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संस्थान, वज्रनाराचादि चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, तिर्यगायु और उद्योत इन पच्चीस प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि हैं । दूसरे गुणस्थानसे ऊपर के जीव इनके अबन्धक हैं ।
छक्खंडागम
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय, वज्रवृषभनाराच संहनन, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग. मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्यायु इन दशप्रकृतियों के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि हैं। चौथे गुणस्थान से ऊपरके जीव अबन्धक हैं ।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायोंके बन्धक पहले. गुणस्थान से लेकर पांचवें गुणस्थान तक के जीव हैं । इससे ऊपरके जीव अबन्धक हैं ।
अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशस्कीर्त्ति, अरति और शोक इन छह प्रकृतियोंके बन्धक पहिलेसे लेकर सातवें गुणस्थान तक के जीव हैं। इससे ऊपरके जीव अबन्धक हैं ।
देवायुके बन्धक पहिलेसे लेकर सातवें गुणस्थान तक के जीव हैं, इससे ऊपर के जीव अबन्धक हैं ।
निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंके बन्धक पहिलेसे लेकर आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक के जीव बन्धक हैं । इससे आगे के जीव अबन्धक हैं । तीर्थंकर प्रकृति, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय; इन तीस प्रकृतियोंके बन्धक प्रथम गुणस्थानसे लेकर आठवें गुणस्थानके छठे भाग तक के जीव बन्धक होते हैं । इससे आगे के जीव अबन्धक होते हैं । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियोंके बन्धक पहिलेसे लेकर आठवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक के जीव होते हैं । इससे आगे के जीव अबन्धक होते हैं ।
पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन पांच प्रकृतियोंके बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम भाग तक के जीव होते हैं । इससे आगे के जीव अबन्धक होते हैं ।
ज्ञानावरणकी पांचों प्रकृतियां, दर्शनावरणकी चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियां, अन्तरायकी पांचों प्रकृतियां, यशस्कीर्त्ति और उच्चगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धक पहिलेसे लेकर दश गुणस्थान तक के संयत जीव होते हैं । इससे आगे के जीव अबन्धक होते हैं ।
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