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कोदृशाः अनाश्रवाः गुरुवचने अस्थिताः पाश्रवा वचनेस्थित इति हैम: न आश्रवा अनाश्रवाः पुनर्ये स्थूलवच्चसः शूलं अनिपुणं वचो येषान्त स्थल वचसः पषिचार्यभाषिणः पधात्तरान विनीतस्थाचारं वदति चित्तानुगाः आचार्य चित्तानुगामिनः पुनलघु पी दयं चातुर्यन्न उपपता: लप दाच्योपपता: त्वरितं चातुर्य सहिताः एतादृशाः शिथा दुराश्रयं क्रूरमपिसक्रोधं अपि गुरु प्रसादयेयुः प्रसवं कुर्युः १३ अत्र चंड रुद्राचार्यकथा यथा उज्ज बिन्यो चण्डरुद्रमूरिः समायात: सरीषण प्रततिः साधुभ्यः पृथक् एकान्तस्थाने आसनश्चक्रे माभूल्कोपात्यत्ति रितिचित्ते विचारयति इतच इभ्यसुतः
* मुशिष्य क्षमा करी वलो चरण कमलेमस्तगलगावोने वीनवे तेहवे गुरु कहे रे दुष्ट रात्रि गये हुँ देख नही मुझने वृद्धि किम चलाई तिवारी सशिष्य भाषा *
* बोल्योमाहरे खंधे वैसो गुरुने स्कंवसारी विहार कोधो रात्रि अंधारौ शौथने मार्गचालता पग उचानिचा पडे तिवार गुरु शिष्यने मस्तके दंड प्रहार करे तिवार शोषी आपले मन आपणा दोष देखे हुँ पापी मै गरढा गुरुने कष्ट मांहि पाद्या एहवा दोष संपूर्ण आपण देखतां क्षमा करता भावना भावता
पगर मिच्छामि दुक्कड देता एकाग्रचित्ते गुरु उपरि धर्म पोह धरता कर्मनो क्षय कोधी केवल ज्ञान उपनो ज्ञान थको सर्व मार्ग देखावा मांद्या * तिवार गजगति चालवा लायो तिवार गुरू कहिवा लागा सही मारसारकेहवो निरतो चाले के एहवी गति जाणौ गुरे शियन यूयो अहो शिश्च तं
वाट देखे के हा भगवान् इ सर्वदेख छ सूक्ष्मवादरनी पिण विगत जाणौवे के तेहवे गुर पूच्ची काई अतिशय शिषा कहे तुम प्रसाद गुरु कहे प्रति पातौके अप्रतिपाती योषा कहे प प्रतिपाति एहवे साभली गुरे चिंतव्यो एके वली के हमे पापी रोषना वस धको केवलौनौ अशातना कौधौ तिवार खांधा थो उतरी पगे लागो खमावता गुरुने केवल ज्ञान उपनो एहवा मुशिषा जाइये आपणाने गुरुनी कार्य साधे इति चन्द्ररुद्राचार्य कथा त्रयोदशमी गाथा उपरि जाणवौ अथाग्रे सूत्रमाह ना. अखपूच्चो या. नबाले कि थोड़ाइ स. पूच्चो पिण जि. झूठी वन वाले को कोधिने फल लगाडे.
राय धनपतसिंह बाहादुर का आ. सं. उ. ४१ मा भाग