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कस्मात्सुख भवेत् अपि तु कदापि कि मपि सुख न भवेत् यतस्तत्र रूपानुरागेफि के शदुक्ख अप्तिलाभत्वलक्षणपोडाजनितं असातं निर्वत यति टोका * उत्पादयति पुनर्जम्मकाएणइति यस्य मनोन्नरूपायुपभोगस्य कृतमनोजरूपाद्युपभोगार्थ दुःख पाश्मनः कष्ट भवति ३२ इति रागस्य दुःख हेतुत्वमाह प्र.३२ ८३१
[एमेव रूबंमिगत्री पोस उवेइ दुक्खोहपरं पराओ पदुद्दचित्तोयचिणाइ कम्म जं से पुशोहोइ दुहं विवागे ३३ ] एवं अमुनाप्रकारेणेव यथा मनोज रूपोपरिरागाहखं लाभ प्रकारणव तथा जौवोऽमनोरूपे प्रदेषङ्गतः सन् प्रदेषपरंपरात: प्रदुष्टचित्तः सन् तत् कष्ट कर्मचिनोति उपार्जयति जति यत् कम्मसे इति तस्य दुष्टचित्तस्य विपाककर्मानुभव कालेइह परत्र च दुक्खं दुक्खदायि भवति ३३ रागद्दे घोडरणगुणमाह [रुवेविरत्तोमणुओविसोगी एएणदुक्खोहपरं परेण नलिप्पई भवमक वसन्तोजलेणवा पुक्खरणीपलास ३ ४] रूपेविरतीमनुष्योमनोज रुपैरागं अकुर्वन् एतयादुःखौघपरं परयापूर्वी
किंचि। तत्थोव भोगेवि किलेस टुक्खं निव्वत्तई जम करण टुक्खं ३२॥ एमेव रूबंमि गओ पत्रोसं उवेदू टुक्खोह परंपराओ। पट्ट चित्तोय चिणाडू कम्म जं से पुणो होडू दहं विवागे ३३ ॥ रुवे विरत्तो मणुषो विसोगो एएण
राय धनपतासंह वाहादुरका या संउ.४१ मा भाग
भाषा
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* रूप भोग विवाने विखे पणि तृप्त न होइ तालग क्लेश दुःखपामे नींपजाव करी जे मनोहर रूप भोगववाने दुक्ख कष्ट अने पापउपाय ३२ एवं मे रूप * गतः प्रवेष इणोंपरि जे उत्तम रूपउपरि रागहुइ तिम कदाचित् द्वेषपाम्यीथको उपैति दुक्खी घपरंपरामते जीवदुक्खनी परंपरा वेणिसमूह प्रशष्टचित्तः चिनोति कम्माणिषे करीसहित जिवारचित्तहुवे तिवार बांध कम्मघणा जेह कर्म टुकवना कारणहुए विपाकै भोगविवा काल ने बिखे इहलोक परलोके पणि ३३ रुप पिरती मनुष्य गतशोकः भनीहररूप बिखे राग अणकरत मनथ धोकरहित पको ए पूठ कहो दुक्वनी परंपरा तिणे इण करौने न