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________________ सटौका ०३२ ८५८ कदापि किमपि मुख' नस्यात् इत्यर्थः तत्र च भावोपभोगेपि सङ्कल्प विकल्यानुरागेपि चिरकालचिन्त नैपि लायदुक्ख अप्ति लाभजनितं क्लेशरूपं दुकव निवर्त्त यति उत्यादयति पुनर्यस्य कृतैयस्य भावीपभोगविषय चिन्तनाद्यर्थ नरस्य दुक्व स्यात् ८७ [रमेव भावंमि गोपत्रीसं उवे दुक्खाहपरं पराओ पदुद्दचित्तीचिणाइकम जमे पुणीहोइदुहं विवाग ८८] एवं एव- यथा भावे रागं प्राप्तो दुक्खौघपरं परया प्रदुष्टचित्तः सन् अष्टकर्म प्रकारक चिनोति तथा भावे चित्ताभिप्राये प्रई पं गतोजन्तुर्दु खौघपरं परया प्रदुष्टचित्तः सन् तत्कर्मचिनोति बनाति यत्क मतस्य जीवस्य विपाक कर्मवेदन कालेदुक्ख दुक्वविधायि भवति ८८ [भावविरत्तोमणो विसोगोएएण दुक्खोहपरं परेण न लिप्पई भवमो वसन्ती जलेन वा पुक्खरिणौपलासं ८८] भावविरक्तः सङ्ग ल्यादि मुक्तीमनुष्यः एतापूर्वोक्तयादुखौधपरं परयाभवमध्ये वसन् अपि न लिप्यते कोदृशः स विशोकोविगतशोकः केन कि मिव कत्तो मुह होज्ज कयाइ किंचि । तत्योव भोगवि किलेस टुक्ख निब्बत्तई जस्म कएण दुक्ख ६७॥ एमेव मामि गओ पोस' उवेदू दुक्खोह परंपराओ। पदुट्ठ चित्तोय चिणाइ कम्म ज' से पुणो होइ दुहं विवामे ६८॥ भावे विरत्तो मणो विसोगो एएण टुक्खोह परंपरेगा। न लिप्पडू भवमभवसंता जलेण वा पुक्खरिणीपलासंहः ॥१३॥ राब वनपतसिंह बाहादुर का प्रा सं0 3. ४१माभाग नरमनुष्यने कोहांथो मुख हुवे पण तौहां भाव भोगविवाने अहप्तहुइ लागे तो श दुःख पामे नोपजावे करे जे मनोहर भावभोगववाने काजि दुक्ख कष्ट अनेक उपाय ८७ इम भावने विखे द्वेष पाम्बोथको पामे जौव दुःखनौ परंरारोसवंत चित्तथ को बांधे कर्म घणा जहने वलो हुइ दुःखरूप विपाक कर्मनोफल ८८ भावबौ विग्स्यो मनुष्य शोकरहित एपुठे कहो दुक्खनौ परंपराइ लेपाये नहीं भवस'सारमाहि वसतु जोम मणौये करौ कमलनीनी
SR No.007381
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Shwetambar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRai Dhanpatsinh Bahadur
PublisherRai Dhanpatsinh Bahadur
Publication Year1879
Total Pages1112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, F000, F999, & agam_uttaradhyayan
File Size32 MB
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