाः शब्दाः जायन्ते तथा रागादिकादोषाः संयोगत एव भवन्ति यद्यस्माद्रोगादहं मुक्तः स्यान्तदा सर्वसङ्ग विमुच्चदीक्षां राङ्गामि तस्थेति ध्यायमानस्य रात्री मुखेन निद्रा समायाता निद्रायां स्वप्नमेवं ददर्श गजमा रुह्य अहं मन्दिर गिरिमारूढः प्रातः प्रतिबुद्धः नौरीगोजातः स एवं व्यञ्चित यत् अमं पर्वतं काम्यहमदर्य एव मूहापोहं कुर्वतस्तस्य जातिस्मरण मुत्पन्न नमिराजा पूर्वभवं ददर्थ यदाहं पूर्वभवे शक कल्ये सुरोऽभवन्तदाह जन्माभिषेक करणाय अहमस्मिन् मेरौ अगमं अथ करण दृष्टास्तेन एकत्व सुख कारोति चिन्तयन् प्रत्येक बुद्धत्व प्राप्य प्रव्रजितो नमिः तदाराज्य अन्तः पुरं एकपदेत्यजन्त नमि ब्राधणरूपेण शक्रः समागत्य परीक्षितबाम् प्रणत वांश्च शक्रपरीक्षा समये नमिराज सत्कं शक्रप्रश्न नमि राजर्षि उत्तररूपं उत्तराध्ययनांतनवममध्ययनं जातं इति नमिचरित्र संपूर्णम् । अथ यदानी नमिः प्रतिवुड स्तदानौमेव नगति नृपः प्रतिबुद्धः अथ नग्गतिर्नुप चरित्र कथ्यन्ते अस्मिन् भस्से पूंडवईनं नाम नगरं अस्ति । तब सिंहरथो राजा वर्तते
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं ०3०१४ मा भाग
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टीका
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गन्धारदेशाधिपति स्तस्य राज्ञो अन्यदा हौ अखौ प्राभृते समायाती तयोः परिक्षार्थ एकस्मिन् तुरङ्गे राजा अधिरूढः एकस्मिंचतुरङ्गे अपरो नरारुढः तेन सममपरैश्च अखवारशतैः परिवृतो भूपतिर्वाच्यामिकायां गतः परीक्षां कुर्बता च राज्ञा अखः प्रधानगत्या विमुक्तः सोऽपि बलवता वैगेन निर्ययो । यथा यथा राजा वला आकर्षयति तथार स वायुवेगा जातः पुरोपवनानि अतिक्रम्य सो अखो राजानं लावा महाटव्यां प्रविष्टः श्रान्तेन भूपेन तदा अस्था बलां विमुक्ता तदा राजा एवं विपरीता अश्च मन्यतेस्मः तस्मादुत्तीर्य राजा भूमिचरो बभूव तञ्च पानीयं पाययित्वा वृक्षे बबन्ध स्वप्राणहत्ति फलै विदधे तत एक नगमारुह्य क्वचिप्रदेशे सुदरमेकं महावासं ददर्थ राजा कतूहलात्तस्मिन्बावासे प्रविष्टः तत्र एकाकिनौं पवित्रगावां कन्या भूपति दृष्ट वान् सा राजानं आगच्छन्त दृष्ट्वा भूरिहर्षा पासनं ददौ राजा ऊचे का त्वं कोयमद्रिनिवासः किमिदं रम्य धाम सा प्राह भूपालप्रथम मत्या णिग्रहणं कुरु साम्प्रतं सिंहविशिष्टं लग्नमस्ति पश्चात्सर्ववृत्तान्तमहं कथयिष्यामि तयेत्यु क्त नरपतिस्तत्र तया समं पूजितं जिनबिम्बप्रणम्यउहाहमाङ्गअलं चकार भूपतिना परिणीता सा कन्या विविधान् भोगोपचारान् चकार विचित्राश्च भक्तौ दर्शयामास अवसरे राजा तां प्रत्येवमाह विमलः पुखैरावयोः सम्बन्धी जातोस्ति परत्वं स्ववृत्तान्तंबद कासि त्वं कथमत्र काकिनी वससिखभर्चा एवमुक्त सा स्वसम्बन्धमूलतो वक्त मारेमे क्षितिप्रतिष्ठे नगर जितशत्रु नृपोऽस्ति सो अन्यदा परदेशायात चरानेवाह अहो मद्राज्ये किञ्चित् न्यूनमस्ति ते प्राहुः सर्वमस्ति तव राज्ये पर विचित्र चित्रामसभा नास्ति सतो तृपति चित्रकरान् पाकार्यसभागृहभित्तिभागा सर्वेषां समाचित्रयितु दत्ताः सर्वेपि चित्रकराः स्वस्खभित्ति: भागान् गाठोद्यमेन चिनियन्ते तत्र को सहचित्रकः सकलचित्र कलावेदी स्वभित्तिभागं चित्रियितुमारब्धवान् सहायशून्यस्य तस्य निरन्तरं राहतः कनकमनरौ रूपवती पुत्री भक्त तत्वानयति अन्यदा सा खग्रहाद्यभक्त मानयन्तो राजमार्गे गच्छन्ति अखवारमेकं ददर्श स च बालस्त्री वराकादि जनसकोणे अपि राजमार्गे त्वरितमखमवाहयत्
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ. ४१ मा भाग
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स.टीका
8 लोकास्तु तद्भूयादितस्त तो नष्टाः साऽपि क्वचिवष्टाः स्थिता पश्चात् तवायाता भक्तपात्रहस्तां तां पागतां वौच्च स वृह चित्रकारः पुरषोत्मार्थ वहिर्ज प०८
गाम एकत्र आहार पात्र माच्छादयित्वा सा क्वचिद्भित्तिदेशे वर्णकैर्मयरपिच्छ मालिलेख अथ तत्र राजा सम्प्राप्तः भित्तिचित्राणि पश्यन् कुमार्यालेखिते २८८
केकिपिच्छे साचात्यौच्छं मन्यमान कर चिक्षेप भित्त्यास्फालनतो नखभङ्गेन विलक्षीभूतं तं नृपं सामान्य पुरुषमेव जाणन्तौ सा चित्रकरपुबी एव माह चतुर्थः पादस्त्व मया लब्धः नृप प्राह: पूर्व त्वया कैन त्रयपादाः लब्धा साम्प्रतमहं कथं त्वया चतुर्थः पादोलब्धः सा प्राह श्रूयतां यो अद्य महाराज मार्गे त्वरित मख वाहयन् बालस्त्री प्रमुखजनानां चासमुत्पादयन् दृष्टः स मूर्ख त्वे प्रथमः पादौ दृष्टः ॥१॥ द्वितीयः पाद इतो राजायः कुटम्बलोकसहित चित्रकरैस्सम भित्तिभागं जरातुरस्य एकस्य मम पितुर्ददौ ढतीयः पादौ मम पिता यो नित्य भक्त समायात बहिर्याति चतुर्थ स्तुत्वं योऽस्मिन् भित्ति देश मल्लिखिते मयरपिच्छे कर चिक्षेप परमेवं त्वया निविस्मृष्टं यदत्र सुधा दृष्टे भित्तिदेशे निराधारा मयूरपिच्छस्थितिः एव तस्याः वचश्चातुरी रजितो राजा तत्याणिग्रहण बाच्छकस्मन् तस्याः पितुः समीप स्वमन्त्रिणं प्रेषयित्वा तां प्रार्थिवान् पित्रापि सा दत्ता सुमुहर्ते परणीता राजः प्रकामं प्रेमपात्र बभूव सर्वान्तःपरोषु मुख्या जाता विविधानि दूशानि रत्नाभरणानिच आस सादएकदा तया मदनाभिधानाय दासी रहसौ एवं बभाष भद्र यदा मदनशांतो भूपतिखपिति तदा त्वया अहं एवं प्रष्टव्या स्वामिनो कथां कवयेति तयोक्त' अवश्य महन्तदानीं अहं प्रश्चयिष्ये अवरात्रिसमये राजा तत्गृहे समायात तां भुक्ता रतवान्तो यावत् स्वपिति तावता दास्या इयं पृष्टा सामिनौ कथां कवयरानोप्राह याबद्राजा निद्रा नाप्नोति तावन्मौनं कुरु पश्चात् त्वदने यथेष्ट कथाकथयिश्चामि राजाऽपितां कथा श्रीतुकामः कपटनिद्राचाप मर्दास्यासाम्प्रतं कथां कथयेति पृष्टा चित्रकरपुत्री कथां कथयितु मारम्भे मधुपुरे वरुणश्रेष्टी एक करप्रमाणं देवकुलं अकारयत् चतुःकरप्रमाणो देवस्तत्र स्थापितः सतस्मै देव चिन्तितार्थ दायको बभुव अथ दासोप्राह एक हस्ते
राय धनपतसिंह बाहादुर का बा०सं० उ. ४१ मा भाग
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टीका श्र०८
२७०
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देवकुले चतुःकर प्रमाणोदेवः कथं मात इति तया पृष्ट सा राजी प्राह इमं रहस्य' तव कल्पे रात्रौ कथयिष्यामि श्रद्यतु निद्रा समायतति प्रोच्या रानी राजशय्या पुरौ भूमौसुप्ता सादासौतां दृष्ट्वा खग्टहे गता राजा मनस्यैवं चिन्तयामास कल्य रात्रावपौदं कथानकं मया श्रोतव्यमिति निश्चित्य राजा सुप्तः सुखनिद्रा मवाप द्वितीयदिनेऽपि राजा तस्या एव गृहे रात्रौ समायातः रात्रार्थं यावत् सुखं भेजे पश्चाद्रत श्रान्तो राजा पूर्व कथानक श्रवणाय कपटनिद्रयासुप्तः दासीग्राह स्वामिनी कल्य कथानक रहस्य वद राजोप्राह एक हस्ते देवकुले चत्वारः करायस्य स चतुःकरो देवो नारायणदिवा स्तनस्थापित इत्यर्थ एका कथा १ अथ तृतीयेदिने रात्रावपि राजा तथैव कपटनिद्रया सुप्तः दासौ पुनः कथा मद्य कथयेति तामाह सा प्राह बिन्ध्या चले पर्वते कोपि रक्ता शोकद्रुमः प्रौढोऽस्ति तस्या धनानि पत्राणि सन्ति परच्छायाना भवत् दासौप्राह पत्रावृतस्य तस्य च्छाया कथं नजायते रानीप्राह एतद्रहस्यन्तव कल्ये रात्रौ कथयिष्यामि श्रद्याहं रतत्रान्ता निद्रासुख मनु भविष्यामीत्युक्ता सुप्ता सा दासीतु स्वग्टहे गता अपर रात्रौ राजा भोगान् भुक्ा तथैव तत्र सुप्तः दासोप्राह स्वामिनो कल्य सत्कथा रहस्य कथनीयं राजोप्राह तस्य वृचस्य सूर्यातप्तस्य मूर्ध्नि छाया नास्ति अधएव छायाऽस्तीत्यर्थ इति द्वियौय कथा २ अथ पुनस्तथैव रात्रौ नृपेसुप्त दासी पृष्टा राजग्राह कथा कचिन्निवेशे कश्विदोष्ट्रचरन् कदापि बब्बूलतर ददर्श तदाभिमुखां ग्रीवां कुर्वन् अप्राप्तशाखः प्रकामं खित्र स्तस्यैव बब्बूलतरोरुपरि उत्सनं कृतवान् दासी रानीं प्रपच्छ हे स्वामिनीकथमेतद् घटते स्व ग्रीवया बब्बूलतरुर्न प्राप्तः तदुपरिकथमसौ उत्सर्गञ्चकार राशीप्राह अद्य निद्रासमायातोति नैवै तत्कथा रहस्य कत्य रात्रावश्यं कथयिष्यामि इत्युक्वा सुप्ताः कल्य दिनरात्रावपि तथैव नृपे सुप्त दासौ पृष्टां राज्ञौ तत्कथा तत्त्व ं प्राह स उष्ट्रः कूपमध्यस्थं तं बब्बू लतर ददर्शेति परमार्थ इति तृतीयकथा ३ पुनस्तथैव नृपे सुम रात्री दासी पृष्टा सा राजी कथामाचख्यौ कविनगरे काचित्कन्या भृसं रूपशौभाग्यवती अस्ति तदर्थं तन्मातृ पितृभ्यां वयोनरा श्राइताः समायाता तदानीं
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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२७१
* फणिना दष्टा साकन्या मृता तया समं मोहादेको वरस्तञ्चितायां प्रविष्टो भस्मसाइभूव द्वितीयस्तशम्म पिण्डदाता तदस्मी परिवासं चकार तृतीयस्तु सरमाराध्याऽमृतं प्राप्तः तदमृतेन तञ्चितायां सिक्ता कनया प्रथम वरञ्च सद्योऽजीवयत् कताप्युत्थिता तान् चौन्वरान् ददर्श राज्ञौ दासींप्राह हे सखि हितस्याः कनयायाः कोवरीयुक्तः दासोप्राह अहं नवेग्नि त्वमेव ब्रूहि राजौपाह अद्य निद्रासमायाति इत्यु का सुप्ताहितीयदिन रात्री दासौ पृष्टा सा 8 अवदत् यस्त स्थाः सनीवकः स पिता यः सहोद्भूतः स बन्धु : यो भस्मपिण्ड दत्तः स तत्पति रिति इति चतुर्थ कथाः ४ तथैव रात्रौ नृप मुप्त दासौ पृष्टाः राजी प्राह कथित् नृपः स्वपत्न्यौ दिव्यमलङ्कार वरं सुगुप्त भूमिराहरत्नाः लोकात् सुवर्णकारैः अजौघटत् तत्र कः सुवर्ण कारः सन्ध्या पतितां ज्ञातवान् राजोप्राह हे सखो तेन अर्थरत्नालोकसहिते सुगुप्तभूमिगृहे यामिनो मुख कथं ज्ञातं दासी प्राह नाहं वेद्मि त्वमेव ब्रूहि रानी प्राह अद्य साम्प्रतं निद्रा समायातीत्य वा सुप्ता द्वितीय दिनरात्रौ दासौ पृष्टाः सा प्राह स सुवर्णकारी राबान्धोस्तौति परमार्थः इति पञ्चमी कथा ॥५॥ पुनरकदा रात्रौ सुप्ते नृप दासी पृष्टा सा प्राह केनापि राज्ञा हौ मलिनुचौ निश्छिद्रपेय्या चिप्तौ समुद्रमध्ये प्रवाहिती कापि तट सापटौलग्न केनचिवरण गृहौता उहाव्य तौ दृष्ट्वा पृष्टौ भी युवयोरच क्षिप्तयो कतमो दिवसीयं तयो मध्ये एकः प्राहः अद्य चतुर्थो दिवस: राजो प्राह हे सखि तेन चतुर्थो दिवसः कथं जातं दासौपाहः अहं नवेद्मि त्व मेव ब्रूहि राज्ञौ तु अद्य साम्प्रतं निद्रा समायातीत्यु वा सुमा हितोय दिनरात्रौ दासी पृष्टाः राज्ञो प्राह स चतुर्थ दिनवक्ता पुरषस्तर्यन्वरी वर्त्तते इति परमार्थ इतिषष्टौ कथा ॥६॥ पुनरन्यदादासौ पृष्टा सा रानो रात्री कथा माचख्यौ काचित् स्त्री सपनो हरण भयेन निजांगभूषणानि पयां क्षिष्यमुद्रांच दत्वा पालोक भूमौ मुमीच अन्यदा सास्त्री सखी निवासे गता सपत्नी च विजनं विलोक्यतां पेटौ मुराव्य अनेकाभरणश्चेणि मध्यादेकं हारं निष्कास्थ स्वतनयाय ददौ तनया च स्वपति ग्रह तं गुप्तञ्च
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.स.उ. ४१ मा भाग ।
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अ.८
उ टीकाकार कियका
ॐ कार कियत्कालानन्तरं सास्त्री तवायात तां पैटौं दूरादवलोक्य एवं ज्ञातवतो यदस्याः पेट्या मध्यान्ममहारोऽनयाऽपहत इति सा सपत्नी चौर्येण दूषया
मास सपत्नी शपथान् करोनिहरापहारं न मन्ये तदासास्त्रोता सपत्नी दुष्टदेवपादस्पर्थ शपथाय आकर्षितवती तदानीं भयभ्रान्ता सपत्नीं तं हारन्त २७२
नयाराहादानीय तस्यै ददौ दासी प्राह है स्वामिनो तया कथं ज्ञातो हारापहारः रानी प्राह कला रात्री कथयिथामि इत्युक्त्वा सुम्मा द्वितीय दिनरात्री पुनस्तया पृष्टा रानीप्राह सापटौ स्वच्छकाचमयो अस्तीति परमार्थ इति सप्तमी कथा ॥७॥ कस्यचिद्रान कनया केनापि खेटेनाऽपता तस्य राज्ञः चत्वार पुरुषाः सन्ति एकोनिमित्त वेदी द्वितीयोरथ कृत् तृतीय सहस्रयोधा चतुर्थो बैद्य तत्र निमित्त वेदी दिस विवेद रथ वहिव्य' रथं चकार खगा मिनं तं रथमारुह्य सहस्रयो धाबैद्यश्च विद्याधरपुरगती सहस्रयोधी तं खेट हतवान् हन्यमानेन तेन खेटेन कनया शिरछिन्न तदैव तेन वैद्येन औष 8 धेन शिरः संजोजितं राजा तु पश्चादागतेभ्यः एभ्यश्चतुर्थ्य स्तां सतां ददौ कन्या पाह एषु मध्ये यो मया सह चिताप्रवेशं करिष्यति तमहं वरिष्यामि प्रोच सा कन्या सुरङ्गा हारि रचितायां प्रविष्टाः यस्तया सह तत्र प्रविष्टः स तां कनयां जढ़वान् दासी प्राह हे स्वामिनी चतुर्ष मध्ये को अत्र प्रविष्ट
राज्ञो प्राह अद्य रतिश्रांताया मे निद्रा समायातीत्यु का सुप्ता द्वितीयवासररात्रौ पुनर्दासि प्रष्टाः रानी प्राह निमित्तवेदि इयं न मरिष्यति इति मत्वा * चितां प्रविष्ट स्तमूढ़वान् इति परमार्थ इति अष्टमी कथा ।८। पुनरपि रात्रौ दासी पृष्टा राजौ कथामाह जयपुर नगरी सुन्दरनामा राजास्ति असौ *
अन्यदा विपरीताखे न एकएवाटव्यां नीतः वला थिथिलोक्वत्य अखात् स राजा उत्तीर्णः तमख क्वचित्तरौ बड़ा स्वयमितस्त तो नमन् स कस्मि चित् सरसि जलं पपौ तत्रैका सुरुपां तापसपुत्रों ददर्श तापसपुत्रया हुतः स तापसाश्चमं प्राप तत्र तापसास्तस्य भृशं सत्कारं चक्रुः सा कन्या तापसर्दत्ता राना च परणीता तां नवोढां कन्यां यहोवा तमेवाखमधिरुह्य पश्चाइलितः अन्तरालमार्ग क्वचित् सरपाल्यां राजा सुप्तोपि जाग्रबेवास्ति राना तु
KXAMX80X8*300********
राय धनपतसिंह बहादुर का प्रा०सं०.३०४१ मा भाग
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टोका
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निद्रा णाच कैथरि राक्षसेन तत्रागत्य नृपस्य वं कथितं षण्मासान् यावदुभुचितो अहं त्वां भक्ष्यं प्राप्य अद्य ढवि भविष्यामि अन्यथा महाञ्छितं देहि * राज्ञोक्त ब्रुहि स्वबाञ्छितं तेनोक्त कञ्चिदष्टादशवर्षीयो ब्राह्मणपुत्रः शिरसि पिलदत्तपद स्वया खड्न हत सधदिन प्रध्वं चेहलो दोयो तदा ई त्वां मचामि
नान्यथा इति राना प्रतिपनं प्रभाते राजा चलितः कुसलेन स्वपुरे गत: सैनिकाः सर्वेपि मिलिताः राज्ञा स्वमन्त्रिणो राचसकृत्तान्तः कथितः मन्त्रिणा सुवर्णपुरुषे निर्माय पटहवादनपूर्व नगर भ्रामितः एवं चौधोषितं ब्राह्मणपुत्री राक्षसस्य जीवितदानेन नृपजिवितदानं दत्ते तस्य पित्रोरयं सुवर्ण पुरुषो दीयते इयमुधोषणा षट्दिनानि यावत्तत्र जाता सप्तमदिने एकत्र प्रानो ब्राह्मणपुत्र स्ता निर्घोषणां श्रुत्वा एवं मातापितरौ अवोधयत् प्राणा गत्वराः सन्ति मातापितरो चे द्रक्षणं प्राणैः कृत्वा प्रदीयते तदावरं तेनाहं नृप जीवितरक्षार्थ ख जीवितं राक्षसाय दत्वा सुवर्मपुरषं दापयामि एवं पार वारमाग्रहण मातपित्रीरनुमति गृहीत्वा राजसमीपे गतः राज्ञा तुतत्पितुः पादौ शिरसि दापयित्वा स्वयमाकीत खरेण पृष्टौ भूत्वा राक्षसस्य समीपं सानौत यावता राक्षसोदृष्ट स्तावता नृपणोक्त भी ब्राह्मणपुत्र इष्टं स्मरः एवं नृपेणोक्त स ब्राह्मणपुत्रः इतस्ततीनेत्र निक्षिपन् जहा सततदानी
राक्षसस्तुष्टः प्राह यदिष्टं तन्मार्गेयति सप्राह यदित्वं तुष्ट स्तदा हिंसान्तज्यः जिनोदितं दयाधर्म कुरु राक्षसेनापि तहच सा दयाधर्मः प्रतिपत्रः O राजादयोपितं दारक प्रसंसितवन्तः अथ दासोप्राह है राति तस्य ब्राह्मणपुतस्य कोहास्यहेतुः तयोक्त साम्प्रतं मे निद्रा समायातीत्युक्ता सामुप्ता द्वितीयदिने दासौपृष्टाः सा राज्ञौपाह हे हले अयन्तस्य हास्य हेतु नृणां हि माता पिता नृपः शरणन्त बयोपि मत्या स्थाः अहं पुनः कमना शरणं बयामौति तस्य हास्य मुत्पत्र इति परमार्थः इति नवमौकथाः । एवं साचित्रकरसुता कथाभि मुहुर्मुहुर्मोहयन्ति राजानं वयौ चकार राजा तुत स्था मेवाशक्तोऽन्यासां राजीनां नामापि नजग्राह ततस्तस्या छिद्राणि पश्यन्ति सर्बाऽपि सपनाः परमद्देषं वहन्ते चित्रकरसुतातु निरन्तरं मध्याज
राय धनपतसिंह वाहादुर का प.स.२०४१ मा भाग
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ड.टोका
*3030840030***
* रहसि एकाकिनी कपाट युगलं दत्वा ग्रहान्तः प्रविश्य पूर्ववस्त्राणि प्राकृत्य आत्मानं एवं न निन्द पात्मन् तवायं पूर्ववेषः साम्प्रतं राजप्रसादादुत्तरा
मवस्थां प्राप्य गर्व माकुर्याः एव मात्मनः शिक्षा ददतां दृष्टा सपत्नी राजानं एवं विज्ञपया मासुः स्वामित्वेषा तुद्रा तवाहयिकाणं कुरुते यद्यस्माकं वचनं न मन्यते तदा मध्याने स्वयं तदरहे गत्वा तस्याः स्वरूपं विलोकय भूपतिस्तासां वाक्य निशम्य मध्वा तस्याः टहेगतः सा तु तथैव पुर्वने पथ्य परिधाय आत्मन् शिष्यां ददतौ भूपतीना दृष्टाः सर्वाणि तइचांस्यपि श्रुतानि राजा तस्था: निगर्वतां शाखा परमा प्रमोद मवापइमा पराजी चकार विशेषामनी विनीदं श्यचकार अन्यदा तबगरोद्यान विमलाचार्याः समायाताः राज्ञासह नृप स्तचन्दनाय तवागतः नगरलोकोपि तहन्द नार्थं गतः तदा विमलाचार्यों देखना चकार चित्रकरसुता नृपञ्च हावपि प्रतिबुद्धौ श्रावकधम्म ग्टहीतवन्तौ परस्परममा वाधया त्रिवर्ग साधनं कुरुतः अनेद्युस्तया दत्त पच परमेष्टी श्रौनमस्कारः स पिता मतो व्यन्सरोजात: कालान्तरणान्त' धर्ममाराध्यः चित्रकरसता रात्री सता देवीत्व प्राप ततधुत्वा वैताचे तोरणाभिधे पुरे दृढयक्ती खेचरस्य पुत्री कनकमाला बभूव प्राप्तयौवना तामेकदा बोध कन्दर्प सप्ती वासव नामा
कचित् खेचरोऽपहत्य अन्न महा अद्री मुक्ता खचित्ते प्रमोद बभार अब विद्याबलात् समयां सामग्री विधाय स वासव विद्याधरी यावन्धर्वोदाहाय * समुसुकोऽभवत् तावत् कनकमालाग्रजवर्णतजा स्तदनुपदिकस्तत्रायात स्त'वासवं विद्याधर मधिक्षिप्तवान् तौ हावपि कोपाद घोर युद्धं कुर्वाणो परस्पर
प्रहाराती मृतौ कनकमाला तु भसं भ्राशीकं चकार तदानीं कश्चिदेव स्तवागत्य कनकमाला प्रत्येवमवदत् पुत्रीभ्राथोकं मुञ्च चित्तं स्वस्थं कुरु इश * एवसंसारीस्ति त्वं मम पूर्वभवपुची प्रभूः तिष्ठत्वमवैव गिरी पत्र स्थिताया स्तव सर्व भव्य' भविष्यति एवं देववचनमाकर्य कनवमाला चिन्तयामास को
असौ देवः कबमस्याहं पुत्चो पसौ मयि मिझते अहमप्यस्मिन् सिच्यामि यावदेवं कनकमाला चिन्तयति तावत्तजनको विद्याधरेन्द्रो दृढयतिना माधा
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राय धनपतसिंह बहादुर का आ.सं.१.४१ मा भाग
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वन् तत्रायातः स्वपुत्र स्वर्णतेजसम्बिरोधनं वासवविद्याधरं च मृतं दृष्ट्वाछिन्नमस्तकाञ्च तां पुत्रौदृष्ट्वाएवं विचारयामास अयंसतःइयं सुता अयं शत्र स्त्रया प्यमो इगवस्था प्राप्ता स्वनीपमं जगम दृश्यते एवं ध्यायतस्तस्य दृढ़शक्तिविद्याधरस्य जातिस्मरणमुत्पन्न असौ सासनदेवीप्रदत्तवेषश्चारणश्रमणोयतिर * भूत् अथ सव्यन्तरः स्तया पुत्या सह तं श्रमणं ननाम जीवन्तौ तां पुत्रौ वौच्च स चारणश्रमण स्तं व्यन्तरं नमन्स अच्छत् किमिदमिन्द्रजाल मया दृष्ट व्यन्तरः प्राह तव पुत्रो शत्रु मिथो नियुष्य मृतौ इयंच कन्या जीवन्त्यपि मया तव मृता दर्शिता मुनिप्राह कथं त्वया मृता कता सव्यन्तर स्मृत्वा एवमाह हे मुनिना बक एतत् वार्ता ऋण क्षिति प्रविष्टनृपतेर्जितशत्री रियं प्राग्भवे पत्नी अभवत् चित्रागदनाम चिनक्कतो ममैषा पुत्रौ अभवत् एतया प्राग्भवे अन्त्यसमये मम नमस्कारा दत्ताः तत्प्रभावादहं व्यन्तरी जातः एषा अपि मृता देवी जाता देवी त्वमनुभूय तव सुता अत्र भवे ज तेन विद्याधरेणापहत्य पत्र चैत्ये मुक्ता यात्रार्थ माया तेन मया दृष्टा एतस्या बन्धी चौरे च मृते यावदिमा महमाश्रयामि तावद्भवन्तोत्र प्राप्ताः मया विमृष्ट इयमनेन जनकैन समं माया स्विति मया एतस्याः गोप न माया विहिता यत्तव निराश त्वं मया तदानीं कृतं तत् क्षन्तव्यं मुनिरुचे अहो व्यन्तरया त्ववा तदा माया कता सा मम तव माया अपहारिणो जाता तेन मम भवतोपक्वतं न किमप्यपराध एवमुक्त्वा स मुनि शिषं दत्वा अन्यत्र विजहार अथ प्राग्भव ४ हत्तान्त' श्रुत्वा सा कन्या जाति म ति भागभूत् प्राग्जन्म जनकं व्यन्तरं प्राह तात तं पूर्वभवपतिं मलय व्यन्तर प्राह स ते प्राम्भवभत्ता
जितथा तृपति देवो भूय यतः साम्प्रतं सिंहरधो नाम राजा जातीस्ति स गधार देसे पंडवईन नगरा दम्बापतीऽच समायास्थक्षि * स हि त्वाम व सकलसामग्रमा परिणषति यावत् स रहाभ्य ति तावत् त्वमवेव तिष्ठत्य का सव्यसरः पुराचले थाहत जिन बिम्बानि न तु
गतवान् इमं सर्ववत्तान्त' कथयित्वा मा कन्या राजानं प्रत्याह स्वामिन् खमत्र महाग्याकर्षितः समायातः सिंहरष राजापि एमा पूर्वभव
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० स० ४१ मा भाग
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स. टीका
44.
कथां श्रुत्वा पूर्वभवम्वशरं तं व्यन्तरं अस्मरत् तेन स्म त: सव्यन्तरस्तत्रा गात् दिव्यवादित्र निर्घोषकतवान् मध्याह्न जिनबिम्बान्यभ्यर्थ नृपो 8 8 भुक्तं ततस्तेन व्यन्तरण पूरिताऽशेषवांछितोऽसौ नृपतिस्तत्र मासमेकं स्थितवान् चिरकालेन स्वराज्याऽनिष्टशता राजा तां दयितां प्रतोदमाह
प्रिये प्रबलो बैरी ब्रजी मै राज्य मुपद्रोथति ततो अहं व पुरंयामि दयिताजगाद यदि राज्य मोक्तन शक्यते तदाव्योमगमन साधिका प्रज्ञप्ति विद्यां मन्मुखाइ हाण यतस्ते व्योमगतिर्यथा सुख स्थात् प्रिया प्रदत्तांता विद्यामासाद्य सिंहरथी राजा विद्याधराग्रणीभूव प्राग्भवः प्रेमसंपूर्णान्ता प्रियां आपृच्छ सराजास्वपुरव्योममार्गेण समागतः । तत्रपुरे कियद्दिनानिस्थिती सिंहरथ नृपतिस्त' पर्वतं पुनर्गत: एवं स्व नगरान् तस्मिन्नगेनित्य गतागतिकुर्बन नृपति सिंहरथो लोका नगतिरितिनाम प्रसिद्ध प्राप्यः अन्धदातवनगे तम्भूप सध्यन्तर एवंमाह अहं मत्स्वामिनिर्देशात् देशां तरंगमि ष्यामि त्वं मत्पुत्रौं व नगरनित्वा इमं नगं शून्यमाकार्षीः एवमुक्कासव्यन्तरः स्थानान्तर मागात् नृपस्तवर्गमहनगरं व्यधात् नग्गतिपुरमिति तबामकृत वान् तवस्थो राजा तया राजासह भोगान् भुजान सुखेनकाल निर्गमयति तत्र राज्य पालयत स्तस्य बहुतरः कालो ययौ अन्यदा नम्गति नृपः पुरपरि सरेव सन्तोत्सवं द्रष्टुं जगाम मार्गेमञ्जरौ पुञ्जमंजुलं आम्रवृक्षमद्राक्षौत् ततः एका मञ्जरीनृपति लीलया स्वकरण जग्राह गतानुगतिकालोकाः दृश्यते बहवो नराः स भाव मनुवर्तते यथा राजा तथा प्रजाः ॥१॥ तस्य मनरी फलपत्रादिकं जगहुः भमिपाल क्रीड़ा क्त्वा तत पश्चालितास्त आमवृक्ष काष्टशेषमालोक्य एवं चिन्तितवान् अयमामबक्षी नेत्रप्रौति करोयो मया पूर्व गच्छता दृष्टः सोयं काष्टशेषो विगतयोभः साम्प्रतं दृश्यते यथा तथा सर्वो ऽपि जीवः कुटम्ब धनधान्धदेहादि सौन्दर्य भ्रष्टोनैव शोभा प्राप्नोति एतच्च सर्व विनखरं यावबक्षीयते तावत्मयमयत्न कार्यः इति चिन्तयन्त्रगतिः प्रति बुद्दोजातः शासनदेवी प्रदत्तबेष: संयममाददे अन्यदाते करकंड १ म्हिकुख २ नमि ३ नग्गति ४ राजानश्च त्वारोऽपि प्रत्येक बद्धा संयमिनो विहरन्ति
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं०१० ४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०८
२७७
सूत्र
भाषा
MEMEXXX
अमेत्युक्षोणो प्रतिष्ट नगरे प्राप्ता तत्र चतुर्मुखदेव कुले क्रमतः पूर्वाद्येषु चतुर्दिग्दारेषु युगपत्प्रविष्टाः तेषामादरकरणार्थं चतुर्मुखो यचः समन्तात् सन्म खोऽभवत् तदानींकरकंडूः स्व देह कंडरोगोपशमनाय कर्क्स टतांशिलाकां गोपयन् द्विमुखेन संयमिना उक्तः पुर' अन्तःपुर राज्य देशच विमुच्य पुनस्त ं किं सञ्चयं कुरुषे करकण्डु मुनिर्यावत्तं प्रतिवक्ति भववमिराजर्विणा द्विमुखप्रत्य वमुक्त' सर्व्वाणि राजकार्याणि मुक्का पुनस्त्वया किमिति शिक्षा रूपकार्य वक्त ुमारब्धं यावदु द्दिमुखो मुनि नमि राजर्षि प्रत्युत्तर दत्ते तावन्रगति राजर्षि रेवमुवाच यदा राज्य' परित्यज्य भवान् मुक्तवत्सहते तदान्य कि मप्याख्यांतुनार्हति अथ करकंडु मुनिस्तान् वौन् प्रत्येक मुवाच साधुष साधुहित वदन् न दूषणं भवति कंडुपशम नाय कर्ण धृतो पिशलाका सञ्चयोऽयुक्त एव परम सहता मयाष्टताऽस्तीति एवं चत्वारोऽपि परस्पर संबुद्धाः सत्यवादिनः सर्वथा संयममाराधकाः केवल ज्ञानमासाद्य शिवं जग्मुः प्रत्येक बुद्धः चतुष्टयकथा संपूर्ण अग्रे सूत्र कथयति चई जणदेवलोगाश्री उबवत्री माणसे मिलोगम्मि उवसन्त मोह णिज्जो सरई पोराणियञ्जाइ १ जाई सरित भयवं सहसम्ब ुद्धौ श्रणुत्तरं धम्मे पुत्तण्ठ वित्तुरज्ज अभिनिक्खमई नमोराया २ द्वाभ्यां गाथाभ्यां सम्बन्ध वदति नमौराजापुत्त्र ं राज्ये स्थापयित्वा अभिनिःकामति अभिसमन्तात् निःक्रामति गृहवासानि सरति अनगारो भवतीत्यर्थः किङ्गत्वा जाई सरि 'जाति' मत्वा पूर्वभवं स्मृत्वा कथम्भूतः भयवं भगवान् धैर्य सौभाग्यमाहात्म्य यथो ज्ञानादिकयुक्तः पुनः कीदृशः अनुत्तरे सवोत्कृष्टे श्रीजिन धर्मे सहसं चइऊण देवलोगाओ उबबमो माणुसम्मि लोगम्मि । उवसंत मोहणिज्जो सरई पोराणि यंजाइ ॥१॥ जाई सरित् च्चुवा सप्तम देवलोकात् सातमा देवलोक बौ चयोने उत्पन्नः मनुष्यलोके ऊपनो मनुष्यलोकने विषे उपशांत मोहः मोहनौयकम्मै उदय रहितः उप शांत हुत्रो के जेहने मोहनो की प्रागजनजाति तृतीयं भवं स्मरति जातिस्मरणऊपनो आपणौ पाइलो जाति दिठी १ प्राग् जन्मस्मृत्वा भगवान् भग
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०० १४मा भाग
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उ०टोका अ०८ २७८
सूच
भाषा
EXCEE)
बुद्धः स्वयं सम्बुद्दः इति द्वितौयगाथाया अर्थ: अथ प्रथमगाथाया अर्थ: सनमिः पूर्वन्देवलोके देवः श्रासीत् तेन इत्युक्त ं चत्रऊण देवलोगाओ देव लोकात् च्युत्वा सनमिर्भूपी मानुष्य लोके मनुष्य जन्मनि उत्पन्नः सच न मि भूपः उपशान्तमोहनीयः सन् पौराणिको जातिं पूर्वजन्म देवलोकादी करत अत्र वर्त्तमान निर्देश स्तत्कालापेचया उक्तः २ सो देवलोग सरिसे अन्ते उरवरगओ वरे भोए भुंजित, नमौराया बुद्धो भोगे परिचयइ ३ सनम राजा बुद्दो ज्ञात तत्वः सन् भोगान् परित्यजति किं कृत्वा भोगान् भुक्का कथम्भूतान् भोगान् वरान् स्त्रीसमूहे प्राप्तः सन् कीदृशेन्तः पुरेदेव लोक सदृशे देवाङ्गना सदृशे इत्यर्थः भुक्तभोगस्य पुरुषस्य भोगः दुत्यज इति हेतो भोगान् परित्यजतीत्युक्त ३ महिलं स पुरजणवयं बलमारोहच परियणं सव्व ं चिच्चा अभिनिवन्तो एगन्त महट्टिश्रो भयवं 8 स भगवान् महात्म्यवान् यशखौनमोराजा एकान्तं द्रव्यतो वनषण्डादिकं भयवंसहसंबुद्धो अणुत्तरेधम्मं । पुत्त' वित्तुरज्जे अभिनिक्खमई नमीराया ॥ २ ॥ सोदेवलोग सरिसे अंतेउरवर गडवरे
भो 'जित्तु नमौराया बुडोभोगे परिचयई ॥३॥ महिलंसपुर जणवयं बलमारोहंच परियणं सव्वं चिञ्चा अभिनि वंत जातिस्मरण उपना थका स्वयं आत्मने संबुद्धः आपणपे धर्मने विषे प्रतिबोध पाम्या पुत्र स्थापयित्वा राज्ये पुत्रने राज्य थापौने अभिनिःक्रमति नमो राजा दिवा गृहीतार स नमो देवलोक सदृशान् भोगान् ते नमोराजा देवलोकसरीखा अंतपुरगतः वरान् भोगान् अंतेउरीने विषे वर प्रधान भोग भुक्ता नमो राजा भोगभोगवोने नमो राजा ज्ञानतत्वः भोगान् परित्यजति ज्ञातपके प्रतिवुद्ध हुआ थको भोगने कांडे २ मथिलां नगरों जनपद सहौतां मोला नमर देसहीत कड़े हस्त्यादौ चतुरङ्गसैन्य अन्तःपुरं परिजनं सर्वचतुरंगिणी सेना हाथी घोड़ा रथ पायक अंते वरस घलोपारोवार सर्वदेश त्यक्क्षा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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ए० टोका
अ०८
२७८
सूत्र
भाषा
****४१ मा भा
राय धनपतसिंह बाहादुर का
भावतच सर्वसंयोगरहित त्वं एक एवाह मित्यतो निषय स्तमाचितः पुनः कोट्टशो नमोराजा अभिनिः क्रान्तः संसारात् निःक्रान्तः संसारात् निः सृतः किंवा मिथिला सपुरजनपदां तथा वलंतथा अवरोधं अन्तः पुरं तथा परिजनं सवं त्यक्ता ४ पुराणि च जनपदाय पुरजनपदास्तैः सहवर्त्तते इति स पुरजनपदातां सपुरजनपदां एतादृशीं मिथुलां पुरीं हित्वा ४ कोलाहलगब्भूयं श्रासोमहिला इ पव्वयं तंमि तया राइ रिसिंमि नमिंमि अनिनिभि ५ तदा तस्मिन् काले मिथिलायां नगर्या सर्व स्थानं कोलाहलकभूतं आसीत् कोलाहलो अव्यक्तः रोदना क्रन्दितजनित कलकल शब्दः कोलाहल एव कोलाहलकः कोलाहलकः भूतो जातो यस्मिन् तत् कोलाहलकभूतं एतादृशं सर्वं स्थानं गृहविहारादिकं जातं क क्वंतो एग'तमहिङिओ भगवं ॥४॥ कोलाहलगम्भ यं आसीमहिलाइ पव्वयं तंमि । तदूया रायरिसिंमि नमिंमि अभिनिक्खमंतंमि ॥५॥ अभ्भूट्टियं रायरिसिं पव्वज्जाद्वाण मुत्तमं । सक्कोमाहण रुवेणइमं वयणमव्वव ॥६॥ किंतुभो प्रब्रजितः ए लांवाना छोडो दोचा लोधी एकान्तमधिष्टतः भगवान् नमि ऋषोखर मोचने अर्थ एकान्ते जई रह्या ४ क्रन्दित कलर मयं गृहारामा दि नमि राजाने नगरो की नोकलतां लोक रोवालागा कोलाहल हुत्र आसीत् मिथुलायां प्रब्रजन्त' नमि मोथुला नगरौने विषे तिण प्रस्तावे दिवाने समे तस्मीन् प्रस्तावे राजर्जि: जीवार नमि राजाइ दिक्षा लोधौ नमी प्रव्रज्य निर्गच्छति सती नमि राज ऋषिने दोचाने अर्थे नोकलतां थका ५ अभ्यु स्थित राजर्षिः संयमने नमी राजऋषिने ऊठतां थका प्रव्रज्या स्थानं उत्तमः उत्तम जे दोचाहने विषेसक: ब्राह्मण रूपेण श्रागत्य शक्रप्रमथ देवलोक थकी आव्योव्राह्मणरूपजरोने नमोपासे श्रवौनेः इदं वचन श्रब्रवोत् इन्द्रे एह वचन प्रश्न को ६ किंइति प्रश्न तु इति वितकें भोइतिश्रामन्त्रणे अय मिथुलायां
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७०टोका
* अभिनि:कामति सति गृहात् कुटम्बात्क ोधमानमायादिभ्यो वा निःसरति सति कथम्भूते नमौ राजर्षों राजा चासौ ऋषिश्च राजविस्त किन् राजर्षों
राज्यावस्थायां अपि ऋषिरिव ऋषि स्त स्मिन् राजर्षों ५ अब्भुट्टियं रायरिसिं पवज्जाठाण मुत्तमं सक्को माहणावेण इमं वयण मव्ववी ६ नमि राजर्षि शक्रः ब्राह्मणरूपेण इदं वचनमब्रवीत् कथं भूतं राजर्षि उत्तम प्रब्रज्याया स्थानं प्रव्रज्यास्थानं ज्ञानदर्शनचारित्रादिगुणानां निवासं प्रति अभ्युस्थितं उद्यत मित्यर्थः ६ किंतु भी अज्ज महिलाए कोलाहलग संकुला मुञ्चति दारुणा सहा पासाएसु गिर्हसुय ७ किं इति प्रश्नेतुइति वित भी इति आमंत्रण भो राजर्षे अद्य मिथिलायां प्रासादेषु देवगृहेसु भूपमन्दिरेषु च पुनस्त्रिकचतुष्क चञ्चरादिषु दारुणः हृदये उद्देगोत्यादकाः विलापा क्रन्दितादयः शब्दा किं नु श्रूयन्ते इति इन्द्रो राजर्षि नमि पृच्छति स्मेत्यर्थः कीदृशाः शब्दा: कोलाहलकशंकुलाः अव्यक्त शब्दव्याप्ताः ७ एयमट्ठ निसामित्ता हे कारणचो । ईओ तो नमो रायरिसि देविंदं इणमब्ववौ ८ ततः इन्द्रप्रश्नानन्तरं नमो राजर्षिदेवेन्द्र इदं अववीत् किं कृत्वा एतं अर्थ इत्यर्थ प्रतिपादक शब्द निशम्य श्रुत्वा कथंभूतो नमो राजर्षिः हेतुकारणाभ्यां चोदितः प्रेरित: हेतुकारणनोदितः तत्र हेतुः पञ्चावयववाक्यरूपः कारणञ्च येन विना कार्यस्य
उत्पत्तिर्न भवति पञ्च अवयवा इमे प्रतिज्ञा १ हेतु २ उदाहरण ३ उपनय ४ निगमन ५ रूपाः पक्षवचनं प्रतिज्ञा १ साध्यसाधक हेतुः २ तमादृश्य * अज्जमहिलाए कोलाहलग संकुला। सुच्चति दारुणा सद्दापासाएसु गिहेसुय ।७॥ एयम निसामित्ता हेजकारण
कोलाहलो राजा मौथुला नगरो कोलाहलैः व्याप्ताः कोलाहलै करो व्याप्त के यंते रौद्राः शब्दास्ते कथं एहवा रौद्रशब्द किम संभलाइ के प्रासादेषु च
प्रसादनेविषे घरने विषे७ एतदर्थ श्रुत्वा एहचु अर्थ सांभलोने पञ्चावयवमनुमानवाक्यं हेतुः अनन्यथा सिद्धनियत पूर्वभाबित्वं करणत्वं तेन प्रेरौतहेतु पञ्चा 3 वयवरूपप्रतिज्ञा हेतु२ उदाहरण३ उपनय निगमनानि५ ए पञ्चावयवरुपहेतु अने कारण तौणे प्रेरौयो ततः प्रश्नक्कतानंतरं नमिराजर्षि ते प्रश्न कौधां
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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ए टीका
* दर्शनं उदाहरण ३ उदाहरणेन साध्ये न च संयोजनं उपनयः ४ हेतु उदाहरणोपनयैः साध्यस्य निश्चयोकरणं निगमनं ५ तथैव दर्शयति तव धर्मा २८१
र्थिनः अस्मानगरात् पहात् कुटम्बाहानिःसरणं दीक्षाग्रहणं प्रयुक्त' इति प्रतिज्ञावाक्य कस्माई तो: आक्रन्दादि दारुणशब्दहेतुत्वात् इदं हेतुवाक्य २ यत् यत् ाक्रन्दादि दारुणशब्दहेतुक भवति तत् धर्मार्थिनः पुरुषस्य अयुक्त किंवत् हिंसादिकर्मवत् यथा हिंसादिकर्म आक्रन्दादि दारुण शब्द हेतुक तत् हिंसादिकर्म च धम्मार्थिनोपि अयुक्त भवति इदं उदाहरणवाक्यं तस्मात् तथा तवापि धर्मार्थिनी निःसरणं अयुक्त ४ इदं उपनयवाक्य तस्मादाक्र न्दादि दारुण रौद्र शब्द हेतुत्वात् हिंसादि कर्मवत् सर्वथा तव एहात् नगरात् कुटम्बात् नि:सरणं अयुक्तमेव ५ इति निगमनवाक्यं इति पञ्चावयवात्मको
हेतुरुच्यते कारणं दर्शयति यत् यस्य पूर्व असती वस्तुनः उत्पादकं तत् तस्य कारणंभवतो गृहाविस्मरणं दारुणशब्दकार्यस्य कारण नेयं यदा भवतः * शहानिःसण पूर्वजातं तदा पश्चात् आक्रंदादि शब्दलक्षणं कार्य जातं यदा भवतो दीक्षाग्रहण न स्यात् तदा आक्रन्दादिशब्दश्च कथं स्थादित्यर्थः एवं * हेतु कारणाभ्यां इन्द्र ण प्रेरितो नमि राजर्षिरथ यदववीत्तदमे तनया गाथयाह ८ महिलाए चेईए वत्थे सीयच्छाए मणोरमे पत्तपुष्कफलोवेए बहुण
बहुगुरेसया ८ वारण होरमाणमि चेइयंमि मणीरमे दुहिया असरणा अत्ता एए कंदंति भीखगा १० नमि राजर्षिः किं अवबौदित्याह मिथिलायां * नगा चैत्ये उद्याने भो एते खगाः पक्षिणः क्रन्दन्ति कोलाहलं कुर्वन्ति चितिः पत्रपुष्यफलादौनां उपचयः चित्यां साधुचित्यं चित्यमेव चैत्य' उद्यान
चोईओ। तो नमीरायरिसौ देविंदं दूणमव्ववीय मिहिलाए चेईएबत्थेसौयच्छाए मणोरमे। पत्तपुप्फफलोवेएबहु 8 पछी नमी राजऋषि प्रते देवेन्द्र एवं अब्रवीत् देवेन्द्र इन्द्र इम कहती हुयी ८ मीथलायां उद्याने वृक्षे मीथुला नगरीने विषे चैत्यने विषे प्रक्षने विष भाषा * सौतलछायायुक्त मनीरमाख्य शीतलछाया के रमवायोग्य पीतलकरी के पत्रपुष्यफलीपती पत्रफल फलसहित छ बहुना खगादीनां लोकानां च बहुगुणे
राय धनपत सिंह बाहादुर का पा० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ.टोका
तस्मिन् चैत्वे उद्याने एते उच्यमानाः खगाः विहगाः फूत्कुर्वन्ति कथम्भू ते चैत्वे मनीरममनोज पुनः कीदृशेवः सौतलच्छाये पुनः कीदृशैः पत्रपुष्प फलोपतैः पत्रपुष्यफलै क्त: पुनः कीदृशे चैत्ये बहूनां खगाना बहुगुणे प्रचुरोपकारजनके इत्यर्थः एते खगाः क्सति विलपति चैत्ये वृचे वातन किय
माणे सति इतस्ततः प्रक्षिप्यमाणे सति उद्याने देवगेहेच वृक्षे चेत्यमुदाहृतं इत्यने कार्थः कथभूते चैत्ये मनोरमे मनोने कीदृशाः एते खगाः दुःखिताः । * पुनः कीदृशाः अशरणाः पुनः कीदृशाः आर्ताः पौडिताः अत्र यत् स्वजना क्रन्दन उक्त तत् खगा क्रन्दनं स्वयं वृक्षकल्प: यावत्कालं तदृक्षस्य स्थिति
रासीत् तावत्कालं भोगादिषु स्थिरता आसीत् ततश्च आक्रन्दादि दारुणशब्दाना अभिनि:क्रमणं हेतुत्व असिद्ध स्वार्थहेतुकत्वात्तेषां स्वार्थसौदमानं दृष्ट्वा एवं करोति सर्वोजनः अतो भवदुक्त हेतुकारण असिद्ध एव एतेषां स्वजनानां मया स्वार्थभङ्गः कृतीनास्त्रि ममापि अत्रस्थाने एभिः स्वजनैः सह इयती एवस्थितिः केनाप्यधिको कत्तुं न शक्यते तस्मान्मम मिथिलातो निःसरणं दीक्षाग्रहणं सर्वथा मिथिला वास्तव्यलोकानां आक्रन्द शब्दहेतुः कारणञ्च
णंबहुगुणेसया ।। वारणहौर माणमि घेईयंमि मणीरमे। दुहियाअसरणाअत्ताएएकंदंतिभोक्खग्गा ।१०। एयम
निसामित्ता हेजकारण चोईओ। तो नमिरायरिसिं देविंदोडूण मव्ववी ।११। एस मग्गीय वाउय एवं डभडू सदा घणा लोकने घणा गुणकारी छ ८ वा तेन इतस्तत: चाल्यमाने वायरेकरी हलाच्या के एहवा वृक्ष उद्याने मनोरमाख्ये चैत्यक्ष मनोरमइ सेनाम दुःख प्राप्ताः शरणरहिताः पौडिताः दुखिय थका असरण थका शरणकोइनु नथी पौड्या दुखौ के ए प्राक्रन्दन्ति भी पक्षिण: ए पंखो इण कारणि भो ब्राह्मण आक्रन्दकर के १० एतदर्थ श्रुत्वा ए अर्थ सांभलौने हेतुभिः कारणैश्च प्रेरितः हेतु अने कारण प्रेखो ११ एषः अग्निः सवायुः ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा०सं० उ०५१ मा भाग
भाषा
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० टोका
श्र०८
२८३
सूत्र
भाषा
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नास्त्यं वेत्यर्थः १० एयमहं निसामित्ता हेऊकारण चोइओ तओ नमिराय रिसि देविन्दोइण मव्ववी ११ ततस्तदनन्तरन्देवेन्द्रो नमिराजर्षि प्रति इदं वक्ष्यमाणम्बचनं श्रब्रवीत् किं कृत्वा एतं अर्थं निशम्य कीदृशो देवेन्द्रः हेतुकारणाभ्यां प्रेरितः अथवा हेतुकारणयोर्विषयेनमि राजर्षिणा प्रेरितः पूर्व इन्द्रेण नमि राजर्षिं प्रति इत्युक्त' भो नमि राजर्षि एतेषां आक्रन्दादि दारुणशब्दहेतुत्वात् तव दीक्षाग्रहणं प्रयुक्त' पुनस्तेषां श्राक्रन्दादिशब्दरूपकार्यस्य तव दौक्षाग्रहणं एवकारणं इत्युक्त सति नमिराजर्षिणा च तेषां श्राक्रन्दादि दारुणशब्दस्य स्वार्थ एव हेतुकारणे उक्त तेन असिद्दोयं भवदुक्तो हेतुः कारणचाप्य सिद्धमेव इति राजर्षिणा इन्द्रः प्रेरितः सन् इदं वचनं नमिराजर्षि प्रति पुनरुवाचेत्यर्थ : ११ एस अग्गीय वाउय एवं डज्मन्ति मन्दिरं भयवं अन्ते उरन्तेणं कौसणं नावपेक्खह १२ हे भगवन् एष प्रत्यचोम्निवायुच दृश्यते पुनरेतत् प्रत्यचं मन्दिरं दाते तवेत्यध्याहारः तवग्टहं प्रज्वलति हे भग वन् तेणं इति तेन कारणेन अथवाणं इति वाक्यालङ्कारे तत् अन्तःपुरं राज्ञीवर्ग कौसणं इति कस्मात् कारणात् नोपेचसे नावलोक से यत् यत् आत्म नोवस्तु भवति तत्तत् वीक्षणौयं यथा आत्मीयं ज्ञानादि तथा इदं भवतः अन्तःपुरं श्रपि ज्वलमानं अवलोकनौयं १२ एयम • हे तो नमोरायरिसी देविन्द ं इणमव्ववो १३ श्रस्य गाथाया अर्थस्तु पूर्ववत् अयमेव विशेषः नमिराजर्षि देवेन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा देवेन्द्रं प्रति इदं अब्रवीत् १३ किम व्रवी fecare सुहंसामो जीवामो जेसिंमो नत्यिकिञ्चणं महिलाए डज्ममाणीए न मे डज्मइ किञ्चणं १४ भो प्राज्ञ वयं सुखं यथा स्यात्तथा वसामः सुख मंदिरं । भयवं अंतेउरं तेां कोसाणं नाव पेक्खहि ॥ १२ ॥ एयम निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ । तत्र नमौराय आगिवाय सहित हुई छे एतद्दह्यते मन्दिरं ए तुम्हारा मन्दिर दा के हे भगवन् अन्तपुरं ए तुम्हारी अंते उरी महिला माहे दाझे के कस्मान् त्वं अवलोकयसे साहसु' किम न थी जोता १२ एतदर्थं श्रुत्वा ए अर्थ सांभलीने हेतुकारणे प्रस्थो १३ सुखं यथा स्यात्तथावसामः प्राणान् धारयामः भो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०४० १४ मा भाग
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अ
.50
न्तिष्ठामः सुखं यथा स्यात्तथा जौवामः प्राणान् धारयाम: मोइति अस्माकं किञ्चनमपि स्वल्यमपि ज्ञानदर्शनाभ्यां विना अपरं किमपि स्वकीयं नास्ति यत्किञ्चित् आत्मीयं भवति तत् विलोक्य ते अग्नि जलाद्युपद्रवेभ्यो रच्यते बदामोयं न भवति तस्यार्थ केन खिद्यते यदुक्त एगोमे सासनी अप्पामाण दंसण संजुश्री सेसाम बाहिराभावा सबै संजोगलक्षणा १ तदेव दर्शयति मिथिलायां नगयां दह्यमानायां सत्यां मै मम किमपि न दह्यते इति हेतोः सर्वेपि स्वजन धनधान्यादयः पदार्थाः मत्तोऽतिशयेन भिन्नाः एतेषां विनाशेनचास्माकं विनाश इत्यर्थः १४ चत्त पुत्तकलत्तस्म निब्यावारस्म भिक्खुणों
रिसी देविंदं दूणमज्जवी ॥१३॥ मुहं वसामो जीवामो जेसिं मोनस्थि किंचणं । महिलाए डझमाणीए नमे डभडू किंचणं ॥१४॥ चत्त पुत्त कलत्तम निव्वावारस्म भिक्खूणो पियं नविज्जए किंचि अप्पियंपि न विज्जए ॥१५॥ बहु
खुमुणिणो भई अणगारस्म भिक्ख णी। सब्बो विप्पमुक्कस्म एगत मणुपस्मओ ॥१६॥ एयमट्ठ निसामित्ता हेजका ब्राह्मण सुखे वस छु सुखे जीवुकु येषां अस्माकं नास्त्यल्पमपि किञ्चन जेह भणौ माहरु' काइ नथी मथिलायां दह्यमानायां मथिला नगरी दाझतां थका न मम दह्यति किञ्चित् माहरु काइ दाझ तूं बल तुं नथौ १४ त्वक्तपुचकलवस्थ छांद्या जिणे पुत्र कलत्र कहता स्त्री निर्व्यापारस्य कृष्थादिरहित स्थ भिक्षी गृहस्थना व्यापार थी रहित पियं न विद्यते किञ्चिद प्रेम नधो किसी वस्तु ऊपरि अप्रौयं अपि न विद्यते कोड वस ऊपरि वैषपणिनधौ१५ बहुखु निश्चयेन मुनीनां मङ्गलं साधुने घणु भद्र कल्याण के गृह रहितस्य भिक्षी गृहस्थनो व्यापार तिणे करी रहित साधु सर्वतः विप्र मुक्तस्य सघलों: प्रारम्भ तिणे करी रहित के एकांत मोक्ष चिन्तयत: एकांत मोक्ष मार्ग चिन्तवे के १६ एतदर्थं श्रुत्वा ए अर्थ सांभलौने हेतू कारणैः प्रेरित हेतु *
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ.७१ मा भाग
भाषा
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२८५
उ.टौका अ०८
पियं न विज्जए किच्चि अप्पियंपि न विज्जए १५ एतादृशस्थभिक्षोभिक्षाचरस्थ प्रियंअप्रियञ्च किमपि न विद्यते कथम्भ तस्य भिक्षीः त्यक्त पुत्रकलचस्व त्यक्तानि पुचकलचाणि येन सत्यक्त पुचकलवस्तस्य परिहत सुतभार्यस्य पुनः कीदृशस्य निर्व्यापारस्य व्यापारात् निर्गतो निर्व्यापारस्तस्य निरारम्भस्य पञ्च विंशतिक्रियारहितस्य १५ बहुख मुणिणो भह अणगारस्म भिक्खुणो सब्बीविष्य मुक्कस्म एगन्तमणपस्मो १६ खुइति निश्चयेन मुनेः साधोर्बहुभद्र प्रचुर सुखं वर्तते कथम्भू तस्य मुने अनगारस्य नियतवास रहितस्य पुनः कीदृशस्य मुनेः भिक्षया गृहौताहारस्य किन्कुर्वतो मुनेः एकान्तं अनुपश्यतः एकएव अहं इत्यन्तो निश्चयः एकान्तस्तं निश्चयं विचारयतः एकत्व भावनां भावयतः पुनः कीदृशस्य मुनेः सर्वतः परिग्रहात् विप्रमुक्तस्य १६ एयम है.
तो नमोरायरिसिं देविन्दोइण मव्ववौ १७ इति नमिराजर्वचनं श्रुत्वा देवेन्द्रः पुनर्नमिराजर्षि प्रतीदं अब्रवीत् १७ पागारं कारयित्ताणं गीपुरट्टालगा 8 णिय उसूलगसयग्धोत्री तोगच्छसिखत्तिया१८ हे क्षत्रिय ततः पश्चात् खङ्गच्छसिदीक्षार्थ गच्छत्व र्थः किं कृत्वापूर्व नगरस्य रक्षा प्राकारं कोई कार यित्वा पुनस्तस्य प्राकारस्य गो पुराणि कारयित्वा प्रतोलीकथनात् एव अर्गला सहित या दृढ कपाटानि कारयित्वा पुनस्तस्य प्राकारस्य अहालकानि चकारयित्वा अट्ठालकानि हि प्राकारकोष्टको परिवर्तीनि मन्दिरानि उच्यन्ते भुरजानां उपरिस्थ गृहाणि संग्रामस्थानानि कारयित्वा पुनस्तस्य प्राकारस्य उसूलग इति खातिका कारयित्वा तत्र प्रकार शतघ्नीः कारयित्वा शतघ्नीहि यन्त्रविशेषाः याहि एकं वारं चालिताः सत्यः शतसंख्या
रण चोईओ। तो नमि रायरिसिं देविंदो दूण मव्ववौ ॥१७॥ पागारं कारत्ताणं गोपुरट्टालगाणिय । उसूलग सय 8 कारण प्रेयो १७ प्राकार कारयित्वा अहो नमो राजऋषि कोटकरौ नवास खरा गोपुर प्रतालहा राणि अट्टालक युद्धस्थानानि ते नगरीयुद्धस्था
नक जे कोट उपर वैसी जूड़ कर खालि कास तघ्नः दृषदक्षे पण यन्त्राणि खाइट्ठी कली यन्त्राणी जंत्रादीक करवाने ततः गच्छ हे क्षत्रिय एत
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा०सं० उ. ४१ मा भाग.
सूत्र
भाषा
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कान् सुभटान् विनाशयति दूरमार कुहकवाण अराबादि पाषाण यन्त्रादौन् कारयित्वा पञ्चात् व्रजेत् अत्र है क्षत्रिय इति सम्बोधनं उक्तन्ते न क्षत्रियो हि रक्षाकरणे समर्थः स्यात् क्षतात् प्रहारात् भयात् बायते इति क्षत्रियः योहि क्षत्तियः स्यात् स पुर रक्षां प्रति क्षम एवस्थात् इति हेतोः क्षत्तियेति संबोधनं प्रोक्त १८ एयमट्ठ० है. तो नमोरायरिसी देविन्द इणमव्ववी १८ इति देवेन्द्रस्य वचः श्रुत्वा पुनर्नमि राजर्षि देवेन्द्र प्रति इदं
अब्रवीत् २८ सच्च नगरं किच्चा तव सम्बर मगलं खन्तौ निऊण पागारन्ति गुत्तं दुप्पधं सगं २० घणु परिकम किचा जीवञ्च इरिबं समाधि इञ्चक * यणं किच्चा सञ्चेणं पलिमन्थए २१ तव नारायजुत्तेणं भित्तूर्ण कम्मकञ्चुयं मुणो विगयसङ्गामी भवानी परिच्चई २२ तिमृभिः गाथाभिः इन्द्रवाक्यस्य 8 प्रत्युत्तरं ददाति भी प्रान मुनिजिन वचन प्रमाण कमाधुर्भवात् संसारात् परिमुच्यते परिसमन्तात् मुक्त भवति मुक्ति सौख्य भाक् स्यात् कथम्भू तो मुनिर्विगत संग्रामः विगतः संग्रामो यस्मात् स विगत संग्रामः सर्वशत्रूणां विजयात् संग्रामरहिती जात इत्यर्थः समुनिः किं कृत्वा विगत संग्रामो
ग्घौओ तो गच्छसि खत्तिया ॥१८॥ एयमट्ठ निसामित्ता हेजकारण चोईओ। तो नमो रायरिसी देविंदंदूण
मव्ववी ॥१६॥ सङ्घच णगरं किच्चा तवसंवर मग्गलं । खंतीनिउणपागारं तिगुत्त टुप्पधंसग ।२०। धणुपरक्कम किच्चा लावांना करी पछे जाइ ज १८ एतदर्थ श्रुत्वा एहबु अर्थ सांभलौने हेतु कारण प्रेरित १८ श्रद्धा तत्त्व बुद्धिच्च नगरं कृत्वा तत्त्वनी सद्दहणाए नगर करीने तत: संवरं गोपुरार्गलां तपः अने सतरे भेद संवमए अर्गलाको माड कौधा क्षमारूपौयोनगरने पासे गढ कौधो के क्षमा रम्य प्रकारे विभि गुप्तभिः गुप्त चिष्टतं बिहु गुप्ते करौ गढ विप्रो छ २० पराक्रम मयं धनुः कृत्वा पराक्रमरूप धनूख कौधा के इर्या रूपं जौवं प्रत्यच्चा कृत्वा इर्या रूप
. राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं २०४१ मा भाग
भाषा
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जात स्त दाह श्रद्धां तत्व श्रवण रुचिरूपां समस्त गुणाधारभूतां भगवचन स्थैर्य बुद्धि नगरं कृत्वा तत्र बहा नगर उपथम वैराग्य विवेकादौनि गो पुराणि कृत्वा इति अनुक्तमपि गृह्यते तपो हादशविधं सयमं सप्तदशविधं अर्गला प्रधान कपाटं अपि अर्गला ततोऽर्गला कपाटं कृत्वा पुनस्तस्य अहानगरस्य चान्तिं प्रालारं कृत्वा क्षमा वप्रं क्लत्वा कथम्भूतं प्राकारं निपुण परिपूर्ण धन धान्यपानौयादिभिर्भ तां पुनः कथम्भूतं प्राकारन्ति सृभिर्गुप्तिभिर्गुप्त' रक्षितं गोपुरोट्टालकोत्सूलक खातिका स्थानीयादिभौ रक्षितं पुनः कीदृशं प्राकारं दुःप्रधर्षिकं शचुभिर्दुरा कलनीयं पूर्व इन्द्रेण प्राकारादीन् कारयित्वेति उक्त तस्योत्तरमिदं जयं अधुना प्राकारादी संग्रामोविधेयः इत्याह मुनिर्विगत संग्राम: स्यात् विजयोस्थात् इत्यर्थः पराक्रमं क्रियायां बलस्फोरणं धनुः कृत्वा च पुनस्तस्य धनुषः सदा इयों इर्या समितिञ्जीवां प्रत्यञ्चां कृत्वा च पुनस्तस्य पराक्रम धनुषो धृतिं धैर्य * धर्माभिरति केतनं शृङ्गमयं धनुर्मध्ये काष्ठं मुष्टिस्थानं कृत्वा तत् केतनञ्च स्नायुना दृढ़ बध्यते इदमपि धैर्य केतनं शृङ्गधनुर्मध्यस्थकाष्ठ
राय धनपतसिंह वाहादुर का अस.उ.४१ मा भाग
जीवंच दूरियं सया। धिडू'चकैयणं किच्चा सच्चेणं पलिमंथए ।२॥ तवनाराय जुत्तेणं भित्तूर्णकम्म कंचुयं । मुणीवि गय संगामो भवाओ परिमुच्चई ॥२२। एयम निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। तो नमिरायरिसिं देविंदो इण ।
धनुषनी प्रत्य'चा तांती कौधो कृति सन्तोष मुष्टिं कृत्वा धनूमध्यवृतसन्तोष मूठि कौधौ धनूषने मध्यभाग सत्ये न बघ्नीयात् बन्धे वेष्टयेत् सत्यवचने करोने तेह मूठौने लपेटे बन्धने दीये २१ तपोमय लोहबाणयुक्तइ नबार मैदे तप तेहज हुओ लोहनी बाण तौरः भित्वा बिदार्य कर्मकंचुक कर्मसनाहं, इणे तोरे करी कर्म कंचुककर्म सबाह भेदे मुनिः विगतसंग्रामः मुनौखर संसारसम्बन्धी संग्राम अणकरती थको भवात् संसारात् परिमुच्यते संसार की
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अ०८
२९६
ॐ सत्येन स त्यरूपनायुना पलिमन्यए इति परिबनीयात् पुनस्तप एवनाराची लोहमय बाण स्तपो नाराचयुक्तन्तेन तपो नाराचयुक्तन
तेन पूर्वोक्त न पराक्रम धनुषा कर्म कञ्चकं कर्मसबाहं भित्वा अत्र कर्मकचक ग्रहणेन आत्मा एव उद्यत: शत्रुस्म एव योहव्यः तस्यैव २ कर्मकञ्चकं कर्मसबाहं भेद्यं इत्यर्थः कर्मणस्तु कञ्चकत्व तहत मिथ्यात्वा विरति कषायोदय भाजः आत्मनः बहा नगरस्य रोधं कुर्वतः
दुर्निवारत्वात् कर्मकञ्चुकभेदात् तस्यात्मनोजितत्वात् जितकाशीजात एवप्राकारं कारयित्वे त्यादि तस्य साधनता प्रोक्ता २२ एयमट्ट० है. तो
नर्मिराय रिसिन्देविन्दो इण मब्बवो २३ एतबमिराजर्वचनं श्रुत्वा देवेन्द्रो नमिराजर्षि प्रति इदम ब्रवीत् २३ पासाए कारइत्ताण वदमाण गिहा रणिय बालम्गपो इयाओय तो गच्छसि खत्तिया २४ हे क्षत्रियततः पश्चात् त्वगच्छ किं कृत्वा प्रासादान् कारयित्वा भूपयोग्य मन्दराणि कारयित्वा
पुन वईमानगृहाणि अनेकधा वास्तुविद्यानिरूपितानि वईमानगृहाणि कारयित्वा पुनर्वई मानहाणि बालाग्र पोतकाञ्चकारयित्वा वलभीः कार यित्वा गृहोपरि बङ्गलारउटो प्रमुखाः कारयित्वे त्यर्थः अथवा बालाग्र पोतिकाः जलमध्य मन्दिराणि कारयित्वा षडर्नु सुखदानि गृहाणि कारयित्वा पश्चागन्तव्य मित्यर्थः ५४ एयम है. तो नमिरायरिसो देवेन्दं इणमञ्चवौ२५ ततो नमिराजर्षि रिन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा देवेन्द्र प्रत्यव्रवौत्र ५ संसयं खलुसो कुणन जी मग्गे कुणईघरं जत्थे व गन्तुमिच्छिज्जा तस्थ कुञ्चिज्ज सासयं२ ६ भी प्राज्ञ सत्पुरुषः संशयं एव कुरुतयः पुरुषामार्गे गृहकुरुतेयो हि एवं जानाति ___मन्बवी ।२३। पासाए कारइत्ताणं वद्यमाणं गिहाणिय । वालग्गपोइयाओय तो गच्छसि खत्तिया ।२४। एयमट्ठ भुकाइ २२ एतदर्थ श्रुत्वा एहवी अर्थ सांभलौने हेतु कारण : प्रेरित:२३ प्रासादानि कारयित्वा प्रसादकराबौने वईमान गृहाणि बर्ष मानघर ऊपर घर करावोने वस्तु विद्या पोतिका च देशभाषा क्रीडा स्थानानि वास्तुक अन्धने विषे जे घर कयो के ततः गच्छ हे क्षत्रियः तिवार पछे हे छत्रिय तु
राय धनपतसिंह बहादुर का प्रा० सं० इ० ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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अ०८
उ टौका
मम कदाचिगमनं न भविथति सएव मार्गे ग्रहं कुर्यात् अत्र गृहकरणं तु मार्गस्थानमेवज्ञेयं यस्य तु गमनस्य निश्चयो भवेत् समार्गे एहं न कुर्यादेव २८८ ४ अहन्तु नसंशयितः मम संशयोनास्ति इति हाई सम्यक्त्रादि गुणयुक्तानां मुक्तिनिवासयोग्यत्वेन यत्र व गन्तु इच्छेत् तत्र व स्वायं स्वगृहं अथवा सा
सयं इति शाखतं अविनखरं गृहं कुर्यादित्यर्थ:२६ एयमट्ठ० हे. तो नमिराय रिसिन्द विन्दी दणमब्ववौ २७ ततः पुनर्देवेन्द्रो नमिराजर्वचनं श्रुत्वा नमिराजर्षि प्रतीदं वचनमब्रवीत् २७ आमोसे लोमहारेय गण्ठिभेयेय तक्कर नगरस्म खेमं काऊणं तो गच्छसि खत्तिया २८ हे क्षत्रियत्वं ततस्तद
निसामित्ता हे. कारण चोईओ तो नमी रायरिसि देविंदं दूण मबबी ॥२५॥ संसयं लुसो कुणईजो मग्गेकुणई घरं । जत्येव गंतुमिच्छेज्जा तत्य कुवेज्ज सासयं ॥२६॥ एयमट्ठ निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। ती नमिं राय
रिसि देविंदो दूमा मव्ववी ॥२०॥ आमोसे लोमहारय गठिभेएय तक्करे। नगरस्य खेम काजणं तो गच्छसि ख
जाजे २४ एतदर्थ निशम्य श्रुत्वा एहवो अर्थ सांभलौने हेतुकारण प्रेरिता २५ नमो राजा बदेत् है ब्राह्मण स पुमान् संशयं कुरुते ते पुरुष सन्द हकर भाषा
जे मार्गे गृहं करोति जे मार्ग माहे घर कर यत्र व गन्नुमिच्छेत् तेह नगरने विषेज जावी बांछे तत्रैव कुरुते शाखतं गृहं मुक्तिरूपं मुक्तरूप * शाश्वते घर जाइ तिहां घर करे विचे घर कुण कर २६ एतदर्थ निशम्य श्रुत्वा एहवो अर्थ सांभलीने हेतुकारणैः प्रेरित: २७ आसमन्तात् मुष्ण तौति
आमोषकान् लोमाहारान् प्राणोन् जे लोकने मूसे चोरी करीने माणस मारे वाट लूटेधाडपाड़े ग्रन्थिमेदकान् तस्करान् गंठी छोडा चीर प्रति नगरस्य क्षेमं क्लत्वा एहवा चोर निवारीने नगरने खेम कल्याण करौने ततः गच्छ है क्षत्रियः तिवार पछी हे क्षत्री तुजाज २८ एतदर्थ निशम्य श्रुत्वा एअर्थ
XXXXXXXKRRRRRRRREXXXXX
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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अ°
२८०
हटौका नन्तरं गच्छ: किं कृत्वा नगरस्थ क्षेमं कृत्वा तत्र नगरे आमीषाली महाराः च पुनर्ग्रन्थि भेदास्तस्कराः खातपातका लुण्ट का विद्यन्ते तान् नगरात् बहि
निकास्य सुखं कृत्वा पश्चात्त्व दीक्षा ग्रहीतष्याः आमोषादयोहि एते तस्कराणां भेदाः सति आसमन्तात् मुनन्ति चोरयन्ति इत्यामाषास्तान् निवार्य * लोमहरास्ते उच्चन्तेये अति निर्दयत्वेन परस्य पूर्व प्राणान् कृत्वा पश्चात् द्रव्य टहन्तितेलोमहारा लोनातन्तुना पट्टसूत्र मयपाशेन प्राणान् * हरन्तीति लोमहाराः पागवाहकास्तान् निवार्य पुनर्ग्रन्धिद्रव्य अन्यिं घुघुरक कर्त्तिका चरकादि प्रयोगण भिन्दन्ति विदारयन्तौति अन्विभेदा * स्तान् सर्वान् तस्करान् निराकार्य नगरं तस्कररहितं कृत्वा पश्चात्परिव्रजे रित्यर्थः २८ एयन है. ती नमौ रायरिसौ देविन्दं * इणमव्ववौ २८ तत एतद्दचनं श्रुत्वा इन्द्र प्रति नमिराजर्षि रिदमब्रवीत् २८ असइन्तु मणस्मेहि मिच्छादण्डोप जुञ्जए अकारिणत्य। वकन्ति मुच्चई कारगोजणी ३० असक्कदारं २ मनुथै मिथ्या वथैव अपराधरहितेषु निरपराधिजीवेषु ज्ञानादहङ्कारा हादण्डः प्रयुच्यते यतीहि अत्र संसार अकारिणः पामोषादि क्रूरकर्मणां अकर्त्तारों बध्यन्त कारकाच आमोषादीनां क्रूरकर्मणां करिव जनामुच्यन्ते अनेन तेषां तु ज्ञातु 'तिया ॥२८॥ एयम8 निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। तो नमो रायरिसी देविंदं दूण मव्ववौ ॥२६॥ असइंतु
मणस्मेहिं मिच्छादंडो पज जई। अकारिणोत्थ वझति मुच्चई कारो जणो ॥३०॥ एयमढ निसासित्ता हेजकारण सांभलीने हे तूकारण : प्रेरित: २८ असक्तत् बारंवार मनुष्य असयंवार वार मनुष्य मिथ्या दण्डः प्रयुज्यते झूठा दण्ड कर के प्रकारिणी निरापराधी वध्यंत जे निरपराध के चोरी न थी करता तहने मारेके चौर्यकारको जनः मुच्यते क्वते जे मनुष्य चोरी कर ते मुकाइ के छटे के ३. एतद E
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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मुण्टौका अ०८
मशक्यत्वेन क्षेमकरणस्थाप्यऽशक्यत्वं प्रोक्त यत् इन्द्रियाणि आमोषतुल्यानि यानि तान्येवर्जयानि ३० एयम है. तो नमिराय रिसिन्द विन्दो • इणमव्ववौ ३१ ततः पुनर्देवेन्द्रो नमिराजर्षि प्रति इदं अब्रवीत् ३१ जे केइपस्थिवा तुम ना न मन्ति न राहिवा वसेते ठावदत्ताण
तो गच्छसि खत्ति या ३२ है नगराधिप ये केचित् पार्थिवा राजान स्तुभ्यं न नमन्ति तान् भूपालान् वश्ये स्थापयित्वा ततो है क्षत्रियत्वं गच्छ३२ एयम है. तो नमो रायरिसौ देविंदं इणमव्ववीत् ३३ ततो देवेंद्र वचनानन्तरं नमि राजर्षि देवेन्द्र प्रत्य ब्रवीत् ३३ जो सहस्म सहस्साणं संग्गामेदुज्जए जिणे एगजिणज्ज अपक्षण' एस से परमो जत्रो ३४ यो मनुषः संग्रामे सुभट सहवाणां
चोईओ। तो नर्मिराय रिसिंदविंदोडूण मब्बी ॥३१॥ जे कडूपत्थिवातुम्भ ना गमति नराहिवा। वसे ते ठावडू ताणं तोगच्छसिखत्तिया ॥३२॥ एयमट्ठनिसामित्ताहेऊ कारणचोईओ । तओनमोरायरिसी देविंदंदूण मब्बवी ।३३।
जो सहरमं सहरमाणं संगामेदज्जएजिणे । एग जिणेज्जअप्पाणं एससैपरमोजओ॥३४॥ अप्याणमेवजुज्झाहिं किंतेजुको निशम्य श्रुत्वा एहवु अर्थ सांभलोनेहेतु कारणैः प्रेरितः ३१ जेकेचित् पार्थिवाः तुभ्य है राजन् जे केइ राजा तुझने न नमन्ति है नराधिपः नहोमाने ताहरी आज्ञा माहि नहीं वत्त के वसे तान् स्थापयित्वा तहाने आपणे वश करि तत गच्छ है क्षत्रिय हे क्षत्रिय एकार्य करिने जाजे३२ एतदर्थनिसम्य श्रुत्वा एहबु अर्थ सांभलीने हेतु कारणैः प्रेरिबः ३३ यः सहस्र सहस्राणि दशलक्षात्मका जे सुभटसंग्रामने विषे दरूने विषे दुर्जयान् जयति दुर्जन ते खल तेहने जौते आपण वशि करे एक प्रात्मानं जयति एककोइ पुरुष आपण आत्माने जीते एषः तस्य परमी जय जे आपण आमाने जीते ते परम
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं २०१४मा भाग
भाषा
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१० टीका प०८
ॐ सहस्र जयेत् कथम्भूतं संग्रामे दुर्जये अथवा कषम्भ तं सुभटसहस्राणां सहस्र दुर्जयं दुःखेन जयो यस्य तत् दुर्जयं यः कथित् एकः एतादृशः सुभट: २८२
स्थात् यः सुभटानां दशलक्ष जयेत् एकः पुनः एतादृशः पुरुषः स्यात् व आत्मानं दुष्टाचार प्रहत्तन्तेन सह युध्येत् आत्मना सहयुद्ध' कुर्यादित्यर्थ एष आत्मविजय से इति तस्य आमजयिनः परम उत्कृष्टो जय प्रोक्त: कोर्थ: योहि आत्मविजयौ पुमान् भवति तस्य पुरुषस्य दशलक्ष्य सुभटविजयन: पुरुषात् महान् जयवादः दशलच्य सुभटजतुः सकाशात् आत्मविजयी पुमान् बलिष्ठ इत्यर्थः ३४ अप्याण मेव जमाहि किन्त जुळण वमत्री अप्याण मेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ३५ ततश्च प्रात्मनासहवं युध्यस्वते तव बाद्येन युद्धेन बाह्य संग्रामण किं न किमपौत्यर्थः बाध्य पार्थिबादि विजयो व्यर्थ एवेत्यर्थः ओमना एव प्रात्मानं जित्वा मुनिः सुखं एधते प्राप्नोतीत्यर्थः अत्र आत्माशब्दे न मनः सर्वत्र सूत्रकत्वान पुंसकत्वं अतति गच्छति प्राप्नोति नवौनानि २ अध्यवसाय स्थानां तराणोत्यात्मा मन उच्चन्ते ३५ पश्चिन्दियाणि कोई माणं मायन्त हेव लोहञ्च दुज्जयञ्चैव अप्पाणं सबमप्ये जि एजियं३६ भी प्रान्त आत्मामन. एव दुर्जयं तस्मिन् आत्मनिजिते सर्व एतत् जितं एतत् किं किन्तदाह पञ्चइन्द्रियाणि च पुनः क्रोधोमानी माया तथैव लोभनका रात् मिथ्यात्वा विरति कषायादिकं एतत्सर्व अरिचक' आत्मनिजिते जितं इतिने यं यत्पूर्व ये केचित्यार्थिवा ननमा इलाक्त तस्योत्तरं प्रोक्त' ३६
णबज्यो । अप्पागमेव अप्पाणं जुत्ता मुहमेए ॥३५॥ पंचिदिया। कोहंमाणं मायंतहवलोहंच । दुज्जयंचेव अप्या जई वड़ो सुभट ३४ आत्मानैव सह युद्ध कुरु आपणे आत्मा संघात युद्ध करी ते तव वाह्य युद्धेन किं तुम्हारे वाह्य युद्ध संघातस्य काम आत्मानैव आत्मानं आपणो प्रात्मा आ ज आत्माने जौपे जौत्वा सुख प्राप्नोति जीतीने सुख पामे ३५ पञ्चेन्द्रियाणि क्रोधञ्च पांचे इन्द्रौने क्रोध मानमाया तथैव लोभं च तिमज लोभ एवं आत्मा दुर्जयः इणे करोने आत्मा दुर्जय के जजोतवो दोहिली के सर्वमपि प्रामानि जिते सति सर्व जीतं एक प्रामा जौण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०८
२८३
सूव
भाषा
एयमट्ठ ं॰ हे॰ तओ नमिंराब रिसिन्दं विन्दो इणमव्ववौ २७ एतद्वचनं श्रुत्वा इन्द्र पुनर्नमि राजर्षि प्रतोदं श्रब्रवीत् ३७ जइत्ता विउले जन्न भोइत्ता समण माहणे दच्चा भुच्चाय जट्ठाय तत्र गच्छसि खत्तिया ३८ रागद्वेषयोस्यागं निश्चित्य अथ जिन धर्मस्थैर्यं परीचितुं इन्द्रः प्राहः भो क्षत्रिय ततः पात्वं गच्छ किं कृत्वा विपुलान् विस्तीर्खान् यज्ञान् याजयित्वा विस्तीर्णन् यज्ञान् कारयित्वे त्यर्थः श्रमण ब्राह्मणान् भोजयित्वा पश्चात् श्रमण ब्राह्मणादिभ्यो गवादीन् दत्वा च पुनर्भुक्ता शब्दरूप रसगन्धस्पर्शादि विषयान् भुक्ता राजर्धित्वेन स्वयमेवयागान् द्रष्ट्रा यज्ञान् श्रश्वमेधादीन् कृत्वा यत् प्राणिनां णं सव्वमप्पे जिएजियं । ३६ । एयमठ्ठ निसामित्ता हेऊ कारणचोईओ । तओ नमिशियरसिं देविंदो दूणमव्ववी |३७| जदूत्ताविउले जस्मे भोइत्ता समणमाहणे । दच्चा भोच्चा यजठ्ठायतत्र गच्छसि खत्तिया । ३८ | एयमट्ठ निसामित्ता है अकारण चोईओ । तत्र नमी रायरिसी देविंदंदूण मव्ववी | ३६ | जो सहमं सहयागं मासेमासे गवंद । तस्मावि जौत्यो तेथे सर्व जोत्यु' १६ एतदर्थं निशम्य श्रुत्वा एहवो अर्थ सांभलौने हेतु कारणे: प्रेरोतः ३७ यजित्वा कृत्वा विपुलान् यज्ञान् अही क्षत्रिय यज्ञ विपुल विस्तोर्ण करौने भोजयित्वा श्रमण ब्राह्मणान् श्रमणमाक्यादि ब्राह्मवेदना जाण तेहने जोमाडोने दत्वा स्वर्णदि भुक्त्वा भोगान् जिहाय स्वयं यज्ञ' aar वर्णादिकदे इने भोग भोगवौने ज्याग करोने जेष्ठाय जेष्ठेभ्यः पूज्ये भ्यः ततः गच्छ हे चत्रियः पछे तु जायजे हे चत्रिय ३८ एतदर्थं निशम्य श्रुत्वा ए अर्थ सांभलोने हेतूकारणैः प्रेरितः ३८ यः सहस्रं गुपितं दशलचरूपं जे पुरुष दशलाख मासे मासे गवां दद्यात् गाय मासे मासे दौये के तस्मादपि सं जमः श्रयः तेहदेवा बको पोण संजम यः संजम भलो साधुने यद्यपि किञ्चित् न ददाति यद्यपि साधु काद्र नहीं देताके तो पणि संजमश्रेय ४०
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४.१ मा भाग
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उ० टोका
श्र०८
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सूत्र
भाषा
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प्रौतिकरं स्यात् तव् धर्मायस्यात् यथा अहिंसादि तथा अमूनि यजापन भोजन दान भोगयजनादौनि धर्मांयस्युरित्यर्थः ३८ एयम • हे० तो नमो रायरिसिं देविन्द' इणमव्ववो ३८ ततः पुनर्नमि राजर्षि देवेन्द्रं प्रतोदं अब्रवीत् ३८ जो सहस्य सहस्ताणं मासे मासे गवन्दए बस्ताविसामो से अन्दितस्स विकिवणं ४० यः गवां सहस्राणां सहस्र' अर्थाहमलचं गर्वा मासे मासे दानपात्र भ्यो दद्यात् तस्यैवं विधस्य गवां दशसहस्रदाय कस्यापि तत्मात् गवां दानात् साधोः संयमः श्रश्रवादिभ्यो विरागः श्रेयान् अतिशयेन प्रशस्यः अत्र साधोरितिपदं श्रध्याहार्य कोट्टशस्य साधोः किञ्चित्स्वल्पं वस्तु अपि अददानस्य अदातुरित्यर्थः ४० एयम • हे तत्र नर्भिराय रिसिन्दे विन्दो इणमव्ववो ४१ एतत् पूर्वोक्तमर्थं श्रुत्वा नमिराजर्षि प्रतिदेवेन्द्रः पुनर ब्रवौत् ४१ घोरा समञ्च इत्ताण अनं पत्थेसि श्रसमं इहेब पोतहरओ भवाहि मण अहिक ४२ अथ चतुर्णामाश्रमाणां मध्ये प्रथमं गृहस्थाश्रमं एव वर्णयति प्रवर्ज्या दा च परीचयति भी मनुजाधिप घोराश्रमं गृहस्थाश्रमं त्यक्का अन्य भिक्षुकाश्रमं प्रार्थयसि घोरो होनसवर्नर र्निर्वोमशक्यः श्राश्राम्यते विश्रामो गृह्यते यस्मिन् स आश्रमः श्राश्रमाचत्वारः ब्रह्मचारी १ गृही २ वाणप्रस्थ ३ संजमोसे अदितमवि किंचणं 1801 एयमठ्ठ निसामित्ता हेऊकारण चोईओ । तओ नमिंरायरिसिं देविंदोइण मव्ववी ॥४१॥ घोरासमंचद्रत्ताणंअसंपत्थेसिआसमं । इहेवपोसहरओ भवाहिमणुयाहिव ॥ ४२ ॥ एयम निसामित्ता
. एतदर्थं निशम्य श्रुत्वा ए अर्थ शांभलौने हेतु कारणैः प्रेरितः ४१ घोराश्रमं गृहधरूपं त्यक्का घोर दोहिलो गृहस्थाश्रम छोड़ोने अन्यमाश्रमं प्रार्थयसि अनेरो आश्रम प्रार्थे' के इहेंव पोष धरतो इहांज घरने विषे रत सावधान होइ अहो मनुजाधिप राजन् अहो नमो राजा अधिपती ४२ एतदर्थं
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राय धनपतसिंह वाहादुर का प्र०सं०० ४१ मा भाग
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NA.
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उ टीका
भिक्षुरूपाः ४ तत्र गृहिणां आश्रमो हि दुरनुचरः पालयितुमशक्य स्तं परित्यज्य अन्य अपरं होनबलानां कातराणां सुखेन उदरभरणसमर्थ भिक्षूणा * मात्रमं बाञ्छसि यत् उक्त यहाश्रमसमो धर्मो न भूतो न भविषति पालयन्ति नराः शूराः क्लोवाः पाषण्डमाश्रिताः १ सुदुर्बहं परिज्ञाय धोरं गाई
स्थ्यमाश्रमं मुण्डनग्न जटावेषाः कल्पिता: कुक्षिपूर्तये २ सर्वतः सुन्दरा भिक्षा रसाः यत्र पृथक् २ स्यादैकयामिको सेवा नृपत्वं साप्तयामिकं ३ तस्मा दिदं कातराणां आचरितं भवादृथानां शूराणां न योग्यं इति हाई इहैव अत्रैव गृहस्थाश्रमे पौषधे रतः चातुर्दशौ पूणि मोद्दिष्टामावस्याष्टम्यादितिथिषु उपवासादिरती भव अणबतीपलक्षण' चैतत् अस्योपादानं पर्वदिनेषु अवश्यं तपोनुष्ठानख्यापकं यत् यत् धोरं दुष्करं तत् धर्मार्थि ना नरेण अनुष्ठ यं यथा अनशनादि इति अन्तर्गते हेतुकारण स्वयमेव ज्ञेये४२ एयम है तो नमोरायरिसौ देविंदं इणमब्ववी४ ३ अथ नमि राजर्षि देवेन्द्र प्रतिगृहस्थाश्रमा
भिक्षुकायमे अधिकलाभं दर्शयति धर्मव्यापारपरो हि अधिकलाभ दृष्टिर्भवेत् ४३ मासे२ जो बालो कुसमोण तु भुजए न सो सुअक्लायधम्मस्म कलिं * अग्धइ सोलसिं ४ ४ यः कश्चिद्दालो निर्विवेकी नरः मासेर कुशाग्रेण व भुक्तं ननु कराङ्गल्यादिना भुक्ते यद्दा यः कश्चित् यावत् भोजनादि कुशस्य दर्भ
४ स्याने अधितिष्ठति तावदेव भुक्ते अधिकं न भुक्ते अल्पाहारी स्थादित्यर्थ: अथवा यो बालोऽज्ञानी मासेर कुशाग्रे व भुक्तो कुशाग्रेण आहारवृत्ति सूत्र
हेऊ कारण चोईयो तओ नमी रायरिसी देविदंड्ण मव्ववी ।४३। मासमासेउ जो बालो जसग्गेणंतु भुजए। न
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सय धनपतसिंह वाहादुर का अस० उ०४१ मा भाग
निशम्य श्रुत्वा एहवी अर्थ शांभलौने हेतु कारणैः प्रेरितः ४३ मासे मासे यः वालः मूर्खः मास मास खमण कोई एक प्राज्ञानी मिथ्या दृष्टी करेछे कुशा * ग्रमात्र नाधिकं भुक्त पारणे मास खमणने जेतलीडाभनी अग्रभागे आवे तेतलो खाइ स ब ताख्यातचारित्रधर्मस्य भगवन्तनी भाष्यो चारित्र रूपधर्म
भाषा
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उ० टोका
श्र०८
२८६
सूत्र
भाषा
कुर्यात् अनं न किमपि भुक्के इत्यर्थः एतादृक् कष्टानुष्ठानकारी सोपि खातातधर्म षोड़शीं अपि कलां न अर्धति न प्राप्नोति सुष्ठुनिरवद्यं श्राख्यातः स्वाख्यातस्तस्य स्वाख्यातस्य जिनोक्तस्य संयम धर्मस्य चारित्रस्य यः षोडशोभाग स्तत्तु खोपि अज्ञानी लाभालाभस्य अन्न: कुशाग्रभोजौ नस्यादित्यर्थ: तस्माद्गृहे तिष्ठतस्तपः कुर्बतो बालस्य यथा ख्यात चारित्र पालकस्य साधोर्महदन्तरं गृही अतीव धर्मात्मा भवति तथापि सर्व सावद्यत्यागो न भवति देश विरत एव स्यात् तस्मात् सर्व निरवद्यत्वात् जिनोक्तत्वात् मोचार्थिना निरवद्य धर्म एव आश्रयणीयः सावद्यस्तु न आश्रयणीयः श्रात्मघातादि वत् ४३ एयम • हे तो नमिरायरिसिं देवेन्दो इणमव्ववौ ४ ४ ततः पुनर्नमिराजर्षिं प्रति देवेन्द्र इदमब्रवीत् ४४ हिरणं सुवण' मणिमुत्तं कंसं दूसञ्च वाहण ं कोसं बट्टावद॒त्ताणं तत्र गच्छसि खत्तिया ४५ अथ द्रव्यलोभ त्यागं परीचितुमाह हे क्षत्रिय हिरण्य' घटित स्वर्ण सुवर्ण अघटितं मण्र्यचन्द्र कान्त्याद्याः इन्द्रनीलाद्याः वामुक्तं मुक्ताफलं कांस्यङ्काश्य भाजनादि दूध वस्त्रादि वाहनं रथास्वादि कोशं भाण्डागारं एतत् वृद्धि प्राप्य वर्ष यित्वा ततस्त्व ं सोमुअक्वाय धम्मस्मकलं अग्घइ सोलसिं |४४। एयमट्ठ निसामित्ता हेऊकारण चोईओ । तनमि रायरिसिं देवि दोद्रण मव्ववौ ॥४५॥ हिरणं सुवम' मणिमुत्तं कंसं दुसंच वाहणं । कोसं वड्डावद्वत्ताणं तत्र गच्छसि खत्तिया ॥ ४६ ॥
तेहने षोड़शां कलां न अर्धयन्तौ न प्राप्नोति सोलमो कला एने पोहचे नहीं ४४ एतदर्थं निशम्य श्रुत्वा एहवो अर्थ सांभलीने हेतुकारणैः प्रेरितः ४५ रुप्य ं सुचणं इन्द्रनौलाद्या मुक्ताफलं रूप' सोनु मणि इन्द्रनीलादि कास्य वस्त्रं रथ्यादिक थाली चरवी वस्त्र वाहण वहल प्रमुख भण्डारं वृद्धि नत्वा भण्डार भरौने भण्डारवधारीने ततः गच्छ हे चत्रियः तिवार पछौ जाजे तु' हे चत्रिय: ४६ एतदर्थं नौशम्य श्रुत्वा ए अर्थ सांभलीने हेतुकारण :
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राय धनपतसिंह बहादर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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उन्टौका दीचार्य गच्छ भवाय मामयः यः अपरिपूर्ण च्छो भवति स धर्मानुष्ठान योग्यो न भवति यथा मन्मणः अपरिपूर्ण होहितवान् सा कांची भवति ४५
४ एयम है. तो नमोरायरिसौ देविन्दं इणमब्बवो ४६ एतत् वचनं श्रुत्वानमिराजर्षि देदेन्द्र प्रति पुनरवीत् सुवस्व रुप्यस्म यपव्वयाभवेसियाहु केलास - समा असझ्या नरम्म लुइस्म न तेहिं किञ्चि इच्छाहु आगाससमा अणन्तिया४८ पुढवौसाली जवाचेव हिरव' पसुभिस्मह पडिपुत्रं नालमेगस्म इइ विज्जा तवञ्चरे ४८ सुवर्णस्य तु पुनः रूप्यस्य च असंख्यका बहवः कैलाशसमाः अत्युच्चाः स्युः कदाचि बहुयस्मात् कारणात्पर्वताः भवेयुः तदापि लुब्धस्य लोभ ग्रस्त नरस्यतैः कैलाश पर्वत प्रमाण : स्वर्ण रूप्य पुन किञ्चिदित्यर्थः लोभवतः पुरुषस्य कदापीच्छा पूर्ति नस्यात् इति निश्चयेन चा आकाशसमा अनन्तिका अपारा ४८ पुनरिच्छाया एव प्राबल्यमाह पृथिवौ समुद्रान्ता मालयः कलमाषाष्टिक्य लोहितादेव भोज्यादय स्तण्ड लाः यवधान्यानि च शब्दात् अन्यान्यपि गोधूम मुद्रादीनि हिरण्य' सुवर्ण घटितदौनारादि द्रव्य हिरण्यग्रहणेन अन्या अपि ताम्रकस्तौरादिधातवः पशुभिर्गवाखगज
एयमढ निसामिता हेज कारण चाईओ। ती नमी रायरिसी देविंदं दूण मन्ववी ॥४७॥ सुवमा कप्प
समय पव्वयाभवे सियाहु केलास समाअसंखया। नरस्म लुद्धस्मन तेहिं किंचि इच्छाहु आगाससमा अतिया ॥४८॥ प्रेरितः ४७ सुवर्णरुप्यस्य पर्वतः प्रमाणा राथयो भवेयुः सोनारूपानी पर्वतप्रमाण राशिढिगलो हुओ स्याबिषितं कैलाशपर्वतसमानाः असंख्याता * मेरु पर्वत तुल्या मेरु पर्वतसरौखा असंख्याता सोना रुपाना पर्वत नरस्य लुब्धस्य नतैः कैलाससमैः सुवर्णादिकिञ्चित् लीभी पापुरुषने दौज तोही सन्ती
षन पाम रच्छा ह निश्चित पाकापसमा अनन्ताः द्रव्य असंख्याता वृष्णां अनन्तौ आकाशवत् ४८ पृथ्वीयालयी यवाय ए सघली पृथ्वी गालि जव सोना
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं .उ.१४मा भाग
भाषा
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१० टोका
अ
२८८
ख रौष्ट्रादिभिः सह प्रतिपूर्ण समस्तं एव एकस्य पुरुषस्य इच्छा पूर्तयेन अलं न समर्थ भवति इइ इति एतत् विदित्वा साधुस्तपश्चरेत् तपः कुर्यात् इच्छानिरोध एव तपस्तत् विदध्यात् तपसा एव इच्छा पूर्तिः स्यात् तधाच सति सा कांक्षत्वं प्रसिद्ध सन्तुष्ट तया मम चाकांक्षणीय वस्तु न एव अभावात् ४८ एयम?' है.तो नमिरावरिसिं देविन्दो इणमब्बवौ ५. अथ पुनर्नमि मुनि प्रतिदेवेन्द्र इदं आह अच्छेरग मम्भुयए भीए च यसिपस्थिवा असन्ते कामे पत्थे सि सत्येण विहबसि ५१ हे पार्थिव एतत् आश्चर्य वर्त्तते यत्त्व एवम्बिधीपि अद्भुतान् रमणीयान् भोगान् त्यजसि भोगत्यागाच अस तोऽविद्यमानान् अप्रत्यक्षान् कामान् विषयसुखानि स्वर्गापवर्ग सौख्यानि प्रार्थयसे एतत् अपि आश्चर्य अथवा तवानकोदोषः अतिलोभस्य विजृम्भितं एतत् अलब्ध प्रधान प्रधानतर भोग सुखाभिलाष रूपेण विकल्प न विहन्धसे विबाध्यसे अदृष्ट स्वर्गापवर्ग सुखलोभेन प्रत्यक्षाणि भोगसुखानि त्यक्ता
पुढ़वी साली जबा चेव हिरम पसुभिस्म ह । पडिपुसना लमेगरम दूदू विज्जा तवंचरे ॥४८॥ एयम निसामित्ता
हेजकारण चाओ तो नमिं रायरिसिं देविंदो दृण्मव्वनी ॥५०॥ अच्छरगमयए भोगचयसि पत्थिवा । असंते रूपा हाथो हिरखं पशुभिः अखादीनि घोड़ा प्रमुखतिण प्रतिपूर्ण न समर्थ : एकस्य एकने प्रतिपूर्ण भरौने एक मनुष्यने दीजे तो हि तेहनौ वृष्णा पूरी न होइ इति विदित्वा तपः चरेदासेवेत इम जाणोने तप करे ४८ एतदर्थ निशम्य शुखा एहवु अर्थ सांभलौने हेतुकारण : प्रेरित: ५० आश्चर्य वर्त्तते यत् त्वौं अद्भुतकान् आश्चर्यना करणहारामहा अङ्गत भोगान् त्यजसि हे पार्थिवएहवा भोगने छोड़े छे असंतः अविद्यमानान् कामान् प्रार्थयसे तदाश्चर्य छता भोग छांडौन अवता भीगनी बांक्षा कर के स पन उत्तरोत्तर अप्राप्त' भीगाभिलाष रुपण विकल्प ण विहन्यसे संकल्पविकल्प करौने
राय धनपतसिंह बहादर का आ.सं.७० ४१ मा भाग
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* पश्चात्तापेन वं पौद्यसे इयर्थः यः सहि को भवेत्सलचं वस्तु लाला शलब्ध वस्तुनि साभिलाषी नस्यात् ५१ एयम है. तो देविन्दो इणमब्वौ५२ ततः उण्टौका
पुनर्नमिराजर्षि देवेन्द्र प्रतीमा भयो । ५२ सम्म कामा विशणमामा कामा आसीविसोवमा काम पस्थे माणा अकामात्र ति दुग्गाई ५३ एत कामा विषया * विविधवाधा विधायित्वात् सपं सव सदृशाः देहमध्य प्रविष्ट वटित भहि तुल्या: प्रतिक्षणं पीडोत्पादिकाः पुन: कामाः विषं विष सदृशाः यथा
विषं तालपुटादि भक्षितं सत् मरणोत्यादकं तथा कामा अपि धर्मोक्ति विनाशिकाः सुखेन मधुरत्व मुत्पाद्य पश्चान्मरण मुत्पादयन्ति दारुणत्वात् ॐ पुनः कामा आशो विषोपमाः बागोटाढा विघं येषान्ने आशौ विषाः सर्पास्तेषां उपमा येषान्त पाशी विषोपमाः सर्पसदृशाः यथा सर्पदष्टा जीवा नियन्त तथा कामैर्दष्टा जीवा स्त्रियन्त यथा हि फण मण भूषहाः सर्पाः शोभना दृष्टान्त स्पृष्टाश्च विनाशायस्थः एतादृशान् प्रार्थयन्तीजनाः दुर्गति यान्ति कौदृशाः जनाः अकामा: कामसुखाभिलाषं वाञ्छन्तीपि अलभमानाः अप्राप्त मनीरधाः कामिनी नरकादी ब्रजन्तीत्यर्थः तस्मादेत प्रत्यक्ष
कामपत्थेसि संकष्येण विनसि ॥५१॥ एयम निसामित्ता हेऊ कारण चोईओ। तो नमी रायरिसौ।
देविंदं दूसमवधी ॥५२॥ सल्लं कामा विसंकामा कामा आसी विलोपमा। कामपत्थे माणा शकामा जंति
सुखकाई नहीं भाग भलाछे इम करोने तु सर्वखाये छे ५१ एतदर्ष निशम्य शुत्वा ए अर्थसांभलीने हेतु कारणैः प्रेरितः ५२ कामा: युनः कीदृक् विधाः भाषा
विष शन्योपमा अहो बाबर ए काम भोग बिन शरीखा व शल्य सरीखा छ पुनः कामभोगाः कीदृशाः आशीवीष उपमावली कामभोग के हवाछे पासी वोष सरोमाविकामा प्रार्थवमाना कामभोगने बांके के पौण मौलता नथी असेव्यमानापि यान्ति दुर्गतिं अणसेवता धका पौण दुर्गतने विषे जाइ ५३
राय धनपत सिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
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मुखोत्पादका अपिकामाः कष्टदायकत्वात् संयम धर्मच सकलकष्ट हरत्वात् विवेकिभिः कामास्त्याज्याः संयमोग्राह्यः इति हार्द ५३ अथ कथं दुर्गतिं यान्तीत्याह अहोष यइकोहणं माणेच अहमागई मायागर पडिग्यात्री लोभाओ दुहोभयं ५४ जीवः क्रोधन अधो ब्रजति नरके याति मानन अधमागतिर्भवति गर्दभौष्ट्रमहिष शूकरादि गतिः स्यात् माययासगतेः प्रतिघात: मायासुगते रगला भवति लोभात् विधापिभयं स्यात् ऐहिक पारलौकिकञ्च भयं दुक्ख स्थात् कामप्रार्थते हि अवश्यं भाविनः क्रोधादयस्त चक्रोधादय ईदृशाः ततः कथन्तत् प्रार्थनातो दुर्गतिर्नस्थात् एवं वचन युक्ति श्रुत्वा इन्द्रो नमिराजर्षि प्रतिक्षोभयितुम शक्तः किं करोदित्याह ५४ अव ऊजिम अणमाहण रुवं विजविजण इन्दत्त वन्ददू अभिणन्तो इमाहिं महुराहिं बम्म हिं ५५ ई'द्रो नमिराजर्षि प्रति वन्दते किं कुर्वन् इमाभिः प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणाभि मधुराभिः वाग्भिः स्तुवन् किं कृत्वा ब्राह्मणरूपं
दुग्गडू ५३॥ अहोवयडू कोहणं माणेणंअह मागई। माया गई पडिग्घाओ लोहानी दुही भयं ॥५४॥ अवउकि
जणमाहण रुवं विउविजण इंदत्तं । वंददू अभित्युणंतो इमाई' महुराहिं वग्ग हिं ५५॥ अहो तेनिजिओ काही अधो व्रजति क्रोधन अधोगति जाइ क्रोधे करौने मानेन अधमा गति माने करी अधमगत पामौद मायया गतिप्रतिघातं माया भलो गतनेहणे लोभात्
विधा नयः इहलोके परलोकेपि भयं लोभ थको भवो भवने विषे भय ऊपजे ५४ अपोय त्यला ब्राह्मणरूपं ब्रामण रूपीने दूरीकरौने रूपं विकुळ ४ इन्द्रत्व इन्द्रनू रूपविजवि वोकुर्वोने वंदिते सुति कुर्वन् इन्द्र नमो राजऋषिने वांदे स्तुत करतो यको आभिर्मधुराभिर्वाग्भिः इसौम धुरीमीठौवांणोई करौने ५५ अहो इति पाश्चर्य त्वया निर्जितः क्रोधः अहो माहानुभाव क्रोध जौत्यो अहो इति आश्चर्ये ते त्वया मानः पराजित: अहो पुण्यामा मान
kAmARRRRRRRRRRRRRRRERERXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०५१ मा भाग
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अपोयत्यक्त्वा इंद्रत्वं वि कुष्यं विधाय ५५ अहो ते निज्जिो कोही अहोमाो पराजिओ अहो ते निज्जिया माया पहो लोही वसौको ५६ अहो * इत्याश्चर्य त्वया क्रोधो निर्जित: यतो मयात्वां प्रत्युक्त' अन म्रपार्थिवा वशीकर्त्तव्या स्तदापि त्वं न क्रुद्धः इत्यर्थः अहो इत्याचर्ये त्वया मानोपि दूरी
तः यतो मन्दिर दह्यते अन्तःपुरं दह्यते इत्यादि उक्त तथापि मयि विद्यमाने ममपुरं ममान्तः पुरञ्च दयते इति तव मनसि अहं कृति सीत्। तस्माबिर्मानस्व' वर्त्तसे अहो इत्याश्चर्ये त्वया मायापिनिर्जितानिराकता यतस्त्व नगरस्य रक्षाकारणेषु प्राकाराहालकादिषु निःकासनयोग्येषु आमोष लोमहार ग्रन्थिभेदक तस्करादीनां वशीकरण हननादिषु च मनोनोऽकरोः अहो इत्याश्चर्ये लीभी वशीततः हिरण्य सुवर्णादिकं बईयित्वा पश्चा इन्तव्यं इति श्रुत्वापिमा प्रति इच्छा हुआ कायसमाः अनन्तका इत्युक्तवान् तस्माचत्वारोपि कषायास्त्वयाजिता इत्यर्थः ५६ अहो ते अज्जवं साह अहो तेसाहु महवं अहो ते उत्तमाखन्ती अही ते मुत्तिउत्तमा ५७ अहो इति विस्मये आश्चर्यकारि वा साधुसमौ चौनन्त तव आर्जवं ऋजीः सरलस्य भाव आर्जवं विनयवत्त्व' वर्तते अहो आश्चर्यकारि तव साधु सुन्दरं मार्दवं मृदोभावो मार्दवं कीमलत्व' सदयत्व' वर्तते अहो साधु तवक्षान्तिः क्षमा वर्त ते अहो साधु तव मुक्तिवत्त ते निर्लोभता वर्त ते ५७ अथ पुनर्वर्धमान गुणद्वारेण अभिष्टौति इहंसि उत्तमोभन्ते पिच्चा होइसि उत्तमो लोगुत्त मुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि नौरो ५८ हे मुने हे भगवन् हे पूज्यत्व इह अस्मिन् जन्मनि उत्तमोसि सर्व पुरुषेभ्यः प्रधानोसि उत्तमगुणान्वित त्वात्
अहोते माणो पराजिओ । अहो ते निरक्किया माया महोते लाभोवसौकओ॥५६॥ अहोते अज्जवं साहू अहोते साहु जीत्यो अही इति आश्चर्ये ते त्वया निराकता माया अहो नमि ते माया जीतौ अहो इति आश्चर्ये ते त्वया लोभः वशौक्षत: अहो साधु ते आपणो लोभ वयि कोधी ५६ अहो इति आश्चर्ये तेनैव सरलत्वं योभनं अहो नमो ताह कसरल पण भल' अहो इति आश्चर्ये ते तव प्रधान माईवं अहो नमि भलु
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.स.२०११ मा भाग
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टीका
AB4
पिच्चा इति प्रेय परलोकेपि उत्तमो भविष्यति लोकस्य उत्तमोत्तमं अतिशयप्रधानं स्वानं एतादृशं सिद्धि मुक्तिस्थानं गच्छसि त्वं गमिष्यसि अत्र लोगुत्तमुत्तमं इत्यत्र मकारः प्रातःला लोकोत्तमोत्तमा इति वक्तव्य ५८ एवं अभियुगान्तो रारिसिं उत्तमाए सहाए पायाहिणं करन्ती पुणो पुणो वन्दए सक्को ५८ शक्र इंद्रो नमिराजर्षि पुनः पुनर्वन्दते भूयो भूयो नमस्कूरुत किं कुर्वन् प्रदक्षिणां कुर्वन् पुनः किं कुर्वन् उत्तमया प्रधानया श्रद्धया रुचाभत्त्या अभिष्ट्वन् स्तुतिं कुर्वन् इत्यर्थः ५८ तो वन्दि ऊणपाए चक्कं कुसलक्खणे मुणिवरस्म आगासे णुप्पइओ ललिय चवल कुण्डलकिरौडौ ६० तो इति ततः शनः आकाशं अनु उत्पतितः उडिडराः किं तत्वा रनिवरस्य राजर्षेः पादौ वन्दित्वा कीदृशी मुनेः पादौ चक्रां दुशलक्षणी राशी हि
मद्दवं । अहोते उत्तराखंती अहोते मुत्ति उत्तमा ५७॥ इहंसि उत्तमा भंते पञ्चा होहिसि उत्तमो लोगुत्त मुत्तमं
ठाणं सिद्धि गच्छसि नीरओ ।५८। एवं अभित्थुणंतो रायरिसिं उत्तमाए सवाए। पायाहि करतो पुणापुणो ताहरु सुकमाल पण' अहो तव प्रधाना क्षमा अहो नमो तुझमांहि उत्तम प्रधान क्षमा अहो ते तव मुक्तीनिर्लोभ ता श्रेष्ठाः अहो नमी तुझ माहि निर्लोभता पणु श्रेष्ठ प्रधान हे भदन्त इह जन्मनि त्वं श्रेष्ठः असि हे पूज्य इहं भवने विषे तु' उत्तमछे पश्चादागामि भवे भविष्यसि उत्तमः प्रधानः पर लोकने विषे पोण तु उत्तम हुस्थे लोकोत्तमं स्थानं लोकने विषे जे उत्तम स्थानक तेठाम मोक्षं जास्यसि नौरजः कर्म रजी रहौत सौद्धने वौषे जाइसौ कर्मरहीत थको ५८ एवं त रोया अभीष्टुक्र इन्द्र इमस्तव्यो थको राजरिधि नमिं ये ठया यहाः राजऋषिने उक्तम थवाई करीने किं कुर्वन् प्रदौ क्षणा कुर्वन् प्रदीक्षणा देतु थको पुनः पुनः वारंवारं वन्दते शनः वारवार इन्द्रवन्दना करे ५८ ततः वन्दित्वा पादौ ऋषौख़रना पगवांदीने किंविशिष्टी
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०८
३०२
सूत्र
भाषा
पादयोचकां कुशलचणं स्वात कोटयः शक्तः ललित चपल कुण्डलकिरौटी ललिते सविलासे चपले चञ्चले चते कुण्डले च यस्य स ललित चपल कुण्डलः किरोर्ट मुगटं प्रतोति किरोटी बचित चपलकुण्डलवासी किरोटी च ललित चपल कुण्डल किरोटो चपल सुन्दर कुण्डल मुकुटधारक इत्यर्थः ६० नमो नमेद्र प्रयाण सक सय चोय बई जहं वेदेहो सामने पज्ज्वडिओ ६१ नमिराजर्षिः आत्मानं विनयधर्मे भावयति कथम्भतो नमिः शक्रेण माचाप्रकारेण प्रत्यचोय चोदितः गृहीत मनोभावः परीचिताभयः सनमिवैदेहेषु विदेहदेशेषु भवोवैदेहः विदेहदेशाधिपः गृहं रुका श्रामण्ये श्रमणसाधोः कर्म श्रामत्यं साधधर्म स्तव पर्युपस्थितः यतो भूत् परि उपसर्गेण श्रयमथाद्योत्यते स्वयमेव उद्यतो न तु इंद्र प्रेरणातो धर्मेवितो भूदिति भावः ६१ एवं करति संबुडा परिडया पविणा विषियन्ति भोगेसु जहा से नमी रायरिसौ तिमि ६२ संबुद्धाः सम्यक् ज्ञाततत्वा पण्डिताः सुनिखितार्थः एवं अमुनाप्रकारेण कुर्वन्ति भोगेभ्यो विशेषण निवर्त्तन्त कौहशाः संबुडाः प्रविचक्षणाः प्रकर्षेण अभ्यासातिशयेन विच
बाहादुर का RRRRY
का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
बंद
५६ | तो दिउन पाए चक्कं कुसलकख मुणिवरस्य आगासेगुप्पईओ ललियचवलकु'डल तिरोडी ॥६०॥ नमो नमेद्र चप्पां सक सकेय चोइ । चइऊण गेहं वदेही साम पज्जुवडिओ ॥ ६१ ॥ एवं करेंति
मुनिपादौ चक्रांकुलचणोपेतौ चक्र अंकुश साधोयो प्रमुखसहित के पगमुनौ खरना अर्थात् शास्त्रोक्तसुभलक्षणयुक्त हे चरणकमल इन्द्र आकाशे उत्प तितः इन्द्र आकाय वो ज्योलोतचपल कुण्डल कटवान् मनोहर चपल कुण्डल अने गुकट पहखा के इंद्रे ६० एवं अमुना प्रकारेण कुर्व्वन्तो साचात् शक्रेण प्रेरितः प्रत्यचः चावीने इंद्र परीक्षा कोधो त्यक्का गेहं बिदेहदेशोद्भव घर विदेहदेश कांडोने चारित्र उद्युक्त अभवत् चारीत्रने
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Bाः क्रियासहित चानयुक्त इत्यर्थः कर्व भोगेभ्यो निवत्तन्ते यथा नमि राजषिः भोगेभ्यो निवर्तित इति अहं वौमिसुधर्माखामो उ.टोका अ.८% जम्बखामोनं प्रतिवदति ६२ इति नमि प्रवज्याख्यनवमं अध्ययनं ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूवार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मौकीर्तिगणि
मिष्यलक्ष्मोवल्लभ गणिविरचितायां नवमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥८॥ अथ दशमं अध्ययनं प्रारभ्यते। नवमेअध्ययने चारित्रविषये निष्कम्मत्वं * उक्त तत् निष्कम्मत्व विख्यातएव भवतिततो दशमेऽध्यय ने शिख्या वदति इति नवमदममा ध्ययनयोः सम्बन्धः दशममध्ययनं बौगौत
ममुद्दिश्य श्रौवोरणाभिहतं इति गौतमवक्तव्यता तावदुच्यते पृष्टि चम्या नाबी नगरौ तत्र सालनामा राजामहा शालिनामा युवराना । तयो भगिनो यशोमती तस्याः पिठरनामा भर्त्तास्ति यथोमती कुक्षिसम्भूतः पिठरपुत्रो गागलि नामा वर्तते अन्धदा भगवान् श्री महावीरस्तत्र ४ समबस्त: सालराजा महायालादि परिवतस्तत्रागतो भगवन्त वन्दित्वाने धरणीतलोपविष्टः श्रीमहावीरकतामिमा देशनामशृणोत् मानु
थादिका धम्मसाधनसामग्री दुर्लभास्ति मिथ्यात्वादयो धर्मप्रतिबन्ध हेतवो बहवो वर्तन्ते महारभादौनि नरककारणनि सन्ति जन्मादि दुःखप्रचुरः संसारोस्ति कषायाः संसारपरिभ्रमणहेतवस्मन्ति कषायपरित्यागे च मोक्षप्राप्तिरिति भगवद्देशना श्रुत्वा संवेगमुपागतः सालराजाजिनेंद्र प्रत्येवमुवाच भगवञ्चरणमूलेहं तपस्यामादास्ये परं महासालं यावद्राज्ये स्थापयामि तावच्छौभगवद्भिरन्यत्र विहारो न कार्य भगवता उक्त प्रतिबन्ध मा कार्षीरिति
संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियट्ठति भोगेसु जहासे नमी रायरिसित्तिमि ।६२। नमिभयणं सम्मत्तं । विषे उद्यत सावधान हुओ ६१ एवं अमुना प्रकारेण कुर्वन्तौ इम कहे स्वयं वुहाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः पण्डितविचक्षण जाण साधु विशेषेण निवर्तन्ते भोगेभ्य भोगधको विशेषे नौवत्तें यथा सनमि राजर्षि इछांद्या तिम छांडे इति समाप्तीब्रवीमि जिम नमि राजा६२ इति नमि प्रव्रज्याध्ययन समाप्त ।।
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१० ४१ मा भाम
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उ० टौका
सालराजा रहे गत्वा महाशालं मातरं प्रत्ये वमाह बन्धी त्वं राज्य पालय अहं व्रतं हामि महागाल उवाच अहमपि भवासंविग्नोस्मि अलं महारम्भ हेतुनाराज्ये न ममापि प्रव्रज्याग्रहणमनोरथोस्ति तदा सालराज्ञा भगिनौपुत्री गागलिः स्वराज्येभिषिक्तः सालमहासालौ हावपि प्रबजितौ भगिनौश्चम णोपासिका जाता भगवांस्ततो विहारं चकार सालमहासालमुनी एकादशाङ्गानि अधीतो अन्यदा भगवान् राजगृहे समवसृतः तवानेकभव्यान् प्रति बोध्य स्वामी चम्पायां गतः मन शालमहासालो स्वामिनं प्रत्ये वमूचतुः यदि भगवदानास्यात्तदा वयं पृष्टि चम्पायां व्रजामः यदि कश्चित्तत्र प्रतिबध्यते सम्यक्त वा लभते तदास्माकं महान् लाभो भवन्तीति स्वामिना तदा तयो गौतमः सार्थे दत्त: गौतमस्वामी ताभ्यां सह पृष्टिचम्पायां गतः तत्र गागलि राजा पिढमाभ्यां पिठरयशोमतीभ्यां सह वन्दितुमायातः समागतायां पर्षदि एवं देशनां चकार भो भव्य सत्वाविषयप्रसक्तामातिष्ठत अनेकदुःखदारुण संसार प्रतिबन्ध मा कुरुत कष्टेन मनुष्यादि सामग्री प्राप्तासि सध्या अभरागसदृशो यौवनादि प्रपञ्चोस्ति क्षणदृष्ट नष्टः सकलसंयोगीस्ति जलबिंदुचञ्चल जीवितमस्ति ततो जिनधर्मे प्रकाममुद्यमं कुरुत तथाचिरेण शाखत पदप्राप्ति भवतां भवतीति गौतमदेशनां श्रुत्वा गागलिः प्रतिबुद्धी भणति भगवब्रह भवदन्ति के प्रव्रज्यां ग्रहोथे नवरं मातृपितरौ पृच्छामि ज्येष्ठपुत्र राज्ये स्थापयामि एवमुक्वाटहे गत्वा मापितरौ पृष्टौ ताभ्यामुक्त यदि त्वंप्रव्रजिष्यसि तदा वयमपि प्रब्रजिष्यामः ततः पुत्र राज्ये स्थापयित्वा गागलि राजा स्वमापिढभ्यां सह प्रव्रजितः गौतमस्वामी तैः शिवै मह पश्चाहलितः मार्गेसाल महासालयो शभाध्यवसायेन केवलज्ञानमुत्पन्न पुनरग्रे गच्छतां गागलि प्रमुखाणां त्रयाणामपि तथैव शभध्यानेन केवलज्ञानमुत्पन्न एवं सर्वेपि ते गौतम सहिताचम्यायां गताः गौतमस्वामी भगवञ्चरणी प्रणताः सालमहासालादिकेवलिनी भगवत: प्रदक्षिणां कृत्वा तीर्थ प्रणम्य केवलपर्षदभिमुख चलिताः तावदुस्थितो गौतमस्तान् प्रत्येवं भणति भी चिथाः क्व व्रजत वन्दततीर्थकर तावता भगवान् प्राह गौतमकेवलिनी माशातयेति भगवदचसा गौतमः
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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१ टीका
8 तान् चामयति मनस्य वं चिन्तयन्ति अहं न सेत्स्यामि किं मदीयाः शिष्याः केवलमासादयन्ति अद्य यावन्मया केवलज्ञानं नाप्त अस्मिन्नवसरे मिथी देवा 8 नामवं संलापो वर्त्तते अद्य भगषता व्याख्यावसरे पवमादिष्टं यो भूमिचरः खलब्धाऽष्टापदाद्रौचेत्यादि वन्दते स तेनैव भवे सिद्धि यातौति श्रुत्वा गौतम
जामिनं पृच्छति भगवबह मष्टापदे चैत्यानि वन्दितु यामौति भगवता उक्त व्रजाष्टापदे तत्र चैत्यानि वन्दस्व ततो हृष्टो गौतमो भगवञ्चरणौ वन्दित्वा तत्र गतः पूर्व हि तवाष्टापदे तादृग् जनसम्बादं श्रुत्वा पञ्च पञ्चशतपरिवारास्त्रयः कोडिन १ दिन २ सेवाला ३ ख्या स्तापसागतास्मन्ति तेषु कोडिन स्तापसः सपरिवारः एकान्तरोपवासेन भुक्ते पारणे मूलक दान्याहारयति सोऽष्टापदे प्रथममेखलामारुढोस्ति द्वितीयो दिन तापस: सपरिवारः प्रत्यहं षष्ठ षष्ठ पारणके परिभाटितानि पर्णानि भुक्तं स हितोयमेखलामारूढीस्ति तृतीयः सेवालतापसः सपरिवारी निरन्तरमष्टमपारणके सेवालं भुतो 8 सवतीयमेखलामारुढोस्ति एवं तेषु क्लिष्यमानेषु गौतमः सूर्यकिरणावलम्बे न तत्रारोढुमारब्धः ते तापसाचिन्तयन्ति एषः स्थूलवपुः कथमत्राधिरोढं
शक्यते वयं तपखिनोपि अशक्ता एवं चिन्तयत्स्वेव तेषु पश्यत्सु स गौतमः क्षणादष्टापदपर्वतशिखरमधिरूढः ते पुनरेवं चिन्तयन्ति यदासाववतरिष्यति * तदास्थ थिथा वयं भविथामः गौतमखामौ प्रासादमध्ये प्राप्तो निजनिजवर्णपरिमाणोपेता चतुर्विंशति जिनेन्द्राणां भरतकारिताः प्रतिमा ववन्दे तासां :
चैवं स्तुतिं चकार जगचिन्तामणि जगहनाह जगगुरु जगरकवण इत्यादि स्तुति कृत्वा पूर्वदिग् भागे पृथिवी शिलापट्टकेऽशीकवरपादपस्याध एकरात्रौ पर्यु षित: इतच शक्रलोकपालो वैश्वमस्तत्र चैत्यानि वन्दितुमायातः प्रत्येकं चैत्यानि वन्दित्वा अशोकतरोरधः समायातो गौतम स्वामिनीग्रे वन्दित्वा निषसः * तस्थाने गौतम एवं धर्म कथयति धर्मार्थकामास्त्रयः पुरुषार्थाः तत्रार्थकामसाधकत्वेन धर्म एव प्रधान: सच देवगुरु भक्तिरागण भवति देवः पुनः सर्वज्ञः * सर्वदर्शी अष्टादश दोषरहितो भवति गुरवः सुसाधवो भवंति साधवः समशमित्राः समलोष्टकाञ्चनाः पञ्चसमिताः त्रिगुप्ताः अममा अमसरा जितेन्द्रिया।
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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उण्टौका
जितकषाया निर्मलब्रह्मचर्यधराः स्वाध्यायध्यानयता दुश्चरेण तपश्चरणा अन्तप्रान्ताहाराः शुष्कमांस रुधिराः कृशशरोरा भवन्ति इमां गौतमक्रियमाण
देशनां श्रुत्वा वैश्रमणमनस्येवं विसम्बादो जातः अहो एतेषां विशेषपुष्टिद्युतिधरं शरीरं यतिवर्णने चेदृशमिति वैश्रमणमनोवितकं ज्ञात्वा गौतमस्तदा * पुण्डरोकाध्ययनं प्ररूपितवान् तथाच पुष्कलावती विजये पुण्डरीकियां नगर्या महापद्म राजाभवत् तस्य पद्मावती राज्ञौ बभूव तस्याः कुक्षिसंभूती
पुण्डरीक कण्डरीक नामानौ पुत्रौ जातौ पितयुपरते पुण्डरीको राजा जातः कण्डरीको युवराजा जातः अन्यदा तत्र स्थविराः साधवः समायाताः स्थिता नलनौवनउद्याने कण्डरौक सहितः पुण्डरीकस्तत्र गती वन्दित्वा निषण स्तेषां देशना शुथाव पुण्डरौकः थावकधर्म प्रपन्नवान् कण्डरीकः प्रबुद्ध . स्तान् प्रत्येवं जगाद अहं भवत्रिकटे प्रबज्यां ग्रहोथे नवरं पुण्डरोकराजानं प्रतिपृच्छामौत्युक्त्वा पुण्डरीक प्रति अहं प्रबजामौत्यु क्तवान् पुण्डरौकोप्याह
मा इदानीं त्वं प्रव्रज्या ग्रहाण तवाद्य राज्याभिषेकं करोमि त्वनिश्चिन्तः सन् राज्यं पालय यथेष्टं मुखं भुंज कण्डरौको नैतदको कुरुते पुनः२ प्रन ज्या अहमेष कुरुते यावदसौ राज्यादिलोमेन गृह स्थापयितु पुण्डरीकेण शक्यते तावत्संयमकष्टं पुण्डरीकोस्य दर्शयति अयं संयमः सत्य: दुर्व्यहदुःखक्षयंकरः परं वालुकास्वादसदृशः गङ्गाप्रमुख महानदी प्रवाहसन्म खगमनवहःसाध्यः भुजाभ्यां समुद्रतरणवत् कष्टानुष्ठेयः अत्र हाविंशति परीषहाः सोढव्याः ततः सुकु मालगरीरेण भवता नायं संयमः परिपालयितु शक्यः तस्मादृग्टहएव तिष्ठ राज्यसुखं च भुजेति पुण्डरीकेणोक्तः कण्डरीक: प्राह कापुरुषाणां परलोकपरा अखाणां इहलोक विषयसुखसृष्णावतां अयं संयमो दुःपालोस्ति अहंच विषयसुखपरामुखः परलोकसमुखः शूरविरोस्मौसि नाहं संयमादिभमौति वदन्तं कण्डरौकं पुण्डरीकराजा संयमग्रहणार्थ मनुज्ञातवान् पुण्डरीककारितमहामहः पूर्वकं कण्डरीकः संयम' गृहीतवान् क्रमेण स्थविरान्तिक एकादशाङ्गानि पपाठ चतुर्थषष्ठाष्टमादि तपांसि प्रत्यहं चकार एकदा तस्य तपखिनस्तपः पारण के तुच्छाहारैर्दाघज्वरादयो रोगाः प्रादुर्भूता स्तथाप्यसौ स्थविरैः समं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं ० उ०१४मा भाग
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४० टौका
अ. १० ३०८
विहारं चकार एकदा ते स्थविराः कण्डरीकेण समं विहरन्तः पुण्डरीकियां नगर्य्या समायाता नलिनौवने समवसृताः पुण्डरोकराजा तेषां वन्दनया तत्रायातः स्थविराणां देशनां श्रुत्वा कण्डरीक ऋषिं वन्दते तदपुः सरोगं पश्यति पुनः स्थविरान्तिके समागत्य एवमवादीत् यदि स्थविराणामाज्ञा स्यात् तदाहं कण्डरीकमुनेर्वपुषि प्रासुकौषधादिभिचिकित्सा कारयामि यूयं मम यानशालायां तावत्कालं तिष्ठत ततस्ते स्थविरा: कण्डरीकेण समं यानशालायां गत्वा स्थिताः ततः स पुण्डरीक राजा कण्डरीकस्य प्रासकौषधैचिकित्सां कारयति त्वरितमेव तस्य रोगोपशान्तिर्जाताः स्थविरास्ततो विहारं चक्रुः रोगात'काद्दिप्रमुक्तोपि कण्डरीक मुनिर्मनोज्ञाहारादि मूर्च्छितस्ततो विहारं कर्तुं नेच्छति कण्डरीकस्य तादृशं स्वरुपमाकर्ण्य पुण्डरोकराजा तदन्तिके समागत्य एवमाह धन्यत्वं कृतपुण्यस्त्वं सुलब्धमनुष्यभवस्त्वं येन राज्य मन्तःपुरंच परिहृत्य संयममाहतवान् एवं दिर्वारं त्रिवारंवा पुण्डरीकेणोक्त प्राप्तलज्जः पुण्डरोकराजानमापृच्छ्य कण्डरीकः स्थविरैः समं ततो विजहार कियत्कालं उग्रविहारं कृत्वा पश्चात्संयमाद्दिखिन्त्रः शनैः २ स्थविरान्तिकाविर्गत्य पुण्ड रोकिन्यां नगर्या अशोकवनिकायां अशोकवरस्य पादपस्याधः समा गत्य शिलापट्टमारुढ उपहतमनः संकल्पः विकल्प किञ्चिध्यायन्रव तिष्ठति ततः पुण्डरोकधात्री प्रसङ्गात्तत्रायाता तां दृष्ट्वा पुण्डरोकाय न्यवेदयत् पुण्डरोकोपि तत्रागत्य तं त्रिः प्रदक्षिणी अत्य धन्यस्त्वमित्यादि उक्तवान् कण्डरीकस्य तद्वचनं न रोचति सर्वथा संयमादुभ्रष्टं तं ज्ञात्वा पुण्डरीकः पुनरेवमुवाच अहो भ्रातस्ते यदि विषयार्थस्तदं राज्य ं गृहाणेत्यत्वा तं राज्येऽभिषिक्तवान् स्वयं तु पञ्चमौष्टिकं लोचं संयममुपात्तवान् कण्डरोक सक्क पात्रोपकरणादिकं च टहोतवान् स्थरिवाणामन्तिके प्रवृज्जां गृहीत्वा हारं ग्रहीष्ये नान्यथेत्यभिग्रहं कृत्वा स्थविराभिमुखमेकाक्येव चलितः कण्डरीकस्तु राजग्टहान्त र्गत्वा तस्मिन्नेव दिने सरसमाहारं भुक्तवान् रात्रौ च तस्य तदाहारसारात् कथशरोरस्य उदरे महाव्यथा उत्पन्ना न कोपि तस्यांतिक मन्त्र सामन्तादिकश्चि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०स० ४१ मा भाग
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उौका
श्र०१०
३०८
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कित्सार्थ ं समायाति प्रवृज्यापरित्यागादयोग्य इत्ययं सर्वैरपि लोकैरुपेक्षितः आर्त्त' रौद्रध्यानोपपद्मकालं कृत्वा सप्तमनरकपृथिव्यां नारकित्वेनोत्पन्नः पुण्ड कस्तु स्थविरांति गत्वा पुनर्दीचां गृहीतवान् प्रथममष्टमं तपः कृतवान् पारणके च शीतलरूचाहारेण वपुषि महावेदना समुत्पन्ना स्ततस्तेन अनशनं fati चारि मरणानि कृतानि आलोचितप्रतिक्रान्तः पुण्डरीकः कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धविमाने देवत्वेनोत्पन्नः इमं आख्यातं वैश्रमणाग्रे उक्का एवं पुनरुवाच अहो देवानुप्रियदुर्बलथरोरोपि कण्डरीकः सप्तमीं गतवान् सबलथरौरोपि पुण्डीकः सर्वार्थसिद्ध विमाने गतास्तस्मा हर्बल शरीरं संयम साधनं सबलशरोरं तदुद्व्याघातकं एवं नियमोनास्ति किन्तु ध्यानमेव तत्साधनंयस्य शुभध्यानं स संयमाराधकः यस्यतु अपध्यानं सस' यमविराधकः एवं गौतमखामि व्याख्यानं श्रुत्वा वैश्रमणो वन्दित्वा स्वस्थानं गतः गौतमः प्रभाते चैत्यानि नमस्कृत्य अष्टापदाप्रत्यवतरतिस्म तापसास्तदा एवमाहुः यूयमस्मदुगुरवो वयं भवच्छिष्या भवामः गौतमखामौ भणति मम धर्माचार्य स्त्रिलोकगुरुर्वई माननामास्ति तेच भांति युस्माकमप्याचार्यों वर्त्त ते गौतमः प्राह ईदृशो मम धर्माचार्यो वर्त्तते यथा सर्वज्ञः सर्वदर्थों रूपसम्पदा तिरस्कृत त्रिलोकरूपः किंकरौ कृतसकलसुरासुरविरचितसमवशरणोपविष्टः उपरिष्टतत्रत्रयः सुरेन्द्र बौज्यमानचामरयुगलः चतुस्त्रिंशदतिशयनिधानः श्रमण भगवान् श्रीमहावीरनामा वर्त्तते एवं वीतरागस्वरुपमाकर्ण्य तेषां तापसानां सम्यक्तीचयः सम्पन्नः ततः सर्वेपि तापसा गौतमस्वामिना प्रवाजिताः शासने देव्या तेषां सर्वेषां लिङ्गान्युपनीतानि तैः सर्वैः शिष्यैः सह गौतमस्वामी ततचलितः कस्मिंश्चिदुग्रामे गतः भिचावेला जाता गौतमेनोक्त यद्भवता रोचते तद्दक्तव्य ं मया नीयते तैरुक्त' पायसमानेयं सर्वलब्धिसंपत्रो गौतमः क्वचिद्गृहे पवद् ग्रहं पायसेन भृतवान् उपाश्रये आगत्य सर्वेषां तेषां मण्डल्यामुपवेशितानां पात्रेषु चौरं परिवेषितवान् नच चौरं चौणं भवति महा नसिकलब्धिमता गौतमेन तदग्रहे अंगुष्ठक्षेपात् जेमतामेव सेवालतापसानामीदृशः परिणामो जातः अहो अस्माकं शुभकर्मोदयो जातः यतो अनभ्रवृष्टिसदृशः समस्त
180000000000०००००००००*
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४ १ मा भाग
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शास्त्रार्णव पारगामौ दृशो गुरुरस्माभिलब्धः इत्यादि भावनां भावयतां तेषां तदैव केवलज्ञानमुत्पत्र दिवतापसानां तु भोजनानन्तरं चलितानां भगवत्स * मौपे प्राप्तानां भगवतः छत्रादिविभूतिं च पश्यतां यथाविध श्रुताध्यवसाय योगेन केवलज्ञानमुत्पन्न कोडिन्न तापसानां तु स्वामिनं साक्षादृष्ट्वा तादृशाध्यव * सायेनैव केवलज्ञानमुत्पन्न गौतमस्वामी भगवञ्चरणौ प्रणनाम ते तापसमुनयः केवलिन स्त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य केवलिपर्षदि अभिमुखं चलिताः गौतमस्वामी भणति इहागच्छत भगवन्तं प्रणमत भगवान् वौर प्राह गौतम केवलिनी माशातय ततो गौतमस्तेषां मिथ्या दुःकृतं ददौ ततः परं गौतमस्य महत्वकृति र्जाता ततो भगवान् श्रीमहावीरो गौतमस्वामिनं प्रत्याह गौतमपूर्वभवपरिचितत्वे न तव मयि महान् रागीस्तौति तत् क्षयमन्तरेण तव केवलज्ञानं नो त्पद्यतेक्षौणचअस्मिन्नेव भवे सवावश्यं केवलज्ञानमुत्पत्स्यते प्रशस्तोपिरागः केवलप्रतिबन्धकोभवत्येव त्वौं अहंच हावपि निर्वाणतुल्योभविष्याम इति माति कार्षीरिति तदानी खामौ महावीरो द्रुमपत्तयमध्ययनं प्ररूपितवान् इदं चाध्ययनं सूत्रतो अर्थतश्च भगवता श्रीमहावीरेणैव प्ररूपितमिति श्रीमदुत्तराध्य यनबहहत्तौ ततो ये वन्दति उत्तराध्ययनसूत्र वीरवाणी स्पर्शोपि नास्ति ते कुमतय एव बोधव्याः सूत्र ॥ दुमपत्तए पंडुरए जहा निवडइ राइ गणाण अवए एवं मण आणजीवियं समयं गोयममापमायए १ व्याख्या भगवान् श्रीमहावीरदेवा गोतमस्वामिनमुद्दिश्य अन्यानपि भव्यजीवान् उपदिशति है
दुमपत्तए पंडुयए जहानिवडदू राडू गणाण अब्बए । एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयममापमायए ।१॥ कुसग्गे जह द्रुमं पत्रकं पाण्डुरं पत्र यथा जिमवक्षने विषे पाको पान निपतन्ति अहोरात्रि समूहानामतिक्रमे जिम वृक्षनापान पाको पड़े धरतीइ घणादि न रात्रि जाइ तिवारे पाको होइने धरती पडे एवं मनुष्याणां जीवितव्य इम मनुष्यनू जीवितव्य असावतु के समयमपि गौतममा प्रमादि ते भणी है गौतम समयमात्र प्रमाद मकरज्यो १ कुशाग्रे यथाश्री सत्रह वर्षविंदुकः डाभनि अग्रे जिमपाणी विंदुओ स्तोकं तिष्ठति ईषनिपतति थोडीकाल रहे
य धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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* गौतम एवं अनेन दृष्टान्तेन मनुजानां मनुष्याणां जीवितं जानीहि त्वं समय समयमात्रमपि मा प्रमादौः प्रमादमा कुर्याः अत्र समयमात्रग्रहणं अत्यन्त * प्रमादनिवारणार्थ अनेन केन दृष्टान्तेन तत् दृष्टान्तमाह यथा रात्रिगणानां अत्यये गमने रात्रीणां गणा रात्रिगखाः कालपरिणामाः रात्रिदिवससमूहा
स्तेषां अत्यये अतिक्रमे पाडरकं द्रुमपत्रकं पक्व वृन्तात् शिथिलप्रायं पर्ण निपतति तथैव दिनानां अत्यये आयुर्लक्षण इन्ते शिथिले जाते सति जीवितं
शरीरं पतति जीवो जाती यस्मिन् तत् जीवितं शरीरमित्यर्थः जीवितस्य कालस्य विनाशाभावात् जीवितशब्देन शरीरमुच्यते १ यदाह नियुक्तिकारः * परियत्तिय लावत्र चलंतसिंधिमु अंतबिंटग्गं पत्तं वसणं पत्तं कालेपत्ते भणइ गाहं १ जहतुज्मे तहअम्हे तुज्नेवि अहोहिआ जहा अम्हे अप्पाहइ पडतं
पंडुअपत्तं किसलयाणं २ नविअस्थि नविअहोही उल्लावो किसलयपंडुपत्ताणं उवमा खलुए सकया भविय जणविबोहद्वाए ३ यथा हि किशलयानि पांडुपत्रेण अनुशिष्यते तथा अन्धोपि यौवनगर्वितो अनुशासनौयः अथायुषो अनित्यत्वमाह कुसग्गे जहीसबिंदुए श्रीवं चिट्ठ लंबमाणए एवं मणुयाण
ओस बिंदुए थोवं चिट्ठदू लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयममापमायए ।२। दूदू इत्तरियमि पाउए
जीविए बहु पञ्चवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं समयं गोयममापमायए।३। दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिरकालेण वायरो आवे तिवार खोसौ पडे एवं मनुष्याणां जीवितव्य इम मनुष्य नो आयुखो अस्थिरछे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ हे मौतम समय मात्र
पौण प्रमाद मतकरज २ इत्युक्ता प्रकारण त्वरित स्वल्पकाल भावि आयुषि थोडा आयुध का जीविते वह प्रत्यवाय उपघात सहिते आउखा मांहि घणा * विघ्न कष्टछे विधु निहि जीवान् पृथक् कुरु रजः कर्म पुरावत: पूर्वकृतं कर्म जीव थौ दूरि करि समय मपि है गौतम मा प्रमादौ ३ दुर्लभो निश्चयेन
राय धनपतसिंह वाहादुर का अ.म.उ.४१ मा भाग
भाषा
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४ जोवियं समयं गीयममापमायए २ हे गौतमसमयमात्रमपि मा प्रमादौः तत्र हेतुमाह यथा कुशस्याये अवश्यायबिंदुर्लम्बमानः सन् स्तोकं स्तोककालं * तिष्ठति वातादिना प्रेर्यमाण: सन् पतति तथा मनुष्याणां जीवितं आयुरस्थिरं ज्ञेयं एवं आयुषोऽनित्यत्व ज्ञात्वा धर्म प्रमादी न विधेय इत्यर्थः २ हात्त रियंमि आऊए जोवियए बहुपञ्चवायए बिहुणाहिरयं पुरे कडं समयं० ३ इत्युक्तदृष्टान्तेन इत्वरे स्वल्पकाल परिमाण मनुष्यस्य आयुषि भो गौतमपुराततं रजः प्राचीनक्कतं पातकं दुकर्म विशेषेण धुनोहि जीवात् पृथक्कुरु हे गौतम पुनर्जीवितिके अर्थात् सोपक्रम आयुषि बहवः प्रत्यवाया उपघातहतवो अध्य षसायादयो वर्तते यस्मिन् तत् बहुप्रत्यवायकं तस्मिन् बहुप्रत्यवायके समयं अपि मा प्रमादं कुर्याः अत्रायुः शब्द न निरुपक्रम आयुर्भण्यते जीवितशब्द न सोपक्रम भण्यते एति प्राप्नोति उपक्रमहेतुभि रनपवर्त्य तया यथा स्थित्या एव अनुभवं इति आयुः तस्मिन् आयुषि निरुपक्रम आयुषि स्वल्पपरिमाणऽपि दुस्कृतं दूरीकुरु यद्यपि पूर्वकोटि प्रमाणमायुर्भवति तथापि देवापेक्षया स्वल्पमेव जयं अप्तत्वात् यदुक्त धनेषु जीवितव्येषु रतिकामेषु भारत अप्ताः प्राणिनः सर्वे याताः यास्यन्ति यान्ति च अत्र सोपक्रमनिरुपक्रमायु र्ज्ञानं केवलिन एव भवेत् ३ दुलहे खलु माणसे भवे चिरकालेणविसव्व पाणिणं गाटायविवागकम्मणो समयं० ४ खलु इति निश्चयेन सर्वप्राणिनां सर्वजीवानां चिरकालेनापि मनुष्यो भवो दुर्लभी दुःप्राप्यो वर्तते तत्र हेतुमाह कर्मणां
विसव्वपाणिणं । गाढाय विवाग कम्मणो समयं गोयममापमायए।४। पुढ़विकाय मगउ उक्कोसं जीवोउ संवर्स मानुष्यो भवः हे गौतम ए मनुष्यनीभव निश्चय करो पामवो दोहिलोबइकाले नापि सर्वप्राणौनां चिरकाले सर्वजीवने पाम वादोहि लाई गाढाना शयि 8E तुम शक्यः तयादृढाः यतो विपाकाः उदया कर्मणां गाढा तौब्र कर्मना विपाक जौवनें के चिरकाल ना लागाछे तेह भणी बोडतां दोहिला समयमपि हे गौतम माप्रादौ ४ पृथौकायंधि गतः प्राप्तः पृथ्वौकाय माहिं गयाथका जीव उत्कष्टोजीव उत्क्वष्टःसवसति रहेंतेकहछे कालं संख्यातीतं असंख्या ती
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ०१४मा भाग
मनुष्यगति विघातकानां विपाकाः विगाढ़ाः विशेषेण गाढ़ाः विगाढ़ाः विनाशयितुमशक्याः तस्मात्समयमानमपि प्रमादं माकुर्याः ४ कथं मनुजस्व दुर्लभ मित्याह पुढ़विकायमद्गो उक्कोसं जौवी उवसंवसे कालं संखाईयो समयं० ५ जौव: संसारी पृथ्वी कायं अधिगत: पृथ्वीकायभावं प्राप्तः सन् उत्कर्षत: उत्कष्टकालं संख्यातीतं असंख्योत्सपियवसर्पिणौ मानं कालं सम्बसेत् तद्रूपतया अवतिष्ठेत् इत्यर्थः तस्मात्समयमानमपि मा प्रमादीः ५ आउक्कायमइ०६ तथा अप्कायं अधिगतो जौवः उत्कृष्टं असंख्योत्सपिण्य वसर्पिणीमानं कालंसम्वसेत् तस्मात्समय मात्रमपि०६ तेउकाय०७ एवंतेजस्कायंअग्निकार्य अधि
कालं संखातीयं समयं गोय ममापमायए ॥५॥ आउकाय मगो उक्कोसं जीवो उवसंवसे | कालं संखातीयं समयं गो यममापमायए ॥६॥ उक्कायमगओ उक्कोसंजीवोउ वसंवसे । कालं संखातीयं समयं गोयममापमायए ॥७॥ वाउ
कायमगो उक्कोसंजीवोउ वसंवसे । कालं संखाईयं समयंगोयममापमायए ॥८॥ वणमडूकाय मगओ उक्कोसंजी सर्पिण्यव सर्पिणी मानं असख्याती कालरहें असंख्यातीउत्सर्पिी अवसर्पिणीकालरहें समयमपि हे गौतम माप्रमादी५अपकायंअधिगतः प्राप्त पाणी मांहिंगयोधको जीवउत्कष्टोजोवः सवसति उत्कृष्टोरहेंतोएतलार हे कालसख्यातीतं असख्यातोत्सपि णौअवसर्पिणीमानं असंख्यातीउत्सर्पिणी प्रक्य पिणौरहे समयमपि हे गौतम प्रमादौ ६ तेजःकायं अधिगत: अग्निकायमाहि गयो थको जीव उत्कृष्टःजीवः सम्बसतिः जीवसम्बसे रहे उत्कष्टो काल संख्यातोतः असंख्याती उत्शीणो अवसीणो रहे समयमपि हे गौतम मा प्रमादी ७ वायुकायमधिगतः वायुकायमांहि गयो थको जीव उत्कृष्टः जीवः सम्बसति उत्तष्टो जौव रहे कालं संख्यातीतं असंख्यात काल रहे समयमपि गौतम माप्रमादौ गौतम धर्मकर्म करतां प्रमाद न करवी ८ जीवी
भाषा
राय धनपतसिंह बाहादुर का था.
४०
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उ. टोकाटून
४ गतो जीव उत्कृष्ट संख्यातीतं कालं पसंख्योत्सपिण्यवसर्पिणी प्रमाणं कालं सम्बसेत् तस्मात्म०७ वाउकाय ८ एवं जीवो वायुकायं अधिगतोपि उत्कष्ट' ४ असंख्योत् सपिण्य सप्पिणी प्रमाणं काल सम्बसेत् तस्मात् समयमात्रमपि प्रमादं माकुर्याः - वणस्मइ कायमइ गो उक्कोसं जीवो उवसम्बसे काल
मणन्तं दुरन्तं समयनीय ममापमायए । जीव: संसारी वनस्पतिकार्य अधिगतः उत्कर्षत: उत्कृष्ट कालं अनन्त उत्सपिण्यवसर्पिणीमानं अमन्त
कायिकापेक्ष वसेत् कथम्भूतं अनन्तकालन्दुरन्त' दुष्टोंतो यस्य स दुरन्तस्तन्ते हि वनस्पतिकाय मध्यगता जौवास्तत् स्थानात् उदृत्ता अपि प्रायोवि * शिष्ट नरादिभवं न लभन्ते तत्मात् दुरन्तमितिविशेषणं ८ बेन्दिय काय मगो उक्कोसं जौवी उवसम्बसे काल सशिज सत्रियं समय १० हौन्द्रिय
कार्य जीव: अधिगतः सन् उत्कृष्ट कालं संख्यात संज्ञक संख्याता संख्यात वर्ष सहयात्मिका संज्ञायस्य स संख्यात संज्ञकस्त' संख्यातसंरक संख्यात .. वोउ वसंवसे। कालमणतं दुरंतसमयं गोयममापमायए ॥६॥ बेईदियकाय मगो उक्कोसंजीवोउ संवसे । कालंसंखे
जसम्मियं समयं गोयममापमायए ॥१०॥ तेई दियकाय मडूगी उक्कोसंजीवोउवसंवसे । कालसंखज्जसमिय समयंगो वनस्पति कायमधि गतः प्राप्तः वनस्पती कायमाहि गयो धकोजीव उत्कृष्ट जीवः सम्बसति उत्कृष्ट रहे जीव नवरं कालमनं तमित्यनंतकालपेक्षया अनं तोमरिणीअव सर्पियो प्रमाणं अनन्ती उत्मर्पिणी अवसीणि काल रहे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौट विन्द्रियकायमधिगतः प्राप्त: वैन्द्रियकायमाहि गया थको जीव उत्कृष्ट जीवः सम्बसति उत्कष्टो जीव वसे रहे कालं संख्यात वर्षसहस्रात्मकं संख्याता काल रहे संख्याता वरस रहे समयमपि हे गौत म माप्रमादौ १. बौन्द्रियकार्य अधिगतः प्राप्तो जीवः तेन्द्रीयमांहि गया धका जीवः उत्कृष्ट जौवः सम्बसति उत्कृष्टो कालजीव रहे कालसंख्यातवर्ष
राय धर्मपतसिंह बाशदुर का प्रा०सं०३, ४१ मा भाग
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उ टीका
३१५
वर्ष सहस्रामकं कालं होन्द्रियकायन्तिष्ठेदित्यर्थः तस्मात्म० ११ तेंदिय काय मदगी उक्को सचौवो उवसम्बसे० १२ एवजीवः बौन्द्रियकार्य अधिगतः संख्यात वर्षसहवामकं कालं उत्कृष्टम्बसेत् तेन त्वं समयमानमपि प्रमादं माकुर्याः १२ चउरिन्दिय कायमइगो १३ एवं जीवथतुरिन्द्रियकाये* जीवोऽधिवसन् संख्यातं वर्षसहस्रात्मकं कालं अधिवसेत् तस्मात्त्व प्रमादं समयमानमपि माकुर्याः १३ पश्चिन्दिय काय मद गओ उको सञ्जीवो उव सम्बसे सत्तड भवम्गहणे समयङ्गोय ममापमायए १४ पञ्चेन्द्रियकायं अधिगत: पञ्चेन्द्रियत्व प्राप्तः सन् उत्क्लष्ट' सप्ताष्ट भवग्रहणे सम्बसेत् सप्त अष्टौ वा* परिमाणं येषान्त सप्ताष्टाः सप्ताष्टाश्च तेभवाश्चेसप्ताष्ट भवास्तेषां ग्रहणं सप्ताष्ट भवग्रहणं तस्मिन् यदा हि पञ्चेन्द्रियो मृत्वा भवेत् तदा उत्कृष्ट सप्ताष्टवारं स्थादित्यर्थः तस्मात् समयमानमपि मा प्रमादौः कश्चित्पुण्यवान् संख्याता युको जीवः युगलादिकः सप्तभवान् करोति कश्चित् असंख्यातायुको जीवोऽष्ट भवान् वा करोति एवं ज्ञात्वा प्रमादो न विधेयः १४ देवे नेरह मइ गो उक्को सञ्जीवो उवसम्बसे इक्के क भवग्गहण सम० १५ देवे देव भवे नरके
यममापमायए ॥११॥ चउरिदिय कायमडूगी उक्कोसंजीवीउ वसंवसे । कालंसंखज्जसमियं समयंगोयममापमा
यए ॥१२॥ पंचिंदिय कायमगओ उक्कोसंजीवोउ वसंवस । सत्तभवग्गहणे समयंगोयममापमायए ॥१३॥ देवोनेर सहस्रामक संख्याता वरस रहे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ ११ चउरिन्द्रियकायमधिगतः प्राप्त: चउरिन्द्रौयकायमाहिं गयो थको जीवः उत्कृष्ट सम्बसति उत्कृष्टो जीव रहे कालसंख्यात वर्षसहस्रात्मकं संख्यात वर्ष रहे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ १२ पञ्चेन्द्रियकायमधिगत: प्राप्तः पञ्चेन्द्रि य कायमांहि गयो यकी उत्कष्टं जीवः सम्बसति उत्कष्टो जीव रहे सप्ताष्टभवं उत्कृष्टतः सात भव अथवा आठभव समयमपि मा प्रमादी हे भातमधमेने
राय धनपतसिंह बहादुर का आ.सं. 3. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टौका
अ०१०
३१६
सूत्र
भाषा
नरक भवे अधिगतः संसारी जीवः उत्कृष्ट एकै कस्मिन् भवग्रहणे सम्वसेत् तस्मात् समयमात्रमपि प्रमादं माकुर्याः देवो मृत्वादेवा नस्यात् नारको सृत्वा नारको नस्यात् एकं श्रन्यद्भवान्तरं वा पवात्स्यादित्यर्थः तस्मादेकैक भवग्रहणमित्युक्त १५ एवं भवसंसार संसरइसु हासु हेहिं कस्मेहिं जीवोपमाय बहुलो समयं गो० १६ एवं अमुना प्रकारेण जीवः भव संसारे भवभ्रमणे शुभाशुभः कर्मभिः प्रेर्यमाण: संसरति पर्यटति कोहो जीवः प्रमादबहुलः प्रमादो बहुलो यस्य स प्रमादबहुलः प्रमादवसवन्तत्यर्थः तस्मात् प्रमादस्य दुर्निवारत्वं ज्ञात्वा समयमात्रमपि प्रमादं माकुर्या मनुष्य एयमदूगओ उक्कोसंजौबोउवसंवसे । एक्क्क भवग्गहणे समयंगोयममापमायए ॥१४॥ एवं भवसंसारसंसरद्र सुहासुर्हहिं कम्मेहिं । जौवोपमाय बहुलो समयंगोयममापमायए ॥१५॥ लद्दूणवि माणुसत्तणं आयरियत्तं पुणराविदुलहं । बहवे दसुयामिलक्खुया समयंगोयममापमाय ॥ १६ ॥ लडूगवि आयरियत्तणं अहीण पंचिदियाहु दुल्लहा । विगलिंदिय at १३ देवेनैरय चापौ गतः देवता नारकी मांहि गयो थको उत्कृष्ट जीवः सम्बसति उत्कृष्ट जौव वसे रहे एकैक भवग्रहणे एकएकाइ भव करे समयमपि गौतम माप्रमादौ १४ एवं भवस सारे० इथे प्रकारे भवरूपसंसारमांहि नवा नवा भव करतो जौव परिभ्रमति शुभाशुभ कर्मभिः भमतु फौर के आपण सुभकर्मे करीने जोवः प्रमाद बहुलः जीवप्रमादे करोने बहुलके समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ १५ लब्धमपि मानुषत्वं यद्यपि मनुष्यपण ला जौवे धार्य' पुनरपि दुर्लभं तोपणि आर्यखेत्र पामवु' दोहोलु वहवचौराः स्वेच्छाः यवनदेशोद्भवा वहवे घणा चौर म्लेच्छषणा के आर्यकुल पांमवो दोहिलो के समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ १६ लब्धापि श्रार्यत्व' आर्यदेस लाघो अहौन पञ्चेन्द्रियता दुर्लभेव संपूर्ण पञ्चेन्द्रियपणो दुर्लभदोहिलो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र० स० उ०१४ मा भाब
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४० टाका श्र०१०
३१७
सूत्र
भाषा
त्व प्राप्तौ अपि उत्तरोत्तर गुणाप्ति दुर्लभा इत्यर्थः १६ सहण विमाण सत्तणं आयरित्त पुणरावि दुलहं बहवेदसुयामिलक्खुया समयं० १७ मनुष्यत्वं अपि लब्धा श्रार्यत्वं श्रार्यदेयोत्पत्ति भावं पुनरपि दुर्लभं यद्यपि मनुष्यत्व' जीवः प्राप्नोति तदापि आर्यदेशे मनुष्यत्वं दुर्लभमित्यर्थः यत्रदेशेषु धर्माधर्म जीवाजीव विचारः स आर्योदेशस्तवोत्पत्ति दुर्लभा पुनरपि बहवो जीवादस्यवचौरा देशानां प्रान्ते पर्वतादिषु निवासकारिण स्तस्करा भवन्ति येषां वाक् सम्यक् केनापि न ज्ञायते ते म्लेच्छा उच्चन्त पुलिन्दाना हलानेष्टा शबरावरटा भटा माला भिल्लाः किराताय सर्वेपि म्लेच्छजा तयः तत्र च धर्माधर्मज्ञानं दुर्लभं तस्मात् समयमात्रमपि प्रमादं माकुर्याः १७ लक्ष्णवि आयरियत्तणं ग्रहण पचिन्दियसाह दुलहा विगिलिन्दिय याहुदौसई समयं॰ १८ आर्यत्व' आर्यदेशेोत्पत्ति भावं अपि लब्धाहु इति पुनरर्थे श्रहीन पञ्चेन्द्रियता पुनदुर्लभा इति बाहुल्येन बहूनां विकलेन्द्रि ared विकलानि रोगाद्यपहतानि इन्द्रियाणि येषान्त विकलेन्द्रिया स्तेषां भावो विकलेन्द्रियता सादृश्यते बहवोहि दुकर्म वशात् रोगोद्र केण याहुदौसई समयंगोयममापमाय ॥ १७ ॥ अहोणपंचि' दियत्तंपिसेल हे उत्तमधम्मसुइदुलहा । कुतित्थि निसेवए जणे समयंगोयममापमायए ॥ १८ ॥ लडूणवि उत्तमंसुयं सहहणा पुणरावि दुल्लहा । मिछत्तनिसेवएजणे समयंगोयम वाहुल्येन विकलेन्द्रिय तादृश्य ते घणालोकइन्द्रौड करो होणदीसे के समयमपि हे गौतम मा प्रमादी १७ अहौन पञ्चेन्द्रीयत्वमभ्यति दुर्लभं संयत्तपि सेलहे कथंचित् लभेत तथापि उत्तम धर्म्यस्य श्र ुतिः दुर्लभा पांचेंद्री परगडा पाम्या पणि शुद्धधर्मनो सुणवो दुर्लभ कुतौर्थनौसेवते लोकाः कुतौर्थना सेव णहार घणा लोक दिशे छे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ १८ लब्धापि उत्तमां श्रुतिं उत्तमधर्मसांभल्यो श्रद्धा पुनरपि दुर्लभा वर्त्त ते धर्मसभित्यो पौण
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राय धनपतसिंह वाहादुर का था सं० उ०१४ मा भाग
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Boटोक
विगतनेत्र श्रवण रसन स्पर्थन करचरण वौर्याः दृश्यन्ते ते च धर्मानुष्ठानकरणे असमर्था भवन्ति तस्मात्त्वं समयमात्रमपि हे गौतम त्व प्रमादं माकु
र्याः १८ अहौण पञ्चिन्दियत्तंपिसेल हे उत्तम धम्मसुईहु दुल्लहा कुतिथिनि सेवए जणे सम० १८ स इति सजीव पहौण पञ्चेन्द्रियत्व अपिचेत् लभेत तदापि हुइति निश्चयेन उत्तम धर्म श्रुतिर्दुलभा जिन धर्मस्य श्रवणं दुःप्राप्य इत्यर्थः तत्र हेतुमाह जनो लोकः कुतौधि निषेवकः स्यात् कुती र्थिनां मिथ्यात्विनां निषेवकः कुतौर्धिनीहि सत्कार यशो लाभार्थिनो भवन्तिते च प्राणिनां विषयादिसुख सेवनोपदेशेन वल्लभत्व उत्पाद्यजना नरं
जयन्ति अतस्तेषां मेवासुकरा तेषां मुखात् तु धर्म वार्ता कुत इत्यर्थ १८ लणवि उत्तमं सुर' सहहणा पुणरावि दुल्लहा मित्त निसेवए *.जणे समयं. २१ उत्तमधर्मस्य श्रुतिमपिलब्धा पुनः बहा दुर्लभा तत्त्व रुचिदुःप्राप्या यतोहि जनो लोको मिथ्यात्व निषेवकः स्यात्
मापमायए।१६। धम्म पिहु सद्दहंतया दुल्लहयाकाएणफासया। दूहकामगुणहिं मुच्छिया समयंगोयममापमायए।२०।
परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते। सेसोयबलेयहायई समयंगोयममापमायए ।२। परिजूरइते सरीरयं सहहणा दोहोलो मिथ्यात्व निमेवते लोकः मिथ्यात्वने लोकसेवे के समयमपि है गौतम मा प्रमादी १८ धर्ममपि श्रद्दधतः तदा धर्मनी सहहणापण आवी दुर्लभा कायेन स्पर्शकाः कर्तारः परं कायाइ,करतां दोहिलो इह विश्व लोकाः शब्दादौ मूच्छिताः लोकछेते संसारना भोगाहि मूर्याणा के समयमपि है गौतम मा प्रमादी २० परिजीर्यते तव शरीरकं हे गौतम ताहरो शरीर जीर्ण हुस्से हास्य रोमाः गीताः भविष्यन्ति ते तव माथा ना वाल धवला हुस्खे से बोलवलहीयते श्रोत्रयोः कर्णयो बलं होयते जरातः समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ २१ परिजीर्यते तव शरीरकं दिन दिन
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.स. ४१ मा भाग
भाषा
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३१८
स.टौका मिथ्यात्वं हि कुगुरु कुदेव कुधर्म लक्षण नितरां सेवते इति मिथ्यात्व निषेवकः तस्मात् मिथ्यात्वोदयान्जिन धम्म रुचि दुर्लभा तस्मात्
* प्रमादं समयमानमपि त्व' मा प्रमादौ २० धम्मं पिहुसद्दहं तया दुलहया कायेण फासया इह कामगुणेहिं समुच्छिया समयं० २१ धर्म जिनोक्न धर्म
श्रद्दधतो जिनोक्त आगमं साधु वाइधर्म वा सर्व सत्य इति जानतोपि जीवस्य कायेन शरीरण कायग्रहणेन कायसम्बद्दयो क्मिनसो रपि ग्रहणं तस्मात् कायेन वचसा"मनसा च स्पर्शता दुर्लभिका दुर्लभा एव दुर्लभिका धर्मक्रियानुष्ठानकरणं दुष्करमित्यर्थः इह जगति जीवाः कामगुणेषु विषयेषु मूचिताः लोलुपा भवन्ति विषयिणी हि धर्मक्रियासु अयोग्याः हेगौतम धर्मक्रियानुष्ठानकरणदुष्करत्वात् समयमानमपि प्रमादं मा कुर्याः २१ परिजूरइते सरीरयं केशा पंडुरया हवंति ते से सोयवले इहायई समयं० २२ हे गौतम ते शरीर के परिजीर्यते परिसमन्तात् सर्वप्रकारण वयोहानि जरया जोर्णत्व अनुभवति तव पुन: केशाः पाण्डरकाः खेता भवन्ति अन ते तवेति कथनात् प्रत्यक्षानुभवेन संदेहो न कर्त्तव्यः यथा हस्त कङ्कणस्य वाम दर्शवलोकनं यथा तव शरीर तथा सर्वेषामेव जेयसित्यर्थः से इति तत् थोत्रवलं हीयते हौनं स्यात् तत् शब्दग्रहणात् यत् शब्दग्रहणं कर्तव्य यत् थोत्र योर्बलं तरुणावस्थायां स्यात् तत् वृद्धावस्थायां हीयते इत्यर्थः अत्र पूर्व श्रोत्रग्रहणं धर्मश्रवणकारणत्व ख्यापनार्थ यतो हि धर्मश्ववणादेव धर्मकरणमति:
केसायं पंडुरया हवं तिते संघाणबलय हायई समयंगोयममापयायए ॥२३॥ परिजूरदूते सरीरयं केसापंडुरया हवं तुम्हार' शरीर जराइ जीर्ण हुई छ रोमाः खेता भवन्ति तव केश धवला होइ के पेचक्षुवलं क्षौयते आंखिनु बलहीण पडे के समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ २२ परिजौर्यते तव शरीरकं दिनर ताहरो शरीर जीर्ण थाइ छ केशाः खेताः भवन्ति तव केश धउलाहोइ के मेनाशिका वलं चौयते नासिका नोबलोकोपडे के समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ २३ परिजौर्यते तव शरीर केशाः खे ताः भवन्ति तव से जिज्ञावलं चीयते समयमपि हे गौतम मा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०१०
३२०
सूच
भाषा
100000
200000000
स्वादित्यर्थः तस्मात् श्रोत्रबले सति धर्मश्रवणादरः कर्त्तव्यः तत्र समयमात्रमपि त्व' मा प्रमादौ २२ परिजूरइते सरौरयं केसा पंडुरया हवंति ते से चख़बले • २२ गाथाया पूर्वार्ड' स्यार्थः पूर्ववत् न यः तत्पूर्वसत्कं चक्षुर्बलं होयते तत् हानौ च धर्मकरणं दुर्लभं ज्ञात्वा प्रमादं मा कुर्याः २२ परिर सरोर० से घाणवलेय० २२ तत् पूर्वसत्क' अपि घ्राणबल' नासावलं हीयते तस्मात्राशाबले सति त्वया सुरभिदुरभिगन्ध ग्रहणेन विषये राग धकरण वेलायां प्रमादो न विधेयः २२ परिजूरइ० सेजिम्भवले यहायई समयं • २४ तत् जिह्वाबलं हीयते यादृशं तरुणावस्थायां भवेत् तादृशं हजावस्थायां न स्यात् तस्माज्जिह्वा बले सति स्वाध्यायादिकरणे प्रमादं माकुर्याः २४ परिजूरइते सरौरयं० सेफा सबले यहा यए सम० २५ तत्स्पर्शबलं शरीरबलं होय या यौवने शरीरं बलं भवेत् तादृशं जरायां न स्यात् तस्माधर्मानुष्टानादौ प्रमादं माकुर्याः २५ परिजूरइते सरीरयं० से सव्यबले यहायई सम० २६ तत् तरुणावस्था सत्कंसर्ववलङ्कर चरणदन्तादीनां वलं हीयते तस्मात्समयमात्रमपित्वं माप्रमादौः १६ अरई गण्डम्बिसुइवा श्रयङ्का विवा तिते । सेजिम्भवलेय हायई समयं गोयममापमायए || २४| परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते । सेफासबलेय हायई समयंगोयममापमायए । २५। परिजूरइते सरीरयं केसापंडुरया हवंतिते । सेसव्वबलेय हायई समयंगोयम प्रमादौ २४ परिजीर्यते तव शरीरं दिन२ प्रति शरीरजीर्ण थाइके केशाः श्वे ताः भवन्ति तव केम धवला हुस्से से सर्व्व बलात् चौयते देहनो स्पर्शनो वलयो को पढे के समयमपि हे गौतम मा प्रमादी २५ परिजीर्यते तव शरीरं दिन२ प्रति शरीर जीर्ण थाइ के केशाः वे ताः भवन्ति तब केश धवला हुइ छे से सर्ववलात् हौयते कर चरणाद्यवयवानां शरीरनो वल ओकु थाई के समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ २६ अरतिः वातादिजन्य वित्तोद्देगः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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ON.
अ०१०
. टौका * फुसन्सिने विवड विद सते सरीरयं सम• २७ हे गौतम तेतव विविधाः नानाप्रकारा. आतङ्कारोगाः शरीरं स्पर्थन्ति ते के च आतङ्गाः अरतिः
चतुरशौति विधिवातोद्भूत चित्तोडेगो वात प्रकोप इत्यर्थः गण्ड' रुधिर प्रकोपोद्भूत स्फोट कः विशूचिका अजीर्णोडू त वमनाध्यान विरेचादि सद्यो मृत्यु वत् रुक् इत्यादयो रोगा आतङ्कादेहं पौडयन्ति तैः रोगैः पौडते शरौरे सति धर्माराधनं दुक्करन्ते शरीरं रोगादिभूतं सत् विपतति विशेषेण बलाप चयात् नश्यति पुनः शरीरं ते तवविध्वस्थते जोवमुक्त सत् विशेषेण अध: पतति अत्र सर्वत्र सद्यपिते तव इत्युक्त गौतम च केशपाण्डुरत्वादि इन्द्रियाणां हानिय न सम्भवति तथापि तन्नित्रया अपरशिष्यादि वर्ग प्रतिबोधार्थ उक्त दोषाय न भवति तथा च प्रमादो न विधेय: २७ वुच्छिन्दसिणे ह मप्पणी कुमयं सारइयं वपाणियं से सबसिण ह वज्जिए समयङ्गी० २८ हे गौतम आत्मनः मे हमयि विषयेरागं व्यु च्छिन्धि अपनय ने हबन्धनं त्यजेदित्यर्थः
मा पमायए ।२६। अरईगडंविसूईया आयंका विविहा फुसति ते विवडडू विद्वसद् तेसरीरयं समयं गोयम मा पमा
यए ।२७। वोच्छिंदसिणेह मप्पणो कुमुयं सारड्यंवपाणियं । सेसव्वसिणेह वज्जिए समयं गोयम मा पमायए ।२८। गंडं गंडविसूचिका अजीर्णविशेष मालविका आतङ्काः सद्योघाति रोगाः विविधा स्पृशन्ति तवाङ्ग आन्त करोग नानाप्रकारना रोग आवो व्याप निपतति बलतः विध्वंसति जीवमुक्त चाधः पतति तेव शरीरकं बल धौ रहित कर शरीर विणा जीव थौ रहित कर एहवा रोग भावी आवी स्पर्थे सरौरे समय मपि हे गौतम मा प्रमादी २७ निवारयः स्ने हरागं आत्मान: दूरिकरी नेह आत्मानी चन्द्रवौक ाशिकमलं शारदीभवं जलवत् कमलपांणी माहि जगे पछे कादमपाणी वांडोउचो अलिप्त रहे तिम गौतमसंसार थी रहित हुसेसर्व नेहवर्जितः सन् तिम सर्वने हवर्जिने विचरे समयमपि हे गौतम
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१मा भाग
भाषा
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उ० टोका श्र०१०
१२२
सूत्र
भाषा
989000099
किं किमिव कुमुदं कमलं पानोयमिव यथा कुमुदं पानौयंत्यक्वा पृथक् तिष्ठति तथा त्वमपि स्व हन्त्यक्वा पृथक् भवेत्यर्थः कीदृशं पानीयं शारदं परद ऋतौ भवं शारदं अब पानीयस्य शारदमिति विशेषणेन मनोरमत्वं स्म हस्य दर्शितं का होहि संसारिणो जीवस्य मनोहरी लगति से शब्दोऽथ शब्दार्थ अथ त्वं सर्ववेह वर्जितः सन् समयमात्रमपि प्रमादं माकुर्याः २८ चिचा धणञ्चभारियं पव्बईओहि सि अपगारियं मावन्तं पुणोवि आइए समयं ० २८ हे गौतम बदित्व' अनगारितां साधुत्वं प्रव्रजितोसि प्रकर्षेण प्राप्तोसि किं कृत्वा धनञ्च पुनर्भाय त्यक्का तदा पुनरपि वान्तन्त्यक्त' मावि त्यक्त वस्तुनि ग्रहणादरं माकुर्याः सममात्रमपि मा प्रमादौ २८ अव उज्जियमित्त बंधवं विउलंचैव धणोहसंचयं मातंबि इयं गवेसए सम० ३० हे गौतम मित्र arrai wo उज्य अपोह्यत्यक्ता च पुनई नौ घसञ्चयं धनस्यश्रवः समूहो धनौ घस्तस्य सञ्चयो राशीकरणं तदपि अपोह्यत्यक्का द्वितीयं इति द्वितीय चिञ्चाधणंच भारियं पव्वइओ हिसि अणगारियं । मावंतंपुणोवि आइए समयं गोयम मा पमायए । २६ । अवउज्झिय भित्तबंधवं विडलंचैव धबोहसंचयं । मातंबौइयंगवेसए समयंगोयममापमायए |३०| न हुजिणे अज्जदिाई बह मा प्रमादौ २८ त्यक्ता धनं पुनः भार्या धन अने भार्या छोड़ोने प्रव्रजितः अनगारतां दीक्षालोधी के अणगार हुषो के मा भोगादिकं वां तं पुनरपि न गवेषकांमभोग सर्ववस्या के ते बली अङ्गीकार मत करे समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ २८ अपोद्य त्यक्ता मित्राणि च बान्धवांच कांड्या के मित्र तथा बान्धव भाई विपुलं पुनः एव द्रव्य समूहं विपुलविस्तीर्ण जे धन संच्या हता ते सर्व कांड्या के मातन्मित्रादिकं गवेषयः एतावता मेलोने वोजीवार aat गवेषणा करे मति समयमपि हे गौतम मा प्रमादौ ३० नहु निश्चये जिनोद्य दृश्यते वर्त्तमान काले वीतराग नथो दौसता बहुमतो दृश्यते
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राय भुननुतसिंह बाहादुर का श्र० स०स०१४ मा भाग
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उ० टोका
अ०१०
३२३
वारं पुनरित्यर्थः तत् मित्रबान्धव धनौ घसयादि मागवेषयेत् तस्मात् समयमात्रमपि माप्रमादौः ३० नहुजिणे अज्जदिस्सई बहुमए दिस्सर मग्ग देसिए सम्पने बाउ एपहे समयं० २१ पुनरपि गौतमादीन् दृढीकरोति श्रीमहावीर : हे गौतम सम्प्रति इदानों मयि विद्यमाने प्रत्यक्ष प्रमाणेन माणे सति नैयायिके मुक्तिरूपे पथिमार्गविषये माप्रमादः भवान् कुर्यात् यद्यपि तवेदानीं केवलज्ञानं नास्ति तथापि अहं विद्यमानोस्मि इति सांप्रतं संशया भावेन प्रमादत्त्याज्यः अग्रे तु महिरहेपि एतादृशा भाविनो भव्यजना भविश्यन्ति ये इति विचिन्त्य इत्यनुमान प्रमाणं विधाय नैयायिक मार्गे साधुधर्मे मयि च स्थिरा भविष्यन्ति तत् किं अनुमानं कृत्वा अप्रमादिनः स्थिराश्च भविष्यन्ति तदाहमार्ग इव मुक्ति नगरं प्रतिपन्या देशितः कथितो मार्गदेसितः श्रयजीव दयाधर्मो मुक्तिमार्गइव कथितो दृश्यते अद्य इदानीं जिनो न दृश्यते कथम्भतोयं मार्गदेशितः बहुमतः बहुभिर्बहूनां वामतो बहुमतः अथवा बहवोमाताः न यायस्मिन् स बहुमतः नै गगसंग्रह व्यवहार ऋजु सूत्रशब्द समभिरूढ़ एवम्भूतादि सम्म नया त्मक: ज्ञानदर्शन चारिवाणि मोक्षमार्गः अपरमतेहि एकान्त वादित्वं तस्मादयं जैन मतस्तु बहुमतः एवम्बिधोयं मुक्तिमार्गः अतीन्द्रियार्थ दर्शितं जिनं केवलिनं विना तस्मात् अस्य बहुमतस्य सुक्तिमार्गस्य एवं भव्याः ज्ञास्यन्ति चेदयं मुक्तिमार्गोस्तिजिनो नास्ति तदा अस्य मार्गस्य कवि चापि आसीत् न च स कश्चित् वक्ताऽपि सामान्यः किन्तु अस्य धर्मस्योपदेष्टा कथिदाप्तो जिन एव भवितुमर्हति इति मरिहेोपि अप्रमादिनो भविष्यन्ति मयि सम्प्रति केवलिनि सति अस्मिन् नैयायिके पथि सर्वथा प्रमादस्याज्य एवेति भावः निश्चितः श्रयो मुक्तिलक्षणो लाभो यस्मिन् सनै यायिक ज्ञानदर्शनचारित्र रूप रत्नत्रयात्मक इत्यर्थः अथ पुनरपि अस्या गाथा यात्रयमर्थोप्यस्ति हे गौतम अद्य इदानीं भवान् जिनः केवलो न दृश्यते इति क्रिया बलात् भवान् इति पदं अनु मपि गृह्यते परं बहुभिर्मतोमान्यो ज्ञातो वा बहुमतः अर्थात् प्रसिद्ध: मार्गद्रव जिनत्व भवन
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०० १४ मा भाग
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.टीका
मार्गो देशितो मया तवोपदिष्टः स मार्गस्त्वया विलोक्यते एव तस्मात् सम्प्रति इदानीं मयि जिने सति नैयायिके मार्गे मदुक्त मार्गे समयमावपि माप्रमादीः मयि विद्यमाने सति मयि विषये मोहात् भवान् जिनो न वर्तसे पश्चात्त्व जिनो भावौ तस्मादिदानौं महचने प्रामाख विधेयं इत्यर्थः३१ अवसोहिय कण्टयापहं उत्तिबोसि पहं महालयं गच्छसि ममा विसोहियं सम० ३१ हे गौतम त्व महालयं पन्या न मुत्तीर्णोसि प्राप्तीसि महान् सम्यक ज्ञान दर्शनचारित्र लक्षणः प्रालयः आश्रयो यस्मिन् स महालयस्तं महालयं एतादृशं पन्थानं राजमार्ग प्राप्तासि किं कृत्वा कण्टकपथं अब योध्य कण्टकानां बोद चरकसंख्यादौनां पन्थाः कण्टकपथः आकारः प्राकृतिकः अथवा कण्डैः कुतौर्थिकैः आकौण व्याप्तः कुत्सितः पन्थाः कटकापथस्त परिहत्य सम्यक् मुक्ति मार्ग राजमार्गमिव प्राप्तासि हे गौतम यदि विशेषेण शोधित निरवद्ये मार्गे गच्छसि तदा समयं अपि प्रमादं
मएदिस्पडूमग्गदेसिए । संपडूनेयाउएपह समयंगोयममापमायए॥३१॥ अवसोहिय कंटयापहंउत्तिमोसिपहं महालय
गच्छसि मग्गंविसोहिया समयं गोयममापमायए ।३२। अबले जहभारवाहए मामग्गेविसमेव गाहिया । पच्छापच्छाणु मार्गदेशक: घणा मत मुक्तिमार्गना देवाडणहारदौमेई सम्पति मोक्षमार्गे पथि साम्पतहवणा मोक्षमार्गने विषे प्रमाद मत करे समयमपि है गौतम मा प्रमादौः ३१ अवयोध्यपरिहत्य कण्टकानां द्रव्यतस्थूलकण्टकादीनां भावतः चरकादि कंटानो मार्गलाघ्यो के चरकादौपाषंडी तेहने पणी मार्गलांध्या के उत्तीर्णोसि पर्थ महान्त लांच्यो छे मोटा मार्ग गच्छसि मार्गे व विशौध्य भलौ परे मार्ग सोझौने तु जाइसौ मुक्तने विषे ते कारणे करौने समयमपि है* गौतम मा प्रमादौ ३२ अवलो यया भारवाहकः निबल जिम भारवाहक मार्गविषम अवगाद्य प्रविश्य त्यक्त अङ्गीकृत भार माथे भार लौधो के विषम
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
Page #327
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प.१०
१ टीका
त्वमा कुर्याः ३२ अबले जह भारवाहए माममा विसमे वगाहिया पच्छा पच्छाणतावए समयं. ३३ है गौतम यथा कश्चित् भारवाहको
विषमं मार्ग अवगाह विषमे मार्ग स्वर्णादि भारसुत्पादा समे मार्ग अवलः स्यात् स च भारवाहकः पचात् गृहमा गतः पवादनुतप्यते पश्चा ३२५
तापपीड़ितः स्यात् कोर्थः यथाकश्चिद्भारवाहकः सिरसि कतिचिहिनानि यावत् विषमे मार्गे स्वर्णादि भारमुद्दहति तदनन्तरं कुत्रचित्पाषाणादि सङले मार्गे भारेणाक्रान्तोह मिति ज्ञात्वा तं भारमुत्सृजति सच भारवाहकः पवाद गृहमागत: सन् निई नत्वेन पश्चादनुतप्यते पश्चात्ताप पौडित: स्यात् तथा त्वमपि विषमं मार्ग तारुखादि वयोविशेषं महाव्रतभार मुद्राय समे मार्ग यौवनीत्तारे कुवचित्यरोषहादिना सवलन् महाव्रत
भारं त्यजन् अवलो भवन् पश्चादंत्ये वयसि पागतः संयमधनरहितो भूत्वा मा पश्चादनुतप्ये मा पश्चात्तापपीडितो भूयाः इति विचिन्त्य समयमात्रमपि * मा प्रमादीः ३३ तिसोहुसि अग्णयमहं किं पुणचिट्ठसि तौरमागओ अभि तुरपार गमित्तए सम० ३४ हे गौतम त्वं अर्णवं भवसमुद्र तौर्ण एव असि 8 उन्नचित प्रायोसि किं पुनस्तौरं आगतः सन् तिष्ठसि औदासीन्यं भजसि हे गौतम भवार्णवस्य पारगन्तु अभित्वरख पारगमने उत्ताली भव इत्यर्थः तौर
तावए समयंगोयममापमायए ॥३३॥ तिमोहिसि असमर्वमहंकिंपुण चिट्ठसितौरमागओ। अभितुरपारंगमित्तए समयं
भार सर्व लांध्या के चौरकाले पाषंडौ तेहनी पौणमार्ग लांच्यो के दोहिलो पश्चात् पश्चात्तापं कृतस्या पर ते भारवाहक मारग लांध्या पछी पछतावे भाषा
हाटनी मार्ग लांध्या के चर थोडो सोमार्ग आदे रह्या छ तिवारे भारनाखौदीइ है गौतम मार्ग लांधौने थोडामांहीं भारनाख्यो समयमपि हे गौतममा प्रमादौ ३३ तौर्णीसि भवसागरं महांत' हे गौतम संसारसमुद्रतस्त्रो के किं पुनस्तिष्ठसितौरमागतः हे गौतम काठे आवौवैठा काईके अभि सम खमुक्ति ग'तुत्वरा गोत्र भव पारं अर्थान्मुक्तिपदगन्तु हे गौतम तु शीघ्र मुक्ति' जाइ समयमपि है गौतम मा प्रमादौ ३४ क्षपकवेणि मुत्सृता पारध चपकणि
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.२.४१ मा भाग
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उ० टौका
अ०१०
३२६
सूत्र
भाषा
4934800
मंत्र मुक्तिपदमुच्यते तस्माकमयमात्रमपि मा प्रमादौः ३४ अकले वरसेणिमुस्सिया सिद्धि गोयमलोंयं गच्छसि खेमंच सिवं अणुत्तरं समयं० ३५ हे गौतम त्वं सिद्धि सिद्धि नाम कं लोकं स्थांनं गमिष्यसि प्राप्तासि किं कला अकलेवरश्रेणि उत्सृज्य न विद्यते कलेवरं शरीरं येषां ते अकलेवराः सिद्धा स्तेषां श्रेणिः उत्तरोत्तर प्रशस्तमनः परिणति पद्धतिः क्षपकश्रेणि स्तां अकलेवर श्रेणि उत्सृज्य उत्तरोत्तरस' यमस्थानप्रात्या उन्नतां द्रवकृत्वा कथंभूतं सिद्धिं लोकं मं परचक्राद्युपद्रवरहितं पुनः कोटयं शिवं सकलदुरितोपशमं पुनः कोट्टमं अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टं ३ ५ बुद्ध परिनिब्बुडेचरे गामगए नगरेवस 'जए स ंतिम चबूहर समयं • २६ हे गौतम परिनिष्टतः शांतरससहितः सन् चरस यमं सेवस कीदृशः ग्रामे गतो ग्रामगतः च पुनर्नगरे गतः च शब्दात् वने वा स्थितः पुनः कीदृशः स ंयत् सम्यक् यत्न ं कुर्वाणः पुनः कीदृशः बुद्धो ज्ञाततत्त्वः च पुनः हे गौतम शांतिमार्ग त्व' व'हये भव्यजनानां उपदेशद्दारेण गोयममापमायए ॥३४॥ अकलेवर सेमिस्सिया सिद्धिं गोयमलोयं गच्छसि । खेमंचसिवंचणुत्तरं समयं गोयममापमा यए ॥३५॥ बुद्धेपरिनिव्वुडे चरेगामगएनगरेव संजए । संतिमग्ग' चबूहए समयंगोयममापमायए | ३६ | बुद्धम्मनिसम्म विषे चढौने पक्के मुक्तिजाइ सिद्धि' हे गौतम लोकं गच्छसि हे गौतम सिद्धिलोकने विषे जाईसि परचक्रादि रहितं शिवं सर्वोत्तमं मुक्तिः कोसौ के खेम कल्याणनौ करणहार के शिव उपद्रव रहित के सर्वोत्कष्टके समयमपि गौतम मा प्रमादौ ३ ५ ज्ञाततत्वपरोनी तकषायः संयमचरेत् तत्त्व जाणे के कषाय आपणे वयो कोधा के इम विचरजे मुक्तिमार्ग वृद्धि' नयेत् संयतः गाम नगरने विषे शीतल हुओ थकी विचरे मुक्ति मार्गच वृद्धि' नयेत् उपशम मार्गव धारे उपसम मार्ग वृद्धि करे समयमपि हे गौतम मा प्रमादो २६ वोरस्य श्रुत्वा भाषितं वुद्धतीर्थंकर तेहनो वचनसांभली सुनु कथितं तीर्थंकर भलो को
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१ मा भाग
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१० टीका
8 वृद्धि प्रापये अत्र कार्य समयमात्र मपि मा प्रमादो ३६ बुद्ध झ निसन्म भासियं सुकहियमपत्री वसोहियं रागं दोसच हिंदिया सिद्धि गए गोयमुत्ति । अ.१० बेमि ३७ गौतमः सिद्धि मुक्तिस्थान प्राप्तः किं कत्रा बदस्य योमहावीर देवस्य सुष्टुसो भनं भाषितं सुभासितं सम्यक उपदेश निशम्य श्रोत्रहारण हृद्यव। २२७
* धार्य च पुन: राग द्वेषं च छिवा कोदृशं सुभाषितं सुकथितं सुतरां अतिशयेन शोभनप्रकारण उपमायोगन कथितं वाक्यप्रबन्धन रचितमित्यर्थः सुधर्मा
खामो जंबूस्वामिनः पुर आह यथा बीमहाबोरदेवेन गौतमादि शियाने कवितं तबाहं तवाग्रे ब्रवौमौत्यर्थः ३७ इति द्रुमपत्राख्य अध्ययनं दशमं स यम् ॥१०॥ इति योमदुत्तराध्यवनसूत्रार्यदोषिकायां उपाञ्चाय श्रीलक्ष्मौकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां दशमाध्ययनस्यार्थः सम्पूर्णः १० अथ दशमेऽध्ययने प्रमादपरिहाराय उपदेशो दत्तः सच विवेकिनः एव स्यात् विवेकौ च बहुश्रुतो भवेत् अतः एकादशं अध्ययनं बहुश्रुताख्य बहुश्रुतवर्णन
भासियं मुकहियमट्टपउबसोहियं । रागदोसंचछिदियासिद्धिंगदूं'गएगोयमतिमि ॥३०॥ दुमपत्तज्झयणंसम्मत्तं ॥१०॥
संजोगाविष्पमुक्कस्य अणगाराभिक्खुणो। आयारंपाउकरिमामि आणुपुर्विमुखहमे ।। जेयाविहोडू निविज्जथई।
अब पदै रुपशोभितं अर्व अने पद तेणे करो शोभित के रागं हे पंच छिद्यात् रागद्देष छेदौने सिद्ध गते गतः गौतमः इति समाप्ती ब्रवीमौः भाषा
गोतन मुक्ति पुहता ३७ इति श्रीदनपत्रकाध्ययनं संपूर्णम् ॥१०॥ संजोग रहितस्य वाह्य संजोग घर धन माल वेटा बेटी प्रमुख अन्तरङ्ग संयोग चार कायम जोगवाद्य अन्तरसंयोग सर्व छांद्या के अनगारस्य जिलो: पररहित भिक्षसंयतीने आचारं प्रकटौ करिष्यामि ते साधुनी प्राचार प्रगट करोम अनुक्रमेण शृणुत मे मन कथयतः अनुक्रमे मुझने कहतां सांभलो१ यथापि भवन्ति निविद्यः विद्या रहित: जे साधु विद्यार करी हीन हुवे
सूत्र
राय धनपतसिंह वाहादुर का मा.सं० उ०१४ मा भाग
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Ho
३२८
मुच्यते सूत्रं सजोगाविप्प मुकम अणगारस्म भिक्षुणो पायारं पाउकरिस्मामि आणविं सुणहमे १ हेजंबू संयोगात् विप्रमुक्तस्य अनगारस्य भिक्षी: उ टीका अ०११ प्राचार सानयोग्यक्रिया बहुश्वतपूजा रूपं बहुश्रुतस्वरूपनानं पानुपूर्त्या अनुक्रमेण प्रादुःकरिष्यामि प्रकटी करिष्यामि में मम कथयिष्यतः त्वं शृण १
अथवा साधी प्राचार आकारं बहुश्रुतस्य आकार बहुश्रुतः कीदृग् स्यात् तत् प्रकटौ करिष्यामि १ प्रथमं तत् परिज्ञानार्थ अबहुश्रुतस्य लक्षणमाह । जया विहोइ निबिज्जे थई लुड़े अणिमहे अभिक्त उल्लवई अविणौए अबहुस्सुए २ यच्च यो मनुष्यो निविद्यो भवति अपिशब्दात् सविद्यो वा भवति
स चेत् स्तचा अहङ्कारी भवति पुनर्लुब्धो भवति रसादिषु लोलुपो भवति पुनर्यो अनिग्रह इन्द्रिय दमरहितो भवति पुनर्यः अभौक्षा वारंर उल्लपति उमा * बल्येन यथा तथा अविचारितं लपति वाचालो भवति स पुरुष अविनीतो विनयधर्मरहितोऽबहुश्रुत उच्यते सविद्योपि अबहुश्रुत: स्यात् चेत्सविद्यत्वस्य फलं न प्राप्रयात् तहिपरोतो बहु युतः स्यात् अबहुश्रुतस्य कारणमाह २ अह पंचहिं ठाणेहिं जेसि सिक्खा न लम्भई थंभाकोहापमाएण रीगणालस्मए णए ३ अथ श्रोतुः पुरुषस्य उत्कर्णता करणे यैः पञ्चभिः स्थानः पञ्चभिः प्रकारः शिष्याग्रहणा आसेवना रूपान लभ्यते न प्राप्यते तानि पञ्चस्थानानि शृणु इत्यध्याहारः स्तम्भः क्रोधः प्रमादः रोगः आलस्यंच स्तम्भात् अहङ्कारान् शिक्षायोग्यो न भवति तथा क्रोधात् अपिशिक्षायोग्यो न भवति तथा पुन प्रमादेन मदविषयकषायनिद्राविक था रूपेण उपदेशयोग्यो न स्यात् तथा रोगेण वातपित्तने भकुष्ठशूलादिव्याधिना शिक्षाग्रहणाहों न भवति तथा
लुद्देअणिग्गहे । अभिक्खणं उबल्लबई अविणीएमबहुस्मए ॥२॥ अहपंचहिठाणेहिं जेहिंसिक्खानलम्भई थंभाकोहापमा स्तब्धः लुब्धः रसादिग्धः स्तब्धरहे लोभ करे इन्द्रोआपणा व न कर अहङ्कार कर अभिक्षणं पुनः२ वारं वारं उन्नपीति वार वारवीले लबाडी कर स अविनोत: अवहु अतः उच्यते ते साधु अविनोत अबहुत कहो जे २ अथ पञ्चभिः स्थानः हवे पांचे थानके करौ यैः सिक्षाग्रहणं न लभ्यते सूत्र अर्थने
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स. ४१ मा भाग
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हटौका पालस्य न अनुद्यमेन च शब्देन एतैः सर्वैः प्रकारैः अथवा एतेषां स्थानानां मध्ये एकैकेनापि स्थानन शिक्षा न प्राप्यते गुरुपदिष्टाशास्वार्थाभ्या सङ्कत न अ०११
* शक्नोति शिक्षा लाभस्याभावात् अबहुतत्व स्यात् ३ अथाग्रे तन गाघायां बहुश्रुतत्वेहेतुमाह अह अहहिं ठारहिं सिक्तासौलेत्ति वुचई अहस्मिरेसयादंते * नवमन्म मुदाहरे ४ अथानन्तरं एतैरष्टभिः स्थानैः अष्टभिः प्रकारैः शिक्षासौल इत्युच्यते शिक्षा ग्रहणासेवना रूपशास्त्र शौलते धारयतौति शिक्षा शौलः तानि अष्टप्रकाराणोमानि अहस्मिरे अहसनशीलः पुनः सदा दांतः जितेन्दियः पुनयो मम्मे न उदाहरेत् य एतादृशो भवति स गुरूणां शिवायोग्यो भव
एणं रोगणालस्मएणय ।३। अहअट्ठहिंठाणेहिं सिक्खासौलेत्तिवुच्चई । अहस्मिरेसयादंते नयमम्ममुदाहरे।४। नासौले
णसिया अलोलुए। अक्कोहगोसच्चरए सिक्खासीलेत्ति बुच्चई ।५॥ अहचउदसहिंठाणहिं वट्ठमाणेउसंजए। अविणीए लहे ते पांच स्थानक कहे गर्वात् क्रोधात् प्रमादात् गर्वे करी क्रोध करीर प्रमादेकार निन्दा करीने रोगणालस्ये न च रोग करौने ४ पालमे करीने ५ए * पांच वोले करौ अर्थ सूत्र न पामे ३ अथ अष्टभिः स्थानः हवेए पाठे स्थानके करीने शिक्षा शौलः इति उच्यते शिक्षाने योग्य हुवे यती अहसन शोल:
सदा दांतः इन्द्रियमदते सहे नहीं सदा आपणोइ इद्रीयदमै न च मर्म उदाहरेत् कोइ नो मर्म बोले नही ४ न शौलेन नव विध यौल सातिसारा अशोल नहुवे सदा शौल आचार सहीत हुवे अतोचार न होइ न स्यात् अति लोलुपः अति लोलपौ न हुवे आक्रोधस्य तत्परतः क्रोध न करे सत्व बोले ए पाठे बोले करौ शिक्षा शौल कहोये सिक्षा सौलः इति उच्यते ५ अथ चतुर्दशस्थानकैः हवे चउद स्थानकने विषे वर्तमान असाधु संयती कहोई अविनीतः इति उच्यते ते साधु अविनौत कहोई' निर्वाणं मोक्षं न याति निर्वाणं कहोई' मोक्ष तौहां पणि नजाई पुनः पुनः क्रोधी भवति वारं
राय धनपतसिराहाहर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग '
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उ० टोका अ०११
२३०
सूत्र
भाषा
तौत्यर्थः गुणिनो ग्रहणात् गुणानां ग्रहणं कर्त्तव्य नासौले न विसौले न सिया अइलोलुए अकोहणे सच्चरई सिक्खा सौलेत्ति वुञ्चई ५ पुनरेतादृश: शौल उच्यते एतादृशः यः सर्वथा अशोला न स्यात् न विद्यते शौल यस्य स अशीलः शोलरहित इत्यर्थः पुनर्यो विशौलो न स्यात् विरुडशीलो विशीलः अतोचारैः कलुषितव्रतो न स्यात् यः पुनरति लोलुपः अति रसास्वाद लम्पटो न स्यात् अथवा अतिलोभ सहितो न स्यात् पुनर्योऽक्रोधनः क्रोधेन रहितः स्यात् पुनर्यः सत्यरतिः स्यात् स शिक्षाशीलः स्यात् इत्यर्थ हास्य वर्जनं १ दांतत्वं २ पर मर्मानुदुद्घाटनं ३ अमोल वर्जनं ४ विशोल वर्जनं ५ अतिलोलुप निषेधनं ६ क्रोधस्य अकरणं ७ सत्यभाषणं ८ एतैरष्टभिः प्रकारैर्बहुश्रुतत्वं स्यादिति भावः ५ अथ अबहुश्रुतत्व बहुश्रुतत्व हेतोरबिनीत विनौतयोः स्वरूपमाह अह चउदसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उस जए अविणौए वुञ्चईसोउनिव्वाण'च न गच्छई ६ अथ चतुर्दशसु स्थानेषु वर्त्तमानः संयतोऽविनीत उच्चते स चाविनौतो निर्वाणं माचञ्च नगच्छति न प्राप्नोति अथवा निर्वाणं निर्वाणकारणं ज्ञानदर्शन चारित्रलक्षणं रत्नत्त्रयं सुखकारण न प्राप्नोति अत्र चतुर्दशसु स्थानेषु इति सप्तम्यर्थे प्राक्कतत्वात् तृतीया बहुवचनं ६ अथ तानि चतुर्दशस्थानानि तिसृभिर्गाथाभिराह अभिक्खण कोही हवर पबन्धञ्चपकुब्बई मित्तिन्न माणो वमई सुयं लद्दणमज्जई ७ श्रविपाव परिक्लेवो अविमित्तेसु कुष्पई सुम्पियस्माविमित्तस्म रहे भासद् पावगं ८ पद्मवाई दुहिले यह लुई अणिमहे असम्विमागो अचियत प्रविणौ इति वच्चई ८ अथतानि चतुर्दशस्थानानि विभजति य ईशो भवति स च पुमान् अविनीत इत्युच्यते ईदृशः कीदृशः दुच्चई सोउनिव्वाणंचनगच्छई ॥ ६॥ अभिक्खणंकोही हवदूपबंधंचपकुब्बई । मित्तिज्जमाणोवमई सुर्यलडू गमज्जई 191
वार क्रोध करे प्रबन्ध पुनः कुरुते दौर्घ क्रोधी स्वात् ते घणो काल क्रोध राखे मित्रीयमाणेोपि वमति त्यजति मोचाइ कीजे ते मिलाईने माने नहीं श्रुतलब्ध्वा अहङ्कारं करोति शास्त्र भणौने अहङ्कार करें ७ अपि सम्भावने पाप परिक्षेपी पाप समतिने विषे न पलाइ सूधौ पाले नहीं मित्रेषु कुप्यति
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०स०ड० ४१ मा भाग
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२३१
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8 अभीक्ष्णं वारं २ क्रोधौ भवति क्रोधं करोति च पुनः प्रबन्ध क्रोधस्य -वृद्धि कुपितीपि कोमलवचने रपि क्रोधस्य अत्यजनं क्रोधस्य स्थिरीभावं प्रकुरुते मिनीयमाणोपि मित्र ममास्तु अयं इति विचिन्त्यमानीपि पचाइमति त्यजति कोर्थः पूर्व हि मित्रभावं कृत्वा पद्यात् त्वरितं मित्रत्व बोटयति ननु मा धवोहि कुवापि मित्रत्वं नेहभावं केनापि सह न कर्तः संयोगाविप्र मुक्ता भवेयु स्तर्हि कथं मित्तिज्जमायो वमई इत्युक्त अवहि षट् जौवनिकायेषु व्रत ग्रहणसमये मैत्रौं विधाय शिथिला चारित्वे न तां मैत्रौं त्यजेयु रित्यर्थः अथवा केनापि धर्मशिक्षा शास्त्रार्थ दानादिना उपकारः क्तः स च हित
कारकत्वात् मित्र प्रायस्तव उपकार लोपत्वेन कृतघ्नत्वेन मित्रत्वं वमति अविणौतस्यै तल्लक्षणं इत्यर्थः पुनर्यः श्रुतं लब्ध्वामाद्यति ज्ञानाभ्यासादशहार 8 करोति विद्या मदोन्मत्त इत्यर्थः ७ अपि शब्द संभावनायां यः पाप परिक्षेपौ अपि सम्भाव्यते पापैः समिति गुप्ति स्खलनैः परिक्षि पति तिरस्करोतौ
त्येवं शोलः पाप परिक्षेपौ समिति गुप्ति विराधकं प्रति तिरस्करोति कोर्थः कदाचित् कश्चित् समिति गुप्तिषु अन्नानि तया सवलति तदा तं प्रति धिकरोति छिद्र' दृष्ट्वान्यं निन्दतीत्यर्थः तथा मित्रेषु अपि कुष्यति मित्र भ्योपि शिक्षादात्वसंधेभ्यः क्रुध्यति स्वयं क्रोध करोति तान् वा क्रोधयति ४ पुनः सतरां अतिशयेन प्रियस्य मिवस्य हितांककस्य गुर्वादरपि रहसि एकान्त पापकं पापं एवपापकं अवर्णवाद भाषते कोर्थः अग्रत: प्रियं वक्ति * पृष्ठतः दोषं वक्ति इत्यर्थः ८ पुनः प्रकीर्णवादी प्रकोण असंबई वदतौति प्रकोण वादी अथवा प्रतिज्ञया च इदं इत्य एव इत्यादि निश्चयभाषणशीलः पुनः
अविपावपरिक्खेवी अविमित्तम कप्पई मप्पियस्माविमित्तम्मरहमास पावगा पदूमवादौदुहिले यद्धे लुद्ध अणि गह * मित्र उपरि कोपे रौस कर सुप्रियस्थापि मित्रस्य अत्र अने बली जे अपणो गाढो मौत्र के वाली एकांत भाषते अशभं हितनु पणि एकांत भूदू बोले
निन्दा करे ८ प्रतिनावादौ निश्चय भाषानी वीलणहार मित्रादिकम् ट्रोहकारो स्तब्धलब्धः११ रसम्भ्रः १२ सम्बिभाग रहितः सखिभाग न करे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं० उ०१४मा भाग.
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8 दुहिलो द्रोग्धा द्रोहकरणशौल इत्यर्थः पुनस्तब्धो अहङ्कारी अहं तपस्वी इत्यादि जल्पकः पुनलुंधो रसयुक्ता हारादौ लोभी पुनरनिग्रहः अक्यौ कतन्द्रियः
पुनः असंविभागौ सम्बिभजति आनौताहारं अन्येभ्यः साधुभ्यः प्रार्थयतीत्येवं शीलं सम्बिभागौ नसम्बिभागौ असंविभागी आहारेण स्वयमेव उदरं बिभर्ती * त्यर्थः अन्य मे न ददाति अचियत्ते इति अप्रोतिकरः दर्शनेन वचनेन अप्रोति उत्पादयति एतैर्लक्षणै रविनीत उच्यते अथ चतुर्दशस्थानानां नामानिाह
क्रोधः १ क्रोध स्थिरीकरण २ मित्रत्वस्य वमनं त्यजनं ३ विद्यामदः ४ परछिद्रान्वेषण ५ मित्राय क्रोधस्योत्पादनं ६ प्रियमित्रस्यैकान्त दुष्टभाषण * मुखे मिष्टभाषण ७ अविचार्यभाषण' ८ द्रोहकारित्व ८ अहङ्कारित्व १० लोभित्व ११ अजितेन्द्रियत्व १२ असम्बिभागित्व १३ अप्रौतिकरत्व १४ ६ चतुर्दशस्थानानि चतुर्दशहेतूनि कारणानि अविनौतत्वोत्यादकानि जेयानि ८ अह पनरसहिं ठाणेहिं सुविौं इत्ति वुच्चई नौयावत्तौ अचवले अमाई
अकूहले १० अथ पञ्चदशभिः स्थानः सुविनीत इत्युच्यते तानि पञ्चदश स्थानानि इमानि यः एतैः पञ्चदभिलक्षण यंतो भवति सविनौत इत्यर्थः * प्रथमं यः नीचावर्ती नीचं अनुकृतं गुरोः शिय्या शनात् अनुच्च तत्रवर्तित स्थातुं वा शीलं यस्य स नौचावर्ती गुरोः शिय्यात: गुरो राशनात् वा नौचे
शय्यासने शेते तिष्ठति वा इत्यर्थः १ पुनर्योऽचपलः न चपलः अचपलः अचपलत्वं चतुर्दा भवति गत्वा अचपलः १ स्थित्या अचपलः २ भाषा अचपल ३ भाव अचपलः ४ गत्या अचपल: शीघ्रचारौ न भवति १ स्थित्या अचपल स्तिष्ठन् अपि शरौरहस्तपादादिकं अचालयन् स्थिर स्तिष्ठति २ भाषया अचपलः
असंविभागी अवियत्ते अविणौएत्ति वुच्चई ।।। अहपन्नरसहिठाणेहिं सुविणीएत्ति वुच्चई। नौयावित्तीअचवले अमाई ४ अप्रौतकरः सघलाइने अप्रोतनो करणहार एवम्बिधी अविनौत: कथ्यते एहवो साधु अविनीत कहोइ ८ अथ पञ्चदशस्थानके ए पनरहस्थानके साधु ४ सविनौत इति कथ्यते सुविनीत कहौजे नीचत्ति: १ नमनशील: गुरुने नमे चपलपणे नहीं माया रहित ३ अकूतुहलः कतूहले करी रहित ४ १०
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० म.उ. १५ मा भाग
सूत्र
भाषा
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१. टौका
३२३
असत्यादिभाषो न स्यात् ३ भावेन अचपलः सूत्रे अर्थ अनागते असमाप्ते सत्येव अग्रेतनं गृहाति ४ अचपलस्वार्थ ः २ पुनर्यः अमायो मायास्यास्तौति मायो शभ मिष्टाबाहारादौ आचार्यादीनां अवञ्चकः ३ पुनर्यः अकुतूहलः न विद्यते कुतूहल यस्य स अक्तूहल कुहक इन्द्रजाल भगल विद्या नाटका दौनां न नविलीकक इत्यर्थः ४ ॥१० अपंचाहिक्खिवई पबंधच न कुचई मित्तिज्जमाणो भयई सुयं लई नमलई ११ पुनर्योऽल्प अधिक्षिपति अल्प शब्दोऽत्र भावार्थ : कं अपि न अधिक्षिपति किमपि कठिनैर्वचनै न निर्भत्सयति इत्यर्थ: ५ च पुनः प्रवन्ध न करोति प्रचुरकालं क्रोधं न रक्षति दीर्घ रोषौ नस्यादित्यर्थः ६ मित्रीयमाण भजते मित्रत्व कर्तारं सेवते कोर्थ : यः कश्चित् स्वस्मै विद्यादानाद्यपकारं कुर्यात् तस्मै स्वयमपि प्रत्युपकारं करोति क्वतनी न स्यात् इत्यर्थः ७ धुनः श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति मदं न करोति ८ अष्टम स्थानं ११ नय पाव परिकले वो नयमित्ते सु कप्पई अप्पियस्मावि मित्तस्म
अकुतूहले ॥१०॥ अप्पंचाहिक्खिवतौ पबंधचपकुव्वती। मित्तिज्जमाणोभयती मुबलडुनमज्जती॥११॥ नयपावपरिक्खे वी नयमित्तेसुकुप्पती अप्पियस्माविमित्तम रहेकल्लाणभासई ॥१२॥ कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइगोहिरिमंपडि
ERRRRRRRRRRRR XXXXRRRRR8X
राय धनपतसिंह वाहादुर का प्रा सं० उ०१४ मा भाग
भाषा
स्वल्पमपि नाधिक्षपति कठोरवचन न बोले कदेही ५ क्रोधव नञ्च न कुरुते क्रोध वधार नहीं । मीत्रे यतामपि भज्यते ७ सर्वभूत जौवादिकसं मौत्राइ
पणो राखे सदाइ श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति ८ शास्त्रमणौने मदन कर सर्वथा ११ नच पाप परीक्षेपौ प्राचार्यादिकनी निन्दा न कर नच मित्र भ्यः कृप्यति 8 मित्र उपर कोप नहीं १० अप्रियस्थापि मित्रस्य अमित्रस्य उमीलाइ करे ११ एकान्त रम्य भाषते एकान्त भली भलो वात कर १२ कलहडमर * वर्जितः कलह करौ वर्जीत: वचनकलह न कर बुद्धिवान् संयमभारवाहकः ज्ञात तत्वनी जाणविनीतः हीमान् लज्जावंत १४ प्रति संलौन प्रतिज्ञा
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उ० टीका
रहे कज्ञाण भासई १२ च पुनः पापपरिक्षेो न भपति पाप न परिचिपति तिरस्करोतोखेवं गोलः पापपरीक्षेपौ समिति गुस्वादिष स्वयं सबलनं * कला प्राचार्यादिभिः शिक्ष्यमाणः सन् प्राचार्यादौनां एव मर्मोदघाटको न भवति । न च मित्रेभ्य: कुप्यति अपराधे सत्यपि मित्रोपरि कोधं न क
रोति १० पुनोमित्रस्य मम मित्रत्वाङ्गीकृतस्य अप्रियस्य च अपराधे सत्यपि पूर्वकृतं मुक्ततमनुस्मरन् रहसि अपि कल्याण एव भव्य एव भाषते न च तस्य दूषण वदतीत्यर्थः ११ कलह डमरवज्ज इ बुद्दे य अभिजाइ गाहिरिमं पडिसंलौरो सुविणौ इत्ति वुशई १२ पुनर्यः कलह डमरं वर्जयति तत्र कलह
वाक्य युह त्यजति डमरं चपटा मुष्टिलत्तादिभिर्युड तयोरुभयो वर्जको यो भवति १२ पुनर्बुद्धिमान् बुद्धोऽवसरज्ञो भवति पुनर्योऽभिजातिगो भवति 8 अभिजातिं कुलौनतां गच्छति प्राप्नोतीति अभिजातिगः गुरुकुलवास सेवक इत्यर्थः १३ पुनर्यो होमान् ही विद्यते यस्य स हौमान् कलुषाध्यवसाये
अकार्यकरण नपायुक्ता इत्यर्थ:१४ प्रति संलोनः गुरु सकाशेऽन्यत्रवाइत स्ततो न चेष्टते चेष्टां न करोति स प्रतिसंलौन उच्यते य एतादृशो भवति स विनीत उच्यते अथ पूर्वोक्त पञ्चदशस्थानानां सुविनौतत्वकारणानां नामान्याह गुरो रासनात् द्रव्यभावतो नौचासनोपवेसनं १ प्रचपलव २ प्रमायित्व ३ अक्तूहलत्वं ४ कस्यापि अनिर्भत्सनं ५ प्रदीर्घरोषत्वं ६ मित्रस्य उपकारकरण ७ विद्या मदस्य प्रकरण ८ आचार्यादीनां मर्मस्थाऽनुघाटनं ।
संलोणे सुविणीएत्ति बुच्चई ॥१३॥ वसेगुरुकुलेनिच्चंजोगवं उबहाणवं | पियंकरपियंवाई ससिकलडुमरहई ॥१४॥ * वान् पापणी इन्द्रो दमै सुविनीत इति उच्यते ते शिष्य सुविनीत आज्ञाकारी कहीये १३ वसेत् गुरु कुलपासे नित्य निरन्तरं तिष्ठन्ति सविनीत शिष्य * सदाइ गुरुपासे वसे योगवान् उपधानवान् योगवान् धर्मव्यापारविधिकर्ता तपो विशेषसूत्रपठनादौ जिम उपधान प्रौयंकरः प्रियवादी प्रेम करे प्रेम
बोले सशियां लब्धं पहती ते शिथ शिख्याने योग्य होवे १४ यथा यशङ्ख पयो दुग्धं चितं जिम संख दूध भयो हाभ्यां विराजते दीड प्रकारे बाहिरि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ० ४ १ मा भाग
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उलटीका अ०११ ३३५
मित्राय कोधस्य अनुत्पादनं १. अपराधे सत्य पि मित्रस्य अमित्रस्य वा परपृष्ठे दूषणस्य पभाषण ११ कलह उमरवर्जनं १२ गुरुकुलवास सेवनं १३ लज्जावत्वं १४ प्रतिसंलोनत्व एतानि पञ्चदसस्थानानि सुविनीतस्य जयानि १३ अध सुविनौतः कीदृक् स्यादित्याह वसे गुरुकुमेनिच्च जोगवं उवहारावं पियं वाई से सिक्व' ला मरहई १३ स मुनिः शिक्षा लञ्च अर्हति शिक्षायै योग्यो भवति स इतिकः यो गुरुकुले नित्वं वसेत् गुरोः पूज्य व विद्यादोचादायकस्य वा कुले गच्छे संघाटके वायावज्जोवं तिष्ठेत् पुनयों मुनिः योगवान् योगो धर्मव्यापारः सविद्यते यस्य स संयोगवान् अथवा योगोऽष्टाङ्गलवणस्तदानित्यर्थः पुनर्यः साधुः उपधानवान् उपधानं अंगोपांगादौनां सिद्धांतानां पठनाराधनार्थ' आचारस्रोपवास निर्वि क्व यादि लक्षणं तपो विशेषः सविद्यते यस्य स उपधानवान् सिद्धांताराधन तपोयुक्त इत्यर्थः पुनयः साधुः प्रियङ्गरः प्राचार्यादीनां हितकारकः पुनर्यः प्रियवादी प्रियो वादोऽस्यास्तीति प्रियवादी प्रियभाषौ एतैर्लक्षणैर्युक्तो मुनिः शिक्षा प्राप्त योग्या भवति १४ अथ बहुश्रुत प्रतिपत्तिरूपं आचारं स्तवहार 8 माह जहाथो संखं मिपयं निहितं दुही विरायई एवं बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्तौतहा सुयं १५ यया संखे निहितं पयो दुग्धं विधापि विराजते उभय प्रकारेण शोभते पयो धवलं अथच पुनः शंखेपि धवले अत्यन्त धवलत्वेन वर्णो विराजते एवं अमुना प्रकारेण शंखमध्यदुग्ध दृष्टांतन बहुश्रुते भिचौ धर्मों
जहासंखंमिपयं णिहितं टुहओविविरायई एवं बहुस्मए भिक्खूधम्मो कित्तीतहा सुयं ॥१५॥ जहासे कंबोयाग्नं आइन्ने भौतरी उज्वल थको सोभे एवं अमुना प्रकारेण बहुश्रुती भिक्षुः इम बहुश्रुत साधु धर्मकोर्ति तथा श्रुतं तिम साधु धर्म अने कौर्ति करौने सोभे १५ यथा अखः कम्बोज देशजातीना जिम कम्बोजदेसना उपना अख: अवानां मध्ये आकीर्ण कथक: स्यात् गुणैः प्रासकथक प्रधान सुजात घोडा माहि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं २०४१ मा भाग
भाषा
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* यतिधर्मस्तथाकौतिः श्रुतं च एतत्पदार्थवयं स्वतएव भासते बहु प्रचुरं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्य स बहुश्रु तः तथा एवं गुरुकुलवासिनि साधौ बहुश्रुत सटौका
* आश्रयविशेषात् अत्यन्त शोभते बहुश्रु ते स्थिती धर्मः कीर्तिर्यशश्च मालिन्य न प्राप्नोति अत्र कौर्त्तिगुणनाधा यशः सर्वत्र प्रसिद्धत्व इति अनयोः कौर्ति
यशसोर्लक्षणं जयं १५ जहासे कंबोयाणं पासबो कथएसिया आसेजवेण पवरे एवं हवइ बहुमुए १६ बहुश्रु तः साधुः एवं भवति एतादृशो भवति एवं
विराजते एवमिति कथं यथा कंबोजानां कांबोजदेशोद्भवाना अखानां मध्ये यः आकोण : गौलादिगुणाप्तो विसइमाता पित्योनिजत्वेन सम्यग् आचा 8 रखामिभक्तादिशालिहोत्रशास्त्रोक्त गुणयुक्तः कीदृशः आकोण: कम्पक: लघुपाषाणभृत कुतप निपतन संजातशब्दात् नत्रस्यति अथवा शस्त्रादौनां प्रहा * रात् निर्भीकः कथकः उच्यते पुनः कोदृशः सः जवेनवेगेन सम्यगत्या प्रवरः प्रकर्षेण वरः श्रेष्ठ: यथाहि सर्वेषु कांबोजदेशोद्भवेषु अखेषु आकौण : कंथ 8 को अखो गमनेन अत्यन्त प्रधानो भवेत् राजादीनां वल्लभो भवेत् तथा बहुश्रु तोपि सर्वेषां ज्ञानक्रियावां मुनौना मध्ये परवादिना वादत्रस्तः सम्यक्
आचारविहारण विराजमान: स्यात् सर्वेषां वल्लभो भवेदित्यर्थः जहाइव समारूढ़े सूरदढपरक्कम उभी नंदिधोसेण' एवंह० १७ पुनर्यथा सूरः आइव * समारूढः आकौर्णो जाति विशडधोटक स्त बसमारूढः आकोण समारूढो दृढ़पराक्रमः स्थिरपराक्रमी बलं यस्य सः स्थिरपराक्रमः स्थिरोत्साह: केनापि अन्यसुभटेन न अभिभूयते इति अध्याहरः नच तं प्रत्याश्रितोपि भृत्यादिवर्गः केनापि अभिभूयते कथंभूतः ससूरः उभयती वामदक्षिणतः अथवा पृष्ठतः
कथएसिया आसजवेणपवरे एवं हवदू बहुमए ।१६। जहाइस समारूढ़े सूरेदढपरक्कमे उभो नंदिघोसणं एवंहव। आकोर्णसुविनौत प्रधान घोडो होवे अखवेगेन प्रवरः अश्व घोड़ो वेगे करो प्रधान एवं भवति वहुश्रुत शोभे १६ यथा आकोर्णः जात्यतुरङ्गमावितं जिम असवार आकौर्ण सुविनीत घोडे चल्यो जिम शूरी दृढ़पराक्रमवान् सुभटं शूरः पराक्रमौ सत्ववन्त उभ यतः वामदक्षिणपाखें हादशतूर्यनादेन सहितः
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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ON
४ अग्रतो वा नांदीघोषेण उपलक्षितः नांदी हादशाणि तेषां हादशाणां घोषो नान्दीघोषस्तेनोपलक्षितः अथवा त्वं चिरं जीया इत्यादि बन्दिजनोच्चा उ. टीका
रिताशौर्वचनं तस्य घोष शब्द स्तेनोपलचितः यथैतादृशः शूरः सर्वत्र विजयो स्यात् एवं बहुश्रु तोपि साधुर्जिनप्रवचनावारूढः दृढपराक्रमः दृप्यत्परवादि * दर्शनात् अत्रस्तः परवादि जये समर्थः उभयतो दिनरजन्यो स्वाध्यायरूपेण नांदोघोषेणोपलक्षित: अथवा उभयतः पार्खहयोः शियाध्ययनरूपेण नांदौ घोषेण उपलक्षितः अथवा प्रवचनोहीपकत्वेन स्वतीयं चिरंजीवत्वसौ इत्याद्याशीर्वचनरूपण नांदौघोषणोपलचितः परतीर्थे : पराभवितु अशक्यो भवेत्र तदाचितोपि सङ्गः केनापि पराभवितु न शक्यते १७ जहा करेण परिकिन्ने कुजरे सहिहायण बलवंते अप्पडिहए एवं० १८ यथा षष्टि हायने षाष्टिवा. र्षिकः कुञ्जरी बलवान् अप्रतिहत: स्यात् प्रतिद्वंद्दि गजैः प्रतिहन्तुं शक्यो न स्यात् तथा बहु श्रुतीपि षष्टिवर्षाणि यावत् गजो वई मान बल: स्यात् * कथम्भतो गज: करेणुभिर्हस्तिनीभिः परिकोणः परिवृतः षष्टिहायन तया कुन्नरः स्थिरमतिश्च स्थात् एवं बहुश्रुतोपि उत्पातिक्यादि च तसृभिर्बुद्धि
भिर्विद्याभिवासहित: वर्ल्ड मानशास्त्रार्थ बल: केनापि प्रतिवादिना जेतुं न शक्यते १८ जहासे तिक्खसिंगे जायखन्ध विरायई वस हे जूहाहिबई: एवं० १८ यथा स इति वक्ष्यमाणो वृषभ: यूधस्य गोवर्गस्य अधिपो विराजते एवं बहुश्रुतोपि विशेषेण राजते कधभूतो वृषभः तीक्ष्णशृङ्गः पुनः कथं भूतः जातस्कन्धः उत्पन्न धूई रणभागः एतादृशो बलो वर्दइव बहुश्रुतोपि शोभते कथम्भूतो बहुश्रुतः परपक्षभेदकत्वेन तौक्षणे स्वमत परमत ज्ञानरूप
। दूबहुस्सुए ॥१०॥ जहा करेणु परिकिम्मे कुजरे सहि हायणे । बलवंते अप्पडिहए एवं हवडूबहुमुए ॥१८॥ जहा से 8 बिहु पासे हादसतूर्यनादे करी सोभे एवं भवति बहुश्रु तः इम वहु थु तसोभे १७ यथा हस्ती हस्तनौभिः परिवत: जिम हथणौने परिवार परिवखो भाषा थको कुचरः हस्तौ षष्टि हायनः षष्टि वर्षायुः जिम हाथो साठिवर्षनो वलवान् अप्रतिहतो भवति अनेरा वेरी हाथी पराभवी सके नहीं एवं भवति बहु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० २०१४मा भाग,
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उल्टोया
शास्त्र एव यस्य स तीक्षागृङ्गः पुनः कश्वम्भूती बहुलतः जातः उत्पनी गणस्य कार्यरूपधुरं प्रतिधौरयिकत्वेन पुष्टः स्कन्धी यस्य सजातस्कन्धः पुनः कोशो बहुध तो ययाधिपतिः यूथस्य चतुर्विध सङ्कास्य अधिपति यूंधापतिः एवं बहुश्रु तो यूथाधिप वृषभवत् आचार्यादिपदवी प्राप्तः सन् विराजते १८ जहासे तिक्ख दाढे उदमा दुप्यहं सए सौहे मियाणपवर एवं० २० यथासिंहो मृगाणां अरण्यजीवानां मध्ये प्रवर: प्रधानः स्यात् एवं बहुश्रु तोपि सिंह इव अन्यतीर्थाय मृगाणां मध्ये प्रकर्षेण श्रेष्टः स्यात् कथंभूतः सिंहः तीक्षणदंष्ट्र: पुनः कीदृशः सिंहः उदयः उत्कटः पुनः कथम्भ तः दुपहंस्यकः दुरभिभव: अन्य |वैर्दुष्य: दुःसह इत्यर्थः बहुश्रुतोपि सिंहइव कथम्भू तो बहुश्रुतः तीक्ष्णाः सप्तनयविद्या रूपा दंष्ट्रा यस्य स तीक्ष्णदंष्ट्रः अतएव उत्कट: दुर्जयः
तिक्स सिंगे जायखंधे विरायई । वसहे जूहाहिवई एवं हवडू बहुमुए ॥१६॥ जहासतिक्ख दाढे उदग्गे टुप्पहंसए
सौहे मियाण पवरे एवं हवई बहुम्मुए ॥२०॥ जहा से वासुदेवे संख चक्क गयाधरे । अप्पडिहय बले जोह एवं हवडू श्रुतः इम ए हाथोने दृष्टान्ते करौ अन्यदर्शनीये अजय हुवे बहुश्रु तसाधु १८ यथा स: तीक्ष्णः शृङ्गः जिमतौथासौ गडानो धणी जातोपचितभूतः स्कन्धोऽ स्येति वृषभः उपचितस्थूल स्कंधे करो विराजीत छे वृषभः यूथाधिपति: जिम वृषभ गायनायुथ मांहि सोभे एवं भवन्ति वहुश्रुतः इमवहुश्रु त हुवे १८ यथा तोक्ष्ण दंष्ट्रः जिम तोक्ष्ण दाढ़सहित: उदग्रः उत्कटो अतएव दुःप्रधर्षको अन्यै दुरभिभवनीयः अनेरे जीवें पराभवौसके नहीं यथासिंहो मृगाणां प्रवर: जिम सौह मृगमाहि प्रधान एव भवति बहुश्रु त: २० यथा सवासुदेव जिमते बासुदेव सख १ चक्र २ गदाधरः संखचक्रगदाप्रमुख ए धार अप्रति हतबलयोदः किणही जौत्व न जाई इस्यु महासुभट हुवे एवंविधः बहुश्रु तो भवन्ति २१ यथा स चतुरन्तः जिम चक्रवर्ति चतुरङ्गिणी सेनानो नायक
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१मा भाग
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३२६
स टौका
* पुनः कथम्भू तो बहुश्रुतः दुःप्रहंस्त्रका अन्य तीर्थे दुश्थः कलित मशक्य इत्यर्थः २० जहासे वासुदेव संखचक गयाधर अप्पडिहयः बले जोह एवं० २१ 8
यथा स प्रसिदो वासुदेव: अप्रतिहतबल: स्यात् अप्रतिहतं केनापि अनिवारितं बलं यस्य स अप्रतिहतबलः एवं बहुश्रुतीपि केनापि परमतिना अनि * वारितबल: स्यात् कीदृशो वासुदेवः शंखचक्र गदाधरः वासुदेवस्थ हि रत्नसप्तकं स्यात् चकं धणुहं खग्गो मणौ गया होइतहयवणमाला संखो सत्तइ
माइ' रयणाई वासुदेवस्म १ अत्र त्रयाणां एव ग्रहणं बहुश्रुतेन साम्बार्थ सप्तानां मध्ये त्रयाण एव प्राधान्य मप्यस्ति पुन: कौदृशो वासुदेवः योधः युध्यति पत्र न प्रतिसंहरतौति योधः यदुक्त युके सूरा वासुदेवाः खमासूरा: अरिहन्ताः तपसूरा अणगारा: भोगसूरा चक्कबट्टी वासुदेवोहि स्वशरीरेण युद्ध कत्वा भवन जयतीत्यर्थः एवं बहुश्रुतोपि वासुदेव वत् कोशो वहुश्रुतः संखचक्र गदातुल्यानि रत्नत्रयाणि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि धरतीति शंखचक्रगदाधरः पुनः कोहयो बहुश्रुतो बोधः अन्तरजा पत्र घातकः अत्र बहुथ तस्य वासुदेवोपमानं २१ जहासे चाउरन्त चावही महटिया च उद सरयणाहिवई एवं० २२ यथा स इति प्रसिद्ध चक्रवर्ती विराजते इत्यधाहारस्तथा बहुभुतोपि विराजते कीदृशश्चकुवर्ती चातुरन्तः चतुर्भि हय गज रषपदातिभिः सेनांगैः अन्तोऽरोणां विनाशयस्य सचाउरंत: चतुरंत एव चातुरंतःपासमद्र' पाहिमाचलं विविधविद्याधर बन्द गीत कौति तया एक च्छव' षट् षण्डराज्यपालकः चातुरन्तः पुनः कोययवर्ती महर्डिकः महतो ऋडियस्य स महर्डिकः चतुःषष्टि सहवान्तः पुर रौणां यय्यास वैकिय
बहुस्सुए ॥२१॥ जहासे चाउ रते चक्कवट्ठी महिडिए। चउदस रयणा हिवई एवं हवडू बहुस्सुए ॥२२॥ जहा से स चक्रवर्ति महाऋद्धिनी धणो चक्रवर्त्तिने मोटी ऋषि हुवे चतुईयरत्नाधिपतिः स्थात् चऊदे रत्ननवनिधाननी अधिपति होइ सुख भोगवे एवं भवती बहु श्रुत २२ यथा सहस्राच: जिमते इंद्र सहसाच: हजारनेवनी धणी बच्चहस्त दैत्यपरंदमनः वजहाथने विषे रहे दैत्वने विणसाडे पक्रदेवाधिपती:
राय धनपतसिंह वाहादुर का था सं० उ०१४ मा भाग
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उ० टीका
अ०११
३४०
सूत्र
भाषा
'शक्ति' विधाय रममाणः वैकियादि ऋषि सहितः इत्यर्थः दिव्यानुकारि लक्ष्मीयुक्तो वा पुनः कीदृम यकुवर्त्ती चतुर्दशरत्नाधिपतिः चतुर्दशरत्नानि अमू सेनापति १ गृहपति २ पुरोहित ३ गज ४ हय ५ सूत्रधार ६ स्त्री ७ चक्र ८ छत्र ८ चर्म १० मणि ११ काकिनी १२ खङ्ग १३ दण्ड १४ एतेषां रत्नानां स्वामी एवं बहुश्रुतोपि कोहयो बहुश्रुतः चतुर्भिः दानशील तपो भावलचणेोरन्तचतसृणां गतौनां यस्य स चतुरन्त यतुरन्त एव चातुरन्तः चतुर्दशरत्नाधिपतिः चतुर्दशपूर्वरूपाणि रत्नानि तेषामधिप इत्यर्थः पुनः कीदृशी बहुश्रुत: महर्द्धिकः महत्यः ऋषयः श्रमर्षोषधिव प्रौषधिखेलौषध्या दयो यस्य समहर्दिक लब्धि ऋद्दिसहित इत्यर्थः अथवा महतो ऋडिज्ञानसम्पत्तिर्यस्य स महद्दिकः २२ जहासे सहस्रक वज्जपाणी पुरन्दर सके देवा हि वई एवं० २२ यथा स इति प्रसिद्ध, शक्र इन्द्रो विराजते तथा बहुश्रु तोपि विराजते कीदृशः शक्रः सहस्राचः सहय' अक्षौणि यस्य स सहश्राचः सहश्रनेत्रः कीदृशः वव्यपाणिः वज्रशस्त्र हस्तः पुनः कीदृशः पुरन्दरः पुराणि दैत्यनगराणि दारयति विध्वंसयतौति पुरन्दरः दैत्यनगर विध्वंसकः पुनः कौदृशः देवाधिपतिर्देवेषु अधिपति देवाधिपतिः देवेषु अधिक कान्तिधारी अथ कोदृशो बहुत शकुः सहस्रं अक्षौणि तज्ञानानि यस्य स सहश्राचः सहश्रसंख्य रचिभिर्नेव रिव श्रुतज्ञानभेदैः पश्यतीत्यर्थः पुनः कीदृशो बहुश्रुत शकुः वचपाणिः वयं वञ्चाकारं पाणौ वस्य स वज्रपाणिः विद्यावत: पूज्यस्य हस्तमध्ये बज्चलचणस्य सम्भवात् पुनः कथंभूतो बहुश्रुतः शकुः पुरन्दरः पुरं स्वतनुं दारयति तपसा दुर्बलोकरोतौति पुरन्दरः तपस्वी इत्यर्थः हस्मक्वे वज्जपाणौ पुरंदरे । सक्के देवा हिवई एवं हवद्र बहुमुए ॥ ३३ ॥ जहा से तिमिरविद्ध' से उत्तिते दिवायरे । शक्र इंद्र देवता मांहि अधिपति हुवे एवं भवति बहुश्रुत २२ यथा सः तिमिरान्धकारविध्वंसक जिम दिवाकरः सूर्य अन्धकार फेड़े तिम उङ्घ गच्छन् दिनकरः सूर्यः उचो चढ़तो सूर्य तिम तेजसा जलतेव ब्वालामुत्यवः इम बहुश्रुत: अज्ञानरूप अन्धकार टाले तपतेजे करो दौपे बहुत २४ यथा स
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राय धनपतसिंह बाहादर का श्र० स०ड० ४१ मा भाग
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४० टोका अ०११
२४१
सूव
भाषा
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पुनः कथंभूतो बहुश्र ुत शक्रदेवताधिपतिः देवेषु सर्वसाधुषु अधिपति अधिकः सर्वसाधून् अधिकं यथा स्यात्तथापाति रचतीति देवाधिपतिः रिसौहि देवाय समं विवित्ता इत्युक्त देवाः अधिकं पांतिरक्षन्ति सेवां कुर्वन्ति उपद्रवेभ्यो रचन्ति हरिके बल साधुवत् वैयाष्टत्य कुर्वन्तौति देवाधिपतिः देवै रपि पूज्यते इत्यर्थः २३ जहा से तिमिरविह से उत्तिन्ते दिवायरे जलन्त इवते एवं एवं० २४ यथा स इति प्रसिद्ध उत्तिष्ठन् उद्गच्छन् दिवाकरः सूर्य स्तेजसा ज्वलन् ज्वालाभि ससर्प्यन् इव विराजते तथा बहुश्रु तोपि राजते कथंभूतः सूर्यः तिमिरं अन्धकारं विध्वंसते इत्य वंशौल स्तिमिर विध्वंसी अथवा तिमिरस्य विध्वंसो यस्मात् स तिमिरविध्वसः अथ बहुत एव दिवाकरः कौदृक् स्यात् कथंभूतो बहुश्रुत सूर्य स्त्रिमिरं मिथ्यात्वान्धकारं विध्व ंसयतोति तिभिरविध्वंसः किं कुर्वन् उत्तिष्ठन् क्रियानुष्ठानादौ प्रमादी भवन् पुनः कीदृशो बहुश्रुत दिवाकरः किं कुर्वन् द्रव तेजसा द्वादशविध तप स्तेजसा माहात्म्येनवा ज्वलन् देदीप्यमानः परिवादिभिर्द्रष्टुं अपि अशक्य इत्यर्थः २४ जहासे उडुबईचन्दे नक्खत्त परिवारिए परिपुर्ण पुसमा सौए एवं ह० २५ यथा पूर्णमास्यां राकायां उडुपतिः चन्द्रोभवति जनाह्वादको भवति चन्दति श्राचादयतीति चन्द्रः अन्वर्थनामा भवति तथा तोपि पूर्णिमास्यां समक्तप्राप्तौ प्रतिपूर्णः उडुपतिरिव चन्द्रो भवति भव्यजनावादको भवति कोहम उडुपतिः नचत्र ग्रह तारकादिभिः परिष्कृतः परि वारोजातोऽस्येति परिवारितः इति वा पुनः कीदृशः उड़पतिः प्रतिपूर्णः षोड़शकलाभिर्युक्तः पूर्णोमासः संसारो यस्यां पूर्णमासी सम्यक्क लब्धिरूपायां पूर्ण जलते दूव तेएणं एवं हवद्र बहुम्मए । २४। जहासे उडुवई चंदे नक्खते परिवारिए । पडिपुम्से पुस्णमासीए एवं हवदू नक्षत्रपतिः चन्द्र जिमते उडुपति ग्रह नक्षत्रनो खामी चन्द्रमा नक्षत्र परिवारपरिवृतः नचत्रनो परिवार तिथे करौ परवस्यो धको प्रतिपूर्ण पूर्णमासि पूर्ण पूनिमने दौने शोभे एवं भवति बहुश्रुत २५ यथा सामानिकानां लोकसमूहानां जिम लोकना घरमांहि कोष्टागारेषु धान्याश्रयः सुष्ट, दस्यु मूषकादिभ्यः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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१.टोका
मास्यां बहुश्रुतरूप उडुपतिर्भव्य जनावादको भवतौतिभावः पुनः कीदृशो बहुश्रुतोड़पतिः साधुभिर्नक्षत्ररिव परिवतः सहितः पुनः कीदृशी बहुश्रुतोड़ अ.११ पतिः प्रतिपूर्णः सर्वधर्म कलाभिः संपूर्णः इत्यर्थः २५ जहासे सामाइयाण कुडागारसुरक्खिए नाणाधन पडिपुस्म एवं० २६ यथा स इति प्रसिद्धः सामाज ३४२
कानां महाप्टहस्यानां कोष्टागारो विराजते तथा बहुश्रु तोपि विराजते समायोजन समूहस्तंऽहतौति सामाजिका कौटम्बिकानां कथम्भूतः कोष्टागारः * सुरक्षितः सुतरां अतिशयेन चौर मूषकादिभ्य उपद्रवेभ्यो रक्षितः सुरक्षितः पुनः कीदृयकोष्टागारः नानाधान्य प्रतिपूर्णः चतुर्विशतिधान्यैः प्रतिपूर्णी भृतः अथ बहुश्रुतः कीदृशः सुरक्षितः सुतरां अतिशयेन गच्छ संघाटस्थ मुनिभिर्यत्नेन रक्षित; पुनर्नानाप्रकारे रङ्गो पाङ्गादिरूपैर्धान्य प्रतिपूर्ण इत्यर्थः२६ जहासे दुमाणपवरा जम्ब नाम सुदंसणा अणाढियस्म देवस्म एवं० २७ यथा द्रुमाणां मध्ये जम्ब नामा सुदर्थना इत्य परनामा द्रुमोचः प्रवरः
बहुस्सुए।२५। जहासे सामाइयाणं कोट्ठागारेसु रक्खिए। नाणाधम पडिपुस्खे एवं हवडू बहुस्मए ।२६। जहासे दु
माण पवरा जंबूनाम सुदंसणा । अणाढियस्म देवस्म एवं हवडू बहुस्मए ।२०॥ जहा सा नईण पवरा सलिला सागरं सकलयाद्रक्षित: कोठारमाहि भलो परिचोरादिक उदरादिक थको वस्तु जले करौ राखे नानाधान्य प्रतिपूर्णः नानाप्रकारना धान्यतेणे करौ भस्या धको 8 सोभे एवं भवति बहुश्रुतसाधु२६ यथा स द्रुमाणां मध्ये प्रवरा जिम सघला वृक्षमांहि प्रवर प्रधान सोभे जंबू नामाभिधानेन सुदर्शन नामाभिधान: जंबूडू * सेनामे बीजो नाम मुदर्शन अनादृतस्य अनाढोयाइसे नामे देवता तेहनु थानक एवं भवति बहुश्रुत साधु २७ यथा शीता नदीनां मध्ये प्रवराः जिम * सौता नदी सर्व नदीमांहि मुख्य सलिला समुद्रगामिनी भवति सलिला कही पछे नदीसागर समुद्रमाहे जाइ सौता पूर्ववाहिनी सौतोदा पश्चिमवा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.न. १४ मा भाग
सूत्र
भाषा
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अ०११
र प्रधानः शोभते तथा बहुश्रु तो सर्वमुनिना मध्ये प्रधानी विराजते स च जम्बू सुदर्थना नामा बक्षः अनाहिकस्य जम्ब दीपाधिष्टाढ देवस्य वर्तते
तस्थ हि जम्प हीपाश्रितत्वेन सर्वक्षेभ्यः प्रधानत्व जय मित्यर्थः बहुश्रुतोपि मिष्टफल सद्य सिद्धान्तार्थ फलदः देवादिभिरभिगम्यः २७ ज * हासा नईणपवरा सलिला सागरणमा सौया नौलवन्तप्पवहा एवं० १८ यथा सा इति प्रसिहा नदीनां मध्ये सौता नानी नदी प्रवरा
प्रधाना शोभते तथा बहुश्रुतीपि थोभते कथम्भूता सौतानदी सलिला सलिलं पानौयं अस्याः अस्तौति सलिलानित्य नौरा पुनः कथम्भूता सौता ४ सागरणमा सागरं गच्छतौति सागरंगमा पुनः कीदृशा सौता सौलवन्त प्यवहा नौलवतः पर्वतात् प्रवाहो यस्याः सा नौलवत् प्रवाहा नौल
पर्वतादुत्तीर्णा इत्यर्थः बहुश्रुतोपि साधूनां मध्ये प्रधानः निर्मलजलतुल्य सिद्धान्त सहितः पुनः सागरमिव मुक्तिस्थानं गामौ पुनर्बहुथु तो ४ नौलवत् पर्वतसदृशोब्रतकुलात् प्रसूत: उत्तम कुलप्रसूती हि सद्विद्या विनयौदार्य गांभीर्यादिगुणयुक् स्यात् २८ जहामेन गाणपवर सुमहं मंदर ४ गिरौ नाणो सहि पज्जलिए एवं हव. २८ यथा स इति प्रसिद्धी नगानां पर्वताना मध्ये सुतरां अतिथयेन महान् उच्च स्तरो मन्दरी भैरु गिरि * मेरु पर्वत: शोभते तथा बहुश्रु तोपि शोभते कथंभूतो मेरुः नानौषधी प्रज्वलित: नानाप्रकाराभि रौषधौभिः शल्य विशल्या सचीवनी संरोहिणी ४ चित्रावली विषापहारिणी शस्त्र निवारिणी भूत नाग दमन्यादिभि मूलौभिः प्रज्वलितो जाज्वल्यमानः एवं बहुश्रुत: सर्व साधूनां प्रवरो गुणे
गमा। सौयानीलवंत पवहा एवं हवढू बहुस्सए २८ जहारी नगाण पवरे सुमहं मंदरी गिरी नाणो सहि पन्जलिए ४ हिनौ सौता सोतोदा नौलवंतोद्भवासोता नदी नौलवंत पर्वत हुती उपनी जीम सर्व नदी माहि तुगमै तिम बहुश्रुत गच्छमाहे सोभे सुसाधु * २८ यथा सइति प्रसिद्धो नगानां पर्वतानां मध्ये सुतरां अतिशीये महात् उच्चस्त रोमंदरोमर गिरिमेरुपर्वत: शोभते नानौषधिभि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
Page #346
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* प्रवरी गुणैरुच्चैस्तरः श्रुतस्य माहात्म्येन अत्यन्त स्थिरः परवादिवादवात्या अचल: अनेकलब्ध्यतिशयसिद्धि रूपाभि रौषधौभि मिथ्यात्वोधकारपि अ०११ *
वयस्वामि मानतुंग कुमुदचन्द्रादिवत् जैनशासन प्रभावनारूप प्रकाशकारकः २८ जहासे सयंभुरमणे उदही अक्ख श्रोदए नाणारयण पडिपुस एवं०३० ३४४
यथा स इति प्रसिद्धः स्वयंभूरमण नामा चरमोदधि विराजते तथा बहुश्रु तोपि विराजते कथंभूतः स्वयंभूरमणोदधिः अक्षयं शाखतं अविनाशि उदक जलं यस्य स अक्षयोदकः पुनः कथंभूतः स्वयंभूरमण समुद्रः नानारत्नप्रतिपूर्णः वहुप्रकारैः असंख्य माणिक्यत: तथा बहुश्रु तोपि स्वयंभूरमण इव कथं भूतः वहुचुत: अक्षयज्ञानोदकः अञ्चयज्ञान जलः पुनर्बहुश्रुतः स्वयंभूरमण समुद्रवत् नानाप्रकारातिशयरूपरत्नैः संपूर्णः ३० समुहगंभौरसमादुरासया __ एवं हवढू बहुमुए २६ जहास सयंभु रमणे उदही अक्खोदए नाणा रयण पडिपुसे एवं हवडू बहुस्सुए ३० समुद्द
गंभीरसमा दुरासया अचक्किया केणइ दुप्पहंसया मुयस पुमा विउलम्म ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमंगया ३१
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
भाषा
प्रज्वलितः नानाप्रकारनी औषधी अने रत्न तिणे तेजवंत थको जाजुल्यमान दोपतो शोभे एवं भवति बहुश्रु त २८ यथा स स्वयंभु रमण समुद्र जौमते
स्वयंभु रमण समुद्र जलक्षयरहितः अखूटपांणो के जे समुद्ने विषे नानारत्न : मरकतादिभिः प्रतिपूर्णः स्यात् नानाप्रकारना रत्न तिणे करी भयो के 8 एवं भवति बहुश्रुत: ३. समुद्रगांभीर्यसमाः सदृशाः अनाकलनीयाः समुद्रनी परि गम्भीर छ अनाकलनीय कोइकलौ सके नहीं परिषहादिनाकेनापि पराभवं कत न समर्थाः किणी परिसहे पराभव करौ सकोइ नहीं परिसह कोइ जैहने जीतौ सके नहीं ७ तेन पूर्ण विस्तरेण नायगो रक्षकाः सिद्धान्त करीने पूर्णभया पूर्वजोवना रक्षक चपयित्वा कर्म सर्वकर्म चपावौने उत्तमां गतिं गताः उत्तमगतिने विषे गया ३१ तस्मात् व तं पठनीयं तिणे कारण
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उ० टोका
अ०११
२४५
सूत्र
भाषा
[अचक्किया केणद्र दुष्पहंसया सुयस्स पुस्खा विउलस्म ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया ] २१ एतादृशाः श्र ुतस्य पूर्णाः बहुश्रुताः उत्तमां गतिं गताः प्रधानं स्थानं मुक्ति प्राप्ताः किं कृत्वा कर्माणि चिपयित्वा श्रुतस्य पूर्णः इत्यत्र तृतीयास्थाने षष्टौ श्रुतेन श्रुतज्ञाने पूर्णा : कोट्टशस्य श्रुतस्य विपुलस्य विस्ती र्णस्य अनेकहेतुयुक्तिदृष्टांत उत्सर्गवादनयाद्यनेक रहस्यार्थयुक्तस्य कौदृशाः बहुश्रुताः समुद्रगम्भौर समाः समुद्रस्य गाम्भीर्येण तुल्याः समुद्रगम्भीरसमाः पुनः interrः दुराश्रयाः केनापि परवादिना कपटं कृत्वा न आश्रयणीया केनापि ठगितुं शक्याः इत्यर्थः पुनः कथंभूताः अचकिताः अत्रासिताः परोष है स्वासं अप्रापिताः पुनः कोट्टशाः दुःप्रहंस्याः परिवादिभिः पराभवितुमशक्याः एतादृश श्रुतज्ञानधराः मोक्षं गताः गच्छन्ति गमिष्यन्ति ३१ [तम्हासु श्रमहिट्ठिला उत्तमट्ठगवेसए जेणप्याणं परं चैव सिद्धि संपाउणिज्जा सेत्तिवेमि] ३२ उत्तमार्थ गवेषको मोचार्थी पुमान् तस्मात् बहुश्रुतस्य मोक्षप्राप्तियोग्यत्वात् श्रुतं सिङ्घान्तं अधितिष्ठेत् उत्तमञ्चासौ श्रर्थख उत्तमार्थो मोचार्थस्तं गवेषते इति उत्तमार्थगवेषकः येन श्रुतेन आत्मानञ्च पुनः परमपि सिद्धि ं प्रापयेत् मोक्षं गमयेत् कोर्थः बहुश्रुतः स्वयमपि मोक्षं प्राप्नोति अन्यं अपि स्वसेवकं मोक्षं प्रापयतीत्यर्थः इत्यहं ब्रवीमि इति सुधर्मास्वामी जंबू स्वामिनं प्रत्याह ३२ इि बश्रुतपूजाख्य ं एकादशं अध्ययनं संपूर्ण ॥ ११ ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रौलीकीर्त्ति गणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभमणि विरचितायां बहुश्र ुतपूजाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ ११ ॥ अथ द्वादशं प्रारभ्यते एकादशे बहुश्र ुतपूजा प्रोक्ता ॥ अथ द्वादशे बहुश्रुतेनापि तपो विधेयः इति एकादशद्दाद तम्हासुय महिट्ठे ज्जा उत्तमट्ठ गवेसए जेणप्पाणं परचेव सिद्धिं संपाउणेज्जासेत्तिवेमि३२ बहुस्सुयज्झयणंसम्मत्तं ॥११॥ सान्त भण' उत्तमार्थो मोचः तस्य गवेषकः उत्तम अर्थ मोचतेहना गवेषक जोवे के येन कृत्वा आत्मानं परच जिये सिद्धान्ते करौ आपणा आत्माने अने परशिक्षादीकने सिद्धिं प्रापयति निस्तारयति इत्यर्थः मुक्तिः सम्प्राप्तः इति समाप्तौ ब्रवीमि ३२ इति श्री बहुश्रुताख्यमध्ययनं संपूर्णम् ॥११॥
88
****************************X**X*X**X*************
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ. सं० उ०१४ मा भाग
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उ. टीका अ०१२
शयोः सम्बन्धः अतोनाध्ययने तपो माहत्म्यमाह। हरिकेशबलसाध स्तपस्वी बभूव तत्सम्बन्धी यथा मथुरानगर्या' शोनाम राजा विषयसुख विरत: * स्थविराणामन्ति निष्कान्तः कालक्रमण गौतार्थो जातः पृथ्वीमण्डले परिभ्रमन् हस्तिनागपुर प्राप्तः तत्र भिक्षानिमित्त प्रविष्टः तत्र को मार्गों प्रतीवो *णोस्ति उष्णकाले केनापि गन्तु न शक्यते उन्मार्गस्य हुतवह इति नाम सनातं तेन मुनिना सन्नमवाक्षस्थितः सोमदेवाभिधानः पुरोहितः पृष्टः किमेतेन
मार्गेण ब्रजामौति पुरोहितेन चिन्तित यद्यसौ हुतवहमार्गे गच्छति तदा दह्यमानममु पश्यतो मम कौतुकमनोरथः पूर्णी भवतीति अतस्तेन स एव मार्गो निर्दिष्टः ईयोपयुक्तो मुनिस्तेनैव मार्गेण गन्तु प्रवृत्त: लब्धिपात्रस्य पादप्रभावतस्तादृशोपि मार्गे शान्तो बभूव तस्मिन् मार्गे शनैः शनैश्चलन्त मुनि वौच्च स पुरोहितः स्वावास गवाक्षादुत्तीर्य खपदाभ्यां तं मार्ग' स्पृष्टवान् हिमवच्छौतलो मार्गस्ते न जातं मुनिपादमाहात्म्यं एवच चिन्तितं हा मया पापकर्मणा पुण्यात्मनोऽस्यकोदृशो मार्गः प्रकाशितः परमस्य पादस्पादेव मार्गतापोपशांति र्जाता ततो यद्यहमस्य थियोऽभूवं तदामाम तत्प्रायश्चित्तं भवतीति चिंतयित्वा तस्यमुनेः पुरः स्वपापं प्रकाशितं पादौ च प्रणतो मुनिनापि तस्य सम्यग्धर्मः प्रकाशितः जातं संवेगेन तेन सोमदेवेन तस्य नरंति बेदीक्षा ग्रहौता चारित्र' विशेषात्यालयति परमहं ब्राह्मणत्वादुत्तमजातिरितिमदकुरुते परनैवं भावयतिगुणे रुत्तमहायांतिननुजाति प्रभावतः चौरोदधि समुत्यवः कालकूटः किमुत्तमः १ किंच कोशेयं क्वमिजं सुवर्ण मुपलापि गोरोमतः पंकात्तामरसं शशांकमुदधे रिंदीवर गोमयात् काष्टादग्निरहे: फणादपि मणिर्गीपित्ततो रोचना जाता लोकमहार्घता निजगुणैः प्राप्ताश्च किं जन्मना २ एवं परमार्थमभावयन् सजातिमदस्तब्धः सोमदेवः कियत्कालं संयममाराध्य कालक्रमण मतो देवो जात स्तव चिरकालवान्छितसुखानि भुक्तवान् ततातो गङ्गातौर हरिकेशाधिपस्य बलकोष्टाभिधानस्य चण्डालस्य भायाः गौर्याः कुचो समुत्पन्नः साच स्वप्ने फलितं आमच ददर्श स्वप्रपाठकानांच कथितवतो तैरत तव प्रधानपुत्रो भविष्यतीति कालमासे दारको
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७• ४१ मा भाग
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उ० टोका अ०१२
३४७
जात जातिमदकरणेनास्य चण्डाल कुलोत्पत्तिर्जाता स बालः सौभाग्यरूपरहितो बान्धवानामपि हसनीयः तस्य बल इति नाम प्रतिष्ठितं सच वर्धमानः प्रकामं क्लेशकारित्वेन सर्व्वेषामुद्देगकारौ जातः अन्यदा वसन्तोत्सवे प्राप्ते चाण्डालकुटम्बानि विविधखाद्यपानकरणाय पुराद्वहिर्मिलितानि सन्ति स बल नामा बालकः परवालैस्समं क्लेयं कुर्व्वन् जातिहडे र्निर्यूट: दूरस्थ: स विलासक्रीडापराणि परबालानि पश्यति परं मध्ये समायातु ं न शक्नोति afar सरे तत्र सर्पो निर्गतः सविष इति कृत्वा चाण्डाले मरितः पुनस्तत्र प्रलम्बमलशिकं निर्गतं निर्विषमिति कृत्वा तैर्नविनाशितं ताम मरणं दृष्ट्वा तेन बलबालेनचिन्तितं निजेनैवदोषेणप्राणिनः पराभवं सर्वत्रप्राप्न ुवन्ति यद्यहं सर्प सदृशः सविषस्तदा पराभवपदं प्राप्तः यद्यलसिकनिरपराधो भविष्यंस्तदा न मे कथित्पराभवो भविष्यदिति सम्यग्भावयस्तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं विमान वाससुखस्म तिर्मार्गमा गतं जातिमदविपाकोऽपि ज्ञातः सम्बेोगमागतेन दोचा गृहोता स हरिकेथौबलः शुडक्रियां पालयन् षष्ठाष्टमदशमद्दादशमासादित पस्तपन् क्रमेषु विहारं कुर्वन् वाराणसीं नगरीं प्राप्तः तत्र तिन्दुकवने मण्डिकयचप्रासादे स्थितो मासचपणादितपः करोति तदृगुणावर्जितश्च यचस्तं महर्षि निरन्तरं सेवते अन्यदा तत्र बने एको परो यचः प्राघूर्ण कः समागतः तेन मण्डकयक्षस्य पृष्ट कथं त्वं मद्दने साम्प्रतं नायासि तेनोक्त ं श्रहमिह स्थितमिमं मुनिं सेवे एतद्गुणावर्जितञ्चान्यत्र गन्तु नोत्सहे सोप्यागन्तुको यचस्तद्गुणावर्जितो बभूव श्रागन्तुकयक्षेण मण्डिकयचस्योक्त' एताट्टमा मुनयो नेपि सन्ति तत्र गत्वा श्रद्य तान् सेवामहे इत्युक्का दावपि तौ तत्र गतौ विकथादि प्रमादपरास्ते तत्र ताभ्यां दृष्टाः तेभ्यो विरक्तौ तौ यक्षौ पश्चात्तत्रा गत्य हरिकेशोबलं महामुनिं प्रणमतः प्रत्यहं सेवतेस्म अन्यदा तव यच्चायतने वाराणसीपति कौथलिकराजपुत्रौ भद्रा नास्त्री नानाविध परजनानुगता पूजासामग्रीं गृहीत्वा समायाता यक्ष प्रतिमां पूजयित्वा प्रदक्षिण' कुर्व्वन्तो मलक्लित्र वस्त्रगात्रं दुस्सहतपः करणकथं कुरूपं तं महामुनिं दृष्ट्वा शूल्क तं
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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20
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उ टीका
निससर्ज यशेण चिन्तितं यं महामुनिं तिरस्फुरुते अतो मया शिक्षणीयेति अधिष्ठिता तेन यक्षेण असमञ्चसं प्रलपन्ती दासीभिरुत्पादा राजगृहं * नौता राजा मन्त्रिका वैद्याच आकारिताः तैचिकिमायां वतायामपि न तस्याः कचि हिशेष जातः अथ तस्या मुखे संक्रातो यक्षः स्पष्टमेवमाह अनय
मदायतनस्थितो महानुभावः संयमीनिन्दित: यदीयं तस्य संयमिन: पाणिग्रहण कुरुते तदा मयास्था वपुमुच्यते नान्यथेति चिन्तितं राम्रा ऋषिपत्नी भूत्वा अपौयं जीवत्विति बिमृश्य यक्षवचनं राज्ञा प्रतिपन्न सा खस्थ शरौरा जाता सर्वालङ्कारभूषिता गृहीतविवाहोपकरण महाविभूत्या यक्षायतने
गता तस्य महर्षेः पादौ प्रणम्य एवं विज्ञप्ति चकार हे महर्षे त्वं मकरकरण राहाण मुनिना भणितं भद्र बुधजननिन्दतया अनया सङ्कथयालं अपिच ये 8 साधव एकस्या वसतौ स्वीभिः समं वासमपि नेच्छन्ति तेन साम्प्रतं करकरेण कथं गृह्णन्तिसिद्धिवधू बहरागाः साधवः कथं अशुचिपूर्णाम युवतीस रज्यति
अथतेन यक्षेण तस्यमहर्षेः शरीरं प्रच्छाद्य तत्मदृशं भिन्नरूपं विकुयं करकरण जगहे एकरात्रि यावधिता प्रभाते यक्षीदूरीभूतः स्वाभाविकरूपी योत स्तामाह भद्रे अहं संयमौनैव स्त्रौस्पर्श विधाशध्या करोमि न मया त्वत्करः करेण गृहीतः किन्तु मनतेन यक्षेण व त्व' विडम्बिता स च साम्प्रतं दूर गतः मत्तस्व दूरे भव महर्षिणेत्युक्ता सा प्रभाव सर्वमिव मन्यमाना भृशं विखिवा राजोराहे गता सर्व तत् स्वरूपं राज्ञोग्रे आचख्यौ तदानीं राज्ञः पुर उपवि टेन रुद्रदेव पुरोहितेनोक्त राजवियं ऋषिपत्नौ तेन मुक्ता ब्राह्मणाय दीयते ततो रानां सा तस्यैव दत्ता पुरोहितोपि तयासह विषयसुखमनुभवन् कियन्तं कालं निनाय अन्यदा तस्या यज्ञपत्रौत्वकरणार्थ यजस्तेन कर्तुमारब्धः तत्र यज्ञमण्डपे देशान्तरेभ्यो अनेकभट्टाः सवाः समायाताः तदर्थ भोजनसामग्री तत्र प्रगुणौकता अस्मिनवसरे तब महर्षि र्मासोपवासपारणके गोचर्या भमन् यज्ञमण्डप समायातः इत्यादिकथानकं हरिकेशीबलस्योक्त शेषकथानक सूत्रादेवावमेयं सूत्र [सोवागकुलस भूत्रो गुरुत्तरधरो मुणौ हरिए सबलो नाम आसौ भिक्खू जिइ दियो १ स हरिकेशबलो नाम प्रसिद्धी भिक्षुरासीत्
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० ल• ४१ मा भाग
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छ टीका
कौदृशः सः साधुः जितेन्द्रियः पुनः कीदृशः श्वपाक कुलसम्भू तः खपाकश्चाण्डाल स्तस्य कुले सम्म तः पुनः कीदृशः मुनिः मन्यते जिनाज्ञां इति मुनिः जिनान्नापालकः इत्यर्थः जितानि इन्द्रियाणि येन स जितेंद्रियो विषय जेता पुनः कीदृशो गुणत्रयधरः गुणत्रयं ज्ञानदर्शन चारित्वाख्य धरतौति गुणत्रय धर) [इरिए सणभासाए उच्चार समिईसय जी आयाण निक्वे वे संजो सुसमाहिओ] २ पुनः कथंभूतो हरिकेशबलो मुनिः ईषण भाषीच्चार स मितिषु जो इति यतो यत्नवान् ईर्या च एषणा च भाषा च उच्चारच ईय॑षणा भाषोच्चारास्तेषां समितयः सम्यग् व्यवहारा ईयैषणा भाषोच्चार समितय स्वासु ईरणं ईर्या गमनागमनं तस्य समिती गमनागमन व्यवहारे यत्नवान् एषण एषणा आहारग्रहणं तत्र समितिरषणा समितिस्तत्र यनवान् एवं
सोवागकुलसंभूयो गुणुत्तरधरो मुगी। हरिएसबलो नाम आसी भिक्खू जिईदिओ ॥१॥ इरिएसणभासाए उच्चारे
समिईसुय । जो पायाण निक्लेवे संजो सुसमाहिती ॥२॥ मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिईदिओ। भिक्ख *चण्डालकुलो अव: सोपाककही। चण्डाल तेहने कुले उपनो सर्वोत्तम गुणधरोमुनिः सर्व उत्तम जे गुण तेहनो धरणहार के साधु हरिके
शवलोनाम हरिकेशी चण्डालनी जाति के बलीस्यो नाम के आसीत् अभूत् भिक्षुः जितेन्द्रियः आसीत् हुओ साधु जिनेन्द्रियः आपणा इंद्रि जित्या छ । वैषणा भाषायां पूर्या समति एषणा समति भाषा समति पुरीष समितिषु च उच्चारपा सवण समितिनें विषे यत्न वान् ग्रहणे मोचने च भाडा प्रमुख मूकेतो पूंजौनें मूकेले तो पूंजीने लिई संयमान्वित सुसमाधित सतरह विधि संयम पाले समाधि वंतछे समाधि मांहि वर्तके २ मनो गुप्तवान् मन जेहने गुप्त ठामिछे वचन् गुप्तवान् वचन जैहने गुप्तके काय गुप्तवान् जितेंद्रियः काया जहनौं गुप्तके
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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४० टोका
अ०१२
२५०
सूत्र
भाषा
भाषा समितौ भाषा व्यवहारे यत्नवान् भासाए इत्यच एकार: आर्षत्वात् तिष्ठति उच्चार समिति मूत्रपुरीषादि परिष्टापन विधी यत्नवान् पुनः कीदृशो हरिकेशबलः साधुः आदान निक्षेपे वस्त्रपात्राद्युप करण ग्रहण मोचने संसम्यक् प्रकारेण यतः संयतः संयमौ पुनः कीदृशः सुतरां अतिशयेन समाधितः समाधिसहितः चित्तस्थैर्य सहित इत्यर्थः पञ्चसमिति युक्तः सुसाधुरस्तोत्यर्थः २ [मणगुत्तो बयगुत्ती कायगुत्तो जिइन्दिश्री भिक्खट्ठावंभद्रमि जनवाड मुवडिओ] २ पुनः कीदृशो मनो गुप्तप्रागुप्तः पुनर्वचन गुप्रागुप्तः पुनः काय गुमप्रागुप्तः पुनः जितेन्द्रियः एतादृशी हरिकेशवलः साधुभिक्षार्थं ब्राह्मणानां इव्या ब्राह्मणे ज्यातस्यां ब्राह्मणेज्यायां ब्राह्मण यज्ञपाटके उपस्थितः तत्र ब्राह्मणा यज्ञ' कुर्वन्ति तत्र यज्ञपाटकेः प्राप्तः मनो गुप्तयागुतो गनोगुप्तः वचो गुप्तप्रागुप्तौ बचोगुप्तः काय गुप्तप्रागुप्तः कायगुप्तः इत्यत्र सर्वत्र मध्यपदलोपौ समासः ३ [तंपासि ऊणमेज्जन्त' तवेण परिसोसियं पन्तोवहि उवगरणं उवहसन्ति श्रणारिया ] ४ तं हरिकेशबलं साधुं एब्जन्त आयातं पासि ऊण दृष्ट्वा श्रनार्याः दुष्टा; ब्राह्मणा उपहसन्ति उपहासं कुर्वन्ति कोदृशं तं तपसा परिशोषितं तपसा दुर्बलोक्कतं पुनः कीदृशं तं प्रान्तोपध्युपकरणं जीर्ण वस्त्रोपधिधारकं प्रान्त जीर्ण मलिनत्वादिना प्रसारं ऊपधिर्वर्षा कल्पादिः सएव उपकरणं धर्मोपष्ट'भ हेतुरस्येति प्रान्तोपध्यपकरणस्तं प्रान्तोषध्यपकरण ४ जाईमय पडिबचा हिंसगा अजि इंदिया अबंभचारिणो बाला इमं वयण ठावंभज्जमि जमवाड मुट्ठि ॥ ३ ॥ तं पासिऊणमेज्जतं तवेण परिसोसियं । पंतोवहि उबगरणं उवहसंति पांच द्रोजीत्यां के भिचायं ब्राह्मणानां भिचाने अर्थे ब्राह्मणनेघरे यज्ञपाठके उपस्थित. प्राप्तः यज्ञवाडाने बिषे आव्यो ३ तं हरिकेशं आगच्छन्तं दृष्ट्वा तेह रिकेशी साधने श्रावतो देखो ते साधु कौस्या के तपसा षष्ठादिना परिशोषितं कह भट्टममासखमण आदेदेईने तपे करोने आपण देहो सुखाईके प्रान्तो मध्यपकरणं जीर्णोपध्य, पकरणं प्रांत फाटा बूटावस्त्र पहया के हास्य कुर्व्वन्ति अनार्या ब्राह्मणाः एहवायतौने हसवालागावाह्मण अनार्य ४ जातिमद
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ。स उ० ४१ मा भाग
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OF
टीका, मब्बवौ ५ ते ब्राह्मणाः विवेकविकलाः इदं वचनं अब्रुवन् कौशास्ते जातिमद प्रतिस्तथा जातिमदेन ब्राह्मण ब्राह्मण्य झवत्वेन यो मदोऽहङ्कारस्तेन
ॐ प्रतिस्तब्धा अनमाः जाति मद प्रतिस्तब्धा पुनः कीदृशाः हिंस्रकाः जीवहिंसाकरणशीलाः पुनः कीदृशाअजितेंद्रियाः विषया सक्ताः पुनः कीदृशाः अब्रम * चारिणी मैथुनाभिलाषिणः अब्रह्मणि काः, विनायां चरन्ति रमन्ते इति अब्रह्मचारिणः कुशौलाः इत्यर्थः ते ब्राह्मणाः किं अब्रुवन् इत्याह [कयर आगच्छ8
इदित्त रूवे काले विकराले पोकनासे श्रीमचेलए पंसु पिसायभूए संकरदूसं परिहरियकण्ठे] ६ कतरः कोयं आगच्छति अतिशयेन इति कतरः एका ४ र प्राक्तत्वात् परमयं कीदृशः दीप्तरूपो बीभत्मरूप: दीप्तवचनं वीभत्मार्थ वाचकं पुनः कीदृशः कालः कालवर्णः पुनः कीदृग् विकरालो विकृतांगोपां __अणारिया ॥४॥ जादूमय पडिवदाहिंसगा अजिडू दिया। अबंभचारिणो बालाइमं वयणमव्ववी ५। कयर आगच्छद्र
दित्तरूवे काले विगराने पोकनासे । उमचेलए पंसु पिसायभुए संकरदस परिहरिय कंठे ॥६॥ कयरे तुम ईय अदं भाषा * प्रतिवद्धाः ते ब्राह्मणकिस्था के जातिनी मदतिणे करी लुब्धप्राणघातक: अजितेन्द्रियवली ब्राह्मण केहवाई हींसाजीव बध करे के इन्द्री जेणे जोत्या नथी
अब्रह्मचारीणो मूर्खाः वली ब्राह्मण किस्या छ अवमचारी कुधौलिया बाला मूर्ख इदं वचनं अब्रवीत् हवे ते ब्राह्मण यतौने एहवांवचन कह के ५ कतरः त्वं आगच्छति हे वौभमरूपः कतरकोणरे तू आवे के कुत्सित दैत्यरूप वर्णन कालः दन्तुदिना विकरालः हे फोकनासः तु कालो के मोटा8 दांत के तेह भणी वौकराल छ मोटो धूलनाशिकाछे हे उच्छिष्टवस्त्रधारक पौसाचभूत मेला वस्त्र छ घणो धूलशरोरेलागी के तेह भणी पणौ पिशा चदीमे के उत्करटिका वस्तनिक्षिप्त कण्ठः अकरडानां पां वस्त्र लेइ ते गले पहस्या छ जौण जतीये । कतर इत्येवं दुष्ट प्रदर्थी ब्राह्मण वोल्या कोण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.स.१४मा भाग
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MORXXXXX
उल्टीका ४ गधरः लम्बीष्ठ दन्तरत्वादि विकारयुक्तः पुनः कीदृशः पोकनागः पोक्का अग्रेस्थलोब्रता मधे निमा चिप्पटा नाथायस्य सपोवनाशः पुनः कीदृग् अवम अ०१२४ घेलः अवमानि असाराणि चेलानि वस्त्राणि यस्य स अवमचेलः मला विलत्वेन जीर्णवेन त्याज्यप्राय वस्तधारीत्यर्थः पुनः कीदृशः पांश पिशाच भूतः ३५२
* धुल्यावगुण्ठित शरीरत्वेन मलिनवस्त्रत्वेन भूततुल्य इत्यर्थः एतादृशः कोयं शङ्करदूष्य कण्ठे परिपृत्य प्रवा गच्छति समीपे आगतं दृष्ट्वा एवं जचुरि त्यर्थः शङ्कर उत्करटक रोडोकावस्त्र जकरडी विशेष स्तवस्थं दूध वस्त्रं शङ्करदूष्य यद्यपितस्यसाधोर्वस्वं उत्करटकनास्ति तथापितेषां अन्यन्त घृणोत्पादक त्वेनतैरुन' कोयं उत्करटक वस्त्रं कण्ठे परिध य पिशाच सदृशी भ्रमबत्रा गछति सहि हरिकेशी साधुः कुत्रापि आकीयं उपरण' न मुञ्चति सर्व वस्त्रोपधि उपकरणादिकं ग्टहीत्वैव भिक्षाद्यर्थ भ्रमतौतिभावः ६ [कयरतुम इय पदंसणिज्जे काएव आसाइहमागओसि प्रोम चेलगा पंस पिसाय भूया गच्छ खलाहि किमिहं ठिोसि] ७ पुनस्ते किमूचुरित्याही इति नौचामन्त्रण अवमचेलकः सटित पटित वस्त्रधारी धूलीधूसर भूत कल्पस्त्व' कोसिकया आशया रह यज्ञपाटके आगतोसि काएव आशा इति प्राक्कतत्वात् मकारोपि लाक्षणिकः कीदृशस्त्व इय अदंसणिज्जे अनेन मलिनवस्त्रादिधारणेन प्रदर्शनीय इति अदर्शनीयः द्रष्टुं अयोग्यः त्वदर्शना देवास्माकं धर्मो विलीयते अत्र गाथायां उमचेलगा पंस पिशाय भूया इति पुनरुक्तिः अत्यन्त निर्भमनार्थारभूतप्राय गच्छ इतो यत्तस्थानाद्वज खलाहित्ति देशीय भाषया अपसर दूर दृष्टिमार्गात् किमिहस्थितोसि त्वया सर्वथात्र
सणिज्जे । काएव आसाएदूह मागओसि । उमचेलगा पंसुपिसायभूया गच्छ खलाहि विभिहंठिओसि ।। जक्खो * रे तू पावे हे रहा पदर्थीक देखवा अयोग्य कया वांछया रह यत्नपाटके आगतीसि अरे पियाच ए यच वाडे किसी चार पायो के हे उमचेलकरज * सा पिशाचवत् जातः मैलावस्त्रके धुलिलागौ के शरीर तिथे करौने पिशाचभूतछे अतोयनपाटकात् ब्रजस्व अपसर किंचितोसि हे खल है दुर्जनजापर
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ.१४ मा भाग
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Mw
and
उ. टीका
न स्थातव्य मित्यर्थः तैाह्मणै रित्युक्ते सति स साधुस्तु किमपि न अवादौत् तदा तद्भक्तस्य यक्षस्य कृत्यमाह ७ [जक्खो तहितिंदुय रुक्सवासी अणकम्पनी ४ तस्म महामुणिस्म पच्छायइत्तानियगं सरौरं इमाइ वयणाइ मुदा हरित्या ८ तस्मिन्काले तिन्दुकबक्षवासी यच इमानि वक्ष्यमाणानि वचनानि उदाहा
र्षीत् अवोचदित्यर्थः किं कृत्वा निजकं शरीरं प्रच्छाद्य स्ख शरीरं प्रच्छन विधाय साधुशरौरे प्रवेशं कृत्वा कथंभूतः स यक्षः तस्य मुनेः अनुकम्पकः अनु. रूपं कम्यते चेष्टते इत्य नुकम्पक माधोः सेवक इत्यर्थ तिन्दुकवनमध्ये एको महान् तिन्दुकक्षोस्ति तस्य वृक्षस्याधस्तस्य चैत्यमस्ति तत्र साधुः कायोत्स 8 गेंण तिष्ठति तस्य साधो र्मानुष्ठानं दृष्ट्वा गुणरागौ सेवकः संजातीस्ति इतिभावः स यक्ष इत्यवादौत्८ [समणो अहं सञ्जो बंभयारी विरोधण पयण
तहिं तिंदुयरुक्खवासी अणुकंपो तस्म महामुणिस्म पच्छायईत्ता नियग सरीरं इमाई वयणाएं उदाहरित्या ।।
समणो अहं संजोबंभयारी विरोधणपयण परिग्गहाओ। परप्पवित्तस्मओ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा दूहमाग भाषा
हो मत उभी रहे कोम उभो छ ७ तत्र यशपाटके यक्षः तिंदुकवृक्षवासौ तेह यन्नवाडाने विषे एक तिंदुकनामे वृक्ष के ते वृक्षमाहि एक यक्ष रहे है। अनुकम्मया भक्त्या महामुनेः हवे ते जक्ष ते साधुनी भक्ताने वास्ते प्रच्छाद्य ख तनु' अदृश्यं कृत्वा आत्माङ्ग शरीरं आपण शरीर आच्छाद्य ढांकौने यतौना शरीरमे संक्रमाने इमानि वचनानि उदाहृतवान् इस्था वचन वोलवा लागो यतीना शरीरमाहिं पैसिने यक्ष ८ अहं श्रमणः अहं संयतः अहं ब्रम्हचारी 8 अहो ब्राम्हणो हु साध छ संयती छु ब्रम्हचारी छु निकृतः धनत्रजन परिग्रहात् विरमो छांद्यो धन आपणो परिवार सर्व परिग्रहपणि छांद्यो परार्थ निष्पवस्य भिक्षाकाले पराइ अर्धे नीपना के आहार पाणी भिचाने काले भिक्षावलाइ अन्नस्यार्थेह यन्नपाटके आगतीस्मि ए यचपाडाने विषे अवने अर्थ
राय धनपतसिंह वाहादुर का मा.सं० २०१४ मा भाग
४५
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०५
उ टोका
* परिग्गहानी परप्पवित्तस्मउभिक्तकाले अबस्म अड्डाइह मागीसि] ८ स यक्षः किम वोचत् तदाह भी ब्राम्हणा भवनिरुक्त' कोसिरत्व' तस्योत्तरं पई ४ श्रमणोस्मि वाम्यति तपसि यमं करोतौति थमणस्तपस्वी पुनरहं संयत: सावध व्यापारभ्यो निवर्तित: पुनरहं ब्रह्मचारी ब्रह्मणि भोगत्यागे चरति * रमते इत्येवं शोलो ब्रह्मचारौ पुनरहं धनपचन परिग्रहात् विरतः तत्र धनं गो महिथवादि चतुःपदरूपं पचनं पाहारादियाकः परिग्रही गणिमधरि * ममेय्य परिच्छेद्यादि द्रवरूपः कया आशया इहा गतोसि अस्योत्तरं भो व्राम्हणा भिक्षाकाले भिक्षावसरे अवस्य पर्याय अत्रागतीस्मि कीदृशस्य अवस्य परप्रवृत्तस्य परस्म परार्थ प्रवृत्तं पक्क परप्रवृत्तं गृहस्थे न पात्मार्थ राई' [वियरिज्जइ खज्जइ भुजई य अन्न पभूयं भवयाणमेवं जाणाहि मेज्जा
यण जोविणुत्ति सेसावसेसलहो तवस्मी १० अत्र भवयाणं इति भवतां एतत्समीपत रवर्ति अन्न प्रभूतं पद्यते इति पर्व भक्ष्यं प्रभूतं प्रचुरं विद्यते ४ तदेव प्रचुरत्व दर्शाते वियरिज इति वितीर्यते दोनहौना नाथेभ्यः सर्वेभ्यो वितौर्यते विशेषेण दीयते पुनः खाद्यते खद्यक वृतपूरादिकं स शब्द भक्ष्यते
पुनर्भुज्यते तण्डुल मुहदात्यादि स घृतं पाकण्ठ अभ्यवहार्यते इत्यनेन अत्रकाचित् कस्यापि भक्ष्यवस्तुनोन्युनतानदृश्यते यूयं मे इति मा याचन जीविनं ४ जानौत याचनेन भिचया जौविनं जीवितव्य अस्थेति याचन जीवीतं इति अस्मात् कारणात् तपस्खौ मलक्षणो मुनिरपि अत्र शेषावशेषं शेषात् अपि
श्रोसि ॥६॥ वियरिज्जइखज्जडू मुंज्जईय अन्नप्पभूयं भवयाणमेय। जाणाहिमेजायण जिविणोत्ति सेसावसेसं लहो आव्यो कु८ दौयते खाद्यानि खाद्यते भक्तरूपादि यक्ष कहे छे अहो व्राम्हणो तुम्हो अब जिमो छो चोखा दालि रोटी प्रमुख धान्य प्रचुरं भवतां एतत् तुम्हारा यज्ञ वाडा माही ए धानघणा दोसे के जानौतया च नजौवौ इति अहो ब्राह्मणो मुझने तुम्ही याचना जौवी जाणो र' भिक्षा मांगौने आजीवीका करु छु' शेषावसेष उहरितं अन्तप्रान्चलभेत तपस्वी अहो ब्राह्मणो अम्हसरिखने जगस्या सांझर ताटुं तपस्वौने द्यो १० संस्कृतं उत्पादितं भोजनं ब्राम्ह
1894XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०७० ४१ मा भाग
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शेषं शेषावशेष उद्दरितं प्रान्तप्रायमाहारं लभतां प्राप्नोतु इत्यपि यूयं जानौतकीर्थः स मुनिरवादीत् अत्र अब यत्र तत्र परिष्ठाप्यते भवद्भिरतादृशौ - सटौका
* बुद्धिः करणीया अयं वपस्खो आहारार्थ प्रागतोस्ति अयमपि शेषावशेष आहारं प्राप्नोतु इति विचार्य मा शमाहारं दौयतामिति यज्ञेणोक्त सति ते अ०१२
* ब्राम्हणाः किं प्राहुरित्याह १. [उवक्खडं भोयणमाहणाणं अत्तड्डियं सिइमिहेगपक्वं न उब्वयं एरिसमनपार्थ दाहामुतुम्भ किमहं ठिोसि] ११ रे भिक्षी
रह अस्मिन् यन्नपाटके भोजनं यत् उपस्क्रतं घृतहिंग्वाधान्धक मिरच लवण जौरकादिभिः घृतोपस्कारं याकादिकं पुनरिहसिह चतुर्विधाहार राई 8 वर्तते तद र भिक्षी पाहार एकपक्षं वर्तते एक: पक्षी ब्राम्हणो यस्य तत् एकपक्षं एतदाहारं शूदेभ्यो नदेयमस्ति वाम्हणानां वर्तते पुनरिदं आहार
तवस्मी ॥१०॥ उपक्खडभोयण माहणाणं अत्तट्ठियं सिद्धमिहंगपक्वं । ण उव्वयंएरिसमन्बयाणं दाहामुतुभ किमिहंठि
ओसि ११ थलसुबीयाई व३तिकासगातहेवणिन्नेमुयससाएएयाएसडाएदलाहिमाराहएपुसमिणंखुखेत्तं ।१२।
णानां ब्राम्हण कहे के ए आहार पांणी ब्राम्हणाने काजे नोपनी के आत्मार्थ निष्यन्न इह एक एक ब्राम्हणेभ्य एव देयं अने वलौ आत्माने अर्धे नौपनो भाषा एक पक्ष कूट ब्राम्हण वीजा को इने देवो नहीं नच वयं ईदृशं अब पानं अम्हे इस्यो अन्न तुझने तुभ्यं न दास्यामः किं इहस्थितोऽसि नहिं द्याइहां कांड
उभी के ११ यज्ञो वाच उच्च भूभागेषु वोजानि बपति कौटम्बिकाः कलंबो उचा चलने विषे वौजवावे तथा निम्नेषु नौच भूमिघु वपति धान्याशयः तिम वली नौची भूमिकाने विषे वावधाननीची भूमिकान विषे वावे धाननी आस्था कर एतदुपमयाबडयाददध मञ्चं एखे तनौउपमाकरीनेमुझने पणिद्यो पाराधयेत् पुण्य इदं निश्चितक्षेत्र अहो ब्राम्हणी ए क्षेत्र पवित्र के भलो के तुम्ही आराधी १२ वाम्हणा ऊचुः क्षेत्राणि अस्माकं ज्ञातानि लोके अम्हें साधु
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०१.४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०१२
२५६
सूत्र
भाषा
मार्थिक श्रमाभवं आत्मार्थिकं ब्राम्हणैरपि आत्मनैव भोज्यं नत्वन्यस्यचित् देयमित्यर्थः तु इति तेन हेतुनावयं एतादृयं ब्राम्हणभोज्य अब पानं तुभ्यं न दास्यामः इह त्वं किं स्थितोसि अस्माकं धर्मशास्त्रे उक्तमस्ति न शूद्राय मतिं दद्यात् नोच्छिष्टं न हविः कृतं नचास्योपदिशेत्रम्मं नचास्य व्रतमादिशेत् १।११ तदा यचः पुनरवादीत् [थलेसवीयाई' ववंति कासयातहेव नित्र सुय आससाए एयाइ सडाएट्लाहिमज्यं आराहिए पुत्रमिं खुखेत्त'] १२ एतया अनया उपमया श्रद्धया भाववनया मह्यं ददुध्वंखु इति निश्चयेन इदं मल्लक्षणं पुण्यं शुभं क्षेत्र आराधयत एतया इति कया उपमयावां उपमा आह कर्षकाः क्षेत्रौकारकाः नराः श्रशंसया विचारण्या काले वर्षाकाले स्थलेषु उच्चप्रदेशेषु तथैव निम्नेषु निम्नभूमिप्रदेशेषु बोजानि वपन्ति कोर्थः वर्षा काले क्षेत्रौकारका वीजं वपन्त एवं चिन्तयति यदि प्रचुरा वर्षा भविष्यन्ति तदा स्थलेषु फलावाप्तिर्भविष्यति यदि च अत्याः वर्षा भविष्यन्ति तदा निम्न प्रदेशेषु फलावाप्तिर्भविष्यति उभयत्र उच्च नौचप्रदेशेषु बीजं वपन्ति न पुनरेकर्ते व बोजं वपन्ति यदि यूयं वाम्हणा निम्नभूमिसमा स्तदा अहं स्थलभूमिसदृशो गण्यः मध्यमपि दातव्य' न केवलं यूयमेव क्षेत्रप्रायाः किन्तु अहमपि पुण्यक्षेत्रमस्मीति भावः १२ इति श्रुत्वा ते ब्राम्हणा स्तं प्रत्यूचुस्तदाह [खित्ताणि अम्ह' विद्रयाणि लोए जहिं पकित्रा विरुहंति पुत्रा जेमाहणा जाइ विज्जोववेया ताई' सुखित्ताइ सुपे सलाई] १२ घरे पाषण्डपाय तानि क्षेत्राणि अस्माभिर्विदितानि वर्त्तन्त इति श्रध्याहारः जहिं इति यत्र क्षेत्रेषु प्रकीर्णानि उप्तानि बोजानि प्रदत्तानि खेत्ताणिअम्ह' विदियाणिलोए जहिंपकिन्नाविरुहंतिपुन्ना । जेमाहणाजाइ विजोविवेयाताइ' तुखेत्ताइ सुपेसलाइ । १३ ब्राम्हण कहे के जेदाननां क्षेत्र के ते अमे जाणु कु' यंत्र क्षेत्रेषु बप्तानि सति प्रादुर्भवन्ति पूर्णानि जे क्षेत्रने विषे व्योवो थकां उगे पुण्य ये ब्राम्हणाः जाि विद्योपपेताः जे ब्राम्हण योग करो विद्या करो सहित के उत्तम जाति के घणी विद्या जाणे तानि चेत्राणि सुपेशलानि मनोज्ञानि इस्या वाम्हण अम्हारे
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काय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०० ४१ मा भाग.
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ए० टोका अ०१२
३५७
सूत्र
भाषा
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दानानि पूर्णानि विरुति विशेषेण उद्गच्छन्ति फलदानि भवन्ति विभक्तिलिङ्गव्यत्ययस्तु प्राकृतत्वात् ये ब्राम्हणा जातिविद्योपपेताः स्तेतु ब्राम्हणाः सुतरां अतिशयेन पेशलानि मनोहराणि क्षेत्राणि यानि तत्र जातिवाम्हणत्वं विद्यावेदाध्ययनं जातिञ्च विद्याच जातिविद्ये ताभ्यां उपपेताः सहिताः जाति विद्योपपेताः उप अप इताः इत्यत्र शकंध्वादिषु पररूपमित्यनेन उपशब्दस्य प्रकारलोप पश्चादाद्गुणेन सिद्धि: यदुक्तं समश्रोत्रिये दानं द्विगुण ब्राम्हण ब्रूवे सहश्रगुणमाचार्य अनन्त ं वेदपारगे २ इत्युक्तत्वात् वेदपाठगाः ब्राम्हणाः पुण्य चेत्राणि १२ अथ यक्ष श्राह [कोहोय माणोयबहोयजेसिं मोसं अदत्तं च परिग्राहं च तेमाहणाजाइ विज्जा विहौणा ताइ' तु खित्ताइ सुपावयाइ] १४ भो ब्राम्हणणः येषां भवतां मध्ये क्रोधो वर्त्तते च पुनर्मानमाया लोभा वत न्ते चकारात् मानादीनां ग्रहणं च पुनर्बंधो जोवहिंसा वर्त्तते अदत्त' अदत्तादान मप्यस्ति च शब्दात् मैथुनं कामा शक्तिरस्ति च पुनः परिग्रहो वर्त्तते यूयं के ब्राम्हणाः जाति विद्याविहोना क्रिया कर्मविशेषेण चातुर्वर्ण्यं व्यवस्थितं इति वचनात् ब्राम्हणत्व जातिमान् ब्राम्हण : ब्राम्हण ब्राम्हणीभ्यां उत्पनी च्यते किं तु ब्राम्हणत्वेन ब्राम्हणक्रिया निष्ठत्व न ब्राम्हणस्थितेन जातिधर्मेण विशिष्टो ब्राम्हण उच्यते तस्मात् युषासु वृम्हक्रियानिष्टत्व ब्राम्हत्वस्य अभावात् न जातिरस्ति ब्राम्हणाः तुम्हचर्येण इति लक्षणोक्तित्वात् न पुनर्यूयं विद्या युक्ताः विद्यायास्तु विरति रूपफलभावात् विद्यावान् अपि यावत् विरतिमान् सन् श्रश्रवात् सम्बरद्दारेण न रुणद्धि तावत् स विद्यावान् न उच्यते विद्या अपि परमार्थत स्ताएव उच्चते या सुपञ्चा श्रव परिहार उक्तः तस्मान्न भवन्तो विद्या कोहोयमाणोयवहोयजेसिं मोसं अदत्तं परिग्गहंच । तेमाहगाजाइ विज्जाविह्नणा ताई तुखेत्ताइ सुपावया ॥ १४ ॥ पुण्यनां क्षेत्र मनोहर कला १३ अथ यतोवाच क्रोधश्च मानश्च बधश्च येषां क्रोधमान के जे मांहिवली वध करे छे जीवमार के मृषावादश्च प्रदत्तश्च परि ग्रहव मृषावाद बोले अदत्तादानलिइ परिग्रह राखे ये वाम्हणाः जातविद्या विहिनाः तेवाम्हण जाति विद्याद् करोने होन तानि क्षेत्राणि सुपापकान्येव
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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अ०१२
उ.टोका * वन्तः भवत्सु भवदुक्त एव जाति विद्योप पेतत्वं वाम्हण लक्षणं सर्वथा नास्त्ये व तस्मात् तानि सु पापकानि एव खेत्राणि भवन्तः न पुण्य क्षेत्राणि युबं१७
अथ कदाचित्ते एवं वदेयुः वयं वेदविदो वद्महे इत्याह [तुम्भ स्य भोभारगिराणं अहं नयाणाह अहिज्जवेए उच्चावयाई मुणिणो चरन्ति ताईत खित्ता ॐ इसुपेसलाई १५ भो इत्या मन्त्रणे भो वाम्हणा यूयंगिरां वेदवाणीनां भारहराः भारोद्धाहकाः यतो यूयं वेदान् अधीत्य वेदानां प्रथं न जानीय तथाहि
आत्मा र नातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः पुनरयं समो मशके नागे च न हिंस्यात् सर्वभूतानीत्यादि वेदवाक्यानि अधौतानि अथ पुनर्भवनि जीव हिंसाखेव प्रवर्त्यते तस्मादत्र यागः पृथक् उच्यते यत्र च आमना अग्नौदाहः सचाच वेदे यागश्व न स्यात् यदि च सएव आत्माएव भवद्भिर्न ज्ञातः तदा
तुम्म त्यभोभारहरागिराणं अट्ठनजाणाह अहिज्जवेए। उच्चावयाई मुणिणोचरंति ताई तुखेत्ताई सुपसलाई।१५ ___ अभावयाणं पडिकूलभासौपभाससे किंतुसगासिअम्ह । अविएयंविणस्मओ अन्नपाणं णयणं दाहामुतुमंणियंठा ।१६।।
ते वाम्हणकपक्षेत्र अत्यन्त पापो कह्या १४ यूयं अत्र लोके विप्राभारधरा गिराणां सन्ति तुम्हें भी वाम्हणो नि:केवल शास्त्रना भार अने वाम्हणना नामनी भाषा
* भार वही को जे अम्हे वाहण वाणीति तुम्हे वेदनी अर्थनेति ज्ञात्वा अने वली तुम्हे वेदना भणो को उच्चनीच स्थानानि मुनि यश्चरन्ति धनवन्तने घरे अने निईनने घरे भिचाने अर्थे यतो जाइ नान्येव मुनिल क्षणानि क्षेत्राणि शोभनानि तेजसाधु रूप जे क्षेत्रछे ते भला पुण्य हेतु के पुण्य क्षेत्र छ१५ अथ विप्राः आहुः अध्यापकानां पाठकानां विपरीत भाषो वाम्हण बोल्या अहोसाधु उपाध्यायनु भुंडोबोलाको प्रकर्षण ब्रूषे कस्मात् समीपे अस्माकं अम्हारे पासे ऊभी बको अम्हने स्यु कहे के अविसम्भावने एतत् दृश्यमानं अवपानं कथितादिभावं प्राप्नोतु अवपाणी विणसौ जाइ के कोही जाइ छ तो हिपणि न किञ्चिद्दा
सूत्र
.राय धनपतसिंह बाहादुर का पास उ०४१ मा भाग
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किमर्थ यागं कुर्वोव प्रथमं यागोपि भवद्भिनंज्ञायते कानि तर्हि क्षेत्राणोत्याह हे वाम्हणा मुनीन् सुपेशलानि अत्यन्तं सुन्दराणि क्षेत्राणि • जानीथ ये मुनयः उच्चावचानि गृहाणि उत्तमाधमानि कुलानि भिक्षार्थ चरन्ति अथवा उच्चावयाइ उच्चानि महान्ति वृतानि उच्चत्तानि
येषां तानि उच्चत्तानि अकारप्राक्कतत्वात् महावृतधराणितानि क्षेत्राणिभव्यानिज्ञेयानि इत्यर्थः १५ तदा छात्राः किं प्राहुः [अजमावयाणं, पडिकूलभासौ पभाससे किंतुसगासि अम्ह अविएयं विणस्मउ अन्नपाणं नयणं दहामुतुमंनियंठा] १६ किन्तु इति शब्दौ निन्दाक्रोधवाचको अरे नियंठा अरे दरिद्रि व उपाध्यायानां प्रतिकूलभाषो सन् अस्मत्पाठकानां सन्मुखवादी सन् अस्माकं सकाशे अस्माकं प्रत्यक्ष प्रभाषसे प्रकर्षण यथा तथा भाषसे असंबई वचनं ब्रूषे तस्मादरे एतत् अनपानं विनश्यतु एतदाहारं सटतु पततु अपि परमेतदाहारं तुभ्यं उपाध्याय प्रतिकूलवा
दिननदनः १६ तदायक्ष आह [समिईहिं मन सुसमाहिअस्म गुत्तोहिं गुत्तस्म जिइदियस्म जइमेनदाहित्वइहेसणिज्ज किमज्ज जब्राणलभि स्यलाभ] १७ * यदि मे मम इह अस्मिन् यज्ञपाटके एषणीयं शुद्ध आहारं अद्य अवसर न दास्थथ तदा यन्नानां लाभं पुण्यप्राप्ति रूपं फलं किं लसपथ अपि तु न किम पौत्यर्थः पात्रदानं विना किमपि न फलं इत्यर्थः कथंभूतस्य मम तिसृभिःगुप्ति भिर्गप्तस्य पुनः को द्रशस्य पञ्चभिः समितिभिः म अत्यन्तं समाहितस्य युक्त
समिईहिमनं सुसमाहियस्म गुत्तीहिंगुत्तस्मजिई दियस्म । जडूमेणदाहित्य अहसणिज्ज किमज्न जन्नाणलभेत्य स्थाम: तव अब्रपान हे निग्रन्य तुझने ए अबपाणी काइ नहीं द्या तुपरहोजा १६ साधुवाच सुमतिभिः सुसमाधितस्य यक्ष कहे के पांच समवे करौ समाधिमतो को गुप्तिभिः गुप्तस्य जितेन्द्रियाय अने 'बिहुगुप्ति करो गुप्त के पांचे रद्री मे पापणा जीत्या छ यदि में मम यूयं म दास्यथ एषणीयं वस्तु जो तुम्हे सूझतो पाहार एषणीय मुझने नही द्यो तदा किमव यशाना लाभ लसिथः तो ते प्राज एह यत्रनु फल स्पामस्थी १७ विप्राः प्राहुः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०१४मा भाग
भाषा
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KREMEREKKHEREMEREKAKKKAKKKXxx
४ स्व पुनः कोदृशस्य मम जितेन्द्रियस्य जितानि इन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियस्तस्य अत्र चतुर्थी स्थान षष्ठी एतादृशाय पानाय मह्यं चेत् यूयं प्रासकमाहारं
म दास्थय तदा भवतां सर्वमपि तथा फलस्थ प्रभावात् १७ अथोपाध्याय आह [के इत्य खत्ता उवजोइया वा अकावया वा सह खंडिएहिं एयंखुदंडेय फलेण हता कंठंमि धित्तूणखलिज्जतीणं] १८ केचित् अत्र अस्मिन् यज्ञपाटके क्षत्राः क्षत्रियाः उपज्योतिषः अग्ने : उपसमीपे अग्निसमीपवर्तिन: पाक स्थानस्थाः वा अथवा अध्यापकाः वेदपाठकाः संइति अध्याहारः कथंभूताः पाठकाः खंडिकैः छात्र : सहिताः ये एनं मुंडं दंडेन वंशयष्ट्या फलेन बिल्खा दिना हत्वा कंठं ग्टहीत्वा गलहस्तं दत्वा सवलयेयुः इतो यन्नस्थानानिःकासयेयुः जोइत्यत्रयः इत्युक्त तत् प्राक्कतत्वात् ये इति वक्तव्य प्राकृतत्वाचन व्यत्ययः १८ [अनावयाणं वयणं सुणित्ता उडाइया तत्स्थ बहू कुमाराः दण्डहिं वित्तेहिं कसेहिं चेवं समागया तं इसिताडयन्ति] १८ तत्र तस्मिन् यन्न
लाभ ॥१०॥ कैएत्थखत्ताउवजोड्यावा अभावयावासहखंडिएहिं। एयंतुदंडेणफलेणहंता कंठमिचित्तूण खलेन्ज
जोणं ॥१८॥ अभावयाणं वयणं सुणित्ता उड्वाइयातत्य बहुकुमारा । दंडेहिवेत्तेहिंकसहिंचेव समागयातंदूसिताल * कचित् पन्य पवियाः चाथवा उव जोई या अग्निरक्षकाः वाम्हण वोल्या कोई हे रे अत्र क्षत्रिय अथवा अग्निरक्षकः अध्यापकाः सह छात्रैः उपाध्याय यहाँ केइ के छात्र सहित यः एनं नियंग्य' दण्ड न फलेन हत्वा जे एह जतौने दण्डे करी फल बौजीरा प्रमुखे करी हणोकण्ठ गृहीत्वानिःक्कासयेत् गले झालिने एहने काढी परी १८ अध्यापकानां वचनं श्रुत्वा उपाध्यायनां वचनसांभलीने उतापिताः तत्र वहवः कुमाराः मारवा भणी वाम्हणना छोकरा घणा दोद्या दः वेत्र: कसैच तर्जनकैचेव निश्चयेन दण्डे करौन ताजणे करौने ले करौने समागताः सन्तः तं मुनिं ताडयन्ति प्राध्या धका ते
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०स० उ०१४ मा भाग
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उ० टीका
अ०१२
३६१
सूत्र
भाषा
पाटके बहवः कुमाराः तरुणाः च्छात्राः दण्ड वंग यष्टिभिर्ववैर्जलवंगे: कसेयर्म दवरकैस्तं ऋषिं ताडयन्ति कीदृशास्ते कुमाराः समागताः समौल्यैकती भूय आगताः अहो क्रौड़नकं समागतं इति रभसतः संभूय यध्यादि सर्व गृहीत्वा समागताः इत्यर्थः तं मुनिं ताडयन्ति किं कृत्वा उपाध्यायानां वचनं श्रुत्वा १८ [रबी तहिंकोसलि अस्म धूया महत्तिनामेण अणिन्दियं गौतंपा सिया सवय हममाण कुई कुमारे परिनिब्ववेद्] २० तत्र कौलिकस्य राज्ञः धूआ इति सुता भद्रावर्त्तते सा भद्रातंसा धुन्तै ब्राम्हण कुसारेर्हन्यमानं दृष्ट्वा क्रुद्धान् मारणोद्यतान् कुमारान् ब्राम्हणकात्त्रान् परिनिर्वापयति वचनैरूपशमयति इत्यर्थः कीदृशं तं साधुं संयतं संयमावस्थायां स्थितं कौथो सा भद्रा अनिन्दिताङ्गी अनिन्दितं अङ्गं यस्याः सा अनिन्दिताङ्गी शोभन
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० १४ मा भाग **************************************
यंति।१६। रणोतहिंकोसलियस्मधूया भद्दत्ति नामेणअर्णिदियंगी । तंपासिया संजय हम्ममाणं कुडेकुमारेपरिनिव्व वेदु २० देवाभिओगेणणिओइएदिन्नामुरन्नामणसाणज्झाया । गरिंददेविंदभिवंदिएगंजे गामिवंताइसिणासएसी २१ ब्राम्हण यतीने मारे के १८ तत्र यने को लिक रातः पुत्री ते यज्ञ वाडाने विषे को सलिक राजानी वेटी महिलमांहे बैठोके भद्रा इति नाम्ना अनिन्दि ताङ्गो निर्दोष शरोरा भद्रा एहवे नामे निर्दोष शरीर के जेहनुं तं ऋषिं दृष्ट्वा दण्डाद्यैः हन्यमानं तेणीइ भद्राई यतो मार तु' दौठो क्रुवान् कुमारान् विनिवारयति देखीने क्रोधसहित जे कुमार तेहने वारे के २० भी कुमाराः देवाभिः योगेण देववशेन प्रेरितेन अहो कुमारी देवताने वसि करो प्रेखो थको मम दाता राजा मनस्यापि न ध्याताराजाइ एह यतोने मुने दोधी पणि मने करी पणी मुझने दूणे साधुद्र नवांछौ नरेन्द्रदेवेन्द्राभिः वन्दितेन ए यतो किस्या के राजवीए देवता इन्द्रे वांद्या के येन ऋषिणा अहं वांता त्यक्तास्मि स एष मुनिः जिणे ऋषि मुझने छांडी ते ए ऋषीश्वर के २१ एषः
४६
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उ० टोका
श्र०१२
२६२
सूत्र
भाषा
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शरौरा२० [देवाभि ओगेण नित्रोइएवं दिना मुरवा मणसा न भाया नरिन्द देविन्दभि वं दिएवं जेणामिवन्ताइसिणा सरसो] २१ सा भद्रा किमा दौत् तदाह भो ब्राम्हणाः एषः स ऋषिर्वत ते येन ऋषिणा ग्रहम्बांता ग्रहन्त्यक्ता कथम्भूतेन ऋषिणा नरेन्द्र देवेन्द्रादिभिः वन्दितेन कीदृशा रहं राज्ञा दत्ता अम' अर्पिता अनेन ऋषिणा अहं राज्ञादीयमानास्मि तदा मनसा पिन ध्याता न अभिलषिता कोट्टशेन राना देवाभियोगेन नियोजितेन देवस्य यक्षस्य अभियोगो बलात्कारो देवाभियोगस्तेन यच देवहठेन नियोजितेन प्रेरितेन इत्यर्थः एतादृशो यन्त्यागौ मुनि रस्ति तस्मात् भवद्भिर्न कदर्भ्यः इति भद्रा राजकन्या व्राम्हणान् अवादीत् २१ पुनः सा किमाह [ एसो हुसो उम्मतवो महप्पाजिइन्दिओ सञ्जय बंभयारौ जोमेतयानेच्छ दिव्जमाणिं पिउणासयौं कोसलिएण रवा ] २२ हुइति निश्चयेन उपलचितो मया एषः उग्रतपा महात्मा वर्त्तते उग्रतपो यस्य स उग्रतपा महान् प्रशस् आत्मायस्य स महात्मापुरुषः स इतिकः यस्तपखौ कौशलिकेन पिता मम जनकेन राज्ञा स्वयं आमना तदादीयमानां मां न ऐच्छेत् न वाब्दतिस्म कौम एष जितेन्द्रियः पुनः कीदृशः संयतः सप्तदशविध संयमधारी पुनः कौशो ब्रम्हचारी ब्रम्हचर्यवान् २२ [महायसो एस महाणुभागो घोरव्यओ घोर परक्कमोय माएयंहौलह अहोलणिज्जं मासव्वेते एणमेणिद्दहिज्जा] २३ पुनः एषः साधुर्महायशा वर्त्तते पुनर्महानुभाग : अचिन्त्यातिशयः पुनरेष एसोहुसोउग्गतवो महप्पाजिदु दिओ संजओवंभयारी । जोमेतयाच्छद्र दिव्जमाणिंपिणा सयंकोसलिएणरन्ना २२॥ निश्च येन स साधुः उग्रतपा: महर्षिः ते एजसाधू के उग्रतपस्वी महात्मा जितेन्द्रियः स जत: बुम्हचारी किस्यो के साधु इन्द्रो जो जोत्या के संजम पाले के बुम्हचारी के यः मांपिता दोयमानां न इच्छन्ति जिको यतो मुझने देता थका ने पित्रा स्वयं आमना कोशलिकेन राजाम्हारो पिता कौश लिक राजा आपरतो मुझने देता हता परं इणे यतो मुझने वांछी नहीं अङ्गिकार कोधी नहीं २२ महायशा एष मुनिर्महानुभावः ए जती महायशनो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र० स०ड० १४ मा भाग
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उ० टोका अ०१२
२६२
सूव
भाषा
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घोरवृतो दुर्बर महावृतधारी पुनर्धोर पराक्रमो रौद्र मनोवलः क्रोधादि चतुः कषायाणां जये रौद्र सामर्थ्य स्तस्मात् एनं तपखिनं माहौलयथ कथम्भूतं एनं अहोलनीयं अवगणनाय अयोग्य' स्तवनाई मित्यर्थः एषः भे इति भवतो युष्मान् सर्वान् मानिर्वाचीत् मा भस्मसात् कार्षीत् इति यदा नृपपुवा उक्त तदा यचः किं अकार्षोदित्याह २३ [ एयाइं तौसे वयणाई सुच्चा पत्तीइ भद्दाइ सुभासियाई इसिसवेया वडि यट्टयाए जक्खा कुमारे विणिवार यन्ति] २४ यचाः परिवारसहिताः ऋषे वैया वृत्त्यर्थं कुमारान् ब्राम्हणबालकान् विशेषेण निवारयन्ति किं कृत्वा तस्या सोमदेवस्य यज्ञाधिपस्य पुरो हितस्य पत्न्याः भद्रायाः वचनानि श्रुत्वा कीदृशानि वचनानि सुभाषितानि सुष्टुभाषितानि ब्राम्हणेभ्यः मिथारूपेण प्रकासितानि २४ [ते घोररूवा ठिइ अन्त लिक्खे असुरा तहिन्त जनतालयन्ति ते भिन्नदेहे रुहिरं वमन्ते पासित्तु महारण माहुभुजो] २५ ते यच्चास्तदा तस्मिन्काले तान् जनान् महाजसो एसमहाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमोय । माएयंहौलह अहौलणिनं मासव्वेनेएण भेणिहन्जा ॥२३॥ एयाइ'तौसे वयणादु' सोञ्चापत्तौ भहाए सुभासियाइ । इसिमवेयावडियठ्ठयाए जक्खा कुमारेविणिवारयंति ॥२४॥ धणौ महानुभाव के घोरवृतो घोर पराक्रमय वोजानौबतौ धस्था नजाइ एहवा व्रतनो पालणहारके घणा जे बलवंत के मा एनं होलय अहौलनीयं अव ज्ञातुमशक्य ं रेवा भणो एहनों होलना मत करो ए साधु अनिन्दनीक के मा सर्वानपि युष्मान् तेजसा निर्हहेत् रखे तुम्हने सघला एने तपने तेजे करो भस्म करे २३ एतानि तस्याः वचनानि श्रुत्वा एहवा वचनसांभलौने सोमदेव पुरोधसः पत्नी सुभद्रायाः सुभाषितानि सोमदेवपुरोहित तेहनी स्त्री भद्रा तेहना भलावचन ऋषे वैयावृत्य निमित्ता यचपतीना वेया वचनिमित्त सावधान हुआ वेयावश्चकरवा लागो यच्चाः कुमारान् विनिवार यंतौ यच्च देवता
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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उ०टीका
बाम्हणान् ताड़यन्ति चपेटादिभिन्न न्ति कीदृशास्ते यक्षाः घोररूपाः पुनः कौशास्ते अन्तरिक्ष आकाशेस्थिताः पुनः कीदृशास्ते आसुराः असुरपरिणाम है युक्ताः उत्प्रेक्षते असुराइव इत्यर्थः सेहि यस्मिन् यन्नपाटकेते इतितान् भग्नदेहान् दृष्ट्वा भद्राभूयः पुनरपि इदं वचनं आहुरिति पाह ब्रूते प्राक्ततत्वाचन व्यत्ययः तान किं कुर्वन्तो रुधिरं वमन्तः २५ [गिरिं नहेहिंखणह अयं दन्तेहिं खायह जायवेयं पाएहिं हणह जे भिकवं अवमबह २६ अरे वराका इति अध्याहारः ययं नखैः करगिरि पर्वतं खनथइव इह शब्दस्य ग्रहणं सर्वत्र कर्त्तव्यं पुनर्दन्त रयो लोहं खादयभक्षयथइव पुनर्जातवेदसं अग्नि पादै नथइव अग्निं चरणैः स्पर्शयथइव येयूयं भिक्षु, साधु अवमन्यथ अस्य भिक्षो रपमानं कुरुथ गिरिलोहाग्नौनां उपमानं अनर्थ फलहेतुत्वात् उक्त २६
तेघो ररूवाठियअंतलिक्खे असुरातहिं तंजणतालयंति। ते भिन्नदेहे रुबिवमंते पासित्तु भदाणमाहुभुज्जो ॥२५॥
गिरिंगहेहिखणह अयं दंतेहिंखायह । जायवयं पाएहिहणह जे भिक्खू अवमन्नह ॥२६॥ आसीविसोउग्गतवीमहेसी भाषा वाहणना कुमरने निवार के २४ ते घोर रौद्रा वारणधारिणः स्थिताः आकाशे ते यत्त घोररुद्र करौने पाकाशन विषे ऊभा के यचः तत्र यज्ञपाटके
तत् छात्र लोकां घ्नन्ति यक्ष देवता ते यत्र ठामे छात्रने मारे ताड़े के तान् वालकान् भिवदेहात् ते बालक धरतीई पद्या के रुधिर वमता मोठा धको
लोहोनाखे छ दृष्ट्वा भद्रा इदं पाहुः पुनः इस्य स्वरूप वाम्हण न देखौ भद्रा बोली २५ पर्वतनखैः खनथ अहो वाम्हणो तुम्हें नखे करी पर्वतखणो को 8 लोहं दन्तैः खादयथ लोह दांते करीने तुम्हे खाओ को अग्नि पादैः हणथ अग्निपरी करीने मईवावांछो छो ये भिक्षु यूयं अवमग्यतः जे तुम्हें साधने
अवगणो को होलो शे २६ पाशौविषलब्धिवन्तः उग्रतपा महर्षिः भद्रा कहे के एयती पायीविष लम्धिनी धणी के उग्रतपकर के मोटी ऋषीश्वर के
सूब
राय धनपतसिंह बाहादुर का आस-उ० ४१ मा भाग
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१० टौका
अ०१२
* [भासौ विसो उम्गतवो महेसी धोरवी घोर परक्कमोय अगणिव पक्व दपयंगसेणा जे भिक्खु यं भत्तकाले बहेह] २७ पुनर्भद्रा प्राह भी मूर्खा इत्यध्या ३६२हारः एषः तपस्वी आयौविषः पापदाने समर्थः आयौविषः सर्प उच्यते यथा सर्पः पादादिना अवमन्यमानी मारणायस्यात् तथा अयमपि थापवि
षेण मारयति पुनरयं उग्रतपाः महर्षिः पुनरसी धोरवृतः पुनर्घोर पराक्रमः ये पुनयं भक्तकाले भोजनकाले भिक्षुकं पूर्वोत्तलक्षणं मुनि बध्यच यच्या ४ दिभि स्वाडयथ ते यूयं पतङ्गसेनाः शलभसमूहाः अग्नि प्र-कन्दथ इव आक्रमथ इवकोर्थः यथा पतङ्गसेनाः अग्निं बधाय प्रविश्यमाना नियन्ते तथा
यूयं मरिष्यव इत्यर्थः २० [सीमेण एवं सरणं उवह समागया सव्वजणण तुम्हे जइ इच्छह जीवियंवा धर्ण वा लोग पिएसो कुवित्रीह हेजा] २८ भी * वाम्हणाः तचे इति यूयं सर्वजनेन सर्व कुटम्बेन समागताः सम्मिलिताः सन्तः एनं तपस्विनं शौर्षेण मस्तकेन भरणं उपतशिरः प्रणामपूर्व सर्वेप्यागत्य
घोरवओ घोरपरक्कमोय । अगणिंव पक्खंदपयंगसैणा जे भिक्खूयंभत्तकाले वहह ॥२७॥ सोसणएयंसरणं उवह समा
गयासव्व जणेणतुमी। जडू इच्छहजीवियंवाधणंवा लोग पि एसोकुविओडहज्जा ॥२८॥ अवहेडियपछि स उत्तमंगे
घोरवृतः घोरपराक्रमः घोरत पाले के घोर पराक्रम के अग्निमध्ये प्रक्षेपः शलभाना सेनाइव अग्निमांहि पडी जिम पतङ्गी आनी सेनावली भस्म भाषा * हुवे तिम तुमने वालो भन करो स्थे यूयं भिक्षु भोजनकाले हनथा तुम्हे भोजननी वेलाइ ऋषोखरनी पौडा करो छो २७ सौर्षेण एनं मुनिं शरणं प्रप
द्यथः मस्तक नमावोने परी पडो एहनो सरण करी समागताः सर्वजनेन यूयं सघला लोक एकठा होईने तुम्हें यदि वांछत यूयं जीवितं धनं तुम्हें जो वांछो जीवितव्य अने धनतो तुमै सरण त्यो मुनिनो लोकमपि एष साधुः कुपितः सन् भस्मसात् करोति ए साधु कोप्यो थको सघला लोकने भस्म करस्ये
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग :
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अयं एवास्माकं शरणं इत्युक्ला अभ्युपागच्छत यदि यूयं जीवितं वा पथ वाधनं इह इच्छथ यतः एषः साधु: तपस्वी कुपितः सन् लोकं समस्त नगरा दिकं दहेत् २८ [अवहेडिय पिडि स उत्तमंगे पसारिया बाहु अकम्मचिढ़े निज्जे रियत्थे कहिरं वमन्ते उई मुहे निग्गव जौहनित्त] २८ [ते पासिया खण्डिय कहभूए विमणी विसिनो अहमाहणोसी इसिम्पसाए इस भारियात्री होलच्च निन्दञ्च खमाहभन्त] ३० युग्म अथानन्तरं स वाम्हण: ऋषि प्रसादयति कोदृश्यः स वाहणः स भार्यः पत्नीसहित: सह भार्यया भव्या सहवर्त्तते इति स भार्यः कथं कथं प्रसादयति तदाह हे भदन्ते हे पूज्यहोला अस्मत्कृतं अपमानञ्च पुनर्निन्दा हास्माभिः भवतां निन्दालता तां निन्दा यूयं क्षमध्वं कौशो वाम्हणो विमनाः बिदूनमनाः पुनः कीदृशो विषिनः विशे
पसारियाबाहु अकम्मचिठ्ठ । निम्भरियच्छेरुहिरं वर्मते उड्डूं मुहेणिग्गयजौहणेत्ते ॥२६॥ तेपासिया खंडियकट्ठभूए
विमणोविसन्नो अहमाहणोसो। इसिंपसाएदू सभारियायो होलंच दिंचामाहभंते ॥३०॥ बालेहिं मूढेहिं अया २८ अवहेडिताः अधोनामित: पृष्टावधिः मस्तकान् माथा पूठादि साफेस्या के मोहडा पुठाने कौधा के प्रसारितवान् अकर्मचेष्टान् व्यापाररहितान्
वाहपसारौ छे चेष्टा काई नथो करता हाथ पगहलावता चलावता नथौ प्रसारित नेवान् रुधिरं वमन्त: अखि पसारि के मुख थकी लोहोनाखे छ 8 उई मुखान् निर्गतजिहा नेत्रान् मुख उ'चा कोधा के जीभ वाहिर काढौ के नेत्र फाटा छ २८ तान् दृष्ट्वा छावान् काष्ठभूतान् ते छात्रने एहवे हवाले
पद्या देखोने मनोरहितः विषादप्राप्तः सन् स वाम्हणः ते यज्ञनी करावणहारपुरोहित विषाद पाम्यो मन भूडो होइ गयो हवे स्यु थास्य ऋषि प्रसन्न * करोति सभार्या भार्या सहितः हवे ते वाम्हण भार्यासहित ऋषिने प्रसन्न कर के अवज्ञा निन्दा क्षमस्व है भदंत तुम्हारी हौला कीधी छ निन्दा कौधौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० ल. ४१ मा भाग
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४० टोका
अ०१२
३६७
सुव
भाषा
घेण दोनः किं कृत्वा तान् खण्डिकान् छावान् काष्टभूतान् काष्ठसदृशान् निचेष्टितान् दृष्ट्वा पुनः कोद्यमान् तान् अवहेठित दृष्टि स उत्तमांगान् श्रवेहि ठितानि पृष्ठ यावत् नामितानि पृष्ट गत्वा लग्नानि सन्ति शोभनानि उत्तमांगानि मस्तकानि येषान्ते अवहेठित पृष्ट स उत्तमांगा स्तान् पश्चाग्न पृष्ट देश संलग्नमस्तकान् पुनः कोट्टशान् प्रभारितवाह कर्मचेष्टान् प्रसारिताः प्रलम्बोकृता बाहवो यैस्ते प्रसारितबाहवः न विद्यते कर्मणि अग्नि विषये इन्धन ष्टतादिनिक्षेपणे चेष्टा सामर्थ्यं येषान्त कम चेष्टाः प्रसारित बाहवश्चते अकर्म चेष्टाच प्रसारितः बाह्वकर्म चेष्टा स्तान् बाहुप्रसारणत्वेन दूरे पतितें धनदवकान् इत्यर्थः पुनः कौमान् निर्भीरिताचान् निर्भीरितानि प्रसारितानि अक्षौणि यैस्तेनिर्भेरिताचास्तान् तरलितनेत्रान् पुनस्तान् किं कुर्वतः रुधिरं वमंतः मुखात् रक्त श्रवंतः पुनः कोदृशान् ऊई मुखान् ऊर्ज वदनान् पुनः कीदृशान् निर्गतजिता नेवान् जिह्वा च नेत्रच -जिह्वा नेत्रे निर्गते जिना नेवे येषान्त निर्गत जिह्वा नेवास्तान् ३० अथ स ब्राम्हणो हरिकेश ऋषि कोट्टशैर्वचनैः प्रसादयतितानिवचनान्याह [बालेहिं मूढ़ेहिं श्रयाणएहिं जंहोलियातस्मखमाहभंते महप्यसाया इसिणोहवंति नह मुणोकोवपराहवंति ] ३१ भो पूज्याः भो भदंताः एभिर्बालैः शिसुभिर्भूदैः कषायमोहनीयवशगैर्मूर्खेर्हिताहित विवेकविकलैर्ज इति यस्मात् कारणात् यूयं श्रवहीलिता अवगणिताः तस्म इति तस्य श्रवहौलनस्याप रावंचमध्वं ऋषयोमहाप्रसादाः भवति अतीव निर्मलचेतसो भवन्ति न पुनर्मुनयः कोपपरायणाः भवन्ति सुनयः चमा वन्तो भवन्ति ३१ तदामुनिः णएहिं जंहौलियातस्म खमाहभंते । महप्पसाया इसिणोहवंति नहमुणी कोहपराभवंति ॥ ३१ ॥ पुब्बिंच इहिंच
छ` हे पूज्य हे भगवंत तु खमि ३० शिशुभिः मूढैरज्ञानैः वालके मूढ़ अज्ञानीये यत् यूयं होलिताः पीडिताः तस्य क्षमस्व तुम्हने होल्या पौया ते खमो हे भदंत महा प्रसव्रचित्ताः ऋषयो भवन्ति प्रसवचित्त महाप्रसाद वन्तश्री ऋषीश्वर हुवे हु निश्चितं मुनयः कोपपरानहवन्तीर्थः मुनीश्वर कोपने वश न
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं० उ०१४ मा भाग
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उ० टोका अ०१२
३६८
सूत्र
भाषा
किं अवादीदित्याह [पुब्बिंच इहि अगागयञ्च मणप्पो सो नमे अस्थिको जक्ता हुवेयावडियं करन्ति तम्हाह एएनि हया कुमारा ] ३२ भो ब्राम्हणामेममपूर्व अतीतकाले च पुनरिन्हिं इदनों वर्त्तमानकाले च पुन अनागते आगामिनिकालेमनः प्रदेषो ना ममनास्ति अतीते काले नासीत् इदानों प्रदेषोनास्ति अग्रेपि न भविथतोत्यर्थः कोपि अल्पोपिनास्तिहुपुनरर्थे येनयताः वैयावृत्यं साधु तर्जकनिवारणां साधुभक्तिः कुर्वन्ति तस्मात् हुइि निश्चयेन एते कुमाराः यचैर्निहताः ३२ अथसर्वे उपाध्यायादयस्तद्णा कृष्टचित्ताएवमाहु: [अत्थञ्च धम्मच्च वियाणमाणा तुम्भ नविकुप्पह भूपत्रा तुम्भ'तु पाए सरणं उवेमी समागया सव्वजणेण अम्हे ३३ हे स्वामिनः यूयं अपि निश्चयेन कुप्यत कोपं न कुरुत कथंभूता यूयं अथं सर्वशास्त्राणां तत्व
अणागयंच मणप्पओसोणमे अस्थिकोइ । जक्खा हुवेयावडियं करेंतितम्हाहु एए हिया कुमारा । ३२ । अत्यंच धम्मच वियाणमाणा तुम्भणविकुप्पहभूइपन्ना । तुम्भ' तुपाएसरणं उबेमो समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥ अञ्चेमुतेमहा होइ क्रोध न करे २१ मुनिरुवाच पुरा पूर्व इदानींच अनागत काले यतो कहेछ पेहेलां हवणां अने आगे पौण मनः प्रदेषो मम नास्ति कोपि माहरा मनमांहि द्दष कोइ नथो देवविशेषाद्दु निश्चयेन वै या वृत्तिं कुर्वन्ति ब्राम्हण कहे सामी ए कुमरकिणे पछाच्या यतौ कहेछ मान भावो यच देवविशेष तिनु' वौनय वेया वञ्चकोषु' तस्मात् ह निश्चयेन ए ते घातिताः कुमाराः तिथे कारणे ए तुम्हाराकुमर देवताई' हण्या माया काष्ठभूत कौधा के ३२ अर्थ पुनः धर्मं विजानतः अहो ऋषौखर तुम्हे अर्थ धर्मनी गति जाबो को यूयं नैव कुप्यतः प्राणरक्षण बुद्धियुक्ता तुम्हे कोपमकरो जौवरक्षा करो ए जौव उपरि कृपा करो युष्माकं चरणौ मरणं कुः वयं तुम्हारा पगनो शरण करु छु' समागताः सर्वजीवने वयं आइने सर्वपरीवार साथ अम्हे ३२ पूजयामो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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उ० टोकाच पुनः धर्म वस्तूनां स्वभावं अथवा धर्म दशविधं साध्वाचारं विजानानाः अर्थधर्मज्ञाः इत्यर्थः पुनः कथंभूताः यूयं भूतिः सर्वजीवरक्षाः तत्र प्रज्ञा येषां अ०१२ १२ ते भूतिप्रचाः तस्मात् वयं तुभ्य इति युभाकं शरणं उपेमः उपागताः स्मः प्राप्ताः स्मः अम्हे शब्द न वयमिति ने यं कीदृशा यूयं सर्वजनेन समागताः सर्व ॐ कुटम्बपरिवारेण समागताः मिलिताः ३३ [अच्चे मुते महाभागा नर्तकिंचिन अञ्चिमो मुंजाहि सालिम कूरं नाणावंजण संजुयं] ३४ हे महाभाग ते
तव सर्व अपि अर्चयामः ते तव सर्वमपि लावयामः ते तव वयं किमपि चरणधूलिं अपि न अर्च यामः के वयं ये त्वां अर्च यामः त्वं तु देवानां पूजार्हः वयं तव का पूजां कुर्मः एतादृशो का पूजास्ति या तव योग्या परन्तु वयं दासभावं कुर्म इत्यर्थः सालिम इति शालिमयं सम्यग् जातिशुद्ध शालिनिष्पत्रं कूरं तं दुलभोज्य मुंजाहि भुच्च कयंभूतं कूरं नानाव्यञ्जनसयुतं बहुविधै व्यं अनैर्दध्यादिभिः सहितं३४ [इमं च मे अस्थिपभूयमन्नं तं भंजस अम्ह अणुम
भागा णते किंचिणअच्चिमो। भुजाहिसालिमंकरं गाणावंजण संजुयं ॥३४॥ इमंचमे अस्थिपमूयमन्नं तंभुजसु अम्ह
अणुग्गहट्टा। बाढंति पडिच्छभत्तपाणं मासस्मऊपारणए महप्या ॥३५॥ तहियं गंधोदय पुष्फवासं दिव्वातहिं वसु
वयं तव हे महानुभागा पूजा छां तुम्हने नः किं पो अर्चते भृक्ष्य गृहाण शालिनिष्पन्न कूरं स्वामौ जौएचोखानौपना छ सालनो नौपनो छ ए कूर नाना भाषा
विध विंजनसंयुक्त विधि विधिनां सालणा सहित एचावल जिमी ३४ इदं च मम प्रभूतं प्रचूरं खंड खाद्यं ए अम्हारे अब पकवान घणो इछ तदग्रहाण अस्माकं प्रसाद करणाय ए आहार तुम्हे जीमो अम्ह ऊपरि कृपा करीने ततो मुनिः वाढ एवमस्तु इत्युक्ता राहाति भक्तपान तिवारी यतो घणो आग्रह देखौने भातपाणी लिइ विहरे मासोपवासस्य पारण महात्मा मुनिः मास खमणने पारण माहात्मा ३५ तदा दानावसरे गन्धोदकं पुष्पाव वृष्टि जाता
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा•सं• २०१४मा भाग
४७
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उ टीका
- हा वाढति पडिच्छा भत्तपाणं मासस्मश्रीपारणए महप्या] ३५ है स्वामिन् मे मम इदं प्रत्यचं खंडमंडकादिकं प्रबं प्रभूतं वर्तते प्रखरं वर्तते पर्वमपि शालमयं करं ग्रहणं कृतं अन च पुनरत्नग्रहणं तत्सर्वात प्राधान्य स्थापनार्थ तभोज्य भच्च इति ब्राम्हण : प्रोक्त सति मुनिः प्रार: बाढ़ इल्य स्का तथास्तु बाढ शब्दोंगीकार एवं एवं करोमि यहोयामीत्युका साधुर्मासस्यपारणके भत्तापानं पाहारपानीयं प्रतौच्छति अङ्गीकरोति कथम्भ तः स मुनिर्म हामा महान् निर्मलो निःकषाय प्रामायस्य स महामा महापुरुषः ३५ [तहियं गन्धोदय पुष्फवासं दिव्या तहिं वमहारायवुडा पहयात्री दुंदुहिमोसु रहिं पागासे ग्रहोदाणं चघुटुं] ३६ तहिं तस्मिन् यन्नपाटकमुनिना आहारे गृहीते सति गन्धोदक पुष्पवर्षमभूदिति शेषः सुगन्धपानीय कुसुमवर्षा आसन् इत्यर्थः च पुनस्तस्मिन् स्थाने दिव्या प्रधानादेवैः कृतावसुधारा सृष्टा स्वर्णदौनाराणां वृष्टिरभूत् वसु द्रष्य तस्य धारा सतत पातजनिता वसुधारा सा दृष्टा देवः पातिता इत्यर्थः तु पुनः आकाणे सुरैः दुन्दुभयः प्रहता देवैः पाकाथे बादिनापि वादितानि च पुनः आकाशे महोदानं २ इति घुष्टं देवैः शब्दितं ३६ तदा च हिजा विस्मिताः किमाहुः तत् आह [सक्वं खुदी स इतवो विसेसी नदी सई जाइ विसेस कोइ सो वागपुक्त हरिएससाईजस्से रिसा इडि महाभागा] ३७ खुइति निययेन तपोविशेषः साक्षात् दृश्यते जातिविशेषः कोपि न दृश्यते तपो माहात्म्यं दृश्यते जातिमाहात्म्य किमपि
न दृश्यते खपाकपुत्र' चाण्डालपुत्र तं हरिकेश साधं पश्यत इति शेषः तं इति किं यस्य हरिकेशस्य साधोः एतादृशी सर्वजनप्रसिहा ऋडिवत ते देव 8 हाराय वुट्टा । पहयायो ढुंदुहीमो सुरहिं आगासे अहो दाणंचघुटुं ।२६। सक्खं खुदीस तवोविससी नदीसईजादू * यतीने आहार लेतां धका सुरभी पांणो फूलनी सृष्टिहुई तस्मिन् समये द्रव्य दृष्टिः कृता देवैः लेह समे देवताई द्रव्यनौ वर्षा कौधी वादिता वाजिब विशेषाः देवैः देवता ए देव दु'दुभी वजाडी पाका अहो दानमपि घोषितं आकाशने विष ग्रहो दानमहो दानं सौ घोषणा कोधी २६ साचात् *
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राय धनुपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ. १७ मा भाग
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४० टोका अ०१२
२७१
सूत्र
भाषा
साहाय्य रूपा संपत्वर्त्तते कीदृशौ ऋद्धिर्महानुभागा महान् अनुभागो अतिशयो यस्याः सा महानुभागाः महा माहात्म्यसहिता इत्यर्थः ३७ अथ मुनिस्तान् ब्राम्हणान् उपशान्तिमियात्वान् दृष्ट्वा धर्मोपदेशमाह [किं माहणा जोइसमारभंता उदण्ण्णसोहिं बहियाविमग्गह जंमग्गहा बाहिरियं विसोहिं नतं सुदिट्टं कुसलावयंति] ३८ किमिति शब्दोऽधिक्षेपे भो ब्राम्हणाः यूयं शृणत ज्योतिः अग्नि समारभन्तः अम्मीनां समारम्भ' कुर्व्वन्तः किं ब्राम्हणा भवन्ति अपितु न भवन्ति भो ब्राम्हणाः उदकेन शोधिं कुर्वतो बाह्य शुद्धि विमार्गयथ जानीथ यागं कुर्व्वन्तः स्रानं कुर्व्वन्तथ व्राम्हणा न भवन्तीत्यर्थः यां याग ं स्नानादिकां बाह्यां विशुद्धि विमार्गयथ विचारयथ तां बाह्यां विशुद्धि' कुशला ज्ञाततत्त्वा सुदृष्टं सम्यग् दृष्टं न वदन्ति यत् यज्ञादी ग्रीनां तेज विसेस कोइ । सोबागपुत्ते हरिएस साहु' जोरिसा इडिमहाणुभागा ॥३७॥ किं माहणा जोदू समारभंता उदएण सोहिं बहियावि मग्गहा । जं मग्गहा बाहिरियं विसोहि तं सुदिट्ठ' कुसला वयंति ॥ ३८ ॥ कुसंचजूवं तणकट्ठमग्गिं प्रत्यक्षं दृश्यते तपो विशेषः साचात् प्रत्यच ए तपनी महीमा दोसे के न दृशते जाति विशेषः कोपौ जातिनोविशेषतो कोइ दोसतोनथौ चण्डालपुत्रः हरि केशौ साधुः चण्डालनो बेटो हरिकेशौ साधु यस्य साधोरोदृशो देवसान्निध्य सम्पत्सातिशयमहाप्रभावाः जे हरी एहवी ऋषि महाप्रभावकः ३७ ब्राम्हणा योतिरग्निस्तं समारम्भमाना जागं कुर्वतः ब्राम्हण अग्निपूजे याग करे सात पौठो इक बोस पौढी ताई' अग्निराखे जलेन शुद्धि' निर्मलतां बाह्यां विमार्गयन् गवेषयन् यथा जले करोने वाहिरलो शुद्धि वांछी को सन्मार्गयथा वाह्य विसृद्धिं तुम्हे ब्राम्हणो वाहिरलो शुद्धि वांको को न तत् रम्य तत्वज्ञाः कुशलाः वयंति ने स्नान पाणौनी शवितत्त्वना जाण भलीन कहे ३८ दर्भ पुनः यन्नस्तम्भ' तृणकाष्ठ' अम्मिकरो को सन्ध्यायां प्रभाते उदकं स्मृयतां सन्ध्या
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उ० टोका
अ०१२
३७२
सूत्र
भाषा
-स्कायस्थजीवानां विराधना अथ च स्नानादी अप्कायस्य जीवानां विराधनाविशद्धार्थं विधीयते तत् तत्वन्नैर्न सम्यक् दृष्ट ं सम्यग् न कथितमित्यर्थः यदुक्त स्नानं मनोमलत्यागो यागश्चेन्द्रियरोधनं अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः इति ३८ [ कुसंच जूवंतणकट्ठमग्गिं सायंच पायं उदयं कुसता पाणा भूयाइ' विहेडयंता भुज्जो बिमंदापकरह पावं] ३९ भो ब्राम्हणाः मन्दा यूयं भूयोपि पुनरपि शुद्धिकरण प्रस्तावेपि पापं प्रकुरुथ पूर्वमपि संसारकार्यकरण प्रस्तावे आरंभं कृत्वा प्राणान् भूतानि विनाश्य पातकमुपार्जितं पुनर्द्वर्म करण प्रस्तावे तदेव क्रियते इत्यर्थः किं कुर्वन्तः कुशं दर्भ यूपं यज्ञस्तम्भं तृणं बोर णादिनडादिकं काष्ठ ं शमौष्टचस्यन्धनं अग्निं च एतत्सर्वं प्रतिग्टइतः एतत्सायं सन्ध्याकाले च पुनः प्रातः प्रभाते उदकं पानीयं स्पृशन्तः श्राचमनं कुर्व्वम्बः अतएव प्राणान् दौन्द्रियचतुरिन्द्रियान् भूतान् तरून् पृथिव्यादौन् अपि तदाधारभूतान् विहेटयंतः विशेषेण हिंसन्त इत्यर्थः एतेषां एव प्राणभूतसत्वानां विराधनेन हिंसा भवति पुनरेतेषामेव शुद्धिकरणकालेऽपि विराधना विधीयते कुतोऽस्माकं शुद्धिर्भवित्री इति न जानन्ति अतएव मन्दा मूर्खाः यत उक्त दृष्टिपूर्वं चरेन्मार्गं वस्त्रपूतं पिवेज्जलं ज्ञानपूतं सृजेडर्म सत्यपूतं वदेद्दचः ३८ अथ प्रत्युत्पन्नशङ्कास्ते ब्राम्हणाधमं पप्रच्छुः [कहं चरे भिक्खु वयं जयामोपाबाई' कम्माद्र ं पणल्लयामो.अक्वाहिणो संजयजक्वपूइया कहं सुजुङ कुसलावयंति ] ४० हे भिचो वयं कथं चरमहि कस्यां क्रियायां प्रवर्त्तमहि हे भिचो पुन र्वयं कथं ययामो यागं कुम्भः पुनर्वयं पापानि पापहेतूनि कर्माणि पणल्लयामः प्रणदाम: प्रकर्षेण स्फेटयामः हे यच पूजित हे संयतेन्द्रिय कुशलाः धर्म
सायंच पायं उदयं फुसंता । पाणाइ भयाइ विहेडयंता भुज्जोवि मंदा पकरेह पावं ॥ ३६ ॥ कह चरे भिक्खु वयं समय प्रभात समय पाणौने फरसो का प्राणान् द्दौन्द्रियादौन् भूतान् पृथ्व्यादौन् विहेडयतः बेंद्रियादिक जीव पृथ्वप्रादिक एकेन्द्रि जीवते धर्म बुद्ध क तुम्हे मारो को पुनरपि पापसञ्चयं कुरुथ मूर्खाः आगे पाप करोने मूर्ख श्रमाने घण मेलो करो को ३८ अथ विप्राः प्राहुः हे भिक्षुः वयं कथं चरामो
राय
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४० टोका अ०१२
३७३
सूत्र
भाषा
मर्मज्ञा विद्वांसः कथं केन प्रकारेण सृजुद्धं इति सृष्ट, शोभनं द्रष्ट' स्विष्टं शोभनयजनं वदन्ति तत् शोभनयज्ञ नोऽस्मान् श्रख्याहि कथयेत्यर्थः ४० अथ मुनिराह [छब्जोवकाए असमारभंता मोस' प्रदत्तं च असेवमाणा परिग्गहं इत्थिश्रो माणमायं एवं परित्राय चरंति दंता ] ४१ पूर्वं वाम्हणैरयं प्रश्नो विहितः कथं वयं प्रवक्ते महि तस्योत्तरं भो ब्राम्हणाः दान्ताः जितेन्द्रियाः एतत् पूर्वोक्तं पापहेतुकं परिज्ञाय चरन्ति प्रवर्त्तन्ते साधवो न परिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान परिन्नया आरंभाविवर्त्तन्ते इति भावः दान्ताः किं कुर्वाणाः षट् जीवकायान् असमारभमाणः अनुपमर्दयन्तः पुनर्मृषावादं च पुनरदत्त' असेबमानाः पुनः परिग्रहं उपकरणमूच्छी सचित्ता चित्तद्रव्य ग्रहणरक्षणात्मकं पुनस्त्रतुपुनर्मानं अभिमानं पुनर्मायं परवञ्चनात्मिकां असेवमानाः मान जयामो पावाइ ं कम्माइ' पुणोल्लयामो । अक्खाहिणेोसंजयजक्वपूइयाकह' मुजट्ठ' कुसला वयंसि ॥ ४० ॥ छज्जीवकाए असमारभता मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गह' इत्थिउ माणमायं एवं परिणाय चरेज्जदंता ॥ ४१| मुसंवडा हिवे ब्राम्हण कहे छे हे भिक्षु अम्हे किमचालु केहवी करणी कर पाप कर्माणि प्रेरयामः जिणी क्रियाई करौने पाप कर्म दूर करे श्रख्यापयकथयनो अस्माकं भी संयत यच्च पूजौत अम्हने कहा अहो साधु यच पूजित कथं सुष्टु यज्ञ तत्वज्ञा वदन्ति भलो यन्त्र पण्डित किस्यो कहे छे ४० षट्जौबनिका यान् अविनासयन्ति छ जीवनिकायनी रक्षा करे जीव मारे नही मृषावाद प्रदत्तञ्च श्रसेवमानाः मृषावादवोले नहीं प्रदत्ता दान साधु लोये नहीं परिग्रहं स्त्रियः मानञ्च मायाञ्च परिग्रहस्त्री मान माया रहित एतानि त्यक्ता चरन्ति दंताः दमनेन्द्रियाः क्रोधः मानः मायाः लोभ छांडीने विचार दान इन्द्रिय जिये दम्या के आपणां ४१ सुसंवृतः पञ्चभिः सम्बरैः प्राणवधविरमणादिभिः पांचें आश्रव जिणे रुध्या के दूह संसार जीवितमपि अनभिः ततः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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4
6.टोका
माययोः सहकारित्वेन क्रोधलोभयोरपि त्यागी ने यः एतान् सर्वान् पापहेतून् ज्ञात्वा पुनस्यता साधवी यतनया चरन्ति प्रतो भवनिरपि एवं चरितव्य मित्यर्थः ४१ अथ द्वितीयप्रश्नस्य कथं यजाम इत्यस्य उत्तरमाह [सुस'बुडा पंचहिस'वरहिं इह जीवियं प्रणवकखमाणाः वो सट्टकायासुचत्तदेहा महा जवं जयई जब सिट्ठ] ४२ भो वाम्हणाः पञ्चभिः सम्बरैः हिंसा मृषाप्रदत्त मैथुनपरिग्रह विरमणैः सुसम्बृताः सुतरां अतिशयेन संहता पाच्छादिता श्रवः निरु पापागमनहाराः मुसहताः संयमिन: जनसिह यज्ञश्रेष्ठ जयन्ति कुर्वन्तीत्यर्थ : यज्ञेषु श्रेष्ठो यात्रैष्ठस्न अथवा श्रेष्ठो यनः श्रेष्ठयजस्तं प्राकतत्वात् यज्ञश्रेष्ठं इतिज्ञयं कीदृशं श्रेष्ठयन महाजयं महान् जयः कर्मारोगां विनाशो यस्मिन् स महाजयस्तं कीदृशाः सुसंहताः हास्मिन् मनुष्य जन्मनि जीवितं प्रस्तावादसयमजीवितव्य अनवकांक्षमाणाः असयमं अनीसंत इत्यर्थः पुनः कीदृशाः सुसंकृताः व्यु त्सृष्टदेहाः विशेषेणपरीषहोपसर्गसहने उत्सृष्टः कल्पितः कायो यैस्से व्य त्सृष्टदेहाः पुन: कौदृशाः शुचयो निर्मलवृताः पुनः कौयाः त्यक्तदेहाः त्यस्तो निर्ममत्वेन परिचर्याभावेन अवगणितो
देहो यैस्ते त्यक्तदेहाः एतादृशाः साधवखिष्टं यत्र कुर्वन्ति एष एव कर्मप्रस्फेटनोपाय इत्युक्त ततो भवन्तोप्य व यजतामिति भावः यजमानस्य कान्युप * कारणानि इति पुनर्वाम्हणाः पृच्छन्तिस्म ४२ [कतेजोई केवतेजोइठाणं काया किंचते कारिसंग पहायते कयरासंति भिक्ख कयरेण होमेण हुणासि
पंचहि संवरहिं इह जीवियं अणवकं खमाणा। वोसट्टकायामुइचत्त देहा महाजयं जयडू जमासेट्ठ ।।२। केतेजोई * अवाञ्छतः इह संसार मांहि जीवितव्य नौवांछा पणिनकरे जे हु घणा दिन जौबु इम न वांछ व्यत्सृष्टकाया निरतिचारदेहो त्यक्तदेहाः
शश्वषा भावात् देही प्रापणी जेणे बोसिरावो के प्रतीचारकोइ नलगाड़े ईदृशं मुनयो महायज्ञ कर्म जयरूपं यज्ञ यजति कुर्वति यन्न श्रेष्ठं साधु भगवंत श्रेष्ठ उत्तम इस्यो यन्न करे ४२ कः तवाग्निः किं तव ज्योतिः स्थानं कुडवाम्हण कह के अहो साधु तुम्हारे अग्नि केहबो के अने
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० मन.४१ मा भाग
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जोइ] ४३ हे मुने ते तव किं ज्योतिः कोऽगिः किं पुनस्ते तवज्योति: स्थानं अग्निस्थानं अनि कुडं किमस्ति ते तव कापुनः शुचोटतादिप्रक्षेप कादयं च पुन स्ते तव करोषाङ्गअन्य दोपनकारचं किमस्ति विध्याप्यमानोगिन उद्दीप्यते सन्धु थते सत्करोषां गन्तव किं विद्यते च पुन: एधाः कतराः काः समिधः याभिरग्रिः प्रज्वा यत ताः काः सन्ति च पुनः शान्तिर्दुरितोपशमहेतु रध्ययनपइति स्तवकतराकास्ति हे भिक्षोत्व कतरण इति केन होमेन हवन विधिज्योति रगिजुहोषिपनि प्रौणयसि घटजीवनिकायविराधनाविनाहि यज्ञो न स्यात् हेभिक्षोभवता षट् जीवनिकायविराधनानुपूर्व निषिदा प्रतो मुनिते ब्राम्हणा यन यचोपकरणसामग्री च पप्रच्छः ४३ अथ मुनिर्मुनिर्योग्य यज्ञमाह [तवोजोई जीवोजोइ ठाणं जोगास या सरीरं कारिसङ्गं
केवते जोडूठाणा कातेसुया किंचते कारिसंग। पहायते कयरासंति भिक्ख कयरेण होमेण हुणासि जोडू।४।।
तवी जोई जीवो जोडू ठाणं जोगोसूया सरीरं कारिसंग। कम्म पहासंजमजोग संती होम हुणामीसिणं पसत्यं ।४४ तुम्हारे अग्निनु स्थानक केहबु के का तव चहु कादर्वीकिं तादिप्रेषणपात्रं अग्निदीपनकारणं काठ फिस्यो तुम्हारे अग्निमांहि वृतघालवानो चाटुश्री हे भिचो तव धनानि कानि सन्ति अहो साधु तुम्हारे इंधणहवा के केन होमेम हवनं करोषि कि होम करीने अग्निने होमी छो ४३ साधोवाच तपो ज्योति: जीवो ज्योति स्थानं कुण्डं तपो ज्योति कही जीव ज्योति नु स्थानक कयो मनोयोगादयः मधा वृतपेषणपात्राणि शरीरं तपो रुद्दीपकत्वात् करीघ मनोयोगवचन योग सूर्य कहता घौघालणरापात्र शरीरहुँतौ तप कौजे ते करौषं कही जे कर्माणि धनरूपाणि संयमयोगरूपा सान्तिः पाठकर्म रूप धण संजमरूपयोग भान्ति ईदृशं होमं करोमि ऋषीणां प्रशस्तं ऋषि कह के एइवो होमटु कर छुए रिपोखरने प्रशस्त को है ४६ कः तव
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं० उ०१४ मा भाग
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छ टीका
कम्मं पहा संयम जोगसन्तौ होमं हुणामि इसिणं पसस्थ] 8 ४ भी ब्राम्हणाः अस्माकं तपोज्योतिः तपः अगिरस्ति कर्मेन्धनदाहकत्वात् हादयविधं हि तपः अ०१२
सकल कर्मकाष्टानि प्रज्वालयति जीवोज्योतिः स्थानं जीवोऽगिकुण्ड' तपस: आधारत्वात् मनोवाकाय योगास्ते शचीदोशियाः मनोवाकाय योगैः शुभ 8 व्यापाराः वृतस्थानीया स्तपोगि प्रज्वलन हेतवो वर्तन्ते शरीरं करोषांग तेनैव शरीरेण ततोगिर्दीप्यते शरीरसाहाय्येन तपः स्यादित्यर्थः भरीरमाद्यं
खलु धर्मसाधन मित्युक्त कर्माणि एधाइन्धनानि कर्मेधनानि तपोनिः प्रज्वालयन्ति महा दुष्टकर्मकारिणीपि तपसा निर्मलाः संजाताः संयमजोगः शान्तिः संयमस्य सप्त दशविधस्य योगः सम्बन्धः स शान्तिः सर्वजौवानां उपद्रव निवारकत्वात् अनेन होमन अहं तपोगि जुहोमि कथम्भूतेन होमेन ऋषीणां प्रशस्तेन मुनीनां योग्य न साधवीहि एतादृशं यन्न कुर्वन्ति न अपर एतादृशं कर्तुं समर्था भवन्ति ४४ यज्ञस्वरूपं तु साधुनीक्त अथ ब्राम्हणाः मानस्वरूपं पृच्छन्ति [केते हरए केयते सन्तितित्थे कहिंसिङ्गात्री वरयं जहासि आयकवण सञ्जय जक्स पूइया इच्छामुनाउ' भवो सगामे] ४५ हे ऋषे यचपूजितत्व नः अस्मान् आचच्वब्रूहि वयं भवतः सकाशात् ज्ञातुं इच्छामः हे मुने ते तवको इदः कः मानकरणयोग्य जलाधारः किं पुनः तव शान्ति तीर्थ यान्त्यै पापशान्ति निमित्त तीर्थ शान्ति तीर्थ पुण्यक्षेत्र' यस्मिन् तौथै दानादि बीजगुप्त पातकशमनं पुण्योपार्जकञ्च स्थात् कुरुक्षेत्रादिसदृशं
कैतेहरए केयतेसंतितित्थे कहिंसिरहाओ वरयंजहासि। आइक्खणे संजयजक्खपूइयाइछामुणाउं भवो इदः कः तव पापोपशमनाय तौथं कोण तुम्हारे द्रहः कवण तुम्हारे पाप दूरकरवानु तीर्थकवण तुम्हारे कुन खानः त्वं रजः कर्ममलं जहासि किहां * मान कोधां कमरूपमेलटले कथयनो अस्माकं भी संयत यक्षपूजित कई अम्हने साध यक्ष पूजित वाञ्छामि तव समोपे ज्ञात वांछ छु ताहरे पासे
जाणवाने ४५ धर्मरूपी द्रहः ब्रम्हरूपं शान्ति तीर्थ धर्मरूपद्रह ब्रम्हज्ञान शांति तीर्थ निर्मलमलरहित आत्मा जीव भलो लेस्या तेहने विषे यत्र सातः
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•उ• ४१ मा भाग
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अ०१२
टीका किं तीर्थ' वर्तते पुनहें मुने त्वंकस्मिन् स्थाने सातः सन् रजः कर्ममलं जहासित्यजसि त्वं निर्मलो भवसि एतत् सर्वेषां प्रश्नानां उत्तरम्बद इत्यर्थः ४५
इति पृष्ट मुनिराह [धम्मे हरएबम्भे सन्ति तिस्थे अणाविले अत्तपसनलेसे जहिंसिन्हाओ विमली विसुद्धी सुसौय भूोपजहामिदोस] ४६ भी ब्राम्हणः * धर्मोहिंसा विरमणोदया विण्यमूलो हुदो वर्तते कर्ममलापहारकत्वात् ब्रम्हचर्य मैथुनत्यागः शान्तितीर्थ तस्य तीर्थस्य सेवनात् सर्वपाप मुलं राग
देषौ निवारितौ एव यदुक्त व्रम्हचर्येण सत्येन तपसा संयमेन च मातङ्गर्षिर्गतः शुधि' न शहि स्तीर्थ याचया १ कोदृशे ब्रम्हचर्यतीर्थे अनाविले निर्मले ॐ पुनः कोदृशे ब्रम्हचर्य तीर्थे आत्मप्रशवसेश्य आत्मनः प्रसबा निर्मलत्व कारणं लेण्या यस्मिन् स आत्मप्रसन्न लेश्य स्तस्मिन् आमनिर्मलत्वकारणं तेज पद्म a शक्लादि लेण्यानयन्तन सहित इत्यर्थः यत्र यस्मिन् व्रम्हचर्य तीर्थे सातः अहं विमलोभाव मलरहितो विशद्धोगत कलङ्गः सभीतीभूत: राग षादि
रहितः सन् दोषं कर्मज्ञानावरणीयादिकं अष्टप्रकारकं प्रकर्षणजहामित्यजामि४६ [एयंसिणाणं कुसखेहिं दिट्ठ महासिणाणं इसिणं पसत्य' जहिंसिंगहाया विमला विसदा महारिसौ उत्तमठाण पत्तित्तिमि] ४७ पूर्व उक्त कर्मरजी विनाशकं सानं तस्योत्तरमाह भी ब्राम्हणाः कुशलैस्तत्वीः केवलि भिः एतत्
सगासे ॥४५॥ धम्म हरए बंभे संति तित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेस । जहिंसिरहाओ बिमलो विसुद्धो मुसौड़
भयोपज हामिदोसं ॥४६॥ एयं सिणाणं कुसलेहि दिट्ठ महासिणाणं इसिणं पसत्यं । जहि सिन्हाया विमला
विमलीनिर्मली विशेषेण सुद्धः स्नान कौधू' थकोनिर्मल हुइ विशेषे करीशङ्ख हुई अतिशयेन शौतीभूती दोषं त्यजामौ अतिसौतलहुनीथकोसर्वदोष छांद्या भाषा
त्यजा ४६ एतत् मानं कुशलैः कथितं ए सानं कुशले पण्डित का उत्तमम्रानं ऋषीणां प्रशस्त उत्तम सान ए ऋषिने भलो कधी यत्र साता विमला
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं० उ०१४मा भाग
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उ टोकाx
सानं दृष्टं परेभ्यश्च प्रोक्त कथम्भ तं एतत् सानं महासानं सर्वेषु मानेषु उत्तमं पुनः कीदृशं मत् सामं ऋषीणां प्रशस्तं मुनीनां योग्ब येन सानन साताः अ०१२ ३७८९ कृतग्रौचा विमलाः कर्ममलरहिताः अतएव विशनाः निःकलका महर्षयो मुनौखराः उत्तम प्रधानं स्थानं अर्थान् मोक्षस्थान प्राप्ताः इति पहं ब्रवीमि
अम्बूखामिनं प्रति श्री सुधास्वामी प्राह इति हरिकेशीयं अध्ययनं हादशं सम्पूर्ण १२ इति श्रीमदुत्तराध्यय न सूत्रार्थ दीपीका उपाध्याय श्रीलक्ष्मी कोर्तिगणिशिष्य लक्ष्मीवन्लभगणिविरचितायां हरिकेशीयाध्ययन स्यार्थः सम्पूर्ण १२ अथ त्रयोदशमा रभ्यते सपः कुर्वता पुरुषेण निदानं न कार्य इत्याह । इति द्वादश त्रयोदशयोः सम्बन्धः चित्रसम्भूत साध्वोः सम्बन्धमाह साकेतनगरे चन्द्रावतंशकस्व राज्ञः पुत्रो मुनिचन्द्रनामा बभूव स च निवृत्त काम भोग वृष्णः सागरचन्द्रस्य मुनेः समोपे प्रव्रजित: गुरुभिः समं विहरबन्यदा एकस्मिन् ग्राम प्रविष्टः सार्थेन सह सर्वेपि साधवश्वलिताः सार्थ भ्रष्टोसावटव्यां पतितः तत्र चत्वारो गोपाल दारकास्तं क्षुषाक्रान्तं पश्यन्ति शझै रशनादिभिः प्रतिजाग्रति यतिना तेषां पुरोदेशनाक्तताः ते गोपाल दारकाः प्रतिबुद्धास्तदन्तिके प्रब्रज्यां ग्टहीतवन्तः तैः सर्वैः शहादीक्षा पालिता हाभ्यां तु दीक्षापालितैव परं मलक्लिन्नवस्त्रादि जुगुप्सा कता ते चत्वारोपि देवलोकं गताः तत्र जुगुप्साकारको दौदेवलोकच्यु तो दशपुरे नगरे सांडिल्य ब्राम्हणस्य यशोमत्या दास्याः पुत्रत्वेनोत्पन्नौ युग्मजातौ बभूवतुः प्रतिक्रान्त वालभावौ तौ यौवनं प्राप्तो अन्यदा क्षेत्ररक्षणार्थ तौ अटव्यां गतौ रात्रौ वटपादपाध: सुप्तौ तौ को दारको वटकोटरानिर्गतेन सर्पण दष्टः द्वितीयः
विसुद्धा महारिसी उत्तमठाणं पतेत्तिबेमि ।४७। इति हरिएसज्भयणं सम्मत्त ॥१२॥ -- निर्मला जेहने विषे मान कौधा थकी निर्मल हुआ शुद्ध हुया थका महामुनि यः उत्तमं स्थान प्राप्त इति ब्रवीमि मोटो साधु उत्तम स्थानकने विषे प्राप्त हुया मुक्ति गया एहवु कहे सुधर्मा खामौ ४७ इति हरिकेशी अध्ययन संपूर्णम् हादशमध्ययनप्ररूपौत: सम्म णम् ॥१२॥ त्रयोदशम अध्ययन प्राह १
य धनपतसिंह बाहादुर का पा. स.उ° १५ मा भाग:
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१ टीका
सर्पोपलम्भनिमित्तं भ्रमन् तेनैव सर्पण दष्टस्ततो हावपि मृतौ कालिंजरपर्वते मृगौ कुची समुत्पत्री युग्मजाती मगौ जाती कालक्रमेण तो दी मात्रा समं अ०१३ भ्रमन्तौ एकेन व्याधेन एकथरेणेव हतौ मृतौ ततो चावपि मृतौ गङ्गातौर एकस्या राजहंस्याः कुक्षौ समुत्पनी जाती क्रमेण हंसी मात्रा समं भ्रमन्ती ३७८
एकेन मत्स्यबन्धकेन ग्रहोती मारितौ च ततो वाराणस्यां नगयां महईि कस्य भूतदिवाभिधस्य चाण्डालस्य पुत्रत्वेन समुत्यत्री क्रमेण जातयोस्तयोः चित्र सभूतनामकृतं तो चित्रसम्म तो मिथः प्रीतिपरौ जातौ इतश्च तस्मिनवसरे वाराणस्यां नगयां शङ्घनामा राजा तस्य नमुचिनामा मन्त्री अन्यदा तस्य किञ्चित् चूर्ण जातं कुपितेन राज्ञा सबधार्थ भूतदिन्न चण्डालस्य दत्तः भूतदिवचण्डालेन तस्यैवमुक्त' भी मम्बिन् त्वामहं रक्षामि यदि मदगृहान्तभूमि गृहस्थितो मत्यु नौ पाठयसि जीवितार्थिना तेन तत् प्रतिपन्न भूमिग्गृहस्थः सचित्र सम्भूतौ पाठचति चित्रसम्भूतमाता तु मन्त्रिपरिचर्या कुरुते मन्त्री तु तस्यामेव व्यासक्तो भूत् निजपनो व्यभिचारि चरितं चाण्डाबेन जातं नमुचिमारणोपायस्तेन चिन्तितं पितुरध्यवसाय स्ताभ्यां ज्ञात: उपकार प्रीतिरताभ्यां स नमुचि नोशितः ततो नष्टः स क्रमेण हस्तिनागपुर सनत्कुमारचक्रिणो मन्त्री जातः इतश्च ताभ्यां मातङ्गदारकाभ्यां चित्र सम्भताभ्यां रूपयौवनलावण्य नृत्यगोतकलाभि ष्णारसौ नगरी जनः प्रकामं चमत्कार प्रापित: अन्यदा तत्र मदनमहोत्सवोजातः सर्वेषु लोकेषु गौतनृत्यवादिवादिविनोदप्रवृत्ते घु सस सौ मात गदारको वाराणसौनगर्यातः समागत्य सर्वाः स्वकलाः दर्शयितु प्रवृत्ती तयो विशेषकलाचमत्क ता लोकास्तरणीप्रमुखाः समौपे गताः * एकाकारो जात: अस्पृस्य त्वादिकं न जानन्ति सर्वेपि लोकास्तन्मयतां गताः ततश्चतुर्वेदविद्धि म्हणे नगर स्वामिन एवं विज्ञप्त राजन्ने ताभ्यां चित्रसम्भू
ताभ्यां चण्डालाभ्यां सर्वोपि नगरौलाक एकाकार प्रापितः राजा तयोर्नगरी प्रवेशो वारितः कियकालानन्तरं पुनस्तत्र कौमुदी महोत्सवी जात स्तदानी कियत्कालौ तौ राजशासनं विस्मार्य नगरीमध्ये प्रविष्टौ तत्र स्वच्छवस्त्रेण मुखमाच्छाद्य प्रेक्षणानि प्रेक्षमाणयो स्तयोरसप्रकर्षोद्भवेन मुखाडीत निर्गतं सर्व
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
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WOU
उ०टीका
लोका वदन्ति केन किं नरानुकारणेदं कर्णसुखमुत्यादितमिति वस्त्रं परातत्य लोकै त यो मुखमीचितं उपलचितौ तौ मागणदारको राजानुशासनभनक त्वेन जनैष्टि मुख्यादिभिहन्धमानौ तौ नगर्याः बहिनिष्कासिती प्राप्ती बहिरुद्याने भृशं खिनौ एवं चिन्तयत: धिगस्तु अस्माकं रूपयौवनसौभाग्य * लावण्य सर्वकलाकौशल्यादिगुणकलापस्य यतोऽस्माकं मातङ्गजाभ्यां सर्व दूषितं लोकपराभवस्थानं वयं प्राप्ताः एवं गुरुवैराग्यमागतौ स्वबान्धवादौनामना
पृच्च्च व दक्षिणदिगभिमुखौ चलितो दूरं गताभ्यां ताभ्यां एको गिरवरी दृष्टः तत्र भृगुपातकरणार्धमधिरूढौ तौ शिलातलोपविष्ट तपः शोषिताङ्गं शुभ ध्यानोपगतं आतपना गृहन्तमेकं श्रमणं ददृशतुः हर्षितौ तौ तत्समीप जग्मतुः भक्तिमानपूर्व ताभ्यां स वन्दितः साधुना धर्मलाभकथनपूर्वकं तयोः 8 खागतं पृष्ट ताभ्यां पूर्ववृत्तान्तकथनपूर्वकं स्वाभिप्रायः साधीः कथितः साधुना कथितं न युक्तमनेक शास्त्रावदातबुद्दीनां भवादृशानां गिरिपतनमरणं सर्व दुःखक्षयकारणं श्रीवीतरागधर्म ग्टहन्विति पञ्च महाव्रतरूप: श्रीवीतरागधर्मस्तयोः कथित: ततस्ताभ्यां तस्य मुनेः समीपे दीक्षा ग्रहौता कालक्रमण
तौ गौतार्थों जातो ततः स्वगुर्वाज्ञया षष्ठाष्टमदशमहादशाईमासमासक्षपणदि तपोभि रामानं भावयन्ती प्रामानुग्राम विहरन्तौ कालांतरण हस्ति नाग 8 पुरं प्राप्तौ वहिरुद्याने स्थितौ अन्यदा मासक्षपणपारण सम्भू तसाधुनगरमध्ये भिक्षार्थ प्रविष्टः गृहानुग्रहं भ्रमन् राजमार्गानुगतो गवाक्षस्थेन नमुचि
मन्त्रिणा दृष्टः प्रत्यभिज्ञातः चिन्तितंच स एष मातंगदारको मदध्यापतो मञ्चरित्रमशेष मजानबस्ति कदाचिच्च लोकाग्रे वक्ष्यते तदा मन्महत्वशी भवि थतौति मत्वा दूतैः स मुनि यष्टिमुध्यादिभि ारयित्वा नमुचिना नगराइहिनिष्काशयतु मारश्चः निरपराधस्य हन्यमानस्य तस्य कोपकरालितस्य मुखा निर्गत: प्रथमं धूमस्तोमः तेन सर्वमपिनगरमन्धकारितं । भयकौतूहलाक्रान्तानागरास्त वायाताः क्रोधाभातन्तंमुनिं दृष्ट्वा सर्वेपि प्रसादयितुं प्रवृत्ताः स नत् कुमारचक्रवर्त्यपि तवायातः तं प्रसादयितु प्रवृत्त एवं बभाण भगवन् यदस्मादृशैरज्ञानरपरा तद्भवद्भिः चमौवं संहरन्तुतपस्तेजः प्रसादं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ०४१ मा भाग
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उ० टोका अ०१२
३८१
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कुर्वन्तु ममोपरिप्रसादं सर्वनागरिकजीवित प्रदानेन पुनरेवम्बिधमपराधन्नकरिष्याम इत्यादि चक्रिणाप्युक्तौसौयावत्र प्रशाम्यति तावदुयानस्यचित साधुर्जनापवादात्तं कुपितं ज्ञात्वा तस्य समीपमागत एवं उवाच भो संभूतसाधो उपशामयकोपानलं उपशम प्रधानाः श्रमणा भवन्ति अप राधेपि न कोपस्थावकाशं ददति क्रोधः सर्वधनानुष्टान निष्फलोकारकोस्ति यतउक्त मासुववासुकरइचित्तवणवासुनिसेवर पढना सुज्माणनिच अप्पाणं भावई धारइदुद्धरबंभचेरभिक्वासणभुञ्जइ जासुरोसतसुसयलु धम्मनिष्फलु सम्पज्जइ इत्यादिकैश्वित्र साधूपदेभैः संभूतस्य उपशान्तः क्रोधः तेजोलेश्या सता ततस्तौद्दावपितत्प्रदेशाविवृत्तौ तदुद्यानं चिन्तितं चैताभ्यां श्रावाभ्यां स'लेखनाकृता साम्प्रतमावयोयुक्त मनशनं कत्तु । इति विचार्यताभ्या मनशनं विहितं सनत्कुमार चक्रिणा न मुचि मन्त्रिणो ष्टत्तान्तो ज्ञातः दुतैः सह रज्जुबडः कृतः प्रापितख तदुद्याने तयोः समीपे ताभ्यां समोचितः सनत्कुमारोपि तयोर्वन्दनार्थं सान्तः पुर परीवार स्तत्रायातः सर्वलोकसहितञ्चक्रौ तयोः पादयुग्मं प्रणतः चक्रिणः स्वौरत्न' सुनन्दापि श्रौत् सृक्यात्तयोः पादे प्रणता तस्याल कस्पर्शानुभवेन सम्भ तयतिना निदानं कर्तुमारब्धः तदानीं चित्रमुनिना एवं चिन्तितं अहो दुर्जयत्व' मोहस्य अहो दुर्दान्तता इन्द्रियाणां येन समाचरित विकष्ट तपस्करोपि विदित जिन वचनोप्ययं युवती वालाग्र स्पर्शेणेत्य' अध्यवस्यति ततः प्रतिबोधित कामेन चित्र मुनिना तस्य सम्भत मुने रेवं भणितं भ्रातरे तदध्यवसायात्रिवत्ति कुरु एतेहि भोगाः असाराः परिणाम दारुणाः संसार परिभ्रमण हेतव सन्ति एतेषु मानिदानं कुरुनिदानात्तव घोरानुष्टामं नैवताहक फलद' भविष्यति एवं चित्र मुनिना प्रतिबोधितोपि सम्भूतो न निदानं तत्याजयद्यस्य तपसः फलं अस्ति तदाहं भवान्तरे चक्रवर्ती भूया समिति निकाचितं निदानं ततो मृखासौधर्मे देवलोके दावपि देवौ जातौ ततथुप्रतथित्र जीवः पुरमताल नगरे इभ्यपुव्रोजातः सम्भूत जीवस्ततयुक्तः कांपिल्यपुरे ब्रम्हनाम राजा तस्य चुलनो नाम्त्रौ भार्यास्तस्याः कुचौ चतुर्दश स्वप्न सूचितः उत्पन्नः क्रमेण जातस्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४ १ मा भाग
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अ.१३
१०टोका तस्य व्रम्हदत्त इति नामकृतं देहीपचयेन कला कलापेन च हविगतः तस्य ब्रम्हरान उत्तमवंयसम्भूताश्चत्वारः सुहदस्मन्ति तद्यथा काशी विषयाधिपः
8 कटक: गजपुराधिपः कणेरदत्त: कोशल देशाधिपति दीर्घः चम्माधिपतिः पुष्पचूल इति तेऽत्यन्त मेहेन परस्पर विरहमनिच्छन्तः समुदिताचैवं एक २ २८२
- वर्ष परिपाव्या विविध क्रीडाविलासै रेकस्मिन् राज्ये तिष्ठन्ति अन्धदातचत्वारोपि समुदिताथैव ब्रम्हराज्ये स्थिताः सन्ति तस्मिन्नवसरे ब्रम्हराज्ञो मन्त्र तच औषधाद्य साध्यः शिरोरोगः उत्पन्न स्ततस्तेन कटकादि चतुर्णी मिवाणा मुत्सङ्गे ब्रम्हदत्तो मुक्त: उक्तञ्च यथैषमद्राज्य मुखेन पालयति तथा युभाभिः कर्त्तव्यमिति राज्यचिन्तां कारयित्वा ब्रम्हराजा कालङ्गतः मित्र स्तस्य प्रेत्य कर्मकृतं मिथचव भणितं एष कुमारी यावद्राव्य धुराों भवति । ताक्दस्माभि रेतद्राज्य रक्षणीयमिति विचार्य सर्वसम्मतं दीर्घराजानं तत्र स्थापयित्वा कटक करेण दत्त पुष्कचूलाः स्वस्वराज्ये जग्म स दौर्घ राजा सकलसामग्रीक राज्य पालयति भण्डागारं विलोकयति प्रविशत्यन्तः पुरं चुलिन्यासमं मन्त्रयति तत इन्द्रियाणां दुर्निवारत्वे न तुम्हरान मैत्री मव गणय्य वचनीयतां अवमन्यु चुलिन्या समं सम्प्र लम्न एवं प्रवर्षमान विषयसुख रसयो स्तयोर्गच्छन्ति दिनाः ततो तुम्हराज मन्त्रिणा धनुर्नामा सयो स्तत्स्वरूपं जातं चिन्तितं च यएवं विधमकार्य माचरति स किं कुमार तुम्हदत्तस्य हिताय भविश्थति एवं चिन्तयित्वा तेन धनुर्माना मन्त्रिणा व पुत्रस्य वरधनुनानः कुमारस्य एवं भणितं यथा पुत्र यथा ब्रम्हदत्तस्य माता व्यभिचारिणी जातास्ति दीर्घ राजा भुज्यमानास्ति अयं समाचार एकान्ते त्वया म्हदत्त कुमारस्य निवेदनौयः तेन च तथा ऊतं वम्हदत्त कुमारोपि मातुर्दुश्चरितम सहमान स्तको ज्ञापना काक कोकिला मिथुनं शूलाप्रोतं कृत्वा चुलनौ माह दीर्घ नृपयोर्दथितं एवं प्रोक्त ये ईट्टयमनाचार करिष्यति तस्याहं निग्रहं करियामौत्युक्त्वा कुमारी बहिर्गतः एवं वित्रिभिदृष्टान्त दिन वयं यावदेवञ्चकार उवाच ततो दीर्घ तृपेण शक्तेिन चुलिन्याएवमुक्त कमारणाषयोः स्वरूपं जातं अहसाकस्व' कोकिलेति दृष्टान्तः कुमारण प्रापितः
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०त.8१ मा भाग
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अ०१३ ३८३
१ टीका
*सयोत बालोयं यत्त दुलपतिनाचार्थे काचिच्छता कार्या ततो दीर्घपृष्ठेनोक्त त्वपुत्र वासल्ये नन किमपि स्वहितं वैमि अयमवश्य मावयो रति विघ्नकर स्तदवशमयं मारणीयः मयि स्वाधीने तवान्ये पुत्रा बहवो भविष्यन्ति एतादृशं दीर्घ तृपवचस्तयाङ्गी कृतं यत: उक्त महिला बाल कुलहरं महिला लोयंमिदुचरियखितं महिला दुग्गइदारं महिला जोणी अणत्याणं १ मारइपिय भत्तारं हण सुअन्तहपणासए प्रत्य नियगेहिंपिपौलावणारी रागा उरापावा २ चुलिन्या भणितं कथमेष मारणौय: कथञ्च लोकापवादी न भवति दीर्घवृषणोक्त साम्प्रतमस्य विवाह कियते पश्चामप्रमावयोः चिन्तित भविष्यति ताभ्यां वम्हदत्तस्य कस्यचिद्रातः कन्या पाणिग्रहणं कारितं तयोः शयनार्थ अनेकस्थम्भ पत सविविष्ट गूढ निर्गमहारं जगह कारितं इतच धनु मन्त्रिणा दीर्घ तृपाय एवं विज्ञप्तं एष मम पुत्रोवर धनुरे तद्राज्य कार्यकरण समर्थो वर्तते अहं पुनः परलोक हितकरोमि दीर्घ नृपेणोक्त इह स्थित एवत्व' दानादि धर्म कुरुतस्यै तहचः प्रतिपद्य धनुमन्त्रिणा गङ्गातीर महतो प्रपाकारिता तत्र पथिक परिवाजकादीनां यथेष्टदानं दातुं प्रवृत्त: दानोपचारा वर्जितैः परिवाजकादिभिगिव्य त प्रमाणा सुरङ्गा जतुग्रहं यावत्खानिताः जतुग्रहान्तः सुरङ्गा हारि शिलादत्ता इतच चुलिन्या महताडम्बरेण वधूसहित: कुमारस्तत्र प्रवेशितः ततः समग्रः परिवारो विसर्जित: वरधनुः कुमारपाईस्थितः एवं स्वपिनागदित वृत्तान्तानुसारेण सावधानो जाग्रने व सुप्तः ब्रम्हदत्त कुमारस्तु एक शय्यायां तया बध्वासह सुप्तः गतं रात्रि प्रहरयुग्म सदा तवचुलिन्या स्वहस्तेन अग्निकन्दुकोन्यस्त:: तेन तद्ग्रहं समं तात्दह्यमानं दृष्ट्वा विनिद्रो वम्हदत्तः स्वमित्र वरधनुं पप्रच्छ किमेतदिति वरधनुना सर्व चुलिनी स्वरूपं कथितं पुनः कथितं इयञ्च कन्या राजपुत्रौ न किन्तु काप्यन्या तस्मादस्यां मोहीमना गपिन कार्यः त्वमस्यां शिलायां पादप्रहारं कुरु येना निर्गच्छाव: वरधनूक्त सय बुम्हद सेन कृतं ततो दावपि निर्गत्य सुरकाइहिर्देश समायाती तब च धनुमन्त्रिणा पूर्वमेवडी तुरङ्गमौ पुरुषी च मुक्लौस्तः ताभ्यां तयोः सबै सः कथितः तुर
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं० उ०१४ मा भाग
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उ०टोका*
नारूढ़ी तावपि कुमारौ ततश्चलितो एकेन दिवसे न पञ्चाशद्योजन मात्रं भूभागङ्गतौ दीर्घ मार्ग खेदेन तुरङ्गमौ व्यापत्रौ ततः पादचारण गच्छन्ती अ०१३
तो कौडाभिधान ग्रामङ्गतौ कुमारेण वरधनुर्भणितः मां क्षुधा बाधते वरधनु: कुमारं बहिरेवोपवेश्य स्वयं ग्राममध्ये प्रविष्टः नापितं गृहोला तवायात: ३८४
कुमारस्थ मस्तक मुण्डापितं परिधापितानि कषाय वस्त्राणि चतुरङ्गल प्रमाण पट्टबन्धः कुमारस्य स्त्री वस्त्रालते हदिवडः वरधनुनापि वैषपरावर्तनः वतः तादृश वैषधरी हावपि ग्राममध्ये प्रविष्टौ तावता एको हिजः ख मन्दिराबिर्गत्य अभिमुख मागत्य ती कुमारी प्रत्येवमाह आगच्छता
मस्मदग्टहे भुचतां वेनेत्युक्ते तो हावपि तद् गृहे गतौ वाम्हणेन राजरूप प्रतिपत्ति पूर्वकं भोजितौ भोजनान्ते च एकाप्रबर महिला बन्धु मतों - नानों कन्या उदिश्य वम्हदत्त कुमार मस्तकेऽक्षान् प्रक्षिपति भणति च एषोऽस्याः कन्याया वरोस्त्विति वरधनुना भणितं किमेतस्य मूर्खस्य बटुकस्य । कृते एतावानायासः क्रियते यतो गृहस्वामिना भणितं श्रूयतामस्मदाया स वृत्तान्तः पूर्व सुब्रत नैमित्ति केनाख्यातं यथाऽस्याः बालिकायाः पट्टा च्छादित वक्षःस्थलः समित्रो भवद्गृहे भोजनकारी वरी भविष्यति सोयमस्या योग्योवर इति तस्मिन्नेव दिने तस्याः कन्यायाः कुमारण पाणि ग्रहणं कारितं मुदितो गृहखामो कुमारस्तु एकराचौ तवस्थितः हितोयदिने वरधनुना कुमारस्योक्त आवाभ्यां दूर गन्तव्य दीर्घ राजा सन्नत्वेनात्र
स्थातुमावयोरयुक्त मिति तो हावपि बन्ध मत्याः स्वरूपं कथयित्वा निर्गती गच्छन्तावेकदा कस्मिच्चिर ग्रामे गतौ वषा क्रान्तं कुमारं बहिरुपवेश्य * परधनुः सलिलमानेतुं ग्राममध्ये प्रविष्टः त्वरितमेव पश्चादागत्य एवं कुमारस्योक्तवान् अत्र ईदृशो जनापवादी मया श्रुतः यदीर्घ कृपण व्रम्हदत्तमार्गः * सर्वत्र सैन्य बन्धितोस्ति ततः कुमारं आवामितो नश्याव: नष्टौ ततो हावपि उमा मार्गेण वुजन्तौ महाटवौं प्रातौ तत्र कुमारं वटाध उपवेश्य
वरधनुर्जलमानेतु मितस्ततो बभ्राम दिनावसाने वरधनु दीर्घ पृष्ट नृप भष्टः प्रकामं यष्टि मुध्यादिभिर्हन्धमानः कुमारं दर्शयेति प्रोच्च
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ. टीका
अ०१३ ३८५
मानव कुमारासब प्रदेथे प्रापितः तावता वरधनुना कुमारस्य केनाप्य लक्षिता संना कता भट्टै रदृष्ट एव ब्रम्हदत्तो नष्टः पतितश्च दुर्गम वान्तारे क्षधा वृषात्रमातः कुमारस्तृतौये दिने तामटवी मतिक्रान्त स्तापसमेकं ददर्थ दृष्टे च तस्मिन् कुमारस्य जीविता सा जाता कुमारण तापसः पृष्टः भगवन् क्व भवदाश्रमः तेन आसन्न एवास्मदाश्रम इत्युक्त्वा कुलपतिसमीपं नीतः कुमारण प्रणतः कुलपतिः कुलपतिना भणितं वत्म कुत इह भवदागमनं कुमारण सकलोपि ववृत्तान्तः कथितः कुलपतिना उक्तं अहं भवज्जनकस्य क्षुल्लभाता ततस्त्वं निजं चैवावासं प्राप्तोसि सुखेनात्र तिष्ठ इत्यभिप्रायं तापसस्व नात्या कुमारस्तत्र व सुखं तिष्ठवस्ति अन्यदा तत्र वर्षाकालः समायातः तदानीं निश्चिन्तेन कुमारेण तत्र तापसान्तिक सकला धनुर्वेदादिकः कला अभ्यस्ताः अन्यदा शरत्काले फलमूलकन्दनिमित्त तापसेषु गच्छत्सु ब्रम्हदत्तकुमारोपि तैः समं वने गतः वनवियं पश्यता तेन एको महाहस्ति दृष्टः कुमारस्तदमि मुखं चलितः कुमार दृष्ट्वा हस्तिना गजगर्जारवः कृतः कुमारण तस्य पुरी निजमुत्तरौयं वस्त्र निक्षिप्त करिणापि तत्क्षणात् शुण्डादण्डेन ग्टहीतं क्षिप्त च गगनतले यावत् क्रोधान्धी जातः तावत् कुमारण छलं कृत्वा तहस्त्रं स्खकराभ्यां गृहीतं ततस्तेन नानाविध क्रौडया परिश्वमनौवाकरीमुक्तः स पश्चाद् गनु प्रवृत्तः तत् पृष्टौ कुमारोपि चलितः इतश्च अग्रे गच्छन् कुमारः पूर्वापर दिविभाग परिभ्रमन् गिरिनदीतटसविविष्टं जीर्णभवनभित्तिमात्रीप लक्षितं जीर्ष नमरमेकं ददर्श तन्मध्ये प्रविष्टश्चतुहिक्ष दृष्टि क्षिपन् पार्श्वपरिमुक्तखेटस्वखनविकटवंशकुडंगं ददर्श कुमारेण तत् खस तथैव कौतुकाहा हितं एकप्रहारेण निपतितं वंशकुडग' वंशान्तरालस्थितं च निपतितं रुण्डमेकं स्फ रदीष्ठ मनोहराकारं शिरः कमलं दृष्ट्वा संभ्रान्सेन कुमारण एवं चिन्तितं हा धिगस्तु व्यवसितस्य धिने बाहुबलस्येति कुमारः स्खं निनिन्द पश्चात्तापाक्रान्तेन तेन कुमारण दृष्टं धूमपानलालसं कबन्ध समधिकमति स्तस्य पुनर्जाता इतस्ततः पश्यता कुमारेण पुनः प्रवरमुद्यानं दृष्टं तव भ्रमन् अशोकतरुपरिक्षिप्तमेकं सप्तभूमिकं आवासं कुमारो दृष्टवान् तन्मध्ये प्रविष्टः
४८
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०७०४१ मा भाग
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टोका
अ.१३
३८५
XXXRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
कुमारः क्रमेण सप्तभूमिकामारूढ़ः तत्र विकसितकमलदलाची प्रवरां महिला पश्यतिस्म कुमारीण सा पृष्टा कासि त्वमिति ततः सा स्वसद्भावं कथयितु प्रत्ता महाभाग मम व्यतिकरी भहान् वर्त्तते ततस्त्वमेव प्रथमं ववृत्तान्त वद कस्व कुतः समायातः एवं तया पृष्टे कुमार पाख्यत् अहं पश्चालाधिपति ब्रम्हराजपुत्रो ब्रम्हदत्तोस्नौति कुमारोक्तिश्रवणानन्तरं हर्षोत्फुल्लनयना सा अभ्भुस्थिता तस्येव चरण निपत्य रोदित प्रवृत्ता ततः कारुखहृदयेन कुमारण सा पुनरेवं भणितामुखमुव्रतं कुरु मारुदेत्याचासिता सा कुमारण त्व स्ववृत्तान्तं वदेत्यु वा साचख्यौ कुमार अहं तव मातुलस्य पुष्यचूलस्य राज्ञः पुत्री तवैव पित्वा दत्ता विवाहदिवसं प्रतौच्चमाण निजगृहोद्यान दौधिकापुलिने क्रौडन्तौ दुष्टविद्याधरणावानौता यावदहं स्वजनविरहाग्निसंतमा इह 8 तिष्ठामि तावत् त्वौं अतर्कितदृष्टिसमोऽत्रायातः अथ मम जीविताशा सञ्जाता यत् त्व' मयादृष्टः कुमारेणोक्त स मम शत्रु : क्वास्ति येन तहलं पश्यामि
तया भणितं स्वामिन् ममानेन शङ्करी नाम्नी विद्यादत्ता कथितं च इयं विद्या पठितमात्रा तव दासदासी सखी परिवारा भूत्वा आदेशं करिश्थति तवा न्तिकमागतं प्रत्यनीक निवारयिष्यति दूरस्थस्यापि मम चेष्टितं पृष्टा सती इयं तव कथयिष्यति साद्य मया प्राप्ता स्मता सती मम तष्टितं प्राह यथा स उन्मत्तनामा विद्याधरः पूर्णपुण्याया स्तव वलात् स्पर्यतेजय सोढमशक्तस्वामत्र मुक्ता निजभगिनी ज्ञापनाय ज्ञापिकी विद्या प्रेषयित्वा च स्वयं विद्या साधयितु वंशकुडले गतोस्ति ततो निर्गतमात्रस्त्वां परिणष्यतीति ममाद्य तथा विद्यया कथितं एतत्तस्याः वचः श्रुत्वा ब्रम्हदत्तेनोक्त वंशकुडंगस्थस्य तस्व विद्याधरस्य मया साम्प्रतमेव गिरहिवं तयोक्त आर्यपुत्र शोभनं कृतं यत्म दुरामा निहतः ततः सा कुमारीण गन्धर्व विवाहेन परिणीता तया समं विल सन् कमारः कियत्कालं तत्र स्थितः अन्धदा कमारेण तत्र दिव्यवलयानां शब्दः श्रुतः कुमारणोक्त कोयं शब्दः श्रूयते तयोक्त' कुमार एषा तव वैरिभगिनी खण्डणीखा नानी विद्याधर कुमार परवता स्वभानिमित्त विवाहोपकरणानि गृहीत्वा समायाता त्वमितस्वरितमपक्रम यावदेता सा महमभिप्राय
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स. २०११ मा भाग
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उ० टौका
* वेद्मि यद्येतासां तवोपरि रागो भविश्थति तदाहं प्रासादोपरिस्थितां रक्तां पताकां चालयिष्यामि अन्या तुस्खेतामिति कुमारस्तद्गृहाइहिर्गत्वा दूर स्थित अ०१३ ऊई बिलोकते तावच्चालितां धवलपताकां दृष्ट्वा शनैः२ स्तत्प्रदेशदपक्रान्तः प्राप्तो गिरिनिकुञ्जमध्ये तत्र भ्रमता कुमारेण एक सरोवरं दृष्टं तत्र मानं कृत्वा
सरः पश्चिमतौरे उत्तोर्णेन कुमारण दृष्टा एका वरकन्या चिन्तितं च अहो मे पुण्यपरिणतिः येनैषा कन्या मे दृग्गोचरसमागता तयाप्यमो कुमारः स्नेह निर्भरं विलोकितः कुमारं विलोकयन्ती साग्रे प्रस्थिता स्ताकया वेलया तया कन्यया एका दासौ प्रेषिता तया कु माराय वस्त्रयुगलं पुष्यतांबूलादिक
दत्तं उक्त च या युभाभिः सरस्तौर कन्या दृष्टा तया सर्वमिदं प्रेषितं लावण्यलतिका नानी अहं तस्या दासौ अस्मि तयाच ममेदमादिष्ट एनं महानु 8 भावं कुमारं मम तात महामन्त्रिगो शरीरस्थितिं कारय ततस्तत्र कुमार यूयमागच्छत ततः पारस्त या सह तदैवामात्यमन्दिरे गतः तव दास्था
मन्त्रिणएवमुक्त मन्त्रिन् त्वत्स्वामि पुत्त्रायं प्रेषितोस्ति प्रकामं अस्यादरः कर्तव्यः मन्त्रिणा तथैव कृतं द्वितीयदिने क मारो मन्त्रिणा रान सभायां नौतः * अभ्य स्थितेन राजा कुमारस्य धुरि आसनं दत्तं पृष्टश्च वृत्तान्तः क मारण सर्वोपि कथितः अथ विविधभक्त्या भोजितस्य क मारस्य एवमुक्त राज्ञा क मार
तव भक्तिरस्मादृशैः कापि कत्तुं न पार्यते परमियमेवास्माक' भक्तिर्यदियं कग्या तव प्राभृतीकता सुमुहुर्ते तयोर्विवाहो जातः कुमारस्तया समं विलासन् सुखेन तत्र तिष्ठति अन्धदा कुमारण तस्याः प्रियायाः पृष्ट किमर्थमेकाकिने महोवं नृपण दत्ता सा उवाच आर्यपुत्र एष मदीयः पिता बलवत्तरवैरिसन्ता पित इमां विषमपन्निं समाश्रितः अत्र तातपत्नया श्रीमत्याश्चतुर्णा पुत्राणामुपरि अहं पुत्रौ जाता अहमतीव पितुर्वल्लभा यौवनस्था अन्यदा पित्रा उक्ता पुत्रि मम सर्वेपि राजानो विरुद्धाः सन्ति तेन त्व इह स्थितैव योग्यं वरं गवेषय ततोहं ग्रामाइहिस्तस्य सरस्तौर समायातान् पथिकान् विलोकयन्ती स्थिता तदानीं त्वतत्रायाती मया भाग्यात् प्राप्त ति परमार्थ : ततः श्रीकान्तया समं विषयसुखमनुभवतस्त स्य मुखेन वासरायान्ति अन्यदा स पन्नी
XRRRRRRRRRRRRRRRRREXXXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.१४मा भाग,
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००
उ टौका
पतिः कुमारेण समं निजसैन्यवेष्टितः खविरोधि तृप देशभङ्गाय चलितः मार्गे गच्छतस्तस्य क्वचित्मरस्तीरे वरधनुर्मिलितः कुमारणोपलक्षित: कुमार ३८६ ४ दृष्ट्वा स रोदितु प्रहत्तः कुमारण बहुप्रकारं वारितः स्थितः कुमारेण पृष्टं' मत्तो दूरीभूतेन त्वया किमनुभूतं वरधनुः प्राह कुमारतदानीं त्वां वटाध उप
वेश्य अहं जलार्थ गतः सर एक दृष्टवान् ततो जलं गृहीत्वा तवान्तिके यावदहमागत प्रवृत्तः तावत्मन्नद्दबदकवचैर्दीर्घतृपभटैः सहसामिलितैरहमुप * लक्षितस्ताडितश्च उक्तं चक्कब्रम्हदत्तइति मयोक्त अहं न जानामि ततो दृढतरं ताडितो अहमवदं ब्रह्ममत्तो व्याघ्रण भक्षितः तैरुक्त तं देशं दर्शय तैौर्य
माणोहं तवान्तिकदेशमागत्व तदानीं त्वां संज्ञामकार्ष त्वयि ततो नष्टे अहं पुनस्तै शं ताद्यमान स्वमुखेपरिबाजकदत्तां गुटिकां क्षिप्तवान् तत्प्रभावदह
निश्चेष्टो जातः ततस्ते मृतोयमिति नात्वा सर्वेपि भटागताः तेषां गमनानन्तरं चिरकालेन मया गुटिकामुखाविष्कासिता ततः सचेतनोहं त्वां गवेष * यितुं प्रवृत्तः न मया दृष्टस्त्र ततोहमेक ग्रामं गतः तत्र दृष्ट एकः परिब्राजक: तेनोक्त' अहं तव तातस्य मित्रं सुभगनामा तव पिता धनुर्नष्टः मातानु
दौर्षण रहोता मातङ्गपाटे क्षिप्तास्तौति श्रुत्वाहमतीव दुःखितः काम्पिल्यपुरे गत: कापालिकवेषं कृत्वा मातङ्गवत्तरं वञ्चयित्वा मातङ्गपाटकामातरं निष्कासितवान् एकस्मिन् ग्रामे पिमित्रस्य देवशर्म वाम्हणस्य रहे मातरं मुक्त्वा त्वामन्वेषयन्त्रहमिहायातः इत्य' यावत्तौ वरधनु वृद्धदत्तो वार्ता कुरुतः तावदेकः पुरुषस्तत्रागत्व एवमुवाच यथा महाभाग भवता कचिदितस्ततो न पर्यटितव्य त्वद्वेषणार्थ दीर्घनियुक्ता नृपा इहागताः सन्तौति श्रुत्वा तो
हावपि ततो वनाअष्टौ भ्रमन्तौ कौशांब्यां गतौ तत्र बहिरुद्याने हयो श्रेष्ठिसुतयोः सागरदत्तबुद्धिलनात्रोः कु कूटयुगलं लक्षपणकरणपूर्वक योई प्रवृत्त * द्रष्टुं कौतुकेन तो तत्रैव स्थिती बुडिलक कटेन सागरदत्तक कुटः प्रहारण जर्जरौक्कतो भग्नः सागरदत्त न प्रेर्यमाणोपि स्वकु कूटो बुद्धिलक कटेन समं * पुनर्योई नाभिलषति हारितं लक्षं सागरदत्त न अवान्तरे वरधनुना उक्तं भो सागरदत्त एषसुजातिरपि कुर्कुट: कथं भग्न: ममात्रार्थे विस्मयोस्ति यदि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०स० उ०१४ मा भाग
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उ० टोका
अ०१३ ३८८
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कोपि कोपं न करोति तदा बुडिलकर्कटमहं पश्यामि सागरदत्तो भगति भी महाराज विलोकयनास्त्यत्र मम कोपि द्रव्यलोभः कि' त्वभिमान सिद्धिमात्र प्रयोजनमस्तीति ततोवरधनुनाविलोकित स कुर्कुटः तचरण निवडः सूचोकलापोदृष्टः बुडिलोपिवरधनं प्रति शनैरेव माह यदित्व' सूचौकलापं न बच्यसि तदाहन्त बलाचा दास्यामि ततो वरधनुनाउक्त' विलोकितोयत् कुर्कुटोनात्र किञ्चिद् दृश्यते एव सक्तापि यथा बुडिलोनजानाति तथा सूचीकलाप मपा कृत्य सागरदत्तस्य तदुद्ध्यति करः कथितः सागरदत्तेन पुनः स्व कुर्कुटः प्रेरितोबुद्धिल कर्कुटेन समं युद्ध प्रवहतेसागरगत्त कुकुटेन जितो बुलि कर्कुट हारितं वृद्दिलेन लचं तुष्टः सागरदत्तः एवमाह आर्यपुत्र गृहेगम्यते इत्युक्ता दावपि कुमारोरथे निवेश्य सागरदत्तः स्वग्टहगतः सागरदत्तस्तौ परमप्रीत्या पश्यति सागर दत्तस्नेह नियन्त्रितौ तौ अतौ वा ग्रहात् तद्गृह एव तस्यतुः किर्याहनानन्तरं एकोदा स स्तवा यातस्तेन एकान्ते वरधनु राकारितः उक्त वरधनुकुमारायत्तव तदानों सूचि व्यतिकर द्रव्यं स्वमुखोक्त बुडिलेन तद् द्रव्यापणाय अयं हार: प्रेषितोस्ति इत्युक्त्वा हारकरण्डिकातेन वरधनवे दत्ता दासः स्वगृहेगतः वरधनुरपिहार करण्डिकां गृहीत्वा ब्रम्हदत्तान्तिके गतः स्वरूपं कथयि त्वाहारकरण्डिकातेन वरधनवे दत्ता स्वरूपं कथयित्वाहारकरण्डिकातोहारं निष्कास्पदर्शितवान् हारं पश्यतां वृम्हदत्तेनहारेकदेशस्थो वृम्हदत्त नामाङ्कितो लेखो दृष्टः पृष्टञ्च मित्रकस्यैषः लेखः वरधनुर्भणति को जानाति वम्हदत्तनामकाः पुरुषाबहवस्त्रन्ति ततोदूरे गत्वा वरधनुना उत्कीर्णो लेखः तमध्ये इयङ्गाथा दृष्टा पत्थिज्जइजइ विजए जगेण सञ्जीय जगिय जत्ते णं तहवित मश्चिह धणित्रं रयणवई मुण्ड माउ' सूक्ष्मबुझाध्यायता वरधनुनाऽस्या गाथाया अर्थोऽवगतः द्वितीयदिने एका परिवाजिका तत्रायाता सा कुमारसिरशि क सुमाचतानि प्रक्षिप्य कुमारत्व' शतसहस्रायुर्भवेदित्या शिषं ददौ वरधनुमेकां तेन तेन समं किञ्चिन्मन्त्रयित्वा सा प्रतिगता कुमारेण वरधनुर्जल्पितः अनया किमुक्त वरधनुर्भणति अनया एवमुक्त ं तव
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ· सं० उ०१४ मा भाग
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उ० टोका
अ०१२
३८०
बुडिलेन करण्डेहारः प्रेषितोस्ति तेन समं योलेखः समागतोस्ति तत् प्रतिलेखं समर्प्यय मया उक्त एष लेखो ब्रम्हदत्त राजा नामाङ्कित वर्त्तन्त ततस्त्व मेव वदको सौ वृम्हदत्तः तथा उक्त श्रूयतां परङ्गस्यापि त्वया न वक्तव्य' इह नगर्यां श्रेष्टि पुत्री रत्नवतीनान्नी कन्यकास्ति सा बालभावादारभ्य अतीव ममजेदानुरक्तायौवनमनु प्राप्ता अन्यदिनेसा किञ्चित्ध्यायन्तो मयादृष्टा च पुत्रि त्वं किं ध्यायसीति साकिमपिनैवबभागपरिजनेनोक्त' इयं बहून् प्रह रान् यावत् ईदृश्येव किञ्चिद्दार्त्त ध्यान् कुर्वन्तो दृश्यते परमस्याहार्द्दन ज्ञायते ततः पुनरपि तस्याः पृष्ट सा किञ्चिन्रोवाच तत्तख्याप्रियं गुल्या उक' हे भगवति तव पुरुषलज्जया किञ्चिद्दत शक्नोति श्रहं तावत्कथयामि इयं गत दिने क्रौड़ार्थ मुद्यानेगता तत्रानया स्वम्भ्रातुर्बुद्दिल ष्टिन: कुर्कुटयुद्द कार यतः समीपेएकोवर कुमारोदृष्टः तं दृष्ट् षा एतादृशोजाता कुमारीसख्याः प्रियंगुलतिकाया एतद्दचः श्रुत्वा मया उक्त पुत्रि कथयत्रद्भावं पुनः पुनरेवं यो स कथमपि सद्भावं उक्ता प्राह भगवति तं मम जननीनास्ति किञ्चितत्तवाकथनीयं अनया प्रियंगुलतिकया कथितो यो ब्रम्हदत्त कुमारः स मे पतिर्भविष्यति तदावरं अन्यथाहं मरिष्यामि सामया भणिता वसे धौराभव अहं तथा करिये यथा तव समोहितं भविष्यति ततः सा किञ्चित् स्वस्था कल्पदिने पुनरेवं मया तस्या विशेषाखासना करणार्थं कल्पितमेवोक्त' वसे स ब्रम्हदत्त कुमारो मया दृष्टः तयापि समुच्छसित रोम कूपया भणितं भग वति तव प्रसादेन सर्वं भव्यं भविष्यति किन्तु तस्य विश्वास निमित्त' बुद्दि लव्यपदेशेन इमं हार रत्नकरण्डके प्रचिप्य वृम्हदत्तराज नामाकित लेख सहितं taar कस्यचिदस्त प्रेषय ततो मया कल्पे तथा विहितं एषले खव्यतिकरः सर्वोपि मया तव कथितः साम्प्रतं प्रतिलेखं देहि ततो मयापितस्याः प्रतिलेखोदत्तः तन्मध्ये चेहमी गाथा लिखितास्ति गुरुगुण वरधणकलिओ तमाणिओ मुणइवंभदत्तो विरयणवई रयणमई चन्दोविय चन्दमाजोगो १ इदं वरधनूक्तमाकर्ण्य' अदृष्टाया मपि रत्नवत्यां परमप्रे भवान् कुमारो जातः तद्दर्शन सङ्गमोपाय मन्वेषमाणस्य क ुमारस्य गतानि कतिचिद्दिनानि अन्यदि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४ १ मा भाग
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* समागतो नगरवह्याइरधनुः एवम्ब क्त प्रवृत्तः यथा एतबगर स्वामिनो दौर्घनृपेण व किङ्करा आवां गवेषणाय प्रेषिता सन्ति नगरस्वामिना च आवां ग्रहणोपायः कारितोस्ति एतादृशौ लोकवार्ताबहिः श्रुता सागरदत्तेन एतयतिकरं श्रुत्वा हावपि भूमिगृहे गोपितौ रात्रिः पतिता कुमारीण सागर दत्तस्य भणितं तथा कुरु यथा पक्रमामः एतदाकण्य सागरदत्तोद्दाभ्यां सह नगराइहिनिर्गतः स्तोकां भूमिंगत्वा नेच्छन्तमपि सागरदत्त बलाविवर्त्य कुमार वरधनूद्दावपि गन्तु प्रवृत्ती पथि गच्छयां ताभ्यां यक्षायतनोद्यान पादपान्तरालस्थिता प्रहरण समन्वित रथवर समोपस्था एका प्रवरमहिला दृष्टा ततस्तया समुत्थाय सादरं भणितौ किमियत्या वेलायां भवन्ती समायातौ इति तस्याः बचः श्रुत्वा क मारः प्राह भद्र की आवां तयोक्त त्वं स्वामी धम्ह रत्तोऽयञ्च घरधनुः कुमार इतिश्रुत्वा क मार उवाच कथमे तदवगतं त्वया सा उवाच श्रूयतां इहैव नगयों धनप्रवरीनाम श्रेष्टीवर्तते तस्य धनसञ्चया भार्या वर्तते तया अष्टपुत्राणा मुपरि एका पुत्री प्रसूता सचाहमेव मम च कोपि पुरुषो नरीचति ततो मातुरनुन्नयाहं यचमाराधितु प्रवत्ता तुष्टेन यक्षेण मयोक्त वत्से तव भर्त्ता भविष्यचक्रवर्ती बम्हदत्ती भविष्यति मया भणितं समया कथं ज्ञातव्यः तेनीत' बुधिल सागरदत्तयोः कु कुटयुचमध्ये यो दृष्टस्तवानन्द जनविश्थति स वरधनुमित्र सहिती चुम्हदत्तक मार उपलज्य: ततः परं मयाहार लेख प्रेषणादिक' यत्कृतं तसर्व तव सुप्रौतमेवास्तौति कुमरौ वाक्यमाकर्ख सानुरागः कुमारस्त या सहरथ मारूढ़ः सा कु मारण पृष्ठा इतः क गन्तव्य रत्नवत्या भणितं अस्तिमगधपुरे मम पितुः कनिष्ठ भ्राता धनसार्थवाह नामा श्रेष्ठो सज्ञातव्यतिकरी युवा मम चसमागमनं सुन्दरं ज्ञास्थति ततस्तत्र गमनं क्रियते पश्चाद्यथा युवामिच्छा तथा कार्य मिति रनवतो वचसा कुमारी मगधापुराभिमुखः प्रवृत्तः वरधनुस्तदा सारथिर्वभूव ग्रामानुग्रामं गच्छन्तौ तौ कोशांबी देशाविनती अन्यदा गतौ गिरिगुहा टव्यां तत्र कण्ठक सुकण्टकाभिधानौ हौ चौर सेनापती तं प्रवरं रथं विभूषितं स्त्रीरत्नं च प्रेक्ष्य तक्षकं च कुमारवयमेव प्रेक्ष्य सब्रही सपरिवारो प्रहन्तु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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२८२
उ टीका: मायती अनावसरे कुमारण तथा प्रहरणशक्तिर्दर्शिता यथा सर्वेपि चौरसभटाः कुमारप्रहाराजर्जराः सर्वास दित्तु गताः कुमारस्ततो रथारूढ़ी चलितः अ०१३
वरधनुना उक्त: कुमार यूयं दृढ़यान्ता स्ततो मुहुर्तमानमत्रैव रथे निद्रासुखमनुभवत ततो रत्नवत्या सह कुमारः प्रसुप्तः गिरिनदी एकामार्गे समायाता तावत्तुरङ्गमाः यमखिबानाग्रे चलन्ति ततः कथञ्चित् प्रतिबद्धः कुमारः यमखिन्वान् तरंगमान् पशन रथाग्रे च वरधनुमपसन् जलनिमित्त वरधनुर्गतो* भविष्यतीति चिन्तितवान् इतस्तत: पश्यन् कुमारः रथाग्रभागरुधिरावलिप्त ददर्श ततो व्यापादितो वरधनुरिति ज्ञात्वा हा हा हतो मे मुहत् इति शोकातः कुमारो रथोत्सङ्गात्पपात मूळच्च प्राप्तवान् पुनरपि लञ्चचैतन्य एवं विललाप हा भातः हा वरधनु मित्र व क्वगतोसौति विलपन कुमारः कथमपि रत्नवत्या रक्षितः कुमारः रत्नवन्तौ प्रत्येवमाह सुन्दरि न ज्ञायते वरधनु मृतो जौववास्तौति ततोहं तदन्वेषणार्थ पश्चाद्रजामि तया भणितं आर्यपुत्र अवसरो नास्ति पश्चाहलनस्य येनाहमेकाकिनौ चौरखापदादिभौमं चारण्यमिदं अत्र च निकण्टवर्ती सीमावकाशोस्ति येन परिबाना कुशकर टकाः पश्यन्ति एतद्रत्नक्तीवचः प्रतिपद्य रत्नवत्या सहकुमारः पथि गन्तु प्रवृत्तः मगधदेशसंस्थितमेकं ग्राम प्राप्तः तत्र प्रविशन् कुमारः सभामध्यस्थितेन ग्रामाधिपतिना दृष्टः दर्शनानन्तरमेव एष न सामान्यः पुरुष इति ज्ञात्वा सोपचारः प्रतिपत्या पूजितो नौतच स्वगृहं दत्तस्तन सुखावास: तत्व सुखं तिष्ठन् एकप्रामाधिपतिना भलित: कुमारत्वं विखिद्र इव लक्ष्यसि कुमारणोक्तं मम भाता चौरेण सह भण्डनं कुर्वन् न जाने कामप्यवस्था प्राप्तः ततो मया तदन्वेषणा' तत्र गन्तव्य ग्रामाधिपनीक्त अलं खेदेन यद्यस्था मटयां सभविष्यति तदाऽवश्यमिह प्राप्मामः इति भणित्वा प्रेखितानिज पुरुषा अटयां गत्वा समायाताः कथयन्ति अस्माभिः सर्वत्र स पुरुषो गवैषितः परं क्वचित्र दृष्टः किन्तु प्रहारपतितो बाण एवेष दृष्टः ततः कुमारी वरधनुर्मत इति चिरकालं योकं चकार एकदा रात्री तस्मिन् ग्राम चौरवाटिः पतिता सा च बाणैः कुमारण जर्जरोक्ता नष्टा अथ हर्षितो ग्रामाधिपतिर्यामश्च
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.न. ४१ मा भाग
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अ०१२
उन्टौका
४ अथ ग्रामाधिपतिमापृच्च्य ततश्चलितः कुमारः क्रमेण राजगृहं प्राप्तः तत्र नगराइहिः परिव्राजकायमै रत्नवतोमुक्का स्वयं नगराभ्यन्तरे गतः तत्र कस्मिन् ३८३४ प्रदेशे धवलम्यहं दृष्ट तदन्तप्रविष्ट न कुमारण हे कन्ये दृष्टे ताभ्यां कुमारं दृष्ट्वा प्रकटितानुरागाभ्यां भणितं कुमारयुधादृशामपि पुरुषाणां रक्तजनमुत्सृज्य
8 भूमितु' किं युक्त' कुमारणीत सजनः कः येनैवं यूयं भणथ ताभ्यामुक्त प्रसादं कृत्वा आसनेनिवेशं तु भवन्तः ततः उपविष्ट आसने कुमारः ताभ्यां कुमा रस्य मनमानापचारं कृत्वा उक्त' कमार श्रूयतामस्मात्तान्तः इहैव भरतक्षेत्रे वताच्य गिरिदक्षिणय णिमण्डने शिवमन्दर नगरे ज्वलनशिखी राजा तस्य विद्यु छिखा नाम्री देवी तस्या आवां वे पुत्यौ अस्मभ्राता उन्मत्तो नाम वर्तते अन्यदा अस्मत्पिताग्निशिखाभिधानेन मित्रेण समं यावद्गीथ्यां प्रविष्टस्तिष्ठति तस्मिन्नवसरऽष्टापदपर्वताभिमुख व्रजन्तं सुरासरसमूहं पश्यति राजापि पुत्रीसहित स्वत्र गन्त' प्रहत्तः अष्टापदे प्राप्तोजिनप्रतिमाय वन्दिता 8 कर्परागरुधूपाद्य पचारी महान् कत: प्रदक्षिणात्रयं नत्वा निर्गच्छता राज्ञाऽशोक पादपस्याध उपविष्टं चारणमुनियुगलं दृष्टं प्रणतच तत्रीपविष्टस्य राज्ञः
पुरस्तादगुरुणा एवं धर्मदेशना कर्तुमारब्धा असारः संसारः शरीरं भंगुर शरदभ्रीपमं जीवितं तडिदिलसितानुकारि यौवनं किंपाकफलोपमा भोगाः सध्याराग समं विषयसुख' कशाग्रजलबिन्दुचञ्चला लक्ष्मीः सुलभं दुःखं दुर्लभं सुखं अनिवारितप्रसरो मृत्युः तस्मादेवं स्थिते सति भी भव्याः मोह प्रसरं छिन्दन्तु जिनेन्द्रधर्मे मनी नयन्तु एवं चारणथमणदेवानां श्रुत्वा सुरादयो यथा गतं प्रतिगताः तदालब्धावसरणाग्निथिखिना भणितं यथा एतासां बालिकानां को भर्ती भविष्यति चारणश्रमणाभ्यामुक्त' एते हे कन्ये भाषधकारिणी नायौं भविश्यतः तयो रेतहचः श्रुत्वा राजा श्याममुखी जातः अस्मि बवसरे आवाभ्यामुक्त' तात साम्प्रतमेव साधुभ्यामुक्त' संसारस्वरूपं तत आवयो रलं एवं विधावसानन विषयसुखेन पाक्योरेतहचस्तातेम प्रतिपन्न आवाभ्यांच भावने हन स्वदेहसुखकारणानि त्यक्तानि भातुरेव सानभोजनादिचिन्ता कुर्वन्या आवां तिष्ठाय अन्धदास्पदभात्रा प्रथिवी भमता दृष्टा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ०१४मा भाग
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उ.टौका
c0
orn
कुमारभवन्मातुलपुत्रीपुष्कवतो कन्यका तद्रू पा क्षिप्तचित्तस्तां कृत्वा आगताः परं तत् दृष्टि सोढुमक्षमो विद्यां साधेतु गत: अतःपरं वृत्तान्ती युभाक जानगोचरोऽस्ति तस्मिन् काले भवदन्तिकादागत्य पुष्पवल्या आवयो टबधवृत्तान्तः कथितः ततः शोकभरेण आवां रोदित प्रवृत्ते मधुरवचनैः पुष्पवत्या रक्षिते तदा आवां शङ्करीविद्या एवं वक्त प्रवत्ता असौ भावबधकारी ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती भविष्यति युवां मुनिववनं कि न स्मरथ एतहचनमाकर्थ आवाभ्यां जातानुरागाभ्यां मानितं परं पुष्पवत्या वालिकया ने हरससंभान्तया रक्तपताकां विहाय खेतपताका चालिता तद्दर्शनानन्तरं त्वमन्यत्र कत्रापि गतः नानाविधग्रामाकर नगरादिषु भूमन्तीभ्यां आवाभ्यां त्वां न क्वचिदृष्टः ततो विखिन्ने आवां इहागते साम्प्रतमत्रातर्कि तहिरण्यसमं तव दर्शनं जातं तती महाभाग पुष्पवतो व्यतिकरं स्मृत्वा कुरु अस्मत् समौहितं एवं श्रुत्वा कुमारेण सहर्ष मानितं गन्धर्वविवाहेन तयोः पाणिग्रहणं कृतं एक रात्री ताभ्यां समं उषित्वा प्रभात कुमारस्त योरेवमुवाच युवां पुष्षवत्या समं मच्छतं तया समं तावत् स्थातव्य यावन्मम राज्यलाभो भवति एवं श्रुत्वा ते गत तावत् कमारो न तहलग्रहं न तं परिजनं पश्यति चिन्तितवांथ एषा विद्याधरी मायेति चिन्तयन् रत्नवती गवेषणा निमित्त तापसाथमाभिमुख गतः न च तत्र रत्नवतो दृष्टा न चान्यः कोपि पुरुषो दृष्टः ततः क पृच्छामोति विचार्य इतस्ततः पश्यति तावदेको भद्राक्कतिः पुरुषस्त त्रायातः कु मारेण स पृष्टः भो महाभाग एवंविध रूपनेपथ्या एका स्त्री मयात्र मुक्ता कल्ये ऽद्य वा त्वया दृष्टा तेन भणितं पुत्र त्वं कि तस्या रत्नवत्या भर्ती कुमारी भणति एवं तेन भणितं कल्ये सा मया रुदतीं दृष्टा अपराककाले तस्याः समीपे गतः पृष्टा च सा मया पुत्रिका क्कासि त्वं कुतः समागताः किंतेशोककारण कवा त्वया गन्तव्य तया किञ्चित्कथिते सामया प्रत्यभिज्ञाता मम व दौहिती भवसौति उदित्वा मया तस्य लघुपितुः समीपे गत्वा शिष्टा तेनाप्यु पलक्ष्य सा विशेषा दरेण स्वमन्दिर प्रवेशिता सर्वत्र वंगवेषितः परं न क्वचिदृष्टः साम्प्रतं सुन्दरं जातं यत् त्वं लब्धः एवमुक्तानीतः कुमारस्तदग्टहे उपचारः कृतः तत्र महो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०.४१ मा भाग
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सवेन रत्न वतौ पाणिग्रहणं कुमादः कृतवान् तया सह विषयसुख मनुभवन् कियत्कालं तस्थौ अन्यदा वरधनुवर्ष दिवसोऽद्येति उक्ला तद्गृहे कुमा १ टीका
रेण ब्राम्हणादयो भोजिता: अमनवसरे वरधनुः कृतव्राम्हणवेषो भोजन निमित्त मागतः एवं भणितुं प्रवृत्तः भी ज्ञापयन्तु तस्य भोज्यकारिणः यथा * यदि मम भोज्यं प्रयच्छतः तदा तस्य परलोकवर्तिन उदरे भोज्य संक्रमति गृहपुरुषै स्तवचः कुमारायशिष्टः कुमारोपि गृहाहहिनिर्गतः दृष्टो वरधनुः
प्रत्यभिज्ञातस्य गाढं कुमारणा लिङ्गितः ग्रहमध्ये प्रवेशितः मानमज्जन भोजनादिभिः सत्कृतश्च अनन्तरं कुमारेण पृष्टी वरधनुः स्ववृत्तान्त जगी यथा तस्यां रात्रौ निद्रावश मुपागतेषु युष्भासु सत्सु पृष्टतो धावित्वा चौरेण एकेन कुडङ्गान्तरितेन मम पादे बाणप्रहारः कृतः तद्देदना परवशोहं निपतितो मही तले परं अपाय भौरुत्वेन मया युफाक न मिवेदितं रथन्तु अग्रे चलित: अहन्तु शनैः पतित वृक्षान्तराले चलन् महता कष्ठेन तस्मिन् ग्राम प्राप्तः यत्र यूयं स्थिताः तेन प्रामाधिपतिना सत्वतः युवाक प्रवृत्तिं श्रुत्वा हमद्य प्रगुणीभूतो भोजन प्रस्तावे समागतः यूय मद्यमद्भाग्याम्मिलिताः अथ तयो स्तवाऽवियुक्तयोः सहर्ष दिवसायान्ति अन्यदा ताभ्यां परस्परमेवं विचारितं यथा आवभ्यां कियत्कालं मुक्तपुरुषा कराभ्यां स्थातव्य एवं च चिन्तयतो स्तयोर्गतः कियान्कालः अन्यदा तत्र समायातो मधुमासः मदनमहोत्सवे जायमाने सर्वलोको नगराइहिः क्रीडितु मायात: वरधनु कुमारावपि कौतु केन नगराबहिर्गतौ निर्भर कोडारस निमग्ने लोकतर्कितएव पातित मिठोनिरंकुशोरानः हस्ती तत्रायातः समुच्छलित कोलाहलो भग्न: क्रीडा रसो नष्टः समन्ताबारी निकरः एका च बालिका समुद्रत पयोधरा नश्यन्ती तस्य हस्तिनो दृष्टौ पतिता सा धरणं मार्गयन्ती इतस्ततः पश्यति तस्याः परिजनाः पूत् कुर्वन्ति भयभ्रांतायास्याः पुरोभूत्वा क मारेण स करीहकितः एषा मोचिता सोपिकरौता मुक्त्वा रोषवश विस्तारित लोचन: प्रसा रित शुण्डादण्डः भौघ्र कुमाराभिमुखं धावितः कु मारेणापि उत्तरीय वस्त्र गजाभिमुखं प्रक्षिप्त गजेन तहस्त्र शण्डया ग्रहीत्वा गगने प्रक्षिप्त' गग
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं.उ०१४ मा भाग
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उल्टीका
नाच पुनर्भूमौ निपतितो तद्ग्रहणाय यावत्करौ पुनर्भू म्यभिमुखं परिणमतितावदुन्नु त्य कुमारस्तत्स्कन्धमारूढ़ः स्व करतलाभ्यां तत् कुम्भस्थल ३८६ * मास्फालितवान् मधुरवचनैश्च सन्तोषितः सन् करी व वर्शनौत: समुच्छलितः साधुकारः जयति कुमार इति पतितं बन्दिजनैः कुमारण स करौ
आलान स्तम्भ समीपं नौतो बधश्च नरपति स्तमनन्य सदृशं दृष्ट्वा परमं विस्मयं प्राप्त: स्वमन्त्रिक पप्रच्कएषः ततः कुमार स्वरूपाभिजन मन्त्रिणा उत्ता एषः ब्रम्हराजः पुत्रा व्रम्हदत्तकुमार इति ततस्तष्टे न राज्ञानीतः कुमार स्व भुवनं सत्ततः स्नानमज्जन भोजनादिभिः ततः कुमारस्याष्टौ स्व पुत्री दत्ताः महोत्सवपूर्व तासां पाणिग्रहणं कुमारेण कृतं तत्र कियदिनानि वरधनुकुमारौ सुखेन स्थिती अन्यदा एका स्त्री कुमारसमीपमागत्य भणितु प्रवृत्ता यथा कुमारीस्ति किंचिदक्तव्य कुमारेणोक्त वद सा उवाच अस्यामेव नग• वै श्रमणो नाम सार्थवाहस्तस्य पुत्री श्रीमती अस्ति सा मया बालभावा दारभ्य पालिता या त्वया तदानी हस्तिसंभ्रमाद्रक्षिता तया हस्तिसंभ्रमोइरितया तदानीं जीवितदायकं त्वां सा स्ने हैन विलोकितवती साम्प्रतं त्वदेक चित्ता तद् पलावण्यकलाकौशलमोहिता स्वमिव स्मरन्तौ परिजनन कथमपि स्वमन्दिरं नौता तत्रापि न मज्जन भोजनादिदेहस्थितिं करोति तदानी मया तस्या उक्त कथं त्वमकाण्डे ईदृशी जाता यावन्ममापि प्रतिवचनं न ददासि हसित्वा सा एवमुवाच हे अम्ब भवत्याः किमकथनीयं परं लज्जया कि चिदत न शक्नोमि पुनर्मया साग्रहं पृष्टा सा उवाच येनाहं हस्तिसंभ्रमाक्षिता तेन समं यदि मम पाणिग्रहणं न स्यात् ततो मेवश्व मरणं एवमुक्ता तया अहं तव समीपे प्रेषिता अङ्गी कुरुतां बालिका कुमारण तहचोङ्गीकृतं प्रशस्तदिवसेस तस्याः पाणिग्रहणं कुमारण कृतं वरधनुना तु सुबुद्धिमामात्य पुत्रानन्दननाम्नाः पाणिग्रहणं कृतं एवं च योरपि विषयसुखमनुभवतो स्त योगता कियन्तो वासराः तयोः सर्वत्र प्रसिद्धिर्जाता तौ अन्धदा गतौ वाराणस्यां ब्रह्मदत्त बहिः स्थापयित्वा वरधनुर्नगरस्वामि कटकसमीपं गतः एष हर्षितः सबलवाहनः संमुखा निर्गत: कुमारं हस्तिस्वन्धे समारोप्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०स०ए०४१ मा भाग
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f.टी
३८७
नगरी प्रवेशोत्सवी महान् कृतः स्व भवने नौतस्य कुमारस्य मानमज्जनभोजनादि सामग्री कृत्वा प्रकामं सत्कारं कृत्वा च स्वपुत्री कनकवती अनेकहय रथद्रव्यकोशसहितादत्ता प्रशस्तविवाहो जात: तया समं विषयसुखमनुभवतस्तस्य सुखेन कालो याति ततो दूतो संप्रेषणनाकारिताः सबलबाहनाः * पुष्पचूलराजधनुमन्त्रिकणेरदत्त भवदत्तादयोऽनेके राजमन्त्रिण : समायाताः तैः सर्वेः कुमारी राज्य ऽभिषिक्त तदा ब्रह्मदत्त आयुधस्थाने चक्ररत्नमुत्पब्रम्
वरधनुस्त सेनापतिः कृतः ब्रम्ह दत्तः सर्चसैन्यसहितो दीर्घनृपोपरिचलितः अनवच्छिन्न प्रयाणैः काम्पिल्यधुरै प्रामः दीर्घट्टपणापि कट कादौनां रूकीय * करणार्थ दूतः प्रेषित: तैस्तुनिर्भमि तो दूतः स्वस्वामिसमीप गतः ब्रह्मदत्तसैन्येन काम्पिल्यपुरं समन्ताष्टितं ततो दीर्घनृपण एवं चिन्तितं कियत्काल 8 मस्माभिलिप्रविष्ट : स्वेयं साहसमवलम्बा नगरात् स्वसैन्य परिक्षती दीर्घ तृपोनिर्गत्य संमुखमायातः ब्रमदत्त दीर्घमपसैन्यथो?रः संग्रामः प्रहत्तः क्रमा ब्रह्मदत्तसैन्येन दीर्घनृपसैन्य भग्न अथ दीर्घ नृपः स्वयमुत्थितः ब्रह्मदत्तोपि तमायात वौच्च प्रदीप्त कोपानलस्त दभिमुखं चलितः तयो ई यो युद्द लग्न अनेकैरायुधैर्निचिप्तर्न तयोः संग्रामरस: संपूर्णो बभूव ब्रह्मदत्त न ततश्चक्र मुक्त' चक्रेण दीर्घनृपमस्तकं च्छिन्न ततो जयत्वेष चक्रवर्ती इत्युच्चालितः कल
कलः सिद्धगन्धर्वं वर्मुक्ता पुष्पवृष्टिः उक्तञ्च उत्पनीयं द्वादशश्चक्री ततो जनपदलोकः स्तूयमानी नारीहन्द कृतमङ्गलः कुमारः स्वमन्दिर प्रविष्टः पुनस्माधि 8 तानि षट् खण्डानि ततश्च सकलसामन्त ब्रम्हदत्तस्य चक्रवर्त्यभिषेकः चक्रवर्ति त्वं पालयन् ब्रम्हदत्तः सुखेन कालं निर्गमयति अग्यदा चक्रवर्तिनः पुरो 8 नटेन नाट्य कत्तुं मारब्धवदासी अपूर्व कुसुमदामगण्ड हस्ते ढोकितं तच्च प्रेक्षती गौतविनोदं ऋगवत् चक्रवर्तिनः एवं विमी जातः एवंविधी नाट्य
विधिर्मया क्वचित् दृष्टः क्वचिच्चे दृशं पुष्पदामगण्डमपि ध्रातएवं चिन्तयत स्त स्य जातिस्मरणमुत्पन्न दृष्टाः पूर्वभवास्तत्र सौधर्मे पद्मगुल्मविमानेऽनुभूतं नाट्य * दर्थन दिव्य पुष्पाघ्राणादिक स्म तिपथं ययौ देवसखमारणेन मूर्छा' गतः पतितो भूमी चक्री पार्ववति भिवातीतक्षेपादिना वस्थीक्वतः ततश्चक्रबत्ति ना
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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१० टोका
8 पूर्व भववाह शुद्धार्थ श्लोकाई मिदं रचितं यथा अखदासौ मृगौ हंसौ मातङ्गावमरौ तथा इदं श्लोकाई कृत्वा चक्रिणा वरधन सेनापते रुक्त इदं लोकाई
ॐ सर्वत्र निर्घोषय एतत्पश्चिमाई' यः पूरयति तस्य राजा राज्यई ददाति इदं लोकाई सर्वलॊक : शिक्षितं ते यत्र तत्र निर्घोषयन्ति अनावसरे स पूर्व ३८८
भवसम्बन्धीभ्राता चित्र जीवः पुरिमताल नगर इभ्य पुत्वो भूत्वा सञ्जात जातिस्मरणो रहौतव्रत स्तव नगरे मनोरमा विधाने आराम समवस्तः तत्र * प्रासुकै भूभागे पात्रोपकरणानि निक्षिप्य धर्मध्यानीपगतः कायोत्सर्गेण स्थितः अत्रान्तरे आरघटिकेन पठ्यमानं तत् श्लोकाई मुनिनाश्रुतं नानोप
योगेन व भावरूपं सर्वमवगम्य मुनिना उत्तरचरणवयंपूरितं एषा नौषष्टिकाजाति अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ततोऽसावारघट्टिकस्त त् लोकाई लिखित्वा प्रफुल्लास्य पङ्कजो गतो राजकुलं पठितश्चक्रिणः पुरः संपूर्णः श्लोकः ततः पूर्व भव भ्राने हातिरकेण चक्री मूर्छा गतः क्षुभिता सभा रोषवशं गतेन सेव कवर्गेण आरपट्टिकञ्चपेटाभि हन्तुमारब्धः हन्यमानेन तेन ऊचे इदं पदद्दयं मया न पूरितं किन्तु वनस्थितेन मुनिनेति विलपन्नसौ मोचितौ गतमूर्च्छण चक्रिणा पूर्वभवभ्रामुनि समागतं श्रुत्वा तद्भक्तिस्ने हाकृष्ट चित्तो व्रम्हदत्त चक्रो सपरिकरो निर्ययौ उद्याने तं मुनिं ददर्श वंदित्वाने उपविष्टः मुनिना प्यारब्धा धर्मदेशना दर्शिता भवनिर्गुणता वर्णिताः कर्मबन्धहेतवः नाधितो मोक्षमार्गः ख्यापितः शिवसौख्यातिशय: इमां देशनां श्रुत्वा पर्षसम्बिग्ना जाता तुम्हदत्तस्तु अभावित एवमाह भगवन् यथा स्वसङ्गसुखेन वयमाह्वादिता स्त था राजस्वीकारण साम्प्रतंमन्मनाहादयन्तु पश्चादावां तपः सममेव करिथावः एतदेव वा तपस: फलं मुनिराह युक्तमेवेदं वची भवता मुपकारीद्यतानां परं इयं मानुष्यतां दुर्लभा सतत पतनशीलमायुः श्रौञ्चञ्चला अन वस्थिता धर्मबुद्धिः विषयाः विपाक कटवः विषयासक्तानां च ध्रुवो नरकपात: दुर्लभं पुनर्मोक्षबीजं विरतिरत्न तत्यागावरकपातहेतुःकतिपयदिनभावि राज्याश्रयणं न विदुषां चित्तमातादयति ततः परित्यज्य कदाशयं प्राग्भवानुभूतः दुःखानिस्मरपिवजिनवचनामृतरसं सञ्चरतदुक्तमार्गेण सफलौकुरु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स. उ. १४ मा भाग
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उ० टोका अ०१२ ३८८
XXXXANOR
सनत्कुमार
मनुथजन्म ेति स प्राह भगवन्त्र, पनतः यानेनादृष्टसुखवाञ्छाज्ञानतालचणं तन्मैवमादिश कुरु मत्समीहितं मुनिराह संसारसुखं भुक्त' परभवे महते दुःखाय भावीतितत्त्यागः कार्य एवं मुनिना वारं वारमुक्तोपि यदा चक्रवर्ती नप्रतिबुध्यते तदा मुनिना चिन्तित आ: ज्ञानं पूर्वभवे : चक्र स्त्रीरत्न के संस्पर्शेनजाताभिलाषातिरेकेण संभूतभवेयुतामया निवार्यमाणेपि चक्र वर्त्तिपदवी प्रातिनिदानं कृतं तस्य दृशं फलं अतः कारणादसौ दुष्टाध्यवसायो जिनवचनानामसाध्यः इत्यपेचितं मुनिस्ततो विजहार क्रमेण मोक्षं गतः चक्रिणोपि प्रकाम सुखमनुभवतः कियान् कालो नीतः अन्यदा एकेन पूर्वपरिचितेन द्विजातिनोक्लोसौ भो राजाधिराज ममेदृशी बांधा समुत्पत्रास्तियञ्चक्रि भोजनं भुंक्त चक्रिणोक्त' भी द्विजमामकं भोजनं भोक्त ु त्वमत्तमः यतो मां विहाय मनोजनं अवयस्य न परिणतिततोब्राह्मणेनोक्त धिगस्तु ते राज्य लक्ष्मीमाहात्म्य' यदवमावदानेष्यालोचयसि ततश्चक्रिणा तस्य भोजनमङ्गीकृतं खग्टहे निमंत्रा स्वभोजन दानेन भोजित चासो भार्या पुत्र षादुहित पौवादि कुटम्बान्वितः भोभन' कृत्वा स खग्टहे गतः रात्रावत्यन्तजातोन्माद प्रसरोस्तौ अन पेक्षित मातृषाभगिनोत्र्यतिकरो महावेदना नष्टचित्तः प्रवृत्तोऽकार्य माचरितु द्विजः द्वितीये दिने मदनीन्मादो पशान्तौ परिजनस्य निजमास्यं दर्शितु पारवनिर्गती नगरास द्विजः एवं चिन्तयामास अनिमित्तवैरिणाचक्रिणाहं विडम्बितः अमर्षवहता तेन द्विजेन वने भ्रमता एकोऽजपालकोदृष्टः स कर्क' काभिरखत्थपत्राणिकाणी कुर्वन् लक्ष्यवेधोवर्त्तते दिजे न चिन्तितं महिवचित कार्यकरोयमिति कृत्वोपचरितस्तेनदान सन्मानादिभिः कथितः . तेन स्वाभिप्रायस्य रहसितेनापि प्रतिपन्नः अन्यदा गृहान्निर्गच्छतो ब्रह्मदत्तस्य कुड्यन्तरित तनुनाऽनेन अमोघ वेधिनानिचिप्तगोलि कथा समकालं उत्पाटिते लोचने रानातट्टत्तान्त' अवगम्य उत्पन्नकोपेन असौ स पुत्रबान्धवो घातितः चक्रिणाऽन्ये द्विजा घातिताः अशान्त कोपेन च चक्रिणा मंन्त्रिण एव मुक्त ं यथा ब्राम्हणा नां प्रचोणि कर्षयित्वास्यालेनिचिप्य स्थालं मम पुरोनिधेहि यतोहन्तानि स्वहस्तेन मर्दयित्वावैरवाल नसुखमनुभवामि मन्त्रि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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उ०टीका
अ०१३
४००
स्व
भाषा
णातस्य चक्रिणः क्लिष्टकर्मोदयवसतां अवगम्यशाखोट तरुफलानिस्थालेनिचिप्य अपि तानि सोपि रौद्राध्यवसायस्तानि फलानि अति बुद्धयामईयित्वा सुख मनु भवति एवं प्रत्यहं करोति ततः सप्तशतानि षोडशोत्तराणि वर्षाणि आयुरनुपात्य प्रवर्द्धमान रौद्राध्यवसायः सप्तमनरक पृथिव्यां 'शत्सागरोपमायुर्नारको बभूव सांप्रतं सूत्र मनुष्टौयते जाईपराजिओ खलुकासिनियाणन्तु हत्थिण पुरंमि चुलबं भदसो उप्पत्रोप उमगुम्माओ १ खलु इति निखये अलङ्कारे वा जात्या चाण्डालाख्यया पराजितः पराभूतः सर्वतो निर्धारित गृहीतदिचः संभूतथिवस्य लघुभ्राता हस्तिनागपुरे चक्रवर्त्ति स्वोरत्न वन्दनात् केशपाश संस्पर्शात् चक्रवति पद प्रार्थनारूपं निदानं अकार्षीत् ततः स संभूत साधुः पद्मगुल्म विमाने नलिन गुल्म विमाने उत्पन्न: ततश्च नलिन गुल्म विमानात् सन्भूत जीवो ब्रम्हराजो भार्या चुलणौतयोः पुचत्वेन वृम्हदत्त इति नाम्ना उत्पन्नः इति गाथार्थः १ कम्पिल्ले सम्भूओ चित्तो
जाईपराजिओखलुकासिनियागंतु हत्यिणपुरम्मि । चुलगीए बंभत्तो उववसो पउमगुम्माओ ॥ १॥ कंपिल्ले संभू चित्तोपुणजाओपुरिमतालंमि । सेट्ठिकुलमि विसालेधम्म' सोऊणपव्व ॥२॥ कंपिल्ल मिनयरेसमागया दोविचित्त जाति चण्डालः निश्चयेन पराजितः जातिचण्डालनी तिथे जोत्यो थको आकर्षीत् निदान हस्तिनागपुरे नियाण कोषु हथिणा पूरनगरने विषे संभूति नामे साधुद्रं चुलब्या उदरे वृम्हदत्तं चक्रवर्त्तिचुलयोनी कूखिमाहिब्रम्हदत्त चक्रौ उत्पन्नः नलिनीं गुल्मविमानात् नलिनीं गुल्मविमानथो चवनेऊपनी १ काम्पिल्यपुरे नगरे संभूतिः उत्पन्नः संभूति कांपिल्यपुरे नगरे ऊपनो चित्रजीव पुनः पुरिमताले नगरे चित्रनो जीवपुरिमतालनगरने विषे श्रेष्ठिकुलेशबि साले उत्पन्नः विस्तीर्णसेठनो कुलतोहां ऊपनो भोगववा लागो तत्र धर्मश्रुत्वा प्रवृजितः साधुने पासे धर्मसांभली संसार असारजाणी दिचा लोधौ २
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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टीका
अ०१३
* पुणजात्रो पुरिमतालंमि मेडिकुलंमि विसाले धम्म सोऊण पव्वई पो २ काम्पिल्ये नगर व्रम्हराजा तद्भार्या चुलणी पुत्रः सम्भूत जीवो ब्रम्हदत्तः सजातः चितचित्रजौवः पुनः पुरिमतालनगरे विशाले विस्तौणे एकस्मिन् श्रेष्टिनः कुलेवेष्ठिपुत्रः सजात: सच चित्र जीवस्तत्र श्रेष्टिपुत्रत्वे न समुत्पद्य अनुक्रमण
तारुणं धर्म श्रुत्वा प्रबजितः प्रव्रज्यां अग्रहीत २ कम्पिन मियनयर समागयादी विचित्त सम्भ यासुह दुक्ख फलविवागं कहन्तिते एकमे कस्म ३ अथ र सचित्त जीवो गृहीतदिवः समुत्पत्र जाति स्म त्यादिज्ञानो विहरन् कांपिल्ये नगरे समागतः सत्र व कांपिल्ये नगरे ब्रम्हदत्तोपि लब्ध चक्रवर्तिपद स्ति
ष्ठति एकदा देवोपनीत मन्दारकल्पवृक्ष पुष्पाणां माला साधम्यं दृष्ट्वा समुत्पन्न जातिस्म तिरभूत् तदा च ब्रम्हदत्तेन आस्वदासौ मृगौ हंसी मातङ्गो अमरी तथा इति श्लाकाई स्वबन्धु सम्बन्ध गर्भितं कृत्वा नगरे उदघोषणा कारितायः कश्चिदग्रे तनं श्लोकाई पूरयति तस्मै वाञ्छितं ददामि राज्याई ददामि अस्मिबे वावसरे भाबोधनार्थ समागतेन चित्रजोव साधुनाई मानौ षष्टिका जातिरन्योन्याभ्यां वियुक्तयोरिति श्लोकोत्तराई पूरितं तहनमध्ये अरघट्ट भ्रामकेण आरामिण साधुमुखेन श्रुत्वा राजोगे उक्त राजापि श्रुत्वा मूछी प्रापततो राजा पृष्ठेन कुट्टितेन तेनोक्त मया श्लोकाई पूरितं नास्ति किंतु
आराम कायोत्सर्गस्थितेन एकेन साधुना पूरितं ब्रम्हदत्त चक्रधरण श्लोकपूरणात् जातोयं साधुर्ममभ्राता तती राजा मुनिसमीपगतोऽत एव सूत्र कारे ॐ णोक्त कांपिल्ये नगर हावपि चित्रसम्भूत जौवौ चक्र वत्ति मुनौखरौ समागतो एकत्र मिलितो तौच मुखदुःखफलविपाकं सुक्तं दुःकृतकर्मानुभावरूपं
___ संभूया मुहदुक्ख फल विवाग कहें तिते । एक मेक्कम ॥ ३॥ चक्कवट्ठी महिड्डोत्रो वंभदत्तो महायसो भायरं बहुमा कांपिल्ये नगरे कांपौल्यनगरनेविषे समागतौ मिलितौ वावपिचित्रसंभूतौजीवो एकठामि मित्या चिसंभृतिना जा भाई एकटा हुआ सुखदुःख फलविपाकं सुखदुःखनांजेफलहनी विपाक भोगववीतौहौ एकैकस्य परस्परं कथयतः तेबे भाई माहोमांहि सुखदुःखभोगव्यांतहनी बात कहेछ ३
* XXXRREXXXXRRRRRRRRRRRRXg
राय ध पर सिंह बाहादुर का आ सं०१०१४मा भाग
५१
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उ टीका अ.१३ ४०२
8 एकैकस्य परस्परं कथयतः स्म इति अध्याहार्य ३ चक्कवट्टी महट्टीपी बंमदत्तो महायसो भायरं बहुमाणणं इमं वयणमब्ववौ४ व्रम्हदत्तचकवतिभातरं बहु % मानेन मनसारागेण इदं वचनं अवोत् कयम्भूतः चकवति महद्धि कः सम्प्राप्त षटपण्डराज्यः पुन:कथम्भू तो वम्हदत्तः महायशाः महत्यशो यस्य स महा यशाः भुवनय प्रसिद्धः ४ आसिमोभायरादोवि अवमनवसाणुगा अनमत्रमणुरत्ता अबमहिएसिणो ५ मोइति आवां हावपि भो भ्रातः भ्रातरौ आस्त्र पूर्वज मनि आवां उभो भ्रातरोअनूव इत्यर्थःकवभूतो हो अन्योन्यवशानुगौ अनमोनापरस्परं वशं अनुगच्छतः इति अनमोनावशानुगौअनमोनावशवर्ति नौ इत्यर्थः पुनः कयंभूतो अनधोना अनुरक्तो परस्परं ने हवन्ती पुनः कीदृशौ अनमोना हितैषिणौ परस्परंहितवाञ्छको एतादृशोऽभूव इत्यर्थःअत्र मुहुर्मुहुरनधी नाग्रहणं चित्ततुल्यता अत्यादरख्यापनार्थः५ दासा दसने आसोमिया कालिञ्जरे नगे हंसामयंगतौराए चण्डाला कासिभूमिए६ क्वच अभूतां तत्स्थानमाह
णेणं । इमं वयण मचवी ॥ ४ ॥ आसिमो भायरादोवि अन्नमन्न वसाणुगा। अन्नमन्न मणुरत्ता अन्नमन्न हिए
सिणो ॥ ५॥ दासा दसन्ने आसौ मियाकालिंजरे नग हंसा मयंगतौराए। सोबागा कासि भूमीए ॥ ६ ॥ चक्रवर्तीमहईि कः चक्रवर्त्तिमोटौ ऋद्दौनोधणो ब्रह्मदत्तनामामहायशाः ब्रह्मदत्तएहवेनामे महायश भ्रातरंभवांतर सहोदरं वहुमानेन कृत्वापछिला भवना भाईने घामानदेइने इदं वचनं अब्रवोत् इस्यु बचनकहेछ । पूर्वभवेआवाजातौ भ्रातरौ हावपिपाकिलेंभवे आपणबेभाई हुआ चांडालकुलने विषे अन्योन्य वशिवतिनो माहोमांहि परमने हवंत अन्यौनयानुरक्तौमाहोमांहि अनुरक्तपरस्परं हितवांछकौमाहोमांहि हितवांछेके५ दासौ दसार्ण देश उत्पनी दास हुपा दया देसनेविषे त तोपि कालिंजरेनी मृगोजातः कालिंजरपर्वतन विष मृगहुआ तथा मृतगंगानदौतौरहंसाजातौमृतगंगानदीतीरे हंस
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० १. ४१ मा भाग
सूब
भाषा
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उटौका पावां दशाणदेशेदासौ पास कालखरे नाम्नि नगे पर्वते मृगौ पास पुनर्मत गङ्गानदीतटे हंसौ पावां प्रास्त्र कायौभूम्यां वाराणस्यां चाण्डालौ अभूवई अ०१३8 देवाय देवलोगमि पासि अम्हे महडिया इमाणो छढ़िया जाई अवमत्रेण जाविणा ७ पुनस्ततचाण्डालजन्मतः परभी भ्रातः अम्हें आवां देवलोके सौधर्म
देवलोक महर्षि को देवी प्रभूव हे भातः णोइति आवयोः अननोना जाविणा परस्पर साहित्य रहिता परस्पर बियोग सहिता षष्टिका जातिरियं प्रत्यहा जाताः ७ इति श्रुत्वा मुनिराह कम्मानि याणपगडा तुम्हे राय विचिन्तिया तसिं फलविवागण विष्योग सुवागया ८ हे राजन् त्वया कर्माणि विचिन्ति तानि पान ध्यानरूपाणि ध्यानानि ध्यातानि पात ध्यानहेतुभतानि कर्माणि विचिन्तितानि इत्यर्थः निदाननउपार्जितानि कीयानि कर्माणि निदानप्रक तानि भोगप्रार्थनावशेन प्रकतानि निदानानि प्रकृतानि प्रकर्षणबद्धानि तेषांकर्मणां फलविपाकेन फलोदयेन पावां विप्रयागंउपागतौ वियोग प्राप्ती अथ __देवाय देवलोग मि आसि अम्हे महड्डिया। इमाणी छट्ठिया जाई अन्नमन्नण जाविणा ॥ ७॥ कम्मानियाण पगडा
तुम रायविचिंतया। तेसिं फल विवागण विप्योग मुवागया ॥८॥ सच्च सोयप्पगडा कम्मामए पुरा कडा । * हुआ चंडालोजातोकाशोभूम्यां वाणारस्यां चांडालडा वाणारसोनगरोई'६ सौधर्मेदेवलोके देवौजातौ सौधर्मदेवलीकने बिषे देवता हुआ उत्पनी आवां भाषा
* महहि कौआपणहुआ महईिकदेवता एषा आवयोः षष्टोजातिः षष्टौभवःएआपणौछट्ठीजाति छट्ठीभवछ अनोनयनविना पृथक् ब्वाइह भवने विषे आपण
जूदौ जातिलाधो जूदा हुआ ७ अथ मनोरुवाचः कम्माणिनिदानवशे न प्रगडानि वडानिनियाण' करोने कर्मांध्य अहो राजन् त्वयाचिंतितानि कतानि हेराजन् स्त्रोरत्न देखोनतेंभोग चौंतव्यानीयाणोकीयो तेषां कर्मणां फलविपाकेन ते कर्मने उदये करीनिविप्रयुक्तप्राप्ती पृथक्जाती जदाजूदाऊपना
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं०उ०१४ मा भाग
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उ० टोका अ०१.३
४०४
सूव
भाषा
चक्रप्रन' करोति सचसो अपगडा कम्मामए पुराकडाते अका परिभुक्षामो किंनुचित्त दिसेतहा हे साधो हे भ्रातः मया पुरा पूर्वजन्मनि कर्माणि कृतानि कथम्भूतानि कर्माणि सत्यशोचप्रकटानि सत्यं मिथ्याराहित्यं शौचं आत्मशुद्धिकारकं धर्ममयं अनुष्ठानं सत्यञ्च शौचच सत्य शोचेताभ्यां प्रकट प्रसानि एतानि यानि मया सुकर्माणि कृतानि तानि शुभकर्माणि अद्य अस्मिन् जन्मनि परिसमन्तात् भुजे स्त्रीरत्नभोगहारेण तेषां फलं विषय सुखानि अनुभवामि हे चित्र यथाहं राज्यसुखं भुञ्जे तथा किं चित्रोपि भवानपितु भक्तो नु इति वितर्के कोर्थ: चक्रीवदति यथाहं इदानीं पूर्वोपार्जि तानां सुकृतानां फलानि परिभुजे तथा कि चित्रभवान् परिभुंक्त अपितु भवान् न परिभुंक्त एव भवतस्तु भिक्षुकत्वात् तानि सुकृतानि किं निःफलानि जातानि इति प्रायः अथ मुनिराह सच सुचिणं सफलं नराणं' कडाणकम्माण न मोक्ख अस्थि अत्थे हिं कामेहिं उत्तमेहिं श्राया ममं पुत्रफलोववेए १० हे राजन् नराणां सचीर्णं सम्यकप्रकारेण कृतं संयमतपः प्रमुखं सर्वं सफलं एववर्त्त ते नराणां इत्युपलक्षणत्वात् सर्वेषामपि सफलं भवति यतः कृतेभ्यः कर्मभ्यो मोक्षोनास्ति जीवैः कृतानि कर्माणि श्रवश्य' भुज्यते प्राकृतत्वात्पञ्चमी स्थाने षष्ठी कृतानां कर्माणां मोचीनास्ति यदुक्त' कृतकर्मचयोनास्ति कल्प ते अज्ज परिभु'जामो किं नु चित्ते विसे तहा ॥ ८ ॥ सञ्चं सुचिन्न सफलं नराणं कडाण कम्माण नमोक्ख अस्थि । वियोगपाम्यो ८ श्रथ व्रह्मदत्ताहसत्यंमृषात्यागशौचं निर्दभतावृह्मदत्तकहेक सत्यवोल्यो कपटनको धोइ द्रौदम्या शुभकर्माणियानिमयापूर्वभवे कृतानि पाकलाभवनेंविषे जे में भलाकोधाहता ते अद्यइहभवे अहं परिभुजामोवेदयामि । ते तपजपनाफल आज 'भोगवूछ' किमिति प्रश्न भचित्रभवानपि तथा न परिभुक्त' किं कारणं । अहो चित्र ते शुभकर्ममाहरेउदय श्राव्यां भोगंकु ताहराशभकम एकींहांगयाएस्यु 'धयु मुनिराह सर्वमपिपुण्य' सुचौर्य' सृष्ट कृतनराणां सर्वजोवानां सफलं भवतियतोकहें के पुण्यकीधांसर्वजीवने उदयत्रावे निष्फलनजाइकदेही कृतेभ्यः कर्मेभ्योमुक्तिर्नास्तो कोधानेकर्म
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र० स० स० ४१ मा भाग
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१. टौका अ०१३
कोटि शतैरपि अवश्य मे वभोक्तव्य' कृतं कर्म शभाशभं १ तस्मात् ममापि प्रामा अर्थेद्रव्ये : पुनः कामै विषय सुखैः पुण्यफलरुपती वर्तते कौथैः अर्थः कामैः उत्तममनोहरैः अथवा कीदृशैः कामै अर्थः प्रार्थनीय अर्यन्त प्रायं तेजनैरिति अास्तैः अर्थे : इत्यनेन चित्रजीवेन साधुना उक्त मयापि सर्वे न्द्रियाणां सुखानि द्रव्याणिच पुण्यफलानि प्राप्तानि इति त्वया न ज्ञातव्य अनेन किमपि सुकृतफलं न लब्धमस्ति इतिभावः १० तदेव सूत्रकारी गाथया पाह जाणहि सम्भू य महाणभागं महड्डियं पुन्नफलोववेयं चित्तपि जाणाहितहेवरायं ड्डोजुई तस्म वियप्प भूया ११ पूर्वनाम्ना ऋषिर्वदति हे सम्भूत महाराज यथा त्व आत्मानं महानुभागं तथा महर्डिक तथा पुण्यफलोपपतं जानासि तथा चित्रमपि मामपि तादृशं एव जानाहि महान् अनुभागी यस्य स महानुभागस्तं महानुभागं वृहन्माहात्म्य तथा महतो ऋतिर्यस्य स महर्षिः मह हिरव महईि कस्तं महर्षि के विशाल लक्ष्मीक पुण्यफलेन उप पेत स्तं एतादृशं ऋद्धिहि पद चतुःपद धनधानादि सम्पत्तिः द्युतिदीप्तिस्तस्य चित्रस्थापि अर्थान्ममापि प्रचुरावर्त ते इति जानीहि च शब्दोत्रयस्मादथै इह
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
___ अत्येहिं कामेहि य उत्तमेहिं। आया मम पुम्मफली बवेए ॥१०॥ जाणाहि संभूय महाणुभाग । महड्डियं पुन्न
फलो बवेयं । चित्तंपि जाणाहि तहव रायं। इड्डीजई तस्मवियप्पभूया ॥ ११॥ महत्व रूवावयणप्पमूया गाहाणु * हथौजीवछुटेनही अर्थैः द्रव्यैः कामैः शब्दाद्यैः युतः उत्तमैः द्रव्ये करीकामभोगउत्तमप्रधानतिणेकरौने आत्माममपुण्ये नफले नउपनीसहीत: आमापुण्य * फलतिणेकरौनेंसहित १० हे संभुतयथात्वं आत्मानं जानासिकिदृशं महानुभागं तथा महहि कपुनाफलीपपेतं अहो संभूति तिजेतु आपणा आत्माने
जाणे छ । पुण्यवंत ऋजिवंत महानुभावचित्रमपि तथैवजानीहि । भोराजन अहोराजाचित्रनेपणितुइमजजोमनुष्यनाटोलानि ऋषिःयतिः चित्राख्यममपि
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उल्टोका कक्केय बभे पवेइया आवसहायरम्मा इमंगिहं चित्तधणप्पभूयं पसाहि पञ्चाल गुणोववेयं १३ अथ ब्रम्हदत्तः पुनः साधु निमन्त्रयति पूर्वनामा सम्बोधन
* कृत्वा वदति हे चित्र त्वं इमं इदं प्रभूत गृहे प्रत्तुरधन सहितं गृहं प्रसाधि प्रतिपालय ग्रहस्थित्वा सुखं भुच्चे इत्यर्थः अथवा चित्तधणण्यभूयं इति एक
एवपदं गृहविशेषणं चित्र नानाप्रकारं प्रभूतं प्रचुर धनं यस्मिन् तत् चित्रप्रभूत धनं एतादृशं मममन्दिरं गृहाणेत्यर्थः पुनः कीदृशं राई पच्चालदेशानां गुणाः इन्द्रियविषयाः शब्दरूप रसगन्धस्पीः ते रुपेतं पाञ्चालगुणोपपतं च पुनः रम्याः रमणीयाः मम आवसथाः प्रासादाः प्रवेदिताः प्रकर्षण वेदिताः प्रवेदिताः प्रकटाः सन्तितान् अपित्व प्रसाधि इति शेष: ममवाईि क रनपुरः सरैर्देवैरुपनौताः प्रासादास्तेके प्रासादाः उच्च १ उदय २ मधु ३ कर्क 88 ब्रह्म ५ एते पञ्चप्रासादाः यत्र चक्रिणो रोचन्ते तत्रैवस्यर्वाहि करत्ने न चक्रिसूत्रधारेण विधीयन्त इति सहा आहुः तस्मादत्र ईदं गृहमिति पृथक् उक्त मस्ति पाञ्चालानां गुणग्रहणं तु अत्युदीर्णत्वात् अनाथा भरतक्षेत्रस्य सारतद्गृहस्त्ये व १३ नट्टै हिंगोएहियवाइएहिं नारीजणाई परिवारयन्ती जाहि भोगाइ इमाइभिक्य ममरोयई पञ्चज्जाहु दुक्ख १४ भोचित्र है भिक्षो है साधो मम एतत् रोचते एतत् पदये प्रतिभाति हुइति निश्चयेन प्रव्रज्या दुःख
वसहायरमा । इमंगिहं चित्तधणप्यभूयं पसाहि पंचाल गुणो ववेयं ॥१३॥ गट्टे हिंगोएहियवादू एहिणारीजणाएं शोल गुणसहित इह प्रवचननेयतं उद्यमं कुर्व ति इहप्रवचननेविषेयततेउद्यमकरेछे तांगाथांश्रुत्वा अहमपिश्रमणोजात १२ अथ चक्रौराह उच्चोदयः मधु कर्क ३बंभ ४ वृना५ पांच आवासकहे के प्रवेदिता कथोताः पंचावासाः रम्या मनोज्ञाए पंचावास मनोज्ञमनोहरकया इदं यह है चित्रविचित्रधनैः पूर्खाएवरहेचित्र नानाप्रकारनु धनतिणकरौने भखोपूर्ण परिपालय पंचालदेशगुणयुक्त एघरतूंपालि अंगीकारकरिके हवुछ घरपंचालदेशनौजे लमोतिएकरोनेभयो १३ पुन: चक्रोपाह। नाटयः वादिश्ववलौवविसवधनाटकगौतवाजा नारोजनान् परिवारयन् । व्यापारयन् स्त्रीएगौतयां
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उल्टीका
अ०१३
वर्त ते इति शेषः दौचायां मुखं किमपि नास्ति तस्मात् हे साधीत्व इमा प्रत्यक्ष दृश्यमानान् भोगान् भुच्च कथम्भू त: सन् नाटकैद्दानिशद्धि गौतेर्गा
वर्वशास्त्रोक्तर्वादिवर्भरतशास्त्रोक्त मृदङ्गादिभिस्तथा नारीजनैः परिवृतः सन् विषयसुखानि अनुभव अत्र नारोजनानामेव ग्रहणं कृतं अग्येषां * गजाखवस्त्रासन द्रव्यादीनां ग्रहणं न कृतं तत्तु तस्य स्त्रीलीलुपत्वात् सर्वविषयेषु स्त्रीणामेव प्राधानयात् १४ तं पुवनेहणकयाणुरायं नराहि कामगुण * सुगिद्द धम्मस्मि श्रोतमहियाणपेही चित्तोइमं वयणमुदाहरित्या १५ यदा तु ब्रम्हदत्तेन सम्भूतजीवन चित्रजीवं साधु प्रतिउक्त तदा चित्रजीवः साधु * चित्रइदं वचनं तं तुम्हदत्त नराधिपं चक्रिणं प्रति उदाजहार अवादौत् कथम्भूतं तं तुम्हदत्त पूर्वस्ने हैन कतानुरागं पूर्वभवबान्धव प्रेम्णा विहित प्रौति
भावं पुनः कथम्भ त नराधिपं कामगुणेषु विषयसुखेसु मृड लोलुपं कौदृशचित्र जौवसाधुः धर्माश्चितः धर्म आश्वित: पुन: कौशचित्रः तस्य यमदत्तस्य हितानुप्रेचौ हितवान्छकः हितं अनुप्रेक्षते इत्येवं शोलहितानुप्रेक्षी १५ किं उदाजहारत्याह सव्वं विलम्बियङ्गौयं सच नह विडम्बियं सम्वे पाभ __ परिवारयंतो। भुनाहि भोगाई इमाई भिक्खू ममरोयई पव्वज्जाहु टुक्ख ॥ १४ ॥ तं पुवनेहेण कयाणुराग ।
णराहिवंकामगुण सुगिई। धर्म स्मिोतस्महिआणुपही चित्तो इमं वयण मुदाहरित्या ॥१५॥ सव्वं विलंवियंगीयं
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ० ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
ननाटकीछि भोभिक्षु इमान् भोगान् भुत्तु अहोसाधुतु एभोगभोगविममप्रवृज्यादुःक्वरूपारोचते मुझने दौवादुक्वरूप लागेछे१४ तं वृह्मदत्तं पूर्वने हैन कतानुराग बुह्मदत्तपूर्वमव स्ने हेकरोने रागधखोयतोऊपरि नराधिपं चक्रवर्तीनं कामगुणेषु गृहनराधिपचक्रवर्ति प्रति केहबुझे राजाकामनविषेयहाह पोछे धर्मावित: तस्य राजौहितचित्तकं चित्रसाधुधर्मने विषे आश्रयके राजा जपरिहित चिंतवेछे चिनाइदं वचन उदाहतान् । चित्रसाधू'स्यु वचन
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१ टीका प०१३
* रणाभारा सर्व कामा दुहावहा १६ है राजन् गोतं सर्व विलंबितं विलापतुल्य' सर्व नाट्यं नाटकं विडम्बितं भूतावेष्टित पौतमद्यादिजनांग विक्षेप ४०८
तुत्य सर्वाणि आभरणानि भारतुल्यानि सर्वे: कामाः दुःखावहा दुःखदायकाः गजपतङ्ग भृङ्ग मोन कुरङ्गादीनामिव बन्धन मरणादिकष्टदाः इत्यर्थः१६% बालाभिरामेसु दुहावहेसु नतंसुहं कामगुणेसु रायं विरत्तकामाणतवोहणणं जं भिक्खुणं सोलगुणरयाणं १७ हे राजन् विरक्त कामानां विरक्ताः काने य इति विरक्त कामास्तेषां निविषयिणां भिक्षुषां साधूनां यत्मखं वर्तते तत्मुखं वत्ततगुणेषु शब्दादिषु इन्द्रियसुखेषु कामिनां पुरुषाणां नास्ति कोहगेषु कामगुणेषु बालाभिरामेषु बालानां निर्विवेकाणां अभिरामाबालाभिरामास्तेषु मूर्खाहिविषयेषु रज्यन्ते पुनः कीदृशेषु कामगुणेषु दुःखावहेषु दुःखदाय केषु कोदृशानां भिक्षणां तपोधनानां तपएवधनं येषान्त तपोधनास्तेषां पुनः कीदृशानां चौलगुणरतानां शौलस्यगुणाः गुणकारिणी नव
सब्ब नविडंबीयं । सब्वे आभरणाभारा सर्व कामा दुहावहा ॥१६॥ बालाभिरामेसु दुहावहेमु णतंसुहंकामगुणेसु
रायं विरत्तकामाण तबोहणाणं । जंभिक्खणं सील गुणे रयाणं ॥ १७ ॥ नरिंद जाई अहमाणराणंसोवागजाइ दुहओ बोल्यातक हे हे सर्व रुदित रूपं गोतः सर्वगोतविलापरूपछे सर्वनाव्य विडं वनप्रायं सर्वनाटक विडंबनाप्रायके सर्वे आभरणा भारभूताः संघलां आभ रणभारभूतः सर्वेकामाः दुक्खदायकाः सर्वकाम सुखदुक्वनादेणहारछे मुनिराह १६ वालानां मूर्खाणाऽभिरामष हर्षोत्पादकेषु दुक्खकारणेष एकांमजिके बालकमखतेहने भलालागेहर्षऊपजे भी राजन् ईदृशेषु कामगुणेषु ततसुखं नहि अहोराजा एहवाकांमगुणनेविषेते सुखनही विरक्ताकामानां तपोध नानां कामभोगधो विरक्त हुआछेतपंजेध नछे यावत्सुखंभिक्षुणं धौलगुणेरतानांतत्सुखं अनावनास्ति जैसुखसाधुनेके सोलनेविषेसुखबीजेठामेनही १७
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ. ४१ मा भाग
षाभा
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उ० टीका अ०१३ ४१०
सूत्र
भाषा
विधि ब्रह्मगुप्तस्तेषु रताः आसक्तास्तेषां १७ नरिंदजाई अहमा नराणं सोवा गजाई दुहश्रोगयाणं जहिंवयं सव्वजणस्सवेसा वसौयसोबाग निवेसणेस १८ हे नरेन्द्रनराणां मनुष्याणां मध्ये अधमानिंद्याजातिः खपाकस्य चण्डालस्य जातिर्वर्त्तते सा जातिईयोरपि श्रवयोर्गताः प्राप्ताणं इति वाक्यालङ्कारे यस्यां जातौ आवां सर्वजनस्यथ्यौ अभूव खपाक निवसनेषु चण्डालग्गृहेषु वसौय आवां अवसात् १८ तोसे उजाई इउपावियाए वृच्छामि सोवाग निवेसणेषु सव्वस्म लोगस्स डुगंछणिज्जा इहंतु कम्माइपुरे कडाइ १८ तस्यां च जातौ तु पापिकायां पापिष्टायां खपाकनिवसनेषु चाण्डालग्गृहेषु वुच्छामु इति उषितौ निवासं अकार्थ कोदृशौ आवां सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनौयो होलनीयो इहतु अस्मिन् जन्मनि पुराकृतानि कर्माणि प्रकटोभूतानीत्यर्थः प्राचोनजन्मनि सम्यगनुष्टानरूपाणि कृतानि तेषां फलानि जातिकुल जलेश्वयं रूपाणि इह प्रकटितानि तस्मात् धर्मकरणे प्रमादोनविधेय इत्यभिप्रायः १८ गयाणं । जहिं वयं सब्ब जगम्मवेावसीय सोदागणि वेसणे ॥ १८ ॥ तौसेय जाईयउपावियाए बुच्छामुसी दागणि वेसणेमु । सब्वस्म लोगस्सदुग' छणिज्जा । इहं तु कम्माइ' पुरे कडाइ ॥ १६ ॥ सो दाणिसिं राय महाणुभा
हे नरिंद्र हे राजा अधमा जातिः मनुष्याणां हे राजन् अधमाजाति मनुष्यमांहिं चंडालजातिः इयोरपिगत्योरभूत् ते चंडालनीजाति आपण जणनेहुई arrataयं सर्वजनस्य हेथ्यो अप्रौतिकरौजातो ते चंडालरोगतरे विषे आपेनिदनीं कहुआ अप्रौतिनाविषे करणहारसर्व लोकानेस्थितौखपाक चंडालग्गृहेषु आपणचांडालनाघर मांहिं वस्यारह्या १८ तस्यांजातीप्राप्तायांत चंडालनींजातिपांम्याथकां स्थितौचांडालग्गृहेषु चांडालनाघरमांहिंराथका सर्व स्यलोकस्य जुगुनीयानिनिंदनीं यानिसर्व लोक ने जूगुप्त नियनिंदनींकहुआ इहजन्मनिपुराकृतानि कर्माणि शुभानि उदयंगतानि एजन्मने बिषे पाकलि भवेजे
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राय धनपतसिंह बाहादर का भ० स उ० ४१ मा भाग
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ए० टोका
अ०१३
४११
सूत्र
भाषा
सोदाणिसिराय महाणुभाभो महडिओ पुत्रफलोववेश च इत्त भोगाइ असासयाई आदाणहेउ' अभिनिक्वमाहिं २० हे राजन् यस्त्व' सम्भूतः पुराधासोः सोदापि इति सत्वमिदानीं राजा चक्रधरो महानुभागो माहात्म्य सहितो जातोसि कोहयो राजा महर्षि को विशाल लक्ष्मीकः पुनः कीदृक् पुण्य फलोपपातः पुण्यफलसहितः तस्मात् श्रादानहेतोः आदानस्य चारित्रधर्मस्य हेतोः प्रदीयते स विवेकै रित्यादान' चारित्रधर्मस्तस्य हेतोः अभिनिव माहि अभिनिःक्रम अभिसमन्तात् निःक्रमे गृहपाशात्त्वं निःसरसाधुर्भवेत्यर्थः किं कृत्वा श्रमाखतान् श्रनित्यान् भोगान् त्यक्ता पुराकृतस्य धर्मस्य फलं चेत्त्वया इदानी भुज्यन्ते तदा इदानीमपि धर्म अङ्गीकुरुयतो शाश्वत सुखभाक् स्यादितिभावः २० धर्मस्य प्रकरणे दोषमाह इह जोविएराय असा यंमि धणियंतु पुत्राइ ं अकुब्वमाणो सेसो श्रइमचु मुहोवणीए धम्मं अकाऊण परम्मिलोए २१ हे राजन् इह अस्मिन् मनुष्यजीविते मनुष्यायुषि पुण्यानि गो । महिडिओ पुन्न फलो ववेओ । च इत्तु भोगाइ असासयाई आदाणहेउ' अभिक्विमाहिं ॥ २० ॥ इह जीविए राय असासयंमि । धणियं तु पुन्नाद् अकुञ्चमायो । से सोयई मञ्च, मुही वणीए । धम्म'अकाऊण परम्मिलोए॥२१॥ शुभकर्मकोयाहताते उद्देश्र व्य थके १८ अस्मिन्काले हे राजन् महानुभागोवर्त्तसे हे राजन् इहकालने बिषे तु माहानुभाववत्ते के महर्षि क : धर्मफलोप पेतोयुक्तऋद्धिवंत ने करीसहितके त्यक्काभोगान् अशाखतान् । भोगकांहोने श्रमाखताछे त्याने आदानंमोक्षं तत्निमित्त' दौख्याग्टहाण आदान आदांन कहोइमोचतेहनें' निमित्तदिख्याले २० इह जीविते राजन् श्रसावतेसतो एजीवितव्य हे राजन् अशाश्वतोछे' श्रत्यर्थं पुण्यानि अकुर्व मानोजीवः तु थको सशोच्यतेपञ्चात्मृत्युः मुख उपनोते सतिपके जोवडोमरण श्रावतें क्रोधेट्रक्योटोइ धर्म कृत्वा परलोके गच्छति२१ यथा इहलोके सिंहोम्टगं गृहीत्वा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०० १४ मा भाग
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अ०१३
अकुर्वाणी मनुष्यः सक्कतानि न करोति सदुः कर्मभित्युमुखं उपनौतः सन् धर्म अकृत्वा परस्मिन्लोकेगतः शोचते पश्चात्तापं कुरुते मरणसमये एवं उ टीका
जानाति हामया मनुष्यजन्म प्राप्य धर्मों न कृतः इति चिन्तांकरीति कथम्भ ते जीविते धणि यंतु अत्यन्त अथावते २१ जहेहसौहावमियंगहाय पशू नरं नेबहुअंतकाले' णतस्ममाया वपिया वभाया कालं मितस्मिं सहरा भवंति २२ यथा इइ संसार सिंही मृगं गृहीत्वा ववशं नयति तस्मिन् मनुष्यस्य मरणकाले माता च पुनः पिता च पुनर्भाता एते सर्वे अंशधरा न भवन्ति अंशं जीवितव्य भागं धारयन्ति मृत्युनानीयमानं नरं रक्षन्तीति अंशधराः खजीवितव्यदायकान भवन्तीत्यर्थः २२ पुनदुखादपि न बायत इत्याह णतस्मदुक्त विभयन्तिनाइयो नमित्तवमानसया नबंधवा इको सयं पञ्चणुहोइ टुक्स कत्तारमेवं अणुजाइकम्मं २ ३ पुनः हे राजन् मनुष्यस्य अर्थात् दुःखात स्य नरस्य दुःखं शारीरिक मानसिकं दुःखं ज्ञातयः स्वजनाः न विभजति
जह सौहोवमियं गहाय । मञ्च नरंण दूहु अंतकाले । णतस्म मायावपि यावभाया। कालंमि तम्म स हरा 8 भवंति ॥ २२॥ तस्म दुक्ख विभयं तिगादूओ। ण मित्तबग्गाण सुयाण बंधवा । एकोसयं पञ्चगृहोदू दुक्ख'कत्ता * यांति जिमइहांसौं हमृगलाने झालोन लेईजाइ यथामृत्युःनरंनयतिहुनिश्चितं प्रांतसमयेतिमकाल. मनुष्यने त्यसमयेलेईजाय न तस्य माता वा * पिता वा वांधवावा तेहने माता न पिता न भाई तस्मिन्काले सहरादुःखसंभाविनो न भवंति ने कालनेविषे ते संगातहजीवनु दुक्खकोईबंटावेनहो२२ 8 न तस्य वा दुक्ख'ज्ञातयोऽपि तहनु दुक्खन्नाति पणिवंटावौसके नहीं नमित्रवर्गाः समूहाः नसूताः नबांधवाः नमिचदुक्खबेहेचावे न बेटानभाई एकोजीवः
प्रत्वनुभवति स्वयं दुक्ख वेदयतिः एकलोजजौवटूक्वसह कर्तारमेव अनुयांति गच्छति कम्मकरणहारने पूठे कम्मजाय ॥ २३ ॥ त्यक्वादिपदं भार्यादि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ° १४ मा भाग
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१. टीका अ०१३
दुःखस्य विभागिनी न भवन्ति मित्रवर्गः मित्रसमूहाः पुनः सुताः अंगजाः पुनर्बान्धवा भ्रातरोपि न दुःखं विभजन्ति तदा किं भवतीत्याह एकोयं जो वोऽसहाई स्वयमेव दुःख प्रत्यनुभवति एकाको खयमेव दुःख असाता वेदनोभुंक्त कथ स्वजनादिवर्गे सति एको दुःख भुक्तो तबाह कर्म शभाशुभरूपं कतारं एव अनुयाति अनुगच्छति यः कर्मणां कर्ता सएव कर्मणां भोक्तास्यादिति भावः यदुक्तं यथा धेनुसहशेषु वत्सो विदन्ति मातरं तथा पुरावतं कर्मकर्तार मनुगच्छति १ २ ३ चिच्चादुपयंच च उप्पयंच खित्तगिहं धणं धनं च सव्वं सकम्भबौो अवसोपयाई परभवं सुन्दरपावगं वा २ ४ अशरण भावना उक्ला एकत्वभावना वदति अयं स्वकम्मात्म द्वितीयायं जीवः स्वस्यकर्म खकर्म खएव आत्मनो द्वितीयं यस्य सस्वकर्मात्म द्वितीय स्वकर्म सहितीयं * जीवः सुन्दरं देवलोकादिस्थानं वा अथवा पापकं नरकादिस्थान एवम्बिधं परं भवं अन्यलोकं अवशः सन् प्रयाति किं कृत्वा हिपदं भार्यादि च पुनश्चतुः पदं गजाजादि क्षेत्र इक्षुचेत्रादिग्रहं सप्तभौमिकादिधनं दीनारादि रजतं स्वर्णादिधान्य तण्डुल गोधूमादि च शब्दाहस्त्राभरण सार रत्नादि एतत् सर्व त्यक्त्वाहिवाजीवः परभवे ब्रजतीत्यर्थः २४ अथ मरणादनन्तरं पश्चात्तस्य पुत्रकलत्रादयः किं कुर्वतीत्याह तं इक्क तुच्छ सरीरगंसे विईगयंदहिया उपाव
रमेवं अणुजा दूकम्म ॥ २३ ॥ चिच्चा दुपयं चउप्पयं चखेत्तं गिहं धण धन्नं च सव्वं । सकम्मबीओ अवसो पया।
दू परं भवं सुंदर पावगवा ॥ २४ ॥ तं एक्कं तुच्छ सरीरग' से विई गयं दहिय उ पावर्गणं । भज्जाय पुत्तावियणाप चतुःपदादि तुरंगादिदिपदचतुष्पदछाडौने क्षेत्र गृहं धनं धान्य च सर्वत्यक्ता जीवकर्मद्वीतीयः कर्मसहाय अवसोपरवशः प्रयाति गच्छति एजीवापषां कर्मसाथ लेईने परवशयकोजायपरलोके परं लोके शभाशुभं पापं अशुभं वा परलोकिं जाइभला कर्मकोधांतोदेवताथाइ डाकर्मकौधा डौगते जाइ
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ· सं० उ०१४ मा भाग
सूत्र
भाषा
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न
500
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गणं भज्जाय पुत्तो वियनाय ओय दायारमन्न मणसङ्गमन्ति २५ से इति तस्य मृतस्य पुरुषस्य तत् एककं जीवरहितं अतएव तुच्छ असारं शरीरं * चितोगतं श्मशानाग्नि प्राप्त पावके दग्ध्वा भस्मसात् कृत्वा पश्चात् तस्य भार्या च पुनः पुत्रापि च पुन तयः स्वजनाः एते सर्वेपि अन्य दातारं अनु 8 संक्रमन्ति कोर्षः यदा कश्चित् पुरुषो मियते तदा तच्छरीरं प्रज्वाल्यतस्य स्त्रीपुत्चबान्धवाः अन्य स्व निर्वाहकर्तारं धनादिदायक सेवन्त सर्वेपि स्वार्थ 8 साधन परायणा भवन्ति २५ उबणिज्जदू जीवियमप्पमायं वन जराहर नरस्मराया पञ्चालरायावयणं मुणाहि माकासि कमाई महालयाई २६
हे राजन् नरस्यप्राणिनी जीवितं प्रायुप्रमाणं यथा स्यात्तथा कर्मभिर्म त्यवे उपनीयते पुनर्जीवित सत्यपि नरस्य वर्ण शरीरसौन्दर्य जराहरति दृष्ट्वावस्था
रूपं विनाशयति तस्मात् है.पञ्चालराज हे पाञ्चालदेशाधिप वचनं मम वाक्य शृणु महालयानि महांति मांसभक्षणादौनि कर्माणि त्वं माकार्षी: २६ * पथ नृपतिराह अहंपि जानामिज है हसाहजमे तुम साहसिवक्कसेयं भोगाइमेसङ्गकरा भवन्ति जैदुज्जया अज्जो अम्हारिसेहिं २७ हे साधी इह जगति यथा वर्तते तथाई अपिजानामि यत् त्वं मे मम एतत् वाक्य सहशिष्ययसि शिष्यारूपेण साधिकथयसि परं किङ्करोमि इमे प्रत्यक्ष भुज्यमानाः
उय । दातार मन्न'अणुसंकमंति ॥ २५ ॥ उवमिज्जई जीविय मपमायं । वन्न जराहरदूणरस्म रायं । पंचाल रायावय ॥२४॥ तं एकप्रसारंदेहरोगे तां ते एकएशरीररोगेकरोने भयो चिताप्राप्त दग्धं अग्निनापछएशरीर च हिमांहिं वालौइ अग्निस्यं वालीई भार्या :
चपुत्रा पि ज्ञातयः स्त्रीपुत्रक्षाति प्रमुखइष्टकार्यकरदातारं अन्य जनयाति निश्चयतः तेहने चाल्योस्त्रीबेटाजातीप्रमुखवीजाजननें जाइ आयये वीजानी * चाकरोसेवाकरे ॥ २५॥ उपनीयतेक्षयं प्राप्नोति जीवितव्य निरंतरंएजीवितव्यनिरंतरक्षयपामछे आउखु निरंतरओछुपडे छे भो राजन् वर्मजराहरति
नरस्य अहोराजामनुष्यनोवर्मरूपजराहरेछ भोपञ्चालराजन्वचनं शृण अहोपंचालदेशनाराजावचनशांभलिमाकार्षीत् कर्माणि महारौद्राणि अहोराजातु
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं००४१ मा भाग
भाषा
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ए टीका अ०१३ ४१५
* भोगाः सङ्गकरा भवन्ति बन्धनकरा भवन्ति कीदृशा इमे भीगाः है आर्य येभोगाः अस्मायगुरुकर्मभि दुर्जयाः दुस्त्यजाः २७ हथिणपुरंमिचित्ताद
कृणं नरवई महडियं कामभोगसुगिद्दे णं नियाण मसुहं कडं २८ हस्तिनागपुर भी चित्रमया निदानं कृतं कीदृशं निदानं अशभ' भोगाभिलाषत्वात् * अभं कि कृत्वा नरपतिं सनत्कुमार चक्रिण दृष्ट्वा कीदृशं चक्रिण महहिक कौशेन मया कामभोगेषु गृद्धे न इन्द्रियमुखलोलुपेन २८ तस्ममे अप * डिकं तस्म इमं एयारिसंफलं जाणमाणो विजं धम्म कामभोगेसु मुच्छिो २८ तस्य निदानस्य प्राग्भवकृतभोगाभिलाषस्य इमं प्रत्यक्षं भुज्यमान एता * दृशं वक्ष्यमाण फलं जातं कथम्भूतस्य तस्य निदानस्य अप्रतिक्रान्तस्य अनालोचितस्य यस्मिन् अवसरे हस्तिनागपुरे आवां अनशनं कृत्वा प्रससौ तदा __णं सुणाहि। माकासि कम्माई महालयाई ॥ २६ ॥ अहंपि जाणामि जहेह साहूजमे तुम साहसि वक्कमेयं ।
भोगा इमे संगकराहवंति । जेदुब्जया अज्जो अम्हारिसेहिं ॥ २७ ॥ हस्थिण पुरं मिचित्तादट्टणं गरवई महिड्डीयं ।
कामभोगेसु गिई णं । णिया णममुहं कडं ॥२८॥ तस्ममे अप्पडिकं तम्म इमं एयारिसं फलं जाणमाणोविजंधम्म । महारौद्रभूडा कर्मकरेमति ॥ २६॥ अहमपि जानामि यथाइहेजगति हे साधी अहो साधु परिभलौपरिजाणु यत् ममत्वंभाषयसि वाक्य एतत् *अही साधुजेतुवातमुझनेकहैं छेमुझने उपदेस दियेछेभोसाधीभोगाः शब्दादयः इमे प्रतिबंधोत्पादकाः भवंति अहो यतौएभोगभुझने प्रतिबंधकारणहुवैछे
धर्म मांहिं अंतराय करेके ये भोगाः ऽस्मादृश्यैः कातरैः जएभोग अम्हसरिषाकातर अन्नानीने छोडतां ॥२७॥ हस्ति नागपुरेभोचारित्रचीत्र हस्ती नागपुरने बिषे दृष्ट्या नरपतिसनत्क मारचक्रिणं महर्दिकं देखोनेसनत्क मारचक्रवर्तिनीऋवि कांमभोगेषुर नकामभोगनैविधेट,हुए मुर्छितहुउ'
पय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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अ०१३
चक्रधरस्य स्वोरवस्य केशपाशो मम चरण लम्नस्तदा मया निदानः कृतः तदात्वयाहं निवारितः भो भ्रातः त्वं निदानं माकार्षीः चैनिदानः कृतः स्यात् उ टीका
तदा मिथ्या दुक्कतं दातव्यं त्वया इत्युक्त पि अहं निदानाब निवृत्त इत्यर्थः जंइति यस्मात् कारणात् अहंजिनोक्त' धर्म जानन् अपि कामभोगेषु सुतरां
अतिशयेन मूर्छितोस्मि इन्द्रियसुखेष लुब्धोस्मिनीचेत् ज्ञानस्य एतदेवफलं ज्ञानौविषयेभ्यो विरक्तः स्यात् अहं जाने सत्यपि विषयेषु रमामि तनिदान ॐ स्यैव फलमित्यर्थः २८ नागोजहापङजलावसनो ददुथलं नाभिसमे इतौर एवं वयं कामगुणसुगिद्धा न भिक्षुणो मग्गामणुब्बयामो ३० हे साधो यथा
नागो हस्तीपङ्कजलावसक्तः अल्पजले बहुप? अवसनोऽत्यन्त निमग्नस्तौरं दृष्ट्वाऽपिन अभिसमेति तौरस्य तटस्थ अभिमुख' गतीपितटन प्राप्नोति तौरन्तुदूरतः परन्तुस्थलं अपि दृष्ट्वा न उच्चभूमिं प्राप्नोति एवं अमुनाप्रकारेण अनेन दृष्टान्तेन वयं इति अस्मादृशाः कामगुणेषु शब्दरूप रसगन्धस्पर्शा दिष रडाः लोभिनो भिक्षोर्मार्ग साधुमार्ग साध्वाचारं न अनुव्रजामः न प्राप्तमः तस्मात् किंकुर्मीवयं विषयिणो जानन्तोष्य जानन्त इव जाता इत्यर्थः३० अब्बेदकालोतुरियन्ति राइओ नया विभोगा पुरिसाणनिचा उविच्चभोगा पुरिसञ्चयन्ति दुमंजहाखौण फलं वपक्वौ ३१ अथ मुनिः संसारस्य अनित्य
कामभोगेसु मुच्छिओ ॥ २६॥ णागोजहापंकजलावसन्नो। ददुथलंणाभि समेति तौरं । एवं बयं कामगुणेमुगिहाण .
भिक्खू णोमग्गमणुब्बयामो ॥ ३० ॥ अव इकालोत्तरंति राडूओणयावि भोगा पुरिसाणनिच्चा | उब्बिच्चभोगा पुरिसं निदानं अशुभ कृतं तिवारे मे भूडुनौयाण कोधू २८ तस्य नौदानस्य ममअनालोचितस्य ते नियाणोमे आलोयोनहीमौच्छामोदुक्खड्दीधीन हौ इदं एतादृशं फलं जातं एअम्हारैऋद्धितेहनोफलहु जाननपि यदहं धर्म जेहभणोधर्मनोमार्गहु जाणं छुएधर्मनाफल कामभोगेष मुर्छितः कांमभोंग
ग्य धनपत सिंह बाहादुर का आ.सं.ज.४१ मा भाग
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C
खेन उपदेशं ददामि हे राजन् कालः अत्येति अतिशयेन गच्छति कालस्य किंयाति अयुर्यातीत्यर्थः रात्रयः त्वरयन्ति उत्तालतया व्रजन्ति है राजन् पुरुषाणां भीगा अपि अनित्याः भोगाः पुरुष उपेत्य स्वेच्छया प्रागत्य पुरुषन्त्यजन्ति पुरुषा यद्यपि भोगान् त्यक्त न इच्छन्ति तथापि भोगाः स्वयमेव पुरुषान् त्यजन्ति इत्यर्थः कं कि इव यथा पक्षिणः क्षीणफलं वृञ् यथा त्यजन्ति ३१ जइतंसि भोगे च दू असत्तो अज्जाई कम्बाई करहिरायं धम्मेडिओ सव्वपयाण कम्पोतोहोहिसिदेवो इउ विउब्बी ३२ हे राजन् यदित्वं भोगान् त्यक्त अशक्तीसि असमर्थोसि तदा हे राजन् आर्याणि शिष्ट जन योग्यानि कर्माणि कुरु पुनई में स्थित प्रजानुकम्पो भव इतिशेषः सर्वप्रजापालकोभव सर्वाश्वताः प्रजाश्च सर्वप्रजाः तासु अनुकम्पते इत्येवंशील: सर्वप्रजानुकम्पो हे राज आर्य कर्मकरणात् त्व' वे उब्बीबैक्रिय वैक्रिय शक्तिमान् देवो निर्जर इतो भवादने भविष्यसि ३२ न तुमभोगेच इऊण वुद्दी
वयंति । दुमं जहाखीणफलं वपक्खी ॥ ३१ ॥ जदूतंसिभोगे चउ असत्तो । अज्जाई कमाई करेहि रायं । धम्म । ठिओ सव्वपयाणु कंपी। तोहोहिसि देवोउ विउब्बी ॥३२ ॥ णतुम भोगे च दूजण बुद्धीगिहासि आरंभ परिग्गहे
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं.उ०१४ मा भाग
नेवि मूर्छितहुओळुजाणतु'थको २८ यथानागोहस्ति पंकयुक्तजलेमग्न हाथोजीमकादवसहितपांणोमांहिखूतो दृष्ट्वास्थलंतौरं न प्राप्नोति हाथीतीरनेइढा हानेदेखेपणिनों सरौसके नहो अमुनाप्रकारेणवयं कामगुणेषु एखाइम अझ कामभोगनें विर्षे मूर्छितहुओछु भिक्षुः मार्ग नव्रजामोनसेवामहेतिणे कारण ह'यतोनोमार्ग आदरोसकतुनथो ३० अथ मुनिराह अत्ये तिक्षणं याति कालः सोन गच्छतिरावयः कालआउखोक्षण२ घटेरात्रि पणिऊताबलीजाइ छेनापि भीगाः पुरुषाणांनित्याःथास्वताः भोगपणिनिथयसु ममुष्पनशास्खतानही उपेत्यागत्यभोगाः पुरुषंत्यजन्ति भीगापुरुषनेपामाबीननासोजाइ
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अ०१३
४१८
उ० टौका गिद्दोसि प्रारम्भ परिग हेसु मोहंको इत्तिउ विप्पलावो गच्छामिरायं आमन्तिोसि ३३ हे राजन् अहं गच्छामि अहं ब्रजामि मयात्व आमन्त्रि
तोसि मया त्व पृष्टोसि धातूनां अनेकार्थत्वात् हे राजन् तुज्म इति तव भोगान् त्यक्त बुद्धिर्नास्ति अनार्यकार्याणां भोगा एव कारणानिमन्ती अतो
भोगान् अनार्य कार्याण्यपि त्यक्त मतिर्नास्ति पुनः प्रारभ परिग्रहेषु त्वं स्टद्योसि लुब्धोसि आरम्भ परिग्रहान् न त्यजसि इत्यर्थः एतावान् विप्रलाप: 8 विविधवचनोपन्यासः मोधः कृतः निरर्थकः कृतः जलविलोडनबत् व्यर्थोजात: तस्मात् कारणात् अथाहं त्वत्तः सकाशात् अन्यत्र व्रजामि
तवाज्ञास्ति इत्युक्ता मुनिर्गत अथ मुनौगते सति ब्रम्हदत्तस्य किमभूत्तदाह ३३ पञ्चालरायावियबंभदत्तो साहुस्म तस्मवयण' अकाउ' अणु * त्तर भुञ्जियकाम भोए अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो ३४ पञ्चालदेयानां राजा पाञ्चालराजो ब्रह्मदत्तश्चक्रवति रषि अनुत्तरे सकल नरकवासभ्य उत्कृष्ट
अप्रतिष्टान नाम्नि प्रविष्टस्तत्रोत्पन्न इत्यर्थः किं कृत्वा अनुत्तरान् सर्वोत्कृष्टान् कामभोगान् भुक्का पुन: कि कृत्वा तस्य चित्र जीवसाधीर्वचनं उपदेश वाक्य अकृत्वा निदानकारकस्य नरकगतिरेवतस्य गुरु कर्मत्वान्न साधो रूपदेशावकाशो जात इत्यर्थः ३४ चित्तोविकामहि विरत्तकामो उदगाचारित्त
मु॥ मोहं कउएत्तिउविप्पलावो। गच्छामिरायं आमंतिओसि ॥ ३३ ॥ पंचालरायावियबंभदत्तो साहुस्म तस्वयणं यथाक्षीणफल वृक्षं पक्षिणस्तजन्ति जिमखोणफलवचने पंखौछांडे ३१ यदित्व' भोगास्तक्तन समर्थः जोतभोगछांडवाने समर्थ नहीं तदाकर्माधि आर्याणि उत्तमानि कुरुभोराजन् तु आर्यउत्तमकर्मकरिभल'कर्मकरिधर्मस्थितः सर्वलोकेषु दयावान् धर्मने विरह्याथकासर्वजीवने विदयाकरे अतोनर भवात् देवोवेकियदेही भविष्यसिएमनुष्यसिएमनुष्यनाभवथौदेवताहोई सवेक्रियशरोरनोधणी ३२ अथ यदा सनप्रति बुध्यते तदा मुनिराहः न तवभी गान् त्यक्त बुद्धिः भोगछोडवाताहरौ बुद्धिनथी ग्रघ्ररुपमस्ति प्रारंभपरिग्रहेष तु मूर्छिताओछे प्रारम्भपरिग्रहने विर्षे मयामोहः वृथा कृतः एतावान्
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ सं०१० ४१ मा भाग
भाषा
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ए.टीका
४ तवो महे सो अगत्तर सनमपाल इत्ता अणु त्तरं सिद्दिगई'गोत्ति बेमि ३५ चित्रीपि पूर्व भवचिवजौव साधुरपि महषिर्महामुनिः अनुत्तरं सर्वोपरि 8 वत्ति सिद्धिस्थानगतः कि क्त्वा अनुत्तरञ्जिनाज्ञा विशुद्ध सप्तदशविध संयम पालयित्वा कथम्भूतः स साधुः कामेभ्यो विरक्तकामः भोगेभ्यो बिरक्ताभिलाषः
पुनः कोह स: स उदयचारित्र तपाः उदय प्रधान साध्वाचारं सर्वविरतिलक्षणं दविधरूपं चारित्र तपो हादविधं यस्य स उदग्र चरित्नतपाः एता दृशः सन् मोक्ष प्राप्तचित्र जीव मुनिरिति सुधर्माखामौ जम्बूस्वामिन वाव्रति हे जम्बू अहं तवाग्रे इति ब्रवीमि ३५ इति चित्रसम्भू तीयं त्रयोदश चित्र सम्भू तोयं अध्ययनं संपर्म ॥१३ अथ चतुर्दशमध्ययन प्रारम्भते त्रयोदशेऽध्ययनेहि निदानस्य दोष उक्त: चतुर्दशेऽध्ययनेनिर्मिदानस्य गुणमाह अत्र मुख्यतस्तुनिदान राहित्यमेव मुक्त: कारणं इत्युच्यते तत्र सम्प्रदायः यौती गोपदारकी चित्रसम्म त पूर्वभव मित्रौ साधुसेवाकरा देवलोकं गती
अकाउं। अणुत्तरेभुजिय काम भोगे अगत्तरेसोनरएपविट्ठो ॥३४॥ चित्तोविकामहिं बिरतकामो । उदग्गचारित्तत
वोमहेसी। अणुत्तरं संजमपालदूत्ता अणत्तरं सिद्धिगडू गउत्तिबेमि ॥ ३५ ॥ चित्तसंभ इझयणं सम्मत्त॥१३॥ प्रलापाएमै बचनालापफीकटकोधी गच्छामि हे राजन् निमंत्रितोसि पृष्टोऽसित्व हे राजन् जाउ'छुतम्हनपुच्च्योछे३२पंचालराजापि ब्रह्मदत्तः पंचाल देशनोराजा ब्रह्मदत्त तस्य साधी:बचन'अक्तत्वातसाधनु'बचन अणकरीने सर्वोत्तमान् कामभीगान भूत्वा अणूत्तरसर्वथकोउत्तकष्टीनरकने विषउपनो३४ चित्र सम्भूतपिण एकांमभोगांयकोविरक्तधयोछकामको अभिलाषावांछाजेहनी एहवोधको उदयप्रधानचारित्रतपर्वतमोटोरिषौवरसाधु महानुभावनिम्म ल के प्रधानसंयम यबा ख्यातचारित्रनिम्मलपालोने जैसाध अष्टकमजोतौने प्रधानसिद्धगतिप्रतें प्राप्तथयोसिहस्थानिकें पहुंती धमकहुंछ तिबेमि ॥ ३५॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१०४१ मा भाग
भाषा
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09
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04
ततश्चात्वा चितिप्रतिष्टिते नगरे भ्यकुलहावपि भातरी जातो तत्र तयोः चत्वारः सहदीजाताः तत्र भोगान् भुनास्थिवराणामन्तिक धम्म मृत्वा
सर्वपि प्रबजिताः सुचिरकालं संयम मनुपाल्य भक्त प्रत्याख्यातं कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पद्मगुल्मविमाने षडपि सहदः पल्यीपमायुष्का देवत्वेनीत्यनाः ४ तत्र येते गोपजीव वर्जादेवाचत्वार ततश्रुत्वा कुरुजनपदे इषुकारपुरे ऽवतीर्णा स्तच प्रथम इषु कार राजाजातः द्वितीय स्तस्यैव राजः पदवी कमला
वती जाता हतीय स्तस्य व राज्ञो भृगुनामा पुरोहितः संवृतः चतुर्थ स्तस्य व पुरोहित भा-संवत्ता तस्यावशिष्ट नामगीत' यथा इति नाम जातं स च भृगु पुरोहितः प्रकामं सन्तानलाभ मभिलषति अनेकदेवीपरावनं कुरुते नैमित्तिकान् प्रश्नयति तो हावपि पूर्वभव गोपदेवौ वर्षमानावधिना एवं ज्ञातवन्तौ यथा भावां एतस्य भृग पुरोहितस्य पुत्री भविष्यावः ततः श्रमणरूपं कृत्वा हावपि भृगुगृहे समायाती सभार्येण भृगुणावन्दितौ सुखासनस्ती धम्म कथयतः तयोरन्तिके सभार्येण भृगुणा श्रावक व्रतानि हौतानि पुरोहितेन कथितं भगवन् अपत्य भविष्यति नवेति साधुभ्यामुक्त' भवतां दौ
दारको भविष्यतः तौ च बालावस्थायामेव प्रबजिष्यतः तयोर्भवद्भया व्याघाती न कार्यः तौ प्रव्रज्यघनं लोक प्रतिबोधयिष्यतः इति भणित्वातौदेवी ४ स्वस्थान गतौ ततोऽचिरेणच्यु त्वा पुरोहितभार्थ्यांया उदरे ऽवतीर्थों ततो सौ पुरोहितः सभार्यो नगराबिर्गत्व प्रत्यन्त ग्रामस्थितः तत्रैव सा ब्राह्मणी * प्रसूता दारको जाती लब्ध संजौतौ ताभ्यां मुनिमार्गविरकताकरणार्थ एवं शिक्षितौ य एते मुण्डितशिरस्काः साधयो दृश्यन्ते ते बालकाम्भारयित्वामां
सङ्ग्यादन्ति तत एतेषां समीपे श्रीमद्भिर्न कदापि स्थेयम् अन्धदातस्माहामादेतौ क्रौडन्ती बहिर्निर्गतौ तत्र पथवान्तान् साधूनागच्छत: पश्यतः ततो ॐ भयभ्रान्तौ तौ दारको एकस्मिन् वटपादप आरूढौ साधवस्तु तस्यैव वटपादपस्याधः पूर्व गृहौताशनादिभोजन' कत्तुं प्रवृत्ताः वटारूढौ तौ कुमारी
स्वाभाविक मनपान पश्यतः ततबिन्तित प्रवत्तौनेतेबालमांसाशिनः किंतु स्वाभाविकाहारकारिणः कचिदेतादृशाः साधवो ऽस्माभिदृष्टा इति चिन्त
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०.४१ मा भाग
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४ यतो तयोर्जाति स्मरणमुत्पन्न ततः प्रतिबुद्धौ तौ साधून वन्दित्वा गतौ माढपिसमीपं अध्ययनोक्त वाक्य स्ताभ्यां मातापितरौ प्रतिबोधितौ तहन १. टीका लिप्मुराजानन राजो प्रतिबोधितवती एवं षष्ठपिजौवाः गृहीत प्रव्रज्याः केवल ज्ञानमासाद्य मोक्ष गताः अथ सूत्र व्याख्यायते देवाभवित्ताणपुर
भवंमिकईच आएग विमाणवासो पुरे पुराणे उसुयारनामे खाए समिई सुरली अरग्मे १ सकम्मसे सेण पुराकएणं कुले सुदमोसुयते पसूया निविद्र संसारभया जहाय जिणं दमग सरणं पवनाः २ गाधाइयेसंबंधः केचित् जीवाः येषां केनापि न ज्ञायते यतोहि पूर्वञ्चतुर्णामपि गोपजीवानां नाम * नोक्त यो पुनडौं चित्रसम्भू ताभ्याम् अवशेषौ प्रभूतौ तौ इभ्य व्यवहारिण: मुतत्वेन उत्पनी तयोः पुनश्चत्वारोमित्र जीवा स्तेषां अपि नामनेकापिनज्ञायते * एवं षडपि जौवाः पूर्व अनिर्दिष्टः नामानोऽभूवन् अहो पश्यत पश्यत धम्मस्य माहामं जीवानां भव्यकम्मपरिपाकवच केचित् जीवाः पूर्वस्मिन् भवे देवौ १ * भूय देवत्व प्राप्यसौधम्म देवलोके नलिनी गुल्मविमाने एकत्र निवास कृत्वा स्वकर्मयेषेण स्वस्थकर्मणः पुण्यप्रक्वति लक्षणस्य शेषेण ते षडपिजौवाः
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१ मा भाग
सूब
देवा भवित्ताण पुरे भवंमी केई चुया एगविमाणवासी पुरे पुराणे उसुयारणामे खाए समिद्धे सुरलोय रम्म ।। स कम्म सैसेण पुराकरण कुलेसुदगेसुयतेपसूया | निब्बिस संसार भया जहाय जिणिंदमग्गं सरणं पवमा । २ । पुम
भाषा
देवो भवित्वा पूर्वभवे पाछल्या भवने बिषे देवता होईने केचित् श्रुत्वा एकपदमगुलविमानवासिनो एकजीव पद्मगुल्म बिमानथौ च वीने
नगरें चिरतनइ सुकारनामनगर पुराणोछे जूनीछे प्रसिद्ध रिधि युक्ते सुरलोकइवरम्यवलौनगरकेहबुंले सर्वत्र प्रसिद्धछ ऋइसहीतछे देवलोकनी * परिरम्यमनोहरछे १ स्वकर्मशेषेनपुराततेन आपणवतकम्मतहने अनुसार कुले उत्तम उत्कटचिजक्षत्रियजाति रूपे प्रसूताषटजौवा: उत्तमक्लने विधेछ
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उ टीका अ०१४ ४२२
इषुकारनानि पुरे पुराणे पुरातने नगरे पुनः ख्याते सर्वत्र प्रसिद्ध पुनः समृद्दे धनधान्य पूर्ण पुनः सुरलोकवत् रम्ये उद्ये उत्कटे क्षत्रियादिक प्रसूताः उत्यनाः कथं भूतेन खकर्मशेषेण पुरातनेन पूर्वजन्मोपार्जितेन ते जौवा इषुकारपुरे समुत्पद्य तत्र संसारभयात् निवेद्य निर्वेदं प्राप्य चतुर्गति भ्रमण भयादुद्दे गम् आसाद्य तदा जहाय इति भोगान् त्यत्वा जिनेन्द्रमार्ग जिनेन्द्रेणोक्तोमार्गों जिनेन्द्रमार्ग स्तं ज्ञान दर्थन चारित्ररूपं मोक्षस्य मार्ग शरण जन्म जरा मृत्यु भयापहं स्थानं प्रपन्नाः प्राप्ताः इति गाथाद्दयार्थः २ पुमत्तमागम्म कुमारदोवो पुरोहिोतस्मजसायपत्ती विसाल कित्तीयत हो सुयारो रायत्य देवो कमला वईय ३ तेषांषसां अपि पृथक् भेदं दर्शयति सूत्रकारः तेषां षसां मध्ये ही जीवो गोपी पु स्व' आगम्य पुरुष वेद त्वं प्राप्य कुमारी जातौ भृगु ब्राह्मणस्य पुत्री समुत्पन्नौ अव कुमारत्वेन एवं उक्तौ यौ हि अपरिणौ तौ एव दीक्षा जराहतुः हतौयो जौवः पुरोहितो भृगुनामा ब्राह्मणा चासौत् तद्भार्या यशानानी चतुर्थोजौवः तथा विशालाविस्तीर्णाकौर्तिर्यस्य स विशाल कौतिः एतादृशः इषुकार नामा राजा पंचमीजीवः च पुनः दह रान भवे एब तस्य व राज्ञो देवो रानी कमलावतो जाता इति षष्टोजोवः एत षडपि जौवाः ख ख आयुक्षयेषुत्वा केचिदग्रतः केचित्पश्चात्पूर्व संबंधन एकत्र नगरे मिलिताः इत्यर्थः ३ जाई जरा मञ्चभयाभिभूया बहिं विहाराभिनिविद्वचित्ता संसारचक्कस्म विमोक्खणडादहूण ते कामगुणे
त्तमागम्म कुमार दोवी पुरोहिओ तस्म जसायपत्ती विसाल कित्तीय तहो मयारो रायत्यदेवी कमलावईय ॥३॥ जोवदेवलोकथको चवीने आवौनें उपनासंसारभयात् निविबाभौताजहायभोगान् त्यक्ता संसारनाभयथको बौहनासर्वभोगकांडीनेंजिणेन्द्र मार्गे सरणं प्रपवााविताः तोर्थ करनोभाष्योमार्गतेह भरणकोधू २ पुरुषत्वं प्राप्य कुमारौ हो हिजपुत्रौ बै ब्राह्मणनावेटा भृगूनामातीय पुरोहितः चतुर्थि तस्य परोहितः तस्य जसानानो पत्नो विस्तोम कोतिस्तथाइषुकारो नाम राजा पांचमोरष कारराजा तस्य च कमलावती देवौ एतेषट्जीवाउत्पबाः ३
पय धनपतसिंह वाहादर का पास उ०४१ मा भाग
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उल्टीका
अ०१४
विरत्ता ४ तौ दो कुमारी कामगुणभ्यः शब्दरूप रसगन्धस्पर्शेभ्योविरक्ती जातौ कि क्त्वा दलूण इति दृष्ट्वा साधून विलोक्य अथवा शब्दादिविषयान् 8 मोक्षप्राप्ति विघ्नभूतान् दृष्ट्वा किमर्थ संसारचक्रस्य विमोक्षार्थ संसारस्य चातुर्गतिकस्य यत् चक्र योनि कुलभेदाममूहश्चक्रवद भमण वातस्य विमोच
णार्थ निवारणार्थ' कोदृशो तो कुमारी जाति जरामृत्यु भयाभिभूती जन्मजरामरणभयेन पौडितौ पुनः कीदृशी ती कुमारी बहिर्विहाराभिनिविष्ट चितो वहिः संसाराविहारः स्थानं बहिबिहारी मोक्षस्तस्मिन् अभिनिविष्ट बहादरं चित्त ययो स्त्रो बहिर्विहाराभि निविष्टचित्तौ ४ पियपुत्तगादुब्रिवि माहण म सकम्मसोलस्म पुरोहियस्म सरित्त पोराणियतस्थजाई तहा सुचिन्नं तव सजम' च ५ ब्राह्मणस्य भृगुनासः पुरोहितस्य राजः पूज्यस्य दौ प्रियपुत्रको लघु वल्लभपुत्रौ यौ आस्तां ताभ्यां हाभ्यां पुरोहितस्य वल्लभ पुत्वाभ्यां तथा तेन प्रकारेण तपो हादशविधिञ्च पुनः संयम सप्तदशविधं सुचौर्य
जाईजरा मच्च भयाभि भूया बहि विहाराभिनिविट्टचित्ता। संसार चक्करम विमोक्खणट्ठाद गते काम गुणेविरत्ता ॥४॥
पिय पुत्त गा दोन्नि विमाहणम स कम्मसौलस्म पुरोहियस्म। सरित्तपोराणिय तत्य जाएं तहा सुचिन्नं तवसंजमंच॥५॥ 8 अथ बिजपुत्रौ जन्मजरामरणभीतीहवे ब्राह्मणनावेटा जन्मजरामरणथौ वौहना कुमारी वहिविहारोः मोक्षेदत्तचित्तो ते ब्राह्मण नावटामोक्षने विर्षे चित्तदोध्योसंसार चक्रस्य मोक्षार्थ त्यागार्थ संसार चक्रथको आपणा आत्मानमुकाववाने अर्थे साधून दृष्ट्वातौ कामगुणेभ्यो विरक्ती साधूने देखौने ब्राह्मण नावटाकांमभोगयकोविरताहुआ४ पृयो अभिष्टौ पुत्री प्रियपुत्रकौहावपि ब्राह्मणस्य भृगुनामापुरोहित घणु वेटावाल्हाछ : स्वकर्मशीलस्य पुरोहितस्य यजन याजनादितत्परसः पुरोहित आपणाषटकर्मतेहनेविषं सावधानछे यजतर्पण करौस्म त्वाचिरंतनां तत्र जांतिं ते ब्राह्मणनावेटाने जाति स्मरण उपनु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं० उ०१४मा :
भाषा
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उल्टीका अ०१४
सुतरां अतिगयेन निदानादि शत्यरहितेन पाचरितं संचितं किं कृत्वा तत्र तस्मिन् ग्राम एव पुरातनी जातिं स्मृत्वा जाति स्मरण प्राप्य कीदृशस्य पुरोहितस्य स्व कर्मशीलस्य स्वकीयं ब्राह्मणस्य यजनादिकं षट विधं कर्मस्वकर्म तदेवशीलं आचारी यस्य स स्वकर्मशीलस्त स्य राज्ञः शांति पुख्यादिकार कस्य ५ ते काम भोगेसु असज्ज माणामाणस्म एमुजे आविदिब्बा मुक्खाभिकखी अभिजाय सट्टा तातं उवागम्म इमं उदाहु ६ तो हौ पुरोहित कुमारी तातं स्वजनक उपागम्य तातसमोपे आगत्य इदं अग्रे वक्ष्यमाणं वचन उदाजहतुः वाक्य ऊचतुरित्यर्थः कीदृशौ तौ कुमारौ मानुष्यकेषुकामभोगेषु असज्जमाणाइति असज्जौ अनादरौ अपितु पुनर्यादव्याः कामभोगास्तेष्वपि असज्जौ एतावतामनुष्यदेव संबंधिकामसुखेष त्यक्ती द्यमौ पुनः कीदृशौ तौ मोक्षाभिकं क्षिणी सकल कम्म चयाभिलाषिणी इत्यर्थः पुनः कीदृशौ तौ अभिजात श्रद्धौ उत्प व्रतत्वरुचौ इत्यर्थः । किं ऊच्च रित्याह प्रसासयं दहुइमंबिहार बहु अंतरायं नयदौह आउ' तम्हागिहंसिं नरई लभामी आमंतयामोचरिस्मामुमीण ७ भोतात आवां गृहेरतिं सुख न लभामहे
ते काम भोगेसु असज्जमाणामाणुस्मएKजेयाविदिव्वा । मोक्खाभिकंखी अभिजाय सद्धा तातं उवागम्म दूम उदा
हु॥६॥ असासयं दठ्ठ दूम विहार बहु अंतरायं णय दीह माउ। तम्हा गिहंसि नरडू लभामो आम तया तथा सुचरितं तपः संजमंचपाछिलाभवने विजेतपजपकोधाहताते सर्वसांभस्वा ५ तौ हौ कांमभोगेषु अरजतौ विरक्तौतेवेजणाकांमभोगर्ने विष अरंजताथका मानुष्थसंबंधोष च दिव्येषु च मनुष्यसंबंधियाभोगदेवसंबंधीभोग मोचाभिलाषिणो उत्पन्नतत्वबुद्धीमीक्षनेबांछे छे तत्वनीरुचि उपनौछ पितरं प्रतिपागम्ये दं वचन' कथोत वंती ते ब्राह्मणनाबेटापिताने पास आवौ इम कहवालागा ६ असाखतं दृष्ट्वा इदं विहारं मानुष्यं जन्मएमनुष्यनी
य धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ. १४ मा भाग
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तात् कारणात् भावांभवं तं आमंत्र यावहे त्वां पृच्छावहे आवां दो अपि मौनं चरिष्यावः मुनर्भावो मौन साधुधर्म अंगीकरिष्यावइत्यर्थः आवां रहे
रतिं नजभावहे तत् किं वा इम' विहार इमं मनुष्यत्वावस्थान अशा खतं अनित्यं दृष्ट्वा कौदृशं विहारं बहु अंतरायं बहवः अंतराया यस्मिन् स १० टीका:
बढ़तराय स्तं च पुनस्तत्र विहारैमनुथ भवे दोघे पल्योपमसागरोपमादिक नास्ति मनुष्याणां हि स्वयमेवायुहवीतरायाः संति तस्मादृहे आवयोः 8 सर्वथा प्रोति स्तोत्यर्थः ७ अहतायगोतस्थ मुणोणतेसिंतवस्मवाघायकर वयासौ इम वयं वैयविदोवयंति जहानहोई असुयाण लोगो ८ अथ पुत्राभ्यां 8 एवं उक्त सति तदाक्यानंतरं तात क त योजनकोभृगु पुरोहितस्तत्रावसरे तत्र ग्रामेवातेसिं इति तयोः तपसी व्याघातकर इदं वचन अवादौत् कथं
भूतस्तयोमुन्धोः श्रमणयोः द्र्व्यतस्तु ब्राह्मणपुत्रौ अग्रहोतवैषौ भावतस्तु धृतसंयमौतौस्तस्माद्भावमुन्योरित्यर्थः किं अवादीदित्याह है पुत्री वेदविदः वैदज्ञाः इदं वचनं वदन्ति यया ये न काररीन अनुतानां जनानां लोको गतिर्नास्ति न विद्यते सुतो येषां ते असतास्तेषां असताना अपुत्राणां यतो हि पुत्र विना धर्माज्ञा प्रदानाद्यभावात् क्षुधया म्रियमाणत्वेनात ध्यानपरायणत्वे ना गतित्व पितृणां स्यात् यदाह भगवान् अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गौ8
मोचरिस्मामिमोण ॥७॥ अह तायो तत्यमुणोणतेसिंतवस्मवाघाय करं बयासी इम' वयं वेय विदो वयंति जमारोअसास्व तो अवापोवहवो अंतरायानचदौर्घमायुर्बलंएमनुष्यने जमार अंतरायघणो आउखु थोडु तस्मात् कारणात् गृहेरतिनलभावहेतिणेका
रणि अहो तात अहे घरमांहिंरति संतोषपाम्यां न होछां अतएव आमंत्रयावः पृच्छामः चरिष्यावी मौनं मुनिव्रतं इसे कारण तुम्हने पूछांछो आदेशमा भाषा
गांछांदिस्यालेस्था प्रादेवधी ७ अथ तात: पिताः तत्र तस्मिन् समये भाव मुनि रूपयीः पिताते भाव चारित्रियानं तपसः व्याघातकरवचोप्रवादीत् तपने अंतरायनी बचन कहवालागा भी पुत्री इदं वचनं वेदविदो वदंतो है बेटायो वेदनाजाणइमकहे के यथा असताना अपुत्राणां परलोकीन भवंति
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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8 नैवच नेवच तस्मात् पुत्र मुख' दृष्टा पशाह समाचर ८ अहिज्जवेए परिविस्म विये पुत्ते परिठ्ठप्पगिहंसिजाया भोचाणभोरीसहस्थियानि 8 अरणयाहीहमणीपसस्था हे पुत्रौ युवा आरण्यको भूत्वा तदनन्तर प्रयस्तौ मुनीभूयास्तं पर किं कृत्वा पूर्व वेदान् चतुरोधीत्यपठित्वा पुनर्विप्रान
* परिवेथ ब्राह्मणान् भोजयित्वा पुनः पुत्रान् परिष्टाप्यकला सनिपुणान् कृत्वा गृहभारयोग्यान् पुत्रान् ग्रहं भलाप्य पुनः स्त्रीभिः सह भीगान् भुक्ता इति टाका भग पुरोहितन उक्त सोयग्गिणा पायगुणधणणं मोहानिलाप जणाहि एणं सन्तत्तभाव परितप्यमाणं लालप्पमाण' बहहाब' च १. पुरोहियं
* तं कमसोगुण तं निमन्तियं तं च सुएधणणं जहकर्म कामगुणसु चेव कुमार गातेपसमिक्स वर्क ११ युग्म हाभ्यां गाथाभ्यां तौ पुत्री भगु पुरोहित
खजनक आह तुः कुमारौ तं पुरोहित खजमकं वाक्यं ऊच तुरित्यध्याहारः किं कृत्वा पसमिक्ख प्रकर्षण अज्ञानाच्छादितमतिं समोच्य दृष्ट्वा इति द्वितीयगाथया संबंधः किं कुर्वतं तं पुरोहित क्रमसः अनुक्रमेणऽनुनयं तं स्वाभि प्रायेणयनैः २ तौ पुत्री प्रतिज्ञापयं तं पुनः किं कुर्वन्त धनेन सुतौ
जहाण होई असुयाण लोगो ॥८॥ अहिज्ज वेए परिविम विष्प पुत्ते परिठ्ठप्प गिहंसि जाया। भोच्चाण भोगे सह
इत्थियाहि आरमया होह मुणी पसत्था ॥६॥ सोयरिंगणा आय गुणि धणेणं मोहा निलापज्जलणा हिएण। बटायावनापरलोकन हुइ वेदनाजाणइमकहेछ पुनः भृगुराह वेदान्पठित्वावेदभणौने परिवेषभोजयित्वाविप्रान् ब्राह्मणजिमाडीने पुत्रान् स्थायित्वा गृहेजीती पुत्रधरनेविषे थापीने भुत्या भागान् स्त्रीभिः सहस्त्रौ संघाते भोगभीगवीने पारणगौमुनौप्रशस्ती भवतः पर्छ भलामुनिखरहीवे । इष्टवियोगात् शोकादि ज्ञानिना आम गुणाः रागादयः इह इंधने शोकरूप अग्नि इउ आमागुणरागादिक इंधणहुअामोहरूपवनात् अधिकप्रज्वलितेन मोहरूप
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं २०४१ मा भाग
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उ टीका
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प्रति निमन्वयं तं च पुनर्यथा क्रम कामगुग भॊगैनिमन्त्रयं तं यथा क्रमं इति यथावसरं पूर्व इत्युक्त वेदान् अधीत्य ब्राह्मणान् भोजयित्वा भोगान् भुत्ला इत्यादि अवसरं दर्शयन्त इत्यर्थः इति हितोयगाथार्थः अथ पूर्वगाथया अर्थः सोयग्गीति पुनः कीदृशं पुरोहितं शोकाग्निना सन्तप्तभावं शोक वह्निना प्रज्वलितचित्तं अतएव परितप्यमानं समन्ताद्भस्मसाज्जायमानं पुनः कीदृशं पुरोहितं बहुधाबहु प्रकारेण वेदादि वाचो युक्त्या बहुवारं २ यथा स्यात्तथा लालप्यमान मोहवशात् होन दोन वासि अतिशयेन भाषमाणं कौदृशेन शोकाग्निना आत्मगुणन्धने न आत्मनः स्वस्यशोकाग्नेरेव सहचारित्वे न तहुणकारित्वात् भोकाम्ने रेवोद्दीपकत्वात् गुणाः रागादयः आत्मगुणास्ते एव इन्धनं उद्दीपन' यस्य स आत्मगुणन्धनस्तेन पुनः कीदृशेन मोहानिल प्रज्वलनाधिकेन मोहानिलात् अज्ञान पवनात् अधिक प्रज्वलनं अस्येति मोहामिलाधिक प्रज्वलनस्तेन अज्ञान पवनाधिक जाज्वल्यमानेन प्राकृतत्वात् अधिकशब्दस्य परनिपातः ११ अथ तौ कुमारौ उत्तरं वदतः वेया अहौयानहन्ति ताण भत्तादियानिन्तितमन्तमण जायाय पुत्तानहवन्तिताणं कोना
संतत्त भावं परितप्पमाण' लालप्प माण बहुहा बहुच ॥ १०॥ पुरोहियं तं कम्मसोगुणतं णिमं तयं तंच सुए धणेणं
जहक्कम कामगुणेसु चेवकुमारगाते पसमिक्ख चक्क ॥११॥ वैया अहीयाणभवंत्तिताणं । भोत्तादियाणिंति तमंत पवन तिगेकरोने अग्निवणीदोग्योछे अनिवृत्त तेनभावोअंतः करणं संतप्तभावः परितप्यमानं दद्यमानं मनमाहितपेछे अंत: करणने विषं दाम छ निरंतर विलपमान बलधाअनेक प्रकारे मोहनों कर्मनोलोधोधकोघणो विलापटलवलाटविलाप करतीछतो करेछे १० तं पुरोहितं पितर क्रमशीअनु४ क्रमे ग नुनं तं अनुनयं तं स्वाभिमायेग प्रज्ञापयंत ते परोहित आपण अभिप्राये करोने पत्रने प्रेरैछे निमंत्रयति श्रुतौ धन कृत्वा पुरोहित
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०१४
४२८
षाभा
सूच
मते अणुमन्निज्जएयं १२ पूर्वोक्तस्य वेदान् अधौ यप्रब्रजितव्यं इत्येतस्योत्तरं भी तात वेदा अधौता स्त्राणं शरणं न भवन्ति वेदा मरणात् वेदपाठिनं न वायन्ते यदुक्त ं बेदविद्भिरेव शिल्पमध्ययनं नाम वृत्तं ब्राह्मणलचणं वृत्तस्य ं ब्राह्मण ं प्राहुर्नेतरान् वेदजीवकान् १ पुनर्भों तात द्विजाः ब्राह्मणाभुक्काः भोजिताः तमं तमे इति तमस्तमसि नरक भूमि भागे रौद्रे रौरवकादिकेनयन्ति प्रापयन्तिण इति वाक्यालंकारे तमसोपि यत्तमस्तमस्तस्मिन् तमस्तम सिते हि ब्राह्मणाभासाभोजिताः कुमार्ग पशुबधासवासेवनादौ अतस्तद्भोजनादानं नरक हेतुक' च पुनः पुत्राः जाताउत्पन्ना स्वाण' शरण' न भवन्ति किं नरकपातान्नरक्षयतौत्यर्थः उक्त ं च वेदानुगैरेव यदि पुत्राद्भवेत्स्वर्गो दानधर्मी निरर्थकः धन धान्य वयं कृत्वारिक्त' कुर्याश्रमन्दिरं १ बहु पुत्रा दुलोगोधा स्ताम्म्रचूडास्तथैव च तेषां च प्रथमं स्वर्गः पश्चाल्लोको गमिष्यति २ तदा भो तात तव तद्दचनं को नाम पुरुषोऽनुमन्येत स विवेकः पुमान् कः सम्यक् कवा जानीते इत्यर्थः इत्यनेन वेदाध्ययनं ब्राह्मणानां भोजन' पुत्राणां गृहस्थापनं एतत् त्रयस्य उत्तर दत्वा भोगान् भुक्त्वा इत्यस्योत्तरन्ददत: १२ खण मित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा पगामदुक्खा अनिकामसुक्खा संसार मोक्त स्मविपक्व भूया खाणी अणत्याण उकाम भोगा १३ हे तात काम भोगा अनर्थानां
मेणं जायाय पुत्ताणहंवंतिताणं कोणामते अणुमन्न ज्ज एयं ॥ १२ ॥ खगमित्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा पगाम दुक्खा वेटाने धने करोने निमंत्र के यथा क्रमं पुनरपौ कामगुणैः निमंत्रयति वलौ अनुक्रमे कामगुणे करौ निमंत्र के तौ कुमारी प्रसमोच्य दृष्ट्वा वाक्यं जल्पतो ते कुमार विचारीने देखोने पौतानेकहे २१ कुमारौ आहतुः अही तात वेदाः पठिताः न भवंति त्राणं रक्षकाः अही पिता वेदभण्याथका वाण रक्षक नहवे भुक्ताः द्विजाः विप्राः प्रापयंति तमसोपि तमो नरक गतिं गमयतो ब्राह्मण जोमाडयांथकां जीव नरकेजाइ जाताथपुत्राः शरणं न भवतिः पुत्रजायाथका भरण न आवे नरके पडता राखे नहीं तदा अहो तातकोमलामंत्रेण ते तव भाषितं न मन्यते अहो तात ए तुम्हारी को नमन्यते कुण
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० स०ड० १४ मा भाग
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खानि सदृशा वर्तन्त अनर्थानां ऐहिकपारलौकिक दुःखानां उत्पत्ति स्थान सदृशा भवन्तीत्यर्थः तदेवाह कीदृशा काम भीगाः क्षणमात्रसुखाः क्षणमात्र उ टोका
सेवन काले एव सुखयन्तोति क्षणमात्रसुखा पुनः कीदृशाः बहुकाल दुःखाः बहुकाल नरकादिषु दुःख येभ्यस्ते बहुकालदुक्वाः पुनः कीदृशाः प्रकाम अ०१४४
दुक्खाः प्रकाम अत्यन्त दुःख येभ्य प्रकामदुःखाः पुनः कोदृशाः अनिकामसुखाः अप्रवष्टसुखाः तुच्छसुखाः इत्यर्थः पुन: कौदृशाः संसारस्य भव भ्रमणस्य ४२८
मोक्ष: संसार मोक्षस्तस्य विपक्षभूताः शत्रु भूताः संसारभ्रमण वृद्धकारिण इत्यर्थः १३ परिव्वयं ते अनियत्तकामे अहो अरामी परितप्यमाण अप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पुत्तिमच्चु पुरिसोजरञ्च १६ एतादृशः पुरुषोमृत्यु प्राप्नोति च पुनर्जरां प्राप्रीति कीदृशः सन् परिव्रजन परिसमन्तात् विषयसुखलाभार्थ इतस्ततो भ्रमन् पुनः कोदृशोऽनिवृत्तकामः न निवृत्त: कामोऽभिलाषो यस्य सः अनिवृत्तकामः अनिवृत्ते च्छः इत्यर्थः पुनः कीदृशः अह इति अहनिराउ इति रात्रौपरितप्यमानः आर्ष वादही अराओ इति स्थिति: अहो रात्र अप्राप्तवस्तु प्राप्तिनिमित्त चिन्तामग्नचिन्ताचितयादग्धः पुनः कीदृशः अन्य प्रमत्तः अन्य खजनमातापिट पुत्रकलचाचादयः तदर्थ प्रमत्तस्तल्कार्यकरणासक्त: अन्य प्रमत्तः पुन: कौदृशः धन एष यन् विविधोपायैर्धनवान्छन् इत्यर्थः एव मेव मूढः पुमान् म्रियते खार्थ कि मपिन करोति पुनः स्थिती पूर्णीयां एकदामृत्युर्वाजरावा अवश्य प्राप्नोत्ये वेति भावः १४ इमं च मे
अणिगामसोक्खा संसारमोक्ख स्म विपक्खमयाक्खाणी अणत्याणां कामभोगा ॥१३॥ परिब्बयंत अणियत्त कामे माने १२ स्तोककाल सुखकराः अल्पसौख्या चिरकाल दुःखदायकाः थोडाकाल सुखनाकरणहार घणाकालताई' दुक्खदौए अतिथयेन दुक्खकराः प्रकट सुखरहिताः घणोकालए हथो जोवडो दुक्खभोगवे स्वल्पमात्र मुखं संसारे मोक्षस्य मुक्तिमार्गस्य विपक्षभूताः शत्रुरूपाः मीचमार्गनावयरी मोक्षजा वादिये नही अनर्थानां खानिश्च कामभोगा: एकामभोग अनर्थनीखाणिले सर्व अनर्थ एहथौ ऊपजे हे पिता १३ परिव्रजन् विषय सुखलाभार्थ काम
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं० उ०१४ मा भाग
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20
अस्थि इमच नत्थि इमं च मे किञ्च इम' अकिञ्च तं एव मेवं लालप्पमा हराहरन्तित्तिकहं पमाये १५ पुनः पूर्वोक्त मेव ढयति हराः कालास्त * मनुष्यं हरन्ति हरन्ति प्राणिनां आयुरिति हराः दिबसरजन्यादयः कालाः तं किं कुर्वन्त' एव मेव लालप्यमान व्यक्त वचन वदंतं एव मिति कि' इद' * च मे मम अस्ति इद प्रत्यक्ष धान्यादिक' मम गृहे वर्तते पुनरिदं च रजतस्वर्णा भरणादिक मे मम नास्ति च पुनरिद मम कृत्य घट ऋतु सुख
रहादिक करणौयं वर्तते इदं च मे मम अक्कत्यं वाणिज्यादि प्रकरणीयं अस्मिन् वाणिज्ये लाभो नास्ति तस्मान्नवत्य अकृत्य इत्यर्थः इति हेतो भो तात कयं प्रमादौत कब प्रमादं कुर्यात् प्रमादः कत्त कथं उचित इत्यर्थ : १५ धण पभूयं सह इत्यौ याहिं सयणातहा काम गुणायगामा तवं कएतप्प जस्म लोगो तं सञ्चसाहोणमिहेव तुज्म १६ अथ पुनः पुरोहितस्तौ लोभ यितु माह भौ पुत्रौ यस्य कृते यदर्थ लोकोजनः तपस्त प्यते तत्मव' इह
अहो यरात्री परितप्यमाणे अन्नप्पमत्त धणमेसमाणे पप्पोत्ति मचु पुरिसीजरंच ॥१४॥ इमंचमे अस्थि दूमंचणत्यि
इमंचमेकिच्च इम'अकिच्च तंएवमेवं लालप्यमाणं हराहरंतित्तिकहं पमाए ॥१५ धण पभूयंसह इत्थियाहिं सयणात सुखसक्ताः उरन परहममे फिरे अपूर्ण प्रभोलाषथको मनि हत्याकांम अहोरात्र' च परितप्पमान: रात्रिदीनने बिषे तपतुथको पात ध्यान रुद्रध्याने परितपतो अवयं प्रमत्तः प्रमादवान् धनं गवेषयन् प्रमादौथकोपरको धनगवेषतु फिर स्तोकमात्र मिले अहंकारकरतो पुरुषाः मृत्यु जरां च प्राप्नवंति पुरुष जरामृत्युपाम १४ इदं मे अस्ति इदं च मे नास्ति एम्हार वस्तुछे एम्हारे वस्तु नहोके इदं च मे कम्मकर्तव्य ए अम्हार वत्यकरवुछ इदं च मे अकृत्य एम्हारे वचनबोकर तं पुरुष एवमेव पृवैवलालप्यमान वदंते ते पुरुषने इमकहताने कालबटिका हरतौ परलोकं न यति कालनीघडीआउखानेहरे
राय धनपतसिंह बाहादर का प्रा.स २०४१ मा भाग
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टीका
४ अस्माकं गृहे तुज्म' इति युवयोः स्वाधीनं वर्तते तव कि कि इत्याह धन प्रभूतं प्रचुरं वर्तन्ते धनार्थ हि लोको बहु दुःख भुक्ते तहन प्रभूतं स्त्रीभिः अ०१४ सहितमस्ति धनादेवस्त्रिय स्वाधीना एवस्युः तथा स्वजना ज्ञातयोपि वत्तंन्ते यस्य हि कुटम्ब प्रचुर' भवति सकेनापि धर्षि तन शक्यते इत्यर्थः पुनः ४३१
प्रकामाः भूयांस प्रचुराः कामगुणाः रूप रसगन्धस्पर्थादयः इन्द्रिय विषया वर्तन्ते तस्माकिमर्थ तपस्तपनौयं १६ धणेण कि धमधुराहिगारोसयणेणवा 8 काम गुणे हिं चेव समणाभविस्मामुगुणीहधारो बहिं विहारा अभिगम्मभिक्ख १७ अथ पुत्रौ वदतः भो तात धन्मधुराधिकारदविधयति धर्म धूर्वहना धिकारे आवां श्रमणो भविष्यावः कीदृशौ श्रमणौ गुणौ घधारिणी ज्ञानदर्शनचारित्र रूप गुण समूहधारिणौ कि कृत्वा बहिर्विकार अधिगम्य द्रव्यतो बहिर्यामागरनगरादिभ्य एकान्त' आश्रित्य भावतो वहिः क्वचित् अप्रतिबद्दत्व आथित्य तस्मादावयोर्धनेन कि अथ वा स्वजनेन कि पुनः काम गुणे: इन्द्रिय सुखैः कि धनस्वजनविषयाहिन परलोक सुखायस्युरित्यर्थ : यदुक्त वेदेपि न प्रजयाधनधान्ये न त्यागनैकेनामृतत्वमानं शरित्यादि १७ अथ भृगु स्तयोई म निराकरण परलोक निराकरणाय च आत्मनोऽभावमाह जहाय अग्गी अरणौउ असन्तो खौरेषयन्तिल महातिलेसु एमवजाया सरीरं सिसत्ता संमुच्छई नासइ नावचिह्न १८ हे जाया हे पुत्रौ सत्वाजीवाः एवमेव अमुना दृष्टान्तेन शरीर असन्तः पूर्व अविद्यमानाः एवसं मर्छिते उत्पद्यन्ते पृथि
हाकामगुणापकामा। तबकए तप्पई जस्मलोगो तं सब्वसाहीणमिहवतु ॥१६ धणे णकिंधम्म धुराहिगार सयणे परलोके लेइजाय प्रमादकरौ १५ अथ पिताहधनं प्रभुतं प्रचुरं सह स्त्रौ भिः हिवे पिता कहेछे पुत्र धन घणोइछे स्त्री पिणघणौके स्वजनाः पिव्यादयः तथा कामगुणा प्रकष्टादयः भाईबंधपोतरोयादि प्रमुखघणाइछे तप क्रियानुष्टानं यस्य कृतेयदर्थ लोकः तप्यते जेहने अर्थे लोक तप जपः करके तत् सर्व खाधोनं हस्त प्राप्त इहे वज मनियुवयोः वर्तते ते सर्वसंसारना सुख तुम्हारे हस्त प्राप्तके हे पुत्रो १५ पुत्री प्राह धर्मधुराधिकार पुत्र कहेछ धर्मने अधि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०.१४मा भाग
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थप्ने जोवायाकाथानां समुदाय संयोगात् चैतन्यरूपो जीव उत्पद्यते इत्यर्थः बदरी छल्लि गुडमधूक पुष्पपानीयादि द्रव्याणां मेलापान् मदशक्तिरिव पूर्व उ. टीका अ०१४
ॐ असत् उत्पद्यते तथा भूतानां संयोगात् चेतना उत्पद्यते पुनः सजोवो न पश्यति न अवतिष्ठते शरीरनाथे तबाशः शरीरेसति पञ्चभूतमलापे सति स ४३२ भवेत् पञ्चभूतानां पृथग्भावे तस्यापि नाशएव एवमिति केन प्रकारण जौवाः पूर्व अविद्यमानाः उत्पद्यन्ते तदृष्टान्तमाह यथा एव च शब्दोत्र एवार्थे
अग्नि अरणोत्रो अरणौत: अग्निमधनकाष्ठतः पूर्व अदृश्यमाणोपि संयोगात् उपरित नारणि काष्ठेन अधोवंशार्कादि काष्ठसयोगात् अग्निः उत्पद्यते नवे काकिनि अरणिकाठे पूर्व अग्निदृष्टः एवं चौरकृतं क्षौरमपि पूर्वमुष्णौ कृत्यपश्चात् तन्मध्ये तक्र स्तोकं प्रक्षिप्य चतुर्या मस्त्यानी कृत्यपश्चान्मन्यानेन विलोद्यते तदा ततः पूर्वअसदेवतंउत्पद्यते एवं महातिलेषु उत्तमतिलेषु यन्त्रादिमधन संयोगात् तिलेभ्यस्तैलं पूर्व प्रत्यक्षंअविद्यमानमपि उत्पद्यते अरणि काष्टादधः काष्ठसंयोगाभावे चैतन्यरूपजीवाभावइत्यर्थः१८ अथएतस्य उक्तस्योत्तरन्तीाहतुः नोइन्दियगिज्म अमुत्त भावा अमुत्तभावाविय होइनिच्चो
णवा कामगुण हिंचेव समणा भविस्मामो गुणाहधारी। बहिं विहारा अभिगम्मभिक्खं ॥१७ जहाय अग्गी अरणी अ
संतोखीरेघयंतिल्ल महातिलेसु एमेवजाया सरौरंसिसत्ता संमुच्छणा सणावचिट्ठ॥१८ नोइ दियगिज्म अमुत्तभावा कार धननु कि स्यकाम खजनेन किं अथवा कामगुण किचेव पुनरेव स्वजन संघाते किसाकामभोगस्यु'छे मुकस्य निश्चेकरौने श्रमण भविष्याव: गुणोधधारिणो यतीहुस्यां गुणना समूह तेहना धरणहार ग्रामादि विहारकरणो अभिगम्य आदृत्य अंगीकृतभिक्षां ग्रामादिकने विष विहारकरस्यां भिक्षा मांगवी अंगीकारकरीने १० अथ पिता प्राह आत्म व पूर्व नास्ति इत्याह यथा अग्नि वह्निः अरणिकाष्टात् अविद्यमानीपि उत्पद्यते जिम अरणीना
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०.४१ मा भाग
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अज्न थ हे उनिय य सबन्धो संसारहेउ च वयन्ति बन्ध१८हे तात अयं प्रामा अमर्यभावात् इन्द्रियग्राह्यो नोइतिनाति शब्दरूप रसगन्धस्पर्णादीनां प्रभाव १ टीका
त्व अमतं व तस्मात् अमूर्तत्वात् इन्द्रियग्राह्यो नास्ति यो अमूत्तों भवति स इन्द्रियग्रायोपि न भवति योय इन्द्रियग्रायो भवति स अमूर्तीपि न * संभवति यथा धादिः पुनरवंजोत्रः अमर्तभावात् अपि नियोयंजोवः यद् द्रव्यत्वे सति अमृतं तबित्य यथाव्योम अथ कदाचित्कश्चिद्दयति चेदयं ४
अमूर्त: प्रात्मा तदा कयमस्य बन्धः तत्रोत्तरं वदतः अस्य जीवस्य धरोरे बन्धोनियती निश्चितः अध्यात्महतुर्वर्तते कोर्थः आमनि अधिकृत्य भवतीति ४ अध्यात्म मिथ्यात्वाविरति कषाय योगादिकं तदेवहेतुः कारणं यस्य स अध्यामहेतुः अस्य जीवस्य यः बन्धीभवति स मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिरवस्यादिति * यया अमूर्त स्थापि आकायस्य घटादौ इव घटोत्पादनकारणैर्घटे आकाशस्य बन्धोजायते तथा प्रामनः शरीर बन्ध इत्यर्थः च पुनर्बुधाः संसारस्य हेतु
अमुत्तभावाषिय होइणिच्ची अज्झत्यहेणिययमवंधो। संसारहेउ'चवयंति बंध ॥१९ जहावयं धम्ममयाणमाणापावं काटने विर्षे अग्नि उपजे वृतं समुर्छितः महा तिलेतेल उत्पद्यते दूधने विष घौ उपजे तिलने विषैतेल उपजे रे पुत्री एवमेव शरीरे सत्वाजीवाः समुच्छिते रे पुत्रो इम शरीरने विषे जोव स मुर्छाइ रह्याछ स मूचितः शरीरनाथे तबाशःस्यात् न भवतिष्टति आत शरीर माहिसं मूछि एथरीर नानासबो तेहनो नाम काटनेविषे अग्नि उपजे १८ प्रथपुत्री पाहतुः न भवंति 'द्रिये पाहाः पामा अमूर्त त्वात् ए पामा रद्रियेकरि नदीसे अमूर्त पणाथको प्रमूर्ति भावादपि स्यात् नित्यः मूर्ति नहीं के अरूपौछे इंदौअग्राह्य पर नित्यशासतीछे अध्यात्म मिथ्यादितई तु सत्कारणको नियतो निश्चतो अस्य बंधः कर्म संवैषः पामसंबंधौया पात्मनिवि रह्यो जे मिथ्या त्वादि तेहने हेते निश्चे करिकर्मनो बंधवाये तथाहि अरूपी जौबीपि रूपिकर्मादिभाजनं तथा संसारश्चतुर्गति भ्रमणरूपः तहत तत् कारणं वदंति कर्मबंधः १८ यथा वयं धर्मसम्यक्तरूपं अजानंत अम् धर्मरुपसम्यक्त
सूत्र
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं.उ०१४ मा भाग
घाभा
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उ० टौका अ०१४ ४३४
सूत्र
भाषा
स्वयय कारण बध वदन्ति वात् शरोरेग बड स्तावदयं जोवो भव भ्रमणं करोतीत्यर्थः यदुक्तं वेदतिपि कबडो भवेज्जीवः कर्मसुतोभवेत् शिव इति १८ जहावयं धग्ममयाणमाणा पावं पुराक अमका सिमोहा उरुम्भमाया परिरक्खियंता त व भुज्जीविसमाय रामो २० हे तात यथा पुरा पूर्व मोहात् तत्वस्य अन्नानात् आवामर्थे वयं पापं पापहेतुकं कर्म प्रकार्थ आवां कि कुर्व्यायो धर्म सम्यादितत्व' अजानामी पुनः कथं भूतौ अवरुध्यमानी गृहात्रिः शरणं अप्राप्यमानौ पुनरावां कथं भूतौ परिरक्ष्यमाणौ साथ दर्शनादार्यमाणौ पुरा ईदृशौ आवां अज्ञात तत्वौ पापकी परायणौ अभूव तत्पापं कर्मभूयः पुनर्देव समाचरावः न कुर्वः इयर्थः २० अम्माहवंमिलोगंनि सव्वधो परिवारिए अमोहाहिपडन्तोहिं गिहिं स नरइ लभ २१ भो तात अस्मिन् लोके जगति आवां गृहे गृहवासे रतिं न लभावहे कथं भूते लोके अमोघाभि अवश्य भेदिकाभिः शस्त्र धाराकाराभिः पतन्तौभिः श्रागच्छन्तीभिः अभ्याहते पीडिते पतन्तोभिः शस्त्र धाराभिः कदर्थिते पुनः कथं भूते लोके सर्वतः सर्वासुदिक्षु परिवारिते परिवेष्टिते वा गुरादौ पतित मृगवत् दुःखितौ
पुराकम्म मकासि मोहा। उरब्भमाणा परिरक्खियंता तल व भुजीविसमायरामो ॥२० अम्माहयंमि लोयंमि सव्वच परिवारिए अमोहाहिं पडती हिंगिहंसि नरइ लभे ॥ २१ केण अम्माहत्री लोचोकणवा परिवारियो कावाच मोहा
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अजाणता का पुरापूर्व पापक अकृतवतो मोहात् अज्ञानात् पाहिल्याभवनेविषे अम्हे पापकर्मकोधा ऽज्ज्ञानपणाथको सेवकैः रुध्यमानाः स्तथारचमाणाः सेबमेरू'धोजताथकाराखितायका तत् पापकर्म भूषोपिन सनाचरामः ते पापकर्म अम्हे वली नहीं करु' २० अभ्याह ते पौडिते कर्मभि: लोके किस्से. करोने सर्वलोक पोडके सर्वतश्च परिवारित वेष्टते सबले वोटके अवंध्य शस्त्रादिभि पतंतोभिः पतितौखानहीं लनहींए सस्त्रपडे गृहेषु रतिं
राय धनपतसिंह बाहादर का आस उ०४१ मा भाग
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स्वः २१ तदा पुरोहितोऽपृच्छत् केण अभ्भाहरी लोगो केणवा परिवारिणी कावाप्रमोहाबुत्ता जायाचिन्ता परोडु मे २१ हे पुत्री कन लोकः अभ्याइतः १. टीका वा अथवा केनायं लोकः परिवेष्टित: वा अथवा का अमोघा अवश्य भेदिका शस्त्र धारा उक्ता हे पुत्रौ अहं इति चिन्ता परो भवामि २१ तदा पुत्रौ
प्रत्येक प्रश्नानां उत्तरं वदतः मञ्जणाअभाहो लोगो जराए परिवारिओ अमोहारयणी बुक्ता एवन्ताय वियाणह २२ हे सात त्वं एवं अमुना प्रकारेण जगत् जानोहि एव मिति कथं तदाह लोकोयं सगरूपो मृत्यु ना व्याधेन अभ्याहतः पौडितः स च मृत्यु हि सर्वस्य जन्तोः पृष्टेधावति जरया वृहत्वेन परिवेष्टितः जोर्यते शरोरं अनयेति जरापलित मात्र मिह जरानोच्यते बलवीर्य पराक्रमाणां हानि रेवजरा तया सर्व जगत् परिवेष्टितमस्ति तया एव मृत्यु जगज्जन्तु घातयति न केवलारावय एव भवन्ति अथ रात्रि ग्रहणं भयोत्पादनार्थ स्त्री लिङ्ग शब्दस्य अमोघा इत्यस्योपमार्थ जयं २२ जाजा वच्च
इरयणी नसापडिनियत्तई अहम कुणमाणस्म अफलाजन्तिराईपो २३ हे तात यायारजन्यस्त सम्बबादि वसाचव्य त् कामन्ति व्रजन्ति तास्तार जन्योन ॐ प्रति निबर्तन्ते पुनर्व्याघुव्यनायान्ति अधर्म' कुर्वतः पुरुषस्य राजयो दिवसाच अफलामिरधंकाः यान्ति तस्माधर्माचरणम सफला विधया इत्यर्थ: २३
बुत्ताजाया चिंतापरोहुम ॥२२ मच्चणाअभाहयो लोपोजराए परिवारिओअमोहारयणीवुत्ताएवंताय वियाणा ॥२३ समाधि' न लभामहे धरने विर्षे अम्हे रतिसमाधिनहोपामाका २१ पिता आह कम पोडोसालोक कि एलीकाकण पोद्योछे कैनवा परिवारिती वेष्टीत
केणे बंधणे' सघलेवोट्याछ अमोघाः शस्त्रसुख्यकाप्रोक्ताकुण सफल शत्रयेणि कहो हे जाती अहं चिंतापरीभवामि है पुत्रह चिंतातुरहोउछु २२* भाषा
मृत्युना पोडितोलीकः मरणलोक पोद्याचे जरयापरिवष्टोत: जराई वीट्याछ अमीषा रजण्य: प्रीताः सफल शास्त्रनी श्रेणितरानिकही भी तात एवं जानोत दिवस जजाई ते पणिआउखु घटाव छ २२ या यागच्छति रजनी जे जे रात्र जारहे न सापडोनोवल ते ते पालेव ले नही अधर्म कुर्वतः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०१०१४मा भाग
सूत्र
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तदेव पुनरव्याहतुः जाजा वञ्च इरयो नसापडि नियत्तई धम्म तु कुण्माणस्म सफलाजन्तिराईयो २४ पूर्वाईस्यार्थस्त थैव तात धर्म कुर्वाणस्य पुरु उ टीका * षस्य रात्रयोदिवसाब सफलायान्ति धर्माचरण विनानिः फला इत्यर्थः प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययः नृजन्मनः फलं धर्माचरणं धर्माचरण हि व्रतं विना अ०१४
नस्यात् प्रतयावां व्रतं गृहोचावः नृजन्मनि रात्रि दिवसान् स फलान् करिचावइति भावः २४ सहचनाशय बोधो भृगु पुरोहितः पुत्री प्रत्याह एगी सम्बसित्ताण दुहमो समत्त सञ्जया पञ्चाजायागमिस्मामोभिक्खमाणा कुले कुले २५ हे पुत्री इयञ्चइयञ्चद्दये आवां युवाच्च सर्वेपि सम्यक्त संयुताः सन्तः एकतएकत्र रहवासे सम्यक् मुखेन उषिवाराहस्था श्रम संमेव्य पवाहवावस्थायां गमिथाम: प्रामनगरारण्यादिषु मास कल्यादि क्रमेण प्रजिष्यामः इत्यर्थः किं कुर्वाणाः कुले कुले रहे रहे अन्नातेउ'छ हत्त्या गोचर्ययाभिक्ष्यमाणाः भिक्षा ग्रहन्तीभिक्षवोभि विथाम इत्यर्थ: २५ तदा तौ पुत्रौ जनक प्रत्याह तुः जम्मस्थिमञ्च णासकटु जस्मवस्थि पसायणं जोजाणडूनमरिस्मामिसोहु को सुएसिया २६ हे तात हु इति निश्चयेन स एव पुरुषः इति
जाजावच्चडू रयणी न सापडि नियत्तई अहम्म कुणमाणस्म अफलाजंति राईपो ॥ २४ ॥ जाजाबच्चदूरयणी नसा
पडिनियत्तई। धम्मच कुणमाणस्म सफला जंतिराओ ॥२५॥ एगओ संवसित्ताणं दुहओ संमत्त संजुआ। पच्चा * जीवस्य प्रधान करता जीवने नि:फलायांतिरावयः नि:फला जायचे रात्रि २४ या या रात्रिर्गच्छति सा रात्रिः सफलं जाति सफलजाइके २५ * अब पिताआह एकत्र एहवासे स्थित्वा एकठा घरमाहे रहेछ पिता, पुत्रौ च सम्यक्तादि व्रतसहिताः पिता वेटा सम्यक्लादिवतलेईने घरे रह्या पश्चात् 8 भो जातौ गमिष्यामि पके पापणजास्था कुले २ रहे ३ भिक्षा मलभमाना परि २ भौखमांगतायका २६ यस्य नरस्य मृत्युना सहसख्यं मैत्री अस्ति
राय धनपतसिंह बाहादुर कापा.सं.स.१मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०१४ . ४३७
सूत्र
भाषा
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कांति इति प्रार्थयति सुपइति स्वः आगामिदिने प्रभाते इदं स्यात् अद्यनजातं तर्हि किं कल्पेस्यादित्यर्थः इति सचिंतयति स इति कः यस्य पुरुषस्य मृत्युनासहकालेन सह सख्य' मिन्त्रत्व' अस्ति य एवं जानाति मृत्यु र्ममसखावर्त्तते च शब्दः पुनरर्थे पुनर्यस्य पुरुषस्य मृत्योः पलायनं अस्ति यः पुरुषः एवं जानाति मृत्यु में मम किं करिष्यति यदा मृत्यु रायास्यति तदाहं प्रपलाय्य कुत्रचिदन्यत्रयास्यामि श्रहं मृत्य गोचरो न भविष्यामि पुनये एवं जानाति अहं न मरिष्यामि श्रहं चिरञ्जीवी अस्मि २६ अज्जे व धम्मं पडिवज्जयामो जहिं पवनान पुणम्भवामो प्रणामयं नेवय अस्थि किसी सहाखम विणइत्त रागं २७ भो तात अद्यैवतं धर्म वयं प्रतिपद्यामहे पार्षत्वात् किं कृत्वा राम से हं खजनादिषु प्रेमविण इत्तु इति विनीयस्फोटयित्वा को मं धर्म ने इति नो अस्माकं श्रहा चमं श्रद्धया तत्व रुच्चाचमो योग्यस्तं यतो हि साधु धर्मे वह सर्वथा निवार्य तत्वरुचिच कार्या तथा होनो हि साधु
जाया गमिलामो भिक्खमाणा कुले कुले ॥ २६ ॥ जस्मत्थि मच्चणासक्वं जमवत्थि पलायणं जोजाणवून मरियामि । सोहुकंकवे सुएसिया ॥२७॥ अज्जे वधम्म' पडिवज्जयामो नहिंपवना न पुणम्भवामी। अणागयं नेवय अत्यिकिंचि जेह पुरुषने यमस्य मोवाइहुवे यस्य अस्ति मरणात् पलायनं जेहनें मरणथीनासवानो शक्तिके यो जानाति न मरिष्यामि जेजाऐंह नही मरु स कांचति बांकति इदं कल्प करिष्यामि ते बांछे एह काले कांमकरीस २६ भो तात अद्यैवधमं प्रतिपद्याम: अहो तात अम्हे आजईजधर्म अंगीकार करस्यां यं प्रपत्राः पुनर्नभवामः जे धर्म अंगीकारकीयांथकांवली संसारमांहिनहीं भावा विषय सौख्यादिनैव अस्ति किंचित् अप्राप्त 'ए विषय सुखनौ प्रामिकां नथो जौव संसारमांहिफोरतां घणाभोगव्याके श्रद्धा अभिलाषमभ्ययुक्त नो अस्माकं अमारो श्रद्धाई रागकोडवानां २७ हे पुत्रौ प्रचोणपुत्रस्य
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टक अ०१४
४३८
सूत्र
भाषा
धर्मो निःफलः यत्तदोर्नित्याभि सम्बन्धात् तं क' धर्मं जहि इति यस्मिन् धर्मे प्रपद्याः सन्तोन पुनर्भवामः पुनः संसारन उत्पत्स्यामः यत्र भवता पुरा उक्त' भोगान् भुक्ता पश्चात् प्रत्रजिथामस्तस्योत्तरं शृणुः हे तात अनागत' अप्राप्तवस्तु विषयादि सुख किञ्चित् नचै वास्य जीवस्यास्ति सर्वेषां भावानां अनन्तशः प्राप्तत्वात् २७ इति स्व पुत्रयो रूप देश श्रुत्वा भृगुः प्रतिबुद्धः सन् ब्राम्हण प्रत्याह पहौण पुत्तस्स हु नत्थि वासो वासट्ठिभिक्खायरियाइका लो साहाहिंरुश्खोलहए समाहिं छिद्राहिं साहाहिं तमेव खाए २८ हे वाशिष्टि वशिष्ट सुनिगोत्रोत्पन्न ब्राह्मणि प्रिये प्रहीण पुत्रस्य पुत्राभ्यां त्यक्तस्यह इति निश्चयेन मम वासो गृहेवसनं नास्ति ममेति पद अध्याहार्य' हे प्रिये भिक्षाचय्यायाः अयं कालोऽयं अवसरोऽस्ति इति शेषः उक्त अर्थ अर्थान्तरन्यासेन हृदयतिः साखाभिरेव समाधि स्वास्थ' शोभां वालभते किनाभिः शाखाभिस्तमेव वृक्षं जनाः स्थां कोलं वदन्ति शाखाहीनस्य वृक्षस्य स्याणुत्व स्यात् तथा ममापि पुत्राभ्यां वियुक्तस्य गृहवासेस्थितस्य समाधिर्नास्ति इत्यर्थः २८ पञ्चाविणो व्वज हेवपक्वौभिश्च विहौणुव्वरणेनरिन्दो विवनसारोवण उब्वपोएप होण पुत्तमितहा अपि २८ च शब्दो दृष्टान्त समुचये हे प्रिये इह अस्मिन् लोके पचाभ्यां विहोनः पक्षी यादृशः स्यात् पचहीनो हि पक्षी सङ्घाखंनंने विणदूत्तुराग ॥ २८ ॥ पहीण पुत्तस्म नत्थिवासो | बासि भिक्वाय रियाइकालो साहाहिं रुक्वोलहए
नास्ति वासः पुत्र करो परिचोणड़ आने घरमांहिं रह्यो न जाइ युझ थकी हे वासिष्टगोभोगवे भिचापय्या व्रतस्य कालोवर्त्त ते हे वासिष्टगोत्रना धरणहार तुम्हारो भिचाचरोनो गोचरोनोकाल अवसरवर्त्तके धन उपार्जवानोवेलाई माखाभिवचः लभते समाधिं सुखं वचने शाखाप्रतिमाखाहोइ तो सोभे सुखपामे छित्राभिः शाखाभि वृच कोलकंजानीहि ते वृचमाखाद्यायकांखोलोयाहीये २८ पुनः पक्षवि होनो यथा पचौपांखविह' खोजिम पंखी भृत्यविहीनः संग्रामे नरेंद्रवत् सेवक्रविनाजिम राजा संग्राममाहि न सोने २८ यथावि पनसारोगत द्रव्यौ वणिक प्रवहणजिम प्रवहणभाजे द्रव्य
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०० ४१ सा भाग
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अ०१४ ४३८
आकाशमार्गोल्लङ्गनाय अशक्तः येन तेनापि हिंस्रेण पराभूयते पुनः री संग्राम भृत्यैः सेवकविहीनी नरेन्द्री तृपतिरिवरिपुभि: पराभूयते पुनर्वणिक् उल्टीका व्यापारौइव यथा प्रोते प्रवहणे भग्ने सति अध्याहारः विपनसारः विगत सर्व द्रव्यभांड: विषादं करोति इति शेषः तथा अह मपि प्रहौण पुत्रः प्रव्रजित
४ पुत्रो विषादवान् भवामोति शेषः ३८ इति पुरोहित प्ररूपित वचनं श्रुत्वा वासिष्टौ प्राह सुसभिया काम गुणाइ मेते सम्मिडिया अम्गरसप्प भूया झनापुताकामगुणे पगाम पच्छागमिस्मा पहोणमग ३ ० है स्वामिन् ते तय इमे प्रत्यक्षं दृश्यमाणाः कामगुणाः पञ्चेन्द्रियसुखदाः पदार्थाः सहस्त्र सरस मिष्टान्न पुष्य चन्दन नाटक गौतताल वेण वीणादयः सुसम्भूताः सन्ति सम्यक संस्कृताः सजोलताः सन्ति पुन: कामगुणाः सम्पिडिताः पुचीकृताः सन्ति न तु यतस्त तः पतिताः सन्ति किन्तु एकत्र राशीतता एव तिष्टन्ति पुनः कोदृशाः कामगुणाः अनारस प्रभूताः अग्राः प्रधानीरसोयेभ्यस्ते अग्रय रसाः शृंगार रसोत्पादकाइत्यर्थ: यदुक्त रतिमाल्यालङ्कारैः प्रियजन गन्धर्वकामसेवाभिः उपवन गमन विहारैः शृङ्गाररसः समुद्भवति इत्युक्ती : अग्रारसाश्वते प्रभताच अपारस प्रभूनाः प्रचराइ यर्थ: अथवाग्रारसेन शृङ्गाररसेन प्रचरास्तान् काम गुणान् प्रकामं यथेच्छ भुनीवहि पश्चाहुक्त भोग
समाहिं छिन्नाहिं साहाहिं तमेवखाण ॥२६॥ पंखा विहशोब्वजहह पक्खीभिच्च बिहीणोब्बरण नरिंदो बिवन्नसारो . वणिउब्वपोएपहीण पुत्तो मितहा अहंपि ॥३०॥ सुसंभिया कामगुणा इमेत संपिंडिया अग्ग रसप्पभूआ। भुजा
गयेथ के सोचें वापियो प्रक्षोण पुवो अमि तथा अहमपितिमई पनरहितपछे सोचें ३० अथ बामदी आह सुष्ट, संभृताः मिलिताः इमे भोगाः ते तव * ब्राह्मणों कहेछ अहो ब्राह्मणए कामभोग सर्वताहरेछे एकत्रोभूताः प्रधाना मधुररसाः एकठामौल्या प्रधानभूत स मिष्टताहरेके तत् तसात् कारणात्
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भा
भाषा
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उ टीका
:
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मुखौ भूत्वा वृहत्व प्रधान मार्ग प्रबन्यारूप मोक्षमार्ग गभियावः ३० भुत्तारसाभोर जहातिणवत्री न जीवियहापजहानि भीए लाभं चलाभ चम हञ्च दुक्ख संविक्वमाणी चरिस्मामि मीण २१ अथ भृगु ाम्हणीं प्रत्याह भोइ इति हे भवति हे ब्राम्हणिरसाः शृङ्गारादयो भोगाय भुक्ताः सन्तोनेइति * नोऽस्मान् जहतित्यजन्ति वयो यौवन अपित्यजति हे बाम्हणि भोगान् जीवितव्याध न प्रजहामि किं तु लाभं च पुनरलाभच पुनः मुखच्च पुनर्दु कव
संविक्समाणः समतयाचिमाणः समभावेन पश्यन् अहं मौनं चरिष्यामि मुनेः कर्ममौनं मुनयो हि लाभालाभे सखे दुःखे जीवित मरण तथा यत्रीमित्रे तृणेस्त्रैणे साधवः समचेतसः १ यस्मिन् साधुधर्मे रमेष जीवितव्येष निःस्पृहत्व तमुनित्व अंगीकरिष्यामि ३१ मारुतमसोयरियाण सभर जुबोब्बहंसो * पडिसत्तगामी भंजाहि भोगाइमए समाणं दुक्ल खुभिक्वायरिया विहारी ३३ अथ पुनर्वाम्हणीप्राह हे पुरोहितत्वमग्रासमं भोगान् भुवह इत्यलं
मुता कामगुणेपकामं पच्छा गमिसामोपहाण मग्गं ॥३१॥ भुत्तारसा भोदू जहाणेव' न जीवियट्ठा पहयामि
भोए । लाभं अलामंच मुहंच दुक्ख संचिक्खमाणो चरिस्मामि माणं ॥३२॥ साहू तुमसोयरियाण संभरे जुन्नोवहंसी कांमभोगान् प्रकाम' सेवामहे तिणेकारणिए कामभोग आपणभोगवौइ अतिसेवये पश्चात् गमिष्यामि आवयिष्यामः प्रधानमार्ग मुक्तिमार्ग पछे आपण आदरस्यां प्रधानमार्ग मुक्तिमार्ग मोक्षमार्ग ३१ रसाः विषयाः भुक्ताः हे भई प्रियेनोऽस्मान्वयो यौवनं रूप त्यजति हे ब्राह्मणी भोग भोगव्या हता यौवनवयजाइरहनही मानजाय छे ऽवस्था न जोविताथं त्यजामि भोगान् असयमजीवितार्थ न पर भवभोगवांछाए कामभोग पेटभराने अर्थे इह 8 8 लोकार्थे नही छोडता लाभं अलाभं पुनः सुखं दुक्ख लाभ अलाभ सुख दुःख इश्चन् पश्चन् प्राणान् चरिश्थामौ मुनिभाव भोगवतोधकोजीव परिख्या
RKHNOKRXXXXXXXKKRRRRRRE
ग्य धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ. १ मा भाग
भाषा
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मा भाग
कारणं इत्यपि हे स्वामिन् त्वौं पुन: सौदर्याणां सहोदराणां भातृणां स्वजन सम्बन्धिनां यह स्थितानां मास्मार्षीः कोर्थ: त्व मुनिभूत्वापश्चाहुःखितः सन् रहस्थान् ख बन्ध न खरिश्चसि तस्मान्मया साई' विषय सुखं भुच्चानो गृहतिष्ट इत्यर्थः खुइति निश्चयेन भिक्षाचर्या विहारी दुःख दुखहे तुरेवास्ति भिक्षाचरत्वं असहमानस्व सह वासं स्मरिथसि इति भावः त्वं क इव सोदरात् स्मरिष्यसि जौहंस इव हही हंसी यथा प्रति श्रोतोगामौ सम्म ख
जल प्रवाहन्तरन् तत्र तरणा सक्तः पश्चादनु थोतो जल तरण स्मरसि मनसिखिन्नः सन् इति जानाति मया किमर्थ सन्मुख जल प्रवाहतरणमारवं * जलवहन मार्गेण सह तरणमेव मम श्रेयः तथात्वमपिमा भूरित्यर्थ : ३३ अथ भृगु पुरोहित आह जहायभाईतणु अम्भु अङ्गोनिम्मोयणि हि चपलाइ
मुत्तो एम एजाया पयहन्ति भोए तेहिं कह नाण गमिस्ममिक्को ३४ भोई इति है भवति है बाहणि भुजङ्गः सर्प स्तनुजा शरीरादुत्पत्रां निर्मोचनी * निमीक कञ्चक हित्वा मुक्त: सन प्रयाति एवं एतौ जातौ पुत्रौ भोगान् प्रजहीतः तौ भोगत्यागिनी पुत्री प्रति अहं एकाकौसन् कथन अनुगमिष्यामि 2 पुत्राभ्यां विहीनस्य एकाकिनी मम कोशी रहवासः धन्यौ यौ पुत्रौ तरुणावेवकञ्चक इव विषय सखस्यक्ता भुजङ्गमवत् यजतः इत्यर्थ: ३४ विन्दित्त ४ पडिसोत्तगामी भुजाहि भोगाई' मए समाणं टुक्खख भिक्खायरिया विहारो ॥३३॥ जहायभोई तणुयं भुयंगो * करतु साधूनो क्रियाकरोसि सहताश्ता ३२ अथ ब्राह्मणोपाहः मा इति निषेधत्व सौंदर्यान् खजनानि स्मरसि वाह्मणी कहके रखेत दिक्षालेइने स्वजनने समरेपर पिछतावेमेकांदियालोधो यथा जोर्णाहस विपरीत जलगामौजिमजोर्स बूढी राजहंसउपराठे पाणौमाहिं पद्योधको सोचेतिमतु सोची स भुख भोगान् मयासमं मुझ सघाते भीगभोगवि दौचानौवातरहबाये दुक्वरुपोनिश्चयेन भिक्षाचर्याया विहारए भिक्षाचर्यनु वृतदोहिलछे पाथ नहो जार २३ अथ वागणार यथा हे भद्र सरीरोत्यवां भुजंगसप्पः जिमसप्प पापणारीरथी ऊपनीभोइति आमंत्रणे नोर्मोचनों
नरम धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०ड.
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उल्टीका
४४२
जाल अबल बरोइया मच्छाजहा काम गुणपहायधोरेयसौला त वसाउयाराधौराहुभिक्वायरियञ्चरन्ति ३५ हे वाम्हणि धीराः धैर्यवन्तीजनाहु निश्चयेन भिक्षा चर्या भिक्षा वृत्ति साधुधर्मचरन्ति कीदृशाः धौराः तपसा उदाराः अथ वा कीदृशीं भिक्षाचर्या तपसा उदारान्तपसा उदारां तपसा * प्रधानां प्राक्कतत्वादिभक्ति लिङ्गव्यत्ययः पुन: कौशाधीराः धौरेयशौलाः धौरेयाणां धुरन्धराणां इव शौलं उद्दोढभारोहाहनसामर्थ्य येषाती धौरेयशीला: किं कृत्वा धौराभिक्षा चर्वाञ्चरन्ति काम गुणान् प्रहाय प्रकर्षेण हित्वा के कि यथा यथा शब्द इवार्थे के किं इव रोहिताः मत्स्याः रोहितजातीयामौना: अवलं जीर्ण जालं इव यथा बालिष्टमत्स्याजौर्ण जालञ्छित्वानिर्भय स्थाने चरन्ति तथा धौराः कामगुणान् पास सदृयान् त्यक्ताभिक्षाचर्या' आद्रियन्ते अह मपि इत्य एव चरियामि इति भावः ३५ इति भृगु वचनं श्रुत्वा ब्राह्मणी आह न हेव कुञ्चासम इक्कमन्ता तयाणि जालानिदलित्त हंसा पलन्ति
निम्मोयणिं हिच्चपले मुत्ते। एमेव जाया पयहंतिभोएनोहं कहं नाणु गभिस्म मेक्को ॥३४॥ इंदित्तुजालं अबलं
वरोहिया मच्छाजहा कामगुणेपहाय धोरय सौलातवसा उदारा धौराहुभिक्खायरिअं चरंति ॥३५॥ नहेव कुचा कंचुलिका त्यागच्छति निरपेक्षः सन् जोमकांचलौछांडीने सर्पनासे एतीएव जातौ पुत्रौ भोगांस्त्यजत एताहरा पुत्रभोगछांडौने दिक्षालोइछ ततः
अहं कर्थनानुगमिश्थामौ एको हितोयः तोह वैटाने सावि किमनजाउ पूठिरहीने एकलोस्कर' ३४ जालं छित्वा अवलं दुर्बल रोहिती * ममः रोहितनामा मयपूछे करौजाल दौनांखे जालकिस्थाई निवलई यथा रोहितोमयः जाल छिनत्ति तथा कामगुणान् त्यताजिम मध्यजाल * छोडौ नामेतिमपुत्र कामभोगछोडौ नासेछे धृत्वाशीलान् आचारगुणान् तपसा उदारान् लेईने शोलनागुण तपनागुण अम्हे ईदृशाः धौराः जीवान्
राय धनपत सिंह बाहादर का आसं न ० ४१ मा आग
भाषा
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४४.
.उ. ४१ मा भाग
* पुत्ताय पईयमज्न तेहिं कहिं नाणगमिस्ममेका ३६ पुत्रौ दौ अपि पतिभृगुः पुरोहितः एवं बयोपि मद्य इति मान्दलयित्वामसम्बन्धि मह जालं १ टीका
8 भोगाभिष्वङ्ग जालन्छित्वापलन्ति परियान्ति परिसमन्तात् यान्ति संयमाध्वनि चरन्ति इत्यर्थः एतेके इव क्रौच्चाः क्रोच्च पक्षिणोहंसा: हंस पक्षिणो वाते
इव यथा क्रोञ्चपचिणो हंस पक्षिणश्च ततानि विस्तीर्णामिजालानि दलयित्वाभित्वासमक्रामन्तः नाना प्रदेशात् उन्नयन्तो नभसि परियान्ति गगने परि यान्ति स्वेच्छयाविचरन्ति अत्र हि विषय सुख जालोपमं निरुवलेपत्वात्साधुवर्मनभः कल्प उत्तमजीवाना क्रोच्च विहङ्गहं स विहङ्गमीपमानं यदा एते बयोपि मान्त्यक्ता ब्रजन्ति तदा अहं एकाकिनौतान् कथं न अनु गमिष्यामि अपि तु अनु गमिष्याम्येव ३६ पुरोहियं तं स सुयं सदार सुच्चाभिनिकसम्म पहायभोए कुटम्बसारं विउलुत्तमन्त राय अभिक्वं समुवायदेबो ३६ अथ यदा च तुर्णा प्रव्रज्यायां मनोभूत् तदा किं प्रभूत् इत्याह राजानं तं इषु कारिण देवोकमला अभीषण वारं २ समुवाच सम्यक् प्रकारेण शिष्या पूर्वकमुवाच किं कृत्वा पुरोहितं भृगु स मुत पुत्र सहितं सदार स पनौक
समइक्कमंता तयाणि जालाणि दलित्तुहंसा । पलेंति पुत्ताय पईयमझतेहं कहनाणु गमिस्ममेक्को ॥३६।। पुरोहि यंतं
ससुयं सदारं सोच्चाभिनिक्खम्मपहायभीए कुडंबसारं विउलुत्तमंतंरायं अभिक्खं समुवायदेवी ॥३७॥ वंतासी
भिक्षाचा चरंतिइ स्या धोरपुरुष भिक्ष्याचा विचरे दीच्यालेई सूझतो आहारलीइ ३५ अथ ब्राह्मणी प्रबुडा आहः यथा नभसि आकाये क्रौंचपक्षिण: भाषा
* जिम आकाशनेविर्षे क्रोचपंखो यथा तानि रचितानि जालानि दलित्वाहं सा गच्छन्ति क्रौंच पंखियाने हंसाने जालमाद्याचे ते जालतोडीने आकाश
जडोजाइ तथा परियांति गच्छति पत्री पतिश्च ममतिमए माहराबे बेटाएभरतारभोग जालछोडौनेजाइई तान् प्रति अहं एका कधनानुगमि
राय धनपतसिंह बाहादर का पा
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उ० टीका
अ० १४
४४४
सूत्र
भाषा
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भोगान् प्रहाय प्रकर्षेणत्यक्का पुनविपुल विस्तीर्ण उत्तम तं कुटम्बसारं प्रहायत्यक्का कुटम्ब स्वजन वर्ग सारं धनधान्यादिक' उभयमपित्यक्का अभिनिः क्रम्य ग्टहानिर्गत्य प्रव्रजितं इति श्रुत्वा तस्य पुरोहितस्य धनादिक' गृहन्तं राजानं राज्ञौ प्राह इत्यर्थः ३७ वन्तासी पुरिसोरायं नसेोहोरूपसंसिओ माहणेण परित्चत्तं' धण ं आयाश्रमिच्छसि ३८ राज्ञी कि उवाचेत्याह हे राजन् योवान्ताशोसपुरुषः प्रशंसनौयो न भवेत् श्लाघ्यो न भवेत् हे राजन् ब्राह्मणे न परित्यक्त ं धनं त्वं आदातु इच्छसि ब्राह्मणेन त्यक्त धनं वान्ताहार सहम गृहीत्वा त्वं श्लाघ्यो न भविष्यसीत्यर्थः वां तं वदनादुतं श्राहार अश्रातीत्य व 'शौलोवान्ताशी वान्ताहारभोक्ताइत्यर्थ ३८ सव्वं जगनइ तुहं सव्वं वा विधणं भवे सव्यं पिते अपज्जत्तदेवताणायतं तव ३८ हे राजन् यदि सर्वं' जगत्समस्तोपि भूलोकस्तव भवेत् भवायत्तः स्यात् वाथ वा सर्वमपि धन' रजतस्वर्णरत्नादिक' अपि तद् भवेत् तत्सर्वं जगत् पुनः सर्व अपि धनन्ते तव अपर्याप्तम्भवेत् तव इच्छा पूरणाय असमर्थ स्यात् यत इच्छाया अनन्तत्वात् पुनस्तत्सर्वं जगत् तत्सर्वं धनं त्राणाय मरण भया द्रक्षणायन पुरिसोरायं नसोहोद्रप संसिओ | माहणेण परिच्चत्तं धणं आयाओ मिच्छसि । ३८ | सब्बंजग जइतुहं सव्वंवाविधणं भवे । सव्व' पिते अपकात्त' नेवताणायतंतव || ३६ || मरिहिसिरायं जयातयावामणोरमे कामगुणे पहाय एक्कोहु धम्मो यामि तेसाथेह पणिजाईसिएकलोरहोने स्य करू २६ तं पुरोहितं सुतकलत्रसहितं ते पुरोहितने वेटावायडिसा श्रुत्वा गृहात् निर्गत्यभोगांस्त्यका सुणोने दौख्यालिक भोगछांडोने धनधान्यादिग्टनन्त' स्वीकुर्वतं धनधान्य अंगीकरताराजाने अभीक्षण' पुनः सम्यग् उच्यते कमलावती देवीहीवे राजाने वारंवार कमलावती देवी कहे ३७ भोराजन् वमनभोजी पुरुषः अहो राजा वम्यो आहारजे पुरुषकरे स न भवति प्रसंसनीयः ते पुरुष प्रशंस वा योग्य
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“राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०स०ड० ४९ मा भाग
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इटीका
*चन भवेत् यदि जगत् धनञ्च इच्छा पूरणाय अथ च मरणा द्रक्षणाय असमर्थ तदा कि ब्राह्मण परित्यक्त धन ग्रहणेनेत्यर्थ: ३८ मरिहिसिराय जया
तया वामपोरमे कामगुणेपहाय एको हु धम्मोनर देवताण न विज्जई अवमिहे हकिच्चि ३० हे राजन् यदा तदा यस्मिन् तस्मिन् काले मनोरमान् मनी हरान् कामगुणान् प्रहाय प्रकर्षणत्यक्तामरिथसि प्रियमाणस्य पुरुषस्य च धनादि सार्थ नभवति हे नरदेवहु इति निश्चयेन एकोधर्म एवत्रासं शरण' विद्यते इह जगति इह मृत्यौ वा जीवस्य अन्यत् किंचित् त्राण न विद्यते ४० नाहं रमे पक्विणि पंजरे वासंताण छिना
चरिस्मामि मोण' अकिंचिणा उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारम्भनि अत्त दोसा ४१ अहं इहेति अध्याहार: है राजन् अहं नरम 8 रतिं न प्राप्नोति वा शब्द इवाथै पक्षिणी पंजर इब यथा पक्षिणी पंजरेरति न प्राप्नोति अहं सन्तानच्छिन्नासती मौन मुनौना आचार चरिष्यामि करिष्यामि छिनः सन्तानः नेह सन्ततिर्यवासाचित्र सन्ताना पुन: कध' भूता सतो अह' अकिञ्चना स चित्ताचित्तद्दिविध परिग्रहरहिता पुनरह कथं भूतासती ऋजुमायारहितं तत तपो धर्म ययासा ऋजु कता पुनः कथं भूतासतौ निरामिषासतौ नि:क्रान्ता आमिषात् विषयादिपदार्थात् इति
नरदेवताएं। नविज्जई अत्तमिहह किंचि ॥४०॥ नाहं रमपंविखणि पंजरेवा संताणछिन्ना चरिस्मामिमोणं | अकि न हई ब्राह्मणेन परौत्यक्त ब्राह्मणछोद्योजडू धनं वित्त महोतुमिच्छसि जेधन तेहने लेबु वांछेछ ३८ सर्व जगत् यदितव सर्वजगत् तुझनेदौजे अथवा स्वादिक सर्वताइरेहुवे सर्वमपि तव अपर्याप्त असंपूख सर्वते अपर्याप्ततीहितीने न स्यात् रक्षणाय तत्सर्व तव धनंएधन तुझनराखौ सकेनहीं ताहरौढणापूरी न होइ ३८ हे राजन् यदा तदा कालेषु मरिष्यसि हे राजन् यदा तदाकालितु मरौश मनोरमान् कामगुणान् त्यक्ता मनोहरए कांमभोग छोडौने है नरदेव एकधम्मएव बाण शरण' है राजा एकधम्मजीवनराखणहारछे दुर्गते पडताने न विद्यते अन्यत् इहलोके किंचित् बौजी वस्तु
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं०१०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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निरामिषाविषयादयः पदार्था हि विषय जीवानां दिहेतुत्वादामिषोपमाएतस्मादहं निर्विषयासतौ पुनः कथं भूतासतौ अह' परिग्रहारम्भ निहत्तदोषा
परिग्रहश्च आरम्भश्च परिग्रहारम्भौ तौ निवृत्ती दोषौ यस्याः सा परिग्रहारम्भ निवृत्तदोषा ४१ दवग्गिणा जहारने डज्ममाणे सुज' तु म अनेसत्तापमी * यन्ति राग दोसवसङ्गया ४१ अपरं यथा अरण्ये जौवेषु दह्यमानेषु सत्स अन्ये अदग्धाः सत्वाः प्रमोदं ते हर्षिताः भवन्ति मनसि एव जानन्ति एतेज्वलन्ति तदाज्वलं तु वयं अदग्धास्तिष्टामः कथं भूतास्ते रागद्दे षयोर्वशङ्गताः रागद्देषग्रस्ताः ४१ एव मेव वयं मूढा काम भोगेसु मुच्छिया डज्म माणन बुज्मामोरागदीसगिणा जग' ४३ एवं अमुनैव दृष्ट्वान्ते न वयं मूढाः अविवेकिनः काम भोगेषु मूर्छिताः सन्तः रागहेषाग्निनाजगत् दह्यमाणं न बुध्यामहेनजानीमहे वयमिति बहुवचनात् बहवोऽस्मा दृशाजौवा इति ज्ञापनार्थ ४३ भोगे भुच्चावमित्ताय लहु भूय विहारिणी प्रामीयमाणा
चणाउज्जु कडा निरामिसापरिग्गहारंभ नियत्तदोसा ॥४१॥ दवग्गिणा जहारन्ने डभमाणे मु जंतुसु। अन्नसत्ताप
मोयंति रागदोस वसंगया ॥४२॥ एवमेव वयंमूढा कामभोगेसु मुच्छिया डझमाणं नबुझामी। रागदोसग्गिणा धर्मवीना जीवने राखणहार सरणकोनथौ ४० नाहरमेपक्षिणोइव भवपंजरे जिम पक्षिपांजरा मांहिं संतोष न पामितिमहुए भवपांजरामांहिरति महोपामुछु संतति च्छिवा स्नेहरहिता चरिष्यामि मौनहुनेहेकरौरहित मौनव्रतादरोदियाग्रहस्तावास लेईसे द्रव्यतो हिरण्यादिरहिताः कषायादि रहोताः विषयादिमुक्ताः द्रव्यरहित कषायरहित विषयरहित परिग्रहारंभदोषरहिताः परिग्रह अने आरंभदोषतिणेकरौरहितछ ४१ दवाग्निना यथारण्ये दावानल अग्नि अटवीने वौषलागोधको दह्यमानेषु अंतुषु दाझताथका जीवनेदेखौने अन्ये प्राणिनः प्रमोदयंति तुष्यति वीजाजीव अरण्य
| धनपत सिंह राहादर का प्रास.२०४१ मा भाग
सुच
भाषा
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& गच्छन्ति दियाकामकमाइव ४४ धन्धास्तेजी वा इत्यध्याहारः जे जीवा भोगान् भुत्वा पुनरुत्तरकाले वां त्वात्वत्का अर्धामाधवी भूत्वा आमोदमाना * साध्याचरणौयानुष्टानन सन्तुष्टाः सन्तोगच्छन्ति विचरन्ति वाच्छितं स्थानं व्रजन्ति ते जीवाः के इव कामक्रमादिजो वक्राम' स्वेच्छया क्रमी विचरणं 8 येषां ते काम क्रमाः स्वेच्छाचारिणः अप्रति बदविहारत्वेन यत्र २ संयमनिर्वाहस्तत्र २ यान्तीत्याशयः पुन कथ' भूतास्ते जीवाः लषु भूतविहारिणः
लर्वायुस्ततास्तदुपमाः सन्तोविहरन्तीत्येवं यौला लघु भूतविहारिणः अथ वा लघुश्चासौ भूतश्च लघु भूतो वायुस्तहत् विहरन्तीत्येवं भोला लघु भूत * विहारिणः वायुरिया प्रतिबद्ध विहारिणः ४४ इमे यबहा फन्दन्ति ममहत्थज्जमागया वयञ्च सत्ताकामेसु भविस्मामी जहाइम ४५ है पार्य इमे च * प्रत्यक्षाः शब्द रूपरसगन्धस्पर्णादयः पदार्थाः बहाः नियन्त्रिताः सुदृढी कता: ममहस्ते पुनस्त वहस्ते आगता अपि फन्दन्ति पस्थिति धर्म तया गत्वरा,
जग ॥४३॥ भोगेभोच्चावमित्ताय लहुभ्य विहारिणो । अमीयमाणा गच्छंति दियाकम कमाइव ॥४४॥ दूमेय बडा 'फंदंति ममहत्वज्जमागया वयंच सत्ताकामसु भविस्मामी जहाडूमे ॥४५॥ सामिसं कुललंदिस्म वज्झमाणं निरामिसं
राय धनपतसिंह पाहादुर का आ•सं•त. ४१मा भाग
घाभा
* नातहने देखीने खुसीथाई रागई षवशंगताः रागई पनवसि पड्याथका ४२ एवमेव वयं मूढाः इम अम्हे मूर्ख कामभोगेषु मूर्छिताः कामभोगने विर्षे मूळपाम्याई दह्यमानं न बुद्ध्यामोनवेद यामः दाझताथकानधौजाणतां रागद्देषादिना जगदिख रागडेपने वथिपद्याधा न जाना ४३ पूर्व
भोगान् भुक्ता तत वांत्वा पहला भोग भोगवेपछे छोडौने अप्रतिबद्द विहारिणीयतयः हल्याहू पाथकावायूनौपरि अप्रतिवद्धयको विहारकर प्रामीद * मानाः हर्षयुक्ताः गच्छति हर्षसहितधकाजाइ हिजाः पक्षिणः इव स्वेच्छाचारिण: जिमपंखौ आपणींइच्छाइऊ ४४ इमे प्रत्यक्षाः शब्दादयः वहाः राग
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* दृश्यन्ते सरचिता अपियान्तीत्यर्थः एतादृशेषु गत्वरेषु कामेषु अज्ञावयं शक्ताः सञ्जातालिप्ताः जाताः तस्मात् एतेषु गत्वरेषु कः मेरो स्वामिन् पावां उ टोकाx
यथा इमे पुरोहितादयः चत्वारोजातास्तथा भविष्यामः ४५ सामिसं कुललं दिस्म वझमाणं निरामिसं ामिसं सब्वमुमित्ताविहरा मिनिरामिसा ४६ अ०१४ हे राजन् अहं सर्व आमिष अभिष्वङ्ग हेतु धन धान्यादिक उन्मितात्यता निरामिषात्य क्त सङ्गासती अप्रति बदविहार तया विहरिष्यामि कि कत्वा ४४८
सामिषं आमिष सहितं कुललं यह अपर पक्षिण वा परैरिति अन्य बध्यमान पौद्यमान दृष्ट्वा सामिषः पक्षी हि आमिषाहारिपक्षिभिः पौद्यते * अथ वा सामिष सस्प हं भोजनाद्यर्थे लब्ध कुललं पक्षिण परैर्बध्यमानं पौद्यमानं दृष्ट्वा यतो हि पक्षिणी यदा गृह्यन्ते तदा तान् भच्च दर्थयित्वापाशा *दिना बध्यन्ते आमिषाहारौ शकुनिस्तु आमिषदर्शने नैव लोभयित्वामौनवत् बध्यते सह आमिषण आमिषरसास्वादलोभेन वर्तते इति सामिषस्त
सामिष ४६ गिद्धीवमे उनच्चाणं काम संसारवट्टिणे उरग्गोमुवनपासिब्ब सङ्घमाणो तणुचरे ४७ हे राजन् त्वमपि विषयेभ्यः शङ्कमानः सन् तनु * स्वल्यं यतन याचरैः इति चरस्व विषयेभ्यो भौतिः पदे २ विधेया इत्यर्थः किं कृत्वा गृहोपमान् पूर्वोक्तसामिष कुललोपमान् विषय लोलुपान् जनान् ॐ आमिसं सब्बमुज्झित्ता विहरिस्मामा निरामिसा ॥४६॥ गिद्धो बमेउ णच्चाणं कामे संसारवडणे । उरगो सुवन्न पासव्व देषरचिताः फंदंति स्थिरा न भवंतिएकामभोग भलौ परि राख्याथका थोरनहोइ मम हस्ते समागताऽपि माह राहायनेविर्षे आव्याथकाचे वयं पुनः कामभोगेषु पासताः अम्हे कांमभोगनेबिषे पासताछु भविष्यामः ईदृशाः यथा पुरोहितादयः जिमणपुरोहितादिकहवेछ तिमहोस्थां अम्हे पिण ४५ सामिषं मांसयुक्त कुलन पक्षिण दृष्ट्वा मांससहीत पंखीनेदेखीने पौद्यमान निरामिषेण जे मांसरहित पंखौछे ते मांससहीत पंखोने पौडे मांसखोसौलौह एवं आमिष धनधान्यादि सर्वत्यक्त्वा इम आमिषसरिख धनधान्य छोडौने विहरिष्यामि निरामिषाः विषयरहिताः निरामिषहुआ
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.न. ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०१४
४४८
सूत्र
भाषा
जात्वातु पुनः कामान् संसारवर्ड कान् ज्ञात्वा विषयलोलुपाः कामैः पीडिताः संसारे भ्रमन्तीति ज्ञात्वा त्वं कइवशंकमानः सन् सुपर्ण पार्श्वे गुरुड समोपे उरगइव सर्वद्रव यथा गरुडपार्श्वे सर्पाः शनैः २ शंकमानः सन् चरति यथा गरुडी न जानाति तथाऽविश्वासी सन् तनु यथा स्यात्तथा चलति तथा त्वमपि गरुडोपमानां विषयानां विश्वासं माकुर्या: अवहि विषयानां गुरुडोपमानं संयमरूप जीवितापहारकत्वात् नरस्यहि भोगलोलुपत्वात् उरगोपमानं यत उरगो भोगेव उच्चते विषयास्तु दृश्यमानास्तु, न्दरा गरुडाकाराः भोगिनांहि विषयेभ्य एव मृत्य : स्यात् तस्माद्दिषयेभ्यः शंकनीयमित्यर्थः ४७ नागोव्व बंधण कित्ता अप्पणोवसहि वए एवं पत्य' महाराय उसुयारित्तिमेसुयं ४८ हे राजन् नागइव हस्तोव बन्धनं हित्वा आत्मनो वसतिं स्वकीय स्थानं विंध्याटवींयाति तथा त्वमपि बलवत्वात् नागो विषय शृङ्खलां छित्वा आत्मनः स्थानं मुक्ति ं व्रजे धौरपुरुषाः गजतुल्याः विषयाः शृङ्खला तुल्याः मुक्तिबिंध्याटवी इव आत्म गजस्य स्थानमुक्त' हे इषुकारि महाराज मया साधुमुखात् इति पष्यं हितं श्रुतमस्ति नाह' वबुध्या ब्रवीमि इत्यर्थः ४० चद्र त्ताविउलं रज्जौं कामभोगेयदुच्चए निव्विसयानिराभिसानिनेहानि परिग्गहा ४८ सम्मं धम्मं वियाणित्ता चिचाकामगुणेवरे तवं परिज्मन्हकवायं घोरं घोर संकमाणो तणु'चरे ||४७|| नागोव्व बंधणं कित्ता अप्पणो वसहिंवए । एयं पत्यं महारायं उसुयारेत्तिमेयं ॥8८ || थका विहरस्य ४६ टोपमा ज्ञात्वा ग्टदुपंखिया सरिखा पुरुषजाणीने कामान् संसारवर्ड कान् एकामभोग संसार नावधारण हारके उरगः सर्पः गरुड़पार्श्वेभयं त्रस्त्रः सन् सर्प गरुड़ने समीपे भययको संकमांनः तनुर्भवति तथाचरे भो राजन् शंकमांन शरीर दुवे गुरुडथो विहतो चाले दुबलो ४७ यथा नागो हस्तौ बंधनंच्छित्वा जिम हाथो बंधन तोडीने श्रात्मनावसद्धिं स्थानं गच्छति आपणे स्थानकिंजाइ एतत्पथ्य भी महाराज अहो महाराज एपष्यछ भोइषुकारमे मयाइति श्रुतं भो इषुकार महाराजामे इमसांभस्यु ४८ इति श्रुत्वा राजा प्रतिबुद्धः राजा राणींद्र राज्यकांचा तथा कामभोगान्
५७
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राय धनपतसिंह बाहादुर का भा० सं०० ४१ मा भाग
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टीका अ०१४
४५०
सूत्र
भाषा
परक्कमा ५० एवंते कमसोबुद्धा सब्बेधम्म परायणा जन्ममचुभउविग्गा दुक्खस्त'त गवेसियो ५१ तिसृभिः कुलकं एव अमुना प्रकारेणते सर्वपि क्रमशोऽनु क्रमेण घडपि जीवा बुडाः प्रति बोधं प्राप्ताः किं कृत्वा विपुलं विस्तीर्ण राज्य त्यक्ता च पुनर्दुस्त्यजान् कामभोगान् त्यक्का कथं भूतास्ते सर्वे निर्विषया विषयाभिलाषरहिताः पुनः कथं भूताः निरामिषाः खजनादि सङ्गरहिताः पुनः कोटगाः निपरिग्रहा बाह्याभ्यन्तर परिग्रहरहिता: ४८ पुनस्तेजोवा: किं क्लत्वा प्रतिबोधं प्राप्ताः सधैं सम्यक् प्रकारेण धर्म साधु धर्मं विज्ञाय पुनर्वरान् दुर्लभान् प्रधानान् कामगुणान् त्यक्का कामस्य मदनस्य गुणकारित्वात् काम करत्वात् गुणाः कामगुणास्तान् कामगुणान् श्रक चन्दनवनितादीन् कामोद्दीपनौषधादीन् त्यक्का अत्र पुनः कामगुण ग्रहणं तेषां अतिशयख्याप नार्थ' पुन: कि' वा घोर अधीर पुरुषैर्दुरनुचरं यथा स्थातं तीर्थ करोद्दिष्टन्तपो द्वादशविधं प्रग्टह्य भावतोङ्गीकृत्य पुनः कथं भूताः ते सर्वे घोर पराक्रमा घोरं पराक्रम' धर्मानुष्टान विधिर्येषां ते घोर पराक्रमाः पुनः कीदृशाः ते सर्वे धर्म परायणाः धर्मध्याने तत्पराः इत्यर्थः पुनः कीदृशास्ते जन्म मृत्यु भयो
चद्वत्ता विउलं रज्जौं कामभोगेय दुच्चए । निव्विसया निरामिस्मा निन्ने हानिपरिग्गहा । ४६ ॥ सम्म धम्म ं विया णित्ता चिञ्चाकामगुणे वर तवंपगिज्म हवायं घोरं घोर परक्कमा ॥५०॥ एवंते कमसो बुद्धा सव्वेधम्म परायणा दुस्त्यजन् वलो छोडतां दोहिला इस्या कामभोग कोच्या निर्विषयाः निरामिषाविषयतृष्णारहित वौषयरहित हुवा नौख हानिः परिग्रहाः स्र हरहौत परिग्रहें रहित हूग्रा४८ सम्यक् धम्मं ज्ञात्वा साचाधर्मजांणौने त्यक्का कांमगुणान् वरान्वरप्रधान कामभोग त्यजीनेतपो गृहीत्वायथाख्यातं तीर्थ करभाषितं तोर्थ करनो भाष्योप गौकारकरोने घोरं रौद्रः घोरपराक्रमौ संतौ चक्रतुः घोरपराक्रमों करौने ५० एवं अमुना प्रकारेण ते घडपौ जीवाः क्रमेण बुडा :
राय धनपतसिंह बाहादर क
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• टोका
अ०१४. ४५१
सूव
भाषा
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द्विग्नाः जन्ममरण भोति भौताः पुनस्ते सर्वे किं कर्त्तुमिच्छ्रवः दुःखस्यान्त गवेषिणाः दुःखस्त्रान्त' मोक्षं गवेषण: मोचाभिलाषिणः इत्यर्थ: ५१ सासणे farयमोहा पुब्विं भावण भाविया अचिरेणैव कालेणं दुक्खस्तन्तमुवागया ५१ पुनस्ते षडपि जीवाः अचिरेण एवस्तोक कालेन दुःखस्य संसारस्य अन्त' अवसानं अर्थान् मोचं उपागताः मोक्ष' प्राप्ताः कीदृशास्तेविगत मोहानां वीतरागाणां शासने तीर्थं पूर्व' पूर्वस्मिन् भवे भावनया सम्यक क्रिया भ्यास रुपया दादश विधमनः परिणति रूपया भावितारंजितात्मानः ५१ अथ तेषां सर्वेषां षयां अपि जीवानां नामान्याह राया सह देवौए माहणोय पुरोहित्र माहणोदारगा चैव सब्बे ते परिनिब्बुडे तिबेमि ५३ राजा इषु कारोदेव्या पट्ट राना कमलया सह ब्राह्मणो भृगुनामा पुरोहितो राज्ञः पूज्यः पुनर्ब्राह्मण पुरोहितस्य पत्नी यथा च पुनर्दारकौ ब्राह्मण ब्राह्मण्योः पुत्रौ एते सर्वेपि परिनिर्ह ताः मोक्षं प्राप्ताः इति श्रहं ब्रवीमि इति सुधर्मास्वामीज
जन्ममञ्च,भत्र व्विग्गा दुक्खमंत गवेसिणो ॥५१॥ सासणे विगयमोहाणं पुव्वं भावण भाविया । अचिरेणेव काले दुक्खंत मुबागया ५२॥ राया सहदेवीएमाहणीय पुरोहियो । माहणौ दारगाचेव सव्वे ते परिनिष्युडेत्तिवेमि ५३ ॥ इणां प्रकारतेछद्रजौवप्रतोबोधपाम्यां सर्वेऽपि धर्मपरायणा जाता: तेसगलाइ धर्मने विषे तत्परहुआ जन्ममृत्यु भयोद्दिग्ना जन्ममरणनाभयथोउभगाई दुक्खस्या॑त॒गवेषिणो मोचाभिलाषोण दुक्खनो अंतकरवावांछ के मोचवांछ के ५१ शासने विगतमोहानां अर्हतां जिनशासननेबिषेगत मोहडाई पूर्वजन्मभावनायाभाविता पूर्वजन्मजातिस्मरण ज्ञानऊपनोतिये करौने आत्माभावितहई संवेगऊपनां स्तोकेनैवकालेन थोडाकालमांहिं दुःखस्यां तं मोच' उपागता प्राप्ताः दुक्खनो अंतकौधो मुक्त पुहता ५२ राजादेव्या सह राजा रांणो ब्राह्मणश्चः पुरोहीत वांभण पुरोहीत ब्राह्मण दारको वा
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राम धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०० ४१मा भाग
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१ मा भाग
8 बूस्वामिन प्राह ५३ इति इषु कारौयं अध्ययनं चतुर्दथं सम्पूर्ण ॥१४॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दौपिकायां उपाध्याय श्रौलक्ष्मी कौतिगणि उल्टीका शिथ लक्ष्मी कोत्ति गणि शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां इषुकारौ यस्याध्ययनस्यार्थः संपूर्ण ॥१४॥ अथ पंचदयं प्रारभ्यते ॥ चतुर्दशेऽध्ययनेनिर्मिदा अ०१५४
नस्य गुणः प्रोक्तः स च निर्निदान गुणो हि मुख्य हच्याभिचीरव भवति अतोभिक्षीर्लक्षणमाह मीणञ्चरिस्मामि समेच्च धम्मं सहिए उज्जकडे नियाणछिने सम्यवं जह ज अकामकामी अवायएसो परिब्बएजेसभिक्खू १ य एतादृशमन् परिब्रजेत् अनियतां अप्रतिबई यथा स्यात्तथा विहरेत् विहार कुर्यात् सभिक्षुरुच्यते स इति कः यः पूर्व मनसि एवं जानाति अहं मौनं मुनौना कम्ममौन साधु धर्म चरिष्यामि श्रामण्य अङ्गीकरिष्यामि कि कृत्वा धर्म
दशविध पञ्च महाव्रत दीक्षां समेत्यप्राप्य पुनर्योदीक्षां यहोवा संस्तवं पूर्वपञ्चासंस्तवं परिचयं कुटम्ब स्नेह जयात् त्यजेत् परं कौशः सन् सहिए 8 इति सहितः स्थविरैर्बहु श्रुतैः साधुभि सहितः साधुर्हि एकाकौनतिष्टेत् इक्कस्मको धम्मोइत्युक्तत्वात् अथ वा कथं भूतः सन् स्वहितः सन् स्वस्यहितं ४ यस्य स स्वहितः प्रामाहिताभिलाषौ पुनः कीदृशः उज्जुकडे ऋजु सरलत' मायारहिन्तपो येन स ऋजु कत: अभठानुष्टानकारीइत्यर्थ: पुनः कीदृशः नियाणहिने छिननिदानः निदानशल्परहित इत्यर्थः पुनः कीदृशः अकामकामः न विद्यते कामस्य कामोऽभिलाषी यस्य स अकामकामः कामाभिलाष
उमुयारिज समत्तं ॥ १४॥ माणं चरिमामि समेच्चधम्म सहिएउज्जु कडेनियाण छिन्ने । संथवं जहज्ज कामकामे * ब्राह्मणी आदौई जोव ब्राह्मणनावेटावेई सर्वे ते षडपिपरीनिई ता मोक्षप्राप्ताः सर्वेपौछइए जौवमोक्षपाम्यां ५३ इति श्रौचवदमा अध्ययननेविषेराजा ४
इषुकारनो अध्ययनटव्वार्थसंपूर्णम् ॥ १४॥ अहं मौन' सेविद्यामिमोन अंगीकार करु' इति चिंतयित्वा समिंचारित्र धर्म प्राप्यचारित्र अंगी कारकरीने अन्यः साधुभिः सहितः रिजखभाव निदाम रहितः अनेरा साधु सघात सरल स्वभावथकोनीयाण करीरहितनीयाणीनकर खजनेः सह
KXXXX*CKKKKKHEK08666086 KOKEKEN
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.
भाषा
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रहितः पुनः कीदृशः अबाएसी अज्ञातैषी यत्र कुले तस्य साधीस्तपोनियमादि गुणोन ज्ञातस्तत्र एषयते ग्रासादिक गृहीतु वाञ्छते इत्येवं शौलः छ टौका अ.१५
अन्नातैषो य एवं विधः सभिक्षुरित्युच्यते अनेन सिंहतयानिः क्रम्यसिंह तयाविहरणं भिक्षु त्वनिबन्धनं प्रोक्त साधुनां चतुर्भङ्गी यथा सिंहत्ताए निक्वमन्ति ४५३ सिंहत्ताए विहरन्ति सियालत्ताएनिक्खमन्ति सियालत्ताए विहरन्ति सिंहत्ताए निक्खमन्ति' सियालत्ताए विहरन्ति सियालत्ताए निक्खमन्ति सिंहत्ताए
विहरन्ति एवं चतुर्भगो उक्ता तत्र सर्वोत्तमासिंहतयानि कमणं सिंहतया पालन तच्च यथास्यात्तथा पुन राह १ रागो वरयं चर जलाढे विरएवेय वियायरखिए पने अभिभूयसव्वदंसी जैकद्धिविनमुच्छिए सभिक्खू१ पुनः सभिक्षु रित्युच्यते स इति कः योरागी परतं यथा स्यात्तथा रागरहितं यथा 9 स्यात्तथा चरेत् परं कोहयः सन् विरतः असंयम मार्गानि वृत्तः पुनः कीदृशः सन् वेदविदामरक्षित: वैद्यते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति वेदः सिमान्तस्तस्य वेदनं * वित् ज्ञानं वेदवित् सिद्धान्तनानं तेन आमारक्षितो दुर्गति पतनात् येन स वेदविदात्मरक्षितः पुनः कीदृशः पने प्रात: हेयो पादेय वुद्धिमान् पुनर्यः * अभि भूय परोषहान् जित्वा तिष्टतीति अध्याहारः पुनः कीदृशः सर्वदर्शी सर्व प्राणि गणं आत्मवत्पश्यतीति सर्वदर्थी पुनर्यः कस्मिंश्चिमचित्ताचित्तवस्तु * नि न मूर्छितः अलोलपः इत्यर्थः १ अक्को स बह विदित्तुधीर मुणो चरेलाठेनिच्चमायगुत्ते अविग्गमणे असम्पहिढे जेकसिणं अहियासए सभिक्व ३ पुनः
अन्नायएसी परिवए स भिक्खू ॥१ रागावरयंचर जलाटे बिरए वेय वियाय रखिए। पन्ने अभिभूय सम्बदंसी परिचयं न करीतौ कामाभिलाषरहितः सगास्य परीचय न करे कामाभौलाष रहितथको अज्ञातकुल पश्यन् अनित्यतं विहरे भाधुः अन्नात कुलने विषे विचरे अनित्यविहारिषको १ रागरहितं यथा स्यादेव विहरेत् लाढः प्रधानः रागरहितं थको विचरे क्रौयाकर विरत: संजयान्वितः आगमवेत्ता आत्मरचकः संसारथी विरक्तथयाचे सिद्धांतनाजाण पापणापात्माने भलौरौतेराखेके प्राज्ञाः प्रात्मान' पराजित्य सर्वदर्थी पंडित आमानजीते सर्ववस्तुने
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं० उ०४१ मा भाग
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ए. टोका
अ० १५ ४५४
सूत्र
भाषा
सभिक्षुरित्युच्यते स इति कः यः आक्रोशश्च बधश्च अनयोः स माहारः आक्रोशबध' वाक, तर्जनताडनं विदित्ता स कम फलं ज्ञात्वा धीरस्तदा क्रोयवधा दि सह न मौलो मुनि वाग्गुप्ति युक्तः सन् चरेत् साधु वर्त्म निविहरेत् पुनः कीदृशः सन् लाढः साध्वनुष्टानेतत्परः पुनः कीदृशः नित्यं श्रामागुप्तः गुप्तः असंयमस्थानेभ्योरक्षित आत्मायेनस गुप्तात्मा प्राकृतत्वा द्विपर्ययः पुनः कोट्टशः अव्यग्रमनाः अनाकुलचित्तः पुनः कीदृशः असं प्रहृष्टः आक्रोशादिषु न प्रहर्षवान् कचित्कदाचित् कस्म चित् दुर्वचनैनिर्भत्सयति तदा हर्षितो न भवतीत्यर्थः पुनर्यः कृतस्त्र' समस्तं आक्रोशबध' अध्यास्ते सहते सम वृत्तिर्भवति स साधुरित्यर्थः ३ पं तं सयणासण' भइत्तासी उन्हं विविहं चदं समसगं अब्वग्गमणे असं पहि जेकसिणं अहियासएसभिक्वू ४ पुनर्यः प्रान्त' असारं अप्रधानं सयनं आसनं उपलचणत्वात् भोजनाशादिनादिक' भजित्वा सेवयित्वा पुनः शीतोष्णञ्च पुनर्विविधन्द' समथक' रुधिरपानकरं जन्तु गण सकलं प्राप्य अव्यग्रमनाभवेत् स्थिरचित्तोभवेत् पुनर्यः सम्यक शयना सनभोजनाच्छादनलाभात् शौताद्युप द्रव रहितस्थानलाभात् तथादंशमशकादिरहित स्थानलाभात् असंप्रहृष्टो भवति हर्षितो भवति सम दुःख सुखो भवति एतादृशः सन् एतत् सर्वं अध्यास्तेसभिन्क्षुरित्य ुचते ४ नो सक्कियमिच्छईन पूर्य नोवियवं दणगंकश्रपसंसंसेसञ्जए सुब्ध एतवस्सीसहिए आयगवेसएसभिक्खू ५ सभिक्षुर्भवेत् स इति कः यः सत्कृतं सत्कारं श्रात्मनः सन्म ुख' जनानां जेकम्हि विनमुच्छिए स भिक्खू २ ॥ अक्कोसवहंविदित्तुधीरे मुगोचरे लाटे निञ्चमाय गुत अवग्गमये असं पहि
जाणे जौवा जोबादिवस्तुनिमूर्च्छानकरोति साधुः सचित्त अचित्त वस्तुउपरि मूर्च्छानकरते साधुकहीइ २ चाक्राशवधं कर्मफल' प्रतिवधं ज्ञात्वा श्राक्रोशे निर्भसे मारे कोइ तो न करे क्रोध कर्मबंधन हेतुके इमजाणौ धौर क्रोधकांडे स मुनिः चरेत् प्रधानोनित्य असंयमस्थानेभ्यः गुप्तः मुनी विचरे बोहार करे प्रधानथकोजे असंयमनास्थानकतेहथको गुप्त अलगाके उद्विग्नमनाः संसारचिंतारहिताः मन आपणोठामिराखे संसारनी चिंता मांहि पच्यो नही
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०• ४१ मा भाग
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स टीका प.१५ ४५५
आगमनं अभ्युत्थानादिकं विहारं कुर्वतोऽनुगमनेन संप्रेषणं इत्यादिकं नोइच्छति पुनर्यः पूजां वस्त्रपाबाहारादि भिरची न इच्छति अपि च पुनवेन्द BF नक बादशावर्त पूर्वक नमनं तदपि नवांति कुतश्चित्पुरुषात् प्रशंसा अपिनो इच्छति स स यतः सम्यक् यतने साध्वनुष्ठाने यत्न कुरुते इति सयतः पुनः कोदृशः सुव्रत शोभन व्रतधारकः पुनर्यः सहितः सर्वजोवेषु हिताचे षो अथवा ज्ञानदर्शनाभ्यां सहितः पुनर्यः आत्मानं कर्ममलापहारण शुद्ध गवेषयतोति आमगवेषकः पुनर्यः तपस्वी ५ जे पुरजहाइ जीवियं मोहं बाकसिनि अच्छई नरनारिंपजहेस यातवस्मौ नयको सहसं उवैई स भिक्खू । यः पुनस्त' हेतु जहातितं कं येन हेतुना येन कृतेन जोवितं संयम जीवितव्य जहाति पुनर्येन कृत्वा मोहं वा मोहनौयं कर्मकषायनो कषाय रूपं
जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥३॥ पंतं सयणासणं मइत्तासी उन्हं विबिहंच दंसमसग अबग्ममखे असंपहिढे जेकसिणं अहियासए स भिक्खू ॥४॥नोसक्किय मिच्छईन पूर्य नोविय बंदमाग कोपसंस। ससंजए सुव्वए तवसी
रायधनपतसिंह बाहादुर का पासं. १ मा भा
अहंकार न करे यःजसनं पूर्व पाक्रोशवधादिसहेत् साधुः जैसपनो आक्रोश वचनताडनादि सर्वसह ते साधु कहिर' ३ प्रात सर्वथा अधर्मशय नाशन * सेवित्वापार भूडासघरानहींइस्याययन आसनसेवेलिइ भौतीण विविध समसगंसहेत: शीतोष्णडांसमसाखटमल श्रावौलागांथकांसह पनाकुल * चित्तः प्रसंग्रहर्षः अनाकुल चितथकोरहित क्रोधे हर्षने दुक्ख न करे यः कृत्न' समस्त सहते सभिक्षुः जे सघलु सहेतेसाधूकहौजे ४ नो सका
रमिच्छतिनपूजा सत्कारपणिवांछ नहीं पूजापणिवांछ नहीं नापिवंदणगं कुर्वतः प्रसंसावांछति वंदनाकरता रहस्थाने प्रसंसान वांछे स संयतः सुव्रतः तपस्वी ते संयत मुबत तपस्वौकहीई' संयमसहितः पामागबेषकः स भितः सयमसहित आमानोगवेषकते साधकहोई'५ येन हेतुना पर्यत जीवं
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उ टीका
कत्न संपूर्ण नियच्छति बनाति तादृशं नरं नारौं स्त्रों सदा सर्वदा प्रजयात् कोर्थः येन पुरुषख्यादिना कृत्वा सयमं याति येन त्वा मोह कर्मों *दयः स्यात् तं प्रति यस्य जन्मभिक्षु रित्यर्थः पुनर्यस्तपस्वी तपोनिरतः पुनर्यः कौतूहलंख्यादि विषयं अथवा नारकेंद्रजालानि कौतुहलं न चोपसेव्य त स भिक्षु रित्यु यते ६ छिन्नं सरं भोमम तलिक्ख सुविणं लक्षण दंडवस्थु विज्ज अंगवियारं सरस्मविजयं जोविजाहिं न जौवई स भिक्व ७ पुनः स भिक्षु रित्युच्यते सः कः यः इत्यादिभिर्विद्याभिन जीवति आजीविका न करोति ताः काः विद्याः विद्यते इति छिन्न वस्त्रादिनां मूषकादिना दशनं अग्न्यादि प्रज्वलनं कजल कर्दमादिना लिंपनं स्पटनं इत्यादि शुभाशुभविचार सूचिका विद्या छिन्न मित्युच्यते यदाहि वस्त्रे नूतने किञ्चिहिकार सति विचारः
क्रियते यदुत रत्नमालायां निवसन्त्यमराहि वस्त्रकोणे मनुजाः पार्श्वदशांत मध्ययोश्च अपरपि च रक्षसां त्रयोंथाः शयनेचा शनपादुकासु चैवं १ कज्जल * कर्दम गोमयलिप्त वाससि दग्धवति स्तुरित वा चिन्त्यमिदं नवधा विहितेस्मिनिष्ट मनिष्ट फलञ्च सुधौभिः २ भोगप्राप्तिर्देवतांश नरांचे पुत्राप्तिः स्याद्रा क्षसांये च मृत्यु : प्रांते सर्वाशेप्यनिष्ट फलं स्यात् प्रोक्त वस्त्रे नूतने साध्वसाधुः इत्यादि विद्यया जीविकां न कुर्यात् स साधुः पुनर्यः सरं इति स्वरविद्यां
सहिए आय गवेसए स भिक्खू ५॥ जेण पुणो जहाडू जीवियं मोहंवाकसिणं नियच्छई। नरनारिंपजह सया तव
स्मौनय कोहलं उवेदू स भिक्खू ६॥ छिन्नं सरंभोम मंतलिक्ख सुविण लक्षण दंडवत्यु विज्जं । अंगवियारं सरस्म त्यजति संयमजीवितेन जे वातकरी संयमजीवित व्यछुटे ते वात न करै छोडीने कषायादिरूप मोहनौयं संपूर्ण नेच्छती मोहनौयकर्मसर्वथा न वांछे सर्वथा न करे नरनारीसंगंप्रजहाती स तपस्वी पुरुष नारिनो संगछांडे ते तपस्वी कहीये छोडे सदा न च कुतूहल करोति स भितू कुतूहल तमासा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०१.४१ मा भाग
भाषा
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टीका
प्रयुक्त स्वरंहि षड्ज ऋषभगांधार मध्यमः पञ्चमस्तथा धैवतो निषधः सप्ततंचौ कण्ठोद्भवाः स्वराः षडजरौति मयूरो पञ्चमरागण जल्पते पर भत् इत्यादि विद्या इत्यादि सङ्गीतशास्त्र पुनभौंमं भूमौ भवभौम भूकम्पादि ऋतु विना वृक्षादिफलनं इत्यादि लक्षणं इत्यादि विद्या पुनरांतरिक्ष अन्तरिक्षे आकाशे
भवं आन्तरिच उल्कापात धूमकेतु प्रमुखाणं उदय विचार विद्या स्वप्न स्वप्रमतं शुभाशभलक्षणं स्वप्रविद्या लक्षणं स्त्रीपुरुषाण सामुद्रक शास्त्रोक्त तुरग 8 गजादौनां शालिहोत्र गजपरीक्षादिशास्त्रोक्त दण्डं दण्डविद्या वंशदण्डादि पर्वसंख्याफलकथनं वास्तुविद्या प्रासादानां गृहाणां विचारकथनं वास्तु * शास्त्रोक्त' अङ्गविद्या शरीर स्पर्शनस्य नेत्रादीनां स्फु रणस्य वा विचारोग बिचार शास्त्र पुनः स्वरस्य विजयः दुर्गा शृगाली वायसतित्तरादौमा स्वरस्य विजयस्तस्य स्वरस्य शभाशभ निरूपणाभ्यासः य एताभिविद्याभिराजीविकां न करोति सभिक्षुरित्यर्थः ७ मन्त मूलं विविहं विजचिन्त वमण विरेयस धूमनत्तसिणाणं आउर सरणन्ति गच्छियञ्च तं परिबाय परिब्बए समिक्ल ८ पुनः सभिक्षुरित्युच्यते स इति कः य एतत् सर्व परिज्ञाय परिसमन्तात् जात्वा परिज्ञाय परिव्रजेत् साधु मार्गे चरेत् जाणियबानोसमायरितव्वा इत्युक्त : एतत् कि कि' मन्त्र' प्रों ह्रीं प्रभृतिक स्वाहान्त देवाराधनं मूल' मूलि काराज हिंसोशंष पुष्याशरपुंखादि गुण सूचक' यास्त्र पुनर्विविधं नाना प्रकारं वैद्यचिन्तावैद्यकशास्त्रस्य औषधचिकित्सालक्षणस्य चिन्तन'वर्जयेद्दिदल'
बिजयंजो विज्जाहिं न जीवई स भिक्ख ॥ ७ मंतं मलं विविहं बिज्जचिंतं बमण विरेयण धूभनेत्त सिणाणं आउरे नकरतेसाधू कहोजेहनखवस्त्र दंतादौनांछेदनंपडजातिरागं वस्वादिछेदवानालक्षण भूमिकंपहोइतारातुटे उल्कापातहवेअाकाशनौवातकहे खप्रलक्षण दंड लक्षण वास्तुविद्याप्रासादलक्षणंसु पनविचारवत्रिसलक्षणपुरुषानां वास्तुकविद्याधरप्रसाददेहरातहनालक्षणपसुलक्षणघरलक्षणअंगस्फुरण सगालादिशब्दस्य अभ्यास चंगफरकवानोविचारशियासनावचनसब्दनीविचारयःएताभिः विद्याभिःनजीवति सभितुःजेकोइएतलौविद्याकरीआजीविकानकर ते सधुकहीजे
५८
राय धनपतसिंह बाहादुर का था.सं.१.४१मा भाग
भाषा
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१५
१ मा भाग
• टीका : सूलो कुष्टोमांसों ज्वरोष्ठतं इत्यादि पुनर्वमनं वमनादिकरणीपायं अथ वा वमन फलं ज्वरादौवमन' श्रेष्टं तथा विरेचन विरेच गुण कवन तदोषध
प्रयोगचिन्तनं धूमो मन: शिलादि सम्बन्धी भूत वासनादिकः नेत्र शब्देन नेत्र संस्कारक गुटौ चूर्णादिक मान अपत्यार्थ मन्त्रौषधौभिः संस्कृतजलै मूलादि वान' अथ वा रोगमुक्त सान वा पुनः पातुरे इति आतुरस्य रोगादि पीड़ितस्य हा मात: इत्यादि स्मरणं आमनश्चिकिमित रोग प्रतीकार चिन्तन' परित्यजेत् एतत्सर्वं परिजाय आमनः परस्य वा उभ यथा परिब्रजेत् साधु मार्ग यायादित्यर्थः ८ खत्तियगण उग्राय पुत्तामाहणभोइय विविहायसिप्पिणो नो ते सिंवय इसि लोग पूइयं तं परिबाय परिवए सभिक्खू ८ सभिक्षुरित्युच्यते स इति कः यस्तेषां गाथा पूर्वोक्तानां श्लोकः कीर्ति यथा एते भव्या पूजाइति एते पूजा योग्याः एतेषां पूजा कर्तव्याः एतेषां कौतिकरण एतेषां पूजाया उपदेशे च न कचिल्लाभः स्थात् साधुना एतेषां
कीर्ति पूजन कर्त्तव्ये इत्यर्थः एतेके के येत्रियाः राजानः तथा गणाः मल्लादीनां समूहाः पुनरुग्राः कोपालाराज पुत्राः राजकुमाराः ब्राह्मणाः प्रसिधा * भोगिनो भोग वंगोद्भवाः अय वा भोगिनाविषयभोक्तारः च पुनर्वि विधानाना प्रकाराः थिल्पिनयित्रकर सूत्रधार स्वर्णकारलोहकारादयो ये वर्तन्ते
सरणंतिगिच्छियंच । तं परिन्नाय परिवए स भिक्ख ॥८ खत्तिय गणउग्गरायपुत्तमाहग भोड्य विविहाय सिप्पिणो भाषा
* मंत्रमूलिका विविध वैद्यचिंता मंत्रहरिणे गमेषि प्रमुख मूलं जडो बूटौ भांतीनौवेद्यपणानौ चिताकरे औषधकाढाप्रमुखवमनविरेचनधूम्रप्रयोग' मान
औषधदेईनेवमनकरावे वीरेचादौए गुदाइधूप्रादेई रोगमुक्तिने अर्थे मानकरावे आतुरे रोगादौमारपौवादिस्मरणात्मन:चिगिच्छारोग आव्या एका मावापस भारे एतला पोताने रोग आयाथकां न करे अने वीजाने पणिपोषधनकर एतानि परित्यक्षा परिव्रजेत्सभिक्षुः एतला वांनाछांडे न करते साधुक होड ८ क्षत्रियादि समूहं उग्र राजपुत्राः चवियना समूह कोटवाल राजपुत्राः राजानना बेटा ब्राह्मणभोगिनिश्चय वाखाण तृपामात्यादयः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.
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ह टीका
४५८*
तान् परिज्ञाय उभ वथा ज्ञात्वा साधुः साधुमार्गे परिव्रजेत् ८ गिहिणोजे पवइएण दिवा अपव्वइएणवसंधुया हविज्जा तेसिं इहलोइय फलट्ठा जोसंथवं नकरेइ सभिक्व १. यस्तैः गृहस्थ: सह लोक फलार्थ संस्तवं परिचयं न करोति प्राकृतत्वात् तेसिं इति हतीयास्थान षष्टी ते एहस्यैः कैः ये गृहस्थाः परिवजित नगृहीत दौरेण दृष्टाःचशब्दः पुनरर्थे पुनरप्रबजितेन अग्रहीतदौक्षेण गृहस्था श्रमस्थितेन संस्तुताः कृत परिचयाः तैः सह पालाप संलापं इह लोक स्वार्थायन कुर्यात् स साधुरित्यर्थः १. जङ्गिचि आहारपाणग विविहं खाइ मसाइम परसिला जोतन्तिविहेणनाण कम्पो मणवयण कायसुसम्बु डे सभिक्स ११ सभिक्षुर्नभवति सकः यः परसि इति परेभ्यः गृहस्थेभ्यः आहारं अन्नादिक' पानक दुग्धादिक' पुनर्विविध नाना प्रकार खादिनं खजुरादिक ल धात' इति तेन अगनपान खादिमखादिमादिना चतुर्विधन त्रिविधेन मनोवाकाय योगेन न अनुकम्पते ग्लानबालादौन्
नोतेसिं वय सिलोग पूर्य तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥॥ गिहिणोजे पव्वडूएण दिट्ठा अपव्वदू एणव संथुया
हवेज्जा तेसिंहलोइय फलट्ठा जो संथवं न कर स भिक्ख १०॥ सयणा सणपाण भोयणं विबिहं खाइमसामं वीज्ञानोपजीविनः ब्राह्मण राजामहेता पाददेईने प्रधानादिक नोव क्षत्रियादीनां वदति एतेभव्याः ते क्षत्रियादिकनि प्रशंसा न करे एभलापूजनौकछे * एसबवानांजाणोनेछाडें करे नही ते भोक्षुसाधूकही ये एहस्थाः प्रबजितेन दृष्ट्वाः जे केईगृहस्थयतीई दिख्यालेईने दौठाहे परौचयइओछे एहस्था वस्थायांसपरिचोताभवतो अथवा गृहस्थावस्थानापरा परोचौतछे तेषां इहलोक फलार्थ तेहस्यु इहलोकनऽर्थे यः सस्तवं परिचयं न कुर्यात् स भिक्षुः जे परिचयनकरे ते साधू १. शयनाथनपानभोजनांपाटौ बाजोठपाटीया आहारपाणीः विविधं खादिमखादौमं परेभ्यः नानाप्रकारना खादि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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० टोका
ज०१५ 84°
सूत्र
भाषा
न उप कुरुते कोर्थ ः यः अथनपानखादिमखादिमाहार' लब्धा बालगृहानां साधूनां तेनाहारेण सम्बिभाग न करोति स साधुर्नभवतीत्यथ: भागौनडु तस्ममोक्षं इत्युक्तः पुनः साधुः कीदृग, भवति मनो वाक्काय योगेन सुतरां संष्ठतः पिहिता श्रवदारः ११ सयणा सणपाणभोयण' विविह' खाइ मसाइमं परेसिं अदए पड़िसेहि एनियंठे जेतत्थनपउस्सई सभिक्व १३ पुनर्यः शयनासनपान भोजन' पुनर्विविध' खादिमखादिम' परेण गृहस्थेन अदत्ते अथ वा गृहे साध्यौ प्रतिषिद्ध े सति तस्मिन् गृहस्थे प्रद्देष ं न करोति न प्रद्वेषि कोर्थः यदा कखित्साधुः कस्यचित्र हस्यस्य गृहेगतस्तस्य च गृह स्थस्य ग्टहे प्रभूतं शयन ं शय्याञ्च मनं मोदकादिक पानं खर्जूरद्राचादि पानौयं शर्करादि जलं प्राशक तण्डुल प्रचालन जलं वा भोजनं तण्डुलदा ल्यादि पुनर्विविध नाना प्रकार' खादिम' खर्जूरनालकेरगरिमादिक' स्वादिम' लवङ्गएलाजातो फलतजादिक ं वर्त्तन्ते परं स गृहस्य : साधवेन प्रद दाति अथ पुनर्निवारयति रेभितो अत्रनागन्तव्यं इति तद्वाक्यं श्रुत्वा इति न जानातिधिग्एन' गृहस्थं दुष्ट यः प्रभूते वस्तुनिसतिमयं न ददाति परेसिं अदए पडिसेहिए नियंटे जेतत्थनपत्र सई स भिक्ख ॥ ११॥ जं किंचि आहारपाणं बिविहंखाइ मसाइमं परें सिं लडु' जोतंतिविहेणनाणुं कंपेमण वयकाय मुसंवडेस भिक्खू ॥ १२ ॥ मस्वादिम गृहस्थन यांनौपनांछे आदेभ्यः प्रतिषिठो निग्रंथः यतौजाई ऊभारह्या गृहस्थबोल्याजा परहो तुझने नहौद्यां निग्रंथ यः तत्र मप्रख्ये त् सभिक्षुः इमसांभलीयतो रौसनकरे कोपनकरे गृहस्थ उपरे ११ यत्किंचित् आहारपाणंच जेकेई आहारपानीं विविध' खादिमस्वादिमंलब्धाग्टहस्येभ्यः नानाभांतिनाखादिम गृहस्थनावरथकीयतौर लोधाके लब्धा गृहस्थेनः यः तेन प्राकारेण विविधेन नानुकंपेत् न निंदयेत् मनोवाक्कायेससंवृतः सः
आयामग' चैव जवोदगंच सौयंसो वीरंच
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राय धनपतसिंह बाहादर का श्र० स०० ४१ मा भाग
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स टीका अ.१५
४६१
अथ च मां निवारयति इति हेष न विधत्तै स साधुभिक्षुरित्युच्यते १३ आयामगञ्चेव जवोदणश्च सौयं च सोवौरंचजवीदगश्च नी हौलएपिंडनौर * सन्तुपन्त कुलाई परिवए सभिक्व १४ यः प्रान्तानि कुलानि परिव्रजेत् प्रान्तानि दुर्बलानि चित्तवित्ताभ्यां दुर्बलानि एतादृशानि कुलानि आहा रार्थ परिव्रजेत् सर्वदाधनिना एव कुलेषु यो न याति सर्वदादानगोंडानामेव कुलेषु न याति ततो हि नियतपि' डसेवनात् साधीधर्मशानिः स्यात् त पुनर्यः आयामक धान्यस्य अव श्रावणञ्च पुनर्यवोदन यव भक्त पुनः शीतं चिरकालौन' पुनः सौवीरं कालिक पुनर्यवोदकं यव प्रक्षालनजलं इत्यादिक पुनर्यवीरसम्पिडं सर्वधारस्वर्जित' एतादृश आहार पानीयं गृहस्थानां गृहाल्लब्ध यो नहीलयेत् न निन्द त् कदवमिद' कुत्सितपानीय मैतत् इत्यादि वचन' न ब्रूते स साधुभिक्षुरित्यु च्यते १४ सद्दाविविहाभवन्ति लोए दिवामाणुस्मया तहातिरिच्छाभीमाभयभेरवाउरालाजे सुच्चान विहिज्जई सभिक्व १५ य एतादृशान् शब्दान् श्रुत्वा न विहिज्जई न व्यथते धर्मध्यानान चलते सभिक्षुरुच्यते एतादृशान् कीदृशान् ये शब्दा लोके दिव्याः दिविभवादिव्याः देवैर्भयाय कताः पुनर्ये शब्दाः मानुष्थकाः मनुष्य कृताः मानुष्यकाः तथा ये शब्दाइति तिरथीनीस्तेरशास्तिर्यग्भ्यो भवास्तिरश्चीनाः
जवोदग'च नोहीलए पिडं नीरसंत पंतं कुलाई परिब्बए स भिक्ख ॥१३॥ सदा विविहाभवंतिलोए दिव्वामाणुस्माय भिक्षुः भली भुडो आहारपाम्याथके मनवचनकायाई करौने निंदे नहीं ते साधुकहौजे १२ उष्ण पय अवयमणं निश्चयेन उसामणि निश्चयपणि यव धान्धोदनं वा जवा मनु' श्रोदनकहीये आहार शीतलं भक्त काजिकंच नहीलयेत् पिंडनौरसा ननु' उसामणजयनु' धोषणसीतलपाणी कांजीनु' पांणीनौरसलाधुही ले नही निंदे नहीं दरिद्र गृहाणि परिव्रजेत् स भिन्नुः निरसघरने विषेगीचरीकर ते साधु कहीर १३ शब्दा विविधाः भवंति लोके शब्दलोकने विषभांतरनाछेदेवकताःमनुष्यक्तताः तथातिर्यगकता देवता संबंधिया मनुष्य संबंधिया तियंच संबंधिया रोद्रा प्रत्य'तभयकराः उदाराः रौद्र
रायधनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
षाभा
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उ० टोका
श्र० १५
४६२
सूव
भाषा
*30000
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भवन्ति तान् श्रखानचोभं प्राप्नोति कोदृशाः शब्दाः भय भैरवाः भयेन भैरवाः भय भैरवाः श्रत्यन्तसाध्वसोत्पादकाः पुनः कोदृशाः उदारा: महातो भवन्ति १५ वायं विविहंसमेचलोए सहिए खेयाणु गए यकोवियप्पापत्र अभिभूय सब्बदंसौ उवसन्ते अविहेडएसभिक्खु १६ यः पुनर्लोके विविध वाद' समेत्य अविहेठको भवेत् कस्य चित्रोधको न भवेत् कस्य चित्पक्षपातं न कुर्यात् लोके हि बहनिदर्शनानिसन्ति ते परस्परं वादं कुर्वन्ति श्रन्योन्य' मतं दूषयन्ति भुंडाजटाधारिभिर्नग्ना वस्त्र धारिभिर्भ्य हस्थावनवासिभिः इत्यादि स्वस्व मताभिशय वचन रूपं वादं कृत्वा कस्यापि बाधां न कुर्यात् इत्यर्थः कीदृशोयः सहितः ज्ञान दर्शनचारित्र सहितः पुनः कीदृशः खेदानुगतः खेदयतिमन्दीकरोति कर्म अनेनेति खेदः संयमस्तेन अनुगतः खेदानुगतः सप्तदशविध संयमरतः पुनः कीदृशः कोविदामा कोविदोलब्ध शास्त्र परमार्थ आत्मायस्येति कोविदामा पुनः कीदृशः प्राज्ञः प्रकर्षेण अन्य भ्यः अधिकान जानातीति प्राज्ञः सारबुद्धिमान् पुनः कौमः अभि भूय सर्वदमी अभि भूय परीषहान् जित्वा रागदेषौ निवार्य सर्वजन्तुगणं श्रमसदृशं पश्यतीत्य व तहातिरिच्छा। भौमाभयभेरवा उरालाजे सोच्चा न विहिज्जइसभिक्ख ॥ १४॥ बायं विविहं समेञ्चलोएसहिएखेयाणु गए कावियप्पा । पन्न अ भिभूय सव्वदंसौ उवसंतेअ विहेडए स भिक्खू ॥ १५॥ असिप्पजीवीच गिहे मित्ते जि वोहामणा भयनाकरणहार उदार प्रर्धा न यस्तान् श्रुत्वा न विभेति स भिक्षुः जतौयानें सांभलौने धरमध्यां नथौ न चले न बौह ते साधु कहोजे १४ वादं विविधं समेत्य ज्ञात्वा वादव्याकरणना तर्कना बादमत घणा लोकने विषे भांति भांतिनाछे गुणैः सहितः संयमवार्ताविचचणः आत्मा सर्वागमवेत्ता गुबेकरिसहित संयमनो पालणहार सर्वशास्त्रनो जांण चारित्र सहौत तत्वनांजाण प्राज्ञः बुद्धिमान् परोषहान् जित्वा सर्वदर्शी सर्वं आत्मवत् पश्यति उप
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ज० ४१ मा भाग
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स.टीका अ.१५
योलः सर्वदशो पुनः कोदृशः उपशान्तः कषायरहित: स्यात् सभिक्षुरित्यु यते १६ असिप्प जौवौ अगिहे अमित्त जिई दिए सव्वो विप्पमुक्के अणुक्क कसाईलहुअप्प भक्खो चिच्चागिहं एगचरे स भिक्खुत्तिबेमि १६ स भिक्षुर्भवेत् स इतिकः योग्गृहं द्रव्यभावभेदेन विविधं त्यक्षा एकः एकाको रागद्देष • रहितः असहायो वा चरतोत्येक चरः स्यात् कथंभूतः सः अशिल्पजीवी शिल्पेन विज्ञानेन जीविते आजीविका करीतौति शिल्पजीवौ न शिल्पजीवी १ अशिल्पजोवो चित्रकरणादिविज्ञाने आजीवौकां न करोतीत्यर्थः पुनः कीदृशः अग्रहः न विद्यते गृहं यस्य स अग्रहः स्त्रीपरिचयरहित: अथवा गृहस्थैः ।
सह परिचयरहितः पुनः कीदृशः अमित्र शत्रुमित्ररहितः पुनः कीदृशो जितेन्द्रियः पुनः कौशः सर्वतो विप्रमुक्त: बाह्याभ्यंतर सयोगादिप्रमुक्ती सर्वपरिग्रहरहितः पुनः कोदृशः अणकषायः मन्दकषायो इत्यर्थः पुनः कीदृशः लवल्पभची लघूनि निःसाराणि वल्लचणनिः पावक कुलस्थमाषादि
प्रासकाहाराणि तानि स्तोकानि भक्षितुगोल यस्य स लघुल्य भक्षोनौरसस्तोकाहारकारीत्यर्थः अथवा लघुप्रासकंच तत् अल्पञ्च लघुल्य तदाहार: 8 भक्षितु शोलं यस्य स लघुल्पभक्षी अथ वा लघुः क्षीणकर्मास चासौ अल्पभक्षौ च लघुल्य भक्षी इत्यहं ब्रवीमि इति श्रीसुधर्मास्वामौज बूस्वामिन प्राह
* १६ इति भिक्षुलक्षणाध्ययन संपूर्ण १५ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ-दौपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मी कौर्तिगणि शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां सूत्र इदिए सवओबिप्पमुक्के अणुक्कसाईलहु अप्पभक्खी। चिच्चागिह एगचरे स भिक्ख त्तिवेमि ॥१६॥ भिक्खूज्झयणं
६ शांतः हिंसारहित: न कुत्रापि विरोधकारकः स भिक्षु १५ शिल्पै श्चित्रादिभिर्नजीवति चौवामकरौवेची आजीविकानकर अणगार आमित्रः जितें वियः
सर्वतोविप्र मुक्तः इंद्रिजोत्यांछे वाह्याभ्यं तर जेगांठिते हथौमकाणाचे स्वल्पकषाय:लघु अल्पजीवी थोडी कषाय थोडी जोमेछे त्यक्ताग्रह रागद्दे षं रहितः बिचरेत् स भिक्षः घर छोडोने रागद्देषरहित विचरते साधु कहौजे १६ इति भिक्व अध्ययनं संपूर्णम् १५ श्रुतंमया हे आयुष्मन् हे चिरंजीवो शिष्यमें
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० २०४१ मा भाग
भाषा
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उ. टीका
भिक्षु लक्षणाध्ययन' पञ्चदर्थ संपूर्ण १५ अथ षोड़शं अध्ययन प्रारभ्यते ॥ पञ्चदशेऽध्ययने हि भिक्षु गुणा उनाः ते भिक्षु गुणा हि ब्रह्मचर्ययुक्तास्य साधोर्भ
वन्ति अतः षोडशे अध्ययने ब्रह्मचर्यस्थ समाधिस्थानानि उच्यन्ते सूत्र सुअंमे आउसन्ते ण भगवया एव मक्खायं इह खलुथेरेहिं भगवन्ते हिं दसवम्भचेर 8 समाहिद्वाणपत्नत्ताजेभिक्खू सुच्चानिसम्मसनमबहुले सम्बर बडुले समाहि बहुले गुत्ते गुत्तिन्दिए गुप्तबं भयारी सया अप्पमत्त विहरिजा श्रौसुधर्मा
खामौ स्वशिव जंबुस्वामिन प्राह हे आयुष्मन् मे मया श्रुत तेण' इति तेन भगवताज्ञानवतातीर्थ करण आख्यातं श्रीमहावीरण स्वामिना उक्तासनत्वा त्तस्य वग्रहण'पुनरिह श्रोजिनशासनेस्थविरैर्गणधरैभंगवद्भिर्माहात्म्यवद्भिस्तीर्थकरीतार्थधारणशक्तिमद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानान्यु तानि ब्रह्मचर्यस्थैर्यस्य कारणान्यु क्तानि कोर्थः मम एषाबुद्धिर्नास्ति किन्तु तीर्थकरैः पुनर्गणधरैर्गोतमादिभिः स्वापेक्षया वृह रेवमुक्तं तथैवमयोच्यते यानिब्रह्मचर्यसमाधिस्थाना निभिक्षुः श्रुत्वा शब्दतः श्रवणे धृत्वानिशम्य अर्थतो मनसि अवधार्यसंयम बहुलः सन् बहुल: प्रधान प्रधानतर स्थानप्राप्ता उत्तमः संयमी यस्य स बहुल संयमः वईमान परिणामचारित्रः सन् विहरेत् पुनर्यानि ब्रह्मचर्य समाधिस्थानानि श्रुत्वा भिक्षुर्गुप्तो मनोवाकाय गुप्तियुक्तः सन् अतएव गुप्त नवगुप्ति
समत्तं १५॥ सुअंमेआउसंतेणं भगवया एवमक्खायं दूहखलुथेरेहिं भगवंतेहिंदसवंभचेर समाहिठाणापन्नत्ताजेभिक्खू सोच्चानिसम्म संजम बहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्तेगुत्तिदिए गुत्तबंभयारौ सया अप्यमत्ते विहरिज्जा कयरे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०१. ४१ मा भाग
भाषा
सांभल्यो भगवता एवं प्रख्यात कथोत भगवते श्रीमहावोर इमका इह प्रवचने निश्चयेनस्थ विरैः भगवद्भिः इहजिन शाशनने विर्षस्थ विर भगवंते ते दसब्रह्मसेवन समाधिस्थानानि कथितानि दशवृद्धचर्यना समाधिस्थानकप्ररूप्या ऋषिश्वरकह्या १ यानि भिक्षुः श्रुत्वा ये साधु भगवंत
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९० टोका श्र०१६
४६५
सूत्र
भाषा
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सेवनात् गुप्त ं सुरचितं ब्रह्मचर्यं चरितु सेवितु' मोल' यस्य स गुप्त ब्रह्मचारोस्थिर ब्रह्मचर्य्यधारकः सन् सदासर्वदा श्रप्रमत्तः श्रप्रमादौ सन् विहार कुर्यात् यतो हि पूर्व यः साधु ह्मचर्य समाधिस्थानानि शृणोति स साधु ह्मचर्यपालनेस्थिरोभवति यदुक्त' सुचा जाणद्र कल्लाणं सुचाजाणइ पावग उभयंपिजाणई सोचा जंसेवन्तं समायरे इति श्रुत्वाजंबूप्राह कयरेखलुथेरेहिं भगवन्ते हिं दसबम्भचेर समाहिद्वाणापन्रत्ता जेभिक्ख सुञ्चानिसम्म सञ्जमबहुले सम्बरबहुले समाहि बहुले गुत्ते गुत्तिं दिए गुत्तबन्धयारी सया अप्प मत्ते विहरेज्जा हे स्वामिन् यानि ब्रह्मचर्यसमाधि स्थानानि भिक्षुः सा शब्दतः श्रुत्वा अर्थतः हृद्यवधार्य संयम बहुलः सम्बर बहुलः समाधि बहुलः गुप्तो गुप्ते न्द्रियः गुप्त ब्रह्मचारी सदा श्रप्रमादौ विहरेत् तानि खलु निश्चयेन कतराणिकानि ब्रह्मचर्य समाधि स्थानानि तैः स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थानानि प्रतिपादितानि यानि भिक्षुः श्रुत्वानिशम्य संयम बहुल :
खलु तेथेरेहिंभगवंतेहिं दसबंरंभच रसमाहिठाणापन्नत्ता जेभिक्ख सोच्चानि सम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहि बहुले गुत्त गुति दिए गुत्तभयारीसयाअप्पमत्ते विहरिज्जा इमेखलुते घेरेहिंभगवंतेहिंदसवंभचं रसमाहिठाणापन्नत्ताजे निशम्य अवधार्य्यहियांमांहे अवधारीने समाधि बहुल: संजमपाले पापनेरोकता संवरबहुल: संवरकरे समाधि बहुलः प्रापणोचित्तठामिराखे गुप्तः गुप्त द्रियः शरोरपांचेंद्र' द्रोगोपवीराखे गुप्तवृह्मचर्यधारौ गुप्तब्रह्मचर्यनोधारी सदा श्रप्रमत्तो विचरेत् सदासर्वदा श्रप्रमत्तथको विचर २ कतराणि निव येनस्थविरंगणधर ते शिष्यपूछे हे पूज्यतेस्थानकस्य विर भगवंते दशवृह्मसेवनस्थान समाधीस्थानानि कथौतानि दशवृह्मचर्य नास्थानका ३ मुनि निश्चयेन स्थविरे : भगवद्भि :ए निययस्यु' स्थविरे भगवंत दश तुम्हसेवन समाधिस्थानानि कथितानि दशविध वुम्हचर्य समाधिस्थान का यः भिक्षुः
पूर
***************************************** राय धनपतसिंह वाहादुर का श्र०सं०० ४१मा भाग
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उ टीका ४६
* सम्बर बहुलः गुप्तः गुप्तेन्द्रियो गुप्त ब्रह्मचारी सदा अप्रमत्तः सन् विहरेत् इति जंबूस्वामिनः प्रश्नवाक्य श्रुत्वासधर्मास्वामी प्राह इमे खल तेथेरेहिं भगवन्ते
हिं दसबभचेरसमाहिद्वाणा पत्नत्ता जेभिक्खू सुच्चानि सम्मसंयमबहुले सम्बर बहुले समाहि बहुले गुत्ते गुत्तिं दिए गुत्तबम्भयारी सया अप्पमत्त विहरज्जा हे जंबू इमानि प्रत्यक्ष वक्षमाणानि खलुनिश्चयेन तानिस्थविरभंगवद्भिर्दशब्रम्हचर्य समाधिस्थानानि शब्दतः श्रुत्वानि शम्य अर्थतोहृद्यवधार्य भिक्षुः साधु: संयम बहुलः समाधि बहुली गुप्तोगुप्तेन्द्रियो गुप्त ब्रम्हचारी सर्वदा अप्रमत्तः अप्रतिबद्धविहारीसन् विचरेत् तानि समाधि स्थानानि निरूपयति तं जहा विवित्ताई सयणासणा इसे विज्जा मेनिम्न्थे नो इत्यो पसुपंडगस सत्ता इस यणासणाईसेवित्ताहवइ सेनिग्गन्ध तद्यथा तानि यथा सन्ति तथा निरू पयामि हे जंबूसनिग्रन्थो भवेत् स इति का यो विवक्तानि स्तो पण नपुंसकपंडगादिभि विरहितानि शयमानि परिकास'स्तारकादीनि अर्थात् शयना
भिक्खू सोच्चानिसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्तेगुत्ति दिए गुत्तब'भयारी सया अप्पमत्ते विहरिज्जातं
जहा विवित्ताई' सयणासणाई सेविज्जा सेनिगथेनोइत्यौपसुपंडग संसत्ताडू सयणासणाईसेवित्ता हवडू तं स्थानानि श्रुत्वा अर्थतो निसम्म सजम बहूले साधूचारित्रि या जेस्थानकनेसांभलौ सयमपाले आयवेकरौरहित घणीं समाधिसहित गुप्तेंद्रियः इद्री
गुप्तकोधांछे नवगुप्ति मेवनात् नवयुम्हचर्य नौ वाडिपाले सदा अप्रमत्तो विहरेत् सदासर्वदा अप्रमत्तथ कोविचर तं जहा ४ विविक्तानि शयनासनादि B फलकपादपोंछनानिसेवते विविक्त कहता एतलेवनेरहित उपाश्रयादिक सेवतेनि ग्रंथ साधू कहीये स्त्रिपसूपंडके करीअना कीर्ण अव्याप्तरहीत
नोस्त्रोपशुतोवव्याप्तानि शयनासनानि नहौस्त्रोतिरयंचनपुसकेकरौ शयनासन व्याप्तहाछे शयनासनादी सेव्यमानस्य शयनासन सेवताथका
'य धनपतसिंह बाहादुर का आम०ल. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०१६ ४६७
सूत्र
षाभा
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दीनां स्थानानि सेवेत कायेम अनुभवेत् अयं अन्वयार्थ यः स्त्रौ पशु पंडकादि रहितस्थानानि सेवेत सनिग्रन्यो भवेत् इत्यर्थः अथ व्यतिरेकेण श्रर्थमाह यस्मिन् सति यद्भवेत् सोन्वयः यस्मिन् असति यत्र भवेत्सव्यतिरेकः व्यतिरेक' दर्शयति नो इत्थौ पसुपंडगस सत्ताइ सयणासणाइ सेवित्ताहवइसेनि गन्थे हे जंबूसनिग्रन्यो नो भवेत् सकः यः स्त्री पशुपंडकादिभिः सेवितानां शयनासनानां सेविता उपभोक्ता भवेत् इति वचनं श्रुत्वा शिष्यः प्राहः त मिति श्रायरियाह हे स्वामिन् तत् पूर्वोक्त' कथं केनोत्पत्ति प्रकारेणेति चे देवं यदि मन्यसे इति शिष्येण प्रष्टव्ये सति श्राचाय्र्य आह निम्मन्यस्सखलु इथि पसुपण्डगसंसत्ताइ' सयणास बाइ सेवमाणस्स वम्भयारिस्मबन्धचेरेसङ्कावाकङ्कावाविति गिच्छावा समुप्यन्निज्जा भेयंवाल भेज्जउम्मायं वापा उणिनादहका लियंव रोगायक 'हविज्जा केवलिपसत्ताओ धम्माश्रमंसेज्जा तम्हाखलनो इत्थि पसुपण्डगसंसत्ताई' सयणासणाइ' सेवित्ताहवइसे निग्गम्ये १ हे शिष्यखलु निश्चयेन स्त्री पशुपण्डकादिभिः संसक्तानिशयनासनानि सेव्य मानस्य निग्रन्यस्य ब्रम्हचर्यधारिणोपि साधोब्रम्ह चर्येशङ्का उत्पद्यते इमां स्त्री सेवेवानसे वे वा अथ वा अन्येषा मपि स्त्रोपशुपण्डकादि सहितं स्थाने स्थितं वृम्हचारिणं साधु दृष्ट्वा शङ्का उत्पद्यते कि मयं एतादृशो विरुद्दानां मयना मनानां सेवी ब्रम्हचारो भवेत् नवा श्रात्मनस्तु स्त्यादिभिरत्यन्तापहृत चित्ततयामिथ्यात्वो दयादेव स्त्रो सेवने मैथुने नवलक्ष्य सूक्ष्म जीवानां बधोजिनैः प्रोक्त: कहमिति यरिग्राह निग्ग थमखलु इत्थि पसुपंडग संसत्ताइ सयणा सयणाइ सेवमाणमव' भयारीस्म्म बभचेरेसं तिये करोस सक्त आकोर्ण व्याप्तसहित शयनाशनादिसेवणहारहुवे नहीं ते निग्रंथ साधुहुवे ५ श्राचार्याः श्रहः गुरुकहेछ निग्रयस्य निग्रंथ साधुने निश्चयेन खलु स्त्रोक्तौवपशुव्याप्ता निस्त्रीपशु नपुंसकसहित मय्याशनादि सेव्यमानस्य शयन आसन सेवतां सेव्यमानस्य बृम्हचारिणः ब्रम्हचारीने वृम्हचर्ये वम्हचर्यने विषे शंका ऊपजे कंखावांछा ऊपजे एषैव एव विघा स्वरूपाइति स्यादीनां वांछाकिमेतत्कष्टफलभावि विगतेच्छावेति समुत्पद्येत चारित्रस्य
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राय धनतपसिंह वाहादुर का श्रा सं०७०४१ मा भाग
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उ टीका अ.१
तत्मत्य वा इत्यादि रूपः संशय उत्पद्यते पुनव म्हचारिणः कक्षास्त्रो पशुपण्डकादिभि मथुनेच्छा उत्पद्यते पुन- म्हचारिण: साधीत्र हचय विचिकिन्न * उत्पद्यते मया व्रम्हचर्यपालने एतावन्महकष्ट विधीयते तस्य वम्हचर्यकष्टस्य फलं भविष्यति नवा तस्माद्दरमै तेषां सेवन एतेषां सेवने नतु सांप्रतं मम सुख
आयते एतादृशीमतिः समुत्पद्येत वा अथ वा भेदञ्चारित्रस्य विदारण' विनाशं लभेत् वा अथ वा उन्माद कामन पारवण्य प्राप्त यात् वा अथ वा तादृशे स्त्यादि सहितानि स्थानानि सेव्य मानस्य साधोर्दीर्घकालिक प्रचरकाल भाविस्त्यादि सेवनाभिलाषोत्कर्षतः आहारादौ अरुचिनिद्राराहिलादि दीर्थ रोगोदाघज्वरादिः आन्तकः यौन घातौ शूलादिः रोगव आतडव अनयोः समाहारी रोगातंकंगरौरे भवेत् यतो हि कामाधिक्यात् कामिनांशरीर दशकाम भावाजायन्ते यदुक्त प्रथमे जायते चिन्ताहितीये द्रष्ट मिच्छति तृतीये दीर्घनि: खास चतुर्थे ज्वरमादिशेत् पञ्चमै दद्य ते गात्र षष्ट भक्तं नरी चते सप्तमेच भवेत्कम्प उभादश्चाष्टमे तथा नवमे प्राण सन्द हो दशमे जीवितन्त्यजेत् कामिन मदनोद्देगा दशसञ्जायतेह्यमौ इति स्वौ दर्शनादशभावा
कावा कंखावा वितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जा भयंबालभिज्जा उम्मायंवा पाउणिज्जा दोहकालौयंवारोगायक हविज्जा केव लिपसत्ताओ धम्माओमंसिज्जा तम्हाखलुनोत्थिपमुपंडग संसत्ताईसयणासणाई से वित्ता भवडू सैनिग्गंथे ॥१॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
विनाशलभेतफलप्रति सदेहऊपजे होयके न होइ भेदचारित्रनो नासपामे उन्माद' कामग्रहं वा अथवा प्राप्नुयात् उदमाद उपजे प्रभूतकालिभावी दोर्वकालताई दाघज्वरादिशूल कादिरोगातकोभवेत् दाघज्वरादौक रोग ऊपजे केवलो प्रज्ञप्तात् धम्मात् भ्रस्थते केवलीनी भाष्यो धम्मथी भ्रष्टहवे तस्मात् न पश क्लीव व्याप्तानि तस्मात् तिणे कारण निगध स्त्री पशु नपुंसक शयनासनादि सेवनात् शयनासन सेवेनही स निग्रंथो
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सटीका अ.१६
उत्पद्यन्ते अथ पुन: केवलि प्रज्ञप्तात् केवलि प्रणीतात् धर्मात् थ त चारित्र रूपाभ्रस्येत् धर्माइष्टो भवेत् तस्मात् एतेषां दूषणानां प्रादुर्भावात् खल निश्चयेन स्त्री पशु पण्डक ससक्तानांशयनासनस्थानानां सेविता उपभोक्ताभिक्षुर्नोभवेत् सनिग्रन्थो भवेत् इति प्रथम ब्रम्हचर्य समाधिस्थान एषा प्रथमा वम्हचर्य तरीर्वाटिका १ नो निग्गन्धे इत्योण कहं कहत्ता हवइसे निग्गन्ये त कह मिति चेआयरियाह निगन्यस्म खलु इत्योण कहं कहेमाणस्मबम्भया रिस्म बम्भचेरैसङ्कापाकशावावितिकिच्छा वा समुष्पजिज्जा भयं वालभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जादौह कालियं वारोगायं कहविज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्मा श्री भंसे ज्जा तम्हा खलु निग्गन्ध नोइत्यीण' कह' कहे ज्जा २ सनि ग्रन्थो भवति स इति कः यः स्त्रीणां अर्थात् एकाकिनौनां स्त्रीणां एव कथां वाक्य प्रवन्ध रूपां वार्ता' अथ वा स्त्रीणां जाति कुलनैपथ्य विषयां पद्मिनी चित्रिणी हस्तिनी शङ्गिनी मुग्धामध्या प्रौढादि रूपा कार्णाटलाट सिहल देशोद्ध वानां नारीणां वर्म ना रूपां वा कथां प्रति कथयितान भवति स साधुर्भवतीत्यर्थः स्त्रीणां ऽग्रे कथां अथवा स्त्रीणां एव वर्णनं करोति स साधुर्नस्यादिति भावः इत्यु के शिष्यः प्राह तत्कधमिति चेदेव यदि मन्यसे प्राचार्य प्राह हे शिव खलु निश्चयेन निग्रन्थस्य साधोः स्त्रीणां कथा कथ मानस्य व्रम्ह
नोनिग्गधेडूत्थीणं कहकहित्ता हवसैनिग्ग घेतंकहमितिचेआयरियाह । निग्गथम खलुइत्यौणं कहकहमाणम वंभ
यारिस्म बंभचेरे संकावा कंखाबावितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जा भयंवालभिज्जा उम्मायंबापाउणिज्जादीहकालियंवारो भवति तेनिनथ साधूहोइ' ६ न स्त्रीणां कथां कथयिता भवति निग्रंथः साधु भगवंत स्त्रीनी कथा न कहे ते निग्रंथ तत् कथमितीचेत् शिष्यपूर खामोस्त्रोनी कथाकां न कहे प्राचार्या आहुः गुरुकहे नियस्य साधो खलु निश्चयेनः स्त्री कथां वार्ता कथयतोयती स्त्रीनी कथाकहतुथको व्रम्ह चारिणः व्रम्हचारिने व्रम्हचर्य वम्ह वर्ष नेविषे शंका स्त्रों मेवेनवा कांचाबांछा वम्हचर्य पालन फल भवित नवाइति धर्मे सदेह समुत्पद्यते सम्यक्
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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उ० टोका
अ०१६
४७०
सूत्र
भाषा
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चारिणोपि ब्रम्हचर्ये शङ्का एनां सेवामि न सेवामि वा इत्यादि रूपा वाऽथवा आकांक्षाऽग्रे तनानां पदानां पूर्ववदेय अर्थो यः नवरं तन्हा इति तस्मात् शङ्कादि दोष प्रादुर्भावात् खल निथयेन निग्रन्यः स्त्रीणां एवाग्रे स्त्रीणामेव वा केवलां कथां न कथयेत् २ इति द्वितीयं ब्रम्हचर्य समाधिस्थानं एषाद्वितीया वाटिका अथ तृतीया माह नोनिग्गन्यो इत्थोहिं सहि संनिसिजागए विहरित्ताहवइसेनिगन्ये तं कहमिति चेत् श्रायरियाहनिगन्यस्त खलु प्रत्योहिं सहि सन्नि सिजागयत विहरमाणस्स बन्भयारिस्म बम्भचेरेसङ्का वा तन्हा खलनो निम्मन्य इत्यहिं सनि सिज्जागए विहरेज्जा ३ सनिम्गन्यो भवेत् यः
गायंकंहविज्जा के लिपन्नताओ धम्माचोभ सिज्जा तम्हाखलनोनिग्ग थे इत्थी कहं कहेज्जा ॥२॥ नोनिन्ग थाइत्यौहिंस fs' संनिसिजागए विहरित्ता हवइसेनिग्ग थे तं कहमिति आयरियाहनिग्गथस्म खलुइत्थोहिंसडिंसंनि सिज्जागयस्म प्रकार उपजे भेद' वा लभेत् चारित्रथी भ्रष्टहुवे उन्माद वा प्रापयेत् उन्माद अथवापामे दीर्घकालिक रोगातंकंवा भवेत् घणाकाल स्थाई तेहने शरौरे रोगहवे केवलि प्रज्ञप्त धर्मात् स्वस्यते केवली भाषीत धर्मथोचूके तस्मात् कारणात् खलु निययेन न स्त्रो पशु नपुंसक संसक्तानि शयनासनानि तिणेकारणे स्त्रो पशु नपु ंसकसहित शयनासन सेवेनहीं स साधुर्भवति ते साधुकहौद्र ननिग्रं घः साधु स्त्रीणां कथां कथयति ते माटे साधूस्तीनो कथा कहे नहीं ७ न साधूः स्त्रोणां साई निषयंगतः विचरेत् नहीं निग्रंथ साधू स्त्रीजाति संघाने वाजीठ प्रमुख आसने एकठा विचरणहार स्त्रीवेसौ ऊठेपको घडी २ काचौनकल्ये स निग्रं थः एहवो ते साधू तत् कथमितिचेत् केन कारणेन तत्र आचार्यकहै निग्रंथस्य साधी साधुने खलु निश्चयेन स्त्रीणां साई' आसनाद्युपविष्टस्य साधोः नियथा साधू स्त्रीजाति साधें आसन प्रमुखतौहांवेठानरहे विहारं कुर्वतः विहरे तेहने ब्रम्हचर्यवंतः वृम्हचर्य
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०म०ड ४१ मा भाग
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उ० टोका अ०१६ ४७१
सूत्र
भाषा
स्त्रीभि साई' निषिद्यानिषोदन्ति अस्यां इति निषद्यापट्टिकापोठ फलक च तुष्ककाद्याशनन्तांनिषद्याङ्गतः स्थितः सन्विहर्त्ता अवस्थातान भवेत् कोर्थ यः स्त्रोभिः सह एकस्मिन् आसनेन उपविशेत् सनिग्रन्थो भवेत् अवायं संप्रदायः यत्त्रा सने पुरा स्त्री उपविष्टा भवति तत श्रासनात् स्त्रियां उत्थितायां सत्यां मुहर्त्तादनन्तर ं तत् आसन ं साधीरूपविशनयोग्य भवति त कह मिति चे आयरियाह अनयोः पदयोरर्थः पूर्ववत् निम्गन्यस्त खलु इत्थौ हिं नि ग्रन्थस्य खल् स्त्रौभिः सार्द्धं निषद्याङ्गतस्य प्राप्तस्य विहरमाणस्य तत्र स्थितस्य वृम्हचारिणो वुम्हचर्ये शङ्कादयो दोषा उत्पद्यन्ते तस्मात्कारणात् खलु निश्चयेन निग्रन्यः स्त्रोभिः सह एकत्रासनेगतः प्राप्तः सन् नो विहरेत् नोपविशेत् ३ इति तृतीय वम्हचर्यस्थान एषा तृतीया वा टिका ३ नोनिय इत्थोण ं इन्दियाइ'मणोहराइ' मणोरमाइ आलो इत्तानिज्माइत्ताहवर सेनिम्मन्ये तं कहमिति चे आयरियाहनिगन्यस्त खलु इत्यौण इन्दिया मणो हराइ' मणोरमाइ' आली एमाणस्स निज्मायमाणस्स बम्भयारिम्सबम्भचेरे सङ्गावाकखावाविति किच्छावा समुप्पज्जिज्जा भेयं वालभेज्जा उम्मायं वा पाउ विहरमाणम' भयारिम्सब भच रे संकावाकखावा वितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जाभे यंवालभिज्जा उम्मायंवापाणिज्जा दौहकालियंबा रोगायं कंहविज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्मात्र भ'सिन्जा तम्हाखलुनोनिग्ग' थेइत्यौहिंसडिंसंनिसिजागए तुम्हचर्यने विषे संदेह उपजे पालु केनपालु एहवोस का उपजे भेदं वा लभेत् उन्मादं वाः रोगातक रोग ऊपजे भवेत् दीर्घकाल केवली प्रज्ञप्त धर्मात् मस्यते केवली कथित धर्मथको पडे चूके तस्मात् निश्चयेन निग्रंथः स्त्रीणां कथां कथयन् स्त्रीसाई एकासनेनिषीदति साधूः स्त्री साई नविहरति स साधूनि ग्रंथोभवति ते साधूनिय य
वंतनेपणि ब्रम्हचर्ये वृम्हचर्यनेविषे शंका वांछा कांचा ऊपजे उनमादनकरे प्राप्नुयात् दौर्घकालिक संबंधि रोग ऊपजे
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राम धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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४७३
णिज्जा दोहकालियं वारोगायं कंह विजावलि पणत्तात्री धम्मात्रीभ सिज्जा तम्हाखलनोनिमा न्ये इत्थीण इन्दि याईमणोहराईमणीरमाई पालोइज्जा उ टीका निमाइज्जा ४ सनिग्रन्यो भवति स इति कः यः स्त्रीणां मनोहराणि मनः हरम्ति दृष्टमात्राणि चित्त आक्षिपन्तौति मनोहराणि पुनर्मनीरमाणि मन
रमस्त्यनुचिन्त्य मानानि आह्वादयन्तीति मनोरमानि ईदृशानि इन्द्रियाणि नयन वदन जघन वक्षःस्थ लनाभि कक्षादीनि प्रति आलोकयिता समन्ता द्रष्टानिध्यातानितरान्ध्यातानि ध्याता दर्शनादनन्तर अतिथयेन चिन्तयितायो न भवेत् सनिग्रन्थो भवति इत्युक्ते शिष्यः पृच्छति तत्कथमिति चेत् आचार्य आह है शिष्यनिग्रथस्य खल निथयेन निग्रधः स्त्रीणां मनोहराणि मनोरमाणि इन्द्रियाणि न आलोकयितानसमन्ताद्दष्टा अथ वा न ईषदपि द्रष्टान च तानि इन्द्रियाणि निध्यातानितराञ्चिन्तयितान भवेत् स्त्रौ इन्द्रियाणां रागेन द्रष्टानितराध्याता साधुनभवेदित्यर्थः ४ इदं चतुर्थ वम्हचर्य समा
विहरिज्जाशनोनिन्गथेत्यौणंडू दियामणोहरामणोरमाई'आलात्तानिज्माइत्ताभवतिसनिग्गथेतंकहलितिचे सूत्र
आयरिाहनिग्गयस्मखलुइत्थीणं दियाई मोहरामणोरमाई'आलोइत्तानिझाइमागम बभयारिम ब'भर्च रेसका
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं०७• ४१ मा भाग
भाषा
जाणवो ८ न निग्र'थः स्त्रीणां द्रियाणि मनोरमाणि दृष्ट्वा मनसिहर्ष न यति निध साधूस्त्रीनां मनोहर आंखि प्रमुख इ'द्रौदेखौने मन हर्षन ऊपजे जोवेएतले एकाईसौंदरके एहालोकोने जोईने नितरांध्यांन वान् नभवति घणरूपादिकनीचिंतवणहार न होइ स निग्रंथः साधुः तत् कथमितिचेत् ते किमाचार्यःपाहप्राचार्य कहे निययस्यसाधुनेनिश्चे स्त्रीणांस्त्रीना चक्षुरादौनोईद्रियाणी मनोहराणौभला मनोरमाणिमनमे सुखदाईआलोक्यमानस्य दृष्टिमांडोजरहताने नितरांध्यायमानस्यघणु रूपादिकध्यां न करतानब्रह्मव्रतधारिण ब्रह्मचारौसाधुनेब्रह्मचर्ये ब्रह्मचर्यनविषेशंकाकांक्षावांका ब्रह्मचर्य नेविषे
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१.टीका
विस्थानं ४ एषा चतुर्थी वा टिका अश्व पञ्चमौं प्राह नो निम्ग थे इत्यौण कुड्डन्तर सिवा दूसन्तरंसि वा भित्तिन्तरंसिवा कूईयसह वा रुइयसह वागीय 8 सवाणियसहवाकन्दिय सहवा विलवियसहंवा मुणित्ताइवनिम्गधेत कह मिति चे पायरियाहनिग यस्मखलु इत्योण कुडन्तरंसिवा दूसन्तर * सिवाभित्तिन्तर सिवा काय सहवारु इय सहवागीय सहवा हसियसह वाथणि य सह वा सुणमाणस्म वंभयारिस्मबभचेर सङ्गा वा कसा वा विति किच्छा वा समुष्पज्जिज्जा भयं वालभिज्जा उम्मायं वापाउणिज्जा दोहकालियं रोगायं कं हविज्जा केवलिपसत्तात्री धम्माअोभं सिज्जा तम्हा खलनोनिमा धे इत्योणं कुडडन्तर सिवा दूसन्तर सिवाभित्तिन्तरिंसिवा कइयसवारुइय सइंवा गोयसवा हसियसई वाणिय सहंवा विलविय सवा सुणमाणे विहरेज्जा ५ सनिग्रयो भवेत् स इति कः यः कुद्यान्तरे कुचं पाषाणरचित तेन अन्तरं व्यवधानं कुद्यान्तर सस्मिन् कुद्यान्तरेस्थि त्वा
वाकंखावावितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जाभ यंबालभिज्जाउम्मायवापाउणिज्जादीहकालियंवा रोगायक हबिन्जाकवलि .
पन्नत्ताओ धम्माओम सिज्जा तम्हा खलुनिग्गथेनाइत्यौणं इंन्दियाहू मनोहराडू मणीरमाई आलोइत्तानिभा __एज्जा ॥४। नोइत्यौणं कुडंतरंसिवादसंतरंसिवा भित्तियंतरंसिवा कुड्यं सइंवारुड्य सइंबागीयसवाहसियसहवा संदेह समुत्पद्यते ते धर्मने विध संदेहऊपजे भेदं वालभेत्धर्मनोभेदपडे दीर्घकालकंघणाकालेजपनो रोगातकंभवेत्रोगादिक छापजे काल प्रज्ञतात् केव लोकथित धर्मथकी भ्रष्टहोइ तस्मात् निश्चयेन ननिग्रंथः स्त्रीणां चक्षुरादीनि इंद्रियाणि मनोरमानि मनोहराणि पालोक्यजीईने नितरांध्यांनवान् न भवति स सा:' साधुः न स्वीणा स्त्रीजातिना कुचातरषभीतिने अांतररहे नहीं पाषाणमर भौत दयांतरष वा परियचने अांतर रह नहीं भित्तितरेषु
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०.ठ ४१मा भाग
भाषा
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४७४
ॐ इत्ययाहारः दृथान्तरेवा वस्त्र रचितभियन्तरे परिच्छदाया अन्तरेस्थित्वाभित्त्यन्तरे मृत्तिकापक्के ष्टिकाणांभित्ति व्यवधान स्थित्वा,वा इत्योण इति स्त्रीणां ४ कूदयसई सम्भोग समये भोक्त मनः प्रसत्तये कोकिलादिविहग शब्दानुरूपं कूजित शब्द पुन: स्त्रीणां रुदित शब्द भोग समये प्रेमकल इनितंरोदन
शब्दं वा अब वा पुन र्गीत शब्दं वा पञ्चमरागादि हुशार रूपं गौत शब्दं वा अथ वा पुनः स्त्रीणां हसित यद' कह कहादि कहा ॐ स्योत्पादिकाऽहाइदंत निकासनोद्भव शब्द स्तनित शब्द वा भोग समये दूरतर घनगर्जितानुकारि शब्द वा क्रन्दित शब्द वा प्रोषित भर्नु
काणां विरहिणीनां भर्तवियोग दुःखात् जातं वा अथवा विलपित शब्द भर्सगुणान् स्मारं २ प्रलापरूपं शब्द प्रतियः थोता न भवति स निग्रन्थीभवति इति श्रुत्वाशिष्यः पृच्छति तत्कथं केन कारणेन यदेव मुच्यते इति श्रुत्वा प्राचार्य आह हे शिश्च खलु निश्चयेन कुड्यान्तरादिषु पूर्वीप्त स्थान हि त्वा स्त्रीणां पूर्वोक्तान् कूजितादिशब्दान् शृखतो निग्रन्थस्य वम्हचारिणोऽपि वम्हचर्ये शङ्कावाकांचावा इत्यादि ये दोषा उत्पद्यन्ते तस्मात्कारणात् खलु निश् येन
थणियसवाकंदियसबेवा विलवियसहवासुणित्ता हवसैनिग्गथे तं कहमितिचे आयरियाह निग्ग धम्म खलुइत्योणं
कुडतरंसिवा जावबिलबियसद्दवासुणमाणस्म बंभयारिस्मबभचेरेसंकाबा कंखावा वितिगिच्छावा समुप्पजिजामेयं वा भोतिने प्रांतरे रहेदूनही इटमइभीत कुजित शवदेवा भोगने अवसरे बोलवा रूदितशबदेवा भोगने अवसर रुदन शबद गीतशब्देवा रागरूप गौतमबद हसितशबवाहसवानीशबद स्तनितशवदेवा गर्जारवसब्दने करनौ कंदितशब्द वा विरहिणी नीषा क्रंदशबद कंदियसह वा विलपित अबदेवा विलविय सद वा गुणसंभारोर विलाप करे रोवैते शबदएह वां सांभल एहारनहीई ननियथः ते साधुः कहीये तकथमितिचेत् ते किम पाचार्याः पाहुः प्राचार्य
0360RXXXXXXXXXXXXXXXXX
राय वनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ ४१ मा भाग
भाषा
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उ.टोका
निग्रन्थः कुद्यान्तरेषु स्थित्वा स्त्रीणां कूजितादिशब्द नो शृण्वन् विचरेत् स्त्रीणां हि कामोद्दीपकशब्द श्रोता साधुर्मभवेत् इति भावः इति पञ्चमं व्रम्हचर्य
समाधिस्थान एषा पंचमी वाटिका ५ अय षष्टोप्राह नोनिग्ग थे इत्थोण पुज्वरयं पुबकोलिय अणुसरित्ताहवइसेनिग्गन्ये तं कहमिति चे प्रायरि अ०१६8
याह निग्गन्थ न खलु इत्थोणं पुवरयं पुञ्चकोलिय' अणुसरेजा हवइसेनिग्गथे ६ सनिग्रन्यो भवेत् यः पूर्व गृहस्थत्वे स्यादिभिः स हरतं कामासने
वालभिज्जा उम्मायंवा पाउणिज्जादीहकालियंवा रोगायंकहबिज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भसिज्जा तम्हा खलु निग्गथे नोडूत्थीणं कुडतरंसिवा जावमुणे माणे विहरिज्जा ॥ ५ ॥ नो पुवरयं पुब्बकौलियं अणुसरित्ता भवसैनि
षाभा
कहे के निग्र'थस्य साधुने निये स्त्रोणं स्त्रीजातिना कुछतरेषुवाभीति प्रमुखने आंतर १.दुष्यतरेषु वा परोयचने अांतरे २ भित्तितरषु वा भीतिने अांतरे ४३ कुपित शम्द वा कलहनीशब्द रुदितशब्द वा रोवानीशब्द गौतशय वा गौतनाथब्द हसितशब्द वा हसवानोशब्द स्तनितशब्द गर्जारवशब्द क्र'दित शद विलपितमन्दं वा विलापशब्द श्रूयमानस्य सांभलताथका ब्रह्मचारोने न विचरत् न निहर १ ब्रह्मचारिण ब्रह्मचारीने ब्रह्मचर्य व्रम्हचर्यने विषे संका
आकांक्षावा विचिकिच्छावा समुत्पद्यते ऊपजभेदं वा लभेत् चूके उन्मादं वा प्राप्त यात् दीर्घकालं वा रोगातंकं वा भवेत् केवलिप्रन्नप्तधर्मात् केवलिकथित धर्मथको भ्रष्टी भवतो तस्मात् निश्चएनः निग्रंथः स्त्रीणां कुद्यतरेषु वा दुष्ांतरेषु वा कुपीतशब्दं वा रुदौतशब्दं वा गौतगडदं वा स्तनितशब्दं वा क्र दितथाई वा विलपितशब्दं वा शृणोतिविलापशब्दा सांभलीने ५ नः निययसाधः पूर्वरत पर्वकीलितं वा अनुस्मरन् भवंति साधु जराहस्थपणे भोग भोगव्याहोर गृहस्थपणे जूवटाप्रमुख रामति कोधी ते संभार नही स नियवः तत्कथमितिचेत् प्राचार्या पाहु: आचार्य कह नियथस्य साधी
राय धन पतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
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उ टीका अ०१६
मैथुन सेवन पुनस्ताभिरवसमं पूर्व क्रीडितं गृहस्थावस्थायां पुरी द्युतादिक्रोडनं कृतं तस्य अनुस्मर्तीमुहुश्चिन्तयिती नो भवेत् स साधुर्भवेत् इत्युक्त: शिनः प्राह तकपमितिवेत् तदाचार्याह है शिष्य खलु निययेन स्त्रोभिः सह पूर्वक्कतं रत' मैथनं पूर्ववत द्यूतादिक्रीडितम् अनुस्मरतः वारं २ चिन्तयतो
निग्र'थस्य साधो म्हचारिणो वम्हचर्य शमादयो दोषा उत्पद्यन्ते तस्मात् खलु निश्चयेन निग्रंथः स्त्रीभिः सहपूर्वरतं पूर्वक्रीडितं प्रति अनुस्मान भवेत् 8 स साधर्भवेत् इति शष्ट वम्हचर्य समाधिस्थानम् इति षष्टौवाटिका प्रथ सप्तमी प्राह नो निगंधे पणीयम् आहारं पाहरत्ताहवर्मनिग्ग थे तं कहमितिचे
गंथेतंकहमितिचेआयरिआह निग्ग'थस्म खलुइत्यीणं पुवरयं पुब्बकौलियं अणुसरमाणस्मब'भयारिस्म बभचे रेसका वा कंखावा वितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जाभयंवालभिज्जा उम्मायंवा पाउणिज्जा दोहकालियंवा रोगायंकहबिज्जा केवलिपन्नत्ताओधम्माओ भसिज्जा तम्हाखलुनोनिग्ग थे इत्यौपुब्वरयंपुव्वकीलियंअणुसज्जिा ॥६॥ नोपणीयंआहारं आहरित्ता भवडू सनिग्ग येतं कहमिति चे आयरि आह निग्गधम्मखलपणीयं पाणमायणं आहारेमाणसवमयारिस्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ०४१ मा भाग
भाषा
निश्चयेन स्त्रोणां पूर्वरतं पूर्व भोग भोगव्या पूर्वकीलितं पूर्वइपासा रामति करौ तत् अनुस्मरण मानस्यते संभारता साधुने ब्रम्हवृतधारकस्य बुम्ह वृते शंकाकरे कांक्षा वा वितिकिच्छा वास मुत्पद्यते भेदं वा लभेत् भेदपामे उन्मादं वा प्राप्नुयात् दीर्घकालक' रोगातंक' भवेत् केवलि प्रज्ञप्त धम्मात् भ्रस्यते तस्मात् नियथ न निश्चयेन स्त्रोणां पूर्वरतं पूर्वकोलितं अनूस्मरन् भवति स निग्रंथ ६ नहि प्रणीत तोपचितं आहार अाम्राति स साधुः नहिं
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४० टोका अ०१६
008
सूत्र
भाषा
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आयरियाह निम्ग थमखलु पणौय पाणभीयण' आहारमाणस्मबन्धयारिसबन्धचेरे संका वा० तम्हाखलनोनिग्ण थे पणौयं आहरेज्जा ७ सनिग्रन्थो भवेत् यः प्रणौतङ्गलदुष्टतादि विदुक उपलक्षणत्वादन्यदपि सरसं अत्यन्तधातु बृद्धिकरं कामोद्दीपकमाहारं प्रति आहर्त्तान भवेत् यः सरसाहार कृत् न भवेत् सनिग्रन्थः तदा शिष्यः पृच्छति तत्कथमिति चेत् तदा आचार्य याह हे शिष्य निग्रंथस्य साधोः खलु निययेन प्रणीतं सरसं आहारं भुञ्जानस्य ब्रम्हचारिणो वृम्हचर्येशङ्कादयो दोषा उत्पद्यन्ते तस्मात् इत्यादि दोष प्रादुर्भावात् निग्र'थः प्रणीताहारकारी न भवेत् ७ इति सप्तम वृम्हचर्य समाधि स्थान' इति सप्तमो वा टिका अयाष्टमों प्राह नो निम्म थे श्रइमायाए पाणभोवणं प्रहरेत्ताहवइसे निम्नथे तं कहमिति चैत्रायरियाह निम्म यस्त खलु अइमायाए पाणभोयण' श्राहारे माणसावं भयारिम्भवम्भचेर सङ्कावा० तम्हा खल नोनिया थे श्रइमायाएपाण भीययेभुविज्जाद सनिग्रयो भवेत् योऽति बभचेरे संकावाकखावाविति गिच्छावा समुप्यज्जिज्जा भेयंबालभिज्जा उम्मायंवापाउपिज्जा दोह कालियं वा रोगा यं कह विज्जा केवलि पद्मत्ताओ धम्माओ मंसिज्जातम्हा खलुनो निग्ग थे पणीयं आहार माहारेज्जा ॥७॥ नो अमा
atra साधू टतने करते एहवी आहार तेहनाकरणहारहवे नही स निग्रंथ तत्कथमितिचेत् श्राचार्या आहुः निग्रंथस्य ष्टतोपचिताहार' भुजमानस्य साधुने नि प्रणीतभूचूता चूरिमा प्रमुखनो आहारकरताने तुम्हचारीने ब्रम्हचर्ये शंकावा कांचावा विचिकित्सावा समुत्पद्यते भेदंवा लभेत् उन्मादंवा प्राप्न ुयात् दौर्घकालिकंवा रोगातंक' भवति केवली प्रन्नप्तात् धर्मात् भ्रंस्यते तस्मात् निययेन नहि भवति निग्रंथः घृतोपचित आहारस्य कर्त्ता स निग्रंथः ते साधु कहीजे ८ नहि साधुः अतिमात्राया भक्तपानं गृहातिः स साधुः निग्र धसाधुः पुरुषने १२ कवलास्त्रीने २८ नपुंसकने २४
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रायधनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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हटौका अ०१५ ४७८
मात्रया द्वाविंशकवलाः पुरुषाणां पाहारस्य मात्रा ततोधिकाहार पानक द्राक्षासर्करादेजलं आहार्तान भवेत् यतो हि भागमे पुरुषस्य हानिशकवले आहारमात्रा: स्वि वस्तु अष्टाविंशति कवलैः पाहार मात्रा नपुसकस्य चतुर्विशतिकवलैराहारस्य मात्रा उक्तास्ति यमचारिणी हि अधिकाहारपानीयं न ४ करणोयं इति य त्वाशियः पृच्छति तत्कथमिति चेत्तदा आचार्यप्राह निग्गयस्य खलु अतिमात्र पाहारपानीय माहत्त मात्राधिक आहारकर्तु वम्ह चारिणो व्रम्हचर्य यज्ञादयो दोषा उत्पद्यन्ते तमात् शादि दोषाणां प्रादुर्भावात् खलु निश्चयेन निग्रथो अतिमात्रयापानीय भोजनं वा नभुनेत् ८ इयष्टम म्हचर्य समाधिस्थानं ८ इत्यष्टमो वा टिका प्रथनवम्य च्यते नोनिग्गधे विभूसाण वाई हवइ सेनिग्ग'थेतं कह मिति पायरिया निम्म थे ख तु विभूसावत्ति एवि भूसि य सरोरे इत्थो जणस्म अहि लसणिज्ज हवद् तोणं तस्मइत्योजणेणं अहि लसिज्जमाणस्मबंभचेरै संकावा. तम्हा खलुनो
याए पाण भोअणं पाहारिता भव से निग्गथे तं कहमिति च पायरि थाह निग्ग थम्म खलु अमायाए पाण भोयणं आहारमाणस्म वंभयारिम्म बभचेरे संकावा कंखावा वितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जा भयंवालभिज्जा उम्मायं
वा पाउणिज्जादीहकालियं वा रोगायंकहविज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा तम्हा ख लुनानिग्गथे अडू एप्रमाणो अधिकरांणो भोजन आहारणहार न होइ ते साधुः तत् कथमितिचेत् आचार्याः पाहः निधस्य निश्चयेन तिमात्रयापान भोजनं कुर्वतः साधो: मानथको अधिकांणोने आहारजिमे जीमताने वम्हचर्य शंकावा कांक्षावा विचिकिच्छावा समुत्पद्यते भेदंवा लभेत् उन्मादंवा प्राप्नुयात् दीर्घ कालिक वा रोगातंक भवेत् केवलो प्रजमात् धम्मात् भस्थते तस्मात् निश्चयेन नहीं नियय साधु अतिमात्राये घणोपांची भोजन न भोगवे म जीमे
धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.न. ४१ मा भाग
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७८
निग्ग ये विभूसियवत्तिए भवेज्जा ८ मनिग्रयो भवेत् यो विभूषानुपातौनो भवेत् विभूषां सरोरशोभा अनुवर्तयितु अनुपनि तुविधा तु यौलं अस्येति तिविभूषानुवर्ती विभूषानुपातो वा शरीर शोभाकरणोपकरलेषु सान दन्तधावनादिभिः संस्कारकर्ता न भवेस साधुर्व म्हचारौ इति कृत्वा तदा शिष्य वाह तत्कवमिति चेत्तदा प्राचार्य पाह खलु निश्चयेननियः साधुविभूषानुवर्त्तिकः अरौरयोभाकारीविभूषितशरीरः सानाद्यलक्षात तनुः पुमान् स्वोजनस्य अभिलषणीयः कामायवाञ्छनोयो भवेत् ततोणं ततः पश्चात्स्त्रीजनन अभि लषणौ यस्य व्रम्हचारिणी व्रम्हचर्येशंकादयो दोषा उत्पद्यन्त
मायाए पाणभोयणं भुजिज्जा ॥८॥ ना विभ सागुवाई भवडू सैनिन्गधे तं कहमितिचे आयरिाहनिग्गयस्म खलु विभू साबत्तिए विभ सिय सरौरे इत्थिजणस्म अभिलसणिज्जेहवतओणं तस्म इत्थि जणणं अभिलसिज्जमाणमबभ
यारिस्म बभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छावा समुप्पज्जिज्जा भयंवालभिज्जा उम्मायं बा पाउणिज्जा दोह स निग्रय ते साधु कहोये ८ विभुषानुपाती शरीर वस्त्रादिकनौविभूखानीकरणहार हुवेनही ते निग्रथ साधुतेकिमइमजी शिष्य पूछतो ते शिख्य ने * आचार्यकहेछ नही निथ निश्चे करौने विभूषानी करणहार विभूषित अलंकृत शरीरथको स्त्रीजनने अभिलषनौय प्रार्थनौयडुवे तिवारे पछेतेह निनथने स्वौजने अभिलषौजता प्रार्थीजताथकाने तुम्हचारीने वम्हचर्यना सेवनहारने वम्हचार विषे धम्हचर्यनेविषे संकापापतो संदेह कंखा स्त्री प्रमुखनौवांछा एकष्टनोफलछे किंवा नही ते विचिकित्सा अतिसकरौ उपजे वा अथवा भेदचारिखनी विनासपाम वा वा उन्माद कामनी विकार पामे वा अथवा दीर्घकाल घणोकालरहे एहवो रोगदाघज्वरादिक आतंकसूलादिक रोगहुवे केवलौ नाप्रप्त भाष्या ज्ञानदर्शन चारित्र रूपवौदिया
. राय धनतपसिंह वाहादुर का आ•सं•उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टीका अ०१६
४८०
सूत्र
भाषा
तस्मात् शंकादि दोषाणां प्रादुर्भावात् खलु निश्वयेन निग्रंथो विभूषानुवर्त्ति को न भवेत् इति नवमं वृम्हचर्य समाधिस्थानं ॥ इति नवमीवा टीका ॥ अथ दशमी कथ्यते नोनिये सहरूवस्स गन्धफासाणुबाई भवेज्जा हवइसेनिम्ग येतं कहनितिचे प्रारियाह निग्ग थस्य खलुसहरूवरस गन्धफासाणवा यस्य बंभचेरे संका° तम्हा खलुनोनिग्ग थे सहरुव रसगन्धफासाण वाई भवेज्जा १० स निग्रथो भवेत् स इति कः यः शब्दरूप रसगन्धस्पर्शानुपाती न भवेत् महश्च रूपश्च रसश्च गन्धव महरूप रसगन्धस्पर्शाः तान् अनुपतति अनुयातौति शब्दरूप रसगन्धस्पर्शानुपाती शब्दो ममनादिः रूपं स्त्री संबंधि लावण्यं रसो मधुरादिः गन्धश्चन्दनागरकस्तूरिकादिः स्पर्शः कोमलः त्वक् सौख्यदः एषां भोक्ता साधुर्नस्यात् इत्युक्त शिष्यः पृच्छति तत्कथमिति चेदा चार्य आह निग्रंथस्य खलुनिश्वयेन शब्दरूप रसगन्धस्पर्शानुपातिनो ब्रम्हचारिणो वृम्हचर्ये शंकादयोदोषा उत्पद्यन्ते तस्मात् शंकादिदोषाणां प्रादुर्भावात् खलुनिश्चयेन निग्रंथः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती विषयासेवीनभवेत् १० एतद्दशमं वृम्हचर्य समाधिस्थानं ॥ १० अथाजसर्वेषां दशानां समाधिस्थानानां संग्रह कालीयं वा रोगायंकं हविज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भ ेसिज्जा तम्हा खलुनोनिग्ग थे विभसागुवाई सिया ॥ ॥ नो सद्दरूवरसगं'धफासाणु वाईभवद् सेनिग्ग थे तं कहमितिचे आयरिश्राह निग्गंधस्म खलुसहरूव रसगंधफासाणु धर्म्मथको भ्रष्टथावे चूके तेहभणौ खलु निश्चये मिश्र थ साधु विभूषावान् नभवति शोभानो करणहार नहवे साधू गार नही साधूः शब्दरूप रसगंध स्पीनुपाती ग्राहको भवति नहीं साधूमामणा वचन कटाच मधुरादि सुगंध कोमलादिक नी श्राश्रयणहारहोद्र ते निग्रंथ साधु तत्कथमितिचेत् आचार्याः आहुः निग्र ंथस्य निश्चयेन शब्दरूप रसगंधस्पर्शानुपातिनः ग्राहकस्य निग्रंथ साधुने निचे मामणां वचनकटाच मधुरादि सुगंध कोमला
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टीका
नोकान् पद्यरूपान् आह तं जहा जं विववित्तमणाइबं रहियथौ जणेणय बंभचेरस्मरक्वट्ठा पालयंत निमेवए १ साधुर्व म्हचारौ तं पालयं तं उपाययं निषेवते तुपदपूरणे तं कं य आलयो विवक्त एकांतभूतः तव्रत्यवास्तव्य स्त्रोजनेन च शब्दात् पशुपंडकैरपि रहित: पंडकशब्द न नपुंसक उच्यते कालाकाल विभागागत साचोजनं यादोजनंचाश्रित्य विविक्तत्व' नेयं यदुक्त अहमी पक्विएमोत्तु वयणाकालमेवय सेसकालंमिइन्तीअोनेयाउ अकाल
चारोमो १ तस्मात् य पालय च्यादिभिरसेवितस्तं आलयं व्रम्हचारी साधुश्च निषेवते इत्यर्थः पुनर्यश्चालय अनाकीर्णा ग्रहस्थानां यहाहरवर्ती 3 किमर्थ वम्हचर्यस्य रक्षार्थ योहि स्व वृम्हचर्य रचितुमिच्छति स एतादृश उपाययंनिषेवते अत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात् १ मणपवाय जणणिं काम
' वाईयस्म बभयारिस्म बभरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा बा समुप्पज्जिज्जा भयंवालभिवजा उम्मायं वापाउ णिज्जा दोहकालीयं वा रोगायक हविज्जा केव लिपन्नत्ताओ धम्मात्री भसिज्जा तम्हा खलुनोनिग्गथे सहरसरूव
गंधफासाणु वाईहबिज्जा दसमे बंभर समाहिठाणे भव भवति इत्य सिलोगा तं जहा जं वि वित्तमणाइन्नं दिकनो आश्रयणहार व्रम्हचारोने वम्हचर्ये शंकावा कंक्षावा विचिकिच्छा अथवा समुत्पद्यते भेदंवालभेत् उन्मादं वाप्राप्नुयात् अथवा उन्मादक पामे 8 दोघेकालिकंरोगा क' वा भवेत् चिरकालस्थायी रोगहुवे केवलो कथित धर्मातभ्रष्टोभवति धर्मधौ चूके तस्मात् नियेन नहीं निगंथ सन्द
रूप रसगंधस्पर्थानुपाती भवति स निगथ एतानि दशवमचर्य समाधिस्थानान्यक्तानि भवंति एदशवम्हचर्य समाधिस्थानक कयां एर्ण अधिकार श्लोक 8 कहछे १० यः विविक्की रहस्यमतः अनाकोण: ये विविक्त एकांतनिरव्य'जन स्त्रीजनेन रहित स्त्रीजने करि रहित वम्हचर्यस्य रक्षार्थ म्हचर्य नौरक्षाने
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०४०४१ मा भाग
भाषा
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टीका
४८२
* रागविवडणं बंभचेररओ भिक्यूथी कहंतु विवज्जए २ अथहितीयं ब्रम्हचर्य रतोभिक्षुः स्त्री कथां विवर्जयेत् स्त्रीणां कथा स्त्री कथा तां त्यजेत कीदृशीं
का मनः प्रसाद जननी अन्तः करणस्य हर्षोत्यादिकां पुनः कीदृशीं कामराग विवर्षनी विषय रागस्य अतिशयेन हिकी २ समक्ष संथबंधी हिं सहच अभिकवणं बभचेररी भिक्व निच्चसोपरिवज्जए३ ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुर्नित्यशोनिरन्तर सर्वदा स्त्रीभिः समं संस्तवं अर्थात् एकासमस्थि त्वाापरिचयं च पुनः अभीक्ष्णं वारं २ संकथा स्त्रो'जातिभिः सहस्थित्वा बह्रीं वाती परिवर्जयेत् सर्वथात्यजेत् ३ अङ्गपञ्चङ्गसंठाणं चारनवियपेहियं बमररोवीण
रहियं इत्योजणे णय बमचे रसरक्खट्टाआलयंतु निसेवए ॥१॥ मण पलहायजणगी कामराग विवडशी बमर्च र रो मिक्वत्थी कहंतु विवज्जए ॥२॥ समंच संथवत्थीहिं संकहंचअमिक्खण' बमचेर रओमिक्खू निच्चसो परिव उजए ॥३॥
अंगपच्चग संठाणं चारूल्लवियपहियं बमर्च र रोत्यौणं चक्खुगिभ विव उजए ॥४। कुईयरुईयंगौयं हसियंधणिय * अर्थे एवंविधः उपाश्रयः सेवएत् एहवे उपात्रय सेवे १ मन: प्रसादजननी मननें हर्षनौ ऊपजावणारौकामरागविवह नौं कामरागनौवधारण हारौएहवी
म्हचर्यरत सन् भिक्षुशोलवृतपालणहार साधुस्त्रोकथांतु विवर्जयेत् स्विनौकथा न करे बर्जे २ स्त्रिभिः समं संस्तवः परचयः स्तीसंघात घणो परिचय संकथा च अभीक्ष्ण वारं २ स्त्रीसंघाते वार २ वार्ता न करे ब्रह्मचर्ये रतः सन् भिक्षुः ब्रम्हचर्चनेविषेरत साधु नित्य स परिचयः वर्जयेत् नित्य ते परिचय वर्जे ३ अंगानि शिरः प्रभृतौनि प्रत्यंगानि कुच कटाक्षादौनि अंग शिरआदि देइने प्रत्यग कुच कटाक्षादिक मनोहर उमत्त उल्लापः प्रेषित: चारु मीठोबोलवु नजरभरोजोबु तुम्हचर्यरतः स्त्रीणां व्रम्हचर्यने विषेरत साधुस्खोने चतुर्गाद्य विवर्जयेत् स्वीना मीठांवचन आखिना 'कटाक्षदेखे नहीं नेत्र
राय धनपतसिंह बाहादुर का था.स.उ ४१ मा भाग
भाषा
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..टौका
चक्यू गिनं विवज्जए ४ ब्रह्मचर्यरतः साधुः स्त्रोणां अङ्ग प्रत्यङ्ग संस्थानं चक्षु ग्राह्य विवर्जयेत् अङ्ग मुख प्रत्यङ्ग स्तनजघन नाभि कक्षादिक संस्थानक कटो विषये हस्त दत्वा जई स्थायित्व पुनः स्त्रीणां चारूलपित प्रेचितं चक्षुह्य विशेषेण वर्जयेत् चारुमनोहरं यत् उन्नपितं मन्मनादिजल्यनं प्रकष्टं
ईचित चक्रावलोकन एतत्सर्व परित्यजेत् कोर्थ ः ब्रह्मचारीहि स्त्रीणां अङ्ग प्रत्यङ्ग संस्थानं चारुभणितं कटाक्षैरवलोकनं एतत्सर्व दृष्टि विषय मागतमपि * ततः स्वकीयञ्च क्षुरिन्द्रियं बलावि वारयेदित्यर्थः ४ कइयं कइयं गौयं हसियंचणियक दियं बंभचेररोत्थौणं सोयगिन विवज्जए ५ ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां ।
कूजित रुदितं गोतं हसित स्तनित क्रन्दितं श्रोत्र ग्राह्य कर्णाभ्यां गृहौतुं योग्यं विशेषेण वज्जयेत् न शृणुयादित्यर्थः ५ हासं कोडं रयं दप्प सह सावित्तासियाणि य सह भुत्ता सणाणिय इति वा पाठः बम्भचेर रोथोणं नाणुचिन्ते कयाइवि ७ ब्रह्मचर्यरतो ब्रह्मचारी स्त्रीणां हास्य पुनः कौडां तधारतं मैथुन प्रोति दर्प स्त्रीणां मानमर्दनादुत्पन' गर्व पुनः सहसा अपत्रासितानि सहसात्कारण आगत्यपश्चात्पराङ्मुखस्थिताना स्त्रीणां नेत्रे हस्ता भ्यां निरुध्य भयोत्पादनहास्योत्पादनानि सह सावित्रा सितानि उच्यन्त एतानि पूर्वानुभूतानि कदापि न अनुचिन्तयेत् नमरेत् अथ च सह भुक्ता सनानि न अनुचिन्तयेत् सह इति स्त्रिया साई भुक्त' एकाशने उपविशन पूर्व भोजनानि कृतान्यपि न स्मरेत् सहासन भुक्तानि इति वक्तव्ये सह भुक्ता * सनानि इति प्राकृतत्वात् ७ पणियं भत्तपाणं तु खिष्य मय विवडण बम्भचेररी भिक्व निच्चसो परिवजए ८ ब्रह्मचर्यरतोभिक्षः प्रणीतं क्षरदधतादिरसं * कंदियं बंभचेर रमोत्यौणं सोयगिज्म' विवज्जए॥५॥ हासं किडरडू'दप्य सहभुत्तासणाणिय वंभचेर रोयोणंनाणु
पाह्यवर्ज 8 अस्यार्थः प्राग्वदवसेयः कुपोतं रुदित गोत हास्यं स्तनितं कंदित कंदितथब्द म्हचर्य रतः सन्स्त्रीणां म्हचर्य रत साधु खौनां धोत्र * ग्राह्य विवर्जयेत् स्त्रीनो शब्दमानकाने संभलाइते वर्जे ५ हास्य हासु क्रीडां रमव' रत संभोगः दप गर्व अकस्मात् अप बाधितानि वासकरणानि
रबधनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
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ocm
भक्त माहारं तथा पानं दाख्या खजूर सकरादिमिथित' पानीयं नित्ययः परिवर्जयेत् सर्वदापरित्यजेत् सदा सेवनाहायं स्यात् तथा व्रम रतीभिर्यता टीका हारं पानीय च क्षिप्र' शीघ्र' मद विवईनं कामोद्दीपक भवति तदपि नित्य परिवर्जयेत् ८ धम्मल मियं काले जत्तत्थ' पणिहाण नार मत्तन्तुभ
जिज्जा बम्भचेररी सया ८ ब्रह्मचर्यरतः साधुव्रह्मचारी सदा अति मात्र मात्रा ऽतिरिक्त अतिमात्र मात्राधिक आहारं नैव भुनौत परं कौशं आहारं धर्मेण लब्ध न तु विप्रतार्यगृहीत तदपि आहारं मितं मानोपेत तदपि काले गृहो तु तदपि आहारं यात्रार्थ संयमनिर्वाहार्थ न तु बल वोर्यादिलद्दार्थ ग्रहोतं तदाहारं कदाचित् सरसं अपि लब्ध तदा सदैव नभुञ्जौत कोदृशो ब्रह्म चारी साधुः प्रणिधानवान् प्रणिधान चित्तस्यस्थैर्य तद्धि
द्यते यस्य स प्रणिधानवान् चित्तस्वास्थ युक्तः इत्यर्थः । विभूसं परिवज्जिज्जा शरीर परिमण्टण बंभचेररओ भिक्खू सिङ्गारत्वं न धारए १० वम्हचर्यरतो सूत्र
चिंते कयाइवि ॥६॥ पणीयंभत्तपाणंतु खिप्पमय विवडणं । बभर रोभिक्खू निच्चसो परिवज्जए ॥७॥ धम्मलई
मियंकाले जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तंतुभुजेज्जा बंभचे ररओ सया ॥८॥ विभूसं परिवज्जे ज्जा सरीर परिमंडणं बंभ स्वोस्थुरामतिकोधो वासऊपजायो वम्हचर्यरतो भिक्षु नास्मरति कदाचित् न संभारेकिवारए ६ प्रणित रस संसक्त भक्तपान क्षिप्रं मद बिवई न
जतावलु'मदनु जपजावणहार तत्काल वम्हचर्यरतोभिक्षु शील वृतनोपालणहार नित्य शदा परिवर्जयेत् एसरस आहारकरवी छाडे ७ धर्मार्थ * लब्ध मित' काले धर्माचे पाम्योते पणियोडु गोचरौवेलाइ यात्रार्थ संयमनिर्वाहार्थ चित्त स्वस्थोपेत संयमना निर्वाहने अर्थे स्वस्थचित्त न अतिमात्र
पुनः भूजीत घणो पेटभरीने खाइनही वम्हचर्यरतः सदा ब्रम्हचर्यने विर्षे सदारक्तछे ८ शरीर सत्कार रूपं परिवर्जयेत् शरीरसोभाबर्जे शरीरस्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का मासं उ• ४१ मा भाग
भाषा
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ए.टोका
8 भिन्नुः शरोरस्य परिसमन्तात् मण्डनं नखकेशादोनां संस्कारकरणं शृङ्गारावं परिवर्जयेत् पुनब्रम्हचर्यधारो विभूषां सम्यक् शब्दादिविहित शरीर शोभा 8 परिवर्जयेत् १० सद्दे क्वेय गन्ध य रसे फासेतहेवय पञ्चबिहेकामगुणे निच्चसोपरिवज्जए ११ ब्रम्हचारौनित्यशः सर्वदा शब्द की सुखदं रूपं नेत्र प्रीति 8 करं पुनर्गन्धनासा सुखदं तथा रसमधुरादिक तथैव स्पर्श त्वक प्रोतिकर एवं पञ्च विधकाम गुणान् परिवर्जयेत् ११ अथ यत् पूर्व उक्त शंकाकांक्षादि
दूषणं स्यात् तत्सर्व पृथक् दृष्टांतेन द्रढयति पालीथी जणाइब्रोधोकहायमणोरमा संथवो चेवनारीणं तासिं इन्दियदरसिणं १ कूइयं रुइयं गौत' 8 हसियं भुत्तासिणाणियपणीयं भत्तपाणच्च अइमायं पाणभोयणं१ गत्तभूसणमिट्टञ्च कामभोगायदुनयानरस्मत्तगर्वसिस्म विसन्तालउडं जहा इति तिसृभिर्गा थाभिः पूर्वाण्ये व ब्रम्हचर्य समाधिर्भ गकारणान्याह आत्मगवेषकस्य नरस्य स्त्रौजनस्य च एतत्सर्व व्रम्हचर्य घातकरन्त्याज्य' इत्यर्थः आत्मानं ब्रम्हचर्य जीवितं चररओ भिक्वसिंगारत्वं न धारए । सई रुवय गधेय रसफासे तहेवय । पंचविहेकामगुणे निच्चसी परिवज्जए ॥१०॥
आलउत्थी जणाइन्नोत्थी कहाय मणोरमा संथवी चे वनारीणं तासिंदूदिय दरिसणं ॥११|| कुईयं रूईयंगीयं हसियं भुत्ता परिमंडना गरौरनु' मंडन नख केश मूंछ प्रमुख एहनो शोभावर्जे तुम्हचर्य रतोभिक्षुः मौलवृतधारी साधु शृंगारार्थ न धारयेत् शृंगारने अर्थे धरे * नहोर शब्देशब्दरूप गंधने विषे रसस्पर्थे तथाच तिमज पंचविधान् कामगुणान् पांचे प्रकार कामगुण प्रति नित्य सः परिवर्जयेत् सदा वजे : बुम्हचारी १. प्रालयः स्त्रीजनाकोस ज उपाश्रयस्त्रोस् भयोछे स्त्री कथा च मनोरमावली स्वौनी कथा मनोहर कहीद खस्तवः परिचयो नारीभिः * सह स्त्रोनीपरिचय घणोछ तासां स्त्रीणां द्रियदर्शनं पने स्त्रीनां ज चक्षुरादींद्रियदेखवा ११ कुस्त्रीणां कूजित रुदित गीत स्त्रौना कूजितरोवु गौत
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०० उ ४१मा भाग
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MAN ma
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गवेषयतोति आमगवेषकस्तस्य वल्लभ व्रम्हचर्यस्य कि मिव ताल पुट विषमिव यथा शब्द इवार्ये यथा ताल पुटं विष तालुक स्पर्थनमावा देवत्वरित जोवित हन्ति तथा एतदपि त्वरित ब्रम्हचर्यजीवितमपहरतीत्यर्थः तत् किं कि इत्याह स्वौ जनाकौर्णः पालयोग्टई उपाश्रयः १ पुनर्मनीरमा: मनोहरा स्त्रो कथा १ च पुननारोणां संस्तवः स्त्रोभिः सह एकासने उपविशन परिचय करण' पुनस्तासां स्त्रीणां रागण इन्द्रियाणां नयन वदनस्त नादीनां दर्शनं १ पुनः स्त्रोणां कूजितं तथा रुदित पुनर्गीत तथा हसित पुन: स्त्रीभिः सहभुक्ता सनानि पुनस्तथा प्रणीतरसभक्त पानसेवनं पुनरति मात्र पानभोजन १ पुनर्गात्र भूषणार्थ शोभाकरण पुनर्दुज्जयाः कामभोगाः अधौरपुरुषैस्त्यक्तुमशक्याः एतसर्व ब्रम्हचर्य धारिणापरिहरणीयं १ दुज्जएका
सियाणिय पणीयंभत्त पाणंच अमायं पाणभीयणं ॥१२॥ गत्तभूसणमिट्ट'च कामभोगाय दुज्जया नरस्मत्तगवेसिस्म विसं तालउडंजहा ।१३। दुज्जए कामभोगय निच्चसो परिवज्जए। संकाठाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥१४॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०७०४१ मा भाग
भाषा
ॐ हसित' पूर्वभुक्तानिभीगानि अयनानि इस' पाहिलाज भोगभोगव्या प्रणीतभक्तपानंच सरस पाहारपाणी प्रतिमावायः पानभोजनमानाथको 8 अधिक आहारपाणी १२ गात्र विभूषण' इष्ट' च शरीरनी थोभा भलौकरे तथा दुर्जयाः कामभोगाः एतलावांना तुम्हचारी कर तो तेहने कामभोग
जोतता दोहिला जोत्यान जाइ नरस्य पामगवेषिणः जे पुरुष आपणा मानोगवेषौछे जाणछे मामाने संसारथकोकाटु एतानि पूर्वोक्तानी तालपुट * विष सदृशांनि एजपुठे कह्यां वोलते प्रामागवेषोने तालपुटसरोषाचे १३ दुर्जयान् कामभोगान् एकामभोग दुजयले नित्य सत्कार कामभोग परि
वर्जयेत् नित्य सदा कामभोगवले तथा शंकास्थानानि सर्वाणि च वलौजे शंकानां स्थानकतै सर्ववजे वर्जयेत् प्रणिधानवान् वृद्धवान् परिहरे एकाग्र
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• टीका
अ० १६
४८७
सूत्र
भाषा
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मभोगेय निचसो परिवज्जिए सङ्काठाणाणि सव्वाणि वज्जिज्जापणि हाण्वं १४ प्रणिधानवान् एकाग्रचित्तः सर्वाणि दशापि शंकास्थामानियानि पूर्वोक्तानि तानिवज्जयेत् पुनर्दु ज्ज' यान् भोगान् परिवर्जयेत्, पुनः कामभोग ग्रहण' अत्यन्तनिवारणोपदेशार्थं १४ धम्मारामे चरभिक्वधि इम धम्मसारही धम्मा रामेरएदन्तविन्भचेरसमाहिए १५ ब्रम्हचर्य समाधिमान् भिक्षुः साधुर्धर्मारामे चरत धर्मः आराम इव दुःख सन्तापतप्तानां सौख्य हेतु त्वात् धर्माराम स्तस्मिन् धर्मारामेतिष्टन् शौलधर्मः स एव आरामस्तत्व विचरेदित्यर्थः कौशोभिक्षुर्धृति मान् धैर्ययुक्तः पुनः कोट्टशो धर्मसारथी धर्ममार्ग प्रवर्त्तयिता पुनः कथं भूतो धर्मारामरतः धर्मे आसमन्तात रमन्ते इति धर्मारामाः सात्रवस्तेषुरतः साधुभिः सह युक्तोनत्वेकाकौतिष्टति पुनः कौशोदान्तः इन्द्रि याणां जेताकषायजेताच'१५ देवदाणवगन्धब्बा जक्खरक्वसकिं नरा बम्भयारिं नम सन्ति दुक्कर करिन्तित १६ श्रथ ब्रम्हचर्यधरणात, फल माह देवाविमान वासिनो ज्योतिष्काच दानवा भुवन पतयो गन्धर्वादेवगायनाः यता वृक्ष वासिनः सुराः राक्षसाः मांसास्वादतत्पराः किन्नराः व्यन्तरजातयः
I
धम्मारामे चरेभिक्खू धिइमंधम्मसारहौ । धम्मारामे रएदंते ब'भच र समाहिए | १५ | देवदाणव गं'धव्वाजक्खरक्ख किंनरा बभयारिं नर्म संति दुक्करंजे करंतितं | १६ | एसधम्म धुवेनियए सासए जिणदेसिए | सिद्धासिज्म तिवाणेणं चित्तनोधणौ १४ धर्मारामेचरेत् भिक्षुः धर्मने विषे प्रीयवन खंडतेहने वोपेरमेसाधू घ्रितिमान् धर्म्मसारथी संतोष सहित धसारथी धर्मारामेरतः दांतः संघाटकमध्यवर्ती धर्माराम साधूकहौद्र ते मांहिभौन्योके वम्हचर्य समाधिमान् ब्रम्हचर्य सहितवते के १५ देव दानव गंधर्वाः देव दानव अने गंधर्व यच राक्षस कोनराः जच्च राचसव्य' तर वुम्हचारीने नमस्कारं कुर्वतौ ः ब्रम्हचारीने ते नमस्कारबारे यस्मात् दुष्कर ं करोति जिण कारणे दुष्कर
राय धनतपसिंह वाहादुर का श्र० सं० उ०११ मा भाग
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प०१६
एते सर्वेपि तव्रम्हचारिण' नमस्कुर्वन्ति तं कं यो व्रम्हचारी पुरुषः स्त्री जनी वा दुष्कर का मशक्यं धर्म करोति शौलधर्म पालयति १६ एस धम्ने
धवेणितएसासएजिणदेसिए सिहासिकन्ति चाणण' सिकिस्मन्ति तहावरत्तिबेमि १७ एष धर्मः अस्मिनध्ययने उक्त: तुम्हचर्यलक्षणी प्रबोस्ति परतीय 8 भिरनिषेध्योस्ति तस्मात् प्रमाण प्रतिष्टित: पुनर्नित्य त्रिकालेप्यविनखरः अत एव भावतः त्रिकाले फल दायकत्वात् पुनर्जिनस्सीर्थकरैथितः प्रकाशितः
इति विशेषणः अस्य भोलधर्मस्य प्रामाण्य प्रकाशित अनेन शीलधर्मेण बहवी जीवाः सिद्धाः अतीतकाले सिद्धि प्राप्ताः च पुनः ते न धर्मेण कृत्वा इदानीं सिध्यन्ति तथा तेन प्रकारण शौल धर्मेण मेस्यन्ति सिद्धि प्रासान्ति अबाध्ययने मुहुर्मुहचर्यसमाधिस्थानानि प्रकाशितानि मुहम उर्दूषणानि उक्तानि तत् अत्रयोले अत्यन्तपालनादर प्रकाशनायन तु पुनरुक्ति दोषो यः इति अहं ब्रवीमि इति सुधम्मा स्वामीजंबूखामिनं प्राह १० इति वम्हचर्य समाधिस्थानानां अध्ययनं षोड़शं संपूर्ण १॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मी कौर्तिगणि शिष्य लक्ष्मी
सिभिमंतितहावरेत्तिब मि ॥ १७॥ बभचे रज्मायणं सोडसं समत्तं ॥ १६ ॥ जेकेउपव्वइए नियंठ धम्म सुणिता
राय धनपतिसिंह बाहादुर का आ०सं० उ. ४१ मा भाग
पाभा
* करछे १६ एषः धर्मा ध्रुवो नित्यः एधर्मनौच्चे शाखतोछे शास्वत: जीनं तीर्थ करण देसितः साखतो धर्म तीर्थ करे का पूर्व सौधाः अधूनापि सियति अनेन तुम्हचर्य रूपेण धर्मेण पूर्वे सौधाहवणांपणिसौ के एसौलधर्मथौ तथा अपर प्राणिनः आगामी काले सिहि गमिष्यतो वीजापणि प्राणो आगल्याभवनविषे सौझस्ये १० इति वृम्हचर्य समाधिस्थानं समाप्तः ॥ १६॥ सोलमा अध्ययनने विषेसीलगुणवर्णनं संपूर्णम् अथ हिवे पाप श्रमण माख्यातः अध्ययन सप्तदश मोप्रोचते १० यः कश्चिदिनयोपपत्र निग्रंथः यतीइ धर्म सांभली दीक्षालोधौ धर्मश्रुत्वा विनयान्वितः सन् धर्म
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उल्टीका अ०१७ ४८९.
वल्लभमणि विरचितायां ब्रम्हचर्य समाधिस्थान षोड़श संपूर्ण ॥१६॥ अथ सप्तदश अध्ययन प्रारभ्यते ॥ षोड़श अध्ययने ब्रम्हचर्य गुप्तयः प्रकासितास्ता गुतवतु पापस्थान वजनादेव भवति तस्मात्यापस्थान सेवनात्याप श्रमणो भवति तत: पाप बमण ज्ञानार्थ सप्तदशं अध्ययन प्रकाश्यते इति घोड्य सप्तदशयोः सम्बन्धः जैकेइओ पञ्चइ एनियंठे धम्मं सुणित्ताविणीववन्ने सुदुब्लई लहि उम्बोहि लाभ विहरेज पच्छाय जहासुहंतु यः कश्चित् प्रवजितो एहोतदौची निथः साधुः पूर्व धर्म' श्रुतचारित्र रूपधर्म श्रुत्वाविनयं ज्ञानदर्शन सेवनरूप' उपपन्नः प्राप्तः सन् पुनर्यः साधुः सुतरां अतिशयेन दुर्लभ सुदुल्लभ बोधिलाभ श्रौतीर्थ करस्य धर्म सम्यक्त लब्धा पश्चाद्यथा सुख यथेच्छ निद्राविकथा प्रमादवत्वेन विचरत सिंहत्वेन धर्म अङ्गीकृत्य शृगाल त्या एव विचरेत् स च प्रमादौगुरुणा हे शिष्यत्व अधोष्व इत्युक्तः सन् किं वक्ति तदाह १ सिज्जादढापाउरणंमि अत्थि उप्पज्जईभुत्तुतहेवपात्री जाणामिज वडू पाउसत्ति कि नाम काहामि सुएणभन्ते १ हे गुरोशिज्जा उपाश्रयी वसतिह तावर्षा शीतातपपीडानि वृत्तकरास्ति प्रावरणं वस्त्र' शीता द्युपद्रवहर शरीराच्छादक मे मम अस्ति वर्तते है गुरी पुन भॊक्त भोजनं तथैव पातु पानयोग्य' उत्पद्यतमिलति हे आयुष्मन् हे भगवन् यहत मानं जोवादिवस्तु वर्तते तदपि अहं जानामि इति हेतोः हे भगवन् श्रुते न सिद्धान्ताध्ययने न किं करिष्यामि अत्र हे भगवन् इत्यामन्त्रणं क्षेपे
वर्तते कोर्थः ये भगवन्तोऽधोयन्त तेषां अपिन अतीन्द्रियज्ञानं तत् किं गलतालशोषणत्वध्यवसितोयं भवति स पाप यमण उच्यते इति इहापि सम्बध्यते R विगोववन्ने सुदुल्लहं लहिओ बोहिलाभ बिहरेज पछाय जहासहता। सज्जादढा पाउरणमिअस्थि उप्पज्जई मीत्तु
सभिलोने वोनय धर्म अंगोकारकरोने पालवालागो सुदुर्लभ दीहिल लञ्चा लाभोने बोधिलाभं सम्यक्तलेईने अंगीकार करौने विहरेत् पश्चात् यथा 8 सुखं विचरे पर यवा सुखे १ अव्यावसति: हठा वर्षाकालादौ अस्तो उपाय के वर्षाकालयोग्य वस्त्रपणिमाहरेके उत्पद्यते भोक्त तथेव पात
राय धनपतसिंह घादर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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०69
* सिहावलोकनन्यायेन २ जैकेई पब्बई एनिद्दासोलेपगामसी भुच्चापि चासुवई पापसमणत्तिवुचई २ स पाप थमण इत्युच्यते पापशासौ श्रमणाश्च पापत्रमण:
पापिष्ट साधुरित्यर्थः स इति कः यः कश्चित् प्रकृजिती गृहीतदीक्षः सन् पश्चात् प्रकामशोऽत्वं तं भुक्त्वादधिकरं बादिकं भुक्का पौला दुग्धतक्रादिकं आचम्य निदायोलो भूवा सुख प्रतिक्रमणादि क्रियानुष्टान अकृत्वा एवखपिति स सम्यक साधुनभवेदित्यर्थः ३ आयरिय उवमा एहिं सुयं विण यञ्च गाहए ते चेवखिं सई वाले पावसमत्ति वुच्चई ४ स पाप श्रमण इत्युच्यते स इति कः यस्तानेव आचार्यान् गण बृद्धान् उपाध्यायान् पाठकान् खिंसई इति निन्दते कि जानन्त्ये ते अज्ञाः अहं यादृशं आचारं सूत्राणांऽर्थ जानामितादृशं एते आचार्या उपाध्यायान जानन्तीत्यु क्वानिन्दति तान् कान् वैः आचार्य रुपाध्यायैश्च श्रुत शास्त्रं विनयञ्च ग्राहि नः शिथितस्तान् प्रति निन्दति इति न जानाति एतैरेवाहं शिथितः एतादृशः कृतघ्नः पाप श्रमणः श्रमणाभासः ___ तहेवपाउं जाणामिजंवट्टदू आउसोत्ति किनामकाहामिसुएणभते ॥ २॥ जेकेई पब्बईएनिबासीलेपगामसो।
भोच्चापिच्चासुहंसुबई पावसमण त्ति बुच्चई ३॥ आयरिय उवज्झाएहिंसुयं विणयंच गाहिए तेचे बक्षिसई बाले पाव
राय धनपत सिंह चाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
भात पांणोमोकलालाभ के तत् जानामि जोवादियत्वर्तते हे आयुष्मान् हजाणुछ जे वत्त के जीवा जौवादि पदार्थ उपदेश कि नाम करिष्यामि श्रुते नाधोतेन हे भगवन् हे पूज्य सिद्धांतभणीने कि स्थकर २ यः कश्चित्प्रबजितो जे कोई दीक्षालेई निद्राशीलः प्रकामो बहशः निद्राने विषे तत्पर धयो हइ भुक्ताखाईने पोत्वातक्रादिक सुख' स्वपतिछादि छासिपौने सुखेसूद पापश्रमण इत्युच्यते ते पापश्रमणकहौइ ३ आचार्योपाध्यायैः अर्थतः आचार्य उपाध्याय पामे श्रत विनयं वाशिष्यतः श्रुत सिहांतभण्या विनयादिशोख्या तेषां प्राचार्यादीनां निंदति मूर्ख: पछेते गुरुने मूर्खनिंदे स पापश्रमणः
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• टीका
स.१७
४८१
* श्रमण लक्षणहीन श्रमणत्व मन्यमानः पाप श्रमण उच्यते कोदृशः सबालोऽनानोनिर्विवेको इत्यर्थ ४ पायरिय उवझायाण सम्मं नोपहित पपई अपडि
पूय एथडे पावसमत्ति वुचई ५ ज्ञान विषयं पाप श्रमणत्व उक्वादर्शन विषयं आह यः आचार्याणां पुनरुपाध्यायानां सम्यक प्रकारेण वै परीत्यराहि त्येन न परिप्यति प्रोति न विदधाति पुनर्यः अहंदादीनां यथा योग्य पूजायाः पराङ मुखो भवति अप्रति पूजको भवति अथ वा उपकारकत्त रपि * उपकारं विमार्यास्य प्रयु पकारं किमपि न करोति स अप्रतिपूजक उच्यते पुनस्तथीहङ्गारो मनसि एवं जानाति अहं महापुरुषोस्मि एतादृशो मुनियः स्यातू, स पाप श्रमण उच्यते ५ सम्ममाणि पाणाणि वौयाणि हरियाणि य असंजए संजयमद्रमाणे पावसमणत्ति वुच्चई ६ यः प्राणान् दित्रि चतुरिन्द्रि यान् संमर्द मानोऽतिशयेन पोडयन् च पुनः बोजानिशालि गोधूमादि सचित्तधान्यानि संमर्दयति च पुनईरितानि दूर्वादीनि फलपुष्पादौनि समर्दयति पुनर्यः असंयतः सन् आत्मानं संयतं मन्यमानः स पाप श्रमण उच्यते ६ संथारं फल गम्पौढं निसज्ज पायकम्बलं अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणत्ति
समणेत्ति वुच्चई ।४। आयरिय उवभायाणं सम्म'नो परितप्पई। अप्पडिपूयएथद्धे पावसमणेत्ति वुच्चाई ॥५॥ सम्मद माणीपाणाणि बीयाणि हरियाणिय । असंजएसंजयमन्नमाणे पावसमणे त्ति वुच्चई ।।६।। संथारं फलग पीढं निसिज्ज
गाय धनसिंह बाहादुर का प्रा-सं००छ ४१मा भाग
भाषा
इत्य यते ते पाप श्रमणकहीइ ४ आचार्योपाध्यायानां प्राचार्य उपाध्यायनी सम्यक न परिसम्बक सुश्रुषा न करोति सम्यक् प्रकार शुश्रधा न करे अप्रति मुखो गर्वणस्तच गुरु हुतो विमुखरहे स्तश्चयको अहंकारौ स पाप श्रमणः इत्युच्यते ते पापश्रमण ५ संमई यन् प्राणान् वेंद्रियादीन् बोजानि हरि तानि च दुर्वादोनि वीजनी लोट्रीमहे असंयतः सन् आत्मानं संयतं मन्यमाना असंयतीथको आपणा आत्माने संयतीकरीमाने स पापथमण इत्युच्चतः ।
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उ.टौवा प्र.१५
ONNN
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बुच्चई ७ पुनर्यः संस्तारकम्बलादिक फलक पट्टिकादिक पीठं सिंहासनादिकनिषद्या निषौद्यते उपविश्यते इति निषद्यातां निषद्या स्वाध्यायातापतना दिक्रियायोग्यां भूमिं पादकम्बलं पाद पुज्छनं इत्याद्युपकरणं अप्रमृज्यरजीहरणादिना प्रमार्जनं अक्कत्वा जीवयतनां अक्कत्वा पारीहतसपाप श्रमण उच्यते ७ दवहवस्म चरई पमत्तेय अभिक्षण उमङ्गणय चण्डेय पावसमणेत्ति बुचई ८ पुनर्यः आहाराद्यर्थ' यदा व्रजति तदा दबदबइति धातैः पृथिवीं कुड्यन् यौन'२ ब्रजति ईर्यासमिति' न साधयति पुनरभीक्षण' वार २ प्रमत्तः प्रमादौ सर्वाभिः स मिति भिहीनस्थात् अप्रमत्ती न भवति पुनर्य उल्लघन: उल्लायति' अन्नानिनो अथवा बालानांहास्याद्यविनयकई णां भावयन् स्वकीयं आचारं अति कामयतौति उल्लानः पुनर्यच'डः क्रोधीभातचित्तः स्यात् स पाप थमण उच्यते ८ पडिले हैद पमत्ते अवउकार पायकम्वल पडिलेहणा अणा उत्ते पावसमणत्ति बुचई / पुनः पाप श्रमण स उच्यते स इति कः
पायकवलं । अपमज्जियमारुहई पावसमणेत्ति वुच्चई ७॥ दवदवम्म चरईपमत्तेय अभिक्खणं। उल्लंघणेयचंडेय पाव
समणेत्ति वुच्चई ८॥ पडिले हेदू पमत्ते अवउभइ पायकंबलं । पडिलेहणा अणाउत्तं पावसमणेत्ति वुच्चइ ॥ पडि संस्तारकं काष्टमयं पट्टकं संथारो पूठिउवाजोठ स्वाध्याय भूमि पादपुछन सज्मायनी भूमौका पुछण' अप्रमृज्य पारोहति अणपूंजवेसे पापश्रमण : स उच्यते ७ द्रुत द्रुत' भिक्षादौ चरति जतावलो २ भिक्षाभणीजाई प्रमत्तो भवति वारंवार प्रमत्तहर वार वार वच्छ वालकादीनां लंघका क्षुद्रवा छडावालक लांघीने जाइ चंडससथकोरहे पापत्रमणः स उच्यते ८ प्रतिलेखति प्रमत्तः सन् प्रमत्तथको पडिलेहणकर मुचति पादपोंछन कंबलादि भावतोहां पूछणां कांवलामूके प्रतिलेखनया अनुपयुक्ती : पडिलेहस्य असावधानसुते मनिकरी स पाप थमणति उच्यते ८ प्रतिलेखयति प्रमत्तः सन्
राथ धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.२०४१ मा भाग
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४० टोका
घ०१७
४८३
सूत्र
भाषा
XXXXX
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यो वस्त्र पात्रादिक ं निजोपकरणं प्रमत्तः सन् प्रति लेखयति मनो विनाप्रति लेख्यतौर्थः पुनर्यः पादक' बलं पाद पुञ्छनं अथ वा पात्रकम्बल' अपोि यत्त्र तत्र अप्रमार्जिते अप्रति लेखिते स्थले निचिपति अत्र पात्रकम्बल ग्रहणेन सर्वोपधि ग्रहण कर्त्तव्य' पुनर्यः प्रतिलेखनाऽयुक्तः प्रति लेखनायां स्वकीय सर्वोपधि प्रतिलेखनायां अनायुक्त: आलस्य भाक् प्रत्युपेचानुपयुक्त इत्यर्थः एतादृशः पाप श्रमणो भवेत् १० पडिलेहेदू पमते सेकिञ्चिनिसामिया गुरु ं परि भवईनिच्च' पावसमणेत्ति बुचई ११ स पाप श्रमण इति उच्यते सः कः यः साधुर्यत्किञ्चित् वस्तु उपाध्यायादिकं प्रतिलेखयति तदा किञ्चिनिशम्य प्रतिलेखयति कोर्थः यदा प्रतिलेखनावसरेक विद्दार्त्ताङ्करोति तदा तदार्त्ता श्रवण व्यग्रचित्तः सन् प्रतिलेखयतीत्यर्थः पुनर्यो गुरून् नित्यं परि भवति संतापयति स पाप श्रमणो भवति ११ बहुमाईपमुहरोथडे लई अणिग्गहे असंविभागी अचियत पाव समणेत्तिबुवई १२ पुनर्यो बहुमाय प्रचुरमायायुक्तो भवति पुनर्यः प्रमुखरः प्रकर्षेण वाचालो भवति पुनर्यस्तब्धोहंकारी भवति पुनर्योलुब्धो लोभो पुनर्योऽनिग्रहः नविद्यते निग्रहो यस्य स लेहेद्र पमत्तेसेकिंचिहु निसामिया। गुरु परिभवेद्र निच्च पाव समणेत्ति वुञ्चई १० ॥ बहुमाई पमुहरी थलुङ अनिग्ग है । असंविभागी अवियत्त पावसमणेत्ति वुञ्चई ११ ॥ त्रिवायंचउदेरेद्र अहंमे अत्तपन्नहा । बुग्गहे कलहे प्रमत्तथको पडिले हे स साधुः किंचित् विकथादिक' निशम्य श्रुत्वाकाइ विकथादिसांभलीने गुरुभिः शिष्यतः सन् गुरोः पराभव' करोति स पापश्रमणः इति उच्यते १० बहमायावान् प्रकर्षण वा चालः घणीं मायाकरोड वाचाल घणोवोले स्तब्धः अहंकार लुब्धो लोभवान् इंद्रिय निग्र थरहित अहंकार लोभ इंद्र जानहो संविभागरहितः गुर्वादिष्वपि अप्रीतिमान् स विभागनकरे आहार नोभागनकर नहीं गुरु ऊपर अप्रोति से करें पाप श्रमणः
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं० उ०४१ मा भाग
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Ca
अनिग्रहः अवशौक्वतंन्द्रियः पुनर्योऽसं विभागौ गुरुग्लानादौना उचिताहारादिनान प्रति सम्बिभजति पुनर्योऽचियत्त इति गुर्वादिषु अप्रतीति कर्त्ता स * पाप श्रमण इत्युच्यते १२ विवायचउदेरेई रे अहम्मे अत्तपब्रहा वग्ग हे कलहेर पावसमशेत्ति बुच्चई १३ यः पुनरेतादृशा भवति स पाप श्रमण इत्यु
च्यते सः कः यो विवादं वाक्क लहं उदौरबति उपशान्त मपि पुनरुज्वालयति धुनयः अधर्मः असदा चाररतः पुनर्याम प्रज्ञहा आप्तां स होध रूपतया हितां प्रज्ञा हन्तोति आप्त प्रनहा तत्व बुडिहन्ता पुनर्योव्युह हो भवति विशेषेण उह हीदण्डादि प्रहारजनितयुद्ध व्य हस्तस्मिन् रतः तथा पुन:
कल हेवाग पुढे रतः १३ अधिरासणे कुक्कईए जय तस्थनिसीयई आसणंमि अणा उत्ते पाव समणेत्ति बुच्चई १४ पुनर्यः अस्थिरासनी भवति अस्विरं * आसनं यस्य स अस्थिरासनः आसनेस्थिर न तिष्टतीत्यर्थः पुनर्यको कुच्चक को कुच्य भण्डचेष्टादि हास्य मुख विकारादिक तत्करोतीति को कुचिकः
भण्डचेष्टाकारी पुनर्यो यत्र तत्र निषौदति स चित्त पृथिव्यां अप्रासक भूमौतिष्टति पुनः आसने अनायुक्त : आसने असावधान: स पाप थमण इत्युच्यते १४
स सरक्त पात्री सुबई सिज्ज न पडिले हई सन्धारए अणउत्ते पावसमणेत्ति बुच्चई १५ पुनः सः पाप श्रमण उच्यते सः कः यः सरजस्कपादः स्वपिति * संस्तारकेरजोपगुठितचरण: अप्रमृज्य व शेते पुनर्यः शिज्यां न प्रतिलेखयति शय्यां वसतिं उपाश्चयन सम्यक प्रतिलेखयति न प्रमार्जयति पुनर्यः
रत्ते पावसमणेत्ति घुच्चई१२॥ अधिरामणे कुक्कुईए जत्यतत्वनिसौयई । आसणं मिश्रणाउत पावसमणेत्ति बुच्चई१३। स उच्यते ११ विवादं कलह च उदौरयति विवादने उदरेइ कलहने उदेरे अधम्मिष्टः प्रामानो बुद्धिहंतिनासयति अधर्मिष्ट पापी पापणी बुद्धिने हणे विग्रह दंदिप्रहार कलही वचनादि विवादे रक्तः विग्रह विषवाद कलहकरे चोटलगाडे कलहरक्त पाप श्रमणः स उचाते. १२ अथिरासन: आसणथोरनहीं मुखादिचेष्टा कारक मुखादिकरी चेष्टाकरे यत्र तत्र निषौदति जोहां तीहां बैसे पासणे पीठादी अनायुक्त: असावधान प्रासनपौढा
राक धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
सूब
भाषा
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संस्तार के अनायुक्तः संस्तारकेशेते तदा पौरुषों अभणित्वा अविधिना असावधानले नशेते सः पाप श्रमण : उच्चते १५ दुइदहीविगईश्री आहार अभि उ टीका
8 क्वणं अरए यतवोकम्मे पाव समणेत्ति वुच्चई १६ यो दुग्ध दधिनीविकृतौ अभीक्ष्ण वारं२ आहारयति पुनर्यः तपः कर्मशि अरतः तपः कम्मणि अरति अ०१७ ४८५ धत्ते स पाप श्रमण इत्यु चाते १६ अत्यन्त मिय सूरंमि आहारेय अभिक्खणं चीईओपडिचोएई पाव समत्ति बुच्चई १७ पुनर्यः सूर्योऽस्तमिते सति
अभीक्ष्णं प्रतिदिनं आहारयति आहारं करोति पुनर्यश्चोदितः प्रेरित: सन् प्रतिचीदयति केनचित् गौतार्थेन शिक्षितः सन् तं पुन: प्रतिशिष्यति स पाप श्रमण उचाते १७ आयरिय परिवाई परपासण्ड सेवई गाणं गणियदुमाए पाव समणेत्तिबुच्चई १८ पुनर्यः आचार्यपरित्यागी प्राचार्यान् परित्य जतौति आचार्यपरित्यागी आचार्याहि सरसाहार अपरेभ्योग्लानादिभ्योददति अस्मभ्य वदन्ति तपः कुर्व तु इत्यादि गुरूणां दूषणं दत्वा पृथक भवति
ससरक्खपाओ मुबडू सज्जं नपडिलेहई। संथारए अमाउत्ते पावसमण त्ति बच्चई १४॥ दुहहही विगईओ आहार
अभिक्खणं | अरएय तबोकम्म पावसमणेत्ति वुच्चई १५ ॥ अत्यं तंमियसूरंमि आहारडू अभिक्खणं चोओ पडिचो * दोकनेविषे असावधान अणपडले ह्यावेसे स पाप श्रमणः इति उचाते १३ स चित्त रजोयुक्त पादौ स्वपति सचित्तरजस्यु भस्या परीसोवै सिज्जा वसति भाषा सन प्रमार्जयति उपाययपडिलेहेनहीं पूजनहीं संस्तारके अनायुक्त: अथ असावधानसंधार्य : संथारानविषे असावधानरुडापडौलेहेनही उपयोगराखेनहीं
ते पाप श्रमण कहीये १४ दुग्ध दधिप्रमुखाः विकतयः दूध दहि इत्यादिकविगै आहारयति अभीला वारं २ आहार करे वारंवार तपः कम्मणि * परत: तपनेविषे रति नहीं तप न करे ते पापथमण उचात १५ अस्तं गच्छतिमयें अथ मतांताइ आहारयति अभौक्षण' वारंवार जिम वारंवार
राय धनपतसिंह बाहादर का आ.सं.१.४१ मा भाग
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उ. टीका म.१७ ४८६
पुनर्यः परपाषडान् सेवते इति परपाषण्डसेवकः परेषु पाषण्डेषु मृहौशय्यादि सुख दृष्ट्वातान् मेवर्त पुनर्योगाणं गणिको भवति गणात् गण घण्मासभ्यन्तर
एव संक्रामतोति गाणं गणिकोऽत एवदुर्भू तो दुराचारतयानिन्दनीयः इत्यर्थः स पाप श्रमण उचात १८ सयङ्गेहं परिच्चज्ज परगहं सिवावड़ेनिमित्तण 8 यव वहरई पावसमणेत्तिवच्चई १८ यः पुनः स्वयं स्वकीयं गृहं दीक्षां गृहीत्वा पूर्व एकन्त्य वा परस्य अन्यस्य गृहस्थ स्य रहेपरग्रहे व्याप्रियते आहारार्थी ४ सन् तत् कार्याणि कुरुते पुनर्यानिमित्त न शभाशुभ कथनेन व्यवहरति द्रव्य अर्जयति अथ वा गृहस्थादिनिमित्त व्यवहरति क्रय विक्रयादिक कुरुते * स पाप श्रमण इत्यु चाते १८ सवाई पिण्डजेमेई निच्छई सामुदाणियं गिहिनिसिज्जञ्च वाहेइ पावसमणेत्ति बुच्चई १० यः पुनः स्वन्नाति पिण्ड स्वकीय बन्ध भिर्दत्त आहार भुक्ते रागपिण्ड भुक्त इत्यर्थः पुनर्यः सामुदायिक समुदायेभवं सामुदायिक रहात् गृहात् ग्टहीतं भैच्य न इच्छति नवाच्छति
एडू पावसमणेत्ति वुच्चई १६ ॥ आयरिय परिब्बाई परपासंड सेवए | गाणं गणिए दुम्भ ए पावसमणेत्ति वुच्चई १७॥ सय गेहं परिब्बज्ज परगहं मिवाबडे । निमित्तणय ववहरई पावसमणेत्ति वुच्चई १८॥ सन्नाडू पिडंजेमेडू नेच्छई
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं २०४१ मा भाग
भाषा
गुरुभिः शिवतस्तानेव प्रतिशिथति गुरुशौख्यादिधाथका साहमी गुरुनेसौखदे ते पापश्रमण कहीइ १६ प्राचार्य परित्यागौ आचार्यने छोडौने पर दर्शन
शास्त्रे रतः सेवाकारकः परदर्थननौ सेवाकर परदर्शननौनां शास्त्रमणे षण्मासमध्ये नव नव गच्छ संक्रामतिछमासमांहिनवानवागच्छमाहिपैसे स पाप ॐ श्रमणः इति उचाते १७ स्वकोयं गृहं परित्यज्य आपण घरछांडौने परग्रहे पिंडार्थी सन् व्याप्यतेक्वत्य करोति पराए घरे कामकर आहारनिमीत्ते
निमित्त ट्रयाजनार्थ करोति द्रव्योपार्जवान अर्थ निमित्तप्रकासे स पापथमण इत्युचाते १८ स्वजातपिंडं जोमयति आपणौ जातिनाघरथको प्रहारली
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उल्टीका
ॐ पुनर्यो रहि निषद्या रहिणी निषिद्यारहस्यस्य रहेगत्वा पत्यकादिकं वाहयति आरोहति मञ्चमच्चिकापौटिकादिषु तिष्टतीत्यर्थः स पाप यमण
8 उचाते २० एयारिसे पञ्चकुसोलसंबुडे रूवंधर मुणिपवराणहिडिमे अयंसिलोए विसमेवगरहिए नसेइह नेव परं मिलोए २१ एतादृशो प०१७8 रूपं धरो मुनिवेषधारौ स इह अस्मिन् लोके न तथा परंमि परस्मिन् लोकेपि न स एहस्थापि न भवति साधुरपि न भवति उभयतोपि ४४७
8 भ्रष्ट इत्यर्थः स कोदृशः पञ्च कुशील संवृतः पञ्चचते कुशौलाश्च पञ्च कुशौलास्तहत् असम्बृतोऽजितेन्द्रियः अत्र प्राकृतत्वादकार लोप: अथवा ॐ पञ्च कुयोलैः संवृतः सहितः यादृशाजिनमते पञ्च कुशौलास्तन्मध्यवर्ती इत्यर्थः प्रोसबीपासस्थी होइ कुसौलोतहेवस सत्तो अह छन्दी8 वियएए अवंदणिज्जाजिणमयम्मि १ पाप श्रमणोप्यवं दनीय एव पुन: कोदृशो मुनि प्रवराणां प्रधान मुनीमा मध्ये अधः स्थितः स पाप श्रमण एतस्मिन्
सामुदाणियं । गिहिनिसज्ज'चवाहंदू पावसमणेत्ति बच्चई १६॥ एयारिसप'चकुसौल संवुडे रूबंधर मुणिपव
राणहिटिमे अयंसिलोए विसमेवगरहिए नसहनेव परत्यलोए २०॥ जेवज्जए एएसयाओ दोसे समुच्चए होडू सामुदायिकिं भिक्षां न वांछति तेघरनी भिक्षा न वांछ घणा घरनी गृहनिषद्यां तूलिकादिकां सेवते गृहस्थानापल्यंक शौर्षपौढि प्रमुखसेवे उपरियेसे स पापथमण इतिः उचाते १८ एतादृशाः पंचकुशीलाः पावस्थादयः वेषमावधारिकाः एपांच कुसिलियापासत्यादिक वेसमात्र तेहना धरणहार ऊसत्रो पासत्थोर कुसोलोठ ४ संसत्तो५ अहारूंदो एषां च मुनिवेषधराः मुनिवराणां अधस्ताइर्ती मुनिवरमाहिं अधम भूडा अस्मौन् लोके विषयेनिंद्यएवस्यात् इहलोकने विष निंदकहुइनेव परलोकेगहितो भवति न तेहने इहलोक सिद्धि न परलोके सिहि २० यः वर्जयति एतान् सदापि दोषान् एदोषने जे
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं० उ०४१ मा भाग
६३
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उ०टोका अ०१७
४८८
सूत्र
भाषा
लोके विषनिवगर्हितः विषमिव निन्द्यः विषवत् त्याज्यइत्यर्थः २१ जेवज्जए एएस सया ओदो से सेसुब्बए होइ मुणीणमज्म अयं सिलोए अमियं वषूइए आराहए लोगमिण तहापरित्तिबेमि २१ यः एए इति एतान् दोषान् सर्वदा वर्जयेत् स सुव्रतः सुष्टुव्रतानि यस्य स सुव्रतः महोज्वल' व्रतधारी सर्व सुजौना॑ मध्ये एतस्मिन् लोके अमृत द्रव पूजितो भवेत् सर्वमुनीनां आदरणीयः स्यात् पुनः सुव्रतः साधुः अस्मिन् लोके तथा परत्र परभवेपि श्राराधकः स्यात् २१ इति पाप श्रमणौयं १७ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दौपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मी कीर्त्तिगणि शिष्य लक्ष्मो वज्ञभगणि विरचितायां पाप श्रमणौयाख्य ं सप्तदशमध्ययनं सम्पूर्ण ॥ १७ ॥ अथाष्टदशं अध्ययनं श्रारभ्यते ॥ सप्तदशेऽध्ययने पाप स्थानकनिवारण' उक्त' तत्पापस्थानं निवारण' संयमतो भवति स च स यमो हि भोगजयात् ऋद्ध स्त्या गाच्च भवति स च भोगत्यागः संयतराजर्षिदृष्टान्तेन अष्टादशाध्ययनेन हृदयति इति सप्तदशाष्टा दशयोः सम्बन्धः कम्पिल्लेनयरेरायाउदिबलवाहणे नामेण सञ्जएनामभिगब्वं उवनिम्मए १ काम्पिल्य नगरे राजा अभूत् कोदृशः स राजा नाना स ंयतः इति नाम प्रसिङ्घैः पुनः कीदृशः उदीर्ण बलवाहनः उदीर्ण' उदयं प्राप्त ं बलं येषां तानि उदीर्ण बलानि उदीर्ण बलानि वाहनानि यस्य स मुणौणमज्झे अयंसिलोए अमयंवपूई ए आराहए दुहओ लोगमिणंत्तिबेमि ॥२१ पावसमणिज्जं सम्मत्तं ॥ १७ कंपिल्लेनयरे राया उदिस बलवाहणे । नामेण संजएनामं मिगवं उवनिग्गए १ ॥ हयाणीए गयाणीए रहाणीए तहेबय । पाय कोइवर्जेस सुत्रतः सदाचारोभवति मुनीनां मध्ये तिको साधू मुनीवरां मांहेसदाचारहुवें तथास्मिन्लोके अमृतमिवयः पूजितः इहलोकनेविषे अमृतनी परिपूजोइ इमलोकं परलोकंच श्राराहयति श्रराहइ दूरी प्रकार इहलोकसाधेइति ब्रवीमितिम२ १ इति सतरमः इति सतरमध्ययनंटवार्थस्य संपूर्ण १७ कॉपियरेनगरे राजाकांपिल उररम्य मनोहर के उदयप्राप्तः बलचतुरंग सेनासहित उदयप्राप्तहुओछे चतुरंगिणीसेनासहित नामासंयतराजासंयतस्येनामे
KRXXXKHORK का आ०सं०उ
राय धनपतसिंह बाहादुर व
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अ.१८ ४८८
उदोण बलवाहनः अथ वा वलं चतुरङ्ग गजाखरण्यसुभट रूपं वाहनं सिविकावरि प्रमुख बलं च वाहनं च बलवाहने उदीर्ण उदयं प्राप्त बलवाहने यस्य स उदौम बल बाहनः स स यतो राजा मृगव्या उपनिर्गतः नगरात् आचेटकंगत: मृगव्या आचेटक उचाते १ हयाणौए गयाणौए रहाणी एत हे वय पायताणौए महया सव्वो परिवारिए २ पुनः कीदृशः संयतो नृपः हयानां अनौक तेन हयानौकेन घोटकटकेन तथा पुनर्गजानौकेन कुञ्ज रकटकेन तथैव रथानौकेन पुनर्महता प्रचुरेण पादात्यनौकेन सर्वतः परिवारितः सर्व परिवारसहित: २ युग्म मियं छुभित्ताहयगीक पिज्जाणकेसरि भौए सन्त मिएतस्थ वहेइरसमुच्छिए ३ स सयतो नृपोहयेगतोऽश्वारूढस्त व कांपिल्याद्यानेकेशरिनाम्नि पूर्व मृगान् शिधाप्रे रयिता अखेन त्रासक्मिा तान् मृगान् बध्यति कीदृशः संयतोरसमूर्च्छितः रसस्तेषा मास्वादानु भवस्तत्रलोलुपः कीदृशान् मृगान् भौतान् पुन: कौदृशान् ग्लानिं प्राप्तान् ३ अह
त्ताणीए महया सव्वो परिवारिए २॥ मिएच्छभित्ता हयगो कंपिल्लज्जाणकेसरीभौएसंतेमिए तत्यवहदूरसमु छिए ३ ॥ अहकेसरं मिउज्जाणे अणगारे तबोधणे सभायमाणसंजुत्ते धम्मज्माणंझियाय ४ । अप्फोव मंडवं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०. ल ४१मा भाग
राजाछ मृगव्या आखेटके निर्गतः पाहेडाने निमित्त नीसवीर हयवलं हाथोऽस्वकटकं गजवलं हाथी कटक रथबलं रथतथेवचः तिमवली पादातनौकन पायक घणा महतासर्वत: परिवारितः वेष्टोतः संघलेपरिवार बीव्योषको २ मृगान् चोभयित्वा अश्वारूढः मृगानिक्षोभ उपजावे चलावौने घोडेंचढ्योथको कांपिल्योद्याने केसरनानि कांपिल्यनगरने पासे केसरीनाम उद्यान वन पंडके भौतान् सनस्तान् मगान् तत्रउद्यानतेसंयती राजाई बिहाद्या मृगउ रहा परहादोडेके इस्या मृगाने मारके रसने विष मूर्छित हुओथको ३ अथ केशरिनाम्नि उद्याने हवे केसरौनाम उद्यानने विषे अणगार साधू भगवंत
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44
....०
४ केसरंमिउज्जाणे अणगारेतवोधणे सज्झायज्माणस जुत्ते धम्मज्माणजिमयायई ४ अथ मृगान् बासमारणोत्पादनानन्तरं कैसरि उद्यान अनगारः धर्म ध्यान उ टीका
आज्ञाविनयादिकं ध्यायति धर्मध्यानं चिन्तयति कथम्भूतोनगारस्तपोधनः तपएवधनं यस्य स तपोधनः पुनः कीदृशः स्वाध्यायध्यानसंयुक्त: ४ अष्पाव ८ मंडवं मौज्मायईज्मवियासवे तस्मागएमिएपास' वहसे भराहिवे ५ अपफोडवमंडवंमि इति वृक्षाद्याकीर्ण : अफोवः सचासौ मण्डपश्च अफोवमण्डपस्तमिन् * अफीवमण्डपमण्डपीहिनागवल्लीद्राक्षादिभिर्वेष्टित स्थाने इत्यर्थः तस्मिन् निकुन लताबेष्टिते सोनगारः अपफीवमण्डपस्थितो ध्यानध्यायति धर्मध्यानं चिन्तयति कीदृशः सोनगारः क्षपिताश्रवः क्षपिता निरुद्दा आश्ववायेन स क्षपिताश्रवः निरुद्धपापागमनहारः अत्र पूर्वगाथा यामपिध्यानं ध्यायति
मौभायडू वियासवे । तस्मागएमिए पासंदहेइसे नराहिये ५। अह आसगी राया खिप्प मागम्मसो तहिं। हए मिएउपासित्ता अणगारं तत्थपासई ६ । अहराया तत्वसंमंती अणगारो मणाहो मएउमंदपुन्ने ण रसगि
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
तपोधन तप तेजधनछे जेहने स्वाध्याय ध्यानस' युक्तः समायध्यानतिणे करी सहित धर्मध्यान ध्यावेछ ४ अनेक वृक्षयुक्त मंडप अनेक वृक्ष एकठा हाछे तोहांछायाइ साधु वैठाछे ध्यायती धम्मध्यानं धम्मध्यानध्याइछ साधकेहवाई क्षपिताश्रवः आयव सर्वरुध्याछे तस्य पाखें मृगाः आगताः ते मंडपने पासे मृग प्रायोछे वोहतोदाडेके सनराधिपः वाधितु मारयितु लग्नः ते संयतराजा मृगने मारवा लागी ५ अथानंतरं अश्वारुढो राजाहवे राजा घोडे चढ्योथको क्षिप्रशोघ्र आगत्य तस्मिन् मंडपसमाप उतावली मंडपसमीप आवौने हतान् सगान् दृष्ट्वा मानो मृगपयोछे ते राजादेखीने अणगारं तत्र पश्यति वलौतौहां मंडपनेविष यतीवेठादौठा ६ अथ राजा तव संभ्रांत: भौतः देखौने सजा संभातहीवौहनी चिंतियति अनगारो मुनिः
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8.टौका
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४
इत्युक्त पुनरपि यत् उक्त तत् अत्यन्तादरख्यापनार्थ स नराधिप: संयती भूपः तस्य धर्मध्यान परायणस्य साधोः पावें आगतं मृग हन्ति स्म ५ अह पासगो राया खिप्पमागम्म सोतहिं हएमिएउपासित्ता अणगारं तत्थ पासई ६ अथानन्तर अवगतो अश्वारुढ स संयतीराजा तत्र तस्मिन् लता ग्रहेक्षिप्र शीघ्र भागत्यहतं मृगं दृष्ट्वा तत्र अनगारं साधु पश्यति ६ अहराया तस्थ सम्भन्तो अणगार मणाही मएनओ मन्द पुस्खणं रसगिद्दे ण वित्त णा ७ अथानन्तर तत्र तस्मिन् स्थाने स संयतो राजा सम्भ्रान्तो मुनि दर्शनाहीत इत्यर्थः मनसि एवं चिन्तयतिस्म मया मन्द पुण्यं न न्युन भाग्ये न अनगारः साधुरनाहत अल्पेन आहतो भूत् स्तोकेनटलित इत्यर्थः मया पापन अयं साधुर्मारित एवा भूत् इत्यर्थः कीदृशेन मया रस ग्टद्धे न मांसा
खादलोलुपेन पुनः कीदृशेन मया घेत्तुणा घातुकेन जीवहन न शौलेन ७ आसंविसज्जइत्ताण अपगारस्म सोनिवी विण एणं वन्दए पाए भगवं इत्य मे 8 खमे ८ स नृपः अनगारस्य विनयेन पादौ वंदते किं कृत्वा अवं विसज्यण इति वाक्यालंकार घोटकन्त्यक्त्वा पुनः स नृपः इति वक्ति हे भगवन् इत्य इति
अत्र मृग बधे मै पराधं क्षमस्व अपरामिति पदं अध्याहार्य ८ अहमीणण सो भयवंअणगारकाणमस्मिए रायाणं न पड़ि मन्तेइ तीराया भयो ।
राय धनपतसिंह बादुर का प्रा०सं०० ४१ मा भाग
देणघेत्तुणा ॥ आसं विसज्जवृत्ताणं अणगारस्म सोनियो । विणएणवंदए पाए मयवं इत्यमेखमे ८॥अहमाणे णसोभ
भाषा
मनाक स्तोकमात्र हतः राजामनमाहिं चिंतवेछ इमिएमृगमाखा महीपणि घोडे मयामंद पुन्येनमेमंदपुन्यने धणोई रसम्राई नघातकेन रस मांसने विषे ग्यले जीवनमार छु . अश्व विसज्यं त्यक्ता घोडाथको उतरौने अनगारस्य समीप स नृपः आगत्य ते संयतराजायतौ नेपामे प्रावीने विनयेन पादौ वंदयति विनयकरी राजायतीनापगवांदे है भगवन ममम अपराध क्षम स्व भगवन् माहरी अपराध खमी ८ प्रधानंतरं मौनेन युक्त
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१ टीका प०१८
अथ राज्ञा मुनेश्वरण वन्दना कता ततो नन्तरं स भगवान् सानाति शय युक्ती नगारः साधुमीनेन ध्यानं पावितः सन् पिण्डस्य पदस्थ रूपस्थ रूपातीता दिक ध्यायन् अथ वा धर्मध्यानं आधितः सन् राजानं संयत भूपं प्रति न निमंत्रयति न जल्पयति ततस्तस्मात्कारणात् मुनेरभाषणत् राजा भय द्रुतो * भयभ्रान्तो भूत् इति वक्ति च ८ सनी अहमनौति भयवं वाहराहिमे कुई तेएण अणगार डहजनरकोडिए १० किं वक्ति तदाह राजामनसि एवं 8 जानातिस्म अयं साधुमांनी चांज्ञात्वा किञ्चिदिरूपं त्वरितं मा कुर्यात् तस्मात् स्वकीयं नृपत्व स्व नाम सहितं अवादौत् इति भावः हे भगवन् अहं 8 संयतो राजास्मि इति हेतो हे भगवन् मेव्याहरमाचल्यय हे स्वामिन् भवादृशः साधुः क्रुद्धः सन् तेजसा तेजी लेश्यादिनानरकोटिन्दहेत् तस्मात् स्वामिना क्रोधो न विधेय १० अमयं पत्थि वा तुज्झ अभयदाया भवाहिय अणिञ्जीवलोगं मिकिं हिं साएपसज्जसि ११ तदा मुनि राह हे पार्थिव हे राजन्
यवं अणगारेज्माणमस्मिए। रायाणं नपडिमंतेइतोराया भयहुए ॥ संजो अहमस्मीति मयवं वाहराहिमे ।
कुद्धे तेएण अणगारे डहज्ज नरकोडीओ १०॥ अभयं पत्विवातुझ अभयदाया भवाहिय। अणिच्च जीवलोग'मि सन् स भगवान् हवेते साधूमौनकरौवेठाछे अणगारी ध्यानमाथितः स्थितः साधूध्यांनध्यायले ध्यानमाहिं वर्तेके राजाननप्रतिमंत्रयति तिणकारण राजाने वोलाव्यो नहीं ततो राजा भयद्रुतभयभीतोजातः तिवारराजा भयभ्रांत हुश्री संयतोनामा अहमस्मि संयतनामे राजाउँछु अनेरोनयौ हे भगवन् आलापय मांयाहरमुझने वोलावो मुझस्थुवातकरी कुपितः सन्तजसा अणगारकोप्याथको यतौतेज करौनदहवर कोटौः मनुष्यनौकोडिने बाले १• ऋषि लवाचःअभयदानंभोपार्थिव तुभ्य भी राजा तुझने अभयदानके अभयदाता भवभवानपिजिममतुझनेअभयदानदौधुतिमत्सर्वजीवने अभयदानदे अनित्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं••४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका
um
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8 तुभ्य अभयं भयं मा भवतु वमपि अभय दाता भवाहि इति भव च इति पाद पूरणे जीवानां अभयदानं देहि जौवानां हिंसां माकुरु इत्यर्थः हे राजन्
अनित्ये जौवलोके संसार किं इति किमर्थ हिंसायां प्रसज्जसि प्रकर्षेण सज्जो भवति जोवलोकस्य अनित्यत्वेत्वमपि अनित्योसि किमर्थं प्राणि बधं करोषि इत्यर्थः ११ जया सब्बं परिच्चज्ज गन्तब्वमवसम्मते अणिच्च जीवलीगंमि किं रज्जमिपसज्जसी १२ हे राजन् यदा सर्व अन्तः पुरादिकं कोष्टागार भण्डागारादिक परित्यज्यते तव परलोके गन्तव्य वर्तते कथ भूतस्य ते अवशस्य परवशस्य मरण समये जौवोजानाति न मियते परं किं करोति जीवः परवशः सन् स्वेच्छांविना एव जीवो मियते यदुक्त सबै जौवावि इच्छन्ति जौविओनमरिज्जो तेन हे नृप तव सर्व परित्यज्यमर्त्तव्यमस्ति तदा अनित्ये जोवलोके अनित्ये ससार कि राज्ये प्रसज्जसि प्रसङ्ग करोषि एवो भवति १२ जीवियं चैव रूवञ्च विज्ज सम्पायञ्चञ्चल जत्थतं मुमसौराय पिञ्चत्यना
किंहिंसाए पसज्जसी ११ ॥ जयासव्व परिच्चज्ज गतब्व मवसम्मते । अणिच्च जीवलोग मि किंरज्जमि पसन्जसी १२
जीवियंचे बरूवंच विज्जुसंपायचंवलं जत्यत मुज्मसौरायं पच्चत्यं नाबबुज्झसे १३ ॥ दाराणिय सुयाचेव मित्ताय तह जोवलोके अनित्य के जोवलीक मनुष्य पणु कथं हिंसयांसज्जौ भवसि कांहिंसाने बिषे आसक्तथाइछे ११ हे राजन् यस्मात् सर्वपरित्यज्यजिणे कारण सघलुछांडोने गंतव्य अवस्यते तयाते अवस्य परलोक जावुछ अनित्ये जीवलोकेएअनित्य जीवलोक मनुष्य पणु किं राज्ये प्रसज्जसि अहो राजास्यु राज्यने विषे आसक्त हनीले १२ हे राजन् जीवितव्यं रूपंच अहो राजाएआउखान रूप विद्युत्नपात वच्च'चलंबर्त्तते वौजलौनीझवत्कारते सरिष चंचलके यत्रत्वं मुह्यसे हे राजन् है राजा एह जीवितव्यने विषे तू मोहपामेछ मूर्धाइई परलोकार्थत्व न जानासि परलोकार्थ तुकाइ समझतू नथौ १३
राय पनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०१.४१ मा भाग
भाषा
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का
* बबुजासि १३ राजन् जोवितं आयुः च पुनः रूपं गरोरस्य सौन्दर्य विद्युसम्पातचञ्चल वर्तते विद्युतः सम्पातलमं तहत् चञ्चलं वर्तते हे राजन
यत्र यस्मिन् आयुषि रूपे चत्व मुह्यसे मोहं प्राप्नोषि प्रे स्वार्थ परलोकार्थ नावबुध्यसे न जानासि १३ दाराणि य सुया चेव मित्तायतहबन्ध वा जीवं * तमण जोबन्ति मयं नाणवयन्ति य १४ हे राजन् दाराः स्त्रियः च पुनः सुताः आत्मजाः पुनर्मित्राणि तथा बान्धवाः ज्ञातयो भान प्रमुखा एते सर्वेपि
जीवन्तं मनुष्य अनुजीवन्ति जीवतो धनवतः पुरुषस्य पृष्टे उदर पूर्ति कुर्वन्ति तस्य द्रव्य भुञ्जन्ति इत्यर्थः परं तं पुरुषं मृतन अनुव्रजन्ति मृतस्य तस्य पुरुषस्य पृष्टे केपिन व्रजन्तीत्यर्थ : तदा अन्यह हादिक कि पुनः सहयास्थतीति अतः कृतघ्ने षु आदरो न विधेयः तस्मात्परिकरकोरागः कर्त्तव्यः१४ नौहरन्ति मुयं पुत्तापि यरं परमक्खियापि यरीवितहा पुत्तो बन्ध रायातवं चरे १५ हे राजन् पुत्राः मृत पितरं नीहरन्ति गृहान्निः कासयन्ति कीदृशाः
बंधवा। जीवंत मणुजीवंति मयंनाणुव्वयंतिय १४ ॥ नौहरंति मयंपुत्ता पियरं परमक्खिया। पियरोवि तहा
पुत्ते बंधूरायं तवंचरे १५ ॥ तोतेणज्जिएदव्वेदारेय परिरक्खिए कौलतन्न नरारायं हहतुट्ठ मलं किया १६ ॥ तेणा स्वीयःस्त्रो सुताः पुनः पुत्रतिमः मौत्राणि तथा बांधवाः मित्र तथा भाई तद्पार्जितं वित्तायु प भोगं अनुगच्छति जीविते जीवतांथका पुठे लागे सेवाकरेमृतेनानुगच्छंति साई पणिमूयापछी सांथे कोइ नजाई १४ निष्काशयंति मृतं पुत्राः पितामरे तिवारी पुत्र कहे वेगोकाठो पितरं परमदुक्खिताः पिताने परमदूक्विथका पितरोऽपि तथापुत्रान् निष्कासयति पितापणि पुत्रने काठी मूपाने बांधवाः वंधून भो राजन् तस्मात्तपश्चर भाइ भाईने काढे तिणि कारण राजा तप करि १५ तती मरणानंतरतेनार्जतेनद्रव्ये ण तिवारे पछी पुत्र ते तात नी उपायो द्रव्य दारेषु च परिक्षितेषुः पने स्त्रीभली परिराखौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ. ४१ मा भाग
भाषा
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उ० टीका अ०१८ ५०५
सूत्र
भाषा
पुत्राः परमदुःखिता: अत्यन्त शोकार्दिताः पितरोपि जनका अपि तथा तेन प्रकारेण पुत्रान् मृतान् निःकाशयन्ति एवं बान्धवाः बान्धवान् मृतान् निःकामयन्ति तस्मात् एवं ज्ञात्वा हे राजन् तपश्चरेत् तपः कुरु इत्यर्थ: १५ तचतेज्जिएदब दारय परिरक्खिए कौलं तत्र नरारायं हट्ट तुट्ट मलं किया १६ ततो निःसरणामन्तरं ते नैव पित्राद्यर्जितधनेन च पुनर्दारेषु स्त्रीषु हे राजन् अन्ये नराः क्रीडन्ति स्वामिनिमृते सति तस्य धने तस्य स्त्रीषु च अपर मनुष्याः हृष्ट तुष्ट' यथास्यात्तथा हर्षिताः सन्तुष्टाः सन्तः अलङ्कृताः अलङ्कारयुक्ताः सन्तय क्रोडां कुर्वन्ति कथं भूते धने परिरचिते समस्त प्रकारेण चौराग्नि प्रमुखेभ्यः रचिते यावत् स जीवति तावत् धनस्य स्त्रीणाञ्च रचां कुरुतं मृते सति अन्य भुवन्ति धन स्त्री प्रमुखाः पदार्थास्तत्रैव तिष्ठन्ति न च साथै समायान्ति कोर्थः बराकोजनः दुःखेन द्रव्य उत्पाद्य यत्न ेन रचति दारान् अपि जीवितव्य मिवरचति अलङ्कारैर्नवेर' जयति तस्मिन् मृते सति ते नैव वित्तेन तैरेवदारेश्च अन्य हृष्टाः शरीरे पुलकादिमन्तः तुष्टा आन्तर प्रीतिभाजीलङ्गता विभूषिताः सन्तोरमन्ते यतः ईदृशौ भव स्थितिरस्ति ततो हे राजन् तपश्चरेत् तपः कुर्यादिति संबंध ः १६ तेषा विजं कयं कम्म सुहं वाज इवा दुहं कम्मुणातेण सच्छुतो गच्छई उपरं भवं १७ तेनापि मरणोन्म ुखेन जवेन यत् शुभं कर्म अथ वाऽशुभं कर्म कृतं भवेत् सुखं दुक्ख वा उपार्जितं स्यात् तेन शुभाशुभ लक्षणेन कर्मणा संयुक्तः सन् स जीवः परं भवं गच्छति एतावता जीवस्य सार्थे अन्यत् कि मपि नायाति खोपार्जितं शुभाशुभ कर्म साधे समागच्छति १७ सोऊण तस्तसो धम्म अणगार अम्तिए महया . विज कयं कम्म मुहंवाजदूवादुहं । कम्म, गातेण संजुत्तो गच्छईओ परंभवं १७ ॥ सोऊण तमसोधम्म' अणगारम हतौ भो राजन् अन्य नराः क्रौडंति भुजंतिते द्रव्य अने स्त्रो तेहने बौजा पुरुष भोगवे रुष्टाः तुष्टा अलंकृताः हर्षितप्राथका संतोष में भलांलूगा ग्रहणापहरे १६ येनापि यत्कृतं कर्मजोये जोवे जे कर्मकोषांक शुभं अथवा अशुभं भलु अथवा भुंड कीर्तनेव संयुक्तः तेजकी साथे गच्छति परंभवं
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राय,धनपतसिंह बादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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४ सम्बे यनिब्बेवं समावबी नराहि वो १८ स सबतो राजा महयाइति महासम्ब ग निर्वेद समापनः सम्बे गय निवेदच सम्बगनिर्वेदं सम्म गोमीक्षाभि8 प०१८४
लाषः निवेदः संसारादुहिग्नता स राजा उभय' प्राप्तः इत्यर्थः कि कृत्वा तस्य अनगारस्य साधीः पन्ति के समीपे धर्म श्रुत्वा १८ सच्चो चउ रज्ज निक्वन्तोजिणसासणे गहभालिस्मभगवो अणगारस्म अन्तिए १८ संबतो राजा गर्दभालि नाम्रोऽनगारस्य अन्तिक समीपे जिनशासनेवीतराग धर्मे निःक्रान्तः समागतः संसाराइ हाचनि सतः जैनी दौचामाथित: कि कृत्वा राज्यन्त्यक्त्वा १८ चिचारज्ज' पव्वइओ खत्तित्री परिभासई जहातिदौसई रूवं पसन्न ते महामणो २. प्रत्र वृह संप्रदायो अयमस्ति स स यतराजर्षिर्गर्दभालिनामाचार्यस्य शिष्योजातः पश्चाहौतार्थोंजातः समस्त साध्वाचारवि
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं०.४१ मा भाग
सूत्र
अंतिए। महया संवेग निव्वयं समावन्नो नराहिवो १८॥ संजओ चडूओरज्जं निक्खतो जिणसासणे । गहभालिम्म
भगवो अणगारस्म अंतिए १६ ॥ चिच्चारज्जंपब्वडूए खत्तिए परिभासई। जहाते दोसईरुवं पसन्नते तहामणो २० जीवः ते जोव परलोकने वौषे जाइ १७ श्रुत्वा तस्य साधोः वचनं गई भिल्ल आचार्यना वचन सांभलौनअणगारस्य समीपतयतौपामे धर्म सांभलौनमहतां संवेगेन निर्वेदंभवोदिग्नना मोक्षेच्छा धणीस वेग ऊपनो ससारथौ ऊभगो रूपं समापन्न: सप्राप्तः नराधिपः मोक्षनी इच्छाहई राजाने १८.संयती राजा राज्य त्यक्ता संयतीराजा राज्यकोडोनेनि:क्रांन्तः चारित्रप्रपत्रः जिनशासने चारित्रलौधी जिनशासननविष गई भालि भगवंत: गईभालि भगवंतने अनगारस्य समीपे साधू समोपे १८ त्वक्लादेशादिकां प्रवज्यांच यहोवा किंचित्नगरेगतः तब क्षत्रियः सुरभवात् मनुष्य भवे समागत्य सच पूर्व भवस्मृत्वा प्रत्रजित: स ऋषिः संयतस्य मिलितः ततस्वरूपमाहः यथा न च दृश्यते रूपं विकाररहितं चत्रिय राजऋषि संयतीने पूछे थे जेहवुताहरु रूपदीसेके
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स.टौका
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चारदचो गुरोरादेशेन एकाको विहरन् एकस्मिन् ग्रामे एकदा समागतोति तव ग्रामे क्षत्रियराजविभिलित: स क्षत्रिय साधुः संयत मुनि प्रतिभाषते वदति परं स क्षत्रिय मुनिः कोशोस्ति सहि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत् ततश्चात्वा एकस्मिन् क्षत्रिय कुले समुत्पन्नः तत्र कुतश्चित्तथा विधनिमित्त दर्शनादुत्पन्न जाति स्मृतिस्तत्तः समुत्पत्र वैराग्यो राज्यन्त्यक्ता प्रव्रजितः सक्षत्रियराजर्षिर निर्दिष्टनामाचत्रिय जाति विशिष्टत्वात् चत्रिय मुनिर्जाति * स्म ति ज्ञानवान् स स यतं मुनिं दृष्ट्वा परिभाषते सयतस्य ज्ञानपरीक्षा कत्तु सयत मुनि मित्य धाहारः कि परि भाषते तदाह है साधी यथा येन प्रकारेण ते तव रूपं बाह्याकार' दृश्यते तथा तेन प्रकारेण तव मनः प्रसन्नं विकार रहितं वर्तते अन्त: कालुष्यं हि एवं प्रसन्नताऽसम्भवात् २० पुन: कि' परिभाषते इत्याह कि नामे कि गुत्ते कस्मट्ठा एव माहण कहं पडियरसौ बुड़े कह' विशोएत्ति बुच्चसि २१ हे साधा तव कि नाम तव कि गोत्र पुनकस्मद्वाए इति कस्मै अर्थाय वा त्वं माहनः प्रबजितोसि हे साधी व बुद्धान् कथ प्रति चरसि त्व प्राचार्यान् केन प्रकारेण मेवमे पुनः साधीत्व * कथं विनौत इत्य च्यसे अहं त्वां पृच्छामि २१ सञ्जो नाम नामण सहा गुत्ते ण गोयमी गहभाली ममा यरिया विजाचरण पारगाः २२ अथ क्षत्रिय & साधोः प्रश्नानंतर संयत साधु रुवाच हे साधी अहं सयत इति नाम्रा अभिधानन नाम प्रसिद्दोऽस्ति तथा पुनरहं गोत्रण गौतमीस्ति कम प्राचार्या
किंनामे किंगुत्ते कस्मट्ठाएवमाहण । कहपडिय रसौबई कहं विणीएत्ति बच्चसि २१॥ संजओ नामनामेणं तहा
ने विकाररहितं मनः वर्तते तेहयोताहरी विकाररहित मनवत के २० किनामा किंगोत्र: ताहरु' नामस्यु छ तारुगोवस्य छ कस अर्थायमा पाणी मुनिःजातः तु किस्ये अर्थ जतौहीरकथंकेन प्रकारेण प्रतिचरसौ वुई आचार्यादिकनो सेवाकिमकर कथं विनौत: इत्यु चाते कौणप्रकारि दीनींत कहीई २१ संयतः प्राहः अहंनानाः सयतः स यती कहेछ संयतीमाहरोनाम तथागोत्रेण गोत्तम गोतमगोत्र गई भालिनामानी मम प्राचार्याः
राय पनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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गुरुवोगर्दभालिनामः कोहया मम गुरवः विद्याचरण पारगाः विद्या च चरण'च विद्याचरण तयोः पारगाः विद्याचरण पारगा: विद्याः शुतज्ञान चरणं चारित्र तयोः पारगामिनः अयं पाययः अहंतैगर्दभालि नामाचार्य जीवधातान्त्रिवर्तित स्तनिवृत्ती मुक्तिफलं रक्तश्च ततस्तदर्थ माहनीस्मि यथा तदुपदेशं गुरुन् प्रतिचरामि तदुपदेश मेवनाच विनीतोस्मि इतिभाव: अथ तहण बहुमानतोऽपृष्टापि क्षत्रियमुनिराह २२ किरियं प्रकिरियं २ विनयं ३ अनाणञ्च ४ महामुणी एएहि चउहिंठाणेहिं मेयवे किंप भासइ २३ है संयत महामुने एते चतुर्भिः स्थान मिथ्यात्वाधार भूततमिहत्ता मेयवाः किं प्रभाषते मेयं जीवादिबस्तुजानंतीति मेयनाः पदार्थनाः कुतीर्थावादिनः कुमितं प्रजल्पन्त एतावता एतेचतुर्भि हेतुभिर्मिष्याविनः सर्वत्रि षष्ठात्तर त्रिशतभेदाः पापण्डिनो यथावस्थित तत्व अज्ञानाना यथा तथा प्रलापिनः सन्तितत्वया ज्ञातव्याः तानिकानि चत्वारिस्थानानि क्रिया
गोत्तण गोयमी गद्दभाली ममायरियाविज्जा चरण पारगा २२॥ किरियं २ अकिरियं २ विणयं ३ अन्नाएंच महा
मणी एएहिं चउहिंठाणे हिंमेयन्ने किपभासई२३॥ पाउकरे बुई नायए परिनिव्वुए। विज्जाचरण संपन्ने सच्चेसच्च 8 गई भालिनामें आचार्य माहरो गुरुके विद्याचारित्रपारगामिनः विद्याअने चारित्नपारगामीछे २२ अथ अप्रष्टोपि क्षत्रीबाह क्रियावादी १ प्रक्रि
यावादौ २ विनयवादी ३ अज्ञानवादी ४ पुनः महामुने एतैः चतुर्भिसानैः तत्ववेत्ता एचिहु स्थानके जे मुक्ति कहे ते झूठ मृषावाद बोले कुस्मितः भाथ ते मिथ्याभाषियेत्यर्थः २३ इति प्रादुरकार्षीत् प्रकटौकत जात तत्वः सन् तत्वनैजाणे श्रीमहावीर इमकह्यो ज्ञातकः मोक्षगतः जातकुलनी ऊपनीमोक्षगयो तथा विद्याचरणाभ्यां संपन्नः सहितः विद्या अनेचारित्र तिरकरीसहित ज्ञानके सत्यवीले सत्य पराक्रमः सांचौके जहने पराक्रम २४
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.स..४१ मा भाग
भाषा
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स.टौका
५००
जौवादिसत्तारूपा १ पश्चात् अक्रियाजोवादिपदार्थानां अक्रियानास्तित्वरूपाः २ विनयं सर्वेभ्यो नमस्कार करणं ३ अज्ञानं सर्वेषां पदार्थानां भव्य ४ एतेहि एकान्तवादित्वेन मिथाविनोज्ञेयाः कुमितभाषणंहिएतेषां विचारस्य असहत्वात् यतोहि सर्वथा सर्वत्र सत्तायाः सत्वात् सर्वत्रजीवः स्यात् अजी वेपि जीव बुद्धिः स्यात् १ पुनर्नास्तित्वे आत्मनी नास्तित्वेऽस्य प्रमाणबाधितत्वात् च जौवाजीवयो रुभयोरपि सादृश्यं नास्तित्व' स्यात् २ सर्वत्र विनये क्रियमाणे निर्गुणे विनयस्य अशुभफललात् विनयोपिस्थाने एव ततः फलदः तस्मात् एकान्त विनयोपि न श्रेष्टः ३ अज्ञानं हि मुक्तिसाधने कारणं नास्तिः मुक्त नि स्यै वकारणत्वात् हेयोपादेय पदार्थ योरपि ज्ञानेनैव साध्यत्वात् ज्ञानं विनाहितंअपि न जानाति तस्मात् अज्ञानमपि न श्रेष्ट ४ तस्मात् क्रियावादिनः १ अक्रियावादिनः २ विनयवादिनः ३ अज्ञानवादिनः ४ सर्वेप्येते एकान्तवादिनी मिथ्याविनः कुतौर्थिनः कुमितभाषिणोज याः एतेषां पाषण्डिनां सर्वेभेदाः ३६ ३ विषष्ठात्तरत्रिशती प्रमिताभवन्ति तत्र क्रियावादिनां १८० अक्रियावादिना ८४ विनयवादिना ३२ अज्ञानवा दिनां ६७ कुत्सितभाषितं हि नचै तत् स्वाभिप्रायेण किंतु भगवद्दचसा एतेषां कुत्सितभाषित्व तदाह १३ इइपाउ करबुद्धे नायए परिनिए विज्जा चरण संपने सच्चे सञ्च परिक्कमे २४ इत्येते क्रियवादिनः कुत्सितं प्रभाषन्त इत्येवं रूपं वचनं बुडीज्ञाततत्वोज्ञापकः श्रीमहावीरः प्रादु २ करोत् प्रकटी चकार कौदृशोज्ञातकः परिनि तः कषाया भावात् परिसमन्तात्सौती भूतः पुनः कीदृशीज्ञातकः विद्याचरणसंपन्नः बिद्याशब्देन क्षायकोत्तमज्ञानं चरणं यथाख्यात चारित्र ताभ्यां संपन्नः सहितः पुनः कौशः सत्यवचनवादी पुनः कीदृशः सत्यपराकमः सत्यवौर्यसहित: २४ तेषां फलमाह पडति
परक्कमे २४ ॥ पडंति नरएघोरे जेनरा पावकारिणो दिब्बंच गयं गच्छति चरिता धम्ममारियं २५ ॥ माया बुड्य पतंति नरके घोरे पड़े घोरनरकने विष ये नराः पापकारिणः जे मनुष्य पापनाकरणहारके दिव्य प्रधानगति गच्छति देवता संवधिनी गतिने विधे
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टोका अ०१८
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स्व
भाषा
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नरएवोरे जेनरा पावकारिणो दिव्वं च गइगच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं २५ पुनः चत्रिय मुनिर्वदप्ति हे महामुने ये पापकारिणोनराः पापं असा पणं कुर्वन्तोति इत्येवं शौलाः पापकारिणो ये नरा भवन्ति ते नराः घोरे भोषणे नरकेपतंति च पुनधर्मं सत्प्ररूपणारूपवरित्ता श्राराध्य दिव्य दिवः सम्बन्धिनीं उत्तमांगतिं गच्छन्ति कथंभूतं धर्म्म आरियं श्रयं वीतरागोक्त' इत्यर्थं अत्रपापं असत्यवचनं ज्ञेयं धर्मं सत्यवचनं ज्ञेयं एवंज्ञात्वा भोसंयत भवता सत्यप्ररूपणापरेणैव भाव्य मित्यर्थः २५ कथमपि पापकारिण इत्याह माया वुईयमेयंतु मुसाभासा निरत्थिया संजममाणोवि अहं वसामि इरि यामिय २६ एतत्क्रियाऽकिया विजय अज्ञानवादिनां मायोक्त मायया कपटेन उक्त' मायोक्त शाय्योक्त' ज्ञेयं एते सर्वेपि कपटेन मृषाभाषन्त इत्यर्थः एतेषां क्रियावादिनान्तु तस्मात्कारणात् मृषाभाषां असत्याभाषा निरर्थका सत्यारर्थ रहिता अपि निश्चयेन तेनैवकारणेन हे साधो संयच्छन् पापात् निव र्त्तितः सन् तेषां पाषण्डिनां असत्प्ररूपणातो निवर्त्तितः सन् अहं वसामि निरवद्योपाश्रयादौ तिष्टामि अत्राहं पाषण्डिनां वाक्यरूपपापात् निवृत्तः तिष्ठामि इत्युक्त ं तत् तस्य स्थिरोकरणार्थं यथाहं असत्प्ररूपणात् निवृत्तस्तथा त्वयापि निवर्त्तितव्यमित्यर्थः यतः साधुः स्वयं साधुमार्गेस्थितः अपरं अपि साधुमार्गे स्थापयति च पुनः हे साधो अहं इरियामि दूरे ईर्यया गच्छामि गौचर्यादी भ्रमामि २६ सव्वे ते बेद्रयामज्यं मिच्छादिठी अणारिया मेयंतु मुसा भासा निरत्थिया । संजममाणोवि अहं वसामि इरियामिय ॥ २६ ॥ सव्वेते वेड्या मज्म मिच्छदिट्ठी जाये कृत्वा आर्यधम्मै उत्तम प्रधान धम्म करोने २५ वचन मेतत् क्रिया वादिनां एवचन क्रियावादीनु मिथ्यावादीबोले मृषा भाषा निरर्थकाः प्रयो जना एम्फुठीभाषा निरर्थक तेभ्यो निवर्त्तमानोहते क्रियावादौथको अलगोरह्योहतु झुटथकोनि वर्ते त्ये छतो वसामि उपाश्रये इरियामिविचरामि उपाश्रयमांहिरहु 'कु' विचरु कु २६ ते सर्वे क्रियावादौनो ममविदिताः यथा अमीं चत्रिय साधु कहे संयतौने एक्रियावादी सर्वमे जाण्याके मिथ्या
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ० ४१ माग
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* विजमाण परेलोए सब्ब' जाणामि अप्पयं१७ हे साधो ते सर्वपि किया अकिया विनया ज्ञानवादिनः चत्वारोपि पाण्डिनी मया विदिताज्ञाताः एतचत्वा छ टीका प्र.१८
रोपि मिथ्या दृष्टयो मिथ्यादर्शन युक्ताः पुन रेते चत्वारोपि अनार्याः अनार्यकर्म कर्तारः सम्यग् मार्ग विलुम्पकाः मया एतेया दृशाः सन्ति तादृशा ज्ञाताः ५११ पुनर्हे मुने परलोक विद्यमाने सम्यक प्रकारेण अप्यहं आत्मानं स्वस्थ परस्य च जानामि आत्मापर लोकात् आगतः ततोहं पर लोक' प्रामानं च सम्यक
जानामि ते कुतोथि नोपि सम्यक ज्ञातास्तेन कुतौर्थिनां सङ्ग न करोमि कथं जानामौत्याह अहमासि महापाणेजु दम वरिस सोवमी जासापाली * महापालो दिव्वावरि स सभोवमा १८ हे मने अह महाप्राणे विमाने पञ्चमै ब्रह्म लोके देव आसं कथं भूतः अहं द्युति मान् द्यु ति विद्यते यस्य सद्यति मान् तेजस्वी पुनः कथं भूतोह वर्षशतोपमः वर्षशत जीविनः पुरुषस्यो पमायस्था सौवर्ष यतोपमः को यथा इह वर्ष शतजीवी इदानी परिपूर्णायु
मणारिया। विज्जमाणे परेलोए । सम्म जाणामि अप्पयं ॥ २७ ॥ अह मासि महापाणे जुइमं वरिस सोवमे | ... जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिस सोषमा २८॥ सेचुए वंभलोयाओ माणुस्मं भव मागो। अपणोय दृष्टयो अनार्याः मिथ्यात्वो अनार्यते पुर स परलोक नथी जाण जीवसहजेडू पैदाहीयले विद्यामाने परलोके परलोक विद्यमानके सम्यक् आत्मानं जानामि प्रामानेपणिभलोपरिजाणुछ २७ अहं वभूव ब्रह्म देवलोकेहु ब्रह्म देवलोकनेविषहुओ द्युतिमान् वर्षशतीपमै महांकांतिनीधी बर्षसोनी उपमाइ या सापज्योपमाः पत्योपमः सागरोपमादि महापालो सागरोपमः देवसंबंधिनो वर्षशतोपमा देवता संबंधिनी सोवरसनी उपमा २८ च्य तो ब्रह्मलोकात् वद्य देवलोकयो च वीने मानुष्य' भवमागतः मनुष्यने भविआयो आत्मानय परषां पापणी अने बीजानी आयुर्जानामि यथा भवति तथा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०. ४१मा भाग
भाषा
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रुच्यते तथाई तत्र विमाने परिपूर्णा युरभूवं तत्र च या पालि महापालिश्च सादिव्या स्थिति में अभूत् इति शेषः पालि शब्दस्य कोर्थ : पालिरिव पालि १ टीका र्जीवित जल धारणात् पालि शब्द न भव स्थितिः कथ्यते सा चेह पल्योपम प्रमाणा महापाली सागरीपम प्रमाणस्थिति कथ्यते दिवि भवादिव्यादेव भव
सम्बन्धिनो स्थितिरित्यर्थः कय भतापालिमहापालिश्च वर्षसतोपमा वर्ष यतैः केशोदारहेतु भिरुपमौयते या सा वर्षशतोपमादिविधापिदिव्या भवस्थिति स्तत्रास्ति परं मे महापालोदिव्या भवस्थिति रासौदिति आमायः दशसागरायुरहमासमित्यर्थः१८ सेचुत्री बभलोगाओ माणुस्मं भवमागभी अप्पणीयपरे सिच आउजाणे जहातहा१८ से इति सोह' इत्यध्याहारः सोहं ब्रह्मलोकात्पञ्च मदेवलोकात् चुात: सन् मानुष्यं भवं नरसम्बन्धि जन्मसमागत: आमनः च पुनः परेषां च यथा तथा आयुर्जीवित वर्त्तते तथा जानामि यस्य मानवस्य येन प्रकारण आयुरस्ति तस्य तेन प्रकारण सर्व जानामि परं विपरीतं न जानामि सत्य जानामि १८ नाणारुईच कुन्दन्तु परिवज्जे जसञ्जए अणट्ठाजेय सव्वट्ठा इइ विज्जामण सञ्चरे ३० हे मुने संयत: साधुनानारुचि किया वाद्यादि मत विषयमभिलाष परिवर्जयेत् च पुनः छन्दः स्वमति कल्पिताभि प्रायं नानाविधं परिवर्जयेत् च पुनर्ये अनर्थाः अनर्थ * हे तवोये सर्वार्थाः अयेष हि सादयो गम्य त्वात्तान् परिवर्जयेदिति सम्बन्धः इत्येवं रूपां विद्यां सम्यग्ज्ञान रूपां अनुलक्षी कृत्व सञ्चरे * स्व संयमा ध्वनियायाः अहमपि इति विद्यां ज्ञानं ज्ञात्वा अङ्गोवत्य संयम मार्गेया मौति त्वयापि तथैव संचरितव्य मिति हाईम् ३०
परीसिंच आउजाणे जहा तहा ॥ २६ ॥ नाणारुडू'च छदंच परिवज्ज ज्ज संजए। अगट्ठा जेय सव्वत्या । इद्र २ जिमघाउखु छेतिम जाणछ' २८ क्षत्रिय मुनिरुवाचः पुनः नानारुच्य च परतौर्थिकानां अभिलाष अभिप्राय परिवर्जयेत् स्वेच्छापण' साधुबले अनर्थ भाषा हेतुवात् ये च हिंसादयः अनर्थनां कारण के इत्येव रूपाविद्याः परित्यज्यः अनुचरेत् साधुः ते सर्वछाडीने तपकरु'छु' अहोसंयतसाधु ३. निर्वत है
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
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उ० टौका
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पडिकमामि पसिणारा परमन्तेहि वा पुणो अहो उडिओ अहोरायम् इइ विज्जातवंचर ३१ पुनः स्वाचार' वलि हे मुने अहं पसिणाणम् इति प्राक्कतत्वात् विभक्तिव्यत्यय: प्रश्न भ्यः एभाशभ सूचकाङ्गष्टादि पृच्छाभ्यः प्रति क्रमामि पराङ्मु खोभवामि वा अथवा पुनः परमन्त्रेभ्यः प्रतिक्रमामि प्रतिनिवः परस्य ग्टहस्यस्य मन्त्राणि कार्यालोचनानि तेभ्यः परमन्त्रेभ्यः एभ्यः सर्वेभ्यः पराङ्मुखीभवामि अहो इति आश्चर्ये अहोरात्रम् उत्थितः धर्म प्रत्यु द्युतः कश्चिदेव महात्मा एवम्बिधः स्यात् इति विद्वान् इति जानन् तपश्चरः नतु प्रश्चमन्त्रादिकञ्चरे ३१ जं च मे पुच्चसोकाले समंसुद्धे ण चेयसा ताइपाउकर बुड़े त' नाणं जिणसासणे २२ अथ संयतमुनिना पृष्ट व आयुः कथं जानासि तदा पुनः क्षत्रियमुनिराह हे संयत त्व' मां काले इति कालविषयम् आयुर्विषयं ज्ञान पृच्छसि कीदृश स्त्व सम्यक् शुद्देन निर्मलेन चित्ते न उपलचित: तां इति
विज्जा मणु संचरं । ३० पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो। अहो उट्ठिए अहो रायं दूदू विज्जा तवं चरे ३१॥ जंच मे पुच्छसी काले । सम्म मुद्दे ण चेयसा। ताडू पाउ करे बुद्धे । तं नाण जिणसासणे ॥ ३२ ॥
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा-सं०1०५१ मा भाग
भाषा
प्रस्ने भ्यः विवश' प्रश्नथको निवत्यों कोइने प्रश्न कई नही मंत्र भ्यः गृहकार्यालोचेभ्यः एहस्थाना पालीचतेहथको निवल्छु अहो इति विस ये ॐ उत्थितः फल्योधको सावधानहओथको अहोरात्र' इति विद्या तपपञ्चरेत् राविदिन विद्याऽनतपसमाचरु छ करंछु ३१ भी संयतः यचा प्रच्छसि
चचियराज ऋषिकहछे संजतीने जेतू पूछेछ आउखानुज्ञान सम्यकशन चेतसा मनसा शुद्धभले मनिकरीने तत्त प्रादुः कृतवान् प्रकटितवान् बुद्ध तीर्थ' कर जौको ज्ञान तीर्थ कर प्रगटकौधार तत ज्ञान जिनशासने वर्तते तेशानजिन सासननविषेले २२ सदनुष्टान रुचि कुर्यातीरः धीर बीरपुरुष भलो
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५१४
उ टौका
& सूत्रत्वात् तत् ज्ञान बुद्धः श्रीमहावीरः अथवा बुद्धः श्रुत ज्ञानवान् प्रादुरकरोत् पुनस्तत्वज्ञानं थोजिन शासनेजानीहि न अपरमिन् कुत्रापि दर्शनऽस्ति प०१८
8 ततोहं तत्र स्थितः तत् प्रसादात् बुद्दोऽस्मि इति भाव: ३२ किरियञ्चरोएधौरी अकिरियं परिवज्जए दिहीए दिदि सम्पबे धम्म चरम टुच्चरम् ३३ धीरः
अक्षोभ्यः क्रियां जौवस्थ विद्यमान तां जीवसत्ता रोचयति स्वयं स्वस्मै अभिलषयंति तथा परस्मै अपि अभिलषयतीत्यर्थः अथवा क्रि यां सम्यक् अनुष्टान रूपां प्रतिक्रमण प्रनिलेखनारूपां मोक्षमार्ग साधनभूतां ज्ञानसहितां क्रियां रोचयति पुनः अक्रियां जीवस्य नास्ति त्वं जीवे जीवस्य अविद्यमानता परिवर्जयेत् अथवा अक्रियां मिथ्यात्विभिः कल्पिता कष्टक्रि याम् अज्ञानक्रियां परित्यजेत् पुनर्बीरः पुमान् दृष्टया सम्यक् दर्शनात्मिकया दृष्टि सेम्पनी भवति दृष्टिः सम्यग् ज्ञानात्मिका बुद्धि स्तया सम्पन्न: सहितो दृष्टिसम्पन्नः सम्यक् दर्शनेन सम्यक् ज्ञान सहित इत्यर्थः तस्मात्त्वमपि सम्यग्दर्शन ज्ञान सहितः सन् सुदुश्चर' कतु मशक्य धर्मञ्चारित्र धर्मञ्चर अङ्गीकुरु ३३ एयं पुस्खपयं सोचा अत्यधम्मोवसीहियं भरही विभारहं वास चिच्चा कामाइ पब्बइए ३४ अथ क्षत्रियमुनिः संयतमुनि प्रति महापुरुषाणां धर्ममार्ग प्रवर्तितानां दृष्टां तेन दृढीकरोति हे मुने भरतीपि भरतनामा चक्रापि भारत भारतं क्षेत्र षट्षंडहि त्यक्त्वा पुनः कामान् कामभोगान् त्यक्त्वा प्रवजितो दीक्षां प्रपन्नः इत्यर्थः किं कृत्वा एतत् पूर्वोक्त पुण्य पद श्रुत्वा पुण्ट च तत्पदच्च
पुण्यपद पुण्यं पवित्र अर्थात् नि:कलङ्क निर्दूषणम् अथवा पुण्यं पुण्यहेतुभूतम् एतादृश पदं पद्यते ज्ञायते अर्थोऽनेनेति पदं सूत्र जिनोक्तमागम सूत्र
किरियंच रोयए धीरे। अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्टि संपन्ने । धम्म चरम दुच्चर॥ ३३ ॥ एयं पुन्न पयं भाषा क्रिया ऊपरि रुचिकर रुचकर अक्रौयाँ परिवर्जयेत् भुडी क्रियानवणे दृष्ट्वा सम्यक् दर्शनेन संपन्नः सहितः सम्यक् दर्शन सम्यक्त तिणकरी सहित
ॐधर्म चारित्र धर्म मेवेसु दुष्कर दुष्कर जे चारित्रधर्मछ ते सेवेकरि ३३ अघ मयतेन क्षत्रियेन पृष्टः कथं व अथ पूर्व मुनीनां दृष्टांतानि कथयती
राय धनपतसिंह चाहादुर का आ.सं.उ.४१ माग
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• टोका
अ. १८
५१५
सूत्र
भाषा
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क्रियावाद्यादि नानारुचि वर्जन निवेद शब्दसुचना लचण' तत् श्रवणविषयाकृत्य अथवा पूर्ण पद पूर्णपद सम्पूर्ण ज्ञान' पदशब्देन ज्ञानमध्य चाते कौदृम ं पुण्यपदम् अर्थ धर्मोपशोभितम् अयेते प्रायते इति अर्थ: स्वर्गापवर्ग प्राप्तिकारणभूतः अर्थयं धर्मच अर्थधर्मो ताभ्याम् उपशोभितम् अर्थ धर्माप शोभितम् एतादृश' जिनोक्त' सिद्दान्तम् अर्थ धर्मसहित श्रुत्वा यदि भरतथक घर सम्पूर्ण भरत क्षेत्र षट्खण्ड रुम्म्राज्यन्यक्का दोचां जग्राह तदा त्वया प्यस्मिन् जिनोक्तागमे चलितव्य' महाजनो येनगतः स पन्था इत्युक्तत्वात् स कल नृपेषु ऋषभं पुत्रो भरतो मुख्य स्तेनायं मार्गः समाधिः यात्र भरत चक्रिणः कथा अयोध्यां नगर्या श्ररिषभदेव पुत्रः पूर्वभवकृत मुनिजन वैयावृत्यति चकिभोगः प्रथमच को भरतनामास्ति तस्य नवनिधानानां चतुर्दशरत्नानां द्वात्रिंशत् सहश्र नरपतीनां द्विसप्तति सहश्र पुरवराणां षण वति कोटिग्रामाणां चतुरशीति सहश्र हयगयरथानां षट् रु ग्रह भरतस्य ऐश्वर्य कुर्वतः स्वस'पत्त्यानुसारेण साधर्मिक वात्सल्य' कुर्वतः स्वयं कारिताष्टापदशिरः स स्थित चतुर्मुख योजनायामजिनायतनमध्य स्थापितमिज २ वपु प्रमाणो पेत श्रौऋषभादि चतुर्विंशति जिन प्रतिमाबन्ददार्थ' न' समाचरतः श्रीभरत चकिणः पञ्चपूर्वकचाण्यति कान्तानि अन्यदा महाविभूत्वा उर्त्तितदेहः सर्वालङ्कारविभूषितः सभरत चक्की आदर्श भुवनेगतः तत्र स्वदेह' प्रच्यमाणस्य अङ्गुलीय कम्पतितं तच्च तेन न ज्ञातं आदर्शमिती व देह परवान पतितामुद्रिकाखकराङ्ग ुलो अशोभमानां दृष्टा ततो द्वितीयां गुलीतोपि मुद्रिकाऽपनीता साप्य शोभमानादृष्टा ततः कुमात्सर्वाङ्गाभरणानि उत्तारितानि
सोवा । अत्य धम्मो वसोहियं । भरहोवि भारह वासं । चिच्चा कामाइ पव्वइए ॥ ३४ ॥ सगरोवि सागरं तं । एतत्पुन्धर्पदं वा पुन्यनु' पद सांभलौने आयुर्जानासि इति पृष्ट चत्रियाह को पद अर्थधर्माभ्यां उपशोभितं अर्थ अने धर्मति करो सहित भरतोपि चक्रवर्ती भारतवर्ष भरत चक्रवर्त्ति' भरतखेवने छोडोने त्यक्का कामाथ दोai प्रपत्रः वलौ कामभोग छोडौने दीवालीधी ३४
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०० ४१ मी भाग
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स.टौका
प०१६
* तदा स्नगरीरं अतीवाभीभमाना निरौच सवेगमापनसको एवं चिति ' प्रहस: पही पागन्तुको रेवेदंबरीरं योभते न खभावसदर पपिच एतच्छरीर सङ्गन सुन्दरमपि वस्तु विनश्यति उक्त च मात्र असणं पाणं विवि खाइ ममा इमं सरौरसामावबं सम्बंपि असुई भवे. १ वरं वत्थं वरं पुष्पं वरं गन्ध विलेवणं विशम्मए सरीरेण वरंसयणमासय २ निहाय सम्बरोगाचं कयग्धथिर इमं पचासहभूममयं अथवपरिकम्मरण ३ तत एतच्छरौ रक्तते सर्वथान युक्त अनेकपाप कर्मकररीन मनुष्य जामहारय यत उन लोहायनावचलधौभिनत्ति सद्राय वैडूर्यमचि दृशति स चन्दनं शोषति भस्म रामेोमानुषत्व नयतीन्द्रियार्थे । इत्यादिकं चिंतयतः तस्य भरतस्य प्रातभावचारित्रस्य प्रवामानश्भाध्य वसायस्य चपक यौगि प्रपजस्य केवल ज्ञान
मुत्पन्न शकस्ववसमायातः कथयति च द्रव्यलिङ्ग प्रपद्यस्व येन दीक्षा उत्सवं करोमि ततो भरतकेवलि नास्त्रमस्त केपश्चमौष्टिको लोच कृतः शासन * देवतया चर जोहरणोप करणानि दत्तानि दशसहस्वराजभिः सम प्रबजितो भरतः शेष चकिणस्तु सहश्र परिवारण प्रव्रजिताः ततः शकेण वन्दितो सौ
ग्रामाकरनगरेषभ्रमन् भव्य सत्वान् प्रतिबोधयन् एकपूर्वलच यावत् केवल पर्यायं पालयित्वा परिनिहतः तत्पच योग आदित्ययमानुपाभिषिक्त: इति भरत दृष्टांतः ३४ पुनस्तदेव महापुरुष दृष्टांतेन द्रढयति सगरोविसागरं तं भरहवासवराहिवो इसरियं केवलं हिचा दया परिनिब्बुओ३५१ है मुचे सगरोपि सगरना मानराधिपोपि दययास यमेन परिनिहतः कर्मभ्योमुक्तः पत्र नराधिप शब्दन अपि शब्दात् द्वितीयश्चकुवळधिकारात् अनु
तोपि. चक्र प्रव स्टह्यते किं करवा भरत वर्ष भरतक्षेत्र अर्थात् भरतक्षेत्र राज्यन्त्यक्ता पुनः केवलं परिपूर्ण एकछत्र रूपं ऐश्वर्य हित्वात्यक्ता कीदृशं भरत ४ वर्ष सागरां तं समुद्रान्त सहितं चुहिमवत् पर्वतं यावत् विस्तीर्ण भरतक्षेत्र राज्यमित्यर्थः अत्र सगर चक्र वर्तिदृष्टान्तः तथाहि अयोध्यायां नगयों *याककुलोद्भवोजितशत्र नृपोस्ति तस्य भार्याविजयानान्त्री अस्ति सुमित्रनामाजित पत्र, सहीदरोयुवराजावर्तते तस्य यशोमती नानी भार्यास्ति
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं.१.४१ मा भाग
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उ टोका प.१८
* जह, कुमारोऽवदत् अन्यः कश्चिदष्टापद सदृशः पर्वतोस्ति यत्रे दृशमन्य चैत्य' कारयामः चत सष दिछ पुरुषास्तहवेषणाय प्रेषितास्त सर्वत्र परिझम्य समायाताः ऊचुः स्वामिन ईट्टयः पर्वतः क्वापि नास्ति जनाभणितं यद्येवं वयं कुम्म एतस्यैव रक्षां यतोत्रक्षेत्र काल क्रमेण लुब्धाः सर्वे नराः भवि थन्ति अभिनवकारणात् पूर्ववत परिपालनं श्रेयः तच्चदण्डरत्न गृहीत्वा समन्तोष्टापदपार्थेषु जङ्ग प्रमुखाः सर्वे पि कुमाराः खातु लग्नाः तच्च दण्ड रत्न योजन सहस्र भित्वा प्राप्त नागवनेषु तेन तानि भिन्नानि दृष्ट्वा नाग कुमाराः शरणमवेषयन्ती गता नागरा जज्वलन प्रभसमीपे कथितः स्व भवन विदारण: वृत्तान्तः सोपि सम्भ्रान्त उत्थितोऽवधिना ज्ञात्वा क्रोधोडरः समागतः सगरसत समीपं भणितवांश्च भोभो किं भवद्भिर्दण्डरनेन पृथ्वौविदार्य अस्मद्भवनोपद्रवः कृतः अविचार्य भवद्भिरेतल्क तं यत उक्त अप्पवहाए नूणं होइ बलं उत्तणाण भुवण मिणियपक्खु बलेणञ्चिय पडेइपयङ्गीपईवंमि १ ततो नागराजोपशमननिमित्त जहु नाभणितं भो नागराज कुरुप्रसाद उपसंहर कोध सम्भरं क्षमस्वास्मदपराधर्मकनच्य स्माभिर्भवता मुपद्रवनिमित्त एतत्क तं किं तु अष्टापदचैत्यरक्षार्थ मेषा परिखा कता न पुनरेवं करिष्यावः तत उपशान्तकोपीज्वलन प्रभः स्वस्थानं गतः जहु कुमारण भ्रातृणां पुर एवं भणितं एषा परिखादुर्लक्यापि जल विरहितानसोभते तत इमां नौरेणपूरयामः दण्डरवे न गङ्गां भित्वा जनाजलमानीतं भृता परिखातज्जल नागभवनेषु प्राप्त जल प्रवाह सन्त्रस्तं नागनागिनौ प्रकरं इतस्ततः प्रणश्यन्तं प्रेक्ष्य प्रदत्तावधि ज्ञानोपयोग: कोपानलज्वालामाला कुलोज्वलन प्रभ एव मचिन्त यत् अहो एतेषां जग, कुमारादीनां महापापानां मया एकवारमपराधः क्षान्तः पुनरधिकतरं उपद्रव कृतः ततो दर्शयाम्येषामविनय फलं इति ध्यात्वाज्वलन प्रभेण तद्धार्थ नयन विषा महा फणिन: प्रेषिता स्तैः परिखाजलान्तर्निर्गत्य नयनैस्त कुमाराः प्रलोकिताः भस्म राशीभूताः सर्वेपि सागरस्ताः तथा भूतां स्तान् वौच्यसैन्य हाहारवीजातः मंत्रिणाउक्तं एतेतु तीर्थरक्षां कुर्वतोऽवश्य भावितया इमा मवस्था प्राप्ताः सहतावेव
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०.४१ मा भाग
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ह.टीका अ.१८ ५१८
भविष्यन्तोति किशोच्यते अतस्वरितमित: प्रयाणः क्रियते गम्यते महाराज चकि समीपं सर्वसैन्येन मन्त्रि वचनमङ्गीकृतं ततस्त्वरितप्रयाण करणन कुमात् प्राप्त स्व पुरसमीपे ततः सामन्तामात्यादिभि रेवं विचारितं समस्त पुत्र बन्धोदन्तः कथं चकिणी वक्त पार्यते ते सर्वेदग्धा वयं चाक्षतां गाः समायाताः एतदपि प्रकामन्त्रपाकरं ततः सर्वेपि वयं प्रविशामोऽग्नौ एवं विचारयतां तेषां पुरः समायातः एकोदिजः ते नेदमुक्त भो वौराः किमेवमा कुलौभूताः मुञ्चतविषाद यत: संसारन किञ्चित्सुख दुःख अत्यन्तमद्भुतमस्ति भणितज्ञ कालमि अणाईए जीवाण विविह कम्मवसगाणं तं नास्थि संवि हाणं जसंसारिन सम्भवद १ अहं सगरचकिणः पुत्रवधयति कर कथयिष्यामि सामन्तादिभिस्त हचः प्रति पन्नं ततः स हिजोमृतं बालक करे क्लत्वा दष्टोस्मीति वदन् सगर चकि ग्रहहारगत: च किणातस्य विलापशब्दः श्रुतः चकिणासहिज आकारित: केन दष्ठोसौति चकिणापृष्ठः स प्राहः देव एक एवमेस्तः सर्प णदष्टोमत एतदुःखेनाहं विलपामीति करुणासागरत्वामेन' जीवय अस्मिन्नवसरे तत्र मन्त्रि सामन्ताः प्राथिताः प्रामाः चकिण प्रणम्य उपविष्टाः तदानीं चक्रिण राजवैद्यमाकार्य मुक्त' एनं निर्विष कुरु वैद्य न तु चकि सुतमारण ७ तवताउन राजन् यस्मिन् कुले कोपिनमृतः तत् कुलाहस्मयद्यानयसि तदैनमहं जीवयामि हिजेन गृहे २ प्रश्न पूर्वक भस्ममार्गितं गृह मनुष्याः स्वमालपि भावहित प्रमुख कुटम्बमारणान्याचख्युः हिजश्चकि समीपे समागत्य उवाच नास्ति वैद्योपदिष्ट तादृश भस्मोपलब्धिः सर्व ग्रहे कुटम्बमनुष्यमरण सद्भावात् यद्य व तत् किं व पुत्र शोचसि सर्व साधारणमिद मरण उक्त' च कि अस्थिकोइ भुवणे जस्म जायाइन्नेव पायाई नियकम्म परिणईए जम्मण मरणाई संसार १ ततो ब्राह्मण मारुद शोकमुच्च आत्महित कार्य चिन्तय यावत्त्वमपि एवं मृत्युसिंहेन न कवली कियसे विप्रेण भणितं देवाह मपि जानाम्य वं परं पुत्रमन्तरेणसां प्रतिम कुलक्षयं तेनाह मतीवदुःखितः त्वं तु दु:खिताऽनाथवत्म लोऽप्रतिहत प्रतापचासि ततो में देहि पुत्र जीवितदानेन मनुष्यभिक्षां च किणाभणित भद्र
राब पनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१ मा भाग
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इद ममय प्रतीकारं उतच सोयन्ति सव्व सत्ताई एवनकम्मन्तिमन्ति तं तापदिश्यहरगोविहिमकि पौर सागर १ ततः परित्यज्यमोक १. टौका * कुरु परलोकहितं मूर्खएवहते नष्टे मृत करोति थोक विशेष भणितं महाराज सत्यमेतत् न कार्योऽत्र जनकनमोकः ततस्व मपि मा कुर्याः भोकमस प.१८ ५२. * भावनौयं भवतः भोक कारण जास' संभ्रतिन चकिया पृष्टं भी विप्र कोहयं मम मोक कारलं जातं विप्रेष भणितं देव तव षष्टि सहस्रः पुचः काल
ताः इद श्रुत्वाः चकोवच प्रहाराहतवनष्ट चेतनः सिंहासनावि पतितो मूर्शिनः सेवकै रुपचरितर मूळवमानेव मोकातरमनामुत्कलकर नररोद एवं विलापान् चकार हा पुत्रा हा हृदयदयिता । बन्धु वनभाः हा भस्वभावाः । विनौताः हा सकलगुणनिधयः कथंमामनाथं मुजायूर्यगताः युभत् * विरहात स्व ममदर्चानंददतः हानिर्दयपापविध एकपदेचैव सर्वान् बालकान् संहरतस्तव किं पूर्ण जातं हा निष्टुरादयत्वं पसा सुतमरणदुःख सतप्त * किन यतवलं भवसि एवं विलपामयको तेन विमेण भणित: महाराजवं मम सांप्रत्येवं उपदिष्टवान् स्वयंच कथं पोक' गच्छसौति उलाच परवसणं 8 मिसहर्ष संसारा सायर कहइलोषोणिय बन्धु जणविणासो सबस्मविच सधौरत्त । एक पुत्रस्यापि मरणं दुःसह किं पुनः षष्टिसहस्र पुत्राणां तथापि
सत्पुरुषाव्यसनं सहन्ति प्रथिव्ये वयनिपातं सहति नापरइप्ति अवलंय सुधौरत्व अलमत्र विलपितेन यत उन्न सोयं तापिनीताण कमवन्धीउ कैवलो
तो पण्डिया नसोयन्ति जाणन्ता भवरुवयं १ एवमादि वचनविन्यासैविप्रेण स्वस्थौकतो राजा भणितायतेनैव सामन्तमन्त्रिण; बदस्तु यवाहत्तं षष्टिसहत्र ३ पुत्र मरणव्यतिकर तैरुक्तः सकलोपितद्यतिकरः प्रधानपुरुषैः सर्वैरपि राजाधौरतांनौतः उचित क्लत्यं कृतवान् भवान्तरऽष्टापदासबवासिनोजनाः प्रणत
शिरस्काचविण एवं कथयन्ति यथा देवयो युभदीयसतैरष्टापदरक्षणार्थ गङ्गाप्रवाह पानौतः स पासब पामनगराण्युपद्वान् पसरतौतित' भवान् निवा रयतुदेव: अन्यस्य कस्यापि तबिवारणशक्तिर्नास्तौति चकिण व पौत्रो भगौरयोर्भपितः वम नागराज मनुनाप्य दण्डरबेन गङ्गाप्रवाई नय:
पपनपतसिंह बाहादुर का श्रा.स.७.४१ मा भाग
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उन्टौका
8 समुद्र ततो भगोरथि रष्टापद समोपंगतः अष्टमभक्त न नागराजा आराधितः समागतो भणति किंते सम्पादयामि प्रणामपूर्व भगीरथिनाभ णितं तव प्रसादेनामु गङ्गाप्रवाहं उदधिं नयामि अष्टापदासब लोकानां महानुपद्रवोस्तीति नागराजन भणितं विगतभयस्त्वं कुरुस्ख समौहितं निवारयिष्याम्यहं भरतनिवासिनो नागान् इति भणित्वा नागराजः स्वस्थानङ्गतः भगौरविनापि कृतानागानां बलि कुसुमादिभिः पूजाततः प्रभृति
लोकानागबलिंकरोति भगोरथिदण्डेन गङ्गाप्रवाहमाकर्षन् भंजय बहनस्थल शैलप्रवाहान् प्राप्तः पूर्वसमुद्रन्त त्राव तारिता गङ्गा तवनागानां 8 बलि पूजाविहिता यत्र गङ्गासागर प्रवाहिता तत्र गङ्गासागरतीथं जातं गङ्गा जहुनानौतेति जागवी भगौरथिनौतेति भागौ रथौ भगौरविस्तदा मिलितैनांगैः पूजितोगतोऽयोध्यां पूजितश्चकिणानुष्टे न स्थापितः स्वराज्ये सगर चकुवर्तिना पौअजितनाथ समीपे दीक्षा गृहीता कुमए कर्मक्षयं कृत्वा सगरः सिद्ध अन्यदा भगौरथिना राज्ञा कश्चिदतिशयज्ञानी पृष्टः भगवन् किं कारणं तत् जङ्गप्रमुखाः षष्टिसहया भ्रातरः सम कालं मरणं प्राप्ताः ज्ञानिनाभणितं महाराज एकदा महान् संघचत्य वंदनार्थ समेत पर्वते प्रस्थितः अरण्य मुलंघ्य अन्तिमं ग्राम प्राप्तः तविवासिना सर्वेण अनार्यजनेन अत्यन्त मुपहृतो दुवचनेन वस्त्राव धनहरणादिना च तत् प्रत्ययं तद्ग्रामवासिलोकर शुभं कर्म बढतदानौमेकेन प्रकृति भद्रकेण कुशकार णोक्त मा उपद्रवत् इमं तीर्थयात्रागतं जनं इतरस्थापि निरपराधस्थ परिल शनं महापापस्य हेतुर्भवति किं पुनरतस्य धार्मिकजनस्य ततोयद्येतस्य संघस्य स्वागत प्रतिपत्ति कत न मकास्तदा उपद्रवन्तु रक्षत इति भणित्वा कुम्भकारण निवारितः सग्रामजन: संघस्तवगतः अन्यदा सग्राम निवासिना एकन नरेण राजसविवेमे चौर्य कृतं ततो राजनियुक्त: पुरुषैः सग्रामो हारपिधान पूर्वक ज्वालितः तदा स कुम्भकारं साधु प्रसिध्या ततो निष्कासितोऽन्यस्मिन् ग्रामेगतः तत्र षष्टि सहन जनादग्धाः उत्पन्नाविराट विषयेतिमग्रामकोवित्वेनताः को द्रव्यएकत्र पुचीभूताः स्थिताः सन्ति तब कः करी समायातः
राम धनपतसिंह वाहादुर का पा सं०१०४१ मा भाग
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उल्टौका अ०१८ ५२२
तच्चरणेनताः सर्वा अपि मर्दिताः ततो मृतास्तेनानाविधासुख दुःख प्रवरासुयोनिषु सुचिरं परिभम्य अनन्तर भवे किञ्चित् शभकर्म सपार्ज मगर चकि . सुतत्वे नोत्पबाः षष्टि सहस्र प्रमाणा अपि ते तत्कर्म शेषवशेन तादृशं मरणं व्यसनं प्राप्ताः सोपि कुम्भकारस्तदा वायुः क्षयेमृत्वा एकस्मिन् सनिवेशेधन समृद्धो वणिग्जातः तत्र कृतस तत सनाती मृत्वा नर पतिस्तत्र शुभानु बन्धन शुभकर्मोदयेन प्रतिपनी मुनि धर्म शुद्ध च परिपाल्य ततो मत्वा सुरलोकं गतः तता प्रतस्वं जहु सतीजातः इदं भागीरथः श्रुत्वा सम्ब गमुपागतस्वं अतिशयज्ञानिनं नत्वागतः स्वभवनं इदं च भगौरथि पृच्छासम्बिधा नकं प्रसङ्गत उक्त' इति सगर दृष्टान्तः २ ॥३५ च इत्ता भारह वासञ्चकबट्टीमहडिए पञ्चज्जमभु वगो मघवं नाम महायसो ३६ पुनर्मघवानामा हतीय चक बत्तों प्रव्रज्यां दीक्षा अभ्युपगतः चारित्र प्राप्तः कोदृशो मघवामहईि कः चतुर्दश रत्न नवनिधान धारको वै किर्षिधारीवा पुनः कीदृशी महायशाः विस्तीर्णकोतिः अत्र मघवाख्य स्य चकिणः दृष्टांत: इहैव भरतक्षेत्र बावस्त्यां नगर्या समुद्रविजयस्य राज्ञो भद्रादेव्याः कुक्षौ चतुर्दश महारून सूचितो मववानामासमुत्पन्नः स च यौवन स्थोजन केन वितीर्खा राज्यः कमेण प्रसाधितभरतक्षेत्र स्तृतीयश्च कुवर्तीजात: सुचिरं राज्य मनुभवतस्तस्य अन्यदा भव विरक्तताजाता स एवं भावयि तु प्रवृत्तः येऽत्र प्रतिबन्ध हे तवोरमणीयाः पदार्थास्त स्थि राः उक्त' च हिय इस्थिया उदारा सुआविणी याममोरमा भोगा विउला लच्छोदेहो निरामयो दोहजीवित्त १ भव पडि बन्धनि मित्तं एगा इवत्यु नवरसबंपि करवय दिणावमाणे सुमिणो भोगुबनहि किश्चित ततोहं धर्मकर्मणि उद्यमं करोमि धर्म एव भवान्तरानुगामौ एवमादिक परिभाव्य पुत्र निहितराज्यो मघवा चको परिमजत: काल कमण विविध तपश्चरणन काल सत्वा सनत् कुमारी कल्पगतः इति मघ वा दृष्टांतः ३६ सणं कुमारीमणु मिन्दी चक्कवटी कहडिए पुक्त रज्ज ठवि.ण सोविरायातवं चरे ३७ अब सनत् कुमार दृष्टांतः अस्यत्र भरतक्षेवे कुरुजङ्गलजनपदे हस्तिनाग पुरं नाम मगरं तलाश सेनीनाम राजा तस्य भार्या सहदेवी नामी
राय धनपतमिह बाहादुर का आसं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०१८
५२३
सूत्र
भाषा
तयोः पुत्रचतुर्दश वन सूचितवतुर्थश्चकवत्तसनत् कुमारी नाम तस्य सूरिकालिन्दी तनयेन महेन्द्र सिंहेन परम मित्रेण समं कलाचार्य समीपे सर्वकला भ्यासो जातः सनत् कुमारो यौवन मनुप्राप्तः अन्धदावसंतमासेऽनेकराज पुत्र नगर लोक सहितः सनत् कुमारः कौडार्थमुद्यानगतः तचाख कौडां कर्तु ं सर्वे कुमाराः अश्वारूढाः स्वस्वमखङ्घ लयन्ति सनत् कुमारोपि जलधिकझोलाभिधानं तुरङ्गमारूढः समकालं सर्वैः कुमारैमुक्कास्ततो विपरी शिक्षितेन कुमाराखेन तथा गतिः कृत्वा यथा अपर कुमाराखाः प्राक् पतिताः कुमाराश्वस्तु अदृश्यौ भूतः ज्ञातवृत्तान्तो राजा स परिकरस्तत् पृष्टौ चलितः अस्मिन्नवसरे प्रचण्ड वायुर्वातु लग्नः तेन तुरङ्गपदमार्गो भग्नः महेन्द्रसिंहो राजाज्ञां मार्गयित्वा उन्मार्गेणैव कुमारमार्गणार्य लग्नः प्रविष्टो भौषणां महाटवीं तत्र भ्रमतस्तस्य वर्षमेकमति कान्तं एकस्मिन् दिवसेगतः स्तोक' भूमि भाग' तावत् तावदेक' महसरोवरं दृष्टवान् तत्र कमलपरिमल माघ्रातवान् श्रुतवां मधुरगीत वेणरवं यावन्महेन्द्रसिंहोऽग्रे गच्छति तावत्तरुणौगणमध्य संस्थितं सनत् कुमारं दृष्टवान् विस्मितमनामहेन्द्र सिंह चिन्तयति किं मयाविभ्रमो दृश्यते कि ं वा सत्य एवायं सनत् कुमारः यावदेवं चिन्तयन् महेन्द्र सिंह स्तिष्टति तावत्पठित मिदं बन्दिना जय २ आससेण न हय लमयङ्क कुरुभुवण लग्गणेख' भजयति हुयणनाहसण कुमारः जयलडमाहप्प १ ततो महेन्द्रसिंहः सनत्कुमारोयमिति निश्चितवान् अथ प्रकामं प्रमुदितमनाः सनत्कुमारेण दूरादागच्छन् दृष्टः सनत् कुमारोप्यत्थायाभि मुख माययौ महेन्द्रसिंहः सनत् कुमार पादयोः पतितः सनत्कुमारेण समु जमग्भ ुवगच मघवनाम महायसो || ३६ || सर्णकुमार मणुसिंदोचक्कवट्टी महिडिओ पुत्तं रज्जे ठवेऊण सोविराया सनत्कुमारो मनत्कुमारनामे मनुष्येद्र मनुष्यमाहिं इंद्र चक्रवर्त्ति :- महर्द्धिकः चक्रवर्त्ति महाऋद्धीवंत पुत्र राज्य स्थापयित्वा पुत्रने राज्यदेईने सोपि राजा दोप्तमान् तपंचरेत् तिथे राजाइ' तपचादस्त्री ३७ त्यक्का भारत वर्ष त्यजौने भरत क्षेत्र चकुवर्त्ति महर्षि क चकुवर्त्ति महाऋडिनो धणी मांति
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रात्र धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा भाग
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स्थापितो गाढमालिङ्गितश्च हावपि प्रमुदितमनस्कीविद्याधरदत्तासने उपविष्टा विद्याधर लोकय तयोः पाखें उपविष्ट: अथानंदजल पूरितनयने न सनत् स.टीआ४
8 कुमारण भणितं मित्र कथमेकाक्य वत्व अस्थामटव्यामागतः कथं चावस्थितीहं त्वया ज्ञातः किञ्च करीति महिरहे ममपितामाता च कथित: सर्वो ५२४ * वृत्तान्ती महेन्द्र सिंहेन ततो महेन्द्रसिंहो वरविलासिनीभिर्मज्जितः नापितच भोजनं दाभ्यां सममेव कृत भोजनावसाने च महेंद्रसिहन सनत् कुमारः
पृष्टः कुमारतदात्वतुरङ्गमेणापहृतः क्वगतः क्वस्थितम कुतएतादृशी ऋदिस्त्वया प्राप्ता सनत्कुमारेण चिन्तित न युक्त निजचरित्र कथनं निज मुखे नेति संचिता खयं परिणीता खेचरेन्द्र पुत्रौविपुलमतौनानी व प्रिया साकुमार वृत्तान्तं ख विद्याबलेन कवयितु प्रवृत्ता तदानी कुमारी भवदादिष पग्यम क नारस्तु रङ्गमेणापहृतो महाटव्यां प्रविष्टः द्वितीयदिनेऽपि तथैव धावतीश्वस्य मध्याह्न समयोजातः क्षुधापि पासाक लिन थान्त न अखेन निकासिताजिह्वा कुमारस्तत उत्तीर्ण : सोवस्त दानी मेव मृतः कुमारस्त त: पादाभ्यामेव चलितः तृषाक तश सर्वत्र जलं गवेषयवपि न प्राप ततो
दीर्घाध्वश्रमेण सुक मारत्वेन चात्यन्तमा कु लौ भूतो दूरदेशस्थित सप्तच्छदं वृक्ष पश्यन् तदभि मुख धावन् कियत् कालानन्तरं तत्र प्राप्त छायायामुप 8 विष्टः पतितश्च लोचने भानयित्वा कुमारः अबावसरे क मार पुण्यानुभावेन वन वासिनाय क्षेणजलमानीतं शिशिरशीतलजलेन सर्वाङ्ग सिक्त: अाखा 8 सितश्च लञ्च वेतनेन च कु मारेण जलं पोतं पृष्टञ्च कस्त्वं कुतो वा नौतं जल मिदं तेन भणित अहो यक्षोतनिवासी सलिलं चेदं मानसरोवरादानौत
क मारणोक्त यदि मान्तदर्थयसि तदा तत मानसरोवरे प्रक्षालयामि तदामहपुस्तापोपनयति तच्छु त्वायक्षेण करतल संपुटे गृहीत्वानीतोमानसरोवरं * तत व्यसनापतितीयमिति क्लत्वा कुछ न वैताब्य वासिनासितयक्षेण समं कुमारस्य युद्ध जातं तथाहि योण प्रथमं मोटितरुः प्रचण्ड : पवनीमुक्तः तेन नभस्तलम्ब हु लध बान्ध कारित ततो विमुक्ताहासाज्वलनज्वालापिङ्गलकेथापिशाचामुक्ताः कुमारस्तैर्मनाक न भौति गतः तती, नयन ज्वाला
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
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९० टोका
अ०१८
५२५
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वर्षभर्नागाः कुमारोयक्ष ण बहः जोर्यरज्जबन्धनानिचतान् त्रोटयतिस्म क ुमारः ततः करास्फालन पूर्व मुष्टिमुदयम्य यतः समायातः मुष्टि प्रहारेण कुमारस्तं खण्डीकृतवान् पुनर्यचः स्वस्थौ भूत्वा गुरुमत्सरेण कुमारं घन प्रहारेणहतवान् तत् प्रहारार्त्तः कुमार किन मूलद्रुम इव भूमौ निपतितः ततो यक्ष णदूरमुत् चिप्यगिरवरः क ुमारस्यो परिचिप्तः तेन दृढपौडितां गोनिश्चेतनोजातः अथ कि यत्कालानन्तरं लब्धसंज्ञः कुमारस्तेन समं बाहुयुद्ध' चकार कुमारेण करमुहराहतो यचः प्रचण्डवाताहत चूत द्रव तथा भूमौ निपतितः यथा मृत इव दृश्यते परं देवत्वासन सृतः आराटि' कुर्बाणः स यचस्तथा नष्टो यथा पुनर्नदृष्टः कौतुकान भस्यागतविद्याधरैः पुष्य दृष्टिम् क्ताः उक्त' च जितोयचः वा मारणेति ततोमानस सरति यथेष्ट स्वात्वा उत्तीर्णः कुमारो यावत् स्तोकां भूमिभागं गतः तावत्तत्र वनमध्य गता अष्टौ विद्याधर पुत्रौर्हष्टवान् तापिरप्यसी त्रिग्धदृष्या विलोकित: कुमारेण चिंतित एताः कुतः समायाताः संति पृच्छाम्यासां स्वरूपमिति पृष्ट कुमारेण तासां समीपे गत्वा मधुरवाण्या कुतोभवन्त्य श्रागता किमर्थमेतत् सून्यमरण्य मलङ्गत ताभिर्भवित महाभाग इतोनाति दूरे प्रियसङ्गमाभिधानास्माकं पुरी अस्ति त्वमपि तव वागच्छेति भणितिः किङ्करी दर्शितमार्गस्तासां नगरीं प्राप्तः किञ्चुकिपुरुपैः राजभुवनन्रीतः दृष्टश्च तन्नगरखामिनाभावुवेगराज्ञा अभ्युत्थानादिनासत् कृतच उक्त राज्ञा महाभाग त्वं एतागं ममाष्टकन्यानां वरोभव पूर्व हि आत्राया तेन अर्चिमालिनाम्खा मुनिनाएव मादिष्टं योसिताच' यक्ष जेष्यति स एतासां भर्त्ताभविष्यति ततस्त्व मेताः परिणयेति नृपेणोक्त कुमारेण तथेति प्रतिपन्नं राज्ञा महामहः पूर्वक' विवाहः कृतः कङ्कण कुमारकरेबडः सुप्तश्चताभिः साई रतिभुवने कुमारः पत्यद्दोपरि निद्रावगमेवात्मान' भूमौपश्यति किमेतदिति चिंतितवांच करबद्ध कङ्कणं पश्यति ततः खिन्नमनाः कुमारस्ततो गंतु प्रवृत्तः अरण्यमध्ये च गिरिशिखरे मग्रस्तम्भ प्रतिष्टित दिव्यभुवन दृष्ट कुमारेण चिंतित इदमप्यालम्याल प्रायम्भविष्यतीति तदासवेयावहन्तुं प्रवृत्तः कुमारस्तावत्
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राय धनपतसिंह बादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग **********
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तद्भवनान्तः करुणवरण रुदन्या एकस्यानार्याः शब्द' श्रुतवान् प्रविष्ट स्तवनान्तः सप्तभूमिमारूढः रुदन्त्या तब एकया कन्ययाणित कुरुजनपद उ टोका * नभस्तल मगाइ सनक मार त्वं भवान्तरपि मम भा भूया इति वार'२ भणतो पुनर्गाढ रोदितु प्रत्ता ततो रुदन्त्यवतयासन दत्तं तत्रोपविश्य अ०१८
* कुमार तां पृष्टवान् सनक मारेण सहतवकः सम्बन्धः येन त्व' तमेव स्मारयसि सा प्राह मम स मनोरथ मात्रेण भर्त्ता कथमिति कुमारणोक्त सा प्राह अहं हिशाकेत पुरस्वामि सुरथनामनरेन्द्र भार्या चन्द्रयथा पुत्रो अस्मि अन्य दाहं यौवन प्राप्ता पित्रा चमत्क तऽनेक राजकुमार चित्रपटरूपाणि दूतैरानौय दर्शितानि एकमपि चित्रपटरूप मम न रुचत एकदा सनत्क मार चित्रपटरूप दूतै रानीय मे दर्थित' तदत्यन्त मेरुरुचे मोहिताचाहं तद्र पमेव ध्यायन्तो स्वर हे तिष्टामि तावदहमकेन विद्याधरण पिढयहादपहृता नानौता स्वयं विकुर्वितस्मिन्बावासमा मुखा स कचित् गतीस्ति या वत्मा कन्या * एवं वद त्यस्ति तावत् अशनिवेग सुत वज वेगण विद्याधरण तत्रागत्य सनत्क मार उत्क्षिप्तो गगनमण्डले सा च कन्या हाहारवं कुर्वाणा मूर्छापरा
धोना निपतिता पृथिवी पौठे तावदाकाशमार्गादागत्य सनत्कु मारेण स विद्याधरो मुष्टिप्रहारण व्यापादितः सनत्क मारण तस्या वृत्तान्तः कथितः परिणीता च सा सुनन्दाभिधाना कन्या सास्य स्त्रीरत्न भविष्यति स्तोकवेलायां तत्र वववेग विद्याधरभगिनी सध्यावली समागता भ्रातरं व्यापादितं
दृष्ट्वा कोप मुपागता पुनरपोदं नैमित्तिकवच: स्म तिपथमागतं यथा तव भ्राबधकस्तव भर्ता भविष्यतीति मत्वा कुमारस्यैवं विज्ञप्तिं चकार अमिहत्वां * विवाहार्थमायाताम्मोति सनत्कुमारण सा तत्रैव परिणौता अत्रांवरे सनत्कुमारसमीपे दौविद्याधर नृपौ समायातो ताभ्यां प्रणामपूर्व कुमारस्यैवं भणितं * देव अशनिवेग विद्याधरी विद्यावलमज्ञात पुत्र मरणवृत्तान्तस्त्वया समयोडुमायाति तदन्तश्चंद्र वेगभानुवेगाभ्यां आवां हरिचंद्र से नाभिधानी निजभुत्री प्रे पितोरहसि संनाहरप्रेषित: आवां अम्मत्पितरोभवत्मे वार्थ संप्राप्ताः तदनन्तरं तत समागतो चन्द्रवेगभानुवैगौ सनत्कुमारस्थसाहदाय सध्यावल्या प्रजप्ती
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०७.४१ माग
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उसका
* विद्याइत्ता चन्द्र वेग भानुवैग सहितः सनक मारः संग्रामाभिमुखं चलितः तावता शनिवेगः सेनाहतः समायातस्तेन समं प्रथमचन्द्रवंग भानवेगी
युद्धप्रवृत्तो चिरकालं युद्ध कृत्वा तयोर्बलं भग्न ततः स्वयमुत्थितः सनत्कु मारस्तेन अशनिवेगेन समंघोरं युद्धमारवं प्रथमं महोरगास्त्र कुमारस्था भिमुखं मुक्त तच्च कु मारेण मुष्टिनवनिहितं पुनस्तेन आग्ने यं शस्त्र मुक्त तत्क मारेण वरुणास्त्र ण निहतं पुनस्तेन वायव्यास्त्र मुक्त कुमारण शैला स्त्र ण प्रतिहतं ततो होत धनुर्बाणान् मुञ्चन् कुमारस्तं निर्जीवमिव चकार पुनराहौत करवाल: स सनत्कु मारैण छिन्न दक्षिणकरः कृतः तती द्वितीय करेण बाहुयुद्ध मिच्छतस्त स्थाभिमुख माया तस्य कु मारण शिरच्छिन्न तदानीं अशनिवेग विद्याधर लक्ष्मौरनेक विद्याधरैः सहिता सनत्कु मारण : संकान्ता ततोऽयनिवेगं विद्याधर परिवृतः सनत्कु मारो नभोमार्गाविद्याधर रथेन समुतौर्य तदावामे पुनरायातः दृष्टस्तत हर्षिताभ्यां उक्तञ्च ताभ्यां आर्यपुत्र स्वागतं अत्र च समस्त विद्याधरैः सनत्क मारस्य राज्याभिषेकः कृतः मुखेनात विद्याधर राजसेवित: सनत्क मारस्तिष्ठति अनादा चंद्र वेगन विज्ञप्तः यथा सनत्क मारः देव ममपूर्व अर्चिमालि मुनिना एवमादिष्ट यथेदं तव कनया शतंभानुवैगस्य चाष्ट कनयायः परिणश्यति सोऽवश्य सनत्क मारनामा चतुर्थश्चक्री भविथति सइतीमासमध्ये मानसरोवर समेष्यति तत्र व्यसनापतितं सरसिस्नानं असितासीयक्ष: पूर्वभववरौद्ररूति स पूर्व भववैरौ कवमिति सनत्कुमारण पृष्टे चंद्रवेगोमुनिमुखश्रुतं तत्पूर्व भववृत्तान्त' प्राह अस्ति काञ्चनपुरं नाम नगरं तत्र विक्र मयशीनाम राजा तस्य पञ्चशतानान्तः पुर्यावर्त्तन्ते तब नागदत्त सार्थवाहोस्ति तस्य रूपलावण्य सौभाग्य योवन गुणैः सुरसुन्दरौभ्योऽधिका विष्णु सिरौनाम भार्यास्ति सानादा विक्रमयशो राज्ञा दृष्टा मदनातुरेण तेन स्वान्तः पुरक्षिवा ततो नागदत्तस्त चिन्तया उन्मत्तौ भूतएवं विलपतिहा चन्द्रानने वगता दर्शनमे देहीति विलपन कालं नयति विक्रमयशो राजानुमुक्त सकल राजकार्योऽगणितजनापवादस्त या विष्णबियासह अत्यन्तरति पुसक्तः कालं नवति पञ्च
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०.११मा माग
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UN
शतान्तः पुरोणां नामानि गृहाति अनादाताभिः कामयादियोगेन विश्नु श्री॰पादिता ततो राजा तस्या मरणेनात्यन्त थोकातौऽशुत जलभनयना ४ नागदत्तएवोन्मत्तोभूतो विष्णु श्रीकलेवरं वह्नि साकत न ददाति ततो मन्विभिर्तृपः कथमपि वञ्चयित्वाऽरण्ये तत्कलेवरं त्या राजा च तत् कलेवर
मपश्यन् परिहतानपान भोजनः स्थित: मन्त्रिभिरिचारितं एष तत्कलेवर दर्थन मंतरण मरिष्यतौति अरण्ये नौत्वारान स्तत्कलेवरं दर्शितं राना तदानों तत्कलेवर गलत्पूतिनिवहं निर्यत्तमिजालं वायस कर्षित नयनयुगल चण्ड खगतुण्डखण्डितं दुरभिगन्ध प्रेक्ष्य एवमामानं निन्दितुमारब्ध रेजोवयस्य कृते त्वया कुलसौलजाति यशो लज्जाः परित्यक्ताः तस्ये दृशो अवस्थाजाता ततो वैराग्यमार्ग प्राप्तो राजाराज्य राष्ट्र पुरं स्वजनवर्गञ्च परिहत्य सुब्रताचार्य समौप निष्कान्तः ततश्चतुर्थ षष्टाष्टमादि विचित्रतपः कर्मभिरात्मानं भावयन् प्रान्त संलेखनां कृत्वा सनत् कुमारदेव लोकेगतः तताती रत्नपुर श्रेष्टि सुतोजिन धर्मोजातः स च जिनवचन भावितमनः सम्यक्तमूलं हादविधं श्रावक धर्म पालयन् जिनेन्द्र पूजारतः कालं गमयति इतव सनागदत्तः प्रिया विरह दुखितो भ्रान्त चित्त आर्तध्यान परिक्षिप्त शरौरी भूत्वा बहुतिर्यग्योनिषु भान्त्वा ततः सिंह पुरनगरेऽग्नि शर्मनामादिजो जात: कालेनविदण्डि व्रतं ग्रहोत्खादिमासक्षपणरतो रत्न पुरमागतः तत्र हरिवाहनो नाम राजा तापस भक्तस्तेन तपस्वी आगतः श्रुत: पारणकदिने राजानि मन्वितः स गृहमागत: अत्रान्तरे सजिन धर्मनामा थावकस्तत्रागत: तं दृष्ट्वा पूर्वभवजात वैरानुभावेनरोषारुण लोचने न मुनिनाएव मुक्तराज्ञः यदा व मां भोजयसि तदास्य थेष्टिनः पृष्टौस्थालं विन्यस्यमा भोजय अन्यथा नाहं भोये राज्ञा उक्त मसौ थेष्टोमहान् वर्तते ततोऽपरस्य पुरुष स्य पृष्टौ त्व भोजन कुरु स प्राह एतस्य पृष्टा वेव भोजनं करिष्ये ना परस्येति राजा तापसानुरागण तत् प्रतिपनं राज्ञो वचनात् श्रेष्टिना पृष्टौ स्थालमारी पित ताप से न तत् पृष्टी दाह पूर्वक भोजनं कृत' थेष्टिना पूर्वभव दुष्कर्म फलं ममोपस्थिति मिति मन्यमानेन तत्सम्यक् सोढ मिति स्थालौदाधेन तत्
य धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ. ४१ मा भाग
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पृष्टीचतं जात ततः सतापसस्तथा भुक्ता व स्थानगतः श्रेष्ठयपि स्व रहे गत्वा स्व कुटम्बवर्ग प्रतिबोध्यजैनदीक्षा जग्राह तती नगरानिर्गतीगिरि उ टौका शिखरंगत्वा न शनमुञ्चचार पूर्वदिगभि मुख' मासाई यावत्कायोमर्गेण खितः एवं शेषास्वपि दिक्षु ततः पृष्टिक्षते काक शिवादिभिर्भक्षित: सम्यग अ०१८ तत्योडां सहमानी मृत्वासौ धर्म कल्ये इट्रोजात: सतापसापि तस्यै व वाहनं ऐरावणोजातः तततोऽथ ऐरावणो नरतिबच भांवाऽसिताक्षो जातः
शक्रोपि ततश्च त्वाहस्तिनाग पुरै सनत् कुमारी च क्रीजातः एवं असिताक्षयक्षस्य भवता सह वैरकारणमिति मुनि नोक्तं मयातवान्तरयास निमित्त भानुबेगं विसर्जयित्वा प्रियसङ्गम पुरौनिवेश पूर्व तव भानुवैगेन कन्यापरिणायिता मुक्तो मयैव कारणेनत्व तइन्दने एवं करिष्याम इति विचार्य तदा विद्याधरास्तत्क तवन्तः ततो विज्ञपयामि देवमन्य स्ख मैकन्याशतपाणि ग्रहणं ता अपि तत्र भवन्मुख कमन्तं पश्यति एवं भवत्विति कुमारायोक्त स चन्द्रवेगः कुमारण सम' व नगरेगतः तत्र कुमारण कन्या शत परिणौत पुनरत्नागतच दशोतरण कन्यागतेन सह भोगान् भुती कुमारः अद्य पुनरेव मुक्तः कुमारण यथाद्य गन्तव्यं यत्रास्माभिर्यक्षीजितः साम्मुतमनायातस्य कुमारस्य पुरः प्रेक्षणं कुर्वता अस्माक कुमार पत्नीनां भवदर्शनं जातमिति अत्रांतरेरति ग्रहशय्या उस्थितः कुमारः महेन्द्रसिंहेन समं विद्याधरपरिहती वै ताब्यं गतं अवसरं लब्धा महेन्द्रसिंहेन विज्ञप्त कुमारतब जननी जनको त्वहिरहात्तौ दुःखेन कालं गमयत: ततस्तद्दर्शन प्रसादः क्रियता इति महेन्द्रसिंह वचनानन्तरमेव महतागमनसि त विद्याधर विमानहयगजादि वाहनारुढ विद्याधर वृन्दस मद्देन हस्तिनागपुरे संप्राप्तः कुमारः आनन्दिताच जननी जनक नागरजनाः ततो महत्यावि भूत्वाख सेन राज्ञा सनत्
कुमारः स्व राज्ये अभिषिक्तः महेन्द्र सिंहवसेनापतिः कृतः जननी जनकाभ्यां स्वविराणामन्तिके प्रव्रज्यां गृहौला खकार्यमनुष्टितं सनत् कुमारोषि * प्रवई मानकोश बलसारो राज्य मनुपालयति उत्पन्नानि चतुर्दशरत्नानि नवनिध यश्च क्वता च तेषां पूजा तदनंतरं चक्र रत्नदर्शित मार्गोमागधवरदा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०.४१ मा भाग
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उन्टौका
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मप्रभाससिन्धु खण्ड प्रतापादि क्रमेण भरतक्षेत्र साधितवान् कु मारः हस्ति नागपुरे चक्रवर्ति पदवीं पालयन् यथेष्ट सुखानि भुतो शक्रीणावधि ज्ञान प्रयोगात्त पूर्वभवे स्वपदाधि रूढ ज्ञात्वा महताहर्षेण वै श्रमणोऽनुज्ञप्त: सनत् कुमारस्य राजाभिषेक करु इमच हारं वनमालां तुत्र स्कुट चामरयुगलं कुण्डलयुग दृष्य युग सिंहासनञ्च पादपीठञ्च प्राभूत कुरुशक्रेण तव वृत्तान्तः पृष्टीतीति ब्रूयाः वै श्रमणोपि ५क्र दत्त यही हागज पुरनगरे समागत्य तत् प्राभृतं चक्रिणः पुरीमुक्तवान् शक्र वचन चीक्तवानिति पुनः शक्रेण तिलोत्तमारम्भे देवांगने तत्र तदभिषेक करणाय प्रेषित चक्रि णोनुज्ञाग्रहोत्वा विक वितयोजन प्रमाण मणिपौठो परिरचितमणिमण्डपान्तः स्थापि ते मणि सिंहासने कुमार निवेश्य कनक कलशाइतक्षीरोदजल धाराभिई वलगीतानि गायन्तो देवोदेवाभ्यषिञ्चन् रम्भाति लोत्तमादेव्यो तदानीं नृत्यं कुरुत महामहोत्सवेन कु मारमभिषिच्य वै श्रमणादयः स्व लॊक जग्म : चकरपि भीगान् भुजन् काल गमयति अन्यदा सुधर्म सभायां सौधर्मेन्द्र : सिंहास्ने बर्नक देव देवौसेवित: सितोस्ति अवांतरे एकईशान कल्प देवः सौधर्मेन्द्र पाई आगतः तस्य देह प्रभया सभास्थितः देव देह प्रभाभर सर्वतीनष्टः आदित्योदये चन्द्र ग्रहादय इवनिः प्रभाः सर्वे सुराजाताः तस्मिन् पुनः स्वस्थानेगते देवैः सौ धर्मेन्द्रः पृष्टः स्वामिन् केन कारणेन अस्य देवस्ये दृशौप्रभाजातास्ति शक : प्राहः अनेन पूर्वभवे आचान वई मानतपोखण्डं कृत तत् प्रभावादस्य देहे प्रभा ईदृशी जातास्ति देवैः पुनरिंद्र: पृष्टः अनगोपि कश्चिदौदृशो दीप्तिमानस्ति नवा इंट्रेण भणित यथा हस्ति नागपुरे
क रुवंशेस्ति सनत् क मारनामा चको तस्य रूपं सर्वदेवेभ्योप्यधिकमस्ति इदं शक, वचो श्रद्दधानी विजय वै जयन्ती देवौ ब्राम्हण रूपौ प्रागतौ प्रतौहा ४ रेण मुक्त हारी ग्रहान्तः प्रविष्टौ राजसमीपं गतौ दृष्टश्चतैलाभ्यङ्ग कर्वन् राजातीवविमिती देवी शक्रवर्णितरूपाधिक रूपन्ती पश्यन्ती राजा पृष्टी किमर्थ भवन्तो अवायातौ तौ भणत: देव भवद्रूपं त्रिभुवन वी ते तदर्थनार्थ कौतुकेन आवां अनायातौ ततोति रूपगवितेन राजा तो उक्तौ भो भी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०११ मा भाग
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टीका अ.१८ ५३१
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विप्रौयुवा कि मद्रूपं दृष्ट स्तोक कालं प्रतीक्षेथा यावदहमास्थान सभामुपविशामि एवमस्त्विति प्रोच्यनिर्गतौ हिजो चक्रापि शौघ्र मज्जन कृत्वा सवीं 8 गोपाङ्ग शृंगारं दधत् सभायां सिंहासने उपविष्टः अकारिती हि जी ताभ्यां तदा चकि रूपं दृष्ट्वा विषमाभ्यां भणित अही मनुष्याणां रूप लावण्य
यौवनानिक्षण दृष्ट नष्टानि तयोहि जयोतिइचः व त्वा चकिणा भणित भोकिमेवं भवन्तौ विषनौ मम शरीरं निन्दत: ताभ्यां भणितं महाराज देवानां *
रूप यौवन तेजांसि प्रथमवयादारभ्यषण्मासशेषायुः समयं यावदवस्थितानि भवन्ति यावज्जीव नौयन्ति भवतां शरीरे तु आश्चर्य दृश्यते यत्तद्रूपलाव 8 यादिक साम्प्रतमेव दृष्ट' नष्ट राजाभणित कथमेव भवयां ज्ञातं ताभ्यां शकप्रशंसादिकः सर्वोपि वृत्तान्तः कथितः चकिणा तु केयूरादि विभूषित
बाहुयुगल पश्यताहारादि विभूषित मपि व वक्षः स्थल विवर्ण मुपलक्ष्य चिन्तित' अहो अनित्यता संसारस्य असारताशरीरस्य एतावन्मावे शापि कालेन मच्छरीरस्य यौवन तेजांसि नष्टानि अयुक्त रस्मिन् भये प्रतिबन्धः शरीरमोहोऽज्ञानं रुप यौवनाभिमानी मूर्खत्व' भोगासेवनं उन्मादः परिग्रही ग्रह इव तत एतत्सर्व व्युत्म ज्य परलोकहित संघम' हामीति विचार्य चकिणा पुचः स्वराज्ये ऽभिषिक्त: स्वयं संयमग्रहणाय उद्यती जातः तदानों देवदेवीभ्यां भणित' अणु हरिवं धौर तु मै चरियं निय यस्म पुब्ब पुरिसम्म भरह महानरवणो तिहु अणविक्वायकित्तिस्म १ इत्यायुक्ता देवी गती चक्यपि तदानी मेव सर्व परिग्रहं परित्यज्य विरता चार्यसमीप प्रबजित: ततः स्त्रीरत्न प्रमुखाणि सर्वरबानिशेषाश्चरमण्यः सर्वेपि नरेन्द्राः सर्वसना लोकानवनिधयश्च षण्मासान् यावत्तन्मानुलग्नाः तेन संयमिनासिंहावलोकननवायेन दृध्यापि म विलोकिता। षष्ट भक्तोन भिक्षानिमित्त गोचर प्रविष्टस्य प्रथम मेव अजातक न्तस्य गृहस्थेन दत्त' तत' रितीय दिवसे च षष्ट एव कृतं पारणके प्रान्त नौर साहारकरणात्तस्ये ते रोगा प्रादुभूताः कण्ड १ ज्वरः १ कासवासः ४ खरभङ्गाः ५ अतिदुख दरव्यथा ७ एता सप्त व्याधयः सप्तशत वर्षाणि यावदध्यासिता उग्रतपः कवंतस्तस्य
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा•सं• उ.४१ मा भाग
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* आमौषधी १ खेलोषधो १ विष्पौषधो ३ जलौषधौ ४ सवौषधौ ५ प्रभृतयो लञ्चयः सम्पबा: तथाप्यसौ व शरीर प्रतौकारं न क
रोति पुनः शक णैकदा एवं प्रशंशिसतः अहो पश्यन्तु देवाः सनत्कुमारस्थ धौरव व्याधिकदर्धितोप्ययं न स्ववपुः प्रतीकारं कारयति ४ एतदिन्द्रवचन मवहधानी तावेवदेवौ वैद्यरूपण तस्य मुनेः समायाती भणितवन्तौ च भगवन् तव वपुष्यावां प्रतीकार' कुर्वः सनत्क मार स्तदानीं
तूष्णीं कएवस्थितः पुनस्ताभ्यां भणितं तधैव मुनिर्मोनभाक् जात: पुन: पुनस्तथैव तौ भणत: तदा मुनिना भणित भवन्तौ कि शरीर व्याधिस्फेटको * किम्बा कर्मयाधिस्फेटको ताभ्यां भणित आवां शरीर व्याधिस्के टकौ तदानीं सनत्क मारमुनिना स्वमुखथूत्कृर्तन धर्षिता स्वाङ्ग लौ कनकवर्णादर्शिता 8 भणितच्च अहं स्वयमेव शरीरव्याधि फेटयामि यदिमे सहनशक्तिर्न स्यात्तदेति युवा यदि संसार व्याधिस्फे टनसमर्थों तदातस्फे टयथः तौ देवी विस्मित 8
मनस्कोप्रकटितवरूपी एव मूचतुः भगवन् त्वमेव संसारव्याधिस्फेटन समर्थोसि आवाभ्यांतु शक्रवचनमवहधानाभ्यामिहागत्यत्व परीक्षितो यादृशः शकण वर्णि तस्तादृश एवत्वमसौत्युक्त्वा प्रणम्य च स्वस्थानं गतौ भगवान् सनत्कुमारस्तु कुमारत्वे पञ्चाशइर्ष सहयाणि चक्रवर्तित्वे वर्षलक्ष थामखें च वर्षलक्ष्य मेकं परिपात्य संमेत शैलशिखिरङ्गतः तत्र शिलातले आलोचना विधानपूर्व मासिकेन भक्तन कालंकृत्वा सनत्कुमार कल्ये देवत्वेनोत्यदः ततातो महाविदेहे वासे सेक्सयति इति सनत्कुमार दृष्टान्तः ३७ चइत्ता भारहवासं चकवट्टी महड्डियो सन्तौ सन्ती करेलोए पत्तोगर मणत्तरं ३८ पुनः शान्तिः शान्तिनाथः प्रस्तावात्पञ्चमश्चक्री अनुत्तरां गतिं प्राप्तः मोक्षप्राप्तः कथम्भूतः शान्तिः लोके शान्तिकरः शान्ति' करोतीति शान्तिकरः इति विशेषणन
तवं चरे॥३७॥ चत्ताभारह वास चक्कवट्टी महडियो संतीसंति करेलोए पत्ती गहू मणुत्तरं ॥ ३८॥ दूक्खागरायवस * करोलोके शांतिनामाचकुवर्ति शांतिनो करणहार प्राप्तः गतिं अनुत्तरां अनुत्तर प्रधान मुक्ति गत्तितौहां प्राप्तहुवो३८इशाकुवंश वृषभ समः इक्ष्वाकुवंसने
राय धनपतसिंह, बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग,
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तौथं करत्वं प्रतिपादितं षोडशः स्तीर्थकरः शान्तिनाथोमोक्षं जगाम इत्यर्थः किंकृत्वा भारतवासं त्यक्ता भरतस्य इदं भारतं भरतक्षेत्र संबंधिवासं इति राज्यवास कोदृशः शान्तिश्चक्रवत्ततॊ महईि कः इत्यनेन शान्त चक्रवर्तित्वं तीर्थ करत्वंच प्रतिपादितं ३८ अन शान्तिनाथदृष्टान्तः इहैव जम्बूद्वीपे भरत क्षेत्रे वैताब्य पर्वते रघनूपुर चक्रवालंनाम नगरं अस्ति तत्र राजा मिततेजस: परिवसति तस्य सुतारानाम भगिनी वर्तते साच पोतनाधिपतिना श्रौविजयराज्ञा परिणौता अनादाऽमित तेजराजा पोतनपुर श्रौविजयसुतारा दर्शनार्थगतः प्रेक्षते च प्रमुदित उच्छ्रित पताकं सर्वमपिपुरं विशेषतश्व राजकुलं ततीविस्मितलोचनीमित तेजराजा गगनतला दुत्तौस: गतश्च राजभवनं अभ्युत्थानादि सत्वतः श्रीविजयेन कृतमुचितं करणीय मुपविष्टः सिंहासनऽमित तेजराजा पप्रच्छ नगरोत्सवकारणं यतः घोविजय एवप्राह यथा इतोष्टमे दिवसे मदन्ति के एको नैमित्तकः समायातः मदनुज्ञात सिंहा सने उपविष्टः पृष्टश्चमया किमागमन प्रयोजनं ततस्तन भणितं महाराज मया निमित्तमवलोकितं यथा पीसनाधिपतरुपरिहती दिवसासप्तमे दिवसे मध्याह्नसमये विद्युत्पतिष्थति इदश्च कर्णकट कंवचः युक्त्वा मन्त्रिणाभणितं तदानींतवोपरि किं पतिष्यति तैनीक्त' माकुप्यत यथामयोपलब्ध निमित्त भवतां कथितं नचाव ममकोपि भावदोषोऽस्त्रि ममोपरि तस्मिन्दिवसे हिरण्यवृष्टिः पतिथति मया भणितं त्वयै तबिमित्त कपठितं तेन भणितं मया विपृष्ट वासुदेव चाल अचलबलदेवदीक्षा समयेपित्रा समं मयापि प्रव्रज्या गृहीता तबानेकशास्त्राध्ययनं कुर्खता मयाष्टाङ्ग निमित्त मप्यधौत ततोहं प्राप्तयौवनः पूर्वदत्त कनया भाभिरुअब्राजितः कर्मपरिणतिवशेन सा मया परिणौता तेन मया सर्वच प्रणीत निमित्तानुसारेण प्रलोकितं यथा सप्तमेदिवसे पोतनाधिपतेरुपरिविद्य त्यातो भविष्यति एवं तेन नैमित्तिनोक्ल एकेन मन्त्रिणा भवित यथा महाराज समुद्रमध्ये वाहनान्तर्भवद्भिः सप्तम दिवसान यावत् श्वेवं तत्र विद्यारा भवति अम्बेन मन्त्रिणा भणितं दैवयोगोनाया कतुं न तोर्यते यत उक्त धौरिजदइन्तो सागरी विकलोल
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं००७ ४१मा भाग
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उ.टोका
भिन्न कुलसेलो नहु अनजम्म निम्मित्र मुहासही कम्म परिणामी १ अपरेण मन्त्रिणाभणित पोतनाधिपतेर्बधोनन समादिष्टो न पुनः श्रीविजयराज्ञः तत: सप्तमदिवसान् यावदपर: कोपि पोतनाधिपतिर्विधीयते सबै रम्यक्तमयमुपायः साधुमयोक्त' मज्जीवित रक्षाकृतेऽपरजीवबधः कथं कियते सरुक्त' ४ तर्हि यक्ष प्रतिमायाराज्याभिषेकः कि यते एवं मन्त्र यित्वा सर्वेपि यक्ष प्रतिमापोतन पुरराज्ये ऽभिषिक्ता सप्तदिवसान् यावत् मया पौषधागारंगत्वा
पौषधा एव कता सप्तमदिवसमध्याह्न समये गगन मार्गेऽकस्मान् मेघः समुत्पन्नः स्फु रिताविद्युम्लता इतस्तत: परिझम्य यक्ष प्रतिमाविनाशिता अष्टमे दिवसेचाहं पौषध शालातीनिर्गत्यक्षेमेण व भुवने स मायातः तं नैमित्तिक कनकरत्नादिभिः पूजितवान् पुनरहं नागरिक : पोतनराज्ये अभिषिक्तः तदिदमस्मिन्नगरे विविध महोत्सव कारणमिति श्रीविजयेनोक्त ऽमित तेज प्राह अविसम्बादनिमित्त सोभनीरक्षणो पाय इत्युकामित तेजराजा स्वस्थानं गतवान् अनादा श्रीविजयराजा सुतारया समं वनरन्तु गतः सुतारया तत्र कनक मृगी दृष्टः श्रीविजयस्योक्त' खामिन्ममैनं मृगं ानीयदेहि मम क्रौडार्थ भविथति ततः श्रीविजयराजा तहहणार्थ स्वयमेव प्रधाविती नष्टी मृगस्तत् पृष्टि राजानत्य जति कियन्ती भुयं गत्वा एत्यतितो रुगः तावता सुतारा कुकुट सर्पण दष्टा पूच्चकार अहं कुर्कुटसर्पण दष्टाहाप्रियमांत्रायस्वेति श्रुत्वा श्रीविजयस्त्वरितं पञ्चादायातः तावताताराप त्वमुपागता
राजा च शोकपरवशस्तया समं चितायां प्रविष्टः उद्दीप्तीज्वलन: तावतास्तीक वेलायां समागतौ हौ विद्याधरौ तत्र एकेन सलिलमभिमन्वा चितासिता ४ वैतालिनी विद्यानष्टा स्वस्थवान् राजाजातः बभाण च किमिदमिति विद्याधराभ्यां भणितं आवां अमिततेजस्य स्वकीयौ जिन वन्दननिमित्त आकाश
मार्गभ्रमन्तौ अशनिघोष विद्याधरणा पहयमाणायाः सुतारायाः आक्रन्द शब्द श्रुतवन्तौ तन्मोचनार्थ आवाभ्यां युद्धमारब्ध ततः सुतारया च प्रोक्तं अल युद्दे नयथा महाराज यौविजयो वैतालिनी विद्यामोहितो जीवितं परित्यजति तथा तदद्याने गत्वा शोनं कुरुततत पावां दूहा यातौ दृष्टस्व वैता
य धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.७.४१ मा भाग
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• टोका अ०१८
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लिन्या समं चितारूपः अभिमन्त्ररजलेन सिक्ताचिता नष्टासादुष्टवैतालिनौ स्वस्थावस्यस्त्वमुत्थितः इति अपहृतां सुतारांज्ञात्वाविषयः श्रीविजयराजा भणितञ्श्चताभ्यां राजन् खेदं माकुरु स पापः क्वयास्यसि इत्यादि वचनैः श्रीविजय राजानमाश्वास्यतौ विद्या धरौ श्रमित तेज समीपं गतौ ततोऽमित तेजप्रेषित विद्याधर रचित विमानैः स श्रीविजयोपि अमित तेज समीपं गतः अमित तेज श्रीविजयाभ्यां स सैनग्राभ्यां गत्वा तन्नगरं वेष्टितं अनि घोषांति दूतः प्रेषितः तयोरागमनं श्रुत्वाऽशनि घोषो नष्टः उत्पन्नकेवलस्य अचलस्य समौपेगतः अमित तेज श्रीविजयावपि तत् पृष्ठौ तत्रा यात सर्वेपि गतमत्सराधर्मं शृखन्ति एकेन अमित तेज विद्याधरेण सुतारापितत्रानोता लब्धा वसरेणायनि घोषेण भणितं न मया दुष्टभावेन सुताराऽपहृता किं तु विद्यां साधयित्वा गच्छता मया इयं दृष्ट्वा पूर्वस्त्र हेन इमां त्यक्त' न शक्नोमोति वैतालिन्या विद्यया श्रीविजयं मोहित्वासुतारां गृहीत्वा स्व नगरे गतः नास्याः शीलभङ्गमकार्ष तथापि ममावार्थे योपराधः सच' तब्य इत्याकर्य अमित तेजेन भणितं भगवन् किं पुनः कारणं एतस्य अस्यां न हो भूत् ततोऽचल केवली कथयति मगधदेशेऽचलग्रामे धरणो जढो नाम विप्रस्तस्य कपिलानाम चेटी तस्याः पुत्र कपिलो नाम तेन कर्ण श्रवण मात्र ण विद्याशिचिताः गतच देशान्तरेरत्न पुरं नाम नगरं तत्र कस्य चिदुपाध्यायस्य मठेगतः उपाध्यायेन पृष्टः कस्व कुत आगतः कपिले नोक्त अचलग्रा मे धरणजढविप्रसुतः कपिल नामाहं विद्यार्थी अत्रायातस्तवसमीपमिति उपाध्यायेन स बहुमानं स्व गृहे रक्षितः विद्यामध्याप्य स्वपुत्रीतस्य दत्तासत्यभामा arat अन्यदा वर्षा काले स कपिलो रात्रौ खवस्त्राणिकक्षायां कृत्वा वर्षत्येव मेघे स्व ग्टहद्वारे समायातः सत्यभामा च अयंस्तिमित वस्त्रो भविष्यतीति चिन्तयन्तो अपराणि वस्त्राणि ग्टहीत्वा गृहद्दारे सन्मुखमायाता कपिलेन तस्या उक्त अस्ति मम प्रभावो येन वस्त्राणि नस्तिम्यन्ति तावताविद्युत्प्रकाशे तथा सनग्नो दृष्टः ज्ञातं चायं नग्न एव समायातो वस्त्राणि कक्षायां च निहित वा नित्यवश्य मयं हौन कुल इति सा कपिले मन्दस्व हाजाता अनादा
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राय धनपतसिंह बादुर का आ• सं०० ४१ मा भाग
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धरणि जढोविप्रस्त वकपिल समौपे समायातः सत्यभामा च पित्र पुत्रयोविरुद्दमाचारं दृष्ट्वा परमार्थ पृष्टोधरणि जढ विप्रः तेन यथार्थ कथितं तच्छु त्वी उ० टौका ४ दिग्नासत्यभामाकामभोगेभ्योनिविस्था प्रव्रज्याग्रहणनिमित्त पृष्टः कपिलः नमुचत्येषः कपिलः तदा इयं गतातनिवासि घोषणरानः समीपं बभाण च
४ भोराजन् मां कपिल समोपामोचय येनाहं दीक्षां पहामि राजा कपिलस्योक्त कपिलो न मनाते राज्ञा पुनस्त स्था उक्त तावत् त्वं मम रहेतिष्टयावत्
कपिल बोधयामीति अनादा स राजा ख पुत्रौ गणिकानिमित्त युध्यमानौ दृष्ट्वा वैराग्येण विषं भक्षितवान् ततः सिंहनिन्दिताऽभि निन्दितानाम्नौ पौषेण तृपस्य भार्ये कपिलस्य भार्या सत्यभामा च विष प्रयोगेण कालङ्गताः चत्वारोप्वमौजीवादेव कुरुषु युमलत्वेनोत्पन्नाः ततः सौधर्मे कल्पे गताः ततच गत्वा थोषेण जौवोऽमित तेजो जातः अभिनिन्दिता जीवः श्रीविजयो जातः सत्यभामा जीवः सताराजाता स कपिल जीवस्तिर्यग् भवेषु चिरकालं भ्रान्त्वा कचित्तथा विधमनुष्टानं कृत्वाऽशनि घोषः समुत्पन्नः सुतारञ्च सत्यभामा ब्राह्मणी जीवं दृष्ट्वा पूर्वने नापहत्यगतः पुनरप्यमित तेजेन पृष्टं भगवनहं किं भविको न वा अचल केवलिनाकथितं त्वं भविक इतश्च नवमे भवतीर्थ करी भविष्यसि एषोपि श्रीविजयस्तव गण धरी भविष्यति तत एवमाकर्ण्य मित तेज बौविजय वृषौ अचलकेवलिनं वन्दित्वागतौ स्व स्वस्थानं अन्यथामित तेज श्रीविजयाभ्यां उद्यानगताभ्यां चारण श्रमणाभ्यां अवधिज्ञानेन ज्ञात्वा उक्त यथा षड् विंशति दिनानि भवतोई योरप्यायुः ततस्ताभ्यां मेरोगत्वा कृती अष्टाहि कामहोत्सवः स्व स्वराज्ये च गत्वा स्व व पुत्री अभिषिच्च अभिनिन्दिताजगबन्दन मुनि समोपे पादपोपगमनं अनशनं विहितं विधिनाकालं कृत्वा प्राणते कल्ये विंशति सागरीपमायुदेवत्वे नोत्पनी ततातौ इहैव जम्बूहोपे पूर्व विदेहेरमणो विजये शौतायामहा नद्यादक्षिण कुलेसुभगायां नगर्या प्रेमसागरस्य राज्ञो वसुन्धरा अनङ्ग सुन्दर्यो महागर्भ क्रमेण कुमारचे नोत्पनी अमित तेज जोवोऽपराजितनामायौविजयजीवोऽनन्त वीर्यनामाजातः तत्रापि प्रतिशत्रुदमितारं व्यापाद्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७.४१ माग
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उ. टीका अ०१८
कमेण बलदेवत्व वासुदेवत्वमापनौतयोवपिता प्रब्रज्याविधानेन मृत्वाऽसुर कुमारचमरेन्द्रले नोत्पन्न : अमन्त वीर्यस्तु कालं कृत्वा विचत्वारिंशसह वर्षा युर्नारकः प्रथम पृथिव्यामुत्पन्नः चमरस्त पुत्रस्ने हैन तत्र गत्वावेदनोपशम चकार सोपि सम्बिग्नः सम्यक सहते अपराजितो बलदेवोभादविरहदाखिसी निक्षिप्त पुत्र राज्ये जगहरगणधर समीपे निष्कान्तः शुद्धां प्रव्रज्या परिपाल्य अच्यु तेन्द्र त्वेनोत्पन्नः अनन्त वीर्यस्त नरकादुहृत्य वैताब्य विद्याधरत्वेनोत्पत्रः अच्च तन्द्रेण स प्रति बोधितो सौप्रव्रज्या रहोत्वाऽच्यु तकल्प इन्द्रः सामानि कत्वे नोत्पनः अपराजितोऽच्य तेन्द्रस्त तच प्रत्वा इहैव जम्ब होपे शौतामहानदी दक्षिण कूले मङ्गलावती विजयरत्न सञ्चय पुर्या क्षेमं करीराजा तस्य भार्यारत्न माला तयोः पुत्रोवचाभिधानीजातः इतश्च श्रीविजयजीवो देवायुरनुपाल्य तस्य व पुत्रत्वं नोत्पन्नः सहस्रायुध इति तस्य नाम प्रतिष्ठितं अन्यदापौषधशालायास्थितो वजायुधो देवेन्द्रेण प्रशंसितः यथायं वषायुधो धर्माच्चालयितुन शक्यते देवैर्दानवैव तत एको देवस्तद्दाक्यमश्रद्दधानः परापतरूपविकुळभयधान्तो वायुधमाश्रितः वजायुध तव शरणं ममास्तु इति मनुष्यभाषया उवाच वचायुधेन तस्य शरणं दत्त स्थितस्तदन्तिके पारापतः तदनन्तरं तत्र वगती लावकः तेनापि भणितंयथा महासत्व एषमया चुधाला न प्राप्त ततो मुच्चैनं अन्यथा नास्ति ममजीवितमिति ततस्तहचनमाकर्ण्य वजायुधन भणितं नयुक्त शरणागत समर्पणं तवापिन युक्तमेतत् यतःहंतुणपरप्पाणे प्रयाशंजोकरे सप्पाणं अप्पाणं दिवसाणं कएसनासेइ अप्पाणं १ यथा जीवितं तव प्रियं सर्वेषामपि जीवानां तथैवास्ति भयभ्रान्त'दीनं व्यापादयितुतव व युक्त धम्म कुरु पापं मुञ्चलावकः प्रतिभणति राजब्रहं बुभुक्षितः नमे मनसि धर्म स्तिष्टति ततः पुनरपि भणितं राजा भो महासत्व यदि बुभुक्षितस्वसतोनातवमांसं * ददामि लावकः प्रतिभणतिस्वयव्यापादित जीवमांस दुर्ललिताहं न च रोचने मच्चपरव्यापादितमांसं राज्ञा भणितं यावाच पारापततुलति तावभाव
ददामि सोप्यवदत् यदि त्वं स्वदेहा दुत्कीर्यमांसं ददासि तदाहं मुञ्चामि तद्राजा प्रतिपवं सततुष्टो लावकः राज्ञा चतुला आनायिता एकस्मिन्पाचे
राय धनपतसिंह बाहादुर का भा.सं.० ४१मा भाग
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उ० टाका श्र०१८
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पारावतः प्रचितः एकस्मिन्पार्खे स्वदेहा दुत्कोर्णमांसारोपोविहितः राजा यथा २ तत्र मांस प्रक्षिपति तथा २ अन्यत्र पार्श्वे पारापतो गुरुतरी देवमा यमाभवति राजा पुनः २ खदेहमांस मनावक्षिपति तं दृष्ट्वा राजलोकः समस्तो हाहारवं चकार पारापतपार्श्वे गुरुभारमवेच्य स्वमांसपार्श्वे राजा स्वयमारूढः एतादृशं वज्रायुधस्य सत्व' दृष्ट्वा विस्मितोदेवः स्वरूपं प्रकटीकृत्य प्रकामं स्तुत्वा च स्वस्थानंगतवान् अनादा वज्रायुध सहश्रायुधौ पितृपुत्री चेमङ्करगणधर समौपे जात वैराग्यौ सहस्रायुध सुत' बलिराज्ये भिषिच्य प्रब्रजितौ प्रव्रज्या पर्यायञ्च परिपालापादपोपगमन विधिना कालं कृत्वा दावपि जनो परितनग्र वेयके एकस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितको ग्रह देवौ जातौ अहमिन्द्रसौख्य मनुभूय ततसुरती इहैव जम्बूद्दीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावती विजये पुण्ड रौकियां नगयीं घनरथोराजा तस्य महादेव्यौ पद्मावतौ मनोरमतौ च तयोगर्भे जातो वज्रायुधो मेघरथः सहस्रायुधी दृढरथश्च तितो तो कृ ताभ्यां कलाग्रहणं तौ दौराज्य स्थापयित्वा घनरथः स्वयं दीचां गृहीत्वा केवल ज्ञानमुत्पाद्य तीर्थंकरोजातः तयोर्मेघरथ दृढरथयोः पूर्व भवभ्यासतो जिन धर्मदचताऽभूत् अधिगत जीवाजीवादिभावो तो सुश्रावकौ जातौ श्रनादापितस्तीर्थं करस्य समौपे दावपि जनोनिजपुत्र राज्य भिषिच्य प्रव्रजितो carita सूत्रार्थेन मेघरथेन विंशति स्थानकैः समर्जितं तौर्थङ्करनाम गोत्र' दृढरथेन शुद्ध चारित्र' आराधितं दावपि संलेखनाविधिना कालं कृत्वाऽनु त्तरोपपातिकेषु देवेषु उत्पन्नौ तत्र सर्वार्थसिद्ध विमानेऽनर्गल' सुखमनुभूय मेघरथ कुमारस्ततश्च गत्वा इहैव जम्बूद्दौपे भरतेचेत्रे हस्तिनागपुरे विश्वसेनस्य राजोऽचिरादेव्याः कुचौ भाद्रपद कृष्णसप्तमी चतुर्दश स्वप्नसूचितः पुत्रत्वेनेोत्पन्नः पुनज्येष्ट कृष्णत्रयोदशौदिनेजन्मम्म जातः चतुषष्टि सुरेन्द्रैरपि जन्माभिषेकः कृत: उचितसमये गर्भस्थेवास्मिन् भगवति सर्वदेशेषु शान्तिर्जातेति शान्तिरितिनामकृतं मातृपितृभ्यां क्रमेणासी सर्वकलाकुशलोजातः यौवनं प्राप्तः विवाहितः प्रवरराजकनगाः क्रमेण राज्य स्थापितः पिताचारित्र गृहीतं शान्तिश्चक्रवर्त्ति पदवीसमायाता उत्पन्नानि चतुर्दशरत्नानि साधितं भरत अरू
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हाय धनपतसिंह बाहादुर का आ० स०ड० ४१ मा भा
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उ टीका अ०१८
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षड्खण्डराज्य परिपाल्य उचितावसरे स्वयं मंबुडोपि लोकान्तिकामरैः प्रतिबीधितः संवत्सरं दानं दत्वा ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दश्यां चक्रिभीगांस्ट क्वानिष्पांत: चतुर्ज्ञान समन्वितस्य उद्यतस्य उद्यतविहारं कुर्वतः पौष शुद्ध नवम्यां केवलज्ञानं समुत्पन्न देवैः समवसरणं कतञ्च भगवता धर्मदेशना प्रारब्धा प्रब्राजिता गणधराः प्रतिबोधिता वहवः प्राणिनः क्रमेण विहत्य भरतक्षेत्र बोधिबीजं उपत्त्वाक्षीण सर्वकांशी ज्येष्ट कृष्णबयोदश्यां मोक्षगत इति अस्य भगवत: कुमारत्वे पञ्चविंशति वर्ष सहयाणिमाण्डलिकत्वे पि पञ्चविंशति वर्ष सहस्राणि चक्रित्वं पञ्चविंशति वर्षसहस्राणि श्राम व पञ्चविंशति वर्षसहस्राणि दीक्षापर्याय सर्वायुश्च वर्षलक्षमेक जातमिति इति शांति नाथ दृष्टान्तः इक्वागरायवसहो कुन्थ नाम नरसरो विक्खायकित्तौभयवं पत्तीगइ मणुत्तरं३८ पुनः कुन्थु नामानरेखरः षष्टचको अनुत्तरां सर्वोत्कृष्टां गतिः प्राप्तः कीदृशः कुन्थ भगवान् ऐश्वर्यज्ञानवान् पुनः कीदृशः कुन्थ : इक्ष्वाकुराज वृषभः इवा कुवंशीय भूपेषु सषभो कृषभ समानः प्रधानइत्यर्थः पुनः कीदृशोविख्यातकीर्ति : अत्र भगवान् इति विशेषणे नाष्ट महाप्रातिहार्याथै शाययुक्त: सप्तदशम स्तौध करः षष्टचकोकुन्थ ने यः अत्र कधुनाथ दृष्टांतः हस्तिनाग पुरसूरराज्ञः श्रीदेवीभार्यातस्याः कुक्षौ भगवान् पुत्रवे नोत्यवः जन्ममहोत्सवानन्तरं च खप्नेजनन्यारत्न स्तूप कुस्थोदृष्टः गर्भस्थे च भगवति पित्राशत्रवः कुन्यवत् दृष्ट्वाः इति कन्यनाम कृतं पित्रा प्राप्तयौवनश्चायं विवाहिती राजकुमारकाभिः काले च भगवन्त राज्य व्यवस्थाप्य सूर राजा स्वयं दीक्षा जग्राह भगवांश्च उत्पत्र चक्ररत्न प्रसाधित भरतः चक्र वर्ति भोगान् बभुजतीर्थ प्रवर्तमान
भोकु'धूनाम नराहिवी विक्खाय कित्तीभयवं पत्तोगदू मग तर ३६॥ सागराँचदूत्ता भरहं नरवरीसरो। अरीय विर्ष वषभसमान कुथुनामा नराधिपः कुथूनाथइस्येनाम राजा विख्यातकीर्ति: भगवान् विख्यातकीर्ति भगवंतनौ प्राप्त गति अनुत्तरा उत्तम, गति पाम्यो १।२८ सागरांत' त्यक्ता सागरांत पृष्यो छांडीने भरतनरेश्वरः चकवति मधली भरतक्षेत्र मनुष्यनी ईश्वर अरनामा अरजप्राप्त: अरनामा
राय धनपतसिंह बादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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उ टौका
समये च नि:क्रम्य षोडशवर्षाणि चीनविहारण विद्वत्य केवल ज्ञान भाग जातः देवाश्च समवसरणमकाए: प्रवाजिताः केवल पर्यायेणधनकालं वित्य अ०१८8 समेतगिरि शिखरेमोक्षमगमत् तस्य भगवतः कुमारत्वे त्रयोविंशति वर्ष सहस्राणि माण्डलिकत्वे च त्रयोविंशति वर्ष सहवाणि चक्रित्व वयो विंशति ५४०
वर्षसहस्राणि श्रामण्ये च त्रयोविंशति वर्षसहयाणि सार्वानि च सप्तशतानिवर्षाणि अभवन् सर्वायुईि नवति वर्षसहस्राणि साई मतशतानि चास्य बभूव इति श्रीकुन्यु नाथ दृष्टान्तः सागरन्त च इत्ताण भरहं नरबरौ सरो अरोय अरयं पत्तो पत्तीगइमणुत्तर ४ . च पुनः परी अरनामानरवरेश्वरः सप्तमचकोसागरान्त समुद्रान्त भरतक्षेत्रं षट षण्डराज्यन्त्यक्त्वा अरजस्व प्राप्तः सन् अनुत्तराङ्गति सिद्धिगतिं प्राप्त: मोक्षगत इत्यर्थः चक्री भूत्वातीर्थ करपदं भुक्त्वा मोक्षं गतइत्यर्थः अत्र अरनाथ दृष्टांतः अरनाथस्तत्तराध्ययन वृत्तिई योपि नास्ति तथापि ग्रन्यांतराझिख्यते प्राग विदेह विभूषण मङ्गला वतीविजयरत्न सञ्चया पुरी अस्ति तत्र महीपालनामा भूपालोस्ति प्राज्य राज्य' भुत अन्यदा गुरु मुखाचर्म श्रुत्वा स वैराग्य मागतः स तणमिव राज्यन्त्यत्वादीक्षां ललौ गुर्वतिके एकादशाङ्गानि अधोत्यगीतार्थों बभूव बहुवत्सरकोटोः स संयममाराध्य विशुद्ध विंशति स्थानकः अहवामकर्म बबंध तता मृत्वा सर्वार्थसिद्धविनाने देवो बभूव ततावा इह भरतक्षेत्र हस्ति नागपुरसुदर्शननामा नृपो बभूव तस्य राजी देवौनानी बभूव तस्याः कुनो सोऽवत तार तदानों रेवतो नक्षत्र बभूव तया चतुर्दश स्वप्नादृष्टाः ततः पूर्णषु मासेषु रेवती नक्षत्रे तस्य जन्म बभूव जन्मोत्सवस्तदाषट पञ्चाशत् दिक कुमारिकाभिः चतुः षष्टिसुरेन्द्र निर्मित: ततः सुदर्शन राजापि स्व पुत्रस्य जन्मोत्सवं विशेषाञ्चकार अस्मिन् गर्भगते मात्रा प्रौढारत्न मयोऽरस्वप्ने दृष्टः ततोपिनास्थारइति नाम कृतं देव परिहतः स वयसा गुणैश्चवई तेस्म एकविंशति सह शवर्षेषु अरकुमारस्य पित्रा राज्य दत्त एकविंशति वर्षसहश्राणि यावदाज्य भुक्तावतः तस्या शस्त्र को चक्र रत्वं समुत्पन्न ततो भरतं साध्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का त्रा०सं० उ. ४१ माग
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be
राज्ञादृष्टः पृष्टाश्च मेवकाः अकालयावया कायं लोको गच्छति ततो नमुचिम त्रिणाभणितं देव अत्र उद्याने श्रमणाः समागताः तेषां यो भत्तो लीक: उन्टौका
* स तद्दन्दनाथ गच्छति रानाभणितं वयमपि यास्यामः नमुचिना उक्त तर्हित्वया तत्र मध्यस्थेन भाव्य यथाई वादं कृत्वाताबि रुत्तरी करोमि राजा
नमुचि सहितस्त त्रगतः नमुचिनाणितं भी श्रमणायदि यूयं धर्म तख जानौषतर्हि वदथ सर्वेपि मुनयः क्षुद्रीयमिति कृत्वा मौने न स्थिताः ततो नमुचि शं रुष्टः सूरि प्रतिभणति एष वयनः किं जानाति ततः सूरिभिर्भणितं भणमः किमपि यदि ते मुखं खजूति इदं वचः श्रुत्वा अनेक शास्त्र विचक्षण न क्षुल्ल कशिष्येण भणितं भगवन् अह मेवेनं निराकरिष्यामि इत्यु वा क्षुलकेन सवादेनिरुत्तरीक्तः साधूनामुपरिष गतः रात्रौ च चरहत्त्या * एकाक्ये व मुनि बधार्थमागतो देवतयास्तम्भितः प्रभाते तदाश्चयं दृष्ट्वा राजालोकेन च भृशन्तिरस्कृती विलक्षी भूती गती हस्ति नागपुरं महापद्म युव * राजस्य मन्त्रीजातः इतश्च पर्वतवासी सिंहबलोनाम राजा स च कोट्टाधिपति रिति महापद्म देशं बिनायको प्रविसति ततोरुष्टे न महापद्मन नमुचि
मंत्री पृष्टः सिंहबलराजग्रहण किञ्चिदुपायं जानासि नमुचिनोक्त सुष्टुजानामि ततो महापद्म प्रेरितः सैन्यद्रुतोगतीनिपुणोपायेन दुर्ग भक्का सिंहबलो 8 बद्ध आनीतच महापमान्तिक महापी नोक्त' नमुचेयत्तवेष्ट तन्मार्गय नमुचिनोक्त सांप्रतं वरः कोशेऽस्त अवसरमार्गयिष्यामि एवं यौवराज्यं पालयतो
महापद्मस्य कियान् कालोगतः अन्यदा महापद्ममात्रा जाला देव्याजिनरथः कारितो अपरमात्रा च मिथ्यात्ववासितयाजिन धर्मप्रत्यनीकयाल मौनामा ब्रह्मरथः कारितीभणितच पद्मोत्तरो नाम राजा यथा एष ब्रम्हरथः प्रथम नगर मध्ये परिभ्रमतु जिनरथः पश्चात्परिभ्रमतु इदं च श्रुत्वा जाला देव्या 8 प्रतिज्ञा कता यदि जिनरथः प्रथमं न भ्रमिष्यति तदा परजन्मनि ममाहारः ततो राजा हावपि रचौ निरुही महापद्म न खजननया: परमाम
तिं दृष्टानगरानिर्गतः केनापि न ज्ञात: परदेश गच्छन् महाटव्यां प्रविष्टः तत्र च परिभमन् तापसालयेगतः तापसर्दत्त सन्मानस्तवतिष्ठति इतयं
च धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० २०४१ मा भाग
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५४३४
6. टीका
* पायां नगया जनमेजयो राजा परिवसति स च कालनरेन्द्र ण प्रति रुहः ततो महान् संग्रामो बभूवजनमेजको नष्टः तस्यान्तः पुरमपौतस्ततो * नष्टं जनमेजक स्य रानो नागवतो नाम भार्या सामदनावलो पुनगा समं नष्टा आगतातंतापसा श्रम समाश्वासिता कुलपतिना तत्र वस्थिता कुमार * मदनावल्योः परस्परमनुरागोजातः कुलपतिनातन्मात्रा च तयोः परस्पर मनुरागोनातः कुलपतिनागवत्यामात्रा च भणिता मदनावलौ यथा पुवित्व
किं नस्मरसिनैमित्तिकवचनं यथा चक्रवत्ति नस्व प्रथमपत्नी भविथति ततः कथं यत्र तत्रानुरागं करोषि कुलपति नापि कुमारस्य विसर्जनार्थ मुक्त * कुमारत्वमितोगच्छ तदानों त्वरितमेव ततीनिर्गतः कुमारः एव मनोरथं चकार यथाह मतस्याः सङ्गमैन भरताधिपो भूत्वा ग्रामाकरनगरादिषु
सर्वत्रजिनभवनानिकारयिष्यामोति भ्रंमन् कुमारोऽथ प्राप्तः सिधुनंदनं नाम नगरं तत्रीद्यानि कामहोत्सवेनगरानिर्गतानरानार्यच विविध क्रीडाभिः क्रोडन्ति अस्मिन्न वसरे रानः पट्ट हस्ती आलानस्तम्भ उन्मूल्य यह हट्टभित्तिभङ्गं कुर्वन् नगराहहिय वतौ जनमध्ये समायातः ताश्वतं तथा विधं दृष्ट्वा दूरतः प्रधावितु असमर्थाः तत्रैवस्थिताः यावदसौतासामुपरिशुण्डापातं करोति तावतादूरदेशस्थितन महापद्मन करुणा पूर्ण हृदयेनहक्कितो सौ करौ सोपि वेगेन चलितः कुमाराभि मुखं तदानीं ताः सर्वा अपिभणंति हाहाऽस्म द्रक्षणार्थ प्रवृत्तीयं करिणास्यते एवं तासु प्रलपन्तीषु पश्यन्तीषु चतयोः करिकुमारयो !रः संग्रामो बभूव सर्वोपि नागरजनस्तत्रा यातः सामन्त भृत्यसहितो महसनराजापि तवायातः भणितं च नरेन्द्रेण कुमार भनेनसमं संग्राम माकुरु कतान्त इव रुष्टा सौतवविनासकरिष्यतीति महापद्म उवाच राजन् विश्वस्तीभव पश्यममकलामित्युक्ताक्षणेन तं मत्तकरिणं स्खकलयावशी कतवान् आरूढश्च तं मत्तगजं महापद्मः स्वस्थानेनीतवान् साधुकारण तं लोका पूजितवान् यथा एष कोपि महापुरुषः प्रधान कुलसमुद्भवोस्ति अन्यथा करमोदृशं रूप विज्ञानं चास्य भवति ततो राजा स्वरहे नौत्वा कुमारस्य विविधोपचारकरण पूर्वक कन्याथतं दत्त तेन समं विषयसुख मनुभवतस्तस्य
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं० उ०५१ मा भ
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ONN30
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महापद्म कुमारस्य दिवसास्तव मुखेन यान्ति तथापितां मदनावलि हृदयाबविस्मारयति अन्धदारजन्या भय्याती सौ वेगवत्याविद्याधर्याऽपाहत: निद्रा क्षयेसातन दृष्टा मुष्टिं दर्शयित्वा साकुमारणभणिता किं त्वमेव मामपहरसि तया भणितं कुमार शृश वैताव्ये सूरोदयनामनगरमस्ति तवे न्द्रधनुर्नाम विद्याधराधिपतिरस्ति तस्य भार्या श्रीकान्तावर्तते तस्या पुत्रीजयचन्द्रानानौ वर्त्तते सा च पुरुष षिणीनेच्छति कथमपि वरं ततो नरपत्याचयामयासर्वत्र
वरनरेन्द्रान् विलोक्यर पट्टिकायां लिखिताः सर्वेपि तस्यादर्शितानकोपिरूचितः अनादामयातस्यस्तवरूपं दर्शितंतदर्थनानन्तरमेवसाकामावस्थयारहौता १ भणितं च तया यद्येष भर्त्तान भविष्यति तदा वश्यं मयामत व्यं अन्य पुरुषस्य मम यावज्जौवं निवृत्तिरेव एष तस्या व्यति करीमया सन्मान पित्रो ओपित:
ताभ्यां त्वदानयनायअहं प्रयुक्ता अविश्वसन्यास्त स्थाविश्वासार्थ मया इयं प्रतिज्ञा कता यद्यहंतं त्वरितं नानयामि तदा ज्याला कुलेज्वलने प्रवियामि ततः 8 कुमारयदितव प्रसादेन मम मरणं न सम्पद्यते यथा च मे प्रतिज्ञानिर्वाहो भवति तथा प्रसाद'करु ततस्तदा जया तया महापन: सूर्योदये तत्र नौतः पतिमिलितः तेन च सुमहत्त' तस्याः पाणिग्रहण' कारित: पूजिता च वेगवतौ इतश्च जयचन्द्रायामातुल भातरी गजाधरमहीधरनामानौ विद्याधरौ खेचराधिपतिप्रचण्डौ इमव्यतिकर ज्ञात्वा अनेक भट सहितौ महापद्मनसमं संग्रामार्थमागतौ महा पद्मोपि तयोरागमनंश्रुत्वा सूरोदयपुराइहिविद्याधर भट परितोनिर्गत: संलग्नस्तयोः संग्रामः तदानीं महापद्मन स्पन्दनाः कुञ्जरा अखाः सुभटाः परबल सत्काः सर्वेपि बाणेविहाः भग्न खम्बलं दृष्ट्वा गङ्गाधरमही धरौ स्वयमुत्थितौ महापद्मन उभा वपि हतौ ततो लब्ध जयः समहापनः उत्पन्न स्त्री वर्ज सर्वरवः प्राप्तनवनिधि नियमह श्रमण्डले खरसेवितपादपद्मः परिणीत एको न चतुः षष्टि सहस्रान्तः पुरो हयगजरथपदातिकोश सम्प्रबो नवम चक्रवर्ती जातस्तदापि षट घडभरतराज्य समदनावल्यारहितं नोरसं मन्यते अनादातस्मिता श्रमपदे गतस्य तस्य महापद्म चक्रिणः तापसैर्महान् सत्कारः क्त: जनमेजयेनापि रानामदनावती
य धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०३०४१ मा भाग
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तस्य दत्तातन परिणोतास्त्रोरत्नं बभूव ततो महापद्म: चक्रवर्ति ऋदि समेतोहस्ति नागपुरं प्राप्तः प्रणनाम जननीजनकपदान् ताभ्यामधिक हैन प्रेक्षित
अत्रांतरतत्र व समवस्तो मुनि सुब्रतस्वामिशिथी नागसूरी ततानिर्गत: स परिवारः पद्मोत्तरराजातंवन्दित्वा पुरीनिषस: गुरुणा च तत् पुरी उ०टीका म. भव निर्वेदजननो देशनावता तां श्रुत्वा वैराग्यमापनो राजा गुरु प्रत्ये वमुवाच भगवनहं राज्य स्वस्थ कृत्वा भवदन्तिके प्रब्रजिष्यामि गुरुणाभणितं ५४५
* माविलम्ब कुर्विति गुरु' प्रणम्य नगरे प्रविष्टोराजा आकारितामन्विणः प्रधानपरिजनाविष्णु कुमारच सर्वेषा मपि राजा एवमुक्त भो भो श्रयतां :
भवद्भिः संसारासारताहमेतावत्कालं वञ्चितः यच्छामखनानुष्टितवान् तत: सांप्रतं विष्णु कुमारं निजराज्ये भिषिच्च प्रवज्यां गृहामि ततो विष्णु कुमा रेण विज्ञप्ततात ममापि किं पाकोपमै गैः सूतं तवमार्गमेवानुसरिष्यामि ततो विष्णु कुमारस्य दीवानिश्चर्य ज्ञात्वा पद्मोत्तरराना महापद्म आकारिती
भणितश्च पुत्र ममेदं राज्य प्रतिपद्य स्वविष्णु कुमारोहं च प्रव्रज्या प्रतिपद्यावः अथ विनीतेन महापद्मन च भणितं तात निजराज्याभिषेक विष्णु कुमारस्यैव % कुरु अहं पुनरेतस्यैवाना प्रतीकको भविष्यामि राजाभणितं वत्ममयोक्तीप्ययं राज्यं न प्रतिपद्यते अवश्य मयं मया समं प्रब्रजिष्यते ततः भीभनदिवसे
महापद्मस्य कृतो राज्याभिषेक: विष्णुकुमारस्महित पद्मोत्तरराजा सुव्रतसूरिसमीपे प्रबजितः ततो महापद्मोविख्यात शासनश्च कुवर्तीजात: स्वमाल अपर मात्रकारितौ तौ हावपिरथो तवैवस्त: महापद्मर्चाकणातु जननीसत्को जिनरधोनगरीमध्ये भामित: जिनप्रवचनस्य कता उतिः तत्प्रभृति बहुलीको धर्मोद्यममतिर्जिन शासनं प्रतिपत्रः तेन महापद्मचकिणा सर्वस्मिबपि भरतक्षेत्र ग्रामाकर नगरीद्यानादिषु कारितानि जिनायतनानीक कोटि लक्ष प्रमाणानि पद्मोत्तरमुनिरपि पालित निकलङ्ग थामण्यः शुद्धाध्यवसायेन कम्मजालंचपयित्वा समुत्पन्न केवल नानः संप्राप्त सिद्धिमिति विष्णुकुमारमुनि रपि उग्रतपोविहारनिरतस्य वईमान ज्ञानदर्शनचारित परिणामस्य आकाशगमनादि वैकियलञ्चयः उत्पन्नाः स कदाचिौ रुवत्त गदेही गगने ब्रजति
राय धनपतसिंह बाहादुर का .सं.२०४१ मा भाग
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अ०१८
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कदाचिन्मदनवत् इति रूपवान् भवति एवं नानाविधलश्धिपात्रः संजातः इतञ्चते सुव्रताचार्याः बहुशिष्यपरिव्रता वर्षा रात्र स्थित्यर्थं हस्तिनागपुरीयाने समायाताः ज्ञाताय तेन विरुद्ध ेन न सुचिना अवसरं ज्ञात्वा राज्ञा विज्ञत' यथा पूर्वप्रतिपत्रं मम वरंदेहि चकिया उक्त यथेष्टं मार्गय नमुचिना भणितं राजन्रहंवेद भणितेन विधिनायनं कर्तुमिच्छामि श्रतो राज्य मेदेहि चकिणानमुचिः खराज्य भिषिक्तः स्वयमंतपुर प्रवेश्य स्थितः नमुचिर्यज्ञपाटकमा गम्य यागनिमित्त ं दौचितो बभूव राज्ये भिषिक्तस्य तस्य वर्धापनार्थं जैनयतीन् वर्जयित्वा सर्व्वेपि लिङ्गिनालोकाच समायाताः नमुचिना सर्वलोक समचं उक्त' सर्व्वे पिलोका मम वर्धापनार्थं समायाता जैनयतयः केपिनायाताः एवंच्छलं प्रकाश्य सुव्रताचार्या आकारिताः आगताः नमुचिनाभणिताः भो जैनाचार्यायो यदा ब्राह्मणोवा क्षत्रियोवा राज्य प्राप्नोति स तदा पाषण्डकेरागत्य दृष्टव्यः इयंलोकस्थितिः यतो राजरचितानि तपोधनानि भवंति यूयं पुनः स्तब्धाः सर्वे पाषण्ड दूषकाः निर्मर्यादामां निंदथः श्रतो मदीयं राज्य मुक्काऽनाच यथासुखं व्रजतयेोयुभाक' मध्ये कोपिनगरे भ्रमम् द्रच्यते सम्बध्यो भविष्यति सुव्रताचार्यैरुक्त राजन्रस्माकं राजवर्धापनाचारी नास्ति तेन वयं त्वद्दर्डापन कृते नायाताः नचवयं किञ्चिविदामः किंतु समभावा स्तिष्टामः ततः नरुष्टामः प्रतिभवति यदि श्रमणं सप्तदिनोपरि अहं द्रक्षिष्ये तमहमवश्यं मारयिष्यामि नात्र सन्देहः एतनमुचिवाक्यं श्रुत्वाचार्याः स्व स्थानमायाताः सर्व्वेपि साधवः पृष्टाः किमन कर्त्तव्यं तत एकेन साधुना भणितं यथा सदासेवित तपोविशेषो विष्णुकुमारनामा महामुनिः सांप्रतं मेरु पर्व्वतचूलास्थो वर्त्तते स च महापद्मचक्रिणो भ्रातास्ति ततस्तदचनादय सुप मिश्रति आचार्यैरुक्त तदाकारणार्थं यो विद्यालब्धि संपन्नः स तत्रव्रजतु सत एकेन साधुना उक्त ं अहं मेरुचूलां यावहगनेगन्तुं शक्तोस्मि पुनः प्रत्यागन्तु ं न शक्तोस्मि गुरुणा भणितं विष्णुकुमार एवत्वामिहानेष्यति तथेति प्रतिपद्य स मुनिराकाशे उत्पतितः क्षणमात्रेण मेरुचूलायां प्राप्तः समायातं दृष्ट्वा विष्णुकुमारेण चिन्तितं किञ्चिदुरुकं संघकार्यं समुत्पन्नं यदयं मुनिर्वर्षाकाल
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र का श्र० सं०० ४ १ मा भाग
राय धनपतसिंह बाहादुर का
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8 मध्ये त्रायातः ततः स मुनिषिणु कुमार प्रणम्य पागमन प्रयोजनं कथितवान् विष्णुकुमारस्तं मुनिं गृहौवास्तोकवेलया आकाशमार्गेण गजपुर प्राप्त उ टीका
% वंदितास्तेन गुरवः गुर्वाज्ञया साधुसहिता विष्णु कुमार मुनिनमुचि पर्षदिगतः सबै सामन्तादिभिवंदितः नमुचिस्तु तथैव सिंहासने तस्थिवान् नमनाक विनयं चकार विष्णुना धर्मकथन पूर्व नमुचेरेवं भषितं वर्षाकालं यावअनयोब तिष्टन्ति नमुचिना भणितं किमत्र पुन: पुनर्वचन प्रयासेन पश्चदिवसान यावनमुनयोत्र तिष्टन्तु विष्णुना भणितं तव उद्याने मुनय स्तिष्टन्तु ततः संजातामर्षेण नमुचिनारवं भणितं सर्वपाषण्डाधर्भवजिनमद्राज्य स्थेयं मद्राव्यं त्वरितंत्यजत यदि जीवितेन कार्य ततः समुत्पत्रकोपानलेन विष्णुनाभणितं तथापि त्रयाणां पदानं स्थानं देहि ततो भणितं नमुचिनादत्तं त्रिपदीस्थानं परंयन्त्रि पद्या बहिष्यामि तस्य शिरश्छेदं करिष्यामि ततः स विष्णुकुमारः कृत नानाविधरुपी अधि' गच्छन् क्रमेण योजनलस प्रमाणरूपोजातः क्रमाभ्यां दईरं कुर्वन् ग्रामाकरनगर सागराकीणा भूमिं अकम्पयन् शिखरिणां शिखराणिपातयतिस्मत्रिभुवने क्षोभं कुर्वन् स मुभिः शक्रण ज्ञातः तस्य
कोपोपशान्तये शक ण गायनदेव्यः प्रेषिताः तायेवं गायन्तिस्मसपरसन्तावओ धम्मवणदावीदुग्गद्गमणहेउ कोवीतात्रीवसमंकरस भयवंति एवमादौनि दु गौतानितावारंवार श्रावयन्तिस्म समुनि नमुचिसिंहासनात्यातितवान् दत्तवान् पूर्वापर समुद्रपादः सर्वजनं भापयतिस्म ज्ञातहत्तान्ती महापाचको तत्रा
यातःतेन समस्तसंघेन सुरासुरैव शान्तिनिमित्त विविधोपचार रुपशामितः तत्प्रभृति विष्णुकुमारस्त्रिविक्रम इतिख्यातः उपशान्तकोपः समुनिरालोचितः प्रतिकान्तः शुद्धः यतउक्त आयरिए गच्छंभिकुलगणस अचे अविणाआलीयपडिक्वन्तो सुद्धाजबिज्जराविउलाविष्कलङ्क वामन्यमनुपाल्य समुत्पबकेवल: स विष्णुकुमार सिई गत: महापद्म चक्रवर्त्य पि क्रमेण दीक्षां गृहीत्वा मुगतिभागभूत् इति महापन दृष्टात: एगछत्त पसाहिता महिं माणनिसूरणो हरिसेणी मनुस्मिन्दो पत्तोगइमणुत्तरं ४ . पुनहें मुने हरिषेणो मनुष्येन्द्रो हरिषेणनामा नवमयको अनुत्तरां गतिं सिद्धिगति प्राप्तः किकत्वा मत्रौपृथ्वी
राय धनपतसिंह वाहादुर का प्रा-सं-उ०५१ मा भाग
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उ० टोका अ०१८
५४८
सूत्र
भाषा
KRXXXXX
एकछत्रां प्रसाध्य प्रपात्य कोट्टयो हरिषेणो माणनिसूरण: अहङ्कारि शत्रु मानदलनः ४२ अत्र हरिषेण दृष्टान्तः काम्पिल्यनगरे महाहरि रानी मेरा देव्याः कुक्षौ चतुर्दम स्वप्न सूचितो हरिषेणनामा चक्रवर्ती समुत्पत्रः क्रमेण यौवन प्राप्तः पित्राराज्य स्थापितः उत्पन्नानि चतुर्दशरत्नानि प्रसाधितच भरत' कत पट्टाभिषेको हरिषेण उदारान् भोगान् भुञ्जन्काल' गमयति अन्यदा लघुकर्म तथा भववासाद्दिरक्तः एवं चिन्तितु प्रवृत्तः पूर्वकृत सुकृत कर्मवशेनमयाचे हरिद्धि: प्राप्ताः पुनरपि परलोक हित' करोमि उक्तञ्च मासैरष्टभिरहावा पूर्वेण वयसा यथा तत्कर्त्तव्य' मनुष्येण यथान्ते सुखमेधते १ एवमादि परिभाव्य पुत्र राज्य निवेश्य निष्कान्त उत्पन्नकेवलश्च सिङ्गितः पञ्चदशधनुष उच्चत्वं दशवर्षसहश्रायुश्च संजातमिति हरिषेण च दृष्टान्तः त्रिश्री राय सहसे हिं सुपरिञ्चाईदमञ्चरे जयनामो जिणकखायं पत्तोग मणुत्तरं ४३ अयनामा एकादशचको जिनाख्यातं जिनात धर्मं चरित्वा च अनुत्तराङ्गतिं प्राप्तः कौथो जयनामा राज सहचैरन्वितः नृपसह श्रेण परिवृतोजेनोंदीचां अचरत् पुनः कीदृशो जयनामासु परित्यागौ सम्यक् परित्यागी ४३ अत्र जयनामचकुवर्त्तिदृष्टान्तः राजग्टहे नगरेवप्रगायाराज्ञयाः कुचौ चतुर्दश स्वप्नसूचितो जयनामा पुवोजातः कुमेण संसाधित भरतश्चौजातः राज्यश्रिय मनुभवन् भोगेभ्यो विरक्तोजातः एवं चिन्तितवान् सुचिरमपि उषित्वास्यात् प्रियैर्विप्रयोगः सुचिरमपि चरित्वा
एगच्छत्तं पसाहिंत्तामहिमाणनिसूरिणो हरिसेणो मणुविंदोपत्तागमणुत्तरं ४२ ॥ अन्निओरायसहम्मेहिंसुपरिच्चाईदमं पृथ्वो भोगवोने महिं अरिमांनदलनः पृथ्वीने बिखेबेरोनोमानतेहनो दलबहार हरिषेणो मनुष्येंद्रः हरिषेण मनुष्यमांहि इन्द्रप्राप्तः गतिं अनुत्तरां उत्तमां उत्कटॉपोहतापधानगतमहिं ४२ अन्वितः राजसहस्त्रैर्युतः हंजारराजवियां साधे सुष्टुपरंत्यागो दानशीलः संयमंचकार राज छोडोनेंदिचालोधी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड०४९ मा भाग *******************************************
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४० टीका अ०१८
५४८
सूत्र
भाषा
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नास्ति भोगेषु तृप्तिः सुचिरमपि विचिन्त्यत्रायमेकोहि धीः एवं संवेग मुपागता निष्कान्तोऽनुक्रमेण सिद्ध: द्वादशधनुर्देहमानो वर्ष सहश्रायुच एषा आसोदिति जयचकिदृष्टान्तः दसन्नरज्ज' मुइयञ्च द्रत्ताणं मुणौचर दसनभहो निक्खन्तो सकसकेण चाईश्रो ४४ दशार्णभद्रोराजा साक्षात् शक्रेण चादितः प्रेरितः सन् निःकान्तः गृहस्थावस्थातो निसृतः पुनर्मोनौ सन् अचरत् मुनेः कर्म मौनं मौनं अस्यास्तीति मौनि मुनिर्भूत्वा विहारं अकरोत् किं कृत्वा दशार्ण राज्य त्यक्का दशार्णानां देशानां राज्य दशार्णराज्य कीदृशं दशार्णराज्य मुदितं समृद्ध अत्र दशार्णभद्रदृष्टान्तः अस्तिवराटदेशे धनापुरं नाम सन्निवेशे तत्वँ कोमदहर पुत्त्रोस्ति तस्य भार्या दुस्मोलानगरा रचकेण समं चैौर्य रतिं कुर्वन्त्यस्ति धनादा तत्रा सन्निवेशे नटैर्नाव्य प्रारब्ध' तत्र कोन र्त्तकः स्त्रीवेषं कृत्वा नृत्यन्रस्ति घनालोकः दर्शनार्थं मिलितोसि सापि तत्त्रगतास्ति सास्त्रीरूपधरं तं नर्त्तकं प्रेच्य पुरुषश्च ज्ञात्वा कामबिह्वलाजाता एकं तत्पुरुषं प्राह यद्यसौ अनेन बेषेण एषमगृहे समागत्य मया समं रमते तदाहमस्मै अष्टोत्तरशत हव्यं ददामि तेन प्रतिपन्न भणित' त्वयाहि एष तव पृष्टोत्वरितमेव समायास्यति ततः सा स्वग्टहेगता एषोपि तत् पृष्टौ तत्ग्टहेगतः तथा पादशोचनंदत्त' स भोक्त, मुपविष्टः तथा चौरय्याभृत भाजनं यावदसौ भुक्त तावतारचक स्तत्रायातो वदत् कपाटमुदघाटयेति सा नटपुरुषमुवाच त्वं तिलग्टहोदरे प्रविशयावदेनं निवर्त्त यामि सतिल गृहोदरं प्रविष्टः बुभुक्षितः सन् कोणस्थान् तिलान् पूत्कृत्यखादति आगतः कपाट निधीयतला रचः चीरयोभृतं पात्र दृष्ट्वा सभोक्तमुपविष्टः यावेमतिता
चरे जयनामो जिणक्वायं पत्तोग मणुत्तरं ४३ ॥ दसन्नरज्जं मुद्रयंचद्रत्ताणं मुणीचरे । दसन्नभहो निक्वंतो स जयनामा चक्रववर्त्तिः जिनैः आख्यातं कथितं प्राप्तः गतिं अनुत्तरां अनुत्तरगति मोचतिहांपोहता ४३ दशार्णराज्य' त्यक्त' दमार्ण भद्रराजाई राज्य छोडौने त्यक्तामुनिः चरेत् त्यजोनंग्रतौह दशार्ण भद्रराजा प्रब्रजितः दशाएँ भद्रदोचालोधी साचात् शक्रेण प्रेरितः प्रत्यक्ष इंद्र प्रेयो ४४ नमि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं००७ ४१मा भाग *******************************************
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वत्तस्याः पतिहार समायातः तया उक्त तलारक्षस्य शोघ्रमुत्तिष्ट प्रविशास्मिन् तिलगृहोदरे परंदूरे नगन्तव्य कोष सर्पस्ति ठति त्वया तत्त्र प्रदेशेन उ टीका
गन्तव्य प्रविष्टस्त लारक्षस्तिल सहोदर पतिस्तत्रायातःचौरेयौपात्र दृष्ट्वा तेन पृष्ट किमेतत् तया उक्त बुभक्षितास्मीति जमामि स उवाच त्वं तिष्ट अहं पथ वान्तवाहिशेषतो बुभुक्षितो स्मोति प्रथमं जमामि तया उक्त अद्याष्टमौवर्तते कथमसातो जमसि ते नीता व नानासीति तवनाने न मम मान
जातमिति प्रोच्च स भोक्त मुपविष्टः इतञ्चतलारक्षक नट पूत्कार अवणे सोयनिति पूरकरीतौति भौतस्तलारचतिलोदराबिर्गतो नष्टस्त तोयमवावसर । इति कृत्वा स्त्री वेष धरोनरोपि नष्टः पत्यापृष्टासास्त्री किमेतत् तया उक्त मयात्व साम्प्रतमेव वारितः यद्यष्टम्यामद्यत्व मनातोमाभोजनं कुरुत्वया चाचा ४ नेनाद्यभोजनं कत्तु मारब्ध अतस्त्वयातह हे सदावसन्तौ इमौ पार्वती महेश्वरी नष्वागतौ मदहर उवाच हादृष्ट क्ततं मया तं पश्चात्तापं कुर्वन् पुनस्तों
उवाच कोप्यस्य पायः यदेती पुनरायातः सा एवाच यदिन्यायेनवित्त उपाय पूजां कुर्यास्तत पुनरेती तव ग्रह समायास्यतः ततो गतीमदोहरीदेशान्तर दशाणदेशे इक्षुवाटक कम्मणि लग्नः दशगद्यानक सुवर्ण लब्ध तथाप्यत्पमिति कृत्वा न तुष्टि प्राप इतस्ततो भ्रमन् एकदाटव्यां प्रविष्टः पिप्पलतरुमूले विधामं यहाति अवांतर अखापहती दशाण भद्रस्तत्रायातस्तं दृष्ट्वा राज्ञापृष्ट कस्व किमर्थमनायातः स उवाच यथा स्थितं वृत्तान्त राज्ञाचिंतितं. असौस्त्रियाविप्रतारितः परदेशे भ्रमबस्ति ततस्तस्य स्त्री चरितं उक्त्वावग्रहेनौत्वा भोजनादिविहितं राज्ञाचिंतितं अहो असत्यदेवेपीश्वरादौ कौशौ भक्तिर्वत ते मया सत्यदेवेपि श्रीमहावीरविद्यमानेपि तादृशं भक्ति प्रपञ्चनं न विहितमिति राजायावञ्चितयति तावदेक प्रतिहार पुरुषेण राज्ञोग्रे एव*
मुक्त भगवान् श्रीमहावीरः समायातः राजापरितुष्टश्चिन्तयति यदिनामैष मदहर पुत्रो विशिष्टविवेकरहितोपि निजदेव पूजा सम्पादनार्थमेव परिकि * स्वते ततोस्माभिरौदृशैः सागसारविवेचन विचक्षणैः समग्रसामग्रयात्रिभुवनचिन्तामणि कल्पस्य श्रीमहावीरस्य विशेषेण पूजाकार्येति ततः कल्पेई
राम धनपतसिंह बाहादुर का माम०९, ४१ मा भाग
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6.टौका
4
५१
सर्व तवा बोमहावीर वन्दिथे यथा केनाप्येवं न वन्दितः पूर्वः ततोद्वितीय दिवसे कृत प्रभात कत्यः सान विलिप्तालात देहः स्फाररूप यौवन लावण्यनेपथ्ययुक्तः सर्वाङ्गोपांगालक्कतयाचतुरङ्गण्यासेनया सहितो बहुभिर्मन्त्रि सामन्तैः श्रेष्टिसार्थवाहैच परिहत: भंभादि वादिन श्रेणिबधिरिति दिगन्तरालो गन्धर्वे गौयमानगुणो नृत्यंतीभिविलासिनौभिः पोधित नेत्ररसो गजेन्द्रारूढी दशार्णभद्र भूपतिर्भगवती वन्द नार्थ मायातः विशुद्धभावेन भगवान् वन्दितः राजा मदहरपुत्रश्च हर्षितवान् अचान्तरे शकेण चिन्तितं मत्कतया महाविभूत्यासौ दशार्णभद्रः प्रति * बोधं बास्य साति यक ईटयों विभूतिं विकुचितवान् तथाहि ऐरावण इस्ति नोष्टौ दन्ता विकुविताः दन्ते २ अष्टौ पुष्करिण्यो विकुर्विताः पुष्क * रियां २ अष्टौ २ पद्मानि पद्मे २ ष्ट २ पत्राणि पत्रे २ द्वात्रिंषदहनाट्यानि अनया विभूत्या ऐरावणारूढेन शकण प्रदक्षिणी क्वत्व भगवान् वन्दितः * तं तादृशं दृष्ट्वा दशार्ण भद्रेण चिन्तितं अहो खलु तुच्छोहं यस्तुच्छया विभूत्यागवं कृतवान् यत उक्त' अहिड भहाथावणविहुन्ति उत्तणाणीयाणच्चर 8 उत्तालकरोडु मूसगोवाहिमासज्ज १ अनेन शकेण प्राग्भवे शुहो धर्मः कृतः तत ईदृशीलब्धिलब्धा ततोहमपितमेव धर्म करोमि किं ममाच विषादेन 8 उतञ्च समसंख्या वयवः सन् पुरुषः पुरुषं किमना मभ्येति पुण्यरधिकतरः चेवनुसोपि करोतु तान्येव १ इत्यादि संवेगभावनया प्रतिबुद्धः क्षयोपशम
प्राप्तचारित्रमोहनोयोभगवन्तं प्रत्येवं दशार्थ भद्रोऽवादौत् भगवन् भवचारकादहं निर्वियोस्मि ततश्चारित्र प्रदानेनानुग्रहं मम कुरुभगवता तदानौमेव मदहरेण समं स दशाण भद्रोदौक्षितः शक्रेण तदादितः उक्त' च श्रमणमार्गग्रहणेनत्वयैवजितं येने दृशौ ऋहिः सहसापरित्यक्ता पूर्व त्वयाभिमान अस्तेन द्रव्य वन्दनं कतमिति त्वमेव धनगीनाहमिति दशार्ण भद्रमुनः प्रशंसां कृत्वायकः स्वस्थानं गत वा निति दयार्णभद्र दृष्टांतः नमोनमैर् अप्पार्थ सकसकेण चोरेपी चईजणगेहं वइदेही सामने पज्जवडियो ४५ पनहें मनेविदेहेष भवी वैदेही विदेहदयस्वामीनमिनामावृपोग एडवासन्यसायामस्थ
राय धनपतसिंह बादुर का पा.सं.१.४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०१८
५५२
सूत्र
भाषा
साधु धर्मं पर्युपस्थितः चारित्रयोग्यानुष्टानं प्रत्युयुतो भूदित्यर्थः पुनः समुनिः साचात् ब्राह्मण रूपेण शक्रेण प्रेरितः सन् ज्ञानचर्यायां परिचितः सन् आत्मानं नमे इति नयेस्थापयति कोधादिकषायरहितो भवतीत्यर्थः ४५ अथ द्वाभ्यां गाथाभ्यां चतुणी प्रत्येकबुद्धानां एकसमये सिडानां नामानाह करकण्डूकलिंगेसु पञ्चालेषु यदुम्मुहो नमौरायाविदेहेषु गन्धारे सुयनिग्ाई ४५ एवं नरिन्दवसहा निक्खन्ताजिणसासणे पुत्तं रज्ज ठवेजण सामनेपज्ज् सक्केण चोइओ ४४॥ नमौनमेद्र अप्पाणं सक्क सकेण चोदूओ । चइजणग हंवद्र देहौसामन्ने पज्जुवट्टि ४५ ॥ कर कंडुकलिंगेसु पंचालेसु यदुम्महे । नमौराया विदेहे सुगंधारेसु यनग्गई ४६ ॥ एवं नरिंद वसहा निक्वं ताजिय सासणे पुत्तं रज्ज ठविऊणं सामने पज्जुवट्टिया ॥ ४७ ॥ सोवौर राय बसही चद्रजणं मुणोचरे । उदायणी पव्वइओ राजर्षिः आत्मानं नयति नमिराजा आपणी आत्माने नमे साचात् शर्क णप्रेरितः प्रत्यचइंद्र प्र खो त्यक्का गृहवैदेही घरछांडीने बिदेहदेश छांय श्रामण्य पर्युपस्थितः चारित्रने बिखे ऊठ्यो ४५ करकंडूः कलिंगषू करकंड राजाइ कलिंगदेश छांड्या पंचालेषु पंचालदेशेषु दुमुखी बभूव पंचाल देश ने बिखे दुम्ह होनमोंराजा विदेहेषु विदेहदेशेषु नमोंराजाइ विदेहदेशनो राज्यकांड्या गंधारेषु नम्गतिः गंधारदेश नग्गई राजाराज्य छोड्यो ४६ एवं नरेंद्र वृषभाः एतलाए राजा वृषभ समांनधोरी निष्कृांता: जिनशासने जिनशाशनने बिखे दोचालीधो पुत्र राज्ये स्थापयित्वा पुत्रने राज्य देईने श्राम पर्युपस्थिताः चारित्रलेइ सावधान धर्मने बिखे उद्यत हुआ ४७ सोबोरराज राजा वृषभः सोबौरदेशनो राजा ष्टषभसमान त्यक्वा मुनिः चरेत् त्यजोने मुनीश्वर हुआ उदयनराजा राज्य त्यक्ताः प्रव्रजितः उदाई राजाइ राज्य छोडोने दोचालोधी प्राप्तोगतिं अनुत्तरां प्राप्त हुआ उत्तमगति ४८ तथैव
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ माग
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उ०टौका
अ०१८ ५५३
वडिया ४६ हे मुने करकण्ड राजाकलिङ्गेषु देशेष अभूदित्याध्याहारः च पुनः पाञ्चालेषु देशेषु हिमुखोपोभूत् विदेहेषु देशेषु नमौराजाभूत् च पुनर्गन्धा रेष गन्धारनाम सुदेशेषु निर्गतिनामाराजाभूत् एते चत्वारः करकण्डू १ विमुख २ नमि३ निर्गतिनामानीनरेन्द्र वृषभाः राजमुख्याः पुत्रान् राज्य स्थाप
यित्वा पश्चात् जिनशासने जिनाज्ञायां श्रामण्ये चारित पर्युपस्थिताः चारित योग्य कियानुष्टानतत्पराः सन्तोनिक्रान्ताः संसारात् नि:सृताः भव ॐ भ्रमणात् विरता आसन् इत्यध्याहारः सिद्धि प्राप्ता इति भावः एतेषां चतुणीं प्रत्येक बुद्धानां कथा प्रसङ्गतः पूर्व नमेरध्ययनतीजेया सोवीररायवसभी च
इत्ताणं मुणीचरे उदायणो पव्वइओ पत्तोगइ मणुत्तरं ४८ सौवौर राजकृषभः सौवीराणां देशानां राजा सौवौरराजः सचासौबषभश्च सौवीरराज वृष भोराज्यभार धरण समर्थः सौवोरदेश भूपमुख्यः एतादृश उदाय न नामाराजा वौतभयपत्तनाधीशो मौनं मुनिधर्म आचरत् किं कृत्वा राज्य परिहत्य सच उदायन: प्रवृजित: सन् अनुत्तरां प्रधानां गतिं प्राप्तः अत्रोदायन भूपदृष्टान्तः भरतक्षेत्रे सौवीरदेशेवौतभयनाम नगरे उदायनो नाम राजा तस्य प्रभावतो राज्ञौ तयोज्येष्ठपुचो अभौचिनामाऽभवत् तस्य भागिनेयः केशौनामाभूत् स उदायनराजा सिन्धुसोवीर प्रमुख षोडशजनपदानांवौत भय प्रमुख विशत विषष्टि नगराणां महासेन प्रमुखाणां दशराज्ञां बहमुकुटानां छत्राणां चामराणां च ऐश्वर्य पालयबस्ति इतकंपायां नगयां कुमारनन्दी नाम सुवर्णकारीस्ति स च स्त्रीलंपटी यत्र २ सरूपा दारिकां पश्यति जानाति वा तत्र पञ्चशत सुवर्णानि दत्वा तां परिण यति एवञ्चतेन पञ्चशतकन्याः परिणौताः एक स्तम्भ प्रासादं कारयित्वा ताभिस्ममं क्रीडति तस्य च मित्र'नागिलोनाम श्रावकोस्ति अन्यदा पञ्चशैलद्दीप वास्तव्यहासाप्रहासाव्यतर्योस्त: तयोर्भर्ता विद्यु मालो नाम देवोस्ति सोन्यदाच तः ताभिश्चिन्तितं कमपि व्य हाहयामः सोऽस्माकं भर्ती भवति स्वयोग्यपुरुष गवेषणाय इतस्तती वजं तीभ्यां ताभ्यां चम्पानगयों कुमारनन्दो सुवर्ण कारः पञ्चशत स्त्री परिवती दृष्टः ताभ्यां चिन्तितं एषः स्त्रीलम्पटः मुखेन व्य हाहयिष्यते
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं००१ ४१मा भाग
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उटीका अ०१८ ५५४
*800RXXXXXRRRRRRRREKAXXX
कुमारनन्दो भतिके भवंत्यो कुतः समायाते ते आहतु आवां हासा पहासा देयौ तद्रूप मोहितः कुमारनन्दौ सुवर्णकारस्तेदेव्यौ भीगार्थ प्रार्थित वान् ताभ्यां भणितं यद्यमद्भोगकार्य तदा पञ्चशैलदोपं समागच्छे: एवं भणिते देव्यौ लत्पतिते गते स्वस्थानं राज्ञः सुवर्णदत्त्वापटहं वादय तिस्म कुमारनन्दि सुवर्णकारं यः पञ्चशैलदोपं नयति तस्य स धनकोटि ददाति एकन स्थविरेण तत्पटह: पृष्टः कुमारनन्दिना तस्य कोटि धनं
दत्तं स्थविरोपि तदनं पुत्राणां दला कुमारनन्दिना सहयान पात्रमारूढः समुद्रमध्ये प्रविष्टः यावह रेगत स्तावदेक वट दृष्टवानस्थविर उवाच 2 तस्य वटस्याध इदंवाहनं निर्गमिथति तत्र जलावर्तीस्तौतिवाहनं भंच्यति त्व'तु एतहटशाखामाश्रये वटेत्र पञ्चशैलदीपात भारण्ड पक्षिण स्म
मायास्यन्ति संध्यायां तच्चरणेषु स्खवपुः स्ववस्त्रेण दृढं बनीयाः ते च प्रभाते इत उडडीना पञ्चशैलं यास्यन्ति त्वमपितैः समं पञ्चशेलं गच्छ: स्थविरेण एव मुच्यमाने तबाहनं वटाधोगतं कुमारनन्दिना वटशाखावलम्बनं कृतं भग्नञ्च तहाहनं कुमारनन्दी तु भारण्डपक्षि चरणावलम्वेन पञ्चशैले गत: हासा प्रहासाभ्यां दृष्टः उक्तञ्च तव एतन शरीरेण नावाभ्यां भीगो विधीयते स्व नगर गत्वां गुष्टत आरभ्य मस्तकं यावजलनेन स्व शरीरंदह यथा पञ्चशैलाधीशो भूत्वाऽस्मद्भोगेहां पूी कुरु तेनोक्त तत्राहं कथं यामि ताभ्यां करतले समुत्पाद्य स नगरोद्याने मुक्तः ततोलोकस्तं पृच्छति किं त्वया तत्राश्चर्य वृष्ट स भणति दृष्टं श्रुतं अनुभूतं पञ्चशैल होपं मया यत्र प्रशस्तेहासा प्रहासाभिधे देव्यौस्तः अत्र कुमारनन्दिना तत्र स्वांगुष्ठेऽग्निमाच यित्वा मस्तक यावत् स्व शरोरं ज्वालयितु मारब्धः तदा मित्रेणायं वारितः भोमित्र तबेदं कापुरुषजनो चितं चेष्टितं न युक्त महानुभाव दुर्लभं मनुष्य जन्म माहारयः तुच्छमिदं भोगसुखमस्ति किं च यद्यपि त्वं भोगार्थी तथापि स धर्मानुष्ठानमेव कुरु यत उक्त धणी धच्छियाणं कामस्थौणञ्च सब्ब कामकरी सम्गपवग्गसंगमहेउ जिणदेसिओ धम्मो १ इत्यादि शिख्यावामित्रेण सवार्यमाणोपि इंगिनी मरणन समतः पञ्चशैलाधिपतिर्जातः तमित्रस्थ
राम धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ.१मा भाग
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उ० टोका
अ०१८
५ ५ ५
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श्रावकस्य महान्खेदोजातः श्रहो भोगकार्ये जनाइत्य क्लिश्यन्ति जानन्तोपिवयं किमन गार्हस्थेस्थिताः स्म इति स श्रावकः प्रव्रजितः क्रमेण कालं कृत्वा अच्युत देवलोके समुत्पन्नः अवधिनास व वृत्तान्त' जानातिस्म अन्यदा नन्दीश्वर यात्रार्थं सर्वे देवेन्द्राखलिताः स श्रावकदेवापि श्रयतेन्द्रेण समं चलितः तदा पञ्चशैलाधिपते स्वस्य विद्यमालिनाम्नो देवस्य गले पटहोलग्नः उत्तारिनोत्तरति हासा प्रहासाभ्यां उक्त इयं पञ्च शैलदोपवासिनो स्थितिः यत् नन्दौखरद्दीपयात्त्रार्थं चलितानां देवेन्द्राणां पुरः पटहं वादयन् विद्युन्मालि देवस्तत्वयाति ततस्त्व' खेदं माकुरुगललग्नं इमं पटहं वादयन् गौतानि गायन्ताभ्यां आवाभ्यांसह नन्दौखरद्दीपे याहि ततः स तथा कुर्व्वन् नन्दीश्वरोपोद्देशेन चलितः श्रावकदेवस्तं स खेदं पटहंवादयन्तं दृष्ट्वा उप योगे नेापलक्षितवान् भवति च भोत्वं मां जानासि स भणतिकः शक्रादिदेवान् न जानाति ततस्तं श्रायकदेवः तस्य स्व प्राग्भवस्वरूपं दर्शयति सर्व पूर्व वृत्तान्त माख्याति ततः संवेगमापत्रः सदेवो भवति तदानीमहं किं करोमि श्रावकदेवो भणति श्रीवर्डमान स्वामिनः प्रतिमां कुरु यथा तव सम्यक्तं सुस्थिरं भवति यत उक्त जोकारवेद्र जिण पडिमंजिणाण जियरागदोस मोहाणं सो पावेइ अन्नभवे सुहजगण ं धम्मवररयणं १ अन्यच्च दारिद्द दोहग्णं' कुजाइ' कुसरोर कुगद्र कुमईओ अवमाणरोयसोत्रा महन्ति जिण बिंबकारिण २ ततः स विद्युन्माली महाहिमवच्छिखराहो शीर्ष चन्दन दारुच्छ दयित्वा श्रौवर्ड मानखामि प्रतिमां निवर्त्तितवान् ताचमंजूषायां चिप्तवान् तस्मिन्नवसरेषण्मासान् यावदितस्ततो भ्रमत्वाहनं वायुभिरास्फाल्य मानं विलोकितवान् तत्त्रगत्वा चासौ तं उत्पातं उपशामितवान् सां यात्रिकाणां चतां मंजूषादत्तवान् भणितवांश्च देवाधिदेव प्रतिमाचात्रास्ति यवचेयं विशेष पूजामानोति तत्त्र यंदेवा देवाधिदेवनान्न वेय मुदुद्घाटिष्यति भवद्दाहनेस्यां स्थितायां न कीप्युपद्रवो भविष्यति ततस्तां लात्वा सां यात्रिकावीतभयं पत्तनं प्राप्ताः तत्रोदायन राजा तापसभक्तस्तस्य सामंजूषादत्ता कथितच्च सुरवचनं मिलितच तत्र ब्राह्मणादिको भूरिलोक भणति च गोविन्दाय
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४०१ मा भाग
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स.टोका
अ०१८
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ॐनमः इत्युक्त मंजूषानीवाटिता तत्र केचिद्भणन्ति अत्र देवाधिदेवश्चतुर्मुखो ब्रह्मास्ति अन्ये केचिदन्ति अत्र चतुर्मुखीविष्ण रेवास्ति केचिएंति 8 अत्र महेम्बरो देवाधिदेवीस्ति अस्मिन्नवसरे तत्रीदायन राजपट्टरानी चेरकराजा पुत्रौ प्रभावती नानी यमणोपासिका ततायाता तया तस्या मंजूषायाः
पजां कृत्वा एवं भणति गयराग दोसमोहो सब्व अट्ठपाडहरसंजुत्तो देवाहिदेव गुरुओ अइराम दंसणंदेउ १ एवं उक्ता तया मंजूषायां हस्तेन परशु प्रहारोदत्तः उद्घाटिता सामंजूषा तस्यां दृष्ट्वाऽतीव सुन्दरा खान पुष्पमालालंकृता श्रीवईमानस्वामि प्रतिमाजात जिनशासनीबतिः अतीवानन्दिता
प्रभावती एवंबभाण सम्बन्, सचदंसण अपुरण भवभविय जिणमणाणंदजय चिन्तामणिजय गुरुजय २ जिणवीर अकलङ्को१ तत प्रभावत्या अन्त पुर * मध्ये चैत्यग्टहंकारितं तत यं प्रतिमास्थापिता तां चतिकालं सा पवित्रा पूजयति अन्यदा प्रभावतीराज्ञी तत्प्रतिमायाः पुरोवृत्यति राजा च वीणां वादयति तदानीं स राजा तस्यां मस्तकं न पश्यति राज्ञोऽधतिर्जाता हस्ताद्दौणा पतिता राज्ञा पृष्ट किं मयादुष्ट नर्तित राजा मौनमालव्यस्थितः राज्ञा अति निर्बधे उक्तवान् यत्तव मस्त कमपश्यन्नहं व्याकुलीभूती हस्ताहौणां पातितवान् सा भणति मया सुचिरं थावकधर्मः न काचिन्मम मरणा गोतिरस्ति अन्चदा तत् प्रतिमा पूजनार्थ साता सा राजी खचेटौं प्रतिवस्त्राण्यानयेत्युवाच तया च रक्तानि वस्त्राण्यानौ तानि राजी क्रुद्धाप्राह जिनगृहे
प्रविशंत्या मम रक्तानि वस्त्राणि ददासौत्युक्त्वा चेटौं आदर्गेण हतवतौ मर्मणि तत्पहार लग्नात् सा मृता प्रभावत्या चिन्तितं हामया निरपराधनस • जौव बधकरणागत भग्न अनःपरं किमे जौवतव्ये न ततस्तया राजाराज्ञ उक्त अहं भक्त प्रत्याख्यामि राज्ञानैवेति प्रतिपादित तया पुनस्तथैवोच्यते
तदा राज्ञा उक्त यदित्व देवी भूत्वा मां प्रतिबोधयसि तदा त्वं भक्त प्रत्याख्याहि राज्ञा तहचोंगी कृतं भक्त प्रत्याख्याय समाधिना मृता देवलोकंगता • देवोभूत् तांच प्रतिमा कुजा देवदत्तादासौ तिकालं पूजयति प्रभावती देवस्तु उदायनं राजानं प्रतिबोधयति न च सतं बुध्यते राजा तु तापसभक्तोतः
धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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उ० टोका
श्र०१८
५५७
XXXXXXX
सदेव स्तापस सरूपं कृत्वाऽमृतफलानि गृहीत्वागतो राजे दत्तवान् राज्ञा तानि श्रखादतानि पृष्टश्व तापसः क्व एतानि फलानि तापसो भणति एतन्नगराभ्यर्णेऽस्मदाश्रमस्ति तत्र तानि फलानि सन्ति राजा तेन समं एकाक्य व तत्गतः तापसे सामाचारैः सहन्तु मारब्धः राजा ततो नष्टः तस्मिन्नेव वने जैन साधून् ददर्श तेषामसौशरणमाश्रितः भयं माकुबिति राखासितः तापसा निवृत्ताः साधुभिश्च तस्यैवं धर्म उक्तः धम्मोचैवेत्य सत्ताणं सरण भवसाय देवं धम' गुरु' चैव धम्महत्थीय परिक्वए १ दस अट्ठ दोसरहिओ देवोधम्मो विनिउदय सहिषी सुगुरुयबंभयारी आरंभ परिमहावरओर इत्यादिकोपदेशेन स राजा प्रतिबोधितः प्रतिपत्त्रो जिनधर्म प्रभावतीदेव आत्मानं दर्शयित्वा राजानं च स्थिरीकृत्वा स्वस्थानंगतः एवं उदायन राजा श्रावकोजातः इतश्च गन्धारदेश वास्तव्यः सत्यनामा श्रावकः सर्वत जिनजन्म भूम्यादितीर्थानिवन्दमाना वैतान्यं यावद्वतः तंत्र शाखत प्रतिमा बन्द नार्थ उपवासत्यं कृतवान् तपस्तुष्टया तदधिष्टातृ देव्यास्तस्य शाखतजिन प्रतिमादर्शिताः तेन च वन्दिताः अथ तया देव्यास्त श्रावकाकामित गुटिकादत्ता ततः स निवृत्तो वीतभयपत्तने जीवितस्वामि प्रतिमां वन्दितु मायातः गोशौर्ष चन्दमयीं तां ववन्दे देवात्तस्यातीसारो रोग उत्पन्नः कुलया दास्या प्रतिचरितः स निरुग्जातः तुष्ट न तेन तस्यै कामगुणिता गुटिकादत्ता कथितच तासां चिन्तितार्थ साधक प्रभाव ः अन्यदासादासी अहं सुवर्ण व सुरूपा भवामीति चिन्तयित्वा एकां गुटिकां भचितवती सुवर्णवर्ण सुरूपा च जाता ततस्तस्याः सुवर्णगुलिकेति नाम जात' अनादा सा चिन्तयति भोगसुख मनुभवामि एष उदायन राजा ममपिता अपरमत्त ल्याः केपि राजानो न सन्तीति चण्डप्रद्योतमेव मनसि कृत्वा द्वितीयां गुटिकां भचिवतो तदानीं तस्य चण्प्रद्योतस्य स्वप्ने देवतया कथितं वौत भयपत्तने उदायनराजो दासौ सुवर्णगुलिकानाम्नी सुवर्णा वर्णाऽतीव रूपवती त्वत्योग्यास्ति चण्डप्रद्योतेन सुवर्णगुलिकायाः समौपे दूतः प्रेषितः दूतेन एकान्त तस्या एवं कथित' चण्डपुद्योतस्त्वामौ हते तया भणित अतु चण्हपुद्योतः प्रथम मायातुत'
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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उ टोका
880
* पश्यामि पवाद्यथा रुचातन सहायास्यामि दूतन गत्वा तस्या वचनं चण्डपद्योतस्योता सोपि अनिलगिरि हस्तिनमधि रुघरावी तवायातः इष्टस्तया रुचितच सा भणति यदीमा प्रतिमा साई नयसि तदाह मायामि नानाति ततस्तेन तत्स्थान स्थापनयोग्यानया प्रतिमा तदानीं नास्तीति तस्या रात्रौ तत्र उषित्वा व नगरे पश्चाहतः तत्र तादृशीं जिन पुतिमा कारयित्वा पुन रत्रायात स्ता प्रतिमा तवस्थापयित्वा मूल प्रतिमा दासी च सहीत्वा उज्जयिनींगत: तत्रानलगिरिणा मूत्र पुरीषे ते तहन्धन वौत भयपत्तन सत्का हस्ति नो निर्मदाजाता उदाधनराशा तत्कारण गवैषित अवल गिरि हस्ति नः पदं दृष्ट उदायने न चिन्तितं स किमर्थ मतायातः गृहमानुषैरुक्त सुवर्णगुलिकान दृश्यते राजा उक्त चेटी चण्डप्रद्योतेन गृहौता प्रतिमा विलोकयततैरुक्त प्रतिमादृश्यते परं पुष्पाणि नानि दृश्यन्ते राज्ञा गत्वा स्वयं पुतिमाविलोकिता पुष्फ खान दर्शनेन राजा ज्ञातं नेयं सा प्रतिमा किं त्वनाति विषन्नेन राज्ञा दूतश्चण्ड पुद्योतांतिके प्रेषित: मम दास्या नास्तिकार्य प्रतिमां त्वरितं प्रेषयेति दूतन चण्डप्रद्योतस्योक्त' चण्डपुद्योतः प्रतिमा नार्पयति तदा सैन्येन समं ज्येष्टमास एवोदयनश्चलित: यावन्मरुदेशे तत्म नामायातं तावज्जला प्राप्तया तत्सैना वृषाकान्त व्याकुलो बभूव . है तदानी राना प्रभावती देवश्चिन्तितं तेन समागत्यतीणि पुष्कराणि कृतानितेषु जललाभात् सर्व सैना सुस्थं जातं क्रमेण उदायन राजा उज्जयिनींगतः।
कथितवांश्च भी चण्डपुद्योत तव ममचसाक्षात् युद्ध भवतु लोकेन मारितेन अवस्थेन रथस्थेन वा त्वया मया च युद्धमंगौ कुरुचण्ड प्रद्योतनोक्त रथस्थे* 8 नैव त्वया मया चयोदव्य प्रभाते चण्डपुद्योतः कपट कृतवान् स्वयं अनलगिरि हस्तिन मारुह्य संग्रामांगणे समायातः उदायनस्तु स्वपतिज्ञानि 8 हो रबारूढः संग्रामांगणे समायत: तदानी मुदायनेन चण्डपुद्योतस्य उक्त' त्वमसत्य प्रतिज्ञोजातः कपट' च कृतवानसि तथापि तक 8 मत्तो मोदी नास्तीति भणता उदायनेन रथो मण्डल्यां क्षिप्तः चण्ड प्रद्योतेन तत् पुष्टौ अनलगिरि हस्तीवेगेन क्षिप्तः स च हस्तौयंबंपाद
यि धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
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उ टीका
मुत्क्षिपति ततः उदायनः शरैविध्यते यावत् हस्तभूमौनिपतितः तत् स्कन्धादुत्तरन् प्रद्योतीबहः तस्य ललाटे मम दासीपतिरित्यक्षराणि लिखितानि तत उदायनराज्ञाचण्ड प्रद्योतदेशेखाधिकारिणः स्थापिताः स्वयं तु चण्ड प्रद्योतं काष्ट पञ्जरेक्षिया साईच नौत्वा स्वदेशं प्रति चलित: साप्रतिमा तु ततो न उत्तिष्टतोति तत्र व सामुक्ता अवच्छिन प्रयाण श्चलितस्य अन्तरावर्षा कालः समायातस्तेन रुडोदशभिराजभिई लौ प्राकारं कृत्वा मध्ये सरक्षितः सुखेन तत्र तिष्ठति यत्स्वयंभुक्त तत् चण्डप्रद्योतस्यापि भोजयति एकदापर्यषणादि नमायातंतदा उदायनेन उपवासः कृतःसूपकारैः चण्डप्रद्योतः पृथग् भोजनार्थ पृच्च ते तैरक्त मद्यपर्व षणादिने उदायनराजा उपोषितो स्तोति यद्भवतो रोचते तत्यच्यते चण्डप्रद्योते नोक्तममाप्यद्योपवासोस्ति नज्ञात मया द्यपर्युषणादिनं सूपकारचण्ड प्रद्योतस्य उक्त उदायनराज्ञः तेनापि चिंतित जानाम्यहं यथायं धूर्तसाधर्मिकोस्ति तथाप्यस्मिन् बड़े मम पर्युपणान शुध्यति चण्ड प्रद्योतीमुक्तः क्षामितश्च तदक्षराच्छादननिमित्त रत्न पट्टस्तस्य मूद्धि बडः विषयवतस्यदत्तः ततः प्रभृति पट्टबड़ा राजानीजाताः मुकुटबडाय पूर्वमप्यासन् वर्षा रात्र व्यतिक्रान्ते उदायनराजाततः प्रस्थितः व्यापाराथ' योवणिग् वर्गस्त तायातः सतत वस्थितः दशभौराजभिर्वासितत्वा दृशपुरं नाम नगरं प्रसिद्ध जातं अन्यदा स उदायनराजा पौषधशालायां पौषधिकः पौषधं प्रतिपालयन् विहरति पूर्वरात समये च तस्यैतादृशोभि प्रायः समुत्यवः धन्यानि तानि ग्रामाकरनगराणि यत श्रमण भगवान् श्रीमहावीरी विहरति धन्यास्तेराजवर प्रभृत योये श्रमणाभगवतः वीमहावीर स्यांतिके केवल प्रज्ञप्त' धर्म शृखन्ति पञ्चाणु बतिक सप्तशिचा बतिक हादशविधं धावकधर्मच प्रति पद्यन्ति तथा मुण्डीभूत्वा भागारात् अनगारिता व्रजन्ति ततो यदि थमण भगवान् योमहावीरः पूर्वानुपूक्चरन् यदौहागच्छत् ततोह मपि भावतोन्तिके प्रब जामि उदावन स्थायमध्य वसायो भगवताज्ञातः प्रातसम्यातः प्रतिनिष्क म्यवौत भय पत्तनस्य मृगवनोद्याने भगवान् समवस्त: तत पर्षमिलिता उदायनीपि ततायातो भगवदन्ति के
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भार
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उ. टीका
अ०१८
अहं प्रव्रजिष्यामि परं राज्य कस्म चिद्ददामौत्यु त्वा भगवन्त वन्दित्वा स्व गृहाभि मुख चलितः भगवतापि प्रतिबंधमाकार्षीरित्यक्त ततो हस्ति रत्नमारुह्य उदायन राजा स्वगृहे समायातः तत उदायनस्यैतादृशोध्यवसायः समुत्पन्नः यद्यहं व पुत्र' अभौचिकुमारं राज्य स्थापयित्वा प्रव्रजामि तदायं राज्ये जनपदे मानुष्यकेषु कामभोगेषु मूर्छितोऽनाद्यनन्त मंसारकन्तारं भमिथति ततः श्रेयः खलममनिजक' केसिकुमारं राज्येस्थापयितु एवं सम्मेच्य शोभनेतिथि करणमुहत कौटुम्बिक पुरुषान कार्य एव मवादीत् क्षिप्रमेवकेशिकुमारस्य राज्याभिषेक सामग्री उपस्थापयत तः कृतायां सर्वसामग्रांकेशि कुमारी राज्ये भिषिक्तः ततस्तत्रकेशि कुमारी राजाजातः उदायन राजा च केशि कुमार राजान पृष्ट्वा तत् कृतनिष्कमणाभिषेकः श्रीमहावीरांतिके प्रव्रजितः बहुनिषष्टाष्टमदशमहादशममासाई मासक्षपणादीनि तपः कर्माणि कुर्बाणीविहरति अन्यदातस्य उदायनराजर्षेः अन्तप्रान्ताहारकरणन महान् व्याधिरुत्पन्नः वैद्य रक्त दध्यौषधं कुरु स च उदायनराजर्षिर्भगवदानया एकाक्ये व विहरति अन्यदाविहरन् वीतभयेगतः तत्र तस्य भागनेयः केशिकुमारराजामात्यै भणितः स्वामिन्नैष उदायन राजर्षिः परोषहादि पराभूतः प्रव्रज्यांमोक्त कामः एकाक्ये व इहायातः तव राज्य मार्गयिष्यति स प्राहदास्यामि तैरतनैष राजाधम्मः पुनः स प्राह तर्हि किं करिष्यति ते प्राहुर्विषमिश्रमस्य दीयते रानोक्त ततस्तै रेकस्याः पशुपाल्या रहे विषमिश्रितं दधि कारितं तेषां शिष्ययातया तस्य तद्दत्त उदायन भक्त याचदेवतयाऽपहृत उक्त च तस्य देवतया महर्षेतवविष दत्त दध्य तस्तेन दध्यौषधं परिहरः तहाक्याइधि परिहतं रोगोवईि तु मारब्धः पुनस्ते न दयौषध' कर्तु मारब्ध पुनरपि तदन्तर्विष देवतयाऽपहतं एवं वारत्रयं जातं अन्यदादेवता प्रमत्ता जाता तैश्च विष दत्त तत उदायनराजर्षि बहूनि वर्षाणि श्रामण्य पर्यायं पालयित्वा मासक्यासलेखनया केवलज्ञानमुत्पाद्यसिद्धस्तस्य शय्यातरः कुम्भ कारस्तदानों कृचिहामान्तर कार्यार्थ गतो भूत् कुपितया च देवतया वीतभयस्योपरिपांशु वृष्टिमुक्ता सकलमपि पुरमाच्छादितं अद्यापि तथैवास्ति
यि धनपतसिंह बाहादुर का आ सं.उ. ४१ मा भाग
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शयातरः कुम्भ कारस्तु शनिपल्या मुक्तः उदाय नराजपुत्रस्य अभौचिकुमारस्य तदा अयं वृत्तान्तो जातः यदानी उदायनः केशि कुमारं राज्ये भिषिच्च उन्टौका
प्रबजितः ततोस्यायमध्य वसायः समुत्पन्नः अह मुदायनस्य जेष्ट पुत्रः प्रभावत्यात्मजस्तादृशमपि मांमुताकेशि कुमारं राज्य भिषिच्य उदायन प्रव्रजितः * अ०१८
इत्यन्तर्मानसिके न दुःखेन पराभूतोवोतभयपत्तनं मुक्त्वा चम्पायां कोणिकराजानं उपसम्पद्यविपुलभोग समन्वितो भूत् सच अभौचिकुमारः श्रमणोपासका भिगतजोवोपि उदायनराजि समनुगवैरीभूत् अभौचिकुमारी बहुणि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं प्रतिपाल्य अई मासिक्यासलेखनया उदायनवैरस्थान मनालोच्यकाल कवाऽसुरकुमारत्वेनोत्पन्नः एकपल्योपमस्थितिरस्यासौत् महाविदेहे क्षेत्रे चान्तेसेत्स्यतीति उदायन कथा तहेवकासौराया सेऊसञ्च परक्कमो कामभोए परिचज्ज पहणेकम्ममहावणं ४८ हे मुने तथैव ते नेव प्रकारेण पूर्वोक्त नृपवत् काशिदेशपतिनन्दननामाराजा सप्तमबलदेवः कर्म रूपं महावनं प्राहनत् उन्म लया मासेत्यर्थः किं कृत्वा भोगान् परित्यज्य कीदृशीनन्दनः श्रेयः सत्यपराक्रमः श्रेयः कल्याण कारक यत्मत्वं संयमः श्रेयः सत्य तत्र पराक्रमी यस्य सः श्रेयः सत्यपराक्रमः मोक्षदायकचारित्र धर्मे विहित वौर्य इत्यर्थः ४८ अत्र काशिराज दृष्टांत: वाराणस्यां नगर्या अग्नि शिखोराजा तस्य जयन्त्यभिधादेवीतस्याः कुक्षि समुद्भूतः सप्तमबलदेवो नन्दनीनामतस्यानुजोधाताशेषवतौराज्ञौसृतोदत्ताख्यो वासुदेवः स च पित्रा
प्रदत्तराज्यः साधितभरता?नन्दनानुगतो राज्य थियं स्फौता अनुबभूव कालेनषट पञ्चाशवर्षसहवाण्यायुरति बाह्य मृत्वादत्तः पञ्चमनरक पृथिव्यामुत्यन्त्रः 8 नन्दनोपि च गृहीत श्रामण्यः समुत्पादितकेवल ज्ञानः पञ्चषष्टि वर्ष सहस्राणि जौबितमनुपाल्य मोक्षंगत घट विंशति धनू षिचानयोर्देह प्रमाण B पत्तागडू मणत्तर' । ४८। तहब कासी राया सेउ सच्च परक्कमो। कामभोगे परिच्चज्ज पहणे कम्म महावणं ॥४६
काशीराजा प्रशंसनीयः यस्य सत्यपराक्रमःप्रयंसनोकछेजेहनो पराकम कामभोगान् परित्यज्यकामभीगान छोडीने कर्ममहावनप्राहंतिस्मकर्म रूपजे महा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाम
सूत्र
भाषा
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सूव
भाषा
मासोदिति काशिराज दृष्टांतः तहेव विजयीराया पणट्ठाकित्ति पव्वएरज्ज' तु गुण समिड' पयहित्तु महायसो ५० हे मुने तथैव विजयों नामा द्वितीयो बलदेवोराजा प्रव्रजितोदोचां प्रपत्रः किं कृत्वा राज्य ं तु पयहित्त इति परिहृत्य कोदृशं राज्य गुणः समृद्ध' गुणैः सप्ताङ्गः पूर्ण स्वामी १ अमात्य २ सुहृत्३ कोम ४ राष्ट्र५ दुर्ग६ बलानि च राज्यां गानि अथ वा गुणैः इन्द्रियकामगुणैः पूर्ण कौहशोविजयः अण्डा अनार्त्तः श्रार्त्तध्यानरहितः पुनः कोदृशः कोर्त्तिः कोयउपलक्षितः अथ वा अट्टाकित्ती इति श्रनष्टाकोति : आसमन्तात् मष्टा अकीर्त्तिर्यस्य स श्रनष्टाकोति अयशोरहितः ५० अत्र विजयराज कथा द्वारावत्यां ब्रह्मराजस्य पुत्रः सुभद्राकुक्षि सम्भूतो विजयो नाम द्वितीयो बलदेवोस्ति स च व लघु वाहिसप्ततिवर्षशत सहस्रा बुद्धि पृष्ट वासुदेवमरणानन्तरं श्रामण्यमङ्गीकृत्य उत्पादितकेवल ज्ञानः पञ्चसप्तति वर्ष सतसहश्राणि सर्व्वायुरति बाह्य मुक्ति गतः सप्तति धनूंषि चानयो देहमानमिति विजयराजकथा तहेव दुग्गन्तवं किवा अव्यक्तित्तणचे असा महव्वलो रायरिसी श्रादायसिरसासिरिं ५१ तथैव महाबलनामाराजर्षि स्वतोये भवेमोच' जगामेतिशेषः किं कला अव्याक्षिप्तेन चेतसास्थिरेण चित्तेन उग्र प्रधानं तपः कृत्वा पुनः किं कृत्वा सिरसामस्त केन श्रियं चारित लक्ष्मों आदाय गृहीत्वा श्रत्र महाबलराज्ञः कथा अवभरतचेत्रे हस्तिनागपुरं नगरमस्ति तत्र बलनाम राजा तस्य प्रभावती नाम्रो रात्रौ अन्यदा साराज्ञो प्रवरणयनी योपगतईषत्रिद्रां गच्छन्ती शशाङ्कम' धवलं सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्दा ततः सातुष्टा यत्र बलस्य राज्ञः शयनीयं तत्रोपागच्छति तव विजय राया अणट्टा कित्ति पव्दए । रज्ज ं तु गुण समिद्धं पयहित्तु महायसो । ५० | तहेवुग्ग तवं किच्चा वन तेहने हुटकम' दूरिकां ४८ तथैव विजयोनामराजा तिमजविजयनामे राजा सर्वथापिगत कुकीर्त्तिः प्रव्रजितः सर्वथा करोने गईछे मूंडो कोर्त्ति जेहनो एहवे राजाइ दिचालोघो राज्य' गुणसमृद्द गुणे करोने भयो राज्वंत्यक्ता महायथा महायश तेहनो धरणहार ५० तथैव
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हाय भ्रनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०७० ४१ मा भाग
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उ० टोका अ०१८ ५६२
सूत्र
भाषा
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तं स्वप्न ं बलस्यराज्ञः कथयति ततः स बलीराजातं स्वप्नं श्रुत्वा हृष्टः तुष्ट एव मवादीत् हे देवित्वया कल्याण कृत् स्वप्नो दृष्टः अर्थ लाभो भोगलामी राज्य लाभश्च भविष्यति एवं खलु तव नवसुमासेषु साई' सप्तदिनान्यधिकेषु गतेषु कुलप्रदीपः कुलतिलक' सर्वलक्षण सम्पूर्णोदारको भविष्यतीति ततः साप्रभा वतो एतदर्थं' श्रुत्वाहृष्टातुष्टाबलस्य राज्ञास्तद्दचनं स्वौकरोति राजानुज्ञया च स्वशयनीये समागच्छति तत् प्रभृति च सासुखेनगर्भमुद्दहति प्रशस्तदोहदा सापूर्णेषु सुकुमालपाणिपादं सर्वलक्षणोपेतं देवकुमारोपमन्दारकं प्रसूतवतौ ततः प्रभावत्याः देव्या प्रतिचारिकाबलं राजानं विजयजयाभ्यां पुत्र जन्मनावर्ड ग्रन्ति ततो बलराजा एतमर्थं श्रुत्वाहृष्टतुष्टोधाराहतकदम्ब पुष्पमिव समुत्स्वसितरोमकूपस्ता सामङ्ग प्रतिचारिकाणां मुकुटवर्ज' सर्व ख शरोरालङ्कारं ददौ कखपनादिक प्रौतिदानं च यथेच्छं विस्तीर्णवान् ततः सबलो राजाकौट ुम्बिक पुरुषानाकारयति आगतांश्चतान् एवमवादीत् भोदेवानुप्रियाः चिप्रमेवहस्ति नागपुरेन गरेचारकशोधनं मानोन्मान प्रवर्द्ध नञ्चकुरुत वपनं चघोषयत एवं राजाज्ञयाते तथैव कृतवंतः प्राप्त च वाद दिवसे तस्य दारकस्य महाबल इति नाम चक्रतुः ततो महाबलः पञ्चधात्री परिवृतोववृधे गृहीतकलाकलापञ्च यौवन मनुप्रासः : असदृश रूपलावण्य गुणो पपेतानां अष्टानां राजवरकन्यानां एकस्मिन्नेवदिवसेपाणि ग्रहणमकरोत् ततस्तस्य महाबल कुमारस्य मातापितरावतिशयेन महदष्ट प्रसादोपशोभितं वास भवनं कारयतः एतादृशं प्रौतिदानं ददतुः अष्टौहिरण्य कोटयः अष्टौमुकुटानि अष्टौ कुण्डलयुगलानि अष्टौहाराः अष्टोमोसाहस्रिकं अष्टौग्रामाः अव्वक्खित्तेण चेअसा । महव्वलो रायरिसी आदाय सिरसा सिरिं ॥ ५१ ॥ कहं धीरे अहेजहिं उम्मत्त महिं उग्रतपः कृत्वा तोमज उग्रतपकरौने अत्र्याचितेन चेतसा सावधान चित्तकरौने महावलो राजर्षिः महावलराजऋषिग्टहत्वा मस्तके संयमश्रियं मस्तकने बिषेलेईने संजमसिरो ५१ अथचत्रियः पुनरपि उद्देशमाहः कथंधीरः पंडितः श्रहेतुभिः क्रियाभिः किमभैरपंडितभु' डो किया करोने उन्मत्तइवग्टथिलइव
ट्राय धनपतसिंह वाहादुर का आा सं०ड०४१ मा भाग
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स.टोबा प०१८ ५६४
अष्टौदासाः अष्टौमदहस्तिनः अष्टा सौवर्ण स्थालानि एवमन्यदपि सारं खापतयं माटपिटभ्यां तस्य प्रदत्त ततः समहाबल: प्रासादवरगत: उदारभोगान् भन्सानो विचरति तमिचकालेविमलखामिनः प्रपौवाधर्म घोषो नाम अणगारः पञ्चभिरनगारशतैः परितो ग्रागानुग्राम विहरन् हस्तिनागपुरमागतः तस्यान्ति के नागरिकपरिषत्समागता महाबलोपि धम्म श्रोतु तत्रायातः श्रुत्वा च धर्म वैराग्यमापनी महाबल कुमारीदृष्टतुष्टः त्रिर्वारं नत्वा एवमवा दौत् हे भगवन् श्रद्दधामिनि अन्य प्रवचनं यथा भवद्भिरक्त सत्यमेवेति संयममार्ग महमङ्गौकरिथामि नवरं मातापितरौ आपृच्छामि गुरवः प्रोचुः प्रतिबन्धमाकार्षोंः ततः समहाबलो धर्म घोषमनगारं वन्दित्वाहृष्ट तुष्टोरथमारुह्य हस्तिनागपुरमध्ये यत्र खग्रहं तत्रोपगतः रथात् प्रत्यवतरति यत्रमातापितरौ तत्रोपागत्य एवमवादोत् अहो मातापितरौ मया धर्मघोषस्य अनगारस्य अन्तिकधर्मः श्रुतः स च धर्मोमऽभिरुचितः ततो महाबल कुमार मातापितरौ एव मवदतां पुत्रत्व धन्यः कतार्थच ततः समहाबल एवमवादीत् अहोमातापितरौ इच्छाम्यहं भवदान या प्रव्रजितु संसार भया दहमुहिग्नोस्मीति ततः सापुभवतो अनिष्टामकामाम श्रुतपूर्वामिमां पुत्रवाचा श्रुत्वारोमकूपगलत्खेदाकीर्ण गावाशीकभरावतपिताङ्गानि स्तेजस्का दौनवदनाकरतलमर्दितकमलमालेवनानाविकीर्णकेशहस्तातु टित्वाधरणी पौठेनिपतिता मूच्छिताच परिचारिकाभिः काञ्चनकलयात् क्षिप्तधाराभि रभिषिच्यमानासमाखासिता सतौरुद्यमाना एवमवादीत् त्वमस्माक एक एव पुत्रोऽस्ति इष्टः कान्तोरन भूतोनिधि भूती जीवितभूत उम्बर पुष्यबद्द लभोस्ततो नैवं वयमिच्छामस्तवक्षणमात्र मपि विप्रयोग ततः पुत्रत्व तावह हेतिष्टः यावद्दयं जौवामः अस्मासकालगतेषु परिवहित कुलसन्तानस्त्व पश्चात्परिब्रजे: ततः समहाबल एव मवादौत् हेमातर्यत् त्वं वदसितत्सर्व मोहविलसितं परं मनुष्यभवेजाति जरामरण शोकाभिभूतोऽध्रु वै सध्याभरा गसदृशे स्वप्नदर्शनोपमे विध्वसन स्वभावे मम पौतिर्नास्ति कोजानाति हे मातः कः पूर्वकः पश्चादागमिष्ये ति अतोई शीघ्रमेव प्रजिष्यामि ततः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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९० टोका
अ०१८
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SACHOROR
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प्रभावत एव मवादीत् पुत्र इदन्ते शरीरं विशिष्टरूपलक्षणोपपेत' विज्ञान विचक्षण रोगरहितं सुखोचितं प्रथम यौवनस्य वर्त्तते श्रतस्त्वमे arer शरीर यौवन गुणान् अनुभव पञ्चाग्रजेः ततः समहाबल एवमवादीत् हेमातः इदं मनुष्योमरोरं दुःखायतनं विवधव्याधि ग्रस्तं अस्थि सम्बद्ध स्त्रसाजालसम्बद्ध' अशौ च निधान' अनवस्थिताकारं जनोपवीतच भविष्यतौति इच्छाम्यहं त्वरितु प्रब्रजितुं ततः साप्रभावती एवमवादीत् पुत्र इमास्तव सर्व कला कोमल स्वभावामार्दवार्जवचमाविनयगुणयुक्ता हावभावविचक्षणः सुविशदशौलकुलशालिन्यः प्रगल्भवयस्कामनोनुकूलभावानुरक्ता अष्टौवभार्यामन्ति ताभिस्ममं भोगान् भच्चपञ्चादयः परिपाकेपरित्रजेः ततः समहाबल एव मवादीत् इमेखलु मानुष्यकाः कामभोगाः उच्चार प्रश्रवणश्न अवातपित्ताश्रयाः शुक्रशोणित समुद्भवा अल्पक्रीडिता बहपसर्गाः कटुकविपाका दुःखानुबंधिनः सिद्धिः विघातकारिणासन्तीति सद्यएवाहं प्रजियामि पुनर्मातापितरौ एव मूचतुः पुत्र परंपर पर्यायात् बहु हिरण्य सुवर्ण विपुलधनधान्यानि स्वयमास्वादतोऽन्येषां दानाञ्चानुग्टहाण मनुष्य लोक सत्कार सन्मानान्यनुग्टहाण पश्चात्परित्रजेः ततः स महाबल एव मवादीत् इदं सर्व हिरण्यादिकं वस्तु अग्निग्राह्यं राजग्राह्य' दायादग्राह्यं मृत्यु ग्राह्यं' अध्रुवं विद्युञ्चञ्चलं नास्य भोगः केनापि गृहीतुं शक्यः इति शौघ्रमेवाहं प्रव्रजिष्यामि ततो मातापितरौ विषय प्रवर्तक वाक्य गृ हे एनं रचितु न शक्न ुतः अथ संयमोई गकरैर्वाक्ये रेव मूचतुः पुत्र अयंनिग्रन्थमार्गों दुरनुचरोस्ति अन लोहमयायवाचर्व्वणीयामन्ति गङ्गा प्रतिश्रोतसि गन्तव्य मस्ति समुद्री भुजाभ्यांतरणोयोस्ति दीप्ताग्निशिखायां प्रवेष्टव्यमस्ति खड्गधारायां सञ्चरणीयमस्ति पुत्र निग्रन्यानां आधाकर्मिकं बौजादि भोजनश्च न कर्त्तव्यमस्ति पुत्रत्व'तु सुकुमालोसि सुखोचित स्वामिनत्व चुधा तृषा शोतोष्णादि परोषहोपसर्गान् सोठुळे न समर्थोसि पुनः भूमिशयनं केशलोचनं अनानं ब्रह्मचर्य भिक्षाचर्याच विधातुं न शक्नोसि ततः पुत्रत्व' तावदुगृहेतिष्ट यावद्दयं जीवामः ततः स महाबलएव मवादीत् अयं निग्रन्य मार्गः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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उ० टोका
अ०१८
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क्लोवानां कातराणाञ्च इहलोक प्रतिबधानां परलोक पराङ्मुखानां दुरनुचरोस्ति न पुनर्वीरस्य निश्चितमतेः पुरुषस्य किमप्यत्र दुक्करमस्तौति मां अनु जानोत प्रब्रज्या ग्रहणार्थं अथ मातृपितृभ्यां तं गृहेरचयितुम शक्ताभ्यां आवांश्यैव प्रव्रज्यानुमतिर्दत्ता ततो बलिराजा कौटुम्बिक पुरुषैः हस्तिनाग पुरं बाह्याभ्यन्तरं समार्जितोप्रलिप्त' कारयतितं महाबलं कुमारं मातापितरौ सिंहासने समारोपयतः सौवर्षिक कलसानामष्टशतेन यावकौमे याना मटतेन सर्वमहान् निष्क्रमणाभिषेकोस्य कृतः पितावभाण पुत्रभणतव किं ददामि कस्य वस्तुनः सांप्रतं तवार्थ: ततः स महाबल उवाच इच्छा नितात कुत्रिकापणात् एकेन लचेनपतद्ग्टहं एकेन लक्षेण रजोहरणं एकेन लक्षण काश्यपाकारणमिति ततीबलराजा कौटुम्बिक पुरुषै स्वोष्यपि वस्तूनि प्रत्येकं एकैकल क्षेण आनायितवान् ततः स काश्यपोवसुभूतिनामा बलेन राज्ञाभ्यनुज्ञातोऽष्टगुणापोतिकेन पिनड मुखश्चतुरंगुल व केशान् महा बल मस्त केचकर्त्त प्रभावतीतान् केशान् हंसलक्षण पटशाटके प्रतिक्षिपति तञ्चवस्त्रं स्वौर्षकस्थाने नश्यति ततः स महाबलोगोशोर्ष चन्दनानुलिप्तः सर्वा लङ्कार विभूषितः पुरुष सहश्रवाह्यां शिविकामारूढ एकयावर तरुण्याष्टता तपत्त्रोद्दाभ्यां वरतरुणौभ्यां चाल्यमान वरचामरो मातृपितृभ्यां अनेक भट्ट कोटि परितः प्रव्रज्या ग्रहणार्थं चलित तदानीन्तं नगरलोका एवं प्रशंसन्ति धन्योयं कृतार्थोयं सुलब्ध जन्मायं महाबलकुमारोयः संसारभयोद्दिम्न सर्व्वं सांसारिकविलासमपहाय प्रथमवयः स्थएवं परिव्रजति एवं लोकैः प्रशंस्यमाण प्रलोक्य मानोंगुलीभिर्दृश्यमान: पुप्फफलेषु विकीर्यमाणेषु याच के भ्यश्च स्वयं दानं ददत् हस्तिनागपुरं मध्य मध्य निर्गच्छन् धर्मघोषा नगारांतिके समायातः शिविकातः प्रत्यवतीर्णः ततो महाबलं कुमारं पुरतः कृत्वा मातापितरौ धर्मघोषम नगारं वन्दित्वा एव मवदतां भगनैषमहाबल कुमारः संसारभयोद्दिग्नः कामभोगविरक्तो भवदन्तिके प्रब्रजितु मिच्छति तत इमां शिष्य भिचां वयं दद्मः स्वीकुर्व्वं तु भवन्तः धर्म्म घोषा नगारएव मुवाच यथा सुखं देवानुप्रिया माप्रतिबन्ध कुरुत ततः स महाबलष्टं तुष्टो ध
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राच धनपतसिंह बाहादुर का भा० स० उ० ११ मा भाग
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उ० टोका २०१८
५६७
सूत्र
भाषा
RAVUREXXX
घोषमनगारं वन्दित्वा उत्तरपूर्वदिगंतरालेऽपक्रम्य अलंकारवर्ग मुत्तारयति अश्रूणि मुञ्चन्तौ प्रभावतौ देवौ उत्तरीयवस्त्रे तमलंकारवर्ग प्रक्षिपति महाबल कुमारं प्रत्येव मवदत् पुत्र अवार्थे विशेषाइटितव्यं यतितव्यं अवार्थेन प्रमाद्यं ततः स महाबलः पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति धर्मघोषा नगरा न्ति समागत्य एव मवादीत् भगवन्रयं लोक प्रदोष प्रदीप्तौ जरामरणग्रस्त यास्तीति स्वयमेवमां प्रव्राजयतः ततः स धर्मघोष सूरिस्त स्वयमेव प्रब्राज्य समाचारोम शिचयत् तता महाबलो नगारजातः पञ्चसमिति त्रिगुप्तियुक्तः क्रमेण चतुर्दशपूर्वधरथाभूत् बहुभिचतुर्थ षष्टाष्टमादिभिर्विचित्र तपः कर्म भिरामानं भावन् दादशवर्षाणि श्रामख पर्याय मनुपालयन् अन्त मासिक्यासं लेखनया आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ब्रह्मकल्प दशसागरोपमस्थितिको देवो बभूव ततसुरतश्च श्रेष्टि कुलेवाणिज ग्रामे पुत्रत्वे नोत्यवः तत्र सुदर्शन इति कृतनामोन्मुक्त बालभावः श्रमण भग वतः श्रौमहावोरस्यान्तिके प्रव्रजितः क्रमेण सिद्धश्वेति महाबलकथा कहधीरे अहेऊहिं उम्मत्तव्व महिंदरे एए विसे समादाय सूरादढ परकमा ५२ हे महामुने एते भरतादयः सूराः धैर्यवन्तः पुनर्दृटपराक्रमाच संयमे स्थिरवीर्यभाजो बभूवुरितिशेषः किं कृत्वा विशेषं मिथ्या दर्शिभ्योजिनमतस्य विशेषं गृहीत्वा मनस्याध्यायः तस्मात् हे महामुने धीरः साधुः अहेतुभिः क्रियाः १ प्रक्रिया २ विनय ३ अज्ञान प्रमुखः कुत्सितहेतुभिर्विपरीतभाषणैरुन्मत्त इब मद्यपानौ वमह्यां पृथिव्यां कथञ्चरेत् अपितु स्वेच्छया यथा तथा प्रलपनपरायणः सन् न चरेत् तस्मात् त्वयापिधोरण सता तत्रैव निखितं विधेयं चरे । एए विसेस मादाय सूरा दढ परक्कमा ॥ ५२ ॥ अच्चंत नियाण खमा सच्चामे भासिया वई । अतरिंसु तरि पृखो गच्छेत् उन्मत्तनो परिं पृथ्वीं इविचरे एते भरताद्या विशेषमादाय भरतादिकराजवौनो विशेषलेईने शूराः दृढ पराक्रमाः सूरवीर दृढ तु परा क्रमकरे ५२ अत्यंत निदान कर्म मलशोधनचमाः अत्यंतनियाणाकर्मतेह रूपजेमलते दूरिकोधाकेनियाणारहित सत्य मया भाषितावाचः अही
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राय धनपतसिंह बाहादुर का अर०सं००४१ मा भाग
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6 इतिहाई ५२ अच्च तनियाण खमा सञ्चामभासियावई अरिं मुतरतेगे तरिस्मन्ति प्रणागया ५३ हे मुने मेमया सत्यावई इति सत्यावाक् भाषिता * प्राक्तत्वात्तृतीयायां षष्टो जिनशासनं एव पाश्रयणीय इत्येवं रूपावाणी मयोक्ता अनया वाण्या अनौक्ततया बहवोजना अतरन् संसारसमुद्र तरन्ति स्म एके अनवावाण्या इदानीं अपितरन्ति अनागता अपि अग्रे भाविनी भव्या अपि अनयावाण्या भवो दधिंतरिष्यन्ति कौशास्ते भूतभविष्यत् वर्तमान जना: अत्यन्तनिदान क्षमाः अत्यन्त निदानं कर्ममलशोधनं तत्र क्षमाः कर्ममल प्रचालन सावधानाः नितरां दीयते शोध्यते पवित्री क्रियते आत्माऽने
नेति निदानंदैप शोधने इत्यस्यरूपं ५३ कहंधोरे अहेऊहिं अत्ताणं परिपावसे सञ्चसंगविणिन्मुक्के सिद्धेह बदनौरएत्तिमि ५४ धौरः साधु: अहेतुभिः 8 क्रियावाद्यादि कुमतिनां वाचोयुक्त्य सत्प्ररूपणा लक्षणेमिथ्यात्वस्यकारणैः प्रात्मानं स्वकीयमात्मानं कथं पर्या वासयेत् कुत्सितहेतूनां आवासं प्रात्मानं कथं कुर्यात् अपितु न कुर्यात् इत्यर्थः किमित्य स्थितस्य फलंस्थादित्याह सर्वसंगै व्य भावभेदेन संयोगैः संयोगेभ्योवा विशेषेण निर्मुक्तः सर्वसंग विनिर्मुक्त:
तत्र व्यसंगोधनधान्यादिरूपः भावसंगः क्रियावादि मिथ्यापुरुपणारूप: ताभ्यां उभाभ्यां संगाभ्यां विनिर्मुक्त: सर्वसंग विनिर्मुक्त: सन्साधुः सिद्धो भवति 8 कर्मम लापहारेण नीरजा निर्मल: स्यात् उज्वलो भवेत् इत्यादि उपदेश दत्वा क्षत्रिय मुनिर्महीतले विजहार संयतमुनिरपि चारित्र पुपाल्यमोक्षं पाप
तेगे तरिम्मति अणागया ॥ ५३॥ कहं धीर अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे । सम्वसंग विणिमुक्के सिद्ध हवडू नौरए 8 संयतो एमे भाषावाणों साचौक होके इमां पाराध्य तीर्णा एकतरंति इदानी एहवाणीने पाराधीकएकजीवतखाछे तरिष्यति अनागत काले * संसार समुद्र एकतोहवणांतरछे आगतकालेतरस्थे५३ कथं धौरः अहे तुभिः परिकल्पित हेतुभिः किमचतुर प्रात्मानं पर्य' वासयेत् वासं कुर्यात् कल्पित * वाते करीने कल्पितधर्मे करी आपणा पात्माने वासनहीं सर्वसंग विनिर्मुक्तः सन् सर्वस'ग रहितहोईन सिद्दीभवति नौरजः इति ब्रवीमिसिद्धहोई मुक्त
नपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ.४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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उल्टौका अ.०१८ ५८८
इति सुधर्मास्वामौ जम्बूस्वामिनं प्राह हे जम्ब अह ब्रवीमि इति परिसमाप्तौ ५४ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दौपिकायां उपाध्याय श्रौलमौकीर्ति 8 गणिशिष्य लक्ष्मोवल्लभगणि विरचितायां संयतोयाध्ययनं अष्टादशं अर्थातो व्याख्यातं १८ अवैकोनविंशतितमं कथ्यते अष्टादशेऽध्ययने भोगींना त्याग
उक्तः भोगडि त्यागात् साधुत्व स्यात् तत्साधु त्वं हि अप्रति कर्म तया स्यात् तत एकोनविंशति तमे अध्ययनेनिः प्रतिकर्मतां मृगा पुत्र दृष्टांतन कथयति सुगौवेनयररम्भ काणणुज्जाण सोहिए राया बलभहोत्ति मियातस्मग्गमाहिसौ १ सुग्रीवेनाम्नि नगरे बलभद्र इति नामा राजा भूत् कीदृशे सुग्रीवे नगरे
रम्ये रमणोये पुन: कोदृशे काननोद्यानशोभिते तत्र काननं वृहत् वृक्षाणां आम राजादनादितरूणां वनं उद्यान नानाविध पादपलतादीनां वनं 8 अथवा क्रीडा योग्यवनं वा उद्यानं उच्यते ततः कानन च उद्यानं च काननीद्यानताभ्यां शोभितं काननीद्यानथोभितं तस्मिन् तस्य बल भद्र भूपस्य*
त्तिवेमि ५४ ॥ संजज्ज झयणसम्मत्तं ॥ १८ ॥ मुग्गीव नयर रम्म काणणुज्जाण सोहिए । राया बलभहोत्ति मिया तस्मग्गमाहिसी ।१॥ तेसि पुत्ते बलसिरीमियापुत्त त्ति विस्मए। अम्मापिऊणदइए जुवरायादमीसरे ॥२॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
©जाई कर्मरहितहोइने ५४ इति सजति राजा वर्णनं अठारमए अध्ययन संपूर्णम् सुग्रौवे नगर मनोहरे सुग्रोवइसे नामे नगरछ रम्य मनोहरके
काननीद्यान शोभित बहत् वृक्षायये वने वागवाडी बक्षतिण करीने सहितके राजा वलभद्र इति नामातनगरीने बिखे बलभद्र राजाछ मृगा वती सस्थराज्ञी अग्रमहिषी मृगाववतौइस्ये नाम तेहने पटराणीछे १ तेषां पुत्री बलश्रीनाम तेहने पुत्र वल्लीइस्यै नामेछे लोके मृगा पुत्रेति विख्यातः लोकने बिखे मृगापुत्र प्रसिह इत्री अंबापित्रीः मात्र जनकयोः मातापिताने दयिता बल्लभन वाल्हीछे पितायेदीनी युवराजायतौखरी दमितेंद्रियः युव
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उ० टौका
अ०१८ ५७०
सूत्र
भाषा
*******X*X*X*X40
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मृगानाम्नो अग्र महिषो अभूत् महिषौ पट्ट राज्ञौ अग्रा प्रधाना स चासो महिषी च अग्र महिषी १ तेसिं पुत्तेबल सिरी मिया पुत्तेति विस्म ए म ऊणदइए जुवरायादमौसर २ तेसिं पुत्ते इति तयोर्बल भद्र मृगाराजयोः पुत्री बल श्रीनामा आसीत् बल श्रीतिमातापितृभ्यां कृत नामा सबल श्रौलोक विश्रुतो लोकः प्रसिडो मृगा पुत्र इत्यभूत् मृगाया महाराजयाः पुत्रोटमा पुत्रः लोकास्त' मृगापुत्र मित्य चुरित्यर्थः कीदृशी मृगा पुत्रः अस्माि कण इति मातापित्रोर्दयतो वल्लभः पुनः कीदृशः युवराजः युवाचा सौराजा च युवराजः कुमार पदधारकः पितरि जीवति सति सन्ध योग्यः कुमारो युवराज उच्यते पुनः कौदृशः दमोविद्यते येषां तेदमिनस्तेषां ईखरोदमीश्वरः उपसमवतां साधूनां ऐश्वर्यधारी अत्र कुमारावस्थायां एव दमौखर पूर्ति विशेषणं उक्त तत्तुभाविनि भूतोपचारात् श्रथवाऽत्र द्रव्यनिक्षेपो ज्ञेयः द्रव्यजिनाजिनजोवा इति वचनात् १ नन्दले सो उपासाए कौलए सह इथि हिं देवोदो गुन्दगोचैव निचं मुख्यमाणसो ३ मणि रयण कुट्टिमतले पासाएलोयडिओ आलोए इनगरस्म च उक्कति य चच्चरे ४ उभाभ्यां गाथाभ्यां संबंध: स मृगापुत्रः कुमारो नन्दने विशिष्ट वास्तु शास्त्रोक्त सम्यग् लक्षणोपेते प्रासादेराजमन्दर स्त्रीभिः सह क्रीडते कइवदोगुन्दुकदेव द्रव त्रयस्त्रिंशक सुरइब इन्द्रस्य पूज्यस्थानीया देवा स्वायस्त्रि' शकादीगुन्दकाऽप्युच्यन्ते पुनः कीदृशः सः नित्य मुदितमानस: निरन्तर कृष्टचित्तः एतादृशोमृगा पुत्रः प्रासादा लोकनेस्थितः सन् नगरस्य चतुष्कत्रिक चञ्चरान् आलोकते प्रासादस्य आलोकने गवाचेस्थितः स नगरस्य चतुष्कादिस्थितानि कौतूहलानि पश्यति नंदणे सोउपासाए कौलए सहइत्यिहिं । देवादीगु दुगोचेव निञ्चंमुद्रय माणसी | ३ || मणिरयण कुट्टिमतले पासाया राजाके इंद्रीजिणे जौतौछे दमो कहिये योगौ तेहनो स्वामीछे २ सम्मृगापुत्रः वासे आनंदोत्पादके भवने क्रौडते ते मृगापुत्रने हर्षनो ऊपजावणहारो महल क्रौडते सहस्त्रौभिः स्वौ सहितते महलमांहिं क्रौडाकरेछे देवादोगुदकइव दोगंदक देवतानोपरि नित्य मुदितमानसः नित्यें सदा हर्षित को
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सूत्र
भाषा
COFFEE Of
कौदृशे प्रासादालोकनेमणिरयण कुट्टिमतले मण्यश्च रत्नानि च तैः कुट्टितं जटितं तलं यस्य तत् मणिरत्न कुट्टिमतलं तस्मिन् ४ श्रहतत्य इच्छं तं पासई समणसच्चयं तव नियमसज्जमधर सोलड गुण आगरं ५ श्रथानंतरं सम्मृगा पुत्रः कुमारस्तत्र तस्मिन् चतुष्कत्रिक चचरादौ अइच्छन्त' अति क्रामन्त ं विचरन्त ं श्रमण ं पश्यति कीदृशं श्रमण संयतं जीवयतनं कुर्व्वन्त संयतं इति विशेषणे नवीतराग देवमार्गानुसारिण' मनु शाक्यादि मुनि पुनः कीदृशं तपोनियम संयमधरं तपो बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधं नियमोद्रव्यक्षेत्रकाल भावेन श्रभिग्रह ग्रहणं संयमः सप्तदशविधः तपखनियमच संयमश्च तपोनियमसंयमास्तान् धरतीति तपोनियम संयमधरस्तं पुनः कोट्टमं शोलाब्यं शौलैः अष्टादश सहस्र ब्रह्मचर्य भेदैः आव्य ं पूर्ण ं पुनः कीदृशं लायणेठिओ | आलाइए नगरम्म चक्क तियचञ्चरे ॥४॥ अहतत्थ अइच्छ' तं पासद् समण संजयं । तवनियम संजम धरंसौलडूं'गुण आगरं |५|| त देहईमिया पुत्ते दिट्ठीए अणमिसाइए । कहिमन्नेरि संरुबंदिट्ठ पुव्वं मरपुरा ||६|| साह भोग भोगवेछे मृगापुत्र ३ स मृगापुत्रः मणिवद्दपौठे मणौरत्न करौजडीतके आंगणो जेहनो प्रासादावलोकने गवाचि स्थितः प्रासादनोगो खडोझरांखे बैठाई' आलोकवतो नगरस्य नगरने देखे के चक्कत्रिक चञ्चराणि चउक्कत्रिक चाचरहाट प्रमुख ४ अथ तत्तत्त्रिकादिषु आगच्छ पंहिवेंते मृगापुत्र चउक हाटने विखे आवता पश्यति श्रमणं संयतं देखे एकजतीने तपो संयम धरंयतौकिस्याहे तपनियम संयम तेहना धरणहार शौलयुक्त गुणानां आगारं शौले करौस'युक्त गुणनो आगरके ५ तं ऋषिं मृगापुत्रः पश्यतितेहने मृगापुत्र देखेके दृष्ट्यामेषोन्मेषरहितया मेषोन्मेष रहित दृष्टि करोने कथं एवं मन्य ईदृशं रूपं किंहांइ एहवो स्वरूप दृष्ट ं पूर्व प्राग्जन्मनि दौठहतू पाहिले भवे ६ साधोः दर्शने तस्य मृगापुत्रस्य साधूने दर्शने करोते मृगापुवने शोभने
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प्राय धनपतसिंह बाहादु" का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ.टोशा
४. गणाकरं गणानां ज्ञानदर्शनचारित्र गुणां आकर खनि शदृशं ५ तं देह ईमिया पुत्ते दिट्ठोए अणिमिसाइएकहिं मन्त्रेरिसंवटि व मा
मृगा पत्रस्त मनिं अनिमेषया दृश्या देहई पण्यति दृष्ट्वा च एवं विचारयति क्वचित् एतादृशं रूपं मया दृष्ट पूर्वे अहं एवं मन्य जानामि मनि' दृष्टा प्रमदितमनाः अभूत् पूर्वपरिचितमिव मुनि मेने इत्ययः ६ साहुम्मदरिसणतस्म अज्जवसाणं मिसीहणे मोहं गयस्म सन्तस्मजाई सरण समुप्यन७ तस्य* मृगापुत्रस्य कुमारस्य तस्य साधोदने जाति स्मरणं समुत्पत्रं प्राग् भवस्मरणज्ञान सञ्जातं तस्य कथं भूतस्य सत: शोभने अध्यवसाये समीचौने मनसः परिणामेक्षायोपशमभावे मोहं मूङ्गितस्य प्राप्तस्य सतः मीहं क्वायं मया दृष्ट इति चिन्ता सामूत्मिक कोर्थः पुरासाधीदर्शनं जातं दर्शनात्मम्यगर मनः परिणामोभूत् तदाच मूर्छा उत्पन्ना तस्यां मूळयां जाति स्मृतिरभूदिति भावः ७ देवलोगचुश्री सन्तो माणुस्मम्भवमागो सन्निनाण समुष्पन्ने जाईसरण' पुराणयं ८ किं तत् जाति स्मरण' तदाह अहं देवलोकात् च्युतः सन् मानुष्यं भवं पागतः इति संन्निज्ञाने समुत्पत्रे सति पुराणक'
स्मदरिसणे तस्म अज्भवसाणं मिसोहणे । मोहंगयस्म संतस्म जाई सरणं समुप्पन्नं ।॥ देवलोग चुओसंती माणसंभव मागओ सन्निनाणसमुप्पन्न जाईसरणं पुराणयं ।८॥ जाईसरणेसमुप्पन्नेमियापुत्तेमहडिए सरईपोराणियं जाएं सामन्नं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
भाषा
अध्यवशावे भलेऽध्यवसाई करौने अंतःकरण परिणामो परिए गमने विखे करौने मूर्छा आवौ जातिस्मरणं उत्पन्न जातिस्मरणज्ञान ऊपनु' ७ देवलो कात् च्युतः सन् देवलोकहती चव्योषको मनुथ भवे समागतः मनुष्यने भवे आव्यो सम्यग्ज्ञाने समुत्पन्नो सम्यग् भलोजातिम्मरण ऊपनो जातिस्मरति पौराणिको पाछली आपणों जातिस्मरी सांभली ८ जातिस्मरण समुत्पन्न: जातिस्मरण ऊपने धके मृगापुत्री महर्षिक: मृगापुत्र महाऋहिनो धणी
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6.टौका अ.१८ ५७३
प्राचीनं जाति स्मरणं अभूदिति शेषः संजिनीगर्भ जपञ्चेन्द्रियस्य ज्ञानं संनिज्ञान तस्मिन् संन्निनाने ८ जाई सरण समुष्पन्न मिया पुत्ते महडिए सरई पोराणियं जाई सामबच्च पुराकयं ८ मृगापुत्री महईि को राज्य लक्ष्मौ युक्तः पौराणिकी प्राचीनां जाति स्मरति किं स्मरति मया वामन्च चारित्र पुराततं पूर्व पालितमभूत् क्वसति जातिस्मरणे ज्ञानसमुत्पने सति सञ्जाते सति । इत्यत्र पाठांतरमस्ति गाथायाः पुनरुक्तित्वात् विसएसु अरज्जन्ती रजंतोसञ्जमं मिय अम्मापि उरं उवागग्म इमं वयण मव्ववौ १० सृगापुत्रः अम्मापि उरं मातापितर उपागत्यसमौपमागत्य इदं वचनं अब्रवीत् किं कुर्वन् विषयेषु अरजन् विषयेभ्यो विरक्ती भवन् च पुनः चारित्रे संयमरजन् साधुमार्गे प्रौतिं कुर्वन् इत्यर्थः । सुयाणि मे पञ्चमहब्बयाणि नरएसु दुक्खञ्चतिरिक्त जोणि सुनिचिनकामी महबवाप्रो अणुजाणहपव्वइस्मामि अम्मो १० है पितरौ मे मया पश्च महावतानि प्राग् जन्मनि श्रुतानि नरकेषु पुनस्तिर्यग् योनिषु दुक्ख भुक्तमभूत् ततोहं निर्विनकामीस्मि निवृत्तविषयाभिलाषीस्मि अहं महार्णवात् संसार समुद्रात् प्रजिष्यामि निस्त रिष्यामि यूयं अतोमां अनुजानीत आज्ञा दत्त१० अम्मतायम एभोगा भत्ताविसफलोवमा पच्छाकड्यविवागा अणु बन्ध दुहावहा ११ हे पितरौ मया पूर्व भोगाभुक्ता
च पुराकयंट। विसएहिंअरज्जतोरज्जतोसंजमंमियअम्मापियरंउवागम्ममंवयणमब्बवी १०॥ मुयाणिमपंचमहब्वयाणि स्मरति पौराणिको जातिं पाछिलो जाति जन्न सांभरोसामन्य चारित्र पुनः पूर्वजन्मकृतं वली पालीत्व भवे जे चारोत्र पाल्यु इतु ते सांभयुस कुमारः विषयेषुरागंऽकुर्वन् ते कुमार बिषयने बिखे पराङ्मुख धको विषयची मनउतखो रज्यमानः संयम संयमने बिखेरा चतुथको मातापित्रीः समीप आगत्य मातापिताने समोपे आवौने इदं वचनमब्रवीत् एहवी वचन कहवालागी १० स्मृतानि मयापंचमहाब्रतानि पंचमहाव्रत मुझने सांभयां नर
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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उ. टीका अ०१८
* कोया भोगाः विषफलोपमाः विषफलै रूपमोयते इति विष फलोपमाः पूर्व भोगसमवे मधुरा परं पश्चात्कट कविपाकाः कट कोविपाको येषां ते
कटुकविपाकाः प्रान्त दुःक्व दाइत्यर्थः अथ पुनः कीदृशाः अनुबन्ध दुक्खावहाः अनुवन्ध निरन्तर' दुःखस्य आवहादायकाः अविच्छिन्न दुक्खदायिनः११ 8 इम' सरोरं अणिच' असई असुर सम्भवं असासयं वासमिण दुक्व केसाण भायण १२हे पितरौ इमं घरोरं अनित्य अथावतं पशुचि अपवित्र *च वत्तेते पुनरिदं शरीरं अशचि सम्भवं अशः शुक्र रतः सम्भूतं पुनरिदं शरीर' अशावतावासं अथावत: अनित्यः आबासी जीवस्य निवासो यस्मिन्
तत् अथाखतावास पुनरिद शरीर दुःक्व के थाना भाजन दुक्वानि जन्मजरामृत्यु प्रमुखाणि क्लेमाः धनहानि स्वजन वियोगादयस्तेषां भाजनं स्थान
नरएमुदुक्खं च तिरिक्खजोणिसु निम्विन्नकामोमि महन्नवाओ अणुजाण हपव्वदूस्मामि अम्मो ११॥ अम्मतायमएभोगा भुत्ता विसफलीवमा | पच्छाकडुयविवागा अणुबंध दुहावहा १२॥ इमं सरीरं अणिच्च अमुई असुसंभव पसासया
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KAKKRRRRRRRRRKKKKKRE
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
केषु दुक्व' वलीनरकना दुक्ख प्तभिखा तिर्यग्योनिषच अनेतियं चनौयोनिना टुक्ल सांभस्यां निस्तरणाभिलाषोऽस्मिन् महार्णवात् संसार सागरात् एसं * सारसमुद्र थी नीकलणहारछु' हे मात हेतात अनुजानौत प्रब्रजीथामौ हे मातापोताह दीक्षालेईस मुझने पानादौजे ११ हे मात हे माहरा तातमए
भोगाः हे माता पिताम भोगव्या भुक्ताः विषफलसदृशाः किस्थाई विषफलसरौखाछे पश्चात् कट क विपाका कट रमाभोगवा मोठालागे पछे घण कड़ाहोये रसतेहनो कड़ो अनुबंध परिणामे दुक्खकारण जिवारे परिणमे तिवारे दुक्खदौई १२ इमं शरीरं अनित्य एशरीर अनौत्यछ अपवित्र
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५७५
टोका अथवा दुःक्व है तबोये क्ल चारोगास्तेषां भाजन १३ असामए सरीर मिरइनवलभामिहं पच्छापुराचच इब्वे फेणबुब्बु यसबिभे १४ हे पितरौ अहं अ०१८ अशाश्वते शरीररति नलभामि अहं स्वास्थान प्राप्तोमि पुनः कौदृशे सरौरे पश्चाद्भोग भोगानन्तर' पुरा पूर्व भोगभोगात् अर्वाक एवत्यक्तव्ये पुनः
* कीदृशे शरौरे फेन बुदबुदसबिभे पानी प्रस्फोटक सदृशे १४ माणु सत्ते असारंमि वाहौरोगाण आलए जरामरणपत्थंमि खणपिनरमामिहं १५
हे पितरौ असारमनुष्यत्वे अहं क्षणमपि नरमामि न हर्ष भजामि कोदृशे मनुष्यत्वे व्याधिरोगाणां पालये व्याधयः कुष्ट भूलादयो रोगावातपित्त 8 श्लेमज्वरादयस्तेषां यह पुनः कोदृये मनुष्यत्वे जरामरणाभ्यांग्रस्ते १५ जम्मदुक्खं जरादुक्ख रोगाय मरणाणिय अहो दुक्खोहु संसारो जत्यको सन्ति
वासमिणं दुक्खकेसाणभायणं १३।। असासएसरीरंमिरहूनोबलभामिहं। पच्छापुराचचयब्वो फेणबुब्बुय संनिभे १४॥ सूत्र
माणुसते असारंमिवाही रोगाण आलए जरामरणपत्य मि खणंपि नरमामिहं १५॥ जम्मदुक्खंजरादुक्खं रोगाय मर शुक्रशोणित संभवंति वली किस्यु अपवित्रछे शुक्रशोणित नुउपके असाखतावास जीवस्य एजीवतव्यनो अभाव तुवासले दुक्खनी शानु भाजन' दुक्खअने क्लेस तेहनु'भाजन घरले १३ असाखते शरीर एशरीर प्रसास्वत छे चित्तस्वस्थ न प्राप्नोति चौत्तने विखे साखती सतीष नपांमुछु पश्चात् भुक्तभोगी तयात्यजनीय पदहलांपछे एशरोरने अवस्य छोडस्य फेनवुवुदसबिभं एजीवतव्य पांणीनापरपोटा सरोखूछे १४ मानुस्यत्वे असार एमनुष्य पण असा रके याधिरोगानां ग्रहे एशरोरव्याधि रोगनु घरछे जरामरणग्रस्त : जराने मरणतिण करीग्रस्तछे अहं क्षणमात्रमपिनरमसुखं न लमहं क्षणमात्रपणि सुखनथी पामत १५ जन्मदुक्ख जरानुदुक्व जन्म:जरानु'दुक्व रोगाणि मरणाणिच रोगनी दुक्ख मरणनुदुक्य अही इति विस्मयोदुखहेतु संसाराः एसंसार
हाङ धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका अ०१८
K644666003808686436303082436
जन्तुको १६ हे पितरौडु इति निश्चयेन संसारी दुःख दुःख हेतु वर्तते अहो इति आश्चर्ये यत्र संसारजौवाः क्लिश्यन्ति के शं प्राप्त वन्ति संसार किं किं दुःख तदाह जन्मदुख जरादुक्ख पुनः संसार रोगास्तापयोतशिरोति प्रमुखाः पुनमरणानि च एतानि सर्वाणि दुःखानि यत्र सन्ति तस्मात् अयं संसारो दुःख हेतु रेवः यत्र भव भ्रमणे जौवाः क्लियन्ति ल शार्ता भवन्ति १६ खित्त व हिरणञ्च पुत्तं दारं च बन्धषा च इत्ताणं इस देहं गन्तवम वसस्ममे १६ हे पितरौ मे मम अवश्य परवशस्य सतो: परभवे गन्तव्य किं कृत्वा क्षेत्र ग्रामवाटिकादिकत्व का पुनर्वास्तु गृहं हिरण्य रूप्य स्वर्ण पुत्रदारं पुत्र कलत्रं च पुन र्बान्धवान् स्वज्ञातीन् भ्रातपि व्यान् इमान् सर्वान् त्यक्ता इमं देह सरीरं अपित्यक्ता १७ जहा कि पाकफलाण' परिणामो न सुन्दरो एवं भुत्ताणभोगाणं परिणामो न सुन्दरी १७ है पितरौ यथा किं पाकफलानां विषवृक्षफलानां परिणामी भक्षणानन्तरं परिणति समयः सुन्दरी न भवति एवं भुक्तानां भोगानां अपि परिणामः सुन्दरी नास्ति यादृशं विषफलानां भक्षणं तादृशभीगानांभोगः किं पाकफलानिधि दर्थ
णाणिय | अहो दुक्खोहु संसारो जत्यकीसंति जंतुणो १६ ॥ खित्तवत्यु हिरन्नंच पुत्तदारंच बंधवा । चत्ताणं इमं देहं गतब्ब मवसरममे १७॥ जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो एवंभुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरो १८।।
य धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
ॐ सर्वदुक्ख हेतुछे यत्र संसार क्लिश्यंति जोवाः एह संसारने विखे जीव क्लेशपामे के १६ क्षेत्रवस्तुग्रहादि सुवर्ण खेतध रसोनु पुतान् स्त्रियः भ्रातादय: पुतु स्त्रीभाई तक्वाइदंदेह एदेहोछोडीने गंतव्य अवस्यमेव अवस्य परलोकमै जाय १७ यथा किंपाकफलानां जिमकिपाकफ क्षनी विपाको नस्यात् सदरः जोमकोंपाकफलनु विपाक परिणमैते भला नहीं एवं भूक्तानां भोगानांइमभोग भोगव्यानो विपाको नस्यात् सौंदरः परिणाम सदर भलोन १८
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उ०टीका अ०१८
५७७
सूत्र
भाषा
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न रमणीयानि भचणसमयेपि सुखानि भवन्ति भुक्त रनन्तरं प्राणापहारीणि तथापि विषयसुखान्यपि १७ अड्डायं जो महन्तन्तु अपाहिजपवाई गच्छन्तोसेदुद्दौहोइ छुहातन्हाए पौडियो १८ हे पितरौ यः पुरुषो महान्तं' अध्वानं दीर्घं मार्ग अपाथेयः सम्बलरहितः सन् प्रव्रजति सपुमान् चुधा तृणया पौडितः सन् दुःखो भवति १८ एवं धम्मं अकाऊणं जोगच्छद्र परंभवं गच्छन्तोसेदुहोहोर वाहोरोगेहिं पौडिओ एवं अमुनाप्रकारेण अभं बल पुरुषदृष्टान्तेन यः पुरुषोधर्मं अकृत्वा परंभवं गच्छन्ति अन्यत्जन्मब्रजति सगच्छन् दुःखी भवति कोदृशः सः व्याधिरोगैः पीडितः १८ अडाणं जा महंतन्तु सपाहेज्जो पवज्जई गच्छन्तोसेसुहौहोइ कुहातिन्हाएवज्जियो २० हे पितरौय: पुरुषोमहांतं श्रध्वानं दोघं मार्ग सपाथेयः सम्बलसहितः प्रव्रजति स पुरुषः क्षुधातृष्णाभ्यां विवर्जितः क्षुधातृष्णा विवर्जितः सन् मार्ग गच्छन् सुखी भवति २० एवं धस्म पिकाऊ जो गच्छद्र परंभवं गच्छन्तोसे सुहौहोइ अप्पकश्मे अवेयणे २१ एवं अमुना प्रकारेण अनेन सम्बल सहित नरदृष्टान्त न योमनुष्यो धर्मं कृत्वा परं भवं परलोक' गच्छति स धर्माराधकः
अद्वाणंजो मह`तंतु अप्पाहिज्जो पवज्जई गच्छतोसेदुहीहोइच्छुहातग्रहाहि पौडिओ १६ ॥ एवं धम्म' अकाऊणं जो गच्छइ परंभवं । गच्छ ंतोसे दुहौहोइ बाहौरोगेहि पीडिओ २० ॥ अडाणंजो महंतंतु सप्पाहिज्जो पवज्जद्र गच्छ तो मार्गेय पुमान् महांतंगरिष्ट'जिको मनुष्यमोटेमार्गे अवलं गच्छति मंबले करो रहितजाइ गच्छन् सन् सदुक्लौभवति जातुथकोते दुक्खौथाइ क्षुधा णाभ्यपोडित: भूखेषाद्र पौड्योथको १८ एवं धनं श्रवाइम धर्म अणकोधां यः परलोकं गच्छति परलोकने विखेजेजाय गच्छन् सन्सदुक्खी भवति जातुथको दुःखोहोर व्याधिरोगाम्यां पौडितः व्याधिरोगेपिव्योषको २० अध्वनिमार्गेयः महतिमोटा मार्गनेबिखे सपाथेयः मंबलं सहितो मंबलपांणों लेईने
७३
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टोका
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8 पुरुषः सुखोभवति कीदृशः स अल्पकर्मा अल्पानि कर्माणि यस्य स अल्प कालघु कर्मा पुनः कीदृशः स अवेदनः नविद्यते वेदना यस्य स अवेदन:
अल्पवेदनी वेदनारहितो वा अल्प पाप कर्मा अल्पासातावेदन इत्यर्थः २१ जहागहेपलितमि तस्मगहम जोपहसारभण्डाणिनीछि असारं उव उज्मई २२ हे पितरौ यथा रहे अग्निना प्रदीप्त प्रज्वलिते सति तस्य गृहस्य यः प्रभुः स्वामौतदासारभण्डानि सारपदार्थान् प्राजीविका हेवून गृहात् नोणइ निकासयति असारं भाण्ड अपोति अपीहतित्यजतौत्यर्थः २३ एवं लोए पलितमि जराए मरणेणय अप्पाणन्सार इस्मामि तुभ हि अण मन्त्रिी २ ४ एवं अनेन दृष्टांतेन लोके जरयामरणेन च प्रदीप्त प्रज्वलिते सति अहं आत्मानं तारयिष्यामि कीदृशोहं युष्माभिरनुमतः भवद्धिः दत्तान स्तस्मात् मह्य आज्ञादातव्या अहं भवदान्जया आत्मन उद्धारं करिश्थामौति भावः २ ४ तं विन्तम्मापि यरो सामनं पुत्त दुचरं गुणाणतु सहस्माई
सेमही होइ छुहातन्हाए वज्जिओ २१॥ एवं धम्म पिकाऊणं जोगच्छद्र परंभवं | गच्छतोसे मुहीहोड़ अप्पकम्म अवे
यणा २२ जहागेहे पलितमि तस्मगहस्म जोपहूसारभंडाई नौणे । असारं अवउज्झाई २३। एवंलीए पलितमि जाय गच्छन् स सुखो भवति जाइती सुखीही क्षुधात्रीषा विवर्जितः भूखत्रौपाई करौरहित २१ एवंधर्ममपिक्त्वाइमधर्मकरीने योगच्छति परभवे जजाई परलोकने विखे गच्छन् सखो भवति जाताथको जीवसुखौहुवे अल्पका अल्पवेदना थोडा कर्म थोडौबेदना २२ यथा यह प्रज्वलिते जिम कोईने घरे अग्निलागौहुवे तस्य गृहस्ययः स्वामी तेहना घरनी स्वामौ सारभंडानि निष्कासयति सारप्रधांनभांडावस्तकाढेतिम असारं सर्वत्यजति असार सर्ववस्तु छांडे २३ एवं लोके प्रदीप्त इमलोकने विखे अग्निलागौछे जरायामरणानिच जरावने मरणरूप आगिलागीछे आत्मानं भांडतुल्य तारयिष्यामी
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा०सं० २०४१ मा भाग
भाषा
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FON
धारेयवा इंभिक्षु णो २५ अथ मातापितरौ तं मृगा पुत्र प्रतिब्रूत: है पुत्र थामण्य' दुचरं साधुधर्मो दुष्करोस्ति हे पुत्रचारित्रस्य उपकारकारकाणां उ टोका
गुणानां सहस्राणि भिक्षोर्धारितव्यानि मूल गुणाश्चोत्तर गुणाश्च भिक्षुणाधारणीयाः २५ समया सव्वभूएसु सत्त मित्ते सुवाजगे पाणाइ वाइ विरई जावज्जोवाइ दुक्कर २६ पुनहें पुत्र सर्वभूतेषु समता कर्त्तव्या अथ वाजगे इति जगति शत्रु मित्रेषु समता कर्तव्या पुनर्या वज्जौवं प्राणाति पातविरति दुष्करं इति दुकरा २६ निच्चकालप्पमत्तेण मुसावायविवज्जणं भासि यब हियं सब निच्चाउत्तेण दुक्कर २७ पुनर्नित्यकालं सर्वदा अप्रमादित्वेन
जराए मरणोणय। अप्पाणं तारस्मामि तुम्भे हिं अणुमंनिओ २४। तं बितम्मापियरो सामन्न पुत्तदुच्चरं गुणाणंतु सहस्माई धारयव्वाई भिक्खुणो ।॥ २५ ॥ समया सव्वभूएम सत्त मित्त सुवाजगे पाणायवाय विरई जावज्जीवाए
दक्कर २६॥ निच्चंकालप्पमत्तणं मुसावायविवज्जणं भासियब्बं हियंसब्ब निम्बाउत ण दुक्करं २७॥ दंतसोहणमाइस्म * आपणाआत्माने भांडनो परितारे युष्माभ्यांअनुज्ञात तुम्हारीश्रादेसलेइने तुम्हे तुमारो आदेशद्यो२४तं मृगापुत्र प्रतिब्रूतीमातापितरौ हवेमातापिता मृगा भाषा
पुत्रप्रतिइमकह के चारित्र हेपत दूष्करं हेपुतु चारितदीहिलीछे हे पुत्रचारित्र उपकारकाणां गुणानांतु सहस्राणिगुणना हजार मूलगुणाश्चोत्तर गुणाश्च भिक्षु धारयितव्यानिसाधीः साधुने धरणाचे २५ तुल्यता सर्वभूतेषु सर्वजीव ऊपर समताभाव राखे शत्रुमौ षु रागद्वेषाकरणत: यत्र मीत्र छापर सरिता * भाव राखे समता भाव आण ततो लोके प्राणातिपात विरतितिणे कारण प्राणातिपातनी विरती कर यावज्जीवं तु दुकरं जावलीवांद दोहोलि२६
नित्य' कालं ऽप्रमत्तेन सदाइ अप्रमादपणु मृषा वाद विवर्जन मषावाद बजिवो भाषितय हितं सर्च सर्वजीवने हितबोले नित्य सावधानिन
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
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उ.टोमा
अ.१८
मृषा वादस्यविवर्जनं मृषा वाद विवज्जनं कर्तव्य पुनहितं हितकारक सत्य' वक्तव्य पुनर्नित्या युक्त नस्थातव्य तदपि दुष्करमस्ति आयुक्तः क्रियासु * सावधानत्व नित्यं प्रयुक्तो नित्यायुक्तस्थेन स्थातव्य अत्र भाव प्रधान निर्देशोमन्तव्यः नित्य अयुक्तत्वेन स्थातव्यं तदपि दुष्करमित्यर्थः २० दन्तसोहण 8 माइस्म अदत्तस्म विवज्जणं अणवजे सणिज्जस्म गन्हणा अविदुक्कर' २८ हे पुत्र पुनः साधुधर्मे दन्तशोधन प्रमुखस्यापि अदत्तस्य. वस्तु नोपि विवर्जनं
शिलाकामात्र मपि वस्तु अदन न गृहीतव्य अनवद्यं च तत् एषणीयं च अनवद्यषणीयं तस्य अनवद्य षणीयस्य पिण्डादेग्रहणं अपि दुष्कर अनवद्य 8 निर्दूषणं अचित्त प्रामुक एषणीय द्विचत्वारिंशदोष रहितं पिण्ड गृहौतयं तदपि दुष्करमित्यर्थः २८ विरई अबभचरस्म काम भोगरसब्रुण उम्म * महत्वयं बम्भ धारेयबस दुक्कर' २८ हे पुत्र अब्रम्ह चर्यस्थमैथुनस्य विरतिः कर्तव्या सापि दुष्करा हे पुत्र काम भोग रसज्ञेन पुरुषेण उग्रं घोरं बम्भ ब्रह्मचर्य महाव्रत धर्त्तव्य तदपि दुष्करं लब्ध भोगसुखा स्वादस्य भोगेभ्योनिवृत्तिरत्य तं दुष्कराइत्यर्थ: २८ धण धन्नपेसवणे सु परिगह विवजण
अदत्तस्म विवज्जणं अगवज्जे सणिज्जस्म गिम्हणा अविदुक्करं २८॥ बिरई अब भचे रस्म कामभोग रसन्नणा। उग्ग
महब्वयं बभधारयन्वं मुटुक्करं २६ ॥ धणधन्नपेसवर्गसु परिग्गह विवज्जणा | सवारंभ परिच्चायो निम्ममत्त सुदु 8 अति दुष्कर २७ दंतसोधनादेः तणादेःदंतशोधन शलोप्रमुख अदत्तस्य विवज नंअदत्तादानपणि बजे लोइनही अनवद्यस्य एषनौयस्य निरवद्य सूझतो
ग्रहणमपि अतिदुःकरं आहारपाणी लेणो दोहिला २८ विरति ब्रह्मचर्यस्य शौलबतनी विरतीकर कामभोगस्य रसजेन कामभोगनाजाण उग्र महाव्रतं ब्रह्मचर्य उग्रमहाकठिनसौलबुत जाज्जीव सौलपालांदीहिलो धारयो २८ धन्यधान्य प्रेष्यवर्गेषु धनद्रव्य धान्धपशूनासमूह परिग्रहविवजनं परिग्रह
राव धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ. ४१ मा भाग
भाषा
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स.टौका
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* सबारम्भ परिचायो निम्ममत्तं स दुकरं ३० धन धान्य प्रेथ वर्गेषु परिग्रह विवर्जनं कर्त्तव्य' धनं गणिमादि धान्य गोधूमादि प्रेष्य वर्गोदासदास्या
दिवर्गः धनं च धान्य च प्रेष्य वर्गश्च धनधान्य प्रेष्यवर्गास्तेष मोह बुद्ध विशेषेण वजन' एतदपि दुष्कर' पुनः सर्वारंभ परित्यागः कर्तव्यः स चापि * दुष्करः पुनर्निर्ममत्वचिन्तनं दुष्कर नमकश्चिदस्ति अह मपि कस्यापि नास्तौति चिन्तनं दुष्कर ३० चउब्धि हैपि आहारेराई भोयणवजणासन्निही
सञ्चो चेव वजे यञ्चोसुदुक्करं ३१ हे पुत्र पुनः साधुधर्मे चतुर्विध आहाररात्रि भोजनस्य वजनाकार्या असन पानखादिमस्खादिमानां चतुर्ण माहाराणां अपि रात्रि भोजनत्याग एव कर्तव्यः च पुनः सन्निधि त गुडादेः उचितकालाति क्रमेण स्थापनं ततः सविधि चासौ सञ्चयश्च सबिधि सञ्चयः एव निश्चयेन वर्जितव्यः सोपि सुतरां दुष्करः ३१. कुहातणहायसी उण्हं दंसमसगवेयणा अक्को सा दुक्खसिज्जाय तणफा साजल्लमेवय ३२ पुनर्हे पुत्रक्षुधा सहनीयाइत्यध्याहारः तृष्णाषा च सोढव्या सौतोष्ण' सहनीयं दंसमशकानां वेदना सहनीया पुनराक्रोशा दुर्वचना नितत्महनमपि दुष्कर पुनर्दु क्खशय्याइति शय्या उपाययस्य दुक्ख शय्यादुक्वं तदपि सहनौयं संस्तारके ढणस्पर्श दुक्ख पुनर्जल मल परौषहीपि सोढव्यः साधुना ३२ ताडणातज्जणाचेव बहबन्ध परौसहा दुक्खं भिक्खायरिया जायणाय अलाभया ३३ पुनस्ताडनाचपेटा टक्करादिनाहननं पुनस्तर्जनं अङ्ग
कर ३० चउबिहेवि आहारराईमोयण वज्जणा । सनिहौसंचओचे ववज्जेयम्बो सुटुक्करं ३१॥ कुहातराहायसौउन्ह .. बज्ज वो सर्वारंभ परित्यागः सर्वप्रारंभनु' छांडव् निर्ममत्व अतिदुःकर निर्ममत्व पण दोहिलु ३० चतुर्विध अपि पाहारे चाराहार रात्रीभोजन विवजनं रात्रिने विषेखाववज संनिधिः संचयो घृतादिस्थापन' रात्रिने बिखे घृतप्रमुखराखणो नहीं वर्जितव्य सुदुष्करं एबज्ज बुदीहि लु२१ क्षुधाभूख
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टीका
श्र०१८ ५८२
सूत्र
भाषा
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ल्यादिना निर्भत्सन' भयोत्पादन पुनर्बधबन्धपरोषहाः सहनीयाः तत्र बधोयट्यादिभिर्हनन' बन्धनं रण्वादिनादमनं बधय बन्धय बधबन्धौ तयोः परोषहाः सोढव्याः पुनर्भिचाचर्यायाः दुक ं गृहस्थ गृहेयाचनाकर्त्तव्या तत्करणेपि दुक्खमस्ति तत्रापि याचनायां कृतायां अपि अलाभता अप्राप्तिर्भवेत् तदापि दुक्खं न कर्त्तव्य ं एतदपि दुष्करं ३३ कावोयाजा इमावित्तो केसलोश्रोयदारुणो दुक्ख बम्भवयं घोर धारेउ अमहप्पा ३४ हे पुत्र धर्मे पुनः कापोतोया वृत्तिर्वत्तते इति शेषः कपोतानां पचिणां या इयं वृत्ति: साकापोताया यथा हि पक्षिणोनित्य महिताः सन्तः खभच ग्रहणे प्रवर्त्तन्ते भक्ष्य' कृत्वा च पुनः साथै किमपि न गृह्नन्ति कुचि सम्बला भवन्ति तथा साधवोपि दोषेभ्यः शङ्कमाना आहार ग्रहणे प्रवर्त्तन्ते आहारं
दंसमसग वेयणा । अक्कोसा दुक्ख सेज्जाय तणफासा जल्लमेवय ३२ ॥ तालणा तज्जणा च ववहवध परौसहा । टुक्कं भिक्खायरिया जायणाय अलाभया ३३ । कावोया जादूमावित्ती केसलोउ अदारुणो । दुक्खं वं भव्वयं घोर ं धारेड' षा तौस सौत ताड उष्ण गोरमी दंशमशकादि वेदना डांसमच्छर आवोलागे तेहनी बेदना आक्रोश: कोइ गालिदिइ दुक्खशिय्या उपासरा दुखदाई मूंडा णस्पर्श शरोरमल: एवं दुक्ख सोढव्य ढणनोस्पर्श: मलन' राखवु एदुक्खसहवु' ३२ ताडना कराभ्यां हाथस्य 'मारअंगु त्यादिनात नंअंगुलोइकरो तजे वधस्ताडन' वधार' बंधोरज्वादिना बांध व गाडूआ साथे दुक्ख भिचाचर्या भोचामांगवी तेही जदुर्लभ साधुने याचनां अलाभता इत्यादि दु ष्करं अलाभपरिसहदोहिलो ३२ कपोतानां पचिणां इयंवृत्तिः कपोतपक्खीनी परिस्तु आहारलोद् वृत्तिआजीविका करे केशलोचो दारुणो रौद्रः माथे लोचकरवो महादोहिलो दुष्करं ब्रह्मव्रतं घोर दोहिलो पालवी रौद्र ब्रह्मचर्य धारयतः पुनः महात्माने साधुने दोहिलो२४ सुखोचितः सुखयोग्यःत्वं
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हाय धनप्रतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०ड० ४१ मा भाग
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कृत्वा च किमपि सार्थे सञ्चयं न कुर्वन्ति पुनः साधूनां केश लोचोपि दारुणो भयदोस्ति पुनमहात्ममा साधुना ब्रह्मा व्रतं धत्त दुःखं इलि दुष्करं बहुम्ह सटीका अ०१८
४ व्रतं महात्मना महापुरुषेण प्रियते तद्रम्ह व्रतं धत्त दुःकरमिति भावः कीदृशं ब्रम्हवतं घोरं अन्येषां अल्प सत्वानां भयदायक' ३४ सुहोइओ तुमपुत्ता ५८३ सुकुमालो सुमजियो नहुसोपभू तुम पुत्ता सामग्रमणपालिया ३५ हे पुत्रत्व मुखी चितोसि हे पुत्र पुनस्व' सुकुमालोसि अथ चारित्न ग्रहणाय
समुद्यतोसि परं त्वं श्रामण्य साधु धर्म अनुपालयितु प्रभुः समर्थो न भवति ३५ जावज्जीव मविस्मामो गुणाण तुमहभरी गुरुपो लोह भारुब जोयुत्ताहोइ दुख हो ३३ हे पुत्रयो गुणानां चारित्रस्य मूलोत्तर गुणानां महाभारः सलोहमार इव गुरुगरिष्टोदुर्व हो भवति कोदृशो गुणानां महाभार यावज्जोवं अविधामोविश्रामरहितः अन्योपि गुरुभारो यदा वीढु'नश्यक्यते तदा कचित्युदेशेविमुच्चविद्यामो रायते एवं चारित्र गुणभारः कदापि नमो
अमहप्पणा ३४ ॥ सुहोइओ तुमपुत्ता सुकुमालोय सुमज्जिओ। नहुसी पहूतुमपुत्ता सामन्न मणुपालिया ३५ ॥ जाब सूत्र
ज्जीव मविस्मामो गुणाणतु महम्भरो। गुरुओ लोहमारुब जोपुत्ताहोडू टुब्बहो ३६॥ आगासे गगसोउब्ब पडिसो हे पुत्र तु सुखने योग्य के मुखोचियछे सुकुमालंच समाजितः सुकुमालके खाने करीने समायोके न भविष्यसित्व समर्थः रे पुत्र रे बेटा त समर्थ नहीं * हुये चावण्यं चारित पालयितु न समर्थः इत्यर्थः चारित्र तुझयको नहीं पले ३५ जावज्जीवं अविश्वामः जावज्जीवताई वौसामीलेवो नहीं गुणानां * पुनः समूहो महाभारः चारितुनो जैगुणतेहनो महाभार चलावणो गुरुकः महाभारौलोहमारवहनी पर लोहमारनौपरे जिम लोहनीभार जपाडतां * दोहिलो तिम चारित, दीहिलु हे पुत भवंति दुर्वहः पालतां दोहिलोछ ३६ आकाशे गंगाप्रवाहव आकाशनों गंगा तेहनी प्रभाव प्रतिश्चीतवदुस्तरः
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०३.४१ मा भाग
भाषा
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उ टीका अ०१८ ५८४
चनौयः यावज्जोवं धारणीयः २६ पागामे गङ्गसोउव्व पडिसो तब्बदुत्तरी बाहाहिंसागरीचेव तरियब्वी गुणो दही ३७हे पुत्र आकाशे गङ्गायाः थोतो वत् दुस्तरं इति योज्यम् यथा हिमाचलात् पतहङ्गा प्रवाहस्त रि तुमशक्यस्तथा संयमोधारितु मणक्यः प्रतीपजल प्रवाह इव दुस्तरी बाहुभ्यां सागर स्तरितव्यस्त था गुणोदधिगुणानां ज्ञानादोनां उदधिगुणोदधिः अथवा गुणान्नानादय एव उदधिः गुणोदधिचारित्र समुद्रस्तरणीय ३० बालया कवले चेव निरस्साए उसनमे प्रसिधारागमण चेव दुकरं चरिउ तबो ३८ हे पुत्र वालुकाकवली यथा निस्वादस्तथा संबमः असिधारा गमन असिधारायां गमन खड्गधारायां चलन यथा दुश्कर तथा तपञ्चरितु दुष्कर वर्तते ३८ अहीवेगन्तदिट्ठीए चरित्ते पुत्तदुच्चर जवालोहमया
उच्चदत्तरो। बाहाहिं सागरोचं वतरियब्बो गुणादही ३७॥ वालुया कवलेचे व निरस्माए उसंजमे । असिधारागमणं चव टुक्करं चरिउतवी ३८॥ अहीवेग तदिट्टीए चरित्ते पुत्तदुच्चरे । जवालोहमयाब चावयव्वा सुदुक्कर ३८॥ जहा
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग..
साहम तरव' दोहिल भुजाभ्यां सागरः जिम वाहिं करौ समुद्रतरवो मुसकिल तरितव्यो गुणोदधिः दुस्तरी वर्तते तिमए गुण समुद्र चारित है पुत तरता दोहिलोछे ३७ यथा वालुकायाः कवलाः जौम वेलूनाको लौया निराखाद एवं सजमो निरास्वाद निःस्वाद हुवे तिमएचारित निस्वादछ खगधारायाः गमणमिवः खड्जनौधारा जपरिचालवु दुःकर चरितंतु तव दुष्करवर्ततेति चारित्र अनेतपकरवो दुष्कर
के ३८ अहोरिव सर्यवत् एकादृश्या एकाग्रचित सर्पनी परि एकाग्रचित्त थको चारित है पुत्र दुःकरं चारितने बिखे चालणु * दुःकर यवा लोहमयाः जिम लोहमइयव चवितव्याः अति दुष्कर चावता दोहिलातिमएचारौत दोहिलांछे पालता ३८ यथा दिप्ताऽग्नि
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उल्टौका अ०१८ ५८५
चेव चावेयब्बासु दुक्कर३८ हे पुत्र साधुः अहिरिव एकान्त दृष्टिः एकोन्तोनिश्चयो यस्थाः सा एकान्ता एकान्ता चासौ दृष्टिश्च एकान्त दृष्टिः यथा सर्प एकाग्रदृध्याचलते इतस्त तो नविलोकयसि तथा साधुमार्गे साधुश्चरेत् मोक्षमार्गे दृष्टि विधाय चरेत् कीदृशे चारित्र दुचारे चरितु मशक्ये यथा लोह मया यवाचवितव्याः दुष्करास्तथा चारित्र मपि चरितु दुष्कर ३८ जहा अग्गिसिहादित्ता पाउ होइस दुक्कर तहटुक्कर' करेउजे तारुण्ये समणतण ४. हे पुत्र यथा अग्नि शिखादीप्तासतो ज्वलन्तौ पातुपान' कत्तु सतरां दुःकरा तथा तारुण्ये यौवने श्रमणत्व चारिच कर्तु दुःकरं यौवनावस्थायां हि इन्द्रियाणि दुर्दमानि इत्यर्थः ४. जहा दुक्ख' भरेउजे होइ वायस्मकुत्थलो तहा दुक्खं करेउ' जेकौवेण समणतण ४१ हे पुत्र यथा वायोरिति वायुनाभरितु पूरित कुस्थली वस्त्रमयं भाजन'दुःकर तथा क्लोवेन हौन सत्वेन थामण्य कत्तुं दुष्कर' ४१ जहा तुलाएतोलेओं
अग्गिसिहादित्ता पाउहोइ मुटुक्कर। तहदुक्करं करेउ जेतारुमे समणतणं ४० ॥ जहादुक्खमरेउजेहोवायरम कुत्यलो तहादुक्ख करउजेकौवणं समणतणं ४१ ॥ जहा तुलाएतोल दुक्कर मंदिरोगिरी । तहानिहुय निस्संकं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं..४१ मा भाग
शिखा जिम अग्निनों शिखा जाज्वल्यमानहोइ पान' भवति सुदुकरं ते जाज्वल्यमांन अग्निपीतां दुष्कर तथा दुष्कर कत्तुं जे पादपूरणतिमसंयम पालवी
दोहिलु तारुण्यं श्रमणत्व यौवनावस्थान विखे साधूपण ४० यथा दुक्वे न पुरयितु शक्य ते जीम दुक्से करीने भरीई भवति शक्य ते बातेन वस्त्रमयः 8 कुत्थलक जिम वायर करोने वस्नोकोथलोभरा नहो तथा दुष्करं कत्तुं क्लीवेननिःसत्वेन श्रमणत्व तिमकायरनेचारितु पालता दीपिलुछे कायर लीव
पुरुषने चारित दोहिलुके ४१ यवा तुलायंतोलयितु' जीमताक डोई करितोल दृक्कर मेरुपर्वतः मेरुपर्वतदीहिली तथा निभृतं निश्चलं नि:शेक
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उ टोका थ.१८ ५८६
६ दुक्करं मन्दिरोगिरी तहानि हुयं निस्मकं दुक्कर समणत्तण' ४२ हे पुत्र यथा मन्दरीगिरिमरुपर्व तस्तु लयातोलितु दुःकरः तथानि भृतं निश्चल निःशङ्ख शङ्कारहित' यथा स्यात्तया शरीरापेक्षारहितं श्रमणत्व' साधुत्व' शरीरेण धतू दुःकर ४२ जहा भुयाहिं तरिउ दार रयणायरी सहा अणु वसन्तण दुक्कर दमसागरी ४३ हे पुत्र यथा रत्नाकरः समुद्री भुजाभ्यांतरित दुष्करस्तथा अनुपयान्न मनुष्येणदमसागरस्तरित दृष्करः उप शान्तोजितकषायः नउपशान्ती अनुपशान्तस्ते न सकषायेण पुरुषेणदमः इन्द्रियदमोऽर्थात् चारित्र दमएव दुस्स रत्वात् सागर इव दमसागरस्तरित' दुःशक्यः इत्यर्थः ४३ भुञ्जमाणुस्मएभोए पञ्चलकवणए तुम' भुत्तभोगौतमोजाया पच्छा धम्म चरिस्मसि ४४ हे पुत्र मानुथकान मनुष्यस्य इम मानुष्ये कास्तान् मानुथिकान् मनुष्य सम्बन्धिनः पञ्च लक्षणान् पञ्चविधान् भोगान् ख भुख त्वं' अनुभव हे जात हे पुत्र ततः पश्चात भक्तभोगी
टुक्कर' समणत्तणं ४२ ॥ जहाभुयाहि तरिउ' दुक्कर' रयणायरो। तहा अणुवसंतेणं दुक्कर दमसायरो ४३ ॥ भजमा णमएमोए पंचलक्खणएतुमं । भुत्तभोगी तभोजायापच्छाधम्मचरिस्मसि४४॥ सोवितम्मापियरीएवमेयंजहाफडं । दृह
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास छ, ११ मा भाग
भाषा
शरीरादि निरापेक्षं नौरापेखो दुःकरं श्रमणत्व तिमनिरीह पणो निश्चलपणे निःशंकपणे चारितपालतां दोहिलोछे ४२ यथा भुजाभ्यांतरीतु जीम वांहि करौने तरता दोहोलो दुःकरं रत्नाकरः समुद्रः रत्नाकरस्वयंभु रमणनामे समुद्र तथाऽनुप शांतचित्तेन जेहनु' चित्तविषय थकी रहौत नधौ थयु चित्तठामिनधो दुःकर श्रामण्यं तेहने चारित दोहिलोछे ४३ भुच्चमानुष्यकान् भोगान् भोगवि मनुश्यना भोग पंचलक्षणान् शब्दादीन् पंचलक्षण शब्द रूप रसगंधस्पर्श भुक्तभोगी सन् है पुत्रः भोग भोगवौने है पूत्रः पचाइम्म चरिष्यसि भोग भोगवीने पछे धर्म दर ४४ अथ पुत्र हेतुत: सबूत है
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१८
१ भूब धम्म यति धम्मै चरिश्चसि अङ्गीकरिथसि इदानीं तव भोगानुभवन समयो स्तौति न पुन गत्यागावसरइति भाव: ४४ सोवितम्मापि यरी एव 8 मेयं जहाफुडं इह लोयनिष्पिवासस्म नस्थि किञ्चिविदुक्करं ४५ अथ मृगापुत्रो ब्रूते है पितरौ एव मिति यथा भवङ्गयां प्रोच' तत्तथैव यथा प्रव्रज्यायाः
दुःकरत्व स्फुटं प्रकटं वर्तते तदसत्य नास्ति तथापि इह लोकेनिः पिपासस्थपिपासायास्तृष्णायाः निर्गतोनिःपिपासस्तस्य नि:पिपासस्थनिस्पृहस्य पुरुषस्य किं चिदपि दुःकरं नास्ति निःस्प हस्य तृण जगत् इत्युक्तः यः स्प हावान् भवति तस्य परिरहत्यागो दुःकर एव परं निरौहस्य साधुधर्म; सुकर एव तेनाहं निःस्प होस्मि मया सुखेन साधुधर्मः कर्तव्यः ४५ सारौरमाण साचेव वेयणाश्री अणन्तसी मएसीढामी भौमात्रो असइन्दु क्स भयाणिय ४५ हे पितरौ मया शरीरमानस्यो वेदना अनन्तशी अनन्तवारान् सोढा: अनुभूताः चैव पादपूरणे च पुन रस कृत् वारं २ दुःखानि भयानि सोढानि कोदृश्यो वेदनाः भौमाः भयानकाः दुःखाना भयानां च भीम शब्दो विशेषणेन प्रतिपाद्यः कोहयानि दुःखानि भयानि च भौमानि भयोत्पादकानि दुःखानि च भयानि च दुक्त भयानि अथवा दुःख हेतू निभयानि दुःख भयानि राजविराम्नि चोरधाटी प्रमुखानि तानि वारं २ अनुभूतानीत्यर्थः ।। जरामरणकन्तार चाउरन्स भयागरे मये सोढाणि भीमानि जम्माणि मरणणिय ४७ पुनर्म गा पुत्रोवक्ति के पितरौ चाउरन्ते संसार भौमानि भयदानि
लोए निप्पिवासम्म नत्थि किंचिबिदक्कर' ४५ ॥ सारीर माणसाचे व वैयणाओ अणंतसो। मएसोढाणि असई दुक्ख अंबा पितरौ कुमारकहे हे मातापौतात्री एव मैतत् यथास्फुट युवाभ्यामुक्त है मातापीतापी तुम कब तसाच परंतु इहलोके नि:पिपासितस्य निस्सह
स्यपरंजहमाणसने इहलोकनी वांछा नथौ नास्ती किमपि दुःकर तेह पुरुषने काई दोहिलु नही ४५ शरीरसंबंधिन्यः मानस संबंधियः शरीरसंबंधिनी 8 तथा मनसंबंधौनी वेदना अनंत प्रकारा वेदना पनंतप्रकार मई मया मोटाभौमा म भौम रौवेदना सही चमकृत् वारंवार टुक्लभवानि च महा
राम धनपतसिंह बाहादुर का था.सं.१.४१ मा भाग
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DA
उ. टीका जन्मानि च पुनमरणानि सोढानि अनुभूतानि चत्वारो देवमनुष्यस्तिर्यक् नरकरूपाः भवा अन्ताअवयवा यस्य स चतुरन्त: चतुरन्तए चातुरन्त इति
8 व्यत्पत्तिः अर्थात्म'सारस्तस्मिन् चातुरन्त संसार कीदृशे चातुरन्ते जरामरणकन्तार जरामरणाभ्यां अति गहन तया कान्तारं वनं जरामरण कान्तारं * वनं जरामरणकान्तारं तस्मिन् जरामरणकन्तार ४७ जहा इहं अगणी उण्हो इत्तो अणन्त गुणो तहिं नरएसुवेयणाउण्हा असायावेड्यामए ४८
हे पितरौ येषु नरकेष्वहं उत्पनस्तेषु नरकेषु मया उष्णाश्पर्शनेन्द्रिय दुःखदा असाता वेदनाविदिताभुक्ता कीदृशा उष्णा यथा इह मनुष्य लोके अग्निः उष्णावर्त्तते इतोऽग्न : स्पर्यात् तत्र नरकेषु अनन्तगुणोग्नि स्पर्शः तत्र च बादराऽग्ने रभावात् पृथिव्या एव तथा विधः स्पर्श इति गम्यते ४८ जहा इह इमं सोयं इत्तोणन्त गुणो तहिं नरएम वेयणासोया अस्मायावे इयामए ४८ यथा इह मनुष्य लोके इदं प्रत्यक्षं सौतं वर्तते इत: सीतात् तत्र नरकेषु
भयाणिय ४६ ॥ जरामरण कतार चाउरते भयागरे। मएसीढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणिय ४७॥ जहाहं सूत्र
अगणीउपही इत्तोणंत गुणोतहिं । नरएमवेयणाउपहा अस्माया वेड्यामए४८॥ जहाहं इमंसीयं इत्तोणतगुणोतहिं
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.स.उ. १ मा भाग
भाषा
वौहामणा महारौद्र दुक्ख अने भयसह्या के ४६ जरामरण कांतारे जरामरणरूप अटवोने विष चतुर्गतिरूप भयाकर चारगतिरूप संसारने बिषे मया सोढाणि भोमाणि मेंस ह्यां रौद्रवोहामणां जन्मानि मरणाणि च जन्म मरण नाम दुक्खसह्या ४७ यथा इह मनुष्यलोके अग्निः उष्णो दृश्यते जीममनुष्य लोकने बिषे अग्निउष्णछे अस्मात् अनंतगुणस्तत्रएपग्निथको अनंतगुणी तौहां नरकेषु वेदना उष्णा नरकनेविष वेदना उपाछे अशातारूपा बेदिता मया अशातारूपमवेई ४८ यथा इदं अब शीतं जिम मनुष्यलोकने विषे अस्मात् अनंतगुणस्तत्रएथको अनंतगुण के तौहाँ नरकेषु वेदना सीतला नरकने
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उ०टोका
अ०१८ ५८८
सूत्र
भाषा
SEXE WE
मया सिता असातावेदना अनन्त गुणाधिकाभक्ता अनुभूताः ४८ कन्दतोक' दुकुम्भौस उड़पाओ अहोसिरो हुयास जलन्तंमि पक्कपुव्यो अणन्तसो ५० हे पितरौ अहं कन्दुकुम्भोष पातभाजन विशेषासुलोह मयौषु हुताशने देवमाया कृतेवह्नौ अनन्तशोबहन् वारान् पक्कपूर्वः पूर्व' पक्क इति पक्क पूर्व : कोदृशोहं ऊर्द्ध पादः ऊर्द्ध चरण: च पुनरधः शिराअधोमस्तक: अहं किं कुर्वन् क्रन्दन् पूत् कतिं कुर्वन् कीदृशे हुताशने ज्वलति देदीप्यमाने ५८ महादवग्गि सङ्कासे मरु ं मिवइरवालुए कलम्ब बालुया एय दट्ट पुब्वा अणन्तसो ५० हे पितरौ कलंबवालुकायानद्या मरु मिवालुकानिव देशेकते अनन्तशोवारं २ अहं दग्ध पूर्व : कलंबवालुका नरकनदीतस्याः पुलिन धूल्यां भ्रष्ट पूर्वः यथा चणकादिधान्यानि वा वज्यन्ते तथाह मपि बहु दग्धः कथं भूतेमरौ महादवाग्नि सङ्कासेयांमहादवानल सहमे दाहक शक्ति युक्त पुनः कीदृशे मरौ वज्रवालुके वज्जवालुकायस्य स वच्च वालुकस्तस्मिन् नरएमुबेयणासौया अस्माया बेइयामए ४८ ॥ कदंताकंटुकु भौमु उडपात्र अहोसिरो । हुयासणे जलतंमि पक्क पुव्वोचणंतसा ५० ॥ महादवग्गिसंकासे मरुम्मिवद रखालुए । कलंब वालुयाएय दडपुब्बो अतसो ५१ ॥ रसंतोकं विषे शोतलवेदना अशातारूप वेदनामया अशातारूप वेदनांमेसहि ४८ आनंद कुर्व्वन् कटाहेषु चक्र' दकरतुथको कु भौभाजननेविषे ऊर्द्ध पादौ श्रधो सिरे पगउ'चागिर नौंचाकोधार हुताशने अग्नौ प्रज्वलितेसति अग्नि' नींचेवलेछ सहतोथको पक्क पूर्व पच्यो अनंतवार अनंतोवार कडाहमाहि पचाणोछे ५० महादवाग्निसदृशे महादवनों आगिसरोषो मरुदेशवत् वञ्चवालुका नदीतीरे मरुदेशने विधे रेतहोइतिम वच्चवालुका नदीरेत मांहि कदंव वालुकायां च तिम कदंब वालूनदीनातोरमाहिं दग्ध पूर्वी अनंतस. अनंतौवारवाल्यो ५१ पूत्कुर्वन् लोहकटाहेषु पुकारकरतु भारडतुलोहना
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
Page #589
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उ० टौका
अ०१८ ५८०
सूव
भाषा
वज्रवालुके ५० रसंतोकंदुकुम्भोस उहं बडो प्रबन्धवो करवत्तकरवयाई हिं किन पुव्वा अणन्तसो ५१ हे पितरी पुनरहं कन्द क भीषु लोहमयपाचन भाण्डविशेषेषु, ऊर्जं वृचशाखादौ वधः सन् परमाधार्मिकदेवैरिति बुझा मायं अवहः कुतचित् नवायास्यति तस्मादधो देशेकुम्भौवर्त्त ते उपरि वृच्च शाखायां अहं बच्चेः करपत्र': क्रकचैव अनन्तशो बहुवारं छिद्रपूर्वोविधाकृतः यथा काष्ट' बध्वाकरपत्र : ककते: विद्यते तथाहं छित्रः लघूमिकाष्टविदारणो पकरणानिक्रकचानि बृहन्ति च तानिकरपत्रकान्य ुच्यन्त कोदृशोह' रसन् विलपन् पूत्क तिं कुर्वन् पुनः कोट्टशोह अबान्धवः न विद्यते बान्धवो हितकारी यस्य स अबान्धवः ५१ अइतिक्वक टकाइने तुङ्गसिं बलिपायवे खेवियं पासवर्ड णं कट्टो कट्ठाइ दुक्कर ५३ हे पितरौ प्रतितीक्ष्णकंटकाकीर्णे तु उच्च शम्बल पादपे कट्टाकट्टौ कर्षापकर्षणः परमाधार्मिक कृतैः चेपितं पूर्वोपार्जितं कर्म अनुभूतं मयायानि कर्माण्य ुपार्जितानि तानि भुक्तानीति दुकुभौसु उडूंबडो अब'धवो । करवत्त करवयाईहिं छिन्नपुव्वो अगंतसो ५२ ॥ अइतिक्ख कंटकाइन तु'गेसिं बल पायये । खेवियं पासबद्धेणं कट्टोकट्टाहिं दुक्कर ५३ ॥ महाजंतेसु उच्छुवा आरसंती सुभेरवं । पोलिओमि सम्म हिं
कटाहमाहि ं ऊर्द्ध बधः अबांधवो उ' चोबांध्योथको अबंधवभाई रहितकर पत्र लघुकर पत्रादिभिः वली वडोल ढोकरवते करौने छिनपूर्व ः अनंतशः अनंतौवारकेद्यो ५२ अतितीक्ष्ण कंटकाकीर्णे अतितोखा कांटातिणेकरी सहित उच्च शाल्मलीचे घणो उचो सात्मलोइ सहनामे वृक्षचिपितं पाशबद्दोह' पासबांधोने मुझने टेखो इतस्ततः आकर्षण दुष्कर' उरह पर पंचाणदोहिलोथयो ५३ महायंत्रेषु इक्षुवत् महायंत्रविषे सेलडोनीपरे प्र्त्कारं कुर्वन् भैरवं महांवोहामणी आरडतुथको पीडितोस्मि स्वकर्मभिः श्रपणे कर्मे करौपौड्यांछे पापक अनंतशः पापकमाह अनंतौवार ५४ पूत्
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हाय धनप्रतसिंह माहादुर का सा०सं०७०४१ मा भाग
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स.टोका घ.१८ ५८१
XXXKKKK6363KAKKX
शेषः कीदृशेन मया पाशबई रवा सञ्जितेन इदमपि दुःकर कष्टभुक्तमितिशेषः ५३ महाजन्त सु उच्छ्व आरसन्तोसुभैरवं पौलिप्रोमिसकम्मे हि पावकम्मो अणन्तसो ५३ हे पितरौ पुनरह' पापकर्मा पापं कर्म यस्य स पापकर्मा पापः अणन्तथो बहुवारं स्वकर्मभिर्महायन्वेषु पौडितोस्मिक इव इक्षुरिव बघा इक्षुर्महायन्चेष पौद्यते अहं किं कुर्वन् सुभैरवं सुतरां अत्यन्त भैरवं भयानक शब्द' पारसन् आक्रन्द कुर्वन् ५३ कुवन्तो कोलसुगएहि सामहिं सबलेहि यपाडिओ फालियो चिनो विस्फुरन्ती अणेगसो ५५ हे पितरौ अनेकथोऽनेकवारं वामैः श्यामाभिधानैः च पुनः शबलैः सबलाभिधानः परमाधार्मिकदेवैः भूमौ पृथिव्यां अहं पातितः परमाधार्मिकाहि पंचदविधाः अंबे१न' तिबनति च अम्बरिसौचेव १ कारौषेपञ्चति २ सामेय ३ शातना पातनां च कुर्वन्ति ३ सवलत्तिय ४ अंत्रादिनिः काशयन्ति ४ रुद्दो ५ कुतादौ प्रोतयंति ५ अवरुह ६ अंगोपांगानि मोटयन्ति ६ कालेय ७ तैलादौतलयन्ति महाकाले तहावरे ८ स्वमा सानिखादयन्ति ८१ असि पत्ते । असि पत्रवनंवि कुर्वन्ति । धणू १. धनुर्वाण नन्ति १. कुन्चे ११
कुम्भीपाके पचन्ति ११ बालुया १२ भ्राष्ट्रे पचन्ति १२ वैयत्तिय १३ वैतरण्या अवतारयन्ति १३ खरस्सर १४ शाल्मल्यामारोप्य खरस्वरान् 8 प्रकुर्वन्ति १४ महाघोसे १५ नभ्यतो नारकान् मौलयन्ति महाशब्द न भापन्ति १५ इति परमाधार्मिकाः कीदृशैः श्यामैः शबलैच कोलशनकैर्वराह इ कुकुररूपधारिभिर्देवै पुनरहं स्फाटितः पुरातन वस्त्रवत् विदारितः पुनरह तैर्बराह कुकुरैः स्फाटितोदन्त दंष्ट्राभिश्च वृक्षवत् छिन्नश्च पुनः कीदृयोह'
पावकम्मो अणतसो ५४ ॥ कूवतीकालसुणएहिंसामेहिं सबलहिय । पाडिओ फालिओच्छिन्नो विप्फुरता अर्थ कुर्वन् शब्दायमानः पुकारकरतोयको शूकरैः खानश्वमहरे कूतरे शामैः संवलैः परमाधार्मिक श्याम अने संबलइसेनामे परमाधामीक देवता ने भुविषा तितः जीर्ण वक्षवत् छिन्त्रः पाटितः ते देवताई मुझने धरतौईनाख्योपछः फाद्योछेद्यों शूकरांकूतरापासेखवाद्यो विस्फरन् इतस्ततचलन् उरही परहो
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•छ. ४१मा भाग
भाषा
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कूजन् अध्यक्त' शब्द कुर्वन् पुनः कोशोहं विस्फुरन् इतस्ततस्तड फडन् ५५ असोहिं अयसिवबाहिं भल्लीहिं पिट्टि हिय छिनोभिन्नोविभत्रीयउववत्री सटीका
पावक मणा ५६ है पितरी पुनरहं पापकरमणाउदौणः प्रेरितः सन् नरकेषु असिभिः खड्ने : पुनर्भमौभिः कुन्त स्तिशूलैर्वाच्च पुनः पिहिणः प्रहरण अ.१८ ५८२
विशेषैः छिन्नीविधाकतः भित्रोविदारितः च पुनर्विभित्रो विशेषण शूक्ष्मखण्डौ कृतः कथं भूतैरसिभिः अतसौ कुसमवर्ण श्यामवर्णरित्यर्थः ५६ अवसो लोहरहे जुत्ते जलन्त समिलाजुए चोई प्रीतीत्तजुत्तेहि रोज्कोवाजहपाडिअो ५७ हे पितरौ पुनरह नरकेलोहरथे अवशः परवशः सन् परमाधार्मिक
देवेच लति अग्नि नाजाज्वल्यमाने समिलायुगे युक्तोयोनित: समिलायुगरं प्रक्षेपणीयकौलिकायुगस्तु जसरः उभयोरपि वनिना प्रदीप्तत्व कथितं 8 तत्राग्निनाज्वलमानर थेह' योत्रितस्तोत्रयो नोदितः प्रेरित: तोत्राणि प्राजनकानि पुराणिकादौनि योचाणि नासाप्रेतबार बन्धनानि ते प्रेरितः
गसी ५५ ॥ असीहिं अयसिवन्नाहिं भल्लीहिं पट्टिसहिय । छिन्नाभिन्नी विभिन्नाय उववन्नी पावकम्म णा ५६ ॥ अवसो लाहरहेजुत्ता जलंते समिलाजुए। चोदातीतजुत्तेहिं रीझोवा जहपाडिओ ५७ ॥ हुआसणे जलतमि बियामु
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ० ४१ मा भाग
भाषा
चालतुथको ५५ खग अलसो पुष्फवणैः खड्ने अलसोने वणे नोलांछमके भल्ले: पट्टियः प्रहरण विशेष : भल्लो पट्टीएदीदहथियार विशेषछे छिन्नः भिवः विशेषेण किवा छेद्यो भद्यो विशेषेछेद्योहथियार करौने उत्पन्नोऽवतारितो नरके पापकर्मणा नरकमाहिं पाणीघाल्यो पापण कर्मे ५६ अवशः परवशः लोहरथे योजितः परवशथकी लोहने रथे जीतखो ज्वलिते समिलायुक्त समौलावलती उन्होछे प्रेरितः योनयुक्ती : पराण करीकल्योछे प्रेमीछे रोझ जीववत् अहं पीडितः रोझजीवनी परिहु पौड्यो५ हुताशने ज्वलति सती बलती आगमांहिं चितायां महिषवत् चेहमांहिंमसानीपरि दग्धपकः अवशः
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उन्टौका
अ०१८
पुनरहरोमोवाइति गवयव इवपातितः यष्टिमुख्यादिनाहत्वापातितः वा शब्दः पादपूरण यथा शब्दः इवार्थे ५७ हुयासणे जलं तं मिचियासुमहि सोविवदड्डोपकोय अवसो पावकम्मे हि पावियो ५८ हे पितरौ पापकर्मभिरह पाहतो वेष्टितः सन् ज्वलति हुताशने जाज्वल्यमानेऽग्नौदग्धः भश्मसा कृतः पुनरहं पक्वः सन्तादिवत् भटित्रोक्तत: कोदृशोह अवशः परवशः अहं कद्रव अग्नादग्धः पक्वश्चचितास अग्निसुमहिष इव यथात्र पापाः पट्टक' बधा अग्नौ प्रज्वालयन्ति भटिचौ कुर्वन्ति तथा तबाह परमाधार्मिकदेवैर्विक्रियारचिताग्नौदग्धः पक्वश्चः ५८ बलासण्डा स तुण्डं हि लोह तुण्डे हि पक्वौ हि विलुत्तो विलवन्तोह ढङगिद्दे हिंणन्तसो ५८ हे पितरौ अह अणन्तसो बहुवार ठकराई : ढङ्क पक्षिभिर्य ध्रपक्षिभिर्बलात् विलुप्तञ्च न्यितः विशेषेण लसोविलप: नासाने बान्त्रकाले यादिषु चुण्ठित इत्यर्थः कथं भूतै कैटः सन्दशतुण्डः सन्दंशाकारं तुण्ड येषां ते सन्द चतुण्डास्त : सन्द'शाकारमुखैः पुनः कीदृशैः लोह तुण्डे : लोहवत्कठोर मुखैः किं कुर्वन् विलपन् विलापं कुर्वन् ५८ तणहाकिलन्तो धावन्तो पत्तोवेयरणिं नई जलं
महिसाविव दडोपकोयअवसापावकम हिं पाविओ ५८॥ बलासंडास तुडेहिं लोहडेहि पक्विहिं बिलुत्ता विल वंताहंढंकगिद्धेहिंगतसी १६ ॥ तगहा किलता धावतो पत्तोब यरणिंन। जलंपाहिति चिंतंतो खुरधाराहिं विवा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
परवसः दझायोपचायो परवसथको पापकर्मभीः नरकगतिः प्रापितः पापकर्मेनरकि माहिं धात्यो ५८ बलात्कारण संडासक समान चंचुपुटः सडासी
समान जेहनी चाचछे लोहत डैः पतिभिः लोहसरीखी जहनी चांचछे इसे पंखोए विलुप्तो विदारितः विलवंतः विदाखो विलापकराँ ढंक 8 गृह पक्षिभिः अनंतशः ढंकट इ पंखोए अनंतीवार ५८ तृषाकिलंतः धावन तृषाई पोद्योधको दोडतुथको प्राप्तीवेतरणी नदी वैरणी नदीई गयो
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उल्टोवा
पाहं तिचिन्त' तो खुरधाराहिं विवादो ५८ हे पितरी पुनरहबषाक्लान्तस्कृषाभिः व्याप्ती धावन् वैतरणी प्राप्तः सन् जलं पिबामोतिचिन्तयन् पुरवा ५८४ राभिर्व्यापादितः कोर्थः यावदहं वृषा क्रान्तोमनसिपानीयपिबामौति चिन्तयामि तावतरणी नद्याः कश्चिभिः कलोले ईतो दुःखीततीवेतरणी नद्याः
जलं हि शुरधारा प्रायं गलछेदकमस्तोति भावः ५८ उपहाभि तत्तो सम्पत्तो असि पत्तं महावणं असिपत्तेहि पण्डतेहिं छिन्न पुब्बी पण तसो ६० हे पितरौ पुनरहं उष्णाभितप्तः आतपपीडितः छायार्थी असि पत्र महावनं प्राप्तः असिवत् खजवत् पत्र येषां ते असि पत्राः खतपत्र वृक्षास्तेषां महावनं
असि पत्र महावनं गत: सन् असिपत्नः पतद्भिरनन्तशोऽनेकवारं छिव पूर्वोदिधाततः ६. मुमारेहिं मुसंढौहिं सूलेहि मुसलहियगयासनगत्तेहिं 2 पत्त' दुक्ख मणन्तसो ६१ हे पितरौ अहं मुहरै र्लोहमयगुरुजैः च पुनम संढीभिः शस्त्र विशेषैलेपेटाभिधानशस्त्र तथा मूलै स्त्रिशूलैश्च पुनर्मु शतैः
दूओ६० ॥ उन्हाभितत्ता संपत्तो असिपत्तं महावणं । असिपत हि पडतेहिं छिन्नपुव्वो अणंतसी ६१॥ मुग्गरहिं
मुसंढीहि सूलेहि मुसले हिय | गया संभग्गगत्तेहि पत्तदुक्खं अणंतसी ६२॥ खुरहितिखधारहि कुरियाहि * जलपास्यामि इति चिंतयन् पाणींपोसुइस्युचितवतु गयोक्षुरधाराभिः जलोमिभिः विपादितः कुरौ सरौखोइ पांणीरौधार पायो ६. उष्णाभितप्तः 8 संप्राप्तः तावडे करोने पौडयोथको आयो असिसमान अदृशैः पत्र: खड्सरिखां जहना पानछे इस्य बनखंड पाव्यो खड्गसदृशैः पत्र: पततिः परि खड्स सरिखा पानपडवालागा छिन्त्र पूर्वः अनंतशःछे द्यो भेद्यो अनंतीवार ६१ मुहरप्रहारैः तथा मुसुलै: यस्त्रविशेषः मोगरना प्रहार तथा मुसंढीहथीयार विशेष तहना प्रहार त्रिशूल: मुशलः त्रिशूल मूशल: गदाभिः भग्नगाव गदाई करीने अंगोपांग भागार प्राप्तः दुकव' अहं पतयः अनंतीवारमे दुक्त
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०म० उ. ४१ मा भाग
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का अ०१८
पुनर्गदाभिः लोहमयौ यष्टिभिरनन्तशोदुःखं प्राप्तः कथं भूतैरतैः मुद्रादिभिः शस्त्रैः संभग्नगाव : चूर्णित शरौरैः ६१ खरहिं तिक्खधारहिं कुरीयाहिकप्प णोहिय कप्पिो फालियो छित्री उक्त्तीय अपगसो ६१ हे पितरौक्षुरैः रोममुण्डन साधनैः पुनस्तीक्ष्णधाराभिः चुरिकाभिः कल्पिनौभिः कर्तरीभि रहं कल्पितो वस्त्रवत् खण्डितः पुनः स्फाटितो वस्त्रवत् ऊई विदारितः पुनः छिन्नः रिकाभिः ककटौवखण्डितः पुनरुत्क तः शरीरात् दूरीक्ततचर्मा * इत्यर्थः एवं अनन्तशोवारंर कदर्धितः ६१ पासेहि कूडजालेहिं मित्रोवा अवसो अहं बाहिनी बहरुडोब वहुसोचेव विवाइअोद३ हेपितरौ पुनरहं बहुशो वारं२ पाशर्बन्धनैस्तथा कूटजालैः कुडिवागुरादिभिर्म गइव वाहिओ इति भोलवितस्तथा बही रुहबबाह्य प्रचाराविषिदः यथा मृग बच्चयित्वापानिधि पन्ति कूटजाले पातयन्ति तथाहं वञ्चितो बलीरुहश्च च पुनरेव निश्चयेन अवशः परवशः सन् व्यापादितीमारितः ६३ गलेहिं मगरजालेहिं मच्छी वा
कप्पणीहिय । कप्पिो फालिओछिन्नो उक्वत्तीय अणेगसी ६३॥ पासहि कूडजालेहि मिओवा अवसा अहं। वाहिया बदरुद्धाय वहुसीचेव विवाईओ ६४ ॥ गलहि मगरजालेहि मच्छीवा अवसाअहं । उल्लिओ फालिओ
राय धनपतसिंह पाहादुर का पा सं.उ. ४१मा भाग
सूत्र
भाषा
पाम्बु ६२ खुरैः तीक्षा धारैः तीखोचे जहनों धारएहवे पावणकरौने तथा क्षरिकाभिः कुरौद्र करौनकर्तरीभिः कतरणौकरीने कंतितः खडोक्वतः इणे 8 करीन काप्यो खंड २ किधो विदाग्यो उत्कोरित: क्षररनेकशः पावणे करोने अनवार कोखो १३ पाथैः पाशे करीने कूटजालैः कूडेजाले करौने मगवत्
अवसः सन् अहं मृगलानो परि परवशयकोई व्याधितः वहः कडः बहि पौड्यो बांध्यो सध्योचउगरदाई वहुशः वारान् व्यापादितः घणीवारपरमाधामीए माखो ६४ गले कंटकायमासैः मकरजाले: मचानाजाल नाहिं घालीनं मी व परवयः अहंम पानी परिं परवशवकाहं उल्लेषितः चामही कतारी पाटितः
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१
५८८
उन्टीका
अवसी अहं उलिपीकालि पोगहिनी मारिणीय अणन्तसी ६४ हे पितरौ पुनरहङ्गले मत्स्यानांपायः मकरजाले मस्य जालमत्स्य इव विहगलोऽभवं प्रन र होतोनकररूपधारिभिः परमाधार्मिक लात् उपादत्तः पुनरुल्लिो इति उल्लिखितचीरितः पुनस्साटितः काष्टवहिदारितः पुनरनन्तशोमारितः
गईभ दूव कट्टितः १४ वोदं स एहिंजालेहिं लेप्या हिंस उणोविव गहिओलग्गीय बदीय मारित्रीय अणन्तसो ६५ है पितरौ पुनरह' शकुनिरिव पक्षी * विदंशकै पक्षिबन्धन विशेषैर्बलाह, होत: वौतंशोमग पक्षिणां इति हैम: पुनरहं जालैर्य हौतः पुनर्लेप्याभिशरीषलेपन क्रियाभिलग्नः निष्टः पुनरहं बद्धोद वरकादिनाचरणग्रोवादौनियन्त्रितः पुनर्मारितः प्राणैबिहोतः कृतः६ ५ कुहाडपरसुमाई हिंवट्टई हिन्दु मोइवकुट्टिप्रोफालिओछिन्नो तस्थिीय अणन्तसो६६
गहिओमारिओयअणंतसा६५॥ वीट्सएहि जालहिलेप्याहिंसउणाविव । गहिओलग्गोअबद्धायमारिओयअणं तसा ६६॥
कुहाड़ परमुमाईहि' बट्टई हि' दुमाविव । कुट्टिी फालिश्री छिन्ना तत्थिाय अणंतसा ६७॥ चवड मुट्ठिमाईहि' फाद्यो गृहीत धपतिभिः मारितश्च अनंतशः माथी अनंतीवार ६५ वीदंसक थिचानक वीदंसकसींचाणो कहीइ तथाजाले पक्षिबंधन दुग्धादिश्लेष द्रव्य : लेप्यो लेपद्रव्य : बटनदूधलाकडीई' लगाडीने पंखोने जालेछ सी चाणा प्रमुखनौपरें शनिवग्रहीत: वजुलेपलगाडी पंखौ यांनी परिमुने झायो मारितो अनंतयः चेपलगाडी बांध्यो माखो अनंतोवार ६६ कुठारपरशु आयुधाद्य कुहाडो फरसो आदेदेई हथियार सूत्रधारेण अहं द्रुमेव सूत्मखंडीततः सूत्रधारहरुखनों परें कुहाडास्य नान्होछेद्योकुट्टितः विधाक्ततः छदितः कूट्योहौधाकीधी के थोत्वग्रहित: अनंतवारं कृतः चामडौ ऊतारौ अनंतोवारत्वचा १७ चपेट मुख्यादिभिः कृत्वा चपेटा मूठौ आदि देईने यथा कुमारैः क्षत्रियपुत्र अजः छगलस्ताद्यते जिमराजानावेटा छालौने
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.उ. १ मा भाग
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उ टीका
अ०१८
५८७
हे पितरौ पुनरह कुठारैः पर्खाकैः काष्ट संस्करणसाधन प्रहरणे दिकिभिः काष्टतडभिद्रुम इव कुट्टित: स्फाटितः छिन्त्रश्च यथा काष्टवविक्ष कुठारैः पर्खाभिः प्रहरणैः कुट्यते स्फाव्यते छेद्यते तथाहं परमाधार्मिकैर्वारं २ पौडितः ६६ च वेड मुहिमाई हिं कुमारे हि अयंपिव ताडिओ कुडियो भित्री चुणिनीय अणन्तसी ६७ हे पितरौ पुनरहं परमाधार्मिकैवैश्च पेटाभिहस्ततल : पुनर्मुथ्यादिभिर्बदहस्त : आदि शब्दालत्ताजानुकूपरा प्रहारैस्ताडित: कुट्टितः भिन्नः भेदं प्रापित: चूर्णित: कैः कमिव कुमारैः लोहकारैः अय इव लोह इव यथा लोहकारण लोहः कुव्यते भेद्यते जूते ४ वक्ष्णौक्रियते ६७ तत्ताइतं बलोहाई तोयाई सौसगाणिय पाईयो कलकलन्ताई पारसन्तो सुभेरव ६८ हे पितरौ पुनरहं परमाधार्मिक स्तप्तानिगालि तानि ताम्रलोहादीनि वैक्रियाणित्रपुकानिकस्तौरकानि च अहं पायितः कीदृशानि ताम्रादीनि कलकलन्तानि कलकलशब्द' कुर्वन्ति अत्यन्त उत्कलितानि अव्यक्त शब्द' कुर्वन्ति कौदृशोह' मुभैरवं अतिभौषण शब्द रसन् विलपन् ६८ तुहं पियाई मंसाई खण्डाई सोल्लगाणिय खावित्रीमिसमं
कुमारहि अयंपिव । ताडिी कुट्टिाभिन्नाचुमिओयअणंतसा ६८॥ तत्ताडूतं बलोहाइतउयाइसीसगाणिय ।
पाविओ कलकलंता आरसंतोसुमेरव ६६ ॥ तुहपियाई मंसाडू खंडाई सोल्लगाणिय। खाविओमि समंसाई मार तथा ताडितः कुट्टितोभिवतिम ताड्यो कूट्योभद्यो चूसितश्च अनंतशः चूख कोयो अनंतीवार ६८ तप्तानि अग्निवर्णीकतानि ताम्रलोहादि अग्नि सरोषांकोधार ताम अनलोढात्रपुकानोकथोरसौसकानि सौसी पान कारितः कलकलितानि कलकलात करता पायां आक्रंदन अहं भैरव आक्रद करताने महावौहामणो ६८ तवापि प्रियानि मांसानि तुझने मांसप्रियहतु खडोकतानि शूलाकृतानि नान्हा नान्हानुकरतु शूलाकरोखातु भक्ष
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं० .४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०१८
५८८
सूत्र
भाषा
ARROW
SEXXXY
साइ अग्भिवणाइणेगसो ६८ हे पितरौ पुनः परमाधार्मिकेरिति स्मारयित्वा स्वमांसानि अहं खावितः स्वमांसानि भोजित: कोमानि भोजितः कौशाfन स्वमांसानि खण्डानि खण्ड रूपाणि पुनः कीदृशानि सोल्लकानि भरित्रौ कृतानि स्वमां सान्य व भटिवो कृत्य शूलाक्कृत्य च खादितानि पुनः कोदृशानि अग्नि वर्णानि जाज्वल्यमानानि तान्यपि एकवारं नखादितानि किं तु अनेकवार खादितानि इति किं स्मारयित्वारिनारक सवप्राग्भवे मांसानि प्रियाख्या सन् जीवानां हित्वं मांसानिखण्डानि सोल्लकानि अधसः इदानीं * स्वमां समेव प्रइित्युक्ता पूर्वकर्मस्मारयित्वा परमाधार्मिकैः स्वमांसानिखादितस्त्रमांसैरव भोजित इत्यर्थः ७० तुह पिया सुरासोहमेरश्रयमहणिय पाई श्रोभिजलन्तोओ बसाओ रुधिराणिय ७१ हे पितरौ पुनरहं परमाधार्मिकैर्वसाः अस्थिगतरसान् च पुनः रुधिराणि पायितोस्मि किं कृत्वा इति स्मारयित्वा इत्यध्याहारः इतीति कि रेनारकतवप्राग्भवे सुराचन्द्र हासाभिधं मद्यं सौधुस्तालबच दुग्धोद्भवा मेरेईपिष्टोद्भवा पाटितोत्यवावरसा पुनर्मधूनि पुष्पोद्भवानि मद्यानि प्रियाण्यासन् प्रति निर्भाना पर्वकं पायित इत्यर्थः ७१ निञ्चभोएणतत्येण दुहिएण वहिरण्य परमादुहसम्बद्धा वेयणावेईयामए ७१ हे पितरौ मया परमा उत्कृष्टावक्त ुमशक्या अग्गिवन्नाइणेगसो ७० ॥ तुहंपिया सुरासौह मेरओय महणिय । पाइओमिजल तोओ बसाओ रुहिराणि ०१ ॥ यितोस्मि स्वमांसानि इमक होइने माहरोज मांस मुझने तोडीनेखवाड्यो अग्निवर्णानिकृत्वा अनेकशः अम्निवर्णकरीने अनेकवार ७० तव प्रीया सुरा सौध तुझने सुरासोध वाल्हाहता मेरका ः मद्यभेदाः मधुश्च मद्यभेदवगनीं मदिराप्रमुख पौयितोस्मि व्वलिताग्नि वर्ण कृतानि पायनुबलठलतु' बसा रुधिराणि वा तुझने मद्यवाल्हो हत् इमकन्होने लोहीं मुजेपाइ ७१ नित्यं भौतेन त्रस्तेन सदा वोहतु वस्तथको दुखितेन दुखोश्रोथको व्याधि तेन
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं०ड० ४ १ मा भाग
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ए.टौका
दुःख सम्बडा एतादृयो वेदना वेदिताभुक्ता इत्यर्थः कथं भूते न मया नित्वं भौतेन पुनः कीदृशेनवस्तेन उहिम्मे न पुन: कौशन त्रासवयात् एव दुःखितेन पुनः कोशेन व्यथितेन कम्पमान सर्वाङ्गोपाङ्गेन ७२ तिच चण्डप्पगाढायो घोरामो अइदुस्महा महाभयाो भौमाओ नरएमवेईयामए ७३ हे पितरौ मया नरकेषु वेदनावेदिता असाता अनुभूता कथंभूतावेदनातौबचण्ड प्रगाढा तौबा चासौ चण्डाचतीव्र चण्डा तीव्रचण्डा चासौ प्रगाढाचतीब्र चण्ड प्रगाढातोब्ररसानुभवाधिक्यात् चण्डाउत्कटा वक्त मशक्या गाढाबहुलस्थितिका पुनः कीदृशावेदना घोरा भयदा यस्यां श्रुतायामपि शरीर कम्पते पुनः कौदृशा अतिदुस्महा अत्यन्त दुरध्यासा अतएव महाभया पुनः कीदृशावेदनाभौमायात्र यमाणापि भय प्रदा एकाधिकाचे ते शब्दाः वेदनाधिक्य सूचका: ७३ जारिसामाणसेलोए तायादोसन्ति वेयणा इत्तीणन्त गुणिया नरएस दुक्खवेयणा ७४ हे तात मनुष्यलोके यादृश्यः गौतोष्णादिकावेदना दृश्यन्ते इतो थोतोष्णवेदनाभ्योनरकेषु दुःखवेदना अनन्त गुणवर्तन्ते ७४ सय्व भवेस असाया वैयणावे श्यामण निमिसन्तरमित्त पिजसायानस्थि
निच्च भीएण तत्येण दुहिएणं वहिएणय । परमादुहसंबद्धा वैयणावयामए ७२ ॥ तिब्बचंडप्पगाढायो घोरायो अडू दम्महा। महम्मयाओ भीमाओ नरएमवेडयामए ७३ ॥ जारिसा माणसैलाए तायादीसंति वैयणा। इत्तोणत
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
भाषा% रोगे पोडयोधको सांगोपांग परमाधार्मिकेन दुत्वसंबडा परमोत्कृष्टा वेदना वेदितामया सर्वअंगोपांगने विष परमाधौइकोधी वेदना मे भोगवौ०२
तोब उत्कृष्टा गुरुस्थितिकाघणु सीवघणौ जेहनी स्थितिछे रौद्रा अतिदुक्खाबहाः रौद्र अतौदुखदाई महायोत्पादकाः अत्यन्त रौद्राः महाभयनी जप जावणहार रौद्र महाभडी नरकष बेदना वैदिसामया नरकने बिखे दकानी वेदनामे भोगवी, याहथी मनुष्यसीके जिसौ ममथलोकर्मविषे हे तात
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टीका
वेयण ७५ है पितः मया वेदना सर्व भवेष स्थावरत्नसभवेषु असातावेदिता सौतोणक्षुत्पिपासादिका अनुभूता हे पित: निमेषां तरमात्र अपियत् सातावदनासुखानुभवनं नास्ति तदादीक्षायां किं दुःख' कथ अहं भवद्भिः सुखोचित इत्यु क्तः मयातु सर्वत्र भवे दुःख एव अनुभूतं ७५ तं बि तम्मापि 8 यरीछन्द ण पुत्तपब्वया नवरं पुणसामने दुकवं निप्पडि कम्मणा ७६ अथ पितरौ मृगा पुत्र ब्रूत: हे पुत्र छन्दसौ स्वकीयेच्छया प्रव्रजदीक्षां गृहाण
कस्त्वां निषेधयनि नवरं शब्देन अयं विशेषोस्ति पुनः श्रामखे चारित्रे एतत् दुक्ख' वर्तते यन्त्रिप्रतिकर्मतास्ति रोगोत्पत्तौ प्रतीकारी न विधेयः निर्गताप्रतिकर्मतानिः प्रतिकर्मताचिकित्मानकर्तव्या न चिन्तनीयापि सावद्यवैद्यक नकारयितव्यं ७६ सोविन्तम्मापि यरं एव मेयं जहाफुड पडि
गुणियाणरएसु टुक्खयणा ७४॥ सब्वभवेसु अस्मायावेयणा वेड्यामए । नमिसंतरमित्तंपि जंसाया नस्थिवयणा ७५॥ तंबितम्मापियरोछंदणं पुत्तपब्वया | नवरं पुणसामन्ने दुक्खं निप्पडिकम्मया ७६ ॥ सोवितम्मापियरी एवमयं जहा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग .
दृश्यतेवेदनाः हे तात वेदनादौसे छेइतः अनंतगुणिताः सतिएहहुतौ अनंतगुणौ नरकेषु दुःखवेदनाः नरकनेविखे दुक्खनौवेदनाछे ७४ सर्वभवेसु अशाता सर्वभवने बिखे अशाता दुक्वरूपा वेदना मयाम वेईमेषोन्मेषं यावत्मषोन्मेषताई शातारख नास्ति साता रखनही बदनार भावावरका अनु भावे करौने ७५ तं मृगापुत्र प्रतिब्रूतः मातापितरौहवे मातापिता मृगापुबने कहेके छदेन स्वाभिप्रायेण हे पुत्र दीक्षांग्रहाण हे पुत्र आपणौंइच्छाइ * दौक्षालित्री केवलं पुन: चारित्रेषु दुःख हेवेटादिक्षामांहिं चिकित्साकरावणीनही एवातदीहिलोछे नि:प्रतिकर्मताचिकिमाकरणंनास्ति हेपुत्र थारे दुःख 8 उपजमेजदेकुणसहायकरमे ६ कुमारं ब्रूते मातापितरौ कुमारमातापीतानकहे के एवं एतत् यथास्फट सत्य एवाततुम्हे कहीतेसांची चिकित्सा का करि
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उ टौका
कम्म को कुणई अरमियपक्खिणं ७७ ) ततोऽनन्तरं मातापितरौ प्रति समृगापुत्वः कुमारो ब्रूते है पितरौ एतत् भवद्भया उक्त एवं यथा स्फुटं अवितथं भवदुक्त सत्यमित्यर्थः हे पितरौ अरण्ये मृगाणां पक्षिणाञ्च कः प्रति कर्मणां कुरुते यदा हि मृगाव्याधि पौडितावने भवन्ति पक्षियो वा वनरोगपीडिता भवन्ति तदा को वैद्यः आगत्यरोगचिकित्सां कुरुते न कोपि कुरुते इत्यर्थः ७७ (एगभूत्रो अरसे वाजहाईचरईमियो एवं धम्म चरिस्मामि सञ्जमेण तवे णय ७८) हे पितरौ यथा मृगो अरण्ये अटव्यां वा इति पद पूरण एकाकीभूतः एकाकौसन् चरति स्वेच्छया भ्रमति एवं अनेन प्रकारेण मृगस्य दृष्टा न्तेन अहं संयमैन सप्तदश विधन तपसा हादशविधेन धम्म श्रीवीतरागात चरिष्यामि अङ्गीकरिथामि ७८ (जयामि यस्म पायक महारम मिजायई पच्छन्त रुक्ख मूल मि कोणताहेचिगिच्छई ७८) यदा महारथे महाटव्यां मृगस्थ प्रान्तकोरोगीजायते तदातं मगं सक्षमूले सन्तिष्ट तं को वैद्यचिकि
फुडं। परिकम्मकाकुणई अरन्ने मियपक्खिणं ७७॥ एगो परम्मेवा जहाओ चरईमिगी। एवंधम्म चरिस्मामि संजमेण तवेणय ७८॥ जयामिगरम पायंकामहारानं मिजायई। अच्छतं रुक्खमूलमिकोणताहे तिगिच्छर्दू ७८॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाम
थति चिकित्सा कोण करस्ये अरसे मृगपक्षिणां ऊजाडि मांहिं मृगलापंखी यानी चिकिमा ७७ एकभूतः एकत्व प्राप्ताः परये एकस्तो होई पर खने विखे पडौरहे यथा चरति मृगः पछे मृगरुडाहीर रोगधको मूंकाई पछे चरपांणी पौई एवं धर्म चरिष्यामिः इमई धर्म करोसी संयमेन तपसा संजमपालोस तपकरौस ७८ यथा मृगस्य पातंकरोगः पायाति जिम मुगलाने रोगावे महारण्ये उत्पद्यते महा अटबौने बिखे रोग उपजे मृग तिष्टं तं वृचमूने पर वृक्षने पासे जाई उभारह बेमे कः तंतदा चिकिमति तौहां मृगलानकोण चिकिमा करे ७८ सबकः मृगस्थः पोषधं ददातिकोण
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१.टोबा अ०१८* मते परिचर्या कुरुते सेवां कुरुतण' इति वाक्यालंकार ७८ (कोवासेत्रीसहन्दर कोवासे पुच्चईसह कोवास भत्तपाणच पाहारित्तापणामए ८०) ६०२
है पितरौ तस्य रोगग्रस्तस्य मृगस्थकः पौषधन्ददाति वा अथवा तस्य मृगस्य कचागत्य सुख पृच्छति भी मृगनव समाधिर्वर्तते इति कः प्रकृति वाऽथवा : तस्य मुगस्य भक्तपानं आहारपानीयं आहत्य आनायददाति ८० (जयायसेसही होइ तया गच्छड्गीयरं भत्तपाणस अट्टाए वाराणि सराणिय ८१)
है पितरौ यदा च समृग: मुखो भवति स्वभावेनरोगमुक्तो भवति तदा गोचर गच्छति भच्च स्थान ब्रजति तत्र च भक्तपानस्वार्थ वाराणि हरित स्खलानि च पुनः सरांसि जलस्थानानिविलोकयतीत्यध्याहारः ८१ (खाइत्ता पाणियं पाउ वलरेहिं सरहिं वा मिगचारियं चरित्ताण गच्छईमि गचारियं ५२) हे पितरौ सनोरोगी मृगी मृग चर्यया मृग भोजन पानविधिना चरित्वा वझरेभ्योहरित प्रदेवेभ्यः खादित्वानि अभयं भजा तथा सरेभ्य
कावास ओसहंदेड्कोवासपुच्छडू मुह' । कासमत्त'चपाणंबाआहारित्त पणामए ८०॥ जयायसे मुहीहोडू तयागच्छडू
गोयरं। भत्तपाणस्म अट्ठाए वल्लराणि सराणिय ८१॥ खाइत्तापाणियंपाउं बल्लरेहिं सरहिंवा। मिगचारियं चरि S तोहां मृगलाने ओषधदौई कः मृगस्य पृच्छति मुखं कोणते मृगलांने साता पूछे कः वातस्य मृगस्थ भक्तपानंवाकोणते मृगलाने खावाने भातपाणी
दोई आहत्य आनीय प्रणामयेत् अपयेत् कोणते मृगलाने ढणपाणी आणौदेइछे ८० यदा च स मृगः सुखी भवति जौवार मृगनोरोगजाई सुखौहोई तदा गच्छति गोचरणं भ्रमणं तिवारते मृगजाइ चरवा भणी भक्तपानस्य अर्थाय भातपाणोने अर्थे वलराणि चारिभुवः नीला तृणां खाई सरोवर पाणीपौवे ८१ भक्षयित्वा पानीयं पौत्वा बणाखाई पाणीपौने वनरैः सरोजलैबिलि खाई पाणीपीने अथ मृगचर्यामेव्य: मगचर्या चरीने गच्छति
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.न. ४१ मा भाग
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•टीका
स्तटाकेभ्यः पानोयं पौत्वा मृगो मृगचर्या गच्छति इतस्तत उत् नवनामिका गतिं प्राप्नोतीत्यर्थः ८२ (एवं समुडिओ भिक्खू एवमेव अणेगो मिगचारियं चरित्ताण' उट्ट पक्कमईदिसं८३) एवं अमुना प्रकारेण मृगवत् समुत्थितः संयमक्रियानुष्टानं प्रति उद्यतो भिन्तुर्मृगचर्या चरित्वांगीकृत्य उर्द्धांदिशं प्रति प्रक्र मते प्रब्रजति तथा विधरोगोत्यत्ती अपि चिकित्माशाभि मुखो न भवति पुनः कीदृशः साधुः एवं एव अनेनैव प्रकारेणैव मृगवत् अनेकगः अनेकस्थानस्थित: अनियतस्थान विहारो यथा मृगोवनखण्डे नवौने २ स्थान विहरति तथा नाना स्थान विहारौत्यर्थः तथाई मृग चर्यया आतंकस्थ अभाव भक्त पानादिगवेषण तया इतस्ततो भ्रमणेन भक्त पानं गृहीत्वा संयमात्मानं धृत्वा पश्चात् ऊर्जा दिशं मुक्ति रूपां दिशं प्रतिप्रकमि थामि सर्वो परिस्थीभविथामोति भावः ८३ (जहामिए एगणेगचारौ अणगवासेधुवगीयरेय एवं मुणोगोयरियप्पयिनीहौसएनीवियसिंस एज्जा ८४)
त्ताणं गच्छई मिगचारियं ८२ ॥ एवं समुडिओ मिक्खू एवमेव अणणे गगी। मिगचारियं चरित्ताणंउडेपक्कमई दिसं ८३॥ । जहामिए एगअणेगचारी अणेगवास धुवगोयरेय। एवं मुणौगायरियंपविट्ठीणोहौलए नोविय खिंसएज्जा ८४ ॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१०४१ मा भाग
भाषा
मृगावयं पछे वनमांहिंइच्छाई फिरे ८२ एवं मुगवत् समुस्थिती भिक्षुः इम मगनी परि साधु एवमेव मृगवत् एकलोषको मुख दुक्तसाधको पवित्व वासं मृगचर्या चरित्वा अनियतवास मृगचारी चरीने कोहार स्थिति वास नही कई दिस मुक्ति' गाति उईदिडूमधको इमकरतु मुक्ति' जार ८३ यथा मृगः एको अपि पनकस्थानवासी जीम मुगएकथको घणठामि रहे पनिकस्थानवासी निश्चितभीजन सामग्रीकः घणो स्थानके वास कर धर्ण ठाम पाचार लिई एवं भनि: गीची प्रविष्टः सन इम माधगीचरी गयीथ को नहीलयति नख्सियति कोई नहोलनानकर निंदा न कर ८४ मगचों चरिष्यामिड
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उ० टोका अ०१८ ६०४
सूत्र
भाषा
यथामृगः एकोऽसहायोसन् अनेकचारो भवति अनेकत्र भक्त पानाचरणशीलो नानाविधभक्तपानग्रहणतत्परः स्यात् पुनर्यथा मृगोऽनेकवासःस्यात् पुनर्यथा मृगोध्र ुवगोचरो भवेत् ध्रुवः सदा गोचरीयस्य स ध्रुवगोचरः निश्चयेन भ्रमणादेव लब्धाहारः स्यात् एवं अमुना प्रकारेण मृग दृष्टान्तेन सुनिः साधुगोचर्याभिचाटनं प्रविष्टः सन् नोहोलयेत् अनिष्टबोरसं लब्धा इदं कुत्सितं विरसं इत्यादि वाक्य नैनिन्दयेत् तथा अपि निश्चयेन पुनर्नोखिं सयेत् आहारपानौयेवा अलब्धे सति कमपि गृहस्थं ग्रामं नगरं श्रात्मानं वाननिंदेत् ८४ ( मिगचारियं चरिष्यामि एवं पुत्तों जहासुहं अम्मापि कहिं अणु नाश्री जहाति उवहिंतओ ८५ ) यदा मृगा पुत्रेण पितरौ प्रति इत्युक्त' हे पितरौ अह' मृगचर्या चरिष्यामि यथा भवदग्रे मृगचर्या जक्तातां अङ्गीकर ष्यामि साधुमार्ग' ग्टहौष्यामि यदा मृगामृत्रेण एवं उक्त तदामातापितरौ ब्रूतः हे पुत्रयद्येवं तदा यथा सुख ं यथा तव सुखं स्यात् यथा भवते अभि रुचितं सुख ं इति यथा सुख तथा कर्त्तव्व' अस्माकं श्रशास्ति ततो मातापितृभ्यां अनुज्ञातो मृगा पुत्रः कुमारः उपधिं परिग्टहं सचित्ताचित्त रूप परित्यजति ८५ ( भिगचारियं चरिस्यामि सव्वदुखविमोक्खणि तुम्भ हिं समणनाओ गच्छपुत्तजहासुहं ८६ ) सर्वपरिग्रहन्त्यक्का पुनर्मृगा पुत्रो वदति हे पितरौ अहं भवद्भयां अनुज्ञातः सन् मृगचर्या अङ्गीकरिष्यामि कोट्टयों मृगचर्यां सर्वदुःख विमोचर्णी सर्व विपत्ति विमोचितां तदा मृगा पुत्र ं प्रतिपितरौवदतः हे पुत्र यथा सुख गच्छदीचां गृहाण ८६ ( एवंसो अम्मायरो अणमाणित्ताण बहुविह' ममत्त छिन्दरताहे महानागोव्व मिगचारियं चरिस्मामि एवंपुत्ता जहासुहौं । अम्मापिईहि' अणुन्नाओ जहाइ उवहितओ ८५ ॥ मिगचारियं चरि मृगचर्याइ चरोसिविचरोस मातापितरौ जल्पितः हे पुत्र यथासुखं तथाकुरु मातापौता बोल्या पुत्र जौम सुखहोवे तौमकरो मातृपितृभ्यां अनुज्ञातः मातापिताइ' आज्ञादौत्रांथकां त्यजति उपधि परिग्रह परिग्रहछोडे ८५ ततः अनंतर मृगचर्यां चरिष्यामि तिवारपछौ मृगचारी चरोसौ सर्व्वदुःख
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रामधनूपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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م
علي
कञ्चुयं ८७) एवं अमुना प्रकारेण समृगापुनः मातापिचोरनुज्ञा लात्वाताहे इति तदा तस्मिन् काले बहुविध ममत्व छिनत्ति इदं धन मम इदं गृह मम इदं कुटम्ब मम इति बुद्धिन्यजतीत्यर्थ : कः किमिव महानागो महासर्पः कंचुक इव यथा महासो निर्मोकन्त्यजति तथा मृगापुत्रः सर्व मम त्वन्यजतौतिभाव: ८७ (इट्टी वित्तं च मित्तेय पुत्तदारं चनायो रेणुयच्चपडेलग्गनिहुणित्ताणनिमायो ८८) मृगापुनः एतत्सर्व निडू यत्यक्ता निर्गतः संसारात् गृहाच्चनिःसृतः किंकित्यक्तमित्याह ऋद्धिहस्त्यश्व धनधान्यादिः च पुनमित्राणि सहजसहवर्धित सहपांश क्रौडितानि मुहृदः पुनः पुत्राणि अङ्गजापुनराः स्त्रियः पुनातयः स्वजनाः क्षत्रियाः एतत्सर्व परित्यज्य प्रबजित: किमिव पटेलग्न रेणुमिव नूतनवस्त्रेलग्न रजइव यथा कशिचतुरीमनुष्योवस्त्रे लग्न रजोनितुनोति तथा मृगा पुत्रीपौत्यर्थः ८८ (पञ्चमहब्बयजुत्ती पञ्चसमियोति गुत्तगुत्तोय सम्भिन्तरबाहरिए तथो कामं
स्मामिसव्वदुक्ख विमोक्खणं तुम्भ हिमणुनायो गच्छपुत्त जहासुह८६॥ एवंसी अम्मापियरी अणुमाणित्ताण बहुविहं
ममत्त विंदईताहे महानागाव्वकंचुर्य ८७॥ दूड्डीवित्त'चमित्त य पुत्तदारंचनायो । रेणुयंवपडेलग्ग निडुणित्ताण विमोक्षण सर्वदुःखथौ मूकववाभणी युवाभ्या मनुज्ञातः तुम्हारौ आज्ञालेईने मातापितरौ जल्पिती गच्छ पुत्र यथा सुख ना पुत्र जौम सुखहीर तिम ८६ एव सः मृगापुत्रः मातापितरौ ते मृगापुत्र मातापीताई अनुज्ञात: बहुविध प्रान्चादीधाथको घर्णा प्रकार ममत्व छिनत्तिः तदा ममता छोडेतिवारे यथा महानागसर्पः कंचुक त्यजति सांप जिम कांचलौ छोडौनेनासे ८७ ऋतिः वित्त धन' मिवाणि ऋडिवित्तधनमित्र पुत्रः दाराणि पुनः ज्ञातयः वेटा स्त्री ज्ञातीगोत्री सर्वारजमिव पटेवस्त्रे लग्न जीम वस्त्रने विषे रजलागौ हुवे भाटको दूरिकोज निड य प्रव्रज्यां गृहीतवान् तिम
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं०७०४१ मा भाग
भाषा
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उ०टौका
अ०१८
६०६
सूत्र
भाषा
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HOROIGIOGR
८) तदा मृगा पुत्रः कौशोजातः पञ्च महा व्रतयुक्तोजातः पुनः पञ्चसमिति सहितः ईर्याभाषैषणादानमिचेपणोश्चार प्रश्रवण खेल जल सहाय पारिष्टापनिकासमिति युक्तः पुनस्त्रि गुप्तिगुप्तः मनोवाक्काय गुप्ति सहितः पुनः साभ्यन्तर बाह्यतपकणि उद्यत: पायवित्त' विणश्रो वेया वयं सहेबसि मात्र ज्ाण' उस्मग्गोविय अभिन्तरस्रोतवोहोइ १ अणसणमूणोयरिया वित्तोस वण रसञ्चाओ कायकिले सोसलीणयाय बन्मोतबोहोर २ बाद बिधतपः कर्म्मणि साबधानोजातः ८८ ( निमम्मोनिरहंकारो निस्तङ्गो चत्तगारवो समोय सव्वभूएस तसेसुथा वरेसुय ८० ) पुनः कौडशी मृगा पुत्रः निम्नमः वस्त्र पात्रादिषु ममत्वभावरहितः पुनः कोदृशो निरहङ्कारः अहङ्काररहितः पुनः कौशोनिस्तङ्गोबाह्याभ्यन्तर संयोगरहितः पुनः कीदृशस्त्य क्लगारवः गारवत्रय रहितः ऋद्विगारवरसगारवसा तागारव इत्यादि गर्वत्रयरहितः पुनः कीदृशः सर्वभूतेषु समः रागद्वेष परिहारात् समस्त प्राणिषुत्र निग्गओ ८८ । पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तोय । सम्भितर बाहिरएतबोकम्म मि उज्जुओ ८ । निम्ममो निरह ंकारो निंगो चत्तगारवो। समाय सव्वभूएस तसेसु थाबरेसुय १० । लाभालाभे मुहेदुक्खे जोविए मरणेतहा मृगावे राज्यऋद्धि कोडोने दौचालोधी ८८ मृगापुत्रो पंचमहाव्रतयुक्त: मृगापुत्र पंचमहाव्रत सहित पंचसमिति समितः त्रिगुप्त गुप्तः पांचे समोते समतोहि गुप्त गुप्तो अभ्यंतरे प्रायवित्ता दो अभिंतरए प्रायश्चित्त लौजे तपः कर्मणि उद्यमपरो जातः अभ्यंतर तप वाह्य तप तेहने विषे रतहओ ८८ स मृगापुत्रः ममतारहितः नौरहंकार रहौत गृहस्थ संग रहतः त्यक्तः गारवः गृहस्थने संगे रहित गौरवछोड्योछे रिडी गारवरस्सगारव सातागारव समोजातः सर्वभूतेषु सर्वजीवनेविषे समताभाव हओ वसेषु स्थावरेषुचत्रसजीवने विषे थावरजीवने विषे ८० लाभालाभ
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०० ४१ मा भाग
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8 सेष स्थावरेषु च समस्त जोवेषु सदृशः ८. (लाभालाभेसु हे दुक्खे जोविएमरणेतहासमोनिन्दापसंसास तहामाणावमाछत्री ८१) तथा पुनमगापुत्र: अ०१८* लाभे आहारपानीय वस्त्र पावादीनां प्राप्ती तथा अलाभे अप्राप्ती तथा सुखेतथा दुःखे तथा पुनर्जीविते मरण समः समानवृत्तिः तथा पुनर्निन्दासु तथा
प्रसंसामुस्तुतिषु तथा माने आदरे अपमाने अनादरे मानव अपमानच मानापमानौ तयोर्मानापमानयोः समः सदृशः केनापि आदरै प्रवृत्त सति मनसि प्रहृयो न भवति केनापि अपमाने प्रदत्ते सति मनसिदूतो न भवति ८१ (गारवेसकसाएसु दण्डसनभएमुयनियतीहाससोगात्रो अनियाणो अबन्धणो ८१) पुनः समृगा पुत्रः कोदृशोजातः गार वेभ्योनिवृत्तः पुनः कषायेभ्यः क्रोधादिभ्यो निहत्तः च पुन: दहशल्यभयेभ्यो निहत्तः दण्डवयं मनोवाक् कायानां असापारीदण्डः उच्यते तस्माबित्तः पुनः शल्यत्रयात् निवृत्तः मायाशल्य निदानशल्य मिथ्यादर्थनशख्य एतत् शस्यत्वयं ततो निवृत्त: तथा पुनः सप्तभयेभ्योनिवृत्तः सप्तभयानि इमानि इह लोक भयं १ परलोक भयं २ आदान भयं । अकस्माइयं मरणभयं ५ अययोभयं । आजीविकाभयं ७ च एवं सप्तभयानि अत्र सर्वत्र प्राक्ततत्वात् पञ्चम्यां सप्तमी पुनः कोदृशो मृगापुत्र: हास्य थोकाभ्यां निवृत्त पुनः कीदृशः अनिदानी
समानिंदा पसंसामु तहामाणावमाणओ गारवेसु कसाएमु दंडसल्लभएमय । नियत्तो हाससोगाओ अनियाणी सुखे:दुखे लाभनेविषे अलाभनेविषे सुखदुःखनेविगे जीवितैमरण तथा जिवितव्यनेविषे मरणनेविषे तिम जरहे समोजात: निंदा प्रशंसायां सरिषी निंदा प्रसंसाने विष तथा मानापमानयोः मान अने अपमान तेहने विषं सरिषा प्रणामछे ८१ स मुनिः गारव त्रयः चतु कषायाः सौन गारव चार कषाय वयः दंडाः वयः शल्यानि सप्तभयानि विणि दंड विणि सालसात भय ते रहितछे निवृत: हास्य शोकात् हासी शीकएहुंचको रहितछे अनिदानी बंधन रहितो जात: नियाणरहित बंधनरहित हुओ ८२ अनौप्सितः इहलोकार्थ इहलोकनी पणि वांछानधी परलोका अनौसितः परलोकनों पचि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०उ.४१ मा भाग
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स.टीका
४ निदानरहितः पुनः कथम्भूतः प्रबन्धनः रागद्देष बन्धनरहितः८१ (अणिमित्रो इह लोए परलोए अणिस्मिश्री वासीचन्दणकप्पीय असणेपणसणे * तहा ८३) पुनः कोदृशः अनावितः निवारहितः कस्यापि साहाय्य नवाञ्छति तथा पुनरिह लोके राज्यादि भोग तथा परलोके देवलोकादि मुखे
अनावितः निवाबवाञ्छत पुनः समृगा पुत्रीवासी चन्दनकल्पः यदा कश्चित् वास्यापर्श नाथरीरं छिनत्ति कश्चिच्चन्दनन शरीरं पर्चयति तदा तयोरुपरि समानकल्पः सदृशाचारः तथा पुन: प्रशने आहारकरणे तथा अनशने आहार प्रकरणे सदृशः ८३ (अप्य सत्थेहि दारहि सव्वीपिहियासर्व अज्मप्य काणजोगहि पसस्थ दमसासणे ८४) पुनमगा पुत्रोऽप्रयस्तेभ्यो दारभ्यः कोपार्जतो पायेभ्योहिंसादिभ्यो निहत्त इति शेषः पुनः कीदृशी अप्रशस्त हारेभ्योनिवर्त्तनादेवसर्वतः पिहिताथवः पिहितनिरुवा आश्रवाः पापागमनदाराणि येन स पिहितायवः पुनः कीदृशः अध्यामध्यानयोगः प्रशस्तदम
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•९.४१ मा भाग
सूब
अबंधणी ६२ । अणिमित्रो इहलोए परलोए अणिमित्रो। वासीच'दण कप्पोय असणे अणसणेतहा ६३। अप्पस
ये हिदारहि सव्वओ पिहियासवो। अझप्पज्माणजोगहिं पसत्य दमसासणे १४ । एवं नाणेणचरण दंससेण 8 वांछानथो वासौचंदनौ वसोलकछेदने चंदनलेपो सदृशः कोइ वंसोलास्यु छेदे अथवा कोई चदनस्य विलेपन करतेवे सरिषा प्रशने भोजने अनशने
उपवास तथा सदृश: जिमतोसरिष उपवासकरतु' सरिषू'८३ अप्रशस्तैः हिंसादिभिरिः अप्रथस्तेजमाठा हारतेणे करौरहितछे सर्वतः पिहिता यवः निरुद्धाकर्मागमः सर्वपायवरुध्यांच अध्यात्मध्यानयोगेन अध्यात्ममनठामिराखवु शुभध्यानराखवु प्रशस्तदमयुक्तः सर्वज जिनयासने निश्चलप्रशस्त भलो उपचमचमातिणकरीने सहित जिनशासनने विर्ष निश्चलो ८४ एवं अनेन प्रकारेण ज्ञान चारित्रे दर्शनेन तपमा च इणिजप्रकारे सामने विषे
भाषा
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उल्टीका
शासनः अधिामनि ध्यानयोगा: अध्यात्मध्यानयोगास्तै: अध्यात्मध्यानयोगैमनसि शुभव्यापारैः प्रशस्ते दमशासने यस्य स प्रशस्तदमशासनः दम उपयमः शासनं सर्वज्ञ सिद्धान्तः यस्य शुभयानयोगैः उपसम श्रुतज्ञाने शुभे वर्तते इत्यर्थ :2४ ( एवं नाणेण चरणेपदं सरीणतवेणय भावणाहिय सुद्धा हिसम्म भावित्त अप्पयं ८५) (बहुयाणियवासाणि सामनमणुपालिया मासिएण उभत्तेण सिविपत्ती अणुक्तर ८५) युग्म उभाभ्यां गाथाभ्यां वदति तु पनगापुत्रोमुनिमासि केन भक्त न सिद्धि प्राप्तो मोक्षगतः मासेभबं मासिकीन मासिकेन भक्ते न मासोपवासेनेत्यर्थः कथंभूतासिद्धि अनुत्तरां प्रधानां सर्वस्थानकेभ्यः उत्कृष्ट स्थानमित्यर्थः जन्मजरा मृत्यु उपद्रवेभ्यो रहितत्वात् किं कृत्वा एवं अमुनाप्रकारेण ज्ञानेन मतिश्रुतादिकेन पुनथरणेन यथा ख्यातन पुनर्दर्भनेन शुइसम्यक्त शुद्धबहारूपेण पुनस्तपसा हादयविवेन च पुनर्भावनाभिर्महाव्रत संबंधिनोभिः पंचविंशतिसंख्याभिर्भावनाभिः अथवा अनित्यादिभिर्दादशप्रकाराभिः आत्मानं सम्यकप्रकारेण भावयित्वा निर्मलंकृत्वा कथंभूताभिर्भावनाभिः शुद्धाभिर्निदानादिदोषमलरहिताभिः पुनः किं 8 कवा बनि वर्षागि बाम व यति धर्म अनुपाच्य पाराय ८५ ( एवं करेंतिसादा पंडिया पवियखणा विणयति भोगस मियापुत्ते जहामिसी) संडाः सम्यग जाततखाः पुरुषाः पंडिताः हे योपादेय बुधियुक्ताः अतएव प्रकर्षण विचक्षणाः अवसरमाः एवं कुर्वन्ति भोगेभ्यो विशेषण निवर्तन्ते कइव यथा य द वाय मृगापनापरिव यया मृगापुवर्षिः भोगभ्यो विनिता तथा रपि चतुरै गभ्या विनिवर्तितव्यमितिभाषः अनमिसीतिमकारः प्राशतत्वा
तवणय । भावणाहिय सुद्धाहिसम्म भाषित्तु अव्ययं ५॥ वहुयाणिउवासाणि सामन्त्रमणुपालिया। मासिएणउभ चारित्रने विषे दर्शनने विर्ष तपनेविषे भावनाभिनिम्मेलाभिः सुद्ध भावनाभावौन सम्यग्भावयति आमान सम्यग् प्रकार प्रापणा आमाने भावोन ८५ स मृगापुत्रः बहुनि वर्षाणि ते मृगापुत्र घणांवरसताई चारित्र अनुपाल्य चारित्र अनुक्रमे पालौने मासिकेन भन न एकमासनु अणमणकरौने सिडिं
राम धनपतसिंह वाहादुर का पा-सं.उ.४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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उल्टोवा अ०१८
दलाक्षणिकः ८६ (महप्पभावस्म महाजसम्म मियाएपुत्तम निसम्मभासियं तवप्पहाणंचरियंच उत्तम गइप्पहाणञ्च तिलोयविस्मयं ८०) (वियाणिया दुक्व 8 विवडणं धण' ममत्तबन्धञ्च महाभया वह सुहा बहं धम्म धुरं अगत्तर धारहनिब्वाण गुणावह तिमि ८८) पुनर्गाथा युग्भ न संबंध: भीभव्याः अनु त्तरां सर्वोत्कष्टां धर्मधुर' धर्म रथस्य भारं धारयन कथं भूतां धर्मधुरं सुखावहां सखप्राप्ति हेतु भूतां पुन: कौदृशं धमधुर' निर्वाण गुणावहां निर्वाणस्य गुणाः निर्वाण गुणा: मोक्षगुणाः अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तसुख अनन्त आयुरनन्तवौर्य रूपास्तेषां अवहार पूरकानिर्वाण गुणा वहातां निर्वाण गुणावहां किं कृत्वा धर्मधुरन्धारयव धनं दुःख विवईनं विज्ञाय च पुनर्ममत्वं बन्ध व संसारस्य बन्धनं विज्ञाय कीदृशं धनं मम त्वच महाभयावह महाभयदायक चौराग्नि नृपादिभ्यः कष्टप्रदं पुनः किं कृत्वा च पुनम गायाराज्ञयाः पुत्रस्य मृगापुत्रस्य उत्तम प्रधान चरितं चरित्र चारित्र वृत्तान्तं
तेणं सिद्विपत्ती अणुत्तरं ६६ ॥ एवंकरेंतिसं बुद्धा पंडियापवियरवणा। विणयटुंतिमोगेसुमियापुक्तेजहामिसी १७॥
महापभावस्म महाजसम्म मियाएपुत्तस्मनिसम्ममासि । ववप्पहाणं चरियंच उत्तमं गइप्पहाणंचतिलोयबिस्मयं ह८॥ प्राप्त: अनुत्तरां सर्वोतमां सिद्धि गतिमुक्त पुडुता ८६ एवं कुर्वति ज्ञाततत्वाः तत्वनाजाणपंडितइ मकरे पंडिताः प्रविचक्षणा पंडित विचरण हुइते विनिवत्त ते भोंगेभ्य: निवर्ते भोगथको संसारभोगधको निव| मृगापुत्री यथा ऋषि: जिम मृगापुत्र ऋषिभोगथको निवत्याति मनिवर्त्तवु ८७ महाप्रभावस्य महाप्रभावछे जहनी महायश सः महायशछे जहनी मृगापुत्रस्य निशम्यभाषित' मृगापुत्रनुभाथु सांभलीने तप प्रधान तप उत्तमचरित्र करोने पुनः उत्तम प्रधान तप करोने गतिप्रधान मुक्तिप्रधान उत्तममुक्ति गति त्रिलोकेविख्यात मुक्तिकेहवीछे त्रिलोकनेविष प्रसिह ८ विशेषण
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रासं० २०४१ मा भाग।
भाषा
intimicattituatant
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तथा तस्य मृगापुत्रस्य भाषित' मातापिलभ्यां संसारस्य अनित्यो पदेशदानं निशम्य इदिधृत्वा कोथं मृगापुत्रस्य चारित्र तवष्पहाणं सफः प्रभानं पुनः उ• टीका
कीदृशं मंगा पुत्रस्य चरित गइष्पहाणं गत्वा प्रधानं गतिमोक्षलक्षणा तया प्रधान श्रेष्ट' मोक्षगमनाई पुनः कीदृशं मृगा पुवस्य चरित्र चिसोकधिवत' त्रिलोक प्रसिद्ध कोदृशस्य मृगापुत्रस्य महाप्रभावस्य रोगादौनां प्रभावन दुःकर प्रतिज्ञा प्रतिमारूपाभि ग्रहाणां पालने में महामहिमान्वितस्य पुनः
कोदृशस्य मृगा पुत्रस्य महायशसः महत् यशोयस्य समहायशास्तस्य महायशम: सर्वदिग् व्यापिकौत्तः इति अहं मृगापुवस्य चरितं तवाग्रे ब्रवीमि 2 इति सुधर्मा स्वामोजम्बूस्वामिनं प्रत्याह ८८ इति मृगापुत्रौयं एकोनविंशति नम अध्ययनं १८ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय
श्रीलक्ष्मौकौर्ति गणि शिव लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां एकोनविंशतितम मुगापुत्रौयं अध्ययन अर्थतः संपूर्ण ॥ अथ विंशतितम प्रारभ्यते ।
बियाणिया दुक्ख विवडण धणंममत्त बंधंच महाभयावहं। सुहावह धमाधुर अणुत्तरं धारह मिव्वाणगुणावहं महंत्ति बमि ॥ मियापुत्तज्मयणसम्मत्तं ॥१॥ सिद्धाणं नमोकिच्चास जयाणेच भावयो । अत्यधम्मगइतच्च अणुसट्टिमुणे
प्रय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.४.४१ मा भाग
भाषा
ज्ञात्वा दक्वविवर्तन' विशेषकरोजाणीने धनके ते इक्वन' वधारणहारके ममत्व'ध ममतानीव'धले पुनः महाभयावह वली महाभय देणहारहे 8 * सुखावहां धबधुरा सर्वोत्तमा धर्मनोधरा सर्वमांहिं मुखनौदेणारी उत्तमछे धारयत अनंत ज्ञानदर्शनवीय कांबवीमि इस्योधर्म अहो भव्यजीव सुम्हे
अंगीकारकरो किस्यो धर्म मुक्तिनासुख तेहनोदेगहारो। ।इति योउगणींशम अध्ययनटमी संपूर्ण समत्त ॥ १८॥ सिई भ्यः नमस्कारं कृत्वा * सिहानकाजे नमस्कार करौने मयतेभ्य आचार्योपाध्याय सर्वसाभुभ्यः प्राचार्य उपाध्याय सर्व साध तहने नमस्कार करीने अर्धधम्मगत तत्व अर्धधर्मगत
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उ० टोका
श्र०२०
६१२
सूत्र
भाषा
XXXXXXXR KEXX
पूर्वस्मिन् अव्ययते साधूनां निःप्रति कर्मता उक्ता रोगादौ उत्पत्रेसति चिकित्सान कर्त्तव्या न कारयितव्या नानु मन्तव्या इत्युक्त अथ विंशति अध्ययने सातिः प्रतिकता महानिप्रन्यस्य हिता अतोऽनाथत्व परिभावनया इत्युच्यते ( सिद्धायं नमो किच्चा सज्ञ्जयाय च भावओ अन्य धम्म गई तञ्च' अण्णु सट्टि ं सुगृहमे १ ) भो शिश्राः मे मम अनुमिष्टिं शिक्षां यूयं शृणत किं कृत्वासिदान् पञ्चदम प्रकारान् नमस्कृत्य च पुनर्भावतो भक्तितः संयतान् साधून् आचार्योपाध्यायादि सर्वसाधून नमस्कृत्य कोडथों मेऽनुशिष्ट अर्थ धमंगतां अध्येते प्राप्यते धर्मात्मभिः पुरुषैरिति अर्थः स चासो धर्मीय अर्थधर्मस्तस्यगति र्ज्ञान ं यस्यांसा अर्थधम्मंगतिस्तां द्रव्यवत् यो दुःप्राप्यो धम्मस्तस्य धम्मस्य प्रातिकारिकां यया मम शिचया दुर्लभ धम्मस्य प्राप्तिः स्यादिति भावः पुनः कोदृशमेऽनुशिष्टि' तथ्यां सत्य अथ वा तत्वं तत्व रूपां वा १ ( पभूयरयणोराया सेणिओमगहाहिवो विहारजत्त पिज्जाओ मण्डि कुच्छंसिचे इए २ ) श्रेणिकोनाम राजा एका मण्डित कुचिनाम्नि चैत्ये उद्याने विहारयात्र या उद्यान क्रोडयानिर्यातः नगरात् क्रीडार्थमण्डित कुचिवने गत इत्यर्थः कीदृशः श्र णिकोराजामगधाधिपः मगधानां देशानां अधिपमगधाधिपः पुनः कीदृशः प्रभूतरत्न प्रचरप्रधान गजाश्मणि प्रमुखपदार्थधारौ २ (नाणादुमलया हमे १ ॥ पभूय रयणोराया सेओि मगहाहियो । बिहारजत्तं निज्जाओ मंडिकुच्छि सिच इए २ ॥ नाणादुमलया तरूपके जेतव अनुसृष्टि श्रृणतमियाः कथयतः मनभित्र तुम्हे सांभलोड कंडुकु १ प्रभूतरत्र राजा घणाई' रत्नके जेहने इस्यो राजा श्रेणिको मगधाधिपः श्रेणिक मगधदेशनो घणो यात्रायाः क्रीडार्थ' नौर्गतः ते श्रेणिक राजा क्रौडाने अर्षे नोकल्यो मडि कुच्छिनाम्नि चैत्य वने म'डि कुच्छि इसेनामे बनखंडने विषे २ नानाद्रुमलताकोर्ण वनख'डकिस्यु के भांति २ नारुख अनेवेलितिथि करीसहितको नाना प्रकारेण पचि निवेशित भांति भांतिना जे पंखो तिथे करो वनखंड सेञ्चोके भांत भांतनां जे फूल तिथे करोने वनख' छायांक उद्यान' नंदनोपम' वलौते वनख'ड
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०स० ४१ मा भाग
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इब नाणापक्खि न मे वियं ना पाकु सुनस छब उजाणं नन्दपोवन ३) अय मंडित कुक्षिनाम उद्यानं कीदृशं वर्तते तदाह कीदृशं तहनं नाना मलता उ टीका अ०२०
* कौल विविध वृक्षवलौभिर्व्याप्त पुनः कोदृशं नाना पचिनिषेवितं विविधविहङ्ग रतिशयेन आथित' पुनः कीदृशं नाना कुसुमसच्छन्न बहुवर्ण ६१३ र पुष्प व्याप्तं पुनः कोदृशं तत् उद्यानं नागरिकजनानां क्रीडास्थानं नगर समीपस्थ वनं उद्यानं उच्यते पुनः कीदृशं नन्दनीपमं नन्दम देववनं तदुपम ३
(तत्थ सोपासईसाहु सनयं सुसमाहियं निसन्नरुक्खमूलंमि सुकुमाल सही इयं ४) तत्र वनेस येथिको राजासाधु पश्यति कीदृशं साधु संयत सम्यक प्रकारेण यतं यत्नं कुर्वन्तं पुनः कोश' सुसमाधितं सतरा अतिशयेन समाधि युक्त पुनः कोदृशं वृक्षमले निषिस' स्थित पुनः कीदृय सुकुमालं पुन: कीदृशं सुखोचित सुख्खयोग्य ४ (तस्म रुवं तुपासित्ता राइणोतं मिसञ्जए अच्चन्तपरमी आसौ अउलोस्वविम्हिी ५) राज्ञः श्रेणिक तस्मिन् संयते
उन्नं नाणापक्खि निसेषियं । नाणाकुसुम संछन्न उज्जाणं नंदणीवम ३॥ तत्यसी पासईसाहुसंजयं सुसमाहियं ।
निसन्नं रुक्खमूलमिसुकुमालं मुहीयं ४ ॥ तस्मरूवंतुपासित्ता रामोतं मिसंजए। अच्चंत परमापासी अउली रुव भाषा 8 किस्य के नंदन वन सरोषो के ३ तस्मिन् वने श्रेणिकः साधु पश्यति ते वनखडने विषे श्रेणिक राजाइयतीदेख्यो संयत मनः समाधान
वंत किस्योछे तेयतो संयतोछे मनः समाधिमाहिं वत्तके निसिन' स्थित बक्षमूले सयती वृक्षने नीचे बैठाछे सकुमातं सुखी चितांयती सुकुमाल सुखने योगछे ४ तस्य साधीः रूप दृष्ट्वा श्रेणिक राजाइय तोना रूप देखोने अन्वत अतिशय संजती राजा प्रधानः आसीत् अयत विस्मय ऊपनी संजतो राजाने विस्मय अपनी अन्यन सदृशरूप विषये पाश्चर्य इस्योरूपकौहार दौठो नही ५ पही इति पाश्चर्ये वर्णे गोर
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
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टोका
Nor
००
साधो अत्यन्त परमोऽधिकोत्कष्टोऽतुलो निपमोरूपविस्मयो रूपाश्चर्यमासीत् किं कृत्वा तस्य साधीकपं दृष्टा तु गब्दीलङ्कार ५ (अहो वो अहोरुव अहो अजस्मसोमया अहीखन्ती अहोमुत्ती अहोभोग असङ्गया ६) तदाराजा मनसि चिंतयति अहो इत्याश्चर्ये आश्चर्यकारी अस्य शरीरस्य वर्णागौर वादिः अहो आर्यकत् अस्यासाधी रूपं लावण्य सहितं अही आश्चर्यकारिणी अस्य आर्यस्य सौम्यताचन्द्र वत् नेत्र प्रियता पाचर्यकारिणी अस्य क्षान्ति क्षमा अहो आश्चर्यकारिणी चास्य मुक्तिनिलौभता अही पाचर्यकारिणी प्रस्य भोगे असङ्गताभोग असङ्गताविषये निस्पृहता (तस्मपाए उवन्दित्ता काऊणयपाहिण' नाद दूरमणा सन्ने पञ्चलो पडिपुच्छ्रई ७) तस्य साधी: पादौ वन्दित्वापुनः प्रदक्षिणों कृत्वा राजानाति दूर' नात्यारात: न अतिदूर वर्ती न सिनिकटवर्तीसन् प्राञ्जलि पुटी बद्दाञ्जलिः पृच्छति प्रषणं करोति ७ (तरुणोसि अजीपबईओ भोग कालंभिसज्जया उद्विीसि सामने
विम्हओ ५॥ अहोबन्नो अहोरूवे अहोअज्जम सोमया। अहोखंती अहामुत्ती अहोभोगे असंगया ६॥ तस्मपाए
उदित्ता काऊणय पयाहिणं नाइट्रमणासन्ने पंजली परिपुच्छई ७॥ तरुणीसि अज्जोपव्वदूओ लोगकालंमिसंजया वादिरूप कोणदे होनो वर्ण के गौरकोण रूपछे अहो आश्चर्ये आर्य स्य साधो: सोमता एहनी प्रधानसोम्यछ सरलपणो अहो आश्चर्ये शांतिः क्षमामुक्ति 8. निलीनता एह नी क्षमादेखो एहनोनिर्लोभतादेखी अही भीगेषु निमगता संगमुक्ततादेखो भोगनीसंगणकिमछोयो । तस्य पादी वंदित्वा राजाइते
हयतो नापगवांद्या कृत्वा च प्रदक्षिणां त्रिप्रदक्षणादेईने नाति दूरेनाति आसने घणो अलगीनघणोदकडोवसौने अंजलीतत्वा पृच्छति हाघजोडीने पछे छे. हे आर्य त्वं तरुण : प्रजितोसि हे साधु ते तरुणपणे दीक्षालौधौछे भीगकाले अहो संयतः एभोग संयोगनोकाल दीवानीकालनधी उपस्थिती
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
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४० टोका
अ०२०
६ १५
सूत्र
भाषा
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एम सुणाभिते ८ ) तझ श्रेणिकः किं पृच्छति हे आर्य हे साधो' तरुणोमि युवासि हे संयत हे साधी तस्माद्भोगकाले भोगसमये प्रब्रजितो गृहोतfइक्षः तारुण्य' हि भोगस्य समयोस्ति न तु दौचायाः समयः हे संयततारुण्य भोगयोग्यकालेत्व श्रामस्य दीक्षायां उपस्थितोसि आदरसहितो एतदर्थं एतत्रिमित्त ं त्वत्तः शृणोमि किं तवदौचायाः कारण कस्मात्रिमित्तात् दीचात्वया गृहौता तत्कारण त्वन्मुखात् श्रोतु मिच्छामीत्यर्थः ८ (होनि महाराया नाही मक्कनविज्जई अणु कम्पयं सुहिं वा विकिोणाभि समेमह 2 ) इदानों स साधुर्वदति हे महाराज अहं अनाथोस्मि नविद्यते नायोयोगक्षेम विधाता यस्य स अनाथो निःस्खामि कोस्मि मम नाथो न विद्यते इत्यर्थः पुनः अहं कञ्चित्किमपि अनुकम्पनं कृपाचिन्तक सुहृदं नित्र वान अभिसमे मन सम्पत्रोन केनापि दयालुनामित्रेण वासङ्गतोहें न अनेन अर्थेन तारुण्यपि प्रवजित इति भावः ८ (तपसि श्रीराया
उबट्ठियोसि सामन्ने एयमट्ठ सुगामिता ८ ॥ अणाहोमिमहारायंनाहीमज्म नविडाई | अणुकंपग सुहिं वाविकिंची नाभिसमेमहं । तप हसिओराया सेगिओ मगहाहियो । एर्वतेऽडिमंत कहनाही मविज्जई १० | होमि असिसौसि चारि एसोवये तु दीक्षानविषे उद्यतहओके एतमर्थ शृणोमि तवार्खे एअर्थ तुम्हारेपासेयो साभलवावांकु कु ८ मुनिराह अनाथोस्मि महाराजन् अहो महाराजाह अनाथकु नाथो मम न विद्यते माहरे माथेनाथकोइनची अनुकंपा कारक सुहृदं मित्र' नापि दयानोकरणहार fraufमाहरे कोइनथो यस्य पार्खे तिष्ठामि जेपासेवेस तप्तः स प्रहसितो राजातिबारे राजाहस्यो श्रेणिको मगधाधिपः श्रेणौक मगधदेसनो धण एवं तव ऋषियुक्तस्य एहवो ऋडिनोधणो कथ' नाथो न विद्यते नाव किमनही तुमारे ३० बषामी नाथो भदंतानां पूज्यानां अही पूज्यड'
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं०० ४१ मा भाग XXXXXXXXXXXXXXX
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उ० टीका
अ०२०
६१६
सूत्र
भाषा
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सेणिओ मगहाहिवो एवन्ते इडिमन्तस्स कहं नाहो न विज्जई १०) ततस्तदनंतरं विकोमगधाधिपो राजा प्रहसितः हे महाभाग्यवंत तव ऋहिमतः ऋद्धियुक्तस्य कथं नाथो नविद्यते १० ( होमिनाहो भयं ताण भोगेभुञ्जाहि सञ्जयामित्तनाई हि परिवुडो माणसं खलु दुलहं ११) हे पूज्या अहं भयं ताण ं इति भदन्तानां पूज्यानां युष्माको नाथोभवामि यदा भवतां कोपि वामी नास्ति तदा श्रहं भवतां स्वामी भवामि यदा अनाथत्वात् युष्माभिर्दोचा गृहीता तदाहं नाथोस्मि इति भाव: हे संयंत हे साधो भोगान् भुंक्ष्व कोदृशः सन् मित्रज्ञातिभिः परिष्कृतः सन् हे साधो खलु इति निश्चयेन मानुष्य ं दुर्लभ ं वर्त्तते तस्मान्मनुष्यत्वं दुर्लभं प्राप्यभोगान् भुक्का सफली कुरु ११ अथ मुनिर्वदति ( अप्पणाहि अणाहोसि सेण्यिामगहाहिवा अप्पणा त्रणाहोसन्तो कहं नाहो भविष्यसि १२) हे राजन् श्रेणिकमगधदेशाधिपत्व' आमनापि श्रनायोसि श्रात्मना अनाथस्य सतस्त वापि अनाथ तदात्वं ं अपरस्य कथं नायो भविथसि १२ ( एवं वृत्तोनरिन्दोसो ससम्भन्तो सुविम्हि वयणं श्रस्य पुष्यं साहुयाविन्हयं नोओ १३ ) स नरेंद्रः साधुना नाहो भयंताणं भोगेभुजा हिसंजया । मित्तनाई परिवुडो माणसंखलुदुल्लाह' ११ । अप्पणा विषणाहीसि सेणिया मगहाहिवा अप्पणाहो संतोकमनाही भविमसि । १२ । एलंवृत्तो नरिंदोसो सुसंभंतो सुविम्हओ वय अस्मयपुव्वं
तुम्हारोनाथछु' भोगान्, भु ंच्व हे संयतः हे साधु तु भोगभोगवि निवज्ञातो परिवृतः सन् मित्रनाति तेहरु परिवस्त्रोथको मानुष्यं भवं दुर्लभ वर्त्तते मनुष्यनुभव दोहिलु' के ११ हे राजन त्वं आत्मनापि अनाथो असि हे श्रेणिक तु आपेज अनाथ के हे श्रेणिक मगधाधिप हे मगधदेशना स्वामी आत्मना अनाथः सन् आपे तू अनाथथको कथ' नाथोभविष्यसि कोमनाथहोईस १२ एवं मुनिनोक्त श्रेणिक नरेंद्र इम मुनि कह्यायका
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०० ४१ मा भाग
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एवं उक्तः सन् विस्मयं नौतः आवर्य प्रापितः कोशी नरेंद्रः सुसंभ्रान्तः अत्यन्तं व्याकुलता प्राप्तः पुनः कीदृशः सुविस्मितः पूर्वमेव तद्दर्शनात् सञ्चाता 8 वर्यः पुनरपि तइचन अवणात् स्मयवान् जातः यतीहि तवचन अश्रु त पूर्व श्रेणिकाय अनाथोसित्वमिति वचनं पूर्व केनापिनी यावित' १३ (अस्माहत्योमणुस्मामे पुरं अन्ते उरञ्च मेभुञ्जामि माणसे भोए आणा इस्मरियंचमे१४) (एरिसे सम्पयग्गमि सबकामसमयिए कहं अणाहीहवई माहुभन्ते मुसम्बए १५) द्वाभ्यां गाथाभ्यां वणिकोराजावदति हे भदन्त पूज्यहुइति निश्चयेन मृषामाब्रूहि असत्य मावद एतादृशे सम्पदा सति सम्पत् प्रकर्षे सति अहं कथं अनाथोभवामि कीदृशाहं सर्वकाम समर्पितः सर्च च ते कामाश्च सर्वकामा: तेभ्यः सर्वकामेभ्यः समर्पितः शुभकर्मणाढौकितः
साहुणा विम्हयंनिओ १३ ॥ अस्माहत्यी मणुस्मामे पुरंअंतेउरंचमे । भुजामि माणुसभीए आणाइस्मरियंचमे ॥१४ एरि
सैसंपयग्ग मि सव्वकाम समप्पिए। कहं अणाही भवईमाहुमते मुसंवए १५ ॥ नतुम जाणे अणाहस्मअत्यं पोत्थंच ... श्रेणिक राजा अत्याकुलः सन् विस्मयो जातः पाकुलही विस्मय ऊपनो वचन' अश्रुत पूर्व पाजताई एवचननहीं सांभल्यु के साधुना विस्मयं प्रामः % बताई विस्मय जपजाप्योछे १३ राजाह अम्बाः हस्तिनः मनुष्यः मम हाथी घोडा मनुष्य सर्वमाहरछे नगर अंत:पुर' मम नगर अंतरम्हारके तु भूजामि मनुष्यान् भोगान् मनुष्य संबंधि या भोगभोगवछ आश्चर्य मम आज्ञा ऐश्वर्यपणु माहरेछे १४ राजावदंतौ ईदृश संपत्कर्षसति एहवी माहरे संपदा सर्वकामे सर्वाभिला समर्पिता सर्वकाम सुखतहनी देणहारके कथ अनाथीभवामि किम अनाथह कम है भदंत भगवन् मामृषा वादीभव है पुज्य मृषावाद वोलोमती १५ मुनिराह नववैमि अनाथस्थार्थ यतीकडे अहो राजा तू' अनाथशब्दनी अर्थ नधी जाणती अर्थ कारणं
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०१०४१ मा भाग
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ए.टोवा
प्र.३०
४ अथ राजा स्वसंपत् प्रकर्ष वर्णति पवाघोटकाः बहवी मम सन्ति पुनहस्ति नोपि प्रचुराः सन्ति तथा पुनः मनुष्याः सुभटाः सेवका बहवो विद्यन्ते तथा मम पुरं नगरमप्यस्ति च पुनमें मम अन्तःपुर राजौवन्द वर्त्तते पुनरहं मानुष्थान् भीगान् मनुष्यसम्बन्धिनी विषयान् भुनज्मि च पुनः पाखर्य वर्तते पाना अप्रतिहत भासन स्वरूपं प्रभुच वर्तन्ते यती मम राज्ये कोपि मदीयां आना कोपि न खण्ड यति इत्यर्थः १५ तदा मुनिराह (नतुमचारी अणाहम्म अत्य' पोत्यंचवपत्थिवाजहा प्रणाही हवई सणाहीवानराहि वा १६) हे पार्थिव है राजन् त्व प्रणाहम अनाथस्य अर्थ अभिधेय च शब्दः पुनरर्थे च पुनः अनायस्थ प्रोत्यां न प्रजानासि प्रकर्षण उत्थानं मूलोत्पत्ति प्रोत्थातांप्रोत्यांकनाभिप्राये णाय अनाथ शब्दः प्रोक्तः इत्येवं रूपां न जानासि है राजन् यथा अनाथो अथ वासनाथो भवसि तथा न जानासि कध' अनाथो भवति कथं स नाथो भवति १५ (सुहम महाराय पञ्चखित ण चेयसा जहा प्रणाही हवई जहा मैय पवत्तियं १७) हे महाराजमे मम कथयतः सतः त्व अव्या
पत्विवा। जहा अणाहो हवई सणाहोवानराहिबा १६ ॥ मुणेहमे महारायं अव्वक्खित्तेण चे यसा | जहा अणाही
भवई जहामेय पवत्तियं १७॥ कोसंबौनामनयरी पुराण पुरभेयणी तत्व सीपियामज्म' पम्यधणसंचयो १८॥ भी पार्थिव प्रोत्य प्रकष्टोत्थानरुप राजा अनाथ शब्दनोउत्थानरूप नहीं जाणछे यथा अनाथोभवति जिम अनाथहुवे स नाथो वाहे नराधिप: जिम सनाधहुवे हे राजन् १६ मम कथयती शृणु हे महाराजन् हे महाराजा मुझने कहताने तुम्हे सांभली अव्याक्षिप्तेन चेतसा एकाग्रचित्ते करीने यथा अनाथीभवति जिम अनाथहवे यथा मे मया तवाग्रे कथित जिम तुम्ह आगे कहछु १६ कोश बौनामपुरीएहभरतक्षेत्र कोश वीनाम नगरीके
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.ह.४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०२० ६१८
सूत्र
भाषा
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क्षिप्तेन स्थिरेण चेतसा शृणु यथा अनाथ नाथ रहितो भवति यथा मे मम अनाथत्व' प्रवर्त्तित' अथवामय इति एतत् अनाथत्वं प्रवर्त्तितं तथा व शृणु इत्यनेन स्व कथाया उट्ट कः कृतः १७ ( को सम्बौनाम नगरी पुराणपुरभेयणी तत्य आसौपियामज्यं पभूयधण सक्षम १८ ) हे राजन् कौशांबी नगरी आसीत् कीदृशो कौशाम्बी पुराण पुरभेदनो जीर्णनगरभेदनौ ग्राहमानिजीर्णनगराणि भवन्ति तेभ्योऽधिकशोभावतो कौशांबीहिजीर्णपुरोवत जीर्ण पुरस्थाहिलोकाः प्रायसश्च तु राधनवन्तथ बहुज्ञाः विवेकवंतय भवन्तौतिहाई तत्र तस्यां कौशांव्यां मम पिता आसीत् कौशो मम पिता प्रभूत धन सञ्चयः नाम्नापि धन सञ्चयः गुणेनापि बहुलधन सञ्चय इति वृदसंप्रदायः १८ ( पढमेवएमहाराय अडला अस्थिवेयणा होत्याविउलोदाहो सव्व गत्तेसु पत्थिवा १८) हे महाराज प्रथमे वयसि यौवने एकदा अतुला उत्कृष्टा अस्थि वेदना अस्थिपौडा होत्या इति अभूत् अथ वा अच्छिवे यणा इति पाठे अक्षिवेदनानेत्र पौडा अभूत् ततश्च हे पार्थव हे राजन् सर्वगात्रेषु विपुलोदाघो भूत् १८ ( सत्य जहापरमतिक्ख' सरौर विवरन्तर पवोलिाइ २०) हे राजन् यथा कश्चित् अरिः क्रुद्धः सन् शरीरविवरान्तरेनासा कर्णचक्षुः प्रमुखरं घ्राणां मध्ये परमतोक्ष्ण शस्त्र ं प्रपोडयेत् पढमेबए महारायं अउलामे अत्यिवेयणा । अहोत्या विउलादाहो सम्बगत्ते पत्थिवा १६ ॥ सत्यंजहा परमतिक्वं जोर्ण नगर जिल्लरी प्रधाना सर्वनगरने जोतेक प्रधाननगरीके तत्र आसोत्पिता मम तेह नगरौनेविषे माहरोपिताहओ प्रभूत धनसंचयः ते म्हारो पिताने घरे घण धनहओ १८ प्रथमेवयसौ यौवने हे महाराजन् प्रथमवय यौवनावस्थाने विखे अतुलाघना चक्षुपोडा मम वेदना अभूत् अतु लावणों खिनों पौडा वेदना ऊपनी विस्तीर्णेौदाघो भवतौ बलो शरीरने विखे दाव ज्वर घणो उपनो सर्वगात्रेषु पार्थिव सर्वशरीर सर्व अंगने बिखे ऊपनो १८ सस्त्र' यथा परमतोक्ष्ण' सस्तमहातोख असो आलु' कर्णादि विवरमध्ये आपोडयेत् गाढमवगाहयेत् शत्रु : ऋचः शरोर विवरमांहिंकां नमांहिं
हाय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं०ड०४१ मा भाग
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मा भाग
गाढ' अवगाहयेत् एवं मे ममऽस्थि वेदनाऽभूत् २० (तियमे अन्तरिम् च उत्तमङ्ग च पौडई इन्दासणि समाधोरा वैयणा परमदारुणा २१) राजन उल्टौका
मा परमटाकणा वेदनाम मम मधिक कटिपृष्टविभागच पुनः पन्तरित्या अन्तर्मध्ये इच्छा अन्तरिच्छाता अन्तरिच्छा भोजनपा नरमणाभिलाषरूपां ॐ पनकत्तमा मस्तक' पौडयति कोहयो वेदना इन्द्रासनि समाधोरा इन्द्रस्य अथनिवचं तममा अतिदाहोत्पादकत्वात् तुल्याधीरा भयदा २१
(उबद्रियाम पायरिया विजामन्ततिरिच्छगा अधोया सत्य कुसलामन्त मूलविसारया २२) है राजन्तदेत्यध्याहारः आचार्या वैद्यानां शस्त्राभ्यासकारकाः * मे उपस्थिताश्चिकित्सां कत्तुं लग्नाः कीदृथा प्राचार्याविद्यामन्त्र चिकिच्छकाः विद्यया मन्त्रेण च चिकित्सन्ति चिकित्सां कुर्वन्तौति विद्यामन्त्र चिकि
सकाः प्रतिक्रियाकर्तारः पुनः कीदृशा आचार्याः अधौताः सम्यक् पठिता: अबीया इति पाठे न विद्यते अन्योहितीयो येभ्यस्त अद्वितीयाः असाधारणाः पुनः कीदृशास्ते शास्त्र कुशलाः शास्त्रेषु विचक्षणाः पुनः कीदृथास्त मन्त्र मूल विधारदाः मन्त्राणि देवाधिष्टितानि मूलानिजटिकारूपाणि तत्र
सरीर बिवरंतर आवीलिज्ज परीकुद्धो एवंमे अत्यिवेयणा २०॥ तियंमे अंतरिच्छंचउत्तमंग'चपौडई। इंदासणिसमा घोरा वैयणा परमदारुणा २१ ॥ उवटियामे पायरिया विज्जामंत तिगिच्छगा। अधीया सत्थकुसला मंतमूल विसा
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.
गाढा जोरसुवेरीकोप्यो थको मारे एवं मम चक्षुवेदना प्रभूत् इसी वेदना माहरौ आखिमांहि हुई २० त्रिकंकटिभागं मम अंतरिच्छ वृदयंच अपरं उत्तमंगं पोद्यते कटि हियो माथो गावड दुखीओ इंद्राथनि वववत् इद्रना बजनौ परिघोर दुःखकारिणौ र'द्रना वयसरीखी महाघोर बेदना परम दारुण जाता मुझने बेदना उपनौतीब्र २१ उपस्थिताः मम आचार्या माहरे निमत्तं वेद्यतेद्या विद्या मंत्राभ्यां व्याधि चिकित्सा विद्या मंत्र तेहनाजांण
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उ.टोका
विचक्षणाः मन्त्र मूलिकानां गुणना २२ (तेमैतिगिच्छ कुञ्चन्ति चाउप्यायं जहाहियं नय दुक्खाविमीयन्ति एसामन पणाल्या २३) ते वैद्याचार्या मम * चिकित्स्य रोगप्रति क्रियां यथा हितं भवेत्तथा कुर्वन्ति कीदृशं चैकिव्य चातुः पादं चत्वारः पदाः प्रकारायस्य तत् चतु पदं तस्य भावः चातुपादं
चातुर्विध्यमित्यर्थः वैद्य१ पौषधर रोगि३ प्रतिचारक ४ रूपं अथवा वमन१ विरेचनर मर्दन३ ख दन ४ रूपं अध वा अनन१ बन्धन र लेपन३ मर्दन । रूपं शास्त्रोक्त गुरुपार पर्यागत' च क रितिस्थाने प्राकृतत्वात् कुब्बतीत्युक्त ते वैद्यामां दुःखात् न विमोचय तिस्म प्राक्षतत्वात् भूतार्थे वर्तमानार्थ प्रत्ययः एषा मम अनाथतावर्त्तते २३ (पियामे सव्व सारंपि दिज्जाहि मम कारण नय दुक्खाविमोयन्ति एसामना प्रणाहया २४) हे राजन् मम पिता मम कारण सर्वमपि सारंग्टहे यत् सारंसारवस्तु तत्सर्वमपि वैद्येभ्योऽदात् तथापि वैद्यामांदुःखात् नबिमो चयन्तिस्म एषा मम अनाथ
रया २२। तेमेतिगिच्छं कुव्वंति चाउप्यायं जहाहियं । नयदुक्खा विमोयंति एसामज्म अणाहया २३॥ पियामे
सम्बसारंपि देजाहि ममकारणा। नयदुक्खा विमायंति एसामभ अणाहया २४॥ मायामे महारायं पुत्त कृ अधीताः शास्त्र कुसलाः नानाथासी पंडिताः नानाप्रकारना यास्त्रहना जांण मंत्रमूलविशारदाः मंचमूल जडीटी तहने विखेडाहाले २२ तैवेद्या
ममभेषज प्रतिचारिकाः चिकित्सा कुर्वति तेवैद्य मुझने चिकित्सा कर औषध दिइ पेटमाहिं चतुःप्रकारं पातुरं । वैद्य २ भेषज्य३ प्रतिकार४ धारेवैद्य चिकित्सा करे भांति २ नां औषधदिइनते वैद्याः दुःखादिमोचयंति ते बैद्य मुझने दुःखथको मूकावी सके नहीं एषा मम अनाथता एमुझने अनाथ पणु २३ पिता मम सर्वसारवस्त्वपि अहोराजा पितामाहरो सर्वसारवस्तु दद्यात् मम कार्यायम्हारे निमित्त देई वैद्य भणो मंत्रवादीयांने नच दुखाहिमो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
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ताजे याइति शेषः २४ (मायाविमेमहाराय पुत्तसो यदुहट्ठिया नयदुक्वाविमीयन्ति एसामज्म अणाहया २५) हे महाराजमे मम मातापि दुखामां न विमोचयतिस्म कथं भूतामाता पुत्रशोक दुक्वस्थिता पुत्रस्य यः शोकः पीडाप्रादुर्भाव: साता अभावः स एव दुःख तत्र स्थिता पुत्रशोकदुक्ख स्थि ता
एषा मम अनायताने या २५ (भायरामे महाराय सगाजिक कणि ढुगानयदुक्खाविमीयन्ति एसामा अणाहया २५) हे महाराज मे मम भ्रातरोपि 0 स्वका आत्मीयाज्ये ष्ठ कनिष्टका बहा लघवश्वमा न च दुखादिमोचयन्तिस्म एषा मम अनाथताने या २६ (भयणीमो मे महाराय सगाजिल कणिडगा नयदुक्खाविमोयन्ति एसामज्म अणहया २७) हे महाराजमे मम भगिन्योपि स्वकाएकमात्रजाज्येष्टाकनिष्ठाव मां दुखाबविमोचयं तिस्म एषा मम*
सोग दुहट्ठिया । नयदुक्खा विमायंति एसामज्म अणाहया २५ ॥ भायरामे महारायं सग्गाजिट्ट कणिट्ठगा। नय
दुक्खा विमोयंति एसामा अणाहया २६ । भणौओमे महारायं सग्गाजिठ्ठ कणिट्ठगा। नयटुक्खाविमोयंति एस चयंति परंदुःखहुंती मूकाइ सके नही एषा मम अनाथताएमुझने अनाथपणु'२४ माता मे मम महाराजा पुत्रशोक दुःखस्थिता पुत्रना जे शोक पौडा प्रादुर्भाव शाताभाव तेहिदुःखमे रहीथकौअर्थात्मुझे दुखौयोदेखीवौलापफर तथापी दुःखं नउन्मौलंति तोपौण दूखजाईनहीएषा मम अनाथताएहमा : हरो अनायपणुछ २५ भ्रातरः मे मम महाराजा भाई माहारा हे महाराजा स्वकाः ज्येष्ठाः बड़ा कनिष्ठा लधाः सगावडा लहुडाछे न च दुखाडिमो चयंति परंते दुखथको मूकावी सके नहीं एषा मम अनाथताएमाहरे अनाथपण के २६ भगनी मम महाराजन् वहिं निम्हारी हे महाराज स्कका ज्य ठा वृद्धा कलिष्ठालघवः सगौवडोलो हुडौछे न च दुखाहिमोचयंति परंते दुःखथको मूकावी सके नही एषा मम अनाथताएमुझने प्रनाथ
| राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं. १ मा भाग
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उ० टोका श्र०२०
६२३
सूत्र
भाषा
अनाथता २७ (भारियामे महाराय अणुरत्ता अणुब्वया अंसु पुखेहिं नयणे हिं उरं मे परिसिवई २८ ) ( श्रवपाण' चन्हाणश्च गन्धमल विलेवण ं मनाय मनाथं वा सा बालानोवभुवई २८ ) ( खण पिमे महाराय पासाओ नविफिट्टई नयदुक्खाविमोयन्ति एसामज्य प्रणाया ३०) तिसृभिर्गाथाभिः कुलक हे महाराजमे मम भार्या कामन्यपि दुक्खात् मां नमो च यतिस्म कथं भूताभार्या अनुरक्ताः अनुरागवतो पुनः कथं भूताः अनुव्रता पतिव्रता पतिं अनुलतो कृत्य व्रतं यस्याः सा अनुव्रताः एतादृशो भार्या मे मम उरोहृदयं अश्रुपूर्णाभ्यां लोचनाभ्यां सिञ्चतिस्म २७ पुन: साबालामक्कामिनो अ अशनं मोदकादिक' भक्ष्य' पानं शर्करोदकादिक' पुनः स्नानं कुमकुमादिपानीयैरभि तैल चोवकमेदजवाधि प्रमुखैर्गात्रार्चनं मया ज्ञातं वा अज्ञातं खभावे
मज्म अणाया. २७ । भारियामे महारायं अणुरत्त मणुव्वया । सुपुन्नेहिं नयणेहिं उरंमे परिसिंचाई २८ । अन्न पाणंचण्हाणंच गंधमल्ल विलेवणं । मएनाय मनायंवा सावालाना वभुजई २६ ॥ खपिमे महाराय पासाओ विन फिट्टई । नयदुक्खाविमायंति एसामज्य अणाहया ३० | तत्रहं एवमाहंमु दुक्खमाहुपुणो २ । वेयणा अणुभविउ जे पण के २७ भार्यामम हे महाराजन् स्त्रोनाहरी हे महाराज अनुरक्तामयि से हाश्रिता पतिव्रता महासतो मुझ उपरिस्नेह घणोसंती अपूर्णाभ्यां नय नाभ्यां आंसू एक पूर्ण नेते करोने उदर वक्षस्थल' ममशिंचति हिउ माहरु सिंचे २८ अ' अन्नपानीय पांणी स्नानं च अंघोलवं गंधमान्यं विलेपनं कर चूम्राचंदन अवोर फूलमाला मया ज्ञातं अज्ञातंबा मुझने जांणतां अजाणतां इतरां वानानहोकर सावालानोपभुक्तन सेवते खाइ नहींछे छाने जईने २८ क्षणमपि मम हे महाराजः क्षणमात्रपणि हे महाराज सा बालापार्खात् न गच्छति माहरापासाथी ते बालिका उठेनहीं न च
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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नैव एतत्सर्व भोगानन्न उपभुतो न अनु भवति मम दुखामणि अपि भोगङ्गानित्यक्तानि २८ पुन हेमराज साबाला मम पार्खात् नैकव्यात् १० टीका ४ नविफिट्टति न अपयाति इत्यर्थः परं दुःखात् मानमोचयति एषा मम अनाथताजे या ३. (तोहं एवमाहिम दुक्ख माहु पुणी पुणो वेयणा
अणु भवे उजे संसारंमि अपन्तए ३१) ततोऽनन्तरं प्रतीकारष विफलेषु जातेषु अहं एवं अवादिष एव मिति कि इति निश्चयेनया वेदना अनुभवितु' दुःचमाः भोक्त मसमर्धास्तावेदना संसार पुनः पुनः भुक्ततिशेषः वेद्यते दुःख' अनयेतिवेदना दुःखेनक्षम्यते सह्यते इति दुःक्समादुः सहाः कोदृशे संसारे अनन्तके अपार ३१ ( स इंचजइ मुच्चिज्जा वैयणा विउलाउमे खन्तोदन्तो निरारम्भी पव्वइए अश्वगारियं ३१) अहं किं अवादिषं तदाह यदि सक्तदपि एकवारं अपि अहं वेदनाया विमुच्यते तदाहं शंता भूत्वा पुनदीतो जितेन्द्रियो भूत्वा निरारम्भः सन् अनगारत्वसाधुत्व प्रब्रजामि दीक्षा Zलामोतिभावः कथम्भूतायाः वेदनायाः विपुलायाः विस्तीर्णायाः ३२ (एवञ्च चिन्तइत्ताणं पसुत्तोमि नराहिवा परियति राइए वैयणाम खयं गया३३) एवं पूर्वोक्त चिन्तनं चिन्तयित्वा हे नराधिप यावदहं सप्लोस्मि तावतस्यां एवरात्री प्रवर्तमानायां अतिक्रामत्यांम मम वेदनाक्ष यङ्गता वेदना
संसारंमि अणंतए ३१॥ सइंच जमुच्चेज्जा वैयणा विउलाओ। खंतादंतो निरारंभो पव्वदूए अणगारियं ३२। दुक्खात् विमोचयति पर दुक्खयौ मुकावौ सकेनहीं एषा मम अनायता एम्हारो अनाथपण जाणवु ३० ततो अहं अनंतर वक्ष्यमा उक्तवान् तिवार
पछौह एहवु कहवालागो दुक्ख पुनः कथयत् एदुःखनो वंटावणहार संसारमाहिं कोईदौसतुनथौ वेदना अनुभूता वेदितामया एकलीडु वेदनाभोगवं भाषा
संसारे अंतरहिते संसारमांहि फिरते मै वेदनाभोगवौ ३१ सक्तदपि यदिमुच्यते एकवार जो मूकावो वेदनात् विपुलात् इतः एवेदनाहुतीती क्षमावान् दमितेंद्रिय आरंभरहितः क्षमा करी सहित द्रौदमौने प्रारंभरहीतथको प्रपद्यत अनगारतां तोपडिवजू आदर अणगार ते साधुपणी ३२४
सब धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०.४१ मा भाग
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उ टीका
अ.२०
६२५
उपशान्ता इत्यर्थः ३३ (तोकल्ले पभायंमि आपुच्छित्ताण बंधवे खन्तोदन्तो निरारम्भी पवईओ अणगारियं ३४) ततो वेदना उपशान्ते रनन्तरं कल्यै इतिनोरोगे जाते सति प्रभातसमये बांधवान् स्वजातीन् आपच्च्च अहं अनगारत्व साधुत्त प्रबजितः साधुधर्म अंगीकृतवान् कशीहं क्षान्तः पुनर्दान्तः पुनरहं निरारम्भः ३४ (तोहंणाहोजाओ अप्पणीय पररस्मय सब्वेसिंचेवभूयाणं तसाण थावराणय ३५) हे राजन् ततोदीक्षा ग्रहणानन्तरं आत्मनश्च पुन: परस्यनाथो योगक्षेमकरत्वे न खामोजातः प्रात्मनोहिनाथः शुद्धप्ररूपणत्वात् अपरस्यच हितचिन्तनात् एव निश्चयेन सर्वेषां भूतानाञ्च पुनः स्थाव राणां नाथोजातः ३५ अथवश्वात्मनी नाथस्म च सर्वेषां नाथस्तदेव द्रढयति (अप्पानईवेयरणी अप्पामे कूडसामलो अप्पाकाम दुधाधणू अप्पामे नन्दण
एवंच चिंतइत्ताणं पमुत्तोमि नराहिवा | परियतंतौ राइए वेयणा मेखयंगया ३३ ॥ तओकल्ले पभायम्मि आपुच्छि
ताण बंधवे । खंतीदंती निरारंभी पव्वदो अणगारियं ३४ ॥ तोहं नाहोजाओ अप्पणीय परम्मय । सव्वेसिंचेव एवं च चिंतयित्वा अहं इम चितवीनेहु प्रसुप्तीस्मि है नराधिपः प्रकर्षकरीसूतोकु हे राजा परिब्रजयां रजन्यां परियामत्या जातीवको रात्रिने विषे तदा रात्री वेदनामे क्षयंगताः ते रात्रिनेविष वेदनाम्हारी क्षयगई निरोगहुओ३३ ततः कल्ये द्वितीयदिने प्रभात तिवारी वीजे दिन प्रभातसमे आपृच्च बांधवान् मे भाईबंधवपूछौने आज्ञाले इनेक्षमावान् दांतःनिरारंभः क्षांतदातनिरारंभयकोप्रवजितः अनगारतांपडिवज्योपादयो अणगारपणात साधधयादौथत्३४ ततोह नाधोजातः योगकरण क्षेमतया मनः तिवारपछह योग क्षेमनाकरवापणाथको नाथथयो सुद्धप्ररुपकत्वात् परस्य सर्वेषां शहारूपण थको परायो पणि नाथहो पुनः सर्वेषां भूतानांहीन्द्रियादीनां सघलावेंद्रौनी बसानां स्थावरणच त्रसजीवनी थावरजीवनी नाथलो ३५ आकैवनदी बैतरणीनदी
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं-उ०४१ मा भाग
भाषा
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RAA
वण) ३६ हे राजन् दोक्षायां गृहीतायां अहंनाथी भूवं पूर्व अनाथासं तत्कथं उच्यते अयं आत्माजीवो वैतरणीनदी प्रवर्तते पुनर्मम पान्माएव कूट शाल्मलोवृक्षो नरकस्थो वर्तते पुनरयमात्मैव काम दुधाधनुवर्तते काम दोधिपूरयतीति कामदुधाजीवः शभक्रियां करोति सा शुभक्रिया सुखदेत्यर्थः मे मम पात्मानं दनंबनं देवानां सुखदायकं वनमस्ति २५ (अप्पाकित्ता विकित्ताय सुहाणय दुहाणय अप्पामित्त ममित्तञ्च दुप्पड्डिय सुप्पतियो ३७) राजन् पात्माजीव:सएवकर्ता च पुन: आत्माएव विकिरता विक्षेपक: केषांतदाह मुखानाञ्च पुमर्दु खाना अर्थात् सुखा मुखयोः क विकिरभाविनाशकच आत्मवच पुनः पात्माभित्र उपकारक्वत् सुदर्तते तथा पास्माएव अमिव शत्र रहितकारी वर्तते है राजन् अयं प्रात्मा दुष्टाचार प्रस्थितः प्रवति तो वैतरण्यादि नरकभूमिदर्शको वर्तते अयमेवात्मा सष्ट आचार प्रस्थित: प्रवर्तितः कामधेन्वादि नन्दनवनादिवत् हर्षदो वर्त ते ३७(इमाहुअसोवि प्रणाह
भूयाणं तसाण थावराणय २५। अप्यानई वेयरणी अप्पामे कूडसामली। अप्याकाम दुघाधण अप्पामेनं दणंवर्ण ३६
अप्पाकत्ता विकत्ताय दुहाणय मुहाणय। अप्पामित्त ममित्तंच दुपट्टिय सुपट्टिओ ३७॥ इमाहु अन्नोविअणाया ए आत्माज वैतरणीनदी समानछे आत्म क कूट शाल्मलीतरुः एआमाजकूट साल्मलौचई बाम वकामतार्थकते काम दुग्धाधेनु एआत्माज कामधेनु सरिखाछे आत्मा मे मम नंदनवन मेरुवन' ए आत्मामाहरो नंदनवन सरिखार ३६ आत्म व कर्ताऽपि कर्ता एआत्माकर्ता अने अकर्तापिण भुक्ता दुःखानां सुखानां च दुःख अने सुखना आत्म वमित्र' अमित्रच एज प्रामा मित्रएज आमावैरौ दुपस्थितीस प्रस्थितस्य भूडे मारगचलायो आत्मा वैयरोहोर भने मारगे चलायो मित्र होई३७ इयं वक्षमाण अनाथता भी तृपएवक्षमाण अनायता अहोराजाः तां अनायता एकचित्तो सावधान तया
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं...मा भाग
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उ० टीका
अ०२० ६२७
सूत्र
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यानि बा तमेगचित्तोनिहु असणे हि नियन्त धम्म लहियाणवी जहा सौयन्ति एगेबहुकायरानरा ३८ ) हे नृप हे राजन् हुइति निश्रये इयं माता अन्यापि अनाथता वर्त्तते तां अनाथतां एकचित्तः 'पुनर्निभृतः अन्यकार्येभ्यो नित्तः सन् अर्थात् निश्चलः सन् शृणु यथा निग्रन्य धर्मं लब्धापि एक केचित् जनाबहुकातराः बहु यथा स्यात्तथाहीनसत्वाः पुरुषाः सौदन्ति साध्वाचारेमिथिला भवन्ति ३८ [जोपव्य इत्ताण महब्वयाइ सम्मञ्चनोफासयई पमाया अणिग्गहप्पायरसे सुगिडे न मूलयो छिन्दइ बन्धण से ३८ ] हे राजन् योमनुष्यः प्रब्रज्यदोचां गृहीत्वा महाव्रतानि प्रमादात् सम्यक् विधिनान स्पर्शति न सेवते से इति स प्रमादवशवर्त्ती बन्धन कर्म बन्धनं रागद्दे षलक्षण' संसारकारणं मूलतोमूलात् न छिनत्ति मूलसोनोत्पाटयति सर्वथा रागद्वेषौ न निवारयतीत्यर्थः ३८ [आउत्तया जस्तयनत्थिकाई इरिया एभासा एतहे सणाए आयाणनिक्वेब दुगव्छणाए नधौरजायं अणुजाइमम्म ४० ] निवा तमेक चित्तोनिओ सुणेहि । नियट्ठधम्म लभियाण बौजहा सौदंतिएगे बहुकायरानरा ३८ | जोपव्वद्वत्ताण महव्वयाइ' सम्म नाफासईपमाया । अणिग्गहप्पाय रसेमुगिद्धे नमूलओ छिंदइ बंधणंसे ३८ । आउत्तयाजमयनत्थि
थू मे मम कथयत तू एकाग्रचित्त करोने सावधान हुइ सांभलिङ कह यतिधर्म लब्धापि यथा यथा जतौनो धर्मपालोनें दौचालेइन सौदंति प्रमादयंत एके बहुकातराः नराः पाके सौदावे सर्ववस्तुने वांछे कातरकायरमनुष्य ३८ यः प्रव्रज्यां गृहीत्वा पंचमहावृतानि पालयति जे कोई दोचाले इने पंचमहा व्रत फरसे सम्यग् न स्पर्शति प्रमादात् रुडोपरिंफरसे नही प्रमादने जिये निग्रो संबस्यो आम्मानथो एहवो मधुरादिरसने विखे ग्टधलालची एहवो मूलथो बंधण छेदेनहोते अनाथ पण ३८ आयुक्तता सावधानतायस्य साधोः नास्ति कश्चित् सावधान पणी पणिते साधुमांहिंकोइनथो इर्यायां
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- हाय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भाग
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उ.टो
प्र
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२
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(२८
ठे हे राजन् स साधुधोरया तं मार्ग' न अनुयाति धोरमहा पुरुषैस्तीर्थकरगणधरंय यातं प्राप्त अर्थान्मोक्षं मार्ग' न प्राप्नोति सकः यस्य साधीः ईर्यायां
गमनागमनसमिती तथा भाषायां तथा एषणायां पाहार ग्रहण समिती पुनरादाननिक्षेपण समिती वसूनां ग्रहणमोचनविधी तथा दुगन्छणाए इति उच्चारप्रथवण नेम जल्लसिङ्गाणादीनां परिष्टापनसमिती आयुक्तताकाचित्रास्ति ४० [चिरंपि सेमुण्डाई भवित्ता पधिरव एतवनियमहि' भट्टे चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता नपारपहीरहु सम्पराए ४१] स पूर्वोक्तः पञ्च समिति रहितोमुन्धाभासश्चिरं मुण्डरुचिर्भूत्वा पात्मान' अपि चिरल पातयित्वा हुइति निययेन सम्पराए संसारपारगी न भवति कीदृशः स अस्थिरव्रतः अस्थिराणि व्रतानि यस्य स अस्थिरबतः पुनः कीदृशः सतपोनियम भ्रष्टः
काई इरियाए मासाए तहसणाए। आयाण निक्लेव दुगच्छणाए नवीरजायं अणुजाईमग्गं ४० । चिरंपिसमुडमई
भवित्ता अधिरव्वए तव नियमेहि भट्ठ । चिरंपि अप्पाणकिले सत्ता नपारए होडू हुसंपराए ४१॥ पोल्लेवमुट्ठी जहसे सिमतिने विखे भाषायां भाषा समतिने विखे तथाएषणायां एषणा समतिने विखेः आदान निक्षेपयोः जुगुमायायं आदानवस्तुनु लेषु निक्षेपवस्तुनु मुक एहने पारिष्टापना समिती पारिठावनीया सुमतिने विखे सावधान नहौ स साधु बौरजाति धौर पुरुषैः मेवितं मार्गेनअनुगच्छति न प्राप्नोति एहवीयतौधौर पुरुषनीसेव्यो जे मार्गतहने पांमी सके नही मुक्त नजाई ४० चिरकालमपि स साधुः मुडचिर्भूत्वा चिरकालताई मुंडपणानौ रुचि हुई दौक्षापालो अस्थिरवृतः तपोनियमाभ्यांभ्रष्टः अस्थिवरवत तपनियमथौ भ्रष्टही चिरकालं यावत् आत्मानं किले सयित्वा घणकालताई आपणा आत्माने केश उपजावीने पारगामो न भवति निश्वतं संसारस्य संसारनी पारगामों नहोइ मुक्ति नजाई ४१ सुन्धामुष्टिः यथा असारापोलौमुठि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
भाषा
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१० टौका
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य कदापि तपोनकरोति तथा पुननियम ऽभिग्रहादिकञ्चनकरोति केवलं द्रव्यमुण्डोभवति स संसारस्थपारंतेनप्राप्नोतीत्यर्थ:४१ [पोल्लेवमुट्ठीजहसे असारो ४. अयन्तिए कूडक हावणे वा राढामणौ वेरुलियप्यगासे अमहग्ये एहोइहु जाणएसु ४२] स पूर्वोक्त मुण्डरुचिः असारो भवति अन्तः करणे धर्माभावात्
रिक्तोऽकिञ्चित्करो भवति सक इव पोल्लोमुष्टिरिव यथा रिक्तोमुष्टिरसारो मध्ये सुधिर एवतथा समुण्डरुचिः कूट कार्षापण इव असत्य नाणकमिव अयन्त्रितः भवति नयन्त्रित: अयन्त्रित: अनादरणीयः निर्गुणत्वात् उपेक्षणीयः स्यादित्यर्थः उक्तमर्थ मर्था तरन्यासेन द्रढयति हुयस्मात्कारणात् राढामणिः काचमणिः जाणएसु इति ज्ञाटकेषु मणिपरीक्षकनरेषु वैडूर्यप्रकाशो अमघको भवति बहुमूल्यो न भवति वैडूर्यमणिवत् प्रकाशीयस्थ स वै यमणि प्रकाश: वैडूर्यमणि सट्टा तेजाः महतो अर्धायस्य समहर्घः महाघ एव महाघ कः नमहाघकोऽमहाकः अबहु मूल्य इत्यर्थः यथा मणि नेषु वैडू यमणि बहुमौल्यः स्यात्तथा काचमणिर्बहुमौल्यान स्यात् एवं धर्महीनोमुनिः साधुगुणनेषु यथा सद्धर्माचारयुक्त: साधुर्वन्दनीयः स्यात्तथा समुण्ड रुचिर्वन्दनीयो नस्यादिति भावः ४२ [कुसौललिङ्ग इह धारइत्ता इसिज्मयं जीविय वूहद्वत्ता असञ्जए सञ्जयलप्पमाणे विणिधायमागच्छइसे चिरंपि ४३] से इति स साध्वाचाररहित: इह संसारचिरं चिरकालं यावत् विनिघातं आगच्छति पौडां प्राप्नोति किं कृत्वा कुशौललिङ्ग पार्श्व स्थादौनां चिङ्ग धारयित्वा पुन र्जीविकाय आजीविका ऋषिध्वजं रजोहरणमुखपोतिकादिक ब्रहयित्वा वृद्धि प्रापयित्वा विशेषेण निघातं विनिघातं विविधपीडां स कि कुर्वाण:
असारे अयंतिए कूडकहावणेबाराढामगो वेरुलियप्पगारी । अमहग्घए होइ हुजाणएमु ४२॥ दुसौललिंग दूह जिम असारहुवे अयंत्रित: केनापिअ संग्रहोत: कूटकार्षापण कूड नाण जिम असारहवें कोइलनही काचमणिः वैडू यं सदृशः काचनौमणि करि कहे एम्हारे वैड यरत्नछः प्रमहर्षः असारी भवतिहि निश्चितं वा पंतिषु जाणजवहरीने लेई देखायोतेवारतकाच कह्य पणि मणिनकयोः ४२ कुशौल
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१मा भाग
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असंयतः सन् अहं संयतइति लालप्यमान असाधुरपि साधुरहमिति व वाणः ४३ (विसन्तुपौयं जहकालकूट हणाइसस्थं जहकुम्गहीयं एमेव धम्मोविसभी उ०टीका न विवनोहणाइवेयाल इवाविवनी ४४) हे राजन् यथा कालकूटो महाविषः पीत: सन् हवाइ इति हन्ति पुनर्यथा कुग्रहीतं विपरीत हत्यारहोतं शस्त्र अ०२०
हन्ति एवं एव अनेनैव दृष्टान्तेन विषयैरिन्द्रिय सुखैरुपपन्नीविषयोप पत्रो विषयसुखाभिलाष युक्ती धर्मोपिहन्ति पुनः सविषयो धर्मोऽविपन्नवेत्ताल & वहन्ति मन्वादिभिरकौलितः स्फ रहलो मन्वयन्त्र रनिवारितबलोवतालीमहापियाची मारयति तथा विषय सहितो धर्मीपि मारयतीत्यर्थः ४४ (जेलक्वण मुविण पउ' जमाणे निमित्तकोऊहलसम्पगाढे कुहेडविज्जासवदारजीवौनगच्छई सरणन्तमिकाले ४५) यः साधुर्लक्षणं प्रयुञ्जानः सामुद्रोक्त
धारइत्ता इसिज्मयं जीवियवूहत्ता असंजए संजयलप्पमाणे विणिहायमागच्छइसे चिरंपि४३॥ विसंतुपौयं जहकाल कूडं हणाइ सत्यं जहकुग्गहीयं । एसावधम्मो विसओवससो हणादू वेयालवा विवसो ४४ । जे लक्खणं सुविणं
ARRRROKKKAKKKARKKACKNOKAROKH
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
पार्ख स्थादि विखे इह जगति यहोवा जसना पासत्यादिकनो वेषादरौने ऋषिध्वजं रजाहरणादिकं रजाहरणमात्र वेषधारी होईने जती भैखधा रौनेाजीव काकरे असंयत: सन् आत्मानं संयतं कथयत् असंयतीछे लोकनेकहे छह संयती साधूकं विनिर्धातं विविधनरकं आगच्छति प्राप्नोति ससाधुः चिरकालमपि घणा नरकने विखे जाय चिरकालसौमरहे ४३ विषंपौतं यथा कालकूट मारयति जिम कालकूट विषपौधुधकुमारः मारयति यस्त्र' यथा कुग्गृहीत भूडोजणस्थझाल्य यकु जिम शस्त्रमारेः तथा एकएव धम्मः विषयोपपत्रः सन् विषययुक्तः सन्मारयति यतौहीय शब्दादिविषयसेवे तीमार मारयतिवेतालेवकोहयो वैताल: अविपत्रीमंत्रादिभिः अकौलितः येतालनी परिमारी जिम मंत्रादिक अणखोल्यो ४४ यः साधूः लक्षण सामुद्र
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मा भाग
* स्त्रीपुरुष शरोरचिह्न शभाशभसूचक प्रयुक्त गृहस्थानां पुरुतोवक्तिः पुनर्यः साधुः सुविल' स्वप्नविद्यां प्रयुनानी भवति स्वप्नानां फलाफलं वक्ति पुनर्यः
साधुनिमित्तकौतूहल सम्प्रगाढो भवति निमित्त च कौतूहलं च निमित्तकौतूहले तयोः सम्प्रगाढः अत्यन्ताशनः स्यात् तत्र निमित्त भूकम्पोल्का पातकेतूदयादिकौतूहलं कौतूक पुचादि प्राप्त्यर्थ' माना भैषजौषधादि प्रकाशनं उभयवसरतो भवति पुनर्यः साधुः कुहटविद्यायवहारजीवी भवति कुहेटकाविद्याः कुहेटकविद्या: अलोकाश्चर्यविधाय मन्त्र तन्त्र यन्त्र ज्ञानामिका स्ताएव प्रायवहाराणि तैर्जीवितु' आजीविकांक यौलं यस्य स कुहेटकविद्या श्रवद्दारजीवी एतादृशो यो भवति है राजन् परं तस्मिन् काले लक्षण स्वप्ननिमित्तकौतूहलकुहटकविद्या अवधारोपार्जित पातकफलीप भोगकाले स साधुः सरण नगच्छति न प्राप्नोति तं साधु कोपि दुःखात् नरकतिर्यक योन्यादौनत्रायते इत्यर्थः ४५ (त मन्तमैणवउसे असौले सया
प'जमाण निमित्तका जहल संपगाट । कुहेडविज्जा सबदारजीवी नगच्छई सरणं संमिकाले ४५ ॥ तमंतमेणेवउसे असीले सयादही विप्परिया समुवेद। संधावई नरयंतिरिक्खजाणी माणं विराहित. असाहुरुवे ४६॥ उद्देसियं
रायपनपतसिंह बाहादुर का आ..उ. ४
भाषा
XXXXX*
कादि खन्नयास्त्र प्रयुज्यमानः जे साधू शरीरना लक्षणकहे स्वप्ननु विचार कहेछ निमित्त कौतूहले संप्रगाढः भूकंपादि निमित्त कुतूहल लोकनैदेखाडे पुत्रप्राप्तभणीस्नानादिकहे आयक्त होई कुतक विद्यादृष्टिब धादिरूपा एवं विधाचते जीवति दृष्टिबधादि आयवहारमेवीने जीवे न प्राप्नोति मरण' तस्मिन् कांगमेकश्चित् शरण न भवतीत्यर्थः जिवार उदयकर्मावेतिवारे शरखराखवावाली कोई नही ४५ प्रतिमिथ्यात्व युक्तो न स द्रव्ययतिः मिथ्या त्वमेवे द्रव्यराखे भडे प्राचार चारिखने कोडिनचाले सदादःखी सन विपर्यास प्रायोति सदा दःखौवे विपर्यासपार्म विपरौतिपणइव सतत गच्छति
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ॐ दुहोविपरियासुवेइ सन्धावई नरगतिरिक्व जोणि' मोणं विराहित्तु असाहुरूवे ४६) तु पुनः स द्रव्य मुण्डो साधुरूपी मौनं विराध्य साधुधर्म दूषयित्वा उ. टीका नरकतिर्यग योनि सन्धावति सतत गति पुनः अशोल: कुशोलोविपर्यासं उपेति तत्वेषु वै परौत्य प्राप्नोति मिथ्यात्वमूढो भवतीति भावः कीदृशः
सः तमस्तमसैव सदा दुःखो अतिशयेन तमस्त मस्तेन तमस्तमसैव अज्ञानमहान्धकारणैव संयमविराधनाजनि तदुक्ख सहितः ४६ ( उद्दे सियं कौयगड नियाग' नमुच्चई किं चित्र सनिज्ज अग्गोविवासवभक्खो भवित्ता इअो चुओ गच्छ इकठ्ठ,पावं ४७) पुनर्यः साधुपाथः उद्देशिक दर्शनितः उद्दिश्य कृत उद्देशिक आहारं पुनः साधुनिमित्त क्रोतं मौल्यन ग्रहोत' पुनराहतं साधुसन्मुख प्रानौत साधुस्थाने एव गृहस्थेन आनौत तत् आहृतं पुनर्यदाहारं नित्यक' नित्यपिण्ड गृहस्थ गृहेनियतपिण्ड एतादृश स दोष आहार अनेषणीय साधुनाऽग्राह्यं न मुञ्चति जिवालापट्येन किमपि नत्यजति सर्वमेव गृह्णाति स अग्निरिव सर्वभक्षीभूयहरित शुष्क प्रज्वालकोवैश्वानर इव भूत्वा प्रामुकाहार' मुक्का इत शुतोमनुष्यभवात् यु तः कुगतिं ब्रजति किं क वा पापं कृत्वा संयमविराधनां विधाय ४७ (न तं अरोकठछेत्ताकरे इज'सेकरे अप्पणियादुरप्पासणाहि मच्च मुहं तु पत्ते पच्छाण तावण दया विहूणो ४८) हे राजन् आत्मीया दुरात्मतास्वकीयादुष्टाचार प्रवृत्तिय अनर्थ करोति तं अनर्थकठछेत्ताकण्ठ छेदकोप्यरिनक रोति प्राणपहार
कौयगडं नियाग नमुच्चई किंचिअणे सणिज्ज । अग्गोविवासव भक्खीभवित्ता ईओ चुओ गच्छदू कट्टपावं ४७। नतं
नरकतिय चनोंगतिमाहि जाई चारित्र विराध्य असाधूरूप' चारित्र विराधौने असाधूरुपथको ४६ उदेसिक' पिंड उदेसिकपिंडः कृत कतौं मोलिलेई भाषा
दे नित्यपंड नित्यपिंड: नमुचति किंचित् अनेषनोय मपी मूके नही असूझतु आहार अग्निरिव सर्वभक्षौ भूत्वा अग्निनिपरिं सर्वभक्षीहुवे ततो मनु य भवात् यतोभ्रष्टः दुर्गतिं गच्छति ए मनुष्य भवधो छुटोने दूरगतिने बिखे जायकडूवा फलपांम ४७ न तत्र दुःख शवपि कंठछेत्ता करोति कंठनी
राय धनपत सिंह बाहादुर का पा०सं० उ. १ मा भाग
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उन्टीका
कात् वैरिणोपि दुरात्मना दुष्टा दुष्टाचार प्रवृत्तः आत्मा आत्मन एव घातक्तत् इति हाई स च दुष्टाचार प्रवृत्त आत्मा मृत्यु मुख प्राप्त सन्णाहई इति ज्ञास्यति स्वयमेवेतिशेषः केनपश्चादनुतापेन हामयादुष्टं कर्मकृतं इति पश्चात्तापेनमरणसमयेज्ञास्यति कीदृशः सदुरात्मादयाविहीन: ४८ (निरडिया न ग्गरुई लतस्म जेउत्तम? विवज्जासमेइ इमे विसेनथि पर विलोए दुहओ विमेझिञ्झइतथ लोए ४८) हे राजन् यः उत्तमार्थे विपर्यासं एति तस्य
नम्नचिनिरर्थिका उत्तमः प्रधान: अर्थो मोक्षोयस्मात्स उत्तमार्थः तस्मिन् उत्तमार्थे अर्थात् पर्यन्त समयाराधन रूपेजिना ज्ञाराधने वैपरीत्य & प्राप्नोति दुरात्मत्वे सन्दरात्मत्वज्ञानं प्राप्नोति तस्य नग्न त्वादिरुचिनिर्वस्त्रादि के शवाञ्छानि: फलामिथ्यात्वनोदि कष्ट निःफलं यतो हि अन्यस्य
अरीकंठछेत्ता करे जंसेकरे अप्पणिया टुरप्पया सेनाहई मच्चमुहंतु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविरुणो ४८। निरठिया
निप्पलाईउ तस्मजेउत्तमठ्ठ विवज्जासमेदू । इमेविसनस्थि परविलाए दुहओ विसज्झिमतत्य लोगे ४६ | एमेबहा छेदणहार वैरौते दुःख ऊपजावे नहीं यत् सतस्य आत्मैव दूरामता दुष्टाचारता करोतिजें दूःखएआत्मामुंडा आचारने विखे थाप्याथकादौइते दुःखवेरौ पण देई सके नही सप्रमादी अन्नानौ यदा मृत्युमुखं प्राप्तः ते प्रमादी जौवमरणने मोह उडेआवी प्राप्तही पश्चात्तापनदया संयमस्तेन विहीनः रहित थको पछे पिछतावेमे संजम न पाल्यो दया न पालौ ४८ निरर्थका निःफला थामन्ये नग्नरुचिः तस्यते पुरुषनेचारित्रने विस्खेरुचि फोकट नौरर्थक यः पमान उत्तमार्थे संयमार्थे विपर्यास' विपरितं गच्छति सतरह विधि सयमने विखे विपरीतपणे चाले इममे तस्य इहलोको परलीकीपि नास्ति तेह पुरुषने हरलोकपरलोकनधी विवापि सतस्यलोक: सध्यते नि फलं भवतित पुरुषने परलीक इहलोक दोई निःफलहोइः ४८ एवमेव अचांदी यथा कुचोल
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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उ.टोका
अ०२०
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पुरुषस्य तु किञ्चित् फलं स्यादेव परं तु मिथ्यात्विनीनग्नत्वरचेराद्रव्य लिङ्गिन: अयं लोकीनास्ति लोचादिनसत्वादिकष्टमेवनात् इह लोक सुखमपि नास्ति पुनस्तस्य द्रव्यलिङ्गिनः संयमविराधनातः परलोकः परलोक मुखमपि नास्ति कुगति गमनात् दुःख' स्थात् तत्र उभय लोकाभावसति स धर्म, भ्रष्टोहिधापिऐहिकपारलौकिक सुखाभावेन उभय लोक सुखयुक्तान् नरान् अवलोक्य उभयलोक सुखान् भृष्ट मांधिक इति चिन्तयामिकई इति क्षोयते जीर्णोभवति मनसि दूयते इत्यर्थः ४८ (एमेव हा छन्द कुसौल रूवे मग्ग विराहित जिणुत्तमाण कुररी इव भोगरसाण गिडानिरहसोयापरि तावमेइ ५०) एवं एव अमुना प्रकारेण महाव्रतविराधनादि प्रकारणेव यथाच्छन्दः कुशोल रूपः स्वकीय रुचिताचारः कुत्सित सौलख भावः साधुर्जिनो त्तमानां तो कराणां मार्ग' विराध्यपरितापं पश्चात्ताप एति प्राप्नोति का इव भीगरसानुग्रहाकुररी इव पक्षिणीव भोगानां जिज्ञास्वाददायकानां मांसानारसेऽनुग्रहालोलपाभोगरसानु ग्रडा पुनः कीदृशा कुररौनिर सोयानिरर्थः शोकोयस्याः सानिरर्थशोका यथा हिमां सरस मृडापक्षिणीअन्य भ्यो ४ महाबलेभ्यः पक्षिभ्यो विपत्ति प्राप्यपक्षिणी शोचते तहिपत्तेः प्रतौकार' अनवलोकयन्ती पश्चात्तापं प्राप्नोति तथा संयमविराधको विषयाभिलाषी इन्द्रिय सुखार्थो साधुलॊकद्दयानर्थ प्राप्तौ ततोस्य स्वपरित्राणा समर्थत्वेन अनाथत्व इति भाव: ५० अथयत् कृत्य तदाह (सुच्चापमहाविसुभासियं इम' अणु सासण' नाणगुणोववेयं मग कुसौलाणजहाय सव्व' महानिय ठाणवएपहेण ५१) हे मेधाविन हे पण्डित हे राजन् इदं मुभाषितं मुष्ट भाषितं
छंदकुसौलरूवे मग्ग विराहित्तु जिणुत्तमाणं कुररी विवाभोग रसाणुगिद्दा निरसोयापरि तावमे ५०॥ सोच्चाण * वर्ती इमजअहाछंद कुशोलिश्रो होणाचारवत्त मार्ग विरोधजिनोत्तमानां तीर्थक्वतां मार्गतीर्थ करनी भाष्यी तेहने विराधीने भांजीने टोटोडौ कुररौव
पक्षीणोइव भीगरसानुग्ध्रः सन् पक्षिणौनी परिभोग रसने विखे गृह, हो निरर्थकं शोकं पश्चात्तापं प्राप्नोतिते निरर्थक शोकसंताप फार्म ५० श्रुत्वा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा . उ. ४१ मा नाग
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४० टोका अ०२० ६३५
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सुभाषित' अनुशासनं उपदेश वचन श्रुत्वा सर्व कुशौलानां मार्ग जहाय इति त्यक्ता महानिग्रन्यानां महा साधूनां पथिमार्गेश्चरेत् ब्रजेत् कीदृश' अनु शासन' नानागुणोपपेत' ज्ञानस्य गुणः ज्ञानगुणाः तैरूपपेतं ज्ञान गुणोपपेतं ५१ (चरित्तमायारगुणत्रि एतत्र अणुत्तर सन्नमपालियाण निरासवे सङ्घ वियाणकम्म' उवेइठाण ं विलुत्तम धुवं ५१ ) ततस्तस्मात्कारणात् महानिग्रन्यमार्गगमात् निराश्रवो मुनिर्महाव्रतपालकः साधुर्विपुलं अनन्तसिवानां अबस्थानात् असङ्गीर्ण' उत्तमं सर्वोत्कृष्ट पुन ध्रुवं निश्चलं माश्वतं एतादृशं मोक्षस्थानं उपेति प्राप्नोति कोदृशः साधुः चारित्राचारगुणान्वितः चरित्रस्य आचारवारित्राचारवारित्र सेवनं गुणाः ज्ञानशौलादयः चरित्राचारयगुणाय चारित्राचार गुणास्तैरन्वितश्चारिवाचारगुणान्वितः अत्रमकार: प्राकृतत्वात्
मेहाविसुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणो ववेयं । मग्ग कुसौलाण जहायसव्वं महानियं ठाण वएपहेणं ५१ ॥ चरित्तमायार गुणणिएतओ अणुत्तरं संजमपालियाणं । निरासवेसंक्खवियाणकम्म' उबेठाणं विउलुत्तमं हुषं ५२ ॥
हे मेधाविन् मदुक्त सुष्टभाषितं इमं हे पंडितएन्हारो सुभाषित को सांभलिने अनुशासनं शिक्षणं ज्ञानगुणोपेत सोख किसोछे ज्ञानदर्शनचारित्र तेहना जेगुण तेण सहितके मार्ग कुशोलाणांतिक्ता सर्व मार्ग कुशौलनो होनाचारीयांरो छोडौने माहा निग्रंथाना बृजेत् मार्गे मोटा साधुने मार्गेजिइ' साधूनो मार्गसेवे ५१ चारित्राचारगुणान्वितो महानिग्र'थ: चारित्रनो आचार तेहना गुण तिणें करौ सहितके अणुत्तरं सर्वोत्तम संयमं पालयित्वाः तिवारपछे सर्वोत्कृष्ट चारित्रपालोने निराश्रवे हिंसादिरहितः चपयित्वाष्टकर्मप्रकार हिंसारहित आठकर्म खपावे प्राप्नोति स्थानं मुक्तिरूपं विपुलोत्तमं शास्वतं पामे सुक्तिरूपं शास्त्रतुयानकमक्ति किसीके नवनियल ५२ एवं उक्तप्रकारेण उग्रः दांतोदमितेंद्रियः इमं उक्तप्रकारे उग्र तपकरे इंद्रौजि
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सूत्र
भाषा
कि त्वा साधुर्मोक्षं प्राप्नोति अनुत्तरं प्रधानं भगवदाज्ञाशुद्ध संयमसप्तदशविधं पालयित्वा पुनः किं कृत्वा कर्माणि श्रष्टावपि संचिपय्यचयं नीला एतावता चारित्राचारज्ञानादि गुणयुक्तः श्रतएव निरुद्धा श्रवः प्रधानसंयम' प्रपात्य सर्वकर्माणि संचयं नीत्वामोच' प्राप्नोतीत्यर्थः ५१ अथोप संहारमाह ( एवग्गदन्ते विमहातवोहणे महामुणौ महापत्रे महायसे महानियं' ठिज्जमिण महासुयंसेकहए महयावित्यरेण ५३ ] एवं अमुना प्रकारेण श्रेणि केनराज्ञा पृष्टः सन् समहा मुनिर्महासाधु महताविस्तरेण वृहताव्याख्याने न महानिग्रन्थीयं महा श्रुतं अकथयत् महान्तयते निग्रन्याश्च महानिग्रन्यास्तेभ्योहितं महानिग्रन्थोय ं महामुनोनांहितं इत्यर्थः कौमः स उग्रः कर्मशत्र ुहनने बलिष्टः पुनः कौदृशः सदान्तोजितेन्द्रियः पुनः कीदृशो महातपोधनः महत् तत् तपश्च महातपः महातपोधन' यस्य समहातपोधनः पुनः कीदृशो महाप्रतिज्ञः व्रते दृढ प्रतिज्ञाधारकः पुनः कौट्ट शो महायशाः महाकीर्त्तिः ५३ [तुट्ठोयसेणिश्रराया इणमुदाहुकयंजली प्रणाहत्तं जहाभूयं सुदु मे उवदसिय ५४) श्रेणिको राजा तुष्टो हुइति निश्चयेन इद उदाह इद' अवादीत्
एवुग्गदंतेविमहातबोहणे महामुखी महापइसे महायसे । महानियंठिज्जमिणं महासुयंसेकहि एमहयावित्यरेणं ५३॥ तुट्ठोयसेणिओ रायाइणमुदाहु कयंजली | अणाहत्तं जहाभूयं मुट्टुमेउवदंसियं ५४ ॥ तुज्झसुलई खुमम्म जम्म दम्यांछे तपज जेहने धनके महामुनिः मोटोनतो महाप्रान माहापंडितः महायशाः मोटा यशनो घणो महानिग्र थोयमिदं माहाश्रुत माहानिया थो एके महाश्रुतके स साधुः कथयति महतो विस्तरेण ते अनाथौ साधुश्र णिक राजा आगे सविस्तरपणे कहे ५३ एवं श्रुत्वा तुष्टश्रेणिको राजाधर्मनो मार्ग' सांभलौनें राजा खसौथयो इदं कथयामास अंजलिकृत्वा हाथजोडौने इम कहवालागा अनाथत्वं यथाभूतं सुक्ष्मम उपदर्शितं त्वया कथितं इत्यर्थः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ टीका
.
३
७
* कोदृशः श्रेणिकः क्ताञ्जलिः बहानलिः इदं इति कि हे मुने यथा भूतं यथा वस्थितं अनाथत्व मे मम सुष्टु उपदर्शित' त्वया मे मम अनाथत्व सम्यक
दर्शितमिति भावः ५४ [तम्हासुलई खमणुस्मजम्म' लाभासुलहाय तुमे महेसौ तुके सणाहायसबन्धवाय जम्भे ठियामग्गे जिणुत्तमाणं ५५] कि श्रेणिकाह हेमहर्षे मानुष' जन्मखुइति निययेन मुलब्ध स फलं त्वदीयं मानुष्य जन्म हे महर्षे तवै वलाभाः रूपवर्ण विद्यादीनां लाभाः मुलाभाः रूपलावण्यादि प्राप्तय: सुप्राप्तयः हे महर्षे यूयं एव सनाथाः आत्मनोनाथत्वात् नाथ सहिताः च पुन!यमेव सबान्धवाः जाति कुटम्बसहिताः यत् यस्मात्कारणात् भैइति भवन्तोजिनोत्तमानां तीर्थकराणां मार्गेस्थि ताः ५५ [तं सिणाहो अणाहाणं सव्वभूयाण सध्याखामेमिते महाभाग इच्छामि अणुसासिय ५६) हे संयतत्व अनाथानां सर्वभूतानां बसानांथावराणां जौवानां नाधोसि हे महाभाग हे महाभाग्य युक्तते इति खां अहं
लाभासुलद्धाय तुमेमहेसी । तुम्हेसणाहाय सबंधवाय जंभ ठिया मग्गजिणुत्तमाणं ५५ ॥ तंसिणाहो अणाहाणं सव्व
भूयाण संजया खामेमिते महाभागा इच्छामि अणुसासिउ ५६ ॥ पुच्छिजणंमएतुभन्माण विग्धी उजोकओ। निमं हे स्वामी अनाथपणो यथाभूत तुम्हे मुझ प्रागिलि का भलू देखायो ५४ हे साधी युष्माकं मुलब्ध'जन्म हे साधु तुम्ही मनुष्यजन्म भले पाम्यो लाभाः धर्मप्राप्तिरूपाः मुलब्धा त्वया भी महर्षे एजौनभाषित धर्मनो लाभ भलोहुओ यूयं सनाथाश्च सांधवाच तुम्हे सनाथको तुम्हें बांधवशहितको यूयं स्थितामार्गे जिनोत्तमानां तौकराणां तुम्हें तीर्थकरनी भाष्यो धर्म तैहने विखे रह्याछी ५५ तमसिनाथी अनाथानांतुअनाथनोके सर्वभूतानां प्राणोनों भोसंयतः सर्वभूत प्राणी तेहनीनाथः क्षमयामि ते भो माहाभाग हे माहाभाग तुम्हने खमाव'छुए माहरी अपराध खमज्योः वांछा मिशिष्यतुं मुझने
A.XEKXECXKKKARXEXRIKROEREMEREKKKRE
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४ मा भाग
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उ०टौका
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क्षमामि मया पूर्व यस्तवापराषः कृतः सक्षं तव्य इत्यर्थः अथ भवतोऽनुशायितु त्वत्त: शिक्षयितु आत्मानं इच्छामि मदीय प्रामातवाज्ञावर्ती भवतु इति इच्छामोत्यर्थः ५६ (पुच्छि ऊणमएतुज्म जमाणविग्धायजोको निमन्ति योय भोगे हिं तं सच मरिसेहमे ५७) हे महर्षे मया तुझ पृष्ठा प्रश्न कृत्वा यस्तवध्यान विघ्नः कृतः च पुन भोगैः कृत्वा निमन्वितो भो स्वामिन् भोगान् भुव इत्यादि तव प्रार्थनाकता तं सर्व मे ममाऽपराध क्षतु अर्हसि सर्व ममापराध क्षमस्वेत्यर्थः ५७ (एवन्धु णित्ताणसरायसोही अणगारसौहं परमाइ भत्तौए स ओरोही स परियणो सबन्धवो धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ५८) स राजसुसिहोराजसिंहः श्रेणिकोराजा एवं अमुनाप्रकारेण तं अनगारसिंह मुनिसिंह परमया उत्कृष्टया भक्त्यास्तत्त्वाविमलेन निर्मलेन चेतसा धम्माऽनुरतोऽभूत् इति शेषः कौशः थेणिकः सावरोध: अन्तः पुरणसहितः पुनः कीदृशः स परिजनः सहपरिजने वत्त त इति स 8 परिजनोभृत्यादिवर्गसहित: पुन: कौदृशः सबान्धवः सहबान्धवैर्धाट प्रमुखैवर्त ते इति सबान्धवः पुरापिवनवाटिकायां सर्वान्तः पुरपरिजनबान्धव कुटम्ब 8 सहित एव क्रीडां कत्तु आगात् ततो मुनेर्वाक्य श्रवणात् सर्वपरिकरयुक्ती धर्मानुरक्ती भूदित्यर्थः ५८ (उस्मसियरोमकूवो काऊणय पयाहिण अभिवन्दि
तियाय भोएहिं तंसव्वं मरिसहिमे ५७॥ एवं थुणित्ताण सरायसीहो अणगारसौहं परमाइभत्तिए । सउरीहो सप
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० उ०६१ मा भाम
सौखद्यो धर्म भेलोकरी ५६ पुच्छांच कृत्वा मया तवमईतु मने पूछौने ध्यानस्य विघ्नोयोक्कतः ध्याननीज विघ्नकोधी निमंत्रिताच भोगैः कृत्वा
अने भोगनो निमंत्रणा कोधी तत्सर्व मे ममक्षमस्वते सघलो माहरो अपराधखमो ५७ एवं स्तुत्वा सः राजसिंघ: श्रेणिकः इम स्तुतिकरौने श्रेणिक * राजवोमांहिसोहः अनगार सिंघ मुनौथेष्ठं परमया भक्ता साधमांहिंसिंघसमान मुनिवरने परमभक्तिकरी वांदी स्तुतिकरौने सांतःपुरः सपरिजनः सवां
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कटौका
ABU
ऊणसिरसा अदया उनराहिवो ५८) नराधिपः श्रेणिकोऽतियातो गृहङ्गतः किं कृत्वासिरसामस्तकेन अभिवन्ध मुनिं नमस्क त्य पुनः किं कृत्वा प्रदिक्षणां क्वा प्रदक्षिण दत्वा कयंभूतोनराधिपः ऊस्म सियरोमकूपः उत् स्वसितरोमकूप: साधोर्दर्शनादाक्य श्रवणादुलसितरोमकूपः ५८ (इयरी विगुण समिद्धोति * गुत्तगुत्ताति दण्ड विरोय विहङ्क इव विष्पमुक्को विहरइवसुहं विगयमोहोत्तिवेभि ६०] अथ इतरोपि शिकापेक्षया अपरोपि मुनि रपि वसुधां पृथिबों विहरति विहारं करोति कोदृशः सन् विमोहः सन् मोहरहितः सन् अर्थात् केवलौसन् कीदृशो मुनिर्गुण समृद्धः सप्तविंशति साधुगुणसहितः पुनः कीदृशः त्रिगुप्ति गुप्तः गुप्तित्रय सहितः पुनः कोदृशः त्रिदण्डविरतः त्रिदण्डे भ्यो मनो वाकायानां असभव्यापारेभ्यो विरतः पुनः कौटशो विहङ्ग व विप्रमुक्तः पक्षोवकचिदपि प्रतिबन्धरहितोनिः परिग्रहः इत्यर्थः इति सुधर्मास्वामी जंबूस्खामिनं प्रति वदति अहं इति ब्रवीमि ६० इति महा रियणो सबंधवो धम्माणुरत्तो बिमलेण चेयसा ५८॥ उस्मसिय रोमकूवो काऊणय पयाहिणं । अमिवंदि ऊणसिरसा।
अइयाओ नराहिओ ५८ ॥ ईयरीवि गुणसमिद्धोतिगुत्तिगुत्तोतिदंडविरीय विहंगइव विप्पमुक्को विहरदूव मुहं धवः अंत:पुरसहित परिवारसहित भाईसहित धर्मानुरक्त: विमलेन शुद्धेन चेतसा धर्मने विखे रक्तहुश्री निर्मल मुद्धचित्त हुओ ५८ स्थित रोमकूपः उत्थितहाछे रोमकूप जेहना रोमराय उद्धर्ष थयाछ कृत्वाच प्रदक्षणांत्रयः वलौतीन प्रदक्षणादेइने अभिवंद्यनमस्कृत्य सिरसा मस्तक नमावीने नम स्कार करीने गृहगतो नराधिपः श्रेणिक राजा आपण घरेगयो ५८ इतरो मुनि अनायौ ऋषिपिण गुणः समृद्धः साधुना गुण तिणे सहितः त्रिगुप्त गुप्त: मनोवाकाय पापनिवृत्तः विहुगुप्त गुप्तीछे मनवचनकाबा भलो राख्याछ विहगइवः विप्रमुक्त: ममत्वभावरहितः पंखोनौपरि ममताभाव रहितः
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं• इ. ४१मा भाग
भाषा
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४निग्रथोयं अध्ययनं विंशतितमं संपूर्ण । इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूवार्थदीपिकायां उपाध्याय वौलक्ष्मीकौति गणिशिश्च लभौवनभणि विरचितायां • टौका महानिधोयाख्य विशतितम अध्ययनं समाप्तम् २० अथैक विशं कथ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने अनाथत्व उक्त तत् अनाथत्व विविक्त चर्यया विचार्यते अ.२१
अतोस्मिन् अध्ययन विविक्तचर्या उच्यते सूत्र (चंपाए पालिए नामसावए आसिवाणिए महावीरस्म भगवत्री सौसीसी उमहष्ययो१) चंपाए इति चंपायां नगयों पालित इति इति नानाथावको देशविरतिधारी वणिक् आसीत् कीदृशः स वणिक् भगवती महावीरस्य महामनी महापुरुषस्य तीर्थकरस्य शिष्यः शियाधारकः सीउ इति स पुनः पालितोनाम थाहः कोदृशो वर्तते तदाह नि(मन्ये पावयणे सावए सेविकोविए पोएण क्वहरन्त पिहुड नगर मागए २) सपालितनामा श्रावको महात्माने ग्रन्थे प्रावचने श्रीवितरागस्य सिद्धान्त कोविदीभूत् सपालितः एकदा पोतनव्यहरत् प्रवहणन वाणिज्य
विगयमोहोत्तिवेमि६॥ महानियंठिज्जसम्मत्तं ॥२०॥ चंपाए पालिए नामसावए आसिवाणिए। महावीरस्म भगवत्री सीमासोओ महप्पणा १॥ निग्गंथे पाबयणेसावए सेविकाधिदे । पोएण वबहरते पिहुंडनगरमागए २॥ पिहुडे
राय धनपतसिंध नाहादुर का पा०सं० १.४१ मा भाग
मुत्र
भाषा
विचरित वसुधाकेवलंप्राप्त: विगतमोहः इति ब्रवौमौ पृथ्वीने विखे विचरे मोह रहितथको ६० इति श्रीवीसम अनाथी ऋषिनु अध्ययनपुरुथयुः
चंपायां नगयों पालकोनाम चंपानगरीने विखे पालकनामे श्रावकः आसीत् वणिक् थावको वाणीत्री श्रीमहावीरस्य भगवतः श्रीमहावीर भगवंतनीः 8 शिष्यो महात्मा शिवछे मोटी प्रात्माछे जहनी । निनथे प्रावचने जैनशास्त्र जैनधर्मने विखे जैनशास्त्रनेविखे स: श्रावकः ते श्रावकविशेषणको विदः * चतुरः ते थावक पंडितछे प्रवहणेन व्यवहार कुर्वन् प्रवहणनी व्यापारकर'चको वाहणपूरे पिहु'डनगरमागतः पिहुडनामे नगरने आयीछे २ पिहुडे
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ON.
कुर्वन् पिहु डं नाम नगरं आगत: चंपानगरोत: प्रवहण मारय व्यापारार्थ पिडुडनगरं समायातः इतिभावः २ (पिडु हे ववहरन्तस्म वाणिोदेह धुरंतस सत्तं पर गिभ सयंदेस पत्थिर ३ ] अथ तब पिहुडनगरे कवि इणिकपालित गुणरंजित: सन् तस्य पालितस्यगुणैः सन्तुष्टः सन् पालिताय धूयर इति पुत्रों ददाति स च पालितस्तां परिणीयकतिचिहिनानि तवस्थित्वा तां वणिकपुत्री स सत्वां स गभी प्रतिव्य स्वकंदेशं प्रति प्रस्थितः पिहुंडात् चम्यां प्रतिचलितः ३ [अह पालियस्य घरणी समुद्दमियपसवई अहदारए तहिं जाए समुद्दपालोत्तिनामए ४] अश्व अनन्तरं पालितस्य गृहीणी समुद्र दारक प्रसूतेस्म अथ तस्मिन्दारके पुत्रे जाते सति समुद्रपाल इति नामतः सबालः आसोदितिशेष: ४ [ खेमेण आगएचम्प सावए वाणिए घरं संवई घरेतस्म दारए से सुहोइए ५] तस्मिन् पालितेनानि वणिजि चम्पायां नगयों क्षेमेण सुखेन गृहं आगते सति समुद्रपाली बालक: संबईते कीदृशः
वबहरंतस्म वाणिओ देवधूयरं। तं ससत्तं पद्दगिभसदेसं अहपत्थिए ३। अहपालियस्म घरगी समुद्दम्मियसबई ।
अहदारए तहिंजाए समुद्दपालोत्तिनामए ४। खमेण आगए चपंसावए वाणिए घरं । संवडई घरतम्म दारएस सुहो नगरे व्यवहार कुर्वत स्तस्य पिहुंडनगरने विष व्यापारकरछे कश्चित् वणिक् पुत्रों ददाति ते पालितने नगरनोवासो कोई वाणौओ बेटौपरणावे तां ससवां सगी प्रतिग्ट ह्यतेपालित यात्रक गर्भसहित आपणो स्त्री लेईने स्वदेशांप्रति अथ चलित आपणादेशभणौचाल्यो ३ अथ पालितस्य पहिणीहिवे पालितनो स्त्रीः समुद्र प्रसुता समुद्रनेविष प्रसवहुप्रो अथ तत्र समये दारकोजातहवे ते समयनै विषे पूत्रहो तस्य समुद्रपालेति नामकृत समुद्रपालते, वालकनु नाम को ४ खेमेण आगतः चंपा कुशलखेमे चंपानगरौआव्यो सा पालिकः थावको आगतो मह ते श्रावकघराव्यो संबईते तस्य ग्रह
राय धन पतसिंह बाहादुर का प्रा. सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ.टोका
सबालकः सुखोचितः मुखयोग्यः ५ [बावत्तरी कलाप्रीय सिक्खिए नौइकोविए जीवी शय संपत्ते सुरुवे पियदंसी] च पुनः स समुद्रपाली हास ६४२ प्रतिकला शिक्षितः सन् नोतिकोविदोभूत् लोकनौति चतुरोभूत् च पुनर्योवनेन सम्पन्न: सञ्जात इति गम्य कवभूतः स प्रियदर्शनः पुनः कदम्भूतः
समुद्रपालः सुरुषः सुन्दररूपः ६ [ तरस रूववईभज्ज पिया आणि दूरुविणीं पासाए कौलए रम्ने देवीदोगु'दुगी जहा ] अथ तस्य समुद्रपाल स्य पिता 8 पालको रूपवती भायों रूपिणौतिनाम्रो आनयति परिणायतिस्म ततो रम्य रमशीके प्रासाद क्रीडा करीति को यथा दोगुदुकोदेवी यथा धुन्द्राणां पूज्यस्थानीयोदेवः सुखानिभुती तथा सुखंभुको इत्यर्थ ७ [ अह पबया कयाई पासाया लोयणद्विषो बजामंडणसोभागं बकंपस्मार बाग ८] अथान तरं समुद्रपालोऽन्यदा कदाचित् प्रसादस्य धवल गृहस्य आलोकने प्रासादावलोकने मन्दिरगवाक्षेस्थिती बध्य चौरं पश्यति बधाय अौं बध्यस्त
इए ५॥ बाबत्तरी कलाओय सिक्खिए नीडूकोविए। जोवणेणयसंपस सुरुवे पियदसणे । तस्मरूव बर्मजंपिया
आणदू रूविौं । पासाए कीलए रम्मोदेवी दुगुदगी जहा ७॥ अह अन्नया कयाई पोसाया लोयणेटियो । बभ भाषा 8 तेहसेठनेघर ते दारकस्यः सुखीचितः ते वालक सुखोचितछे ५ हासप्ततीकलाशिष्यतः वाल कने बहुत्तरिकलासीखी थिखित: नीतिशास्त्रकोविदः निपुण
नौतिशास्त्रे नोतिशास्त्र नोजाण चतुरः यौवनेन संप्राप्त: अनुक्रमे यौवनांग्यो सुरुप प्रियदर्शनः माहारुपयंत प्रियकारी दर्शमछे जहनु । तस्य पुत्रस्य निमित्तं रूपवती भायीं ते पुत्रने निमित्ते रूपवती स्त्री पिता आनयति कपिणौ इति नामा पिता आणे कपणी इसे नाम प्रसाद कौडति रम्ये मनो हरे रमणीक घरने विखे क्रौडाकरछे यथा दोगुदको देवः जिम दोगंदक देवता रमैतिमरमैहे . अथ अन्धदा कदाचित् एकदा प्रस्तावने विखे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१ मा मा
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स.टीका
ब०२१
कीदृशं बध्यं बध्य मण्डनशोभाक बध्यस्य चौरस्य यानि मण्डनानिरल चन्दन निम्बपत्र कावीर पुष्प सगादीनिबध्य मण्डनानितैः शोभायस्यासी बध्य मण्ड नशोभाकस्त पुनः कीदृशं बााग बहिर्भवं बाघ बहिर्भूमण्डल तइच्छति प्राप्नोतौति बाह्यगस्त रामपुरुषैर्वहिनिःसारमन्तं अथवा बध्यग इह बध्य शब्देन उपचारात् बध्य भूमि रुच्यते तत्र बध्य भूमौ गच्छन्तं ८ [तं पासि जणसंवेग समुद्दपालो दणमखवी अहो असुहाण कम्माण निजाण' पावग' इम'] समुद्रपालः संवेग प्राप्तः सन् इद अब्रवीत् कि छत्वा तं चौर बध्य दृष्ट्वा इद इति कि अहो इत्याचर्ये अशुभाना कणां इद पापक निर्याण अशुभं प्रान्तं दृश्यते ८ [संबुद्दी सोतहिं भयवं परमस वेगमागो प्रापुच्छमापियरं पब इए असगारि१०] स समुद्रपाली भगवान् महामा
मंडणसोभाग बझपासडू बझग'८। तं पासिऊण संवेग समुद्दपालोदूण मव्ववौ। पही पमुहाण कम्माणंनिज्जाणं
पावर्गदूम । संबुद्धोसो तहिं भगवं परमसंबेगमागमो मापुच्छम्मापियरे पब्बडूए पगारियं १० ॥ जहित्तु संगथ प्रासादस्य पालोके मवास्थिता प्रासादने झरोखे बैठा नगरनौ सोभादेखेछे बधमंडनं निवपनादि तत्रचितं योभायुक्त कोइक पुरुष नींबना पत्नी मालापहरा वोछे मारवाने सर्वसोभाकौधौछे वंध्यवध्य योग्य पश्यति वध्यभूमौने विखे वध्ययोग्य पुरुषने देखे पतं दृष्टा संवेगजातः ते देखौ समुद्रपा लने संवेग अपनी समुद्रपालः इदं अब्रवीत् समुद्रपालइम कहवालागी अहो इति प्रापर्ये अशभकर्मनी विपाकफलः परिणामपाप कर्माणां अयं एपाप कर्मनो परिपाकः स भगवान् तवमंबुडः ते भगवंत तिहां प्रतिबूही परमं संवेरी पागतः परमसंवेग अपनी पापच मातापितरौ मातापिताने पूछौने प्रबजित: अनगारतां साधूभावं दिस्थालौधी साधापी १० त्याला स्वजन प्रति संबंधिच महान कारकं खजनसंबंधौनो प्रतिबंधकोशी ली शनी कारण
सूत्र
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं••१मा भाम
भाषा
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20
30
वान् संबुद्धः प्रतिबुद्धः सन् परम सवेग आगतः परमवैराग्य प्राप्त मातापितर आपृच्छय अनगारत्व प्रजितः प्रकर्षण अङ्गीकृतवान १० जत्ति सङ्गन्य महाकि लेस' महन्त मोहं कसिण भयावह परियाय धम्मच भिरोय इज्जा वयाणि सौलाणि परीसहय११] समुद्रपाली भगवान् श्रामने परिवाय धम्म प्रत्रज्याधनं अमिरीचयेत् च पुनः व्रतानि अहिंसा सूतृतास्तेय ब्रह्मा किञ्चनत्वलक्षणानिपञ्च तथा सोलानि उत्तरगुणरूपाणि शुद्धाचार गोचरोकरणसपतिरूपाणि तान्यपि आमने अभिरोचयेत् अर्थात् प्रव्रज्यां जग्राह इत्यर्थः किं कृत्वा सङ्क' स्वजनादि सम्बन्धन्त्वक्वाथ पद पूरणे कथंभूत' ॐ संग महाकि लेस महान् ले यो यस्मासमहाले शस्त पुनः कथम्भूतं सङ्ग महामोहो यस्मिन् समहामोहस्त महामोह प्रचुराज्ञानसहितं पुमः कथम्मत कसिण कृष्णलेभ्योयाहेतु तस्मात् कृष्णं पुनः कयम्भत भयानक भयदायक इत्यर्थः११ [अहिंस सच्चञ्च अतण गच्च तत्तीयबम्ब अपरिमाहच्च पडि
महाकिलेसं महं तमोहं कसिण भयावहं। परियाय धम्मच भिरोयज्जा वयाईसीलाई परीसहय ११ ॥ __ अहिंस सच्चंच अतेणगच तत्तो अबभ अपरिग्गहंच। पडिवज्जिय पंचमहब्बयाई चरिज धम्म जिणदेसियंविऊ १२॥ जाणोने दीक्षालेई आत्माने समझावे महामोहं कृष्णलेण्या हेतूत्वेन विकिनी भयानक एकुटंबनोसंग कृष्णलेश्यानीहे तुझे विवेको जीवने भयनु * हेतुके प्रव्राधम अभिरोचयेत् चारित्ररूपं धर्मजौनदेसितं इम जाणोने चारित्र ऊपरि रुचिकर व्रतानि धौलानि पालिनीयानी परीषहानि सह्यानि 8 पांचव्रतशोल आचार पालवा वावीसपरिसह सहें ११ अहिंसा दया सत्वाचौर्य ब्रतश्च जीव दयापालवी साचु बोलबुअदत्तादान नलेवु ततश्च ब्रह्मचर्य शोलबत पाले अपरियहंच परिग्रहनराखे एवं प्रतिपद्य अंगीकृत्य पंचमहावसानि इम पंचमहाव्रत अंगीकारकरीने चरेत् सेवेत् जिनभाषित
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२०४१ मा भाग
भाषा
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उ०टीका
०२१
६ ४५
सूत्र
भाषा
BOORNEREK
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वज्जियापञ्च महव्वयाइ चरिज्ज धम्म' जिणदेसियं विऊ १२] तानि पञ्च व्रतानां नामान्याह अहिंसाहिंसनो जोवानां बधोहिंसा न हिंसाऽहिंसा सर्व जोवेषु दया प्रथमं १ च पुनः सत्यं २ च पुनः अस्त्यन्यक' स्तेनस्य चौरस्येदं कर्मस्तन्य नस्त्यं न्य अस्त्यन' अस्तेयमेव अस्तन्यक ३ ततोऽनन्तर ब्रह्मशोलं ४ च पुनः अपरिग्रह सर्वथालोभत्यागः स समुद्रपालः पञ्चमहाव्रतानि इमानि प्रतिपद्यजिनदेशितं धर्मं चरेत् सेवेत महाव्रतानिगृहीत्वा एकवननिष्टेत् इति भावः कथम्भूतः सः विजइति विद्वान् वेत्ति हेयोपादेय विधीन् इति विद्वान् १२ [ सव्वेहि भूएहिंदयाण कंपोखतिखमे सञ्जय बम्भयारो सावज्जजोग' परिवज्जयन्ते चरिज्जभिक्वू सुसमाहि इन्दि९१३] भिक्खू इति भितुः समुद्रपालितसाधुः सुसमाहि तेन्द्रियः सन् चरिज्जइति विचरतेस्म कथंभूतः सः स सर्वेषु भूतेषु दयानुकम्पो सर्वेषु प्राणिषु दययाहितोपदेश रूपया अनुकम्पनशीलः दयापालनपरः सदयानुकम्पो पुनः कथम्भतः क्षान्तिचमः क्षान्त्यातत्वालोचनयाचमते दुष्टानां दुर्वचनाताडनादिक इति चांतितमः पुनः कथम्भूतः संयतः साध्वाचारपालकः पुनः कथम्भूतः ब्रह्मचारी ब्रह्मणि परमात्म स्वरूपेचरतोति ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यधारको वा पुनः स किं कुर्व्वन् विचरतेस्म सावद्ययोग ं वज्जयन् स पापयोग' परित्यजन् १३
सव्वेहिं मृएहिंदयाणुकंपी खंतिखमे संजयव भयारी सावज्जजोग परिवज्जयंतो । चरिन्ज भिक्खूसु समाहिदू दिए १३ 'धर्म' विहान पंडित सेवे पाले तौर्थ करनोभाष्यो धर्मपंडितसाधू १२ सर्वभूतेषु दया चिंतक: सर्वजीव ऊपर दया चिंतवेछे चमावान् चमाकरे संयतः संयमसहितः ब्रह्मचर्यधारी शीलव्रतधारी सा वद्ययोगान् परिवर्जयेत् सावद्ययोग जहथो पापलागे ते सर्ववर्जे चरेत् भिक्षुः सुसमाधितेंद्रीयः विहरेत् राष्ट्रदेशे साधुभलौपरि' आपण इंद्रोदग्याके एहवोधको देशनेविषे विचरे १३ काले प्रस्तावे काल अध्ययनादिक्रियां कुर्वन् प्रस्तावनेविषे क्रियापडौलेहण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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कालेणकालं विहरेज्जरहे बलाबल' जाणिय अप्पणोज सौ होव्व सद्देख न सन्तसिज्जावय योगसुचान पसभमाइ १४] पुनः सः साधुः कालेन प्रस्तावेन प्रथमपौरुष्यादि समयेन काल अवसर योग्य कार्य ध्यानानुष्यानतपस्यादिक कुर्वन् विचरेत् किं कृत्वा आमनः बलाबलं ज्ञात्वा परोषहादि
सह न सामर्थ्य विचार्य यथा २ संयमयोगहानिर्नस्यात्तथेति भावः पुन: स साधुर्वाग्योग श्रुत्वा दुक्खोत्पादक वचन श्रुत्वा खलाना असत्यं वचनं * कर्ण विधाय असभ्यवचनं न आह न ब्रूयात् आषत्वात् आहुरिति १४ [उवेहमाणो उपरिष्व इज्जापि इमप्पियं सव्वतितिक्वइ ज्जान सव्वसम्वत्थभिरी यइज्जा नयावियूयं गरहन्न सञ्चए१५] त पुनः स साधुः उपेक्ष्यमाणः असभ्य वचन अवगणयन् परिव्रजेत् मनसिवचसि दुर्वचन' अधारयन् ग्रामानुग्रामेषु अतिशयेन विचरत् प्रियं च पुन: अप्रियं सर्वन्तितिक्षेत् लोकानां सम्यग वचन दुष्ट वचम सहेत् पुनः स समुद्र पालित साधुः सर्व वस्तु सर्वत्र नरो
कालेण कालं विहरिज्जर? बलावलं जाणिय अप्पणोय। सौहोव्व सहेण नसंतसज्जा बजोग साच्चाण असम्भ
माहु १४ ॥ उवेहमाणोउपरिव्वएज्जा पियमप्पियं सच तितिक्खएज्जा। न सव्व सब्ब त्यभिरायडूज्जा नयाविपूयंग 8 प्रमुख कर राष्ट्रदेगे वलावल ज्ञात्वा आत्मन: आपणोवल अवलपणोजाणौने सिह इव शब्देन भयकारकेन न संत्रसेत् जिम सौहनाशब्द भंडाशब्द
सांभलोने चमकेनही तिमसाहसीक पुरुषभयकारौशब्द सांभलौने वौहेनहौ वाग्योग कठिनवचनादिश्रुत्वा न असत्यंकठोरवचन जल्पतियती कठोरवचन सांभलौने गालिप्रमुख कोईने निदेनही १४ दुर्वचनादि अगणयन् कोई दुर्वचनवीले तो मनमाहि पाणनहीखमे प्रियमप्रियंच सर्व क्षमेत् भलु मुंड* सर्वखमेनैव सर्ववस्तु सर्वत्रन अभिरोचयेत् सर्वत्र संघलौवस्तु कपरि रुचिनकर जेह तेह वस्तु उपरि मन नघाले नचापि पूजांगई विगणयेत् संयतः यतौनी
राय धनपतसिंह बाहादुर का माम.ह. 8१ मा भाग'
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स.टौका
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चयेत् आत्मनेन अभिलषयेत् च पुनः स स यतः स साधु पूजां अपि निश्चयेनगीं निन्दा अपि नरोचयेत् यतो हि स समुद्रपाशित साधुः स दृष्टा दृष्ट पदार्थेष अभिलाष कोमाभूत् पूजास्तुति रूपां वाणीं कि भिक्षोरप्यन्यथा भावः स्वाज नेत्यमित्य घाममोऽनुशासनमसौ चक्र इत्याह १५ [अणे १ गछ दाइह माणवेहि जेभावो सपगरेइभिक्व भयभेरवातत्वउविंतिभौमादिष्वामणस्मा अदुवातिरिच्छा १६] इहास्मिन् जगति मानवेषु मनुष्येषु अनेकानिच्छ दांसि बहवः अभिप्रायावर्तते यान् अनेकान् अभिप्रायान् भावतस्तत्व वृत्त्याभिक्षुरपि सम्मकरोति पतो तत्र दीक्षायां भयभैरवा प्रचर भयोत्पादकाः भीमारौद्रा: दिव्याः देवसम्बन्धिनोऽथवा मनुष्याः मनुष्य सम्बन्धिनस्तियं चातिर्यग, योनि सम्बन्धिनः उत्पद्यन्ते [परौसहा दुब्बिसहा अणेगेसोयन्ति जत्थाबहु कायरानरा सेतस्थपत्तेन वहिजभिक्व सङ्गामसौसे इव नागराया १७] दुर्विषहाः दुःखेनसोदशक्या परीषहा अनेकेउत्पद्यन्त
रहंच संजए १५॥ अणे गच्छंदा दूहमाणवेहिं जेभावउसंपकर भिक्खू। भयभेरवा तत्यउति भौमा दिव्वा मणुस्मा .
अदवातिरिच्छा १६ ॥ परीसहा दुब्बिसहा अणेगसीयंतिजत्या वहुकायरानरा । सेतत्यपर्सन वहिज्ज मिक्खू संगाम कोई पूजा करें निंदा करे एवं जपरि सरिखी भावराखे १५ अनेकच्छंदा अभिप्रायाइहजगति संभवति संसारमाहि मनुष्यनानवा २ अभिप्रायछे नविर वृद्धिछे यान् छंदान् भावतो अंगीकरोति स भिक्षुः साधु यती भगवंतनो धर्म अंगीकार कर भावसंपजें भलेभाष वर्से भयभैरवाः भयकारकाः तत्र आगच्छति भोमाः रौद्राः तोहांयतोने भयनाकरणहार महारौद्र पायप्राप्तहवे उपसर्गः देवसंबंधिनः मानुथा तिर्यग् संबंधिनः देवता संबंधी नियंच संबंधिः १५ परिषहाःदुसहाः अनेक भवंत परिसहसहतां दोहिलाइस्था अनेक प्राप्तहमा भावौलागा सौदंतीवस्वंतियेभ्यः बहुकातरा मनुष्याः परिस
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राय धनपतसिंह बाहादुर बा आम..४१ मा भाग
भाषा
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इति सम्बन्धः यत्रयेषु उपसर्गेषु उत्पबेषु बहुकातरानरा अनेकेकातराः सौदन्ति सयमात् अवो भवन्ति स साधुस्तत्र परौषहे प्राप्त उदयं आगतेभिक्षुर्न * १. टीकाx
व्यवेतनसवाच्चले त् क नागराज इव गजराज इव यथा गजराज: संग्रामसोर्ष न विपरीतमुखो भवति १० [सोउसिणादं समसायफासा आत क.विविहाफसन्ति देहं अकुकुओतत्य हियासएज्जा रया खेविज पुरेकडाई १८ गौतोष्णदंशमसकण स्पर्था एतैपरौषहाः साधोदेहविविधा प्रान्तकारी गपरोषहाः स्पृशन्ति तदा स साधुः अकुकूजइति कुत्सित कूजतिः सन् आक्रन्द तौति कुकूजी, न कुबूजी अकुकूज: पाकन्द अकुर्वन् तत्रतान् परोषहान् अधिस हेतसाधुः पुराकतानिरजांसिपापानिक्षपयेत् क्षयं नयेत् १८ [पहायरागञ्च तहेवदीस मोहच भिक्खू सततं वियक्वणोमेरु ब्वपाण्ण अकम्पमाणो
सीसव नागराया १७। सीओसिणा दंसमसाय फासा आतंका विविहा फुसंति देहं। अकुक्कुत्री तत्वहिया सए .. ज्जारयाई खेबिज्जपुर कडाडू १८॥ पहाय रागचतहेव दोस मोहंच भिक्खु सतयंवियक्खणो। मेरुव्ववाएण अकंप
सूत्र
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
४ हथो घणाकावर मनुष्थानासे अडामाज सः यतितेषु उत्पबेषु न चलेत् भिक्षुः पंडित: परिसहप्राप्तहांथका जिकोचलें नहित साधु कहीये यथा संग्राम 8 मस्त के नाग राजहस्तो जिम संग्रामविखे हाथोने तौरलागे तरवारिलाग बरछोगोलौलागे पिणनामे नही तिम साधुपणिशौदावेनासे नहीं१यौतोत्र
दंशमशकाच स्पर्शा सोत उष्ण डांसमसाना स्पर्थ हवे आतंका रोगाः नानाप्रकारास्पृशंति देहं रोगभांति २ ना आवौ देहने फरसे अच्छितकूजितम तबहा देव इत्यादि शब्दरहिता अध्यायोतरोग पाव्यांयकाहा देवहामाब इस्था वचन कहे नही मन दृढकर रजांसि कर्ममलानि क्षपयेत् पुराततानि रजकरममल पुराऊत तेहने खाये १८ तिक्कारागं तथाई षं रागडे षछोडीने मोहंच भिक्ष: मततं निरंतर विद्वान् पंडित साधु सदा मोहने छांड मेर
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परोसहे आय गुत्ते सहेज्जा १८] साधुः परोषहान् सहेत कि कृत्वा राग तथापि च पुनर्माह प्रहायत्यजा कोदृशः साधुः सतत विचक्षणो निरन्तर तत्वविचाररतः कइवमेकरिव बा तैरकम्यमानः पुनः कोदृशः साधुः प्रामगुप्तः कुम्भइव गुप्त शरीरः १८ [अणुन एनावण एमहेसी नयाविपूयं गरहं च सञ्जए से उज्न भाव पडिवज सञ्जया निब्वायमगं विरए उवेइ २०] महर्षिः पूजांस्तुति च पुनर्गह्रबिन्दा अपिन सङ्ग येत् सङ्ग न कुर्यात् स्तुति निन्दयोः प्रसङ्ग न कुर्यात् स्तुतिं श्रुत्वाहर्ष न कुर्यात् निन्दा श्रुत्वा दुःख न कुयादिति भावः कीदृशो महर्षि : अनुनतः न उव्रत: अनुव्रतः अभिमान रहितः पुनः कोदृशो नावनतः न अवनतोदोनभावेन रहितः स एतादृशः समुद्रपालितः संयत: ऋजुभावं सरलत्व प्रतिपद्य विरतः पापात् निवृत्तः सन् निर्वाणमार्ग मोक्षमार्ग उपैति प्राप्नोति २ . [अरइरइ सहेपहोणसन्थ वे विरए आयरिएपहाणवं परमपएहिचिट्ठई छिन्नसोए अममे अकिञ्चणे २ १] पुनः स साधुरति सहः अरतिश्च सहते इति परतिरति सहः पुनः कीदृशः प्रहौण स'स्तवः प्रकर्षण हीनोगतः सस्तथी गृहस्थैः सहपरिचयो यस्य स
माणोपरीस हे आय गुत्तेसहज्जा । १६ ॥ अणुस्मए णावणए महसीनयाविपूयंगरहंच संजए। सेउज्जुमावं पडिवज्ज संजए निचाणमग्ग विरएउवेद ॥ २०॥ अरदूरदू सह पहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं
राय धन पतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
रिखवाघुना अपन:जिम मेरुपर्वत वायर करोचाले नहोतिम साधुपणि कोई उपसर्ग चलेनहों परिषहान् सर्वान् गुप्तसन् सहेत सघलापरिसह आपणी
आ मागु करोने सहे १८ अत्यच्व: नातिनोंच:महर्षिःन अतिउचोनअतिनौची साधुनचापि पूजांबांतिपूजावहिनहीगरहांच दुश्वचनानिनिंदागहखिमस ऋजभावस्व प्रतिपद्य संयतः सरलभाव अंगीकार करीनसाधु सिद्धानामारगविरतः सन् गच्छति मोतं लभते विरकथको मोक्षजाई कर्मयौ रहितहुवेर ०
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उ० टोका श्र० २१
६५०
व
भाषा
प्रहौनस ंस्तवः त्यक्तसङ्गः पुनः कीदृशः विरतः पाप क्रियातो निवृत्तः पुनः कीदृशः आत्महितः आत्मानां सर्वजीवानां हितोहितवाञ्छकः पुनः कीदृशः प्रधानवान् प्रधानः स यमः सविद्यते यस्य स प्रधानवान् सयमयुक्तः पुनः स साधुः किं करोति परमार्थ पदेषु तिष्ठति परमार्थस्य मोक्षस्य पदानिस्थानानि मोक्षदायकत्वात् कारणानि परमार्थपदानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेषु तिष्ठति प्राकृतत्वात् सप्तमीस्थाने तृतीया पुनः कौदृशः स छित्रशोकः इह संयम पदानां आनन्त्यात् तदभिधायि पदानां पुनः पुनर्वचनेपि न पौनरुक्त्य' पुनः कीदृशः सः श्रममोममत्वरहितः पुनः कीदृशः अकिनो द्रव्यादि परिग्रहरहितः २१ (विवित्तलयणाइ भएज्जताई निरोवलेवार असं थडाइ इसोहिचिहाइ महायसेव्हिं कारण फासिज्जपरोसहाइ २२ ) पुनः समुद्रपालितः ary: कोहस्तायोवायतेरचतिकाय षट्क' इति वायौ षट् काय रक्षाकारकोमुनिरित्यर्थः सविविक्तलयनानि स्त्रौ पशु पण्डकादिरहितानि धर्मस्थाना परमट्ठप एहिं चिट्ठई छिमसोए अममे अकिंचणे २१ ॥ विबित्त लयणाइ भएज्जताई निरोवलेवा' असं थडाइ' इसोहि चिनाइ महायसेहि कारण फासेज्ज परौसहाइ २२ ॥ सन्नाग नाणोवगए महेसी अणु
अरति रतिसहतेमुक्त परिचय अरति रतिसह कोईस्यु परिचय न करे विरतः आत्महित प्रधानसंयम मुक्तः सर्ववस्तुथौ विरतके आपणा आत्माने हितकरेके धान संयमसहितः परमार्थपदे मोक्षमार्गे तिष्ठति मोक्षमार्गनेविखे रहे विनशोकः दूरिक्कृत्य शोकः अममः अकिंचनः शोकदूरिकोधु निर्ममत्व अकंचिन ममत्वः २ १ विविक्त एकांत लयने उपाश्रयेभजते सेवतेविविक्तनिय जन एकांत उपाश्रय सेवेतिहांनिर्लेप अलिप्तथकोरहेछ कोट्टशानौस्थानानि निरुपले पानि लेप रहितानि असंघट्टितानि जोवादिभिः त्यक्तानि उपाश्रय जीवजंतु करो रहित के ऋषिभिः सेवितानि महायशोभिः महायशः नाधण जे साधु तिथे
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हाय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१ मा भाग
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१.टौका
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निभजेत् कादृशानि विविक्तलयनानि निरुपलेपानि द्रव्य भावतश्चलेपरहितानि द्रव्यतीहिसाधुनिमित्त न नलिप्तानिगृहस्थ न स्वार्थ लिप्तानीत्यर्थः & भावतस्तुरागादिलेपहितानि मदोयानि इमानिस्थानानि इति रागबुयारहितानि पुनः कीदृशानि असन्यण्डाइ प्रसंस्तृतानि शाल्यादिबोजैरव्याप्तानि 8 स चित्तबीजसबाट रहितानि पुनः कीदृशानि महायशोभिः ऋषिभिश्चौर्णानि अङ्गीतता निसेवितानौत्यर्थः पुनः समुद्रपालितः साधुः कायेन परीषहान
फासिज्जइति स्य शेत् द्वाविंशति परीषहान् सहेत २२ (सनाणनायोवगए महेसौ अणुत्तरं चरिउ धम्म सञ्चयं अणुत्तरेनाणधरैजसंसौ उभासई सरि एवं तलिले २३) स समुद्रपालितो महर्षिरनुत्तरं प्रधान धर्म सञ्चयं दशविध धर्म चरित्वा आराध्य अवभासते शोभते कीदृशः सन्नान ज्ञानोपगतः ज्ञानेन श्रुत ज्ञानेनयतज्ञानं सम्यक क्रियाकलाप वेदनौं ज्ञानज्ञान तेन उपगतः सम्यग् ज्ञान क्रिया सहित:सक इवअन्तरिक्ष आकाशे सूर्य इव यथाआकाशे सूर्यो विराजते तथा तपस्तेजसाविराजते इत्यर्थः २३ (दुविहं खविऊण पुरण पावं निरङ्गण सव्वश्री विष्पमुक्को तरित्तासमुह च महाभवोहंसमुह पाले अपुणागम' . तरंचरिउ धम्मसंचयं अणुत्तरेनाणधरेजसंसौ। उमासईसरिएवंतलिक्खे २३ ॥ दुविहंक्खवेजणयपुमपावं निरंगणे सेव्याछे चूवाजोग्यः तत्र कायेन कृत्वा परिषहान् सहेत् कायाई' करी परिसहने सहेछ २२ स समुद्रपाल मुनिः मत ज्ञानस्य ज्ञानबोधनेन ते समुद्रपालयतो श्रुतज्ञाननोधरणहार महर्षिः सर्वोत्तम ज्ञानज्ञाः निरतोचारचारित्र' चरित्वा क्षांत्यादिवत्ति धम्मसमूह प्रधानन्नान तेहनोधरणहारयतौः केवल ज्ञानसहितः सन् यशस्वी केवलज्ञानउपनु समुद्रपाल साधुने यशस्वी यशनी धणो उद्भासते प्रकाशते सूर्य यथा अंतलिकवे आकाशे साधुने इम शोभे जिम आकाशि सूर्यप्रकासनी कारण: २२ विविध क्षपयित्वा पुण्य पावं पुण्य पापवेखपावीने निरंगणः शभ प्रक्वतित्वात् संयम निश्चलसन्
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. .४१ मा भाग
भाषा
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उन्टौका
ॐ गईग इत्तिबेमि २४) समुद्रपालः साधुः अपुनरागम गतिं गतः न विद्यते पुनरागमो यस्याः सा अपुनरागमा अपुनरागमाचासौ गतिव अपुनरा ४' गमग तिस्तां गति यत्र गतौगतानां जीवानां पुनः संसार आगमो न भवति मीच गतइत्यर्थः किं कृत्वामी गतइत्यर्थः हिविध घातिक & भवोपग्राहिक पुण्य पापं शुभाशुभ प्रकृति रूपक्षपयित्वा संपूर्ण भुक्ता पुनः किं कृत्वा महाभवौघं समुद्र तरित्वा उन्नध्यमहान्तय ते भवाय महा
भवास्तेषां पोषः समूहो यत्र समहाभवौ घस्त एतादृय समुद्र अर्थात् संसारसमुद्र विलंध्य सिहो बभूव इत्यर्थः परं कीदृशः स समुद्रपालित: साधुः 8 सर्वतो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहात् विप्रमुक्तः अथवा सरोर सङ्गात् अपि विप्रमुक्तः पुनः कौदृशः सनिरङ्गनः निर्गतं अङ्गनं चलनं यस्मात्मनिरङ्ग नः संयमे
निश्चल: अगंर्गत्यर्थत्वात् साधुमार्गे निश्चलचित्तइत्यर्थः इत्यहं ब्रवीमि हे जम्बू श्रीवोरवाक्यात् तवाग्रे इति अमुनाप्रकारेण अहंसमुद्रपालित साधु सम्बन्ध
ब्रवीमि २४ इति श्रीमदुत्तराध्यन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मी कोर्तिगणि शिष्यलक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायांएकविंशाध्ययनार्थः संपूर्ण: २१ ॥ 8 अथ द्वाविंशतितम अध्ययनं प्रारभ्यते ॥ पूर्वस्मिन् अध्ययने विविक्तचर्या धृतिमताकार्या तत्र च कदाचित् मन: परिणामाधर्मान,टा भवन्ति
तदारयनेमिवच्चरणे धृति राधेया तत् दृष्टांतमाह तत्र धौनेमिनाथन कस्मिन् भवेतीर्थ करनामकर्मनिबद्दमिति शिष्य कौतुकोपनी
दाय धौनेमि चरितं लेसतोलिख्यते एकस्मिन् सनिवेमेग्रामाधिपति सुतो धननामा कुल पुत्र दहिनाधनवतौनान भार्या अन्यदा भार्यासहितः 8 सव्वओ विप्पमुक्त । तरित्तासमुहंच महाभवोहंसमुद्दयाले अपुणागमंगडूगएत्तिमि ॥२४॥समुद्दपालियंभयणंसमत्त ॥ २१ 8 सर्वतः विप्रमुक्ता रागरहित संयमनेविखे गयाहे पापपुखना अंकुराः निश्चल सर्ववस्तुथि विप्र मुक्तः लंघयित्वा समुद्ररुपं महाभवौघं ससारसमुद्र % सरिखो ससारसमुद्र तरोने समुद्रपाल मुक्ति' गतः प्राप्तः इति ब्रोमो समुद्रपाल मुक्तिगया जिहांथो फोरौ संसारमाहि अवतरबुनधीः ॥ २४ ॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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२२
8 कुलपुत्रीयो मकालेमध्याह्न समये प्रयोजनवशे नगतोऽरण्य तत्र के पथपरिभ्रष्ट हट्क्षधापरित्रमातिरेक निमौलित लोचन भूमितलगति गत कगशरोरं एक मुनिवरं ददर्शतं च दृष्ट्वा स कुल पुत्र एवं चिंतितवान् अहो एष महातपस्वौईदृशोविषमावस्थामापन्नः ततस्तं जलेन शिक्तवान् चेलांचलेन वोक्षितवान्म निः स्वास्थ्यमापनः नोत: स्वग्राम प्रतिजागरितश्च औषधपथ्याहारादिभिः मुनि नापि दत्त उपदेशः यथा इह दुःख प्रचुरे संसार परलोकहित अवस्य जनेन कर्तव्य ततो भवद्भिरपि परमांसमद्याखेटकादिनियम कुरुत यदि पालयितु शक्तास्तदा बहुदोषान्येतानि यदुक्त पञ्चह्नियबहु भूयं मंसन्दग्गन्धमसु इबीभच्छं रखपरितुलियभक्खगमामैजणयं कुगई मूलं १ तथा गुरुमोहकलहनिहा परिहर उवहासरोग भय हेतु मज्ज दीग्गइ मूलं हिरिसिरिमइ धम्मनासकर २ अपि च मज्ज मुहंमिमं सम्मि उप्पज्जति असंखा तव्वसातत्यजन्तुणो ३ तथा सत्तोवधायजयणा इहेवत हनयरति रियगइ मूल दुहमारणस्मय हेतु पारडा वेरबुट्टिकरा ४ इदं च श्रुत्वा संविग्नाभ्यां ताभ्यां भणितं भगवन् देहि अस्माक' गृहस्थावस्थोचितं धम्म यति नातु सम्यक मूलद्वादश ब्रतरूपी धर्मस्तयोर्दत्त: उक्त च सोध मोजत्यदया दसह दोसानजस्मसोदेवो सोहुगुरूजीणाणो आरम्भ परिगहा विरो १ श्रावकधर्म प्रपद्यती दम्पतो तुष्टौ यतिनातयोः पुन रेवं शिक्षा प्रदत्ता यथा तत्थ वसेज्जासडोजई हिंसहजस्थहोइ संयोगो तत्थयचेईय भवणं अवविजत्थसाहम्मो १ देव गुरूपतिस'ज्म' करेज्जतहपरमवन्दण विहिणा तह पुष्फ वत्थमाई हिं पूयण सब्बकालम्मि २ अन्यच्च अपुब्वनाण गहण पच्चक्खाण सुधम्म सवणञ्च कुज्जास इजहसत्ति तव समाया इजोगंवा १ अन्यच्च भीषणसमए सवणे विवोहणेपसवणे पएसवणे पञ्चनमोकारं खलु समरेज्जा सञ्चकम्मे स १ एवं च तयोः शिश्यां दत्वा साधन्यत्र विजहार तौदम्पती स्वगृहे गती साधूपदिष्ठं धर्मानुष्टान' कुरुतः कालक्रमणताभ्यां यतिधम्मः प्रतिपन्नः कालं तत्वाधनः सौधर्मे देवलोके देवत्वं नोत्पन्नः सास्त्रो ततस्यैव मित्रत्वं नोत्पना तत्र सुरसुख मनुभूयधनदेवजीवी वैताक्ये सूरतेजरातः पुत्रचित्र
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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टोका
श्व ०२२
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विद्याधरराजा जातः धनवत्यपिकस्य चिद्रान्नः कन्याजाता परिणीताचित्र गतिनैव तत्र मुनि धर्मं कृत्वामाहिन्दे घणो सामाणित इयरायनम्मित्तो जाओ तत्तोचुजणधणी अवराजिओ नामरायाजाओ साविपिईमई तस्मपत्रीकाऊ समणधम्म गयाद्र' हावपोती आरण्य कल्प मित्र देवौजातो. तत धनदेवजीवः शंखराजाजातः धनवतो जीवस्तस्य वकान्ताजाता तब शंखराजा प्रतिपन्न मुनिधर्मोविंशति स्थानकैर्निबद्दतीर्थं करनाम गोत्र : काल' कत्वाऽपराजितविमाने समुत्पन्नः तत्कान्तापि धम्मं प्रभावेण तत्रैवोत्पन्ना धनजीवस्ततश्च प्रता सौर्यपुरेनगरे दमदमाराणां मध्येज्येष्ट समुद्रविजयस्य रात्रीभार्यायाः शिवादेव्याः कुचौचतुर्दशमहाखनः सूचितः कार्त्तिक कृष्णद्वादश्यां पुत्रत्वे नोत्पन्नः उचितसमये श्रावण शुद्धपचम्यां प्रसूताशिवादेवो जातो दारकः दिग्कुमारिकाविहित जातकर्मानन्तर सुरासुरैर्मेरुमस्तके जन्माभिषेके कृते सति राजापि वर्णानं कारितं श्रस्मि' थगर्भगर्तकदाचित् स्वप्न शिवादेव्या अष्टरत मयोनेमिर्दृष्ट अतोरिष्टनेमिरिति अस्य नाम कृतं अयं कुमारोष्टवार्षिकोजातः अत्रान्तरे कृष्ण नक' सेनिपातिते जीवयणावचने नयादवानामुपरि कुडोजरासिन्धुराजा तत्य' कया सर्वेपि यादवाः पश्चिम समुद्र यावहताः तव केशवाराधित वै श्रमणे न कृता सर्वकाञ्चनमयो द्वादश योजना मानवयोजनविस्ताराहारिकानाम्त्री नगरी तत्र सुखेनयादवास्तिष्टन्ति क्रमेण निहितजरासन्धो रामकेसवी भरताई स्वामिनी जातो अरिष्टने मिर्भगवान् यौवन मनुप्राप्तः विषयसुख पराङ्मुखोपि मित्र: प्रर्यमाणोनानाविधक्रोडां करोति अन्यदा समान वयस्क रनेकराज कुमारैः सहक्रीडन् गतो नारायणस्यायुद्धशालां तत्र दृष्ट्वान्यनेकानि देवाधिष्टितानि श्रयुधानि तत्र द्रव्यं कालाबत धनुः कौतुकेन गृह्णन् नेमिरायुधपालेन भणित: कुमार किमनेनानुष्टानेन न हि नारायण मन्तरेणान्यः कोपिनर इदं धनुरारोपयितुं शक्तः ततईषडसित्वानेमिना तनुलौलयैवारोपित' आस्फा लिताजोवास्तस्याः शब्देन मेदिनोकम्पिता विस्मितासर्वेप्यायुधशालिकानरास्ततस्तनुर्मुक्कानेमिनाथको ग्टहीतः पूरितस्तच्छब्देन सर्वं जगद्दधिरित
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०२२
६५५
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साम
कम्पिताभूमि गिरिशिखराणि तत्रु दासानगरो तु विशेषाच्चकम्पे ततः कृष्णचिन्तयति किमेष प्रलयकालकललामा पत्रीयं शङ्क शब्दः श्रूयते तावता युद्धशालेन कृष्णस्य यथार्थो व्यतिकरः कथितः ततोनेमि कुमारपराक्रमेण विस्मितो हरिर्बलदेवं प्रत्येवं बभाण यस्य नमि कुमारस्येता अस्ति स वर्द्धमानोमद्राज्यं सुखेनलास्यति ततोस्य वलं परौक्ष्य राज्यरक्षणोपायं चिन्तयामः बलदे वेन भणित' अलमनयालोकसङ्गया येनाय' पूर्व केवलिभिः निर्दिष्टो द्वाविंशतितमोजिनः त्व' पुनर्भरताई स्वामी नवम वासुदेवः अथच्च भगवान् अकृत राज्यएव परित्यक्त सकल सावद्ययोगः प्रब्रज्यां गृहौष्यते एवं निरन्तर बलदेवेन राज्यहरण शङ्कया वार्यमाणोपि कृष्णः कदाचिदुद्याने गत्वा नेमिन प्रत्येवमाह कुमार निज २ बल परीच णार्थं आवां बाहुयुद्धेन युध्याव: नेमिना भणित' किमनेन बुधजन निन्दनीयेन बाहुयुद्धेन वाक्युद्ध नैव आवां युध्यावः बाहुयुद्धेन हारितस्य तव महान् अयशः प्राग्भारो भविष्यति कृष्णेनोक्त क्रौडया युद्धतोरावयोः कौदृशो यमयशः समूह स्ततो भगवता नेमिना व बाहुप्रसारितः कथितञ्च अयं मदौयो बाहुर्यदि भवतानामि तस्तदा त्वयाजित' मया हारितमिति ततः कृष्णेन सर्व्वशक्त्यां दोलितोपि भगवान् बाहुर्नमनाक् चलितः यथास्य भगवतो मनोनिञ्चलं तथा बाहुरपि निश्चल एवेति जनैः प्रशंसाकृता ततः परम चमत्कारं गतस्य खराज्यहरण शङ्काकुलित चेतसो नारा यणस्य कियान् कालोतिक्रान्तः अन्यथा नेभिर्यौवनं प्राप्तः विषय सुखनिः पिपासोपि समुद्रविजयादिना विवाहार्थं भृशमुक्तोपि न विवाह मङ्गो कुरुते ततः समुद्रविजयादिभिः केशवस्यैव मुक्त' केशव तथा कुरु यथा नेमिर्विवाह मङ्गीकुरुते कृष्ण नापि रुकमिणी प्रमुखाः स्वभार्या प्रेरिता स्ताभिर्जलकेलिकरण पूर्वक एवं श्रोनेमिनाथस्योक्त स्वामिन् लोकोत्तर' तवरूप निरुपमाः सौभाग्यादयोनन्तास्त्वयिगुणाः निरामय स्तवदेहः सुरसुन्द रोगा मध्यमादजनक' तव तारुण्यं ततोनुरूप दारसंग्रहेण सफल कुरु दुर्लभं मनुष्यत्वं ततो हसित्वा नेमिनाथेन भणित' मुग्धानां अशुचि स्वरूपाणां
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१ मा भाग
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ड. टौका
बहुदोषालयानां तुच्छ सुखनिवन्धनानां पस्थिर सङ्गमानां रमणीनां सङ्गमेन न भवति नरव' सफल' पिच एकान्त शडाया निष्कलङ्कायाः निरुपम सुखायाः शास्वत सङमायाः सिद्धिबहाएव सङ्गमैन नरत्व सफल भवति यतः माणुसत्ताइ सामग्गो तुच्छभोगाणकारणा रयणच्च कोडिअाइचहारि तित्र वुहाजणा १ अई सिद्धि बधू निमित्तमेवयतिथे नेमेरय मभिप्रायस्ताभिः कृष्णाय निवेदितः कृष्णेनचनमः स्वयं भणित: ऋषभादय स्तोध करा दारसंग्रह कृत्वा सन्तान परम्परा वर्द्धयित्वा खेष्टलोक मनोरथान् पूरयित्वा पश्चिमवयसि निष्कान्ता शिव प्राप्ताय त्वमपि तत्तु ल्य स्तत्रैव मोचे यास्य सोति दशारचक सन्तोषाय कि' न पाणिग्रहण करोषीति कृष्णः प्रकाम विवाहाग्रहशतवानिति नेमिस्त मौनमालम्बास्थितः कृष्ण न चिन्तित अनि षिद्ध मनुमतमिति न्यायादङ्गीकृतएव नेमिना विवाह इति दशारचक्राय उक्तवान् सञ्जातहर्षेण देशारचक्रण भणितः कृष्णः त्वमेव नेम्यनुरूपां कन्यां गवषय ततः कृष्ण न गवेषयता उग्रसेन पुत्री राजीमती कन्या नेमितुल्यरूपा सा पुनधनवती जीवोपराजित विमानात् य त्वातत्रोत्पन्नास्तीति इयमेव नेम्यनुरूपति तदर्थ कृष्ण न उग्रसेनः प्रार्थित: तेनापि मनोरथातीतो जीव मनुग्रह इति भणित्वा कन्यादत्ता ततः कारित कुलहयेपि बर्दापन गृहीत विवाह लग्न कारित समस्त जातिवर्गस्थ भोजनाच्छादनादिसत्कारः प्राप्ते च लग्नदिवसे दिव्य रमणीभिः नापितोऽलङ्गाती विभूषितो मत्त वारण मारूढः समन्तामिलित: दशारचक्र बलदेव वासुदेवादि यादव परिकरितः पृष्टौ वादितानेक कोटिप्रमाण वादिन थिरीतात पत्रचामरैर्वीज्यमान: पृष्टौ गौयमान मङ्गलः सर्वतो मागधैः कृत जय जयारवः सुर नर सङ्घन सर्वतो वौच्यमाणः सुरौभिर्नारीभिश्च प्राय॑मानो नेमिकुमारः प्राप्तो महता विस्तरेण उग्रसेन नृप हारपुरोरचित विवाहमण्डपासवदेश राजोमत्यपि सर्वालङ्कार विभूता गवाक्ष्यस्थानेमि दृष्ट्वा आनन्दपरावशा जाता एतदपि तदानौं नवेत्ति काह किमत्रास्ति कोयं कालः कीदृशी चेष्टे ति अवान्तर करुणारब'श्रुत्वा जानता नेमिना पृष्टः सारथि: कोय'मरभौरूणां प्राणिनां एषः
राय धनपतसिंह चाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
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अ०२२
करुणारवः तेन कथित स्वामिन् तव विवाह गौरवाय अनेकजन भोजनाय मेलिता अमी हिरणादयो जौवा व्यापादयिष्यन्ति साम्प्रतमाक्रन्द कुर्वन्तौति
नेमिराह सारखे रवमितो निवत बनाह विवाह करिश्च यत्र एतावतां प्राणिनां बधस्तेन विवाहेन मै समाप्त संसार परिभ्रमणहेतुरेवाय विवाहः नेमि उ. टौका 8 वचनात सर्वेपि प्राणिनो मुक्ताः गता स्वस्थान मुखेन विरक्तचित्त पञ्चाइलमान नेमिनामालोक्य अकाण्ड वचप्रहार ताडितेव विहला राजीमती ७ धरणोतले निपतिता मूर्छिता ससम्मेण सखोजनेन भौतलजलसिक्ता तालहन्तेन वौजितालब्ध चेतनाएव विललाप यही मया अत्यन्त दुर्लभ भुवननाथे * अनुराग कुर्वन्त्या पात्मा लघूकतः धिग् मम सुकुमालोत्पत्तिं धिक् मम रूपयौवनच्च धिग् मम कलाकुशलतां येनाह' नेमिना प्रतिपद्यापि मुक्का हे नाथ
मै जीवित निर्गच्छति अङ्गानि मे चुटन्ति दय' म स्फटति विरहाग्नि ज्वाला कुलितीय ममात्माहारी मेचार सहयो जलचन्दन चन्द्रिकादयः पदाथों श्चित्ताग्नि सदृशाः स्वामिन् तव विरड़े मम जायन्ते स्वामिन्मा त्वं कि त्यजसि कि मम विरुह त्वया श्रुत दृष्ट वा जन्मान्तरकृत ममाशभकर्मवोदित स्वामिन्नेकवार' ममाभिमुख दृष्टि देयाः प्रेमपरायां मयि त्वं सर्वथा निरपेचीमाभूः अथवा सिविधत्कण्ठितस्य तवदयं सरसन्दयपि न हरन्ति मनुष्य स्त्रीणां तहरणकागणना एवं महाशोकभरादिता विलपन्तौ राजीमतौ सखोजनेन भणिता अलहनीयो भवितव्यता परिणामः ततो धीरत्वावल म्बनौं कुरु अलमत्र विलपितन सत्व प्रधानाराजपुत्री भवन्तीति भणित्वा संस्थापिता दितीयदिने तया सखीनां पुरएव मुक्त' पद्यमये दृशः स्वनोदृष्टः यथा महारदेश एकोदिव्य पुरुषो देवदानव परिवतः सिंहासनमारूढः तस्याभ्यणेऽनेक जन्तवसमायाताः अहमपि तव व गता स चतुरः शरीरमानस: दुःखप्रणामकानि पादपफलानि तेभ्यो ददन्नया प्रार्थित: भगवनमाप्येतानि फलानि देहितनतानि दत्तानि तदनन्तरं प्रतिबुहाई मखौभिभणित है प्रियसखि मुख कटकोपि स्वप्नीय शौघपरिणाम सुन्दरीभविष्यति इतश्च नेमिनाथ समदविजय शिवादेव्यादि विविधैरुपायैः पाणिग्रहणाथे प्राध्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
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44
उ. टीका
EN
२
मानीपि नैवत मर्थमङ्गोचकार अस्मिवयसरे लोकान्तिका स्त त्रागत्यएव मूचिर भगवान् सर्व जगलीवहित तत्तीर्थ प्रवर्तयेति भणिवा जननी जनका & दौनामन्तिके गत्वा एव मूचतुः भवत् कुलोत्पनः यौनेमिः प्रबजि शरस्तौतिकोभवतां विषादः नेमिरपि मान पिचोपुरः कताञ्चलिरव मुवाच रच्छामि युभ दनुज्ञातो प्रबजितु इदञ्च युवा शोकसंघट्ट निरुहदया धरणौतले निपतिता चुर्णितेभुजवलयाशिवादेवी मिलितं दशारचक' जलाभिषेकादिना लब्ध संज्ञा भणितुमारब्धा पुत्रकथमस्माकं मनोरथं मूलादुच्छिदसि कर्थवाव सत्पुरुषोपि प्रार्थना भंग'करोषि दयारचक्रस्वापि मनः सन्तापं किं करोषि कथञ्चिवयमुग्रसेन राज्ञो मुस्खं दर्शयिष्यामः कथञ्च त्वदेकचित्ता सावराकोराजीमती भविष्यति सतोमदुपरोधेन तस्याः पाणिग्रहणं कुरु ततः पश्चात् प्रव्रज्या गृतीया भणित भगवतामातर्मन: सन्तापं माकुरु सर्वभावानामनित्यत्व भावयविषयानां विपाकदारुणत्वं प्रप्ति जनकवच अस्ति यौवन धनादीनां चञ्चलत्व सध्यासमयाभ तुल्यतां विलासानामवेहि अकण्ड प्रहारत्व मृत्योर्जन्मजरामरण रोगादि दुक्ख प्रचुरत्वं संसारस्था सोच य ततो मातामनुजानोहि भव प्रदीपाविर्गच्छन्त अवांतरे दशारचक्रेणनेमिर्भणितः कुमार सांप्रतित्वया परित्यक्तस्व यादवलीकस्य न कथित् वाणमिति ततः किचित्काल प्रतोय ख तदुपरोधशोतलया बाया भगवता संवसरमेक यावत् स्थितिरङ्गोकता दत्तञ्च तस्मिवेव सम्बत्सरिकं दानं प्रतिपूर्णे च सम्बमरे माट पोवादोनामा पृच्च्य श्रावण शुद्धषच्या स देव मनुष्यपर्षदा परिवतो नगर्यानिर्गत्यसहस्रामवणे उद्यानवौणि वर्षशतानि गृहस्थावारीस्थित्वा षष्टभक्तेन पुरुष सहस्रेण सम निष्कान्तः तपस्संयमरतोविहरति इतच भगवतो भ्रातारथनेमिः प्रौति पर एकान्ते राजौमति भवमाह सुचमा कुरुविषादं सौभाग्यनिधि * का कोन प्रार्थयति भगवान् पुनर्नेमिमाथो वीतरागत्वाबकरोति विषयानुबन्ध ततः प्रतिपद्य स्वा सर्वकाल महं त्वदानाकारी भविष्यामि तया भणित यद्यहं नेमिनाथेन परित्यक्ता तथापि अहं तं न परित्यजामि यतोहं भगवत एव शिष्यणी भविष्यामि ततस्त्वमेनं प्रार्थनानुबन्धन्त्यज सतः सकतिचिहिना
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.१.१ मा भाग
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१. टीका
له
عمر
नियावत् मौनेनस्थितः अन्यस्मिन् दिने पुनरपि तेन प्रार्थिता ततस्तया तत् प्रतिबोधार्थं तत् प्रत्यक्षमेव चौरं पौत्वा मदन फलपातनवां वा तत् * सौवनिक कच्चोलके शिया समुपनोतं रथनेमेचित इदं पिवतेनोक्त कथं वां तं पिबामि सया भणितं त्वं किमेतज्जानासि स आह बालोये तज्जानासि
सा आख्यत् तर्हिनेमिनाथ वां तां मां कथं त्व पातुमिच्छसि इदं राजौमत्या बचः श्रुत्वा स उपरतो राजीमत्यपि दौचाभि मुखौ तपोभिधानैः शरीर शोषयन्ती तिष्टति अवांतरे च तुः पञ्चाशदिन पर्यन्ते भगवतः यौनेमि नाथस्य रैवतगिरि सहस्रावने केवल ज्ञान मुत्पन्न देवैः कृतं समवसरण तत्र समायातासु हादशपर्षम देशना कता तां च ७ वा बहवः प्राणिनः प्रनजिताः केचिह्नण धराजाताः स्थापित भगवतातीर्थ राजीमत्यपि विविधकनाभि सहप्रबजिता रथनेमिरपि संविग्नत दानी मेव प्रबजित: राजी मती तदानी भेव मचिन्तयत् योमया तदानीं दिव्य पुरुषस्वप्नो दृष्टः सोद्यसफलो जात: अनादाराजौ मती साध्वौभिः सम भगवतो वन्दनार्थ रेवतगिरिगच्छन्ती अकस्मामेध वृष्ट्याऽभ्याहताः सर्वापि साध्योऽनागुहासु निलोनाः राजीमत्यपि एकस्यां गुहायां प्रविष्टा तब च पूर्व रथनेमिसाधोः प्रविष्टोस्ति पर अन्धकार प्रदेशेस्थितोयं न दृष्टः तया चौवराणि विस्तार 8 यितु लग्ना सानि रावरणा च जाता तस्याः शरीरशोभा दृष्ट्वा इन्द्रियाणां दुर्दान्ततयाऽनादि भवाभ्यस्ततया च विषयाभि प्रायेण परवशीजातः तादृशो
रथनेमिस्तया दृष्टः ततो भय भांता सा सद्य आमान प्रात्य बाहुभ्यां सङ्गोप्य च स्थिता तेन भणिता सुतनुतवानुरागवशेनाह मिदं शरीर परति परिगतं धत्तुं न शक्नोमि ततः कृत्वामुग्रहं प्रतिपद्य स्वमया सम विषयसेवनं पश्चात्मजातमनः समाधी आवां निर्मलं तपः संयम चरिष्याव: सयापि साहसमवल व्यप्रगल्भवचनर्भणित: महाकुल प्रसूतस्य सव किमिद युक्त खयं प्रतिपत्रस्य व्रतस्य भवन जीवित मपि सत्य रुषास्यजन्ति न पुन बसलीप कुर्वन्ति ततो महाभागमन: समाधि करवा पिम्सयविषय विपाकदारुणात्व भीलखानस्य भरकादिकच फलं न च विषय मेवनेन मनः
XXXRMEREKXXEKXREKKEROKNEKEXXXX.
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१ ४१मा भाग
=
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उ०टोका
अ०२२
६६०
सूत्र
भाषा
समाधिः किं तु भूरितराऽरतिर्भविष्यति विषयसेवन लब्ध प्रसरस्य मनसः प्रकाममिच्छावते उक्त च पुत्तादिव्वाभोगा सुरसुन्तहयमण एस' नय समा यातित्तो अतितत्तर ं कस्मविजि अस्स १ इत्यादि वाक्य स्तयानुशासितः स सम्बद्धः सम्यगहं प्रतिबोधितस्तयेति भणन् आत्मानं निन्दयित्वा राजौमतीं च भृशं स्तुत्वागतः साधु सभामध्ये सा च साध्वी सभामध्ये गतेति अरिष्टनेमिर्भगवान् मरकत समवर्ण: दशधनुरुच्छितदेहः शङ्खलान्छनः चतुः पञ्चाश दिनसप्तशतवर्षाणि केवल पर्यायेण विहृत्य अनेकभव्यान् प्रतिबोध्य च वर्ष सहस्रायुः परिपाल्यरेवतगिरौ आषाढ शुडाष्टम्यां सिद्धिङ्गतः क्रमेण रथनेमि राजीमत्यावपि सिद्धि' जग्मतु इत्यरिष्टनेमिचरित्र' सूत्र अलिख्यते [सोरिय पुरं मिनयरे आसिराया महट्टिए वसु देवत्तिनामेण रायलचण सच्च ए१] सौर्यपुरनाम्नि नगरेवसु देव इति नाम्ना राजा आसीत् यद्यपि सौर्यपुरं समुद्र विजय प्रमुखादशदशार्हाः दशभ्रातरोवियन्ते तेषु दशसुलघुभ्रतावसु देवोस्ति तथापि वासुदेव पुत्री विष्णु रभूत् तेन वसुदेवस्यैववर्णनं कृत' कोदृशो वसुदेवो महर्द्धिकः छत्र चामरादिविभूतयुक्तः पुनः कौशी राजलक्षण संयुतः हस्तपादयोस्तलेषु राज्ञो लक्षणानि चक्र स्वस्तिकां कुशवञ्चध्वज छत्र चामरादिभिः सहितः अथ वा औदार्यधैर्यगाम्भौर्यादि सहितः १ [तम्भज्जा दुवे आसिरोहिणौ देवई तहा तासि दोहंपि दोपुत्ता इट्ठाराम केसवा ] २ तस्य वसुदेवस्य ह े भायें आस्तां रोहिणी तथा देवको यद्यपि वसुदेवस्य
सोरियपुरंभि नयर आसिराया महिड्डिए । वसुदेवेत्तिनामेगं रायलक्खण संजुए १ ॥ तम्भज्जा दुवेचासि रोहिणी
सोरौपुर नामा नगरे सोरोपुर नगरनेविखे आसीत् राजा महर्द्धिकः महाऋविनोधण राजाहओ वसुदेवेति नाम्नाः वसुदेवसेनांमे राजाइओ राजा लवणसंयुतः राजाराजलचणतिषेक रोसहितके १ तस्यराजे हे भायें अभूतां तेराजाने वेभार्याहई रोहणी देवकोतिनाम्नाः एक रोहिणीवोजी देवकी तयोः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा० सं०ड० ४१ मा भाग
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टोका हा सप्तति सहव दारा आसन् तथाप्यत्र उभयौरव कार्यात् रोहिणी देवक्योरेव ग्रहण कृतं तयो रोहिणी देवक्योईयो हौं पुत्रौ अभूतां तौ पुत्री को
रामकेशवो कोदृशौ तौ अतोष्टौ मातापित्रोरधि कवज्ञमौ २ (सोरिय पुरम्मिनयर आसिरायामहडिए समुद्दविजए नाम रायलक्वण सञ्जए ३] सौर्यपुर
नगरे समुद्रविजयो राजा महर्डिक आसीत् कीदृशः समुद्रविजयो राजा राज लक्षण संयुतः अत्र पुनः सौर्य पुराभिधान समुद्र विजयवस देबयो 8 रेकवावस्थिति दर्शनार्थ ३ [तस्म भज्जासिवानाम तौसे पुत्ते महायसे भयवं अरिडुनेमित्ति लोगनाहेदमौसरे ४] तस्य समुद्रविजयस्य राज्ञः शिवानाम्रा * भार्या आसीत् तस्याः शिवा देव्याः पुत्रो भगवान् ऐश्वर्यधारी अरिष्टनेमिरासौत् चतुर्दश स्वप्नदर्शनानन्तरं एक' अरिष्टरत्न मयं रथ चक्रं ददर्श तेन अरिष्टनेमिरिति नाम प्रदत्तं कथंभूतोऽरिष्टनेभिर्महायशाः महाकौतिः पुनः कीदृशीऽरिष्टनेमिः लोकनाथः चतुर्दश रज्जु प्रमाण लोक प्रभः पुनः
देवईतहा। तासिंदुगिहंपिदोपुत्ता छाराम केसवा २॥ सोरियपुरंमिनयर आसिराया महिथिए । समुद्दविजएनामं
रायलक्खणसंजुए ३ ॥ तस्ममज्जा सिवानामंतीसे पुत्री महायसे । भगवं अरिट्टनमेत्ति लोगनाहे दमौसरे ४॥ सोरि भाषा
योपि हौ पुत्रौ तेस्त्रौवे इने वेटाहा इष्टौ वल्लभी राम केशवौ वल्लभ कृष्णौ रोहिणौनो बेटा वलभद्र देवकोनी कृष्ण हवो ३ सोरीपुरनामा नगरे सोरोपुरनामा नगरने विषे आसीत् राजा महर्डिकः समुद्र विजयनामा राजा समुद्रविजयः राजलक्षणसंयुक्तः ३ तस्य भार्या शिवानामा तेहनी भार्या शिवादेवी एहवेनामे तस्याः पुत्री महायशः तेहनो पुत्र माहायशनोधणी भगवान् अरिनेमि भगवंत अरिष्टनेमिः लोक नाथ: दमिनांमध्ये देखरः श्रेष्टलोकनीनाथछेदमौमाहिं यटके 8 स च अरिएनेमिनामै ते अरिष्टयौनमिनांमे लक्षणेन स्वरेण च संयुत: बबीस
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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एण्टोवा अ०२२
६६२
सूत्र
भाषा
कोथोऽरिष्टनेमिर्द मोखरः कुमारत्वेपियेन कन्दर्पोजितः तस्मात् दमिनां जितेन्द्रियाणां ईश्वरो दमौम्वर ४ ( सोरिङ मेमिनामोज लक्खयस्त रसंजुश्री असह लक्खणधरो गोयमो कालगच्छवो ५) अथारिटने मे वर्णन साह स अरिष्टनेमिनामा भगवान् अष्टसहय लक्षण धरो वर्त्तते अष्टभिरधिकं सह अष्टसह लक्षणानां प्रष्टसह लचणाष्टसह तहरतोति लक्षणाष्टसहयधरः भ्रष्टसहस्रं लचणानिधरतौति वा अष्ट सहश्र लक्षणधरः पुनः कीदृशः लचणस्वरसंयुतः लचणैः सहितः खरोलचणखरः स्तेन संयुतः स्वरस्थलचणानि माधुर्यलावस्याऽव्याहत गांभीर्यादीनितैः संयुतः तोयंकरस्यहि अष्टाधिक सहयलचणानि शरोरे भवन्ति स्वस्तिक वृषभसिंह श्रीवच्छ शंखचक्र गजाख इत्यादि प्रमुखाणि लचणानि हस्तपादादौ भवन्ति पुनः कोडयो रिष्टनेमिः गौतमो गौतमगोत्रीयः पुनः कीदृशः कालकच्छविः म्यामकान्तिः ५ [वञ्चरि सह सहयणो समचोर सोकसोयरी तम रायमई कण' भज्जष्नाय केसवो ६ ] पुनः कोहयो वव्य कौलिका ऋषभः पट्टोनाराचः उभय पार्श्वयोर्मर्कटबन्धः एभिः संहमन' शरीररचना यस्य स वचर्षभनाराच संहननः पुनः कीदृशो सम चतुरस्रः प्रथम संस्थानवान् यः पद्मासनेस्थित: सन् चतुषु पार्थेषु मम शरीर प्रमाणाभवति स सम चतुरस्र सस्थानवान् उच्यते तौर्थ करोहि समचतुरस्र संस्थानधारौस्यात् पुनः कोट्टशो भषोदरः झषस्य मत्स्यस्य उदरमिव उदर यस्य स भषोदरः अथ तस्या ट्ठनेमिनामोउ लक्खणस्मरसंजु अट्ठसहाल क्खणधरो गोयमा कालगच्छवी ५ ॥ वज्जरिसहसंघयणी समचतुरंसो
लक्षण अनेवर तिथे संयुक्तः अष्टोत्तरसहस्र लक्षणधरः एकहजार आठलक्षणनो धरणहार: गौत्तमगोत्र: स्यामकांतिः गोतमगोत्रनोधणो स्याम शरीर कांति: ५ वचऋषभ संघयम वच्चऋषभनाराच सघयणनोधणौ सम चतुरं स संस्थानः सम चोर स संस्थान भषोदरः मोदर: मासरोषु' पेटके
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हाय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं० ० ४ १ मा भाग
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RRRRRRRRREKKKAKKKKARXXXKRWAR
रिष्ठ नेमिकुमारस्य केसवः कृणो राजोमतो कन्यां भार्याय याचते कृष्ण देवोराजमत्याः जनकपा राजौमती कन्या नेमिनाथस्य भार्या याची इति भाव: ६ [अह सा रायवरकवा सुसौला चारपहिणी सवलक्वलसम्पन्बा विजसो यामणिप्यभा 0] अथानन्तर सा राज वरकन्या राजमती कीदृशी वर्तते तहर्णनमाह राजसुवरो राजवरः षोडशसहस्र मुकुटबह भूपेषु वेष्ट उग्रसेनो राजा तस्य कन्या पुत्रौ राज वरकन्या सा कौशौ मुशीला शोभना
चारो पुनः कोदृशो चारुप्रेक्षणो चारुप्रेक्षण अवलोकन यस्याः सा चारुप्रेक्षणौ सुन्दरावलोकना सुन्दरनयनावा पुनः कौदृशा सर्वलक्षण सम्पूर्ण चतुः * षष्टि कामिनो कलाकोविदा पुनः कीदृशा विद्युत्मोदामिनीप्रभा विशेषेण द्योतते इति विद्युत् सा चासौ सौदामिनो च विद्युत्सौदामिनी तहत्प्रभा यस्याः
सा विद्य सौदामिनी प्रभास्फु रविद्युत्कान्तिः ७ [अहाहजणोतोसे वासुदेव' महडिय रहागच्छउ कुमारी जामे कवन्दलामहम् ८] अथ कृष्णन नेमि __ मसादरी। तस्मरायमई करणं मज्जंजायडू केसबो ६ ॥ अहसाराय वरकन्ना सुसीला चारुपेहिणी। सव्वलक्खण
संपन्ना दिज्जसोया मणिप्पभा ७॥ अहाहजण यी तीस बासुदेवं महिड्डियं । दूहा गच्छउ कुमारी जासकम दला
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राय धनपतसिंह वाहादुर का चा म.उ.४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
तस्य राजेमतौनाना कन्या तेनेमि नाथने राजिमती कन्या: भार्यानिमित्त याचते केशवः कृष्णनमौ कुमारनी भार्या करियानका जे मांगे ६ अथ सा
राज वरकनया राजीमतौहवे राजानौवेटी राजमतिः सुसौला शोभनाचारां चारुप्रेक्षया मनोहरलोचना भली पाचार भला नेत्रछे सर्वलक्षणैः संपूर्ण 8 सवल वर्षसहितके दौप्यमान सौदामिनी विद्या लाभाः कांतिर्यस्था सा देदीप्यमान जे वीजलो ते सरोषोकांतिके जहनी ७ अथ पाइ जनकः पिता
तस्या राजेमत्याः उग्रसेन नामाः राजमतिनो पिता उग्रसेन कडेके वासुदेवं मर कि बामदेवप्रतिः सा गच्छति परिष्ट नेमिकमार नेमिकुमारम्हारे
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उ० टोका
अ०२२ 448
सूत्र
भाषा
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कुमारार्थं कनाया याचनानन्तरं तस्या राजमत्याः जनको महर्डिक' वासुदेव कृष्ण' आह हे वासुदेवकुमारोऽरिष्ट नेमिरिहासमह हे आगच्छतु जाइति येन कारणेन से इति तस्मै अरिष्टनेमिकुमारायतां राजमतों कनयां अहं ददामि आसनकोष्टुक नैमित्तिकादिष्टलग्ने विवाहविधिना उपटोकयामि ८ [सव्बोसहौहि' न्हवि कयको श्रमङ्गलो दिव्वजुयल' परिहि श्राभरणेहि विभूसियो ] अथारिष्ट नेमिकुमारः कोष्टिकार्पित लग्न सर्वाभिरौष धोभिर्जया विजया शल्यविशल्या ऋविद्यादिभिः स्वपितः पुनः कृत कौतुक मङ्गलः पुनः कीदृशः परिष्टतदिव्ययुगलः परिहित दिव्यं विवाह प्रस्ता वात् देवदूष्य युगल' येन स परिहित दिव्ययुगलः प्राकृतत्वात् भवदविपर्ययः पुनः कीदृश: आभरणैः कुण्डल मुकटहारादिभिर्विभूषितोलङ्गतः ८ [मत्तञ्च गन्धहत्थिञ्च वासुदेवस्स जेट्ठग' आरूढोसोहई अहियं सिरे चूडामणी जहा १०] च पुनररिष्ट नेमिकुमारी वासुदेवस्य ज्येष्टक' मन्त' गन्धहस्तिन' महं ८ ॥ सव्वे।सहौहिंगहविओ कयकाजय मंगला । दिव्वजुयल परिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ १ ॥ मत्तंच गंध हत्थिंच वासुदेवस्म जेट्ठगरौं । आरुढो सोहई अहियंसिरे चूडामणीजहा १० ॥ अह उसिएण छत्तेण चामराहि यसो
धरेआवे यथा से तस्याह कनां ददामि जिम तेहने कनाद्यं ८ एवमुक्ते सति सर्वौषधीभिः भगवान् खापितः भगवंतने सर्वोषधीर' स्नान करावी' कृतकौतुक मंगलः मंगलोकना कारणकोघांचे दिव्यमुत्तम वस्त्र युगल परिहित दिव्य भला वस्त्र पहराव्या आभरणैर्विभूषितः आभरणे करौ विभूषित अलंकस्त्रोछे ८ मन्त`च गंधहस्तिन' मातो गंधहस्तीः वासुदेवस्य ज्येष्ट' उत्कृष्ट' वासदेवनो वडोपट्टहस्तोः श्रारूढ अधिक ं शोभतेते हाथो उपरि चढ्यो अधिकगोभबालागाः मस्तके चडामणिर्य यथा शोभते मस्तकनेविषे जिम मुकुटशोभे तिमशोभे १० अथ उच्छ्रितेन वत्रेण माथे कवधस्थोके चामरैव
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व धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
राय
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उल्टौका अ०२२
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आरुढोधिक योभते कब सिरसि मस्तके चूडामणिरिव यथा मस्त के मुकुट शोभते तथा नेमिः सर्वेषां यादवानां मध्ये चूडामणि सदृशी विराजते १० [अह अस्मिएण छत्ते व चामराहिय सोहिओ दसारचक्कण यसो सब्बो परिवारिश्री ११] [चाउरिङ्गिणौए सेणए रइयाए जहक्कम तुडियाण सबिना एण दिव्येण गवणं फुसा १२] [एयारिसौए इडीए जुईए उत्तिमाइय नियगाो भवणी णिज्जात्रो विरिहपुगवो १३] तिमभिः कुलक प्रधानन्तरं वृष्णिपुगवी नेमिकुमारी निजकात् भवनात् स्वकीय रहात् एतादृश्या समोपतरवर्ति न्याऋद्या पुनरुत्तमया प्रधानयाद्युत्यादीप्तापाणि गृहणाय निर्गतः उग्रसेन यह प्रतिस्वमन्दिरात् निमृतः इत्यर्थः कीदृश्या ऋद्या तां ऋहिपद्धतिमाह स नामकुमार उच्छितेन उच्च वर्तन छोण मेघाडम्बर छत्रेण च पुनश्चामराभ्यां उभयपार्खयो ज्यमानः शोभितः पुनः स नेमिकुमारो दशाह चक्रेण यादव समूहन सर्वतः परिवृत: ११ पुनः कीदृशः चतु रङ्गिण्यासेनया परिवतः पुनः कीदृश स्तुटिताना तूर्याणां भेरि मृदङ्ग पटह करनालतालादीनां दिव्य न देवयोग्य न सत् निनादेन सम्यक्शब्देन सहितः कीदृशन तूर्याणां निनादेन गगनस्पृशा गगनं स्पृश्यन्तीति गगनस्मृक् तेन आकाशव्यापिता १२ [अह सोतस्थनिज्जन्ते दिमपाण भयद्दए बाडेहि पिचरहिं
हिओ। दसारचक्केण यसासव्व ओ परिवारिी ११ । चउरंगिणीए सेणाए रड्याए जहक्कम । तुरियाण सन्निनाएणं
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
शोभितः वेपासे चामर वीजाइछ दसारचक्रण समुद्रविजयादि तृपसमूहन समुद्रविजय प्रमुख राजा सहित सर्वतो परिवारत: वेष्टित: चारपासे बींव्योके ११ चतुरंगिनवासेनया चतुरंगौणी सेना साथै के रचितया यथाक्रम हाथी घोडा रथ पायक यथा अनुक्रमे रच्याळे तूर्याणां वाजिवाणां निनाद वाजिबना शबद तिणे करीसहित प्रधानन गगनपर्थत प्रधानशब्द छलेके जाई आकाशलागछे १२ एतादृश्यां ऋगा सो ऋति' करौ
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उ० टोका
अ०२२
444
सूत्र
भाषा
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निरुह सुदुक्खिर १३ ] [ जौवियन्तन्तु स पत्ते मंसट्टा भक्तियव्वर पासित्तासे महापत्रे सारहिं इणमव्ववी १४] युग्म अथ अनन्तरं स नेमि मार सारथिं इदं अनोत् कि ं कृत्वा स्तत्र विवाह मण्डपासनेनिर्यन् अधिगच्छन् भयद्रुतान् भयव्याकुलान् प्राणान् जीवान् स्थलचरान् मृगशशकशूकरतित्तर लावकादोन् मासार्थ' भक्षितत्र्यान् पासित्ताइति विचार्य दृष्ट्वा कथंभूतान् प्राणान् वाटकैर्भिन्तिभिः कण्टकवाटिकाभिर्वानिरुद्धान् अतिशयेन यन्त्रितान् पुनः पञ्जरैर्लोह वंशशलाकादिविनिर्मितैः पक्षिनियन्त्रण स्थानैः सविरुद्दान् अतएवसु दुःखितान् पुनः कीदृशान् जीवितां तं संप्राप्तान् ते प्राणिन
दिव्वेणं गगणंफुसे १२॥ एवारिसीए इडीए जुत्तीए उत्तिमाइय । नियगाओ भवणाओ निज्जाओ वहिषु गवी १३ ॥ अहसातत्य निज्जतो दिस्लपाणे भयहुए । वाडेहिं पंजरेहिंच संनिरुद्द मुदुक्विए १४ ॥ जौवियं तंतुसंपत्त सहा भविव्वए । पातित्तासे महापसे सारहि दूणमव्वदी १५ ॥ कट्ठामेपाणाएएसव्वे मुहेसियो । वाडेहि पंज
उत्तमया कांति आभरणनोते सहितः निजकात् भवनात् आपणा घरथको निर्गतो दृष्णिषु' गवः प्रधानो नेमिः नेमिनाथ बाहिरिनोसो यादवने पूज्यनीक जादवकुल १२ अंथ स स्वामी तव निर्गच्छन् अथ स्वामी जाइके नेमिनाथचाल्या दृष्ट्वाः प्राणान् जीवान् भयभीतान् आगे जाता जीवदोठा एकठा बांध्या के भयम्भ्रांतके वाटकेषु पंजरेषु चवाडानेविषे पंजराने विषे संनिरुद्धान् वदान् दुःखितान् रुध्यांबांध्या दुःखी १४ च पुनः जीवि मंप्राप्तान् जीव अंत प्राप्त हुआके आपणाजीव अंत्यमांतहस्ये इमक हेके पसुः मांसार्थं विनाथभचितव्यान् मांसने अर्थे मारोखा से दृष्वासः महाप्राज्ञ: नेमनाथ स्वामोएप्रकार देखोने सारथि प्रतिइति अब्रवीत् सारथौप्रते इमकहे १५ कस्यार्थ इमे प्राणिनः केहने अर्थेएजीवडाः एते जोवाः सुखेचिण:
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्र०सं० उ० ४१ मा भाग
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४० टोका
श्र०२२
६६७
भाषा
सूत्र
XXXXXXXXXXXX
एवं जानंति अस्माक' मरण' आगतं कुतोऽस्माकं जीवित इति मरणदशांसं प्राप्तान् कीदृशो नेमि कुमारो महाप्राज्ञो महाबुद्धि सहित अर्थात् ज्ञानदेव विस्तोर्णबुद्धिरित्यर्थः १५ [कम अट्ठाइ मेपाणा एते सव्वेस हेसिणो वाडे हिं पञ्चर हिं च सन्निरुदाय अस्थि हि १६] सारथिं कि अत्रवोदि त्याह हे सारथे इमे प्रत्यक्षं दृश्यमाणाः सर्वे प्राणा: वाटकैश्च पुनः पञ्च रैसन्निरुडा ः अत्यन्त नियंत्रिताः कस्यार्थं कस्यहेतोः अन्य हि इति तिष्टति कोहाइमे प्राणाः सुखार्थिनः सर्वे संसारियो जोवाः सुखार्थिनः सन्ति किमर्थं दुःखिनः क्रियन्ते भगवान् जानन् अपि जीवदया प्रकटीकरणार्थ सारथिं पप्रच्छेति भावः १६ [ अहसार होतश्रोभणड एएभद्दाउपाणिणो तुज्म' विवाह कज्जमि भोयावेड' बहु जण १७ ] अथनेमि कुमारवाक्य श्रवणानन्तर ं ततः सारथिर्भणति हे स्वामिन् एतेभद्राः प्राणिनः युष्माकं विवाह कार्ये बहुजनान् यादबलोकान् भोजयितुं एकत्रमौलिताः सन्ति १७ [सोजणतस्वयण' बहुपाणि विणासणं चिन्ते इसे महापत्रे साणकोसेजिए हिऊ १८] से इति सनेमि कुमारस्तस्य सारथेर्वचनं श्रुत्वाचिन्तयति 'रेहिच सन्निरुद्दाय अत्थिहि १६ ॥ अह सारहीतच भणइएएभद्दाओ प्राणिणो । तुज्म विवाहकज्जमि भोयावेड' बहुजणं १७ ॥ सोऊण तम सोवयणं बहुपाणि विणासणं । चिंतेइसे महापन्ने साणुक्को से जिए हिओ १८ ॥ जदू सुखाभिलाखिण: एसर्व गोव सुखनावांकणहारके वाटकेषु पिंजरेषु चवाडानेविषे पिंजरानेविषे संनिरुद्धा स्तिष्टंति एकिमरोकीराख्याचे २६ अथ सारथौ ततो भषित हवे सारयो पूयांनू उत्तरदिइछे हे भद्र एते प्राणौन: हे भद्र एतलाजौवः तव विवाहकार्ये तुम्हारा विवाहने अर्थे भोजयतु बहुजन' एजीव मारोने वालोकने जोमाडस्य १७ स नेमिनाथः तस्य वचन' ला ते नेमनाथ सारथोनु वचन सांभलौने बहुप्राणि विनाशन घणा जीवना
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०ड० ४१ मा भाग
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उ टोक अ०२२४ कीदृशः सः महाप्राज्ञः महाबुद्धिमान् पुनः कोदृयः सजोवेहितः जीवविषयेहितप्सुः पुनः कीदृशः सानुक्रोशः सह अनुक्रोशेन वर्तते इति सानुक्रोशः
सदयः अथवा जोवेहि निश्चयेन सानुक्रोश: सकरुण : तु शब्दः पदपूरण कीदृशं सारधर्वचनं बहु प्राणि विनाशनं बहु जीवानां विघातकारक १८ [जइमज्मकारणाए पहम्मन्ति सुबह जियानमेएयं तु निस्मेयं परिलीए भविस्माई १८] तदानेमि कुमारः किंचिंतयतीत्याह यदि मम विवाहादिकारणन एतेसु बहवः प्रचाः जीवाः हनिश्चन्ते मारयिष्यन्ति तदा एतत् हिंसाख्य कर्मपरलोके पर भवेनिः श्रेय सङ्कल्याणकारि न भविष्यन्त परलोकभीरुत्वस्य अत्यन्त अभ्यस्ततया एवं अभिधानं अन्यथा भगवतवरमदेहत्वात् अतिशयज्ञत्वाच्च कुत एवं विधाचिन्ता इति भावः १८ [सो कुण्डलाणजुयलं सुत्तगञ्च महायसो पाभरणाणिय सब्वाणि सारहि स्मपणामए २०] सनेमि कुमारी महायशाः नेमिनाथस्याभिप्रायान् सर्वेषु जौवेष बन्धनेभ्योमुक्त षु सत्सु
मझ कारणाएए हम्मित्तिमु बहुजीयानमे ए यंतु निम्मेसं परलोगे भविस्पडू १६ । सोकुडलाण जुयलं सुत्तयंच
महायसी। आमरणाणिय सब्वाणि सारहिमपणामए २० ॥ मण परिणामय कएदेवाय जहीयं समोडूमा। सवि भाषा
इविणाशनुचिंतयति स महापानः नेमकुमार माहापंडित चिंतववालागा स्वकलरुणौ जौतेंद्रियः जीवेषु हितः करुणासहित सर्वजीवनहितचिंत१८
यदि मम कारणात् एतलाजोवम्हारेकाजे हनिष्यतेस बहुजीवमारस्ये ए घणाजीव नच मम एतत् निथै यस कल्याण एमुझने विवाह कल्याणकारी नहीं परलोके हितायन भविष्यति परलीकने विष हितकारी नहीहोई १८ स नेमिः कुडलानां युगलंते नेमकुमार कानना कुडलयुगुल कटि सूत्रच महायशा कडनोकणदोरी पाभरणानि सर्वाणि समस्तानि सर्व आभरणः सारथे प्रणामयेत् ददाति ऊतारीने सारथीने दिइ २० दौञ्चार्थ मनी परि
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ० ४१ मा भाग,
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प०२२
ENur
सर्वाणि आभरणानि सारथे प्रणामयति ददाति कानि तान्याभरणानि कुण्डलानां युगलं पुन: सूत्रक कटौदवरक चकारात् पाभरण शब्द न हारादौनि सांगोपाङ्ग भूषणानिसारथेर्ददौ २० [मण परिणामयकए देवायजहो इयं समोइब्रा सविडोएसपरिसानिक्समण तस्मकाउजे २१] तस्मिन् नेमि कुमारमनः परिणामचित्ताभि प्रायेदीक्षा प्रतिकृतसति लोकान्तिक देव वचनात् साम्बत्सरिकदाने दत्ते सति देवाचतुर्विधा यथोचितं यथा योग्य' सर्व
र्यासमतोर्णाः तवागताः किं कर्तुं तस्य भगवतोनेमि कुमारस्यनि:क्रमण महोत्सवं दीक्षामहिमानं कर्तुं जे शब्दः पद पूरण कौदृशाः देवाः स परिषदः 8 सहतिसृभिः परिषद्भिर्वर्तन्ते इति स परिषदः परिषत्महिताइत्यर्थः २१ [देवमनुस्मपरिबुडी सिवियारयणन्ती समारूढो निक्वमिय बारगाओ रेवयं
मिठिो भयवं २२] ततोऽनंतरनेमि कुमारी भगवान् ज्ञानवान् दीक्षावसरभो देवैमनुष्यैः परिवृतो देवमनुष्य परिवृत: सिबिकारत्नं उत्तरकुरुनामक समारूढः हारिका पुरौतोनि क्रम्य नि:मृत्यरेवते रेवताचलेस्थितः २२ [उज्जाणे संपत्तो उइन्द्रो उत्तमाउसोयाओ साहस्सौए परिबुडो अह निक्ख मइओ
डीए सपरिसा निक्खमणं तस्म काउंजे २१ ॥ देव मणुस्म परिखुडो सियारयणंतत्रो समारूढी । निक्खमिय वारगाओ
रेवय यम्मिठिो भयवं २२। उज्जाणं संपत्तो उनी उत्तमाओसीयाओ। साहसीय परिवुडो अभिनिक्खमउ णामः कृत: दिक्षालेवाभणी मनकौ५ देवाः यथोचित: समये समवतीर्णा आगताः देवता समयजाणौआव्या सर्वासपरिषद ऋद्धि सहित परिवार सहित: चारित्रोत्सव कतुं जे पादपूरण दीक्षानो महोच्छव करवाभणौ आव्याछे २१ देव मनुष्यः परिव्रत वेष्टित: देवमनुष्यने परिवार परवखाथका शिवकारत्नमिति उत्तमशिविकां ततः समारूढः भली शिवका उपरि बैठाथका निर्गत्य हारिकापुरीतः हारिकानगरौथीनोंथरौने रेवतके पर्वतेस्थिती भगवान् गौरनार पर्वतने विषे चढ्या भगवंत २२ उद्याने संप्राप्तः सन् उद्यानने विषे पहुंतांथका अवतौम: उत्तमायाः शिविकायाः उत्तमजे शिविका
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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उ टौवा
अ.२२
चिताहिं २३] तत्र रेवताचले उद्याने सहस्रामनासिवने संप्राप्तः पुनरुत्तमाया: प्रधानायाः शिबिकाया उत्तीर्णः सहस्रण परिवृत: प्रधान पुरुष सहस्रेण संयुतः सन् अथ चित्रायां चित्रानक्षत्रे नि:कामति दीक्षा ग्रहाति पञ्च महाव्रतोच्चारण करोति २३ [अह सोसुगन्धन्धिए तुरियं मउय कुचिए सय मेष ल व केसे पञ्च नहिं समाहिए २ ४] अथ पञ्चमहाव्रतोच्चारणानंतरं सनेमिनाथः स्वयं एव आत्मना एवत्वरितं केशान् पञ्च मुट्या कृत्वालुञ्चते कोदृशः सन् समाहितः ज्ञानदर्शन चारित्र रूपसमाधि युक्तः सन् कीदृशान् केशान् सुगन्धगन्धिकान् स्वभावतः सुरभिगन्धान् पुनः कीदृशान् मृदुक कुञ्चितान् पदव पते कुञ्चिताच मदुक कुञ्चितास्तान् सकुमालान् कुटिलान् २४ [वासुदेवोयण भणइ लुत्तके सनि इन्दिय' इस्थियमणीरहे तुरियं
चित्ताहिं २३॥ अहसे सुग'धग'धिए तुरियं मउय कुचिए। सयमेव लुचई कैसे पंचमुट्ठिहिं समाहिओ २४ ॥ वासु देवोयण मणदू लुत्तकसंजिदियं इत्थिय मणोरहेतुरियं । पावसूतं दमिस्मरा २५ ॥ नाणेणं दंसणेणंच चरित्ते
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं०.४१मा भाग
भाषा
ते इयो नींचा ऊतम्या पसहरणःपरिवतनेमिः हजार राजवीसंघातप्रधानंतरचारित्र प्रपद्यते चित्रानक्षत्रे चारित्रलौधीहजारजणसाधे २३ अथा 8 नंतर स भगवान् केशान लुचति कोदृशान् केशान् सुगंधिगंधान् माथानाबालनोलोचकौधू' शोनं मृदु सुकुमालान् वक्रान् उतावला सुकुमाल वक्र
पोटलीया वालकैसः स्वयमेवलुचति केशान् आपण हा लौचकर पंचमुष्टिभिः समाहितः पंचमुष्टौं करी समाधौमाहि२४ वासुदेवः समुद्रविजयः नेमि प्रति भणति वासुदेव समुद्र विजय नेमनाथने काहे के लुचिति कैश जितेंद्रिय लोचकीधी जितेंद्रीयछे मितमनीरथ मुक्तिरुपं भी तुम जिकी मनोरथ कोधी, मुक्तिनोतावली प्राप्त हिदामसरपामि है दमीसर जिलंद्रियः२५ त्वज्ञानिन दर्भनिनच त्व' ज्ञान करौदर्शन करी चारिण चारित्र
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8 पावेतं दमोसरा २५] तदा वासुदेव: कृष्णवकारात् समुद्रविजयादि नृपगणोपितं नेमिनाथं जितेन्द्रियं पुनलुपकेश कतलोच इति वचनं भणति 8 टीका अ०२२
* इयागोत्री दयाय वदति भो इनोवर इमिना जितेन्द्रियाणां ईखरोदमोखरस्तत्संबोधन हे दमौखरयतो खरईप्सितं वाञ्छित मनोरथ त्वरित प्राप्नु हि१५
नाणे दंसीण' चरित्ते तहेवय खन्ती एमुत्तोर व?माणो भवाहिय २६] पुनराशोर्वचन माह पुन:स्वामिन् त्वज्ञानेन दर्थनेन तथैव चारित्रण च
पुन: क्षां याज्ञमया च पालम तानि र्लोभावे न वई मानो भव २६ [एवं ते रामकेसवा दसाराय बहजणा अरिनेमि वन्दित्ता अइगया बारगाउरि २७] 28 एवं असुना प्रकारेण रामके यवो च पनर्दशापि दशार्हा च पुनर्बहवो अन्ये जनाश्चत्वारोवर्णाः अरिष्टनेमिस्वामिनं वन्दि वास्तुवा नत्वाच हारिका पुरौं 2 अतिगताः प्रविष्टाः २७ [सोऊण रायकवा पञ्चज्ज साजिणस्मउ नौहासायनिराणन्दा सोगणय समुत्थया २८] साराजवरकन्या उग्रसेन नृपपुत्री
तहेवय । खेतीए मुत्तीए वट्ठमाणी भवाहिय २६ । एवंते रामकेसवा दसाराय बहूजणा। अरिट्टनेमि वंदित्ता अडू
गया वारगापुरि २७॥ सोऊण रायकमा पञ्चज्जंसा जिणस्यो। निहासाय निराणंदा सोगेणउ समुत्यया २८॥ करो तवैव तपसातिमतपकरौ क्षमया क्षमाकरौजे निर्लोभः निर्लोभतापण वईमानोभवइतरवानिक नेतू वईमानहोहिवधि: २६ एवंतौ उक्तवंती 8 रामसवी बलभद्र कणो दशाहदिश दशाई बहुजनाः वोजा घणालोकः अरिठ नेमि वंदौत्वा नेमिनाथने इमकहे वांदीने अति गता द्वारिकापुरी द्वारिकानगरो पाछाया २७ श्रुत्वा राजवरकन्या राजिमतो राजेमतो कनवाई सांभल्यी प्रवा नेमजनस्य नेमिनाथे दीक्ष्यालौधौ निर्हासों आन दरहिता हर्षभागो इच्छामननौरहि आनंदरहितहूई शोकेन पुनः समर्छिताः शंकाकरी मूर्छापावौ २८ राजमती चित्तएव चिंतयति राज
SERRRRRRRRRRRRRRRA***848*
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा संल०४१ मा भाग
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राजमतोशोकेन समुत्थाय समवस्तृता अवष्टब्धाव्याप्ता भूत् इत्यर्थः किं कृत्वा जिनस्य नेमिनाथस्य प्रव्रज्यां दीक्षां श्रुत्वा कथंभूतासा नौहासानिर्गतो उ० टौका * हास्याः सानिर्हासा हास्यरहिता पुन: कोदृथासानिरानन्दा आनन्दरहिता २८ (राईमई विचिन्तेई धिरत्यु मम जीवियं जाहतेष परिचत्ता सेयं अ.२२
पब इउ मम २८) साराजौमतौ मनसि विचिन्तयति मम जीवितं धिगस्तु या अहं तेन नेमिनाधिन परित्यक्ता अतो मम प्रबजितुदीक्षां गृहौतु ६७२
श्रेयः न तु रहेस्थातु श्रेय इतिभावः २८ (अहसा भमरसन्निभे कुचफणग पसाहिए सयमेव लुचईकैसे धिमंता ववस्मिया ३०) अथ अनन्तरं सारा जौमतौखयमेव केशान् लुञ्चति कथम्भू ता सातिमतोधैर्ययुक्ता पुनः कथम्भूताध्यवसितानिश्चला धर्म कर्तु स्थिरा कौदृशान् केशान् कुञ्चफणगपसाहिए कूर्चफनक प्रसाधितान् कूर्चीगूढ केशोन्मोषको वंशशिलाकारचितः केशसंस्कार करणोपकरणविशेषः फनको गजदन्तकाष्ठमयः कंकतक: कूर्चश्च फनकच कूर्चफनको ताभ्यां प्रसाधितां संस्कृताः कूर्चफनकप्रसाधितास्तान् पुनः कीदृशान भ्रमरसंनिभान् भ्र'गवत्श्यामान् ३० ( वासुदेवोयणं भणइ लुत्सकसजि
रायमई विचिंतेई धिरत्यु ममजीवियं । जाहतेणं परिचत्ता सेयंपब्वडूउमम २६॥ अहसा भमरसन्निभेकुच फणग पसाहिए। सयमेव लुचईकैसे धिमंता ववस्मिया ३० ॥ वासुदेवोयणं भणदू लुत्तकसंजि इंदियं । संसार सागर
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०.४१ मा भाग
भाषा
मति चित्तमाहि इम चिंतवे धिक् मम जौवि त धिक्कार पडुम्हारो जौवतव्यने या अहं नेमनाथेन परित्यक्तां तिणे नैमिनाथे मुझनेछांडी श्रेयः प्रव जितु मम वेय हुो दीक्षाने २८ राजमती केयान् भ्रमरसदृशान् कणान् कुचेविशमय तन प्रसाधितान् उपडितान् स्वयमेव तुचति कमान् आफरती % माथे लोचकर धृतिमतौ व्यवस्थिताः धृतिवंतउद्यमवंतहडू ३. वासुदेव: इदं भणित: वासदेव इमकह लुप्तकेा जितेंद्रिया केशलोच्याछे द्रौवसि
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उ टौका
४ इन्दिय संसारसागरंधारतरकने लहुलहु ३१) च पुनस्तदा वासुदेवः शोकणस्तां राजीमतोकन्या भणति आशीर्वादं पठति है कन्चे हे राजीमति 8 घोरं रौद्र संसारसमुद्र' लघु २ त्वरित २ तरसंसारसमुद्रस्य पारंकुरु लघु लधु इति संभ्रम आदर दिर्वचनं कौशी राजीमती लुप्तकेशां कतलीचा पुनः कोहयों जितेन्द्रियं साध्वो इत्यर्थः ३१ (सापव्व इयासन्तो पवावसोतहिंबई सयणं परियणंचेव सोलवना बहुप्नुया ३२ ) सा राजीमती प्रब्रजिता सती रहोतदीक्षासतो तत्र द्वारिकायां वहन् स्वजनान् वज्ञातीय स्त्रोजनान् च पुनः परिजनान् अन्यान् स्वौजनान् प्राब्राजयत् खसार्थे अपरान् अपिदारान प्रब्राजयामासेत्यर्थः कोदृशो सा मोलवतो पुनः कीदृशौ बहु श्रुता प्रचुरकत ज्ञानाभ्यासा ३२ (गिरि रेव इयं जन्तौ वामेणोल्लाश्री अन्तरावासन्ते अन्धया रम्भि अन्तोलयणस्मसाठिया ३३)साराजीमती एकदास्वामिवन्दनार्थ रेवतिक गिरिगिरनारपर्वत यान्ती लयनस्य गिरि गुहारहस्य अन्तर्मध्ये स्थिता
घोरंतरकण लहु२।३१ । सापब्वयासंती पव्वावसी तहिंबहु । सयणं परियणांचे व सीलवंता बहुमा ३२॥ गिरिरेवययंजती वासेणोल्लाओ अंतरा। वासंते अंधकारंमि अंतो लयणस्म साठिया ३३ ॥ चौवराई विसारतौ जहा
राय बनपतसिंह वाघादुर का या सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
कोधाचे संसारसागरं घोर संसारसमुद्र घोररुद्र प्रति संसारसमुद्रप्रति तरहे कना उलंघय शीघ्र २ है कनया उतरि उलंधि उतावली ३१ एषा राजोमतो प्रव्रजतासतो राजमती दीख्यालेतीथको अदीच्यत् हारकाई बहुजन' घणाजणाने दौख्यादेवने खजन' परिजन व वजने परौजनने यौल वंत बहुश्रुता राजेमतो किसोछे सोलवंत के बहुश्रुतछे ३२ पर्वतरवतका चलंयाती अनादा प्रस्ताविं गिरनारि जाइछ अंतरा वस्त्रार्दा अईपधे जाता विचे वस्त्र भोना वर्षति मधे अधकार मेहवरसति अंधारोहबोके गुहामध्ये सा स्थिता राजमती गुहामाहि जाइ उभौरहीं ३३ वस्त्राणी विस्तारमंती
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उन्टौका
क्सति वर्षति वर्षति मेधे अन्धकारसति मेघान्धकारण टग प्रचारनिरुद्ध सति कौदृशौ सा अन्तरा अईमार्गे वासेणेति वर्षाभिकल्ला आर्द्राक्लिन सर्व चौवरा ३३ (चौवराई विसारिन्तौ जहाजाइत्ति पासिया रहनेमौभग्गचित्तो पच्छादिहोयतौइवि ३४) रथनेमिर्भग्न चित्तीभूत् संयमात् चालतमनाः अभूत् किं कृत्वा चोवराणि सामा॑णि सरौरादुत्तार्यविस्तारयन्तौ यथा जाता इत्येवं रूपां निर्वस्त्रां तां राजीमतीं दृष्ट्वा तया राजौमत्या अपि सरधनेमिय लचित्तः पश्चात्दृष्टः पूर्व अन्धकारसति न दृष्टः अन्यथा यदि पूर्व दृष्टो भविष्यत् तदा एकाकिनी तत्र न प्राविक्ष्य त् इति भावः ३४ [भौयायसा सहिं दछ, एगन्ते सञ्जयं तयं बाहाहिं काउ सङ्गोफ चेवमाणौनिसौयइ ३५] साराजीमतौ तदा एकान्त गुफायो रथनेमि संयत साधु दृष्ट्वा भौताकदाचि दयं मम शोलभङ्ग कुर्यादिति विचार्य शौलभङ्गभयात् वेपमानाकम्पमाना सतीनिधीदति तदाश्लेष परिहारार्थ भूमौ उपविशति किं कृत्वा बाहुभ्यां
जायत्ति पासिया । रहनेमौभग्गचित्तोपच्छादिट्ठीयती दूवि ३४। भौयाय सातहिंदट्ट एगतेसं जयंतयं । बाहाहिं काउ संगोफंचे वमाणी निसोयडू ३५॥ अहसोविरायपुत्तो समुद्दविजयंगो। भौ यंपवेडूयं दट्ट, इमवक्क मुदाहरे ३६ ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं २०४१ मा भाग
भाषा
* वस्त्रभीनांस्कववाघाल्याचे यथा जाता अनाच्छादितोपांगा दृष्ट्वा यथा जाता उघाडीदौठो रथ नमोर्भग्नचित्तीभूत् देखोने रथनेमि भग्नचित्त ही पश्चादृष्टस्तया राजमत्यापि पछेतिण राजमतौई पणिरथ नेमिनेदौठो ३४ भीता सा राजमती तत्र गुफायां दृष्ट्वा राजमती विङ्क गुफामांहि एकांत जन रहित रचनेमीं एकांत गुफामांहि रहनेमौदौठो बाहुस्यां सा गोपन कृत्वा वाहन अंगढांकीने सौलस्यां तेहने भयकरीने वेपमाना कंपमाना निषौदती वोहतो धूजतीवमे ३५ अथ सरथनेमिः राजपुत्रः रखनेमि राजानोवेटो समुद्रविजयांगजः समुद्रविजयनो अंगजः भीता कंपमानां दृष्ट्वा
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हाभ्यां भुजाभ्यां सङ्गेफ' परस्परबाहु सङ्ग म्फन स्त नीपरिमर्कटबन्ध कृत्वा ३५ [अहसोविराय पुत्तो समुद्दविजयं गत्री भौयं पवेइयं दहुइम वक्क मुदाहरे ३६] अथानन्तरं सोपि राजपुत्रो समुद्रविजयाङ्गजो रथनेमिर्मीतां प्रवेपितां कम्पमानां राजौमती साध्वौं दृष्टा इदं वाक्य मुदाहरेत् ३६
(रहनेमो अहं भद्दे सुरूवेचारुभासणि मम भया हि सुतणू न तेपोलाभविस्म इ ३७) किं वाक्य उवाचेत्याह हे भद्र है कल्याणि अहं रथनेमिरस्मि मा ए टोका अन्य कमपि माजानौहि हे सुरूप सुन्दराकार चारुभाषिणि हे मधुरवचने हे सुतनुशोभन शरीर कोमलगात्रित्वं मां भजस्खभर्टत्वेन अङ्गीकुरुते तव प्र०२२8
पीडादुक्खं न भविष्यति मया सह विषय सुख मुंव ३७ (एहिता भश्चिमी भोए माणुस्मस सुदुलहं भुत्तभोएतो पच्छा जिणममा चरिस्मामो ३८) ६७५R ६ हे राजौमति एहि मम समीपे आगच्छ तावत् आवां विषयं भोवहि है प्रिये खु इति निश्चयेन मानुष्यं मनुष्य जन्मदुर्लभं वर्तते ततोऽनंतरं भावां
रहनेमी अहंभई सुरुवे चारुमासिणी । मम मयाहि सुतणनतेपीला भविस्मडू ३७ । एहिता भुजिमोभीए माणुसंखु
मुदुल्लहं। भुत्तभोगी तोपच्छा जिणमग्गचरिस्मामो ३८॥ दङ्ण रहनेमित भग्गजोय पराइयं । राइमई असमंता राजमतौने धूजती कांपती देखोने इद वाक्यं उक्तवान् इस्य वचन कहवालागु २६ रथनेमिः अहं भद्रं त्वां मांजानाहि हे भद्रह रथनेमिछु है
सरूप हे चारुभाषिणो हे सरुपे हे मोठावीलोहमम भजख' सुष्ट तनु मुझने भजि मेविम्हार पणि शरीरभलूछे मुझथको भयमतमान न तव पौडा 8 भविष्यति तुझनेकाई पीडा नहीं होई ३७ आगच्छ पूर्व आवां भुजावह भोगान् आवितू पहेला आपणभोग भोगवौने मानुथ निश्चयेन दुल्ल भं वर्तते * निश्चयस्य मनुष्यनो भवदोहोलोछे भुक्तभोग्य पुनः पश्चात् भोगभोगवौनेपछे वादि केजनमार्ग चरिष्यामिः वृद्धावस्थाई जिनमार्ग आदरस्यु ३८ दृष्ट्वा च रथ
राय धन पतसिंह बाहादुर का पा०सं०७०४१ मा भाग
भाषा
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१ टीका8
.२२
भुक्तभोगीभूत्वापवाजिनमार्ग' जिनोक्त धर्म चारित्र धम्म मोक्षमार्ग चरिष्याव: पूर्व हि यदा भोग सुख भुज्यते ततोदीक्षा गृह्यते तदा भुक्त भोगत्व न पुन भोगसुखेषु मनीनस्यात् तस्मात् पूर्व अधुनायथेच्छ भोगसुख भोक्तव्य इति भावः ३८ (दटूण रहनेमि तं भन्म जीय पराइयं राइ मई असम्भन्ता अप्पाणं सम्बरेतहिं ३८) तदा राजौमती असंभ्रांतासतौनिर्भयासती तया ज्ञातं अहं बलात्कारणापि शीलं भंच्यामि इति निथित्व असहासती आत्मानं शरीरं वस्त्रैः संवृणोति आच्छादयति गुफामध्य एवस्थितासतौ इति शेषः किं कृत्वारथनेमि' भग्नयोग दृष्टा भग्नो नष्टो योगः संयमीत्माहो यस्य स भग्नयोगस्तं स्त्री परीषहण पराभूत रथनेमि ज्ञात्वा ३८ (अह सारायवरकवा सुट्टियानियमवए जाई कुलञ्च सौलञ्च रक्खमाणोउ तयंवए ४०) अथानंतर 8 भग्नयोगस्य रचनेमेर्दर्शनादनन्तर साराजवरकन्या राजौमती साध्वी तदा वदति कौशौसानियमबते सुस्थितानियमे शौच सन्तोषस्वाध्यायतपो
लक्षणेस्थिरा तथा व्रते पञ्चमहा व्रतलक्षणेस्थिरा पुनः सा किं कुर्बाणाजाति कुले प्रतिसंरक्षमाणा च पुन: शीलं प्रति संरक्षमाणा तत्र मातुर्व शोजाति * पितुर्वश: कुलमुच्यते तयोरुभयोरपि नैर्मल्य विदधती इत्यर्थः ४ ० (जइसि रूवेणवेसमणो ललिएणं नलकूवरो तहाविर्तन इच्छामि जइसि सक्वं पुर
अप्याणं संबर तहिं २६ । अहसाराय वरकन्ना सुठ्ठिया नियमबए। जाईकुलंच सौलंच रक्खमाणी तयंवए ४० ॥ नेमि राजेमतो रथनेमिने भग्नयोग: संयमे उत्साहरहित स्त्रीपरिषहेजित संयमनविखे उत्साहरहित राजमती असंधांता राजमती असंभ्राताथको आत्मानंचौवरैः आच्छादयति आपणु सर्वशरीर लूगडासुढाकौने ३८ अथ स राजौमती प्रधान राजकन्याहिवे राजमती प्रधान कन्याः मुस्थिता सति नियमे ते आपणाब्रतने विखे दृढछे जातिकुलं च शीलं च जाति कुल शौल रक्षमाणात जल्पतिराखौतीथको तेहने कहछे ४० यद्यसि त्वं रूपेण
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०७० ४१ मा भाग
भाषा
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.टौका
न्दरी ४१) भोरथनमयदित्व रूपेण वै श्रमणी धनदीसि यदि पुनलेंलितेन मनोहरलावण्य विलासेन नलकूबरदेवधिपोसि पुनयाद ह रथनमत्व साक्षात् प्रत्यक्ष पुरन्दरोसि इन्द्रावतारोसि तथापि अहं त्वां न इच्छामि भोगार्थ नाभि लषामि ४१ (पकवंदेजलियं जोई धूमकेउदुरासयं नेइच्छन्ति वन्तयम्भोत्तं कुलेजाया अगन्धरी ४२) हे रथनेमे अगन्धने कुलेजाता उत्पना अर्थात् अगन्धन कुलोत्पवाः सर्पावान्त विष भोक्त' पुनः पचाइ होतुन इच्छन्ति न वाञ्छति ज्वलत् धूमकेतोरग्ने भ्योज्योतिर्जाला प्रस्कन्देत् इति प्रस्कन्द युः प्राकृतित्वात् बहुवचने एकवचनं अगन्धनजातीयाः साग्नि ज्वालां प्रविशेयुः नतु उहौण विष पश्चाहणहन्ति कौदृशं धूमकेतो?तिः दुरासद दुःसहं इत्यर्थः ४२ (धिरत्यतेजसोकामौजोतंजीवियकारणा वन्तं इच्छसि आवेउ सेयन्तमरणं भवे ४३) है अयशः कामिन् हे अकोत्ति बाच्छकः अथवा हे अयश: हे अकौत हे कामिन् त्वांधिग अस्तुतवजीवि
जसिरुवण वेसमणो ललिएण नलकुबरी। तहावि तेनच्छामि जइसिसक्खं पुरंदरो ४१॥ पंखंदे जलियंजोदूं
धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंतिवंतयंभुत्तं कुलेजाया अग'धणे ४२। धिरत्युते जसोकामौजीतंजीविय कारणा। वतं धनदोसि यद्यपि तु रूपे करो धनदसरिखीछे ललतेन विलासेन नल कूवेरो देवविशेषोसिजो तु विलासे करौ नल कूवेर सरिखीछे तथापि त्वां न वांछामितोपिणहु तुझने वांछुनही यदि त्व' साक्षात् पुरंदर: जो तु साक्षात् इंद्रतो पिण तुझने न वांछु ४१ प्रस्वदति ज्वलत योति अग्नि वलती आगमांहिप इसे धूम्रकेतु दुरासदं धूआडोचिङ्गछे दुस्महछे एहवो अग्निसहे पर वान्त भीत न इच्छति पणिवम्यु फिरौलेवानहोडे अगंधन कुले समुत्पना सर्पा अगंधन कुले उपनासर्प ४२ धिगस्त पुरुषत्व तवहे अयशः कामिधिक्कारसाहरा पुरुषाकारने यदि त्वं जीवित कारणात् जो तु जीवित
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०१.४१मा भा
भाषा
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तव्यं धिग इत्यर्थः यस्त्वं असंयमजीवितव्य कारणात् वा तं वदनाविसृतमाहारं पुनरापातु भोक्त इच्छसि दौक्षां गृहीत्वा भोगान्त्यक्त्वा पुनर्भोमान् उ• टोका भोक्त इच्छसि अत: कारणात् ते तव अस्मात् असंयम जीवितव्यात् पण्डितमरणेन मरण श्रेयः कल्याणकारण' भवत् न पुनस्त वभीगाभिलाषः श्रेय अ०२२
* स्करइति भावः ४३ [अहं च भोगरायस्म तं च सिअन्धरावण्हिणो माकुले गन्धणा होमो सञ्जमेनिहुपीचर ४ ४] राजौमती वदति है रथनेमे अहं
भोगराजस्य उग्रसेन भूपस्थ पुत्री अस्मि च पुनस्व अन्धक वृष्णः समुद्रविजयस्य पुत्रोसि तस्मात् आवां गन्धनौ गन्धन कुत्तोत्पबौ सर्पोमाभूव न ४ भवाव यतो हि गन्धन कुलोत्पन्नः सर्पोवां तं विषं पश्चाह, हाति तइत् आवाभ्यां बां ताः भोगाः पुनर्नवाञ्छनीयाः यतो हि सर्पाः द्विविधाः अगन्धन
कुलोद्भवाः गन्धनकुलोद्भवाश्च यदाहि कस्य चित्पु रुषस्य सोलगति तदा मन्त्र वादिनीऽग्निं ज्वालयित्वा मन्त्र ण सर्पान् आकर्षन्ति तत्र च गन्धन कुलोद्भवाः स्वविष पश्चाह हन्ति अगन्धन कुलोद्भवास्तु अग्नौ ज्वलन्ति न पुनीतं विषं पवाह हन्ति तस्मात् आयां अगन्धन कुलोत्पन्न सर्प तुल्यौ भवाव इति भावः तस्मात्त्व इदानी सयमैचारित्रेनिःसृतोनिश्चलः सन् चरसाधुमार्गे विचरइत्यर्थः ४४ [जइतं काहिसि भाव जाजादिच्छसि नारीश्रो वाया ___ इच्छसि आवेउं संयंते मरणंभवे ४३ । अहंच भोगरायस्म तंचसि अंधगवगिहणो। माकुलेगौंधणाहोमा संजमं निहुउ
व्यने अर्थे पापसेव॒ वांछे छे त्व वांत इच्छसि भोक्त तवम्यो आहार खायो वांछेछ तव मरण श्रेयः भवेत् तुझने मरण भलोछे ४३ अह पुन भोग भाषा
राज्यस्य उग्रसेनस्य सुतास्मि 'उग्रमेननौ वेटौछु त्वमसि पुन: अंध विष्णोसुतः तुछ अंध विषणुनी वेटोमा आवां गंधनकुले भवामः आपणगंधन कुलना * सर्प सरिखामतहुवा संयम निभृतः स्थिरः सन् चरतिणि कारणितू निश्चलहोय संयमपालवार विचार ४४ जदि व करिष्यसि भाव जो तु“भावकरी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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मा भा
विडोबहडो अडि अप्पाभविस्मसि ४५] हे मुने यदित्व भवं भोगाभिलाषं करिश्चसि यां यां नारोद्रक्ष्यसि अर्थात् यां यां सुरूपां नारीदृष्ट्वा भोगाभिलाषं करिथसि तदा त्व अस्थिरामा अस्थिरचित्तो भविष्यसि कइव ताविडोहठ इव हठोवनस्पति विशेषः शेवाल: यथा पानौयो परिशेवालो वातेन प्रेरितो ऽस्थि रोभवति तथात्वमपि अतिरूपवती कामिनी दृष्ट्वा कामाभिलाषौसन् अस्थिरचित्तो भविष्यसि ४५ (गोवालो भण्ड वालो वा जहातहव्वनिमरो एवं अविस्मरोतं पिसामवस्मभविस्मसि ४६) हे मुने तथात्व अपि श्रामण्यस्य साधुधम्यस्य अनौखरो भविश्चसि भोगाभिलाष करणे न सयमफलस्य अभोक्ता भविषसि क इव गोपाल इव वा अथवा भण्डपाल इव गाः पालयतीतिगोप्मलोगोरक्षकः उदर पूरणार्थ परकीयगोचारकः पुनर्भाण्डानि परकीय क्रयाणकवस्तू निभाटकादिना पालयतीति भाण्डपालक: गोपालोगवां स्वामौन भवति तद्रक्षणात् उदर पूर्ति मात्र फल भाक स्यात् नतुगवा स्वामित्व
चर ४४ ॥ जतंकाहिसिमाव जाजादिच्छसि नारोओ। वायाविद्धोब्बहडो अठिअप्या भविस्मासि ४५ । गोवाली भंड वालोवा जहा तद्दब्बणिमरो। एवं अणिस्मरोपि सामन्नस्म भविस्मसि ४६ । कोहंमाणं निगिगिहता मायं लोमंच
सव
राय धनपतसिंह बाहादर का आ.सं.उ. ४
भाषा
समनसाधरोस यायाक्षसि नारी जे जे रूपवंत स्त्रीने देखौने तदावात विडीहठेव वृक्षव जिम वायरे करीने सेवालअरहुपरह फौरे जोडवीमा अस्थि रामा भविष्यसि ते वृक्षनौपरितू पिण अस्थिरामा होयिस ४५ यथा गोपालः भांडपाल: जिम गोवालिया अने क्रियाणानी पालकर खवालो यथा द्रव्यस्य अनौखरोभवति जिम ते द्रव्यनो धणी न होइ'केवल रखवालोहोइ बौलसवानो रखवालीनहीथाइ एव अनिश्वरस्वमपि इम अनौश्वर अठाकुरतु पणि यामवस्य चारित्वस्य भविष्यसि तिम चारित्र अठाकुर चारित्र रहितवासी ४६ क्रोध मानच जिवा क्रोधमान वसिकरौ जीताः माया मृषावाद
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उ० टोका
अ०२२
६८०
सूत्र
भाषा
फलभाक्, तथा पुनर्भाण्डपालः क्रयाणकाधिपेन क्रयाणकरचार्य रक्षितः पुरुषः क्रयाणकानां ईश्वरत्वफलभाक न भवति उदरपूर्त्तिमात्र फल भागेव भवति ईश्वर फलभाक, तु अपर एव तथात्व मपि श्रामण्यवेषधारकत्वेन द्रव्य धर्मपालकत्वात् उदर पूर्ति फलभाग वर्त्तते नतु भाव धर्मफलस्य मोक्षस्य ईश्वरोभविष्यसि इति भावः ४६ [कोहं माणं निर्मिणिहत्ता मायं लोभं च सव्वसो इन्दियाइ वसेकाउ' अप्पाण ं उबस'हरे ४७] [तौसेसोवयण' सुच्चा सञ्जयाएसु भासिय' असेण जहानागो धम्म सम्पण्डिवाईओ ४८ ] युग्म सरथनेमिः इन्द्रियाणि वशीकृत्य श्रात्मानं उपसंहरति स्थिरं करोति विषयेभ्योनिवारयति कि' कृत्वा क्रोध' मान मायां च पुनः सर्वथालोभ निग्टह्य अत्यन्त जिला एवं रथनेमिः आत्मान' धर्मे दृढकार एतदेवोक्त' दृष्टांतेन हृदयति तस्याः राजौमत्याः सन्नत्याः साध्वाः सुभाषितेन सरथनेमिः पूर्व धर्माटो धर्मे सम्पति पातित: धमार्गे स्थापितः केन करव अङ्कुशेन नागइव यथा अङ्गशेन नागोहस्तीमार्गाष्टो मार्गेस्थाप्यते तथारथनेमि रपि ४८ (मणगुत्तो बय गुत्तो काय गुत्तोजिद्द दियो सामन सस । इदिया' वसेकाऊ अप्पाणं उवसंहरे ॥ ४७ ॥ तौसेसेा वयणं सोचा संजयाए सुभासियं । अंकुसेण जहा नागो धम्म संपडिवाइओ ४८ ॥ मणगुत्तो वइगुत्ती कायगुत्तो जियंदियो । सामन्न' निञ्चलं फासी जावज्जीवं सर्वथाः माया लोभं च सर्वतः इंद्रोयाणी वशीकृत्वा पांच द्रो वसिकरोने आमान' उपसंहरेत् संचरेत् आपणो आत्माने भोगथी संवरो ४७ तस्या राज्य त्या वचन' रथनेमिः श्रुत्वा ते राजमति नुं वचन सांभलौने संयत्याः सुभाषित संयतो साध्वीनां वचन सांभलीने अंकुशेन यथा नागोहस्ति जिम अंकुशे करौ हाथो पाक्कोफेरे धर्मेश प्रतिपादितः तिम राजेमतोइ रथनेमिने पाको धर्मने विखे आखो ४८ अथ रथनेमि मनोगुप्तः वचनगुप्तः मन
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ४१ मा भाग
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ENU
निश्चलंफासे जावज्जीवं दढव्वए ४८] यदा साधुमार्गे स्थिरीभूत्तदा कौदृशोभूदिस्थाह मनसागुत्ती मनगुप्तः गुवमनाः तथावच सागुशी वचौगुप्तः गुप्तवाक् तथापुनः कायेनगुप्तः कायगुप्तो गुप्तकायः इति गुप्तिवयसहित: पुन:कीदृशो जितेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियः एतादृशो रथनेमिर्यावज्जौवं दृढव्रत: सन् श्रामण्य चारित्र धर्म निश्चलं यथा स्यात्तथास्पृशति सम्यक् क्रियानुष्टानेन पालयति ४८[ उगतवंचरित्ताण जायादुब्रिविकेवलो सबकम्मं खवित्ताणं सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ५.] अनुक्रमेण तौ द्वौ अपि राजौमती रथनेमो केवलिनौ जातो किं नत्वा उग्रअन्यैः कर्तु मशक्य तपश्चरित्वा तपः कृत्वा अनुक्रमेणच सर्वाणि कर्माणि क्षायिखा पुनस्तौ अनुत्तरी सर्वोत्कृष्टां सिद्धि मोक्षगति प्राप्तौ ५० [एवं करंति संबुद्धा पंडियापषियक्खणा विणियहँति भोगेसु जहासे पुरि
दढब्बो ४६ ॥ उग्ग तवं चरित्ताणं जाया दोन्निवि केवलौ । सञ्चं कम्म खवित्ताणं सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ५० ॥ एवं करतिसंबुद्धापंडियापडियक्खणा। विणयह ति मोगेसु जहासपुरिसोत्तमात्तिवेमि५॥रहनेमिज्जज्झयणंसम्मत्तं ॥२२॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•.१मा भाग
भाषा
* वचन काया गुप्तः काया गुप्तवान् जितेंद्रिय कायागुप्त जोत्याछे इंद्रिय: चारित्र निश्चलं सेवितवान् चारित्र सूदपालवालागो जावज्जीव दृढव्रतः सन्
जावज्जीव दृढव्रत पालोनोश्चल मनकरो ४८ उग्रतपी अनशनादि कृत्वा उग्रतप करौने जातौहाप कैवलिनी दोई राजमतो रहनेमो केवलीथया सर्व 8 कर्म क्षयित्वा सर्व कम्मथको वौप्र मुक्त कर्म खपावौने सिच' प्राप्तौ सर्व उत्तमां मुक्तिपोहता सिद्ध हा प्रधान ५. एवं कुर्व ति ज्ञात तत्वा तत्वना
जाण साधु इम कहेछ पंडिताः प्रविचक्षणा: पंडित शास्त्रना जाण विचक्षण विनिवर्तति भोगेषु भोग थको निवत्त उसरे यथा सरह मेमिः पुरुषोत्तम इति ब्रवीमि जिम रहनेमी भीगथी निवत्यो तौमनौवी'५१ इति हावियतीतम रहनेमीवक्तव्यता अध्ययन संपूर्ण ॥ २२ ॥
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सटीका
सोत्तमात्ति बेमि ५१] पंडितास्तत्वमतियुक्ताः प्रकर्षेण विचक्षणाः विवेकिनः पुरुषाः भोगेभ्यो विशेषेण निवर्तते कथंचित् चेतसि धिकार समुत्पन्ने पि पुनः कस्य चिद्धर्मात्मनः पुरुषस्य धर्मोपदेशधारणेन चित्त निरुध्यभोगेभ्यो निवर्तन्ते कइव यथा सरयनेमिः पुरुषोत्तमः पूर्व चञ्चलचित्ती भूत्वा पुनहीं पदेशात् धमे स्थिरचित्तो बभूव तथाऽन्य रपि निश्चलचित्तैभवितव्य' इति न तु चञ्चलचित्त नभाव्यं इत्यहं ब्रवीमि श्रीसुधम्मास्वामी जम्ब स्वामिनं प्रति आह है जम्बू पहं भगवदचसा इति ब्रवीमि ५१ इति रथनमौयं हाविंशतितमं अध्ययनं संपूर्ण २२ ॥ अथ त्रयोविंशतितम अध्ययन प्रारभ्यते ॥ हाविं शतितम अध्ययने उत्पन विथोतसि केनापि रतिवरण विधेयाइति कथितं अथ बयोविंशतितमैज्ञानिना परषामपि चित्त संशयं ज्ञात्वासंशयी दरीकर्तव्यः केथि गोतम वदित्याह । जिणे पासित्तिनामणं इत्यस्यां गाथायां कतिथीयं पार्ख नामातीर्थ करः कस्मिन् भवेचानेन तीर्थकरनाम कम्पनिबद्धमिति सको 8 तुक बोट वैराग्योत्पादनार्थ पार्ख नाथचरित्र मुच्यते इहैव जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र पोतनपुर नगरेऽरविंदो नाम राजा तस्य विश्वभूतिर्नामा पुरोहितः स
यावकोस्ति तस्य होपुत्री कमठोमर भूतिश्च तयोः क्रमेण भार्या वरुणावसुन्धरा च तयो कमठमरुभूत्योः शिरसि गृहकार्यभारं विन्यस्य स्वयंधर्म कुर्वाण: 8 क्रमेण कालं कृत्वा विवभूतिदेवलोक गतः तद्भार्याऽनुदरी विशेष तपःकरणन शोषित शरीरामृता कमठोपिकृत माळपिट प्रेतकर्मः पुरोहितोजातः मर
भूतिरपि प्रायो ब्रह्मचारीकतोद्यतः सम्पन्नः तस्यभार्या मनीहरीने दं दृष्ट्वा कमठस्य चित्तचलितं तां सविकार लोचनाभ्यां पश्यति सापि कामविरहमसा हंतो तंसविकारं पश्यति उभयोभृशं रङ्गोल्लासे अनाचार प्रहत्तिर्जाता मरभूतिना सामान्यतो ज्ञाता विशेषज्ञामायतस्याः कमठस्य च पुरोहं ग्रामान्तरं यास्यामोत्युक्त्वा निजमन्दिराइहिर्गत्वा सध्यासमये कापिटकरूपं कृत्वा स्वरभेदेन कमठं प्रत्ये वंबभाणहोमहानुभाव निराहारस्य मम शौतत्राणाय किञ्चिनिवातस्थानं देहि अविज्ञात परमार्थेन कमठेन भणितं अहो कार्पटिक पत्र चतुर्हस्तमध्ये स्वच्छन्द निवस ततस्तत्र रात्री स्थिती मरभूतिस्तयोः
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ• ४१मा भाग
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सर्वमनाचार स्वरूपमालोक्य ईर्थापरवशोजातः परंलोकापवाद भौरुत्वाब तयोः प्रतौकारं चकारः प्रभाते च राजांतिके गत्वा सर्वतयोः स्वरूपं यथा
खित माख्यातवान् राज्ञा च कुपितेन समादिष्टाः स्व पुरुषाः तैडंडमास्फालन पूर्वगलारोपित शरावमालः खरारूढः कमठः सर्वतोनगरे भ्रामितः उ•टौका
भाजाया भोगकार्योयमिति जनानां पुरोनिर्घोषं कृत्वा स नगराविष्कासित: ततः सञ्चाताम! कमठोपि समुत्पन्न गुरुवैराग्यो रहौत परिव्राजक लिङ्गो दुस्तरन्तपः क लग्नः तञ्वत्तान्तं ज्ञात्वा मरभूतिः संजातपश्चात्तापः खापराधक्षामणाय तस्यान्तिके गत्वा पादयोः पपात: कमठोपि तदानी
समुत्पन्न पूर्ववैरोल्लासेन मरभूतोपरि महाशिला पातितवान् ततो मरभूतिस्तस्था: पाणिप्रहारेण अरटन् कालं कृत्वा विंध्याचले बहुयूथाधिपतिः 8 करो समुत्पन्नः इतश्च अरविन्दराजा कदाचित् शरत्काले सान्त पुरप्रसादोपरिस्थित: क्रौडन् शरद_मू स्निग्धं प्रच्छादित नभस्तलं मनोहरं ददर्थ पुन
स्तत्क्षणा देववायुना विलीनं तदनं पश्यन् दृष्टा तावष्टंभण सर्वेषां भावानां क्षणभंगुरतां भावयन समुत्पावधिज्ञानः परिजणेन प्रियमाणोपिदत्त निज * पुत्र राज्य प्रवजित: अन्यदा स राजर्षि विहरन् सागरदत्त सार्थवाहेन समं संमत शिखरचैत्य वन्दनाथ प्रस्थित: सागरदत्त सार्थवाहेन पृष्टः भगवान् क्व
गमिष्यसि यतिना उक्त तीर्थयात्रायां सार्थवाहनोक्त कीदृशी भवतां धर्मः मुनिना कथिती दयादान विनयमूलः स विस्तरस्तस्य धम्मः तं श्रुत्वा स सार्थ * वाहः बावकोजातः क्रमेण महाटवी प्राप्तः यत्र सीमरभूतिजीवः करीजातोस्ति सत्र महायरीवर दृष्ट्वा तत्तौरसार्षः उत्तीर्णः अचांतर तस्मिन्बेवसरसि * बहु हस्तिनो परिवतः स करौजलपानार्थमागतः जलं स विलास पौत्वा पालमारूढः सर्वत्र चविक्षिपन् सार्थ दृष्ट्वा तहिनाशनार्थ त्वरित' धावितः
तं च तथा गच्छन्त दृष्टा सार्वजनाइतस्ततः प्रणष्टा मनिस अवधिना जाना स्वस्थानस्थितः कायोत्सर्गण तेन करिणा सर्व' सार्थप्रदेश भ्रमता दृष्टः * स महामुनिः तदभि मुखं स धावितः आसन्न प्रदेशगत्वा तं पश्यन् उपशान्त कोपोनिश्चलः स्थितः तथा रूपं तं दृष्ट्वा तत् प्रतिबोधनार्थ पारितकायो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• 3. ४१ मा भाम
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उ० टोका प्र. २३
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०० १ मा भाग
सर्गे मुनिरेव मूचे भोमरुभूतेकिं नत्वं स्मरसि मां अरविन्दनरपति' आत्मनः पूर्वभवं वा एतन्म ुनि वच श्रुत्वा स करौसञ्जातजाति स्मरणः पतितो मुनि चलनेषु मुनि नापि स विशेष देशनाकरण पूर्व स श्रावकः कृतः ततः प्रणम्य स करौ स्वस्थानं गतः अत्रांतरे उपशान्त तं करिण दृष्ट्वा सावर्यः सार्थजनः पुनस्तत्र मिलितः प्रणम्य मुनि चरण युगलं प्रतिपन्नवान् दयामूलं श्रावकधम्मं ततः कृत कृत्यः सर्वोपि साथीमुनि स्वस्वाचारनिरतो विजहारः इतश्च स कमठ परिव्राजको मरुभूतविनाशने नापि श्रनित्तवैरानुबन्धोनिजायुःचये मृत्वा समुत्पन्नः कुकुटसर्पः बन्ध्यावने परिभ्रमता तेन दृष्टः स हस्तो पङ्कनिमग्नः पूर्ववेरोनासेन कुम्भस्थलेनदष्टः तद्दिषवेदनामनुभवन्रपि श्रावकत्वात् चमावान, मृत्वा समुत्यन्नः सहस्रारकल्प देवः कुकुटसर्पेपि तस्मिन् समये मृत्वा सप्तदश सागरोपमायुः पञ्चमनरकष्टथिव्यां नारकः सञ्जातः इतश्च सहस्ति देवश्चातः इहैवजम्ब होपे पूर्वविदेहेकच्छ विजये वैतान्य पर्वते तिलकनगर्या विद्युहति विद्याधरस्य भार्यायाः कनकतिलकायाः किरण वेगोनाम पुवोजातः सच तत्र क्रमागतः राज्यमनु पाल्यसुगुरुसमीपे प्रब्रजितः एकत्वविहारी चारण श्रमणोजातः अन्यदा आकाशविहारिणः सगतः पुष्करद्दीपे तत्र कनकगिरि सन्निवेशेकायोत्सर्गेण स्थितः किञ्चित्तपः कर्तुमारब्धः इतश्च स कुकुटसर्पजौवो नारका दुहत्यः तस्यैवकनकगिरेः समीपं सञ्जातामहोरगः तेन स मुनिः दृष्टोदष्टश्च विधिना - काल ं कृत्वाच्य ुतकल्प जम्ब ुमावर्त्तविमाने देवोजातः सोपि महोरगः क्रमेण कालौं कृत्वा पुनरपि सप्तदशसागरायुः पञ्चम पृथियौ नारकोजातः किरण वेगदेवोपि ततःच्यत्वा इहेवज'बूढोपेऽपरविदेहे सुगन्धविजये शुभङ्करानगर्यां वच्चवीर्यराजोचिमताया भार्यायावज्चनाभनामापुत्रः समुत्पन्नः सोपि तत्र क्रमागतं राज्यमनुपात्यदत्तचक्रायुधनामख पुत्र राज्यः क्षेमं करजिन समीपे प्रब्रजितः तत्र विविधतपो विधानेन बहुलब्धि सम्पन्नोगत: सुकच्छविजयं तत्राप्रतिबद्ध विहारेण विहरन सम्प्राप्तोज्वलनगिरि समीपं दिनेस्तमिते तचैव कायोत्सर्गेणस्थितः प्रभाते ततचलितीटव्यां प्रविष्टः
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उ टोका अ.२३
عمر
8 इतव समहोरंगनायकः पञ्चम पृथिवीत उदृत्वकिवं तं संसारभ्रान्त्वातस्यैवज्वलनगिरि समीपे भौमाटा जातोवनचरचण्डाल: तेनाखेटकनिमित्त
निर्गच्छतादृष्टः प्रथमं स साधः ततः पूर्वभव वैरवशतोऽपशकुनयमिति कृत्वा बाणेन विद्यः तेन विधुरोक्कतवेदनो विधिनासत्वावचनाभोमुनिर्मध्यम * अवेयक ललिताडोनाम देवोजातः सोपि चाण्डालवनेचरस्तं विपन्न महामुनि' दृष्ट्वाऽहोह मया धनुई रइति मन्धमानोनिकाचित कूरकर्माकालेन
मृत्वा सप्तमे नरकेनारकत्वेन समुत्पन्नः वचनाभदेवस्ततशुतः इहैवजम्ब होपे पूर्व विदेहे पुराणपुर कुलिशवाहुराज्ञः सुदर्थनादेव्याः कनक प्रभीनाम पुत्रीजातः स चक्रमेण चक्रवर्तीजात: अन्यदा प्रासादो परिसंस्थितेन आकाशे निर्गच्छन् देवसवाती दृष्टः तदर्थनादेव विज्ञातं जगन्नाथतीर्थकरागमः स्वयं निर्गतस्तद्वन्दनार्थ वन्दित्वा च तत्रोपविष्टस्य तस्य पुरतो भगवतादेशनालता तां च व त्यामुष्टश्चक्रवर्तीवन्दित्वा ख नगर्या' प्रविष्टः अन्य दाकनक प्रभनामा चक्रवर्तीतां तीर्थ करदेशनां भावयन् जातजातिस्मरणः पूर्वभवान् दृष्ट्वा भव विरक्तचित्तः प्रबजितः इतश्च स क्रमेण विहरत्र सौक्षीरवनाटव्यां चोरपर्वते सूर्याभिमुखकायोमर्गेणस्थि तः इतथ स चाण्डालवन चरस्त तो नरका दुइत्यस्त स्यामवाटव्यां चौरपर्वतगुहायां सिंहीजातः स च भ्रमन् कथमपि संप्राप्तः मुनिसमीप ततः समुच्छलत पूर्व वैरेण तेन विनायितः समुनिः समाधिनाकालं कृत्वा निवहतीर्थ' करनाम कर्मा प्राणतकल्प महाप्रभोविमाने उत्पबीवियति सागरोपमायुर्देवः सोपि सिंही बहुल संसार' भ्रात्वाक मेवयादाह्मणोजात: तत्रापि पापोदयवर्जनजातमात्रस्य पिन मा चार प्रमुखः सकलोपि खजनवर्गः क्षयं गतः स च दयापरेण लोकेन जोवितः संप्राप्त योवनोपि कुरूपी दुर्भगोदुःखेन हत्ति कुर्वन् वैराग्य 8 मुपगतोवने कन्दमूल फलाहारस्तापसोजात: करोति बहु प्रकारं अज्ञान तपोविशेष इतश्च स कनक प्रभ चकवति देवः प्राणतकल्पात् चैत्र कृष्ण चतुर्था च्यु त्वा इहैवजम्ब होपे भारते क्षेत्र काशोदेशवाराणस्यां नगर्या अखसेनस्य राज्ञो वामादेव्याः कुक्षौमध्यरात्रि समयेविशाखानक्षत्र वयोविंशति
राय धनपतसिंह बाहाटर का घा-सं.२०४१ मा भाग
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उ टोका
तमतोर्थ करत्वेन समुत्य वः तस्यामेव रात्रौ सावामादेवो चतुर्दश स्वप्रान् ददर्शनिवेदयामास च राज्ञः तेनापि राज्ञा अतीवानंदमुद्दहताभणित प्रिये सर्वलक्षण सम्पूर्णः सूरः सर्वकलाकुशलस्तव पुत्री भविष्यति तद्दच श्रुत्वा मुष्ट तरं परितुष्टासा प्रभाते च राज्ञा स्वप्नपाठकाना यतान् यथार्धा नाचख्यो तेपि पूर्ण स्वप्नाध्यायं सविस्तरमाख्याय चतुर्दश स्वप्नानां फलमेवाहुः तीर्थकरमाता चक्रवर्त्तिमाता वा एताश्चतुर्दशस्वप्नान् पश्यति ततोस्थाः * कुक्षौतीर्थ करचक्री वासमुत्यबोस्तोति स्वप्नानुसारेण पूर्णेषु मासेषु शुभवेलायां भगवान् जातः षट पञ्चाशद्दिक कुमारीभिजन्ममहोत्सवः पूर्व कृतः ततः स्वासनकम्पाहिज्ञात भगवज्जन्माभिषेक शक मेंरुसिरसि जन्माभिषेकः ततः प्रभाते चाखसेनोपिनगरान्सह माहिकोमवं कृतवान् अस्मिन् गर्भस्थिते भगवति जनन्याः पार्खेगच्छन् सीराची दृष्ट स्ततीस्य पार्श्व इति नाम कृतं ततः कल्पतरुवज्जनानन्दकः स भगवान् वृद्धि प्राप प्रष्टवार्षिकच भगवान् सर्वकलाकुशलो बभूव अथ भगवान् सर्वमनोहरं यौवनं प्रापपित्रा च तदानीं प्रभावती कन्यां परिणायित: भगवान् तया सम विषयसुख बभुजे अन्यदा भगवता प्रासादो परिगवाक्षजालस्थेन दिगावलोकन कुर्वता दृष्टोनगर लोकः प्रवर कुशमहस्तो बहिर्गच्छन् पृष्ट च भगवता कस्य चित्पाववर्तिनः भो किमद्यकशित्पर्योत्मवोस्तियेनैषजन: पुष्पहस्तो बहिर्गच्छन्नस्ति तेन पुरुषणोक्त' अद्यकीपि पात्मानास्ति किं तु कमठोनाम महातपस्खो पुरौबहिः समागतोस्ति तहन्द नार्थ प्रस्थितीयञ्जन: ततस्त इचनमाकर्ण्य जातकौतुक विशेषो भगवान् तत्र गतः पञ्चाग्नितषः कुर्बाण: कमळं पृष्टवान् विज्ञानवताभगवताज्ञात एकस्मिन्बग्नि कुण्डे प्रक्षिप्तातौवमहत् काष्टमध्ये प्रज्वलन् सर्य : उत्पन्न परमकरुणेन भगवताभणितं अहो अकष्टमज्ञानं यदी दृशेपि तपसि क्रियमाणेदया न ज्ञायते ततः कमठेन भणित' राजपुत्राः कुञ्जर तुरङ्गाश्रम मेव जानन्ति धम्मन्तु मुनयएव विदन्तौति ततो भगवता एकस्य स्वपुरुषस्य एवमादिष्टम् अरे इदमग्निमध्ये प्रचिप्त' काष्ट कुठारेण विधाकुरुतेन पुरुषेण
राय धनपतसिंह चाहादुर का प्रा.सं छ• ४१ मा भाग
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तत्काष्ट विधावत तत्र दृष्टो दह्यमानः सर्पः तस्य भगवता स्व वदनेन पश्चपरमेष्टि नमस्काराः प्रदापिताः नागोपि तत्प्रभावान्म त्वा समुत्पनो नागलोके धरणेन्द्रीनाम नागराजा लोकैश्च अहो भगवतो ज्ञानशक्तिरिति भणद्भिर्महान् सत्कारः कृतः ततोविलक्षौ भूत: कमठ परिव्राजको गाढमज्ञान तपः कृत्वा मैघकुमार निकायमध्ये समुत्पन्नो मेघमालो नाम भुवनवासौ देवः अन्यदा सुखेन तिष्टन्ती भगवती वसन्तसमयः समागत: तज्ञापनार्थम् उद्यानपालेन सहकार मञ्जरी भगवतः समर्पिता भगवता भणित भोकिमेतत् स आह भगवन् बहुविध क्रीडा निवासो वसन्तसमयः प्राप्त: ततो मित्रप्रेरित: श्रौपार्खकुमारी वसन्तकौडा निमित्त बहुजन परिवार समन्वितो यानारूढो गती नन्दनं वन तत्र याना समुत्तोर्यनिषसो नन्दनवन प्रासाद मध्यस्थित कनकमयसिंहासने अतिरमणीय नन्दनवन सर्वतः पश्यन् भित्तिस्थं परम रम्यं चित्र दृष्ट्वा अहो किमत्र लिखित भानमिति सम्यग् निरूपयता भगवता दृष्टम् अरिष्ट नमि चरित्र ततचिन्तित प्रवृत्तः धन्यः सोऽरिष्ट नेमियों विरसावसान' विषयसुखमाक लव्य निर्भरानुरागां निरुपमरुपलावण्यां जनकवितौणी राजकन्याञ्च त्यक्ता भग्नमदनमण्डल प्रचारः कुमारएव निष्कांत: ततोहमपि करोमि सर्व सङ्ग परित्यागम् अचान्तर लोकान्तिकादेवा स्तनागत्य भगवन्तं प्रतिबोधयन्तिस्म तती मार्गणगणस्य यमित साम्बसरिक दान' दखा भगवान् माढपिता
द्यनुजया महामहः पूर्वम् आश्रम पथोद्यानऽथीकपादपस्याधः पौषशह कादशीदिने पूर्वानसमये पञ्चमौष्टिक' लोच कृत्वा अपानकेन अष्टम भक्ती म एक ४ देव दूषमादाय विभिः पुरुषशतेः सम निष्कांतः अथ श्रीपार्या भगवान् विहर कदावटपादपाध: कायोमर्गेणस्थितः इतश्च संकमठजीवी मेघमाली
अमरोवधिना ज्ञात्वा आत्मनो व्यतिकर स्मृत्वा च पूर्वभव वैरकारण समुत्पनः तौबामर्षः समागत स्तन प्रारचा सेनानक सिंहादिरूपैरनेके उपसर्गाः तथापि भगवान् श्रीपावोऽक्षब्धो धर्मध्यानाबचलित: ताहणत ज्ञात्वा कमठए वञ्चितयामास अह मैन' जलेन भावयित्वा मारयामीति ध्यावा भगवदु
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं० उ०४१ मा भाग
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परिष्टान्महामेघ दृष्टिञ्चकार जलेन भगवदङ्ग' नासिकां यावद्यामम् अवान्तरे कम्मितासनन धरण न्द्रण अवधिनाज्ञात भगवद्यनिकरण समागत्व स्वामि ४ * योर्षीपरि फणि कणाटोप कृत्वा फणि शरीरेण भगवच्छरीर मावृत्य जलोपसर्गच निवार्य भगवत्पुरी देण वौणा गौत निनादैः प्रवरं प्रेक्षण कर्तुमारब्ध & वान् कमठा सुरस्तादृशम् अक्षोभ्य भगवन्त' धरणन्द्रकत महिमानञ्च दृष्ट्वा समुपशान्त दर्को भगवचरणौ प्रणम्यगतो निजस्थाने धरणन्द्रीपि भगवन्त' निरुपसर्ग ज्ञात्वा स्तुत्वा च स्वस्थान गतवान् पालस्वामिनो निष्क मणदिवसाच्चतुरमोति तमेदिवसे चैत्र कृष्णाष्टम्याम् अष्टमभक्त न पूर्वाह्नसमयेऽयोक तरोरपः शिलापट्टे सुख निषण्णस्य शुभध्यानेन क्षौणघाति कम्म चतुष्कस्य सकललोका वभासि केवल ज्ञान समुत्पन्न चलितासनैः शक्र स्तत्रागत्य केवल ज्ञानोत्सवो महान् कृतः पार्योर्हन् सप्तफणा लाञ्छनी वामदक्षिणपाखयारोप्या धरणन्द्राभ्यां पर्युपास्यमानः प्रियङ्गवर्ण देही नवहस्त शरौरी भव्यसत्वान् प्रतिबोधयन् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः पृथिवीमण्डले विहरति पार्ख भगवतो दशगणागण धरा अभवन् आर्यदिव प्रमुखाः षोडशसहस्र साधवोऽभवन् पुष्कचूला प्रमुखा अष्टत्रिमत्महस्रार्यिकाऽभवन् सनन्दप्रमुखाः श्रमणोपासकाः एकलक्षं चतुःषष्टिसहयाच अभवन् सनन्दाप्रमुखाः श्रमणोपासिका लक्षवयं सप्तविंशतिसहयाचाऽभवन् साईचौणि शतानि चतुर्दशपूर्वाणाम् अभवन् अवधिज्ञानिनां चतुर्दशशतानि केवलि ज्ञानिनां दशशतानि वैक्रियलब्धिमतां एकादशशतानि विपुलमतौनां साई बोणिशतानि वादिनां षट्शतानि अन्तेवासिनो दशशतानि सिद्धि' गतानि आर्यिकाणां विशतिशतानि सिद्धानि अनुत्तरीपपातिकानां द्वादशशतानि अभवन् श्रौपार्ख नाथस्य एषापरिवार सम्पदा अभूत् ततः पार्थो भगवान् देशोनानि सप्ततिवर्षाणि केवल पर्यायेण विहत्य एक वर्षशत सर्वायुः परिपाल्यसमेत यिखरे ऊईस्थितएवाधः कृत पाणि निर्वाणमगमत् तत्कलेवर' संस्कारोत्सवः शक्रादिभि स्तन व विहित इति * पार्श्वनाथ चरित्रम् । अथ सूत्र [जिणे पासित्तिनामेणं अरहालोगइए संबुडप्यायसञ्चबू धम्मतिस्थयरजिये १] पार्ख इति नामाईन् अभूत् तौर्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• उ• ४१ मा भाग
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उ० टोका अ०२३ ६८६
सूत्र
भाषा
EXEXEXEXE!
करोभूत् कोट्टशः स जिनः परोषहोपसर्ग जेता रागडे षजेतावा पुनः कोडशः स पार्श्व जिनोलोक पूजितः लोकेन त्रिजगता अर्चितः पुनः कथम्भूतः स सम्बुद्दप्पा संबुद्धात्मा तत्वाव बोधयुक्तात्मा पुनः कीदृशः स पार्श्व: सर्वज्ञः पुनः कीदृशः पार्श्वः धर्म तोर्थकरः धम्मैएव भवां बुधितरणहेतुत्वात्तीर्थं ध तो करोतीति तर्थं करः पुनः कोहम : जयतिस्म सर्वकर्माणोति जिनः द्वितौय जिन विशेषणे श्रीपार्श्वस्य मुक्ति गमनं सूचितं तदाहि श्रीमहा aौरः प्रत्यच' तोर्थकरो विहरति श्रीपार्श्वनाथस्तु मुक्ति जगामेतिभावः १ [तस्सलीगप्पईवस्स आसिस से महायसे केसौकुमार सम विज्जाचरण पारगे २] तस्य लोक प्रदीपस्य श्रीपाख नाथ तीर्थकरस्य केशीकुमारः शिष्यः आसीत् कुमारोहि अपरिणीत तथा कुमारत्वेन एव श्रमणः संगृहीत चारित्रः कुमार श्रमणः केसिकुमार श्रमणः कथम्भूतः सः महायशाः महाकौर्त्तिः पुनः कौदृशो विद्याचरणपारगः ज्ञानचारित्रयोः पारगामौ २ [ओहि जिणे पासित्ति नामेणं अरहालोग पूईए । संबुद्धप्पाय सव्वम् धम्मतित्ययरेजिणे १ ॥ तस्म लागप्पईबस्म आसिसीसे महायसे । केसौकुमार समणेविज्जाचरणपारगे २ ॥ ओहिणाण सुरबुड़े सिमसंघ समाउले । गामाणुगामं रौयंते । जिन परौसह उपसर्गानो जीपणहार पार्श्व एहवे नामे अरिहंत करूप वयरीयांनो हरणहार भव्यलोके पूजणहार भलौपरि तत्वनोजाणणार श्रात्मानेवलोसर्वज्ञ धम्मतौर्थनो करणहार जिण वीतराग केवली १ तस्य लोकप्रदीपस्य ते पार्श्व नाथ लोकप्रदीपने आशीत् शिष्यो महायशाः एकमिष्य महायग्रनोधरणहार केशौकुमारश्रमणः केशौकुमार श्रमणके ज्ञान चारित्र पारगांमी ज्ञानदर्शनचारित्र तेहनो पारगामी २ अवधिज्ञानाभ्यां ज्ञात हेयोपादेयः अवधि ज्ञानश्रुत ज्ञांन करौ सर्वजायेके सोयसंघ समाकुल घणाशिष्यके जेहने ग्रामानुग्राम विहरन् ग्रामानुग्रामि विहार करता श्रावस्त्यां
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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कटौका
* नाणमुए बुडे सीससासमाऊले गामाणगामं रौयंते सावस्थिं नगरिमागए ३] स केभीकुमार श्रमण थावस्था नगवाम् आगतः किं कुर्वन् ग्रामानुग्राम
रोयन्ते इति ग्रामानुग्रामं विचरन् कीदृशः भोहिनाणमुए बुद्ध इति अवधिनान श्रुताभ्यां बुहोऽवगत तत्वः मति श्रुतावधिज्ञानसहितः पुनः कीदृशः शिष्य संघसमाकुलः शिष्यवर्गसहितः ३ (तिंदुयं नाम उज्जायं सम्मौनयरमण्डले फासुए सिज्जसंधार तस्थवास मुवागए ४ ) स केशौकुमार श्रमशस्तत्र श्रावस्या नगर्यातस्याः श्रावस्त्याः नगरमण्डलेपुर परिसरतिंदुकं नाम उद्यानं वर्तते तत्रोद्याने प्रासके प्रदेशे जौवरहित शय्यासंस्तारे वास उपागतः शय्यावसति स्तस्यां संस्तारः सय्यासस्तारस्तस्मिन् समवसृत इत्यर्थः ४ [अहर्तणव कालेणं धमतित्ययरेजिणे भगवं वहमाणत्ति सव्वलोमिविस्मए ५ ] अथ शब्दो वक्तव्यांतरोपन्यासे तस्मिन्एवकाले धर्म तीर्थकरोजिनो भगवान् श्रीवई मान इति सर्वलोके विश्रुतोभूत् ५ (तस्म लोगपईवस्म आसिमोसे महायसे भयवं
सावत्यि नगरिमागए ३॥ तिंदुयं नामउज्जाणं तम्मीनयर मंडले। फासुएसिज्जसंथारे तत्ववास मुवागए ४॥ अह तेशेवकालणं धम्मतित्ययरेजिणे । भगवं वडमाणे ति सव्व लोगम्मि विमए ५॥ तस्म लोगप्पईवस्म आसिसिस्मे
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२०४१ मा भाग
* नगयीं समागताः सावत्यौनगरौनेविखे पाव्या ३ तिदुक नाम उद्यान ते नगरौने विखे सिंदुकनामे वनई तब थावस्त्यां नगर परिसरे सावत्यौनगरौने
पासे प्रासुकेशिज्यासंस्तार फासूसय्या संधारीलेईने तत्र वास उपागते वनमाहिरह्या धर्मध्यानमाहि वत्ते के ४ अथ तस्मिन् काले हवे एहवा अवसरने 8 विखे धम्म तीर्थ' करो जिनो वर्तते धमतीर्थ कर जिनके भगवान् वईमातिनामा बौवईमान स्वामी सर्व लोके विख्यातः सर्वलोकने विखे विख्यात* वंत ५ तस्य लोक प्रदोषस्य ते लोक प्रदीपनो महावीरनो पायीत् शिश्यो महायशाः हो महायशनो धणी शिथ भगवान् गौतमनाबा भगवंत गौतम
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गोयमेनामं विजाचरणपारगे ६) तस्य श्रीवई मानस्वामिनो लोक प्रदीपस्य सौर्थकरस्य गौतमनामा शिथीभूत् कथंभूती गौतमीमहायशाः महाकोत्तः
पुनः कोदृशो गौतमः विद्याचरणपारगः ज्ञानचारित्रधारी पुनः कीदृशो गौतमो भगवान् चतुर्ज्ञानीमति श्रुत्यवधि मनः पर्याय ज्ञानयुक् ६ (बारस 8 गविऊबुझे सौससघ समाऊले गामाणगामं रोअंसोविसावत्थिमागए ७) स गौतमोपि ग्रामानुग्रामं विहरन् थावस्त्यां नगयीं आगतः कीदृशो गौतमी द्वादशांगवित् एकादशांगानि दृष्टिवादसहितानि येन गौतमेन संपूर्णानि ज्ञातानीत्यर्थः पुनः कीदृयो गौतमो बुद्धो ज्ञाततत्व पुन कीदृशः शिष्यसंघ समाकुल: ७ [ कोढगंनाम उज्जाणं तम्मोनगरमंडले फासए सिज्जसंथार तस्थवास मुवागए ८] तस्याः श्रावस्या नगर्या मण्डले परिसर क्रोष्ट कं नाम उद्यानं वर्तते तत्र प्रासुकेशिनासन्यारे वास अवस्थान उपागतः प्राप्त: ८ [केसौकुमारसमणी गोयमोय महायसे उभीवितस्यविहरिंसु अनौणासु
महायसे भगवंगोयमेनामं विज्जाचरण पारगे ६॥ बारसंगविजबुडे सिमसंघस माउले। गामाणुगामं रौयंसेविसा वत्थिमागए ७॥ कोट्ठग नामउज्जाणं तम्मीनगर मंडले। फासुएसिज्जसंथारे तत्यवास मुवागए ८॥ कैसीकुमार
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० २०४१ मा भाग
इसेनामि विद्या चारित्रेषु पारगामो विद्याप्रने चारित्र तेहनो पारगामो हादशांगवीत् चतुर्मानोव्यार अंगनीजांण चीनाणी शिष्यसंघ समाकुला घणा शिष्यने परिवार परीवश्वो ग्रामानुग्राम विहरन ग्रामानुग्रामने विखे विहार करता सोपि गौतमः श्रावस्त्यां समागत: ते गौतम स्वामीपणिसावत्यौनगरी
आव्या ७ कोष्टक नाम उद्यान कोष्टक इसेनामे उद्यानके तस्य नगरस्य परिसर ते नगरने समीप प्राशकेशज्जामंस्तारक फासिज्जा संथारोलेईन तत्र तौहाँ वास पागतः ते उद्यानमाहिऊतम्या - कैशोकमारः यमणः केशौकमार माध गौतमोपि महायथाः गौतम महाजशनोधणी उभावपि तव
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र टीका अ.२३ ६८२
समाहिया) केयौ कुमार श्रमणश्च पुनर्गौतम एतौ उभौ अपि व्यवहार्भा आगातां कीदृशौ तौ उभौ महायशसौ पुनः कोहयो अलोनौमनोवाकाय गुप्तिवाधितौ पुनः कोदृशौ सुसमाहिती सम्यक समाधि युक्ती (उभो सौससाण सञ्जयाण तवस्मिण' तस्वचिन्तासमुप्पना गुणवन्ताणताण'१.) तब तस्यां थावस्त्यां उभयोः केशिगौतमयोः शिष्य सङ्घानां संयतानां तपखिना साधूनां गुणवतो जान दर्शन चारित्र वांवायिणां षडजीवरक्षाकारिणां परस्परावलोकनात् चिन्तासमुत्पना विचारः समुत्पन्नः१० (केरिसोवाइमो धम्मो इमो धम्मोवकेरिसो पायारधम्मपणिही इमावासावकैरिसौ ११) अर्थ अस्मत्सम्बन्धीधर्मः कीदृशः वा इति विकल्येव शबदीपिवार्थे वा अथवा अयं धर्मो दृश्यमाणगणभृत् यिष्य सम्बन्धी कौदृशः पुनरयं आचारधर्म प्रणधिः अस्माक कौशः पुनरेतेषां वा आचारधम्म प्रणिधिः कीदृशः प्राक्कतत्वात् लिङ्गव्यत्ययः आचारो देषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः स एव धर्मस्तस्य
समणे गोयमय महायसे । उभओवितत्वविहरिंसु अल्लोणासुसमाहिया ॥ उभो सिम्म संघाणं संजयाण तव
मिणं। तत्वचिंता समुप्पन्ना गुणवंताणताण १०॥ कैरिसोबाइमो धम्मो इमोधम्मो वकैरिसो। आयार धम्म थावस्त्यां बिहरंतो केशौ गौतमबे जणां विचरेछ मनोवाकाय गुप्ताः सुष्ट समाधिवंता मनवचन काया गुप्तके समाधौवतछ । योः शिष्यह'दानां संय तानां वेजणाना शिष्यने संयतानां संजतीछि तपस्विना तपस्वीछे तत्र श्रावस्त्यां चिंतासमुत्पन्नात सावत्थीनविखे यतीने चिंता ऊपनी गुणवंता चारित्रने गुण सहित त्रायिणां सर्वजौवना राखणहारने १. कौट्टक् स्वरूपः अयं धर्मः कैथी शिष्यसंबंधौएक हवी धम्मीछे एषः कीदृक् स्वरुपी धर्म गौतमगण भृच्छिष्याणां अने गोतमस्वामौना शिष्यनो एसोउ धर्म आचार धम्मवेषधारणादि तस्य प्राचार वेषनी धरवी माहोमांहिपांतरीदीसे के इमा अवस्था सा
पय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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उ० टोका
श्र०२३ ६८३
सूत्र
भाषा
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प्रणधिर्व्यवस्थापनं आचारधर्मा प्रणिधिः पृथक २ कथं सर्वज्ञोक्तस्य धर्मस्तत्साधनानां च भेदेनु ज्ञातु इच्छामः इति भावः ११ (चाउनामोयजीधम्मो जोमोपञ्च सिक्खिश्रो देसि श्रीवडमाणेण पासेण्य महामुणौ १२ ) ( अचेलगोयजो धम्मो जोइमो सन्तरुत्तरो एककज्जपवत्राण' विसेसो किन्तु कारण १३) युग्म ं यश्चायं चातुर्यामोधर्मः पार्श्वेन महामुनिनातीर्थकरेणदर्शितः चत्वारश्च यमाश्च चतुर्यामास्तत्रयञ्चातुर्यामः चातुर्मातिको अहिंसा १ सत्य २ चौर्य त्याग ३ परिग्रहत्याग ४ लक्षणोधः प्रकाशितः यश्च पुनरयं धर्मो वर्ष मानेन पञ्चशिक्षिकः पञ्चशिचितो वा पञ्चभिर्महाव्रतैः शिचितः पञ्चशिक्षितः प्रकाशितः पञ्चसुभिचासुभवः पञ्च शिक्षिकः पञ्चमहाव्रताम: अहिंसा १ सत्य २ चौर्यत्याग ३ मैथनपरिहारः ४ परिग्रहत्यागलचणोधर्मः प्रकाशितः १३
पणिही इमावासावकेरिसी ११ ॥ चाज्जामोयजो धम्मो जोईमो पंचसक्खियो। देसि वद्यमाणं णं पासेणय महा मुणौ १२ ॥ अचेलगोय जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो । एग कज्ज पवन्नाणं विसेसे किंतु कारणं १३ ॥ अहते तत्य च अवस्था कोही विसंवादिनौ एमांहोमांहिंफेरदोसे के ११ चातुर्जामो चतुर्महाव्रत धर्मीयः देशितः चारि महाव्रतरूप धर्म्म यः पंचमहाव्रतरूपः देशितः सिचितः अने पंचमहाव्रत रूप धम्म को देशितः सिचितः श्रीवर्धमानेन श्रीदईमानखामी पंचमहाव्रतरूप धर्मदेखायो श्रीपार्श्वनाथेन श्रीपा नाथे च्यारि महाव्रतरूपधर्म देखायो १२ आचेलको मानोपेत वस्त्रयो धर्मवौरेण उक्तः नानोत वन्त्र श्रीमहावीर कह्या यः असंतरो बहुमूल्य प्रधान वस्त्रः श्रौपार्खे णोक्तः बहुमूल्यपशपीना वस्त्रलेवां श्रीपार्श्व नाथे का एककार्ये प्रवृत्तानां एककार्यनेविखे प्रवर्त्यांचे विशेषः उक्तरूपः तत्र किं कारण एकपंच महाव्रतवीजे च्यार महाव्रत एवं वचनफेरतेस्य' कारण १३ अथ तत्र शिष्यानांहवे गोतम केशौकुमार आपणा शिष्यनो अभिप्राय जांणीने जावा
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ. सं०ड०४१ मा भाग
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ए.टीका
पुनर्वई मानेन पचेलकोधर्मः प्रकासितः अचेलं मानीपत धवलं जीर्णप्रायं अल्पमूल्य' वस्त्र धारणीयं इति वर्षमानस्वामिना प्रोत' असत इवल यत्र स अचेलः अचेल एव अचेलकः यत् वस्त्र' सदपि असत् इव तत्धार्यमित्यर्थः पुनर्योधर्म: पार्श्वन स्वामिनासान्तरोत्तरः सह अन्तरेण उत्तरेण प्रधान बहुमूल्येन नानावर्णन प्रलम्बन वस्त्र ण च वर्ततेयः स सान्तरोत्तरः स चेलको धर्मः प्रकाशितः एककार्ये मुक्ति रूपेकार्ये प्रवृत्तयोः बीवीरपाखयो विशेषे किन्तु कारण कोहेतुः कारणभेदेहि कार्यभदसम्भवः कार्य तु उभयोरेकमेवकारणञ्च पृथक् २ कथमिति भावः कि मिति प्रश्नं तु इति वित १३ (अहते तत्थसौसाण विवाय पविक्कियं समागमे कयमई उभोकेसि गोयमा १४) अथानंतरं तयोरुभयोस्तच श्रावस्त्या आगमनानन्तरं * केथिगौतमौ तौ उभौ समागमे क्लतमतो अभूतां कि कृत्वा शिष्याणां चक्षुझकानां प्रवितर्कितं विज्ञाय विकल्प ज्ञात्वा १४ (गोयमो पडिरुवसिस्न * सबसमाजले जिट्ट' कुलमविक्वन्तो सिंदुयं वणमागी १५) गौतमस्तिन्दुक वनं पागतः केथिकुमाराधिष्टि ते वने पागतः कीदृशी गौतमः प्रतिरूपज्ञः ३ प्रतिरूपोयथोचित विनयस्तं जानातौति प्रतिरूपतः पुनः कीदृशः शिश्च सङ्घसमाकुलः शिष्य बन्दसहितः गौतमः कि कुर्वाण: ज्येष्टं कुल अपेक्षमाणः
. राम धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
सुख
सिस्मा विन्नाय पविय क्वियं । समागमे कय मई उभो केसि गोयमा १४ ॥ गोयमा पडिरूवसू सिम्म संघ समा ।
भाषा
प्रथम प्रकृष्ट विकल्पीत जाएसमननु चिंतव्य जे एहने विकल्प अपनोभेद उपनी समागमे मिलने कत मतो मिलवानी मतिकीधी उभयोः केशि गौतमयोः वेजले केशौई अने गौतमै १४ गौतमः प्रतिरूपतः प्रतिरूपवेत्ता गौतमई अवसरनो जासई शिवसंघ समाकुलः सर्वशिश्च पोतानासाधे लेईने ज्येष्ट कुल पार्श्व संतानां अपेक्षमाणोगणयन् बड्कुल श्रीपार्ख नाथन जाणेके तिदुकवने पागतः पौगौतम केशौकुमार पासे तिंदुकवनने विखे
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स. टीका १०२३
८५
* ज्ये बप्रथम भवनात्यार्थ नाथस्य कुलं सन्तानं विचारयतः इत्यर्थ १५ [कसोकुमारसमणे गोयमन्दिरसमागयं पडि रूप पडिवत्ति सम्मच परि 8 वज्जई १६] केशौकुमार श्रमणो गौतम आगमं आगतं दृष्ट्वा सम्यक प्रतिरूपां आगतानां योग्यां प्रतिपत्तिं सेवा सम्मृतिपद्यते सम्यक् करोतीत्यर्थः१६ [पलालम्फासुयं तस्य पञ्चम कुसतणाणिय गोयमस्मनिसिज्जाए खिष्य सम्पणामण १७] तत्व तिन्ह कोद्यान एव केशौकुमार श्रमणो गौतमस्य निषद्याय गौतमस्य उपवेशनार्थ प्रासुक निर्बोजं चतुर्विध पलाल पञ्चमानि कुशलणानि चकारात् अन्यान्यपि साधुयोग्यानि तणानि सम्पणमए समर्पयति 8 पञ्चमत्व' हि कुशणानां पलालभेदेन चतुर्विधं पलाल यथा तणपणग पन्नतं जिणहिं कम्पङ्कगण्ठ महणहि साली १ वौही २ कोहव ३ रालग ४ रबेतणा ५ पञ्चइति वचनात् चत्वारिपलालानि साधु प्रस्तरणयोग्यानि पञ्चम हि दर्भादि प्रामुक तृण् वर्तते तत् केशिकुमारचमणेन गौतमस्य प्रस्तारणार्थ प्रदत्तमितिभावः १७ [केसीकुमारसमणी गोयमय महायसे उभी निसन्त्रासोहन्ति चन्दसूरसमप्यमा १८] तदा केशीकुमार श्रमणय
उले । जेटुं कुल मविक्खंती तिंदुयं वण मागओ १५ ॥ केसौकुमार समणे गोयमं दिस्म मागयं । पडिरूवं पडिबत्ति
सम्म संपडिबज्जई १६ ॥ पलालं फासुयं तस्य पंचमं कुस तणाणिय । गोयमस्म निसिज्जाए खिप्पं सं पचामए १७॥ पाव्या १५ केशौकुमारवमणः केशौकुमार साधु गौतम दृष्ट्वा आगत' समौपे गौतमस्वामी दृष्टिगोचरा आवतादिठा प्रतिरूपा उचित भक्विह सौते कीधी करवायोग्य सम्यक् प्रतिपद्यते सम्यक् प्रकारेण सम्यक् प्रकारकरी १६ पलालं प्राशक' निर्जीव तब फासूपराल सूझतुतीहां पंचमानि पलाल भेदेन कुशवृणामि पांचपलालसालि १ वरटौ २ कोद्रव ३ कांगणी ४ डाभ ५ एपांचपलाल गौतमस्य निषद्यायै गौतममे वैसवानीमत्ते शौघं उपवेशनार्थ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं . ४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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० टीका अ०२३
६८६
सूत्र
भाषा
PEPERORS
पुनर्गौतमो महायशाः एतौ उभौ तत्र तिन्ट कोद्यानेनिषणौ उपविष्टौ शोभते विराजते कथम्भूतौ तौ चन्द्रादित्य सम प्रभौ १८ [समागया वह तत्य पासण्डाकोउगामिया गिहित्याण' असेगाओ साहस्मोओसमागया १८] तत्र तस्मिन् तिन्दु कोद्याने बहवः पाषण्डा अन्यदर्शिनः परिव्राजकादयः समागताः कोदृशास्तेपाषण्डा कौतुकात् मृगाः आश्चर्यात् मृगा इव अग्यानिनः तु पुनः अनेक लोकानां सहस्रं समागतं श्रनेका प्रचुरालोकानां सहस्रीति श्रार्षत्वात् समागता तत्र संप्राप्ता १८ [देवदाणव गन्धव्वाजक्तरक्ख स किन्नरा अदिस्प्राणञ्च भूयाण' आसोतत्य समागमो २०] ते तत्र तस्मिन् प्रदेशे देवदानव केसौकुमार समणे गोयमेय महायसे । उभच निसन्ना सोहंति चंद सूर समप्यभा ॥ १८ ॥ समागया बहू तत्थ पाडा कोउगा मिया । गिहत्याण अणे गाओ साहबीच समागया ॥ १६ ॥ देव दाणव गंधव्वा जक्व रक्खस किंनरा | अदिस्माणंच भूयागं आसी तत्य समागमो २० ॥ पुच्छामि ते महाभाग कैसी गोयम मव्ववी । तत्र केसिं
I
अर्पयतौ शोध' शोघ्रपणे देई केशोकुमार १७ केशकुमार श्रमणः केशीकुमार साधु गौतमः महायशाः गौतमखामी महायशनो घणौ उभावपि तत्र श्रावस्त्यांनिषणौस्थितौ शोभतः तेंवेगणधरतीहां बेठासोमे चन्द्रसूर्य समप्रभौ चंद्रमा अने सूर्यसरिषोकांतिके जेविनी १८ समागताः मिलिताः वहवः घातीहां मौल्या पाषंडा कौतुकाश्रिताः पायंडी घणाए तौहां कौतुक देखवा मौल्याई गृहस्थानां अनेकानि अनेक गृहस्थाना हजारचावी मौल्यादे सहस्राणि मिलिताः आगताः सहस्रवद्द आव्याके १८ देवदानवगंधर्वाः देवता दांणव गंधव जक्ष राचसा किनराः यक्ष राक्षस किनर अथरूपाणां भूतान अदृश्यरूपधरता भूतव्यं तर आशत् तत्र समागताः मिलिताः आकाशने विखे अदृश्यपणे कौतुक देखवाभणौभावी ऊभारचाके २० पृच्छामिला
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१ मा भाग
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उन्टौका अ०२३
4८७
8 गन्धर्वा यक्षराक्षस किवराः समागता इति शेषः च पुनस्तत्र अदृश्यानांभूतानां केलौकिलव्यन्तराणां समागमः सङ्गम आसीत् २० (पुच्छामि ते महाभाग
केसोगोयममव्ववी तो केसि बुवन्तन्तु गोयमो इणमब्बवी २१) तयोर्जल्पमाह तदा कैशौगौतम अब्रवीत् कि अब वौदित्याह है महाभागते खां अहं
पृच्छामि यदा केशिकुमारण इत्युक्त तदा केशिकुमार श्रमण' ब्रुवन्त गौतम इदं अब्रवीत् २१ [पुच्छभन्ते जहिच्छन्ते कसि गोयममब्बबीती केसी 8 अणुबाए गोयमणमव्ववी २२] गौतमी वदति है भदन्त हे पूज्यते तव यथेच्छं यत् तव चेतसि अवभासते तत् त्वं पृच्छ मम प्रश्न कुरुइति केशिकुमार ४ प्रति गौतमोऽब्रवीत् गौतम इति प्राकृतत्वात् प्रथमास्थाने द्वितीया ततो गौतमवाक्यादनन्तरं केशिकुमारो गौतमेन अनुज्ञात: सन् गौतमेन दत्तात: सन् गौतम प्रति इदं वक्ष्यमाण वचनं अब्रवीत् १ [चालज्जामोयजी धम्मो जोइमो पञ्चसिक्खिो देसिपी वहमाणेणं पासणं महामुणौ २३] [एकका
बुवंतंतु गीयमो दूण मब्बवी २१॥ पुच्छ भंते जहिच्छते केसी गायम मब्ववौ। ती केसी अणुनाए गोयमी दूण
मब्ववी २२॥ चाउ ज्जामोय जो धम्मी जो इमी पंचसिक्खिो । देसिओ बदमाणेणं पासणय महामुणी ॥ २३ ॥ महाभाग तुझने अहो महाभाग पूलूलू केशी गौतम अब्रवीत् केशौकुमार गौतमने कहेछ ततः केशौबूवतं पुनः केशौ इम कह्याथी गौतमोववौदिदं वक्ष्यमाण वचनं हवे गौतमने पूछे छे वक्ष्यमाण वचन कहेछ २१ पृच्छ हे भगवन् यथा रुचिपणे केशीकुमार गौतम इति ब्रवीत् केशीप्रति गौतम कह तत केश्यानुज्ञातः सन् केशीकुमारने गौतम आनादीधांथकां गौतम अब्रवौदिदं वक्ष्यमाण वचन हिवे केशीकुमार गौतमने पूरे के २२ चतुर्यामः अहिंसादियोऽयं धम्म चार ब्रतरूप एधर्म यः एषः पंचशिक्षितौ मैथुनवे रमणादि पंच महाब्रतरूपः दर्शितः वईमानेन बईमानस्वामौई पंचमहावृत
८८
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा.संत. ४१ मा भाग
भाषा
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सटौका अ०२३
पववाण' विमेमेकि तु कारण धम्म दुविहेमेहावौकहं विष्पच्चीनते २४] हे गौतमपान मुनिना तीर्थ करण यथातर्थामथात ति कीयं पाक धर्मो उद्दिष्टः पुनर्योयं धर्मों वई मानेन पञ्चशिक्षिकः पञ्चव्रतात्मकोदिष्टः कथितः १३ एककार्येमोक्षसाधन रूपेकार्ये प्रपत्रयोः श्रीपाच महावीरयोर्वि शेषेभेदे कि कारण हे मेधाविन् दिविधे धर्मे तव कथं विप्रत्ययो न भवति यती ही अपितौध करोडावपि मोक्ष कार्य साधने प्रवृत्तौ कथमनयोर्भेदइति हेतीस्तवमनसि कश्च विप्रत्ययो न भवति सन्द हो न भवति २४ (तोकेसि बुवन्तन्तु गोयमोइणमव्ववौ पसासमिक्खए धम्म तत्तं तत्तविणिच्छ यं २५) ततोऽनन्तरं कैशिकुमार श्रमण' ब्रुवन्तं कथयं तं गौतम इद अब्रवीत् है केशिकुमार श्रमण प्रज्ञाबुद्दिम तत्व धर्मस्य परमार्थ पश्यति धर्म तत्व वुद्या एवं विलोक्यते शूर्ण धम्म मुधोवेत्ति इति वचनात् कीदृशं धर्मतत्वं तत्व विनिश्चय तत्वानां जीवादीनां विशेषेण निथयो यस्मिन् तत् तत्वविनि
एगकज्ज पवन्नाणं विसैसे किंतुकारणं । धम्म दुविहमेहावीकहंविप्पच्चोणते २४ ॥ तोकेसि बुवंतंतु गायमोडूण
मबबी। पन्नासमिक्खए धम्म तत्तत्त विणिच्छयं २५ । पुरिमा उज्जुजड्डाओ वक्कजड्डाय पच्छिमा। मन्भिमा उज्जु उपदेखा पाखे न पार्श्वनाथेन महामुनिना चौपार्ख नाथे चार महाव्रतरूपधर्मको २३ एक कार्य प्रपन्नान एकज कार्य करवाभणौ उद्यत हाछे * पृथक विशेषे कि पुन: कारणं जूजूआवेष जूजुवा आचार किम कौधा साधो धर्मादिभेदः हे मेधाविन् साधुनो धर्मवेदेहौसे ते किम कथं नस्यात् विप्रयः
संदेह स्तव अहो गौतमस्वामौ ताहरा मनमाहौ किम संदेह आवतु नधौ २४ तत: केशि ब्रूवंत केशौ इम कह्यांथका पुन: गौतमः इदं वचनं अव्रवीत् - गौतम इम कहेछ प्रज्ञाबुद्धिः समोच्यते धम्म बुद्धिधर्मने देखे पिछणि तत्त्व परमार्थ जीवतत्त्व निश्चितं जौवादि तत्त्वनो निश्चय बुद्धि करौजाण २५
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.स. ११ मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०२२ ७८८
सूत्र
भाषा
394
चय केवल धर्मतत्वस्य श्रवण मात्रेण निश्चयो न भवति किं तु प्रज्ञावशात् एव धर्मतत्वस्य निश्चयः स्यादिति भावः २५ (पुरिमा उज्जु डा श्री का पच्छिमा मज्झिमाउज्ज, पत्राओ तेण धम्मोदुहाको २६) हे केशिकुमार श्रमण पुरिमाः पूर्वे प्रथमतोर्थ कसाधवः श्रदौखरस्य मुनयऋजुजडाः ऋजव तेजंडाव ऋजुजडा बभूव् इति शेषः शिक्षाग्रहणतत्पराः ऋजवः दुःप्रति पाद्यतया जडामूर्खा तु शब्दो यस्मादर्थे पश्चिमाः पश्चिमतीर्थ माधवो महावौरस्य मुनयो वक्रजडा: वक्राथ तेजडाश्चवक्र जडा: वक्राः प्रतिबोध समये वकज्ञाना: जडा: कदाग्रहपराः तादृशा बभूवुः तु पुनर्मध्यमाः मध्यम सौर्थ कराणां मुनयो द्वाविंशति तीर्थक्कसाधवः ऋजुप्राज्ञाः बभूवुः ऋजुवच प्रानाथ ऋजु प्राज्ञाः ऋजवः शिक्षाग्रहण तत्पराः पुनः प्राज्ञाः प्रकृष्ट बुद्धयः तेन कारणेन हे मुने धर्मे द्विधाकृतः २६ [पुरिमाण दुब्बिसोज्मोचरिमाणं दुरण पालओचैव कप्पोमज्झिमगाण' तु सुविसोल्मो सुपाली २७] पुरिमाण' इति प्रथमतोर्थ कसाधूनां कल्पः साध्वाचारोदुर्विशोध्यः दुःखेन निर्मलीकरणीयः ऋज्जडाः कल्पनीया कल्पनोयज्ञानविकलाः पुनश्चरमाणां चरम तीर्थक्कसाधूनां दुरनुपालकः दुःखेन अनुपात्यते इति दुरनुपालक: महावीरस्य साधवो वक्र जडाः वक्रत्वाद्दिकल्प बहुलत्वात् साध्वाचारं जानन्तीपि पन्नाओ तेण धम्म दुहा कए २६ ॥ पुरिमाणं दुव्विमुज्झोउ चरिमाणं दुरण पालओ । कप्पो मज्झिमगाणंतु सुवि प्रथम तौर्थे ऋजुजडाः जीवाः प्रथमतीर्थंकरनेवार सरलमूर्ख वक्रजडा चरमतीर्थंकर समये महावीर नावारानावक्रजड मध्यतीर्थ मुनयः ऋजुप्रान्नाः सरलाः वावी तौर्थ' करनावा रानाजौव सरलने पंडौत तेन हेतुना धर्मीद्विधाकृता तिथे कारण धर्म्मबेमेदेकौधो २६ प्रथम तीर्थ कृतः साधुनां मार्गा सोध्योपेलातोर्थं करना साधुने धर्म समझतां दोहिलो प्रचार मध्यवर्त्ति यतिनांतु वावोसतीर्थ करना वीरयतौनांतु दुरनुपालकः दुःपाल्यः महावीरनाथा राना साधुने धर्म समझता सोहिलो पणिपालतां दोहिलो श्राचारः मध्यवर्त्ति यतिनांतु वावोसतीर्थ' करनावा राना साधुने सुविशतः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का अं० सं० उ० ३१मा भाग
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उ० टोका अ०२३
७००
सूत्र
भाषा
कर्त्तुमशक्ताः तु पुनर्मध्यनगानां द्वाविंशति तोर्थसाधूनां अजितनाथादारभ्य पार्श्वनाथपर्यन्त तौर्थ करमुनीनां कल्पः साध्वाचारः सुविशोध्यः सुपाल कश्च साध्वाचारसुखेन निर्मलीकर्त्तव्यः पुनः सुखेनपाल्य द्वाविंशति तीर्थकृत्साधवो हि ऋजु प्राज्ञास्तोकेनोक्त न बहुज्ञाः तस्माच्चातुर्व्रतिकोधर्मंउद्दिष्टः मैथुनं हि परिग्रहे एवगण्यते आदोश्वरस्य साधूनां यदि पञ्चमहावृतानि प्राणाति पातविरति मृषावादविरति मैथुनविरति परिग्रहविरति रूपाणि पृथक् २ कथ्यते तदा ते ऋजुजडाः पञ्च महावृतानि पालयन्ति नोचेत्त वृतभङ्गः कुर्वन्ति ते तुयावन्मात्र' आचारं शृण्वन्ति तावन्मात्र' एव कुर्व्वन्ति अधिक स्व बुझ कि मपि नविदन्ति महावोरस्य साधवोपि चेत्य च महावृतानि शृखन्ति तदेव पालयन्ति तेपि वक्राजढायचेत् चत्वारितानि शृखन्ति तदा च त्वार्यैवपालयन्ति नतु पञ्चमं पालयन्ति वक्र जडादिकदाग्रहग्रस्ताः अतीवहठधारिणः दाविंशति तौर्थकत्साधवः ऋजवः प्राज्ञाञ्चत्वारि श्रुत्वा बुद्धित्वात् पञ्चापि वृतानि पालयन्ति तस्माचत्वारि वृतानि प्रोक्तानि तस्मादमैौद्दिविधाकृतः चातु वृतिकः पञ्चवृतात्मकच स्व स्ववारक पुरुषाणां अभिप्रायं विज्ञाय तीर्थकरे उपदिष्टइति भावः २७ (साह गोयमपत्राते किनोमेसं सत्री इमो अनोविसं सओ मज् तं मेकहसुगोयमा २८) इति श्रुत्वा केशिकुमारः श्रमणोवदति हे गौतम ते तव साधुप्रास्ति सम्यक् बुद्धिरस्ति मे मम श्रयं संशयस्त्वयाकिबोरोक्कृतः अन्योपि मम संशयोस्तित मिति तस्योत्तरं हे गौतमत्व' कथय स्व इदं वचनं हि शिष्यापेक्षं ननु तस्य केशिमुनेज्ञानत्रयवतः एवं विधः शंसय सम्भवः २८ (अचेलगोयजोधम्मो सुज्मो मुपालओ २७ ॥ साहुगायमपन्नाते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोविसंसओ मज्मं तं मे कहमु गोयमा २८ ॥ सुखेनपाल्यः सोहिला समझे सोहिलापाले २७ शोभना हे गौतम तव प्रज्ञाबुद्धिः श्रहो गौतम भलौताहरौ बुद्धि छित्रः मम संशयः अयं एम्हारो संशय छेदाणो अन्यो अपि संसयो ममास्ति अने रोपणि संशय मुझने तद्विषय ममार्थः हे गौतम कवयते पणि संशयम्हारो भाजिक हे २८ वर्तमानेन
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ •सं० उ० ४१मा भा.ग.
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जोइमो सन्तरुत्तरी देसियो वदमाणण पासेणय महायसा २८) (एककज्जपवबाण विसेसे किन्तु कारण लिङ्गे दुविहेमेहाबौकह विष्यच्चीनते ३०) * वई मानेन चतुर्विशतितमतीर्थकरेणयो धर्मोऽचलकः प्रमाणीपेतजौर्य प्रायो धवलवस्त्र धारणात्मकः साध्वाचारोदिष्टः च पुनः पावेन महायश
सात्रयोविंशतितमतीर्थकरण योयं धर्मः सान्तरुत्तरः पञ्चवर्ण बहुमूल्य प्रमाणरहित वस्त्र धरणामकः साध्वाचारः प्रदर्शित: हे मेधाविन् एककार्य प्रतिपन्नयोः धौवीरपाख यो विशेषेभेदे कि कारण को हेतु: हे गौतमविविध लिङ्ग दिप्रकारके साधुवषेमे तव कथं विप्रत्ययो न उत्पद्यते कथ' सन्द हो न जायते उभौ अपि तीर्थकरौ मोक्षकार्य साधको कथं ताभ्यां वेषभेदः प्रकाशितः इति कथ तव अयं संशयोन भवति ३. [ केसि एवं बुवन्ताणतु गोयमोइणमब्ववौ विवाणण समागम्म धम्म साहमिच्छियं ३१) तु पुनर्गोतमः एवं ब्रुवाण केशिकुमार मुनि इद अब्रवीत् हे केथिमुने ___अचेलगोय जो धम्मो जो दूमा संतसत्तरो। देसिओ ववमाणेणं पासणय महायसा २६ ॥ एगकज पवन्नाणं बिससे
किंतु कारणं । लिंगे दुविह मेहावी कहं विप्पच्चो न ते ३० ॥ केसिं एवं बुवंतागंतु गायमा दूण मव्ववी। विन्ना
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७०४१ मा भाग
अयं धर्म : अचेलकोदेशितः वईमानस्खामोई मानीपतधीला वस्त्रलेवा कह्या यः एषः धर्म श्रीपार्ख नाथेन विविध वस्वधारको देशितः भांति भांतिनां वस्त्रलेवाकया वईमानेन अचेलको धर्मः देशितः कथितः पार्ख नाथेन महायशा विविध वस्त्रधारको धर्म: देशित: २८ एकः कार्योपवयोः इयोः एक कार्य भणी उद्यत इआवेऊजणा पृथक् पृथक् विशेष कि पुनः कारणं ए जूदा २ भेदकोधातकिम लिंगे विविध मेधाविन् एलिंगवे भेदकौते किम कर्व विप्रत्ययोनास्ति तव तुम्हारा मनमांहि संदेह किमनधो पाव ३० कैशि एवं वचन बुवंत वलों केयौ इम कह्याथका गौतमः इदं वचनं प्रब्रवीत्
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640
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8 तीर्थकरैविजानन विशिष्ट ज्ञानेन केवलज्ञानेन समागम्य यत् यत् यस्य उचितं तत्तथैव ज्ञात्वा धर्मोपसाधनं धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादि इदं ऋजु प्रान
योग्य इद वक्र जडयोग्य इति ईप्सितं अनुमतं दृष्ट' कधितमिति यावत् यतीहि शिष्याणां रक्तवर्णादि वस्त्रानुज्ञान वक्रजडत्वेन रच्ननादिषु * प्रवृत्ति दुर्निवारा एव स्थात् पार्श्वनाथ शिष्यास्तु ऋजुप्राज्ञत्वेन शरीराच्छादन मात्रेण प्रयोजनं जानन्ति न च ते किञ्चित्कदाग्रहं कुर्वन्ति ३१ [पञ्चयत्यच्च लोगस्म नाणाविहविगप्पण' जत्तस्थ गहणत्य'च लोगलिङ्गप्पओयण ३१] हे केशिमुने नानाविधि विकल्पनं नाना प्रकारोपकरण परिकल्पन' अनेकप्रकारोपकरण चतुर्दशोपकरण धारण वर्षा कल्पादिकञ्च यत् पुनलौकै लिङ्गस्य प्रयोजनं साधुवेषस्य प्रवर्तनं यत्तौथकरैरुक्त तत् लोकस्य प्रत्ययार्थ लोकस्य एहस्थस्य प्रत्ययाय यतोहि साधुवेष लुञ्चनाद्याचारं च दृष्ट्वा अमौतिन इति प्रतीतिरुत्पद्यते अन्यथा विडम्बकाः पाण्डि नोपि पूजाद्यर्थं वयं तिन इति ब्रवोरन् ततश्च वृतिषु अप्रतीति: स्यात् अतो नानाविधविकल्पन लिङ्गप्रयोजनं च पुनर्यात्रार्थ संयमनिर्वाहार्थ यतोहि वर्षाकल्पादिक विनावृष्ट्यादिना संयमनिर्वाहोनस्यात् तेन वर्षा कल्पादिक वर्षतु योग्यः आचारीपकरण धारणञ्च दर्शितं पुनर्ग्रहणं ग्रहण जानं तदर्थ इति ग्रहणार्थ ज्ञानायइत्यर्थः यदि कदाचित् चित्तविनबोत्यत्तिः स्यात् परोषहोत्पत्तौ संयमे अरतिरुत्पद्यते तदा साधुवेषधारौ मनसि एतादृशं ज्ञानं कुर्यात __णेण समागम्म धम्म साहण मिच्छियं ३१ ॥ पञ्चयत्थंच लोयम्म नाणाविह विगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्वंच लोगे लिंग
हवे गौतम इम कहेछ विज्ञानन केवलेन समागम्य यद्यसाचितति केवलनानकरो जाणोने धम्मोपगरण' इष्ट लोकान अनुमित धर्मापगरण साधुने 8 योग्य हितकारो तेहनो अाज्ञादोधोलेवारो ३१ प्रत्ययार्थ लोकस्य लोकने प्रतोतिभणो नानाप्रकारणोपकरण परिकल्पितं कथितं नानाप्रकार घणाभदउपगरणनाकयां संयम निर्वाहार्थ ज्ञानग्रहणार्थ संयमनौर्वाहनेऽर्थे ज्ञानग्रहणने अर्धे लोके वेषधारण प्रवर्तन लोकनेविखे वेषप्रवत्या ३२ पार्ख
राय नपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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8.टौका प.२३ ७०३
* बतोहंसाधोर्वषधारो अस्मि यतो धम्नं रक्खइवेसो इत्युक्तत्वात् इत्यादि हेतोलिङ्गधारणं यं ३२] अह भवेपइनामी मोक्वसच बसाइये नाणं च दंसर्थ
चेव चरित्त चेव निच्छए ३३] पुन गौतमोवदति हे केशिकुमार श्रमणनिश्चयेनयेनयेमोक्षसद्भूतसाधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि सत्यानि साधनानि निश्चय नयेवर्तन्ते अथ प्रतिज्ञाभवेत् श्रौपार्श्वनाथ महावीरयोः इयं एकाएव प्रतिज्ञाभवेत् श्रीपार्श्वनाथ स्थापि मोक्षस्य साधनानि ज्ञानदर्शनचारित्रा खेव यौवीरस्यापि मोक्षस्य साधनानि ज्ञानदर्शनचारित्राणे व थोपार्ख वौरयोरेषा प्रतिज्ञाभिन्नानास्ति इत्यर्थः वेषस्य अन्तरं ऋजुजडवक्रजडाद्यर्थः मो उस्य साधनेवेषोव्यवहारनवेजे य: न तु निश्चयेन ये वेषः निश्चये तु ज्ञानदर्शनचारित्राणे व तत्र ज्ञानं मति ज्ञानादिक दर्शनं तत्वरुचिः चारित्र सर्वसावद्यविरति रूपं तस्मात् निश्चय व्यवहारनयो ज्ञातव्यौइत्यर्थः ३३ [ साहुगीयमपातैछिन्त्रीमेसं सीइमो अबोविसंसोमक तं मैकह
प्पओयणं ३२ ॥ अह भवे पन्नाओ मोकलस म य साहणो। नाणंच दंसणं चेव चरित्तचे व निच्छए ३३॥ साहु
गोयम पन्नाते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नावि संसओ मज्भ तं मे कहम गोयमा ३४ ॥ अणे गाणं सहरमाण वोरयोः प्रतिज्ञामोक्षस्य कारणे साधने श्रौपार्श्वनाथ श्रीमहावीर एप्रतिज्ञा मोक्षना साधक कह्या जिनाज्ञा अवबोधन तत्वरचि तीर्थ करनी आना * पालवी तत्व ऊपरिरुचि ज्ञान'च दर्शनं चैव चारित्र' सर्वसावद्यत्यागरूप चारित्र सावद्यत्यागरूपके जीवनीरक्षा लिंगमात्र: एव्यवहार मारग २४
ते प्रज्ञाशोभना हे गोतम तुम्हारी बुडौ भलो विवः मम संशयः अयं एम्हारो संदेह दूरिकोनी अन्योपिशंसयो ममस्ति वीजीपणि मुझने संदेहके तषियं ममर्थ है गौतम कवयते पणिकहे मुझने संदेहभांजि ३४ अनेकानां बहनां सहस्राणां अनेकवेरौना हजार वहमांहि मध्ये त्वतिष्टसि
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ-सं.उ.११ मा भाग
भाषा
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उ० टौका अ०२३
७.४
सूत्र
भाषा
सुगोयमा ३४] अस्याः अर्थस्तु पूर्ववत् न वरं प्रसङ्गतः शिष्याणां व्युत्पत्त्यर्थं जानन्रपि अपरमपि वस्तु तत्वं गौतमस्य स्तुति हारेण पृच्छव्रन्थोपि शंसयो त्पाद्याह ३४ [अणेगाणं सहस्त्राणं मज्मे चिट्ठसि गोयमातेयते अभिगच्छन्ति कहन्तेनिज्जियातुमे ३५] केशौवदति हे गौतम अनेकेषां यत्र सम्बन्धिनां सहस्राणां मध्ये त्व' तिष्ठसि तेच अनेक सहस्र संख्याः शत्रवस्तेइति त्वां प्रभिलचीकृत्य गच्छन्ति सन्म ुखं धावति तेशत्रवस्त्वया कथं निर्जिताः ३५ अथ गौतमउत्तरं वदति [एगेजिए जियापञ्च पञ्चेजियेजियादस दसहाउजिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामिहं ३६] हे केशिमुने एकस्मिन् शत्रौजिते प वोजिताः पञ्चसु जितेषु दशशत्रवोजिताः शैववैरिणोवशीकृताः दशप्रकारान् शत्रून् जित्वा सर्वशत्त्रन् जयात यद्यपि चतुर्णां कषायाणां अवान्तरभेदेन घोडशसंख्याभवति नोकषायानां नवानां मौलनात् पञ्चविंशति भेदाभवन्ति तथापि सहश्र संख्यानभवन्ति परन्तु तेषां दुर्जयत्वात् सहस्र संख्या प्रोक्ता ३६
म चिट्ठसि गोयमा । तेय ते अभि गच्छंति कहते निज्जिया तुमे ३५ || एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस । दसहाओ जिणित्ताणं संव्व सत्तू जिणामिहं ३६ || सत्तूय इइ के बुत्ते केसौ गोयम मव्ववौ । तओ केसिं
हे गौतमः माहिं तुळं रहेछे हे गौतमः त्वां शत्रवः अभिगच्छंति धावंति वैरी हे गौतम तुझने जीवताने साहमोग्रावेछे कथं निर्जिताः त्वया ते शत्रवः किमते वैरो तुम्ह े जोत्या ३५ एकस्मीन् सत्रौजितेजिताः पंच एक वैरौ जोत्या पंचस्तु जितेषु दशप्रकाराः शत्रवजिताः पांचजोत्यां दसजीत्या दशधा दशप्रकारान् शत्रून् जित्वा दशवेरौ जोतीने तदा सर्वानपि शत्रून् जयाम्यह सर्व वैरोने जीत के २६ शत्रवः इति उक्ता: अहो गौतम वैरीकोण कथा केशी गौतमं अब्रवीत् केशी गौतमने कहेके ततः केशिनुवंत केशीकुमारनु वचन सांभलीने गौतमः इदं वच्यमाणं वचन' अत्रवोत् गौतमस्वामी
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राय धनपतसिंह वाहादुर का पा०सं०० ४१ मा भाग
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२३
उ टीका
8 अय केशोपृच्छति [सत्तूय इइ केवुत्ते केसौगोयममव्ववो तोकेसि बुवन्त तु गोयमोदणमब्ववी ३७] हे गौतम शत्रवः केउक्ताः केशिकुमारोमुनि गौतम 8 इदं अबुवीत् ततोनन्तर केशिमुनि एवं अवन्तं गौतमइदं अब्रवीत् ३७ [ एगप्पा अजिएसत्त कसायाइन्दियाणियतेजिणुत्तु जहानायं विहरामि * अहं मुणौ ३८)हे मुने एकआत्माचित्त तस्य अभेदोपचारात् आत्ममनसोरेकोभावे मनसः प्रकृत्ति: स्यात् तस्मात् एक आत्मा अजितः शत्रु दुर्जयोरिपुः * अनेकदुक्ख हेतुत्वात् एवं सर्वेव्येते उत्तरोत्तरभेदात् एकस्मिन् अामनिजिते चत्वारः कषायास्तेषां मौलनात् पञ्चपञ्चसु आमकषायेषु जितेषु इन्द्रियाणि * पञ्चजितानि तदादशशत्रवोजिताः प्रात्मा१ कषायाश्चत्वारः एवं पञ्च पुनः पञ्चेन्द्रियाणि एवं दशैव प्रात्मकषायानीकषाया इन्द्रियाणि एते सर्वेशवयो
ऽजिताः सन्तितान् सर्वान् शत्र न् यथान्यायं वीतरागीत वचसाजित्वा अहं विहरामि तेषां मध्ये तिष्टबपि अप्रति बदविहारण विचरामि अत्र पूर्व हि
प्रश्नकाले अनेकेषां सहस्राणां अरोणां मध्ये तिष्टसि इत्युक्त उत्तरसमये तु कषायाणां अवान्तरभेदेन षोडशसंख्याभवन्ति नोकषाणां नवानां * मोलनाच्च पञ्चविंशति भेदा भवन्ति तथा आत्म न्द्रियाणामपि सहस्र संख्या न भवति परं तु एतेषां दुर्जयत्वात् सहश्र संख्या उक्त ति भावः ३८ [साहुगोयमपबाते छिद्रोमेस सो इमो अनोविसं सोमज्जतं मेकहसु गोयमा ३८] अस्यार्थ स्तु पूर्ववत् ३८ (दौसन्ति बहवेलीए पासबड्डा सरौरिणी
बुबंतंतु गायमोडूणमधवी ३७॥ एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इंदियाणिय | तेजिणि तुजहानायं विहरामि अहं
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं.उ.४१ मा भाग
8 कहेछ ३० एक आत्माजोत: यत्र : अहो केशो एआत्माआपणो वैरी जीप जीत्यो तस्मिन् जिताः क्रोधाद्याः कषायाः इद्रियाणि एमाजोत्ये चार * कषाय पांच'ट्रीजीत्या तान् भवन विनिर्जीत्य यथोक्त नीत्यात वैरीने जीतीने सिष्टन विहरामी सखेविचरछ'सुखेर छु'३८ गौतमतवप्रज्ञा शोभना
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मकपासोलहन्ध प्रो कह तं विहरसा मुणो ४०]पुनः कमोवदति है गौतममुने लोके संसारबहवः परोरिणः पाथबहाः दृश्यन्ते त्वं'मुक्तपाय : सन् लघ भूतः * सन कथंविचरसिंहमुनी४०) नेपामे. ४१)तान् पायान्सर्वान्छित्वापुन: उपायेनबुड्यानिहत्यमुक्तपाशीलभूतोहंविहरामि ४१[पासाहर• ४२]इति गोत
मवाक्यादनन्तरं केशिवमणो गौतम प्रवीत् हेगौतमपायाः केउक्ताबन्धनानिकानि उक्तानि ततःइतिपृच्छन्त' केसौकुमारमुनिं गौतमइद उत्तरंअवौत्४२ [रागहोसादयोतिब्वानहपासाभयकरातेछिन्दित्तुजहानायं विहरामि जहकमं ४३] हे केशिमुने जीवानां रागद्देषादयस्तीवाः कठीराः छत्तु अशक्याः
मुणी ३८॥ साहुगीयमपन्नाते छिन्नामे संसा इमो | अन्नावि संसा मज्भ तंमेकहमुगीयमा ३६॥ दीसंति बहवेलाए पास बड़ा सरीरिणा। मुक्पासा लहुम्भ ओ कहतं विहरसी मुणी ४० ॥ तेपासे सवसी छित्ता निहतूण
उवायत्री। मुक्कपासी लहुन्म ओ विहरामि अहंमुणी ४१॥ पासाय केवुत्ते केसीगायम मव्वबौ। तआकसि बुवं गोतमताहरी प्रज्ञा बुद्धि भलो छिन्त्रः मम शंशयः अयं एम्हारो संदेहभांज्यो अन्योपि संशयो ममास्ति वीजीपणि संदेहमाहरेछे तहिषयं ममार्थः है गौतम कवयतेम्हारो संदेहभाजितअर्थकही ३८ दृश्यन्ते वहवोलोके लोकने विखे घणादौसेछे पाशवदाः शरीरिणः पासबंधणेकरौ बांध्याचे प्राणीया * मुक्तपायो लघुभूतः सन् ते पास तोडौकरौहलूओ इअोषको कथं त्वं विहरसि मुनौ किम तू विचरेछे अहो मूनोखर ४ • तान् पाशान् सर्वान् छित्वा ते
सघला पाशनेछेदौने पुनः उपायेन बुयानिहत्व उपायेकरौ केदौने मुक्तपायो लघुभूत: पासाथौ मूंकाणोहलूओहो विचरामि हे मुनेहुविचरु छु अहो मुनीवरसाधू ४१ पायाः इति केउताः पायबंधनके हांकह्या कैयौ गौतम पव्रवीत् केशी गौतमने करछे ततः कैशिं एवं बुवंतं कैयौये इम कन्या
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं त• ४१ मा भाग
भाषा
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७.७
* नेहपाशाः मोहपाशा:उक्ताः कोदृशास्ते स्नेहपायाः भयङ्गराः भयं कुर्वन्तौति भयङ्करा: राग धौ पादौ येषां ते रागद्दे षादयः रागद्देष मोहएव जीवानां
भयदाः तान्नेहपायान् यथा न्यायं वीतरागोक्तोपदेशेनछित्वा यथा क्रम साध्वाचारानुक्रमेण अहं विहरामिसाधुमार्गे विचरामि४३ [साहुगोयमपन्नाते किबोमसंसपो इमो अनोविसंसोमजन तंमेक हसुगोयमा ४ ४] अस्थार्थ स्तु पूर्ववत् ४४ [अन्तीहि यय सम्भूया लया चिट्टइगोयमा फलेइ विसभक्खौण साठ उदरियाकहं ४४ ] हे गौतमसालतासावली त्वया कथं केन प्रकारेण उड ता उत्पाटिता साकायालता अन्तहृदयसम्भूतासतौतिष्टति अन्तहदयं
तंतु गोयमा दूणमब्बवी ४२। रागद्दीसादओ तिव्वानहपासा भयंकरा। किंदित्तु जहानाय विहरामि जहक्कम४३। साहु गोयमपन्नाते छिन्नोमे संसाडूमी । अन्नोवि संसी मज्भ मेकहसुगोयमा ४४ | अंतोहियय संभूया लया चिट्ठदू गोयमा । फले विसभक्खीणं साओ उदरिया कह ४५ । तलयं सब्बसालित्ताउद्दरित्ता समूलियं । विहरामि
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
& थकां गौतम इदं वक्ष्यमाणं अववीत् गौतम कहके ४२ रागद्देषाः दयः तौवाः रागद्वेषएबे महातीव पुत्र कलवादि स्नेहपाशा भयंकराः पुत्र स्त्री भाई बंधुरुप स्नेहपासतान्च्छित्वा यथा ज्ञातं ते पास छेदीने विचरामि यति मार्ग यथाक्रम विहरु छुविहारकर छु यतीने मागे ४३ शोभन हे गौतम तव प्रज्ञाबुद्धिः हे गौतम ताहरो बुद्धि भलौ छिन्न: मम संसयः अयं एमाहरो सदेह तुम्हे टायी अन्योपि संशयः ममास्ति वीजीपणि संसयम्हारेछ सहिषयं ममार्थ है गौतम कथय तेहनी पणि अर्ध मुझने कहो४४ अंत: हृदयमध्ये संभूताहियामाहिऊपनी लतातिष्टति हे गौतमः एकवेलडी रहेछ अहो गौतमः फलति फलानि कीदृशानि विष सहशानि ते वैलिने विख सरीखांफल लागछे मा त्वयाउधृता कथ तेवेलि तुम्हे किम जपाडौनखिौ ४५
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Fru
मन उच्यते एतावतामनसि उहता पुनर्यावलो विषमयाणि फलानिकलति विषवत याणि विषमच्याणि विषफलानि उत्पादयति पर्यन्तदारुणतयाविषी * पमानि फलानि यस्थालतायाभवन्ति ४५ [तं लयं सव्यसो छत्ता उडरित्तासमूलियं विहरामि जहानायं मुफोमिविसभकदणा ४६] गीतमीवदति
हे मुने तां लता सर्वत: सर्वप्रारणछित्वा खण्डोक्तत्य पुनः समूलिका मूलसहिता उहत्य उत्पादय यथान्यायं साधुमार्गेविहरामि ततोहं विषभक्षणात् ॐ विषोपमफलाहारात् मुक्तास्मि ४६ [लयाय इइ काबुत्ता केसीगीयममववी तोकेसि बुवन्त तु गोयमोइण मकवौ ४०] है गौतमलताइति काउक्ता * इति पृष्टे सति इति ब्र वन्तं केशिमुनि गौतमइदं अवौत् ४७ [भवतण्हालया बुत्ता भीमाभीमफलोदया तसहित, जशनायं विहरामि महामुणौ४८]
जहानायं मुक्कामि बिसभक्खणं ४६ । लयाय दूकाबुत्ता केसीगोयम मचवी। साकसि बुबंतंत गोयमाण
मब्बवी ४७। भवतगहालया वुत्ता भीमामीम फलादया। तमुद्धित्तु जहानायं विहरामि महामुणी ४८। साहुगोय तां लतां सर्वतः छित्वा गौतम कहेले तेलिमे मूलथौ छेदौनांखो उधृत्वा उत्पाट्य समूलिकांखणीने मूलथौ काटी विचरामि स्थानात जाणौने * विचरु'छु मुक्तोस्मि विषभक्षणात् विरूप जे फल ते फलवाथो रही सूकाणी ४६ लता इति का उक्ता अहो गौतम तेवेलि किसौ कही केशी गौतम
मब्रवीत् केशी गौतमने कहेछ ततः केशि एवं ब्रुवंत के सौई इम कह्याथका गौतमः इदं वक्षमाण अब्रवीत् गौतम इम कहेछे ४७ हे मुनि भवतृष्णा कर्माणां विपाको लता उक्ता एतृष्णा वैलिकही रौद्रा रौद्र पलयुक्ताः ते भवतृष्णा रौद्रके फलपणि तेहना रौद्रछे ता उच्छित्वा यथा ज्ञात यथोक्त विधि करीने तैवेलि छेदीने विहरामि महामुने हे महामुने हवेह सुखे समाधि विचरु'छु ४८ शोभन हे गौतम तव प्रज्ञाबुद्धिः अहो गौतम भलीताहरी
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.१०४१ मा भाग,
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उ. टीका
हे केशिमुने भवेस'सारे तृष्णालोभ प्रक्वतिर्ल तावनी उक्ता कीदृशी सामीमाभयदायिनी पुनः कीदृशौ भौम फलोदयाभौमीदुक्ख कारणानां फलानां ॐ दुष्टकर्मणां उदयोविपाकीयस्याः साभौमफलोदया दुक्खदायककर्मफलहेतु भूता लोभ मूलानि पापानील्यु क्तत्वात् तो हष्णावसीयथा न्यायं उस त्य अहं विहारं करोमि ४८ [साहुगोय. ४८] अर्थस्तु पूर्ववत् ४८ [सपज्जलियाघोरा अगौचिट्ठ गोयमा जेडहन्ति सरीरत्था कहं विज्मावियातु मे ५०] है गौतम सम्पज्वलिताजाज्वल्यमानाधोराभौषणा अग्नयः ससारतिष्टन्ति ये अग्नयः ५.रीरस्थान् अर्थात् प्राणिनी जीवान् दहन्ति ज्वालयन्ति तेऽग्नय स्त्वया कथं विध्यापिताः कथशमिताइत्यर्थ: ५. [महामहप्प सूयात्री गिज्नवारिजलुत्तम सिञ्चामि सययन्ते उ सिक्तानवडहन्तिमे ५१] हे केशिमुने महामेष प्रसूतान् महामेघ समुत्पवात् अर्थान्महानदी प्रवाहात् वारिपानीयं यहोवातान् अग्नौन् सततं निरन्तर सिञ्चामि ते अग्नयोजले नसिक्ताः
मपन्नाते छिन्नामे संसओ मो। अन्नावि संसओ मज्भ तंमेकहसुगोयमा ४६॥ संपज्जलियाघारा अग्गिचिठ्ठड्गो
यमा। जेडहंति सरीरत्या कहं विभा वियातुमे ५० । महामहप्पसूयाओगिभ वारिजलुत्तमं । सिंचामि सययंतेउ भाषा
* बुद्धि छिन्न: मम ससयः अयं छेद्योएम्हारो सदेह अन्योपि समयः ममास्ति बलौवीजीम्हारे संदेहछे तहिषय ममार्थ है गौतम कथयत तेहनीपणि 8 मुझने अर्थ कही ४८ सप्रज्वलिता रौद्राः बलीरहीछे महारौद्र पम्नय स्तिष्टति है गौतमः अग्नि अहो गौतमरहले ये अग्नयः दहंति शरीर जे
अग्नि सरोरने दहके कथं विध्यापितात्वया ते अग्नि ते किम बुझावी ५. महामघ प्रसूता मेघीत्यवाः मोटा मेघधी ऊपनी जे नदी रहित्वा श्रोतसः जलोत्तम ते नदीथकी पाणीलेईने सिंचामि सततं तेषां ते अग्निने सीं निरंतर सिक्ताः न दहंतिम ते अग्निने सींचं छु' मुझने नहीवाले ५१ अग्नयः
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं°3.४१ मा भाग
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सन्तोमा नैव दहन्ति कथभूतं तत् वारिजलुत्तम' जलेषु उत्तमं सर्वेषु जलेषु मेघीदकस्यैव उत्तमत्वात् ५१ (अग्गीड़ इकबुत्ते के सौगोयम मब्बवो तो केसिंबुवन्त' तु गोयमो इण मब्बयौ ५२) तदा केशि थमणो गौतम इदं अब्रवीत् हे गौतमते अग्नयइति केउताः इति उक्तवन्तं केशिकुमारमुनि गौतम * इदं अब्रवीत् ५२ (कसाया अमिणोबुत्ता सुयसौलतवोजलं सुयधाराभिहयासन्ताभिबाहुनडहन्तिमे ५३) हे केशिमुने कषायाः अनय उक्ताः यतं
शौसं तपश्चजलं वर्तते तत्र श्रुतञ्च व तमध्योपदेशः महामेघस्तीर्घ करः महाथोतवागम: ते कषायाम्नयः वसधाराभिहताः व तस्य आगमवाक्य स्य उपलक्षणत्वात् शीलतपसोपि धाराइव धारास्ताभिरभिहिताविध्यापिता श्रुतधाराभिहताः सन्तोभिन्नाः विध्यापिताहु निश्चयेनमे इति मां न दहन्ति मां न ज्वलयन्ति ५३ (साहुगोयमपबाते छिब्रोमेसं सो इमो अब्रोविसं सोमकतं मेकहसि गोयमा ५४) अर्थस्त पूर्ववत् ५४ (अइसाहसिअोभीमो
सित्तानोबडहंतिमे ५१॥ अग्गीय दूदूकेवुत्ते के लोगोयम मबयो। तओंकेसि बुवंतंतु गोयमो दूणमब्बबी ५२ ॥ कसाया अग्गिणाबुत्तासुयसौल तवाजल। सुयधारामिहयासंताभिन्नाहु नडहंतिमे ५३। साहुगोयमन्नाने छिन्नोम
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० १.१ मा भाग
8 इति के उक्ताः ते अग्नि कोणकही केसौ गौतम अब्रवीत् कैयौ मुनि गौतमने कहेले केशि एवं ब्रुवंत केशी इमपूच्यांथ का गौतमः इदं वश्य माण
अब्रवीत् गौतम इम कहेछ ५२ कषायाः अग्नयः उक्ताः चार कषाय अग्नि कही श्रुतशील तपोजलं श्रुत अने यौलरूपिया पाणी श्रुतधाराभिहताः
साडिताः सतः श्रुतधाराइ सोंचौधको तदभिघातेन न दहति मम तेहपाणीस्यु सोच्यौथको अग्निनथौ वालतुं ५३ मोभना हे गौतम तव प्रज्ञावुद्धिः ४ गौतम भलोताहरो बुद्धिछे छिन्त्रः मम संसयः अयं एम्हारी संदेह तुम्हे छेद्यो अन्योपि संचयो ममास्ति वीजीपणि म्हारे संदेहके तहिषय ममार्थ है
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इ.टौका अ०२३
७११
दुट्ठस्योपरिधावई जंसिगोयममारूढो कई तेणनहोरसौ ५५) हे गौतम अतिसाहसिकोदुष्टाखः परिधावति यस्मिन् दुष्टावे हे गौतमत्वं आरूढीसि तेन दुष्टाखे न कथं न हियसे कथं उमार्ग न नौयसे सहसा अविचार्य प्रवत्तं तइति साहसिक: अविचारिताचगामी पुन: कोदृशो दुष्टाश्वोभौमीभया नकः ५५ (पहावन्तं निगिहामि सुयरस्मो समाहियानमै गच्छइ उमगं मग्गञ्च पडिवज्जई ५६) अथ गौतमो बदति हे केशिमुने तन्दु ष्टाख प्रधावन्त उन्मार्ग वजन्तं अहं निरणहामि वशीकरोमि कीदृशं तंदुष्टाख ७ तरस्मि समाहित सिद्धान्तवलायाबई ततः सममम दुष्टाश्व: उन्मार्ग न गच्छति
संमों इमो। अन्नोवि संसओ मम तंमेकहमुगोयमा ५४ ॥ अयं साहसिओभौमी टुहमा परिधावई। जंसिगीयम ___ आरूढी कहं तेण नहीरसी ५५ ॥ पहावंतं निगिरहामि सुयरस्मी समाहियं। नमे गच्छदू उम्मग्ग मग्गच पडि
वज्जई ५६ ॥ अस्मय केवुत्ते केसौगीयम मव्ववौ। तोकेसि बुवंतंत गोयमदूण मब्बवी ५७ ॥ मणासाहसिओ * गौतम कथयः तेहनी पणि अर्थ मुझने कहो५४ अयं साहसौकोरौद्रः एमहा साहसौक रौद्र दमतां दोहिलो दुष्टाखपरिधावति दुष्ट घोडो उन्मार्गने विखे दोडे छ यस्मिन् है गौतम समारूढः ते घोडा ऊपरि चांथका कर्धतेनीमार्ग' न नीयसे ते घोडा उपर ते घोडी तुम्हने उन्मार्गे किमनथी लेइजात' ५५ प्रधावंतउन्मार्गाभिमुखंबात' ते घोडोजिवार उन्मार्गने दोडेछ अखंनि टहामिश्रुत रश्मिना समाधिवान् तिवार जानरूपिणी रासतिणिस्यु झाल्य के अह न गच्छेत् सन्मार्ग तह भणी मुझने उन्मार्ग नही लेईजाइके मार्गच प्रतिपद्यते भला मार्ग विखे प्रवर्नेछ ५६ अख रति कः उक्त अहो गौतम घोडोकोणकयो केशी गौतम अनवौत केशी गौतमने की ततः केशिव वंतंत पन: केशीर पांथका गौतमः इदं वच्यमाणं अबवीत गौतमखामी
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१मा भाग
भाषा
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प०२३३
१ स दुष्टाखोमार्गच प्रतिपद्यते अङ्गीकरोति ५५ (प्रस्मेय इकेबुत्ते केसौगोयममब्बवौ तोकेसि बुवन्त त गोयमोइणमव्ववौ ५७) केशोपच्छति हे गौतम १. टोका ४ अखइति कः उक्तः ततइति ब्रुवन्त केशिमुनि गौतम इद अब्रवीत् ५७ (मणीसाहसिपी भीमो दुट्ठस्मोपरिधावई तं सम्म निगिहामि धम्मसिक्वाय
* कन्यग' ५८) हे केथिमुने मनोदुष्टाशः साहसिकः परिधावतिः इतस्ततः परिभ्रमति तं मनोदुष्टाख धर्मशिक्षायैधर्माभ्यासनिमित्त कथकमिवजात्याश्व * मिव निगृह्णामि वशीकरोमि यथा जात्वाखोवयोक्रियते तंमनोदुष्टाखं वशीकरोमि ५८ (साहुगो०५८) अर्थस्तु पूर्ववत् (कुष्पहाबहवोलीएजहिनासन्ति जन्तवो अडाणकहवन्तो तं न नासिसिगोयमा ५०) है गौतमलोकेवहव: कुपथाः कुमार्गाः सन्ति यैः कुमार्गजन्तवो नश्यति दुर्गतिवने ब्रजन्ताविली
भीमो दुस्मा परिधावई। तं सम्म निगिगहामि धम्मसिक्खाए कंथग ५८ ॥ साहुगोयमपन्नातेछिन्नोमे संसओ दूमा।
अन्नावि संसओ मज्झ तंम कहसुगोयमा ५८ ॥ कुप्पहा बहवेलाए जहिनासंति जंतवा। अदाणे कहबटुंता तं न ना 8 इम कहे ५७ मनः साहसिको रौद्रः एमनसाहसीक रौद्रछे पापणे वस किओछे दुष्टाखपरिधावति एदुष्टधोडो उरहोपरहो दोडछे त अव सम्यक्
गुहामि ते घोडो भलेप्रकार झाल्योछे वसिकस्रोई धम्मशिक्षायै धम्माभ्यासभिः निमित्त धम्मनि शिख्यादेईने धर्मनो अभ्यासकराच्यो भलो घोडोछ कथं वोडानीपरे ५८ शोभना हे गौतम तव प्रज्ञाताहरौ भलोबुद्धिछे हिवो मम संशयः अयं एमाहरो संदेहभांज्यो अन्योपि संसयः ममास्ति वौजो पणि एकम्हारे संदेहछे तविषय ममार्थ हे गौतम कथय हे गौतम ते पणि अर्थ मुझने कही ५८ असन्मार्गा:संति बहवोलोके कुपथ मूडामारगलोक माहि घणाई ये कुपथै सन्मार्ग नश्यतिजंतवः तेह कूपये करौने जौवडा भलामारगसाह मनजीवे घणा जंतुनो नासकर सन्मार्गे कश्थ वर्तमानवर्तसे
राय धनपतसिंह चाहादुर का था .सं.उ. ४१मा भाग
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यन्ते स उन्मार्गात् चवन्त इत्यर्थः हे गौतमत्वं अध्वनिवर्तमानः सन्कवं नश्यसिनार्थनप्राप्नोषि सत्पथात् त्वं च्यवसे ६० (जेयममोणगच्छन्ति जेय उम्ममा स टौका * पडिया ते सवेश्यामज्जा तोणण मामिहं मुणो ६१) ई केशि मुनेये भश्च जनामार्गेण वीतरागोपदेशेन गच्छन्ति च पुनर्येभन्थाः उन्मार्गप्रस्थिताः ०२३ : भगवदुपदेशादिपरोतं प्रचलितास्ते सर्वे मया विदिताः भव्याभव्ययोः सार्गाऽसन्मार्गयोर्ज्ञानं मम जातं इति भावः तोइति तस्मात्कारणात् अहं
* न नश्यामि अपथपरिज्ञानात् नायं न प्राप्नोमि ६१ (मग यइ इकेबुत्ते केसौगोयममब्ववी तश्री केसि बुवन्त त गोयमोइणमव्ववो ६२] अस्थार्थः पूर्ववत् [कुप्पवयण पासण्डो सब्वेउम्नग्गपट्टिया सम्मग्गतु जिणक्खायं एसमग हि उत्तमे६२] हे केभिमुने कुत्सितानि प्रवचनानि कुप्रवचनानि कुदर्शनानि तेष पाषण्डिनः कुप्रवचन पाषण्डिनः एकान्तवादिनस्ते सर्वे उन्मार्गप्रस्थिताः उन्मार्गगामिनः सन्ति सन्मार्ग तु पुनर्जिनाख्यातं विद्यते एघ जिनोक्तः
ससिगीयमा ६० ॥ ज यमगण गच्छति जे यउम्मग्ग पठिया। तेसचे वैद्रयामझता न नस्मा मिहंमुखी ६१॥ मग्ग य
दूदूकेवुत केसौगोयम मचवी। तो केसिं वबंतंतु गोयमो दूणमब्बी ६२॥ कुप्पवयण पासंडी सब्वे उमग्ग पट्टिा।
तू भलामार्गनेविखे किम वत्त छ तस्मिन्बध्वनि नास हे गौतम ते मार्गने विखे है गौतम किम तू नथी पडत. ये च मार्गेण गच्छति जे मार्गने भाषा विखे चालेछ ये च उनमार्गेण प्रस्थिताः जे वली उनमार्गने विखे जाइछे ते सर्वे विदितासति मम ते सर्वमे जाण्याचे ततोहंननस्यामि महामुने तेह
* भणौटु' उनमार्गे नहौजाउछुमारगिचालु'मार्गः इति कः उक्त: मार्ग कोणकयो केशी गौतम अब्रवीत् केशौ गौतमने कहेछ ततः केथिं त्रु बंतं कृतं केशो पूच्चांधका गौतमः इदं वक्ष्यमाणं पनवीत गौतम दम कहेछ १२ कपिलादिमतानुवर्तिनः पापंडिनः कपिलादि मार्गना मेवण हार सर्वे उन
रायपनपतसिंह वाहादुर का मा.सं.उ.४१ मा भाग
2
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उ० टौका अ०२३
७१४
सूत्र
भाषा
सर्वमार्गेषु उत्तमः सर्वमार्गेभ्यः प्रधामोदयाविनय मूलत्वात् इत्यर्थः ६ २ ( साहुगोयमप० ६ ४) अर्थस्तु पूर्ववत् ६४ (महाउदगवेगेण बुडमाणाणपाणिण सरणं गईपयट्ठाय दौवं कं मनसोमुणो ६५) केशौगौतमं प्रतिपृच्छति हे गौतममुने महाउदकवेगेन महाजलप्रवाहेण वह्यमानानां भवतां प्राणिनां त्वं दोपङ्क' मन्यसेइति प्रश्नः कौणं डोपं शरण' रचणचमं पुनः कीदृश' गतिं आधारभूमिं पुनः कोदृशं प्रतिष्टांस्थिरावस्थान हेतु दीपं निवासस्थानं जलमध्यवर्त्ति ६५ [श्रत्थि एगो महादोवो वारिमज्फे महालश्री महाउदगवेगस्म गई तत्थ न विज्झई ६६] हे केशिमुने वारिमध्येपानौयान्तरालयो सम्मग्गं तु जिणक्खायं एममग्गोहि उत्तमे ६३ ॥ साह गोयम पन्ना किन्नेामे संसओइमो । अन्नवि संसओ मज्झ
तंमेकहमु गोयमा ६४ ॥ महाउदगवेगेणं बुडमायाण पाणिणं । [ सरणंगई पट्ठाय दीवंकम्मन्नसी मुणी ६५ ॥ अत्थि एगो महादौवो वारिमज्झ महालय | महाउदग वेगस्म गईतत्थ नविज्झई ६६ ॥ दीवेय केबुते केसीगोयम मार्गप्रस्थिताः ते सघलाए उनमार्गपयाके सनमार्ग तु पुनः ख्यात' जिनोक्त भलो मार्ग उत्तममार्ग तौर्थ करनो भाष्यो एषः मार्गः यस्मात् उत्तमः एमार्ग उत्तममार्ग उत्तम मुक्तिनोदाता ६३ शोभना हे गौतम तव प्रज्ञाबुद्धिः हे गौतम ताहरि बुद्धि भलौछे छिन्नः मम संशयः अयं एम्हारोसंदेहछेद्यो अन्यपि संशयो ममास्ति वोजोपणि संदेह मुझने तद्विषयं ममार्थ हे गौतम कथय तेहनो अर्थ मुझनेकहो ६४ महोदक वेगेन महापाणीने वेगे करौने ब्रुडन् मानानां प्राणिनां बूडताजीवडाने तनिवारण प्रस्थित्य अवस्थान हेतु आधार तेहने कोणसरण को गति द्दोपक' मन्यसे हे सुने दृढथानक हव द्दोपतु ं कुणमानेछे हे गौतम ६५ अस्ति एकोमहाद्दौपछे एकमोटोदौप समुद्रमध्ये प्रोढोदकस्य पाणोमाहि महाविस्तीस के वातैः क्षुभितस्य गतिः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०ड० ४१ मा भाग
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स.टौका
EXKKKAKKKKKR
विस्तोण: एकोहोपोस्तिदिगताः आपो यस्मिन् स होप: तब तस्मिन् होपे महाउदकवेगस्थ गतिर्न विद्यते पातालकलशवातैः अभितस्य जलवेगस्य गमन नास्ति अपरन होपेमलवकाले समुद्रजलस्य गतिरस्ति परं दौपेसति तत्र नास्ति १८ [दौवेयर इकबुत्ते केसौगीयममववो तोकेसि बुवन्त तु गोयमोइणमब्ववौ ६७] के भौगौतमपृच्छति है गौतमहीपं इति कि मुक्त इत्यु क्तवन्त' केशि श्रमण प्रतिगौतम इदं अनवौत् ६८ [जरामरणवैरीण बुड्डमाणाणपाणिणं ध भादौवोप इडाय गई सरण मुत्तम ६८] हे केशिमुने जरामरण जलप्रवाहेण बुडता च वहतां प्राणिनां संसारसमुद्र श्रुत धर्मश्चारित्र धर्मरूपं होपं वती मुक्ति सुख अनुहोस्तोति भावः कोदृशः सधर्मः प्रतिष्टानिश्चलं स्थानं पुनः कोशो धमः गतिविवेकिना आश्रयणीयः स धर्म
मब्ववी । तोकेसि बुवंतंतु गोयमोडूण मब्बदी ६७॥ जरामरण वैगेणं बुङमाणाण पाणिणं । धम्मोदीवो पर्दूट्ठाय
गईसरमा मुत्तम ६८॥ साहुगोययमादेविन्नाम संसओ दूमी । अनावि संसो ममतंमेकहम गोयमा ६६॥ अन्न पाणोनी वेगपाणोनी जाववो तत्र छोपन विद्यारी तह दोपन विखे पाणी जावानी।। द्वीपः इति कः उक्त: होप कुणकडो केशी गौतम अब्रवीत् केयौ
गौतमने कहेछ तत: केशिवंत तु कैसीई' "यांवका गौतमः इदं वक्षमाण अब्रवीत् गौतमकहछि १७ जरामरणएव वेगः प्रवाहः उदक जरामरण 8 रुपौयापाणौने दिखे ब्रुडन् मानानां प्राणिनां बूडताः जीवाने प्राणोने श्रुत धर्मोहीपो मुक्ति हेतुत्वात् गतिः धारूपौत्री होप आधारछे अवस्थान च शरण 8 एउत्तम शरणछे ६८ शोभना हे गौतम तवप्रज्ञाबुद्दीः हो गौतम ताहरौ वुद्धौ भली किनः मम शंसयःअयं एम्हारी संदेहहवे दूरिकीधी अन्धोपि संघयो
ममास्ति बीजो एकम्हारे संदेहछे तहिषयममार्थ गौतम कथय तेहनो अर्थपणित कहो । समुद्र महौधे वृहज्जलप्रवाह मोटा समुद्रन विखे
JERRRRRRRRRRRRRRRERREER-30
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं उ.४१मा भाग
भाषा
HOMX8
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उ० टीका अ०२३ ७१६
सूत्र
भाषा
उत्तमं प्रधानं स्थानं शरणमस्ति इति भावः ६८ [साहुगो० (८] अर्थ पूर्ववत् [अववंसिमोहसिनावावि परिधावई जंसिगोयममारूढी कहं पारं गमिष्यसि ७०] हे गौतम महोबे अर्थवे महाप्रवाहे समुद्र नावाइति नौपरिधावति इतस्ततः परिभ्रमति यस्यां नौकायां त्वं आरूढः सन् कथ पारं गमियसि कथं पारं प्राप्स्यसि ७० [ जाओ अमाविणोनावा• ७१] हे केमिमुने यानी आश्राविणछिद्र सहितास्ति आश्रवति श्रागच्च्यति पानीयं यस्यां साम्रग्राविषो सानोपारस्य गामिनीनास्ति यानिवावियोनिच्छिद्रानो सा तु पारस्यगामिनी ७१ अथ केमोपृच्छति [ माबाइइ कात्ता केसोगोयम मब्बत्रो तओ केसिं बुवन्तरंतु गोयमो इणमव्ववो ७२ ] [ सरोरमानावित्ति जोवोबुचद्र नाविश्रो संसारो अनवोबुत्तो जन्तरन्ति महेसियो ७२ ] नौ इतिका उक्ताः केशो गौतमं चत्रवत् ततः केथिं ब्रुवन्तं गौतमः इदं पत्रवोत् ७२ हे केमिमुने शरीरं नौवर्त्तते जोबोना
सि महार्हसि नावावि परिधावई । जंसिगोयममारूढी कहंपारं गमितसि ७० ॥ जाओ अमाविणीनावा नसा पारम्मगामिणौ । जानिम्मा विणीनावा साउपारम्यगामिणी ७१ ॥ नावाय इद्रका बुत्ता केसीगोयम मब्बव । तत्र aurपानी प्रवाह प्रवहणाविशेषः समंता गच्छति ते माहि एकनावदोडेके यां नावां गौतमः समारूढः तेह नाव ऊपरि चन्योथको हे गौतमः त्वं कथं महावस्य पार गमिष्यसो तूं किम हे गौतम समुद्रनो पारपामे ७० यानीः श्राविणी जलप्रवेशान्वितासंधिभिः जे नावा श्रावणी होइ संधि' पाणौआवेनावमाहि' न सास्यात् पारस्यगामिनी ते नावपारपोहोचेन हीं बूडे या निरश्राविणो जलश्राव रहिता जे नावा माहिंपणनावे सानो पार गामौनी वर्त्तते ते नावापार पोहुचे तौर पांमे ७१ नौः इति काउक्ताः ते नावा कोणकहो केशो गौतम अव्रतोत् केशौ गौतमप्रति कहके ततः केशि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का भा० सं०० ४९ मा भाग
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उ टोका प्र.२३
EXEMORRRROREKHEKXXXXXXXXXXXXXX
8 विकः नौखेटक उच्यते संसारोऽर्णवः समुद्रः उक्तः यं संसारं समुद्र महर्षयस्तरन्ति एतावता महर्षय व जीवन्तपीनुष्टान क्रियावन्त नौवाहक नाविक कृत्वा चतुर्गति भ्रमणरूपे भवार्णवे वशरीरं धर्माधारकत्वेन नावं कृत्वापार प्राप्तवन्ति मीच वजनीति भावः ७३ [साहुगीयम०७४] अर्थस्तु प्राग्वत् ७४ [अन्धकारतमेघोर चिन्तिपाणिणोबहु कोकरिस्माइउज्जोयं सव्वलोग मिपाणिणं ७६] अथ पुनः केशिवमणी गौतमं पृच्छति हे गौतम अन्धकारतमसि प्रकाथाभावबहवः प्राणिनस्तिष्टन्ति अन्धकारतमः शब्दयोर्यद्यये क एव अर्थस्थाप्यत्र अन्धकार शब्दस्तमसीविशेषणत्वेन प्रतिपादित
केसिं बुवंतंतु गोयमो इणमब्बवी ७२ ॥ सरीरमाहुनावित्ति जीवो बुच्च नाविभो । संसारी अन्नवोबुत्तो जंतरंति मह सिणो ७३ । साहुगोयमपन्नाते छिन्नोमे संसओ इमो । अन्नावि संसओ मज्भ मेकहमुगीयमा ०४॥ अंधयारे तमे घोरे चिठ्ठति पाणिणो बहू । का करिस्पद उज्जाय सब्बलोग मि पाणिणं ७५ ॥ उग्गओ विमलाभाणू सब्बलोग पलं
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं २०४१ मा भाग
भाषा
बुवंत' केशोई पूछ्याथका गौतमः इदं वक्ष्यमाण अववीत् हवे गौतम पूश्चानो उत्तरदीइछे ७२ शरीरमाहुः नौ वंति एयरौर नाव कही जौव: उच्यते नाविकः एजोवनायो कहोई' संसार अर्णवः समुहः उक्तः संसारसमुद्र कह्यो यः संसाराश्चितरंति महर्षयः ते संसारसमुद्र मोटा ऋषोखरतर ७३ योभना हे गौतम तव पन्नाबहिः हे गौतम ताहरी बहि भलौर किनः मम संशयः पयं एम्हारी संध्ययवधी अन्धोपि संचयः ममास्ति वीजीपणिम्हारे संदेहछे तहिषय ममार्थ हे गौतमः कथय तेहनो अर्थ गौतमकही ७४ अंधकार करणथोले तमोरौद्र अंधकार कालो महारौद्र तत्र तिष्टति प्राणिनी बहवः तोहा प्राणो जोव घमा रहेके कः करिष्यति सद्योत' तहने उद्योत अजमाल' कोणकरस्य सर्वलीके प्राणिनां सर्वलोकने दिखे जीवने ७५ उहत:
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ANN~
WRXXXXREKAKKRKERROREKKK)
कोदृशेतमसि अन्धकार अन्धकरोति लोकमित्यन्धकार तस्मिन् अन्धकार पुनः कीदृशेतमसि घोरे रौद्रे भयोत्पादके है गौतम एतादृशे सर्वस्मिन् ६ लोके सर्वेषां प्राणिनां सर्वजीवानां कः पदार्थः उद्योतं करिश्चते प्रकाशं करिष्यति ७५ [उगोविमलोभाणू सबलोगष्यभरो सोकरिस्मइ उज्जोयं सब
लोगंमिपाणिणं ७६] गौतमः प्राह हे केथिमुने सर्वलोक प्रभाकरोविमलोभानुरुहूत: सभानुः सर्वस्मिन् लोके सर्वेषां प्राणिनां उद्योतं करिथति सर्वस्मिन् लोके प्रभां करीतौति सर्वलोक प्रभाकरः सर्वलोकालोकप्रकाशको निर्मलीवार्दलादिना अनाच्छादितभानुरेव सर्वेषां प्राणिनां सर्वत्रोद्योतं करोति नान्यः कोपि तेजस्वी पदार्थ इति भावः ७६ [भाणयह इकेबुत्ते केसौगोयममब्बवो तो केसौवुवन्त' तु गोयमोदणमब्बवो ७७] तदा केशिमुनि गौतम पृच्छति है गौतम भानुरिति कः उक्तः केशिमुनि गौतम इत्यंत्रवीत् ततः कैशिमुनि इति ब्रुवंतं गौतम इदं अब्रवीत् ७७ [उग्गोखौण संसारो सव्वजिण
करी । साकरिस्म उज्जोयं सब्बलोग मिपाणिणं १६ ॥ भाणूय दूदूकेवुत्ते केसीगोयम मब्बवी। तोकेसि बुबंतंतु गोयमो दूणमब्बवी ७७ ॥ उग्गओ खीणसंसारी सम्वम् जिण क्खरी । साकरिस्मउज्जोयं सबलोग मि पाणिणं ७८
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ• भाग'
भाषा
निम्मलः सूर्यः निभलसूर्य ऊग्योथको सर्वलोक प्रभाकरः सर्वलोकन विखे प्रभानोकरणहार स करिष्यति उद्योत' ते करस्ये उद्योत सर्वलोके प्राणिनां लोकने विखे सर्वप्राणौने ७६ भानु इति सूर्यकः उक्त: सूर्य कोणकयो केयौ गौतम अवौत् केशो गौतमने कहेछ ततः केशीब वंतंतु केशौ इम कयाथका गौतमः इदं वच्चमाण अववौत् हवे गौतम कहेछ ७७ उगतः क्षीण संसारः उग्योधको खौण संसार कीयोछे जिणे एहवी सर्वज्ञः जिन भास्करः सर्वन रूपी सूर्य स: करिष्यति तद्योत तेउद्योतकरके सर्वलोके प्राणिनां सर्वलोकन विखे सर्वजीवने ७८ शोभना हे गौतम तव प्रजाहिः भलो ताहरौ, बुद्धि
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उ० टौका अ०२३
७१८
सूव
भाषा
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मक्खरो सोकरि उज्जोयं सव्व लोगंमि पाणि ७८ ] हे केमिमुने चोण: संसारोभव भ्रमण यस्य सचौण संसार: चयोकृत संसार: सर्वज्ञः सर्व पदार्थवेत्ताजिनोरागद्वेषयोर्विजेतासभास्करः सूर्यः सर्वस्मिन् लोके चतुर्दशरज्यात्मलोके सर्वेषां प्राणिनां उद्योतं करिष्यति प्रकाशं करिष्यति ७८ [साहु गोयमपनाकिनोमेस सो इमो अनोविसंसश्रीमज्यं तं मेकह सुगोयमा ७८ ] अर्थस्तु प्राग्वत् (सारीर माणसे दुक्खे बज्ममाणाणपाणिण खेमं सिवं अणावाह' ठाण' किं मनसौमुणो ८०] अथ पुनः केशिश्रमणो गौतमं पृच्छति हे गौतममुनेः शारीरिकैः शरीरात् उत्पत्रैस्तथा मानसैः मनस उपवेदुकखेर्वध्यमानानां पोद्यमानानां प्राणिनां त्व' चेमं व्याध्यादिरहित शिवं जरोपद्रवरहित अनाबाध' शव जनाभावात्स्वभावेन पौडारहित' एतायं स्थानं किमन्यसे मांवदेतिशेषः ८० [अस्थि एगन्ध वण्ठाण' लोगग्ग मिदुरारुहं जत्यनत्थिजरामच्च वाहिणो बेयणा तहा ८१] हे केशिमुने लोकाग्रे लोकस्य चतुर्दशरज्यात्मकस्य अग्र' लोकाग्रन्तस्मिन् लोकाग्रे एकं घ्र, वत्रिचलं स्थानं अस्ति कथम्भूतं तत्स्थानं दुरारुहं दुःखेन आरुह्यते यस्मिन्
साहु गोयमपना किन्नामे संसचोइमो । अनोवि संसओमम तंमेकहमु गोयमा ७८ ॥ सारीरमाणसे दुक्खे बभ मायाण पाणिणं । खेम सिवं अपवाहं ठाणं किं मन्न सिसुगी ८० ॥ अथिएग' धुवं ठाणं लागग्गंसि दुरारुहं । जत्थ
हे गौतम त्रिः मम संशयः अयं एम्हारो स'देहभांज्यो अन्योपि संशयः ममास्तिः वोजोपणि संदेहम्हारेके तद्विषय मनार्थ' हे गौतम कथय तेहनो अर्थ मुझने कहा ८ शरीर मानसयोः दुकखे शरीर अनेमननु' दुक्खवध्यमानानां व्याकुलिक्रियमाणानां प्राणिनां तिथे करौने पौडाता प्राणीने व्याधि रहित ं जरामरणाद्युपद्रवरहित अनाबाध' व्याधिरहित स्थान किंमन्यसे मुनेस्थानकहे मुनौश्वर ते तुम्हे के हवं मानोका ८० अस्ति एक निश्चलं स्थानं
दुर का आ.सं० उ०४९ मा भाग
* धनपतदर का
राय
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उ० टोका अ०२२
७२०
सूत्र
भाषा
तत् दुरारुहं दुःप्राप्यमित्यर्थः पुनर्यत्र यस्मिन् स्थाने जरामृत्य नस्तः जरामरणेन विद्येते पुनर्यस्मिन् व्याधयस्तथावेदना वा वातपित्तकफले मा दोनविद्यते ८१ (ठावर इमेले के सोगोयनमन्यत्र तम्रो केसिं बुवन्तरंतु गोयमो इणमब्बवो ८२ ) हे गौतमस्थानं इति किं उक्त ततः केशिश्रमणो गौतम ं इद अब्रवीत् ततः केशिकुमार इति ब्रुवन्त गौतम इद अबुवीत् ८२ (निव्वाणन्ति बाहन्ति सिद्धिलोगग्गमे ब खेम' सिवमणाबाहं जचरन्ति महेसिपी ८३) (तं ठाण' सासयंवासं लोगग्ग' मिदुरारुहं ज स पत्ताण सोयन्ति भवोहन्तकरामुखी ८४) युग्म' हे केशि मुने तं शाखतं सदातनं वासंस्थान' लोकाग्रे वर्त्तते यत्स्यानं सम्प्राप्ताः सन्तोभवो घांतकराः संसार प्रवाहविनाशकाः मुनयो न शोचन्ते शोक' न
1
नत्यि जरामच्चु वाहिणेा वेयणा तहा ८१ ॥ ठाणेय इइकेत केसीगोयम सत्रवी । तोकेसिं बुवंतंतु गोयमा इण मव्वत्री । ८२ ॥ निव्याणंति अवाहंति सिद्धौलागग्गमेवय ॥ खेमंसिवं अणाबाहं जंचरंति मर्हसि ८३ ॥ तंठां एकनिश्चलस्थानक सिद्धं लोकाग्र' दुरारोहं ते ठामलोकाग्र ने विखे परं चढतां दोहितो यत्र नास्ति जरामृत्यु: जे स्थानकने विखे जरामणनथो व्याधयः वेदनाः तथा बलो व्याधि नथो वेदना नथौ ८१ स्थानकः इतिकः उक्तः स्थानक कोणको कमी गौतम अब्रवीत् केशो कहे गौतमने ततः केथि ं ब्रूवतंतु केशौइ' पूढ्याथका गौतमः इदं वच्यमाणं अब्रवीत् गौतम इम कहेछ ८२ निर्व्वाण' श्रव्यावाधं मुक्तिक्क अबाधाद ं करोरहितछे सिद्धि लोका' सर्व जगदुपरिवर्त्तते ते स्थानक सिडिक लोकने अग्रभाग क्षेमं निरुपद्रव' वाधारहित चेमकारी निरूपद्रव अबाधारहित यां वर्जति गच्छति महर्षयः जे स्थानके ऋषीश्वर हवे ते जाय ८३ तत् स्थान' शास्त्रतं वास जेहस्थानकने विखे सास्वतु' वासक लोकाग्र दुरारोह' वर्त्तते लोकाश्रने विखे
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था ०सं० उ. ४१मा भाग
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इटीका
कुर्वन्ति कोदृश तत् स्थान दुरारुह दुःखेन तपः संयमयोगन आरुह्मते प्रासाद्यते इति दुरारुहं दुःप्राप्यं इति द्वितीयगाथयासम्बन्धः अथ प्रथमगाथा
यार्थः पुनः कोदृशं तत्स्थान' यत्स्थान एभिर्नामभिरुच्यते कानितानिनामानिनिर्वाण' इति अबाध इति सिविरिति लोकाय एव च पुन: क्षेमं शिव *रति नामानि एतादृयैः सार्थकैरभिधानयंत्स्थान उच्यते तेषां नामां अर्थों यथा निर्वान्ति सन्तापस्य अभावात् शौती भवन्ति जौवायस्मिन इति
निर्बाण नविद्यते बाधायस्मिन् तत् अबाधन्निभयं सिध्यन्ति समस्तकार्याणि भ्रमणाभावात् यस्यां इति सिद्धिः लोकस्य अग्र अग्रिभूमिौकाग्रं एव ४ नेमस्य थावतसुखस्य कारकत्वात् क्षेमं शिवं उपद्रवाभावात् पुनर्यत् स्थानं प्रतिमहर्षयोनाबाधं यथास्यात्तथा चरन्ति वृजन्ति सुखेन मुनयः प्राप्त वन्ति मुनयोहि चक्रवयं धिकसुखभाजः सन्तोमीचं लभन्त इति भावः ८४ [साहुगोयमपन्बाते छिनोमेस सोइमो नमोते समयातीत सवसुत महोदही८५) अथ केथिकुमारोमुनि गौतमं स्तौति हे गौतम ते तव प्रज्ञासाध्वीवर्तते मे मम अयं संशयश्विन : सन्देहो दूरीकृत: हे संशयातीत
सासर्यवासं लागग्गमि दुरारुहं ॥ जसंपत्तानसायंति भवाहत करामुखी ८४॥ साहुगीयमपन्नाते छिन्नोम संसओ दूमी । नमी ते संसया तीय सव्वमुत्त महादही ८५ ॥ एवं संसए छिन्न कैसी घोर परक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं १.४१ मा भाग
चढतां दोहिलुके या सप्राप्तान शोच्च ते जेहने विखे गयाथका शौचनधौ भवौघांत करा मुनयः भवनो अंत तहनाकरणहार मुनौवर ८४ शोभना है गौतमः तव प्रज्ञाबुद्धिः हे गौतन ताहरौ बुद्दि भलौछे छिनः मम शंसयः अयं एम्हारी सदेहछ यो तुभ्य नमः संसयातीतः तुमने नमारू रही संदेह रहित सर्व सूत्र महोदधेः हे सर्वसौद्धांतना पारगामी ८५ एवं पुनः संशयः किनः हादशमे प्रश्न न गौतमैन गौतम कैसीनो सदेहटायी केयी कम्म
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उ० टोका प०२३
०२२
सूत्र
भाषा
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हे सर्वसूत्र महोदधेः सकलसिद्धान्त समुद्रतुभ्य' नमोनमस्कारोस्तु ८५ ( एवं तु स सएकिने केसोधीरपरक मे अभिवन्दित्तासिरसा गीयमं तु महायस८६) (पञ्चमव्ययं धन पडिवज्जर भावओो पुरिमस्य पच्छिमभिमतत्य सुहावहे ८७) युग्म केशौकुमार श्रमणी भावतः श्रद्धातः पुरिममइति प्रथम तीर्थ कतोमार्गेपश्चिमे पश्चिमतीर्थकरस्य मार्गे अर्थात् आदीश्वर महावीरयो मार्गे तत्र तिन्द के उद्याने पञ्चमहावृतरूपं धर्मं प्रतिपद्यते अङ्गीकरोति किं लत्वा गौतमं सिरसामस्तकेन अभिवन्द्य नमस्कृत्य वसन्ति एवं अमुना प्रकारेण गौतमेन सशयेछिन्न सति कोदृशं गौतम महायशस कौम : केशोमुनिः घोरपराक्रमः रौद्रपुरुषाकारयुक्तः पूर्व केशिकुमार श्रमणेन चत्वारितानिग्टहीतान्यासन् तदा गौतमवाक्यात्पञ्च महावृतान्यङ्गी कृतानीति भावः ८० (केसोगोयमओ निच तमि आसिसमागमो सुयसौल समुकरिसो महत्यत्यविणिच्छश्री ८८ ) तत्र तस्यां नगर्यां केशिगौतमयो
गोयमंतु महायसं ८६ ॥ पंच महव्वय धम्म' पडिवज्जद् भावच । पुरिमा पच्छिम मो मग्ग तत्य मुहावहे ८७ ॥ केसौ गायमओ निञ्चं तम्मि असि समागमे । सुय सौल समुक्करिसा मह व्यय विणिच्छओ ८८ ॥ तोसिया पुरिसा न् न प्रतिशूरः केशकुमार कर्मव्रोडवे सूरके अभिवंदित्वा मस्तकेन मस्तके करो वांदीने गौतमं पुनर्महायश सगौतमस्वामीने ८६ पंचमहाव्रत धर्मः केशौकुमार पंचमहावृत गौतमपासे थो अंगीकारकौधा प्रतिपद्यते भावतः भावेकरी पडौबर्जे तत्वज्ञानात् अर्हतोमार्ग : पश्चिमार्हन्मार्गः तौहां भले are stateधर्म sites तत्र शुभादहः कल्यांण प्रापकेएश्रीमहावीरनो धम्मं कल्यांणनो करणहार के तेपडिवर्जे ८० केभी गौतमयोः नित्य' केशी गौत मनो सदा तस्यां सोत् समागमः तेनगरीने बिखे मिला पहओ ज्ञानचरण श्रुत शौतले समुत्कर्ष: प्रकर्षक: ज्ञानदर्शन चारौवथौल तिथे करो सहौत
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ॰सं॰स॰ भाग *******ARAPA*****
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७२३
नित्य समागम आसीत् तयोः पुनः तशोल समुत्कर्षः श्रुतज्ञानचारित्रयोः समुत्कर्षः अतिशयोभूत् पुनस्तयोरुभयोमहान् अविनिश्चयो भूत् शिक्षा वततत्वादीनां निर्णयोभूत् ८८ (तोसियापरिसासव्वा सम्मम्ग समुवडिया सन्थ यातपसौयं तु भगवं केसीगीयमत्तिमि ८८) तदा सर्वापरिषत् ४ तोषिताप्रोणिता सम्यक मार्गे सा परिषत् समुपस्थितासावधानाजाता तो भगवन्ती ज्ञानवन्तौ केसिगौतमोपरिपरिषदास तुती प्रसौदतां प्रसन्नी भवतासतामितिशेषः इ.यहं प्रोमि ति सुधर्माबानो जम्बूस्वामिन प्राह ८८ इति केशिगौतमाश्य यन सम्पूर्ण ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन स्वार्थ दौपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मोकोर्ति गणि शिष लत्रीवल्लभगणिविरचितायां केशिगौतमौयं अध्ययनं योविंशतितमं सम्पर्ण ॥ १३ ॥ अश्व चतु विशति तमाध्ययनस्यार्थी व्याख्यायते ॥ पूर्वमिन् अध्ययने परेषां चित्तविलु तिः केशिगौतमवत् दूरीकर्तव्या तरौकरणं सम्यक् वाग् योगेनस्यात्
वाक योगोहि अष्टप्रवचनमास्वरूपः अतोट प्रवचनमाखरूपं चतुर्विंशतितमेऽध्य यने कथ्यते सूत्र [अट्ठपवयणमायाओ समिई गुत्तीतहवय पञ्चे वय है समिईओ तो गुत्तोपो आहिया १) एता अष्टौ प्रवचनमातरः पाहिता पाख्याता प्रवचनसिहा ते मातरः चारित्रस्य जनन्य ः प्रवचनमातरः साध्वाचार
सव्वा सम्मग्गस मुवटिया। सयया ते पसौयंतु भगवं केसी गायम तिमि ॥ सौगोयमिज्जभयणं समत्तं २३ ॥
अट्ठ पवयण मायाओ समिई गुत्ती तहेवय | पंचेवय समिईओ तो गुत्तौओ आहिया १॥ इरिया भासे सणा महार्थार्थ विनिश्चय कोधो हे ८८ तोषितापर्षत् सर्वः पर्षदा सर्वसतोषाणौ सन्मार्गच समपस्थिताः सन्मार्गने बिखे हुआ ससतो तौप्रसौदतां तेस्तव्या 8 घका प्रसव हुवो भगवान् केयो गौतम इति वयोमो सर्वशास्त्र नाजांण केशी गणधर गौतम प्रसन्न हुवा ८८. इति श्रीकेशौ गौतमनु' अध्ययन वीसमू संपूस म् २ ३ अष्टौप्रवचनमातर: जैनसासनने बिखे समतयः सुमतिः गुप्तयः तथैव वचन गुप्तितीमज वचन गुप्तपण पंचसुमतयःपंचमुमति तिस्रः गुप्तय
राय धनपतसिंध वाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०२४
७२४
सूत्र
भाषा
जनात् परिपालनात् जनन्य स्तोर्थक रैः कथिताः ता अष्टप्रवचनमातरः का: समितयः कतिगुप्तयश्च कतितयोः समिति गुप्योः सख्यां वदति पञ्चैव एवनिश्वयेन पदपूरणे पञ्चसमितयस्तिस्रो गुप्तवः उभयोर्मोलने अष्टप्रवचनमातर उक्ताः १ (इरियाभासे सणादाणे उच्चारसमिई इय मण गुत्तोवयगुत्तौ काय गुत्तोय बहुमा २) एताः पंचसमितयः प्रथम ईर्यासमितिः ईरण' ईर्ष्या समिति शब्दस्य प्रत्येक' ऽभि सम्बन्धः ईर्यायां गमनागमने ससम्यक प्रकारेण इति : आमचेष्टा ईय समितिः साई हस्त त्रयावलोकन' 'चतुर्हस्तावलोकन' वाचक्षुषा कृत्वा यत्ने नच क्रमण' ईर्यासमितिः द्वितीया भाषा समितिः विचार्य भाषणं' भाषासमितिः तृतीया एषणासमितिः शहस्य श्राहारस्य ग्रहणं एषणासमितिः चतुर्थी आदान समितिः वस्त्र पात्र प्रमुखोप करणानां आदान' ग्रहणं मुञ्चन' प्रदाननिचेपसमितिः पञ्चमौ उच्चार प्रश्रवणपरिष्टापनसमितिः एताः पञ्च समितयः तिस्रीगुप्तयोगोपन' गुप्तिर्मन सो ऽश्वभव्यापारान्निवर्त्त'न ं मनोगुतिः प्रथमा अथद्वितीया वचनस्य अशुभव्यापारात् गोपन' वचन गुतिः तृतीया काय गुप्तिः का यस्य अश्शुभकर्मणोगोपन' निवर्त्तन' कायगुप्तिः एव ं पञ्चसमितीनां तिसृणां गुप्तौनां च मौलनात् अष्टौ प्रवचनमातरो ज्ञेयाः २ [एयाओ असमिईओ समासेण वियाहिया दुवालसङ्ग' जिणक्वाय' मायं जत्य पवयण' ३] एतास्तु समासेन सचेपेण अष्टौ समितयो व्याख्याताः विस्तरत्वेनचे हयते तर्हि पञ्च समितय उच्यन्ते
दाणे उच्चारे समिईइअ । मण गुत्ती वय गुत्ती कायगुत्तीय अट्टमा २ ॥ एयाओ अड समिईओ समासेण विया ख्याता तीन गुतो कही १ ईसुमति १ भाषासुमति २ एषणा सुमति ३ आदान निचेपणा समितो ४ उच्चारसमिति ५ तत्त्रसमिति शब्दः प्रत्येकं योज्यः मनोगुप्ति १ बचनगुप्ति २ कायगुप्ति ३ एताः अष्टौ प्रवचनमातरः ए आठ प्रवचनमाता २ एता: अष्टौसमितयः एआठसमिति संक्षेण व्याख्याता
राय धनपतसिंह बाहादुर का था ०सं० उ० ४१मा भाग *************************
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ए० टोका
७२५
सूव
भाषा
3030030300
तिस्रगुप्तयश्च उच्यन्ते सनासेन संचेपेण चेदुच्यते तर्हि अष्टौ अपि समितय उच्यन्ते तस्मात् एतासां अष्टानां अपि समिति स नाउच्यन्ते यत्तु पू पञ्चानां समिति संज्ञाति सृणां गुप्तिसंज्ञा तत्कथञ्चि दख्यापनार्थ यत्रयासु अष्टासु मातृषु द्वादशाङ्ग' जिनाख्यातं प्रवचन श्रुतं चारित्र वामायं इति मा सम्पूर्णत्वेन सस्थित यतोहि सर्वा एता अष्टौ अपि चारित्र रूपा: चारित्र' हि ज्ञान दर्शन' विज्ञान भवति ज्ञानदर्शन चारित्रेभ्योऽति रिक्त दादशाङ्ग न भवन्ति तस्मात् द्वादशाङ्गी अष्टासुमातृषु स्थिता तेन एतासाम्प्रवचन जननी संज्ञा ३ प्रथम ईर्ष्या समिति स्वरूप माह ( आलम्ब गेण १ कालेर मग्गेण३ जयणा४ चउकारणपरिसुद्ध संजरइरियंरिए 8 ] स यतः साधुरेभिश्चतुर्भिः कारणैः परिशुदयानिर्दोषया ईर्ष्या निर्दोषयागत्यारौयेतगच्छेत् प्राकृतत्वात् तृतीयास्थाने प्रथमा तानि चत्वारिकारणानिकानि आलंव्यते निश्चलः क्रियते मनोयेन इत्यालम्बन' तेन आलम्बनेन १ पुनर्द्दितोयं कारण कालः ईर्यायाः समय स्तेन कालेन पुनस्तृतीयः कारणं मार्ग : पन्यास्ते नविहारयोग्य मार्गेण पुनश्चतुर्थं कारण हिया । दुवाल संग' जिणक्वायं मायं जत्थओ पवयणं ३ ॥ आलंबणेण कालेा मग्गेण जयगाइय । चउ कारण परि संजय इरियं रिए ४ ॥ तत्था लंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा । कालेय दिवसे वृत्ते मग्गे उप्पह वब्जिए ५ ॥
संचेपे करोने कहो ह्रादयां गंजिनख्यातं वार अंगतीर्थंकरनाम्याथां यत्राष्टमवचनात्रषु सर्व प्रवचनं अंतर्भूतं सर्वसौद्धांत एअष्टप्रवचन माता मांहिं अंतर्भूत ३ आलंबनेन आलंबन करोने कालेन कालकरौने मार्गेण मार्गे करोने यतनयाजयणाई' करोने चतुःकारण परिशद एच्चार कार करौने शुद्धः संयतः गतिं गच्छेत् यतोर्या सुमतिने सोधे ४ तत्र आलंनं ज्ञानं तौहां आलंबन ज्ञाननु' करे दर्शनं दर्शनचारिव तथा तिम
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं००४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०२४
७२६
सूत्र
भाषा
308306306)
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यत्ना यतनं यत्ना जीवदया यतनया एवञ्चतुर्भिः कारणैः शुद्धयागत्यासाधुनागन्तव्यमिति भावः ४ पूर्वं चतुर्णा' कारणानां नामान्युक्ताविस्तरेण वर्णयति [तत्य आलम्बणं नाण ं दंसणञ्चरण तहा कालेय दिवसेबत्ते मग्गे उप्पहवज्जिए ५ ] तत्र चतुर्षु कारणेषु आलम्बनं यत् बाल व्यगमनं अनुज्ञाय तत् आलम्बनं यतोहि आलम्बन विनानिरर्थक' गुरुभिर्गमनं अनुज्ञात' नास्ति तत् आलम्बन' सूत्र अर्थं तदुभयं सूचार्थज्ञानं सिद्धान्त पठन पाठन ततोदर्शनं सम्यक्त' तत्वरुचिरूपं तस्य ग्रहण ग्राहणं वा तदपि कारण पञ्चाञ्चरण' चारित्र' अत्र चारित्र शब्देन सामाइकादिक सामाइयं सम इयं सम्मावाओं समाससंखेवो रणवज्जं च परिणापञ्चक्खाणेय ते अष्ट इत्याद्यपि कारणं यतोहि जानार्थ दर्शनार्थं चारित्रार्थ एवं दयोरर्थं एवं पृथक २ एवं त्रयाणामप्यर्थं एवं अष्टादशभेदाभवन्ति च पुनः कालः ईर्यायाः समयोदिवस एव उक्तो न तु रात्रिः ईर्यायाः समयोस्ति रात्री हि विहार कुर्वतः साधोरोर्याशर्निः स्यादित्यर्थः मार्गस्तु उत्पथवर्जनं उन्मार्गस्यत्यागः उन्मार्गे चलमानस्य आत्मनः संयमस्य विराधनास्यात् ५ [दव्बोखित्तश्र चेव कालओ भावत्र तहा जयणा च उब्बिहादुत्ता तं मे कित्तयओसुख ६] तोर्थकरेरित्यध्याहारः तीर्थ करैर्गणधरेवतुर्विधायना उक्तातां चतुर्विधां rai मे मम कथयतस्त्व' शृण भोगिथ तदेव चातुर्विधत्वमाह द्रव्यतो यत्ना च पुनः क्षेत्र तोयत्ना कालतोयत्ना तथा भावतोयत्ना ६ अथ द्रव्यतः कथं
दव्वत्र खित्तच चेव कालच भावच तहा । जयगा चडब्बिहा वृत्ता तं मे कित्तयओ सुग ६ ॥ दव्वच चक्सा चारित्र काल दिवसः उक्त काल दिवस कहोइ मार्गे उत्पथवर्जितः मार्ग ऊवट वज्र्जीखाडप्रमुख ५ द्रव्यत: द्रव्यथ किवस्तु पूंजौलेवो क्षेत्रतः क्षेत्रथको कालतः कालयको भावतस्तथा भावयको तिम यतना चतुविधा उक्ता जयणाचिहुं प्रकारे कही तां ममकीर्तयतः शृणुतेमुने कहतां थकांतुमे सांभलो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड० ११ मा भाग
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13 1
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9
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यत्वातामाह [दवओ चक्ख सापेहे जगमित्तं च खित्ती काल योजावरोएज्जा उवउत्तेय भावी ७] द्रव्यतीद्रव्यमाथित्य एवं यतना यदा चक्षुषा जीवादि
द्रय विलोकये तेत्रतः क्षेपाश्वित्य युगमात्र चतुर्हस्त प्रमाण क्षेत्र मार्ग प्रक्षेतविलोकयेत इयं क्षेत्रतीयत्ना कालतः कालमाश्रित्य इयं यत्ना ७४ यावत्का यावताकाज पाणे तरोधले गमनं विधीयते सा च कालतोयनायः साधः लपयुक्तप्तव ईर्यायां सावधानत्वात् स्यात् साभावतो यत्ना जया ७
अथ उपयुकोप वितर वेतपयति [इदिय थे विजित्ता सज्मायं चेव पञ्चहा तम्म तीतप्प रकार उवउत्तेरियं रिये ८] साधुरूप युक्तः सन् ईर्यायां साध योग्यगतौरोयेत् बजे किं तवा पञ्जेन्द्रियार्थान् पञ्चानां इन्द्रियाणां अर्थान् विषयान् विवयं च पुनः स्वाध्यायं कुर्यात् पुनः साधुः कौदृशः सन् ईर्यायांरोयेत् त मति : सन् तस्यां ईया समितौमूति: शरीरं यस्य सतन्मति : न तु यतस्तत: शरीरं धूनयन् गच्छेत् कायचापल्य रहितः इति
पहे जुगमित्तंच खेत्तो। कालो जाव रोएज्जा उवउत्तेय भावो ७॥ इंदियत्ये विवज्जित्ता सज्मायं चेव पंचहा।
सम्म त्ती तप्परक्कारे उवउत्ते रियं रिए ८॥ कार्ह माणेय मायाय लामेय उवउत्तया । हासे भय मोहरिए विगहासु । द्रव्यतो जोवादिक चक्षुषा प्रेक्षेत द्रव्य तु जोवा बीमार्गशोध प्रांखिकरौने युगप्रमाण क्षेत्रत: धूसरा प्रमाण खेत्र दृष्टिदिइ कालतः यावंतं कालरौयेत् गच्छेत् कालिंजेतले कालिं विचरे तत्र उपयुक्तः सावधान: भावेकरी सावधानपणचाले ७ इंद्रियार्थान् शब्दादौन विवर्जयेत् इंद्रियनाविषय शब्दादिक वले स्वाध्यायं पंचप्रकार सजाय पांचप्रकारे तिसेज चेष्टाई ते प्रधान अंग जाणो अंगीकारकरतो उपयुक्तः ईयारौयेत् सावधानपणे ईर्यासमितिसोधे ८ ४ क्रोध क्रोधमाने च मानवली मायायां माया लोभे उपयुक्ततया सावधानतया लोभने विखे सावधानथको हास्ये भय मुखरित हास्यने विखे भयनेविखे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ-सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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स.टौका
.२४
भावः पुन: कोदृशः साधुः तत्पुरस्कारः तां एव पुरस्करोति इति तत्पुरस्कारः ताई- समतिं प्राधान्य न अङ्गोकुरुतेइत्यर्थः अनेनकायमनमोस्तत्परता उक्ता एवं उपयुक्त: सावधानो विचरेत् इत्यर्थः ८ [कोहेमाणेयमायाय लोभेय उवउत्तयाहासे भयमोहरिए विगहासुतहेवय ८] [एयाई अठाणाई परिवज्जित्त सञ्जए असावज मिश्रकाले भासंभासिज्जपनवं १० ] अध दाभ्यां गाथाभ्यां भाषासमिति माह पनवं इति प्रज्ञावान् संयतः काले प्रस्तावे भाषायाः समये असावधानि पापां तथामितां स्वल्या भाषां भाषेत किं कृत्वा एतानि अष्टौ स्थानानि उपयुक्त तया एकाग्रत्वेन परित्यज्यत्यया एतानि प्रष्ट स्थानानिकानि कोधीमानी मायालोभश्च ४ हास्य' भयं मौखरिकाविट् चेष्टा असम्बद्दवचनभाषणं वा विकथा च एतान्यष्टी असत्यवाक्य स्थानानि तस्मात् प्र य क क्रोधेमाने मायायां लोभे च हास्ये भये मोखरिकायां तयैव विकया सुच मृषादिरूपं असहाग योग परिहत्य असावद्या निर्दोषां परिमिता प्रस्तावभाषां वदेत् इत्यर्थः १. अयैषणासमिति माह [गयेसणाए गहणिय परिभीगे सणायजा आहारोवहि सिज्जाए एएतिविविसीहिए ११] गवेष
णायां एषणागवैषण षणागौरिव एषणागवैषणाविशुद्धाहारदर्श नविचारणा प्रथमा एषणा १ द्वितीयाग्रहण षणा विशुद्धाहारस्य ग्रहण ग्रहणषणार *तोयापरिभोगैषणापरिसमन्तात भुज्यन्ते आहारादिक अस्मिान् इति परिभोगो मण्डलो भोजनसमयस्त षाविचारणा परिभोगैषणा एतास्तिस्रोपि
तहेवय : । एयाई अट्ठ ठाणाई परिवज्जित्तु संजए । असाबजं मियं काले भासं भासिज्ज पन्नवं १० । गवसणाए । वाचालपणाने विखे विकथासु तथैवच वलो विकथावर्जे चालतोधको एतानि अष्टस्थानानि एआठस्थानक परिवर्जयेत् संयत: भलेप्रकारे वज संयती पापरहितभासा असावा मितं कार्याय प्रस्तावे असावधनिः पाप थोडो वोलो भाषां भाषते प्रज्ञावान् भाषाई वोले बुद्धिवंत साधु १० गवेषणा स्वीकरण
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा•सं•९.४१ मा भाय
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उ०टौका
अ ०२४
७२८
सूत्र
भाषा
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एषणा आहारोपधि शय्या सुविशोधयेत् केवलं श्राहारे एव एता एषणानभवेयुः किं तु प्रहारे उपधोवस्त्र पात्रादी भय्या उपाश्रयः संस्तारकादिस्तत सर्वत्रषणाविधेयाइत्यर्थः ११ [ उम्मउपायण पढने बिइएसोहिज्ज एसणं परिभोग' च उत्य च विसोहिज्जजयं जयो १२] जयं इति यत्नवान् जयति यतो साधुः प्रथनं इति प्रथमायांगवेषणायां उगमोत्पादनात् दोषान् विशोधयेत् विशेषेण विचारयेत् पुनः साधुर्द्वितीयायां ग्रहैषणायां शङ्कितादि दोषान् विचारयेत् पुनस्तृतीयायां परिभोगैषणायां चतुकन्दोष चतुष्टयं विशेोधयेत् १२ इति गाथार्थः अत्र प्रथमायां गवेषणे षणायां हाविशत् दोषाभवन्ति तद्यथा प्रथमं षोडयउद्गमदोषाः उमशन्देन आई कर्मकादि षोडशदोषाः तथा प्रथमैषणायां एव उत्पादनादि दोषाः भवन्ति उत्पाद्य तैसाधुनाये ते उत्पादनाः साधोः सकाशादेवषोडश दोषा उत्पद्यन्ते ते च धात्री प्रमुखाः एवं हात्रि महोषाद्दितीयायां एषणायां ग्रहण षणायां शङ्कितादि दोषाः
गहणेय २ परिभोगे सगाय ३ जा । आहारो वहि सिजाए एए तिन्नि विसोहिए ११ । उग्गमु प्यायणं पढमे बिइए सोहिज्ज एस परिभोग मि चडकं विसे।हिज्ज जयं नई १२ । उहा वहा वगाहियं भंडगं दुविहं मुणो । गिरहंतो
सेवनं तद्विषया एषणा अंगोकारकोजे से वोड ते गवेषणा परि गवेषणायाः परिभोग एषणा आहारोपधिशज्या आहार उपधिज्याएषणा एतैस्त्रीभि दौषैः विशोधयेत् एतोन एषणा सावधाने सोधे ११ उद्गमोत्पादना दोषान् प्रथमा गवेषणा सोलह उहमदोष सोलह उत्पादनादोषटाले एपेहेलोएषणा द्वितीयां ग्रहणैषणां विशोधयेत् वौजी ग्रहणेषणा १० दोषटाले परिभोगे पिंड १ शय्या २ वस्त्र ३ पात्रात्मकं ४ बोजीपरभोग एषणा पिंड १ शिय्या २ वस्त्र ३ पात्र ४ विशोधयेत् यतनयायतिः जयणाकरे शडलेईने परिभोगकर १२ औबोपधिं चतुर्दशविध दंड उपग्रहिक उपधि उपरणं द्विधा मुनि उप
८२
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राय धनपतसिंह बाहादर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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.
A
टोका उभयतोदायकात् ग्राहकात् च भवन्ति एवं द्विचत्वारिंश होषाभवन्ति तत्र प्रथमः आई कम्र्मिक: अई कर्मणि भव आई कम्भिकः यदाहारं गृहस्थेन
8 सर्वान् दर्शनिनः सर्वान् लिङ्गिन उद्दिश्यकत आई कर्मिक उच्यते १ साधुयोगसतियत् उद्दिश्य कृत्वादीयते सत् उद्देशिक उच्यते २ अयं द्वितीयो
दोषः बहुतरविशई आहार आई कर्मिकाहारकणे युक्त' भवति तदा पूतिकर्मदोषः यथा शुचिः पयोघटोपि एकनमद्यमिन्द मा अशचिः स्थात् तथा पूति कम्मणा विशुद्धाहारमपि आई कर्मिकयोगात् पूतिक' स्यात् अयं तृतीयो दोषः ३ अथ चतुर्थीमित्र कर्मदोषः किञ्चित्साधुनिमित्त किञ्चिदात्मार्थ ग्रहस्थ ः यदाहारं कारयति तदामिश्रित दोष उत्पद्यते ४ अथ पंचमं स्थापनाकर्म स्थाप्यते साधुनिमित्त' इति स्थापना यदा साधुराया स्थति तदा साधर्व दास्यामोति विचार्य यदाहारं रक्षितं तदाहारं स्थापना कर्मदोष युक्त स्यात् ५ अथ षष्टादीषः प्राभूतकः गृहस्थः स्वगृह उच्छवं * ज्ञात्वा संखडिकस्य परावृत्ति करोति स प्राभृतिकोदोषः ६ अन्धकार उद्योतं कृत्वा मुनये आहारं यदादीयते तदा प्रादुःकरणदोषः सप्तमः ७ यदा
राहस्थो मौल्ये न आनीय साधवै ददाति तदा क्रोताख्योदोषचाष्टमान्न यः ८ यदा गृहस्थः साधुनिमित्त उहारकं आनीय आहारादिकं ददाति तदा कृ नवमः प्रामित्यदोषः । यदाहारादिकं परावृत्य सरस नौरसयोः परावर्तनं कृत्वा साधवे ददाति तदा दशमः परापत्तदोषो भवति १० यदा स्वग्रहा दहियामाहा आहारादिकं मुनिसन्मुखं आनीय मुनये दीयते तदा अभ्यातदोष एकादशः स्यात् ११ यदा कोष्टकादौ गर्भगृहादी मुद्रितं उहाय आहारादिकं निष्कास्य दीयते तदा उशिवदोषो बादशः स्यात् १२ यदा उच्चस्थानादुत्तार्य आनीय आहारादि ददाति तदा मालात स्त्रयोदशोदोषः स्थात् एवं नौचैरपि दुःखीभूय ददाति तदापि सएव मालापहतोदोषः स्यात् १३ यदा कस्माञ्चिनिर्बला दुहाल्य आहारादिकं ददामि तदा आच्छिद्य चतुर्देशोदोषः १४ यदादित्राणां पुरुषाणां साधारण आहारएक अन्यान् अनापृच्च साधर्व ददाति तदा पञ्चदशोऽनिसृष्टीदोषः १५ यदा स्वनिमित्त
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१ मा भने
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उ० टोका श्र०२४ ७३१
30
आहारे राध्यमाने साधुनिमित्तमपि तस्मिन्नाहारे अधिकं हंडिकायां पूर्यते तदा अध्यवपूरोदोषः षोडशः १६ एते षोडश उहमदोषाः दायकात् दोषा उत्पद्यन्त े अथ अनगारात् षोडशदोषा उत्पद्यन्ते ते उत्पादनदोषा अमो प्रथमो धावौदोषः यदा साधु हस्थस्य बालकान्चिःपिटिकादिभिः क्रीडयित्वा धावत् प्रमोदं उत्पाद्य आहारं गृह्णाति तडा प्रथमो धात्नोदोषः १ यदा गृहस्थ ग्टहे गुप्त प्रकट समाचारान् स्वजमादीनां कथयित्वा श्रहारं गृह्णाति तदा दूतकर्माख्यो द्वितौयोदोषः २ यदा लाभालाभजीवित मृत्यु सुखदुःखादि निमित्त त्रिकालस्यं गृहस्थाग्रे उक्का प्रहारं गृह्णाति तदा निमित्तदोष स्तृतीयः ३ यदा ग्टहस्थस्य ज्ञातिं कुलंज्ञात्वा आत्मीयमपि साधुस्तमेव ज्ञातिं तदेवकुलं स्वकौयं प्रकाश्य आहारं गृह्णाति तदा आजीविकादोषचतुर्थः ४ यदा स्वकीयं दोनत्वं दयालुत्व' गृहस्थाग्रे प्रकटीकृत्य आहारादिकं गृह्णाति तदा वपनोकोदोषः पंचमः ५ यदा वैद्यवत् नाटिकां दृष्ट्वा वमनविरेचना जीर्णज्वरादीनां भैषज्य मुपदिश्य वैद्यकं कृत्वा आहारादिकं गृह्णाति तदा चिकित्सोदोषः ६ यदा गृहस्थं भापयित्वा शापंदत्वा श्राहारं गृह्णाति तदा क्रोधपिंडः सप्तमोदोषः ७ यदा साधुनां समक्षेपणं कृत्वा तदाहंलब्धिमान् यदा भवतां सरसं आहारं अमुकग्टहादानीय ददामि इत्युक्का गृहस्थं विव्यहाति तदा अष्टमोमान पिंडदोष: ८ यदा मायां कृत्वा लोभात् वेषं परावृत्य आहारं गृह्णाति तदा माया पिंडो नवमदोषः . यदा लोभेन सरसाहारलौल्ये न भ्रांत्वा २ आहारं गृह्णाति तदा लोभपिंडो दशमोदोषः १० यदा पूर्व पञ्चादाग्गृहस्थस्य स्तुतिं विधत्त आहारंच गृह्णाति तदा संस्तव दोषः एकादशः ११ यदा विद्ययासुरं साधयित्वा भोजनं साधयति तदा विद्यापिंडो द्वादशोदोषः अथवा विद्यां पाठयित्वा ग्रंथं अध्याप्य भोजनादिकं गृहस्थात् गृह्णाति तदा विद्यापिंडो द्वादशोदोषः १२ यदा कार्मणं मोहनं यंत्र मंत्र' साधयित्वा कृत्वा दत्त्वा श्रहारादिकं गृह्णाति तदा मंत्रदोष त्रयो दशः १३ यदा अदर्शीकरणाद्यं जनमोहन चूर्णयोगेन आहारं गृह्णाति तदा चतुर्दशचूर्णयोगोदोषः १४ यदा मुग्धलोकान् सौभाग्यादिविलेपन राज
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रायं धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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उ०टौका
अ०२४
७३२
AAAAAKI
वयकरणादि तिलकेन जलस्थलमार्गोल्लङ्घन सुभगादुर्भगविधिं उपदिश्य श्राहारं गृह्णाति तदा योगपिंडदोषः पञ्चदशः १५ यदा पुत्रादिजयम पण निवारणार्थ मघा ज्येष्टा श्लेषा मूलादिनचत्र शांत्यथं मूलैः स्नानं उपदिश्य श्राहारादिकं गृह्णाति तदा षोडशी मूलकर्मदोषः १६ एवं उह मोत्यादगार दोषाः सर्ववि गवैषणायां द्वात्रिंशदोषा भवन्ति २१ अथ द्वितीयायां ग्रहणैषणाय दशदोषाः कथ्यन्ते यदा दायक: शंकां कुर्व्वन् ददाति साधुर जानाति असौदायकः शंकां करोति एवंसति श्राहारं गृहाति तदा प्रथमः कतोदोषः १ द्वितीयोम्नचितोदोषः सद्दिविधः सच्चित्तेन खरंटितः आहारः अचित्तेन खरंटितथाहारो भवति तदा सूचितदोष उक्त उच्यते २ यदा पृथिव्यां जले अग्नौ वनस्पतिमध्ये वसजीवानां मध्ये निश्चित' आहारं ददाति तदा निचिप्तस्तृतौयोदोषः १ यदा अचित्त' आहारं अपि सचित्त ेन श्राच्छादितं स्यात्तदा पिहितदोषचतुर्थः ४ पिहितदोषस्य चतुभंगी सचित्तं आहारं सच्चित्तेन पिहितं अचित्त' सचित्त ेन पिहितं सचित्त आहारं अचित्तेन पिहितं एवं चतुर्भग्यां अचित्ताहारं अचिन्तन पिहितं अत्रको पिनदोषः यदा वृहद्वाजने स्थितम् आहारं तत्रस्य भाजनेन दातुम् अथक्यत्वेन तद्भाजने परवोत्तार्य अथवा तस्माद्भाजनात् अपरस्मिन् भाजने उत्तार्य हारं ददाति स संहृतदोषः पञ्चमः ५ यदा असमर्थः पण्डकः शिशुः स्थविरः अन्ध उन्मत्तो मत्तो ज्वरपीडितः कम्पमानशरोरो निगड बहो हडे घ गलितहस्त त्रिपादः एतादृशीवादाता ददाति तदा दायक दोषः पुनर्यदा कविहायिका दायिको वा अग्नि प्राज्वालयन् अरहहकं भ्रामयन् घर के चापोषण' कुर्वन् मुखलेन खण्डन् सिलायां लोटके वर्त्तयन् चरयां कार्पासादिकं लोढयन् कत वापिं जयन् सूर्पकेण धान्यमाच्छीटयन् फलादिक' विदारयन् प्रमार्जनेन रजः प्रमार्जयन् इत्याद्यारम्भ' कुर्वन् तथा भोजन ं कुर्वन् स्त्रोचयासम्पूर्ण गर्भस्थित भवति पुनर्याच स्त्रोबालं प्रतिस्तन्य' पाययन्ती पुनस्तं बालं रुदन्तं मुक्का आहार दानाय उत्तिष्टति पुनर्थः षट्काय सम्मर्दन' सहनं वा कुर्वन् साधु दृष्ट्वा हण्डिकोपरिस्थम् अग्रपिण्डम् उत्तारयति
3303
35:30:3×303003808
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ ०सं०० या भाग
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PAR*****
इत्यादयो बहवो दायकदोषाः इति षष्टो दायकदोषः यदा अनाभोगेन अविचार्यैव शुद्धाशुद्द माहारं सम्मौल्य ददाति तदा सप्तम सम्मिश्रितदोष: ७ या द्रयेण अपरिणितम् आहार भावेन उभयोः पुरुषयोराहार' वर्त्तते तन्मध्ये एकस्य साधवेदातुं मनोस्ति एकस्यच नास्ति तदा हारम् अपरिदीष युक्त ं स्यात् अपरित दोष षाष्टमः ८ यदा दधि दुग्ध चैरौय्यादि द्रव्यं येन द्रव्येण दर्वीकरोवालिप्तः स्यात् तदा पश्चात्कर्मत्वेन लिप्त पिण्डो नवमीदोषः स्यात् ८. यदा शितानि ष्टत दधि दुग्धादि विन्दून् पातयन् श्राहार' ददाति तदा छर्दितो दशमो दोषः स्यात् १० इति ग्रहणैषणायां दायक ग्राहकयो रन्योन्यं दोष सम्भवः एवं सर्वमौलने द्विचत्वारिंशद्दोषाभवन्ति अथ परिभोगैषणायां ग्रासैवणण पञ्चदोषाः सम्भवन्ति तद्यथा यदा चौरखण्ड घृतादि द्रव्य ं सम्मोल्य रसलौल्येन भुङ्क्ते तदा संयोजनादोषः प्रथमः १ यदा सिद्दान्ते पुरुषस्याहार उक्तोस्ति तस्मादाहार प्रमाणात् खादुलोमेन अधिकम् आहारं करोति तदा अप्रमाणो द्वितौयोदोषः २ यदा सरसाहारं कुर्वन् धनवन्त दातार' वर्णयति तदाइ मालदोष स्तृतीयः ३ विरसम् श्राहारं कुर्वन् दरिद्र कपण' वा निन्दति तदा चतुर्थी भ्रमदोषः ४ यदा तपः स्वाध्यायवैया इत्यादिकारण षट्कं विना बलवीर्याद्यर्थ सरसाहारं करोति तदा परमो कारण दोषः ५ एते पञ्चदोषाः परिभोगैषणायाः ज्ञयाः एवं सर्वे सप्तचत्वारिंश होषाभवन्ति ४७ परिभोगेषणाव्यां चतुष्क' दोष चतुष्टय सूत्रे उक्त तन्तु इङ्गाल धूमो मोहनोयकर्मोदया देवदायकस्य प्रशंसावतो निन्दानश्च प्रादुर्भावात् एकत्व एव अङ्गीकृत' तस्मात् चत्वारि एव दोषाग्टहोताः एवं षट चत्वारिंशत् दोषाभवन्ति ४६ अथवा परिभोगैषणायां परिभोगसमये असेवनासमये पिण्ड १ शय्या २ वस्त्र ३ पात्र ४ एतत् चतुष्क' विशोधयेत् श्रयम् अपि अर्धोविद्यते इत्यनेन उग्गमुप्पायणं पढने इति गाथाया अर्थ : १२ इत्येषणा समितिः ॥ अथ चतुर्थी समिति प्राह [ओहो वही वहियं भण्ड दुहं मुषोगिरहन्तो निक्खिजन्तोय पडजिज इमं विहिं १३ ] औधोपधिक सामुदायिकम् उपग्रहिकोपधिकम् उपग्टह्यते वारं२ यत्नार्थम् इति श्रपग्राहिक
द बाहादुर का आ० सं००४१ मा भाग राब धनपतसिंह बा
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Mm
४
रजोहरण पोतिकादिकम् अत्र उपधिशब्दस्य प्रत्येकं प्रयोगः एवं भाण्डम् उपकरण विविध भवति रजोहरण दण्डकादिकं हिप्रकारक' वर्तते मुनिस्तं विविधम् अपि भाण्ड एहून् च पुनर्निक्षिपन् मुञ्चन् इमं विधि प्रयुनौत १३ तं विधि प्राह ॥ [चक्षुसा पडिलेहिता पमिजिज्ज जयं जयो प्राइए निक्लि विजावा दुहोवी समिओ सया १४] यत्नवान् यतोयबया चक्षुषा प्रतिलेख्य प्रमार्जयित्वा समितः सन् आदान निक्षेपणा समिति युक्तः सन् अथवा द्रव्य भावभेदेन समितः समितियुक्तः सन् विविधम् अपि उपधिम् औषधिम् अथ औपग्राहिक गृहीत आददौतवा अथवा मुचेत् निक्षिपेत् १४ (उच्चारं पास व खेल सिंघाण नल्लियं आहारं उवहिं देहि अन्नवावि तहाविहं १५) (अणवाय मसलोए अणावाए चेव होइ संलोए आवाय मसलोए धावाए
निक्खिवंतोयपउंजिज्ज इमंबिहिं १३ । चक्खुसापडिलेहितापमज्जिज्ज जयंजई। आइएनिक्लिवेज्जावादहीवीसमिए सया १४ ॥ उच्चारं पासवणं खेल सिंघाण जल्लियं । आहारं उबहिंदेहं अन्नवावि तहाविहं १५ ॥ अणावाय मसलोए
KKKXEEKEEKKKKKXKKKKXKXKAX राय धनपतसिंग बाहादुर का आ.संउ०४१मा भाग
उपधिवोजो उपग्रहिक उपधि दांडा प्रमुख ऊपग्रहिकमाहिछे गृहून मुचन् लेताथका मूकतांथका उपगरणलेतीथको मूकतीथको कुर्वीत प्रयुजीत इण * बिधे प्रजूंजे १३ चक्षुषा प्रतिलेख दृष्टिकरौ पडिलेहे रजोहरणदिना प्रमायं यतनयाओघासु यतनयापूजे पादत्त निक्षिपयेत् वा साधु वस्तुने लिई
मूके अथवा विधा द्रव्यतो भावतः समितः सदा इम चिहु प्रकार समिति सदाहीइ १४ पुरोष प्रश्रवनं मूत्र वडीनीतिलथुनीत श्वेभाणंनासामलं देहमल नमा नासिकानोमल देहनीमल आहार उपधिं देहिं भातपाणी उपधि पूजीलेवा अन्यदपि तथाविधं अनेराई तथाविधउपगरण १५ वपर आगमन
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ह.टौका
अ.२४ ७३५
४ चेव सलोए १६) (अणावाय मसलोए परस्मणु वधाइए समे अजासिरेयावि अचिरकाल कयंमिय १७) [विच्छिब्रे दूरमोगाढे नासवे बिल वज्जिए * तस पाण बौय रहिए उच्चाराईणि वोसिर १८] चतसृभिः कुलकम् अथ पञ्चमौ समिति प्राह साधुः उच्चारादीनि एतादृशे स्थण्डिले व्यु स्मृजत् परि टापयेत् इति चतुर्थीगाथया सम्बन्धः तानि कानि उच्चारादीनि उच्चार पुरोष प्रश्रवणं मूत्र खेलं कफः सिजाणं ने मः जलकं शरीरमलम् आहारम
अणावाए चे वहाइ संलोए। आवाय मसंलोए आवाए चे वसंलोए १६ ॥ अणावाय मसंलोए परमाणु वघाइए। समें असिरेयावि अचिर कालकयम्मिय १७॥ विच्छिन्ने दुरमोगाढ नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीय रहिए
राय धनपतसिंह वाहादुर का आम ह.११ मा भाव
भाषा
रहित असंलोको प्रदर्शनं आद्यभंग १ स्वपक्ष परपक्षनु आव नथी अने वेगलायौ केहन देखबुनथी एपहलीभांगी आगमनं नास्ति परलोको दर्शन * स्यात् आवे कोइनहीं पणिदेखत् होइके एवौजी भांगी २ आपातमसंलोक: जिहां स्वपक्ष परपक्षनु आवळे परदेख नथौ एत्रीजीभांगो आग 8 मनमप्यस्ति यत्र संलोकोप्यस्ति जिहां स्वपक्ष परपक्षनु पावके तथा देखवुके भांगो४ १६ अनाप्यते स्वपक्ष परपक्षाद्या गमनरहिते असंलोको ॐ तद्दर्शनवजिते जौहां कोईनु आव देखवु नयौ १ परेभ्य: प्रामाने संयमस्य उपघातो नास्तिपरथको आ प्रामानी सयमनो उपघात नथौ थातो २ 8 उच्चमीच भूमि स्ति: चौनींची भूमिका नहीके समौ धरतीछे भांगा ३ अशुषिर तृणपत्रादि अनाकौर्णभेद ४ अग्निप्रमुखे थोडाकालनो अचित्त
कोधो थंडिलछे अचित्तभूमौछेभेद ५१७ विस्तीर्णे दूरमवगाढे विस्तीर्णछे लांबी चोडी दूरमवगाढे पोहलीहाथ ६ प्रमाण थोडीती आंगल हेठिल अचित्त ७ दुरवर्त्तिने ८ मूषकादिरंधे रहितो ढ्कड़ नधो दूरके उदराप्रमुखांविल नथी त्रसप्राण वीजरहिती वसजीव कोई नथी वीजहरी पण
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अन्नादिकं उपधिं जौर्णवस्त्रादिकं अन्यत् तथाविधपरिष्टापनायोग्यं भेषजाद्यर्थ आनौतं गोमुत्रादिकं एतत्प्रामुकेस्य ण्डले परिष्टाप्येत पूर्व स्वण्डिलस्य चतुर्भौमाह अनापाते असंलोके न विद्यते आपातः स्वपक्षीय परपक्षीयाणां आपातो गमनागमनं यत्र तत् अमापातं पुनर्यत् असंलोकं भवति न विद्यते लोकानां संलोको दूरात् दृष्टिप्रचारो यत्र तत् असंलोकं कोर्थः यत्रस्थ ण्डिले प्रायो गृहस्थः कोपिनायाति तवचस्थण्डिले प्रावो दूरात् रहस्थानां दृष्टिप्रचारोनस्यात् तत्रस्थण्डिले इत्यर्थः इति प्रथमोभङ्गः पुनर्यत् स्थंडलं अनापातं भवति परं संलोकभवति लोकानां उपागमनर हतं भवति पर लोकानां दूरात् संलोकसहितं दृष्टप्रचारसहितं भवति इति द्वितीयोभङ्गः पुनर्यत् स्थंडिलं लोकानां पापातसहितं उपागमनसहितं भवति अथच दूरात् लोकानां संलोकरहितं दृग्प्रचाररहितं भवति अथं वतीयोभङ्गः पुनर्यत्स्थण्डिलं आपातं लोकानां उपागमनसहितं अथ संलोकं दूरात् लोकानां संलोक दृष्टिप्रचारसहितं भवति अयं चतुर्थोभङ्गः १६ पणावायेति तत्र चतुर्षभेदेषु अनापात असंलोके स्थडिले उच्चारादीनिव्यु म जेत् कथं भूते स्थंण्डिले दशविध विशेषणविशिष्टेतानि दश विशेषणान्याह कथंभूते स्थंडिले परस्य अनुपधातके यत्र अन्यस्य उपधातोनस्यात् संयमस्य आमनः प्रवचनस्य बाधारहिते हौलारहित १ पुनः कीदृशे अजा सिरे अपि अज्न सिरे इति घासवृक्षपत्र काष्ठादिभिः अव्याने तबाह परिष्टापित जन्तूनांउत्पत्ति: स्यात् पुनः कीदृशे अचिर कालकते अग्नादिनास्तोकेन कालेन अचित्तौकते १७ पुनः कीदृशे विचित्रे विसौर्य पुनः कीदृशे दूरं उगाढे अधस्तात् दूरंसचित्ते उपरिष्टात् अङ्ग लपंचकं यावत् अचित्त पुनः कीदृशेन आसन्ने अनासन्ने ग्रामाददरवर्त्तिनि पुनः कीदृशे विसवळिते मूसक सर्प कौटिकादि रंधवर्जिते पुन: कोहये वसपा दोन्द्रियादिभो रहिते पुनः कथं भूते बोजैः शालि गोधूमादि सचित्त धान्यरहिते एतादृश्ये दशविध विशेषर्वि भिष्टे स्वण्डिले पूर्वोक्तान् उच्चारादौन व्य त्मजेमंत्यजेदितिभावः (एयायी पंचसमिईयो समासेणविवाहिया इत्तीयतमोगुत्तोषी बुच्छामि अणपुब्बसो १८)
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राब धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• २०४१ मा भाग
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अ०२४ ७३७
8 एताः पंचसमितयः समासेन संक्षेपेण व्याख्याताः इतः अनन्तरं तिस्रोगुप्तिर्मनी गुप्तिवान्गुप्तिकायगुप्ति आनुपूर्वीतोऽनुक्रमतीवक्ष्यामि १८ [सञ्चातहेव 8 मोसाय सञ्चामोसातहेवय चउत्यो असञ्चमोसाओमणगुत्तोचउब्बिहा २०] मनोगुप्तिश्चतुर्विधा प्रथमासत्या मनोगुप्तिः तथा द्वितीया असत्यामनोगुप्ति; 8 तवैव तोया सत्यामृषा मनोगुप्तिः तथा चतुर्थी असत्या मृषामनोगुप्तिः यसत्य वस्तु मनसि चित्यते जगति जीवतत्वं विद्यते इत्यादि चिन्तनस्य योग
स्तद्रूपागुप्तिः सत्यामनोगुप्तिः प्रथमा १ यत् असत्व वस्तुमनसि चिंत्यते जौवोनास्ति इत्यादि चिन्तनस्य योगस्त द्रूपागुप्तिः असत्या मनोगुप्ति द्वितीया २ बहुना नानाजातियानां प्रामादि वृक्षाणां वनं दृष्ट्वा आमाणां एव वनं एतत् वर्तते स तत्मत्य पुनर्मषायुक्त एव इत्यादि चिन्तन योगस्तद्रूपागुप्तिः सत्या मषामनोगुप्ति स्तुतीया यतोत्र काचित् सत्या चिन्तनाकाचित् मृषाचिन्तना केचित् तत्र वने आम्राः संतितेन सत्याः केचित् तत्र वने धव खदिर
उच्चाराईणिवीसिर १८ । एयाओ पंचसमिईओ समासणबियाहिया । इत्तोउ तोगुत्तीओ बोच्छामि अणुपुव्वसो १८ सच्चातहवमोसाय सच्चामोसा तहेवय । चउत्योअसच्चमोसामणगुत्ती चउबिहा २० । संरंम समारंमे आरंभेय तहे
राय धनपतसिंह वाहादुर का श्रा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
नयी १. दशगुणयुक्त स्थंडिले उच्चारादिन् परिठापयेत् दशगुण सहितइस्यास्थंडिलने विखे उच्चारादि वोसिराव १८ एताः पंच समितयः एपांचसमिति * संक्षेपेन व्याख्याता संक्षेप करौने कही इत्यानंतराविणि गुप्तयः एतलानंतरतीनगुप्तिः वच्चे अनुक्रमेण अनुक्रमे कई १८ सत्या मनीगुप्ति तथैव मृषा एकसत्या मनोगुप्ति असत्या मनोगुप्तिः सत्या मृषा मनोगुप्ति स्तथैवच वौजौ सत्यमृषा मनोगुप्ति चतुर्धि असत्या मृषा तथाचउथौ असत्या मषा मनीगुभिः मनोगुप्ति चतर्विधाः मनोगुप्ति चिहु प्रकार कही २. संकल्पः अहं ध्यास्यामि एकामह करीस असौ मरिष्यति एवंविधः संकल्पः प्रारंभने विखे मन 8
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64ब
उ. टौका अ.२४
३८
पलाशादयो वृक्षा अपिसन्ति तेन मृषाप्यस्ति चतुर्थी असत्या मृषाया चिन्तना सत्यापि नास्ति यत् आदेश निर्देशादिवचनं मनसि चिन्त्यते है देवदत्त घटम् आनय अमुक वस्तुमह्यम् पानीयदीयताम् इत्यादि चिन्तना व्यवहाररूपा तद्रूपागुप्तिः असत्या मृषा मनोगुप्ति चतुर्थी यत एषा चिन्तना सत्यापि नास्ति मृषापि नास्ति व्यवहार चिन्तना इत्यर्थः ४ । २० [संरंभ समारंभे प्रारंभय तहेवय मण' पवत्तमाणन्तु नियत्तिज्ज जयं जई २१] यती साधु यंत्रवान् सन् संरम्भ समारो तथैवच आरम्भे प्रवर्त्तमान मनोनिवर्त्तयेत् संरम्भश्च समारम्भच अनयो: समाहारः संरम्भ समारम्भ तस्मिन् संरम्भ समारम्भे सरम्भः सङ्कल्पः अहं तथा ध्यान करिष्यामि करोमि वा यथा असो म्रियते मरिष्यति इत्यादि सङ्कल्पः संरम्भः तत्र सङ्कल्पे प्रवर्त्तमानं मनो निवर्तयेत् तथा समारम्भः परपोडाकरोच्चाटन कोलनादिनिबन्धन' ध्यान तत्रापि प्रबर्तमान मनो निवारयेत् तथैव च पुनः आरम्भः परप्राणापहारक्षमोऽशभ परिणामस्तस्मिन् परिणाम प्रवर्त्तमान' मनी निवर्तयेत् २१ अथ वचन योग' वदति सहप्पोस रम्भी परितापकरी भवे समारम्भीय प्रारम्भो सुहवयाईण सञ्बेसि २२ सर्वेषां अशुद्ध वचसां एते भेदा भवन्ति कौशास्तेभेदाः परितापकराः केते भेदाः सरम्भः सङ्कल्पः इत्याद्यर्थः पूर्ववदेव [सच्चातहेवमोसाय सञ्चामोसातहेवय च उत्थी असञ्चमीसाउ वयगुत्तौ च उबिहा २२] वचन गुप्तिचतुर्विधा भवति सत्या सत्यवाक तस्यायोगः सत्यवाग तद्रूपागुम्निः सत्यावाप्ति: १ एवं असत्यासत्यवाक तस्यायोग: असत्य वाक योगस्त द्रूपागुप्तिः असत्यवाग गुप्तिः २४
तहेवय । मणं पवत्तमाणंतु नियत्तेज्ज जयंजई २१॥ सच्चातहेव मोसाय सच्चामोसा तहवय । चउत्थी असच्चमोसा वडू * प्रवर्ताव मनः प्रवर्तमान' मनजातुथकु निवर्तयेत् यतनयायतिः यतनाई करौने पाहोवाले २१ सत्यावाग् गुप्तिः तथैव तद्विपरीता असत्यावाक्
साचो वचन अस ववचन स या मृषा हतीया तबैवस था अने मृषा मिथ एवोजो गुप्तिचतुर्धिसत्यामृषाचोथौ असत्यामृषा वचनगुप्ति एवं वागगुप्तिः चतु,
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०२४ ७२८
सूत्र
भाषा
तथा या सत्यावाग सतोषसत्ययावाचा सह मिलति सा सत्यामृषा वाग्गुति स्तृतीया ३ तु पुनञ्चतुर्थो असत्यामृषा वा गुप्तिः या सत्यापि नास्ति मृष्यपिनास्ति अर्थात् व्यवहारवाग, साचतुर्थीत्यर्थः ४ २२ (सरम्भ समारम्भ आरंभय तहेवय वयं पवट्टमाणन्तु नियत्तिज्जजयं जई २३) यतिः साधुर्जयं इति यत्नवान् सन् वचन' स'रम्भ समारम्भ तथैव च आरम्भे प्रवर्त्तमानं वचावचन' निवर्त्तयेत् स'रम्भः परजीवस्य विनाशनसमर्थः दुष्टविद्यानां गुणनं समारम्भः परेषां परितापकारकमन्त्रादीनां मुहुर्मुहुः परावर्त्तन' तथैव च आरम्भः परेषां क्लेशोचाटनमारणादि मन्त्र जाप करणं तथापि प्रवर्त्त मान ं निवारयेत् २३ [इत्यने न वाग्गुप्ति रेवोक्ता श्रथ काय गुप्ति माह [ठाणेनिसोयणे चैव तहेवयतुयहये उल्लङ्घण पलङ्घण इन्दियाण्यजुष्ञ्जणा २४] [संरम्भसमारम्भ आरम्भ' मितहेवय कायं पवत्तमाण' तु नियत्तिज्जजयं जई २५] युग्म स्थाने ऊर्द्ध स्थितौ च पुनरेव निश्चयेन निषौदने उपविशने तथैव तु यदृणेत्वग् वर्त्तने अर्थात् शयने तथा उल्लङ्घन प्रलङ्घने उल्लङ्घनं तथा विधनिमित्तात् गर्त्तादेरुत्कमणं तत्र पुनः प्रलङ्घनं सामान्येन गमनं तत्र गुत्ती चव्विहा २२ । संरंभ समारंभ आरंभेय तहेवय । वयं पवत्तमाणंतु नियत्तेज्ज जयंजई २३ ॥ ठाणे निसीयणे च' वतहेवय तुयट्टणे । उल्ल ंघण पल्ल' घण दूं दियाणयजु' जणे २४ । संरंभ समारंभे आरंभेयं तवय | कायं पवत्तमाणंतु T विधा उक्ताः एवाति चिह्न प्रकार कही २२ संकल्पः श्रहं ध्यास्यामि असीमरिष्यति तथैवचवचन' आरंभवचः प्रवर्त्तमानं वचनने राखे यतीनिवर्त्तयेत् यतनयायतिः वचननेनिवर्त्तावे यतो २३ यतिःस्थाने निषौदने उपविशनेयतौ स्थानकनेविखेवेसे तथैवचत्वग् वर्त्त नेशयने तिम वलौस्वे गत्या द्यतिक्रमेण पल्लवणे उ'चेनोचे जाईकरोने मूत्र इंद्रियाणिय दादिविषये योजनेप्रवत्ते इंद्रियनोप्रयु जव प्रवर्त्तावे २४ साधु संरभ मुष्यादिवाडनमे तथा समारंभ
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रात्र धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड०४१ मा भाग
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उल्टौका
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OOC
च पुनरिन्द्रियाणां प्रयुनने श्रीवमेवरसनानासात्व गादौनां इन्द्रियाणां शब्दरूपरसगन्ध स्पर्शादिविषयेषु व्यापारणे तथा संरी मुख्यादिना ताडने तथा समारम्भ परितापकारिणि लत्ताद्यभिधात तथैव पुनः प्राणबधाकरेयध्यादि प्रयोग कार्य प्रवर्त्तमानं यतिसाधुर्यनवान् सन् कायं निवर्तयेत सर्वव शरीरगप्तिर्विधेयाइत्यर्थः २५ [एयात्री पञ्चसमिईपी चरणस्मय पवत्तणे गुत्तौनिअत्तणेबुत्ता असभस्य स सबसौ २८] एताः पञ्चसमितयः चरणस्य चारित्रस्य प्रवर्तने उक्ता सर्वशः सर्वप्रकारण असभार्थेभ्यो व्यापारेभ्योनिवर्त नेतिस्रा गुप्तयः उक्ताः २६ [एयापवयणमायाजे सम्मं पायरेमुणौ सौखिष्प सव्वसंसाराविष्यमुच्च पण्डिएत्तिबेमि २७] यो मुनिः एताः प्रवचनमाः सम्यक जिनाज्ञया आचरेत् संमुनिः क्षिप्रशीघ्र सर्वसंसारात चतर्गति भ्रमणात् विशेषेण प्रमुच्यते प्रकर्षण मुक्तीभवति कौदृशोमुनिः पण्डितः तत्वज्ञः यस्तत्वज्ञः स एवाष्टं प्रवचनमाट प्रपालकः स्यादितिभावः इति सुधर्मा
नियत्तेज्ज जयंजई २५ । एयाओ पंचसमिईओ चरणस्मय पवत्तणे । गुत्तीनियत्तणेबुत्ता असु भत्थेमु सब्बसो २६। एया
पवयणमायाजेसम्म आयरे मुणी सैखिप्प सब्बसंसारा विप्पमुच्चडू पंडिएत्तिबेमि २७। समिईज्मयणं सम्मत्तं । २४ ॥ परकु पौडाकारी लत्ताद्यभिघातमै तथा आरभ परकु प्राण वधकारौ यट्यादि प्रयोगमे इनतीनोमप्रवर्तमान कायकु निवर्तावे २५ एताः प्रवचन मातरः एप्रवनमाता चारित्रस्य प्रवर्त्तने चारित्रस्य सहित प्रवत्र्ते के गुप्ति निवर्त्तने उक्ताः गुप्ति एणि निवर्तनकही मार्गने विसे जिवछुवे ते मार्गने निवर्ने प्रशभादिभ्यो मनीयोगादिभ्यः सर्वतः २६ एताः प्रवचन मातरः एआठप्रवचननौमाता यःसम्यक् कुर्यात् मुनौः साध्भले प्रकार आचरै ४ ससौनं सर्व संसारात ते साध ऊतावला संसारथी विप्रमच्यते पंडित इतिब्रवीमि मकाई पंडीत इमकई २७ इति श्रीसमितयः अध्ययनं संपूर्णम् ॥२४॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास.उ.४१मर भाग
भाषा
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उ टोका
अ.२५
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8 स्वामी जम्ब स्वामिन' प्राह है जम्ब अहं तीर्थ करवचसा तवाग्रे ब्रवीमि इति प्रवचनमान कः समित्यध्ययनं चतुर्विशतितमं संपूर्ण ॥ २४ ॥ * इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकौति गणि शिष्य लक्ष्मीवल्लभ गणि विरचितायां समित्यध्यनं चतुर्विशतितमं सम्पूर्ण ॥ 8 अश्व पञ्चविंशतितमं प्रारभ्यते ॥ पूर्वस्मिन् अध्ययने प्रवचनमातर उक्तास्तास्तु ब्रह्मण गुणयुक्तस्य स्यात् तस्माइन गुण ज्ञानाय यज्ञोध्यायन कथ्यते [माहण * कुलसम्म ओ आसिविष्यो महाजसो जयाई जम्मजसंमि जयघोसे त्तिनामी १] वाराणस्यां डिजौयमलौभातरौ जयघोषविजयघोषौ अभूतां तयोरेको *
जयघोषनामागङ्गायां सातुत: कुररसपमण्ड कग्रास' दृष्ट्वा प्रव्रजितः तहातमाह माहण कुलमिति ब्राह्मणकुलेसंभूतः विप्रकुले समुत्पश्चाजयघोष इति नामतोविप्र प्रासौत् अत्रहि यत् ब्राह्मण कुलसम्भूतः विप्रासीत् इत्युक्त तत् ब्रह्मणजनकादुत्पद्रोपि जननीजातिहीनत्वे ब्राह्मणः स्यात् अतो विप्रइत्युक्तं कीदृशो जयघोषः यमजन्न मियमं यन यायाजीयायजीत्येवंशौलोयायाजीयमा: अहिंसासत्याऽस्ते य ब्रह्मनिर्लोभाः पक्ष ते एव यज्ञीयमयन्त्रस्त स्मिन् यमयने अतिशयेनयनकरणशीलः अर्थात्पञ्च महाबतरूप यज्ञ याज्ञिकोजातः यतिर्जातइत्यर्थः १[इन्दियग्गामनिगाहोममागामौमहामणी गामाण गामरीयन्ती पत्तीवाणारसिंपुरि २] स महामुनिरकाकीसाधुर्यामानुग्रामं रौयन्तोइति विचरन् वाराणसी पुरौं प्राप्तः कौदृशः समहामुनिः इन्द्रिय
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.इ.४१मा भाग
___ माहण कुल संमूओ आसि विप्पो महायसी। जायाई जम्म जनमि जयघोसत्ति नामयो॥१॥ इंदियग्गाम ब्राह्मणकुलस भूतः ब्राह्मणनेकुले ऊपनी आसौत् विप्री महायथाः हो ब्राह्मण महायगनो धणी याजीवज्ञाकारीयमः ब्राह्मण कि स्योछे याकर पंच महाव्रतपालके यमनीम करे जयघोष इति नाम्ना जयघोष से नाम ब्राह्मणोद्रियजयो मुक्तिपथगामी 'द्रियनीजीपणहार मुक्तिमार्ग
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ग्रामनिग्राहौइन्द्रियाणां ग्राम समूहं इन्द्रियपञ्चक निराहाति मनोजयेनवशीकरीतौति इन्द्रियग्रामनिग्राही पुनः कीदृशः समार्गगामीमार्ग मोक्षं •टीका गच्छति स्वयं अन्यान् गमयतौति मार्गगामी २ वाणारसीए बहिया उज्जाणमि मणीरमै फासुएसिज्जसन्यारे तस्ववा समुवागए ३] स साधुर्वाधारस्यां
बाह्य मणोरम मनोहरे उद्याने प्रामुकेजौवरहिते शिय्यासंस्तारकेदर्भणादि रचिते शयनोपविशनस्थितौ तबवास इति वसन्ति कत्तु उपागताः३ (अहलेणेव कालेण पुरोएतस्य माणे विजयघोसे त्तिनामेण जमश्चयइवेयवो ४] अथ अनंतर तस्मिन्नेवकाले यस्मिन् काले साधुर्वने समागतस्तस्मिन्नेव काले तस्थां वाराणस्यां पुर्या विजयघोषइति नामा ब्राह्मणीयज्ञ यजतियज्ञ करोति कीदृशी विजय घोषः वेदवित् वेदनः ४ [अहमे तस्थ अणमारे
निग्गाही मग्गगामी महामुणी। गामाणुगामं रीयंतो पत्तो वाणारसिं पुरि २॥ वाणारसौए बहिया उज्जाणंमि मणोरमे। फासुए सिज्ज संथारे तत्य वास मुवागए ३॥ अह तेणेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे । विजयघोसत्ति
नामेगा जन्नं जयद वेयवी ४॥ अह से तत्य अणगारे मासखमण पारणे । विजयघोसम्म अन्नंमि भिक्खस्मट्ठा उव भाषा
* चालेके मार्गे चलति महामुनिः भलेमार्गे चाले महाऋषीश्वर ग्रामानुग्राम विहरन् ग्रामानुग्राम विहारकरतु'धको प्राप्तः वाणारस्यां पुयीं वाणारसी
नगरो पोहोतु २ वाणारस्यां बहिर्भार्ग : बाणारसौने बाहिरले पासे उद्याने मनोरम मनोरमइस्येनामे उद्यानछे निर्जीवशय्या संस्तारके प्राशकशिय्या संथारक लईने तत्र वास उपागतः ते वनमांहि रह्या बासकोधी ३ अश्व तेनैव तस्मिन् काले हवे तिणेज कालि पूर्या तत्र ब्राह्मण: तेहज वणारसौ नगरौनेविखे ब्राह्मण विजयधोघइति नामा विजयघोषइसिनाम ब्राह्मणके यागं यजति करोति वेदवित् यज्ञकरे वेदनोजाणछे ४ अथ स तत्र अनगारः
राय धनपतसिंह बाहादुर का था •सं• उ. ४१मा भाग
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इटीका
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मासखमणपारणे विजयघोसस्मनवमि भिक्ख स्मठ्ठा उवहिए ५ ] अथ अनन्तरं तत्र विजयघोषस्य या स पूर्वोतोजयघोषोऽनगारोमास क्षमणस्य पारण भिवायाअर्थ भिक्षायैउपस्थितः ५ [समुवडियं तहिं सन्त'जायगोपडिसेहई नहुदाहामितेभिक्वं भिक्खूजायाहि अस्सी ६] तदा याजकीयजमानोविजय घोषो ब्राह्मणस्त त्रभिक्षार्थ' समुपस्थित सन्ततं साधु प्रतिषिध्यति निवारयति कथं निवारयतीत्याह हे भिक्षोत्वं अन्यतोऽन्यत्रयाहि तेतुभ्यंभिक्षां न ददामि । (जेयवेयविऊविष्पाजपट्ठायजिइन्दिया जोइ सङ्ग' विजजेय जेयधम्माणपारगा ७] (जेसमत्था समुदत्त पर अप्याणमेव यतसिं अवमिण देयं भोभिक्खूसब्वकामियं ८] [युग्म विजयघोषोवदति हे भिक्षोऽस्मिन् यज्ञे इदं प्रत्यक्ष दृश्यमाण अब सर्वकामिक' षट्रस सिद्ध' तेषां पात्राणां देयं वर्तते तेभ्योदेयमस्ति नतु तुभ्य देयं वर्तते तेषां केषां ये आत्मानां स्वकीयमात्मान' च पुनः परं परस्य आत्मान समुदत्त समर्थाः ये संसारसमुद्रात्
हिए ५॥ समुबट्ठियं तहिंसंतं जायगी पडिसहए। नहु दाहामि ते भिक्खं मिक्खू जायाहि अन्नो ६ ॥ जे वेय
विज विप्या जनहाय जे दिया। जोसंग विज जेय जेय धम्माण पारगा ॥ जे समस्या समुद्यतु परं अप्याण हवेतेयतो साधु मासक्षपणपारणकेमासखमणने पारणे विजयघोषस्य यने विजयघोष वाह्मणना यनने वाडे आव्यो भिक्षार्थ उपस्थित: भिक्षाने अर्धे आवौ उभीरह्यो ५ भिक्षार्थ' समागत स्तदासांत भिक्षाने अर्थे तौहाँ शाधू पाव्यादेखौने यज्ञकारो विजयघोषः निवारयति यज्ञनीकरणहार विजयघोष निवार नैवदास्यामि तुभ्यं भिक्षां तुझने भिक्षा नहौद्या हे भिक्षीयाखअन्य अहो भिक्षुवौजठामिजा मांगौया । ये वेदविदीविप्राः जे वेदनाजाण ब्राह्मण यन्न प्रयोजनाः जितेंद्रिया: जे यानी क्रियाकर जितेंद्रियः ज्योतिषांगविदः ज्योतिषनाजाण ये धम्मशास्त्राणां पारगा जैवली धर्मशास्त्रना पारगांमीछे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१ मा भाग
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उ.टीका
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आत्मानं तारयितु समर्थाः परं अपितारयितु समर्थास्तेषां प्रदेयमस्ति इति भावः ७ पुनः केषां प्रदेयं अन्न वर्तते ये विप्राः वेदविदोबेदजास्तेषां पुनर्ययज्ञार्थाः यन्न एव अर्थः प्रयोजन येषां ते यज्ञार्थास्तेषां पुनर्येजितेन्द्रियाः इन्द्रियाणां जेतारस्तेषां पुनर्ये ज्योतिषांगविदः ज्योतिः शास्त्रस्याङ्गवे त्तारः यद्यपि ज्योतिशास्त्रं वेदस्याङ्गमेवास्ति वेदविद इत्यु ते आगतं तथापि अत्र ज्योतिः शास्त्र स्य पृथगुपादान प्राधानाख्यापनार्थ तस्मात एतह णविशिष्टायब्राह्मणास्तेषादेयमस्ति पुनर्ये धर्मशास्त्राणां पारगास्तषां देयं अचान वर्तते इत्यर्थः ८ (सोतस्थ एवं पहिसिही जायरीण महामुणी नविरुट्ठी नवितुट्टो उत्तमहगवेसओ] समहामुनिर्जयघोषः तत्र यज्ञ एवं अमुनाप्रकारेण विजयघोषेण याजकेन यजकारण प्रतिषिय: सन् निवारितः
मेवय । सेसिं अन्न मिणं देयं मो भिक्खू सब्बकामियं ८॥ सा तत्थ एव पडिसिद्धो जायगेण महामुणी। नवि रुट्ठो नवि तुट्ठो उत्तमट्ठ गवसओ॥ न नटुं पाण हेउवा नवि निव्वाहणायवा। तेसिं वि मोक्वण हाए इमं वयण
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०३.४१ मा माय
भाषा
ये समर्थाः समुदत्तुं जे समर्थ के संसारथौ आपणा आमाने उडर वाभणी तारवाभणी पर आत्मानमपि परनेपणि प्रामानेपणि संसारसमुद्रथो तार वाभणी समर्थ छ तेषां अन्न इदं देयं तहने अर्थे एअवनींपर्जछे भो भिक्षु सर्वकामिक षट्रसोपेत अहो भिक्षु एसर्वकामित षट्रससहित भोजनछ ते विप्र जिमस्ये ८ स: जयघोषः यजे अमुनाप्रकारेण निवारितः ते साधु इणे प्रकार निवास्योथको यनकर्ता विजयघोषन महामुनिः यज्ञनो करणहार विजयघोष ब्राह्मणने न विरुष्टः नापि तुष्टः इम कह्यांथका साधु न रूठो न तूठी मोक्षार्थ गवेषयः वांछक: मोक्षना सुखने वांछ मोक्षने मार्गेचालेछ । स मुनि: न अवार्थ न पानार्थ ते मुनि अन्नपानिने अर्थेनही भोजन वस्त्रादि निर्वाहणायनापि भोजन वस्त्रादिक तेहने निर्वाह भणी पणिनही तेषां
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उ० टोका
अ ०२५
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सूत्र
भाषा
*X*XX*X**X*XX*
सन् नापिरुष्टनापि तुष्टः समभावयुक्तोभृत् कीदृशः समहामुनिरुत्तमार्थ गवेषकोमोचाभिलाषो [न नहं पाण हेड वा नविनिव्वाहाय वा तेसि विमोक्खणट्ठाए इमं वयणमव्यवी. १०] समहामुनिः तेषां विजयघोषादि ब्राह्मणानां विमोचणार्थ कर्मबन्धनात् मुक्तिकरणार्थ इदं वचनं श्रब्रवीत् पर' अन्नपानलाभार्थ' न अब्रवीत् एवं ज्ञात्वा न अब्रवीत् येन अहं एभ्य उपदेशं ददामि एतेप्रसत्रामा सम्यग अन्रपानं ददति इति बुद्यान श्रवोत् किं तु तेषां संसारनिस्तारार्थ' अवदत् वा अथवा निर्वाहणाय अपिनवस्त्र पात्रादिकानां निर्वाहएभ्यो मम भविष्यतितेन हेतुनाम अब्रवीदिति भावः १० [विजाणसिवेयमुहं न विजन्राणजमुहं नक्खत्ताणमुहंजच्च जश्चधम्मायवा मुहं ११] कि अब्रवोदित्याह भी ब्राह्मणविजयघोषत्वं वेदमुख नविजानासि पुनर्यत् यज्ञानां मुख वर्त्तते तदपित्व' मजानासि पुनर्यत् नचत्राणां मुख' तदपित्वं न जानासि च पुनयधर्माणां मुख वर्त्तने सदपि त्वं न
मव्ववौ १० ॥ नवि जागसि वेय मुहं नवि जन्नाण जं मुहं । नक्वत्ताण मुहं नच जं च धम्माण वा मुहं ११ ॥ जे समत्या समुद्दत्तु परं अप्पाण मेवय । न ते तुमं वियाणासि यह जाणासि तो भग १२ ॥ तमक्वेव पमोक्तंच अच विमोचार्थ तेहने संसारथी मूं काववानेकाजे इदं वच्यमाणं श्रब्रवीत् इसो वचन साधु ब्राह्मणने कहे १० नैव त्वंजानासि वेदमुख हो जाय वेदन' मुख नहीं जाऐक्के नापो यज्ञानां यत् मुख यज्ञनो मुखपणि तु नही जायेके नचवाण' यन्मुख' नचवनुं पणि मुख तूं नथो जायतु यत् पुनः धम्माणां वा मुख ं धमेनु मुख पणि तु' नथी जाणतु ११ ये समर्थाः समुद्दतु' जिकेशमर्थ अधरवा भयौ पर आमानं श्रपिच परने मथितारे आमाने पणितारे न त्व' जानासि विजयघोष हे विजयघोष तु नथो जांणतो अथ जानासि ततः कथयः जो तु ́ जाये तो कही १२ तस्य मुनेः आम प्रमुख
८४
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जानासि ११ पुनः स साधुर्विजयघोष' ब्राह्मण प्रति प्रकृति [जे समत्थासमुहत्तु परं अप्पाणमेवय गते तुम वियाणासि पहजापासितोभण १7 * हे विजयघोष ये परं च पुनः आमान' एवं समदत्त संसारात् निस्तारयितु समर्थास्तान् स्वपरनिस्तारकान् त्वं न जानासि प्रश्व चेतृत्व जानासि
तदाभण कथय १२ (तस्मक्ले वपमोक्वच्च अचयन्तो तहिंदियो स परिसी पंजलिउडो पुच्छाई तंमहामुणिं १३) तहिं इति तत्रयन दिजी विजयघोषः प्राञ्चलिपुटी बडाञ्जलिः सन् तं महामुनि पृच्छति कीदृशी हिजः सपरिषत्बहुभिर्मनुष्य सहितः पुनः स हिज: कौदृशः सन् तस्य साधोराचे प्रय * स्तस्य प्रमोक्षं प्रतिवचनं उत्तरं अचयन्तो इति दातु असक्न वन् प्रश्नस्योत्तरं दातुं असमर्थ ः सन् दातु इत्यध्याहारः १३ ( वेयाणच मुहंबूहि बूहिजवाण * जंमुहं नक्वत्ताण मुहंबूहि बूहिधम्माण वा सुहं १४) हे महामुने त्वमेववेदानां मुखंबूहि पुनर्यत् यज्ञानां मुख'तम्मे ब्रूहि पुनर्भचत्राणां मुखंब्रूहिF
यंती तहिं दिओ। स परिसी पंजलीउडी पुच्छई तं महामुणिं १३॥ वेयाणंच मुहं बूहि बहि जन्नाण जं मुहं।।
नक्खत्ताण मुहंबू हि बहिधम्माणवामुहं १४ ॥ जे समस्या समद्धत्तु परंअप्याण मेवय । एयंमे संसर्यसब्वं साहूकहय भाषा ॐ प्रश्नोत्तरी तेह य तौनपूच्यानो उत्तरदेवाभणी असमर्थ ब्राह्मण हो दातुं महा अशक्त वंतः तस्मिन् यज्ञे हिजः उत्तरदेवाभणी असमर्थ सपर्षत्
सभान्वित: प्रांजलिपुट: सर्व ब्राह्मण सहित हाथ जोडीने पृच्छति तं महामुनि ते महामुनिने पूछेले १३ वेदानां पुनः मुख ब्रूहि वेदनो मुंहडोकहो * ब्रूहिवतानां यन्मुख यज्ञनो मुहडो कही नक्षत्राणां मुख ब्रूही नक्षत्रनो मुंहडो कही ब्रूहि धर्माणां वा मुख धम्मनु मुख कही १४ ये समर्थाः समु
इत्त जे समर्थ तारवाभणी पर आत्मान एव परने पापणा आमाने एतत् मम संशयं सर्व एसर्वमाहरो संदेह है साधी त्व कथय मया पृच्छते अहो
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२.४१मा भाग
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पुनर्यद्धर्माणां यन्मुखं तन्मे ब्रूहि १४ [जेसमत्था समद्धत्तु परं अप्पाणमेवय एवंम संसयंसब साइकहय पुच्छिी १५] पुनर्ये पुरुषाः परच पुनरात्मानं अपि संसारात् उद्दत्तुं समर्थाः सन्ति एतन्मे मम संशयविषयं वेदमुखादिकं अस्ति है साधोत्वं मया पृष्टः सन् सर्व कथयस्व
इत्यु क्त पुनराह १५ [अग्निहोत्तमुहाया जबढी वेयसामुहं नक्वत्ताण मुहं चन्दो धम्माण कासवोमुह १६] हे विजयघोषवेदाः अग्नि होत्र मुखाः स. टीका
अग्निहोत्र मुख' येषां ते अग्निहोत्र मुखाः वेदानां मुख अग्निहोत्र' अग्निहोत्र हि अग्निकारिका साचइयं कर्मेधनं समाश्रित्य दृदासद्भावनाहुतिः अ०२५ ७४७४ धम्मध्यानाम्निनाकार्यादीक्षितनाग्निकारिका १ इत्यादि यज्ञ विधि विधायिकाकारिकारात वेदानां यज्ञानां एषा एवकारिकामुख प्रधानं अस्थाः
कारिकायाः अर्थः कर्माणि इन्धनानि कृत्वा उत्तमाभावना आहुतिविधेयाधर्मध्यानाग्नौ दीक्षितन इयं अग्निकारिकाविधेया. पुनहें ब्राह्मणविजयघोष 8 यज्ञार्थीपुरुषोवेदसां यज्ञानां मुख वर्तते यज्ञोदशप्रकारधर्मः सत्य' १ तपश्च २ सन्तोषः ३ क्षमा ४ चारित्र ५ मार्जवं ६ श्रद्धा ७ धृति प रहिंसाच ।
सम्बरथ तथा परः १० इति दशप्रकारः सचावप्रस्तावाडावयन्नस्तं यनं अर्थयति अभिलषतीति यज्ञार्थी स एव यज्ञानां मुख' वर्तते नक्षत्राणां 8अष्टाविंशतीनां मुख चन्द्रोवतं ते धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्रधर्माणां काश्यपः आदीखरोमुख' वर्तते धर्माः सर्वेपि ते नैव प्रकाशिताइत्यर्थः १५
पुच्छिओ १५ ॥ अग्निहोत्त मुहावया जन्नहीवयसामुह'नक्सत्ताण मुहंचंदो धम्माणं कासवामुहं १६ ॥ जहाचंदं गहा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं°१.४१ मा भाग
भाषा
साधू तु कहाहुपूकुछ १५ मुनिरुवाच अग्निहोत्र मुखाः वेदाःअग्निहोत्र अभ्यंतर साधकहे धर्मध्यानरूप अग्निकरी कर्मरूपधणहीमौई ते अग्निहोत्र 8 वेदनीमुख यत्तार्थीभाव यत्नः वेदमा यागानां स्खभाब सहित यानी अर्थि साधते यानमुख नक्षत्राणं मुखंचंद्रा नक्षत्रनु मुखचंद्रमा धम्मो मुख'
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उ०टीका
अ०२५
* [जहाचन्द गहाईयाचिट्ठन्त पचलीउडावन्दमाणा नमंसन्ति उत्तमं मणंहारिणो १७] यथा गृहादिका अष्टासीति ग्रहाः नक्षत्राणि अष्टाविंशति प्रमितानि एवं सर्वेज्योतिष्कादेवाश्चन्द्रः प्राञ्जलिपुटाः वहांजलयस्तिष्टन्ति सेवन्ते एवं पौरिषभदेव उत्तम प्रधानं यथा स्यात्तथामनीचारिणत्रिभुवनवर्तिनी भव्याः वन्दमानास्त वनां कुर्वन्ती नमस्कुर्वन्ति विनयेप्रवत्तन्ते इति भावः (अजाणगाजबवाई विज्जामाहणसम्पयामूढासकायतवसा भासहबारव ग्गिणी १८] विजयघोषविद्यावामणसम्पदा अजानानाः पुनर्यवादिन स्ते त्वयापात्रत्वेन मन्यन्ते विद्यापारण्यक बधाडपुराणामिकास्तों एवं ब्राह्मणसम्पदीविद्यायाम्हणसम्पदस्तासां अज्ञाः सन्तोयज्ञवादिनीवर्तन्ते चेत् वृहदारण्यकाद्युक्त य एतेजानन्ते तदा कर्थ एतादृशं या कुथु । तस्मात्
या चिढ़ती पंजलीउडा। बंदमाणा नमसंता उत्तमं मणहारिणो १७ ॥ अजाणगा जन्नवाई विज्जामाहण संपया।
मूढा सभाय तवसा भास छन्ना व ग्गिणी १८॥ जोलाए क्मणो बुत्तो अग्गीवा महिओ जहा। सयाकुसल सदि काश्यपः ऋषभदेव धर्मनु मुखश्रीआदिनाथ १६ यथा चंद्रग्रहादिकाः जिम चंद्र आगे ग्रह नक्षत्र तारा सन्मुख' तिष्टति प्रांजलिपुटाः हाथजोडीने साहमा अभारह वंदमानाः स्तवंतः नमस्यतः वांदताथका स्तवतांयका नमस्कार करताथका चंद्रमाने मेवेछ उत्तम प्रधान मनीहारिण: उत्तम प्रधान मनननो हरणहार तिम श्रीआदिनाथने इंद्रादिक इम हाथ जोडोने सेवेचे १० तत्वज्ञा यन्त्रवादिनः एते बालाः एब्रा ह्मण जाणेनही अने कहे अम्हे जनकरु छु विद्यानां ब्राह्मणसंपदांच अग्निविद्या अने ब्राह्मणनी संपदा जाणनही मूर्खाः स्वाध्याय तपसाः सज्काय तपने विखे मूर्ख वेदाध्याय नोपवासादिना भमच्छ बो अग्निरिव राखK ढांको अग्नि जौम दहे तिम ते ब्राम्हणछे १८ ये लोके ब्राम्हणः उक्ताः जे * लोकने विखे ब्राम्हणकह्या पंडिते यथा अग्निर्मथीती निर्मल जिम अग्नि पूज्योधको धौधास्याथका उज्वलनिर्मलहोइ तिम ते ब्राम्हण होइ सदा कुशले
राथ धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०३.४१मा भाग
भाषा
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७४८
उ टीका
वथैववयं याज्ञिकाइत्यभिमानं कुर्वन्ति पुनः कथम्भूताः स्वाध्यायतपसावेदाध्ययनोपवासादिना मूढाः बहिः संहतिमन्तः आच्छादित तत्वज्ञाना: एते ०२५ केइव भस्मच्छन्ना अग्नय इव रक्षाच्छादितावड्यइव इत्यने न बाह्येशीतत्वे प्राप्ताः परं कषायाग्निनामध्ये सन्तप्ता एवेतिभावः १८ पुनः साधुर्वदति
* जोलोएबम्भणीबुत्ता अग्गौवामहीअोजहा सया कुसलसन्दितं वयं वूममाहणं १८] हे विजयघोषवयं तं वाम्हण ब्रूमः तं कं येमुनिभिर्वाधण उक्त:
यदा कैश्चित् अः अवाह्मणोपि वाम्हणीयमित्यु क्तस्तं वाम्हण न ब्रूमइति भावः कथंभूतः स लोकैमहितः पूजितः सन् दौप्यते कइव अम्मिरिव यथाग्नि पूजितोहतादि सिक्तीदौप्यते कीदृशं तं वाम्हणं सदा कुशलसन्दिष्टं कुशलैस्तत्वाभिन्नः सन्दिष्ट कथितं १८ अथ कुशलसंदिष्टस्वरूपमाह [जोनसन्जर आगन्तु पञ्चयन्तो नसोयई रमद् अनवयणमि तंवयं बूममाहण २०] हे विजयघोष तं वयं वाम्हणं ब्रूमः स इतिक यः आगन्तु' इति बहुभ्योदिनेभ्यः प्राप्त स्वजनादिक वल्लभचननस्वजतिनालिङ्गति अथवा आगन्तुइति स्वजनादिस्थानं आगत्यस्वजनादिक' न खजति म अभिष्वा करोति पुनर्यः प्रव्रजन् स्थानात् अन्यत्रस्थान स्थानान्तरं गच्छन् अर्थात् विछुटन् नशोचते नशोक कुरुते पुनर्य आर्यवचमतीर्थकरवाक्ये रमते तं वयं वाम्हयं वदामः २०
तंवयं ब ममाहणं १६ ॥ जोन सज्जडू आगतु पब्बयंती न सोयई। रम्मई अज्जवयणमितंवयं बममाहणं २०॥ माय संदिष्ट ते ब्राम्हणकुशले चतुरे तीर्थ करे कह्या शतं वयं वाम्हण ब्रूमः तेहनेह वाम्हणकहछु १८ य नसज्यते आगत्य पुनः यह संग न करोति दीक्षा
लेईने वलो आवोने ससारीनो संग न करे प्रवुजन् स्थानांतर गच्छन् न शोच्यते दौक्षालेईने दसदिशाने विखे जाइतोथको भोचेनही रति कुरुते तीर्थ ॐ क्लबचने संतोषकर तीर्थ करना वचन ऊपरि तं वयं वाम्हण ब्रूमः तेहनेह वाम्हणकर छु२० यथा जातरूपं सुवर्म प्रमृष्ट जिम जात्य सुवर्य भी
राव धनपतसिंह वाहादुर का प्रा.सं २०४१ मा भामा
भाषा
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"N
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४
[जायरूवं जहाम निहत्त मलपावग रागदीसभयातीतं तं वयं बूममाहणं २१] हे विजयघोष वयंतं ब्राम्हण ब्रूमः कीदृशं जातरूप खइव आमुष्ट' उ. टौका तेजोवृद्धयेमनः शिलादिनापरामष्ट' कतवर्णिकावर्धन अनेन बाह्यगुणउक्तः यथा शब्द इवार्थे पुनः कीदृश' तं निहत्तमलपावग' निसरा अतिशयेनभात
* मलं किन्तद्रूपं पातक यस्य तत् निर्भातमलपापक अनेन च अन्तरोगुणउक्तः पुनः कथंभूतो रागदोष भयातौत राग: प्रेमरूपः देषोऽभौति रूपस्ताभ्यां
अतीतोदूरीभूतस्तं विप्रवदामः २१ [तवस्मियं किसन्दन्त अवचियमंससोणिय सुब्वयं पत्तनिवाण त वयं बूममाहण' २२] हे विजयघोस वयन्त' वाम्हण ब्रमः तं कं तपस्विन अतएव कृशं दुर्बल पुनः कीदृश दान्त जितेन्द्रियं पुनः कीदृशं अपचितमांसशोणियं शोषितमांसरुधिरं पुनः कीदृश सुवृत सम्यक वृतानां धर्तारं पुनः कौदृश प्राप्तनिर्वाण प्राप्त कषायाग्नि शमनेन निर्वाण शौतीभावं येन स प्राप्तनिर्वाणस्त २२ (तसपाये वियाणित्ता.
रूवं जहामठ्ठ निबंत मलपावग। रागदोसमयाईयं तंवयं व ममाहणं २१ । तव स्मियं किसंदंतं अवचिय मंस
सोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तंवयं ब ममाहणं २२ ॥ तसेपाणे वियाणित्ता संगहणयथावरे । जोन हिंसतिविहेणं प्य यनिमातं मलरूप मलरहितं धम्योथको मेलदुरिहोइ तिम साधु पापमलथौ रहित रागद्देष भयातीतं रहितं रागद्देषभय तिणे करौरहितछे ४ जे साधू तं वयं ब्राम्हणं बदामः तेहनेह वाम्हणकहछु २१ तपस्विनं कृशं दांतं तपस्वी कशदांतछे अपचिंत शोषितं मांस शोणितं मांसलोहिसोथांछे
सुद्धतं कवायाग्नि शमनेन प्राप्त स तत्वचार कषायउपशमायाछे तत्वप्राप्तिहईछे तंवयंब्राम्हणं बदाम तेहनेअम्हे वाम्हणकह २२ यः वसानप्राणान्विज्ञायत्रस प्राणौनेजांणीने संग्रहेणं थावरान् थावर जीवने जाणे यो न विनाशयति विविधन मनोवाकायैः त्रसादिजीवने मनवचन कायाई करौनमार नहौ तं वयं
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.१.४१ मा भाग
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उन्टोका
७५१
सहेणय धावर जोन हिंसर तिविहणं तं वयं बूममाहण' २३] है वाम्हण तं वयं वाम्हण ब्रूमः त इति क' यस्त्रसान् प्राणान् पुन: स्थावरान् संग्रहेण समासेन संक्षेपेण विनायत्रिविधेन मनो वाकायेन करणकारणानुमतिभेदेन नवविधन नहन्ति तं वाम्हण वच्मइति भावः २३ (कोहा वाज
इवाहासालोहावाजइवाभया मुस'नवयईजीउ त वयं बूममाहण २४] है बिजयघोष यः क्रोधात् यदिवा अथवा हासात् वा अथ वा लोभात् है 8 अथ भयात् मृषां असत्यवाणी नवदति तं वयं वाम्हण ब्रूमः २४ [चित मतमचित्त वा अप्य वा यदि वा बहु नगिण्हदू अदत्तजे तवयं बूम माहण' २५ ] है वाम्हण यश्चित्तमं त' सचित्त अथवा अचित्त प्रासुक अल्प स्तोक यदि वा बहु प्रचुर प्रदत्त दायकेन अर्पितं वयमेव न गृह्णाति तं वयं वाम्हण बदामः २५ [दिव्वमाणुस्मतेरिच्छं जोनसेवइमेहुण मणसाकायवकण' तं वयं बूममाहण' २६ ] पुन:दिव्यमानुष्यतिर
तंवयं ब ममाहणं २३॥ काहावा जवाहासा लाभावा जवा भया । मुसं नवथईजोउ तंवयं व ममाहणं २४ ॥ चित्त
मंत मचित्तंवा अप्पंवा जवा बहु । न गिग्रहदू अदत्त'जे तंवयं ब ममाहणं २५ ॥ दिव्वमाणुस्मतेरिच्छं जीनसेवडू वाम्हण बदाम: तेहने अम्हे वाम्हणकहरु २३ क्रोधादायदिवा हामाहा क्रोधेकरौ हासेकरौ लोभाहा लोभकरौ अथवा भयाहाभयकरौने मृषानवदति यः मृषावाद वोलेनहो तं वयं वाम्हण बदामः तेहने अहें वाम्हणकहु कु २४ यः चित्तमंतं विपदादि अचित्त स्वर्णादि सचित्त द्विपदादिक अचित्त सुव र्णादि अत्यवावदिवावडं थोडं अथवा घणु न राहाति अदत्तयं जे कोइनुअणदौधु नलिइ वयंत वाहण बदामः अम्हे तेहने वाहणकई २५ देव मनुष्य तिर्यग् संबंधिनः देव मनुष्य संबंधितौर्यच संबंधी यः न सेवेते मैथुनं मैथन सेवनहीं मनसा वचसा कायेन मनेकरीकायाई करौ वचनेकरीतं वयं
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा•सं•४.४१ मा भाग
भाषा
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प्र०२५४
यौन मैथन मनसाकायेन वचसाकत्वानसेवते वयं त वाम्हण बदामः २६ [जहापोमचले जायनीव लिप्पइवारिणा एवं अलित कामहिं तवयं बम उ.टीका - माहण' २०] है वाम्हण पुनस्तं वयं वाम्हण बदामः त कोहय एवं अमुनाप्रकारेण धनेन दृष्टान्त न कामैः अलिप्त भोगेः प्रसंसन' येन दृष्टान्तेन *
यथा पद्म जलेजात परं तत् पद्म वारिणान उपलिप्यते जलन्त्यक्त्वोपरितिष्टति तथा भोगैरुत्यबीपि भोगैरलिप्तोयस्तिष्टति स वाम्हणोजेयः २७ [असोलुयं
मुहाजोवि अणगारं अकिञ्चण अस सत्त गिहत्ये स त वयं बूममाहण २८] मूलगुणमुक्या उत्तरगुणमाह पुनर्वयं त वाम्हण ब्रूमः कीदृशं त वाम्हणं * अलोलुपं आहारादिषु लाम्पट्यरहित पुनः कीदृश्य मुधाजीविन अन्नातगृहेषु आहारादि ग्रहौत्वा भाजीविका कुर्वाण' सयमजीवितम्यधारक' इत्यर्थः पुनः कोहग रहस्येषु अस सक्त गृहस्थ प्रतिबन्धरहित २८ [जहिता पुव्वसञ्जोग नायसङ्गेय बन्धवे जोनसज्ज एएमत वयं बूममाह २८]
मेहुणं । मणसा कायवक्केणं तंवयं ब ममाहणं २६ ॥ जहापोमं जलेजाय नोवलिप्पडू वारिणा । एवं भलित्त कामेडिं
तंवयं ब ममाहणं २७ ॥ अलोलुयं मुहाजीवी अणगार अकिंचणं । असंसत्त गिहत्येसु तंवयं बममाहणं २८॥ बदामः वाम्हण तेहने अम्हे वाम्हण कहछु २६ यथा पद्म जलेजातं जिम कमलपाणौमाहि जरी नोविलिप्यते जलेन परं पाणीस लेपाई नहीं एवं
आलौप्त: पम्हवत् कामे इम जे कमलनीपर कामभोगयौ लेपाइनहीं तं वयं बदामः वाम्हणं तेहने अम्हे बाम्हणकहछु २७ यः आहारेषु प्रलं पदं सुधा * अज्ञाता जीविनः जे आहारने विखे लंपट न इवे मुधा जीव धम्मनिमित्त जाणौनेदौइ तेह लिइ ते मुधाजीवकहोई अनगारं अकिंचन परिग्रहरहितं *
घररहित परिग्रहरहित असंवडे गृहस्यैः सहसंसर्गरहित असंवध गृहस्थस्यु परिचय न करे तं वयं वाम्हण बदामः तेहने अम् वाम्हणकह २८ त्वका
REKK6:4636KKKKKKKKREXE
HEMEREKKAKKAKEREKKKENERMERIENKA राब धनपतसिंह बाहादुर का पास.ह.४१मर भाम
भाषा
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उ० टोका
ᄋ닛
૧૨
भावा
पुनस्त ं वयं ब्राम्हण' बदामः तमिति कि यो ज्ञातो स्वकोयगोचे च पुनः सङ्गेव पुरादि सम्बन्धे पुनर्बान्धवे पूर्वसञ्जोग' मातापित्रादिखे हन्त्या पुनरेतेषु पूर्वोक्तषु नस्वजति रागासको नभवति त' ब्राम्हण' वयं बदाम: २८ [पसुबंधासब्बेवेयाजःच्च पावकम्म, णानतन्तायति दुस्मोलं कम्माणि बलवन्तिह ३० ] भोविजयघोष सर्ववेदाः पशुबन्धाः वर्त्तन्त पशूनां बन्धोविनाशाय नियन्त्रण' बैस्ते पशुबन्धाः केवलं वेदाः पशुहननहेतवोवर्त्तन्ते नतुमोच हेतवः हिंसायाः प्ररूपकत्वात् यतोहि वेदवाक्यमिदं श्रूयतां भूतिकामोवायव्यां दिसि खेत' कागमालमेतइत्यादि पशुबन्ध हेतु भूत वेदवाक्य च पुनज इति इष्ट यजन' यज्ञः पापकणां उत्पद्यते तत् इष्ट पापकर्मणा पापकारणपशुबन्धाद्यनुष्टानेन स वेदानां अध्येतार यज्ञकर्त्तारं वानवायन्ते यज्ञकत्तर वा दुःशीलं दुराचार' पापशास्त्राणां पठनेन पापकर्मकरणेन दुष्टाचारं इह कर्मणि बलवन्ति वर्त्तन्ते दुष्टकर्माणि बलेन पापकमकर्त्तार' नरक' नयन्ति
जहिता पुव्वसंजोग' नाति संगेय बंधवे । जोनसज्ज एएस तंवयं व ममाहणं २८ ॥ पसुबंधा सव्वेवेया जह'च पाव
कम्म ुणा । न तं तायंति दुम्मीलं कम्माणि बलवंतिह ३० ॥ नवि मुडिएग समणो नत्रों कारेण वंभणो । न मुण पूर्व संजोगः पाछिल्यो संयोगछांडोने ज्ञात संगञ्च बांधवान् जाति भाई बंधनोस'गमूके यः न सज्जते भोगेषु जे कामभोगने विखे सज्जनहोवे तं वयं ब्राम्हणां बदामः ते अम्हे ब्राम्हणकइ'छु २८ पशुबंधाः सर्ववेदाः सर्ववेदनेविखे छालानोवधको पशुमारीने यज्ञकर्मचपापकर्मणा पुरुष जिको एपापक प्रकरे य करेछे अथवा करावेछे तं दुःशोलंनत्रायंति न रचंति ते दुःशोल होनाचारौ पुरुषने नरकपडता राखेनहौ कर्माणो वलवतराणि आपणां कोषां कर्म ते बलवंतछे कर्मथो राख्रणवाला कोई नहीछे ३० नस्यात् मु'डोतेन श्रमण: माथे मूच्ये जतीनहवे नमीं भूर्भवः स्वस्ति स्वाहेत्यादिना ब्राम्हणः श्रकारभख्या
८५
का ४१ मा भा
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उ० टीका अ०२५
७५४
सूत्र
भाषा
अतःकारयात् एतस्मात् यागात् ब्राम्हषः पात्रभूतीस्ति किं तु श्रनन्तरोक्त गुणवान् एव ब्राम्हणः इति भावः ३० [नविमुडिएण समणी नकारेण वंभणो न मुणोरव्रवासेण'कुस चौरेणनतावसो २१] हे विजयघोष मुहितेन श्रमणोनिग्रन्यो न स्यात् श्रोङ्कारेण भूर्भुवः स्वस्तीत्यादिना ब्राम्हणान स्यात् तथा अरण्यवासेन मुनिनच्यते कुशोदर्भस्तमयं चौरं उपलचणत्वात् वल्कलं कुशचीर' तेन कुशचीरेण कुशोपलचितवल्कल वस्त्रेणतापसो न भवेत् ३१ [समयाए समणोहोइ बभचेरेणबम्भणो नाषेणयमुखीहोइतवेण होइ तावसो ३२] समयासमयत्वेन यत्रुमित्रयोरुपरिसमानभावेन श्रमणो भवति बृम्हचर्येण ब्राम्हणोभवति ब्रम्हपूर्वोक्त अहिंसा सत्यचौर्याभावामैथुननिर्लोभरूपं तस्य ब्राम्हणवरण अङ्गीकरण' 'ब्रम्हचर्यन्तेन ब्राम्हण उच्यते ब्रम्हत्व युक्त म्हणइत्यर्थः ज्ञानेन मुनिर्भवति मन्यते जानाति हेयोपादेयविधोइति मुनिः स च ज्ञानेनेव स्यात् तथा तपसाद्दादशविधेनतापसोभवति ३२ रन्नवासेणं कुस चौरेण न तावसी ३१ ॥ समयाए समयो होइ बंभचरेण बभयो । नाणेर्णय मुणी होइ तवेणं होई तावसी ३२ ॥ कम्मणा व भणो होइ कम्मणा होइ खत्तियो । वसो कम्मणा होइ मुद्दो हवद्र कम्मा ३३ ॥
वाम्हण न हुई न मुनिः अरण्यवासेन रण्यमांहि वसतां मुनीनकहोजे दर्भमय वल्कलरूप वस्त्रेण नतापसः दर्भनोचे पाथरीकालिपेहरौतो तापस महौइ ३१ रागद्देषादि समभावेन श्रमणोभवति समताभावराखे रागद्वेपनकरे ते श्रमण कहोजे ब्रम्हचर्येण इन्द्रिय गुप्तरूपेण ब्राम्हणः स्यात् शौलत पाल्यां ब्राम्हण कहौइ ज्ञानेन मुनिर्भवति ज्ञानभण्यां सुनीक होइ' तपसाभवति तापसः तपकर ते तापस कहौजे ३२ कर्मणा ब्राम्हणो भवति क करो ब्राम्हण होइ कन्मैणाभवति क्षत्रियः कर्मे करौने चत्रौहोद्र वैश्यजातिः कर्मणाभवति किराड वैश्यजाति कर्मे करोहोड ३१ एतान् प्रागुक्तान् प्रकट
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राय धनपतसिंह बाहादुर का यासं००४१ मन भांग
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उ० टोका अ०२५ ७५५
सूव
भाषा
[कम्मणाबम्भणो होइ कम्मणा होइखत्तिओ वयसोकम्म, णाहोइ सुहोहवइकम्मणा २३ ] कर्मणाक्रिययाब्राम्हणो भवति क्षमादानन्दमोध्यान ं सत्यं शौचं धृतिष्टणाज्ञानविज्ञानमास्तिक्यमेतत् ब्राम्हणलचण' अनयाक्रिययालचणभूतयावाम्हणः स्यात् चत्रियः शरणागतत्राणलचणक्रिययाचत्रिय उच्च मतु केवल क्षत्रियकुलेजातिसमुत्पन्ने सति शस्त्र बन्धनत्वे नैवचत्रिय उच्यते एवं वैश्योपि कर्मणाक्रियया एव स्यात् कृषिपसुपाल्यादि क्रियया वैश्य उच्यते कर्म्मणा एव शूद्रोभवति शोचनादि हेतु प्रषणभारोह हनजलाद्याहरणच रणमर्दनादिक्रिययाशूद्र उच्यते अत्र ब्राम्हणलक्षणावसरे अन्धषां वर्णत्रयाणां लचणविधानं व्याप्ति दर्शनार्थ ३३ [एएपाउकरेबुङ जेहिं होइमिणाइश्र सव्वकम्मविणिमुक्क' तं वयं बूममाहणं ३४ ] बुद्दोज्ञाततत्वः श्रौमहावौरः एतान् अहिंसादर्थान् प्रादुरकार्षीत् प्रकटीचकारयैर्गुणैः कृत्वा सर्वकर्म विनिर्मुक्तो भूत्वा स्नातको भवति केवली भवति प्राकृतत्वात् श्रथमास्थानेद्दितौया तं एतादृशशुणयुक्त स्नातकं वा वयं वृाह्मण बदाम: ३ ४ [एवं गुणसमाउत्ताजेभवन्तिदिउत्तमातेसमत्याच उद्धत्तु परं अप्पाणमेवय ३५) एए पाउ करे बुद्धे अहिं होइ सिणाइओ । सव्व कम्म विग्रिम्म क्व तं वयं बम माहणं ३४ ॥ एवं गुण समाउत्ता जो भवंति दिउत्तमा । ते समत्याओउ त्तु' परं श्रप्याण मेवय ३५ ॥ एवं तु संसए किन्ने विजयधोसेय माहणे । समा
मका
ठेका बुझे तो करे येः अर्थः सेवितैः स्नातकः केवलोभवति एअर्थने सेवे ते केवली होइ सर्वकर्मरहितः सर्वकविनिर्मुक्तः स वयं ब्रम्हण ब्रूमः से हमे अहे वाहकहां २४ एवं गुण समायुक्ताः इणिप्रकारे सर्वगुणसहित ये भवन्ति द्विजोत्तमाः ते उत्तम ब्राम्हणहुवे ते समर्थाः समुत्तु वे घराणी परसर अथवा श्रात्मानञ्च परने तारे आपना आत्माने पौणतारे ३५ एवं अमुना प्रकारेण स'शयेच्छित्रे दृणे प्रकार सन्देहकेद्यां
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं००४१ मा लाग
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५.२५
उ.टीका एवं गुणसमायुक्ताः ये हिजोत्तमावाम्हणाश्रष्टाभवन्ति ते वाम्हणोत्तमाः परं प्रात्मानं अपि उच्चतु समर्थाभवन्ति ३५ (एव तु संसए छिन्ने विजयघोसोय
माहणो समादयतप्रोत तु जयघोसं महामुनिं ३६) ततस्तदनंतर विजयघोषोवाम्हण: जयघोष महामुनि उवाच इंदं वचन उदाहकथयति इति ४ सम्बन्धः किं कृत्वा तं मुनि जयघोष समादाय सम्यक उपलक्ष्यन्नात्वा कसति एवं पूर्वोक्त प्रकारेण विजयघोषस्य संशयेछिने सति ३६ (तुट्टीयविजय
घोसे इण मुदाहुकयञ्जलोमाहणत जहाभूयं सुट्ट मेउवदसिय ३७) विजयघोषस्तुष्ट इदं वचन जयघोषमुनये आह कौयो विजयघोषः कृताञ्जलि: 8. हे मुनेमे मम वाम्हणत्वं यथा भूत यथा स्वरूप सुष्टुसम्यक् उपदर्शित ३७ (तुम्भे जइयाजवाणं तुम्भ वेयविऊविऊ जोयसङ्गविऊ तुम तुम्भे धम्माण पारगा ३८) किं वचन आह हे महामने तुम्भ इति यूयं यज्ञानां यष्टारोयूयं वेदवित्विदः वेदवित्मविदोज्ञातारीवेदविदांवराः यूय एव पुनथू यं
दाय तोतंतु जयघोसं महामुणि' ३६ ॥ तुट्ठीय विजयघोसे दूण मुदाहु कयंजली । माहणत्त जहाभूयं मुट्ठ, मे उव
दंसिय ३७॥ तुम्भ जइया जन्नाणं तुम्भ वेय विऊ विऊ । जोसंग विऊतुम्मे तुम्भ धम्माण पारगा ३८॥ तुम्भ धको विजयघोषस्य वाम्हण विजयघोष वाम्हणने समुदाय सम्यग्बधार्य तदा साधूनां वचन हियामांहि धारौने जयघोष महामुनि ते जयघोष महा मुनिने ३६ तुष्टो विजयघोष वाम्हणः विजयघोष वाम्हण संतुष्टइत्रो इदं उदाहतवान् कृतांजलिः सन् हाथजोडीने इमकई वाहणत्व यथाभूतं वाम्हणपण जिमहतू तिम तुम्हे भलु कह्यो योभनं मम उपदर्शितं भलु कयुते ३७ यूयं यज्ञानकर्तारः तुम्हे यानाकरणहारछी यूयं वेदविदी विद्वांसः तुम्हे वेदना जाणणहारको ज्योतिषांगविदीयूयं तुम्हे ज्योतिषसास्वनीजाणको ययंधम्मापारगाः तुम्हे धर्थनापारगामौछो३८ यूयं समर्थाः भवात् उहतु
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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44
و عرق
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* एवज्योतिषाविदः यूयं एव धर्माणां पारगा: धम्माचारपारगा ३८ (तुभ समस्या समुत्तु परअप्पाणमय तमाम हंकरप्रम्ह भिक्खेणं भिक्षु
उत्तमाः ३८) पुन महामुने यूयं पर पुनः आत्मान समुद्धत्त संसारात् निस्तारयितु समर्धाः तं इति तस्मात्कारणात् भोभित्तमाः साधुचेष्टाः भिक्षयाभिक्षाग्रहणेन अस्माक अनुग्रह यय कुरुथ ३८ (ण कन्ज मज्म भिक्खेण खिष्प निक्वमसूदियामाभमिहसि भयावत्ते घोरेसंसारसागरे ४०) ४ तदा जयघोषमुनिराह है हिज मम भिक्षयाकार्य नास्ति त्वं क्षिप्र शीघ्र क्षमस्वदीक्षां गृहाण हे हि जघोरेभीषणेसंसारसागरे भ्रमसिमिथ्यात्वेनत्वं संसारसमुद्र भ्रमिष्यसि तस्मान्मिथ्यात्वन्त्यजजैनौं दीक्षा ग्रहाणति भावः कथंभूत संसारसमुद्र भयावत सप्तभयजलभ्रमयुक्त ४ ० (उवलेवोहोइ भोगेस 8 अभीगीनीवलिप्पई भोगौभमइ संसार अभीगीवियमचई ४१) हे विजयघोष भोगेष भज्यमानेष सत्सु उपलेपः कर्मोपचय रूपोबन्ध: स्यात् अभोगी __ समस्या समुद्धत्तुं परं अप्पाण मेवय । त मणुग्गहं करअम्ह मिक्खेण भिक्खु उत्तमा ३६ ॥ न कर्ज मज्भ भिक्खेणं
खिप्पं निक्खमसूदिया। माममिहिसि भया वत्ते घोरे संसार सागरे ४० ॥ उवलेवा होइ भोगेसु अभोगी भाव भाषा:
तुम्हे संसारसमुद्र तारिवाभणो समर्थ छो परं आत्माननेवचपरनेतारोको आपणा आत्माने पणि तारीको तस्मात् त्व अस्माकं अनुग्रहं उपकारं कुरु तिष * कारणिं अहो स्वामी तपाकरी भिक्षाग्रहणेन हे भितत्तमः भौक्षानलेवे करीने भिख्यालेवी अम्हनेतारा ३८ न कार्य मम भिक्षाया यतीवोख्यो माहर
भिक्षास्थ कोइकामनहीछे शीघ्र प्रवज हे हिज अही वाम्हण ऊतावली तुदीक्षालि माघमणं कुर्या भयावत भयोत्पादके परिझमण तुमकरि रौद्र र संसारसमुद्र एरौद्रवौहामणो संसारसमुद्रतहमांहि ४. उपलेपः कर्मप्रभूतिरूपी भवति भोगेषु लेपलागे पात्मामलाहोवे भोगकरीने अभुज्यमानेषु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
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भोगानां प्रभोशाकर्मणान उपलिप्यते पुनर्भोगीभोगानां भोक्तासंसारभमति अभीगीभोगानां पभोक्ताकाले पाहिमच्चले ४१ (शासकीयदीक ठागील या
महियामयादोविश्रावडियाकुडडे जो उनोसोतस्थलगई ४१) कम्म लेपेदृष्टांतमाह उल्लआईच पुनः शुष्कः एतौ हौ मृत्तिकामयोगोलको कुद्ये भित्तो उच्छुढौ ॐ पाक्षिप्तौ सब भापतितीभित्तो पास्फालितौसन्ती अनदयोमृत्तिकामयगोलकयोमध्ये यउन्न: आदी मृदगीलकः स कुोलगति ४२ (एव लग्गन्तिदुम्मेहा
जेनराकामलालसाविरत्ताउनलम्गति जहासक उगीलए ४३) एवं अमुनाप्रकारेण आई मृत्तिकागोलकदृष्टान्तेनदुर्मेधसीदुष्टबुद्धयीयेनराः कामलालसाः भोगेषुल पटाः लग्गन्ति संसारआसक्ताः भवन्ति तु पुनर्विरताः कामभोगभ्यीविमुख नराः नलग्गस्ति ससारासक्तानभवन्ति यथा शुष्की मृदगीलकोभित्ती
लिप्पई भोगी भमदू संसार अमोगी विप्पमुच्चई ४१ । उल्लो सुक्कोय दो छूढा गोलया मट्टियामया | दावि भाव
डिया कुड्ड जोउल्लो सातत्य लग्गई ४२। एवं लग्गति दुमहा जे नरा कामलालसा। विरत्ताओ नलग्गति * भोगेषु कर्मणानोविलिप्यते जे को भोग भोगवे भोगी भ्रमति संसार भोगौहवे ते संसारमाहि फिर अभोगौ संसारात्मुच्यते अभीगौहवे ते ससारथी
मूकाइ ४१ शुकः पादः हौ क्षिप्तौ एकसूको एकनौलो लेइनेनाख्यो गोलको मृत्तिकामयौ गोलामाटौना हावपि आपतितौ भित्तौदोइगोलाभौंतिजाइ लागानांख्यांधका य: आई स अन भित्ती लगति जे आलोहतु ते भोति लागौरह्यो सूकोखिरीपयो ४२ एवंकम्मणार्द्रालगति दुर्मेधसः भूडी मतिना धणी पापेकरौने इम संसारमांहि लागीरह जे नराः काम लंपटाः जे मनुष्य कामभोगने विखे लंपटाई रह्याचे विरक्ताः कामभोग रहिताः न लगति कामभोगयौ रहितहाछे ते लागेनहीं यथा स: शुष्कः गोलकः सूकागौलानौपर न लागे ४३ एवं स विजयघोषः इणिं परि विजयघोष बाम्हण जय
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२.४१ मा भ.ग
भाषा
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१ टोका
* नलगति ४३ (एवं सो विजयघोसोजयधीसम्म अन्तिए अणगारस्मनिक्वन्तो धम्म सुच्चा अणुत्तर ४ ४)एवं अमुनाप्रकारेण स विजयघोषो वाम्हणोजयघोषस्य * अबगारस्य पन्तिके समोपेनिःक्रान्सो दीक्षांप्राप्तः कि तत्वा अनुत्तर धर्म श्रुखा ४४ [खवित्तापुबकम्माई सञ्जमेणतवेषय जयघोस विजयघोसामिति
पत्तामणुत्तरंसिबेमि ४५) जयघोष विजयघोषौ उभावपि अनुत्तरां प्रधानां गतिं सिद्धि प्राप्तौ कि कृत्वा संयमेन च पुनस्तपसापूर्वकर्माणिक्षपयित्वा इति पहं वोमिसधर्मा वामौज बूस्वामिनं प्राह ४५ इति यज्ञोयाख्य पञ्चविंशतितम अध्ययन स पूर्ण' इति थोमदुत्तराध्ययन सूचार्थदीपिकायां उपाध्यायौलमौकीर्ति गणिशिष्य लक्ष्मीवनभगणिचिरचितायां पञ्चविंशतितम अध्ययन सम्पूर्ण ॥ २५ ॥ अथ षट्विंशतितम अध्ययन प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने ब्रम्हगुणाउता व्रम्हगुणयुक्तस्तुसाधुरवस्यात् साधुनाच अवश्यं सामाचारीविधेयाइति हेतोः सामाचारी साधुजनकर्तव्यतारूपां प्रवाध्ययने कथयामि (मामायारिंपवक्यामि सम्बदुक्खविमुक्वणि जञ्चरित्ताणनिगांथातिनासंसारसागरं १) अहं तां समाचारौं साधुकरणीयां क्रियां
नहा मुक्केय गोलए ४३॥ एवं सी विजयघोसो जयघोसम्म अंतिए। अणगारस्म निक्खंती धम्म सोचा अण त्तरं ४४॥
खवित्ता पुव्यकमाईसंजमे शतवेणय । जयघोस विजयघोसा सिद्धि पत्ता अणु तर ४५ / जन्नडूज्ज झयणंसम्मत्तं ॥ २५ ॥ घोषस्य समोपे जयघोष साधुने समोप अनगारस्य निष्कांत: दीक्षालोधौ धर्म श्रुत्वा सर्वोत्तमं सर्वोत्तम प्रधानधर्म सांभलौने ४ ४ क्षयित्वा पूर्व कर्माणो पाकिला सर्वकर्म उपायोने संब मेण तपसा च सत्तरभेदे संयमवारभेदे तप तिर्थ करौने जयघोष विजयघोषएनाम साधुपुन्ययंत पुरुषः सिद्धि प्राप्तो सर्व उत्तमा इति धौमि मुक्ति पोहता सिद्ध पुरुष हुआ अनंता सुखने विष प्राप्तहा ४५ इति श्रीपञ्चविंशतितमं अध्ययनं संपूर्ण ॥ २५॥
राम धमपतसिंह बाहादुर का पा•सं• ४१मा भाग
भाषा
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OR ON .
N
* प्रवक्षामि ता इति कां यां समाचारौ चरित्वा अशोक यनिग्रन्या संसारसागर तौर्णः संसारसमुद्रस्य पारं प्राप्ता: कौदृशीं सामाचारी सर्वदुक्ख * विमोक्षणी सर्वदुक्वेभ्यो विशेषेणमोचिका १ (पढमाआवस्मि यानाम विइयाय नसौहिया पापुच्छणायतइया चउत्थौ पडिपुच्छणा २) प्रथमासामाचारी
आवश्यको नाम्नीयतः उपाययात् निर्गछन् साधु रावष्यकोति वदति उपाश्रयात् बहिनिः सरण पावश्यकी विनानस्थात् तेन आवश्यकौति प्रथमा सामाचारो नैधिकौतिहितोया उपाश्रयात् बहिनिःसरणानन्तरं यस्मिन् स्थाने प्रवेशनेन स्थितिः करणौयास्यात् तत्र अपरेषां निषेधात् नैषेधिकोकरणोयानिषेधेभवानषेधिको हतीयासमाचारी आपृच्छना यतोहि स्वासोवासादिकत्यक्षा अपरं सर्व कार्य गुरोः पृच्छा विना कार्य न करणोयं तस्मादेषा आपृच्छ ना चतु:सामाचारौ प्रतिपृच्छनानानौ भवति करणीयकार्यस्य गुरोः पृच्छाया अनन्तर पुनरपि तस्य
*666RREKKEKOREAKNEKKAKKX
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०१०४१ मा भाग
भाषा
सामायारिं पवक्खामि सञ्च दुक्ख विमोक्खणि। जौंचरित्ताण निग्ग'था तिन्नासंसारसागर ॥१॥ पढमा आवस्मि
या नाम बिडूयाय निसीहिया आपच्छणाय तया चउत्यो पडिपुच्छणा ।२॥ पंचमा छंदणानाम इच्छाकारोय सामाचारी अहं कथयिष्यामि सामाचारोह कहछु सधम्मास्वामी जंबूस्वामौने कहछे सर्वदुक्ख विमोचणिं सर्वदुक्खनामूकावणहारयां पासव्यसाधवः जे समाचारीने अंगीकार करोने रहे ते साधूमार्गी कहीइ तोर्णाः संसारसागरं तस्या संसारसमुद्रथ को मुक्तिपुहता १ पावश्यको नामा प्रथमा उपा श्रयथो नौकलता आवस्म होकहोए एपहलीसमाचारी जाणवि१ हौतौयांच नैषधिकोसामाचारोउपाययमाहिपेसतानिमिहीकोज वौजीसमाचारौ कहीर आपृच्छा तृतीया पुछवानौतीजी समाचारो३ चतुर्था प्रतिपृच्छना चौथी समाचारी प्रतिपृच्छना४३ पंचमौच्छंदना इति नाना पंचमी कुंदा इसे
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उ० टौका अ०२६
७६१
सूत्र
भाषा
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कार्यस्य करण प्रस्तावेगुरोः पृच्छनाप्रतिपृच्छनाज्ञेया २ (पञ्चमौकन्दणाणामा इच्छाकारोयकट्ठश्रो सत्तमोमिच्छाकारोड तहक्कारोयअहमो ३) पञ्चमी छन्दनानाम्म्रोसामाचारी अवादिक' आनीय उदरं एव भरणीयं नास्ति किं तु यतीनां सर्वेषां निमन्त्रणारूपाछन्दना उच्चते तस्यां एवच्छन्दनायां इच्छाकारशब्दः कर्त्तव्यः इच्छाकारशब्दस्यकोथेः इच्छया स्वाभिप्रायेण करणं इच्छाकार इति व्युत्पत्तिः यदि भवतां इच्छाभवेत् तदा मम निमन्त्रणा सफलाकर्त्तव्याइति कथन इयं षष्टी समाचारो मिथ्याकारइति सप्तमोमिथ्याकारशब्दस्यार्थ बदति यदा कुत्रचित्खलनास्यात् तदा तत्र साधुनामिष्या दुःतं मे इति वक्तव्य' मिथ्याकरण मिथ्याकार: मिथ्यादुः कतदानमित्यर्थः इयं सप्तमी अष्टमोसामाचारी तथाकार: तथाकरणं तथाकारः गुरूपदेशं प्राप्यतहत्ति तथास्तुति कथनं इयं अष्टमोइत्यर्थः ३ [ अभ्भुट्ठायं नवमं दसमाजवसम्पया एसादसङ्गासाहण' सामायारोपवेद्रया ४] अभ्युत्थानं अभि इति श्रभिमुख्येन उत्थानं उद्यमनं उद्यमकरणं अभ्युत्थानं अभ्युत्थाने नियुक्ति कता निमन्त्रणाया एव उक्तत्वात् गृहोते अवादोकन्दना अग्टहोते तु निमन्त्रणाइयनयोर्भेदः तत् अभ्युत्थानं हि गुरूपूजायाः गुरुपूजा च गौरवार्हाणां प्राचार्यग्यानादीनां यथोचित आहारपानीयादि सम्पादनं अत्र अभ्य त्यान' निमन्त्रणारूपमेव ग्राह्यं गुर्वादेशस्य तथास्तु इति अङ्गीकरणादनन्तर सर्वकार्ये उद्यमस्य करण अभ्य ुत्थानं उद्यमन' इयं नवमौ या उपसम्पद छठ्ठओ| सत्तमो भिच्छकारोय तहकारोयअठ्ठमा ३॥ अम्भूट्ठानवमं दसमाउवसंपया । एसादसंगासाहूणं सामायारी नामिं ५ इच्छाकर षष्टी सामाचारी इच्छाकारछठ्ठौ सेनामे समाचारी ६ सप्तमा मिथ्याकारय सातमी मिच्छामिदुक्कड एसामाचारो० तथाकारः अष्टमः तहतिगुरुनां वचनतहत्तकरे८ ३ अभ्युत्थानं च नवमं गुरु याव्या कथां ऊठौ उभाधाइ एनवमौ दशमा उपसंपत् उद्यमकरो अन्यगच्छथको ज्ञान आयु
24
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०७०४१ मा भाग
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उ.टीका
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मा भ.ग
१
दशमी सामाचारो अस्थाकोर्थः साधुरुदामवान् भूत्वा आचार्यान्तरात् अधिकज्ञानादि गुणादि सम्पत्तिनिमित्तं प्राचार्यादीनां पाखें अवस्थान उपसम्पत् 8 इति दय मोने या एषा सामाचारी श्रीतीर्थकरः प्रकर्षेण वेदिताप्रवेदिता अधिकं ज्ञाताप्रकाशिताइत्यर्थः कथंभूतासामाचारी दयानादम पक्रानि
यस्यासादशाङ्गादशप्रकाराइति भावः अथकाकासमाचारोकुन कुत्रकर्त्तव्यातदाह [गमणे आवस्मियं कुज्जा ठाणे कुज्जानिसीहियं पापुच्छणा सयंकरणे परकरणपडिपुच्छणा ५] गमनेस्वस्थानादन्यत्रगमने अप्रमत्तत्वेन अवश्य कर्त्तव्य व्यापारभवा आवश्यिकीतां आवश्यिकी कुयात् यतीहि साधोर्गमनं निःप्रयोजन नास्ति यदि अवयं किञ्चित्कार्य समुत्पन्नं वर्तते तदैव साधुः स्वस्थानादुत्थितीस्ति इति भावः तथा स्थानेवाययि प्रवेशसमये प्रमादात् आमनोनिषेधस्तत्र भवानषेधिको उपाश्रये प्रविशता साधुनाने षेधिको कर्तव्या यतोहि स्वाश्रये आगमनादनन्तरतत्समययोग्य कार्याणां एव करण तेष्वेवकार्येष प्रमादनिषेधः कर्त्तव्यइति भावः स्वयं आत्मनाकार्याणां करण गुरोः आपृच्छनाकर्तव्या न च गुरौ सतिस्त्र बुध्य व गुरु अनापृच्च्यकार्य कर्तव्यमिति भावः परस्यकार्यकरणगुरोः आदेशं प्राप्ययदाकार्य कर्तुं उद्यतीभवति तदा पुनः पृच्छनाप्रतिपृच्छनाउच्यते ५ [छन्दनादब्वजाएण
पाय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं०७.
भाषा
पवेइया ४॥ गमणे आवस्मियं कुज्जा हाणे कुज्जानिसीहियं । आपुच्छणा सयंकरण परकरणे पडिपुच्छणा ५॥ छंदणा ए उपशम दशमौ १. एषांदशांग: दशप्रकारः साधूनां साधूने दशप्रकारे ए सामाचारी जिनैः प्रवेदिता सामाचारी भगवते कहौ ४ गमने उपा वयाविर्गमे आवस्यकों कुर्यात् उपाय थको नौकलतां आवमहौ कहोई स्थाने उपायये प्रविशन् नैषेधौकी कुर्यात् उपाश्रयेन स्वकार्य करणे आपृच्छना गुरोः पाकरणात् आपण अर्थे गुरुने पूछ परकार्य करण गुरोः नियुक्त : पुनः पृच्छना प्रतिपृच्छना परने पूछे ते पंडोत पूछणा ५ योद्रव्या तेनच्छंद
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९० टोका
अ०२६ ७६२
सूत्र
भाषा
इच्छाकारेयसारणेमिच्छाकारोयनिन्दाए तहकारोपडिस्६ ] अन्नपानीयरूपद्रव्यैर्यदा अन्योयतिनिमन्त्रयते तदाछन्दमा उच्यते साधूनां श्राहारं पानीयं दर्शयित्वा यदि भवतां मनसि विचार आयाति तदा एतत् आहारादिक' भवद्भिगृह्यतां यथाह निस्तरामि इति वाक्य कथन छन्दनाउच्यते सारये इच्छाकारः उच्यते सारणे स्वस्थपरस्य वा कार्य प्रतियोग्यत्वेन प्रवर्त्तते इच्छायास्वाभिप्रायेण तत्कार्यकरणं इच्छाकारः तत्र चमनोयथेच्छाकारण युष्माकं वा कार्य अहं करोमि तथासारेण मम पात्रलेपनादि इच्छाकारेणयूयं कुरुत इति वक्तव्यमिति भावः मिथ्याकार आमनिन्दायां मया अभव्य' कृत' एतादृशं श्रात्मनो निन्दावाक्य मिथ्यादुःक्कतदानं मिथ्याकारकथनं उच्यते गुरोः पार्श्वे वाक्य श्रुत्वागुरु प्रतिइदं कथनं यद्भवद्भिरुक्त तत्तथैव तथास्तुइतिकरण तथाकारः प्रतिश्रुते गुरुवाक्याङ्गीकारे तथाकारस्तवास्तु करण इति भावः ६ [ अभट्ठाण' गुरुपूया अत्थी उवसम्पया एवं' दुपचसत्ता सामायारौपबेद्रया ७] गुरुणां आचार्यादीनां पूजायां भयं विनैव अतिशयेन श्राहारपानीयाद्यानीयवैयावृत्त्याविनयसम्पादनन्तदभ्य, त्यान ं उच्यते श्रत्य इति इति अर्थज्ञानाद्य परस्य आचार्यस्य पाखे अवस्थायज्ञानादि गुणार्जन' उपसम्पदुष्यते तस्याचार्यस्य समीपे अवस्थानायस्वामिन् इयं तं कालं भवतां
दव्वजाएगं इच्छाकारोय सारणे । मिच्छाकारोय निंदाए तरकारी पडिए ६ ॥ अभ्भुट्ठाणं गुरुपूया अत्थणे उवसं
यति निमंत्रयतिकां वस्तविहरौआवो बतीने निमंत्रण करतेछंदणा कहोइ सारणा आमना परणवा कार्यकरणं प्रतिपृच्छा इच्छाकारको कार्य करावे तिवारे इम कहे इच्छकार एकाम करो जो निंदायां मिथ्याकारः पाप लागे मोच्छामी दुक्कडंदौर इदं मया कर्त्तव्यमेव इति प्रतिश्रवणे तथा अंगीकारकरणे तहत्ति करगंगुरु जे कार्य कहतेतहत्ति करौने सांभलीं हा स्वामी तहत ६ अभ्युत्थानं गुरुणां पूजा गुरुने चाव्यां ऊठो ऊभारहे प्रत्य
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द्वारा धनपतसिंह ब्राहादुर का चा०सं०० ४ १ मा भ्राय
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उ० टौका अ०२६
७६४
सूत्र
भाषा
समौपेमयास्थातत्र्य ं गच्छान्तरे आचार्यान्तरेज्ञानाद्यर्थं इति विज्ञप्ति पूर्वक ज्ञानाद्यभ्यसनरूपा उपसम्पत्सामाचारोति भावः एवं अमुनाप्रकारेणद्विगुणा पञ्च अर्यादयसंयुक्ताभेदसहितास्सामाचार्य : प्रकर्षेण वेदिताः प्रवेदिताः तोर्थ करगणधरैः कथिताः ७ [पुव्विं निमिचउभ्भागे प्राइड' मिसमुट्ठिए भण्ड य पडिजेहित्तावन्दित्तायत श्रोगुरु' ८] [पुच्छिज्जापञ्जलिउडो किं कायब्बोमएइह इच्छ निओइन' भन्ते वेया वच्च वसिकाए ८] युग्म अथ पूर्व औधिक सामाचारोमाह पूर्वस्मिन् चतुर्थभागे यदा दिनस्य चत्वारोभागः भवन्ति प्रहर प्रमिताभवन्ति तदा प्रथमोभागः प्रथमप्रहरात्मकस्तव प्रथम प्रहरस्य चतुर्थे भागे घटिकाद्दयरूपे अष्टवटिकात्मकः प्रहरस्तस्य चतुर्थो भागोघटिकाइयात्मकस्तस्मिन् श्रादित्येसमुत्थिते सति घटिकाइ यस्य सूर्येसति अथवा पूर्वस्मित्रिति पया । एवं दुपंच संजुत्ता सामायारी पवेड्या ७ ॥ पुव्विल्ल मि चउम्भागे आइञ्चमि समुट्ठिए । भंडयं पडिलेहिता वंदित्ताय तगुरु ८ ॥ पुच्छिज्जा पंजलीउडो किंकायव्वं मएदूहं । इत्थं निउउ भंते वेयावच्चे व सिझाए ॥ तिज्ञाने आचायतरादि पाखें इयंतंकाल स्थातव्यमिति भगवाने काजे जितराइकदिन वोजायतीने पासे जाइने भणे तेउपसंपदा कहौजे एवं द्विवदयसंख्या युक्तः इम दबोच युक्त सामाचारी प्ररूपिताजिनैः एदशसामाचारो तोथंकरे कहो ७ पूर्वस्मिन् किंचिदूननभः चतुर्भागे सूर्यना उयो पहले पोहोर चार भागको बाहिये समुत्थिते प्राप्त पाशे न पौरुष तिवारे पउणपडी लेहण कौजे भांडकंपतत् ग्रहादि उपकरणं प्रति लेख्य पात्रा पडिले होने वंदित्वा ततो गुरुन् तिवारकेडे गुरुने वांदोने ८ पृच्छेत् प्रांजलिपुट: पूके हाथजोडीने किं कर्त्तव्य ं मया अस्मिन् समये ए सम यने बिखेस्यु ं कामकरवु ं ग्रहं इच्छामी हे भदंत उदयप्राप्त: हु तुम्हारी जावां'कु' हे भगवंत वैयावृत्तेन स्वाध्यायेन वायुष्माभिर्योजयितुं बेयावचने
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४.१ मा भाग
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४.
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उ० टोका
अ०२६ ७६५
सूव
भाषा
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प्रथमे
भागे
विभागो पूर्वदिक् सम्बन्धिनि आकाशस्य चतुर्थभागे यदा आकाशस्य दिनमध्ये चवारोभागाः बाकल्पन्ते तमध्ये प्रथमे आकाशस्य प्रगति अर्थात् प्रथमे प्रहरे यदा आकाशे प्रहर प्रमितसूर्यः समारूढः स्यात्तदेति भावः अत्र किं चिडून चतुर्भागे किञ्चिदूने प्रहरेपि पादो न पौरुषांऽयमर्थो टद्यते यद्दादशारहितोपि पटः पटएवोच्चतं तथात्रपादो न पौरुषौ अपि पौरुषी एव गृह्यते तस्मात्पादो न पौरुथां भाण्डक पावापकरण प्रतिलेख्य चक्षुत्रानिरोच्य प्रमाय ततोनन्तरं गुरु वन्दित्वाभियः प्राञ्जलिपुटः पृच्छेत् हे गुरोइहास्मिन् समये मया किं कर्त्तव्य' हेमन्त हे पूज्य अहं वैया वृत्त्य वा अथवा स्वाध्यायेनियोजितं युभाभिः प्ररयितुं स्वात्मानं इच्छामि वाञ्छामि [वेयावच्चेनिउत्तेय' कायव्यमगिला सिज्मा वा निउत्तेण सव्वदुक्ख विमोकख ले १० ] गुरुणा बैया वृत्त्ये नियुक्त ेन प्रेरितेन शियेण अग्लान्धा एव श्रम विना एव वैयावृत्य' कर्त्तव्य' वा अथवा स्वाध्यायेयास्त्र पठने नियुक्त न शिथेण सर्वदुःखविमोचणे स्वाध्यायोऽग्लान्या एव कर्त्तव्यइति भावः १० अयौसर्गिकदिवसस्य कर्त्तव्यमाह [विसस चउरोभा कुज्जा भिक्खु वियक्ख होतओ उत्तरगुथे कुज्जादिणभागे सुचउसृवि ११] विचक्षणः क्रियासु कुशलोभिक्षुर्दिवसस्य चतुरोभागान् याच निउत्ते कायव्य मगिलाय । सज्झाएवा निउत्तेगं सम्बदुक्ख विमाक्खणे १० ॥ दिवसा चउरोमाए विखेसज्कायनेविखे मुझने लागावो वैयावृत्ते नियुक्त ेन जो गुरुक हे वच्छ तु वैयावच करो इम जो वेया वचनो प्रदेशदि गुरु कर्त्तव्य मानवैया नहितवानियुकः गुरुस काना मे हमे विखे आहे दौधेयकेंस काय करे सर्व दुक्ख विमोचणं सर्व दुक्ख काववाने काजे सिकाय को १० स य चतुरोभागान् दिवसता चारभाग करोनें कुर्याद्विच्र्वचचणः करे साधु विचचण चतुर ततोबुद्धि चतुर्भाग करणाचा उत्तर
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ० ४१ मा भाग
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PA
१.टोका
PROR
कुर्यात् ततश्चतुर्भागकरणानन्तरं चतुर्व पि दिनभागेषु उत्तरगुणान् स्वाध्यायादीन् कुर्यात् ११ [पढमं पोरिसिसिज्मायं बौयज्माण झियायई तड्याए भिखापरिव पुणा च उत्थोय समायं १२] प्रथ मां पौरुषों प्राधित्यस्वाध्याय वाचनादिक' कुर्यात् द्वितीयां पौरुषी आथित्वध्यानं मनसि अर्थचिन्तना रूपं ध्यान ध्यायेत् कर्यात् इद च प्रतिलेख नाकातोऽयवात् न विवक्षित: उभयत्र कालाध्वनीरत्यन्त संयोगेइत्यनेन द्वितीया वृतीयायां पौरुष्या भिक्षाचा आहाराद्ययं गृहस्थ एड़ेगमन कुर्यात् चतुर्या' पौरुथां पनःस्वाध्यायं प्रतिलेखनास्थण्डिल प्रत्युपेक्षादिक कुर्यात् यस्मिन् कालेयत्माधोः कतु योग्य कार्य तत् तदेवकत्त व्यमिति भावः अबसरे हि सर्व कार्य क्वतं फलदस्यादित्यर्थः १२ अथ प्रथम पौरुषोपरिज्ञानार्थ गाथा माह [यासाढमासेदुप्पया पोसेच उप्पया विनासुएसो मासे मुतिप्पयाहवइपोरिसौ १३] [अङ्गालं सत्तरत्तेण पक्षेण यदुअङ्गलं वहएहायएवावि मासैणयच
कुज्जामिक्स विउक्स गो। तो उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउमुवि ११ । पढमं पोरिसि समायं बौड्यंज्माणं
झियायई । तईयाए भिक्खायरि पुणों चउ त्यीए समायं १२॥ आसाटेमासे दुपयापोसमास चउप्पया। चित्ता गुणा कुर्यात् पछे अनुत्तर प्रधानगुण करे स्वाध्यायादोनि दिवसस्य भागेषु चतुर्च पि दिवसना थारभागर्न विखे ११ प्रथमपोरिषौ खाध्यायं वाचना* कुर्यात् पहलो पोरिसोइसकाय करे हितौयां ध्यानमर्थ विषयं मनसो व्यापारणां ध्यायेत् वोजोपोरिसिं ध्यानकर हतीयां पौरुष्यां भिक्षाचयों करोति त्रोजे पहरे विहरवाजाई पुनः चतुर्थी स्वाध्याय स्थंडिल प्रति लेखनादि कुर्यात् चउथो पोरिसिंबली समाय पडोलेहण थंडिलादि कर १२ आषाढमासे हिवादा पोरुषो द्विपादाभ्यो भवति आसाढमासने विखे वैपरी पोरसि होइ पोषमासे पौरुषो चतु:पादाभ्यां भवति पीसमहीने चिह परी पोरसिह चैत्र
स्राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०१०४१मा भाग
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38 उरङ्गलं १४] युग्म अब पाम्रायः सूत्रोऽनुक्तोपि गुरुकुलवासात्ज्ञेयः दक्षण कर्ण सूर्य सन्म ख' विधायजानुमध्ये तर्जन्यङ्ग लौच्छायां जर्जी भूयपादै ४ गण्येत् आपाढे पाषाश्यां पूरिमायां हिपद्या च्छाबपौरुषोस्यात् यदा जानुच्छायादाभ्यां पादाभ्यां प्रमितास्यात्तदा प्रहरं प्रमाण दिनयमिति भावः
एवं पोषोपूणि मायां च तुः पद्यापौरुषोस्यात् चतुर्भि:पदैः प्रहरं दिनं स्यात् चैत्रौपूणि मायां प्रबन्यां पूखि मायां विपद्यापौरुषौस्यात् विभिः पादः प्रहरदिनं जयमिति भावः शेष मासादिनेषु पौरुयां नयनविधि माह सप्तरात्रेण सप्ताहोरात्रेण मा. न अङ्गल' एवं पक्षेणगङ्गल' दक्षणायनेकसिंह कन्यातुल वृश्चिकधने संक्रान्ति षटकेवई ते एवं मकरादिषट्कै उत्तरायण साई सप्ताहोरात्रेण अङ्गल' पक्षण ग्रङ्ग लहीयते मासेन चतुराल एव दक्षणायनेवईते उत्तरायण होयते थावणादिभास षट्कैवई ते माघादिमासघट केहीयते पुनर्यदाकेषुचिन्नासेषु चतुर्दशदिने: पक्षःस्थात् तदा सप्तराचे वापि अङ्ग लवहान्यानकश्चिदपि दोषः १४ अथ चतुर्दशदिनैः पक्षसम्भवमाह (आसाढ बहुलपक्वेभहवएकत्तिएयपोमेसु फग्गुणवइसाहसुय नायब्बाभीमरत्ता
राय धनपतसिंह बाहादुरका पासं• २०५१ मा भाष
सोएम मासमु तिपया हवडू पोरिसी १३ । अंगुलं सत्तरत्तेणं पक्ण य दुरंगुलं । बड्डए हायए वावि मासेखय चउ मासे आखितमासे चैत्र महिने पासोज महोने तोने पगें पोरसो होइत्रिभिः पादैर्भवति पौरुषो १३ अंगुलं सप्तरावण सातदिन गया एकांगुख पक्षणदबंगुलं पनरदिवसे पादया थावणेमामे चतुरङ्ग लाधिका पौरुषो भाद्रवेमामेऽष्टांगुलाधिका पौरुषो कार्तिकमासे चतुर लाधिका पादवयमाना पौरुषो मार्गेऽष्टांगुलाधिका पादत्रयमाना प्रौरुषि २ आंगुल वईते हीयते चापि सातदिने वधे सातदिन घटे मासेन चतुरखलं वईते हीयते एकमासमाहिं चार अङ्गलबधे चारअङ्ग लघट १४ आषाढ कृष्णपक्षे आमाढने अंधार पक्षे भाद्रपदे कार्तिक भावे कातौर पौधे पोसमहीने फागुण वैशाखयोग्य
XXKR
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• टोका
अ ०२६
७६८
सूत्र
भाषा
ओ१५] एतेषु मासेषु अत्रप्ररात्रयोः ज्ञेयाः श्राषाढे बहुलपने श्रपचे बहुलपचशब्दस्य भाद्र पदादिषुसम्बन्धः कर्त्तव्यः भाद्रपदेकार्त्तिके पौधे फाल्गुने वैशा कृष्णपक्षे अमरात्रयोभवन्ति श्रवमाः जनाएकेन अहोरात्रे होनाइति श्रवमरात्त्रयः रात्रि पदेन अहोरात्रि ग्रहण कर्त्तव्य एवं एतेषु मासेषु दिन चतुईशकः कृष्णपक्षः स्यादिति भावः १५ अथ पादो न पौरुषोपरिज्ञानोपायमाह (जेट्ठामूले आसाढे सावणे कहिं भङ्ग लेहिं पडिलेहा अहि त्रियन्तियम्नोतईएइस अहिं च उत्थे १६] ज्येष्टामूजेइति ज्येष्टानचत्र' अथ च मूलनक्षत्र ज्येष्टमासस्य पूर्णिमायांस्यान्तेन ज्येष्टामूलोज्ये ष्टमासे
रंगलं १४ ॥ आसाढ बहुलपक्खे भवए कत्तिएय पोसेय । फग्ग ुण वसाहेसुय नायव्वाश्रमरत्ताओ १५ ॥ नेट्ठा मूले आसाढे सावणेच्छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा । अट्ठहिं विदूयतीयंमि तइए दस अट्ठहिं चत्ये १६ | रतिंपि चउरो फागुण बैशाखया इमास नौवदिने विखे ज्ञातव्या अवमा एकेन न्यूना रात्रिः जाणवोओगणतौ सदिन नोमास १५ ज्येष्ठमूले आषाढ श्रावण जेठ आसाढ अथपादोन पोरषौ विधिमाह जेष्ठ आषाढ श्रावणेच एषु मासेषु यत् पौरुषी प्रमाणं तत्रषड्भिः अंगुलैः प्रचिप्तः पादो न पौरषीस्यात् हितौयटके भाद्राखिनकार्त्तिके अष्टाभिः अंगुलैः प्रक्षिप्त पादोनपौरषौ तृतीय के मार्गः पोषमाघरूपे दशांगुलप्रक्षेपैः पादोनपोरषो चतुर्थत्रीके फाल्गुण चैत्र वैाखे अष्टांगुल पक्षेपे पादोन पौरो श्रावये षड़भिः अङ्ग ुल प्रक्षेपैः पादी न पौरषो ज्येष्ट आसाढ श्रावणमाहिं पोरसिंनुमान कछे महिं ६ अङ्गल वालोइ पुरा पोरसियाइ भाद्रवो आसोज कातोपूर्ण वीज विके पाठ अङ्ग ुल घालौए पांण पोरसि थाइ बौनेत्रिके मागसिर पोस माहत्रांगुल १० घातो चोये विके फा० ० आंगुल ८ घातौ पौण पोरसिथाइ १६ रात्रि विधिमाह रात्र रपि चतुरोभागान् कुर्यात् रात्रि माथि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था ०सं० उ० ४१ मा भाग
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इ.टौका प.२६
तथा आषाढे श्रावणे च मासे प्रत्यहं प्रागुक्तपौरुषोमानेषभिरङ्गलैरधिक प्रतिलेखापादो न पौरुषोप्रतिलेखनाकालः स्यात् ज्येष्टादारभ्य प्रथममासत्रिके * एबंज्ञेयं द्वितीयेत्रिकेभाद्रपद पाखन कात्र्ति कल बरेमासत्रिके पूर्वोक्त पौरुषोमाने अष्टभिरङ्ग लैरधिकैः प्रक्षिप्त पादो न पौरुषीकालोनेयः तथाढतौयत्रिके ४ दशभिरंगुल मार्गशीर्षपौषमासत्रिके तथा चतुर्थेविके फाल्गुनचैत्र वैशाषलक्षणे प्रागुक्तपौरुषोमाने अष्टभिरङ्ग ले रधिकै प्रक्षिप्त :पादो न पौरुषौकालो
भवेत् दिनक य मुक्कारात्रि क यमाह (रत्त पिचउरोभाएभिक्ख कुज्जावियक्ष णोतोउत्तरगुणे कुज्जाराई भागे सुचउवि १७] (पढमेपोरिसिसिज्माय बिएमाण कियायई तईयाए निमोक्वतु चउत्थीभुज्जोविसिकाय१८] युग्म रात्रैरपि चतुरीभागान् विचक्षणो भिक्षुः क्रियावान्म निः कुर्यात् ततवतुर्भागकरणादनन्तर चतुर्वपि रात्रिभागेषु उत्तरगुणान् कुर्या १७ प्रथमपौरुष्या स्वाध्याय कुर्थात् हितीयायां अधीतस्य सूत्रार्थ स्मरण मनसा चिन्तन कुर्यात् तृतीयायां पौरुष्णां निद्रोयामोक्षो विधेयः प्रथमपौरुष्थां द्वितीयपौरुष्यां च निद्रायामोक्षोनिद्रामोक्षस्तं निद्रामोक्षं स्वापं कुर्यात्
भाए भिक्खूकुज्जा वियक्वणो | तत्तो उत्तरगुणे कुज्जा राडू भागसु चउमुवि १७ ॥ पढमं पोरिसि समायं विद्वयं ज्माणभियायई। तइयाए निद्दमोक्खंत चउत्थी भुज्जीविसमायं १८। जने जयारत्तिं नक्खत्त'तमिनह चउम्भाए।
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
चारभाग करे भिक्षुः कुर्याविचक्षणः चतुर साधकर ततो अनंतरं उत्तरगुणान् कुर्यात् पछे उत्तर गुणसोधे रात्रिभागेषु चतुर्वपि राविनाचौह पुहर मांहिं १७ प्रथम पौरियां स्वाध्यायं करोति पहेलो पोरसि सकायकर द्वितीयायां ध्यानं ध्यायति वोजोपीरसिं ध्यानध्यायई तोयप्रहरी निद्रां करोति प्रोजेप्रहरी निद्राकरे चतुर्थो पुनरपि सज्मायं चउथी पोरसौई सकायकर १८ यं नक्षत्र यदा यस्मिन् रात्रि पूर्णी करोति जे नक्षत्र रात्र पूर्व थाई
८७
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उ० टोका
अ०२६ ७७०
स्व
भाषा
***
यद्यपि मुनेः सर्व्वधा प्रमादत्यागएवउक्तोस्ति स्तथाप्ययं निद्रायाः समयउक्तः अवकेचित् निद्रायामोचं जागरणं निद्रानिषेधं कुर्य्यादित्यपि वदन्ति तत् चिन्त्यं निषेधस्य प्राप्ति पूर्वकत्वात् पूर्व निद्रायाः करणसमयस्तु नोक्तः प्रथमप्रहरे स्वाध्यायः द्वितीयप्रहरेध्यानं पूर्वमपि निद्रायानिषेध एव उक्तः टतोयप्रहरे अन्यस्य कस्यापि कार्यस्य अकथनत्वात् तस्मात् तृतीयपौरुषांशयनसमय एवलक्ष्यते चतुथ्यां पौरुष्यां भूयः स्वाध्यायं कुर्य्यात् १८ अथ रात्रे : चतुर्भागन्ज्ञानस्योपायमाह [ जंने इजयारतिं नक्खत्तन्त मिनह चउमाए सम्पत्तेविरमिज्जा सज्झायपोसकालंमि १८] [तम्मेवयन कवन्तं गयण च उन्भागसावसेसंभिवेरत्तियंपिं कालं पडिलेहित्तामुणौकुब्जा २०] यत्रतत्र रात्रि' समाप्ति नयति यदा अस्तसमये यचचत उदेति तस्मि वनचले रात्रि समाप्तौभवति तस्मिन्नेवनचत्रे आकाशस्य चतुर्भागेसंप्राप्त विरमेत् स्वाध्यायाद्दि रमेत् प्रदोषकाले रजनोमुखे तदा प्रदोषकालग्रहणं कृत्वा पञ्चात्प
संपत्ते विरमेज्जा | सज्झायं पचोस कालंमि १६ ॥ तम्म वय नक्खत्ते गयण चउम्भाय सावसेसंमि । वेरन्तियंपि कालं पडिलेहित्ता मुणोकुज्जा २० ॥ पुव्विल्ल मि चउम्भागे पडिलेहित्ताण भंडगं । गुरु वंदितु सभायं कृष्णा
यस्मिन् नवत्रे नभः आकाशः चतुर्भागे ते नक्षत्र आकाशने चतुर्थेभागे जिवारे आवेतिवारे संप्राप्त विरमेत् स्वाध्यायात् तिवार सम्झायथविरमे तव प्रदोषकाले प्रारब्ध प्रदोषसमे पडिकमणोन करे १८ तस्मिन्नेव नचत्रे तेहज मचत्रमे विखे गगन चतुर्भागेन प्राप्त सावशेषे आकाशने चोथे भागे साव शेषथका वैरात्रिकं प्रदोषिक कालं चोथेभागे वेरतौकालकहोइ प्रतिलेखयित्वा मुनिः कुर्यात् पडिलेहोने मुनि सम्मायक र २० पूर्वस्मिन् चतुर्थभागे प्रथम पौरुषौ समये दिवसने चोथे भागे पहली पोरसि प्रतिलेख्य पडिलेन्होने भांडान् उपधि वस्त्रादीन् गुरुवंदित्वा स्वाध्यायं गुरुने वांदीने सक्काय कुर्यात्
* 380030308
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं००४१ मा भाग
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९० टौका अ०२६
७७१
सूत्र
भाषा
रुथ्यां प्रथमायां सूत्रस्वाध्यायं कुर्य्यात् तस्मिन्त्रे वनचत्र गगने आकाशस्य चतुर्थेभागे सावशेषेसति वैराचिकं नाम कालं गृहीत्वास्वाध्यायः कर्त्तव्यः एवमन्धेष्वपिज्ञेयं २० सामान्य नदिनरात्रि कृत्यमुक्का विशेषतोदिनकृत्यमाह [पुब्बिल्ल 'मिच उम्भागे पडिले हित्ताणभण्डगं गुरु वन्दित्तुसज्कायं कुन्नादुकख विमोक्वणं २१] सूर्योदयात् दिवसस्य चतुर्थभागे सूर्योदयात् प्रथमेप्रहरचतुर्थेभागे एतावता प्रथमपौरुष्यां प्रथमघटिकाइयमध्ये भ्राणक ं कल्याद्युपधि वस्त्र शय्योपकरणादिकं प्रतिलेख्य गुरु वन्दित्वाखाध्यायं कुर्य्यात् कथंभूतं स्वाध्यायं दुःख विमोक्षण पापनिर्मूलक २१ [पोरिसोए चउभ्भागे वन्दित्ताण तत्रगुरु' अपडिक्कनित्ताकालस्म भायणं पडिले हए २२ ] पौरुष्याश्चतुर्थेभागे अवशेषेसति पादो न पौरुष्यां जातायां सत्यां ततो गुरून् वन्दित्वाभाजनं पात्र प्रतिलेखयेत् किं कृत्वाकालस्य इति कालं प्रतिक्रम्य प्राभातिककालप्रतिक्रमणार्थं कायोत्सर्गचकृत्वा चतुष्यां पौरुष्यां पुनः खाध्यायं करिष्यते कालप्रतिक्रमणानन्तरं स्वाध्यायकरणं प्रयुक्त तस्मात्काल अप्रतिक्रम्येत्युक्त २२ अथ प्रतिलेखनाविधिमाह [मुहपत्ति पडिले हित्तापडिले हिज्जगोच्छ गं गोच्छगलायंगुलिए वयाइपडिलेहए २३] मुखपोतिकां प्रतिगोच्छकै झोलिकोपरि सत्कं उर्ण मयवस्व ं तत् प्रतिलेखयेत् ततोऽङ्गुलिलातगुच्छ्रकः सन् अङ्ग ुल्यांलात' ग्टहोतं गोच्छकंयेनस अङ्ग ुलिलातगोच्च क स्तादृशः सन् वस्त्राणि प्रतिलेखयेत् झोलकोपरिरक्षणीय पटलकरूपाणि वस्त्राणि प्रतिलेख दुक्ख बिमोश्र्वणं २१ ॥ पोरिसीए चउन्भागे वंदिताण तत्रीगुरु ं । अप्प डिक्कमित्ता कालस भायणं पडिलेहए २२ ॥ दुक्ख विमोच के समायकरे दुक्खनो मृळकावणहार २१ पौरुथां चतुर्भागे विशिष्यमाणे पादोनपौरुष्यां पोहरने चोथे भागे पोणपोरसी आवेधके वंदित्वा ततो गुरुन्गुरुने बदौने कालान् प्रभातकालात् अप्रतिक्रम्य प्रभातकाल परिक्रमोंने भंडकं प्रतिलेखयेत् पात्रा पडिलेहे अथ विधि माह १२ मुखवस्त्रिकां
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१ मा भाग
बाहादुर का आ सं० उ०४१ मा
राय धनप
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W
उन्टौका कृयेत् दृष्ट्यादिनापञ्च विंशति प्रतिलेखनाः कार्याः २३ अथ पटलकगीच्छके प्रमृज्य पुनर्यत् कुर्यात्तदाह [उइंघिरं अतुरिखं पुव तावस्थमेव पडिलेहे तोबि
४ इयंपफोडेतय' च पुणोपमज्जिज्जा २४] पूर्व तावत् प्रथमतः ऊर्ड' यथास्थात्तथास्थिरं यथास्यात्तथा अत्वरितं यथास्यात्तथावस्त्रं एव प्रतिलेख्येत् 8 ई मिति कायतः उत्कटिकासनोभूत्वा अईन्तिर्यग् प्रसारयेत् भूमौ अलगयन् वस्त्र प्रतिलेखयेत् पुनः स्थिरं दृट ग्रहणेन पुनरत्वरितं अनुत्तालतया
प्रतिलेखनौयमित्यर्थः वस्त्रमिति जातित्वादेकवचनं पूर्व दृष्ट्याभारत: परतवनिरीक्षेत एव ततो विइयं इति द्वितीयवारं हस्तापरिप्रस्फोटयेत् हस्त गतान् प्राणिनः प्रमार्जयेत् पुन स्तृतीयवारं तत् वस्त्र प्रमार्जयेत् हस्तोपरिप्रस्फोटयेत् २४ अथ प्रस्फोटनविधिमाह [अणच्चावियं प्रावलियं अणाणु
बन्धि अमोसलि' चेव छप्प रिमानवखोडापाणौपाणिविसोहणं २५] एवं वस्त्र प्रतिलेखनं कुर्यात् कीदृशं वस्त्र अनर्तितं पुनरमवलितं मीटनारहितं *षलदानरहितं पुनरनानुबन्धिनैरन्तर्येण युक्त' अनुबन्धि प्रोच्यते तस्य 'अभावोऽननुबन्ध आसयसहितं कोर्थः यथा पूर्वापर प्रस्फोटन ज्ञान स्यात् तथा
मुहपत्तियं पडिलेहिता पडिलेहेज्ज गुच्छयं । गुच्छगलायंगुलिउवत्थाई पडिलेहए २३ ॥ उड्थिरं अतुरियं पुब्ब'
तावत्यमेव पडिलेहे | तोबियं पप्फोडे तयंच पुणो पमज्जेज्जा२४ ॥ अणच्चावियं आवलियं अणाणबंधिं अमीसलिं ४ प्रतिलेखयंति मुहपत्तौ पडौले हौने प्रतिलेखयेत् गोच्छक पडिलेहे गोछयो अंगुलैः गुच्छकलात्वा गृहीत्वा प्रांगुलौई करौ झालौने वस्त्राणि पटल कानि प्रतिलेखयेत् वस्त्रपडलाझाली प्रमुख पडिलेहे २३ उई स्थिरं दृढग्रहणेन उचो स्थिरदृढभाले पूर्व तावत् पडलक प्रतिलेखयति पहलां पर ला पडिले है ततोनंतरं द्वितीयवेलायां वक्खोडे तिवारपवेशनेर झाडयति तृतीय वेलायां पुनः प्रमाात् ब्रीजीवलाई वली प्रमा| २४ अनृतं कायेन वस्त्रे व
पय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. उ. ४१मा भाग
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७७३
इटीका
र प्रस्फोटनं विदध्यादिति भावः पुनरमोसलिमिति नविद्यते मोसलौयत्र तत् अमोसलिऊधिस्तिर्यक् कुद्यादि परामर्थसहितं यथा नस्यात्तथावस्त्र प. प्रस्फोटयेत् प्रतिलेखयेत् इत्यर्थः पुनरिमाः पूर्व एवं क्रियमाणाः षट् प्रस्फोटनात्मकाः प्रतिलेखनाक्रियाभेदाः कर्तव्याः प्रथमं वारहयं वस्त्रस्य परा
४ वर्तनात् प्रस्फोटनात्रयेण २ च षट् भवन्ति पञ्चानबक्खोडाहस्तापरिप्रस्फोटनात्मका: क्षीटानांत्रिककरणात् नवसम्भवन्ति पुनः पाणीपाणि विशोधनं
हस्तेहस्तविशोधन प्रस्फोटनं विदध्यात् हस्तं नावाकारं विधाय आच्छोटनत्रिकत्रिकोत्तरकाल एवं नव पूर्वोक्ताः नवपुनश्च प्रस्फोटनविशेषाः एवं अष्टादश भेदाः सप्त पूर्वोक्ताः एवं २५ पञ्चविंशतिं विधा प्रतिलेखनाभवन्ति २५ [प्रारभडासम्महावज्जेयब्वायमीसलौतइयापफोडणा च उत्थीविखित्तावेड्या
चेव । छप्पुरिमानवखोडा पाणीपाणि विसाहणं २५ ॥ आरमडा सम्मदा वज्जेयव्वाय मोसली । तयापष्फोडणा
चउत्यो विरिखता वेड्याछट्ठा २६ ॥ पसिढिल पल'ब लाला एगा मासा अणे गरूव धुणा । कुणदू पमाणि पमायं भाषा च कायाने वस्त्रे नचावेनहीं वस्वमीटनादिरहित वस्त्रमोडे नही अमांसलौत्यादि अस्पर्श अन्योन्य असंलग्न भौतिनलगाडे सलनधौकरे दृष्टिप्रति
लेखनानंतरं षट्वलं पूर्व वस्त्रप्रतिलेखणां दृष्टिपडिलेहण कीधापछे तीनवार पढीले नवपषोडाकही जे पाणी हस्ते प्राणी प्रमार्जन हाधने विखे जे जौवहू ते सोधे दुरिकर २५ दोष महाविपरीतकरणीपधि उपरिनिषौदनरूपाः विपरीतकर उपधि ऊपरवेसे वस्त्रमर्दै तिर्यगादिषु वस्त्रसंघटनामो सलीप्रोच्यतेतिरछा वस्त्रमाहोमांहिं मोडे ते मोसली कही जे एबीजी पडौलेहण जाणवी प्रस्फोटना चतुर्थी ज्ञातव्या झाटके वस्त्र एचीथी पडीले हण प्रतिलेखित वस्त्रस्य अप्रतिलेखने पडौलेह्यां वस्त्रअण पडौलेही धरतीइ मूक २८ शिथिल जे नववस्त्रग्रहण विषम ग्रहण भूमी वस्त्रलीलनं शिथिलपण
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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स.टोका
9.
203030888
छट्ठा २८] [पसिढिलपलम्बलीला एगामोसाणगरूवधुणा कुणडूपमाणपमाय सकिएगाणीवयं कुज्जा २७] अश्व प्रतिलेखनादोषत्यागमा पारभंटी 8 विधेविपरीतकरणं १ त्वरितं २ पृथक् ३ नवीन वस्त्र ग्रहण एषा प्रथमाप्रमादप्रतिलेखना १ संमर्दा वस्त्रांतकोणानां परस्परमलमं अथवा उपधरुपरि निषोदन' एषाद्वितीयाप्रमादप्रतिलेखना २ च पुनस्तुतीयामीसलो अपिवळयितव्या पर्यधीभागतिर्यग प्रदेशसभामाबतीया प्रतिलेखना सप्रमाद दोषावाज्या चतुर्थोप्रस्फोटनारजसाखरण्टितस्य वस्वस्थाछोटनासापि वर्जनौया पञ्चमौविक्षिप्ता प्रतिले खितस्य वस्त्रस्य अप्रतिलेखितवस्त्रीपरिमोचन अथवाचतुर्दिक्षु च विलोकन इयमपि सप्रमादाप्रतिलेखनात्याज्याषष्टो प्रतिलेखनावैदिकानाची सापि स प्रमादात्याच्यावैदिकायाः परभेदाः जई ६ वेदिका १ अधोवेदिका २ तिर्यग वेदिका ३ उभयवेदिका ४ एकवेदिका ५ जई वैदिकासायस्या उभयोर्जान्वोरुपरिहस्तयोरक्षण १ अधोवेदिका साजान्वोरध: प्रचुरं हस्तयोरक्षण २ तिर्थक्वेदिकासायस्यांतिर्यग् हस्तौ कृत्वा प्रतिलेखन ३ उभयवेदिकासायस्यां उभाम्या जानुभ्यां यावे उभयोहस्तयोरक्षण' ४ एकवेदिका सा यस्यां एक' जानुहस्तमध्ये अपरं जानुबाहोरच्यते ५ एतेपश्चापि वैदिका दोषाः प्रतिलेखनावसरत्याज्या: स्त्रोलिङ्गत्वं अन्न रूढिवशात् नेयं अथ वस्त्र ग्रहण दोष माह पसिटिलेति प्रसिथिल दृढ अएहोतं वस्त्र १ प्रलम्ब यहिषमत्वग्रहणेन वस्त्रकोणकस्व ग्रहणेन अपरकोणानां लम्बन २ लीलायत्र भूमौ वस्वस्यकलनं स्यात् ३ एतेबयोपि दोषास्त्याज्या: इति योज्य एकामएकमिन् काले उभयोः पार्ख योर्वस्त्रस्याकर्षण' ४ स्त्रोत्वं रुढिवशात् अनेकरूपधुना अनेक रूपासंख्यात्रयात् अधिकाधुनाकम्पनायस्यां सा पनेकरूपधुना तथा यत् प्रमाणे प्रत्योटादि संख्यायां प्रमाद कुरुते तथा सद्भिते सोत्पत्तीमुखेन तथा अङ्ग लिरखास्पर्शनादिगणानस्थोपयोग गणनोपयोगौं कुर्यात् तदपि दूषणं त्याज्यं एतत् प्रतिलेखनादूषण यं २७ पुनरेना एवभङ्गहारेण स दोषां निर्दोष चाह [अण्णाइरित्तपडिलेहा अविवञ्चासातहेवय पढमं पयं पसत्व'
राय धनपतसिंह बाादुर का श्रा०सं०३० ६१ मा भाग
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उ० टीका अ०२६ ७७५
सूत्र
भाषा
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पिसत्याणि २८] अन्य नाजनानकर्त्तव्या १ अतिरिक्ता अधिकानकर्त्तव्या २ अविव्यत्यासा १ विविधोव्यत्यासोयस्यां साविव्यत्यासा नविष्य त्यासा अवित्र्य यासाविपर्यासरहिताविपरोतत्वेन रहिताइत्यर्थः ३ एतेषां त्रयाणां भेदानां अष्टौ भङ्गाउत्पद्यन्ते तेषु भङ्गेषु प्रथमं पदं प्रशस्तं प्रथमोभंग समोचन: अन्ना १. अनतिरिक्ता २ अविपर्यासा २ इत्येवं रूपं प्रथमभङ्गरूप पदं प्रशस्तं निर्दोषत्वात् शुकमित्यर्थः शेषाणि सप्तभङ्गानि प्रशस्तानि२८ पुनर्दू णोत्पत्तिकारणमाह [ पडिलेव्हणं कुणन्तो मिहो कहंकुणइ जणवय कहंवा देद्र पञ्चकवाण' 'वाएइसयं परिच्छद्रया २८] प्रतिलेखनां कुर्वन् संकिए गणणोवयं कुज्जा २७ ॥ अणूणाइ रित्त पडिलेहा अविवञ्चासा तहेवय । पढमं पयं पसत्य सेसाडि अप्प सत्याणि २८ ॥ पडिलेहणं कुणंतो मिहो कहं कुगाइ जणवय कहंवा । देदू पञ्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छदूवा २८ ॥ वस्त्रझाले त्रिषमपणेझाले धरती वस्त्रलोले एकांगुली ग्रहण अधिक प्रलेखना करण' एक आंगुलोस्यु' झाले पडिलेहण अधिकोकरे प्रमाणे प्रमादं करोति प्रमाणने विखे प्रमादकर पूरी पडिलेहणकरनही शंकितं प्रतिलेखना पूर्णाकृतावान कृतावा शंका उपजे पडिलेहरी पूरोकोधे महो तिवार गुलो गणवानो जोग करे २७ न्यून रहिता अधिक रहिता अन्य नाधिकाओकोपणि न करे अधिको पणि न करे पडोलेहणाना प्यार भेदके अवितासा अविपर्या सा चतुर्णामपि भंगानां चिन्ह भांगामांहिं तत्र प्रथम पदं अन्य नातिरक्ता प्रशस्तं चोथो भांगोसख श्रोछोनकर अधिको न करे पूरोकर एभांगो भलो शेषाणि पदानि अप्रशस्तानि वौजातीने भांगामुडा २८ प्रतिलेखनां कुर्वन् पडिलेहण करतुथको परस्परं कथां कथयति करोति माहोमांहिं कथाकहोइ जनपददेश कथां करोति देसनी कथाकहे ददाति प्रत्याख्यानं पञ्चवक्वाण करावे वाचयति स्वयं श्रालापादिकं प्रसोच्छति
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जाय धनपतसिंह बाहादुर का आसं उ० ४१मा भाग
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साधुमिथः परस्परं कथा वातचित्करोति अथवा जनपदकथा देशकयां करोति पुनः प्रतिलेखनां कुर्वन् कम्मैचित्प्रत्याख्यान चेहदाति पुनः प्रति १. टीका * लेखनां कुर्वन् अपरं साधु वाचयति वाचनां ददाति वा अथवा प्रतिलेखनां कुर्वन् चेत् स्वयं आलापादि प्रतीच्छति राति २८ [पुढवौ आउक्वाएते
जवाजवणस्मइतसाणं पडिलेहणापमत्तोकण्हपि विराहीहोइ ३०] एतानि पूर्वोत्तानि कार्याणि कुर्वन् प्रतिलेखनायां प्रमत्तः प्रमादकीसाधुः षणामपिकायानां विराधको भवति ते षट्कायानां नामान्याह पृथ्वौकाय १ अप्काय २ स्तेजस्कायः वायुकायः वनस्पतिकायस्त्रसकायश्च तेषां सम्मर्दक: स्थात्तत् कथं विराधको भवति कुम्भकारादिशालायांस्थितस्तत्र पुमादवशात् पतिलेखनायां जलकुम्भादि पातनात् तेन पानौयेन मृत्तिकाग्नि वायुकन्यु कादिकास्त्रसा स्थावराश्वलायन्ते तदापसामपि विराधमास्यात् यदाहाहन् जत्थ जल तस्थवण' जत्थवण तस्य सासी अग्गौतेऊवाऊसहिया एयं छएहपि सहजी १ इति वचनात् ३० [पुढवौ आउक्काएतऊवाऊ वणस्मइतसाण पडिलेहण आउत्तो छन्हपि पाराही होइ ३१ ] प्रतिलेखनायां
पुढवी आज काए देऊ वाऊ वणमडू तसाणं | पडिलेहणा पमत्तो छणहंपि विराही होडू ३० ॥ पुढवी आज काए तेज वाऊ वणस्म तसाणं । पडिलेहणा आउत्तो छहंपि आराहो होइ ३१॥ तड्याए पोरिसिए भत्तपाणं गवे
राय धनपतसिंह चाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१मा भाग
भाषा
आपवाचे अथवा आगल्यापासे सांभले २८ पृथ्वीकाय १ अप्पकाय २ तेउकाय ३ वायुकाय ४ वसकाय ५ वनस्पतिकाय ६ प्रतिलेखनाम प्रमादवंत साधुकहे जिवनौकायनो विराधकहोय ३० पृथ्वीकायः १ अप्पकाय २ तेउकाय ३ वायुकाय ४ चसकाय ५ वनस्पतिकाय ६ प्रतिलेखनायां आयुक्तः सावधान थको पडीलेहण करे षस्मामपिजीवनि कायानां रक्षको भवति छएजीवनिकायनी रक्षकहवे ३१ हतीयायां पौरुष्ायतिः चीजीपोरसिने विखे
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आयुक्तः सावधानोऽप्रमादोसाधुः पृथिव्यादीनां घणां अपिकायानां आराधको भवति ३१ इत्यनेन प्रथमपौरुष्याः कर्त्तव्यमुक्त हितोयपौरुष्याः कर्तव्य उ टौका
स्वाध्यायादिकं पूर्व उक्त मेवाभूत् अथ वृतोयपौरुष्या कृत्यमाह (तइयाए पोरसौए भत्त पाण गवेसए छन्हमन्त्रय रागम्मि कारण मि समुट्टिए ३२ )तृतीयां पौरुथा भक्तपानं गवेषयेत् अयं उत्सर्ग कोनयः स्थविरकल्पिकानांहि यथाकालं भक्त पान गवेषण उक्त क्व सतिषणां कारणाणां मध्ये अन्यतरस्मिन् एकस्मिन्कारणे समुत्थिते सति आहार ग्रहणस्य घटकारणानि संतित: कारणे राहारं कर्तव्य ३२ तानि षटकारणान्याह । (वेयणवेयावच्चे इरिय ट्राएय संघमा र तह या पतिवार छ पुणध मचि ताए ३३) वेदनायै क्षुत्पिपासादि रोगादि वेदनायाः उपशमनाय वेदनाक्षतुं न शक्यते प्राक्कतखात् विभक्तिलोपः प्रथमं कारण १ तथा वैयाव याय यावत्यर्थ यतोहि क्षुत्पिपासया पौडितो यावत्य कृत्साधुः आचार्यादीनां वैयावृत्यं कर्तुं न शक्नोति एतहितोयं कारणं २ तथा इरियडाए ईयार्थाय ईयी समित्यर्थ इधाषार्दितस्य निर्जरार्थिनीपि साधोश्चक्षुरिन्द्रिय बलहीनस्य लघु जीवादिकं अप श्यतः ईयायाः पालनं नस्यात् तदर्थ आहारकरणं उत्तीयं कारणं ३ तथा पुनः संयमार्थाय चारित्रस्व क्रियानुष्ठाना तापनावश्यकाद्याराधनार्थ यथा ४ शक टांग वृतादिना संस तं एव चलति अन्यथा न चलति एतच्चतुर्थकारण ४ तथा पुन: प्राण प्रत्ययाय प्राणाना प्रत्ययो जीवितावधि धारणं प्राण
सए। छह मन्नयरागम्मि कार म्मि समुटिए ३२ ॥ वेयश वेयावच्चे दूरियट्टाएय संजमट्टाए। तह पाण वत्तियाए सूत्र
इयतो ध्यानं मुक्त्वा भक्तपान गवेषयेत् विलोक्येत् भातपांणीनी गवैषणा करे घणामपि कारणानां मध्ये अन्यस्मिन् कारण उपस्थिते छकारणछे गोचरीना भाषा &छ माहिथौ कोइकारण ऊपनी ३२ वेदनावुभूक्षा वेदनायां वैयाकृत आचार्यादीनां भूखलागी गुरुनकाजि आहारपाणी जीवोजई एईर्यासमिति पालनार्थ ३ संजम निर्वाहार्थ ४ ईर्यासमिति पालवाभणी संयम निर्वाह निमित्त तथा प्राणवृत्यर्थ' अवविना प्राणनाशः अबविना प्राण रहे नही
2
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा०सं०३०४१ मा भाग
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उटौका अ०२६
७७
प्रत्ययस्तस्मै पाणपत्यया प्राणधारणार्थ जीवितावधी संपूर्णे जाते सत्ये व पाणमोचनं कर्त्तव्य अन्यथा आत्महत्वादीषः स्यात् तस्मात् जीवितव्य धारणार्थ ६ इदं पञ्चमंकारण' ५ षष्ठ' पुनरिदं यदुतधर्मचिन्तायै धम्नध्यान श्रुताभ्यासरूपायै भक्तपानं गवेषयेत् क्षुषा पौडितस्य पार्तध्यानयुक्त धम्मभ्यान श्रुता भ्यासो नस्यात् आगतमपि श्रुतं विस्मरइति षष्ठं कारण' (निगयो धिइमन्ती निमान्यौ विनकरिज्जवहिंचेव ठाणहितइमहिं अणदूकमणाय सेहोइ ३४) निग्रन्थः साधुः धृतिमान् धैर्यवान् तथा निग्रन्थी विइति साध्वी अपि षड् भिर्वक्ष्यमाणैः कारण भक्तपान गवैशणां न कुर्यात् यतः एभिः स्थान से इति तस्य साधीः साधावा आहारं अकुर्वतः अनतिक्रमणं भवति संयमयोगानां उल्लङ्घनं न भवति अन्यथा आहारन्त्यजतः साधोः संयमयोगस्य अतिक्रमण उल्लङ्घनं स्यात् इति भावः २४ तानि षट कारणानिदर्शयति [आय के उत्समो तितिक्ख या बम्भचेरगुत्तीसु पाणिदया तवहऊ सरीरबुच्छेयणडाए ३५]
छठ्ठ पुण धम्म चिंताए ३३॥ निग्ग'थो धिमंता निग्गथीवि नकरज्ज हिंचेब। ठाणेहिंतु इमेहिं अणडूक्कमणया से
होडू ३४ ॥ आयके उवसर्ग तितिक्खया बंभचेरगुत्तीमु । पाणिदया तवहां सरीर वाच्छ यण हाए ३५॥ अवसैसं 8 तेह पाणी आहारलेई षष्टं पुन: धर्म चिंतायै ६ छट्ठी कारण धमनी चिंता भणी आहार लीई २३ निग्रथो धृतिमान् निध संतोष
नो धणी साधुक होई निग्रथौ अपि साधौरपि भक्तपान विलोकयेत् षड् भिरतः एकए कारण साध्वीपणि पाहारपाणौनी गवेषणाकरे स्थानेषु धुनः
एभिः घड भिः षड् भिकारण तदा प्राज्ञाति करीनभवति एकए कारण कौधाथको आज्ञानी लोपनहोइ ३४ आतंके ज्वरादिरोगे उपसर्गे उत्पनरोग ४ वरादि उपसर्ग तितिक्षा क्षुत्सहन समर्थत्वेन भूखविषाने निमित्त ब्रह्मचर्य गुप्तिषु ४ जीवरक्षा तपोनिमित्त' शरीर विच्छेदनार्थ एषु भनपान
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० २०७१ मा भाग
भाषा
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स.टौका अ.२६
se.
आतंकज्वरादिरीग १ उपसर्गदेवादि कृतस्योपसर्गस्यागमने २ तथा ब्रह्मचर्य गुधिषुतितिक्षया हेतु भूतया यदि आहारं क्रियेत तदा इन्द्रियाणि बलवन्ति स्थस्तदा ब्रम्हगुप्ति रक्षापि दुष्करा तस्मात् ब्रह्मगुप्तितितिक्षया आहारनिषेध: ३एतत् तृतीयं कारणं तथा प्राणिदया हेतोर्वर्षादौनिपतत् अपकायादि जोवदयार्य ददुरिकादिरक्षायै ४ तपसोहेतोयतुर्थषष्टादिवर्गतपोधनतपसी: करणहेतोर्वा पञ्चम कारणं ५ पुनः शरौरव्यवच्छेदार्थाय उचितकाले संलेखनां अनशनं कृत्वाशरोरत्यागाय आहारं साधुर्नगवेषयेत् इति सम्बन्धः इति षष्ट कारणं ३५ अथ तहवेषणायां विधिक्षेत्रावधिं च प्राह [अवसेसं * भण्डगगिक चक्ख सापडिलेहए परमद्धजीयणाश्री विहारं विहरएमुणो ३६] साधुरवशेषं समस्तं भाण्डक उपकरणं गृहीत्वा चक्षुषा प्रतिलेखयेत् ततः
साधुः परं उत्कृष्ट अर्ड योजनात् अर्ज योजनं आथित्यमुनिविहारं विहरेत् अधिकं व्रजतोहि साधो: क्षेत्रातीतं आहारदोषं स्यात् तस्मात् योजनाई विहारं विहृत्य आहारमानोय उपाश्रये गुरोरणे आलोचविधि पूर्वकं आहारं कृत्वा यकत्र्तव्य तदाह ३६ [चउत्थौए पोरसौए निक्सिविताणभायणं
मंडग' गिमा चक्लसा पडिलेहए। परमह जोयणाओ बिहार विहरए मणी ३६ ॥ चउत्योए पोरिसीए निक्खिवि त्ताण भायणं । सभायं तो कुज्जा सब्वभावविभावणं ३७॥ पोरिसीए चउम्भाए वंदित्ताण तो गुरु । पडिक्क
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास उ. ४१मा भाग
गवेषण कुर्यात् एतकारण अथ भातपाणौनौ गवेषण न करे ३५ अवसेस'समस्तं भंडगं सर्व भिक्षीपगरण गृहीत्वा संघलाइ उपगरणलेईने नेत्र ण प्रतिलेख येत् सम्यग् नत्र करो पडिलेह परं उत्कृष्ट अईयोजनं क्रोशाय यावत् कोसताइ भिच्य विचरयेत् मुनिः भिक्षाने जाई मुनी ३६ चतुर्थी पौरुष्यां आहारपाणानंतरं चोयो पोरिसिन विखेआहारपाणिकौधापळे भाजनिक्षिप्य प्रतिलेख्यपाना पडिलेहीने पक्के मेलेस्वाध्यायं ततः कुर्यात् पक्के सज्मायकर
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अ०२६
७८०
सज्जायन्तीकज्जा सब्वभावविभावणं ३०] ततश्चतुर्थी पौरुष्यां भाजनं निक्षिप्यझोलिकादौबध्वा ततः स्वाध्यायं कुर्यात् कीदृशं स्वाध्याय सर्वभावविभा वन सर्व पदार्थ प्रकाश कं ३० [गरिसोए चउभाए वन्दित्ताणतोगुरु पडिक्कमित्ताकालम सिज्ज तुपहिले हए ३८] मुनिः पौरुष्याः अर्थाचतुर्थ्याः पौरुष्याचतुर्भागशेषे गुरु वन्दित्वा ततः स्वाध्यायादनन्तरं कालस्य कालं प्रतिक्रम्य तु पुनः शय्यां वसति प्रतिलेखयेत् ३८ [पासवणुचारभूमिच पडिलेहि ज जयं जयो काउस गं तो जा स वदुक्ख विमो खणं ३८] ततः पश्चात् यतिः सायं ब्रवान् सन् यत्नया प्रश्श्रवणोच्चारभूमि प्रत्येक हादश स्थण्डिलात्मकां च शब्दात्कालभांच स्थण्डिल मका प्रति नेखये लघुनौतिस्थाने हादशमण्डलानिहनौतिस्थाने च हादशमण्डलानि कालग्रहण मण्डलानिवौणि एवं सप्तविंशति मण्डलानि कुर्यात् दिन शत्यमुक्ता उत्तरार्डेन रात्रि कृत्यमारभ्यते ततो भूमि प्रतिलेखनानन्तरं कायोत्सर्ग कुर्थात् * कीदृशं कायोत्सर्ग सर्वदुक्ख विमोक्षणं कायोत्सर्गेण महतोकर्मनिजरा यदुक्त काउसयोजहद्वियस्म भज्ज न्ति अङ्ग व गाई इभजन्तिसु विहिया ४ अविहं कम्मसङ्कायं कायोत्सर्गस्य ऐहिक आर्शमक फलं स्यात् ऐहिकं यशोदेवाकर्षणादिकं आमुष्मिक स्वर्गापवर्गादिकसुख प्राप्ति रूपं अत्र सुदर्शन
राब धनपतसिंह बाहादुर का पास. उ. ४१मा भाग
सूत्र
भाषा
मित्ता कालस्य से जंतु पडिलेहए ३८॥ प.सवणु चार मूमिंच पडिलहिज्ज जयं जई । काउम्मग तो कुज्जा सव्व सर्वभावानां विभावनं प्रकटनं समर्थः सज्जायधको सवभावनौ सर्वपदार्थ नौ खवरपडे ३७ पौरथा चतुभी गे पोरसौने चौथेभागि वंदित्वा ततो गुरुं गुरुनिवंदना करौने कालात् प्रतिक्रम्य सिज्जातु पतिलेख्येत् उपाश्रय पाटि प्रमुख एडिलेडे ३८ पुत्रवणमूत्र उच्चारं हड संडिलं मावानी भूमिधं डिलनी भूमि सांझ पतिलेख येत् यनयतिः यो करोडू देखीने देखे पडिलेहे ततो देवानभिवंद्य कायोत्सर्ग कुर्यात् देव वदिकाउस्मग करे
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उ० टीका अ०२६
७८१
सूत्र
भाषा
कथा ३८ [देवसियं च अइयारं चिन्तिज्जअणुपुब्वसो नाणेयदंसणे चैव चरित मितहे वय ४० ] कायोत्सर्ग कृत्वा च पुनर्देवसिकं अतौचारं श्रणुपुव्यसो अनुक्रमेण ज्ञानदर्शने चारित्रे तथैव अनुक्रमेणैव चिन्तयेत् ४० [ पारियका उस्मग्गोवन्दित्ताणत ओगुरु देवसियं अइयारं बलोइज्जजहक्कम ४१ ] ततः पारितकायोत्सर्गः सन् साधु गुरु दादशावर्त्त वन्दनेनवन्दित्वा तु पुनर्यथाक्रमं देवसिकं अतौचारं आलोचयेत् ४१ (पडकमित्तानिस्लो वन्दित्ताणतओ गुरु' काउसम्मं तओकुज्जा सव्वैदुक्खविमोकवण ४२ ) ततः प्रतिक्रम्य अपराधस्थानेभ्यः प्रतिकूलं निवृत्यप्रतिक्रमणसूत्र' उक्तानि शल्यः सन् शल्यरहितो भूत्वा ततः पश्चाहरु दादशावर्त्तवन्दनेन यन्दिवा श्रीगुरुचचमयित्वा आयरिय उवज्झायइति गाथात्रयं पठित्वा ततः पश्चात्कायोत्सर्ग चारित्रदर्शन श्रुतज्ञानशार्थं कुर्यात् जातित्वादेकवचनं कोहणं कायोत्सर्ग सर्वदुक्ख विमोक्षण ४२ ( पारियका उस्मग्गोवन्दित्ताणतश्रगुरुन्य इमङ्गलचकाउ' काल ं दुक्ख विमोक्खणं ३८ ॥ देसियंच अईयारं चिंतेज्ज अणुपुब्वसो । नागंमि दंसणंमि चरितमि तवय ४० ॥ पारिय काउस्सृग्गो वंदित्ताण तत्र गुरु ं । देसियंतु अईयारं आलोइज्जजहक्क ४१ ॥ पडिकमित्ता निमल्ली वंदित्ता ती
दुःख विमोचणं सर्व्व दुःख मूं काववाने काजि ३० देवसिकमतो चारं चिंतयेत् दिवसकृत प्रतौचार चिंतवे अनुपूर्वसो अनुक्रमेण श्रभु क्रमें ज्ञान दर्शने चैव ज्ञाननो दर्शनो चारित्रे तथैवच चारित्रनो काउसम्म करे ४० पारितकायोत्सर्गो यतिः काउसम्म पारौनेयतो हादयावर्त्त वंदनेन वंदित्वा ततः गुरु हादशावर्त्त वांदणदिई प्रतिक्रम्य देवसिक अतौचार दिवस संबंधी अतिचारपडी कमीने पतीचारं प्रकाशयेत् यथाक्रमं अनुक्रमे बालीचे प्रकाश करे ४१ प्रतिक्रमणसूत्रेण प्रतिक्रम्य निशल्यः पतिक्रमण सूत्रकहे निःशल्यथको वंदित्वा ततो गुरु' तिवारे गुरुने वांदे कायोत्सर्गत्रयं क्रमेण हिएकेक
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धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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उ० टौका
अ०२६
७८२
सूत्र
भाषा
138230963008
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सम्पडिलेहए ४३) पश्चात्यारित कायोत्सर्गे नमस्कारपूर्व लोगस्सुज्जोयगरे इत्यनेन पारयित्वा ततोऽनन्तरं द्वादशावर्त्तवन्दनेन गुरु वन्दित्वा इच्छामोऽणु सण्ठ्यिं इत्युक्वास्थित्वापश्चात् स्तुतिमङ्गलञ्च तित्रयात्मक' वर्ष मानातरस्तुतित्रयपाठ रूपं मङ्गल' कृत्वाकाल' प्रत्युपेचिते प्रतिजागर्त्ति तदवसर सरकङ्काल कालग्रहणं साधुर्ष्ट हातीत्यर्थः ततोनन्तरं यत्करणीयं तदाह ४३ ( पढमं पोरसि सङ्कायं बिइएकाण क्रियायई तईयाए निमोक्खं तु सभायं तु चथए ४४) प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं कुर्यादितिशेषः द्वितीयायां ध्यान पिण्डस्थादिक धर्मध्यानादिकं अधौतसूत्रार्थं ध्यायेश्चिंतयेत् तृतीयायां निद्रायामोचोनिद्रामुत्कलताविधेया चतुर्थ्यां पुनरपि स्वाध्यायं कुर्यात् द्वितौयवारकथनात् शिवाय गुरुभिरुपदेशोदातव्यः नतु पाठने प्रयाशचिन्तनीयं इति ज्ञे यं ४४ (पोरिसौए चउत्योए काल' तु पडिलेहएसज्झायं तु तचोकुज्जा अवोहंतो असंज्जर ४५) चतुर्थ्यां पौरुष्यां पुनः काल प्रतिलेख्य प्रत्युपेच्य
गुरु ं । काउस्मृग्ग ं तत्र कुज्जा सब्ब दुक्ख बिमाक्खणं ४२ ॥ • पारिय कामग्गो वंदित्ताण तओ गुरु । थुइ मंगलंच काउं काल' संपडिल हए ४३ ॥ पढमं पोरिसि सज्झायं बिइयंज्भाणंज्मियायई । तईयाए निहमोक्तंतु सज्झा लोगस चिंतनरूपं कुर्यात् पहिला २ पछे एक एक लोगस्सनोको उसग करे सर्वदुःख विमोक्षण सर्वदुःखनु मूं' कावणहार ४२ पारितकायोत्सर्गः काउ
।
परौने दित्वा ततो गुरु गुरुवांदीने सिद्ध स्वरूपं कृत्वा स्तुति स्तवनकरे मंगलरूप काल संप्रतिलेच्य गृह्णाति पक्छेकालि पडिलेहण करे मुह पति चोलपट पडलेहजे ४३ प्रथम पौरुषां स्वाध्यायं पहलो पोरसिं सज्मायकरे द्वितीयायां ध्यानं ध्यायति वोजी पोरसिं ध्यांनकरे तृतीयायां निद्रा सेवयेत् aौजी पोरसि निद्राकरे स्वाध्यायं पुनः कुर्यात् चतुथ्यां चोथो पोरसि सज्कायकरे ४४ पौरुष्याः चतुथ्यां चोथौ पोरसिने विखे काल प्रति जाग
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राय वनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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उ टोका
७८
प्रतिजागर्यप्राग्यहोत्वा तत: स्वाध्यावं कुर्यात् परं किं कुर्वन् स्वाध्यायं कुर्यात् असंयतौन रहस्थान् अबोधयन् अजागरयन् शनैः २ पठन् इत्यर्थः उच्चैः पठन श्रवणात् गृहस्थाः सावद्ययापारं कुर्वन्ति तदा साधुरपि आरम्भक्रियाभावस्यादिति भावः ४५ (पोरिसीए उम्भाए वन्दिऊणतोगुरु पडिक्कमित्ताकालस्म काल तु पडिलेहए ४६) चतुर्थाः पौरुष्याश्चतुर्थभागे अवशेषेसति घटिकाइयेरजन्या अवशिष्टे सति तदाहि काससमवान कालस्य, ग्रहणं तस्मात् ततोगुरु' वन्दित्वाद्दादशावर्त्तवन्दन दत्वा कालस्य इति तत्समययोग्य काल प्रतिक्रम्यतत्सम्बन्धिनी क्रिया कत्वा तु पुन: कालं प्राभातिक काल प्रति लेखयेत् प्राभातिककालग्रहणं ग्रहीयात् इत्यनेन आवश्यकवेला ज्ञात्वा आवश्यकानि कुर्यात ४६ (भागएकायबुस्मगी सव्वदुक्खविमोक्वणे काउसगन्तोक जा सञ्चदुक्ख विमीक्षण' ४७) रात्रि प्रतिक्रमणस्थापनानन्तरं कायव्यत्सर्गे आगतसतिकायोत्सर्गवेलायां प्राप्तायां कायोत्सर्गसमये पुमादो न विधेयः कयभते समये सर्वदुःख विमोक्षण ततः कायोत्सर्ग कुयात् कीदृशं कायोत्सर्ग सर्वदुक्सविमोक्षण' अत्र पुनः सर्वदुक्त विमोक्षणमिति
यंतु चउत्थीए ४४ ॥ पोरिसीए चउत्थौए कालतु पडिल हिया। समायंतु तोकुज्जा अवोहता असंजए ४५ ॥
पोरिसीए चउम्भाए वंदिऊण तोगुरु। पडिक्कमित्ता कालस्म कालतु पडिल हए ४६॥ पागए कायवुस्सग्गे सब्व रतिकाले पडिलेहे स्वाध्यायं ततः कुर्यात् पछे सज्मायकरे अबोधयत् अजागरयत् असंयतान् चौर कृषी बलादीन् न जाग्रति असंयतीने जागावे नहो ४५ पौरुष्यों चतुर्भागे शेषेसति पोरसिने चोथेभाग वंदित्वा ततो गुरु वंदना करे गुरुने कालात् प्रतिक्रम्यनिष्कृत्य पडिकमणोकर कालंतु प्रति लेखयेत् काले पडिलेहणकर वेला ४६ भागते चारिबादि विशुद्धार्थ कायव्य मर्गः काउसमाकरे सर्वदुक्सविमोक्षण सर्वदुक्खयौ रहितहुवे कायोमर्ग
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ सं.२०४१ मा भाग
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उ टोका
अ०२६
७८४
विशेषणेन कायोत्सर्गस्य अत्यन्तकर्मनिर्जराहेतुत्वं प्रतिपादितं तथा इह कायोत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शन ज्ञानशुद्धयर्थ कायोत्सर्गत्रयं ग्राह्य तत्र
तोये कायोत्सर्गेरात्रि कोऽतोचारश्चिन्तनौवः ४७ एतदेवायतनगाथायां आह [राईयं अईयारं चिन्तिज्ज अणपुव्वसो नाणम्मिदंसणम्झौचरित्तमितवं मिब ४८] रात्रो भवं रात्रिक च पदपूरणे अतोचारं चिन्तयेत् अानुपूचा आनुक्रमेण ज्ञाने दर्शनेचारित्र तपसि च शब्दाहोर्ये शेषकायोत्सर्गे चतु विशतिस्तवचिन्त्यतयायतीतः साधारणचैति नोक्त: ततश्च ४८ [पारियकाउस्मयो वन्दित्ताणतो गुरुराईयं तु अईयारं आलीएज्जजहकम ४८) (पडिक्कम्मित्त निसलोवन्दित्ताणतोगुरु काउस्मग्गन्तोक जासव्वदुक्ख विमोक्षण' ५०) युग्मं तत: पारितकायोत्सर्गः सन् साधगुरुं वन्दित्वा हादशा
टुक्ख विमोक्ख गरे । काउमाग्ग तोकुज्जा सव्वदुक्ख विमाक्खण ४७॥ राईयंच अईयारं चितेज्ज अणुपुब्बसो। नाणं मि दंसण'मी चरितमि तवंनिय ४८॥ पारिय काउमाग्गो वंदित्ताण तोगुरु। राइयंतु अईयारं आलोएज्ज जह
कम ४६ । पडिक्कमित्तुनिप्तल्लो वंहिताण तोगुरु । काउस्मग्ग तओकुज्जा सव्वदुक्ख विमाक्खण ५० ॥ किंतवं ततः कुर्यात् परे काउसम्गकरे सर्वदुःख विमोक्षण सर्वदुक्खधौ रहितहवे ४७ रात्रिक अतोचारंयतिभिः रातिसंवंधिया प्रतीचार चित्यते अनुक्रमेण अनुक्रमे चितवे ज्ञानेन दर्शनेन पुनः ज्ञाननोदर्शननी चारित्रे तपसाच चारित्ननो तपनो ४८ पारितः कायोत्सर्ग काउस्मम्गपार वंदित्वा ततो गुरु वांदणां देइने गुरुने रात्रक रात्रिसंबंधौ अौचार अतीचार आहोच्येत् यथाक्रम यथा अनुक्रमे ४८ प्रतिक्रम्यनि:शल्योयतिः निःशल्यथको पडिकमै वंदित्वा ततो गुरु गुरुने वांदणादेईने कायोत्सर्ग ततः कुर्यात् तिवारकेर्ड काउस्माकरे सर्वदुक्ख विमोक्षण सर्वदुक्खनु मूकावणहार ५० किं तपः
राब धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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उ टोका
७८५
वर्त वन्दनं दत्वारात्रिक अतौचारं आलोचयेत् यथा क्रमं यथा यथा अनुक्रमेण अतोचाराणि रूग्नानि तथा २ आलोचयेत् इत्यर्थः पालोचनापाठ पठेत् ४८ ततः पश्चात्पद स पदासहितं पुतिक्रम्य प्रतिक्रमण सूत्र उक्तानिशल्योभूत्वा तत: पुनर्गुरुहादशावत वन्दने नवं दिखा पायरित्री उवमाए इति गाथात्रयं पठित्वा ततः कायोत्सर्ग कुर्यात् कथंभूतं कायोत्सर्ग सर्व दुक्खविमोक्षण'५० कायोत्सर्मेस्तिः किचिन्तयदित्याह (किं तवं पडिवज्जामि एवं तत्यविचिन्तए काउसमां तु पारित्तावन्दईयरुओ गुरु' ५१) अद्य अहं किं तपः नमस्कारसहितादि यावत् पाण्मासोपवासादिक प्रतिपद्य एवं तत्र कायो मग चि तयेत् भगवान् योमहावीरः षण्मासंयावनिरसनो विकृतवान् तत्कि महं अपिसात समर्थोभवामिनवेति एवं पञ्चमासाद्यपि यावनमस्कारसहितं तावत्परिभावयेत् तत: कायोत्सर्ग पारयित्वागुरुं हादशावतं वन्दनेनवंदयेत् ५१ (पारियकाउममोवन्दि तातोगुरु तवं सम्पाडवज्जित्ताकारज्जसिहाग सन्थवं ५२) ततः परिर कायोत्सर्ग: सन् गुरु' वन्दित्वाहादशावत वन्दननवन्दित्वातपः सम्पतिपद्य यथा शक्ति उपवासा
पडिवज्जामि एवंतत्य विचितए। काउमाग्ग तु पारिता बंदईय तोगुरु ५१ । पारिय काउस ग्गो वंदित्ताण
तोगुरु। तवं संपडिवज्जित्ता करिज सिद्धाण संथवं ५२ । एसा सामायारी समासण वियाहिया। चरिता प्रतिपद्यते किसी तपकरु एवं तत्र विचिंतयेत् जे तपकर ते चीतवाने कायोत्सर्ग पारयित्वाकाउस्म मापारीने हादशावर्त बंदना वंदते ततो गुरु मुहपत्ती पडोलेहोने वांदणादिइ ५१ पारयित्वा कायोकर्ग काउस्मापारीने वंदित्वा ततो गुरु' वादीगुरुने यथायतका चिंतित मुपवासादि प्रतिपत्ति कुर्यात् चितव्योहोर ते तपकर सिद्धानांसं स्तवं स्तुति त्रयरूप सिहस्तवं देववंदनादिक देववाद ५२ एषा समाचारि एसी समाचारी कही संपण व्याख्याता
42
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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उन्टौका प्र.२० ७८६
दिकं अजीब सिडानां सस्तवं देवसिक प्रतिक्रमणवत् प्रात्ये वर्षमानस्त तित्रयरूपं पाठं कुर्थात् तदनुकत्व सहायतादन कार्य सक्ररुवपाटन * पवात सर्वाक्रिया यथायोग्यं कर्तव्या ५२ अध अध्ययनोपसंहारमाह [एसा सामायारी समासेण वियाहिया जंचरना बहजीवातिया संसारसागरं तिबेमि५३] एषा भगवदुता दशविधसाधु सामाचारी समासेन संक्षेपेण विहाहिया व्याख्यातायाः सामाचारीचरित्वा अंगीकत्व बाबीजीवा संसारसागरं सोपीः इत्यहं ब्रवीमि इति सुधर्मास्वामी जंबवामिनं प्रत्यार ५३ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूवार्थदीपिकायर्या उपाध्याय वौसमीकीर्सिगरिमिण सौ वजभगणिविरचितायांसामाचार्याख्य षड विंशमध्ययनं संपूर्ण ॥ २६ ॥ अथ सप्तविंश अध्ययनं प्रारम्ने । सामाधरी अमटेन पालन कम यह विपच्च
भूताया अयठताया कयनेन अपठत्व ज्ञापनार्थ खलुकास्य अध्ययनं कथ्यते धरेगणहरे गमोमुणी पासि विसारए पाइने गणिमामि समाहिपहि ४ मधएक ] गार्योनाम गणधरोमुनिः स्थविरः पासीत गणस्य गच्छस्य धारकवाणधरः धर्मे स्थिरीकरणत्वात् स्वबिरः गर्गगोषीत्य बत्वात् मार्यो मनुते सर्वसावधवि रमणस्य प्रतिज्ञा कुरुते इति मुनिः कोहयो गार्योविशारदः सर्वशास्त्रनिपुणः पुनः कीदृशः स पाकीर्णः पाचार्यगुप्तः पुनः कीदृशः
बहजीवा तिनासंसारसागरंत्तिवेमि ५३ ॥ सामायारीज्मयणं समत्त २६ ॥ थेरे गण हरे गग्ग मुणी पासि विसारए।
राय धमपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.१.४१मा भाम
सूत्र
भाषा
संखे करोने कहो यो पाचरित्वावहबोजौवाः जे समाचारौ अंगीकार करोने घणा जीव तिर्थाः संसारसागरं इति समाप्ती बौमि संसारसागर तवा पारपाया ५३ इति श्रोसामाचारी नाम उत्तराध्यायनस्य षड्वौंशतितमाध्ययनं संपूर्म ॥ २६ । सृविरः गणधरः गर्गमामा स्थवीर गणधर गर्ग नामा: मुनिरासोत् मुनिहा पंडितविशारद पापनः प्राप्तः प्राचार्यादि भावगुणे प्राचार्यने छत्रीसगुणे करौ सहितछे समाधि संयमरूपं करोति
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ए.टीकाxपनासावा
स गणिभाव प्राचार्य वे स्थितः पुनः स गार्यो गणधरः समाधिंधत्ते कुशिश्वैः स्त्रीटितं शानं दर्शनचारिमा समाधि प्रतिसंधयतीत्यर्थः । [वहर्ष वहमाण म कतार अइवत्तई जोएब वहमाणस्म संसार भइवत्तई २] यथा यथा बहने शकटादौ विनीत तुरग वृषभादौन वहमारा इति उन्हामा * स्म सारण्यादेः कतारं अरखं प्रतिवर्तते संपूर्ण' भवति तथा योगे संयमव्यापारसु शिष्यान् वाच्या प्राचार्य स्व संसारः पतिवर्तते शिष्याणां विनीतत्वदृष्ट्वा स्वयं समाधिमान् जायते शिथास्तु विनीतत्वेन स्वयं संसारमुकंघयते एव एवं समयोविभौत मिश्च सदाचार्ययोरेग: समवः संसार च्छे करइति भावः २ (खल के जोउजोएइ विहम्माणोकिल मई असमाहिं च वेएइतोत्तोयसेभजई ३) यस्तु सारथिखलु'कान् गहिषभान योजयति रथे स्थापयति स सारथिविहम्माणोइति विशेषेणतान् खल कान् छन् प्राजनेन ताडयन् संलिप्यते समयं प्राप्नोति अतएव असमाधि पसाता वेदयते
पाइमोगभिभावंमि समाहि पडिसंधए ॥ वहणवहमास्म कतारं भवत्तई। जोएय वहमाणमा संसार भवत्तई॥ खलुको जोउ जोएडु विहंमाशो किलिमई। असमाहिच वेईए तोत्तउय समज्जई ३ ॥ एग डसदू पुच्छमि एग
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा सं-उ०५१ मा भाग
भाषा
* समाधिरूपसयम करके १ सम्यक् शकटावाहमानस्य भला बलद गाई जोद्याथको पटवीं प्रतिवर्सी पटीने सांधे पार पाम यथायीय संयमष्या पारेषु सिथान् वाहयेत् इम गुरुशिश्चने सजमजोगने बिखे रलावतावका संसारी प्रतिवर्स ते संसार उबंधे पारपाम ३ खलुबाम गसितषभान् यो वाहयति गलिया बलदने जे गार्ड जोर्ड सवामान: ताडयन् शं प्राप्रीति ते बलदने चलायत थकी ताडतुथको केशपामे असमाधिच वेदयति असमाधि पणु पाम पुराणिकासे तस्य भजने बस्ती निरने उपराणोपणि भांजे ३ एकंडसति प्रच्चे कठी सारधी कृषभनौ दांत करी पूछकरहे एकं ४
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उ० टोका
अ०२७
७८८
सूत्र
भाषा
प्राप्नोति च पुनस्तस्य खलु षभयोजयतुः पुरुषस्यतोत्रकः प्राजनकोभज्यते खल कानां प्रतिकुहनात् प्राजनको भज्यतेइति भावः २ [एण्डसद् पुच्छ मि एगजअभिकवणं एगम्भ इसमिल एगो उपहडिओ ४] पुनः खलु कडषभस्वामौरथारोहको रुष्टः सन् तं खलुकं पुच्च दन्त दशति एकः स एव एक गलिन॒प्रभं अभीक्ष्णं वारं २ विति प्राजनस्य आरयाव्यथति एकोगलि वृषभ: समिलां युगकौलिकां भनक्ति एक: पुनर्गलिह षभः सत्पथमार्ग प्रस्थित भवति ४ [एगोपडप्रासेयं निवेस निबज्जई उहइउप्फिडई सटेबालगवोबर ५] एकोगलिस्ताडितः सन् पार्श्वेन वामदचणभाईन पतति अन्यः Safaत एकः कवित्रिपद्यते स्वपिति प्रतम्बोभूत्वाशेते एक उत्कूर्हति उच्चलतिदर्दुखत् चतुः फलोभवति श्रन्य: शटोभ
धूर्त्तचं आचरति अन्यः कश्चित् गलिई लोवहवालगवों लघिष्टां धेनु दृष्ट्वातां] अनुब्रजन्ति ५ [माईमुद्वेगपड कुद्द गच्छ पपिहं मः लक्खे या चिट्ठ पूर्वीय य बिंध अभिक्खणं । एगे।भंजई समिल एगो उप्पर पट्टि ४ ॥ एगे. पडदू पासेणं निवेस निवज्जई। उक्कह आपिफडइ सर्ट बालगयोवए ५ ॥ माई मुद्देण पडद्र कुडे गच्छद्र पडिपहं । मयलकोण चिह्न देगेयय पहावई६ ।
अभियं निरंतरं विध्यते एक चषभने वारंवार आर बींधे एको वृषभः समिल' भनक्ति एक बलद समिलाने भांजे एक उन्मार्गे प्रस्थितः एक बलद उसने दोडे एकः पतति पाखन एकपसवाडे पडे ४ उपविशतिवइसोजाइ स्वपतिसूई जाए वाले नही उत्कुईने कूदे कंदुकवत् उत्पति दोनों परि ऊ चा ऊढे शठो दुष्टशकावलीव: धेनुं प्रति धावति दुष्टबलदगायने देखौने धावर ट्रोड ५ मायावान् मूढपितति एक वृषभमायाबीमाधार करि भोपडे क्रः सन् विपरीत गच्छति कोपपाम्योथको पाछोवले कृतकमिषेण तिष्ठति मानु मिस करोने पड वेगेन प्रधावतिबेगे करोने दोड ६
1888
राय धनपतसिंह बाहादुर का
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डन्टोका
अ०२७
७८८
सूत्र
भाषा
सममार्ग
पहावई ( ) एकोमाईमायावान् भूखामस्तकं भूमौ निक्षिप्यपतति एकः कथित् क्र ुद्धः सन् प्रतिपथ प्रतिकूलः पन्याः प्रतिपथस्त प्रतिपथं न्त्यक्तापञ्चामार्ग' गच्छति एकः कश्चित् मृतलच्येण तिष्टति कृतस्य लक्षणं कृत्वातिष्टतिमिष्टो भूत्वा पतीत्यर्थः यदा च पुनः कश्चित् सब्जीकृत्य उत्थापि तस्तदावेगेन प्रधावति अनयाराधादति यथा पश्चात्स्वामीग्टहोतुं न शक्नोति ६ (छिनाले किन्दई समिमं दुहन्ते भन्नई जुगं सेवियस स्यान्ता उब्जहिता पलाई ७) एक बालीदुष्टजातीय: कश्चित्सनं इति रस्मि बन्धनं रज्ज' किमस्ति मलाचोटयति अन्योदुर्दान्तोदमितुमशक्योयुगं जूसर भनक्ति सेवि इति स च दुष्टोबलीवर्दः सुतरां अतिशयेन पूत्कृत्य अत्यन्त पूत्कारं कृत्वा उत् प्राबल्य नजूहित्ताइति स्वा स्वामिनं प्रकटं उन्मार्गे लात्वाकुवचिदिममप्र देशभक्ता स्वयं पलायत ७ [रहलु काजारि साजोज्जादुस्तोसावितारिसा जोइयाधम्म जारंमि भन्नन्तोधिदुबला ८] गार्ग्यनामा आचार्य एवं वदन्ति भोमुनयो यथालोके खल'काः अत्र उक्त लक्षणः गलिनृषभाः योज्याः रथस्याग्रे धुरियोत्कृताः सन्तोयाहशाभवन्ति रथारोहकस्य श्रसमाधि केशकराभवन्ति इति
छिन्नालेच्छिंदई सिल्लि' दुईते भंजएजुग । सेविय सुनुयाइत्ता उब्जहिता पलायई ७ ॥ खलु का जारिसाजोज्जा दुमीवारिसा | जोइया धम्मजाणंमि भांति धिदू दुबला८ ॥ इट्ठीगारजिए एगे एगेत्थ रसगारवे । साया
जातििित एकः शिल्लिरसि दुष्टबलदराशिने तोडे एको दुतः युगं भनक्ति एक दुर्दातबलद युगभांजे शमिलं शकटं त्यक्त्या शमिलाने गाडाने छोडोने उज्जिहतेयाने पलायतिना सोजाइ ७ उक्तरूपाः गावोबादृशाः रुज्जमानास्यु' जिस्या एकलद कह्या मूंडा एवं दुःशिष्यापि तादृशाः भूडा शिष्यपणि इणौ रौतिं जांणवा योजिता धर्मयाने भव्य ते भग्ना भवंति धीरूपगाडोने बिखे जोयाका भांजे संतोषरहिताष्टति दुर्बला संतोष करोने रहित प
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राय धनपतसिंह वाहादुर का प्रा०सं० उ० ४ १ मा भाग
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HAMAKXI
6.टोका
64.
०८.
..
निश्चयेन पाचार्यस्थापि दुःयिथाः दुष्टाःथिया: विनयरहिताः कुभिण्यातायाभवन्ति धर्मयाने मुक्ति नगरप्रापकले नसंयमरधे योषिताः व्यापारिताः भज्यले संयमक्रियानुष्टानात् स्वलन्त सम्यग् न प्रवर्तन इत्यर्थः कोदृथास्ते तिदुर्वलाः निलचित्ताः धर्मेदुखिराइल:- [इट्टि गारवएएगे एगैत्थर सगारवे सायागारविएएगे पोमुचिरकोहण ८] [भिक्खालसिएएगे एगोमागभौकएथई एगच पण सासो छ हिं कारपहिय १.] युग्म एकः कश्चित् ऋडिगौरविकः ऋडागौरव अस्यास्तीति ऋडिगौरविको मम थाहाः प्राध्याः मम श्रापाः वश्या मम उपकरण वस्त्र पाबादिसमीचीनं इत्यादि आत्मान बहुना तरूपं मनुते स ऋडिगौरविक उच्यते एतादृशोगुर्वादेशेनप्रवर्तते एकःकश्चित् पुनरव स गौरविकः पाहारादिषु रसोसोक्षुषः एतादृशोहि ग्लानाद्याहारदानतपसोनप्रवर्तते एकःकश्चित् कुशिष्यः सातागौरविकोभवति सातायागौरवैभवः सातागौरविकः एतादृयोहि विहारं कसुनशनोति एकः कश्चित् कपि यः सचिरक्रोधनः चिर क्रोधकरणयोलः एतादृशोहितपः क्रियानुष्टानकरणे योग्यो न भवति । (भिक्खा• १०) एकः कचित् भिचालसिकः भिदायां पालत्ययुक्तः तादृशोहि गोचरौपरोषहसहनयोग्यो न भवति एकःकश्चिदपमानभौरुर्भवति अपमानात्भौरः अपमानभौरुः एतादृयोति तस्य महेन
गारविए एगे एगसुचिर काहणे ॥ भिक्खालसिए एगे एगे उमाणमौरुएबई । एगच अणुसासमौ हेजहिं कारणे
- राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.०१.४१ मा भाम
ऋयागारवितो मानरूप: एकतुमानरूप ऋद्धितिणे करी गर्वितके एकोस्ति रसगर्षितः स्वादलंपटः एकशिथ रसगर्वितके शातागति: एकशिष्यः एकसातामाहिं पद्मो शिथ एक सुचिर कोधी दीर्घरोषो एक दीर्घरोसौर भिक्षालसः एकः एकभिक्षा मांगवे भाससौ एकोमामभीरः यस्य तस्य गृह न याति एकमानी जतेने घरे न जाइ एकस्तब्धः अनुशासने एकथिवादीधाधका सबहोई रह हेतुभिः कारणैः पंचावयव अनुमानवाक्यैः पनन्यधारमौर
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उ टोका अ.२७ ७१
मा भाग
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प्रविशति एकः कश्चित् स्तब्धोहङ्कारोभवति एतादृशोनिजकुग्रहात् विनयं कर्तुं न शक्नोति च पुनः एकं कुमिष्य प्रतियिष्यादाने प्राचार्य एवं विचारयति हेतुभिः कारणैः अहं एनं कुशिष्य अनुशास्मि कथं इति अध्याहारः कथंशिक्षयिष्यामि आचार्यइति चिन्तापरीभवति इति भावः १. [सोधि पसरभासि लोदीसमेवपकुबई आयरियाणं तंवयर्थ पडिकूलेइ अभिक्वण ११] सोपि कुशिष्यः प्राचार्ये परिचितः सन् अन्तरभाषावान् पुनर्दोष मैव अपराधमेव 8 प्रकरोति प्राचार्यस्य सिक्षायां दोष मैव प्रकाशयति अपगुणग्राहौभवतीत्यर्थः पुनः स कुशिष्यः प्राचार्या यहचनं तापनं वारं वारं प्रतिकूलयति समुख जत्पति यदा प्राचार्याः किञ्चित् शिक्षावचनं वदन्ति तदा अभीक्ष्णं मुहुरेव वदति किं मां यूयं वदत यूयमेव किं न कुंरुत इत्यर्थः ।। [म सामर्म विद्याणाइ नविसाभज्म दाहिईनिमायाहोहितोमन्ने साहु अनोत्थवच्चो १२] तदा प्राचार्यः किञ्चित् कुशिष्यं प्रतिवदति भी शिष्य अमुकस्व सहस्यस्य
हिय १०॥ सीविअंतर भासिल्लो दासमेव पकुवई। पायरियाणं तंवयणं पडिकूलए अभिक्खणं ११॥ नसाममं
वियाणाडू नविसा मझदाहिई। निग्गयाहोहिईमन्ने साहू अन्नात्य वच्चमो १२। पेसियापलिउंबंति ते पलियंति नियत पूर्ववर्तिभिः १. सोपिऽनुशिश्चमानः अंतराइभाषा शिख्यादेतांधका विचे वाले दोषप्रकरोति रोसकहे प्राचार्यानां यहचनं तबतौहाज गुरु * बच न प्रतिमूलः अभीक्ष्ण वार २ गुरुना वचन भूडा माने कुशिष्य भूडाथिष्य ११ गुरुणाकार्ये प्रेरितोब्रूते मानविजानातित मुझने नाम नहीं बाविका
नच सा मह्यं दास्यते ते मुझने नही दिइ निर्गता भविष्यती मन्ये हं ते श्राविका घरथीनी सरौइस्येम जाण छुपन्य साधुः पत्र कार्ये गच्छतुः एकार्य नेवास्त वोजो कोह साधु मेलो १२ क्वचित्कार्ये प्रेषिताः क्वचिन्म काः उत्साहरहिताः ते कुशियकार्ये मोकल्याकार्य करनहीं पाहारादिको
प्राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.उ.
भाषा
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*एहात् मह्यं आहाराद्यानीयदेहि तदा स कुशिष्यावदति सा थाहीमम इति इति मानविजानासि मां न उपलक्ष यति सा थापीमध आहारादिकं न ७. टोका* दास्यति अथवास गुरु प्रत्येवं वदति है गुरी अहं एवं मन्य साश्राद्यौनिर्गताभविष्यति स्वरसाद परत बदामींगता भविष्यति अथवा न्यः साधुः अस्मिन् अ.२७%
* कार्ये वजतु अहं न व्रजामि इत्यर्थः १२ [पेसियापलि उति तैपलिन्ति समंती रायचिमनं ताकरितिभिसरि' मुह १३] पुनस्ते कुशिष्याः ७८२
आचार्येण वात्रचित् ग्रहस्थग्रह आहाराद्यर्थ एहस्थस्य आकारणायवा पितः सन्त: पलिपीविति अप वन्ति अपलपन्ति षयं भवधिः कुन कुक्का अस्माकं न स्मरसि अथवामिष्टाहारादिकं गोपयन्ति अथवा उक्त कार्य न निष्पादयन्ति अनुत्पादितमपि उत्पादितमिति वदकि, एत्यादितं च अनुत्पादित वदन्ति अथवा यत्र भवनिर्वयं प्रेषिता स गृहौनकशित् दृष्टः इति पृष्टासन्तः अएलपन्ति पुनसो कुशिया: समं ततः सर्वासुदिपरियनि पर्यटन्ति
गुरुपाईकदाचिन्न आयान्ति न उपविशन्ति कदाचिइयं गुरूणां पास्यास्याम दास्माक किञ्चित्कार्य कथयिष्यन्ति इति मत्वा अन्यत्र भमन्ति इति • भावः कदाचित्कसि नकार्ये गुरुभिः प्रेषितासदाराजवैष्टि इव मन्यमानास्त कार्य कुर्वन्ति कृपस्यवेटिः पतिताइति जानतोमुखे भकुटौं भूभङ्ग रचना
कुर्वन्ति अन्यामपि ईओशूचिका चेष्टा कुर्वन्तौति भावः १३ [वाइयासङ्गहिया चेव भक्तपारणपोसिया जायपक्खाजहाहंसा पक्कमन्तिदिसौदिसि १४]
XRA XXXXXXXXXX*******
'राय धनपतसिंह बाहादुर का था .सं.उ. ४१मा भाम
समंतओ। रायवैट्टिच मन्नता करेति भिउडिंमुहे १३ । वाइया संगहियाचे व भत्तपाणण पोसिया। जाय पक्खा
लवे कहे मिल्यो नहीं इम कहे ते शिष्य समंततः कुशिष्याः पलायनेचिटु पासे कुशिष्य नासौ जाइ राजष्टिमिव मन्यमामा राजानी बेठनीपर * माने कुर्वति भृकुटीमुखे मोहोड भम्ह उचौटाव १३ सूत्र वा चिताः तदईच ग्राहिताः संग्रहीता शिख्यादामिन सत्र भण्डाव्या अर्थदीधी मिस्या
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PRORERE
पुनस्ते कुशिश्थाः गुरुभिर्वाचिताः सूत्र ग्राहिताः शास्त्राभ्यास कारयित्वापण्डिताकृताः पुनः संग्रहीताः सम्यक् स्वनिश्वायां रक्षिताः पुनर्भक्तपानैः पोषिता उन्टौका ४
• पुष्टि नीताः चकारात् दौज्ञिताः स्वयमेव उपस्थापिताः पश्चात्तेकार्येसृतेदिसोदिसि प्रक्रमन्ति यथेच्छ विहरन्ति ते कुशियाः के यथाजातपक्षाः हंसा ७८३ * यथाजाताः पक्षाप्तन्तुरुहाणि येषां तेजातपक्षाः हंसाइव यथा उत्पद्रपक्षाहंसाः स्वजननी जनकं च त्यक्ता दशसुदिक्षु बजन्ति तथा ते कुशिष्या अपि
8 इति भावः [अहसारहोविचिन्ते इ खल केहिं समंगनी किंमज्दुहसौसेहिं अप्याम अवसौयई १५] अथानन्तरं सारथिर्गर्गाचार्या धम्मयानस्य प्रेरकथेत सिञ्चिन्तयति खल कैर्गलिवृषभसदृशैः कुशिश्च : समङ्गतः सहितः किञ्चिन्तयति एभिर्दुष्टशिष्यैः प्रेरितैः सद्भिः किमभइति किं ऐहिकामुभिकफल वा मम प्रयोजनं सिद्धाति दुष्टशिष्य : प्रेरितैः केवलं मै मम आत्मा एव अवसौदति तेषां प्रेरणात् स्वक्तत्यहानिरव भविष्यति नान्यक्किमपि फलं तत एतेषां कुथियाणाल्यागन मया उद्यतविहारिणा एवभाव्यमिति चिन्तयति १५ [जारिसा मम सोसाओ तारिसागलिगढहागलिगद्दहे च इत्ताण दढ' पगिण हाई तवं १६] पुनः स आचार्यश्चिन्तयति यादृशाः मम शिष्याः सन्ति तादृशाग लिगर्दभाभवन्ति अत्रगलिगर्दभ दृष्टान्त न शिष्याणां अत्यन्त निन्दासूचिता
जहाहंसा पक्कमंति दिसोदिसं १४ ॥ अह सारही विचितेडू खलु केहिं समागओ। किंमज्भ दुट्टसौसहिं अप्यामे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७०४१ मा भाग
भाषा
दौधौः भक्तपानाभ्यांच पोषिताः भातपांचौकरी पोस्याछे जातपक्षा यथा हंसा: जिम हंसना बालकने हंसपोषवंधारे मोटाकर पांखावे जौवारे उडी * जाये हंसेव स्वेच्छाचारौणो बजंति दिशोदिसे ते शिष्य पणि भखागवाथका पई ऊठौजाइ १४ अथ सारथिः विचिंतयतिहवे सारथौचिंतवे खलु कैः
दुष्टमिव समागतः गुरुचिंतवे दुष्टशिय आवोमोल्या कि मम दुष्टशिश्थैः एदुष्टथिये मुझनेस्य मम आमा अवसौदति क्लिश्यतिम्हारी आत्मा दुःख
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उ०टौका अ०२७ 028
सूत्र
भाषा
ततः गर्गाचार्यो गलिगर्दभ सदृशान् कुशिष्यान् त्यक्वा दृढं यथा स्यात्तथा तपोबाचं आभ्यन्तरञ्च प्रगृह्णाति प्रकर्षेणांगौ करोति तु शब्दः पदपूरणे यदा एतान् कुशिष्यान् अहं नत्यच्क्ष्यामि तदामदीयः कालः क्लेशे एव प्रयास्यतीति प्राचार्य विचारयति १७ [मि महवसंपन्न गम्भीरेस समाहिए विहरइ महिं महप्पासोल भूरण अप्पणेात्तिवेमि १७ स गार्ग्य आचार्यस्तदा ईदृशः सन् महीं पृथिवों ग्रामानुग्रामं विहरति कौदृशः स मृदुहि विनयवान् पुनः कीदृशो मार्दवस पत्रः अन्तःकरणेपि कोमलतायुक्तः पुनः कोदृशः गम्भीर: अलब्धमध्यः कीदृशः सुसमाहितः सुतरां अतिशयेन समाधिसहितः पुनः कीदृशः शौलभूतेन आमना उपलचितः शौलं चारित्र ं भूताः प्राप्तोय स शौलभूतः तेन शोलभूतेन मौलयुक्त नात्मना सहितः यतोहि खलु'कत्वं कुशिष्यत्वं तत्तु अविनीतत्वं तच्च स्वस्य गुरोश्वदोष हेतुरस्ति अतो अविनीतत्वं त्यक्ता विनीत त्वमङ्गौ कर्त्तव्यमितिभावः १७ इतिग्रहं aatमि इति श्रीसुधर्मास्वामिजम्बूस्वामिनं प्राह ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकोर्त्तिगणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचि अविसौयई १५ | जारिसा ममसीसाओ तारिसा गलिगहहा । गलिगहहे चद्वत्ताणं दटंपगिरहए तवं १६ | मि महवसंपणे ग ंभौरेमुसमाहिए । विहरद्र महिं महप्पा सोलभूएण अप्पणीत्तिवेमि १७॥ खलुकिज्ज्भयणं सम्मत्तं २० पामेके १५ जादृशाः ममः शिष्याः जौसामाहरे शिष्य तादृशाः गलिगर्ह भा: दुष्टहृषभाः जेहवागलीया वृषभः गलिगईभान् त्यक्का गलित वृषभसरिषा शिथक्कोडोने दृढ ं तपः परिग्टकाति दृढतपकरे १६ मृदुस्तथा मार्दवः सन् मृदुमाईवगुणे करौसहित कोमलचित्तगंभीरः तथा सुसमाधितः कोमलचित्त थको समाधिस'युक्त विचरति पृथिव्यां महात्मा पृथिवोने विखे विचरे आका शौतभूतः शीतः सन् श्रात्मना इति बुवोमि सौतलहओको विचरे १७
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०६९ मा भाग
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30
तायां खलु'कोयाख्य' सप्तविंशतितम' अध्ययनं सम्पूर्ण ॥२७॥ अथाष्टाविंशतितमं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने अगठस्य मोक्षमार्गप्राप्ति: स्यात् अतो १. टौका 8 मोक्षप्राप्ति विधायक अध्ययन अष्टाविंशं प्रारभ्यते [मोक्वमग्गगई तच्च सुणहजिणभासियं च उकारण सञ्जुत्त नाणदंसण लक्वण १] श्रीसुधर्मा खामो
जम्बूस्वाम्बादौन शिथान् वदति भोमुनयो मोक्षमार्गगतं यूयं शृणु तमोक्षोष्टकर्मणां नाशस्तस्य मार्गोज्ञानादि मोक्षमार्गस्तेनगतिः सिडिगमनरुपामीक्ष मार्गगति यूयं शृणुत कीदृशीं मोक्षमार्गगतिं जिनभाषितां जिनोक्तां पुनः कीदृशीं तच्च इति तथ्यां अवितथा सत्यां तत्वरूपां पुनः कौदृशीं चतुर्भिः कारणैः संयुक्तां चतुः कारणसंयुक्तां पुन: कौदृशीं ज्ञानदर्शनलक्षणं ज्ञान' च दर्शनं च लक्षणं स्वरूपं यस्याः साज्ञानदर्शनलक्षणातां १ अथतानि चतुः कारणानि आह [नाण' चदंसणं चेव चरित्तञ्च तवोतहा एसममात्तिपन्नत्तो जिणहिवरदंसिहिं २] एष चतुः कारणरूपोमोक्षमार्गौजिनैः केवलिभिस्तीर्थ करैश्च प्रज्ञप्तः कथित: कोहर्जिनवरदर्शिभिः वरं अव्यभिचारित्वेनवस्तु स्वरूपं दृष्ट गोलं येषां ते वरदर्थिनस्तैवरदर्शिभिः सम्यग् ज्ञानदर्शनवद्भिरि त्यर्थः अथ चतुर्णाद्वारणानां नामानि प्रथमं कारणं ज्ञानं यथा स्वरूपस्थानां वस्तनां विशेषण अवबोधीज्ञान ज्ञायते अनेनेतिज्ञानं तदिह सम्यक ज्ञानमुच्यते च पुनहि तौयं कारणं दर्शनं वस्तूनां यथा स्वरूपस्थानां सामान्यप्रकारेण अवबोधीदर्शनं दृश्यते अनेनेति दर्शनं तदण्यत्र सम्यग् दर्शनमुच्यते
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास उ०४१मा भाग
मोक्खमग्गगडू तच्च मुणेह जिणभासियं चउकारण संजत्तं नाण देसण लक्खणं १॥ नाणंच दंसणंचेव चरित्तंच
इति धौखलुकि अध्ययन सप्तविंशतमीटवार्थ संपूर्ण ॥२७॥ मोक्षमार्ग गतं सत्य हवे मोक्षमार्गनीगति सत्यरूप शृणत जिनभाषितं अही भव्य जीव तुम्हे सांभलीवीत रागनुभाषित चतु:कारणं संयुक्त' चिहकारण करीसहित ज्ञानदर्शन लवणखरुप ज्ञानदर्शनलक्षण करीने सहीत । ज्ञानस्य स्वरूपं
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44
चैव शब्दः पदपूरण विशेषावबोधात्मकं ज्ञानं सामान्यावबोधात्मक दर्शनं इति ज्ञानदर्शनयोर्भेदः च पुनस्तृतीयं कारणं चारित्र चर्यते प्राप्यते मोचोऽने नेति चरित्र' संयमरूपं तदिह सम्यग चारित्र एवज्ञेयं तथा चतुर्थ तपः कारण तप्यते कर्मवोऽननति तप: येनकर्मवर्ग: प्रज्वलति तत्तपीहादशविध अत्रतपसश्चारित्रात् पृथगुपादान कम्मक्षयेतपसोऽसाधारणत्वख्यापनार्थ २ एतदनुवादहारण फलमाह [नाणं चदं सण चेव चरित्तच तबोतहा एयममा मणुप्पत्ताजौवागच्छन्ति सम्गई ३] जीवाः भव्यजोवाः इम मार्ग अनुप्राप्ताः सन्तः सद्गतिं मोक्षगतिं गच्छन्ति इमं मार्गकं ज्ञानं च पुनदर्शन च : पुनश्चारित्र तथातपोजिनाज्ञाशुद्ध' वादविधं इत्यनेन ज्ञानदर्शन चारित्रतपांसि मोक्षमार्गः ये पुरुषाअनसावधानास्ते मोक्षगामिनीन याः इति भावः३ [तत्थ पञ्च विहंनाण' सुयं आभिणिबोहियं ओहिनाणञ्चतइयं मणनाणञ्च केवलं ४] तत्र ज्ञानादिष मध्ये पञ्च विधं पञ्चप्रकारं शाम' कथितं तान् पञ्च तवोतहा । एस मग्गात्ति पन्नत्तो जिणे हिं वरदंसिहि २॥ नाणंच दंसणंचे व चरितच तवोतहा । एयमग्ग मणुपत्ता जीवा गच्छंति सग्गडू३॥ तत्य पंचविहंनाणं सुयं आभिणिवोहियं । ओहिनाणं तयं मणनाणंच केवल ४॥ एवं पञ्चविहंनाणं दर्शन स्वरूपं पुनः ज्ञानदर्शन चारित्र वाह्याभ्यतरभेदस्तपः चारित्रवारभेदे तप एषः मुक्तिमार्गः प्रज्ञाप्तः उक्त: जिनैः एमुक्तिनी मार्गतीर्थ कर कह्यो प्रशस्य सम्यक्तधरैः विशिष्ट सम्यक्तना धरणहार २ ज्ञानस्वरूपं दर्शनस्वरूपं ज्ञानदर्शन पुन: चारित्र वाह्याभ्यंतरभेद स्तपस्तथा चारौत्र तप एवं मुक्ति मार्ग मनुप्राप्ताः एमागने विखे प्राप्त हुआथका जौवा: गच्छंति सइतिं जोव भलौगतिं जाई निस्संदेह ३ तत्र पंचबिधं ज्ञानं तौहां जानना पांचमेद श्रुतज्ञान १ मतिज्ञान २ तृतीयं अवधिज्ञानं ३ मनःपर्यवज्ञानं पनपर्यायज्ञान ४ केवलज्ञानं केवलवज्ञान५ एतत् पञ्चविधज्ञानं एपांचे प्रकार ज्ञान
KAXXXKARXXXXxxxxxxxxxxxa
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ. ४१मा भाग
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१ टीका अ०२८ ७८७
४ प्रकारान् पाह प्रथमं श्रुतं यतज्ञान' अक्षरशब्दात्मकं हादयाजीरूपं श्रूयते यत् तत् श्रुतज्ञानं भावश्रुतं ग्रहाते द्वितीयं आभिनिबोधिक' अभिमुखीनियमः
स्वस्य विषयस्थ बोधोयस्मात्म अभिनिबोधः अभिनिबोध एव आभिनि बोधिक आभिनिबोधिक शब्देन मतिज्ञानं उच्यते पञ्चेन्द्रियैः समनस्कैरित्यर्थः वृतीयं अवधिज्ञान अवइति अधोधोविस्तारभावेन धावतीति अवधिर्मर्यादा अवधिनाउपलक्षितं ज्ञान अवधिज्ञान उच्यते कोर्षः यदज्ञान मर्यादा सहितं स्यात् तत् बतौयं ज्ञान' अथ चतुर्थ मनोज्ञान मनः शब्देनमनोद्रव्यपर्यायास्तषु मनोद्रव्यपर्यायाणां नाम भेदकारणज्ञानं मनोज्ञानं यस्य कस्य चिन्मनः पुहलाः यादृग्स्वभावेन वर्तन्ते तेषां ताहग प्रकारण ज्ञान मनः पर्या यज्ञान इत्यर्थः पञ्चमं केवलं एकं सकलं अनन्तञ्च ज्ञानं केवल ज्ञान केवल च तत् ज्ञान' च केवलज्ञान' यस्योदयेसति अन्य षां ज्ञानानां अकिञ्चित्करत्वं भवतीति भावः यद्यपि नन्दीसूत्रादौ पूर्व मतिज्ञान' उक्त अनादी श्रुतग्रहण कृत तत् शेषज्ञानानां स्वरूप व तज्ञानेनैवज्ञेयत्वात् सर्वाण्यपि ज्ञानानि श्रुतज्ञानानौत्यर्थः ४ [एयं पञ्च विहंनाण दवाणयगुणाणय पज्जवा णञ्चस सि नाणवाणोहिं देसिब ५] एतत्पञ्च विधज्ञान' सर्वेषां द्रव्याणां गुणानां पर्यायाणां च यत् ज्ञान' तत् नानिभिः केवलिभिर्देशित कथितं ज्ञायते यत् तत् ज्ञान इति भाव व्य त्यत्तिः अथ द्रव्यलक्षणमाह [गुणाणमासयोदब एगदब्बस्मियागुणा लक्षण' पज्ज वाणन्तु उभत्री अस्मियाभवेह]
दव्वाणय गुणाणय पज्जवाणंच सब्बेसिं नाणं नाणीहिं देसियं ५॥ गुणाण मासओ दव्व एगदम्वस्मिया गुणा।
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० .४१ मा भाग
भाषा
8 द्रव्याणां धर्मास्तौकायादौनां गुणानांच द्रव्य धर्मास्ति का यादिक रुपादीनां पर्यायाणां सर्वेषां रूपादिक पर्याय तन् भेदानां सर्वेषां तेहना संघला 8 भेदत्तानं बोधिरुप ज्ञानभिः देसितं कथितं ज्ञान वीधिरुपज्ञानी' कयी ५ गणानामाययो द्रव्य गुणनो पाश्रयते ट्रव्य भाजन गुणाः रूपादयः एक
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R
गुणानां रूपरसस्पर्यादीनां पाश्रयः स्थान द्रव्य यत्र गुणा उत्पद्यन्तेऽवतिष्टन्त विलीयन्ते तत् द्रव्य इत्यनेन रूपादिवस्तु द्रव्यात् सर्वथा अतिरिक्त अपि 5.टोका नास्ति द्रव्ये एव रूपादिगुणालभ्यन्तेइत्यर्थः गुणाहि एकद्रव्याश्रिताः एकस्मिन् द्रव्ये आधारभूत आधेयत्वेनाविता एकद्रव्याश्रितास्ते गुणा उच्चन्ते प.२८8
इत्यनेन ये केचित् द्रव्य एव इच्छति तद्यतिरिक्तान् रूपादौन इच्छन्ति तेषां मतं निराकृतं तस्माद्भपादौनां गुणानां द्रव्ये भ्योभेदीप्यस्ति तु पुनः पर्या याणां नव पुरातनादि रूपाणां भावानां एतल्लक्षण जेयं एतत् लक्षण किं पर्यायाहि उभयाश्रिताभवेयुः उभयो, व्य गुणयोराश्रिताः उभयाश्रिताः ६ द्रव्येषु नवौन पर्यायाः नाम्ना आकृत्या च भवन्ति गुणेष्वपि नवपुराणादिपायाः प्रत्यक्षं दृश्यन्ते एव ६ पूर्व द्रव्यभेदानाह [धम्मो १ अधम्मो २
आगास ३ कालो ४ पुग्गल ५ जन्तवो ६ एसलीगुत्तिपन्नत्तीजिणेहि वरदंसिहिं ७] धर्मइति धर्मास्तिकाय १ अधर्मइति अधर्मास्तिकाय २ आकास मिति आकाशास्ति कायः ३ काल: समयादिरूप: ४ पुग्गलत्ति पुइलास्तिकायः ५ जन्तवइति जौवाः ६ एतानि षट द्रव्याणि जे यानौति अन्वयः एषा इति सामान्य प्रकारेण इत्येवं रूपः उक्तः घट द्रव्यात्मकोलोकोजिनैः प्रज्ञप्तः कथितः कौशैजिनैवरदर्शिभिः सम्यक् यथास्थित वस्तुरूपन्न : ७ [धनो।
लक्खणं पज्जवाणंतु उमओ अस्मियाभवे ॥ धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एसलोगोत्ति परमत्तो जिणे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१मा भाग
भाषा
ट्रव्याधिता भवंति रूपादिक गुण एक द्रव्यने आयये होइ पर्यायानांतु इदं लक्षणं पर्यायन' लक्षणछे सहभाबिनी गुणाकम भावितः पर्यायाः लक्षणपर्याययोः उभयोः द्रव्याश्रिताः गुणाश्रिताश्च भवंति व्यने गुणने आश्रित हुवे ६ धर्मास्तिकाय१ अधर्मास्तिकायर आकाशास्तिकाय३ कालःसमयादि पुहलं५ जंतवी जीवोद एषः लोक इति प्रज्ञप्तः कथितः एहलोक कह्यो जिनैः वर केवलज्ञानीकह्यो ७ धम्मास्तिकायअधम्मास्तिकाय एतानि
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सटोका
७८८
अहम्मो आगासन्दव्व इक्विकमाहियं अणन्ताणिय दबाणिकालोपुग्पा लजन्तवो ८] धादिभेदानाह धम्म १ अधम्म २ आकास ३ द्रव्य इति प्रत्येक योज्यं धर्म द्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य इत्यर्थः एतत् द्रव्य वयं एकेक इति एकत्वं युक्त एवतीर्थकरैः पाख्यात अग्रेतनानिवौणि द्रव्याणि अनन्तानि खकोयखकीयानन्तभेदयुक्तानिभवन्ति तानित्रीणिद्रव्याणिकानिकालः समयादिरनन्तः अतीतानागताद्यपेक्षयापुहलाअपिअनन्ताः जन्तवीजीवा अप्यनन्ता एव ८ अथ षट् द्रव्याणां लक्षणमाह [गइलक्वणो उधम्मो बहमीठाणलक्षणोभायण' सव्वदवाण नहं श्रीगाहलक्षणी] धर्मोधमास्तिकायोगति लक्षणोने यः लक्ष्यते ज्ञायतेऽनेनेतिलक्षण एकस्माद्देशात् जीवपुहलयोर्देशान्तर प्रतिगमनं गतिर्गतिरवलक्षण यस्य सगतिलक्षणः अधों अधर्मास्ति कायः स्थितिलक्षणोन्नेयः स्थिति: स्थानौं गति निवृत्तिः सैबलक्षण अस्येति स्थानलक्षणोऽधम्मास्तिका योज्ञेयः स्थिति परिणतानां जौवदुइ लानां स्थिति लक्षणकार्येज्ञायते स अधर्मास्तिकायः यत्य नः सर्वव्याणां जौवादीनां भाजनं आधाररूपं नम: आकाशं उच्यते तत् च नमः अवगाहलक्षण
हिंवर दंसिहि ॥ धम्मो अहम्मो आगासं दव्व इक्विकमाहियं । अणंताणिय दव्याणि कालो पुग्गल जंतवो८॥ गह लक्खणोउ धम्मो अहम्मो ठाण लक्षणो। भायणं सब्बदब्बाणं नह' ओगाह लक्खणं ह॥ वत्तणा लक्खणी
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा•सं• उ०४१ मा भाग
भाषा
एकैक द्रव्यरूपाणि तौने एक द्रव्यरुपछ अनंतानंत भेदयको पागला तीन द्रव्यजाणवातके हा कालपुहलजोवाः एतानिअनंतद्रव्याणि कालपुरल जीवए अनंतपुहलोक कच्चार अथ लक्षणमाह गतिलक्षणो धमेचलणखभाव धर्मास्ति कायने बले चाले अधर्मः संस्थानलक्षण स्थिररूप अधर्मासि काय धिररुप भाजनं सर्व द्रव्याणां जीवादिनां षद्र्व्यनु भाजनथानक ते नभ आकाशनु लक्षण जौवादिकने अवकाशय ते लक्षण ८ वर्तनालक्षणः कालः अतीत अना
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४० टोका अ०२८
८००
सूत्र
भाषा
अवगाठु ं प्रवृत्तानां जीवानां पुहलानां आलम्बोभवति इति अवगाह : अवकाशः स एव लक्षण ं यस्य तत् अवगाहलक्षण' नभ उच्यते ८ [वत्तणालक्खणो 'कालोजीबोवओोगलक्खणो नाणेण दंसणेणञ्च सुहेण्यदुहेण्य १०] वर्त्तते अनवच्छिनत्वेन निरन्तर भवति इति वर्त्तना सावर्त्तना एव लक्षण' लिङ्गं यस्येति वर्त्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगोमति ज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणोजीवउच्यते यतोहि ज्ञानादिभिरेव जीवो लक्ष्यते उक्तलक्षणत्वात् पुनर्विशेषलचणमाह ज्ञानेन विशेषावबोधेन च पुनर्दर्शनेन सामान्यावबोधरूपेण च पुनः सुखेन च पुनर्दुखेन च ज्ञायते सजीवउच्यते १० पुनर्लक्षणान्तरमाह [नाणञ्च दंसणञ्चैवं चरितञ्च तवोतहावौरियं उवओगोय एवं जीवस्सल कवण' ] ज्ञान' ज्ञायतेऽनेनेतिज्ञान' च पुन र्दृश्यतेऽनेनेतिदर्शन' च पुनश्चरित्र' क्रियाचेष्टादिकं तथा तपोद्दादशविध तथा वौर्य बीर्यान्तरायतयोपशमात् उत्पन्नं सामर्थ्यं पुनरुपयोगोज्ञानादिषु 'एकाग्रत्व ं एतत् सर्वं जीवस्य लक्षणं ११ अथ पुङ्गलानां लक्षणमाह ॥ (सहन्धयारउज्जोओोपहाछाया तवोवियवन्त्र गन्धरसाफासा पुग्नलाणन्तु लक्ख ण १२) काला जौवो उवओोग लक्खणो। नाखेण दंसणेणञ्च सुहेणयं दुहेणय १० ॥ नाणंच दंसणंचे व चरितंच तवो तहा । atrti rasita एयं जीवस्म लक्खणं ११॥ सद्दंधयार उज्जोओ पहा छाया तवेद्रवा । वन्न गंध रसा फासा मोग्ग
गत वर्त्तमानसमय आवलोते काल कहोजे जीवः उपयोगलक्षण: जेहमांहिं उपयोग हुवेते जीवकहोइ सोपिज्ञानेन च दर्शनेन च तेपणि ज्ञानदर्शन सुख दुखवेवे सुखेन च दुःखेन च जोवस्य लक्षणमाह १० ज्ञानं च दर्शनंचैव ज्ञानदर्शन चारित्रश्च चारित्र तपच तथा तपस्या वौर्यच उपयोगच धौर्य अने उपयोग एतत् जीवस्य लक्षणं एजीवन लक्षण ११ शब्दोध्वनिः अंधकारः उद्योतः शब्दकरे अंधकार करे उद्योत करे प्रभाकांतिः छाया आतपः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ ०सं० उ० ४१मा भाग
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शब्दोवनि रूपपोहलिकस्त यान्धकार तदपि पुहलरूपं तथा उद्योतीरत्नादीनां प्रकाशस्त था प्रभाचन्द्रादीनां प्रकाशः तथा छायावृक्षादीनां छायाशैत्य उल्टौका
४ गुणा तथा आतपोरवेरुष्ण प्रकायः इति पुलस्वरूपं वा शब्दः समुच्चये वर्षगन्धरसस्पर्शः पुनलानां लक्षणं जयं वर्णाः शक्लपौतहरितरक्त कणादयो २८४ ४ गन्धोदुर्गन्ध सुगन्धामकोगुणः रसाः षट्तौक्षणकटककषायाम्नमधुरलवणाद्याः सः शीतोष्णखरमदुस्निग्ध रूक्षलघुगुर्वादयः एते सर्वेपि पुनलास्तिकायस्कन्ध
लक्षणवा याज्ञेयाः इर्थः एभिल क्षणैरेव पुनलाल क्ष्यन्त इति भावः १२ अथ पर्याय लक्षणमाह [ एगत्तञ्च पुहत्तच्च सङ्घासण्ठाण मेवय सञ्जोगाय विभागाय पज्जवाण तु लक्व । १३ ] एतत्पर्यायाणां लक्षण एतरिक एकत्व भिन्न ष्वपि परमाखादिषु यत् एकोयं इति बुयाघटीयं इति प्रतोति हेतुः च पुनः पृथक व अयं अनात् पृथक् घटः पटात् भिन्नः पटोघटाशिनः इति प्रतीति हेतुः संख्या एको हौ बहव इत्यादि प्रतोति हेतु: च पुनः संस्थानं एव वस्तूनां संस्थानं आकारश्चतुरस्र वत्त लति सादि प्रतीति हेतुः च पुनः संयोगा अयं अङ्ग स्याः संयोग इत्यादि व्यु पदेश हेतवी विभागा अयं तो विभक्त इति बुद्धि तवः एतत्पर्यायाणां लक्षण जयं संयोगा विभागा बहुवचनात् नव पुराणं वाद्यत्र थाने याः लक्षण व साधारण रूपं गुणानां लक्षण रूपादिप्रतीतत्वानोक्त' अथ दर्शन लक्षणमाह नवतत्व हारण १३ [जीवाजीवाय बधीय
लागंतु लक्खगां १२॥ एतंच पुहत्तंच संखा सठाण मेवय । संजोगाय विभागाय । पज्जवाणंत लक्षणं १३ ॥ तावडी करे कति कर छाया कर वस गन्धरसस्पर्थ पुहलानां ए पुल तुलक्षण कह्यो १२ अथ पर्याय लक्षणं पृथक्त्वंच एक त्वं च अयं अस्मात् एक घटादिक एएक थको जॅदी संख्या एक हयादि रूया संस्थानं च संस्थान पाकार संख्या एकवे परि मंडलादि संस्थान प्राकार अांगली हाथ प्रमुख संजोग: विभागः संयोग वियोग एतत्पर्याय लक्षण एपर्यायनुलक्षण १३ अथ तत्वान्याह जौवाजीव वंधश्च जीव तत्व १ अजीव तत्व २ बंधतत्व ३ पुण्य
सब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग,
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उ०टीका
अ०२८ ८०२
सूत्र
भाषा
पुत्र' पावासवोतहा सम्बरो निज्जरामुक्खो सन्तिए रुहिया नव १४ ] जीवार्थ तना लक्षणा: अजीवा धर्मा धर्माकाशकाल पुहलरूपाः बन्धो जीवकर्मणोः संश्लेषः पुण्य' शुभप्रकृतिरूपं पापं अशुभं मिथ्यात्वादि श्राश्रवः कर्मबन्धहेतुः हिंसामृषाऽदत्तमैथुन परिग्रहरूपः तथा संवराः स मिति गुप्तप्रादिभिरा श्रवहारनिरोधः निर्जरा तपसा पूर्वार्जितानां कर्मणां परिगाटनं मोचः सकल कर्म चयात् त्राम स्वरूपेण श्रात्मनोऽवस्थानं एतेन संख्याका तथ्याः अवितथा भावाः सन्ति इति सम्बन्धः नवसंख्यात्वं हि एतेषां भावानां मध्यमापेक्षं जघन्यतोहि जीवाजीवयोरेव बन्धादीनां अन्तर्भावात् दयोरेव संख्यास्ति उत्कृष्टतस्तु तेषां उत्तरोत्तरभेदविवचया अनन्तत्वं स्यात् १४ [तहियाणं तु भावाणं सम्भावेउवएसणं भावेण सहहं तस्ससम्मन्तं तं वियाहियं १५ ] अर्हद्भिस्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त' सम्यग भावोऽर्थाद्दर्शनं व्याख्यातं कथितमित्यर्थः कीदृशस्य पुरुषस्य तथ्यानां सत्यानां भावानां जीवाजीवादितत्वानां सद्भावविषये उपदेशेन गुरुणां शिक्षावाक्येण भावेन शमनसाग्रहधानस्य तथेति अङ्गीकुब्र्व्वाणस्य योहि जीवादिनवपदार्थानां सम्यक् जानाति जीवा जीवाय बंधीय पुनंपावा सवोतहा । संवरो निज्जरामोक्खा संतेए तहिया नव १४ ॥ तहियाणंतु भावा सम्भावे उवएसणं । भावेण सहहंतस्म संमत्तं तं वियाहियं २५ ॥ निसग्ग वएसरुई आणारुई मुत्तबीयरुद्रमेव । पापाश्र्व स्तथा पुण्यतत्व ४ पापतत्व५ श्राश्रवरूपतत्व ६ तिम संवरोसंवरतत्व ७ निर्जरा निर्जरातत्व मोचय मोचतत्व संति एतानि नवतत्वानि एन तत्व जांणवां १४ तथा तां सत्यानां भावानां जीवानां एजे कह्या साचाभाव जीव पुहलना सद्भाव विषयमवि तथं सत्यादि उपदेशेन शाचा करोने गुरु कहला जे तत्वभावे करो भावेन श्रदधतः जीवस्य भावेकरी सहहता जीवने श्रोलखे सम्यक्चजिनेः प्राख्यातं कथितं तेहने तौर्थ कर सम्यककडे १५
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४ १ मा भाग
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९० टौका अ०२८
८०३
सूत्र
भाषा
भावेन श्रद्दधाति स पुमान् सम्यक्तवान् इत्यर्थः १५ अथ सम्यक्तभेदानाह [निस्मम्गु १ वएसरुई २ आणारुद्र ३ सुत्त४ बौयरुद्रमेव ५ अभिगम ६ बित्थाररुई७ किरिया ८ संखेवं धम्मरुई १० १६] एतेदशभेदाः सम्यक्त्तस्य ज्ञेयाः तत्र प्रथमोनिसर्गरुचि: निसर्गः स्वभावस्तेन रुचिस्तत्वानां अभिलाषो यस्य स निसर्गरुचिविन्न यः १ हितोय उपदेशेन गुरुक्त मरुचिर्यस्य स उपदेशरुचिः यदा गुरुधौर्यधम्ममुपदिशति तदैकाग्रचित्तोयः शृणोति स उपदेशरुचिर्द्दितौयो ज्ञेयः २ तृतीय श्राज्ञया सर्वज्ञवचनेन रुचिर्यस्य स आज्ञारु चिर्ज्ञेयः ३ सूत्रेण आगमेन एवरुचिर्यस्य स सूत्ररचितुर्थी यः ४ पचमो बोजरुचि: बोजेन रुचिर्यस्य स बौजरुचि: बीजं हि एक अपि अनेकार्थप्रबोधकं वचनं तेन रुचिर्यस्येति बौजरुचिः ५ अभिगमरुचिः षष्टः अभिगमेन ज्ञानेनरुचिर्यस्य स अभिगमरुचिः ६ सप्तमोविस्ताररुचिः विस्तारेणरुचिर्यस्य स विस्ताररुचिः ७ तथा क्रियारुचिः क्रिययाधर्मानुष्ठानेनरुचिर्यस्य स क्रियारुचिरष्टमोजे यः ८ तथा संक्षेपरुचि संक्षेपेण संग्रहेण रुचिर्यस्य स संक्षेपरुचिर्नवमः ८ तथा धर्मेण श्रुतधर्मेणरुचिर्यस्य स धर्मरुचि श्रुतधर्मभ्यास रुचिर्दशमः १० यद्यपि सम्यक्वस्य जौवात् भेदोनास्ति जीवस्य स्वरूपं सम्यक्त' तथापि लचलचणयोर्गुणगुणिनोः कथनमात्रेण कथं चिद्भेदोप्यस्ति अथ सम्यक्तभेदानाममात्रेण उक्काविस्तरेणाह [भूयत्थे णाहि गया जीवाजीवायपुन्नपावञ्च सहसंमुद्रया सह सम्बरोय रोएइउनि सम्मो१७] सनिसर्गरुचिः कथ्यते यत्तदोर्मित्या
अभिगम वित्थार रुई किरिया संखेव धम्मकई १६ ॥ भूयत्येणाहिगया जिवा जीवाय पुन्नपावंच । सहसंमद्रया सब संव सम्यक्त रुचिताह निसर्गरुची १ उपदेशरुचि २ आज्ञारुची ३ सूत्ररुचो ४ वोजर चि ५ अभिगमरुचि धमरुची १० एदसे प्रकार सम्यक्त जाणिवा १६ एदम विभृत्यार्थेन १ सत्यार्थेन २ अधिगताः
रुचौ
विस्ताररुचि ७ क्रीयारुची ८ संक्षेप सम्यक् प्रकार जाणी निश्चित कीयां
************************************ राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा भाग
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65N
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xxx882
**XXXXXXXXX
सम्बन्धात् स इति कः येनजीवाजोवाच पुण्य' पापं च एते पूर्वोक्ताभावा उतार्थेन सत्यार्थेन अधिगताः भूतः सद्भूतः अर्थाविषये यस्य स तत् भूतार्थ ज्ञानं उच्यते तेन अमौजीवादयीभावाः सह ताः सन्तौति कृत्वा गृहीताः च पुन: पूर्वोक्ता जीवाजौवाः पुण्य पापञ्च पुनरावसंवरौ च शब्दाहन्धमोची
यादि नवापि भावान् सहसम्म या सह आत्मनासङ्गतामतिः सहसम्मतिस्त या सहसम्मत्या स्वबुद्दद्यापरीपदेयं विनाजाति स्म त्यादिवियदत्यायन रोचन्ते स निसर्गचिः सम्यक्तवानुयते १७ अमुमेवा पुनराह [जोजिणुद्दिव भावे च उब्बिसद्दहाइ सय मेव एमेयनबहत्तियसनिसमारुइत्तिनायथ्वी१८] सनिसर्गरुचितिव्यः स इति कः यश्चतुर्विधान् द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपान् जिनोद्दिष्टान् भावान् जिनोक्तान् पदार्थान् स्वयमेव परोपदेशविनैव बहधाति मनसिधारयति पुनाजिनोक्त षु तत्वेषु एवमे वै तत् यथा जिनदृष्ट जौवादितत्तथैवेति नान्यथेति बुद्धिं कुरुते सनिर्गरुचिरुच्यते १८ अथोपदेशाचे स्वरुपमाह (एएचेव उभाव उवद जोपरेण सद्दहई उमथे णजिणेणय उवएसरुइत्तिनायवो १८) स उपदेशरुचिरितिज्ञातव्यः यः एतान् चैवभावान् ___रोय रीएओ निम्मग्गो १७॥ जोजिणुद्दिद भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नहत्तिय सनिसग्ग कत्ति
जाण्या जौवाजोवो पुण्यपापे च जोव तत्त्व अजोवतत्त्व पुण्यतत्त्व पापतत्त्व स्वमन्यानाताभवंति आपणौ मतिं करोने जाणे आश्ववसंवरोचयत् रोचतं ॐ सानिसर्गरुचिः आअव तत्त्वसंवर तत्त्वरुचे ते निसर्गरुचि कहोई१७ यः जिन कथितान् भावान् जे मनुश्च तीर्थ करना कह्या भावजाणवा चतुः प्रकारान् द्रव्य क्षेत्रकालभावे श्रद्धते खयमेव चा प्रकारे व्यक्षेच कालभाव आपरतांसह एवमेव नान्यथा इति भगवंतना का अन्यथा नहीवे सा निसर्गरुचि तियाः ते निसर्गाची जाणो १८ एतानचेव नवभावान एनववोलज कह्या उपदिष्टान् या परण थाहधाति के वो समझाव्याचका सूधासह कनास्थेन
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०७.१ मा भाम. .
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उ० टोका अ०२८ ८०५
सूत्र
भाषा
00:05
जौवाजीवादीन् परेण अन्य ेन ब्रह्मस्थेन वा अथवाजिनेन केवलिनातोर्थकरण उपदिष्टान् श्रद्दधाति हुशब्दोमिश्च ये च शब्दः पद पूरणे १९ अथा ज्ञारुचेः स्वरूपमाह [रागोदोसोमोहो अन्राणं जस्म अवगयं होइ श्राणायरोयं तु सोखलुप्राणारुईनाम २०) सखलुनिश्चयेन आशारुचिर्नामइति प्रसिडोभवति स इति कोयस्यरागः न हो द्वेषोऽप्रति मोहः शेषमोहनीयप्रकृतयोऽज्ञानं मिथ्यात्वरूपं एतकवं नष्टं भवति श्रस्यदेशतोऽपगतं गम्यते न सर्वतोऽपगत शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धः यस्य रागोदेशोऽपगतः यस्य द्वेषोपि देशतोऽपगतः यस्य मोहोपि देशतोऽपगतः यस्य अज्ञानं देशतोऽपगतं एतेषां अपगमात् आज्ञया आचार्याद्युपदेशेनरोचमान जीवादितत्व तथैति प्रतिपद्यमानो यो भवति स आज्ञारुचिरित्यर्थः अत्र माषतु षदृष्टान्ती मारूसमात्सइति स्थाने माषतुषइति दृष्टान्तोस्ति २० (जोसुत्तमहिज्जन्ती सुएओगाहई उसम्मत्तं श्रङ्गेणबाहिरण्य सोसुत्तरइत्तिनाथको २१ ) स स्वरचिन्नातव्यः यः सूत्रेण आगमेनसम्यक्व अवगाहते प्राप्नोति कोट्टशेन सूत्रेण अङ्गेन आचाराङ्गादिना वा अथ वा बाहिरें] बाह्यन अनङ्गप्रावेष्टेन उत्तराध्ययनादिना
नायव्वो १८ ॥ एएचेवड भावे उवट्टे जोपरेण सहहदू । छउमत्य ग जिणेण्य उवएस रुद्रत्ति नायव्वी १८ ॥ रागो दासो मोहा अन्नाणं जन्म अवगयं होइ । श्राणाए रोयंती सो खलु आणारुईनाम २० ॥ जो सुत्त महिज्जं तो सु जिनेनवा ग्रस्थ त केवलोना कथा अथवा तीर्थं करना कया रुधासह हे उपदेशरुचिः ज्ञातव्यः ते उपदेशरुची जाण्वो १८ रागोद्वेषोमोहः रागद्वेष मोहः अज्ञानञ्च यस्य अपगतं भवति बने अज्ञान एतलांवानां जेहनां गयाहोइ आज्ञाया रोचयन् जिम भगवंतनी प्राज्ञाहुवे जोम भगवंते काछे तिम रुचे सः खलु आज्ञारुचिनाम ते आज्ञारुचि कहौड़ २० यः सूत्रमधीयान् पठन् जे सूखने भषेके सूत्रेण अवगाहते प्राप्नोति सम्यक्षां सूत्र भणे भणतां
राय धनपतसिंह वाहादूर का आ-सं० उ०४१ मा. भाग
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समाज गोविन्दवाचकवल्लभते स सूवरुचि यः १ अश्व बीजरुचे: स्वरूपमाह [एगे। अपगाई पयाइजोपसरह उसम्मत्तं उदएवतिझबिन्दुसीबीयरुइत्तिना .टोकाx बचोर १] सबोजरुचि ज्ञातव्यः स इति कः वः समत्त इति समाक्तवान् गुणगुणिनोरभेदोपचारात् समातधारौ आमा एव गृह्यते तस्मात् यः समातो
8 एकेनरदेन जोवादिना अनेकेष बहुउपदेषु जोवादिषु तु निश्चयेन प्रसरति व्यापकबुद्धिमत्वे नजानाति इत्यर्थः कस्मिन् कइव उदकतैलविन्दुरिव यथा
उदकस्यैकदेशगतोपि तैलविन्द :सर्वमुदकमानामति तथा तच्च कदेशोत्पन्नरुचिरपि आत्मातथाविधक्षयोपमादशेषतत्वे षुरुचिमान् भवति स एवं
विधोबोजरुचि तयइत्यर्थः यथा बोजं क्रमेण एकमपि अनेकबोजानां जनकं स्यात् तथा स्थापि रुचिर्विषयभेदतोरुच्चन्तराणां जनयित्रौस्यादिति * * भाव: २२ अथाभिगमरुचे: स्वरूपमाह ( सोहोइ अभिगमरुई सुअनाणंजेण प्रत्योदि एकारसमंगाई परब्र गन्दिहिवागीय २३) सो अभिगमरुचिर्भ
ओगाहईओ सम्मत्तं अंगण बाहिरणव सो मुत्तमत्ति नायव्वो २१॥ एगेण पणे गाई जो पसरईउ सम्मत।
उदएब्ब तिल्लविंदसोवीयरु इत्तिनायब्बो २२॥ सोही अभिगमरुई सुयनाणजेण अत्यत्रो दिट्ठ। एक्कारस मंगाई जाले सांचा सम्यक्त अंगेण आचारांगादिना अंग प्राचारांगतिण भणता पामें बाह्यादिना अंगप्रविष्टे नो सराध्ययनादिना सूत्ररुचि तव्याः अनंगप्रविष्ट
उत्तराध्ययनसूत्रे भणते सूत्ररूचि कहोजे २१ एकजीवादि पदार्थेन अनेके ज्ञातव्या पदानियानि प्रसरंति मा सम्यक् सत्यारुचि उदके यथा तैलविंदुः * प्र रति सा वोजरुचिः ते वोजरुचि नाम जाणवु जीम एकवीजयौ अनेकवोज ऊपजे २२ सस्थात् अभिगमरुचिः ते अभिगममाम रुचिकहोई श्रुत
ज्ञानं येन अर्थत: दृष्टानि जिणे श्रुतज्ञान अर्धे दौठोके एकादशानि अंगानिए इग्यारह अंग प्रकौम कानि उत्तराध्ययन दृष्टिवादः प्रकौर्थक उत्तरा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा .सं. उ. ४१मा भाग
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ए० टोका अ०२८
5.9
सूत्र
भाषा
RAJARAX
वति स इति कः येन श्रुतज्ञान' अर्थतः अर्थ प्रश्रित्य दृष्ट' येन श्रुतज्ञानस्यार्थेऽधिगतो भवति किं तत् श्रुतज्ञानंमित्याह एकादशाङ्गान्या श्राचाराङ्गा दोनि तथा प्रकोष्ठ का इति जातिवादेकवचन' प्रकोर्यकान्य, त्तराध्ययनादौनि दृष्टिवादः परिकर्मसूत्रादि च शब्दात् उपाङ्गानि उपपातिकादौनि सर्वाधियेोज्ञातानि भवन्ति सोऽभिगमरुचिर्भवति इत्यर्थः २३ अब विस्ताररुचेः स्वरूपमाह (दव्वाण सव्वाभावा सव्वपमाणे हिं जमवला सव्वाहि नयविहोहिय वित्थाररुइत्तिनायव्वो २४) सविस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः यस्य पुरुषस्य द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां सर्वेभावा एकत्व पृथक् संयोग विभागादि समस्त पर्यायाः सर्वप्रमाणैः प्रत्यक्षानुमानोपमानागमैश्च पुनः सर्वैर्नयविधिभिर्नैगमसङ्ग ह व्यवहार ऋजु सूत्र शब्द समभिरूढे वम्भूतैः उपलब्धा यथारूपेण जाताः सन्ति सविस्तार रुचिर्विज्ञेय इत्यर्थः २४ अथ क्रियारुचि स्वरूपमाह [दंसण नापचरितं तव विषए सच्च समिद्र गुत्त जो किरियाभावरुई सो खलु किरियाई नाम २५ ] स खलु निश्चयेन क्रियारुचिर्नाम प्रसिद्धो यः यः पुरुषो दर्शनज्ञान चारित्रे तथा तपो विनये पन्नग' दिठिवाय २३ ॥ दव्वाण सव्वभावा सब्ब पमाणे हिं जम उबला । सब्बाहिं नयविहाय वित्थार रुइत्ति नायब्बो २४ ॥ दंसण नाण चरिते तव विषय सव्वसमिइ गुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरिया रुई ध्ययनादिक दृष्टिवाद वारह अंग २३ धर्मास्तिकायादीनां सर्वभावाः द्रव्यधर्मास्तिकायादिक सर्वपदार्थ सर्व प्रमाणैः यस्य उपलब्धाः सर्वप्रत्यचादि प्रमाणे करौने जांख्यालाधा सर्वैःनयविधिभिः नैगमसंग्रह व्यवहारादिक नयनौविधिजाणे विस्ताररुचि ज्ञातव्या ते विस्ताररुचि कहोइ २ ४ दर्शन ज्ञानचारित दर्शन ज्ञान चारित्र तपो विनयसत्यसमिति गुप्तिषु तप विनय सत्य समिति गुप्तौने विखे यः क्रियायां भाव रुचिः परिकमण क्रिया ऊपरि रुचिकर ते
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४१ मा भाग
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अ०२८
क्रियाभाव रुचिर्भवति तथा सत्य समिति गुशिषु क्रियाभाव रुचिर्भवति दर्शनच ज्ञानच चरितच दर्थन जान चारित्र' तखिन सांसि च विनयाय तेषां उ टौका समाचार स्तणविनयं तमिन तपोविन्ये तास्म हारविधषु तथा विन्येषु आचार्यादीनां भनि षु तथा सहायाः समितयः सत्य समितयः सास सत्य
समितिष क्रियायां दर्शन ज्ञानचारित्र तपी विनय समितीनां पाराधनानुष्टानविधी भावेन रुचिर्यस्य स क्रियाभाव रुचिः२५ अथ संक्षेपवरूपमाह अणभिमाहिय दिही संखेवकइत्तिहोइनायको अविसारकीपषयी अणभिग्गहिनीयमे मेसु ] स संक्षेप रुचिर्भवति इति ज्ञातव्यः स इति क: योऽनभि गृहोत कुदृष्टिः अनभिग्रहीता अनङ्गीकता कुदृष्टिबर्बोहमतादिरूपायेन स अनभिग्रहीत कुदृष्टि: येन मिथ्याविना कुम तथाङ्गीकृतो नास्तीत्यर्थः पुनर्य * प्रवचने जिनीक सिद्धान्त अविसारदोऽचतुरः पुनर्यस्तु शेषेषु मतेष्वपि कपिलादिमतेष्वपि कुशलोनास्ति सचे तादृशः पुरुषः संक्षेपकचिः स्यात् २६ अथ धम्माचे स्वरूपमाह [जो अस्थिकाय धम्मंसुयधम्मं खलु चरित्त धम्मंच सहहइ जिणाभिहियं सीधम्मात्तिनायबी २७] सधम्म रुचिर्भवति इति
ज्ञातव्य यः परुषोऽस्मि कायानां धर्मादोना अर्थात् धर्मासि कायादीनां धम्म असाधारण लक्षण' स्वभावं चलनस्वभाव स्थिर संस्थानावकाश दानादिक सूत्र
नाम २५ । अभिग्गहिय कुदिट्ठी संखव रुत्ति होडू नायब्बो । अविसारोपवयण अण भिग्गकियोय सैससु २६ ।
भावरुचि सः खलु कियाचिर्नाम ते क्रियारुचि कहोइ २५ यः अनभि रहीत बुदृष्टिबोधितो मतादिरागः जिश बोहादिकनीमत नहीं माथीछे नही भाषा
कोधोके अविग्रहमिथ्यात्वनी नही सम्यक्तनो संक्षेपरुचिरिति भवतिर्ज्ञातव्या ते संक्षेपरुचि कहौजे अविशारदी अकुशलःप्रवचनेसिद्धांतनीवातनही जाणके 8 अनादरः शेषेषु अन्धदर्शनेषु वीजा दर्शनने विखे अनादरके २६ यः प्राणी अस्तिकाय धर्म जौको प्राणी धम्मास्तिकायने श्रुतधम्मं निश्चित नियमेन ४
सब धनपतसिंह बाहादुर का पा सं• उ.४१मा भाम
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उ टौका अ.२८ ८०८
जिनाभिहितं तौर्थकरोक्त श्रद्दधाति पुनर्योजिनीक्त एव श्रुतधर्म अङ्गप्रविष्टादिरूपञ्च पुनश्चारित्रधम्म सामायिकच्छेदीपस्थापनौय परिहार विशुद्धि 8 सूनसम्पराय यथाख्यातादिकं जिनोक्त' बद्दधाति नतु यो धादौनां लक्षण पाषण्डिभिरुक्त श्रद्धत्ते अत्र हि पृथक् उपाधिभेदेन समास्तमैदकथनं शिष्य * व्युत्पादनार्थ अन्यथा तु निसर्गरुचिरुपदेश रुचिच एतौ उभौ भेदी अधिगम रुचौ एव अन्तर्भावतः २७ अथ समाक्त लिङ्गान्याह [परमस्थ संथवोवा 8
सुदिङ परमत्य मेवणावावि वावबकु दंसणवजणाय सम्मत्त सद्दहणा २८] एतममाक्त यानं समातस्य लक्षण समानवतः पुरुषस्य चियं किं ४ तक्षणं परमार्थसंस्त वः परमाश्यतेऽर्थाश्च परमार्थाजीवादितत्वानि तेषां परमार्थानां जौवादिभावानां संस्तवः खरूपनाना दुत्पन्न परिचयः परमार्थ
सस्तवः एतत्प्रथमं सम्यक वतो लक्षण' या शब्दः पदपूरण वा अथवा अन्यत् लक्षणमिदं सुदृष्ट परमार्थ सेवनं सुदृष्ट यथा स्वरुपं दृष्टाः दर्थिता वा पर मार्था जीवादयो यैस्ते सदृष्ट परमार्थाः गौतार्था स्तेषां सेवनं सुदृष्ट परमार्थ सेवन बहुश्रुतानां प्राचार्यादीनां यथाशक्ति वैयावत्त्यस्यकरण एतदपि
जोअत्यिकाय धम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मच । सहहदू जिणाभिहियं सोधम्म कत्ति नायब्बा २७ ॥ परमत्य संथवी वामुदिट्ठपरमत्यसेवणावावि । वावन्न कट्सण वज्जणाय सम्मत्त सहहणा २८॥ नत्यि चरितं सम्मत्त विहणं दस
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा•सं• उ.४१ मा भाम
चारित्रधर्मः श्रुतधर्म चारित्वधर्म बद्दधाति जिनोक्त' सहके तौर्य करनु भाथां सधम्म रुचिरिति ज्ञातव्यः ते धर्मरुचिकहीए २७ परमार्थ संस्तवकरणं जीवादिचिनु करिवो मुदिवि परमार्थ गीताचीः थावकाः साधवञ्चतेषां सेवनागौतार्थ साधु अथवा धावक तेहनौ सेवाकरे व्यापवानां चरणभ्रष्टानां कुर्यनामांच कापालिकादीनां वर्जना संगत्यागकर कदर्शनी भ्रष्टाचारी तहनी संग न कर सम्यक बाधानं सम्मानी सहरणाकरे २६ नास्ति चारित
१०२
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उ टीका अ०२८
No
सम्य कलक्षणञ्च पुनस्योपब कुदर्शन वर्जन यापन विनष्टदर्शनं येषान्त व्यापवदर्शनाः यः पूर्वसम्यक्तं लब्धा समयक्तघातकंकर्मोदयात् पुनः समात्वां वान्त ते व्यापनदर्शना निलवादयः तथा कुत्सितं दर्शनं येषांत कुदर्शनाः शाक्यादयः व्यापनदर्शनाथ कुदर्श नाश्च व्यापवदर्शन कुदर्शना स्तेषां वर्जनं व्यापञ्चदर्शन कुदर्शन वर्जन':एतदपि समाक्वलक्षणं जेयं यः समाक्तवान् भवति सनिन्हयैः कुलिङ्गिभिश्च परिचयं न करोति २८ [नस्थि चरित्त सस्मत्त विरुण दसणउभइव्व' सम्मत्त चरित्ताइ जुगवं पुव्वंच सम्मत्त २८] समाक्व माहात्मा माह हे शिष्य समाजविहीनं चारित्र' नास्ति समान विनाचारित्र नासौत् न भविष्यति नास्ति च कोर्थः यावसमावं नीत्पद्यते तावत् चारित्र' नस्यात् तु पुनदर्शनेतु समालो तु चारित्रेण भवितव्य' अथवा समाती चारित्न भक्तव्य भजनौयं समातञ्च चारित्रच समाव चारित्रे युगपत् एककालं उत्पदोते इति शेष: तथापि तत्रानुक्रमीस्ति पूर्व समयक्त पश्चाच्चारित्र' उत्पद्यते समाक्तचारित्रयोर्युगपदुत्पादपि अयं नियमोस्ति इति भावः २८ पुनरपि तदेवाह (नादं सणस्म नाण' नाणण विणानहोंति चरणगुणा अगुणस्मनस्थिमुक्खो नत्थि अमोक्वस्मनिव्वाण ३०) अदर्शनिनः समातरहितस्य ज्ञान' नास्ति इत्यनेन समाक्त' विनासमाक ज्ञान नस्यादित्यर्थः ज्ञान विनाचारित्र गुणाचारित्र पञ्चमहाव्रतरूपं तस्य गुणाः पिण्डविशुद्यादयः करण चरणसप्तति रूपाः न भवन्ति अगुणिनः चारित्र
गाउमडुब्बं । सम्मत्त चरित्ताई जगवं पुब्ब'च सम्मत्तं २६॥ नादंसणिम्म नाणं नाणे ण विणा नहाँति चरणगुणा ।
FRONRNX.89.520RRP3039300***
राय धनपतसिंह बाहादुर का था •सं• . ४१मा भाग
भाषा
सम्यक्त होन सम्यक्तविना चारित्रकांइ नही दर्शनेन सम्यक्तसति भवितव्यं सम्यक्तसहित चारित्रहुवे समाक्तचारित्रे सम्यक्तने चारित्रे चारित्रोत्पदात्पूर्व उत्पद्यते समकालहोवे पणि पहेलो समकित पाके चारोत्र हवे २८ न दर्शन रहितस्य ज्ञानदर्शनविना ज्ञान नहीय समातरहीत ज्ञानेनविना न भवंति
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सटौका
. 14 ०
गुणैः रहितस्य मोक्षः कर्मक्षयोनास्ति अमोक्षस्य कर्मक्षयरहितस्य निर्वाण मुक्ति सुखप्राप्तिर्नास्ति ३० अथ समाक्तस्य अष्टौ आचारान् आह (निस्मद्धियनि कंखियनिश्चितिगिच्छा अमूढदिहोय उववूहथिरीकरण वच्छन्नपभावणे अट्ठ ३१) नि:शशितं देशत: सर्वतश्चशङ्कारहितत्वं पुनर्निःकांक्षितत्व शाक्याद्यन्य दर्शनग्रहणवान्छारहितत्व निर्वितिकित्स्य फल प्रतिसन्द हकरणंविति कित्मानिर्गतावितिकित्सानिर्वितिकित्मा तस्य भावोनिर्वि कित्स्य किमेतस्यतपः प्रभृतिलेशस्य फलं वर्त्तते नवेति लक्षण' अथवा विदन्तीतिविदः साधवस्तेषां विजुगुप्सा किमते मलमलिनदेहाः अचित्तपानौयेनदेह प्रक्षालयतां कोदोषः स्यादित्यादिनिन्दातदभावोनिविजुगुप्सं प्राकृतार्षत्वात्सूत्रे निर्विचिकित्स्यं इति पाठः अमूढादृष्टि: अमूढदृष्टिः ऋद्धिमत् कुतीथिकानां परिबाजकादौनां ऋद्धि दृष्ट्वा अमूढाकिमस्माकं दर्शन यत्सर्वथादरिद्राभिभूतं इत्यादि मोहरहितादृष्टिqहिरमूढदृष्टिः यत्परतौर्थिनां भूयसौं ऋद्धि दृष्ट्वापि स्वकोये अकिञ्चने धर्मेमतेः स्थिरीभावः अयं चतुर्विधोप्याचार अन्तरङ्ग उक्त: अथवाह्याचारमाह उपचहणां दर्शनादि गुणवतां प्रशंसा पुनः
अगुणिम नत्यि मोक्खो नत्यि अमुक्खम्म निव्वाणं ३० ॥ निमंकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमढदिट्ठीय । उब बूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ३१ । सामाइयत्य पढमंछेउवट्ठावणं मवेषीयं । परिहारविसुदौयं मुहुमंतह
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ. ४१ मा भाग
चारित्रगुणाः ज्ञानपाषे चारित्रनागुण न होइ चारित्ररहितस्य मोक्षः कम्मक्षयोनास्ति चारित्रे होन ते कर्मथौ छुटेनही नास्ति अमुक्तस्य निर्वाण कमी रहित जे नधो हुआ तहने मोक्षसिद्धनहों ३० तत्वनौ शङ्गानाण अनिरोधर्मनबांछ फलप्रति संदेहन आणे मिथ्यात्वीना धर्मनी महिमा देखोने वांछा न करे धर्मवंतना गुणको धर्मथकोसोदाताने निथलकर मारमोनी हितकारी होय प्रभावनाकर २१ सामायिक प्रथमं चारित्रनाभेदकहे के सामायक
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स.टोका प०२८
९१२
४
स्थिरीकरण धर्मानुष्टान प्रतिसौदतां धर्मवतां पुरुषाणां साहाय्यकरणेन धर्मेस्थिरीकरण पुनर्वात्सल्य सार्मिकाणां भक्तपानीयैक्तिकरण पुनः प्रभावनाचस्वतीर्थावति करण एते अष्टौ आचाराः समातस्यज्ञेयाइत्यर्थः ३१ अथ चारित्रभेदानाह (सासाइयस्य पढम छोवट्ठावण भवेबीयं परिहारविसदीयं सहमन्तहसं परायक्ष ३२) [अकसायमहक्वायं छउमस्वरमजिणस्मवा एयं चय रित्तकर चारित्त' होइ आहियं २३] युग्म अत्र प्रथम सामायिक चारित्र नेयं समोरागहेषरहितचित्तपरिणामस्तस्मिन् समे आयोगमनं समायः समाय एव सामायिक अथवा समानां ज्ञानदर्शनचारित्राणां
प्रायोलाभः समायः समाय एव सामायिक सर्वसावद्यपरिहाररूपं यद्यपि सर्वमपि चारित्र' सामायिक एवीच्यते तथापि च्छेदीपस्थापनादि भेदेषु * प्रथमत्वात् प्रथमं नाम्रो भेदात् जे यं यतोहि शब्दाधिक्यादाधिक्य प्रथमं कधनमात्रत्वेन तदपि सामायिकं नामचारित्र हिबिध इत्वरं १ यावत्कथितं २ भरतैरावतमहाविदेहेषु मध्यमजिनतीर्थेषु च उपस्थापनयाः सद्भावे यावत्कथितं सम्भवति उपस्थापनाया अभाव जावज्जीवं अपि भवति इत्वरं
संपरायंच ३२ ॥ अकसायं अहक्खायं छउमत्यस्म जिणावा । एअंचयरित्तकरं चारित्तं हादू आहियं ३३ ॥ तवीय चारित्र १ छेदीपस्थापनोयं भवेत् द्वितीयं वौजूछेदोपस्थापनीय चारित्र २ परिहार विशुद्ध तृतीयं नौजू' परिहार विशति सूक्ष्मसंपरायं तथा चतुर्थे । तिम सूक्ष्म संपराय चोथु २२ अकषायं क्षपितोपशमित कषायावस्थानं रूप कषाय क्षपाव्योछे उपशमित कौधोक्छ तेहने यथाख्यात चारित्र होइ एपांच मुंचारित्र जाग यथाख्यात छद्मस्थस्य उपांत मोहगुण स्थानिकस्य जिनस्य वा भवति छद्मस्थ ने उपशांत मोहने उपांत कषायने चारित्रहोर एतत् कर्मचयं कर पंचविधं चारित्र स्यात् एपांचे प्रकार चारित्र कर्मक्षयनु कारण भगवंते का ३३ तपो बाह्याभ्यंतरमिति विविधमुक्त सपवे भेदे वाचतप
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.उ.४१मा भाग
सूत्र
भाषा
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१ टीका
अ.२८
८१३
च्छे दोपस्थापनौयाना साधूनां भवति तथा द्वितीयं छेदोपस्थापनीयं अस्य शब्दस्य कोर्थः सातिचारस्य निरति चारस्यवा साधोस्तीर्थान्तरं प्रतिपद्य मानस्य पूर्वपर्यायव्यवछेदस्तस्मै च्छे दाययोग्या उपस्थापनामहाब्रतारोपणा यस्मिन् तच्छदोपस्थापनं चारित्र' द्वितीयं यं तदपि हिविध
सातिचार निरतिचारच्च अथ परिहारविशुद्ध तृतीयं परिहारस्तपो विशेषस्तेन विशद्धिर्यस्मिन् तत्परिहारविशुद्धिकं भवति तविधिश्चायं नवयतयोगणात् 8 पृथक्भूयः अष्टादशमासान् यावत्माध्यन्ति तत्र नव साधूनां मध्येचत्वारः परिहारिकाः भवन्ति चत्वारोऽन्ये तेषां वैयावृत्यकरास्ते अनुपरिहारिकाभवन्ति
एकस्तु नवमः कल्पस्थितीवाचनाचार्योभवति एवं षण्मासं यावत् तपः कृत्वा पश्चात्षण्मासं यावत् ये परिहारिकास्ते अनुपरिहारिकाभवन्ति अनुपरि
हारिकाः परिहारिकाभवन्ति षण्मासंयावदेवं तपः कुर्वन्ति ततश्चयः कल्पस्थितः सोपि ते नैवविधिनाषण्मासन्तप: करोति शेषेषु षट्समासेषु एकः २ कविकल्पस्थि तीभूत्वा ते अन्ये सर्वेपि अनुपरिहारिकाच भवन्ति एवं विधिना अष्टादशमास प्रमाणः कल्पोज्ञातव्यः कल्पसमाप्तौ तु पुनः परिहार & विशुदिमन्तो न वापि यतयोजिनकल्प वा गणवा आश्वयन्ति एतदाचारवन्तः माधवोहि जिनस्य जिनपार्थस्थितस्य स्थविरस्य गणधरस्य वा समीपं ४ प्रतिपद्यन्ते नान्यस्य पाखे तिष्टन्ति तेषां चारित्र परिहारविशुद्धिकं तौयं यं तथा सूक्ष्मसम्परायं चतुर्थ भवति शूक्ष्मः किट्टीकरणात् स्वल्पोक्तः
सम्परायोलोभाख्यः कषायोयत्र तत् सूक्ष्म सम्परायं एतच्चारित्र हि उपशमणि क्षपकण्यारूढस्य साधोर्लोभाणु वैदनसमये भवति सूक्ष्मं सम्परायं. इति अनुस्वारः प्राक्ततत्वात् ३२ अकषायं कषायरहितं क्षपितकषायावस्थायां एतद्भवति यथाख्यातनामकं तीर्थकरोक्त पञ्चम सेयं इदं हि यथा ख्यातं चारित्र' छमस्य उपांतमोहाख्ये गुणस्थान तथा प्रयोगाय चतुर्दशे गुण स्थान वर्तमानस्य भवति एतत्पञ्च विधं चारित्र' भवति कीदृशं चारित्र रिक्तकरं कर्मराशीनांरिक्त अभावं करोत्य वंशीलरिक्तकर तीर्थ करैः आख्यातं कर्मराशौना प्रभावकर सामायिकादिपञ्च विधं चारित्र कर्म
KAREKKKKKRAK MEREKKHEKKKkKAN
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा संतु. ४१मा भाग
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उ.टोका
८१४R
क्षयकारकमित्यर्थः ३३ अथ तपोभेदमाह [तवीयविहीबुत्तो बाहिरोभिन्तरोतहा बाहिरोछविहीबुत्ती एवमन्भिन्तरोतवो ३ ४] तपोदिविध प्रोक्त बाह्य तयाभ्यन्तरं बाह्यं षड् विध प्रोक्त एवं इति षड् विध एव अभ्यन्तरं अपितपः प्रोक्त ३४ अध ज्ञानदर्शनचारित्राणां मध्येमोक्षमार्गेकस्य कौदृशो ४ व्यापारीवर्ततेतमाह [नाणे गजाणईभावं दंसणेणयसहहइ चरित्ते णनिगिणहाइ तवेणपरिसुज्कई ३५] ज्ञानेनमति ज्ञानादिनाभावान् जीवाजौवादौन् जानाति च पुनदर्शनेन भगवचनं यावइत्ते सत्यत्वे नाङ्गोकुरुते चारित्रेण विरति प्रत्याख्यानन निगृहाति विषयेभ्योनियतन्ते तपसापरिसमन्तात् शुध्यति कर्ममलापगमात् निर्मलोभवतीत्यर्थः ३५ अथ मोक्षफलभूताङ्गति माह [खवित्तापुवकम्माई सचमेणतवेणय सब्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमन्ति महेसिणोत्तिवेमि २६ महर्षयोमहामुनयः संयमेन सप्तदशविधेन पुनस्तपसा हादशविधेन च शब्दात् ज्ञानदर्शनाभ्यां च पूर्वकर्माणि पूर्वोपार्जितकर्माणि क्षपयित्वाप्रहौण सर्वदुःखार्थाः सन्तोमोक्षाभिलाषिणः सन्तः प्रक्रमनि पराक्रम कुर्वन्ति सिद्धि' गच्छन्ति प्रहोणानि प्रकर्षणहानि प्रामानि सर्वदुक्खानि
दुविही बुत्तो बाहिरम्भितरी तहा। वाहिरी चउबिहोवुत्तो एवमभितरी तवो ३४ ॥ नाणेण जाणई भाव दंसणे
णय सहहै। चरित्तेण निगिगहाडू तवेण परिसुभई ३५ ॥ खवित्ता पुब्बकम्माई संजमेण तवेणय । सब्बदुक्खप्पही अंतरंग तप वाह्याभ्यंतर स्तथा बाह्य अने अंतरंग बाह्य तपः षड्विधं उक्त बाह्य तप छएप्रकार कह्यो एवं अभ्यंतरतपः छएभेदे अंतरंग तप कह्यो ३४ ज्ञानेन जानाति भावान् ज्ञाने करीने सर्वभाव जाणके जौवादिन् दर्शनेन च बद्दधाति दर्शने करौ सहह चारित्रेण च भावान् एजाति चारित्र करौ. कर्मखपावे तपसा परिशुद्धति तपकरतां आमा सडहवे ३५ क्षपित्वा पूर्वकर्माणी खपावौने पाछिलांकर्म संयमेन तपसाच सतरभेदे संजमकरीने वार
राय धनपतसिंह चाहादुर का पा०सं० उ०४१मा भाग
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उ टोका प०२८
यत्र तत् प्रहोणसर्वदुक्खं मोक्षस्थान' तदर्थयन्ते अभिलषन्तौति प्रहोणसर्वदुःखार्थाः मोक्षाभिलाषिण इत्यर्थः प्रहौनसर्वदुक्साइति स्थान सर्वदुःख प्रहोनार्था इति पाठस्त आर्षत्वात् इत्यहं ब्रवीमि इति सुधर्मास्वामौजम्बूस्वामिन प्राह ३६ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मोकोति गणिशिष्यलक्ष्मोवल्लभगणि विरचितायां मोक्षमार्गीयाख्य अष्टाविंशमध्ययनं सम्पूर्ण ॥ २८ ॥ अथै कोनचि'यत्तमं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययनेमोक्षमार्गगतिरुक्तासाचवीतरागत्वपूर्बिकाइति अथ यथा वीतरागत्व स्थात्तथाभिधायक एकोनविंशत्तमं कथ्यते (सुयं मै आउसन्तणं भगवया एवमक्खायं इहखलु सम्मत्तपरिकमेनामज्झयणे समणेणं भगवयामहावौरेणंकासवेणं पवेइयाज सम्म सहहित्तापत्तिय इत्तारोयइत्ता फासित्तापालइत्ता तौरइत्ता किट्टइत्तासोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवेजौवासिज्झन्ति बुञ्झन्ति मुञ्चन्ति परिनिचोइन्ति सव्वदुक्खाणमन्त करन्ति] इत्यालापकं १ हे आयुष्मन् इति सम्बोधनं हे जम्ब मयाथु तं तेन भगवताज्ञानवता आयुष्मताजीवताविद्यमानेन श्रीमहावीरेण एवं प्राख्यातं एवं कथितं एवमिति किमुक्त तदाह इहास्मिन् जगति आगमेवाखलु निश्चयेन सम्यक्त्र पराक्रमं नामाध्ययनं समाक्त सति वईमानैर्गुणै: कर्मशव जयलक्षण: पराकमोबलं यस्मिन् तत् समयक्त पराक्रमं नामाध्ययन श्रमणेन तपस्विनाभगवता ऐश्वर्ययुक्तेन श्रीमहावीरेण काश्यपगोत्रीयेण प्रवेदितं यसमाजपरा ___गट्ठा पक्कमंति मर्हसिणोतिमि ३६ । मुखमग्गज्मयणं सम्मत्तं २८॥ सुयं मे उसंतेणं भगवया एव मक्खायं । भेदे तपकरोने सर्वदुक्ख प्रक्षोणार्थ सर्वदुकवने क्षयकरौने प्रक्रमति सिद्धि' गच्छति महर्षिण: इति ब्रवीमि मोटा ऋषोखर मुक्ति पोहचे ३६ इति मोक्ष मार्गगतिनामा अध्ययननो अर्थ पूरी घयो ॥ २८ ॥ श्रुतं मया के प्रायुमन हे चिरंजीव सौप्यमेइम सांभल्य भगवता श्रीमहावीरण एवं पाख्यातं भगवंत
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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स.टौका
च.२८
* क्रमं अध्ययन अहासूवार्धाभ्यां सामान्य न प्रतिपद्यप्रतीत्यविशेषेण प्रतौति आनौयरीचयित्वा तस्य अध्ययनस्य अर्थाभिलाषं अनुष्ठानाभिलाषं आमन * उत्पाद्य पुनः स्पृष्टा मनोवाकायैस्तदुक्तानुष्टानं संस्मर्यपालयित्वातस्याध्ययनस्य गुणन अतीचारवजनेनरक्षयित्वातौरयित्वाअनुष्ठान' पारं नौत्वाकौत *यित्वागुरु प्रतिविनयपूर्वकं मया भवद्भाः सकाशासमाक प्रकारेण संपर्णमधौतमिति कथनेन शोधयित्वागुरोर्वचनात् पयाचा हकवा पाराध्ययथोक्त
उत्मापवादनयविज्ञानन सेवन कृत्वा पानयागुवदिशेन अनुपाल्यनित्यं आशेव्यबहवोजौवाः सिध्यन्ति सिहिगुणयुक्ताः भवन्ति बुयन्ति धातिकम्मनिवा x रन तत्वज्ञाताभवन्ति मुच्यन्त भवोपग्राहिकम चतुष्टयबन्धात् मुक्ता भवन्ति पनिवान्ति कर्मदावानलीपशमनन गौतलवं प्राप वन्ति सर्वदुःखानां:
८१५
इह खलुसम्मत्त परक्कमे नामज्झयणे । समणे ण भगवया महावीरेण कासवेणं पवेईया ज सम्म सद्दहित्ता पत्तिय इत्ता रीयत्ता फासित्ता पालित्ता तीरत्ता किट्टइत्ता सोहना आराहिता आणाए अणुपालदूला बहबे जीवा
पय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१ मा भाग
भाषा
श्रीमहावीर इम कह्यो इह अस्मिन् प्रवचने निश्चयेन सम्यक पराक्रमनामाध्ययनं एनिश्चय सम्यक्त पराक्रमनामाध्ययन श्रमणेन भगवता महाबौरेण बमण भगवंत महावीर काश्यपगोत्रण प्रवदितं काश्यपगोत्रने धणीईएअध्ययन का यत् सम्बक यहधानं कृत्वा जे अध्ययन भला बहष्ट प्रतितयिता प्रतीत उपनाव रोचयित्वा चित्तमांहि रुचावे स्पृष्टाक्रियायां क्रियाइ करौने फरसे पालयित्वा भलेप्रकार पाले पारनौत्वा पारपांमौने कीर्तयित्वा
स्वाध्याय विधानतः परने उपदेसे शोधयित्वा गुरुवचन कैडेसोधौने आराध्यो उत्सर्गापवादाभ्यां उत्सर्ग अपवाद आराधौने गुर्वानासेवनेन गुरुनी आजाद, * करौने अनुपाल्य गुरुनौ आनाइ मार्गपालिने वहवः जौवाः सियन्ति घणा जौवसौझे तत्वज्ञानन बुद्दान्ते मुच्च ते कर्मबंधनात् परिनिर्वापयंति कर्म
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उ० टोका अ०२८
८१७
सूत्र
भाषा
शरोरमानसानां अन्तं कुर्वन्ति इत्यालापकार्थः (तस्मर्ण अयम एवमाहिज्जइ) तस्य सम्यक्त पराक्रमाध्ययनस्य अयं वच्यमाणोऽर्थः एवं अमुनाप्रकारण श्रौमहावोरण आख्यायते कथ्यते (तंजहा संवेगे १ निव्वे ए २ धम्मसार गुरुसाहम्मियसुस्तूसण्या ४ आलोयणा ५ निन्दण्या ६ गरहण्या ७ सामाई च उबौसत्थए ८ वन्दणे १० पडिकमणे ११ काउसो १२ पञ्चकखाणे १३ श्रवथुद्र मङ्गले १४ कालपडिलेहण्या १५ पायछिन्तकरणे १६ खमावण्या १७ सज्झाए १८ वायगा १८ पडिपुच्छणया २० परियहण्या २१ अणुप्पेहा २२ धम्मका २३ सुयमआराहण्या २४ एगामणसन्निवेसणया २५ संयमे २६ तवे २७ बोदाणे २८ सुहसाए २८ अप्पडिबडया ३० विवित्तस्यणासण सेवण्या ३१ विणि ग्रहणया ३२ सम्भोगपञ्चकवा २३ उबहि पञ्चकवाणे ३४ आहारपञ्चकवाणे ३५ कसायपञ्चकवाणे २६ जोगपञ्चक्खाणे ३७ सरोरपञ्चकखाणे ३८ सहायपञ्चकवाणे ३८ भत्तपञ्चकखाणे ४० सम्भावपच्च कखाणे ४१ पडिवण्या ४२ वेयावचे ४३ सव्वगुणसम्पन्रया ४४ वीयरागया ४५ खन्तौ ४६ मुत्तौ ४७ महवे ४८ अन्नवे ४८ भाव सधैं ५० करणसचे ५१ जोगसचे ५२ मणगुत्तया ५३ वयगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ समाहारण्या५६ वयसमाहारण्या ५७ कायसमाहारण्या ५८ नाणसम्प वया ५८ दंसणसम्पन्रया ६० चरित्तसम्पन्रया ६१ सोइन्दियनिगाहे ६२ चक्विंदियनिम्गहे ६२ घाणिंदियांना हे ६४ जिम्भन्दियनिगाहे ६५ फासि
सिज्यंतिवुज् ंतिमुचंति परिनिव्वाइ' तिसव्वदुक्खाण मंतंकरंति ताणं अयमट्ठे एवमाहिज्जइ तंजहा संबेए१ निब्बेएर
अग्नि उपशमावी सर्वदुक्खानां अंतं कुर्वतौ सर्वदुक्खनो अंतकरे ते अध्ययननो अयं श्रर्थः प्राख्यायते वच्यमाण प्रकारे ते अध्ययननो अर्थ हवे का दर्शयति कथयतो कहे संवेगः संसारथो संवेग १ निर्वेद: संसारथौ निर्वेदः २ धर्मश्रद्धा धमनोवासना ३ गुरुसा धम्मिक शुश्रषणा गुरु साधर्थी
१०२
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ[सं० उ०४१ मा भाग
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० टोका
अ०२८
८१८
सूत्र
भाषा
दियनिग ६६ कोहविजये ६७ माणविजये ६८ मायाविजए ६८ लोहविजये ७० पेज्जदोसमिच्छादंसणविजये ७१ सेलेसी ७२ अकमया ७३) इति सूत्र ं एतस्य सम्यक्तपराक्रमाध्ययनस्य श्रोमहावीरेण यथानुक्रम अर्थोव्याख्यायते तद्यथा सम्ब गोमोचाभिलाषः १ निर्वेदः संसारात् विरक्तता २ श्रद्धाधर्मेरुचिः३ गुरोस्तत्वोपदेष्टातस्य साधर्मिणः समानधर्मकत्तु व शुश्रूषणासेवा ४ आलोचनागुरोरग्र पापानां प्रकाशनं ५ निन्दनाश्रात्मसाचिकं आत्मनोनिन्दा ६ गर्हणा अपरलोकानां पुरतः स्वदोषप्रकाशनं ७ सामायिकं शत्रौमित्रे साम्य ८ चतुर्विंशतिस्त बोलोगस्सुजोयग रेइत्यादि चतुर्विंशति जिननाम पठनं . वन्दनं द्वादशावर्त्त वन्दनेन गुरोर्वन्दना १० प्रतिक्रमणं पापान्निवर्त्तनं ११ कायोत्सर्गेऽतोचार शवार्थ कायस्य व्यसर्जनं काय म वर्जनं १२ प्रत्याख्यानं मूलगुणोत्तरधारण १२ स्तवस्तुति मङ्गलं स्तवः शक्रस्तवपाठः स्तुतिरूर्डीभूयजघन्ये न चतुष्टयस्तुति कथनं मध्यमेन अष्टस्तुति कथनं उत्कृष्टेन १०८ कथनस्तवचस्तुतयश्च स्तवस्तुतयः स्तवस्तुतय एव मङ्गलं स्तवस्तुति मङ्गलं १४ कालप्रतिलेखना कालस्य व्याघातिकप्रभृतिकाल चतुष्टयस्य
धम्मसङ्घा ३ गुरुसाहम्मिय सुतख्या ४ आलोयणया ५ निंदण्या ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चडवीसत्यए वंदण े १० पडिक्कमणे ११ काउ १२ पञ्चकवा १३ घयथुईमंगले १४ कालपडिलेहण्या १५ पायच्छित्त समान धम्मपाले नेह भयौ भक्ति ४ आलोचना आपण आलोचे पापड' आलो ५ निंदाना ६ आत्मा साखिनियाकरे ( ग ७ गुरुसाखि ग करे ७ सामायिकद वे घडी समायक ८ चतुर्विशति तीर्थ कर स्तष्ट लोगस्स ८ वंदनकं दादशावर्त्त वंदना १० प्रतिक्रमण ११ परिक्रमण ११ कायोत्सर्गः १२ काउग्गकरे १२ प्रचाख्यान पञ्चकखांण प्रत्याख्याने करौने १३ स्तव स्तुति मंगलं स्तुतिस्तवन मंगलरूप अप १४ काल प्रतिलेखना
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राम धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं० उ० ४१मा भाग
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१० का
०२८
८१८
सूत्र
भाषा
प्रतिलेखना प्ररूपणाकालग्रहण रूपाकाल प्रतिलेखना ९५ प्रायश्चित्तकरणं लग्नस्य पापस्य निवृत्त्यर्थं तपसः करणं १६ चमापना अपराध चामणं १७ स्वाध्यायवतुर्विधोवाचनादिकः १८ वाचनागुरुसमीपे सूत्राचराणां ग्रहणं १८ प्रतिपृच्छ नागुरोः पुरतः सन्देहस्य प्रच्छनं २० परिवर्तना सूत्र पाठ मुहुर्मुहुर्गुणनं २१ अनुप्रे क्षासूत्रस्य चिन्तनं २२ धकथाधी सम्बद्धायाः वार्त्तायाः कथनं २३ श्रुताराधना सिष्टान्तस्वाराधना २४ एकाग्रमनः सत्रिवेनाचित्तस्य एकस्मिन् प्रधानेध्येयवस्तु निस्थिरीकरणं २५ संयमः श्राश्र वाहिरति रूपः २६ तपोद्वादशविधं २७ व्यवदानं विशेषेण अवदानं की शुद्धिव्य' वदानं कम्मैणां निर्जरा २८ सुखशातं सुखस्य विषयसुखस्य शातं शातनं स्पृहानिवारणं २८ अप्रतिबद्धतानोरागत्वं ३० विविक्रशयनासनसेवना स्त्रोपपण्डकादिरहितशयनासनानां आसेवना ३१ विनिवर्त्त नापञ्चेन्द्रियाणां विषयेभ्योविशेषेण निवर्त्तनं ३२ सम्भोग प्रत्याख्यान' सम्भोगः एकम एड ली
करणे १६ खमावण्या १७ सज्झाए १८ वायश्या १६ पडिपुच्छणया २० परियदृया २१ अप्पे हा २२ धम्म कहा २३ मुयस्म आराहण्या २४ ॥ एगग्गमणसं निषेत २५ संजमे २६ तवे २० बोदा २८ सुहसाए २६ अप कालवेलाइ पडोलेहकरे १५ प्रायचित्त करणं पायच्छित्तलेई आलीयण करे १६ क्षमावचन १७ जीवने खमावे १७ स्वाध्यायः १८ सज्झायकरे १८ वाचना १८ वायणा दिये लौइ १८ परावर्त्तना सूत्रे गणे अर्थ पूछे २० प्रतिपृच्चमा सूत्र अर्थभूलो पृछे २१ आनुप्रेचा अर्थ संभारे २२ धमकथा धमकथा करे २३ श्रुतस्य आराधना र सिद्धांतनौ आराधना करे २४ एकाग्रमनः संनिवेसना एकाग्रमन ठामिराखे २५ संजमं संजमपाले २६ तपः तपस्याक २७ व्यवदानं दानवोसनराखे २८ सुखशय्या सुखशाता उपनावे २८ अप्रतिबंधता प्रतिबंध रहितहोइ २० विविज्ञशयनासन सेवना
दाय धनपत सिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा भा
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उ.टोका * भ्योकत्वं तस्य प्रत्याख्यान गौतार्थावस्थायां जिनकल्याचारग्रहणेन परिहारः सम्भोगप्रत्यास्थान' ३३ उपधिप्रत्याख्यानं रजीहरणमुखस्त्रिका विहायअन्यो अ०२८
पधि परिहारः ३४ आहारप्रत्याख्यान'स दोषाहारपरिहारः ३५ कषायप्रत्याख्यानं ३६ योगप्रत्याख्यानं मनोवाकायानां व्यापारीयोगस्त स्य प्रत्याख्यानं ८२.
परिहारः३० शरीरप्रत्याख्यान प्रस्तावेसमागते शरीरस्यापि व्यु मर्जन ३८ साहाय्य प्रत्याख्यानं साहाय्यकारिणां परिहारः ३८ भक्त पानप्रत्याख्यान सद्भावेन परमार्थवृत्त्याप्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यान' ४१ प्रतिरूपताप्रतिः स्थ विरकल्पिमुनि सदृशो रूपं वेषोयस्य स प्रतिरूपः प्रतिरूपस्य भावः प्रति रूपतास्थविरकल्पिसाधयोग्य पधारित्व' ४२ वैयाकृत्यं साधूनां आहाराद्यानयनसाहाय्य ४३ सर्वगुणसम्म व्रताज्ञानादि गुणसहितत्व ४४ वीतरागता
डिबया ३० विविनसयणासणसवणया ३१ विणियट्टणया ३२ संभोगपच्चक्खाण ३३ उवहिपच्चक्खाणे ३४ आहार पच्चक्खाणे ३५ कसाय पच्च क्वाणे ३६ जोगपचक्खाण ३७ सरीर पच्चक्खाण ३८ सहाय पच्चकखाणे ३६ भत्तपच्च
क्खाणे ४० सम्भावपच्चक्खाणे ४१ पडिरूवणया ४२ वेयावर्च ४३ सव्वगुणसंपन्नया ४४ वीयरागया ४५ खंती ४६ स्त्रोपसुपंडक रहित उपाश्रय सेवे २१ विनिवर्त्तना पापथौ निवत्त ३२ संभोग प्रत्याख्यानं संभोगनु पञ्चक्वाण कर ३३ उपधि प्रत्याख्यानं ऊपधिनु पच्चक्वाणकर ३४ आहार प्रत्याख्यानं पाहारनु पञ्चक्वाणकर ३५ कषाय प्रत्याख्यानं कषायनु पञ्चक्वाणकर ३६ योग प्रत्याख्यानं योगनु पचखाण करे ३७ शरीर प्रत्याख्यानं शरीरनु पचखाण करे ३८ सहाय प्रत्याख्यानं साथीनो पञ्चक्वाणकरे ३८ भक्तप्रत्याख्यानं भातर्नु पञ्चकवाणकरे ४. सद्भाव प्रत्याख्यानं सर्वसंवररूप पञ्चकवाणकरे ४१ प्रतिरूपना साधुने रूपे रहवी ४२ वैयादृत्य वेयावच्चकर ४३ सर्वगुण संपूर्णता सघले गुणे करीसहित ४४
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. ४१मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०२८ ८२१
सूत्र
भाषा
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रागद्वेषनिवारणं ४५ क्षान्तिः चमा ४६ मुक्तिनिलभता ४७ मार्दवं मानपरिहारः ४८ आर्जवंसरलत्व ४८ भावसत्य अन्तरात्मनः शुद्धत्व ५० करण सत्यं प्रतिलेखनादिक्रियाविषये निरालस्य ५१ योगसत्यं मनोवाक्काय योगेषु सत्य ं योगसत्य ं ५२ मनोगुप्ति त्वं मनसोऽशुभपदार्थात् गोपन ५३ वचोगुप्तित्वं वचसोऽशुभपदार्थात् गोपन ५४ कायगुप्तित्व' कायस्य अशुभव्यापाराहोपन' ५५ मनः समाधारण मनसः शुभस्थानेस्थिरत्वेन स्थापन' ५६ वचः समाधारणावचनस्य शुभकार्यस्थापन ५७ कायसमाधारणा कायस्य शुभकार्येस्थापन ५८ ज्ञानसम्पन्नताश्रुत ज्ञानसहितत्वं ५८ दर्शनसम्पन्नत्व' सम्यक्त सहितत्व' ६० चारित्र सम्पन्नत्व' यथाख्यातचारित्र युक्तत्व ६१ श्रोत्रे न्द्रियनिग्रह' ६२ चतुरिन्द्रियनिग्रहः ६३ घ्राणेन्द्रियनिग्रहः ६४ मुत्ती ४७ महवे ४८ अजवे ४८ भावसच्चे ५० करणसच्चे ५१ जोगसच्चे ५२ मणगुत्तया ५३ वइगुत्तया ५४ काय गुत्तया ५५ मणसमाहारण्या ५६ वसमाहारण्या ५७ कायसमाहारण्या ५८ नाणसंपन्नया ५८ दंसणसंपन्नया ६० वीतरागता ४५ वौत रागभाव ४५ छांतिः ४ ६ क्षमाकरें ४६ मुक्ति: निर्लोभपण करे ४७ आर्जव ४८ सरलपण करे ४८ माईव ४८ सुहालापण ४८ भावसत्य भावसांचा ५० करणसत्य' पडिलेहणादिक्रिया सत्य ५१ योगसत्य' मनप्रमुखयोग विखे सत्य ५२ मनोगुप्तिः अशुभथौ मननु' गोपव ५३ बचनगुप्तिः अभयौ वचननु गोपवबु ५४ कायगुप्तिः अशुभथो कायानु' गोपवबु' ५५ मनः समधारणा मनने शुभथानकने विखे थापे ५६ वाक् समधा रणावचनने शुभथान कने विखे थापे ५७ काय समधारणा काया शुभवांनकने विखे थापे ५८ ज्ञानसमापन्नता श्रुतज्ञान सहितपण ५८ सम्यक्त संयुक्तता समकित सहितण्ण ६० चारित्र संपन्नता यथाख्यात चारित्रसहित पण ६१ श्रौवें द्रिय निग्रहः कानना विषयनोजौपवो ६२ चक्षुरिंद्रिय
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं०ड० ४१मा भाग
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उ० टाका
अ०२८
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सूत्र
भाषा
जिचेन्द्रियनिग्रहः ६५ स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजयः ६७ मानविजयः ६८ मायाविजय: ६८ लोभविजयः ७० प्रेम षमिथ्यादर्शनविजय: ७१ मै लेशोचतु ईशगुणस्थान कायिल ७२ अकर्मताकर्मणां श्रभावः ७३ इत्येषां त्रिसप्ततिवचनानां अर्थमुक्ता अर्थ तेषां एव प्रत्येकं फलमाह सूत्र ं [संवेगेणं भक्त जौवे किं जयइ संवेसेण ं अणुत्तरं धम्मसद्ध' जणय अणुत्तराए धम्मसहाए सवेगं हव्वमागच्छद्र अणन्ताण बन्धिको हमाणमायालो भेखवेइन बच्च नबन्ध तपच इयं चणं मिच्छत्तविसोहिं काऊणदंसणाराहए भवइ दंसणविसोहौएवं विसुद्धाए अत्य गइए तेणेव भवग्गहयेणं सिज्झइसोव्हिएवं विश्व डा तच पुणभवग्गहण' नाइकमइ १] व्या० शिष्यः पृच्छति हेभदन्त पूज्यस' वेगेन मोचाभिलाषेण कृत्वा जीवः किं जनयति किमुत्पादयति तदा
चरितसंपन्नया ६१ मोइ' यिनिग्ग हे ६२ चक्विंरियनिग्गहे ६३ घाबिंदियनिग्गहे६४ जिम्भि दियनिग्गहे ६५ फासिं दिनिग्गहे ६६ को विजए ६० मा विजए ६८ मायाविजए ६६ लोभविजए ७० पिज्जदोसमिच्छा दंसण विजए ७१ सेलसौ ७२ अकंमया ७३ संवेगेां भंते जौवे किं जणयइ । संवेगेां अणुत्तरं धम्म सङ्घ जणयद्र । अणुत्तराए धम्म निग्रहः नेचना विषयनु' जीप ६ ३ घ्राणेंद्रिय निग्रह: नाशिकाना विषयनु' जोपवु ६ ४ जितेंद्रिय निग्रहः जोभना विषयनुं जीपवु ६५ स्पर्थे द्रिय निग्रहः शरौरफरसन' जीपवु ६६ क्रोधविजयः क्रोधनं जोपवु ६७ मानविजयः मानमु जीपवु ६८ मायाविजयः मायानु जोपयु ६८ लोभविजयः लोभन ं जोप ७० प्र` मद्देष मिथ्यादर्शनविजयः प्रौत अनेद्वेष अने मिथ्यात्वनो जोबु ७१ शैलै सोभावः चउदमे गुण्ठाचे रहिवो ७२ अकता क रहितपणे ७३ वैराग्येन हे भदंत हे भगवान् जौवः किं जनयति हे पूज्य वैराग्य करोने जीवस्यु' उपार्जे स वेगेन अनुत्तरा प्रक्कष्टां जनयति
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था •सं•• ४१ मा भाग
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उठोका अ०.८
८२३
गुरुराह है शिव स वेगेन क्र वा जोवोअनुत्तरां प्रधानधम्म श्रहां धम्मश्रहां धर्मरुचिञ्चनयति तया प्रधानयाधस्य श्रया सवेगमोचाभिलाषहबइति गोन माग छति पानोति ततोनर कानुबन्धि नोनरकगतिदायिनोऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान् चतुरोपि कषायान् शपयति नवश्च कर्मनबनाति तत् प्र वयां अन तानुबन्धिकषाय जयादुत्पन्नां मिथ्यात्वविशुद्धि' सर्वधामिथ्यात्वचतिं कृत्वा दर्शनाराधकोभवति ख्यायकराइसम्यक्षस्थ पाराधकोनिरति चारमालकोभवति तत: सम्यकविराजया प्रतिनिर्मलया अत्ये कः कश्चित् भव्योयः स ते नैव भवग्रहणेन ते नैव जन्मोपादानम सियतिसिद्धि प्राप्नोति एकः पुनः सम्यक्तस्य निर्मलयाविशयावृतौयं पनर्भवग्रहण नाति कामति इत्यनेन शुइख्यायकसम्यक्तवान् भवत्रयमध्ये मोक्षं व्रजत्येव १ [निव्वे एण भन्ते जौवे कि जणइ निब्बेएवं दिब्बमाण सत्तेरिच्छिएस कामभोगेसु निब्बे यं हव्वमागच्छद् सब्वविसएसविरजमाणे आरपरिमाहपरिचायं करेइ
सहाए । संवेग हव्व मागच्छदू । अगताण बंधि कोहमाण मायालोमे खवेदू नवंच कम्म न बंधडू । तप्पच्चयं चणं
मिच्छत्त विसोहिं काऊणं । ट्सबाराहए मवडू। दसण विसाहीएयणं विमुद्दाए। अस्गदूए तेणेव भबग्गहोणं वैराग्यकरौने धम्मनो बहा उपार्ज अनुत्तरया धम्म दया अणुत्तर प्रधान धम्मनी श्रहार करीने विशिष्ट वैराग्य यौन पागच्छति उत्तम सवेग वैराग्य शोध पण भाव तत अनंतानुबंधौ पछे अनु'तानुबंधौनी क्रोधान माया लोभक्षपति क्रोधमान माया लोभ खपावे नवीन प्रशभं कम्मन वनाति नवु कम्पबांध नही तत्य निमित्तच मिथ्यास विशुद्धि कृत्वा अनिते कम्पने क्रोधमानमाया लीभखपावीने पछे मिथ्यात्वनी समता कर करौनियायिक सम्यक साधका भवति नायिक सयक्त उपार्ज दर्शनविशुद्ध करे आमासुद्द करे एककः कवित् मरुदेवी वनव्यः तेन व भवग्रहणेन सिहा ति केतला एक
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.४१ मा भाग
भाषा
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८२४
* प्रारम्भपरिग हपरिचायं करमाण स'सारममांवोच्छिन्द्रसिद्धिमापडिक्ब्रेय भवद १] हे भगवन् पूज्यनिदेन सामान्य न संसारात् विरागभावनजीवः उ • टौका ४ किं जनयति गुरुराहनिदेनदेवमनुष्यतिर्यक् सम्बन्धिषु कामभोगेष निर्वेदं विरागं एतकामभोगाः विरसाः एतेषुकोनुरागः इति बुद्धिः शौघमायाति अ.२८४
तदा सर्व विषयेषु सर्वविषयेभ्योविरक्ता: स्यात् सर्वविषयेभ्योविरज्यमानः पुमान् प्रारंभः कर्षणादिः परिग्रहीधनधान्यादिषु मूळरूपः तयोः परित्यागं करोति आरम्भपरिग्रहपरित्याग कुळण: ससारमार्ग' मिथ्यात्वाविरत्यादिकं व्य छिनत्ति सिद्धिमार्ग प्रतिपद्रीभवति शुहलायकसम्यक्त रूपं मुक्ति
सिमड । साहीएणं विमुद्धाए। तच्च पुण भवग्गहणं नाइक्कम शनिब्बेए मते जौवे किं जणयडू। निब्ब एणं
दिञ्च माणुस तेरिच्छिएमु कामभोगेसु । निव्वयं हब्वमागच्छडू। सब विसएम विरज्जडू । सव्वविसएसु विरज्जमाणे । सूत्र
आरंम परिग्गह परिच्चायं करडू । आरंभपरिग्गहपरिच्चायंकरमाणे । संसारमग्गं वोच्छिंद । सिद्धिमग्ग पडिबन्नेय
जीव मरुदेवौनी परितहज भवसीमे सद्दर्शन विशुद्दा आत्माविशुद्धहोइ तृतीयं भवग्रहण बौजो भवलंधे नहीं मुक्तिजाइ लांघ नही बीजो भव १ भाषा 8 सवेगात् निवेदः स्यात् निदेन भगवान् जौवः किं जनयति सवेग हतौ निर्वेद हवे हे भगवन् निर्वेद हुतौ जीवस्य' उपार्जे निदेन देव
मनुष्य तियं चक्षु कामभोगेषु निर्वेदं कामत्याग बुद्धि शौघ्र आगच्छति देवता सबंधिया मनुष्य सबंधिया तियंच संबंधिया कामभोगने बिखे त्यागनी बुद्धि ऊपज एभूडा कामभोग सर्वविषयेषु विरक्तो भवति सर्वविषय हुतो विरक्त होइ ततः सर्वविषयेषु विरज्यमानेषु सर्वविषयने विखे विरक्त हुवे थको आरंभ परिग्रहत्यागं करोति आरंभ अने परिग्रहनो त्याग कर आरंभ परिग्रहत्यागं कुर्वन् प्रारंभ परिग्रह त्यागकरतुजौव ससारमार्ग मिथ्या
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ. ४१ मा भाग
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ॐ मार्ग प्रतिउअखोभवति २ [धम्मसहारण भन्ते जौबेकिजणयद धम्मसदाएण सायासोक्खे सुरज्जमाणे विरज्ज आगारधम्म चण' चयइ अणगारण इटीका ४ जौवेसारौरमाणसाण दुक्खाण छेयणभेयणसञ्जोगादौण वोच्छे यं करेइ अव्वावाहचण सुहं निव्वत्तेइ ३] हेस्वामिन् हे पूज्य धर्मश्रद्धयाधम्म विषयेरुच्या
* जौवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य धर्म श्रद्धयासातासुखेषु सातावेदनीयकर्मजनितसुखेषु विषयसुखेषु रज्यमानः पूर्व राग कुर्वाणोविरज्यते विरक्ती * भवति तदा प्रागारधर्म रहस्य धर्म त्यजति ततश्च अनगारः साधुः सन् जोव: शारीरमानसानां दुःखानां व्याधीनां च्छ दनभेदनस योग वियोगादौना * कष्टानां व्युच्छेदं करोतितन्निबन्धनकोच्छ दंकरोति ततश्चाऽज्याबाधसुखमोक्षसुख निर्वत यति मोक्षसुख निष्पादयतीत्यर्थः ३ धमेश्वद्यानन्तरं गुवा * दौना शुश्रूषकोभवति अतस्तत्फलं प्रष्ट कामः शिथ आह गुरुसाहम्भिव सुमुसणयाएणं भंते जोवे किंजण्यइ गुरुसाहम्भियमुस्मूसणयाएणं विणयपडिवत्ति
भवद ॥२॥ धम्म सद्धाएणं भंते जीवे किं जणयडू । धम्म सद्धाएणं साया सीखेसुरज्जमाणे विरज्जडू । आगारधम्म चणं चयडू । अणगारणं जीवे सारीर माणसाणं टुक्खाण छयण मेयण संजोगाईण वोच्छ यं करेइ । अव्याबाहंच सुहं
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.ह. ४१मा भाग
& खादिकं व्यच्छिनत्ति संसारनो माग किण्यात्वादिक तेहने छेदे सम्यक दर्शनरूप सिद्धि मार्ग प्रपत्री भवति समकितरूप मोक्षमार्ग नी पडिवजणहार
२ धप्रयया है भदंतजोवः किं जनयति धमनी सहहणा करी हे पुज्यजीवस्य उपाले धमाया सातामुखेषु पूर्वरागं कुर्वन् विरक्ततांयांति जीव पहला सुख ऊपरि रागकर तुहतु जिवार धमनीरागाव तिवार विरक्तहोइ गृहस्थ धम्ममार्ग त्यजति तिवारे गृहस्थ मार्गनो धर्मकांडे ततोनगारः सन् जौवः परौर मानसकानां अनगारपणो अंगीकार कर जीव सरीरना मननां दक्खना वदनं छेदनारा भेदनं भेदनारा संयोगादीनां व्यवच्छेदंx
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FAM
जण्यर विणयपडिवत्तएण जौवे अणचामायणसीले नेरदयतिरिक्वजीणिय मण स्मदेवकुगडू लगिभर वबसन लणत्ति बहुमाणयाए मानदेवसुम्मा दो निबध सिदिसुग्गई च पिसोहद पसत्याइञ्चविणयमूलाई सब्जकज्जाई सोहेइ अवेयबहवे जीव विणयत्ताभव ४] हे भगवन गुरुर्णा पाचा र्याणां साधर्मिकाणां एकधर्म वतां शुश्रूषयासेवनयाजीवः किंजनयति तदागुरुराह गुरुसाधर्मिकशषयाविनयप्रतिपत्ति विनय धर्म स्याराधना विनयानी कारत्व जनयति विनयं प्रतिपन्नः प्रतिपनविनयोङ्गोकतविनयोजीवः अनत्यागातनशीलः सन् आचार्यादीनां प्रभक्ति निन्दाहीलाऽवर्णवादाद्याशात नानिवारकः सन् नरकतिर्यक् योनि तथा मनुष्यदेवयोः कुगति चरुणहिनिषेधयति प्राचार्याणां प्रत्याशातनानिवारकोनरोनरकयोनौ नोत्पद्यते तिर्यक्योनौ च नोत्पद्यते मनुष्येष कुयोनौवेच्छादौदेवेषु कुयोनौकिल्विषादौ नोत्पद्यते तथा पुनर्वस सज्वलनभक्ति बहुमानतयामानवेषु उच्च:
निवत्तेद्र ॥३॥ गुरु साहम्मिय सुम्सण्याएणभंते जीवे किंजणय। गुरु साहम्मिय सुमसणयाएणविणय पडि
बत्ति जणयइ । विणय पडिवत्तएण जीवे अणञ्चासायणसोले नेरडूय तिरिक्खजोणिय मणुस्मदेव कुग्गईओ निभद्र। करोति संयोग वियोगना दुक्खनी व्यवच्छेद कर अव्या बाधंच मोक्षसुख उत्पादयति बाबाधारहित मोक्षना सुखउपजावे ३ गुरु साधािक शुश्रूषया 8 गुरुनी साधीनी सुश्रूषाकरि हे भगवन् जौवः किंजनर्यात हे भगवन् जौवस्य उपाजै गुरु साधम्भिक शव षया गुरुनी साहमौनी सेवाथकी विनय प्रति
पत्तिं उचित प्रतिपत्तिं जनयति विनय प्रतिपत्ति उपार्जे विनय प्रतिपन्नो जीव: विनय अंगीकार कोयाथका जीव अनाथातनाशील पाशातना रहित हुवे देवगुरुनी आशातना न करे नेरयिक स्तोर्यक् योनि मनुष्यदुर्गती चंडालादि देवदुर्गती किल्विषादि निरुणदि नरक तिर्यच नौयोनिने रुधे मनुथ
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा.सं.. ४१मा भाग
भाषा
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स.टौका
८२७
* कुलेषु सर्वसुख भाक्मनुष्यः स्यात् वसं नाघा तेन दर्णेन सज्वलन गुणप्रगटीकरण वर्ण सज्वलनं भक्तिरभ्युत्थानादिका बहुमानोऽभ्यन्तरप्रौति विशेषः * वर्णसंज्वलन' च भक्तिश्च बहुमानव वर्णसज्वलन बहुमानास्तेषां भावोवर्ण संज्वलन बहुमानतातया वर्ण सज्वलन बहुमानतया पुमान् भवेत् यस्य * गुण श्लाघा भक्ति प्रौतयः सर्वैः क्रियते तादृगुत्तमल प्रसूतोनरः स्थादित्यर्ध: देवोपि च महर्डिकः स्यात् च पुनः स सिहि सहतिच मोक्षरूपां
सनोचोन गतिं विशेषेण शोधयति प्रास्तानि च विनवमलानि तज्ञानादौनि सर्वाणि धर्मकार्याणि शोधयति स च स्वयं विनयमूल सर्वकार्य * योधकः सत् अन्धान अघि बइन् जोवान् विनताविनयं ग्राहयिताभवति ४ गुरु शुश्रूषां कुर्वाणस्य अतीचार सम्भव प्रतीचारालोचनात् यत्कलं भवति तत् प्रश्न पूर्वमाह (पालीयणाएणं भन्तेजोवे कि जणय पालोयणयाएण' मायानियाण मिच्छा दरिसणसमाण मोक्व
बन्न संजला मत्ति वहुमाणयाए मणुस्मदेव मुग्गओ निबंध। सिद्धि मुग्गडू' च बिसाहेडू । पसत्याहू चण बिणय मलाई सम्ब कज्जाई साहेदू। अन्नेय बहवे जीवे बिणयइत्ता भव॥४॥ आलायणयाएण भंते जीवे किं जणयडू ।
राय धनपत सिंह बाहादुर का प्रा. सं. ४ मा भाग
भाषा
गति चंडालना कुलदेवगतियोनौ किलविषो गतिने रु'धे प्रसंसाकरे वर्स: नाघातन संज्वलनं गुणोद्रासनं भक्तिरभ्युत्थानादिका वर्म कहतां प्रसंसा गुरुनो कर ज्वलनकहतां गुरुनागुण लोक पागलकी अभी गुरुपाब्यायका गुरुणां विनयप्रतिपत्तितः देव मनुष्यगतिंचवभाति गुरुंनी भक्तिकर तु जीव भलो
देव मनुष्यनौ गतिबांधे सिहि सुगति च विधोधयति मोक्षगतिने सदातिनिर्मलीकर प्रसस्तानि च विनयमूलानि सर्वकार्याणि साधयति प्रसस्त विनय * मूल सर्वकार्य साधे अपरं अन्ये वहवीजीवाः विनयवन्ती भवंतिः अने राजीवबलोषणावीनय विखे धाप ४ आलीचनात: हे भगवन् पालोयण करती
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NA
4U
उ.टीका ममाविग्धाणं अयन्त संसार वदणाण उहरण कर उज्जुभावं च जणय उज्जुभाव पडिववे क्या' जीवे माई इस्थिवेयं नपुसग वेयंच नबन्चर पुचबई
च निजरे५) हे भगवन् है भदन्त पूज्य आलोचनयागुर्वाग्रे आत्मनीदोष प्रकाशनेन जौवः किं जनयति तदा गुरुराह आलोचनया कवा जीवीमायानि दानमिष्यादर्शनशल्यानां उहरणं करोति तत्र मायाकापव्य निदानं तपसोविक्रयः ममास्य तपसः फलं स्यात्तर्हिराज्य न्द्रादिपदभाक अहं स्यां इति रूपं निदानं मिथ्यादर्शनं सांसयिकादिविपरीतिमतिरूपं माया च निदानंच मिथ्यादर्शनं च मायानिदान मिथ्यादर्शनानि तान्ये वश ल्यानि मायानिदान
मिष्यादर्शन शल्यानि तेषां उहरण दूरीकरण करोति इत्यर्थः कीदृशानां मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गेविघ्नानां विघ्नकारकाणां पुनः * कौयानां अनन्तसंसारवईनानां पुन: ऋजुभावं सरलत्वं जनयति ऋजुभावं प्रतिपनोपि निययेण वाक्यालङ्कारजीवः अमायौमायारहितः सन्
पालोयणयाएणं माया नियाणं मिच्छा दरिसण सल्लाणं मोक्खमग्ग विग्घाणं | अणंत संसार बदणाणं । उहरणं
करे उजुभावंच जणयडू । उज्जुभाव पडिबन्नेयणं जीवे अमाई इत्यौवयं नपुंसग वेयंच नबंध पुवबईचण
जौवः किं जनयति है भगवन् स्यौंउपाले पालोचनायाः पापनी आलोयण करतुयको गुरोः पुरोदीष प्रकाशन रूपया गुरुने आगे आपण पाप प्रकासे भाषा
४ मिष्यादर्थनशल्यानां मायानियाणु मौथ्यात्वसालके जीवन मोक्षमार्ग विघ्नानां वली मुक्तिमार्गने विनना करणहारके अमंत शंशार वईनानां एअनंत
शंशार वधारछ उहरणं करोति तेहने उद्धर दूरकरे ऋजुभावं जनयति सरलपणु उपार्ज ऋजुभाव प्रतिपनो जीवः सरलपणु अंगीकार कीयाथका जीव जीवः प्रामायौ सन् स्त्रौवेद नपुंसकवेदंच नवघ्नाति मायारहितधको जीव स्त्रौवेद नपुंसकवेदन बांधे पूर्ववच निज रति पूर्वेवांध्यां जे कम्म ते
EKKKKKKKXXXXXXXXXXXXX
रायधनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
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उ० टीका
अ०२८
८२८
सूत्र
भाषा
BF 30 OF OF
स्त्रीवेदं नपुंसकवेदं न बध्नाति स्त्रोवेद नपुंसक वेदं चेत् पूर्व बद्द' स्यात्तर्हि निर्जरयति ५ आलोचनाहि दु:कृत निन्दाकारकस्यैव स फलास्यात् अत स्तत्फलं प्रश्न पूर्वमाह (निन्दण्याएवं भंते जोबे कि' जण्यइ निन्दण्याएव पच्छाण तावं जणयइ पच्छाणतावेण विरज्जमाणे करणगुणं सेढी प वज्रकरणगुण मेठिं पडिवत्रेय अणगारे मोहणिज्ज कम्मं उग्वाएड ६) हे भदन्त निन्दनया जीवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य आत्मन: पापस्य निन्दनेन पश्चात्तापं जनयति हा मया दुक्तकृत मित्यादि बुद्धि उत्पादयति पश्चात्तापेन विरज्यमानो वैराग्य ं प्राप्नुवन् सन् करण गुण श्रेणि' अपूर्व करणेन पूर्व कदापि अप्राप्तेन वियदमनः परिणाम विशेष गुणश्रेणि' क्षपक श्रेणि' प्रतिपद्यते अङ्गीकुरुते करण गुणश्रेण पत्रः अपूर्व गुणश्रेणिः सन् अनगारः साधुमहनीयं कर्म दर्शन मोहनीयादिकं कर्म उहातयते अतिशयेन चपयति ६ कश्चित् खदोषान् निज्जरेद्र ५ ॥ निंदण्याए' भते जौवे किंजगइ । निंदण्याएवं पच्छाण, ताबं जणयद्र । पच्छाण, तावेण विरज्ज माण करणगुण सेटिं पडिवज्जइ । करणगुणसेढी पडिवन्नेयण अणगारे मोहणिज्जं कम्म उग्घाएइ ६ ॥ गरहण दूरिकरे ५ निंदयनया श्रात्मनादोष परित्यागः हे भगवन् जीवः किं जनयति श्रपणां कौधां पापनिंदतोथको जौव हे भगवन् किस्युं उपार्जे निंदनया पचानुतापं जनयति पापनिंदतु पश्चात्तापकरे पश्चादनुतापेन पश्चातापथी वैराग्य' गच्छन् वैराग्यपामतो अपूर्वकरणेन गुण श्रेणिहेतुकरूपां प्रतिपद्यते पूर्वकरण गुणश्र णिने अंगीकारकरे करण गुणसेणिं प्रतिपना अनगारः करण गुणये णिने विखे प्राप्तहओ साधु मोहनीयं क उद्घातयति चपयति तत् चयेन मुक्ति मोहनों की खपावे मोहखपाव्या मुक्ति हवे ६ गर्हणेनपरसमचमात्मानो दोषोद्भावनेन हे भगवन् जोब: किं जनयति आपणा दोष
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ. सं००४१ मा भाग
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14.
AU
निन्दवपि पापभोर तया गीं अपि कुर्थात् अत स्तत्फलं प्रश्न पूर्वमाह [गरहणयाएणं भन्त जौवे किं जण्यइ गरहणयाएणं अपुरकारं जणयडू अपुरकारगएण जौवेअप्यसाथ हितो जोगहिंती नियत द पसत्ये य पवत्त इ पसस्थ जोगपडिबग्ने यण' अणगारे अणसघाडू पज्जवेखवे ] शिश्वः पृच्छति हे स्वामिन् गर्हणेनपरसमक्ष आत्मनो दोषोद्धावनेन जीवः किं जनयति तदा गुरुराह है शिष्यजीवोगह णन अपुरस्कार जनयति
आत्मनिगुरुत्वारोपणं पुरस्कार अपुरस्कारस्तं अपुरस्कार आत्मनोऽवहीला जनयति यदाहि स्वस्य गईणांकरोतिस्वस्यधिकियां करोति तदा अवहोला वान् भवति अपुरस्कारगतोजीवोऽप्रशस्तेभ्यः कर्मबन्ध तुभ्यो योगभ्योनिवर्तते अप्रशस्तकर्म बन्ध हेतुयोगान् न अङ्गीकुरुते प्रशस्त योग प्रतिपय प्राकृतत्वात् प्रतिपत्र प्रशस्तयोगाङ्गौलत सम्यग योगोऽनगारोऽनन्तघातिनः पर्यायान् क्षपयति अनन्तविषयतया अनन्तेशानदर्शनेहं तु विनाशयि तु
याएणं भते जीवे किंजण यडू । गरहणयाएण' अपुरकारं जणयडू । अपुरकार गएण जीवे अपसत्येहिंतो जोगे
हिंतो नियत्तेद पसत्य हिय पवत्त पसत्य जोग पडिबन्न यणं अण गार अणं तघाई पज्जवेखवेदू ७॥ सामाइएणं लोक आगे प्रकासतोयको जीव है पूज्यस्य उपार्जे अपुरस्कारो गौरवाध्यारोपोनतथा अपुरकारी अवज्ञास्पदन्त जनयति अपुरस्कार कहतां अवज्ञा 8 पामे हल आपण पाम स पुरस्कारगती जीव आपणी गरहाकरतु जीव अप्रशस्तेभ्यो कम्बंध हेतुभ्यी योगेभ्यो निवर्तते जिके अप्रशस्त मुंडा कमवंधना
हेतु इस्या जे योग तेहथोनिवत्त प्रशस्त योगास्तु प्रतिपद्यते भलायोगने अंगीकारकर प्रसस्तयोग प्रतिपनी अनगारी प्रशस्त भला योग प्राप्त हो अणगारयतौ ज्ञानावरणादि परिणामान् क्षपयति सानावरणौना परिणामखपावे ७ सायायिकेन हे भगवन् जौवः किं जनयति है पूज्यसामायक करत
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाम
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उल्टोका
घ.२८
८३१
शोल येषां ते अनन्तबातिनस्तान् पर्यवान् जानावरणादिकर्मणां पर्यवान् परिणति विशेषान् क्षपयति ७ आलोचनादौनि सामायिकबत एव भवन्तौति अतस्तत् प्रश्नोत्तर पूर्व फलमाह (सामाइएणभन्ते जौवे कि जणयडू सामाइएण सावज्जजोगविर' जण ८) हे भदन्तसामायिकेन समतारूपेण जोवः किं जनयति गुरुराह हे शिव सामायिकेन सावद्ययोग विरतिं जनयति कर्मबन्धकारणेभ्यः स पापमनो वाकाययोगभ्योविरतिं पशाब्रिवर्तन जनयति ८ अथ सामायिकवान् चतुर्वियात जिनस्तुतिं विधत्तं तत् कारकस्य फलं प्रश्न पूर्वमाह (चउवौसाथ एणभंते जीवकि जणयर चलवी सत्य एण दसणविसोहिं जणयइ ८) हे भदन्त हे खामिन् चतुर्विंशतिस्तवेनलोगस्म उज्जोयगरे इत्यादि पठनेन जौव: कि जनयति गुरुराह हे शिथ चतुर्विशति स्तवेनदर्थ नविशुद्धिं जनयति सम्यक्तनेमल्य करोति [वन्दणएणभन्ते जीवे कि जण वन्दणएण' नौयागीयं कश्मखवेद उच्चागोयं कम्म निबन्ध सोहम च अप्पडिहयं आणाफल निवत्त इदाहिण भावञ्च जणयडू १.] है भदन्त पूज्यवन्द नकेनगुरुणां हादशावत विधियन्दनेन जीवः किं जनयति
मंते जीवे किंजणायडू सामाईएण सावज्ज जोग विरडू जणय ८॥ चउवीसत्थएणभंते जीवे किंजण्यडू । चउवी
सत्यएण' दंसणविसोहिं जणयडू॥ वंदणएणभते जौवे किंजणयडू। बंदणएणं नीया गायं कम्म खवेदू उच्चा जीव किस्यु उपार्जी सामायिकेन सावद्ययोग विरतिं जनयति सामायक कौधे सायद्य पाए योगधी निवौं ८ चतुर्विधति सवैन है भगवन् जीवः किं जनयति है पूज्य चोवीसत्योकरती जीव किस्य उपार्जे चतुर्विशस्त वेन दर्शन विशुद्धि जनयति चोयीसत्यो लीगाउको अगर करती सम्यक निर्मल करे । वंदनेन है भगवन् जीवः किं जनयति है भगवन वंदनाकरतु जीव किसु उपार्जे वंदनेन नौचै गौत्र कर्म क्षपयति वंदना करत जीव साधुने नौच
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भार
भाषा
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.टौका घ.२८
३२
हे शिष्य श्रीगुरूणां वन्दनकेननोचैर्गोत्रं कर्मचपयति गुरूणां वन्द नकारोनोचैर्गोत्र न अवतरतीत्यर्थः पूर्वबह च चपयति उच्चैौन कर्मबनाति उनीव अवतरतीत्यर्थः पुनरुच्चैर्गोत्रे ऽवतोस सन् सौभाग्य सर्वलोकेषु वल्लभत्वं पुनरप्रतिहतं केनापि निबारयितु अशक्यं आज्ञाफल प्राज्ञासारं प्रभुत्वं निवर्स यति उत्यादयति च पुनर्दाक्षिण्य भावं सर्वलोकानां अनुकूलत्वं जनयति १० एतगुणोपयुक्त न साधुनाआदीश्वर महावीरयोस्तीर्थे प्रवर्तमाननऽवश्यं * प्रतिक्रमण कार्य अतस्त त्फलं प्रश्नपूर्वमाह (पडिक्कमणेण भंते जौवे किं जणयइ पडिक्कमणण वयच्छिद्दाइपहेइ पिहियुवय छिह पुणजीवनिरुदासवे अस बलचरिते अट्ठसुपवयणमायासु उवउत्ति अपुहत्ते सुप्पणि हि एविहरइ ११) हे भदन्त प्रतिक्रमणेन जीव: किं जनयति गुरुराह हे शिष्य प्रतिक्रमणेन अपराधेभ्यः पश्चान्त्रिवत नेन व्रतछिद्राणिपिदधाति व्रतानां प्राणाति पातविरमणदौनां छिद्राणि अतौचारान् स्थगयतिरुणद्विपिहित ब्रतकिट्रः सन् पुनर्जीवोनिरुहाथवो भवति निरुडा थवश्व पुनरशबलचारित्रोष्टसु प्रचनमाषु उपयुक्त: सन् स मिति गुप्तिषु सावधान: सन् अपृथक्त्वः संयमयोगेभ्यो
गोयंगिबंध सोहग्गंचण अपडिहयं आणाफलं निव्वत्ते दाहिणभावंचण जणय १०॥ पडिक्कमणे ण भते जौवे किंजणय पडिक्कमणण वयच्छिद्दाई पिहेदू पिहिय वय छिद्दे पुण जौवे निरुवासवे असबल चरितं अट्ठसु पव
जय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.२०४१मा भाग
भाषा
* गोत्र खपावे उच्च र्गोत्रं कर्मवनाति सोभाग्य सोभागीपण अपरं अप्रतिहतं हणाइ नही आज्ञाफलं निवर्त यति एहवी आज्ञानुफल उपार्जे लोकस्य
दाक्षिणं अनुकूलं जनयति लोकने अनुकूलभाव दाक्षिण्यपणू उपार्जे १० प्रतिक्रमणेन हे भगवन् जीवः किं जनयति पडिकमणु करतु जीव हे भगवन् * स्यु उपार्जे प्रतिक्रमणेन ब्रतानां प्रतीचारान् आच्छादयति पडिक्कमणु करतुथ की ब्रतना अतीचारने आच्छादपिहित व्रत छिद्रः पुनः वली व्रतना छिद्र
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उ०टौका ०२८
८३३
सूत्र
भाषा
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ऽभित्रः सन्तु प्रणिहितो विहरति सुप्रणिहितानि असन्मार्गात् निषेध्य सन्मार्गेव्यवस्थापितानीन्द्रियाणि येन स सुप्रणिहितेन्द्रियः सन्मार्ग प्रस्थापितेन्द्रियः साधुः स्वमार्गेविहरतौत्यर्थः ११ अवातोचारविशुध्यर्थं कायोत्सर्ग करोति तस्तत्फलं प्रश्न पूर्वकमाह (काउस्सा गंभंते जीवे किं जणयइकाउम्मम्मोणन्तो वपड़पत्र' वावत्ति विसाहेद्र विमुपायवित्तणं जोवेनिब्बुय हियए ओहरियभरुव्वभारवहे पसत्यमाणोवगएसुहं सुहेण विहरद्र १२) हे भदन्तकायोस अतौचारविशदार्थ' कायस्य त्र्युसकीनेन जीवः किं जनयति गुरुराह हे शिथकायोत्सर्गेण अतीतं चिरकालसम्भूतं प्रत्युत्पन्न आसनकाले वर्त्तमान' प्रायश्चित्तं' उपचारात् प्रायश्चित्तार्ह अतोचारं विशोधयत्यपनयति विशुद्धप्रायवित्तश्चजीवोनिहत्त' स्वस्थोकृतं हृदयं यस्य स नि तहृदयः प्रशस्त सद्भाव
यणमायासु उवउत्ते अपुहत सुप्पणिहिए बिहर ११ ॥ कामग्गणं भते जीवे किंजणयइ । काउग्गणंतीय पडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसाहेदू । विसुद्ध पायच्छित्ते य जीवे निव्वय हियए । ओहरिय भरुव्व भारवहे । पसत्यमाणो ढांक्याथकां जीव निरुडा श्रवो आश्रवरुद्धाथिका निर्मलचारोत्र: चारित्र निर्मलकरे अष्टसुप्रवचनमातृषु श्रष्टप्रवचन माताने विखे उपयुक्तः सावधानथको अपृथक् संयमवियोग रहितः सुष्ठु संयमे प्रणिधानवान् विहरत्यास्ति संयमपालतू विचरे ११ कायोत्सर्गेन हे भगवन् जीवः किं जनयति का उमाकरतु हे भगवन् जौवस्य्' उपा कायोत्सर्गेण अतीतं चिरकाल भावितया प्रत्युत्पन्नंच आसनकाल भवितेन प्रायश्चित्त अतोचारं विशोधयति श्रपनयति अतीत घणाकालना अतौचार प्रतिपन्न थोडा कालना अतौचार तेहने साधे दूरकरे विशुद्ध प्रायश्चित्तश्च जौवो निवृत्ति हृदयः स्वस्थोभवति विशुद्ध प्रायवित्त कौया थका जौव शुद्धिहोइ हिओ जेहनो स्वस्थहत्री अपहृत्यः भारव भारवाह जिम भारवाहक माथानोभार ऊतायो सुखोडवे स्वस्थ होइ प्रशस्त ध्यानोपपत्रः
१०५
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राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
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उल्टौका
नया उपगतः सुख सुखेन विहरति मुखानां परं परवाविचरतिकइव अपहत भारोभारवाह इव यथा उत्तरारितभारभरोभारवाहक सुख सुखेन विह रति तथा कायोत्सर्गण प्रायश्चित्त विशुद्धि विधाय स्वस्वीकृत हदयोजौवः मुखेन विचरतीति भावः १२ एव मपि शद्यमानेनप्रत्यास्थानं कार्य अतस्तत्फलं प्रश्न पूर्षकमाह [पञ्चक्वाण णम्भन्ते जोवे किं जणयह पञ्चक्खाणे ण पासवदाराई निरुभइ पञ्चक्खाणण' इच्छानिरोहं जण्या इच्छानिरीहगएवं जौवे सव्वद सु विणोयतन्हें सोयलभूए विहरइ १३) हे भदन्त प्रव्याख्यानेन मूलगुणोत्तर प्रत्याख्याने रूपेण जौवः किं जनयति गुरुराह है शिश्च प्रत्या* ख्यानेन आयवहाराषि निरुणदि अतिशयेन पावृणोति पत्र प्रत्यन्तरे कुत्रचित् अयं प्रश्नोस्ति के स्वामिन् प्रत्यास्थानन जीव: किं जनयति अवोत्तरं है शिश्च प्रत्याख्यानेन इच्छानिरोधं आहारादिवाञ्छायानिरोधं जनयति इच्छानिरोध प्राप्तो जीवः सर्वद्रव्येषु सुविनीत वृष्णोभवति सुतरां
वगए मुहं मुहण विहरडू १२॥ पच्चक्खाणणं भते जीवे किंजणयडू । पच्चक्खाणेणं पासवदाराई निरंभ पच्चक्खाखणं दूछानिरीहं जणयडू इच्छानिरोहंगएयण जौवे सबदचे सुविणीयतबह सौलम ए विहरडू १३ । थध
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं••४१मा भाग
भाषा
& सन् भलेध्यानर विखेप्राप्त होथकोसुख'यथास्थादेवं सुखेनविहरतिमुखेसमाधे वौचर के १२ प्रत्याख्याननं भगवनजीवः किं जनयतिपञ्चसायकर जीव के
भगवन् स्यु'उपार्जे पञ्च क्वाणप्रत्याख्यानमपशवाण करतु जीव आश्ववहाराणि निरुक्षतिः पाश्ववहार प्रत्यास्थानेन पञ्चक्यापरछावांच्छानिरीधंजनय तिइच्छानोनिरोधकरइच्छानोरोधंच गतो जीवः जौवारेमनठांम पाण्यु एजोवे तदासर्वव्ये घुविगतह वायोतीभूतोविहरति सर्वव्यने विश्वचारहित इअोषको विचरे १३ देवेंद्र स्तवनादिस्तुति मंगलेन हे भगवन् जौवः किं जनयति: ममुस्थ व स्तवनादिक मंगलकर जीवस्यु उपाने सुतिस्तवन मंग
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२८
अति ययेन विनोतास्फेटिता तृष्णायेन स सुविनौत तृष्णः अत्यन्तदूरोक्कत वृष्णः सन् सौतलोभूतो विहरति बाधाभ्यन्तर सन्तापरहितीविरचिति १३ १. टौका
प्रत्याख्यानान तरं चैवबदनाकार्या अतस्त त्फल प्रश्न पूर्वमाह [वयचड मङ्गलेणंभंते जोवे कि जणवइवयवर मजलेच नापदंसमचरित्तबोहि लाभ जपवर नागदंसह चरित बोहि लाभ सपने यजोवे अन्तकिरियं कप्पविमायोववत्तियं पाराहण पाराह १४] हे भदन्तस्त वः शक्रस्तवरूपः सुतिर्या उझैभूय कथन रूपा अथवा एकादि सप्तश्लोकान्ताः यावदष्टोत्तरशतश्लोका वायाः स्तुतियस्तवव सुतिस्तवौ तौ एव मङ्गलं भावमास रूपं स्तुति स्तव 8 मङ्गलन्ते न स्तुति स्तवमलेन जोवः किं जनयति स्तवस्तुति मङ्गलेनेति पाठस्तु पार्षत्वात् गुरुः प्रश्नोत्तरमाह हे शिवस्तवस्तुति मालेन जीवोधान
दर्शन चारित्र बोधिलाभं जनयति तत्र ज्ञानं मति श्रुतादि दर्शन क्षायिक सम्यक्त चारित्र विरति रूपं तद्रूप एव बोधिलाभोजैन धर्म प्राप्तिान * दर्शनचारित्र बोधिलाभस्त जनयति ज्ञानदर्श नचारित्र बोधिलाभं सम्पन्नश्च जीवः आराधना ज्ञानादौनां प्रासेवना आराधर्यात साधयति कौट्टयौं ।
धु मंगलेशं भते जीवे किंज गयडू । थपथई मंगलेणं नाणदंसण चरित्त बोहिलामजणायडू। नाणदसण चरित।
बोहिलाभ संपन्नेण जीबे अंतकिरीयं कप्पविमाणी ववत्तियं आराहणं पाराहदू १४ । कालपडिलेहणयाएणं भंते लेन चान दर्शनचारित्र रूपं बोधिलाभं जनयति न मुत्युणं स्तवनमंगलोक करतु ज्ञानदर्शन चारित्ररूपवोधि लाभ जपजावे जामदर्शनचारित्र बोधि * लाभ प्राप्तो जोवः ज्ञानदर्शन चारित्र वोधि लाभ प्राप्त हुआ थका जीव अतक्रिया मुक्त कल्पविमानोपपतिका पाराधनां आराधयति जीव अंतक्रियां
करत मुक्ति विमान नव वेबकनो आराधना पाराधे बैदे छहलोवार १४ काल प्रत्यपेक्षणया हे भगवन् जोवः किं जनयति: कासने बिचे जीव
राय धनपत सिंह बाहादुरका था •सं• उ.४१ मा भाग
भाषा
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१ टीका अ०२८ ८३६
आराधनां कल्पविमानोत्पत्तिका कल्पाच विमानानिचतेषु उत्पत्तिर्यस्याः साकल्पविमानोत्पत्तिकाता पुनः कोही आराधना अन्तक्रिया प्रसस्य संसारस्य कम्मणां वा अवसानस्य क्रिया अन्तक्रियातां एवं भूतां जानाद्याराधनां साधयति कल्पाः सौधर्मादयीदेवलोकाः विमानानि नवनवैयिक पञ्चानुत्तर विमानानि ज्ञानाद्याराधनया कश्चिद्धरतादिवत् दीर्घकालेन मुक्ति प्राप्नोति कश्चिहजसु कुमालवत् स्वल्पकालेनैव मुक्ति प्रापोतीति भावः १४ अर्हत्य वन्दनानन्तर' स्वाध्यायोविधेयः स च कालं दृष्ट्वा एव विधीयते अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वमाह (कालपडिलेहणयाएणभन्ने जौवे कि जणयइकालपडिले हणयाएणणाणावरणिज्ज कम्मखवेइ१५) हे भदन्तकालप्रतिलेखनयाकालस्य प्रादोषिक प्राभातिकादिकस्य प्रतिलेखना प्रत्युपेक्षा सिद्धांतोक्तविधिनासत्य प्ररूपणाग्रहण प्रतिजागरणासावधानत्वं कालप्रतिलेखनातया जीव: किं जनयति गुरुराह है शिष्यकाल प्रतिलेखनयाजीवो * ज्ञानावरणोयं कर्मक्षपयति कदाचिदल्यपाठ प्रायश्चित्तं कर्त्तव्य तदा प्रायश्चित्तकरण यत्फलं तदपि प्रश्न पूर्वमाह १५ (पायचित्तकरणंभंतेजोवे कि जण
यह पायच्चित्तकरणणं पावकम्मविसोहि जणयह निरइयाराविभविस्मइ सम्मं चणं पायचित्तं पडिषजमाणेमरगच्च ममाफलंच विसोहे पायारच पायार * फलं चाराहेइ १६) हे भदन्त प्रायश्चित्तकरणेन पापशुद्धि करणेन आलोचनादिकेन जीवः किं जनयति गुरुर्वदति है शिथ प्रायश्चित्तकरणेन पाप
जीवे किंज गयडू । कालपडिलहणयाएणनाणावरणिज्ज कम्म खवेडू १५ ॥ पायच्छित्तकरण' मते जीवे किंजण
AMIOKKARXKXXNXXRAKAKKARMA
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• २.४१मा भाम
पडिले हण करतुस्य उपार्ज काल प्रत्यपेक्षणया कालग्रहणरूपयाः कालवेलाई पडिलेहण करतो ज्ञानावरणीयं कम्म चपयति ज्ञानाबरणी कर्म खपावें १५ प्रायश्चित्त करणन हे भगवन् जीवः किं जनयति शुद्धमनै प्रायश्चित्त करत जीव हे भगवन्स्व उपार्जे प्रायश्चित्तकरणन पापकर्म विशहि
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उ० टोका
४ कर्मविशोधि जनयति ततश्चनिरतौचारोऽतौचाररहितोभवति सम्यक् प्रायश्चित्त प्रतिपद्यमानः सन् मार्ग सम्यक्त च पुनर्मार्गफलं मार्गस्य सम्यकस्य
फलं ज्ञानं तत् वियोधयति च पुनराचारं आराधयति आचार शब्देन चारित्र आराधयति पुनराचारस्य फलं मोक्षं आराधयति साधयति १६ प्रायश्चित्त यदा करोति तदाक्षामणां अपि करोत्ये व अतस्तत् फलं प्रश्न पूर्वमाइ (खमावणयाएणभन्ते जौवे किं जणयह खमावणयाएणं पढायणं भावं जणयइ पढायणभावमुवगए सव्वपाणभूय जीव सत्तेसु मित्तीभावं उप्याएइ मित्तीभाव मुवगएयावि जौवे भाव विसोहि काऊण निम्मए भवइ १७) 8 हे भदन्तक्षामणया दुःकतानन्तर क्षतव्यमिदं मम अपराधं पुनर्नकरिष्यामि एतादृशं इत्यादि रूपया जीव: किं जनयति गुरुराह हे शिष्यवामणया गुरोरये स्वदुःकतनिन्द नया प्रह्लादनभावं चित्तप्रसत्ति रूपं जनयति प्रसादनभावं उपगतोजीव: सर्वप्राण भूतजीवसत्वेषु प्राणाश्च भूताच जीवाश सत्वाच
यडू। पायचित्तकरणेण पावकम्म विसाहिंजणय निरईयारयावि भवडू। सम्म'चण पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे
मग्ग'च मग्गफलंच विसाहेदू आयारंच आयारफलंच आराहद१४॥खमावणयाएणं भले जौवे किंजणयडू खमा * जनयति पापं छिनत्ति प्रायश्चित्तने करवे करीने पापछेदे निरतौचारश्चापि अतौचार रहितोपि भवति अतौचार रहित होइ सम्यक् प्रायश्चित्तं प्रतिपद्य 8 मानः भलेप्रकारे प्रायश्चित्त लेतोधको ज्ञानार्थहेतुः ज्ञानोत्पत्तिरूपं विशोधयति मार्गफलं मार्ग कहां जाननी प्राक्ति सम्यक काहीजे तेहनौ सोधि निर्मलकर के प्राचारवारिचच तत् फलंच मुक्तिलक्षणं आराधयति आचार चारित्र तेहनु फल मुक्ति तेहने अाराधे १६ क्षमापनया दुक्ततानंतर क्षमितव्यं शुखमने खमावते जीवस्य उपार्जे क्षमावनया चित्तः प्रसत्तिभावं जनयति शहपरिणाम खमावता थका जीव उल्लासभाव कर उन्लासभावं
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.....मा भाग
भाषा
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14.
AIL
प्राणभूतजोवसत्वा सर्वे च ने प्राणभूतजीवसत्वाच सर्वप्राणभूतजीवसत्वास्तेषुमैत्रीभावं उत्पादयति मैत्रीभाव गतस्तु जीवीभावविशोधिकत्वा रागहष निवारण विधाय इहलोकादि सप्तभयानि निवार्यनिर्भयोभवति १० बामणाकारिणासाधुनास्वाध्यायः कर्तश्चः प्रतस्तत्फल प्रत्र पूर्वकमाह [समारण भंते जोवे कि जणय इसिकारण नाणावरणिज्ज कम्मखवेद १८] हे भदन्तस्वाध्यायेन पञ्चप्रकारेण जीवः किं जनयति गुरुराह हे शिश्च स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं कर्मक्षपयति १८ तत्र पञ्चविधस्य स्वाध्यायस्य पृथक् फलं प्रश्न पूर्वकमाह (वायणयाएम्भन्ते जीवे किं जण्यद सुयस्म अणासायणाए वन सुयस्म अणासायणाए वट्टमाणेतित्थ धम्म अवलम्बइतिस्थ धम्म अवलम्बमाणो महानिजरे महापज्जवसाभवइ १८) हे पूज्य वाच
वणयाएणं पल्हायणभावं जणयडू । पल्हायणभाव मुवगएय सब्बपाण मय जीवसत्तेसु मित्तीभाव उप्याएडू मित्ती भाव मुबगएयावि जीवेभाव विसोहिं काऊण निम्मए भवडू १७॥ सभाए भने नौबे किंजणयडू। समाए
नाणावरणिज्न कम्म खवे १८॥ वायणाएणं भतेजीव किंजणयडू । वायणाएवं निज्जरं जगायडू । सुयस्मय पणा उपगतः उल्लासभावं पुहतोथको सर्वप्राणभूत जौब सत्वेषु सर्वप्राणभूत जौव सत्व मैत्रीभावं उत्पादयति एतला जीवन मित्रीभाव उपाजे मैत्रीभावं उपगतः सन् मित्रोभाव पुतथको जोव रागद्वेष वर्जनं कृत्वा निर्भयः सप्तभय रहितो भवति जिवार जीव रागहेष वर्जे तिवारे भय रहित होर १७ स्वाध्यायेन हे भगवन् जोवः किं जनयतिः समाय करतुधको जीव हे भगवन् किस्यु उपार्जे स्वाध्यायेन धाना वरणीयं पंच कर्म क्षपयति मन्त्राय करतु जीव ज्ञानाबरणो कर्म खपावे १८ वाचनया हे भगवन् जीव किं जनयति वाचना देतोषको जौव हे भगवन् किस्य उपार्जे वाचनया कर्म
रायश्वनषतसिंह बाहादुर का भा०सं०.४१ मा भाग
भाषा
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उ० टीका
अ०२८
८३८
सूत्र
भाषा
RR
नया वाचयतोति वाचनापाठना तया जीवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य वाचनया सिद्धान्तवाचनेन निर्जराकर्मशाटनं जनयति तथा पुनः श्रुतस्य अनाशातनायां प्रवर्त्तते तत्र च प्रवर्त्त मानोजीवस्तीर्थोगणधरस्तस्य धः श्राचारः श्रुतप्रदानरूपस्तौर्थं धर्मस्तं श्रालम्बते ततस्तीर्थ धर्म अवलम्बमान स्वोर्थधर्मं आश्रयन् महानिर्जरोभवति महतोनिर्जरायस्य समहानिर्जरो महाकर्मविध्व' सकोभवति पुनर्महापर्यवसानः महत् प्रशस्म सुत्वर्वास्यापर्य बसानं अन्तः कर्मणोभवस्य वायस्य समहापर्यवसानश्च भवति मुक्ति भवतीतिहार्द १८) अथ गृहीतवाचनेन पुनः संशयादौ पुनः पृच्छन' प्रतिपृच्छति अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह (पडिपुच्छणयाएणंभन्ते जौवे किं जणय पडिषुच्छणयाएसंसुत्तत्य तदुभयाइ विसोहेद्र कंखामोहविका कन्म बुच्छिन्द२०) हे स्वामिन् प्रतिष्ठच्छनया पूर्वाधौतस्य स्वादेः पुनः प्रच्छनेन जीवः किं जनयति प्रतिप्रच्छनया स्वार्थ तदुभयानिविशोधयति स्वार्थयोः संशयं सायणयाए बट्ट सुयस्म अणासायणयाए बट्टमायेतित्य धम्म अवलंबद्र । तित्यधम्म अवलंब माणे महानिव्जरं महा पज्जवसाणे भवइ १६ ॥ पडिपुच्छणयाएणं भरते जीव किंजणय पडिपुच्छणयाएवं सुत्तत्य तदुभयाइ' विसाहेदू । निर्जरां जनयति वाचना देतीथको जीवकर्मनौर्जरावे तथा श्रुतस्य आगमस्य अनाशातनया वर्त्तते सिद्धांतनों घामातना न करे अनाशातनाव श्रुतस्य अनाशातनाया वर्त्तमानः सिद्धांतनी अनाशातनाने विखे वर्त्त तुथको तीर्थ' करो गणधरो वातस्य धर्मं अवलंबते तीर्थं करनो गणधरनो धर्म श्रव लंबे तो धर्म अवलंवमानः तौर्थ करनु धर्म अवलंवतुथको जीव महानिर्जराः कर्मणां अंतं करोति महा निर्जरा कर्मनो अंत करे १८ पूर्व पठितस्य स्वादेः पुनः २ पृच्छन' प्रतिपृच्छन पहिलां सूत्र भयो वली फिरौ पूछोजे ते प्रतिपृच्छनाकरतो जीवस्यु' उपार्जे प्रतिष्पृच्छनया पूछसोचको
************************* राब धनपतसिंह बाहादुर का भासं ० ४१मा भाग
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निवार्यनिर्मलत्वं विधत्ते तथाकांक्षामोहनीय कार्य व्य छिनत्ति कांक्षाशब्द न सन्देहः कांचयासन्दरः कांक्षयासन्दहेनमोहन' कांधामोहन' तब भवं कांक्षामोहनीयं एतत्कर्मविशेषेण अपनयति रदं इत्य तत्व अथवा इदं इत्य नास्ति वा इदं मम अध्ययनाय योग्यं वा इत्यादि घटनाकांचावाच्छातद्रूप मेव मोहनौयं कर्मअनभिग्रहिकमिथ्यात्वरुपं तत् विनाशयति २० अधौल्वपुन: सन्द हमपि पुन: प्रतिपृच्छतिनिराकत्यपरावर्तन' गुरुनं न क्रियते तदा सुष्टु, अधौतमपि शास्त्र विस्मरति अत: परावत नेन यत् फलं स्यात्तदपि प्रश्न पूर्वमाह [परि यहणयाएणभंते जौवे किं जश्या परियणयाएण वनणाइ जणयइ यन्त्रणलहिं च उप्याएइ २१) हे पूज्य है स्वामिन् परिवर्तनयाशास्त्रस्य गुणनेन जीवः किं जनयति गुरुराह है शिष्य परिवर्तनया जीवोव्यञ्जनानि अक्षराणि जनयति विस्म तान्यक्षराण्यानयति तथा विधकर्मचयोपथमात् व्यन्ननलब्धिं व्यचनसमुदाय रूपां पदलब्धि पदानुसारिणी लब्धि' जनयति २१ सूत्रवत् अर्थ स्यापि विस्मरण सम्भवात् सूत्रार्थयोश्चिन्तनं बिधेयं अतस्तत्फलमपि प्रश्नपूर्वमाह (अणये हाएणभको जीव किं जणय
राय धनपूतसिंह पाहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
कंखा मोहणिज्ज कम्म' वोच्छिंददू २०॥ परियट्टणयाएणं भते जीव किंजणयडू । परियठ्ठणयाएणं बंजणाई जण
यडू। वंजण लद्धिं च उप्पाए ॥२१॥ अणुप्पहाएणं मंते जीवे कि जणय। अणुष्पहारण आउयवज्जायो सच जीव सुत्रार्थ तदुभयानि विशोधयति निर्मलत्वं करोति सूत्र अर्थ सुद्द कर कांक्षा मोहनौयं कर्म मौथ्यात्वरूपं व्यवच्चिनत्ति कंखा मोहनौएकर्म छेदे संदेहटाले २० परिवत नया गुणनरूपया भगवन् जीवः किं जनयति सूत्र सिहांत गुणतुथको जीवस्य उपार्ज पविवर्तनेनया गुणवेकरौने व्यंजनान्य क्षराणि जनयति व्यंजन अक्षर उपार्जे अक्षरलब्धिच उत्पादयतीत्यर्थः अक्षरनौं लब्धि उपार्जिई ऊतावली गुष २१ अनुप्रेक्षया चिंतनिकया प्रकष्ट
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उन्टौका
८४१
अणुष्ये हारण आउयवज्जाबो सत्तकम्मपयडीओ धणियबन्धण बहाओ सिढिलबन्धण बहाअोपकर दोहकाठियाओरहम कालड्डिय इया ओपकरेइ तिवाणु भावाओमं दाण भावावोपकरेइ बहुप एसगाओ अप्पपएसगाओपकरेइ आउयं चणं कम्मसियबन्ध सियनोबन्धर असायावैयणिज्जच कम्म - नोभुज्जो २ उवचिणइ अणायंचणं अणवयमा दोहमद चाउरंत संसार कतारं खिप्पामेववौईवय २२) हे भदंतस्वामिन् अनुप्रेक्षया सूत्रार्थ चिन्तनिकया 8 जोवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य अनुप्रेक्षया कृत्वा जौवः सप्तकर्म प्रकृती नावर ण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय नाम गोत्रांतराय रूपाणां सप्तानां कम्मणां प्रकृतय एकयत चतु-पंचाशत् प्रमाणा: सप्तकम्न प्रकृतयस्ता सप्तकर्म प्रकृतौधणिय बंधनबहाः गाठबन्धनबहानिकाचिताबहाः शिथिल वन्धबहाः प्रकरोतियतीहि अनुप्रेक्षा स्वाध्यायविशेषः स तु मनम स्तत्रैव नियोजनाद्भवति सचानुप्रेक्षा स्वाध्यायोहि अभ्यन्तरन्तपः तपस्तु निकाचित
कम्म प्पयडीओ धणिय बंधण वडाओ सिथिल वंधण बद्धाओ पकरेड़ । दोहकालट्ठियाओरहस्म कालटियालो पक
रेडू। तिब्बाणभावाओ मंदाण भावाओ पकरडू। वह पएसग्गाओ अप्पपएमग्गायो पकरेडू । पाउयं चण कम्म शुभ भावहेतु तया जोवः किं जनयति अर्थ विचारतुबको जोवस्य उपार्जे अनुप्रेक्षया अर्थविचारतो थको आयुवर्जाः आयुः कर्मवीन सप्त कर्म प्रकृतयः सातकर्मनी प्रततिगांठ धनियत्ति गाठबंधनेबहाः गाळेबंधने करौ वांधे के ताः सिथिल बंधन बहाः प्रकरोति ते गांठि ढीलीकर अपरं दौ काल स्थितिकाः इखकालस्थितिका करोति घणाकालनीस्थिति पाणौ राखे घणीकालछेद अपर तौबानुबाभावाचतुः स्थानिक रसरूपा प्रती: मंदान भावाः प्रकरोति जे कर्म तौबभावे बांध्या ते मंदभावे करे बहकर्म प्रदेशान अल्पक प्रदेशागान करोति घणा प्रदेशहोइ कर्मनात घोडा प्रदेशकरे
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.३.४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका
अ०२८
८४२
सूत्र
भाषा
कर्मापि शिथिलीकर्तुं समर्थं भवत्येव कथंभूताः सप्तकर्म प्रकृती: आयुर्वज्र्जाः प्रकृष्टभाव हेतुत्वेन प्रायुर्वन यन्तोत्यायुर्वन्नः पुनर्हे शिष्य अनुप्रेक्षया कृत्वाजीवः स्ताएव कर्मप्रकृतो दीर्घकाल स्थितिकाः शुभाध्यवसाय योगात् स्थितिखण्डानां अपहारण हवकालस्थितिकाः प्रकरोति प्रचुरकालभो ग्यानि कर्माणि स्वल्पकालभोग्यानि करोति इत्यर्थः पुनस्तीवानुभावाः कम्मेपनतोर्मन्दानुभावा: प्रकरोति तौत्रः उत्कटोनुभावो रसोयासान्ता स्तोत्रानु भावाः इदृश्यः कर्मप्रकृतौर्मन्दो निर्बलोऽनुभावीया सान्ता मन्दानुभावा: प्रकरोति स्तादृश्यः प्रकर्षेण विदधाति पुनर्बहु प्रदेशाग्राः अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति बहुपदेशाग्र ं कर्म पुहलिक प्रमाणं या सान्ताः बहुप्रदेशाग्राः एतादृशीः कर्मप्रकृतौरल्प प्रदेशाग्राः प्रकरोति इत्यनेन अनुप्रेचयाऽशुभञ्चतु र्विधोषिबन्धः पुक्कतिबन्धः स्थितिबन्धोऽनुभागबन्धः प्रदेशबन्धः शुभत्वेन परिणमतोत्यर्थः अत्र च आयुर्वन्न मित्युक्त ं तत्तु एकस्मिन्भवे स. क्लदेव आंतर्मु हर्त्त काले एव आयुर्जीवो बध्नाति च पुनः आयुः कर्मापि स्यात् बध्नातिस्यान्नबध्नाति संसारमध्ये तिष्ठति चेत्तर्हि अशुभमायुर्नवन्नाति जीवन तृतीय भागादिशेषायुष्कं न आयुः कर्मबध्यते अन्यथा न बध्यते तेन श्रायुः कर्मबन्ध निश्चयोनोक्तः इत्यनेन मुक्ति' ब्रजति तदा आयुर्नबध्नातीत्युक्त' पुनरनुप्रेचया कृत्वा जौवोऽसातावेदनीयं की शारीरादि दुःखहेतु च कर्म च शब्दादन्याचाऽशुभ प्रकृतौनभूयोभूय उपचिनोति अन भूयो २ ग्रहणेन एवं ज्ञेयं कश्चिद्यतिः प्रमादस्थानके प्रमादं भजेत् तदाबनात्यपि इति हार्द पुनरनुप्रेचया कृत्वा जीवथातुरन्तसंसारकन्तारं चिप्रमेववीतोवयद्र इति व्यति
सिय बंध सियनो बधइ । अस्माया वेयगिज्ज' चण' कम्म' नो भुज्जो २ उवचिणाइ । अणाइयं चण' अणवदग्गं अपरं स्यात् कदाचित् आयुर्बु'नाति कदाचित् न वन्नाति किवारेके आयुः कम्मैबांधे किवारके नबांधे अशाता वेदनीयंच कर्मन भूयोर वनाति वेदनों कर्म
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रायधनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०ड० ४९ मा भाग
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प्र.२ ८४३
व्रजति चत्वारश्वतुर्गति लक्षणाअन्ताअवयवायस्य तत् चातुरन्त तदेव संसारकं तारं संसारारण्य तत् यौन मुझं चयति कौदृशं संसारारखं अनादिकं 8 आदेरभावात् आदिरहितं पुनः कोदृशं संसारकन्तारं अनवदन अनवत् अनागच्छन् अग्र परिमाणं यस्य तत् अनवदन अनन्तमित्यर्थ: प्रवाहापेक्षया x अनाद्यनन्त पुन: कोदृशं दो_ध्व' दौर्षकालं दोहमच इचत्रमकारोलाक्षणिकः प्राकृतत्वात् २२ एवं अभ्यस्त शास्त्रेण धर्मकथाकर्तव्या 8 ततो धर्म कथाकत्त: किं फलं स्थादतस्तत्फलमपि प्रश्न पूर्वमाह (धम्मकहाएणभन्ते जौवे किं जणयइ धम्मकहाएणं पवयणं पभावेद पवयणप्यभावरणं जौवे आगामिसस्मभहत्ताएकम्म' निबन्धइ २३) हे स्वामिन् धर्मकथया जीवः किं जनयति गुरुराहहे शिष्य धम्म कथयाधम्म व्याख्यानन जौव: प्रवचनं थोसिहान्त भगवदचनं प्रभावयति प्रकाशयति प्रवचन प्रभावक' सिहान्तीक्तदीपको जीवः आगमिष्यद्रतया उपलक्षितं कम्पनिबध्नाति
दौहमद्धं चाउरंत संसार कतारं खिप्यामेव वीईवय २२॥ धम्म कहाएण मंते जीव किं जणयडू । धम्म कहाण
पवयण पभावडू । पबयण पभावएण। जीब आगामिसम्म भद्दत्ताए कम्म निबंधडू २३ ॥ सुयस्म आराहणयाएण वारंवार न बांधे अनादिकं अनवदन'अनंत दौर्षीत्व जेहनी आदिनथौ अनेवली जेहनी अंत नथी चतुर्गतिक संसारका तारं क्षिप्रमेव व्यु तक्रमते चार गति रूप संसारकांतार अटवी ते खिप्र ऊतावलो अतिक्रमे २२ धम्म कथनरूप व्याख्याता भगवन् जीवः किं जनयति धमकथा कहतुथको जीवस्यु उपार्जे धर्म कथायाः निर्जरां जनयति धर्मनी कथाइ करी कर्मनी निर्जरा ऊपजावे प्रवचनं प्रभावयति सिद्धांतनी प्रभावनाकरे प्रवचन प्रभावनया जिन शासननो प्रभावनाइ करौने आगामिकाले भद्रतपाकर्म निवनानि पागलाभवने विखे भला कर्मबांधे २३ श्रुतस्याराधनया है भगवन् जीवः किं
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं १.४१मा भाग
भाषा
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टोका
14. OC
आगामिनिकालेभद्रत्वेन उपलचितं पर्यात शुभं कर्मसमुपार्जयतीति भावः पञ्चविधस्वाध्यायरतन श्रुतमाराधितं स्वादतस्सस्य फलं प्रश्नपूर्वकमात्र २३ [सयम पाराहणयाएणभन्ते जोवे किं जणयइस यस्म पाराहण्या एणं अवाणंखवेइ नयस किलिस्म इ २४) है भदन्त ऋतस्य पाराधनयाजीव: किं जनयति गुरुराह हे शिश्च श्रुतस्य आराधनया सम्यग पासव नया अन्नानं चपयति विशिष्टतखावबोधस्य अवाच पुनर्नसंक्ति म्यते रागद्देषजनितं केयं न भजतीति भावः २४ श्रुताराधना च एकाग्रमनः सनिवेशनावत एवस्थादतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वमाह (एगम्गमणसचिवेसणयाएणभंते जौवे किं जशयर एगा मणसचिवेसणयाएण चित्तनिरीहंजणय २५) हे भदन्त है स्वामिन् एक अग्रप्रस्तावात् शुभं आलम्बनं अस्वेत्येकाय' एकाच च तमनच एकाग्रमनस्तस्य सबिवेसनास्थापनातया एकायमन सनिवेशेनतया एकाग्रमनः सविवेशनयाशभावलम्बनेचित्तस्य स्थिरीकरणन जीवः किं फलं : जनयति गुरुराह के शिष्य एकाग्रमन सन्निवसनयाचित्तनिरोधं जनयति चित्तस्य इतस्तत उन्मार्गप्रस्थितस्य निरोधीनियन्त्रण' चित्तनिरोधस्त करोति
भंते जीवे कि जणयडू । सुयस्म आराहणयाएणं अन्नाणं खवे नय संकिलिस्म २४ ॥ एगग्गमण संनिवेसणयाएण भंते जीवे किं जणयडू। एगग्गमण संनिवेसणयाएणं चित्त निरोहं करे ॥ २५ ॥ संजमेणं भंते जीवे किं जणयडू।
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.२.४१मा भाय
जनयति रे भगवन् तनो आराधना करतु जीवस्य उपार्जे श्रुतस्य आराधनया श्रुत सिद्धांतनी आराधनाइ करौने अज्ञानं चपर्यात प्रजानने खपावे अपरं रागादिभिनक्लिस्यते वलो रागादिके करौ क्लेश न पाम २४ एगारमनः संनिवेशनया एकाग्रमन राखने करौने हे भगवन् जीवः किं जनयति हे भगवन् जीवस्य कम्मे उपाज एकाग्रमनः संनिवेशनया एकाग्रमन ठामि राखवे करीने चित्तनिरोध करीति उन्मार्गे जाती चित्तने रु २५
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१. टौका अ०२८
इति भावः एवं विधस्य साधोः संयमादेरिष्टफलस्त्र प्रापिदिति नियमात् तत् फलं प्रश्नपूर्वमाह [ सञ्जमेणभंतेजीवे कि जणयह सबमिण प्रशम्हयन जणयइ २६) हे भगवन् संयमेन जौवः किं जनयति गुरुराह संयमेन अनं हस्तं न विद्यते अंहपापं यस्मिन् तत् अनंहस्क तस्य भावोऽनं हस्क त्वं तज्जनयति संयमेन आश्रवनिरोध जनयति इत्यर्थः २६ संयमवान् साधुस्तपोनिरतः स्यात् अतस्त त्फलं प्रश्न पूर्वकमाह [तवेणभंतजौवे किं जयडू तवेणम्बोदाण जण यइ २७] हे भगवन् तपसाकृत्वाजौवः किं फलं जनयति गुरुराह हे शिष्यतपसाजौवो व्यवदानं जनयति पूर्वबहकर्मापगमनन विशेषेण शुदि जनयति २७ व्यवदानेन किं फलं स्यादतस्त त् फलं प्रशूपूर्वमाह [वोदाणेणभंते जौवे किं जायडू बोदारीण अकिरियं जणयह अकिरिया एभवित्ता तत्रोपच्छा सिनद बज्म मुच्चद् परिनिब्वायइ सव्वदुक्खाणमन्त करे २८] है भदन्तव्य पदानन जीवः किं जनयति गुरुराहयिष्य
संजमेणं अगन्हयन्नं जसायडू २६ ॥ तवेणं भंते जौवे किं जणयडू । तवेणं वोयाणं जणयडू २७ ॥ वोदाणेणं मंते जोवे
किं जणयडू बोयाणण'अकिरियं जणयडू । अकिरियाए भवित्ता तोपच्छा सिझदू बुज्म मुच्च परिनिव्वादू सव्व संयमन चारित्रे ण हे भगवन् जीवः किं जनयति है भगवन् चारित्रथको जीवस्युकर्म उपार्जे संयमैन पंचाव विरत्या वर्षमान कम्म रहितः त्वं जनयति संयमपालतु जीव पांच प्राथवरूंधे अनंहस्कत्व अविद्यमानकमत्व बाधादायक कम्मे नवांधे २६ तपसा है भगवन् जीवः किं जनयति तपकर जीवस्यु कर्मउपार्जे तपसा तपेकरोने व्यवदानं पूर्ववह कम्म क्षपयति तपकरौने पाछिलां वांध्या कम खपाव २७ व्यवदानन व्यु परतक्रियास्य शतधानं चतुर्थ भेद जनयति व्यवदान करौने शक्लध्यान उपार्ज व्यवदानन अक्रियां जनयति व्यवदाने करौने अकिरया जे शतध्यान ते चोधीपायी उपजाये पक्रियको
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.उ.४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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१ टौका
च्यपदानेन जीवोऽक्रियं जनयति न विद्यते क्रिया यस्मिन् स अक्रियस्त' अक्रियं व्यपरतक्रियाख्य शुक्ल ध्यानस्य चतुर्थ भेदंजनर्यात अक्रियकोभूत्वा व्यु परतक्रियाख्य शक्तधानावर्तीभूत्वा ततः पचात् सिद्धि ब्रजति बुध्य तिज्ञानदर्शनाभ्यां सम्यक वस्तु वेत्ताभवति मुच्यते मंसारात् मुक्तो भवति परि निर्वातिपरिसमन्तात् निर्वाति कर्माग्नि विध्याप्यशोतलोभवति सर्वदुक्खानां अन्त करोति २८ संयमादिषु सत्खपि सुखशातेन एव प्रवर्तनौयं * अतस्स त्फलमाह (सुहसाएणभंते जोवेकिं जण्यइ सहसाएणं अणुस्मुयत्तजण्यइ अणुस्मुएणं जौवेअनुकंपए अभडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्ज
कम खवेद २८] हे भदन्त हे स्वामिन् सुखस्यावेषयिकस्य भातः स्पृहानिवारणेन अपनयन सुखशातस्तै न जीवः किं जनयति गुरुराह है शिष्य सुखशातेन अनुत्सुकत्व' जनयति विषयसुखेनुत्तालत्वं जनयति अनुत्सकश्चजीवोऽनुकम्पते अग्रेतन जीवं दृष्ट्वा अनुकम्पकोदयावान् भवतीत्यर्थः पुनरनु
दक्खाण मंतं करे २८॥ मुहसाए भते जीवे किं जणयडू मुहसाएणं अणुस्मयत्व जणयडू। अणमएण जीवे
अणुकंपए अणुम्भडे विगयसागे चरित्त माणिज्जं कम्म खवेडू २६ ॥ अप्पडिबदयाएणं भते जौवे किंजग्णयइ । भूत्वा ततः पश्चात् अक्रियापणां पामेछे ततः पश्चात् तिवारकेडे सौद्यति सौझे बुधति बूझे मुच्यते मुकाइ परिनिर्वापयति सघला दुक्खनो अंतकर सर्वदुक्खाना अंतं करोति सर्वदुक्खनी नाय करे २८ सुखशातया हे भदंत: जौव: किं जनयति बिषय सुखनौ इच्छा निवारतु जीव हे पूज्यस्थो कर्म उपार्जे अनुत्सुकत्त्व विषयसुखं प्रतिनिस्पृहत्व जनयति विषयसुखने बिखे निस्पृहपण उपार्ज अनुम कत्वेन जौव: अजुम क पणे करी जीवः अनु। कंपः कंपरहित अनुहटः अनुल्वणो सन् विगतशोकः विधिने विखे अनुत्म क पण जीव दयापाले शोकरहित हुवे चारित्रमोहनौयं कम्म क्षपयति
राय धनपत सिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१मा भाग
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उ० टीका
अ०२८
८१७
सूत्र
भाषा
说说书岁
3
टोभिमानरहितः शृङ्गारादिशोभारहितः स्यात् पुनस्तादृथः सन् विगतशोकः इह लौकिक कार्यवशादावपि शोचन' न कुरुते पुनस्तादृशोमोचार्थी शुभाध्यवसायवर्त्ती कषायनोकषाय रूपचारित्रमोहनीय रूपं की चपयति २८ अथ सुख शातस्थितस्य चा प्रतिबद्धताभवति अतस्तत्फलं प्रशुपूर्व माह [अप्पडिबडया एण्भन्तेजोवेकिं जणय अप्पडिबडयाएण' निस्संगत जणयइनिस्सङ्गत व जौवेएगेएगम्गचित्ते दियायराजय असन्नाये अप्पडिवह विविहर ३० ] हे भदन्त अप्रति बदतयामन सिनिरभिष्वङ्गतया जीवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य अप्रति बद्दतयानिः सङ्गत्व बाह्यासङ्गाभाव जनयति निस्तं गत्व' गतोजीवः एकोरागादिरहितः स्यात् तादृशच एकाग्रचित्तोध एव दृढ मनस्कः स्यात् पुनर्दिवादिवसेरात्रौ वा प्रसज्जन् सदा बाह्य सङ्गन्त्यजन् अप्रति बडोविहरति मासकल्पेन उद्यतविहारणपर्यटतौति भावः ३० अप्रतिबद्धता च विविक्त शयनासनसेवकस्यस्यादतस्तत्फलमाह [विवित्तरायणा सण सेवण्याएवंभंते जौवेकि' जणयइ विचित्तरायणासण सेवण्याएण' जौवे चरितगुत्ति' जणय, चरित्तगुत्तणं जीवेविवित्ताहारदढचरित ए गन्तरएमोक्खभावेपडिवो अट्ठविहकमग 'ठिनिज्जरेद्र ३१) हे भदन्तविविक्तानि स्त्रीपशु पण्डकवर्जितानि शयनासनानि उपाश्रयस्थानानि यस्य स
अप्पडिवडयाएण' निस्संगतं जणय | निस्संगत गं जौबे एगे एगग्गचित्रे दियाय राओय असज्जमार्ण अपंडिव
चारित्र मोहनी कर्मने खपावे २८ अप्रतिबडया हे भगवन् जौवः किं जनयति अप्रतिवद्ध विहारकर थको जौव हे पूज्यस्युं कर्मउपार्जे अप्रतिवद्दया च प्रतिबंधरहीत जीव निम्म गत्वं जनयति निमगपण उपार्जे संगरहित होइ निग्रंथपणो उपजावे निःसंगत्वेन जीवः सगपणे रहित जीव एकः रागद्वेष रहितः एकाग्रचित्त एकलो रागदेष रहित दिवा वा रात्रौ वा दिवसे अथवा रात्रौ असंजन् संगत्याग करतुथको अप्रतिबद्ध तथा विह
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राय धनपतसिंह वाहादुरका आ. सं० उ०४१ मा भाग
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उ.टोका
अ०२८
८४६
विविक्त शयनाशनस्तस्य भावो विवक्त शयनासनतातया स्त्रीपशु पण्डकादिरहितस्थिति निवासत्वेन जीवः किं जनयति गुरुराहयिष्य विविक्ता शयना सनतयाजीवयरित्र गुप्ति चारित्रस्य रक्षाजनयति गुप्तचरित्रश्च जीवोविविक्तीविक्वत्यादि शरीर पुष्टि कारकवौर्यपादि कसरहित पाहारीयस्य सविविक्ताहारस्तादृशः स्यात् तथा दृढ निश्चल' चरित्र' यस्य सदृढ चरित्रः पुनरत एव एकान्त न निश्चयेनरक्त आसक्त एकान्तरतः संयमेन सावधानः स्थात् तथामीचभावन मनसा प्रतिपत्रः आथितीमीचोमयासाध्य इति बुद्धिमान् आपकवेणि प्रतिपद्याष्टविधकम्म अन्यि निर्जरयति चपर्यात ३१ विविक्तशयनाथनश विनिवर्त्त नावान् स्यात् प्रतोविनिवर्त नायाः फलमाह (विणिवट्टणयाएणभन्ते जौवे कि जणयह विणिवणयाएण पावाय
बद्धयावि विहरडू ३० ॥ विवित्त सयणासण सेवणयाएणं भते जीवे किंजणयडू । विवित्त सयणासण सेवमाया एणं चरित्त गुत्तिं जगायद चरित्त गुत्तेणं जौवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एग तरए मोक्ख भावपडिवन्ने अट्ट बिहकम्म गठि निजरे। ३१॥ विणिवट्टणयाएणं भते जौवे किंजणय विणिवट्ठणयाएण पावाण कम्माण अकरणयाए
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
* रति अप्रतिबद्धपण विहार कर संगरहितहोइ विविक्त सयनासन सेवनया हे भगवन् जीवः किं जनयति नियंजन एकांत उपाययसेवतु जीव * किस्य कर्मउपार्ज विविक्त शयनासन तया निरव्यजण आसण सेवतु जीव चारित्रगुप्ति जनयति चारित्रगुप्ति कर चारित्रगुप्तकरत जीव विविक्त स्त्री ४जनादि संगरहितो विहारी प्रतिवद्ध विहारी विविक्तप्रकारे अहारकर चारित्रने विखे दृढ एकांतरतःमोक्षभावं आश्रित : सन् एकांत मोक्षने
विखे मतिकोधोके अष्टविध कर्मग्रंथि निर्जरयति आठ कर्मनी गांठिनोर्ड ३१ विनिवर्तनया विषयपराहमुखी है भदंतजीवः किंजनयति विषयने
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कमाणं अकरणयाए अश्भुढेइ पुवबहाणयनिज्जरण्याएतं नियत्ते इ तोपच्छाचाउरन्तसंसारकन्तारं विई वयइ ३२) हे स्वामिन् विनिवर्तनयाविषयेभ्य उल्टौका
आत्मनः पराङ्मुखौभावन जौवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य विनिवर्त नया पापकर्मणां अकरणत्वेन सावद्यकर्मत्यागन अभ्युत्तिष्टते धर्माय सावधानी अ.२८ ८४८ भवति पूर्बबहानां पापकर्मणां निर्जरयानूतनपापकर्मणां अकरणत्वे न सावद्यकर्मत्यागेन अभ्युत्तिष्टते धर्माय सावधानो भवति पूर्व बहाना पापकर्मणां
अनुपादनेन तत् पापकर्मनिवर्त्त यति निवारयति ततः पश्चात् चातुरन्त संसारकान्तारं वौईवय व्यति ब्रजति व्युत्क्रामति इत्यर्थः ३२ विषयविनि 8 वृत्तश्चकश्चित्साधुः सम्भागप्रत्याख्यानवान् भवति अतस्तत्फलमाह [संभोगपञ्चक्खाणं भंते जीवे किं जणयइ सम्भोमपञ्चक्खाणणं आलम्बणाइखवेइ निरालम्ब
णस्मय आयतहियाजोगाभवन्ति सएणं लाभेणं सन्तुसइ परलाभत्रो आसाएइ नोतकेइ नोपौहे नोपत्थे इ नोअहिलसद् परस्मलाभं अणासाएमाणे अतक्के माणे अपस्थेमाणे अणभिलसमाणे दीचं सुहसिज्ज उवसम्म जित्ताण विहरडू २३] है भदन्त सम्भोग प्रत्याख्यानन एकमण्डल्या स्थित्वा आहारस्य करणं
अम्भ 8 इ पुचवड्वाणय निज्जरणयाए तंनियत इ तो पच्छा चाउरत संसार कतारंवी वय ३२॥ संभोग पच्चक्खा
णण भते जीवे किं जणयडू । संभोग पञ्चक्खाण ण आलंबणाई खवेद निरालंबणमय आयतठिया जोगा भवंति 8 बिखे पराङ्मुख यकोस्यु' कर्म उपार्जे विनिवर्त नया विषय सेवारहित पापकम्मणां पापकम्मने अकरणतया कर्मरहितोभ्यु तिष्टे व कर नही पापकर्म भाषा
हरहित होइ पूर्व वहानां निर्जरणया जे पाछिल्या कर्मांध्याछेते खपावे ततः पश्चात् चतुरंतः संसार कांतारं व्यतिव्रजति तिवार पछी चातुरत
संसार कतार नहनी पारपमि ३२ एक मंडली भोजनकरण प्रत्याख्यान हे भगवन जीवः किंजनयति पापणो आयो आहार करे मांडल मारि
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग
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७०टीका
ब.२८४
८५०
सम्भागस्तस्य प्रत्याख्यानेन उत्कृष्टत्वेन पृथक् आहारकरण नजीवः किं फलं जनयति तदागुरुराह है शिष्य सम्भोगप्रत्याख्यानेन आलम्बना क्षपयति यतोहं ग्लानीस्मिरीग्यस्मि इत्यादिकवनानि क्षपयति धीरोभवति इत्यर्थः निरालम्बनस्य च आयतार्थाः योगाभवन्ति पायती मोचः सएव अर्थः प्रयोजनं येषां ते आयतार्थाः एतादृशाये योगाः मनोवाकाययोगाः भवन्ति खेनलाभेन सन्तुष्थति परस्य लाभं न आस्वादयति नवाच्छयति ततश्च परस्य लाभत्री तर्कयति मां दास्यति मनमानविकल्पयति नीस्प हयति परलाभे श्रद्धालुतया स्वस्थ स्प हान्न प्रकटीकरीति पुन: परस्य लाभ न प्रार्थयति महादहीति नयाचते यत इदं पुनर्न अभिलपति परस्य लालसापूर्वकं नवाच्छति अथ परस्यलाभं अणासाएमाणे अनास्वादयन् अतर्कयन् अनौहमानः अप्रार्थमानः अनभिलषन् द्वितीयां सुखशयां उपसम्पद्यविहरति अपरेभ्यः साधुभ्यः पृथक उपाश्रयः अङ्गीकृत्य प्रवर्तते या शीस्थानाजी उक्तास्ति ता प्रतिपद्यविहरति अनहि
एतशब्दाः एकार्थाः प्रतिपादिताः तत् अनेकदेशीयशिष्याणां प्रतिबोधनार्थ पयायत्वं न प्रतिपादिताः३३ सभीग प्रत्याख्यानवतः साधीरुपधि प्रत्याख्यानं 8 सएणं लामणं संतुस्मडू । परलामंनो आसाएडूनातक इ नोपौहेदूनोपत्थे दूनोअभिलसडू। परस्मलाभप्रणासाएमाण
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा••• ४१मा भाग
* जिमे नही जूदो जौमे जौवस्थ कर्मउपार्जे संभोग प्रत्याख्यानेन एकमंडलौ पच्चक्वाणकरेजे जौवते आलंबनानि चपयति एकलो विहार करतुग्लानादिक
आलंवन खपावै निरालंबनस्य आत्मार्थकाः व्यापाराभवंति निरालंबन आलंबनरहित आत्माना अर्थ तेहना व्यापार इबै मनरहे स्वकेन लाभेन संतुथति आपणज लाभ संतोषकर परस्य लाभं न प्रासादयति परनी लाभनवांछे न तर्क यति न स्पृश्यति स्पृहा न करे न प्रार्थति न मांगनी अभिलिखतिवांछे नही परस्यलाभं अनाशयन् आशाविषयमकुर्वन् पारकु आण्य अनलेतुथको अणवांछतु थकी अतर्क यन् अस्पृहयन् मृहा अण
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८५१
सम्भवति अतस्त त् फल प्रश्नपूर्वमाह (उवहि पच्चक्खाणणंभन्ते जीव किं जपयइ उवहि पञ्चक्वाणेण अपलिमन्य जणइ निरुवहिएण जौवेनिकखे लवहि
8 मन्तरणनसंकिलिस्मइ ३४) हे भदन्त उपधि प्रत्याख्यानेनरजोहरणमुखवस्त्रिकापात्रादिव्यतिरिक्तस्य उपधेः प्रत्याख्यानन उपधित्यागेन जौवः कि उ टोका अ०२८४ उपार्जयति गुरुराह हे शिश्च उपधि प्रत्यास्थानन अपरिमन्य जनयति परिमन्यः स्वाध्यायव्याघातः नपरिमन्योऽपरिमन्थः स्वाध्यायादौ निरालस्य
जनयति पुनर्निरुपधिकोनि:परिग्रहोजौवो नि:कांचीभवति वस्त्रादौ अभिलाषरहितः स्थादित्यर्थः तादृशोहि उपधिमन्तरेण उपधिविनानसंक्लिश्यते लेणं न प्राप्नोति स परियही क्लमं प्राप्नोतीति भावः ३४ अथोपधि प्रत्याख्यानवान् साधुर्जिनकल्यादिः एषणीयाहारस्य अलाभेन उपवासं करोति आहारपत्याख्यान करोति तदा तत्फल मपि प्रश्चपूर्वमाह [पाहारपच्चकवाणणभंते जौवे किं जणय आहारपकवाणण जीवियासंसप्पभोग वोच्छिन्द
अतकमाणे अपीहेमाणे अपत्ये माण अणभिलसेमाणे दोच्चं सुहसज्ज उवसंपज्जित्ताण विहरदू ३३॥ उवहिपच्चक्खागणं भंते जीवे किंजणयडू उबहि पञ्चक्खाणण अपलिमंथं जणय निरुवहिएण जौवे निक्कख उवहि मंतरणय नसकिलि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
8 करतुधको अप्रार्थयन् अणमांगतुषको अनभि लिखयन् अभिलाख अणकरतुथको द्वितीयां मुखशिज्यां उपसंग्राह्य विरहति विजो सुखयोज्जा पडि 8 बर्जीने विचरे ३३ उपधि प्रत्याख्याने नरजाहरणादिधारण तया हे भदंतजौवः कि जनयति उपधिनो पञ्चक्वाण करे ओघामात्र राखे है भगवन्
जोवस्य कर्मउपार्ज उपधि प्रत्याख्यानन ऊपधिने पञ्चक्वाण धरमी पगरण मेथी पचखाणमयी वस्तुन्य नराखे अपरिमंथं स्वाध्यायादिनानि विघ्नरहित जनयति स्वाध्यायादिकनु निर्विघ्नपणु उपाजें निरूपधिको जीव: निरकांक्ष उपधिरहितो जीव वांछारहित होइ वस्त्रादि इच्छारहितः सन् न च
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४० टौका
श्र०.२८
८५२
सूत्र
भाषा
6803034
XXXXXXXX
जौवियास' सप्पओगं वोच्छिन्दित्ताजीवे आहारमन्तरेणनसङ्गिलिाइ ३५) हे भदन्त आहारस्य प्रत्याख्यानेन स दोषाहारत्यागेन उपवासादिनांजीब: किं फलं जनयति गुरुराह हे शिष्थ आहार प्रत्याख्यानेन जीवोजीविताशास स प्रयोगं व्यवच्छिनत्ति जीविते प्राणधारणे आशंसाअभिलाषस्तस्याः प्रयोगोव्यापारोजोविताशासंस प्रयोगस्तं व्यवच्छिनत्ति निवारयति जीविताशंसारहितो मुनिर्नक्ले शभाक् स्यात् इति भावः ३५ एतत् प्रत्याख्यानत्रयं अपि कषायाभावे एव फलवत्स्यात् अत स्तत्फलं प्रपूर्वक माह [कसायं पञ्चवक्वाणं भन्ते जीवे कि जणयइ कसाय पञ्चक्लाणेण बौयराय भावं जणयइ वोयराय भावं पडिवन्न्र यणं जौवे समसुहदुक्खे भवइ ३६] हे स्वामिन् कषाय प्रत्याख्यानेन जौवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य कषाय प्रत्याख्यानेन क्रोधमानमायालोभत्यागेन जीवोवीतरागभावं जनयति प्रतिपत्रवीतरागभावोजीवः समसुखदुक्खो भवति ३६ निःकषायोपि योगप्रत्यास्थान स्मइ ३४ ॥ आहारपञ्चक्खाणेण भ'ते जीवे किंज गयदू आहारपञ्चक्खाणेण जीवियासंसप्पओग वोच्छिदइ जीविया संसप्पओग' बोच्छि दित्ताजीवे आहारमंतरेणय नसं किलिम ३५ ॥ कसाय पञ्चक्खाणं भरते जीवे किं जणय | संक्लिस्यति वस्त्रादिकनौ इच्छारहित जौव क्लेश नपामे ३४ आहार प्रत्याख्यानेन हे भदंतजीव कि' जनयति आहारने पञ्चकखाणे हे भगवन् जीवस्य कर्मपा आहार प्रत्याख्यानेन आहारने पञ्चक्खाणे जोविता संसप्रयोगव्यच्छिनत्ति जिवितव्यनी आस्था कांडे जीवीता शंसप्रयोगं व्यच्छेद्य जीवितव्यनो आस्था कोडौने जीवः आहारमंतरेण न संक्लिस्यति जीव संसारमांहि फिरतु आहार विनाश क्लेश न पामे आहार घेणोनपाने ३५ कषाय प्रत्याख्यानेन हे भदंत जीवः किं जनयति कषायनोपञ्चकखाण करतु जीवस्य कर्मउपार्जे कषाय प्रत्याख्यानेन कषायने प्रत्याख्याने जीव वीतरागभावं जनयति वितराग
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रायधनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ० ४.१ मा भाग.
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अ०२८
८५३
8 वान् भवति अतस्त त् फलं प्रश्नपूर्वकमाह [जोगपशक्खाणेभंते जौवे कि जणयडू जोगपशवाणेण' अजीगतंजणयह अजीगौणं जीवनवं कम्यन
बन्ध पुचवई' निजरेइ ३०] हे भगवन् योग प्रत्याख्यानेन जीवः कि जनयति योगप्रत्याख्यानेन अयोगित्व' जनयति शैलेशोभावं भजति अयोगौहि जौवः चतुर्दशगुणस्थाने प्रवर्त्तमानोजीवोनवं कम्मनबध्नाति पूर्वबई कर्मनिर्जरयति क्षपयति इति भावः ३७ योग प्रत्याख्यानतः शरीर प्रत्याख्यानं करीति अतस्तत्फल प्रश्नपूर्वकमाह (सरौरपञ्चक्खाणणभंतेजौबे कि जणयइ सरौरपञ्च क्वाणसं सिद्धाइ सयगुणत्त निव्वत्तैइ सिद्धाइसय गुणसम्पन्ने यण जोवेलोगग्गमुवगए परमसुहौभव ३८) हे भगवन् शरीरप्रत्याख्यानेन शरीरव्यु त्सर्जनेन जीवः किं लाभं जनयति गुरुराह शरीर
कसाय पच्चक्खाणेणं वीयराग भावं जणयडू । वीयराग भाव पडिबन्नेवियणं जौवे सममुह दुक्खे भव ३६॥ जोगपच्च क्खाणण भतेजीवे किंजणयडू जोगपच्चक्खाणण अजोगत्तं जणय अजोगीण जौवे नवकम्म नबंध पुचबद्दनिज्ज
ज्जरडू ३७॥ सरीर पच्चक्खागोभते जौवे किजण सरीर पच्चक्खाणेणं सिद्धार्दू सय गुणत्त निव्वत्तेदू । सिद्धाइसय भाव उपार्जे वीतरागभाव प्रतिपन्नो जीव: वीतरागभाव पडवाथको सम सुखदुक्खेन भवति सुखे दुःखे सरिखी होवे २६ योगप्रत्याख्यानन हे भगवन् जीवः किं जनयति योगनुपञ्चक्वाणकरतु हे पूज्यजीवस्य कर्मउपार्जे योग प्रत्याख्यानेन मनोवाक्काय निरोधनयोगनिरोध मनवचनकायाने रुधवे करौने अयोगिख' जनयति अजोगीपण पाव अयोगीनः नवकम्मन वध्नाति अजोगीजीव नबुकम्मे न वांध पूर्ववड' कम्पनिर्जरयति पूर्वे वांध्या कमनौर्जराव३७ शरीर प्रत्याख्यानेन है भदंत जीवः किं जनयति शरीरनी पच्चखांणकरतु जौवस्थ कर्मउपार्जे शरीर प्रत्याख्यानेन शरीरनी पञ्चकवाणकरतुं सिहातिशय
राय धनपतसिंह वाहादुरका आ-सं० उ०४१ मा. भाग
भाषा
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९० टोका
अ०२८
८५४
सूत्र
भाषा
PROPR
प्रत्याख्यानेन सिद्धातिथयगुणत्त निर्वर्त्तयति कोर्थः सिद्धानां ये अतिशयगुणाः सर्वोत्कृष्ट गुणास्तेषां भावः सिद्धातिशयगुणत्व' यतीहि सिपाननीलाः नलोहिताः नहारिद्राः न शक्लाइत्यादय एकत्रिंशह, णास्तद्दत्वं प्राप्नोतीत्यर्थः प्राप्तसिद्धातिशय गुणोजीवो लोकाग्र' मोक्ष उपगतः सन् सुखीभवति यद्यपि योगप्रत्याख्यानेन शरौरप्रत्याख्यानः समागतः तथापि मनोवाक योग शरीरस्य प्राधान्यख्यापनार्थं पृथक् उपादान ३८ सम्भोगादिप्रत्याख्यानानि प्रायः साहाय्य प्रत्याख्यान युक्तस्य भवति अतस्तत्फलं प्रपूर्वमाह ( साहायपञ्चकवाणेण भते जीवे कि' जणयद सहायपञ्चक्खाणेण' एगौभावं जणयद्र एगौ भावभूण्यणं जीवेएगग्गभावेमाणे अप्पस हे अप्प अप्पकलहे, अप्पकसाए अप्पतु मतुमे संयमबहुले सम्बरबहुले समाहिए आवि भवइ २८ ) साहायाः साहाय्यकारिणः सङ्घाटकस्य साधवस्तेषां प्रत्याख्यानं साहाय्यप्रत्याख्यानं तेन साहाय्य प्रत्याख्यानेन हे भगवन् जीवः किं फलं जनयति गुरुराह
गुणसंपन्न यणं जीवे लोगग्ग मुवगए परम सुहीभवद्र ३८ ॥ सहाय पञ्चकखाणेण भने जौवे किं जणयइ । सहाय पञ्चवाणेणं एगौभावं अणयइ । एगौभाव भ एयणंजीवे एगमा भावे माणे अप्पसहे अप्पमंके अप्पकलहे अप्पक गुणभावं तत्क्षणेन निवर्त्तयति सिद्धनागुण अतिशय भाव उपार्जे सिद्धातिशय गुणसंपत्रो जौवः सिद्धनागुणपाम्यांथका लोकाग्र मुक्तिपद मुपगतः जीव मुक्तिजाइ परमसुखौ भवति परमसुखीहोवे ३८ सहाय कार्यत्यागेन हे भदंतः सहायनुपञ्चकवाण करतु जीवः किं जनयति जीवस्यु' कर्मउपार्ज सहाय प्रत्याख्यानेन एकीभावं जनयति सहायनु' पञ्चक्वाण करतु एकीभावपण उपार्जे एकीभाव भूतः एकत्व प्राप्तो जीवः एकीभाव हश्रोधको जीव एको आलंवनाभावो पपत्री अल्पशब्दी एकाको साधु अल्पशब्दहुवे थोडो वोले विकल्परहितः वचन कलह अल्पहवे अल्पकलहः थोड़ कलह अल्प कषायः
**************************** राय धनपतसिंह बाहादुर का आ ०सं० उ० ४ १ मा भाग
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उ. टीका अ०२८ ८५५
हे शिथ साहाय्य प्रत्याख्यानेन एकोभावं जनयति एकौभाव भूतश्च कत्व प्राप्तोजीवः एकाग्रं भावयन् एकावलं बनत्वं चाभ्यसन् अल्प शब्दः अल्पजल्पको * भवति अल्पझझो भवति अविद्यमानझझोऽविद्यमानवाक कलहोभवतिषु नरल्पकषायोभवति अल्पकलहोऽविद्यमानरोष शूचकवचनोभवति तथाल्य
तुम तुमोभवति अविद्यमानन्तु मन्तुम इति त्वत्व' इति वाक्य यस्य स अल्प तुम तुमः त्व एव एतत्कार्य कृतवान् त्वं एवए सदा अक्कत्यकारी वत्त से इत्यादि प्रलपनं न करोति पुनः साहाय्य प्रत्याख्यानेन सयमबहुलीभवति सयमः सप्तदशविधः स बहुलः प्रचुरोयस्य स सम्बरबहुलस्तादृशो भवति स च पुनः समाधि बहुलोभवति समाधिश्चित्तस्वास्थ्यन्ते न बहुलः समाधि बहुलः समाधि प्रधानभवति धुनः समाहितचापि, भवति ज्ञान दर्शनवांश्च भवतीत्यर्थः ३८ एवं विधः साधुरन्तेभक्त पत्याख्यानवान् स्यात् अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वमाह [भत्तपञ्चक्खाणणभन्ते जीवे कि जणयइ भत्तपच्चक्सा णण जोवे अणेगाइभवसहस्साई निरु भइ ४०] हे भदन्त भक्तपत्याख्यानेन आहारत्यागेनभक्त परिज्ञादिनाजीवः कि फलं जनयति गुरुराह हे शिष्य भक्त
साए अप्प तुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिएयावि भवडू ३६ ॥ भत्तपाणपच्चक्खाणेणं भंते जौवे कि जण यडू मत्तपच्चक्साणेणं अणेगाईभवसहरमाई निरुभइ ४०॥ सम्भाव पच्चक्खाणेणं भवेजीव किंजणयडू । सम्भाव
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.उ. ४१ मा भाग
भाषा
कषाय अल्प हवे अल्पतुमंतुम तुकार रहित संजम बहलः संजमवधे संवरबहलः संवरबधे समाधि बहलः समाधिवधे समाधिना बालश्चापि बहुल समाधिना भवति समाधि घणौ होवे ३८ भक्त प्रत्याख्यानन हे भदंत जौवः किं जनयति भातनो पच्चक्वाण करतु जीव हे पूज्य स्यु कर्म उपार्जे भक्त प्रत्याख्यानेन भातने पच्चक्वाण अनेकानिभव सहस्त्राणि निरुणद्विरुधे ४० सद्भाव प्रत्याख्यानेन हे भदंत: जीवः किं जनयति सद्भावनोध्यानने विखे एक
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उ.टोका
प्रत्याख्यानेन जौवोऽनेकानि भवसहवाणि निरुणद्दि ५० अथ सर्वपत्याख्यान प्रधान सद्भावपत्याख्यानं अतस्त स्य फलप्रश्नपूर्वकमाह सम्भाव पच्चक्वाणेश भंते जौवे किं जणयह सम्भायपच्च क्वाण अणियविजणय अणियट्टि पडिवबे य अणगारेचत्तारिकश्यंसेखवेइ तं जहा वेयणिज्जाउचर नामं३ गोयं ४ तोपच्छासिज्मइ बुज्काइ मुच्चइ परिनिब्बाएइ सञ्चदुक्खाणमंतंकरेइ ४१ हे भगवन् सद्भावेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं तेन सद्भावपत्याख्यानेन सर्वथा पुनः करणस्यअसम्भवात् ईदृशेन विधिनापत्याख्यानं करोति यथापुन:करणीयं नस्यात्इत्यनेन सर्वप्रकारेणशैलेसीकरण चतुर्दशगुणस्थाने वर्तनेन जौवः किजनयतिगुरुराह हेशियसद्भावपत्याख्यानेन अनिवृत्तिजनयति शुक्लध्यानस्य चतुर्थ भेदं जनयतिअनिवृत्ति प्रतिपन्न पतिपत्रानिवृत्तिरनगारश्चत्वारिकेव लिनःकर्मा शानिसन्तिकर्माणि भवोपग्राहीणिक्षपयतिअंशशब्दः सत्पर्यायोविद्यमानकर्माणि क्षपति तानिकानि चत्वारिकर्माणि तद्यथा वेदनीय कम्मर
पच्चक्खाणण अणियट्ठिजणयडू अणियट्टि पडिवन्नेय अणगारे चत्तारि केबलि कम्म से खवंदू तंजहा वैयणिज्ज आउयं नाम गोयं तो पच्छा सिझदू बुज्मद मुच्च परिनिव्वाएड्। सब्ब दुक्खाण अंतं करे ॥४१॥ पडिरूवया
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं• २०४१मा भाग
भाषा
चित्त राखे सद्भाव प्रत्याख्यानन खोटा स्वभावनी प्रचक्वाण करतु अनिवृत्ति जनयति अतिहत्ति पण पाम शक्लध्याननी चोधीपायो उपजावे शक्लध्यानस्य तुर्यभेद अनिवृत्ति प्रपत्रीनगार चतुरः केवलकर्मान् स्वकर्माणि क्षपयति शक्लध्याननो चीथीभेद प्राप्तइयो केवली चार कम्म खपावे नद्यथा ते कहेछे वेदनौयं वेदनौकम्म १ आयुकम्म २ नामकम्म ३ गोत्रकम्म ४ एतानि क्षपयित्वा ततः पश्चात् सियति बुयति मुच्चे परिनिहतः सर्वदुःखाना मंतं करोति एच्चारकम् खपावीने पर सौझे मुकाये सर्वदुक्खनी अंत करे एच्चार कम्म ४१ स्थविर कल्पिकादिसदृश्शवेष प्ररुपति रूप तया अधिकोष
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उ०टोका
अ०२८
८५७
सूत्र
भाषा
लहु
आयुः की २ नामक ३ गोत्रका ४ एतेषां चतुर्णां अपि कर्मणां चयं कृत्वा ततः पश्चात् सिध्यति सकलार्थ साधयित्वासिद्धोभवति ततो बुध्यति तत्वोभवति मुचते कर्मभ्यो मुक्तो भवति परिनिर्वाति परिसमन्तात् कर्मतापाभावात् शीतलोभवति पुनः सर्वदुःखानां अन्तं करोति ४१ एतत् प्रत्याख्यानं प्रायसी प्रतिरूपतायां एवस्यात् अतः प्रतिरुपतायाः फलमाह [पडिरुवया एवं भंते जौवे किंजण्यद्र पडिरूवयाएण' लाघवं जणय भूरण' जौवे अप्पमत्ते पागडलिङ्ग पसत्यलिङ्ग विसुतसमत्त सत्तसमिति सम्मत्त सव्वपाणभूय जीवसत्ते सुबोस सणिकारुवे अप्पपडिलेहे जिइन्दिए विपुल तव समिति समत्रागए आविविहरइ ४२ ] हे भगवन् प्रतिरूप तथा जीवः किंफलं जनयति प्रतिरूपतायाः कीर्थः प्रति इति स्यविरकल्पि सदृशं रूपं यस्य स प्रतिरूपः तस्यभावः प्रतिरुपता तथा स्थविरकल्पि साधुवेषधारित्व न जीवः किंजनयति गुरुराह हे शिष्य पुतिरूप तया जीवों लघुत्व' जनयति श्रधिकोपधित्यागेन लघुत्वं उपार्जयतीत्यर्थः द्रव्यतः उपध्यादिपरिग्रहत्यागेन भावतस्तु पुतिबद्ध बिहारत्वेन लघुर्भवति लघुभूत
एण'भ'ते जोवळे कि'जणयइ पडिरुवयाएण' लाघवियंज गयइ । लहुम्भ एजीवेअप्प मत्ते पागडलिंगेपसत्य लिंगेविसुद्ध सम्मत्ते सत्त समिद्र सम्मत् सव्वपाण भयजीवसत्तम वौसमणिज्ज रुवे अप्पडिलेहे जिदिए विउल तव समि गरणत्यागेन जीवः किं जनयति स्थविरकल्पो चौदोपगरण राखतुथको जौव स्यु' कर्मउपार्जे प्रतिरूप तथा लाघवी भावं जनयति साधुने आचार रहतुथको लघूभूतो जोवः हलूओ हओ जीव अप्रमत्तः स्थविरकल्पादि वेशेन पुगट लिंग: रंजोहरणादिवान् श्रप्रमत्तथको स्थविरनो लिंग रजाहरणादि वा लिंग पुगट राखे पुशस्तलिंगः इंद्रादिकने पूजवाजीग्य विसूह सम्यक्त परिपूर्णः समिति शुद्ध परिपूर्ण सम्यक्तसहित सत्ववलो साहस अने समति प
1
१०८
************************************* दाय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०ड० ४१मा भाग
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अ०२८
८५८
उ टोका: जौवो अप्रमत्तोभवति तादृशः प्रकटलिङ्गः प्रकटस्थविरकल्पादिवेषेण स्फुटं लिङ्ग चिहं यस्य स प्रकटलिङ्गः पुनः प्रशस्तलिङ्गः प्रशस्तं समीचीनं रजीहरण
मुखपोतिकादिक यस्य स प्रशस्तलिङ्गः पुनर्विशुद्धसम्यक्तीनिमलसम्यक्त: पुनः सत्वसमिति समाप्तः सत्वं च समितयश्च सत्वसमितयस्ताभिः समावः संपूर्णोधैर्यसमिति युक्त इत्यर्थः ततः पुनः सर्वप्राणभूतजीवसत्वेषु विश्वसनीयः विश्वासयोग्यो भवति पुनस्तादृशोऽत्य प्रतिलेखः प्रतिलेखन प्रतिलेखः अल्पः प्रतिलेखो यस्य सोऽल्य प्रतिलेखः अल्पोपकरणत्वात् अल्पप्रतिलेखनावान् भवतीत्यर्थः पुनः स जितेन्द्रियोभवति पुनर्विपुलतपः स मिति समन्वागत चापि विहरति विपुलानिविस्तोर्णनि तपांसि समितयश्च विपुलतपः समितयस्ताभिरन्वागतः सहितः सन् विहरति हादशविधेन तपसासमिति
गुप्ति सहितोभूत्वाग्रामनगरादौ विचरति ४२ प्रतिरूपतायां अपि वैया वृत्त्व' कर्तव्य' अतस्तत्फलं आह (वेया वच्चे णभंतेजीवे कि' जणयडू वेयावच्चे 8 णन्तित्थयरनामगोयं कम्मं निबन्ध इ ४३) हे भगवन् वैया वृत्त्येन आहारादि साहाये नजीवः कि जनयति तदा गुरुराह है शिष्य वैयावत्येनतीर्थकर
नामगोत्र' कर्म निबध्नाति वैयावृत्त्य कुर्वन् तीर्थकरनामगोत्र कर्मबध्नाति इत्यर्थः ४३ अथ वैयावत्यवान् सर्वगुणभाक स्यात् अतः सर्वगुणसम्पबतायाः
XXXRKARAXXXXXXRXXXKOMXXX
.राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१मा भाषा
भाषा
समन्नागण्यावि भवडू ४२॥ वेयावच्च ण म जौवे किंजणयडू वेयावच्चेणं तित्ययरनामगोयं कम्म निबंधडू ४३ ॥ पूर्व धरे सर्वपाणभूतजीवसवेषु सर्वपाणभूत जौवने विश्वसनीयरूप: विश्वासनो स्थान कहोइ अल्पोपधित्वात् उपगरण थोडाराखे तेथे पडिलेहण बोडोकर जितेंद्रिय इंट्रोजौत्योछे विपुलतपः समिति सत्वागतो युक्तः स्यात् विहरति विस्तीर्स तपकर पांच समिति सहितयको विचरे ४२ वैया वृत्त्येन हे भदंत: जीवः किं जनयति वेयावच्चनो करणहार जीवस्य कर्मउपार्जे वैयावृत्तं न वेयावचे करौने तीर्थ करनाम गोत्रं कश्मनि वनाति वेयावच्च
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उ टोका
फलं प्रश्नपूर्वकमाह (सब्बगुणसम्पबयाएणंभंतेजोवे किं जणयह सब्बगुणसम्पबयाएण अपुणरावत्तिजणय अपुणरावत्ति पत्तएयण जौवे सारीरमाणसाणं दुक्खाण नोभागीभवइ ४४ ) हे भदन्तस्वामिन् सर्वगुणसम्पव्रतयाजौवः किं जनयति सर्वे च ते गुणाव सर्वगुणाः ज्ञानदर्शनचारित्रादयस्तैः सम्यग्रता सहितत्वं सर्च गुणसम्पन्नतातया सर्वगुणसम्प बतातया सर्वगुणसम्पन्नतया किं फलं उत्पादयति गुरुराह हे शिश्च सर्वगुणसम्मवतयाजौवोऽपुनरावत्ति जनयति मुक्ति उपाज बति अपुनरावृत्ति प्राप्तोजीवः प्राप्ता अपुनरावृत्ति प्राप्तमोक्षीजीवः शरीरमानसानां दुक्खाना विभागौनोभवति४४ सर्वगुण सम्पन्न तयावीतरागोभवति अतस्तत्फल प्रश्नपूर्वकमाह (वौयराययाएणभंते जोवे किंजणयडू वीयराययाएणनेहाणबन्धणाणिय तणहाणुबन्धणाणिय बोच्छिन्द मणु वामण ने सुसहफरिसरसरूवगन्धेसु चेव विरजइ ४५) है भगवन् वीतरागतयाजौकः कि जनयति वौतोगतोरागोयस्मात्सवीतरागस्तस्य भावीवीत
सब्बगुण संपन्नयाएणं भ'ते जीवे किंजणयडू सव्वगुण संपन्नयाएण अपुणरावत्ति यंजणयडू । अपुणरावत्ति पत्तएयण * . जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाण' नी भागीभवडू ४४ ॥ वीयरागयाएणभते जीवे किंजणय वीयरागयाएण.
करतु तीर्थ कर नाम गोत्र कम्म वांधे ४३ सर्वगुणसंपन्न तया हे भदंत हे पूज्यजिको जौक सर्वगुणेकरी संपूर्ण होत ते जौव भगवन् स्यु' कर्मउपार्जे सर्वगुण संपवतया सर्वगुणेकरो संपूर्णताइ अपुनरावृत्ति मुक्ति जनयति अपुणरावृत्ति मुक्तिप्राप्तिहोइ अपुनरावृत्तिं प्राप्तो जीवः शारौर मानसानां रोगादिवां मानसानां दुक्खानां न भोक्ता भवति शरीरनारोग मननादुःख तेहनी भोगवणहार न हुवे ४४ वीतरागया रागद्देष रहित रुपया है भदंत जौवः किं जनबति रागद्देष रहित हे पूज्य जौवस्थ कर्मउपार्जे वीतरागतया वीतरागपणे से हानुबंधनानि स्नेहनाबंधण तृष्णानुबंधनादौनि निराकरोति मननौ
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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8. टौका रागतातयावीतरागतयारागद्देषाभावेन किं फलं जनयति गुरुराह हेशिश्च वीतरागतयात्रेहाउनुबन्धनानि स्नेहस्य अनुकूलानिबन्धनानि पुनमिनकलना
* दिष प्रेमपायान् तथाणानुबन्धनानिद्रव्यादिषुपायापायान्व्यवछिवत्ति विशेषेणवीटयति पुनर्मनीज्ञेषु मनोहरेषचपुन:अमने घुमनोहरेषु शब्दस्पर्शरस * रूपगन्धेभ्योविरज्यतेविषयेभ्योविरक्तीभवतीति भावः४५ वीतरागतायुक्तस्तु श्रामण्य संयुक्तोभवति श्रामण्यधर्मेचक्षान्तिरेव आद्याअतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह
(खन्तिएणभंते जौवे किं जणयइ खन्तिएण' परोसहेजिणयइ ४६) हे भगवन् चान्त्याक्षमयाकत्वाजौवः किं फलं जनयति तदा गुरुराह है शिष्यक्षमया परोषहान् जयति ४६ अथ पुनः चमावान् मुक्ति युक्तीभवतीति निर्लोभौभवति अतस्तत्फलं प्रश्न पूर्वकमाह (मुत्तौएणभंतेजोवे किं जणयइ मुत्तौएण
अकिञ्चणंजणयह अकिञ्चणणजोवे अस्थलोभाणं पुरिसाणं अप्पत्थणिज्जे भवद् ४७) हे भगवन् मुक्त्यानिलौभत्वे नजीवः किं जनयतिशुरुराह है शिथ मुक्त्या * अकिञ्चनत्व निःपरिग्रहत्व उत्पादयति अकिञ्चनत्वे नजीवोऽर्थलोभाना अप्रार्थनीयोभवति कोर्थ: योऽकिञ्चनोनिः परिग्रहो भवति स पुरुषोऽर्थेलोभी
नेहाणुव'धणाणिय तन्हाणु वंधणाणिय वोच्छिंदह मणुन्ना मणुन्नेसु सद्दफरिस रसरूव गधेसु चेव विरज्जडू ४५॥
खंतीएणभते जौवे किंजणयडू खंतीएण परीसहे जणयडू ४६ ॥ मुत्तीएणभंतजीवे किंजणयडू । मुत्तौएण' अकि * वृणानिराकर दूरिकर मनोज्ञामनोज्ञेषु भला भूडा शब्द १ भलासब्द स्पर्शफरस २ रस ३ रूप ४ गंधेषु गंधने विखे ५ विरक्ती भवति रोगरहित
होइ ४५ क्षात्या हे भदंतजोवः किं जनयति क्षमाकरतु जीव हे भगवन् स्यु कर्म उपार्जे क्षात्वापरिखहादिन् जयति क्षमाई करौने परिसहजीते ४६ निर्लोभतया हे भदंतजीवः किं जनयति निर्लोभपणे जीव किस्य कर्म उपार्ज मुक्तौनिर्लोभपणे अकिंचनतां जनयति अकिंचन पण पाम अकिंचनी जीवः
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ.४१ मा भाग
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उ० टौका अ०२८
८६१
सूत्र
भाषा
येषां तेऽर्थलोभाः द्रव्यार्थिनश्चौरादयः पुरुषास्तेषां श्रप्रार्थनीयस्तैरवाञ्छनीयश्चौरादयोहि निपरिग्रह किं कुर्व्वन्ति परिग्रहवतां चौरभ्योभौतिः स्यात् ४७ लोभेसतिमायास्यात् लोभाऽभावे मायाऽभावः मायायाः श्रभावे आर्जवं सरलत्व' स्यात् अतस्तत्फलं प्रश्न पूर्वकमाह (अज्जवयाएण'भंतेजीवे किं जणयत्र अज्जवयाएण' काउज्जयं भाबुज्ज यययं भासज्ज, ययं अविसम्बाद' जणय अविसम्बादणसम्पत्रेण' जौवेधम्मस्मत्रराहए भवर ४८ ] हे भदन्त आर्जवेनमाया परिहारेणजोवः किं फलं जणयति ऋजोर्भावः आर्जवन्त न किं फलमुत्पादयति तदा गुरुराह हे शिष्य आर्जवेन कायर्जु कतांभावर्जु कताभाषर्ज कतां विसम्बादनां जनयति ऋजुरेवऋजुकः कायेन ऋजुकः कायर्जु कस्तस्य भावः कायर्जु कतावक्रशरीरम्भ्रूविकारादिरहितत्वे न सरलतामुत्पादयति एवं भावश्चित्ताभिप्रायस्तस्य ऋजुताभावर्जु कतातां भावज कतां चित्तसरलतां उत्पादयति पुनर्भाषायाः वचनस्य ऋजुताभाषर्जु कतां वचनसरलत्व' उत्पादयति पुनरवि सम्बादन परजोवानां अवंचनत्वं जनयति प्राप्ताऽविसम्बादः कायेनवाचां मनसासंप्राप्ताऽविसम्बादः परवच्चकतारहितोजोवो धर्मस्य चणं जणयद्र । अकिंचणेय जौवे अत्य लोलाणंपुरिसायं अपत्यणिज्जे भवइ ४७॥ अज्जवयाएणं भंते नौवे किंजणयदू अज्जवय एवं काउज्जययं भावुज्जययं भासुज्जययं । अविसंवायांजणय अविसं वायण संपन्नएयणं जीवे धम्मम्म अकिंचन अर्थरहित जोव अर्थ लोभादौनां चौरादीनां अर्थनालोभी चौरादिक पुरुषानां अप्रार्थनौयो अनभिलिखनीयो भवति पुरुषाने अप्रार्थनोक अभि लिखणोकहो ४७ आर्जवेन हे भदंतजीव: कि' जनयति सरलपणेजीव हे पूज्य किस्यु कर्मउपाजे आर्जत्वेन सरलपणेकरोने कार्य प्रांजलिपुटं कायानो सरलपणो भाषा सरलतां भाषानुं सरलपण भावार्जकतां अनेभावनु सरलपण' अविसंवादनं पर विप्रतारणं वर्जनं जनयति आगल्याने विप्रतारे
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राय धनपतसिंह वाहादुरका आ०सं००४१ मा भाग
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४० टोका
अ०२८
८६२
सूत्र
भाषा
वीतरागधर्मस्याराधकोभवति ४८ एवं आर्जवगुणयुक्त नमार्दवं विधेयं अतोमार्दवफलं प्रश्नपूर्वकमाह मार्दवं हि मानत्यागरूपं तत्त ु विनयस्य कारण' धर्मेंहि विनयस्य प्राधान्य' [महवयाएण' भन्ते जौवे कि' जण्यइ महवयाएण जौवे अणस्त्रियत्त' जणय अणुस्सियत्तण' जोवेमि महवसम्पत्रे अमय ट्ठाणाइनिट्ठवेइ ४८] हे स्वामिन् मार्दवेनकोमलपरिणामेनजीवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्य मार्दवेनमानपरिहारेणजीवः अनुत्सृतत्व' अनहं कारित्व' अहङ्कङ्काराभावं जनयति अनुत्सृतत्वं न अहङ्काराभावेन जौवोन्नृदुः कोमलः सकलभञ्यजनमनसन्तोषहेतु त्वात् द्रव्यतोभावतश्च सरलोऽवनमन शौलः मृदोर्भावोमार्दव ं मृदुगुणमार्दवगुणयोरयंभेदः अवसर अवनमनं मृदुगुणः यत्सर्वदाकोमलत्वभवनं तत् मार्दवं यहाकायेन मानत्यागोम्मृदुगुणः मनसामानपरिहारोमार्दवं ताभ्यां सम्पन्न्रोभवति संयुक्तोभवति तादृशः सन् अष्टौमदस्थानानि निष्टापयतिचपयति ४८ एतत् प्रायः सत्यसंस्थितस्य
आराहए भवइ ४८ ॥ महवयाएणं भंते जीवे किंजणयइ महवयाएण' जीवे अणुमियत्तं जणय अणुमियत्तेण' जौबे मिउमद्दव संपन्ने अट्ठमयट्ठाणाइ निट्टबेदू ४८ ॥ भावसच्चे गं भ'ते जीवे किंजणय भाव सच णं भावविसोहिंजणय
नही पर जीवने ठगेनहौ परस' इषराखे नही अविसंवादनः संपत्री जीवः धर्मस्य आराधको भवति धनो आराधक हुवे ४८ मार्दवत्वेन हे भदंतजीव: कि' जनयति अहंकार रहित जीव हे पूज्यस्युः फल उपार्जे माईवत्वेन सुकोमल त्व' मृदुजीवः कषायरहित जीवः अनुब्सु कत्व ं जनयति अनुक्स क पणु' उपार्जे' अनुत्सु कत्वे न जीवः उत्सकपणे रहित जौवः मृदुमाईव संपत्रः मृदुपण ं प्राप्त श्रोधको अष्टमदस्यानानि निष्टापयति चपयति
ठमद
स्थानक खपावे ४८ भावसत्येन हे भदंत जीवः किं जनयति साचेभावे वर्त्त तु' जीवस्य फल उपार्ज' सत्यभावे सांचेभावे विशुद्विभावे सुद्धभावे करौने
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा ० सं०ड़. ४१ मा भाग
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उ० टौका
अ०२८
८६२
सूत्र
भाषा
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साधोर्भवति सत्ये षु भावसत्यमेव प्राधान्यं श्रतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह [भाव सच्चे ण भन्ते जौवे कि ं जणयइ भावसचे ण' भावविसोहि जणय भावविसो होएवट्टमाणे जौवे अरहं तपन्रत्तस्सधम्मम्म आराहण्याए अभ्भट्ठेद्र अरह' तपन्रत्तस्मधम्मस्म श्राराहण्याएण ं श्रभुट्टेत्तापरलोगस्म धम्मस्म आराहए भवइ ५०] हे भदन्तभावसत्य नभावे अभ्यन्तरात्मनिसत्य' भावसत्य तेन भावसत्ये नजीवः कि' फलं जनयति गुरुराह हे शिष्य भाव सत्येन जीवो भाव विशुद्धिं जनयतिनिर्मलाध्यवसायं जनयति भावविशुद्धौ वर्त्तमानोऽर्हत् प्राप्तस्य श्रीकिनप्रणीतस्य धर्मस्य श्राराधनायै अभ्युत्तिष्टति सावधानी नवति अर्हत् प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य आराधनाये अभ्युत्थायसावधानोभूत्वापरलोके धर्मस्याराधकोभवति परलोके सम्यम्गतिं प्राप्यधर्मं श्राराधयतीत्यर्थः ५० भावसत्य' 'च करणसत्ययुक्त सम्भवति श्रतः करणसत्यस्य फलं प्रश्नपूर्वकमाह [करणसच्चेण भंते जौवे किं जणय करणसर्थ ण' करणसत्ति' जणय करणसश्चैव ट्टमाणेजहावाईतहाकारौ श्रवि भवइ ५१] हे भदन्तकरणसत्य नजीवः किं जनयति करणेप्रतिलेखनादि क्रियायां सत्यं यथोक्तविधिना आराधनं
भावविसौहिए बट्टमाणे जीवे अरिहंत पन्नत्तस्म धम्मस्म आराहणयाएणं अम्भट्ठे टू अरहंत पन्नत्तस्म धम्मस्य आराहण याएणं अम्भ ट्ठित्ता परलोगस्स धम्मम्म आराहए भवइ ५० ॥ करणसच्चे गं भ'ते जौवे किंजणयइ करणसच्चे णं करण
जनयति भाव विशुद्धयावर्त्तमानो जीवः भाव विशुद्धि वर्त्ततो जौव अर्हत् प्रज्ञप्तस्य धम्मंस्य केवलौना भाष्याधर्मनी आराधनया अभ्युत्तिष्टति तेहने आराध वामणि जठे उठीने अर्हत्प्रज्ञास्य अरिहंतना का धर्मने आराधन तया अभ्युत्थाय आराधवा भणौ कठौने साधू परलोकस्य आरधको भवति परभवनो आराधकहुवे ५० क्रियासत्ये वर्त्तमानः भदंतजीवः किंजनयति साचो क्रोयाकरतु जीव हे पूज्य किंस्य ं कर्म उपार्जे' प्रतिलेखनयादि
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं ० उ० ४१ मा भाग
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स. टीका
AIMS
CN
REKAR
करणसत्य' तेन करणसत्येन जीवः कि फलमुपाज यति तदा गुरुराह है शिष्यकरणसत्ये नकरणश्यक्ति क्रियासामर्थ' जनयति पुनः करणसत्य वर्तमानी
जौबोयथावादौतथाकारोभवति क्रियासत्यः पुमान् यादृशं सूत्रार्थ पठति तादृशं क्रियाकलापं वदति तथैवकरोति इति भावः ५१ एवं विधस्य योग ४ सत्यमपि स्यात् प्रतो योगसत्यस्य फलं प्रश्नपूर्वमाह (जोग सच्चे णभंते जीवे कि जणयइ जोगसञ्चेण जोगविसोहर ५२) भदन्तयोगसत्ये नमनी वाक्काययोगाना सत्य योगसत्य तन योगसत्येन मनोवाकायसाफल्य न जौव: किं जनयति तदा गुरुराह हे शिथ योगसत्यै न योगान् विशोधयति मनोवाक काययोगान् विशदौकरीति कर्मबन्धाभावानिर्दोषान् करोतौति भावः ५२ इदं सत्यहि गुप्ति सहितस्य भवति गुप्तौनां आदौममोगुप्ति रस्ति तस्मात् पूर्व तस्याः फल' प्रश्नपूर्वकमाह (मणगुत्तयारणभंते जोवे कि जणय मणगुत्तयारण जौवेएमां जणयइ एगग्गचित्तण जौवेमणगुत्ते सञ्जमाराहए भवद ५३] हे भदन्त मनोगुप्त तया जीवः कि जनयति तदा गुरुराह हे शिष्य मनोगुप्त तया जीव एकाग्र धर्मे एकान्तत्व उपार्ज
सत्तिं जणयडू करणसच्चे वट्ठमाणे जौवे जहावाई तहाकारीयावि भव ५१॥ जोगसच्चणं भते जौवे किंजणयडू
जोगसच्चेण जोगे विसोहेड ५२॥ मणगुत्तयाएणं भते जीव किं जणय मणगुत्तयाएणं एगग्ग जणयडू एगग्ग * यथोक्त जनयति साचौ क्रौयाकरतु करण सत्तरी पाम करणसत्ये वर्तमानी जौवः साची क्रियाने विखे वर्ततो जीव यथोक्त क्रियाकथनशीलः तथा * वादौतथैव करणथोलो भवति जेहवो कहें तेहवो पालेतो करणशत्तरी आराधे ५१ योगसत्ये न है भदंतजौवः किंजनयति मनवचनकाया सूधां प्रव* * वितु जोवस्य फल उपार्ज योगान् मनोवाकायरूपान् निर्दोषान् करोति योग मनवचनकायाई करौने निर्दोष कर ५२ मनः संवरेण मनोगुप्ति तथा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ•सं• उ०४१मा भाम
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उ० टोका
अ०२८
८६५
सूत्र
भाषा
यति एकाग्रचित्तोजोगुप्तमनः सन् संयमस्य आराधकः पालकोभवति ५३ अथवचोगुप्ति फलमाह [वयगुत्तयाएण भंते जोवे कि' जणय वह गुत्तया एण' निव्विकारतं' जणय निव्विकारेण जोबेबइगुत्ते अज्झष्पजोगसाहणजुत्ते श्रविभवद ५४ ] हे भदन्तवची गुप्ततयाजीवः कि फल' जनयति गुरुराह हे यि वचो गुप्ततयानिधिकारित्वं विरागभावं उत्पादयतिर्निकारोजीवः वाग्गुप्तः गुप्तवचनच सर्वविकथात्यागात् वाग्निरोधोवाम्युतिमान् सन् अध्या मयोगसाधनयुक्तश्चापि भवति आत्मनि अधितिष्टतौति अध्यात्म मनस्तस्य योगाः शुभव्यापाराधर्मध्यानादयः तेषां साधनं एकाग्रा' अध्यात्मयोग साधनं तेन युक्तः प्रयासयोग युक्तप्ताहमवापि स्यात् इत्यर्थः ५४ अथ तृतौयगुप्त फलं प्रश्नपूर्वमाह ( काय गुत्तयाएणंभंते जौवे किं जण्य कायगुत्तयाएणं' सम्बरं जणय संवरणं कायगुक्ते पुणोपावासवनिरोहंकरेद्र ५५) हे भदन्तकायगुप्ततयाजीवः किं जनयति गुरुराह हे शिष्यकाय चित्तेजोवे मागुत्तेसंजमाराहए भवइ ५३ ॥ बगुत्तयाएभते जौवे किंजगाय । वइगुत्तयाएणं निव्विकारत जणयइ । निव्विकारेण जीवे वइगु अज्झप्प जोग साहणजुत्ते यावि भवइ ५४ ॥ कायगुत्तयाएवं भंते जीवेकिंजणयद्र । कायगुत्तयाएं
भदंतजtत्रः किंजनयति मन पापणी सूधी प्रवर्त्तावतु किस्य कर्म उपार्जे मनः गुप्ति तयाजीवः मनवसिकोयांथका एकाग्रभावं जनयति एकाग्रभाव ऊप जावे एकाग्रचित्तोजोवः शुभाध्यवसायचित्तः सन् संयमाराधको भवति एकाग्रचित्र थको जीव सत्तर भेदे संयमनो आराधक होइ ५३ वागुप्ति तया भदंतजीवः किं जनयति वचनगुप्तपणे धरतु जीव किस्य' फल उपार्जे वागुप्ति तयार्निर्विकारं जनयति वचनगुप्तपणे करितु विकारपणे रहित होइ निर्विकारेण निर्विकारपणे जीव वान्यप्ति वचनगुप्ति अध्यात्मयोगसाधनाय युक्तवापि भवति भूडाऽध्यवसायने रु ५४ कायगुप्तिः हे भदंत
१०८
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काय धनपतसिंह वाहादुरका आ.सं० उ०४१ मा भाग
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अ०२८
गुप्ततयाजीवः सम्बरं जनयति सम्बरणगुप्तकाय पुनः पापाथवनिरोधं करोति ५५ अथ गुप्तित्रय धारकस्य साधोमनीवाकायानां समाधान अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह [मणसमाहारणयाएणभंते जौवे किं जणयइ मणसमाहारणयाएण एगग्गजण्यइ एगम'जणइत्तानाणंपनवेजणयनाणपज्ज वैजाइना मम्मतं विमोहिइमिच्छत्त' च निजी ५६) भदन्तमनः समाधारणयाजीव: कि जनयति मनसः सम्यक् प्रकारेण पामर्यादयासिहास्तीत मा अभिव्याप्यवाधारणास्थापनं मनः समाधारणतयाजौवः किं फलमुत्पादयति तदा गुरुराह है शिष्यमनः समाधारणयामनमोमर्यादाकारीन एकामा धस्थे ये' जनवति धर्मे एका उत्पाद्यज्ञानपर्यवान् जनयति विशिष्टान् मतिज्ञानश्रतनानादीनां पर्यायान् तत्वा वा बोधरुपान विशेषान संवर जणयडू। संवरणकायगुने पुणोपावासावनिरोहकरे ५५॥ मणसमाहारणयाएणं भ'तेजीवे किंजणयडू । मयसमाहार गयाए एगग्गं जयडूएगग्गं जणयत्तानाण पज्जवेजणयनाणपज्जवे जणयत्तासम्मत्तविसोहेमिच्छत्त'चणिज्जर हा
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.३.४१मा भाग
भाषा
काय गुम पर राखतु' जोवः किंजनयति जीवस्य फलउपार्ज कायगुप्त्या कायानी गुप्तिअशभयोगं निरुधयति संवरजीगऊपजावे संघरणजीवः कायगुप्तःसन् पापाथवनिराधं करोति कायगुप्त को नौव पापाथवने रुधे ५५ मन: समाधान तया मनने समाधान पणे हे भदंतजीवः किंजनयति हे पज्यजीवस्य फल उया मनःसमाधां न तया विशिष्टतर मनसावधान पण राखतु एकाग्र जनयति एकाग्र पण पाम एकाग्र जनयित्वा एकाग्रपणु ऊपजाबी ज्ञानपर्यायान् जनयति जानना पर्वायने अपार्ज जानपर्यायान् उत्पाद्य जानना पर्यायने ऊपजावौने सम्यक विशोधयति सम्याने निर्मल करे मिथ्यात्वच चपयति मिथ्यात्वने खपावे ५६ वाक्समाधारण तया स्वाध्याये स्थापनरूपया हे भगवन् बचनसमाधान राखता जीवः किं जनयति जीवस्य
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९ टोका अ.२८
जनयति पुनः सम्यक विशुद्धि जनयति मिथ्यात्वं च निर्जरयति निवारयति ५६ वचः समाधारणायाः अपि फलमाह (वय समाहरणयाए भने जोवे कि जणयह वयसमाहारणयाएण वयसमाहरणदंसण पज्जवे दिसोहेइ वयसमाहरणदंसण पज वैविसोहिता सुलभवो हि यत्त निब्बत्तय - दुल्लहबोहियत्त निज रे ५७] हे भगवन् सिद्धान्तोक्त मार्गे वचन समाधारण यास्वाध्याये एव वाग् निवसनन जीवः किं फलं जनयति तदा गुरुराह
हे शिववच: समाधारणया वाक साधारणयादर्शनपर्यवान् विशोधयति वाचाः साधारणयाः वाक्साधारणयाः वाचाकायत योग्याः ये पर्यवाः शब्द विशेषाः तथा दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य ये पर्यवाभेदास्तान् विशोधयतिनिर्मलीकरोति यतीहि वाक् समाधारणां कुर्वन् स्वाध्यायं करोति स्वाध्यायं कुर्वन् द्रव्यानुयोगाद्यभ्यासं विदधत् अनेकयसीभूषाशादि दोषान् निवान् यति अतः सम्यक्त' निर्मलं करोति यतो वाक् साधारणदर्शनपर्यवान् वियोध्य सलभबोधित निर्वत यति सुलभवोधिः परभवेजैनधर्म प्राप्तिर्यस्य स सुलभवोधिस्तस्य भावः रुलभवीधित्व तत् उत्पादयति दुर्लभबोधित्वं निर्जरयति५७ वसमाहारणयाएणमंते जावे किंजण यह । वडूममाहारणयाएणं वयसमाहारण दंसणपज्जवेविसोहेदूवयसमाहारण दंसण पज्जवे बिसोहिना सुलहयोहियत्तनिबत्तेइ टुल्लह बोहियक्त निज रेडू ५७ ॥ कायसमाहारणयाएणं मते जौवे किंजणय ।
राय धनपत सिंह बाहादर का प्रा. म.४१ मा भाग
भाषा
फल उपार्ज वाकसमाधारणतयाजौवः वचनरू'धे जीववचसी विषयान्सम्यक्लभेदानविशोधयति बचन नामदविषयसम्यक नाभेदतेहनशोधवचसः साधारणान् बचनेकहवाजाग्य दर्शनपर्यायान्विशोध्य समकितनापर्याय निर्मलकरौनिस लभबीधित्व निवर्तयति सुलभबोधिपण'उपार्ज दुल्ल भवोधित्व निर्जरयति थप यतिदुलभबाधिपणु निर्जराव५७ कायसमाधारणतया है भदंतकाय समाधारण है पज्यजीवः किंजनयतिजीवस्य फलउपार्ज कायसमाधारणतयाकाया
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प.२८ CEC
. टीका
कायसमाहारणयाणंभंते जोवे किं जणय कायसमाहारणयाएण जौवे चरित्तपज्जवे विसोहे चरित्नपनवेविमोहित्ता हक्वायपरित विसोहंद * अहवाय चरित्त विमोहिता चत्तारि केवल कमंसेखवेद तीपच्छासिज्मइ बुज्कर मुञ्च परिनिवाएइ सम्बदुक्याण मंतंकरे ५८] है भगवन * कायतमाधार पयाजोवः किं जनयति कायस्थ समाधारणा संयमयोगेज देहस्य सम्यग् व्यवस्थापनाकायसमाधारणातयाजोवः कि फल मुत्पादयति
तमा गुमराह कराधारावारिस पर्यवान् चारित्र भेदान् चायोपथमिकान् वियोधयति चारित्र पर्यवान् वियोध्य यथाख्यातचारित्र *विरोध पति पयाख्यात चारित्र निमनं कुरुते ननु यया स्यातचारित्र अविद्यमानं कथं निर्मलं भवति अत्रीत्तरं यथाख्यात चारित्र सर्वधा अविद्य *मानं नास्ति अविद्यमानस्य निर्मलत्वासम्भवात् तस्मात् यथाख्यात चारित्र पूर्व अस्ति परं चारित्रमोहनौयेन मलिनमस्ति तदेव यथा ख्यातचारित्र 28 चारित्र मोहोदय नि रेण निर्मलो कुरुते यथा खाात चारित्र विशोध्य च केवल सत्कमीशान् चत्वारिविध मानकर्माणिं घनघातीया निवेदनौया
कायसमाहारण याएणचरित्तपज्जवेविसोहे। चरित्तपज्जवेविसाहित्ताअहक्खायचरित्त विसाहेअहक्खायचरित्तवि
साहित्ता। चत्तारिकेवलि कम्म सेखवेदूतो पच्छासिज्म बुझडू मुच्च परिनिवाएदूसव्वदुक्खाण मंतंकरडू ५८॥
सघायोनि विवेराखनजोव:चारित्र पर्यायाविशोधयतिचारित्रनाभेदने सोधे वारिवपर्यायान् वियोधयित्वाचारित्रनापर्याय ने विशुद्ध करीने यथाख्यातं भाषा
चारितव्यात बारित ने पोधे वया यान चारित्र वियो यात्रा ज्यान चारित्र नापतो चारनेशोधोनेचतुर:केवलि कमां शान्क्षपयतिचार केवलोतणा विशोध यति ययाको यखपावेततःपवासिहातितिव रेपछीसोझवुडातिमुच्यते परिनिातिसंसारसागरथौमुकाइसर्वदुःखानांतंकरोतिसघलांदुक्खनीअंतकर५८
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ•सं• उ०४१मा भाग
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45
ENJ
WORKER
युर्नामगोत्र लक्षपानिज्ञपति ततः सिध्यति बुध्यति मुञ्चति परिनिर्वायपति सर्वदुःखनामंतं करोति ५८ एवं समाधारणात्रय मुक्ता यथा पटौका
कम ज्ञानादित्रयस्थ सम्पबतायाः फलं प्रश्न पूर्वक माह (नाणसम्पत्याएणभंते जौवे किं जणय नाणसम्पवयाएणं जौवे सव्वभावाविगर्म जणयह नाण स यत्रेय जोवे चाउरत संसारक तारन विस्मद् जहासूईस मुत्तापडियाविनविणस्म ईतहाजीवो समुत्तो संसारन विणस्म इ गाणविणयतवचरित जोगं सम्पाउणइ स समयपरसमयविसारए संघायणिज्भवइ ५८) हे भदन्तज्ञानसम्पन्नतयाज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य सम्पन्नता श्रुत ज्ञानसम्पत्तिस्त याजौवः किं फल जनयति त हा गुरुराह हे शिय श्रतज्ञानसम्मन्नतयाजीवः सर्वभावाभिगमं सर्वे च ते भावाश्च सर्वभावा: जीवाजीवादयस्तेषां अभिगमः सर्वभावा भिगमस्तं सर्वभावाभिगमं जोवाजोवादितत्वज्ञान जनयति तथा ज्ञानसम्पनी जीवश्चतुरन्त संसारकन्तार चतुर्गतिलक्षणे संसारवनेन विनश्यति मोक्षात् & विशेषेण दूरब अट्ट योभवतितयाहि ससूत्रासूचोकचवरादिष पतितासतौन नश्यतिअदृश्यानभवति नाशन प्राप्नोति तथा जीवोपि ससूत्रः श्रुतज्ञानसहितः
नाण संपन्नयाए भते जौवे किंजशाडू नाण संपन्नयाएणं जीवेसब्वभावाभिगमं जगायडू नाणसंपन्नेयणनीवे चाउरंत संसार कतारे नविध सूदू जहासुई समुत्ता पडियाविनविणम । तहा जीवा समुत्तो संसार नविस्पडू नाण विणय
राव धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१मा भाग
भाषा
श्रत ज्ञानसंपू तया है भदंत पुत ज्ञानसंपूस पण हे पूज्यजीवः किंजनयति जीवस्य कर्मउपार्ज श्रुतज्ञानसंपूर्ण तयाज्ञानवंतजीवसर्वजीवादि तत्वज्ञानंजन यतिस वजोक्नु स्वरूपजाचे ज्ञानसंपुर्यो जोवः ज्ञानकरो संपूर्णजोवः चातुरंत संसारकांतारे भवारण्ये विनाशंन प्राप्तोति चतुर्गतिसंसाररूप अटवौमाहि विनसे नहो यथा शूची स सूत्राः दवरकसहिताः जिम मूईदीरासहित कचवर पतिता न विनस्थति कचरामांहि पडीथको वीणमेनही सधा जीवोपि
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अ०२८ ८७०
संसारेविनष्टो न भवतोतिभावः ततश्च श्रुतज्ञानविनय तपश्चारित्नयोगान् संप्राप्नोति जानंच विनयश्च तपश्चचारित्रयोगाव जानविनयतपचारित्रयोगास्तान् १. टौका सम्यक प्रकारेण पानोति तबज्ञानं अवध्यादिविनयः प्रसिद्धः तपोद्दादशविधंचारित्रव्यापारास्तान् सर्वान्लभते पुनः श्रुतज्ञानौस्खसमय परसमयसंघातनीयो
भवति षमतपर समायोः संघातलीयो मौलनीय: स्यात् एतावतास्वमतपरमताभिन्नत्वे न प्रधामपुरुषत्वात् पण्डितेषु गणनोयोभवतीति भावः ५८ दंसणस
पत्रया रणभोजो ये किंजण यह दसण सम्पत्याएण भवमिच्छत्तच्छेयणं कर परं नोविभाइ परं अणुमायमाणे अणुत्तरेण नाणदंसरीण' अप्यासनोए ६ पापे स मं भविपाविहरह।.] हे भगवन् दर्शन सम्पन्नतादर्शनस्य क्षायोपथमिकस्य सम्पव्रतादर्शन सम्पन्नतातयाचायोपशमसम्यक सहितत्वेन जीवः किं फलं जनयति तत्र गुरुत्तर यह है शिथदर्शन सम्पन्नतया जीवो भवमिथ्यात्वच्छेदनं करोति भवस्य हेतुर्यत् मिथ्यात्वतस्य च्छेदनं करोति अर्थात्
तवचरित्तजागे संपाउादू ससमयपरसमय विसारा संवायणिज्जे मवदू ५६॥ सण संपनयाएणं मंजीवे किंजणयडू मूत्र
टंस सपनयाएणं भवनिच्छ तच्छे य शंकरे । परं नोविज्झादू परं अाभायमाणे अणुत्तरेणंनाणदंसणेणं अप्पाणं संजो स सूत्रः यत एक्त: जिस जीव सिद्ध'तसहित संसारेन विनस्थति संसारमांहि विणसेनही ज्ञानविनय तप: चारित्रयोगान् प्राप्नोति ज्ञान विनय तप चारि बनायोग ते प्रते पाम स्वसमयपर समय निपुणः सन् पोताना शास्त्रनेविखे परना शास्त्रनविखे चतुर हुवे पंडितेषु संघातनीयः गुणनयोग्यो भवति प्रधान पुरुष होइ अहोलणोक नहोइ आप पूज्यवाजाग्य हुवे गुणकरी योग्यहवे ५८ दर्शनसंपन्नत या भगवन् जीवः किं जनयति क्षायोपमशम कितनेप्रमाणे करौ भगवन् जीवस्य कर्मउपार्ज दर्शनसंपन्नतया दर्शन संपवताइ भवहेतु मिथ्यात्वोच्छेदं करोति भवनु'हेतु मिथ्यात्व तेहनोच्छेदकर परं उत्तरकाले आगामि
एब धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.२.४१मा भाग
भाषा
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उ. टीका अ०२८ ८७१
क्षायिकसम्यक्त प्राप्नोति परन्ततः पश्चात् न विध्यापयति ज्ञानदर्शनचारित्रार्या प्रकाशं नीनिवारयति ततः परं च ज्ञानदर्शनचारित्राणां प्रकाशं अविध्या पयन् ज्ञानदर्शनचारित्राणां तेजोऽविनाशयन् अनुत्तरेणसर्वोत्कृष्टेन चायिकत्वात् प्रधानन ज्ञानदर्शनेन आत्मानं संयोजयन् सम्यक प्रकारेण मामानं आम ना एव वयो कुर्वन्विहरति भवस्थ केवलतयामुक्ततयाविचरतौतिभावः ६. चरित्तसम्प बयाएणभंते जौवे कि जणय चरित्तसम्पत्याए सेलेसीभावं जणयइ से लेसिम्पडिवबे य अणगारेचत्तारिकेवलकम्म सेखवेइ तत्रोपच्छासिज्मा इबुज्मा इमुञ्च परिनिब्वायइ सव्वदुक्खाणमन्त करेइ ६१] हे स्वामिन् चरित्र सत्यव्रतया चरित्रण यया खातचारित्रण सम्प्र व्रता तया यथा खातचारित्रसहितत्वेन जौवः किंजनयति तदा गुरुराह हेशिष्यचारित्रसम्पन्न यथायात चारित्र सहित चेन सैले शोभावं जनय तिथे लानां पर्वतानाइस: शैलेशोमेरुस्तस्येयं अवस्थाथैले सोतस्याभवनं शैलेशीभावः तं उत्पादयति मेरुपर्वतस्य स्थैर्य प्राप्नोति शैलेशी अवस्थांप्रतिपत्रोऽनगारथतुरः कमांशान् क्षपयति अंशशब्दः सत्तार्थ वाचकः चतुर्दशगुणस्थानं भजते ततः पञ्चासिध्यति सकलकर्माणि
एमाणे सम्म भावमा विहरडू ६०॥ चरित्त संपन्नयाएणं भतेजीवेकिंजणयडू । चरित्त संपन्न याएणं सैलसीभावंजण
यडू । सेले तीभाव पडिभन्नेय अशगारे चत्तारि केवल कम्म से खवेडू । तओ पच्छा सिमडू वुमडू मुच्चदूपरिनिव्या भवे ज्ञान दर्शन प्रकाशोभवति प्रावते भविं शानदर्शननी प्रकाश हवे क्षायकत्वात् प्रधानन ज्ञानदर्शनेन शानदर्शने करीनं प्रात्मानं संयोजनात् पापणा आमाने जोडतुबको सम्यक्त्र भाव्यमान: विहरति सम्यक पालतुथको विचरे ६. चारित्र संपवतया चारित्न करौसहित हे भगवन् जीवः किं जनयति स्य कमे उपार्ज चारित्र सपनतया शैलेशोभावं मेरुशेलोपमस्थ यं जनयति चारित्वसहित जीव थैले सोकरणभाव उपार्ज मेरु पर्वतनौपर दृढ इवे शैलेगी भावं प्रतिपन्नः अनगार मैले शौभाव पडिययो अणगार चत्वारि केवलौकम्मांगान् क्षपयति चार केवलोकीना अंश खपावे ततः पश्चात् सित्ति तिवा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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अ.२८
1 ७
चपयित्वासिद्दि प्राप्नोति बुध्यति तत्वज्ञोभवति मुच्यते कर्मभ्योमुक्तोभवति परिनिर्वाति कषायाग्ने रुपयमाझौतलीभवति सर्वदुःखाना पन्त करोतिहार
अथ चारित्रे सतिपञ्चेन्द्रिय निग्रहीयज्यतेऽतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह [सोइन्दिय निरगहण भंते जौवे किजणयह सीइन्दिय निगाहणं मणबामणनेससई सुराग ४होसनिमा इंजणय र तपवयं कम्मन बन्धर पुज्ववड' च निज्जरह (२) हे भदन्त हेवामिन् थावे न्द्रियनिग्रहणकरणेन्द्रिय विजयेनजीवः किं जनयति ॐ तदा गुरुराही शिष थोत्रे न्द्रियनिग्रहणमनोज्ञामनोष यन्दषु रागद्वेषनिग्रहं जनयति पुनः रागदेषाभावसति तत् प्रत्यय नैमित्तक कर्मनबधाति
पर्वबा सगदेषोपार्जितं कर्मनिर्जरय ति क्षपयति २] चक्विंदिय निमहेभंते जौवे किं जणय र चक्विंदिय निगाहेण मणबामणबे सुरुवेसरागद्दो मनिगई जणय इ त प नइयं कम्म' न बन्धर पुष्व बद्ध' च निजरेइ ५३] हे भदन्त हे खामिन् चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेणजीवः किं जनयति तदा गुरुराह
एडू सबदुक्खाण मंतं करे ६१ ॥ सोई दिय निग्गहेणं भंते जीवेकिं जणय सोई दिय निग्गहणं मणुन्ना मणुन्नेस सहेस रागहोस निग्गह जग यडू । तप्पच्चयं कम्म नबंध पुब्बबईच निज्जरे ६२ ॥ चक्विंदिय निग्गहणं भाते
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०११ मा भाग
भाषा
१ रकडे सोझै बूढाति बूझ परिनिर्व्याति सर्वदुक्खाना अंत करोति सर्वदुःखनो अंत करे ६१ श्रोत्रंद्रिय निग्रहेन हे भगवन् जीवः किं जनयति कान
आपण वशिकरतुजोव स्य' कर्मउपार्ज श्रोत्रं द्रिय निग्रहेणजिवारेश्रोत्रंद्रियनो निग्रहकरतदा मनोज्ञा मनीन्नेषु तिवारे भला डाने विखे शब्द षु रागद्देष निग्रहं जनयति भला मुंडा शब्द ऊपारं रागहे पन आणि तत्प्रयं कम्मनबनाति तेह रागई ष संबंधीउ कर्मबांध नही पूर्ववच निर्जरयति पहिला जे कर्म वांध्याचे ते निजरे ६२ चक्षुरिट्रिय निग्रहेण भगवन् जौवः किं जनयति आखिवसि कौधांथका जीवस्य कर्म उपार्जे चक्षुरिट्रिय निग्रहह आखि
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उन्टौका
४ हे शिश्य चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेष रूपेषुरागद्वेषजयं जनयति ततश्च तत् प्रत्ययिक रागद्देषोत्पन्न कर्मनबध्नाति पूर्वबई रागहे षोपार्जितं कनिर्जरयतिक्षपयति ६३ (पाणिन्दिय निग्ग हेयभंतेजोवे कि जणय इ घाणिन्दिय णिमहेणं मणुबामणबेसुगन्धे सुरागहोसनिगाहं जणइतप्पञ्चइयं कम्म न बन्धर पुव्वबन्ध च निजरेइ ६४)हे भदन्त हे स्वामिन् प्राणि द्रिय निग्रहेणजौवः कि जनयति गुरुर्वदति हे शिष्यघ्राणेन्द्रिय निग्रहेणमनोज्ञामनीज्ञेषु ४
गन्धेषु रागद्दे षं निग्रहं जनयति ततोरागडे षजयात् रागद्देषोत्पन्न कर्मनबध्नाति पूर्वोपार्जित कर्मनिर्जरयति ६४ [जिभिदिय निमहेशंभंतेजौवे 8 कि जणय र जिभिन्दियनिगहेण मणबामणु सु रसे सुरागहोसनिग्गहं जणय इ तप्पच्चइयं कम्मन बन्द पुब्बबद्दच कम्मनिज्जरइ ६५] हे भदन्त
जीवे किं जणयडू । चक्विंदिय निग्गहेणं मणुन्ना मणुन्नेसु रुवेसु रागहोस निग्गहं जणय तप्यच्चयं कम्म नबंधडू पुब्बबई'च निज्जरी ६३॥ घाणिंदिय निग्गहेणं भते जौवे किंजणयडू । घाणि दिय ग्गिहण मण ब्रामण नेसु गंधै। रागदोस निग्गह जणयडू । तप्पच्चयं कम्म नबंध पुब्वबचच गिजरे ६४ | जिम्मिदिय निग्गहेण मते जीवे
KPREKEKkxOXEMEENEAREEMEMENKAXX
पर धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१मा भाग
भाषा
वसि कौथिका मनीता मनीनेषु रूपेषु भला भूडा रुपने विखे रागद्देष निग्रहं जनयति रागष जीते तत् प्रत्ययं नवीनं कश्चनबधाति ते स्थौनयां कम्मनांध पूर्ववच'चमिज रयति पहलावांध्याकम्म निर्जर६३ एवंघ्राणेंद्रिय निग्रहण जीवः किंजनयतिनाशिकावसि कौधे जीवस्य कर्मउपार्ने प्राणेंद्रिय निग्रहेण नाशिकावधिकरिवे मनोज्ञा मनोज्ञेषगंधेषभला डागंधने विखे रागद्देष निग्रहंजनयति रागद्देषनोनिग्रहकरे तत्प्रत्ययंनवीनंकी न वनाति तेह सबंधौकम्मन वांधे पूर्ववच निर्जरयति ४ जिद्रिय निग्रहण भगवन् जीवः किं जनयति रसनेंद्रौवशिकरतु' जीवस्य कर्मउपार्ज जिट्रिय
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जिईन्ट्रिय निग्रहण जौवः किं जनयति गुरुराह मिष्यजिईन्द्रियनिग्रहेणजीवोमनोज्ञामनीशेषु रमेषु रागद्देषनिग्रहं जनयति तत् प्रत्य यिक ड टीका अ०२८x
* रागद्देषनिमित्तिकं कम्मनबध्नाति पूर्वबहरागद्देषोपार्जितं कर्मनिजरय तिक्षपयति ६५ [फासिन्दिय निमाहेण भतेजौवे कि जणय फासिन्दिय निमा ८७४ - हेण मणबामणब मुफासेसुरागहोसनिमाहं जणय तप्पच्चयं कम्मन बन्धइ पुब्बबई च निज्जरेइ ६६] हे भगवन् स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण्जीवः कि जनयति
४ तदा गुरुराह हे शिथ स्पन्द्रिय निग्रहेण जीवोमनोनामनोज्ञेषु स्पर्शेषु रागद्दे षनिग्रहं जनयति तत् प्रत्वयिकं कर्मनवनाति पूर्ववच च कर्मनिजर
यति ५५ इन्द्रियनिग्रहकर्ता कषाय विजयोस्यात् अतः कषायफलं प्रश्नपूर्वकमाह [ कोह विजएणं भंते जौवे किं जणइ कोहविजएणं खन्ति जणयइ कोहवेयणिज्ज कम्मं न बन्धइ पुब्बबड च निज्जर ६७) हे भगवन् क्रोधविजयेन जोवः कि जनयति गुरुराह है शिष्य क्रोधविजयेन जीवः क्षान्ति'
किं जणयडू जिभिदिय निग्गहण मणना मण नेमु रसमु रागद्दोस निग्गहं जणयडू । तप्पच्चयं कम्म नबधडू पुब्व बईचनिज्जरडू ६५ ॥ फासिं दिय निग्गहेण भते जौवे कि जमायडू । फासिंदिय निग्गहेण मण ना मान्ने
कामेमु रागहोस निग्गहं जणयडू तप्पच्चईयं कम्म नबंध पुब्बबईच निजरेतू ६६ ॥ कोह विजएणं मंते जीवे किं निग्रहेण जीभवशि कोधां धका मनोज्ञा मनीनेषु रमेषु रागद्देष निग्रहं जनयति भला भंडारसने विखे रागद्देषनोनिग्रहकर तत्प्रत्ययं नवौन कम्मन वनाति पूर्ववईच निज रयति ६५ स्पर्शनेंद्रिय नौग्रहेण भगवन् जौवः किं जनयति स्पर्शनेंद्रो वशिकरतु जौवस्थु कर्मउपार्ज स्पर्श द्रिय निग्रहेण मनोज्ञा मनोज्ञेषु स्पर्शष रागद्देष निग्रह जनयति तत्प्रत्ययं नवीनं कम्मनवनाति पूर्ववत'च निर्जरयति ५६ क्रोधविजयेन हे भगवन्
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं. २०४१मा भाग
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टीका
०२८
८७५
सूत्र
भाषा
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जनयति क्रोध विजयौचान्तिमान् भवति इत्यर्थः पुनः क्रोधवेदनौयं कर्मनबन्नाति क्रोधोदयेनवेद्यते इति क्रोधबेदनीयं क्रोध हेतु भूतं पुहलरूपं मोह नोकोभेद' न बन्नाति पूर्वबद' च कर्मनिर्जरयति ६७ (माणविजएणंभंते जौवे कि' जणय माणविजएण महवंजणय माणवेयणिज्जं कम न बन्धइ पुव्ववद' च निज्जरेद्र ६८] हे भगवन् मानविजयेनजीवः किं फल जनयति गुरुराह हे मिष्यमानविजयेनजीवोमार्दवं सुकुमालत्व' जनयति मान विजयात् नमनशौलोभवतीति भावः पुनर्मानेन मानोदयेनवेद्यते इति मानवेदनीयं कर्मनबध्नाति पूर्वबतच कम्मैनिर्जरयति ८ [ मायाविज एवं भंत जौबे कि' जणय मायाविजयण' उज्जभावंजणयद मायावेयणिज्ज' कम्म' न बन्धइ पुब्बबड' च निन्नरेद्र [2] हे भगवन् मायाविजयेन जीवः कि जगाय कोह विजएणं खंतिं जणयद्र । कोह वेणिज्जं कम्म नवधद्र पुब्बवद्द'च निज्जरेद्र ६७ ॥ माण विजएणं भंते जीवे किंजणय माण विजएणं महवं जणयद् माणवेयणिज्जं कम्म नवंधइ पुव्वबद्द' च निज्जरे ६८ ॥ माया विज एवं भ'ते जौवे किंजणयइ मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ माया वैयणिज्जं कम्म' नबधइ पुव्वबड'च निनरेद्र ६६ ॥ जोवः किं जनयति क्रोधजोपतु भगवन् स्युं कर्मउपार्ज' क्रोधविजयेन चमां जनयतिक्रोधजौतवे क्षमा उपार्जे क्रोधविजये न वेदनीयं कनवन्नाति क्रोध
तवे वेदनो कर्मन बांधे पूर्ववद्ध च निर्जरयति पूर्वे बांध्या कर्म निर्जरे ६७ मानविजयेन हे भगवन् जीवः किं जनयति मानविजयेन मानने जोतकरौने माहेवं जनयति मार्दवपण' उपजावे मान वेदनीयं कर्म न बध्नाति न बांधे पूर्वबद'च निर्जरयति ६८ माया विजयेन हे भदंत जीवः far of मायाजtत्याथका जोवस्युं कर्मउपार्जे मायाविजयेन ऋजूभावं जनयति सरलपण' पामे मायावेदनीयं कम्म न वध्नाति मया वेदनी की न
*x*x*x*x*x*x*x*x*****************^
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा भाग
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स.टोका जनयति गुरुराह हे शिवमायाविजयेन जौवः ऋजुभावं सरलत्वं उत्पादयति ततश्चमायावे दनौयं कर्मनबध्नाति पूर्वनिबईच कम्मनिर्जरयति क्षप प्र०२८४ यति ।[लोभविजएणभंते जीवे कि जणयह लोहविजएणं सन्तोसिभावाणयइ लोभवेयणिज्ज कम्मं न बन्धइ पुष्ववच' च कम्मनिज्जर ७०) हे भगवन्
लोभविजयेन जीवः कि जनयति गुरुराह है शिष्य लोभविजयेन जौवः सन्तोषि भावं सन्तोषिणीभावः सन्तोभावस्त उत्पादयति लोभवेदनीयं कर्म * नवनाति पूर्वनिवचकर्मनिर्जरयति७० कषायविजयिनासाधुनारागद्दे षमिथ्यादर्शनविजयः कर्त्तव्यः अतस्तेषां विजयफलंप्रश्नपूर्वकमार[पिज्जदीसमिच्छा दंसणविजएवं भंतेजौबेकिंजणयइ पिज्जदोसमिच्छादसण विजएण'नाणदंसणचरित्ताराहणयाए अभ्युट्टेतिअट्टविहस्मकम्मगण्ठि विमोयणद्वाए तप्पढमयांएण जहाणुपुब्बिए अट्ठावीसइविहंमोहणिज्ज कम्म उग्बाएइ पञ्चविहं नाणावरणिज्जनवविहन्दसणावरणिज्ज पञ्चविहमन्तरायं एएतिविविकम्मसेजगवंखवेइ तोपच्छा अणुत्तरंणन्त'कसिण पडिपुन निरावरण वितिमिरंविसुद्ध'लोग्गलोगप्पभावयं केवलवरनाणदंसणसमुप्पाडे जावसजागीभवद तावइरियावहियं कम्म बन्धसुहफरिसंदुसमयडियंतपढसमएबईबोयसमएवइयंतईय समयेनिजिनसेयाकाले अकम्मं वाभव०१ हे भदन्तस्वामिन्प्रेय्यई षमिष्यादर्शन
लीभ विजएणं मते जौवे किं जणयडू लोम विजएणं संतोसौभावं जणयडू लोम वेयणिज्ज कम्म नव'धडू । पुब्ब
बइंच निज्जरडू ७० ॥ पिज्जदोस मिच्छादसण विजएणं भते जौवे किजण यडू पिज्जदोसमिच्छादंसण विजएण नाण बंधार पुर्व बर्ड निर्जरयति पूर्व वांध्या कम्म ते निर्जरे ६८ लोभविजयेन हे भदंतजीव: कि जनयति लोभजीते जीवस्यु कर्मउपार्ज लोमविजयेन संतोष भावं जनयति लोभवेदनीयं कम्मन वनाति पूर्वबई निर्जर पाकला कम्पनीर्जराये ७० प्रेम हेष मिथ्या दर्शन विजयेन स्नेह देष मिथ्यादर्शन
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा० सं० उ. ४१ मा भाग,
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स.टौका
प.32
F७७
विजयेनजोव: कि फलंजनयतितत्र प्रेय्यशब्द न प्रेमराग: देषः प्रसिद्धोमिथ्यादर्शनसंशयादिभिर्विपरीतमतित्व प्रेय्य'च द्वेषश्चमिथ्यादर्शनं च प्रेय्यम ४ ध्यादर्श नानितेषां विजयः प्रेय्य षमिथ्यादर्शनविजयस्तेन जौवः किं फलं मुत्यादयति तदा गुरुराहहेशिष्य रागद्दषमिथ्यादर्शनविजयेन जौवीज्ञानदर्शन
चारित्राणां पाराधनाये अभ्यु त्तिष्टते सावधानीभवति अभ्यु त्थाय च अष्टविधकर्मणां अन्धि धातिकम्मणां कठिनजालं विमोचनार्थ क्षयितु अभ्युत्ति टते सावधानोभवति अथ कर्मग्रन्थि विमोचने अनुक्रममाह तत् प्रथमतया यथानुक्रमं अष्टाविंशति विधि मोहनीयं कम्म उद्घातयति क्षपकत्र णिमा रूढः सन् क्षपति षोडशकषायाः नवनोकषायाः मोहनौयत्रयं एवं अष्टाविंशतिविधं मोहनीयकर्मविनाशयेति ततचरमसमये यत् चपयति तत्क्रममाह मतिश्रुताधिमनः पर्यायावरणरूपं कर्मपश्चाब्रवविधं दर्शनावरणीयं कम्म चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधि दर्शनाकेवलदर्शनावरणं निद्रापञ्चक' एवं नवविध
दसण चरित्ता राहणयाए अम्मद अट्टविहस्म कम्मगठि विमोयणयाए तप्पढमट्ठाए जहाणुपुबीए अट्ठावीस विह
मोहणिज्ज कम्म उग्घाए । पंचविहं नाणावरणिज्जनवविहं दंसणावरसिज पंचविहं अंतरायं एए तिन्निवि कम से जोपतु जीवस्य कम उपार्ज प्रेमहेष मिथ्यादर्शन विजयेन ज्ञानदर्शन चारित्राराधनया अभ्यु प तिष्टति ज्ञानदर्शन चारित्र आराधवाउजमाल होइ अष्टविध बकम्मरथि क्षपणा अष्टप्रकार जे कर्म तेह भणी निविडरूप जे कम्भग्रथिहुवे ते जीव छोडाववाभणी सावधान हवे तत्प्रथमतयाहिये पहली अनुक्रमेण अष्टाविंशति विध मोहनौयं अनुक्रमे पहली २८ अठावीस मैदे सहित मोहनौकम्म खपावे पंचवीध भानावरणीयं पंचप्रकार ज्ञाना वरणी कम्म क्षपावे नवविध दर्शनावरणीयं नवप्रकारे दर्शनावरणी कम्म एवं पंचविध अंतरावं पांचे प्रकार अंतरायः कम्म एतानि बौख्यपिकर्माणि
राय धनपतसिंह वाहादुरका आ.सं.२०४१ मा भाग
भूव
भाषा
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8. टौका
ARXXXKAKKKAKKHEKHEEROEXCREAK
दर्शनावरणीयं कम ततः पथात्पञ्चविध अन्तरायं एतानित्रीणि कम्म'सेइति सत्कर्माणि विद्यमानानिवौणि कर्माणि युगपत् चपयति आपकी खारूढः ॐ मन् समकालं क्षयं नयतीत्यर्थः ततः पश्चादनन्तरं तेषां कर्मणां क्षयौकरणादनन्तरं अनुत्तरं सर्वेभ्यः प्रधानं अनन्त अनन्तार्थ ग्राहक कृत्स्न समस्तवस्तु * पर्यायग्राहक प्रतिपूर्ण सकलैः स्वपरपर्यायैः सहितं निरावरणं समस्तआवरणरहितं वितिमरं अज्ञानां शरहितं विशुद्ध सर्वदोषरहितं लोकालोक,
प्रभावक लोकालोकयोः प्रकाशकारकं एतादृशं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति यावत् स योगीभवति मनोवाक् कायानां योगोव्यापारस्तेन सह 8 वर्तते इति स योगीभवति त्रयोदशगुणस्थानयावत्तिष्ट ति तावत् ईर्यापथिक कम्मबध्नाति ईरण ईगितिस्तस्याः पन्थाः र्यापथः र्यापथेभवं ईर्यापथिक पथोग्रहणं हि उपलक्षणं तस्य तिष्टतीपि सयोगस्य ईर्यायाः सम्भवात् सयोगतायां केवलिनोपि सूक्ष्मसञ्चाराः सन्ति तत् ई-पथिक' कर्मकीदृशं भवति तदुच्यते सुखयतीति सखःसुखकारोस्पर्श प्रात्मप्रदेशैःसहसंश्लेषोयस्य तत् सुखस्पर्श हिसमयस्थितिक हो समयीयस्याः साहिसमया हिसमयास्थिति
जुगर्व खवैदू तो पच्छा अणतं अणुत्तरं कसिणं पडिपुन्नं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगा लोग पभावग केवल वरनाग दंसणं समुप्पाडेदू जाव सजोगी मवदूताव दूरियावहियं कम्म' निब'ध मुह फरिसं दुसमयट्ठिइयं तंपढम
राम धनपतसिंह बाहादुर का था •सं• उ. ४१मा भाग
भाषा
युगपत् चपयति एचिणिकम्पना अंथ एकठाज खपाव ततः पश्चादनुत्तरं तिवारपछे धनंतार्थ विषयं अनंतार्थ विषयके जहन कषणं समस्त संपूर्ण निरावरण आवरणरहित तौमररहितं अंधकार रहित लोकालोक प्रकाश लोकअने अलोक तेहने प्रकासकरे सहाय रहित प्रशस्त ज्ञानदर्शनं आम नासमुत्यादयति कैवलज्ञान ऊपजावे यावत् सयोगी जितमनीवाक्कायः पहली संयोगी हवे मनवचन कायाजीने तावत् पर्या पथिकीयं की गति मार्ग
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स.टौका अ०२८ ८७८
रस्मेति हिसमयस्थितिक' तत् हिसमयस्थितिकस्वरूपमाह प्रथम समये बद्ध' खस्यस्पर्थनाय अधीनं कृतं अधौनकरणात् स्पृष्टमपि द्वितीये समये * तह स्पष्ट वेदितं कायेन अनुभूतं तृतीयं समये निजौर्ण परियाटितं निष्कषायस्थ उत्तरकालस्थितेरभावोवर्तते उत्तरकालेसकघायस्य बन्धोभवति ॐ पर केवलिनी न भवति तदेव पुनः सूत्रकारः भान्ति निवारणार्थमाह तत् ईर्यापथिक कम्म केवलिनोबई आत्मप्रदेथैः सहनिष्ट स्पष्ट व्योना
पठवत् तथा स्पष्ट मसणमपि कुद्यापतित शुष्कचूर्णवत् इति विशेषणहयेन केवलिनोहि निधत्तनिकाचितावस्थयोरभावः पुनरुदौरितं उदय प्राप्त सत् वेदितं अनुभूतं केवलिनीहि उदौरणानभवति ततो निजीण क्षयं उपगतं ततः सेयालेइति एथ काले आगामिनिकाले अकर्माचापि भवति कमरहितो भवति इत्यर्थः ६१ अथ शैलेण्यकर्मताहारहयं अर्थतोव्याचिख्यासुराह (अहाउयं पालइत्ता अन्तीमुहुत्तावसेसाउए जोगनिरोहंकरमाण
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. २०४१ मा भाग
समए बद्धं बिडूए समए वेडूयं तइए समए निजन्न तं बद्ध पुढे उदिरियं वेड्यं निज्जिन्न सेयाकालेय अकम्मयावि भवद ॥७१॥ अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहुत्तावससाउए जोग निरोह करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइयं सुक्क
भाषा
स्थानरूप सुखस्पर्थ प्रात्मप्रदेशैः सहव हिसमयं यावत्तिष्टति इर्यापथिको कर्मचालताहालतांलागे सातावेदनौदो इसमे रहे प्रथम समये वह पहले समये बांध द्वितीयसमये वेदयति अनुभवति वौज समे अनुभवे तृतीये समये जीर्ण परिसाटितं बौजे समे ते कर्म परिसाडे ते जीव प्रदेश स्यु वांधवो स्पृष्ट उदौरित फरस्यो आकाश घटनौपरि' उदय पाण्य वेदितं निजौण सुखरूपफल अनुभव्यो खमाष्यी आगामि कालिं चोथा समयने विखे कम्म रहित जीवधाई ७१ ततो यावदायु पालयित्वा तौहां ताइ आउखु पालौने अंतमुहर्त अवशेषायुषः सन् घडी मरणथको पेहला जागनिरोधं
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७० टौका अ०२८
सुहुमकिरियं अप्पडियाई मुक्कज्माणं जमायमाणे सप्पढमयाए मणजोगं निरु भइ मणोजीगं निरु भत्ता वयजोगं निरुम्भ वयजोगं निरु भित्ता कायजीगं निरुम्भकायजोगं निरु भित्ता आणपाणनिरोहकरे आणपाणनिरोहकरित्ताईसिंपञ्चरहस्मकबरुच्चारडाएणं अणगारेसमुच्छिन्नकिरियंअनियटिसुक्क माण मियायमाणेवेयणिज्ज्ञ आउयं नाम गोयंच एएचत्तारिविकम्म' से जुगवंखवेइ ७२)अथ केवलप्राप्तेरनन्तरं आयुष्क देशो न पूर्वकोटि प्रमितं आयुः प्रपाल्य अथवा अन्यदपि आयुःपालयित्वा यदा अन्तर्मुहर्तावशेषायुष्को यदा केवलिनोतमुहर्त प्रमाणमायुमस्ति तदा केवली योगं मनोवाकाय व्यापार तस्य निरोधं कुर्वाण: सन्शमक्रियां शूक्ष्माक्रिया यत्रतत् शूक्ष्मक्रियं अप्रतिपाति शमध्यानं शुक्लध्यानस्य तौयभेदलक्षणंतत्ध्यायन् तत् प्रथमतया प्रथमतोमनो योगोमनोव्यापारोमनोद्रव्यजनितो जीवव्यापारस्तं निरुणदितं निरुध्यच वचोयोग भाषाद्रव्यसाचिव्यजनितजीवव्यापार निरुणद्वितं निरुध्य च काय
माणं भायमाणे तप्पढमयाए मणजोगनिर भडू मणजोग निरुभत्ता वजोग निरंभ वजोग निरुभत्ता । __ कायजोग निरंभइ कायजोग निरु भइत्ता आणापाण निरोहकरे आणपाण निरोहकरेइत्ता इसि पञ्च रहस्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ०४१मा भाग,
भाषा
कुर्वन् योगनिरोध करतुथको सूक्ष्म क्रियारूप अप्रतिपातिी आउखोतेथान कथौ पडवुनथौ शुक्लध्यान ध्यायमानः शुक्लध्यान मनमांहि ध्यातुथको तत् प्रथमतया पहिलो मनोयोग व्यापार निरुणद्धि पहला मनोयोग रुधे मनोयोगं निरुध्य मनोयोग रुंधौने वचोयोगं निरुणद्धि वचनयोग रुधे वचोयोगं मिरुय वचनयोगने रंधौने काययोगं निरुणद्धिकाययोग रु'धे काययोग निरुध्यकाय योगरुंधीने उत्स्वासनिः खासनिरीहं करोति सासो स्वासरुधे घोडीसीवारपं चक्रवाक्षर उच्चारण प्रमाण अइ उऋल एपांच अक्षरजतले उचारौ जैतेतरे काले सौम ततः ईषत् स्वल्य पंचस्वाक्षरोच्चारणार्थ अनगारः
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योग कायथ्यापार निरुणति तं निरुध्यच्च प्रानप्राणनिरोधं स्वासप्रस्वासयोनिरोध करोति तबिरोधं कृत्वा एवं योगनिरोध हात्वा ईषत् रूल्य 8 प्रयासेन यथा लच्चार्यते तथा पञ्चानां हस्ताक्षराणां उच्चारणकालेनयावताकालेनईषत् प्रयासेन पञ्चइस्वाक्षराणि अष्ट ऋल इत्ले तानि कथ्यन्त तावता कालेन अनगारः समुच्छिन्न क्रियं सम्यग् उच्छिनास्त्रीटिताः क्रियायत्र तत् समुच्छिन्न क्रियं पुनरनिवृत्ति शक्लध्यानस्य चतुर्थभेदरुपं ध्याय न् शैलेश दहा अनुभवन् सन् वेदनौयं १ प्रायः २ नाम ३ गोत्रञ्च एतान् चत्वारः कर्मा शान् एतानि चत्वारि सत्कर्माणि विद्यमानानि कर्माणि युगपत् समकालं क्षपयति ७२ [तोषीरालियकम्मा च सव्वाहि विष्पजहणाहि विष्पजहित्ताउज्जसेढौपत्ते अफुसमाणगई उड़ एगसमएण' अवियाह ण गरुासागारीव
उत्ते सिकाइ बुजाइमुचर परिनिवाएइ सम्बदुक्याणमन्त'करे ७३] ततः पश्चाई दनौयादि चतु कर्मक्षयीकरणादनन्तरं ऊदारिककर्मणे च शब्दात् तेज ४ समपि एतत् घरीरत्रयमपि सर्वाभिविप्रहाणिविप्रहायविशेषण प्रहाणयो विप्रहाणयस्ताभिर्विशेषेणप्रहायपरिचाट्य ऋजुत्रेणी प्राप्तः ऋजुः सरलाचामौ
क्खरुच्चारबाएयणं अणगारे समुच्छिन्न किरियं अणि यट्टि'मुक्कभाण झियायमाणे वेयणिज्ज आउयं नाम गोयं
च एए चत्तारिविकम्म से जुगवं खवेडू ॥ ७२ ॥ तो ओरालिय कम्माई'च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहिता 8 साधुः समुच्छिन्न क्रियां समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यानस्य तुर्यभेदध्यायन् अनिवृत्तिइस्यनामि शल्ल ध्याननी चोथोपायोध्याव साथ का वेदनीयं वेदनौ ४ कम आयुर्नाम गोत्र पाउखौं नामगोत्र एतानि चत्वारि ए चारकर्मतणा कर्मासं निक्षिपयति अंशी ते समकाले खपावे ७१ ततः औदारिक कर्मानि * तेजस सरौरं सर्वाणि तिवारे पछे औदारिक तेजसकार्मणइत्यादिक शरीर सर्वपरिहर विप्रजहातिल्ल जति विशेषेण त्यक्ता ऋणि प्राप्तः विशेषयों
राय धनपतसिंह वाहादुरका पा सं०३०४१ मा भाग
भाषा
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टीका अ०२८
८८२
सूत्र
भाषा
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प्रदे
गौच ऋजु श्रणीतां ऋजु श्रेणीं सरलाकाशप्रदेशपंक्ति' गतः पुनरस्य शहतिः सन् यावन्तः श्रमोड से खां आकाशप्रदेशाश्रवगाह्यमानास्तान् एवस्ख स्पृशन् अधिकान् न स्पृशन् जौवोयया गत्याव्रजति तादृग्गतिधरः सन् ऊर्द्धगः एकेन समयेन अविग्रहेण विग्रहगत्यभावेन तत्र मोक्षस्थाने गत्वासाकारोपयुक्तोज्ञानोपयोगयुक्तः सन् सिध्यति बुध्यति परिनिर्वाति सर्वदुक्खानां श्रन्तं करोति ७३ (एसखलु सम्मत्तपरिक्कमस्स अजमयणश्म अठ्ठेसमणे णं भगवया महावीरणं भवविए पद्मविए परुविए दंसिए बिसिए उवदंसिए तिवेमि १ ) अथ प्रश्नोत्तरापसंहारमाह हे जम्बूस्वामिन् एषः इदानों उक्तः खलुनिश्चयेण सम्यक्त पराक्रमस्य अध्ययनस्य अर्थः श्रमणेन भगवताज्ञानवता श्रीमहावोरण आघवित्ति आर्षत्वात् आख्यातः पुनः प्रज्ञापितः सामान्य विशेषपर्यायै व्य क्तौकरणेन प्रकटीकृतः पुनः प्ररूपितो हेतु फलादि प्रकर्ष ज्ञापनेन प्ररूपितः उपदर्शितः स्वरूप कथनेन ज्ञापितः
उज्जुसेढी पत्ते अफसमा गई उड्डुं एगसमएणं अविग्गणं तत्थ गता सागारोवउर्त्त सिज्झइ बुझइ सुञ्च परि निब्बाएइ सब्बदुक्खाणं अंतं करेद्र ७३ ॥ एस खलु सम्मत्त परकमा अज्मयणस्म अट्ट समणेगां भगवया महावीरेणं छांडोने समौश्र णि पुहुतो को अस्पृशतिः श्राकाशप्रदेशने अणफरसतु थको उई एकसमयेन ऊर्द्धगति जातु एकमयमांहिं विग्रह गतिरहितेन विग्रह गति करौ रहित मुक्तिपदे गत्वा ज्ञानोपयोगवान् सिप्रति मुक्तिजाइ ज्ञानसहित सोके बुध्यते बूझे मुच्यते मुकावे प्रतिबोध पामे सुके परिनिर्व्याति संसारथको नौवर्त्तनहवे सर्वदुक्खानां अंतकरोति सर्वदुक्खनो अंतकरे ७३ एषः नियन सम्यक्त पराक्रमस्य एनिश्रयसेतो सम्यक्त पराकम नाम अध्ययनस्य श्रमणेन साधु भगवता ज्ञानवंते महावौरेण महारौर देवे आख्यातः को प्राप्तः फलदेखायां प्ररूषितः दृष्टांत कन्होने दर्शितः एकवारदे खाया
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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प्र.३०
563
पुनर्दर्शितोनानाभेददर्शनेन प्रकाशितः पुनरु पदर्शितो दृष्टान्तीपन्यासेन दृढौलत: इत्यहं ब्रवीमि इति सुधर्मास्वामौजंबूस्वामिनं प्राह ७४ इति श्रीमदुत्तरा टोका
* ध्ययन सूवार्थ दीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मौकौति गणि शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां सम्यकपराक्रमाख्यं अध्ययनं एकोनत्रिंशत्तमं संपूर्ण ॥२८॥
अथविशत्तमंअध्ययनं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने अप्रमत्त वीतरागत्वसम्यक्क पराक्रमत्वं चोक्त तेनऽप्रमत्तेनसम्यक पराक्रमवतामोक्षमार्गायतपसि उद्यमी विधेयः अतस्तपोमार्गाध्ययनं विशत्तम कथ्यते [जहा प्रोपावयं कम्मं रागदीस समज्जियंखवेइतवसाभिक्खूतमेगामणोसुण१] यथा येन प्रकारणभिक्षु स्तष सारागद्देषसमर्जितंरागद्देषाभ्यां उपार्जितं कर्मक्षपयति तु शब्दः पद पूरणे तं तपोमार्ग एकाग्रमनाः सावधानचित्तसन् त्वं शृण हेजंबूवामिन् अहं वदा मौति सम्बन्धः अनाश्रवण किलकर्मक्षयः क्रियते १ [पाणि वहसुसावाएअदत्तमेहुणपरिगहाविरओ राईभोयणविरो जीवाहवा निरासओ२] है शिष्य ईदृशो जौवोनिराश्रवो भवति कीदृशः प्राणिबध मृषावादादत्त मैथुन परिग्रहाहिरतो रहित पुनरात्रि भोजनविरतः एतादृयोनायवोभवतिर पुनरनावी
आघविए पन्नविएपरुपिए दंसिए निरंसिएउट्सएत्तिमि सम्मन परकमभयणंसम्मत्तं २६॥ जहाओ पावयं कम्म सूत्र
रागदोस समज्जियं । खदेडू तवसामिक्स तमेगग्गमणोमुण १॥ पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहा विरो
EKKEREREKKEREHEKKKKKKAkkkkkkk:
राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
निदायिनः वारवार कह्या सत् कथनेन परवाच्यमानः इति ब्रवीमि जाननाभेद कह्या प्रकाश्या एवात ज्ञानौ कहे ७४ इति चौसम्यत्वा पराक्रमाध्ययनस्य * टवार्थ: संपूर्णम् ॥ २८॥ यथैव पापकम्म जिम पापकम्म रागद्देष समर्जितः रागद्देषे करीने उपाजिश्री क्षपयति तपसाभिक्षुः ते कर्म साधुतपे करौने
पपावें तत्तपः एकाग्रमनाः शृणुत ते तप एकाग्रमन करीने सांभलो १ प्राणिबधात् मषावादात प्राणिबध मृषावाद अदत्त मैथुन परिग्रहात् विरतः
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ट
F
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* यथाभवति पाथवरहितोभवतितमाह[पंचसमिश्री.२] कौदृशोजोवः पञ्चभिः समितिभिः समितःसहितःपञ्चमितः पुनस्तिमृभिर्गुप्तिभिर्गत:पुनरकषायः ४ कषायरहितः पुनर्जितेन्द्रियः वगीकृतन्द्रियः पुनरगारवऋदिरससातादिगर्वत्रयरहितः पुनर्निश त्य: मायानिदानमियादर्शनशल्य स्त्रिभीरहितः एतादृशी
नायवोभवति ३ एवं विधोऽनायव यथाचपयति तथा वदति [एएसिन्तु विवच्चामे रागद्दीस समज्जियं खवेइ उजंजहाभिक्खूतमैगमामणोसुण ४] है शिथ यथा येन प्रकारणभिक्ष: साधुरतेषां पूर्वोक्तानां प्राणातिपात मृषावादादत्त मैथुनपरिग्रहरात्रि भोजन विरतिलक्षणानां ब्रतानां तथा समिति गुत्यादि लक्षणानां अनायवकारणानां विपयांसे वैपरीत्ये प्राणि बध मृषावादादत्तमैथुनपरिग्रहरात्रि भोजन समित्य भाव गुप्त्याऽभावसेवन मतिरागाहेषाभ्यां समर्जितं सञ्चितं पापकर्म क्षपयति तं प्रकारं एकाग्रमनाः एकचित्तः सन् त्व' शृण ४ अत्र दृष्टान्तमाह (जहा महातलागस्न सबिरुई जलागमे
राइभोयणबिरी जीवोभवदूअणासवो २॥ पंचसमिओतिगुत्तो अकसाओजि दिओ। अगारबोयनिस्मल्लोजीवो मवदू
अणासवो ३॥ एएसितु विवच्चासे रागदोस समज्जियं खवेद जंजहा भिक्ख तमेगग्गमणा सुण ४॥ जहा महा अदत्तादान मैथुन परिग्रहथौ विरतहुओ रात्रिभोजनात् विरतः रात्रिभोजनथौ विरतहुओ जीवो भवति अनाश्रवः पापहेतुरहितः जीव पापरहित होइ २ पंचसमिति: पांचे समते सहितः त्रिगुप्तः बिहुगुप्त सहित अकषायः कषायरहित जितेंद्रिय इद्री जिते अगर्व गवरहित निशल्यः सालरहित पापरहित जीवः भवति अनायवः जीव आथवरहित होइ ३ एतेषां पूर्वोक्तानां विपर्यासे सति एहने प्रण फलवे रागद्दे षे करी उपार्जी जेकर्म क्षप यति यथा भिक्षः जिणे प्रकार साधु खपावे तत् मत् सकाशात् एकाग्रमनाः शृणुत ते एकाग्रमनथका सांभलो ४ यथा महातटाकस्य जिम मोटा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१मा भाग
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* उस्सिंचणाएतवणाएकमेणं सोसणाभवे ५) यथा महातटाकस्य महाजलाशयस्य जलागमपानीयागमनमार्गे सविरुद्ध सम्यक प्रकारेण संकृतसति उस्मिं ४ चण्याउसिञ्चनया ऊई अरघट्टादिनाऊ कर्षणया तपनेनरविकिरणादिनासन्तापेन क्रमेण शोषणाजलस्थ शोषणं भवेत् नवौनजलागमनमार्गोनिरु * ध्यते पूर्वस्थजलं च निकास्यतेजलदोरिक्तः स्थात् इति भावः ५ अबदान्तिकमाह [एवं तु सञ्जयस्मावि पावकम्मनिरासवे भवकोडौसञ्चय कम्म
तब सानिजरिजई ६) एवं अमुना प्रकारेण पापकर्म निराश्ववेसति पापकर्मणां प्राणिबधाद्यानां निरोधेसति संयतस्यापि साधोरपि तपसा हादश विधन भवकोटो सञ्चितं कर्मनिजोर्यते आधिक्ये न क्षयनीयते अत्र कोटीग्रहण बहुत्वीपलक्षणं कीटोनियमस्य असम्भवात् ६ अथ तपोभेदमाह [सोतवो दुविहीबुत्तोबाहिरम्भिन्तरोतहा बाहिरोछविहीबुत्ती एव मम्भिन्तरोतवो ७] तत्तपोद्दिविधं प्रोक्त' बाह्य तथाभ्यन्तरं बाह्य षड्विधं प्रोक्त एवं अमुना
तलागरम संनिरुई जलागमे । उचिंचणाए तबगाए कमेणं सोसणा मवे ५ ॥ एवंतु संजयस्मावि पावकम्म निरासवे भवकोडि संचियं कम्म तवसा निज्जरज्जई ६ ॥ सी तवो दुविहो बुत्तो वाहिरम्भितरो तहा। वाहिरी छब्बिहों
राय धनपतसिह बाहादुर का आ.सं. १.४१मा भाग
तलावहोर तहनों संनिरुती जलागमः ते पाणो प्रावधानुनालु'ध्यो उमिचने नारवटादिभिः तापादिभिः उसींचण करीताप करीने क्रमेण जलस्थ घोषणाभवत् अनुक्रमे पाणोनो घोषणा होइ ५ एवं संयतस्यापि पापकर्म निराशवस्य रम साधु भगवंतपाप भाववाना ठामरु'धे पापकर्म निराश्रवस्य पापकर्म पावतार'धे पापरहित होवे भवकोटिभिः संचितकम्म कोडि भवनां संख्या कम तपसा निर्जरबति तपे करी दरिकर । स तपः दिविधः उक्त: ते तपर्व प्रकार का वाह्याभ्यंतरभेदात् एक वाचतप वीजा अंतरंगतप वाद्यतपः षडविधः उक्तः वायतपकह भेदे का एवमभ्य तर तपः पर
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४० टीका अ०३० ८८५
सूत्र
भाषा
MEEDEDEME
प्रकारेण अभ्यन्तरं अपि षड्विधं प्रोक्त ७ प्रथमं बाह्यं षड्विधमाह (अणसणमूणोयरिया भिक्वायरियायरसपरिचाश्रोकायकिलेसोसलौण्याय बज्मो तबोहोइ ८) अनशनं उपवासः एकस्मादुपवासादारभ्यषण्मासिकपर्यन्त अनशनं तप उच्यते १ दाविंशत्कवल प्रमाणं आहारः प्रत्यहं एकैकेन कवलेनन्युनी कुर्वन् यावताएकस्मिन् कवलेस्थाप्यते साऊनोदरिकाऊन उदरेभवं ऊनोदरिकं तपः प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः भिचाचर्यायाभिक्षया श्राहारग्रहणार्थ उच्चावच गृहेषु भ्रमणं रसत्यागोविकृतीनां परित्यागः कायक्लेशस्तापशीतादीनां सहनं संलीनता अङ्गोपाङ्गादिकं संहत्यप्रवर्त्तनं एतत् षड्विध बाह्य तपोभवति ८ अथ एतेषामेव स्वरूपमाह [ इत्तरियमरणकाला अणसणादुविहाभवे इत्तरियसावकं खानिरवकखाओ वेइज्जिया 2] अनशनं द्विविध भवति एक इत्वरिक' इत्वरस्तोकेकालेन भवं इत्वरिकं नियतकालावधिक' मरण कालोयस्याः सामरणकालाइति द्वितीयं यावज्जीवमित्यर्थः स्त्रीलिङ्गत्व बुत्तो एवं मम्भितरो तवो ७ ॥ अणसण मूणो यरिया भिक्वायरियाय रसपरिञ्चाश्रो । कायकिलेसो संलीणयाय बज्मो तवाहोइ ८॥ इत्तरिय मरणकालाय अणसणा दुविहा भवे । इत्तरिया सावकखा निरवकखाओ बेइजिया है। विधः अभ्यंतर तपना पणिक्के भेद ७ अनशन १ उपवाशादिक अनादरिकाः २ श्रकुजिने भिचाचर्या च भिचाचर्यतप ३ भिचायें करौग्राहार लेबो घरश्राव्यो नहौलेवे रसत्यागं धरस परीत्यागः काया क्रमः ५ कायाक्लेम तप संलीनता तप ६ संलीनता तपअंगोपंग संकोचे मासनो संलेख्ण करवाय तपो भवति एकहे भेदे वाह्यतप को इत्तरि कंकालोवधि प्रमाणा: अणसननावे भेद कह्या एक एतलोएककाल वौजो मरणपर्यंतकाल अनशनं दिवि धाभवेत् अणशणवे प्रकारि होइ इतिरिकंसाव कांक्षाकाले भोजनेच्छा सहितेन इतरीक अणसण चउथे पांचमे एकांतरे आहार कर भोजनेच्छा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था ०सं० उ० ४५ मा भाग
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छ.टौका
३०
14. न
प्राक्तत्वात् इत्वरिक तपः सावकांक्ष भवति सह अवकांक्षयावर्त तेइति सावकांक्षं घटिकाहयाद्यनन्तरं अहं भोजनं विधास्यामौति वाञ्छासहितमित्यर्थः हितोयं यावज्जोवं निरवकांक्ष आहारप्रत्याख्यानादारभ्य तज्जन्मनिभोजनाशासम्भवात् वाधारहितमित्यर्थः [जोसोइत्तरियसवो सो समासेणछबिही * सेठितवोपयरतवो घणोयतह होइवग्गोय १०) यत्तु इत्वरिक तपस्त त् समासेन संक्षेपेण षड् विध' भवति विस्तरस्तुहा सप्ततिविध७२ भेदं अथ षड्विध्य
माह श्रेणितपः १ प्रतरतप: २ घनतप ३ स्तथावर्गतपः ४ श्रेणि: पंक्तिस्त दुपलचितं तपः श्रेणितपः तच्चतुर्थादि क्रमेण क्रियमाणं षण्मासा तं यद्यते तत् प्रथमतपोभवति तथा श्रेणिरव श्रेण्यागुणिता प्रथतरस्तदुपलचितं तपः प्रतरतपः इहसुबोधार्थ चतुर्थ' षष्टाष्टमदधमाख्यपद चतुष्टयामिका श्रेणिविवक्षते साच चतुर्भिगुणिताषोडशपदामकं प्रतराख्यं तपोभवति तत् प्रतरतपः षोडशपदात्मक एव यदा पद चतुष्टया श्रेण्यागुण्यते तदाघनाख्यं तपोभवति सो लच उकाच उसटिइति भावः अथ पुनयंदाधनः चतुःषष्टिपदामकोधनेनैव चतुःषष्टि पदामकेनैवगुण्यते तदा वर्गो भवति तदुषलचितं तपोवर्गतपउच्यते चतुःषष्टिश्चतुः षश्यागुणितानिजातान्य' कानिषणवत्यधिकानि चत्वारिसहस्राणि ४०1८६ १. अथ पच्चमषष्टभेदी आह [तत्तीयवम्ग वग्गीपञ्चमीछहुओणव्रतवोमणइच्छियचित्तथोनायव्वोहोर इत्तरित्री ११] तत इति ततोवर्गतपीनन्तरं वर्गवइति पञ्चमीतपीनेयं वर्ग: एववर्ग
जो सो इत्तरिय तवो सा समासेण विहो सेढि तवो पयर तबो घणोय तहहोडू वग्गेय १० ॥ तत्तीय वग्गवग्गी
राय धमपतमिह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१ मा भाग
रहित हितोयं वोजे तपनानेदः जेतलाताई जोवे तेतलाताआहारनलोई यदित्तरि कंइत्तरि कान शनंइत्तरिक अणशण तेहनी तत्समासेन स'क्षेपण षड्विधः संक्षेप केतभेद कह्यो श्रेणितप १ पहिलो प्रतरतपः २ वौजी घनतपः ३ वर्गतपः ४१० तत: वर्ग वर्गतपः तिवारपछीवर्ग वर्ग तपः ५
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सटौका
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M
गुणितीवर्गवर्गीभवति यथाचककोटिः सप्तषष्टिलक्षाः सप्तसप्तति सहयाणि हिथतीषोडणाधिका अङ्गतीभवति १५७७७२१५ एतदुरलक्षितं तपीवर्ग तपइत्यु च्यते इत्यर्थः एवं पञ्चादि पदेवपि भावनाकतं या तथा षष्टकं तपो यत् थे ख्यादिनियतरचनारहितं निजशक्त्यानमस्कारसहितादि पूर्व पुरुषों चरितं यवमध्यवच मध्यचन्द्र प्रतिमादिचेति तत् प्रकीर्णतपः मनसिईप्सित इष्टश्चित्तोऽनेक प्रकारोअर्थः स्वर्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादिर्वायस्मात्तन्मनई सित, चित्रार्थ इत्वरिकं प्रक्रमादनशनाख्य तपोज्ञातव्य' ११ अथ द्वितीयं मरणकालं अनशनमाह [जासा अणसणामरण दुविहा सावियाहिया सवियार मवियाराकायचेपईभबै १२] प्राकृतत्वादत्रस्त्रीत्व' यत् अनशनं मरणमरणसमये भवति तत् तीर्थ कई विध व्याख्यातं सविचारं सहविचारणमनी वाक्कायभेदचेष्टारूपेणवर्तते यत्तत्मविचारं अङ्गादिचेष्टयासहितं स्थित्य पविशनत्वग्वत नविश्वामणादिकयायुक्त मित्यर्थः द्वितीयं अविचारं चेष्टारहितं पादपोपगमं इत्यर्थः तत्मविचारहि काय चेष्टां प्रतीत्याचित्य भवतीत्यर्थः वैया हत्त्य कत्माधुनाउत्थापनं प्रतिस्थापनं उभयपालीभ्यां स्थापनं इत्यादि
पंचमीछठ्ठी पइन्नतवो मण इच्छिय चित्तत्यो नायब्बोहोडू इत्तरिओ ११॥ जा सा अगासणा मरणे दुविहा साविया हिया । सवियारमवियारा कायचिट्ठपईभवे १२॥ अहवा स पडिकम्मा अपरिकम्माय आहिया । नीहारि मनोहारी
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१मा भाग
भाषा
पंचम: पांचमी षष्टः प्रकीर्णतपः छट्ठी प्रकोण तप ६ मनेप्सित चित्तार्थतपः मनमांहिंजे चितवैते कर जयं भवति इतरिकानशनं तपः एइत्तरिक तप जाणवी ११ यत् अनशनं मरणावसर तपः अणसण मरणकालिं अंतसमयकाले विविध आख्यातं बिहुँ प्रकार का सविकारं चेष्टासहितं हाथ पगह लावे अविकारं काय चेष्टारहित: कायचेष्टा प्रतीत्यभवेत् काया चेष्टासहित जाणवु १२ अथवा विश्वामणादि तप परिकर्मणा सहित वीसामए
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वैयाहत्यकारापर्ण अथवा स्वयमेव शरीरस्थोवई न परवत नादि चेष्टा सहित अन्येन कारापण ईदृशं यद्धति तत् सविचारतेयं इत्यर्थः त्रिविध * चतुर्विधाहार त्यागेन प्रत्याख्यानं उर्त्तनादि करोति कारयति वा तद्वत परिज्ञास्य प्रथमं १ तथा प्रतति निश्चित चतुर्विधाहार त्यागः इङ्गितदेशे १ उद्दल नादि इङ्गितं चेष्टितं आमनाएव करोति अन्येन कारयति एतद्दिसौयं इङ्गिनौ मरणं २ एतहयमपि स विचारमनशनं यं १२ एतदेव सूत्र कारो वदति [अहवासप्पडिकम्मा अप्पष्टिकम्माय पाहियामौहार मनौहारी आहारच्छ पोदीसुधि १३] अथवा तत् पुनमरणं स प्रतिकर्म आहितकथित मित्यर्थः सह परिकर्मणा वर्तते इति स प्रतिकर्म वैवावृत्य सहितं भक्तपरिज्ञास्य इङ्गिनी मरणश्च स परिकर्मणी एतद्दे अपि मरण परन्तु मूलत्वेन एक एव भेदः च नुनः अप्रतिकर्म मरणं वैयावृत्यरहितं पादपोपगमं इत्यर्थः तथा पुननिर्हारि अनशनं ग्रामात् नमरात् बहिनिर्हार्यते इति निर्झरि पुनर नौहारि एत यादपोपगम मपि विविधं भवति इयोरपि निर्झराऽनौहारयोर्मरणयोराहारण दस्त भवत्ये व १३ अथी नादरिकामाह (ऊमायरिय पञ्चहा समासेण विहाहियं दब्बी खित्तकासेण माषणं पनवेहिय १४) अबमं ऊनं उदरं यस्मिन् तत् अवमोदरं तत्रभवं अवमोदरिकं तत्तपः समान
आहारच्छ ओय दोमुवि १३॥ उमायरियं पंचहा समासेश विवाहिआ। दब्बउ खेत्त कालणं भावणं पज्जवहिय १४॥ करावे द्वितीयं विधामणा रहितं आक्वातं वौजी तपर्व यावच्चरहित नौहारः अनौहारः नौहार सहित नौहाररहीत आहारच्छेदः योरपि विहं पकारे आहारचाग करे १३ जनीरिता पंचधातपः अगोदरौ तपना पंचभेद कह्या संक्षेपेण आख्याताः संक्षेपे कह्या द्रव्यतः द्रव्यथौ क्षेत्रतः विधी कालतः ३ कालयो भावनां भावयेत् ४ पर्यायच ५ भावथको ४ हवे १४ जी जस्य आहारी भोजनं जेहने जितरी पाहार र सतः पाहारं अवमन्चूनं
११२
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राय धनपतसिंह वाहादुरका पा-सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
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उ टौका अ०३०
८.
संपेण पचवाव्याख्यातं द्रव्यतो द्रव्येणक्षेत्रण कालेन भावेन च पुनः पर्यायः १४ तत्र द्रव्यतः अवमोदरिकामाह [जोजस्मत आहारी तत्तोऊन जोकरे जहणेगसियाई एवं दवेणीभवे १५] यस्थ जीवस्य यावान् आहारः स्यात् ततः आहारात् यत् ऊनं कुर्यात् जघन्येन एकसित्यक यक मेवसित्य भुज्यते आदिशब्दात् शिस्यहवादारभ्य यावदेककवलभोजनं एतच्च अल्पाहाराख्यं अवमोदर्य माश्वित्योक्त' इदं चाटकवलान्तं अथच नवकादारभ्य हादशभिः कवलैरपाई क्य १ त्रयोदशकादारभ्य षोडशान्त विभागाख्य३ सप्तदशकादारभ्य चतुर्विशतिः तत्पर्यन्त प्राप्ताख्यं पचविंशतरारभ्य यावदेकविशकवलभोजन किजिदूनमेवं जदार्य' इत्येवं पञ्चविधमवमोदर्य इति उक्तञ्च अप्पाहार१ अवडार दुभाग३ पत्ता तहेब किं चणा५ अहम दुवालस २ सोलप्त३ च उवोस ४ तहेकवोसाय५ एवं द्रव्येण उपाधिभूतेन अवमोदर्यमित्यर्थ:१५ अथ क्षेत्रावमोदर्यमाह (गामनगरेतहरायहाणि निगमेय आगारपल्लोखेडे कञ्चड होण मुह पट्टणमडं बसंबाई १६) [आसमपएविहारे सन्निवेसेसमाय घोसेयथलसेणान्धारसस्थ सम्बकोय १७] बाई सुयर थासय घरसुवाएवमित्तियं खित' कप्पई उएवमाइ एवं खित्तेणोभवे १६ (तिमभिर्गाथाभिः कुलकं एवं इति अमुनाप्रकारेण जदयस्थ प्रकारणा एताववियतमान क्षेत्र पर्यटितु मम वर्तते इति एव आदि हशालादिपरिग्रहः अद्य एतावत् प्रमाण भिक्षार्थ भ्रमितव्यमिति निर्धारण वेग
सब धनपत सिंह बाहादुर का था •सं••४१मा भाय
जो जमाउ आहारो ततो उगंतु जोकरे। जहन्नेगसियाई एवं दब्बेणऊ भवे १५॥ गामे नगर तह रायहाणि
१ यः कुर्यात् तेहयो जो छो आहार करे जघन्ये न एक सित्यादिक जघन्य अणोदरी एक कण खाइ एवं द्रव्येण ऊनीदरी भवेत् ए द्रव्यउनीदरीतप * कह्यो १५ ग्रामे गाम नगरे नगर तथा राज्याधान्या. राजधानीने बिखे निगमे वणिवासे हिरखाद्य पच्चि स्थान प्रागरने विखे पनौति प्रकार
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मा भाग
अवमोदर्य भवेत् तदेवभिचाश्रमणक्षेत्रमाह कुत्र २ भिक्षार्थ साधुध मति प्रामगुणान् असतौतिग्रामस्तस्मिन् ग्राम अथवा असति सहते अष्टादविध उ टोका
करं इति ग्रामस्तस्मिन् अथवा कण्टकबाटकातोजनानां निवासीग्रामस्त स्मिन् ग्राम पुनर्नगरे नावकराः सन्ति इति नगरं तस्मिन् तथाराजधान्यां ३. राजाधोवते यस्यां पाराजधानो तस्यां राजधान्यां राजपोठस्थानेनिगमे प्रभूतवणिनिवासे आकरः स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थानं तस्मिन् पाकरपनीहक्षवंशादि
गहनाविता प्रान्त जन स्थान त यां पला खेटं धूलि प्राकारपरिक्षिप्त तस्मिन् खेटे पुनः कर्बट'कुनगरन्द्रोण मुख जलस्थलनिर्गमप्रवेशं तत् सगुकच्छा दिक पत्तनं तु यत्र सदिग्भ्योजकाः पतन्ति पागच्छति इति पत्तनं अथवा पत्तनं रत्नखानिरितिलक्षणं तदपि विविध जस्लमध्य वर्ति स्थलमध्यवर्ति * च मटंब' यस्य सर्वदिक्ष साई उतोय योजना तर्यामीनस्यात् तत्र तथा सम्बाधः प्रभूतचातुर्वर्ण्य निवासः कर्वटः शब्दादारभ्य सम्बाध शबदं यावत् इन्ह:
समासः कर्तव्यः कर्बटञ्च द्रोण मुखं च पतनं च मटं बच्च सम्बाधव कर्बटट्रोणमुखपत्तनमटम्ब सम्बाधास्तेषां समाहारः कर्बटद्रोणम खपत्तनम टम्ब सम्बाध तस्मिन् कर्बटट्रोणमुखपत्तनमटं बसम्बाधे एतेषु स्थानेष इत्यर्थः १६ पुनः कुत्र २ इत्याह पाश्चमपदे तापसाथ मोपलक्षित स्थान विहार देवसई पुनः सविवेसेयावाद्यर्यसमागतजनावामे समाज: परिषत् घोषः अाभौरपल्लौसमाजश्च घोषश्च समाजघोषं तस्मिन् समाजघीसे स्थ लंच मेनाच स्व.न्धावार
निगमेय आगार पल्ली। खेड कब्बड दाणमुह पट्टण मडंव संबाह १६ ॥ आसमपर बिहार सन्निवसे समाय घोसेय ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.
भाषा
फले पालो समयदुर्ग सामान्यनगर समुद्रनोवलि पावते द्रोण जलथल पंचते पट्टण .थको अठोगामवेगलांवसेते वडंव १६ पायमस्थान चारवण लो 8 घणोबसे तापसादिक घणारहें विहार देहराघणा होइ याचादिक अर्थे प्राव्यो तेहने १ पंथौलीक घणामिल्या होइ ईषगूजरगीवालना ठाम उच्च
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१. टोका*
टाका प्र0
स्थ लसेनाकन्धावारा अन् स्थलसेना कन्धावार तत्र स्थलं उच्च भूमि भाग: सेनाचतुरङ्गकटकसमूहः स्कन्धावारः कटकोत्तरणनिबासः सार्थक्रयाणक भता ममरपतीस व तव सम्वतोभयवस्तजन समवायः कोहीदुर्गः सम्बत्त व कोट्टय सम्बत को तस्मिन् सम्बत कोई १७ पुनर्वाटेप याटिपरिशिप रहसमहेषु रथासुमेरिका सु च गृहेष प्रसिद्देषु च एतेष स्थानेषु अवमोदयं कृतं क्षेत्रतीभवति१८ अथ पुनः प्रकारान्तरणक्षेत्रावमोद माह पडायला षधिधात्रोवमोदरकापत ते पटापटाकाराचतुः कोणापेटाकारणगोचर्या' क्त्वा अवमोदरीकरण एवं आईपटाकारणगीचरीकरण गोमधिकॉकारण पटावीथिका पतङ्गः शलभस्तस्यवौथिका उड्डयनं पतङ्गवीथिका अनियतानिश्चयरहितायतभीखडयनसदृशीत्यर्थः पुनः शम्बूकाव शम्बकः शास्तहत
थल सेणाबंधारे सत्ये संवट्टकोट्टय १७॥ वाडेमुव रत्यासुव घरेसुवा एव मित्तियं खतं । कप्पो एवमाई एवं खिताऊ भवे १८॥ पडाय अद्धपडा गोमुत्ति पलंगवीहियाचेव । संबुक्कावट्टाय गतु पवागया छट्ठा १८॥ दिवसम्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ०४१मा भाग,
भाषा
प्रदेशः चतुरंग सैन्धसहित स्क'धावार कटक उत्तरवानाष्ठाम क्याणादि भन्या साथभइ एकठा लोक मिले गढ़ सहित ग्रामी कोट १७ वाटकेषु सेरि काम गृहेषु वाडी मेरी घरने बिखे एतावत् प्रमाण' खेव इत्यादिक क्षेवने बिखे विहरवा भणी जावी कल्पे गतुकल्पते एवमादि क्षेत्रे एतले क्षेत्र विर हरवा जाई स एवं क्षेत्रविषयं उमोदयं भवेत् ए क्षेत्रथको अणोदरीनो भेद १८ पटा चतुकोणा अर्बपेटा पटीने आकारि अई पेटौने आकार गौमु त्रिका कारो गोमुत्राकार गोचरौ पतंगोत्यतन सदृशः पतंगने अडवानी परे गोचरीकर संखावर्ता दीर्घप्रांजलि शंखमा पावर्त नौपरिमाहिथको बाहिर वाहिर वको माहि गोचरी कर भिचाचांगत्वा पुनरा गच्छति सरलधुर धकौडालग जाई पाछीवले गोचरी कर खेबउणोदरी कहीजे १८ दिव
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सटौका अ.३० ८८३
आवतॊभ्रमणं यस्यां साँशम्बू कावासापि विविधा अभ्यन्तरयम्बूका बहिः शम्ब काशनाभिरूपक्षेत्र मध्यावहिर्गम्यते सा अभ्यन्तरशम्बूकावर्ताविपरीता बाह्यात् मध्ये प्रांगमनहपाबहिः शम्बूकावत पञ्चमी पुनः षष्टी आयतगं तु प्रत्यागमाच्या आदित एव आयतं सरलं गत्वायस्यां प्रत्यागमोभवति साषष्टोजेयाइत्यर्थः एतासांभिक्षाचर्याणां अपि अवमोदर्यत्वं यं यतो हि अवमोदर्यार्थ एवईदृग् प्रकारेणैव साधुराहारार्थ भ्रमति तस्मानाबदोषः १८ अथकालावमोदर्यमाह (दिवसम्मपीरिसोण च उन्हपि जत्तिोभवेकालो एवं चरमाणीखलुकालोमाण'मुणयबी२ . ] दिवसस्य चतसृणां पौरुषीणां प्रहराणां यावन् घटिका चतुष्टयादिकोऽभिग्रहविषयः कालोभवति एवं अमुनाप्रकारेण कालेन चरमाणइति गोचर्याञ्चरतः साधीः खलुनिश्चयेन कालोमं इति कालेन अवमं कालावममन्तव्य २० पुन: कालावमोदर्य एव प्रकारान्तरेणाह (अहवातईयापोरिसौए ऊणाएघासमेसन्ते च उभागूणा एवा एवं कालेणीभवे २१) अथवा वृतीयायां पौरुष्य ऊनायां किञ्चिदौनायां ग्रासं आहारं एषयन गमेषणां कुर्वन वा अथवा चतर्भागन ऊनायां तृतीयपौरुष्यां भिक्षां चयीं साधोरुक्तास्ति कालेन अवमोदर्य भवेत् २१ अथ भावावमोदर्यमाह (इत्यौवा पुरिसो वा अलङ्गिोवाण लतिओवावि अन्नयर
पोरिसौणं चउन्ह पिउ जत्तिो भवे काला । एवं चरमाणो खलु कालामाणं मुणे यब २० ॥ अहवा तया पोरिसौए ।
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.. ४१मा भाग.
भाषा
सस्त्र पौरुषीणां दिवसनी प्रमाण करे च तमृणां यावत् अभिग्रहः विषयकालः भवेचिह पोरसिनो जैतलो काल तेहनी प्रमाण कर एवं कालेन चरन् निश्चयेन इम विचरतु साधु निश्चयपणे कालमनोदयं ज्ञातव्य एकालमान अनीदरी तपजाणवो २० अथवा ढतीयायां पौरुष्यां अथवा बीजी पोरसिमाहिं ऊणायां पाहारं एषयेत् कणी होइ तिवारे आहारनीगवेषणा करे चतुर्भागी नायां एवं चउथीभाग ऊणीहोर एवंकाल मीदयं भवेत्
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ए० टोका
अ०३०
८८४
सूत्र
भाषा
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वयत्योवा अन्नयरेण' चवथे २२] [अ ण विसेसेण वज्रेण भावमुणमुयन्त उ एवं चरमागोखल भावोमाण' मुणेयब्वं २३] युग्म एवं श्रमुनाप्रकारेण चरमाणः प्रतिप्राकृतृत्वात् चरमाणस्य भिचायां भ्रममाणस्यसाधोः खल्निययेन भावोवमाचं इतिभावोवमत्वं भावोवमोदर्यः मुयितव्य में यं इत्यर्थः भावेन अमोद भावोत्रमोद कोर्थः यड़ा कश्चित् साधुरिति चिन्तयति श्रद्यकविहाताभाव एतादृशं स्वरूपं प्रणमुयन्ते इति श्रनुन्मुञ्चन् अत्यजम् एतादृशं स्वरूपं भजन् मह्यं' आहार दास्यति तदाहं गृहोयामि नान्यथेति भावः कोदाता कोदृशं च भावं प्रत्यजन् तदाह इत्थौ स्त्रीवा पुरुषो वा अलङ्कृतः आभरणादि सहितोऽथवा अनलङ्कृतो अलकाररहितः अवयवयत्यो अन्यतरवयस्था बालतरुणस्यविरादिकानां त्रयाणां वयसांमध्ये अन्यतरस्मिम् एक अन् वयसिस्थित अन्यतरेण पट्ट कूलादिवस्त्रेण उपलक्षितः २२. अन्धेन विशेषेण कुपित प्रहसितादिनाऽवस्थाभेदेन उपलचितः वर्णेनस्वेतरक्ता दिना उपलजितः भावं पर्यीयं उक्तरूपं अलङ्कारादिक अण्मुयन्ते अनुन्मुचम् एतादृशः सन् मय आहारंदास्यति तदालास्यामि इत्यभिग्रहधारणेन ऊणाए घासमे बंता । चउभाग गाएबाएवंकाले ऊ भवे २१ ॥ इत्थोवा पुरिसावा अलंकिनोवा लंकियोवावि । अन्नयर वयत्योबा अन्नयरेगांच वत्थेां २२ ॥ अनेणं विसेसेणं वन्नेणं भावमणुमुयंते । एवं चरमाणो खलु भाषामाणं एकलयो अणोदरो तपत्रा २१ स्त्रीवा पुरुषो वा स्त्री अथवा पुरुष अलंकृतो वा आभरणे पहलो थको अनलंकृतो वा अथवा आभरण नही पहि वा अन्यतरो वयस्थो वा धनश्वयहड अथवा बालक अन्यतरवस्त्रेण वा अनेरे वस्त्रे धो ले काले २२ अन्धेन विशेषेण अनेर विशेष हर्षे अथवा विख वादे करणादिना भाव मुक्तरूपेण अनुन्मु चन् तथा वर्ण गोरा वर्णकाला वर्णभाव अणमू कतु थको एवं चरमाण: खलमिथितपणे चालतां भावनोदयं
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प्रयं धनपबूसिंह बाहादुर का आ०सं०० ११मा भाग
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भावा बमोदय ज्ञेयं २३ अब पयावा वनोदय माह (दबेखित्ते काले भावंमि प्राहियाजेभावा एए हिंओ मचरी पन्जवचरत्री भवेभिक्स २४) द्रव्ये अयनपानादौ ते पूर्वोक्त बामनगरादोकालेपौरुष्यादौ भावेस्त्रीवादी आख्याताः कवितायेभावाः पर्यायास्तेसर्वैरपि द्रव्यादिपर्यायैः अवम अवमोदर्य चरति सेवतयः सोवमचराभिक्षः पर्यवचरकोभवेत् पर्यायावमोदर्यचरकोभवतीत्यर्थः एकसित्य काद्यल्पाहारण द्रव्यतोवमोदर्य स्यादेव परं ग्रामाशेजेवत: पौरुष्यादौकालत. स्त्रीपुरुषादिषु भावतः कथं अवमोदयं स्यात् उत्तर क्षेत्रकालभावादिष्वपि विशिष्टाभिग्रहवशात् अवमोदर्य स्थादेव इह पुनः पर्यायग्रहणेनपयव प्राधान्य विवक्षयापर्यवावमोदर्य जेब २४ भिक्षाचर्यामाइ [अट्ठविहगोयरग तु तहासत्तेवएसणा अभिमाहायजे अब्रेभिक्ला यरियमाहिया २५ ] भिक्षाचर्या उत्तिसंक्षेपापरनामिका बाह्यातपस्या आख्याता अष्टविधोगोचराग-प्राक्ततत्वादष्टविधोग्रगोचरइति पाठः अग्रप्रधानी
मुणयब्व'२३ ॥ दर्व खित्ते काले भावंमिय आहियाओ जेभावा। एएहिं ओम चरओ पज्जव चरमो भवे भिक्खु २४॥
अट्टविहं गीयरग्गंतु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहाय जेअन्ने भिक्खायरियमाहिया २५॥ खौर दहि सप्पिमाईपणीयं ज्ञातव्य एभाव अनोदरीतपजाणवो २३ द्रव्यः ट्रव्य क्षेत्रः क्षेत्र कालः काल भावादी आख्याता जे भावाः भावने विखे भाव कह्या एते अवमोदर्ये भवेत् ए भावे करोने जे साधु विहरे पर्याय चरको भवेद्य ति: ते पर्यायचरक साधु कहोइ २ ४ अष्टविधा गोचराग्रगी चरौ भेदाः पाठप्रकारे गोचरी कही तथा सप्तषणा संस्पृष्टाद्याः सातप्रकार एषणाना का ये चाभिग्रहा अन्ये पि संसट्ठा असंसट्ठा इत्यादिक अभिग्रह अन्ये पि भिक्षाची पाख्याताः अनेरा पणि अभिग्रह गोचरीना कह्या २५ दुग्ध दूध दधि दहीं सपि वृतादिक मस्नेहं पान भोजनं सरस पान भोजन परिवर्जनं रसानांतरसनु वर्ज'
MAAKAARXXAADAAXARRORXR
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टौका
अ०३०
உ
स्व
भाषा
गोचरः अष्टविधवासौ प्रयगोचरव अष्टविधाग्रगोचरः अष्टौ अग्रगोचरगाभेदाइत्यर्थः पेटा १ अई पेटा २ गोमूत्रिका ३ पतङ्गवैौथिका ४ अभ्यन्तर शम्बकावर्त्ताबाह्यशंबूकावर्त्ता च ५ आयतगन्तु प्रत्यागमाद ऋजुगति ७ एवं अष्टीभेदा ऋजुगति वक्रगतिचेपणात् ज्ञेया सप्त एषण संस्पृष्टादयः संसट्टा १ असंसट्ठा २ उद्धट ३ अल्पलेपिका ४ उह होता ५ प्रगृहीता ६ उज्तिमा ८ एषा सप्तविधा एषणाज्ञया च पुनरन्धयेऽभिग्रहाः सन्ति अभिग्रहा यथा द्रव्यक्षेत्रकालभावादिचिन्तनेन भिक्षाग्रहणरूपाः द्रव्यतो मण्डकादिक' क्षेत्रतो गृहादौ देहलिकातोमध्ये वहिर्वा कालतोभिचाचरेषु निवर्त्ततेषु भावतो रुदन् हसन् वादास्यति तदाहारो ग्राह्य इति चिन्तमेन भिक्षाग्रहणं एवं भिचाचर्यया भेदास्तीर्थं करे राख्याताः कथिता इत्यर्थः २५ अथ रसत्यागाख्यंतप श्राह [खोर दहि सप्पिमाई पणीयं पाणभोयण' परिवज्जण' रसाणन्तु भणियं रसविवज्जणं २६] एतत् रसविवर्जनं रसत्यागाख्यंतप यह एतत् रसविवर्जनं रसत्यागाख्यंतप स्तीर्थ करर्भणितं रसानां परिवन' नं रसपरिवर्तनं चोरं दुग्धं दधि तथा सर्पिष्टतं चोरं च दधि च सर्पिव चौर दषि सर्पिषि एतानि आदिर्यस्य स तत् चौर दधि सर्पिरादि प्रणीतं पुष्टिकारकं पानं पानयोग्याहारं भोजनं भक्त' यस्मिन्पौते भुक्ते सति बहु कामोद्दीपनं स्यात् तस्य परिवर्जनं रसत्यागाख्यंतप उच्यते प्राकृतत्वात् षष्टोस्थाने द्वितीया पाणीयं पाणभोवणं परिवज्जण' इत्यत्न या २६ श्रथ काय तप आह [ठाणा वीरासणाईया जीवस्मउसुहावहा उम्माजहा परिज्जति कायकिलेमं विहायियं ] तत्कायक्लेश तपोच्याख्यातं तदिति किं यत्र पाणभोयणं । परिबज्जणं रसागंतु भणियं रस विवज्जणं २६ ॥ ठाणा वीरासणाईया जीवम्मओ सुहावहा । उग्गा
भणितं रस विवर्जनं रसपरित्याग तप को २६ स्थानानि वीरासनादोनिका उस गवौरा सणपणे जीवस्य सुखावहानि जोवने सुखना करणहार
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रायधनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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ए० टोका अ०३०
८८७
सूच
भाषा
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वोरासनादानो स्थानानि कायस्थिति विशेषाणि यथा धार्यन्त क्रियन्त वोरासन गुरुडासनलगुडासनादीनि यथा क्रियन्ते तथा कायक्लेशः स्यात् कथं भूतानि स्थानानि जीवस्य सुखावहानि कर्मनिर्मूलनचमाणि पुनः कोमानि उग्राणि भोषणानियैस्तैः पुरुषः कत्त, मशक्यानि प्राकृतत्वाङ्गिव्य त्ययः २७ अथ संलीनतामाह [एगन्तमणावाए इत्थोपसु विवज्जए सयणासणमेवण्या विवित्तरायणासणं २८ ] एकान्ते जनैरनाकुले पुनरनापाते न विद्यते आपात स्त्री पुरुषादोनां आगमनं यत्र तत् अनापातं तस्मिन् पुन: पसुपण्डकादि विवर्जिते आरामोद्यान शून्य गृहादिस्थाने सयनासनसेवनया कवा संलीनताख्य' तपोज्ञेयं इत्यर्थः २८ [एसी बहिरङ्गतवो समासेण विवाहिओ अभिन्तरोतवोएत्तो बुच्छामि श्रण पुब्बसो २८ ] एतत् पूर्वोक्त' समासेन संवेपेणवाद्यं तपोध्याख्यातं एत्तोइति इतोऽनन्तरं श्राभ्यन्तरं तपोवने अनुक्रमेण १८ (पायच्छित्तं ३०) पापं आलोच्यतपसाङ्गीकरणं प्रायवित्त तथा विनयो एगत मणावाए इत्थौ पसु विवज्जिए । सयणासंग सेवण्या विबित्त वियाहिओ । अभितरी तदी एती वोच्छामि अणुपुव्वसी २६ ॥
जहा धरिध्वंति कायकिले संतमाहियं २७ ॥ सयणासगं २८ ।। एसो बाहिरंग तवा समासे उग्रदुः करतया यथा धार्यं ते उग्र दुःकर जिम अभिग्रह करे काय: संतपः श्राख्यातं एकाय कम तप को २७ एकांत अनापाते स्त्री पशुविवर्जिते एकांत शुद्दयतौने अव्याप स्त्रोयादिकनो व्यापनथौ तहांकोइनु श्राववु नथी स्त्रोपशुइ रहित शयनासनसेवनया शयनउपाश्रय श्रासनपाटि प्रमुख विविक्त ं शयनासनं एकांत शसनासन सलोनता तप २८ एषः बाह्यतयः एठे कह्या ते बाह्य तपः संक्षेपेण व्याख्यातः संखेपे करौने कला अभ्यंतरतपः इतः पश्चात् वत्रे कहुछ अभ्यंतरतपड् भेद एतलानंतर अनुक्रमेण अनकमे २८ पाप आलोई नयन लेवु वडानो विनय करोवु वैयानृत्य ं श्राचार्यादिकन ं
११२
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राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ० ४१मा भाग
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1
दानापभ्य थानादिकरणं व बाजुबंटानां पाहारोषधाचानीयदान तबैव खाध्यायःखाध्यायस्य चतुर्विधस्य करणंतथा ध्यानं धर्मशकाटिचिन्तनं उत्सर्गः कायोमर्गस्य करणं अपि च पदपूरण ३०] अथ विस्तरेण घड् विधस्यभेदानाह (आलोयणारिहादीयं पावकित्त'तु दसविहं जेभिक्सवादरमग्न' पायकिन तमाहियं ३१] तत् प्रायश्चित्त आख्यातं तत् किं बत् भिन्तुः साधुदयविध आलोचना:दिकं सम्यक् वहति कायया सेवी तत प्रायचित्ताख्य' प्राभ्य न्तरं तपपाख्यातं तौबकरैरुपदिष्टं आलोचनार्हादिक' कि मुच्यते आलोचनं गुरोर पाप प्रकायनं तम अर्हतियोग्यो भवतीति पालोचनाई तपः क्रियानुष्ठानादिकं यतीहि पापं आलोचनातः शध्यति पालीचनाहं आदिर्यस्य तत् पालीचनार्हादिक' दयविधं यथा पालोयण । परिकमणे । मोस र विवेग ४ तहावि उस्मग्गे ५ तव । वय ७ मूल ८ अणहियाय ८ पारंचिए१० चेव २१ अथविनय भेदा नाह (अम्भ द्वाण पालिकरणे तसेवामण दायणं गुरुभत्तिभावस स्मूसाविणो एसवियाहिपोर ३] अभ्युत्थानं गुरुन् आगतान् दृष्टा स्वकीयस्थानात् ऊौं भवनं अञ्चलिकरणं कराययोजनं तथैव
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रासं• उ• ४१माभाग
पायच्छित्तविणओ बेयावच्च तहेब सभाओ। भाणं उस्मग्गोबिय अभितरी तवोहाइ ३०॥ आलायणा रिहा
ईयं पायच्छित्तंतु दसबिहं जेभिक्खू बहई सम्म पायचित्तत माहियं ३१ ॥ अभ्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तह वा सणदायणं। * वेयावच्च तथैव स्वाध्यायः तिमज सज्झाय ५भेद ध्यानं ध्यानकर कायोत्सर्गः काउस्मान करवु एष: अभ्यतरतप: ए अभ्यतरतप ६ प्रकार जाणवो ३० - गुरुसमीपे आलोचनाग्रहणं गुरुसमौपे आलोवे पापने प्रायश्चित्त दशविधं प्रायवित्त दसे प्रकारे यः भिक्षूवहति सम्यक् जे साधु भली परिकायाइसेवे * प्रायश्चित्त पाख्यातंते प्रायच्छित्तनामा अभ्यंतर तप कह्यो ६१ गुरुणां अभ्य स्थानं गुरुप्रमुख वडाने उभाथाबु तेषामग्रे अंजलिकरणं हाथजीडबुतधेवा
भाषा
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• टोका अ०३० ८८८
सूत्र
भाषा
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चासनदापमं गुरोरुपरिभक्तिभावः सुश्रूषागुरोरादेशकरणं एष विनयोव्याख्यातः इति विनयनामक पञ्चविधं तपउक्तमित्यर्थः ३२ अथ वैयावृत्त्य कथ्यते [आयरियमाइयमि वेयावच्च' मिदसविहे आसेवणं जहाथामं वेया वच्चन्तमाहियं ३३) तद् वैयावृत्त्य' आख्यातं तत् इति कि' यत् यथाथाम इति aur बलं आचार्या दौविषयेदशविधे वैयावृत्त्य उचिताहारादिदानं तथा आसेवन तत् वैया वृत्ताख्य' तपः कथितमित्यर्थः आचार्यादयोदश वैया वृत्त्ययोग्याः तेच अमीत्राचार्य १ उपाध्याय र स्थविर २ तपखौ ४ ग्लान ५ साहण ६ साधर्मिक ७ कुल ८ गण ८ सङ्घ १० एतेदशवैयावृत्यार्हाः ३३ स्वाध्यायमाह [वायणा पुच्छणाचेव तहेवपरियहणा अणुप्पेहाधम्म कहा सज्याश्रपञ्चहाभवे ३४] वाचनापृच्छनापरिवर्त्तनाश्रनुप्र चाधम्र्मकथा इति गुरुभत्ति भाव सुमसा विणओ एस वियाहियो ३२ | आयरिय माईए वेयावच्चमि दसविहे । आसेवणं जहा यामं बेयावच्च' तमाहियं ३३ ॥ वायणा पुच्छणाचे व तहेवय परियट्टा । अणुप्पेहा धम्म कहासज्यायं पंचहा भवे ३४ ॥ सनदानं तिम वलो तेहने आसण पु ंछणादिवे सवादेवो गुरुमौ भक्तिभाव शुश्रूषा गुरु ऊपरि भक्तिभाव गुरुनो आदेश प्रमाण करे एषः विनयरूपं तयः भगवता व्याख्यात विनयरूप भगवंते कह्यो ३२ आचार्यादिषु आचार्यादिकने बिखे दशविध वैयावृत्त अशनादिकः आणी देवोवेवे यावच्च दसप्रकारने विखे आसेवनं यथा वलेन आसेवन वेवावश्च संबंधी अनुष्ठान करवु आपणा बलसारू तद्दयावृत्य' आख्यातं ते वैयावच्च कं भगवंते ३३ वाचना पृच्छनाचैव गुरुसमौपे वाचना लेवो १ संदेहन वली पूकवूं २ तथैव परिवर्त्तना तिमवली शास्त्रभख्यानु' वार २ गुणबु' २ अनुप्रेक्षा सूत्रादिक car ४ धर्मोपदेशः धर्मोपदेशदेवो ५ अयं स्वाध्याय पंचधाभवेत् सज्झाय पांचप्रकार रूप अभ्यंतर तपकयो ३४ आर्त्त रोद्रध्याने वर्जयित्वा
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दाय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा आम
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* स्वाध्यायः पञ्चधाभवति एतेषां अर्थस्तु पूर्व क्रतएवास्ति २४ अथ ध्यानमाह [बरुदाणि वज्जित्ताजमाएज्जासुसमाहिए धम्मसुकाई भाणार' माणं तंत ४ बहावए ३५] बुधाः पण्डितास्तदातडद्यानं वदन्ति तदाइति कदा यदा सुसमाहितः सैम्यक् समाधि युक्त : साधरातरौ दनिकाल
ध्यायति तदाध्यानं ध्यानाख्य न्तपीने यमित्यर्थः २५ अश्व कायोत्सर्गतप उच्च ते (सबणासणठारीवाज उभिक्व णवाचरे कायस्मविउस्मग्गो छट्ठीसोपरि कित्तियो२६) तत् षष्ट कायोत्सर्गाख्य तपः परिकौति तं तत् किं यत्र सबनासनस्थानेभिक्षु साधुन व्याप्रियतेनव्यापारं कुर्यात शयनेखापे पासने उपवेशन स्थानआईस्थितौ यथा शक्तिकायस्थ व्य मर्गे मम त्वस्य त्यागः स्यात् तदाकायोत्सर्गाख्य' तपोभवति ३६ ( एवं तवं तु दुविज सम्पायरमणी मेखिप्प सञ्चसंसाराविष्पमुच्चइ पण्डिएत्तिबेमि ३७] योमुनिर्यः साधुः एवं अमुनाप्रकारेण बाहााभ्यन्तरभेदेन विविध तपः सम्यग पाचरति स पण्डित
अट्ट महाणि वज्जित्ता भाएज्जा मुसमाहिए। धम्म मुक्काडू भागाडू' भागांतंतु बुहावए ३५ । सयणासण ठाणेवा जेउभिक्ल नवाचरे । कायस्म विउस्मग्गो छट्ठोसीपरिकित्तिो ३६॥ एवंतवंतु दुबिहजे सम्म आयरे मणी। मेखिप्पं
रायधनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ. ४१ मा भाग
भाषा
४ात ध्यान दुःखथी ऊपनु रोद्रध्यानवे वर्जीने ध्यायेत् सुसमाधितः ध्याये दृढचित्तथको धर्मध्यानं शक्लध्यानं च ध्यायेत् धर्मध्यान ध्यावे अंत कर्मनी
हणणहारते शक ध्यानध्याये ध्यानतप कहोजे ते एवं ध्यानरूप अभ्यंतर तप कह्यो वुद्ध तीर्थ कर ३५ शयने आसने अभ्य त्याने वा सवाने विखे वेस वाने विखे ऊभारहवान विखे यः भिक्षूकायादि व्यापारा न करोति जे साधू हालवु चालबु न करे कायायाः व्युमर्ग कायानु बोसिराबबु चेष्टादिक थको निवर्त्तबु षष्टस: अभ्य तर तपः छटो ते अभ्यतर तप बखाण्यो ३६ एवं वाह्याभ्यतरं तपः विविध इम वाह्य तप अभ्य तर तप विहं भेद यः
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•टौका प०३१
स्तत्वज्ञोमुनिः क्षिप्र शीघ्र संसारात् चतुर्गति भ्रमणात् विशेषेण प्रमुच्यते अन स्कन्दक कथाइति अहं ब्रवीमि श्रीसुधर्मास्वामौजम्ब स्वामिनं प्राह ३७ इति तपोमार्गाध्ययनं इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मोकौति गणि थिष्यलक्ष्मीवनभगणि विरचितायां तपोमार्गाध्ययनं त्रिशत्तमं संपूर्ण ३० अथै कविशत्तमं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने तथोमोक्षस्य मार्गत्वेन प्रकाशितं अथ च तपस्तुचारित्रवत: साधोरेवपाचे सम्यक प्राप्यते इत्यग्रे तनाध्ययनेन सम्बन्धः (चरणविहम्पवक्खामिजीवस्म उसुहावहं जञ्चरित्ताबइजौवातिमासंसारसागरं १) सुधर्मास्वामौवदति हे जम्बखामिन् अथाई चरणविधि चारित्र विधि चारित्रस्य विधान प्रवक्ष्यामि कीदृशं चरणविधि जौवस्य भव्यजीवस्यसुखावहं सुखपूरक यं चारित्रविधि चरित्वा अङ्गीकृत्य बहवोजोवा: संसारसागरं तोर्णाः १ (एगो विरई कुज्जा एगीय पवत्तणं असञ्जमे नियत्तञ्च सञ्जमेय पबत्तणं २) साधुः एकत: एकस्मात्स्था
सव्वसंसारा विष्पमुच्चदू पंडिएत्ति वेमिः ३७ ॥ तवमग्गज्मयणं सम्मत्तं ३० ॥ चरणविहं पवक्खामि जीवस्मउ मुहा वहं जं चरित्ता बहुजीवा तिन्ना संसारसागरं १ । एगो विरई कुज्जा एगीय पवत्तणं असंजमे नियत्तंच संजमेय
आ-सं०३.४१ मा भाग
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सम्यक आचरेत् मुनिः जे भलो परिपाचर साधु सः क्षिप्र सर्वसंसारात् ते शीघ्र ऊतावली सर्व च्यार गति थको विप्रमुच्यते पंडितः इति ब्रवौमिधि शेषे मुकाइ ते साधु सुधम्मा स्वामी जंबूप्रति कहे ३७ इति तपोमार्गाध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो ॥ ३० ॥ चरणविधि प्रवख्यामि चारित्रनीविधि मार्ग कहौसि जीवस्य सुखावहं जीवने सुखनो आपणहार यं अंगीकृत्य बहवः जौवाः जे आदरौने घणा जीव तीर्णः संसार सागर तथा यार गति रूप संसारसमुद्र १ एकः विरतिं कुर्यात् एक वोलथको विरति निवर्त वो करे ते केहा एक स्त्र प्रवर्तते एक वोलने विख्ने प्रवत्ति वू करे ने कहा असंयमा
राय धनपतसिंह वाहादुर का
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च०२१
जात् विरतिं कुर्थात् निवर्त्तनं कुर्य्यात् एकतएकस्मिन् स्थान प्रवर्तन कुर्यात् सार्वविभक्ति कस्तम् इत्येक इत्युक्तत्वात् एकतीविरतिं कुर्यात् इत्यत्र १ टीका पञ्चम्यतस् अग्रे एकतः एकस्मिन् स्थाने प्रवर्तनं कुर्य्यात् इत्यत्र सप्तम्यर्थे तस् प्रत्ययः निवर्तनप्रवर्तनयोः स्थानमाह असंयम इति असंयमात् हिंसादि
आश्ववात् निवृत्ति कुर्यात् च पुनः संयम सप्तदशविधे च प्रवर्तन' उद्यम कुर्यात् २ [रागहोसेयदीपावे पावकम्मपवत्तणे जेभिक्व कभई निच'मेन ८.२
अच्छाइमण्डले ३) योभिक्षुः साधूरागद्दे घोनिरुणद्धि कथंचित् सदयं प्राप्तौसतौज्ञानेनत्वरितं अत्यन्तन्तिरस् कुरुते स साधुभिक्षुमण्डले चातुर्गतिकसंसारन * अच्छद् इति न तिष्टन्ति संसारामुक्तोभवति ३ (दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणञ्चतियन्तियं जे भिक्व चयई निच्च सेन अच्छ इमण्डले ४) योभिक्षुर्दण्डानां च पुमरवाणां च पुनः शल्यानां प्रत्येक त्रिक' १ त्यजति स्वस्थ आत्मनिनधारयति स भिक्षुः संसारै नतिष्टति पूर्ववत् दण्ड्यते चारिबधनापहारणदरिद्रः
पवत्तण २। रागदीसय दो पाव पावकम्म पबत्ती जे भिक्खू कभई निच्च सेन अच्छदू मंडले ३॥ दंडाणं गारवा पांच सल्लाणंच तिर्य २ जे भिक्खू चयई निच्च सेन अच्छमंडले ४॥ दिब्वेयजे उबसग्ग तहातेरिछ माणुसे जे मिक्खू
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राय धनपतसिंह चाहादुर का आ •सं• उ• ४ १मा भाग
विवर्तते असंयमहि' सादिक धको निवर्तवु सयमच प्रवर्तनं सयम भेदने विखे प्रवर्त'२ राग हे धो हावपि पापरूपी रागष विहुपाप पाड्य * पापकर्म प्रवर्तको पापकम्म मिथ्यात्वादिकना प्रबर्तावणहार यः भिक्षुरुध्यति नित्यं जै साधु रूधे अलगाकर सन तिष्टति मंडलं ते नर हे मंडल ससार
माहिं भमे नही ३ दंडानां मन वचन कायाना दंडनीगारवाणांच रिबिरस शाता गारवानो शल्यानां चिकं त्रिकं मायानियाण मिथ्यात्व शल्यनी * विकयः भिलत्यजति नित्य जे सावत्यजे सदा सनतिष्टति संसारमंडले तेनरहे मंडल संसार माहि ४ देवकतोपसर्गान् देवताना कौधा हास्यादि
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.
DEN
. ४१ मा भाग
क्रियते आमाएभिरितिदण्डाः दुरध्यवसायस्तेषांत्रिक मनोवाक कायैर्दुष्टाध्यवसायचिन्तनत्वेनत्रिः प्रकारक' एतद्दण्डत्रिक तथा गुरोर्लोमादि सहितस्य चित्तस्य भावाः अध्यवसायानिगौरवाणि तेषां त्रिक ऋडिगौरवरसगौरवसातागौरवरूपं तथा शल्यते बाध्यते जन्सुभिरिति शल्यानि तेषां त्रिक मायानिदान मध्यादर्शनशल्यचिकं ज्ञेयं एतेषां योनिषेधकः समुनिमुतिगामौत्यर्थः (दिव्वेयजेउवस्म यो तहातरिच्छमाणसेजभिक्खू सहई निच्च सेन * अच्छइमण्डले ५] योभिक्षुदिव्यान् देवैः क्वतान् तथातैरश्चान् तिर्यभिःकृतान् तथामानुष्यकान् मनुष्यैः कृतान् उपसान् सम्यक कषायाभावेनसहते
समण्ड ले संसारनतिष्टति ५) विगहाकसायसन्नाण' झाणाण च दुयं तहाजेभिक्व वज्जई निच्च सेन अच्छ इमण्डले ६) योभिक्षुर्विकथा चतुष्क राज्यदेश भोजन स्त्रीणां वर्णनारूप क्रोधमानमायालोभरूपं कषाय चतुष्क संज्ञाचतुष्क आहारभयपरिग्रहमैथुनरूपविकारचिन्तन रूपं यं च पुनः ध्यानयो हिक प्रात रौद्ररूपं त्यजति स साधुस्मंसारेनतिष्टति प्राक्ततत्वात् ध्यानानां इति बहुवचन ध्यानानां चतुष्टयेवर्जनौयं ध्यानहितयं यं तस्मात् इयोरेवग्रहण ६ (वएसुइन्दियत्थे सु समिईसकिरियासव जेभिक्व जयईनिच्च सेनअच्छइमण्डले ७) योभिक्षु तेषु प्राणातिपातविरत्यादिषु तथा
सहई सम्म सेन अच्छदू मंडले ५। विगहा कसाय सन्नाणं झाणाणंच दुयं तहा जे भिक्ख वज्जई निच्चसेन अच्छडू * उपसर्ग तथा तिर्यग् मनुष्यानां तिथंचना क्रौधा अने मनुष्यना कौधा उपसर्ग यः भिक्षु सम्यक् सहते जे साधु भलौ परिसई सन तिष्टति संसार मडले
तेन रहे संसारमाहिं५ विकथा-कषाय सज्ञानां विरुद्धकथा तेविकथा क्रोधादिकषाय ४ ध्यानानांचदितयं तथा ध्यानर बात ध्यान रोद्रध्यानवली यः * भिक्षूवर्जति नित्य जे साधु वजे सदाई सन तिष्टीत मंडले ते रहे नहीं संसारमाहिं । व्रतेषुइंद्रियार्थेषु पंचसमितिष पांचसमितिनविखे क्रियाष चकाइय
राय धनपतमिंद्र बाहादुर का आ.सं
भाषा
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. टौका
इन्द्रियार्थषु भन्दादिषु तथा समितिषु पञ्चसु तथा क्रियासकायिक्यधिकरणिको प्राई षिको पारितापनिकीप्राणाति पातिकौषु पञ्चस्यतते यत्न कुरत है यो पादेय बुद्धि कुरुते समण्ड लेनतिष्टति ७ [ लेसासुकसुकायेसु छक्के आहारकारण जेभिक्व जयईनिच्च सेन अच्छइमण्डले ८] यः साध षट् लेण्यासुपुनः षट् सुकायेषु तथा आहारकरण षट्केयतते यथा योगं विपरीतले श्यानां निरोधेन सम्यलेश्यानां धारणेन षट कायानां रक्षणन षड्भिः पूर्वोक्त : कारणः आहारकरणन यत्न कुरुते स साधुर्मण्डले नतिष्टति ८ [पिण्डोगह पडिमासु भयहारी सु सत्तसु जेभिकव जयई निच्च सेन अच्छदमण्डले योभिक्षुः संसृष्टादिषु सप्तसुपिण्डावग्रह प्रतिमास सप्तसुपालने यत्न कुरुते इहलोकादिसप्तसु भयस्थाने भयस्याऽकरण स्थैर्य कुरुते समाधुर्मण्हलेनतिष्टतिर
मंडले ६ । वए इंदियत्येसु समिईमु किरियामुय । जे भिक्ख जयई निच्चसेन अच्छडू मंडले ७ । लेसास छस काएसु छक्के आहार कारणे जे भिक्ख जयई निच्च सेन अच्छदू मंडले ८ । पिंडोरगह पडिमामु भयठ्ठामोसु सत्तसु
जे भिक्ख जयई निच्च सेन अच्छडू मंडले ६॥ मएम बंभगुत्तीसु भिक्ख धम्म मि दसविहे जे भिक्ख जयई निच्च क्रियामादिदेइक्रियाने बिखे यः भिजू यतते नित्यं जे साधुयतन करे सदा सनतिष्टतिमंडलेते रहेनहीं संसारमाहिं लेस्यासुषट्स का येषुछेले स्थानबिखे छकायनेविखे षड्धाआहारकारणे छ आहारना कारण तेहने बिखे यःभिचू यतते नित्य जे साधुयत्नकर सदासनतिष्टति मंडले तेन भमे ससारमाहिं पिंडो उग्रहप्रतिसासु संसठादिक आहार लेवाना अभिग्रहनेबिखेइ भयस्थानेषु सप्तसु इहलोकादिभयस्थानकनेविखे यःभितू यततेनित्य जैसाधू जतन करे सदासन विष्टति मंडले ते नभमे ससारमाहिंट मदेषु जातिम दादिकम्मदनेबिखे व्रम्हचर्य गुप्तिषु बम्हचर्य नववाडिनोबिखे भिवूधर्मेदसबिधे साधुनो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• उ०४१मा भाग
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उ० टोका
अ०२१ ८०५
सूत्र
भाषा
[मये सुबम्भंगुत्तोसुभिक्व धम्म मिदसंविहे जेभिक्व जयई निञ्च सेन अच्छद्रमण्डले १०] योभिक्षुर्मदेषु जात्यादिषु अष्टसुतथा ब्रह्मगुप्तषु नवसु ब्रह्मचर्यह रचणवाटिकासु तथा दशविधेषु चान्त्यादिषु साधुधर्मेषु यतते मदानां परिहारे ब्रह्मगुप्तौनां रक्षणे उद्यमं कुरुते स संसारनतिष्ठति १० [उदासगाणं डिमासु भिक्खू पडिमा सुय जेभिक्लूजयई निञ्च सेन अच्छद्र मण्डले ११] यः साधुः उपासकानां श्राद्दानां एकादशसु प्रतिमासु तथाभि चूणां द्वादश प्रतिमासृवत्न ं कुरुते श्राद्धप्रतिमाणां सम्यक ज्ञानेन उपदानेभिक्षु प्रतिमाणां सम्यक ज्ञात्वापालनेयत्न कुरुते स संसारेन तिष्टति प्रतिमाअभिग्रहविशेषा उच्यन्ते ११ [किरियाग्नुभूयगामेसु परमाहम्मिए सुय जेभिक्खु जयई निच्च मेन अच्छद्र मण्डले १२] योभिचुः क्रियासु कर्मबन्धन भूतास चेष्टास स्वार्था नर्थादिभेदेन त्रयोदशसु तथा भूतग्रामेषु भूतानां प्राणिनां ग्रामाः संघाताः स्थानानीतियावत् तेषु भूतग्रामेषु तथा चतुर्दशस एमिन्दियसुरमियरा सेन अच्छइ मंडले १० ॥ उवास गाणं पडिमासु भिक्खणं पडिमासुंय । जे भिक्व जयई निञ्चं सेम अच्छंद्र मंडले ११ किरियासु भूयगामेसु परमाहम्मिएय । जे भिक्ख जयई निञ्च सेन अच्छद्र मंडले १२ । गाहा सालसएहिं तहा धर्मचमादि दशेप्रकारे यः भिक्षु यततेनित्य' जे साधु जतनकरे सदासन तिष्टति मंडले में स'सारमाहिं भमे नही १० उपासकानां प्रतिमासु श्रावक दंसणवयादि प्रतिमा ११ भेदने विखे भिक्षूनां प्रतिमासुच साधुमो १२ प्रतिमाने बिखे यः भिक्वू यततेमित्य जे साधू यतन करे सदासन मंडले ते संसारमाहिं भमे नही ११ क्रियासु भूतग्रामेषु अनर्थ दंडादि १३ क्रियाने बिखे भूतग्राम १४ भेद जौवने बिखे परमाधार्मिवेषु च अंबादिक १५ भेद परमाडम्मौने विखे यः भिक्षु यतते नित्यं जेसाधु यतन करे सहासन तिष्टति मंडले ते संसारमाहिं ममे नही १२ गाथाध्ययन सूटते गाथाध्य
११४
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राय धनपतसिंह बाहादुर का पास००४१ मा भाग
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० टोका
अ०२१
८०६
सूत्र
भाषा
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इत्यादिषु तथा परमाधार्मिकेषु पञ्चदशसु अम्बेअम्बरिसोचे बेत्यादिषु यत्न कुरुते त्रयोदशक्रियाणां परिहारे चतुर्दशभूतग्रामाणां रक्षणे परमाधार्मिकाणां परिज्ञानादृष्टकर्मभ्यो निवर्त्तने उद्यतो भवति स संसारनतिष्टति १२ ( गाहा सोलस एहिं तहा अस्तं मंमिय जेभिक्खु जयई निञ्च सेन अच्छइमण्डले १३) योभिक्षुर्गाथाषोडशकेषु तथा असंयमे सप्तदशविधेपिनित्यं यतते यत्न ं कुरुते समण्डले न तिष्टति गौयते कथ्यते व समयपर समय रूपोर्थोयाभिस्तागाथा स्तासां षोडशकानि सूत्रक्कताङ्ग अध्ययनषोडशकानि तेषु गाथाषोडशकेषु सप्तमो बहुवचने तृतीया बहुवचनं प्राकृतत्वात् सूत्रकृतां गाध्ययनानिषोडश सन्ति समत्रोवेयालीयमित्यादि असंयमस्य सप्तदशभेदाः सन्ति पञ्चाश्रवादिरमणं पञ्चन्द्रियनिग्रहः कषायजयः दण्डत्रय विरतिय त् संयमः सप्तदशभेदः एतस्माद्दिपरौतोसंयमोपि सप्तदशविधः तस्मात्सप्तदशविधे असंयमे योन प्रवर्त्तते स संसारनतिष्टति १३ [बम्भ' मिनायजर ठाणेस असमाहिए जेभिक्खु जयईनिञ्च'सेन अच्छइ मण्डले १४ ] योभिक्षुब्रह्मणि ब्रह्मचर्येऽष्टादशविधेदिव्यौदारिकमैथुनानां कारणकारणानुमति भेदात् तथा मनोवाक्काये नाष्टादशप्रकारे तथा ज्ञाताध्ययनेषु एकोनविंशति संख्ये षु उत् चितादिष तथा असमाधिस्थानेषुविंशति संख्येषु यत्न कुरुते स संसारनतिष्टति विंशत्य
जमंमिय । जे भिक्ख जयई निच्चसेन अच्छद्र मंडले १३ । बंभ'मि नायज्भवणेस ठाणेसु असमाहिए । जो भिक्खू नसुगडांगना प्रथमश्रुत स्क'धने विखे तथा अस' जमादिषु तिम वली पृथिवो असभ्यमादि १७ भेद अस यमने विखे यः साधुः जे साधु यततेनित्य ं यतन करे सदासन तिष्टति मंडले ते सौंसारमाहिं भमे नही १३ ब्रम्हचर्येज्ञाताधायने ऊदारिकभेद ब्रम्हचर्यनेबिखे जाताना अधायननेबिखे अठारेविध म्हचर्य विंशत्य समाधिस्थानकेषु असमाधिस्थानक विसने बिखे यः भिक्षु यततेनित्य' जे साध यतन करे सदासन तिष्टति मंडले तेन भमे सौंसारमाहिं १४
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ० ४ १ मा भाग
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उ० टोका
अ०३१ ८०७
सूत्र
भाषा
समाधिस्थानानि समवायांग सूत्र उक्तानि १४ [एगबोसाए सबलेसु बावौसायपरौसह जेभिक्ख जयएनिच सेन अच्छइमण्डले १५] योभिक्षूरकविंशति सब तेषु च पुनदोविंगति परोवहेषु यत तं स साधुः संसारे न तिष्ठति शवलयन्ति कर्बुरयन्ति चारित्र ये ते शबला: अशुभ क्रियारूपास्तेषु शबलेषु 'हस्तकर्मादिषु यः परिहार बुद्दि धत्ते द्वाविमति परोषहास्तु द्वितीयाध्यने पूर्वमेव कथिता स्तेषां सहनेस्यैर्यं कुरुते समण्डलेन तिष्टति १५ [तेवौसे सूयगडेसु रुवाहिएसु सुरेसु यजे भिक्खु जयई निश्शंसेन अच्छइ मण्डले १६] यो भिक्षुः सूत्र कृतेषु सूत्र कृताध्ययनेषु वयोविंशति संख्येषु तथा रूपाधिकेष सुरेष रूपं एकाङ्कं तेन अधिका रुपाधिकास्तेषु रूपाधिकेषु त्रयोविंशति अध्ययनानि सूत्र कृताङ्गस्य वर्त्तन्ते तानि यदा एकेन अधिकानि भवन्ति तदा चतुर्विंशति संख्याकानि भवन्ति तेषु चतुर्विंशति सुरेषु भुवनपत्यादिषु अथवादेषु ऋषभादि चतुवैिशति संख्येषु यत्न ं कुरुते एतेषु जयई निञ्च'सेन अच्छइ मंडले १४ । एगविसाए सबलेस बावीसाए परौसहे । जे भिक्खूजयई निञ्च सेन अच्छ मंडले १५ | तेवौसइ सुयगड रुवाहिए सुरेय । जे भिक्ख जयई निच्चसेन अच्छर मंडल १६ ॥ पणवीस एकविंशति शबलेषु चारित्रनेका वरु' करते २१ सबलने बिखे द्वाविंशति परोषहे क्षुधादि वावोस परिसहने बिख यः भिक्षु यततेनित्य' जे साधु यतन करे सदासन तिष्टति मंडले ते स'सारमाहिं भमे नही १५ त्रयोविंशति सूत्रकृतंगेषुसु गडांगना अधायनते बौसने बिखे१० भवनयतिव्यं तर रुपाधिक सुरेषु योतिष १ बेमानीक २४ने विखे अथवा २४ तौर्थकरने बिखे यः भिक्षु यततेनित्य' जे साधु यतन करे सदासन तिष्टति मंडले ते स'सारमाहिं १५ पंचविंशतिभावनासु महाव्रतनी२५ भावनाने faखे दशाश्रतस्कध कल्प व्यवहारना २६ उद्देशकालने बिखे यः भिक्षु यततेनित्य'
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राय धनपतसिंह वाहादुरका आ. सं० उ०४ १ मा भाग
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ऐ० टोका
३१
८.८
सूव
भाषा
9898030030
ज्ञानोपयोग कुरुते समण्ड नेन तिति १६ [पणवोसंभावणाहिं उद्दे से सुइसाइ जेभिक्खु जयई निञ्च सेन अच्छइमण्डले १७ ] योभिक्षुः पंचविंशति भावनासु पञ्च महाव्रतविषयेईर्यासमित्यादिसाधनारूपासु तथादमाईण' इति दशाश्र, तस्कन्धकल्प व्यवहाराणां उद्देशेषु षड् विंशति संख्येषु यत्न कुरुते समण्डलेनतिष्टति १७ [अणगारगुणेहिं च पकव्येयतहेवयं जेभिक्यूंजयईनिशंसेन श्रच्छद्रमण्डले १८] योभिक्षुः मनविंशति संख्येषु श्रनगारगुणेषु तथैव प्रकये प्रचारात स्त्रोतश स्वपरिज्ञानाद्यष्टाविंशध्ययनात्मके साधोः प्रकृष्टाचारे आचाराङ्ग यत ते सम्यगभ्यासं कुरुते स संसारनतिष्टति १८ (पावस्यपं सङ्गेस मोहठाणेसु चैवय जेभिक्व जयईनिशं मेनं अच्छद्रमण्डले १८ ) यो भिक्षुरेकोनविंशत् पापश्रुत प्रसङ्गेषु तथात्रि शमोहस्थानेष यततेस संसारन तिष्टति पापों पादानानि तानि पापश्रुतानि तेषु प्रसङ्गा स्तथाविधा भक्ति रूपाः पापश्रुत प्रसङ्गास्तेषु अष्टाङ्ग निमित्तादि शास्त्राभ्यासेषु, मोहो मोहनौयं कर्म तत्तिष्टति येषु तानि मोहस्थांनानि तेषु, त्रिंशत् संख्येषु, निवृत्तिं कुरुते १८ [सिडायगुणजोगेसु तित्तोसामायणास, यजेभिक्त जयई भावणाहिं उद्देसेसु दसाइगा । जे भिक्वजयई निच्च' सेन अच्छद्र मंडल १७ । अणगार गुणेहिंच पकप्प' मित ar जे भिक्ख जयईनिच्च' सेन अच्छर मंडल १८ ॥ पावसुयप्यसंगे मोहद्वा स चे वय जे भिक्ख ू जयईमिञ्च'
जे साधु यतन करे संदासन तिष्टति मंडले ते स सारमाहिं भमे नही १७ अणगारगुणेषु च वयक्कादि साधुना सत्तावीस २७ गुणने बिखे साधुनो उत् कष्ट आचारांगना२८ अधायनने बिखे यः भिक्षु यततेनित्य' जे साधु यतन करे सदासन तिष्टति मंडले ते स सारमाहि भमेनही १८ पापश्रुत प्रसंगेषु पाप ववानां श्रुत शास्त्रनिमित्तादिना २८ भेदने बिखे मोहस्थानकेषु चैव मोहनौ जिहां रहे निमोत्तपणे वर्त्तते ३० मोहथानने बिखे यः भिक्षु यतते
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राम धनपतसिंह बहादुर का आ. सं०० ४१माभाग
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मा.भामा
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४ निञ्च सेनअच्छदमण्डले २.] यः साधुः सिद्धातिशयगुणेषु एकत्रिंशत् प्रमाणेषु तथा हानिशत् प्रमाणेषु योगेषु त्रयत्रि यत्प्रमाणास आशातनासु नित्य स.टौका
यतते य एकत्रिंशत् सिद्धगुणान् ज्ञात्वा प्ररूपयति तथा योगेषु योगसङ्ग्रहेषु आलोचनादिषु यत्न कुरुते आशातनासु समवायाङ्ग सूत्रोक्तासु ज्ञात्वा ८.८ स्वयं ताभ्यानित्तते अन्यान् निवर्त यति स संसारनतिष्टति २० अथाध्ययनोपसहारमाह [इइ एएस ठाणेस जेभिक्खू जयईसया मेखिष्य सब्वसंसाराविष्य
मुच्चइपण्डि एत्तिबेमि २१] इति अमुनाप्रकारेणएतेषु अनाध्ययन प्रोक्तेषु अस यमादिस्थानेषु योभिक्षुर्यत ते सदायत्न कुरुते स भिक्षुः क्षिप्र शीघ्र सर्व संसारात् सर्वचतुर्गति भ्रमणात् विशेषेण प्रमुक्तोभवति इति ववीमि अहं इति सुधर्मास्वामोज बूस्वामिन प्राह इति चरणविधिनामाध्ययन सम्पूर्ण
सेन अच्छह मंडले १६ ॥ सिद्धाइगुण जोगेसु तित्तीसा सायणासुय । जे भिक्खू जयई निच्च सेन अच्छद्र मंडले २० । ड्डू एएम ठाणेमु जे भिक्ख जयई सया। खिप्प से सब्बसंसारा विप्पमुच्चदू पंडिएतिवमि २१॥ चरणविहंजना
भाषा
नित्य जे साधु यतन करें सहासन तिष्टति मंडले ते संसारमाहिं भमे नही १८ सिद्धादि गुण योगेषु सित पद पाम्ये आदि समेडू गुण ३१ ने बिखे मनोयोगादि व्यापार उत्तम आयणादि ३२ भेद तेहने बिखे वयस्त्रिंशदाशातनासु आचार्यनौते बौस पाशातनाने बिखे यः भिक्षु यततेनित्यं जे साधु यतन करें सदासन तिष्टति मंडले संसारमाहिं ते फिरे नही २० एषु एष पूर्वोक्त स्थानेष एण २ प्रकारे पूठे कह्या ते धानकने बिखे यः भिच यत ते सदा जे यतन कर सदाकाल क्षिप्रसः सर्वसंसारात् क्षिप्रज तावलो चारगति रूप संसारथौ विप्र मुच्यते पंडित: इति श्रीबवीमि मूकाइ अलगोथाई सर्वस'सारथी पंडित तत्वनी जाणइति सुधम्माखामौ जंबूप्रति कहें ११ इति श्रीचरणविधि अधायन सपूस यथो ३१ अलंतकालस्य समूलस्य अनादि
काय धर्मपतसिंह बाहादुर का पा
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N
444
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इति बोमदुत्तराध्यनसूवार्थदीपिकायां उपाध्याय चौलक्ष्मोकोर्सिगणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां चरणविध्याख्य एकत्रिंशत्तमं अध्ययनं सम्पूर्ण अथ हात्रियत्तमं प्रोचते पूर्वाध्ययने चारित्रविधिरुतः स च अप्रमादिनः साधीभवति तेन साधुनाप्रमादः परिहर्तव्यः ततः प्रमादज्ञानार्थ' प्रमाद स्थानाख्य अधायनं अथोच्यते [अञ्चन्तकालस्म समूलयस्म सव्वस्मदुक्ख स्मउजोपमोक्खोतंभासओमेपडिपुबचित्तासगीहएग तहियं हियस्य १] भव्यान् प्रति भगवान् वदति सुधर्मा वाम्यपि जम्ब स्वाम्यादिशियान् प्रतिवक्ति भोप्रतिपूर्ण चित्ताः प्रतिपूर्ण विषयादिभ्योविरक्तत्वेन अकखण्ड चित्त येषां ते प्रतिपूर्ण चित्ताः तेषां सम्बोधनं भोप्रतिपूर्ण चित्ताः अखण्डमनस्कास्तं एकान्त नहितं सम्यक ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक मोच हेतु तया वक्ष्यमाण मे मम भाषणस्य वचनं यूयं शृणुतकिमर्थ हितार्थन्तमिति कि यो हेतुः सर्वस्य दुक्खस्य प्रमोक्षोस्ति पत्र दुक्ख शब्द न स'सारस्य ग्रहणं कौशस्य दुक्खस्य अञ्चन्तकालस्म इति अचन्तइति अन्त' अतिक्रान्त अत्यन्त अत्यन्त कालोयत्रम अत्यन्तकालस्तस्य पुनः कीदृशस्य समूलकस्य मलेनकषायाविरति रूपेण सहवर्तते
यणं सम्मत्त'३१ ॥ पच्चतकालम समूलयस्म सव्वा दुक्खस्मउ जो पभावखो । तं भासयो मे पडिपन्न चिना मुणेहए
गत हियं हियत्व १॥ नाणस्म सब्बस्म पगासणाए अन्नाण मोहस्म विवज्जणाए रागम्म दोसस्मय संखएणं एगत कालनो ते अविरतिरूप मूल सहित सर्वस्य दुःखस्य प्रमोक्षः सर्वदुःखमयः ससारनो जे मूकाइते मुझने हे प्रतिपुर्णचित्र: तं मे ममभाषय हे प्रति पूर्ण चित्तवंत विषयथो चित्तखडाणो नयी जहनो एहवा हे गुरु मुझने कहे शृणुत एकाग्रचित्तेन हितार्थ सांभलो एकांतहित मोचनी अर्थ जिहां १ ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया मति ज्ञानादिक सर्वज्ञाननी प्रकाशना प्रगट करौवे करोने अज्ञान मोहस्य विवर्जनात् मति अन्नान अने दर्शन मोहनौने
रायधनपतसिंह पाहादुर का प्रा०सं० उ. ४१ मा भाग
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ए.टोका
इति समूलकस्त स्य यदुना मूलं संसारस्म होन्ति कसाया अविरई चेव १ अथ यत् पूर्व एव संसारस्य प्रमोक्ष हेतुक' वत' प्रारब्धं तदेवाह [नाम सवस्मपगासणाए अब्राणमोहम्म विवज्जणाए रागस्मदोसस्मयसखएण' एगन्तसोक्वं समुवेइमोक्स २] जौवीज्ञानेनदर्शने च चारित्रण एकान्त सौख्य & मोक्ष समुपैति प्रामोतीत्यन्वयः एतावताज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रमीच प्रतिकारणतालताइत्यर्थः ज्ञानस्य सर्वप्रकाशनया सर्वस्य वस्तुनः प्रकाशना
प्रकटीकरण प्रकाश्यतेऽनयेति प्रकाशनातया प्रकाशनया इत्यनेन ज्ञानात्मकोमोक्ष हेतु रुक्तः पुनरज्ञानमोहनस्य विवज नयाजीवोमोच्च समुपैति*
अज्ञानं मत्य ज्ञानादिमोहोमोहनौयं अन्नानं च मोहच अनयोः समाहारो ज्ञानमोहं तस्य अज्ञानमोहनस्य विवज नयाविशेषतस्त्यागेनमिथ्या तश्रवण * कुदृष्टि सङ्गत्यागेन मोक्ष: स्यात् इत्यनेन सम्यक दर्शनात्मकोमोक्ष हेतु रुक्तस्तथापुनरागस्य इषस्य च संचयेण विनाशेन जौवोमोच समुपैति रागद्देषा
भावेन चारित्रस्याभिधान' इत्यनेन चारित्रामकोमोक्ष हेतु रुक्तस्ततस्सम्यग् ज्ञानदर्शनचारित रकान्तसौख्यं दुकवलेशैरकलंकितं मोच समुपैति * मोक्षश्चदुक्खप्रमोशेण व ससारस्य निहत्त्व वस्यात् २ प्रतीज्ञानादीनां दुक्सप्रमोक्षत्वमीक्ष हेतु त्व' उक्ला इदानी ज्ञानादौनां प्राप्ते हेतून पाह [तस्म समग्गोगुरुविवमेवाविवज्जणाबालजणस्मदूरासज्माय एगन्तनिसेवणायम त्तस्य सञ्चिन्तणयाधिईय ३] हे शिष्य तस्य मोक्षोपायभूतस्य ज्ञानस्य एषः
सोक्ख समुद्रमोक्ख२॥ तस्ये समग्गो गुरु विद्धसेवा बिबज्जणा बालजणस्मटूरा | सज्भाय एगत निसवणाए
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१मा भाग
2 वर्जवेत्य जिवे रागद्दे षस्य सक्षयात् चारित्रने घातकरौ रागने हेपने क्षयकौधे एकांत सोख्यं समोचउपति ते एकांतनिराबाध सुखपामे मोक्षपाम २
तस्य मोक्षस्य समार्गः यो गुरूणां मेवातमोक्षमार्गनी पंथ श्रीगुरुशास्त्र नाजाणवडा तहनी सेवा मूर्ख जनस्य दरतः विवर्जनं विशेष वालजन पास
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उ० टीका अ०३२
८१२
सूत्र
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समौपतरवर्ती मन हृदयस्थ स्तवारी वच्यमाणोमार्गः प्राप्ति हेतु रुक्तइति शेषः एषः कस्तं मार्ग दर्शयति प्रथमं गुरुल्लड सेवाज्ञानप्राप्ति हेतुः गुरवश्च' ब्लडाश्चगुरुकृडास्तेषां सेवा गुरुल्लसेवा तत्र गुरुवोधर्मा चार्याः वृद्धा: श्र ुतपर्यायाभ्यां ये महान्तस्तेषां सेवा ज्ञानदर्शन हेतु भूताइत्यर्थः पुनर्द्र रात् वाल जनस्य मूर्खस्य विशेषेण वर्जना परिहरणाज्ञानस्य हेतुभूता पुनः पंचप्रकारस्य स्वाधप्रायस्य एकान्तेन एकाग्रचित्तेन निषेवना अभ्यसनं स्वाधरायैकान्त निषेवना ज्ञानप्राप्ति हेतुभूता पुनः स्वार्थयोः सम्यक्प्रकारेण चिन्तना स्वार्थ सञ्चिन्तना सापि ज्ञानप्राप्तिभूता पुनष्टति धैर्य चित्तस्यैकाग्य' उद्देगा भावत्वं एतदपि ज्ञानप्राप्ति हेतुभूतं एतैरन्तरेण ज्ञानप्राप्तिर्नस्यादित्यर्थः ३ एतान् इच्छता पुरुषेण प्राक् किं कार्यं तदाह (आहार) मिच्छेमिषमे सणिज्ज सहाय मिच्छेनिउण्ट्ट बुद्धि निकेय मिच्छ ज्ज विवेगजोगं समाहिकामे समणे तवस्ती ४) समाधिकामः श्रमणस्तपखी एतत् इच्छत् समाधिं ज्ञानदर्शनचारित्र लाभं कामबति अभिलषतौति समार्धिकामः ज्ञानदर्शनचारित्राभिलाषुकः श्रमणः क्रियानुष्ठानादो श्रमकर्त्ता तपखी षष्टष्टमदि तपः कर्त्ता एतत् इच्छ ेत् एतत् किं तदाह पूर्व एषणीयं दोषरहितं प्रहारं इच्छत् अभिलषेत् यादृश आहारस्तादृगुहार इति वचनात् तमपिमितं
सुत्तत्य संचिंतणया धिय ३ || आहार मिच्छे मियमेसगिज्ज' सहाय मिच्छे निउण्ट्ट बुद्धिं निकेय मिच्छन्न विवेग त्यादिकनो सेवा दूरे स्वाधरायस्य एकांत करणं सज्झाय पांचप्रकारे दूष्टचिंताटाली एकांते करवो सुत्रार्थं स चितनधिया सूत्राने अर्थ चिंतवाने बिखे धृति एकांत पणे वांछे ३. आहारइच्छेत् मितं एषणौयं ते साधु एहवोआहारवांछे मानोपेत अने एषणीय दोषरहित सखायंद्रच्छ व निपुणार्थ बुद्धि शिवने जोत्रादितत्व बिखे जेहनौ निकेतन इच्छत् विविक्तयोगे उपाश्रय ठांमवांछे स्त्रीपशुपंड करहित समाधि कामः श्रमणः तपखी नावादिकनी
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दाय धनपतसिंह माहादुर का भा०सं० ४१मा भाग
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ए टोका अ०३२
८१३
प्रमाणोपेतं नत्व परमितं यहोवात् पुनः साधुनिपुणार्थ बुद्धिं सहायं इच्छेत् निपुणार्थेषु जौवादितत्वेषु बुद्धिर्यस्य स निपुणा बुद्धिस्तं जौवादितत्वज्ञ सहायं शिवं इच्छेत् यतोहि सम्यक् निर्दोषाद्याहारधर्माचार वेदिकान् शिवान् गुरुरपि सहायान् थैलकमुनिवत् धर्मेस्थैर्य लभते पुनर्यः साधुर्विवेक योग्य निकेतं इच्छेत् विवेकः स्त्रीपशुपडकादौना प्रभावेन एकान्तस्तेनयोग्य विवेकयोम्य निकतं साधुनिवासस्थानं अभिलषेत् ४ अथ कालादि दोषवशात् चेत् पूर्वोक्तगुणः सहायः शिष्योनलभेत् तदा किं कर्तव्यमित्याह (नवालमज्जा निउणं सहायं गुणहियं वा गुणत्री समं वा इकोविपावार विवज्जयन्ती विहरिजकामेसु असज्जमाणो ५) वा भब्दो यद्यर्थे वा यदि निपुणं बुद्धिमं तं सहायं शियन लभेत् म प्राप्नुयात् तं सहायं गुणाधिक गुणैः
खस्मिन् स्थितैर्षिनयज्ञानादिभिरधिक उत् क्लष्ट' अथवा तं शिथं गुणत इति स्वस्मिन् स्थित नादिभिः समं सदृशं न प्राप्नुयात् तदा स साधुरेकोपि 8 एकाक्यपि शिष्यै रहितो विचरत् विहारं कुर्य्यात् न तु हौनानां कुशिष्याणां मुण्डमेलापं कुर्यात् सम्यक शिष्याऽभावे साधुना एकाकिनापि विहर्त व्यन
कश्चिदोषः साधुः कि कुर्वन् विहरेत् पापानिपापकारकाणि क्रियानुष्टानानिविवर्जयेत् पुनः साधुः कि कुर्वन् विचरेत् कामेषु असण मानइति इन्द्रियमुखेषु अनोद्यतो भवन् प्रतिबन्ध अकुर्वाणइत्यर्थः ५ अथ दुःखप्रमोच हेतु ज्ञापनार्थ दृष्टान्तमाह (जहाय अण्डप्यभवावलागा पलं बलागष्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.छ. १मा भाग
जोग समाहि कामे समणे तबस्सी ४ ॥ न बालमज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणो समंवा । एक्कोवि पावाडू समाधिनो वांछक छट्ठादिक तपनी करणहार ४ नवालभेत् निपुणं सखायं शिवं कदाचित् नलह न पाम उत्तम वुहिवंत शिष्य गुणाधिकं वा गुणतः 8 ससवाते ज्ञानादि गुण अधिको अथवा सरिखो एकोपि पापानि अनाचरन शिष्य विना एकलीपणि पाप कर्म अण करतो विचरेत् कामेष, प्रसज्य
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. उ. ४१मा भाग
टोका * भवं जहाय एमेवमोहाययणं खुतणहा मोहं च तणहाययणं वयन्ति ६) यथा बलाकपक्षिणी अण्ड प्रभवा अण्ड प्रभवं उत्पत्तिकारणं यस्याः सा इण्ड
प्रभवा अण्डादुत्पन्नाइत्यर्थः यथा च पुनरण्डं बलाकाप्रभवं बलाकापक्षिणीप्रभवो यस्य तत्वलाकाप्रभवं अण्डं बलाकात उत्पन्न इत्यर्थः एवं अमनादृष्टान्ने मेवखु निश्चयेन तृष्णावाञ्छामोहायतनं वदन्ति मोहस्य अज्ञानस्य आयतनं उत्पत्ति हेतु' पण्डि तास्त षणां वदन्ति इति भावः च पुनर्मोह तृष्णायतनं तृष्णायावाञ्छायाउत्पत्ति स्थानं पण्डितावदन्ति तृष्णाहि वस्तु निमूर्खासाचरागप्रधाना अतस्तयारागउपलक्ष्यते रागसतिहेषोपि स्यात् अतस्तृष्णाग्रहणेन रागद्देषौ उत्तौ । अतोरागद्देषयोराधिक्यमाह (रागीयदीसोवियकम्मबौयं कम्मच मोहप्पभवं वयन्ति कम्म' च जाईमरणम्ममूलं दुक्तच जाई मरणं वयन्ति ७) रागोमायालोभात्मकः च पुनर्देषः क्रोधमानात्मकः एतौ हावपि कर्मबीजं कर्मणां ज्ञानावरणादौनां अष्टानां बीजं कारण कर्मबीज कम्म
विवज्जयंतो विहरीज्ज कामेसु असज्जमाणो ५॥ जहाय अंडप्पभवा बलागा अंड बलागप्पभवं जहाय एमेव मोहाय
यणंख तन्हा मोहंच तन्हाययगं वयंति ६॥ रागीय दीसोविय कम्मबीयं कम्मच मोहप्पभवं वयंति। कम्मच जाई मानः विचर पांचे द्रोना कामभोगनेबिखे प्रतिबंध अणकरतो५ यथा अंडप्रभवा: बलाकाः हिवे मोहनौयनौ उत्पत्तिकहेछ जिम इडाथको उपनावालाग पंखियादिक अंडवलाक प्रभवं यथा अनेरूते पंखोयाथको ऊपनु जीव जौम एवं मोहायतनं तृष्णा इम मोह अज्ञाननु आयतन ऊपजवानुठांम तृष्णा वांछाछे मोहं तृष्णा यतनं वदति अतिमोहने तृष्णा वांछानु स्थानककहे तीर्थ कर तथा रागद्वेषो कर्म वौज रागअने हेषतसर्वकर्म आठप्रकारनीवीज उत्पतिथानकहे छ कर्मच मोहप्रभवंवदति तीर्घ कराः अनेकर्मते मोहनौथको ऊपनीकहे तीर्थकरकम्म'चजातिमरणस्यमूलनिकर्मतजातिजन्म अनमरणनु
रान धनपतसिंह बाहादुर का था
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कारणमित्यर्थः च पुन: कर्म अष्टप्रकारक मोहप्रभवं मोहोमून्निानं तदेव प्रभवो यस्य तत् मोह प्रभवं तीर्थं करावदन्ति कर्मइति जातिवादेकवचनं * कर्मणां मोहकारण इत्यर्थः तथा पुनः कर्म अष्टप्रकारक जातिमरणस्य मूलं जातिवमरण' च अनयोः समाहारोजातिमरण तस्य जातिमरणस्य * जन्ममरणस्य मूलं वदन्ति च पुनर्दु क्व तु जातिमरण एव वदन्ति जन्ममृत्यूएव दुक्त तीर्थकरा गणधराश्च वदन्ति जन्ममरणाभ्यां व्यतिरिक्त अन्यहुःखं * नास्ति इत्यर्थः ७ [दुक्ख हयं जस्मनहोइमोहो माहोहो जस्म नहोइतण हा तण्हाच्या जम्मन होइ लोहो लोहोहो जस्मन किच्चणावि ८] यस्य 8 मोहोनभवति तस्य पुरुषस्य दुक्ख इतं येन पुरुषेणमोहोहतस्तस्य स्वयमेव दुःखं हतं मृतमित्यर्थः यतीदुक्वस्य मूलं मोहएव मोहेगते दुक्ख गतमिति *होदयस्य पुरुषस्य हृष्णानभवति स्प हानभवति तस्य पुरुषस्य मोहोहतः मोहनीयकर्महतं मृतमित्यर्थः तृष्णायाऽभावमीहस्याप्यभाव' यस्य कृष्णा
वान्याहतातस्य लोभी न भवति निःस्प हस्य हण' जगत् इत्य क्लत्वात् यस्य लोभीहतीनिहत्तस्तस्य न किचन अपि नकिमपोत्यर्थः स सर्वथाप्यकर्मका
ल. ४. मा भाग
मरणस्म मूलं दुक्खं च जाई मरणं वयंति ७॥ दुक्खं हयं जम्म न हादू माही मोही हो जस्म न होडू तन्हा । तन्हा हया जस्म न होडू लाही लाहाहो जस्मनकिंचणाडू८॥ रागच दासंच तहव माहं उद्दत्तु कामेण समूल जालं ।
राय धनपतसिह काहादुर का प्रा.
भाषा
ॐ मूलके कमें जन्ममरणपामोई दुखंच जातिमरण वदंति अने जन्मजरामरण ते दक्वन' कारणकहे भगवत ७ दुःखं हतं यस्य नभवति माह दुकस हाणा. X जेहने तेहने नहीइ कषाबादिक मोहनीय मीहीहतः यस्यनभवति वृष्णा अनमोहनौ प्रणाणा जेहन तहने नहोइ तृष्णा वांछाकृष्णा हता यस्य न भवति
लोभः पने वृषणा वांका हो जहने तेशनेन होवे लोभः लोभोहतः यस्य न किंवन भवेत अने लोभ हगाणो जैहने उत पामे किंचन व्यन व राग
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भवन्ति ८ अय मोहादीनां उन्म लनोपायमाह (रागञ्च दोसञ्च तहेवमोहं उहत्तुकामण समूलजालं जेजे उपाया पडिवज्जियब्वात कित्तइस्मामि अहाण अ०३२४
पुचिट)हे विथ अहं पानुपू• अनुक्रमेणतान् उपायान् ते तव अग्रे कोर्तयिष्यामि तान् कान् ये उपायारागश्च पुनर्वेषं तथैवमोहं समलजालं मूलसहित उहत कामन पुरुषेण प्रतिपत्तयाः अङ्गीकर्तव्याः उपायथब्द नहेतवः ८ [रसापकामं म निसेवियब्बा पार्यरसादित्तिकरानराण दिन' च कामासमतिदु वन्ति दुमं जहासादुफलवपक्सौ १०] राग द्वेषमोहोन्म लनं च्छतानरीणरसाङ्गारादयोदधि दुग्धतादयोषा प्रकामं अत्यन्तं रसलोलुपत्वेन न निषेवि तव्याः मुह पडुनमेवनीयाइत्यर्थः प्रायेणरसामेबितास्मन्तानराणांदीप्तिकराभवन्ति धातु वीर्यादि दौत्य त्यादकाभवन्ति च पुनर्दीत धातुबलवीर्यादियुक्त मनुष्य कामायमभि द्रवन्तिविषयाः समभि आयान्ति तथा वितंवनिता अभिलषन्तीति भावः केकमिव पक्षिण: स्वादुफलं दूमं इव स्वादूनिस्वादुयुक्तानि
जे जे उवाया पडिवज्जियब्वा ते कित्तस्मामि अहाणुपुदि॥ रसापगाम न निसैवियचा पायं रसा दित्ति करा
नराणं । दित्तं च कामा समतिद्वंति दुम जहा साटु फलंब पक्खो १०॥ जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे समारो ईष तथैव मोहं रागद्देष अने मोहनीयकम्मने उहत्तुं कामन समूलजालं उरिवानौं कामनावांछानो धणीने मूलसहित येये उपायाः प्रतिपत्तव्याः जेजे रागादि कटालिवाना उपाय कारण आदरवा तत्कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्व्या तेई कहीसवा अनुक्रमे रसाः प्रकामं न सेवितव्याः रसघृतादि धणा सेववा नहीं प्रायः रसाः दौप्तिकरा: नराणां प्राइते रससेव्या थका दौप्ति वौर्यादिकना करणहार मनुष्यने दिप्त पुनः कामाः प्रतिगच्छति दीप्ति वौर्यादीक मनुष्यने कामकंदप साहस बलवंतथार काम पावोव्याप खादफलं दुममिव पची जोम मच खावंतने फलने पंखीया साहमाजाइ १.
रायधनपतसिंह वाहार का प्रा०सं० उ. भागमा।
सूब
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उ० टोका अ०३२
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सूत्र
भाषा
फलानि यस्य स स्वादुफलस्तं मधुरफलं वृचं प्रतिपचिणस्तदभिलाषिणोऽभिं मुखमायान्ति तथा बलिष्ट दोष पुरुषं कामावनितादयोऽभि मुख आयन्ति इति भावः इत्यनेन रसप्रसेवने दोष उक्तः १० अथ सामान्येन प्रकामभोजने दोषमाह (जहादवम्गोप उरिम्धणेवणे समारुश्रोनोवसम उवेद्र एबिन्दियग्गोविपगामभोइणो नबं भयारिस्सहि यायकस्स ११) यथादवाग्निदीवानलः प्रचुरन्धने बहुलकाष्टेवनेलग्नो उपथमं उपैति न उपशाम्यति कोहोदावानलः समारुतः पवनसहितः एवं सकाष्टवनेलग्न स पवनदवाग्नि दृष्टान्तेन प्रकामभोजिनो मात्राधिकाहारकारिणो ब्रह्मचारिणः इन्द्रियाग्नि हितायनभवति ब्रह्मचर्यचयायभवति अत्रे न्द्रियशब्देन इन्द्रियजनितरागोग्गृह्यते इन्द्रियजनितरागस्य अनर्थ हेतु त्वात् दवाग्ने रुपमा धर्मवनदाहकत्वात् मात्राधिकाहारकरणात् इन्द्रिय ग्रामो बलवान् भवति ११ पुनरागाद्युद्धर्तुकामेन कि कर्त्तव्यमित्याह [विवत सयणासण जन्तियाण' श्रीमासणाण दमिद्रन्दियाणं' नरागसत्त धरिसेद्र चित्त' पराइओवाहिरिवोस हेहिं १२] रागमत्र राग एवं शत्रु वैरोरागमत्र रेसाहयानां साधूनां चित्त न धर्षयति न पराभवति एतामानां कीदृशानां 'विविक्तमयनासनयंत्रितानां विविक्ताः स्त्रीपशुपण्डकादि रहिताया शयना उपाश्रयः विविक्तशयना तत्र यत् नोवसम उवे। एविंदियग्गवि पगाम भोगो न वंभयारि हियाय कमई ११ ॥ विवित्त सेव्जासण जंतियार्ण यथा दवाग्निः प्रचुरन्धन: वने जिम दावानलो अग्नि घणा काष्ट सहित अटवीने विखे समारुतः न उपशमं उपैति तेवलो बायर सहीतथको उपशम बूझाइ नही एवं पंचेंद्रियाग्निरपि प्रकामभोगिनः पुसः इम पांचेंद्रिय रूप अग्नि पणि अति सरस आहारलेबहार ब्रह्मचारिने हित भयो नहुवे केहने पिणं इतरमनोवांछित आहारकरता ब्रह्मचर्यने असंभवको अर्थात् अधिक आहारकरनेसे इंद्रियांका समूह बलवान् होता हे ११
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राय धनपतसिंह वाहादुरका का सं० उ०४१ मा भाग
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आसनं निवासोविविक्त ययनासनं तेन यन्त्रिताः सहिता: विविक्तगयनासनयन्त्रितास्तेषां विवक्ता शयनासन यन्त्रितानां एकान्तस्थाननिवाससहितानां १० टौका * पुनः कोशानां अवमासनानां ऊनाहारकारिणां पुनः कोदृथानां दमितेन्द्रियाणां वशीकृतन्द्रियाणां अर्थात् योगिनां चित्तरागवैरीन पराभवन्ति
- कइव औषधेः पराजितोभेषजैस्तिरस्कृतोव्याधिरिव यथा भेषजैर्निवारितोव्याधि देह पराभवितु न शक्नोति तथा रागशत्रु रपि एकान्तवसनतपश्चरणे *न्द्रियदमनाा पायैः पराभूतः साधूनां चित्त नक्षोभयति १२ स्त्रो प्रमुखसहितस्थानस्य दूषणमाह ( जहाविरालावसहस्समूले नमूसगाण वसहौपसत्था
एमेवइत्थोनिलयस्ममज्म नबम्भयारिस्म खमोनिवासी १३ ] यथा विडालावसथस्य मूले विडालस्य अवसथं गृहं विडालाव सधं तस्य मूले समोपे मूषकाणां उन्दराणां वसतिः स्थितिः प्रशस्तानसमोचौनाभवति विडाल गृहसमीपमूषकस्थितिमरणायैव एवं अमुनादृष्टानेन स्त्री निलयस्य स्त्रीया
ओमासगाणं दमिई दियाणं । न राग सत्तू धरिसडू चित्तं परादूओ वाहिरिवो सहहिं १२ ॥ जहा विराला वसहम
मूले न मूसगाणं वसही पसत्या । एमेव इत्यी निलयस्म मभी न बंभयारिस्म खमा निवासी १३ ॥ न रूव लावन्न विविक्त शयनासन प्राप्तानां विविक्त स्त्री पशुपंडक रहित शयन उपाश्रय अने आसन निर्दूषण सेवणहारने ऊनाशनानां दमितेंद्रियाणां ऊ णो दरौने *द्रिय पांचनादमणहारने नरागशत्र : चित्त प्रराभवति रागरूपौत्री शत्र धर्मे पराभवे नही साधुना चित्तने यथा व्याधिः औषधैः पराभूतः बाधां न करीति जिम व्याधि रोग औषधे पराभव्यो देहने पौडा कर नयी १२ यथा विडालवसति मूले जिम बिलाडानी वसतिने ठामे न मूषकानां वसतिः प्रथस्ता मसगदरनो जातिने रहवु भलु नहीं एवमेव स्त्रोनोलयमध्ये इम स्त्रो तथा नपुसकना घरमाहिं न ब्रह्मचारिण: निवासः क्षमः समर्थ ः वद्य
राय धनपत सिंह बाहादुर का प्रा03. ४१ माभाग
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ए० टौका
च०३२
सूत्र
भाषा
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सहितोनिलयोग्टहं स्त्रो निलयस्तस्य स्त्री निलयस्य मध्ये ब्रह्मचारिणोनिवासः नमायुक्तोनास्ति तत्र वसमानस्य ब्रह्मचारिणोब्रह्मचर्यस्य नाशएव स्यादिति भावः १२ स्यादि रहितेस्थाने दसमानेनापि स्वौसम्पाते किं कर्त्तव्य' तदाह [नरुवलावसविलासहावं नज' पियं इङ्गियपेहियं वा इत्योषचित्त' सिनसेव इत्तादद्रुवबस्ते समणेतवस्त्रौ १४ ] तपस्वीश्रमणः स्त्रीणां एतत्सर्वं एतत् चेष्टितं चित्त स्वकीये मनसि सन्निवेश्य सम्यगवधार्यद्रष्ट' न व्यवसेत दर्शनाय सोद्यमानभवेत् कोर्थः साधुः स्त्रीणां एतत् चेष्टितं सहृदि धृत्वा एतत् चेष्टितं द्रष्टुं व्यवसायं न कुर्यात् यतोहि पूर्व मनसः इच्छायाः प्रवृत्तिस्ततश्चक्षुरा दोनां इन्द्रियाणां प्रवृत्तिरिति तत् स्त्रीणां किं किञ्चेष्टितं तदाह रूपं स्त्रीणां गौरादिवर्णोलावण्य' नयनाह्लादकः कचिदुणविशेषः विलासीविसिष्टनयन चेष्टाविशेषः अथवा मन्यरगतिकरणादिकोहास्य स्मितं ईषदन्तानां दर्शनं जल्पितं मन्मनोज्ञापादिक इङ्गितं श्रङ्गोपाङ्गादिमोटनं स्वचित्तविकारसूचक afai वक्रावलोकनं रूपक्ष लावण्य च विलासश्व हास्यं च रूपलावण्य विलास हास्यानि तेषां समाहारो रूपलावण्य विलास हास्यं एतत्सर्वं स्त्रीणां साधुनारागेण न द्रष्टव्यमिति भावः १४ ( अदंसणं चैव अपत्यणश्च अचितण चैव कित्तणच इत्थोजणस्मारियभाणजुमां हियं सयादम्भचेररयाण १५ )
विलास हासं न जंपियं दूं गियपेहियंवा । इत्यौण चित्तंसि निवेसइत्ता दट्ठ ववमे समणे तवम्मी १४ ॥ असणंचेव
चारोने रहवु' चमयुक्त नही स्त्रौ पशुपंडकमांहि रहता वृह्मचर्यन रहे १२ न रूपलावण्य विलासहास्यः स्त्रोनु' रूप बोलवानी चतुराई वस्त्रादिकनों शोभा हास्य न कर न जल्पितं इंगित प्रेचितं वा सामणा वचन अंगादि मोडवो वां कोदृष्ट जोडवु स्त्रीणा चित्त निधाय स्वोजातिनुं एभल' एहषु चित्तने विखे थापौने द्रष्ट्' अधावसायं न कुर्यात् श्रमणः तपखी देख वाभणी मननकरे नकार पाछिल्योलोजे १४ प्रदर्शणचैव अथ प्रार्थनंच दर्शन
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हाय धनपतसिंह बाहादुर का पा० सं००४१ मा भाग
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ब्रह्मचर्य ब्रह्म व्रतरतानां सावधानां साधूनां एतत् आर्यध्यानयोग्य हितं वर्तते आर्य तद्यानच आर्यध्यानं सम्यग ध्यानं धर्माशुक्लादिक तस्य योग्य' म. टोका ४ हितं पथ्य' धमधाानस्य स्थैर्यकारकोभवति कोर्थः यदाहि ब्रम्हचर्यधारिणः एतत् कुर्वन्ति तदा तेषां धर्मधधानं स्थिरं स्यादित्यर्थः तत् किं किं आर्य प्र०३२..
* धानयोग्यं तदाह स्त्रीणां प्रदर्शनं रागण अनवलोकनं च पदपूरणे एवनिश्ये पुनः किं स्त्रीणां प्रार्थनं अभिलाषस्य प्रकरण पुन: स्त्रीणां अचिन्तन 2२०
४ यत् कदाचित् रूपादिक दृष्ट तस्य चेतसिनस्मरण अपरिभावनमित्यर्थः पुनः स्त्रीणां अप्रार्थन अभिलाषस्य प्रकरणं पुन: स्त्रीणां अचिन्तन' यत्कदा
चित् रूपानाम्नागुणेनवानकीर्तन प्रकौतन नाम गुणोच्चारणस्य प्रकरणं यदि ब्रह्मचारी स्त्रीणां दर्शन प्रार्थनं चिन्तन कीर्तनं करोति तदा तस्य * आर्यधानस्य उत्तमधधानस्य स्थे ये न स्यात् एतत्त धर्म धधानस्य योग्य हित नास्ति १५ ननु कश्चिदृश्यति विकार हेतौ सति विक्रियन्ते सेषां न
चेतांसित एवधौरा: तत् कि विविक्त शयनासनसेवनेन इति चेत्तवाह (काम तु देवीहि विभूसियाहिं नचाइयाखोभइउन्तिगुत्तातहाविएगन्तहि यंतिनच्चा विवित्तभावो मुणिणं पससत्यो १६ हे शिष्य तथापि मुनीनां विविक्तभावे एकांत स्थाननिवासः प्रशस्तः किं कृत्वा विविक्तभावं एकांतहितं
अपत्यण'च अचिंतणंचेव अकित्तणंच । इत्थीजणमा रिय माणजुग्गं हियं सया बंभचेरे रयाण १५ ॥ कामतु देवौहिं सूत्र
४ नजोइ निश्चे वांछा न करवो अचिंतनंचैव अकौतनंच शृंगारादिकनु चिंतन न कर निश्चे नानगुण कौर्तन न कर स्त्री जनस्य स्त्रीजातिनी आर्य है ध्यानयोगं आर्य उत्तमधर्मने योग्यधर्मनु धरिवो हितं सदा सर्वदा ब्रह्मचर्ये रतानां हितकारौ सदासर्वदा ब्रह्मचर्यने बिखे रागौने १५ अत्यथं पुनः
विभूषिताभिदेवीभौः अतिशयस्थो मनुष्यनीनो परिहारव देवांगनाइ तेवली अलंकार सहितणी न समर्थाः चोभयितु त्रिगुप्ताः संयमधी खोभा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ०४१मा भाग
भाषा
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मत्वा तवा इति कथं यद्यपि विगुतास्तिसभिगुप्ताः मुनयः कामं अयर्थ देवोभिः चोभवितु थानाञ्चालयितुं न चाइयाः इति नकिता: कौड्यो * भिर्देवौभिः आभूषण युक्ताभिः बदि देवाङ्गनाभिराभरणालमृताभिरपि साधवो धानात् न चालिताः तदा मानुषौभिस्तु क्षोभं प्रापयितु अशक्या एव
तथापि खौप्रसत्याग मुनौना एकांतहितं ज्ञात्वास्वयादि रहितोपाश्रये स्थितिः यसौति भावः १५ स्त्री प्रसङ्गत्यागं पुनरपि यति [मोक्ताभिक विस्मविमाशवस्म संसारभौरस्म ठियस्मधम्मे नतारिसन्दत्तरमथिलोए जहित्थिो बालमणोहरात्री १७] मोक्षाभिकांक्षस्य मोक्षाभिलाषकस्यमानवस्य * संसारभौरोरपि तथा धर्मे स्थितस्य श्रुतधर्मेस्थि तस्य अन्न ससारतादृशं दुस्तरं अन्यत् किमपि नास्ति तथा लीके ससारस्त्रौदुस्तरास्ति कीदृशौ स्त्री
बालमोहरा: बालानां अविवे किनां मनांसिहरतौति वालमनोहराः तु शब्दः पदपूरणेविशेषार्थे च १७ स्त्रीसंगाति क्रमे गुणमाह [एएसङ्ग समइक्क
विभूसियाहिं न चाइया खोभउ' तिगुत्ता। तहावि एगत हियंति नच्चा विवित्त वासी मुणिण पसत्यो १६ ॥
मोक्खा भिकंखिस्मवि माणवस्म संसार भौरुम ठियम धर्म । न तारिस दुत्तरमत्थि लाए जहित्यिओ बाल मणो * विन सन्याबिई गुप्त गुप्ता तथापि एकांत हितं ज्ञात्वा तोपणि एकांत हितनी कारण जाशीने विविक्त वाशः मुनिनां प्रशस्तः स्त्रीयादिके
रहि तथानक वास साधुने प्रशंशनौक तीर्थ कर एकांतभाव साधने प्रसंस्यो १६ मोक्षाभिलाषिणः पुसः मोक्षना अभिलाखौ मनुष्यने संसारभौरोः अमेखितस्स चारगति रूपसंसारबौ वौइताने श्रुतधर्मादिकने विखे सहितने नतादृशं दुस्तरं अस्ति लोके नयौ तेहबुकोई दुस्तर दोहिलुनही पार पामा लोकनेविखे यथा स्त्रो अन्जान मनोहारिणी जहवौ स्त्रौजाति बाल अज्ञानी नामननौहरणहार दुस्तरछे छोडता १७ एतान् स्त्रौसंगात् अतिकम्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.२.४१ मा भाग
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स.टोका
मा भाग
3 मित्ता सहुत्तराचिव भवन्तिमेसा जहा महासागरमुत्तरित्तानई भवे अविगङ्गासमाणा १८) मनुष्याणां एतान् स्त्री सम्बन्धि सङ्गात् समति क्रम्य शेषाः * धनधान्यादिसम्बन्धाः सुखोत्तराचैव भवन्ति मुखेनोत्तौर्यन्त इति सुखोत्तराः यथा महासागरं स्वयं भूरमण सदृशं समुद्र उल्ला गङ्गानदी अपि सुखी त्तरास खोन्नया एव तथा येन स्त्री सङ्गस्त्यक्तस्तस्य अन्यसङ्गोधनधान्यादि संयोग: सुत्यज एव १८ अथ रागस्य दुक्खहेतुत्वमाह ( कामागिद्दिष्य भवं ख दुकव सव्वस्मलोयस्मसदेवगम्म जकाइयं माणसियं च किञ्चितस्मन्तगङ्गच्छइवोयरागी १८) वीतरागः पुमान् रागद्दे घरहितो मनुष्य स्तस्य विविध स्थापि दुःखस्य अन्तक पर्यन्त गच्छति प्राप्नोति तत् विविध दुःख कीदृशं कायिक कायेभवं कायिक रोगादि तथामानसिक मनसि भवं मानसिक दृष्ट वियोगानिष्टस'योगादि पुनर्यतदुख सर्वस्य लोक सर्वस्य प्राणिगणस्य खुइति निश्चयेन कामानुदि प्रभवं विषयसतसेवनोङ्कतं वर्तते काम्यन्त अभि
MAHARAXARXXXXXR.R.R.XXX
हरायो १७ ॥ एएय संगे समक्कमित्ता मुहुत्तराचे व भवंति सेसा । जहा महासागर मुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगा
समाणा १८॥ कामाणु गिधिप्पभवं खु टुक्खं सब्बस्म लोगस्य सदेवगरम । जे कायं माणसियंच किंचि तसं तग ए पूठे कयां संग स्त्रौजातौनोते अतौक्रमौने सुखे नोत्तरितु योग्याः मेषसगाः मुखे जतरोवु कोइ दुस्तर दोहिलु लोकने विखे नही यथा महा * सागर उत्तौर्य जिम मोटो समुद्र सयंभू रमण ऊतरौंने गंगासमानापिनदी सुखोत्तोर्णा भवेत् गंगासमान जे मोटी नदीते सुखे उत्तरौइ एहवीह्नई१८ * कामानुडि प्रभवं निश्चयेन दुक्ख कामनौ अनुगृहि वांछा तेहथो ऊपनी निश्चय दुःख पाशाता वेदनीय जाणवो सर्वस्य लोकस्य देवसहितस्य सघला
लोकना समूहने देवता सहितने यत्कायिकं मानसिकं च किंचित् जे कायाने दुकवरोगादि मननी वारही वस्तुना वियोगथी ऊपनी थोडोइसकाइ
रायधनपतसिंह वाहादुर का मा०सं०१०
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लथन्ते जनैरितिकामाः विषयास्तेषु अनुग्रधिः कामानुद्धिः सतताभिकांचाकामानुग्रहिः प्रभवो यस्य तत् कामानुहि प्रभवं कौशस्य लोकस्य सदेव
कस्य देवैः सहितस्यवौतरागोविगतकामानुग्रहिरिहोच्यते १८ अथ कामा एक दुक्खहेतवइति वदति [जहाय किं पागफला मणोरमारसेण वणयभज्ज 8 माणातखुइएजीवियपञ्चमाणो एप्रोवमाकामगुणाविवारी २०] यथा च किं पाकफलानिविषवृक्षविशेषस्य फलानिरसेममधुरत्वेन वर्णेनरतादिनाचका
रात् गन्धेन भज्यमानानिजनस्य मनोहराणि भवन्ति तानि कि पाकफलानिक्षुद्रके जीविते तुच्छेसोपक्रममनुयायुषिषच्यमानानि उदरान्तरेगत्वाविपाका
वस्था प्राप्तानिमरणान्त दुःखानि भवन्तीत्यध्याहारः तथा विपाकेपरिपाककालेकामगुणाविषया एतदुपमाः एतेषां किं पाकफलानो उपमायेषां ते एत १ दुपमाः कि पाकफलसदृशाविषयाइत्यर्थः विषयाहि भोगसमयेमनोरमाविपाके परलोकेनरकादि दुःखदायिनः २० रागस्यैव इषसहितस्योहरणोपाय
गच्छडू वीयरागी १६ ॥ जहाय किं पागफला मणीरमा रसैण वन्नणय भुज्जमाणा। से खुद्दए जीविय पच्चमाणा एउव मा कामगुणा विवाग २०॥ जे इंदियाणं विसया मणन्ना नतेस भाव निसिरे कयाई। मया मणनेस मणंपि कुज्जा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा•स• उ• ४१मा भाग
भाषा
दुःख तस्यांतकं प्राप्नोति वितरागः ते दुःखना अंतपारपामे श्रीवीतराग मुनौखर १८ यथा कि पाकफलानि मनारमाणि जिम किं पाकचना फल 8 महारमणोक भला रसेन वर्णन भुज्यमान: रसे करोवर्णी करी चकार थी गंधे करौ भक्षण करतां स क्षुद्रः जीविन प्रत्ययमानः ते क्षुद्र तुच्छ असार
सोपक्रम जीवितने मरणांतने दुखदाई एषा उपमा कामगुण विपाकानां ए रुपमा कामभोग भोगव्याना फलने बिखे जाणवी २. ये 'द्रियाणां विषया: मनाचाः जबद्रिय ५ मा शब्दादौक बिखे मनोहरनतेषु भावं कदाचित् करोति ते इंद्रियना विषयने बिखे चित्तनो भाव न करे न च अमनी
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उ०टीका अ०३२
८२४
सूव
भाषा
माह [जेद्रन्दिया विसयामणवा न तेसु भावं निसिरेकयाइ नयामणत्र समपि कुज्जा समाहिकामे समवेतवस्ौ २ १] समाधिकामः समाधिं रागद्वेषा भावेन चित्तस्य स्वास्थ कामयते इति समाधिकामः चित्तस्थैर्याभिलाषी तपस्वी श्रमणः साधुः तेषु विषयेषु कदाचिद्भाव चित्ताभिप्रायं न सृजेत् कुर्य्यात् तेषु केषु ये विषया इन्द्रियाणां कर्णादीनां मनोज्ञा: वल्लभावर्त्तन्त तथा च पुनर्ये मनोज्ञा श्रप्रियास्तेषु श्रमनोशेषु इन्द्रियाणां विषयेषु मनोन कुर्यात् इत्यनेन सुन्दरेषु विषयेषु सरागं मनोनकुर्यात्तथा असुन्दरेषु विषयेषु स द्वेष' मनीनकुर्य्यात् २१] चक्वूस्त रुवमाहणं वयन्ति तं राग हेड' तुमणमा तं दोसहेत श्रमणनमाड समोयजोते सुवोयरागो २२] अथ मनोज्ञा मनोज्ञयोः स्वरूपमाह चक्षुषोलक्षणं रूपग्रहण तीर्थ करावदन्ति रूपं वर्णः संस्थानं वात हा मानेऽनेनेति रूपग्रहण' 'चतुरिन्द्रियस्य तत् लचणं तं इति तद् पं रागहेतुक' मनोज' प्राहुः यस्मिन् रूपे दृष्ट रागउत्पद्यत तद्रूपं मनोआहुः तदेवरूपं हे षहेतुक' अमनोज्ञमाहः यस्मिन् रूपे दृष्ट रागद्देष उत्पद्यते तद्रूपं अमनोज्ञमित्यर्थः यः साधुस्तेषु मनोज्ञामनोज्ञष रूपेषु समः सदृशष्टत्तिः स्यात् स साधुर्वीतरागउच्यते २२ [रूवस्म चक्त, गहण' वयन्ति चक्बु रूस रूवं गहणं वयन्ति रागाहेड' समणुत्रमाहु दोसा हेड' समाहि कामे समणे तवस्मी २१ ॥ चखुम रुवं गहणं वयंति तं राग हेडं तु मणुन्न माह । तं दास हेड' अणुन्नमाह
शेष मनः कुर्यात् श्रमनेान इंद्रियने विषयने बिखे मननकरे समाधिकामः श्रमण : तपस्वी रागद्वेषादि परिहार समाधिनो अभिलाषी साँधु कहादि तपना करणहार २१ चक्षुषः रूपं ग्राहकं बदंति बुधाः नेवने वर्णसंस्थानादिरूपनोग्रहण कहे रूपते अखिनो आकर्ष णहार के तद्रूपं समनोजं राग हेतु आहुः ते रूप मनोहर ते रागप्रे मनुकारण कहे भगवंत तद्रूपं अमनोजं दोषहेतु' आहुः ते रूप श्रमनोज्ञ पाहूओ ह षरूप कहे भगवंत एषुयः समः
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ ०सं० उ० ४४ मा भाक
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८२५
टीका
प्रमणुबमाहुः २३] तीर्थ कराचक्षुरिन्द्रियं रूपस्य विषयस्य ग्रहण बदन्ति रहातौति ग्रहण कर्त रियुप्रत्ययः ग्राहक रूपस्य ग्राहक चक्षुरित्यर्थः अ०३२
* पुनस्तीर्थ कराश्चक्षुरिन्द्रियस्य रूपं विषयं ग्रहण वदन्ति गृह्यते इति ग्रहणं ग्राह्यं चक्षुषाग्राह्य रूपं यत् चक्षुरिन्द्रियेण ग्राह्य तदेवरूपमिति भावः
अनेन रूप चक्षुषोर्याच्या ग्राहकभावेन परस्परं उपकार्योपकारकभावेन च सम्बन्ध उक्तः इत्यनेन रूपं रागद्देषकारण तथा चक्षुरपि रागद्दे षकारण उक्त तममनोज' चक्षुरिन्द्रियं रागहेतु आहुः सहमनोजेन ग्राह्य ण रूपेण वर्तते इति समनोज्ञ मनोनरूपग्राहक नेत्र रागहेतु कमित्यर्थः अमनोनुरूप प्राहक हे षस्य हेतुक आहुः कथयन्ति २३ [रूवेसृजोगिदिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइसेविणासं रागाउरैसेजहवापयङ्गे आलीयलोलेसमुवेइमञ्च २४] रागस्य दूषणमाह यः प्राणौरूपेष तौबा उत्कटांति रागं उपैति प्राप्नोतिकरोति धातूनां अनेकार्थत्वात् स प्राणौरागातुरः सन् रागपौडितः सन्
समाय जो तेसु स वीयरागी २२ ॥ एवम्म चक्खं गहणं वयंति चक्खुम्म एवं गहणं वयंति। रागस्म है समण न
माहु दोसस्म है अमणुन माहु २३ ॥ रुवेसु जोगिदि मुवे तिव्वं अकालियं पावडू से बिणासं । रागाउरे से जह सवौल राग: समजे भला भूडाने विखे रागद्देष रहित ते वीतराग कहौई २२ रूपं चतूर्य हाति रूपने चक्षुग्रहे इम कहे तीर्थ कर चक्षुषः रूपराध त्वं वदंति चक्षुने रूपाय पण एतले दृष्टिने रूप ग्राह्यपण समनोज रास्यह तुः रागनु कारण ते भलु कहताङ्गमा अमनीत' दोपहत पाहुः हेपनी हेतु कारण पाडू उकहता हा भगवंत २३ रूपेषु यः तीब्र रहि उपैति रूपने बिखे जे कोइ मूर्छाधण धरै स आकालिकं विनाशं प्राप्नोति अका खिते विनाश मरणपामे रागातुरः सः यथा पतंगः राग लोभनी वाघो जिम पतंगी यो म आलोक लीलः पतंगः मृत्य' उपैति आलोकदीवानी शिखाने
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
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४. टोका अ०३२ ८२६
B
सूच
भाषा
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कालिक एवं विनाशं प्राप्नोति अकालेभवं आकालिक' प्रायुषः स्थितेरर्वागेव स्त्रियते यतोमनुष्याहि सोपक्रमायुषः स्य: कद्रव यथा शब्द इवार्थे यथैव श्रालोके प्रदौपेप्रदौपशिखादर्शनेलोकालं पटः श्रलोकलोलः पतङ्गच तुरिन्द्रियोजोवोमृत्यु समुपैति तथा रागातुरोजीव अकालमृत्य ं समुपैती त्यर्थः २४ (जे प्राविदो समुद्र तिव्व तसिखणेसे उबेद्दुक्ख दुहन्त दोषेण सः एणजन्तू न किञ्चिरुवं अवरजाई से २५) अथ हेषदूषणमाह यथापि जीवोरूपेषु प्रत्यध्याहारः यस्मिन् क्षणेतोव्रन्दोष समुपैति स जीवस्तस्मिन्नेवचणे स्वकीयेनदुर्दान्तदोषेण दुर्दान्त चचुस्तदेवदोषोदुर्दान्तदोषस्तेन दुर्दान्त दोषेणदुक्खं चित्तसन्तापं उपैति परंसेइति तस्य पुरुषस्य रूपं कि मपि न अपराध्यति नविरूपं करोति रूपस्य न कोपि दोषइत्यर्थः तस्य जीवस्य दुर्दान्त न्द्रस्य व दोषइत्यर्थः २५ [एमन्तरत्तोरुइरंसि रूवे आतालिसे से कुणईपश्रसं दुक्तस्तसम्पौल मुवेवाले न लिप्यई तेण मुखौविरागे २] योमनुष्योचिर वापयंगे अलाय लाले समुबेद म २४ ॥ जेयावि दोसं समुद्र तिव्वं तंसिक्ख सेउ उवेदू दुक्खं । दुहंत दासेण सएण जंतून किंचिरुवंअवरज्भईसे २५ ॥ एगंत रत्तो रुद्ररंसि रूबे अतालिसे से कुणई पचसं । दुक्वस्म संपील:
जिने लंपट थको मरणपाने २४ य वापि कुरूपं दृष्ट्वा तौत्र द्वेषं समुपैति जे कोइ पाहू आरूप देखोने ईषषण पाये ते जीव तमोत्र कचणे सः दुःखं उपैति तेह जक्षण अवसरने बिखे दुःखसंताप पामे दुर्दातदोषेन स्वकौयेनजंतू दुहत मोटे नेवने दोषेते वली मोलाने न किंचिद्रूपं तस्यापराधं करोति पाडूउ ं रूपकाइ ं अपराध तेहने करतु' नथो २५ एकांत रक्तः रुचिरेषु रूपेषु एकांत घणो रागौमनोहर रूपने विखे अत्य ंत सः श्रतादृशे कुरूपे प्रद्देषं करोति अति घणु ं भु ंडा पाडू आने बिखे ते प्रदेषरोस करे दुक्खस्य संपौडां स उपैति मूर्खः दुक्ख संबंधिनो पौडानो समूह पामेते मूर्ख न
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आसंच ४१ मा भाग
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४० टोका अ०२२ ८२७
सूत्र
भाषा
मनोनेरूपे एकान्तरक्तोभवति अत्यन्त रागौभवति स च पुरुषोऽतादृशेऽसुन्दररूपे प्रदेष करोति ततो बालोऽज्ञानीरागोपुमान् दुक्खस्य संपीड' संघात उपैति विरागोमुनिस्तेन रागई पजनितदुक्ख न नलिप्यते न निष्यते २६ [रुवाणमासाणगण्यजीवे. चराचरेहिंमद्येगरुवेचिते हिंते परितावेवाले पौलेइ अत्तट्ठगुरूकिलिट्ठा २७ ) इदानीं रागस्यैव सकलाश्रवहेतुत्वमाह क्लिष्टोरागबाधितोरागवर्त्तीबालोऽज्ञानी जीवथित्र' रनेकप्रकारैः शस्त्राद्युपायैः कृत्वाचराचरान् व्रसस्थावरान् अनेकरूपान् पीडयति एकदेशदुःखोत्पादनेन पौडां उत्पादयति पुनः परितापयति परिसमन्तात् दुक्खयति पुनर्हिनस्ति प्राणेभ्यः पृथक् करोति परंसरागोजीवः कोदृशः सन् रूपानुगतः सन् रूपं प्रस्तावात् मनोज अनुगच्छति इच्छतीति रूपाणगा रूपानुगाचासौ श्रमाच रूपानुगाशारूपविषयोभिलाषस्तं' अनुगतो अनुप्राप्तोरूपानुगाशानुगतस्तादृशः सन् सुन्दररूपविलोकन मनोरथसहितः सन् इत्यर्थः पुनः कौहशोबालो उत्तगुरुप्रति आत्मार्थगुरुः चामनः स्वस्य अर्थः प्रयोजनं गुरुयस्य स श्रात्मार्थः गुरुः स्वप्रयोजननिरतः स्वार्थीपुमान् कि' २ न कुर्य्यात् इतिभावः २८ ] मुबेद्र बाले न लिप्पई तेण मुगौ विरागे २६ ॥ रुवागुगासाणु गएय जीवे चराचरे हिंसद्र रोग रुवे । चित्तेहिं ते परितावेद्र बाले पौलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्टे २७ ॥ रूवाणुवाएण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खण संनियोगे । बए वि लिप्यते तेन मुनौ विरागः न लोपाइ तेथे द्वेष रूप दूःख करौ साधुराग रहित २६ सुरूपास्यानुगतो जीवः मनोहररूपने विखे प्रवर्त्ततु प्राणी रूपना भोग्नौ इच्छाइ' व्याप्यो जीव चराचरान् अनेकरूपान् जीवान् हिंसति चरनस अचर घावरने हणे अनेकजातिना जीवने विचित्रशस्त्रः परितापयति मूर्खः विचित्र नानाविधशस्त्र हथौ यारे करो दुक्ख ऊपजावे अज्ञानीः प्राप्नोति आमार्थं गुरुक्केयं श्रमाने घर्थे गुरु मोटो किलेशपा २७ रूपानु
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आसं ००४१ मा भ्राम
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० टोका
अ०३२
८२८
सूत्र
भाषा
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(रूवाणुवाएणपरिग्गहेण उपायणेरक्वण सविओोगो वएविओोगेयकहिं सुहं से सम्भोगकालेय अतित्तिलाभे २८) तस्य रूपलोभाभिभूतस्य प्राणिनः कुतः‘सुख ं तदेव दर्शयति रूपानुरागे सतिरूपानुरागेण वा रूपानुपाते सति परिग्रहेणमूर्छारूपेण हेतुनाउप्पायणे इति उत्पादने तथारक्षण सन्नियोगे तथा व्ययेविनाशे तथा विरहे च पुनः सम्भोगकाले अतृप्तिलाभेसति बप्तः सन्तुष्टेर्लाभस्तृतिलाभः न टप्तिलाभोऽटप्ति लाभः तस्मिन् अतृप्तिलाभेस लोभयुक्तस्य जोवस्थकदापि न सुख पूर्व हि लोभोजौवोरूपानुरागोसन् मूर्छयारूपवद्गजतुरगकलशादीनां उत्पादने दुक्ख प्राप्नोति ततस्तेषां उत्पन्नानां कष्ट भ्योरक्षणेदुक्ख प्राप्नोति ततख संनियोगे स्वपर प्रयोजने सम्यग् व्यापारणे दुक्ख प्राप्नोति तेषां रूपवहजादीनां सम्भोगकालेपि प्राप्तौ अतृप्ति लाभेपि सन्तोषस्याभावेसति दुक्ख प्राप्नोति यदुक्तं न जातकामः कामानामुपभोगेनशाम्यति हविषाकृष्णवर्णैव भूय एवाभिवर्द्धते १ तस्मात्परिग्रहेण जीवस्य कुतः सुख ं कदापि सुख ं नास्तीतिभावः २८ [रूवे अतित्तय परिग्रहमि सत्तोवसत्तो नउवेद्र तुट्ठि अतुट्ठि दोसेण दुहौपरस्म लोभाविले श्राययई अदन्त' २८) रूपे अतृप्तच पुरुषः परिग्रहे मूर्द्धायांसक्तो भवति सामान्य नासक्तिमान् उपसक्तञ्चस्यात् ततश्च मूर्छायां सक्तोपसक्त: पूर्व सक्तः पश्चादुपसक्तः
गेय कहिं सुहंसे संभोग काले अतित्त लाभे २८ ॥
रुवे अतित्तेय परिग्गहंमि सत्तोवसत्तो न उवेद्र तुट्ठि । अट्ठ
पावेन परिग्रहेण मनोहररूपने रागे करो परीग्रहनी मूर्च्छाई करो उपार्जते द्रव्य उपार्जवाने बिखे रक्षण चौरादिक यो राखवाने संनियोगे आपणा प्रयोजन प्रवर्त्त वाने बिखे विनाशने विखे विरहने विखे कौहाथो सुखहोइ तेहने तेहना भोगविना कालने विखे अतृप्तिः लाभः तृप्ति संतोष asia सुखो २८ रूपेष अतृप्तः परिग्रहे अतृप्तः रूपनेविख असंतोषी बको तथा परिग्रहनेबिखे शक्तः उपशक्तः न उपैति तुष्टिं सामान्य पणे आसक्त
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ० ४ १ माभाग
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सक्तोपसक्त: एतायः सन् मनुश्वस्तुष्टि सन्तोष न उपैति ततव अतुष्टिदोषेण असन्तोषदोषेण दुःखौसन् परस्थान्यस्य सुरुपं वस्तु इति शेष पादत्त उ टौका
यहाति कोदृशसोरूपेऽलप्त लोभाविललोभेन आविलः कलषीलोभाविल: २८ (तन्हाभि भूयस्म अदत्तहारिणोरुवे अतित्सम्म परिग्ग हेय मायामसं
वडइलोभदोसातत्याविदुक्सान विमुच्चईसे ३०] पुनर्दोषन्तरमाह तृष्णाभि भूतस्य लोभपराजितस्य जीवस्य अदत्त हारिणोऽदत्तग्राहकस्य तथा रुपे ८२८
रूपविषयेपरिग्रहेऽसप्तस्य असन्तुष्टस्य लोभदोषालोभापराधात् माया मृषामायावई ते सपणया प्रदत्त सहाति ततो सोभात् परस्थ गृहीतवस्तु रक्षण परोमायामषां वक्ति तत्रापि मृषा भाषमाणपि दुःखानविमुच्यते सलोभोदुक्वस्थ भार्गवस्यादित्यर्थः३० दुक्खयुक्तमेव प्रकटयति [मोसम्मपच्छायपुरत्यीय पोगकालेबदुहीदुरन्ते एवं अदत्ताणि स माययन्तो रुवे अतित्तीदुहियो अणिमो२१] मोसम्म मृषावाक्यस्य पश्चात्पुर तश्च प्रयोगकाले च कालत्रयेपि
दोसण दुही परस्म लाभाविले आययई अदत्तं २६ ॥ तन्हामिभूयम्म अदत्तहारिणी रुवे अतित्तम परिग्गहय । माया
मुसं बडडू लोभ दोसा तत्वावि दुक्खानवि मुच्चई से ३० ॥ मोसम्म पच्छाय पुरत्यत्रीय पोगकालय दुही दुरंते ।
लालचौ घणु आसक्त लालचौ संतोषनपाम परस्य अतुष्टिदोषन दुःखो माहरु' आरूप एहवे असंतोषीने दोघे दुक्खौषको पारको रूपवंत वस्तुदेखो भाषा
४ लोभात् ग्रहाति प्रदत्त लोभ करौकलुख चित्तथको लेपारको अणदीधौ वस्तु २८ तृष्णाभिभूतस्य लोभे करौ पराभव्याने अदत्तनालेण हारने रूप
परिग्रह च असंतोषवान् रुपने बिर्ख परिवहनविसे असंतोषीने माया सपावति लोभ दीपात् माया सहित मषा झूठ बोलयो वा सोभना दोषधको चोरोकरो भठवोले तथापि दुक्खाब मुच्यते सः तोपणि झठबोल्याचको दुक्तधको नम कार ते विषयजीव ३. रूपनी लोभी झठ्वोली पर पश्चात्ताप धरे
११७
BREIOXXXERERAK XXXREEREXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
Mekow
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उ० टीका
३२
८.३०
सूत्र
भाषा
सुरूपवस्तुलोभाददत्तग्राहकपुमान् दुःखोभवतौति शेषः सुरूपवस्तु लोभाददत्तग्राहकः पुमान् इत्यपि कटंपदं प्रस्तावात् गृह्यते कोर्थः पूर्व हि लोभान्मृषा भाषणं कुरुते मृषा भाषणस्य पश्चात् मृषा वचनं उक्ता पश्चात् पश्चात्तापं कुरुते मनसि जानाति मया मृषा उक्त माज्ञास्यत्य सोवत स्वामीति तथा पुरुतच मृषा भाषणात्पूर्व अपि दुःखौभवति मायासौसुरूपवस्तु स्वामीकेन प्रकारेण एवं वंचनीयः इति पुनः प्रयोगकाले मृषाजल्य न कालेपि दुःखौ भवति मन स्येवं जानातिमाकदाचिन्मममृषावचनम सौजानात्यपि कोदृशः स पुरुषोदुरन्ती दुष्टोन्तः पर्यवसानं यस्य सं दुरन्तः इह लोकेविटम्बनातः परभवे दुर्गति दुःखात् दुष्टावसानइत्यर्थः एवममुनाप्रकारेण रूपेऽटमोऽदत्तानि समाचरन् अनिश्रः सन् दुःखितोभवति न विद्यते निश्रायस्य स अनिश्रः अवष्ट ं भरहितः यतोहि चौरस्य मृषा भाषिणश्चनकोपि रचकइति भावः २१ (रुवाणु रत्तस्मनरस्म एवं कत्तोसुहं हुन्नकयाइकि चि तत्थोवभोगविकिले सदुक्ख निव्वत्तई जस्मकएणदुक्वं ३२) एवं अस्नाप्रकारेण प्रागुक्तसूत्र प्रकारेण रूपानुरक्तस्य रूपानुरागिणः पुरुषस्य कदापि रात्रौदिवसेवाकिचित्स्तोकमात्र मपि कुतः एवं चदत्ताणि समाययंता रुवे अतित्तो दुहिओ अणिमो ३१ ॥ रूवाणुरत्तस्म गरम एवं कत्तो मुहं होज्ज कयाइ
किम वचस्यु' इम करतु मलोवारी हवे पहल्या दुखलहे कुठा बोलवाना प्रयोग प्रस्तावने विखे एमजाये इम दुःखनो पामहणहार दुष्ट पाहूओ अंते बिड'बना सहे एवं अदत्तानि गृह्णन् जिम झूठूलागे तिम श्रदत्त अणदौधोते पणलागे ग्रहण करतीछतो रूपे अतृप्ता दुखितो अनिष्टः नेष्टा रहितः मनोहररूपने विखे असंतोषी थको दुक्खोओ निष्टारहोत तेहन कोइ पास न करे २१ रूपानुरक्तस्य नरस्य एवं मनोहर रूपनो अनुरक्त रागौ न मनुष्यने दू प्रकारे कुतः सुख ं कदाचित् किंचित् भवति किं हाथको सुखहोइ अपोतु न होइ कहोइ तत्रापि भोगे क्लस दुक्ख तोहां
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४१मा भाग
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कस्मात्सुख भवेत् अपि तु कदापि कि मपि सुख न भवेत् यतस्तत्र रूपानुरागेफि के शदुक्ख अप्तिलाभत्वलक्षणपोडाजनितं असातं निर्वत यति टोका * उत्पादयति पुनर्जम्मकाएणइति यस्य मनोन्नरूपायुपभोगस्य कृतमनोजरूपाद्युपभोगार्थ दुःख पाश्मनः कष्ट भवति ३२ इति रागस्य दुःख हेतुत्वमाह प्र.३२ ८३१
[एमेव रूबंमिगत्री पोस उवेइ दुक्खोहपरं पराओ पदुद्दचित्तोयचिणाइ कम्म जं से पुशोहोइ दुहं विवागे ३३ ] एवं अमुनाप्रकारेणेव यथा मनोज रूपोपरिरागाहखं लाभ प्रकारणव तथा जौवोऽमनोरूपे प्रदेषङ्गतः सन् प्रदेषपरंपरात: प्रदुष्टचित्तः सन् तत् कष्ट कर्मचिनोति उपार्जयति जति यत् कम्मसे इति तस्य दुष्टचित्तस्य विपाककर्मानुभव कालेइह परत्र च दुक्खं दुक्खदायि भवति ३३ रागद्दे घोडरणगुणमाह [रुवेविरत्तोमणुओविसोगी एएणदुक्खोहपरं परेण नलिप्पई भवमक वसन्तोजलेणवा पुक्खरणीपलास ३ ४] रूपेविरतीमनुष्योमनोज रुपैरागं अकुर्वन् एतयादुःखौघपरं परयापूर्वी
किंचि। तत्थोव भोगेवि किलेस टुक्खं निव्वत्तई जम करण टुक्खं ३२॥ एमेव रूबंमि गओ पत्रोसं उवेदू टुक्खोह परंपराओ। पट्ट चित्तोय चिणाडू कम्म जं से पुणो होडू दहं विवागे ३३ ॥ रुवे विरत्तो मणुषो विसोगो एएण
राय धनपतासंह वाहादुरका या संउ.४१ मा भाग
भाषा
Ekkkk
* रूप भोग विवाने विखे पणि तृप्त न होइ तालग क्लेश दुःखपामे नींपजाव करी जे मनोहर रूप भोगववाने दुक्ख कष्ट अने पापउपाय ३२ एवं मे रूप * गतः प्रवेष इणोंपरि जे उत्तम रूपउपरि रागहुइ तिम कदाचित् द्वेषपाम्यीथको उपैति दुक्खी घपरंपरामते जीवदुक्खनी परंपरा वेणिसमूह प्रशष्टचित्तः चिनोति कम्माणिषे करीसहित जिवारचित्तहुवे तिवार बांध कम्मघणा जेह कर्म टुकवना कारणहुए विपाकै भोगविवा काल ने बिखे इहलोक परलोके पणि ३३ रुप पिरती मनुष्य गतशोकः भनीहररूप बिखे राग अणकरत मनथ धोकरहित पको ए पूठ कहो दुक्वनी परंपरा तिणे इण करौने न
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उ० टोका
अ०३२
૨૨
सूत्र
भाषा
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क्तयादुःखसमूह श्रेण्याभवमध्ये वसन् अपि न लिप्यते रागजनितदुःखावलिप्तोन स्यादित्यर्थः कोदृशः स पुमान् विशोको विगतशोकः केन कि मिव जलेन पुष्करिणौपलाशमिव यथा पद्मिनी पत्रं जलेतिष्ठदपि जलेन न अवलिप्यते एवं विरक्तोपि संसारवसत्रपि संसारदुक्ख नै लिप्यते ३४ एवं चतुरिन्द्रिय माश्रित्यत्रयोदशगाथाव्याख्याताः अथ शेषेन्द्रियाणां मनसश्चत्रयोदमर गाथाव्याख्येयाः सन्ति भव च इन्द्रियाणां चक्षुषोदोष बाहुल्य प्रादुर्भावात् पूर्व चतुरिन्द्रियदारेण रागद्देषौ दर्शितौ अन्यथा तु दुर्दमनं रसनेन्द्रियमुक्तमस्ति अथ श्रीत्रमाश्रित्यदूषणान्याह (मोयस्ससह गहणं वयन्ति तं राग हे उ तुमणुचमाहु तं दोसहेड' अमणुनमाड समोयजोतेस सर्वोयरागो ३५) तोर्थ कराः श्रोवेन्द्रियस्य ग्रहणं विषयं शब्द ग्राहक श्रोत्र' इति श्रोत्रेन्द्रियस्व लचण ं शब्दः श्रेोत्त्रेणैव ग्टह्यते तं शब्द मनोज स्त्री गौतादिक' रागहेतुक' आहुः वीतरागादि कथयन्ति तं एवं शब्दं अमनोज स्वरवायसादि प्रोक्त'
दुक्खीह परंपरेण । न लिप्पए भवमज्म व संता जलेगबा पुक्खरिणी पलासं ३४ ॥ सोयम्म सहं गहणणं वयंति तं राग हे ं ंतु मणुन्न माह । तं दास हेड अमणुन्न माह समाय जो तेसु सबौयरागो ३५ || सहम सोयं गहां बयंति लिप्यते स सारे वसन्रपिलौपाइ खरडाये नही भवसंसारमाहि वस्तु पणि जलेन यथा पद्मिनीपत्र' तेह ऊपरि दृष्टांत जिम पाणोड करो पुष्करिणीं क नलनोनोपलाशपनि लिपे लागे नहीं २४ श्रोत्र विषयः शब्दो वदंति बुद्दा: सौयकानमो विषयग्रहण शब्द कहे तत्गीतादिमनोज्ञ रागहेतुः ते मनोहर गौतादिक शब्द रागनो हेतु कारणकहे तत्येष हेतु अमनोज्ञ पाडुउ रूप आहुः कहेके पंडित समः एषुयः सवीतरागः सरोखो जे एहनेविखे ते वीतरागको ३५ शब्दग्राहकं श्रवणं वदति शब्दनो ग्रहणग्राहक कान कहे श्रोत्रस्य ग्राहकः शब्दः इति वदति काननो ग्राहक शब्द इम तौर्थ
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राय धनपतसिंह बाहादुर का सं० उ० ४९माभाग
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उ० टौका
४ कर्कशं देष हेतुक पाहुः यस्तमनोसामनोनयोः शब्दयोर्विषये समोरागद्दे घरहित: सवीतराग उच्यते ३५ [सहासीयं गहण वयन्ति सीयस्म महंगहण ३२४ वयन्ति रागस्महेऊ समणुबमाहुदोसस्महेज प्रमणुनमाहु ३६] तीर्थकराः सोयं इति श्रोत्र न्द्रियं शब्द स्य ग्रहण ग्राइक वदन्ति ग्टह्णातौति ग्रहण ८.३३
पुनस्तीर्थकराशब्दं विषयं श्रोत्रस्य श्रोत्रं न्द्रियस्य ग्रहण सह्यते इति ग्रहणं ग्राह्य वदन्ति शब्दः श्रोत्रण ग्राह्यः तस्मात् शब्द थोत्रयोग्राह्यग्राहकभावः & सम्बन्धउक्तः तत् समनोन सुन्दरशब्द विषयग्राहक' रागस्य हेतुक पाहुः पुनरमनोज्ञ असुन्दर शब्द विषयग्राहक' श्रोत्र न्द्रियं ईषस्य हेतु पाहु:२६ * [सहे सुजोगिदि मुवेइतिब्ब अकालियं पावइमेविणासं रागाउरेहरिणमिर्गवमुई सई अतितेसमुवेइमञ्चु ३७] यः पुरुषः शब्देषतौवा अधिको रवि
मूळ उपैति स शब्देऽप्तोमनोन शबद असन्तुष्टोरागातुरः सन् मुग्धामूढः आकालिक आयुः स्थितेरगिवसोपक्रमायुष्कत्वात् मृत्योरवसरं विनवविनाश 8 मरणं प्राप्नोति समूढः कइव मृत्यु समुपैति शन्देऽहप्तो मुग्धोहरिणमृगव हरिणपशुरिव अत्र मृग शब्दः पशपर्यायवाचक: हरिणश्चासौमृगच्च हरिण
सोयस्म सह गहणं वयंति । रागरम हेउ समणुन माहु दीसम्महउ अमणन्न माहु ३६॥ सद्देसु जो गिडि मुवै तिब्बं
अकालियं पावद से विणासं। रागाउरे हरिणमिएब्ब मुई सद्दे अतित्ते समुवेद मच्चु ३७ ॥ जेयावि दासं समुवेद कर कहे तत् सुमनोज्ञ रागहेतु आहुः ते रागनु हेतू मनोहर भलो कहे अमनोन दोषहेतुः इषरौसनो कारण पाडूउ कहे ३६ शब्द षु यः तौवां गद्धि उपैति शब्दनेविखे जे कोई ग्रहि मर्शपाम तीब अत्यंत सपकालिकं विनाशं प्राप्नोति ते अकालिं अवसर विनाश मरणपाम रागातुरहरिण वमुग्ध : राग पौधो जिम हरिण तेहनी परि मुग्धभोलो शन्देषु अतः समुत्य उपैतिशब्दनविषे असंतोषी मरणपमि ३० जे कोइ पाड़ा शब्दने विखे हेष आण तेहि
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.७०४१ मा भाग
भाषा
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मृगः ३७ [जे आविदीसं समुवैतिव्वं तं सिंखणेसेउ उवेइदुकव' दुहन्तदीमेणसएणजन्तू न किञ्चिसह अवरज्माईमे ३८] यथापि जन्तुर्जीवीयस्मिन्क्षणे ह. दौका
अमनोने यदेतीन हेष समुपैति सजन्तुः तस्मिन्नेवक्षण स्वकीयेन दुर्दान्तदोषणदुर्दान्तश्राविद्रियं तदेवदोषः अथवातस्य दोषस्तेन दुःख उपैति प्राप्रति अ०३२
सजन्तुः स्वकीयात्रेन्द्रियदीषण दुःखौ क्रियते परंतु तस्य पुरुषस्य शबदः किञ्चिदपि न अपराध्यति शब्दस्य न कोपि दोषः जन्तीः श्रोत्रे न्द्रियस्य व दोषइत्यर्थः ३८ [एगन्तरत्तोरुइरंमिसह अतालिसेमे कुणईपप्रोसंदुक्खस्म सम्पौलमुवेर बाले न लिप्पईतेणमुणौविरागे ३८] योमनुष्योरुचिरेमनोन्ने शब्दे एकान्तरक्तो अत्यन्तमासक्तोभवति रागं कुरुते समनुथीऽतालिशे प्रतादृशे अमनो शब्दे प्रहेषं करोति सबालो रागद्दे षासक्तो दुःखस्य सम्पौडां उपैति असातासम्बन्धिनौ अत्यन्तपीडां प्राप्नोति तेन रागई षोत्यबदुःखेन विरागौमुनिलिप्यते वीतरागः पुमान् सदामुखभावस्थादिति भावः ३८ सिद्दाणगामाणुगएबजोवे चराचरहिंसणगरूवे चित्तेहिं ते परितावइबाले पोलेर अत्तगुरुकिलि ४०] अथ शब्दानुरतस्य रागद्वेषयोरेवाश्चवकारणव
तिब्वतंसिक्वण से उबेद टुक्खं। दुईत दोसेण सपण जंतू न किंचि सह अबराई से ३८॥ एगत रत्तो कडू
रंसि सद्दे अतालिसेसे कुणई पोसं । दुक्खस्म संपौल मुबेद बालेनलिप्पई तेण मुणीविरागे ३६ ॥ सहाणुगासाणु भाषा 8 जक्षण अवसरनेविखे दुःखपामे दुदांत मोटेनेत्रने दोषते वलीपोतानेलौधे जोव आपणा पर पाडुआ शब्दकांच तेहने अपराधकरतुनहौ३८ एकांतपणे राग
धरतो रुचिरमनोहर शब्दने विखे पाडूा शब्दनै विखे धणी पामे हे ष दुक्खनी पौडापामे बालअज्ञामी मलिंपाइ नखोपाए तौण साधू शब्दनी राग करतो ३८ कडा शब्दनौ वांछाने विखे प्रवर्ततुधको जौव चरत्नस अचर थावरनेहणे बिचित्रशस्त्रे करौ दुक्ख उपजावे अज्ञानी आत्माने अर्थे गुरु मोटी
रायधनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०..१मा भाग
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• टोका अ०३२
४०
३५
जव
भाषा
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माह जोवः शब्दानुरागाशानुगतः सन् मनोज्ञशदद श्रवणाशायुक्तः सन् चराचरान् अनेकरूपान् जौवान् हिनस्ति सवालोऽन्तानोचित्र रमेक प्रकारैरुपायैः शस्त्रादिभिः कान् चित् जोवान् परितापयति कान्चिज्जौवान् पौडयति कौदृयः सबालः अत्तट्ठगुरुः श्रात्मार्थंगुरुःस्वार्थपरायणः पुनः कोट्टशः किलिः क्लिष्टोरागद्द षोपहतचित्तः ४० ( सहाणुवारण परिग्गहेण उप्पायणे रक्खणः सन्नियोगे वरविओोगेयकहिं सुहं से सम्भोगकालेय अतितलाभ ४१] मनोज्ञ शब्द श्रवणलाभाभिभूतस्य प्राणिनः कुतः सुख' तदेवाह शब्दानुरागेण तथा परिग्रहेण मूक्कारूपेण उत्पादने मनोहर शब्दोपेतचेतनाचेतन द्रव्योत्पादने पश्चात्तेषां सन्नियोगेखपरप्रयोजने सम्यक व्यापारणे व्ययेविनाशेवियोगोऽर्थात् शब्द अर्थिनः पुरुषस्य कुतः सुखखं पुनस्तस्य शब्दानुरागिणोजन्तोः सम्भोग कालेच अतिलाभो दुक्ख भवति शब्द श्रवरागिणां नतृप्तिरितिभावः ४१ [सह अतित्तेयपरिग्गहंमिसत्तोव सत्तोन वेइतुट्ठि अतुट्ठिदोसे दुहीपरम्म लोभावि आयई अदत्तं ४२ ] शब्दे ऽप्तोजोवः परिग्रहे अवशक्तः स्यात् सामान्य नरक्तोभवेत् ततच सक्तोपशक्तः स्यात् अत्यन्तं शक्तः उपशक्तः मक्तश्वासौ उपशक्तश्च भक्तोपशक्तः परिग्रहे गाढानुरक्त स्तुष्टि' सन्तोषंन उपैति अतुष्टिदोषेण दुक्खोभवति पुनरसन्तोषौ परस्यान्यस्य सम्बन्धि शोभन शब्दकारि वस्तु वादिवादि गएय जौबे चराचरे हिंसा गरुवे चित्ते हिंते परिताबेद्र वाले पौलेइ अत्तट्ट गुरु किजिट्टे ४० ॥ सहाणुवारण परि ग्गहेण उप्पायणे रक्खण सन्नियोगे । वए विओो गेय कहं मुहंसे संभोग काले अतित्त लाने ४१ ॥ सह अतिय रोगादिके पोडो ४० रुडाशब्दने रागे परिग्रहे करौने उपारि जिबाने राखवाने बिखे काज करिवाने बिखे विनाश विरह विखे कौहांथो सुखहवे संभाग तेहना भोग विवाने अवसरे तृप्त संतोष अग्रह ते किहांथो सुख ४१ शब्दने विखे असंतोषी थको तथा परिग्रहने विखे असंतोषी थको सामान्य पणे
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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स. टौका * अ०३२
लोभाविलो लोभ कलुषः पादत्त अदत्त' गृहाति ४२ [तन्हाभिभूयस्म अदत्तहारिणी सई अतित्तस्य परिगहेय मायामुसंवडू लोभदीसा तस्यावि दुकवान विमुच्चईसे ४३] शब्द हप्तस्य प्राणिनः परिग्रह तृष्णाभि भूतस्य प्रदत्तहारिणश्च लीभदोषात् माया मृषा सम्बई ते पुनस्तस्य प्राणिनस्तत्रापिमा यामृषायां अपि दुःखात् न विमुच्यते मायामृषाजल्पनकालेपि दुक्खभाक् स्यादित्यर्थः ४ ३ तदेव दुक्खं दर्शयति (मीसम्मपच्छाय पुरस्थनीय पोगकालेयदुही दुरन्त एवं अदत्ताणि समाययन्तो सहेअतित्तोदुहिनो अणि सो ४ ४) मृषाभाषौपुमान् मृषावाक्यस्य पश्चात्पुरतश्च प्रयोगकाले च दुरन्तोदुक्वान्तीभवति अन्त दुक्खभाक स्यात् माययामां लक्ला पश्चात् मृषाभाषणस्य पश्चात्तापं करोति मनसि एवं जानाति मायामुसंस्थापितं वाक्य नोक्त इति पश्चात्तापं
परिग्गहमि सनोवसत्तो न उबदू तुहि । अतुट्टि दोसण दुही परस्म लोभाविले आययई अदत्तं ४२ ॥ तगहामिभूयस्थ अदत्त हारिणो सहे अतिलस्म परिग्गहेय । माया मुसं वडू लोभ दोसा तत्यावि दुक्खा नवि मुच्चस ४३॥ मोसम्म पच्छाय पुरत्यय पओग कालय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंती सद्दे अतित्तो दुहिओअणिमो ४४॥ सहाणु
राय धनपतसिंह बहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
घणु लालची कृष्णा संतोष न पाम अप्तिवंतथको पारको भलो वस्तु देखो लोभौथको पारको अण दोधीले वस्तु ४२ लाभे करो पराभव्यानेचोरौ वस्तु लेणहारने शब्दबिखे परिग्रहने बिखे असतोषौमै माया सहित मृषाई वोल्ये लोभना दोषथको चोरी कर तो पणि दुख थौ मूकाइ नही ते बिखे जीव ४३ रूपनो लोभो झूठ बोलो पश्चात्ताप धरे पहलौ दुक्खलहे झूठा बोलवाना अवसरने बिखे दुष्टपाडूयो अंतविडवण सहें इम अदत्तलेतुथको शबदने बिखे असतोषौ थको दुखीयो रहे तृष्णा वर्जे नही एकारणे दुक्यौ हुवे ४४ शउदने विखे रागी मनुष्यने कोहथिको सुखथाइ कि वारंपणि
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•टीका
करोति पुनः शब्दलोभौमृषाभाषणस्य पुरस्तात् कथं मया असौ योभन शब्दगुणवान् पदार्थोपायोवञ्चनावाकार्याइति मृषा भाषणात् पूर्वमपि चिन्ता दुक्खोपेतः स्यात् पुनः स च प्रयोगकालेमृषाभाषण प्रस्तावे च दुःखोस्यात् यतोहि मृषा जल्प' तं मामसौमाजानात्यपि एवं अमुनाप्रकारेण शब्देऽवतों जोवोऽदत्तानिशब्दगुण वहस्तूनि समाचरन् राजन् दुःखितो भवति त्रिकालमपि दुक्खभाग भवति कौशः सोऽनिधी निवारहितः यतोहि अदत्तग्राहि णोऽन्याय युक्तस्य न कोप्यवष्टंभ दातास्थात् ४४ [सहाणरत्तस्म नरस्म एवं कत्तोसुहं होजकयाइ कि चितस्योपभोग विकिलेस दुक्ख' निबत्तई जस्म कएण
दुक्खं ४ ५ ] शब्दानुरक्तस्य मनुष्यस्य एवं अनेनोक्त प्रकारण कदापि किञ्चित् स्तोकमपिसुखं भवति अपितु सर्वथैव न सुखं अप्तिलाभ लक्षणं यस्य शब्दोप * भोगस्य कृते शब्दोपभोगार्थ दुक्ख इति आत्मनो निर्वत यति उत्पादयति तस्य कदापि सुखं नास्तीत्यर्थः सुखस्य कारणं तत्र किमपि नास्ति ४५ [एमेव
सह मिग प्रोपोउवेद दुक्खोह परंपरागीप दुवैचित्तीयचिणार कम्म जसे पुणो होइ दुह विवाग ४५] एवं अनेन प्रकारेणैव यथा मनोवस्य शब्दोपरि रागं उपगतस्तथा शब्द मनीनगद प्रदेषंगती जीवो दुःखीष परंपरा उपैति ततःप्रदुष्ट चित्त देषोपहत चित्त : कर्म अष्टविधचिनीति कर्मबंधं करीति
रत्तस्म नरस्म एवं कत्तो मुह होज्ज कयाइ किंचि। तत्थोव भोगवि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जस्म कएण दुक्खं ४५ ॥
एमेव सहमि गओ पोसं उवेदू दुक्खोह परंपराओ। पट्ट चित्तोय चिणादू कम्म जसे पुणो होइ दह विवागे ४६ । तौहां दृप्ति अणपामतु क्लेश दुक्ख पामे नौपजाव करे शब्दने विखे कष्ट उपाय ४५ इम शबदने बिखे पांम्यो थको पमि ते जीव दुक्खनी परंपरा देषे 8 करौ सहित चित्तवको बांध कर्म जै कर्म दसनां कारएर भोगविवाने वाले स्टवको विरग्यो मनुष्य भोकरहित एप दुखनी परंपरा लपाये
११८
राय पवपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०३०४१ मा भाग
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उ० टीका
३२
८.३८
सूत्र
भाषा
यत्कर्म तस्य प्रदुष्टचित्तस्य पुरुषस्य विपाके दुक्ख दुक्खदायिक भवति ४६ (सद्दे विरत्तो मणओ विसोगो एएण दुक्खोह परंपरेण नलिप्पर भवमज्ये वसंतो जलेण वा पुक्खरिणौपलासं४७) यो मनुष्यशब्द विरक्तोभवति सविशोकः शोकरहितः सन् भवमध्ये वसन् अपि पूर्वोक्तदुक्खौध परंपरया न लिप्यते किमिव जले वसदपि पुष्करिणोपत्र' द्रव४७ (घाणस्सगन्ध' गहण' वयन्ति तंरागहेड' समणुन्नमाह तं दोसहेउ' श्रमणनमाडु समोयजोतेस सवौयरागो४८ ] तीर्थ कराघ्नाणस्य नासिकायाः ग्रहण विषयं गन्ध वदन्ति तं मनोज्ञ गन्ध' रागहेतु आहुः पुनस्तंगन्ध' अमनोज्ञ' द्दषहेतु आहुः तेषुमनोज्ञा मनोज्ञेषु गन्धेषु यः समस्तुल्यवृत्तिः सवोतरागोजे यः ४८ (गन्धस्त्रघाण ग्रहण' वयन्तिघाणस्स गन्ध गहण वयन्तिरागस्स हेउ' समणुन्नमाहु दोसस्महेऊ ' श्रमणनमाडु ४८ ) तीर्थङ्कराः गन्धस्य सुरभ्यसुरभिपुहत्तस्यग्रहणं ग्राहकंत्राणं वदन्ति तथा घ्राणस्य नासिकायागन्धसुरभ्य सुरभिपुहल' ग्रहण ग्राह्य वदन्ति एवं गन्धप्राणयोग्री ग्राहक भाव उक्तस्तन्मनोज्ञ' मनोन्न गन्धविषयसहितं घ्राणं रागहेतुकं आहुः एवं अमनोज' अमनोज्ञगन्ध विषयसहितं घ्राणं द्वेषस्यहेतु आहुः ४८ [ गंधेसु जोतिब्व सहे विरत्तो मणुओ बिसोगो एएण दुक्खोह परंपरेण । न लिप्पए भव मज्म व संतो जलेगा वा पुक्खरिणौ पलासं४७ | घाणस्म गं'धं गहणं बयंति तं रागहेतु मणुन्न माह । तं दासहेउ अमणुन्न माह समाय जो तेसु स वीयरागी ४८ ॥ ग ंधस्म घाण ं गहण ं वयंति घाणस्म गंधं गहण बयंति । रागस्म हेडं समणुन्न माहु दोसम्म हेउ अमणुन्न माहु ४६ ।।
नही भवस सारमांहि वसतु जिम पाणीद्र करो नलिनौनो पान नलिपाई ४७ प्राणनाशिकाने ग्रहणने बिखे गंधपरिमल कहे ते गंध भलो रागनो कारणते हे षमुळे कारण पाडुयो कहता हुआ जे समताभाव धरे तेवीतराग कहौद्र ४८ गंधनो ग्रहण नाशिका कहे नाशिकानो ग्रहण गंध कहे रागनो.
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राधनपतसिंह वाहादुर का श्रा० सं०ड० ४१मा भाग
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LEL
मुवेइ गिह अकालियं पावर मेविणासं रागाउरेत्री सहि गंध गिड़े सप्पे बिलामी विवनिक्लमंती ५.] यो ममुथी गंधेषु तीव्र उत्कटां हि उपैति 2. टोका
* स मनुष्योरागातुरः सन् आकालिक विनाशं प्राप्नोति सोहि नागदमिन्यादिकां सुरभियन्धोपेताकाञ्चिदौषधौमाघ्राय पश्चात् सहन्धाक्लष्टोबिलानिर्गच्छन * म्रियी जनर्मार्यते चन्दनगन्धाकर्षितच चन्दमामालिंग्य तिष्टन् म्रियते मार्यते गन्धलुब्धो नरोहि सर्पोपमोने यः ५० [जे पाविदोस समुवेर तिव्वं संसिक्ख
ऐसेउ उवेइदुक्ख' दुइन्तदीसेण सएणजन्तू न किञ्चिगन्ध अवराईसे ५१] यश्चापि जन्तुर्यस्मिन् क्षणअमनोजगन्ध आघायतीब' हेषं समुपैति स जीवस्तस्मि बेवक्षणेखकौयेन दुर्दान्तघ्राणेन्द्रिय दोषेण दुक्व उपैति परं तु सस्य गधग्राहकस्य पुरुषस्य गन्धः कि मपि न अपराध्यति गन्धस्य न कश्चिद्दोषस्तस्य प्राणेन्द्रियस्यैव दोषीस्ति ५१ [एगन्तरत्तोरुजरंमिगन्धे अतालिसेसेकुणईपीसंदुक्तस्मसंपौलमुवेइबालेनलिप्पईतेणमुणौविरागे५२] योमनुष्योरुचिरोमनोजे गन्धे एकान्तरक्तो अत्यन्तं रागवान् भवति सप्तादृशे अमनीने गन्धे प्रद्देषं करोति तदासबालः दुक्खस्मपौडां दुक्खसम्बन्धिनौपीडां असाता उपैति तेन
गधेसु जो गिडि मुवे तिब्ब अकालियं पाबदू से बिणासं। रागाउरे ओसहि गधगिद्दे सप्ये विलाओबिब निक्स मंती ५०॥ जेयावि दासं समुवेदू तिवं तं सिक्खणे सेउ उवेदू टुक्खं । दुईत दासण सएण जंतू न किंचि गध
. राय धनपतसिंह बाहादुर का पा संह. ४१मा भाग
* हेतु भलो हवे दोषनोहेतु ते पाडूी कहे ४८. गंधने बिखे जे कोई एद्धि, मूर्छापामे अत्यंत ते अकाले अवसर विना मरणपामे जिम रागनी वायो* * प्रोषधी कालौवेलि प्रमुखना गंधने बिखे यह लोभौयो अर्पगंधने अर्धे बिलथको नौकलतो ५० जे कोई पाडुभा गंधपामी देष प्राण तौबघणे
तेहज अवसरने बिखे ते दुक्त पाम दुद्दीत मोटा दोखनासई कडे जीव गंध तेहने अपराध नथी करतो परं रागईष करके तहने अपराध ५१
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XA
८४०
उ टोका कारना
* कारणेन विरागौमुनिस्तेन दुक्खे नरागहेषोद्भवेन कष्टेनलिप्यते ५२ [गन्धाणु गासाणगएय जीवे चराचर हिंसणे गये चित्तेहिं ते परितावरबाले पोले
अत्त गुरुकिलिडे ५३] बालो अज्ञानीजीवो गन्धानुगाथानुगतो मनोजगन्धोपेत पुष्प कर्पूर कस्तूरिकादि द्रव्यसुरभिग्रहणाया सहितचित्र विविध शस्त्राद्यपायैः कृत्वा चराचरान् अनेकरूपान् जौवान् हिनस्ति परितापयति पौडयति कीदृयः सः प्रामार्थगुरुः स्वार्थ परायणः पुनः कीदृशः संक्लिष्टीरागा
द्य पहितचित्तः ५३ [गंधाणुवाएण परिमाहेण उप्यायणेरक्षण सबिनोगे वएविओगेयकहिंसहिंसे सम्भोगकालय प्रतित्तलामे ५४] गंधानुरतस्य जीवस्य । कुतः सुखं भवति कुतोपि मुख नस्यादित्यर्थः तथैव दर्थयति पूर्व तु गंधानुवादेन सुरभिगंधद्रव्यानुरागणसुरभिगंध ट्रव्यानुरागसति वा परिग्रहण मारूपेण दुकवं स्थात् ततस्तस्योत्पादने दुकव स्यात् ततोरक्षण दुःखं तत: संनियोगे स्वपर प्रयोजने सम्यग व्यापारण दुक्त ततोष्ययेतस्थन्धु नमा
अवरभईसे ५१॥ एग'त रत्तो करंसि गधे अयालिससे कुणई पोसं । दुक्खम्म संपील मुवे बाले न लिप्यडू सेण मुणी विरागे ५२॥ गधाणुगांसाणु गएय जीवे चराचरे हिंसदूर्ण गरुवे । चित्तेहिते परितावे बाले पीले पत्तट्ट गुरु किलिट्टे ५३ ॥ गधाणवाएण परिग्गहेण उप्यायण रक्खण संनिओगे । वए विभागय कहिं सुहसे संभोग कालेय
****KARXXXXXXXXXXXXXXX
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं. २०४१माभाग
भाषा
मनोहरं गंधने डे प्रवत तु प्राणो चरित्र स थावर अनेक जीवमे मारे हत प्रहत कर विचित्र सस्त्र करौ दुःख अपजाव अज्ञानी प्रामाने अर्थे गुरु मोटो किलेश दुःखपामै ५२ एकति रात भलागंधने बिखे घण पाडूचा गंधमे बिख कर है प दुःखस बंधिनी पीलानी समूह पाम प्रजानी मलौपार तेणे हेष रूप दुखे करौ साधू रागरहित ५३ भला गंधने रागे करी परौग्रहनौ मूरि करी द्रव्य उपार्जवे रागई षवाः रागईघ राच पापणा प्रयी
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८४१
सटौका दुक्ख ततो वियागेविनायेदुःखं भवति एवं कष्टे न संप्राप्त सुगंध वस्तुनिसम्भोगकालेपि अप्तिलाभः स च दुक्व एव असन्तोषी महादुखीत्यतत्वात् तस्माद अ०३२ तादृशस्य गंधानुरक्तस्य ततः सुख स्यात् अपि तु नस्यादेव ५४ [गंधे अतित्तोयपरिग्गाहमि सत्तोवसत्तोनउवेर तट्टि प्रतुहिदीसेश दुहीपरस्म लोभाविले
आयई अदक्तं ५५ गंधेऽनमोऽसन्तुष्टः पुमान् परिग्रहे शक्ती भवति सामान्येनरतिमान् भवति ततः पश्चात् सक्तः सन् उपशतोऽयन रतिमान् भवति 8 तदासक्तीपसक्त उच्यते तादृशः शक्तीपयतच तुष्टि सन्तोष' न उपैति स च अतुष्टदोषण दुक्खौवसन् अन्यस्य पदक्तं ट्रव्य पादत्ते कीदृशः स लोभाविली
लोभेन कलषः ५५ [तणहाभिभूयस्मअदत्तहारिणो गंधेअतित्तस्मपरिमाहेय मायामुसं बडुइलीभदीसा तत्थाविदुक्खाचविमुञ्चईसे ५६] तृष्णाभि भूतस्य सुगंधद्रव्यलोभेन पराभूतस्य ततो अदत्तहारिणोगधे अप्त स्थ पुरुषस्य परिग्रहे लोभदोषात् मायामृषा सम्बईते तत्रापि मायामृषायां अपि समषावादी जोवो दुःखात् न विमुच्यते ५६ [मोसम्मपच्छायपुरस्वोय पोगकालेयदुहोदुरन्ते एव अदत्ताणि समाययन्ती गंधपतित्तोदुहिती अणिमो ५७] मृषा
अतित्त लाभ ५४॥ गधे अतित्तय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न उवे तुट्टि। अट्टि दोसण दुही परस्म लोभाविले
आययई अदत्तं ५५ ॥ तनहाभिभूयस्म अदत्त हारिणो गधे अतित्तस्म परिग्गहेय। माया मुसं वडडू लोभ दोसा तत्या जनने बिखे विनाश विरहने बिखे किहांथको सुखहुवे तेहना भीग विवाने काल विखे तृप्ति संतोष अणहते कि हांधकी मुखथाइ ५४ गंधने पस' तोषी थको तथा परिग्रहने विखे सामान्य पणाथौ लालचौ अथवा घणु लालचो सतोष न पामे असतीषी थकी पारका गंधदेखी सीभे कलुषित चित्त थको पारको वस्तुये अणदौधौ पणिई ५५ लोभे करौ पराभव्याने अदत्तनालेण हारने गंधने बिच परिग्रहने बिच असतोपौने माया सहित
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.१.४१ मा भाग
भाषा
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८४२
भाषोपुरुषः मृषावाक्यस्य पञ्चात् च पुन पुरस्तात् पूर्व' च पुनः प्रयोगकालेदुरन्तोदुक्खौभवति मृषाभाषणस्य पश्चादेवं जानाति मया किमर्थ मृषावाक्य
मुक्त' मृषाभाषणस्य पूर्व एवं जानाति असौ मम मृषावाक्य ज्ञास्थति मृषाभाषणकाले च एवं जानाति अस्याग्रहं मृषां वदामि परमसौजानाति इति * चिन्ताकुलत्वेन सर्वदादुरन्तो दुक्वीअत्यन्तदुःखोस्यात् एवं प्रदत्तानि समाचरन् गंधे अतृप्ताजीवो दुःखितोभवति कोहयः सोऽमि धोनि थारहित: ५७ (गंधाणरत्तस्म नरस्म एवं कत्तीसहं होजकयाई किञ्चितत्थोवभोगविकिलेसदुक्ख निब्बत्तई जस्मकएणदुक्य' ५८) एवं अमुनाप्रकारेणगंधानुरशस्य नरस्य कदापि किञ्चित् कुतः सुखं भवेत् तत्रापि गंधोपभोगपि त थ एव दुक्व निवर्त यति क्क यदुक्त उत्पादयति यस्थ कर्तबंधस्योपभोगार्थ दुक्त पात्मनः
विदुक्खा नवि मुच्चई से५६ ॥ मोसम्म पच्छाय पुरत्यओय पओग कालेय दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंती गधे अतित्ता दहिओ अगिमा ५७॥ गधाणरत्तस्म नरम एवं कता मुहं होज्ज कयाडू किंचि । सत्योव भोगेवि किलेस
टुक्लं । निव्वत्तए जस्म कएण दुक्ख ५८ ॥ एमेव गधंमि गओ पास उवेदू दुक्खोह परंपराओ। पट्ट चित्तीय चि * झठ बोले दोषधको चोरीकर तोपणि मृषावादवोल्ये थक दुक्खथको न मकाई ५६ गंधनी लोभी झूठ बोली पछि पश्चात्ताप धरे एकिम वचस्य इम
करतो पहिला दुःखलहे झूठा बोलवाना प्रस्तावने बिखे अंतबिडंवन तेहने जिम झ४ लागे तिम अणदौधो लेतो गंधने बिख अप्त असंतोषी दुखीपो थाइ निष्टारहित ५७ गधने बिखे रागी मनुष्यने कीहाथी मुखहोइ किवारे पणि तौहां गधने बिखे तृप्त न हुइतालगे केस दुख पामे नौप जाये करे दुक्ख कष्ट अने उपाय ५८ एणीपरि जिम उत्तमगंध ऊपरि राग हुर तिम कदाचित वेष पाम्यो थको पाम ते जीव दुःखना समहनी परंपरा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ•सं• तु.४१मा भाग
सुत्र
भाषा
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अ.३२
& कष्ट भवति.५८ (एमवगधमिगोपीस उवैइदुक्योहपर परात्री पदुद्दचित्तीयधिणाइकम्म जसेपुणीहोर दुहविवारी ५८) एवं एव यथागंधामुरतोनरी स.टौका
* दुक्खौघपरं परां प्राप्नोति तथैवगंधेदुष्टग धेप्रद्दे षङ्गतोदुःखौघपरं परी उपैति प्रदुष्टचित्तः सन् दुष्ट कर्मचिनोति यत् कर्मतस्य पुरुषस्य विपाकेविपाक * कालेदुःख दुःखकारि भवति ५८ (गंधेविरत्तोमणु ओविसोगोए एण दुक्खोहपरं परेण न लिप्पई भव मज्यो वसन्तो जलेणवा पुक्वरिणौपलास ६०) * गंधेविरक्तोगंधात् विरागौमनूज एतेन पूर्वोक्नदुःखौघ परं परयामलिप्यते न स्पृश्यते कि कुर्वन् अपि भव मध्येवसन् अपि कि मिव पुष्करिणी पत्र पद्मिनी पत्र जले इव ६० १३ रसनेन्द्रियमाश्रित्यदूषणमाह [ जौहाएरसंगहण वयं तितं रागहेउ समणुबमाहु दोसम्म हउ अमणुबमाहुः समीयजोतस सवोयराओ ६ १] रस्यते प्रास्वाद्यते इति रसं मधुरादिस्तरसं तीर्थ कराजितायारसं मधुरादिक विषयं ग्रहण वदन्ति तं रसंमनी मनोहरगुण
णादू कम्म जसे पुणो हाइ दुह विवागे ५६ ॥ गधे विरत्तो मणओ विसीगी एएण दुक्खोह परंपरेण । न लिप्पए भव मज्भव संता जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ६.। जीहाए रसं गहणं वयंति राग हेतु मणुन माहु। तं दास
हेउं अमणुन माहु समाय जो तेसु सबौयरात्री ६१ । रसम्म जीह गहण वयंति जिम्भाए रसं गहण वयंति। रागम थेणी प्रहेषे करी सहित जिवारे चित्त हुइ तिबारे बांधे कर्मणां जेहकर्मना भोग विनाकालने बिखे दुःखपामे५८ मनोहरगंधनविख्ने राग अणधरतु मनुष्य शोकरहित थको ए दुःखनी परंपरा तेणे करोने लौंपाद खरडाइ नहीं मवसंसारमाहि जिम पाणि करी कमलींनूपाननली पाई. जोभनो ग्रहण रसकहे तीर्थ करते रागनु हेतु मनोहर भलोकहे तेहे घनो कारण अमनोज पाडूत्री कहे समो जे रागद्देषने बिखे से बौतराग ६.१
राय धनपतसिंह वाहादुर का आ० सं० २०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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४ सहितं रागहेतु आहुः तमेवरसंकटु कादिक अमनोज अमनोहरं हेपतु पाहुः यवतेषु मनोज्ञामनोज्ञेषु रमेषु समस्तुल्य वृत्तिः सवीतराग उच्यते
इति शेषः ६१ (रसस्मजीह गयण वयन्ति जीहाएरसङ्गहण वयन्ति रागस्म है समणबमाहु दोसम्म हे प्रमुखमाहु१२) रसस्य मधुरादिजिहा ४ जिहन्द्रिय ग्रहणं ग्राहक वदन्ति तथा जिह्वायारसनेन्द्रियस्य रसं मधुरादिक ग्रहण ग्राह्य वदन्ति रसरसनयोधि ग्राहकसम्बधः उक्तः तद्रसनेन्द्रिय
समनीनं रागहेतुक पाहु: अमनोज ईषस्य हेतुक आहुः ६२ [रमेसु जोगिचिमुवेइतिब्ब अकालियं पावरविणासं रागाउरीविडिसविभित्रकाए 8 मच्छे जहा पामि सलीभगिड़े ६३] योमनुष्योरसेषुमधुरादिषतौबा रहि उपैति सरागातुरोऽकालिक विनाशंप्राप्नोति तथा रसपीजीवोपि यथा
विडिमेविभिन्न : कायो यस्य स एतादृश मच्छः आमिस लोभरसगृधः मृत्यु प्राप्नोति६३ (जेभाविदोस समुवेइतिव्वं तं सिक्खणे सेलवेइदुक्ख'दुहन्तदोसेण * सएणजन्तु न किञ्चिरस अवरम इसेइ ६४) यश्चापि जन्तुर्यस्मिन्क्षणतीव्र इषं समुपैति स जीवस्तस्मिन्नेव क्षणे स्वकीयेनदुर्दान्त दोषेण दुर्दान्तरसनेन्द्रिय दोषेणदुक्ख' उपैति प्राप्नोति परन्तु तस्य मनुष्यस्य रसः कि मपि नापराध्यति तस्य रसनेन्द्रियस्यैवदोषो न तुरसस्थ कथिोषोस्तौति भावः ६४
हउं समणुन माहु दोसम्म हउं अमणुन माहु ६२। रमेसु जी गिद्धि मुवेदू तिव्वं अकालियं पावडू से विणासं । रागा उरे बडिस विभिन्न काए मच्छे जहा आमिसलोभ गिद्धे ६३ ॥ जेयावि दीसं समुबेडू तिब्बतं सिक्खणे सेउ उवेबू
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा... ४१मा भाग
रसनो ग्रहण रस कह रागनी हेतु मनोहर भलो कह देषनो हेतु पाडी कहे ६२ रसने बिखे जे धिवांछा तिव्र पाणे ते अकालिं पाम विनाश मरण राग पौद्यो लोहाने कांटे करी भेदाणो वींधाणोकाया शरीर जहने जिम माछलामांसने लोभे रान लोभी धको मरण पामे ६३ जै कोई पाडा
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उ०ौका
प्र. ३२ ८४५
A
भाग
999999009005
[एगन्तरतोरुरभि अतालिसेसे कुणईप ओसं दुक्ख स स म्पीलमुवेद्र बालेन लिप्पईतेण मुणौविरागा६ ५] यो रुचिर मनोने मधुरादौर से एकान्तरक्तोऽत्यन्त मासक्तो भवति सबालोऽज्ञानो जीवोऽतादृशे श्रमनोज रसे प्रदेष करोति ततश्च दुक्खस्य दुक्खसम्बधिनौ पौडां उपेतिप्राप्नोति तेन कारणेन विरागौन लि प्यतेन आसक्तो भवति ६५ [रसाणुगासाखगएय जौबेचराचरे हिंसणेगरूवे चित्तेहिं ते परितावेवाले पौलेइ अत्तट्ठ गुरूकिलिट्टे ६६] बालोऽज्ञानो जोवा रसानु गाशानुगता मधुरादि रसास्वादाभिलास सहितश्चित्र विवधैः शस्त्राद्युपायैः कृत्वा अनेक रूपान् चराचरान् जीवान् हिनस्ति परितापयति कोदृशः सबाला अत्तट्ठगुरुः आत्मार्थं परायणः पुनः कौहशोबालः क्लिष्टो रागाद्य ुपहतचित्तः ६६ (रसाणवाएण परिमाहेण उप्पायणे रक्खण संनिओगे वए दुक्ख । दुहंत दासेण सएण जंतू न किंचि रसं अवरज्भाई से ६४ । एगत रतो रुइरेरसंमि अतालिसे से कुई पचस ं । दुक्खस्म संपौल मुबेद बाले न लिप्पई तेण मुगी विरागो ६५ । रसाणुगासाणु गएय जौवे चराचरे हिंस णेगरूवे । चित्त हिंते परितावे बाले पौलेटू अत्तट्ठ गुरु किलिट्ठे ६६ । रसाणुबाएण परिग्गर्हण उप्पायणे रक्खण
I
रसने बिखे आणे हे ष अत्यंतः तेहि जचण अवसरने बिखे दुःखपाने दुर्दात मोटे रसने दोषे बींधाइ जीव परंपाडूओ रसकाइ तेहने अपराध करत नथौ ६ ४ एकांतराग धरतु मनोहर रसने बिखे अति घण' पाडा रसने विखे अप्रौतोकर दुक्ख सबंधिनों पोडानो समूह पाने अज्ञानी न लोपाइ तेथे द्वेष रूप दुःख करो साधु रागरहित ६ ५ मनोहर रसने केडे प्रवत्य जोव चराचरत्र से थावरने इथे अनेकजाति विचित्र शस्त्र करी दुक्ख उपजावे अज्ञानी आमाने अर्थे गुरु मोटो किलेथ दुःखपामे ६६ मनोहर रसने रागे करि ऊपार जिवा राखवा विखे आपणा प्रयोजनने बिर्ख कोहांथको
११८
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राय धनपतसिंह वाहादुर का भा०सं० उ०४१ मा भाग
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सटौका विगियक हिंस हंये संभोगकालेय अतित्तलामे (७) रसानुरक्तास्य जीवस्य रसानुराग सति वा परिगृहण रसयुक्त द्रव्याणां मूर्छया तथा रसयुक्त
3 व्याणां उत्पादने तथा तेषां रक्षण तथा तेषां द्रव्याण सनियोग स्वपरेषां प्रयोजने तथा व्यये सरसद्व्याणां न्यूनत्वेन तथा वियोग विरह तस्य रसानु * रक्तस्य कतः सुखं भवंति कस्मादपि कारणामुखं न भवति संभोगकाले च रसास्वादनकालेपि प्रतिसाभीपि दुःख असंतुष्टि रैव दुक्वमेव (७ (रसे अति
सेवपरिगहंमि सत्तीवसत्तोनउबेइतुढि प्रतहिदीमेण दुहीपरस्म लोभाविले पाययई प्रदत्त (८) रमे अप्लोजौवः परिग्रहे शक्तीभवति ततश्च सक्तः सन उपशक्तीभवति सक्तीपसक्तश्च तुष्टिं न उपैति अतुष्टि दोषेण दुक्खौपुमान् परस्य अदत्त' सरसवस्तु एजाति कीदृशः स लोभाविलोलीभकलषः ६८ तणहाभि भूयस्म प्रदत्तहारिणी रसे अतित्तस्म परिग हय मायामुसं वडइलोभदीसातस्थाविदुक्खानविमुच्चईसे १८] सृष्णाभि भूतस्य प्रदत्तहारिणीरसे __संनिउगे। वए विओगेय कहं सुह से संभोग कालेय अतित्त लाभ ६७॥ रस अतितं य परिग्गहमि सत्तोवसत्ती न
उवे तुढि । अतुट्टि दासण दुही परस्म लाभाविले आययई अदत्तं ६८॥ तग्रहाभिभूयस्म अदत्तहारिणी रसे पति
त्तम्म परिग्गय । मायामुसं बड्ड लाभ दासा तत्याबि टुक्खानवि मुच्चई से ६८॥ मोसम पच्छाय पुरत्याय पयोग भाषा 8 मुखहोर तेहना भोग विवाना काल बिखे अदृप्तवको ६७ रसने विषे असंतोषो तथा परिग्रहने बिखे सामान्य पये लालची घणं पासल लालचौ
संतोष न पामे असतौषौने दोषे दुःखौगो धको लोभ करो कलुषित चित्तथकोल्ये पारको वस्तू अणदौधौ ५८ लोभे करौ पराभव्याने पदत्तमालेण हारने रसने बिखें परिग्रहने बिखे असतोषौने माया सहित मृषा झुठ बोले तोपणि मृषा बोल्ये थके दुःखथ को न मुकाइते जीव १८ रसनी लीभी
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.१.४१माभाग
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280
अपस्य पुरुषस्य परिग्रहे लोभदोषात् मायामृषावईते तत्रापि मायामृषायां अपि मा असन्तोषोसरसवस्तु माहौदुकवात् न विमुच्यत ६८ मोसमपच्छाय स.टोका * पुरत्यत्रीय पोगकालेयदुहौदुरन्त एवं अदत्ताणि समाययन्तोरसे अतित्तोदुहिती अणिस्मो ७० ] मृषा वाक्यस्य पश्चात् पुरतश्च प्रयोगकाले च दुरस्ती
दुक्खौभवति दुर्दुष्टोन्तो यस्य सदुरन्तः एतादृशो दुक्खोभवति एवं अमुनाप्रकारेण रमे अहप्तोऽदत्तानि समाचरन् चौर्याणि कुर्वम् दुखितो भवति पुन * रनिधो भवति निथारहितोभवति ७० [रसाणरत्तस्मनरस्म एवं कत्तोमुहं होजकयाइकिञ्चितत्थीवभोगेविकले सदुक्व निव्वत्तई जस्मकएणदुकव ७१]
एवं अनुन प्रकारेणरसानुरक्तस्य कदापि किञ्चित् कुतः सुख भवति कुतोपि सुख न भवति इत्यर्थः तत्र रसोपभोगसमयेपि असन्तोषी अप्ति लाभ रूपं क्लेशदुकब निर्वत यति उत्पादयति तस्य रसोपभोगस्य क्लते आत्मनोदुःख कष्ट जीवउत्पादयतीत्यर्थः ७१ [एमे वर समिगोपनीसं उबेइदुकवीच परं पराओपदुद्दचित्तोयविणाइकम्मं जैसेपुणोहोइ दुहं विवागे ७२] एव मेव रसे गृडोजीवः प्रहेषं मतः प्रदुष्टचित्तः सन् दुक्खौघपरं परयातकचिनोति कालय दही दुरते । एवं अदत्ताशि समाययंता रसे अतित्तो दहिओ अणिमा ७० ॥ रसाणु रत्तम नरस्म एवं कत्ता
ज्ज कयाडू किंचि । तत्योपभोगवि किलेस दक्वं निव्वत्तई जम्मकएण दक्ख ७१॥ एमेव रसंमि गा पास
हाय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
मठ बीलो पछे पश्चात्ताप धरे किम एवंचस्य" इस्य' करतुपहिला दुःखपामे झ.ठा वोलिवाने प्रस्तावने बिखे दुःखमी अंसपाम जिम मठू लागे तिम, अदत्त अणदीधोलेती रसने बिखे असतीषौ थको निखा रहित ७. रमने बिखे रागी नर मनष्यने कि हाथी सुख हो कि वार पणि तिहां भीग विवाने बिखे कलेश दुःखपामे नीरजावे करीने जे मनोहर रम भोगववानकाजि दःख कष्ट ७१म रसने बिखे प्रद्दे परोस करतुपामै जीव दखनी
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ONN30 Law
* येन कर्मणापुनस्तस्य जीवस्य विपाके दुक्खं भवति ७२ [रसे विरत्तोमाओविसोगोएएण दुक्खोह परं परेण न लिप्यई भवमको वसन्तो जलेश वा पुक्वरिणो ४ पलासं ७३] रसे विरलीमनुजोविशोकः सन् भवमध्ये वसन् अपि एतेन पूर्वोक्त न दुक्वाधपरं परयानलिप्यते केन कि मिव जलेन पुष्करिणी पत्रमिव३ 8 एवं त्रयोदशगाथा १३ अथ स्पर्थनेन्द्रियमाश्रित्याह [कायम फासङ्गहणं वयन्ति तं राग हेड' समणुबमाह तं दीसह उपमणुबमा समीयजीते कसबीय: 8 रागो ७४] तीर्थ कराः काय स्पर्शनेन्द्रिय अर्थ गौतोष्णखरमहादिकं अष्टविध विषयं ग्रहणं वदन्ति तं स्पर्थविषयं मनोज्ञ मनोहरगुणसहित रागहेतु
पाहुः तमेव अमनोन असुन्दरं देष हेतु पाहुः तेषु मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्थेषु यः समस्तुल्य परिणामः सवोतराग उच्यते इति शेषः ७४ [फासम्मकायं गहणं वयन्ति कायस्मफासं गहणं वयन्ति तं रागहेउ' समणबमाहु दोसस्महेउ अमणनमा ७५] तीर्थ करा: स्पर्श स्यचौतोयादेः पुगलस्य कायं
उवेदू दक्खोह परंपराओ। पट्ट चित्तोय चिणाइ कम्म जसे पुणो होडू दह विवागी ७२ ॥ रस विरत्तो मगओ विसागी एएण दक्खोह परंपरेण। न लिप्प भवमनीवसंतो जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ७३ १३॥ ४ कायम फासं
गहण वयंति तं रागहेतु मान्न माहु। तं दास हेउं अमणुन्न माहु समायजो तेसु स वीयरागी ७४॥ फासम्म कार्य * परंपरा हे करो सहित चित्त थको बांधे कम्म जे कर्मना दःखना कारण हुवे विपाक भोगविवाना कालने बिखे ७२ रसने बिखे विरक्त मनुष्य
शोकरहित ए पूर्वे क होते दुःखनौ परंपरा लीपाइ नही भवस'सारमाहि वसतु जीम पाणीई करौ कमलिनी पान नलीपाई' ७३ काय गरोरनी * ग्रहण बिखे फरस कर कहे ते रागनी हेतु भली कहे ते इंधन हेतु कारण अमनोन पाडूओ कह्यो सरौषो जे एहने बिखे ते वीतराग ७४ फरसनो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• •४१मा भाग
भाषा
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उ० टोका अ०३२ ८४८
सूत्र
भाषा
स्पर्शनेन्द्रियं ग्रहण' ग्राहक' वदन्ति तथा कायस्य स्पर्शनेन्द्रियस्य स्पर्श भौतोष्णादिक ग्रहण ग्राह्य वदन्ति तत् स्पर्शनेन्द्रियं शरीरं मनोश मनोज दर्श ग्राहकं रागहेतुक ं श्राहुः तदेव स्पर्शनेन्द्रियं अमनोज अमनोज्ञस्पर्शग्राहक द्वेष हेतुक' आहुः ७५ (फासेसु जोगिडिमुबेद तिव्वं अकालियं पावइसे विणासंरागाउरेसौयजलावसन्ने गाहमाहीए महिसेवरने ७६ ] योमनुष्यः स्पर्शनेन्द्रियविषयेषु तौवां उत्कटां ग्टद्धि' उपैति सोऽकालिक विनाशं प्राप्नोति सकद्रवरागेण आतुरोरागातुरः शीतजलेऽवसन्त्रस्तापोपशमनाय शौतलजले मग्नस्तव ग्राहगृहोतोमहाम करेगीपात्तोऽरण्य महिषडवनाशं प्राप्नोति ७६ [जेयाविदोसंसमुवेइतिब्ब ं तं सिक्खोसेउ उवेइदुक्ख दुहन्तदोषेण स एवजंतूणकिञ्चिफासं अवरज्मईसे ७७] यश्चापि जन्तुर्जीवोयस्मिन् वर्णतीव्र हषं समुपैति स च जन्तुः स्वकौयेन दुर्दान्त दोषेण स्पर्शनेन्द्रियदोषेणतस्मिन्नेवचणे दुक्ख उपैति परं स्पर्शः शुभाशुभ स्पर्शनेन्द्रियविषयस्तस्य जीवस्य किमपि न गहणं वयंति कायस्म फासं ग्रहणं वयंति। रागा हेडं समगुन माह दासम्म हेउं अमणुन्न माहु ७५ ॥ फासा जो fife मुवेद्र तिव्वं अकालियं पाव से विणासं । रागाउरे सौय जलावसन्ने गाह ग्गगहीए महिसेवरन्ने ७६ ॥ जेयाबि दोसं स मुवे तिब्ब' तं सिक्खणे स उ उवेद्र दुक्खं । दुहंत दोसेण सएण जंतू न किंचि फास अवरज्भईर्स ७७ ॥ ग्रहणकाया कहोई कायानो स्पर्शग्रहण का ते रागनोहेत् भलो कहे ते ईषनोहेतु पाडओ कहतो हयो ७५ स्पर्शने बिखे जे ग्टनि वांका अत्य करे अकाले ते पामे विनाशमरण जिम रागे पौड्यो टाढापांची माहि बेसे जिम ग्राहक थलचर जौबे ग्रह्म महिषपाच्यो अटवौमाहि मरणपामे ७६ जे काई पाड़आ फरसने जिख द्वेष आये ते हि जक्षण अवसरने बिख दुःखपामे दहीत मोटे फरसने दोषे परंपाहूठ फरिस तेहने अपराध करतु
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राय धनपतसिंह बाहादुर का श्रा०सं०० ४१मा भाग
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९
AN
अपराध्यति तस्य स्पर्शनेन्द्रियस्यैव दोषः ७७ (एगन्तरत्तोरु इरंमिफामे अयालिसे सेकुणईपीस दुक्लस्म सम्पौलमुवेइबाले नलिप्पई तेणमुणीविराग७८)* सटौका योमनुष्योरुचिरे स्पर्शएकान्तरक्को भवति स अतालिसे असुन्दरै स्पर्थे प्रवेपं करोति स च बालोऽज्ञानौदुक्खस्य सम्पीडां उपैति तेन कारणेन विरागीमुनि
०३२ ८५०
लिप्यते ७८ [फासाणुगासाणगएयजौवे चराचरैहिसणे गरूवै चित्त हिं ते परितावेइबाले पीलेइ अत्तगुरुकिलिट्ठ ७८] स्पर्शामुगासाबुगतीजीव: स्वाभिलाषसहिती जोवी बाल निर्षि वेकोचिरनक रुपैरुपायैः शस्त्र : क्त्वा अनेकरूपान् नमान् स्थावरान् जीवान् हिनस्ति पौडयति कीदृशः स - अत्तगुरुः स्वार्थपरायणः पुनः कीदृशः क्लिष्टोरागाद्य पहतचित्त: ७८ (फासाणु बाएण परिगहेण उप्यायण रक्तख सनिअोगेवएविप्रोगेय कहंमुहंसे
एगत रतो रुदूरसि फासे अतालिसेसे कुणई पत्रास । दक्खम्म संपौलमुवेवाले न लिप्पई तेण मुणीविरागो ॥ फासाण गासाणु गएयजीवे चराचरे हिंसडू गोगरूवे । चित्तेहिते परितावेदू वाले पीले अत्तट्ट गुरु किलिट्टे ७६ ॥
फासाणु वाएण परिगहण उप्पायणे रक्षण समिओगे। वए विभागय कह सुहसे संभोग कालेय अतितः नहीं ७७ एकांत घणु रागो फरस भलाने बिखे अति घणु पाडूा फरसने बिखे देष दक्व संश्वधिनी पौडानी समूह घाम अज्ञानी न लोपाइ तिष दक्ष रूपज हष ते करौ साधुनिरागी ७८ मनोहर फर सने कैडे प्रवर्तती प्राणी जीव चराचर वसपने थावरने हणे अनेकजाति विचित्र शस्त्रे करौने दक्व ऊपजावे अज्ञानी आत्माने अर्धे गुरुमोटी किलेश पाम ७८ मनोहर फरसने बिखे राग करी परिग्रहनी मूर्छार * करौ द्रव्य जपजावव करी चौरादिकथौ राखिवे कामने करीवे करो विनाश बिखे विरहने विखे कौहाथी सुखहौवे सहने भोग विवाने कालने
XXXXXXXKARNAKAM3034XXXXXX
राब धनपतसिंह बाहादुर का प्रा •सं• उ • ४१मा भाग
भाषा
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सम्भोगकालेब पतित्तिलाभे ८०) स्पानुरागण स्पर्यानुरागजाते सति वा स्पर्शपरिपणेण स्पर्थानुरक्तस्य जीवस्य स्पर्थाना उत्पादने तथा स्पानां १० टौका अ.३२
सवियोगे स्वपरयोग्य प्रयोजन व्यापार तथा पुनः स्पर्थानां व्ययेन्यू नवे तथा स्पर्थानां वियोग विनाये तस्य स्पर्थानुरक्तस्य कुतः सुख' स्यात् सर्वकाले ८५१ प्रमुख एव स्यात् च पुनः स्पर्थानां सम्भोगकालेपि अप्ति लाभः एव दुक्ल मेव भवति ८० (फार्म पतित्तय परिगाहं मिसत्तोवसत्तीण उवर तुहि
अतुहिदोसेण दुहोपरस्म लोभाविले पायई प्रदत्त' ८१) स्पर्थे अतः पुमान् परिग्रहे मूळयां सक्तो भवति सामान्य नरत्तीभवति ततश्च उपशक्तोऽत्यन्ता यलोभवति ततश्च शक्तीपथक्तोऽप्ति दोषेण दुःखौसन् परस्यान्यस्य स्पर्थ आदत एकाति कीदृशः सलोभाविलोलीभमलिनचित्तः ८१ [तणहाभि भूयस्म अदत्तहारिणो फामे प्रतित्तस्म परिगहेय मायामसं वडइलोभदोसा तस्थाविदुक्खान विमुच्चई ८२] वृष्णाभि भूतस्य मनुष्यस्य पुनरदत्तहारिणय पुनः स्पर्थे अटप्तस्य परिग्टहे मूळयां लोभदोषात् मायामृषावई ते तत्रापि मायामृषायामपि दुःखात् असन्तोषौन मुच्यते ८२ [मोसम्मपच्छायपुरत्यत्रीय पोग
लाभ ८०॥ फास अतित्तेय परिग्गहमि सत्तावसत्ता न उवे तुट्टि। अतुट्ठि दोसण दुही परस्म लामाविले आय
यह अदत्त ८१॥ तन्हाभिभूयस्म अदत्तहारिणो फासे अतित्तम परिगह य । मायामुस वडदू लोभ दीसा तत्यावि भाषा * बिखे तृप्ति संतोष अणहत कोहाथको सख ८० फरसने बिखे असंतोषो धको तथा परिग्रहने बिखे सामान्यपणे लालची सतोष न पामे असं
तोषौने दुक्खे दक्खोपोथको लाभ कलुषितचित्त थको पारको अणदौधौ वस्तुल्ये ८१ लोभे करौ पराभव्याने प्रदत्त नालेण हारने फरसने विखे असंतोषोने परिग्रहने बिखे असंतोषोने माया मृषावाद वांधे लोभना दोषना दोषथको मृषा झठी बोले तिहां पौण दुःखयको मकाई
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२.४१ मा भाग
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ए० टोका
०३२
८-५२
सूत्र
भाषा
कालेयदुहौदुरन्ते एवं अदत्ताणि समाययन्तो फासे अतित्तोदुहिश्र अणिस्मो ८३] माया मृषाभाषी पुमान् मृषा वाक्यस्य पश्चात्पुरतश्च पुनः प्रयोग काले भाषण प्रस्तावदुरन्तोऽत्यन्त दुःखौभवति एवं अमुनाप्रकारण अदत्तानि समाचरन् स्पर्शेऽसृप्तः सन् दुक्खोभर्वात परं कीदृशः श्रनिश्रोनियारहितः ८३ (फासाग्रत्तमनर एवं क तो सुहं होज्जक याइकिश्चितत्थोव भोगे विकि लेस दुक्ख निब्बत्तईजस्तक एणदुक्ख ८४) एवं अमुनाप्रकारण स्पर्शानुरक्तस्य कदापि कि चिदपि कुतः सुख'भवेत् अपितु नभवेत् तत्र स्पर्धं उपभोगेपि क्रेम दुक्ख यस्य स्पर्यस्यकृते उपभोगार्थ आत्मनोदुक्ख निर्वर्त्तयति ४ ( एमेव फासंमिश्र पश्रीसं उबेद्रदुक्खोहपरं पराश्री पदट्ठचित्तोयचिणाइकम्मं जंसेपुणो होद्र दुहविवारी ८५) एवं एव यथा स्पर्धेरागवान् दुःखोषपरं परयाप्रदुष्टचित्तः सन् दुक्खानविमुञ्चई से ८२ । मासस्य पच्छाय पुरत्यय पद्योग काले य दुही दुरंते । एवं दत्ताणि समाययंता फार्स अतित्तो दुहिओ अणिमो ८३ । फासागरत्तस्मनरा एवं कनो मुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोव भाग वि किलेस दुक्खं निव्वत्तई जमकरण दुक्खं ८४ | एमेव फासंमि गओ पश्चसं उवेद दुक्खोह परंपराओ । पदट्ठ चित्तोय चिणाइ नही ८२ फरसने लोभी झूठो बोले पहिलो दुःख लह प्रयोग काले झठा बोलवाने अवसरने बिखे दुक्खौ थको अंत विडंबना जिम झूठो लागे तिम प्रदत्त अणदौधे एतले फरसने बिखे असंतोषी दुःखि उधाइ निश्रारहित ८२ फरने बोखे रागौने नरमनुष्यने इमको हाथो सुखवाद्र' किवारे पणि तौहा फरसने बिखे तृप्त न होइ तालगे क्लेश दुक्ख पाने नौप जावे करे ते फरस भोग विवाने बिखे कष्ट अनेक उपाय ८४ इम फरसने बिखे द्वेष पाम्यो थको पामे ते जीव दःखनौ परंपरा प्रहषें चित्तसहित थको बांध कर्मघणां जेह कर्म दक्खनां कारणहुइ विपाक भोग
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रामधनपतसिंह वाहादुर का पा०सं० उ० ४१मा भाग
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प्र.३२ ८५३
कर्म अष्टप्रकारंचिनोति तथा स्पर्श प्रदेषणातीदक्खौधपरं परयाप्रदंष्टचित्तः सन् तत् कर्मचिनाति तत्कर्म उपार्जयति यत्कर्म तस्य पुरुषस्य पुनर्बिपाके सटौका
दुःखदायि भवति ८५ (फासेविरत्तोमणी विसोगीएएण दक्खोहपरं परेण मलिप्पई भव मज् वसन्तोजलेण वा पुक्खरिणौ पलासं ८६) स्पर्शविरक्तो मनुथोविशोकः सन् एतयादुक्खौषपरं परयाभवमध्ये वसन् अपि न लिप्यते केन कि मिवजलेन पुष्करिणी पत्र मिव ८६ १३ एताभिस्त्रयोदशगाथाभिः स्पर्थनेन्द्रियदोषउक्त: पञ्चमाधिकारः (मणस्मभाव' गहण वयन्ति तं रागहेउ समणुबमाहु तं दोसहेउ अमणुनमाहु समायजातेससवीयरागी ८७) तीर्थकरामनसश्चित्तस्य भावं अभिप्राय चिन्तनरूपं ग्रहण ग्राह्यं वदन्ति तं अभिप्रायं समनाझं मनीजरूपादि विषयचिन्तनसहित रागहेतुक आहुः अथवा स्वप्रकामादिषु भावोपस्थापितीरूपादिस्मोपि भाव उच्च ते तं भावं मनसाग्राह्य तीर्थ' कराबदन्ति खनादिषु हि केवलं मनस एवव्यापारोस्ति ___ कम्म' जसे पुणा हाइ द ह बिवागे ८५ ॥ फासे विरत्तो मणी विसगी एएण दु खोह परंपरेण। न लिप्पई
भबमको वसंतो जलेण बा पुक्खरिणी पलास ८६ १३॥ ५ मणस्म भावं गहणं बयंति तं राग हे उंतु मणुन माहु।
तं दास हेउ' अमणुन्न माहु समाय जो तेमु स वीयरागी ८॥ भावस्म मण गहणं वयंति मणमा भावं गहणं वयंति। ४ विवाने अवसर ८५ मनोहर फरसने बिखे राग अणधरतु मनुष्य शोकरहित एपुठे कहोते दुक्खनी परंपरा लोपाइ महीं भवसंसार माहिं & बसत' जिम पाणीई कमलनीपाईनही ८६ मननीहियानी भाव परिणाम ग्रहण ग्राह्य कहे तीर्थकर ते रागनो हेतु भलो कहताहा ते पूषनी हेतु पाइयो कहता हा जैन राखे मनराग ने बिखे ते वीतराग ७ भावहियानी शभारि चिंतन रूपनी ग्रहण मन को मननी
राय धनपतसिंह वाहादुर का भा०सं० उ०४१ मा भाग
१२०
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स.टोका
444
CN
तमव भावं अमनाज है पहेतु पाहुः यो मनुष्यो मनोनामनाजेषु भावेषु समस्तुल्य अत्तिः सवीतराग उच्यते ८७ [भावस्ममण गहण वयन्ति मणस्मभावं गरण' वयन्ति रागरम हेउ' समणत्रमाहुदासस्महेउ अमणुबमाहु ८८] तीर्थकराभावस्य शभाशभाशयस्य मनीग्रहण ग्राहक वदन्ति मन सचित्तस्य भावशुभाशभाभि प्रायं ग्राह्य वदन्ति इत्यनेन भावमनमार्गाच्य ग्राहक भावस्म बन्ध उक्तः तत्र तत् मनस्ममनोन प्रमोदयुक्त रागस्य हेतुक पाहुः अमनीन कुमितभावसहित देषस्य हेतुक पाहु ८८ [भावेसु जोगिदिमुवेइतिब्बं अकालियं पावसे विणासंरागाउरे कामगुणस गिई करेणममावहि एव नागे ८८] योमनुजोभावेषु विषयाभिलाषेतीवां गृहि उपैति समनुजाकालिक विनाशं प्राप्नोति स पुनरागातुरः कामगुणेषु गृई सन् करेगु मार्गाप हतो नाग इव हस्तिन्या स्वमार्गे आनौतोगजव परवशीभूत्वा आकालिकं विनायं प्राप्नोति यथाहि मदोन्मत्तीहस्तीदूरात् करेणुकांहस्तिनी दृष्ट्या तद पमोहितस्तस्यामार्गे पतितोजनम् हौत्वा संग्रामादी प्रावश्यविनाश्यते तथा भावातुरोपि प्रकाले म्रियते इत्यर्थः ८८ [जयाविदोसंसमवेइतिव्वं तं सिक्खणेमेउ उवेड्दुक्ख' दुहन्त दोमेणसएणजन्तून किञ्चिभावं अवरकईसे ८०] यश्चापि मनुष्यो यस्मिन् क्षणे शभाशभभावतीव हेष समुपैति समनुष्यः
रागम हे सेमणुन माहु दासम्म हेउ अमणुन माहु प्८॥ भावसु जो गिहि मुवेद्र तिब्बं अकालियं पाव से वि णासं । रागाउरे कामगुणेसु गिद्दे करेणु मग्गा वहिएव नागे ॥ जेयाबि दासं समुबेडू तिब्वतं सिक्खण सेउ
राय धनपतसिंह बाहादुर का था .सं..४१मा भाग
ग्रहण भाव कयो ते रागनी हेतु कारण भला का पनाहतु कारण पानी को ८८ मने करौ रधिवांचा अत्यंत धरै अवसर विना ते विनाय मरण पामे रागे पौद्यो कामगुण रूपादि बिखे करण हाथणीद पाताना मार्गे अपहखो नाग हस्तीनी परिग्रो प्रकाले विनाश पाम ८८
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४० टोका
अ०३२
८५५
सूत्र
भाषा
AAAKR
खकोयेन दुर्दान्तदोषेण दुष्टमनोलचणदोषेण तस्मिन्र वक्षणे दुक्खं उपैति परं तु तस्य मनुष्यस्य भावः शुभाशुभव्यापारः किमपिन अपराध्यति भावस्य न कोपि दोषः किं तु तस्य पुरुषस्य स एव दोषः इत्यर्थः ० [ एगन्तरत्तोरुद्ररभि भावे अतालिसे सेकुराईपचसं दुक्खस्म सम्पौलमुवेद्र बालेनलिप्पई तेण मुणौविरागे ८१] ग्रोमनुष्योरुचिरं मनोज भावे ऋद्धिर ससातागौरवादी एकान्तरक्तो भवति समनुष्योऽसालिसे अतादृशे अमनोशे भावे प्रषं करोति च बालोऽज्ञानोदुक्लस्म सम्पौडं उपैति तेन कारणेन विरागोमुनीरागई षाभ्यां न लिम्बते ८१ [भावाणुगासाणुगएय जौवे चराचरेव्हिंसइणेगरूवै चित्ते हिं ते परतावेवाले पोलेर अत्तगुरूकिलिट्टे ८१ [जोवो भावाण्गाशानुगतः शुभविषयाभिलाषसहित चित्र रनेक प्रकारैः सङ्कल्पनेर ने भौषधे नाहं वशी
उबेदू दुक्खं। दुद्दंतदासेण सएण जंतून किंचि भावं अवरज्झई से ६० ॥ एग तरतो रुद्ररंसि भावे अतालिसेसेकुणई पत्रोस ं । दुक्खस्म संपौल मुबे वाले नलिप्पई तेरा मुणी विरागे ६१ ॥ भावाणुगासाणु गएय जौवे चराचरे हिंस णेगरूबे । चित्तेहिंते परितावे बाले पौलेइ अत्तट्ठ गुरु किलिट्ठे ६२ ॥ भावाणु वाएग परिग्गहेण उप्पावणे रक्खण
जे कोइ मनुष्य द्वेष अत्य ंत घरे भावने बिखे तेहज अवसरने बिखे ते पाने दक्ख दुर्दात मोटे देोषे जोव चिंतच्या पदार्थरूप भावते बलात्कारे करौ तेहने अपराध करतू नथो ८० एकांत घणो रागो मनोहर भावने बिखे एताद्वशे विरूपने विखे अति घण' प्रदेष अप्रौतिकरे दुक्ख संबंधिनो पोडानो समूह पामे अन्नानो न लौपाइ तेथे द्वेष रूप दःखे करौ साधू रागरहित ८१ मनोहर भावने केडें प्रवर्त्ततु' प्राणो भोगनो इच्छाई ं चगचर तस अपर यावरनेहणे अनेकजाति विचित्रशस्त्र करौने दक्ख उपजावे अज्ञानी आत्माने अर्थे गुरुमोटो किलेस दक्त पाने रागादिक पौद्यो २२
धनपत सह बाह४१ मा भार
राय
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Xकरणं करोमि अनेनौषधन स्वर्थसिद्धिं करीमि अनेनौषधेन पुत्र' भवति इत्यादि चिन्सनेबोलोऽविवेकोचराचरान् अनेकरूपान जीवान हिनस्ति माया उ टोका प्र.३२ पीढयति पर कोहणः स अत्तगुरुः खार्थपरायणः पुनः कीदृशः क्लिष्टीरागाद्युपहतचित्तः ८२] भावाणु वा एणपरिमाण उप्पायणरक्षणमविभोग
वएविनोगय कहं सुहंसे सम्भोगकालेष अतित्तिलाभे ८३] भावानुपातेन विषयादि चिन्तनेन तथा परिग्रहेण विषयादिमौलनेन तथा उत्पादन पतविपयाटिपदार्थाः बाथं से मिलि थन्ति इति चिन्तनेन तथारचणे आरोग्य बुद्धि प्रमुखभावरक्षण तथा सब्रियोगे परस्य कुबुद्धिस्वयादिदाने तथा व्ययेनिद्रास्मति प्रमुखाणां हीनत्वे वियोग परस्योत्तरदानादी समर्थाया बुद्धः स्फुरणयाभावभावानुरक्तस्य कुतः कस्मातसुखं भवत अपित कतीति
मुखन स्यादेव धुनः सभोगकाले च अप्ति लाभीदुक्व भावानां चिन्तन काली पिट लाभोन स्यात् सत् कुश्मभनक पुरुषवत् सुख न लभते । प्रभाव प्रतित्तय परिणामि सत्तोवसत्तोनउवे तुहि अतुविदोसेणदुहौ परस्म लोभाविले आयई पदत्त ८४ ] भावेघु शुभाशभाध्यवसाये अहप्तोऽसन्तुष्टी
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा संतु.४१मा भाग
संनियोगे । वए विओगेय कह' मुह से संभोगकालेय अतित्तलाभे ६३॥ भावे अतित्तेय परिग्गहमि सत्तोवसत्तो न
उवे तुट्टि। अतुट्टि दोसणा दुही परस्म लाभाबिले आययई अदत्तं ६४॥ तगहाभिमयम अदत्तहारिणो भाव अति भला भावने राग करी परीग्रहनी मूर्छाद द्रव्य उपजावि वा चोरादिकथौ राखिवा काजि आपणा करिव विनाश विख विरह बिखे कौहाथी मुखथाई तेहना भोग विवाना कालने बिखे अप्त संतोषना लाभ अणहुते किहांधी सुखथाय .३ भावने विखे असंतोषी थकी परिग्रहने बिखें असंतोषो थको सामान्यपणे घणु लालची संतोष न पामे असंतोषीने दुवं दुक्सोयोथ को पारको वस्तु देखो लोमेकरी कलुषित चित्तथ कोल्ये अणदीधी
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अ०३२
ॐ जनः परिग्रहे शक्तो भवति सामान्य नरतीभवति ततश्च सामान्य न शक्त: सन् उपशक्तोऽत्यन्ताशक्तो भवति एतादृशश्वसन तुष्टि न उपैति अतुष्टि दोषण १. टीका दुःखोसन् परस्य अन्यस्य द्रव्यादी लोभाविलोलीभकलुषोऽदत्तादत्त ८४ (तण्हाभि भूयस्म अदत्तहारिणोभावे प्रतित्तस्मपरिग्गा हेयमायामुसं वडुइलोभ
दोसा तत्थाविदुक्खानविमुच्चईसे ८५) तृष्णाभि भूतस्य अदत्तहारिणः पुरुषस्य. लोभदोषात् मायामृषाबई ते तत्रापि मृषा भाषणेपि स मृषा भाषौदुक्खात् न विमुच्यते ८५ [मोसस्मपच्छाय पुरत्यीय पोगकालेय दुहोदुरन्ते एवं अदत्ताणि समाययन्तो भावै अतित्तोदुहिओ अणिमो ८६] मृषा वाक्यस्य पश्चात्पुरतश्च प्रयोगकाले च पुरुषोदुरन्तदुःखी एवं अमुनाप्रकारेभावेऽप्तः सङ्कल्प असन्तुष्टो अदत्तानि च समाचरन् दुःखितो भवति कथंभूतः सः अनियोनिश्रारहितः धर्मशक्काभ्यां रहितः आर्तरौद्राभ्यां सहितइत्यर्थः ८६ [भावाणुरत्तस्मनरस्म एवं कत्तोसुई होजकयाइकिञ्चितत्थावभोगविकिलेस दुक्ख निव्वत्तईजस्म कएणदुक्ख ८७] एवं अमुनाप्रकारेण भावानुरक्तस्य भावस्वाभि प्राये अनुरक्तीभावानुरक्तस्तस्य कदापि कुतः सुखं भवेत् कुतोपि
त्तम परिग्गहेय । मायामुसं वड्डडू लाभ दासा तत्वावि दुक्खा नवि मुच्चई से ८५ ॥ मासम्म पच्छाय पुरत्यओय पओ गकालय दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंती भाव अतित्तो दुहिओ अणिमो ६६ ॥ भावागुरत्तस्म नरस्म एवं
राव धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.उ.४१मा भाग
बस्तु ८.४ लोभेकरी पराभव्याने अदत्तलेणहारने भावने विखे अपने परिग्रहने विषय असंतोषीने मायासहित मृषाबीले लोभनादोष थकी ती पिण दुःस्व थको मूकाइनही ते विषयौ जीव ८५ भावनी लोभी झूठ बोली पश्चात्तापधर पहला दुःखलह झूठावीलवांना प्रस्तावने विखे दुःखनोपामण हार अंते विडंबना तेहने जिम मुठलाग जिम अणदीधु' लेती मनोहर भावने विखे असंतोषौ थको दुःखोइइ निश्वारहित ८६ भावने विखे रागी
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सटौका ०३२
८५८
कदापि किमपि मुख' नस्यात् इत्यर्थः तत्र च भावोपभोगेपि सङ्कल्प विकल्यानुरागेपि चिरकालचिन्त नैपि लायदुक्ख अप्ति लाभजनितं क्लेशरूपं दुकव निवर्त्त यति उत्यादयति पुनर्यस्य कृतैयस्य भावीपभोगविषय चिन्तनाद्यर्थ नरस्य दुक्व स्यात् ८७ [रमेव भावंमि गोपत्रीसं उवे दुक्खाहपरं पराओ पदुद्दचित्तीचिणाइकम जमे पुणीहोइदुहं विवाग ८८] एवं एव- यथा भावे रागं प्राप्तो दुक्खौघपरं परया प्रदुष्टचित्तः सन् अष्टकर्म प्रकारक चिनोति तथा भावे चित्ताभिप्राये प्रई पं गतोजन्तुर्दु खौघपरं परया प्रदुष्टचित्तः सन् तत्कर्मचिनोति बनाति यत्क मतस्य जीवस्य विपाक कर्मवेदन कालेदुक्ख दुक्वविधायि भवति ८८ [भावविरत्तोमणो विसोगोएएण दुक्खोहपरं परेण न लिप्पई भवमो वसन्ती जलेन वा पुक्खरिणौपलासं ८८] भावविरक्तः सङ्ग ल्यादि मुक्तीमनुष्यः एतापूर्वोक्तयादुखौधपरं परयाभवमध्ये वसन् अपि न लिप्यते कोदृशः स विशोकोविगतशोकः केन कि मिव
कत्तो मुह होज्ज कयाइ किंचि । तत्योव भोगवि किलेस टुक्ख निब्बत्तई जस्म कएण दुक्ख ६७॥ एमेव मामि गओ पोस' उवेदू दुक्खोह परंपराओ। पदुट्ठ चित्तोय चिणाइ कम्म ज' से पुणो होइ दुहं विवामे ६८॥ भावे विरत्तो मणो विसोगो एएण टुक्खोह परंपरेगा। न लिप्पडू भवमभवसंता जलेण वा पुक्खरिणीपलासंहः ॥१३॥
राब वनपतसिंह बाहादुर का प्रा सं0 3. ४१माभाग
नरमनुष्यने कोहांथो मुख हुवे पण तौहां भाव भोगविवाने अहप्तहुइ लागे तो श दुःख पामे नोपजावे करे जे मनोहर भावभोगववाने काजि दुक्ख कष्ट अनेक उपाय ८७ इम भावने विखे द्वेष पाम्बोथको पामे जौव दुःखनौ परंरारोसवंत चित्तथ को बांधे कर्म घणा जहने वलो हुइ दुःखरूप विपाक कर्मनोफल ८८ भावबौ विग्स्यो मनुष्य शोकरहित एपुठे कहो दुक्खनौ परंपराइ लेपाये नहीं भवस'सारमाहि वसतु जोम मणौये करौ कमलनीनी
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८५८
स.टौका
जलेन पग्रिनोपत्र इव ८२ १३ एताभि स्त्रयोदशगाथाभिर्भावाधिकारः संपूनः अथ पूर्वोक्ताथमैवोपसंहरबाह (एवं दियस्थायमणस्म अस्थादुक्तस्महेज प.२२
मण्यस्मरागिणी ते चैवधीयपि कयाइ दुक्व नवोयरागम्म करिन्तिकिच्चि १०.) एवं पूर्वोक्त प्रकारणरागिणी रागद्देष सहितस्य मनुष्यस्य इन्द्रियार्थाः इन्द्रियाणां चक्षुरादौनां अर्थाः विषयारूपादयश्च पुनमनसोऽर्थाः सङ्कल्पविकल्पाः दुःखहेतवो भवतीत्यध्याहारः तएव इन्द्रियार्थामनसोऽर्थाय कदापि किञ्चित् स्तोकमपि दुक्ख वीतरागस्य किञ्चित्र कुर्वन्ति योहि जितेन्द्रियो भवति स एव वीतराग उच्यते स एव इन्द्रियार्थानां मन: सल्यानां च जैतास्यात् यश्च ईदृयो न भवेत् स च मुक्त भाक् न स्यात् यथाजिन पालकः अनजिनपालककथा१०० [न काम भोगासमयं उविन्ति नयाविभीगाविगई
उविन्ति जेतप्प बोसोयपरिग्गय सोते समोहाविगई उवेइ १.१] कामभोगाः शमतां न उपयान्ति च पुन गावितति अपि क्रोधादिरूपां विकार * बुद्धि अपि न उपयान्ति शमस्य क्रोधादेश्च भोगाः कारणं न भवन्तौति भावः तर्हि को हेतुरित्याह यस्तत् प्रदेषौ तेषु कामभोग प्रद्देषो यस्य सतत् 8
एबिंदियत्याय मणम्म अत्था टुक्सस्म हे मणयम रागियो। ते चेब थोपि कयादू दुक्खं न बीयरागम करीति किंचि १००॥ न कामभोगा समयं उति नयाबि भोगा बिगडू उति। जे तप्यओसीय परिग्गहीय सो तेसु मो
राम धनपतसिंह बाहादुर का प्रा. सं. ह.५१ मा भाग
भाषा
* पान ननोपार १५८ इम ५ इंद्रोना अर्थ गव्दादिक मनना अर्थ संकल्पादिक ते दःखना हैत कारणले मनुष्य रागवंतने ते 'द्रिय मनना अर्थ
थोडी पणि किवार पणि दुक्वशरीरना मनना कष्ट रागहष रहित जिन कार कर नही १०० इद्रिय ५ ना काम भोगते समतानी कारण नहई रागद्वेष पणाने हेतु न हवे शब्दादिक काम भोग विकार जपजापता नधीं क्रोधादि विकारतानथी जैते बिषयने रागद्देष पारी के अने परिग्रह
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* ईभी भोगेषु विरागी च पुनः परिणाही तेषु भीगेषु परिग्रहबुद्धिमान् भवति सजीवी मोहात् रागधात् विवतिं लपैति यदाहि विषयेषु रागबति १. टोका: विषसे तदाभोगायतोभवति यदा च विषयेषु बुद्धिन विधत्तं तदा विषयेभ्यीविरकी भवतीति तस्मात्कामभोगाः शमतायाः क्रोधादिकषायाणांच प्र.३२ 24. २९*कारिणी भवितु' नाईन्ति इत्यर्थः १ अब विकतः स्वरूपमाह (कोह च माणं च तहेवमायं लोभ' दुगच्छ' अरईरइञ्च हासंभयं सोग पुमस्थिवयं नपुस भयं विषिष्य भावर) (घावजई एवम गगरूवे एवं विहकामगुणसुसत्तो अबेय एयप्प भवे विमेसे कारुणदणहरिमेव इस्मे ३) कामगुणेषु यदादि विषयेष
यतीरागी जौवः एवं अमुनारागवत्वलक्षण प्रकारण अनेकरूपान् नानाविधान् विकारान् एवं विधान् उक्तस्वरूपान् अनन्तानुबन्धि प्रमुखान् पापद्यते प्राप्नोति च पुनरेतत् प्रभावान् एतेभ्यः क्रोधादिभ्यः प्रभवाउत्पबा एतत् प्रभावास्तान् एतत् प्रभावान् क्रोधादि जनितान् परिताप दुर्गति पातादीन प्राप्नोति कौशः सन् करुणायअहः कारुण्यः कारणय त्वं नदीन: कारुण्य दोनोऽत्यन्तदीमइत्यर्थः पुनः कीदृयो ह्रीमान् लज्जितः प्रीतिविनाशाहिक
रायधनपतसिंह वाहादुर का पा०सं०७. ७१मा भाग
हाबिगई उवेडू १.१॥ कोहंच माण'च तहेव मायं लाभ दुग'छ अर' र 'च। हासं भयं सोग पुमित्यिवेयं नपुंस
वेयं बिबिहेय भावे १०२॥ पावज्जई एब मण गरुवे एब बिहे कामगुण सु सत्तो। अन्नेय एयप्पभवे बिससे कामन्त्र * बुधिधरले ते विषयादिकने विखे रागद्देष माहक्रोधादि विकार लहे१०१ क्रोध अभीमान तथा वली माया लोभ दुगंछा अशुचिदेखीपरति अन्यातारति स्यात् हास्यभय शोक पुरुषवेद स्त्रीवेद नपुसकवेद विविध धणाभाव जे हर्ष शातादिक १०२ पामे इणि प्रकार अनेक प्रकार अनंतानुबंधीया क्रोधादिक पूर्वे कह्याएशब्दादिक कामगुणने बिखे विलगी रह्योछे ते अनेरा क्रोधादिकना कौधा विशेष परिताप दुर्गतीरूप पाम दयामणी इवे धण
भाषा
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टौका अ०३२
रहेव अनुभवन् परब च विपाकं अतिकटुकं परिभावयन् पुनः कोहयोवइस्ले इति आर्षखाई थः सर्वत्राप्रीतिकरः इत्यर्थः इति हितोयगावयासम्बन्ध उका 8 प्रवमगाथाया अर्थमाह विषयाशक्तोजोवाकान्२ स्वरूपान् प्राप्नोतितमाह विषयाशक्तोज़ीवः कदाचित्क्रोधप्राप्नोतिच पुनर्मानं प्राप्नोति तथैवमायांप्राप्नति 8 ४ तथाभयं अपि शक्नोति तथा योक पुस्त्री वेदं शोक प्रियवियोग मनोदुक्ख रूपं पुवेदं स्त्रिया सह विषबाभिलाषं रूपं स्त्रौवेदं पुरुषेण सह विषयाभि कू लाषं मोकच स्त्रीवेदश्च शोक पुस्खोवेद तदपि विषयायतो जीवः प्राप्नोति तथा पुनः कदाचित्र पुंसकवेदं प्राप्नोति स्त्रीसोरुभयोर्विषयाभिलाष
कर्ष नपुंसकवेदंलभते च पुनर्विविधान् भावान् हर्षविषादादौन् प्राप्नोति इति गाथाद्दयार्थः अथ रागई पोचरखे उपायं पुन रागद्दषयोरनुहरणे प्रकारान्त रेप दूषणंचाह [कप्पं न इच्छे जसहायलिच्छुपच्छाणतावयतवप्पभावं एवं वियारे अमियप्पगारे पावलाई इन्दियचोरवस्म १०४] साधुः सहायलिपसः सन्
कल्प' पपिन रीत सदा प्रकल्प कथं इच्छत् च पुनः माधः पश्चानुतापः सन तपः प्रभावमपिम मात् अत्र हेतु माह इन्द्रियचीरवश्यः पुमान् अमित है प्रकारान् बहु विधान् एवं पूर्वोक्तान् विकारान् पापद्यते प्राप्नोति कल्पते स्वाध्यायादि क्रियासुसमर्थी भवतीति कल्योयोग्यस्तं कल्पं स्वाध्यायादि योग्य
सहायं मम विश्वामणां करिष्यतीति बुध्याथियं लिप्सतीति सहाय लिपस स्तादृशः गन् पश्चात् ब्रत सपसोरङ्गीकारादनन्तरं अनुतापं यस्य सः
राय धनपतसिंह वाहादुर का भा०सं०७०४१ मा भाग
दीणे हरिमे वस्से१०३ ॥ कप्यं न इच्छेन्ज सहायलिच्छ पच्छाणताय तव प्यभावं | एवं वियारे अमिय प्पयारे आव
दौनहुए लज्जावंत हद् अप्रोतकारी हुइ सर्वने १.३ सज्झायादिक क्रियाने संकल्या याग्वनवांछ शिष्यने वौसामनादि सहाय वांछतु मे एकष्टकां कौधो चारित्र लोधा पुठो पचात्तापनकर तपनी प्रभाव लब्धि चक्रवर्ती पणो न वांके रहवा विकारदोष अमित धणा प्रकारना पामे द्रियचीरने वसि
१२१
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८० टोका
ફ્
सूव
भाषा
प्रभावभवान्तरेभोगानां भोक्तायां इत्यादिविश्वतः प्रभावस्तं अथवा इहैव आमौषध्यादि सब्धिमान् स्यां इत्यादिकं न इच्छेत् १०४ तो जायन्तियाइनिमज्जिउ मोहमहवयं मिस हे सियोदुक्खविणोयया तप्पचयं उज्जमएयरागो १०५ ] ततः कषायबेदादीनां प्राप्तिरनम रं तस्य इन्द्रratri sit स्य मोहमहार्थी मोहमहासमुद्र निमयितुं तं जीवं ब्रुडयितु' प्रयोजनानिविषयसेवना हिंसादीनि जायन्ते उत्पद्यन्ते किमर्थं एतानि विषयसेवनहिंसादीनि प्रयोजनानि जायन्त कोदृशस्य तस्य वैषिणः इन्द्रियसुखाभिलाषिणः ततञ्च तत् प्रत्यं तेषां पूर्वोक्तानां विषयसेवा हिंसादोनां प्रयोजनानां प्रत्ययं निमित्तं तत् प्रययं तदर्थं तत्रिमित्त' रागौईषी च जीव उज्जमए इति उज्जच्छतं उद्यम कुरुते १०५ (विरज्जमाणस्य इन्दियत्या सहायातावद्रयप्पगारान तत्सव्वेविमणवयं वानिब्बत्तयन्तो अमणत्रयं वा १०६) तावत् प्रकारास्तावन्तः प्रकाराभेदायेषां ते तावत् प्रकारा भेदा येषां ते तावत् प्रकाराः खरगृहादि भेदा: शब्दरूपरसा स्पर्शाः सर्वेपि इन्द्रियार्थस्तस्य पूर्वोक्तस्य विरज्यमानस्य विरागियोरागमद्दषरहितस्य मनोज्ञत्वं वा अमनोज्ञत्वं च न निवर्त्तयन्ति नोत्पादयंति रागद्वेषाभ्यां विषयेषु मनोज्ञत्व' अमनोज्ञत्वं चोत्पाद्यते योहि रागद्वेषाभ्यां रहितस्तस्य विषयाः
ज्जई इ ंदिय चोर वस्ने १०४ ॥ तत्र से जायंति प । यणा' निमिज्जिडं मोहमहन्नवंमि । सुर्हसियो दुक्ख विपोयट्ठा तप्पञ्चयं उज्जमएय रागी १०५ ॥ विरज्यमाणमय इंदियत्या सद्दाइया तावइय प्यगारा । न तम सव्वेवि मणुन्नयंत्रा थकी हता १०४ वेदादि विकार पछो तेहने हिंसा विखे सेव दिक प्रयोजन ऊपजे आपण आत्माने आपण पे बूडावे मोहसमुद्रने बिखे सखना अर्थी थका दुःखपामि वा भयौ पूठिल्या प्रयोजनने अर्धे उद्यम करे रागद्द षौ थको १०५ रागद्वेष अण करताने इंद्रिय ५ मा अर्थो शब्दादिक विषय
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं ० ० ४१ माभाग
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6.टोका *
.. Emm
किं कुर्वन्तौति भावः १०६ (एवं ससंकप्पविकप्पणाम् सञ्जायई समयमुवडियस्म अस्थेयसङ्गप्पयत्री तो पहीयपकामगुणे मुतण्हा १०७) एवं अमुना. * प्रकारेण स्वसङ्कल्प विकल्पनासु उपस्थितस्य पुरुषस्य तथा अर्थान् सङ्कल्पयत: पुरुषस्व च समत्व' जायते स्वस्य आमनः सहल्यारागह षमीहासका
विकल्पना स्वरूपदोषहेतु विचारणा: सङ्कल्पविकल्पनास्ता उपस्थितस्य उद्यमयुक्तस्य च पुनरर्थान् इन्द्रियार्थान् शब्दादि विषयान् विचारयन्तः यतो 8 रूपादयः इन्द्रियादयः मत्तः सकाशात् पृथगवतिष्टन्ति न एतपाप हे तवः पाप हे तवस्तु खसिन् स्थितारागद्देषादयः इति विचारयतः समतासकायते
यदुक्त जौवाइ नवपयत्ये जोजाणइ तमहोइ सम्मत्ततोसे इति ततः समनोत्पत्ति तस्तस्य पुरुषस्य कामगुणेषु विषयेषु वृष्णालोभः प्रकर्षण होयते १०७ (सवोयरागोकयसब्बकिच्ची खवेइनाणावरणं खणेश तहेवजन्दरिसामावरेज चन्तरायपकरदूकम्म १०८) यस्य पुरुषस्य कामगुणेष शब्दादिषु लोभी निवत ते सनिलीभीवीतरागः वीतसर्ववत्य : सन् कृत सर्व कार्यः सन चणेन ज्ञानावरणं पञ्चविध क्षणेनचपति १.८ (सम्ब' तबीजाण पासएय
निव्वत्तयंती अमणुनयंवा १०६॥ एवंस संकप्पविकप्पणामु संजायई समय मुवट्टियस्म । प्रत्येय संकप्प ओ तो से पही। यप कामगुणसु तन्हा १०७॥ स वीयरागोकय सव्व किञ्ची खवेडू नाणावरणं खणणं । तहेव जं दरिसण मावर जंचं
राय धनपतसिंह बापदुर का.आ.सं..४१ मा भाग
तेतलासर मधुरादिक पणे रागद्देष अण धरता ते सघला मनोन पण नोपजावे नही अमनोज पण निपजावे नही १०६ इणे प्रकार प्रामाने संकर रागहषादि अध्यवसायना विकल्प समस्तदोषना मूल के एहवी भावनान बिखे प्रवर्तताने हुइ समता मध्यस्थ पणु उद्यमवंतने अर्थ जौबा दिपदार्थने शुभयान चिंतताने ते समताथको तह हाणि पनि ओशेथाइ कामगुणने विखे तृष्णा लोभ १०७ ते वीतराग थाइ कीधा मर्वकार्य जेणे
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१ टीका अ०३२
८६४
* अमोहये होइ निरन्तराए अणासवेज्माण समाहि जुत्त पाउसएमोक्वमुवेइसको १०८) ततः कर्मक्षयानन्तरं सर्वजानाति सर्व पश्यति च तदा अमी
हनोमोहनीयकर्मरहितः सन् निरन्तरायः अन्तरायकर्मरहितो भवति पुनरनायवो भूत्वाध्यानसमाधिनायुक्तच पायुः क्षयेसुद्धः सन मोक्षमपैतिर * [सोतसवम दुहस्ममुक्खो जंवाईसययंजन्तुमेयं दोहामयविषमकोपसत्यो तीहोर अञ्चन्तसुहीकयत्यो ११०] समीक्षगामी पुरुषस्तस्मात हयात
मुक्तो भवति तस्मात् कस्मात् यत् दुकवं एतं जन्तु एतं प्राणिनं सततं निरन्तर बाधतेपौडयति तस्मात् सर्वस्मात् दुःखात् मुक्तोभवति कीदृशः समोक्षगामी परुषोदीर्घामविप्रमत्तः दीर्घाणि प्रलम्बस्थि तौनियानि कर्माण्यव आमयारोगाः दीर्घामयास्तेभ्योविशेषेण प्रमुक्तीदौर्घामयविप्रमकोटी कर्मीमारिन पुनः कीदृशः अतएव प्रशस्तः प्रशंसायोग्यस्ततः कम्मरोगाभावात् अत्यन्त सुखीकृतार्थ : कतक्तत्यः सिद्धीभवतीत्यर्थ:११. अथ निगमनमाड [अणाइकालप्प
तरायं पकर कम्म १०८॥ सव'ती जाण पासएय अमोहण होई निरंतराए। अणासवे भाण समाहि जत्तया उक्खए मोक्ख मुवेदू सुद्धा १०६॥ सातस्म सव्वम्म दुहम मुक्खो जंबाहई सययं जंतुमयं । दोहामय विप्यमको पसत्यो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०३०४१मा भाग
भाषा
* खपावे मानावरणौ कर्म समय मात्र माहि तिम जवली दर्शनावरणौ खपावे जे अंतराय कर्मकरी कर कर्म १०८ तिवार पछौ सर्वलोकालोक
जाने जाणे देखे मोहनौय रहित थको आयव पापरहित शुद्ध शक्लध्याने समाधि परमख स्थ पणे युक्त पाउखादि तथा घातीया कर्मने खपावे मोक्षपामे शुदमल रहित १०८ तो मोक्षनो पामणहारो जन्ममरण तथा सर्वदुःखधी मुकाई जे दुक्ख बाधा करे पौडे निरंतर जीव प्रत्यक्ष देखौता सघला संसारौ प्राशौने स्थिते करौ दीर्घकालताइ भोगवौइ एहवां कम्मरूप रोगनौ पौडाचौ मूकाणी प्रसंशाजोग तिवार पछौ घण थाइ सुखी
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सटौका भवस्म एसो सबस्मदुक्खस्मपमोक्लममोवियाहियोजंसमुच्चसत्ता कमेण अञ्चन्त सुद्दीभवन्तित्तिमि १११ तीर्थकर रेषसर्वस्व संसारदुल स्य प्रमोक्षमार्गो ४
* व्याख्यातः यं प्रमोक्षमार्ग क्रमेण समुपैति सत्वाः प्राणिनोऽत्यन्त सुखिनो भवन्ति कौशस्य सर्वस्य दुक्खस्य अनादिकालप्रभवस्य इति अहं ब्रवीमि इति* * सुधर्मास्वामीजम्बूस्वामिनं प्राह १११ इति श्रीमदुत्तराध्ययन स्वार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रौल मौकीर्ति गणिशिष्यलक्ष्मौवनभगणि विरचितायां 8
हात्रिंशत्तमं प्रमादस्थानाख्यं अध्ययन संपूर्ण ॥३२॥ अथ त्रयस्त्रिंशत्तममारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने प्रमादपरिहार उक्तः तथा प्रमादरूानान्चुक्तानि तैः प्रमादैः कृत्वा कम्म प्रक्लतीनांबन्धः स्यात् तदर्थ इहाध्ययने कर्म प्रकृतय उच्यन्त (अट्ठकम्माइबुच्छामि पाणु पुचि जहकम जहिं बही अयं जीवी संसारे* परिवती १) हे जम्बूस्वामिन् अहं यथा क्रम' पानुपूर्वा अनुक्रमेणतानि अष्टकर्माणि वक्ष्यामि क्रियन्त मिथ्यात्वाविरति कषाययोगैहे तुभिर्जीवन इति कर्माणि अष्टसंख्यानि यद्यप्यानुपूर्वीत्रिविधावत ते तथापि यथाक्रम पूर्वानुर्ध्या प्राक्तत्वात् तृतीयास्थान प्रथमातानि कानिकर्माणियरष्टभिः कर्म * बडोनियन्त्रितीयं जौवः संसार चतुर्गति भ्रमणपरिवर्तते विविधान् पर्यायान् ? [नाणावरण चैव सणावरण तहा वैयणिज्जतहामोह आउकम्म
ताहोदू अञ्चंत मुही कयत्यो ११०॥ अणादू कल प्यभवम्म एसी सब्बस्म दक्खस्म पमोक्खमग्गो । वियाहिओ जं समुवेच्च सत्ता कमेण अच्चंत मुही भवंति तिमि १११॥ पमायठाणं संमत्तं ३२ ॥ अट्ट कम्माई वोच्छामि पाणुपुचि जहक्कम
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं.४० ४१मा भाग
कृतार्थ सूखपामे सिहजाये ११० अनादिकालना ऊपना रया जे कर्म सर्वदुःख रूप तेहने मूकावणहार ए मार्ग को तीर्थकर मार्ग सम्यग् पडौवर्जी जोव घणा अनुक्रमे चढते २ गुण पडिबर्जे घण सुखीथाये मोक्षजाइ १११ इति प्रमादस्थानक अध्ययन नो अर्थ पूर्णषयी ३२ ॥ हवे आठ कम्मे कई
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• टौका अ.३३
तहेवय २] नामकम्मच गोयञ्च अन्तरायन्तहेवय एव मैयाइकम्माई अवधी समासो ३ युग्म एवं अपनाप्रकारेण एतानि अष्टोकर्माणि समासतः संक्षेपतोन्नयानौविशेषः एतानि कानि तत्र प्रथमं ज्ञानावरण कर्म प्रथमचैव पद पूरणे तथा द्वितीयं दर्शनावरण दर्शनं सम्यक्त मामोतीति दर्शना वस्ण प्रतोहारवत् सम्यक सूपं न दर्शयति २ तथा वेदनौयं वेद्यतसाताऽसातेऽनेनेति वेदनौयं मधुलिप्तखद्धारातुल्य' तृतीयं कर्म तथा पुनर्मोह मुधरी मूढोभवति जीवो ननति मोहोमद्य वत् चतुर्थ मोहनौयं मोहाययोग्य मोहनीयं कर्मन यं तथैव च आयाति स्वकीयावसरे इत्यायुः गतिनि:सरि तु मिच्न अपि जोवोनिर्गतु न शक्नोति यस्मिन् सति निगहबवतिष्टतौल्यायुषः स्वभावः पञ्चमायुः कर्मर तथा नामयति च तसृषु गतिषु नवौ
जेहिं बद्दो अयं जीवो संसार परिवत्तई १ ॥ नाणा वरण चेव दंसणावरणं तहा। वेयणिज्नं तहा मोहं माउ कम्म
तहेबय २॥ नामकम्मच गोयंच अंतरायं तहेवय । एव मेयाई कम्माडू अट्टेवउ समासी । नाणावरणं पंच विह स्यु अनुक्रमे तेहना प्रकार पूर्वानुपूर्वीइ जिले कर्मे बांध्यो पौद्यो ए जीव चारगति रूप संसारमाहि परिवर्ते अनेक भेद पामे १ जानने जे आवरे ढांक के ज्ञानावरण जौम वस्त्र सूर्यनीकांतिने ढांके १ दर्शनने जे आवर ते दर्शनावरण जिम पोलीभी राजानी दर्शन करवामदौई २ वेइये सुखादिक ते वेदनी मधु खरद्याखडग्नीपरे ३ तथा वली मोहे अज्ञानीने विकल करे मदिरानी परि ते मोहनौ कर्म४ पाउख कर्म५ आवे आपण कर्म नरकादि गतिथी नौकलवु वांछ पणि नौकलाह नही नौगडनीपर २ च्चारगति माहि घणा भावपमाडे ते नाम कर्म चितारानौपरे । गोत्रनाम्हा मोटा ते गोत्र ते कुभार सरीखी दातारलेणहार विचाले विघ्नपणे पावते अंतरायकर्म भंडारी नौपर इम एकर्म सघलाई पाठे संखेपथी विसरन जैतला
राब अनपतसिंह बाहाद्गुन का आ.सं.उ.११मा भाग
भाषा
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कटौका
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8 नान् पर्यायान् प्रापयति जीवं प्रति इति नाम चित्रकारवत् नाम कर्मषष्ट यं गोवान्त पाहयं ते लघनादीर्घेण वा सदन जीवाऽनेनेति गोव 8 कुम्भकारवत् घटकलययराव कुण्ड कादिभाडकावति इदं गोव कम्मसप्तमं तथा अन्तर्मध्ये दाग्राहकयोर्विचाले प्रायान्तौलसरायो यथा राजाकमै चिहात उपदिशति तत्र भाण्डागारिकोन्तरालेविघ्न वनवति तादृक् अन्तराय कर्म अष्टमं भवति पत्र चाष्टानां कमणां पादौसानावरण दर्शनावरण च प्रतिपादितं तत्तु पात्मनः स्वभावस्तु ज्ञानदर्थ नरूप एवास्ति अतस्तदावरणं आदौ उक्त याभ्यां कर्मभ्यां जीवस्य स्वभाष पावियते अतस्तयोमुख्यत्व ज्ञानदर्शनयोश्च समानत्वं पि अन्तरंगत्वेन विशेषतो ज्ञानोपयोग एव सर्वलब्धौनां प्राप्तिः स्यात् तस्मात् ज्ञानस्य प्राधान्यादादी तदावरण उक्त तदनु सामान्य ज्ञानीपयोगत्वात् दर्शनावरणं उक्त' एवं शेषकर्मणां अपि विशेषस्तु स्वयमेव शेयः ३ इत्य कर्मणां मूलप्रवतीरकोत्तर प्रक्कतीराह (नाणावरणं पञ्च विहं सुयं आभिथिबोहियं श्रीहिनाणवतईयं मण नाण व केवलं ४) ज्ञानावरण कर्म पञ्चविधं कवितं श्रुतं श्रुत ज्ञानावरण १ तथा प्राभिनिबोधकं मति जानं तदावरणं द्वितीय तृतीयं अवधिज्ञानावरण तथा मनोज्ञानं मनः पर्याय ज्ञानावरण चतुर्थ तथा पक्षम केवल ज्ञानावरण' ४ अथ दर्शनावरचं स्य हितोय कर्मणभेदान् आह (निहातहेव पयला निहा निहाय पयल पयलाय तत्तीयधौण गिहीभी पंचमाही नायब्वा ५) निद्रासुख जागरणरूपा १
सुयं आभि णिबोहियं । भोहिनाणंच तय मणनाणंच केवलं ४ । निद्दा तहेव पयला निहानिहाय पयलपयलाय । जीवनाभेद तेतला ३ कर्मनौमूल प्रक्कतो कही हवे उत्तर प्रकृति कहेछ ज्ञानावरगौना भेद ५ श्रुतमानं श्रुतज्ञानावरणी पाभिनिबोधिकमति कामावरणौर अवधिज्ञानावरको चोजीर मनपर्यायान४ चोधीवली केवल ज्ञानावरबौ ५ रखे जाने ते नीद्रा । तिमवलोउभावेठा प्रावते प्रचला
पय धनपतसिंह बाहादर का प्रा.सं... मा भाग
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प.३३
*बधव प्रचला द्वितीयास्थितस्योपविरस्य समायाति २ दृतीया निद्रा निद्रा दुःख प्रतिबीधा चतुर्थी प्रचला प्रचलाचलमानस्यया आयाति सा प्रचला #. टोकाप्रचला ततः पञ्चमीस्थान दिनानौन यास्त्याना पुष्टा रबिलोभो यस्यां सास्त्यान रद्धिः अथवास्याना संहता उपचिता ऋद्धिर्यस्यां सास्त्यानर्षिः यस्या
उदये हि वासुदेवाई बल: प्रबल रागह ष वांव जन्तुर्जायते अतएव दिन चिन्तितार्थ साधिनी इयं पञ्चमी भवति ५ (चक्षु मवक्व ओहिस्स दरिसण केव लेय आवरणे एवं तु नवविगप्प नायव्वन्दरिसणावरण ६) एवं तु अमुनाप्रकारेण नवविकल्प नवविधं दर्शनावरणं कर्मज्ञातव्य दर्शनं सम्यक्त्व आवृणी
सोति दर्शनावरण पञ्चनिद्रा पूर्वगाथायां उक्ताः चत्वारोऽमौभेदास्ते के उच्यन्ते चक्व मचक्युओहिस्मदरिसणे इति तत्र चक्षु मच चक्खुस्मेत्येक पदं चक्खु श्व * अचक्खुश्च अवधिञ्च चक्षुरचक्षुरवधिस्तस्यचक्षुरचक्षुरवधेरावरणं चक्षुरचक्षुरवधेरित्यत्र प्राकृतत्वात् इंहे एकत्वं पुस्त्वदर्थनेरूपसामान्य ग्रहणयत् आवरणंच
पुनः केवलेकेवलज्ञानयत् आवरणं एवं नवविधंचक्षपादृश्यतेज्ञायते इतिचक्षुदर्शनंतत्प्रावणीतिबाच्छादयतौतिचक्षुदर्शनावरणं १ तथाचक्षुषोऽन्यत् अचक्षुः श्रीवनक्र रसनास्पर्थरूपं इन्द्रिय चतुष्क तेन अचक्षुषा दृश्यते इति अचक्षुर्दर्थनं तत् पाहणीतौति अचक्षुर्दर्शनावरणं रूपयव्य सामान्य प्रकारेण मयांदा सहितं दृश्यते इति अवधिदर्शनं तत् प्राणोतोति अवधि दर्शनावरणं एवं त्रयोभेदाश्चतुर्थ पुनः केवले केवल दर्शने प्यावरणं जयं केवलं सर्वद्रव्य पर्या
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रायधनपतसिंह वाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग
तत्ताय थीणगिद्धौउ पंचमा होडू नायब्वा ५। चक्ख मचक्खु आहिस्म दंसग केवलय आवरण । एवंतु नव दिगप्पं
भाषा
* गाठे दुःख करौ जगाडीयेते निद्रा निद्रा ३ होडतां आवेते प्रचला प्रचला तिवारपछी अशुभने योग हुइते दुष्टरडि लोभ रागादि रूपथौ वासुदेव ॐ नाथको अर्धबलदिननु चिंतन्य कार्य करे ते निद्रामाहि ५ चक्ष अखि देखे अचक्षका न प्रमुखवौजे इंद्रिये देखे अवधिज्ञाने दर्शने देखे वली केबल
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A
याणां सामान्चेन स्वरूपं दृश्यते इति केवल दर्शनं तत्र बदावरण केवलदर्शनावरणं एवं निद्रा पञ्चानां निद्राणां चतुणी आवरणानां च एकत्रीकर वात् नवविधं दर्शनावरण ज्ञातव्य इत्यर्थः ६ [वेणियंपि दुविहं सायमसावञ्च प्राहियं सायस्मय बहुभेया एमेवासायस्मवि ७] वेदनीयं कम्म अपि हिविधं वेदित योग्य वेदनोयं कम द्विमिदं आख्यातं कथितं एक सातच पुनरसातं तत्र स्वाद्यते शारीरं मानसच सुखं अनेनेति सातं साता वेदनीयं ततोन्यत् असाता वेदनीयं इत्ययः तु पुनः सा तस्यापि सा ता वेदनो यस्यापि बहवो अनुकम्पादयो भेदा भवन्ति एवं असा तस्यापि आसाता वेदनौ यस्थापि बहवः प्रातिशोक सन्तापादयोभेदाः भवन्ति इति शेषः ७ [मोहणिज्जपिदुविहं दंसचरण तहा दसति विहं वुत्तं चरणयदुविहंभवे] (सम्मत्त चेव मिच्छत्त सम्मा मिच्छत्तमेवय एवाओ तिबिपयडोत्री मोहणिज्जस्म दंसण ८) (चरित मोहणं कम्मं दुविहं तु वियाहियं कसाय मोहणिज्जच नो कसाय तहेवय १०) सोलसविहभेएण' कम्मं तु कसायजं सत्तविहनवविहंवा कम्मंनी कसायज ११ तिसणां गाथानां अर्थः मोहयति जीवं पूर्मयति
नायव्व दंसचावरणं ६ । वेयणियंपिय बिहं साय मसायंच आहियं । सायमओ बहू भेया एमेव असायम्मबि । मोहणिज्जपि दुविहं दंसर्ग चरण तहा। दंसणे तिविहं वुत्तं चरणे दुविहं भवे ८। सम्मत्तंचेब मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
केवलज्ञानने देखे ४ ना आवरण इम बलो नवप्रकारे जाणिवी दर्शनावरण वेदनों कर्मपणि विच प्रकार माता सुखभोगवी इते दुक्व पामौ इति अथा ता २ भेद हुइ साता वेदनौना दुक्ख शोकादि घणा भेद प्रम अशाता वेदनीना दुःख शोकादिक घणा भेद ७ मोहनी काम पणि बिहु मैदे तत्व कचि रूपानने विखे विरति रुपचारिखने बिखे वली दर्शनने बिखे तीनभेट चारिवम विखे वे भेट पर सत्यभाव ते समक्त मिथ्यामति से मिथ्यात्वकार
१२२
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४० टोका श्र०३३ ८७०
सूत्र
भाषा
मद्यवत् परवशं करोतौतिमोहस्तदहं मोहनीयं कर्म अपि द्विविधं भवति दर्शनेन तथा चरणे दर्शनेन दर्शनविषये मोहनीयं तथा चरचरण विषये मोहनोयं तत्र दर्शनं तत्वरुचि रूपं चरण' विरति रूपं तत्रापि दर्शने यत् मोहनीयं तत् विविधं तौर्थ करे रक्त घरमे चारित्रे यत् मोहनीयं तत् द्विविधं भवेत् ८ दृश्यते ज्ञायते जौवादयः पदार्थाः अनेनेति दर्शनं तत्र मोहयति मूढी करोतीति दर्शनमोहनीयं विविधं सम्यक्न १ मिथ्यात्व २ सम्यक् मिथ्यात्वं ३ मिश्र मित्यर्थः एव पदपूरणे सम्यक्त मोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयं मित्रमोहनीयं तत्र सम्यक्व हि मिथ्यात्वस्यैव पुत्रलाः अण्ड पुलाः अत्यंत विशुद्दाभवन्ति तदासम्यक्कं कथ्यतेतत्सम्यक्त' एवं दर्शनंकथ्यते दर्शनसम्यक्कायोर्नामान्तरं अत्र गृह्यते यदासम्यक्त' मिथ्यात्वप्रकृतित्व' भजति तदासम्य क्वस्य अतोचारा लगन्ति तदामिध्यात्व' भवति यदा दर्शनप्रकृतिषु मोहोभवति अथवा औपशमिकादिकं मोहयति तदपि सम्यक्त मोहनीयं उच्यते १ अथ मिथ्यात्व मोहनोय स्वरूपं उच्चते सम्यक्काभावे मिथ्यात्व' अशुद्ध दलिकरूपं यतस्तत्व अतत्व रुचिरतत्व तत्वरुचिरुत्पद्यते तत् मिथ्यात्वं तत्र मु मिथ्यात्व मोहनीयं यत्तु सम्यग् मिथ्यात्व मोहनीयं तत्त शुद्दाशुद्ध दलिक रूपं यस्मात् जिन धर्मोपरि रागोपि न भवति द्वेषोपि न भवति अन्तर्मुहुर्त स्थितिरूपं यथा नालिकेर दोपवासि पुरुषोऽनोपरिराग्यपि न भवति द्वेष्यपि न भवति तादृग स्वभावं मिश्र मोहनीयं तृतीयं उच्यते एता स्तिस्रः प्रक्क तयोदर्शने सम्यक्ती अथ दर्शनस्य सम्यक्वस्य च मोहनीय कर्मणो नया इति शेषः सम्यक्कस्य अज्ञानं सम्यक्षमोहनौयं मिथ्यात्वस्य अनं
मेवय। एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जम्म दंसणे ८ ॥ चरित्त मोहणं कम्म दुविहंतु वियाहियं । कसाय माहणि साचोका मिथ्या ते सम्य मिथ्या एतौन प्रकृति पूठे कही ते मोहनीय कर्मदर्शन समकितने बिखे८. चारित्र बिखे मुझाइ ते चारित्र मोहनीय कम
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था ०सं० उ. ४१ मा भाग
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मिथ्यात्व मोहनीयं मिथस्य मोही मिथ मोहनीयं इह हि सम्यक्त मिथ्यात्व मिश्ररूपाः जीवस्य धर्मा उच्चन्त ८ दर्शन मोहनीयं त्रिविधं उक्त्वा अथ १० टोकाचारित्र मोहनौयभेदान् आह चरित्तेति गाथा पूर्वमेवोक्ता अथान्वयः तीर्थकरैश्चरित्र मोहनं कर्म विविधं व्याख्यातं परिचे चरित्र ग्रहण माहयति अ०३३
* मूढं करोति इति चारित्र मोहनं तत्र हि चारित्र मोहनं यत्र चारित्र फलं जानम् अपितत् न आद्रियते तत्दैविध्यमाह कषाय मोहनौयं प्रथमं कषायाः क्रोधादयश्चत्वारस्तै हयतीति कषाय मोहनौयं १ तथानी कषायै नवभिर्हास्यादि षट् कवेदन्त्रिक रूपैर्माहयतोतिनो कषाय मोहनीयं १० तत्रयप्रथम कषायज माहनीयंकर्म षोडशविधभवति कषायाहि क्रोधमानमायालीभा: प्रत्ये कं अनन्तानुबन्धा प्रत्याख्याना प्रत्याख्यान संज्वलन रूपैश्चतुभिभदैः षोडश भेदाः भवन्ति अथनीकषायज मोहनीयं कर्म सप्तविध नवविध वा भवति हास्य १ रति २ अरति ३ भय ४ शोक ५ जगुप्सा ६ वेदत्रयाणाच्च सामा न्यावगण नया एकत्वमेव गम्यते हास्यादि षटकं वैदश्च एवं सप्तविधं यदाहि बयोवेदाः पुंस्त्रो नपुंसकरूपा गान्ते तदा नवविध नो कषायज मोह नौयं भवतीत्यर्थः ११ अश्वायुः कर्म प्रकृतौराह (नेरइ यतिरिक्खाउ मणमा तहवय देवाउ चउत्थंतु आउकम्मञ्च उाँब्बई १३ ),आयुः कर्म चतु
जंच नोकसायं तहवय १०॥ सालस विह भएणं कम्मत कसायजं । सत्तविहं नवविहंवा कम्मनोकसायज ११॥ ते वे भेदेकह्या तीर्थ कर कषाय क्रोधादिके करौ चारित्र बिखे मृझा एते कषाय मोहनीय वौजो कषाय साथै ज प्रवते तेनो कषाय हास्यादौके १० क्रोधमान माया लोभ अनंतानुबंधौ प्रत्याख्यान अप्रत्याख्या न संजलन एसोलभेदे कषायची अपनाजे कम्म हास्य,१ रति २ अरति ३ शोक ४ भय ५ दुगंछा ६ वेद ७ एसातभेद पुरुषवेदना स्त्रीवेद २ एसहित । भेदकम नोकषायधौ ऊपनांते ११ नरकनी आयु १ तिर्यचनो आउखु २ मनुष्यनु
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं..१ मा भाग
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उ०टोका अ०३३
८७२
सूव
१. भाषा
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विधं भवति तथानैरयिक तिर्यगायुः निरये भवानैरयिकाः नैरविकास तिर्य चश्चनैरयिक तिर्यञ्च स्तेषां आयुनैरथिक तिर्यगाथुः आयुशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धः तथैव तृतीयं मनुष्यायुः च पुनञ्चतुर्थी देवायुः एवं चतुर्विधं आयुर्भवति १२ अथ नामकर्म प्रकृतोराह [नामकम्पन्तु दुविहं हं असु आहियं सुहाउ बहुभेयाएमेव असुहवो ] नाम कर्म विविधं व्याख्यातं सुभं १ च पुनरशुभं शुभनाम कर्म? अशुभनाम कर्म २ एवं द्विविधं तत्र शुभाशुभ नाम कर्मणो बहुभेदाः सन्ति एवं एवं अशुभस्य अशुभनाम कर्मणोपि बहुभेदा भवन्ति तत्र शुभस्य उत्तरोत्तर भेदतोऽनन्त भेदत्वेपि मध्यमा पेचया सप्तत्रिंशद्ध दा भवन्ति ते चामी मनुष्यगति १ देवगति २ पञ्चेन्द्रियजाति ३ श्रौदारिक ४ वैक्रिय ५ श्राहारिक ६ तैजस ७ कार्मण ८ समचतु रस्र संस्थान ८ वज्रऋषभ नाराच संहनन १० ऊदारिकांगोपांग १२ आहारकांगोपांग १३ प्रशस्त वर्ण १४ प्रशस्त गन्ध १५ प्रशस्तरस १६ प्रशस्त स्पर्श १७ मनुष्यानुपूर्वी १८ देवानुपूर्वी १८ अगुरुलघु २० पराधात २१ उखास २२ श्रातप २३ उद्योत २४ प्रशस्त विहा योगति २५ बस २६ वा दर २७ पर्याप्त २८ प्रत्येक २८ स्थिर ३० शुभ ३१ शुभग ३२ सुखर ३२ प्रदेय ३४ यशःकौर्त्ति ३५ निर्माण २६ तीर्थंकरनाम कर्म ३७ एताः नेरइय तिरिक्वाउ मणुमाउ तहेवय । देवाउयं चउत्यंतु आउ कम्म चव्विहं १२ ॥ नाम कम्मरंतु दुविह' मुह मसुहंच आहियं । मुहम्मउ वहभेया एमेव असुहवि १३ ॥ गोयं कम्म दुविह उच्च नीयंच आहियं । उच्च अट्ठ आउखु तथावलीनिच देवतानु' पाउखु चोथु आयुकी यारप्रकारि१२ नामकी विद्दु' भेदे सर्वपणेगोमेते सुभनाम सर्वपणेसो अशन नाम की चढ़ ते भेदे नामशुभ नामना घणा अनंतभेद मध्यम पणिभेद ३७ रूम अशुभ नामने अनंताभेद मध्यमपणे ३४ भेट १३ गोचक हि भेद उस गाँव इत्याह कुल नीचे
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ० स०ड० ६१मा भा
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उ०टोका
अ०३३
सर्वाः अपि शुभानुभावात् शुभनाम कर्मणः प्रकृतयो से याः तथा अशुभनाम कर्मणो मध्यमभेद विवचया चतुस्त्रिंशद्भेदा भवन्ति तद्यथा नरकगति १ तिर्यग्गति २ एकेंद्रिय ३ हींद्रिय ४ चींद्रिय ५ चतुरिंद्रियजाति ६ ऋषभ नाराच ७ नाराच ८ अर्द्धनाराच ८ कौलिका १० सेवार्त्तक संहननानि ११ ८७३ न्यग्रोध मण्डल संस्थान १२ सादि १२ वामन १४ कुन १५ हुण्डक १६ अप्रशस्तव १७ अप्रशस्तगन्ध १८ अप्रशस्तरस १८ अप्रशस्तस्पर्श २० नरकानु पूर्वी २१ तिर्यगानुपूर्वी २२ उपघात २३ अप्रशस्त विहायोगति २४ स्थावर २५ सूक्ष्म २६ साधारण २७ अपर्याप्त २८ अस्थिर २८ अशुभ ३० दुर्भग३ १ दुखर ३२ अनादेय ३३ अयशो अकीर्त्ति ३४ एतास अशुभनारकत्वादि निबन्धनत्वेन अशुभाः अत्र च बन्धन संघाते शरोरेभ्यो वर्णाद्यवान्तरभेदाः वर्णादिभ्यः पृथक् न विवक्ष्यन्त एता प्रकृतयस्तु मध्यम विवचया प्रोक्ताः उत्कृष्ट विवचयातु १०३ प्रोक्ताः सन्ति १३ अथ गोत्र कर्म्म प्रकृतो नक्ति (गोयं कम्मं दुविहं उच्चनीयच्च आहियं उच्च अडविहं होइ एयं नौयंपि आहियं १४) गोत्रं कन्म द्विविधं उच्चं च पुनर्नीचं तत्र उच्च उच्चगव इक्ष्वाकु जात्यादि उच्च र्व्यपदेशहेतु जातिकुल रूप बल श्रुत तपो लाभाद्यष्टविव बंध हेतुत्वादष्टविधं उच्चैर्गोत' भवति एवं इति श्रष्टविधं एव जातिकुलादि मदाष्ट निबन्ध हेतुत्वान्रौच मपिनोचैर्गोत्र' अपि नीचे व्यपदेशहेतु श्राख्यातं १४ अथांतराय प्रकृतीराह [दाणे लाभेय भोगेय उयभोगे वौरिये तहा पचविह मन्तराय समासेण वियाहियं १५) अन्तरायं समासेन संक्षेपेण पञ्चविधं व्याख्यातं तत् पञ्चविध्य आह दाने लाभे भोगे उपभोगे तथा वीर्ये एतेषु पञ्चस अन्तराय विह' होइ एवं नीयंपि आहियं १४ ॥ दाणे लाभ य भोगेय उवभोगे वौरिए तहा। पंचविह मंतरायं समासेण विया गोत्र चंडालादि जातिमदादि ८ मदने अणकरिवे
सूत्र
EVOWERE
भाषा
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हवे जातिमदाकिक ८ मदने करिबे मोचेर्गोत्र को १४ दानने विखे भोगने विखे
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राय धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं००४१ मा भाग
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*KRY
त्वात् पञ्चविध अन्तरायं तत्र दीयते इति दानं तस्मिन् दान लभ्यते इति लाभस्तस्मिन् लाभे सकडज्य ते पुष्पहारादि पदार्था भीगः तस्मिन भीगे पति १. टीका पुन: पुनर्भुज्यते भुवनाङ्गनां शुकादौनि इति उपभीगस्तस्मिन् उपभोग तथा विशेषेण यते वैद्यते अनति वीर्य तस्मिन् पौर्ये सर्वतरायां प्रति सम्बन्धः
ततो विषयभेदात् पञ्चविध अन्तरायं यत्र बसिन् सति चतुरै ग्रहोतरिदये वस्तुनि तस्य फलं जानन् अपिदानेन प्रवर्तते तहानांतरायं १ यस्मिन् विशिष्ट पि दातरि सति याचना निपुणोपि याचको न लभते तल्लाभांतरायं पुनर्विभावादी सत्यपि भोहन शशीति तबीयान्त रायं येन उपभोग योग्ये
वस्तुनि सति उपभोक्त' न शक्यते तत् उपभोगान्तरायं यहलवान् नौरोगस्त रणोपि तृणमपि भक्त न शक्नोति तस्य पुरुषस्य वौयांतरायं कर्मन यं १५ ४.उतार्थस्य निगमनाय उत्तरग्रन्थ योजनायाह (एयात्री मूलपयोगी उत्तरात्री य आहिया पए सग्ग खित्तकालय भावं वा अदु उत्तरं सुण १६) एता
मूलप्रक्कतयोऽष्टौ आख्याता: तु पुनरुत्तरा अवान्तरा ज्ञानावरण दर्शनावरणादीनां पञ्चनवाद्याः अग्रे कर्मणां प्रकृतय आख्याताः अत: प्रदेशाग्र क्षेत्र काली च वा शब्दः पुनरर्थे पुनर्भावं उत्तरं अग्रेव शृणु बदामीति शेषः तत्र प्रदेशाग्र किमुच्यते प्रदेशानां अग्रपरमाणुनां परिमाणं प्रदेशा क्षेत्र' आकाशं कालश्च बद्धस्य कर्मणो जीवप्रदेशा अविचटनात्मकः स्थिति कालः भावं अनुभावादिकं कर्मपर्याय लक्षणं चतुर्विध प्रकृतिस्थिति प्रदेशानु
हियं १५ ॥ एयाओ मूल पयडीयो उत्तराोय आहिया। पएसग्ग खित्त कालेय भावंबा दुत्तरं सुण १६ ॥ सब्वेसिं
पाय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.१.४१माभाग
लाभने विखे एकवार भोगवीइ ते फुलादिक वार२ भोगवीड ते पाभरणादिक उपभोग वीर्यने विखे पांचे प्रकार अंतराय कम्म संखेप का तीर्थकर १५ पूर्वे कहीए ८ मुल प्रकृति पने श्रत ज्ञानावरणीयादि १५८ उत्तर प्रकृति कही परमाणुनी अग्रप्रदेशाग्र कैच आकाश कम्पने जीव प्रदेश स्यथिति
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إلا
॥
الله
6
عمر
* भागखरूपं अह वदामिव शृणु १६ अय तावत्पदेयाग्र बदति(सब्वेसि. १७)सर्वेषांनानावरणोयादि कर्मणां प्रदेशाग्र परमाणु परिमाणं ग्रन्थिगसत्वातीतं * वत्त ते ग्रन्थि वन रागदेषपरणितरूपांगच्छत्तोतिथिगाःग्रन्थिगाचतेसत्वावग्रन्थिग सत्वास्तेभ्योअतोतं तान्वाअतीतं अतिक्रान्त' ग्रन्थिग सत्वातीतं कोर्थो
रागद्दे षमयों अथियावतभेद नायागताःसन्तःपरंभेत्तु प्रसक्ताःपश्चादेवव्याघहिता एतादृशाये सत्वाः अर्थात्प्रभव्या जोवाः तेभ्यःकर्मणांप्रदेशाग्र परमाणूनां * परिमाणं अनन्त गुणधिक प्रभव्य भ्यो अधिकमित्यर्थःपुनः सर्वेषांकर्मणां प्रदेशाग्रसिहजीवानांअन्तःपाख्यातं सिद्धेभ्योतमध्ये एवख्यातंतीर्थ करैःकथितं
कोर्थः सिद्धजीवेभ्यः कर्मपरिमाणं अनन्तगुणन होन मित्यर्थः कर्माणपक्षया सिद्धा अनन्तगुणा इतिभाव: अतएव कर्म परिमाणनां अनन्तकं सिद्धानां अन्तर्वत्ति प्रकाशितं इदं संख्यानं एक समयग्राह्य कर्मपरिमाण्ख पेक्ष मुक्त वर्तते १७ प्रदेशाग्र मुक्ता कर्मणां क्षेत्र वदन्ति (सबमीवाण कम्मन्नु सङ्गाहे छद्दिसागयं सव्वे सु विपएमेसु सव्वं सर्व ण बदग' १८) कम्मज्ञानावरणीयादिकं सर्वजीवानां एकेन्द्रियादीनां संग्रह संग्रह क्रियायां योग्यतु दिशागतं स्थात् पसान्दिशां समाहारः षड्दिशं तत्रगतं षड्दिस्थित मित्यर्थः तत्र च तस्रः पूर्वाद्यादिशः अहीधीदिग्दयं चेदं एवं दिग् षट्कं अत्र दिमातं
चेव कम्माणं पएसग्ग मतग। गठियसत्ताईयं अंती सिद्धाण आहियं १७॥ सब जीवाण कम्मत संगह छहिसा
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१ मा भाग
भाषा
काल भावन भाग पर्याय आगलि कहे ते १६ सघलाइ कर्मे आठनी प्रदेशाग्र परमाण'या अनंताजिण 'कम्मवर्गणा अनंतछे दृढराग हेपनी परिणाम मथिभेदे आघात एहवा सत्वजीव भव्य अनेता तेहथी अनंतगुण अने ते सिद्धधको हीन प्रदेशाग्र कम्मनी जाणिवी एकसमय ग्राह्य कम्म पुलपाधीएसिद्ध थको अंतोमांहि एतले सिद्धथको थोडा एहथ को सिह अनंत गुणाले १७ सर्वजीवने कम्म ८ संग्रहवानी क्रियाने पूर्वादिछे दिसिना वांध्या पाव्याहुए
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उ० टोका
०३३
८७६
स्व
भाषा
कर्महीन्द्रियादि जीवान् एव अधिकृत्य संग्रह क्रियायां योग्य' स्यादिति नियमः एकेन्द्रियाणां तु आगमेत्रादि दिग्स्थं कर्मग्रहण क्रियायां योग्यमपि उक्तमस्ति अपरनागमेच तदाह एगिन्दियाणं भन्ते तेयाएं कम्म पुग्गलाणं गहण करे माणे किं तिदिसिं करे गोयमासयतिदिसिं सिय चदिसिं सिय पञ्चदिसिं करेइ बेन्द्रियाणं' भन्ते पुच्छा गोवमावेन्दिया जाय पञ्चिन्दियानियमा छद्दिसिं करेइ कथं संग्रह क्रियायां योग्य केन सह कियहास्यादित्याह सर्वैरप्यात्म प्रदेशैः सर्वं ज्ञानावरणादि सर्वेण प्रकृतिस्थित्यादिना प्रकारेण बद्ध' के अन्योन्य सम्बन्ध तथा चीरोदकवत् आमप्रदेश : लिष्ट देव क कर्मसंग्रहे योग्य' भवति नत्वन्यत् श्रात्माहि सर्व प्रकृति प्रायोग्य पुहलान् सामान्येन आदायतान् पुहलान् अध्यवसाय विशेषात् प्रथम् ज्ञानावरणदि रूपत्वेन परिणमयति यत्र हि आकाशे जोवोऽवगाढस्तत्रये आकाशप्रदेशाः आत्मन्याश्रितास्तेषु ये कर्मपुङ्गलादि रागादिस्र है योगत आत्मनि लगन्तिते एव कर्म पुहला जोवानां संग्रहयोग्याः न तु क्षेत्रांत रावगाढा: कर्मपुहला जीवानां संग्रहणार्हाः भिन्नदेशस्यानां ग्रहणयोग्या भावात् सभ्धेस पएसेस इति प्राकृतत्वात् तृतोया बहुवचन त्याने सप्तमी बहुवचनं भित्र प्रदेशस्थाः कर्म पुहलाः कथं ग्रहणयोग्याः न भवति खावगाटाकाश प्रदेशस्था: कर्मपुङ्गलाः कथं ग्रहणयोग्याः भवन्ति अत्र दृष्टांतो ययाग्निः स्व प्रदेशस्थान् प्रायोग्य पुहलान् आत्मसात् करोति एवं जौवोपि स्व प्रदेशस्थान् कर्म पुहलान् श्रात्मसात् करोनि किञ्चिद्दिदिक स्थितं अपि कर्म आत्मा गृह्णाति परं अल्पत्वान्न विवक्षितं १८ अथ कालमाह [ उदहिसिरिनामाणं तौसई कोटि कोडोची गयं । सब्बेव पसेसु सव्वं सचेण वज्रग १८ ॥ उदहिसरि नामागं तीसइ कोडिकोडोओ । स्रथला आकाश प्रदेश जौबे आश्रया प्रदेसने विखे कम्मं जौवने ग्रहवायोग्यहइ दूधपांणीने न्याये सर्व आऊखानोबंध ८ आठ प्रदेशे बंध पाम्यो वोध्यो हवे १८ उद्धि समुद्रसरिखुनाम एतले सागरोपम त्रोस कोडाकोड उत्कृष्टो थितिहोइ अंतर्मूह
उक्कोसिया ठिई प्रकार तथा सर्व आम
बेवडी मांठेरो जघन्य
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राम धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं००४१ मा भाग
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८७७
उकोसियाठिई होइ अन्तोमुडुत्त जहविया १८] [पावरशिजाण दुह पि वेगिज तहेवय अन्तराएयकम्मं मिठिईए साविया हिया २०] [उदहौसरिस मामाचं सत्तरं कोडिकोडौषो मोहणिज्जस्म लक्कोसाअन्तीमुहुत्त जहबिया २१] [तित्तीससागरोवम उक्कोसेणवियाहिया ठिईओ पाउकम्मम्मअन्तीमुहुतं * जहसिया २२] [उदही सरिसनामाणं वौसई कोडिकोडिनो नामगोयाण उक्कोसा अट्ठ मुहुत्ता जहसिया २३] एतासां गाथानां व्याख्या प्रथम द्वितीय * गाथयोरर्थः पूर्व प्रावरणयोईयोरर्थात् ज्ञानावरणदर्शनावरणयोईयोः कर्मणोरुदधिसदृग्नामानि सागरोपमानि उदधिः समुद्रस्तेन सदृग् नाम येषांसानि 8 उदधि सदृग् नामानि तेषां उदधि सदृग् नामानि तेषां उदधि सदृग् नाम्नां सामरोपमानां त्रिशत्कोटा कोटी उत्कृष्टास्थितिर्भवति तथा जवन्धिका होना
अन्तर्मु इत्त स्थितिः तथैव वेदनौयेइति वेदनीयस्य कर्मण: तथा अन्तराये अन्तराय कर्मणोपि एषैव स्थितिः उत्कष्टाविशत्कोटाकोटौस्थिति: जघन्धिका * अन्तम हुत्त स्थितिः अत्र वेदनीयस्य जघन्या स्थितिरतहत माना सूवक्कतोक्लाअन्य तबादशमुहर्त मानाएवतांवेदनीयस्य स्थिति इच्छन्ति तदभिप्राय म विश्नः २० मोहनौयस्य सप्तति कोटाकोटी सागरोपमानां उत्कृष्टा स्थितिवन्धिका अन्तम हत्त स्थितिः २१ त्रयस्त्रि'शत् सागरोपमाणि प्रायुः
होई अंतोमुहत्तं जहनिया १६ ॥ आवरणिज्जाणं टुम्हंपि वैयणिज्जे तहवय । अंतराएय कम्म मि ठिई एसा विया हिया २०॥ उदहीसरिस नामाणं सत्तर कोडिकोडीओ। मोहणिज्जस्म उक्कोसा अंतो मुहुत्तं जहनिया २१॥ तित्तीस
राय धनपतसिंह वाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
घोडो तुथिति रहवानो कालए तसोही १८ ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय विह जघन्यथिति मूहर्त बेदनीकीने विखे छ तिमज जघन्ध मुइत्त अतराय करमेने विखे तिमज सागर ३ जघन्य महत १२ थिति एचिह कम्पनी कही भगवते २. सागरीपमनी सत्तर कोडाकोडि मोहनी कम्पनी उत्कष्टा
१२३
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205
नौकाकमा उत्कष्ट न स्थितिाख्याताः प्राक्ततत्वादिभक्तिलीपः जघन्धिका अन्तर्मु इत्त स्थितिः २२ नाम गीत्रयोई योः कर्मणी रुततष्टाविंशतिः कोटा अ०३३* कोयः सागरोपमानां स्थितिाख्याताः जन्धिका अन्तर्मुर्तिकाः इयन्तु मूल प्रकृतीनां स्थितिरस्ति उत्तर प्रकृतीनां स्थितिविस्तरटौकातोया २३
अथ भावमा [सिहाणणंत भागी अणुभागाहवन्तिषी सर्वस विपएसगं सब्बजोवेस इच्छियं २ ४] सिहाना अनन्तसंख्याकानां सिहजीवानां अनन्तमो भाग: अनुभागाः कर्मरस विशेषा भवन्ति सिहानंतभागः अनन्तसंख्य एव इत्यनेन अनुभागानां पानन्त्यमुक्त सर्वेष्वपि अनुभागेषु प्रदेश बुधा विभज्य मानाः अनुभागैक देथास्तेषां अग्र परिमाणं प्रवेशाय सव्वजोवे स इच्छियं सर्वजीवेभ्यो प्रतिक्रान्तं ततोपि तेषां अनन्त गुणत्वं २ ४ अथाध्ययनार्थीप
सागरीवम उक्कोसेण वियाहिया। ठिई आउकम्मरम अंतोमुहुत्तं जहनिया २२॥ उदहिसरिस नामाणं वौसर्दू काडि काडीओ । नाम गोयाण उक्कोसा अट्ठ मुहुत्ता जहनिया २३॥ सिद्धानणंत भागीय अणुभागा हवंतिओ। सर्व सुवि
पएसग्ग सबजी सच्छियं २४ । तम्हा एएसिं कम्माणं अणुभागे वियाणिया। एएसिं संवरे चे व खबणेय जए बुर भाषा
* थिति कही अंतर्मूहतं जघन्य थिति २१ तेवीस सागरोपमनो उत्कटौ कहौ तौर्य करे थिति पाउसा कमानि अंतमूहर्त जघन्य थिति २१
सागरोपमनौ बौस कोडाकोडि नामकम्मनौ प्रने गोत्रकम्मनी उत्कटौ थिति आठमूहत जघन्य थिति २३ सिह अनंताछ तेहने अंत मे भागिं की बंधना अनुभाग रसनाभेद हुइ पणि अनंताई हवे प्रदेश परिमाण एकसमे वांधौता कहेछ संघलाइ अनुभागने विखे विहची ज्ञानना प्रदेशान सर्वजोव थकी ते प्रदेशाग्र अनंतगुण जाणीवा २४ ते कारणथो एआठकम्मनी अनुभाग रसविशेष संसारना कारणजाशैने एकचने संवरवैविहंडवे
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०७०४१ मा भाग
सूत्र
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8 संहरबाह (तम्हाएएसिं कमाणं अणुभागे वियाणिया एएसिं सम्बर चेव खवर्णय जए बुहेतिबेमि २५) तस्मात् एतेषां कर्मणां अनुभागान् कणां रस
विशेषान् विज्ञाय एतेषां कर्मणां सम्बरे अनुपागतानां निरोधे च पुनः क्षमणे उपागतानां क्षयीकरणे बुधः पण्डितो यतते यब कुरुते इति सुधर्मा ४. स्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह ॥ हे जम्ब अहं ब्रवीमि २५ इति कर्म प्रकृत्याख्यं अध्ययनं संपूर्ण इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थ दीपिकायां उपाध्याय
श्रीलक्ष्मौकोर्ति गणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां कर्म प्रवत्याख्यं त्रयस्त्रि'शत्तम अध्ययनं संपूर्ण ३३ अथ चतुस्त्रि कथ्यते पूर्वस्मिन् अध्य यने * अष्टकर्म प्रकृतय उक्ता: ताथ कर्मप्रकृतयः षड्भिलेण्याभिर्भवन्ति ततो लेश्याध्ययनं चतुस्वियं कथ्यते [लेसज्जयशं पवक्वामि प्राणपुब्बि जहकम छहंपि
कम्पलेसाणं अणुभावसुणेहमे १] अथ प्रहं इत्यध्याहारः अथ यथाक्रमं आनुपर्ध्या अनुक्रमेण विविधया अतिमालिनतर मलिनतर मलिनादि भेदेन पर लेश्याध्ययनं प्रवक्ष्यामि लेश्याः अध्यवसाय विशेषाः लेण्या अभिधायक अध्ययन लेण्या अध्ययनं अहं कथयिष्यामि में मम कथयतः षसां अपि
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७०४१ मा भाग
त्तिबेमि २५ ॥ कम्मप्पगडीयं सम्मत्त ३३ ॥ लेस ज्झयणं पवक्खामि आणुपुब्बिं जहक्कम। छन्ह पि कम्म लेसाणं अणु भावे मुह मे १॥ नामाई वन्न रस गध फास परिणाम लक्षणं । ठाणं ठिई गई चाउलेसाणंतु सुणे हमे २॥
भाषा
खवावे यतन करे निग्रंथ साधु सुधर्मा खामी जयने कहे २५॥ इति श्रीकर्मप्रवति अध्ययननो अर्थ संपूर्खथयो ३३ ॥ अध्यवसाय विशेष ते लेभ्या संबंधी अध्ययन कहस्यानपूर्वी अनुक्रमे हि कर्मलेण्याकर्मथितिनीपजावणहार पहलरूपले तेहनी अनुभाव रसविशेष सांभली मुझकहता प्रत । लेश्याना नाम १ कालादिवर्ण २ तौखादि रस सगंधादि गंध खरखरादि फरस जघन्यादिक परिणाम पायव मेववादिलक्षण उत्कृष्टादिधानकरवाना
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टोका
अ०३४
८८०
सूत्र
भाषा
कर्मलेश्यानां कर्म स्थिति विधायक तत्तद्दिशिष्ट पुत्रलरूपाणां अनुभावान् रसविशेषान् त्व' ऋण १ [ नामाश्वस्परसगन्ध फास परिणाम लवणं ठाणं गहूंचाउ लेसाणन्तु सुयेहमे २] हे विषय लेश्यानां एकादशवचनानि मे मम कथयतस्त्व ं शृणतानिकानि वचनानि तावत्नामानि वच्यामि तथा वर्ष गन्ध स्पर्म परिणाम लचणं वच्यामि तथास्थानं वच्चामि तथास्थिति गती वच्यामि च पुनरायुर्वच्यामि वर्णच रसश्च गन्धव स्पर्शश्वपरिणामच लक्षणं च तेषां समाहारो वर्ष रस गब्धस्पर्श परिणाम लक्षण सत्र वर्णाः श्यामादयः रसास्तीक्ष्णादयः गन्धासुरभ्यादयः स्पर्धाः खरादयः परिणामा जघन्यादयः लचण ं पञ्चाश्रवा सेवनादि स्थानं उत्कर्षापकर्ष रूपं स्थिति अवस्थानकालङ्गति नरकादिकां यतो या चवाप्यते श्रायुर्यावति श्रायुष्य वसतिष शिष्य मा आगामि भवे लेश्या परिणामस्तदिह ते २ तदेवानुक्रमेण ह [रिहानीलाय काय ते पडमा तहेवय सुकले साय छट्ठोश्रो नामाइ भु जहकम' २] एतानि लेश्यानां यथानुक्रम नामानि ज्ञेयानि प्रथमा कृष्णा १ च पुनद्दितीयानीला २ तृतीया कापोतनाम्म्री ३ चतुर्थी तेजोलेश्या ५ च पदपूरणे च पुनः षष्टौ शुक्ललेश्या एवंषयां अपि नामानि १ अथ वर्णान् आह [जौम य० ४] पूर्व कृष्णलेश्या वर्णतोज्ञेया कोहथौ कृष्णलेश्या ध जीमूतसङ्घासा प्राकृतत्वात् स्निग्धशब्दस्य परनिपातः स्निग्धयासी जीमूतच विग्धजीमूतस्तेनसंकाशा स्निग्ध जीमूत संकाशासजल घनसदृशा पुनः कोही
किन्हा नौला काऊ तेऊ पम्हा तहेवय । मुक्कलेसाय कट्ठाय नामाइ तु जहकमं ३ ॥ जौमूय नि संकासा गवल रिट्ठ
काल थिति नरकादि गति आउखु ते लेस्यानावोल १२ सांभलि मुझने कहतां प्रते २ नाम कहे पहली कृष्णलेश्या वीजी मौललेश्या २ वोजी कापोत २ चोथो तेजोलेश्या तिमईज पांचमी पद्मलेस्या शक्कलेस्या कट्ठी एलेश्यानां नाम अनुक्रमे होय ३ जेहवोजीमूत कालोमेघ ते सरिखो पाढानो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं० उ०४९ मा भाग
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८८१
उ टोका
* गवतारिष्ट सत्रिभा गवलञ्च अरिष्टकञ्च गवलारिष्टके साभ्यां सबिभा गवलारिष्टक सबिभा गबलं माहिषं शृत अरिष्टं अरिष्टफलं अरिष्टरनवा ताभ्यां ३४४ सहयौ पुनः कोहयौ खञ्चांजन नयन निभा ख च्चनच्च नयनञ्च खचाजननयनानिनिभा खचाजन नयम निभाखन शकट चक्रान्तर्गस लोहनी
परि हतासिक्त गणादि बधनश्यामी भूतं अननं कज्जलं नयनं नेत्रकनौनिकातेनिभा सदृशौ ४ अथ नौल लेश्याया वर्णनमाह [ नौला सोकसंकासा : चासपिच्छ समप्यभावेरुलिय निहसंकासा नौललेसाप्रोवस्यो ५] तु पुनील लेश्या वर्णत ईदृशौ भवति कीदृशौ नौलाचासौ अशोकच नौला थोक % स्तेन संकाया सदृशौ नौला भोकसंकाया अशोकक्षो रतीपि भवति तावच्छेदार्थ नौलपदं पुनः कीदृशी चापपिच्छ समप्रभा पुनः कीदृशी स्निग्ध वैड्र्य संकाया जात्य मौलमणि सदृशौ ५ अथ कापोतवर्ण माह (अयसौ पुष्फसंकासा कोइलच्छ दसनिभा पारावयगौ वनिभा काउलेसा ओवनी) कापोतलेल्या वर्णत ईदृशौ भवति ईदृशौ कौदृशो अतसी धान्य विशेषस्तस्य पुष्प अतसीपुष्य' तेन सकाथा पतसौपुष्य सकाशा पुनः कौशौ कोकि
गसन्निमा। खंजं जण नयण निमा किन्ह लसाओ बन्नओ ४॥ नौला सोग संकासा चास पिच्छ सम प्पभा। बैरुलिय
निह संकासा नौल लेसाओ वन्नो ५॥ अयसीपुप्फ संकासा कोइल छद सन्निभा। पारवय गौव निभा काउ सौंग परौठाना फल अथवा द्रोणकाक सरिखो खज गाडलाउं गणम अंजन काजल नेखनौकीको सरिखौ कृष्ण लेस्था वर्मथको एहवी कहे हुवे ४
नौलो अशोक वृक्ष ते सरिखी नौल चांसना ख सरिखी बैड रत्न सरीषी तेज ते सरौखौ नौल लेश्यानोवा एहवी हवे ५ अलसौना फूल सरिखौ * कोयल पंखीनी पांख सरिखौ पारेवानी कोटि सरीखी कापोतलेल्या काई कालो रातीका एहवी वर्ष धको इड६ हिंगुलु पाषाणधातु सरीखी
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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• टोका
अ०३४
८८२
सूत्र
भाषा
DE30EXEE 3
0000000000
लच्छदसत्रिभा कोकिलपचि पिच्छ सहमी पुनः कोशी पारापत ग्रीवानिभा ६ अथ तेजोलेश्या वर्णमाह [हिंगुलयधाड संकासा तरुणा इवस निभाय तु'डपइवनिभातेउलेसाओवनश्री ७] तेजोलेश्या वर्ण त ईदृशोभवति शोकोही हिंगुलुकः प्रतीतः सचासौ धातुश्च हिंगुलक धातुरून सोकासा हिंगुलुक धातुस ंकाशा अथवा हिंगुलुकः प्रसिशोधातु गैरिकाताभ्यां सहथौ पुनः कीदृशौ तरुणादित्यसन्निभा सदृशौ पुनः कीदृशोश करु ण्डप्रदीपनिभाः शुकच सुप्रदी पार्चिस्मदृशौ ७ अथ पद्मलेश्या वर्ण माह [हरियालभेय स कासा इलिहाभेयसप्पभा सणासण कुसुमनिभा पन्हलेसा श्रवस ओ ८ ] पद्मलेश्याव raft her er हरितालभेद संकाशा हरितालस्य नटमण्डनस्य भेदाः खण्णा हरितालभेदास्तै संकाशा तत्सदृशी पुनर्हरिद्राभेद संप्रभा पुन: शनासन कुसुमनिभा शणञ्च अमनच मणासनौ तयोः कुसुमं तेन सविभाः शणानि कुसुमसविभा शनं धानाविशेषं अशनोबोयकाख्यो वृचस्तत्पुष्प सदृशौ ८ अथ शुक्ललेश्या वर्ण माह [संखंक कुन्दस कासा खौरपूर समप्पभा रययहार सौंकासा सुक्कलेसा ओवनओ ८] शुक्ललेश्या वर्णत ईशो भवत शौकी• पंखच अंकश्च कुन्दञ्च शंखांक कुन्दानितैः स कासा शंखांक कुन्दस कासा शंख: प्रसिद्धः अङ्क : शुक्तमणि विशेषः कुन्दवृक्ष पुष्प एतैः सहथौ लेसाओ बन्नओ ६ ॥ हिंगुलयधाउ संकासा तरुणा इच्च सन्निभा । सुय तुंड पईब निभा तेड लेसाच वन्न ७ ॥ हरियाल भेय संकासा हलिहा भेय सन्निभा । सणासण कुसम निभा पन्ह लेसाओ बन्न ८ ॥ संख'क कुंद संकासा ऊगता सूर्य सरिखो सूडाना मुख प्रदीप दोषो ते सरिखी तेजो लेस्या व धको ७ हरितालनाभेद खंड सरिखो हलद्रनाभेद खंड सारखी सपनामा थाना अने सणवौजो वनस्पतिना फूलसरिखी पद्मलेश्या वर्ण धकोपोलो ८ शंख अने अंकनामा मणि अने कु दहचना फूल सरिखो खोर दूधनी धास
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था •सं•• ४१ मा भाग
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१० टौका प्र.३४ ८८३
पुन: चौरपूरसम प्रभा दुग्धपूर सहयवर्णाः पुनः रजतहाराभ्यां सकासा रजतं जातीयरुप्य हारी मुक्ताहारस्ताभ्यां सदृशी इत्यर्थः । अथ षस्थालेश्यानां रसमाह [जहकडुयतुवगरसो निंबरसो कड़य रोहिणि रसोवा एत्तीवि अणन्तगुणो रसोउ किन्हा एनायवो १० ] क्रुष्णायाः कृष्णलेश्याया ईदृशी रसो ज्ञातव्यः ईदृशः को• यथा यादृशः कटुक तुम्बकरसस्तथा निम्बस्य रसस्तथा कटुकरोहिणौरसः कटुकाचासौ रोहिणी च कटुकरोहिणी तस्यारस: कटुक
रोहिणीरसः रोहिणीवनस्पति विशेषः एतेभ्योपि अनन्तगुणः अनन्तसंख्य राधिना गुणितोरस: कृष्णलेश्याया भवतीत्यर्थः १. अथ नौललेण्याया रस 8 माह [जहनिकडुयस्मरसो तिक्खो जहहस्यि पिप्पलो एवा एत्तीवि अणन्तगुणी रसोउनौलाएनायव्यो ११] नौलाया नौललेण्याया ईदृशो रसो ज्ञातव्यः 8 यथा बाथस्त्रिकस्य भवति त्रयानां कटनां समाहारस्त्रि कटुत्रि कट, एवत्रि कट कं सुठौ मरिच पिप्पिल्यामकं तस्य रसो यादृक् तौयो भवति पुन
खीर पूर समप्पभा । रयय हार संकासा सुक्क लेसाओ वन्नोई॥ जह कडुय तुबग रसी निंब रसा कड्य रोहिणि रसीवा। इत्तोउ अणंत गुणो। रसाउ किगहाए नायब्वो १० ॥ जह तिक्कड्या रसा तिक्खो जह हथिपिप्पली
एबा । इत्तोवि अणंत गुणो रसोउ नौलाए नायब्बो ११ ॥ जह तरुण अंबग रसी तुवर कविट्ठस्म वावि जारिसओ। ४ तेह सरिखो शक्ल लेश्या वर्म कह्यो । लेस्यानो रस कहेछ जिम कडूा तुंबडानो रसस्वाद नौंवडानी रसकडूई रोहिणी नौछालिनी रस एहथको पणि अनंत गुणो रसस्वाद कृष्णलेस्यानो कडी १० जिम निकटक त्रिगडुनी रसस्वाद तीखो जिम हस्ती गजपी परनो रस एहएषको अनंतगुणी रसनौल लेश्यानो अतितीखो ११ जिम तरूण काचो वीरीते सरीखीरस सुवरकमायलोकाचीकोठनीरस नेहवो एहय की अनंतगुणी रसकापीत
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.२०४१ मा भाग
भाषा
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उ० टोका श्र० ३ ४ ८८४
सूत्र
भाषा
यथा हस्ति पिप्पिल्याः गजपिप्पल्या वा रसो यादृशो भवति इत्तोपि एभ्योपि नौलायाः अनन्तगुणो रसस्तीक्ष्णो भवति ११ [जहतरुण अम्बयरसो तुम्ब रकविट्ठस्म वा विज़ारिसश्री इत्तोवि अणन्तगुयो रसो उकाउएनायब्बी १२] कापोतलेश्याया रसः ईदृशो ज्ञातव्यः ईदृशः कीदृशः यादृशस्तरुणाम्म्रक रसो भवति तरुण' अपरिपक्क यत् पावकं अस्त्रफल तरुणात्र तस्य रसस्तरुणाकरस स्तथा पुनस्तुम्बरक पित्यस्य रसो यादृशो भवति सुवरं कच्च' कपित्थ ं तुम्बरकपित्थं तस्य रसो यादृक् भवति एभ्येोपि अयन्त गुणोत्सः कापोतलेश्याया ज्ञातव्यः १२ [जह परिणयंवगरसो पक्ककविद्वस् वा विजारि परिणताम्म्रकर भवति पक्वाम्म्रफलस्य रसो भवति पुनः ग्रामः पक्क पित्थस्यापि रसो भवति श्रतएभ्योपि अणन्तगुणो रसस्तु तेजो लेश्याया ज्ञातव्यः इत्यनेन किञ्चित् आन: किञ्चिन्मधुरश्चेति हाई १२ [वरवारुणी वरसो विविहाणव आसवाणजारिसओ मधुमेरगम वरसो इत्तोपम्हाद्र परएणं १४] पद्मायाः पद्म लेश्याया रस ईयो ज्ञातव्यः म : कौ० यादृशो रखे सावरवारुण्याः प्रधान मदिराया रसो भवति पुनर्विविधानां आसवानां कुसुमोत्पन्नानां मद्यानां यादृशो रसो भवति तथा
तव अन्तगुणो रसोयते ऊएनायब्बो १३ ] तेजोलेश्याया ईदृशो रसो भवति ईदृशः को. या
तोषि त गुणी रसाउ काऊए नायब्बो १२ ॥ जह परिणयंवग रसा पक्क कविट्टमवावि जारिस । इत्तोवि अणंत गुणो रसोउतेऊए नायब्बो १३ । वर बारुणोएब रसो विविहाणव आसबाण जारिसओ । महु मेरगाव रसा लेश्यानो जांणबु १२ जिम पाकाआंबांनो रस कांद्र खाटो कांद्र मौठो अथवा पाका कोठनो जेहवोरस एहथको अनंतगुणो रसस्वाद तेजो लेस्थानो जाणिवो १३ वर प्रधान वारुणी मदनो रसस्वाद विविध प्रकार फूलादिकना आसवनी जेहवो रस मधुमद्य अने मेरक सरिखो तेहनी रसपथको
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रायधनपतसिंह वाहादुर का श्र० स०स० ४१मा भाग
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८८५
पुनर्मधुमैरेयकस्य रसो यादृशी भवति मधुमद्यविशेषं मेरेयं सरकाभिधानं मधुचमेरेयं च मधुमेरेयं तस्य मधुमेरेयस्य रसो यादृग् भवति अत: एभ्योरसेभ्यः पनायाः पद्मलेल्याया रसः परकेण अनन्त गुणाधिकवेन भवति अयञ्च रस: किञ्चिदाम्नकषायोमध्ये ति भाव्य १४ [खजूर० १५) शुक्लाया: शुक्ल लेभ्यायाईदृशोरसीभवति ईदृशः कीदृशः यादृशः खजू रमृद्दोकयो रसः खजूर पिण्डखजूरं मृद्दीकाद्राक्षातयोर्यादृग् रस: स्यात् तथा पुनर्यादृग चौरस्य दुग्धस्य रसो भवति तथा खण्ड शर्कररसी यादृशो भवति खण्डचे क्षुरसविकार संस्कारः शर्करा च तत् प्रभवा तयो रसो यादृशो भवति अतएभ्योरमेभ्योपि शक्ल लेश्यायाः अनन्त गुणोरसीज्ञातव्यः अत्यन्तमधुररसोन यइत्यर्थः अथ षणां लेश्यानां गन्धमाह (जहगीमडस्मगन्धी सणगमडस्म वजहा अस्मिडस्म एत्तीवि अणन्तगुणो लेसाणं अव्यसस्थाणं १६) अप्रशस्ताना लेश्यानां कृष्णनौलकापोतानां तिसृणां अतोपि एभ्यादुर्गन्ध भ्योऽनन्त गुणो दुर्गन्धोभवति एभ्य: केभ्यः यादृशो गोमतकस्य गोकलेवरस्य तथा शुनो मृतकस्य वा अथवा यथा अहि मृतकस्य सर्पकलेवरस्थ गन्धीभवति ततो अनन्त
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास ३.४१ मा भाग
इत्तो पम्हाए परएणं १४ । खजूर मुद्दिय रसा खौर रसा खंड सक्कर रसीवा । इत्तोवि अणंत गुणो रसाउ मुक्काए नायव्वो १५ ॥ जह गोमडस्म गधो मणग मडस्मव जहा अहिमडम्म । इत्तावि अणंत गुणो लेसाणं अप्यसत्याणं१६॥
भाषा
पद्मलेस्या नो अनंतगुणे कांइ खाटो काइ कसाइलो १४ पिंड खजूर अने मुहिका द्राखनी रस अने खोरनो रसखांड अने साकरनी रसस्वाद एषको अनंतगुणी जाणवो रसस्वाद शुक्लले स्थानो मधुर जाणवी १५ लेण्यानी गंधकहेछ जेहवी गायना सध्या कलेवरनी गंध कूतराना मडाभी गंध जोम अहिमडानो जहवो गंधएषको अनंतगुणो भलो दगंध का नौल कपोत लेण्यानी अप्रशस्त पाया जाणिवो १६ जिम सुरभि कुसुम गंध
१२४
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१. टीका
10 ८८४
गुणोदुर्गन्धो भवति इह लेश्याना अप्रशस्तत्वं गन्धाद्य शुभत्वादिति भावः १६ [जहसुरहि कुसुमगन्धी गन्धवासाणपिस्ममाणाणं एसोवि अनन्तगुणोपसस्य लेसाणतिन्ह पि १०] तिस हां अपि प्रशस्त लेवानां तेजसी पद्मशक्लानां एतादृशी गन्धीभवति एतादृशः कीदृशः यायः सुरभि कुसुमाना जाति चम्पकादौनां पुष्याणां गन्धवासानां यादृशो गन्धोभवति गन्धाश्वासाश्च गन्धवासाः गन्धाकुष्टपुटपाकनि: पब्रावासाइतर कपुरकरिकाद्यास्तेषां चूर्गों क्रियमाणानां गन्धोभवति अतएभ्योपि गधेभ्यो अनन्तगुणोगन्धः प्रशस्तलेश्यानां जेय इत्यर्थः १७ अथ लेश्याना स्पर्शमाह (जहकरगयस्म फासोगोजिमा एव सागपत्ताणं एत्तीविअनन्तगुणोलेसाणं अप्पसत्थाण १८) अप्रशस्तानां लेश्यानां कृष्णनोलकापीताना स्पर्शएतादृशो भवति एतादृशः कीदृयो या कचस्य अर्थः पुनर्यादृशो गोजिह्वायाः स्पर्थस्तथासागहक्षस्य पवाणां स्पीभवति एभ्य: स्पर्णभ्यापि अशुभाना लेण्यानां स्मोने यः १५ (जहबूरस्मवफासो नवनीयस्मयसिरौस कुसुमाणं एत्तोविअनन्त गुणोपसत्यलेसाण तिन्ह पि १८) प्रशस्त लेश्यानां तिसूणां अपि तेजोलेश्यापद्मलेल्या शुक्ल
जह सुरहि कुसुम गधो गंध वासाण पिस्म माणाण। इत्तावि अणंत गुगो पसत्य लेसाग तिन्हंपि १७॥ जह कर ... गयम फासी गाजिम्मा एव सागपत्ताणं । इत्तावि अणंत गुणो लेसाणं अप्पसत्याण १८॥ जह बूरस्मव फासी नव
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•तु.४१मा भाग
भाषा
* मोगरादिकमा फूलनी गंध हुवे उपलोटादि पांचनी पना गंध कर्पूरकाचरी गहलादि वास पौसीता वाटौतानो गंध जेहवी हुइ तेहथको अनंत
गुणो अधिक सुगंध प्रशस्त उत्तम तेजो पद्म शक्ल त्रिशै लेण्यानो गंध जाणवो १७ लेश्याना फरस कहेछ जिम करवतनो फरस खरखरो तथा वलो गायनी जीभनो फरस तथा सागवक्षना पानडानो फरस एथको अनंतगुणो कृष्ण १ मील २ कापोतलेश्या ३ अप्रशस्त पाडूत्रो फरस खरखरो १८
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0
अ०३४.
4
लेश्यानां स्पर्थइट्टयोभवति ईदृशः कोदृशः यादृशी बरस्यवनस्पतीविशेषस्य स्पर्शोभवति एतेभ्यः च पुनर्नवनीतस्य नक्षणस्य स्पर्थी या योभवति पुनः शिरीषष्टक्षस्य कुसमानां यादृशः स्पोभवति एतेभ्यः स्पर्थेभ्योपि अनन्तगुणः स्पर्शोभव्याना लेश्यानां जेयः १८ अथ सर्वलेश्यानां परिणामा उच्चन्ने (तिविहोविनवविहोवासत्तावीसह विरेससोओवादुसोतेयालीवालेसाणं होइ परिणामी २०) लेश्यानां परिणामस्त द्रूपगमनात्मकस्त्रि विधीभवति अपि पुनर्नवविधोभवति तथा सप्तविंशदिमाथा एकाचौति विधस्तथा पुनस्त्रि चलारिंशदधिकदिशतविधीवा लेश्यानां परिणामोभवति तत्र त्रिविधी यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेनभवति प्रत्येक यदा एतेषां अपि जघन्या दौनां स्वस्थानतारनम्य चिन्तायांत्रयेण गुणनाक्रियते तदानवविधः एवं पुनःर स्त्रिकगुणनयासप्तविंशति विधित्व' भवति एवं पुनर्गुणनयाएकाशीति विधित्व भवति पश्चात् पुनरेवं द्विचत्वारिंशदधिक हिशतविधत्व' च भावनौयं
णीयस्मव सरीस कुसुमाणं । इत्तावि अणंत गुणो पसत्य लेसाण तिन्हंपि १६॥ तिविहोव नवविहीवा सत्तावीस विहे कसौउवा । दुसत्री तेयालीवा लेसाण होदू परिणामी २०॥ पंचासव प्पवत्ता तीहिं अगुत्तीच्छसुअविरोय।
राय धनपतसिंह वाहादुर का आसं उ०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
जीम वूर वनस्पतिना फुलनो फरस सुकुमाल तथा नवनीतमांखणनो फरस शिरीष वृक्षना फुलनी फरस अत्यंत सुकुमाल फरस के एहथकी अनंतगुणी
अधिक प्रशस्त उत्तम तेजो लेश्या पद्म शुक्क तीन लेश्यानो गंधजाणवो १८ हिवे लेण्यानो परिणाम कहेछ तीन प्रकार जघना मध्यम उत्कृष्ट भेदेन 8वप्रकारे एक जघना मध्यम उत्कष्ट भेदे सत्तावीस प्रकारे ते नवप्रकारे जघना मध्यम उत्कष्टभेदे जाणवाते २० एकेक जघना मध्यम उत्कृष्टभेद एकासी
ते एक्यासी जघना मध्यम उत्कृष्टभेदे लेण्या केएना परिणाम तरतम जोग इवे संख्यानकहार ही लेश्याना लक्षण कहछे २. हिंसा मृषादि तथा
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उ टौका प०३४ ८८८
उपलक्षणं चेदं तारतम योग विचारणया संख्या नियमो नास्ति तथाच प्रज्ञापना सूत्रे किन्ह लेसाणं भन्त कइविहं परिणाम परिणमडू गोयमा तिविह * वा नव विहं वा सत्तावीसइ विहं वा इक्कासोइ विहं वा तेयालम्भहिय दुसय विहं वा बहु वा परिणाम परिणमइ जाव सुक्कलेसाइत्ति २० अथ तावत्
कृष्णलेण्यापरिणाममाह (पञ्चासवप्पवत्तो तौहिं अगुत्तोछस अविरीयतिब्बारंभपरिणोखुहोसाहस्मिोनरी २१) [निधस परीणामी निस्म सो अजि इन्दिो एयजोगसमाउत्तोकिन्हले सन्तु परिणम २२ ] युग्म एतद्योगसमायुक्तो नरः प्राणोकष्णां लेश्यां प्रतिपरणयेत् कृष्णलेश्यां भजेदित्यर्थः अत्र नरशब्देन केबलं पुरुष एव न राह्यतेस्त्यादिष्वपि कष्णले ग्यायाः सम्भवात् एते सूत्रे उच्यमानायोगाः एतद्योगास्तैः समायुक्तः सम्यग प्रवर्तितः एतद्योग समायुक्ता: ते के योगा: इत्याहपञ्चचते आववाश्चपञ्चायवाः प्राणाति पातादयस्तेषु प्रवृत्तःसन् पुनः कीदृशस्तिसृभिरगुप्त मनोगुप्तिवाग्गुप्ति कायगुप्तिरहितः पुनर्यः षट सु पृथ्वी कायेषु अविरतः षट कायोपमर्दयुत्ता इत्यर्थः पुनस्तौबा उत्कटाः प्रारम्भाः सावद्यव्यापारास्तेषु परिणितस्तद्र पतां प्राप्तस्तौबारम्भपरि णितः क्षुद्रोहि सर्व वपि अहितवाञ्छकः पुनः साहसिकः सहसा अविचार्य प्रवर्तते इति साहसिकः चौर्यपरदारसेवाकारी इत्यर्थः २१ पुनः कीदृशः निस परिणाम: नितरांब सोनिञ्च सोऽत्यन्त लोकदयविरुद्धचिन्ताविकल्पः परिणामीयस्य सनिवसपरिणामः पुनर्योतृसंसोभवतिनिस्त्रिंशः जौवान्हिसन्
तिवारंम परिणो खुद्दो साहस्मित्रो नरी २१॥ निबंधस परिणामी निमंसी अजिईदिओ। एय जोग समाउत्तो मिथ्यात्व अविरति इत्यादि ५ आथवे करौ प्रमादौ म नवचन काय तीनगुप्ति मोकलो छ कायनौ रचाई रहित कठिन प्रारंभने परिणाम सहितसर्व जीव विष अहित कपण अणविमास्य' चोरो प्रमुख कार्यनो करणहार मनुष्य २१ इहलोकादि कष्ट दुःखनो शंकारहित जेहना परिणाम जीव हणतुं
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.छ.४१मा भाग
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उ टौका *
योमनागपि शङ्कां न करोति स नृशंसइत्युच्यते पुनः कोदृशोजितेन्द्रिय: मुकलेन्द्रियः एतादृशो यो भवति स कृष्णलेश्यां प्राप्नोतौति भावः २२ (इस्मा प०३४ अमरिस अतवो अविजमाया अहोरियागिद्दोपउसे सढे पमत्त रसलोलए २३) [सायगवे सेवारं भविरपोखहोसाहस्मित्री नरी एवजोगसमाउत्ती ८८८
8 नौललेसन्तु परिणमे २ ४] एतद्योग समायुक्तः प्राणीनीललेल्या प्रतिपरिणमैतत् नौललेण्यांभजेत् ते के योगा: ईपिरगुणासहनं अमर्षोमहाकदाग्रहः
अतप स्त पसां अभावः ईर्षाच अमर्षश्च प्रतपञ्चईक्षामर्षातपः तथा पुनरविद्याकुशास्त्र रूपा पुनर्मायाकापठ्यं अड़ीकतानिर्लज्जता गृति विषयला पव्यं प्रद्देषः प्रक्लष्टद्देषभावः एते सर्वे योगादोषरूपायस्मिन् तिष्टन्ति गुणगुणिनोरभेदात् स प्राणौनीललेण्यापरिणामवान् भवति पुनः कीदृशः शठो मिथ्याभाषौ पुनः कीदृशः स प्रमत्तोऽष्टमदयुक्तः पुनर्योरसलोलुपः २३ पुनर्यः प्राणौसातगवेषक इन्द्रियसुखाभिलाषी कथं मम सुखं स्यादिति बुद्धिमान् पुनर्यः प्रारम्भात् प्राणिसम्मत् अविरत: पारम्भाविरतः पुनर्यः क्षुद्रीनीच: साहसिकः एतादृशः प्राणीनीललेण्यावान् इत्यर्थः १४ अथ कापोतलेश्या
किन्ह लेसंतु परिणमे २२॥ ईसा अमरिस अतवी अविज्ज माया अहिरियाय । गिधि पउसयसढे पमत रसलालुए२३॥ साय गवसे यारंभ अविरी खुद्दो साहसिओ नरी। एय जोग समाउत्तो नील लेसंतु परिणमे २४ ॥ बंके
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
संकाये नही जीणे इंद्री ५ नथी जोत्या एहवे योग आयवादिक सहित कृष्णले ध्यानी परिणामः कृष्ण लेण्यावंत हुइ २२ परना गुणनी अणशहवा घर्ष कदा ग्रह हठौ तप १२ भेद रहित कुशाम्बवंत परने बंचन अनाचारौ नौलज्ज विषय लंपट वेषभाव मृषाइ सहित मदसहित रसदीठे चपल बाइ २३ प्रारंभ धको अविरत सातानो गवेषण हार क्षुद्र साहसौक नर जौवनी अहितकारी अणविमास्यो बोले एपूर्वोक्त जोग सहित नौल लेश्यानी परिणाम
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४० टौका
५०३४
८८०
सूच
भाषा
लचणमाह (वंकेवंकसमायारेनियडिल्ल अज्जुए पलिङ' चगएवहिए मिच्छदिट्ठी श्रणावरिए २५) उष्फालगदुट्टवा ईयतेथे या वियमच्छरौएयजोगसमा उत्ती काउलेसन्तुपरिणमे २६] एतयोर्व्याख्याएतद्योगसमायुक्तः प्राणौकापोतलेश्यां प्रतिपरिणमेत् प्राप्नुयादित्यर्थः कौदृशः योवं कोवचसावक्रः पुनः कौदृशो वंकसमाचारोवक्रः समाचारोयस्य स वक्र समाचारोवक क्रियाकारो पुनर्योनियडिलेइति निक्कृतिमान् निक्कतिः भाव्यन्तद्विद्यते इति निकृतिमान् पुन ऽनृजुकोऽसरलः कथचित्सरलं कत्त, मशक्तइत्यर्थः पुनर्यः पलिउ चगइति प्रति कुचकः स्वदोष प्रच्छादनपरः पुनः कीदृशः औषधिकः उपधिनाकपटेन चर तौतिऔषधिकः पुनयामिध्यादृष्टिर्विपरीत श्रद्धावान् पुनर्येऽनावः सम्यग् लचणरहितः २५ पुनर्यत् फालकदुष्टवादी उत्फालयति विदारयतिपरं यत् उत् फालकंदुःखोत्पादक ं दुष्टं वदते इत्येवंशौल उत्फालकदुष्टवादी पुनर्यस्तेनञ्चापि भवति चोरोपि भवति पुनर्योमच्छरौ अन्यस्य सम्पदं दृष्ट्वाऽसहतः एत योगसमायुक्तः एतादृशः कापोतलेश्यावान् ज्ञेयः २६ [नौयावत्ती अचवले अमाई अकुतूहले विणीय विषादन्ते जोगवंडवहाणवं २७] पियधम्मे दध बंकसमायारे नियडिल्ल अगुज्जुए। पलिउंचगओ विहिए मिच्छदिट्ठी चणारिए २५ ॥ उपफालग दुट्ठवाईयतेणे या विय मच्छरौ । एय जोग समाउतो काउ लेसंतु परिणमे २६ ॥ नौयावत्ती अचवले अमाई अकुतूहले । विणीय विणए परिणमे २४ वचन पांकुबोले वांके आचारे चाले मने वांको किमे वांको चालीसके घोतानादोष कपटे प्रवर्त्तवी बंछे विपरीत सहहया के जेहने आर्यलक्षण रहित २५ परने आक्रोशकरे रागद्वेषे दुष्टबोले चोरी करे अन्यनो संपदा देखौनसके एपूर्वोक्त योगे सहित ते कापोत लेश्यानो परिणाम २६ मनवचनकायादू उतावलपणे रहोत माया रहितख्यालरामत रहीत गुरु प्रमुखनो विनय अभ्यस्य उ के एहवो इंद्रिय ५ दम्याजेथे सज्जमायादि व्यापार
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०ड० ४१मा भाग
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L८१
टोका वजभोकहिएसए एय जोगसमाउते ते उले सन्तु परिणमे २८] एतद्योगसमायुक्तः प्राणौतेजोलेश्यांपरिणमेत् कीदृशः प्राणी नोच तिः कायवाड्मनीभिर
* नुत्मिकः नम्रतायुक्तः इत्यर्थः पुनर्यप्राणोअचलोभवति पुनरमायोमायारहितः पुनयों अकुतहली कुतूहलरहित: पुनर्योविनीत विनयः कृतगुर्वादियोग्य * र व्यवहारः पुनर्योदान्तः इन्द्रियदमनपरायणः पुनर्योगवान् सिद्धान्त पाठ व्यापारवान् पुनर्य उपधानवहननिरतः २७ पुनर्यः प्रियधर्मा पुनोदृढवा * पुनर्योऽवद्यभोकः पापभीरुकोभर हि पनगाहितैषकः सर्वजीवेष हिताचे षौ अथवाहित मोरच्छन्तौतिहितैषिकः एतादृशः तेजोलेश्यावान् भवति२८
अथ पद्मलेल्या लक्षणमाह ( कोमाणेय माया लोभेय पणुए पसन्त चित्त दन्सप्पाजीगवं उवहाणवं २८ ) [तहापयगुवाईय० ३.] एतद्योग समायुक्त प्राणी पद्म लेश्यान्तु परिणमित् कीदृशः प्रकर्षण तनू क्रोधमानौ यस्य स प्रतनु क्रोधमानः पुमर्यस्य मायालोभी च प्रतनुको भवतः पुनर्यः प्रसान्तचित्ती भवति पुनर्यो दान्तामा पुनर्योगवान् तथा उपधानवान् भवति १८ तथा प्रतनुवादी स्वल्पभाषी पुनरुप शान्तः कषायाग्न्यभावन भौतीभूतः
दंते जोगवं उबहाण २७। पियधम्म दढधर्म वज्जभीरू हिएसए । एय जोग समाउत्तो तिउ लेसंतु परिणमे २८ । पयणु कोह माय माया लोभेय पयणुए। पसंतचित्त दंतप्या जोगवं उवहाणवं २९ । तहा पयण वाईय उवसंतेजि
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•उ. ४१मा भाग
वंत सिद्धांत भण वाभणी तपवंत २७ प्रियई धम्म जहने व्रतादिनी निर्वाहणहार पाप धकी विहछे हितनी वांछक मोचाभिलाषी एहवे पूर्वल्ये योगे सहित तेजी लेस्था परिणमे २८ पासला थोडा क्रोधमान जेहने मायाबने लोभ पातला थोडाई जहने रागद्देषेधको उपशम्यो चित्त दम्योछे प्रामा जिणे मनोयोग ठामिछे जेहना सिद्धांतना तप करके २८ तथावली थोडा वचननी बोलणवार यांत दांत दि ५ जोत्या जिथे एहवे पूर्वस्व योग
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उ.टौका
EXXXXXX
अ.३४
८८३
पुनर्यो जितेन्द्रियः एतर्योगैः समायुक्तः एतद्योगसमायुक्त: पद्मलेश्यावान् भवतीत्यर्थः३. अथ शुक्ल लेण्या लक्षणमाह [अरुहाणि वज्जित्ता धम्मसुकाणि कायए पसंतचित्त दंतप्यासमिए गुत्ते य गुत्तिस २२] [सरागे वीयरागे वा उवस ते जिईदिए एयजोग समाउत्ते सुक्कलेसंतु परिणम ३१] अनयोरर्थ: एतद्योग समायुक्तः प्राणी शक्ललेस्यां परिणमेत् एतादृशः कीदृशः व आत ध्यान रौद्रध्यान वर्जयित्वा धम्म शक्ली धम्म ध्यान शक्नध्याने ध्यायेत् पुनर्य: प्रशान्तचित्ती दान्तामा च भवेत् पुनः समितः पञ्चसमितियुक्त:तिसृषु गुप्तिषु गुप्तो भवेत् ३१ च पुनः सरागोऽक्षीणानुपशान्त कषायो वीतरागस्ततोन्यः उप धान्तो जितेन्द्रियः एतैर्लक्षणैर्लक्षितः शक्ल लेण्यां भजते इत्यर्थः ३२ इहहि प्रशस्त लेण्यानां तेजः पद्म शक्लानां विशेषण पुनरुक्ति दूषणं न यं तासां लेण्यानां हि तेजः पद्म शक्लानां उत्तरोत्तर विशया शुभाशुभतराः शुभतमाः परिणामाः भावनौयाः लेश्यानां लक्षणषु दृष्टांत: जबलक्षं निरीक्ष्य षट पुरुषाणां परिणाम विचारणन भावनीयः तथाहि एकस्मिन् मार्गे षट्पुरुषाचे लुः तैश्च क्षुधातुर्मानेंचैक: फलिती जम्बूक्षी दृष्टः तदा एकन नष्ण लेश्यावता प्रोक्त एनं वृक्ष मूलात् छित्वा एनं प्रपात्य अस्य फलानि अमः १ तदा द्वितीयेन नौललेश्यावताचोक्त किमर्थ' मूलात् विद्यते एकामहत्तमाः
दिए | एय जोग समाउत्तो पम्हलेसंतु परिणमे ३० । अट्ट गद्दाणि वज्जित्ता धम्म मुक्काई मायए। पसंतचित्ते दंतप्या
समिए गुत्तेय गुत्तिमु ३१॥ सराग वीयरागेवा उवसंते जिईदिए। एय जोग समाउत्तो सुक्क लेसंतु परिणमे ३२॥ सहित ते पद्मलेस्थाने परिणाम परिणमे ३० आर्तध्यान रोद्रध्यान वर्जीने धम्मेध्यान पने शुक्लध्यान चित्त ध्यावे रागादिकथी उपशम्यो चित्त जेणे दम्योछे आमाजेणे समति पांचे समित गुप्त तोण गुप्त छ ३१ सराग संयमवंत वा अथवा रागरहित उपशम्यां कर्म एहवी पांचई दीजोत्याजेश एपूठिल्या योग
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा सं3०४१ मा भाग
भाषा
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ANGA
थाखाछेदनोया तस्याः फलानि अझस्तृप्ति' कुर्मः २ तदा श्रुत्वा तृतीयः कापोतलेखावान् प्राह किमर्थ भो अस्य वृक्षस्य महाशाखाछिद्यते एकायाः
प्रतियाखायाः अपि फलैः सर्वेषां वृप्तिः स्यात् तस्मादेकालधौ प्रतियावच्छेदनौया ३ ततचतुर्थस्तेजोलेश्यावान् प्रवादौत् किमर्थ प्रतिशाखायाः च्छेदः * वहवोगुच्छाः सन्ति तेन गुच्छा एव प्राध्यास्तैरेव हृप्तिर्भविश्चति ४ ततः पञ्चमेन पद्म लेश्यावताचैवमूचे किमर्थं भोगुच्छाः पात्यन्ते गुच्छेषु तुकच्चान्यपि
फलानि भवन्ति तस्मात्पक्कानोवफलानि गृहीत्वा अद्मः ५ ततः षष्टः शुक्ललेण्यावान् पुमानाह किमर्थं भी वृक्षात् फलानि पात्यन्ते बहन्ये वाध एव पतितानि सन्ति ते रेवक्षुधाया उपशमीभावौति एवं लेश्यीदाहरण यं ३२ अथ लेश्यानां स्थानानगाह [असंखिज्जाणोसप्पिणीच उसप्पिणोणजेसमया
संखाइयालोगालेसाणंहवन्ति ठाणाइ ३३) लेण्यानां सर्वेसान्तावन्ति स्थानानि भवन्ति स्थानानि प्रकर्षापकर्षकतानि अशभानां लेश्यानां संक्लेशरूपाणि *शुभाना लेण्यानां विशुद्धरूपाणि भाजनानीत्यर्थः लेश्यानां किवन्ति स्थानानि भवन्ति यथा असंख्येया उत्सर्पियोवईमानभावरूपास्तथा पुनरसंख्येया
अवसपिण्योहीयमान भावरूपाः तासां उमर्पिणीनां यावन्तः समयाभवन्ति पुनर्यावन्तोऽसंख्य यालोकाकाश प्रदेथा भवन्ति तावन्ति लेश्यानां स्थानानि पारुहन्ति पारुहन्ति पतन्ति पतन्ति च शभानि अशुभानि निर्मलानिकलपाणि च स्थानानि भवन्तीत्यर्थः ३३ अथ लेण्यानांस्थिति माह
असंखिज्जाणो सप्पिणीण उसप्पिणीण समया। संखाईया लोगा लेसाणहवंति ठाणाडू ३३॥ मुहुत्तदंतु जहन्ना
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१०४१ मा भाग
क सहित तेशललेश्याने परिणाम परिणम ३२ पसंख्याता जे उत्सप्पिणी जिहां २ समै २ चढता २ भाव तथा असंख्यासौजे अवसप्पि णी जोहां समे २
पडता २ भाव हुइ तेहना समयने विखे पसंख्याता लोकाकाशना प्रदेश तेतलास्थानक लेण्यानांछे चढता पडता मुभ अशभादि जायवा ३२
भाषा
१२५
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208
2 [मुदुत्त तु जहबातित्तीसंसागरामहत्तहिया कोसाहीइठिई नायब्वाकिम्हले साए ३४] कृष्णलेश्यायाइति स्थिति तथा जघनामुहर्ताई कश्चिदं * शैयन घटिकादयं अन्तम इत एव कृष्णलेण्यायास्थितिर्भवति तथा उत्कृष्टास्थिति स्त्रयसियसागरीपमाणि मुहर्ताधिकानि अथ सम्प्रदायात्
महत्तं शब्देन अन्तम हत रहते त्रयस्त्रिं यमागरीपमाणि अन्तमू हाधिकानि परमास्थि तिः कपालेश्यायाभवन्ति ३४ (महत्तई त जहबादसउदही पलियमसंखभागमभहिया उकोसाहीइठिई नायबानीललेसाए ३५] नौललेण्यायाः जघनास्ताककाल' चेत् स्थिति भवति तदा अन्तमहत एव उत्कष्टास्थितिवदयसागरीपमानि पस्योपमासंख्येयभागाधिकानि नौलायास्थितिर्भवतीति जघनपाउत्कष्टास्थि तिर्ज्ञातव्या इयं स्थितिय पञ्चम पृथिव्याः धूमप्रभाया उपरितन प्रस्तटमाथित्योक्ता ३५ (मुहत्तसन्तुजहवातिबुदहीपलियमसंखभागमभहिया उकोसाहीइठिई नायव्याकाउलेसाए २४) कापोत लेण्यायाः इयं स्थिति तिव्या जघनयास्थिति स्तुकापोतलेण्यायाः अन्त महत भवति तथा पुनः कापीतलेश्यायाः त्रीणिसागरोपमाणि पल्योपमासंख्येय भागाधिकानात् कष्टास्थि तिर्भवतीति सातव्याइति तोयनरकपृथिव्यावालुकाया अपेचयाउक्तास्ति २५ [ महत्तवन्तु जहवादोउदही पलियमसंख
तित्तीसं सागरा मुहुत्तहिया । उक्कोसा ही ठिई नायव्वा किन्ह लेसाए ३४ ॥ मुहुत्तदंतु जहन्ना दस उदही पलीय
मसंखभागमम्महिया। उक्कोसा होइ ठिई नायब्वा नोललेसाए ३५॥ मुहुत्त'तु जहन्नातिन्दुदही पलिय मसंखभाग अंतर्मुहुर्त वे घडी माठेरी जघन्य विति तेवोस सागरोपम अंत मुइत अधिको मुहर्त नोएकदेश लौजे उत्कष्टौ थिति हुई तेजाणवी कृष्ण लेस्थानौ ३४ अंतमूहर्त जघन्य थिति दस सागरोपम अने पत्योपमने असंख्यातमै भाग उत्कृष्टौ विति हुई ते जाणवौ नौललेस्थानी ३५ अंतमूहर्त
सयधूनपतसिंह वाहादुर का श्रा० सं० उ. ४१मा भाग
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उ टोका
2८५
2 भागगमभहियाउकोसाहोइठिई नायचाते उलेसाए ३७ तेजो लेश्यायाच इयं स्थिति तिव्याजघनगा तु अन्तर्मू इत उत्कष्टाचतेजो लेश्याया हौ उद धौद्दे सागरोपमेपल्योपमासंख्ये यभागाधिके परमास्थिति तव्या इयं तु ईशानदेवलोकापेक्षयाप्रोक्तास्ति ३७ [मुहुत्तइंतु जहबादसउदहीहीन्ति मुडुत्त मश्चहिया उकासाहोइठिई नायब्वापरलेसाए ३८] पद्मलेण्यायाइयं स्थितिर्जातव्या जघनया तु अन्तम इत्त एव स्थिति बति उत्तष्टा तु दशसागरोप मानि अन्तर्मुहाधिकानि परमास्थितिरतावतोपद्मलेश्यायाभवति इयं ब्रह्म देवलोकापेक्षयाउक्तास्ति १८ मुडुत्तई तु जइब्रातित्तौसंसागरामुहुत्तहिया उक्कोसाहोठिई नायबासुकलेसाए ३८] शक्ललेश्यायाइयं स्थिति तय्या जघन्यास्थितिरन्तद्हतं शक्ललेश्यायास्त्रयस्त्रिंशत्मागरोपमानि मुहाधिकानि
मम्महिया। उक्कासा होइ ठिई नायव्वा काउ लसाए ३६॥ मुहुत्तह'तुजहन्ना टुन्नदही पलिय मसंखभाग मम्भहिया। उक्कासा हो ठिई नायव्वा तेउ लेसाए ३७॥ मुहुवतु जहन्ना दस उदही हुति मुहुत्त मम्महिया। उक्कोसा होडू ठिई नायब्वा पम्ह लेसाए ३८ ॥ मुहुत्तवतु जहन्ना तित्तौसं सागरा महत्तहिया। उक्कासा होइ ठिई नायब्बा मुक्क
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
जघन्य थिति तीन सागरोपम पल्योपमने असंख्यातम भागि अधिक ईशाब देवलोकनी अपेक्षाये अत्कष्टौ थिति हुइ तेजाणवी कापोत लेस्यानी ३६ कृ अंतर्मुइत जवन्ध थिति वे सागरोपमने असंख्यातमे भागे अधिक ईशान देव लोकनी अपेक्षाई उत्कृष्टौ थिति हुई तेजाणवी तेजी लेस्थानौ ३०
अंतर्मूइत जघन्यथिति दस सागरोपमहोइ अतहतं अधिक पांचमा देवलोकनी अपचाइ उत्कृष्टी थिति हइ तेजाणवी पद्मले ध्यानी ३८ अंतमूहुर्त जघन्य थिति तेत्रीस सागरोपम मुहुर्ते अधिक सर्वार्थ सौइनि अपेक्षा उत्तष्टी थिति हुइ ते जाणवी शक्ल ले श्यानी ३८ एह खलु
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उ०टोका
अ०३४
८८
सूत्र
भाषा
उत्कष्टास्थितिर्भवति ३८ [एसाखलुलेसाणं ओहेण ठिई उवन्रियाहोइ च उसुविगईसु एत्तो लेसाठिई ओवोच्छामि ४० ] एषालेश्यानां षछां अपित्रोवेम सामान्य प्रकारेण गतिं विवचां विनास्थितिर्वर्णिताभवति इतञ्चतसृषुगतिषु लेश्यानां सर्वासांस्थितिं वक्ष्यामि ४० [दसवास सहस्ताइ काऊएठिईजह याहोंइतिजुदहोपलिश्रोवममसंखभागं च उक्कोसा ४१] कापोतायाः कापोतलेश्यायाः दशवर्षसहस्राणि जघन्धिकास्थितिर्भवति प्रथमायां पृथिव्यरत्न प्रभायां प्रथमप्रस्तरे अस्ति तत्र स्थानांहि जघन्यतोदशवर्षसह श्रायुष्कात् उत्क्कष्टास्थितिस्तुकापोत लेश्यायाः बौणि सागरोपमाणि पल्योपमासंख्य यभाग युक्तानि इयं तु स्थिति स्तृतौय पृथिव्याः बालुकप्रभायाउपरितनप्रस्तटनारकाणां एतावतोस्थि तिरस्तौति ४ १ (तिनुद होपलिओम मसंखभागं जहनील ठिईदसउदहौपलिश्रवम मसंखभागच्च उक्कोसा ४२ ) नौलायाः जघन्यास्थितिः त्रीणि सागरोबमाइ पल्योपमासंख्येय भागयुक्तानि इयतो जघन्यास्थिति स्तृतीयायां वालुकप्रभायाः पृथिव्याः अपेक्षयाज्ञेया पुनत्रललेश्यायाच दससागरोपमाणि पत्योपमासंख्ये यभागयुक्तानि उत्कष्टास्थिति ज्ञेया इयमपि लेसाए ३६॥ एसा खलु लेसाणं हे ठिईओ वन्नियाहोइ । चउमुवि गईसुइतो लेसाणं ठिईओ वाच्छामि ४० ॥ दस वास सहमाइ' काजए ठिईजहन्नियाहोइ । तिन्नु दही पलियोवममसंखभागच उक्सा ४२ ॥ तिन्न, दही पलिओम निये लेश्यानो सामाना प्रकारे थिति वसवो चार गतने बिखे एतला थके लेश्यानी थोतो थोतकहेस्यु ४० दसहज्जार वरसनी कापोत ल यानी स्थिति जघना रतन प्रभा पृथिवो पहेले पाथडे मध्यम वौजे तीन सागरोपम अने पल्योपमनी असंख्यातमो भाग अधिक उत्कृष्टो थिति कापोत ले श्यानी वोजो पृथिवोमा ऊपरि व्यापाघडानी अपेक्षाइ ४१ तीन सागरोपम अने पस्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक नोलले श्यानी
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाय
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टीका
श्र० ३४ ८८७
सूत्र
भाषा
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पञ्चम्याधूमप्रभायाः पृथिव्या उपरितनप्रस्तटापेचयाने या ४२ ( दसउद होपलिश्रवमम संखभागं जहत्रिया होई तेत्तीससागराइ उक्कोसाहोइकिन्हाए ४३ ) कृष्णायाः कृष्णलेश्यायाः दशसागरोपमाणि पल्योपमासंख्ये य भागयुक्तानि जघन्यकास्थितिर्भवति इयं तु पञ्चम्याः धूमप्रभायाः नरकपृथिव्याः अपेक्षया या कृष्णायाः पुनरुत्कृष्टास्थिति स्त्रयस्त्रि ंशत् सागरोपमानि इयमपि उत् कष्टास्थितिः कृष्णलेश्यायास्तु सप्तम्यास्तमतमः प्रभायाः नरकपृथिव्या पेचया या ४३ (एसानेरईयाण' लेसाठिई उवलियाहोर तेणपरं बुच्छामितिरियमणुयाण देवाणं ४४ ) एषानैरयिकाणां नरकवासिनां जीवानां लेश्यानां जघन्योत्कृष्टभेदेन स्थितिर्वर्णिताभवति तेणपरमिति ततः परं तिर्यग्मनुष्याणांतिरयां तथा मनुष्याणां च देवानां च स्थितिं वच्यामि ४४ [अन्तो मसंखभागोय जहन्ननौलठिई । दस उदहीपलिओ व ममसंखभाग' चउक्कासा४२ ॥ दसउदही पलिओवममसंखभागजह निया हो । तित्तीस सागराओ उक्कोसा होइ किन्हाए ४३ ॥ एसा नेरद्रयाणं लेसाण' ठिईउ वन्निया होइ। तेण परं वाच्छामो तिरिय मणुयाण देवाण ४४ । अंतोमुहुत्तमद्दा लेसाग ठिई जहिं २ जाओ । तिरियाण नराण ंच
जघना थिति वोजौ पृथिवोनो अपेक्षाइ दससागरोपम अने पल्योपमनो असंख्यातमो भाग अधिक उत्कष्टो थिति नौल ले स्थानी पांचमी पृथिवोनी ऊपरि व्यापाथडानौ अपेक्षा ४२ दस सागरोपम अने पल्योपमनो असंख्यातमोभाग जघना थितिहुई कृष्णले स्यानी पांचमी पृथिवीनो अपेक्षा तेत्रीस सागरोपम उत्क्कष्टौ स्थितिहुइ कृष्णले स्थानी पृथिवी सातमोनो अपेचाइ ४३ एनारको समस्तने ले स्यानी स्थिति वर्ष बौछे तिवार पछोड़ कहो तियंचनौ १ मनुष्यनौ २ देवतानी ३लेल्यानी थिति ४४ अ' तमू हुत काल ले स्थानी स्थित जघनप्रादि पृथिव्यादिकने जेहने २ जे कृष्णादि तिर्यंचने
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं०ड० ४१ मा भाग
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१. टौका
मुहुत्तमहालेसाणंठिई जहिं जहिं जाोतिरियाणनराणञ्च वज्जित्ताकेवल लेसा ४५] यस्मिन् यस्मिन् पृथ्वीकायादौतिरियां यस्मिन् २ स्थान संमछि मनराणाञ्च यास्त कष्णाद्याः लेश्यावर्तन्ते तासांलेश्यानां जघन्याउत्तष्टा च स्थितिरन्तर्मुहर्त्ताडाने या अन्तर्मुहतीचार्ज याः अन्तर्मुहर्त अहाकाली यस्याः सा अन्तर्मुहर्ताहा जघनयापि अन्तर्मुहर्तकाल स्थिति: उत्क्वष्टापि अन्तमुहर्त कालमेव स्थिति रस्ति कि कृखा केवलाशला लेश्यावर्जयित्वा
तत्र शक्ललेण्यायाः अभावोवत ते अनवाः कष्णाद्याः क्वचित् २ काश्चित् २ लेश्यासमवन्तौति भावः तत्र पृथिव्यप् वनस्पतीनां कृष्णादि लेश्या चतुष्टयं * तेजोवायुविकलसंमूर्छिमतिर्यग्मनुष्य नारका प्रथमलेश्यात्रयं भवतीत्यर्थः ४५ [मुर्त्तह तु जहवा उक्कोसाहोइ पुचकोडीश्री नवहिवरसेहिंऊणा नाय
वासुकलेसाए ४६] शुक्लले श्याया जघनयास्थितिमुहर्ताद्वाइति अन्तम इत्त काल स्थिति तव्या तथा पुनः शुक्लले श्याया उत्कष्टास्थि तिस्तु पूर्वकोटी नववर्षेन्युनाज्ञातव्या इह यद्यपि कश्चिदष्ट वार्षिकोपि पूर्वकोव्यायुब तपरिणाममाप्रोति तथापि नैतावद्दयस्थस्य नववर्षपर्यायादक शलले श्या सम्भवति अतोनववर्षाना पूर्वकोटिरुक्ता४६ [एसातिरिय नराण लेसाणंठिई उवनियाहीइ तेण परं बुच्छामिलेसाणंठिई उदेवाण ४७] एषास्थिति
वज्जित्ता केवल लेसं ४५ | मुहुत्तचतु जहन्ना उक्कोसा हाइ पुब्बकाडीओ। नबहिं वरिसेहिं ऊणा नायव्वा मुक्क
लेसाए ४६। एसा तिरिय नराण लेसाण ठिईओ बनिया होइ | तेण परं वाच्छामी लेसाण ठिईउ देवाण ४७॥ समृछि म मनुष्यने वर्जी टाली केवल शक्लले स्या ४५ अंतमू हत्त जघना स्थिति उत्कष्टी हुइ स्थिति पूर्वकोड १ ते नवेवरसे । उणाः नव वरसयौ तेजाणवी शुक्लले स्थानौथिति ४६ तिर्यचनी मनुष्यनी ले स्थानी थिति विस्तर पणे वर्म वौछे तिवार पछौ कहिस्यु ले स्थानी थिति देवतानी ४७
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा संज.४१मा भाग
भाषा
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8 स्तिरबांनराणां च वर्णिताभवति तेणेति पञ्चमीस्थाने प्राक्ततत्वात् ढतीया ततः परं देवानां ले श्यानां स्थिति वक्ष्यामि ४७ [दसवास सहस्माई किन्हाए
ठिई जहनियाहोर पलियमसंखिज्जदमी उक्कासाहीर किहाए ४८ ] कृष्णायाः कृष्णले श्यायादशवर्षसहवाणि जघन्यकास्थितिर्भवति पुन: कच्चले 8 श्यायाः पल्योपमासंख्येयतमीभागः उत्कष्टास्थितिर्भवति इयं च द्विविधास्थितिर्भवति भुवनपतिव्यन्तराणां एतावदायुषां अपेक्षया उक्तास्ति ४८ [जाकिन्हाएठिखलु उक्कोसासाउसमयमभहिया जहबे नौलाए पलियमसंखं च उक्कोसा ४८) या कृष्णायाः कृष्णले श्वायाः खलु इति निश्चयेन उत्कष्टास्थिति रक्तासा एव स्थिति: समयाभ्यधिकासमयेन एकेन अभ्यधिकासमयाभ्यधिका जघनोन या च पुनर्नीलायाः पत्योपमासख्ये यभागः उत्कष्टास्थितिभवति परं अयमेव विशेषः अयं यः पल्योपमासंख्ये योभागोवत ते स वृहत्तरोभागोने यः ४८ [जानौलाएठि इखलु सक्कोसासाउ समयमम्म हिया जहनेणकाजए पलियमसखं च उक्कोसा ५०] खलु निश्चयेनयानौलायाउत्कष्टास्थिति रुक्ता सा पुनः समयाभ्यधिकाजयनानकापोतायाः कापोत
दस वास सहस्साडू किन्हाए ठिई जहन्निया होडू पलिय मसंखिज्जदूमो उक्कोसा होइ किन्हाए ४८। जाकिहाए
ठिई खलु उक्कोसा साउ समय मभहिया। जहन्ने नौलाए पलिय मसंखंच उक्कोसा ४६ । जा नौलाए ठिई खलु दशहजार वरस कृष्णले स्थानौ थिति जघना होइव्यंतर भवन पतिनौ अपेचाइ पल्योपमनो असंख्यातमो भाग उत्कृष्टी हुवे स्थिति कृष्णले स्थानी४८ कृष्णले स्थानी जे उत्कृष्टी स्थिति निचे उत्कृष्टौ तेवली एक समे अधिक एतली जघना नौल ले स्याना थिति पल्योपमनी असंख्यातमी भाग नौल ले स्थानी उत्कृष्टी पहेलोनी अपेक्षा ४८ जे नौलले स्थानी थिति निचे उत्कष्टी ते समय एक अधिक जघना कापोत ले स्थानी स्थिति पल्योपमनी
रायधनपतसिंह वाहादुर का आ०सं०४०४१ मा आग
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ले न्यायाःस्थिति में या च पुनः कापीतले श्यायाः पलयोपमासंख्य योभाग उत्कष्टा स्थिति वति परं अयमपि पलयोपमासंख्य यो भागोहहत्त भागोत्र यः इत्यनेन भवनपतिव्यन्तराणां एवतावदायुषां ले स्थात्रयं दर्शितं ५. [ तेण परं बुच्छामि तेजले साजहासुरगाण' भुवणववाणमन्तर जोइसवैमाणियाणञ्च ५१] ततः परं भुवनपति वाणमन्तरजोइसवेमाणियाण' इति भुवन पतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां सुरगणानां यथा येन प्रकारेण : तेजोल ग्याजघनमीत् कष्टस्थि त्याभवति तथाहं वक्ष्यामि ५१ [पलिओवमञ्जहवा उक्कासासागराउदीबिहिया पलियमस खिज्जेणहीर भागेण तेजए ५२] तेजोले स्थायाः जघनयास्थिति: पलयोपमं भवति उत्क्लष्टास्थितिस्तु हेसागरोपमे पलयोपमासंख्ये य भागयुक्त इयं परमास्थिति स्तं जीले स्थायाभवति
उक्कासा साउ समय मम्महिया। जहन्नण काऊए पलिय मसंखंच उक्कोसा ५० । तेण परं वाच्छामी तेज लेसा जहा सुर गणाण । मवणवडू वाणमंतर जो इस बेमाणिवाणंच ५१॥ पलिओबमं जहन्नं उक्कासा सागराओ दुन्निहिया
पलिय मसंखिज्जेण होदू भागेण तेजए ५२ । दस वास सहस्साई तेजए ठिई जहनिया होडू । दुन्नुदही पलिओवम असंख्यातमो भाग उत्कष्टी कापोत ले स्थानो पहिलो धको भाग मोटो ५० एतलानंतरं कहे स्यु तेजी लेख्या जिम देवताना समूतनेछ तिम भवन पतिने जघना वरस सहस्र १० उत्कृष्टौ सागर १ अधिक व्यतरने जघना वरस सहस्र १० उत्कष्टपल्योपम ज्योतिषीने जघना पस्योपमनी भाग आठमो उत्कष्टपल्य १ वरस लाख १ वैमानि कनी ५१ जघना पल्पोपम उत्कृष्ट सागर २ अधिक तेजी ले स्थानी थिति पहले विज देवलोके साधिक तेकेतलापल्पोपमने असंख्यातमे भागे अधिक वेजो ले स्वानो ५२ दसहज्जार वरस तेजो ले स्थानी थिति जघनात: होइ भवनपति
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाग
भाषा
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ए.टौका
8 इयं च सामानयोपकमपि वैमानि कनिकायविषय तदा या तब सौधर्मे शानदेवानां जघनोत्तष्टाभ्यां एतावदायुर्वर्त्तते उपलक्षणाच्छ पनिकायामपि * तेजोले स्थायास्थिति या ५२ [दसवाससहस्माई तेजएठिईओ जहस्त्रियाहोइ दोबुदहीपलियोवम असखभागच्च उकोसा ५३] तेजोले गायाः स्थिति दशवर्ष सहयाणि जघनयाभवति तथा पुनसागरोपमे पलपोपमासंख्येय भागयुक्त उत्कष्टास्थिति स्त जोले स्थायाभवति तत्र व्यन्तरभवनपतिदेवान* आथित्यतेजी ले खाया स्थितिर्दशवर्ष सहयाण्यता पुनः सागरोपमेपल्पोपमासंख्ये य भागयुक्त इयंत द्वितीय देवलोका पचया तेजी से प्याया उत्कष्टा स्थितिरुक्ती ति तात्पर्य ५३ जातऊएठिई खलुउक्कोसासाउसमयमभ्भहियाजहब्रेशंपम्हाएदसउमुहुत्ताहियाइउकोसा५४] या तेजोले यायाः खलुनिश्चयेन उत्कष्टास्थितिवर्त ते सातुसाएवस्थितिः समयाभ्यधिका पद्मलेश्यायाःस्थितिज्ञेयाइयंतुपद्मले या जघन्य स्थितिस्तृतीय सनत्कुमार देवलोकापचयाभवति उत्कष्टातुपालेभाया दयसागरीपमाणि अन्तमहाधिकानि स्थितिर्भबति इयञ्चपद्मलेथायाः स्थितिपञ्चमब्रह्मदेवलोका पेक्षयाने या५४(जापम्हाएठिई
असंख भागच उक्कासा ५३ ॥ जा तेऊए ठिई खलु उक्कोसा साउ समय मम्भहिया। जहन्ने पम्हाए दसउ मुहुत्ता हियाई उक्कोसा ५४ ॥ जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा साउ समय मम्महिया। जहन्नेणं मुक्काए तित्वीस मुहुत्त मम्म
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
8 व्यतरपा श्री सागरोपम २ पने पलयोपमनी पसंख्यातमी भाग उत्कृष्टौ जे तेजी ले स्थानी थिति वीजा देवलोकनी अपेक्षा ५३ तेजो ले स्थानी थिति निचे स्य उत्कष्टो तह समय एक अधिक जघना पनले स्थानौ थिति सागरीपम १. अंतमहत अधिक उत्कष्टी स्थिति पद्मले स्थानी व्रम्ह देव.* लोकनी अपेक्षा ५४ जे पाले स्थानी थिति नियं स्य' उत्कष्टौ तह समय अधिक जाणवी जघना शलले स्थानी थिति कट्ठा देवलोकनी अपचाइ
१२६
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• टोका प०३४
१०.२
सूत्र
भाषा
XXXX
खलु उक्कोसासाठ समय मम्मदिया जहणं सुक्काए तेत्तीस मुहत मन्महिया ५५] या पद्मले मायाः खलु निचयेन उत्कष्टा स्थितिर्वर्त्तते सा एवस्थितिः एक समयाभ्यधिका जघन्येन शुक्लायास्थितिर्भवति इयं शुक्कले शायाः स्थितिः षष्टस्थलांतक देवलोकस्यापेक्षया उक्ता अथः पुनः शुक्कले माया उत्कृष्ट स्त्रय स्त्रिशसागरोपमाथि अन्तर्मुहर्त्ताभ्यधिकानि स्थितिर्भवति इयं स्थिति स्तुपंचानुत्तरविमानापेक्षयात्रेया ५५ अथ लेश्यानां गतिहारमाह [किन्हा नौलाकाऊ तिथिविएयाओ अहमले साओएयाहिंतिहिषिजीवो दुम्बइ उववज्जई ५६] कृष्णानोलाकापोता एतांतित्रोपिलेश्याः अधमाई याः एताभिस्ति सृभिर्जीवोदुर्गतिं उपपद्यते ५६ [ते उपम्हासुका तिखिविण्याओोधन्मलेसाओ एवाहिंतिहिंवि जोवोसुम्बइ उववन्नई ५७ ] तेजस्याद्याः तेजः पद्म शुक्ला एतास्तिस्रोपि लेश्याधमाधर्मनिबन्धिन्धो न याः एताभिस्तिभिर्लेश्याभिर्जीवः सहतिं उपपद्यते ५७ [लेसाहिंसव्वाहिं पढने समयंमि परिणयाहिं तु कविवाची पर भवे अत्थि जौवस्त ५८ ] (लेसाहिं सव्वाहिं चरमे समयंमि • ५८) सर्वाभिर्ले ग्याभिः कृष्णनोलकापोत तेजः मद्मशुक्लाभिः षड् भिः हिया ५५ ॥ किम्हा नौला काऊ तिनिवि एयाओ अहम लेसाओ । एयाहिं तिहिंषि नोवो दुग्गाइ उववज्जई ५६ ॥ तेऊ पहा सुक्का तिनिवि एयाओ धम्म लेसाओ । एयाहिं तिहिंवि जौवो मुग्गद् उववजई ५७ ॥ लेसाहिं सव्वाहिं तेतौस सागर मुहुर्त्त' अ ंतर्मू हते अधिक उत्कष्टो शुक्ललेश्यानी अनुत्तर विमाननो अपेक्षा ५५ हवे लेश्यानो गत कहेले कृष्णलेस्या नौल कापोत लेस्या त्रिण एअधर्मरूप लेश्या महापाप आवि वा ना कारण भयो एतीन लेश्याइ जीव नरक तिर्यंच गतिरूपदुर्गती ऊपजे ५६ तेज पद्म शुक् लेश्या तीनए धम्मलेश्या कहे नोर्मल धम्र्मना कारण भयौ एविह' लेश्या जौव मनुष्य देवलोक रूप सद्गतिं भलि उपजे ५७ लेख्या कृष्णादिक सर्व पडिवर्जिवा पाश्री
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था• सं००४१ मा भाग
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6.टोका
44
प्रथमसमये तत्प्रतिपत्ति कालापचया परिणिताभिरामरूपत्वं प्राप्ताभिः सतीभिः परभवेकस्यापि जीवस्य उपपाती नास्ति न भवतीत्यर्थः उपपत्ति भवति * इत्यनेन प्रथमसमये लेश्यास उत्पवास परभवे जीवोनोत्पद्यते ५८ सर्वाभिर्लेश्याभिचरमसमये 'तसमये परिणताभिः पामरूपतामापबामिः सनीभिः
परभवेकस्यापिजीवस्य उपपातोनास्तौतिगाथाइयार्थ:५८ अधकदाउत्पद्यतेतदाह(अन्तोमुहुतंमि०६०)लेश्याभिः परिणताभिःसतीभिःशुभाशमाभिःषड् भिः * सतोभिः अन्तम इत्तें गतेसतिअन्तम इचशेषेचसतिजौवा-परलोकं परभवंगच्छन्तिइत्यनेनजीवस्व मरणकालेागामिभवेलेण्याअन्तर्मुहत यावत्अवश्य भवति तथा पुनर्जीवस्य उत्पत्तिकालेऽतीतभवलेल्या अन्तम इतं यावदवश्यंभवति अन्यथा नराणान्तिरथांचदेवत्वे नारकत्वे चउत्प त्रस्यमानानां मृत्युकाले अन्तमुहत उत्तरभवलेश्याः कथं सम्भवन्ति तथा देवानां नारकाणां च यवनादनन्तर नरतियक्षु उत्पबानां प्राग्भवेलेण्याः अतर्मुहुर्त कथं सम्भवन्ति तस्मादन्त, इविशेष आयुषि परभवलेल्यापरिणामो भवत्येव यदुक्त आगमै तिरिनर आगामिभवेलेसाए अइ गएरानिरया पुश्वभवलेसमेसे अन्तमुडुत्त
पढमे समयम्मि परिणयाहिंतु । नहु कपडू उववाओ परभवे अत्यि जीवस्म ५८ ॥ लेसाहिं सब्बाहिं चरिमे समयसि
परिणयाहिंतु । नहु कमवि उववाओ परभवे अत्यि जीवरम ॥ ५९॥ अंतोमुहुत्तमि गए अंतीमुहुतं मि सेसएचेव । * पहेला समयने विखे परिणमायेछे छतीइ जीवने प्रथम जजणेसमे लेस्था आवौ तिणे समये कोई जीवने ऊपजवो नही हर पर अनेरा भवने विखे * मरौवौ जे भविनजाइ ५८ कृष्णलेश्यादिक सर्व । लेण्याद चरम समयने विखे परिणमी जीव पणेहतेणी न होइ कोइने संसारो जीवने जपजियो * पर अनेरा भवने विखे जीवने ५८ लेण्याने असमूहत्ते गये परिणम्य धक तथा अतहत धाकधके लेश्या कडी पाडई परिणमौह प्राव्ये जीव
रायधनपतर्मिर पाहादुर का पा.सं...१ मा भाग
भाषा
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०
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* मरणमिति १ अतएव देवानां नारकाणां लेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तमुहर्त हयसहितनिजायुःकालं यावत् स्थिति मत्वमुक्त६. सम्पत्यध्ययनार्थ उप
सनिहीषुराह (तम्हाएयासिलेसाणं अणुभागे वियाणिया अप्पसस्थाओवजित्ता पसस्थात्री अहिड्डि एत्तिबेमि) मुनिस्तस्मात् कारणात् अप्रशस्तालेश्या दुर्गतिकारणं प्रशस्ताः लेश्याः सहति हेतोः सर्वासांप्रशस्तानां लेश्यानां अनुभागान् रसान् विज्ञाय अप्रशस्तालेश्याः कृष्णनीलकापोताख्यास्ति स्रोवर्जयि त्वाप्रशस्ताः तेजः पद्म शलाख्यास्ति स्रोलेश्या प्रयस्ताधितिष्टेव भाव प्रतिपत्त्या आश्रयेत् इति सुधर्मा स्वामौजम्ब खामिनं प्राह है जम्ब स्वामिन् अहं श्रीवीरवाक्यादिति ब्रवीमि १ प्रति यौमदुत्तराध्यन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रौलक्ष्मौकौति गणि शिष्य लक्ष्मीवामभगणि विरचितायां चतुस्विशx मध्ययनं संपूर्ण २४ अथ पञ्चत्रिंथमध्ययनं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्ययने अप्रयस्तालेश्यास्त्याज्याः प्रशस्तालेण्यापायाः इत्युक्त अग्रेतनेऽध्ययने च भिक्षूणां गुणा उच्यन्ते प्रथस्तालेण्याहि गुणवतांभिचूर्णा एव सम्भवन्ति इति पूर्वापरयोः सम्बन्धः [सुणे हमेएगग्गमण मग्गं बुई हिं देसियं जमावरन्सोभिक्खू दुक्खाणं
लेसाहिं परिणयाहि जौवागच्छति परलोयं ६०॥ तम्हा एयासिलेसाणं अणुभावे वियाणिया । अप्पसत्यओवज्जित्ता
पसत्याओ अहिट्ठए मुणित्तिवेमि ६१ ॥ लेसज्झयणं सम्मत्त ३४ ॥ सुणे हमे एगग्ग मणे मग्गं बुद्ध हिं देसियं । जमाय * जाइ परलोकने गति नरकतीर्यच मनुष्य देवगति ६. ते कारण थकी एभलौ पाडूई सर्वलेश्याना अनुभाग रसरूप जाणीने कृष्णादिक पाडूई बर्जीने प्रशस्त तेजो लेश्यादि भलो ३ अधिष्ट भाव स्यु आये साधुयतौम धर्मा स्वामी जंबूने कह ६१ इति श्री लेभ्याध्ययननीटब्बी संपूर्णम् ॥ ३४ ॥ सांभला मुझ कहतां प्रति हे शिष्य एकाग्रचित्त थको मोक्षमार्ग प्रते बुद्ध तीर्थ कर देखायो जे मार्ग प्रादरतु साधु दुःखते सर्वपापरूपने हणे आयकर १
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०७० ४.१. मा. भाग.
भाषा
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तकरीभवे १] थिष्याः मम कथयतीयूयं एकाग्रमनसः सन्तस्तं मार्ग गुणवत् साधुमार्ग शृण सतं इति किं य मार्ग समाचरन् भिक्षर्दु क्वानां अन्त करोति कीदृशं तं. मार्ग बुधैस्तीर्थकरैर्देशितं विस्त रत्वेम प्रकायितं १ [गिहवासं परिश्चन पव्वज्जामस्मिनोमुणी इमै सङ्गवियाशिलाजेहिंसज्जन्ति माणवा २] गृहवासं परित्यज्य प्रव्रज्या प्रावितोमुनिः इमान् वक्ष्यमाणान् तान् सफ्रान् पुत्रकलबादौन संसारहेतून विज्ञानीयात् तान् कान् सङ्गान् - यैः सङ्गै बन्धनै कृत्वा मानवाः सज्यन्त कर्मबन्धनैः क्त्वा संसारिणो बध्यन्ते इत्यर्थः २ (तहेव हिंसं अलियं चोज्नं अवम्भसेवणं इच्छाकाम चलोहं च* सञ्जीपरिवज्जए ३) ते के सङ्गाः मुनिनात्याज्याः इत्याह संयतः एतान् सङ्गान् परिवर्जयेत् प्रथमं हिंसा तथैव शब्दः पदपूरणे पुनरलोक मृषाभाषणं चौर्य तथा प्रब्रम्ह सेवनं मैथुनसेवनं रचीवाच्छारूपः कामं भोग सुख लोभं परिग्रहरू परिवर्जयेत् समन्तात् त्यजेत् ३ (मशीहरं चित्तधरं मनवे णवा सियं सकवाडपण्डुरुल्लोयं मणसाविनपत्थए ४) पुनर्मनोहरं चित्त गृहं विचित्र मन्दिरं चित्र सहितं गृहं वा चित्रष्टहं पुनः कथंभूतं यह मजधूपन वासितं माल्यानि च धूपनानि मालाधूपनानि तैर्वासितं मालाधूपवासितं तत्र मालानिग्रथित पुष्पाणि धूपनानि हादशाङ्गादौनितः सुगन्धौकत
रंतो भिक्खू दुक्खाणंत करो भवे ॥ गिहिवासं परिच्चज पवज्जा मस्सिए मुणी। इमे संगे वियाणिज्जा जेहिं सज्जति
माणबा २॥ तहेवहिंसं अलियं चोज्ज अब्बभसेवणं । इच्छा कामंचलोहंच संजयो परिवब्जए३॥ मणोहरंचित्त घरं मल्ल * घरनो वास हांडीने दिक्षा लिये पात्रयो साधु रम एसंग जागी ने पुत्रपौत्रादि जिणे संगे सिमति की बंधाइ मनुष्य अनेरापीण जीव २ तिने
ज जीवहिंसा मृषा वोलवो अदत्तलेबु विषयनु सेवि रच्छारूप काम लोभ ए तले परि ग्रह सर्व साधु परिहरे। मनने हर एहवो चित्राम सहित
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा. सं.उ. ११ मा भाग
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९० टोका
अ०३५ १००६
सूच
भाषा
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मित्यर्थः पुनः कौयं चित्रमन्दिरं सकपाटं कपाटसहितं पुनः कोहथं पाण्डुरोलोचं उज्वल चन्द्रोपकं साधुरेतादृशं गृह मनसापि न प्रार्थयेत् श्रपि शब्दात् वचसान प्रार्थयेत् ४ तादृशे तिष्टतः साधोः कोदोषस्तमाह (इन्द्रियाणिउ भिक्खुस तारिसम्मि उवस्सए दुक्कराइ निवारेड' कामरागविवणे ५) तादृमेमनोहरेचित्र मालाधूपादि सहिते उपाश्रयेभिचोः साधोः इन्द्रियाणि तु निवारयि तु विषयेभ्यो व्यावर्त्तयितु ं दुक्कराचि दुःशक्यानि पुन: कोड मन्दिरे काम राग विवर्धने कामा इष्टन्द्रिय विषयास्तेषु रागः सेोहस्तं विवर्ड यतीति काम राग विवर्धनं तस्मिन् ५ तदा कुन स्थातव्य मियाह (सुसाणे सुनगारे वारुक्यमूलेव एगओ पयरिक्के परकडेवा वासन्तत्या भिरोयए () एककः एकाकी द्रव्यतोभावतय द्रव्यतः सहायरहितोभावतो रागादिरहितः परिवार युतोपि ममसाएकत्वं चिन्तयन् साधुस्तत्र तेषु स्थानेषु वासविवासं रोषयेत् भावानं रोचयेत् केषु २ स्थानेषु प्रत्याह माने पुनः शून्यागारेवा शब्दत्वार्थे तथा पुन: चमूले पुनर्वाऽन्यत्र ग्टहादीपइरिकेइति देशोभाषया एकान्त स्त्री पशुपण्डकादिरहिते पुनः कौमे स्थाने परकृते धूदेव वासियं । सकवाड बंडुरुल्लीयं मणसावि न पत्यए ४ ॥ इंदियाणिउ भिक्खूस्मतारिसंमि उवस्मए। दुक्कराइ निवारे काम राग विवडणे ५ ॥ सुसाणे सुन्न गारेवा रुक्खमूलेब एगगो । पइरिके पर कर्ड वा वासं तत्या भिरो
घर फुले सुगंध कोधी अगर वास्यो कमाड सहित जोहां चंद्र मा जजलाई एहवी मने उपाश्रयादिन वांछे जे मयो पांच इंद्रो सानां वस पूर्वोत उपाश्रयने विखे दोहिलांनि वारवां ब्रह्मव्रत राखवा काम रागनीवधारणहारउपाश्रय ५ रहे श्मशाननेविखे अथवा सूना घरने विखे बचना मूलने विखे रागदेष रहित स्त्रियादिक रहित अलगो परो गृह आपणे अर्थे कौधो वसिवु तोहां रोचये करे एहवे थान किं साधु रहे ६ प्राशुक अचित्त भूमि विखे
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रामधनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०ट० ४१मा भाग
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• टोका अ०३५
१००७
जव
भाषा
२०
द्रुते
परैरामार्थं कृते ६ (फासुर्यमिश्रणाबाहे इत्यो हिं प्रणभिहुए तत्या सङ्घप्पएवासम्भिक्खू परमसनए ७) भिक्षुभिचावृत्तिः परमस ंयतः सप्तदशविध स ंयम वान् साधुस्तत्र पूर्वोक्तस्यानिश्ममानादीवास संकल्पयेत् कुर्य्यात् कथंभूते स्थाने प्रादुकेजीवरहिते श्रनाबाधेवाध्यायान्तराय कारणरहिते पुनः स्त्रौभिरनभि तोपद्रवेस्यादि समोपवासरहिते इत्यर्थः ७ [नसयं गिहाई कुब्विानेव अब हिंकारए गिइकन्म समारम्भ भूयाय दिएबही ८ ] साधुः स्वयं ग्टहाणि न कुर्य्यात् न च साधुरनैारमाजनैः कारयेत् साधुगृहं न कुर्य्यात् न च कारयेत् तत्र कोहे तु स्तमाह यतो गृहकर्म समारम्भ गृहस्य कर्म इष्टिका मृत्तिका खनन जलाद्यानयन कष्टादि निमित्त वृचादिच्छेदमादिकी गृहकर्म तस्य समारम्भो गृहक समारम्भ स्तव भूतानां प्राणिनां वधो ८ [तसा] थावराणं च सुहमाण' मायराणय तम्हागिह समारंभ संजओ परिवब्जिए 2] केषां प्राणिनां बधो दृश्यते गृहकी समारम्भे तसान हौन्द्रिय त्रौन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पश्चेन्द्रियाणां तथा स्थावराणां पृथिव्यप्त जो वायु वनस्पतीनां शुभायां लघुतर शरीराणां अथवा शूमायां चचर गोच राणां वादराणां स्थूल शरीराणां वधो दृश्यते तस्मात् श्रारम्भस्य प्राणिबधहेतुत्वात् संयतः साधुरारम्भं परिवर्जयेत् ८ अथाहारविधिमाह ( तहेव भक्त यए ६ ॥ फासुयंमि अणाबाहे इत्योहिं अणभिहुए । तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परम संजए ७ ॥ न सयं गिहाइ कुव्वेव्जामेव अन्न हिं कारए । गिह कम्म समारंभे भूयाणं दिस्मए वही ८॥ तसाणं थावराणंच सुहुमाणं बायराणय ।
मानेपर अबाधा पोडा नथाइ स्त्रीजाति रहित एहवे स्थानके तोहां करे बसियो तेहिज साधु मोटो मोचने अभिलाषी ७ स्वयं पोते नवा घर न करें अनेरा पासे करावे नहीं ते अनुमोदेद्र नही एपे माटो पांणी चादर घरमा कमै भारंभने विखे एके द्रियादिभूत जीवनो वध हिंसा न करे ८ ते जोब
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राम धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०० ४१मा भाग
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उ टीका
भ०३५
१.०६
पास पयण पयावर्षमय पाणभूय दयडाए न पए न पयावए १०) तथैव साधुभक्तपानेषु अवपानौयेषु पचनपाचने च वसाणां स्थावराणाश्च बधत्वेन प्राणभूत दयार्थ' बस थावराणां दयार्थ स्वयं अन्नपानीयं नप चेत्तथा साधुन अन्नपानीयं अन्ये न पाचयेत् १. अनपानीय पचनपाचने जौव हिंसा दर्शयति [जलधवनिस्मिया जौवा पुहवी कट्ठनिमिया हम्मति भत्तपाणेसु सम्हा भिक्षु न पयावए ११] भक्तपानेषु पच्चमानेषु तथा पञ्चमानेषु सम जलधान्यनिश्रिता तवस्था जीवा स्त था पृथ्वीकाष्टनिविता जीवा हन्यन्त जलश्च धान्धञ्च जलधान्य तत्र निविता स्तचोत्पन्ना स्तनागताः जलरूपा एके न्द्रिया जीवा स्तया तत्र भवाः पूतरकादयो जौवा स्ते पचनकाले ततोन्धन निविता वाइन्यते यतोहिये जीवा यत्र तिष्टन्ति यत्रोत्पद्यन्ते तत्र स्थिताएव बे सुखिनोभवन्ति तदाश्रयनाशे अपि नाशो भवति एवं पृथ्वी च काष्टश्च पृथ्वौकाष्टे तब निश्रिताः पृथ्वौकाष्टनिश्रिताः पृत्वौकायिका एकेन्द्रिया स्तदा श्रिताः पनकाद्या अनन्तकायिकाः कम्यादयो हौन्द्रियाद्याच जीवाइन्यन्त तथा काष्टनिश्चिताः धुणाद्या हनान्त भक्तपानकेहि पृथ्वीकाय वनस्पतिकाय
तम्हागिह समारंम संजत्रो परिबज्जए॥ तहेव भत्त पाणेसु पयणे पयावणेसुय । पाणभूय दयट्ठाए नपए नपया
वए १० । जल धन्न निस्मिया जीवा पुढवी कट्ठ निमिया । हम्मति भत्तपाणेसु तम्हा भिक्खू नपयावए ११ । विसप्पे * बसवेंद्रियादि थावर पृथिव्यादिक सूक्ष्मनान्होवादर मोटो जीव तेहनो बध घात ते कारणेघरनीसमारंभसाधु विशेष परिहरे हवेाहार नौविध कहेछ तिम वली भातपाणीने विखे पोते रांधनही अनेरापासे रंधावे बंधथाइ तेणे प्राणवेद्रियादिक भूत प्रधिवौनी दयाभणी पापरांधे नही वीजापासे रंधावे नही १० पाणिनौ निवाई पूराधाननौ निवाइ ईसौ प्रमुख जीव जाणिवा पृथवीने निश्चित बनस्पति आदिकाष्टने निश्रत घुणादि हणाइ भात
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा.पं... ४१मा भाग
भाषा
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प.३५
योर्विराधनास्था देव तस्मात्त्र स स्थावर विनाशतत्वाद्विपुर्नपचेत् नपाचयेदिति भावः ११ अथाम्ने रारभो हिंसाकारणं आह [विसप्प सम्वोधारे ह.टौका
* बहुपाण विणासो नस्थि जी इसमे सत्ये तम्हा जोई नदीवए १२] साधु स्तस्मात् कारणात् ज्योतिर्न दौपयेत् अग्नि न प्रज्वासयेत् किं कारणं तदाह १.. * ज्योतिः समं अग्नितुला बहु प्राणि विनाशनं अनात् शस्त्र नास्ति अग्निः सर्वान् प्राचिनो विनाशयति कवभूतं ज्योतिः शस्त्र विसर्म्य त् विशेषेण सर्प
* तौति स्फ रतीति विसर्पत् प्रथरणशील पुनः कीदृश ज्योतिथस्त्र सर्वतोधारं सर्वतवतुर्दिधारा शक्तिर्यस्य तत् सर्वतोधारं सर्वदिशा स्थित जीव
विनाश हेतुक मित्यर्थः प्रावतत्वादनलिङ्गव्यत्तयः पचन पाचनन्तु अग्नि प्रज्वालनं विना नस्या अग्नि प्रचालन निषेधन पाचन पचनयो निषेधः पुनरग्नि प्रज्वालन निषेधैन च शीतकालादौ अपि अग्नि समारभो निषितः यदा पचनपाचनाग्निना प्रचालनादि निषेधो भवति तदा क्रय विक्रयाभ्यां निर्वाह क्रियते अत: साधूनां तनिषेधोप्युच्यते १२ [हिरमं जायरुवंच मयसाविनपस्थए समलेङ्गुकंचणेभिक्खू विरएकय विकए १३ ] [कियंतो कईओहोइ विकणं तोयवाणियो कयविक्कयं मिवतो भिक्व हवह न तारिसो १४] अनयोक्ख्या भिक्षुः साधुहिरण्य हेम जातरूपं रूप्यंच शब्दाहनधामयादि मनसापिन प्रार्थयेत् यदि मनसापिन प्रार्थयेत् तदा कथं रडीयात् कौयो भिक्षुः समलेष्टु काञ्चनः लेष्ट च काचनच लेष्टुकाश्चने
सब्बो धारे बहुपाणि विणासणे । नयि जोडू समे सत्थे तम्हा जो नदी बए १२.। हिरन जावरूवंच मणसावि
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा.सं.२०४१ मा भाग
पाणौने विखे ते कारण बको साधु पचावे नही ११ थोडीसी पण थाइ यस्वनीपरि सर्वदिसे धाराछ जिहां घणा प्राचीने विनाशनी करणहार नथौ ४ागि सरिख वीज शस्त्र कोई ते कारण थको अग्नि दीपावे नही १२ हिरण्य रूपो जात रूप सुवर्य तथा धन प्रमुख मने करी प्रार्थे वछि नही
१२०
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समेलेष्टु काञ्चने यस्य स समलेष्ट कावनः तुलाकाच्चन पाषाणः पुन: कोदृशः क्रयविक्रयात् विरत: क्रयश्च विक्रयच क्रयविक्रयं तस्माहिरतो रहितः१३ क्रयविक्रये दूषणमाह (किणंतो०१४) यतोहि साधुः क्रीणन् मूलान वस्तु एहून् क्रयको भवति इतरलोक वनहको भवति तथा पुनर्विक्रौणानच वणिग् भवति क्रयविकवे वर्तमानो भितुस्तादृयो नभवति भिक्षुगुणयुक्तो नभवति सूत्रे हि भिवोर्लक्षणं एतादृशं नास्तीत्यर्थः१४ [भिक्खियध्वं न केयव भिक्खुणा भिक्तपत्तियाकयविक्की महादोसो भिक्खावित्ती सहावहा१५] भिक्षुणा साधुना भिवितव्यं याचितव्यं न तु साधुना के तव्य मूलान हटादौ गृहीतथ्य * कोयन भिक्षुणा भित्तिना भिक्ष यात्तिरदरपूरणं यस्य स भिक्षावृत्तिस्तेन यतोहि भिची: क्रयविक्रययोर्महान् दोषोस्ति साधोभिचाहत्तिः सुखाव हास्ति भिक्ष यातिभिचावत्तिः सा सुखं प्रावहति पूरयतौति मुखावहा सुखपूरका १५ [स मुयाणं उछमे मिला जहा सत्ताकदियं साभालाभं मिसं
नपत्यए। समलेट्ट, कंचणे भिक्खू बिरए कय बिक्कए १३। किणंती कडूओ होइ बिक्कणंतोय बाणियो। कयं बिजयंमि वर्सेतो मिक्ख न हव तारिसी १४॥ भिक्खियचं नकयब्ब भिक्खु खा भिक्खुवित्तिणा। कय विक्की महादसा
भिक्खावित्ती मुहावहा १५ ॥ समुयाणं उंछ मेसेजा जहा मुत्त मणिंदियं । लामा लामंमि संतुढे पिंडवायं चरे ॐ सरिखो पाषाण भने सुवर्य जेहने एहवो साधु विरम्यो ओससोछे क्रयलेवा थको विक्रयवैचिवा धको १३ मोले क्रयाणे लेतु लोक सरीखो ग्राहकहदू * कयादिवे चतुवाणीयो हुइ व्यापारि थाइ क्रय लेवो विक्रय वेचतु साधूने होइ तेहवो सूत्र बोल्यो१४ तु स्य कर भिक्षा मांगियो परं मोलि लेवु
नही चारित्रे भिक्षामांगिवे वत्तिया जीविका जेहने क्रय विक्र यतो मोटो दोषछे भिचाई वर्तिवो ते सुखनी आपणहारछे १५ घणा धरनि समुदाय
रायधनपतसिंह वाहादुर का पा०स०.४१मा भाग
भाषा
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उ० टोका
०३५
१०११
सव
भाषा
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सुट्टे पिंडवामंचरेमुणौ १६ ] मुनिः साधुर्यथासूत्र' सूत्रोक्तरीत्या अनिन्दितं निन्दारहितं समुदानं भैच्य भिचासमूहं एषयेत् गवेषयेत् कथम्भूतं भैच्य 'उ' ं द्रव उ ं ं अन्यान्य पृथक् २ कणग्रहणमिव स्वल्प खल्प मौललेन मधुकरष्कृत्त्या भ्रमन् इच्छेत् इत्यर्थः पुनः साधुर्लाभालामे आहार प्राप्तौ वा सन्तुष्टः सन् सन्तोषो सन् पिण्डपातं भिचाटनं चरेत् श्रासेवेत पिण्डाय भिचाग्रहणाय पतनम्पातः पिण्डपातो भिचार्थं भ्रमणस्तं सेवेत् इत्यर्थः १६ अथ भोजनविधिमाह (आलोले नरसे गिर्द जिम्भादंते अमुच्छिए नरसट्ठाए भु'जिज्जा जवणट्ठाए महामुणी १७) महामुनिर्थापनार्थ यापना संयमनिर्वाहः पनाये इति यापनार्थ' स'यमनिर्वाहार्थं आहारं भुञ्जीत रसोधातु विशेषस्तदर्थं इति रसार्थं धातुट्टा स रसाहारं न भुच्चीत केवलं संयम निर्वा हार्थमेव भुञ्जौतेत्यर्थः कौदृशो महामुनिः अलोलः सरसाहार प्राप्तौ अचपलः पुनः कथंभूतो रसे न गृहः मधुरादौ तीव्राभिलाषवान् नास्ति पुनः कोदृशो महामुनिः जिह्वा दांत: प्राकृतत्वात् दांत जिह्नः वसोक्कतरसनः पुनः कीदृशः श्रमूर्च्छितः संनिवेरकरणेन आगामिदिनेषु भक्षणार्थं घृतगुडादि सक्षम करणरहितः १७ (अच्चणं सेवणच्च व वन्दणं पूयणंतहा इडोसकार सम्माणं मणसा विनपत्याए १८ ) पुनः साधुरेतन्मनसापिन प्रार्थयेत् न अभिलषेत्
मुणौ १६ ॥ अलोले न रसे गिद्द े जिभ्भा दंते अमुछिए । न रसट्ठाए भुजेज्जा जवणठ्ठाए महामुखी १७ ॥ अञ्चणं भिक्षा ते पणि तुच्छ घोठो २ गवेखे सूत्र बोलौ तेहवो आपणी पारको निंदाइ रहित आहारादि लहेतु पणि संतोषौ पिंपात्र भिक्षापात्रे प तेल्यळे १६ भला अन विखे चूंप नहीं ष्टतादि रस विखे लोभ नहीं दमौके जिये घृतादिवासीराखौवे मूर्च्छानहीं शरौरनी रसधातु बृद्धि मणी भोजन न करे संयम निर्वाह भणो आहारल्य महा साधु १७ फुलादिके पूजा साम्रियादिकने विखे मननो करवो वांदिवो तिम वली वस्त्रादिके प्रतिलाभव
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काय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं०० ४१मा भाग
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टीका श्र०३५ १०१२
सूत्र
भाषा
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यदि मनसापि न प्रार्थयेत् तदा वचन कायाभ्यां दूरतएव अपास्तं तत् किं किं अर्चनं पुष्पादिभिः सत्करणं यथा सेवनं पर्युपासनञ्चैव पदपूरणे पुन र्वन्दनं स्तुतिकरणं तथा पूजनं वस्त्रादिभिः प्रतिलाभनं न प्रार्थयेत् पुनः साधुः ऋहिसत्कार सन्मानं मनसापि न प्रार्थयेत् ऋहिश्च सत्कारश्च सम्मानञ्च ऋद्धिसत्कार सम्मानं ऋद्धिः श्रावानां सम्पत् अथवा वस्त्रपानादि सम्पत् सत्कारो अर्थप्रदानादिः गुणकथनं वा सम्मानं अभ्युत्थानादि एतत्सर्वं साधुर्न अभिलषेत् १८ [ सुक्कज्माफियाइन्ना अनियाणे प्रकिंचये वोसट्टिकाए विहरिला जावकालस्स पज्जश्र १८] साधुः शुक्लध्यानं प्रागुक्त ध्यायेत् पुनः साधुः अनिदानो निदानरहितः अकिञ्चनः धनादिरहितः पुनर्यु सृष्टकायः सन् शरीर ममत्वरहितः सन् यावत्कालस्य पर्याय: यावन्मृत्योः समय स्तावत् एतादृशः सन् विहरेत् अप्रतिबद्ध विहारत्वेन विचरेदित्यर्थ १८ [ निब्बूहि जण आहारं कालधम्मे उवट्ठिए चइऊणमाणसं बोंदिं षहदुक्ख विमु चई २०] स साधु रेताड मार्गे सच्चरन्काले धर्मे उपस्थिते सतिमरणे प्राप्ते सतिप्रभुः समर्थः दुक्वात् शरीरमानसात् दुक्वात् विशेषेण मुच्यते मुक्तो भवतीत्यर्थः किं कृत्वा श्राहारं निज्जूहिजण इति स लेखनया परित्यज्य पुनः किं कृत्वा मानुषों बुन्दिन्तनुं त्यक्का ऊदारिक शरीरंत्यक्ता दुःखरहितो सेवणंचेव वंदणं पूयणं तहा । इड्डौ सक्कार सम्माणं मणसावि न पत्थर १८ ॥ सुक्कज्झायं ज्झियाएन्जा अनिया अकिं चणे । बोसट्ट काए बिहरेज्जा जाव कालस्म पज्जओ १६ ॥ निज्जू हिजण आहारं कालधम्म उबट्ठिए चऊण माणुसं
श्रावक उपगरणलब्धि द्रव्यादिक ऊभाषा
इतला मने प्रार्थे महि तो वचनादिके करो कहे १८ शुक्लध्यानध्याये करो नियाण तपनी बेचवो न करे धनादिके रहित जिथे कायावो सिरावीक एहवो साधु प्रतिबंध रहित विचरे जांलगे काल मरणनो प्रस्तावतां लगी १८ संलेखणाने करिवे
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था • उ. ४१ मा भाग
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•टीका
भवतोव्यर्थः २. [नियमो निरहंकारी वीयरागी अचासवी संपत्ते केवलंनाणं सासए परिनिबुडेत्तिवेमि २१] एतादृयोयतिः भाखती अविनश्वरी मरण धर्मरहितः केवलं ज्ञानं सप्राप्तः सन् परिनिबुडोत्तिवेमि कर्माभावात् शीतीभूतो भवति सिदि गति भाक् भवतीत्यर्थः कौशोयतिनिर्ममो लोभरहितः पुनः कोहयो अनाथवः प्राणतिपातादिपंचाव रहितः पुनः कीदृयो निरहंकारी पवाररहितः पुनः कीदृशी वीतरागी रागषरहित: सुधर्मा खामो जम्बूखामिनं प्रतिवक्ति अहं इति ब्रवीति वीतराग वचनात् २१ इत्यनगार मार्गाध्ययनं इति श्रीमदुत्तराध्ययन स्वार्थ दौपिकायां उपाध्याय धौलमोकोर्तिगणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचितायां अनगारमार्गाध्ययनं पञ्चविंशं अध्ययन सम्पूर्ण ॥ ३५ ॥ अञ्च दिशं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन् अध्य
यने अनगारमार्गः उक्त: स च जौवाजीवादितत्वज्ञानं विनानस्यात् अतो जौवाजीव भक्ताख्यं षट्त्रिंशंअध्ययनं व्याख्यायते (जीवाजीव विभत्ति सुणहमेए ॐ गमशाइओ जंजाणि जणभिक्ख समंजय सजमे १ ) भी शिष्याः एकाग्रमनसः सन्तः स्थिरचित्ताः सन्तो यूयन्ता जीवाजीव विभक्ति जीवाजीवादीनां
वादिं पहू दुक्खे विमुच्चई २०॥ निम्ममा निरहंकारी वौयरागी अणासवी । संपत्तो केवलं नाणं सासए परि निब्बुडे
त्तिबेमि २१ ॥ पणगारमग्गज्मयणं सम्मत्तं ३५॥ जीवाजीव विभत्तिं मुह मे एगमणाओ। जाणिजण भिक्खू छांद्योछे आहार ४ प्रकार मरणनोकाल अवसरे आव्योथको छांडौने मनुष्यनी बोंदि सरौर समर्थ शरीर मननोदुक्खते थकी मुकाइ २० ममता लोभ * रहित अहंकार रहित रागद्देष रहित पाश्रव पापरहित पाम्यो केवल जान सर्वअर्धनी ग्राहक भासतु कम खपाविवाथ को वीसम्यो भौतली भूत
सूधर्मा स्वामि चंबूने कहे२१ इति श्रोअणगारअध्ययनना टब्बा संपूर्ण ३५-एकेंद्रियादि जीव काष्टादि घजीवनी विभक्ति विवरी जाणवी सांभलि हे शिष्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.१.४१ मा भाग
भाषा
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टोका
.१४
सद में मम कववतः सतः शृणुत जोवाच अजीवाश्च जीवा जीवास्तेषां विभक्तिलक्षणा ज्ञानेन पृथक २ करणं जीवाजीव विभक्तिस्तां उपयोगवान् जौवः एकेन्द्रियादिः उपयोगरहिती अजीवः काष्टादिः इत्यादि जैनमतीत लक्षणेन लक्ष्यज्ञानं तो इतिकांयां जीवाजीव विभक्ति ज्ञात्वा भिक्षुः सयमे सयममार्गे सम्यक् यतते यत्न कुरुते १ [जीवाचेव०२] जीवाचे तना लक्षणामकाः च पुनरजीषा अचेतनामकाः चकार एवकारश्च पदपूरण एष लोकोव्या ख्यातस्तीर्थकरैरुत: अजीवदेश आकाशं अलोको व्याख्यातः अजीवस्य धर्मास्तिकायादिकस्य देशोंशी अजौवदेशो धर्मास्तिकायादि वृत्तिरहितस्य आकाश स्यैवदेशः स अलोको व्याख्यातः जौवा जीवानां प्राधेयभूतानांलोकाका आधारभूतं प्रती लोकालोक लक्षणं उन १ जीवाजीव विभक्तिर्यधास्यात्तवाह [दव्वश्री खित्तो चेव कालो भावी तहा परूवणासि भवे जीवाशम जीवाणय ३] द्रव्यतो ट्रय पाश्रित्य इदं ट्रव्य इयझेदं क्षेत्रतः इदं द्रश्य एता
सम्म जयदू संजमे १॥ जीवाचेव अजीवाय एस लाए वियाहिए। अजीबी दसमागास पलोए से विवाहिए २॥ दब्बओ खित्तमो चेव कालो भावओ तहा। परूवणा तेसिं भवे जीवाण मजीवाणय ३॥ रूविणो चेव रुवीय
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.२०४१मा भाग
भाषा
मुझ कहतां प्रति' एकाग्र मनधइ एपांत्रीसमा अध्ययन अनंतर छत्रीसमुजागते अध्ययन समिती जागीने साधु तथा बावक भली परि यतन करे संयमने विखे १ जीवने वली अजीव कहौवे एजच अदराज सर्वने प्रत्यक्ष कह्यो जिने अजीवनो देस आकाश रूप परं धम्मास्तिकायादि तिहां मधी तेहने अलोक कयो तीर्थ' कर २ द्रव्य धको जेहना एतलाभेद क्षेत्र की ज एतलो आकाश अवगाडि रहेछ काल थकी एहनी एतली थिति तथा भाव थकी जे एहना एतचा स्पर्शादि पर्याय तेहनी चिह्न प्रकारे प्ररूपणा भेद जीवने अजीवनी थिति ३ अजीवनी प्ररूपणा थोडी ते भणी प्रथम
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.टौका
* वत्ति क्षेत्रे खितकासत इदं द्रव्य इयत्कालस्थिति महतं ते भावतोख व्यस्य इयन्तः पर्यायाः एवं तेषां जीव द्रष्याणां अजीवद्रव्याचा च द्रव्यक्षेत्र प०३१ कालभाषेण चतुर्वा प्ररुपचा भवेत् ३ अथ तावत् अजीव द्रव्यप्रकपणायाः स्वल्पत्वात् अजीव द्रव्यस्यैव प्ररूपणा कथ्यते (कवियोय अरुयीय अजीवा * १०१५
दुविहाभवे अक्यो दसहावुत्ता रूविणो विचबिहा ४) अजीवा द्विविधाभवेयुः एके अजीवारूपिणो रूपवन्तः च पुनरम्ये अजीवा अरुपियो अरूपवन्तः तवरूपं खाद्यात्रय भूतं मूत तदस्ति येषु ते रूपिशः तयतिरिक्ता घरूपिच इत्यर्थः तब अरुपियो अजीवा दशधाउक्ताः कपिणो जौवा.चतुर्विधा । प्रोकाः ४ पूर्व दयविधत्वं प्राह (धमथिकाए. ५) [पानासे तत्वदेसेय तप्पएसेय पाहिए अहासमए चैव परुवौ दसहाभवे ] युग्मं अरूपी अजीव.
एवं दशधाभवेत् इति द्वितीय गाथयान्वयः प्रथमं धर्मास्तिकायः धरति जीवपुलौ प्रति गम नोपकारेणेति धम्मस्तस्य प्रस्तयः प्रदेश सद्भावास्तेषां कायः समूहो धर्मास्ति कायः सर्व देशानुगत समान परिणति मद्दव्य इतिभावः । पुनस्त हे यस्तस्य धर्मास्ति कायस्थक तमो विभागोदेशस्तृतीय चतुर्थादिभाग सहेयो धर्मास्तिकायदेशःर तथा पुनस्तप्रदेशस्त स्य धर्मास्तिकायविभागस्य अतिशूमोनिरंथोशः प्रदेशीधर्मास्ति कायप्रदेशस्तीर्थकरैः पाख्यातः कथितः३ एवं पधर्मो जीव.पुदत्तयोः स्थिरकारी धर्मास्ति कायाहिरहो अधर्मास्तिकायः ४ पुनस्तस्य अधर्मास्तिकायस्यापि देशस्तद्देशः एकः कश्चिद्वागी पधर्मा
अजीवा दुविहा भबे । अरूवी दसहा बुत्ता रूविणोवि चउब्विहा ४॥ धम्मत्यिकाए तई से तप्पए सेय पाहिए। बह
रायधनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१०४१ मा भाग
कही यादिळे ते कपो कपादि नथी ते अरूपी अजीववेह भेदे कधी ते माहिं परूपी दयप्रकार का जीनखरे सूपोते चिई भेदे जाणवा ४ पारिखकाय चनो विभाग ते देवधर जीव पुहलने मति पर्ष अनुकूल हुर् धना अस्ति प्रदेसनो काय समूह ते विभागनो घंश जहनी वलत
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तिकायदेशः । एवं पुनस्त स्य अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशोंश स्तत् प्रदेश आख्यातः अधर्मास्त्रि काय प्रदेश ६ इत्यर्थः इत्यनेन पड्भेदावरूपिणो अजीव व्यस्थ५ उ.टोका ४
अथ शेषाश्चत्वार उच्चन्ते पागास इति सप्तमोमेदः पाकाशं प्राकाथास्तिकाय: नौव पुङलयो रवकाशदायि आकाशं ७ तस्य आकाशस्य देशः कतमी प०३६
* विभागः आकाशास्तिकायदेशः ८ सस्य पाकाशास्तिकायस्य निरंथोदेय स्तत्प्रदेशः पाकामास्तिकाय प्रदेशः ८ दशमोमेदवाहा समयः अहाकालो वर्ग
मानववस्तद्रूपः समयो पहासमयो अस्य एक एव मैदो निर्विभागत्वात् देश प्रदेयौ अपिकालस्य न सम्भवतः १० एवं दशभेदा अरूपिणीज्ञेयाः । *.एतान् अरूपिणः घेवतः आह (धमाधम्य दोएए लोगमित्ता विवाहिया लोगालोगेय आगामे समए समयखित्तिए ७) धर्माधर्मों धर्मास्ति काया धर्मास्तिकायौ एतौ हावपि लोकमात्रौ व्याख्यातो यावत्परिमाणौ लोकस्तावत्परिमायौ धर्मास्तिकाया धर्मास्ति कायौ चतुर्दश रज्यात्मलोक व्याप्ती इत्य
समेत देसय तप्पएसय पाहिए ५। आगासे तस्म देसय तप्पएसय पाहिए। अहा समए चेव अरूवौ दसहाभबे ह।
धमा धम्म य दीएए लोगमित्तावियाहिया। लोगालागय मागाससमए समयखेत्तिए७ । धम्मा धम्मागासातिनिवि भागन होये तेहस्य मिलयो देसते धम्मास्ति काय थको विपरीत अधम्मास्तिकाय तेहनी विभाग ते देस ते देसनो विभागनथाइ एहवो विभाग ते प्रदेस कमो ५ मर्यादा सहित पापणे सरूपे शोभे पदार्थतीहां रथात पाकामास्ति काय तेहनो विभाग ते मेद ते माहिं जहनो भाग नथी ते प्रदेश कयो महाकालरूप समायादिक ते अहासमय सेहनो विभाग नधी एह वाभणौ देस नही अरूपी दशेप्रकारे हइ ६ धनास्तिकाय अधम्मास्तिकाय एवे द्रव्य लोकमान चौदराजव्यापी पर अलीक माहीं नथी ते कयो तीर्थ कर देवे लोक चौदराज प्रलोक चौदराज वाहिर तहने विखे आकास्ति काय सघले
RXXXXXXXXXENXXRXXXXXXXXX
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ सं०९.४१ मा भाम
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उ टोका
अ०३६ १०१७
सूच
भाषा
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नेन अलोके धर्माधर्मौ नस्त: आकाशं लोकालोके वर्त्तते इत्यनेन आकाशास्तिकायः चतुर्दशरज्वात्मलोकं व्याम्यस्थितः ततो बहिरलोकं अपि व्याप्य आकाशस्तिकायः स्थित इत्यर्थः समय समयादिकः कालः समयचेत्रिको व्याख्यातः समयोपलचितं चेत्र' साहय होप समुद्रात्मकं समय क्षेत्र तत्रभवः क्षेत्रिकः सार्द्ध' हय घोपेभ्यो बहि समय आवलिकादिव समासादि कालभेदा: मनुष्यलोका भावान्न विवचित: ७ पुनरेतान् एवकालत आह [ धम्मा धमागासातित्रिविएए अपाइया अपज्जवसियाचैव सव्वहं तु वियाहिया ८] धर्माधर्माकाशानि एतानित्रोण्यपि सर्वार्थ इति सर्वकालं सर्वदा स्वस्वरूपा परित्यागेन नित्यानि अनादीनि च पुनरपर्यवसितानि अन्तरहितानि व्याख्यातानि ८ अथ काल स्वरूपमाह ( समरविसन्तद्र पप्प एंव मेव वियाहिया आएसं पयसाईए सपज्जवसिए विय ८ ) समयोपि कालोपि एव एव यथा धर्माधर्माकाशानि अनाद्यनन्तानि तथा कालोपि अनाद्यनन्तः इत्यर्थः किं कृत्वा सन्तति प्राप्य अपरापरोत्पत्ति रूपप्रवाहात्मिकां आश्रित्य कोर्थः यदाहि कालस्योत्पत्ति विलोकयते तदा कालस्य आदिरपि नास्ति अन्तोपिनास्तीत्यर्थः पुनरादेश प्राप्यकार्यारम्भं श्राश्रित्य कालः सादिकः आदिसहितः तथा सपर्यवसितोऽव सानसहितो व्याख्यातः
एए अणाइया । अपज्जवसिया चेव सब्बद्धंतु बियाहिया ८ । समएवि संतद्र पप्ण एवमेव वियाहिए। आएसंपप्प व्यापौ रह्यो समयादि काल ते समयचेत्र अढी होपमांहि वाहिर नही ७ धनास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय तौनए अनादि जे भणी एआदि नही अने अपर्याय वसान जेहन के इडोन कहवा माखताक तेह भयो सर्वकाल लगी हुई कहौर आपण स्वरूप कांडे नही समय काल निरंतरउतपत्तिनौ अपेक्षार लोजी इतिवारे मत्ता भाश्री एह पूंठलोपरि अनादि अने अनंत प्रदेशकार्य आरंभौर तेह श्राश्री प्रदेहि तत् अने
१२८
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०३५
१०१८
सूत्र
भाषा
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यदा च यत् किञ्चित् कार्य यस्मिन् काले आरभ्यते तदा तत्कार्यारम्भवशात्कालस्यापि उपाधिवशात् आदिः एवं कार्यारम्भ समाप्तीकाल स्थापि अन्तोव्याख्यातः यर्थः ८ अथ रूपिणोऽजोवाचतुर्विधाषतुर्भेदा उच्यन्ते [खन्धायखन्धदेसाय तप्परसात वयपरमाण्यीय बोधव्वारूवियोवि च उब्बिहा१०] रूपिणोप्यजीवाचतुर्विधावतुः प्रकाराः के ते भेदास्तान् आह स्कन्धाः यत्र पुष् परमाणवीविघटनात् मिलनात् चन्यूनाः अधिकाअपि भवति एता दृशाः परमाणुपुञ्जाः स्कन्धदेशाः १ तथा तत् प्रदेशास्तेषां स्कन्धानां निर्विभागाअंशाः स्कन्धप्रदेशाः ३ तथैवेति पूर्ववत् च पुनः परमाण्वबोधव्याः पर arwara परस्परं अमिलिताइत्यर्थः एवं चत्वारा रूपिणचतुर्विधाबोधव्याइति भावः अत्र च मुख्यहत्त्यापरमाणु द्रव्यस्य हौ भेदौ परमाणवः स्कंधायदेश प्रदेशयोः स्कन्धेष्वेवान्तर्भावः १० अथ स्कन्धानां परमाणूनां लक्षणमाह ( एगतेण पुहतेण खन्धायपरमाणुणो लोएगदेसेलोएय भइव्याते उत्तिओ इत्तोकालविभागं तु तेसिं बुच्छं च उब्बिहं ११ अर्थः एतेस्कन्धाश्च पुनः परमाणवः एकत्वेन पुनःपृथक्लेन लोकैकदेशे च पुनर्लेकेि क्षेत्रसोभक्तव्याः तत्र केचित् साइए सपज्जबसिएविय १ ॥ खंधाय खंधदेसाय तप्परसा तहेबय । परमाणुणोय बोधव्वा रूविगोवि चउबिहा १०। एगत्तेण' पहुत्तेण खंधाय परमाणुणी । लाएगदेसे लाएय भव्यातेय खित्तश्र । इत्ती काल विभाग' तु तेसिं वोच्छ पर्यवसान अंत ८ परमाणुयाविचर्ट मिले ते स्कंध तेहनो विभाग से देश तेहना जे निर्वात अंश से प्रदेश तिम जाणवा जे परमाणु घण घण नाव्हा ते परमाणु' आजांणवा रूपी द्रव्य चिह्न प्रकारे पहलते रूपौ द्रव्य जांणवो १० परमाण' श्रास्यु' एक परिणाम परिणमे परमान जलू आपण रहि परमाणु या एकठा मित्या कि अनंतालग जूजू भाते परमाणया लोकना एकदेशने विखे परमाण' या रथाक्छ स्वधते लोकमाहि थका लोकना
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राय धनपतसिंह वाहादुर का बा०सं० ४१मा भाम
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स्कन्धा परमाणवश्च एकत्वेन समानपरिणि तिरूपेण सयन्से अध च स्कन्धापरमाणवश्व पृथतन परमाणन्तर रसहातरूपेण लक्ष्यन्ते इति अध्याहारः इति द्रव्यतोलक्षण उक्त अथ चक्षेत्रतः आह ते स्कन्धाः परमाणवस इति तत् स्वन्धपरमाणूनां ग्रहणेपि परमाणू ना एव एक प्रदेशावस्थानत्वात् ते परि माएव: स्कन्धेषु लोकैकदेशैखोके सर्वत्रभक्तव्याः भजनौषाः दर्शनौइति यावत् ते हि विचित्रत्वात्परिणतेर्बर प्रदेथे तिष्टन्ति इत: क्षेत्र प्ररूपणातोऽनकर
तेषां स्कन्धानां परमाणु नां चतुर्विध कालभेदं चतुर्विधं वही सादि अनादि सपर्यवसित अपर्ववसित भेदेन कथयिष्यामि इदं च सूत्रपट पाद – गायेत्यु चते ११ (सन्नई पप्यतेणाई अपज्जवसियावियठिई पदुच्चसाइया सपज्जवसियाविय १२ ] ते स्वधाः परमाणवश्व सन्तति अपरापरोत्यत्ति * प्रवाह रूपां प्राप्य अनादयः आदिरहितास्तथा अपर्यवसिताः अन्तरहिताः स्थितिं प्रतीत्य क्षेत्रावस्थानरूपांस्थितिं पङ्गोकत्यसादिकाः सपर्थवसिताच वर्तते १२ सादिसपर्यवसितत्वे पि कियत्कालमेषास्थितिरित्याह [असङ्ककालमुक्कोस इक समय जहवयं अजीवाण्यरूवीण ठिईएसावियाहिया१३]
चउविहं ११॥ संतढूं'पप्प तेणाई अपज्जवसियाविय। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसियाविय १२॥ असंख काल मुशासं एका समओ जहन्नयं । अजीवाणय रूवौणं ठिई एसा वियाहिया १३॥ अणंतकाल मुक्कासं एक्कासमत्रो
XXXXXXKRRRRXAXXXXKXEXAX*23
रायधनपतसिंह वाहादुर का मा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
* प्रदेसने विखे ते स्कंधदेश क्षेत्र पाकाश भजिवा अनेक प्रकार करी कहवावह प्रदेसी पण एक ११ प्रदेशे रहे संतति प्रवाहे आयौ तेहअनादि जिल्हुत छ जे अपर्यवसित अनंत पर जिरी सहाहस्ये थिति नियत क्षेत्र विखे होतं पायी प्रादि सहित सादि अने स पर्यवमित अंत सहित जहनी नवनवे ठामे
उपजे १२ पसंख्यातु काल उत्कष्टस्थित एक समय जघन्यस्थिति प्रजोवरूपी द्रव्य पहल पृथव्यादिक थिति एक कही तीर्थ कर १३ पनंतीकाल उत्
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श्र
m
१०२० *
स्कन्धानां परमाण नां च उत्कष्टा असंख्य कालं स्थिति: जघन्यिका एकसमया स्थितिः एषा अजीवानां रूपिणां पुहलानांस्थिति ाख्याता१४ अथ कालतः स्थिति उवातदन्तर्गतं अन्तरमाह (अणन्तकालमुक्कोसं इकं समयं जहवयं अजीवाणयरूवौण अन्तरेयं वियाहिया १४] अजीवानां रूपिणां पुगलानां स्कन्धदेश प्रदेशपरमाण नां अन्तरं विवक्षितक्षेत्रावस्थि ते प्रच्यु ताना पुनस्तत् क्षेत्र प्राप्त व्यं वधानं अन्तरं उत्कृष्ट अनन्तकालं भवति जघन्यकएकसमयं यावद्भवति इदं अन्तरं तीर्थ करैर्व्याख्यातं पुढलानां हि विवक्षितचेत्रावस्थितितः प्रच्युताना कदाचिरम मयावलिकादि संख्यानकाल तोवापल्योपमादेर्यावदनन्तकालादपितत् क्षेत्रावस्थितिः सम्भवतीति भावः १४ अथ भावतः पुहलान् ओह ( वन्नीगन्धोचव रसमी फासोतहा सण्ठाणओय विबेो परिणामो तेसिपञ्चहाः १५) तेषां पुहलानां परिणामोवर्ण तो गन्धतोरसत: स्पर्थतस्त थासंस्थानतश्च पञ्चधापञ्च प्रकारो यो यतोहि पूरणगलनधर्माणः पुहल्लास्तेषां एव परिणति: सम्भवति परिणमनं स्व स्वरूपावस्थि ताना पुहलानां वर्णगन्धरस स्पर्शसंस्थानांदिरम्य था भवनं परिणामः
जहन्नय। अजीबाणय रुवीणं अंतरेयं वियाहियं १४॥ वन्नो गधो चे व रसओ फासओ तहा। संठामओय वि
न्नेो परिणामो तेसिं पंचहा १५ ॥ बन्नो परिणया जेउ पंचहा ते पकित्तिया। किन्हा नौलाय लोहिया हालिद्दा Bष्टी अंतर तौहाथको वलौ तौहा जपजे एक समय जघन्यथिति अंतर पडे तो एक समे तौहानो तिहा पाबे अजौवरूपी द्रव्य पुद्गल पृथिव्यादिक * अांतरो पूर्वे कयो तीर्थ कर १४ वर्गथको पुल परिणम्या गंध थको पुल परिणम्या रस थको परिणम्या फरसबको परिणम्या तथा वली संस्थान
कथको परिणम्याते जाणवा परिणाम पुदगलास्तिकायनो पांच प्रकार इम हुइ १५ बर्म परिणाम परिणग्याछ जे पुदगल पांचे प्रकार से कन्या
राय धनपतसिंह बाहादुर का चा•सं• उ. ४१मा भाग
भाषा
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उ० टीका अ०३६ १०२१
सूत्र
भाषा
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स पुहलानां पञ्चप्रकारइत्यर्थः १५ एषामेव प्रत्येक उत्तरभेदानाह [ बस्स प्रोपरिणयाजेड पञ्चहातेपकित्तिया किन्हानीलायलोहिया हालिहासुकिला तहा १६] जेपुङ्गलाः वर्णतः परिणताः सन्तिः ते बुद्रलाः पञ्चधाः प्रकीर्त्तितास्तीर्थकरेः कथितास्ते के तानाह कृष्णाः क लवर्णाः पुनर्भीताः शकपिच्छ निभाः गुलिकासहभावालोहितारक्ता हिंगुलवर्णाः तथा हारिद्राः पौताहरितालनिभाः तथा शुक्लाः शङ्घ कुन्दस्फटिकसदृथाः १६ [गन्धश्रपरिणयाजेड दुविहावियाहिया' सुधिगन्धपरिणामादुभिगन्धातहेव १७ ] जेसु पुत्र लागन्धतः परिणताः सन्ति ते पुत्र साहिविधाव्याख्याताः सुरभिगन्धः परिणामो येषान्त सुरभिगंध परिणामाः सुगंधत्वेन परिणताश्चन्दनादिवदित्यर्थः तथैव दुरभिगंधाः दुर्गंधत्वे नलशनादिवत् परिणता: १७ [ रसश्रीपरिणयाजेट पचहातेपकित्तियातित्तकडु भाकसाया अम्बिलामपुरात हा १८ ] ये तु पुद्गलाः पुनरसतः परिणतास्तेपञ्चधा प्रकीर्त्तिताः तिक्ताः निम्बसहमाः कटुकाः सुण्ठमरिच सदृशाः कषायाः खदिर सदृशाः आम्बा निम्बूकर ससदृशाः मधुराः सर्करा सदृशाः १८ [फासओपरिणयाजेल अट्टहातपकित्तिया कटाम जयाचैव गुरुश्रलहुयातहा २०) स्पर्शतथये परिषताः पुहलास्ते अष्टधाप्रकीर्त्तिताः कर्कशा : अजातोमसदृशाः च पुनर्मृ दुकाः सुकुमालाः पट्टकूल सुक्ला तहा १६ ॥ गंधजो परिणया जेड दुबिहा ते वियाहिया । सुम्भि गंध परिणामा दुम्भि गंधा तवय १७ ॥ रसओ परिणया जेड पंचहा ते पकित्तिया । तित्त कडुय कसाया अंबिला महरा तहा १८ ॥ फासओ परिणया जेउ कालानीलाराता पीला धवला तथा १६ गंध परिणामे परिणम्या के जे पुदुगल बिह भेदे ते का तीर्थ करे सुगंध परी परियमशक पूरको पर दुर्गंध पर्ण परिणमग लसणनोपरिं तथा बलौ १७ रसनेपरिणामे परिणममा जे पुदुगल पांच प्रकारे कया तोखा कड्या कसाइ लाखाटा मोठा तथा वली १८
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राज्य धनपतसिंह बाहादुर का प्रा० सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०२६
१०२२
सूत्र
भाषा
E璨琛
सदृशाः गुरुकाः लोहपारद सदृथाः तथा पुनर्लघुकाः अर्कतूलसदृशाः २० (सोया उन्हायनिडाय तहालुक्वाय श्रहिया इइफासपरिणयाए पु समुदाहिया २१] तथा पुनः केचित्पुदुलाः सौताहिमसदृशाः च पुनरुष्णा अग्नि सदृशाः च पुनः विग्धाः ष्टत सदृशाः तथा रुक्षाच आख्याताः इति अमुनाप्रकारेण एतेपुद्गलाः स्पर्मपरिणताः श्रष्टप्रकारेण तौर्थकरेरुदाहृता २१ [सठाणपरिणयाजेड पञ्चहातेप कित्तियापरिमण्डलाय बट्टा सं सारं समायया २२] ये तु पुद्गलाः संस्थानपरिणतास्ते पञ्चधाप्रकीर्त्तितास्ते के तानाह परिमण्डलाकङ्कणाकारा पुनवन्तु लाल काकृतयः पुनस्तिस्ाः संघाटकाकाराः पुन चतुरस्राः चतुष्कोणः चतुष्किकाकाराः तथा पुनरायताः प्रलम्बाः रज्वाकाराः २२ संप्रत्येषां एव परस्परं सम्बंध माह [वसभ
अट्टहा ते पकित्तिया । कक्खडा मउयाचे व गुरुयालहुयातहा १६ ॥ सीया उन्हाय निद्दाय तहा लुक्वाय चाहिया । इइ फास परिणया एए पुग्गला समुदाहिया २० ॥ संठाय परिणया जेउ पंचहा ते पकित्तिया । परिमंडलाय बट्टा सा चउरंस मायया २१ । बन्नो जे भवे किन्हे भइए सेउ गंधओ । रसओ फासओ चे ब भद्रए संठाणओविय२२ ॥ फरसने परिणामे परिणमना जे पुदगल आठे प्रकारे ते कह्या तीर्थंकरे खरखरा सु हाला भारो हलुआ तथा वलौ १८ ताठा ऊका चोपच्या तथा वली लूखा का हुण प्रकारे फरस पणे परिणमना पूराइगलाइते पुद्गल समाक् प्रकार कया तौर्थकरे २० संस्थानपर्ण परिणमना जे पुद्गल पांचे प्रकार ते कड्या परिमंडल चूडौनौपरे वाटली मोदकनौपरिं विखूणा चोखूणा श्रायतलांवा २१ वर्ण थको जे कालो पुदुगलते गंध की भजयो भजनार ant भजिवो जाणवो सुगंध हवे तथा दुर्गंध हुइ रस५माहि फरसद कोइ कहुवे कोइकनहोवे संस्थान थको भजिवो संस्थान ५माहि कोइ कहवे २२
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कमधूनपतसिंह वाहादुर का आ०स०ड० ४१मा भा
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NAU
किन्हे भइएजे उगधपोरसत्रोफासपोचव भइएसण्ठात्रोविय २३) पुदत्तोष तः कृष्णः कज्जलनिभीभवेत् सकृष्णः पुदलीगंधतीभज्य सुगधी भवति दुर्गधोपि भवति न त सरभिरेव न तु दुरभिरेव किन्तु कृष्णवर्स पुदल: सुगधोपि भवति दुर्गधोपि भवति सुरभिदुरभित्वेन परिणमति दुरभिः सुरभि त्वेनपरिषमति म त मियतगंध एवेति भावः एवं रसतः स्मर्थतव भाज्य: रसानां पञ्चाना मध्ये एकस्मात् रसांतरपरिणतो भवति स्पर्शामा अष्टानां * मध्ये एकस्मात् स्पर्थात् स्पान्तरपरिणतो भवतीति भावः तथा पुनः स एव पुदगलः संस्थानतोपि भव्यः पञ्चानां संस्थानानां मध्ये एकस्मात् संस्थानात संस्थानान्तर परिणती भवतीति भावः अत्रगधा दो रसाः पञ्चस्पषी अष्टौ संस्थानानि पञ्चमौलिता विंशतिरित्येक एव कृष्णवर्णी विंशति विधी भवति २३ अथ नौलस्य भङ्गानाह (वनभोजे भवेनोले भइएसे उगंधोरसओ फासो चेव भइएसठाण प्रोविय २४ ] यः पुहलो वर्ष तोनी लोभवति स पुद्गलोपि गंधतः सुरभिगधदुरभिगंधतो भाज्यः पुनः स पुदलोरसतः पञ्चविधः तिक्त कट कादितोभाज्यः च पुनः स्मर्थतोऽष्टविधः खरमृदुधौतोष्णादितो भाज्य संस्थानतथ पञ्चविधपरिमण्डलादितो भाज्यचविंशति विधीभवति २४ अथ रक्तस्य भेदाना [वनीलीधि एजे उभडू
बन्नमो जे भये नीले भडूए सेउ गधो। रसओ फासओ चे ब मइए संठाणमोबिय २३ । बन्नी लाहिए जेउ भए सेउग'धो। रसो फासओ चे ब भदूए संठाणोबिय २४ । बन्ना पीयए जेउ भदए सैउ गधी। रसची फा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ.४१मा भाग
३ वर्ण यकी जे हुइ पुद्गल नौलो ते गंध थकी भजिवो भजना रस ५ बको फरस पथको संस्थान ५थको भजियो संस्थानमाधि कोर एक हई २३ वर्ष
वको एतो पुदगल ते गंधादिके भजिवी रस ५ फरस चको भजवो भजीवी संस्थान थकी २४ वर्मथौ पीसो जे पुदगल ते गंधादिक धकी भजिवी
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एसे उगंधो रसमी फासी चेव भइ एसण्ठाणोविय २५) यः पुनः पुद्गलोवर्ण तोलोहितोभवति हिंगुल सदृयो भवति सीपि पूर्वोक्तविधिना
गंधतोरसतः स्पर्शतश्च संस्थानतोपि भज्यस्तदासोपि विशंतिविधोभवति २५[वस्मीपौयएजेउ भइएसे गंध ओरसीफारुपीचव भइएस पठाणोषिय२६] * यः पुनः पुदलोवर्णतः पीतलः स्वर्ण वर्ण : स पुदुलोपि गंधतोरसत: स्पर्थतः संस्थानतश्वभज्यस्त दाविंशति विधीभवति २६ अथ शक्लस्य भेदानाह
[वनोमुक्कि लेजेउ भइएसे उगंधो रसोफासोचेव भइउसंठाणोविय २७] यः पुनः पुदलोवर्णत: शक्लचन्द्र सदृशोभवति सोपि पुदलोग धतोरसतः स्पर्थतः संस्थानतश्वभज्यस्तदाविंशति विधीभवति २७ इति वर्ण भेदानुक्कागध पुद्गलमैदानाह (गंधीजभवेसम्भौभइएसे उवा रसोफासोचव * भइएसंठाणोविय २८) यः पुद्गलीग'धत सुरभिश्चन्दनपरिमलादिवत् सुगधीभवति स पुदगलोरसतः स्पर्श तव भज्यस्तथा स'स्थान तश्च भज्य: कोर्थः
सओ च व भडूए संठाणमोबिय २५ | बन्नओ मुक्किले जेउ भदूए सेउ गधा। रसओ फासी चे ब भए संठाण
ओबिय २६ । गधयो जे भबे सुम्भी भइए सेउ बन्नी । रसओ फासी चब भए संठाणाबिय २७। गधयो ने
भवे दुम्भी मदए सेउ बन्नओ। रसओ फासओ चंब मदए संठाणोबिय २८। रसो तितो जेउ भडूए सेउ * रस ५ फरस ८ थकी भजीवो संस्थान थकी २५ वर्ष थकी जे ऊजलो पुद्गल भजीवो ते गंध थकी रस ५फरस ८धको भजीयो संस्थान ५ थको २६४ गंध थको जे पुद्गल हुइ सुगंध भजिवो ते बस थकी कोईक बर्ष थार रस ५ फरस ८ थको भजवाना संस्थान थकी २७ रस थको तिखो पुद्गल भजीवो ते व थकी गंध थकी फरस धको भजना संस्थान ५थको भजना२८ रस धको कडो जपुद्गलमजीवो ते बर्म ५ थको गंधरस फरस थकी
राय धनपतसिंह बाहादुर वा आ.सं. ९.४१ मा भाग
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सुगंध पुद्गले पञ्चानां वर्णानां मध्ये केचिहणी भवन्ति रसानां अपि पञ्चानां मध्ये केचिसा भवन्ति एवं स्पीनां अष्टानां मध्ये केचित् स्पशी भवन्ति उ.टौका अ.३६ संस्थानानां पञ्चानां मध्ये कानिचिसंस्थानान्यपि संभवति २८ [गंधी जे भवेदुम्भी भइए सेउववो रसत्रो फासो चैव भइए संठाणो विय २८] १०२५ यः पुनः पुद्गलो गंधतो दुरभि दुर्गधी भवति स च पुदगलो वर्ण तो रसत: स्पर्शतः संस्थानतश्च भज्यः सुगंध पुद्गलवत् दुर्गध पुदगलोपिन यः २८ अथ
रसपुदगलानां भेदानाह (रसनो तितो जेल भइएमेउवनयो गंधो फासी चेव भइए संठाणी विय ३०) यः पुदगली रसतस्तौणो भवति स 8 पुदगलो वर्ष तो गंधतो रसत: स्पर्थतः संस्थानतश्च भज्यः यत्र पुद्गले एकस्तौणी रसो भवति तत्र सुगंधयोः रेकः कश्चिद्गंधी भवति स्पर्धानां अष्टामा
मध्ये केचित् स्पयो भवन्ति संस्थानानां मध्ये कानि चित् संस्थानानि भवन्ति ३. अथ कटक रसमैदानार (रसी कड़एजउ भइए सेउववत्री गंधी फासी चेव भइए सठाणो विय ३१] यः पुदगली रसतः कटको भवति स पद्गखस्तित पुदगलवत् गंधतः स्पर्थतस्मंस्थानतश्च भज्य: ३१ [रसी
बन्नयो। गधी फासो च ब भडूए संठाणोविय २६॥ रसो कडओ जेउ भए सेउ बन्नयो। गधओ फासी चव भए संठाणोविय ३० ॥ रसओ कसाए जेउ भदए सेउ वन्नो। गधयो फासो चेव भइए संठाणो
विय ३१ । रसओ अंबिले जे उ भदूए सेउ बन्नी। गधो फासो ब भए संठाणओबिय ३२ ॥ रसओ महुरए 8 भजनां संस्थान ५ माहि कोइ कहवे २८ कसायला रस थको जे पुद्गल ते भजना बम थकी गंध थकी फरस थको भजना संस्थान (धको ३०० कथको खाटो जपुदगल भजना ते व थकी गंधथको फरस वको भजना संस्थान थकीत रस धको मधर मोठी जे पुद्गल ते भजना बस थि गंव धको
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.१.४१ मा भाग
१२८
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.टौका
* कसाए जेउ भइएमेउ वनश्री गंधी फासी चेव भइए सठाणी विय २२] यः पुदगलो रसतः कषायो भवति स पुदगलो वर्थती गंधतः स्मर्थतव १०२६ * भज्यः संस्थानतञ्चापि भज्यः ३२ [रसी अंबिलेजेउ भइएसेउ वनश्री गंधोफासओचेव भइए सठाणोविय ३३] यः पुदगली रसत आम्खो भवति स
ॐ पदगलो वर्ण तो गंधतः स्पर्थतः संस्थानतश्च भाज्यः ३३ [रसत्री महुरए जेउ भइए सेउ वनश्री गंधी फासी चेवभइए सठाणीविय३४] यः पदगलो
रसतो मधुरः सर्करातुस्यो भवति स पुद्गलो वर्ण तो गंधतः स्पर्थतश्च भज्यस्तथा सस्थानतोपि भज्यः ३४ इति रसभेदानाह (फासी कक्खडेजेउभइए
मेउ वनो गधी रसोचव भइए सठाणीविय३५] यः पुद्गलः स्पर्थतः कर्कयोभवति स च पुदगलो वर्ण तो भज्य: ग'धतो रसतश्च भज्य: एवं संस्था * नतोपि भज्य: यथाहि एकःकर्कशः पाषाणादि सदृश स्पर्थ पुद्गल स्त त्रपुद्गले वर्णनां पञ्चानां मध्ये केचिदर्णाः भवन्ति गन्धयोरुभयोर्मध्ये एकः कश्चिदगंधी
भवति रसानां पञ्चानां मध्ये केचिद्रसाभवन्ति संस्थानानां पञ्चानां मध्ये कानि चित् संस्थानानि भवन्तीति भावः ३५ (फासभोमठएजेउ भएसेउव
ववो गन्धोरसोचेव भइएसडाणोविय ३६) यः पुद्गलः स्पर्शतोमदुर्भवति स पुद्गलोवर्णतोगन्धतोरसत: संस्थानतश्चभज्यः खरस्पर्शवत्ने यः सूब
जेउ भडूए सेउ बन्नओ। गधी फासओ चेव भए संठाणो विय ३३॥ फासो कक्खडे जेउ भइए सेउ वन्नो।
गधो रसओ व भए संठाणओविय ३४ ॥ फासओ मउए जेउ भइए सेउ वन्नी। गधो रसओ चे व भाषा रस थको भजना संस्थान थको ३२ फरस थकी मृदुः पुद्गल सुकमास भजना वर्ण थकी गंध थको रस थको भजना संस्थान को ३३ फरस थकी जे
करकस पुदगल भजना वम थकी गंध थको रस थको भजना संस्थान थकौ३४ फरस थको हलुवो जे पुदगल भजना ते बस को गंध थको रस थकी
रायधनपतसिंह वाहादुर का पा.स.उ. ४१मा भाग
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उ० टोका
अ०३६ १०२७
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इत्वर्थः २६ [फासओगुरुएजेउभइएसेउवनश्रो गन्धत्रोरसचैव भइएसण्ठाणओविय ३७] यः पुदुलः स्पर्शतोगुरुर्भवति स पुलोवर्णतोगन्धतोरसतश्च संस्थानतचभव्यः ३७ (फासी लडओ जेउ भइए सेउ वन्रत्र गंधओ रसश्री चैव भइए सठाणविय ३८) य: पुद्गलः स्पर्शतो लघुर्भवति स पुद्गलो वर्णतो गंधतो रसतः संस्थानतञ्च भव्यः ३८ ( फासची सोयए० ३८ ) यः पुदुगलः स्पर्शतः शौतलो भवति सवर्णतो गंधतो रसतः संस्थानत खापि भज्यः ३८ [ फासत्री उन्हए० ४० ] यः पुद्गलः स्वर्यतः उष्णोभवति स पुद्गलोवर्णतो गंधतो रसतः संस्थानतञ्चापि भज्यः ४०(फास निए० ४१) यः पुलः खर्यतः खिग्धो भवति स पुहलो वर्णतो गंधतो रसतः संस्थानतवापि भज्यः ४१ [फासत्र लुक्खए जेउ भइए सेठ वज्र भइए संठाणओबिय ३५ ॥ फासओ गुरुए जेउ भइए सेउ बन्नओ । गंधओ रसओ चे व भइए संठाणओविय ३६ ॥ फासच े लहुए जेड मदूए सेउ बन्नओ। गधओ रसओ चैव भइए संठाणचे विय ३७ ॥ फासची सोयए ने उ भइए सेउ वन्नचा। गंध रसओ चव भए संठाणओ विय ३८ ॥ फासओ उन्हए जे उ भइए सेउ वन्नयो । गंधओ रसओ चैव भइए संठाणचे विय ३८ ॥ फास
निइए जे उ भइए सेड वन्नओ। गंधओ रसओ
संस्थान थको ३५ फरस थको भारी जे बुदगल मजनाते बस थकी गंध यको भजना संस्थान थकी ३६ फरस थकी जे सौतल पुद्गल भजना वर्णथो ग ंध थको रस थको भजनाते सस्थान यको ३७ फरस थकौ जे ऊष्ण उन्हो पुद्गल ते भजवो वर्ण थकी गंध थको फरस थको भजना संस्थान थकौ ३८ फरस थको जे चौकणो पुद्गल ते भजिवो वर्ण थकी गंध थको फरस थको भजना संस्थान थकी २८ फरस थको लुखो जे पुद्गल से भजनो
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग.
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१ टौका गंधीरसोचव भएसण्ठाणोविय ४१ (यः पुद्गल: स्पर्थतीकक्षोभवति स पुद्गलीवर्णतीगंधतीरसतञ्च संस्थानतथभज्य: ४२) अथ संस्थानमैदानात अ०३८४
[परिमण्डल सण्हाण भइएसेउ वन पी गधोरसोचेव भइएफासोविय ४३] यः परिमण्डल संस्थानपुलः स च वर्ण तोग धतीरससी योज्यः सथा १०२८
* स्पर्थतोपि भज्य: एकस्मिन् परिमण्ड लसस्थाने चूटिकाकतिमति पुद्गलेवर्णानां पञ्चानां मध्ये केचिहभवन्ति गधयोरुभयोर्म कश्चिदगधो भवति
रसानां पञ्चानां मध्ये केचिद्रसाभवन्ति स्पर्थानां अष्टानां मध्ये केचित् स्पर्शाभवन्ति ४३ [सण्ठागीभवेव भईएसेउववत्री गधोरसीचेव भइएफासत्री * विय ४४] यः पुदगलः संस्थानतो व इति वर्गलोल कालतिर्भवति स पुद्गलोवर्ण तोग'धतीरसतश्च भज्य स्तथा स्पर्थतोपि भज्यः ४४ (सण्ठाणची भवेतमे भइएसेउ वो गधोरसोचेव भइएफासोविय ४५) यः पुद्गलः संस्थानतस्तिस्रोभवेत् सोपि पुदगलोवर्ण सोग धतीरसतश्च भव्य स्तथा
चव भए संठाणोविय ४०॥ फासी लुक्खए जे उ भदूए सेउ बनी। गधो रसभी चव मदए संठा गोविय ४१॥ परिमंडल संठाणे भदूए सेउ बन्नओ। गधो रसओ व भए फासोविय ४२ ॥ संठाणत्री भवे वट्टे भए सेउ बन्नओ। गधो रसमो चेव भडूए फासोविय ४३॥ संठाणमो भवे संसे भदए सेउ
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राय पनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग
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8 वर्ण थकी गंध थको फरस थको भजना संस्थान थको ४० चूडानौपरिमंडल संस्थान जे पुदगल ते जिवो वर्ण ५ थको कोषक वर्ण होइ गंध थको
रस थको फरसथको भजना कोइक गधादिक हइ ४१ संधान थकी वाटली जे पुदगल ते वर्णादिक थकी भजियो गध धको रस थको भजना फरस थको ४२ संस्थान थको हुइ त्रिखूणी पुदगल ते भजिवो संस्थान थकी गध थको रस थको भजना फरस भको ४३ सस्थान थकी चोरंसजे पदगल
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प०३६ १.२८
स्पर्थतोपि भव्यः ४६ (सण्ठायोयचठरंसोभइएमेड वनो गधोरसत्रोचेव भइएफासश्रोबिय ४६) यः पुद्गल: चतुरस्रीभवेत् सोपि गधतोरसतय स्पर्थतचापि भव्यः ४६ [जेपाययसरहाणे भइएसेट वनश्रीगंधोरसोचेव भइएफासपीषिय ४७] यः पुद्गतः पायतसस्थानः सवर्ण तोगधतोरसतः समर्थ तथापि भज्य: ४७ इति पुद्गलानां वर्णगधरस स्पर्थसस्थानानां भेदाः उताः अथ तेषां क्रमेण प्रत्येक २ सख्यां वदति तद्यथा एकस्मिन् २ १ पुदगलाश्वित वर्णे गधी हौ २ रसाः पञ्च ५ स्पर्धा अष्टौ ८ संस्थानानि पञ्च एवं सर्वेपि विंशति २ भेदा भवन्ति कृष्ण नील लोहित पौत शुल्लानां
पञ्चवर्णानां प्रत्येक २ विंशति भेद २ मौलनात् शतं भेदावर्णपुदगलस्य अथ गधयोईयोः षट् चत्वारिंगझेदाः भवन्ति तद्यथा वर्णाः पञ्चरमाः पञ्च १ स्पर्धा अष्टौ संस्थानानि पञ्च एवं सर्वे वयोवियत संख्याकास्तेच सुगधदुर्गधयोस्त्रयोविंशति स्त्रयोविंशति प्रमिता उभयमौलने ४६ षट्चत्वारिंश
अवन्ति अथ रसपद्गलानां यतं भेदाभवन्ति तद्यथा वर्णाः पञ्चगधौ हौ स्पष्टौस स्थानानिपञ्च एवं विंधति भेदाः प्रत्येक २ तितकटुकषायाम्नमधु ४ रादि पञ्चभिर भताः सन्तः शतं भेदाभवन्ति १०० अध स्पर्थभेदाः षट् विशदधिकशतं तद्यथा वर्णाः पञ्चग'धौ हौ रसाः पञ्चस'स्थानानि पञ्च एवं
वन्नो। गधो रसो चेव मदए फासोविय ४४ ॥ संठाणोय चउरंसे भडूए सेउ बन्नयो। गधो
रसओ चे व भए फासोविय ४५ ॥ जे आयय संठाणे भए सेउ बन्नओ। गधो रसमो व भड़ए फासयो भजना सस्थान थकी गध थको रस थको भजना फरस थको ४४ जे पायत दंडने सस्थान पुदगल भजिवो ते वर्ण थकी गंध थको रस थकी भजना फरस थकी ४५ असख्याता कालउत्कृष्टो एक समय जघन्य घजीवने रूपौनी अांतरी कछु तीर्थ करे ४६ एपूर्व कही ते अधास्ति काय प्रमुखमा
राब धनपतसिंह बाहादुर का-पा०सं०७०४१ मा भाग
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सप्तदशभेदास्तेच खरमृदुगुरुलघुरूचस्निग्धशीतोष्णपुदगस्तैरष्टभिर्गुणिताः षट विशदधिक यतं मैदा भवन्ति प्रज्ञापनायां स्पर्थपुद्गलानां १८४ चतुरशी * त्यधिकशतं भेदा उक्ताः सन्ति तद्यथा वर्णाः पञ्चरसाः पञ्च गधौ हौ स्पषट् एव ग्रान्त यतीहि यत्र खरः स्मर्थपुद्गलीगण्यते तत्र तदा मृदुः * पुदगलोनगण्यन्त यवस्निग्धोगण्यते तदा तत्र रुक्षोनगण्यते परस्परविरोधिनौ हि एकत्र नतिष्टतः तस्मात् स्पर्शाः षट संस्थानानि पञ्च एवं सर्वेमोलिता
बयोविंशति भवन्ति ते त्रयोविंशति भेदाः प्रत्येक खरमृदुगुरुलघुस्निग्धक्षयौतोष्णाद्यष्टाभिः पुद्गलैगुणिताः १८४ चतुरयौत्यधिकशतं भेदा भवन्ति वोतरागीत वचः प्रमाण येन यादृशं जातंतन तादृशं व्याख्यातं तत्वं केवलौवेद अथोपस हारेण उत्तरग्रन्थ सम्ब'धमाह (एसाअजीवविभत्तौसमासेविया हिया एत्तोजीवविभत्ति बुच्छामि अणुपुवसी४७) एषा अजीवविभक्ति: समासेन स'क्षेपेणव्याख्याताइत्तोइति इतोऽनन्तरं अणपुव्वसोइति पानुपूर्व्याऽनु * क्रमेण जीवविभक्ति प्रवक्ष्यामि ४८) (ससारस्थायसिजाय दुविहाजौवावियाहियासिहाणेगविहाबुत्ता तमेकित्तयोसुण ४८) जौवादिधाव्याख्याता* तेस'सारस्थास'सारोगति चतुष्टयात्मकस्तत्रतिष्टन्तौति ससारस्थाः च पुन: सिद्धाः कर्ममल रहिताः भव भ्रमणावि वृत्ताः तत्र च सिद्धाः अनेकविधा
विय ४६ ॥ असंख काल मुक्कोस एक्कोसमी जहन्नयं। अजीवाणय रुवीणं अंतरेयं वियाहियं ४७॥ एसा अजीब
विभत्ती समासण वियाहिया। इत्ता जौब बिभत्तिं वाच्छामि अणुपुब्बसी ४८॥ संसारत्याय सिद्धाय दुविहा जौबा * पुदगलनौ विभक्ति विवरो ते सखेपे करौ कयो ए अजीव विभक्त कच्चा पछे जीवनौ विभक्ति विचार कहे स्यु अनुक्रमे ४७ संसारौ एकेंद्रियादिक * सिह एविएं भेद जीव कह्या ते सिद्ध अमेकभेद कच्चा ते मुझ कहतां प्रति सांभलि है शिष्य ४८ स्मलिंगय तौनवेखि सिद्धः बौदादिक अनेरेसिंग सिह
राम धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०१०४१मा भाग
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8 उता: तंति तान् सिद्धभेदान् मकवयतस्व' शृण ४८ (इत्यो पुरिससिहाय तहेवयनपुसगासलिका अवलिङ्गाय गिहतितहेवय ५०) इत्थीति स्त्रियः टौका
पूर्वापाथापचयासिहाः स्त्री सिद्धाः१ एवं पुरुषपर्यायात् सिहाः पुरुषसिहाः२ तथैव ते नैव प्रकारेण नपुंसकपर्यायात् सिहाः नपुसकसिहाः नपुसकाच्च कृत्रिमा एव सिहाः भवन्ति न तु जन्मनपुसकाः सिध्यन्ते ३ स्वलिङ्गसिहायतिवेषेणसिहाः ४ अन्धलिङ्गासिहाः बौद्धपरिव्राजकादिवेषेणसिहाः ५ तथैव गृहति सिहाः सहस्थ वेषसिताः । षड भेदास्मिशाना उत्ताः अन्यान्तरपञ्चदशभेदा अपि जिन सिह १ स्तीर्थकर २ अजिनसिह १ गणधरः तीर्थसिद्ध पुण्डरीकादिः ३ अतीर्थसिद्धः मरुदेवादि ४ एहलिङ्गसिहभरतादि ५ अन्धलिङ्गसिद्ध वल्कलचीरीप्रमुख । खसिङ्गसिहस्साधुः ७ स्त्रीलिङ्गसिचन्दन बालादि ८ नरसिद्धस्थविरः । नपुसकसिदगांगेयादि १. प्रत्येक बुद्ध ११ करकण्डादि ११ स्वयं बुहकपिलकेवल्यादि १२ बुधिबोधितसिद्ध१३ एकसमये एकसिह १४ एकसमये अनेकसिद्ध १५ एवं पञ्चदशभेदा अपि घट स्वेव अन्तर्भवति अथ सिहानेव अवगाहनात: क्षेत्रतच आर (उकोसीगाहणाएय जहबमजिकमाइय उड़े अहेयतिरियं च समुद्दग्मिजलंमिय ५१) अस्यां गाथायां उत्कष्टावगाहनायां तथा जघन्यावगाहनायां च पुनर्मध्य मावगाहनायां
वियाहिया। सिहा ग्रेग विहा वुत्ता तं मे कित्तयउं सुण ४६ ॥ इत्यो पुरिस सिद्धाय तहेवय नपुंसगा | सलिंगे अन्न सूब
लिंगेय गिहिलिंगे तहेवय ५०॥ उक्कासा गाहणाएय जहन्न मज्झिमाइय। उड्ड अहेय तिरियंच समुहमि जलंमिय५१
हायधनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. उ०४१ मा भाग
भाषा
वाइ गृहस्थाने लिंगवे सईमतसिह स्त्री थको सिह पुरुष को मरी सिह तिमवलौ नपुस थकी सिद्ध ४८ उत्कृष्टौ पांचसे धनुषनी अवगाहन देहे मोझ हाथ २ जघन्य अवगाहना ते विचाले मध्यम अवगाहना उईलीक मेरुचला अधोलोक अधोगाम पढौहीपतिरके लोक समुद्री विखे नदी
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कतिसिद्धाः कुत्र२ स्थान भवन्ति तदाह उत्कष्टावगाहनायां अवगाच्यते जीवन प्राकाशोऽनयाइति अवगाहनायां सिञ्चाः च पुन: जघन्य मध्यमयोर्जघ न्यावगाहनायां तथा मध्यमावगाहनायां उत्कृष्टावगाहनाया जघन्यावगाहनायाश्च अन्तर्वर्तिनीमध्यमावगाहनातस्यांसिवाः उट्टे इति ऊई लोके
मेरुचलादौ चैत्यवन्दना कर्तुं गतानां केषांचित् चारणश्रमणानां सिद्धिः स्यात् तदा ते श्रमणास्त त्र कियन्तः सिद्धाभवन्ति एवं अधोलोक ग्राहनगरादौ * सिद्धाः कियन्तोभवन्ति एवं तिथंगलीकेसाईहितीयहीपेषु समुद्ररूपे जलेनद्यादौ एतेषु स्थानेषु एकस्मिन् समये कियन्तः सिद्धाभवन्ति इति प्रश्नः अथै तेषां एवं उत्तरं वदन्ति [दसयनपुंसएसवीसई इस्थियायपुरिसेसुयअहसयसमएणगेणसिजाई ५२] [चत्तारियगिहलिंगेअवलिंगदसेवयसलिंगणयहसयं समएणजेण सिकाई ५२] [उक्कोसावगाहणाएउ सिझते जुगवंदुवे चत्तारि जहबाए जवमझमगुत्तरं सयं ५३] [चउरुडलोए यदुवे समुहेती जले वौसम हेत हेवय सयञ्च अद्दुत्तरतिरिय लोए समए पेगेण सिज्मईधुवं ५४] एतासाच्चतमृणां गाधानां अर्थः च शब्दः समुच्चये दर्शति दयसख्याका: नपुसकेषु
दसय नपु'सएमुवीस इत्थियासुय। पुरिसेसुय भट्ठसय समएगोगेण सिझई ५२ ॥ चत्तारिय गिहिलिंगे अन्नलिंगे दसेवय । सलिंगेणय अट्ठसयं समएणेगण सिभई ५३ । उक्कासी गाहणाएओ सिझते जगवंदुवे । चत्तारिय जह
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ०४१ मा भाग
भाषा
तलावादि पाणीने विखे ५० दस नपुसकने विखे वौसस्त्रीने विखे पुरुषने विखे एकसोपाठ एकसमय सौझ उत्कष्टपणे ५१ च्यार एहस्थ लिंगने विखे वौडादिक अनेरा लिंगवेसने विखे स्खलिंगनय तौलिंग एकसोपाठ एक समै सोझ तो भत्कष्टपणे ५२ उत्कृष्टी पांच सय धनूषनी अवगाहना देहे युगपत् साथै सोझ तु समय २ सौझ जघन्यनाहानी अवगाहनाई सौझ एक समये यवनामा ध्याननीपरि मध्यम अवगाहना देहे वत्तता
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च.३६
: एकत्रिन्समये सिचन्ते च पुनः विंशतिस्त्रोषु सिध्यन्तिपुरुषेषु च अवसयं इति अष्टभिरधिकं यतं अष्टयतं एकस्मिन्समये सिध्यन्त ५३ गृहीणी गृहस्थस्य उ. टीका
४ लिङ्ग एहलिङ्ग तस्मिन् गृहलिङ्गे चत्वारः सिध्यन्ति एकस्मिन् समयेसिद्धि प्राप्नुवन्ति अन्यलिङ्ग बौडादिवेषेदशसंख्याकाः सिध्यन्ति स्वलिङ्गन रजो १.३३* हरणादिसाधुवेषेण एकेन समयेन अष्टोत्तरं शतं सिध्यन्ति ५३ उत्कष्टावगाहनायां पञ्चशतधनु: प्रमाणायां युगपत्म मकालं एकेन समयेन हौ सिध्यत:
* जघन्यावगाहनायां दिहस्त प्रमाणायां चत्वारः सिध्यन्ति तथा जवमभत्ति इति यवमध्यमिव मध्य' मध्यमावगाहनायां एकेन समयेन अष्टोत्तरशतं सिध्यन्ति तु शदः पुनरर्थे ध्रुवमिति निश्चयार्थइति गाथा चतुष्टयार्थः ५४ अथ तेषां एव प्रतिघातादि प्रतिपादनाय आह (कहिं पहिहया सिद्धा कहिं सिद्धापइडिया कहिं बोंदिञ्च इत्ताणं कत्थगन्तणसिज्जई ५५) कहिं इति कस्मिन् सिद्धाः प्रतिहताः सूबलिताः सन्ति कोर्षः कुत्रसिहाः निरुतगतयो
नाए जवभज्नहत्तरं सयं ५४ ॥ चउरुड्डलाएय दुवे समुद्दे तो जले बीस मह तहवय। सयंच अद्रुत्तर तिरियलाए
समएणगेण सिझईधुवं ५५ ॥ कहिंपडियासिद्धा कहिंसिहा पट्टिया। कहिंवादिं चत्ताणं कत्थ ग'तूण सिज्मई५६। ४१.८ सोझ एकसमे ५३ मेरु च लादि उईलोके एकसम ४ सौझ लवणो दधि समुद्रने तलावादि शेषपाणौने विखे तीन अधोलोक अधोगामादौ *विखे विस तथा वलो एकसोपाठए एकसमे तिरके लोके अढोद्दीपमाहि सम एके निचे सौझ ५४ किहां सिह प्रतिहत खलना पाम्याचे किंहा प्रतिष्टित राई किहां दो दो शरीर छोडौने किहां जईने सौझ ५५ अलोकने विखे हणाणा खलना पामयाई सिह लोकने पनिमस्तके प्रतिष्टित रह्याई इहां तिरके लोके वो दी शरीर वांडौने तीहां लोकने पनि जई ने सौझ ५६ प्रमाणांगुले वारयो जने
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं•. १मा भाग,
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वर्तन्तेसिडाः कस्मिन् प्रतिष्टिताः सन्ति सादि अपर्यवसितं कालं स्थिताः सन्ति पुन: सिहाः कबुन्दि शरोरत्यक्ता छुवगत्वासिज इति सिध्यन्त प्राक्तत्वाचनव्यत्वयः कसिद्दजीवादेहत्त्वजानिष्टितार्थाः भवन्ति ५६ एतप्रश्वस्योत्तरमाह [पलीए पडिहयासिद्धा लोययो य पयडिया इहिं बुन्दि च इत्ताणं तय गन्तूणसिमाई ५०] सिहाअलीके केवलाकाशलक्षणे प्रतिहताः सूवलिताः सन्ति तत्र हि धर्मास्तिकायाभावेन तेषां गतेरसम्भवोस्ति तथा पुनः सिद्धालोकाये लोकस्योपरितने भागे प्रतिष्टिता सदा अवस्थिताः सन्ति इहतिर्यग्लोकादौ बुन्दिंशरोरत्यक्ता तत्र लोकाग्रे गत्वासिध्यन्ति पूर्वापर कालस्य असम्भवात् यत्र व समये भवक्षयस्तस्मिन् एव समये मोक्षस्त त्रगतिश्च भवति भावः ५७ अथ लोकाग्रे चई षत्मागभारा यमस्थानायत् प्रमा शायवर्णां च वर्तते तत्सर्व पाह [बारसजोयणे हिं सबस्नुवरिं भवेईसीपम्भारनामाी पुढवोछत्तसण्ठीया ५८] [पणयातसयसहस्माजीयणाणं तु आयया तावइयं चैवविछिनातिउणीसाहियपरिरओ ५८] (पहजोयण वाहला एसाममि वियाहिया परिहायन्तो चरिमन्त मचिय पत्तागो तणयरौ ६.) [अज्ज सुवनगमई सापुढवी निम्मलासहावणं उत्ताणय छत्तय सण्ठियाय भणियाजिणवरहिं ६१] (सह ककुन्द सङ्कासा पण्डरानिम्मलासुभासीयाए जो
अलाए पडिहया सिद्धा लायग्गे य पडूटिया। दूहं वादिंच इत्ताणं तत्य गतूण सिभई ५७॥ वारसहिं जोयणेहिं सम्बट्ठस्सु बरिं मवे। इसौपम्भार नामागे पुढवौच्छत्त संठिया ५८॥ पणयाल सयसहस्मा जोयणाणंतु आयया |
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.२०४१ मा भाग
सार्थशोड विमानने उपरिछे ईषत् प्राग्भारा नाम सिह सिला पृथिवी पाषाणमडू ऊताणा चौता छत्रने संस्थाने रहोछ ५७ पैताली मुलाख योजन पायतलांबो तेतलीज४५ लाख योजन पोहली जाणवी विगुणों झाझरी परधि कोडि ४२ लाख २० हजार २४८योजन झाझरा ५८ ते सिद्ध मिला
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यतत्तोलोयं तोउवियाहिओ ६२] एताभिः पञ्चभिर्गाषाभिस्मितसिलाईषत् प्राम्भारामाम्बी अब लोकाग्र वर्मयति सर्वार्थसिहस्य बाबीविमानस्यो
परिहादशभिर्योजनैरोषत् प्राग्भारा नानी पृथ्यो भवेत् कीदृशी साभूमिः छत्र संस्थिताः छत्र प्रातपत्र तस्य संस्थितं संस्थानं पावतिर्यस्यासाः छत्र * संस्थि ताः इह सामान्योक्तापि च उत्तानं एवज्ञेयं ५८ साईषत् प्राग्भारापृथ्वी कीदृशौ वर्तते तत् स्वरूपमाह साईषत्प्रागभास योजनानां पपरत्वा
रिपत् शतसहस्राणि आयतादीर्घावत ते पञ्चचत्वारिंशत् सक्षयोजन दौर्धास्तीत्यर्थः च पुनस्तावन्तिक तावत् प्रमाणे एव विस्तीर्ण वर्तते विस्तारैलापि * पञ्चचत्वारिंशत् लक्षयोजनदोर्धास्तीत्यर्थः च पुनस्तावन्तिकं तावत् प्रमाशं एव विस्तीर्थावत ते विस्तारणापि पञ्चचत्वारिंशत् लक्षयोजन प्रमाणति भावः
तथा तस्थाई पत्प्राग्भाराइति शेषः परिरीइति परिधिः त्रिगुणिः साधिकोन्ज्ञेयः तदा एककोटि हिचत्वारिंशत्लच विभत्सहस दिश्यते कोनपञ्चाशद्यो जनानि किञ्चिदधिकानि एतावान् तस्याः सर्वपरधिर्भवति ५८ पुनः कथंभूतासा अष्टयोजन बाहुल्य अष्टयोजनानि बाहुल्य यस्यां सा प्रष्टयोजनबाहु ज्यासाईषत्प्रारभारामध्य प्रदेशई यत्प्रमाणस्थौल्यवतौजिनास्थाता चरिमान्तेषु सर्वदिगवतिष पर्यन्त प्रदेशेषु परिहीयमाना परिसमन्तात् हायंतीति घीयमाना पत्तलाभवन्तो मक्षिकायाः पत्र मक्षिकापत्र मक्षिकापिच्छ' तस्मात् मचिकापचात् अपि तनुतराप्रति शूमाइत्यर्थः ६० पुनः कीदृशीसा
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं०४.४१ मा भान
तावड्यंचेव विच्छिन्ना तिगुणो साहिय परिरओ ५६ ॥ अट्ठ जीयण बाहल्ला सा ममि वियाहिया। परिहायंती
* आठयोजन वाहल्य जाडो ते जाडपणे मध्यमप्रदेश कयो तीर्थ कर देवे पछे थोडे २ पातलो घटती घटतौ छहडे माखौना पांख थको तनु अति र पातलो ५८ अर्जुन धोलो सोनाते हम यते पुषिवि मिड शिला निर्मलमहित स्वभाव ताणा चिता छवने संस्थाने आकार संस्थित कही तौधे कर देवे
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पचीपर्जन सवर्णमयी खेतकाञ्चनखरूपा पुनः सा पुखोखभावननिर्मलापुनः सा कोशौ उत्तानकं कई मुखं यत् छत्रक तहस स्थितं यस्याः साउत्तान प्र.148 छवकस स्थि तासाजिनवराख्याताभणिता पूर्व सामान्य न छव संस्थिता इत्यु क्ता इह तु उत्तानछत्रसस्थि ता इत्य का प्रचा विशेषाति न पनाम क
पनमा पुखौशांककुन्दसंकाया पाण्हराधवला निर्मलाशभाभव्या सा पृथौ सौताभिधावत ते सीता इत्यपरं नाम तस्याः सौताभिधानाशा: पृथिव्याउपरिइत्यनेन सिद्दशिलायाउपरिष्टात् एकयोजनं लोकान्तस्तुव्याख्यातः ६१ इति सिद्धिशिलाखरूपमुवातत्र सिद्धाः क्वतिष्टतौत्याह [जोयणस्मत जोतस्थ कोसोउवरिमोभवे तस्मकीसम्म छन्माए सिहाणीगाहणाभबे ६२] योजनस्य तत्र उपरिमउपरिवर्तीयः क्रोशोभवेत् तस्य क्रोसस्य षष्ठभाग इत्यनेन सविभागत्रयस्त्रिंशदधिकधनु: शतवितय रूपे ३३३ धनुः परिमाणे सिद्धानां तत्र अवगाहनावस्थिति भवेत् इत्यर्थः १३ पुनः सिद्धानां स्वरूपमाह
चरिमंते मच्छीयपत्ताओ तणुययरी ६. ॥ अज्जुण सुवन्नगमई सा पुढवी निम्मला सहावणं । उत्ताणय छत्त संठियाय भणिया जिणवरेहिं ६१॥ संखं क कुंद संकासा पंडुरा निम्मला सुहा। सीयाए जायणे तत्ता लायंताओ विया
हिमो ६२॥ जायणस्मउ जो तत्व कासा उवरिमा भबै । तस्म कासम्म छम्भाए सिद्धाणा गाहणा भबे ६३॥ तत्य सिद्धा * भयो कही तीर्थकर देव पंख अंकरत्न कुंद कुदना फूलसरिखो धउलौ मलरहित मनोहर जची सिह शिलाथी एक योजन लोकना अंत केहडी
कयो ६१ ते एक योजनथी तौहाँ एक कोस अपरि लोछे ते एक कोशना छट्ठा भागने बिखे एतले ३३ धनुख झाझरा सिहनी अवगाहना होइहर * तिहां सिक्ष महाभाग्य अचिंत्य शक्ति लोकना अपने विखे रवाई भवसंसार अवतार प्रपंच थकी मूकाणा सिवरूप मोक्ष उत्तमग ते पडुता ६३ उच
HEREKKEKINEMOREMOKOKXXXKKREKKAKNEW
पनपतसिंह वाहादुर का मा०स०१० ११मा भाग
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Gom
(तस्वसिहा महाभागा लोयगंमि पयद्विा भवष्यवञ्च उम्मुक्ता सिहि बरगयं गया ६३) तत्र तस्मिन् लोकाये सिहाः प्रतिष्टिताः सन्ति कीदृशाः सिद्धाः महाभागाः अचिन्थयक्तिमन्तः पुन: कोदृशाः भवप्पवं च उम्मकाः भवानराकादयोऽवताराः तेषां प्रपञ्चोविस्तारस्त त उन्मुक्ताः भवप्रपञ्चोम क्ता भव भ्रमणरहिताइत्यर्थः पुनः कोहयाः सिद्धिं वरगतिंगताः सिद्धिनानी प्रधानगति प्राप्ताः पत्र हि सिद्धानां भव प्रपञ्चाशुशारति विशेषणम अचल स्वभाव उक्लोस्ति ६३ अथ सिवाना कियती अवगाहनाभवति इत्याह [उस्मेहोजस्मजोहोइ भवं मिचरमं मियतिभागहीणातत्तीय सिहाणीगाहणाभव ६४]
यस्य पुरुषस्य चरिम भवे अन्य भवमोचगमनाई जन्मनि यादृशः उत्मे धीभवति देहप्रमाणं भवति तती देहप्रमाणात मिहानां मोक्ष प्राप्ताना हतीय *भागहीनाअवगाहनाभवेत् ५५ अथ सिहानां कालतबाह [एगते गयसाईया अपज्जव सियाविय पुहत्तण अणाईया अपज्जव सियाविय ६६] ते सिद्धा एकत्वेन एकस्य कस्यचित् नामग्रहणापेक्षया सादिकाः अमुको मुनिस्तदा सिडः इत्यादि सहिताः सिहाः भवन्ति च पुनस्ते सिहाः अपर्यवसिताः अन्त
महाभागा लायग्ग मि पट्ठिया। भव प्पवंचउमुक्का सिद्धिं वरगडू गया ६४ ॥ उम्मेही जस्म जो हाडू भवंमि चरम मियो। तिभाग होणा तत्ताय सिद्धाणो गाहणा भवे ६५ ॥ एगत्तेण साईया अपज्जव सियाविय । पुहुतण अणा
रायधनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाम
भाषा
पणे जे मनुष्यमा भवनविले जतले प्रमाण हौद चरिमहहलो मोक्षजावानो भव अवसरने बिखे वीजे भागेपो छोते पूर्वभवना स'चपणा थकी सिद्धांनो अवगाहना हुर'४ एककोइकनो नामलेई कहे प्रमको सौधोते आदि सहित कहौई मोक्ष थकी हानावतेणे अपर्यवसित पुत्त घणापायी जोई येती आदि रहित अनादि अने जहने पर्यवसान केहडी नही अनंतते कहीई'६५ ते सिह प्ररूपौ रूपादिरहीत जीव प्रदेशमय पण अंतर रहित शरौर
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उ० टोका
अ०३६
१०३८
सूत्र
भाषा
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रहिताः मोचगमनादनन्तरं अवागमना भावात् अन्तरहिताः ते सिद्धाः पृथक्कन बहुजन सामस्त्या पेचया अनादयो अनन्ताथ ६६ पुनस्तेषामेव स्वरूपमाह [ अरूविणो जोवधया नाग दंसण सत्रिया घडलं सुह संपत्ता उवमा जस्म नत्थिओ ६७] ते सिद्धाः अरूपिणो वर्त्तन्ते रूपरहितत्वेन रस गंध अर्थानां अपि अभाव: लेयारहिता अपि पुनः कौडमा सिचाः जीवघनाः जीवाच ते घनाथ जीवघनाः जीवाः सचिदुपयोगयुक्ताः घना अन्तर रहितत्वेन जोब प्रदेशमया पुनः कीदृशः ज्ञानदर्शन संहिताः केवल ज्ञान केवल दर्शने एव स जा जाता येषांत ज्ञानदर्शन स शिताः ज्ञानदर्शनोपयोग वन्त इत्यर्थः पुनः कीदृशाः अतुल' अपरिमितं सुख प्राप्ताः यस्य सुखस्य उपमानास्ति तत्सुखं प्राप्ता इत्यर्थः यतः कर्मक्कश विमोचाच मोचे सुख मनु उत्तरमिति ६७ अथसिद्धानां क्षेत्र स्वरूपमाह [लोएगदेसे ते सब्वे नागदंसण सनिया संसार पार निच्छिवा सिद्धिं वर गहूं गया ६८ ] ते सिडा
या अपज्जबसियाविय ६६ ॥ अरुविण जीवघणा नाण दंसणसन्निया । अउलं मुह संपत्ता उवमा जम्म नत्थि ओ६७॥ लाएग देसे तेसेब्वे नाणदंसण सन्निया । संसार पार निच्छिन्ना सिडिंवर ग गया ६८ ॥ संसारत्याउ जे जीवा दुबि विवरपूरा तेथे केवलज्ञान केवल दर्शन संज्ञावंत एतले ज्ञानदर्शनना उपजोग सहोत अतुलं घण सुख पाम्याके जेहनी सुखनौचोपमानथी अनंत सुख (६ लोक चउदराजना एक देम विभागने विखे ते सर्व सहके केवलज्ञान केवलदर्शन उपयोग सहित गत चार संसारनी पारनी वास्त्रो जेणे सिद्धे सिहरू उत्तम गति गया एतले सौद्ध गया ६७ हिवे संसारी जीव कहके संसार संबंधिया जे जोव विदु प्रकारे ते कया तौर्थ करे ते केव्हा एकत्र सबोजा थावर ते वैवस घावरमाहि थावरविड' प्रकारे ६८ ते तौन केहा पृथिवो जोव अप्पकाईया जोब तथा बलिवनस्पति जीव ए घावर.
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हराम धनपतसिंह बाहादुर का था •सं.उ. ४२मा भाग
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सर्वे लोकैकदेशे तिष्टन्ति इत्यनेन मुक्ताः सर्वत्र तिष्टन्ति व्योमवत्वापवर्जिता इति सर्वगतत्व मतं अपास्त तथात्वे सति सर्वदा वेदनादि प्रसङ्गात् पुनः ह.टौका
कौशाः ज्ञानदर्शन संज्ञिताः इत्यनेन केषाञ्चित् ज्ञान सना केषाश्चिद्दर्शन संज्ञा जैन मतेतु सर्वेषां सिहानां उभे ज्ञानदर्शने सजातेस्त
ज्ञानदर्थनमयाः सिद्धाः इत्यर्थः पुनःकीदृशाः संसारपारनिस्तौाः पुनरागमनाभावात् ससारं अतिक्रान्ताः इत्यनेन केषाधिनते भक्तोदाराध दान * वानां विनायार्थ भूयोभूयोभूमौ अवतीर्यभक्त कार्य विधाय मुक्ति ब्रजति प्रभुरिति मतमपि निराकृतं पुन: कीदृशाः सिबि' वरगतिं गताः इत्यनेन
चोणकर्माणोपि लोकाग्रगमनस्वभावेन उत्पत्ति समयेसक्रियत्वमप्यस्तौति गाथाभिप्रायः १८ अथ सिद्वान् अभिधाय संसारिणोजीवानाह [संसारत्यायजे
जौवादुविहाते वियाहिया तसा यथा वराचेव थावराति विहातहिं ६८) ये जीवाः स'सारस्थास्ते जौवा द्विविधास्तीर्थकरैर्व्याख्याता लेके व्रसास्थाव * राव एतद्विविधा अथ है विध्ये सत्यपि अल्प कथनत्वात् पूर्व स्थावराणां निर्देशंकरोति तत्र बसेषु स्थावरेषु त्रिविधास्थावराः सन्ति६८ (पुढयीभाउजीवाय * सहवयवणमई एच्चे एवावरातिविहातेसिंभएसोहम ७०] स्थावरास्विविधाः पृथौजीवाः पापोजलानि पृथिवी च आपश्च पृथिव्यापस्तद्र पाजीवाः & पृथिव्यपजीवास्तचैव वनस्पतीऔवाः जीव शरीरयोग्यी रन्धोन्यानुगतत्वेन कथंचित् अभेदात् पृथिव्यप वनस्पतिषु जीवश्य पदेशः इति एतं पृथिव्यादयस्त्रि विधास्थावराः सन्ति तेषां त्रयाणां स्थावराणां मैदान मे मम कथयतस्त्व' शृणः ७० पृथिवी भेदानाह [ दुविहा पुढवि जीवाभो सहमा बायरा
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा:सं... मा भाग
हा ते वियाहिया | तसाय घाबरा चेव थावरा तिविहा तहिं हर ॥ पठवी पाउ जीवाय तहेवय वणमई। इच्चेए
भाषा
fag प्रकार तेहना भेद प्रकार सांभलि है शिष्य । विहं प्रकारे पृथवीना जीव सच्चानान्हा कैवली गम्यवादर देखीताच्छदमखे ते एक पर्याप्तावी
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130
24.
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सहा पज्जत्तम पज्जत्ता एव मेए दुहा पुणो ७१] पृथिवौ जौवास्तु द्विविधा उक्ताः शूमाश्चर्म चक्षुर गोचराः केवल ज्ञानगम्याः सथा पुनः पृथ्वी जीवा बादरा ते च पर्याप्ता अपर्याप्ताचा आहार घरौरन्द्रियोच्छास नि:खासरूपाभिः पर्याप्तिभिश्च तमृभिः शक्तिभिर्युक्ता पर्याप्ता स्तथा 8 तेभ्यो विपरीता अपर्याप्ताः शमाः पृथ्वीजीवाः पर्यामाः अपर्याप्ताः बादराः पृथ्वीजीवा: पर्याप्ताः अपर्याप्ता एवं द्विविधा ७१ (बायरा जेउ पजत्ता दुविहा ते वियाहिया सन्हा खराव बोधब्बा सन्हा सत्त विहातहिं ७२) तत्र पुनरेषां उत्तरभेदानाह जेबादराः पृथोजीवाः पर्याप्ता उक्तास्ते विविधा व्याख्याताः एके बादराः पृथौजौवाः पर्याप्ताः लक्ष्णखूर्णरूपा च पुनरके बादराः पृथौजोवाः पर्याप्ता कठिनाश्च बोध्याः तत्र साखरयोः पृथी जौवयोः वक्ष्याः पृथौजीवाः सप्तविधाः ज्ञातव्याः ७२ सप्तविधत्वमेवाह (किम्हा नौलाय रुहिराय हालिहा मुक्किला तहा पण्डु पणग मष्टियाखरा छत्तीसई विहा ६३) कष्णाः श्यामवर्णाः १ नौला नौलवी पथिवौ २ रुधिरा रक्तवर्णा पृथो ३ हारिद्रा पीतवर्णा ४ शुक्ला धवसवर्णा
थावरा तिविहा तेसिं मेए मुणेह मे ७०॥ दुविहा पुढवि जीवा मुहुमा बायरा तहा। पज्जत्त मपज्जत्ता एव मेए दुहा
पुणो ७१ । बाबरा जे उपजत्ता दिहा ते वियाहिया। सन्हा खराय वाधब्वा सन्हा सत्त विहा तहिं ७२। कि हा जा अपर्याप्ता एमएबिहु प्रकार तथावली ७० वादर जे वलौ पर्याप्ता बिहु प्रकारे ते कह्या तीर्थ करे एक सूहालावीजा कठोर जाणिवा तिहां बिहु माहि सन्हा सुहाला सात प्रकार ७१ काला १ नौला २ राताते जाणवा ३ पौला ४ धवला ५ तथावली धोलौ पांडू ६ सूक्ष्म आकाशिं ऊडे ते पण गमाटो एव भेद ७ खरा कठिन पृथिवोना छत्रीस प्रकारे ७२ पृथिवीकाली १ मरडीयाका करा २ बेल र पाषाण खंड लवण ५ सिला
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं• २०४१मा भाग
भाषा
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उ टीका
४ पृथौ तथा ५ तथा पाण्ड: पाण्डु वर्णाः ईषत् शुभ्राः ६ इह च पाण्डु ग्रहणं कृष्णादि वर्णानां अपि स्वस्थानभेदान्तर सम्भवशूचक सप्तमी भेदस्तुपनक 8 मृत्तिकारूपः पनकोहि अत्यन्तशूक्ष्मत्वेन आकाशे पृथित्वेन आरुढः तस्मातें दत्वे न गृहीतः इत्यनेन वक्ष्यापृथ्वौ सप्तविधोक्ता अथ खरादि पृथौषट विशबिधा तीर्थ' कराख्याता ७३ तान् भेदानाह [पुढवीयसकरावालुयाय उवलेसिलायलोणोसे अयतउयतं बसौसगरुप्पसुवम यवयरेअ ७४] [हरियालेहिंगुलुए मणोसिलासोसगंजणपवाले अभ्भपडलम्भवालयबायरकाए मणिविहाणा ७५] गोमिज्जएयरुयगेअझै फलिहेयलोहियक्वेयमरगयमसार
गले भुयमोयगइन्दनौलेय ७६] चन्दणगे रूयहंसगम्भ पुलएसोगन्धि एवबोधब्बे चंदप्पहवेरुलिए जलकन्ते सूरकतेय ७७] पृथौशद्वालिम्पनयोग्या१ शर्क 8 रामरुण्डादि रूपाकर्करमयी २ वालुका च स्थली भूमौ प्रसिहा ३ उपलोगण्डशेलपाषाण खण्डादि रूपा ४ शिला वृहत्याषाणमयौ ५ लोणोसेइति
लवणोष लवणं च उघाचल वणीषे लवणं समुद्रादिभ्य उत्पन्न तदपि पृथौरूपमेव ६ ऊषाऊषरमयौ ७ अयोलोहं ८ ककस्तीरं ८ ताम्र प्रसिद्ध१० शौसक ११ रुप्य १२ सुवम १३ अयवत्र पुकञ्चतामञ्च शोसकञ्च रूप्यञ्च सुवस्स च अयस्त्र पुकताम्रसोसकरूप्य सुवर्णानि एतेपि पृथौभेदाइत्यर्थः च
नीलाय रूहिराय हालिद्दा मुक्किला तहा। पंड पणग मट्टिया खरा छत्तीसई विहा ७३ | पुढवीय सक्कराय बालुयाय उबले सिलाय लोणोसे । अय तंब तय सीसग रुप्प सुबन्नेय बरेय ७४ । हरियाले हिंगलुए मणोसिला सौसग
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
पाषाण मोटो ६ श्रीसखारीमाटी ७ तरी ८ तांबोर लोह१. सौसी ११ रूपी १२ सोनी१३ बच्चही राजाति १४ ७३ हरियाल १५ हिंगली १६ मैणसिल १७ सौसग जसद विशेष १८ सुरमी १८ प्रवाल २० आभूया २१ आभयानो चम्म २२ एवादर' पृथिवीकाय मणिनाम कहोइ जेतला
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उ० टीका अ०३६
१०४२
सूत्र
भाषा
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पुनर्वष्य ं हौरक' १४ चतुर्दशभेदा ७४ हरिताल १५ हिङ्ग, लु १६ मनसिला १७ प्रसिद्धा सोसकोधातु विशेषो जसदइति लोके १८ अञ्जनं सुरमकं१८ प्रवालं विद्र ुमं २० अभ्रपटलं भोडलइति प्रसिद्धः २१ अभ्रवालुका अभ्रपटलमिश्रावालुका अभ्रवालुका २२ वादरकाये बादर पृथ्वीकायेऽमोभेदा उक्ताः अथ मण्यभिधाना अपि पृथिवो अस्ति तस्मान्मणाभिधानानिमणौनां नामान्यच्चते मणिभेदा अपि पृथ्वीभेदा एवेत्यर्थः ७५ कानितानि मणिनामाभि गोजयकोगोमेधमणिः १३ च पुनरुचकोरुचकनामामणिः १४ अङ्करत्न १५ स्फटिकरत्न' १६ लोहिताख्योमणिः १७ मरकतमणिः १८ मसारगल्लव १८ भुजगमो च कोमणि ३० च पुनरिन्द्रनीलरत्न ं ३१ ७३ चन्दनो ३१ गैरिकनामा मणिः ३३ हंसगर्भः ३४ पुलक ३५ पुनः सौगधिको मणिबध्यः २६ चन्द्रप्रभः ३७ बैड्र्योमणिः ३८ जलकान्तोमणिः ३८ सूर्यकान्तोमणिः ४० ७७ अत्र एतासु गाथासुखरपृथिव्याः षड्ति मद्भेदा उक्ताः गणनायां तु चत्वारिंशद्भ दाः सच्जातास्तत्कथं तत्त्रोत्तरं अन हि रत्नानां केचिदाः केषुचिद्रत्नभेदेषु अन्तर्भवन्ति तस्मात्रात्त्र कश्चिहोत रागवचनेषु दोषावकाशः ७७ जण प्पवाले । अम्भपडलम्भ वालुय बायरकाए मणिविहाणा ७५ ॥ गोमिज्जएय रुयगे अ'के फलिहेय लोहियक्वेय । मरगय मसारगल्लळे भुयमोयग इंदनीलेय ७६ ॥ चंदा गेरुय हंसगम्भे पुलएय सोग' धिएय बोधव्वे । चंदप्पह वेरुलिए
सर्व ७४ गोमेद्यरत्न २३ रूचकरत्न २४ अंकरत्न २५ फौटकरत्न २६ लोहिताचरत्न २७ मरकतरत्न २८ मसारगलरत्न २८ भूजमोचकरत्न ३० इंद्र नौलरत्न ३१ ७५ चंदनरत्न ३२ गैरकरत्न ३३ हंसगगर्भ रत्न ३४ पुलकरत्न ३५ सौगंधोकरन जाणवो २६ चंद्रप्रभरत्न ३७ बैडूर्यरत्न ३८ जलकांत र ३८ सूर्यकांत रत्न ४० ७६ एसर्वखर पृथवीनाभेद छत्त्रोस कया तौर्थ करे एके प्रकारे परं धणे प्रकार नही सूक्ष्म पृथिवोना जौवते सूक्ष्म वादर
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०च० ४१मा भाग
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GXXX
[एएखर पुढवोए मेवाछत्तोसमाहिया एगविहमनाणत्ता मुहुमातत्य वियाहिया ७८] एतेखर पृथिव्यादि भेदाः विशममाख्यातास्तीर्थकरैरुताः पृथौ भेदात् पृथौस्थाजौवा अपि भिन्नाभिन्नाः तत्र शूत्मवादर पृथौ जौवेषु सूक्ष्म पृथौजीवाः एकविधाः अनानाखास्तीर्थकरैयाता नविद्यते नानात्वं येषां ते अनानात्वा: अबहुभेदाः उक्ताः इत्यर्थः कोर्थ ः पूर्व शूक्ष्मबादरौमुख्यमेदो हौ पृथीकायजीवानामुक्ती एतेहि शूक्ष्माना अवान्तरभेदान्जेयाः बादराणां अवान्तरमैदाउक्ताः मुख्य वृत्त्या तु एकएव शूक्ष्मीवादरो वा एकएवभेदोस्तिनानात्वं नास्तीत्यर्थः अथतान् पृथी जौवान् क्षेत्रताह (सहुमासव्वलोयंमि लोय देसेवबायरा इत्तोकालविभागन्तु तेसिं बुच्छञ्च उब्बिई ७८) शूक्ष्माये पृथोकायजीवास्ते सर्वस्मिन् चतुर्दशरज्वात्मके लोके सन्ति अभिव्याप्यस्थिताः सन्ति बादराः पृथ्वौकायजौषालोकदेशे तिष्टन्ति लोकस्वदेशोविभागोलोकदेशस्तस्मिन् तिष्टन्ति बादराहिकचित् कस्मिन् चित् प्रदेशे कदाचिस भवन्ति कदाचित्कस्मिन् चित्स्थान सम्भवन्ति इत्तोइति इत: क्षेत्रप्ररूपणानन्तरं तेषां पृथ्वीकायजीवानां चतुर्विधं कालविभागं कालतो भेदं वच्चे ७८ [सन्तई
जलकते सूरकतेय ७७॥ एए खर पुढबीए मेया छत्तीस माहिया। एगविह मनाणत्ता मुहुभा तत्व वियाहिया ७८॥ मुहमा सबलोग'मि लोग देसय बायरा। इत्तो काल विभागत तेसिं बोच्छं चउब्विहं ७६ ॥ संतई पप्पणाईया
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.म.उ. ४१मा भाग
भाषा
माहिं कह्या तीर्थ करे ७७ सूक्ष्म पृथीवौका जीव सर्वलोक च वदेराजने विखे रयाई लोकना एकदेशने विखे वादर पृथवी जीव एतलानंतरकालनो विभाग भेद तेहनी कहिस्य सादि १ पर्यवसित २ अनादि ३ अपर्यवसित ४ भेद ७८ प्रवाह मार्ग जीईए तिवारी सूक्ष्म वादर पृथि अनादि के अनेई अपर्यवसित छेहडी ते पृथिवि जौवनो भवस्थिति भवरहिवों काया वितिकाइ रहिवो ते पायौ आदिके पने सपर्यवसित सांतपुण निये ७८
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स.टौका
.४४
पप्पणाईया अपज्जवसियाविय ठिई पडुच्चसाईयासपज्जवसियाविय ८०] सन्ततिं प्राप्य प्रवाहमाथित्व एते शूक्ष्माः बादराव पृथ्वीकायहोवा अनादव आदिरहिताः च पुनरपर्यवसिता अपि अन्तरहिता अपि स्थितिं प्रतीत्यभवस्थिति कायस्थिति रुपांस्थितिमाथित्य संसारवर्तीजीवः संसार पचौकायां तवर्नोसन् पृथ्वीकार्य कियत्कालं तिष्टति इति स्थिति विचारमाथित्य जोवा: स.दिकाः सपर्यवसिताथापि वर्तन्ते ८० [बावीस सहस्साए' वासाणको सियाभवे पाउठिई पुढवीणं अन्तीमुहुत्त जहबिया ८१] [पसंखकालमुक्कोसं अतीमुहत्त' जहबिया कायठिई पुटवौणं तं कार्य तु अमायो ८५] पृथ्वीनां पृथ्वीकाय जीवानां वर्षाणां दाविंशति सहस्राणि उत्कृष्टा प्रायुः स्थितिर्भवेत् जबन्धिका च अन्त मुहर्त स्थिति वेत् ८२ भवस्थिति उक्त्वाकायस्थितिं वदति असंखेति पृथ्वीनां इति पृथ्वौकायजीवानां पृथ्वीकार्य अमुञ्चतां पृथ्वीकार्यस्थितिः संसारचेद्भवति ताई उत्कष्टा असंख्यकाल स्थितिर्भवेत् जघन्य का च अन्तमु हत्त स्थितिर्भवेत् कोर्थः यदि पृथ्वीकायस्थीजीवः पृथ्वीकायत प्रत्वापुनः पुनर्निरन्तरं पठी काये एव उत्पद्यते तदा
अपज्जवसियाविय । ठिईपड़च्च साईया सपज्जबसियाविय ८०॥ वावीस सहस्माई बासागुक्कोसिया मब । आउ ठिई
पुढबौणं अंतोमुहुत्त जहन्निया ८१॥ असंख काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्त जहन्नियं । कायठिई पुढवीणं तंकायंतु अमु ॐ बावीस हजार वरिस उत्कष्टी हुई आऊखानीधिति थकी पृथवीनी अंतमूहर्तनी जघन्य स्थिति ८० असंख्याता काल नी अंतरपडे ती उत्कष्टी अंत
द्हर्स जघन्य अंतर कायस्थिति पृथीवी पृथवीनो पृथिविमाहिएम तैहनी कायने मूके वार वार तेहने ते माही रहे ८१ अनंताकालनी अंतर उत् कष्टी अंतर्मुहुर्त जघन्य अंतर पोताने पृथिवीने विज]मि छांडे थके पृथिवीना जीवन पृथिवी पण अंतर पडतु ८२ एह पृथिवी कायनाबर्ष थकी
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं. छ. ४१ मा भाग
भाषा
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• टोका
१०४५
सूव
भाषा
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उत्कृष्टं असंख्य ं कालं यावत्तिष्टति जघन्य' तु अन्तर्मुहर्त्त तिष्टति इति भावः इत्य' द्विविधाया अपि स्थिते: सादि सपर्यवसितत्वमुक्तः अथ कालस्यान्त र्गतं एव कालांतरमाह ( अणन्तकाल मुक्कोसं अन्तोमुहुत्त जहन्रियं विजढम्मिसरकार पुढवोजीवाण अन्तरं ८२) पृथ्वीजीवानां स्वकौयेकायेविज मि इति व्यक्त सति उत्क्कष्ट' अनन्त काल अन्तरं भवति जघन्धक' अन्तरं अन्तर्मुहर्त्त भवति कोर्थः यदाहि पृथ्वीकायस्टोजीवः पृथ्वीकायात् चत्वा अपरस्मिन् काये उत्पद्येत तत उत्वा पुनः पृथ्वीकाये एव उत्पद्येत तदाकियदन्तरं भवति उत्कृष्टं अनन्तकालं जघन्य' अन्तर्मुहर्त्त ं यदा पृथ्वीजोवस्य पृथ्वौकायात् च्युतिर्भूत्वावनस्पति काये उत्पत्तिः स्यात्तदा अनन्तकालस्यान्तर' जायते वनस्पति कायस्थ जीवस्य अनन्तकालस्यतित्वात् जघन्य' अन्तर अन्तर्मुहर्त्तं भवति ८२ एतान्ये व भावत आह [एएसिंवन्न्रओचेव गन्धओरसफासओ सण्ठाणादेसश्रवावि विहाणाइसहरूमसो ८३] एतेषां पृथ्वीजीवानां वर्ण तोगन्धतोरसतः स्पर्शतः संस्थानतथापि सहश्रशोविधानानि भेदाभवन्ति सहश्रमइत्युपलक्षणं वर्णादितारतम्यस्य बहुभेदत्वेन श्रसंख्यामेदत्वात्
चओ ८२ ॥ अणंतकाल मुक्कीसं अंतोमुहुत्त जहन्नयं । बिजढंमिं सए काए पुढवि जौबाण मंतरं ८३ ॥ एएसिं बन्न चं`व ग ंधओ रस फासओ । संठाणा देसओबावि बिहागाई सहम्मसा ८४ ॥ दुबिहा आउ जीवाओ सुहमा बायरा
गंध थको फरसथको रसथकी संस्थानमा आदेशथको पणिए संस्थानना भेद भेदतिरथको विधानभेद सहस्रगमे हुई सख्याता असंख्यात अनंत पणे यद्यपि वर्ण ५ गंध २ रस ५ फरस ८ के तथापि तरतम योगे घणाभेदहुइ ८३ विहं प्रकारे अप्कायनाजीव सूक्ष्म अने वादर अप्काय तिम बादर पर्याप्ता अपर्याप्ता इमए बिहु प्रकारे वली ८४ बाहर अपकाय जे पर्याप्ता यांचे प्रकारे कया तौर्थ करे मे घनो पाणी तथा ओसनो समुद्रनो डाभ
आ० सं० उ० ४.१ मा भाग
बाहादुर का अ
राय
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१०४६
४ वर्यादीनां भावरूपत्वात् ८३ अब अप्कायमैदानाह [दुविहा आउ जौवाउ मुहुमा बायरा तहा पज्जत मपज्जत्ता एवमेए दुहापुणी ८४] [बायरा जे उ टोका * उपज्जत्ता पञ्चहाते पकित्तिया सुद्धोदण्य उस्मेय हरितणू महिया हिमै ८५] (एगविह मनाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया सुहुमा सबलीयंमि लोबदेसेय प०३६
* बावरा ८६) तिस णां गाधानां अर्थः अपजीवास्तु विविधाः शूक्ष्मा स्तथा बादरा अपि पर्याप्ता अपर्याप्तावदिविधा पुनवर्तन्ते इति शेषः ८४ अथ पुनर्बाद
रायेपर्याप्ता अप्जीवास्ते पञ्चधाः प्रकीर्तिताः शुद्दोदकं मेघसमुद्रादेर्जलं अवश्यायः शरदादिषु ऋतुषु प्राभातिक शूक्ष्मवर्षारुपः हरितस्निग्ध पृथ्वीभवस्तृणा अबिन्दुः ३ महिकाजलं गर्भमासेषु शूक्ष्मा धूमरूपाः हिमे इति हिमजलं खन्धारदेशादौ प्रसिद्ध ८६ तत्र शूक्ष्मा अप्कायजौवा एकविधा अनानाखास्तीर्थ करर्थ्याख्याताः तत्र शूक्ष्मा अपकाय जौवाः सर्वस्मिन् चतुर्दश रज्वामलोके वर्तन्ते बादरा अप्काय जौवालोकस्यैकदेशेवर्तन्ते ८७ (सन्तइ पप्पणाईया अपज्जवसियाविय ठिई पडुच्चसाईया सपज्जव सियाविय ८८) सन्ततिं प्रवाहमार्गमाश्रित्य अप्काय जौवा अनादिकाः पुनरपर्यवसिता अपि स्थिति भव
तहा। पज्जत मपज्जत्ता एवमेए दुहापुणो ८५ । बायरा जेउपजत्ता पंचहा ते पकित्तिया । सुद्धोदएय उस्मेय हरतणु महिया हिमे ८६॥ एगबिह मनाणत्ता मुहुमा तत्व वियाहिया। मुहुमा सव्वलोग मि लोगदेसैय बायरा ८७ ॥
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.१.४१मा भाग
जपरि पाणौधु अरि ४ हौम जमइ ८५ एक प्रकारे पणि नाना प्रकारे नही सूक्ष्म अपकायना जीव तौहां कह्या तीर्थ कर सूक्ष्म अप कायना जीव सर्वलोक चौद राज व्यापी रह्या लोकना एकदेस सरोवरादिकने बिखे वादर अप्कायो ८६ प्रवाह मार्ग जोई तिवारए सुक्ष्म वादर पृथिवी अनादिके अने अपर्यवसित छहडी ते पृथिवी जीवनो भव स्थिति भवे रहिवो काय थिति काया रहिवो ते आधी
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४० टोका अ०३६
२०४७
सव
भाषा
XXX
स्थितिं काय स्थितिं चाश्रित्यसादिकास्तथा सपर्यवसिताः अवसानसहिता अपि वर्त्तन्त ८८ (सत्तेव सहस्साइ ं वासाणु कोसियाभवे आउठिई आऊणं अन्तोमुहुत्त ं जहन्त्रियं ८८) अपां अप्काय जीवानां सप्तैव सहश्राणि वर्षाणामुत्कृष्टा आयुषः स्थितिर्भवेत् जघन्यतः अन्तर्मुहर्त्त' भवेत् ८८ (असंख मुक्कोसं अन्तोमुहुत्त ं जहलियाकाय ठिई आऊण ं तं कार्यं तु अमुचओ ८० ) अपां अप्काय जीवानां तं स्वकायं अर्थात् अप्कायं श्रमुच्चतां उत्कृष्टाकाय स्थितिः असंख्यकालं भवति जवनिका कार्यस्थितिरन्तर्मु हत' भवति ८० [अन्तकाल सुक्को अन्तोमुहुत्त जहत्रयं विजढम्मि सए कार आउजीवाण अन्तरं ८१] अजीवानां स्वकीयेकायेत्यक्त सति अपरस्मिन् काये उत्पद्यपुनः स्वकौयेकाये उत्पत्तिस्थात्तदा उत्कृष्टं अन्तरं अनन्तकालं भवति जघनाक अन्तरं अन्तर्मुहर्त्त' भवति वनस्पति कायेजीवोऽनन्तकालन्तिष्टति तदा अनन्तकाल अन्तरं भवति इति भावः ८२ [एएसिवओोचैव गन्धओरसफासश्र संत' पष्पणाईया अपज्जबसियाबिय | ठिईपडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ८८ || सत्तेब सहस्माइ' वासाणु कोसिया भवे । आउ ठिई आऊ अंतीमुहुत्तं जहन्निया ८६ । असंखकाल मुक्कोसं अंतोमुहुत्त जहन्नियं । कायठिई आऊणं तं कायंतु अमुं चत्र १० । अ ंतकाल मुक्कोसं अंतीमुहत्तं जहन्नयं । विजढं मि सए काए आउ जीवाण मंतरं ६१ । एए
आदिछे अने सपर्यवसित सांत पुणनिचे ८७ सात सहस्र वरसनो उत्कृष्टो हुई श्रऊपाथौनी स्थिति अप्काय जीवनो अंतमूहुर्त्त' जघन्य ८८ असंख्यातु कालउत्कृष्टौ अंतर्मुहुर्त्त' जघन्य पणे कायस्थिति अप्कायनी तेहनो ते मांहितो ते काया अणछोडतु ८८ अनंतुकाल उत्कष्टी अंतर्मुहुर्त्त जघन्य पोतानौकाया कांड्या थको अएकाय जीवने एतलो तरी हुइ ८० ए अप्काय जौव वर्णथको गंधथको रसथको फरसथको संस्थाननामेदथको
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टोका अ०३६
१०४८
सूव
भाषा
सण्ठाणादेसश्रवावि विहाणाइस हस्तसो८२] एतेषां अप्कायजीवानां वर्ण तोगन्धतः रसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतचापि संस्थाननामतश्चापि सहश्रसोबह वोभेदाभवन्ति ८२ अथ वनस्पति जोवानाह [दुविहावणसई जीवासु हुमाबायरातचा पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेव दुहापुणो ८३] वनस्पति जीवादिविधाः शूक्ष्मास्तथा बादराः ते शूक्ष्मा बादराश्चापि पर्याप्ता अपर्याप्ताच द्विविधा आख्याताः ८३ [ बायराजे पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया साहारण सरीराय पत्ते यगाय तवय 28 ] येबादरावनस्पति जौवास्तेपि द्विविधाव्याख्याताः साधारण शरीराश्च पुनः प्रत्येकाः वनस्पति जीवाः ८४ (पत्ते य सरोरा ओोणेगहा सिं वन्नओ च ेव ग ंधओ रस फासओ। संठाणा देसश्रवावि बिहागाई सहस्मसोह२ । दुबिहा वणाई जौबा मुहमा बायरा तहा । पज्जत्त मपज्जत्ता एवमेए दुहापुणो १३ । बायरा जेउ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया । साहारण सरी राय पत्तेगाय तबय ९४ । पत्तेय सरौराओ बेगहा ते पकित्तिया । रुक्खा गुच्छाय गुम्माय लयावल्ली तणातहा६५ | विधानभेद हजारे गमिहोइ ८१ विहुं प्रकारे वनस्पतीना जीव सूक्ष्म वादर तथावली एक पर्याप्ता वौजा अपर्याप्ता इम बिन्दु भेदे हुवे बलौ ८२ वादर वनस्पतिकायते पर्याप्ता बिष्टुभेदे ते कह्या तीर्थं करे अनंता जीवने साधारण सामान्य शरीर ते अनंतकाम प्रत्येक जूया शरीर जेहना ते प्रत्य तिभज ८.३ ते माहि प्रत्येक शरीर वनस्पतिना जीवके ते माहि प्रत्येक शरीर वनस्पतीना रुख आबादि १ मालतो आदि तथा चांपा ४ वेलितू सडौ प्रमुख तृण भौत्रादि तथावली ६ ८४ वलयनालिकेरी आदि फोडादिथ् कमलादिक जलरुह १० ओषधीसाली प्रमुख ११ तंडुलेवादि हरोकायजांणवी प्रत्येक वनस्पति कही तौर्थ करे ८५ अनंता जीवने साधा
ताक गुच्छरोगणी आदि २ गुल्म वन पर्वगसेलडो वंशादि ८ कुहणभू' इ
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राम धनपतसिंह बाहादुर का था •सं•उ० ४१ मा भाग
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उ० टोका
अ०३६ १०४८
सूत्र
भाषा
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तेपकित्तिया रुक्वागुच्छाय गुम्माय लया वल्लोतणातहा ८५) तत्र साधारणशरोरवनस्पति प्रत्येक शरौरवनस्पत्योर्मध्ये प्रत्येकवनस्पति जौवास्तु अनेकधा प्रकर्त्तितास्ते के उच्यन्त वृचाः १ सहकारादयः गुच्छाः वृन्ताक कण्टकारिकाद्याः २ गुल्मा नवमालती प्रमुखाः २ लताचम्पकाद्या४ वन्यः कूभाण्डाद्याः ५ तथातृणाःकुशाद्याः६ ८५(वलयापव्वयाकुह गाजलरुहात्रोस हौतहाहरियकायबोधव्वापत्तेयाइतिश्रहिआाट ६) वलयानालिकेर कदलायाः इहतेषां शाखा न्तराभावेनलतारूपत्वं उक्त ७ पर्व्वजाचाद्याः ८ कुहनाः भूमि स्फोटाद्याः ८ जलरुहाः कमलाद्याः १० तथा अषधयः शालि प्रमुखाः ११ च पुनर्हरित कायाश्चतण्डु लौयकाद्याः १२ बोधव्याः इति अमुनाप्रकारेण प्रत्ये काप्रत्य कवनस्पति जौवा श्राख्याताः ८६ (साहारण सरोराश्रोणेगहातेपकित्तिया आलुएमूल एचेव सिङ्गवेरेतहेवय८७] (हिरिलोसिरिलोसिस्मरिलिजावईकेय कन्दलोपल डुलसणकन्देय कन्दलीय कुव्व८८) (लोहियोइयत्थौय तुहगा यतहेवय कन्हेय वज्जकन्दे कन्द सूरणएतहा 22] [अस्म कन्रीय बोधव्वा सौहकव्रौतहेवय मुसण्टीय हलि हे येणेगहा एवमाईओ १०० ] अथ चतसृभि गोथाभिः साधारणवनस्पतीनां नामान्याह ये तु साधारण शरीराः साधारण वतस्पति जीवाः अनन्तकायवनस्पति जीवास्तेपि अनेकधाः अनेक वलया पव्वया कुहणा जलरुहा ओसहीतणा । हरीयकायाय बोधव्वा पत्याइति आहिया६ । साहारण सरोराओ णेगहा ने पकित्निया । आलुए मूलए चव सिंगवेरे तहेवय १७ । हिरिलो सिरिलो सिम्मिरिलो जावई केय कंदली ।
रण शरौरछे जेहने ते अनेकप्रकारे कह्या बालूकंदजातौ १ मूलम २ सिंगवेर श्रादो तिमज २ ८६ हरिलोकंद ४ सिरिलौकंद ५ सिस्मरो कंद ६ जावयकय कंद जाति ७ पल डुकंद ८ लसणकंद 2 कंदलीय कुडुव्वए कंद ८७ रोहिणीकंद १२ हुयत्यो कंद १२ हुये कंद १२
१२२
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०० ४१मा भाग
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• टीका ४
०३६
१०५०
सूत्र
भाषा
प्रकाराः प्रकीर्त्तिताः तेषां च केषां चित् प्रसिद्धानां नामान्याह श्रालुकः आलूपिण्डालुर तालुककन्द १ स्तथा मूलक प्रसिद्ध २ शृङ्गवेरकं आर्द्र कं २ तथे वच८७ हरिलोनामाकंदः ४ सिरिलोनामाकंदः ५ सिसिरिलो नामापिकन्दः ६ एतेकन्दविशेषाः यावति कोपिकन्दविशेषः ७ कन्दलीकन्दः ८ देशविशेषे मांस रूपः कन्दो भवति लशुनकन्दस्तुप्रसिद्धः १० कुहब्रतकदलोकन्दोविशेषः ११८८ लोहिनीकन्दः १२ हताचौकन्दः १३ हनकन्दः १४ तुहककन्दः १५ कृष्णकन्दः १६ वज्रकन्दः १७ सूरणकन्दस्तथा १८८८ श्रखकर्णीकन्दो बोधव्यः १८ तथैव सिंहकर्णी २० मुण्टोकन्द २१ हरिद्राकन्दः २२ च एवमादिका अनेकधाः कन्दजातयो से याः १०० अथ साधारणलचणमाह (गूढसिरागं पत्त' सच्छोरंजचहोइनिच्छोरंजंपिंयपण्ड संधिंत्रणन्तजोवं वियाग्राहि १ एगविह शूक्ष्म वनस्पतिकायजोवा: एकविधाः अनानात्वा व्याख्यातास्तत्रशूक्ष्माः वनस्पतिजौवा : निगोदनामानः सर्वस्मिन् चतुर्दशरज्वात्मलोके व्याप्ताः सन्तिबादरावन स्पतिजीवालोकदेगे अभिव्याप्यस्थिताः सन्ति कुत्रचित्प्रदे मे भवन्तीत्यर्थः १०१ (सन्तः पप्प णायाश्रपन्न वसियावियठिद्र पडुच्च साइयास पज्जव सियाविय १०२ ) पलंडु लसण कंदेय कंदलीय कुहुव्वए ६८ ॥ लोहिगो हयत्थी हयतुहगाय तवय । कन्हेय वज्जकंदेय कंदे सूरणए तहा ६६ ॥ अस्मकन्नौय वोधव्वा सौहकन्नी तहेवय । मुसंढीय हलिहाय गगहा एवमायओ १०० ॥ एगविह मनागत्ता सुमा तत्य वियाहिया । मुहमा सव्वलोग मि लोगदेसेय बायरा १०१ ॥ संतद्र'पप्प खाईया अपज्जवसियाविय । गाय कंद १४ तथावली कृष्ण कंद १५ वच्च कंद १६ सूरण कंद १७ तथावलो ८८ अखकर्णी कंद १८ जाणिवो सोह कर्णी कंद १८ तिमवलो मुढो कंद २० हलदकंद २१ ए पदोदेई अनेकप्रकारे अनंतकायना जीव ८८ एकऊ प्रकार परंघणे प्रकार नही सूक्ष्म तोहां का तीर्थ करे सूक्ष्म
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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A
सन्ततिं प्राप्य एतेवनस्पति जोवा: अनादयः पुनरपर्यवसिताः सन्ति कायस्थितिं च प्रतीत्यपाश्चित्यसादिकाः सपर्यवसितास सन्ति इत्यर्थः १०२ उल्टौका
[दसच्चेव सहस्माई वासाणुकोसियाभवे वणस्माईण पाउन्तु अन्तोमुहुत्त जहवयं १०३) वनस्पतीनां प्रत्येक वनस्पति जीवानां वर्षाणां दशसहस्राणि अ०३६
उत्कष्टा आयुः स्थितिर्भवेत् जघन्यिकास्थितिश्च अन्तर्मुहतं भवेत् साधारणानां तु जघन्यत उत्कृष्टतच अन्तमुहर्त एव स्थिति रस्ति तस्मात् अत्र प्रत्ये कवनस्पति जीवानां एव स्थिति जया१०३ (अनन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्त जहवयं कायठिईपणगाणं तं कायं तु अमुचओ१०४]पनकानां पनकोप लक्षितफूलणिवनस्पति जौवानां तं स्वकीयं कायं अमुञ्चता कायस्थितिरुत्कृष्टतोऽनन्त कालं जघन्यतश्चान्तर्मुइत कायस्थिति या कोर्थः यदाहि पनकजीवपनकात् च त्वा पुनरनन्तरत्वेनपनकत्वे एव उत्पद्यते तदा एवं उत्कृष्टतोऽनन्तकालं तिष्टति जघव्यतीतमुहर्त एवतिष्टतौति भावः पनकानां च इहसामानानवनस्पति जीवात् निगीदत्वेन उत्कृष्ट तोऽनन्त उच्यते विशेषापेक्षयाहि प्रत्ये कवनस्पतीनां तथा निगोदानां बादराणां शूक्ष्माणां वा ऽसंख्येयकालाएव अबस्थि तिः उक्त च भगवत्यां पत्ते यशरीरबायरवणस्मइकाइयाणभन्ते केवतियं कायठितोपपत्ता गोयमा जहन्त्रेण अन्तीमुहुक्त'
ठिईपड़च्च साईया सपज्जवसियाविय १०२॥ दस चे व सहस्माई वासाणु कोसिया भवे। वणाईण आउंतु अंतो
मुहुत्तं जहनिया १०३ ॥ अणंतकाल मुक्कोसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई पणगाणं तंकायंतु अमुचओ १०४ ॥ * जीव चौदराजमाहिलाभे लोकने एकदेसे वादर वनस्पती जीव १०. संतति प्रवाह अपर्यवसित अनंतपणि जिणे सदाहुस्थेज थिति आधी आदि Or सहित अने सपर्यवसितं अंतसहित१०१ दशहजारवरस उत्कष्टोधीतिहुइ वनस्पतीकायनी पाजणी अंतीमहर्स जहवाई जघना१०२ अनंतकाल उत् ४ कष्टो अंतमहत्तं जघनाकायानोस्थिति अनंतकायनी ते काय अणमूक१०३ दसहजारवरस पसंख्यातीकाल उत्कष्टी अंतमू हुत्ते जघना पातानोकाया
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं० उ०४१ मा भाम
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४० टौका अ०३६
१०५२
सूत्र
भाषा
उकोसेणं सत्तरिंसागरोवमकोडाकोडोओ निगोदेण' भन्ते निश्रोदेत्ति कालतोकेविच्चिर' होन्ति जहत्रेण तं चैवउकोमेणं असंखेन्ज' कालमिति २०४ अथ कालस्यांतरमाह [ असंखकालमुकोस' अन्तोमुहुत्त जहत्रियं विजट मिसएकाए पणगजीवाण अन्तर १०५] पनकजीवानां स्वकौयेकायेत्यक्त सति अपरस्मिन् पृथिव्यादिषु कार्येषु उत्पद्य पुनः पनकत्वेन उत्पद्यमानानां उत्कृष्ट असंख्यकाल अन्तरं भवति जघनंत्र अन्तरं अन्तर्मुहर्त्त ं भवति इति कालांतरं प्रतिपादितं अथ प्रकृति मुपसंहृत्य अग्रे तनं सम्बन्ध' सूचयति [ एएसिम्बनघोचैव गन्धओर सफासश्र सण्ठाणादेश्रोवावि विहाणाइ सह स्मसो १० ६] एतेषां शूक्ष्मबादरवनस्पति जीवानां वर्णतोगन्धतोरसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतञ्चापि सहस्रोविधानानिभवन्ति सहस्रशः शब्देन असंख्ये याः अनन्ताश्वभेदाभवन्ति इत्य ुच्यते १०६ [इच्चेएथा वरातिविहा समासेण वियाहिया इत्तोयतसेतिविहे बुच्छामि अणपुव्वसी १०७] इति अमुनाप्रकारेण एतेचि असंखकाल मुक्कोसं अंतीमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए पणग जीवाणं अंतरं १०५॥ एएसिं बन्न च ेव गंध रस फास । संठाणा देसवावि बिहाणा सहासी १०६ ॥ इच्चेते थावरा तिविहा समासेण वियाहिया । इत्तीउ तसे तिविहे वोच्छामि अणुपुव्वसो १०७ ॥ तेऊ बाजय बोधव्वा ओरालाय तसा तहा । दूच्चेए तसा तिविहा तेसिं
तू नगोदकाय मूंके पृथिव्यादि माहिजाइ पछे आवेतो अंतरपडे १०४ वनस्पती सूक्ष्म वादर वर्णथको गंधथको रसको फरसथको संस्थान देशनामेदथको विधानभेदसहस्र १०५ ए पूर्वे कया ते घावर पृथ्वी पाणी वनस्पति त्रोहमेदे संखेपे कह्या तीर्थकरा एतला कह्यानंतरव स विभेदे कह ंछु' ए वचन भगवंतनु' १०६ तेऊ कायना जीव वाककायना जीव उदार मोटा वेंद्रियादित्र स तिम ए. पूठे कया तेवस विहभेदे तेहना भेद
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रायधनपतसिंह वाहादुर का श्र०सं० उ० ४१.मा. भाग
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विधास्थावरा:पृथी जलवनस्पति जीवातिष्टन्तीत्वे बंधौलाः स्थावराः समासेनव्याख्याता :विस्तरतोऽमौबहवीभेदाःसन्ति इतोऽनन्तरंविविधान् बसान् पनु • टोका
पूर्वयोऽनुक्रमेणवक्ष्यामि १०६ (तेजवाजयबोधब्बा पोरालायतसातहा इच्चे एतसातिविहातसिम्भए सुणहमे१०८ तेजोयोगात्ते जांसि अग्नयस्तइति नोजौवा अपि तथोक्ताः एवं वायवश्व तथा उरालायाइति उदाराः एकेन्द्रियापेक्षयास्थूलाहीन्द्रियादयश्चत्रसाइत्वे तेत्र सास्त्रि विधाः सन्ति तेषां तेजोवायुद्दौन्द्रिया दीनां भेदान् मे कथयतोयूयं शृणुतइति अवयद्यपि तेजोवाव्योश्वस्थावरनामकर्मोदये पित्र सनं नास्ति ततस्तेजीवाव्योर्गतिमत्वात् उदाराणां च लब्धिती पित्र सत्व अस्ति यतोहित्रस्यन्ति देशाद्देशान्तरं संक्रामन्तीतित्रसाः इति व्य त्यत्ति: १०८ [दुविहातेउजौवायसुहुमाबायरातहा पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहापुणो १०८] तेजोजोवाः शूक्ष्मास्तथास्त थाबादराश्च ते पुनः पर्याप्तापर्याप्तभेदेनद्विविधाः सन्ति शूमाः अग्नि जीवाः पर्याप्ताः अपर्याप्ताश्यवर्त्तन्ते १०८ [बायराजेउपजत्ताणगहातेवियाहिया इङ्गालेमुम्मुर अगणी अच्चिजालातहेवय ११०] ये बादराः पाप्ता अग्नि जीवास्ते अनेकधाव्याख्याता अङ्गारः प्रज्वलितेन्धनखण्डरूप: मुमरोभश्ममिचिताग्निकणरूपोग्निः अग्निश्चोक्तभेदात् अतिरिक्त: अर्चिः प्रदौपादे लाछिन्नमूला साज्वाला उपरिष्टात् स्फुरन्ती
मेए सुणेह मे १०८ ॥ दुविहा तेउ जीवाओ सुहमा बायरा तहा। पज्जत मपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो १०६॥ बा
यरा जेउ पज्जत्ता गोगहा ते वियाहिया। दूंगारे मुम्म रे अगणी अच्चिजाला तहेवय ११० ॥ उक्का विज्जुय बोधब्बा 8 सांभलो मुझने कहतांप्रत १०७ विहुप्रकारतेऊकायनाजीव एक सूक्ष्मवीजावादर तिमपर्याप्तावीजा अपर्याप्ता इम ए बिभेदेवली १०८ वादरदेखता जे
अग्निना जीवपर्याप्ला अनेकप्रकारित कया वलसा खोरडा अग्निना कणीया धनसहित प्रगनि मलसहित से अर्चिझाला अपरि भडकर बलसी तथा
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ०म० ज०४१ मा. भाग
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* दृश्यन्ते तथैवेति पद पूरणे ११० [उक्काविजुयबोधव्वागहा एवमाइओ एगविह मनाणत्ता सहमाते वियाहिया १११] उस्काम्नि स्तारावदाकायात्यतन् १ टोका
योदृश्यते विद्युत्तडिदग्निः एव आदिकः अनेकधाअग्निजौवाबोधव्याः तेग्नयः सूक्ष्मा एकविधा एव अनानात्वा व्याख्याताः १११ [सुहमासब्बलोग मि लोगटेसेय बायरा एत्तोकालविभागन्तु तैसि बुच्छच्च उब्बिई ११२] शूक्ष्माग्नि जौवाः सर्वस्मिन् चतुर्दशरज्वामलोकेसन्ति वादरा अग्निकाय जीवालोक, देशे चतुर्दशरज्वात्मलोकस्यैकदेशेसाई द्वितीयद्दौपेसन्ति इति क्षेत्रविभागउक्तः इतोऽनन्तरं तेषां अग्मिकायजीवानां चतुर्विध कालविभाग' वच्चे ११२ [सन्त इपप्पणाइया अपज्जवसियावियठिई पडुच्चसाइया सपज्ज वसियाविय ११३] अग्निकायजीवाः सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अनादिरहितास्तथा अपर्यव सिताः स्थितिं प्रतीत्य आयुराश्रित्यसादिकाः सपर्यवसिताः अपि अन्त नापि सहितावर्तन्ते ११३ [तिब्रेव अहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया पाउ
णे गहा एबमाओ। एगविह मनाणचा मुहुमा ते बियाहिया १११॥ सुहमा सब लोग मि लोग देसय बायरा। इत्तो काल विभाग'तु तेसिं बोच्छ चउब्बिह ११२॥ संत पप्प णाईया अपज्जवसियाविय । ठिईपड़च्च साईया सप
ज्जवसियाविय ११३ ॥ तिन्नेब अहोरत्ता उक्कोसण वियाहिया । आऊ ठिई तेजणं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ११४ ॥ असंख वलौ१०८ तारानीपरि परि ऊपरिथकोपडतौदीसे वीजलौजाणवी अनेकप्रकारे एहआदर एकजभेदछे परंवौजीभेदनहीसूक्ष्म अगनिकायनाकह्या११०
ते सूक्ष्म अगनि सर्वलोक चौदराज व्यापी रह्याछे एकदेशने बिखे वादर एतलानंतर कालनी विभाग भेद तेहनी कहेस्युचिई प्रकार १११ प्रवाहि % पायौ अनादिके अंतपणिछे थिति प्राचौसादि सहित अंतपणिछे ११२ त्रिणि अहोरात्रि पूर्णप्रहर चोवीस उत्कष्टौस्थिति कहौ तीर्थ कर पाऊ
राय धनपतसिंह बाहादुर का मा .सं.उ.४१मा भाग
भाषा
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१० टौका ठिईते ऊणं अन्तोमुहुत्त जहबिया ११४) तेजसा तेजो जोवानां उत्कृष्टेन बौणि अहोरात्राणि पायुः स्थिति ाख्याताः जघनित्रका १५ आयुः स्थितिरन्तमहत' जयाइत्यर्थः ११४ भव स्थिति मुनाकाय स्थिति माह ( असंखकाल मुबोस अन्तीमुहुत जहवयं काय ठिई
ते जण तं कायं तु अमुच्चो ११५) तेजसान्तेजस्काय जीवानां खं कायं अमुञ्चतां उत्कृष्ट असंख्य कालं स्थितिर्भवति तेजस्कायस्थो जीवो * मृत्वा अनन्तरं तेजस्काये एव उत्पद्यते तदा असंख्य कालं तेजस्काये तिष्टतौत्यर्थः जघन्य अन्तम इत्त तिष्टति ११५ अब कालस्थान्तरं
वदति [अणन्त काल मुक्कोसं अन्ती मुडुत्त जहवयं विजढम्मि सए काए तेऊ जौवाण अन्तरं ११५] तेजो जीवानां स्वकीये तेजस्कायेयके सति उत्कृष्ट' अन्तरं अनन्तकालं तेजस्काय जौवा स्तजस्कायात् श्रुत्वा अपरस्मिन् काये उत्पद्य पुन स्तेजस्काये उत्कृष्टं पनन्त कालस्यांत रेणोत्पद्यते जघन्य अन्तरं चेद्भवति तदा अन्तमुहतं भवति नव समया दारभ्य किञ्चिदूनं घटिकाइयं अन्तर्मुइत मुच्यते ११६ [ एएसि 8 वो चेव गंधो रसफासी संठाणा देसी वाघि विहाणाद सहस्मसो ११७] एतेषां अग्निकाय जीवानां वर्म तो गन्धतो रसतः स्पर्थत: संस्थाना
काल मुक्कोसा अंतोमुहत्तं जहनिया। काय ठिई तेजणं तं कायंतु अमुची ११५ ॥ अणंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए तेज जीवाणं अंतरं ११६॥ एएसि बन्नओ चेव गधयो रस फासो। संठाणा देसओ
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.स.ह.४१ मा भाग
खानीस्थिति अग्निकायनी अंतर्मुहत जघना स्थिति ११३ असंख्यातकाल उतक्लष्टी अंतर महत जघना कायास्थिति तेऊ कायनी ते काय अण मूकती ११४ अनंतीकाल उत्कृष्टो अंतहत जघनापण बिहडी पीतानौकायमू को तेज कायना जीवने वलत' अंतरहुवे ११५ ए अग्नीकायना वर्ण
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उ.टौका
देशतवापि सहश्रयो विधानानि भेदा भवन्ति११७ (दुविहावाउ जीवाउ मुहमावाय रातहापज्जत्तमपज्जत्ताएवमेए दुहापुणी ११८) वायु जौवा विविधा ४ शूक्ष्माबादरास्ते पुनः पर्वाधा पर्याप्तभेदेन विविधासन्ति।१८ [वायराजेउपज्ज तापंचहातपकित्तिबाउकलियामंडलियाघणगुजासुदवायाय११८] येबादरा
वायुकाय जीवा पर्याप्तास्ते पुनः पञ्चधा प्रकीर्त्तिता पञ्चकथनमावतः वायवोहि अनेकविधाः सन्ति उत्कलिका वायुर्यः स्थित्वा २ वाति १मण्डलिका ॐ बायुः वातूलिकावायुः घनोघनरूपो वायुर्घनवायुः रत्नप्रभाद्यधीवर्ती घनोदधिस्तु विमानानां आधारो हिम पटलकल्योवायुः गुजन् वातौतिगुजावायुः ४ शुद्धावायवस्तोकं २ येवान्ति ११८ [सवट्ठगवा यायणेगहाए वमाईओ एगविहमनाणत्ता सुहुमाते वियाहिया १२०] संवत क वायवस्ते यैर्वायुभिस्तृणा
वावि विहाणाई सहम्मसो ११०॥ दुविहा वाउ जीवाओ मुहुमा बायरा तहा। पज्जत्त मपज्जत्वा एवमेए दुहा
पुणो ११८॥ वायरा जेउ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। उक्कलिया मंडलिया घण गुजा मुडवायाय ११६ ॥ __ संवट्टग वायायणेगहा एवमाइओ। एगविह मनाणत्ता सुहमाते वियाहिया १२० । सुहमा सबलोग मि लोगदेसैय । थको गधथको रसथको फरसथको संस्थानभेदथ की विधानभेद सहस्र ११६ वह प्रकारे वाऊकायना जीव एक सूक्ष्मनानां बिजा बादर ते मोटा तिमज एक पर्याप्ता बोजा अपर्याप्ता एबेई प्रकार दूम ११७ वादर वाऊकायना जीव पर्याप्ता पांचे प्रकार कह्या तीर्थ कर लत्कलिका रही २ वाइते वायमंडलो यावंतो लिया घन रूपते धनवात: गुजता वाइते गुजवात शुद्धवात ते थोडे थोडे वाये११८ जिणे वायर तृणादिलेई अनथिना खेते सवर्तक अनेक घणे प्रकारे आदि देईने इत्यादिक एकभेद पणि अनेकप्रकारे नही सूक्ष्म कह्या तीर्थ कर ११८ सूक्ष्म चौदराजमाहि लामै लोकने एकदेसे
राय धनपतसिंह बाहादुर का आसं ०४.१मा भाग,
भाषा
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उौका अ०३६ १०५७
सूत्र
भाषा
दयः एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं मौयन्त एवमादयो अनेकधा व्याख्याताः परंवायु जाति सामान्येन एक विधाः अनानात्वा स्तौर्थ करेस्ते शूक्ष्मवायु काय जीवा वाख्याताः १२० (सुहमा सब्बलोयंमि लोगदेसेय बायरा एत्तोकाल विभागंन्तु तेसिबुच्छं चउब्विहं १२१ ) शूक्ष्मा वायुकाय जीवास्सर्वस्मिन् चतुर्दश रज्वात्म लोकेस्थिताः सन्ति बादरा बायुकाय जीवा लोकैक देशेस्थिताः सन्ति इति चेत्रविभाग उक्तः इतो अनन्तरं तेषां वायुकाय जीवानां चतुर्विधं कालविभागं वच्ये १२१ [संतद् पप्पणाइया अपज्जवसिया विय ठिद्र पहुच्च साइया स पञ्जवसिया विय १२२] सन्ततिं प्रवाह मार्गमाश्रित्य वायुकाय जीवाः अनादयस्तथा अपर्यवसिता अपि पुनः स्थितिं प्रतीत्यते सादिकाः स पर्यवसिताश्च वर्त्तन्ते १२२ (तिने व सहमाई' वासाणकोसिया भवे आउठिई वाऊणं अंतोमुद्दत्त' जहव्रिया १२२) वायुनां वायूकाय जीवानां बौणिवर्ष सहस्राणि उत्कृष्टा आयुः स्थितिर्भवति जघनित्रका स्थितिरन्त
बायरा । इत्तो काल विभाग तु तेसिं बोच्छ' चडव्विहं १२१ ॥ संत पप्प गाईया अपज्जव सियाविय । ठिदू पहुच साईया सपज्जवसियाविय १२२ ॥ तिन्नेव सहमा वासाणु क्कोसिया भवे । आऊ ठिई वाऊणं अंतामुहुत्त' जह न्निया १२३ ॥ असंखकाल मुक्कासा अंतामुहुत्त' जहन्निया । काय ठिई वाऊणं तं कायंतु अमुची १२४ ॥ अत बादर जौव एतलानंतरं कालनो विभाग भेद तेहनो चिह्न प्रकारे कहसु १२० प्रवाह श्री अनादि अंतपणिक स्थिति श्राश्रसादि सहित स पर्यवसित अंतर पणिछ' १२१ विणिहजार वरस उत्कृष्टो स्थिति होइ बाउखानी स्थितिवायरानी अंतर्मुहर्त्त जघन्य स्थिति १२२ असंख्याता कालनी उत्कृष्टौ अंतर्मू हर्त्त जघना कार्यस्थिति वाउनी वायुथको मरो वायुमाहि ऊपजे ते वाउकाय मुके नही १२३ अनंताकालनो उत्क्लष्टो अंतर
१२२
RX*** शदर का घ
राय धनपतसिंह ब
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• टोका
०२६
१०५८
सूव
भाषा
भवति १२२ अथ काय स्थितिमाह (असंख कालमुकोस' अंतोमुहुत्त' जहवयं कार्यठिई वाज तं कायंतु श्रमुचो १२४) वायूनां वायुकाम जीवानां स्व'कायं वायुकायं श्रमुञ्चतां असंख्य य कालं उत्कृष्टास्थितिर्व्याख्याता जघनित्रका स्थितिरन्तर्मु हत्तं भवति वायुकायात् चत्वा पुनर्वायुकाये एव उत्पद्यते तदा उत्कष्टो असख्ये य कालं जघना तथांतर्मुहुर्त्त स्थितिर्व्याख्याता इत्यर्थः १२४ अथ कालस्यान्तरमाह (अयंतकालमुकोस' अंतोमुडुत्त' जहवियं विजमि सए काए वाजजीवाण मंतरं १२५) वायुजीवानां स्वकीये कायेत्यक्ते सति उत्कष्टं अनन्तकालं जघना अन्तर्मुहर्त अन्तरं भवति तदा उत्कष्टतो अनन्तकालस्यान्तर भवति जवनातवांतर्मुहर्त्त' अन्तरं भवति १२५ (एएसि वनश्रीचैव गंध श्रो र सफासची सौंठाणा देसी वावि विहाणार सहसो १२६) एतेषां उत्कलिकादि वायुनां वायुकाय जीवानां व तो गन्धतो रसतः स्पर्शतस्संस्थानादेिशतचापि सहसो विधानानि बहवोभेदाः भवन्तीत्यर्थः १२६ एवं तेजोवायुत्रसान् उक्का उदारत्रसान् आह ( श्रीराला तसाजेऊ च विहाते पकिश्तिया बेंदियतेंदिय चउरोपंचिंदिया चेव १२७) ये उदारास्त्रसाधींद्रियादयस्ते चतुर्विधा प्रकीर्त्तिताः हौन्द्रिया १ स्त्रीन्द्रिया २ यतुरिन्द्रियाः २ पचेन्द्रियाः ४ चैव पदपूरणे एतेनसा उदारा काल मुक्कासं अंतामुहुत्त जहन्नयं । विजढंमि सए काए वाऊ जीवाणं अंतरं १२५ ॥ एएसिं बन्नच चेव गंधओ रस फासओ संठाणादेसवावि विहाणा' 'सहम्मसी १२६ ॥ ओराला तसाजेऊ चउबिहा ते पकित्तिया । वेद्र दिय तेदू
अंत जघना पोतानौकाया मूकेतो वायुकायांना जीवने एतलो अंतर पडे १२४ एवाट कायना वर्ष थको ईत्यादि वर्ष १२५ जदारिक ज वेद्रीयादि वस जीव चिह्न प्रकार कहिया बेंद्रीकाया जीव तेंद्रोकाया काया? जोभर नासोका चहरिंद्रोकाया रसना प्राणनाक ४ पंचेंद्री १२६
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ट्रायधनपतसिंह वाहादुर का श्र० सं०० ४१मा भाग
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अ०३६
बृहत् शरीराः १२७ (बेंदियायजे जौवा दुविहातपकित्तिया पज्जत्तमपज्जतातेसि भेए मुणेहमे १२८) हौन्द्रियाः कायरसनेन्द्रिय युक्ताजौवास्ते द्विविधाः इ.टौका
* प्रकीर्तिताः ते के होन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्ताश्च एवं अमुनाप्रकारेण एतेहौन्द्रियाः सन्ति इति वाक्य मे कथयतोयूयं शृणुत १२८ (किमिशी सोमङ्गलाचेव १०५८ अलसामाइ बाहबा वासौमुहाय सिप्पीय संखासखणगातहा १२८) [पलोयाणजया चेव तहेवय वराडगा जलुगा जालगाचेव चन्दणाय तहेवय १३०]
क्कमयोऽपवित्र जीवाः च पुनः सोमङ्गलाहीन्द्रिय जीवविशेषाः अलसावर्षाकाले मृत्तिकोडवाः माळवाहकाचूडेलगिजाई इति लोक प्रसिद्धिमतीहिन्द्रिय जौवाः वासौमुखावासी सहयवदनाजीवास्तथा शुक्तयोमुक्ताफलयोनयः पाहाः हहिजलजाः तथा शहनकालघवीवर्षास मृत्तिकोद्भवाः १२८ पजुका च पुनरण पल्लकास्तथैव वराटकाः कपर्दका जलूकारुधिरपाः जालका अपि वौन्द्रियजीवविशेषाः तथैव चन्दनाः प्रचाः येषां अवयवास्थापनायां स्थाप्यते
दिय चउरी पंचिंदिया व १२७॥ बेदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिमा । पज्जत मपज्जत्ता तेसिं मेए सुणेह मे १२८॥ किमिणो सामंगला चव अलसा माडूवाहया । वासी महाय सप्पीया संखा संखणगा तहा १२६ ॥ पल्ली
याणुल्लोया चेव तहेवय वराडगा। जल्लगा जालुगा चेव चंदणाय तहवय १३०॥ दूदू बेंदिया एए णे गहा एवमा * वेद्रिय जे जीव विह' प्रकार ते कश्या तीर्थकर एकपर्याप्ता वौजा अपर्याप्ता तेहना भेद सांभतिरे मिष्य १२७ कमि १ सोमंगल वेंद्रियजाति अलमीया भाषा
चुडेल वांसलोना मुख सरिखां मुखते मीती संबंधिया जीवते सर्प शंख जीवन नखवेंद्रिनाशाजीव १२८ पकजीव तथा वडागकोडीनाजीव जलाना * जीव जालकजीव चंदनगोपचा तहना जीव १२८ दणे प्रकार वेद्रिय जीव अनेक वर्ष प्रकार लोकने एक देशे ते सर्वे बेंद्री परं सर्वशीक मे नही १३०
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.म.उ. ४१मा भाग
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bFr
१०६०
टिया मध्ये केचित प्रसिहाः केचित् अप्रसिद्धाः सन्ति १३० [इइबेन्दिवाएएणेगहाएवमाइग्री लोएगदेसे ते सव्वे न सम्बत्ववियाहिया १३१] इति मनाप्रकारेण एतेहीन्द्रिया एव मादयोऽनकधाः अनेकनामानीवर्तन्ते ते सर्वेहीन्द्रियाजीवालोकैकदेशे चतुर्दशरन्चामलोकस्य एकदेशे जला वयादौ तिष्टन्ति सर्वत्र न व्याख्याताः सन्ति १३१ [सन्तर' पप्पणाईया अपज्जवसियाविय ठिई पडुचसाईया सपज्जवसियाविब १३२] ते हौन्द्रियास्मन्ततिं पवारमाथित्य पनादयः तथा अपर्यवसिता अपि सन्ति स्थितिं भव स्थितिं प्रतोत्यसादिकाः सपर्यवसिता पपि च सन्ति १२२ पूर्व' भवस्थिति बदति (वासार बारमेवउ उकोसेणं वियाहिया बेंन्दिय पाउठिई अन्तीमुहुत्त जहबिया १३३) हौन्द्रियाणां हादशवर्षाणि आयु:स्थि तिरुत्तष्टाव्याख्या तास्ति जघन्यतोन्तम हत्त न वसमयादारभ्य किञ्चिदूनं घटिकाइयं आयुषेस्थिति ाख्याता १३३ अथ कायस्थिति माह (संखिज्जकालमकोस अन्ती
ओ। लाएग देसे ते सब्बे न सब्बत्य वियाहिया १३१ ॥ संत पप्प णाईया अपज्जव सियाविय ठिडू पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय १३२॥ वासाई वारसेवउ उक्कासण वियाहिया। बेदिय आउ ठिई अतीमुहुत्तं जहन्निया १३३
संखेज्जकाल मुक्कोसा अतोमुहुत्त जहनिया। बेदिय काय ठिई तं कायंतु अमुचओं १३४ ॥ अणं तकाल मुक्कासं * संतति प्रवाहे धादि रहित अपर्वबसित अनंतपोण थिति आयी आदि सहित अने अनंत अंतवीण १३१ वरस बारे १२ उतनष्ठी की वेंटिय जीवने उखानी स्थिति अंतर्मुहुर्त जघना आऊखी १३२ संख्याता कालनी उत्कृष्टी अंतर्मुहुर्त जघनापण १३२ वैद्री जीवनो कायस्थिति तेहनी माई रहित वेंट्रियकाय चमकताने १३३ अनंतकाल उत्तष्टी अंतर्मुहर्त जघना बेंद्री जीवनी आतरोए कधी खकायकांडी वनस्पती माहि
राब धनपतसिंह बाहादुर का पा सं० उ. ४१ मा भाग
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१० टोका
६१
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मुहुत्त जहवयं बेंदियकायठिई तं कार्य तु अमुच्चो १३४) हीन्द्रियजीवानां तं स्वकीयकायं हौन्द्रियकायं अमुञ्चता कायस्थितिमत्तष्टा सख्ये यकालं स्थितिजघन्यतीतहत स्थिति रस्ति इत्यर्थः १३४ अथ कालस्यांतरमाह [अणंतकालम कोस अन्तीमुहुत्त जहवयं दियजीवाण' अंतरेयं विया हियं १३५] हौन्द्रिय जीवानां स्वकीय योनित्यागे सति अपरस्मिन्काले उत्पद्यपुनहीन्द्रिय यो नौ एव उत्पद्यते तदा उत्कृष्ट अन्तरं अनन्त कालं जघन्यतीतहत कालस्यान्तर' भवति यदाहि हौन्द्रियो जीवः स्वयोनेश्च प्रत्वावनस्पती उत्पद्यते तदा अनन्तकालं तिष्टति ततोऽनन्तकाल स्यान्तरं भवति पश्चात्पुनहीन्द्रियत्वे उत्पद्यते इत्यर्थः १३५ (एएसिवनीचेव गन्धीरसफासी सण्ठाणादसोवावि विहाणाइ सहस्मसी १२६) एतेषां हीन्द्रि याणां वर्णतोगन्धतीरसतः स्पर्णतः संस्थानादेशतश्च सहस्र सोबइनिविधानानि भेदा भवन्ति इति शेषः १३६ अथ त्रौन्द्रियानाह [ तेन्दियात्री जेजीवा दुविहातपकित्तिया पज्जत्तमपज्जत्ता तेसि भेएसुणहमे १३७] येत्रौन्द्रियजीवाः शरीररसनाघ्राणेन्द्रिय त्रययुक्तास्तेपर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधाः प्रकीर्तिताः तेषां नौन्द्रियजीवानां भेदान् मम कथयतो यूयं शृणुतः १३७ (कन्थ पिपौल उद्दसा उक्क लद्देहियातहातणहारकट्टहारा मालूगापत्तहारगा १३८)
अतोमुहुत्त जहन्नयं । वेदिय जीवाणं अंतरेयं वियाहियं १३५ ॥ एएसिं वन्नओ चे व गधा रस फासओ। संठाणा देसओवावि विहाणाडू सहस्मसी १३६ ॥ तेंदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्त मपज्जत्ता
राय धनपतसिंह बाहादुर का पास उ. ४१ मा भाग
*जाईतु १३४ एवेंद्रो जीवना वर्णथको गंधधको रसबको फरसथको संस्थानथको विधानभेद सहस्रगमे होई१३५ तेंद्रीजौके जीव तेविह भेदे श्रीतिर्थ
कर कह्या पर्याप्ता अपर्याप्ता तेवेंद्रो जौवना भेद सांभल हे शिष्य १३६ कुथुयाकौडौ जाति उहंसा जीवविशेष उक्कलिया उदेहि जीवणहार कट्टहा
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(कप्पासमिनाया तिन्दगाती समिञगा सद्दावरौय गुम्यौय बोधव्वा इन्दगायगा १३८) [इन्दगोवग माईया गहाएव माईश्री लोएग देसे ते * सब्वे न सम्बत्य वियाहिया १४.] कन्यु पि पौल्यु हंसा कन्य लघुशरीर स्त्रौन्द्रिया जौव: पिपौलिः कौटिकाः उद्दसास्त्रीन्द्रिय जाति विशेषाः
उत्कलिकोजन्तु विशेषास्तथा उपदेहिकाः तृणहार काष्टहारा एतपि वीन्द्रिय जीवविशेषाः मालूकाः पन हारकाः एतपित्रौन्द्रिय जीव विशेषाः १३८ • कर्पासास्थिजाता स्ति'दुकाः पुनस्तं तु समिनका अपित्रीन्द्रियजीव विशेषाः सदावरी च पुनर्गुणी इति यूकाः तथा इन्द्र काय कायका इत्यपि
कुत्रचिल्लोक प्रसिद्धाः १३८ इन्द्र गोपकादिकाः इंद्र गोप काम मोला इति प्रसिद्धः एवमादिका स्त्रौंद्रिया अनेकधा जौवास्ते सर्वे लोकैक ॐ देणे व्याख्याता सर्वत्र न व्याख्याताः १४. [ सन्तइ पप्पणाईया अपज्जव सियाविय ठिई पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय १४१ ] एते वीन्द्रिय जीवाः
तेसिं भेए मुह मे २३७ । कुधू पिपीलि उदंसा उक्कलुहेहिया तहा। तणहार कट्ठहाराय मालुगा पत्तहारगा१३८ । कप्यासट्टिमिंजाय तिंदुगाओ समिंजगा। सयावरीय गुम्मीय बोधब्बा इंदगाईया १६८ । इंदगावग माईया रोगहा
एव माइओ लोएग देसे ते सब्वे न सब्बत्य वियाहिया १४० | संत पप्प णा या अपज्जव सियाविय। ठिई पडुच्च रादि जे जौव जाण मालका पत्रहार १३७ कपासना जीव अठमिंजी जौब तिंदुक जीवतो समि' जगजीव सदावरी जीवघकाश तपदी जीव जाणि वाईदकाइय जीव १३८ हूँद्रगोयमामोला प्रमुख अनेकप्रकार त्रद्री जीव लोकने एकदेशे ते सर्व सगले लोके कह्या नथौ १२८ संतति प्रवाह अनादि अने अपर्यवसित केहडी भवथिति कायथिति आधी आदिछ भने सपर्यवसित सांत पीण नौच्चे १४० भोगणपंचास दिवस उत्कष्टी स्थिति कही तेंद्री
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०९०४१मा भाग
भाषा
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१०॥
* सन्ततिं प्राप्य अनादयोऽपर्यवसिताः स्थितिं भवस्थिति कायस्थितिं प्रतीत्यसादिकाः सपर्यवसिता अपि १४१ (एगूणपत्रहीरत्ता उक्कोसेणवियाहिया
तेन्दियाउठिई अन्तीमुइत्त जहनिया१४२) वींद्रियजीवानां एकोनपञ्चाशद्दिनानि उत्कष्टा आयुः स्थितिाख्याताः जघन्यकाअन्तर्मुइत आयुस्थिति * रस्तौतिभावः १४२] अथ कायस्थिति माह [सखिज्जकालमुक्कोस अन्तोमुडुत्त जहवयं तेन्दियकाठिई तं कायं तु अमुच्चयो१४३] पौंद्रियाणां स्वकार्य ४ बौद्रियकार्य अमुञ्चतां मृत्वा तत्र वोत्पद्यमानानां उत्कृष्टा संख्ये यकालं स्थितिः जघन्यतस्तु अन्तमुहर्त एव स्थितिरस्ति १४३ अथ कालस्यांतरमाह [अर्णतकालमुक्कोस अन्तीमुहुत जहब्रयन्ते इन्दियजीवाणं अन्तरं तु वियाहियं १४४] त्रींद्रियजीवानां स्वकायात् यु त्वा अनात्रयो नौ उत्पद्यते तदा तु उत्क्वष्ट' अनन्तकालं अन्तरं भवति वनस्पति कायेऽनन्तकालस्य सम्भवात् जघना अन्तम इत्त व्याख्यातं १४४ (एएसिवनीचेव गन्धोरस
साईया सपज्जब सियाबिय १४१। एगुणपन्न हीरत्ता उक्कासिण बियाहिया। तेदिय आउ ठिई अतोमुहुत्तं जह निया १४२ ॥ संखेज्ज काल मक्कासा अतोमहत्तं जहनिया। तेडू दिय काय ठिई तं कायतु अमची १४३ ॥ अयंत
काल मुक्कासं अंतोम हुत्त जहन्नयं । ते इंदिय जौबाणं अतरेयं विभाहियं १४४ ॥ एएसिं वन्नओ चे व गधो रस जीवनौ पाउखानी स्थिति अंतर्मुहर्त जघना १४१ संख्यात काल उत्क्कष्टो अंतर्मुहत जघना तेंद्रौनौकाय स्थिति तेहनी ते माहि रहे तेंद्रीकायना % अमूकत् १४२ अनंतकाल उत्कष्टो अंतमहतं जपना चेंद्रीय जीवनी प्रांतरो को एक प्रकार १४१ एतेंद्री जीवने बर्मथकी गंधथको रसथको
फरसबको संस्थानना आदेशथको विधानभेद सहस्रगम र १४४ चौरिद्री जे जीव विभेदे कसा तीर्थ कर पर्याप्ता अपर्याप्ता तहनाभेद सांभलि
रायधनपतसिंह वाहादुर का पा.सं.२०४१ मा भाग
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NM
30
फासो सहाणादेसीवावि विहाणाइ सहस्म सो १४५) एतेषां नौंद्रियजीवानां वर्णतोगन्धतीरसतः स्मर्यतच संस्थानादेयतश्चापि सहयथोविधानानि छ टौका
भवन्ति१४५ अथ चतुरिट्रियानार (चउरिन्दियायजजौवा दुविहातपकित्तियापज्जत्तमपज्जत्ता तैसि भएसुधहमे १४८) च उरिन्दियाये जोवाः स्मथ नरसन प्र.३६
घाणचक्षुसहितास्ते च पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विधाः प्रकीर्तिताः तेषां भेदाः मेकथयतीयूयं शृणुत १४६ (अन्धियापोत्तियाचेव मच्छियामसगातहा भमरे * कोडपयङ्ग यढि कणेकुङ्कणेतहा १४७) (कुकुडेसिङ्गरौडौय नन्दावते यविच्छिए डोलेयभिङ्गरोडीय विरली अच्छिवेहए १४८) [अच्छिलेमाह एअस्थि
रोडएचित्तपत्तए उहिं जलियाजलकारीय नौययातंबगाझ्या१४८] तिसभिर्गाथाभिश्चतुरिन्द्रियजीवानांनामानिाह अधिकाच पुनः पौत्तिका मक्षिका तथामशका भ्रमरस्तथाकोटः पतनाथ तथाढि' कणस्तथा कुखणः एते चतुरिंद्रियाजंतवः १४७ पुनः कुर्कुट: शृङ्गरौटीनन्द्यावत वृश्चिकटोलो भृङ्गरीट कविरलौ अक्षवेधकः १४८ अक्षिलः मागधः अक्षःरोडकः चित्रपत्रकपधि जलक जलकारौ नौच्चकताम्रक १४८ एतानि देशीयनामानि [इइचउरिन्दि
फासी । संठाणा देसओवावि विहाणाडू सहस्मसी.१४५ ॥ चउरिंदियाओ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्त मपज्जता तेसिं मेए मुणेह मे १४६ ॥ अंधिया पुत्तिया चे व मच्छिया मसगा तहा। भमरे कौड पयंगेय टिंकणे
कंकणे तहा १४७॥ कुक्कुडे सिंगिरौडीय णंदाबत्तेय विछिए । डोले भिंगारीय विराली अच्छिवेहए १४८ ॥ अथिले है शिव १४५ अंधियाजोव तथा प्रकारे पोतीयाजीव माखौ मसाजीव तिम भमरा कोडोजाति पतंगीया ढंकण जीवकुकुण जीव तिम१४६ कुकुडजीव सिंगरौडौजीव नंद्यावर्तनामवौडुजीव डोल भिंगरोडौजीव विरलौजीव अक्षवेधक १४७ पच्छिलजीव मागधजीव अक्षौरोमजीव विचित्रजीव चित्रपत्र
राय धनपतसिंह बाहादुर का पासं.उ. ४१मा भाग
सूव
भाषा
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उ.टौका
याएए गहाएवमाइओ लोगस्म एगदेसन्मिते सब्वे परिकित्तिया १५०) इति अमुना प्रकारेण एतेचतुरिट्रियाएवमादिका अनेकधाः सन्ति ते सर्वे चतुरिंद्रियालोकस्य चतुर्दशरज्वात्मलोकस्यैकदेशेपरिकीर्तिता १५. [सन्तईपप्पणाझ्या अपज्जवसियाविय ठिई पडु नसाइया सपज्जवसियाविय १५१] सन्ततिं प्राप्यते जोवा अनादय स्तथा अपर्यवसिताश्चापि भवस्थितिं कायस्थितिं प्रतोत्यसादयः सपर्यवसिताः अपिसन्ति १५१ [छच्चे वय मासाऊ उक्कोसेण वियाहिया चउरिन्दिय आउठिई अन्तीमुहुक्तं जहबिया १५२ ] चउरिन्द्रियाणां उत्कृष्टा षण्मासा आयुः स्थिति र्व्याख्याता जधन्धिकाचान्त, इत्त स्थिति ाख्याता १५२ भवस्थिति उक्ताकायस्थिति माह [संखेज्जकालमुक्कोसं अन्तीमुडुत्त जहनिया चउरिदियकायठिई तं कायं तु अमुञ्चओ १५३] चतुरिन्द्रियाणां व कार्य अमुच्चतां पुनः पुनस्तत्र वोत्पद्यमानानां संख्ये यकालं उत्कृष्टास्थिति रस्ति जपन्यिका च अन्तम इत
मोहए अस्थि रोडए बिचित्त चित्तपत्तए। उहिं जलिया जलकारिय नीयातंतब गाईया १४६॥ दूदू चउरिंदिया एए ___ोगहा एब माओ। लोगस्म एग देसंमि ते सब्बे परिकित्तिया १५० । संतपय णाईया अपज्जव सियाविय । ठि
पड़च्च साईया सपज्जबसियाबिय १५१ ॥ छच्चे वय मासाउ उक्कोसण वियाहिया। चउरिदिय आउ ठिदू अतोन हुत्तं जीव भोहिंजलियाजीव जलकारौजीवनौयाजीव जाणवा तंबगजीव एलोकरूठि १४८ इण प्रकारे चौरिंदौजीव अनेकघणे प्रकार एवमादिक लोक चौद राजना एकदेशने भागे ते सघला कह्या तीर्थकर १४८ संतति प्रवाहे अनादि अपर्यवसित अनंतपणि थिति आधी आदि सहित अने अंतपण १५० कमासनी उतकृष्टौ स्थित कही तीर्थ कर देवे चउरिंद्री जीवनी पाउखानौस्थित अंतमहतं जघनास्थीती आउखो १५१ संख्याता कालनी उत्कृष्टी
१३४
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
भाषा
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१. टीका
यावव्याख्याता १५३ अथ कालान्तरमाह [अणन्तकालमुक्कोसं अन्तीमुडुत्त जहन्नयं विजढमिस एकाए अन्तरेयं वियाहियं १५४] चतुरिद्रियाणां स्वकीयेकायेत्यक्ते सति पुनरन्यस्मिन् काये उत्पद्य पुनश्चतुरिंद्रियकाये उत्पद्यते तदा उत्कृष्टं अन्तरं अनन्त कालं जघन्यतीत, इत्त अन्तरं जयं१५४ (एएसिंवबो चेव गन्धोरसफासी सण्ठाणादेसीवावि विहाणाई सहस्ससो १५५) एतेषां चतुरिंद्रियजीवानां वर्णतोगब्धतीरसत: स्पर्शत: संस्थाना
देयतश्चापि सहस्रसोविधानि बहवोभेदाभवन्ति १५५ अथ पञ्चद्रियभेदानाह [पञ्चेन्दियायजजौवा च उब्बिहाते वियाहिया नरध्यातिरिक्वाय मण * प्रादेवाय आहिया १५६] पञ्चद्रियाश्चये जीवास्ते चतुर्विधाव्याख्यातास्ते पञ्चद्रि जीवानैरयिकास्तिर्यची मनुजाय पुनर्देवा आख्याता स्तीर्थ करें
जहनिया १५२॥ संखेज्जकालमुक्कोसं अंतीमुहुत्त जहन्निया । चउरिदियकायठिई संकायंतुअमुचओ१५३। अणंतकाल मुक्कोसं अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजलंमि सएकाए अंतरेयं वियाहियं १५४॥ एएसिं पन्नी चेव गधोरस फासी। संठाणा देसओवाबि विहाणा' सहस्मसी१५५॥ पंचिंदियात्री जेजीवा चविहाते बियाहिया। नरडूय तिरिक्खाय
मणुया देवाय पाहिया १५६ ॥ नेरड्या सत्तविहा पुढबीसू सत्तसू भवे । पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिभेए सुणेह मे १५७॥ * अंतर्मुहर्त जघना चौरिट्रि जौवनी कायस्थिति ते कायने मुकेनहो१५२ अनंतोकाल उत्कृष्टो अंतर्मुहुर्त जघनापणे पोतानीकायामू केतजेडू एतलो अंतर कह्यो श्रौतीर्थकर १५३ एवेंद्रीय जौवना वर्णथको गंधथको रसथको फरसथको संस्थानना आदेशथको विधानभेदसहस्र गमे १५४ पंचेंद्रीय जजीव चिहप्रकारे ते कह्या तीर्थ करे नारकौर तिर्यच २ मनुष्य ३ देवता कह्या तीर्थ करे १५५ नारको साते प्रकार रत्नप्रभादि सात पृथिवीने बिखे
राय धनपतसिंह वाहादुर का था. सं. उ०४१मा भाग
भाषा
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१.६७
उ टोका
ख्यिाताः १५६ (नेरइया सत्तविहा पुढवौमसत्तसूभवे पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिम्भे एसुणेहमे १५७) सप्तसुरत्नप्रभादिषु नरकपृथ्वौषु सप्तधास्तेनैरयिकाभवेयुः अ०३६४ स्तेपुननरयिकाः पर्याप्ताः अपर्याप्ताश्च सन्ति सप्तनैरयिकाः पर्याप्ताः सघनैरयिकाः अपर्याप्ताः एवं चतुर्दश प्रकारास्तेषां भेदान् मे मम कथयतः
सतो यूयं शृणुतः १५७ पूर्व सप्तनरकपृथ्वीनां स्वरूपमाह (रयणाभा १ सकराभा २ वालुयामा ३ व आहिया पङ्कामा ४ धूमामा ५ तमा ६ तमतमा तहा १५८) रत्नानां वैडूर्यादौनां आभाइव प्राभायस्याः सारत्नाभा १ रत्नकाण्डस्य भवन पति भवनस्याभाइव आभायस्याः सारत्नाभा १ थर्कराः शक्षण पाषाण रूपा तदाकारा अाभायस्याः सा सराभा २ वालुकामक्षारजः सदृग् प्राभायस्याः सावालुकामा ३ पङ्कस्य आभाइव आभायस्याः सापं काभा ४ धूमस्य आभाइव आभायस्याः साधूमामा ६ यद्यपि तत्र धूमस्य अभावोस्ति तथापि तत्र तदाकार पुहलानां परिणामोस्ति इति धूमा ५ तमः प्रभातमोरूपान्धकारमयो ६ तमस्तमाप्रकष्ट तमस्तमस्तस्मयो अत्यन्तान्धकारमयौइत्यर्थः ७ सप्तविध नरक पृथ्वीत्वेन तदन्तर्वतिनोपि नरकजौवाः सप्तधाव्याख्याता ते पुन: पर्याप्तापर्याप्तभेदाच्चतुर्दशधायाः १५८ इति सप्तनरकपृथ्वीनां स्वरूपमुक्त्वा अधनामान्याह (धम्मा १ वंसगासेलातहा अत्रण
रयणाभसक्कराभाबालुयाभायाहिया। पंकामा धूमाभातमा तमतमा तहा १५८॥धम्मावंसगासलातहा अंजणरिट्ठ
गामघामाघवचेवणारयायपुणोपुणो। रयणाइगुत्तओचे वतहाघम्मादृणामओ इदु नेरड्या एएसत्तहापरिकित्तिया रखनी प्राभाकांतिते रतनप्रभा सर्करा कांकरा मरिषी क्रांति ते सर्कराप्रभा वेलूनी प्राभाकांति ते सरिखौते वालुकाप्रभा कही१५६ पंककादव सरिखौ क्रांति ते पंकप्रभा कहौ धूमनो सरीखी कातते धूम्रप्रभातम अंधकार रूपतेतमा तमतमा अत्यंत अंधकारपूर्ण प्रकार नारको सातप्रकार कही १५७
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रायधनपतसिंह वाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
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ए० टोका
अ०३६
१०६८
सूत्र
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रिट्ठगा मघामाघवईचैव णारयाय पुणेोपुणो १५८ ) धर्मा प्रथमा पृथ्वी द्वितीयावंशका तृतीयाभैला तथा चतुर्थी अञ्जना अरिष्टापञ्चम माघवतौ सप्तमौ अत्रवासिनोनारकाः सप्तधाभवेयुः १५८ ( रयणाइ गुत्तश्रीचैव तहा घमाइणामओ इइनेरईयाएए सत्तापरिकित्तिया १६०) र प्रभादयो गोव्रतोज्ञेयाः तथा धर्मादयोनामतोन्नयाः इति श्रमुनाप्रकारेण एतेनैरयिकाः सप्तधाः परिकीर्त्तिताः १६० अथ क्षेत्र विभागं आह ( लोगस्सएगदेसम्मि ते सब्वे उवियाहिया इत्तोकालविभागं तु तेसि बुच्छं च उविहं १६१] ते सर्वेनारकालोकस्यैकदेशे व्याख्याताः अन्यत्र सर्वत्र न सन्तो त्यर्थः इत्तोइतोऽमन्तरं तेषां नारकाणां चतुर्विधं कालविभागं बच्चे १६१ ( सन्तइ पप्पणाइया अपज्जब सियाविय हिंदू पडुञ्चसाईया सपज्जवसिया विय १६२] सन्ततिं प्राप्य प्रवाह मात्रित्यतेनारका अनादयो अपर्यवसिताश्चापि स्थिति भवस्थितिं कायस्थितिः श्राश्रित्यसादयः सपर्यवसिताश्चापि वर्त्तन्ते १६२ [सागरोवममेगन्तु उक्कोसेणवियाहिया पढमाएजहन्रण' दसवाससहस्तिया १६३] प्रथमायां नरक पृथिव्यां रत्प्रभायां उत्कृष्टेन त्रयोदशे प्रस्तटे एकंसागरोपम आयुः स्थितिर्व्याख्याताः जघन्येन दशवर्ष सहस्रिका आयुः स्थिति र्व्याख्याताः १६३ [तिने वसागराउ उक्कोसेण वियाहिया लोगम्म एगदेसंमि तेसव्वं उ वियाहिया । इत्तो कालविभागं तुतेसिं वोच्छं चउव्विहं । १५६ संत पप्पणाईया अप नव सियाविय ठिङ्क पडुच्च साईया सपज्जवसियाविय । १६० सागरोवम मेग'तु उक्कोसेण वियाहिया । पढमाए नह लोकना एकदेश अधोलोकने बिखे ए सर्वनारको कही एतला कह्या पछौ कालनो विभाग तेहमो चिह्न प्रकारे कहसु १५८ संतति प्रवाहे अनादि अने पर्यवसित केहडो पौष स्थिति आश्री आदि सहित अने पर्यवसित अंतपणिके १५८ सागरोपम १ तेरमो प्रतरनी अपेचाइ उत्
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राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा०सं० उ० ४ १ मा भाग
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RX
छ टोका प०३६ १०६८
दुच्चाए जहवेण एग'तु सागरोवर्म १६४] दितीयायां नरक पृथिव्यां शर्कराभायां अन्त्यमे प्रस्तटे नारकाणां उत्कृष्टत्वेन बौणि सागरोपमान्यायुः स्थितियख्याता: जघन्य न तु एक सागरोपमं आयुः स्थि तिर्व्याख्याता १६४ (सत्तेव सागराज उक्कोसेण विवाहिया तइयाए जहवेणं तिब्रव सागरोवमा १६५) तृतीयायां नरक पृथिव्यां वालुक प्रभावां अन्त्यमे प्रस्तटे उत्कृष्टतः सप्तसागरीपमानवायुः स्थितिाख्याताः जघनात स्त्रोणि सागरोपमाणि स्थिति ाख्याता १६५ [दससागरोवमाज उक्कोसेण विवाहिया च उत्थीए जहनेणं सत्तेव सागरीवमा १६६] चतुर्था नरक पृथिव्यां पङ्कप्रभायां अन्त्य प्रस्तटे उत्कृष्टेन दशसागरोपमानि स्थिति र्व्याख्याताः जघनान तु सप्तसागरीपमानि आयुः स्थितिः
नेणं दस वास सहस्मिया १६१ । तिन्नेब सागराज उक्कोसण वियाहिया। दुच्चाए जहन्नेणं एग तु सागरोबमं १६२ सत्तेव सागराज उक्कोसण वियाहिया। तड्याए जहन्नेणं तिन्नेवउ सागरोबमा १६३ ॥ दस सागरोबमाऊ उक्को
सेण वियाहिया। चउत्योए जहन्नेणं सत्तेवउ सागरोवमा ६४॥ सत्तरस सागराज उक्कोसण बियाहिया | पंचमाए कृष्टो कहो तीर्थ कर कह्यो पहली रतनप्रभा पृथवीने जघना दशहजार वर्ष पहेला प्रतरनी अपचा १६० तीन सागरोपमनी पाऊखु उत्कष्टो कह्यो तिर्थ कर वोजो पृथवीर नारकौने छहले प्रतर एक सागरोपम पहेला प्रतरनी अपेक्षाइ १६. सात सागरोपनी पाउखो उत्कृष्टो कयो उत्साष्टी भगवते कह्यो तीजी पृथवी नारकीनो हेहलो प्रतर जघन्य तौन सागरोपमनी अपेक्षा पहिला प्रतर १५१ दशसागरीपमनी पाऊखी उत्कृष्टो कह्यो चौधौ पृथवी नारकीनी छहले प्रतर सात सागरीप मनोहुदा पहिला प्रतरनी अपेक्षा १२ सतर सागरीप मनी पाऊखी सत्कष्टो को तीर्थ करे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.२.४१ मा भाग
भाषा
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उन्टीका
अ०३६ १०७०
स्व
भाषा
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कथिता १६६ [सत्तरस सागराऊ उक्कोसेण वियाहिया पञ्चमाए जहत्र णं दसचैव सागरोवमा १६७] पञ्चमायां नरक पृथव्यां धूम प्रभायां अन्य प्रस्त सप्तदशसागरोपमानप्रायुः स्थितिर्व्याख्याताः जघनेान तु दशसागरोपमानायुः स्थितिर्व्याख्याता १६७ (वावीस सागराऊ उक्कोसेण वियाहिया छट्ठौए जहन्र णं सत्तरससागरोवमा १६८ ) षट्यां नरकपृथिव्यां तमः प्रभायां अन्त्येप्रस्तटे उत्कृष्ट न हाविंशति सागरोपमानि आयुः स्थितिर्व्याख्याता जघनेन सप्तदशसागरोपमानि आयुः स्थितिर्व्याख्याताः १६८ (तित्तीत सागराज उकासेण वियाहिया सत्तमाए जहने व बावीसं साग रोबमा १६८ ) समायां नरक पृथिव्यां तमस्तमः प्रभायां अन्त्य प्रस्तटे उत्कृष्टेन चयस्त्रिंशत् सागरोपमानप्रायुः स्थिति र्व्याख्याता जघनेन हाविंशति सागरोपमा नप्रायुः स्थितिर्व्याख्याता १६८ [जाचेवड आउठिई नेरईयाण वियाहिया सातेसिंकायठिई जहन कोसियाभवे १६८] नारकाणां याजघनप्रोत्कृष्टतः श्रायुः जहन्न णं दसचे वउ सागरोबमा १६५ ॥ बावीस सागराऊ उक्कोसेण वियाहिया । छट्ठीए जहन गं सत्तरस सागरो वमा १६६ ॥ तित्तीस सागराऊ उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन गं बावीसं सागरोवमा १६७ ॥ जाचे वड पांचमौ पृथवी नारकौनो छेहलो प्रतरे जघन्य दस सागरोपमनो पेहला प्रतरनी अपेक्षाई १६३ जे वली आऊखानी स्थौति उत्कृष्टो को तीर्थ करे नारकौने विखे छट्ठौद्र प्रथिवोद्र नारकोनो छेहले प्रतरे जघन्ये साहे तेहने तेहन्ये जकाय स्थितो जे भणी नारको मरो नारकौमे नथाई जघन्य पणे उत्कृष्ट पणे हुई १६४ बावीस सागरोप ममो आऊखो उत्कृष्टो को तीर्थ करे छोइ पृथिवोद्र नारकोनो छेहले प्रतरे जघन्य सतर साग रोप मनो पेहली प्रतरनो अपेचा १६५ तेत्तीस सागरोप मनो आखो उत्कृष्टो को तीर्थ करे सातमो पृथिवोद् नारकोनो जघन्य बावीस साम
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रायूधनपतसिंह वाहादुर का आ० सं०ड० ४१मा भाग
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सटीका
* स्थितिळख्याता सा एव तेषां नारकाणां कायस्थि तिर्जधनोत्तष्टतश्च व्याख्याता यतोहि नारको जीवीमत्वा पुनर्नरकभूमौ नोत्पद्यते अनात्र गर्भज
पर्याप्त संख्येय वर्षायुकेष उत्पद्यते पश्चाबरके उत्पद्यते नीत्पद्यते च १७० अथ कालान्तरमाह (अणन्त कालमुकीसं अन्तीमुडुत्त जहवियं विजढं मिस १०७१
* एकाएनेरइयाणं तु अन्तरं १७१) नारकाणं तु खेकायेत्यक्ते सति उत्कृष्ट कालस्यान्तरं अनन्तकालं भवति जघनातोऽन्तमुहर्त कालाकरं भवति
यदा अनातरनरकात् कश्चिवारकञ्च प्रत्वागर्भजपर्याप्त मत्स्यादिषु उत्पद्यते तत्र च अत्यन्तदुष्टाध्यवसावत्वात् अन्तर्मुहर्त आयुः प्रपात्यमृत्वाऽनातमनरके उत्पद्यते १७१ [एएसिवनीचेव गन्धो रसफासी सण्ठाणा देसओवावि विहाणाडू सहस्मसो १७१] एतेषां नारकाणां वसं तो गन्धतीरसतः स्मर्थतः संस्थानादेशतथापि सहस्रसोविधानानि बहवो भेदा भवन्ति १७१ अथ पञ्चद्रियतिरां भेदानाह [पञ्चन्दियातिरिक्वाय दुविहाते वियाहिया समुच्छिमातिरिक्वाय गमवक' तियातहा १७२] पजे द्रियास्ति र्य' ची विविधा व्याख्यातास्ते के संमूर्णिमास्तिर्य च स्तथा गर्भव्युक्रान्ति कास्तिर्यञ्चच
आउ ठिई नेरईयाणं बियाहिया। सातेसिं काय ठिई जहन्न कोसिया भवे १६८॥ अणंत काल मुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विज]मि सए काए नेरयाणंतु अंतरं १६६ ॥ एएसि वन्नो चेव गधो रस फासी । संठाणा देसी
वावि विहाणाडू सहस्मसी १७०॥ पंचिदिय तिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। समुच्छिम तिरिक्खाओ गम्भ वक्त रोप मनो १५६ अनंतोकाल उत्कष्टो अंतरमुहुर्त जघन्य छांय थके आपणी नारकीनी काया नारकीनो पांतरी हुयी १६७ ए नारको वर्ण धको वली गंधधको रसथकी फरसबको संस्थानना आदेशयकी विधान भेद सहन गर्म
पंचेंद्रिय तिर्यच जीव निर्थ विहु मैदे कहा तोध
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.म.उ. ४१मा भाग
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तत्र संमूळ अतिशय मूठ भावस्तेन नित्ताः निःपत्राः संमूर्छिमाः संमूर्छिमावते तिर्यञ्चच संमूर्छिम तिर्यञ्चो मनः पर्याप्ति रहिता: सदा. * संमूर्छिताइव तिष्टन्ति गर्भ ब्युक्रान्तिका गर्भजामनः पर्याप्ति सहिताः १७२ [ दुविहा ते भवे तिविहा जलयरा बलयरा तहा खबराय बोधब्बा सिम्भे ये सुषहमे १७३] ते विविधा संमूर्छिमा गर्भजाच तिर्यञ्चः पुन स्त्रिविधाः बोधव्याः तत् वैविध्य यथा जलचराः स्थलचराः तथा खचराः सन्ति एतत्रयोपि द्विविधाः गर्भजाः समूर्छिमायनेयास्तेषां भेदान् मे मम कथयतो यूयं शृणत १७३ अथ जलचर भेदानाह (मच्छायकच्छभा यागाहायमगरातहा मुसुमारायबोधव्वा पञ्चहाजलयराहिया १७४) एते जलचराः पञ्चधा आख्याताः एतेके मत्स्यामौना: कच्छ पाः कुम्माचापि ग्राहास्त तुकजीवाः मकरामहामत्स्याः शिशमारापि मत्स्यविशेषाः एतेषु पञ्चस भेदेषु बहना भेदानां अन्तभावः यतोहि यावन्तः स्थलजीवास्तावन्त एव जलजीवाः इत्युक्त : १७४ [लोएगदेसेते सर्व न सव्वस्थवियाहिया एत्तोकालविभागन्तु तेसिं बुच्छच्च उब्विहं १७५] ते सर्वे जलचर जीवाः लोकैकदेशे
तिया तहा १७१ ॥ दुविहा ते भबे तिविहा जलयरा थलयरा तहा । खहयराय बोधब्बा तेसिं भेए सुणेह मे १०२॥ मच्छाय कच्छभाया गाहाय मगरा तहा। मुसुमाराय बोधवा पंचहा जलयरा हिया १७३॥ लोएगदेसे ने सब्बे
राय धनपतसिंह गहादुर का मा .सं.उ. ४१मा भाय
भाषा
8 करे एक समूच्छिम विजोगर्भज तिर्यच मन सहित १६८ विभेदे कहा ते वलौ त्रिहुं प्रकार हुई जलमाहिंचाले मच्छादि तेजलचर भूमि चाले वषभा 8 दिते थलचर तथा वलि खचर जाणवो खच्चर आकाशेचालेते हंसादिते जलचरादि जौवनाभेद सांभलो शिष्य मुझने कहताप्रते१७. माछलानी जातका * वानौ जांति ग्राहकांतूया जीव तथा मगर मच्छ माछलानौ जाति सुसमार जल चौरजौव जाणवा पाचेप्रकारे जलचर जीव जागवा १७१ लोक
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उ० टोका अ०३६ १०७३
सूत्र
भाषा
ब्याख्याताः जलस्थानेषु एव न तु सर्वत्र इतोऽनन्तरं तेषां जलचर जीवानां तु कालविभागञ्च तु विध ं वच् १७५ [सन्तद्र पप्पणाईया अपज्जबसियाविय ठिद्र' पडुचसाईया सपज्जवसियाविय १७६] ते जलचरजीवाः सन्ततिं प्राप्य प्रवाहमार्गमाश्रित्य अनादयोऽपर्यवसिताय वर्त्तन्ते स्थितिं प्रतीत्यभवस्थितिं कार्यस्थितिं चाश्रित्यसादयः सपर्यवसिताब सन्ति इति भावः १७६ [इक्काय पुव्वकोडी उक्कोसेण वियाहिया आउठिई जलयराण अन्तोमुहुत्त जह त्रिया १७७] जलचराणां मत्स्यादीनां जोवानां उत्कष्टेन आयुः स्थितिरेका पूर्वकोटौ व्याख्याताः पूर्वस्य तु परिमाणं एतत् सप्तति कोटिल चवर्षाणि षट् पञ्चासह कोटि वर्षायि एतैर्वर्षेः पूर्व भवति जघन्धिका श्रायुः स्थितिश्चैतेषां अन्तर्मुहर्त्त एव व्याख्याताः १७७ अथ जलचराणां कार्यस्थिति
न सव्वत्य वियाहिया । इत्तोकाल विभाग तु तेसिच्छ' चउव्विहं १७४ ॥ संतद् पप्पणाईया अपज्जव सियाविय । ठिs' पडुच्च साईया समज्जव सियाविय १७५ ॥ एक्काय पुव्वकोडी उक्कोसेण वियाहिया । बाउ ठिई जलयराणं अंतो मुहत्तं जहन्निया १०६ ॥ पुव्वकोडी पुहत्तं तु उक्कोसेण बियाहिया । काय ठिई जलयराणं अंतोमुहुत्त जहनिया १७७ ॥ चौदराजने एकदेशे ते जलचरक परं नथी सर्वलोक चौदराजमे एतलानंतरकालनो विवरो तेहनो कटिस्यु' सादि १ पर्यवसित २ अनादि २ अपर्यव सित १७२ प्रवाहे जलचर अनादि अपर्यवसित अंतपौण के थिति श्राश्री आदि सहित अने पर्यवसित देव्हडो १७२ एक पूर्वनो कोडो उत्कष्टी कही तोर्थ' करे आउखानी स्थिति गर्भज समूर्च्छिम जलचर जीवनी अतर मुहर्त्त जघने १७४ पूर्व कोडनो पृथवीकाय थितौ तेथको अंतर्मुह
त्ष्ट कही संख्या पृथवीनो कार्यधिति जलचरनो सात आठ भव जलचरनो जलचर माहि रहे प्राणी अंतर्मूहर्त्त जघना १७५ अनंतकाल
१२५
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था० सं०० ४.१ मा भाग
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उ. टोका
अ०३६ १०७४
सूव
भाषा
माह [पुब्वकोडौ पुहत्तं तु उक्कीमेण वियाहिया कार्याठिई जलबराणं अन्तोमुद्दत्त ं जडत्रया १७८ ] जल चराणां कार्यस्थिति रुत्कष्टतः पूर्वकोटि पृथक्क व्याख्याता यदा जलचरजौवो मृत्वा पुनः पुनर्जलचरयो नो एव उत्पद्यते तदा पूर्वकोडि पृथक्क' यावदुत्पद्यते पृथक्कं हाभ्यामारभ्यनवांकं यावत् पृथक्क इति सिद्धान्तांक संज्ञास्ति द्वाभ्यां पूर्वकोटि मारभ्य यावज्रवकोटिं यावज्जलचरो जीवो मृत्वा २ जलचरयो नौ उत्पद्यते इत्यर्थः जघन्यतस्तु अन्तर्मुह मेव कार्यस्थिति र्व्याख्याताः अथ कालांतरमाह [ अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्त' जहव्रिया विजढमिस एकाए जलयराणं तु अन्तरं १७८] जलचराणां स्वकौयेकायेत्यक्ते सति अन्यत्रोत्पद्य पुनः स्वकाये उत्पद्यते तदा कियत्कालान्तरं भवतिं तदुच्यते उत्कृष्टतोऽनन्तं कालान्तरं भवति यतोहि चेज्जलचरो निगोदत्वेनोत्पद्यते तदानिगोदस्थानन्तकालस्य स्थितिरस्ति जघन्य तस्तु अन्तर्मुहर्त्तमेव कालान्तरं ज्ञेयं १७८ [एएसिंवत्रओचेव गन्धओर सफास सण्ठाणादेसश्रवावि विहाणाद्रसहस्त्रसो १८०] तेषां जलचराणां वर्णतोगन्धतोरसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतथापि विधानानि सहस्र सो भवन्ति १८० अथ स्थलचरभेदानाह [ च उप्पयाय परिसप्पा दुविहाथलयराभवे च उप्पया च उब्बिहाउ तं मे कित्तयओसुण १८१] स्थलचराः द्विविधाः चतुःपदा: अणंत काल मुक्कीसं अंतोमुहुत्त जहन्नयं । विजढंमि सए काए जलयरागंतु अंतरं १७८ ॥ एएसिं वन्नयो चेव गंधमो रसफासओ। संठाणा देसओ वावि विहाणाइ सहस्मसेा ॥ १७९ चउप्पयाय परिसप्पा दुविहा घलयरा भवे । चउ उत्कृष्टो निगोदमाहि जाइतो अनंतु अंतर्मूह जघने पोतानीकाय मूं को जाइते बली फिरोने अलचरनो जलचरमाहि श्रवेते अंतर १७६ ए जल चरने वर्णथको गंधथको रथको फरसचको संस्थानना आदेशथको विधानभेदसहस्रगमे १७७ च्यार पगनाते चतुःपद वृषभादि उसमुद्र' चालेते भुज
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राग्रधनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०ड० ४९मां भाग
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उन्टौका
१.७५
परिसाश्च भवेयुः चत्वारः पदाः येषां ते चतुःपदा परि समन्तात् सर्पस्तौति परिसर्पाः तत्र चतु पदाः चतुर्विधाः सन्ति तान् चतुर्विधान् मे 'मम कथयतस्त्व शृण १८१ (एगखुरादुखुराओ गण्डोपयसणप्पया हयमाई गोणमाई गयमाईसौहमाइणो १८२) एकखुराः द्विखुराः गण्डौपदाः सनख * पदाः एकः सुरश्चरणाधोवर्तिहडड विशेषो येषां ते एकखुरास्ते च अखादयः एवं हौ खुरौ येषां ते दिखुराः गोणादयोबलौवर्दादयो गण्डौकमलमध्यस्थ कमि कातहत्यदा येषां ते गण्डौपदाः गजादयः सहनखैवर्तन्तेइति सनखासनखापदा येषां ते सनखपदाः सिंहादयः सणप्पयाइति प्राक्कतत्वात् १८२ अथ परिसपानाह [भूउरगपरिसप्या परिसप्पा दुविहाभवे गोहाई अहिमाईआ इक्किका ऐगहाभवे १८३] परिसर्या जीवा दिविधाभवेयुस्तेके भुजाभ्यां परिसपेन्तोति भुजपरिसर्पाः उरसा सर्पन्तौति उरः परिसर्पाः तत्र गोधानकुल मूषकादयो भुजपरिसर्पाः अहेयः उरः परिसाः एते एकेपि अनेकधाभवेयुः १८३ अथै तेषां क्षेत्रविभागमाह [लोएगदेसेते सम्बे न सत्थ वियाहिया इत्तोकालविभागन्तु ते सिंबुच्छ' चलब्विहं १८४] ते सर्वे स्थलचरा
प्पया चउविहाओलेमेकित्तयत्रीसुण१८०॥ एगखुरादुक्खुराचे व गडीपय सनप्पया। हयमाईगोणमाई गयमाई सौह मादूणो १८श भु उरग परिसप्पा परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई पहिमाईया एकका गहा भवे १८२ । लाएग
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.इ. ४१मा भाग
सत्र
भाषा
* परिसर्पनीलादि प्रमुख विह' प्रकार थलचर हुवे चतुःपद चिहुं प्रकार ते मुझने कीर्ति कहता सांभल हे सौथ १७८ एक खुरौछे ते एक खुरा वेजूई २
खराछे ते विख्युरा २ गंडौ कमलकर्मका सरीखी पगते गंडी पद नखसहित पगते सनखपद घोडादौखुर १ वृषभादौबे खरर गजउट आदे गंडीपद३ सौह आदि स नखपद १७८ भुज हाथिउहदये परिसर्प चाले इम सर्प विभेद हुवे गोह उदरा आदि सर्प आदि ते एकेका अनेकप्रकार हुई १८०
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स.टोका
.60
EKOXXXXXNAIKHEREMONOMOMEMORMEMONOKE
भजपरिसपावलोकैकदेशेव्याख्याताः सर्च व न व्याख्याताः इतोऽनन्तरं कालविभाग स्थलचराणां चतुर्विध वच्चे १८४ (सन्तई पप्पणाझ्या अपज्जवसि यावियठिन पडसाईया सपज्जवसियाविय १८५) सन्ततिं प्राप्यते थलचरा अनादयोऽपर्यवसिताचापि स्थितिं भवस्थितिं प्रतीत्य पावित्यसादयः मपर्यवमिताथापि वर्तन्ते १८५ (पलिग्रीवमार सिनेमो उक्कीमेण वियाहिया पाउठिईथ लयराण' अन्तीमुहुत्त जहवयं १८८) स्थलचराणां उत्कष्टन बोशिपल्योपमान्यायः स्थितिाख्याता जघन्यतः स्थलचराणां अन्तर्मुहत मायुः स्थिति:१८६ अथ स्थलचरामृत्वा स्थलचरेच बोत्पद्यन्त तदाकियकालेन8 उत्पद्यन्ते तां कालस्थिति माह [पलिपीवमाई तिबेट उक्कोमेणं तु साहिया पुवकोडी पुहत्ते ण' अन्ती मुहुत जहनिया १८७] स्थ लचराणां स्वकोये* काये एव समुत्पद्यमानानां चौणि पत्त्योपमानि पूर्वकोटि पृथक्के न साधिकानि उत्कृष्ट न कायस्थितिाख्याता जघन्यिकाकाय स्थिति स्तेषामन्तमुहर्त
देस तेसवे न सब्बत्य वियाहिया । इत्तो काल विभाग'तु तेसिं वाच्छ चउ विहं ॥ १८३ संत पप्पणाईया अप ज्जबसियाविय । ठिइंपडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ १८४ पलिओ बमाओ तिन्निो उक्कोसण वियाहिया। पाउठिई बलयराणं अंतोमुहत्तं जहनिया ॥ १८५ पलिओवमाओ तिन्निो उक्कोसणंतु साहिया। पुब्बकोडी पुर
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा .सं.उ.४१मा भाग
।
लोक चौदराजना एकदेशने भागे ते सर्पछे नधौ सबले कडा भगवंते एतला कह्या नन्तरकालनी विभाग विवरो ते थलचर चिहुं भेदे कह १८१ प्रवाहमार्गे बलचर अनादिहे अपर्यवसित अंतपिणि थिति आधौसादि अने सपर्यवसित छहपणि १८२ पल्योपमनौ त्रिहुनी स्थिति उत्कृष्टौ कही तो करे आजखानौ स्थिति बलचर जोवनी अंतमुहुर्त जघना १८३ पल्योपम त्रिहुनौबिति उत्कष्टी कही तीर्थ करे पूर्वकोडि पृथगत्वे अधिक
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स.टीका
b
6WS
~
मेव उता यतोहि विपलयोपमायुषः स्थ लचराः पूर्वकोव्यायुषां सप्ताष्टभवग्रहणानि कुर्वन्ति पञ्चन्द्रियनरतिरिवां अधिकनिरन्तरभवस्याऽसम्भ वोस्ति १८७ अथ कालांतरमाह [कायठिईयलयराण' अन्तरं तेसिमं भवे कालं अणन्तमुक्कोसं अन्तीमुहुक्त जहन्द्रियं १८८] (विजढमिसएकाएथलयराण सुमन्तर एएसिंवद्रोचेव गन्धोरसफासी सण्ठाणभेयओवावि विहाणा इसहस्मसी १८८) युग्म स्थलचराणां ख कौयेकायेत्यक्त सति वनस्प्रत्यादि मध्ये उत्पद्यचेत्स्थ लचरेषु पुनरायाति तदा उत्कृष्ट अनन्तकाल स्यान्तरं भवति जघन्य तशांतर्मुइत कालस्यान्तरं भवति १८८ एतेषां स्थलचराणां वसतीगन्धतो रसतः स्पर्थतः संस्थानभेदतचापि सहयोविधानानि भेदाः १८८ अथ खचरभेदानाह (चम्मे उलोमपक्खीय तइयासमुग्गपक्लीय वियय पक्खीय बोधबा पक्खि योय च उबिहा १८.) पक्षिण: चतुर्विधाः बोधव्याः चर्मपक्षिणश्चर्म चटिकाद्याः रोमपक्षिणी राजहंसाद्याः समुहपचिण: समुहकाकार पचयुक्तामानुषोत्तर पर्वतादहिवर्तिनः विततपक्षिणो ये सर्वदाविस्तारित पक्षा एव तिष्टन्ति १८० [लोएगदेमे ते सर्व न सबथवियाहिया
तेणं अंतमुहुत जहनिया । १८६ कायठिई थलयराणं अंतरं तेसिमं भवे । अणंत काल मुक्कासं अंतोमुहुक्तं जह - नयं ॥१८७ विजटंमि सए काए थलयराणंतु अंतरं | एएसिं वन्नओ चेव गधओ रस फासो। १८८ संठाणा देसओ
वाबि विहाणाडू सहमसो चम्म उ लोम पक्खीय तया समुग्ग पक्खिया ॥ १८८ वियय पक्खीय बोधव्वा पक्खि भणी भव ७ तथा ८ लागता करे ते भणो अंतर्मुहुर्त जघना १८४ कायस्थीति थलचरनी अनंतो तेहनी हुवेती काल अनंती उत्कृष्टो अंतर्मु हुत जधना पणे १८५ छांडो पापणोकाया बलचरने आंतरी चर्मरूपपांखते चर्मपंखी चमचेडजाति रोमरूप पांखते मीरपीखत्रीजो पांखबांधी ऊडे ते समुन्ग
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. २०४१ मा भाग
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० टोका
१०७८
सूत्र
भाषा
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इत्तोकालविभागन्तु तेसिंबुच्छं च उब्विहं १८१] ते सर्वे खचरालोकैकदेशे व्याख्याताः सर्वत्रः चतुर्दशरज्यात्मलोकेन सन्ति इतोऽनन्तरं तेषां खचराणां चतुर्विध' कालविभागं वच्ये १८१ [सन्तइपप्पवाईया अपज्जवसियाविय ठिई पहुच साईया सपज्जवसियाविय १८२] सन्ततिं प्राप्यते खचरा अनादयोऽप सिता अपि वर्त्तन्ते स्थितिं प्रतोत्यते सादयः सपर्यवसिता अपि सन्ति १८२ (पलिओ वमाभागो असंखिन्न यमोभवे चउठिरह यराणं श्रन्तो मुहुत्त जहनिया १८२) खचराणां श्रायुः स्थितिः पलरोपमस्य असंख्येयतमो भागो भवति जघनित्रका आयुः स्थितिरन्तमु हर्त्त' भवति १८.३ अथ खच राणां आयुःस्थितिः पलोपमस्य असंख्येय तमोभागो भवति जघनाका श्रायुः स्थितिरन्तर्मुहर्त्त' भवति १८३ अथ खचराणां कार्यस्थिति कालांतरं Teri गाथाभ्यां वदति [असंखभागोपलिया उकोसेणसाहिओ पुव्वकोडौ पुहतेय' अन्तोमुहुत्त' जहनिया १८४] कार्यठिईखहयराण' अन्तरं ते सिमं गोय चउब्बिहा । लोएगदेसे तेसब्वे न सब्बत्य वियाहिया ॥ १६० संतद्र पप्पणाईया अपज्जवसियाविय । ठिप डुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥ १६१ पलिश्रवमस्म मागा असंखेज्ज इमो भवे । आउ ठिई खहयराणं अंतीमहत्त जहन्निया ॥ १६२ असंखभागी पलियम उक्कोंसेण वियाहिओं । पुष्बकोडी पुहुत्त णं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ ११३ urat कहीये १८३ विततपोहलो पांखे ऊडे ते वितत पंखौ जाणवा पंखौ च्यारप्रकारना लोकने एक देशे सबला नथी सघले भगवंते कला १८७ प्रवाहमार्ग श्री ए पंखौ धनादिके १८८ पत्योपमनो अशंख्या तमो भाग उत्कृष्टो भाउखानि स्थिति खचर पंखो आनी अंतमु जघने १८८ असंख्या तमोभाग पढ्योप मनो लत्कष्टो साधिक भारो पूर्व कोड पृथकत्व पूर्वकोडिवा लाभव १ करो असंख्याता आउखानाभव करतो अंतर्मुहु
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राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं००४१ मा भारा
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स.टौका
ra.
AU NA 6
ॐ भवे अणंतकालमुक्कोसं अन्तीमुहुत्त जहब्रया १८५) खचराणां कायस्थितिः पलयोपमस्य असंखेण्यतमोभागः पूर्वकोटि पृथकी न साधिकश्च भवति जघ ॐ निकाकायस्थितिरन्तम इत्तं भवति तेषां खचराणां कालान्तरं च उत्कृष्टतोऽनन्तकालं यावद्भवति जघनातच अन्तम हत भवति १८५ (एएसिवनी
चेव गन्धीरसफासो सण्ठापादेसभोवावि विहाणाइ सहस्मसो १८६) एतेषां खचराणां वर्णतोगन्धतोरसतः स्पर्णत: संस्थानादेशतश्चापि सहयसो विधामानि भवन्ति १८६ [मणयादुविहाभयाउ तंमेकित्तयोसुण समुच्छिमायमणुया गम्भवक्क तियातहा १८७] मनुजाविविध भेदास्मन्ति तान् भेदान् मेकीर्त यतस्त्वं शृणु मनुजाः मनुष्याः संमूर्छिमास्तथागर्भव्य त्क्रान्तिकाः गर्भजाः संमूर्छिमामनोरहिताचतुर्दश्य स्थानेषत्पनाः १८७ (गम्भवतियाजेउ तिविहातेवियाहिया अम्मकम्मभूमाय अन्तरहीवगातहा १८८) ये तु गर्भव्य तक्रांतिकास्ते मनुष्यास्त्रिविधाव्याख्यातास्त के प्रकर्मकर्मभूमिगा: अन्तर
कायठिई खहयराणं अंतर सिमभवे ॥ कालंगणंतमुक्कासं अतोमुहुत्त जहन्नयं १८४ ॥ एएसिवनोच व गधो रस फासों संठाणादसोबाविविहाणाईसहस्मसी१८५॥ मणुयादुबिहामेाओतेमेकित्तयोसुण । समुच्छिमायमणुया
गम्भवक्कंतियातहा१८६ गम्भवक्कंतियाजेउतिविहा तेवियाहिया। अकम्मकम्मभूम य अंतरहीवगा तहा१९७ ॥ पन्नरस जघना १८. कायस्थिति खचर पंखोनौ कही अंतरते खुचरपंखौने एहुवे अनंताकालनो अंतर उत्कष्टी निगोदमाहि अंतमत्त जघना १८१ खचरपंखोना वर्षथकी गंधरसबकी संस्थानना आदेश थको विधान भेद सहस्रगमे हुवे १८२ मनुष्य विभेदेर ते मनुष्य कहता प्रति समिति हे विश्व संमूचिम मन विनाहोर मनुष्य चौदभेदे होवे उपजे मन सहित ते गर्भज तथावली १८३ गज मनुष्य अहतिविता विभेदे ते कन्या
रामधनपतसिंह वाहादुर का प्रा०सं० २०११ मा भाग
kXXXREA
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उ० टोका
अ०३६ १०८०
सूत्र
भाषा
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starra saभौमा: अकर्मभूम्युत्पत्राः कंभूमाः कर्मभूम्युत्पत्राः तथा अन्तरद्दीपगाः १८८ ( पनरसतौस इविहा भैया अट्ठावीसई सखा कमसोतेसि' इइएसावियाहिया १८८) इति श्रमुनाप्रकारेण एतेषां पूर्वोक्तानां कर्मभूमि अन्तरोपानां सखाक्रमशोऽनुक्रमेण व्याख्याता साका स ंख्याइत्युच्यते विध शब्दस्यो भयत्र सम्बन्धो यः पञ्चदशविधाः कर्मभूमिजाः भरतैरावत महाविदेहानां प्रत्येक पच २ संख्याकत्वात् पञ्चदश संख्यात्व भवति वा अकर्म भौमा : यंत्र हैमवत हरिवर्षरम्यकैरण्यवत देवकुरुत्तरकुरुरूपाणां षण्णामपि कर्मभूमीनां प्रत्येक पञ्चसखाया गुणितानां त्रिंशत् सखात्वं सम्भवति इहचक्रमशइत्यक्तौऽपि गणनावसरे क्रम भङ्गोविहितः पूर्व अकन्मभूमि संखयां विहायकर्मभूमि सखा प्रतिपादिता तत् कर्मभूमिजानां मनुष्याणां मुक्ति साधकत्वेन प्राधानाखयापनात् पूर्व कथन' न दोषायेति तथांतर होपानां अष्टाविंशति मेदाचांतर होपाः सुन हिमवति पर्वते पूर्वस्यांदिशि अपरस्यांदिशि च जम्ब होपवेदिकायात्परतः प्रत्येक' हे हे दंष्ट्रे विदिगभि मुखेविनिर्गतस्तः तद्यथाः पूर्वस्य एकाईमा नाभि मुखोदंष्ट्रा द्वितीया आग्न व्यभि मुखी पश्चिमायां एकानैऋत्यभिमुखी द्वितीया वायव्यभि मुखी एवं चतसृषु विदिक्षु प्रभिमुखोषु दंष्ट्रास प्रत्येकं ate विहा मेया अट्ठावीस । संखाओ कंमसा तेसिं इइ एसा वियाहिया १६८ ॥ समुच्छिमाणएसेब भो उहोइ
तीर्थंकर करसवादि व्यापाररहित ते अकर्मभूमी करसणादि व्यापार ते कर्मभूमी अंतर समुद्रने मध्ये दौप तेह नाम मनुष्यते अंतरद्दोपना मनुष्य १८४ भरत ५ ऐवत ५ महावोदेह ५ एवं कर्मभूमी १५ हेमवंत आदी अकर्मभूमौ रागरूप होपादि अंतर होपनाभेद २८ संख्याता अनुक्रमे ते मनुष्यनी एणे प्रकारे कहो तिर्थ करे १८५ समुर्च्छिम १४ भेदनो एहीज गर्भजनो भेद कर्म भूमौयादिक भेद कया भगवंते लोक १४ राजना एकदेश विभा
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राय धनपतसिंह बाहादुर का था०सं० उ० ४१ मा भाग
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१०८१
बोशि २ योजनयत वयायामविस्त राभ्यां लवण समुइमति क्रम्यस्थितासु षट षट अन्तरद्दोपाः सन्ति ते च हीपाश्चतुर्भिर्गुणिताश्चतुर्विशति संस्थाका भवन्ति ततश्च पाद्यन्तदीप चतुष्कसहिता अष्टाविंशतिरं तरहीपाः सन्ति एवं शिखरिणि पर्वतेपि अष्टाविंशति या सर्वसाम्याच्चैषां भेदेन अवि वच तत्वात् सूत्रे ष्टाविंशति संख्याकथनं विरोधायन भवति तेषु अन्तरदौपेषु बुगले धर्मिकावसन्ति तच्छरीरमानादि कथ्यते अष्टधनुः शतीच्छायाः पल्यासंख्यभागायुषः चतुःषष्टि पृष्टकरण्डा चतुर्थदिवसाहाराभि लाघवन्तः एकोमाशौति दिन तापत्यपालनाः तेषां हीपानां नामायामविस्तारपर ध्यादि विचारस्तु क्षेत्र समास बहट्टी कातोवमेयः १८८ संमूर्छिमानां हि एष एव भेदः यत्कर्म भूमि समुत्पबानां गर्भजानां वातपित्तादिषु चतुर्दश मैदः सम्भवन्ति अङ्गलासख्ये यभागमावावगाहनास्ते सर्वे मनुष्याः समर्छिमागर्भजाश्च लोकैकदेशेव्याख्याताः२०० [सन्तई पप्पणाइया अपज्जवसियाविय ठिई पड़च्चसाईया संपज्जवसियाविय२०१] (पलिपोवमाइतिने ओउक्कोसेणवियाहियाउठिमणप्राणअन्तीमहत्त'जहनियार ०२) मनुजानां गर्भजानां बौणि पलपीपमानि उत्कष्टेन आयुःस्थिति ाख्याता जघनाका च अन्तर्मुहर्त स्थितिन २०२ अश्व कायस्थिति मन्तरकालं चाह हाभ्यां गाथाभ्यां
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं.उ.४१ मा भाग
आहिओ। लोगस्म एगदेसंमि ते सब्बे वियाहिया ॥१६८ संत५पप्प णाईया अपज्जबसियाविय । ठिएंपडुच्च साईया सपज्जवसियाविय ॥२०० पलिओवमाइ तिन्निो उक्कोसण बियाहिया। आउ ठिई मणुयाणं अतोमुहुत्तं जह
गने विखे ते सर्व समूर्छिम गर्भज कह्या १८६ प्रवाहमार्ग आयौ अनादिके अंतपोणके विति पायी आदि सहित सपर्यवसित सतिपणि निच १८७ पल्वोपम विहुनो उत्तष्टी कही पाऊखानी स्थिति गर्भज मनष्यनौ अंतर्म हतं जपना गर्भजनी समूच्चि मनो जघना अंतमु
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सूत्र
[पलिपोवमाई तिबेो उक्कोमेण तु साहिया पुचकोडीपुहत्तेणं अन्तोमुडुत्तं जहविया २.३] (कायठिई मा आयं अन्तरन्ते सिमभवे अएंतकाल मुकोस अन्तीमुहत्त' जहवियं २०४) मनुजानां गर्भजाना बौणि पत्लयोपमानि पूर्वकोटि पृथक्क न साधिकानि उत्कृष्ट न कायस्थिति व्याख्याता जघ न्धिकाचान्तम इत्त स्थिति ाख्याता तेषां गर्भजानां मनुजानां कालस्थान्तरं उत्कृष्ट अनन्तकालं जघन्यक अन्तर्मुहत कालान्तरं यं २०४ [एएसिवनोचेव गधोरसफासो सण्डाणादेसभोवावि विहाणाइ सहस्मसो २०५] एतेषां समूहिमगर्भज मनुजानां वर्णतोगश्चतोरसतः स्पर्शतः संस्थानादेयतथापि सहवसो विधानि भवन्ति २०५ अथ देवानाह (देवा चबिहा बुत्ता तं मे कित्तयीसुण भोमिलवाण मन्तर जोर सवैमाणि या
निया ॥२०१ पलिओवमाउ तिनिओ उक्कासणंतु साहिया। पुब्बकाडि पुहुत्तेणं अंतीमुहत्त जहन्निया ॥२०२ काय ठिई मणुयाणं अणंतरं तेसिमं भवे । अणंत काल मुक्कासं अंतोमुहुत्त जहन्नयं २०३। एएसिं वन्नो चेव गधयो रस
फासी । संठाणा देसीवावि विहाणाई सहमसी। २०४ देवा चउ विहा वुत्ता ते मे कित्तयो सुण । भोमिज्ज दुरी १०८ पत्योपमनौ त्रिहुनौ उत्क्लष्टौ कही तीर्थ कर देवे पूर्वकोडौ पृथुकत्व ८ लगौ सातभव पूर्वकोडौथौ करौने पत्यनु आयु भोगवें पूर्व पृथुकत्व * ते अंतमुहर्त जघन १er काया स्थिति मनुष्चनौ जेह भणी तेहनो तेह मांहि । ८ भव रहे पांतरी वेहनो मनुश्चने कहौस्य अनंताकासनो उत्
कष्टी अंतरनि गोदमाहि जाइ तु अंतर्मुहर्त जघना २०. एमनुष्चना वसं थको गंध धको रस थको फरस थको संस्थानना भेद थको विधान मैद सहस्रगमै २०१ देवता चिह्न भेदे कच्चा भगवंते ते मुझने कहतां प्रति सांभलि के शिष्य भूमि अपना ते भूमिज भूवनपति विविध पर्वतने अंतरे ऊप
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा•सं• न.४१मा भाग
भाषा
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छ० टोका
अ०३६
१०८३
सूक्ष
भाषा
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तह २०६) देवाचतुर्विधा उक्ता स्तान् भेदान् कीर्त्तयतो मे ममत्व शृणु भौयकव्यन्तराः व्योतिष्कास्तथा वे मानिकाः भूभौभवा: भौमेवकाः भवन वासिनोदेवाः रत्नप्रभायाः पृथ्वयाः प्रशोति सहश्रोत्तर योजन लचपिण्डाया उपर्युकं योजनमवगाह्य अधयकं योजनसह मुक्कामध्येऽष्टसप्तत्युत्तर योजनलचे भवनवासिनां च मरेन्द्रादि देवानां भवनानि सन्ति १ वाणमन्तरन्ति श्रार्षत्वाद्विविधानि अन्तराणि निवासस्थानानि गिरिकन्दरविवरादीनि येषां तेव्यन्तराः २ ज्योतयन्त इति ज्योतिषि विमानानि तत्रि वासिनोदेवाः ज्योतिष्काः ३ विशेषेण मानयन्त्य प्रभुच्छन्ति सुकृति नो यानि इति विमा नानि तेषु भवा वैमानिकाः तथेति समुच्चये तेषा मेवोत्तरभेदानाह [दसहाउ भवणवासी अट्टहा वणचारिणो पश्चविहा जोइ सिया दुविहा बेमाणि याता २०७] दशधा एव भवनवासिनः तु शब्द एवार्थे अष्टधावनचारिणः वनेषु क्रोडारसेन चरितु' शोतं येषां ते वनचारियोव्यन्तराः पश्चधाज्योतिष्काः तथा वैमानिकाद्दिधा २०७ तानेवनामत आह [ असुरा१ नाग २ सुवन्ना २ विज४ अम्गीय ५ श्रहियादौवो ६ दहि ७ दिसा ८ वाया - वणिया १० वाणमंतर जोइस बेमाणिया तहा ॥ २०५ दसहाओ भवणवासी अट्टहा वणचारिणों । पंचविहा जोइसिया दुविहा वेमाणिया तहा ॥ २०६ असुरा नाग सुवन्ना विज्जु अग्गीय पहिया । दोवा दहि दिसा वाया यणिया भवणवा
नातंव्य' तर, ज्योतिवंत तेयो तिखौ विशेषे भोगवे सुकृतनाफलतेवैमानिक सौधनादि २०२ दसे प्रकार भवनवासी भवनपति आठ प्रकारे व्यतरदेवता पांचे प्रकारे ज्योतिषो हि प्रकारे वैमानिक देवता तिम २०३ असुरकुमार १ नागकुमार २ सुवर्ण कुमार २ विद्युतकुमार 8 अम्निकुमार का भगवंते ५ दीपकुमार ६ उदधिकुमार ७ दिसि कुमार ८-वायुकुमार८ स्तनति कुमार १० एभवनवासी भवनपति २०४ पिशाच १ भूतर यचवली २
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राम धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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भवनवासियो२०८] एते भुवनवासिनः कुमार शब्दान्ताः उच्चन्ते यतो हि एते कुमारवत् वेषभाषाशस्त्र यानवाहन क्रीडनानि कुर्वन्ति पतएते सर्वे देगापि कुमारान्ताः तद्यथा अमरकुमारनागकुमारविद्युत् कुमार अग्नि कुमारदीप कुमार उदधि कुमारदिक कुमार वायु कुमारस्तनित कुमार एतनामतः आख्याताः ८ अश्व व्यन्तरभेदानां नामान्याह (पिसाय १ भूया २ जक्खाय ३ रक्वसा ४ किबराय ५ कि पुरिसा ६ महोरगाय ७ गन्धब्बा ८ अट्टहा वाणमन्तरा२०८) व्यन्तरा अष्टविधा पियाच१ भूतार यचाचपुनरावसाकिबराच किं पुरुषाः६ महोरगा गन्धर्वाः एवमष्टप्रकाराः व्यन्तराने या अथ ज्योतिकानां भेदान् नामताह (चन्दसूराब नक्सत्ता गहातारगणा तहाठिया विचारिणो चेव पञ्चहाजोइ सालया २१०) ज्योति रालया ज्योति रालयोगही येषां तेज्योतिरालयाः ज्योतिष्कादेवाः पञ्चधासन्ति इति शेषस्ते ज्योतिष्कादेवाः ठियाइति स्थिराः मनुष्यक्षेत्राहहि ज्योतिष्कास्तपञ्च स्थिरा पचलस्वभावाः मनुष्यक्षेत्रान्तर्वति नोहि मेरुपर्वतस्य नित्य' प्रादक्षिण्य चारिणस्तेपञ्च धाज्योतिष्काज्ञ यास्तेचामीचन्द्रा १ सूर्याश्च २ नक्षत्राणि ३ पहा । स्तारागणा ५ प्रकीर्णकतारकसमूहास्तथा या २१० अथ वैमानिकानां भेदानाह [वैमाणियाओ जेदेवादुविहातवियाहिया कप्योवगाय बोधवा
सिणी । २०७ पिसाय भूया जक्खाय रक्खसा किंनराय किंपुरिसा ॥ महारगाय गधब्बा अट्टविहा वाणमंतरा २०८ चंदा सूराय नक्खत्ता गहा तारागणा तहा । ठिया विचारिणा व पंचहा जोइसालया २०८ । वैमाणियाओ
राब पनपतसिंह बाहादुर का पासं.. ४१मा भाग
भाषा
* रास किंवर ५ किंपुरुष । महोरग नामा ७ गंधर्व ८ एपाठे प्रकारव्य तर २०५ चंद्रमा १ सूर्य २ नक्षत्र ३ ग्रह ताराना समूहवली अढी
पोप वाहिर ते थिर अढीई होपमाहि चाले तिर्ण चारी पांचे प्रकार ज्योतषौना ठाम २०६ वैमानना वासीजे वैमानिक देवता ते विहु प्रकार कह्या
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उ० टोका अ०३६
१०८५
सूत्र
भाषा
कप्पाईयात वय २११] तु पुनर्वैमानिकायेदेवास्तेद्दि विधाव्याख्याताः कल्पादेवलोकास्तान् उपगच्छन्तोति कल्पोपगाः द्वादश देवलोकस्थाः कल्पोपगाः च पुनस्तथैवकल्पातीताः कल्पान् अतीताः इति कल्पातीताः नवग्रं वेयक पञ्चानुत्तरविमानस्थाः एव वैमानिकादिप्रकाराज्ञातव्या २११ अथ कल्पोपगतानां नामान्याह (कप्पोवगाबारसहासोहम्मौसाणगातहा २ सणं कुमारमाहिंदा ४ बम्भलोगाय ५ लन्तगा ६ २१२ ) [ महामुक्का ७ सहस्मारो ८ आण्या 2 पाण्या १० आरण ११ अच्च या १२ चेव इद्रकप्प्रोवगासुरा २१३] युग्म कल्पोपगा दादशधासु धर्मानाम इन्द्रस्य सभाऽस्मिन्नस्तीति सौधर्मः प्रथमकल्पः एवं ईशानोद्दितौयकल्पः सौधव ईशानव सौधर्मेशानौ तौ गच्छन्ति प्राप्न ुवन्तीति लांतगाः २१२ महाठक भवामहाशुकाः सहस्रारंभवाः साहस्रारा: आनतेभवा आनतास्तथा प्राणतेभवाः प्राणताः अरुणेभवा आरुणाश्च अच्युते भवा अच्य ुताय आरणाच्च ताइति अमुनाप्रकारेण द्वादशविधाः कल्पोपगताः सुराने याः २१३ (कप्पाईयायजेदेवा दुविहातेवियाहियागे विज्जाणत्तराचैव गेविज्ञानवविहातहिं २१४) च पुनस्ते कल्पातीतादेवास्ते द्विविधा व्याख्याता जेदेवा दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगाय बोधब्बा कप्पाईया तवय ॥ २१० कप्पोवगा बारसहा साहमी सा गंगा तहा । सकुमारमाहिंदा वंभलोगाय लंतगा२११॥ महामुक्काम हमारा आण्या पाण्यातहा । आरणा अच्चुया कल्पमर्यादिइ इ ंद्र सामान्यादिकनौ व्यवस्थाते कल्पोपगतवार देवलोकना देवताकल्पे अतिक्रमावर्त्ते इंद्र सामान्यादि रहित ते कल्पातीता ८ ग्रेवेक पांच अनुत्तरमा २०७ कल्प देवलोके ऊपना देवता वारे प्रकारे ते कहा सो धर्म देवलोकना १ ईसांण देवलोकना तिम २ सनत्कुमार देवलोकना ३ महेंद्र देवलोकना ५ ब्रह्म ५ लांतक देवलोकना ६ २०८ महाशक्र देवलोकना ७ सहस्रार देवलोकना ८ आणत देवलोकना ८ प्राणत देवलोक १०
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ० सं०ड०४१ मा भाम
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एन्टोका
श्र० २६
१०८६
सूव
भाषा
E-30
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ग्रैवेयकाः अनुत्तराय तत्र ग्रैवेयका नवविधा तत्र ग्रौवालोक पुरुषस्य वयोदशरन्वाम स्थानीय प्रदेशस्तव ग्रौवायां अतीव शोभाकरण हेतव आभरण भूताग्रे वेया देवावासास्तत्र भवा देवा वैयकास्ते नव प्रकाराने याः २१४ तेषां ग्रेवेयाणां नामानि (हिट्टिमा हिट्टिमा चेव १ हिमाम किमाहार हिट्टिमाउ वरिमाचेवर मज्झिमाहिट्टिमातहा४ २१५) (मकिमामक्रिमाचेव५ मक्तिमा उवरिमातहा६ उवरिमाहिहिमाचेव उवरिमा उवरिमाचेवट) उपरितन घट कापेचया प्रथमेषु अधस्तना प्रधस्तना चैव पद पूरणे १ प्रथमग्र वेय देवाः १ अवस्तनाथ मध्यमास अधस्तनामध्यमाः १ द्वितीयग्र वेयदेवाः २ तथा अधस्तनोपरितनाः तृतीयय पेय देवाः ३ तथा मध्यमाधस्तनाः मध्यस्त विकापेचया अधस्तनाचतुर्थ वेय देवाः २१५ [च पुनर्मध्यमाः मध्यमाः मध्यमस्थत्रिका पेचया मध्यमा मध्यमा पंचमग्र वैयक देवाः तथा मध्यमत्रिका पेचया उपरितमा मध्यमोपरितमाः षष्टये वैयक देवा' पुनरुपरितनाधस्तनाः उपरि स्थविकापेचया अधस्तनाः उपरितनाधस्तनाः सप्तमर्थ वैयकदेवाः तथा उपरिमध्यमाः उपरितनत्रिकापेचया.
चव इद्र कप्पीवगा सुरा २१२ ॥ कप्पाईयाय देवा दुविहा ते वियाहिया । गेबेब्जा गुत्तरा चव गेवेज्जा नव विहा तहिं २१३ ॥ हिट्टिमा २ चे व हिट्टिमा मज्झिमा तहा । हिट्टिमा उवरिमा चैव मज्झिमा हिठ्ठिमा तहा २१४. ॥.
धरण देवलोक ११ अच्युत देवलोकना १२ इथे प्रकार कल्प देवलोकना १२ मेद ऊपना देवता २०८ कल्पातीत नवग्रे वेयकादिकना जे देवता विह प्रकारे ते कच्चा लोक रूप नर पुरुषने ग्रौवा कोट समानते ग्रे वेयकना देवता उत्तम प्रधान सुख प्रभाव जोहां ते अनुत्तर विमान देवता येवैयक नव प्रकारे जांणवा २१० नवमी अपेचाइ हेठिलामांहिं हेठला पेहला देवता हेठिल्यानो अपेक्षार मध्यम विचालानो वोजोनी देवता तौम 'हेठलानी
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रायधनपतसिंह वाहादुर का प्रा० सं०ड० ४१मा आग
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स.टौका
::PS
.६७
मध्यमाः मध्यस्थाः उपरितमा मध्यमाः अष्टम वेयकदेवाः २१६ अथ नव वेयक देवानां नामोचते उवरिमाउवरिमाचेव हागे विजगासराच पुनरूपरिमोपरिमा उपरि स्थविकापचया उवरि मोपरिमा नवप्रैवेय देवाः इति अमुना प्रकारेण नव वेयकाः सुराः व्याख्याताः प्रधानुत्तर विमानान्याह विजया वैजयंताय जयंता अपराजिया २१७ [सब्बठ्ठ सिद्धिगाचे व पंचहाणत्तरा मुरा इश्वमाशिया एए पगहा एवमादी २१८] विजया विजय विमानवासिनः विजयन्ते विविघ्नहेतून विजया व्यु त्यत्तिः तथा वैजयन्ताः तथा अपराजिताः अपरै हदय विघ्नहेतुभिः शत्रुभिः अजिताः अपराजिताः पुनः सर्वार्थ सिद्धकाः सर्वेऽर्थाः सिघाइव सिहा येषांते सर्वार्थसिताः सर्वार्थसिद्धा एव सर्वार्थसिहिकाः इति अमुनाप्रकारेण एते पञ्चधा अणत्तरादेवाः एवमादिकाः व्याख्याताः हादश देवलोकभवाः नव वेयकभवाः पञ्चानुत्तरभवाः सुराएवमादयोने याः चतरणीति लक्षाणि सप्तनवति
ममिमा २ चेष मज्झिमा उवरिमा तहा। उवरिमा हिडिमा चेव उवरिमा मन्भिमा तहा २१५॥ उवरिमार व दूदू गेवेज्जगा सुरा। विजया वैजयंताय जयंता अपराजिया २१६ ॥ सव्वट्ठसिद्धिगा चे व पंचहा णुत्तरा मुरा। दूदू
वेमाणिया एए गहा एव मादूओ २१७ ॥ लीगम एग देसंमि ते सर्व परिकित्तिया। इत्ती काल विभाग'तु सेसिं अपेक्षाई जपरला मध्यम विकनी अपेक्षा हेठिला उ'चा २११ मध्यविकनी अपेक्षाई मध्यविचालानो पांचमी देवता मध्यत्रिकनी अपेच्चाई ऊपरि जोछटाना देवता उपरित्या त्रिकनौ अपेचाई हेठलो सातमाइ देवता उपरिलाबकनी आपलाई मध्य विचालानो पाठमामा देवता २१२ जपरिला विकनी अपेक्षाई ऊपरला नवमाना देवता पूर्ण प्रकारे नवग्रे वेकनादेवता१. विजयविमानना १ वेजयंत विमानना २ जयंत विमानना ३ अप
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.सं.१.४१मा भाग
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सहस्राणि तथा बयोविंशतिर्विमानापेक्षया अनेकविधा : आख्याता २१८ (लोगस्म एगदेस मि ते सब्वे परिकित्तिया इत्तोकाल विभागंतु ४ तसिं वुच्छ चउविहं २१८) ते सर्वे देवालोकस्यैकदेशे परिकीर्तिताः इतोऽनन्तरं काल विभागन्तु तेषां देवानां चतुर्विधं वक्ष्ये २१८ [संतई पप्प पाईया अपज्जव सियाविय ठिई पडुच्च साईया सपज्जव सियाविय २२.] सन्ततिं प्राप्यते देवा अनादयः अपर्यवसिता अपि स्थितिं भवस्थिति कायस्थितिं प्रतीत्यसादयः सपर्यवसिताचापि वर्तन्ते २२० [साहियं सागरं इक उक्कोमण ठिई भवे भीमिज्जाणजहन्नेणं दसदास सहमिया २२१] भोमिज्जा इति भवन पतौनां देवानां उत्कृष्टेन आयुःस्थितिः साधिक सागरोपमं वर्तते जघनान दशवर्ष सहस्रिकास्थिति ाख्याता २२१ (पलिपीवममेगं तु उक्कोसेण ठिई भवे वंतराणं जहनेणं दसवास सहस्मिया २२२) व्यन्तराणां उत्कृष्टेन एक पल्योपमं आयुः स्थिति वोच्छं चउब्विहर१८॥ संतपप्पणाईया अपज्जवसियाविय | ठिपडुच्चसाईया सपज्जब सियाविय२१६॥ साहियंसा गरएक्कं उक्कोसणठिईभवे । भोमेज्जाणजहन्नेणं दसवाससहस्मिया२२०॥ पलिओवममेगत उक्कोसणठिईभवे । बंतराणं
राब धनपतसिंह बाहादुर का आ.सं. उ० ४१ मा भाग
भाषा
* राजीत विमानना४ २१३ सर्वार्थसिडना देवताना पांच अणुत्तर विमानना देवता इणे प्रकार बेमानौक देवता अनेक प्रकारे इत्यादिक २१४ लोकना एकदेशने बिखे ते सर्व कन्या भगवंते एतलानंतर कालनी विभाग वौवरी ते देवतानु कहेस्य २१५ प्रवाह आधौदेवता अनादिना अपर्यवसित अनंतपणे स्थिति आधीसादि सहित सपर्यवसित छेहडी पणि २१६ साधिक झाझेरी एक सागरोपम उत्कृष्टौ स्थिति हुवे भवनपति चमरेंद्रादि जधना दशहजार बरसनो २२१ पल्योपम एकनी उत्तष्टौ स्थीति हुवे व्यं तर देवतानी जघना दसहजार वरसनौ २२२ पल्योपम एक वरस लाख
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भवेत् तु पुनय न्तराणां जघनान दशवर्ष सहस्रिकाभवेत् २२२ (पलियोवमन्तुएर्ग वासलक्क्षण साहियं पलिपीवमभागी जोइमेसु जहबिया २२३) प्र.३६
8 ज्योतिकाणां चन्द्रार्काणां देवानां एकंपल्योपमं वर्षलणसाधिकं उत्तष्टा आयुः स्थितिाख्याता पुनर्जघन्धिका आयुः स्थितिः पत्योपमस्याष्टमीभागी १०८८४ भवति २२२ (दोचेव सागराई उक्कोमेण ठिई भवे सोहम्ममि जहवेणं एगच्च पलित्रीवमं २२४) सौधमें देवलोके हसागरीपमै उत्कृष्टा भायुः
स्थितिर्जघन्येन एकं पत्यापमं आयुः स्थिति जया २२४ [सागरा साहियादुनि उक्कोसेण ठिई भवे ईसाणं मिजहबेणं साहियं पलिपीवमं २२५] ईशाने ईशान देवलोके उत्कृष्टेन हेसागरोपमेसाधिक आयुः स्थि तिर्भवेत् जघन्यतस्तु तत्र पायुः स्थितिः साधिकं पल्यापमं अस्ति २२५ (सागराणिय सत्तेव उक्कोमेण ठिई भवे सणं कुमारजहबेणं दुनियोसागरोवमा २२६) सनत्कुमार उत्कृष्टेन सप्त वसागरोपमानि प्रायुः स्थितिर्भवेत् जघन्ये न
जहन्नेणं दस वास सहस्मिया २२२ ॥ पलिओवमंतु एग वासलक्खेण साहियं । पलिओबमट्ठ भागो जोइसम जह निया २२३ ॥ दीचे व सागराई उक्कोसेण विहाहिया । सोहम्म मि जहन्नणं एगच पलिअोवम २२४ ॥ सागरा सा .
हिया दुन्नि उक्कोसण बियाहिया। ईसाणमि जहन्नेणं साहियं पलिओवम २२५ ॥ सागराणिय सत्तेव उक्कोसेण ठिई 8 एके करौ अधिक उत्कृष्टो थितियोतिखो चंद्रमानौ पल्योपमनी आठमो भाग ज्योतिषीने बिखे तारादेवीनी जघना २२३ वे सागरीपम उत्कृष्टी स्थिति पाउखु होई सोधम्म देवलोकने विखे जघना एक पल्योपम आजखो २२४ सागरोपम बै झाझरे उत्कृष्टी थिति हुई इसाण देवलीके जधना जाझेरी एक पल्यापम २२५ सागरोपम सातनी स्थीत जाणवी उतष्ठीनीय सनतकमार देवलोक जघनापणे वे सागरोपम २२८ झाझरा
राय धनपतसिंह वाहादुर का पा.सं २०४१ मा भाग
१३७
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4.३६
१०८०
N
*सागरीपमै स्थितिर्भवेत् २२६ [साहिया सागरा सत्त उक्कीसेण ठिई भवे माहिदम्मि जहबेणं साहिया दुबि सागरा २२७] माहेन्द्रलोके उत्कृष्ट न मसाधिक सप्तसागरोपमाण्यायुः जघन्य न साधिक है सागरीपमे २२७ (दसचेव सागराई २२८) ब्रह्मलोके उत्कष्ट न सप्तसागरीपमाथायुः - जघन्ये न सप्तसागरीपमे २२८ [चउहससागराई उक्कोसेण ठिई भवे लन्तगं मिजहबेणं दससागरीवमा २२८] लान्तकदेवलोक उतकटन चत 8 सागरीपमानि आयुः स्थितिर्भवत् जघन्यतो दशसागरोपमानि आयुस्थितिर्भवेत् २२८ [सत्तर स सागराई उक्कोसेण ठिई भवे महासकै जहवे याच उदस सागरीवमा २३०] महाशंक देवलोके उत्तष्टेन सप्तदशसागरोपमानि आयुः स्थितिः जघन्येन चतुर्दशसागरोपमानि आयुः स्थितिर्भवेत् २३० [अड्डा
भवे । सणंकुमारे जहन्नण दुन्निऊ सागरोवमा २२६ ॥ साहिया सागरा सत्त उक्कोसेण ठिई भवे । माहिदम्मि जह नेणं साहिया दुन्नि सागरा२२७॥ दसचे व सागराई उक्कोसेण ठिई भवे । बंमलोए जहन्न णं सत्तज सागरोधमार२८ चउद्दस सागराडू उक्कोसण ठिई भवे । लंतगमि जहन्ने ण दसऊ सागरोवमा २२६॥ सत्तरस सागराएं उक्कारीण
ठिई भवे । महामुक्के जहन्न णं चउदस सागरोवमा २३० ॥ अट्ठारस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। सहमारे जह सागरोपम सातनी उत्कृष्टौ थिति होइ माहेंद्र देवलोके जघन्ये तो माझ रो वे सागरोपम २२७ दस सागरोपमनी उत्कृष्टौ स्थिति हुई ब्रम्ह देव लोके देवतानी जघन्य तु सात सागरीपम २२८ चौद सागरोपमनी उत्कृष्टी स्थिति हुइ लांतके देवतानी जघन्यतो दस सागरीषम २२६ सतर साग रोपमनी उत्कष्टी स्थिति हुवे महाशक देवतानी जघन्य चौद सागरोपम २३० अठारे सागरीपम उत्कष्टी स्थित हुइ' सहस्रार देवलोके जघन्य
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०१०४१मा भाग
भाषा
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EN
१.टौका
* रस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे सहस्मारे जहवेण सत्तरस सागरोवमा २३१] सहवार देवलोके अष्टादश सागरोपमानि उत्कृष्टायुःस्थिति * भवेत् जघन्वतः सप्तदश सागरोपमान्यायुः स्थितिर्भवेत् २३१ (सागरा अउणवीसन्तु उक्कोसेण ठिई भवे पाणयं मिजहब अट्ठारससागरीवमा २३२) 8 आनते देवलोके एकोनविंशति सागरोपमाणि उत्कृष्ट नायुःस्थि तिर्भवेत् तथा जघन्य न अष्टादशसागरोपमान्यायुः स्थितिर्भवेत् २३२ (वौसन्तु सागराई
उक्कोसेण ठिई भवे पाणयंमिजहब्रेण' सागरा अउणवीसई २३३) प्राणतदेव लोके उत्कृष्टेन विंशति सागरोपमानायुः स्थितिर्भवेत् तथा जघनेन
एकोनविंशतिः सागरोपमानि प्रायुः स्थितिर्भवत् २३३ [सागराइक्क वीसन्तु उक्कीमेण ठिई भये पारणंमिजहण वीसह सागरोवमा २३४] पारण 8देवलोके एकविंशति सागरोपमानातकष्टा:स्थितिघनाम तु विंशति सागरोपमामि प्राय स्थितिर्भवेत् २३४ (बावीस सागराई उकोमेणाठिई भवे
नण सत्तरस सागरोवमा २३१ । सागरा अउणवीसंतु उक्कोसण ठिई भवे । पाणयमिम जहन्न णं अट्ठारस सागरो । वमा २३२॥ वीसंत सागराडू उक्कोसणठिईभवे पाणयम्मि जहन्नेणं सागरा अउणवीसई २३३॥ सागराएक्कवीसंतु उक्को
सेण ठिई मवे। आरणमि जहन्न णं वीसई सागरोबमा २३४। बावीस सागरा उक्कोसेगा ठिई भबे । अच्चुयंमि जह सत्तर सागरोपम हुई'२३१ सागरीपमयोमणीस उतकष्टी थीति हुडूआणत देवलोके जघन्य स्थिति पठार सागरोपमनी २३२ वास सागरोपमनी उत्कृष्टौ स्थिति हुई प्राणत देवलोके जघन्य सागरीमग्रीगणीस २३३ सागरीपम एकवीसनी उतकष्टी स्थिति वे पारण देवलोके देवतानी जघना बौस सागरोपमनौ २३४ वावोस सागरीपमनी उतष्टी स्थिति हुई अच्यत देवलोके जघना चउवीस सागरीषम २३५ बेवोस सागरोपम उत्छष्टी
राख धनपतसिंह वाहादुर का प्रा.सं.३०४१ मा भाग
४RX
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१०टीका
१.८२
अच्चुयं मिजहबेणं सागराइकवीसई २३५) अच्च तदेवलोके द्वाविंशति सागरोपमानात्वष्टायु:स्थि तिर्भवेत् जघनातस्तु एकविंशति सागरीपमानिस्थिति ॐ भवेत् २३५ अथ नवग्रे वेयकाणां आयुःस्थितिरुच्यते [ तेवोससागराई उक्कोमेण ठिई भवेपढम मिजहन्ने ण' बावीसंसागरोवमा २३६] त्रयोविंशति ४ सागरोपमानि प्रथम वेयके उत्कष्टा आयुःस्थितिर्भवेत् जघनेन द्वाविंशति सागरोपमानि २३६ (चउवोस सागराई उक्कोमेणठिई भबै बिइयं मिजह *वेश तेवीसं सागरोवमा २३७) हितोये वेयके चतुर्वि'यति सागरोपमानि उत्कृष्टा आयु स्थितिर्भवेत् जघनधन त्रयोविंशति सागरीपमानि २३७
[पणवीस सागराई उकासेण ठिई भवे तइयं मिजहन्ने ण च उवौसंसागरोवमा २३८] ढतीये वेयक पञ्चविंशति सागरोपमानि उत्कृष्टायुःस्थिति ॐ भवेत् जघान चतुर्विशति सागरोपमानि २३८ [छब्बीस सागराई उकासेणठिई भवे च उत्स्य मिजहबेणं सागरापणवीसई २३८] चतुर्थे ये वेयकेषड् विंशति सागरोपमानि उत्कृष्टा आयुःस्थितिः जघनान पञ्चविंशति सागरोपमानि २३८ ( सागरासत्तवीसन्तु उक्कोसेणठिई भवे पञ्चमं मिजहन्ने
नेणं सागरा एक्कबीस २३५ ॥ तेबीस सागराडू उक्कोसण ठिई भबे। पढमम्मि जहन्नेणं बाबीसं सागरोबमा २३६॥ चउवीस सागराई उक्कोण ठिई भवे। बियंम्मि जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमा २३७॥ पणवीस सागराई उक्कोसेण
ठिई भवे । तइयंमि जहन्नेणं चउवीसं सागरीवमा २३८ ॥ छब्बीसं सागराइ उक्कोसण ठिई भवे । चउत्य मि जह स्थिति हुइ प्रथम वैयकने विखे जघना वावीस सागरोपम २३६ चौवीस सागरीपम उत्कृष्टी स्थिति हुई वौजवेयके जघना ते वीस सागरीपम२३७४ पचवीस सागरोपम उत्कष्टी थिति हवे वीज वेयक जपना चउवीस सागरोपम २३८ कब्बीस सागरीपमनी स्थीत सतकष्टी स्थिति होर चौथे वे
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग.
सूच
भाषा
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उ.टोका
१०८३
सागरासत्तवोसई २४०) पञ्चमवेयके सप्तविंशति सागरोपमानि उत्कृष्टा आयुःस्थि तिर्जघनान षट्विंशति सागरोपमानि२४० [सागराअट्ठवीसन्तुउक्को मेणठिईभवेछटुंमियजहब्रेणंसागरासत्तवौसई२४१] षष्टेगवेयके उत्कृष्टेन अष्टाविंशतिसागरोपमानि आयुःस्थितिघनानसप्तविंशतिसागरोपमाणि२४१ (सागरा अउणतीसंतु० २४२) सप्तमे वेयके उत्क्वष्टा एकोनविंशत्मागरोपमानि आयुः स्थि तिर्भवेत् जघनातः अष्टाविंशति सागरोपमानि२४२ (तीसंतु सागराई उक्कोमेण ठिई भवे अट्टमम्मि जहन्ने मागरा अउणवीसई २४३ ) अष्टमे वेयकेत्रिशत्मागरोपमानि उत्कृष्टा आयुःस्थितिर्भवेत् जघनातस्तु एकोनत्रिशत्मागरोपमानि २४३ [सागरा एकवीसन्तु उक्कोसेण ठिई भवे नवमं मिजहन्ने ण तोसई सागरीवमा २४ ४] नवमग्रे वैयके एकत्रिंशसागरोप
नेणं सागरा पणवीसई २३६ ॥ सागरा सत्तवीसंतु उक्कोसेण ठिई भवे | पंचमंमि जहन्ने णं सागरा छवीसई २४० ॥ सागरा अट्ठवीसंतु उक्कोसण ठिई भये। छट्टमि जहन्ने णं सागरा सत्तवीसई २४१ ॥ सागरा अउणतीसंतु उक्कोसण ठिई मवे । सत्तमंमि जहन्ने णं सागरा अहवौसई २४२ ॥ तीसंतु सागराई उक्कोसण ठिई भवे। अट्टमम्मि जहन्ने
सागरा अउणतीसई २४३ ॥ सागरा एक्कतीसंतु उक्कोसण ठिई भवे । नवमम्मि जहन्ना तौसई सागरोवमा २४४॥ यके जघना सागरोपम पचवीस २३८ सागरोपम सत्तावीसनी उत्कृष्टौ स्थिति हुवे पांचमे वेयकने बिखे देवतानी जघना सागरोपम छावोस २४०
सागरोपनौ अट्ठावीस उत्कष्टो स्थिति हुई छठे वेके जघना सागरोपम सत्तावीस २४१ सागरोपम उगणत्रीस उत्कष्टी स्थिति हुई सातमे ग्रेवे * यके जघना सागरोपम अट्ठावीस २४२ बीस सागरोपम उत्कृष्टौ स्थिति हुई आठमाग्रे वेयकने बिखे जघना सागरीपम उगाचीस २४३ सागरोपम
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं०७०४१ मा भाग
सूत्र
भाषा
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•टोका
IND.
मानि उत्कष्टायुः स्थितिर्भवेत् जघनातस्तु एकत्रियसागरोपमानि २४ ४] अथ पञ्चानुत्तराणां आयुःस्थिति माह [तेत्तीस सागराई उक्कोसेण ठिई
* भवे च उसुविबिजयाई जहवेथे कतीसई २४५] चतुर्बपि विजय वै जयन्त जयन्तापराजितेषु विमानेषु उत्कृष्ट नवय स्त्रिंशसागरोपमानि आयु अ०३६ ४
स्वितिर्भवेत् जघनोन एकत्रिंशत्मागरोपमानि २४५) [अजहब मणकोसन्तित्तौ संसागरोवमा महाविमाणे सच? ठिई एसावियाहिया २४६] सर्वार्थे इति सर्वार्थसिद्धेविमाने महाविमाने अजघना तथाऽनुत्कष्ठं यथा स्यात्तथा वयनियमागरोपमानवायु-स्थितिर्भवेत् नविद्यते जघनया यत्र तत् अजघना न विद्यते उत्कृष्टा यत्र तत् अनुत्कृष्टं अर्थात् जघनदापि नास्ति उत्कृष्टापि नास्ति एकैवनय स्त्रिंशसागरोपमरूपा एषा आयुस्थिति ाख्याता २४६ अब देवानां कायस्थिति माह (जाचेव आउठिई देवाणं तु वियाहिया सातसिंकायठिई जहब कोसियाभवे २४७) याचैव देवानां चतुर्विधानां अपि आयुःस्थितिर्जधनयोत् कष्टाव्याख्याता सा एव कायस्थिति भवेत् यतोहि देवामृत्वा देवान भवन्ति २४७ अथ कालान्तरमाह [अणस्तकाल मुक्कोस
तेत्तीस सागराऊ उक्कोसण ठिई भवे । चउमुवि विजयाईम जहन्न गाक्कतीसई २४५ ॥ अजहन्न मणुक्कासं तेत्तीसं सागरोवमा। महाविमाण सव्वढे ठिई एसा वियाहिया २४६ ॥ जाचेवउ आउ ठिई देवाणंतु वियाहिया । सा
रायधनपतसिंह वाहादुर का पा०सं०१० ४१मा भाग
एकत्रीस उत्तष्टी स्थिति हुवे नववे यक जघना बीस सागरोपम २ ४ ४ तेवीस सागरोपम उत्कृष्टौ स्थिति हुवे चार विजय १ बैजयंत २ जयंत * अपराजितने ४ बिखे देवतानी जघना एकत्रीस सागरी मनौ स्थीतो हुई २४५ जघना पणि नही उत्पृष्टपण नही जघना उत्कष्ट तेवीस सागरी
पम मोटो विमान सर्वार्थसिहने विखे देवतानी स्थिति एह तीर्थ करे कहौ २४६ जे पाऊखानी थिति देवता सर्वनौ स्थीति कही भगवते ते वली
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• टोका
अ०३६ १०८५
सूत्र
भाषा
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अन्तोमुहुत्तं जहन्रयं विजढंमि सरकार देवाण' होज्न अन्तर २४८) देवानां खकौये कायेत्यक्त सति वनस्पति कायेब्रजति तदा उत्कृष्ट अन्तरं अनन्त कालं भवेत् जघनप्रतोंतर अन्तर्मुहर्त्त भवेत् २४८ [श्रणन्तकालमुक्कासं वासपुहत्तं जहनयं श्राण्याईण देवाण' गेविव्जाण' तु अन्तर २४८] आमतादौनां नवमदेवलोकादौनां तु पुनः ग्रैवेयकानां नवानां उपलचणत्वात् तत्र वासिनां देवानां स्वस्थानात् च्चुत्वानात्र संसारनिगोदेसमुत्पन्नानां पञ्चात्पुनः स्वस्थाने आगच्छतां उत्क्लष्ट' चेत्कालान्तरं भवेत्तदा अनन्त कालान्तरं भवेत् जघना' चेदंतर' भवेत्तदा वर्ष पृथक्त नववर्षाणि यावद्भवतीत्यर्थः २४८ [संखेज्जसागरुक्कोसंवासपुहुत्त' जहत्रयं श्रणुत्तराण्यदेवाण अन्तरं तु वियाहियं २५०] अनुत्तराणां देवानां च्यवनं भूत्वा पुनवेत्तत्र वोत्पत्तिः स्यात्तदाकियदन्तरं भवेत् तदाह उत्कृष्टं तु संख्यं यसागरोपमानि अन्तरं व्याख्यातं जघना तु वर्ष पृथक्कं नववर्षाणि यावत् २५० [एएसिंवत्र श्रीचैव गन्धओर सफासओ सण्ठाणा देवावि विहाणाइ सहस्तसो २५१] एतेषां देवानां चतुर्निकायानां गन्धतोरसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतचापि सहश्र सोविधानि भवन्ति अनेकदा तेसिं काय ठई जहन्नुक्कासिया भवे २४७ ॥ अनंत काल मुक्कासं अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सएकाए देवाण होज्ज अंतरं २४८ ॥ अनंत काल मुझेासं वास पुहत्तं जहन्नयं । आण्यादूगं कप्पाणं गेविज्जागंतु अंतरं २४६ ॥ संखिज्ज सागरो क्वासं वास पुहतं जहन्नयं । अणुत्तराणय देबाणं अंतरंतु वियाहिया २५० ॥ एएसिं वन्नची चव गंधच रस देवतानी कायस्थीति भणौ देवता तथाइ जघनापणे उत्कृष्टपणे हुवे २४७ अनंतुकाल उत्कृष्टो अंतर्मुहुर्त जघना कांडे थके पोतानी काया देवता मरो देवतान थाई एतलो अंतर २४८ ईणां देवताना बर्णथको गंधथको फरसघको संस्थानना भेदयको विधानभेद सलस्रगमे हुइ २५०
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हाय धनपतसिंह बाहादुर का श्र०सं०० ४१मा भाग
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• टोका
श्र०३६
१०८६
सूत्र
भाषा
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भवन्ति २५१ अथ निगमयितु माह [संसारत्यायसिद्धाय इद्रजौवावियाहिया रूविणो चैव श्ररुवीय अंजीवादुविहाविय २५२ ] संसारस्थाश्च जौवासिहाव जीवाइति अमुना प्रकारेण व्याख्याताः च पुनरूपिणोऽरूपिणोऽजीवाश्च व्याख्याताः द्विविधा अपि कथिताः अघोपदेशमाह (इइजीवमजीवेय सुश्चासहहि ऊणय सब्वनयाणमणमए रमिज्जासंयमेमुणी २५३) मुनिः साधुरेव अमुनाप्रकारेण जीवान् गुरोर्मुखात् श्रुत्वा पुनः श्रवाय संयमे सप्तदशविधेरमेत्र॒तिं कुर्यात् कौदृशे संयमे सर्वनयानां अनुमते सर्वे च तेनयाश्च सर्वनयाः नैगमादयः सप्तनयास्तेषां सर्वनयानां ज्ञानक्रियांतर्गतानां अनुमते अभिप्रोते ज्ञान सहित सम्पक चारित्र रूपे २५३ [तबहणिवासाणिसामयमण पालियाइमेण कम्मजोएण अप्पाणं संलिहेमुणो २५४ ] ततश्चारित्रे रमणानन्तरं बहणि फासओ । संठाणा देसवावि विहाणा' सहासो २५१ ॥ संसारत्याय सिद्दाय इद्र जौवा वियाहिया । रुवियो चव अरुवीय अजीवा दुविहाविय २५२ ॥ इइ जीव मजीवेय साच्चा सद्दहिजणय । सव्व नयाण अणुमा रमेज्जा संजमे मुणौ २५३ ॥ तो बहूणि वासाणि सामन्न मणुपालिया । इमेण कम्म जोगेणं अप्पाणां संलिहे मुगी २५४ ॥ संसारीक जीवना सिहना जीव इ प्रकारे जीव विदु भेदे का रूपी अजीव विहु भेदे अरुपी अजीव दशभेदे अजीव बिन्दु प्रकारे हुवे २५२ ए प्रकारे जीवने अजीवनाभेद गुरु समीपे सांभलीने सर्वदोह प्रमाण करो पडिवजी समस्त नेगमादिकसा तनय ते ज्ञानक्कया माहि अंतर्भावता जाणो ज्ञान सहितको रति आगोने संयमने विखे साधु २५२ ततोदोचालोधानंतर घणा वरसलगी श्रामस्य चारित्र तपसंयम कयाइ उत्तम पालोने इथे आगलि कहोस्ये तेथे अनुकमे कर्मयोगे आमा शरीर संलेखे द्रव्य थको तपे करि काया होय पाडी भाव थकी कषाय रहित २५४ बारबरसताई
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ•सं•७०४१ मा भाग
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उ टौका अ.३६
WA
%
वर्षाणि श्रामण्य अनुपाल्यमुनिरनेन क्रमयोगेन आत्मानं लिखेत् द्रव्यतीभावतच कशीकुर्यात् सप्रतिस लेखना पूर्वक क्रमयोगमाह माह [बारमेवउवा साइ सलेहुक्कासियाभवे सवच्छ रमजामियाछम्मासायजहनिया २५५] [पढमे वास चउकमिविगई निजहण कर बीएवास चउक्क मि विचित्त तु तवं चरे २५६] (एगन्तरमायामक सम्बच्चरेदुवेतोस'बच्चर''तुनाइविगिढुंतवंचरे २५७) (तीसवच्छ रहतुविगिट्ठ'तुतवंचरपरिमियंचेव आयामतमि संवच्छरेकरे २५८) (कोडो सहियमायामं कह सवच्छरे मुणोमासदमासि एण तु आहारेण तवंचरे २५८) एतासां गाथानां व्याख्या हादशैवर्षाणि उत्कृष्टा संलेखनाभवेत् संलेखनं द्रव्यतोभावतच कशत्वं करणं संलेखना द्रव्यत: शरीरस्य कशीकरणं भावतश्च कषायाणां कृशीकरणं संवच्छरमेक वर्ष मध्यमिकासंलेखनाभवेत् जघन्धिका संलेखनाषण्मासौभवत् २५५ संलेषनायास्त्रैविध्य ऽनुक्रममाह प्रथमे आयेवर्ष चतुष्क विकृति निर्य हनं विकृतीनां पञ्चानात्यागं आचालनिवितत्यादि तपः कुर्यादित्यर्थः द्वितोये वर्ष चतुष्के विचित्र एव चतुर्थषष्टाष्टमादि रूपं तपश्चरेत् २५६ ततो हौ संवत्सरी यावत् एकेन चतुर्थलक्षणेन तपसाअन्तरं व्यवधानं यस्मिन् तदेकान्तरं आवाम आचाम्न कत्वातपश्च संवच्छराई' यावास षटकं यावत् अतिविकृष्ट अष्टम
बारसेवउ वासाडू' संलहु कोसिया भवे । संब्वच्छर मनमिया छम्मासाय जहन्निया २५५ ॥ पढमे वास चउक्तमि विगई निज्जूहण करे । विइए वास चउक्कंमि बिचित्तंतु तवं चरे २५६ एग तर मायाम कट्ट संबच्छरे दुवे । तो संव
इयतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ.४१ मा भाग
& उत्कष्टी हुइ संलेखना वरस एकनी मध्य संलेखणा छम्मासनी जघना संलेखना २५५ पहिला वरस यारने बिखे विगयनी परिहार आंबिलनीयो. * की वीजा पागला बरस चारने वोखे विचित्र छह प्रहमादि तप कर २५६ उपवास अने आंतर पारण बिल इम करौ वेबरसने बिखें ति
भाषा
१२८
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उ० टोका अ०२६
१०८८
सूत्र
भाषा
द्वादशादितपोन आचरत् न सेवेत २५७ ततस्तु संवत्सराई' मास घट कंतु विक्कष्ट ं षष्टाष्टमादितपः आचरेत् परं तत्रायं विशेषः परमित मेवस्तोकं एव श्रचास्त्र ं तपस्तस्मिन् संवत्सरे कुर्य्यात् कोर्थः पूर्वस्मिन् संवत राईन अस्मिन्संवत्सराडेंच एवं एकादशे संवत्सरे चतुर्थषष्टाष्टमद्दादशादौनां पारणे प्राचाम्बं विदध्यात् इत्यर्थः ततोकोटो सहितं तपः स्यात् २५८ इत्यं' एकादशसुवर्षेषु व्यतीतेषु द्वादशवर्षे यत्कुर्य्यात्तदाह कोटौभ्यां प्रत्याख्यानस्य श्राद्यन्ताभ्यां सहितं कोटोसहितं तपोद्दादशे संवत्सरेमुनिः कुर्य्यात् कोर्थः विवचितदिने प्रभातसमये चाम्स प्रत्याख्यानं कृत्वा पुनर्द्दितोयदिने तपोन्तरं विधाय तस्यां ते पुनराचान्त्र ं इति कोटौसहितं उच्यते इत्यनेन द्दादशवर्षाणि तपः कुर्यात् तु पुनः पञ्चात्मासिकेन तु पुनरई मासिकेन श्राहारेण श्रर्थान्मासचपण प्रत्याख्यानेन तथाई मासक्षपणेन आहारणइति श्रहारानादरेणेन तपः प्रस्तावाद्वक्तपरिज्ञयाऽनशनरूपं तपञ्चरेत् एतद्विस्तरस्तु निशीथ चूर्णिती वसेयः २५८ अङ्गीकृतानशनस्य अशुभभावनापरिहारः कर्त्तव्यः श्रतोऽसुभ भावनाज्ञानार्थमाह [कन्दप्पमाभि अगं किव्विसिय मोहमासुरत्तञ्च याओ तच संवच्छरद्द' तु बिगिनं तु तवं चरे । परिमियं च ब आयामं तंमि संबच्छरे संबच्छरे मुणौ । मासद्दमासिएण तु आहारेण तवंचरे २५८ । कंदप्य माभि
॥
'छरहंतु नाइबिगिट्ठ' तवं चरे २५० करे २५८ । कोडीसहिय मायामं कट्टु
पछी संच्छर अई छमासताइ नही अति दुर्लभ एहवो तप करे २५७ तिवार पक्की श्रई संयच्छर इमासतां विकृष्ट आकरो कट्ट अट्टमादि तप करे परिमित थोडा थोडा आंबिल करे एतले उपवासने पारणे आंबील पेहला मास २५८ एहमासदई इम वरस २ एवं २२२५२ पञ्चखाणने aft wife करे विचाले तप कर बेहडे आंबोल करे ते कोडि सहिय करो बरस २ लगी साधु पर्छ मास खमण अधमास खमण श्राहार परिहारी
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रायधनपतसिंह वाहादुर का प्रा० सं०ड० ४१मा भाग
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44
दुम्माईलो मरणंमिविरहियाहुन्ति २६०] एताः पञ्चभावनाः विराधिकाः सम्यग् दर्शनचारित्रादौनां भङ्गकराः सत्योमरणान्ते मरणसमये दुर्गतयोदुर्गति * कारणत्वात् दुर्गतयोभवन्ति कारणकार्योपचारः एताः काः भावनाकं दर्प इति कन्दर्पभावनापदैकदेशेपद समुदायोपचारात् एवं अभियोग्य भावना किल्विषभावना मोह भावना असुरत्वभावनादुर्गतिश्चात्र अर्थात देवदुर्गतिः स्यात् तहबाह्यवहारण चारित्रे सत्यपि तादृगदेवनिकायोत्पत्तौ चारित्रा भावेन नानागतिभाकत्वं स्वात् यदुक्त यः संशयमपि कुर्यात् एतासु भावनासु मनुजस्त स च गच्छेत् सुरयो नौ यत्र हि चारित होनत्वमिति र मरण समये यादृशोमति स्तादृशौगतिः स्यात् इति दर्शितं मरण समये यदि एताभावना नस्युस्तदासुगतिः स्थादित्यर्थः २६. [मिच्छादसणरत्ता सनियाणाहु हिंसगा इजेमरन्ति जीवा तेसिं पुणदुलहावोहौ २६१] इति अमुनाप्रकारेणये जीवाः नियन्ते तेषां जौवानां पुनर्जनान्तरे बोधिजैनधम्म रुचिदुर्लभा * दुःप्राप्वाभवेत् इतीति कि येजोवामिथ्यादर्शन रताः अतत्वेतत्वाभि निवेशरूपं मिथ्यादर्शनं तत्र रक्तामिथ्यादर्शन रत्नास्तादृशाः सन्तो नियन्ते पुनर्ये
योग किबिसिय मोह मासुरत्त'च । एयायो दुग्गईओ मरणमि विराहिया होति २६० मिच्छा दंसण रत्ता सन्नि याणाहु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा वोही॥२६१ सम्मइंसण रत्ता अनियाणा मुक्कलेसमोगाढा।
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं.ह. ४१मा भाग
भाषा
अवसरूप तपकर २५८ कंदर्परूपते भावना अभियोगीभावनार किल्खीपौभावनाश्मीहभावना असरपणानीभावना५एपांचेभावमा दुर्गतिनु कारण मरणने अवसरने एवोभावना प्रावती जिना ज्ञानी विराधकहर २५० मिथा विपरीत दर्थनने राग राता नियाणासहित मरहुर पंचद्री जीवनाघात करणे प्रकार मर जजीव ते जीवने बोधिपर भवे जिन धर्मनी प्रामो दोहोली२८१ समकितसाचा देवगर धर्मतत्वविखे राता रागीनियाणा रहित शक्ती
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११..
ए.टोका* जीवाः स निदानाः निदानेन विषयाद्याशयासह वर्तन्तेइति सनिदानास्तादृथाः सन्तोनियन्ते तथाईति निश्चयेन ये जौवाहिंसकाः जीवहिंसाकारिणः प्र०३४
सन्तोनियन्ते ताहयानां भवान्तर जिनधर्मा प्राप्तिदुर्लभस्यादित्यर्थः २६१ [सम्मईसणरत्ता अनियाणासकले समोगाढा इइजेमरन्ति जीवा सुलभातसिं भवे बोही २६२] इति अमुनाप्रकारणये जीवानि यन्त तेषां जीवानां बोधिजैनधम्म प्राप्तिर्जन्मान्तरे मुलभाभवेत् इतौति किये जौवाः * सम्यग दर्थन रक्ताः देवतत्वगुरुतत्वधर्मतत्वरक्ताः एतादृशाः सन्तोमियन्ते तथा पुनर्ये जीवाः अनिदानानिदानरहिताः सन्तोनियन्ते पुनर्ये जीवाः
शुक्ललेश्या अवगाढाः शुक्रले श्यां प्रविष्टाः शुद्धपरिणामाः सन्तोनियन्ते तेषां बोधिर्भवान्तर सुलभा भवे दित्यर्थः २६२ [मिच्छादसण रत्तास नियाणा कि हलेसमो गाढा इइजे मरंति जोवा तेसिं पुण दुल हाबोहो २६३ ] इति अमुनाप्रकारेण ये नियन्त तेषां पुनर्जन्मान्तरे बोधि? लभाभवेत् इतौति कि कृष्ण लेश्यां अवगाढा क्वष्णलेश्यां प्रविष्टाः सन्तोमिथ्यादर्शन रक्ताः पुनः सनिदानाः एतादृशाः सन्तोनियन्ते तेषां जिनधर्म प्राप्तिः पुनटुलभाभवेत् अत्र मिच्छादसण रत्ता इति गाथापूर्व मुक्का पुनरपि मिथ्यादर्शन रक्ताइति गाथा उक्तास्ति तत्र च पुनरुक्ति दूषण नयं अत्र गाथायां कृष्ण लेश्यावतां मियमाणानां भव सन्ततौ अपि बोधि प्राप्त रभावइति सूचितं पूर्वगाथायां तु कृष्णलेश्यारहितानां मृतानां तु
इय जे मरंति जीवा मुलहा तेसिं भवे बोही ॥ २६२ मिच्छा दंसण रत्ता सनियाणा किन्हलेसमोगाढा | इय जे लेण्या निर्मल परिणाम सहित इणे प्रकार जिके मरे जीव सोहिली ते जौबने हुइ बोधि जिन धर्मनी प्राप्तौ २६२ कुदेव कुगुरु कुधर्मरूप मौथ्या दर्शनने बिखे रागी नियाणा सहित भीगना करणहार कृष्णलेश्या पाडये अध्यवसाय सहित दूर्ण प्रकार मर जे जीव ते जीवन वली बोधि जिन
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं• उ०४१ मा भाग
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5. टोका* मरणानन्तरं अपर जन्मनि बोधिदुर्लभत्वं दर्शितं इति न पुनरुक्ति दूषण २६३ [जिणवयण अणरत्ता जिणवयण' जैकरंति भावण अमला असंकिलि प्र०३६
हाते हुन्ति परित्तसंसारी २६४] ते जौवाः परौत्तसंसारिणीभवन्ति प्राक्ततत्वात् बहुवचनस्थाने एकवचन परौत: खण्डितः संसारः परीत्तसंसारः परीत संसारोविद्यते यस्य सपरीत्तसंसारौइति छिन्न संसारिणः स्युरित्यर्थः ते इति के ये जौवाजिन वचनं अहहाक्ये अनुरक्ताः सन्तोभावेन जिनवचनं कुर्वन्ति इत्यनेन मनोवाकार्यजिनधम्म आराधयन्ति पुनः कीदृशास्ते अमलामिथ्यामलरहिताः पुन: कौदृशाः असंक्लिष्टाः मोहमत्स रादि केशरहिताः एतादृशाः जौवाः संसारपारं कृत्वा मोक्षं बजन्तीत्यर्थः २६४ (बालमरणाणि बहुसो अकाममरणाणि चेवबहुयाणिमरिहन्ति तेवराया जिणवयणं जेनयाणन्ति २६५) ये मनुष्याः जिनवचनं न जानंति ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षति अहंदाक्यौं न श्रद्दधन्ति ते मनुष्याः बहुशोबारंबारं बराकादयाभाजनं सन्तोबालमरणाणि इति प्राक्तत्वात् तृतीया बहुवचन स्थानेद्वितीया बहुवचनं बालमरण रुबन्धन विषभक्षणादि मरण स्तथा अकाममरणश्च इच्छां विनाक्षुधा वृषाशोता तपतापादिमरणं मियन्त तस्माद्भावेनजिन वचनं श्रयं भावस्तु आलोचनयास्यात् आलोचनार्हाणांदेया आलोचना योग्यास्तु एतर्हेतुभिः स्युस्तान्
मरंति जीवा सेसिंपुण दुल्लहा बीहि ॥ २६३ जिणवयणे अणरत्ता जिगवयणं जे करति भावेणं । अमला असं
किलिट्ठा ते होति परित्त संसारी। २६४ बाल मरणाणि बहुसो अकाम मरणाणि चे वय । बहुणि मरिहंति भाषा
धर्मनी प्राप्ति दोहिलो २६३ सौद्धांतने बिखे अनुरक्त रागौजिननावचन जे कोई करे तपजपभावकर मौथ्यात्वमलरहीतरागद्देषादिकमलरहीत ते हुवे, 8 थोडाकालमाहि संसार छेदी मोक्षजाई २६४ वार मैदे वालमरण घणीवार मरतु' अकामाछाविना ताढितापादि सहतो अकाम मरण घणी वार मरे
राय धनपतसिंह बाहादुर का प्रा.स.स. ११ मा भाग
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हेतुनाह २६५ [बहु आगमविस्थाणा समाहि उपायगावगुणगाही एएणकारशेण अरिहा आलोयण सोउ' २६६] एतैः कारण जना आलोचना थोतु उ टोका * अर्हाभवन्ति तानि कानि कारणानि बहागमविज्ञानत्व समाच त्पादनत्वगुणग्राहित्वादीनि पालोचना श्रवणाईत्वकारणानि इमानि यानि गुण
* गुणिनोरभेदविवक्षयाइमान्य व कारणानि आलोचना श्रवणार्हाणां विशेषणत्वे न प्रतिपादयति ते नराः पालोचनां श्रोत अर्हाः भवन्ति ते इति के ये
बबागमविज्ञानाः बहुः सूत्रार्थाभ्यां विस्तारोविपुल आगमोबागमस्तस्य विशिष्टं ज्ञानं येषां ते बागमविज्ञानाः भवन्ति च पुनर्येमुनयः समाध्य त्पादकाः * समाधि देशकाल वयो योग्यैर्मधुरवचनैरन्यस्य स्वास्थं च उत्पादयन्तौति समाध्युत्पादकाभवन्ति च पुनर्ये गुणग्राहिणो भवेयुः परदूषणोदघाटकानस्थ स्ते
आलोचना श्रवणाभिवेयुरिति भावः २४६ अथ कन्द र्यादि भावनानां यत्परिहार्यत्व' उक्त अतस्तासां एव स्वरूपमाह (कन्द प्य कुकुयाई तहसौलसहा बहासविगहाहिं विम्हावन्तीयपरं कन्दप्प' भावण कुण २६७) नरः कन्दपको कुच्छ कुर्वन् तथा यौलस्वभाव हास्य विकथादिभिः परं अन्य विस्मापयन्
देवराया जिणवयणंजेनयाणं ति ॥ २६५ बहु आगम विनाणा समाहि मुप्पायगाय गुणग्गाही। एएण कारणेणं
अरिहा आलायणसाउ॥ २६६ कंदप्प कोकुइयाई तहसील सहाव हास बिगहाहिं। विम्हाबिंतोय परं कंदप्प * इस प्रकार मरते वराक् पन्नानी जीननाबचन ते सारकरौन जाणे ज्ञानक्रियानां फलजाणानथी २५५ घणी पागम सिहांत अर्धनाजाण देयकालथकी मधुरधुर बचनबोले पालोयगये परने समाधिनी उपजावणहारपरने पाखा जपजे समकितादी गुणग्राहकएपठिल्ये कारण गुणसहित ते पाचार्यादि पागलानो पालोयण सांभलि वाहयोग्य २६६ हास्य वक्रवचनकामकथाकरे काय चेष्टादि करी आवयंपमाडे तथा सोल फल विना प्रवृत्ति विस्मय
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा सं०२०४१मा भाग
भाषा
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४० टोका अ०३६
११०३
सूत्र
भाषा
कन्दर्पभावनां करोति कन्दर्पय कौकुच्चञ्चक दप को कुच्चे ते कन्दर्प को कुछ तचकन्दर्पो ऽदृदृहास्यादि पूर्व वक्रत्वेन जल्पन' कोकुच्य काय दुखेष्टितं च एते उभे कुर्वन् जीवः कन्दर्प भावनां जनयति तथा शौलस्वभावहास्य शीलस्वभावहास्य शौलख भावहास्य च विकथा च शौलस्वभावहास्य विकथा: स्ताभिरन्य' साथर्यं कुर्वन् कन्दर्पभावनां जनयति २६७ ( मन्ताजोगं काउ' भूयका' च जेप' जन्ति सायरसइट्टि हेड अभियोग' भावण' कुणद्र २६८) यः पुरुषः सातरसहि हे तवे मन्त्रायोगं कृत्वा मन्वच आयोगय मन्त्रायोगं मन्त्र ओंकारादि स्वाहान्त आयोग ऊषधोमालनं अथवा मन्त्राणां आयोग: साधनं मन्त्रयोगस्त' कृत्वा तथा भूत्या भस्मना मृत्तिकया सूत्रेण वायकर्म तत् भूतिकर्म मनुष्याणां तिरयां ग्रहाणां वा रचाद्यर्थ कौतुकादिकरण' भूतिकरण कर्म एतानि मुखार्थ सरसाहारार्थं वस्त्रादि प्रात्यर्थं यः साधुः कुर्यात् स श्रभियोगको भावनां क रोति आभोयोगिकी भावनां चोत्पाद्य स अभियोगित्वे देवत्वेन मृत्वोत्पद्यते इत्यर्थः अभियोग देवाहि देवानां आज्ञाकारिणः किं कर पाया दास प्रायाय २६८ [ नाणस्स केवलोण' धम्माय रियाय संघसाइण माई अवज्रवाई किब्बिस्मयं भावणं कुण २६८ ] स
भाषणं कुणइ । २६७ मंता जोग काउ' भूई कम्म च जे परंजंति । साय रस इडि हेउ अभियोग' भावणं कु
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ऊपजाववानो स्वभाव मुखविकारादिक अट्टहास करे विस्मय आश्चर्य कारणवि कथाए करि विस्मय आर्य माडतो परं अनेराने कंदर्प नौ भावना कंदपि या देवता तेहना भवयोग्य वास वासनो ते करे २६७ जांगुली आदि मंत्र अंजन चूर्णादी द्रव्यना योग करोने भूति राख माटोइ सूत्रे कर्म रचा निमित्त घरमाहि बाहिरे कोतुक जे प्रयुजे करावे साता सरस वस्तुपामि वाने हेते चाभियोगो देवताना भावना करे पछे मरो
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं००४१ मा भाग
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* पुरुषः किल्विषीं भावनां कुरुते किल्लिषिक देवयो नित्वदायिका भावनां लत्यादयन्ति सः कः यः पुरुषो ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य तथा श्रुत उ.टोका ४ मानवतोऽवर्षवादी भवति तथा यः पुरुषो धर्माचार्यस्य धर्मदायकस्य अवर्णवादी भवति अयं जातिहीनः अयं मूर्यो अयं कषायो इत्यादि
* आयातना कद भवति तथा संघसाधना संघच साधवच संघ साधवस्तेषां सच साधूनां अवर्णवादी भवति तथा पुनयों मायो आत्मनः सतः अपगुणान् ११०४
आच्छादयति परेषां असतो अपगुणान् वक्ति सतोगुणान् वक्ति एतादृशी जीवो मृत्वा किल्विषदेव उत्पद्यते इत्यर्थः २६८ प्रणबद्ध रोसपरोतहय निमित्त मिहोइपडिसेवीएएहिंकारणेहिंासरियंभावण'कुण२७०] एताभ्यां कारणाभ्यां पुरुषः आसुरीं भायनांकरोति असुर निकायोत्यादिकां भावनां जनयति एतौ को कारणौ इत्याह य पुरुषः अनुबद्धरोष प्रसरः अनुबहचिरकालस्थायी रोष प्रसरः क्रोध प्रसरो यस्य स अनुबहरीष प्रसरः तयायः पुरुषो निमित्ते अतोतानागत वर्तमानरूप त्रिविध विषये अथवा निमित्त भूमातरिक्षादिके प्रतिसेबी भवति कारण विनापि शभाशभनिमित्त 2 प्रयोक्ता भवति स मृत्वा असुरत्वेनोत्पद्यते इति भावः२७० [सस्थग्रहणं विसभक्वण जलण' जले पवसीय अणायारभंडसेवा जम्मण मरणाणि वंधति२७१] शस्त्रग्रहण शस्त्राणां खङ्ग क्षुरिकादीनां आत्मबधार्थ उदरादौ ग्रहण शस्त्रग्रहण तथा विषभक्षण तालुपुटादि कालकूटानां अदनं तथा ज्वलनं 8
गडू ॥ २६८ नाणस्म केवलौणं धम्मायरियस्म संघ साहूणं । माई अवन्नवाई किब्विसियं भावणं कुणदू ॥२६६
अणवद्ध रोस पसरी तय निमित्तंमि होइ पडिसेबी। एएहिं कारण हि मुरियं भावणं कुण॥ २७० सत्यग्ग ४ ते जीव अभिजोगीक देवतामाहि ऊपजे २६८ ज्ञानका तथा केवलोका तथा धर्माचार्यका तथा संघसाधुका अवर्णवादी तथा माइ होय सो * किल्विषो भावना करे २६८ शस्त्रे पेट पाहणणे मरतो विष तालपुटादि भक्षणकरो मरतु जल, अग्निमाहिती मरतू' जल पाणी
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा.सं.उ. ४१मा भाग
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ONM
MA
अग्निप्रवेशकरण तथा जले प्रवेश कर कूपवाप्यादौ वडा पर्वतादिभ्यः पतनञ्च शब्दात् गृह्यते पुनरनाचार भांडसेवा एतानि कारणानि कुर्वन्तोजना * जन्ममरण कारणानि बध्नन्ति ससार भ्रमण उत्पादयन्ति इत्यर्थः तत्र प्राचारः शास्त्रोक्त व्यवहारः न आचारो अनाचारस्तेन भांड स्योपकरणस्य
सेवा हास्य मोहादिभिः परिभोगो अनाचार भांडसेवा इयमपि क्लेशोत्यादनादनन्त भवोत्यादिका इत्यर्थः २७१ [इइपाउ कर बुद्दे नायए परिनिए छत्तीस' उत्तरमाए भवसिद्दीव संमए तिमि २०२] ज्ञात जो बुद्धस्तौर्ष करो जातात् सिद्धार्थ कुलाज्जात उत्पनी जातजः श्रीमहावीरः परिनिह तो निर्वाणङ्गत: इत्यन्वयः किं कृत्वा इत्यमुना प्रकारेण षड्विशत् सख्यान् उत्तराध्यायान् प्रादुः कृत्य उत्तराः प्रधानाः अध्यायाः अध्ययना उत्तरायते अध्यायाश्च उत्तराध्यायास्तान् अर्थतः प्रकटौ कृत्य इत्यर्थः कीदृशान् उत्तराध्यायान् भवसिद्धिक समतान् भवसिलिकाः भव्यास्तेषां समतामान्याः पठनीयास्तान २७२ इति जीवाजीव विभक्तिनामक मध्ययनं षट विशं सम्पूणम् ॥ २६ ॥ अथ नियुक्तिकार एतेषां
हणं विसभक्खणच जलणंच जलपवेसोय । अणायार भंड सेवी जमाण मरणाणि बंधंति ॥ २७१ इइ पाउ करे बुद्धे नायए परिनिब्बए । छत्तीसं उत्तरमाए भवसिद्धीय सम्मएत्तिबमि ॥ २७२ जीवाजीव विभत्तिज्झयण'सम्मत्तं ॥३६
राय धनपतसिंह बाहादुर का पा०सं० उ०४१ मा भाग
। भाषा
माहि वूडी मरतू' यतीनां उपगरण परिहरीने मोहादिकना ऊपजाणहार उपगरण मेवे ते यती घणा जन्म अने मरणबांध अपराजे अनंता भव करे मोह करतु २७१ ए पूठि कह्या ते सूत्रथको अर्थथको प्रगट कण्या वुद्ध केवली महाबौर क्रोधादीक उपशमावो मोक्ष पुहुता छत्रीस उत्तरा ध्ययनना अध्ययन भव्यजोवन सु मतवाद्वाए वचन सांचा जांण सुधमास्वामी जंबप्रति कहे २०२ इति थोजीवाजीव विचार अध्ययननी अर्थ संपूर्णः ।
१३८
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४० टोका अ०२६
११०६
सूव
भाषा
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अध्यायानां नामान्याह गाथाभिः । विषय १ गाथा ४८ परोसह २ गाथा ४६ चउरंस २ संख्या ४२१ काममरण ५३२ खुद्धागं ६१८ एलिज्ज ७३० काविलिज्जं ८२० नमिपव्वज्जाय ८६२ दुपमन्तं १०३७१ वहुस्य पुज्न ११२२ हरिएस १२४७ चित्तस भूययत्र १२५३ इस या १४५३ स भिक्खु १५ १६ बंभचेरंच १६ १७ पाउसमणिज्ज १७२१ सजइयं १८५४२ मियापुत्त १८८८ महनियंतिय २०६० समुह पालियन २१ २४ तहयरहनेमि २२४८ केसीगोयम २३८८ समिद्रयं २४ २७ जन इज्जच २५ ४३ तहसमायारी २६ ५२३ स खलु क २७ १४ मुक्तम २८ २६ सम्मत्तपरकमंच २८ ७३ तवम २०२७ चरणविहि २१२१ पमायठाणं ३२२२ तहकापयडि २२२५ लेसायं ३४ ६१ ४ अणगारमम्ग ३५ २१ जीवाजोवविभत्ति २६ २७२ छत्तीसग्रज्मयणा जोपठद्रसुराइ गुणई सोपावैणिज्जराविडला ५ इति श्रीउत्तराध्यन नाम सम्ब' गाथापञ्चक' अथ नियुक्तिकार एव अस्य ग्रन्यस्यमाहात्म्य माह ( जेकिरभवसिद्धौया० १) किलेति सम्भावनायां ये केचिन्मनुष्याः भवसिद्धिकाः भव्याः च पुनः परोत्तसंसारिकास्ते भव्याः एतानि षट्त्रिं मदुत्तराध्ययनानि अधीयन्ते अर्थात् ये अभव्याः बहुल संसारिणस्तं एतानि उत्तराध्ययनानि न अधोयन्तन पठन्ति १ [तम्हा जिणपत्ते अणन्तगम पव्वज्जवेहिसंजुत्ते अज्माए जहजोगं गुरुप्प साया अहन्जिना २] तस्मात्कारणात् जिन प्रशप्तान् अध्यायान् प्रक्रमात् उत्तराध्यायान् यथा योगं गुरुप्रसादात् अधौयेत यथा योगं इति योग उपधानाद्युचित व्यापारस्तं श्रनतिक्रम्यइति यथा योग पठेत जे करभवसिया परित संसारियाय ने जीवा । ते किरपटंति एए छत्तीसं उत्तरज्झाए | १ तम्हा जिपन्नत्ते
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जे जीव लिन भव्यमुक्ति जावा जोग्य परित्त अल्प संसारो जे भव्यजीव ते जीव निये भये छत्तीस अध्ययन उत्तराध्ययननां १ ते कारण थकी
राय धनपतसिंह बाहादुर का था•सं००४१ मा भाग
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उ० टोका अ०२६ ११०७
सूत्र
भाषा
कथंभूतान् उत्तराध्यायान् अनन्तागमपर्यवैः संयुक्तान् अनन्ताश्चते आगसाश्व अनन्तागमाशब्द परवित्ति प्रकाराः तथा पर्यवाच अर्थ पर्यवरूपाः मन्त गमाच पर्याय अनन्तागम पर्य वास्तैरनन्तागमपर्यवे शब्दार्थनयेव संयुक्तान् २ [जोगविहोइ वहित्ता एएजोलहद्रसुत मत्य' वाभासेद्रय भवियजणो सोपा वेद्र निज्जराविला २] सभव्यजनोविपुलांनिर्जरां प्राप्नोति सः कः योयोग विधिं हित्वा योगोपधानतपोऽनुष्ठानविधिं कृत्वा एतान् उत्तराध्यायान् सूत्रार्थतो लभेत पश्चागुरुमुखात् स्त्रार्थं लब्धापरं भाषेत सक्षौणकमाभवतीत्यर्थः ३ (जस्मादत्ताएए कहविसमप्यन्ति विग्धरहियस्स सोलक्खिज्जद्भव्वो पुव्वरिसौ एव भासन्ति ४) समनुष्यो भव्योमुक्तिगामौइति लज्यते पूर्वर्षयः पूर्वाचार्या एवं भाषन्ते स इति कः यस्य पुरुषस्य विघ्नरहितस्य निर्विघ्नस्य सतः कथमपि अांतगमपज्जवे हिंसं जुत्तो अज्झाएजह जोग' गुरुप्पसाया अहिज्जिज्जा ॥ २ जोगविहीए वहीया. एए जोलहर मुत्तमत्यंवा भासेद् भवियज गो सोपावेंद्र निज्जरा बहुला ॥ ३ ॥ जस्माढता एए कहविसमप्यति विग्धरहियस्म से लक्खिज्जर भव्वो पुव्वरिसी एव भासति ॥ ४ ॥ इति श्रीउत्तराध्ययन सूत्र नियुक्ति संपूर्णम् ।
जिन्ना का अनंते राम सरिखे पाठ अनंतपर्यवपर्याय सहित अध्ययन भये भणावे यथायोग्य योग्यजांणी गुरुधम्माचार्यनो प्रसाद सोम दृष्टिपांमौने ए भथे अप्रमत्त थको २ योगनौ गुरु परंपराइ विधिल होने योगविधि वन्होने इथे प्रकारे जे साधु साध्वौलहे ग्रहे सूत्रने अर्थ अनेराने उपदेशश्च ते भञ्यजीव ते पांमे कन्मनौ निर्जरा विपुल घणो २ सो पुरुष भव्य ओलखने मे पडता हे पूर्वाचार्य एसा कहते हैं तो कोन जो विघ्नरहौत कोइ तरे से ए उत्तराध्ययन पढनेकु' प्रारंभ किया थका समाप्त होयइति श्रीउत्तराध्ययन सूत्र निर्यु शिनो अर्थ संपूर्णम् ॥
० 11 ०
०
11
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राम धनपतसिंह वाहादुर का आ०सं० उ०४१ मा भाग
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उ० टोका अ०३६ ११०८
यत्नेनापि एतेउत्तराध्यायाः श्राढत्तापठनाय आरब्धाः सन्तः समाप्यन्तं संपूर्वी भवन्ति स भव्योभाग्यवान् ज्ञेयः इत्यर्थः भाग्यवतः पुरुषस्यैवनिर्विघ्न एते अध्यायाः संपूर्णाभवन्ति यतः श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपीत्युक्तः ४ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्त्ति गणिशिष्य लक्ष्मीवल्लभविरचितायां जीवाजोवविभक्ति नामकं षट्त्रिंश मध्ययनं संपूर्ण २६ गच्छ स्वच्छतरे बृहत्खरतरेजाग्रज्जशोमासुरे श्रीमान् सूरिरभूज्जिनादि कुशलः प्रौढप्रतापान्वितः यत्रामस्मृतमात्र मेव हृदये विघ्नौघविद्रावणे सन्धत्तेमहिमानमत्र विततं मनोवादितं १ तच्छिष्यो विनयप्रभः समभवत् श्रौपाठकः पुण्यवान् सिद्दान्तोदधि तत्वरत्ननिकराविष्कार देवाचलः यद्दाक्सिन्धुरपाकरोन्मतिमतां मिथ्यामलं मानस' श्रोत्रद्वारगता महाति सरलाहृद्यान्रवद्यासदा २ तदनुसदनं कारुण्यस्य प्रभावनिधिर्महान् विजयतिलकः ख्यातो भूमौ बभूव महामतिः सकल विशदोपाध्यायानां शिरोमणि सत्रिभः विविधविबुध श्रेणि स्तुत्यः सदागममम्भवित्३ तुष्टावाचक पुङ्गवायतपसाध्यानेन शौलेन वा यस्म पार्श्वजिनांहि सेवन परापद्माददौवाग्वरं शिष्यान् भूरितरांचकारस्ततः श्रीक्षेमशाखाततः शाखी च व्यरुचत्तया च मरुतां श्रौक्षेमकोति गुरुः ४ सुशिष्यं चेमस्य प्रकट शमशिक्षां प्रददतं छुपाध्यायं ध्यानं हृदिजिन वराणां विदधतां महामेधानावागमजलधि लब्बोत्तमतटं तपोरत्न' २ मुनिषु भजतवान्ति रहितं ५ तच्छिष्योभू दकोदुर्नयाना माचा रनोन्वर्थनामापृथिव्यां सत्साधूनां पाठको द्वादशांग्यास्तेजोराजः पाठकः पापहन्ता ६ तत्सद्दिनेय इह वाचकमुख्य श्रासीत् विद्याविनोदभवनं भुवनादि कोर्त्तिः श्रीहर्षकुञ्जरगणिञ्च तदीयशिष्यो वैराग्य मेव सच वाचकमुद्दधार ७ लब्धिमण्डन गणिश्च ततो भूहाचकोविबुधवृन्दसुवन्धः हेमकान्ति विनयां कितगात्रोदुर्निवारहृतमारविकारः ८ तच्छिष्यः परवादि बृन्दवदनप्रोद्भूतयूक्त्यच्छलत्कल्लोलोकुसचञ्चलस्य महतोदुर्वादवारां निधेः निःपानेविलसन्मति यतिषरस्म कुम्भजन्माकृति लक्ष्मीकीर्त्तिरिति स्फुरह गततिः श्रीमानभूत्पाठकः श्रीमल्लक्ष्मीकीर्त्ति सत्पाठकस्य हौ गुर्वाज्ञाकारिणौ सद्दिने यो ता
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राय धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं० उ० ४१ मा भाग
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8. टोका अ.३६ ११०८
प्येको वाचकः सोमहर्षेः साध्वाचारा सेवने लञ्चहर्षः १० साधुः श्रीयुक्वाल्लभः संजत नानां लकी पूर्वोवल्लभश्च हितोयः तेनाकारि प्रस्फुटादीपिकय सिद्धा तस्ययुत्तराध्यायनानः ११ न्यु नाधिक्यं बुद्धिमाद्याज्जदुक्त तटन स्तवाक्षणं शोधभौयं यान्तिधर्मोद्यस्ति छद्मस्थपुंसी जात्याखोवा प्रसव लत्येव गच्छन् १२ पूर्वप्रणीताखति विस्त रासुटीकासुनोमत्सरिताममास्ति तेजस्तुताभ्यः समवाप्य भाखतकताम बोधायसुदीपकयं १३ ॥ . . . ॥ ॥
.४१माभ
का आ.स
T
AuthyHARMANEER
3
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वृद्धसम्प्रदायः यथा निदानसहितः सम्भ तचकुवति रभूत् तथा चित्र साधुर्निदानरहितः एकस्य श्रेष्टिनी महहि कस्य कुले पुत्रत्वेन उत्पन्नः तत्र चक उ टौका 8 वर्तिवत् ऋद्धि रासीत् प्रतिदिनं सुवर्म दौनाराणां कोटी याचकेभ्यो ददान आसीत् निरन्तरञ्च घट ऋतु सुखदायकेषु मनोहरोच्च स्तर प्रासादेषु भोगान्
भुञ्जानः अनेक गजतुरगरथ यानादिक ऋद्धिमान् सुरूप कामिनीनां परिकरण परिवृतोद्वाविंशधिनाटकं पश्यन् सदा सुखनिमग्नी बहुधा भोगरसयुक्तो बभूवेति कथानकंज्ञेयं ११ महत्यरूवावयणप्पभूपा गाहाणुगौया नरसंघमको जं भिक्षुणी सौलगुणो ववैया इहज्जयंते समणोमिजाज १३ अथ चेत् एता दृशौ ऋद्धिस्तव आसौतर्हि कथं त्यक्ता हे भातः सा गाथा साधुभिर्नरसंघमध्ये नराणां मनुष्याणां संघो नरसंघस्तस्य मध्ये मनुष्य सभामध्ये अनुगौता उक्ता
मया युततिशेषः गौयते इति गाथा धर्माभिधायिनौ सूत्रपतिर्मयास्थ विरमुखात् कर्णगीचरौकता कथम्भू ता गाथा महार्थ रूपा महान् द्रव्य पर्याय 8 भेद सहितो निश्चय व्यवहार सहितः च अर्थो यस्य तन्महार्थ तादृशं रूपं यस्याः सा महार्थरूपा पुनः कीदृशा गाथा वयणप्पभूया वचनैर्नयभेदा: प्रभता 8 वचन प्रभूता अल्पाक्षराव द्वर्था इत्यर्थः सा इतिका गाथायां गाथा श्रुत्वा इत्यध्याहारः या धर्माभिधायिनी सूत्रपद्धतिं श्रुत्वा भिक्षवः साधवः शीलगुणोप
पता: सन्त इह जिन प्रवचनेयतंते मुनयः शीलं चारित्र' गुणोज्ञानं शौलञ्च गुणश्च शौलगुणौ ताभ्यां उपता: शौलगुणोपपता: कियाज्ञानसहिताः सन्तो हम ते स्थिरा भवन्ति इत्यर्थः तां गायां श्रुत्वा अहं अपि यमणस्तपसि निरती जातीस्मि न तु दुःखात् साधुसञ्जातोस्मि इति भावः १२ उच्चोदए महु
गौयाणरसंधमनी । जंभिक्खुणो सीलगुणो वयाइहज्जयतेसमणीमिजाओ ॥१२॥ उच्चोदएमहुकक्क यबमेपवेड्या आ प्रभूतावद्वौआसीत्। ऋडोद्युतिकांतिधणीचित्रनेपणिहतो ११ मुनि पुनराहः महार्थरूपावतर्थाः बचनैश्चस्तोकाः अर्थघणोछेवचनथोडाई इदृशोगाथा मुनिभिः कथितः णरसंघमध्ये इसौगाथाऋषोखरे मनुष्य नासंघमांहिंकहताहुवा यांगाथांश्रुत्वाभिक्षुकीमुनयःसौलगुणयुक्तासंत: जेगाथा सांभलौइमुनीवर
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ.स.उ° १४ मा भाग
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जित शत्रु राज्याविजयानानपाचतुर्दश महास्वप्न सूचितः पुत्रः प्रसूतः तस्य नाम अजित इति दत्त स च हितोयस्तीर्थकर इति सुमिवयुवराजपत्या यशोमत्वासगरनामाद्वितीयश्चक्रवर्ती प्रसूतः तौ हावपि योवनं प्राप्तौ पितृभ्यां कन्याः परिणायितौ कियताकालेन जित शव राज्ञा निर्जराज्य जित कुमारः स्थापितः सगरो युवराज्ये स्थापित: सहोदर विजय सहितेन जितशत् नृपेणदीक्षा गृहीता अजितराज्ञा च कियत्कालं राज्य परिपाल्यतीर्थ प्रवर्तन समये स्वराज्ये सगर' स्थापयित्वा दीक्षा ग्रहीता सगरस्तु उत्पन्न चतुर्दशरत्नः साधित षट षण्डभरतक्षेत्री राज्य पालयति तस्य पुत्राः षष्टि सहस्र संख्याकाजाताः एकरान्नि उदरात् सर्वेषां तेषां मध्ये ज्येष्टो जहु कुमारो वर्तते अन्चदा जहु कुमारण कथ' चिन्मगरः सन्तोषित: स उवाच जनु कुमार यत्तवरोचते तन्मार्गय जङ्ग, रुवाच तात ममास्त्ययमभिलाषः यत्ता तानुज्ञातोहचतुर्दशरत्नसहितोऽखिल भापरिहतः पृथ्वी परिभमामि सगरचक्रिणा तत् प्रतिपत्वं प्रशस्तमुहर्त सगरच क्रिणः समोपात्मनिर्गतः सबल वाहन: अनेकजनपदेषु भ्रमन् प्राप्तोऽष्टापद पर्वते सैन्यमधस्ताविवेश्य स्वयमष्टापदपर्वतमारूढः दृष्टवांस्तत्र भरतनरेन्द्रकारितं मणि कनक मयं चतुर्विशति जिन प्रतिमाधिष्ठितं स्तूपशतसङ्गत जिनायतनं तत्र जिन प्रतिमा अभिवन्ध जहु कुमारेण मंविणः पृष्टं केन मुक्ततवता इदमतीवरमणीयं जिन भवनं कारितं मंत्रिणा कधितं भवत् पूर्वजन थीभरत चक्रिणेति श्रुत्वा
भरह वासं नराहिवो इस्म रिय केवल हिच्चा दयाए परिनिब्बुनी ॥३५॥ च इत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ पव्व सगरोपि समुद्रपर्यतं सगर चक्रवर्ति पणि समुद्रपर्यंत भरतवर्ष भरतक्षेत्रे नराधिप राजा ऐश्वर्य संपूर्ण त्या सर्वरीश्वर्य ऋडि छांडीने दया संजमे परिनिवृत्ती मुक्ति' गतः दयाकहता संजम तिणे करीने मुक्ति पोहता १५ दुजोगाथा समासः यः त्या भारत वर्ष भरतक्षेत्र छांडीने चक्रवर्ति महर्डीकः चक्रवर्ति महाऋधिनो धणी प्रव्रज्या अभ्यु पगतः दीक्षालौधौ मघवा नामा महायशाः मघवा एहवेनामे महायशनीधी ३५
राय धनपतसिंह बादुर का प्रा.सं.१.४१ मा भाग
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________________ सटीका अ०१८ 541 एकविंशति सहस्र वर्षाणि यावच्चक्रवर्ति त्वं बभुजे ततः स्वामीस्वयं बुद्धोपि लोकान्तिक देव बोधिती वार्षिक दानं दत्वां चतुःषष्टि सुरेन्द्र सेवितो वैजयन्याख्याशिबिकामारूढः सहस्रामवणे सहस्र राजभिः समं प्रव्रजित: ततश्चतुज्ञार्ना असौ त्रीणि वर्षाणि छाप्रस्थे विकृत्य पुनः सहस्रामवणे प्राप्त: तत्र शुक्ल ध्यानेनध्वस्तपाप कर्मारः केवल ज्ञान प्राप ततः सुरैः सम वसरण कृते स्वामी योजनगामिना शब्द न देशनां चकार तेदेशनां श्रुत्वाकेपि सुथावकाजाताः केपि च प्रजिताः तदानीं कुभ भूपः प्रव्रज्य प्रथमोगण धरीजातः अरनाथस्य षष्टि सहस्राः साधवीजाता: साध्यः खामिनस्तावत् प्रमाणा एव जाताः श्रावकाचतुरशौति सहस्राधि कलक्षत्रयमाना बभूवुः संमेत शैलशिखरेमासिकाऽनशनेन भगवानिवृतः देवनिर्वाणोत्सवोभृशं कृतः इत्यर चक्र वत्ति दृष्टान्तः च इत्ताभारहं वासञ्चकवट्टीमहडिओ च इत्ता उत्तम भीए महापउमीतवञ्चर 41 हे मुने महापद्मोपि अष्टम चक्री महर्षिक: तपोऽचरत् किं कृत्वा भारतं वासन्य न्त्यका पुनरुत्तमान् प्रधानान् भोगान्त्यक्त्वा 41 अत्र महापद्म चक्र वति दृष्टांतः इहैव जम्बू द्वीपे भारत वर्षे कुरुक्षेत्र हस्तिनाग पुरं नाम नगरं तत्र यौऋष भवंश प्रसूतः पद्मोत्तरी नाम राजा तस्य जालानाम महादेवी तस्याः सिंहस्वप्न सूचिती विष्णु कुमार मामा प्रथमः पुत्री द्वितीयश्चतुर्दश स्वप्नसूचिती महापद्मनामा हावपि वृद्धि गती महा पद्मो युवराजा कृतः इतञ्च उज्जयिन्यां नगर्या श्रीधर्मनामराजा तस्य न मुचिनामामन्त्रौ अन्यदा तत्र श्रीमुनिसु बतस्वामि शिष्यः सुव्रतोनाम सूरिं समवमृतः तद्दन्दनार्थ लोकः स्खवि भूत्यानिर्गतः प्रासादोपरिस्थितेन अरयंपत्तो पत्तोगडू मणुत्तरं 40 // चइत्ता भारहवासं चक्कवट्ठी महिडिओ। चंदूत्ताउत्त मेभीए महापउमो तवंचरे 41 चकत्ति अरनइवो मुक्तिगयो प्राप्तौ गति अनुत्तरां मुक्ति गति पाम्यो 40 त्यक्ता भारतवर्ष भरतक्षेत्र छोडीने चक्रवर्ती महर्षिक: चक्रवर्ती महाऋ दिनोधणी त्यक्त्वा उत्तमान् भोगान् उत्तमभोग छोडौने महापद्मस्तपंचरेत् महापद्मनामा राजाई तपादस्यो 41 एगच्छत्रां साधयित्वा एकछत्र राम धनपतसिंह बाहादुर का आ०सं०४१ मा भा