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प्रस्तावना
तीसरा खण्ड
३ बन्धस्वामित्वविचय इस खण्डमें कौकी विभिन्न प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले स्वामियोंका विचय अर्थात् विचार किया गया है, अत एव बन्धस्वामित्वविचय यह नाम सार्थक है।
इस खण्डमें सर्वप्रथम गुणस्थानोंका आश्रय लेकर बतलाया गया है कि किस कर्मकी किस किस प्रकृतिका बन्ध करनेवाले जीव किस गुणस्थान तक पाये जाते हैं और कहांपर उस प्रकृतिका बन्धविच्छेद हो जाता है। जैसे ज्ञानावरणकी पांचों प्रकृतियां और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शनावरणादि चार प्रकृतियां, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और अन्तरायकी पांचों प्रकृतियां इन सोलह प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले जीव पहिले गुणस्थानसे लेकर दश गुणस्थान तक पाये जाते हैं । दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें इन सबके बन्धका विच्छेद हो जाता है। अतः दशवें गुणस्थान तक के जीव इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धके स्वामी हैं। इससे ऊपरके गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक है। इस प्रकार बन्धने योग्य सभी प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है कि अमुक अमुक गुणस्थान तक इन-इनका बन्ध होता है और इससे आगे नहीं होता है।
इस प्रकरणको संक्षेपमें दूसरे प्रकारसे यों कहा जा सकता है कि अभेदविवक्षासे आठों कर्मोकी १४८ प्रकृतियोंमें १२० ही बन्ध योग्य हैं, शेष नहीं। इसका कारण यह है कि पांच बन्धन और पांच संघात ये दश प्रकृतियां अपने अपने शरीरके साथ अवश्य बन्धती हैं, अतः उनका अन्तर्भाव शरीरमें कर लेनेसे १० प्रकृतियां तो ये कम हो जाती हैं। इसी प्रकार पांच रूप, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श इन बीसको रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सामान्यकी विवक्षासे 'चार ही गिन लेते हैं, अतः १६ ये कम हो जाती हैं । दर्शनमोहनीयकी सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिका बन्ध नहीं होता है, केवल उदय और सत्त्व ही होता है, अतः २ प्रकृतियां ये कम हो जाती हैं। इस प्रकार ( ५ + ५ + १६ + २ = २८ ) अट्ठाईस प्रकृतियोंको १४८ मेंसे घटा देनेपर शेष १२० प्रकृतियां ही बन्धके योग्य रहती हैं।
उनमेंसे १ मिथ्यात्व, २ हुण्डकसंस्थान, ३ नपुंसकवेद, . ४ सृपाटिकासंहनन, ५ एकेन्द्रियजाति, ६ स्थावर, ७ आतप, ८ सूक्ष्म, ९ साधारण, १० अपर्याप्त, ११ द्वीन्द्रियजाति, १२ त्रीन्द्रियजाति, १३ चतुरिन्द्रियजाति, १४ नरकगति, १५ नरकगत्यानुपूर्वी, १६ नरकायु इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध प्रथम गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अतः इनके बन्धकस्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही होते हैं, इससे ऊपरके जीव अबन्धक हैं।
___अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला ये तीन निद्रा, दुर्भग, दुःस्वर; अनादेय ये तीन, न्यग्रोधपरिमंडल आदि चार
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