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छक्खंडागम
अभव्यत्व और सासादनसम्यग्दृष्टित्व ये पारिणामिक भाव हैं। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीव पर्याय अपने अपने कर्मोंके उदयसे होते हैं । अनाहारकत्व कौके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धिसे भी होता है ।
एकजीवकी अपेक्षा कालका वर्णन करते हुए गति आदि प्रत्येक मार्गणामें जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका निरूपण किया गया है । जीवस्थानमें तो कालकी प्ररूपणा गुणस्थानोंमें एकजीव और नाना जीवोंकी अपेक्षासे की गई है, किन्तु यहांपर वह मार्गणाओंमें - केवल एकजीवकी अपेक्षासे की गई हैं। इस कारण यहां कालकी प्ररूपणामें भवस्थितिके साथ कायस्थितिका भी निरूपण किया गया है । एक भवकी स्थितिको भवस्थिति कहते हैं और एक कायका परित्याग कियेविना अनेक भव-विषयक स्थितिको कायस्थिति कहते हैं। जैसे किसी एक त्रस जीवकी वर्तमानभवकी आयु अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं, तो यह उसकी भवस्थिति है । और वह जीव ' त्रससे मर कर, त्रस, पुनः मर कर यदि लगातार त्रस होता हुआ चला जावे और स्थावर हो ही नहीं, तो वह उत्कर्षसे पूर्वकोटी वर्ष पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमकाल तक त्रस बना रह सकता है। यह उसकी कायस्थिति कहलायगी ।
किस जीवकी कितनी भवस्थिति होती है और कितनी कायस्थिति होती है, यह सर्व कथन मनन करनेके योग्य है।
इस प्रकारसे इस खुद्दाबन्धमें शेष अनुयोगद्वारोंके द्वारा कर्मबन्ध करनेवाले जीवोंका प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भागा-भाग और अल्पबहुत्वका खूब विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। इसका अल्पबहुत्व तो अपूर्व ही है। जिसमें प्रत्येक मार्गणाका पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व बतलाकर अन्तमें महादण्डकके रूपमें समुच्चयरूपसे भी सर्व मार्गणाओंके जीव-संख्याकी हीनाधिकताका प्रतिपादन किया गया है ।
इस खुद्दाबन्धके अल्पबहुत्वानुगममें प्रायः प्रत्येक मार्गणाका जो अनेक प्रकारसे अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसका कारण अन्वेषणीय है । ऐसा प्रतीत होता है कि आ. भूतबलिने पहले अपनी गुरुपरम्परासे प्राप्त हुए अल्पबहुत्वका वर्णन किया है और तत्पश्चात् अन्य आचार्योंकी परम्परासे प्राप्त अल्पबहुत्वका भी उन्होंने प्रतिपादन करना समुचित समझा है।
___ इतने विस्तृत वर्णनवाले इस खण्डके स्वाध्याय करने पर पाठकोंको यह शंका हो सकती है कि इतना विस्तृत होते हुए भी इसका नाम क्षुद्रबन्ध क्यों पड़ा ? इसका समाधान यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के छठे खण्डमें आ. भूतबलिने बन्धका विचार बहुत विस्तारसे किया है, और इस लिए उसका नाम भी महाबन्ध पड़ा है, उसका परिमाणे तीस हजार श्लोक जितना है । उसकी अपेक्षा यह दूसरा खण्ड क्षुद्र अर्थात् छोटा ही है, अतः इसका नाम खुद्दाबन्ध रखा गया है ।
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