Book Title: Bhadrabahu Sanhita Part 2
Author(s): Bhadrabahuswami, Kunthusagar Maharaj
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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प्रथमोऽध्यायः
उल्का नाम नमस्कृत्य जिनं वीरं सुरासुरनतक्रमम्।
यस्यज्ञानाम्बुधेः प्राप्य किञ्चिद् वक्ष्ये निमित्तकम्॥१॥ (सुरासुरनतक्रमम्) क्रम से जिनको सुर (देव) और असुर 'राक्षस' ( भवनत्रिक ) आ.दे ननस्कार ते हैं. वीर जिन) इ. भगवान को नमस्कार करके (यस्य) जिनके (ज्ञानाम्बुधेः) ज्ञानरूपी समुद्र से (प्राप्य) प्राप्त करके (किञ्चिद्) थोड़े (निमित्तकम्) निमित्त ज्ञान को (वक्ष्ये) कहूँगा।
भावार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी ऐसे चतुर्णिकाय देवों के द्वारा नमस्कार किये गये, भगवान महावीर को नमस्कार करके, उनके ज्ञानरूपी समुद्र से प्राप्त, मैं भद्रबाहु आचार्य थोड़े से निमित्त ज्ञान को कहूँगा॥१॥
मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम्।
नानाजनसमाकीर्णं नानागुण विभूषितम् ॥२॥ (नानागुणविभूषितम्) नाना गुणों से विभूषित (नानाजनसमाकीर्णं) और नाना प्रकार के जनसमुदाय से सहित (मागधेषु) मगध देश में (ख्यातं) प्रसिद्ध (शुभम्) और शुभ (राजगृह) राजगृह (नाम्ना:) नामका (पुरं) नगर है।
भावार्थ-नाना गुणों से परिपूर्ण, नाना प्रकार के जनसमुदाय से भरे हुए ऐसे मगध देश में प्रख्यात जिसकी सभी दिशाओं में प्रसिद्धि फैली हुई है और शुभ है, सुन्दर है, मनोहर है, ऐसे देश में राजगृह नामका नगर है॥२।।
तत्रास्ति सेनजिद् राजा युक्तो राजगुणैः शुभैः।
तस्मिन् शैले सुविख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभः ।। ३॥ (राजगुणैः) राजा के गुणों से (युक्तों) सहित और (शुभैः) शुभ (सेनजिद् राजा) सेनजिद् नाम का राजा (तत्र) वहाँ (अस्ति) है (तस्मिन्) वहाँ पर (शुभ:)