Book Title: Ishwar Mimansa
Author(s): Nijanand Maharaj
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = स्वामी ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प ईश्वर-मीमांसा लेखक पूज्य १०५ श्री क्षुल्लक निजानन्दजी महाराज (पूर्व नाम स्वामी कर्मानन्द ) भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ चौरासी -मथुरा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यह शायद १९३४ की बात है। मैं विकास के श्रार्यसमाज अंक में जाने वाले लेखाक देख रहा ५ , उनमें सामानन्द जी का भी एक लेख्न था—जैन धर्म और वेद' । एक प्रचारक के रूप में मैंने उनका नाम सुन रखा था, पर इस लेख में प्रचारक की संकीर्णता के स्थान में सर्वत्र सौन्दर्य दर्शन की भाषना के साथ विविध प्रवृत्तियों का ऐसा सुन्दर सामञ्जस्य था कि मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका । उसके माद तो भनेकवार अनसे मिलने एवं विविध विषयों पर विचार-विनिमय करने का भक्सर मिला है और सदा ही मैंने अनुभव किया है कि उनका अध्ययन बहुत व्यापक है। इनके अध्ययन का मुख्य विषय धर्म और इतिहास बहुत से ग्रन्थ पढ़ डालना एक साधारण बात हैं, पर स्वामी जी के अध्ययन की दो असाधारणताएं हैं, पहली यह है कि ये अध्ययन से पूर्व कोई सम्मति निर्धारित करके मागे नहीं चलते जिससे कि अपने शुदय का भार बलात अध्ययन पर लाना पड़े और दूसरी यह कि वे उस अध्ययन पर अपने दृष्टिकोण से स्वतंत्र विमर्श करते हैं। इस प्रकार जो निष्कर्ष निकलता है, वे उसे मानते हैं, उस पर लिखते हैं, पर यदि बाद का अध्ययन उन्हें इधर उधर करता है तो वे उससे भी घबरासे नहीं हैं। उनके स्वभाष की इस उदारता का आधार उनकी राष्ट्रीय मनोवृत्ति है, जो उन्हें राष्ट्र और धर्म का समन्वय करके साथ-साथ चलने की क्षमता देती है ! वे पक्षपात से हीन, बनावट से दूर, मूक सेवा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pr 1. [ख] के विश्वासी एवं सरल स्वभाव के सन्यासी हैं, जो कहीं बंधा हुआ नहीं है, पर सर्वत्र बंधा हुआ है। उनके 'बिराग' का अर्थ 'विशि ष्ट राग - विश्वात्मा के प्रति संकीर्ण कोमलता है। इस प्रकार के एक साधु भी हैं और इतिहास के विनम्र विद्यार्थी भी हैं। 'स्याद्वाद' कर्मफलासफी और आत्म-स्वातन्त्र्य के सिद्धान्तों की त्रिवेणी में स्नान कर वे आज 'जिनधर्म ' कल्पतरु की शीतल छाया में आकर खड़े हैं, उसी शान्त मुद्रा में, निर्विकार भाव से और बंधन होन । महावीर जयंती के अवसर पर महावीर सन्देश के नाम से अपना जो भाषण उन्होंने ब्राडकास्ट किया था, वह इस बात का प्रमाण है कि वे धर्म को विशुद्ध जीवन तत्व की दृष्टि से देखते हैं— उसके वाह्यविस्तार में फंस कर ही नहीं रह जाते । उनके अध्ययन के फलस्वरूप राष्ट्र-भाषा को उन की कई पुस्तकें प्राप्त हैं। उनमें परिस्थितिवश एवं सामयिक चीजों को छोड़ कर वैदिक ऋषिवाद, सृष्टिवाद, 'भारत का आदि सम्राट' और धर्म के ऋषि प्रवर्तक, कर्मफल कैसे देते हैं, का नाम उल्लेखनीय है। पहली पुस्तक में मन्त्रसृष्टा ऋषियों का अनुसन्धान है। यह स्वामी जी के वैदिक साहित्य सम्बन्धी अध्ययन का सुन्दर फल है। खोज के कार्य में मतभेद होना स्वाभाविक है, पर संस्कृत के प्रकाण्ड परिवत श्री डा० गंगानाथ का एम० डी० लिट (वायस चान्सलर प्रयाग विश्वविद्यालय) के शब्दों में 'वैदिक ऋषिवाद' एक निष्पक्ष, गवेषणात्मक पुस्तक है। दूसरी पुस्तकों के सम्बन्ध में भी इसी तरह की सम्मति दी जा सकती है. इसमें मुझे सन्देह नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में आपने ईश्वर के स्वरूप एंव उसकी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग j एतिहासिकता पर चर्चा की है। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है और इस पर अनेक दार्शनिक एवं ऐतिहासिक विद्वान विचार कर चुके हैं। स्वामीजी का निष्कर्ष इस विषय में अन्तिम है, यह कहना तो स्वयं स्वामीजी भी नहीं चाहेंगे, पर मैं इतना कह सकता हूँ कि स्वामीजी ने आज नक की इस विषयमें प्रचलित परम्पराओं की दीवारों का लांघकर अनुसन्धान के दूर वीक्षण से बहुत दूर तक झांका है और एक नई सृष्टि खड़ी की है । दूसरे शब्दो में भारतीय दर्शन एंव इतिहास के पण्डितों और विद्यार्थियों को एक नये दृष्टिकोण पर विचार करने का यह बामन्त्र है, ऐसा श्रामन्त्रए जिसमें अपनी भारतमाता के प्रति श्रद्धा है, अनुसन्धान की उत्कण्ठा है और विचार बिनिमय की तत्परता है। मेरा विश्वास है कि इस विषय में दिलचस्पी रखने वाले विद्वान न केवल इस आमन्त्रण को सुनेंगे ही किन्तु इसे स्वीकार भी करेंगे। विद्वान लेखक के साथ मेरी भी कामना है कि अनेक धर्मा एवं संस्कृतियों की जननी भारतमाता इस अध्यवसारा से प्रसन्न हो। -कन्हैयालाल मिश्न 'प्रभाकर'. सम्पादक-विकास Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .पो.पापोर (संधि विषय-सूची विषय क्या वैदिक देवता ईश्वर है ? बेव और देवत्ता याक्षिक मत देवोंकी विलक्षणता देषोंका धाकार मरुद्गरा भिन्न भिन्न पदाथोंके अधिपति भिन्न भिन्न देवता अग्नि देवता प्रथम अंगिरा ऋषि अग्नि देवता सोन प्रकार के मंत्र अग्नि निरुक्त और अनि अग्नि (महा) निरुक्त और इन्द्र इन्द्र भ्रममें पड़ जाता है अभिनौ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूर्य सूर्यपूजाका प्रचार देव अथवा देवता तीस देवता सोमय परिचय समय परिचय sita e अजानदेव साध्यदेव राशियां और सूर्य वैदिक देवता श्री शङ्कराचार्य का सिद्धान्त वेद में परमात्मा वर्णनका प्रकार () शुद्ध क्षेय और विशिष्ट उपास्य है देवताओंकी संख्या dedi विशेष रूपोंका स्पष्टीकरण सारांश यक्ष अध्यात्मवाद starrears और गीता after और अध्यात्म परा विद्या देवोंका अनेक देना चाहन देव पत्तियां परस्पर विरोध B ३० ३२ ३८. ३८ ३८ ३६ ४५ 我 ४४ ४६ ४७ ४६ » ५४ ६. ६४ ६८ $5 2 अनु ল ८० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्रादिश्योंकी गणना ११६ १३१ प्रजापति यक्ष यह बैदिक धर्म कबका है सारांश विशेष विचार विकपाल श्री कोफिलेश्वर भट्टाचार्य और पैविक देवता श्री रामावतार शर्माजी के विचार (देवता प्रकरण ) सापक भेद से दैवत भेद देवताओं और मूलसनामें कोई भिन्नता नहीं ११८ देवताओं के समान कार्य १२० से १३० सभी देवत्ता निधातु हैं सभी देवता विश्वरूप हैं सापक भेदसे देवता भेद का खण्डन ईश्वरकी शक्तियां सर्वव्यापी आहत ब्रह्मा का खरकन अधकी माया का खगलन जीवों में भ्रम चैतन्यांश का खण्डन शरीरादिकों का मायिकत्व खएशन १५१ खोकप्रवृत्ति या प्राणियोंके निग्रहानुहाथ मृष्टि रचनाका खंडन १५३ महत्ता दिखाने के लिये सृष्टि रचना का खण्डम ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा मृष्टि के उत्पादन, रक्षण, ध्वंसका खएन १५६ संसारकी अनादि निधनता १६२ - १५० ..--.----..-.-. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + - - - - - -- - - १६६ १६८ १७० १७१ १७६ १८६ १५२ विषय अद्वैतवाद के विषयमें सांख्योंका उत्तरपक्ष मानवादके विषयमें नैयायिकोंका उत्तरपन अद्वैतवाद के विषय में जैनियों का उसरपक्ष यज्ञों में देवोंकी उपस्थिति च्यवन ऋषि स्वर्नरी देवोका अग्रभाग यतका पारितोषिक देवोंका अन्न असुरभाषामें देवशब्दका अर्थ देवभाषा पशामि प्रथम मानव अग्नि वैश्वानर अग्नि वरुण देवता मरुत वेवोंका गण म सद्गणों के शस्त्रास्त्र मरुद्गणोंका संघ बल इन्द्र देवताके गुण इन्द्रकी लूट इन्द्र मायावी था इन्द्रक गुण इन्द्र के घोड़े इन्द्रका मूल्य कौशिक इन्द्र १२५ १८६ १६० २६३ १६४ १९६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . पुर .. --0001 विषय देषोंके लक्षण देवोंके कार्य अश्विनौ देवोंके गुण भु देवोंकी कथा क्षेत्र शोक "वैधिक स्वर्ग हिन्दू धर्ममें देव कल्पना यातु पिया और धर्म हिन्दू धर्मके विविध स्तर शवर, कुमारिल और शंकरकी प्रमाणोपपत्ति देवता और र मनुष्य शरीरसे देव शरीरमें वैलक्षण्य देव शरीरसे ईश्वर शरीरमें वैलक्षश्य देवोंकी मूर्तियां अनादि देवता आक्षिक आदि मत अवैदिक नवीन मत ओंकार स्वरूप (ख) आकाश ओंकारका सुखवाचकत्व प्रजापति-पुरुष - ब्रह्म प्रजापति हिरण्यगर्भ आधिका ईश्वरवाचकत्व कालसे सृष्टिको उत्पत्ति वेदान्तमतमें जीव और ईश्वर प्रजापति और ब्राहमण ग्रन्थ 2000 २३४ २३६ -११ २४५ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ २६३ २६३ २६४. २७० ८५ ८७ २८ २६२ विषय लिंग शरार विराट पुरुष हिरण्य गर्भ धाता. विधाता, दो स्त्रियां हैं हिरण्य गर्भ ब्रह्मपुर पुरुष सूक्तका विभिन्न अर्थ मुण्डकोपनिषद् पुरुष सूक्तकी अन्तः साक्षी सायण मत वास्तविक अर्थ विराट उत्पत्ति निरुक्तमें सूक्तके अर्थ पुरुष शब्मकी व्याख्या विश्वकर्मा निरुक्तमें विश्वकर्माका कतृत्व श्रेष्ट ब्रह्म व रकम देख केनोपनिषद् और ब्रह्म विष्णुदेव सूर्य और विष्णु इन्द्र और उपेन्द्र नारायण विष्वक्सेन उपेन्द्र के अन्य नाम उपेन्द्र के कार्य २१५ २६८ ३.१ ३०० ३०५ 100 ३११ ३१४ ३१६ ३२.. ३२२ ३०४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय महादेव निहत और रुद्र ग्राम ग्रन्थ और स्ट्र ऐतिहासिक राजा रुद्र भूतनाथ कृत्तिवासः ( ७ ) कपालभृत् ऋतुभ्यंसी वा भागके लिए युद्ध पं० सातवळेकरजी का ईश्वर विषयक मत आदि सब ईश्वर हैं जम्भ आदि कर्मसे नहीं हैं मुक्ति नहीं है माय महिमा ऋषि हैं प्रायही सप्तशीर्षण्य प्राण हैं सुपर्ण पक्षी हैं ऋषि हैं माराही भूर्भुवादि सप्त लोक हैं प्रापी ४६ वायु है प्राखही सप्तशेता हैं जगत् और शरीर माडी पंचजन हैं प्राणही द्वारपालक पंच ब्रह्म पुरुष हैं गाड़ी ने और असुर पूछ 48 ३२६ ३२७ ३२६ २२ . ३३० ३३१ २३४ ३३५ ३३८ ३३६ ३४० ३४. ३४२ ३४५ -३४५ "३४५ ૬ ३४६ ३४६ ३४८ ३५० ३५५ ३५६ ३५० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय इन्द्रिय ही कुत्ते हैं इन्द्रिय ही घोड़े हैं मुख्य गौण प्राण और पंच शब्द प्राणोंमें स्त्रीत्वारोप प्राणोंकी संख्या प्रायस्तुति प्रायण कहांसे आता है ? प्राणका प्रेरक प्राण और अन्य शक्तियां पतंय वसु, रुद्र, भविस्य सीन लोक पंचमुखी महादेव प्रापका मीठा चाबुक देवताओंकी अनुकूलता प्रजापतिका फंसना नासदीय वा सृष्टिसूक्त सृष्टिसूक और तिलक (2) दूसरा सृष्टि सूक्त वेद और जगत मीमांसा और ईश्वर ईश्वर उत्पन्न हुआ सारांश लोकमान्य तिलक और जगत श्री शंकराचार्थ और जगम ३५३ ३५३ ३५३ ३५४ ३५४ ३५५ ३५७ ३५८ ३६० ३६१ २६२ २६३ Fr Y ३६५ વ १७१ ३७४ ३८६ १६६ ଏକ୍ Xav ४०५ ** ४०६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १०८ ४२० दि विषयमें अनेक बाद मम विषयमें भिन्न भिन्न विकल्प मुष सम्बन्धी विभिन्न मतवाद सृष्टि विषय में विरोध सृष्टिको प्रारम्भावस्थाके मतभेद Jश्रावतिके आठ पुत्री के नाम ४२२ ४२४ ४३४ ४३७ ४३६ ४४३ सृष्टिकम कोष्टक प्रजापतिकी सृष्टिका दशा प्रकार मनुष्य सृष्टि व सृष्टि पशु सृष्टि ओंकार सृष्टि धानका ष्टिक्रम असुर सृष्टि मनुष्य सृष्टि ऋतु सृष्टि देव मुष्टि स्वृष्टि क्रमका कोष्टक प्रजापतिको मृष्टिका छठाँ प्रकार प्रजापतिको सृष्टिका सातवां प्रकार सृष्टि रचना रहस्य पांच देव सुषियां तीन लोक ४५४ ४५७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४१२ ४६७ ४४ ८१३ ५०१ ५०२ विषय साप्न लोक মাসব্যাঘিয लोकमान्य तिलक व विश्व रचना श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त हिन्दू धर्ममें कुमारित और . शंकरका स्थान शैव, वैष्णव. बौद्ध और जैन आदि विश्व-धर्म वैदिक आर्योंका श्रोत-स्मार्त धर्म प्रायसमज और वेद धर्मका पुनरुज्जीवन मीमांसा दर्शन मीमांसापर विद्वानोंकी सम्मतियां प्रलय सारांश उपनिषद व वेदान्त दर्शन माया और ये चैतन्य सम्प्रदाय प्रभिक्षच (त्रिकदर्शन) ब्रह्म सृष्टि और मीमांसा दर्शन मीमांसकोंका उत्तर पक्ष अनिर्वचनीयतावाद भीमांसकोंका नसर पक्ष अविद्यालाद मीमांसकोंका परामर्श अज्ञानवाद मीमांसकोंका अहापोह अधजरनीय अद्वैनवादीका पूर्वपना ५०६ ५१५ ५१४ ५१५ ५१८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ ५०५ ५२५ ५३२ ५३४ विषय मीमांसकोंका उत्तरपक्ष अद्धसबादके विषय कुमारिल भट्टका उत्तरपन | अद्वैतवादके विषय में वौद्भाका उत्तरपक्ष नित्य विज्ञान पक्ष बन्ध मोक्षकी व्यवस्था नहीं होती नित्य एक विज्ञान पक्षमें योगाभ्यामकी निष्फलता स्पादित खएसन অৱলৰা योग और ईश्वर भारतीय दर्शनमें सांख्यका स्थान सांख्य सिद्धान्त सांख्य वेद विरोधी था ईश्वर और सांख्य सांस्य और सन्यास सस्यतत्वोंकी भिन्न भिन्न मान्यताएँ सांख्यदर्शनका नामकरण शाति दर्शन परिचय और सांख्यदर्शन सत्यार्थ प्रकाश और सांख्यदर्शन मास्तिकवाद और सांख्य दर्शन प्रपंच परिचय वैसेषिक दर्शन अात्माके सामान्य गुण और विशेष गुण शेषिकके मूल सिद्धान्त 'पांच तत्व पंचभूत कल्पना अवैदिक है ५२८ ५४१ ५४४ ५४७ ५४६ ५५० ५५५ ५५८ ५५६ ५६३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय क्या शब्द आकाश-गुण है ? न्याय दर्शन ब्रह्मका खण्डन और ईश्वरका समर्थन श्रात्मा न्याय महमें कारण लक्षण आस्तिक और नास्तिक नास्तिक कौन है ? गीता और वेद पनिषद् और कपिल मुनि और वेद निन्दर कलि कल्पना युग शब्दका वैदिक अर्थं वेदों में कलि आदि शब्द ब्राह्मण ग्रन्थ और युग महाभारत और युग aaint अहोरात्र कर्मफल और ईश्वर भावकर्म द्रव्यकर्म कर्म फल कैसे देते हैं ? ( १२ ) स्वगत प्रतिक्रिया परगत प्रतिक्रिया बदला कर्मफल और दर्शन मीमांसा पृष्ठ ५६४ ५६४ ५६७ एउट ५७३ ५.७५ ५६२ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ ५६८ ६०१ ६०६ ६११ ६१४ ६५६ ६२० ६५० ६२१ ६२४ ६२५ ६२७ ६.३० ६३१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ६३१ ६३३ ६३५ ३३६ F ६४१ - . .. ६४३ विषय योगदर्शन देदान्त दर्शनन्याग्रदर्शन वैशेषिक दर्शन पीता सपनिषर और कर्मफल कर्मफल और ईश्वर स्वतन्त्रता पान्तरिक व्यापारदर्शन और उपनिषद् सूक्ष्म शरीरकी कार्य प्रणाली इन्द्रियों के व्यवहार सामुद्रिक एनीवेसेन्द साहिषाके विचार जैन फिलोसफी कोंक भेद स्थिति और अनुभाग कर्म कब फल देते हैं ? फल देने के पीछे कोंके जलदन पलटन काल भी कारण है स्वामी दयानन्द जी और कर्मफल मनुस्मृति और कर्मफल आस्तिकवाद और कर्मफल कर्मका अन्त कर्म और उसका फल क्या ईश्वर कर्मफलदाता है .... ६५३ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ईश्वर असिद्ध है ईश्वर के प्रति सम्पूर्णानन्दजी के विचार भगवद्गीताका अवतरण सोsहं स्वामीका अभिप्राय पाश्चात्य दर्शन महर्षि सुकरात और उसके बादके दार्शनिक यूरोपीय-दर्शन विज्ञान और ईश्वर ( १४ ) परमाणुवाद परमाणुओं की गति और संयोग सूर्यमें गर्मी पृथ्वी, आधुनिक सिद्धान्त. आइन्स्टाइन पृथ्वी की आयु. सृष्टिकी आयु. पंचभूत कल्पना कलका द्रव्यवाद ४ भूत एक तत्व रेडियम श्राइन्सटाइनका सापेक्षवाद जैन दृष्टिसे समन्वय शक्तिका खजाना सूर्य सूर्यता और विगुतधारा सूर्यकी गर्मी वातावरण और शर्दी गर्मी जल और वायुकी शक्ति कोयलों में जलने की शक्ति सूर्य से कितनी शक्ति भाती है. ६६७ 跑 ६६१ ६६९ ६०६ ६०६ ७२१ ७५ ७१३ ७१४ ### ७१ Su ܪ ܺܘ ७२५ ७२.६ ७ करह ७२८ ७३. ७३९ wa ७३३ ७३४ ७३ ७३६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय क्या सूर्यकी गर्मी कम होती ! वायु:कपडल का प्रभाव सूर्य में गर्मी कहांसे आती है ? बालो मीटर यंत्र और तापक्रम परमाणुवाद द्रव्य नियम. संक्षेपमें सिद्धान्तका श्राशय ७३८ ७७४ ७५४ ७५६ सांख्यका गुणवाद सके और ईश्वर स्वभाव स्वामारिक इच्छा आस्तिकवाद और ईश्वर नियम प्रयोजन प्रयोजनवादका नंगा चित्र ईश्वरका फास्त्र खण्डन कार्यलय कार्यका लक्षण अस्वयम्यसिरेक निमिध कारण आस्तिकवाद और निमित्त कारण समीक्षा अनेक साताएँ क्या ईश्वर व्यापक है ? निमित्त कारण कार्य में व्यापक नहीं होता (.y). ७६४ ७७१ ७६७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ ८०१ भय, शंका. लाजा, ८.५ दुःस प्रलय ८१३ ८१४ ८१७ जैन शास्त्र और प्रलय अमथुनी सृष्टि श्रमथुनी सृष्टिका क्रम एक कीटका उदाहरण सांचे का उदाहरण अमैथुनी सृष्टि सब प्रकारकी होती है, नमित्तक ज्ञान समीक्षा ८२३ ८२४ ८२४ २५ २६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .- - ॥ईश्वर मीमांसा ॥ - -- क्या वैदिक देवता ईश्वर हैं ? . . ... किसी विद्वान ने सत्य ही कहा है कि- ईश्वर ने मनुष्यों को नहीं बनाया अपितु मनुष्यों ने ईश्वर की रचना की है ।" यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो ईश्वर का वर्तमान स्वरूप परिवर्तित और परिवर्धितरूप है । क्योंकि प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्तमान ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है । ऋग्वेद जो कि संसार के पुस्तकालय में सत्र से प्राचीन पुस्तक समझी जाती है, उसमें वर्तमान ईश्वर के मंडन को तो बात ही क्या है अपितु उसमें इस ईश्वर शब्द का ही प्रयोग नहीं किया गया है। यही अवस्था सामवेद, और यजुर्वेदकी है । अथर्ववेद, जो कि सब से नवीन वेद है, उसमें सबसे प्रथम इस शब्दके दर्शन होते है, परन्तु वहाँ भी केवल साधारण ( स्वामी ) अर्थ में ही इसका प्रयोग हुश्रा है । अत: जिस प्रकार यह शब्द नवीन है उमसे भी अति नवीनतम-इसका वर्तमान रूप है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद और देवता कुछ विद्वानों का कथन है कि वेदों में ईश्वर शब्द के न होने से क्या है, उनमें मृपि-कर्ता ईश्वर का अग्नि, प्रजापति, गुरूप, हिरण्यगर्भ. आदि शब्दों द्वारा बाणेन तो प्राप्त होता है। उन विद्वानों की सेवा में हमारा इतना ही निवेदन है कि वेदों में एक ईश्वर का नहीं अपितु अनेक देवत वाद का विधान है। तथा वैदिक देवों में से एक भी देव ऐसा नहीं है जिसको वतमान ईश्वर का स्थान दिया जा सके। क्योंकि वैदिक देवना नियतकर्मा हैं, तथा उनकी उत्पत्ति का एवं उनके शरीरों का उल्लेख वेदों में ही उपलब्ध होता है। यह ग्नब होते हुए भी आधुनिक विद्वानों ने. वैदिक देवताओं का अर्थ ईश्वर परक करने का प्रयत्न किया हैं । अत: यह अावश्यक है कि वैदिक देवों का यथार्थ स्वरूप समझ. लिया जाय। श्रीमान् पं.सत्यव्रतजी सामाश्रमीने निरुक्तालोचनमें लिखा है कि "वेदिकमन्त्रेषु स्तुता एव पदार्था तन्मन्त्रतः स्तुति काले एव च देवत्वेन स्तुता भवन्ति नान्ये नाध्यन्यत्रेत्येव वैदिक सिद्धान्तः।"* अर्थात्-चैदिक मन्त्रोंमें स्तुत्य पदार्थ उन्हीं मन्त्रों द्वारा स्तुति कालमें देवता कहलाते हैं। अन्यत्र तथा अन्य समयमें वे देवता गोट-प्रभाकर भट्ट का मत है कि देवता चतुश्रान्तचिनियोगान्त 'परा || १४ || सर्व दर्शन संग्रह | विनियोग के समय जिस के लिये मनु विभक्तिका प्रयोग होता है वहीं देवता है। अन्य समय व अन्यत्र देयता नहीं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही होते यही चैदिक सिद्धान्त है। तथा च निरुक्तमें लिखा है कियिकामऋषिर्यस्यां देवतायां अर्थ पत्यम् , इच्छन स्तुतिं प्रयुक्त सक्ता स मन्त्रो भवति ।" यह देवता अमुक पदार्थ का स्वामी है, अतः वह पदार्थ उसासे प्राप्त होगा ऐसा जानकर ऋषि जिसकी तुति करता है उसी देवता वाला-वह मन्त्र होता है। अभिप्राय यह है कि मन्त्रों में वर्णित पदार्थ देवता नहीं अपितु फल प्राप्तिकी ___ कामनासे जिसकी स्तुति की जाती है वह देवता है। तथा स्तुति करने वाला मन्त्रको ऋषि कहलाता है। तीन देव तिम एव देवता इति नैरुक्ताः अग्निः पृथित्री स्थानः आयुर्वा इन्द्रोवाअन्तरिक्षस्थानः सूर्योयुस्थानः ॥ ___ तासां महाभाग्यात् एककस्या अपि वहनि नाम धेयानि भवन्ति । अपित्रा कम पृथक स्वाद् यथा होता अध्या: प्रया उद्गाता इति, अपि एकस्य सतः अपि वा पृथगेय स्युः पृथग हि स्तुतयो भवन्ति तथा अभिधानानि । यथो एतय कर्म पृथक् सात् इति । बहोऽपि भिज्य कर्माणि कुयुः । तत्र संस्थानकत्वं संभोजकत्वं च उक्षितव्यम् । __ यथा पृथिव्यां मनुष्याः पशवो देवा इति स्थानीकरच संमोगकत्वं च दृश्यते । यथा पृथिव्याः प्रजन्येन च बाथ।दियाय च संयोगः अग्निना च इतरस्य लोकस्य ॥ तत्र एतान् नरराष्ट्रमिव ।। ७ । २ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) तीन हो देवता हैं ये नैरुक्तोंका मत है। उनके मत में अभि पृथिवी स्थानीय देवता हैं, वायु अथवा इन्द्र अन्तरिक्ष स्थानीय हैं श्रीर सूर्य. शुलोक के देवता हैं। उनको अनेक प्रकारको विभूतियां होने से उनके ही अनेक नाम हैं। तथा कर्मादिके भेदसे भो उनके अनेक नाम है। जिस प्रकार एक ही व्यक्तिके होता अध्ययु आदि नाम होते हैं। ऋ० १०/२७/२३ में लिखा है कि जब देवोंकी गिनती हुई, तब सब देवों ३ देवता मुख्य ठहरे - वायु सूर्य, पर्जन्य, यहाँको मुख्य देवता नहीं माना गया । श्रपितु अनि स्थान में पर्जन्यको मुख्य माना है । याज्ञिक मत परन्तु निरुताचार्यों से भिन्न याक्षिकों का मत है कि मन्त्रों में जितने देवताओंके नाम आते हैं उतने ही पृथक पृथक देवता है । क्योंकि स्तुतिये अलग अलग हैं उसी प्रकार देवताओंके नाम भी पृथक पृथक हैं। नैरुक्तों का यह कथन भी ठीक नहीं कि कर्मक भेदसे नामका भेद है, क्योंकि अनेक मनुष्य भी अपने अपने कमको बाँट कर करते हैं। यदि वे गौणरूपसे एकता स्वीकार करें तो हमें कुछ भी आपत्ति नहीं है। क्योंकि स्थानकी एकसा और भोगोपभोग आदिकी एकता से वे उनको एक कह सकते हैं, जैसे कि कहा जाता है कि भारत ऐसा मानता है, अथवा भारत यह चाहता है यहाँ एकल भी हैं तथा अनेकत्व भी क्योंकि भारत से अभिप्राय उसकी जनता से है । * वास्काचार्य दोनों का समन्वय करते हैं । M Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोंकी विलक्षणता इतरेतर जन्मानोभवन्ति, इतरेतरप्रकृतयः ! कर्मजन्मानः आत्मजन्मानः । आत्मैव एषां स्थोभवति आत्मा अश्वः आत्मा आयुधम् आत्मा इषवः आत्मा सर्वे देवस्य देवस्य । निरुक्त० ७।२ - ::.:.- अर्थ-देवता परस्पर जन्मा तथा इतरेतर प्रकृति ( कारगा ) होते हैं। देवता कमजन्मा ( कर्माधजन्मा ) होते हैं। क्योंकि इनके साना किन जो चोक लि, नई, कोहो इसलिये ये जन्म धारण करते हैं। तथा ये आत्म जन्मा है। अर्थात इनके जन्मके लिये किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं हैं। स्वसंकल्पमात्रसे ही उनका जन्म होता है ! तथा देवता स्वयं ही अपना रथ है स्वयं ही अश्व हैं और वे अपने श्राप ही शस्त्रास्त्र आदि है । अभिप्राय यह है कि कायके लिये उन्हें किसी अन्यको सहायता की आवश्यकता नहीं अपितु संकल्पमात्रसे उनको सम्पूर्ण पदार्थ प्राप्त होते हैं। देवोंका श्राकार पुरुषविधास्युः । अपुरुषविधास्युः । अपिता उभयविधास्युः । अधिष्टातारः पुरुषधिग्राहाः । एष च श्रापानममयः नि० ७ । २ देवता के स्वरूपके विषयमें निस्तकार कहते हैं कि-देवताओं का श्राकार मनुष्यों जैसा है यह एक मन है। तथा दूसर याचाका कथन है कि-देवका प्राकार मनुषयोंसे भिन्न प्रकार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) है। जैसे अनि वायु श्राश्रित्य आदि । परन्तु ऐतिहासिक आचार्यका मत है कि - अधिक्षता के रूप में ये देवता सर्वदा मनुयाकार ही होते हैं। अर्थात् अभि वायु, आदित्य, चन्द्रमा आदि. तो पुरुषत नहीं हैं परन्तु उनके जो अधिष्ठाता देव हैं वे पुरुषाकार ही होते हैं। किसी किसी आचार्यके मत से देव उभयरूप (वरुण) । इन देवताओं में वरुणदेव जलोंके स्वामी हैं। (वरुण अपामधिपतिः । अथववेद कां०५।२४।४) तथा यहीं शान्ति और भलाई का देवता है। शेष सत्र वैदिक देवता शाक्तिक हैं। सिन्धप्रान्त के शरूर शहर में सिन्धनदी के किनारे अति प्राचीन वरुणदेव का एक मन्दिर हैं जिसको 'वरना' पोरके नामसे पूजा जाता है । यह जलका देवता माना जाता है। तथा इरानी लोगों के यहाँ भी इस वरुण को 'वरण' नाम से पूजा जाता है। वे लोग इसको सब देवोंका पिता मानते हैं। मित्र और वरुण अति प्राचीन व प्रतिप्रित देव हैं। तथा वरुणको पश्चिम दिशाका दिपाल माना गया है। मरुदगण मरुद देवता गण रूप हैं । मरुतो मा गौरवन्तु ॥ अ० क ० १९४५ | १० अर्थात् मरुत देवता गयो सहित मेरी रक्षा करें। तथा च शतपथ बाद में लिखा है कि सप्त सप्तहि मारुता गणाः । श० ९/५/२/३/१६ अर्थात तो सात सात गए होते हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च मरुतगण अहुत भोजी हैं। अर्थात् ये हवन किये हुए पदार्थों को नहीं स्वाते। जैसाकि अक्षुतादो के देवानां मरतः॥ : शत० ४।४।३।१६ में लिखा है। इनके लिये प्रथक बलि दी जाती है। मारुतः सप्तकपालः पुरोडासः तां० प्रा० २१०१०१२३ तथा च इन मरुतोंके सात सात प्रकार आयुध, तथा आभरण एवं सात २ प्रकारकी ही दीप्तियां हैं। समानां सप्त ऋष्टय सप्त ः मान्येषाम् ॥ऋ० ८८॥ ऋग्वेद मं० ५।५२।१७ में इन मरुतोंकी संख्या ४९ बताई है। भिन्न भिन्न पदार्थों के अधिपति भिन्न २ देवता सविता प्रसवानामधिपतिः । अग्नि वनस्पतीनामधिपतिः । यावा पृथिवीदातरणामधिपत्नी । वरुणोऽपामधिपतिः । मित्रावरुणी वृष्टयाधिपती । मरुतः पर्वतानामधिपतयः । सामोवीरु धाधिपतिः । वायुरन्तरिक्षस्याधिपतिः । सूर्यचक्षुषामधिपतिः । चन्द्रमानक्षत्राणामधिपतिः । इन्द्रो दिवोधिपतिः । मरुतां पितापशूनामधिपतिः मृत्युःप्रजानामधिपतिः । यमः पितणामधिपतिः ।। अथर्व० ५। २४ । तथा पैप० में अन्य देवोंको भी अधिपति कहा है। ग्रथामित्र पृथिवीका, वसु सम्वत्सरका सम्बत्सर ऋतुओंका । विष्णु पर्वतोंका । त्वष्टा, रूपोंका । समुद्र नदियोंका । पर्जन्य (मेघ) श्रीषधियोंका। बृहस्पति देवताओंका। प्रजापति प्रजाओंका । (अर्थ) सविता प्रेरणाश्रोंका अधिपति । अग्नि वनस्पतियोंका । द्यावा पृथ्वी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) दानियोंकी । वरुण जलोंका । मित्रवरुण, वृष्टिके । मरुत पर्वतोंके । सोम, पोधका । वायु अन्तरिक्षका । सूर्य नेत्रोंका । चन्द्रमा नक्षत्रका | इन्द्र चौका । मरुतोंका पिता । रुद्र पशुओं का । मृत्यु प्रजाओंका । यम पितरोंका | इस प्रकार इन देवताओंके स्थान, अधिकार कर्म, जन्मस्थान व मातापिता, साथी, वाहन कायक्षेत्र, योनि जाति आदि सब पृथक पृथक हैं। इनकी पृथकता इनके को सिद्ध करने के लिये अटल प्रमाण है वैदिक कवियोंसे लेकर आज तक सभी स्वतन्त्र प्रज्ञ विद्वानों का यही सिद्धान्त है । तथा ये देवता देवता ही हैं. न ये ईश्वर है और न ईश्वर की शक्तियाँ | ये सब कल्पनायें निराधार एवं साम्प्रदायिक हैं। इन कल्पनाओं से न तो वेदोका ही महत्व बढ़ता है और न ईश्वर की सिद्धि हो सकती हैं । श्री पावगी महोदय का मत का श्री नारयण भवनरावपावगी, अपनी पुस्तक मूलस्थान' में लिखते हैं कि "यद्यपि ऋग्वेदमें इस बातका संकेत है कि इन भिन्न भिन्न देवताओं में कोई भी छोटा बड़ा नहीं है (नहि at स्यर्भको देवासों न कुमारकः । ऋ० ८ | १० | १) सबके सत्र श्रेष्ठ हैं। (विश्वे सतो महान्त इति । ऋ०८ ३० १ १ ) सो भी ऋचा के पढ़ने से यह स्पष्ट मासूम पड़ता है कि हमारे वैदिक देवताओंमें छोटाई बड़ाईका कुछ भेव वास्तव में था । अतः इस यातका समुचित विचार करके ही हमने श्रमिको प्रथम स्थान दिया है। क्योंकि वे ऋग्वेद में देवताओं के देवता ( देवो देवानां ऋ० ११३१ १ १ ) माने गये हैं।" Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J (ह) अग्नि देवता ऋग्वेदका मुख्य देवता अग्नि है. प्रिथिवो स्थानीय देवता हैअकट कर चुके हैं। वेद में भी इसी · यथा अन्य सब गौरा देवता हैं । निरुकाका जम सिद्धान्नको माना गया है। सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात | अभिर्नः पार्थि वेभ्यः ॥ ऋ० १०/१५९/१ अर्थात – धुलोक से सूर्य हमारी रक्षा करें व अन्तरिक्ष लोकसे वायु तथा पृथिवी लोक में हमारी रक्षा करे । तथा शतपथ ब्राह्मण में है कि- अस्मिन्नेव लोके, अभि, वायुमन्तरिक्षे दिव्येव सूर्यम् । ११ । २।३।१ अर्थात् उस प्रजापतिने देवों को उत्पन्न करके तीन लोकांमे स्थापित किया । अग्निको इस प्रथिवी लोकमें, वायुको अन्तरिक्षमें और सूर्यको लोकमें। उपरोक प्रमाणों से यह सिद्ध होगया कि अभि पृथ्वी स्थानीय देवता है। तथा ऋग्वेद और अथर्ववेदका भी पृथिवीलोक है। तथा दोनों वेदों का देवता भी अग्नि ही है। अतः यह स्पष्ट है कि वेदोंका मुख्य देवता है । भारत में अमि पूजा के प्रथम प्रचारक अंगिरा ऋषि हुये हैं। यह प्रख्यात वंशके थे। ग्रीक, रोमन, परशियन, आदि जातियों में अभिकी पूजा सदासे चली आती है । ग्रीक, लोगोंका कथन है कि — जो देवता मनुष्योंकी भलाई के लिये पहले पहल स्वर्गसे श्रमिको चुरा कर लाया उसका नाम -- Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) प्रोमोथियस हैं। इस देवताके ग्रीक तथा यूनानी आदि उपासक हैं। रोमनमें, बल्कन, या उलका के नामसे अमिकी पूजा होती है । लाटिन भाषा भाषी श्रमिको 'इति' तथा स्लाव लोग, ओमनी. कहते हैं। ईरानों व पाशियन लोग र नामसे पूजा करते हैं। (सा पं० रामगोविन्द त्रिवेने ऋग्वेद के अनुवाद में लिखा है।) वैदिक साहित्य में श्रमि शब्द अनेक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उनमें कुछ निम्न हैं । 1 (2) अभि देवों का दूत हैं । अर्थात वह देवोंको यज्ञमें बुलाकर लाता है। देवासी दूतमकत ॥ ऋ० ८ । २३ । १८ अर्थात् श्रमिको देवाने दूत बनाया | (२) है। तथा च देवोंका पुरोहित हैं। अर्थात् वह देवोंका हितकारक (३) यक्षका देवता हैं। (४) ऋतका रक्षक हैं। (ऋगोप) १ । १८: (५) यज्ञका नेता हैं। (६) यह होता, कवि, ऋतु आदि है। इसके अलावा, आत्मा, ज्ञान, प्राण, इन्द्रिय, मन-वाणी, आदि अनेक अर्थ में इसका व्यवहार हुआ है । परन्तु वर्तमान ईश्वरके अर्थ में कहीं भी अभि शब्दका प्रयोग नहीं हुच्छा है । यह अमि देव पूर्व दिशा के अधिपति हैं । प्रचीदिक, अग्निदेवता ॥ तै०. ३ । ११ । ५ । १ अनि पूर्व में वृषभ था । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन . ‘अग्नि ई नः प्रथमजा ऋतस्य पूर्व आयुनि वृषभश्व धेनुः ।। ऋ० १० । ५। ७ अर्थात् अग्नि ही ऋतका प्रथम प्रचारक है। और वह पूर्व अवस्था में वृषभ औं धेनु है। प्रथम अंगिरा ऋषि स्वमग्रे प्रथमो अगिरा ऋषिः । ऋ० १ । ३१ । १ के अने! श्राप प्रथम अंगिस ऋषि हैं। इसी प्रकार अनि प्रथम, मनोता अर्थात् राजा या विचारक है। व होने प्रथमो मनोना ।। ऋ५ ६ । १ । १ ३३३८ देव इसके सेवक हैं। श्रीणि शता त्रि सहस्राणि अग्निं विशश्चदेवा नव चास पर्यन ॥ ० ३ । ९ । ९॥ . . प्रथम अंगिरा यशियों में अग्नि को काष्ठ 'प्राहिसे उत्पन्न किया पुनः पशु पासाकोंने अन्नके लिये । प्रादेगिरा प्रथम दधिरे ।। ऋ० ११८३।४ वेदमें अग्नि शब्द ईश्वर वाचक नहीं है । प्रग्वेद माध्यमें बा- 'उनेशचन्द्रजी विद्यारल लिखते हैं कि"येदेषु अग्नि शमन यादि मानवः सं सूचितः । जडाग्निवन्हिस्यथा नरामिश्र अधयोधित इनि । नगाहे अग्नि' इति यत शतपथे अस्ति सम लोकपितामह, प्रमाण मेव बोधियितुं प्रयुकः, न पुनः परमेश्वर मिति । ईश्वविद्वान स गरिन वि' इत्यं प्रयोगान म्यान पब Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार विरुद्धत्वात् । वस्तुतस्तु येदे कुयापि अनि शब्दः परमेश्वरार्थे प्रयुक्तो नामून् । भ्रान्तिरेषा विदुषो दयानन्दस्य " अर्थात- वेदों में अग्नि शब्दसे श्रादि मानव अथवा · जड़ अग्निका बांध होता है। ब्रह्म हिं श्रांमः' इस शतपथ वाक्य में ब्रह्माका कथन है । न कि ईश्वर का। ईश्वरविद्धान, गणितज्ञ है, आदि प्रयोग लोक बिरुद्ध होने के कारण ठीक नहीं है। वास्तव में नो वेदों में कहीं भी अमि शन्न परमेश्वर अर्थमें प्रयुक्त नहीं हुश्रा है 1 अग्निका अर्थ ईश्वर करना यह विद्धान दयानन्द की भ्रान्ति है।" इसी प्रकार इन्द्र आदि शब्दों के लिये भी श्रापने लिखा है । यया-गध वायुः परमेश्वरः" इति महती मत्र भ्रान्ति स्तस्य दयानन्दम्य इति मुण्डुक वचनान गम्यत" अग्नि देवता स वरुणः सायमग्नि भवति स मित्रो भवति प्रातरुवन स सविता भूत्वान्तरिक्षेण थाति स इन्द्रो भूत्वा तपति मध्यतो दिवं तस्य देवस्य । अथर्ववेद कां०१३सू.० ३०१३ ___ अर्थ यह अनि सायं समय वरुण होता है, प्रातः काल उदय के समय मित्र होता है. वह सवितः होकर अन्तरिक्ष में जाता है, वह इन्द्र होकर यो का मध्यमे तप.ता है। अथर्ववेद का यह अभिसूक्त दर्शनीय है: जो भाई अग्ने आदि को परमात्मा कहत हैं उनको यह सूक्त विशेषतया देखना नाहिये । प्रत्येक बुद्धिमान श्रादभी समझ सकता है कि यहाँ इस जड़ सूर्यके सिवा अन्य वस्तु का वर्णन नहीं है। आगे सूः ४ में भी इसी सूर्य का वर्णन है। वहाँ लिखा है कि-- Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . स धाता स विधाता स वायुन उच्छुितम् ॥ ३॥ सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः ॥ ४ ॥ सोऽग्नि स सूर्यः स एव महायमः अर्थात्-बह अग्नि ही ( धाता ) बनाने वाला, (वह विधाता) नियम बनाने वाला है । वह वायु है, वह ऊँचा मेघयदल है. वह अर्यमा, वरुण, मद्र, नहादेव, अग्नि, सूर्य तथा वही अमि महायम है। ऋ० मं०५ । ३ में भी यही भाव है। - उपरोक्त मन्त्र में प्रथम मन्त्र का ही अनुमोदन है। यदि किसी को इस चतुर्थ सूक्तके विषय मन्ह हो कि यह सूक्त सूर्य परक है या नहीं तो उसका कर्तव्य है कि वह सम्पूर्ण सूक्त को पड़ ले उसको शंका स्वयं दर हाजायगी कि सूक में सूर्यक्री रश्मियों का तथा उसकी चालका और उदय होने श्रादिका पर्ण वर्णन है । इसी सूर्य के लिये लिखा है कि य आत्मदा क्लदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवा । य अस्पेशेः द्विपदो यश्चतुष्पदम् तस्य देवस्य ॥ अथवे० १३ । ३ । २४ ___ अधीन -जिस सूर्य के मंत्र १३ में सब नाम गिनाये है वह सूर्य अात्मा व बलका देने वाला है । सब देवता जिसके शासनको मानते हैं। जो इन दापायोंका तथा चौपायोंका स्वामी है इत्यादि। इस मूल के अने: मन्त्रों में सूर्यको महिमा कही गई है । तथा जिनने गुण परमात्मा के माने जाते हैं उन सबका श्रारोप यहाँ सूर्य में किया जाता है। ऋचायें उत्पन्न हुई तथा सब कुछ उसमे उत्पन्न हुआ यह स्पष्ट लिखा है। भोले-भाले प्राणी यह समझते हैं कि जब ऐसा है तो यहाँ अवश्य ईश्वर का ही वर्णन है । वह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) यह विचार नहीं करते कि जिसका जो उपाय है वह अपने उपास्य में सम्पूर्ण दिव्य गुणों का आरोप कर लिया करता है। अपनी बुद्धि की कल्पना शक्ति जितनी भी आगे पहुंच सकती हैं उसके अनुकूल वह उसे यहाँ तक ले जाकर अपने उपास्य की स्तुति किया करता है। इसका नाम स्तुतिवाद है। वस्तु स्थितिवाद इसके सर्वथा विपरीत होता है आज भी दुनिया का यहीं नियम है, आप किसी के उपास्य देव के विषय में उसके उपासक से पूछें ? वह आपको अपने उपास्य में सम्पूर्ण वही गुण बतलायेगा जीप शायद ईश्वर में भो न मानते हो। मसीह आज स्वयं खुद समझा जाता है तथा भगवान राम और भगवान कृष्ण के भक्तों से पूछो उनको भी यहां अवश्य है । यहीं क्यों आप जंगलो जातियों में जायें वे जग भूत, पिशाच को अपना उपाय मानते हैं। यहां व्यवस्था पूर्व समय में धो उस समय भारत में दो चम्प्रदाय थे । (१) आत्मवादी अर्थात् चैतन्य आत्मामें ही सम्पूर्ण शक्तियाँ मानता था । (२) देवोप, क यह सम्प्रदाय मि. सूख वरुण आदि जड़ देवों की उपासना करता था । 1 प्रथम आत्मोप सक सम्प्रदाय भारतीय आयों का था तथा दूसरा सम्प्रदाय पुरुरवा के समय बाहर से आने वाले आर्य अपने साथ लाये थे । प्रथम सम्प्रदाय वाले महापुरुषों के उपासक थे और नघोन अर्य याज्ञिक थे। ये याशिक लोग आत्माको शरीरसे प्रथक तो मानते थे परन्तु मुक्तिको नहीं मानते थे । वे केवल स्वर्ग को ही सब कुछ मानते थे और उस स्वर्गको सिद्धि यज्ञों से हो जती थी इसलिये न उनके यहाँ विशेष ज्ञानको आवश्यकता थीं न तप आदि की ही । इस लिये इन दोनों में बड़ा मतभेद था । इन याज्ञिकों ने यह सिद्धान्त निकाला था कि जो पदार्थ आप यज्ञ में होगे वहीं पार्थ आपको स्वर्गलोक में प्राप्त होगा। इसी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवे यज्ञ में सभी आवश्यक वस्तुओं को हामा जाने लगा। इसी कारण पशुओं को भी यज्ञ में होमा जाता था। जब इन नवीन श्रायों की विजय हुई और इनकी सभ्यना भी इस देश में फैल गई तो इनके धर्म को भी यहाँ के मूल श्राों ने अपना लिया और यहाँ प्राह्मण धर्मकी दुन्दुमि बजने लगी । परन्तु प्राय धर्म को अपना उस समय भी कायम बही। वर्तमान वेद उसी मिश्रित 1. मन्यसा के अन्य हैं ! उनमें कहीं तो मुक्त श्रात्माओं की स्तुति है। और कहीं अब देवताओं की तथा कहाँ वीर पुरुषोंकी स्तुति है। घरबाद वेदों के पश्चात् प्रचलित हुआ है । वेदों में वर्तमान इवरवाद की गन्ध भी नहीं है । वह तो उपनिषद् काल के बाद की कल्पना है, जो लोग बेदोंमेंसे वर्तमान ईश्वर सिद्ध करना चाहते हैं, यह उनका पक्षपात तथा हठधर्मीपना है या वेदानभिज्ञता । तीन प्रकार के मंत्र ताधिविधा ऋचः परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृता आध्यात्मिकाच परीक्षकृताः प्रत्यक्षताश्चमन्त्रा भूयश्च अल्पश आध्यात्मिका: निरुक्त दैवत कांड । अर्थात्-निरुक्तकार कहते हैं कि मन्त्र तीन प्रकारके हैं, परोक्ष, प्रत्यक्ष तथा प्राध्यास्मिक। परन्तु परोक्ष और प्रत्यक्ष के "मन्त्र ही अधिकतर हैं और आध्यात्मिक मन्त्रों की गणना नहीं के बराबर है। जो भाई सम्पूर्ण मंत्रों में से ईश्वर का वर्णन विखलाते हैं उनको निरुक्तकारकी सम्मति देखनी चाहिये । निरुक्तकार तथा ‘मेद आध्यात्मिक से क्या अभिप्राय लेते हैं यह भी पढ़ने योग्य है। __ सप्त ऋषयः प्रविहृताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम् Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) सप्तायः स्वपतो लोक मीयुस्तत्र जागृतो यमजौं सत्रसदौ च देवौ । निरुक्त देवत कांड १२३३७ निरुक्तकार ने यह मन्त्र यजुर्वेद अध्याय ३४ ५५ का किया है। जिसका अर्थ यह है कि इस मनुष्य शरीर के अन्दर सात प्राण तथा पाँच इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि सात ऋषि विद्यमान हैं । ये सात प्राण इस शरीर की निरन्तर रक्षा करते हैं । तथा जब ये इन्द्रिये विज्ञानात्मा में पहुंचती हैं तब अर्थात् स्वप्नावस्था में भी प्राणापानरूपी देव जागते रहते हैं। इत्यादि अनेक स्थानों पर इस मनुष्य शरीर का माहात्म्य अग्नि निर्वै सर्वमाद्यम् || तां० २५ । ९ । ३ मिथुनस्य कर्त्ता ॥ ० १ । ७ । २ । ३ अयं वा न च क्षत्रं च । शतपथ, ६२६|३|१५ पृथ्वीपते । तै० ३ । ११ । ४ । १ धाता । तै० । ३ । ३ । १० । २ श्रयमग्निः सर्वचित् । शत० ९ । २ । १ । ८ अर्थात् श्रभि आदि पुरुष हैं। तथा श्रभि मिथुन जोड़ेका बनाने वाला है। अर्थात् उसने जबसे प्रथम विवाह प्रथा को प्रच लित किया । ब्राह्मण और क्षत्री श्रमि हैं। पृथिवी पति का नाम अभि है। अर्थात् पूर्व समय में राजा को तथा विद्वान् तपस्वी को मिकी उपाधि दी जाती थी। अभि सर्वज्ञ है, धाता, ब्रह्मा आदि भी उसी के नाम हैं । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ET: असा स्पष्ट है कि ये सब नाम उपाधि पाचक थे । नथ। महा पुरुषों को इन्हों नामों से विस्वास किया जाता था। ग्राम शब्द के अन्य भी अनेक अर्थ है। परन्तु हमारा इस स्थान पर उनसे अयोजन नहीं है। हमारा अभिप्राय तो केवल इतना ही है कि । वेदों में अग्मि शब्द का अर्थ पुरुषविशेष भी है । उसके अनेक चाम हैं उनमें एक नाम श्वग्रि भी है। तथा च-- दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरस्मद् द्वितीयं परिजात वेदाः । ऋ० वे० मे०१० सू०४५ । १ अर्थात्इदमेवाग्नि महान्तमात्मानमेक मात्मानं । बहुधा मेधाविनो वदन्तीन्द्र मित्रम् ॥ अर्थात्-अग्नि ही सब देवता रूप है यह ब्राह्मण है। तथा न 1. वेद भी अग्नि की ही इन्द्र. मित्र, वरुण, आदि नामों से स्तुति करता है। इसी अग्नि की बुद्धिमान लोग अनेक नामों से स्तुति करते हैं। इसपर दुर्गाचार्यजी का भाष्य भी देखने योग्य है । यहाँ स्पष्ट लिखा है कि "अप्रिम् श्राहुः तत्वविदः" अर्थात तात्विक शोग अभिके सब नाम कहते हैं । अथवा अग्नि को ही सब नामी : से कहते हैं। . बहुत भाई वेदानभिज्ञ लोगों के सम्मुख ईश्वर के नामों के प्रमाण में निम्न लिखित ममास उपस्थित किया करते है इन्द्र, मित्र, वरुणमग्नि माहुरथोदिश्यः ससुपोंगरुत्मान एक सय विप्रा बहुधा वदन्ति अनि यमं मातरिश्वानमाहुः ऋ० म०१मू. १६४ मं०४६ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह मन्त्र बोलकर कहा करते हैं देखो इसमें लिखा है कि एक ही ईश्वर के सब नाम है परन्तु ये लोग अपनी बुद्धिमानी से अथवा अनज्ञान में प्रागे पीछे से मंत्री पर हिना नहीं करत : यदि ऐसा करने को उनके इस कथनकी असलीयतका पना लग जाता । क्योंकि इमसें अगले ही मन्त्र में लिया है कि कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपोक्साना दिवत्मुत्पतन्ति । इत्यादि। अयात-सुन्दर गति वालो. जल वाहक सूर्य किरणें कृष्णावर्ण नियतगनि मंधको जल पुर्ण करती हुई दालोकमें गमन करती हैं। आदि इसके आगे मन्त्र ४८ में सूर्य की गतिका वर्णन है तथा उससे उत्पन्न १. मासो का एवं ऋतुओं का कथन है। यहाँ भी स्पष्ट हैं कि उपरोक्त माम ईश्वर के नहीं हैं अपितु सूर्य के ही सत्र नाम हैं। यहाँ मूल मन्त्र में ही लिखा है कि अमिमाहुः । अर्थात इन्द्र मित्र वरुण आदि अग्नि को, हो कहते हैं। तथा च__ प्रथम अग्नि द्युलोक में सूर्य रूप से प्रकट हुश्रा तथा दूसरा अनि पृथ्वी पर सर्वज्ञ मनुष्य के रूपमें प्रकार हुआ। (जास देश का अर्थ सर्वज्ञ है) ऋ०१०४०१ बस जब स्वयं वेद ही अग्निको सर्वज्ञ मनुष्य कहता है सो पुनः इस विषय में शंका को कहाँ स्थान है ? धाताऽर्यमा च मित्रश्च वरुणोऽशो भगस्तथा । इन्द्रो विवस्वान पूषा च वक्ष च सविता तथाः ।। पर्जन्यचत्र विष्णुश्च आदित्या द्वादशः स्मृताः । महाभारत आदिपर्व अध्याय १२३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H : ( १६ ) अर्थात् ये १० नाम सूर्य के हैं। अथवा १२ सूर्य हैं। यथा: wता. अर्यमा, मित्र मण अंश. भग इन्द्र विवस्वान पृषा स्वष्टा, सबिता विष । यही बात विष्णु पुराण ने कही है। विष्णु पु १५ अंश १ में आया है वत्र विष्णुश्व शुक्रश्व जज्ञति पुनरेव च । area at aष्टा पूषा तथैव च ।। १३१ ॥ farara aai ata, मित्रो वरुण एव च । अंशो भगवादितिजा आदित्या द्वादशस्मृताः ।। १३२ ।। जो महाभारत ने कहीं नहीं विष्णुपुराण ने कहीं ( तथा अथर्ववेद ने इन नामों का कारण बड़ी ही उत्तमता से बता दिया है। जिसका उल्लेख हम ऊपर की पंक्तियों में कर चुके हैं) निरुक्त और afte freeक्तकार श्री यास्क देवत काण्ड में कहते हैं कि अथापि ब्राह्मणं भवति "अभिः सर्वा देवताः" इति । ४ । १७ तस्योत्तराभूयसे निर्वचनाय, इन्द्रं मित्रं वरुणमग्रिमाहुः । ० १ । १६४ धम्मः कः शुक्रः ज्योतिः सूर्यः अर्नामानि । शतपश्र० ९|४|२/२५ रुद्र मर्वः यः पशुपतिः, उग्रः, अशनिः भत्र महादेवः ईशान अनि रूपाणि कुमारोननमः । शतपथ | ६|१||१८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) aTa heart at नामानि शर्व इति प्राच्या स याचक्षते भव इति । शतपथ अनि देवानाममत्रो विष्णुः परमः । कौत्स्य ब्राह्मरण : ७ । १ शतपथ १४/३/२/४ अग्नि देवानामात्मा सर्वान् । ताराज्य भाह्मण २५४४९१३ इत्यादि अनेक प्रमाण इसकी पुष्टी करते हैं। उपरोक्त प्रमाणों में 'वै' शब्द विशेष महत्व का है उसने निराकरण कर दिया है। क्योंकि अमि के ही हैं. 'हो" ने अन्य बातों का खण्डन कर दिया है इसलिये वेदों में वर्तमान ईश्वरवाद की गन्ध भी नहीं हैं । ईश्वर की मान्यता का नितान्त वह कहता है कि ये सब नाम अग्नि (ब्रह्मा) स्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्चनो दमे ॥ ऋ० मं० २ । १ । २ सव नाम अभि के हैं । सम्पूर्ण सूक्त सुन्दर है । त्रिभिः पवित्रैर पोर्ध्यकं हृतं ज्योतिरनु प्रजानन् । वर्षिष्टं रत्नमकृत स्वधाभिरादि द्यावा पृथिवी पर्यपश्यत् ॥ ८॥ ऋ० मं० ३ सूक्त २६ । ८ अन्तःकरण द्वारा मनोहर ज्योति को भली भांति जानकर श्रमि ने तीन पवित्र स्त्ररूपों से पूजनीय आत्मा को शुद्ध किया है. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभि ने अपने रूपों द्वारा अपने को अतीच रमणीय किया था दूसरे ही क्षण द्यावा पृथ्वी को देखा था। अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृत मे चक्षुस्मृतं म आसन्। । अस्थिधातू रजसो विमानोजस्रो धर्मो हत्रि रस्मि नाम।७। - मैं अग्नि जन्मसे ही सब कुछ जानने वाला हूं, घृत (प्रकाश) ही मेरा नेत्र है मेरे मुख में अमृत है. मेरे प्राण त्रिविध हैं.. मैं अन्तरिक्ष को मापने वाला हूं. मैं अक्षय उत्ताप हूं. मैं हन्यरूप हूं। . यह सम्पूण मूक्त बहुत ही सुन्दर है । द्रष्टव्य है। . इसी सूक्त के मन्त्र ३ में आये हुये युग शल का अर्थ स्वामी जी ने दिन किया है। सूक्त० २६ मन्त्र ३ में अग्नि को इलाका पुत्र B. मसलाया है । (अर्थात इला देशसे प्राया था. ऐलराजा चन्द्र बंश का प्रथम राज। पुरुरवा यहाँ पाया था ) अमित्रायुधो मरुतामित्र प्रयाः प्रथमजा ब्रह्मणो विश्वमिदं विदुः । धुम्रवद ब्रा कुशिकास एरिर एक एको दमे अनि समीघिरे ॥ ऋ० म० ३ ० २९ । १५ मरसों के समान शत्रुओं से युद्ध करने वाले और ब्रह्मा से पहले उत्पन्न हुये कुशिक लोग निश्चय ही मम्पूर्ण संमारक जाना हैं। अनि को लक्ष्य करके मन्त्र बनाते हैं वे लोग अपने घर में अमि को प्रदान करते हैं। यह सूक्त भो सम्पूर्ण द्रष्टव्य है। ..... ऋग्वेद मण्डल ५ सूक्त ११ से २६नक 'अग्नि का सुन्दर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिरिद्धि प्रचेता अनिर्वेधस्तम ऋषिः । अग्निं होतारमीड़ते यशोषु मनुषो विशः ।। ऋ०६।१४।२ स्वामीले अव दिना भरतो वाशिभिः झुलम् । भरत ने दो प्रकार से श्रमि की पूजा की। यह सम्पूर्ण सूक्त अच्छा है। तं सुप्रकि सुश स्वञ्चविद्वांसी दुष्टर भषेम । ० हेम, सर्वज्ञ, शोभनांग, मनोज्ञमूर्ति. और गमनशील अग्नि देवका परिचरण करते हैं । (यह सूक्त भी सम्पूर्ण देखने योग्य है) इन्द्र अन्तरिक्ष का देवता है । तथा इसको यज्ञ का देवमा भी कहा गया है 1 . इन्द्रो यज्ञस्य देवत्ता । २० कां० ३ । ७।५।४ तथा यह देवताओं का राजा माना जाता है । इसको शतक्रतु भी कहते हैं। क्योंकि एक सो अश्वमेध यज्ञ करने पर इन्द्रपल प्राप्त होता है। ___ यह दक्षिण नथा पूर्व दिशा का अधिपति है । (दक्षिणादिक इन्द्रो देवता ) ते ३ १ ११ १ ५। १ · इन्द्र में पानी के फेन मे शस्त्र बनाकर नमुचि अप्सर का शिर काटा था। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 और पुत्र का युद्ध अनेक धार हुअा है. तथा इन्द्र ने जसको पराजित किया है। इन्द्रो वै शुभं रवा विश्वकर्माऽभवत् । ऐ० ४ । २२ जमा शतपथ में है कि वृत्रको मार कर इन्द्र महेन्द्र बन गये । पारसी लोग इन्द्र के शत्रु थे उनके धर्म प्रन्य अवस्था के फदिमें इन्द्रको पापमति कहा है । तथा इन्द्रके उपासकोंको मासे निकालनेका आदेश दिया गया हैं। तथा ऋग्वेब में- में अविरोधियोंको देशसे निकालनेका श्रादेश है। तथा च ऋग्वेद १.८०३ मैं कहा गया है कि मेम ऋषि ने कहा है कि-- नाम का कोई खता नहीं है उसे किसने देखा है। - मेन्ट्रो अस्तीति नेम उ त्य आह कई दर्दश । यहाँ नेम ऋषि कौन है यह विचारणीय है। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान रामानाथ सरस्वती का कहना है फ्रि-- . त्रअसोरीया का नामी सेनापति था। अभिप्राय यह है कि-ग्रह युद्ध और शक्ति का श्रादर्श देवता हैं। सोम ( शराब ) इसको अति प्रिय थी जहाँ कहाँ सोम रसी गन्ध आजाती थी वहीं यह श्रा धमकाने थे। मांस इनका सबसे प्रिय खाद्य पदार्थ था। इस प्रकार यह रजोगुण और तमोगुण प्रधान शनिाशाली देवता है । इसका वर्ण क्षत्रिय माना गया है। इन्द्रो देवानामो जिष्टोवलिष्ठः ।। कौ० ब्रा० ६।१४ अर्थात देयों में इन्द्र हो अत्यन्त शक्तिशाली है । नथा श्रुतिमें कहा है कि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) श्री यच्छता महिषाणामधो मा स्त्रीसरांसि मघवा सोस्थापाः || ऋ० ५ । २९ । ८ अर्थात् इन्द्र ! तू तीनसो भैंसों का मांस खा जाता है और तीन तालाब सोमरस के पी जाता है। अन्य अनेक मन्त्र भी उपस्थित किये जा जाते है श्रादि खानेका स्पष्ट तथा कथन हैं। यही कारण है कि इसको घोर भयानक देवता माना जाता था । यथा ये स्म पृच्वंति कुहसेति धोरमुतेमा वैषो अस्तीत्येनम् । ऋ० २ । १२ । ५॥ इसी इन्द्र को देवता मानने पर आर्य जाति में परस्पर कलह उत्पन्न हुआ। क्योंकि प्रथम सत्र देवता सात्विक और अहिंसक और भलाई के देवता थे । पूर्वोक मन्त्र में इन्द्र विरोधियों में मेम ऋषि का नाम आया है. यदि वे जनतीर्थंकर नेमीनाथ थे तो कहना होगा कि यह कलह अहिंसा और हिंसा के सिद्धान्तपर अवलम्बित थी। क्योंकि इन्द्र हिंसाकी प्रतिकृति है। * निरुक्त और इन्द्र | 'इन्द्र:' इरां ति इति वा । इरां ददाति इति वा । 1 * मत्स्य पुराण ० ४२ में इन्द्र को ही हिंसक यज्ञका श्राविष्क लिखा है । तथा ऋषियों का और देवोंका इस पर महान कलह हुआ था | इसका वर्णन प्रमाण सहित श्रागे लिखेंगे। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इरो द्धाति, इति वा ।। इशं दारयते इति वा । इन्दवे-द्रवति इति ना ! इन्दौ, रमते इति वा| . इन्धे भूतानि इति वा । .इद: करणात्-इति श्रात्रायणः । बई दर्शनात-इति औपमन्यवः । बन्दले की ऐश्वर्य कर्मणः । इन्दनः शत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा । ...आदरयिता वा यज्वानाम् । अर्थ-'इरा' नाम अन्न का है. अतः जो अन्न दाता है. तथा अम का धारक है, अथवा अन्न को यिदार्ण करता है वह इन्द्र है। अथवा इन्दबे जो सोम के लिये चलता है. सोम में रमण करता तथा प्राणियों को तिमान करता है वह, इन्द्र है । .. श्वं प्रामायण ऋषि का मत है कि इएं. इसने यह शरीर रचा है. इसलिये इसका नाम इन्द्र है । अर्थात् जीवात्मा. औषमन्यत्रों का कथन है, प्रात्मद्रष्टा होने से इन्द्र है। तथा गंश्रयवान होने से उसका नाम इन्द्र है। अथवा शत्रुओं को दारण करने से या भगादेने से यह इन्द्र हुश्रा है। एवं यजमानों ( याज्ञिकों ) का आदर करने वाला है. इसलिये Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तद् यदेव प्राणैः समैन्धं स्वदिन्द्र स्पेन्द्र त्वम् ।। देवताओं ने इसे सन्दीपन किया है इस लिये प्राणों के यह इन्द्र है। ऐतरेयोपनिषद में लिखा है कि -.. स जातोभूतान्यभिव्यैरुयत कि मिहान्यं वाचदिवदिति । स एवमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् | दमदर्शमिति ||१३|| तस्मादि दन्द्रो नामेन्द्रो हौनाम । तमिदन्द्रं सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते पगेक्षेण । परोक्षप्रिया व हि देवाः ||१ | ३|१४ इस शरीर में प्रवेश करके आत्मा ने भूतों ( प्राखों ) को तादात्म्य भाव से ग्रहण किया। तथा आत्म ज्ञान होने पर यहाँ मेरे सिवा अन्य कोन हैं उसने ऐसा कहा । और मैंने इस अपने आत्म स्वरूप को देख लिया है । इस प्रकार इसने अपने को हो रूप से देखा || १३ ॥ i. क्योंकि उसने इस आत्मब्रह्म का दर्शन किया इसलिये उसका नाम इन्द्र प्रसिद्ध हुआ । इसी इवेंद्र" को aarat लांग परोक्षरूप से इन्द्र कहते है । क्योंकि देवता - परोक्ष प्रिय होते हैं ॥१४॥ यही भाव मयांका है। जिसको निरुक्तकार ने उन किया है। वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों में ऐसा ही वर्णन है। अतः वेदों में आत्मा अथवा ब्रह्मज्ञानी का नाम भी इन्द्र आया है। इसी प्रकार आत्मा, प्राण, इन्द्रिय, वायु श्रादित्य राजा. सेनापति आदि ऐतिहासिक अर्थ में भी इन्द्र का वर्णन है । : Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य जाति की अन्य सभी शास्त्राओं में दूसरे सब देवताओं के नाम पाये जाते हैं परन्तु इन्द्र का नाम प्राथ वेद में ही पाया जाता है। 'जेन्द अवस्था में इन्द्र को चोर और लुटेरा कहकर उनकी निन्दा की गई है। इन्द्र की एक उपाधि वृत्रन भी है ग्रह उपाधि उसको बाद में दी गई। ईरानी लोग 'चन्न' देवताओंको मानते थे, "जद अवस्था में इसका पूजा की विधि है। अतः यहाँ 'आरोप, बाद में इन्द्र के लिये भी कर दिया गया है। जो लोग इन्द्र के विरोधी थे उनमें बनिये लोग बड़े निरीह थे। वे लड़ाई झगड़ा अधिक पसन्द न करते थे. चुपचाप थन जमा करते थे, उनमें अधिक जन मांस न खाते थे. गो जाति की सेवा करते थे क्योंकि यह पशु इन्हें धी' दूध' खूब देते थे । इन्द्रका एक खास काम यह था कि वे बराबर उनकी गायें चुरा ले जाया करते थे। वे ब्राह्मणों को दान नहीं देते थे. इसलिये ऋषि लोग भी प्रायः उनसे नाराज रहते थे। अब जान पड़ता है कि उस समय के श्राय और अनार्य समाज में एक ऐसा दल था जो यज्ञ आदि का विरोधी और ब्राह्मणों में भक्ति न रखने वाला था। (वैदिक भारत में रायसाहब दिनेशचन्द्रसेन ) THE इन्द्र भ्रम में पड़ जाता है। .: .: .... कदाचन प्रयुच्छस्यु भे निपासि जन्मनी ।। ऋ० म०८ । ५२ । ७ अर्थात हे इन्द्र ! तुम कभी कभी भ्रम में पड़ जाते हो ? । अतः इन्द्र को ईश्वर मानने वालों को ईश्वर में भी यह गुण मानना पड़ेगा। . . . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (२८. अश्विनौ। अश्विनीकुमार भी वैदिक देवताओं में मुख्यदेव है । अतः उन पर प्रकाश डालना भी अलप्यक है। निम्नकार करते हैं किगुस्थानी देवों में अश्विनी प्रथम है। नत्कावश्विनौ ? द्यावा पृथिव्यावित्येके । अहोरात्रावित्येके । सूर्याचन्द्रमसावित्येके । राजानी पुण्यकृतावित्यति हासिकः । अर्थान् , नावापृथिवी का नाम अश्विनी है, यह एक मत है। अन्य ऋषियों का कथन है कि---- दिन रात का नाम अश्विनी है। नथा अन्य सूर्य. चन्द्रमा का नाम बताते हैं। एतिहासिक ऋषियों का कथन है कि आश्वनी पुण्यात्मा राजा हुये हैं। श्रामग्र ग्रन्थ कहते हैं किश्रोत्र अश्विनों । नासिके अश्विनी ।। शत०१शह! अश्विनी चैं देवानां भिवजी ।। ऐ० १ । १८ स योनी रा अश्विनी ।। शत० ५। ३ ! १।८ गर्दभरथेनाश्विना उदजयताम् ।। ऐ.० ४ । ६॥ ऋ० १।११६ में भी अधीन्-श्रोत्र वा नासिका आदि का नाम अश्विनी हैं। थे अश्विनी देवों के बंद्य है। तथा थे मजाल है, ! एवं गर्दभ इनके रथ के वाहन हैं। तथा शतपथ में लिखा है कि-अश्विनी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) : कुमार. दध्यंग ऋषि के गये और उनसे कहा कि आप हमको मधुविद्या सिवा देवें। ऋषिने कहा कि यदि यह विद्या सिखाऊंगा तो इन्द्र मेरा सर काट लेगा उसने ऐसा ही कहा है। इन्होंने ऋषि का सर काट कर किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर रख दिया और उसकी जगह अव का सर लगा दिया ऋषि ने उस अश्वमुख से अश्विनी कुमारों को मधु विद्या पढ़ा हो. जब इन्द्र को ज्ञात हुआ तो इन्द्र आया और ऋषि का अश्व सिर काट दिया, इस पर अश्विनी कुमारों ने तुभ्यंग का असली सर पुनः जोड़ दिया । श० १४ । १ । १ वेद में भी यह इतिहास आया है। श्रथर्वणायाश्विना दीवेऽश्वयं शिरः प्रत्यैरयतम् ।। ऋ० । १ । ११७ । २२ अर्थ- हे अपि श्रपुत्र दर्भाची के श्रश्र का शिर जोड़ते है । अन्य स्थानों में भी ऐसा ही उल्लेख आया है तथा च वेद में लिखा है कि मद्या जंघा मायसीं विपतायें ॥ ऋ० १११६/१५ इसके भाग्य में श्री सायणाचार्य लिखते हैं कि- खेल नामक एक सुप्रसिद्ध राजा था. विश्पला क्षत्राणी उसकी सेनापति श्री संग्राम में उसकी जंघा टूट गई. इसपर अश्विनी ने एक लोहे को जंघा लगा दो इनपर यह विश्पला पुनः पूर्ववत संग्राम करने लगी ।" मुल मन्त्र में भी राजा खेल के संग्राम का ही कथन है। इस प्रकार अनेक मन्त्रों में देवों का रूप में वर्णन किया है | अतः सिद्ध है कि यह सुप्रसिद्ध वैध थे। भारत में Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैद्यक विद्याके आविष्का ये ही माने जाते है । नामत्यौं भी इनका नाम है। अधिनौ के सम्बन्धमें निम्न लिखित बातें वेदमें हैं। (१) वृद्ध म्यवन ऋपि को इन्होंने युधा बना दिया था। (२) समुद्र पतित मुज्यु को समुद्र से पार उतारा । (३) पानी में पड़े हुये रेभ को अच्छा किया और उसको बाहर निकाला। (४) एक क्त्तक की घृक से रक्षा की । (५) खाई में पड़े हुये अत्रि को अन्धकार से बाहर निकाला। () वधीमति को हिरण्यहस्त नामक पुत्र प्रदान किया। 6) शग्य की बद्ध गाय को मारने वाली बना दिया। (८) यटु को एक घोड़ा दिया । इत्यादि। ग्रीसमें कैम्टर, और पोलक नामके दो देवता माने जाते हैं। ये दोनों प्रकाश और अन्धकार के देवता हैं। सूर्य ( आदित्य) अथर्ववेद के १३ वे कांड में सूर्य का वर्णन अतीव सुन्दर ढंग से हुआ है. अतः हम यहाँ उसका सारांश देना आवश्यक समझते हैं। क्योंकि उससे सूर्य देवता विषयक बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। इस कांड के प्रथम मूक्त में रोहिन नाम से सूर्य का कथन है। वहां लिखा है कि—(१) रोहित ने ग्राची भूमि को उत्पन्न क्रिया तथा परमेष्ठी ने तन्तु को विस्तत किया। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (रोहितो था पृथिवीजजान, तत्र तन्तुं परमेष्ठी ततान॥६॥) (२) रोहित (उदय होते हुये सूय) से देवता. सृष्टि की रचना करत है। (तस्माद् देवा अधि सृष्टीः सृजन्ते ।। २५॥) (३) सूर्य के सात हजार जन्मों का वर्णन करता हूं। (४) सूर्य, अन्तरिक्ष में रहते हुए भी यहाँ के पदार्थों को जानते हैं। (५) देवता पूर्वकाल में इसको ब्रह्म जानते हैं। पुरा ब्रह्म देवा अमी विदुः ॥ (६) वह सब ओर मुख वाला. और सब ओर हाथों वाला प हथेलियों वाला है। यह अपनी दोनों भुजाओं से इकठ्ठा करता है, पंखों से बटोरता है । उसी एक सूर्य देवने द्यावापृथिवी को उत्पन्न किया है। (द्यावा पृथिवीं जनयन देव एकः ।। २ । २६) (७) यह जगन का आत्मा है, मित्र, वरुण, अग्नि आदि देवों का चक्षु है। (सूर्य प्रारमा जगतस्तस्थुषश्च ।। २ । ३६ ।।) ( चबुर्मित्रस्य वरुणस्याम्नेः ।। ।।-II) (८) सूर्य सर्व व्यापक और सबका द्रष्टा व ज्ञाता है।।५।। (6) सूर्य से सब प्राणी जीते हैं वही सबको मारता है। (मारयति प्राणयति यस्मात् प्राणन्ति भुवनानि विश्वाः || ३ | ४॥) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जिसमें प्रजापति विराट परभेष्टी अग्नि, वानर, आदि सब देवता पंक्ति. सहित विराजते हैं। (यस्मिन् विगह परमेष्ठो प्रजापति रनिश्वानरः सह पंन्याथिलः ।। 1 9 1 ) (११) वह वरुण है. वही सायंकाल अग्नि हो जाता है, वह प्रातःकाल मित्र होता है. वही सविता होता है, वही मध्यान के समय इन्द्र होता है। ( स बरुणः सायमग्निर्भवति, समित्रो भवति प्रातरूयन ॥३ । १३ ।।) वहीं पाता. विधाता, अर्यमा. वरुण, रुद्र तथा महादेव है। स धाता विधर्ता स वायुर्नभ उच्छुिनम् । सोऽयमा स वरुणः स रुद्रः समहादेवः । सोऽग्नि से उ सूर्य स उ एव महायमः । ४ । ३-५ (१२) उसी से ऋचायें श्रादि लोक लोकान्तर श्रादि सब उत्पन्न हुये हैं। (५३) वह दो, नीन. चार आदि नहीं होता. यह एक ही हैं । (म एप एक एक वृद्धक एवं ॥ ४॥ २०-) सूर्य पूजा का प्रचार सूर्योपासना का आज कोई विशेष सम्प्रदाय नहीं है तो भी सूर्य की पूजा में लोगों का भारी विश्वास पाया जाता है। रोग दुःश्व नाश के लिये भाषाके 'सूर्यपुराण के पाठ करने वाले अनेक दृष्टिगत होते हैं और कुछ ब्राह्मण पंडित दोपहर में गायत्री पाटके Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ सूर्य को जलांजलि दे बंदना करने मिलन हैं। सूर्य का प्रत भी रवाना जाता है और छठ-बत भी सूर्य की ही एक पूजा है. क्योंकि सूर्योदय और सूर्यास्त के विम्बों को अध्य प्रदान करना उस प्रन की विशेषता है । अानन्दगिरि ने दिवाकर नामक एक मोपासक के साथ दलिग में मनाएन शान पर शंकर के Thilp. शास्त्रार्थ का वर्णन किया है । इसमें शंकर के समय में सूर्योपासना का प्रचलन सिद्ध होता है । वैदिक ग्रन्थों में भी सूर्यपूजा के बाधु. निक रूप से मिलते जुलते वर्णन मिलते हैं 1 कौपीत की ब्राह्मणा पनिषद् में आदित्य ब्रह्म की उपासनाके अलावा दीर्घायु सम्पादक :: सूर्य की पूजा का वर्णन है। तैत्तिरीय अारण्यक में मंत्र के साथ सूर्य को जल देने और "अमौ आदित्यो ब्रह्म' कहते उपासक के शिर के चतुर्दक जल फेंकने का विधान है। आश्वलायन गृह्मसूत्र में भार में चक्का निकल श्राने तक और सांझ का चक्का डूब कर तारे चमक उठने वक गायत्री मन्त्रोच्चारण करना लिखा है, और पनयन संस्कार के समय ब्रह्मधर्म लक्षण संयुक्त होने पर बालक को सूर्य की ओर देखने का विधान है। खदिर गृह्यसूत्र में लिखा है कि धन और की त के लिये सूर्य की पूजा की जाय । फिर ईसा की ७ वीं शताब्दी मक प्रयाग से सीलान तक के भिन्न - स्थानों में सूर्योपासना के प्रचारके प्रबल प्रमागा प्राप्त होते हैं जिनके अंधार पर १३ वीं शताब्दी तक मूर्यपूजा का प्रनार स्वीकार करना पड़ता है। .. ईसा के बाद ७ वी शताब्दी में सूर्योपासना को गज धम्म सम्मान प्राप्त होने के प्रमागा मिलन हैं. और इस काग्गा उसके विशेष प्रचार को भी सम्भावना प्रतीत होनी है । इनके तीन मुख्य प्रमाण हैं। पहला प्रमाया है. हर्ष वर्द्धन के पिता प्रभाकर बर्दन घे पूर्वजों का परगादित्यभक्त हाना, जो सोनपाट की कुछ ताम्रमुद्रा, " ".. ""' :- - . . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशवरा और मधुवन के लेख से सिद्ध है । दूसरा प्रमाण है स्वयं हर्ष वर्द्धन द्वारा प्रयागोत्सव के अवसर पर दूसरे ही दिन अपने कुलदेव सूर्यकी मूसिंका पूजा-सम्पादन, जो ऐतिहासिकों द्वारा स्वीकृत है। तीसरा प्रमाण है प्रसिद्ध संस्कृत कवि मयूर द्वारः सूर्यशतक की रचना, जिसमें सूर्यकी महती महिमा का वर्णन है और जिसकी रचना का मुख्य प्रयोजन तत्कालीन सूर्योपासनाकी विशेषता को सुरक्षित करना प्रतीत होता है। सूर्योपासना में महान विश्वास का प्रमाण इस किम्बदन्ती में मिलता है कि सूर्य शतक के छठे श्लोक शीघ्राङ्घ्रिपाणीबरिणभिरपधनैर्घधराव्यक्तघायान'. . . . . 'के समाप्त करते हो सूर्य ने साक्षान् होकर श्वेत चर्म रोग-मस्त मयूर को वर मागने को कहा, सूर्य-माहात्म्य की धारणा का भी परिचय सूर्यशतक में की गई सूर्य प्रशंसासे प्राप्त होता है । मयुर ने अपनी स्तुतियों में सूर्य की तुलना शिव, विष्णु और ब्रह्मा से की है और दिखलाया है कि संसार-कल्याण में जितना स्त्रकाय में कृतपरिकर भगवान भास्कर हैं. उतना शिष विष्णु, अनादि में कोई भी नहीं । आगे सूर्य का वेद त्रितयमयत्व, सर्वव्यापकत्व ब्रह्मा-शंकर-विष्णु-कुबेर-अमि से समत्व और सर्वाकारो परत्य का वर्णन किया गया है । सूर्यशतक के ऐसे प्रभावात्मक वर्णन का स्वाध्याय १६ वीं शताब्दी तक सूर्य-पूजकों द्वारा किया जाता रहा और प्रमाण मिलता है कि मयूर के सूयशलक के ही नाम पर चार और सूर्य शतक पीछे के कवियों वागा लिन गए । उनमें राघवेन्द्र सरस्वती, गोपाल. शर्मा और श्रीश्वर विद्यालंकारने संस्कृत में रचना की, पर दक्षिण निवासी के. पार, लच्छन ने तेलुगु में सूर्य स्तुति की । निश्चय ही यह ७ वी सदीकी सूर्य-पूजा-प्रेम का प्रभाव था जो वर्षों बाद तक बना रहा जिसके प्रमाण ग्रन्थ शिलालेख व मूर्तियों में संरक्षित है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीं शताब्दी में भी सूर्योपासना का पर्याप्त प्रभाव था. क्योंकि वैविक मर्यादा की रक्षा की रक्षा को प्रस्तुत भवभूति को भी अपने मालवीय माधव नाटक में सूत्रधार से उदित-भूयिष्ट एव भावान शेष भुवन द्वीप दीपः तदुपतिष्ठते' कहलाते बिहनशान्त्यर्थ उदित सूर्य की स्तुति कराने की अभिरुचि हुई पश्चान ५०२७ ई० तक के भिन्न स्थानों में प्राप्त शिलालेख तथा ताम्रपत्र भी उन र स्थानों में सूर्योपासना का प्रचार प्रमाणित करते हैं। १२ वीं और १३ वीं शताब्दी की सुय मूर्तियों से भी तत्कालीन प्रचार का प्रमाण मिलता है और ऐसी मूर्तियों में राज महल. संथाल परगना व बंगाली सूर्य प्रतिमाएँ. कोनारकके सूर्य मंदिर का सूर्य रथ और सिलोन के पोलोग्नारुवा को सूर्य मूर्तियां अपना विशेष महत्व रखती हैं। इन बिग्वरी सामग्रियों से भारत भर में तथा सिलान में भी सूर्योपासना के प्रचलन का पक्का प्रमाण मिलता है। और बोध होता है कि पुरातनकालसे १३ वीं शताब्दी तक सूर्य की पूजा भारत में जारी रही और इसका भी प्राधार वैदिक विचार ही रहे। १३ वीं शताब्दी से भक्तिवाद का प्रवाह प्रवल बेग से भारत के प्रत्येक भाग की ओर प्रवाहित हुया और उसके प्रभाव से कालान्तर में शैवमत व तांत्रिक कृत्यों की भांति सूर्योपासना की ज्योति भी मन्द प्रभ हो गई। ___ भरतार कर महोदय ने बराहमिहिर, भविष्यपुराण और गयाजिलान्तर्गत गोविन्दपुर के ११३७-६८ ई. के एक शिलालेम्ब के आधार पर भारतीय सूर्योपासना को वाह्य प्रभाव से ग्रस्त होने की धारणा प्रतिपादित की है, लेकिन शाकद्विपीमगी पार्मियों के मिहिर और मूर्तियों के घुटने तक की पोशाक द्वारा बाह्य प्रभावका समथन नहीं किया जा सकता. क्योंकि मांगों का इतिहास निश्चितरूप में ज्ञात नहीं पासियों का मिहिर वैदिक मित्र का ही Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { रूपान्तर है और मूर्तियों के घुटने तक पोशाक से ढके रहने का चित्रण उत्तर भारत की स्वतन्त्र कल्पना भी हो सकती है । पुनः संहिता - काल में ही सूर्य स्तुतिका जैसा प्रबल भाव श्रार्य में विद्य मान था वह कदापि सहज में विस्तृत नहीं किया जा सकता 1 ऋग्वेद में सूर्यकी अनेक स्तुतियाँ मिलती हैं । • धावा पृथिवी अंतरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च'. द्वारा सूर्य चराचर की आत्मा भी समझा गया है और सूर्य के उदय व अस्तक की भावनाओं की पृथक् व स्तुतियाँ ऋग्वेद में मौजूद हैं। उपा, सविता, आदित्य, मित्र anty. मार्चएंड और विष्णुका सम्बन्ध सूर्य से कुछ कम नहीं रहा और न सूर्य द्वारा पापमोचन के भाव का अभाव संहिता - काल में था। कुछ मन्त्रों में उपासकों की स्पष्ट स्तुति हैं कि नवोदित सूर्य उन्हें मित्र वरुणादि पर निष्पाप प्रकट करें। ऋग्वेद में ऐसी भी अनेक ऋचाएं मिलती हैं, जिनसे सूर्य के जगतात्मा सर्वद्रष्टा निष्पक्ष द्रष्टा व विश्वरूप होने के दृढ भावों के समाज में विद्यमान होने का बोध होता है। वैसी धारणाएं उपनिषद् काल तक प्रचलित रहीं. क्योंकि छान्दोग्य ने सूर्य को लोकद्वार माना है और कठ ने उसके सम्बन्ध में कहा है कि-"सूर्यो यथा सर्व लोकस्य चतुर्न लिप्यते चानुषैर्वाश्च दोषैः । " जैमिनीय ब्राह्मणोपनिषद् का कथन है कि सूर्य द्वारा ही कोई भयपाश-रहित होता है, जिसके बाद पंचविंश ब्राह्मण के अनुकूल सुदूरस्थ स्थान को देवयान- पथ द्वारा प्राप्त होता है। और तब छान्दोग्यानुकूल वह अमानव पुरुषरूप मुड़क के 'प्रोामनाः शुभः के लोक को प्राप्त होता है । गौतम बुद्ध के समय में भी सूर्य की ऐसी ही प्रधानता बनी रही जिसका सादृश्य गौतम के व्यक्तित्व तथा उपदेश में भी घटित करने का प्रयास उनके धनु Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यायियों द्वारा किया गया । गौतम ने लोक दुःख से रहित होनेका यन किया और वह निष्पक्ष भाव से लोकोपकार को प्रस्तुत हुए । उनने निर्वाण-प्राप्ति की शिक्षा देकर अपने को लोकोद्धार मिद्ध, किया और बांधि-सत्वीक रूपमें अपना विश्वरूप प्रदर्शित किया । इसी कारण उम आदित्य-बंधु बुद्ध की दीघनिकाय' ने 'लोक चक्षु' कहा और लंकावतार सूत्र ने उपमा रची "उदेति भास्करो यद्वत्समहीनोत्तमेजिने" इस सिद्धान्त का समर्थन बुद्धमतानुचर विपुलश्री मित्र के १. वीं शताब्दी के शिलालेन्त्र द्वारा भी होता है । अतः सर्य के विभू चक्षुसमर्थलाभका बांध भारतीय पार्यो का अति प्राचीन काल में हृदयंगत हश्रा और कालान्तर में भी श्राद्य वंशज उसे न भूले । जो मय सम्मान संहिता काल में प्रारम्भ हुआ वह पार्य-वंशजों के ममाज में बराबर बना रहा और सर्योपासकों का बाहुल्य ब्राह्मण उपनिषद् सूत्र नथा बौद्ध मत कालों तक बना रहा । पर्सिया, पशियामाइनर और रोममें भी सूर्योपासमा के प्रचार के प्रमाण मिलने के कारण उन देशों से भारतीयों में श्रादित्य-पूजा भाव के प्रवेश करने का निष्कर्ष उपयुक्त प्रमाणों के रहते कदापि मान्य नहीं हो सकता। सूर्य द्वारा विश्वलाभ की उम सनातन प्रतीति का भक्तिवाद के कुछ छुसि होते देखकर ही १७ वीं शताब्दी में गो स्वामी तुलसीदास ने उसकी रक्षा को ओर कुछ ध्यान दिया और अपने इष्टदेव राम को पद पद पर भानुकुल भूषण कह कर भानुकुल और विष्णु के ऐक्य की रक्षा की। क - श्री 4 गमावतार शर्मा द्वारा लिग्वि भारतीय ईश्वरवाद' से उद्धृत । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) देव अथवा देवता जिनको उद्देश्य करके द्रव्याहुति दी जाती है ये देव हैं। देव कहिये देवता कहिये है एक ही बात | मुख्य देवता तीन हैं. अभि. वायु और सूर्य । शेष सत्र देवता इन्हीं के अंग प्रत्यक्ष हैं । तेतीस देवता ऐतरेय ब्राह्मणकार तेतीस देवताओं को मानते हैं वह इस प्रकार -आठ वसु एकादशन्द्र, द्वादश आदित्य, प्रजापति और कार-तास तभी दो गए हैं १ - सोमप देवता २-सांमप देवता । पूर्वोक्त आठ वसु आदि सौमप देवता हैं। एकादश प्रयाज, एकादश अनुयाज एकादश उपयाज ये तेतीस सोम देवता है । सोमप- परिचय बसु - (८) आदित्य रश्मियाँ आदि ( निरुक्त ) अथवा पार्थिवामि वैशुता और सूर्यामि और इनके अवान्तर भे मिलाकर आठ श्रभिये । तैत्तिरीयारण्यक में पार्थियाभि के ही आठ भेद माने गये हैं । शतपथ १- अभि. २- पृथिवी. ३- वायु, ४- अन्तरिक्ष. ५ - श्रादित्य, ६-यौ ७- चन्द्रमा ८-नक्षत्र इनको बसु मानता है। इन्हीं के आधार से प्राणि मात्र जीवन व्यतीत करते हैं.. रुद्र - (११) वायु विशेष प्राण, अपान, व्यान, समान. उदान. देवदत्त, कुकल, नाग. कर्म. धनञ्जय ये दश प्राण और श्रात्मा । (शतपथ ) जब ये शरीर से निकलते हैं तब प्राणी मात्र Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपटाने लगता है। प्राण वियोग से अर्थात मृत्यु से इष्ट मित्र सम्बन्धी आक्रोश करने लगते हैं, इसलिये इनका नाम रुद्र है, जो रसाते हैं-कोई प्रान्तरिक्षस्थ घायु विशेष के ही भेद मानते हैं (तैत्तरीयारण्यक) आदित्य-(५२) सूर्य विशेष-दिन के प्रति घंटेका एक एक इस प्रकार बारह श्रादित्य, अधवा बारह मासके बारह सूर्य । (निरुक्त शतपथ)-वे बारह श्रादित्य ये है ५-सविता. २-भग ३-सूर्य. ४--पूषा. ५-विष्णु. ६-विश्वानर, वरुण'. ८-केशी. ह-वृषाकपायी, १०-यम, ११-अजएकपाद् . १८-समुद्र। कहीं पाठ आदिस्य का भी उल्लेख है। 'इमागिर: (20----) में सास आदित्यों दिये गये हैं और सप्तभिः पुत्र (ऋ. १.--) में मानगड नामक आदित्य पाया है। प्रजापति--परमेश्रर (निरुक्त) कहीं संवत्सर' को भी प्रजापति कहा गया है। सूर्य (तिरेय ) अमि ( तैत्तरीय ) कहीं रूप. मान, मन और यज्ञको संघरमर बतलाया है । मीमांसाकार 'शवर' वायु अाफाश आदित्य इन तीनों को संवत्सर मानते हैं । वषट्कार-वौषट् का नाम षषटकार है.-जिस देवताक लिये हवि दी जाती है उस देवता का मन से ध्यान करना ही वषट्कार है (निरुक्त) क्योंकि उसके प्रसन्न होने से सब अभिवांछित फल मिलने हैं (ऐतरेय) शतपथ में यषटकार नहीं है-वहां इन्द्र' को माना है.--कहीं द्यौ और पृथ्वी को माना है। असोमपा, परिचय त्तिरीयारण्यक में निम्नलिखित तेनीसों को असोमप माना है--समिधः, २ जनुनपान अथवा नराशंसः ३-याई Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Home -उपासानक्ता ५-देव्या हातारी ई-सिम्यादच्या त्वष्टा वनस्पति 6-स्वाहा कृनयः-- प्रशानयाग के प्रारम्भ में जो ग्यारह पाहुतियाँ दी जाती हैं. उसका नाम प्रयाजयाग है । जिनसे देव प्रसन्न होते हैं इसी लिये इनका नाम पानीः हैं-बारह मन्त्र हैं और बारह ही प्रधान देवता-१-इध्म ( समिधाएँ )२-तनूनपात (आय) ३-मराशंस (यज्ञ) ४-इन्छ (यज्ञि श्रानि)-वत (कुश) ६-द्वार (गृहातार श्रादि) ४-पुषासानक्ता (अहोरात्र) ८-दत्यौहोनारी (पार्थिव और चैद्युत अग्नि) 6-तिस्रो देश्यः (इदा भारती सरस्वती) १ -त्वष्टा (रूपकृदुवायु) ११-बनस्पति (यूप:- यज्ञ के ग् ट) १:-स्वाहाकृति (स्थाहाकार)--यद्यपि .. और ये 5 ( है सपि मापा और नराशंसको एक मान कर ग्यारह ही होंगे। प्रधानयाग के पश्चात जो ग्यारह आहुनियाँ दी जाती हैं. हैं. अनुयाजयाग-वतः, द्वारः उपासानता. जोष्टी. मडगौहोतारी, तिश्नांदेव्यः नसशसः वनस्पनिः धाई स्विकृत--- इनमें बह शब्द दा बार आया है-इमलिया उसके मां विशेष भद मानने चाहिये उपग्राज देवता ये हैं-समुद्र, अन्तरिक्ष सविना अहोरात्र मित्रा बरुण सोम. छन्द दावापृथिवी. दिध्यनभ, धैश्वानर---ऋग्वेद में प्रधान नीन ही देवनाएं हैं. अग्न. वायु, अनित्य । पृथिव्यादि. गौण देवता हैं और इध्मादि पारिभाषिक देवना है। ( ऋग्वेना लोचन से) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ( X ) कर्मदेव और जान देष dear के sura Deार से भी दो भेद किये गये हैं। यथा(१) कर्मदेवा. - कर्मणोत्कृष्टेन देवस्वं प्राः कर्म देवाः । अर्थात मे आदि शुभ कर्मों से जिन्होंने tava (देवयोनि) को प्राप्त किया है वे कर्म देव हैं। (२) आजानदेवाः सूर्यादय आजावदेवाः | - ( आचार्य महीधर ) यजुर्वेद ३१ मन्त्र १७ के भाग्य में महांघर ने सूर्य आदि को व्याजानदेव माना है। इसमें कम देवों से जान देव श्रेष्ठ माने गये हैं । तै ३०२ । ८ 1 ये शर्त देवानामानन्दाः स एको देवाना मानन्दाः । नया यहां 'आजानजः' देव भी माने गये हैं, जिसका अर्थ श्री शंकराचार्यजी ने ( " आजान इति देव लोकस्तस्मिन् जाजाने जाता थाजाना देवा: स्मार्तकर्मविशेषतो देवस्थानेषु जाताः । कर्म देवा, में वैदिकेन कर्मणाम होवादिना केवलेन देवानपि यन्ति । देवा इति त्रयस्त्रिंशद् इविर्भुजा इन्द्रस्तेषां स्वामी तस्यस्वार्थी वृहस्पतिः (" ) जान नाम के देवलोक में उत्पन्न होने वाले किया है। येस्मा कर्म से देव हैं तथा वैट दि के द्वारा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - - - कर्म देव बनते हैं। इसलिये श्राजानज' देव कम देवों में निकृष्ट हैं. तथा कम देवों से सूर्य आदि देव श्रेष्ठ हैं। इन सूर्य आदि ३३ देवों का स्वामी इन्द्रदेव है. तथा इसका प्राचार्य बृहस्पति है। अभिप्राय यह है कि एक तो कर्म देवता हैं जिनको देवयोनि कहते हैं. उनके दो भेद है एक स्मातकोत्पन्न और दूसरे श्रोतकोत्पन्न । नथा अन्यदेव सूर्य आदि ३३ देव हैं जिनकी स्तुनि श्रादि वेदों में की गई है। "साध्यदेव” इनसे पृथक साध्यदेव होते हैं। अर्थात् जो देव बनने के लिये प्रयत्न करते हैं वे योगी आदि साध्यदेव कहलाते हैं। यजुर्वेद अ० ३१ । १६ के भाष्य में प्राचार्य उवह ने लिखा है कि एवं योगिनोऽपि दीपनाद् देवाः, योन समाधिना नारायणाख्यं झानरूपम् भयजन्त । तथा च प्राणाचे साध्यादेवास्त एतं (प्रजापति) अन एवमसाधयन् ॥ श०१०।२।२।३ इस प्रकार साध्य देव का अर्थ योगिनः किया है। श्रथया प्रारस का नाम साध्य देव है, क्योंकि उन्होंने प्रजापति को सिद्ध किया था। अर्थात् प्राणायाम श्रादि तप के द्वारा प्रजापति पर प्राप्त होता है। तथा च निरुतकार कहते हैं कि "साध्या देवाः । साधनात् । युस्थानोदेवगण इति नरुक्ताः । पूर्व देवयुगम् इति पाख्यानम् । अर्थात् साधनासे माध्यदेव हैं । एवं शुस्थानीय देवगण साथ्य Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) देव हैं, यह रुकों का मत है । और ऐतिहासिक कहते हैं कि ये प्रथम युग के देवता हैं । तथा रश्मी के नामों में भी " साध्याः " नाम रश्मियों का है। अतः रश्मी प्राण श्रादि का नाम भी साध्य देव है । सर्वाशुकमणी में महर्षि कात्यायन ने लिखा है कि - एकै महानात्मा देवता, स सूर्य - इत्याचक्षते, सहि सर्व भूतात्मा । तदुक्तम् ऋषिखा सूर्यात्मा जगतस्तस्थुषचेति । सद् विभूतयो अन्याः देवताः तदप्येतद् ऋचोकम् 1 इन्द्रं मित्रं वरुणमनिमाहुरिति ॥ २० ॥ - अर्थात् एक ही महानात्मा देवता है, वह सूर्य है, यही ऋषि ने कहा है कि इन सबका सूर्य ही आत्मा है। अन्य सब देव इस सूर्यकी ही विभूतियाँ हैं, जैसा कि वेद ने कहा है। अग्निमित्र. व आदि अमि को ही कहते हैं । तथा च ऐतरेयोपनिषद भाष्य में श्रीशंकराचार्यजी लिखते है कि"यथा कर्म संबन्धिनः पुरुषस्य सूर्यात्मनः स्थावर जंगपादि सर्वप्राययात्मत्वमुक्तं ब्राह्मणेन मन्त्रेण च (सूर्यात्मा, ऋ० १ । ११५ । १ ) इत्यादिना तथैव एष ब्रह्मेष इन्द्रः (३ । १ । ३ ) इत्याद्युपक्रम्य सर्व प्राण्यात्मत्वम्, 'बच्चस्थावरं सर्वं सत्प्रज्ञा नेत्रम् (३|१|३) इत्युष से हरिष्यति" अर्थ-जिस प्रकार ब्राह्म ग्रन्थ और मन्त्र में. (सूर्यात्मा के आत्मभाव को प्राप्त हुए जगतस्तस्थुषा ) इस वाक्य द्वारा ( सूर्य मंडलान्त वर्ती) कर्म सम्बन्धी पुरुष को स्थावर जंगमा सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा बतलाया है. उसी प्रकार श्रुति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) 'एष ब्रह्मे इन्द्र:' इत्यादि मन्त्रों से सर्व प्राणियों के आत्म स्वरूपत्य का उपक्रम कर उसका 'अच्च स्थावरम् इत्यादि मात्र द्वारा उपस ंहार करेगी ।" आपने भी यहां सूर्य का अर्थ ईश्वर नहीं किया है, अपितु मंडलास्थित जीव किया है। तथा च 'नीति मंजरी' में भी सर्वातु क्रमण का ( एकैव महानात्मा देवता ) या लिख कर लिखा है कि "कीदृशं तू अत्र मोचितम् । सूर्य पूर्व स्वर्भानुना असुरेश यत्रस्त व्यासीत् तमन्ये ऋषयः मोषयितु ं न शकाः ततोऽत्रिभिचिताः । तथा ब्राह्मणे, स्वर्भानु-ई आसुर आदियं तममा विध्यत् अस्मिन्नर्थे ऋक् (५४०५ ) यच्च सूर्यtana earer farदासुरः ॥" अर्थात- "एक ही महानात्मा देवता है, जिसको सूर्य कहते हैं। अन्य सब देवता उसकी विभूतियां हैं। कैसा है, यह सूर्य, त्रिविमोचित है। अर्थात् असुरों ने इसको अंधकार से अच्छादिस कर लिया था तब अत्रि वंशियों ने इसको मुक्त किया था यही ब्राह्मण में लिखा है तथा यही ऋग्वेद में है।" यहां ब्राह्म तथा वैदिक प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दिया गया है कि यहां सूर्यका अर्थ यह प्रत्यक्ष जब सूर्य ही है. ईश्वर नहीं । राशियां और सूर्य वेदांग ज्योतिष में २७ राशियों के ( जिनमें उत्तर कान्ति वृत्तविभक्त है ) २७ नक्षत्र देवताओं अथवा अfire देवों का affa हैं। ये सत्ताइसों देवता सूर्य के २७ विभिन्न नक्षत्रों में पहुंचने पर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . A ( ४५ ) पड़ने वाले नाम हैं । तैत्तिरीया हर एक देवता को एक खास नक्षत्र के साथ जोड़ता हैं । उदाहरण के लिये जब रुद्र का वर्णन हो तो समझना चाहिये कि वह आर्द्रा का सूर्य है । जब कि बादल उमड़ते हैं, बिजली कड़कती है और मूसलाधार मेह बरसता है। इसी प्रकार जब पूषा का वर्णन हो तो समझना चाहिये कि यह रेवती नक्षत्र का सूर्य है। इस अति इविषा नक्षत्र का सूर्य है। सोम, मृगशिर का अदिति, पुनर्वसु का । बृहस्पति, पुष्याका सर्प श्लेषों का पितर मघाका भग पूर्व फालगुनी का । अर्यमा, उत्तर फालगुनीका । सविता, हस्ता का । त्वष्टा चित्राका । चायु, स्वाती का इन्द्राग्नि, विशाखाका । मित्र, अनुराधा का । इन्द्र ठाका । निर्ऋति, मूलाका । श्रपः पूर्वाषाढ़ का | विश्वे देवा. उत्तराषाका विष्णु श्रशाका | वसुगण घनिष्ठा का | शतभिमका अजरकपाद, पूर्व भाद्रपदाका । श्रहिबुन, उत्तर भाद्रपदाका । अश्वी अश्वनीका यम भरीका | राय बहादुर, दिनेश चन्द्र सेन, डी० लिट I I पुरातत्वविद की सम्मति आय के प्राचीन आकाश का देवता ' श्रीकोंके 'जियास' और रोमनों के freeर' अथवा 'जुपिटर' और जर्मनों के 'सिंह' एक ही देवता हैं। हिन्दू आर्यों के 'ब' और ग्रीकों के 'हरास' एक ही है। इसी प्रकार भिन्न पर बहुतेरे देवताओं के नामों में समानता भाषाओं को टूटने मिलेगी ।" वैदिक भारत १०५ “जल वायु अग्मि, और पृथ्वी आदि नैसर्गिक शक्तियों के उपासक कुछ ऋषि लोग अपने देवताओं को महत्व देना चाहते Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ". थे । उनमें से कोई कहता कि जल ही सर्व श्रेष्ठ है, कोई कहता अग्नि ही सर्व श्रेष्ठ है. और कोई पृथ्वी को ही सर्व प्रष्ट कहता था।"पृ. ५५ "ईसा के जन्म से पन्द्रहसौ वर्ष पहले का एक ताम्र पत्र पाया गया है, जिसमें लिखा है कि यूफोटिश नदी के किनारे मिटान्नि नामक जाति के राजा गण, वैदिक. वरुण, मित्र और इन्द्र आदि देवताओं की पूजा करते थे। इस देश के राजाओं के नाम भी भारतीय थे-उनमें एक राजा का नाम था 'दसरथ' । पृ०६६ बैदिकदेवता वेदमें जिन देवताओं की स्तुति की गई है और यज्ञों में जिनके लिये हवि की जाती है. वे इस विश्व की दिव्य शक्तियां है. जो एक जीती जागती सत्ता के रूप में वर्णन की गई है। उनका वर्णन अनेक देवताओं के रूप में है और एक देवता के रूप में भी है। ऐसी परिस्थिति में एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे देवसा क्या हैं ? अग्नि जहां एक ओर अपने दृश्य मान रूप में अरणियों से उत्पन्न होने वाला, सूर्य की तरह चमकने वाला, और धुएं के झड़े वाला (धूमकेतु) बतलाया है। वहां दूसरी ओर विद्वान, सर्वज्ञ जो उत्पन्न हुआ है उस सबके जानने वाला ( जातिवेदस ) कर्मों के जाननेवाला और फल दाता वर्णन किया गया है। यह जो कुछ वर्णन किया गया है उससे न तो उसका दृश्यमान रूप त्यागा जा सकता है, और न ही उसकी वह सर्वज्ञता और फलदात्रिता त्यागी जा सकती है, जिसने उसको मनुष्य की दृष्टि में देवता का रूप दिया है। इन दोनों बातों को दृष्टि में रख कर स्वामी शंकराचार्य यह सिद्धान्त बनाने हैं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) श्री शंकराचार्य का सिद्धान्त 3 "परमेश्वर की सृष्टि में देहधारी जीवों की सृष्टि नाना प्रकार की है। इस भूलोक में ही शैवाल तृण घास लता, गुल्म, वृक्ष, वनस्पति आदि नाना प्रकार के स्थावर और कमि. कीट पतंग. पशु, पक्षी आदि नाना प्रकार के जंगम हैं। ये सारे जीव विशेषहैं। मनुष्य इन सबसे ऊंची श्र ेणी का जांव है। पर परमात्मा की सृष्टि यहीं तक समाप्त नहीं हैं। मनुष्य से कई दर्जी में ऊंचा पद रखने वाले जीव भी उसकी में विद्यमान हैं, जो मनुष्यों की नाई वेतन हैं। वे अपनी शक्ति और ज्ञान में इतने ऊंचे पहुंचे हुए हैं कि मनुष्य की शक्ति और ज्ञान उनके सामने तुच्छ है । इस अनेक प्रकार की सृष्टि में सबसे ऊंचा स्थान देवताओं का है। देवता चेतन हैं, मनुष्यों से ऊपर और परमेश्वर से नीचे हैं। परमेश्वर की ओर से उनको भिन्न र अधिकार मिले हुए हैं, जिनका ये पालन करते हैं। देवता अजर और अमर हैं, पर उनका अजर अमर होना मनुष्यों की अपेक्षा से है. वस्तुतः उनकी भी अपनी आयु नियत है। ब्रह्माण्ड की दिव्य शक्तियों में से एक एक शक्ति पर एक एक देवता का अधिकार है। और जिस शक्तिपर जिसका अधिकार है वही उसका देह है जो उसके वश में हैं। जैसे हमारे देह में एक जीबात्मा है जो इस देह का अधिपति है इसी प्रकार उस शक्ति के अन्दर भी एक जीवात्मा है जो उसका अधिपति है । जैसे हमारे आधीन यह देह है, वैसे ही एक देवता के आधीन सूर्य रूपी देह है। हम एक थोड़ी सी शक्ति वाले देह के स्वामी हैं, वह एक बड़ी शक्ति वाले देह के स्वामी हैं । वह अध्यात्म शक्तियों में इतना बड़ा हुआ है कि अपनी इच्छा के अनुसार जैसा चाहे वैसा रूप धारण कर जहां चाहे वहां जा सकता है। यह देव सूर्य का अधिष्ठाता कहलाता है. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मूर्य के ही नाम से बुलाया जाता है। इसी प्रकार अग्नि और वायु के अधिष्ठाता देवता हैं। देवताओं का श्वयं बहुत बड़ा है २ मार पोखर है धन है । गक पर नेता एक एक दिव्य शक्ति का नियन्ता है. पर उन सब के ऊपर उन सब का नियन्ता परमेश्वर है. इसलिये सभी देवता मिल कर जगत का प्रबन्ध इस प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार राजा के श्राधीन उसके भृत्य उसके राज्य का प्रबन्ध करते हैं। देवताओं की उपासनाओं से उन कामनाओं की सिद्धि होती है जिसके थे मालिक होते हैं। पर मुक्ति नहीं। मुक्ति केनल ब्रह्म ज्ञान से प्राप्त होती है । देवता स्वयं भो ब्राह्म को साक्षात करने से ही मुक्त होते हैं। ब्रह्म को साक्षात करके भी वे तब तक दिव्य शरीर को धारणा किये रहते हैं जब तक उनका यह अधिकार समाप्त नहीं हो लेता । जिस अधिकार पर उनको परमेश्वर ने लगाया है। अधिकार की समाप्ति पर वे मुक्त हो जाते हैं। और उनकी जगह दूसरे श्रा ग्रहण करते हैं जो मनुष्यों में से ही उपासना द्वारा उस पदवीं के योग्य बन गये हैं। देवताओं के ऐश्वर्य के दर्जे हैं और सबसे ऊंचा दर्जा अमाका है ।" (पंराजारामजी कृत अथर्ववेदभाष्य भूमिकामे) समीक्षा, श्री शंकराचार्य के मत में ईश्वर भी विकारी है उसको भी जीव विशेषहीं कह सकते हैं! अथवा एक देवता विशेष। अतः उनके मत में परमेश्वर के अर्थ वर्तमान ईश्वर के नहीं हैं क्योंकि ईश्वर का खण्डन सो उन्होंने स्वय' ही वेदान्त भाष्य में बड़ी प्रश्नल युक्तियों से किया है. पाठक वृन्द वेदान्त भाग्य का दूसरा अध्याय देखें। इस पुस्तक में भी वेदान्तदर्शन प्रकरण' में विस्तार पूर्वक लिखेंगे। अतः यहां ईश्वर का अर्थ अन्य समाज का वर्तमान ईश्वर नहीं है । तथा च ग्रह वैदिक वांगमय के भी विरुद्ध है। क्योंकि वैदिक साहित्य में कहीं भी ऐसा लाव नहीं है. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि परमेश्वर ने इन देवताओंको नियुक्त किया है। तथा न ही यहां . ऐसा कोई प्रमाण उपस्थित किया गया है। अतः यह मान्यता अवैदिक है । तथा इस मान्यता से ईश्वर का ईश्वरत्व ही नष्ट हो गया, क्योंकि कार्य संचालन के लिये वह देवताओंके प्राधीन है, जैसे राजा आदि अपने भृत्यों के अधीन हैं । * पं० राजाराम जी का निजमत वेद में परमात्मा के वर्णन का प्रकार "वेद दो प्रकार से परमात्मा का वर्णन करता है । एक बाहर के सम्बन्धों से अलग हुए उसके केवल स्वरूप का. दूसरा शाहरके जगत से सम्बन्ध रखते हुए का। यह बात इस तरह समझनी चाहिये कि जैसे कोई पूछे कि आत्मा क्या है, तो हम उसर देते हैं कि जो आँख से देखता है, कान से सुनता है. और मन से सोचता है बह आत्मा है। अब यदि यह पूछे कि आँख, कान, मन से जो देखता सुनता और सोचता है यह स्वयं क्या है ? तक इसके उत्तर में जो कहा जायगा वह बाहर के सम्बन्धों से रहित बारमा के केवल स्वरूप का वर्णन होगा और जो पहला वर्णन छुपा हूँ, यह शरीर से सम्बन्ध रखते हुए आत्मा का है। इसी प्रकार कोई पूछे कि परमात्मा क्या है ? तो हम उत्तर देते हैं कि जो इस जगत को रचसा, पालता और प्रलय करता है वह परमात्मा है । अब यदि वह फिर पूछे कि जो इस जगत को रचता, पालता, प्रलय करता है वह स्वयं क्या है ? इसके उत्तरमें जो कहा जायगा वह बाहर के सम्बन्धों से अलग हुए उसके फेवल स्वरूप का वर्णन होगा और जो पहला वर्णन हुश्रा है, वह * नोट—यहां प्रकर- देवताका है, अतः श्री शंकराचार्य मतमें, इन्द्र श्रादि देवता, ईश्वर नहीं है, अपितु वह मनुष्यास ऊपर और ईश्वर से नीचे एक जाति विशेष है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत से सम्बन्ध रखते हुए का है।, सम्बन्ध सहित को विशिष्ट और सम्बन्ध रहित को शुद्ध कहते हैं। विशिष्ट को शथल और शुद्धको श्याम भी कहा है । तात्पर्य यह है कि यह जगत् उस परमात्माका प्रकाशक है.यह सारा जगत उसी एकका प्रकाशित करता है । पर जिसको यह प्रकाशि: नरसा है या झाले हे है और अदृश्य है । जगत को अलग रख कर उसके निज स्वरूप को देखें तो वह उसके शुद्ध स्वरूप का दर्शन है. और जगत का अन्तर्यामी होकर उस पर शासन करता हुआ देखें तो वह उसके विशिष्टरूप का दर्शन है। शुद्ध ज्ञेय और विशिष्ट उपास्य है । अब उसका शुद्ध स्वरूप तो सचिदानन्द स्वरूप वा नित्य शुद्ध. बुद्ध, मुक्तस्वभाव अथवा नेति नेति (यह नहीं यह नहीं) के सिवाय किसी प्रकारसे वर्णन नहीं होसकता. और अगम्य और अचिन्त्य होनेसे न हमारे जीवन पर उसका कोई प्रभाव पड़ता है, न हम अपनी त्रुटियाँ पूरी करने और अपने को उच्च अवस्थामें लानेके लिये उससे प्रार्थना कर सकते हैं, क्योंकि किसी मानुषी गुरण प्रेम, दयालुता आदि का हम शुद्धके साथ सम्बन्ध नहीं कर सकते, न किसी प्रकारसे उसकी पूजा कर सकते हैं। यह बात याज्ञवल्क्य मे गार्गीको शुद्धका उपदेश करते हुए बतलाई है-- __स हो वाच 'एतद्वै तदचरं गागि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनए घिमलोहितमस्नेहमच्छाय मतमोऽषाबनाकाशमसङ्गमरसम गन्धमचचुष्कभक्षोत्र पवागमनोऽतेजस्कमप्राणप्रमुखममात्रमनन्तर मवाह्यम् । न तदश्नाति किंचन न तदश्नाति कश्चन' (वृह उप० ३८) उसने कहा-हे. गागै! इस अक्षर (ब्रह्म) को ब्राह्मण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) बसलाते हैं, कि न वह मोटा हैं न पतला, न छोटा न लम्बा न उस में लाली (कोई रूप ) है न स्नेह है. बिना छायाके है, बिना के है. बिना वायुके है, बिना रसके हैं, और बिना गन्धके है। थिन आँख for are faन वारसी और बिन मन के हैं। बिन तेज बिन प्राण और बिन मुखके हैं। उसका परिणाम कोई नहीं. न उसका कोई अन्दर है न उसका कोई बाहर हैं। न वह किसी को भांगता है न उसको कोई भोगता है । इसका अभिप्राय यही है कि इस रूप में न हम उसके कुछ अर्पण करते हैं न वह हमारे जीवन पर कोई प्रभाव डालता है या यूं कहो कि इस रूप में वह हमारे ज्ञानका परम लक्ष्य तो हो सकता है, पर उपास्य नहीं उपास्य वह अपने विशिष्ट रूपमें ही है) (विशिष्टरूपमें उसकी अनेक रूपोंमें उपासना ) मनुष्यके हृदय में उसके जिस रूपके लिये भक्ति पूजा और उपासना है वह उसका विशिरूप ही और यह रूप उसका अनेक रूपों में पूजा जाताहै । इन्हीं रूपों को देवता कहते हैं, जो वेद में अमि इन्द्र, वायु. सूर्य मित्र, वरुण, पूषा आदि नामोंसे वर्णन किये हैं। मनुष्य पहले पहले इन अलग अलग विशिष्ट रूपों में उसका चिन्तन कर सकता है, और जब वह उसकी महिमाको अग अलग अनुभव कर चुकता है. तो फिर उसका हृदय एक साथ सारं विश्वमें उसको महिमाका अनुभव करता हुआ उसका ध्यान और पूजन करता है. इस समष्टि रूपको अदिति, प्रजापति, पुरुष, हरिण्यगर्भ आदि नामोंसे बन किया है शिरूपों (देवतारूपों) में परमात्माके जानने की आवश्यकता पहले पहल केवल शुद्ध रूपमें परमात्मा हुज्ञेय है । उसका जानना जगत् ही में सम्भव है, वह भी अनेक विशिष्ट रूपों (देवतारूपी) में। क्योंकि उसकी महिमा जो इस जगत में भी देखी जाती है इतनी बड़ी है, कि समष्टि रूपमें उसका ज्ञान मन की शक्तिसे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) चाहर है। इसलिये अग्नि, वायु, सूर्य, सविता, मित्र, वरुण. नावाप्रथिवी, अश्वि, इन्द्र, गद्र, ब्रह्मणस्पति, वाचस्पति, वास्तोष्पति. क्षेत्रस्यपत्ति इत्यादि परिमित रूपोंमें उसकी महिमा वेदमें कहीं गईहै. और स्तुति नमस्कार और पूजा द्वारा उन सब रूपोंके साथ गहरा सम्बन ना करनेका जाने के साथ सम्बन्ध को आवश्यकता इसलिये भी है कि वे भिन्न भिन्न गुणों वाले हैं और सब मिल कर परमात्मा के गुणों को प्रकट करते हैं. अतएव पूर्णता को प्रात्रि के लिये और प्रत्येक निर्बलता को जीतने के लिये सबके साथ अलग अलग सम्बन्ध स्थापन करने की आवश्यकता है । जैसे शूरवीरता, अभयता और बलको प्राप्ति के लिये इन्द्रके माथ । सृष्टि नियमके अनुकूल अपना आचरण धनाने के लिये और पापोंसे बचने के लिये वरुणके साथ। सम्यगज्ञान ब्रह्मतेज और भक्ति भाव बढ़ानेके लिये अनिके साथ । इसी प्रकार एक एक गुणको अलग अलग पराकाष्ठा तक पहुंचानेके लिये उस शक्तिके अधिपनिके साथ सम्बन्ध स्थापन करनेकी आवश्यकता है। इससे सब प्रकार को त्रुटियाँ दूर होकर सब अंशों में पूर्णता पाती है. और यह सारा विश्व परमात्माकी महमासे भरा हुश्रा अनुभव होने लगता है। तब उसका श्रात्मा स्वतण्य उस स्वरूपको देखना चाहता है जिसकी महिमामे यह सारा विश्व महिमावाला बन रहा है। अब वह पूर्ण अधिकारी है उम शुद्ध स्वरूपको सान्नान करनेका इसलिये श्रव उसको दोनों रूपोंके देखनेमें स्वतन्त्रता होती हैं । श्यामको देखता हुत्रा शवलका देखता है और शक्लका माक्षात् करता हुआ श्यामको साक्षात् करता है। ऐसा साक्षान करते हुए ऋपिने कहा है_श्यामाच्छवलं अपये शलारक्ष्यामं प्रपद्य अश्व एवं रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इच राहोर्मुखान् प्रमुच्यधूत्वा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरमकृतं कृतात्मा ब्रह्मलोकभिसम्म वितास्मात्यांभसम्मवितास्मोति (छान्दो० उप०।१।१३) श्यामसे मैं पहले शवलको प्राप्त होता हूं, और शवलसे श्याम को प्राप्त होता हूं। जैसे घोड़ा रोमांकी झाड़ता है वैसे पापको झाड़ कर चन्द्रकी नाई राहके मुरबसे छूट कर शरीरको झाड़कर कृतार्थ हुना नित्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता हूं। यह बात स्मरण रखना चाहिये कि शवलरूपमें शरीर के अंगोंकी नाई मार देवना प्रजापति के अंग माने जाते हैं इसलिये मोदी को मिलाकर कहनेकी विवक्षा में द्विवचन (शवा पृथिवी. मित्रावरुणा इत्यादि ) और बहुतोंको घ सबको एक साथ कहनेकी विवक्षामें बहुवचन ( देवाः विश्वे देवाः इत्यादि ) दिया जाना है। और कहीं कहीं केवल भौतिक रूपका ही वर्णन भी है। वैदिक देवताओंके विषयमें अह विचार वैदिक कालसे श्राज तक बराबर चला पा रहा है। जैसा कि__इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथा दिव्यः स सुपोंगरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा बदन्न्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः ।। ( ऋ० १ । १६४ । २२) उनीकी इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि कहते हैं. और वही विन्य सुपर्ण गरुत्मान है, एक हीसा (मत्ता) को विद्वान अनेक प्रकार कहते हैं अग्नि यम और मातरिश्वा कहते हैं। तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदुचन्द्रमाः । तदेव शुक्र तद्ब्रह्मता भापः स प्रजापति ( यजु० ३२ । १) ___घही अग्नि है, यही श्रादित्य है यही यायु है वहीं चन्द्रमा हैं यही शुक्त वही प्रह्म वही श्रापः और वही प्रजापति है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतं ह्येव यव्हचा महस्युक्थे मीमासन्ते एत मग्रावयव एतं महानते छन्दोगाः (ऐत. भार० ३ | २ | ३ | १२) इस (परमात्मा) को ही ऋग्वेदी बड़े उपथ में विचारते हैं. इसी को यजुर्वेदी 'अभिमें उपासते हैं. इसीको सामवेदी महानतम उपासने हैं। तादिद माहुरमु यजामु यजेत्येक देवमतस्यैव सा विसृष्टि रेष उ ह्येव सर्वदेवा ( वृह उप० श६) ___सो जो यह कहते हैं कि अमुकफी पूजा करो अमुककी पूजा करो इस प्रकार अलग अलग एक एक देवताकी इसाका वह फैलाव है यही सारे देवता हैं। माहाभाग्याद् देवताया एक प्रात्मा बहुधा स्तूयते । एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यंगानि भवन्ति (निरुत ७४) 'बहुत बड़े ऐश्वर्य वाला होनेके कारण एक ही आत्माकी इस प्रकार स्तुति की गई है जैसे जैसे कि वे बहुतसे (देवता) हैं। स्वयं एक होते हुए के दूसरे सारे देयता प्रत्यङ्ग होते हैं। देवताओंको संख्या वेदमें देवताओं की संख्या ३३ कही है (देखो ऋ० १४५२१७, शा२०१७ ८।३०अथर्व १०।७१३, २३) इन तेनीसके ग्यारह ग्यारह के तीन वर्ग हैं, उनमेंसे एक वर्गका. स्थान पृथिवी लोक, दुसरका अन्तरिक्ष, और तीसरेका यो है ( देखो ऋ०२१ ३४ । ११, ८ । ३५ । ३, १ । १३६ । ११)। पर मस्त भादि जो देवगा है ये इनसे पृथक हैं। इस प्रकार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) विश्वकी सभी दिव्य शक्तियाँ जब देवता हैं और उनके पीछे नियन्त्री शक्ति एक ही है तो फिर ३३ का बचन किसी एक विशेष दृष्टि को लेकर हो सकता है, ३३ का नियम नहीं हो सकता । अत्रान्तर शक्तियोंकी दृष्टिसे सहस्रों भी कहे जा सकते हैं सामान्य शक्तियांकी दृष्टिसे ३३ से न्यून भी और समष्टि की दृष्टिसे एक भी कहा जा सकता है. अतएव अन्यत्र ऋग्वेद (३ || ६) में कहा है, "श्रीणि शता त्री सहस्रारयसि त्रिशभ देवा नवचास पर्यन्" तीन हजार, तीन सौ तीस और नौ देवता ने की सेवा की। विदग्धयाज्ञवल्क्य संवादमें आया है तब विदग्ध शाक्ल्यने याज्ञवल्क्यसे पूछा 'कितने देवता हैं याज्ञवल्क्य ? उसने इसी निवसे बतलाया जितने वैश्व देव निविद् में कड़े हैं. ३०३ और ३००३। उसने कहा. हो. ( और फिर पूछा ) कितने देवता हैं है याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) '३३' उसने कहा हां' ( फिर पूछा ) कितने देवता हैं याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) 'छह' । उसने कहा 'हो' (फिर पल्ला ) कितने हैं देवता हे याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) अध्यर्थ । उसने कहा 'हां' ( और फिर पूछा ) कितने हैं देवता हे याज्ञवल्क्य ? ( उत्तर ) एक उसने कहा 'हां' (वृह उप ३ | ६ | १ ) | इसके पीछे उनके अलग अलग नाम पूछते हुए अन्तमें पूछा है, कौन एक देवता है ? (उत्तर) 'प्राण' उसी को ( परोच) ब्रह्म कहते हैं ( वृ० उ० ३१६ | ६ ) रहस्य यह है कि तीन लोक हैं पृथिवी, अन्तरिक्ष और धौ, उनमें परमात्मा की तीन प्रधान विभूतियाँ (दिव्य शक्तियाँ) हैं अभि वायु और सूर्य । इनके साथ अप्रधान विभूतियोंका कोई अन्त नहीं यदि तीनको अपने सामान्य रूपों में लाकर इन तीनोंके साथ हजार हजार और विशेषरूप कहो तो तीन हजार तीन और यदि सामान्य रूपमें लाकर सौ सौ कहो तो ३०३ यदि इससे भी और सामान्य Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) रूपमें लाकर दस दस और कहो नो तेतीस होते हैं। इन सबको मिलानेसे ३३३८ होते हैं। यह संरूपा देवताओं की ऋ० ३।३१ह में कही है। परमार्थ यह है कि ये सब दिव्य शक्तियाँ जो छोटे छोटे अत्रान्तर भेदोंमें तो अधिक से अधिक कही जा सकती हैं और सामान्य रूपों में न्यूनसे न्यून होती हुई परम सामान्य में एक है । सर्वथा ये सारी विभूतियाँ परमात्माकी अलग अलग महिमाको प्रकाशित करती हुई अलग अलग देवता हैं और समष्टिरूप में एक ही अधिष्ठात्री शक्तिको प्रकाशित करती हुई एक देवता है । देवताओंके विशेष रूपका स्पष्टीकरण वेदमें इस विश्वको तीन भागों में विभक्त किया है - पृथिवी (यह लोक). if (ऊपरका प्रकाशमय लोक ) और अन्तरिक्ष ( इन दोनों का अन्तरालवर्ति लोक) । इसके अनुसार परमात्माकी जो दिव्यविभूतियाँ पृथिवी पर हैं, वे पृथियो स्थानी देवता, जो अन्तरिक्ष में हैं वे अन्तरिक्षस्थानी देवता और जो धो में हैं वे युस्थानी देवता कहलाते हैं। पृथिवी स्थानी देवताओं में प्रधान श्रभि है जो इस पृथिवी और पृथिवी पर होने वाले स्थावर जंगम के अन्दर वर्तमान होकर उनके जीवनका आधार है। अभि ही अपने विशेष धर्मो के आश्रयसे जातवेदस ( जो भी उत्पन्न हुआ है उस सबके पहचानने वाला) और वैश्वानर (सब जीवों में जठराग्निसे वर्तमान) यदि नामोंसे प्रकाशित किया है। अभि तेजोमय है प्रकाशमय है वह हमें तेजस्वी बनाता है, प्रकाश देता है, और बेरेको मिटाता है । यज्ञामिके रूपमें हमें धर्म कार्य प्रेरता है और किये यज्ञोंका स्विष्टकृत ( किये यज्ञको पूर्ण बनाने वाला) है। श्रमिके सम्मुख जब पुरुष दिव्य व्रतोंको धारता है तो वह उसे मानुष जीवनसे दिव्य जीवन में ले जाता है। इस प्रकार प्रकाश और धर्मको मनुष्य Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; ( ५७ ) के जीवन में भरता हुआ अग्नि, मनुष्य के सम्मुख ब्रह्मबल व अाज का आदर्श रखता है। अतएव कहा है--अग्निरेव ब्रह्म ( श० प्रा० ६४६६५ ) अन्तरिक्ष स्थानी देवताओं में प्रधान इन्द्र उसका अवित रूप विद्युत है। उसके शासन में पानी आकाश से नीचे उतर कर बरसते हैं, खेतियां हरी भरी होती हैं, नदियां बहती है। वह बल का अधिपति है, बड़ा शूरवीर है। वृष्टि के रोकने वाले वृत्रों को संग्राम में मारकर जल के प्रवाह पृथ्वी पर बहा देता है । इन्द्र मनुष्य के सन्मुख छात्र बलका आदर्श रखता है । स्थानी सूर्य हैं। जो सबसे बढ़ कर बलशाली होने से और सारे जगत का नियन्ता होने से हमारे सामने क्षात्र बल it आदर्श और कार के दो दोषों को मिटाने वाला प्रकाश के लाने वाला और धर्मं कार्यों का प्रवर्तक होने से ब्रह्म बल का आदर्श रखता है । क्षात्रा और ब्रह्म तेज से एक समान परिपूर्ण होकर वह मनुष्य के सम्मुख मानुष जीवन का पूर्ण आदर्श रखता है । इस प्रकार ये अभि, इन्द्र और सूर्य इस त्रिलोकी के तीन प्रधान देवता हैं। " , समीक्षा - श्रीमान पं० जी ने जिस प्रकार से ईश्वर का कथन किया है, तथा उसमें जो प्रमाण उपस्थित किये गये हैं वे सब इस आत्मा की ही अवस्थायें हैं। जिन उपनिषद वाक्यों से आपने अपने इस नवीन ईश्वर की कल्पना की है वह वास्तव में श्रात्मा का वर्णन है इसको हम उपनिषद और ईश्वर प्रकरण में विस्तार पूर्वक लिखेंगे तथा आपने जो 'इन्द्रं मित्रं वरुण ममिनमा ' fe वैदिक प्रमाण दिये हैं उनमें निश्चित रूप से भौतिक अग्नि आदि के ही ये सब नाम हैं, इसको अग्नि देवता प्रकरण में लिख चुके हैं पाठक वृन्द बहीं देखने की कृपा करें। तथा आपने 1 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . . . . जो ईश्वर के दो रूप (शक्ल व श्याम) वताये हैं वे भी प्रात्मा के ही भेद है, नकि ईश्वर के । अदि ये भेद (शुद्ध और अशुद्ध ) ईश्वर के माने जाये तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ईश्वर को अशुद्ध करने वाली कौन सी वस्तु है, क्या वेदान्तियों की माया से आपका अभिप्राय है, यदि ऐसा है तो आपको स्पष्ट लिखना चाहिये था। अथवा आपने किसी अन्य पदार्थ का आविष्कार किया है, जिसको आप अभी प्रकट करना उचित नहीं समझते। तथा च आपने जो 'अविति, प्रजापति. पुरुष, हिरण्य गर्भ' आदि को समष्टि रूप दिया है, अर्थात् इन नामों से ईश्वरके समष्टि रूप का कथन किया है यह विश निरवार को इस सा का अर्थ भी वैदिक साहित्य में ईश्वर नहीं, अपितु जड़ सूर्य आदि अथवा जीवात्मा है । प्रजापति प्रकरण में हमने सप्रमाण व विस्तार पूर्वक लिखा है । अतः देवता ईश्वर की शक्तियां नहीं हैं अपितु जड़ सूर्य श्रादि अथवा प्रात्मा की शक्तियां हैं। इन सब बातों पर विचार न करके यदि आपकी ही बात मान ली आये. तो भी इस देवताओं की दुर्बुद्धियों का कथन मिलता है जैसे कि (मा ते अस्मान दुर्मतयो) ऋ०७। १ । २२ हे अग्ने तुम्हारी दुबुद्धि. हमें ज्याप्त न हो। तथा इन्द्र का भ्रम में पड़ना (०८। ५२ । ७1) तथा इन्द्र का विरोध और इन्द्र पूजकों द्वारा अग्नि की मिन्दा मादि का जो वेदों में कथन है (जिनका वर्णन हम अमि देवता प्रक- . रण और इन्द्र प्रकरण में कर चुके हैं. ) तो क्या यह सब परमेश्वर के ही गुण हैं। क्या आपका परमेश्वर भी भ्रम में पड़ जाता है और क्या उसकी भी बुद्धि मलिन है। तथा क्या मन्त्र करता ऋषि ईश्वर का भी विरोध करते थे अथवा उसको भी दुष्ट आदि कहतेथे । यदि ऐसा है तब तो ऐसे ईश्वर को आप श्वर मानें हम Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) आपकी इस अन्ध श्रद्धा में वाधक होना नहीं चाहते। यदि उपरोक्त गुण ईश्वर में नहीं है तो इन देवताओं को ईश्वर अथवा उसकी शक्ति मानना भ्रम मात्र है । तथा च आपने एक यजुर्वेद का ( तदेवाम स्तदादित्य स्तद् वायुस्तदु चन्द्रमा) यजु० ३२ । १ प्रमाण दिया हैं उसीसे आपके इस ईश्वर का मन हो जाता है, क्योंकि यहां श्रात्मा देवता है, तथा जीवात्मा का ही कथन है। क्योंकि इस अध्याय के में लिखा है कि "पूर्वोह जानः स गर्भे अन्तः स एव जातः स जनिष्य मारण: " यहां भाग्यकार 'उट ने गर्भे का अर्थ माता का उदर ही किया है अतः माता के गर्भ से बार बार उत्पन्न होने वाले यहां जीवात्मा का ही कथन है आपके निराकार का नहीं | तथा पं० जयदेव जी ने इन मन्त्रों का अर्थ राजा भी किया है। अतः आपका यह कथन वेदानुकूल नहीं है। पं० विश्वबन्धु जी शास्त्री एम० ए० की कल्पना आप लिखते हैं कि कवि की आंख साधारण वस्तु में असाधारणता का दर्शन करती है। वेद भी एक काव्य है, और यह विशाल सुन्दर संसार भी एक काव्य है। श्रादृष्टि के म एक २ प विचित्र प्रकार से नाटक करता हुआ मानो इस महाकाव्य के रहस्यों का व्याख्यान करता है । 'अग्नि' एक साधारण सर्व परिचित दिन रात के व्यवहार में आने वाला पदार्थ है। कर्म कांडी त्यागशील होता के लिये श्रम साधारण अग्नि नहीं रहती । यह उसके अन्दर एक एक आहुति डालता हुआ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) मानो संसार के सहस्रों देवताओं के साथ एक रूपता को प्राप्त होरहा है। पूर्व कहे प्रकार से त्याग प्रतधारी कवि, कविता के साथ और दिव्य भाव को मिला कर देखना आरम्भ करता है। अग्नि में वह होम करके विश्व विख्यात होताओं का साथी बन रहा है। अग्नि उसके और उनके मध्य में एक दिव्य दूत का काम करती है। वह और आगे बढ़ता है | स्वयं अग्नि होता के रूप में भासने लगती हैं 1 I वह भस्मकारक न रह कर विश्व रक्षक शक्ति बन जाती है. अब उस शक्ति का विस्तृत कार्य क्षेत्र पृथ्वी तक परिमित न रह कर अन्तरिक्ष और लोक भी घेर लेता है। अब वह सर्व व्यापक महाविधायक अद्भुत शक्ति के रूप में प्रतीत होती है।” वेदसन्देश भा० ४ पं० विश्व बन्धु जी स्वयं कवि हैं, अतः उन्होंने काव्य मय भाषा में पं० राजाराम जी को कल्पना का सुन्दर खण्डन किया है। श्रापका श्राशय हैं कि अग्नि देवता तो साधारण श्रग्नि ही है परन्तु उसको कवि ने विश्वरूप दे दिया है। इस अग्नि आदि का यह सर्व व्यापक रूप न ईश्वर हैं और न ईश्वर की शक्तियां जैसा कि पं० राजाराम जी ने लिखा है । तथा आपने बड़ी बुद्धिमानी से यह भी बता दिया कि वेद ऋषियों के बनाये हुये काव्य ग्रन्थ हैं । तथा अग्नि आदि को देवताओं का रूप देना यह उनकी कविकल्पना है । यहीं बात मीमांसक मानते हैं तथा यही बात वर्तमान समय के सब स्वतन्त्र प्रज्ञ विद्वान कहते हैं । सारांश उपरोक्त कथन से देवताओंके सम्बन्ध में निम्न लिखित बातें प्रकट होती हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) श्रादिभौतिकवाद-वैदिकदेवता, केवल प्राकृतिक शक्तियाँ हैं । जैसा कि णश्चात्य लिहानोंका मत है । यही मत अति प्राचीन काल से मीमांसकोंके एक सम्प्रदायका रहा है। इसी को निरुक्त की परिभाषामें आधिभौतिक वाद कहते हैं। - (२) शब्द देवता--मीमांसकोंमें शयर स्वामी श्रादि. मन्त्रोंके अतिरिक्त किसी अन्य देवता या ईश्वरकी श्रावश्यकता नहीं समझते । अतः इनके मतमें मन्त्रोंके शय ही देवता हैं। ये लोग फर्मका फल भी कर्मों द्वारा ही मानते हैं। अतः उसके लिये भी किसी देवताकी अथवा ईश्वरकी आवश्यकता नहीं मानते । (६) आधिदैविक-इस सम्प्रदायके विद्वानोंका कथन है कि अनि श्रादि जड़ हैं परन्तु इन सबका एकएक अभिमानी श्रात्मा है अतः उस अभिमानी श्रात्माको मानकर स्तुति प्रार्थना श्रादि किय जाते हैं। उन अभिमानी देवोंको अनि, इन्द्र, सूर्य आदि नामसे कहा गया है। जैसा कि वेदान्तदर्शनमें कहा है। अभिमानि व्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम् ।। शश५ अर्थ-विशेषानु गतिभ्याम्, विशेष और अनुगति से अभिमानीका कथन है । अभिप्राय यह है कि वेदादि में अग्निादि को चेतन वत मान कर उनसे प्रार्थना आदि की गई हैं तथा प्राणोंका व इन्द्रीय आदि का विवाद पाया जाता है. इसी प्रकार पुत्रासुर युद्ध श्रादि के कथन से उनके पुरुषाकार होने का संदेह होता है । इसका उत्तर सूत्रकार देते हैं कि यह सब कथन अग्नि श्रादि में जो उनका अधिष्ठाता देव है, उसका कथन है। उन्हीं को अभिमानी देवता कहते हैं। इनके मत में भी देवता अनेक हैं. तथा उन सबका एक एक अधिष्ठाता भी है। (४) याशिक बाद-वेदों के निष्पक्ष एवं गम्भीर स्वाध्याय से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LULUWIL WILL यह निश्चित रूप से विदित होता है कि वैदिक आर्य प्रथम भौतिक देवताओं के छी पालक थे। वक्षा मानन्धी का सौशिक पदार्थों की सथा सुखमय और स्वतन्त्र जीवन की अभिलाषा थी। न तो उनको परलोक की चिन्ता थी और न मोक्ष व स्वर्गादि क्रीकामना । उस समय धर्म के अन्धन श्रादि का अभाव सा था, तथा राजा श्रादि का दण्ड भी न था । सब सुस्त्री. स्वतन्त्र और मस्त थे। तत्पश्चात् यहां धार्मिक भावों का प्रादुर्भाव हुअा और स्वगं आदि की कल्पना का आविष्कार भी । अतः स्वर्ग की प्राप्ति के लिये यज्ञों का निर्माण भी आवश्यक ही था। बस फिर शनैः शनैः इस यज्ञ देवता का विस्तार होने लगा और सम्पूर्ण देवताओं का स्थान इसी ने ले लिया। सबसे प्रथम यज्ञ कर्ता यजमान की स्तुति के पुल बांधे गये। उसी का इन्द्र प्रजापति आदि को पदवी देदी गई । यथा एष उ एवं प्रजापतियों बजते ।। ऐ० २ । १८ इन्द्रो यजमानः ।। शत० २।१।२११ यजमानो अग्निः ।। शत०६।३।३।२१ सम्वत्ससे यजमानः ॥ शत० ११ । २ । ७ । ३२ ।। एष बैं यजमानो यत्सोमः ।। ते०१।३।३।५ यजमानो हि सूकम् ॥ ऐ०६ | 8 · इत्यादि याक्योंसे वैदिक ऋषियोंने यजमानोंकी प्रशंसा प्रारंभ कर दी। तथा सम्पूर्ण देवासे भी अधिक इसकी महिमाका बखान किया गया। उसके बाद समय पाकर ब्राह्मणोंमें जातीयताका स्वाभिमान Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न हुआ और उन्होंने यजमानों की स्तुति करना बन्द कर दिया (शायद इसकी आवश्यकता भी न रही हो)। और "विद्वांसो हि देवाः” का प्रचार प्रारंभ किया गया । तथा सब देवरूप ब्राह्मण बन गया । जैसाकि कहा हैब्रामणो वै सर्वां देवताः ।। ते० | १ ४ १४।२, ४॥ एते वे देचा अहुतादो यद् ब्राह्मणाः ॥ गो० उ० १६ अथ हेते मनुष्यदेवा ये मागणाः ।।१०।११। देच्यो वे वर्णो ब्राह्मणः ॥ तै० ११२। ६ । ७ इस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्राह्मणोंकी स्तुति व महिमाका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है । प्रथम तो ये ब्राह्मण यजमान और उसके रथ, अश्व, वस्त्र आदिकी स्तुतिमें मन्त्रोंका निर्माण, करते थे परन्तु अब ये लोग ब्राह्मणोंका और अज्ञोंका वर्णन करने वाली श्रुतियाँ बनाने लगे। तथा प्रजापति, ब्रह्मा, पुरुष, विराट, आदि नामसे एक नयादेव निर्मित हुअा। जिसके विषयमें विशेष प्रकाश प्रजापति प्रकरणमें डालेंगे 1 परन्तु ब्राह्मणोंने अपनी प्रशंसाके साथ साथ यज्ञकी स्तुतिके भी मन्त्रोंका खूब ही निर्माण किया क्योंकि उस समय एक मात्र यज्ञ ही उसका आश्रय था। 'अतः देवताओंका स्थान भी यज्ञको ही दे दिया गया। उस समय प्राणोंने कहना प्रारंभ किया कि अय भोले प्राणियों जिन देवताओंको श्राप लोग उपासना करते हो वे तो हमारे द्वारा बनाये गये हैं। (अस्माभिः कृतानि देवतानि) अतः श्राप लोग सर्वदेवरूप ब्राह्मणों की पूजा किया करो ? तथा मनुस्मृति प्रारिमें कहा गया है कि । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) afat fair जाह्मणो दैवतं महत् ।। ३१७ (अध्याय ० ६) सर्वथा ब्राह्मणः पूज्याः परमं दैवतं हितत् || ३१६ जिस प्रकार सर्व भक्षक होने पर भी अभि पवित्र ही रहती है इसी प्रकार अनेक पापोंके करने पर भी ब्राह्मण शुद्ध व पूज्य ही रहता है, चाहे वह मूर्ख भी हो फिर भी यह पूज्य ही है । इस प्रकार ये लोग राज दंडसे भी मुक्त होते थे । यज्ञ यज्ञो वै तस्य योनिः ॥ यजु० ११ । ६ ।। यज्ञो वै वसुः । यजु० १ । २ ॥ यज्ञो वै स्वः ॥ यजु० १ । ११ ।। स यत्रः प्रजापतिः ॥ शत० ११ | ६ | ३ | ६॥ वै यज्ञ एव प्रजापतिः || शत० १ । ७ । ४ । ४॥ यो चै विष्णु स यज्ञः ॥ शत० ५ । २ । ३ । ६॥ यज्ञ उ देवानां आत्मा || शत० ८६ । १ । १० ॥ यज्ञ उ देवानामन्नम् || शत० ८ । १ । २ । १० ॥ वार यज्ञः || ऐ० ५ | २४ यज्ञ एव सविता | गों० पू० १ । ३३ बैं यज्ञाद् वै प्रजा प्रजायन्ते । शत० ४ । ४ । २ । ६|| यझेो वै ध्रुवनम् || तै० ३ | ३७ । ५ ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) १३ । २ यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः ।। वें यज्ञो मैं मैत्रावरुणः || को० मनो व यज्ञस्य मंत्रा वरुणः || ऐ० २५ २६ २८ विराट ने यज्ञः ॥ ०१ । १ । १ । २२ ॥ स्वर्ग लोको यज्ञः ॥ कौ० १४ । १ ० ३ । ६ । ५ । ५ ॥ | · . अर्थात् — ऋत इस यज्ञ से उत्पन्न हुआ है। तथा वसु प्रजापति, सविता, विष्णु आदि सब देवता स्वरूप यज्ञ ही है। यज्ञ ही देवों की आत्मा तथा वहीं अन्न है। इस यश से ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, यही संसार को उत्पन्न करता है। यदि आदि सब महिमा यज्ञों की कथन की गई है। इस प्रकार शनैः शनैः याज्ञिक ने देवनाओं का प्रभाव कम करना आरम्भ किया तथा बाद में उनके अस्तित्व से भी इन्कार कर दिया और मन्त्रों के शब्दों को ही देवता मानने लगे। इस प्रकार यज्ञोंका विस्तार होने लगा और वह इनता बढ़ा कि सम्पूर्ण भारत में घर घर इसी का साम्राज्य दिखाई देता था । लाखों मूक पशुओंका इस यज्ञ में होगा जाने लगा यहीं तक नहीं अपितु नरमेध यज्ञ में जीवित मनुष्यों का भी बलिदान प्रारम्भ हुआ तथा शराब आदि का भी भयानक प्रचार हो गया । बस मांस और शराब का जो परिणाम होना था वह हुआ और संसार एक पापों का केन्द्र बन गया । वाममार्ग आदि अनेक प्रकार के सम्प्रदायों का जन्म हुआ और धर्म के नाम पर खुले आम पाप का एकाधिपत्य हो गया। बस संसार इन यज्ञों से बिलबिला उठा और धीरे २ यज्ञों के प्रति घर बढ़ने लगी और इसके विरोध में प्रचार भी आरम्भ हो गया। यज्ञों का प्रथम प्रचारक या आविष्कर्ता अथव ऋषि था। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) (यस्थ प्रथमः पथस्तते । ऋ० १ | ८३ ॥ ५ ॥ 'भारतीय दर्शन शास्त्र का इतिहास' में देवराज जी लिखते हैं कि "यज्ञों के इस व्यापारिक धर्म के साथ साथ ही ब्राह्मण काल में हिन्दु धर्म के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का भी आविष्कार हुआ। हिन्दु जीवनके आधारभूत वर्णाश्रम धर्मके स्रोतका यहीं समय है। प्रसिद्ध तीन ऋणों की धारणा इसी समय हुई | ... इस युग में वैदिक कालके देवताओंकी महत्ताका हास होने लगा था । यज्ञों के साथ हो अग्नि का महत्व बढ़ने लगा था । लेकिन इस कालका से बहा देवता पूजापन है। नैतीस देवता चौतीस वा प्रजापति हैं प्रजापति में सारे देवता सन्निविष्ठ हैं (शतपथ में ) यज्ञको विष्णु रूप बताया गया है (यशो में विष्णु) नारायण का नाम भी पाया जाता है। कहीं कहीं विश्वकर्मा और प्रजापतिको एक करके बताया गया है। राधाकृष्णन ने इस युग की व्यापारिक यज्ञ प्रवृत्ति का अत्यन्त कड़े शब्दों में वर्णन किया है। वे लिखते हैं कि "इस युग में वेदों के सरल और भक्ति मय धर्म की जगह एक कठोर हृदय घाती व्यापारिक धम्मं ने ले लो। जो कि एक प्रकार के ठेके पर अवलम्बित था। आर्यों के पुरोहित मानो देवताओं से कहते थे 'तुम हमें इच्छित फल दो. इसलिये नहीं कि तुम में हमारी भक्ति हैं परन्तु इसलिये कि हम गणित की क्रियाओं की तरह यज्ञ विधानों का ठीक क्रमशः अनुष्ठान करते हैं । कुछ यक्ष ऐसे थे जिनका अनुष्ठाता सदेह ( सर्वतनुः ) स्वर्ग को चला जा सकता था। स्वर्ग प्राप्ति और अमरता यत्र विधानों का फल श्री, नकि भक्ति भावना का ।" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ } अध्यात्मवाद निरुक्त कार यास्काचार्य ने तीन प्रकार के मन्त्र बताये हैं । (१) परोक्ष कृत. ( २ ) प्रत्यक्ष कृत, (३) आध्यात्मिक | इनको आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक भी कह सकते हैं। यहां आध्यात्मिक प्रकरण का विचार करते हैं । श्री यास्काचार्य ने आध्यात्मिक के लिये लिखा है कि अथाध्यात्मिक्य उत्तम पुरुष योगा अहम् इति च एतेन सर्व नाम्ना || नि० ७ १ १ अर्थात जनों में देवया के किये की क्रिया कथा अहम अवास्. वयम् ये सर्व नाम पद हों वे श्रध्यात्मिक मन्त्र होते हैं " | अध्यात्म मन्त्रों का उदाहरण दिया है किऋभुवं वसुनः पूर्व्यस्पति रहं धनानि संजयामि शाश्वतः ।। ऋ० इस मन्त्र का इन्द्र ही ऋषि और इन्द्र ही देवता है । श्री सायणाचार्य ने लिखा है कि एक बैकुण्ठानाम की राक्षसी थी उसने तप किया उस तप के प्रभाव से उसके इन्द्र' नाम का पुत्र उत्पन्न या उस इन्द्र की यह आत्म स्तुति ( प्रशंसा ) है । इसी प्रकार के अन्य उदाहरण भी दिये जा सकते हैं। आगे निरुक्तकार लिखते हैं कि "परोक्ष कृताः प्रत्यक्ष कृताश्च मन्त्रा भूयिष्ठा अल्पश आध्यात्मिकाः || " अर्थात्-परोक्ष कृत और प्रत्यक्ष कृत मन्त्र बहुत अधिक है. परन्तु आध्यात्मिक मन्त्र तो अत्यन्त अल्पम हैं । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) श्री० पं० सात वलेकरजीका मत ་ वेद मन्त्रों का अर्थ आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक, ज्ञान क्षेत्र से भिन्न २ होता है । श्रध्यात्मिक क्षेत्र वह है जो आत्मा से लेकर स्थूल देह तक फैला है। "शरीर का अंगरस व्यक्तिगत होने से आध्यात्मिक पदार्थ है। इसका अधि भौतिक अर्थात् सामाजिक किंवा राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रतिनिधि "राष्ट्रीय जोवन” उत्पन्न करने वाला संघ होना स्वाभाविक है । तथा आधिदैविक क्षेत्र में इसी का रूप अमि अथवा आग में देखा जा सकता है ।" विद्या पृ० १४८ ॥ आपके मन से भी तीनों प्रकार के अर्थों में वर्तमान ईश्वर के लिये स्थान नहीं है । अध्यात्मवाद और गीता अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । श्र० ८ ३ अर्थात्- कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है, और प्रत्येक वस्तु निजभावको स्वभाव कहते हैं, उसी स्वभावका नाम अध्यात्म है । अभिप्राय यह है कि अविनाशी ब्रह्म के स्वाभाविक ज्ञानको अध्यात्म कहते हैं । ब्रह्म, परमात्मा शुद्धात्मा, आदि एकार्थवाची शब्द हैं। अतः श्रात्मा शुद्ध स्वरूपका ज्ञान जिससे हो वह अध्यात्मविद्या हैं।. यही विद्या सब विद्याओं में श्रेष्ठ हैं। अथवायू भी कह सकते हैं कि इसी ज्ञानका नाम विवाह श्रन्य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) सत्र ज्ञान अविश्वारूप ही हैं। इस लोकका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं--- " तस्य एव परस्य ब्रह्मण: प्रति देहं प्रत्यगात्मभावः स्वभावः ॥" अर्थात् — उस पर ब्रह्मका प्रत्येक शरीर में जो अन्तरात्म भाव हैं उसका नाम स्वभाव हैं। आगे और स्पष्ट करते हैं । "आत्मानं देहमधिय प्रत्यगात्मतया प्रवृत्तं परमार्थ ब्रह्मवसानम् उच्यते श्रध्यात्मशब्देन, अभिधीयते । ।" अभिप्राय यह हैं कि शरीरको आश्रय बनाकर जो अन्तरात्मा भावसे उसमें रहने वाला श्रात्मा है वह शुद्ध निश्वयनयसे तो परं ब्रह्म ही हैं । उसी तत्त्र ( स्वभाव ) की अध्यात्म कहते हैं । अर्थात आत्मा शुद्ध स्वभाव को श्रध्यात्म कहते हैं, तथा जिस विवा उस स्वभावका ज्ञान होता है उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं। सांख्य मत प्रकृतिको भी अक्षर माना गया है इसीलिये लोक में अक्षर. के परम विशेषण लगाया गया है. जिससे यह शब्द आत्माका हो बोधक है। आगे अ० १० । ३२ | में (अध्यात्म विद्याविद्यानाम् ) कहकर इस मोक्षफल प्रादात्री अध्यात्म विद्याकी सर्व श्रेष्ठता बताई गई है। तथा च- अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं तच्च ज्ञानार्थ दर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। १३ । ११. यहाँ शंकराचार्यजी लिखते हैं कि- "आत्मादि विषयं ज्ञानं अध्यात्म ज्ञानं तस्मिन् नित्यभावो नित्यत्वम् ||" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात-श्रात्मादि विषयक ज्ञानका नाम अध्यात्म ज्ञान है । इसके विपरीत सांसारिक प्रवृत्तिको अज्ञान समझना चाहिये। तथा व अ०७ | में आये हुए "अध्यात्म" शब्दका अर्थ भी चायने "प्रत्यगात्म विषयक वस्तु तद् विदुः।" अर्थात्--अन्तरात्मविषय ही किया है। अतः स्पष्ट है कि गीतामें निज अात्म ज्ञानका नाम अध्यात्म विद्या व अध्यात्म ज्ञान है। उपनिषद् और अध्यात्म उपनिषद कारों ने इसको और भी स्पष्ट किया है । यथा-- अथाऽध्यात्म य एवायं मुख्यः प्राणः ॥छाशश।। णिच्चमणयदो दुचेदणा जस्स अथाध्यात्ममिदमेव मृत' यदन्यत्प्राणाच्च ।। ४ ।। अथामृत प्राणाश्च । ५॥ वृ० २।३॥ अर्थात--स्थूल और सुक्ष्म ( भाव पारण और द्रव्य प्रारण) प्राणी को अध्यात्म कहते हैं । इसी प्रकार के अन्य प्रमाण दिये जा सकते हैं । अभिप्राय यह है कि अन्तरात्मा के ज्ञान को अध्यात्म विद्या अथवा इसी का नाम परा विद्या भी है। परा विद्या द्वे विधे वेदितव्ये इति हस्म यद् ब्रह्म विदो बदन्ति Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) परा चैवापरा च ॥ ४ ॥ मुण्ड को ० १ | तत्राऽपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदऽथर्वेदः ॥ अथपरा यया तद चर मधिगम्यते ॥ ॥ अर्थात्-दो विद्यायें जाननी चाहिये परा विद्या और अपरा विद्यr । ऋग्वेद आदि चारों वेद तथा तन सम्बन्धी अन्य साहित्य पराविद्या अर्थात् सांसारिक विद्यायें हैं। तथा जिस विद्या के द्वारा यह अन्तरात्मा प्रत्यगात्मा विविक्तारमा जाना जाता है, वह परा किया है । | अर्थात् उपनिषद् आदि अध्यात्म शस्त्रों को अपरा विद्या कहते हैं । निरुक्त कारकं मतमें वेदों अत्यल्प मन्त्र अध्यात्मिक हैं और उपनिषदों के मत से वेदों में अध्यात्म ज्ञान है ही नहीं । श्रथवा यदि है भी तो इतना गौण रूप से है बराबर हैं । कि वह नहीं के इसकी पुष्टि गीता में की गई हैं। यथा वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः || २ | ४२ श्रुति विमति पना ते यदा स्थास्यति निश्चलाः || तथा गुया विषया वेदाः ॥ अभिप्राय यह हैं कि जो वेदवादमें रत हैं वे लोग यज्ञादिकसे ऊपर आत्मिक ज्ञानको नहीं मानते तथा न ही मोक्ष आदिको मानते हैं । इसलिये ये लोग जब तक अध्यात्म ज्ञानमे स्थिर बुद्धि नहीं होंगे उस समय तक इनका कल्याण नहीं होने का। क्योंकि ये वेद तो त्रिगुणरूपी रस्सी है जिससे जीवोंको बाँचा जाता है । अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण आचार्यका तथा ऋषि आदिकोंका Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अ ) इस विषय में पड़ी मत था कि वेदोंमें अध्यात्म विद्या नहींके बराबर हैं। जा है वह याज्ञिक आडम्बर अथवा देवताओंकी लंकारिक स्तुति से तिरोभूत होकर प्रभाव हीन और निःसार सी दीव पड़ती है । तथा च जो विद्वान प्रत्येक मन्त्रका श्राध्यात्मिक अर्थ करते हैं ये लोग निरु आदि सम्पूर्ण शास्त्रोंके विरुद्ध अपनी एक नई नीति का प्रचार करना चाहते हैं, उनकी विरास की होना पड़ हैं । सारांश यह है कि आध्यात्मिक मन्त्रों में भी. आत्मा (जीवात्मा) का वर्णन है, वर्तमान कल्पित ईश्वर का नहीं | क्योंकि निरुक्तकारने स्पष्ट घोषणा की है कि अध्यात्म प्रतिपादक मन्त्र अत्यल्प हैं । यदि प्रत्येक मन्त्र के अर्थ अनेक प्रकारके होते तो निरुक्तकार को ऐसा लिखनेकी कुछ भी आवश्यक्ता न थी । तथा च स्वयं आर्य समाजके प्रख्यात विद्वान महामहोपाध्याय प शार्य मुनिजी अपनी पुस्तक वैदिक काल का इतिहास" में लिखते हैं कि जो लोग केवल आध्यात्मिक अर्थ करके वेदोंको दृषिर करते हैं" यहाँ विवश होकर पं० जी ने बढ़ों में इतिहास भी समान लिया है। जिसका वर्णन हम यथा प्रकरण करेंगे। यहाँ तो यह दिखाना है कि स्वयं आर्यसमाज के ही सर्व मान्य विद्वान भी वेदोंके प्रत्येक मन्त्र के आध्यात्मिक अर्थ करनेको वेदोंको दूषित करना मानते हैं। इसी बात की पुष्टि ऐतरेयालोचन' में श्रीमान पं सत्यव्रत सामाश्रमीजीने की हैं. आप लिखते हैं कि " अथापि तान्याध्यात्मादीनि नामतस् त्रिविधानि वस्तुतः पंचविधानि व्याख्यानानि नहि सर्वेषां मन्त्राणामुपपद्यते " Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ) अर्थात अध्यात्म आदि तीन प्रकारके मन्त्र जो कि वास्तव में पाँच प्रकार के हैं । इसका यह अर्थ नहीं हैं कि प्रत्येक मन्त्रकं तीन प्रकार के श्रथवा पाँच प्रकारके अर्थ होते हैं । १८२ अतः प्रत्येक मन्त्र के अनेक प्रकारके अर्थ करना वैदिक वांगम के सर्वथा विरुद्ध है। परन्तु कुछ मन्त्र अध्यात्म वादके अवश्य हैं और वे आत्मपरक हैं ईश्वर पर नहीं । तथा च निरुक्त अध्याय में (इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः ) ऋ० ३ । १८ । १ की व्याख्या करते हुये लिखा है कि"ईश्वरः सर्वेषां गोपायिता श्रादित्यः । -- ईश्वरः सर्वेन्द्रियाणां गोपायिता श्रात्मा ।।" निरुक्तकारने ईश्वर के चार नामोंमें एक "इन" शब्दको ही व्याख्या की है। यहाँ आदित्यको ईश्वर माना है तथा आत्माको इसलिये ईश्वर माना है कि वह सब इन्द्रियोंका पालन करता है । बस यदि यास्काचार्य के मत में वेदोंमें ईश्वरका कथन होता तो वह अवश्य इस स्थल पर ( अथवा किसी अन्य स्थान पर ) उसका वर्णन करते परन्तु ऐसा न करके सूर्यको ईश्वर बनाना तथा आत्माको ईश्वर कहना यह स्पष्ट सिद्ध करता है कि निरुक्तके समय तक भारत में ईश्वरकी मान्यता नहीं थी । यहाँ पर पंद सामाश्रमजी ने लिखा है कि- "तन्त्र यद्यपि जडात्मकस्य आदित्यस्य चैतन्यात्मकस्य जीवात्मनश्चेश्वरत्वमुपात्तम् ।"... अर्थात् - यहाँ जड़ सूर्य व जीवात्माको ईश्वरत्व कहा गया है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ९५ ! इसके बाद पत्र सत्यत्रतजी ने यह लिख दिया है कि "इनका आश्रम होने ईश्वरका भी बोध होता ही है जो यह उनका ईश्वरविषयक मोह ही जान पड़ता है। देवोंका अनेकत्व वर्तमान समय सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान श्रीमान पं० सत्यव्रत सामाश्रमीजी ने लिखा है कि- " इत्थं हि नाम निर्वचनतः स्थाननिर्देशतः कर्मनिरूपणतः उत्पत्ति वर्णनतः ब्राह्मणविनियोगतः तद्विहितमन्त्रार्थतः, देवलक्षणोदाहरण श्रुतितः, प्रत्यक्ष दृष्ट भौतिका देवास्पादग्ने राशित फलोपपत्तेश्च निर्णीतमेतत्-अयमेव पार्थिवो भौति सर्वत्र यज्ञेषु देव इति गृह्यते नान्यकश्चन" तथा च"देवशब्देन देवताभिधानाग्न्यादि शब्देव न तस्य देव देवस्य ग्रहणं याज्ञिक संगतम् । अधिदैवत व्याख्याने चान्यादि द्रव्यादि विज्ञानमेवाभिष्टमित्यग्नादिपदानामीश्वर वाचित्व व्यर्थ एव ।" पृ० १८२ तथा च वेदेषु चतुर्विधा देवा श्रूयन्त इत्येव फलितम् । तत्र अग्नि, वायु, सूर्यावैते त्रयोमुख्या देवाः । इष्माक्षग्रावादयः परिभाषिका देवाः पृथिवी जल चन्द्रमःप्रभृतयो वहब एव तन्मुख्यदेव सहचरादय इत्य मुख्या देवाः । "ऋत्विग्यजमान विद्वांसस्तु गौणा इति सिद्धान्तः ।" अर्थात् नामों के निर्वचनसे स्थान निर्देशसे, कर्मविभागसे, : Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पत्तिके कथनसे, ब्राह्मणादि ग्रन्थोंमें विनियोग देखनेसे, अग्नि श्रादिके वर्णन करने वाले मन्त्रोंके अर्थासे, श्रुत प्रादिमें जो देवांके लक्षण आदि किये हैं उनके झामसे. प्रत्यक्ष दीखने वाले ही अग्नि श्रादि भौतिक देव ही सर्चत्र यज्ञामें गृहीत हैं. यह निश्चित मत है यानिकोंका । देवता शब्दसे अग्नि आदि शब्दोंसे उम देवाधिदेव ईश्वरका याज्ञिक मनमें नहीं है । तथा च---अधिदेवत व्याख्यानमें भी अनि श्रादि द्रव्यका ही झान अभिष्ट है अतः अधिदैवतपक्षमें भी अग्नि आदि शन्दों द्वारा ईश्ररका प्रहरा व्यर्थ ही है।" इस प्रकार आपने अधियाज्ञिक और अधिदेवतपसमें ईश्वरका अभाव सिद्ध किया है । शेष रह गया अध्यात्मवाद उसका वर्णन हम यथा स्थान करेंगे। तथा च आगे आपने देवोंक चार मंद बताये हैं। (१) मुख्य--अनि वायु (इन्द्र) व सूर्य. ये तीन मुख्य देव हैं । (6) अमुख्य.-मुख्य देवोंके सहकारी, प्रथिवी, जल, चन्द्रमा. श्रादि अनेक, अमुल्यदेव हैं। (३) पारभाषिक, इध्म, अक्ष, ग्रावा, आदि पारिभाषिक देवता हैं। (१) गोरण--ऋत्विक , यजमान. विद्वान आदि गौण देवता हैं। अर्थान--ये वास्तविक देवता नहीं हैं अपितु यज्ञ श्रादिस देवताओंकी स्तुति आदि करते है इसलिये उपचारसे इनको भी देवता कह दिया गया है।" जैन परिभाषामें इसका सार्थक नाम असदभूत व्यवहारनय है। तथा च ब्राह्मण अन्धों में स्पष्ट लिखा है कि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवा हैव देवाः अथईते मनुष्यदेवाः ये ब्राह्मणाः शुश्रुबांसो अनुचानास्ते मनुष्यदेवाः ।। षडविंश ब्रा० । १। १ अर्थात देवता ती देवता ही है. परन्तु जो विद्वान आदि मनुष्य हैं. उनको भी देवता कह दिया गया है। जो लोग विद्वांसा हि देवा:" का रटकर वास्तविक देवता का विरोध करते हैं उनका उपरोक्त प्रमाण ध्यान से पढ़ना चाहिये। नथा च ब्राह्मण में लिखा है कि यद् वे मनुष्याण प्रत्यक्षं तद देवानां परोक्षम् , अथ यन्मनुष्याण परोक्षं तदेवानां प्रत्यहम् ।। ता०२२।१०।३।। __ अथान्जो मनुष्यों के लिये प्रत्यक्ष है वह देवों के लिये परोक्ष है. और जो मनुष्यों के लिये परोक्ष हैं, वह देवोंके लिये प्रत्यक्ष है। और भी आहुतिभिरेवदेवा-प्रीणाति दक्षिणाभिर्मनुष्य देवान् ॥ शत० २१ २ । २ । ६ सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः ॥ शत० २११४ ।। द्व योनी इति ब्रयात देवयोनिरन्यः मनुष्ययोनीग्न्यः प्राचीन प्रजनना वे देवाः प्रतीचीन प्रजनना मनुष्याः ॥ शत० ७।४ । २ । ४० ।। तथा च प्रजापतिः प्रजा असृजत स उर्चेभ्य एव प्राणेभ्यो देवानसृजत ये आवां च प्राणास्तेभ्योमाः ॥ शत. १० । १ । २ । १ ।। इत्यादि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-यजमान श्राइतिसे देवताओंको पुष्ट करता है तथा दक्षिणामे विद्वानोंको। . देवता सत्य (अमर) हैं और मनुष्य अनत (मरणधर्मा) हैं। पृथक पृथक दो गालियां हैं. एक देवयानी. नुमरी मनुध्ययानी. देवनानि अन्य है। और मनुष्य योनि अन्य है । देवता. पूर्व अर्थात् प्रथम उत्पन्न हुए। मनुग्न पश्चात । प्रजापति ने श्रेष्ठ प्राणी से देवोंको बनाया नया निम्न प्राणोंने मनुष्योंका बनाया इत्यादि। इस प्रकार शनशः प्रमाण दिया जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध है कि देवता एक योनी विशेष हैं, और उनकी पृथक पृथक सत्ता है। चंद स्वयं कहता है कि.. स्वाहाकत हवि रक्षन्तु देवाः । ऋ० १० । ११० | ११ स्वाहा शन्द्र द्वारा प्रदान की हुई हविको देवता खा । तथा वेदान्त दर्शनमें लिखा है कि अभिमानी व्यपदेशस्तु विशेषानुगतिभ्याम् ॥ २११॥ . देवांका दो प्रकारका स्वरूप है एक तो अनि श्रादिका प्रत्यक्ष रूप. दुसरा अग्नि अादिका अभिमानीदेव, जैसे मनुष्य आदिका प्रत्यक्ष शरीर तथा उनका पृथक पृथक अभिमानी जीवात्मा हैं। __ इमी प्रकार देवताओंके दो दो रूप हैं। अभिप्राय यह है कि वैदिक विद्वानों में देवता विषयक विवाद था, कोई कहना था "पुरुष विधाः स्युः । तथा अन्योंका मत था अपुरुप विश्वाः स्युः" । ( जैसा कि निरुक्तमें लिखा है कि देवता पुस्पाकार है तथा अन्य कहते थे कि जड़ात्मक ही है । इसका समाधान व्यास ने किया है कि-देवता बाह्यरूपसे जडात्मक है नथा अभिमानी देवत्व Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण पुरुषाकार भी है। परन्तु है पृथक पृथक हो । तथा च प्रत्येक सूक्त कर्ताने अपने अपने अभिष्ट देवताको सर्वश्रेष्ठ देव माना है तथा अन्य देवताओंको निकृष्ट सिद्ध किया है । यथाअग्नि चैं देवाना मयमो विष्णुः परमः ।। शत० १४ । १।१ । ५ अग्नि निम्न देष है और विष्णु परम देव हैं। उसी में सब अन्य देव हैं। इसी प्रकार अग्नि, इन्द्र आदिके स्तुति परक सूक्तों में अग्नि श्रादिको अन्य सब देवताओं में श्रेष्ठ ठहराया है। अभिप्राय यह है कि देवता पृथक पृथक भौतिक शक्तियाँ हैं। यही नहीं अपितु इन देवताओंकी दुर्बुद्धियोंका भी वर्णन है. यथा(माते अस्मान दुर्मतयः) ऋ० ७। १ २२ अर्थ-हे. अग्नि देव श्रापकी दुर्मतियां (भृमान-चिन ) भ्रम से भी हमाग नाश न करें ? इसी प्रकार रुद्रसे प्रार्थना की गई है किमानो महान्तमुत मानो अर्भकम् ।। ऋ० तथा इन्द्रसे भी प्रार्थना की गई है। (मानोवधीरिन्द्र ।।) आदिअर्थात हे कद्र ! श्राप हमारे पिता आदिको तथा छोटे छोटे बालकोंको मन मारो। तथा हे इन्द्रदेव आप हमारा वध मत करो तथा हमारे प्रिय भोजनोंको मत चोर ? (श्मएडा मा) तथा हमारे अण्डाको भी मत चोर और चूरवावे ? Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनसे ज्ञात होता है कि यदिक ऋषियों को यह विश्वास था कि यदि इन देवताओंकी स्तुति. पूजा, आदि नहीं करेंगे तो य हमारे पुत्र आदिकों को मार देंगे तथा हमारा भोजन आदि भी चुरा लेंगे । अतः ये देयता एक नहीं अपितु पृथक २ अनेक हैं। तथा न. य. ईश्वरकी भिन्न शक्तियाँ ही है क्योंकि इनकी दुर्बुद्धि आदि ईश्वर की शक्ति नहीं हो सकती। देवताओं के बाहन निरुपक श्रय ।। ६ में देवताओंके वाहनोंका कथन है : "हरी इन्द्रस्य रोहितः अभिः हरितः दिस्वस्थ, रासभो अश्विनोः, अजाः पूष्णाः पृषत्योमरुताम् , अरुण्योगात्रः उषसः श्याचा सवितुः, विश्वरूपाः वृहस्पतेः नियुतोवायोः" ___ अर्थान-- दोहरे घोड़े इन्द्रक, लाल घाड़ा अनिका. हरा घोड़ा सूर्यका, दो गर्दभ अश्विनीकुमारोंके, बहुतबकरे पूषाके, • पृपती मरुतोंके, लाल गायें उषाके. काले रंगकी सविताके, सब रंगों वाली वृहस्पतिके,-चितकबरी गायें वायुके वाहन हैं।" मूल संहिताओं में भी इन वाहनोंका कथन है, यथा युजाथा रासभं रथे, ऋ० १ । ११६ । २ (अश्विनी देवता) इसी प्रकार ऋ० ७ १ २५ । ५ में इन्द्र के घोड़ोंका कथन है तथा ऋ० ७ । ६० ७ में सूर्यके सान घोड़ों का उल्लेख हैं। (अप्रत सप्त हरितः ) इसी प्रकार ऋ० ५। १३८ । ४ में पूषाके अजवाहन बताये हैं। इससे भो देवताओंकी पृथक पृथक सत्ता सिद्ध है। - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) देव पत्नियां दो ३२ देवांकी ३३ ही पल्नियाँ मानी गई है. इसीलिये अथर्ववेदमें पत्नियों सहित ६६ देवता माने हैं । निरुक्त अ० १।४ ११ । में देव पत्नियोंका वर्णन है. वहाँ यह मन्त्र दिया है...... देवानां पत्नी रुशतीरवन्तु नः, प्रावन्तु नस्तुजये बाज सातये । याः पार्थिवासो या अपामपि व्रते मा नो देवीः सुवाः शर्मयच्छत ।। ऋ० ५ ! १६ १५ इससे अगले मन्त्र, ८ में उन देव पत्नियों के नाम भी बताये गय हैं। यथा--- उनमा व्यन्तु देवपत्नी रिन्द्राएपमाय्यश्विनीराद । प्रारदसी वरुणानी शृणोतुव्यन्तुदेवीर्य ऋतुर्जनीनाम् । ८ प्रश्रम मन्त्रमें सामान्य लया देव पत्नियोंका कथन तथा उनके पृथिवी. अन्तरिक्ष आदि स्थानोंका कथन (जैसा कि देवताओंका है ) किया है। यहाँ निरुक्तमें, श्री यास्काचार्य लिखते हैं कि "इन्द्राणी, इन्द्रस्य पत्नी, अग्नायी अग्नेः पत्नी अश्विनी अश्विनो पत्नी, रोदसी सदस्य पत्नी, वरुणानी वरुणस्य पत्नी ।" आदि-- अर्थात्-इन्द्रकी पत्नी इन्द्राणी. अनि की अनायी, अश्विनीकुमारोंकी. अश्विनी, रुद्रको रोदसी, वरणकी वरुणानी. पत्मी है। यहाँ रोहमी शब्दको भाध्यकारने एक वचनान्त माना है, क्योंकि अथर्ववेदके इसी प्रकरणम रोदसी शब्द एक वचनान्त है. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः यह स्त्री बाचक एक वचनान्त शब्द है, अनः जा विद्वान रोदसी शब्द को द्विवचनान्ल ही मानते हैं यह उनका कथन ठीक नहीं है। दावा पृथवी बाचक रोदसी शब्द इससे भिन्न है। अस्तु यहां प्रकरण यह है कि वैदिक देवताओं के जन्म. कर्म. स्थान. माता. पिता. पत्नियां. वाहन आदि सब पृथक पृथक हैं। इन सब प्रभारणों से देवताओं का अनैक्यत्व सिद्ध है। तथाच वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि-अग्नि, इन्द्र, सूर्य आदि पृथक पृथक कुलों के देवता थे । सब आर्यों के नव देवता नहीं थे। प्रतीत होता है कि याज्ञिक समय में इनका एकीकरण किया गया था । यथा 'मातरिश्वा' यह भृगु बंशियों की कुल देवता थी। ऋ० १६०५१ में है-भरद भृग मातरिश्चा) मातरिश्वा. अमि दवको मित्र की तरह भृग चंशियों में ले जायें। इस श्रुति से अग्नि देवता का प्रचार भृगु बंशियों में करने की प्रेरणा है । तथा जो भृगु बंशियों का पूज्य देवता है। उससे इस कार्यके लिए प्रार्थनाकी गईहै । ऋवेदकी टीका में पं० रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है । कि बाथलिंक और रोथ के विश्व विख्यात कोशमें मातरिश्वा का अर्थ भृगु वंशियों का पूज्य देव किया है । तथ। अनि, अंगिरा. अत्रि यादि कई कुलों के देवता थे। ऋ: मं०५ के दूसरे सूक्त में कहा है कि अत्र तं सृजन्तु निन्दितास निन्यासो भवन्तु ॥६ । अर्थात् अत्रि गोत्रोत्पन्न वृशका स्तोत्र श्रनिको मुक्त करे । तथा अभि की निन्दा करने वाले स्वयं निन्दिन है। धान का निन्दक स्वयं इन्द्र देव थे। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्पर विरोध आदित्यमों की गाना ऋग्वेद मण्डल, २ सूल २७ में ६ आदित्य माने गये हैं। मित्र. अर्यमा, भग, वरुण. दक्ष, अश । मण्डल. ६ सू० ११४ में ७ आदित्य कहे हैं। मण्डल, ४. सूर ७ में लिखा है. कि अदिति के पुत्र थे जिनमें से मातण्ड को त्यागकर वाकीके ६ को अदिति, देवों के पास ले गई तैत्तरीय ब्रामण में इन श्रादि ल्यांका उल्लेख है । यथा धाता. 'अमा. मित्र. वाश. अश भग. इन्द्र और वित्रस्थान शतापथमें १२ महीने १२ आदित्य माने गये हैं। महाभारत आदि पर्थ श्रः १६५ में बारह आदित्यों के नाम निम्नलिखित हैं। धाना. अर्थमा. मित्र, वरुण, अश, भग, इन्द्र. विवस्वान , पुषा त्वष्टा. सविना. और विधा । ये देवासो दिव्येकादशस्थ पृथ्विव्यामधेकादशस्थ । अप्सु क्षितो महिनैकादशस्थ ते देवासी यज्ञमिमं जुषध्वम् ।। ऋ० १ । १३६ । ११ ।। परन्तु अब ऋग्वेद में ही २७. देवता हैं। निरुत में याम्कने देवन काण्डमें १४१ दवना गिनाये हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीणिशता श्रीसहस्राएयग्नि त्रिशञ्चदेवानव चासपर्यन ।। ऋ० ३ । ६8 ३३३६ देवोंने अग्निकी पूजाकी है। श्री. पं. भगवदत्त जी ने वैदिक वांगमय के इतिहास में, वेदभाष्यकार स्कन्द स्वामी का वाक्य लिखा है जो उन्होंने मीमांस का के सिद्धान्त के विषय में लिया है । यथा "कैश्चित्तु मीमांसकः वेदोषरमपुनिषद् न बाग व्यवहारातीतम् ब्रह्म इति शून्यचाचो युकिरिति वदभिः अपहसितम् पृ० २३० अर्थात -कई मीमांसक उपनिषदों को वेद का बंजर भाग बताते हैं उनका कहना है ( वाग व्यवहार से रहित युक्ति श्रादि से विरुद्ध वर्णनातीत ) शून्य ब्रह्म वेद का विषय नहीं है ।" इस प्रकार से ये लोग ईश्वर वादियों का मजाक उड़ाते हैं। सारांश यह है कि यानिक लोग वेदों में ईश्वर का जिकर नहीं मानते उनके मातानुसार वेदों में यज्ञा का ही वर्णन है । सृष्टि श्रादि की उत्पत्ति का कथन सब 'अर्थवाद' मात्र अर्थात् भक्तो की ( भक्ति के श्रावेश में) कल्पना मात्र है । इसका विशेष कश्चन हम 'मीमांसा' प्रकरणमें करेंगे। प्रजापति यज्ञ शतपथ ब्रा में लिखा है कि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रष्टीवमकः । एकादशरुद्रा द्वादशादित्याइमे एवं छायापृथिवीत्रयस्त्रिंश्यो, प्रयस्त्रिंशदू व देवाः प्रजापतिश्चतुस्त्रिशस्तदेनं प्रजापति करोति एतद् घा.""म एष प्रजापतिः सर्व व प्रजापतिः तदेनं प्रजापति करोति। श०४॥१२॥ ___ अथोत्-पाठ वसु. ग्यारह नद्र, बारह श्रादित्य, छौ और पृथिवी, य ३३ तेतीस देव है । प्रजापति चौतीसवां है सा इस यजमान को प्रजापति का बनाता है। यही वह जो अमृन है और अमृत है यही वह है । जो मरण धर्मा है वह भी प्रजापति है। मब कुछ प्रजापति है, अतः इस प्रजापति को करता है। ___यहां स्पष्ट रूप से यज्ञ का प्रजापति कहा है जो भाई प्रजापति का अथ इश्वर करते हैं उन्हें विचार करना चाहिय कि यहां भी स्पष्ट लिखा है, 'प्रजा पति करोति' अर्थात् प्रजापति को करता हूँ। तो क्या यह परमेश्वर को बनाता है। अतः सिद्ध है कि श्राह्मण ग्रन्थों में भी ईश्वर का जिकर नहीं है। श्रीमान पंनरदेव जो शास्त्री ने अपने ऋग्वद । लोचन के 'याज्ञिक पक्ष' में लिखा है कि याज्ञिक लोग बंदी को ऋषियों की अन्तः स्फूर्ति से उत्पन्न हुना ज्ञान मानते हैं। अग्नि, वायु. इन्द्र. मा श्रादि सभी देवताओं का 'चंतना विशिष्ट मानते हैं । उनका यह विश्वास है कि संसार की प्रत्येक अचेतन वस्तु का भी एक अभिमानी देवना अवश्य होता है। इनमें भी दोपक्ष हैं। एक पक्ष देवताओं का श्राकार वाला मानत हैं। मीमांसाकार का यह मत सम्मत नहीं है । उन्होंने इसका खण्डन किया है। दूसरा पक्ष देवताओं का श्राकार नहीं मानता साकार मानने वाला पक्ष यह कहता है कि--- Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) इन देवताओं को साकार चेतन पुरुषों की भांति स्तुति की गई हैं । साकार पुरुषों की भांति उनके नाम भी हैं । साकार पुरुषों के अंगों के तुल्य इनके अंगोंकी भी स्तुतिको गई है।" यह वैदिक-धर्म कब का है • श्रीपं नरदेवजी शास्त्रांग ऋग्वेद लीयामें ले किं-- 'हमारा प्रबल अनुमान है कि वैदिक धर्म और यज्ञपद्धति हिम युग के पश्चात् की है । इसके श्रादि मूल का पता लगाना कठिन है तो भी आदि आर्यों ने ध्रव विशिष्ट लक्षणों से वैदिक देवताओं की निर्सग शक्ति को देवनाओं की पदवी दी है, वह दशा पुगणों में बस मे स्थल अथवा उत्तरध्र व प्रदेशों में रहने के समय की थी. इसमें सन्धेह नहीं । हिमपान से इस स्थान का नाश हुआ फिर बचे हुये श्रायं अपने साथ बची हुई सभ्यता और धर्म को लेकर यहां से चल पड़े. और उन्होंने धर्म और मभ्यता के इन्हीं अवशेषों पर हिमोत्सर कालीन धर्म की रचना की। तथा श्रीमान ६५ जगन्नाथप्रसाद, पचौली गौड, सागर (सी० पी०) ने अपनी पुस्तक वेद और पुराण में इसी विषय का अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है। तथा श्री लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का भी यही मत था। इसी मत की पुष्टि. पं. उमेशचन्द्र विद्या रत्न. ने की है। सभी निष्पक्ष विद्वाना का प्रायः यही मत है। सारांश निरुक्त कार ने तीन प्रकार के ही मन्त्र बताये हैं. (१) प्रत्यक्ष Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t ( ८६ ) कृत, (२) परीक्ष कृत (३) अध्यात्मिक इनमें प्रत्यक्ष कुन मन्त्रों में तो सूर्य. अभि आदि जड़ पदार्थों की स्तुति आदि हैं । तथा परोक्ष कृत मन्त्रों में इन जड़ देवताओं का एक एक अधिष्ठाता देव मानकर इनकी स्तुति की गई है। अध्यात्मिक मन्त्रों में आत्मा का तथा उसके शरीर आदि का कथन है। इन्हीं की अधिमेतिक बाद, तथा आधिदैविक वाद और साध्यात्मिक बाद ना कहते है ( इनमें से अधिमतिक, बाद ही प्राचीन है, तथा श्राधिदैविक (याशिक ) बाद उसके पश्चात का है (आध्यात्मिक वाद नवीन तर हैं। वैदिक आध्यात्म वाद में और वर्तमान अध्यात्म बाद में रात और दिन का अन्तर है. जिसका वर्णन हम आगे करेंगे यहां तो यही प्रकरण है कि इन तीनों प्रकार के मन्त्रों में वर्तमान ईश्वर का कहीं संकेत मात्र भी नहीं है । यह ईश्वर कल्पना भक्तों की भक्ति का था वेश मात्र है। न यह कल्पना for है. और न वैज्ञानिक | विशेष विचार देवताओं के सम्बन्ध में निम्न बातें भी विचारणीय हैं। (१) सम्पूर्ण देवता उत्पन्न धर्म्मा हैं । (२) सब देवता विभक्त कर्मा हैं । अर्थात प्रत्येक देवता के 3 कार्य निश्चित हैं तथा अभि का कार्य देवताओं को हवि पहुंचाना हैं । इन्द्रका कार्य असुरों को नष्ट करना है। वरुणका कार्य शन्ति है । विदेषों का कार्य देवों की चिकित्साकरना है आदि आदि । (३) सब देवों के शगर, हाथ, पैर, मुव आदि हैं (४) सत्र देव वस्त्र, आभूषण, आदि पहनते हैं । (५) सब के शस्त्र आदि प्रथक पृथक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) सबक शत्रु मित्र. कुटम्बीजन हैं। (५) कोई देवता सात्विक प्रकृति का है मां कोई. राजसी का तो कोई तामसी प्रकृति का है। जैसे इन्द्र मांस शराब आदि का सेवन करता है । इत्यादि उपरोक्त बातों से भी स्पष्ट सिद्ध है कि वैदिक देवताओं में से कोई भी ईश्वर स्थानीय नहीं हो सकता। दिग्पाल . चारदिशाओं के चार दिग्पाल हैं। अग्नि पूर्व का. यम. दक्षिण का. वरुण. पश्विम का सोम. उत्तर का। पं. प्राणनाथजी गुरुकुल कांगड़ी के सुप्रसिद्ध स्रातक, डा० प्राणनाथ जी विगालंकार, डी. एस. सी. ( काशी) ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में एक लेखमाला. 'जम्बूद्वीप.का धर्म, इतिहास, तथा भूगोल के नाम से प्रकाशित करनी प्रारम्भ की थी। परन्तु शोक है कि वह आगे न चल सकी। अदि ग्रह लेखमाला पुरी प्रकाशित हो जाती तो वैदिक विषय के अनेक रहस्य प्रकट हो जाते । अापने उसमें लिखा है कि--- निरुक्त के लेखक 'यास्क' को यह पता ही न था कि वेद कहां से आये और किन लोगों के पुजारियों तथा पुरोहितों ने उन्हें बनाया। उनके इतिहास का भी उनको ज्ञान न था । यदि गम्भीर रूप से यारक को पढा जाय तो यह भी मालूम पड़ जायगा कि उसको बहुत से संस्कृत शब्दों का उद्भव नक न मालूम था। जिस प्रकार ईसाई तथा पौराणिक धर्म को दबाने के Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) लिये दयान ने वैदिकभाय किया है. उसी प्रकार कौत्स चार्वाक, आदि वेद विरोधी पंथों के दबाने के लिये यास्क ने निरक्त रचा। उसने आर्य भाषा के बहुत प्राचीन शब्दों की कपोल कल्पित भ्रमात्मक. असभ्य पूर्ण व्युतपत्ति दी । उसको इतना तक तो मालूम न था कि एक पदार्थ को सूचित करने वाले भिन्न भिन्न संस्कृत शब्दों में क्या भेद है। गौ. ग्मा, दमा, भू भूमि श्रादि शब्द सब उसके लिये पर्याय वाचक हैं। उन शब्दों में क्या भेद है इसको प्रकाशित करने में रूप से था श्रीद्धति का यह परिणाम है कि दयानन्द पंथियों ने वेदों में वर्तमान युग के नवीन नवीन आविष्कारों को निकालने का बीड़ा उठा लिया है : ऋग्वेद का ऐतिहासिक पक्ष कितना महत्वपूर्ण है. इसका ज्ञान इससे हो सकता है कि ऋग्वेद के बहुत से राजा सूसा, सुमरे अक्कद हित, फीनीशिया मिस्र आदि देशों के शासक थे । " तिथि, भूमि, लड़ाई वंश आदि भी उनके ज्ञात हैं।" आदि आपने अपने इस पक्ष को प्रथम प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध किया है। वैदिक शब्दों का मिलान उन उन देशों को प्रचीन भाषा से किया है उनमें आश्चर्य जनक साम्य है। आपने यह भी सिद्ध किया है कि इन्द्र आदि वैदिक देवता, मिस्र आदि देशों के राजा थे । तथा यह इन्द्र आदि उपाधिवाचक शब्द है । अर्थात ये शब्द राजाओं की उपाधि सूचक थे। इसी प्रकार वैदिक सृष्टि के पियों में भी अनेक रहस्य प्रकट किये हैं। आपने वैबोलियन जाति में पुजने वाले प्राचीन देवताओं के चित्रों से वैदिक मन्त्रों के देवों का सुन्दर मिलान किया हैं। उन सबसे वैदिक देवताओं का रहस्य प्रकट हो जाता है । * नोट सात लेकर जी द्वारा लित्रित महाभारत की सम्मा लोचना से भी उपरीकत की पुष्टि होती है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ) लोकमान्य तिलक श्री. लोकमान्य तिलक का कथन है कि : अथर्व वद के मन्त्र तन्त्र तथा कलदो लोग: यो आहोने ३५र है।" ____ को ५ स्। १३ के सांप उतारनेके, बालिगीना विलीगी. कर गूला, तात्रुध. प्रादि शब्द फलदी जाति के ही शन्न है ।" अनेक विद्वानों का मत है कि अथर्व वेद' का नामकरणाईरानी भाषा (अवन) शब्द के आधार पर रखा गया है । मन्त्र नन्न भी वहीं के हैं । अश्रवन का अर्थ पुजारी है। अभिप्राय यह है कि वेदों में आधुनिकईश्वर की मान्यता का अभाव है । जिस प्रकार वेदों में ईश्वर की मान्यता नहीं है उसी प्रकार वेदों में सृष्टि उत्पत्ति का भी कथन नहीं है कथन की तो बात ही क्या है अपितु मृष्टि उत्पत्ति का बलपूर्वक विरोध किया गया हैं। श्री कोकिल्लेश्वर भट्टाचार्य, और वैदिक देवता आग्न्यादि देवतावर्ग कोई जड़ पदार्थ नहीं हैं. अग्नि श्रादि देवता कारण सत्ता व्यतीत अन्य कोई वस्तु नहीं है, यह सिद्धान्त सुदृढ़ करने के लिये ऋग्वेद में एक और प्रणाली अवलम्बित हुई है । हम पाठकगणों को वह प्रणाली भी दिखा देंगे। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में ऐसा देखा जाता है कि. जभी उन स्थलों पर किसी देवता का उल्लेख किया गया है तभी एसी बात कही गई है कि, भान्यान्य देवता उस देवता को ही धारणा करते हैं. उस देवता का ही प्रत धारण करते हैं. उस देवता की ही स्तुति करने हैं 'बिदिक महर्षियों के चिन में यदि अनि श्रादि देवताओं .... Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कारण-सत्ता या ब्रह्मस्वरूप मानने का बाध न होता. तो हम ऋग्वेद में सी उक्तियां देखने को न पाते ! यदि अग्नि कोई स्वतन्त्र जड पदार्थ ही है. तो फिर यह बताना पड़ेगा कि अन्यान्य देवता किस प्रकार अपने में उस अग्नि को धारण करते हैं. किस प्रकार देवता उस अग्नि का ब्रत थ कार्य पालन करते हैं, और क्यों उस जड़ अग्नि की स्तुति करने हैं ? इन प्रश्नों का समाधान नहीं मिल सकने से अनिवार्य रूपेण यही मानना पड़ता है कि अग्नि प्रभृति देवताओं में जो कारण-सना अनुप्रविष्ट है वह। म्तुत पात्र है, क्योंकि वही ब्रह्म सभा है। आगे हम कुछ मन्त्र लिखकर बनाते हैं। "देवा अग्निं धारयत द्रविणोदाम्" अग्नि देवासो अग्निमिन्धते । ६ १६ । ४८ । स्वां विश्वे अमृत जायमानं शिशुन देवाः अभिनवन्ने (६ । ७ ! ४) स्त्याहि अग्ने वरुणो धृतवृतो मित्रः शाद्रेि अययों सुदानवः । यत्सी मनुक्रतुना विश्वथा विभु अरान्न नेमिः परिभर जायथाः ॥ ६ । १४६ । ६ |F वे अग्ने विश्वे अमृतासी अद्रहः ।।१।। नव श्रिया सुदृशो देव देवाः । ५।३ । ४ । अग्ने नेमिग्रॉ इव देवांस्त्वं परिभामि । ५११३।६। ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशयेकं मनो जाविष्ट पत्तयत्सु अन्तः । विश्वे देवाः समनसः सकेताऽएक क्रतुमागवियन्तिसाधु ।। (६ । . | ५) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्नि--सविता. मित्र, वरुण प्रभृति देयना धन प्रदाता अनि को धारण कर रहे हैं । रथ चक्र की परियों को जैसे नेमि व्याम किय है। अनि ? तुम भी वैसे मन को सर्व तो भाव से व्याप्त कर रह हो । तुम्हारे साहाय्य से बमरण स्वीय अत धारण करने हैं. मित्र अन्धकार नाश करने हैं. एवं अर्यमा मनुष्य की कामना ओं की मामी मान करते हैं । सब देवता श्रम का ही याग करते हैं. अग्नि में ही होम करत हैं। प्रथमाभिव्यक्त अग्नि का मब श्यता नमस्कार करते हैं । है अग्नि ? अन्य सत्र अमर देव वर्ग सुम में ही अवस्थित हो रही हैं. सभी देवता तुम्हारे श्राभित है। हे अग्नि ? तुम्हारा ही ऐश्वर्य देवताओंका ऐश्वर्य है। देवता अग्निमें प्रविष्ट होकर निवास करते हैं। प्राणियोंके हृदयमें अग्नि अचल ध्रुव ज्योति रूपले प्रविष्ट है। सब इन्द्रियाँ इस नित्य अग्नि के समीप ही विचिंध विज्ञान रूप उपहार प्रदान करती हैं। सभी इन्द्रियाँ इस अग्नि की क्रिया का अनुवर्तन करती हैं। पाठक गण विवेचना कर देखें, इन स्थलों में अनि. शब्द द्वारा सब देवताओं में अनुस्यूत कारण सत्ता ही जान पड़ती है । कारण सत्ता माने बिना, देवना अग्नि को धारण किये हैं, इस उक्ति का कोई अर्थ नहीं बनता 'ध्र य ज्योति' मन्त्र में अग्नि स्पष्ट ब्रह्म सत्ता रूप से वर्णित है। कठोर निंप में श्रात्मा के सम्पन्ध में अवकल ऐ.मी ही शत देखिये 'सर्व प्राण मुखयति अपार्न प्रत्य मत्यति । मन्ये वामन मा मीन विश्व देवा उपामते, २।५।३ हृदय पुण्डरीका काशे पानी में शुद्धाव भिव्यक्त ... सर्व देवा श्चक्षु रादयः रूपादि विज्ञानं बलि भुगदरस्ती विशाइब गजान . तादन अनुपरत व्यापारा भवन्तीत्यर्थः ( शंकर भाव ) पाठक 'पट ल, शुद में शनि का वर्णन भी ऐसा ही है । अन्य स्थान में भी पास स्य मम योजुन ६:११४ । नजान वंशक ) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .मरुन नामक देवता के विषय में सुनिये-- यस्या देका उपस्थे ब्रता विश्वे धारयन्ते ।८६४ाश अात्मा देवानां वरुणस्थ गर्भः ११०११६८१४१ मा की गोद में प्राषित रह कर, देवता वर्ग निज निज व्रत वा क्रिया निर्वाह करते हैं। पाठक सोच लें, मरुत का अनुभव कारण-सत्ता रूप से यहां हो रहा है । इसलिये इन्द्र को 'ममत वान रुद्र को 'मरुन वान' कहा गया है । और इसी उद्देश्य से वायु को दूसरे मन्त्र में देवताओं का अात्मा माना है । वश के लियं लिखा है वरुणस्य पुरः "विश्वे देवा अनुव्रतम् ।।४१७॥ न वां देवा अमृत आमिनन्ति ब्रतानि मित्रा वरुणा ध्र वानि !५।६।४। यस्मिन् विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिवश्रिता ना४१६ वमण के ही सन्मुख सत्र देवता निज २ क्रिया सम्पादन करते हैं। हे मित्र वरूगा ? कोई भी देवता तुम्हारे कर्मों का परिमाण नहीं कर सकता । रथचक्र की नाभि में जैसे अरियां प्रथित रहती है. से ही वरुण में त्रिभुवन अथित है। इन स्थानों में वरुण. .--. .... ...- . ___ और यह भी है---"तव थिये मरुतो मजयन्तः । ५ । ३ । २ । यांग्स के ही प्रावार्थ मरुद्गण अन्तरिक्ष का मार्जन करते हैं यह भी देखते हैं कि- ही देवताओंका अन्म जानता है | ८ | ३६ । ६ । सर्वत्र ही अभि शन द्वारा कारण मना निर्देशित हुई है।" .--. - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कारण सत्ता का ही लक्ष्य करता है। सविता पर भी ऐसी ही उक्तियाँ मिलती हैं। न यस्येन्द्रो वरुणो न मित्रो व्रत पर्यमा न मिनन्ति रुद्रः (२।३८ । ) यस्य प्रयाण मन्वन्यऽधयुर्देयाः । ॥१३॥ अभि यं देवी अदितिगृणाति सर्व देवस्य सवितुर्जुयाणा। अभि सम्राजो वरुणोगृणन्ति अभिमित्रासो अयमासजोषाः (७ ! ३८ । ४) तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् । ५। ६२ । १ चक्षुत्रस्य वरुणस्याग्निः । देवानामजनिष्ट चतुः। ७ । ७६ १।। इन्द्र. करुण, मित्र अर्यमा और भद्र कोई भी सविता के व्रत वा कर्म का परिणाम नहीं कर सकता। सूर्य की गति के ही अनुगत होकर अन्यान्य देवता गमन करते रहते हैं। सूर्य की गति से पृथक स्वतन्त्र रूप से किसी भी देवता का गमन सिद्ध नहीं होता। सविता द्वारा प्रेरित होकर ही अदिति, वरुण, मित्र, अर्यमा प्रभृति देवता वर्ग सविता की स्तुति किया करते हैं । वह एक सूर्य सब देवताओं में श्रेष्ट है, सविता मित्रादि देवोंका चक्षु है इत्यादि सब स्थानों में सविना शब्द कारण-मत्ता का ही बोधक है। सोम शब्द भी कारण सत्ता का निर्देश करता है । पाठक दो चार मन्त्र देख लें। ___ और लिखा है कि, सविता ही देवताओंके जन्मका नत्य जानन हैं 'वेद या देवानां जन्म । ६।५११९ । “पागावीत देवाः सविता जगन्" ५। १५.७ ॥ १६॥ ने से पृथक र अन्यान्य देवता र सकता। सूर्य भी सविता के Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोम-अस्य ते सजोषसो विश्वे देवासी अद्र है: ।8। १०२ । ५। विश्वस्यः उत तितयो हस्ते अस्य ।।६।६। विश्वा संपश्यन् भुवनानि विचक्षसे । १०२५।६। तुम्येमा भुवना को महिम्ने सोम तस्थिरे।। 8२२७ जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः जनिता अग्नेः । जनिता सूरस्य जनिता इन्द्रस्य जनिता विष्णोः ॥ ह। ६६ । । । पिता देवानाम् । १।१०६ |४, । ७ १२ सोम के ही व्रत वा कर्म में अन्य देव अवस्थित हैं। विश्व के सभी प्राणी सोम के हाथ में हैं, सोम ही त्रिभुवन का बहन करता है या विश्व, सोम को हो महिमा में स्थित है। सोम सब देवताओं का जनक है। इन सभी स्थलों में सोम-कारण सत्ता है। विश्वेदेवासस्त्रय एकादशासः ।। 8२ 1.४ ।। देवो देवानां गुह्यानिनाम साविकणोति | 818५। २ है सोम ? तेतीस संख्यक देवतावर्ग सभी तुम में हो तुम्हारे ही भीतर अवस्थित है । सोम ही समस्त देवताओं का जो गूढ़ नाम है उसे प्रकाशित करता है इन्द्र को लक्ष्य करके जो कुछ कहा गया है. सो भी यही तत्व है। ___ इन्द्र ! विश्वेत इन्द्र वीर्य देवा अनुऋतु ददुः । ६७ __ न यस्य देवा देवता न मयाँ प्रापश्चन शवसो अन्त मापुः |११००१५ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य व्रतेवरुणों यस्य सूर्य ।।१०११३ त्वां विष्णु वृहनक्षयो मित्रो गृणति वरुणः । या शो मदत्यनु मारूतम् ||१शह समिन्द्रो अनुत संक्षोणी समु सूर्यम् ।।५२।१० हे इन्द्र ? तुम्हारी ही प्रशा एवं वलका अनुसरण कर अन्य समस्त देवता प्रज्ञावान एवं बलवान हैं। देवताओं में कोई भी इन्द्र के बल का अन्त नहीं पाता । वरुण और सूर्य प्रभृत्ति देवता वर्ग:इन्द्र के ही प्रत व कर्म में अब स्थित हैं । अर्थात् इन्द्र के ही कर्म का अनुसरण का मार्ग वरुणादि देवगा निज निज क्रिडा करते रहते हैं. १ विष्णु, मित्र. वरुण और मगत प्रभृति देवता वर्ग. हे इन्द्र ? तुम्हार। स्तुति किया करने हैं। इन्द्र ही धावापृथ्वी को अपने कार्य में प्रेरण करते हैं एवं इन्द्र ही सूर्य को प्रेमगणा करते हैं। इन्द्र में विश्वप्रश्चित हैं. "अरान्न नमिः परित्ता वभूव" ।।३२|१५| विष्णु के विषय में लिखा है। विष्णु । जनयन्ता सूर्य मुपा सपग्निम् 19888 न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्त माप HIKER विष्णु ने ही सूर्य. ऊपा एवं श्रग्नि को उत्पन्न किया है है विधाो ! कोई मनुष्य हो वा देवता हो तुम्हारी महिमाका अन्त पाता नहीं । अश्विनी कुमारीको लक्ष्य कर कहां गया है कि देवताओंमें जो मामर्थ्य है, उसे इद्रने ही देवताओं में रखा है । यब धारयया अमर्या । कलम 1-६ | ३६ | १ -.-.. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( हड ) । युवमग्निञ्च वृषणापश्च वनस्पतीं अश्वि-- द्वय रविनात्रैरयेथाम् | १|१५७५श युर्वेद गर्भ जगतीषु भ्रत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः ॥ अश्विनी कुमार ही अग्नि को उसके काम में लगाते हैं । अश्विनी कुमार ही इस जगत् के गर्भ स्वरूप (कारण - बीज) हैं, एवं विश्व भर में टिके हुए हैं ॥ * पाठक । अग्नि सोम इन्द्र, विष्णु सविता अश्विनिय के सम्बन्ध में ऊपर जो उक्तियाँ उदधृत की गई, वे निश्चय ही देवताओं में अनुस्यूत हम सत्ता को लक्ष्य करता है। अन्यथा सारी उक्तियाँ निरर्थक ही पड़ेगी। फिर हम नाना स्थानोंमें ऐसी ही उक्तियां पाते हैं कि अग्नि सब देवताओं का समष्टि स्वरूप हैं. सूर्य भी सब देवों का समष्टि स्वरूप है. ऊषा भी आदित्यगण का समष्टि स्वरूप हैं एवं देवताओं की माता है । 'त्रितन्तु उन्स' की ओर उपस्थित होता है" ( १ | ३० | ६ ) । यह बात कही गई है। त्रितन्तु उस सत्व रज तमोगुणात्मक कारण सत्ता व्यतीत ग्रन्य कुछ नहीं । सुतरां जलके मध्य कारण सत्ता का ही निर्देश किया गया है। जिस समय भारत वर्ष में घर २ में नित्य ही वेदग्रन्थ पड़े जाते थे उस समय सभी लोग जानते थे कि ऋग्वेदमं व्यवहृत श्रभियादि देवताओं का अर्थ क्या है तब किसीको भी भ्रम नहीं होता था। इस समय वेदोंकी आलोचना नहीं इससे किस श्रथमं वरुण अभि यदि शब्द प्रयुक्त हुए है सो बात लोग भूल गये हैं अन्नादेके समय जल के प्रति प्रार्थना देवकर अनेक व्यक्तियोंको मामित्र होने लगता है कि मानो जड़की उपासना है । इसीलिये संध्या Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वमदिने सताता (१९४।१४), मनो यक्षत् देवताता, यजीयान (१०८३.१), स्त्रोमेन हि बागे 'अग्निमंजी जनन शक्ति भिः (१०१०) इन स्थलों में श्रन विताओं का समष्टि स्वरूप कथित हुआ है सूर्य भी देवताओं का समष्टि रूप है. सो भी देखिये. इदमुत्यन्महिमहामनीकम् (शहा, सूर्य-एडल ही सकल महान् देवताओं का समूह-स्वरूप है। ऊषा को भी देवताओं का समूह-रकर कहा गया है। माता देवानाम दिनेग्नीकम् (१।११३:१६) । उसी प्रकार----इन्द्र के वन को मरुद गमों का समष्टि-स्वरूप मित्र का गर्भ-स्वाप वं वरण का नाभि-स्वरूप माना है। अत्त... इस उपलक्ष में हम पाठकों से और एक बात कहेंगे। अद्यापि दैनन्दिन उपासना और संध्याचन्दन के सगय हिन्दूगण 'जल की प्रार्थना किया करते हैं। और समुद्र, नदी भागी रथी गंगा, यमुना श्रादि की पूजा किया करते हैं। यह जल. जड़, नहीं, ऋग्वेद ने सो बात स्पष्ट कर दी है। जल के निकट जब प्रार्थना की जाती है. तब उस प्राथना का लक्ष्य जड़ जल नहीं हो सकता। जल में अनुस्यूत कारण ससा वा ग्राह्य ही उसका लक्ष्य है जल के प्रति जो हमारी पूजा-प्रार्थना है वह जड़ोपासना नहीं चैतन्य धन परमात्मा की ही उपासना है । ऋग्वेद ने हमें जताया है कि-वरुण देव मनुष्यों के पास-पुण्यों को देखते हुए जल में सञ्चरण करते हैं।" और ऋग्वेद से यह भी उपदेश पाते हैं कि अग्नि ही जल का गर्भस्वरूप है जल के भीतर अग्नि ही निरन्तर स्थित रहना है । यश्रा--- Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा वरणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यन् जनामाम् । (४६३) वह्वीनां गर्भा अपसामुप स्थात्” (१९५४) 'गुह्यं गूदपप्सु' (३।३६६) "वैश्वानरो यासु अग्निः प्रविष्टः' (१४६४) ३३१५३ एवं "सोम''''''अपा यद् गर्भोऽवृणीत देवनाम्" (६७४१) . सोम जल का गर्भ स्वरूप है। किन्तु हम ऊपर आलोचना कर चुके हैं कि ऋग्वेद में 'अग्नि' 'वरुण' प्रति शब्दों द्वारा, कार्य वर्ग में अनुप्रविष्ट कारण-सत्ता या कौतन्य ससा ही निर्देशित हुई है। सुतरां पाठक वर्ग सहज ही में समझ लेंगे कि ऋग्वेद जब भी जल के निकट कोई स्तुति प्रार्थना करता है, तभी उसका लक्ष्य भौतिक जड़ जल नहीं किन्तु जल में ओत प्रोत कारण-सत्ता ही है । कारण या अझ सत्ता के लिये ही प्रार्थना एवं उपासना की जाती है। - इस भांति भी आप समझ सकते हैं कि ऋग्वेद में जो देवता कहे गये हैं ने जड़ पदार्थ नहीं । ऋग्वेद की उपास्य वस्तु देवताओं में अनुस्यूत कारण-सत्ता अथवा ब्रह्म-सत्ता ही है। . . एक ही मूलशक्ति भिन्न २ देवताकारसे प्रकट हुई है इस बात का स्पष्ट निर्देश", हमने इतनी दूर तक, किस २ प्रणाली से ऋग्वेद में कारण'सत्ता निर्देशित हुई है इस विषय की अालोचना कर दी हैं, अब यह भी जान लेना चाहिये कि ऋग्वेद ने स्पष्ट स्वरसे भी कारणसत्ता हमें बता दी है। एक ही कारण-सत्ता अग्नि वरुणादि भिन्न देवताओं के नाम से बाहूत हुई हैं इस चात का ऋग्वेद Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नामा स्थानों में स्पष्ट उल्लेख है। दो चार स्थल पद्धृत किये जाते हैं। ___ इन्द्रं मित्रं वरुण पग्नि माहुरथो दिव्यः स सुपोंगरुत्मान एकं 'सद' विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं पमं भातरिश्बानमाहुः ॥ (१२१६४४६) . . ___ सुपर्ण विश्रा कवयो बर्षाभिरेक 'सत्य' बहुधा कल्पयन्ति । (१०।११४॥५) यमृत्विजो बहुधा कल्पयन्तः सचेतसो यामिमं बहन्ति । (८।५८११) . एक एवामिबहुधा समिद्धः एकः सूर्यो विश्वमनु प्रभूतः। एकै बोषासर्वमिदं विभाति एक वा इदं विषभूवः सर्वम् ।। . . ( । ५८ | २) अर्धात-तत्वदर्शी जन एक ही सत्ता' का विविध नामों से निर्देश करते हैं। एक ही सवस्तु इन्द्रनाम से, परुण नाम से, अग्नि नाम से परिचित हैं । शोमन पक्ष-विशिष्ट गरुत्वमान् नाम से भी पंडिसगण उसे बुलाते हैं । यही सवस्तु अग्नि, यम और मातारिश्मा कही जाती है । सुपर्ण वा परमात्मा एक ही सत्ता मात्र है इस एक ही सत्ता को तत्व ज्ञानी गण विविध नामों में ::. ई मोमको 'सुवर्ण' कहा जाता है। दिव्यः सुपण अवकृत दम ६:। ७१ ॥ ६) प्राण शक्तिको भी 'सुपरग' कहते . . है |. (- अथर्ववेद धन्य है ) विष्णुको भी 'सुधमा कहा जा सकता है | मूर्यको भी सुपर्ण, कहा है । "सुधगों अंग: सचिंत गरमान पा जाता (१० | १४ । ३) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पना करते है। बुद्धिमान इत्वक गए एक ही सवस्तु की बहु प्रकार से, बहुत नामों से, कल्पना करके यश सम्पादन किया करते हैं। एक ही अनि बद्र प्रकार से बहत स्थानों में प्रज्वलित हुश्रा करता है। एक हो सूर्य समम विश्व में अनुगत-अनुस्यूत हो रहा है। एक ही ऊम सब वस्तुओं को विविध रूप से प्रकाशित. करती है । एक ही वस्तु विश्व में विविध वस्तुओं का आकार धारण कर रही है। इन मंत्रों में पाठक देखें, अग्नि, यम, मित्र, चरणादि एक ही सद्भस्तु के नामान्तर और एक ही वस्तु के विविध प्राकार है। देवता एक ही देवता के अंग प्रत्यंग स्वरूप हैं। अग्नि, सूर्य, वरुणादि देवता एक ही सत्ता के, एक ही वस्तु के भिन्न २ रूप और भिन्न २ नाम मात्र है, यह तत्व ऋग्वेद में उत्तम रीति से मिलता है । इस लत्त्व को हम ऋग्वेद में एक अन्य प्रकार से भी देखते हैं । अभि की स्तुति करते हुए ऋषि अनुभव करते हैं, कि इन्द्र चन्द्र वरुणादि सब देवता अग्नि के मध्य में अन्तमुक्त है- ये सब अग्नि के ही शाखा स्वरूप हैं। विष्णु की स्तुति के समय भी कहा गया कि अन्यान्य देवता विष्णु केही शाखा स्वरूप हूँ । म प्रकांड वृझकी शाखा प्रशास्त्राएँ जैसे वृक्षके ही अंग-प्रत्यंग स्वरूप है, वृक्ष की लना में ही जैसे शाखा प्रशास्वात्रों की ससा है पैसे ही सभी देवता एक ही परम देवता के "या" (शाखाः) इदन्याभूताति अस्थ" (२२३५/८)। अस्य देवस्य चया विष्णोः (१४०/५) 'त्वे विश्वे सहसःषुत्र देयाः [[कम्य पात्मनः अन्ये देवाः प्रत्यंगानि भवन्ति कर्म जन्मानः प्रात्मजन्मानः इत्यादि (निम्ता |७|४) । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में भी सूर्य, अभिप्रभृनि देबनाव की पुरुष के अंग प्रांग रूप में वर्गना की गई है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग-प्रत्यंग स्वरूप हैं । उस परम देवता की सत्ता में ही इनकी सत्ता है. उस महा सत्ता के अतिरिक्त देवता की स्वतन्त्र ससा नहीं। “यो देवानामधि देव एकः (१ ।१०६15)'। इसीलिये निरुक्तकार यास्क ने..-देवताओं का एक ही परमात्मा के अंगप्रत्यंग रूप से स्पष्ट निर्देश किया है। प्राथवेव ने स्पष्ट कहा है कि एक ही वस्तु. अवस्था-भेद से भिन्न २ नाम प्रहण करती रहती है। . स 'वरुण सायमग्निर्भवति म मित्रो भवति प्रात रुगन् । स 'सविता' भृत्वा अन्तरिक्षण यानि स 'इन्द्रो' भूत्वा तपति पध्यत्तो दिवम् ॥१३५३।१३। श्री० पाण्डेय रामावतार शर्मा, के विचार . देवता प्रकरण "अनि मोने" युग में उपासक अपने मुल्य देवता से स्वर्ग या मोक्ष की मांग करते नहीं मिलते. उनका जीवन ही उनके लिये अमृनत्य था, अतः वे जीवन को ही सुखी व चिरायु बनाना चाहते थे। कोई भी ऋचा बेद की ऐसी नहीं जिससे इस सम्बन्ध की आधुनिक टि का समर्थन किया जा सके। उनके तत्कालीन उत्साह पूर्ण आनन्दमय जीवन की तीन लालसा थी जिनका मंकेत अग्नि की स्तुतियों में किया गया है वे ही लालसा अन्य देवताओं की स्तुतियों में भी प्रधानता रखनी हैं। उनके अनुकूल अनि के विशेषण तीन श्रेणियों में रक्वे जा मत है। १.-ली श्रेणी में-पुरोहित -री श्रेणी में--यज्ञस्य देव ऋत्विज होतार ३.री श्रेणी में रत्नधातम. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) पहली श्रेणी के विशेषरण 'पुरोहितम् में हितैषिता का भाव है और अभि को पुरोहितम् कह कर कल्याणकारी कामों में प्रसर रहने की जो कल्पना की गई है उसकी विद्यमानता सभी स्तुतियों में मिलती है। अभि-वरुण इन्द्र विष्णु-रुद्र आदि की स्तुति इसी कारण की जाती थी कि उससे उनके उपासक कल्याण होने की दृढ़ आशा रखते थे। इसके उदाहरण स्तुति प्रधान ऋवेद में संग्रहित ऋचाओं में भरे पड़े हैं। ऐसे ही विश्वास में श्रम को गृहपति व पति नाम दिये गये और पुरोहित उपाधि देने का कारण भी स्पष्ट किया गया---त्वमग्ने गृहपतिस्त्वं होता नो अध्वरे । त्वं पोता विश्ववार प्रचेता यक्षि वेषि च वायें ।" इन्द्र की कृपा भी इसी विश्वास में चाही गई— 'एवा न इन्द्रं वार्यस्य पूर्वगते महीं सुमतिं वेषिदाम ।" जिस प्रकार निर्भयता से श्रमि कहा गया— यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्या महं मित्रमहो अमर्त्यः" "न मे स्तोता मत्तीवा न दुर्हितः स्यादग्ने न पापया" उसी प्रकार इन्द्र पर मी प्रकट किया गया यदिद्राहं यथा त्वमीशीय वस्त्र एक हत | स्तोता में गोषखा स्यात् ।" अभिप्राय कि दोनों से कल्याण की कामना की जाती है । और विश्वेदेवा की स्तुतियों में 3 वें मण्डल के सूक्त ३५ में इस भाव की विशद व्याख्या मिलती है। वहां इन्द्र-वरुण - सोम-भग-अभि यात्रा पृथिवी आदित्य रुद्र बात आदि से स्वास्ति कामना के अन्त में कथित है aaja aarti मनोर्यजत्रा अमृता ऋतज्ञाः । ते नो राताम्मुरुगाय मद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ दूसरी श्रेणी के विशेषण 'यज्ञस्य देव ऋत्विजं होतारम" स्तुति के व्यावहारिक अंग के द्योतक है। जिस प्रकार वैज्ञानिक किसी सिद्धान्त की सिद्धि में अनुसंधान रत हो व्यावहारिक उपचारों द्वारा सिद्धान्तों का पोषण करते हैं उसी प्रकार afer ऋषि Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी स्तुतियों को स्थिर कर लेने पर उनकी सत्यता का याज्ञिक कृत्यों की कसौटी पर कसने में तत्पर हुए और अनि मीले १ का क्रम समाप्त होने पर उनमें यज्ञों के अनुष्ठान की ओर विशेष ध्यान दिया । सामवेद और यजुर्वेद में इसी प्रगति का प्राधान्य है और ऋचाएँ भी वैसे ही यक्षों से सम्बन्ध रखती हैं जिन यज्ञों के बल पर श्रमि को देवताओं के पास जाने की प्रार्थना में कहा गया है-- अग्ने यं यज्ञ मध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।” पर इन यज्ञी. का विशेष स्थान पुरोहितम् के सुति-प्रधान मंत्र-युग के बाद है हर इसी से जमणा शाइना सी धीरे २ संहिता-माल की समाप्ति पर ब्राह्मण ग्रन्थ कालीन युग में हुआ। तीसरी श्रेणी का पद हैं 'रत्नधातमम्' जो स्तुति व यज्ञ द्वारा इष्ट लक्ष्य का परिचायक कहा जा सकता है। अनि की स्तुति की गई, वह हितैषी माना गया और यज्ञों के ऋत्विज-होता की उपाधियों से सम्मानित किया गया पर किस विशेषताके कारण ? स्पष्ट है कि वह रत्न को देने में समर्थ था और उसी रत्न के लाभार्थ सारा आयोजन उपासक को करना पड़ा। यह रत्न पृथ्वी के भीतर का केवल बहुमूल्य लाल-हीरा-जवाहरात ही नहीं थे पर अन्य मूल्यवान पदार्थ भी उनमें सम्मिलित थे और उन सबकी प्राप्ति के लिये उपासक की उपासना श्री। उसकी व्याख्या भी एक स्तुति में वशिष्ठ द्वारा कर दी गई है-- गोमायुरदाद जमायुरदास्पृश्निरदाद्धरिसो नो नसनि । गया मंडूका देदतः शतानि सहस्त्रसावे प्रतिरन्त प्रायुः ।। तदनुकूल धन, विभूतियाँ लम्बी आयु और वीरपुत्र थे मूल्य पान रल थे जिनका देने वाला- जान कर अग्निकी स्तुति की गई और अग्नि के अलावा भी जिन देवलाओंकी स्तुतियाँ उस काल के Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यों ने की उनसे भी इन्हीं की इच्छा की ग । इनकी प्राप्ति के मार्गके जिसने विन्न थे उनके नाशके लिये सुशिप्र--हरिताश्च इन्द्रकी अनेकानेक स्तुतियाँ वेदोंमें की गई और यथेच्छ सोम पान कराकर इन्द्र को शत्रुत्रों के नाश के लिये सर्वदा सम्पन्न रंकाया गया । इन्द्र ने अपने उपासकों के हितार्थ अहि-गण-शुष्मा-शंवर-नमुचि पिघ्र प्रभृति अार्यशत्रुओं का संहार ही लिया. जिस मारना की स्मृति में इन्द्र वृत्रहनोपाधि से विभूषित किये गये सुरेश्वर पद उन्हें वराबर के लिए प्रदान किया गया और उनकी श्लाघा में कहा गया-एको देवत्रा दयसे हि मान स्मिन्छूर सबने मादयास्त्र । ' एसी वीरता में इन्द्र को विष्णु ने बराबर साहाय्यं दिया और त्वष्टु ने वन प्रदान किया। जिसके कारण इन्द्र के बाद विष्णु को भी सम्मान दिया गया और समय पाकर अपने अन्य सद्गुणों के कारण विष्ा उपासना में स्थान पा सके। इन्द्र यद्यपि इन्द्रासन के अधिपति बने रहे उनका मान उपासक मण्डली में धीरे २ घटने लगा । जैसे २ विनों का भय जाता रहा अर केवल धन व विभूतियों के संचय का यत्न किया जाने लगा, तब विषणु के प्रतिउपासकों की धारणा हुई कि विष्णु के ही परमोच्चपद में अमृतत्व मधु-का मंजुल स्त्रोत है... उरु क्रमस्य स हि वंधुरिस्था विष्णोः पदे परमे मध्वउत्सः।” अब उपासक स्तोता विष्णु सुकृते सुकृत्तर' कहते विष्णु के सुन्दर सुखद् कृत्यों से धीरे २ परिचित होने लगे। उनने विष्णु को व्यापक देवता पाया, विधा का नाम उरकम देकर लोकत्रय में उनकी व्याप्ति की कल्पना की गई । विष्णु के त्रिपदों के भीतर चराचर का निवास माना गया और परम पद देवताओं का प्रमोदस्थल कहा गया आंचार के देवता वरुण को विष्णु का सम्बन्ध प्राचार से भी स्थिर किया गया। यजुर्वेद में विष्णु की ख्याति के जो मंत्र मिलते हैं उनमें Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु के त्रिपद, त्रि अग्निरूप यक्ष-रक्षक, विगु-विष्णु के यज्ञरूप व विष्णु के सामशरीर रूप के वर्णन मिलते हैं। अथर्ववेद में भी विष्णु को संसार रक्षक व यन्त्ररक्षक कह कर उनकी स्तुतियाँ की गई, और उनमें स्थापित गुणों के कारण उन्हें कुचर. गिरिष्ठ. त्रिविकम, गोपा. महोत. मिमिति पनि सजाय से भी वर्णित किया गया और इन उपाधियों के महत्व पूर्ण अर्थों के अनुकूल विष्णु का मान उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया | परम पूज्य अग्नि के सम्बन्ध में उनके द्वार बनों के भस्म होने के भी उल्लेख हैं तो भी अग्नि के सम्मान में कोई अन्तर नहीं पाया जाता । इससे विदित होता है कि प्राकृतिक रहस्य का यथाथ अनुभव उपासकोंका ध्येय था । वे प्राकृतिक शक्तियों में होने वाली बुराइयों से बचने के लिये भी उन शक्तियों की स्तुने किया करते . और चाहत | कि उनक कोप द्वारा उनका कोई अहित न हो। इसी भाव से रुद्र की स्तुतियों की जाती थीं. अनाप रुद्र की प्रारम्भिक स्तुतियों में उनसे होने वाली क्षतियों का ही विवरण है। ऋग्वेद में उनके कोष से वनपान होने और जीव-जन्तुमा के नाश का वर्णन हैं। उनका न'म ऋहन भी दिया गया है और उनका साथ मातों में भी कथित है। अथर्व वेद व बजुर्वेद में उनके शरीर का जो रूप रंग कहा गया है. वह भी विचित्र है. अथर्थ वेद में उनका पेट नीला पीठ लाल और प्रीव नीला कहा गया है। और यजुर्वेद में शरीर का रंग ताम्र वर्ण बता कर नील ग्रीव व शिचितकण्ठ नाम दिए गये हैं । अनेक अनुपम औषधियां से भी उनका सम्बन्ध कहा गया है और उनमें जलाप एक विशेष औषधि है । रुद्र के से भयकारी होने पर भी उपासकों में कद्र के प्रति अक्की धारणा भाड़ होती गई और धीरे-धीरे रुद्र शिव नाम से विख्यात होने लगे । सम्भन है, कि वर्षा के समाप्त हो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAN ( १०६ ) जाने पर पृथ्वी की सुहावनी हरियाली द्वाराह में आनन्द शान्ति पैदा होने के भाव से प्रकृति के उपासकों ने द्र को शिव कह हो और संहिता काल के बाद शिव के क्षेत्रकों में सर्पों की कल्पना भी वर्षा वर्णन के विचार से हो को गई हो। जो कुछ हो. शिव की धारणा उत्पन्न होने पर समाज में रुद्र का भी आदर बढ़ने का अवसर उपस्थित हुआ। । ? संहितायों में मित्र अदितिपुत्र आदित्य सूर्य, सचिव पूषण विवस्वन्त धौ पुत्र, अश्विन रा. वात, सोम, चन्द्रमा, त्रितअस्य अप-नपात, एकपाद, मातृश्वन, वृहस्पति और प्रवी नामां से भी स्तुतियों की गई हैं पर उनमें भी दिन च कल्याण के भाव ही प्रधान हैं और उनकी स्तुतियाँ प्रालंकारिक भाषामें उनके प्राकृतिक गुण के उल्लेख में की गई हैं। विराट विश्वमें जिसकी असो शक्ति मानव कल्याणके हितार्थ कार्य कर रही हैं उसके वैसे वर्णन की प्रार्थनाओं में विद्यमान मिलती हैं। और उन कार्यों से जीवनको लम्बा व सुखद बनानेकी इच्छा व्यक्त की जाती हैं। पृथ्व-लोक-नक्षत्र - लोक विष्णुके पत्रय कहकर उनमें स्तुत्य देवता के निवास स्थान माने गये हैं. जिस विचार से वैदिक ऋषियोंके प्राकृतिक देवताओंका विभाग विवेचकों द्वारा तीन श्रयामें किया जाता है और यह भी निfare है कि स्तुतियोंने परम्परागत चर्मचक्षुष्ट और दिव्य दृष्टिज्ञात तीन प्रकारके देवता थे जिस पर यास्क ऋषिने कहा है- 1 'तात्रिविधा ऋवाः परोक्षकृताः प्रत्यक्ष-कृता श्रध्यासिक्याथ परन्तु यह भेद आज समझाने के लिये ही है. उपासकोंकी दृष्टि देव भिन्न थे. सभी एक शक्तिकी सांस लेने अनुभव थे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये गए और सबने मनोरथकी पूर्तियामि एकसा भाग लिया। ऋग्वेद स्वयं कहता है-- ___ "न हि वो अस्त्यर्भको देवासो न कुमारकः । विश्वेसतो महात इत" उपासकोंने ऋचार कम या अधिक संख्याके कारण कोई विशेषोक्ति या अन्तर नहीं माना । वैधिलोनियनपौराणिक माख्यायिका के भारसे भी वैदिक स्तुपियाँक रहस्यको तुलना कर. भावोंमें भेद प्रकाशित करनेकी चेष्टा वैदिक रहस्यको समझने में सहायिका नहीं हो सकती, क्योंकि वैदिक ऋचाओंकी बातें कोरी श्राख्यायिकाएँ नहीं हैं, वास्तवमें वे जीवनके अनुभव हैं जो अलं. कारिक भाषा में लेखबद्ध हैं और उनमें भारतीय मस्तिष्ककी वह विशेषता थी जिसकी इन विभिन्न विधायाको तुम करती है। अतः वैदिक देवताओंको स्तुसियाँ सभी एक सत्तात्मक हैं और विभिन्नत.से रहित हैं चाहे वे नररूपोपम हो वा जीवरूपोपम बोध :मक हों या भूतात्मक। मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नक्षत्र, वायु, यादल. जल, नदी, पर्वत, प्रातःकाल, वर्षाकाल आदि सभी विवेच्य तत्वमि अग्निमाले' के गायकाने एक अद्भुत रहस्य का अनुभव किया और उनमें उन्हें विश्व कल्याणका भाच विद्यमान मिला. जिस श्रानुभवके बाद वे प्रजापतिकी सृष्टिक किसी भी तत्त्वको छोटा या बड़ा, लाभदायक या व्यर्थ कनेको प्रस्तुत नहीं हुए। उसके द्वारा उनने एक विशाल यज्ञ सम्पादित होते पाया और यज्ञके सम्बन्ध पीछे कहा गया-- "यज्ञोपि तस्य जनतार्य कम्पति"। इस प्रवृत्तिको व्यक्त करते कहा गयानमो महदभ्यो नमो अभकम्यो नमो युवभ्योनम आशि Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ } मेभ्यः । यजांम देवान्यदि शक्नवासमा ज्यायसः शंसमा वृक्षिदेवाः || स्तुतियाँ भी यही प्रमाणित करती हैं। यदि विश्वास व श्रद्धापूर्वक अभिसे प्रार्थना की गई— अस्ने ? हमारे नायकों की सम्पत्ति व कीर्ति दो" तो वरुण इन्द्र-से. मसे भी चाहा गया- "विभ्य आभ्यः श्येनो भूत्वा चिरा या पतेपा: ।" उसी प्रकार से प्रार्थना की गई 'ददात नो श्रमृतस्यप्रजायें जिगृत रायः सूनृता मघानि' विश्वस्थ जगत- गोपा सूर्य से दीर्घजीवनकी कामना की जाती है--- 4. " पश्येमशरदः शतं जीवेम शरदः शतं " इन्द्र व वरुण दोनोंकी उपयोगिताको स्वीकार करते कहा जाता है - " वृत्राएयन्यः समिथेषु: जिलते वृतान्यन्यो अभि रक्षते सदा ". अश्विने व्यवनकी जरावस्था दूर की. उसके जीवनको सुखी बनाया, उसे दीर्घायु प्रदान की. उसको युवावस्था प्राप्त कराई और बलि को भी युवा बनाया, यही तो उपासक भी चाहते थे तब अश्विन और कोई भी भेद नहीं था. पूषन द्वारा विघ्न दूर होते थे धनकी रक्षा होती थी और चौपायोंका हित होता था । विशेषता तो यह है कि कल्याणकी कामना उमी प्रवाध गतिसे पशु व वृक्षोंकी ओर भी प्रवाहित हुई और विश्वपोषणशक्तिका Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( हुन्छ ) दृश्य वहाँ भी जैसा ही मनोहर पाया गया। अनवान इन्द्रके लिये ऋचा है "अनड्वानिन्द्रः स पशुभ्यो विचष्टे त्राञ्छक्रोविमि मीते अध्वनः । भृतं भविष्यद् भुवना दुहानः सर्वा देवानां वरति व्रतानि ||" विश्वास है कि स्वर्गको प्राप्त होता है। किया गया के ससानुपद-दोहनका ज्ञाता संतति य ऋषभके प्रति भी ऐसा ही भाव प्रदर्शित "पिता वत्सानां परिघन्यानां साहस्त्रे पोषे अपि नः कृणोतु ।" स्तुति भी पूर्ववत की गई " गावः सन्तु प्रजाः सन्त्धो अस्तुतनूवलम् । तत् सर्व मनु मन्यन्तां देवा ऋषभदायिने ।" गायकी महिमा गाते हुए उसमें ऋत. तप और का नित्रास बतलाया गया " "ऋतं ह्यस्यार्पितमपि ब्रह्माथो तपः" और पृथिवी - विष्णु प्रजापति आदि उसके वशमें माने गये । इसी प्रकार बाजपक्षी. चकरियों और घोड़ोंके साथ इन्द्र पूपन व वि देवोंकी स्तुतियाँ की गई हैं। सर्व भार बाहिनी प्रथिवी की स्तुति माता कहकर की गई और पृथ्वी को विश्वंभरा - हिरण्यवक्षा जगतनिवेशनी - अक्षतोभ्यष्ठा औषधिमाता कहकर चाही गई है सत्यं वृहतमुग्रं दीक्षातपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ती सा नों मृतस्य भव्यस्य पुन्युरु' लोकं पृथिवी नः वणोतु ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथर्ववेद वी स्तुतियों से भी भर! हैं जिनमें रत्न धातम' के व्याख्यात्मक प्राप्य रत्न व उनके पाने के साधनों के विवरण दिए गए हैं। इसी कारण अथर्ववेद लौकिक विभूनियों से ही सम्बन्ध रखने वाली प्रार्थनाओं का संग्रह समझा जाता है । यदि ऋग्वेद में हेत-साधन को विधा है तो यजुर्वेद में व्यवहारात्मक विचार प्रदर्शन किए गए हैं और अथर्ववेद उनसे उत्पन्न होने बाली विभूतियों से सम्बन्ध रखता है । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में म्नुनि विश्वपुरुप के विराट विश्व यज्ञ के सिद्धान्त का व्यवहारमय विवरण यजुर्वक सवमध पुरुषमेध अश्वमेध और प्रयग्य सम्बंधी मंत्री में किया गया । प्रवयं का स्पष्ट अभिप्राय है कि यह संसार एक कड़ाही रूप है जिसके नीचे कमां न प्रचलित हो रही है. उस कड़ाही में मनुष्य रूपो दूध उबालने की क्रिया जारी है, और जस कृत्य से प्रस्तुत यज्ञ फल विश्व पोषण निमित्त ही है । ये यज्ञ किसी के प्रतिहिंसा या घृणा या प्राधात नहीं चाहते, बल्कि उनका ध्येय है---- "मित्रस्याहश्च छु म मर्याणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे ।।" इस सिद्धान्त का अनुसरण करने हुए अथर्ववेद में विभूति संचय के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया । विभूतियों की प्राप्ति के माग में श्राने वाले विघ्नों को दूर करने के उपाय मांचे गये, शत्रुक्षय के लिये युद्धप्रायोजन किए गए. वीरता की श्राश.एँ सुपुत्रों में रक्खी गईं. ब्रह्मचारियों के जीवन में मंगल व चल की कामना की गई और राजा व नायकों के सवल होने पर ध्यान दिया गया । जो चमत्कार द्वारा धनधान्य, स्वस्थ जीवन प्राप्त करने के उपाय जानते थे वे अपनी चेष्टा में रत हुए। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५ ) आचार- पालन में झूठ के त्याग, जुआड़ियों के दुःखद जीवन का उदाहरण ग्रहण और पारवारिक जीवन में एकता की शिक्षाएं भी की गईं। इसका अधिक भार ऋग्वेद पर ही था और उसने वरुण की स्तुतियों में उन्हें सदाचार का देवता बना रखा था । अथर्ववेद ने उसके अनुकूल वरुण देव से पाखरियों व अत्यवादियों को दरित करने की प्रार्थना की। ऋग्वेद की मानस्तुति के सादृश बचन कुन्ताप सूक्त में देकर विभूतियों के सम उपयोग की शिक्षा की और औषधियों के बगान से रोगों का नाश कर जीवन को नीरोग रखने का उपाय सोचा। इस प्रकार ऋग्वेद की आरम्भिक स्तुति की पूर्ति चारों सहिताओं की ऋचाओं में की गई और उनमें एक लक्ष्य का सम्पादन करते हुए इस भूतल पर स्वर्ग-सुख-साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रदर्शित किया गया, जिसकी स्मृति में आज तक आर्य ऋषिवंशज प्रसिद्ध गायत्री के पाठ में जपा करते हैं---- ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् । वैदिक स्तुतियों में देवताओं के गुण-शौर्य-विवरण में विश्व - यादव सृष्टि-परक सम्मतियाँ भी ऋषियों ने व्यक्त कीं, पर वे इतनी गढ़ थीं कि वर्षों बाद का चिन्तन भी उन्हें स्पष्ट नहीं कर सका और 'वेदोऽखिलो धर्म मूलम' को स्वीकार करते हुये भारनीय दार्शनिक संहिता युगके बाद बराबर वैदिक विचारों पर मनन करते रहे। उसी मनन की श्रृङ्खला में अनेक दार्शनिक धारणाओं का प्रादुर्भाव हुआ। ऋचाओं के रहस्य को समझने में Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) की अवस्था में कल्पना व तर्क का आश्रय ले विवेचकों को बेह की सत्ता स्वीकार करते भी अपनी राएँ देनी पड़ी जिससे उनमें विभिन्नता तो अवश्य आई पर सनातन तारतम्य बनाये रखने का यत्न भी समय २ पर श्रीमानों ने तत्परता से किया जिसके फलस्वरूप aौदिक धारणाओं से सुदूर आ जाने पर भी हिन्दू वेदों को प्रिय समझते रहे और अपनी श्रमिकता को वेद सम्मत रखने में गौरव माना स्तुत काल के विश्वबाद के तीन रूप संहिताओं में दिखाई पड़ते हैं । साधारण विचार था कि 'बाबा पृथ्वी (रोदसी-क्षोशी) आकाश व मृत्यु लोक एक में मिले हैं ये दो लोक है. दोनो बड़े की तरह मिले हैं या एक अक्ष के दो सिरों पर दो चक्र के समान स्थिर है। पृथ्वी भूमि, क्षमा-दा-मही, ग्मा, उर्वी- उत्ताना अपरा आदि और आकाश दिव-व्योमन-रोचन आदि नाम से भी ऋचाओं में वर्णित किये गए। पीछे विष्णु के त्रिसदस्य की कल्पना में इन दो के स्थान में तीन लोकों की धारा चल पड़ी। माना जाने लगा कि विश्व तीन लोकों में विभाजित है । पहला लोक यह रत्न बक्षा पृथ्वी हैं। जिसके ऊपर मनुष्य जीव, नदी पर्वतादि दिखाई पड़ते हैं, दूसरा लोक वायुमंडल का है जिसके ऊपर नक्षत्र लोक व नीचे पृथ्वी लोक है. बिजली, वायुवर्षा दल इसी दूसरे लोक के पत्रार्थ हैं और इसीलिए यह लोक कृष्ण वकिः जल वाला भी कहा गया है. तीसरा लोक. नक्षत्र या स्वर्ग लोक है जो वायु लोक के ऊपर है, वह देवताओं का स्थान है और देव सदृश अमर पितर भी उसी लोक में चन्द्रमा के साथ निवास करते हैं। पृथिवी के रत्न वहाँ पितरों को सहज ही प्राप्य हैं। मृतों के राजा यम से पितरों का साक्षात् कहीं होना है और उस देवमान-सदन में यम अपनी बहन यमी · Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ वीणा-स्वर-संयुक्त मंगीत में विनोद करते हैं। पीछे विश्व, सप्तधामों में विभाजित जाना गया । पृथ्वी के इतर लोक स्वर्ग का विवरण भी उनके मंत्रों में पाया जाता हैं और वह देवताओं तथा पितरों का निवास स्थान कहा गया है। मरने पर वह स्वर्ग उन्हीं को प्राप्य बतलाया गया है जो कठिन तप करते हैं, जो धर्मात्मा हैं. जो युद्ध स्थल में अपनी जान की चिन्ता नहीं करते है योर जो याज्ञिक क्रियाएँ और दान करते हैं । स्वर्ग तीसरा लोक हैं. विष्णु का परमोन पद है, पितरों व यम के रहने का स्थान है और नित्य प्रकाश-समन्वित हैं । वहाँ पहुंचने पर कोई भी मनोरंथ शेष नहीं रह जाता, जराबर या दूर हो जाती है, दिव्य देहः की प्राप्ती होतीह, माता-पिता-पुत्र-त्री श्रादि स्वजनों से संयोग होता है, शरीर की कुरूपता जाती रहती है. और रोगादि पलायमान हो जाते हैं । यहाँ के प्रकाश का अन्त नहीं होता, जलस्रोत निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं, श्रानन्द की कमी नहीं होती, पृथ्वी के सर्वोत्तम सुखों से भी सैंकड़ों गुणा श्रेष्ठ सुख यहाँ प्राप्त होता है, घी-मधु-दूध-मुरा का वहाँ प्राचुर्य है, काम दुग्धा गाएँ सहज लभ्य है और धनी दरिद्र का कोई भी अन्तर नहीं है । धर्मात्माओं के लिये स्वर्ग की कल्पना कर लेने पर नरक या दण्ड के स्थान की कल्पना स्वाभाविक ही थी और अवेस्ता के सदृश श्रव वेद में स्वर्ग लोक के प्रति कूल 'नरकलोक' का चित्रण मिलता है । यह घोर अन्धकारमय कष्ट अद स्थान. हत्यारों के लिये है, पापी-पाखंडी-मूठे उसी को प्राप्त होते हैं और इन्द्र-सोम द्वारा बुरे कर्म करने वाले जसी स्थान को भेजे जाते हैं। . प्रथिवी स्वर्ग और नरकके उपर्युक्त विधारोके रहते भी संहिता में मुष्टि -परक स्पष्ट वितरणा नहीं मिलने। इस सम्बन्ध के जो Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) कुछ वर्णन रूपकों में कथित हैं, उनके शास्टिक मलिक अभिप्राय निकालना आज कठिन है । मंत्र में माता पिता द्वारा मृजन के सदृश उल्लेख हैं और जिन देवताओं से विश्व का धारण किया जाना चागत है उनकी भी उत्पत्ति के संकेत दिये गए हैं । इन्द्र, त्वष्टा. वरुण, विष्णु. अग्नि, मरुन श्रादि देवता विश्व को धारण करने वाले कहे गये हैं। ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में मृष्टि रहस्य पर प्रकाश डाला गया है. पर वह भी अलंकारिक वर्णन है उसमें कथित विराट पुरुषही सृटि-कता प्रजापति स्वीकृत हैं और नक्षत्र-पृथिवी-वायु आदि तत्य उसी से उत्पन्न कहे. गये हैं। उस सूत के अतिरिक्त अन्य सूक्तों में भी हिरण्य गर्भ प्रजापति उत्तानपाद आदि के सम्बन्ध में जो बिखरी राएँ हैं, उनमें सृष्टि-विषयक अस्कुद बान हैं जिनको श्राधार बना कर ब्राह्मण काल में पृथिवी के बनने के सम्बन्ध में बराह. कच्छप श्रादि के श्राख्यान उपन्यस्त किये गए. विश्व वाद तथा प्रकृति-रहस्य पर निरन्तर विचार करते गहने के कारण आर्य ऋषियों में दार्शनिक विचारों पर जैसा विकास हुमा उसका क्रम भी उन्हीं स्तुतियों से स्थूलतः स्थिर किया जा सकता है। अनुभव व ज्ञान के लिए किये गए प्रश्न व शवदाह के अवसर पर उत्पन्न विचारों से प्राचीनत्तम काल के पार्यों में दार्शनिक मनन का प्रारम्भ हुश्रा । श्रेष्ठ वर्गण से इन्द्र के पाम पहुंचे हुये आर्य-अदय में तब शक्ति शाली इन्द्र पर भी संदेह होने लगा, लोग कहने लगे कह सेति नषो अस्ती त्येनम् । * जिस पर इन्द्र के प्रति श्रद्धा व विश्वास की मांग की गई ॐ ऋग्वेद० २ । १२ । ५ ॥ घोर मलेमाहुनेंघो अस्तीत्येनम् । यहाँ चन्द्रको घोर भयानक भी कहा है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . '-- -- - - ( ११५ ) और स्वयं इन्द्रका भी प्रत्यक्ष होकर विश्वसाधारगाको प्रकट करना पड़ा । परन्तु वह ज्ञान लिप्सा शान्त नहीं हुई ज्ञानेच्छु तत्वदर्शी इन्द्रसे सर्वपति हिरण्यगर्भ प्रजापतिको पहुंचे. वह प्रजापति बृहस्पति व ब्रह्मणस्पतिके नामसे मी सम्बोधित किया गया। उस दशामें अनेकवताओं में क नाहमा महादेव विधी जान बहुदेवत्यकी धारणाका उनने त्याग किया, वे निमन्तह कहने लगे___ "यो देवेश्वधिदेच एक आसीत्कस्म देवाय हविषा विधेम ।" . कुछ और मनन के उपरान्त उनको अनुभव और आगे बढ़ा व व्यक करने लगे---- "तम आसीत्तमसा गृहमग्रेऽप्रकेत सलिलं सर्वमा इदं । तुच्छ ये नावपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं ।" वह पक चैतन्य था और उसके मनसे काम उत्पन्न हुआ. काममें अनेक इच्छा उत्पन्न हुई और तबध्यान द्वारा ऋपियों ने ठयक्ताव्यक सम्बन्धका आविष्कार किया, पर , बराबर अपनी खाज सशंक बढ़ते रहे और वे सोचने जात___यो यस्याध्यतः परमे व्योगमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ।' यह शंका श्राने वाली युगाम उनके वंशजोंक हायमें बनी रही और इसकी व्याख्याने भारतीय दर्शनको धारणा निमपित होती रही। इसी सिलसिलमें कुछ ऐसे विचार भी उद्गीत छाप जिनका अभिप्राय पीछे साफ र विदित नहीं होनेके कारण उन पर कल्पनाएँ कार श्राख्यान रचनेका यत्न विद्वानों ने किया। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवा-उसी. यम यमी और सूपासून पर रचित श्राख्यायिकाण अनेक वेदेतर अन्यों में पाई जाती हैं और उन्होंके अनुकरण में विष्णु के त्रिपद पर बलि--वामनकी कथा भी पुराण में गढ़ी गई । यह प्रवृत्ति वेद मन्त्रक सर्व धर्म मूलत्वकी प्रतीतिको प्रमारिणत करती है और यह विचारनेका अवसर बनाती है कि 'अग्नि मीले के स्तुतिवाद पर भारतीय ईश्वरवादका विकाश किस प्रकार किया गया । साधक भेद से दैवत भेद अनेक विद्वानों का मत है कि वैदिक देवताओं में नो भेद नहीं हैं, साधक भेदसे उनमें भेद कर दिया गया है। उनका कथन है कि केवल कमां और झान विशिष्ट कमी-य दो श्रेणी के साधक हैं। द्रव्यात्मक और भावनात्मक यह दो प्रकार के यज्ञ है, इस यज्ञ के फल निशान और, देवयान मार्गद्वय मे साधकों की गति होती है । यह सब तत्व अग्वेद में मिल जाता है। प्रिय पाठकों ने जान लिया है कि उपनिषद् और बेदान्त सूत्रों के भाष्य में श्रीशंकर स्वामी जी ने भी इसे दो प्रकार के साधन का ही निर्देश किया है। ऋग्वेद के सूक्क दा श्रेणियों में विभक्त है। १४। हम यदि ऋग्वेद के सूक्तों का विशेष मनन करते है परयं भले प्रकार अालोचना करने है, संथ भी यही सिद्धान्न अनिवार्य हो उठता है देवताओं के उद्देश्य से विरचित सूक्त अधिकारी भेट से प्रधानतः दो प्रकार के ही देखे जाते हैं। पर जो दो प्रकार की उपासना एवं दो श्रेणी के साधन देखे गये है तदनुसार - "अनामिणो धगिनिश्च कार्य, अझोपासकाः हीनहरयः। 'कारण अझोपासकाः मध्यम दृष्टयः | अद्वितीय ब्रदर्शन शीलास्लु उत्तम दृश्यः । उत्तम. दृष्टि प्रवेशार्थ दयालुना वेदेनोपाभना इदिवा" गोलपावकारिका भाश्य ध्यासपायाम् श्रानन्द गिरिश।१६।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद के मुक्त भी दो श्रेणियों में विभक्त है । ऋग्वद में इन्द्र. अमि, सूर्य. प्रभृति देवताओं के प्रति कुछ ऐसे विशपरग प्रयुक्त हुम हैं कि ये मनुष्योचित गुणग्रामविशिष्ट हैं। दृष्टान्त के लिये, इन्द्रादि देवता के रथ, अश्व, सारथी, भूषण, केश, भश्रु हस्त प्रभृति का उल्लेख किया जा सकता है । इतना ही क्यों, कितने ही सूक्तों में देवताओं में मनुष्यों की मांति कोध. हिंसा श्रादि का होना लिया हुआ है । हमारा विश्वास है कि, इस प्रकार के सून निकृष्ट साधकों के पक्ष में कथित हुए हैं। जो लोग अग्नि आदि कार्यों को स्वतंत्र शक्ति-शानशाली देवता समझ कर सकाम यनों का अनुष्ठान किया करते हैं—यह आदर्श उनके ही लिये है। जो लोग हि सुख समृद्धि के अतिरिक्त परकाल और परब्रह्म की बात किंचिन भी नहीं जानते, उनके मन में धीरे-धीरे ब्रह्म का प्रकाश डालनेके उद्देश्य से, प्रथमतः मनुष्य के साथ तुल्य गुणादि विशिष्ट रूप से ही देवता का आदर्श उपस्थित किया गया है। यदि केवल कर्मी संसारी पुरुषों के आगे एकबार ही मनुष्य राज्य के बाहर बाला निर्गुण निष्क्रिय उपास्य देव का बादश लाया जाय. तो निकृष्ट साधक उसमे भी लाभ नहीं उठा सकता। साधारण साधक के चित्त में ऐसा उच्च श्रादर्श चढ़ नहीं सकता। अस्तु देवनाओं के रथ, सारथी अादि का वर्णन करने वाले मंत्र कार्यावस्था के सूचक हैं. १. ___ किन्तु जब देवोपासना करते करत चित्त शुद्ध निर्मल होकर स्थिर होने लगा जब बिस उन्नत होकर अग्न आदि कार्यों का स्वतंत्र सत्ता के बदले उनके भीतर अनुस्यूत हुई कारण सत्ता* __ * "कारण, ब्रोदासका मध्यम दृष्टया अानन्द गिरि एवं शंकर | (कदा तेमा 'अमृतस्य धाम यदन्तो न भिनन्नि स्क्यायः १६६६६।३ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प, असली को समझाने लगा और ज्ञान का प्रकाश सर्वत्र पड़ने लगा, जब भिन्नता को छोड़ कर एकता की ओर चित्त चलने लगा. तब उपास्य श्रादर्श भी भिन्न भांति का खड़ा हो गया। उस समय जैसे इन्द्र देवता अपरिमित अपरिच्छन्न पृथिव्यादि का सृष्टि कारक जगन का प्राधार जान पड़ा बसे ही अग्नि सामादि देवता भी ब्रह्मरूप समझ पड़े। इस प्रकार देवताओं की क्रिया का अपरिमितत्व एवं सब क्रियों में अनुप्रविष्ट कारण सत्ताकी एकताकी और साधकका चित प्रभावित होने योग्य हो जाता है । इसी उद्देश्यसे वेदमें ऐसी वर्णना निवद्ध हुई हैं, कि एक ही अग्नि विविध आकारोंसे अाकाश. अन्तरिक्ष मृलोक ओषधि एवं जल में अवस्थित हैं। एक ही इन्द्र सूर्यरूपसे नक्षत्ररूपसे अनिरूपसे और विदात रूपसे अवस्थित है फिर इन्द्र अग्नि सोमादि. देवताका विश्वकप नामसे भी वर्णन किया गया है। इन सब वर्णनोंका एक ही उद्देश्य है। देवताओंकी क्रियालि यदि एक ही प्रकार की है, तो सब देवता मूलमें एक है सुतरां ये स्वनन्त्र कोई पदार्थ नहीं है यह महातत्त्व विकसिंत कर देना ही उक्त सम्पूर्ण विशेषणोंका उद्देश्य है । देवताओं और मूलमत्ता में कोई भिन्नता नहीं । हम इस विषय पर यहाँ कुछ विशेषण उद्धृत करते हैं। हम इन विशेषणोंको तीन श्रेणियोंमें विभक्त कर लेंगे। हम दिखलायेंगे कि-(१) देवताओं के कार्यों की भिन्नता कथनमात्र है । उनके काम कोई भिन्नता नहीं । (२) देवनाओं के नामांकी भिमना भी कथनमात्र हैं, उनके नामोंमें कोई भिन्नता नहीं है। देवता सर्व अमृत का धरम कार रस्त्ता या घरमपदः है। उसमें मनुष्य. रागा कर योग करेंगे? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) व्यापी, सर्वत्मक, अपरिमिस हैं। ये सब पररपर परिणत होतं हैं। (४) देवता मूल 'सत्ता' द्वारा भी भिन्न नहीं है । एक ही मौलिक ब्रह्म शक्ति विविध आकारोंसे विविध नामोंसे, नाना दों में किया कर रही इस काम मेघवालाकी स्वतन्त्रता, कथनमात्र ही रह जानी है, इनकी मूल गत ससा एक है। इस मालोचना द्वार सहदय पाठक अवश्य ही समझ सकगे कि ऋग्वेद जड़ वस्तुओंके प्रति प्रयुक्त स्तुतियोंका संग्रह प्रन्थ नहीं है। (२) हम पहले यही दिखाते हैं किं. देवताओंके कार्योंमें कोई भिन्नता नहीं इन्द्रदेव जो काम करते हैं. अग्नि देव भी वाह काम करते हैं। और अग्नि जिन क्रियाओंमें समर्थ हैं. सोमादि सकल देव भी उनमें समर्थ हैं। सभी देवता इसी प्रकार हैं। सोमदेवता के लिये कहा गया है कि सोम-- (क) श्राकाश और पृथिवीको स्तंभित कर रहा है । अन्तरिक्ष आदिका विस्तारक है, सूर्यका उत्पादक है । और सोमने ही सूर्यमें ज्योति निहित की. आकाशादिको पूर्ण किया है । । अयं धावा पृथिवी विस्कभात् विसृम्भो दिवो धरुणो प्रथिव्याः। है ।।६ स्कंभो दिवः, १६ । ४६ थियो तस्तंभ रोदसी, ११.१ । १५ । स्वमाततंथ ऊन्तरिक्षम् | अनुद्यावा पृथिवीं श्रात्ततंथ, ८।४८।१३. अजनयत् सूर्यज्योतिः अद्धान् इन्द्रे उर्ज है । ६७।४ अयं सूर्य अधात् ज्योतिरन्तः, ६ । १४ । २३ अजीजनोहिसूर्यम् ह । ११ । ३ सूर्य रोहयो दिवि, ह|१०७७ तर ज्योतीषि पवमान सूर्यः ।।८६ । २६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र देवताने भी उक्त मब काम किये हैं। देखिये मन्त्र-- यो अन्तरिक्ष विममेवरीयो । योद्यामस्तभात सजनास इन्द्रः । २ । १२ । २ पप्नाश पां पदिशोऽय; घामृष्यो हदिन्द्रः स्तभायः श्राधार यो रोदसी, ३।१७१७ प्रस्तंभा उतद्याम् , ८।८। ५ ग्रामस्तभायत् बृहन्तं आरोदसी अपृणदन्तरिक्षम् । स थारयन् पृथिवीं पप्रथच २। १५ । २ ___ जजान सूर्यम् , दाधार पृथिवीम् , ३ । ३२ । ८, ६।३० | ५ त्वं मूर्यमरोचयः, = 1८।२ । प्रासूर्य रोहयो दिवि ८।८६ | ७ अजनयत्'... 'सूर्यमुपसं.. अग्निम् । ३ ! ३१ । १५ जनिता सूर्यस्थ, ३ । ४६ । ४ इन्द्र आपसौ पृथिवी मुतधाम, ३।३०।११। प्राणत् रोदसी उभे, ३२३४१ उभे पृणासि रोदसी, ८ । ६४।४ इन्द्रा-सोपा-सूर्य नयथो ज्योतिया सह, ३ । ७२ | २ ग्राम स्कंभयुः, ६ । ७२ । २ अग्नि देव भी अविकल इन सब कार्योंके ... कता है-प्रथायेन अन्तरिक्षमा ततथ ३ । २२ । २ श्राप, विवान Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... . . .. ..... :.. : ....: रोदसी अन्तरिक्षम् । १ । ७३ । ८ पौं भानुना रोदसी, .६।८६ त्वं भासा रोदसी अाततन्थ, ७।१ | ४ माण; 7. भुवनानि रोदसी ३।३ । १० एवं । ६ । ।३ अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्य रोहयो दिवि, १० । १५६ । ४ सूर्य सविता भी इन सब कामोंको अविकल किया करते हैं.-- ___ द्यामहत , १० | १४६ । १ दिवः स्तंभः ४१३१५ पाप्रा धावा पृथिवीञ्चान्तरिक्षम्, १ । ११५ । ५ उदेदं विश्व भुवनं विराजसि ८ । ८१ । ५ विष्णुदेवने भी अन्तरिक्ष-विस्तारित कार्य किया हैउदस्तंभा नाकमुष्वं वृहन्तम् , ७ | 66 | २ विचक्रमे पृथिवीमेषः ७ । १०० १ ४ व्यस्तभात् रोदसी दाधन पृथिवीम् , । ७१ ६६ । ३ जनयन्ता सूर्यमुपासमग्निम् , | ६ । ६६ । ४ वरुण देवता से भी सब कार्य हुए हैंद्यावा पृथिवी वरुणस्य धर्मणा विस्कभिते, ६७०११ वियम्तस्तंभ रोदसी, चिदुर्वा, | ७ | ६ | १ प्रनाकमृष्यं नुनुदे बृहन्तं द्विता नक्षत्रं पप्पथगभूम, । ७८६१ . . Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) यम्मिन विश्वानि 'चक्रे नाभिरिव श्रिता।८।३१:६,१० अन्तर्मही वृहती रोदसी मे, ७] ८७ | २ त्रिसो साना निहितारसिमा ७५ रदत्यथो वरुणः सूर्याय । ७ । ८७ । १ यः स्कम्भेन विरोदसी । ८ । ४१ । १० सुसज रोदमी अन्तरिक्षम् । ५ ८५३ वियोममे पृथिवीं मूर्येण । ५ । ५। ५ वरुणाञ्चकार सूर्याय पन्थाम् । १ । २४ । ८ वं विश्वस्य दिवश्च स्मश्च राजसि । १ । २५ । २० मित्रावरुण-आधारयतं पृथिवीमुतद्याम् वर्द्धयत मोषधीः सिन्वतं गा अश्वृष्टिं सृजतम् । श६२३ ऊपाके भी कार्य इन मंत्रों में देखने योग्य हैं आपणन्तो अन्तरीक्षाव्यस्थुः । ७ । ७५ । ५ महीचित्रारश्मिभिश्चेकिताना । ४ । १४।३ दिवः स्कम्भः । ४।१४।५, विश्व जीवं प्रसुवन्ती ७१७७१ अजीजनत् सूर्य यजमग्निम् । ७ । ७८ । ६ श्रारक पन्यां यातये सूर्याय । १ । ११३ । १६ मरुद्गण की कार्यावली भी अविकल वैसी ही है-- विरोदसी तस्त भूमरुतः । ८ । ६४ । ११ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वा पार्थिानि पप्रथन् । ८ । ६४ | 6 अश्विनी कुमारोंके कार्य लक्ष्य करने चाहियेंयुवमग्निश्च अपच वनस्पती । रश्विना बैं येथाम् । १1१५७ । ५ पूषा एवं मित्र देवता के कार्य देखिये-- व्यस्तंभात रोदमी मित्रा अकृणोन ज्योतिपातपः ६।८।३ सूर्यमधत्त दिवि सूर्य रथम् , मित्रोदाधार पृथिवी मुताम् ।३ । ५६ । १ द्यावा पृथिवीके भी ये ही सब कार्य देख लीजिये--- रजसो धारयत् कवी | ५ | १६० । १ देवी धर्मणा सूर्यः शुचिः । १ । १६० | १ पिता माता च भुवनानि रक्षतः । १ । १६० । २ रोदसी अवासयन् । १ । १६० । २ ।। * ॐ मित्रादि सभी देवताग्याने सूर्यका पथ बना दिया है, वह बात भी लिनी है । अथा, गन्मा अादिला अश्वनः सन्नि मित्रो अर्थमा बरुगाः सजोषाः ७ | ६३ | ४ सूर्व दिविरोहलन्तः (विश्वेदेवाः) १० । ६५ १११। सत्र देवताओंने अन्तरिन् पृथिवीं सूर्यादि गेचा पदाधीको वितरित किया है । "स्वारमन्नार नामि रोचनावात्राभूमी थियौ कि राजसा" Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र, सूर्य, सोम, अग्नि, प्रभृति प्रत्येक देवताने धि-व्यादि लोकका निर्माण किया है एवं अमि, सूर्य, बिगुन , इन तीन रांचन, वस्तुओं का निर्माण किया है तो भी हम अनेक अनियों में लिग्वा पाते हैं। इन्द्र के सम्बन्ध में---- इन्द्रेण-रोचनादिवो इलहानि । ८ | १४ । । तिम्रो भूमिन पते त्रीणि रोचना'... 'विवक्षिध । १। १०२ । ८ इमानि त्रीणि विष्टया तानीन्द्र विरोहय । ८।६११५ मोम के सम्बन्ध मेंरजसो विमानः । । । ६२ । १४ अयं त्रिधातु दिविगेचनेषु । ६ । ४४|४ सूर्य के सम्बन्ध मेंवियो ममे रजसी । १ । १६० । ४ आपा रंजामि दिव्यानि पार्थिचा । ४१५३।३८शश३ त्री रजासि परिभृस्त्रीणि रोचना । ४ । ५३ । ५ उन यासि सवितः त्रीणि रोचना । ५। ८१ । ४ :: अग्नि के सम्बन्ध मेंचियो रजासि अमिमीत शुक्रतुः। ६ । ७ { ७ भैश्वानरो त्रिदियो रोचना कतिः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ । अग्नि सोम के सम्बन्ध मेंयुव सेनानि दिवि रोचनानि । अग्निश्च सोम सुक्रतु ॥१ । ६३ । ५ वरुण के सम्बन्ध में--- रजसो विमानः । ७।८७।६ त्रिरुत्तराणि पातुर्वरुणस्य ध्रुवं सदः । ८ । ४१ । । त्री रोचना वरुणत्रीनुनधून् । ५। ६६ । १ मरुत के सम्बन्ध में--- त्रिषधस्थस्य ! ८ | १४ | ५ पप्रथन रोचनादियः । । ६४ | 8 विष्णु के सम्बन्ध में--- वियो रजासि विषमे ! ६ ! ४६ । १३, रस से पसके ७।१००५ यः पार्थिवानि विममे रजासि ! १ । १५४ । १ सोम-पूषा के सम्बन्ध मेंरजसो विमानः । २ । ५० १३ मित्र के सम्बन्ध में-- त्रीणि मित्र धारयसे रजासि । ५ । ६६ । १ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... -- --- --- - --- 1- 14 मित्रा बरुण के सम्बन्ध में-- या धारा रजो रोचनस्य पार्थिवस्य । ५। ६६ । ४ फिर सब देवताओं को एकत्र करके भी यह ___ बात कही गई है-- तिम्रोभूमी र्धारयन, वीरुतत्तद्यून् । ऋतेन आदित्याः २ । २७ । ८ अन्तरीक्षाणि रोचना स्कम्भुः । १० । ६५ । २ वमरण. सोम, इन्द्र, इन्द्र-सोम. मित्रावरगा प्रभृति सभी देवताओंने मान भगत दुग्ध र हिना बिबि-- ततान'.'''त्रय उस्त्रियामु ( वरुणस्य) गजाना मित्रा वरुणा सुपाणी, गोषु प्रिय पमृतं रक्ष माणा ( मित्रा वरुणा ) अयं गोषु शच्या पक्वमन्तः योभोदाघर ( सोम) ६ । ४४ । २४ प्रपिय्य ऊबरन्याया इन्दुः (सोम) ६.। ६३ । ३ इन्द्रा मोमा पश्यमामास्वन्तर्निगवामिदधथुः (इन्द्र सोम) ६ | ७२५४ श्रामा पक्र य, आ मर्ज रोहयोदिवि(इन्द्र) ८८६७ स्वान संभृतमुखियायाम् । (इन्द्र) ३ । ४६ । ६ आभासु चिधिषे पक्कमन्तः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयः कृष्णासु रुशन रोहिणीषु (इन्द्र) १ । ६२ । ६ सोम, इन्द्र, मरुद्गण, विद्या, अमि. सूर्य, इनमें प्रत्येकने घुधका वध किया है.-.- . स्वं सोमामि सत्पतिः त्वं राजा उतवत्रहा (सोप) ख महिनाम्नां हन्ता (सोय)। ह | E८।४ हन्ता बत्राणामसि सोम ।।८।४ विभनि चार इन्द्रस्य नामयेन विश्वानि वाजधान (सोम) है । १०६।१४ वयं ते अस्य वृत्रहन् ? (सोम) है। ह८ । ५ स वृत्रहा सनयो विश्ववेदाः (अग्नि) ३ । २० । ४ वत्र हणं पुरन्दरम् (अग्नि) ६ । १६ । १४ अग्निम् .. वृत्रहन्तमम् (अग्नि) ६ । १६ । ४८ वत्रणा उभेस्तः (इन्द्राग्नी) १ । १०८ | ३ यं यूखो वृत्रहणं सचन्ते (अग्नि) १ । ५९ नतो वृत्राणि (इन्द्रवायू) अमित्रहा वहा (सूर्य) १० । १७० । २ सखे विष्णो ? ..... हनाववृत्रम् (विष्णु) =१००११२ त्राणि जिनसे पुरन्दर (इन्द्र) स... 'नहा (इन्द्र) ३ । ३१ । ११, २१ हन्ता वमिन्द्र (इन्द्र) ७ । ८० १२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- -- - स्वेनादित्रं शवसा जघन्थ (इन्द्र) ७।२११६,६३।१६ वाह योजसा अहि नत्र हावधीत् (इन्द्र) ७६३।२,४,३२ नन् त्राणि ( बृहस्पति ), ६ । ७३ | १ । २ रहस्पतिन पुत्रसादम् । १० । ६५ । १० मरुतोवृत्रहसवः ( मरुत् ) ६ । ४८ । २१ प्रिय पाठक ! और एक विषय लक्ष्य करने योग्य है। यह बात सर्वत्र कहीं गई है कि इन्द्र, सामादिक सभी देवता पाप नाशक, कल्याणकारी हैं । एवं प्रत्येक देवताके आधीन एक भाषांध भिषज्ञ) है । यह औषधि मनुष्यों के दुःख, ताप अादि रोगकी भैषज है । जड़ पदार्थ कदापि पाप नाश नहीं कर सकते । सुतराम बंदिक ऋषिगण, देवता कहनेसे तन्मध्यगत चेतन सत्ता व कारण सत्ता या ब्रह्म सत्ता को ही समझने थे । हम इस सम्बन्ध में कुछ स्थूल उद्धृत करके दिग्वाते हैं। नयातीन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् (इन्द्र) १०१६३३ विश्वा दुरिता तरेम (वरुण) ८।४२ । ३ अच्छिद्रं शर्म भुवनस्य गोपाः (मित्र और वरुण) विश्वानि देववितरितानी परासुव (सविता) ५८२५ पर्जन्ये ... हंसि दुरितः (पर्जन्य), ५ १८३ । ५ सनः पर्जन्य ? मदिशम यच्छ-८ ! ८३।५ विश्वानि अग्ने दुरितानि पर्षि (अग्नि) ५ । ३ । ११ पूषा नः पातु दुरितात् (पूषा), ६ । ७५ । १० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वा..... 'दुरिताय देवी (ऊषा), ७१ ७८ । २ नयन्ति दुरिता तिरः (इन्द्र, वरुण, मित्र, अर्थमा । १। ४१३ अदितिः .... शर्म यच्छतु (अदिति) ६ । ७५ । १७ पर्षिनः पारमंहसः (द )२। ३३ । ३ तिराश्चिदेहः सुप्रथा नयन्ति ( मित्र, वरुण ) ७६०।६ ऋजू मर्येषु वृजिन्ना पश्यन् (4) ७६० । २ सभी देवता पापनाशक और मंगलकारक कहे गए हैं। यदाविर्य दयाय ( गूढं ) देवासो ? अस्ति दुष्कृतं .. आरे दधातन ( देवाः) ८।४७ । १३ विश्वस्मात्री अंहसो निम्पिपति न (विश्वेदेवा ) अभयं शर्म यच्छन् , अति विश्चानि दुरिता । १०। ६३ । ७ । १३ अन्तः पश्यन्ति वृजिनोत साधु० । २ । २७ । ३ ऋजु मत्येषु वृजिना च पश्यन् ६ । ५७ । २ सभी देवता गण मनुष्योंके गुप्त स्थानोंमें पाप पुण्यको देखते रहते हैं। ऐसा अनेक बार कहा गया है । क्या जड़ पदार्थोके लिये भी ऐसा कथन कदापि सम्भव हो सकता है ? कदापि नहीं। देवतागण जो मंगलमय औषधि धारण करते हैं सो भी सुन लीजिये-- Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमा रुद्रा युवमेवतानि अस्मे, विश्वातनुषु भेषजानि धत्तं (सोम रुद्र) ६ । ७४ | ३ सहस ते भेषजा ( रुद्र) ७ । ४६ । ३ हस्ते विभ्रत भेषजा बीर्याणि ( रुद्र )१ । ११४ । ५ या वो भेषजा मरुतः शुचीनि (मरुव ) २ । ३३ । १३ त्रिों अश्विना ? दिव्यानि भेषजा, त्रिः पार्थिवानि त्रिरुदत्त भदभ्यः (अश्विद्वय,) १३४६,८६।१६ पर्जन्यो न औषधिभिर्मयो भूः (पर्जन्य) ६ । ५२ । ६ सभी देवता जगनके मंगलकारक भेषज स्वरूप हैं। ययं हिष्ठा भिषजो माततमाः विश्वस्य । स्थातुर्जगतो जनित्रीः, (विश्वेदेवा) ६ । ५० । ७ इन्द्र सोमादि देवता वर्ग प्रत्येक त्रिधातु हैं एवं सभी 'त्रिधातु मंगल' प्रदान किया करते हैं। इमें जान पड़ता है कि कार्य कारण एवं कार्यकारणावस्थासे परे की अवस्था इन तीन अवस्थाओंको लक्ष्य करके ही "त्रिधातु" शब्द व्यवहत हुआ है। त्रि विशिष्ट धातुप्रतिमानी मोजसः (इन्द्र) ११०२।८,६४६७ अखिधातुः रजसो विमानः (अग्नि) ३६६,७,७२राह त्रि धातुना शर्मणा यातम् (इन्द्राग्नी) १४१२ या पः शर्म शशमानाय सन्तिः त्रिधातूनि ( मरुत ) श८५११२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ १२१ । स त्रिधातु शरणं शर्म यंसन (पर्जन्य) ७१०१२ निया राय भावः बनि (मपिता) ३६६७ सविता शर्म यच्छतु अस्मे क्षयाय त्रिवरुथमहसः सविता) ४३५३।६ त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती (अश्विद्वय) ११३१६ त्रिवरूथं शर्म यसत् (विष्णु) ११५४१४ परित्रिधातुर्भुवनानि अशीहि (सोम) ६८६४५ अयं त्रिधातु "विन्ददमृतं निगृहम् (सोम) ६।४४।२४ सभी देवता त्रिधातु मंगल देने में समर्थ हैं पढ़िये मंत्रत्रिधातु यद्वरूथ्यं तदस्मासु वियन्तन (आदित्यगण) ८४७१० विधातवः परमाः (विश्वेदेवा) श४७४ . शर्मनो यस त्रिवरूथ मंहसः (विश्वेदेवा) १०६६।५ सभी देवता 'प्रथम' एवं विश्वरूप हैं। यह बात भी हम पाठकों को श्रुतियोंमें दिखा देंगे । जैसे देवताओंमें इन्द्र प्रथम (पहला) है येसे ही सोम भी प्रथम है । अन्य देवताओंके सम्बन्ध में भी ऐसा समझिये । कहीं पहला देव अग्नि लिखा है, कही पहला देव सूर्य है। और जैसे इन्द्रदेव विश्वरूप है वैसे ही सोम भी विश्वरूप हैं | समस्तदेव विश्वरूप हैं। विश्वम्प शब्दका अर्थ यह है-कि सभी देवता सकलरूप धरनेमें शक्तिमान है । एक देवसाका एक ही कप रहता है ऐसा नहीं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) of देवेषु प्रथमम् (अग्नि) १।१०२ / ७ स्वमग्ने प्रथमम् देवम् (अग्नि) ४|११|५ उषः सनृते प्रथमा ( ऊपा) १।१२३/५ उषः सुजाने प्रथमा (उषा) ७१७६६ [eat] देवेषु प्रथमं वा महे (इन्द्र) १/१०२/६ गोपा याति प्रथमः (इन्द्र) ५/३१/१ ऋषि पूर्वा असि (इन्द्र) ८१६ ४१ यो अद्रिभित् प्रथमजा ऋतावा (बृहस्पति) ६०७३।१ बृहस्पति प्रथमं जायमानः (बृहस्पति ) ४|५० ४ विभु प्रभु प्रथमम् (बृहस्पति ) २२२४/१० स सत्यभिः प्रथमः (बृहस्पति) २१२५४ अप सखा प्रथमजा ऋतावा (वायु) १०/१६८|४ प्रथमा (प्रथम) अश्विद्वय, २/३६/३ देवता सभी विश्वरूप हैं । निम्न लिखित प्रमाण पढिये असुरस्य नामा farait अमृतानि तस्थौ (इन्द्र) ३/३८ ४ रूपं रूपं प्रतिरूपी क्यूब (इन्द्र) ६४७|१८ पुरुष - प्रतीकः (इन्द्र) ३।४८,३ वृहत्तु पुरुरूपम् (शि) ५(८२/५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित मना विषुरूपः (अग्नि) ५१५४ विवान वः पुरुका सपर्यन (अग्नि) ११७०।५ स कविः काव्या पुरुरूप 'पुष्यति (वरुण) ४११५ विश्वा रूपा प्रविचक्षाणो अस्य (सोम) हा८५१२ विश्वा रूपाणि प्रतिमुचते कविः (मुविता) श८१२ देवरतुष्टी सविता विश्वरूपः (सविता) ३।५१४ पुरुरूप उग्रः (रुद्र) २।३३।४ विभषि विश्वरूपम् , २१३३३१० _ विश्वरूपम् वृहस्पतिम् , १०१६७१० इस प्रकार हम बहुत प्रमाण उद्धृत कर दिखामकते हैं कि ऋग्वेदके देवता वाँका काय-भेद, कथन मात्र ही है। सब देवता सब कार्य करने में समर्थ हैं। इसलिये देवताओंमें कार्यगत कोई भेद नहीं है। (२) देवताओंमें कार्योकी भाँति नामोंकी भी भिन्नता नहीं है देवता वर्गमें केवल कार्यगत भाव नहीं यही नहीं. किन्तु इनमें नामगत भेट भी नहीं है। नामगत भिन्नता भी कहने मात्रको है यथार्थमें काई भिन्नता नहीं। वैदिक ऋषि एक देवताको अन्य देवताकै नामले सम्बोधन करते हैं। वे जानते थे कि देवता जैसे कार्यतः भिन्न नहीं है वैसे ही वे मामतः भी भिन्न नहीं हैं। प्रसिद्ध वैदिक पंडित श्रीयुत् सत्यव्रत सामनमी महाशयने यास्ककी युक्तिका अनुसरण कर यह सिद्धान्त किया है कि, ऊषोदय पाहीं अमरणोदय काल होता है। अरुणोदयके पश्चात जब Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- { ५३४ ) सूर्यका प्रकाश कुछ तीव्र हो उठता है, उसका नाम 'भग' है। भगोदयके पर कालवर्ती सूर्यका नाम है पूषा, । पूषासे अर्कोदय पर्यन्त अर्यमा' यहाँ तक पूर्वाल होगया । मध्यान्हकालकं सूर्यका नाम 'विष्णु' है । इस रातिसे ऋग्वेदमे एक सूरयके भग अयमा, पूषा, सविता और विष्णु अनेक नाम हैं। उदयसे अस्त पर्यन्त साधारण नाम सूर्य है। इसलिये ऋग्वेद में सूय्यको कभी भग नामसे कभी सविता नामसे कभी पूषा नामसे सम्बोधन किया गया है । और फिर एक ही वस्तु श्राकाशमें सूर्य, अन्तरिक्ष में विद्युत् , भूलोक अमि नामसे इन तीनों भावोंसे विकसित हो रही है। सुतरां अग्रिको सूर्य नामसे बुलाया गया है ! कहीं 'पद्र' भी अग्निका नामान्तर माना गया है । फिर ऐसी बात भी ऋग्वेदमें है कि. इन्द्र सभी देवताओंके प्रतिनिधि हैं। सुतरां अग्नि बा सूर्य इन्द्र नामसे भी सम्बोधित हैं। अग्निको चलसे उत्पन्न, बलका पुत्र भी अनेक स्थानों में कहा गया है। मरुद्गण रुद्रके पुत्र माने गये हैं। इससे यही ज्ञान होगा कि, अनि और मरुद्गण एइ ही वस्तु हैं या एक ही वस्तुके दो विकास हैं। इन सब हेतुओं से देवताओके नामोंकी भिन्नता वास्तविक भिन्नता नहीं। निमा लिखित मन्त्रोंसे पाठक निश्चय कर लेंगे कि, अवश्य ही देवतायें नामतः भिन्न नहीं हैं। इन्द्र का सूर्य नामसे सम्बोधन उत्-अस्चारमेषि सूर्य ! ८१९३१,८१५२१७ यदद्य कम हन्नुदगा अभिसूर्य ? ८९४,३३३३।६ रेशनहे सूर्य ! यजमानोंके चारों ओर उदित होगी। हे घृत्रहा इन्द्र सूयं भज यत्किंचित् पदार्थ के अमिमुख उदित हुए हो । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . युजन्ति नमरुप चरन्तं परितस्थुषुः । . रोचन्ते गेचना दिवि ।। १।६।१।। चतुर्दिगवर्ती सब जीच, इन्द्र के सहित सूर्य, अग्नि यायु और मक्षत्रगणका सम्बन्ध स्थापन करते हैं। अर्थान् सूर्य, अमि, यायु, और नक्षत्रगण इन्द्र के ही मृत्य॑न्तर मात्र इन्द्रक ही भिन्न २ मूर्ति विशेषमात्र हैं, यह बात जोवगण समझ जाते हैं। इस सूक्त के तृतीय मंत्रमें भी इन्द्रका सूर्यरूपमें वरान है। निम्र लिखित मंत्रोंमें इन्द्र, विष्णु, ब्रह्माणस्पति. वरुण, मित्र, अर्यमा, रुद्र. पूषा, सविता, प्रभूति नामोंसे अग्निदेषका बोध होता है त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सतामसि, त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्या त्वं ब्रह्मा रयिवित् ब्रह्मणस्पते त्वं विधतः सचसे पुरन्ध्या । २०१३ स्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतः, त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्यः । त्वपर्यमा सत्पतिर्यस्य संभुज, स्व मंशो विदथं देव भाजयुः।२।१।४ स्वमग्ने वरुणो जायसे यचं मित्रो भवसि । ५३ स्वमग्ने रुद्रो असुरो महोदिवः त्वं श|मारुतं पृक्ष ईशषे त्वं पूषा ॥ २२११६ स्वं देवः सविता त्वं भगः । १७ अन्तरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया ।। ८१७१३ ... ... . --.. ...:.- --- -- --- - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) हे ? आप ही धार्मिकांके अभीष्ट वर्षणकारी इन्द्र है। धाप ही बहुतांक कक और नमस्य विष्णु हैं। सकल धन के अभिज्ञ ब्रह्म' और 'ब्रह्मणस्पति, नामक देवता आप ही हो । आप ही सबके विधाता एवं आप ही सबकी बुद्धिके सहित अवस्थान करते हो । हे अभियापही व्रतधारी 'वरुण' हो । आप शत्रु विनाशक और नमस्कार के योग्य 'मित्र' हो धार्मिक रक्षक अर्यमा' हो । आप ही अंश हो । हे देव ? यज्ञमें फल प्रदान करो। हे अभि ! इस महान आकाशमें महा बलवान (असुर) 'रुद्र' आप ही हो । आप ही 'मरुतु सम्बन्धी बल हो । आप पूषा' है। आप ही अन धनादिके ईश्वर हैं। आप 'सविता ' एवं बाप ही 'मग' हैं । उस 'रुद्र' अमिका हृदय मध्य में बुद्धि द्वारा इच्छा करते हैं । अन्य मन्त्री में भी श्रभि श्रनेक नाम · लीजिये - चन्द्रं रयिं चन्द्रं चन्द्राभिते युवस्य || ६ |६|७ पुरुनाम पुरुष्टत || ८|६३/१७ महते वृष्णोरसुरस्य नाम || ३ | ३८ | ४ भूरिनाम वन्दमानो दधाति ।। ५ । ३ । १० पर्यो अस्य ते भूरि नाम मनामहे ।। ८।११।५ अग्ने भूरीणित "अमृतस्य नाम ।। ३ ।२०|३ मित्रो अग्निर्भवति यत् समिद्धो मित्रो होता वरुणो जातवेदाः || ३||४ स्वदिते सर्वत्राता । १ । ६४ । १५ विष्णुगा शिष्टा विश्वा भुवनानिवेद | ३|५५) १० यमो हजातो यमो जनित्वम् | १ । ६६ । ४ ... · Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वा अपश्यत् बहुधा ते अग्ने जातवेदः तन्नो देव एकः इत्यादि मंत्रों का सूक्ष्म अर्थ यह है कि-हे अग्नि ? श्राप चन्द्र नामसे विख्यात हैं। हम आनन्ददायक स्तोत्र द्वारा बुलाते हैं। हमें अानन्दप्रद धन दीजिये । जब अग्नि समिद्ध उज्वल हो उठते हैं, सब उनको 'मित्र' कहते हैं। अग्नि देव ही होता एवं सर्व भूतज्ञ वरुप हैं। सबके रक्षक विष्णु अग्नि-समम भुवनको जानते हैं । जो जन्मा है और जन्मता है सभी 'यम' है । हे अग्नि ! आप ही वे यम हो। 'यमस्य जाल ममृतं यजा महे ।। १।८३ । ६ ।, १० | ५१ । १ मंत्रमें कहा गया है कि अग्निका जो नामा स्थानों में बहुषिध शरीर है. उस एक ही मान देवता जानने में समर्थ हे सोमके भी इन्द्र. सविता अग्नि, वरुणा, सूर्य श्रादि नाम हैं ! प्रमाण यथा-- विमति चारु इन्द्रस्य नाम येन विश्वानि वृत्रा जघाना ६१०६६१४ त्रिभिः देव वित्त वर्षिः सोम धाभिः अग्ने रक्षः पुनीहि नः ॥ 6 । ६७ । २६ श्रात्मा इन्द्रस्य भवसि । E८३ राज्ञोदते वरुणस्य । चतानि सहगभीरं तत्र सोम धाम । १।११।३ ऊद्ध्वों गन्धवों अधिनाके अस्थात् विश्वारूपा प्रति चक्षाणो अस्या भानुः शुक्रण शोचिषा व्यधोत् श्रारुरुचत् रोदमी मातरा शुचिः । ६५ । १२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) असि भगो'' 'अपि मश्या पधवत्भ्यः इन्द्रो। ५४ श्रर्य पूषारयिभंगः सोमः पुनानः अर्षति । ६।१०१७ ऊते कृयन्तु धीतयो देवानां नाम विभ्रतीः | KIRRIA सारांश यह कि हे सोम ? श्राप इन्द्र सविता आदि है। आप ही राजा वरुण हैं। वरुपके काय अापके ही हैं । आपका धाम घ स्थान ( कारण-सत्ता ) बृहत् एवं गंभीर है । सोमने ही श्राकाशमें ऊपर सूर्यरूपसे अवस्थित होकर जनम-जननी तुल्य धुलोक और भूलोकको शुद्ध पवित्र किरणों द्वारा ज्योतिर्मय धनाया है। भग, इन्द्र पूषा. रयि, भर्ग, सोमके ही नाम है। सकल देवसाओंके नामोंसे सम्मिलित स्तुति द्वारा सोमको बुलाते हैं। सविताका–सूर्य. पूषा, मित्र, चन्द्र. वरुण, एवं पायक नामसे निर्देश किया गया है। उत सूर्यस्य रश्मिभिः समुन्यसि । उत रात्रीभृभयत्तः परीयसे। उत मित्रो भवसि देव धर्मभिः ॥ ५। ८१ | ४ उत्त पूषा भवसि देव धामभिः । ५।८१ । ५ येना पावकचक्षसा भ्ररस्यन्तं जना अनु स्वं वरुण पश्यसि । १। ५० । ६ हे सविता ! तुम सूर्य किरण द्वारा सङ्गत हुश्रा करते हो । तुम उभय पाश्र की रात्रिके मध्य में होकर भी गमन करते हो सूर्योदय के पूर्वका नाम 'सविता' है उदयसे लेकर अस्त होने पर्यन्त का साधारण नाम "सूर्य" है । सायणाचार्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ } (चन्द्र) तुम्हारे कार्यं द्वारा तुम्हे 'मित्र' भी कहा जाता है । है सविता ! दिवसमें तुम्हें पूषा कहा जाता है । हे वरुण हे श्रावित्य ! तुम प्राणीशसके पोषणका रूपसे इस जगत्‌को देखों । रुद्रका नाम कपर्दी एवं ईशान हैं पूपाका भी वही । कपर्दिनमीशानम्" + ॥ ६ ॥ ५५ ॥ ॥ श्रश्विनीकुमारीका पूषा नाम देखिये L 'श्रियेपूषन् । देवानासत्या' १ । १८४ | ३ || सभी देवताओके असंख्य बहुत नाम हैं, यह बात भी ऋग्वेद हमें बतला दी है- 'विश्वानि वो नमस्यानि चन्या नामानि देवः उत यशियानिवः ।। १० । ६३ । २ ॥ " देव ! आप सबके नमस्काराह और बन्दनीय क नाम हैं। आपके लिय नाम भी अनेक हैं 1 इसके अतिरिक्त सभी देवताओंका अन्य एक परम गुड़ा नाम भी है यह भी हमें पाते हैं। ऐसी बात क्यों कही गई ? कार्यके भीतर अनुस्यूत मूढ भाव से स्थित कारण सत्ता ही इस कथनका लक्ष्य है । देवो देवानां गुह्यानि नाम आविष्कृणोति ॥ ६६५२ देवताओंका जो परम गोपनीय एक एक नाम है सोमदेव ही उसका आविष्कार करते हैं। अन्यत्र भी हम पाते हैं कि अम एक परम गुह्य नाम है । विद्या नाम परमं गुहा यत् विद्यात सुसंयत आजगंथ । १० । ४५ १२ प्रथम व पंचम १११४ लिखा है । का नाम "पी" Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे अग्नि! हम आपका परम गोपनीय नाम जान सके हैं एवं जिस उत्स से पाये हो उस उत्सको भा जान गए हैं। समीक्षा.-बाबू कोकिलेश्वर भट्टाचायने उपरोक्त प्रमाणोंको उद्धृत करके यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि ये सब देवाप्ता एक ही कारण सत्ताकी अभिव्यक्तियाँ हैं । परन्तु आपने यह विचार नहीं किया कि यह सब कथन स्तुतिवाद मात्र है। अथात् वैदिक समयमें कविता करनेकी यह ही प्रणाली थीं। यथा मन्यु (क्रोध ) का कथन करते हुये भी उपरोक्त प्रणालीका ही प्रयोग • किया गया है, यथापन्युरिन्द्रोमन्युरेवास देवो मन्युहोता वरुणो जात वेदाः। ऋ० १०।८।२ अर्थात् , मन्यु ( क्रोध ) ही इन्द्र है वही सर्व श्रेष्ठ देव है, वही होता है. वही वरुण और वहीं सर्वज्ञ अग्नि है। इसी प्रकार औषधी. बैल, बकरा. नमस्कार, आदिका वर्णन करते हुये सब देवीको उनके आधीन घताया गया है । जिनका कथन मृष्टि रचना प्रकरणमें आगे किया है। अतः यह सिद्ध है कि यह उस समय की प्रणाली थी। तथा दूसरी बात यह है कि-अग्नि आदिक उपासक कवि अपने अपने उपास्त्रको सर्व श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये अन्य सब देवाको अपने उपाध्यके आनय अथवा जमकी भक्ति करने वाला कहा करत अं। यही कारण है कि-'इन्द्र' उपासक अग्निको निन्द्रा किया करते थे और अग्नि आदिके उपासक इन्द्रकी । अतः उपरोक्त संघ प्रमाण अापको पुष्ट न करके श्रापकी कल्पनाका विरोध ही करत हैं। विशेष क्या अथर्ववेदमें अनुमति ( अनुज्ञा. देनेको अनुमति कहते हैं ) का वर्णन करते हुये लिखा है कि Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमनि सर्वमिदं बभूव यत् तिष्ठति चरति यदु च विश्व मेजति । अ० का० ७ । २१ । ६ ।। अर्थान अनुमति ही सब कुछ होगई. जो कुछ भी स्थावर और जंगम है वह सब अनुमति ही है । तथा च' का, ६1 में मेध्य बैलका वर्णन है, वहाँ लिग्वा है कि-- प्रजापतिश्च परमेष्ठी च भूगे इन्द्रः शिरो अग्निललार्ट यमः कुकाटम् ।। अर्थात् इस थैलके, प्रजापति और पर.ठी दोनों सींग है. इन्द्र देवतः इसका शिर है तथा अग्निदेव इसके मस्तक है तथा यमदंब उसके गले की घंटी है। आदि । यहाँ इस बलके ही प्राश्रय सब देवतःको बता दिया है। इत्यादि शतश: प्रमाण दिये जा सकते हैं जिनमें प्रत्येक पदाथकी इसी प्रकार स्तुति की है । तथा च हम अनेक युक्ति व प्रम गोंसे सिद्ध कर चुके हैं, कि चैदिक बांगमय में अनेक बनवाद है न कि एक देवतवाद । अतः उपरोक्त सव प्रमाण एकेश्वरवादकी पुष्ट्रि नहीं करते अपितु उसका विरोध ही करते हैं। क्योंकि यहाँ पृथक पृथक देवताओंका स्तुति उनके भक्तोंने अपने अपने देवताको उत्कृष्टता दिखाने के लिये की है। साधक भेद से साधक भेदसे दैवत भेद मानना भी युक्ति युक्त नहीं है। क्यों कि उस अवस्थामें वेदामें इन देवताओंकी निन्दा नहीं होनी चाहिये थी । परन्तु वेदोंमें श्रमि भक्तोंने इन्द्रकी और इन्द्र भक्तों ने अभिकी निन्दा की है. इसी प्रकार अन्य सव देवोंकी अवस्था है जैसा कि हम पूर्व में दिखला चुके हैं। तथा च वेदों में या अन्य वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख तक भी नहीं है । हाँ श्रीशंकरा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्य प्रादि विद्वानांने ऐसी ऐसी कल्पनायें केवल प्रति पक्षियोंको उत्तर देनेके लिये की है। परन्तु इन कल्पनाओं में न तो कोई वैदिक प्रमाण ही है, और न इनमें कुछ सार है। और न इत्यादि कल्पनायें सन्मुख सहरमी सकती हैं। ईश्वर की शक्तियाँ इस प्रकार जब शतशः प्रबल प्रमाणों द्वारा देवताओंका अनक्य सिद्ध हो जाता है तब भक्तजनोंने यह कल्पनाकी कि देवता तो पृथक पृथक ही हैं परन्तु ये सब ईश्वरकी शक्तियाँ हैं। जैसा कि श्रीमान् पं० राजारामजी आदि विद्वानोंने लिखा है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि याहाँ शक्तिका क्या अर्थ है। क्या जिस प्रकार अग्निकी प्रकाशकत्व, दाहकत्र, उ-वंगमनत्व, आदि शक्तियाँ है ? उसी प्रकार यह सूर्य, चन्द्र, वायु, श्राकाश, पृथ्वी, जल. आदि ईश्वरकी शक्तियाँ हैं ? अथवा जिस प्रकार राजाकी शक्तियाँ संना, यान. कोरा श्रादि है, उस प्रकार ईश्वरकी यह शक्तियाँ है । प्रथम पक्षमें तो अमि आदि सम ईभरके गुण ही सिद्ध होते हैं. और गुण तथा गुण का मन केवल कथन मात्र ही है बास्तबमें न उनमें मंद है और न ही गुण पृथक पृथक हैं। अपितु वे सब गुण एक ही गुणकी पृथक पृथक अभिव्यक्तियों हैं । इसमे तो श्रीशंकराचार्य का अद्वैतवाद हो सिद्ध होता है। जिसको ये विद्वान स्वीकार नहीं करते । दूसरी अवस्थामें अनेक नित्य पदार्थोंका एक दुसरेके आधीन होना सिल नहीं होसकता। क्योंकि आधीन होना एक कार्य है जिसके लिये कारणकी आवश्यकता है, परन्तु यहाँ कारण का सर्वथा अभाव है । इसके अलावा एक बान यह भी है कि, जो आधीन होता है और जो श्राधीन करता है उन दोनोंकी अपनी र आवश्यकतायें अथवा कमजोरियाँ हैं, जिनको पूर्ण करने के लिय Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन साधीन होता है अथवा आधीन करता है। जिस प्रकार सैनिक व्यक्तियोंको उपयोंको आवश्यक्ता है और राजाको सेनाकी क्योंकि उसको शत्रुओंका भय है कि कहीं उसके देशपर चढ़ाई न कर दें। यदि दुश्मन इस पर चढ़ाई कर दे तो ग्रह बेचारा अकेला कुछ भी नहीं कर सकता इसलिये इसे सेनाकी यान थादि अन्य साधनोंकी आवश्यक्ता है. अतः वह इनको एकत्रित करके रखता है। तथा सेना आदि और राजा क दुसरेके आधीन होते हैं। धर्थान राजाकें श्राधीन सेना होती है और सेनाके अाधीन गजा होता है । अतः इनको ईश्वरके श्राधीन मान भी लिया जाये तो भी आपके सिद्धान्तकी पुष्टि नहीं हो सकती क्योंकि उस अवस्था में ईश्वर पराधीन निर्बल. संगी द्वेषी, अनेक कामनाओं वाला, सुखी, दुखी बन जायेगा । पुनः संसारी जीवमें और इस ईश्वरमें क्या मेद रहेगा । क्या उसका ऐश्वर्य महान है इसलिये उसे ईश्वर माना जाये ? ऐसी अवस्थामें यह महान दुखी भी सिद्ध हो जायेगा. क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिसका जितना श्वयं है उतना ही वह अधिक दुखी है। अत: यह सिद्ध होता है कि यह ईश्वर विषयक कल्पना, किसी संसारी मनुष्य की कल्पना है। अतः इन देवताओंको ईश्वरकी शक्तियाँ नहीं कह सकते ! क्योंकि शक्ति और शक्तिमान भिन्न २ पदार्थ नहीं है। इससे या तो जड़ातबाद सिद्ध होगा या चेतनाद्वैतवाद । किन्तु अद्वैतवाद न तो युक्तियुक्त है और येदिक । स्वर्गीय पं. टोडरमल जीने अद्वैतवादके खण्डन में निश्न युक्तियाँ दी हैं। सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्मका खण्डन "अद्वैत ब्रह्मको सर्वव्यापी सबका को माना जाता है लेकिन ऐसी बात नहीं है केवल मिथ्या कल्पना है । पहले तो यही ठीक नहीं है कि वह सर्व व्यापी है क्योंकि संपूर्ण पदार्थ प्रत्यक्षरूपसे Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलग २ दिखाई देते हैं उनके स्वभाव ही अलग हैं इसलिये उन्हें एक कैसे माना जा सकता है ? एक मानना तो इस प्रकारसे हो सकता है कि प्रथम तो जितने अलग : पदार्थ हैं उनके समुदायकी कल्पनासे कुछ नाम रख लिया जाय । जैसा घोड़ा हाथी, श्रादि मिन्न पदार्थ की सेना नामसे कहा जाता है. उनसे अलग कोई मेना नामर्फ बन्न नहीं है. अगर इसी तरह सर्व पदार्थोका नाम ब्रह्म है तो ब्रह्म कोई अलग बस्तु न रह कर कल्पना मात्र ही रहा ! दुसरा प्रकार यह है कि पदार्थ व्यक्तिकी अपेक्षा भिन्न २ है किन्तु, जातिकी अपेक्षा उन्हें कल्पनासे एक कहा जाता है जैसे घोड़े व्यक्तिरूपसे अलग अलग होते हुये भी प्राकारादिककी. सम नतासे उनी जाति कही बानी पा जाति पोहोंसे कुछ अलग नहीं है । यदि ब्रह्म भी इसी तरह सबोंकी एक जातिके रूपमें है तो ब्रह्म यहाँ भी कल्पनामात्रके सिवाय अलग वस्तु कोई नहीं रहा । सीसरा प्रकार यह है कि अलग २ पदार्थों के मिलनेसे एक स्कन्धको एक कहा जाता है, जैसे जलके अलग २. परमाणु मिलकर एक समुद्र कहलाता है, पृथ्वीके परमाणु मिलकर घड़ा श्रादि कहलाते हैं। यहाँ धड़ा और समुद्र उन परमाणुओंसे अलग कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार वछि संपूर्ण. अलग २ पदार्थ मिलकर एक ब्रह्म होजाते हैं तो ब्रह्म उनसे अलग कोई पदार्थ नहीं रहा। चौथा प्रकार यह है कि अंग अलग हैं और जिसके वे अन्न हैं वह एक अङ्गी कहलाता है। जैसे आँख, हाथ, पैर श्रादि भिन्न भिन्न हैं और जिसके यह हैं वह एक अङ्गी ग्राम है. यह सारा लोक विराट स्वरूप है ब्रह्मका अल है अगर ऐसी मान्यता है तो मनुष्य के हाथ पर श्रादिके अङ्ग अलग अलग रह कर एक अङ्गी नही कहला सकते जुड़े रहने पर ही शरीर कहलाते हैं परन्तु लोकमें पदार्थोका अलगाना प्रत्यक्ष दीखता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } इसका एकपना कैसे जाना जाय । अलग रहकर भी अगर एकपना मान जाय तो भित्रपना कहाँ स्वीकार किया जायगा ? सूक्ष्मरूप ब्रह्म के अन्न विद्यमान हैं, उनमें शंका-पत्र पदार्थ सब पदार्थ जुड़े हुए हैं । 1 सूक्ष्म समधान - जो अङ्ग जिससे जुड़ा है वह उससे ही जुड़ा रहता है या टूट कर अन्य से जुड़ा करता है । यदि पहला पक्ष स्वीकार है तो जब सूर्यादिक गमन करते हैं तब जिन से जुड़े हैं वे भी गमन करते होंगे और वे सूक्ष्म बिना स्थूल से जुड़े हैं वे भी गमन करने होंगे इस सह संपूर्ण लोक स्थिर हो जायगा, जैसे शरीरका एक अङ्ग खींचने पर सारा शरीर खिंच जाता है वैसे ही एक पदार्थ गमन करने पर संपूर्ण पदार्थो का गमन होजायगा पर होता नहीं । अगर दूसरा पक्ष सं.कार किया जायगा तो से भिन्नपना हो जायगा एकपना कैसे रहेगा। इसलिये संपूर्ण लोकके एकपतेको ब्रह्म मानना भ्रम हो हैं । पांचवा प्रकार यह है कि पहले कोई पदार्थ एक था. बादमें अनेक हुआ फिर एक होयगा इसलिये एक है। जैसे जल एक था चरतनों में अलग होगया मिलने पर फिर एक होजायगा | अथवा जैसे सोनेकाला एक था वह कंकरा कुरडताविक रूप हुआ मिलकर फिर सोनेका एक ढला होगा । बसे हो ब्रह्म एक था पछे अनेक रूप हुआ फिर मिलकर एक रूप हो जायगा इसलिये एक है। इस प्रकार यदि एक माना जायगा तो ब्रह्म जब अनेक रूप हुआ तब जुड़ा रहा था या अलग होगया था। अगर जुड़ा कहा जायगा तो पहला दोष ज्यों-त्यों है अलग हुआ कहा जायगा तो उस समय एकत्र नहीं रहा। जल स्वर्णविकका भिन्न होकर जो एक होना कहा जाता है वह तो एक जाति : Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा है. लेकिन यह पत्र पदाध का कोई एक जत नहीं. कोई चेतन" कोई अचनन है इत्यादि अनेक कप है उनको एक जाति कसे कह सको? जानि जपेक्षा कर पाना कल्पना मात्र है यह पहले कहा ही है। पहले एक था पीछे भिन्न दानो से एक पत्र अादि फूट कर टुकड़े टुकड़े होजाता है यसे ही ब्रह्म खण्ड खण्ड होगया। जब वे एक हुए तो उनका स्थलप भिन्न भिन्न रहा या एक होगया । यदि भिन्न भिन्न रहा तो अपने अपने स्वापसे मंय भिन्नं ही कहलाये। यदि एक होगया है नो जड़ भी चेतन हो जायगा और चेतन जड़ होजायगा और इस नरह यदि अनेक वस्तु की एक वस्तु हुई तो कभी एक वस्तु अनेक यस्तु कहना ह गा। फिर अनादि अनन्त एक ब्रा है. यह नहीं कहा जा सकता । गदि यह कहा जायगा कि लोकरचना हो या न हो ब्रह्म जैसेका तैसा रहता है इसलिये वह अनादि अनन्त है प्रश्न यह होता है कि लोको पात्री जलादिक वस्तु पालग नवीन उत्पन्न हुई हैं या ब्रह्म ही इन स्वरूप श्रा है । अगर अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं तो यह अलग हुश्रा ब्रह्म अलग रहा सर्वव्यापी अद्वन ब्रह्म न कहलाया । अगर ब्रह्म ही इन स्वरूप हुश्रा तो कभी लोक हुश्रा कभी ब्रह्म हुआ जैसे का तैसा कहाँ रहा ? अगर ऐसी मान्यता है कि सारा ब्राझ, लोक स्वाप नहीं होता उसका कोई अंश होता है जैसे समुद्र का विन्दु विषरूप होने पर भले ही स्थूल दृष्टिसे उमका अन्यथापना न जाना जाय लेकिन सूक्ष्म दृष्टिसे एक विन्दुकी अपेक्षा समुद्र में अन्यधारना श्राजाता है वसे ही ब्रह्माका एक अंश भिन्न होकर जब लोकरूप हुआ तब स्थूल विचारसे उसका अन्यथापन भले ही न जाना जाय परन्तु सूक्ष्म विबारसे एक अंशकी अपेक्षा जसमें अन्ययापन हुधा ही क्योंकि वह अन्यथापन और तो Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ; fert हुआ नहीं ब्रह्मके ही हुआ। इसलिये ब्रह्मको सर्वरूप माना भ्रम है । छटा प्रकार यह है कि जैसे श्राकारा सर्वव्यापी है वैसे ब्रह्म भी सर्वत्र्य पी है तब इसका अथ यह हुआ कि प्रकाशकी तरह ब्रह्म भी उतना ही बड़ा है और घटपटादिकमें काश जैसे रहता है वैसे भी उनमें रहता है लेकिन जैसे शद और आकाशको एक नहीं कह सकते वैसे ही ब्रा और लोक को भी एक नहीं कहा जा उकता। दूसरी बात यह है कि आकाश का तो लक्षण यंत्र दिखाई देता है इसलिये उसका सच जगद सद्भाव माना जा सकता है लेकिन ब्रह्मका लक्षण सब जगह नहीं दिखाई देगा इसलिये कैसे बनता है ? इस तरह विचार करने पर किसी भी तरह एक ब्रह्म संभव नहीं होता । सम्पूर्ण पदार्थ भिन्न भिन्न ही मालूम पड़ते हैं । यहाँ प्रतिवादका कहना है कि पदार्थ हैं तो सब एक हो लेकिन भ्रम से वे एक मालूम नहीं पड़ते। इसमें युक्ति देना भी ठीक नहीं है क्योंकि ब्रह्म का स्वरूप युक्तिगम्य नहीं है. वचन अगोचर है एक भी है अनेक भी है, जुदा भो हैं मिला भी है उसकी महिमा हो ऐसी हैं । परन्तु उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि उसे और सबको जो प्रत्यक्ष प्रतिभ नित होता है उसे वह भ्रम कहता है और युक्ति अनुमान करो तो कहता है कि रुघा स्वरूप युक्तिगम्य नहीं हैं वचन अगोचर हैं परन्तु जब वह बचन गर है तो उसका निर्णय कैसे हो ' यह कहना कि एक भी हैं. अनेक भी है जुड़ा भी हैं मिला मो है तब ठीक होता जब किन किन अपेक्षा से ऐसा हैं ? यह बताया जाता । अन्यथा वह पागलोंका अल . प हैं । कहा जाता है कि ब्रह्मके पहले ऐसी इच्छा हुई कि 'एकोऽहं Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ' astri मैं एक बहुत होऊँगा । लेकिन जो पहली अवस्था में दुख होता है वही दूसरी अवस्था चाहता है। ब्रह्मने एकरूप अवस्था से अनेक रूप होनेकी इच्छा की सं ब्रह्मो पहले क्या सुथा? जर दुध नहीं और ऐसा ही उसे कुतुहल हुआ तो जो पहले कम सुखी हो और बादमें कुतूहल करनेसे अधिक सुखा हो वह कुतूहल करना विचारता है ब्रह्म जन एक यत्रस्थ से अनेक अवस्था रूप हुआ तब उसके अधिक सुख कैसे संभव हो सकता है । और अगर वह पहले ही पूर्ण सुखी था तो अवस्था क्यों पलटता है ? विना प्रयोजनके तो कोई कुछ करता नहीं । दूसरे वह पहले भी सुखो था और इच्छानुसार कार्य होने पर भी सुखी होगा, लेकिन जब इच्छा हुई उस समय तो दुखी ही है यदि यह कहा जाय कि ब्रह्मके जिस समय इच्छा होती है, उसी समय कार्य होता है इसलिये दुखी नहीं होता यह भी ठंक नहीं है क्योंकि स्यूत कालकी अपेक्षा तो यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मकी इच्छा के समय ही काम होता है परन्तु सूक्ष्म कालकी अपेक्षा इच्छा और कार्यका होना एक साथ नहीं हो सकता | इच्छा तो तब ही होती है जब कार्य नहीं होता और जब कार्य होता है तब इच्छा नहीं होती इसलिये थोड़े समय तक तो इच्छा रही हो अतः दुखी अवश्य हुआ होगा। क्योंकि इच्छा ही दुःख है और दुःखका कोई स्वरूप नहीं । इसलिये ब्रह्मकी इच्छा की कल्पना करना मिथ्या है। ब्रह्मको मायाका खण्डन होती है तो ब्रह्मकी ही माया हुई कहलाया उसका शुद्धरूप कहाँ रहा। यदि यह कहा जाय कि इच्छा होते ही ब्रह्मको माया प्रकर और इस तरह यह मायात्रां दूसरी बात यह हैं कि ब्रह्मका Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मायाका दण्डी दटके समान संयोग संबंध है या अनि एके समान समयाय संबंध है। यदि चंयोग संबंध है, तो ब्रह्म भिन्न हुश्रा और मामा भिन्न हुई तब अटेर ब्रह्म कर कहालाया। तथा जिस प्रकार दण्डी दगडको उपक से जान ग्रहण करता है वैसे ही ब्रह्म भी मायाको उपकारी जानता है तभः ग्रहण करता है अन्यथा क्यों करें । अतः जिसे ब्रह्मा मं. ग्रहण करता है. उसका निषेध करना कैसे संभव होमकता है यह सो एक उपादेय च.ज हुई । अगर समवाय सम्बन्ध है तो जैसे 'अनकः उप्रण स्वभाव से ब्रह्मका माया स्वभाव हुश्रा । उस स्वभावक: मध कैसे संभव हो सकता है। वह तो उत्तम बस्तु हुई। यदि कहा जाय कि ब्रह्म तो चेतन्य है और माया जा है यह भी ठीक नहीं है क्यों के समवाय सबन्धमे दां वगंधा माभाव नहीं रहते, जैसे आकारा और अन्धकार एक जगह नहीं रह सकते। यह कहा जाता है कि मापासे स्वयं प्रम भ्रमप नहीं होता किन्तु अन्य जब भ्रमरूप हान है तब तो जैसे कपटी अपने कपटको स्वयं ही जानता है, उसके भ्र में नहीं बता दूस ई। जब भ्रममें श्राते हैं । लेकिन कपटी तो यही कहला यग जो पट काँगा न कि भ्रममें श्राने वाले दुलर ज.व ? बसे ही ब्रह्म अपनी मायाको स्वयं जानता है इस ल य वह भ्रमरूप नहीं होत. दुसर ही जीव भ्रममें आते हैं लेकिन मायात्रा तो प्रश्न ही कहल.यगा उसका मायासे दूसरे जीव जो भ्रमरूप हुए हैंवे मायावी क्यों कहलायेंगे ? __साथ ही एक प्रश्न यह भी उठता है कि जीव और ब्रह्म एक है या अलग अलग हैं ? यदि एक हों तो जैसे कोई पागल स्वयं ही अपने अंगों को पीड़ा पहुंचाता है वैसे ही अम्ल अपनेसे अभिन्न ओवको मायासे दुखी करता है. इसको माया कहा जायगा? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.५० ! और यदि है तो जैसे कोई बिना ही जन को तो उसे नष्ट हो कहा जाता है वैसे हो ब्रह्मविष है उसे क्या कहा जायगा ? इस तरह मायाको ब्रह्मकी बतलाना निरा है। जीवों को ब्राह्म चेतनताका खण्डन है कि जलसे में हुए अलग अलग बर्तनोंमें चन्द्रमाका प्रतिविम्ब अलग अलग दिखाई देता है परन्तु चन्द्रना एक हो है । वैसे अलग - बहुतसे शरमें ब्रह्मका चैतन्य प्रकाश अलग पाया जाता है। लेकिन ब्रह्म एक ही है । इसलिये ज वॉकी चेतना का हो चेतना है। किन्तु यह कहना भः ठक नहीं है। जड़ शरीर में ब्राह्मके प्रतिविम्बसे यदि चेतना होता है तो घटपट आदि जड़ पद में भी ब्रह्मका प्रतिव पड़ जाने से चेतना हो जानी चाहिये । यदि कड़" ज य कि शरीरों को चेतन नहीं करता जाबको चेतन करता है तो प्रश्न यह है कि जोका स्वरूप चेतन है या अवेन ? अगर चेसन है तो वैतनको चेतन क्या करता ? यरि श्रपेतन ? तो शरीर, घट और जोबकी एक जान हुई। दूसरा प्रश्न यह है के बस और की चेतना एक है या भिन्न है ? यदि एक है तो दोनों में इनके अधिकता होता क्यों है ? दूसरे यह सभी जीव परस्पर में एक दूसरे को बत क्यों नहीं जानते ? अगर यह कहा जायगा कि यह उपाधिका भेद है चेतना हो भिन्न भिन्न है तो उपाधि मिटने पर इसको चेतना ब्रह्मनें मिल जायेगो या न होजायतां ? अगर न यह जो अचेतन रह जाएगा । अगर रहेगा तो होज यो तो इसका चेतना इसको रह| ब्रह्ममें क्या मिला ? अगर अस्तित्व नहीं रहेगा तो इसका नारा हुआ कहलाया ब्रह्म में कौन मिला ? अगर और Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ । जीवकी चेतना भिन्न २ मानी जायगी तो ब्रह्म और जीव मैत्र २ ठहरे। इस प्रकार ज.व की चेतनाको ब्रह्मको मारना भ्रम है । शरीर मायाका स्वरूप है इसका खण्डन शरीरादिको यदि मायाका कहा जाता है तो माया हो हाइ मसादिक रूप होती है या माया निमित्तसे और कोई हा मांस रूप होता है ? अगर माया हो हा मांसरूप होती है तो मया व गंधादिक पहले से हो थे या नवीन हुए ? यदे पहले से ही थे तो पहले तो माय की थी और ब्रह्म अमूर्ति है कि कैसे संभव हो सकते है ? अगर नवीन गुप तो भाव नहीं रहा । अगर कहा जायगा कि मायके निमित्तसे और कोई ही मांसादि रूप होता है तो माया के सिवाय और कोई पदाथ तो यदियों के यहाँ है हो नहीं तब होगा कौन ? अगर यह कहा जायगा कि नाश हुए है तो माय से भिन्न पैदा हुए हैं या भन्न पैदा हुए है? यदि भिन्न पैदा हुए तो शारीरिक मायामयी कैसे हुए? वे तो उन नवोन उत्पन्न पदमय हुए । यदि अभिन पैदा हुए तो माया हो तर हुई। नवीन पत्र का उत्पन्न होना क्यों कहो हो ? इस तरह शरारादिकको मायाका स्वरूप कहना भ्रम हैं । r. प्रतिवादी फिर कहता है कि-- मायासे तीन गुण पैदा होते हैं राजस नाम और सात्विक परन्तु यह मां का कहना ठीक नहीं है क्योंकि मानादि कपान रूप भावको राजस कहते हैं, कोधादि ऋष रूप भावकी तामस कहते हैं मंद कपय रूप भाव को साविक कहते हैं. यह भाव प्रत्यक्ष चेतनामयी है और मायाका स्वरूप जड़ कहा जाता है सो जइसे चेतनामया भाव कैसे पैदा हो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकने है अगर जड़के भी यह भार पैदा हो मकते हैं तो पत्थर श्रादिक भी हने च हो । परन्तु चेतनः स्वरूप के ही वह दोन्नत हैं। श्रतः यह मात्र मागास पैदा नहीं है सकते । हां यद माग.को चनना ठहराया जग तो मन मकरे हैं लेकिन मायाको चेतन ठहरानेमें शरीसनिक मायाग्मे भिन्न होते हैं यह नहीं माना जा सका इसलि । उरका निश्चत करना चाहिय । भ्रमरूप मानने में कोई लाभ नहीं है। प्रतिवादीका यह भी कहना है कि इन तीन गुणा से प्रक्षा, विष्णु और म श य तीन देव प्रकट गा है। लेकिन ये उ.क नहीं है क्यं क गुण से गुण नो पैद होते हैं परन्तु गुणसे गुगी पैदा नहीं होते । पुषसे क्रोध होता है. ले केन क्र.बसे पुष होना नहीं देग्या गना । तथा इन गा का जब निया का रो ता इन उत्पन्न हुए ब्रह्मदक पून्य कैसे माने जा सकते हैं। दूसरी बात यह है कि मुश तो हैं मायामय मोर बह तानों श्रमके अवतार है. किन्तु इन गुणोंसे उत्पन्न होने के कारण ये भी मायःमय कहलाए । फिर इनको ब्रह्मक अवतार कसे कहा जा सकता है ? य गुण जिनमें थाइ भा हैं, उनसे तो इनमें छोड़ने लिमें कहा जाता है। और जो इन्हों गुणोंका मत है उनमें पूजा माना जाता है यह तर बड़ा भ्रम है। तमा इन नामोंके काय भी इन्ही रूप में देखे जाते हैं। कुतुहलादिक युद्धःदिक सेयनादि क्रिया उन रागादिगुरा से हात है इसलिये उन के गदिक गुगण में जूर एसा पद्धना चाहिये । इन को पूरप कहना यः परमेश कदनः किसी प्रक र म ठीक नहीं हैं। जैसे अन्न सलारो है येले . य भो हैं । यह यह कहना भी ठीक नहीं है कि, संसारी नो मायाक अधीन है इस लिव बिना जान ही उन काय को करते हैं किन्तु घमा दकके भाया अधीन है, ये जानकर इन कायों को करते हैं। क्योंकि माझ्याके Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधीन होनेसे काम क्रोधादिक के सिवाय और क्या पैदा हो सकता है। इन काम क्रोधादिकी ब्रह्मादिकके तीमना पाई जाती है। कामकी तीव्रतासे खियोंके वश होकर उन्होंने नृत्य गान आदि किया है. विह्वल हुए है. अनेक प्रकार की कुचेष्टा की हैं। क्रोधके यशीभूत होकर अनेक युद्धादि कार्य किये हैं. मानके वशीभूत होकर अपनी उच्चता प्रकट करने के लिये अनेक उपाय किए हैं, मावाके वशीभूत होकर चल किया हैं, लोभके वशीभूत होकर परिग्रहका खूब सग्रह किया है। यदि यह कहा जाय कि इनको काम क्रोधादि व्याप्त नहीं होते. यह तो परमेश्वरकी लीला है। सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे कार्योको वे इच्छासे करते हैं या विना इच्छासे करते हैं ? अदि इच्छा से करने हैं तो स्त्री सेवनकी इच्छा ही का नाम काम है. युद्ध करने की इच्छा ही का नाम कोध है इसी तरह और भी समझना चाहिये। अगर बिना इच्छा करते हैं तो चिना चाहे किसी कामका होना पराधीनताका सूचक है. वह पराधीनता उनके कैसे संभव हो सकती है ? और अगर यह लीला है कि परमेश्वर अवतार धारण कर इन कार्यों में लीला करता है तो अन्य जीवोंको इन कार्योसे छुड़ाकर मुक्त करनेका उपदेश क्यों दिया जाता है । फिर तो क्षमा, शील, संतोष. सयमादिकका उपदेश सब भूठा कहलाया। लोक प्रवृत्ति या प्राणियोंके निग्रह अनुग्रहके लिये सृष्टि रचना का खण्डन इस पर अगर यह कहा जाय कि परमेश्वरको तो कुछ मतलब नहीं किन्तु लोकनीतिको चलाने के लिये अथवा भक्तों की रक्षा और Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) दुष्टों का निग्रह करने के लिये पवर अवतार धारण करता है, सी भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रयोजनके बिना चिउटी भी कार्य नहीं करती परमेश्वर भला क्यों करेगा? और फिर प्रयोजन भी ऐसा कि लोक प्रवृत्तिके लिये करता है। जैसे कोई पिता अपनी कुचेष्टाएँ पुत्रोको सिखाये और जब ये चेष्टाएँ करे सो उनको मारने लग जाय ऐसे पिताको भला अच्छा कैसे कहा जा सकता है ? वैसे ही ब्रह्म स्वयं काम क्रोध रूप चेष्टा से अपने पैदा किये लोगों को प्रवृत्ति कराता है और जब वे लोग वैसी प्रवृत्ति करते हैं तो उन्हें नरकादिकों में डाल देता है। शास्त्रों में नरकादिको इन्हीं भावों का फल लिखा है। ऐसे प्रभुको भला कैसे माना जा सकता है ? और यह जो कहा है कि उसका प्रयोजन भक्तोंकी रक्षा और दुष्टों का निग्रह हैं उसमें भी प्रश्न यह है कि भक्तोंके दुःख देने वाले जी दुष्ट लोग हैं वे परमेश्वरकी इच्छासे हुए हैं या बिना इच्छाके हुए हैं ? यदि इच्छासे हुए हैं तो जैसे कोई अपने सेवकोंको स्वयं ही पिटवाने और पीटने वालेको फिर दएड दे भला ऐसा स्वामी कैसे हो सकता है वैसे ही जो अपने भक्तोंको स्वयं अपनी इन्द्रासेदुष्टों द्वारा पीड़ित कराये और बादमें अवतार धारण कर उन दुष्टोंको मारे ऐसा ईश्वर भी अच्छा कैसे होसकता है ? अगर यह कहा जायगा कि बिना इच्छाके हो दुष्ट मनुष्य पैदा हुए तो या तो परमेश्वरको ऐसे भविष्यका ज्ञान न होगा कि दुष्ट मेरे भक्तों को दुःख देंगे या पहले ऐसी शक्ति न होगी जिससे वह इन्हें दुष्ट न होने देता। दूसरी बात यह हैं कि जब ऐसे कार्य के लिये परमात्माने अवतार धारण किया है। तो बिना अवतार धारण कि उसमें ऐसी शक्ति थी या नहीं ? अगर थी तो अवतार क्यों धारण करता है ? अगर नहीं थी पीछे शक्ति होने का क्या कारण हुआ ? Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕܕ 1 ( १५५ ) महत्ता दिखाने के लिए सृष्टि रचनाका खण्डन यदि कहा जाय कि ऐसा किए बिना उसकी महिमा प्रकट नहीं हो सकती थी तो इसका मतलब यह हुआ कि अपनी महिमा के लिये अपने अनुचरोंका पालन करता है और शत्रुओं का निग्रह करता है। इसीका नाम रागद्वेष है। और रागद्वेष ससारी जीव का लक्षण हैं। जब ये रागद्वेष परमेश्वरके ही पाया जाता है तब fore अन्य जीवोंको रागद्वेष छोड़कर समताभाव धारण करनेका उपदेश क्यों दिया जाता है ? और रागद्वेपके अनुसार कार्य करने में थोड़ा बहुत समय तो लगता हो है उतने समय तक परमेश्वरके श्राकुलता भी रहती होगी तथा जैसे जिस कामको छोटा आदमी कर सकता है उस कार्यको राजा स्वयं करे तो राजाकी इसमें महिम नहीं होती उल्टी निन्दा होती है। वैसे ही जिस कार्यको राजा व व्यन्तर देवादिक कर सकते हैं उस कार्यको यदि परमेश्वर स्वयं अवतार धारण कर करता है तो इसमें परमेश्वरकी कुछ महिमा नहीं है निन्दा ही है. इसके सिवा महिमा तो किसी और को दिखाई जाती है। लेकिन जब ब्रह्मत है तब महिमा किसको दिखाता है ? और महिमा दिखानेका फन तो स्तुति कराना है तो वह किससे स्तुति कराना चाहता है ? तो जब वह स्वयं स्तुति कराना चाहता है तो सब जीवोंको स्तुतिरूप प्रवृत्ति क्यों नहीं कराना । जिससे अन्य कार्य न करना पड़े। इसलिये महिमा के लिये भी कार्य करना ठीक नहीं कहा जासकता ! तर्क - परमेश्वर इन कार्यों को करता हुआ भी अकती है. इसका कुछ निर्धारण नहीं है। समाधान- कोई अपनी माताको वां कहें तो जैसे उसका कहना ठीक नहीं माना जाता वैसे ही कार्य करते हुए भी परमेश्वर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५६ .. को अकर्ता मानना ठीक नहीं है। यह कहना कि उसका निर्धारण नहीं है मिथ्या है क्योंकि निर्धारण किए बिना ही यदि उसको माना जायगा तो आकाशके फूल गधेके सींग भी मानने पड़ेंगे । इसलिय ब्रह्मा, विष्णु, महेशका होना झूट है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा सृष्टिके उत्पादन रक्षण और वंसका खण्डन प्रतिवादीकी यह भी मान्यता है कि ब्रह्मा तो सृष्टि पैदा करता है. विष्णु रक्षा करता है और महेश संहार करता है। किन्तु उसका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि इन कार्यों में से कोई कुछ करना चाहेगा और कोई कुछ करना चाहेगा तो परस्पर विरोध होगा। यह कहना कि यह तो परमेश्वरके हो रूप हैं इनमें विरोध क्यों होगा ? ठीक नहीं है क्यों कि जो आदमी स्वयं ही पैदाकर स्वयं ही मार उसके प्रेम काय करने में क्या लाभ है ? अगर सृष्टि उसे अनिष्ट लगती है तो पैदा ही क्यों करता है ? और. इष्ट लगती है तो नष्ट क्यों करता है यदि यह कहा जाय कि पहले इष्ट थी तब पैदा करने के पीछे अनिष्ट लगी तो विनाश किया, तो प्रश्न यह है कि इससे परमेश्वरका स्वभाव अन्यथा हुश्रा वा सृष्टिका स्वरूप अन्यथा हुया ! यदि पहला पक्ष मानोगे तो परमेश्वरका एक स्वभाव नहीं रहा । लब उस एक स्वभावके न रहनेका कारण क्या है यह भी बताना चाहिय क्योंकि बिना कारणके स्वभावका पलटना नहीं होता। यदि दूसरा पक्ष स्वीकार है तो सृष्टि तो परमधरके अधीन थी उसे ऐसा होने ही क्यों दिया कि अनिष्ट लगे। दूसरे हमारा पूछना यह है कि ब्रह्मा जो सृष्टि पैदा करता है Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका तरीका क्या है एक तो यह कि जैसे मन्दिर चिनने वाला चूना पत्थर आदि सामग्री इकट्ठी कर आकारादि बनाता है, वैसे ही ब्रमा सामग्री इकट्ठी कर सृष्टि रचना करता है तो यह सामग्री जहाँ से लाकर इकट्ठी की वह ठिकाना बताना चाहिये । और अकेले ब्रह्माने ही यदि इतनी रचनाकी तो अागे पालकी या अपने शरीरके बहुतसे हाथ श्रादि बनाकर एक समयमें ही की ? यह चताना चाहिये। . दूसरे यह है कि जैसे राजाकी आज्ञानुसार कार्य होता है वैसे ही ब्रह्माकी आज्ञानुसार सृष्टि पैदा होती है। तब प्रश्न यह है कि प्राज्ञा किसको दी ? और जिसको आज्ञा दी वह सामग्री कहाँ से लाया और कैसे रचना की ? यह सब मालम होमा चाहिये। तीसरे यह है कि जैसे ऋद्धिधारी इच्छा करता है और कार्य स्वमेव अन जाता है, वैसे ही ब्रह्मा इच्छा करता है और उसके अनुसार सृष्टि स्वमेव पैदा होजाती है । लेकिन यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आमा ती इच्छाका ही कर्ता हुआ, सृष्टि ता अपने आप हो पैदा हुई । दूसरे इच्छा तो परब्रह्मने की तब ब्रह्माका कर्तव्य क्या हुआ ? जिससे ब्रह्माको सृष्टिका पैदा करने वाला कहा जाय अगर यह कहा जाय कि परमब्रह्म और ब्रह्म दोनों ने ही इच्छा की तब लोक पैदा हुश्रा तो ब्रा के शक्ति होनपने का दोष हुअा। ___ इसके अतिरिक्त यह भी प्रश्न है कि अगर बनानेमे ही लोक बनता है तो बनाने वाला तो सुखके लिये ही बनाता है इसलिये इष्ट ही रचना करता है लेकिन इस लोकमें इष्ट पदार्थ तो कम हैं अनिष्ट बहुत है। जीवोंमें देवादिकोंकी रचना ना कोड़ा करने व भक्ति कराने आदिके लिए को। परन्तु लट कीड़ी कुत्ते सुअर शर श्रादि क्रिस लिग बनाए। ये नो रमणीक नहीं है सब प्रकारसे Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १५८ ) अनिष्ट की है । तथा दरिद्री दुःस्वो एवं नारको आदिके देखनेसे अपनेको जुगुप्सा ग्लानि अादि दुःस्त्र पदा होता है ऐसे अनिष्ट क्यों बनाए ? यदि यह कहा जाय कि यह जीव अपने रापसे लट चंटी दरिद्री नारकी आदि पर्यायोको भोगता है तो यह तो बादमें पाप करनेका फल हुआ. पहले रचना करने समय इनको क्यों बनाया ? मरे, यदि जीध पीछेसे पापरूप परिणत हुए तो कैसे ? अगर स्वयं ही परिणत हुए तो मालूम पड़ता है ब्रह्माने पहले तो पैदा किए बादमें वे उसके आधीन न रहे । इस कारण सेको दुःब ही प्रक्रिया के परिणाम न करनेसे वे पापाप परिणत हुए तो ब्रह्माने उन्हें पापरूप परिणत क्यों किया? जीत्र तो उसके ही पैदा किये हुए थे उनका बुरा किस लिये किया। इसलिये यह भी बात ठीक नहीं है.। अजीवों में भी सुवणं सुगंधादि सहित वस्तुयें तो रमणके लिये बनाई पर कुवर्ण दुगंधादि सहित दुःखदायक वस्तुएँ किस लिये बनाई ? इनके दर्शनादिकसे ब्रह्मको भी कुछ सुख पैदा नहीं होता होगा ? यदि पापी जीवोंका दुःख देनेके लिये बनाई तो अपने ही पैदा किये हुए जान से ऐसी दुष्टता क्योंकी जो उनके लिये दुःखदायक सामग्री पहले ही बनादी । तथा धूल पर्वतादिक कितनी ही वस्तुएँ ऐसी हैं जो अच्छी भी नहीं है और दुःखदायक भी नहीं है उनको किस लिथ बनाया ? अपने आप तो थे जैस तसे बन सकते हैं परन्तु बनाने वाला तो प्रयोजनको लेकर ही बनाया। इसलिए ब्रह्मा मृष्टिका कता है यह बचन मिथ्या है। इसी तरह विधाको लोकका रक्षक कहा जाता है यह भी मिया है क्योंकि रक्षक तो हो हो काम करता है। एक तो दुग्व पदा होने का कारण न होने दे दूसर विनाशका कारण न होने दे। किन्तु लोक में दुःस्वके पदा होनेके कारण जहाँ तहाँ देखे जाने Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : हैं और उनसे जीवोंको दुःख हो देखने में आता है। भूख प्यास आदि लगते हैं शांत प्यादिसे दुःख होता है जब परस्पर दुःख पैदा करते हैं शस्त्रादि दुःखके कारण बनते हैं । तथा चिनट होनेके कारण मौजूद हैं। जीवके विनाश के कारण रोगादिक अभिष तथा शस्त्रादि देखे जाते हैं। और जीवोंके परस्पर में भी विनष्ट होनेके कारण मौजूद हैं। इस तरह जब दोनों प्रकारसे रक्षा नहीं की तो विष्णुने रक्षक बनकर क्या किया ? अगर यह कहा जाय कि विष्णु रक्षक हो है अन्यथा क्षुधा तृबादिकके लिये अन्न जलादिक कहाँसे श्राते, कीड़ोंको का और कुंजरको मन कौन देता ! संकटमें सहायता कौन करता मरणका कारण उपस्थित होने पर टिहरी की तरह कौन उरता इत्यादि बातो से मालूम पड़ता है कि विष्णु रक्षा करता ही है यह भी भ्रम है क्योंकि अगर ऐसा ही होता तो जहाँ जीवों को भूख प्यास पीड़ा देते हैं, अन्न जलादिक नहीं मिलते संकट पड़ने पर सहायता नहीं होती थोड़ा सा कारण पाकर मरण होजाता है वहाँ या तो विष्णुको शक्ति नहीं है या उसको ज्ञान नहीं हुआ । लोकमें बहुत से ऐसे प्राणी दुखी होकर मर जाते हैं। विष्णुने उनकी रक्षा क्या नहीं की ? यह कहना कि वह तो जीवोंके कर्तव्यों का फल है ऐसा ही है जैसे कोई शक्तिहीन लोभी झूटा बैच किसीका कुछ भला हो तो उसको अपना किया हुआ माने और बुरा हो भरना हो तो कहे कि उसका होनहार ही ऐसा था । जो कुछ भला हुआ यह तो विष्णुने किया और जो बुरा हुआ वह जोवोंके कर्तव्यों का फल हुआ ? भला ऐसी मूठी कल्पना किस लिए की जाती है ? या तो भला बुरा दोनों विष्णुका किया हुआ मानना चाहिये या दोनों उनके कर्तव्यका फल मानना चाहिए। यदि विष्णुका किया हुआ हैं तो बहुतसे जीव दुखी और शीघ्र मरते देखे जाते है, उसको Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षक कैसे कहा जा सकता है ? और यदि अपने कर्तव्योंका फल है तो जो करेगा वह पावेगा विष्णु रक्षा क्या करेगा ? यदि कहा जाय कि जो विष्णुके भक्त हैं उनकी रक्षा करता है तो जो कीड़ी कुंजर आदि विष्णुके भक्त नहीं हैं उनका अन्नानिक पहुंचाने में संकटके समय सहायक हानमें अथवा मरण हानेमें विष्णुका कर्तव्य मान उसे सबका रक्षक क्यों कहा जाता है. केवल भक्तोंका ही रक्षक मानना चाहिए । किन्तु भक्तोंका रक्षक भी नहीं है क्यों कि अभक्त भी भक्त पुरुषोंको पीड़ा देत देखे गए हैं। उनके श्रद्धानुसार यह ठीक है, कि कई स्थानों पर प्रह्लाद आदिककी उसने सहायता की है। परन्तु यहां तो हम ग्रह पूछते हैं कि प्रत्यक्ष मुसलमान यादि अभक्त पुरुषों द्वारा भक्त पुरुप पीड़ित होते हैं मंदिरादिकोंको विन्न होता है वहां विष्णु सहायता क्यों नहीं करता क्या उसमें शक्ति नहीं है या उसे खबर नहीं है. ? यदि शक्ति नहीं है तो इनसे भी हीन शक्तिका धारक हुआ यदि खबर नहीं हैं तो इतनी सी भी खबर न हानेसे अज्ञानी हुआ। यदि कहा जाय कि शक्ति भी है खबर भी है लेकिन उसकी ऐसी ही इच्छा है तो उसे भक्तवत्सल क्यों कहा जाता है इस प्रकार विष्णुको लोकका रक्षक मानना मिथ्या है। ___इसी तरह महेशको संहारक माना जाता है यह भी मिथ्या है । पहले तो महेश जो संहार करता है वह सदा ही करता है या महाप्रलयके समय करता है ? यदि सदा करता है तो विष्णुकी रक्षा और संहार आपसमें विरोधी हैं। दूसरे यह संहार कैसे करता है ? जैसे पुरुष अपने हाथ आदिकसे किसीको मारता है या दूसरे द्वारा पिटवाता है वैसे ही महेश अपने अंगोंसे संहार करता है या किसीको आज्ञा देकर संहार कराता है ? अगर अपने अंगोंसे संहार करता है तो संहार तो सारे लोकमें अनेकों जीवोंका Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षण २ में होता है, यह किस प्रकार अपने अंगांसे या किसीको प्राज्ञा देकर एक साथ संहार कराता है यदि महेश केवल इच्छा ही करता है और उनका संहार स्वयमेव होजाता है तो उसके सदा भारुप परिनाम ही न पाहिलें और लनेक जीवोंको एक साथ मारनेकी इच्छा भी कैसे होती होगी ? यदि महाप्रलयके समय संहार करता है तो परमब्रझकी इच्छानुसार करता है या उसकी विना इच्छाके करता है ? यदि परमब्रहाकी इच्छानुसार करता है तो उसे ऐसा क्रोध कैसे हुआ जो सबकी प्रलय करनेकी इच्छा हुई क्योंकि बिना किसी कारणके नाशकी इच्छा नहीं होती । और नाश करनेकी इच्छा ही का नाम काम क्रोध है इस लिये उसका कारण बताना चाहिये। यदि बिना कारण के इक्छा होती है तो वह पागलोंकी सी इच्छा हुई। यदि यह कहा जाय कि परमब्रह्मने यह स्वांग बनाया था बादमें दूर किया कारण कुछ भी नहीं है. तो स्त्रांग बनाने वाला भी उसे जब स्वांग अच्छा लगता है तभी बनाता है जब अच्छा नहीं लगता सब दूर करता है । यदि इसको इसी प्रकार लोक अच्छा या बुरा लगता है तो इसका लोकसे रागद्वेष हुआ। सय साक्षी स्वरूप परम्रा क्यों कहा जाता है. ? साक्षीभूत तो उसे कहते हैं जो अपने आप ही जैसा हो वैसा देखता जानता हो जो इष्ट अनिष्ट पैदा करे उसे साक्षीभूत कसे माना जा सकता है ? क्योंकि साशीभूत होमा और कर्ता हा होना दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। एकके दोनों बातें संभव नहीं हैं। __दूसरे परमब्रह्मके तो पहले यह इच्छा हुई थी कि मैं एक हूँ, यहुत होजा' तब बहुत होगया था। अब ऐसी इच्छा हुई होगी कि 'मैं बहुत हूँ. एक होजा'। जैसे कोई भोलेपनसे कार्य कर पीछे इस कार्यको दूर करना चाहता है वैसे ही परमब्रह्मका भी Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत होकर एक हानेकी इच्छा करना ऐसा मालूम पड़ता है कि उसने पहले बहुत हानेका कार्य भालेपनसे किया था भविष्यक ज्ञानसे यदि करता ते दूर करनेकी इच्छा ही क्यों होती यदि परब्रह्मकी इच्छा बिना ही महेश संहार करना है तो यह परब्रह्मका या ग्रहाका पिराधी कहलाया । ___ तथा एक प्रश्न यह भी है कि यह महेश संहार कैसे करता है, ? अपने श्रङ्गोंसे संहार करता है या उसकी इच्छा होनेसे स्वयमेव ही संहार होता है। यदि अपने अझांसे संहार करता है तो हम एक सम्म जडाः को काला है। यदि इसकी इच्छासे स्वयमेव सहार होता है तो इच्छा तो परब्रह्माने की थी इसने सहार कैसे किया ? ___तीसरा यह भी प्रश्न है कि सब लोकमें सहार हात समय जीव अजीव कहाँ गये। यदि जीवों में मसजीव ब्रह्ममें मिल गये और अन्य जीव माया में मिल गये तो माचा अझसे अलग रहती है या पीछे ब्रह्ममें मिल जाती है. यदि अलग रहता हैं तो ब्रह्माको तरह माया भी नित्य हुई अद्वैत ब्रह्म नहीं रहा। और अगर माया और ब्रह्म एक हो जाते हैं तो जीव माया में मिले थे वे भी मायाके साथ ब्रह्ममें मिल गए। इस तरह महाप्रलयक समय सभीका परमप्रधमें मिलना रहा तो मोक्षका उपाय क्यों किया जाय । तथा जो जीव माया मिल गये थे वे ही जीव यादमें लोक रचनाके समय लोको पायगे या बे ब्रझमें ही मिले रहेंगे और नए पैदा होंगे। अगर वे ही आयेंगे तो मालूम हुआ कि वे अलग २ रहे मिलना क्या रहा। यदि नये पैदा होंगे तो जीवका अस्तित्व वाड़े ही समय तक रहा मुक्त होने के उपाय करनेसे क्या लाभ | . लोककी अनादि निधनता प्रवादियोंका यह भी कहना है पृथ्वी श्रादिक मायामें मिल Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जाती है। परन्तु यहाँ भी प्रश्न यह है कि बहु माया प्रतिक सचेतन है या मूनिक अचेतन. अगर अमृतिक सचेतन हैं, तो इसमें मूर्तिक अचेतन पदार्थ कैसे मिल सकते है और यदि मूर्तिक अंधेदन है तो यह ब्रह्म में मिलनी है कि नहीं। अगर मिलती है। तो इससे अझ भी मूर्तिक असनसे मिश्चित हुन्मा। अगर नहीं मिलती तो अद्वैनता नहीं रही। अगर यह कहा जाय कि सब अमूर्तिक चेतन हो जाते हैं तो पारमा शारीरादिककी एकता हुई. इनकी षकसा ग्रह संसारी जीव ऐसे ही मानसा है उसको अज्ञानी क्यों कहा जाय ? दुसरा प्रश्न यह है कि लोकका प्रलय होने पर. महेशाका प्रलग होता है कि कहीं ? अगर होता है तो एक साथ या आगे पीछे ? अगर एक साथ होता है तो स्वयं नष्ट होता हुमा लोकको नष्ट कसे करता है ? अगर अागे पीछे होना है तो लकको नष्ट कर यह रहा कहाँ, क्योंकि वह स्वयं भी ना सृष्टि में ही रहता है। इस तरह महेशको सृष्टिका संहारकत्ता मानना असभव है । तथा इसी प्रकार या अन्य अनेक प्रकार से ब्रह्मा, विष्णु, महेशको क्रमसे सृष्टि कता. मृष्टिरक्षक मृष्ट नहारक मानना मिशया है। लोकको अनादि निधन हा मानना चाहिये । इस लोकमें जीवादिक पदार्थ भी अलग २ अनादि निधन हैं। उनकी अवस्थाका परिवतन होता है इस अपक्षासे वे पैदा श्रीर नष्ट होते रहत हैं । स्वर्ग. नरक. हीपादिक अनादिम इमी प्रकार है, और सता इसी प्रकार रहेंगे यदि यह कहा जाय कि बिना बनाए ऐसे प्राकारादिक से संभव है। सका है. यह ना बनाने ही बन सकते हैं। यह ठीक नहीं है क्योंकि जो अनादिसे हु। पाए जाते हैं उसमें तर्क क्या ? जैसे परब्रह्मका स्वरूप अनादि निधन माना जाता है वैसे ही यह भी है। यदि कहा जाय कि जीबादिक व स्वर्गादिक कैसे हुए सो हम भी यह पूग कि पानाम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे हुश्रा ? यदि कहोगे कि इनको रचना किसने की तो हम कहेंगे कि परब्रहाको किसने बनाया। यदि परब्रह्म स्वयं सिद्ध है तो. जीव स्वर्गादि भी स्वयं सिद्ध है। आप कहेंगे कि इनकी और परब्रह्मकी समानता कैसे तो हम पूछगे कि इनकी समानतामे दोष क्या है ? लोकको नया पैदा करना उसका विनाश करना आदि बानों के बारे में तो हमने अनेक दोष बतलाए। अब यह तुम्हें बताना है पिः लांबली अनादि निधन भागनेमें क्या दोष है। वास्तवमै परब्रह्म कोई अलग चीज नहीं है, इस संसारमै जीव ही यथार्थ मोक्षमार्गका साधन करके सर्वज्ञ वीतराग होजाता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशसे उद्धृत) अद्वैतवाद के विषय में सांख्योंका उत्तर पक्ष नाविद्यात् अवस्तुना बन्धयोगात् (सा० द. १।२०) ___ भावार्थ-वाणिक विज्ञानवादी योगाचार बौद्ध और नित्य विज्ञानवादी, वेदान्ती ये दोनों अद्वैत बादी हैं क्योंकि ये विज्ञानके सिवाय अन्य पदार्थ नहीं मानते हैं। वेदान्ती एक ही नित्य विज्ञानमय ब्रह्म मानते हैं। और योगाचार बौद्ध अनन्त क्षणिक विज्ञान व्यक्तियोंका एक ससान मानते हैं। ये दोनों अविधाको वन्धका हेतु मानते हैं। अर्थात् अविद्यासे पुरुषको संसारका बन्धन होता है। सांख्य उनर पत्तीरूपसे उसको पूछता है कि अविष्या वस्तु,सन् है या असन है। वह कहताहै अवस्तु असन है।तष सांख्य दर्शनाकार कहता है कि यदि अविद्या असा है तो उससे पुरुषको बन्ध नहीं हो सकता! स्वप्नमें देखीहुई रज्जुसे । असन रज्जुसे क्या कोई किसी वस्तुको बान्ध सकेगा ? कदापि नहीं । यदि कहो कि असन अविद्यासे बन्ध भी असन् अवास्तत्रिक होगा तो यह भी ठीक नहीं है । बन्ध यदि असत हे। तो उसकी निश्रुत्तिके लिये योगाभ्यास Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) आदि साधनांकी आवश्यकता नहीं दी। योगाभ्यास आदि साधनका बन्धकी निवृत्तिके लिये उपदेश किया है वे सब निष्फल होजायेंगे । इसलिये बन्धश्रसत नहीं माना जा सकता । वस्तुत्वे सिद्धान्त हानिः ( ० ० १ । २१ ) भावार्थ – सांख्यकार कहते हैं कि यदि विद्याको वस्तुरूप अर्थात् सद्रूप मानोगे तो तुम्हारे सिद्धान्तको हानि पहुंचेगी। क्योंकि तुम विद्याको मिल्या मानते हो, तो यह सिद्धान्त बदल जायगा । 'विजातीय द्वेतापत्तिश्व' (सा० द० १ | २२ ) भावार्थ - योगाचार बौद्ध सजातीय क्षणिक विज्ञानकी अनेक aक्तियाँ तो मानते ही हैं इसलिये सजातीय छैन उनके लिए अापत्तिरूप नहीं होसकता किन्तु विजातीय द्वैत तो उनके लिये आपत्तिरूप होगा | अविद्या ज्ञानरूप नहीं है किन्तु वासनारूप है और वासना विज्ञान से विजातीय है। अविद्याको सत मानने पर विज्ञान और श्रविद्या यह दो पदार्थ सिद्ध होने पर विजातीय द्वैतता प्राप्त होगी । वेदान्तियोंके लिये द्वैतना मानना दोषापत्तिरूप है। 'चिरुको भयरूपा चेत्' ( सां० ० १ | २३ ) . भावार्थ - सांख्य कहते हैं कि अविद्याको सन् या असन् मानने में दोषापत्ति प्राप्त होनेसे विरुद्ध उभयरूप मान लो अर्थात सन् असत् सदसत् और ससदससे विलक्षण ये चार कोटियाँ हैं। इनमें से पहिली दो सन् और असत्‌का तो निषेध हो चुका। तीसरी सम असत् रूप कोटि परस्पर विरोधी हैं । सत् से विरुद्ध असन और सतसे विरुद्ध सत यह तीसरी कोटि तो परस्पर विरुद्ध होनेसे नहीं मानी जा सकती। तब विलक्षण सदसद्रूप कोटि मानोगे तो उसका उत्तर नीचे दिया जाता है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'न नाटक पदार्थप्रतीतेः ' ( सा० दे० १ १ २४ ) भावार्थ-जगत में पेमा काई पदार्थ हा प्रतीत नहीं होता है। मापक्ष सन असन तो मिल सकता है मगर चौथी कादि वाली निरपेच सन् अमन वस्तु परस्पर विरुद्ध होनेसे कहीं भी प्रतीत नहीं होती । अन्य यह भी दोष है कि यदि अविद्याको साक्षान अन्धका हेतु मानोगे तो मानसे अधिमाका नाश होने पर प्रारब्ध भोगकी अनुपपत्ति होगी । कयाकि दुःस्व भोगरूप अन्धके कारगा का नाश होने पर कार्यको निवृत्ति हो जायगी। हमारे मनसे सां अविदया जन्मादि संयोग द्वारा बयका हेतु होगी । जन्मादि संयोग प्रारब्धको समाप्तिक बिना नष्ट नहीं होते । इन्यंस विस्तरमा । ब्रह्मवादके विषयमें नैयायिकोका उत्तरपक्ष बुद्धयादिभिश्चात्मलिङ्ग निरुपारव्यमीश्वरं प्रत्यक्षानुमानागम भविष्यातीतं कः शक्त उत्पादयितुम् ।। (न्या० वा. भा० ४३२१) अंथ-ब्रह्वात्रादा ब्रह्मको जगतका उपादान कारण मानते हैं । ईश्वर कारणं पुरुषकर्मा फल्यदर्शनात् ।। ४ । १ । १६ । इस सूत्र में आये हुए ईश्वर शब्द का अर्थ व ब्रह्म करते हैं। ईश्वरो ब्रह्म । ईशनायोगात । ईशना च चेतना शक्तिः क्रियाशनिश्च । मा चात्मनि ब्रह्मनीति । ब्रह्मा ईश्वरः स एम कारणं जगतः । न च भावो ना प्रधान चा परमाणवो वा चेतयते ।। अर्थ-ईशमायांगसे ईश्वर शरद निष्पन्न होता है । ईशना Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चसना शक्ति और किनाशक्ति दो प्रकारका है। वह पारमा और ब्रह्ममें हैं । ब्रह्म ही ईश्वर है, वही जगतका कारण है । प्रभाव प्रकृति या परमागु, जगत के कारण नहीं है । प्रवादियोंका ग्रह पूर्वपक्ष है। यायिक इसका उत्तर देत है कि आत्माको जानने के लिचे प्रात्मा लिङ्ग रूप. बुध, इच्छा श्रादि विशेष गुण पाये जाते हैं ब्रह्म ता निरुपाधिक है । उसको जानने के लिए कोई लिङ्ग था निशानी नहीं है। मुख्य घात तो यह है कि प्रमाण के बिना प्रमेयकी सिद्धि नहीं हो सकेगी । ब्रह्मकी सिद्धि. तुम किस प्रमाणने करोगे ? प्रत्यक्ष तो ब्रह्मका नहीं हो सकता, क्योंकि वह किसी भी इन्द्रियके द्वारा ग्राम नहीं है । ब्रह्मको बताने वाला कोई खास हेतु नहीं है. अतः अनुमानस भी ग्राहा नहीं होसकना। सर्वसम्मत अगम प्रमाण भी नहीं है । इसत्ति ये भाष्यकार कहते हैं कि 'प्रत्यक्षानुमानागमविषयातीतं का शक्न उपपादयितुम्' प्रमाणके विषयसे रहित ब्रह्मका उपपादन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता ? कोई नहीं। जब ब्रह्माकी उपपत्ति नहीं हो सकती तो उसको उपादानकारण माननेकी बात मूलसे ही उड़ जाती है । मूल नास्ति कुतः शास्त्रा' अर्थात जहाँ मूल ही नहीं है वहाँ शाखा को क्या बात की जाय ? नयाग्रिक कहना है कि इस लिये आत्म विशेष रूप ईश्वरका जगनका उपादान कारण नहीं किन्त निमित्त कारण मान ली। प्राणायाक कर्मों के अनुसार वह जगन बनाता है । वस्तुतः ईश्वरधादियांका यही सिद्धान्त है। प्राचीनतम नैयायिक प्राचार्य तो ईश्वरको नियन्तामात्र ही मानने हैं काररूपसे नहीं । इत्यलं विस्तरन् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रह तबादके विषयमें जैनियोंका उत्तरपक्ष अजाप्यन्ये बदन्त्येच, मविद्या नसतः पृथक सञ्च तन्मात्रमेवेति भेदाभासोऽनिबन्धनः ।। (शा. वा० स० स्तवक ८४) अर्थ-अद्वैतपक्षके विषयों वेदान्ती ऐसा कहते हैं कि अविना ब्रह्मसे अलग नहीं है। ब्रह्मसे अविद्या अलग मानने पर अद्वैत सिद्धान्त नहीं टिक सकता । सत् यह ब्रह्ममात्र है अर्थात् ब्रह्म की ही सत्ता है। अविद्याकी पृथक सत्ता नहीं है। यदि ऐसी बात है तो घट, पट. स्त्री, पुरुष, पिता, पुत्र, मेठ,नौकर पसि. पत्नी, इत्यादि जो भेदका आभास होता है उसका क्या कारण है ? कारणके बिना कार्य नहीं जान सकता। संचाथाऽभेदरूपापि भेदाभासनिबन्धनम् प्रमाखमन्तरेणत-दवगन्तुं न शक्यते ॥ (शा० वा० स०८।५) अर्थ-पूर्वपक्षी कहता है कि ब्रह्मके साथ अपने भाषको प्राप्त हुई बही विद्या भेदाभावका कारण होगी। उतरपक्षी कहता है कि अविद्या तभी कारण बन सकती है. जब वह स्वयं प्रमाणसे सिद्ध होजाय । अविद्या प्रमेय है और प्रमेय प्रमाणके बिना नहीं जाना जा सकता। भावेऽपि च प्रमाणस्य, प्रमेयव्यतिरेकतः ननु नाद्वैतमेवेति, तदभावेऽप्रमाणकम् ॥ (शा० वा० स०.८।६) अर्थ-अविद्या का निश्चय करने वाला प्रमाण कदाचिन् Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६ ) स्वीकार कर लिया जाय किन्तु जब तक प्रमाणमे प्रमयकी सत्ता का स्वीकार न किया जाय तब तक कार्य कारण भावका निर्वाह नहीं हो सकता । वेदान्ती कहते हैं कि हम ऐसा नहीं कहते हैं कि केवल अद्वैत ही है। यों तो प्रमाण और प्रमेय दोनाकी व्यवस्था की हुई है। यदि प्रमाणको भी स्वीकार न करें तो अद्वैततत्व भी अप्रमाण होजायगा। उत्तर पक्षी कहना है कि एक और हूँत और दूसरी ओर अद्वैत इस प्रकारके परस्पर विरोधी कथन जन्मत्तके विना अन्य कौन स्वीकार कर सकता है ? विद्याविद्यादिभेदाच्च, स्वतन्त्रेणैव वाध्यते । तन्संशयादियोगाच, प्रतीत्या च विचिन्त्यताम् ।। (शाचा स०८।७) अर्थ--विद्यां चा विद्या च. अस्तदंदोमयं सहाविद्य या मान्य तीत्वा विद्यायाऽमृतमन्धुते यह एक श्रुति है। इसमें विद्या और अविद्याका भेद स्पष्ट बताया हुआ है। विद्याका फल अमन प्राप्ति और अविधाका फल मृत्युतरण है। कार्यभेदसे कार में भी भेद होता है । इसलिये उक्त अतिसे स्वतन्त्ररूपसे अद्वततत्वका निरास होजाता है . दूसरी बात यह है कि "तत्त्वमसि' इत्यादि श्रति अद्वैत छोधक है तु ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च" परं चापर च ब्रह्म पदोङ्करः" इत्यादि अति सच्ची है या दूसरी ? इस प्रकार भागमप्रमाणसे बाधा और संशय उत्पन्न होनेका संभव होनेसे अद्वैतवाद दूषित ठहरता है। तीसरी बात है प्रत्यक्ष प्रतीतिकी । घट, पट आदि भिन्न भिन्न वस्तुएँ प्रत्यक्षसे दिखाई देती है। घटपटादि भेद की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है वह भी अद्वैततत्व ग्बएउन करती है। वेदान्तियोंका इष्टि सृष्टिबाद भी बौद्धाले शून्यबादके बराबर है। कहा भी है कि Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) प्रत्यक्षादि प्रसिद्धार्थ विरुद्धार्थाभिधायिनः वेदान्ता यदि शास्त्राणि, बौद्धैः किमपराध्यते ॥१॥ अन्ये व्याख्यानयन्त्येवं समभाव प्रसिद्धये । अद्वैतदेशनाशास्त्रे निर्दिष्टा नतु तत्वतः ॥ (शा. वा० स०८ ) अर्थ-जैन वेदान्तियोंको कहते हैं कि शास्त्र में जो अद्वैततत्व का उपदेश दिया गया है वह अद्वैततत्वकी वास्तविकता बतानेले लिये नहीं किन्तु जगतमें मोह प्राप्त करके जीव रागद्वेपको प्राप्त करते हैं उसे रोकनेके लिये और समभावकी प्रीति करानेके लिये सथा शत्रु मित्रको एक दृष्टिसे देखने के लिए है वह उपदेश "अरमैवेदं सर्व” इत्यादि रूप हैं । जगतको श्रसार तुच्छ मानकर सर्वको आत्मसमदृष्टिसे देखनेका उपदेश देना ही शास्त्रकारका प्राशय है। इससे तुम्हारी एक वाक्यता है । इत्यलम। * आर्य समाजके अनुपम वैदिक विद्वान् श्रीमान पं० सातवलेकर जी की सम्मति। यज्ञों में देवों की उपस्थिति । आधिभौतिक यज्ञका अर्थात् मानव व्यवहारका रूप (यज्ञका वास्तविक स्वरूप) समझने के लिये इसका विचार अवश्य करना चाहिये कि देव यझोंमें जाकर स्वयं उपस्थित होते थे या नहीं। ब्राह्मणादि ग्रन्थोंमें और पुराणोंमें भी यही लिखा है कि प्राचीन कालमें देवताएँ स्वयं यज्ञमें श्राती थीं और विभाग अर्थात् अन्न * नोट-अद्वैतवाद पर विशेष विचार, दर्शन प्रकरण में किया जायेगा। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग स्वयं लेती थीं । परन्तु पश्चात् उन्होंने स्वयं यज्ञमें उपस्थित होना छोड़ दिया । यज्ञों में देवोंकी उपस्थिति होनेके वर्णन महाभारतमें भी कई स्थानों पर हैं और अन्यान्य पुराणों में भी कई स्थानों में हैं। इस वियषमें महाभारतका सुकन्या का थाख्यान अथवा च्यवन ऋषिकी कथा देखने योग्य है च्यवन ऋषि । - च्यवन ऋपिकी कथा अथवा सुकन्याका श्राख्यान महाभारत वनपर्व अध्याय ५२१ से १.५ तक है। ग्रह मास्यान वहाँ पाठक विस्तारसे देख सकते हैं । इसका सारांश यह है__ "शर्याति नामक एक राजा था, उसकी सुकन्या नामक एक कन्या थी । इस कन्याने च्यवन ऋषिका कुछ अपराध क्रिया, इसलिये राजाको बड़ा कष्ट हुश्रा । पश्चात् राजाने अपनी कन्या, च्यवन ऋषिको विवाह करके दाम दी । इससे च्यवन संतुष्ट हुमा । च्यवन ऋषि बड़ा वृद्ध था और यह कन्या तरुणी थी। एक समय देवोंके वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ गये, उन्होंने सुकन्यासे कहा कि वृद्ध यवन को छोड़ दे और हमसे शादी कर । सुकन्या ने माना नहीं । पश्चात् बातचीत होकर अश्विनी कुमारोंने कुछ चिकित्सा के द्वारा च्यवनको तरूण बनानेका भार स्वीकार किया। उन्होंने अपनी चिकित्सा द्वारा च्यवनको तरुण बनाया। इस उपकारके बदले अश्विनी कुमारोंको यज्ञमें अन्नभाग देना भी च्यवन ऋषिने स्वीकृत कर लिया। क्योंकि इस समय तक अश्विनीकुमारोंको ( वैद्योंको) अन्नभाग लेनेका यज्ञमें अधिकार न था। अन्त में क्यवन ऋषिने यज्ञ किया, उसमें सब देव आगये, और जिस समय च्यवन ऋषि अश्विनीकुमारोंको अनदेने लगा उस समय देव सम्राट इन्द्र कहता है Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इन्द्र उवाचभावतर म गोही जामानिति में पतिः। . भिपजौ दिवि देवाना कर्मणा तेन नाऽर्हतः ॥ ६ ॥ च्यवन उवाचमहोत्साही महात्मानौ रूपद्रविण वित्तरी। यो चऋतुर्मा प्रघवन्वृन्दारकमियाऽजरम् ॥ १० ॥ ऋते त्यो विबुधांश्वाऽन्यान्कथं च नाऽईत सबम् । अश्विनावपि देवेन्द्र देवौ विद्धि पुरन्दर ।। ११ ।। ____ इन्द्र उवाचचिकित्सकों कर्मकरौं कामरूप समन्वितो । लोके चरन्तो मत्यांनां कथं सोममिहाऽहेतः ॥ १२ ।। लोमश उवाचएतदेव तदा वाक्यमा डयति देवगट् । अनाहत्य ततः शक्र ग्रह जग्राह भार्गवः ॥ १४ ।। इन्द्र उवाचआभ्यामथोय सोमं त्वं अहिष्यसि यदि स्वयं । बचं ते महरिष्यामि घोररूप मनुत्तमम् ॥ १५ ।। एवमुक्तः स्मयनिन्द्रमभिधीक्ष्य स भार्गवः। जग्राह विधिवत्सोममश्विभ्यामुत्तमं ग्रहम् ॥ १६ ।। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( १७३ ) ततोऽसौ प्राहरद्वत्रं घोररूपं शचीपतिः । तस्य प्रहरतो चाहुं स्तम्भयामास भार्गवः ॥ १७ ॥ म० भा० बन १२४ इन्द्र बोले- यह दोनों अश्विनीकुमार स्वर्ग में देवताओंकी दवा करते है, इसलिये इनको सेमवाल करना उचित नहीं है। च्यवन ऋषि बोले - हे इन्द्र ! यह दोनों अश्विनीकुमार बड़े महात्मा, बड़े उत्साही, रूप और धनसे युक्त हैं. इन्होंने मुके देवताओंके समान वृद्धावस्था रहित तरुण बनाया है। हे इन्द्र ! तुम और सब देवता यज्ञ भाग पावें, पर ये क्यों न पावें ? यह भी देवता हैं ? इन्द्र बोले- हे च्यवन ऋषि ! यह दोनों चिकित्सा करने वाले मनुष्य लोक में घूमने वाले हैं, तब किस रीति से साम के योग्य हैं ? लोमश मुनि बोले- ज्यों ही इस वचनको इन्द्र दूसरी बार कहना चाहते थे, त्यों ही भृगपुत्र स्यंवनने इन्द्रका अनादर करके अश्विनीकुमारोंको साम प्रदान किया । तब इन्द्र ने कहाइनके लिये तुम सेम दोगे तो मैं तुम्हारे ऊपर घोर व मारूँगा ऐसा कहने पर भी इन्द्रकी तरफ देखके कुछ हँसकर व्यवनने अश्विनीकुमारोंकोसोम दिया। तब इन्द्रने च्यवन ऋषि पर व चलाया. उस समय च्यवनने इन्द्र के हाथको स्तंभित किया ।" यह कथा देखनेसे स्पष्ट होता है कि इन्द्रादि देव स्वयं भारतवर्षमें आते थे, यज्ञमें स्वयं उपस्थित होते थे. अपनी मानमान्यता में अथवा अपने श्रादरमें न्यूनाधिक होने पर परस्पर लड़ते भी थे। और पश्चात् अपने लिये प्राप्त होने योग्य अन्नभाग साथ लेकर चले जाते थे । श्रर्थात् जिस प्रकार हम मनुष्योंका व्यवहार होता है वैसा ही उनका व्यवहार उस प्राचीन कालमें होता था । अश्विनीकुमार वैद्य होने से वे हर एक रोगी के घर में जाते थे Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कारण इनको यज्ञ भाग लेनेमें अयोग्य माना गया था, परन्तु च्यवन ऋषिके प्रयत्नसे उनको अन्न भाग मिलने लगा। इससे स्पष्ट होता है कि कई देवोंका यज्ञमें अधिकार कम, कइयोंका अधिक और कइयोंका बिल्कुल नहीं था। यह भाग, हविर्भाग, अन्नभाग, इसका तात्पर्य इतना ही नहीं है कि वहाँ यज्ञके सबर की सामाका भारुण करना, परन्तु उसका तात्पर्य इतना है कि धान्यादि पदार्थोका भाग भी यहाँसे ले जाना। क्योंकि इन यक्षोंमें जो धान्यादि उनको प्राप्त होता था. उससे देवोंका गुजारा साल भर चलता था। यदि वहाँ ही पेट भर अन्न उनको मिला, तो उससे उनका गुजारा संभवतः केवल एक दिनके लिये ही होगा, इससे उनका कुछ बनता नहीं। देवता लोग यज्ञसे जीवित रहने वाले थे इसका तात्पर्य इतने विचारसे पाठकोंके मनमें ठीक प्रकार श्रा सकता है और निम्न लोकका भी आशय स्पष्ट होजाता है। देवान्भाचयताऽनेन ते देवा भावयन्तुवः । . . परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। भ. गीता० ३ | ११ "तुम इस यज्ञमें देवताओंको संतुष्ट करते रहो. और वे देवता तुम्हें संतुष्ट करते रहें। इस प्रकार एक दूसरेको संतुष्ट करते हुए दोनों परमश्रेय अर्थात् कल्याण प्राप्त करलो।" अर्थान इस यन्त्र द्वारा देवोंकी सहायता आर्योको और पार्यो की देवोंको प्राप्त होती है और परस्पर सहायताके कारण दोनोंका कल्याण हो सकता है । यह यज्ञ इस प्रकार दोनोंको संतुष्टि बढ़ाने वाला होता था । यह सब बातें विचारकी दृष्टिसे देखनी चाहिये. क्योंकि यह बात इतने प्राचीन कालकी है कि जो समय महाभारत Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) कालके भी कई शताब्दियों पहलेका है। और महाभारतके लेखक को भी इस ऐतिहासिक बातके विषय में संदेह सा उत्पन्न हुआ था । यहाँ तक कि महाभारतका लेखक संशय से प्रस्त था, कि उसको सर्प जातीके लोग मनुष्य थे या साँप थे इस विषय में भी संदेह था, इसीलिये वह किसी स्थान पर लिखता है कि साँप थे और किसी समय मनुष्यवत् लिखता है। इसी प्रकार देव दानवाविकोंके विषय में भी उनको कोई निश्चित कल्पना नहीं थी। परन्तु ओ कथाएँ उस समय प्रचलित थी उनका लेखन एक दूसरे के साथ ओड़कर उन्होंने किया । अब हमें ही विचार करके निश्चय करना चाहिये कि इतिहासकी दृष्टिसे उन कथाओं द्वारा क्या सिद्ध होता है। देवोंके विषय में जो बातें हमने यहाँ देखी उससे उनका वास्त विक स्वरूप स्पष्टतासे व्यक्त हुआ है, कि वे तिब्बत में रहते थे और भारतवासियोंकी मित्रतामें रहकर उनकी रक्षा करते थे और भारतवासियोंका भी उनसे प्रेम था । अर्थात् आर्य और देव परस्पर मित्र जातियाँ थीं और उनका कल्याण एक दूसरे पर अवलम्बित था । इससे भी सिद्ध होता है कि देव भी मनुष्य के समान मानव जातिके आदमी थे । स्वर्नी । गंगाका नाम "स्वर्ग नदी" किंवा "स्त्री" है। इसके अन्य नाम ये हैं | मंदाकिनी वियदूगंगा स्वर्नदी सुरदीपिका । अमरकोश १ । ४६. 1 “विद् गंगा स्वर्णदी, सुरदीर्गिका ये सब शब्द 'देवोंकी नदी' इस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। सुरसरिद्र, सुरनदी, अमरगंगा, देवनदी" आदि शब्द भी इसी गंगानदीके वाचक हैं. ये शब्द Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्टतासे यता रहे हैं कि यही गंगानदी देवोंक राष्ट्रसे बहती हुई यहाँ श्रागई है । यह प्रारम्भमेंदयोंकी नदी थी, भारतवर्ष में आकर यही नदी भााँको सुख देने लगी है । यह गंगानदी वाचक शब्द भी तिब्बत देवांका लोक है यही भाव व्यक्त कर रहे हैं। नदी वाचक शब्द स्थानका निर्देश स्पष्टरांतिसे करते हैं इसलिये देवाके राष्ट्रका निश्चय करने के लिये ये शब्द बड़े सहायक हो सकते हैं। देवों का अन्न भाग। .. अस्तु, इस प्रकार देवनामक मानवजाति। त्रिविष्ट्रप) लिव्धत में रहती थी. अपने अन्नके लिये भारतीय लोगों पर निर्भर रहती थी। भारतीय आर्य लोग यज्ञ याग करते थे और इन्द्रादि देवता के नामसे अन्नकी मुष्टियाँ अथवा अधिक भाग अलग रखते थे, जैसे अाजकल मुष्टिकंड होते हैं। देवोंके लिये अन्न भाग अलग रखनेके बिना वे आर्य लोग किसी भी अन्न का सेवन नहीं करते थे। इस प्रकार देवोंके लिये श्रावश्यक अन्नभाग भारतसे मिलता था । देवोंको अनभाग पहुंचानेकी व्यवस्था सब छोटे और बड़े यागोंमें यागके प्रमाणसे तथा यजमानके धनके अनुसार होती थी। यज्ञ का पारितोषिक । इस प्रकार यज्ञके द्वारा देवोंको अनभाग देने के कारण देव भारतीय आर्योकी रक्षा करते थे, यह तो स्पष्ट ही है परन्तु इसके अतिरिक्त भी यज्ञकर्ताओं को एक बड़ा भारी पारनोषिक मिलता था, वह "स्वर्गवास" के नाभसे प्रसिद्ध है, आज कल · स्वर्गवास" का अर्थ विपरीत ही हुआ है, स्वर्गवास, कैलाशवास, बैकुंठवास आदि शब्द आजकल मरणोत्तरकी स्थिति दर्शाने वाले शब्द समझ जाते हैं, परन्तु जिस समय देवजाति जीवित थी. और Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका आर्योसे परस्पर मेलमिलापका संबंध था, उस समय पूर्वोक्त स्वर्गवासादि शब्द मरणोत्तरकी अवस्था बताने वाले में के। महाभारतमें भी इसके कई प्रमाण मिल सकते हैं. -श्रल सीखनेके लिये वीर अर्जुन स्वर्गमें गया था, इन्द्र के . पास चार वर्ष रहा था, और वहाँ अस्त्र विद्या सीखकर वापस . श्रीगया था । यह अर्जुनका स्वर्गवास जीवित दशामें ही हुभा था। (इन्द्रलोकाभिगमनपर्व-वनपर्व अ, ४६-४७) . २-नारदमुनि खासे भारतवर्षमें और यहाँ से नालोकमें काई कार भ्रमण कर चुके थे । उनको देवोंके मुनि कहते थे। इनका राजनैतिक कार्य इतिहासमें प्रसिद्ध है। ये स्वर्गमें रहते हुए भारत में भी रहते थे। ३-लोमस ऋषि स्वर्गमें गये थे और बहाँका वृत्तांत उन्होंने धर्मराजको कथन किया है। (वनपर्व प्रह ये सब जीवित दशामें ही स्वर्गवासी होगये थे। इस प्रकार कई प्रमाया दिये जा सकते हैं परन्तु सत्र प्रमाण यहाँ रख देनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। महाभारतके पाठ करते ५ ये प्रमाण पाठकोंके सन्मुख आसकते हैं। तात्पर्य, उस अतिप्राचीन समयमें स्वर्गवास जीतेजी होता था और उसका अर्थ "तिब्धतमें निवास" इतना ही था। यहाँ पाठक पूछ सफड़े है कि स्वर्गका प्रलोभन इतना विशेष क्यों है ? यहाँ तो भोजनके लिये अन्न भी पैदा नहीं होता. फिर वहाँ जोकर रहनेसे सुख किस प्रकार होसकता है ? इसका असर जिन्होंने हिमालयको मैरकी है उनको कहनेकी आवश्यकता नहीं है । हिमालयकी पहाड़ियों में खाने-पीने के पार्थ इतने विपुल नहीं प्राप्त होते, परन्तु वहाँकी जल वायुके सुख , और Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) वहां की शांति अद्वितीय ही है। इस कारण इस समय भी उत्तर भारत के लोग मास दो मास की छुट्टियोंमें पहाड़ की सेर जरूर करते हैं, तथा धनिक लोग सोलन आदि स्थानोंमें छोटासा मकान बनानेकी इच्छा करते हैं। इससे स्पष्ट है कि हिमालय और उसके उत्तरभागके स्थानों में कुछ विशेष सुख है, जो यहाँ विपुल धान्य होते हुए भी नहीं मिल सकता । इसीलिये प्राचीन काल के लोग स्वर्ग में अपने लिये कुछ स्थान मिलनेका प्रयत्न करते थे, स्थान मिलने पर वृद्धावस्था में वहाँ जाकर आनन्दसे रहते थे । भारतदेश में जीवन कलह है वह यहाँ नहीं, सादा रहना और हवाकी उत्तमता रहने के कारण आरोग्य स्वभावतः ही रहता है, जलकी निर्मलता के कारण रोग कम होते हैं इत्यादि अनेक सुख स्वर्गदेश के हैं। इसलिये भारतीय लोग स्वर्गमें थोड़ी भूमि प्राप्त करनेके इच्छुक थे और जो बहुत करते थे और देवोको धान्याள் दिक बहुत देते थे उनको तिब्बतमें थोड़ा स्थान दिया भी जाता था। देखिये इस विषय में महाभारतकी साक्षी ——— अष्टक उवाच - पृच्छामित्वमा प्रपत प्रपातं यदि लोकाः पार्थिव संतिमेsa | यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि स्थिताः क्षेत्रनं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये ॥ ६ ॥ ययातिरुवाच - यावत्पृथिव्यां विहितं गवाश्वं सहारण्येः पशुभिः पाईतेथ । तावन्लोका दिवि ते संस्थिता वै तथा विजानीह नरेन्द्रसिंह ॥ १० ॥ अष्टक बोले- हे पृथ्वीनाथ ! मुझको जान पड़ता है कि तुम Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) से प्राप्त होने वाले सब स्थानोंको जानते हो. अवरक पूछता हूँ कि स्वर्गादि लोक में मेरे पुण्यले प्राप्त हुए कई स्थान है या नहीं ! ययाति बोले----हे नरेन्द्र सिंह ! सुनो, इस भूमण्डल में गौ अ पर्वतके जितने पशु हैं स्वर्गलोक में उतने ही तुम्हारे पुरवसे उपार्जित स्थान हैं। इस संवादसे पता लगता है कि इस क्रर्मभूमि भारतवर्ष में यज्ञादिकर्म करके उसमें देवतोंको प्रश्न संचय देने से त्रिविष्टपमें रहने के लिये उनको स्थान प्राप्त होते थे । इसी प्रकारके स्थान राजाको प्राप्त हुए थे, यह बात राजा ययाति खर्गमें जीवित दश में ही गये थे. उस समय उन्होंने प्रत्यक्ष देख ली थी और वही बांत अष्टक से उन्होंने कह दी। स्वर्गमें स्थान प्राप्त करनेका साधन यश करना और उसके द्वारा देवजातिके मनुष्योंका अभाग देना ही एक मात्र या ।" महाभारतकी समालोचना, भाग, २ देवों का अन्न । यज्ञ उ देवानामन्नम् । श० ब्रा० ८ १ १ । २ । १० "शही देवोंका अन्न है।" अर्थात् यज्ञसे ही देवोंको अन मिलता है । इन्द्र के लिये यह अन भाग वरुण के लिये यह अभ भाग इस प्रकार हर एक देवता के उद्देश्यसे अलग अलग अन्न भाग रखकर उनको धन्न भाग दे दिये जाते हैं। इस प्रकार जो पुरुष अधिक से अधिक अन्न भांग देवा था, उसके लिये स्वर्ग लोकमें अधिक उत्तम स्थान रहने के लिए मिलता था। भारतीय सम्राट बड़े बड़े यज्ञ करते थे, और उस समय देवों के लिए बहुत ही अ भाग मिल जाता था। जो भारतीय सम्राट सौ यज्ञ करता था, उसको स्वर्गमें सबसे श्रेष्ट स्थान मिलता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भा : इसका तात्पर्य पूर्वोक्त पनि पदानेसे स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन समयमें कई यज्ञ सैकड़ों वर्ष चलते थे, और उसमें रेवतीफे • बहश्यसे जो अन्न दान होता था इसका कोई हिसाब ही नहीं था। ये मन जैसे देवतोंके लिये अन्न दान करने के लिये रखे थे। उसी प्रकार भारतीय आर्योके आपसकी संगठना करने के लिये भी परन्तु इसका विचार किसी अन्य प्रसंगमें किया जावेगा । यहाँ देव जातिके सबंधकी ही बात हमें देखनी है. अतः भन्यं मातका : यहाँ विचार करना उचिस भी नहीं है। : इस सब वर्णनसे पाठकाक मनम. यह बात जम गई होगी, :: कि मारा धो इस दिशाम विश्वास या निविष्टपमें : "देष” नामक मनुष्य जाती रहती थी और वह जाति भारतीय .श्रायं जातिकी मित्र जाति थी, तथा यह मित्रता दोनों मित्र जातियों-- अथर्थात् देवों और प्रायों का हित बढ़ाने के लिये . कारण हुई थी। : असुर भाषामें देव शब्द का अर्थ । . .. हमने पहिले ही बताया है कि देवोंके राष्ट्रके पश्चिम और उत्तर दिशामें असुरों और राक्षसोंके देश थे। इसलिये हमें पता लगाना चाहिये कि उनकी भाषाओं में "देव" शब्मका अर्थ क्या है। अनुरोंकी भाषा मेंद है इस भाषामें देव शब्दका अर्थ 'राक्षस' ही है। ऋर, दुष्ट, विनाशक, हत्या करने वाला इस अर्थमें देव शब्द असुर भाषामें है। घरशियन भाषामें, उर्दू अर्थान् असुर भाषासे उत्पन्न हुई अन्यान्य भाषाओं में भी देव शबइका अर्थ राक्षस ही है। . . . . इसका तात्पर्य समझने के लिए बड़ी दूर आनेकी आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार अंसुर और राक्षम देवोंके. राष्ट्र पर हमला करते थे और दिन रात देवोंको सताते थे, ठीक उसी प्रकार इन्द्र Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI ( १८१ ) र देव सेना लेकर असुरोंके देशों पर हमला करते थे, असुरोंके ग्राम जलाते थे, उनके किलोंको तोड़ते थे, उनको करल कहते थे । अर्थात् जिस प्रकार असुर जातिके लोग देव जातिके सोगोंके कटके हेतु थे, ठीक उसी प्रकार वेष जातिके लोग जाति के लोगों के दुःखके कारण थे। इसीलिए असुर शब्द भाषा (संस्कृत) में भयानक अर्थमें प्रयुक्त होने लगा और देव शब्द असुर भाषा र अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। क्योंकि असुरोंके विषय में जैसा कटु अनुभव देवोंके लिए आता था उससे भी अधिक कटुवा अनुभव देषोंके विषय में बमुरोको भाता था। इसलिए परस्परकी भाषाओं में उक्त शब्द इतने श्री विलक्षस अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । . इसका एक उदाहरण इस समय में भी देखा जा सकता है। पठान लोग बनेका डर महाराष्ट्रमें इस समय लड़कोंको दिखाते हैं और पठानोंके देशके मराठोंकी डर दिखाते हैं। इसका तात्पर्य इन लोगोंने परस्पर के देशमें अत्यधिक घात पात किए थे। कुछ काल तक इन घातपात का स्मरण रहता है और कुछ समय बारूद शब्दों का वही अर्थ प्राप्त होता है। अनन्तकाल व्यतीत होनेके पश्चात् मूल कारण भूला जाता है। शब्दकी व्युत्पत्ति करने वाले को मूल इतिहासका पता हुआ तो व्युत्पत्ति ठीक करता है, नहीं तो पांगत व्युत्पत्ति गढ़ते हैं। मूलकारणका ठीक पता न होनेके कारण ऐसा होना स्वाभाविक है। भारतवर्ष में तो इसके उदाहरण अनन्त है। क्योंकि देववाणी-देव-भाषा-(संस्कृत भाषा) के शब्दोंमें सप्तद्वीपोंका इतिहास भरा हुआ होने के कारण - हरएक शब्दकी उत्पतियाँ और व्युत्पत्तियाँ अनेकानेक की गई हैं। उनमें कई इतिहासकी दृष्टिसे ठीक हैं और कई गलत हैं। परन्तु इस समय उसका पता लगाने के लिए ठीक मार्गकी खोज करना Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) पाहिये और देखना चाहिये कि उस समय ऐतिहासिक अवस्था किस प्रकार थी। अस्तु ! यहाँ हमने "देव' शब्दको असुरं भाषा में देखा ( Devil वित) शैतान. 'प्रथम पह हमें प्रतीत हुधा । इससे मी अनुमान होता है कि देव जाति भी उसी प्रकार असुर जातिको सताती थी जैसी वह जाति इनको ससाती थी । परस्पर शत्रु, जाने के कारण ही परस्परके वाचक शब्द परस्परकी भाषामें कर अर्थ बताने वाले प्रसिद्ध हुये। ___ यद्यपि संस्कृतमें असुर और देव-शब्दोंके भले और बुरे भी अर्थ हैं, तथापि अमुरका बुरा अर्थ और देव शब्दका भला अर्थ अधिक प्रयोगमें है। इसलिये अल्प प्रयुक्त अन्य श्रर्थ पूर्वोक्त लियमका बाधक नहीं होसकता। अस्तु ! इससे सिद्ध है, कि ये दोनों जातियाँ, अर्थात् असुर जाति तथा देव जाति, परस्पर शत्रु जाति थी, और मनुष्यों के समान ही उनका श्राकार था। इसमें . अत्र संदेह नहीं होसकता . . . . देव भाषा। ... जिस भाषाको अाज कल संस्कृत भाषा कहते हैं उसका नाम . "देवभाषा भी है। इसके अन्य नाम, "देववाणी, देववाक , अमरभाषा, सुरगीः, सुरवाणी" इत्यादि बहुत हैं। इनका अर्थ यही है कि यह देव आतिको भाषा थी अर्थात् जो जाति त्रिविष्टप में रहती श्री उस मानव जातिका नाम "देव" था, और उसकी यह बोली थी जो इस समय संस्कृत भाषाके नामले प्रसिद्ध है। . इस भाषाका प्रयोग सिद्ध कर रहा है कि इस भाषाका प्रयोग करने वाली देव नामक जाति प्राचीन काल में थो। तश भाषाका , प्रयोग केवल. मनुष्य ही कर सकते हैं. अतः सिद्ध है कि देवनाम धारी मनुष्य ही थे । जिस प्रकार आयोको भाषाको आर्य भाषा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं, और पिशाचोंकी भाषाको पैशाची भाषा कहते हैं, उसी प्रकार संस्कृसका नाम देखभाषा इस लिये पड़ा था, कि वह देव भातिके मानवोंकी भाषा थी। .. देवजातिके मानवाँसे आर्यजासिके मानवों का अति घनिष्ठ संबंध होनेसे देवोंकी भाषा आर्य जातिक पास आ गई और देवजातिके नामके पश्चात् उस देवभाषाने आर्यदेशमें अपना निवास किया', यही देवभाषा असुरादि देशोंमें भी गई थी, परन्तु असुर जातिके विकृत उच्चारणों के कारण इस देवभाषाकी विकृति असुर देशोंमें बड़ी ही विलक्षण हुई। इस भारतदेशमें प्राकृत भाषाओंके रूपसे भी संस्कृत भाषाका विकृत रूप दिखाई देता है. उससे भी अधिक विकार असुर देशोंमें हुअा है. यह आजकल भी देखने बालोंको दिखाई देगा। अर्थात् देवभाषाकी विकृति भारतदेशकी अशिक्षित जनतामें कुछ अंशमें दिखाई देती है। जिस प्रकार युरूप भरमें मच भाषाका प्रचार इस समय में भी सिद्ध कर रहा है कि चोंकी सभ्यता एक समय सबसे अधिक श्रेष्ठ मानी जाती थी और चोंका राजनैतिक प्रभाव भी अधिक एक समय युरूपमें था। वही बात देवभाषाका प्रचार जो आजकल असुर देशों और आर्य देशोंमें अपभ्रष्ट शब्दों के रूपमें दिखाई देता है यह स्पष्टतासे सिद्ध कर रहा है कि देवजातिकी सभ्यता सथा राजनैतिक श्रेष्ठता अति प्राचीन काल में सबके लिये शिरोधार्य श्री । देवजातिकी सभ्यताका.प्रभाव न केवल सम्पूर्ण आर्यजगत् में प्रत्युल अंसुर जगतमें भी बन्दनीय हुआ था। इस देवजातिकी सभ्यताका समय आर्य सभ्यता के पूर्वकालमें निश्चित करना चाहिये और इससे पूर्व आसुरी सभ्यताका समय है, क्यों कि असुर देवोंसे भी "पूर्व-देव" थे अर्थात् देवोंके भी पूर्वकालीन Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? ( १८४ . ) देव थे। असुका नाम "पूर्व देव" सिद्ध कर रहा है कि ये देवी से भी प्राचीन समयके देव थे. इसीलिये मानना पड़ता है कि देवजातिकी सभ्यता के पूर्व काल में श्रसुरी सभ्यता प्रभावित हुई थी" श्रीपाद दामोदर सातवलेकरकृत महाभारतकी समालोचना । भागर उपरोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट होगया कि इन्द्र, वरुण, अश्वि नीकुमार मरात, आदि सम्पूर्ण वैदिक देवता तिव्वत भादि देशों के धियाँ थी । न ये ईश्वर थे और न ईश्वरकी शक्तियाँ | पं० प्राणनाथजी विद्यालंकार (जिनके मतका उल्लेख हम पहिले लिख आये है) ने भी करीब करीब, यही सिद्ध किया है। पाँच प्रकारकी अग्नि । af वो देव यज्ययामि प्रयत्यध्वरे । श्रमिं भीषु प्रथमममित्यक्षैित्राय साधसे ॥ श्र० ८ । ६० । १२ ॥ (१) याशिक अमि, जो यज्ञ कुण्ड में प्रदीप्त होती है। (२) अध्वर, श्रम, अर्थात् अहिंसक भनि । अर्थात् अहिसिक तेज. (ओज ) 1 (३.) वैदिक अ, अर्थात् ज्ञानामि, आत्मा, ( ४ ) सामूहिक अभि अर्थात् संघ शक्ति, सैनिक शक्ति, अश्रषा सामाजिक क्रान्ति । : (५) क्षात्र अमि, अर्थात, बल, बीर्य, रूप, ि यह है कि वैदिक साहित्य में ममि शब्द से उपरोक्त पांच प्रकारको अनिका ही वर्णन है ईश्वर अथवा ईश्वरकी शक्ति प्रादिका नहीं है क्योंकि यदि अभि शब्द से areer भी उल्लेख होना चाहिये था। ईश्वरका वन होता. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( R) पहिला मानव 'अग्नि'1. त्यामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन नहुषस्य विश्यतिम् ॥ ऋ०१ । ३१ । ११ इस मन्त्री प्रथम मनुष्यको अनि कहा गया है । पं.सानबलेकरजीने इस मन्त्रका अर्थ करते हुए लिखा है, किं—'देवोंके द्वारा इस प्रकार जो 'पहिला मनुष्य' बनाया गया उसका नाम अनि है. और उसकी पत्नी पाए है। लापत्र नमुना नी श्रमि हैं. अर्थान् मानव प्राणी अग्मि शब्दसे वेदमें लिया जाता है । वेद मन्त्रामें अग्निके अनेक अर्थ होंगे: परन्तु उसमें एक 'मानव प्राणी' है, इसमें कोई शंका नहीं है।" स्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तमः कचिदेवानां परिभूषसित्रतम् । ऋ० १।३१ । २ ।। • त्वमग्ने प्रथमो अंगिरा ऋषिदेवो देवानामभवः शिवः सखा ।। ऋ०१ । ३१ । १ इन मन्त्रों में कहा है कि- पहिला अंगिरा ऋषि' अग्निही है, यही पहिला मानव समझना चाहिये । पहिला मानव जो अंगिरा ऋषि था वही अमि नामसे प्रसिद्ध है। तथा च अंगिरसोंमें सबसे पहिला कवि अग्नि ही है। यही मनुष्योंसे पहिला मानव अग्मि है। ___ श्री मायनाचार्यके भाध्वम लिखा है कि "हे अग्ने ! देवान पहले पुरवाके मानवरूप धारी पौत्र नहुषको तुम्हें मनुष्य शरीरवान सेनापति बनाया ।" इसे भी अग्निवेंन्त्र का मनुष्य ही भिद्ध होता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन प्रमाणोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि-जिसने प्रथम ही धर्मका अथवा मानवताका मार्ग दिखाया उसको वैदिक भाषामें अग्नि कहते हैं. अथवा उसको अनि की उपाधिसे विभूषित किया गया था। अभिप्राय यह है कि वेदोंमें अग्नि शब्दसे प्रथम मनुष्यकी स्तुति की गई है। इसके लिये वेद स्वयं कहता है त्वं ह्यग्ने प्रथमो मनोता ।। ऋ० ६ । १।१ अयं होता प्रथमः पश्यतेममिदं ज्योतिरमृतं मयेषु ।। ऋ०६ । 8.1४॥ अयमिह प्रथमो धायि धातभिर्होता यजिरुहो अध्वरेबीढय ॥ ऋ० ४ । ७ । १ ॥ इन मन्त्रों में अग्निको प्रथम 'मनोता' अर्थात् प्रथम मननकर्ता, प्रथम विचारक तथा प्रथम होता' अर्थात प्रथम याशिक, कहा गया है। तथा च श्रध्वरेषु ईय' अहिंसकोंमें पूज्य भी यही अग्नि है। इस प्रकार धम. ज्ञान, सभ्यता व संस्कृति, के प्रथम प्रचारक को यहाँ अग्नि कहा गया है। उसी प्रथम मनुष्मकी वैदिक साहित्य में प्रजापति, ब्रह्म, ज्येप्रमा, हिरण्यगर्भ, स्कंभ, आदि नामोंसे स्तुति की गई है। ये ही अहिंसकोंके परमपूज्य हैं। अर्थान ये ही अहिंसा धर्मके प्रथम प्रचारक श्री ऋषभदेव है। . वैश्वानर अग्नि इतो जातो विश्वमिदं विचष्टे वैश्वानरो यतते सूर्येण ।। ऋ. १ । ८1१॥ ( इतः जातः वैश्वानरः इदं विचष्टे). Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) .. अर्थात इसी समाजस उत्पन्न हुआ यह नेता. जनताका अगुश्रा है। (सूर्येण यतते) सूर्य के साथ यत्न करता है, जैसे सूर्य निरलस रह कर सबको प्रकाश देता है. वैसे ही यह नेता बालस्य छोड़फर उन्नतिके कार्य में दत्तचित्त रहता है। ऋग्वेदका मुबांध WITJ. महा १० वैश्वानरो महिम्ना विश्वकृष्टिभरद्वाजेषु यजतोचिभावा ।। ___ऋ० १ । ५६ १७॥ अर्थात-अपनी महिमा ( अपने महत्वसे ) ही वैश्वानर सन्य मनुष्यों के अधिपति हैं। — इस मन्वका भाष्य करने हुए श्री सायनाचार्य लिखते हैं कि विश्वकृष्टि, कृष्टिरिति मनुष्यनाम । विश्चे मर्चे मनुष्याः यस्य स्वभूताः स तथोक्तः । __ अधात कृष्टि मनुष्य वाचक शब्द है। सब मनुष्य जिसके लिये अपने ही निज होते हैं वह विश्वकृष्टि है। तथा स्वामी दयानन्दर्जा लिखते हैं कि चैश्वानरः सर्वनेता । विश्वष्टिः विश्वाः माः कृष्टीमनुध्यादिकाः प्रजाः ।। अर्थान . वैश्वानर सबका नेता है। विश्वकृष्ट सब प्रजात्राका संघ है। सारांश यह है कि यह वैश्वानर अनि. राणानि है। प्रथा इसीका नाम संघशक्ति है। इसी राष्ट्रानिका वर्णन "पुरुप सूक्त में पुरुष नामसे किया है। - । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महतो, व ऋभुवा, तथा इन्द्र श्रादिकी तरह यह अनि देव भी मनुष्यसे देव बने हैं यह प्रथम मन्त्रमें पतया बताया गया है। वरुण देवता। इयं दिग्दयिता राज्ञो वरुणस्य तुः गोपतेः ।। १ ।। याद. सामत्र राज्येन सलिलस्य च गुप्तये ।। कश्यपो भगवान् देवो वरुणं स्माऽभ्यषेचयत् ।। २ ।। महाभारत, उद्योगपत्रं, ०.११०॥ ___ यह ( दक्षिण ) दिशा गोपति वरुण राजाकी प्रिय है। जलनरोंका यह राज्य है और समुद्रकी रक्षाके लिये यह नियत है। भगवान कश्यप ऋपिने वरुणको यहाँ राज्याभिषेक किया था। . इससे सिद्ध होता है कि वरुण लोक भी समुद्र के पासके एक प्रान्नका नाम था: और वहाँका राजा वरुण कहलाता था। महाभारत उद्योगपर्व में कहा है कि 'नारद मातलि, को वाराणद्वीपकी वारुण्य नगरीमस गुजरकर नागलोकमें ले गये थे। वरुणेनाऽभ्यनुज्ञाती नागलोकं विचरतुः ॥ म. भा० उद्योग पर्व, अ०६८ - बताकी याज्ञा प्राप्त कर. ( नारद और मानली ) नागलोकमें विचरने लगे। ( महाभारतकी समालोचना, भाग, २) . तथा च ब्राह्मणग्रन्थों में भी लिखा है कि· वरुणः (श्राफा) यच्च धूच्या प्रतिष्ठस्त्तद वरुणोऽभवत् नं वा एतं चरणं सन्तं वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवा भवन्ति प्रत्यक्ष द्विपः । गो० पू० १७॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FMaula अर्थात्---यह जलोंको घेर कर रहता था इसलिये इसको "बरण'कहते थे । घरको देवाने परोक्षरूपसे वरुण कहा, क्योंकि देवता परोक्ष प्रिय होते हैं, और प्रत्यक्षसे घृणा करते हैं। यहाँ भी पानीसे घिरे हुये स्थलको वरुणाका स्थान बताया गया है। तथा च यहाँ परुषका वास्तविक नाम "वरण" कहा है। श्रीक लोगोंक यहाँ भी इसको "वरण" एवं, 'उरानोस' कहा है। वे लोग इस देवताको सत्र देवीका पिसा मानते हैं । शक्खर (सिन्ध) में सिन्धुनदी के किनारे अति प्राचीन एक 'वरना पीरको कत्र है. यह जल का पीर माना जाता है । इस मकवर में अनेक जल जन्तुओंके चिन्न हैं. जिनका यह पीर मालिक है । अतः सिद्ध है के इस वरना पीर चमण देवता ही है। ... मरुत देवोंका गण - मरुत (मर x उत) मरने तक उठकर लड़ने वाले बड़े भारी वीर हैं। ये संमुदायसे रहते हैं, 1 सब मिलकर एक ही बड़े घरमें रहते हैं, साथ साथ शत्रु पर हमला करते हैं. राबंकी पोषाक एक जैसी रहती है । खान पान समान होता है, सबके पास शस्त्रास्त्र समान रहते हैं, इनकी कतार साताको मिलाकर एक होती है। प्रत्येक कतारके सोनों और दो वीर रहते हैं. इनको पार्श्व-रक्षक अर्थात् दोनों बाजुश्रोसे होने वाले हमलोको बचाने वाला वीर कहते है। इस तरह १४७ x १x६ नौ वीरों की एक तार होती है, ऐसी इनकी ७ कतारें होती है, अर्थात ७ कतारों में मिलकर (x)-६३ सैनिक होते हैं. इनकी संख्याके अनुसार संघ के नाम होते हैं। . . संघ बीरीका एक एक पंक्तिके.२ पार्श्व-रक्षक मिलकर वीर छुये (१ x x १६ x ७. कला-६३ धीरोंका एक शधं THANE Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) होता है. इसमें (७ × ७) -- ४६ सेनिक और (७x २ ) - १४ पार्श्व रक्षक मिलकर ६३ वीर होते हैं इनका नाम शर्ध हैं । आत (६३- × ७) -- ४४२ सैनिकका एक बात कहलाता है। ३ गण - (६३ × १४) = ८८ सैनिकोका अथवा १४ तांका एक गण कहलाता है । ४ - महाराण (६३.६३) २०६६ सेनियोंका महाराण कहलाता है। इस प्रकार सातोंके विविधि अनुपातों में इनके अनेक छोटे-मोटे सैनिक विभाग हैं इस ही महाराण मंडल आदि अनेक विभागोंके नाम हैं।. 12 शस्त्रास्त्र C इनके शस्त्रास्त्रये हैं। ऋष्टि-भाला वाशी कुल्हाड़ी, ये शस्त्र गणवेश भी सबका समान ही रहता है । अन्यत्र अन्य शस्त्रों का भी वर्णन है। तलवार, वत्र आदि ये भी यतते थे और लोहे के शिरकाण भी वर्तते थे । बल मरुतोंका बल संघ के कारण हैं। समूहमें रहना, समूह में जाना, समूह से कीड़ा करना । आदिके कारण जो इनका संगठन है उसका यह बल हैं। इस मंत्र का आशय ऐका से है | ऋषि से कहता है कि मरुतोंके काव्योंका गान करो. क्योंकि उनका बल संघ से उत्पन्न हुआ है। तथा ये आपस में भी लड़ते नहीं, रथोंमें बैठकर वीरताको प्रकट करते हैं। अर्थात इनके काव्योंका गान करने से मानयों में सगठनका बल बढ़ेगा। खेलों में रुचि बढ़ने की वृत्ति श्रानन्दयुक्त बनेगी । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उससे उत्साह बढ़ेगा। इसलिए ममतोंके काव्योंका गाम करना, बीरताको बढ़ाने वाला है। २-ये वीर भालें, बर्छयाँ. कुल्हाड़े तथा अपनी अन्य पोशाक सब-समान ही धारण करते हैं और जब बाहर जाते हैं. तब सब सजे-सजाये प्रगट होने हैं। ये कभी अकेले नहीं रहते। इनका सब ही रहना सहना साधिक होता है 1 ३-थे हाथों में चाबुक लेकर अपने घोड़ोंका दौड़ाते हुए आते है उस समय इनके कोडीका शब्द दूरसे भी सुनाई देता है । युद्धके समय तो इनकी वीरता विशेष ही प्रकट होती है। -मीरोंका सघ बल बढ़ाने के लिए शत्रु पर हमला करनेके के लिए और प्रतापकी सामर्थ्य वृद्धिंगत करनेके लिए इन वीरोंक कायीका गान करते जाओ। बोरोंके काव्य गाने सुनने वालोमें वीरता बढ़ जाती है । यह है बी के काव्योंका महत्व। ५--गौ के दूध आदि, गोरसमें एक बड़ी भारी सामय है। संघके रहनेसे और एक बल बढ़ता है पहिला बल गोरस पीनेसे बढ़ता है । और दूसरा. साधिक जीवनसे बल बदता है. इन सब प्रकारके बलकी वृद्धियाँ करनी चाहिये । कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे शक्तिका नाश होजाय । ६-ये वीर, भूमि और प्रकाशको हिला छोड़ते हैं ये सब समान हानेके कारण आपसमें किसीको छोटा या बड़ा नहीं मानते, इनमें एक भी वीर ऐसा नहीं है, जो शत्रुको न हिलाना होगा। ७.-इनका हमला शत्रु पर होने लगा तो साधारण मानव किसीके आश्रममें जाकर रहते हैं। क्योंकि य वीर पहाड़ोंको भी उखाड़ देते हैं। अर्थात् इनके हमलोंसे सभी भयभीत होजाते हैं 1 । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-इनके हमलों के समय भूमि भी कांप उठती है और मरियल बालकके समान सभी भय-भीत होते हैं। इनका जन्म स्थान मुस्थिर है, पर ये दूर दूर जाकर हमले करनेकी तैयारी में दौड़ते हैं। जिस प्रकार पक्षीके छोटे छोटे बच्चे भक्ष्य के लिये दूर जाते हैं, तो भी अपनी माताके ऊपर उनका ध्यान रहता है। वैसे ही ये वीर भी दूर हमलेके लिए गम ता भी मातृभूमि पर उनका ध्यान रहता ही है। ....... ये बड़े वक्ता है ये अपने पराक्रम में अपनी पराकाष्ठा करते हैं, जिस तरह घुटने पानीमें गायें घूमती हैं. इसी तरह सर्वत्र ये बार भी धूमते हैं और पराक्रम करते रहते हैं। ११--ये यायुरूप बड़े भारी घोड़ोंको तितर-बितर कर देते हैं वैसे ही ये धीर शत्रु कितना ही प्रथल हुश्रा उसको भी उखाड़ फेंकते हैं। १. जो बल इनका शत्रुओको हटाता है. वह बल पर्वतों को भी लाँघता है। १३-ये वीर जब कता में मार्ग पर चनते हैं, तब आपसमें इतनी छोटी आवाज में बोलते हैं. कि उस समय कोई तीसरा इनके शब्द सुन नहीं सकता। दो वीर श्रापसमें बात करने लगे तो तीसरा सुन नहीं सकता है। ऋग्वेदका सुत्रोध, भाग्य, भाग ५ पृ. १५ इन्द्र देवता के गुण (१) बी.-वळ धारण करने वाला। . (२) हिरण्ययः-सुधक श्राभूषण धारण करने वाला। (३) ग्रः- शूरवीर, बड़ा प्रसापी वीर । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) सत्रादावन -एक साथ अनेक दान करने वाला। (५) वृषा-- बलवान , सुखोंकी वृद्धि करने वाला। (६) अप्रतिधुत,--विरोध न करने वाला. निषेध न करने पाला। (७) ईशान:--स्व:मी. प्रभु, अधिपति । इसमें हिरण्ययः' पदसे इन्द्रकी पोशाकका ज्ञान होता है। यह सुवर्ण । भूषा तथा सुनहरी श्रेल बूटेके वस्त्र पहनता था । वन धारण करता. बलवान होता हुआ भी अनुयायियोंका विरोध नहीं करता, और उनको यथेच्छ दान देता था। . इन्द्र की लूट (स ) सततां इव शत्रूणां रत्नं अविदत् । ऋ० मं० ११५३ । १ अर्थ-असावधया सेाने याले शत्रुओंके. धनको यह इन्द्र प्राप्त करता है। इन्द्र अपने सैनिकों को साथ लोकर शत्रु पर हमला करता था, शत्रुको परास्त करनेके पश्चात् उसकी सम्पत्ति लूटकर लाता था, और वह धन अपने लोगोंमें यथायोग्य रीसिसे वांद देता था। इन्द्र मायावी था त्वं मायाभिरप मायिनोऽधमः | ०.१ | १५१ ॥ ५॥ ( त्वं ( तान ).मायिनः मायाभिः अप अधमः) इन्द्रमे उन कपटी शोंको कपटसे ही नीचे गिरा दिया। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( कपटी के साथ कपट 'युक्तियोंसे, . और कुशल शत्रुासे कुशलतापूर्वक युद्ध लड़ना चाहिये) . . ऋग्वेदका सुबोध भाध्य. भाग, ६ इन्द्र देवताके गुण सुरूपकलुः-सुंदर रूप करने वाला, रूपको सौन्दर्य देने : बाला, जो करना है.वह अत्यन्त सुंदर बनाने वाला । यह इन्द्रकी कुशल कारीगरीका वर्णन है। मनुष्य भी अपने अन्दर इस तरह के कर्म करने में कुशलता लावे और बढ़ावे। . 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूपईयते । ( ऋ० ६६५८,५६ } इन्द्र अपनी कुशलताओंसे अनेक रूप होकर विश्वरता है। इन्द्र अनेक रूप इतनी कुशलताके साथ कर लेता है कि पहिचाना नहीं जाता। ऐसा बहुरूपिया इन्द्र है। यह भी इन्द्रकी कुशलम का ही उदाहरण है। वैसी ही कुशलता इस पदमें वर्णन की है। इन्द्र जो बनाता है, वह सुन्दर बनाता है। २.-सोमपा:-सोमरस का पान करने वाला । . ३-गो:-दा:-गौवें देने वाला 1 ४--अ-स्सृतः-अपराजित, जिसको कोई पराजित नहीं कर सकता ऐसा अजेय वीर ! | ५---विपश्चित् :-शानी, विद्यावान । ६-विना-मेधावाम' , प्रज्ञावान (निघ० ३१५।) जिसकी घुद्धि प्राहक शक्ति विशेष हैं। जिसकी विस्मृति नहीं होती। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --शतक्रतुः-लकड़ी कर्म करने वाला. बड़े-बड़े कर्म करने वाला। -वाजी-बलवान्, अन्नधान । E-दस्म--शत्रुका नाश करने वाला, सुन्दर । इन पदों द्वारा कर्मकी कुशलता, गौत्रीका दान करनेका समाव. अपराजित रहनेका अल. ज्ञान और धारणमे युक्त अनेक बड़े कार्य करनेकी शक्ति, सामथ्यवान, शत्रुका नाश करना, श्रादि गुणोंका वर्णन हुश्रा है। ये गुण मानवोंके लिये अत्यन्त ही आवश्यक हैं 1 सिक्यों सास इन्द्रले भागाः धर्मन इस सूकमें किया गया है उन्हें देखिये १८-ऊतये जुर्मसि-हमारी सुरक्षाके लिये इन्द्रको बुलाना । अर्थान इन्द्र में जनताकी सुरक्षा करनेकी शक्ति है। . १५-स्खेतः महः गोदा:--धनवानका आनन्द गायकर दान करना है । धनवान इन्द्र है वह गौका दान करता है । धनवान पपने पास गौवें बन रखे और उनका प्रदान भी करे। १२-- अन्तमानां सुमनानां विद्याम-इन्द्र के पास जो उसम बुद्धियां हैं, उनको हम प्राप्त हुई । वोर बुद्धिमान हो और वह उत्सम मंत्रणा या परामर्श दूसराको दे। १३---सखिभ्यः वर श्रा (यच्छति)-मित्रोंको इष्ट और श्रेष्ठ वस्तुओंको प्रदान करता हैं । मित्रोंको कल्याणकारी यस्तु ही दी जाये। १४-इन्द्रस्य शमण स्याम- इन्द्र के सुख में हम रहे इन्द्र सुख देता है । पैसा सुस्त्र वीर सघ लोगोंको देखें। . १५-वृत्राणां धन:-.-धेरने वाले शत्रुका विनाश करने वाला, धीर अपने शत्रुका विनाश का । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) १६- वाजेषु वाजिनं प्रायः, वाजेषु वाजिनं वाजय: - युद्धों में बल दिखाने वाली सुरक्षा कर । १७ – घनानां सातिः इन्द्र धनको प्रदान करता है। वीर धन कमाता चले उसका जनताकी उन्नति के लिये दान भी करे । १८ - रायः अवनिःघनकी सुरक्षा करे, १६- महान् सुपार:----दुःखांसे उत्तम पार ले जा । इन्द्र के घोड़े इन्द्रके रथ में दो घोड़े जोते जाते थे (मं० २५) परन्तु सहस्रों घोड़े उनके पास होने का वर्णन मंत्र २४ में है । इन्द्रके पास अश्व शाला में सहस्रों घोड़े होंगे। परन्तु एक समय में उसके रथको दो ही घोड़े जोते जाते होगे । रथको एक दो, तीन, चार पांच और सात तक घोड़े जोते जाने की संभा वना है। चार तक घोड़े आज भी जोतते हैं। : ि इन्द्र का मोल पञ्चममंत्र में शुल्क ले कर भी इन्द्रको मैं नहीं दूंगा ऐसा एक भक्तका वचन है। देखिये महे शुल्काय न परा देयाम् शताय, सहस्राय, भयुताय च न परा देयाम् । ( मं० ५ ) 'हे इन्द्र ! तुझे मैं बड़े सूप में भी नहीं दूंगा. नहीं बेचंगा | सौ. सहस्र और दश सहस्र मूल्य मिलने पर भी मैं नहीं दूर करूँगा, नहीं बेचंगा. इस मंत्र में शुल्काय न परा देय' ऐसा पद Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ). है। मूल्य के लिये भी नहीं दूंगा. इसका अर्थ बेचना ही प्रतीत होता है। इस पर सायन भाष्य ऐसा है । महे महते शुल्काय मूल्याय न परा देवाम् । न विक्रीणामि । (सा० माध्य ८ । १ । ५ ) 'बड़ा मूल्य मिलने पर भी मैं तुझे नहीं बेचूंगा' ( I would notsell thee for a mighty price ग्रिफिथ विल्सन ) 'परा ' धातुका अर्थ बेचना है और देना या दूर करना भी है। शुल्क लेकर इन्द्रको दूर करने का भाव यहाँ पर स्पष्ट है । कितना भी धन का लालच मिले तो भी मैं इन्द्र की भक्ति छोड़ा से यहाँ है। कितना ही घन मिले, परन्तु मैं इन्द्र हो की भक्ति करूँगा। यह भक्तिकी हड़ता यहां बतलाई है । परन्तु कई लोग यहां इन्द्रको बेचने की कल्पना करते हैं । इन्द्र की मूर्तियाँ थी. ऐसा इनका मत है और वे मूर्तियाँ कुछ लेकर बेची जाती थी, ऐसा इस मंत्र से ये मानत है। मंत्रोंके शब्दों यह भाव टपक सकता है. इस में संदेह नहीं है। 'शुल्काय न परा देय मूल्य मिलने पर भी मैं नहीं बेलूंगा । 'शुल्क' का अर्थ वस्तु मूल्य है। यदि यह बात मानी जायेगी तो देवताओं की मूर्तियाँ थी। और उनकी पूजा और जलूम होते थे । ऐसा मानना पड़ेगा। इस मतको पुष्टिके लिये इन्द्रका रथ में बैठना वस्त्र पहनना, यज्ञ स्थान पर जाना, आदि मंत्रोका वर्णन उत्सव मूर्तिके जलूम जैसा मानना पड़ेगा | अमिके रथ में बंद कर अन्य देवता आते हैं, यह भी वर्णन जनूसका होगा। क्योंकि देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियाँ होगी. यी ही रथ में सच देवा ठा संभव है। (ऋग्वेदका सुबोध भाष्य, भाग २ ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) कौशिक 'इन्द्र' धातू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिव || ऋ० १० । १ । १२ अर्थ – हे कौशिक इन्द्र ! हमारे पास आ, आनन्दसे सोमरस - का पान कर । यहाँ इन्द्रको कौशिक कहा गया है। कौशिक शब्द का अर्थ होता है ' कुशिक' का पुत्र । अतः यह सिद्ध होगया कि 'इन्द्र देवता' कुशिक ऋषिके पुत्र थे। विश्वामित्र ऋषि भी कौशिक थे। क्योंकि ये भी कुल दे विश्वामित्र के पिताका नाम 'गावी' था तथा 'गांधी' के पिता कुशिक' थे। इसी प्रकार इन्द्रदेव भी कौशिक थे। पं० सातवलेकरजाने 'कोशिक' शब्दका अर्थ "कौशिकों की सहायता करने वाला देव" ऐसा किया है ऐसा मानने से भी इन्द्रदेव ईश्वर नहीं रहते अपितु एक देवता विशेष ही रहते हैं। तथा च ये देवता तिब्बतमें रहने वाली एक मनुष्य जाती ही थी यह अपने सिद्ध किया ही है, अतः दोनों में विशेष अन्तर नहीं है। यहां यह भी सिद्ध हो गया कि वैदिक समय में भी वर्तमान समयकी तरह हो पृथक २ कुल पृथक २ देवता थे । देवों के लक्षण (ऋ० मं० १ सूक्त १४, में ) देवों के लक्षण किये गये हैं। ( १ ) 'यजत्रा' सतत यज्ञ करने वाले, याजक प्रशस्त कर्म करने वाले । ( २ ) ( ईड्याः ) -- प्रशंसा करनेके लिये योग्य । : Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) ( उपर्बुधः ) उपः काल में जागने वाले, उषः कालमें उठकर अपना कार्य शुरू करने वाले। (४) (हाता) हवन करने वाला, देवताओंको बुलाने वाला। (५) ( मनुर्हितः ) मनुष्योंका हित करने वाला। जनताका हित करने में तत्पर । (६) ( ऋतावृधः ) सत्यमार्गके बढ़ाने वाले। (७)(पत्नीघ्रतः) गृहस्थाश्रमी । * देवों के कार्य तृतीय मन्त्रमें कुछ देवों के नाम गिनाये हैं। 'इन्द्र,शत्रुका नाश करने वाला । ( वायुः) गतिमान , प्रगति करने वाला, (बृहस्पतिः) झानी वक्ता, ( मित्रः) हित करता । ( अग्निः ) प्रकाश देने वाला, मार्गदर्शक, (पूषा ) पोपण करने वाला। (भगः ) ऐश्वर्यवान् । (श्रादित्याः) लेने वाला धारणकर्ता । (मारुतोगणः) संघसे रहने वाला। . . मनुष्योंको इन गुणों को अपनाना चाहिये। जिससे उनमें देवत्यका विकास होगा।" . ऋग्वेदका सुबोध भाष्य, भाग २ पृ०२१ उपरोक्त लेखसे स्पष्ट है कि श्रेष्ठ कर्म करने वाले मनुष्य विशेष ही 'देव' कहलाते हैं। अश्विनौ देवों के गुण "यहां दोनों अश्वि देवोंका वर्णन है। (१) अश्वोंका घोड़ोंका पालन करने में ये चतुर थे। * उपरोक्त गुणोंसे भी देवता उत्तम मनुष्य ही सिद्ध होते हैं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २०० ) (२) ये (पुरु भुजा) विशाल भुजा वाले हैं। (३) (शुभस पती) शुभ कर्मोको करने वाले। (१) (द्रवतपाणी) अपने हाथोंसे अतिशीघ्र कार्य करने वाले । (५) (पुरु दंससा) अनेक कार्यके निभाने वाले । (६) (धिष्ण्या ) अत्यन्त बुद्धिमान तथा धैर्य युक्त ।। (७) (नरा) नेता. अनुयायियोंको उत्तम मार्गसे ले जाने वाले। (८) (दमा) शत्रुका नाश करने वाले। (6) ( नासत्या, न-असत्या ) कमी असत्यका अवलंबन न करने वाले। (१०) रुद्र-वर्तनी) शत्रुका नाश करने के लिये भयानक-मार्ग का अवलंबन करने वाले । (११) (यज्वरीः इष चनस्यतं) ये यज्ञीय पवित्र अनका सेवन करते हैं। (१२) ( शवीरया धिया गिरः बनतं) अपनी एकाप धुद्धिसे अनुयायियों के भाषण सुनते हैं। (१३) (अवा कवः वृक्त वर्हिषः सुताः) सोम रस पीनेके लिये यजमानके पास जाते हैं। अश्विनी देवता बेदमे औषधि प्रयोग द्वारा प्रारोग्य देने वाली कही है अश्विनी. देवता में दो देघ हैं. पर वे साथ साथ रहते हैं। कभी पृथक नहीं रहते। दो तारिकायें हैं जिनको अश्विनी बोलते हैं और जो मध्य राधिके पश्चात उदय होते हैं । ये अश्विनौ है ऐसा कहा जाता है । मध्यरात्रिक उपरान्स इनका उदय होता है. ऐसा वेदका वर्णन है। दो वैध अश्विनौ हैं ऐसा कई मानते हैं, एक ओषधि प्रयोग करने वाला और दूसरा शस्त्र कर्म करने Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) -बाला है। ये दोनों मिल कर चिकित्सा करते हैं। दो राजा में ऐसा भी कइयों का मत है। परन्तु दो तारकायें हैं, यह मत अधिक (विशेष) प्राय है। ये दोनों तारकायें साथ साथ रहती हैं, साथ र उदयको प्राप्त होती हैं, मध्य रात्रिके पश्चात् उदय होती हैं। अतः इनका नाम अश्विनी होना संभवनीय हैं।...... अश्वि देवोंके विषय में इतने मतभेद हैं, तथापि इनका उदय मध्य रात्रिके पश्चा है यह निश्चित हैं। ये दो तारकायें हैं ऐसा भी ( वेदमें) अनेक वार कहा है।" ऋग्वेदका सुबोध भाष्य भाग, १० ३६ 3 ऋभु देवोंकी कथा ऋभु देवोंके संबंध में ऐतरेय ब्राह्मण में निम्नलिखित कथा मिलती है। भवो वें देवेषु तपसा सोमपीथं अभ्य जयंस्तेभ्यः प्रातः सबने वाचि कल्पयंस्तानग्निर्वसुभिः प्रातः सवना दनुदत तृतीये सवने वाचि कन्पयस्तान विश्वे देवा अनोनुद्यन्ति, नेह पास्यन्ति, नेहेति स प्रजापति रत्रवीत् सवितारं, तब वा इमेऽन्ते वासास्त्वमेवेभिः सं पिवस्वेति । स तथेत्य ब्रवीत्सविता तान्वं त्वमुभयतः परिविवेति मनुष्यगन्धात् । ( ऐ ना ३ । ६ ) ऋभुदेव प्रारंभ में मनुष्य थे । तप करके देवस्त्रको प्राप्त हुए । : प्रजापति और उसके साथ अपनी संगति रखने वाले देव इन देवों ऋभुओं को प्रातः सवनमें देवांकी पंक्ति में विठला कर सोम पान करानेका यत्न किया । परन्तु आठों वासुदेवाने उन को अपनी . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति में बैठने नहीं दिया । पश्चात माध्यंदिन सवरमें ग्यारह रुद्रोंने उनको अपनी पंक्ति में बैंठने नहीं दिया. इसी तरह प्रजापति मामुओंगे शादियोंकी नाटिल ने वता, तृतीय सवन में किया. पर सभी देवांने उनको अपनी पंक्तिमें बिठलानेसे इन्कार किया। (नेह पास्यन्ति नेहेति ) यह ऋभु यहाँ बैठ कर सोमपान नहीं करेगे. कदापि यह बात नहीं होगी, एसा सब देवों ने कहा। तब प्रजापति सयिताके पास गया और उन्होंने उससे कहा कि हे सविता। ये तेरे साथ रहने वाले और अकछे कार्य करने वाले हैं, अत: तू अपने साथ इंनको बिठला कर सोमपान करो और इनको करने दो। सविताने कहा कि इन आभुओंमें (मनुष्य मान्धात् ) मनुष्योंकी व भा रही है. इस लिये यह देवों में कैसे बैठ सकते हैं ? पर यदि हे प्रजापते ! तुम स्वयं इनके साथ बैठ कर सोमपान करोगे. तो में भी ऐसा करूंगा । और एक बार यह प्रथा चल पड़ी तो चलती रहेगी। प्रजापतिने केला ही किया, तब से ऋगु देवत्वको प्राप्त हुए । __ यह कथा ऐतरेय ब्राह्मण में है। इस में यदि कुछ अलंकार होगा, तो उसका अन्वेषण करना चाहिये । ऋ १ । ११० १४ में कहा है विष्टवी शमी तरणित्वेन बाधतो मासः सन्तो अमृतत्व पानशुः सौधन्वना ऋभवः मूरचदसः संवत्सरे समपच्यन्त धीतिभिः ॥ 'शान्ति पूर्वक शीघ्र कार्य करनेमें कुशल और ज्ञानी से ये ऋभु, प्रथम मयं होने पर भी देवत्वको प्राप्त हुये। ये सुधन्वाके पुत्र मूर्यके समान तेजस्वी ऋभुदेव सांवत्सरिक यज्ञमें अपनी कर्म कुशलताके कारण संमिलित हो गये। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगिराके पुत्र सुधन्या. और सुधन्वाके पुत्र ऋभु, विभु ओर वाज ये तीन थे। इन में से ऋभु बड़े कारीगर थे इस लिये उन की कारीगरीके काग, काले देवों में शामित किया गया था। क्षेत्र नामक जातिका-एक दिग्विजयी राष्ट्र था, उस राष्ट्र में मानव जाती के लोगों को घसनेका अधिकार नहीं था। कभी कभी अावश्यकता पड़ने पर कई मानव जातिके लोगोंको उसमें जाकर बसनेका अधिकार मिलता था. इसी तरह ऋभुओंको मिला था । ऋभु उत्सम कारीगर | उत्तम रथ बनाते थे. उत्तम शस्त्र बनाते थे, गौओंका अधिक दूध देने वाली बनाते थे . वृद्धाको जवान बनाने की औषध योजनाये जानने थे देव जातिके लिये ऐसे कुशल कारीगरोंकी अावश्यकत थी अतः प्रजापति ने उन ऋभुको अपनी देव जाति में लेनेका यत्न किया। प्रथम देवोंने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया परन्तु पश्चान् प्रजापतिका प्रस्ताव देवोंने मान लिया और ऋतुओंकी गाना देवों में होने लगी। आज कल अमरिकामें भारत वासियों का स्थायी रूपसे रहने की शाज्ञा नहीं है । पर अब इस युद्धके कारण भारतीयों को आज्ञा देनेका विचार वहां करने लगा हैं। इसी तरह यह ऋगुओं की बात दीख रही है। देव लोक "इस विष्टिय (तिच्यत; में अर्थात स्वर्गलाको देव रहत थे। प्राय: ' लाक" शब्द संस्कृतमें 'देश' कि या राम वाचक है. इससे यह अर्थ बनता है कि 'देवलाक' शन देवीका देश अथवा देवीका राष्ट्र इम अथ ही प्रयुक्त होता है। 'देवराशन संस्कृत में भी है। तथा महाराष्ट्रमें 'देवराष्ट्र नामकी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) एक जाति भी है और इस नामका प्राम भी है। जिला सनारामें देवराष्ट्र डाकखाना भी है। यह नाम प्रथमतः उन लोगोंने बसाया जो कि पूर्वोक्त देवोंके राष्ट्रसे वीर यहाँ आकर बसे थे । हम आगे जाकर बतायेंगे कि इस लोगोंने भाज आकर कई ग्राम व नगर बसाये हैं, उनमें से यह भी एक नगर है, तिब्वतमें इस प्राचीन समय में जो मनुष्य रहते थे वे अपने आपको 'देव' नाम से संबोधित करते थे। यह एक बात यदि ठीक प्रकार समझ में आयेगी तो बहुत सारी पुराकी कथायें समा सकती है। | जिस प्रकार बंगाल के लोग अपने आपको बंगाली कहते हैं, चीन देशके लोगोंको चीनी कहते हैं उसी प्रकार देवराष्ट्र किंवा देवलोकके निवासियोंका नाम 'देव' था। अर्थात् ये भी मनुष्य ही थे। इतनी सीधी बात बहुत से लोग भूलते हैं. इस कारण महाभारतकी कई कथायें उनके समझ नहीं आती और किसी समय बहुत लोग अर्थका अनर्थ भी करते हैं।" ऋग्वेदका सुबोध भाष्य भाग २ पृ० ३१ जिस प्रकार इस ऐतिहासिक तथ्यको जाने बिना पुराणोंकी कथा महाभारत आदिको कथायें समझने में नहीं सकती और अनेक विद्वान् अर्थका अर्थ करते हैं. ठीक यही बात वेदांके विषय में भी है। वेदामें भी. अभि. इन्द्र, वरुण, यदि शब्दों द्वारा पूर्वोक्त देवजातिका इतिहास बताया गया है। इस तथ्यको न समझ कर अनेक विद्वानोंने (विशेषतया श्रार्य सामाजिक si) अर्थका घोर अनर्थ करनेका प्रयत्न किया है। ): Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५० ) 'वैदिक-स्वर्ग' art शीर्ष बृहदस्य पृष्ठं वामदेव्यमुदरमोदनस्य । दांमि पक्षों मुखमस्य सत्यं विधारी जातस्य योधि यज्ञः ।। १ ।।. इसे श्रोदनका सिर है, व्रत इसकी पीठ है. वामदेव्य उदर है. बन्द दोनों पक्ष (पास) हैं. सत्य इसका मुख हैं विहारी यज्ञ, तपसे उत्पन्न हुआ है । भाग्य - बृहन और वामय साम विशेष है. सायरण ब्रह्मसे रथन्तर साम और सत्यसे सत्य-सामसे अभिप्राय लेता है। अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम् | पां शिश्नं प्रदति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैण मेषाम् || २ || I डियरहित हुए निर्मल हुए. पवित्र करने वाले से पचित्र किये हुए चमकते हुए ( नाशिक ) चमकते हुए लोककी ओर जाते हैं जातवेदा ( श्रमि) उनके शिश्नको नहीं जलाता हैं स्वर्गलोक में बहुत स्त्री समूह उनका होता है। भाष्य - हड़ियोंसे रहित अर्थात जो इन सब यहाँको करते हैं मरने के अनन्तर उनको दिव्य शरीर मिलता है। ये हड़ियों आदि वाला भौतिक शरीर नहीं। जब भौतिक शरीर ही नहीं, तो शिश्न आदि भी अलंकार रूपमें बीत जानने चाहिये - इत्यादि । विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान वतिः सचते कदाचन । आस्ते यम उपयाति देवान् गन्धर्वैर्मदते सोम्येभिः | ३ | जो विद्वान पकाते हैं. उनको अजीविका ( दरिद्रता ) कभी नहीं पटती (पेसा पुरुष ) यसके पास बैठता है. देवांकी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) ओर जाता है, साम पानेवाले मन्त्रकिं साथ आनन्द मनाता है । विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् यमः परि मुष्णाति रेतः रथी ह भूत्वा रथयान ईयते पक्षी ह भूत्वाति दिवः समेति ॥ ४ ॥ जो विधारी श्रोदनको पकाते हैं. यम उनके बीजको उनसे नहीं श्रीमता है, वह रथोंका स्वामी होकर रथ के मार्गों पर घूमता है और पक्षी होकर सारे आकाशको लाँघ जाता है। एष यज्ञानां विततो aftgt faeft year दिवमा विवेश । आडके कुमुद से तनोति बिसं श लूकं शफको मुलाली । एतास्वा धारा उपयन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुपत् विमाना उपत्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ।। ५ ।। J. यज्ञां के मध्य में बढ़िया ले जाने वाला यह फैला है चिारीको पकाकर वह स्वर्ग में प्रवेश करता है. अ. एडीक. कुमुद फैलाता है, श्रिस. शालूक, शफक. मुलाली. ऐ सारी धाराएँ, मधु वाली होकर पुष्टि हुई, स्वर्गलोक में तुझं मिलें और चारों और वर्तमान कमलों वाले सरोवर शुके मिलें । भाग्य - कौ० के अनुसार श्रदनमें छह और कुल्या बनाकर उनमें एडीक आदि डाले जाते हैं। ये सब पानीके पौधे हैं एडीक. अन्डे से कन्द वाला कुमुद रात्रीको खिलने वाला श्वेत कमल, बिस पकन्द शलूक, नीलोफरका कन्द, शफक, खुरको सी आकृति वाले कन्द बाला मुलानी- मुणालमिस । ये हद और कुल्या स्वर्ग और कुल्या प्रतिनिधि है। बृहदा धुतः सुदकाः चीरेण पूर्णा उदकेन दनः । एतास्त्वा ॥ ६ ॥ ❤ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०.५ ) श्री वाले मधुके वारों वाले, सुरा के पनियों वाल दूध, पानी से, दही से भरे हुए, ये सारी धाराएँ I चतुरः कुम्भचितुर्धा ददामि चीरेण सँग उदकेन दना | एताम्वा धारा उपयन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत् पिन्वमाना उपत्वा चारा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥ ७ ॥ चार घड़े चार प्रकार से अलग अलग चार दिशाओं में रख देता हूँ दूध से दहीसे, पानोसे भरे हुए, ये सारी धाराएँ । • इम मोदनं निदधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम्। स मे मा क्षेष्ट स्वा पियानो विश्वरुपाधेनुः कामदुधा मे अस्तु ॥1 ct लोकके जीतने वाले, स्व. इस विवारी श्रोतको मैं ब्राह्मणों में अमानत रखता हूँ के साथ बढ़ना हुआ यह श्रवन मत्र क्षीण हो। यह मेरे लिए सार रूप वाली धेनु काम दुधा कामनाओं का दूध देने वाली हो। ( तर्क तीर्थ पं० लक्ष्मण शास्त्री की सम्मति । ) "हिन्दू धर्म में देव कल्पना" देव कल्पना : "हिन्द धर्म इसकी अपेक्षा भी अधिक है। यह है वस्तु भाव-रूप तत्व यह दूसरे प्रकार की देवताओं की उपासना प्रसिद्ध है की चेतन रूप शक्ति अथवा तत्व को देवता मानना, यह कल्पना बेदीस ही उद्भूत हुई है । इन्द्र है चलदेवता वरुण है साम्राज्य देवता, सविता है आप प्रेरणारूप देवता. सरस्वति है पुष्टि देवता है या त्राग्देवता और श्री है सर्व वस्तुओं के उत्कृष्ट गुणका रहस्य देवता जिसमें एकत्रित हैं (शतपथ १९ ब्राह्मण) । प्रजापति यानि सर्व वस्तुमय जनन शक्ति ब 2 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) यानी निर्माण शक्ति, विष्ण यानी रक्षण शक्ति और रुद्र यानी महार शक्तिके रूपसे देवताकी उपासना नाग अंथों और पुराणोंके तात्विक निरूपणमें कही गई है। इससे देवताको सूक्षम खरूप प्राप्त हुआ है। देवताप्रामें मनुष्यता का या सूक्ष्मताका प्रारोप करने वाला हिन्दू धर्म श्रुति-स्मृति-पुराणों में मुख्यतासे अणित है इन देवताओं का परस्पर सम्बन्ध जोड़कर उनकी भक्ति करने वाला अथवा उन देवताओंमेंसे किसी एक देवताको चुनकर उसे ही सर्वशक्ति सत्ता देने वाला धर्म ऋक्दमें प्रगल्भ दशाको पहुंचा हुश्रा दिवाई देता है। हिन्दू-धर्ममें अनेक देवताकी जपासना का हालेर दाय प्रगल्भ दशाको पहुंचे। साथ ही माथ विधि-निषेध गंध. मला. वेश. श्रादि विशिष्ट प्रकारके सम्प्रदाय चिन्ह और भिन्न भिन्न सम्प्रदायके परस्पर व्यवहारक नियम भी अस्तित्वमें आये । उनकी पवित्रता अपवित्रता की मर्यादा ठहराई गई। हिन्दू धर्म संस्थाका सबसे वरिष्ठ और श्रेष्ठ एक और स्तर है। इसमें ब्रह्माकार. के धरवाद और तत्ववाद: यह तीन भंद हैं। - सब देवता एक ही सर्व व्यापी तत्व में समाये हुये हैं । मब देवता उसी एक तत्वके भाग हैं। पिण्ड और ब्रह्माण्ड एक ही सत्त्व तत्वसे उद्भूत होते हैं, वहीं स्थिर होते हैं और वहीं लीन होजाते हैं। ये तत्व-विश्व-स्प हैं । इस विचारका ब्रह्मयाद या मद्वाद कहते हैं। ऋग्वेदके अन्तमें दश मण्टलमें यह उदित हुआ और उपनिषद् (छान्दोग्योपनिषद् में परिणतको पहुंचा माननीय अत्मा जैसा हो परन्तु उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ, सर्व-शक्ति सम्पन्न सर्वगुण-सम्पन्न, परमात्म व्यक्तिको अपेक्षा ब्रह्म अधिक सूक्ष्म है, । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (208) [] यक्ति ( magic ) नहीं तत्व है । उसका ज्ञान हुआ किं मनुष्यका जीवन कृतार्थ हो गया। उसके ज्ञानके लिये धार्मिककर्म-कारकी अपेक्षा संयम, शान्ति, उदारता आदि गुणोंकी ही अधिक आवश्यकता है, स्वर्ग, मोक्ष, सुगति, दुर्गति आदिके कर्ता कृपालु, दयाघन परमेश्वरकी अपेक्षा ब्रह्म अव्यक्त है । क्योंकि वहाँ अहंभाव या व्यक्तित्व नहीं हैं । हिन्दू धर्म में उतम लक्षण एकेवरवाद है. सर्व जगतका - शास्ता और सर्व- शक्तिमान अन्तरात्मा ही एक परमेश्वर है. बाकी सब उसके आधीन है। इस सिद्धान्तको एकेश्वरवाद कहते हैं। शेर और वैष्णव सम्प्रदायोंका यही सिद्धन्त है। परमेश्वरकी भक्ति अनायसे करना शरण जाना ही मनुष्य द्वारका एक मात्र मार्ग हैं। सत्य. अहिंसा क्या परोपकार, इन्द्रिय-दमनके योग से परमेश्वरकी सभी भक्ति सघती है। इसलिये ये नीति-तत्व-धर्म गर्भमें हैं । परमेश्वरकी कृपा से ही सुख और श्रेयस और अकृपासे दुःख और अधोगति प्राप्ति होती है! यह भावना उपनिषदों (छन्दोग्योपनिषद् और श्वेताश्रतनिषद्) के कुछ स्थानों में दिखाती है। एकेश्वरवादी सम्प्रदाय मूलमें are है। -कर्म-काण्डसे और औपनिषद् ज्ञान-मागंसे असम्बद्ध कई अवैदिक सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे । उनमें से ही वैष्णव, शैव, शाक्त आदि एकेश्वरवादी सम्प्रदाय उत्पन्न हुये हैं । भगवद्गीता वासुदेव ( भागवत ) सम्प्रदायका वैदिक मार्ग से समन्वय होने पर तैयार हुई है । · हिन्दू धर्मकी तीसरी उच्चतम शाखा तत्वाद है। कपिल सांख्यका प्राचीन सम्प्रदाय इस वादका मुख्य प्रतिनिधि है 1 यह ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता है । मनुष्य आत्मा की जानकारी प्राप्त करके ही मुक्त होता है। यह उसका मुख्य सार है । तत्वोंकी जानकारी शुद्ध-चित्तसे होती है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त-शुद्धि सात्विक आचरणसे, संगमसे. और सत्य-अहिंमा अस्तेय, आदि नैतिक आचरणोंसे होती है. इस तत्ववाद सम्प्रदायमें जैन और बौद्ध तत्वोंके ज्ञामाका अन्तभाव होना है। ये सम्प्रदाय भी ईश्वर अस्तित्व को नहीं मानने । __ हिन्दू धर्मकी समीक्षा पृष्ठ १११-११३ 'यातु विद्या और धर्म' 'सुवर्ण-शाखाकी पहिली श्रावृत्तिमें फ्रजरने लिखा है कि जादू (magic) धर्मको बिल्कुल पहिली अवस्था है। बहुत-सी जंगली जातियोंकी यातु-विधिमें मूर्त-जीव-वादकी कल्पना नहीं रहती। उनमें इस कल्पनाका देरसे प्रवेश हुश्या है । इसीलिए. जादुको धर्मकी पहिली ही अवस्था बनलाया गया है, उक्त ग्रन्थके दुसरे संस्करणमें फ्रजरने यातु-विद्याको विज्ञानकी पूर्वावस्था कहा है। मृष्टिकी शक्तियों पर अधिकार करके उनको अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए विनियोग करना विज्ञानका उपयोग है. जादूका उद्देश्य ही ऐसे कार्य करना है। विज्ञान निसर्गके नियमों पर निर्भर करता है । विज्ञानको भरोसा रहता है, कि निसर्गके नियमोंको योग्यरीतिसे काममें लाया जाये तो वह निश्चय ही फलदायी होगा। जादूगर भी अपने मंत्र, तंत्र, यंत्रों पर और उस क्रियासे संबद्ध प्रकृतिकी वस्तुओंके स्वभाव पर ऐसा ही निर्भर रहता है। जब जादूकी व्यर्थता की खातिरी हाने लगी, या जानकारी होने लगी तब धर्म उत्पन्न हुआ। प्रकृतिकी अलौकिक शक्ति लहरी स्वभात्र की है, उसका कुछ ठिकाना नहीं। उसकी शरण में जाना चाहिये, यही भावना धर्मको जन्म देती है । प्रोजरने धर्म और जादुकी विषमता पर और जादूकी समानता पर जोर देकर धर्म, जादू और विज्ञानको मनोविज्ञान बतलाया है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जादू . धर्म और विज्ञानके पौर्वापर्य श्रधत्रा साम्य वैषम्यक विषयमें पंडितोका मतभेद है। तो भी यह निश्चित है. कि इनके बीज एकत्र मिलते हैं। बेबमोनिया और भारतवर्ष में वैवक, कानून जादू और धर्म एक ही धन्धेसे निर्माण हुए । इतिहास बतलाता है कि वैविलोनियामें पहले बक्षक जादू-टोनेके रूपमें था, भारतवर्षके अथर्ववेदमें बतलाये हुए, अथर्व' वैद्यक, जादु और पुरोहिताई ये तीनों काम करते थे । जादू , बैगक, (चिकित्सित) धार्मिक संस्कार और यक्ष याम ये क्रिया एकत्रित मिली हुई स्थिति अथर्ववेद और कौशिक ग्रा-सूत्रम दिखलाई देली हैं । भारतवर्पमें तो. हजारों वर्षोंसे कानून भी धर्मका भाग रहा है । उसका देवी क्रियाओंसे और पारलौकिक गतिसे संबंध जुड़ा हुआ था। न्याय-निर्णयका दिव्य या सौगन्ध एक प्रमाण था न्याय-निर्णयका मुख्य अधिकार ब्राह्मणों के हाथमें था। हिन्दु धर्म समीक्षा प्रमः ३६. ४.. 'हिन्दू धर्मके विविध स्तर' संसारके प्रायः सार जंगली अथवा पिछड़े हुये मानवसमूहमें आद् (magic) प्राथमिक धर्मके रूपमें पाया जाता है। इस समयके सुधर हुए पाश्चात्य और पूर्वीय राष्ट्रोंमें भी समाजके पिछड़े हुये स्तरोमें थोड़ा बहुत जादू-टोना दिखलाई देता है। मनुष्यकी अत्यन्त अनाड़ी स्थिति में इस जादू-टोने का अवतार होता है। मृतिक वातविक कार्य-कारण-भावका गूढ़ अज्ञान इसका श्रादि कारण हैं. जादू दो तरहका होता है. एक देवनावादके पूर्वका और दूसरा उसके बादका । हिन्दू धर्म में दोनों तरह का यातु-धर्म है । अथव-वेद और गृह सूत्रोंक धममें यातु या जादूकी क्रियाका स्थान है। इतर तीन वेदमें भी जादु अथवा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्सदश क्रियाए कही गई हैं। कुछ यज्ञ जाद सरीखे ही हैं । कम मे कम उममें जार के अवशोष तो हैं ही। वर्षा, शत्रुनाश-समृद्धि, रोग-निवारण, गर्भधारण, सन्तान, पशु लाभ आदि फलोंकी प्राप्तिक लिथे यज्ञ और होम बतलाये गये हैं। अभिचार नामक यज्ञ, अथवा कम सब वेदों में कहे गये हैं । गर्भाधान, पुन्सवन आदि संस्कारोंके मूल स्वरूप एक प्रकारके जादृ ही हैं जादू यानी साधना । इष्ट सिद्धिके लिये अथवा अनिष्ट-निवारण के लिये विशिष्ट वस्तु विशिष्ट क्रिया अथवा विशिष्ट मंत्रों का उनमें अद्भुत शन्ति. है. इस कल्पनासे विशिष्ट परिस्थितिम उपयोग करना साधना है। पहिले एक ऐसा समय था, जब कि लोग वनस्पति. धातु या क्षार आदि भौनिक द्रव्योंके रोग-निवारण गुणांको नहीं जानत थे । कार्य-कारण-भावसे अजान थे, तब वद्यकीय-क्रियाएँ तक जा श्रीं । अथर्ववेद और गृह्य-सूत्रों के कई रोग-निवारक कम इसीतर छ. के हैं । जादकी वनस्पतियाँ और मंत्र उनमें बतलाय है। निसर्ग-बस्तु-गजा हिन्दू धर्म की दूसरी प्राथमिक रिश्रति का अवशेष है. पापागा, पर्वत. नदी. इन. पशु पक्षी, नार आदि निसर्ग की वस्तुओं में कुछ चमत्कारिणी शक्ति है. इस विश्वास से यह पूजा प्रारम्भ होती है । गंडकी नदी के काल. शक्ति ग्राम नर्मदाके ताम्र बटोगटे अनेको छिद्र वाली लम्ब गोल-कोमल गांगाटी, पहाड़. गंगा. यमुना कृष्णपा और सिन्धु श्रादि नदियाँ ऊमर, पीपल. बड़. चेल. तुलसी. आँवला श्रादि वनस्पतियों; वल गाय. अन्दर, महिष. मछली. कछुआ. बराह. सिंह बाघ बाड़ा, हाथी. नाग. गरुड़, हंस. मगर आदि पशु-पक्षी; सूर्य. चंद्र मंगल आदि आकाशस्थ गोल. अग्र-वायु वर्मा आदि निसर्ग घटनाएं; इन सबकी पूंजा करनेकी पद्धती हिन्न-धर्म में है। शालिग्राम नर्मदाके गोटे अथवा लम्ब-गोल-गांगोटीकी पूजा, विष्णु, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 95 ) · गणपति अथवा शिव के नाते अब भी चालू हैं। अर्थात एकेश्वरी- भक्ति सम्प्रदाय में उनका प्रतीक के रूप में उपयोग होता है । परन्तु उक्त वस्तुएं असल में गणपति अथवा शिवस्त्ररूप से पुज्य नहीं थीं उनको स्वतन्त्र ही पूज्यत्व प्राप्त था. पीपल, वड़, आँवला आदि वृक्षोंकी पूजा तंत्र भी मूल कल्पनासे ही की जाती है। यद्यपि पुराणोंने उन वस्तुओं का स्तोत्रम विकसित के देषो विष्णु शिव आदि सम्बन्ध जड़ दिया है, परन्तु उनका अभी टिक रहा है। नाग और गाय अब भी बिलकुल स्वतन्त्र देव बने हुये हैं। मत्स्य कच्छप सिंह बाघ गरुड़, हंस. मयूर आदिकी पूजा यद्यपि नहीं की जाती, तो भी उनकी प्रतिकृतियोंकी पूजा रूढ है। सूर्य चंद्र मंगल आदि नव ग्रह की आराधना और साधना तो विश्वमान हिन्दूधर्मकी महत्वपूर्ण वस्तु है। पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे हिन्दु नेता गाय और तुलसी की पूजाको हिन्दुधर्मका उदात्त लक्ष्य प्रतिपादन करते हैं। इस निसर्ग-वस्तु पूजाका आरम्भ प्राथमिक जंगली अवस्था में कुल लक्षण-पूजा ( Tobemism ) अथवा देवक-पूज. से होता है। ब्राह्मणो घर विवाह और उपनयनसंस्कारमै पहिले देवक-स्थापना की जाती है। यह देवक (अविनकलश) की मिट्टीका ( घड़ा ) होता है। जो ब्रह्मणोंकी जंगली अवस्थाका अवशेष है। इस कुल-लक्षण - पूजाबादका स्वरूप पहले व्याख्यानमं विवृत किया गया है। विशिष्ट जड़-वस्तु-विशिष्ट पशु. विशिष्ट पक्षी, आदि कुछ न कुछ शुभाशुभकारक सामध्य हाता है. इस दृष्टि से यह पूजा उत्पन्न होती है। कुछ वस्तुएँ शुभ-सूचक और कुछ वस्तुएँ अशुभ सूचक हैं। यह कल्पना अज्ञानता में ही उत्पन्न होती है. ऋग्वेद और अथर्ववेद कल्पना है कि कोमा और कपोतका दर्शन मृत्य-सूचक है। विशिष्ट पदार्थों या जातियों के दर्शन या स्पर्शन से पवित्रता होती है. स्मृतियोंमें इस कल्पनाकी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) मुख्यता दिखलाई देती है। जंगली लोगों में मांना (mana) और (tabco)की जो कम्पन मिलता है, वहीं हिन्दू-धर्म में शेष बच रही हैं। गाय, गोमूत्र, गोवर ब्राह्मण गंगोदक, सुवर्ण च्यादि धातु, पीपल, तुलसी आदिके स्पशंसे पवित्रता प्राप्त होती है. और शूद्र अन्त्यज्ञ, रजश्वला गरंभ, काक, प्याज लसुन, गाजर, बैंगन आदि के स्पर्श से अपवित्रता आती है। स्मृतियों की यह कल्पना जंगली अवस्था में टाचू और माना की कल्पनाओं का विस्तृत रूप हैं । स्मृतियों के भज्ञान और हास्य विवेक को बहुत कुछ इस मूर्खतापूर्ण विश्वास में ही गिनना चाहिये । भेट feng कुछ निसर्ग-वस्तुएँ अथवा उनकी प्रतिकृतियाँ पहिले से ही पूजनीय हैं, और कुछ उत्तर कालीन उदात्त-धर्मके संस्कारसे कुछ परिवर्तन होकर पूज्य हो गई हैं। जैसे- गरुड़, बैल और बन्दर | गरुडको विष्णुका और वैलको शिवका बाहुन मानकर और बन्दरको रामका दूत समझ कर लोग पूजते हैं । वस्तुतः मूल में ये स्वतन्त्र रूपसे पूज्य थे। नन्दोकी पूजा तो हिन्दू स्वतन्त्र रूप से भी करते हैं। बहुत से हिन्दू मारुतकी पूजा भी स्वतन्त्र रूपसे करते हैं। वृक्ष सूर्य पर्वत पृथ्वी, नदी और ग्रहों की पूजा अत्यन्त प्राचीन कालसे अब तक बिना किसी अन्तर चालू है। पशु-पक्षियोंकी पूजा की जड़ प्राथमिक अवस्था में मिलती है जिस समय मनुष्य को अपने आस-पास के पशु-पक्षी अपनी अपेक्षा समर्थ और श्रेष्ठ जान पड़ते हैं। उस समय यह पूंजा शुरू होती हैं। जब यह मनुष्यको ज्ञान हो जाता है कि उसका स्थान प्रकृतिके इतर प्राणियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है. तभी उसमें भवितव्य पर सत्ता चलाने वाली और अपनी कक्षा से बाहर की शक्तियों में अर्थात् देवताओं में पशु पक्षियोंके गुणांका आरोप करनेकी प्रवृत्ति कम होने लगती है। मनुष्यनं बंदर सिंह हाथी, गरुड़, : Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाग, बैल, वराह, श्रादिक कप अथवा अवयव धारण करने वाले देवताओंको मनुध्यकी महान सामर्थ्यको अच्छी तरह समझनेसे पहिले उत्पन्न किया था। जब मानव-संघ स्थिर राष्ट्र और स्थिर समाजके रूप में बढ़मूल होगया. तब उसने मनुष्य देहधारी और मानल-गुण-युक्त देव मानव-बुद्धिमे अवतरित किये। विद्या और कलाके योगस जिसने अपने आस-पासकी सृष्टि पर आधिपत्य जमा लिया और अपने गुरमीक मांगल्तको जिम प्रतीत हागाई, ऐसे मनुष्यने मनुष्य सदृष्ट्य देवता बनाए। पशु. पक्षी, नदी, पर्वत, अग्नि, सूर्य, आदि देवताश्रीका घाा स्वरूप ज्योंका त्यों रखकर भी उनका अन्तरंग मानवी-विकारी-विचारोंसे भरा हुआ है। गली कल्पना वह करने लगा। मानवाका मानवी पराक्रम ही अतिशयोकिके साथ देवताओम दीखने लगे। इस स्थिति तक श्राने के लिये मनुष्य-जातिको युगके युग बिताने पड़े। पशु-पक्षी मरीमृप पाषाणा आदि वस्तुओं के समान ही अग्नि सूर्य वर्षा, वायु आदि निमग देवता वास्तविक कार्य-कारण मात्र के अज्ञान से अस्तित्वमें पाए । दायानल तीन. मूर्योदय, श्राधी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, समुद्रका चार-भाटा रम्यं चंद्र का उदयास्त श्रादि की गूढता के कारण देवताओं की कल्पना निर्माण होने तक अशक्य ही थे । तब तक मनुष्य को एक या अनेक देवताओं की कल्पना पर निर्वाह करना पड़ा। पूजा करना, यन्न करना, और प्रार्थना करना ही उस परिस्थितिमें तरणोपाय था, और यही उस समयका धर्म था। भूत-पूजा या पितृ-पूजा तीसरा धर्म है संघके बड़े-बूई मनुष्यों के अधीन छोटोका जीवन निर्वाह होता है। संघके बड़े-बूढ़ ही उनके जीवनके लिये सारी तैयारी कर देते हैं। उनका अधिकार छोटोपर रहता है । संघके उक्त बड़े मुखिया जब मृत्युके मुंहमें जा पड़ते हैं Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ २५६ । न संत्रक बहुत बड़ी हानि होती है। इसे संघका प्रत्येक मनुष्य बड़ी महसूस करता है। और इसके कारण उसके हमेशा के लिये सम्पूर्ण नाशकी कल्पना असा होती है। स्त्रमें और एकान्त में उनके अस्तित्वका भास होता है. संघ पर किसी प्रकारका संकट आनेपर ऐसा मालूम होने लगता है कि उक्त मरे हुए बड़े, बूढ़ों की असन्तुष्ट वासना की बाधा है. तब उन पितरोंकी वासना तृप्त करने या पूजा करने की इच्छा पीछे रहने वाले लोगों को होती हैं । मृतके मरणोत्तर अस्तित्व की भावना की उपपत्ति पहले मूर्तिपुरुषबाद (animism ) शीर्षक के नीचे बतलाई जा चुकी है। जड़देह में देहकी अपेक्षा निराला देह सरीखा वेतन पुरुष अथवा चेतन द्रव्य हैं. और वह मृत्युके अनन्तर भी रहता है, इस कल्पनाक आधारसे भूत-पूजा अथवा पितृ पूजा अस्तित्वमें आती हैं. इस कल्पना में भूत-प्रेत, पिशान, बेताल आदिकी कल्पनाएँ अभूत हैं देवता और पुर्नजन्मकी कल्पना भी इसी मूर्त पुरुषचादसे उत्पन्न हुई हैं। पहाड़, नदी वृक्ष भूमि क्षेत्रको पेट्रोम अलौकिक प्रासारयकी पदवी पर पहुंचाया गया। समाज संस्थाका प्राण उसके नियमों रीति-रिवाजों, आचारों, कर्मकरडा और विचार - पद्धति की स्थिरता पर ही अवलम्बित था । उनकी पूर्णता और बाध्यता स्थापित करनेके लिये आर्याने उन्हें वेदमूलक ठहराया और वेदोंको अनादि-नित्यत्व और स्वतः प्रामारय अर्पण किया। 3 . जैमिनीने पूर्व-मीमांसाके प्रारम्भ में धर्म-प्रमाणका निर किया है। उन्होंने पहले कहा कि प्रत्यक्ष और अनुमानसे प्रमाण नहीं है. फिर कहा कि वेद-रूप उपदेश ही धर्मका स्वत सिद्ध इतर निरपेक्ष प्रमाण हैं, और त्रह्म सूत्रकार वादराय का भी यही मत है। स्मृतियों तक वेदानुवादक हैं. और इसलिये Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ । वे धर्म-निरय के साधन हैं। वैदिक लोगों के रीति-रिवाज तक वेदमूलक होने से प्रमाण है, ऐसा मीमांसक मानते हैं। शचर, कुमारिल और शंकरकी प्रमाशीषति शबरस्वामी व कुमारिल भट्ट ने जैमिनीय सूत्रों की विस्तार के साथ टीका की है। ऐतिहासिकोंका अनुमान है कि जैमिनीय सूत्र ई० पूर्व पहिली शताब्दी के लगभग बने होंगे। शबर स्वामी का काल चौथी और कुमारिल भट्ट का सातवीं शताब्दी माना जाता है। " इन आचार्यों के मत से मनुष्य बुद्धि द्वारा अगम्य ऐसे कार्य-कारण भाव कहने के लिए वेद प्रवृत्त हुए हैं। उन्हें डर था कि यदि हम यह मान लेंगे कि मानव-बुद्धिगम्य तत्व ही वेद कहते हैं, तो वैदिक संस्थाका उन्मूलन हो जायगा । कुमारिलभट्ट कहते हैं। (तंत्र वार्तिक, २०१३) कि मनुष्य बुद्धि को एक बार भी वेद में स्थान दिया, तो नास्तिक विचारों का प्रावल्य होकर वैदिक मार्ग नष्ट होजायेगा। ऐसा न हो इसलिए वेदों का यद्रष्ट ही मानना चाहिए. कुमारिल और शंकराचार्य के पहिले ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, श्रद्रष्ट इत्यादि धर्मकी मूलभूत कल्पनाओं को युक्ति से समर्थन करने वाले बहुत से आचार्य थे । परन्तु ये तत्व मानव-बुद्धि, गम्य नहीं है, इस बात को कुमारिल और शंकराचार्य ने ही बुद्धिवादके व्यापक और सूक्ष्म तत्वों के आधार से सिद्ध किया। उन्होंने इस मुद्दे पर बहुत अधिक वैदिक देवताका वास्तविक स्वरूप | विद्वान् वने वहां स्पष्ट सिद्ध कर दिया है कि प्रथम अवस्था में वैदिक देवता जडात्मक ही थे । श्राध्यात्मिक श्रादि रूप उनको बहुत काल के पश्चात प्राप्त हुआ | तथा उसके बाद ईश्वरकी कल्पना की गई । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) ध्यान दिया, कि ये तत्व वेद गम्य ही हैं । या तो ये तत्व मनुष्य की केवल कल्पमासोंके 'अायो । अभयारे मनुष्य बुद्धिगम्ब नहीं हैं. इनमेंसे कोई एक पक्ष स्वीकार करना पड़ेगा। अतएव परम्परागत धर्म-संस्थाकी स्थिरताके लिये और अपने मान्य अध्यात्मवादके समर्थन के लिये दृमरा पन्त ही कुमारिल और शंकराचार्य ने स्वीकार किया, और उन तत्वांका केवल वेद गम्यत्व ही अर्पण किया। यहाँ हमें वह न भूल जाना चाहिए कि वेदको मानव-कृत मान लेने पर उक्त तत्व निराधार हो रहर जाते हैं।" क्योंकि वैदिक समयमें ईश्वरकी कल्पना नहीं थी । परन्तु जब ईश्वर की कल्पना की गई. उप ममय भी देवताओंको ईश्वर नहीं मानागया। सभी वैदिक महर्षियों ने देवता और ईश्वर में स्पष्ट भद . बताया है। तथा वैदिक वांगमयमें और वैदिक दर्शनों में संस्कृत साहित्यमें देवताओंकी एक पृथक जाति मानी गई है। इसके लिये हम शतशः प्रमाण दे चुके हैं। तथा च इस विषयमें एक लेख सुप्रसिद्ध मासिकपत्र कल्याण' (वर्ष २० अंक ६ ) में प्रकाशित हुआ है उसे यहाँ उद्धृत करते हैं। . * उनके रहनेका स्थान भी इस लोकसे पृथक एक त्वर्ग लोक माना गया है, जिसका वर्णन म पृ० ३०५ पर कर चुक्र हैं । उन्म वर्णनसे यह सष्ट सिद्ध होता है कि वैदिक स्वर्ग नीर 'कुरान' की बहिश्त में बहुत कुछ साहश्व है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) देवता और ईश्वर (ले०- श्रीमान नी भारद्वाज, प्रा. ए., आचार्य, माहित्यरत्न) ( १) मनुष्य-शरीरसे देव-शगिरमें चैलक्षण्य . हिंदु-शासनके अनुसार मानव शरीर और देवशरीर दोनों __ पाश्चभौतिक होते हैं। प्री-नत्वको प्रचारनाक कारण मानव शरीर पार्थिव' कहा जाता है, किन्तु देव-शरीर तेजस्तत्वकी प्रधानताकं कारण तेजस' कहा जाता है । देव-शरीर और मानव-शरीर दोनों ही कर्मानुसार मिलते हैं, किन्तु मानव-शरीर श्रीमद्भागवतके-- कर्मणा देवनेत्रेण अन्तुहोपपत्तये । । मातुः प्रविष्ट उदरं पितू रेतःकणाश्रयः ।। "इस वचनके अनुसार रजोवीधिनिर्मित होता है, और देवशरीर महाभारत के - लैजसानि शरीराणि भवन्त्यत्रापपद्यताम् । . कर्मजान्येव मौद्गल्य न मातृपितृजान्युत ।। . इस वचनके अनुसार रजोवीर्यविनिर्मित नहीं होता। पार्थिव मानव-शरीरम खान-पानके परिणामरूप. स्वेद. मूत्र और पुरीष होते हैं. किन्तु जम देव-शरीरमें ये नहीं होते। देवनाको नजस शरीरधारी हानके कारण भूख-प्यास नहीं लगती-- Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) न क्षुत्पिपासे न ग्लानिर्न शीतोष्णभयं तथा । अमृत नामक तेजसद्रव्यके पानद्वारा उनके शरीर अपनी आयु पर्यन्त अजर और अमर बने रहते हैं। स्वर्गलोकके अन्यान्य भोज्य पदार्थ भी अमृतके समान तैजस ही है। मनुष्योंके पलक लगते हैं, देवताओंके नहीं। मनुष्य भूमिको स्पर्श करके खड़े होते है, देवता इस प्रकार खड़े नहीं हात । मनुष्य की छाया पड़ती है, देवताकी नहीं। मनुष्यके शरीर और वस्त्रोंपर धूल लग जाती है. देवताके शरीर और वस्त्र नीरज ही रहते हैं। मनुष्य के शरीरकी माला मुरझाती रहती है, देवताके शरीरसे सम्पृक्त माला खिली रहती है। महाभारतमें लिखा है, कि दमयन्ती मनुष्य और देवताओंके लक्षण्यसे परिचित थी। जब उसने नल और इन्द्रादिम वधम्य देखा तो उसने नलके स्वरूपका . निश्चय हो जाने पर उसीके गले में जयमाला डाल दी .. : "TT सापश्यद् वियुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलौचनान् । हृषितम्रग्रजोहीनान् वितानस्पृशतः क्षितिम् ।। छायाद्वितीयो जाननग्रजःस्वेदसमन्धितः । भूमिष्ठो नेपयश्चैव निमेषेण च सूचितः ॥ (महाभारत) इसी प्रकार ब्रोहिद्रौणिकपर्वमें देव-शरीर-विषयक उल्लेख है कि न च स्वेदो न दोर्गन्ध्यं पुरीष मूत्रमेव च । तेषां न च रजो वस्त्र बाधते तर चे सुने ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २२५ ) मनुष्य योग-सिद्धि, धान करके अनेक शरीर धारण कर सकता है, जैसा कि वचन है आत्मनो वै शरीराणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्मही चरेत् ॥ प्राप्नुयाविषयान् कश्चित् कश्चिदुग्र तपश्चरत् । मंक्षिपेच पुनस्तानि सूर्यो रश्मिगणानिय ।। किन्तु देवतामें अनेक शरीर धारण करनेकी योग्यता स्वर्यमेव होती है। अाचार्य शङ्करने वेदान्तक• विरोधः कर्मणीति चेम्नानेकप्रतिपनेर्देशनात् । इस सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है-- देय स्मृतिरपि प्राप्ताणिमाद्यैश्वर्याणां योगिनामपि युगपकनेक शरीरयोगं दर्शयति किम वक्तव्यमाजानसिद्धानां देवानाम् । ___मनुष्यों में पितासे पुत्र उत्पन्न होता है, पुत्रसे पिताकी उत्पत्ति नहीं हुश्रा करनी; किन्तु देवता एक दृमरेसे उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये याकने तिरुक्तमें देवनाओंके विषयमें कहा हूँ--- 'इतरेतरजन्मानो भवन्तीतरेतरप्रकृतयः। साधनसम्पन्न मनुष्य मायाका प्राश्रय लेकर अपने रुपका परिवर्तन कर सकता है । मारीचका मृगरूप धारण करना रामायणमें सुप्रसिद्ध है । इसी प्रकार देवता भी मायासे अपने रूप का परिवर्तन कर सकते हैं। दमयन्तीक स्वयम्बरमें इन्द्रादि घार दिक्पालोका नल-रूप-धारण महाभारनमें प्रसिद्ध है। देवताओंके इसी रूप-परिवर्तनको लक्ष्यमें रखकर अति कह रही है कि Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ( ५२२ ) 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते । मनुष्यमें जिस प्रकार चतन आत्माका अचेनन शरीरसे संयोग शास्त्रसम्मत है. उसी प्रकार देवता भी आत्म-शरीरसंयोग है । देवनामें भा मनुष्कं समान देह-देहि-भाव होता है। जिस प्रकार मनुष्य अपनी श्रायु के अन्त में एक शरीरका त्याग कर दूसरा बाहर का है. इसी देवता भी अपनी श्रायुके अन्त में एक शरीरका त्यागकर दूसरा शरीर ग्रहण-करता है। देव-शोरमें मनुष्य शरीरके समान हानापादान होते हैं । मीताके-- ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशाल क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति | इस वचन से मनुष्य का देव-शरीर ग्रहण और देवता का मनुष्य-शरीर-ग्रहण करना सिद्ध है। देव-शरीर का आकार देखने में मनुष्य-शरीर के सदृश्य होना है । यास्कने 'अथाकाचा देवानाम' कहकर. चार विभिन्न मनोका प्रदर्शन करते समय, देवताओं को पुरुषविधताका सर्वप्रथम उल्लेख किया है 'पुरुषविधाः स्युरित्येकम्' देव-शरीरसे ईश्वर-शरीरमें बैलक्षण्य ईश्वरका शरीर देव-शारके ममान तेजोमत्र, भौतिक और Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत नहीं होता। वह तो पाइगुण्यमग. दिव्य और अप्राकृत होता है अतस्य वह ईश्वरका स्वरूप' शुद्धतत्वमय और सच्चिदानन्दमय कहलाना है। देव-शरीरके मम न ईश्वरका शरीर जड़ नहीं होना । यह रोगनस्वयंप्रकाश और तानात्मक होना है। देवताओंको जिस प्रकार स्पादि साात्कार के लिय चक्षुरादि इन्द्रियों के साहाय्यकी अपेक्षा है. उस प्रकार ईश्वरको नहीं होती। उसका रूपादि-माशात्कार स्वयमेव होता है। . देवताम जिस प्रकार देह और दहीका भेद होता है, उस प्रकार ईश्वरमें नहीं होता। ईश्वरमें जो देह है, वही देही है, और जो देही है वही देह है ।। . .. 'देवदेहिभिदा चात्र नेश्वरे विद्यने वरिन् ।' षय देव-शरीरका जिस प्रकार हानांपादान होता है. उम प्रकार ईश्वर-शरीरका नहीं। यह नित्य और हानापादानहीन है - सर्वे नित्याः शाश्वताश्च देहास्तस्य परात्मनः । हानोपादानरहिता नैव प्रकृतिजाः कचित् ॥ ईश्वर के लिये शरीर-शब्दका प्रयोग औपचारिक है। शरीरका अर्थ है शीण होने वाला। ईश्वर कभी शार्ण नहीं होता, इसलिये ईश्वरका शरीर न कह कर विद्वान लोग ईश्वरको व्यक्ति अथवा विग्रह श्रादि कहा करते हैं। व्यक्ति शब्दका प्रयोग प्राचीन है। महाभारतका वचन है-- एषोऽहं व्यक्तिमास्थाय तिष्ठामि दिवि शाश्वतः। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ] भक्तों की- किमात्मिका भगवतो व्यक्तिः १ यदात्मको भगवान् । किमात्मको भगवान ? ज्ञानात्मकः शक्त्यात्मकः । इस रहस्यानाय सूक्तिमें भी व्यक्ति-पदका प्रयोग प्राचीन ही है। तत्र जितं ते पुण्डरीकाच पूर्णषाड्गुण्यविग्रह | आदि वाक्योंमें विम-शब्दका प्रयोग सुप्रसिद्ध है। देव-शरीर के समान भगवद् व्यक्ति कर्मज नहीं होती जगतापकाराप न सा कर्मनिमित्तजा । ( विष्णुपुराण ) प्रत्युत स्वेच्छामग्री होती है। श्रुति ने भगवद्विग्रहको --- 'मनामयः' ( छान्दोग्योपनिषद्) कहा है अर्थात वह विग्रह भगवानकी अपनी भावना के छानुसार ही है। श्रीमद्भागवतमें ब्रह्माजीका वचन है अस्यापि देव पुपो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि । Į इसका भी यही अभिप्राय है कि श्रीभगवद्वपु पाञ्चभौतिक नहीं हैं. प्रत्युत स्वेच्छामय हैं। श्रुतिले ईश्वरको -- 'कायपणमस्नाविरम् ।' कहकर उसकी प्राकृत देहहीनता बतायी हूँ और Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २२५ ) 'यत्ते रूपं कल्याणसमं सत्त पश्यामि। कह कर उसके दिव्यरूपका प्रतिपादन किया है। अतिने जहाँ ईश्वर के लिये शरीर शब्दका प्रयोग किया है, वहाँ साथमें प्राण शब्द जोड़ दिया है । इस प्रकार ईश्वरको 'प्राणशरीर (छान्दोग्योपनिषद् ) कहा गया है । जिसका आशय है. कि ईश्वर-विग्रह उपचारसे ही शरीर कहा जामकता है, साक्षात् नहीं, क्योंकि वह तो स्वयं प्राण-जीवन-चैतन्यमय है । ईश्वरविग्रहकी सत्ता के लिये बाखवायु की अपेक्षा नहीं है। वह स्वयं प्राणरूप है। भौतिक शरीरके समान ईश्वर-विग्रहमें न बृद्धि है और न हास | उसका संवर्धन-संरक्षण उन रसादि शुक्रान्त धातुओं पर निर्भर नहीं है, जो यकृत-सीहादि यन्त्रोंमें चना करते हैं। . भक्तोंकी भावनासे परिमादित पत्र-पुष्प-फल-जलको श्रीभगमान् अङ्गीकार करते हैं अवश्य, किन्तु वह नैवैद्य, भौतिक शरीरान्तर्गत द्रव्यके समान रुधिरादि धातुओंमें परिणत न होकर, मूमरूपसे उनके श्रीविग्रहमें ही क्लिीन रहता है। इसमें आश्चर्य क्यों होयुगान्तकालप्रतिसंहतात्मनो __जगन्ति यस्यां सविकाशमासत । और उनके उदरेन्दीवरदलसम्पृक्त श्रीनाभिसे जगदुदयवेलामें वित्र्य सुगन्धमय पायकमलके रूपमें विकसित हो जाता है। ईश्वरका आकार भी पुरुपविध ही है Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. . ... 'आत्मैवेदमन आसीत्पुरुषविधः' (वृहदारण्यक ४।११ किन्तु यह आकार घनीभूत प्रश्न ही हैं, अतएव उसकी रचना साशमें मानवदेहके संघटनके समान ही मानना नितान्त अनुपयुक्त है । वह पार्थिव-शरीरोंसे ही क्या, प्राकृतिक तेजस-शरीरोंसे भी अत्यन्त विलक्षण है । वह सत्य, शिव और मुन्दर है। वह निरनिशय सौन्दर्यका आकार है, दिव्य माधुर्यका आधार है, परम लावण्यका आगार है, और अनवधिक वात्सल्यका पारावार है। श्री भगवान सर्वशक्तिमान हैं। वे सब कुछ कर सकत है। वे प्राकृत शरीर धारण कर सकते है, किन्तु किया नहीं करते। जिस प्रकार गंगा-जन में स्नान करके पूजाके आसन पर सन्ध्योपासन के लिये विराजमान काई ब्रह्मर्षि काक-विष्ठा से ऊर्ध्वपुण्ड लगा सकनेकी शक्ति और योग्यता होनेपर भी बैंसा न करके गोपी-चंदनसे ही ऊर्ध्वपुण्ड लगाया करता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् प्रकृतिके विकृतिरूप पंचभौतिक शरीर धारण नहीं किया करते हैं प्रकृतेर्विकते रूपं भूतसंघातनामकम् । शरीरं सत्यसंकल्पपुरुषस्येच्छयापि न ॥ .. सम्बन्धोऽपुरुषार्थत्वाज्जीवानां तु म्वकर्मणा । सुखदुःखादिभोगार्थ बलाद् देहोऽपि युज्यते ॥ छेहः स तु स्वाभिमतः स्वानुरूपः सदोज्ज्वलः । अप्राकतो हरेस्तेन न दोषो कोऽपि युज्यते । (श्रीभाष्यवार्तिकम) Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ईश्वर का अवतार-विग्रह भी दिव्य और प्राकृत ही होता है, किन्तु दर्शकोंको उसको मानवता [भौतिकता ही प्रतीत होती है। श्रीभगवानकी अघटनघटनापटायमो योगमायाके वैभव और चमत्कार कौन जान त ? साई लोकपिटमार अह्मवेषको श्रीकृष्णभगवानकी बाल-लीला देखकर उनकी ईश्वरतामें सन्देह हो गया था। श्रीभगवान ने अपने श्रीमुखसे यही कहा है . नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायाजमावृतः। . ...श्रीमान...अपने श्रीविग्रहमें हमारा अनुराग नित्य-नुतन चनाये रकर।" ___इस लेम्समें विद्वान लेखकने ईश्वर और देवताओंका स्पष्टरूप से भेद बता दिया है। तथा वेदने भी यह घोषित किया है, कि अग्नि देवता है न कि ईश्वरः या ईश्वरकी शक्तियाँ। और न साधक भेद से ही देवताओंका भेद कहा गया है. ये सब निराधार कल्पनायें हैं । वैदिक साहित्यके मननसे यह सिद्ध होजाता है, कि इस देवतयादकी नीन अवस्थायें हैं। . (१) सबसे प्रथम ये साधारण जड़ पदार्थ ही हैं। (२) उसके पश्चात इन जड़ पदार्थों में ही विशेष शक्तियोंकी अथवा अलौकिक शक्तियोंकी कल्पना की जाने लगा। (३) इन्हीं जड़ पदार्थाका पृथक पृथक अभिमानी चनन देवता माना जाने लगा। तथा प्रत्येक बैदिक कवि अपने अपने देवताको सर्वश्रेष्ठ व मधकती. व सब देवांका अधिनि. सिद्ध करने के लिये सूनोंकी रचना करने लगा। इसी को मीमांसाको परिभाषा अर्थवाद कहते है। .. : माज भी भक्तजन अपने अपने उपास्यकी स्तुमि करते समय Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) अपने उपास्यमें उन सर्व गुणों का आरोप करते हैं, जिनको कि अन्य उपास्य में माने जाते हैं। दृष्टान्त के लिये हम विष्णु संयम और जैनों के प्रथम तीर्थ कर आदिनाथ जी के १००८ नामों को ले सकते हैं । उपरोक्त सभी उपायों के नाम व काम आदि एक से ही कहे गये हैं, परन्तु इतने मात्र से वे सब एक नहीं हो जाते। इसी प्रकार प्रत्येक उपासक, सभी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को भी अपने उपायके साथ नत्थी कर देता है | जैसे कि भगवान महावीर के साथ सीता की अनि परीक्षा और द्रोपदी के वीर बढ़ने की घटना को नत्थी कर दिया जाता है। एक भक्त भगवान महावीर की स्तुति करते हुये आनन्द में मन होकर "सीता प्रति कमल रचाया. द्रोपदी का चीर बढ़ाया " आदि पद गाता है, यद्यपि उपरोक्त घटनायें महावीर भगवान के हजारों व लाखों वर्ष पूर्व की हैं। इसी प्रकार वैदिक समय में भी सम्पूर्ण महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को भक्तजन अपने अपने उपास्य देवता के साथ नत्थी करते रहते थे। जिस प्रकार उन नामों के एक होने से तथा चीर आदि बढ़ाने की घटनामों के नत्थी करने से सब महा पुरुष एक नहीं हो सकते उसी प्रकार एक प्रकारका वर्णन होनेसे वैदिक देवता भी एक नहीं हो सकते । तथा न वे एक द्रव्य की शक्तियां ही हो सकती हैं। देवोंकी मूर्तियां वैदिक समय में 'इन्द्र' आदि देवों की मूर्तियां भी बनती थी तथा उनकी पूजा होती थी। तथाच उन मूर्तियों को रथ पर बिठाकर उनके जलूस निकाले जाते थे । संहिताओं के हजारों मन्त्रों में जो इन्द्र का रथ में बैठाना व उसका वस्त्र तथा आभूपण आदि पहनने का जो उल्लेख हैं. वह उत्सवोंमें मूर्तियों के Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजाने का ही वर्णन है । इसी प्रकार "अग्नि के रथ पर बैठकर देवगण श्राते हैं" इत्यादि कथन भी उन जलूसों का वर्णन है, जो जस समय मूर्तियों के निकाले जाने थे। उपरोक्त कथन की पुष्टि निम्न मन्त्र से होती है । महेवन स्वामद्रिवः पराशुभकाय देयाम् । न सहस्राय नायुताय वनियो न शवाय शतामघ॥ . ऋग्वेद मं० ८।१ । ५ ।। . अर्थात् 'हे इन्द्र ! तुझे मैं बड़े मूल्य पर भी नहीं बचगा। सौ, सहन्न और दस हजार मिलने पर भा में तुझ नहीं बेचूंगा। इस मन्त्र का भाष्य करते हुये श्री सायनाचार्यजी ने लिखा है कि... 'महे महते शुल्काय मूल्याय न परा देयाम् न विक्रीणामि ।' यहाँ 'परा दा' धातु का अर्थ बेचना है। ऋ० ४ । २४ । १० । में लिस्बा है, कि दस गाये देकर मेरा यह इन्द्र कौन खरीदेगा ! तथा वृत्रकी सेना को मारने के पश्चान मेरे इन्द्र को लोटा दे। (क मं दशभिर्ममेह क्रीणाति धेनुभिः । यदा त्राणि जंघनदथैन भेषनर्ददत् ) - इस प्रमाणसे सिद्ध है कि, यदि समयमें रामलीला की तरह इन्द्रलीला भी होती थी, और उसमें वृत्र सुधा उसकी सेना को मारा जाता था। उस लीला के लिए इन्द्र आदि की प्रतिमाये किराये पर लाई जाती थीं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अतः स्पष्ट हो गया कि उस समय इन्द्र आदि देवताओं को बेचा जाता था। यह प्रथा आज भी भारत में प्रचलित है। जयपुर आदि में आज भी मेवताओं की प्रतिमायें बना बना कर येची जाती हैं तथा उनके जलस आदि निकाले जाते हैं। शायद उस समय राजा लोग मंग्राम में जाते समय अपने अपने देवताओं की प्रतिमाओं को भी रथों में बिठा कर साथ ले जाते थे, और अपनी विजय को अपने देवताओं की विजय कहत थे । यही देवों का विजय !! आज भी अनल उस पर साला अपने अपने उपास्य देवता की कृपा का फल मानते हैं। और यदि पराजय अथवा असफलता प्राप्त होता है, तो अपने भाग्य का दोष बताते हैं । उसी प्रकार उस समय भी इन्द्र आदिक भक्तजन अपनी विजयों का नथा अपनी सफलताओं को अपने अपने कुल देवता की विजय और सफलता मानते थे। अन्नादि देवता वेदों में, अमि. इन्द्र. वरुण, आदि देवताओं की तरह ही अन्न, अखल. मूमल. आदि पदार्थों को भी देवता माना गया है. नथा उनका यर्शन भी अग्नि देवताओं की तरह ही किया गया है । यथा ऋग्वेद मं० १ का २८ वा सूक्त ऊखल और मूसल की स्तुति में ही लिखा गया है। इसके मन्त्र सात में ऊखल और मूसल को अन्न दाता आदि कहकर इनकी स्तुति की गई है। इसी प्रकार अन्न की स्तुति करते हुये वैदिक ऋषियों ने अन्नको ही सर्व देव मय माना है । ऋग्वेद मं सूक्त. १८७ अन्न की ही स्तुति में लिखा गया है । उसके प्रथम मन्त्रों में ही लिखा है कि यस्य त्रितो योजमा यत्रं विश्वमदयत् ।। १।१८७१॥ अर्थात्-सर्वाधार बलात्मक अन्नदेव की शक्ति से ही त्रित Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २३१ । देव या इन्द्र ने वृत्र की सन्धियों काट कर मका वध किया था। इस प्रकार से यहां इन्द्र आदि देवा को अश्न के आधीन बताया गया है । इससे यह भी सिद्ध होता है, कि इन्द्र आदि देवता मनुष्य ही थे तथा अन्न से ही उनमें शक्ति का संचार. होता था। यही नहीं अपितु अन्न को साक्षात प्रल भी कहा गया है--- अन्न बाति व्प जानात् अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम् ॥ अन्नं न निन्यात् ।। ये तैतिरीयोपनिषद की श्रतियां हैं। इनमें स्पष्टरूप ने अन्नका ब्रह्म व सबका उत्पादक बनाया गया है । तथाच ब्राह्मण ग्रन्थों में अन्न के विषय में लिया है कि-- अन्न प्रजापतिः । श. ५। १ । ३ । ७ यत्तदन्नमेष स विष्णुदेवता । श० ७ । ५। १ । २१ अन्न व पूषा । कौ० १२ । ८ अन्न व कम् । ऐ० ६ । २१ ! . तदन्न बैं विश्वं प्राणोमित्रम् । जै० ३०१६ । ३ । अन्न व श्रीविंसद् । गो० पू० ५।४ अर्थात् अन्न ही प्रजापति है। अन्न ही विना देवता है। अन्न ही पूषा देवता है। अन्न ही मुख है । और अन्नही विश्व प्राणारूप मित्र है । तथा अम्न ही श्री है और अन्न ही विराट पुरुष है । गीता में लिखा है कि यज्ञाद् भवति पर्जन्यः पर्जन्यादन्न संभवः । अम्बाई भवन्ति भूतानि गीता, ३ । ४ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - । २३२ ) तथा मनुस्मृति में भी लिग्या है कि आदित्याजायते वृधिवृष्टरन्न ततः प्रजाः ॥ अर्थन-- यज्ञ से वर्षा हाती है और वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है। सूर्य से वर्षा होती है, वर्षा में अन्न उत्पन्न होना है, और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है। इस प्रकार से अन्न का प्रजापतित्व बताया गया है। यहां यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जो नित्य प्रति खाया जाता है, अर्थान गेहूं. चावल आदि अन्न को ही प्रजापति व ब्रह्म आदि कहा गया है । यदि इस पर भी किसी को संशय रह जाये सो उसका कर्तव्य है कि वह लेतरीयोपनिषद् के जार का का अध्ययन करें। तथा च प्रश्नोपनिषद में स्पष्ट लिखा है कि अन्न प्रजापति स्ततो ह वै ततस्तस्मादिमाः प्रजाः प्रजायन्त इति ।।१।१४ ॥ अर्थात-अन्न ही प्रजापति है, उसी से यह वीर्य होता है । उस वीयं से हो यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है। इससे यह सिद्ध हा गया कि इसी जो, चावल आदि अन्न कोही प्रजापति कहते हैं। अभिप्राय यह है कि-वैदिक साहित्य में इसी प्रकार गाय. बैल, घोड़ा, ऊखल, मूसल, अग्नि, जल, रथ; आदि सम्पूर्ण पदार्थों की स्तुति की गई है। उस समय इन सबको ईश्वर नहीं माना जाता था. और न ईश्वर की शक्तियां ही। याज्ञिक आदि मत अभिप्राय यह है, कि वैदिक समय में देवता विषयक चार मत मुख्य थे। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) (१) याज्ञिक. – ये लोग मन्त्रों का कोई अर्थ नहीं मानते थे । अपितु जादू टोने की तरह मन्त्रों का व्यवहार करते थे। तथा ये लोग मानते थे कि इन मन्त्रोंके बल से स्वर्गके देवगण यक्षों में आते हैं, और यजमान आदि को फल प्रदान करते हैं। 1 (२) भौतिक- ये लोग देवों को भौतिक अग्नि आदि हो थे तथा इनका पितादि का एक एक अभिमानी चेतन देवता मानता था । जैसा कि वेदान्त दर्शन में लाया है। (३) ऐतिहासिक – ये लोग अग्नि, इन्द्र, वरुण आदि वैदिक देवताओं को ऐतिहासिक महापुरुष मानते थे । (४) आध्यात्मिक, ये इन्द्र आदिका वर्णन आलंकारिक रूप सेयात्म शक्तियों का वर्णन मानते हैं । निरुक्तकार यास्क के समय तक इस मत का अधिक प्रचार नहीं हुआ था । उस समय के सभी वैदिक ऋषियों के मत से वेदों में माध्यात्मिक मन्त्र अत्यन्त अल्पतम थे । निरुफकार के समय के पश्चात् तथा उपनिषदों के समयमें इस मत का अधिक प्रचार हुआ । वैदिक नवीन मत उसके पश्चात् शनै-शनै नवीन मतों का आविष्कार हुआ । जैसे (१) अद्वैतवाद, सम्पूर्ण वैदिक देवों को एक ही सत्ता की शक्तियां अथवा रूपान्तर माना जाने लगा । (२) द्वैतवाद, ईश्वर, जीव और प्रकृति की प्रथक प्रथक सत्ता का स्वीकार | Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०३४ ) (३) इन दोनों के मिश्रण से 'हैताद्वैत' आदि अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हुए। ये संघ अवैदिक है। ये लोग अपनी पुष्टि में पुरुष सूक्त आदि वैदिक सूक्तोंका प्रमाण देते हैं। अतः अथ उन्हीं सूतीका विवेचन किया जायेगा, ताकि पाठकगण सत्यासत्य का निर्णय कर सकें 1 ॐकार स्वरूप हम वैदिक देवता प्रकरण में यह सिद्ध कर चुके हैं.. कि - वैदिक rain एक भी देव ऐसा नहीं है। जिसको वर्तमान ईश्वरका रूप दिया जा सके। वेदोंमें एकेश्वरवाद के स्थान पर अनेक देवता बाद है। तथा वे सब देव पूर्व समय में भौतिक ही थे। पुनः उन नामों से मुक्तात्माओं व महात्माओं एवं राजाओं तथा विद्वानोंका भी वर्णन होने लगा. परन्तु वैदिक समय में मानुषी बुद्धिने ईश्वरकी रचना नहीं की थी। यह सब सिद्ध होने पर भी अनेक विद्वानोंका कथन है कि वैदिक साहित्य में 'ॐ' शब्द ईश्वरका ही वाचक है। श्री स्वा० दयानन्दजीने भी सत्यार्थ प्रकाशमें इस शब्दकी ईश्वर परकी ही व्याख्या की है। तथा इसको ईश्वरका मुख्यनाम माना है । अतः आवश्यक है कि वैदिक साहित्य में 'ॐ' शब्द से किस वस्तुका महरा होता है. यह जाना जाये । ओम् (ॐ) किंवा ओंकार "यह शब्द " अ + उ + म्” इन तीन अक्षरोंसे बनता है, इनका अर्थ मांडूक्य-उपनिषद् में निम्न प्रकार दिया है इसीको 'पॉलीथीज़म' ( बहुदेववाद ) कहते हैं । प्रत्येक जातिमें प्रथम इसी का प्रचार होता है, तत्पश्चात् 'मॉनोथीज़म' (एकेश्वरवाद) का आविष्कार होता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५ ॥ सोऽयमात्माऽध्यक्षरमकारोऽधि पात्र पादा मात्रा मात्रश्च पादाप्रकार उकारो प्रकार इति ॥ ॥ जागरित स्थानो चैश्वानरोकार प्रथमा मात्राप्रादिमत्वाद्वाप्नोति ॥ ६॥ स्वम स्थानस्तै जस उकारो द्वितीया मात्री स्वाद्वा० ॥ १० ॥ .सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो सकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीते ०११ अमात्रश्तुप महार्यः प्रपंचोपशमः शिवाजीत ए. मौकार प्रात्मैव संविशत्यात्मनात्मानं य एवं वेद ।। १२ ।। (मांडूक्य-उपनिक) "ॐकारकी चार मात्राएँ और आत्माके चार पाद परस्पर एक दूसरेसे संबंधित हैं। मात्राओंसे पाद और पादोंसे मात्रा अकार उकार और मकार परस्पर संबंधित है। अकार पहिली मात्रा है. इसका जागृति स्थान वैश्वानर माप है। यह पहिली मात्रा (कारमें ) है। यह अकार माबमें आदि और सबमें व्याप्त है। दूसरी मात्रा उकार है, इसका स्वप्न स्थान है, और नजस् स्वरूप है, यह उत्कर्षका हेतु होती है और उभय स्थानोंअर्थात एक ओर जागृति और दूसरी और सुषुनिके साथ संबंध रखती है । मकार तीभरी मात्रा है. इसका सुषुप्ति स्थान और प्राज्ञ म्वरूप है. यह सबको नापता है, और एक हो जाता है । चतुर्थ मात्रासे जो दर्शाया जाता है, वह अव्यवहार्य, प्रपंच की शांति करने वाला शिय, अद्वैन है. इस प्रकार प्रकार आत्मा ही है. जो यह जानना है. वह स्वयं आत्मामें ही प्रविष्ट होता है।" : . अउ. म् . अर्ध मात्रा" ये ओंकारक चार पाद हैं। और जागृत स्थान, सुयुमि और तुर्या ये चार अवस्था आत्माकी हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐकार की चार मात्राओंसे उक्त चार अवस्थाएँ जानी जाती है. इसलिथे ॐकार आत्माका वाचक है, यह उक्त क्वनों का तात्पर्य है। हरएक गीत जागतिक मासुमन लेता है और मुरिकी स्थिति भी देखता है। इन तीन अवस्था ओंका जो अनुभव लेता है, वह तीनों अवस्थाओंसे भिन्न है, अतः उसकी चतुर्थ (तुर्या) अवस्था है. और शुद्ध श्रात्माका वही स्वरूप है । जागृति, स्वप्न और सुषुप्तिका अनुभव प्रतिदिन हरएक जीव लेता है, परन्तु तुषिस्थाका अनुभव अानेके लिये नाना प्रकारके योगादि साधन करना आवश्यक है। समाधि-सुषुप्ति-मोक्षेषु अमरूपता । ( सांख्यदर्शन ) "समाधि. सुषुप्ते और मुक्ति में प्रारूपता होती है ।" यह दर्शनोंका सिद्धान्त है। इस सिद्धान्तका वोधक वाम्य इक्त उपनिषदें (अपातः) एक हो जाता है" अर्थात निःसंग. मुक्त हो जाता है; यह है। इससे पाठकों को पता लगेगा, कि उक्त चार अवस्था जीवात्मा की है. हरएक जीवात्मा इन अवस्थाओंका अनुभव प्रति दिन लेता है, इसलिये इस विषयमें शंका ही नहीं हो सकती। जिस कारण इन चार अवस्थाओंक निदर्शक चार अक्षर ॐकारमें हैं, उस कारण भोकार जीवात्माका वाचक है। इसमें कोई शंका नहीं हो सकती । अस्तु. इस प्रकार कारका अर्थ जीवात्मा और परमात्मा ,मुक्तात्मा) है. यह हमने देखा; तथापि अधिक दृढ़ताके लिये कुछ और भी बचन देखेंगे। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) प्रजापतिर्लोकानस्यतपसेोऽभिसप्तेभ्यस्त्रयी विद्या सं प्रास्रवत्तामस्यतपत्तस्पाभितप्ताया एतान्यक्षराणि सं प्रासवंत भूर्भुवस्वति ॥ २ ॥ तान्यभ्यत्तपत्तेभ्योऽभितप्तेभ्यः ॐकारः मं प्रावत् || ३ || ( छान्दो० उप० २।२३ ) "प्रजापतिने तीनों लोकोंको तपाया. उन सपे हुए तीनों लोकों से तीन विद्याएँ निकल आय: फिर उन विद्याओं को तपाया. उन से भूः भुवः स्वःये तीन अक्षर निर्माण हुए। फिर उनको तपाया उनसे ॐकार ( अर्थात) अ. उ. म. ये तीन अक्षर निर्माण हुए। " अर्थात् यह ॐकार सत्र लोकों और सब क्रियाओं का सार है । सब वेदोंका सत्य इसम हैं । इस प्रकार यह सारोंका मार किंवा तत्वांका तत्व है। सन्का भी यह परम सत् हैं। और इसका अर्थ मांडू उपनिपट बताया ही है, कि यह जीवात्मा की तीन अवस्थाएँ बताकर चौथी असली अवस्था की ओर इशारा करता है। इतना होने पर भी किसीको शंका हो सकती है कि, ॐकार से परम परमात्माका ही बांध केवल हो सकता है। और किसी अन्य पदार्थका नहीं. उसको उचित है कि, वह प्रश्नोपनिषद् का निम्नलिखित वाक्य देखे एतद्वै सत्य काम परं चापरं च ब्रह्म य श्रारः ॥ (प्रश्न० उप०५/२) “हे सत्यकाम ! यह 'ॐकार परम (मुक्तात्मा) और अपर ब्रह्मका बद्धात्मा वाचक है।" और उससे जीवात्माकी चार अवस्थायें ( १ ) जागृति (२) स्वप्न ( ३ ) और ( ४ ) तुर्या बतायी है। अकार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की महत्वपूर्ण विद्या प्रत्यक्ष अनुभव करना हो तो इन चार अवस्थाओं का विचार करके आत्मानुभव करना चाहिए. इन चार अवस्थाओं में भी तीन विनाशी हैं। और चतुर्थ अवस्था ही शुद्ध है. इस विषय में प्रश्नोपनिषद्का कथन मननीय है तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्त अन्योन्यक्ता अनुचेद्रयुक्ता: । ( प्रश्न० उ५० ५ | ६ ) ॐ “ॐकारकी तीन मात्राएँ ( अर्थात अ+उ+म ये तीन मात्राएँ ) मरण धर्म वालो हैं, ये एक दूसरेके साथ मिली-जुली भी हैं।" तीनों अक्षरोंका मेल हानेसे ही शब्द बनता है. और यह ॐ शब्द 'जागृति- स्वप्न सुपुप्ति के मिश्रित अनुभवका घोधक है। जागृति स्वप्न और सुषुप्तिका भी अनुभव होता ही है। अर्थात् तीनों अवस्थाओं का मेल जागृति में होता है. स्वप्रका संबंध एक ओर जागृति के साथ और दूसरी ओर सुपुत्री के साथ होता है तथा सुषुप्त अवस्था उत्तम व्यतीत होगई. तो आगे जागृत करनेके कार्य उत्तम हो सकते हैं. इत्यादि विचार करनेसे इन तीनों अवस्थाओं का एक दूसरेके साथ कितना घनिष्ठ संबंध है, यह स्पष्ट हो जाता है, और यह घनिष्ठ संबंध व्यक्त करने के लिये ही उम्' की मिश्रित ध्वनि "ॐ" बनाया गया है। उक्त श्रवस्थाओं में आत्माका अभिन्न मंत्र है। यह गुप्त बात इसप्रकार व्यक्त की गई है। पाठक इसका विचार करें और जानें कि ॐकार किस प्रकार आत्माका वाचक है। और उनकी तीनों अवस्थाएँ मर धर्म वाली होने पर भी वह तीनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला होनेक कार कैसा अज और अमर है । पतु इस प्रकार ॐकार जीवात्माका वाचक निश्चित सिद्ध हुआ । यही ॐॐ शब्द यजुर्वेद अन्तिम मन्त्रमें आ गया है Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ खं ब्रह्म । ( यजु० अ०.४० | १७) "ॐ शब्दसे वाच्य (वं.) श्राकाशरूप (ब्रह्म) जानपूर्ण ब्रह्म है।" किं वा यहाँ ॐ शब्दका रक्षक" अर्थ भी हो सकता है। अर्थात "रक्षक प्रकाश रूप ज्ञानपूर्ण ब्रह्म" है । यहाँ का ॐ शब्द और ब्रह्म शब्द भी परमात्मा वाचक और साथ • जीवात्मा थाचक होने में कोई शंका नहीं है । संपूर्ण ईशोपनिषद् दानोंका वर्णन कर रहा है. और यहाँ ये तीनों शब्द दानाक बाचक है। सकते हैं। ब्रह्म शब्द पर और अपरब्रह्म' नामसे प्रश्नोपनिषद में प्रयुक्त होनेसे जीवात्मा-परमात्माका दर्शक निःसंदेह है । इसके अतिरिक्त "ब्रह्म' शब्दका मूल अर्थ "ज्ञान" है। वेद मंत्रों में प्रायः यह "ब्रह्मा" शब्द झान अर्थ में भी आता है । ज्ञान और चित एक ही गुण है। जीवात्मा परमात्माका स्वरूप ज्ञानरूप किंवा चिद्रूप सुप्रसिद्ध है। जाड़ प्रकृतिके आत्मतत्वका जो भेद है. वह इसी कारण है, इसलिये ज्ञान रूप होनेके कारण ब्रह्म शदवका अर्थ जीवात्मा निःसंदेह है। इस प्रकार "ॐ और अम" शब्दोंका अर्थ जीवात्म परक हुश्रा, अब रहा "खं" शब्द यह 'आकाश" पाचक है। 'ख' (आकाश) अयं वाव स योऽयमन्तः पुरुष आकाशः ॥ ८॥ अयं वाव स योऽय मन्तहदय आकाशस्तदेतत्पूर्ण है। (छांदोग्य उप० ३।१२) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * ) यात्रान्वा अमाकाशस्तावानेषोऽन्त देय श्राकाशउभे स्मिन् द्यावापृथिवी व्यंतरेव समाहिते उभावनिश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसा मौ विशुनक्षत्राणि यच्चाऽस्येहास्ति यश्च नास्ति सर्व तदस्मिन्समाहितम् || ३ || (छांदोग्य उप० ८५१) ० यही है वह हृदय अंदरका आकाश" | " जितना आकाश बाहर के विश्व में है. उतना ही गहरा आकाश हृदयके अन्दर है । और इस हृदयाकाशमें लोक और पृथिवी लोक अन्दर ही अंदर समाये हैं; अग्नि वायु, सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, नक्षत्र आदि सब जो कुछ हैं, वह सब इसमें समाया है।" यह अन्दरके आकाशके विषय में ऋषिका अनुभव है, ध्यान धारणा करने वाला मनुष्य इस बातका अनुभव स्वयं ले सकता है। मनुष्य के हृदयमें जो आकाश है. उसमें अंशरूप से उतने ही तेजस्वी पदार्थ हैं, जो कि वाह्य आकाश में हैं । हृदयाकाश में यह रहता है। बाहर सूर्यादि बड़े बड़े तेजली तारे जैसे हैं, वैसे ही उन सबके अंशरूप प्रतिनिधि अपने अन्दर हृदयाकाशमें हैं । तात्पर्य आकाश जीवात्मा के देहरूपी क्षेत्र में भी है। तथा और देखिये य एव विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञान पादाय य एषोऽन्त दय आकाशस्तस्मिन् शेतेतानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सद् गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुगृहीतं क्षोत्रं गृहीतं मनः । ( वृहदारण्य, उप० २।१।१७ ) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स वा एष महान आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु यएषोऽन्त दय श्राकाशस्वस्पिच्छेते ० ॥ ( बृहदारण्य उप० ४ २ २२ ) "यह विज्ञान मय पुरुष आत्मा प्राणों ( और इन्द्रियों) से विज्ञान प्राप्त कर हृदयके अन्दर के आकाशमें रहता है, तब उसको गाढ निद्रा होती है. उस समय प्राण, वाणी, चक्षु, ओत्र आदि वहाँ ही उसके साथ रहते हैं। " . इन विचारों से स्पष्ट हो रहा है, कि जीवात्मा के रहने का स्थान यह हृदयाकाश है, उसमें यह रहता है. इसी का नाम " खं" है । श्रव यजुर्वेद का मन्त्र पाठकों को स्पष्ट हुआ होगा, और उनको पता लगा होगा कि "ओं खं ब्रह्म' ये तीनों शब्द जीवात्मा के विषय में देह में किस प्रकार घटते हैं। जब यह ज्ञान ठीक ठीक होगा, तब अपने आत्मा की शक्ति का ज्ञान भी होगा, और उस शर्कि के विकाश का मार्ग खुल जायगा। वैदिक अध्यात्मविद्या" से यही लाभ है। यह विद्या अपनी आत्मिक शक्ति का विकाश करने का सीधा मार्ग बतलाती है और अपने अन्दर जो गुल शक्तियां गुप्त रूप से हैं. उनका भी सत्य ज्ञान प्रकट करती है । 11 ॐ सुख ― शब्द इस रीति से "आत्मा" किंवा जीवात्माका अधिक है । और यही आत्मा अमृत प्रिय सुखमय व आनन्दमय है. इसी लिये वेदमें "श्रमान् श्रमास:" ये शब्द कि जिनके अन्दर "ॐ" है, सुख विशेषके ही बाचक है, देखिये Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) (१) श्रमानं शंयोर्भमकाय सूनवेत्रिधातुशर्मवहतं शुभस्पती । (ऋ० ११३४ । ६) (२) तथा - ओमानमा पोमानुषीरमृक्तं धाततो काय तनयाथ शंयोः (ऋ० ६ |५०/७ ) (३) गोवा (ऋ० ११३७) (१) "हे ( शुभस्पती ) कल्याण के स्वामियो ! ( शं योः ) शांति से पूर्ण और (ओमान) रक्षक सुखसे युक्त (विधालु शर्म) + कफ, पित्त, वातकी समतासे उत्पन्न होने वाला कल्याण मेरे पुत्रके लिये ( बहुतं ) ला दीजिये ।" 6 यह मंत्र "अश्विनौ” देवता का है, और अध्यात्म में अश्विनौ का स्थान नासिका है. क्योंकि ये दो देव श्रास और उच्छ वास ही हैं । यहाँ यह मन्त्र योग्य प्राणायाम द्वारा उत्तम आरोग्य प्राप्ति के यौगिक प्रयोगका सूचक है, और उसके सूचक शब्द "श्रीमान, त्रिधातुशर्म" ये हैं।" क्योंकि माण्डूक्योपनिषद् में लिखा है कि सोऽयमात्मा चतुष्पाद् | १ । १ अर्थात् - यह आत्मा चार पाव ( अवस्था ) वाला है। तथा ॐ की तीन मात्राओं का कथन करते हुए लिखा है कि * वास्तव में यहां त्रिधातुका, अर्थ, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्ररूप रत्नत्रय है । यह लेख पं० सातवलेकरजी रचित वैदिक श्रध्यात्म विद्या के आधार से लिखा है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ / एक एव त्रिधास्मृतः अर्थात् एक ही आत्मा की ये (बहिष्प्रज्ञः श्रन्तः प्रज्ञः और प्रज्ञानघन ) तीन अवस्थायें कही गई हैं। अभिप्राय यह है कि. 'ॐ शब्द भी आत्माका ही वाचक है. ईश्वरका नहीं। बहिष्प्रज्ञो विभुर्विश्वयन्तः प्रज्ञस्तु तेजसः । धन प्रस्तथा प्राज्ञ एक एव त्रिधा स्मृतः ॥ : अर्थात - विभु विश्व वहिः प्रज्ञ है, तेजस् अन्त प्रज्ञ है. तथा प्रज्ञ घन प्रज्ञ है, प्रज्ञान घन है. इसी प्रकार एक ही आत्मा तीन प्रकारसे कहा गया है। यहाँ भी ॐ की मात्राएँ हैं। अभिप्राय यह है कि जहाँ कहा गया था कि- ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वम् । १ । १ उसके आगे ही कहा गया कि सर्व होत ब्रह्म प्रयमात्मा ब्रह्म 1 सोऽयमात्मा चतुष्पाद् || मा० | १ | २ अर्थात् यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है. और ¦ यह चतुष्पाद है। तथा च उसी आत्माका वर्णन द्वारा किया है. ॐकी तीन मात्राएँ हैं. उन तोन मात्राओं से आत्माकी अवस्थाओं का कथन है । उसीकी तीन अवस्थायें हैं। --- वह्निः प्रज्ञ, अन्तप्रज्ञ तथा घन प्रज्ञ । इसीको जैन परिभाषा में बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा कहा गया है। तथा वेदान्तकी परिभाषाओं में जीव. ईश्वर एवं ब्रह्म कहते हैं। अतः यहाँ परमात्मा. अर्थात मुक्तात्माका कथन है - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी आत्माके श्रात्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुलध्यानसे अथवा जागृत स्वप्न, सुषुप्ति, तुर्य (मोक्ष ) भेदसे, इसको चतुष्पाद कहा है, तथा च संसारी और मुक्त भेदसे इसीके दो भेद किये हैं। यथाद्वाचेव ब्रह्मणो रूपे मूसं चामूर्त च । अर्थात्-मूर्त, ससारी और अमूर्त मुक्तात्मा। इसी मूर्तको वहिरास्मा कहा गया है। स श्रोतः प्रोतः विभु प्रजासु। यह विभु, बहिरात्मा संसारमें ओत प्रोत हो रहा है। अर्थात्-संसार रूप ही होरहा है। जिस प्रकार पानी और दूध एकमेक हो रहे हैं, उसी प्रकार यह प्रात्मा ससार-मय हो रहा है। इसी वहिरात्माको गीतामें क्षर तथा शुद्धात्माको "अक्षर" नामसे कहा गया है। इसीको साम श्रङ्ग तथा शवल ब्राह्म भी कहते हैं। उसी आत्माको निश्वयनयकी दृष्टि से, "एक. शिवं शान्त,सत्यं शिवं सुन्दरम्" श्रादि शब्दोंसे कहा जाता है। अभिप्राय यह है. कि इस ॐकार द्वारा धात्माके तीनों रूपोंका कथन किया जाता है, इस ॐ में तीन मानाएँ हैं। 'अ' से अजर, अमर, अभय. अजन्मा, अविकारी आदि शुद्धात्मा का ग्रहण होता है। अकार के उच्चारण में सम्पूर्ण मुख खुल आता है, यह इस बातका घोतक है कि, अकार वाच्य आत्मापूर्ण स्वतन्त्र अर्थात मुक्त है. अर्थात अस से मुक्त श्रात्मा का ग्रहण होला है. तथा उकार के उच्चारण में आधा मुख स्थुलता है। अतः Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अर्थ बंधे हुये अंतरात्मा का द्योतक है, तथा च अनुस्वार के जमरण करते समय प्रमोट मिल संद हो जाते हैं। अतः यह पूर्ण बंधन को प्रकाशित करता है. अत: यह बहिरीत्मा है। इस लिए. ॐकार से आत्मा के तीन रूपों का कथन किया गया है। इम प्रकार कठोपनिषद में प्रात्मा का प्रकरण होने से ॐ शब्द द्वारा प्रात्मा का वर्णन है। "न हन्यते हन्यमाने शरीरे" कट० उ०२।१०। यहाँ स्पष्ट शरीर ( श्रान्मा) का कथन है. जिसको वहिष्पक्ष कहा है। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध है, कि 'ॐ' शब्द भी वैविक वांगमय में श्रात्मा का वाचक है। वर्तमान ईश्वर का नहीं। श्रीमान पं० भगवदत्तजोको सम्मति प्रजापति-पुरुष-ब्रह्म "ब्राह्मणों में आत्माके वर्णनका संक्षेपसे उल्लेख कर दिया गया है, अब आत्माके भी अन्तरात्मा, परमात्माके विक्रय में आहाण क्या कहते हैं, यह लिखा जाता है। वैनिक धर्म आस्तिक धर्म है । चैदिक ऋषि परमात्माके स्मरण किये बिना कोई काम आरम्भ ही न करते थे। परमात्माका निजनाम ॐ है। इस नाम की उन्होंने इतनी महिमा गाई है, कि यज्ञोंमें अहाँ मौन रहना पड़ता है. यहाँ किसी प्रश्न के उत्तरमें ॐ कह कर अपनी स्वीकारी जतानेकी प्रथा चलाई है। इसी प्रोम से सब व्याहतियाँ और उनसे सब बेबोंका प्रकट होना लिखा है। इसलिये इस तत्वका वर्णन करना भी अत्यावश्यक है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मणों में साक्षात् ब्रह्मवादके कहने वाले अनेक मन्त्र भिन्न २ कर्म में विनियुक्त किये गये हैं 1 अर्थ उनका चाहे और पदार्थों में "" भी घटे पर ब्रह्मपरक तो है ही। श० ३ । ६ ! ३ । ११ । मैं । कहा है अम्नेनय सुपथारायेऽस्मान " यजु० ४० ! १७ ! अर्थात्-हे प्रकाश-स्वरूप-परमात्मन हमें भले मार्गसे मुक्तिके ऐश्वर्य के लिये ले चल । अतः इस मन्त्रक इस प्रकरणमें श्राजानेसे यह निश्चित है कि ब्राह्मणों वाले ब्रह्मवादके मन्त्रोंका भी विनियोग अपने २ कर्नामें कर लेते थे। अब देखो, ब्राह्मण प्रजापति ताम्रसे ननका ही कथन करता है__ अष्टोत्रमयः । एकादशरुद्रा द्वादशादित्या इमेऽएव द्यावा पृथिवी त्रयस्त्रिश्यो त्रयसिधशब्द देवाः प्रजापतिश्चतुनि, शस्तदेन प्रजापति कगेत्ये तद्वाऽअस्त्येतद्धशमनं तद्धयम्त्येनदु तन्मत्य स एष प्रजापतिः सर्व चै प्रजापतिस्तदेनं प्रजापतिं करोति । श० ४ । ५। ७ । २ ॥ अर्थात-आठ वसु. ग्यारह मद्र. बारह आदित्य.यह भी दोनों यौ और पृथ्वी लेनीसवें हैं । तेतीम ही देव है । प्रजापति चौतीसवां है । तो इस ( यजमान ) को प्रजापनिका : जानने वाला बनाता है । यही वह है जो अमूत है, और जो अमृत है. वही ग्रह है। जो मरणधर्म है. यह भी प्रजापति ( का ही काम ) है । सब कुछ प्रजापनि है। ना इस (यजमान) को प्रजापति (का जानने वाला) बनाता है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) ! इसी भाव का विस्तार श० ४१ | ६ | ३ | ४१ – १० । और श० १४ । ६ १ ६ । १० । में है। इन दोनों स्थानों में प्रजापति यश का है । परन्तु इस अर्थ में यह ३३ देवा के अन्तर्गत है । ३४ वां देव ब्रह्म परमात्मा है। वही ३४ वा देव पूर्वोक्त प्रमाण में प्रजापति हैं । तां प्रा०२७ । ११ । ३ । में भी कहा है -- प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशो देवतानाम् । अर्थात् देवताओंका प्रजापति चौतीसवां है। तै ० ० १ । ८ । ११ । में भी कहा हैं- MANY त्रयत्रिशब्देदेवताः । प्रजापतिश्चतुस्त्रिं शः । अर्थात्---तेतीस देवता हैं। प्रजापति चौतीसषां हैं। फिर एक स्थल में प्रजापति और पुरुष दोनों शब्द पर्याय रूपसे आये हैं । और ब्रह्म अर्थात् परमात्माके वाचक हैं- सोऽयं पुरुषः प्रजापति कामयत् । भ्रूयान्त्स्य प्रजायेयेति सोऽश्राम्यत्स तपोऽतप्यत स श्रान्तस्ते पानोत्रह्म व प्रथममसृजत त्रयमेव विद्यासेवास्मै प्रतिष्ठा भवत्तस्मादाहुस्य सर्वस्य प्रतिष्ठेति । श० ६ । १ । १ । । ( अर्थात- वह जो यह (पूर्ण) पुरुष प्रजापति है. उसने कामना की। मैं बहुत अर्थात् महिमा वाला हो जाऊँ, प्रजा बाला होऊँ । उसने जगतके परमाणुओं को किया देनेका) श्रम किया . उसने (ज्ञान रूप ) तप तथा । उसके थकने पर ( क्रियाका चल पड़ने पर ) और ( ज्ञानरूप ) तप होने पर ब्रह्म वेद को उसने सबसे पहले उत्पन्न किया, इसी नयी विधाको । बही उसकी प्रतिष्ठा है ( अर्थात आधार है । व्याहृतियों और वेद मन्त्रों परसे र - Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २४८ ) • सारा संसार फिर धना)। इसी लिये कहते हैं कि वेद सारे संसार का आधार है। इसी प्रकार फिर प्रजापति नाममे परमात्माका वर्णन है। प्रजापतिर्वाऽइदमग्रऽआसीत् । एक एव सोऽकामयत । (श०६।१।३ । १ ।।) अर्थात्-प्रजापति परमात्मा ही इस (विकृति रूप संसार बनने से ) पहले था। एक ही (वह था) उसने कामना की। श०७ । ४ । १ १ १६-२०॥ में इसी प्रजापति परमात्माको मन्त्र की व्याख्या करते हुए हिराम नामसे स्मरस किया है। फिर अन्यत्र भी शतपथमें लिखा हैप्रजापतिह बइदमग्रऽएक एचास | स ऐक्षत । २।२।४ाहा अर्थात-प्रजापति परमात्मा ही इस (जगत् बननेसे पहले एक ही था ) उसने ( प्रकृतिमें ) ईक्षण किया। न चै प्रजापति सवनैराप्तुमर्हत्येमधेवैन माप्नोति नर्चमन्वाह न यजुर्वदति न वे प्रजापति वाचाप्तुमर्हति मनसेचैन मामोति । का० सं० २६ । ६ | अर्थात्-प्रजापति - परमात्माको सवनोंसे प्राप्त नहीं कर सकता । एक ही प्रकारसे इसे प्राप्त करता है। ऋचा इसको नहीं काहता, यजु भी नहीं बोलता। प्रजापतिको वाणीसे भी प्राप्त नहीं कर सकता । मनसे ही उसे प्राप्त करता है। यह निःसन्देह परमात्माका यणन ही है। क्योंकि उपनिषदोंमें भी ऐसा ही लिखा है मनसेवेदमाप्तव्यम् । कठ० उप० ४ । ११ । अर्थान--मनसे ही यह (ब्रह्म) प्राप्त करना चाहिये। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ मनसेचानुद्रष्टव्यम् । वृ० उप० ४ । ११ । अर्थात्-मन से ही ( उस ब्रह्मको ) देखना चाहिये । प्रजापतिर्वाऽयमतः । श० ६ | ३ | ६ | १७ | 1 श्रर्थात् परमात्मा अमृत, अजन्मा, अनादि, अनन्त है। इसी प्रजापति परमात्माकी रखी हुई यह विविध प्रकार की सृष्टि है । समीक्षा - त्राह्मण ग्रंथों से भी वर्तमान ईश्वरको खोज निकालने में भगवदद जी नितान्त असफल रहे हैं। जिन श्रुतियों के अर्थो में आपने परमेश्वर का कथन किया है, वे ही श्रुतियाँ आप के सिद्धान्त का खंडन कर रही हैं। प्रथम तो आपने वे श्रुतियां लिखी हैं कि जिनमें प्रजापति को चौंतीसवां देवता माना है । आप कहते हैं कि यह चौंतीसवां देवता परमेश्वर है । परन्तु पका यह कथन वैदिक वांगमय के सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि वैदिक साहित्य ( जिसमें ब्राह्मण ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं ) में कहीं भी ईश्वरका कथन नहीं है । तथा यहां चौंतीसवाँ देवता आत्मा माना गया है । आपने यहां एक बात स्पष्ट करदी इसके लिये आपको धन्यवाद देते हैं । आपने यहां सिद्ध कर दिया कि आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य पृथिवी और य ये तेतीस देव परमेश्वर नहीं हैं, अपितु प्रजापति ही चौतीसवां परमेश्वर है । अतः अथ जो भाई, वसु, रुद्र, आदित्य आदि नामों का भी ईश्वर अर्थ करते हैं, यह उनकी भारी मूल है। वास्तव में तो चौंतीसवां देवता मानना ही अवैदिक है। क्योंकि मन्त्र संहिताओं में कहीं भी चौतीस देवोंका कथन नहीं है. श्रपितु नेतीस ही देवता माने गये हैं। यथा नासत्या त्रिभिरेकादशैरिह । ऋ० १३४ । ११ हे अश्विनी ! आप मधुपानके लिये १३ देवोंके साथ भावें । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० तथा सू० ४५ के मन्त्र २ में भी ३३ देवोंका उल्लेख है । एवंये देवासी दिव्येकादशस्थ पृथिव्यैकादशस्थ । अप्सुचितो महिनैकादशस्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुपध्वम् । ऋ० १ । १३६ । ११ यहाँ, पृथिवी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग स्यारह ग्यारह देवता बताये गये हैं। अतः तीनों लोकोंके तेतीस देवता माने गये हैं। इसी प्रकार तैत्तरीय संहिता (१|४|१|१०) में उपरोक्त प्रकारसे ही तीनों लोकोंके ११-११ देवता माने गये हैं । तथा ऐतरेय ब्रह्म २२८ मे ११ प्रयाज, ११ अनुयाज, और १५ उपयाज इस प्रकार ३३ देवता माने हैं। ये असोमप देव हैं। तथा ३३ सोमप माने गये हैं। त्रिशद् वै सर्वा देवताः । कौ० ८ । ६ । बैं तथा च तां ब्राह्मण ( ६ । १।५ ) में तेतीस देवताओं में ही प्रजापति गिना गया है। यहाँ, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, वारह आदित्य, और प्रजापति और वषटकारको मिलाकर ३३ देव पूरे किये गये हैं । इसी प्रकार ऐतरेयमें भी त्रयस्त्रि शद् - अष्टवसवः, एकादशरुद्राः, द्वादशादित्याः प्रजापतिथ वपट कारव । २ । १८ । ३७ । तथा गोपथ में बाकू और स्वरको मिलाकर ३३की गणना पूरी की गई हैं। वाग् द्वात्रिंशी स्वरस्त्रयत्रिंशद् । गो० ३ । २ । १३ । अभिप्राय यह है कि वैदिक साहित्य में ३३ देवताओंका Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) श्रथवा तीन देवोंका सिद्धान्त मान्य है । यह ३४ वां देववाद की कल्पना है. फिर भी इसका अर्थ यहाँ यज्ञ आदि है। आपका कल्पित ईश्वर नहीं । आपने भी इसी स्थल में लिखा है कि-"इन दोनों स्थलों में प्रजापति यसका बावक है" अतः सिद्ध है, कि यहाँ यज्ञ अर्थ है ईश्वर नहीं । तथा आपके लिखे हुए मन्त्रमें भी लिखा है कि. ( प्रजापति करोति ) अर्थात्-यजमान प्रजापतिको बनाता है । तो क्या आपका ईश्वर भी बनाया जाता है। इसीलिये आपको 'प्रजापति करोति' का अर्थ 'प्रजापतिको जानने वाला बनाता हूँ" करना पड़ा जो कि बिलकुल ही मिथ्या है। परन्तु दुःख तो इस घातका है, कि फिर भी आप अपने मनोरथको पूर्ण करने में सर्वथा असफल रहे। क्योंकि आपके इस प्रमाण में लिखा है कि यह प्रजापति भरण धर्मा भी है। तो क्या आपका ईश्वर भी मरता रहता है ! अतः आपको फिर यहाँ मिथ्या अर्थ करना पड़ा और आपने लिखा है कि जो मरन धर्मा है वह भो प्रजापति ( का ही काम) है।' यहाँ आपने ( का ही काम ) यह शब्द अपनी तरफ से कोट में लिखकर अल्पज्ञों में भ्रम उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया है। अतः इस प्रकारके मिथ्या प्रयत्नोंसे किसीका मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकता है। आगे आपने लिखा है कि- वह जो यह पूर्ण पुरुष प्रजापति है. उसने कामना की कि मैं बहुत अर्थान् महिमा चाला हो जाऊँ प्रजा वाला होऊं उसने जगतके परमाणुओं को क्रिया देनेका श्रम किया. उसने ज्ञानरूप तप किया उसके धकने पर (क्रिया का चक्कर चल पड़ने पर ) और ज्ञानरूप नप होनेपर बेदको उसने सबसे पहले उत्पन्न किया इसी नयी वियाको यही उसकी प्रतिष्ठा है अर्थात आधार है। व्याहृतियों और वेद Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रों परस सारा संसार फिर बना, इसीलिये कहते हैं कि वे सारे संसारका आधार है।" समीक्षा, बहुस दिनोंसे एकाकी रहते रहते वेचारे ईश्वरका दिल घबरा गया था, इसी लिये उसने भारी परिश्रम और कठोर तप करके वेदोंका निर्माण कर ही डाला। यहाँ ईश्वर ग्रह बताना भूल गया कि-ये वेब ईश्वरने किसीको पढ़ाये अथवा अपने आप ही पढ़े थे। क्योंकि अन्य शरीर धारी पड़ने वाला तो उस समय था ही नहीं। तथा बेद मन्त्रोंसे सारा जगत बन गया, यह भी नया आविष्कार है । इसके लिये ईश्वरको नोवलप्राइज मिलना चाहिये । वास्तवमें इन ईश्वर वादियोंके यह इसी प्रकारके प्रयत्न हैं। भला इनसे कोई पूछेकि सबसे पहिले वेद उत्पन्न हुये यह कहाँ का सिद्धान्त है। क्या लेखक अथवा इनके अनुयायी अपने इस सिद्धान्तकी पुष्टि में भी मार रिस साहित्यमा उपस्थित कर सकते हैं । यहाँ प्रश्न, के अर्थ, बेद करके ही यह अनर्थ किया है। वास्तवमें यहाँ प्रजापति, ब्रह्मा, के अर्थ आत्माके हैं, जिसने इस शरीरको उत्पन्न किया है। इसको विस्तार पूर्वक यथा प्रकरण लिखेंगे । इसी प्रकार आपकी अन्य श्रुतियं भी आत्माका कथन करती हैं, आपके कपोलकल्पित ईश्वरका नहीं। तथा 'ॐ यह शब्द भी प्रात्माकी ही तीन अवस्थाओंको बतलाता है । जैसा कि___ माण्डूक्योपनिषद् आदि के अनेक प्रमाणोंसे हम सिद्ध कर चुके हैं। इसी प्रकार अनि शब्द भी वेदोंमें सथा प्राक्षण आदिमें ईश्वर वाचक नहीं है। यह हम अनि देवता प्रकरणमें दिखा प्रजापति हिरण्यगर्भ आदि अनेक विद्वानों ने प्रजापति, हिरण्यगर्भ, पुरुष, परमेष्ठी आदि Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दोंसे ईश्वरका अर्थ या अभिप्राय निकाला है, अतः आवश्यक है, कि इस पर जरा विशप विचार किया जाये । वेदोंके स्वाध्यायसे यह ज्ञात होता है कि, पहले ये प्रजापति आदि शब्द अन्य अग्नि आदि देवताओंके विशेषण मात्र थे। तत्पश्चात् कालान्तरमें यह एक मुख्य देवता माने जाने लगे। तथा च अथर्ववेद में लिखा है कि ये पुरुष ब्रह्मविदुस्त विदुः परमष्टिनम् । यो वेद परमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् । ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कम मनु सं विदुः ।। १० । ७ । १७ । अर्थात्-जो ज्ञानी पुरुष शरीरमें प्रा (आत्मा)को जानता है वह परमेष्ठी, (हिरण्यगर्भ) को जानता है। जो परमेष्ठीको आनता है, वह प्रजापतिको जानता है। वह ज्येष्ठ ब्रह्माको तथा स्कभको जानता है । अभिप्राय यह है कि ये सब उस अन्तरात्मा के ही नाम या शक्तियाँ हैं। अतः यात्माको ही प्रजापति आदि कहते हैं। अथवा यहाँ प्रजापति आदि मन व बुद्धि प्रादिके नाम हैं। और मात्मा जिसका नाम यहाँ स्कंभ' है यह इनसे परे है। आगे इसी प्रकरण में लिखा है कि हिरण्यगर्भ परमपन्त्युर्घ जनाविदुः । स्कंभस्तदने प्रासिंच द्धिरण्यं लोके अन्तरा ।। २८ । श्रीमान् पं. राजाराम जी इसका अर्थ करते हैं कि-'लोग हिरण्यगर्भको ही सबसे ऊँचा और वाणीसी पहुंचसे परे मानते Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, तत्व यह है कि ) कि उस हिरण्यगर्भ को पहले स्तंभने ही लोक के अन्दर डाला ।' सारांश यह है कि-अथर्ववेदके समय अनेक नये देवताओंका आविष्कार हुआ था. उनमेंसे एक यह स्तंभ भी है। संभवतः यह शुद्धात्मभावका द्योतक है । तथा पुरातन प्रथाके अनुसार इस स्कंभ भक्तने भी स्कंभकी स्तुति करतेहुए अन्य सभी देवताओं को निकृष्ट यताया है। तथा च उमने कहा कि जो लोग हिरण्यगर्भको परमात्मा आदि मानते हैं यह उनका भ्रममात्र है. वास्तव में स्कंभ ही सबसे बड़ा देव है, उसीले प्रजापति आदि सब देवोंकी रचना की है। यदि आत्मपरक अर्थ करें तो भी प्रजापति आदि वर्तमान ईश्वरका स्थान ग्रहण नहीं कर सकते। क्योंकि उस अवस्था में प्रजापति, मनु आदि इन्द्रियोंके वाचक सिद्ध होंगे। अतः उपरोक्त मन्त्रोंसे यह सिद्ध है कि प्रजापति, हिरण्यगर्भ आदि नामोंसे वेदों में परमेश्वरका कथन नहीं है। तथा च यो देवानां प्रभवश्वोद्भवश्च । विश्वाधिमो रुद्रोमहर्षिः । हिरण्यगर्भ जनयामास पूयम् । सनो बुद्धथा शुभया संयुनक्तुः ॥ श्वे. ३०।४। रुद्रकी स्तुति करते हुए ऋषिने कहा कि रुद्र ही देवोंकी उत्पत्ति आदिका कारण है बहो रुद्र मर्षि संसारका एक मात्र कारण है उसीने प्रथम हिरण्य गर्भको उत्पन्न किया था। वह रुद्र हमको शुभ बुद्धि से युक्त करे। यहाँ महर्षि विशेषण लगाकर रुद्रको भी मनुष्य सिद्ध किया गया है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसे कालोह ब्रह्म भूत्वाविभर्ति परमेष्ठिनम् । अथवेद का० १६१५३।६-१० कालः प्रजा मसृजत कालो अग्रे प्रजापतिम् । स्वयंभू कश्यप कालात् तपः कालाद जायत । कालादपिः समभवन कालाद् ब्रह्म तपोदिशः । कालेनोदेति सूर्य काले निविशते पुनः॥ प्र० का १४ । १ अर्थ-कालभक्त कवि कहता है, कि-काल हो ब्रह्म बनकर परमेष्ट्रीका भरणपोषण करता है। कालने ही प्रजाओंको उत्पन्न किया, उनीने प्रथम प्रजापतिको उत्पन्न किया. उसीने स्वयंभूको उसीने कश्यपको उत्पन्न किया. तथा कालसे ही तप उत्पन्न हुआ। तथा च कानसे अल उत्पन्न हुये. काल ही से ब्रह्मा, तप. दिशायें, आदि सब संसार उत्पन्न हुआ । कालसे ही सूर्य उदय होता है। तथा उसी में विलीन होजाता है। अभिप्राय यह है कि जिन देवताओंको परमेश्वर बताया जाता है, उन सबकी उत्पत्ति यहाँ बताई गई है। अतः प्रजापति, ब्रह्मा, परमेष्टी, धाता, विधाता, आदि देव ईश्वरके योधक नहीं हैं. क्योंकि ये सब अत्पन्न हुये हैं, और मरण धर्मा हैं। तथा कोकिलेश्वर भट्टाचार्यः एम० ए० ने अपने उपनिषदके उपदेश के खंड ३ में, घेदान्तभाव्यमेंसे एक पंक्ति उद्धृत की है, जिसका अर्थ है कि-"मनुष्य आदिमें { साधारण पुरुष में ) तथा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ । हिरण्यगर्भ आदिमें, ज्ञान, ऐश्वर्य आदिको अभिव्यक्ति की उत्तरो उत्तर विशेषता होती है। अर्थात् जैसे जैसे चात्मा के आवरणों का क्षय होता है वैसे वैसे ही उसके ज्ञान आदिको अभिव्यक्ति होती जाती है। यह अभिव्यक्ति हिरण्यगर्भ प्रजापति आदिमें संधिक होती है।" : ( तथा मनुष्यादि गर्भ पर्यन्तेषु ज्ञानेश्वर्याद्यभि व्यक्तिः परेण परेण भूपसी भवति । वे०मा० ११३ | १०१ मनुष्य शरीर धारी इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ये हिरएय गर्भ व्यक्ति विशेष है. परमेश्वर नहीं । तथा च ब्रह्मादेवानां प्रथमः संवभूव । विश्वस्य कर्ता भुवनस्यगोसा । ० ३० । १ । १ । अर्थात् सम्पूर्ण देवताओं से पूर्व अथवा श्रेष्ठ ब्रह्मा हुआ। वह इस जगतका स्रष्टा तथा पालन पोषण करता था । इस पर शंकराचार्यजी लिखते है कि- "यस्य गोप्ता पालयितेति विशेषणं ब्रह्मणो विद्यास्तुतये" अर्थात् - गोता पालयिता विशेषण ब्रह्मा की विद्या स्तुति के लिए है । अर्थात् यह वास्तविक नहीं है। अपितु उसकी प्रशंसा मात्र है, अथवा उसने उपदेश द्वारा जगत की रचनाकी और उसका पालन-पोषण किया । तथा त्रिदेव निर्णय में श्रार्य-समाज के प्रख्यात वैदिक विद्वान पं० शिवशंकर जी काव्यतीर्थं लिखते हैं कि- "यहवा ऋषि की प्रशंसा मात्र है। निःसंदेह विद्वान लोग अपनी विद्या से जगत के कर्ता गोसा होते हैं।" अतः स्पष्ट है कि वेदोक्त, हिरण्यगर्भ प्रजापति, ब्रह्मा पुरुष, निराकार ईश्वर नहीं। तथा उनका सृष्टि यदि मनुष्य ही हैं. कर्तृत्व कथन उनकी Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) मात्र है वास्तविक नहीं । अथवा उपदेश द्वारा सृष्टिके खांन कराने को मृति-सुजन कहा गया है। सथा च महाभारत में लिखा है किहिरण्यगनों ये.गस्य वक्ता नान्यः पुरातनः । शान्तिपर्व, १०३४६ 'हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एषः छन्दसि स्तुतः ।' प्र० ३४२। योगैः सं पूज्यते नित्यं स च लोके विभुः स्मृतः।१६। अर्थात्-योगमार्ग के प्रथम प्रचारक हिरण्यगर्भ ऋषि हुए है। उनसे पुरातन अन्य नहीं । अरसे पूर्व योग-मार्ग प्रचलित नहीं था। यह वही हिरण्यगर्भ ऋषि है जिनकी योगी लोग नित्य पूजा करतेहैं। तथा जो लोकमें विभु के नाम से प्रसिद्ध है । तथा जिनकी महिमाका बखान बेद करता है। श्रीमद्भागवत् स्कन्द. ५।१९।१३ में भी इसी का समर्थन है। तथा वायुपुराण,४। ७० में भी उपरोक्त कथन ही है । पपरोक्त श्लोक में, "छन्दसि स्तुतः", और "सच लोके विभुः स्मृतः" ये दो पद बड़े महत्व के हैं। क्योंकि इनसे सिद्ध होगया है कि जिसको संसार विभु, परमात्मा श्रादि कहता है; तथा जिसकी हिरण्यगर्म सूक्तमें अथवा प्रजापति आदिके नामसे वेदोंमें महिमा गाई गई है वह हिरण्यगर्भ ऋषि है। अर्थात्-इन नामोंसे वेदोंमें ईश्वरका कथन नहीं अपितु महापुरुषोंकी स्तुति है । सथा च जैन मुनि योगी शुभचन्द्राचार्यने अपने शानाधके आदिमें कहा है कि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POODabaram 'योगिकल्पतरूं नौमि देवदेवं वृषध्वजम् ।' यहां श्री ऋषभदेवजीको (जिनका नाम हिरण्यगर्भ भी है) योगका प्रवर्तक ही माना है । तथा प यही पात योगके अन्य मन्यों में भी है। यथा-- श्री आदिनाथाय नमोस्तु तस्मै येनोपदिष्ठा हठयोगविद्या । इठयोगप्रदीपिका। यहां भी श्री वादिनाथ (ऋषभदेव ) को ही योगका प्रालि प्रचारक माना है। सथा अनेक योगके भाष्यकारोंने भी महाभारतके उपर्युक्त श्लोक उद्धृत करके वही सिद्ध किया है। अतः यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है कि हिरण्यगर्भ ऋषि हुये हैं, जिसका वर्णन वेदों में है। अमरकोषमें इनके निमलिम्वित नाम लिखे हैं। प्रमामभूः स्वरः श्रेष्ठः परमेष्ठी पितामहः । हिरण्यगर्मो लोकेशः स्वयंभूचतुराननः ॥ अर्थात्-प्रशा, आत्मभूः, स्वरः श्रेष्ठ,परमेष्टी. पितामह हिरण्यगर्भ, लोकेश, स्वयंभू, चतुरामन आदि प्रजापति के नाम हैं। वेदान्त मत में श्री शंकर मलके अनुसार'अविद्योपाधिको जीवः, मायोपाधिक ईश्वरः ।। पर्थान-प्रविधायुक्त जीव और माया लिसा ईश्वर है (माया Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया रहिस ) तथा भाया और अषिधासे रहिस महै। स्व. रूपतः ब्रा और जीयमें अभेद है, अब जीवकी अविद्या नष्ट हो जाती है तो यही ईश्वर हो जाता है । पुनः मायाके नष्ठ होने पर प्रय हो आता है। यहां भी ईश्वरका अर्थ जीयममुकात्मा ही है यही जगतकी रखना आदि करता है। प्रजापति और ब्राह्मण ग्रन्थ - --उपरोक्त भने प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि-प्रजापति महापुरुषका नाम है । तथा ब्राह्मण प्रन्थों में भी यह शब्द अनेक भर्थों में प्रयुक्त हुआ है । यथा अनि-एषो वै प्रजापति यदनिः। ते ११५ हृदय-एष प्रजापरिसंवदयम् : २४ मन-प्रजापति नैं मनः । कौ० १०२६३ धाक्-बाग वै प्रजापतिः । श० ५।१३५१६ सम्वत्सर-स एष सम्बस्सरः प्रजापतिः पोडशकला। श. १४४१२ सविता-प्रजापति सविता । तां. १६२१७ प्राण-प्राणः प्रजापतिः । शत. १४ प्रम-अन्न प्रजापतिः । शत० ॥१३१७ वायु--वायुरेव प्रजापतिस्तदुक्कमृषिणा पवमानः प्रजापतिरिति । ऐ० ४ । २६ ईश्वर का अर्थ जैन परिभाषा भी तीर्थङ्कर है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणेता--प्रजापतिः प्रणेता । तै० २१५७३ . भूत-प्रजापति नै भृतः । ते. शहा३ 'चन्द्रमा प्रजापति चन्द्रमा । शत० ६२३॥१६॥ सोम--सोमो वे प्रजापति । श० १३७ मनु--प्रजापति वै पनुः । श० ६।६।१।१६ वसिष्ठ-प्रजापति वं वसिष्ठः । का० २२ विश्वकर्मा--प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा विश्वकर्मा प्रयद . . . . . . . . ऐ० ४।२२ चाक्षुषपुरुष--यो वै चक्षुषि पुरुषः, एष प्रजापतिः । __० उ० १।४३३१० अभी अभी प्रजापतिः । गो० पू०.१४ आत्मा- प्रात्मा वै प्रजापतिः। श. ४शहार पुरुषः-पुरुषः प्रजापतिः। श सश२३..... भरत--प्रजापति , भातः । यजुर्वेद. १२३४ . . धाता--प्रजापति व धाता । २०६५।११३८ जमदग्नि प्रजापति , जमदग्निः । श. १३१२।२।१४ काको – प्रजापतिः । गो० उ०.६।३ . . . . विप्रः--प्रजापति . विप्रो देवा विमाः I ... .. . . . . . . . श०६।११६ तथा च यजुर्वेदमें है किवित्रा विप्रस्य पदतो विपश्चितः । १६४.. . . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ माध्यकार लिखते हैं कि"प्रजापतिर्विप्रः ६६ विश्विदेत्युच्यो" अर्थात्-प्रजापति विप्रको विपश्चित् कहते हैं। अतः यहाँ विद्वान् साक्षणका नाम प्रजापति है। क्षत्री--प्रजापति वै चत्रम् । श० ८।२।३।११ एक-जापते 4 एकः : ते० ३।८।१६१ यहाँ पकका नाम प्रजापति है। तद् यदववीत् ( ब्रह्मा ) प्रमापतेः प्रजा सटा पालयस्वेति, तस्मात्प्रजापतिरभवत् सत्प्रजापतेः प्रजापतित्वम् । . मो० पू० १४ सृष्टि रचकर प्रमाने प्रजापतिसे कहा कि इसका पालन करी, इससे वह प्रजापति हुश्रा यही प्रजापतिका प्रजापतित्व है । मझा प्रजापतिका मन है। : षोडशकला अर्थ य एतदन्तरे प्राणः संचरति स एव सप्तदश प्रजापतिः । श. १०।४।१।१७ षोडशकला प्राण (जो कि शरीरमें संचरित है) तथा सतरहवाँ प्रजापति, (आत्मा) है। प्रजापतिः सर्वाणि भूतानि सृष्ट्वा रिरिचान इव मेने समृत्यो विमयां चकार । श० ११४।२।२ इन सब भूतों (इन्द्रियों) को रचकर प्रजापति (आत्मा) मृत्यु से भयभील हुआ। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६६२ । यदरोदीत् ( प्रजापतिः ) सदनयोः द्यावापृथिच्योः रोदस्त्यम् । ते. शहा यावा पृथिवीको बनाकर इसके गिरनेके भयसे प्रजापति रोया, क्योंकि प्रजापति रोया अतः इनका नाम रोदसी हुमा । (अथर्ववेद का ४ । १ १ ४ में भी यही लिखा है ) यह सिद्ध है कि वैदिक साहित्यमें (प्रजापति) इत्यादि शब्दोंका अर्थ वर्तमान ईश्वर नहीं है। अपिशु वैदिक वांगमयमें उपरोक्त प्र में ही अझापनि प्राष्ट्रि शब्दोंका प्रयोग हुआ है। साथ श्वेताश्वतर उपनिषदमें लिखा है कि... "हिरण्यगर्भ पश्यतः जायमानम् । हिरण्यगर्भ जनयामासपूर्वम् ।" ___ अर्थात्-उत्पन्न होते हुये हिरण्यगर्भको देखो । तथा प्रथम हिरण्यगर्भको उत्पन्न किया। लिंग शरीर यजुर्वेद. श्र. २७ मन्त्र २५ के भाष्यमें, प्राचार्य ध्वट व महीधरने "हिरण्य गर्भक अर्थ लिंग-शरीर' किये हैं। इससे वैदिक साहित्यमें जितने भी सृष्टि, उत्पत्ति विषयक कथन हैं उन सबका रहस्य प्रकट हो जाता है। हम इसको वहीं विस्तार पूर्वक लिचेंगे। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २.६३ } विराट पुरुष गोपथ ब्राह्मणके पूर्वभागके ५८ में लिखा है कि( सपुरुषमेधेनेष्ट्रा विराट् इति नाम धत ) अर्थात उस यजमानने पुरुषमेध यज्ञ करके 'विराट' उपाधि tear पदको प्राप्त किया । पुरुष सूक्त में भी पुरुषमेघ यज्ञका कथन है तथा उसमें लिखा है कि- ( ततो विराट जायत ) अर्थात् उस पुरुषमेध यज्ञसे विराट उत्पन्न हुआ । उसी विराट पुरुषसे यहां सृष्टि उत्पत्तिका वर्णन है । अतः गोपथ के मत से जिस यजमानने विराट पदवी प्राप्त की है. उसकी यह स्तुति है। मीमांसकोंके शब्दोंमें यही अथवा कहलाता है। अभिप्राय यह हैं कि यहां सृष्टि उत्पत्तिका कथन नहीं है अपितु महापुरुषों की प्रशंसा मात्र हैं । यहां तो प्रजापतिने सृष्टि उत्पन्न की. इसका अर्थ है उसका व्यवहार बताया। तथा श्रालङ्कारिक कथन भी है। जिसको आज जानना असम्भव नहीं तो कठिन तो अवश्य हैं। हिरण्यगर्भ आदि हिरण्यगर्भो भगवान् एष बुद्धिरिति स्मृतः । महानिसि च योगेषु विरिविरित चाप्यजः ॥ महानात्मा मतिविष्णु, शंभुश्च वीर्यवान तथा । बुद्धि प्रज्ञोपलब्धिश्च तथा ख्याति धृतिः स्मृतिः ॥ पर्याय वाचकोः शब्दः महानात्मा विभाव्यते । महाभारत, अनुगीता प० २६ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । : २६४ । या प्राणेन सम्भवत्यदित र्देवता पयो । गुहाँ प्रविश्य तिष्टन्ती या भूतेभिव्य जायत ।। . कठ० उप० २।११७ इसका भाष्य करते हुये श्री शंकराचार्यजीने लिखा है-- "प्राण" हिरण्यगर्भ.रूपेण" अर्थात् जो देवता मयी, अदिति प्राणरूप ( हिरण्यगर्भ रूप ) से प्रकट होती है तथा जो बुद्धि रूप गुहामें प्रविष्ट हो कर रहने चाली और भूतों (इन्द्रियों ) के साथ ही उत्पन्न हुई है उसे देखो निश्चय यही वह तत्व है। यहां प्राणका नाम हिरण्यगम है : तथा ऊपरके श्लोकोंमें बुद्धि आदिका नाम हिरण्यगर्भ है। धाता, विधाता, दो स्त्रियां हैं : ये ते स्त्रियों धाता विधाता च ये च कृष्णाः सिताश्च तंतवस्ते । राज्यहनी यदपि सच्चक्रं द्वादशारं षड् वे कुमाराः परिवर्तयन्ति ते ॥ १६६ ॥ महाभा० भादि० १०३ पाता और विधाता ये दो स्त्रियाहैं. श्वेत और काले धागे दिन और रात्रिका समयहै, बारह भारों वाला पक जो छ कुमारों द्वारा घुमाया जाता है. वह सम्बतसर चक्र ।। यहां ऐसा कहा गया कि "धाता और विधाता" ये दो स्त्रिणं हैं, और मन्त्रोंमें ऊषा और नक्ता' ये दो स्त्रियां होनेका वर्णन है। इस विषयमें यहां इतना ही कहना पर्याप्त है कि ऊषः काल और 'सायंकाल' का ही दूसरा नाम क्रमशः 'धाता और विधाता है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ । पं० सातवलेकरजी लिखित महाभारतकी समालोचना. प्रथम भाग, पृ० ५० उपरोक्त लेखसे स्पष्ट सिद्ध है कि बैदिक साहित्य में 'धाता और विधाता' शब्द के अर्थ रात्री और दिनके हैं। अतः "सूर्याचन्द्र मसौ धामा यथा पूर्वम् कल्पयत्" . इस श्रुतिका यह अर्थ हुश्रा कि. ऊषाने सूर्य को और रात्री ने चंद्रमाको उत्पन्न किया। यह अर्थ युक्ति युक्त तथा वैदिक पद्धति के अनुकूल भी है। हिरण्यगर्भ "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्यजातः पतिरेक आसीत । : स दाधार पृथिवीं चामुतेमा कामै देवाय इक्षिा विधेम ||२|| य आत्मदा वलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिपं यस्य देवाः । यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ २॥ '. यः प्राण तो निमिपतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव । प ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।३। ___ यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्थ समुद्रं रसया सहाहुः । यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहूकस्मै देवाय हविषा विधेप ||४|| . येनद्यौस्या पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। - यं क्रन्दसी अवमा तस्तभाने अभ्यता मनसा रेजमाने यत्राधि सर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) आप ह यद्वृहत विश्वमायन् गर्भ दधाना जनयन्तीरग्निम् ततो देवानां समवर्तता सुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ७ ॥ चिदापो महिना पश्यदक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् यो देवेष्वधि देव एक श्रासीत् कस्मै देवाय हविषा विधेम मानो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या योवा दिवं सत्यधर्मा जजान यश्वापश्चन्द्रा वृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ ६ ॥ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव यत् कामास्ते जुहुस्तनो अस्तुवयं स्यामपतयो रयीणाम् । १० । १- सबसे पहले केवल परमात्मा व हिरण्यगर्भ थे । उत्पन्न होने पर वह सारे प्राणियों के अद्वितीय अधीश्वरथे । उन्होंने इस पृथ्वी और आकाशको अपने-अपने स्थानोंमें स्थापित किया । उन "क" नाम वाले प्रजापति देवता की हम विके द्वारा पूजा करेंगे अथवा हम हव्यके द्वारा किस देवता की पूजा करें। २- जिन प्रजापतिने जीवात्माको दिया हैं, बल दिया है. जिन की चाज्ञा सारे देवता मानते हैं जिनकी छाया अमृत-रूपण है, और जिनके में मृत्यु उन्ह' "क" नाम वाले ... ३ - जो अपनी महिमासे दर्शनेन्द्रिय और गति शक्ति वाले जीवों के अद्वितीय राजा हुए हैं; और जो इन द्विपदों और चतुष्पदों के प्रभु हैं, उन "क" नाम वाले ' ४- जिनकी महिमा से ये सब हिमाच्छन पर्वत उत्पक्ष हुए हैं, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी सृष्टि ग्रह स सागरा धरित्री कही जाती है और जिनकी भुजाएँ ये सारी दिशाएँ है, उन "क" नाम वाले ५.-जिन्होंने इस उन्नत आकाश और पृथिवीको अपने-अपने स्थानों पर सदरूपसे स्थापित किया है, जिन्होंने स्वर्ग और प्रादित्यको रोक रखा है; और जो अन्तरिझमें जलके निर्माता है। उन "क" नाम वाले.. ६-जिनके द्वारा गौ और पृथिवी, शब्दायमान होकर; स्तम्भित और उल्लसित हुए थे; और दीप्तिशील छौ और पृथिवीने जिन्हें महिमान्वित समझा था। सथा जिनके पाश्रयसे सूर्य उगते और प्रकाश करते हैं, उन "क" नाम वाले..' -प्रचुर जल मारे मुवनको आश्छन्न किये हुए था। जलने गर्भ धारण करके अग्नि वा आकाश आदि सबको उत्पन्न किया। इससे वेवोंके प्राण, वायु उत्पन्न हुए । उन "क" माम वाले..' ८-बले धारण करके जिस समय जलने अग्निको उत्पन किया. उस समय जिन्होंने अपनी महिमाले उस जलके ऊपर चारों ओर निरीक्षण किया तथा जो देवोंमें अद्वितीय देवता हुए, इन "क" नाम वाले.. -जो पृथिवीके जन्मदाता है, जिनकी धारण-क्षमता सत्य है, जिन्होंने आकाशको जन्म दिया और जिन्होंने अानन्दवर्धक तथा प्रचुर परिमाणमें जलं उत्पन्न किया, वह हमें नहीं मारें। उन "क" नाम वाले... १५-प्रजापति तुम्हारे अतिरिक्त और कोई इन समस्त उत्पन्न प्रस्तुओंको अधीन करके नहीं रख सकता। जिस अभि Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ) लापासे हम तुम्हारा हवन करते हैं, यह हमें मिले । हम थानाधि पति हों।" .. हिरण्यगर्भ रहस्य-"मृष्टिकी आदिमें एक हिरण्यगर्भ था। यह हिरण्यगर्भ और कुछ नहीं. एक परम विशाल 'नीहारिका' था जो अपने अक्ष पर बड़ी तेजीसे घूमता था । जिस प्रकार प्रातिशबाजी की जाती हुई यानिकी निगाविस हद इटहर निकलती हैं। और उसी घरतीके आस-पास घूमने लगती है, उसी प्रकार उस घूमते हुये आदि हिरण्यगर्भसे किरोड़ों सूर्य ठूट- टूट कर निकले और उसके आस पास घूमने लगे और फिर इसी विधिसे प्रत्येक सूर्यसे और और टुकड़े होकर उनके सौर चक बने । हमारा सौर चक्र (अर्थात सूर्यक साथ आठों-ग्रही आदिका झंड) शोरी नामक एक बहुत बड़े सूर्यकी ओर बड़ी तीघ्रगतिसे भागा चला जा रहा है।" ( कल्याणके शिवांकसे । ) तथा पं० जयदेवजी विदालंकारने यजुर्वेद अ० १३ में इस मन्त्र के माध्यमें लिखा है कि राष्ट्र के पक्ष में--(हिरण्यगर्भः) सुवर्णकांश का ग्रहण करने बाला उसका स्वामी समस्त राष्ट्रके उत्पन्न प्राणियोंका एक मात्र पालक है। वही ( पृथिवीम ) पृथिवीस्थ नारियों और ( द्याम् ) और सूर्यके समान पुरुषों को भो पालता है। उसी प्रजापति राजा की हम (विषा) अन्न और अाझा पालन द्वारा सेवा करें।" ____ यहां हिरण्यगर्भक अर्थ सुवर्णमय कोशके स्वामी, राजा, किया है । तथा पृथिवी' और 'घाम' के जो विलक्षण अर्ध किये हैं, उसकी समालोचना करके हम व्यर्थ समय नहीं होना चाहते। सथा अथर्ववेद कां० १०में केन सूक्त है उसमें निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तस्मिन् हिरण्यं ये कोशे व्यरे त्रिप्रतिष्ठते । तस्मिन्यवपात्मन् वत्ततद्वै ब्रह्म विदो विदुः ॥ ३२ ॥ उस तीन अरों वाले. तीन सहारों वाले, सुनहरी कोशमें जो आत्मा (मन) सहित यश निवास करता है उसको आत्मज्ञानी ही जानते हैं। पं. सातवलेकरजीने वेदपरिचय' के तीसरे भागमें इस सूक्तकी सुन्दर व्याखाकी है। यहाँ पास्माका तथा उसके शरीरस्थ कोशीका मनोरम वर्णन है । पं. जी लिखते है कि"इनमें जो हृदयकोश है, उस कोशमें अात्मन्यत्तयक्ष" रहता है, इस यक्षको ब्रह्म ज्ञानी ही जानते हैं। यही यक्ष फेनोपनिषद्में है और देवी भागयतकी कथामें भी है। यह यक्ष ही सवका प्रेरक है यह "यात्मवान्यन" है । यह सब इन्द्रियों और प्राणीको प्रेरणा करके सबसे कार्य कराता है। यह अन्य देवोंका अधिदेव है, शरीरमें जो देवोंके अंश हैं उन सब देवोंको नियंत्रण करने वाला यही श्रात्मदेव है। यही आत्माराम है। इस रामकी यह दिव्यनगरी अयोध्या नामसे सुप्रसिद्ध है।" यही मण्डुकोपनिषद में है। हिरणाये परेकोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । तछुळं ज्योतिषां ज्योतिरसंघदात्म विदो विदुः । शराब व निर्मल और कलाहीन ब्रह्म (अ.त्मा) हिरण्मय ज्योतिर्मय (बुद्धि विज्ञान प्रकाश) इति श्री शंकराचार्य-- __अर्थान-बुद्धिारी विज्ञानमय कोशमें विद्यमान है ! यह श्रात्मा शुद्ध और सब ज्योतियोंमें एक सर्व श्रेष्ठ ज्योति है। उसे आत्मज्ञानी ही जानते हैं । इस प्रकार वै दक साहित्यमें हिरण्यगर्भ. हिरण्यकोश आदि शब्दों द्वारा आत्माका वर्णन किया गया है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २७० ) . श्री हीरेन्ननाथदत्तने बेदान्त रहस्यमें इस कोशका वर्णन निम्न प्रकार किया है। ब्रह्मपुर देह को पुर कहते हैं और पुरमें रहने से देही जीवको पुरुष कहने हैं। पुरिवमति शेते वा पुरुषः गीताने नवद्वारपुरदही' श्लोकम. देहरूपपुरमें देहीके रहनेका उल्लेख किया है। देहरूप पुरके-आँखें, क.न, मुँह, प्रभृति नव दरवाजे हैं । इसीसे जानिन्दने का ..... नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायते वहिः । श्वेत ३२१८ जीव रूप इस इस नवद्वार के पुरमें क्रीड़ा करता है ब्रह्मरन्ध और नाभिरल्धू को कहीं देह-पुरका ग्यारहयाँ दरवाजा कहा गया है। पुरमेकादशद्वारं अजस्यावक्रचेतसः । कठ० १११ केवल मनुष्य रूप जीत्रके रहनेका घर ही पुर नहीं है, बल्कि पशु, पक्षी कीट, पतंग सब प्रकारके जीवोंकी देहको पुर कहा गया है। पुरश्चके द्विपदः पुरश्चके चतुष्पदः । पुरः स पक्षी भूत्वा पुरुः पुरुष आविशत् ॥ वहः २.५१% ब्रह्मने द्विग्न पुर अनाया और उसने पक्षी बन कर पुरमें प्रवेश किया। पुरुषका अर्थ है नर-नारी। पक्षी, इतर प्राणियों Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशु, पक्षी, कीट, पतंग इत्यादिका उपलक्षण है । इस पुर-प्रवेशका वर्णन ऐतरेय उपनिषद्में इस तरह है सोऽभ्य एव पुरुष समुद्धत्या मूर्छयत् । तमभ्यतपत् । तस्यामि तमस्य मुखं निरभिद्यत। नासिके निरभिद्येता अक्षिणी निरभिद्येतो की निरभिद्यतां त्वङ् निरभिद्यत हुइय निरभिवत नामिनिरभि पन शिश्नं निरभिद्यत । ऐतरेय११३-४ अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशत् वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशदादियभानुभुलानिगी माविशादिशः श्रोत्रं भूत्पा कौँ प्राविशनोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरषानो भूत्वा नामि प्राविशदापोरेतोभूत्वा शिश्न प्राविशत् । ऐतरेय रा४ स. ईचत कथं विदं महते स्यादिति । स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति । स एतमेव सीमानं विदार्यतया द्वारा प्रापद्यत । सैषा बितिर्नाम । स एतमेव पुरुष ब्रह्म सतममपश्यदिदम दर्शमिति । ऐत. ३।११-१३ जस (परमात्मा) ने जलसे पुरुषमूर्ति उधृत करके उसे संमूर्छित कर दिया-उसे अभितप्त किया। उस अभितप्त मूर्तिका मुख निभिन्न होगया. नाक निर्मिन्न होगई. कान निर्भिन्न होगये, स्वचा निर्मिन्न होगई, हृदय निर्भिन्न होगया, नाभि निभिन्न हो गई, शिश्न निर्मिन्न होगया। तब इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवसाोंने उस मूर्तिमें प्रवेश किया। बाक इन्द्रियके रूप में अग्निने मुखमें प्रवेश किया। प्राणरूपसे वायुने नासिकामें प्रवेश किया। अनुरूप Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुयने आँखोंमें, बनस्पतियों ने ले म-रूपसे त्वचामें प्रवेश किया । चद्रमाने मनरूपसे उदयमें प्रवेश किया, मृत्युने अपानरूपसे, प्रवेश किया, जलने रेतापसे शिश्नमें प्रवेश किया, तब परमात्माने देखा कि बिना मर यह देह किस तरह रह सकती है? वह सोचने लगा कि मैं प्रवेश किस तरह करूँ। वह इस सीमा ( मस्तक) को चीरकर. उसी द्वार होकर, प्रविष्ट होगया। उस द्वारका नाम विरति (मझरन्ध ) है। उससे उक्तपुरुषने महाको (शरीरमें स्थित देख लिया। इस विवरण से मालूम हो जायगा कि ब्रहा ही जीव रूप से पुर में प्रवेश करता है। यह पुर का स्वामी है। इसके द्वारा जीव और ईश्वर तात्विक ऐक्य प्रतिपन्न होता है इस संबंध में गीता ने साफ साफ कह दिया है कि जीव ब्रह्म का ही अंश है । ममाशो जीवलोके जीवभूरः सनातनः । मीता १५७ सनातन जॉब ब्रह्म का ही अश है। गीता में अन्यत्र कहा गया हैश्रहमात्मा गुडाकेश सभृताशय स्थितः । गीता १०२० हे अर्जन : सबभूतों की बुद्धि में स्थित श्रात्मा(जीव) मैं ही (भगवान) हूँ। क्षेत्रज्ञश्चापि मा रिद्धि सई क्षेत्रेषु भारत । गीता १३,२ हे अर्जुन सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे (आत्मा को जानना । .. कर्पयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममवेतसः । माञ्चकान्त- शरीरस्थं तान् विद्यासुर निश्चयान् ।। गीता १७.६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) जो लोग श्रारिक साधक हैं, शरीर के भूतग्राम ( इन्द्रिय समूह ) को और शरीरस्थ इस आत्माको लेस देते हैं । यहाँ पर 'भूत ग्राम' शब्द इन्द्रिय समूहके लिये ही प्रयुक्त हुआ है। अतः भूतोंका अर्थ इन्द्रियाँ करना युक्तियुक्त हैं। इसलिये वैदिक साहित्य में जहाँ जहाँ पंच भूतोंकी उत्पत्तिका कथन है वहाँ वहाँ 'पाँच इन्द्रियों की उत्पत्तिसे अभिप्राय समझना चाहिये । उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोका महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युको देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ गीता १३/२३ इस देह में परमपुरुष परमात्मा महेश्वर विराजमान है, ओ साक्षी अनुमन्ता, भर्त्ता और भोक्ता भी है। परमात्मा, व महेश्वर आदि कहा गया है । यहाँ जीवको ही यथा सुदीप्तात् पावकाद् विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः । तथाचरात् विविधाः सोम्यभावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति || मुण्डक २ १११ यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा व्युच्चरन्प्येव मेवास्मादात्मनः सर्वे प्राणाः सर्व्वे लोकाः सर्व्वे देवाः सर्व्वाणि भूतानि व्युच्चरन्ति । ( बृह० २।१।२० ) * यहाँ भाष्यकारोंने 'भाषा' शब्दका अर्थ जीव ही किया है। इससे सिद्ध है कि वैदिक साहित्य में विचारोंको भी जीव कहते हैं। श्रतः जहाँ जहाँ ब्रह्मसे जीवों की उत्पत्तिका वर्णन है वहाँ वहाँ श्रात्मासे भावोंकी उनका वर्णन है । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार सुदीप्त अग्नि से एक ही सी हजारों चिनगारियाँ निकलती है उसी प्रकार अक्षर पुरुष ( ब्रह्मसे ) विविध विचार उत्पन्न होते हैं. और उसी में विलीन होजाते हैं। - जिस प्रकार अग्निसे छोटी २ चिनगारियां निकलती है उसी प्रकार उस आत्मासे सब प्राण, सब लोफ, सम देवता और सब भूत ( इन्द्रियाँ ) निकलते हैं। ___ यह जीव देहरूप पुरमें रहता है। इसीसे सो हृदयका नाम हद् अयं है। . सवा एष आत्मा हदि । तस्य एतदेव निरुतम् । इदि प्रयमिति । वस्मात् हृदयम् । छान्दोग्य, ८३३ बह बास्मा हृदयमें विराजमान है । उस की निरुक्ति ऐसी ही है। वह हृदय में है, इसी लिये हृदयको रुद् अयं कहते हैं। गीतामें भी श्रीकृष्णने बारम्बार यही उपदेश दिया है हृदि सर्वस्य । धिष्ठितम् । गीता १३ । १७ . . सर्वस्प चाई हृदि सभिविष्टः । गीता १५ । १५ ईश्वरः सर्वभूताना हृदेशेऽजु तिष्ठति । गीता १८६१ बहू सबके हृदयमें अविदित है, सबके हृदय में सनिविष्ट है और सब भूसोंके लन्यमें विराजमान है। इस हृदयको उपनिषक्ने स्थान स्थान पर गुहा कहा हैगुहाहितं गङ्खरेष्टं पुराणम् । कहीं कहीं पर इसका नाम पुण्डरीक अथवा मृत्पा है Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) कोशे विलसत् तडित्प्रभम् (भागवत) पद्मकोश प्रतीकाशं सुविरश्वाप्यधोमुखम् । हृदयं तद्विजानीयात् विश्वस्यायतनं महत् ॥ ब्रह्मोपनिषद् ४० हृत्पुण्डरीकं विरजं विशुद्धं विचिन्त्यमध्ये विशदं विश कम् | कैवल्य १०५ पवकोश प्रतीकाशं हृद्यं चाप्यधोमुखम् । नारायण १२/१ ततो रक्तोत्पलाभासं पुरुषायवनं महत् । दहरं पुण्डरीकं दद्वेदान्तेषु निगद्यते । चुरिका १० उस पद्मat freefफस्ट लोग Auric bady कहते हैं । यही जीवका चरमकोश है। हिरगमये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । साधारण जीवोंके जिन पाँच कोषों का उल्लेख पाया जाता हैअन्नमय, प्राणमय, मनोमय विज्ञानमय और आनन्दमय वह कोष उनके भीतर भी है। इसीसे इसे परकोष कहा गया है। यह ज्योतिर्मय विद्युतकी भांति चमकीला है। इसीलिये इसे हिरण्मय कहा गया है। इस कोशको लक्ष्य करके नारायण उपनिषद् ने इस है : प्रकार क 1 नीलतोयस मध्यस्था विद्युल्लेखेव मास्वरा । नीघारशुकवत् मन्त्री पीता भास्वस्यनूपमा !! यह कोश बहुत ही सूक्ष्म, नये उपजे धानके अगले भागकी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह और बिजलीकी तरह धमकीला, है इसीम जीवात्माका निवास है। ......... . तस्याः शिवाया पध्ये तु परमात्मा व्यवस्थितः । . - मैत्रायणी उपनिषद्म यही बात लिखी है-- 'हृयाकाशमय कोश श्रानन्दं परमालयम् । मैंत्र० ६७ नारायण उपनिषद्का भी यही उपदेश है। .... दहं विपापं परवेश्मभृतं यत्पुण्डरीक पुरमध्यसंस्थम् । तत्रापि दहं गगन विशोकस्तस्मिन्यदन्तस्तदुपासितव्यम्।। ... अर्थात्-देहरूप पुरमें एक बहुतसी सूक्ष्म पुण्डरीक विराजमान है। उस पुण्डरीकमें जो परम देवता शोकतीत. पापहीन: गगन सदृश अधिष्ठित है उसकी उपासना करनी चाहिये । _ यह पर-देवता ही ब्रह्म है और इसीलिए देहको श्रद्धापुर कहते है. इस सम्बन्धमें छान्दोग्य उपनिषद्का यह उपदेश है-- - अथ यदिदम् अस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीक वेश्मा दहरोऽस्मिन् अन्तर आकाशः । तस्मिन् यदन्तः तद् अन्वे-- पृव्यम् तद् विजिज्ञासितव्यम् । छान्दोग्य, ८१२१ इस ब्रह्मपुर ( देव ) में क्षुद्र पुण्डरीक रूप एक घर है; वहाँ कोटासा अन्तर आकाश है। उसके जो भीतर है उसका अन्वेषण अनुसंधान करना चाहिये । लो ग्रह अन्तराकाश क्या चीत है ? श्री शंकराचार्य इसी आकाशको ब्रह्म कहते हैं। इस आकाशके सम्बन्ध छान्दोग्य उपनिषद् कहता है- '' Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 क यावत्या श्रयमाञ्श्राशयानेोऽदिर साकाशः । उभे अस्मिन्याचा यित्री अन्तरेव समाहिते उभावनिश्व वायुश्च सूर्याचन्द्रमा विद्युना यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्व्वं तदस्मिन् समाहितम् इति । छा० ८ ११।३ I बहु अन्तर- हृदयका आकाश इसी आकाशकी तरह बृहत् है । स्वर्ग, मत्र्य, अत्रि, वायु चन्द्र सूर्य, विद्युत्, नक्षत्र- जो कुछ हैं; और जो नहीं हैं - सब उसीके अन्तर्गत है। अन्यत्र देहको देवालय कहा है- देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवाः केवलः शिवः । मैत्रयी २११ देहको इस लिए देवालय कहते हैं कि यहाँ पर सदाशिव विष्टि है। देह जिसे देवताका आलय है वे देव स्वयं भगवान हैं। उपनिषद् में उनका केवल देव शब्द द्वारा अनेक स्थानों पर निर्देश किया गया है। वह युतिमान् देवता है, ज्योतिफा ज्योति है. इसी से उसका नाम देव (दिव द्योतने ) है वह (ज्ञानंसे ) सर्वव्यापी हैं और सारे जगत् में अनुस्यूत है इसीसे वह देव (दिव व्याप्ती) है। इसलिये उसका एक नाम विष्णु (वैषष्टि इति विष्णुः) है। श्वेताश्वतर उपनिषद्का कथन है- । " उपरोक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि - हिरण्यगर्भ परमात्मा, महेश्वर, सब नाम इसी जीवात्मा के हैं. संथा इस जीवके प्राण ध्यादिकी रचनाको ही हिरण्यगर्भ की सृष्टि रचना कहा जाता है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष सूक्त सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राचः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो स्वात्य तिष्ठद्दशाकुलम् ।। १ ।। पुरुष एवेदं सर्वं यद्भुतं यच भव्यम् । उतमृतत्वस्येशानो यदन्नेनाति रोहति ।। २ ।। एता वानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः पादौऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३ ॥ त्रिपादर्ध्व उदैन पुरुषः पादोस्येहा भवत् पुनः । ततो व व्यक्रामत् साशनानशने अभि ॥ ४ ॥ तस्माद्विरडाजायत् विराजो अधि पूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत् पश्वाद्भूमि मथोपुरः || | यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञ मतन्वत | वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इष्मः शरद्धषिः ॥ ६ ॥ तं यचद्दिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः । तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ।। ७॥ तस्माद्यज्ञात् सर्वहृतः सभृतं पृषदाज्यम् । पशून तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्यांथ ये || ८ || Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७६ ) तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋषः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जत्रिरे तस्माद्य जुस्तस्मादजायत ॥ ६ ॥ तस्मादश्वा अजायन्त ये के घोभयादतः । गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजाययः ॥ १० ॥ यत् पुरुपं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् । मुखं किमस्य को याहू का अरू पादा उच्यते ॥ ११॥ प्रामणोऽस्य मुखमासीद् वाहू राजन्यः कृतः । अरू उदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ १२ ॥ चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत । भुखादिन्द्र वाग्निश्च प्राणाद्वायु जायत । १३ ॥ नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीणों धौः समवर्तत । पदम्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकां प्रकल्पयन।१४। सप्तास्वासन परिचय स्त्रिः सप्त समिधः कृताः । देवा यद्यचं तन्वाना अवघ्नन् पुरुष पशुम् ।। १५ ॥ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह ना महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६ ॥ ५.-अर्थ-विराट्पुरुष सहस्र (अनन्त , शिरों अनन्त बक्षुओं और अनन्त चरणों वाले हैं । वह भूमि (ब्रह्माण्ड) को चारों ओरसे व्याप्त करके और दश अंगुलि-परिमाय Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ...८० ) अधिक होकर अर्थात् ब्रह्माएड से बाहर भी व्याप्त होकर अवस्थित हैं.। . ____२-जो कुछ हुआ है और जो कुछ होने वाला है, सो सब ईश्वर (पुरुप ) ही हैं। वह देवत्व के स्वामी है; क्यों कि प्राणियों के भोग्यके निमित्त अपनी कारणावस्था को छोड़ कर जगवस्था को प्राप्त करते हैं। . ३–यह सारा ब्रह्माण्ड उनकी महिमा है-यह तो स्वयं अंपनी महिमासे भी बड़े हैं । इन पुरुषका एक पाद (अश) ही यह ब्रह्माण्ड है-इन पविनाशी तीन पाट तो दिल लोक में .. ४-तीन पादों वाले पुरुष ऊपर ( दिव्य धाममें ) उठे और उनका एक पाद यहाँ रहो । अनन्तर बह भोजन-सहित और भोजन-रहित (चेतन और अचेतन ) वस्तुओंमें विविध रूपों से व्याप्त हुये। ५-उन आदि पुरुषसे विराट ( ब्रह्माण्ड-देह) उत्पन्न हुश्रा और ब्रह्माण्ड-देहका आश्रय कर के जीव-रूपसे पुरुष उत्पन्न हुए । वह देव-मनुष्यादि-रूप हुए। उन्होंने भूमि बनाई और जीवों के शरीर ( पुरः ) बनाये । ६--जिस समय पुरुष-रूप मानस हषिसे देवों ने मानसिक यज्ञ किया, उस समय यज्ञ में बसन्त-रूप घृत हुआ ग्रीष्म-रूप काष्ठ हुन्मा और शरद् हव्य-रूपसे कल्पित हुथा। ___ -जो सबसे प्रथम उत्पन्न हुए. उन्हीं ( यश-साधक पुरुष) को यज्ञीय-पशु-रूपसे मानस यज्ञ में दिया गया। उन पुरुषके द्वार। देवों-साध्यों (प्रजापति आदि) और ऋषियोंने यन किया । ८-जिस यज्ञमें सर्वात्मक पुरुषका हवन होता है, उस मानस Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८१ ) यज्ञसे दधि मिश्रित घृत श्रादि उत्पन्न हुए। उससे वायु देयत्ता वाले वन्य (हरिण श्रादि ) और ग्राम्य ( कुक्कुर ) आदि उत्पन्न डाए। ह-सर्वात्मक पुरुषके होमसे युक्त उस यज्ञसे ऋक और साम उत्पन्न हुए । उससे गायत्री श्रादि छन्द उत्पन्न हुए और उसीसे यजुः की भी उत्पत्ति हुई। १५-उस यज्ञसे अश्व और अन्य नीचे-ऊपर दाँतों वाले पशु उत्पन्न हुए । गौ, अज और मेष भी उत्पन्न हुए। ----११-जोविराद पुरुप उत्पन्न किए गये. वह कितने प्रकारों से उत्पन्न किये गये? इनके मुख, दो हाथ, दो उरू और दो चरण कौन हुए। १२--इनका मुख ब्राह्मण हुश्रा, दोनों बाहुओंसे क्षत्रिय बनाया गया, दोनों जरुओं ( जघनों) से वैश्य हुश्रा और पैरोंसे शुद्र उत्पन्न हुआ। . १३–पुरुषके मनसे चन्द्रमा. नेत्रसे सूर्य, मुखसे इन्द्र और अग्नि तथा प्राणसे वायु उत्पन्न हुए। १४-पुरुषकी नाभिसे अन्तरिक्ष, शिरसे चौ ( स्वर्ग) चरयों से भूमि श्रोत्रसे दिशाएँ आदि बनाये गये। १५-प्रजापतिके प्राणादि-रूप देवोंने मानसिक यमके सम्पादन-कालमें जिस समय पुरुषरूप पशुको बाँधा उस समय सात परिधियाँ (ऐष्टिक और श्राइवनीयकी तीन और उत्तर वेदीकी सीन वेदियाँ नथा एक आदित्य वेदी आदि सात परिधियाँ वा सात छन्द ) बनायीं गयीं और इक्कीस ( बारह माल. पाँच ऋतुएँ तीन लोक और आदित्य ) ग्रहीय काष्ट वा समिधाएँ बनायीं गई । १६-देवोंने यज्ञ (मानसिक-संकल्प) के द्वारा जो यज्ञ किया घा पुरुषका पूजन किया, उससे जगत रूप विकारोंके धारक और Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २८२ ) मुख्य धर्म हुए । जिस स्वर्ग में प्राचीन साध्य ( देव जाति विशेष ) और देवता हैं उसे उपासक महात्मा लोग पाते हैं । .. १.६० श्री. सायणाचार्यके मतसे यह विराट पुरुष, राष्ट्र है आप लिखते हैं कि "सर्व प्राणी समष्टि रूपो ब्रह्माण्डदेहो विसडाख्यः पुरुषः सोयं सहस्रशीर्षा" अर्थात्-सर्व प्राणी साभिरूप मा देह बार विराट नामक पुरुष सहनशीषों है । इसीका नाम राष्ट्रपुरुष है। समाज अथर्ववेदके भाष्यमें इसी सूक्तका भाष्य करते हुए पं. जयदेवजी विद्यालंकार लिखते हैं कि "किसी प्रजापतिके शरीरके मुख श्रादि अवयवोंसे बालकके समान ब्राह्मण आदि षों के उत्पन्न होनेका मत असंभव होनेसे अप्रमाणित है। यह केवल समाजरूप प्रजापति पुरुष जिसकी हजारों आँखे और पैरों श्रादिका प्रथम मन्त्रमें वर्णन किया है. उसके ही समाजमय शरीरके अंगोंका वर्णन किया गया है।" राजा _ यजुर्वेदके भाष्य अ. ३१ में इन्हीं मन्त्रोंका अर्थ राजा परक भी किया है। मापने लिखा है कि Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ( सहन ) यह राजारूप पुरुष, हजारों शिरों पाला, हजारों श्रखिों वाला, हजारों पैरों वाला है।" __ इसी प्रकार सम्पूर्ण मन्त्रों के अर्थ राजा, व राजसभा, परक किये हैं । तथा च सामवेदमें; एयं अथर्ववेदमें आपने इन मन्त्रों के अथ जीवात्मा परक भी किये हैं। अतः यहां ईश्वरका कथन इन विद्वानों को भी सन्देहास्पद है। तथा च भारतीय ईश्वरवादमें, पाण्डेय रामावतार शर्मा लिखते हैं कि "ऋग्वेद के पुरुष व नासदीय सूक्त विद्वानों द्वारा सांख्यमसके मूल कहे गये हैं। और वेदान्ती भी वेदान्त के मूलभं जन सूक्तोंको स्वीकार करते हैं।" ___ (१) मूर्त (२) अमूर्त, (द्वा थेव ब्रह्मणो रूपे मूर्त वैवा ! भूत' च मर्य चामृतं च ) इस शुक्षिके दो अर्थ किये गये हैं एक अधिदैवत दूसरे अध्यात्म अनियतमें आकाश और वायु को ब्रह्म । पुरुष ) कहा गया है और उन्हींको अमूर्त और अमृत, आदि कहा गया है । तथा श्री शंकराचाचायने अपने भाष्यमें लिखा है कि-"पक्ष पुच्छादि विशिष्ट स्यैव लिंगस्य पुरुष शन्द दर्शनात्" । अर्थात् तेतिीय श्रुति में लिंग शरीर को ही पुरुष कहा गया है । तथा च यहाँ एक श्रुति को भी उद्धृत किया गया है (न वा इयं मन्सः शक्ष्यामः प्रजाः प्रजनवितु भिमान् सप्त पुरुषा ने पुरुष कर बामति त तान् सप्त पुकानेक पुरुषम कुर्वन | अर्थात्, "इस प्रकार हम पृथक ६ रहते हुए प्रजा उत्पन्न नहीं कर सकते अतः इन सात पुरुपोंको (श्चोत्र, त्व, चक्षु, जिला, प्राण, वाक, और मनको) इभ एक करवे । ऐसा विचार कर उन्होंने इन सात पुरुषोंको एक कर दिया ।" वहां स्पष्ट रूपसे इन्द्रियोंका और मनका ही नाम पुरुष कह कर अन्य कल्पित घों का खंडन कर दिया है । अतः यह सिद्ध है कि पैदिक साहित्य में पुरुष शरुन कायु श्रादि के लिये तथा इन्द्रियों व मन अथवा जीवात्मा के लिये ही प्रयुक हुआ। है | Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८४ यह निश्चित है कि सांख्यवादी विद्वान पुरुषको कर्ता नहीं मानते तथा ईश्वरका वे प्रवल युक्तियों से खंडन करते हैं । यहीं अवस्था मीमांसा दर्शनकी है। जैमुनि ऋषिके मत से भी वेदों में सृष्टिकर्त्ता ईश्वरका कथन नहीं है। उनके मत में यह कथन केवल यजमान व देवताकी स्तुति मात्र है । वा परिचय पं० सालकरजी लिखते हैं कि 1 अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्ध्वं छतं ते प्राणा सह स्रं व्यानाः | यजु० १७/७१ "इस मन्त्रका सहस्राक्ष अनि आत्मा है । शतक्रतु, इन्द्र, सहस्राक्ष आदि शब्द आत्मा वाचक ही हैं । सहस्रा तेजो का धारण करने वाला आत्मा ही सहस्राक्ष अभि है। प्राण, उदान व्यान आदि सत्र प्राण सैकड़ों प्रकार के हैं । प्रारण का स्थान शरीर में निश्चित हैं। हृदय में प्राण हैं, गुदाके प्रान्त में अपान हैं. नाभिस्थान में समान है, और कंटमें प्रदान है, और सब शरीरमें व्यान है प्रत्येक स्थानमें छोटे र भेद सहस्रों हैं ।" इसी लिये जीवात्माको 'सहस्राक्ष' आदि कहा गया है। तथा चब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा है कि श्रात्मा हि एवं प्रजापतिः । शत० ४/६ |१| १ इसी प्रकार अन्य अनेक स्थानों पर भी इसी आत्माको प्रजापति कहा है इसी प्रकार, हिरण्यगर्भ, ब्रह्म, पुरुप विश्वकर्मा आदि सब नाम आत्मा के ही हैं। तथा च क्र. उ० (२।३ । ) में पुरुष (ब्रह्म) के दो रूपों का वर्णन है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५ । मुण्डकोपनिषद् एतस्म ज्जायते प्राणो मनो सर्चेन्द्रियाणि च । खं वायु ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी। अग्निमूर्धा चनुषी चन्द्रमा, दिशः श्रोत्रे वाविवृताश्च वेदाः । वायु प्राणो हृदयं विश्वास्य, पद्भ्यां पृथिवी श्रेषसब भूतान्तरात्मा ॥ ४ ॥ तस्मादग्निः समिधोयस्य सूर्यः सोमात् पजन्य औषधयः पृथिव्याम् । पुमान् रेतः विचति योपितायां वहचीः प्रजापुरुपान् सम्प्रसूताः ।। ५ ॥ यस्माद् च सामयजूपि दीक्षा यज्ञाश्वसर्व कलयो दक्षिणाश्च । सम्बन्सरश्च यजमानश्व लोकाः सोमो यन परते यत्र सूर्यः ॥ ६॥ तस्माच देवा बहुधा संप्रखताः, साध्या मनुष्याः पशवोवयांसि प्राणु।पानी ब्रीहि यो तपश्च श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च ॥ ७ ॥ सप्तप्राणाः प्रभवन्ति तस्मात् , सप्ताचर्षिः समिधः सम्लहोमाः । सप्त इमे लोका ये प्रचरन्ति पाया गुहाशया निहिताः सप्त मत ॥८॥ अर्थ-इस जीवात्मासे, प्राण मन. मम्पूर्ण इन्द्रियाँ, तथा आकाश, वायु. जल. पृथिवी. अादि उत्पन्न हुये इम आत्माका Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) श्रमि मस्तक हैं, चन्द्र व सूर्य नेत्र हैं, दिशायें कान हैं, और वाणी इसकी वेद हैं। इस आत्माका वायु प्राण है, सम्पूर्ण विश्व इसका हृदय है, उसी आत्मा के चरणोंसे पृथिवी उत्पन्न हुई. यह आत्मदेव सब प्राणियोंका अन्तरात्मा है उसी आत्मासे सरां जिसकी समिधा है ऐसा पनि उत्पन्न हुआ. सोम (चन्द्रमा) से मेघ और संघसे पृथिवी पर औषधियाँ उत्पन्न हुई। पुरुष स्त्री (औषधिया उत्पन्न हुआ) वीर्य सींचता है. इस प्रकार आत्मा से ही यह प्रजा उत्पन्न हुई है । इसी आत्मासे, वेद, यज्ञ, ऋतु, दक्षिणा, संवत्सर. यजमान लोक आदि उत्पन्न हुये है । उसीसे देवता व साध्यगण, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्राण, अपान यदि उत्पन्न हुये हैं । उसी आत्मासे. सप्तप्राण ( मस्तकस्थसात इन्द्रियाँ ) उत्पन्न हुये। आत्मा से ही उनकी सात ज्यांतियाँ सात समिधा (विषय) सप्तहोम ( विषय ज्ञान) और जिनमें वे संचार करते हैं वे सात स्थान प्रकट हुए हैं । प्रति देह में स्थापित ये सात २ पदार्थ इस जीवात्मा से ही उत्पन्न हुये हैं । I इस प्रकार उपनिषदोंमें आत्माकी स्तुति की गई है। ये श्रुतियां पुरुष सूके अनुवाद स्वरूप हैं। अतः यह सिद्ध है कि पुरुष सूक्त में भी इसी श्रात्माकी स्तुति है न कि किसी कम्पनिक ईश्वरका कथन । पक्त श्रुतिका अर्थ सभी विद्वानोंने जांव परक किया है अतः यह प्रकरण जीवका है यह निर्विवाद है यथा- Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ܬܐ मनोमयः प्राण शरीर नेता प्रतिष्ठितोऽन्ते हृदयं सन्निधाय । तद् विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा श्रानन्दरूपममृतं यद् विभाति || श२७ अर्थ-यह आत्मा मनोमय ( ज्ञानमय) है. प्राण और शरीर का नेता है, हृदय में स्थित है तथा अन्न प्रतिष्ठित है धीर लोग शास्त्र द्वारा उसे जानते हैं । अतः यह सिद्ध हैं कि यह आत्मा का प्रकरण और वर्णन है। पुरुष सूक्तकी अन्तः साक्षी भाष्यकारो ने इस पुरुषसूक्तके अनेक परस्पर विरोधी अर्थ किये हैं. अतः हम उनसे किसी परिणाम पर नहीं पहुँच सकते । इसलिये आवश्यक है कि हम इसकी अन्त: परीक्षा करें। जब हम इसकी अन्त: परीक्षा करते हैं तो हमे स्पष्ट विदित हो जाता है कि यहां वर्तमान ईश्वरका संकेत भी नहीं हैं। क्योंकि निम्न लिखित मन्त्र इस कल्पनाका उच्चस्वरसे विरोध कर रहे हैं। यथा-इस सूक्तके प्रथम मन्त्रमें ही आया है कि 'श्रतिष्ठद् दशांगुलम्' अर्थात् यह पुरुष दशांगुल ऊपर ठहरा है । इसका अर्थ करते हुये, महीधर व उत्रट आदि सभी प्राचीन भाध्यकारोंने लिखा है कि " दश च तानि अंगुलानि इन्द्रियाणि तथा च केचिद् दर्शागुल प्रमाणं हृदयस्थानम् । अपरेतु नासिकाग्रं दर्शा - गुलमिति ।" अर्थात् दश अंगुलिका अर्थ यहां दस इन्द्रियां हैं, उन इन्द्रियों से परे आत्मा है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८८ । तथा अन्य ऋषियोंका मत है कि-दशांगुलबद्वय स्थान है. उसमें अथवा उससे परे यह अात्मा है। एवं कई ऋप्रियांका मत है कि दशांगुलसे अभिप्राय यहाँ नामिका अग्रभागसे है । वहाँ ध्यान करनेसे यह आत्मा प्राप्त होता है। अतः स्पष्ट है कि यहाँ जीवात्माका कथन है। तथा च-उपनिषद्में है किपुरमेकादश द्वारम जर स्यापक चेतस | कठ० उ० २१ अर्थात्-यह शरीर रूपी पुर ( नगर ) ग्यारह दरवाजों वाला है। इस पुरका स्वामी ( अात्मा) दस दरवाजोंको लांघ कर रहता है। अभिप्राय यह है कि उपनिषदूकार अपने उपरोक्त मन्त्रके ही भावको व्यक्त किया है। इसी प्रकार अथर्ववेदमें भी-- . "अष्टा चका नव द्वारा" से इस प्रात्माके नगरका वर्णन किया है.। मायणाचार्य सर्व वेद भाष्यकार सायणाचार्यने अथर्ववेदमें आये हुए इस सूक्तके आत्मपरक अर्थ भी किये हैं। श्राप लिखते हैं कि-- "अत्रदशांगुल शब्देन हृदयाकाशम् उच्यते, तद् अत्यतिष्ठत् । पूर्व हृदयाकाशे परिच्छन्न स्वरूप सन् स्वानुष्ठित ऋतु सामर्थ्यात् परिच्छिन्नाकारा परित्यज्य सर्वाति शायि स्वरूपोऽभवद् इत्यर्थः ।" Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ अर्थ - "यह पुरुष पहले हृदयाकाशमें स्थित परिच्छिन्न रूप चाला था, पुनः अपने अनुष्टित यज्ञ द्वारा सर्वाति शायिरूप वाला होगया ।" अभिप्राय यह है कि यह आना अपने तप आदि मुक्त हो गया. उसी मुक्त आत्मा परमात्माका यह पुरुष नामसे वर्णन है । यह तो हुआ परमेश्वर परक अर्थ तथा जीवात्मा परक अर्थ भी इसके किये हैं। जिसका उल्लेख हम अगले मन्त्रों के अभिप्रायों में लिखेंगे। पुरुष शब्दका उपरोक्त अर्थ ही उपनिषद में किया है। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं। अतः स्पष्ट है कि यहाँ परमेश्वर पुरुष आदिका अर्थ मुक्तात्मा है। तथा च यह वर्णन संसारी आत्मा का भी माना जाता है । ये दोनों ही अर्थ हमें अभिष्ट हैं। तथा च जां विद्वान इसका अर्थ काल्पनिक ईश्वर परक अर्थ करते हैं वे सब प्राचीन मर्यादाके विरुद्ध होनेसे त्याज्य हैं । यह तो हुआ प्रथम मन्त्रका अर्थ — अब इसका दूसरा मन्त्र लीजिये | मन्त्र में लिखा है कि " यदन्नेनाति रोहति" यह पुरुष अनसे बढ़ता है। अतः स्पष्ट है कि यह अन्नसे बढ़ने वाला ईश्वर नहीं हो सकता । अतः स्वाः दयानन्दजी इसका अर्थ करते हैं कि- " ( यत् अन्नेन ) पृथिव्यादिना ( अति रोहति ) अत्यन्तं वर्धते ।" Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थमें लिया है कि-"जो पृथिवी श्रादिके सम्बन्धसे अत्यन्त बढ़ता है।" ___ संस्कृत में तो अन्नसे अत्यन्त बढ़ता है. यह पुरुषके साथ सम्बन्धित था किन्तु भाषाकारोंने आरोहति क्रियाका कर्ता जगत को बना दिया । जो कुछ भी हो यह बात पं० सातवलेकरजीको खटकी अतः उन्होंने इसका अर्थ किया है कि-"यन् जो अमर पन ( अन्नेन ) अन्नके द्वारा (प्राप्त होने वाले सुखसे ) (अतिरोहति ) बहुत ही उपर ऊँचा है।" तथा च यहाँ ( प्राप्त होने वाले सुखसे ) इस पदका अध्याहार भी किया गया है। तथा च सूक्तके भाष्यमें एवं आगे सूतके आशयमै, शंकरमतके (अद्वैत) की पुष्टि की गई है। (वेद-परिचय) भाग, २। पं० जयदेवजी विद्यालंकारने सामवेद भाष्यमें लिखा है कि___यही अमरजीव इस संसारका स्वामी है जो अन्नद्वारा कर्म फल भोगके द्वारा (अतिरोहति) मूलकारणसे कार्यको उत्पन्न करता है। अर्थात् ससारको उत्पन्न करता है।" आपने बारीहति' का अर्थ उत्पन्न करता है करके पहले की सम्पूर्ण भूलोंको सुधारनेका प्रयत्न किया है। तथा सामवेद भाष्यम, पं० तुलसीरामजीने लिखा है कि "( यत ) ( अन्नेन) प्राणिना भोग्येन (अति रोहति) जीवति तस्य ( उत) अमृत ( वस्य) मोक्षस्य (ईशानः) अधिष्ठातापि स एव ।" . भाषामें लिखा है कि--"जो कुछ अन्नसे उपजता है, उसका और मोक्षका अधिष्ठाता परमात्मा ही है।" Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृतमें था 'प्राणिनां भोग्येन जीवति' अर्थात--प्राणियोंके भोग्यसे जीता है। उसीको भाषामें लिखा है "जो कुछ अन्नसे उत्पन्न होता है।" ग्रह भेद क्यों किया गया है यह उनकी दिवंगत आत्मा ही जानती होगी। सायणाचार्य "अन्नेन प्राणिनां भोग्येन निमित्तेनाति रोहति स्वकीयां कारणावस्थामति क्रम्य परिदृश्यमानां जगदवस्था ग्रामोति" ___ अर्थात--प्राणियोंके भोग्यके निमित्तसे स्त्रकाय कारण अवस्थाका त्यागकर यह पुरुष स्थूल जगद्वस्थाको प्राप्त होता है। प्राणियोंके कर्मफलके देनेके लिये उसने कार अवस्था प्रहण की है परन्तु इसकी यह अपनी निज अवस्था नहीं है । महीधर---ने सायणाचार्यकी नकल मात्र की है। उवट-आपने लिखा है कि"यत अन्नेन अमृतेन, अति रोहति अति रोध करोति" अर्थात--आपने अन्न का अर्थ अमृत किया है तथा अति रोहतिका अर्थ प्रतिरोध किया है। अभिप्राय यह है कि जितने भाष्य उतने ही अर्थ। परन्तु दुःखसे लिखना पड़ता है कि ये सब भाष्यकार केवल अन्धेरेमें पत्थर फेंक रहे हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविक अर्थ तपसा चीयते ब्रह्म ततो अन्नमभि जायते । अन्नात्राणो मनः शा लोकाः कर्मा वामृता ।। १।८ अर्थात्---यह आत्मा तपसे कुछ फूलसा जाता है । पुनः उससे अन्न उत्पन्न होताहै और अन्न से प्राण, मन, सत्यलोक; और कर्म आदि उत्पन्न होते हैं। तथा कर्मसे अमृतनामक कर्मफल ( देवयानि) प्राप्त होता है। यही इस पुरुषका अन्नसे बढ़ना है। यहाँ अन्नका अभिप्राय कारण प्रारणसे है जिसको भाव प्राण कहते हैं । उससे अन्यप्राण, मन, सत्वलोक, आदि सूक्ष्म और स्थूल इन्द्रियाँ तथा स्थूल प्राण उत्पन्न होत है । तथा च--- स वा एप महानज श्रात्मान्नादो वसु दानो विन्ददे वसु य एवं वेद । वृ० उ०४ । ४ । २४ ___अर्थान-यह महान आत्मा, अन्न भक्षी; और कर्मफल देने वाला है । जो ऐसा जानता है उसे सम्पूर्ण काँका फल प्राप्त होता है। मूलमें वमु दान' शब्द है जिसका अर्थ धन दाता होता है, परन्तु श्री शंकराचार्य एवं श्री रामानुजाचार्य श्रादिने इसके अर्थ कर्मफल दाता किये हैं: अतः हमें कुछ आपत्ति नहीं है। और जो भाध्यकारों ने यहाँ कर्मफल दाता अर्थ करके ईश्वर परक अर्थ किया है वह सर्वथा भ्रममात्र है। क्योंकि वैदिक वांगमयमें कहीं भी कर्म फलके लिये ईश्वरकी आवश्यक्ता नहीं मानी गई है । तथा उपरोक्त अतिमें भी इस श्रात्माको अन्नाद अर्थात् 'अन्न रचनेवाला कहा है Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ सभी भाष्यकारोंने यही अर्थ किया है। अतः या अन्नाद्जीव, ईश्वर नहीं है । वास्तवमै तो यहाँ धम् शब्दके अर्थ अष्टकर्म ही सुसंगत हैं। कोका फल अात्मा स्वयं किस प्रकार देता है इसका वर्णन हम उसी प्रकारणमें करेंगे। तथा च वेदान्तसूत्रोंसे जो ईश्वर फल प्रदाता निकाला जाता है यह भी ठीक नहीं है । इसका भी विस्तारपूर्वक विवेचन यहीं होगा। . अन्न दू में प्रच्यन्ते .... 'अन्नाद् भृतानि जायन्ते । जातान्यन्नेन वर्धन्ते ।। स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । ते० उ० २।२।१ ___ अर्थात्--अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है. फिर वह अन्नसे ही जीती है। अन्नसे ही प्राणि उत्पन्न होते हैं. तथा अन्नसे ही बढ़ते हैं। इस अन्नरसमय पिएसे. उसके भीतर रहने वाला दूसरा - शरीर प्राणमय है। उसके द्वारा ग्रह ( अन्नमय कोश ) परिपूर्ण है । अन्नमय कोशी पुरुषाकारताके अनुसार ही यह प्राणमय कोश भी पुरुषाकार है। आदि । इस प्राणमयकोशसे अन्नमय काशकी रचनाका नाम ही पुरुषकी सृष्टि रचना कहलाती है। यह सम्पूर्ण कार्य अन्नसे ही होते हैं अतः इसीको ‘अन्जेन अति रोहति श्रुतिमें अन्नसे बढ़ता है, यह कहा है। मन्त्र तीसगा--- ___ "एतावानस्य महिमा" इस मन्त्रमें कहा है कि इस पुरुपके चार पाद है. इसके एक पादमें सम्पूर्ण संसार है, तथा तीन पाद गुलोकमें अमर हैं। यहाँ भी इसी आत्माकी चार अवस्थाओंका वर्णन है जैसा कि हम E Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) 'ॐ' की व्याख्या में लिख चुके हैं। अर्थात् बहिष्प्रज्ञ, अन्त- प्रज्ञ, और प्रज्ञानघन, ये तीन मात्रायें ॐ की तथा चतुर्थं मात्रा इनसे ऊपर जिसको तुरीय अवस्था कहते हैं, वह श्रात्माकी शुद्धावस्था है । इस आत्माकी प्रथम अवस्था में ही सब स सार है । इसीको हित्मा संसारी कहते हैं। इसकी अन्य अवस्थाओं में संसारका नाश हो जाता है। अर्थात- यह ससारसे विरक्त होजाता है । यहीं मन्त्र छा ०३०१५८६ में भी श्राया है। वहाँ श्री शंकराचार्य लिखते हैं कि-"पुरुषः सर्व पूर्णात् पुरिशयनाच्च । " (शरीर ) में शयन करने यह पुरुष है । तथा च यजुर्वेदभाष्य में उबट' लिखते हैं कि"त्रयोशाः अस्य पुरुषस्य अमृतम् ऋग्यजुः सामलनम् आदित्य लक्षणं वा दिवि द्योतते इति ।" अर्थात -- सबको पूर्ण करने से व पुर से 1 अर्थात- इस पुरुष के तीन अंश (ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद, लक्षण वाले, अथवा सूर्यरूप) लोक में है। इसी प्रकार अन्य भाष्यकारों भी अनेक कल्पनायें की हैं। परन्तु छान्दोग्य उप निषद् ने इसे राष्ट्र कर दिया है । यथा यद् वै तत्पुरुषे शरीरमिदं वाच तद् यदिदमस्मिन्न अन्तः ra पुरुषे हृदयमस्मिन्ही मे प्राणाः प्रतिष्ठिता एतदेव नाति शीयन्ते ॥ ४ ॥ षा चतुष्पदा विधा गायत्री तदेतदृचाभ्यनुक्रम् ||५|| तावानस्य महिमा ततो ज्यायांच पूरुषः । पादोऽस्य विश्वभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि || ६ || - Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २६५ } अर्थ- जो भी इस पुरुषमें शरीर हैं वह यहीं है जो इस अन्तः पुरुषमें हृदय है. क्योंकि इसमें प्राण प्रतिष्ठित है. और इसीका अतिक्रमण नहीं करते। यह गायत्री चार चरण वाली और छ प्रकार है यह मन्त्रों द्वारा कहा गया है। यह सब ( उक्त ) महिमा इस पुरुषका (आत्मा की ) है । ( श्रस्य विश्वा भूतानि ) यह सब इन्द्रियें और प्राण आदि इसके एक अंश में है और तीन भाग इसके स्त्रश्रात्मा में लान है । यह जीवन मुक्त पुरुषका वर्णन के अर्थ में स्वामी शंकराचार्यजीने स्वयं - हुआ । यहाँ लिखा है कि- "भूत शब्द वाच्याः प्राणाः" अर्थात् यहाँ भूत शब्द वाच्य प्राण हैं । तथा च गीता में है कि--- “कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।" १७/६ यहाँ भूतग्रामका अर्थ इन्द्रिय समूह ही किया गया है। अतः मन्त्र में भूतानिका अर्थ इन्द्रियाण ही है । इस प्रकार यह मन्त्र श्री आत्मा वाचक ही है। अब इस आत्मासे विराट पुरुष (मनदेव) की उत्पत्ति बताई गई है। विराट तस्माद् विराट जायत विराजो अधि पूरुषः ॥ ५ ॥ अर्थात् उस आत्मा के एक पादले विराट पुरुष उत्पन्न हुआ। और उस विराटके ऊपर एक अधिष्ठाता पुरुष हुआ। अथर्ववेद भाग्य में सायराचार्य लिखते हैं कि Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • "अध्यात्मपक्षे अग्रे सृष्टयादौ विराट् विविध राजन्ति वस्तूनि यस्मिन्निनि स विराट् मनः संज्ञका प्रजापतिः सहस्र बाहु पुरुषः इति मन्या महापुरुषार पानागत ।" अर्थात - अध्यात्मपक्षमें इसका यह अर्थ है कि उस सहनबाहः (सहस्रा क्ष) पुरुषसे विराटनामक मनरूपी प्रजापति उत्पन्न हुआ।" भागे श्राप लिखते हैं कि 'यते हि "स मान सीन आत्मकजनानाम् मानसीनः मनसानिष्पन्न इत्यर्थः ।" अर्थात्---वह मनुष्योंकी मनसे निष्पन्न होने वाली आत्मा है। नश्रा महीधर लिखते हैं कि "सर्ववेदान्त वेद्यः परमात्मा स्वमायया विराड् देहम् ब्रह्माण्डरूपं सृष्ट्वा तत्र जीवरूपेण प्रविश्य ब्रह्माण्डा भमानी देवतात्मा जीवोऽभवद् इत्यर्थः । एतच्चाथवणोत्तरतापनीयस्पष्ट मुक्तम् । सवा एप भूतानि इन्द्रियाणि विराजं देवताः कोशांश्च सृष्ट्वात्र प्रविष्टः इव विहरति ।" __अर्थात्-"सर्व वेदान्त प्रन्यास ज्ञातव्य ब्रह्म अपनी मायासे ब्रह्माण्डरूप विराट देह रचकर उसमें जीवरूपसे प्रविष्ट होकर ब्रह्माण्ड अभिमानी देव जीव बन गया। यह भूतरूपी इन्द्रियोंकी तथा अन्नमय प्राणमय आदि कोशीको रचकर उसमें प्रविष्ट हुआ . सा विचरता है।" शुद्ध ब्रह्मको जीव क्यों बनना पड़ा इसका स्तर तो आज तक किसीने नहीं दिया । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः हम भी यहाँ विस्तारभयसे इन प्रश्नोंको नहीं उठाते। परन्तु इतना तो यहाँ स्पष्ट है कि यह जीवात्माका कथन है । फिर घम कैसे. क्यों, और काजी चल गा' ह रहाका पनगा नहीं है। इससे आगे चलकर इस विराट पुरुषसे सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न कराई गई है। उसके विषयमें आर्यसमाजके सुयोग्य विद्वान चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेवजी विद्यालंकार लिखते हैं कि "किसी प्रजापत्तिके शरीरके मुख श्रादि अवयवोंसे गर्भसे बालकके समान ब्राह्मण श्रादि वणों के उत्पन्न होनेका मत असंभव होनेसे अप्रमाणित है। यह केवल समाजरूप प्रजापति पुरुष जिसकी हजारों आँखों और पैरों आदिका प्रथम मन्त्रमें वर्णन किया है उसके ही समाजमय अंगोंका वर्णन किया गया है।" (अथर्वभाब्य ) - यहाँ पंकी से । - AMERः । शन प्रत्यक्ष खंडन कर दिया है। सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिध कृताः । . देवा यद् यज्ञं तन्वाना अवधनन्पुरुपंपशुम् ॥ १५ ॥ इस मन्त्रका भाष्य करते हुये स्वामीजी लिखते हैं कि "हे मनुष्यों ! जिस मानुष यज्ञको विस्तृत करते हुये विद्वान लोग ( पशुम ) जानने योग्य परमात्माको हृदयमें बाँधते हैं।" __ इनके पश्चात् इनके शिष्यों ने भी इसी अर्थका अनुसरण किया। पं सातवलेकरजी लिखते हैं कि-"पुरुष ( पशुम् ) परमात्मारूपी सर्वद्रष्टाको अपने मानस यज्ञमें बाँध दिया अर्थात् अपने मनमें भ्यानसे स्थिर क्रिया ।" Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २९८ ) स्वामीजीने इस ईश्वरको बन्धवा दिया इसके लिये संसार आपका कृतज्ञ है। क्योंकि यह बहुत वे कायू होगया था। उनट' के मतमें इन्द्र आदि देषोंने जब' पुरुषमेध यज्ञमें मनुष्य रूप पशुको बाँधा. यह अर्थ है। (समास्यासन ) का अभिप्राय सान समुद्रोंसे अधिपित यह भारतवर्ष है । क्योकि य यज्ञ भारतमें ही होत धे। अभिप्राय यह है कि यह सूक्त उस मनुष्यकी स्तुति परक है जिसका अभी बलिदान होना है । तथा च पैदिकः शतिहासाच नित्य' में पं.. शिवशंकरजी लिखते हैं कि समपदसे नयन द्वय, करण्य, घ्राणद्वय, और सप्तमी जिह्वा का ग्रहण है 1 'इस जीवको चारों तरफसे घेरकर इस शरीरमें रखने हारं यही साती इन्द्रिय है। और इन सातोंके उत्तम, मध्यम अधमके भेदसे २१ प्रकार के विषय हैं ये कानों समिधायें हैं।" यहाँ जीवात्माका वर्णन स्पष्ट है । उपरोक्त विधेचनसे यह सिद्ध है कि न तो यहाँ परमेश्वरका कथन है और न मृष्टि उत्पत्ति का ही जिकर है। निरुक्त इस पुरुष सूक्तका अन्तिम १६ वा मन्त्र निरुतमें आया है । "यझेन यज्ञमयजन्तदेवाः। धर्माखि प्रथमान्यासन॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) निरुक्त-अनिना, अग्निम् अयजन्त देवाः । अग्नि पशुरासीत् तमालभन्त तेनायजन्न इति च ब्राह्मणम् । तानि धर्माणि प्रथमान्यामन । तेहनाकं महिमानः समसेवन्त यत्र पूर्व साध्याः सन्ति देवाःसाधनाःद्युस्थानोदेवगणाः, इति नैरुताः पूर्व देव युगमिति स्यानम् ।" निरुत अ० १२ ___ अर्थात--पूर्व माश्य देवताओंने अमिसे अग्निका यज्ञ किया । ब्राह्माणमें भी लिग्ना हैं कि__पहिले अग्नि ही पशु था उसी से दधान यज्ञ किया। य पूर्वसमयके धर्म थे। तथा ब्राह्मण ग्रन्यामें अनेक स्थलोंमें माया है कि ( अग्नि हि देवानां पशुः ) ऐ. १ । १५ पशुरेष सदाग्निः । शत०६४ | १ | २ - इत्यादि, यहाँ पारकाचार्यका लकेत पुरुष मूलमें कथित बिराटपुरुषको अग्नि का वान बता रहा है। क्योंकि मन्त्र १५ में जो पुरुषरूपी पशुको याँधनेका उल्लेखहै उसीको यहाँ अग्नि बनाया गया है। हमने अग्नि देवताके तथा सूर्य देवताके वर्णनमें अनेका प्रागोंसे यह सिद्ध किया है कि प्रजापति अादि नाम अग्नि नादि के ही हैं । अतः याकके मनाने यहां पुरुषक रूपकम अग्निका ही बगान है। नया यजुर्वेदकं इसी प्रकरण में निम्न मन्त्र आया है। प्रजापतिश्चरतिगर्भऽन्तर जायमानो बहुधा विजायते।१६। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( Hon अर्थात् यह प्रजापति ( जीवात्मा ) अजन्मा होता हुआ भो अनेक प्रकार की योनियों में जन्म लेता रहता है। तैतरीय आरण्यकमें इसी श्रुतिको स्पष्ट करने के लिये लिखा है कि शुक्रेण ज्योतींषि समनुप्रविष्टः प्रजापतिश्चति गर्भे अन्तः तै० श्र० १०|१|१ अर्थात् - यह आत्मा ( ज्योतींषि ) दिव्य प्राणों के साथ, शुक्र (बी) द्वारा गर्भ में प्रविष्ट होकर जन्म धारण करता है। अतः अब इस विषय में सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं रहा कि यह वन जीवात्माका ही वर्णन है। तथा च प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रति जायसे । तुभ्यं प्राण प्रजास्त्वा वलि हरन्ति यः प्राणैः प्रति तिष्ठसि । २७ अर्थात् हे प्राण तू ही प्रजाति है, तू ही में संचार करता है, तू ही जन्म ग्रहण करता है। ये सब प्रजायें (इन्द्रियाँ) तेरे को ही बलि समर्पण करती हैं। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ शरीर में स्थित हैं। अर्थात प्राण ही इन्द्रियरूपी प्रजाका स्वामी है। इसका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य लिखते हैं कि "गर्भे चरसि पितुर्मातु प्रतिरूपः सम्प्रति जायसे ।" अर्थात् - यह प्रजापति माता पिताके अनुरूप जन्म लेता है। अतः उपनिषद्कारने भी यह सिद्ध कर दिया है कि इस प्रकरण में प्रजाका अर्थ इन्द्रियाँ हैं, और प्रजापतिका अर्थ प्राण है। यहाँ स्पष्टरूपसे जीवात्माका वर्णन है क्योंकि वही कर्मवश नाना योनियों में जन्मता रहता है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८१ ) अतः यहां ईश्वर अर्थ करना अपने ही सिद्धान्तका वात करना है । क्योंकि ईश्वरको जन्म लेने वाला ईश्वरवादी भी नहीं मानते। इसीलिये श्रीमान पं० सत्यव्रतजी सामाश्रमीजीने ऐितरेया लोचनमें लिखा है कि "प्रजापतिरतिगतः इति श्रुतेः जीवोऽपि प्रजापति रिति गम्यते ।" अर्थात- प्रजापतिश्चरनिगर्ने' इस श्रुति से यह जाना जाता है. कि जीव भी प्रजापति है । ० १५७ ता प्रश्नोपनिषदको ढोकामै लिखा है कि 11 "यः प्रजापतिर्विराट सोऽपि त्वमेवेत्यन्वयः | २७ अर्थात- जो प्रजापति विराट है वह भी प्रास ही है। यतः स्पष्ट है कि उपनिषदकारने उपरोक्त वेद मन्त्रका ही खुलासा किया है और उसी पुरुषको प्राण बताया है । पुरुष वृहदारण्यकोपनिषद में विश्व सृज पुरुपकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि— स यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वन्याप्पन श्रपततस्मात् पुरुषः १ । ४ । १ इसका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं किस च प्रजापति रति क्रान्त जन्मनि सत्य कर्म मात्रानुष्टानैः साधकावस्थायां यद यस्मात्कर्मज्ञान भावनाऽनुष्टाने प्रजापतित्वं प्रतिप्रसूनां पूर्वः प्रयः सन् । ज्ञान Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३०२ । अस्मान्जा पतित्व प्रतिपत्यू समुदापत् सर्वस्माद् आदी ओपद् दहत् । किम् प्रामङ्गा ज्ञान लक्षण सर्वान्पामना प्रजापतित्व प्रति वन्धकार भृतान । यस्मादेवं तस्मात्पुरुषः पूर्व मौषदिति पुरुषः । - अर्थात्-प्रजापति ने अपने पूर्व जन्ममें साधक अवस्था में सम्पक-कम ( चारित्र ) झान और सम्यक दशन द्वारा प्रजापति बनने का भावनासे. प्रजापतित्व के बन्धन भूत प्रज्ञानादि सम्पूर्ण पापीका दग्ध कर दिया था। इसीलिये इम्मका पुरुप कहते हैं। अश्रीन-पूर्वमें ऊपन दग्ध किया इसलिये पुरुष कहलाया। जिस प्रकार वैदिक पुरुष सूक्तमें पुरुषसे सब जग रचा गया है. यहाँ भी उस पुरुषसे जिस प्रजापति पदको प्राप्त किया है उसी प्रकार सम्पूर्ण सृष्टिको रचनाकी गई है। इसी पुरुष के धाता, प्रजापति, हिरण्यगर्भ. ब्रह्मा, विश्वसृज . विश्वकृत . श्रादि नाम बताये गये हैं । अत: ग्रह सिद्ध है कि पुरुप सूत आदि में तथा अन्य स्थानों जहाँ उपरत नागासे जगनकताका वर्णन है. वह ग्रही अन्तरात्मा पुरुप है । जिसको जैन दर्शनम अहन्त, केवली, जीवन मुक्त आदि कहा गया है। उसने अर्थात् प्रथम प्रजापतिने जीवीका सम्पूर्ण संसारकी वस्तुओंका ज्ञान कराया था. इसलिय उसका विश्वकन् , विश्वमृज , श्रादि नामोंसे भा सम्बोधन करते हैं और वास्तवमें न ना मृष्टि उत्पन्न हुई और न किसीने उत्पन्न की यह तो अनादि निधन है। विश्वकर्मा य इम विश्वा भुक्तानि जुहब पिहोतान्यसीदत पितानः। स आशिषाद्रविणमिच्छमानाप्रथाच्छदवरों आ विवेशा॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि विदासीदधिष्ठानमारमा मनमत रिशमशानी यतो भूमि जनयन विश्वकर्मा वि द्यामाणोन्महिना विश्वचक्षाः ।। २ ॥ विश्वतश्चतुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो वाहुरुत विश्व तस्पात सं वाहुरयां धम में पतावाभूमी जनयन देव एकः ॥ ३ ॥ किं स्विद्धन क उ स वृक्ष प्रास यतो द्यावापृथिवी निष्टततुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदुत्तद्य दध्यतिष्ठझुवनानि धारयन ॥ ४॥ ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्व कर्मन्नुतेमा शिक्षा सखिभ्यो हविपिस्वातः स्वयं यजस्व तन्वं वृधानः ॥ ५॥ विश्व कर्मन् हविषा वा धृधानः स्वयं यजस्व पृथिवी मुतद्याम् । मुह्यं वन्ये अभितो जनाप्स इहास्माकं मश्वा सरिरस्तु ॥६॥ __ बाचस्पति विश्व कर्मणि मूतये मनोजु बाजे अद्या हुवेम | स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूत्रसे साधुकर्मा || ७॥ १-हमारे पिता और होता विश्वकर्मा प्रथम सार संसारका हवन करके स्वयं भी अनिमें बैठ गये । श्नोत्रादिके द्वारा स्वर्ग-धन की कामना करते हुए वे प्रथम सारे जगतसे अनिका पाच्छादन Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) करके पश्चान् ममीपके भूतोंके साथ स्वयं भी हुत होगये वा श्रपि . में पैठ गये। ___-मृष्टि काल में विश्वकर्माका क्या आश्रय था ? कहाँसे और कैसे उन्होंने सृष्टि कार्यका प्रारम्भ किया ? विश्वदर्शक देव विसकर्माने किस स्थान पर रह कर पृथिवीको बनाकर आकाशको धनाया ? ३–विश्वकर्मा की आँखें. मुँह प्य और चरण सभी और से हैं। अपनी मुजाश्री और पोंसे प्रेत - पन्हे वह दिय पुरुष " नावा भूमिको उत्पन्न करते हैं । वह एकाही ४--वह कौन बन और उसमें कौनसा वृक्ष है, जिससे सृष्टि कर्ताओंने न्याया पृथिवीको बनाया ? विद्वानों अपने मनसे पूछ देखो कि. किस पदार्थके ऊपर खड़े होकर ईश्वर सारे विश्यको धारण करते हैं। __५--ग्रजभाग-ग्राही विश्वकर्मा ग्रा फालमें हमें उत्तम, मध्यम और साधारगा शरीरोंको बतादो। अन्नयुक्त कर स्वयं यज्ञ करके अपने शरीर पुष्ट करते हो। ताका + ' .. मह -विश्वकर्मा. तुम यावा पृथिवीमें स्वयं यज्ञ करके अपनेको पुष्ट किया करते हो वा यज्ञीय हविसे प्रबुद्ध होकर तुम यात्रा पृथिवीका पूजन करो। हमारे यज्ञ विरोधी मूर्छित हों। इस यज्ञमें धनी विश्वकर्मा स्वर्गादिके फल-दाता हो। ७-इस यज्ञमें, प्राज जन विश्वकर्माको रक्षाके लिये हम बुलाते हैं । वह हमारे सारे हवनाका सेवन करें । यह हमारे रक्षण के लिये सुखोत्पादक और माधु कर्म वाले हैं। ____ ऋग्वेद मं० १० के सू० ८१, व ८२. विश्वकर्माके सूक्त हैं । तथा यजुर्वेद अ- १७ के मन्त्र १७ से ३२ तक १६ मन्त्र विश्वकर्मा के हैं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरुक्त निमक्तकारके मतसे विश्वको मध्यमस्थानीय देवता है। वहां लिखा है. कि विश्वकर्मा, तायः, मन्युः, दधिक्रा, सविता, त्वष्ठा, वातः, अभिः. आदि मध्यम स्थानीय देवता हैं। निरुत-विश्वकर्मा, सर्वस्य कर्ता । अथष वैश्वकर्मणो विश्वानि मे कर्माणि कृतानि आनन् इति विश्वकर्मा हि सोऽ भवत ॥ तस्य एषा भवति । तमिद गर्भ प्रथम दन प्रापः || ऋ० १०८२२६ अर्थान—विश्वकर्मा आदि ये मध्यम स्थानीय देवता है। यह सर्वका कर्ना है इसलिये इसको विश्वकर्मा कहते हैं । यह सबका का कैसे है इस पर भाष्यकार कहते हैं कि-"पृथिवी जल. तेजवायु इन चार पदार्थासे शरीरका निर्माण होता है। और उसीके द्वारा सत्र क्रियायें होती हैं, जिसके कारण ग्रह का कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि पृथिवी और जल ग्रे दो धातु पहले मिलते हैं और इन दोनों मिली हुई धातुओंको अग्नि तत्व पकाता है. जिससे इनकी हदना होती है. इसके अनन्तर विश्वकर्मा देवता अपने वायुरूप शरीरसे उस शरीरमें प्रवेश करके इस सत्र अद्भुन जगतको करता है. जो अात्मविचारसे रहित पुरुषांको अचिन्त्य या दुर्जेय है । अर्थात् मध्यम लोकका देवता वायु है और उसीके अनुप्रवेशसे सब अन्य सत्व चलते हैं या किया करते हैं. अतः उसीके श्राधीन सब जगत बनता है. इसीलिये मथ्यम लोकका देवता वायु ही विश्वका करने वाला होनेसे विश्वकर्मा है । मन्त्रमें भी यही कहा है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) "तमिदगर्भ प्रथम दध्न आपः" अथात्--जलोंने उसीको नाश्रय करके प्रश्रम गर्भ धारण किया ।" यहां पर निरुक्तकारने अपनी पुश्रमें अन्य प्रमाण भी दिये हैं जिनसे विश्वकर्मका मध्यम स्थानीय देव (इन्द्र व वायु) होना सिद्ध होता है। तथा च यास्काचर्यने विश्वकर्मा देवला वाले मन्त्रों का अध्यात्म अर्थ भी किया है । यथा "अथाध्यात्मम् --विश्वकर्मा विभृतमना व्याशा घाता च विधाता च परमश्च सन्दशयिता इन्द्रियाणामेषाम् इष्टानि या कान्तानि वा गतानि वा मतानि का नतानि चा अन्नेन सह मोदन्ते यत्र इमानि सप्त ऋषीणानि इन्द्रियाणि एभ्यः पर आत्मा तानि एतस्मिन एक भवन्ति इति आरम गति पाचष्टे ।" विश्वकर्मा विपना श्राद्विहाया धाना विधाता परमोत सन्दृक् । तेषा मिष्टानिसमिषापदन्ति यत्रासप्त ऋषीन पर एकमाहुः ॥ १०८२२ निरुक्तकारने इस मन्त्रकी व्याख्यामें उपरोक्त कथन किया है। अर्थात--"विश्वकर्मा, (विमना) विभूतमना है ।( विशाल हृदय वाला है ) तथा सर्व प्रकारसे महान है. इसलिये यह धाता, विधाता तथा इन्द्रियोंका द्रष्टा. जो कि अन्नसे मोदको प्राप्त होती हैं । इन्द्रियोंसे परे अात्मा है. उसीमें ये सब ऋषि (इन्द्रियाँ), एकीभावको प्राप्त होती है।" ॐ नोट -निमन पर, लुगाचार्य का भाष देने । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . | ३०० ; निरुकारने इन सूक्तोंके दो ही प्रकार के अर्थ किये हैं, अतः स्पष्ट है कि उस समय तक इन मन्त्रोंके अर्थ सृष्टिकर्त्ता ईश्वर परक नहीं थे। इसी प्रकार हिरण्यगर्भ' को भी यास्काचार्यने मध्यम स्थानीय (वायु) देवता हो माना है। जिस प्रकार यहाँ हैं ( तमिद् गर्भं प्रथमं दन आप उसी प्रकार वहाँ भी ( आपोद यद् बृहत विश्वमायन गर्भ दधाना जनयन्तोम्) मन्त्र उपरोक्त कथन अनुसार यहाँ भी यह सब कार्य वायु द्वारा ही होते हैं अस्तु अध्यात्म प्रकरण में भी निरुत्तकारने स्पष्टरूपसे विश्वकर्माका अर्थ जीवात्मा ही किया है। क्योंकि यही जीवात्मा 'विश्व' अर्थात् सबइन्द्रियोंकी रचना करता रहता है। अतः यह सिद्ध हैं कियह सूक्त भी वर्तमान ईश्वरका द्योतक नहीं है । ज्येष्ठ ब्रह्म व स्कंसदेव कुछ विद्वानोंका कहना है कि ब्रह्म आदि शब्दोंसे जीव था। दिका ग्रहण होता है, परन्तु वे पे ब्रह्म व स्तंभ आदि शब्दोंसे तो केवल ईश्वरका ही वर्शन किया गया है। हम प्रजापति, पुरुष, हिरण्यगर्भ व ब्रह्म आदि शब्दोंका तो विचार कर चुके, इन शब्दोंसे वैदिक साहित्य में ईश्वरका कथन नहीं किया गया। अब हम इन ज्येष्ठ ब्रह्म व स्कंभ, सूक्कों पर भी दृष्टिपात करते है अथर्ववेद को १० मुक्त और ८ भक्त हैं इसी का नाम यहाँ पेष्ट भी आया है। I १ अ इन दोनों सूक्तोंका विनियोग आदि नहीं मिलता. तथा न इस का किसी अन्य संहिता में कथन है तथा नही ब्राह्मण प्रन्थों में उसका उल्लेख प्रतीत होता है अतः यह सूक्त नवीनतर है यह निश्चित है। पं राजारामजीने अपने अथर्ववेद भाध्य में Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है कि-सूक्त, ७-८ दोनों परस्पर सम्बन्ध है। दोनों में एकंभका वर्णन है। स्कंभ, खंभा, सहारा (सारे विश्वका ) परब्रह्म नाका भी आदिभूत, इसीसे इसको श्रेष्ठ ब्रह्म कहा है। सारा विश्व इसमें स्थित है, यह सारे विश्व में प्राविष्ट है, विराट भी इसीमें टिका हुआ है. इसी में सारे देवता स्थित है. यही सबके जीवनका मूलस्रोत है इत्यादि रूपसे कभका वर्णन है । ये दोनों सूक्त उपनिषदों में कही, अध्यात्मविद्याका मूल है, यहाँके यक्ष ( आश्चर्यमयी सत्ताका विस्तार केनोपनिषदें है।" ____ इस कथनसे यह तो सिद्ध होगया कि-ब्रह्मा, विराट, पुरुष, हिरण्यगर्भ आदि देवता कोई भी ईश्वरपद् वाच्य नहीं है. क्योंकि उन सबका निर्माण कर्ता ये स्कंभदेव हैं। अतः अब इन सूक्तोंमें जो स्क्रभ देवका कथन है क्या .वह वर्तमान ईश्वर अर्थका वांधक है। यही विचारणीय है । जब हम इन सूक्तों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें स्पष्ट ज्ञात होजाता है कि यह स्कम भी परमेश्वर नहीं अपितु जीवात्मा ही है। हम इन सूक्तोंमें से कुछ मन्त्र उपस्थिन करते हैं। यः श्रमात् तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्समानशे । सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ।। अ० १०७६३६ अर्थ-श्रम और तपसे उत्पन्न होकर जिसने सम्पूर्ण लोकोंको प्राप्त किया है (सम्पूर्ण इन्द्रिय आदिको प्राप्त किया है.) तथा जिसने सेाम ( सामरस ) को केवल ( अपने लिये) बनाया है, उस ज्येष्ठ ब्रह्मको हमारा नमः हो। इस मन्नमें स्पष्टरुपसे ज्येष्ठ । ब्रह्म उस ज्ञानीको कहा गया है जिसने महान परिश्रमसे तथा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर तपसे इन लोकोंको ( शरीर आदि का ) श्रथवा इनके ज्ञान को प्राप्त किया है। यह जीवात्मा सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। यदि इसको ईश्वर माना जाय तो क्या ये लोक उसको प्राप्त न थे जो इप गरीबको इनकी प्राप्ति के लिये इतना परिश्रम और घोर सप करना पड़ा । तथा ज्ञात होता है कि इस ईश्वरको सेमि रस बड़ा प्रिय था तभी ता उसने इसको केवल अपने लिय बनाया था, परन्तु वैदिक ऋषि तथा इन्द्र श्रादि देवता भी इस सेाम पर मुग्ध हुय विना न रह सके, उन्होंने इस निराकार ईश्वरको ता साम देना चन्द कर दिया और अपने अाप इसका रसास्वाद लेने लगे नहीं नहीं इसीमें तल्लीन होनपे । शायद इसीलिये ईश्वरने यह सेोम उत्पन्न करना बन्द कर दिया। तथा घ, क्रां० २११५।२३ में इस ज्येष्ट माझकी उत्पत्तिका कथन किया है। ( तस्माज्जातं ब्राह्मणं ब्रह्म जयेष्ठम् ) इसका अर्थ पं. राजारामजीने ही किया है कि उससे चाक्षणीका यष्ठ ब्रह्म उत्पन्न झुआ)" अतः यह उत्पन्न होने वाला व्यक्ति ईश्वर नहीं होसकता । यह तः हुई मूक्त ७ की अवस्था अब आप थोड़ी सी व्यवस्था सूक्त ८ की देख लें । उसमें लिखा है कि-- त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।। त्वं जीणों दण्डेन वचसि त्वं जातो मनसि विश्वतोमुखः ॥ १०२७ तिर्यग्विलश्चमस ऊर्च बुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् । तदासत ऋषयः सप्त साकं ये अस्य गोपा महतो बभूवः ।।।।८।६ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३१० ) उपरोक्त दोनों मन्त्रोंको प्रायः सभी भाध्यकारोंने तथा अन्य विद्वानोंने भी जीवात्मा परक ही माना है । अर्थ – (ब्रह्म) तू स्त्री है तू पुरुष हैं, तू कुमार व बुम रां हैं. तू वुड़ में इंडेसे चलता है, तू उत्पन्न होकर सब और गुरु वाला होता है। अर्थात् सब ओर कामनाओं वाला होता है ।। × ७ || तिरछे बिल वाला और ऊपर की ओर पेढे वाला एक चमस ( सिर ) है उसमें सब प्रकारका यश ( इन्द्रियजन्य ज्ञान ) हैं. उस मस (सर) में सात ऋषि ( चक्षु आदि इन्द्रयाँ) रहत हैं. जो इस ( अस्य महतः गोपाः) ज्येषु ब्रह्म के रक्षक हैं । यहाँ ब्रह्मको जीवात्मा हा बताया i स्पष्टरूपस सूक्तकार ऋपिने इस हूँ । अतः अन्य देवताओं की तरह ही यहाँ भी ईश्वरका वर्णन नहीं है । समयका अर्थ पं राजारामजी आदि तथा साथ आदि भी चक्षु श्रादि इन्द्रियां ही किया है। तथा इसका विशेष विचार हम प्राणोंके वन में कर चुके हैं. वाचक व वहीं देखें | इन मूल सूक्तक अलावा उपनिषद में भी आत्मा का ही कथन है. इस कल्पित ईश्वरको वो उस समय तक सृष्टि ही नहीं हुई थी । उपरोक्त सूक्त का नियंबिलश्चमस' यह मन्त्र बृ. उ. २१२ । ३ में भी आया है, वहाँ स्वयं महर्षि याज्ञवल्क्यने इसका निम्न भाष्य किया है । यथा la तदेष श्लोको भत्रति । अर्वा विश्वपस उनस्तस्मिन्यशो निहितं विश्वरूपम् । तस्यासऋषयः सप्त । तीरे वागष्टमीण संविशति । प्राणा वै यशो विश्वरूपम् प्राणानेतदाह तस्था सप्त ऋॠषय सप्त तीर इति । प्राणा वा ऋषयः । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं किप्राणाः परिस्पन्दात्मकाः, न एव च ऋषयः । अर्थात्-उपरोक्त मन्त्रमें आये हुये 'यश' और मन ऋषयः' शन्दोका अर्थ परिस्पन्दात्मक प्राण हैं। तथा च चमम. का अर्थ स्त्रयं श्रुतिमें ही जिर' किया गया है। इससे अगली श्रुतिमें इसको और भी स्पष्ट कर दिया गया है। उसमें इन सप्त ऋषियों के नाम भी बता दिये हैं। यहाँ दो कान दो आँग्ब, दो नासिकायें और एक रसना. इनको सप्त ऋषि फड़ा गया है । अतः स्परूपसे यहाँ जीवात्माका वर्णन है यह सिद्ध हुमा । तथा आर्य समाजफे महान वैदिक विद्वान पं० शिवशंकरजी काव्यतीर्थने अपनी पुस्तक वैदिक इतिहारमार्थ निर्णयके पृ. १६१ पर उपरोक्त मन्त्रके अर्थ जीवात्मा परक ही किया है। वहाँ बाम लिखक... . 'यहाँ पर उर्व' पद शिरोगत सप्त प्राणांका ही ग्रहण कर पाता है।" तथा निरुक्त नः १२।४ में उपरोक्त मन्त्रके अधिदेत्रिक अर्थ तथा अध्यात्म परक अर्थ किये हैं । यहाँ अधिदैविकमें सूर्य देवता अर्थ किया, तथा अध्यात्ममें जीवात्मा अर्थ किया है। वहाँ इसी शरीर के प्राणोंको ऋषि तथा यश' का अर्थ शान किया है। श्रतः यह स्कंभ सूर्य अथवा आत्मा वाचक है। इसमें कल्पित ईश्वरको कोई स्थान नहीं है। केनोपनिषद और ब्रह्म केनोपनिषद् में "केनेषितं पतति प्रेषितं मनः । केन प्राणः प्रथमः प्रति युक्तः ।। १।१ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि श्रुतियोंसे प्रारंभमें श्रात्मका उपदेश है। तथा तीसरी श्रुनिमें कहा है कि न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति न मनो न विमो न विजानिमः || ३ || अर्थात --उस ब्रह्म तक नया जा सकता है नया और न मनकी ही पहुंच है। श्राचार्य कहते हैं क्रि—वह बुद्धि गभ्य होनेसे हम उसको नहीं जानते तथा नहीं कुछ कह मकने है। जो कुछ अनुमान या शब्द प्रमाण द्वारा जाना गया है उसीको कहा जाता है । यहाँ शंका उत्पन्न हुई कि-आत्मा किस प्रकार ब्रह्म हो सकता है, क्योंकि आत्मा तो कर्मादिमें लिप्त संसारी जीवको कहते हैं। यह कम से अथवा उपासनासे स्वर्गकी अथवा प्रजापति इन्द्र श्रादि देवत्वकी कामना वाला है। अतः उपास्य और उपासना करने वाला एक नहीं होसकता। इस लिये ब्रह्म अात्मासे भिन्न है। श्री शंकराचार्यने इस शंकाको निम्न शब्दोंमें लिखा है। "कथं वान्मा ब्रह्म । अात्मा हि नामाधिकृतः कर्मण्युपासने च संसारी कोपासनं वा साधनमनुष्ठाय देवान्स्वर्ग वा प्राप्तुमिच्छति । तत तस्मादन्य उपास्यो विष्णुरीश्वर इन्द्रः प्राणो का ब्रह्म भवितुमर्हति न त्वामा लोक प्रत्यय· विरोधात् । यथान्ये तार्किका ईश्वरादन्य आत्मा इत्याचक्षते ।" मैंवं शंकिष्ठाः । इस शंकाका स्वयं उपनिषदूने उत्तर दिया है। (उत्तर) ऐसी शंका मन करो, क्योंकि अनि कहती है कि Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५३ ) यद् वाचा नभ्युदितं येन वागम्युनते ! नदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। १ । ४ यन्मनसा न मनुते येनाहुमनोमतम् ।।५ यच्चक्षुषा न पश्यति येन च सि पश्यति ॥ ॥६ यस्छोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं अंतम् । ॥'७ यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते । ।। ' अर्थ---जिसका वाशी वर्णन नहीं कर सकती किन्तु जिसके द्वारा वाणी अपना कार्य करती है, उसीको मह अनो, जिन देवादिकी उपासना की जाती है वह ब्रह्म नहीं है। मन जिसका मनन नहीं कर सकता, जिसके द्वारा मन मनन करता है... आँखें जिसको नहीं देख सकती जिससे आँखें देखती हैं उसीको... जिसको कान नहीं सुन सकत जिसकी कृपासे कान सुनते हैं उसीको '' जो प्राणके श्राश्रय नहीं है, अपितु प्राण जिसके आश्रय है उसी को... तथा च अन्य प्रतियोंमें भी इसी श्रात्माको ब्रह्म कहाहै । यथा योवाचमन्तरोयमपति । १० ३।७११७ न हि वक्तु वक्तेविप्रलोपो विद्यते० ० ४।३।२६ तस्यभासा सवमिदं विभाति । मु० उ० २।२।१० अभिप्राय यह है कि केन उपनिषद तथा अन्य सब नियों में Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) 3 भी इसी जीवात्माको ब्रह्म कहा है श्रुतिमें 'एव' यह अत्र वारणार्थ अव्यय है, जिससे अन्यदेव विष्णु, शिव, प्रजापति श्र देवोंको ब्रह्म माननेका निषेध किया गया है। अतः यह सिद्ध है कि स्वात्मासे भिन्न ब्रह्म कोई अन्य जातीय पदार्थ नहीं है । यही अभिप्राय अथर्ववेद उपरोक्त मूक्तोंका है। उपनिषदोंकी श्रुतियाँ स्परूपेण उच्चस्त्ररसे घोषणा करती हैं किअन्योऽसावन्योऽस्मीति न सवेद । वृ० १/४/१० यथा पशुरेव स देवानाम् । वृ० १/४/१० येऽन्यथातो विदुरन्य राजा नस्ते चय्यलोका भवन्ति । छा ०७१२५/२ मृत्योः स मृत्युमाप्नोति । क० उ० २२११० अर्थात् जो यह जानता है कि परमात्मा अन्य है और मैं अन्य हूँ वह उस ब्रा यथार्थं स्वरूपको नहीं जानता । श्रपितु वह पशु के समान देवताओंका पशु ही हैं। जो अपनेसे ईश्वरको भिन्न जानते हैं, वे अन्य राजा वाले ) हैं अतः वे क्षीण लोक वाले होते हैं अर्थात् निरन्तर जन्मते गरते रहते हैं। तथा च जो अज्ञानी परमात्मा को अपने भिन्न ममता है वह मृत्युसे मृत्युको प्राप्त होता रहता है। विष्णुदेव 1. "वैदिक साहित्य में विष्णुदेवका भी मुख्य स्थान है। में विशेषतया यज्ञको ही विष्णु कहा गया है। विष्णुर्यशः । गो० उ० १|१२| ० ३ ३ ७१६ तैं विष्णुर्वैयज्ञः । ० १/१५ ० १३|१| ८८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यझो 2 विष्णु । कोट ४२। ता० ६६।१० इत्यादि शनशः प्रमाण दिये जा सकते हैं, जिनमें यन्त्रका नाम विष्णु पाया है। यजुर्वेदमें भी यज्ञक लिये विष्णु शब्दका प्रयाग हुआ है। सूर्य और विष्णु अग्नि प्रहः सोमो सत्रि रथयादन्तरेण (ब्रह्मो रात्रश्च. योऽन्तरालः कालः) तद्विष्णुः । श० ३।४।४।१५ अर्थात दिनका नाम अनि और रात्रिका नाम सेोम है, तथा .. दिन व सत्रिके मध्य ( सन्ध्या ) समयका नाम विष्णु है। अभिप्राय यह है कि सायंकाल के सूर्यका नाम विष्णु है। निरुक्त निस्क्तकारने सूचका नाम विष्णु बताया है। निघर में, सविता भग, सूर्य, पूषा. बि. ये नाम सूर्य के बताये हैं। - इसका निर्वचन करते हुये निमक्तकार लिखते हैं कि 'सविता व्याख्यातः, तस्य कालो यदा यौः अपहत तमस्काकीर्ण रश्मिर्भवति । "अधोरामः पावित्रः" इनि पशु समानाये विज्ञायते । कस्मात् समान्यात् , इति अधस्तात् तद्वेलायां तमो भवति एतस्मात् सामान्यात् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कृमवाकु:सावित्रः" इति पशुसमाम्नाये विज्ञायते कस्मात सामान्यात् । इति कालानुवादं परीत्य कृकवाकोः पूर्व शब्दानुकरणं वचो उत्तरम् ।। भगः-'भगः' व्याख्यातः तस्यकालः प्राग उत्सपणात । पूषा-अथ यद् रश्मि रोष पुष्यति तत् 'पूया' भवति । विष्णु-अथ यद् विषितो भवति तद् विष्णुः । ___विशम् । व्यश्नोत्वा । तस्य एषा भवति । इदं विष्णुधिचक्र मे त्रेधा निदधे पदम् । यजुद, ५॥१५ अर्थ-विलाकी व्याख्या हो चुकी. उसका समय उषाकाल है. नथा च श्रुतिमें अधो भाग काला तथा ऊर्च माग श्वेत पशुको मविताका पशु कहा है, इस समानतासे भी सविनाका समय निश्चित होता है। तथा च मुर्गे' को भी अतिमें सविताका कहा है. इससे भी सबिताका काल जाना जाता है अर्थात जिस समय (प्रात:काल ) मुर्गा बालता है वहीं काल सविता का है. श्रर्थान उस समय के सूर्यको मथिता कहते हैं। भगः--इसका काल जलपण ऊपर आकाश देशमें बढ़नेसे पहले है ! अर्थान-मध्य न्हसे पहले के मूर्यकोभगकहते हैं तथा उसके पश्रान उसकी मूष संज्ञा है। पूषा-जब सूर्य तेजसे पूर्ण होकर रश्मियोंको धारण करता है. उस समय वह पूषा' कहलाता है। विष्णु-उसकेपश्चात् उसीमूर्यकानाम विष्णु होता है। अर्थात् सायंकाल के सूर्य का नाम विष्णु है। जो यास ब्राझणकार Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) ऋषि कही थी उसकी पुष्टि निरुतकारने की है। निरुतकारने fasay शब्दका तीन धातुसे सिद्धि की है। (१) विष. (०) विश. प्रवेशने से (३) वि. पूर्वक अश. धातु से। तीनों प्रकार के अर्थोको सूर्य परक घटित किया है। साथ ही अपनी इदं विष्णु विचक्रमे" यह प्रसिद्ध मन्त्र दिया है । .. इस मन्त्रका अर्थ करते हुए और वामः' ऋषि कहते हैं कि" समारोहणे, विष्णुपदे गयशिरसि इति श्रामः ।" समारोहणा - उदयगिरिमें उदय होता हुआ विष्णुदेव एक पद धरता है, मध्यान्ह कलमे विष्णुदेव नमख है. और सायंकाल में गय शिर' ( असंगिरि - अस्ताचल ) पर तीसरा पैर रखते हैं उपरोक्त सूर्य का नाम ही विष्णु है इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं रह जाता हैं। तथा च पं० शिवशंकरजी काव्यतीर्थने त्रिदेव निखय' नामक पुस्तक पुराण आदिके शतशः प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि श्रीराम कृष्ण आदि विष्णु के अवतारोंका जितना भी वसंत है वह सब सूर्यका ही वर्णन है । हमने विस्तारभयसे उन सबका यहां उल्लेख नहीं किया है। जो पाठक विस्तार से इसका अध्ययन करना चाहें वे वहां देख सकते हैं। पं. सातबलेकरजीने 'महाभारतकी समालोचना भाग २ में ऐतिहासिक वर्णन किया विष्णुको उपेन्द्र मन्ना हैं तथा उसका हैं. पाठकों की जानकारी के लिये उसको हम यहाँ उद्धृत करते हैं। i. जिस प्रकार हरएक जाति वाला मनुष्य अपनी जातिकी दृष्टि Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही देवता है और संपूर्ण हिंदु समाजको दृष्टिस कोई नहीं देखता; उसी प्रकार देवोंको गण संस्थामें भी वही दोष था। इस कारण देवों के गणों में परस्पर विद्वेष, झगड़े फिसाद आदि थे और समय समय पर बढ़ भी जाते थे। और असुर लोगोंका विजय इन देशों श्रापम के फिसादके कारण हो जाना था। असुरोंस परास्त होने पर देव अाफ्यमें पंबठन करने थे और अपनः बला बढ़ात थे पर अश्ग पर विजय प्राप्त करने थे इसके वर्णन ब्राह्मण अन्यामे और पुराणों में भी बहुत हैं। । (१) ने चतुर्षा व्यद्रावन , अन्योन्यस्य श्रिया आतिष्ठपाना अग्निमुभिः सोयो रुद्रः, वरुण आदित्यः इंद्रो मरुद्भिः, वृहस्पतिविश्वेदेवः। (२) तान्विद्रुतानसुररक्षमान्यतुयेयुः ।। १ ।। (३) ते विदुः पापीयांमा व भवामोऽसुररक्षसानि धै नोऽनु व्यवागुः द्विषद्भ्यो चे सध्यामः ।। (४) हंत मंजानापहा, एकस्य श्रिय तिष्ठामहा इति । श. ब्रा० ३।।२।२ (५) ते होचुः । हन्तेदं तथा करवामहै, यथा न इदमानदि बमेवाजयंमसदित ।। (६) ते इंद्रस्थ श्रिया प्रतिष्ठन्त तस्मादाहुरिन्द्रः सर्वा देवता, इन्द्र श्रेष्ठा देवाः । श० ब्रा० ३।४।२।१-४ (१) उनके चार पक्ष बन गये. वे एक दुसरेकी शोभासे असन्तुष्ट हुए; अग्नि वसुओंसे. सेम न्द्रोंसे. वरुण आदित्योंसे. इन्द्र ममतोंसे और बृहस्पति विश्वदेयोंसे। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (-) वे परस्परोंका द्वेष कर रहे हैं यह देखकर असुर और गक्षस उन पर हमला करने लगे। (३) तब उन देवोंके समझमें बात आगई कि हम मूर्ख बन गये, और असुर राक्षस हम पर हमला करते हैं और हम न सुधरे तो शत्रुओंसे हम पामे जायगे। (2) तबले निश्चय किया कि हम मा घटन करेंगे. और परस्परकी शोभा बढ़ानेके काममें लगेंगे। (५) ये कहने लगे कि हम वैसा करें कि जिससे यह (संघठन) कभी न टूटे अर्थान हमेशा रहने वाला हो। (३) वे इन्द्रकी श्री के लिये खड़े होगये, इसी लिये कहते हैं कि इन्द्र है। सब देवता हैं।" ब्राह्मण अन्धोंमें इस प्रकारकी कई कथायें हैं और यहीं ध्वनि पुराणों और इतिहासेमि आई है, इसमे सिद्ध है कि देवोंके गणों में आपस में झगड़े बहुत थे इस कारण उनमें राष्ट्रीय कमजारी भी बहुत थी । अतः वे समय समय पर आपसमें सघठन करते थे और अपना सांघिक चल बढ़ाते थे और अपने शत्रुओंका मुकाबला करते थे 1 गणसंस्थाके कारण गणोंके अंदर यद्यपि सांधिक बल था तथापि गणोंका परस्पर आपसमें झगड़ा और फिसाद होनेके कारण सब देवजातिमें जैमा चाहिये वैसा सांधिक घल न था । तथापि शत्रु उत्पन्न होने पर वे आपसमें समझौता कर लेते थे और अपनी संघदना करके शत्रुको भगा देत थे । इन्द्र और उपेन्द्र जिस प्रकार अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होते हैं, मन्त्री और उपमन्त्री होते हैं, उसी प्रकार इन्द्र और उपेन्द्र भी होते थे, इसका वर्णन पाठक लिम्न श्लोकमें देख सकते है-- Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुनांगयणः कृष्णा कुण्ठी विष्टरश्रवाः ।। १८ ।। उपेन्द्र इन्द्रावरजश्चक्रपाणिश्चतुर्भुजः ॥ २० ।। अमरकी ११ "वि नारायण. कृष्ात. वैकुण्ठ, विष्टरश्नवा:. उपेन्द्र. इन्द्रावरज, चक्रपाणि चतुभुज ।' ये सत्र नाम विष्णु के हैं और इनके नामों में उपेन्द्र. इन्द्रावरज' थे नाम इनका उपाध्यक्ष होना सिद्ध कर रहे हैं। इन्द्र स्वयं देवोंके अध्यक्ष और उपेन्द्र देवाके उपाध्यक्ष थे । उपेन्द्र इन्द्र की अपेक्षा छोटा था यह सिद्ध करनेकी अावश्यकता नहीं है, क्योंकि यह बात उक्त शब्दास ही सिद्ध हो रही है। तथापि 'इन्द्र । अधर-ज" यह उसका नाम ही सिद्ध कर रहा है कि यह विष्णु इन्द्रसे छोदा है और इन्द्र के पीछे बनाया जाता है । "इन्द्राबरजशब्द इन्द्रसे छोटे उपाध्यक्षका ही भाव बताता है । अाजकल विषका मान इन्द्रसे भी अधिक समझा जाता है. परन्तु वास्तव में अध्यक्षके सन्मुख जितना मान उपाध्यक्षका होना संभव है. उतना ही मान इन्द्र के सामने उपेन्द्र का होना संभव है। परन्तु यहाँ यह बात स्पष्ट होती है कि देवों के राजा मुख्य इन्द्र सम्राट् भारतवर्षमें बहुत कम पाते थे, भारतवर्ष में छाना और यहाँका कार्यप्रबन्ध देखना यह कार्य "उपेन्द्र" का होता था। यह बात विणुके कई नाम देखनेसे स्पष्ट होती है। नारायण नारायण शब्द का अर्थ इस विषय पर बड़ा प्रकाश डाल रहा है। इसका अर्थ यह है (नारे) नरोंके मनुष्योंके सघोंमें जिसका { अयन ) गमन होता है, उसका नाम नारायण है। मनुष्योंके स'घोंमें जानेका कार्य उपेन्द्र के प्राधीन था । जिस प्रकार इस Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयके भारतीय सम्राद् हिन्दुस्थानमें बहुत कम आते हैं. परन्तु उनका यहाँका कार्य भारत सचीव अथवा बड़े लाट साहेब करने है. ठीक उस प्रकार देव सम्राट भगवान इन्द्र स्वयं यहां कम आया करते थे, परन्तु यहांका सब कार्य उपेन्द्र अर्थान विष्णुदेव के सुपुर्द था, और इसी कारण उसका नाम "नारायण' (नर समूहोंमें गमन करने वाला ) था। इस नामका यह अर्थ बिलकुल स्पष्ट है और उस समयकी राजकीय सम्धा स्पष्ट बता रहा है। नराणां समूहो नारं तदयनं यस्थ । अमरटीका (भट्ठोजी०) १।१।१८ नरा भयनं यस्य । अमरटीका १।१।१८ आपो नारा इति प्रोक्ना पापो नरसूनवः । ता यदस्यायन पर्व तेज नारायण स्मतः मनु०१०१० (१) नरोंके समूहमें जाने वाला, (२) मनुष्योंमें जानेका स्थान है जिसका, वह नारायण कहलाता है, (३) 'नाराका अर्थ हैं नरोके पुत्र, उनमें जिसका गमन है उसको नारायण कहते हैं। इन सब श्रों का तात्पर्य यही है कि जो उपेन्द्र मनुष्योंके समूहोंमें आता जाता रहता है. उसको नारायण कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि देवोंके अध्यक्ष इन्द्र तो मानवोंके देशमें पाते जाते नहीं थे अथवा कम बाते जाते होतो । परन्तु यहाँ आने जाने का कार्य उपाध्यक्ष अर्थात् उपेन्द्रका ही था । उपेन्द्र इन्द्रावरज ( छोटा इन्द्र, इन्द्रसे छोटा अधिकारी), नारायण, विष्णु आदि नाम एक ही व्यक्ति के हैं। पुराणों में हमेशा नारायण भूमिके निवासियोंके दुःख हरण करता है. ऐसी कथायें बहुत सी पाती हैं, इस कथा भागका तात्पर्य यही है कि पूर्वोक्त देव राज्यके उपाध्यक्ष यहाँ पाते थे और भारतवर्ष के Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवासियों की रक्षा असुरराक्षसादिकका पराभव करके करते थे। इसलिये इन्द्रकी अपेक्षा नारायण लपेन्द्र पर प्रेम भारतनिवासियों का अधिक था। क्योंकि इन्हींका साक्षान् संबंध भारतीयोंसे सदा होता था और भारतीय जनता अपने दुःख इनके पास जाकर ही सुनाती थी, भगवान सम्राट इन्द्र के पास साधारण जनताकी पहुंच नहीं थी। इसी लिय, झान्य देवोंकी अपेक्षा उपेन्द्र नारायण पर भारतीय जनता की कि अधिक की। ब्रह्माक किंवा अनदेशक ब्रह्मदेव. भूतलोक किंवा भूतानके ईश महादेव, ये भी नारायण उपेन्द्रको ही शरण लेने थे और उनकी प्रार्थना करते थे कि आप कृपा करके भूमि निवासिय-कीरती करें ।" क्योंकि सब जानते थे कि ये ही सबसे अधिक सामर्थ्यवान हैं और आर्यावर्तमें सदा आने जाने के कारण यहाँको अवस्थाका उनको ही पूरा पता है । भूमि. हिमगिरीकी बढ़ाई और ऊपरला त्रिविष्टप प्रदेश इन तीनों प्रदेशों में विक्रम अर्थात् पराक्रम ये करते थे इसी लिये इनका "त्रिविक्रम" नाम था। पूर्वोक्त तीनों स्थानोंको "त्रिपथ" किंवा तीन मार्ग कहा जाता था। भारतका भूपथ, हिमालयका गिरिपथ और त्रिविष्टपका धुपथ ये तीन पथ अर्थान् तीन मार्ग थे, इन पाने गुजरनेके कारण ही गंगा नदीका नाम 'त्रि-पथ-गा" अर्थात् पूर्वोक्त तीनों मार्गोंसे गुजरने वाली नदी है। इन तीनों प्रदेशोंमें विक्रम करने वाले पूर्वोक्त उपेन्द्र ही थे। इस कार्यके लिये देवोंके मुख्य इन्द्रको फुरसत नहीं थी। अब हमें देखना चाहि कि उपेन्द्र विष्णु क्रिस युक्तिसे यह कार्य करते थे । . .. विष्वक्सेन .. उक्त बात पूर्णतासे ध्यानमें आने के लिये "विष्वक्सेन" यह विष्णुका अथवा उपेन्द्रका नाम बड़ा सहाय्यकारी है। इस Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) 1 शब्दका अर्थ यह है कि "जिसकी सेनायें यारों ओर थोड़ी थोड़ी विभक्त हुई हैं।" चारों दिशाओं में जितने देश हैं उनमें जिसकी सेनाएँ खड़ी है। अर्थात् यह उपेन्द्र अपने स्थानमें रहत हुआ अपनी विविध सेना द्वारा संपूर्ण देशका संरक्षण करता श्री जिस प्रकार इस समय अंग्रेजों की सेनाएँ भारतवर्ष में कई स्थानों में रखी जाती हैं और उनके द्वारा सत्र देशकी रक्षाका प्रबन्ध करने की योजना की गई है. उसी प्रकार देवोंके उपाध्यक्ष उपेन्द्र महाराज अपनी विविध स्थानोंमें रखी हुई सेनाओं द्वारा भारतवर्षकी जनताकी रक्षा करते थे । उपेन्द्रको अर्थात् विष्णुको मानत्रका रक्षक माना है इसका कारण यही प्रतीत होता है। ब्रह्मदेव विष्णु और महादेव ये तीन देव त्रिदेवोंके अंदर हैं, उनमें से विष्णु ही उपेन्द्र हैं और सबकी रक्षा करने वाले हैं। ब्रह्मदेवका राष्ट्र देश ही है क्योंकि इसकी पूर्व दिशा मानी गई है। महादेवका स्थान कैलास पर्वत सुप्रसिद्ध है और इस उपेन्द्र विष्णुका स्थान किसी हिमालयकी पहाड़ा में होना संभव है, जिसका उस समयका नाम कुठलोक सुप्रसिद्ध है। इस स्थान में रहता हुआ उपेन्द्र जैसा अपना विक्रम भारत भूमि पर करता था उसीप्रकार तिब्वत में भी जाकर करता था । जिस प्रकार मुख्य राजाकी अपेक्षा उसका मुख्य सचिव विशेष राजकारण पंटु होता है अथवा होना चाहिये; उस प्रकार उपेन्द्र विष्णु देवांके इन्द्र सम्राटकी अपेक्षा बुरखाने अधिक राजनीतिज्ञ बनाया है। कमसे कम भारत'वासियोंके हिन संबंध को देखकर हम कह सकते हैं कि भारतमियोंके लिये उपेन्द्र ही अधिक सहायता करते थे और हरएक अकारले लाभकारी होते थे। इसी लिये हरएक कटिन प्रसंगम भारतवासी विगुकी ही शरण लेते थे । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३२५ ' उपेन्द्र के अन्य नाम विष्णु - ( उपेन्द्र ) के नाम अनेक प्रसिद्ध हैं उनमें निम्न लिखित नाम इस योग्य हैं— हैं जो महाभारत में प्रसंग में विचार करने १ - ( मेदिनीपतिः) पृथ्वीका राजा ( क्षितीशः ) भूमिका मालिक, ये शब्द "भूपति” अर्थ बता रहे हैं। २- ( लोकाध्यक्षः ) लोकोंका अध्यक्ष (लोकस्वामी) लोकों का स्वामी, (लोकनाथ ) लोगों का नाथ ( लोकबंधु ) जनताका भाई ये शब्द इसके साथ जनताका सम्बन्ध बता रहे हैं । : ३– ( सुराध्यक्षः ) सुरोका अध्यक्ष, ( त्रिदशाध्यक्षः ) देवों का प्रधान ये शब्द इसके अध्यक्ष किंवा उपाध्यक्ष होनेकी सूचना कर रह हैं । | ४- ( धर्माध्यक्षः ) धर्म की रक्षा करने वाला, धर्म विषयक सब प्रबन्ध करने वाला ये शब्द इसका धार्मिक क्षेत्र बता रहे हैं ५ - ( इन्द्रकम) इन्द्रके कार्य करने वाला यह शब्द उपेन्द्रके कर्म इन्द्रके समान हैं यह आशय व्यक्त कर रहा है. | ६ - ( श्रमणी ) मुखिया ( ग्रामणी ) ग्रामका नेता. ये शब्द इसका ग्रामोंका अधिकारा होना सिद्ध कर रहे हैं। - ( महाबलः ) बड़े संन्यसे युक्त, (सुषेणः) उत्तम सेनासे युक्त ये शब्द इसके सौन्यके बनके द्योतक हैं। विशेष सौन्यसे युक्त होने के कारण ही यह (जेता ) विजयी, ( समितिंजयः) युद्ध में बिजयी ओर ( अपराजितः ) कभी पराभूत न होने वाला है । -- ( महोत्साहः ) बड़े उत्साहसे युक्त, ( सुरानंदः ) देवोंको ! Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रानन्द देने वाला ( शास्ता) उत्तम राजशासन करने वाला, ये नाम भी पूर्व नामांक साथ ही पढ़ने योग्य है। १५--(वीरहा ) शत्रुके बड़े वीरोंका नाश करने वाला, (नैकमाय: ) अनेक कार्य कुशलताके साथ करने वाला ये शब्द उसका कार्य कौशल बता रहे है। इस प्रकार उपेन्द्र के नाम जो महाभारत के अनुशासनपर्व में प्रसिद्ध है, देखनेसे उसके कार्यका पता लगता है। इससे भी अधिक इनके बहुनसे नाम हैं जो इनके अन्यान्य गुणोंका वर्णन कर रहे हैं उन सबको यहाँ उद्धृत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उपेन्द्रके कार्य उपेन्द्र विष्णु के नाममि "इत्यारि, म रिपु बलध्वनी, कंगाराति. कैटभजिन ” इत्यादि नाम उसके कायके दशक है । दल्यों का पराभव इन्होंने किया था; मधु. चलि क्रम. केंदभ आदि दुष्टों का इन्होंने नाश किया था। इन नामाके अतिरिक्त इनके बहुनसे. नाम प्रसिद्ध है कि जो इनके . कायोंके घातक हैं। उन सबका यहाँ विचार करनेकी आवश्यकता नहीं। यदि पाठक उन नामोका विचार करेंगे तो उनको उत्तः बातका पता लग सकता है। इन्द्र के नामोंका विचार करनेसे इसी प्रकार उनके कार्याका पता लग सकता है । वृत्रादि राक्षमोका वध करना तथा देवों और आर्योकी रक्षा करना इनका प्रधान कार्य था और यही इतिहास और पुराणों में विविध कथा प्रसंगांसे व्यक्त क्रिया है इसलिये इस विषय में अधिक लिम्सनेकी अावश्यकता नहीं है। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I .. 1) महादेव पं० शिवशंकरजीत देवेभिक पार सिद्ध किया है। र 'अर्थाने घन है। ( ३२६ ) २ r 7 'त्रिदेव निर्णय' में रुद्र ( महा रुद्र आदि नामों से अधिक हो आलंकारिक कई विद्वानोंका मत है कि शिव सँगकी जो जलेरी है वह यज्ञ शिखाका रूपान्तर हैं। कुण्डका ही विकृतरूप है, तथा लिंग 21. बेडसे भी इस मतकी पुष्टि होती है । 13 Ko :: : 4 ./ ( त्वमग्ने रुद्रः ) ऋ० २.१६ तस्मै रुद्राय नमोस्त्वग्नये । ००७८७१ वन मन्त्रों में स्पष्टरूप से अको कहा गया है। निरुक्त और रुद्र rama रुद्रको मध्य स्थानीय देवता माना है । यथावायुः, वरुणे, रुद्रः, इन्द्र, पर्जन्य, वृहस्पतिः, ब्रह्मणस्पतिः, ये सात मध्यम स्थानीय देवता हैं। इनमें वायु मुख्य है । - यंदरुदत तद् रुद्रस्य रुद्रम् (काकति) : यदरोदीत् तद्रुद्ररुष रुद्रन् । (यह हारिद् वि श्रुति) अर्थात् जो रोया से ट्रक केंद्रपना है। इन श्रुतियी के अनुसार इतिहास भी है कि वह रुद्र अप पिता प्रजापतिको बाणों से बिधने हुये देखकर शोकसे सेवा श्र इससे इसका नाम रुद्र प्रसिद्ध हुआ। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ---.---... - ..- . .. रुद्रः रोति इति सतः रोख्यमाणों द्रवति, इति वा । रोदय ते ॥: । : . : .. . " अर्थात्-जो रोता है .अहम है अथवा बार बार या अतिशय रोकर चलता है. इससे रुद्र है: अधया रोदयति प्राणियों को रुलाता है इसस रुद्र है । १३ । १।५ . . .:: अभिप्राय यह हैकि. (क)जोरोशा) जो रोता है. (८) जो रोता हुया चलता है. (४) जो रुलाता है । वह मन्द्र है निरक्तकार के मतसे यहं मध्यम स्थानीय वायु देवता है। क्योंकि बायु शान करता हुआ चलता है। आगे निरुक्तफारने--- - : . . "अग्नि रपि रुद्र उम्यते" .... " कह कर अमिका नाम श्री रुद्र सिद्ध किया है. तथा अपमे इम मतको पुष्टिम ,अधययेदका मन्त्र भी लिख दिया है। अतः निरुत्तकारके मतमें 'रुद्र' श्रमि अथवा वालुका नाम है, ईश्वरका नहीं है । . . . . F .. o • IR :. : ... ब्राह्मण ग्रन्त्य और रुद्र , .. अनिरुद्रः श. ५शक्ष१. . . . . ." रुद्रो अग्निः । ता० १२ । ४ । २४ : एष रुद्रः, यसि । ते०१ । १. ५८ प्राणा व रुद्राः प्राणाहीदं सर्व सेदयन्ति ।. . .. .. " .. कतमै रुद्री इति दशेमे पुरेपे प्राणी आत्मकादशम्ने यदस्मान्यांच्छरीरादुत्क्रामन्यथ. रोदयन्ति तद्योदयास्त; तस्माद् रुद्रा । इति श० ११ । ६ । ३ ७ ... ... .. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) - एषा ( उदीची) मैं रुद्रस्य दिक् । ० १ । ७ । ८ । ६ रुद्रस्य वाहू (आर्द्रा नक्षत्रमिति सायणः ) ते ११५ | १/१ पं भगवदत्तजीने वैदिक कोषमें लिखा है कि-"तान्येतान्यष्टौ (रुद्रः सर्वः पशुपति, उग्रः, अशनि, भवः महान्देवः, ईशानः, अग्निरूपाणि कुमारोनवमः ) ( कुमार:= स्कन्दः रुद्र पुत्रोऽग्रि पुत्रः अमरकोशे ) महाभारते वनपर्वण, २२५ | १५-१६" रुद्र:- अनि वै स देवस्तस्यैतानि नामानि शत्रु हि यथा प्राच्या अचचते भव इति यथा वाहिकाः पशूनां पतिः, रुद्राऽग्निरिति । श० १।७।३।८ अर्थात् अनिका नाम रुद्र है. तथा प्राणों का नाम रुद्र हैं. क्योंकि ये निकलते समय हलाते हैं । रुद्र. शर्व, पशुपति, उम्र, अशनि मंत्रः महादेव, ईशानः, आदि सब अभिके रूप हैं। कुमार स्कन्द को जो किं शिवजी के पुत्र हैं उनको अभिका पुत्र लिखकर दोनोंकी एकता प्रदर्शित की है। रुद्रकी उत्तर दिशा है, तथा नक्षत्र रुद्रके हाथ हैं। इसी अभिको पूर्व दिशा वाले 'शर्व' कहते हैं, और किसी प्रान्त वाले 'भव' और कोई इसको 'रुद्र' तो अनेक इसी श्रमिको 'पशुपति' आदि ना ते तुकारते हैं ।" सारांश यह हैं कि ऋग्वेद, अथर्ववेद, निरुक्त, सम्पूर्ण ब्राह्मण ग्रन्थ तथा महाभारत और अमरकोश आदि सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अभि. शयु, प्राण व प्रण सहित संसारी श्रात्माका नाम ही कद्र है. किन्तु वर्तमान ईश्वरकी कल्पनाका संकेतमात्र भी नहीं है । तथा च--- Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ } ऋग्वेद के समय में यह रुद्र श्रमिका विशेषण मात्र था । पुनः यह अमिका परिवर्तित रूपमें प्रकट हुआ, और यजुर्वेद के समय में वैदिक कवियों, अमें, वायु, भाख, आत्या, सथा उत्तर दिशाका राजा आदि गुस्तोंको आरोपित करके इस रुद्रको एक नये देवता का रूप प्रदान कर दिया । पुनः पुराणकारोंने इसको और भी भयानक रूप दे दिया । यही प्रजापति विष्णु आदि वैदिक देवोंकी व्यवस्था है । ऐतिहासिक राजा रुद्र जैसा कि - ऊपर लिखा जा चुका है, ब्राह्मण प्रन्थों में रुद्रकी उत्तर दिशा बताई गई है। इससे प्रतीत होता है कि यह उत्तर दिशाका एक राजा था । वे लोग चोरी. डाका आदिका ही कार्य करते थे संभवत: इसी लिये वेदों में इसको चोर, डाकुआं अदिका अधिपति कहा है। नपो वंचते परिचचते स्तायूनां पतये नमः । यजुर्वेद० १६ । २२ यजुर्वेदका यह पूरा अध्याय ही रुद्रकी खुतिमें लिखा गया है. इसीलिये इस अध्यायका नाम ही रुद्राध्याय है। इसमें स्पष्टरूप से रुद्र (महादेव) को चोर, व ढाकु आदियोंका अधिपति बताया है। पं सातवलेकरजीने 'महाभारतकी समालोचना' में इसके ऐतिहासिक रूप पर अच्छा प्रकाश डाला है. अतः हम उसको अक्षरशः यहाँ उद्धृत करते हैं। आप लिखते हैं कि . भूतनाथ "महादेव के नामों में भूतनाथ, भूतेश, भूतपति आदि नाम Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३० ) सुप्रसिद्ध हैं। "भूत नामक जातिका एक राजा" इतना ही भाव .. ये शब्द असा रहे हैं। भूतनामक्र. जातिका राष्ट्र भूतान किंवा भूतस्थान है। यह जाति इस समय में भी अपने भूतानमें विद्यमान है.. इसलिये इसके विषयमें अधिक लिखनेकी आवश्यकता नहीं। इस भूतजातिके राजा महादेव नामसे प्रसिद्ध थे। यधपि आज- . कलका भूतान छोटा सा प्रदेश है तथापि प्राचीन काल में और इस समयमें भी ये भूतिया लोग तिब्बतके दक्षिण भागमें रहते थे । और रहते हैं । इसी कारण उनके राजा महादेवने अपनी राजगही मानस तालके समीप वाले फैलास पर्वत पर अथवा कैलास के पास बनाई थी। यहाँ रहते हुए भूतनाथ महादेव सम्राट अपना शासन पूर्व दिशामें भूतनाथ पर तथा पश्चिम दिशामें पिशाच जाति पर करते थे। "गिरीश" इसका नाम स्पष्टतासे बता रहा है कि यह पहाड़ी पर रहने वाला राजा था। गिरी अर्थात पहाड़ीका राजा गिरीश कहलाता है। इसकी धर्मपत्नी भी पार्वती नामसे प्रसिद्ध है। "पार्वती" शब्द यही भाव बताता है कि यह पहाड़ी खी थी। पहाड़ी राजाका विवाह पहाड़ी स्त्रीसे होना ही स्वाभाविक है। इस महादेवका काल. निश्चित करना चाहिये। इसका काल निर्णय हम इनके नामोंसे और इनके व्यवहारसे कर सकते हैं कृत्तिवासाः . यह शब्द इस कार्यके लिये बड़ा उपयोगी है। इसका अर्थ यह है-"कृतिः चर्म बासः यस्य ।" जिसका कपड़ा चर्म ही है. अर्थात् कपड़ेका कार्य चमडेसे करने वाला, अथका चमडेको कपड़ेके समान पहनने वाला यह महादेव था । यह कृत्ति शब्ध यद्यपि सामान्यता चमड़ेका वाचक है तथापि हाथीके या हिरनके Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : कच्चे धपड़ेका वाचक मुख्यतया है । उक्त पशुको. मारकर उसका चमड़ा उतारकर उसो कच्चे चमका पहनना उस शब्दसे व्यक्त होता है। पाठक ही विचार कर सकते हैं कि यह भूतानी राजाकी रहने सहनेकी पद्धति सभ्यताके किस स्थान पर होना संभव है। हमारा तो यह विचार है कि कपासके या ऊन के कपड़े बुनने और पहननेकी प्रथा शुरू होने के पूर्व युगका यह वर्णन है, क्योंकि आ मनुष्य एक बार ऊनी या सूती कपड़े पहनने की सभ्यतामें श्रा गये. वे कच्चा चमड़ा पहननेके पूर्व युगमें जा ही नहीं सकते. मनुष्य कितनी भी उदासीनतामें रंगा क्यों न हो, वह कक्षा चमड़ा पहन ही नहीं सकता, अदि एक बार वह कपडोंकी सम्यतामें भा गया हो । महादरके वर्णनमें उस चमड़ेसे रक्तकी यूदे चारों ओर टपकनेका वर्णन पत्र बता रहा है. कि वह बिलकुल कया चमड़ा ही पहनता था । कई दिनाक पश्चान् चहा चमड़ा सूख जाना भी संभव है, परन्तु यह शब्द उस समयकी सभ्यताकी दशाका वणन स्पष्ठतासे कर रहा है. इसमें किसीको काई शंका हो ही नहीं सकता । भूतानकी उस समयको ही यह सभ्यता मानना उचित है। क्योंकि अन्य लोगोंसे राजाकी अवस्था कुछ अच्छी ही होना सदा ही संभवनीय है और जिनका राजा हा कचा चमड़ा पहनता हैं उन लोगोंकी सभ्यताको अवस्था उससे अच्छा म.नने का कोई कारण नहीं है । अस्तु । अब इस शनिक साथ ही कप-भृत' शब्द. देखना चाहियः कपालभृत् कपालभृत . कपाली. कपालधारी आदि शब्द समानार्थक ही है । कपाल प्रीत स्त्रोपही हाथमें धारण करने वाला । हाथमें थतनके स्थानम खापट्टीका उपयोग करने वाला यह रिवाज भी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वोक्त अवस्थाकीली सूचना करता है। जो कमा चमड़ा पहनने : " वाला है वहीं स्वोपड़ीके बर्तन उपयोगमें ला सकता है। दूसरा न नहीं लायेगा । मिट्टी, साँधे, पीतल के बर्तनोंका संबंध ऊनी या सूती कपड़ोंके साथ ही है। जिस सभ्यतामें कपड़ोंका स्थान चमड़े । में लिया है उसी में बनीका स्थान लोपड़ा ले सकती है। ___ इसीके साथ "कण्डमाला धारी" यह शब्द भी देखने योग्य है. खोपड़ियों अथवा हमियोंकी माला पहनने वाला; हाइयोंके . टुकड़े ही श्राभूषणोंके स्थानम बरतने वाला । यह शब्द भी । पूर्वोक्त सभ्यताके युगका सूचक है। इसके साथ खड़वांगपाणि" शब्न देखने योग्य है। इसका अर्थ है-खटियाका भाग हाथमें धारण करने वाला" अर्थात् शास्त्र के रूप में स्वटियाकी लकड़ी बनने वाला । इस शरदके साथ बलरामजी का वाचक "मुसली. हली, इलायुध' :आदि शठन भी विचार करने योग्य हैं 1 चावल साफ करने का मूसल, भूमि हलन का हल इनके शस्त्र वर्तने वाला बलराम था। अर्थात साधारण घरके कायम आने वाले पदार्थ मूमल हल या चरपई आदि उन्हींको शस्त्र के स्थान पर वर्तने बाला। इलका उपयोग शस्त्रके समान करने के लिय तथा चारपाईका उपयोग शस्त्र के समान करने के लिये प्रचण्ड शक्ति चाहिय इसमें संदेह नहीं है, परन्तु यहाँ हम देख रहे है कि जो सभ्यता विविध माधनोंके बर्तन के कारण समझी जाती है उस सभ्यताको अपेक्षा इनकी सभ्यता किस दर्जे पर थी । विचार करने पर पता लग सकता है कि वे महापुरुष उस सन्तताके समयके हैं कि जिस समय लोग वलोंके स्थान पर धर्म, बर्तनोंके स्थान पर खोपड़ियाँ बर्तते और शस्त्रों के स्थान पर चारपाईकी लकड़ियाँ भी उपयोग में लाले थे। यद्यपि महादेवके शास्त्रों में हम देखते हैं कि इनके पास Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. रा 7 = · ( ३५३ ) "परशु, त्रिशूल, धनुष्यबाण, तथा अन्य शख" थे "पाशुपाख" नामक बड़ा तेजस्वी अस्त्र महादेव के पास था, तथापि साथ साथ हम पूर्वोक्त शब्दको भी भूल नहीं सकते। पांडवोंका अर्जुन वीर महादेव के पास शस्त्र सीखनेके लिये जाता है और उनसे शस्त्र प्राप्त करके अपने आपको अधिक बलवान अनुभव करता है । ये बातें भी हमें इस समय विचार कोटी में लानी चाहिये। परशु त्रिशूल बारा ये शस्त्र अच्छा फोलाद बनाने वालोंका युग बता रहें हैं। और पूर्वोक कृत्तिवास:" आदि शब्द बहुत पूर्वकाल की ओर हमें ले जा रहे हैं । इसलिये हम अनुमान 'ल दोनों युगों के मध्यका काल इस सभ्यता के लिये मान सकते हैं। . भूमि पर एक ही समय विभिन्न अवस्थाकी सभ्यतायें विभिन्न देशों में रहती हैं। देखिये इस समय युरोप में विमानों और मोटरों की सभ्यता है, भारतमें बेलगाड़ीकी सभ्यता है और तिब्बत में पैदल चलने की सभ्यता है । परन्तु भारतवर्ष मे युरोपीयनोंके कारण विमान और मोटरें आती हैं और कई धनी भारतीय लांग भी मोटरोंकी सवारी उपभोगते हैं । तथापि यह माना नहीं जायगा कि इस समय भारतको सभ्यता मोटरोकी है. क्योंकि यहाँ भारतियों की बुद्धिमता से मोटर तो क्या परन्तु मोटरका एक भी भाग बनता नहीं है। इस प्रकार आदि लोग युरोपकी उत्तम बंदूकें बर्तते है परन्तु वे स्वयं उन बंदूकों को पना नहीं लकते । पठान लोग स्वयं करीब करचे चमड़े की सभ्यताले थोड़े ऊपर रहते हुए भी विमानोंके युगकी बंदूकें बता सकते हैं। इसका कारण यही है कि अन्य देशके बने हुए पदार्थ दूसरे देश में लाये जाते हैं और वहां उसका उपयोग किया जाता है इसी प्रकार भूतिया लोग बहुत प्राचीन काल में कच्चे चमड़े वर्तनेकी अवस्था में रहते हुए भी बाहर के देशले बने हुए फोलाद आदि लाकर कुछ - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग विशेषसे अपने शस्त्रास्त्र बनाते होंगे । परशु, त्रिशूल, वारण और पाशुपतास्त्रके उपयोग के कारण उनकी सभ्यताका दर्जा बहुत ऊँचा मानना कठिन है । क्योंकि इनके साथ साथ करुये चमड़ोंका कपड़ोंके समान उपयोग, खोपड़ीका बतनोंके समान उपयोग ड़ियोंका आभूषणोंके समान उपयोग करनेकी प्रथा भी उनका विशिष्ट दर्जा निश्चित करती है। मृत और पिशाच जातिके लोग उस समयके असम्य अवस्थाके लोग थे, यह आंत महाभारताधि प्रन्थ पढ़नेसे मी समय ध्यान में आजाती है. परन्तु महादेवादि वीर महापुरुष उनसे विशेष उच्च अवस्था पर मानना योग्य है क्योंकि इनकी मान्यता अन्य रातिस भी उस समय सबको मान्य हुई थी। ऋतुध्वंसी महादेवका विचार करनेके समय उसका यज्ञविध्वंसक गुण भी देखना चाहिये । "क्रतु--ध्वंशो" शब्दका अथ यशका नाश करने वाला है । महादेव यज्ञका नाशक प्रशिद्ध है । दक्षप्रजापति के यशका नाश उसने किया था । दक्षप्रजापति उसका संबंधी भी था। यज्ञका विध्वंस करनेके हेतु इस महादेवके विषयमें थोड़ी शंका उत्पन्न होती है और वह शंका रद होती है कि जिस समय हम देखते है कि महादेव सदा असुरों और राक्षसांकी सहायता करता है । बाणासुररानिकोंको महादेवकी महायता हुई थी और उमी काम देवों और श्राओंको बड़े कष्ट हुए थे । बाणासुर जैसे पासियों राक्षसों को महादेवसे महायता मिलती थी और इस कारणं वाह प्रबल होकर देवों और अायाँको सत्ताते थे। महादेषकर यह विश्वंस करनेका स्वभाव और असुरोको देधों और प्रायों के विरुद्ध प्रबल. अनानेकी राजनीति स्पष्ट सिद्ध कर रही है कि ये प्रारंभ में न तो देवोंके पक्षपाती थे और न अाकि सहायक थे 1 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) परन्तु बहुत समय तक अपने ढङ्गसे चलने वाले स्वतन्त्र और देवों या आर्योके कल्याण के विपयमें पूर्ण उदासीन हो रहे थे। परन्तु उपेन्द्र विष्णु प्रयत्नसे अनेक बार असफलता प्राप्त होने के कारण महादेवने अपने श्रापको देवांके पक्ष में रखना योग्य समझा और तत्पश्चात् उनसे देवों और आर्योंको कोई कष्ट नहीं हुए । अर्थात् ये पूर्व आयुमें राक्षसांके सहायक थे परन्तु पश्चातकी वृद्धावस्थामें देवों और पार्यो के हितकारी बन गये । यज्ञभागके लिये युद्ध इससे पूर्व बताया ही है कि महादेव ऋतुध्वंशी, यज्ञहन , यज्ञघाती" जाति नामोंसे गिड़ है दन्त जागतिक पदन्याने नष्ट भ्रष्ट किया था। इसका कथायें रामायण महाभारत आदि इतिहास में प्रशिद्ध हैं और प्रायः पुराणों में भी हैं । इसका वृत्तांत यह है "दक्षप्रजापतिने यज्ञ किया था, उन्होंने संपूर्ण देवीको निमत्रण दिया था. परन्तु महादेवको निमन्त्रण देना भी उसने उचित न समझा । इस पर झगड़ा हुआ और झगड़ा बढ़त बढ़ते युद्ध में परिणत हुश्रा । महादेवने अपने भूतगणोंको अपने सेनापतिके साथ यज्ञके स्थान पर भेजा और उन्होंने वहां जाकर यज्ञमंडप और संपूर्ण यज्ञका नाश कियाकेचिद्वभंजुः प्राशं पत्नीशाली तथापरे । सद पानीघ्रशाला च तद्विहारं महानसम् ॥ १४ ॥ रुरुजुर्यज्ञपात्राणि तथैकेऽप्रनिनाशयन् । कुण्डेष्वमूत्र यन्केचिद्विभिदुदिमेखलाः ॥ १५ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३२६ अबाधन्त सुनीतन्य एक पत्नीस्तर्जयन् । अपरे जगृहुर्देवान्प्रत्यचान्तायितान् ॥ १६ ॥ श्री भागवत ४ । ५ 1 " कईयों ने यज्ञशाला के बांस तोड़ दिये पत्नीशालाका भवन किया, समास्थान. आमशाला और पाकशालाका नाश कईयों ने किया. कईयांने यज्ञपात्र तोड़े, दूसरांने अभियोको बुझाया यज्ञकुंडों में कईगोंने मूत्र किया, बेदी मेखता कईयोंने तोड़ दिये, ऋषि मुनियोंको कई गोते धसकाया पोखियों का अपमान भी कईयों ने किया. अन्याने देवाको पकड़ कर खूब ठोक दिया । इम बलमें देवोंको भी खूब चोटें लगी कई देवोंके दान टूट गये कई बड़ी जखमें होगई, कई आंख फट गये इसका वन भी देखिये जीantaraarasयं प्रपद्येताऽक्षिणी भगः । भृगोः श्वश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्च पूर्ववत् । ५१ ।। देवानां भगात्राणामृखिजां चायुधाश्मभिः । भक्तानुगृहीताना माशु मन्योस्त्वनातुरम् ।। ५२ ।। श्री० भागवत ४ । ६ "यजमान जी, भगके आँख ठीक हों. भृगुकी मूडियाँ ठीक डॉ. दुषा दांत पहले जैसे हों, पत्थरोंसे फटे देवोंके साथ और " ऋके अंग ठीक हो ।" इस वर्णन से पता लगता है कि यजमान दक्ष प्रजापति बहुत घायल हुआ था, यहां तक कि उसके जीवित रहने में भी शंका उत्पन्न हुई यो भग देवता के आंख गये थे. पूषा दाँत टूट गए थे, भृगुकी दाढ़ी मूछें काटी गई थी और अन्यान्य देवोंके शरीरोंपर अन्यान्य स्थानोंमें बड़े भारी भारी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ """-: - - - - जखम बने थे । इस झगडे से महादेव को जो यश भाग प्राप्त हुआ उसका भी वर्णन यहाँ देखिये एष ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै । यज्ञस्ते रुद्र भागेन कल्पतामद्य यज्ञहन् ॥ ५० ॥ श्री० भागवत । ६४ । "हे यज्ञयात करने वाले रुद्र महादेव ! यज्ञ का उच्छिष्ट अन्नभाग श्रापका होगा । इससे यज्ञ बढे।" अर्थात् यज्ञका इनिष्ट अनभाग महादेव और उनके भूतगणों को देने का निश्चय करने से महादेव और भूतगणों ने आगे कभी यज्ञका घातपात नहीं किया । उच्छिष्ट अन्नभाग का तात्पर्य झूठा अन्न ऐसा ही समझने का कोई कारण नहीं है, उसका इसना ही तात्पर्य दीखता है कि अन्यान्य देवों का अन्नभाग देने के पश्चात जो अन्नभाग अवशिष्ट रहेगा बह रुद्र को दे देना। इतने अन्नभाग पर भूतगणों की संतुष्टी हुई । युद्ध करके अन्न का भाग किंवा अन्नका अन भाग भी नहीं लिया, परन्तु यज्ञके उच्छिष्ट भागपर ही संतुष्ट हो गये। दक्षादि आर्य लोग देवों का सत्कार करते थे और उनको अन्न भाग देते थे। परंतु भूत लोगोंको या उनके भूवनाथ महादेवको न कोई यज्ञ में निमंत्रण देता था और न अन्नभाग देते थे। यज्ञ के समय देवजाती के लोग यज्ञमंडप में आकर प्रधान स्थान में बैठते थे और ताजा अन्न का भाग भक्षण करते थे । आर्य लोग भी उस प्रकार यज्ञमें समिलित होते थे और शेष बचा अन्न भूमिमें गाडते. या जल में बहा देते थे। परंतु भूत लोगों को यज्ञमंडप में आने की और अन्न भाग प्राप्त करने की आज्ञा न थी। आजकल भी जिस प्रकार द्विजोंके यज्ञादि कर्म करने के स्थानमें अंत्यज, दे Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ३३८ ) चमार. अथवा म्लेच्छ, यवन श्रादि अन्य धर्मीय लोग नहीं श्रा सकते हैं, उस प्रकार पूर्व समय की यह बात होगी । इसलिारे भूत लोग यज्ञमंडपके आस पास अनकी इच्छासे यूपमें तडपने और बरसातमें भीगते हुए भ्रमण करते रहते होंगे। परंतु घंमडी आर्य शक्तिके अभिमानी देव इन भूतोंकी भूखसे पीडित अवस्थाका कुछ भी ध्यान नहीं करते थे । पाठक देख सकते हैं और विचार कर सकते हैं कि भूखे लोग इतना अपमान और कष्ट कितने दिन तक बरदाश्त कर सकते हैं? अंतमें इन भूत लोगोंने यज्ञमंडप पर पत्थर फेंके और एकदम अंदर घुस कर यज्ञकी बड़ी खराबी की।" ईश्वर विषयक आर्य समाजके महान् वैदिक विद्वान् श्रीमान् पं० सातबलेकर जी का मत । आप 'ईश्वरका साक्षात्कार' पुस्तकके प्रथम भागमें लिखते हैं कि "ये सभी (वैदिक) ऋषि 'ईश्वर विश्वरूप है ऐसा ही कह रहे हैं। पाठक यहाँ यह बात स्पष्ट रीतिसे समझे कि, ईश्वर विश्वमें ध्यापक है। ऐसा इनका भाव यहाँ नहीं है। प्रत्युत जो विश्वरूप दीख रहा है, या अनुभवमें पा रहा है, वही प्रत्यक्ष ईश्वरका स्वरूप है। ऐसा ही इनका कथन है । आज ईश्वरको अदृश्य माना जाता है. पर विश्वरूप दृश्य होनेसे वैदिक ईश्वर भी दृश्य ही है। यही उपनिषद् और गीताके 'विश्वरूप' वर्णनसे स्पष्ट होता है । आजकल की प्रचलित कल्पनासे यह सर्वथा विभिन्न है, इसमें सन्देह नहीं है।” वर्तमान मानतायें, (१) ईश्वर बहुत दूर है, (२) ईश्वर हरएक वस्तुमें है, (३) ईश्वर अन्दर है और बाहर भी है. (४) ईश्वर सनसें है और सब ईश्रर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हैं, (५) ईश्वर ही सब कुछ है। इनमें अन्तिम धारणा वैदिक - - - ---- एक इश्वरकी सार्वभौम सत्ता मानने पर, तथा ईश्वरको सर्व• ध्यापक मानने पर दूसरी सृष्टिकी सत्ता मानना कठिन है। क्योंकि एक ही स्थानमें दो वस्तुओंका रहना असंभव है। जहाँ सृष्टि है यहाँ ईश्वर नहीं नौ जहाँ ईश्वर धोया, मृति नहीं माने की ओर प्रवृत्ति होती है। संघ भृतोंमें ईश्वर है ऐसा माननेसे इसका अर्थ सब भूत खोखले हैं । अत: वहां खोखले पनमें ईश्वर रहा है ऐसा होता है। इसी तरह ईश्वरमें सब भूत है. ऐसा कहते ही ईश्वर में ऐसा स्थान है. जहां सब भूत रह सकते हैं, ऐसा ही मानने पड़ेगा। दो या तीन पदार्थ ईश्वर के अतिरिक्त हैं और उनके साध ईश्वर भो सर्व व्यापक है. इस कथनका तर्क भिसे कुछ भी मूल्य नहीं है । तथापि ये लोग तथा द्रुतसिद्धान्तको मानने वाले सब सम्प्रदाय ऐसा ही मानत आये हैं। ये ईश्वर, प्रकृति और जोवको अनादि मानते हैं और वैसा मानते हुये ईश्वरको सर्वव्यापक भी मानते हैं।" पृ८९८ यहाँ मार्य समाजके मूल सिद्धान्तको ही तर्क और बेद विरुद्ध सिद्ध किया गया है। चोर आदि सब ईश्वर हैं आगे श्राप लिखते हैं कि'घातक, चार. डाकू. लुटेरे, उगने वाले. धोखेबाज, फरेवी, मकार. कपटी, छल करने वाला. नियमीका उल्लंघन करने वाला, ___ इनमें तृतीय और चतुर्थ सिद्धान्त प्राय समाजका है, जिसको स्पष्टरूपसे अवैदिक बताया गया है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि के समय दुष्ट इच्छासे भ्रमण करने वाला. निःसन्देह ये दुध भाव वाले मानवोंके वाचक ( शब्द ) हैं। परन्तु ये भी रुद्रके ही रूप हैं। जिस तरह ज्ञानदाता ब्राह्मण, सबके पालन करने वाले क्षत्रिय, सबके पोषणकर्ता वैश्य, और सबकी सहायतार्थ कर्म करने वाले शद्र, रुद्र के रूप हैं, उसी प्रकार चोरी करके लोगोंको लूटने वाले रुद्रके ही रूप हैं पाठकोंको यह मानने के लिये बड़ा कठिन कार्य है। चोर भी परमात्माका अंश है । क्या यह सत्य नहीं है। पृ० १६३ ___चार वर्णोंके मानत्रोंका जीव जैसा परमात्माका अंश है. वैसा ही चोर, डाकू, लुटेरोंका जीव भी परमात्माका अंश है।.. वेदका कथन है कि जिस तरह चार वरणोंमें विद्यमान जनता संसव्य है. इसी तरह चार. डाकू, श्रादि भो वैसे ही संसेव्य है।" जन्म आदि कर्मसे नहीं है "आजकल जो बताया जाता है कि पूर्व कर्मके पापके भोग भोगनेके लिये जीत्र शरीर धारण करता है, अर्थात् जन्म पाप मूलक है, यह वेदका सिद्धान्त नहीं है । यह जैन, बौद्ध की कल्पना वैदिक धम्मियोंके अन्दर घुस गई है।" पृ०२७८ इस प्रकार अापने ग्रह मिद कर दिया कि-ईश्वर विपयक चतमान सम्पूर्ण मान्यतायें अवैदिक हैं। ___ इसके लिये हम आपको शतशः धन्यवाद ही देंगे। किन्नु यदि श्राप थाड़ा और विचार करते तो आपको अपनी यह नवीन कल्पना भी अवैदिक और तर्क हीन प्रतीत होती । - मुक्ति नहीं श्राप लिखते हैं कि.- समूचा विश्व एक हो सत्ता है (एक Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( ३४१ ) एक ही सत्) यहाँ विभिन्न स्थान सत्ता में परिणत होने से मुक्ति सबक मिलकर एक होगी।" प्र०४५५ इस प्रकार आपने कर्म सिद्धान्त तथा मुक्ति, और मुक्ति के साधन. तप आदिके लिए सन्यास धारण आदि सबको वैदिकधर्म पर जैनियों की अमिट छाप बताया है। परंतु इस प्रश्न का इनके पास कोई उत्तर नहीं है कि यह ईश्वर विना कारण चोर, डाकू लुटेरा, व्यभिचारी, घातक आदिबनने के लिए क्यों प्रवृत्त होता है dersharaare के मानने पर पाप और पुण्य श्रादि आप की व्यस्था का आधार क्या है ? क्योंकि आपके मत से जन्म कर्म मूलक तो है नहीं! अपितु आपके मतानुसार तो ईश्वर बिना प्रयोजन. और बिना किसी कारण के स्वयं ही प्रत्येक समय गधा घोड़ा कुत्ता बिल्ली पशु पक्षी व मनुष्य आदि का रूप धारण करता रहता है । इस प्रकार अनेक शंका हैं जिनका विवेचन हम आगे वेदान्त दर्शन प्रकरण में करेंगे । यहां तो यही कहना है कि आपकी यह मान्यता भी वैदिक है। क्योंकि आपने जिन वैदिक मंत्र आधारसे अपने मड़की स्थापना की हैं, हमने उन सब मन्त्रोंके यथार्थ अर्थ लिख कर सप्रमाण यह सिद्ध कर दिया है कि सब कथन जीवात्मा की अवस्था है। अर्थात् किसी जगह तो निश्चय नयसे शुद्धात्मा (परमात्मा) का वर्णन है. और कहीं अन्तरात्मा (आत्मज्ञानी महात्मा) का कथन हैं, तो कहीं वहिरात्मा. अर्थात संसारी आत्मा ( संसार में लिका वर्णन है। यह वर्णन रुद्रका है. जिसको आपने स्वयं (महाभारतकी समालोचना में) सूत जाति (भूटान) का तथा पिशाच जातिका राजा निज किया है ता यह चोरी व डाका डालने वाली जातियोंका श्रविपति था यह सिद्ध है | इसकी ईश्वर कहना ईश्वरका मजाक उड़ाना है । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) पाण महिमा इसी विषयको विशेष स्पष्ट करने के लिए हम वैदिक साहित्यमें जो प्राणोंकी महिमाका वर्णन है, उसको लिखते हैं। इस वर्णनसे पाठकोंको वैदिक अध्यात्म विद्याका भी रहस्य समझमें आजाएगा, तथा वेदाम जो सृष्टि रचना के मन्त्र प्रतीत होते हैं उनका भेद भी प्रकट हो जायगा। प्राणोंका माहात्म्यः ( वैदिक वांगमयमें )-मूर्यके जितने. अश्व, वृषभ, इस श्रादि धारापित नाम पाते हैं जीवात्मा को भी उन नामों से पुकारते हैं। सूर्यके सप्न प्रकार किरण हैं। जीवात्माके भी दो चक्षु. दो कर्ण. दो नासिकायें. एक बाणी ये सप्त किरण सम हैं। मूर्य के साथ भी कहीं प्राण और मन, कहीं प्राण. मन और वाणी, कहीं प्राण. मन, वाणी. और विज्ञान, कहीं चक्षु श्रोत्र. मन वागी. कहीं पंचेन्द्रिय षष्ठ मन इत्यादि समानता है। जैसे मूग्यके लोक, अन्तरिक्ष और पृधित्री तीन लोक हैं। तइन् जावात्माक परस कति पर्यन्त एक पृधियी लोक. मायशरीर दूसरा अन्तरिक्षलोक, तीसरा झुलाक। अथवा एक स्थूल शरीर, दूसरा इन्द्रिय. नीसरा मन ये तीन लोक है भाव यह है कि जीवात्मा और सूर्गको अनेक प्रकारसे परम्पर उपमित करते हैं। यह जीबारमविशिष्ट जो नयन, करण, नासिका, रसमा आदिक गरम हैं। वे वहाँ प्रामा नामसे उक्त है। प्राण हो सुपर्ण (पक्षी) है। यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागम् । अनिमेष विदयाऽभिस्वरन्ति । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः । समाधीरः पाकमत्राविवेश ।। ५० । ३ । १२ ।। यहां यास्काचार्य सूर्य और जीवात्मा दोनोंका वर्णन करते हैं सूर्य पक्षमें सुपर्ण किरण | आत्मपक्ष में सुपर्ण इन्द्रिय । जीवात्म विशिष्ट प्राण ही पक्षी है। = पुरव के द्विपदः पुरके चतुष्पदः पुरः स पक्षी भूखा पुरः पुरुष आविशत् । वृ०/२/५/१८ इस प्राण सहित जीबात्मा के द्विपद, चतुष्पद सब ही पुर (ग्राम) हैं अतः यह पुरुष कहाता है। पक्षी ही के सर्वत्र प्रविष्ट है। ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिर्विप्राणां महिषी मृगागाम् | श्येनी गृधाणां स्वधितिर्वनानां सोमः पवित्रमत्येति रेमन || नि० परि० २ । १३ ।।१ इस ऋचायें ब्रह्मा, पदवी, ऋषि महिष, श्येन, स्वधिति और सोम ये सब जीवात्मा के नाम और देव, कवि विप्र, मृग, गृध, वन ये सब इन्द्रियोंके नाम हैं। ऐसा यास्काचार्य कहते हैं । L हंसः शुचिपद् वसुरन्तरिक्षसद् होता वेदिषदतिथिदु रोश - सत् । तृषद् वरसदृतसद् व्योमसद्व्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् । निरुक्क । I यहाँ हंस आदि प्राण सहित जीवात्मा के नाम कहे गये हैं प्राण ही सप्त ऋषि हैं सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे । सप्त रचन्ति सद् मप्रमादम् ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तापः स्वपतो लोकमीयुः। तत्र जागृती अस्वधनों सत्रसदा च देवा।। नि००६।३७ यहाँ भी दोनों पक्षों में घटाते हैं। सूर्य रूप शरीर में सात फिरणा ही सप्त ऋषि हैं । वे ही किरण प्रमाद रहित हो सम्बत्सर की रक्षा करते हैं। सूर्य के अस्त होने पर भी ये ही सात (आप:) सर्वत्र व्यापक होते हैं। सूर्य और वायु दोनों जगते रहते हैं। इत्यादि सूर्य पक्ष में (पड़े + इन्द्रियाणि + विद्या+सप्तमी) छः इन्द्रिय और सप्तमी विद्या ये सातों ऋषि हैं। ये ही शरीर की रक्षा करते हैं, सोजाने पर ये सातों यात्म रूप लोक में रहते हैं प्राज्ञ और तेजस आत्मा सदा जगते रहते हैं प्राशजीवात्मा । सेजस = प्राय यहाँ यास्क छ: इन्द्रिय कहते हैं। पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, षष्ठ मन। तिथ्य॑म् विलचपस ऊर्चबुध्नो। यस्मिन् यशो निहितं विश्व रूपम् ।। अत्रासत ऋषयः सप्त साकम् । ये अस्य गोया महतो बभूवुः ॥ नि० दें. ६ । ३७ ॥ वहाँ भी ग्रास्क दोनों पक्ष रखते हैं। आत्म पक्ष में सम ऋषि पदसे सप्त इन्द्रिय लेते हैं। दो नयन, दो धारण, दो नासिकायें और एक जिला प्रायः ये ही सात अभिप्रेत हैं। इसकी व्याख्या शतपथ ब्राह्मणमें भी है परन्तु यहाँ पाठः इस प्रकार है। अर्वाग विलश्चमस ऊचवुघ्नः। तस्मिन् यशो निहित विश्वरूपम् ॥ तस्यां सप्त ऋषयः सप्त तीरे । वागष्टमी प्रारणा संविदाना ।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) इस शरीर में जो शिर है वहीं चमस (पाश्र्वत् ) है (अर्वागबिल) इसका सुखरूप बिल (छिद्र) नीचे है। मूल ऊपर है। इसे शिरोरुप चमस पात्र में प्रारूप सम्पूर्ण यश स्थापित है। इसके तट पर प्राण रूप सात ऋषि हैं। और अष्टमी वाणी वेद (महाआत्मा ) से सम्बाद करती हुई विद्यमान है। आगे इन सातोंके नाम भी कहते हैं। दोनों कर्ण गौतम, भरद्वाज । दोनों चतु विश्वामित्र जमदग्नि । दोनों नासिकाएँ वसिष्ठ, कश्यप । : वाणी = अत्रि | - प्राण ही ऋषि हैं अतव त्राह्मण ग्रन्थों में = " प्राणा चैं ऋषयः " शत० ६ । १ " प्राणा व ऋषयः " इस प्रकारका पाठ बहुत आता है । प्राणा उ वा ऋषयः ॥ ४॥ प्राणा वै बालखिल्याः ॥ ८ ॥ इत्यादि शतपथादि ब्राह्मणों में देखिये । शत पथवा० के श्रष्टुम काण्डके आरम्भ में ही लिखा है । "प्राणो भौवाथनः । प्राणो वै वसिष्ठऋषिः । ६ । मनो ये भरद्वाजः । चजुर्वेजमदग्नि ऋषिः । वागू वै विश्वकर्माऋषिः इत्यादि अनेक प्रमाणसे सिद्ध होता है कि बेदोंमें जो वसिष्ठ आदि पद आए हैं वे प्राणांके अथवा प्राण विशिष्ठ जीवात्मा के नाम हैं। प्राण ही सप्त शीर्षण्य प्राण हैं सप्त वें शीर्षन् प्राणाः । ऐतरेय || ३ || ३ || Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सप्त शीर्षण्याः प्राणाः" ऐसा पाठ ब्राह्मग्गों में बहुत प्राता है दो चनु, दो कर्ण, दो नासिकार और एक वाग ये ही सप्त शीर्पण्य प्राण हैं। प्राण ही भूभुवादि सप्त लोक हैं प्राणायाम के समयमें "ओं भूः श्रों भुवः यो स्वः ओं महः ओं जनः ओं तपः ओं सत्यम्" यह मन्त्र पढ़ते हैं। प्राण + आयाम - प्राणों के अवरोध करनेका नाम प्राणायाम है भू आदि प्राणों के नाम हैं। १४-चतुर्दश लोकोंका जो वर्णन है वह प्राणोका ही वर्णन है। ये ही सात प्राण-दो चक्षु, दो कर्ण, दो नासिकाएँ और वाग ऊपर के लोक है, + और दो हाथ दो पैर एक भूत्रेन्द्रिग्र मलेन्द्रिय और एक उदर ये सात नीचेके सात लोक । अतल. वितल, सुतल, महातल, रसातल और पाताल नामसे पुकारे जाते हैं। प्राण ही ४६ वाय हैं महाभारतादिकों में गाथा है कि कश्यपकी स्त्री दितिको जब गर्भ रहा तब "इन्द्र यह जान कर कि इससे उत्पन्न बालक मेरा घातक होगा" दितिक बदर में प्रविष्ट हो गर्भस्थ बालकको प्रथम ७ सात खण्ड कर पुनः एक शकको सात २ वएड कर बाहर निकल आया। दिति ने इसके साहसको देख अपने ४६ पुत्रों को इन्द्र के साथ कर दिया तब ही से वे मरुत् वा मारुत् कहाते हैं और इन्द्र के सदा साथ रहते हैं। माव यह है कि:- दिति नाम व्यष्टि शरीर Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का और अदिति नाम समष्टि शरीरका है। (दो अक्खण्ड ने) जो सीमा वद्ध, विनश्वर शरीर है यह दिति तद्विन्न अदिति । इन्द्र माम जीवात्मा का है । इन्द्रिय शब्द का अर्थ इन्द्र लिङ्ग है अर्थात इन्द्रका चिन्ह करण द्वारा इन्द्र (जीवात्मा ) का बोध होता है अतः इस नेत्रादिक समूहको इन्द्रिय कहते हैं । इस से विस्पष्ट सिद्ध है कि इन्द्र नाम जीवात्मा का भी है । मनुष्य से लेकर कीट पर्यन्त का जो शरीर वह दिति, क्यों कि यह सीमावद्ध स्वगहनीय और विनश्वर है । इस सम्पूर्ण प्रारउका जो अला, असीम, अविनश्वर शरीर है वह अदिति है । इस अदिति के पुत्र जीवके सदगुण आदि देव हैं। अतः ये भी अविनश्वर हैं । और दितिके पुत्र राक्षस हैं । वे विनश्वर हैं। काम, क्रोध, लोभ आदि जो शरीरके धर्म हैं वे ही यहां राक्षस है। इन दोनोंमें मदा सम्राम रहता है। परन्तु प्राण ( नयन, कर्ण नासिका इत्यादि ) भी तो भौतिक है अतः ये भी दितिके पुत्र हैं फिर प्राणों और जीवात्मा में बड़ा विरोध रहना चाहिये । परन्तु रहता नहीं । यपि ये भौतिक और विनश्वर हैं तथापि ये सदा जीवात्मा इन्द्र के साथी हैं। भौतिक होने के कारण ही ये ही इन्द्रिय कभी २ असुररूप धारण कर जीवात्मासे घोर संग्राम करते हैं. इसी भावके दिखलाने के लिये इस आख्यायिका की सृष्टि हुई है। इस शरीरमें मुख्य एक ही प्रारा है। जीवात्माके योगसे यही एक प्राण सात होते हैं. दो नवन, दो कर्ण. दो नासिकाएँ और एक जिहा, पुन: इन सातोंकी अनन्त विषय पापना है। इसीको ७+७ सातको साससे गुणाकर ४६ दिखलाया है । विनश्वर हानेके कारण मरुत - मरण शील कहाता है और ये सदा इन्द्र के साथ रहत है। इन्द्र निमा इनका अस्तित्व नहीं रह सकता। अतः वेदों में भी इन्द्रको महत्वान् कहा है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मनु- जीवात्या जीवात्मा ( म माम् ) उत्तम { ३४८) प्राण ही सप्त होता है येभ्यो होत्रां प्रथमा मायेजे । मनुः समिद्धाग्निर्मनसा सप्त होतभिः ॥ १० । १३ । ७॥ ___ मनु = जीवात्वा । ( समिद्वाग्नि.) जिसने हृदयरूप अमिको प्रदीप्त किया है. वह ( मनुः ) जीवात्मा ( मनसा + सप्तहोभिः) मन और सप्तेन्द्रिय रूप-सप्त होताओं के साथ (प्रथमांम् ) उत्तम होम + अारोले) समपार करता है। होत्रायन्ने हबीपि यत्र सा होत्रा यत्रः । साम ।। येन यजस्तायते सप्त होता । यजुः । जिस यज्ञमें चक्षु आदि सप्त होता हैं । वेदी और शतपथादि प्राहाणोंके देखनेले यह प्रतीत होता है कि यज्ञादि विधान भी केवल प्रतिनिधि स्वरूप है। अध्यात्म यज्ञों के स्थान में विविध ऋत्विकों के साथ वाझ यज्ञ करके दिखलाये जाते हैं। कहाँ तक वर्णन किया जाय । सप्तसिन्धु, समलाक, सप्तराशि, सप्ताचि, समामि, सप्तहोत्र श्रादि पदोंसे भी सप्तेन्द्रियोंका ही प्रहण है। वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य कहते हैं। १-चाम् यज्ञस्य होता । २-चक्षुयज्ञस्याऽध्ययुः । ३-प्राणी वं यज्ञस्य उद्गाता । ४-मनो के यज्ञस्य ब्रह्मा। ग्रहाँ पर देखते हैं वाग . चक्षु, प्राण, और मन ये ही चार होता है, अध्वर्यु उद्गाता और ब्रह्मा है । पुनः वाह्य वन तीन प्रकारकी ऋचाएं तीन समयमें पढ़ी जावी हैं वे पुरानुवाक्या १ याज्या और शस्या कहाती हैं। याचयाय कहते है, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) "प्राण एव पुरोऽनुवाक्या, अनोयाज्या, व्यानः शस्या" प्राण ही पुरोऽनुवाक्या है, अपान याज्या है और व्यानशस्या है। ऐतरेय ब्राह्मण ६, १४ में कहा हैं I में प्राणो में होता । प्रायः सर्व ऋत्विजः । ६ । ३ वा सुया २ । २८ में मनो वै यज्ञस्य मैत्रावरुणः । २ । २७ में प्रागु वै ऋषयों देव्यासः । १ । ८ में प्राणापानौ अनीषोमो चक्षुषों एव अग्नीपोष i 1 प्रारण ही गो, धेनु और विप्र हैं। और आत्मा सोम है । सोमं गावो धेनवो वाक्शानाः । सोमं विप्रा मतिभिः पृच्छमानाः ॥ सोमः सुतः पूयते श्रज्यमानः । सोमे अर्कासिष्टुभः संतवन्ते । नि० परिशिष्ट २ ॥ सूर्य पक्षमें गौ धेनु और पिसे किरणोंका, और आत्मपक्ष में इन्द्रियोंका प्रण हैं । इसी प्रकार हंस, समुद्र, नृपा आदि दोनोंके नाम कहे गए हैं। प्राण ही चन्द्रमा है । विधुं दद्राणं सपने बहूनां । युवानं सन्तं पलितो जगार | देवस्य पश्य काव्यं महित्वाऽद्या ममार सह्यः समान । नि० परि० २ | (पस्थितः ) आदित्य ( समने बहूनां + द्वारा 1.) आकाश विधि के मध्य में हमनशीला ( युवानम् + सन - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) विधुम) युवा चन्द्रमा को ( जगार) निगल जाता है। (देवस्य +महित्वा + काव्यम् + पश्य ) सूर्यके महान सामर्थ्य को देखो ( अ + ममार ) चन्द्रमा आज मरता है । ( ह्यः + सः + सम् + जान ) परन्तु कल ही पुनः जी उठता है ( समने ) संहाररूप संग्राम में जो प्राण (बहूनाम् + दद्राणम्) बहुतों को दमन करने हारा है ( युवानम् सन्तम् ) और जो सदा युवा रहता है ( विधुम् ) उस प्रारूप चन्द्रमाको ( पतितः) जरावस्थाके कारण शुक्ल केश रूप पुरुष ( अगार ) गिरजात हैं। इस देवकी महिमा देखो। यह प्राण आज मरता है कल पुनः जन्म लेता है। सम् मान = अन-प्रणने । अन् धातुसे "श्रान" लिट् में बना है । इत्यादि कहाँ तक उदाहरण लिखें जाय । निरुक्तमें अध्यात्म और अधिदेवत पक्ष देखिये । यद्यपि परिशिष्ट यास्कृत प्रतीत नहीं होता तथापि यास्कानुकूल है इसमें सन्देह नहीं क्योंकि द्वादशाध्यायी निरुक्तसे भी उभयपक्ष दिखलाया गया है। जगत और शरीर ऋषियोंने इस मानव शरीर को जगतसे उपमा दी है यथाछान्दोग्योपनिषद् के चतुर्थ प्रपाठक के तृतीय खंडमें कहते हैं "वायु ही संवर्ग अर्थात अपने मैं सत्र पदार्थोंका लय करने वाला हे" | जब अनि श्रस्त होता है तब वायु में ही लोन होता है। सूर्य अस्त होता है तब वायु में ही लोन होता है इसी प्रकार चन्द्र और जल भी वायु में लीन होते हैं। यह अधिदेवत है" । " अ अध्यात्म कहते हैं प्राण तो गंधर्म है। जब वह (जीव ) सोता है तब वाणो प्राण में हो लीन होती है इसी प्रकार चक्षु क्षेत्र और मन ये भी प्राण में लीन होते हैं। ये दो दो संवर्ग है। देवों में वायु और प्राणों (इन्द्रियों) में प्राण" यहां बाढ़ जगत में जैसे वायु, — Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनि, सूर्य, चन्द्र और सलधाई भी उना में मामा वायु मुख्य है। तदत शरीर में प्राण, वाणी. चक्षु. श्रोत्र और मन येपांच प्राण ( इन्द्रिय ) हैं इनमें प्राण मुख्य है। पुनः ३.-१७ में कहा है कि अध्यात्म जगत में मनको गृहन जान इसके गुणों का अध्ययन करे । इस मनके वाणी. प्राण, चक्षु और श्रोत्र चार पद हैं और प्राकाश अग्नि, वायु, श्रादित्य और दिशा चार पर है। यहां मनकी आकाशसे तुलनाको है । क्योंकि दोनों ही अनन्त हैं । वृह । १।५ । ४ में कहते हैं । बाग पृथिवी लोक, मन अन्तरिक्ष लोक, और प्राण द्युलोक हैं। वृह १ । ५ । २१ में कहते हैं। इन्द्रिय गण परस्पर स्पर्धा करने लगे कि वाग ने कहा कि मैं ही बोलू गी । चक्षुने कहा कि मैं ही देख गा । श्रोत्रने कहा कि मैं ही सुनूं गा इस प्रकार सब इन्द्रिय कहने लगे । परन्तु मृत्यु आकर इन सबोंको वशमें करने लगा। इसी कारण वाग थकती है। चतु और श्रोत्र शान्त होजाते हैं. मृत्यु इनको विवश कर प्राण की ओर चला। परन्तु प्राणको विवश न कर सका । अतः प्राण सर्वदा चलला हुत्रा थकता नहीं। अतः यह मध्यम प्राण सर्व श्रेष्ठ है यह अध्यात्म है। अब अधि देवत कहते हैं। अग्निने कहा कि मैं प्रज्वलित होऊँगा । सूर्यने कहा कि मैं तपूँगा। चन्द्र ने कहा मैं भाषित होऊँगा। उन्हें भी मृत्युने अपने वश कर लिया । परन्तु वायुदेव को वशमें ना कर सका । क्योंकि सूत्रात्मा वायु सर्वदा प्रलय काल मैं भी धना रहता है। इत्यादि औपनिषद् प्रयोगोंमें इस शरीर को ब्रह्मारसे उपनित किया है। और प्राणको श्रेष्ठता मानी है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय (प्राण ) ही पंचजन हैं यस्मिन पञ्च पञ्चजना आकाशश्च प्रतिष्ठितः । वृ०४१४ । १७ जिस शरीरमें पंच संख्या पांच जन हैं। और श्राकाश प्रतिटित हैं। वजन रातो मारमाही दशा है. मममें वेदान्त सूत्र १ । ४ । १२ । प्राणादयोवाक्यशेषात् । देखिये बाग , मन, चक्षु, श्रीन और प्राए ये पञ्च प्राण कहाते हैं । इनके ही नाम पञ्चजन. पञ्चमानव, पश्च निति. पञ्चकृष्टि आदि भी है । कहीं पञ्चज्ञानेन्द्रिय, कहीं पञ्चमारण, कई दशप्राण,कहीं एकादश प्राण । कहीं पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पष्ठमन जोड़कर पद्माण । इस्यादि घर्शन प्राता है। प्राण ही द्वारपालक पञ्च ब्रह्म पुरुष है छा०३।१३ में लिखा कि इस हदयके पांच देव सुषि अर्थान छिद्र हैं। १-पूर्व में चचं रूप छिद्र है वहीं प्राण और आदित्य है -दक्षिण में नीत्र रूप छिद्र है। वही व्यान और चन्द्रमा है। ३–पश्चिम में याग रूप छिद्र है । वहीं अपान और अग्नि है। ४-उत्तर में मनोरूप छिद्र है वहीं समान और पर्जन्य है।५.ऊपर वायुरूप छिद्र है वही उदान और श्राकाश है । ये पांच प्रश्न पुरुष हैं । स्वर्ग लोकके द्वरपालक हैं। प्राणं ही देव और असुर हैं हान्दो- ११२। और वृहदारण्यक ५ । ३ । में कहा है कि इन्द्रिय ही देव और असुर हैं दुष्टेन्द्रियों के नाम असुर और वशीभूत इन्द्रियोंक नाम देव हैं। अथवा इन्द्रियोंकी जो साधु Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • साधु दो वृत्तियाँ है वे ही देव और असुर हैं। इन के ही महायुद्धों का नाम क्षेत्रासुर संग्राम है। प्राणायाम सत्यादिके ग्रहणसे इनके असुरत्व भावका नाश होजाता है। इसका वर्णन बृहदाण्यक में वृहत्पूर्वक है निष्पाप वाणी को अनि देव. निधाप माण. को वायुदेव,निष्पाप चक्षु को प्रादित्यदेव, निष्पाप पात्र को दिदेव और निष्पाप मनको चन्द्र देव कहते हैं। ... इन्द्रिय ही श्वान (कुत्ते हैं) छान्दो १ । १२ में कहा है कि मुख्य प्राण श्वेत कुत्ता और वाणी, चक्ष श्रीन और मन से साधारण कुत्ते हैं। ये अन्नके लिये व्याकुल होते है। इन्द्रिय ही अश्व (घोड़े) हैं आत्मानं रथिनं विद्धि-शरीरं रथमेव तु । बुद्धिस्तु सारिथं विद्धि-मनः अग्रह मेव च ॥ ३. इन्द्रियाणि हयानाढविषयं स्तेषु गोचरान् । क० उ० ... यह शरीर रथ है। आत्मा रथी है । बुद्धि सारथी है। मन । लगाम है । इन्द्रिय हय (घोड़े) हैं। इनमें विषय निवास करते हैं । मुख्य गौण प्राण और पञ्च शब्द - पैर से शिर तक व्यापक प्राण के मुख्य, वरिष्ठ आदि नाम हैं इनके ही प्राण अपान, समान, उदान व्यान प्रादि पांचवा दश भेद हैं और वाग.मन,चक्षु. श्रोत्र ये चार गौण प्राण कहाते हैं। तान् बरिष्ठः प्राण उवाच-वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रंच ते प्रीताः प्राणास्तुवन्ति Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५४ ) इत्यादि प्रश्नोपनिषद् और अन्यान्न उपनियनों में देखिये । यहाँ प्राणों में चेतनत्व और पुरुषत्रका आरोगकर सम्बाद और स्तुति आदिका वर्णन है। प्राणों में महोत्वारोप छान्दोग्योपनिषद् के पंचम प्रपाठक के बाद में हो कहा है. कि सब प्राण प्रजापतिके निकट जाकर बोले, कि हम में श्रेष्ठ कौन है। प्रजापति ने कहा कि आपमं मे जिनके न रहनेसे यह शरीर पापिष्ट हो जाय वही श्रेष्ठ है। प्रथम वागवी इस शरीरसे बाहर निकल गई । परन्तु इसके निकलने से शरीर पापिष्ट नहीं हुआ, क्यों कि मूक (गंगा ) षत् सब प्रारण निर्वाह करने लगे। इसी प्रकार चक्षु, श्रोत्र और मन, भी क्रमपूर्वक अपनी २ शक्ति की परीक्षा करने लगे। अन्ध, यधिर, और बालक वत् सबका निर्वाह हो गया। परन्तु जब मुख्य प्राण निकलने लगा तब ये बाग, चक्षु, श्रोत्र, और मन देव सब मिल कर भी शरीरको धारण न कर सके शरीर पापिष्ठ होने लगा । सब ये प्राण मुख्य प्राणकी स्तुति करने लगे । वागने कहा हे प्रान्स ! आप वसिष्ठ और मैं बसिधा हूं। चचने कहा आप प्रतिष्ठ है, और मैं प्रतिष्ठा हूं। श्रोत्रने कहा आप सम्पद हैं और मैं सम्पदा हूं। मनने कहा आप पायतन हैं और मैं पायतन हूं। इत्यादि प्रयोगमें वाग , मन, श्रोत्र, चक्षु और प्राण ये ही पाँच पंच प्राण कहाते हैं, यह सदा ध्यान रखना चाहिये। प्राणों की संख्या सप्तगतेविशेषिसत्वाच्च । वेदान्तमूत्र २४ । ५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सप्त प्राणाः प्रभवन्ति । यहाँ सप्त प्रागण । अष्टौरक्षा अष्टावति ग्रहाः । यहाँ अष्ट प्राण | सात – शीर्षण्याः प्राणाः द्वाववाचौं । यहाँ नव प्राण। नव 3 पुरुष प्राणा नाभिदेशमी । यहां दश प्राण । दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशः । यहां एकादश प्राण । सर पो स्पर्शानां त्वगेकायतनम् । यहाँ द्वादश प्राण । चक्षुश्च द्रष्टव्यश्च । यहाँ प्रयोदश प्राण । ये सब मेद शंकराचार्य ने इसी सूत्र पर दिये हैं। अन्त में इस सूत्रके अनुसार स्थिर करते हैं कि सात ही प्रारण हैं। "सप्तवेशोषणयाः प्राणाः" । "गुहाशया निहिता मत सम" इत्यादि प्रयाग से सप्त प्राशा कहे हैं इस प्रकार दबंग ना प्राशांका निरूपण विविध प्रकारसे आया है।" (वैदिक इतिहासार्थ निर्णयम पं० शिवशंकरजी काव्यतीर्थ ) प्राण स्तुति एपोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष पर्जन्यो मघवानेष वायुरेप पृथिवी रविवः सद् सञ्चामृतं च यत् ॥ ५ ॥ अरा पव रथ नामों प्राणे सर्व प्रतिष्ठिनम् । ऋचो यजूंपि सामानि यज्ञः सत्रं ब्रह्म च ।। ६ ।। प्रजापतिवर्गस गर्भ त्वमेव प्रति. जायसे । तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विा मा बाल हन्ति यः पाए। प्रतितिष्ठसि ।। ७ ॥ देवानामसि चन्हितमः पितणां प्रथमा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५६ । स्वधा | ऋषीणां चरितं सत्यमथा' गिरसामसि ।। ८ ।। इन्द्रस्त्वं प्राण तेजसारुद्रोऽमि परिरक्षिता । त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः । यदात्वमभिवस्य थेमाः प्राण ते प्रज्ञाः । आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यतीति ।१०। वात्यस्त्वं प्राणक ऋपिरचा विश्वस्य सत्पतिः । वयमाद्यम्य दातार: पिता त्वं' मात रेश्चनः ॥ ११॥ या ते तनूर्वाधि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चतुषि । या च . मनसि संतताशिव तां कुरु मोक्रमीः ॥१२॥ प्राणुस्यद वशेसचे त्रिदिवे यत्प्रतिष्टितम् । मातेव पुत्रान् रक्षस्य श्रीश्च प्रज्ञा च विधेहि न इति ॥ १३ ॥ ( प्रश्न उ०२) "यह प्राण अग्नि, वायु, सूर्य. पर्जन्य, इन्द्र प्रथिवी.रयि आदि सब है । जिस प्रकार रथ-नामा में आर जुड़े होने हैं. उसी प्रकार प्राण में मव जुड़ा हुआ है। ऋचा. यज, साम. यज्ञ. क्षत्र. और ज्ञान सब ही प्राण के आधार से हैं । हे प्राण ? तु प्रजापति है और गर्भ में तु ही जाना है । सब प्रजायें नर लिये ही यलि अर्पण करती हैं। तू देवों का श्रेष्ठ संचालक और. पितरों की स्वकीय धारण शक्ति है । अाथा आंगिरस ऋषियों का सत्य तपाचरण भी तरा ही प्रभाव है । तू इन्द्र, रुद्र, सूर्य. है तू ही तेजसे तेजस्वी हो रहा है । जब तू वृष्टि करता है, तब सब प्रजायें थानन्दित होती हैं, क्यों कि उनको बहुत अन्न इस वृष्टि से प्राप्त होता है। नू ही व्रात्य एक ऋप और सब विश्व का स्वामी है. हम दाता हैं और तू हम सब का पिता है। जो तेरा शरीर वाचा, चक्षु श्रोत्र और मन में हैं, उस को कल्याण रूप करो और हम से दूर न हो। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४.७) जो कुछ त्रिलोकी में है वह सब प्राण के वश में हैं। माना के समान हमारा संरक्षण करो और शोभा तथा प्रज्ञा हमें हो । प्राणो वाव ज्येष्ठ एव ।। (छ०५/११. वृ०६:१११ ) प्राण ही सब से मुख्य और श्रे हैं। सब अन्य देव इस के आधार से रहते हैं। (अर्थात् बंदों में जयंत्र के नाम से प्रा का ही वर्णन है।) तथा- (१) प्राणी में बलं तन्प्राये प्रतिष्ठितम् ( ५१४/४ ) (२) प्राणो वा अमृतम् || ( वृ० ११६१३) (३) प्राणो वै सत्यम् ॥ (० २११/२० ) . (४) प्राणो वै यशोवलम् ! (यू० १ २२ ६ ) " (१) प्राण ही यल हैं, वह पल प्राण में रहता है। (२) प्राण ही अमृत है। (ज) पर ही यश और बल हैं।" इस प्रकार प्राण का महत्व है। प्राणकी श्रेष्ठता इतनी है कि उसका वर्णन शब्दो से नहीं हो सकता | प्राण कहाँ से आता है ? परन्तु इस प्राणशक्तिकी प्राप्ति प्राणियों को कैसे होती है. इस विषयमें निम्न मन्त्र देखने योग्य - आदित्य उदयन यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान रश्मिषु संनिधते ॥ यदक्षिणां यत्प्रतीचीं यदुद्दीन यदधी यदुर्ध्वं यदन्तरा दिशो यत्सर्व प्रकाशयति तेन सर्वान प्राणान् रश्मिषु संनिधते || ६ || स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणोऽग्निरुध्यते । तदेतच्चाभ्युक्तम् || ७ || विश्वरूपं Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेक तपं तम् । सहनश्मिः शतधा वतंपानः प्राणः प्रजानामुइयत्येप मूर्यः ॥ ॥ (प्रश्न उ८ श६-८) (१) देवानां वह्नितमः असि -- प्राण 'इन्द्रियों को चलाने वाला है. मूर्यामिकोंको' चलाता है. प्राणायाम द्वारा विद्वान' उन्नतिप्राप्त करते हैं। (6) पितगणां प्रथम स्वधाप्रसि । -- सम्पूर्ण पालक शक्तियों में मबसे श्रेष्ठ और ( प्रथम ) अव्वल दर्जेकी पालकशक्ति प्रारण है और वहीं (स्व-धा ) प्रात्मतत्वको धारणा करती है। (३, ऋषीणां सत्यं चरितं असि । - सा ऋषियों का सस्य (चरित) चाल-चलन अथवा नाचरण प्राण ही करता है। दो आँख. दो कान, और एक मुम्प ये सप्त ऋषि है ऐसा वेद और उपनिषद में कहा है। ____ अथर्वी गिरसा चरितं असि | = (अथर्वा अंगि-रसा) स्थिर अंगांके रमीका ( चरिनं ) चलन अथवा भ्रममा प्राण ही करता है । प्रागा के कारण पोषक रस सब अंगोमें भ्रमण करता है और सर्वत्र पहुंच कर सर्वत्र पुष्टि करता है। प्राण का प्रेरक कन उपनिषद में प्राणके प्रेरक का विचार किया है । प्राणके अधीन सम्पूर्ण जगत् हैं, तथापि प्राणको प्रेरणा देने वाला कौन हैं ? जिस प्रकार मंत्रीके आधीन सत्र राज्य होता है, उसी प्रकार प्राण प्राधीन सय इन्द्रियादिकोका राज्य है। परन्तु राजाकी प्रेरणास मन्त्री कार्य करता है उस प्रकार यहाँ प्राण का प्रेरक कौन है. यह प्रश्नका तात्पर्य है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन प्राणः प्रथमः युक्तः ।। (केन 3०११) "किससे नियुक्त होता हुआ प्रारण चलना है ?" अर्थात प्राण की प्रेरक शक्ति कौनसी है ? इसके उत्तरमें उपनिषद् कहता है कि म उ प्राणस्य प्राणः ।। (केन उ० ११२) "वह श्रात्मा प्रारणका प्राण है अथान प्राणका प्रेरक श्रात्मा है। इसका वर्णन और देखिये यत्प्राणेन न प्रणिति येन प्राणः प्राणीयते ॥ .. तदेव ब्रह्म वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। (केन३०१८) जिसका जीवन प्राणसे नहीं होता. परन्तु जिससे प्राणका जीवन होता है वह ( ब्रह्म) अात्मा है. ऐसा तू समझ । यह नहीं कि. जिसकी उपासनाकी जाती है।" अर्थात् श्रात्माकी शक्तिसे प्राण अपना सच कारोवार चला रहा है, इसलिय पाएकी शक्ति श्रात्मा ही है। इस विषयमें ईशोपनिषद्का मन्त्र देखने योग्य है योऽसावसौं पुरुषः सोऽहमस्मि ॥ (ईश० १६) योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽसावहम् ।। १७ 'जो यह (असी) असु अर्थात् प्राणके अन्दर रहने वाला है, वह मैं हूं।' मैं आत्मा हूं. मरे चारो ओर प्राण विद्यमान है और मैं उसका प्रेरक हूं। मेरी प्रेरणासे प्राण चल रहा है और सच्च इन्द्रियोंकी शक्तियोंको उत्तेजित कर रहा हूं। इस प्रकार विश्वास रखना चाहिये और अपने प्रभावका गौरव देखना चाहिये । इस विषयमें ऐतरेय उपनिषद्का बचन देखिये। नासिके निरभिद्यतां नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुः ।। (ऐ० उ० १४) श्राम अपना सब काकी जाती है, ऐसा न समास प्राणका Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायुः प्राणो मृत्वा नासिके प्राविशन (ऐ० उ०१शरा४) 'मासिका रूप इन्द्रिय खुल गये. नासिकासे प्राण और प्राण से काय हो गया।' अर्थात् आत्माको प्रवल इच्छा शक्ति श्री कि मैं सुगंधका आस्वाद लेलू । इस इच्छाशक्ति से नासिका के स्थान में दो छ, बन गये. थे ही नासिका के दो छेद है । इस प्रकार नाक बनने प्राण हुश्रा और पागले चाय बना है ! श्रात्माकी इच्छा शक्तिः कितनी प्रबल है, इसकी कल्पना यहाँ स्पष्ट हो सकती है। इस प्रकार शरीरमें छेद करने वाली शक्ति जो शरीरके अन्दर रहती है, वही श्रात्मा है, इसको इन्द्र' कहते हैं क्योंकि यह यात्मा ( इदं-द्र) इस शरीरमें सुराख करनेकी शक्ति रखता है। इसकी प्रबल इच्छा शक्तिसे विलक्षण घटनायें यहाँ सिद्ध हो रही है. इसका अनुभव अपने शरीरमें ही देखा जा सकता है । जो ऐसा समर्थ जीवात्मा है। यही प्राणका प्रेरक है. यह प्राणा, वायुका पुत्र है, क्योंकि ऊपर दिये हुए मन्त्रमें कहा है, कि वायु प्राया बनकर नासिकामें प्रविष्ट हुआ है। इसलिये वायु का यह प्रागा पुत्र है। पुरुषस्य प्रयतो वामनसि संपद्यते, मनः प्राणे, "पागास्तेजसि, तेजः परस्यां देवताथाम् (धा० उ०६६) “पुरुषकी वाणी मनमें, मन प्राणमें, प्राण तेज में और तेज पर देवतामें संलम होता है।" यही परंपरा है । परदेवताको तात्पर्य यहां प्रात्मा है। प्राण विद्याकी परम सिद्धि इस प्रकारसे सिद्ध होती है। प्राण और अन्य शक्तियाँ · प्रापके श्राधीन अनेक शक्तियां हैं उनका प्राथाके साथ संबंध देखने के लिये निम्न मंत्र देखिये-- Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणो वावसंवर्गः । स यदा स्वपिति, प्राणमेक, वागप्येति, प्राणं चक्षुः प्राणं श्रोन, प्राणं मनः, प्राणोह्ये वैतान संवक्ते ॥ ३ ॥ (छौ० ४।३।३) . "जब यह सोता है तब वाक , चक्षु, श्रोत्र, मन आदि सब भाणोंमें ही लीन होती है, क्योंकि प्राण ही इनका संवारक है।" जिस प्रकार सूर्य उगनेके समय उसके किरण फैलते हैं और अस्त के समय फिर अन्दर लीन होते हैं, इसी प्रकार प्राण रूपी सूर्यका जागृतिके प्रारम्भ में उदय होता है उस समय उसकी किरणें इन्द्रयादिकों में फैलती है और निद्राके समय फिर इसमें लीन होती है। इस प्रकार प्रारणका सूर्य होना सिद्ध होता है । इसका दृश्य एक अंश में है, यह बात भूलना नहीं चाहिये। सूर्य के समान प्रारण भी कभी अस्त नहीं होता परन्तु अस्त और उदय ये शब्द हमारी अपेक्षा से उसमें प्रयुक्त हो रहे हैं। इस विषय में निम्न बचन और देखिये 1 ---- पतंग . स यथा शकुनिः सूत्रेण प्रवद्धो, दिशं पतिवा, अन्यआयतनमलब्ध्वा , बंधन मेचोपश्रयत् एव मेव खलु, सोम्य, सन्मनोदिशंपतित्वा अन्यत्रायत्तनमलब्ध्वा, प्राणमेवोपश्रयते, प्राणपंधनं हि सोम्यमनः ॥ (छांउ०६८२) __ "जिस प्रकार पतंग” डोरी से बंधा हुश्रा, अनेक दिशाओं में घूम कर दूसरे स्थान पर आधार न मिलनेके कारण अपने मूल स्थान पर ही आ जाता है, इसी प्रकार निश्चय से हे प्रिय शिष्य ! बह मन्त्र अनेक दिशाओं में घूम कर दूसरे स्थान पर भाश्य न Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) मिलने के कारण प्रारा का ही प्रामय करता है, क्यों कि हे प्रिय शिष्य ! मन प्राण के साथ ही बंधा है ।। वसु, रुद्र, आदित्य प्राणा, वाव वसव, एते हीदं सर्व वासयंति ॥१॥ प्राणा वाव रुद्रा एते हीदं सर्व रोदयंति ॥ २ ॥ प्राणा बावादित्याः एते हीदं सर्चमाददते।।३।।(छां०३१६) "प्राण बसु है क्योंकि ये सब को बसाते हैं। प्रारण रुद्र हैं, क्यों कि इनके चले जाने से सब रोते हैं। प्राण आदित्य है क्यों कि ये सब को स्वीकार करते हैं । इस स्थान पर अर्थात् प्राण रुद्र है. क्यों कि ये इस दुषं को दूर करते हैं।" ऐसा वाक्य होता तो प्राणका दुःख निवारक कार्य व्यक्त हो सकता था । परन्तु उपनिषद् में . "एतेहीदं सर्व रोदयन्ति" अर्थात् ये प्राण जब चले जाने हैंतब वे सब को रुलाते हैं, इतना प्राणों पर प्राणियों का प्रेम है ऐसा लिखा है कि शतपथादि में भी रुद्र का रोदन धर्म ही वर्णन किया है, परन्तु दुःख निवारक धर्म भी उनमें उससे अधिक प्रबल है। इसका पाठक विचार करें इस प्रकार प्राणका महत्व होने से ही कहा है प्राणो है पिता, प्राणो माता प्राणो भ्राता प्राणः स्वसा, प्राण भाचार्गः, प्राणो ब्राह्मणः ॥ (छा० उ०७।१५५१) ___ "प्राण ही माता, पिता, भाई, बहन, आचार्य, प्राण आदि है।" ये शब्द प्राए का महत्व अता रहे हैं। (१) माता--मान्य Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) हित करने वाला, (२) पिता -- पाता, पालक, संरक्षक, (३) भ्राता -- भरण पोषण करने वाला ( ४ ) स्वसा -- ( सु-असा ) उत्तम प्रकार रखने वाला (५) आचार्य श्रात्मिक गुरु है क्यों कि प्राण के आयाम से आत्मा का साक्षात्कार होता है इसलिये, (३) ब्राह्मण:- यह ब्रह्म के पास ले जाने वाला है । तीन लोक वामेवायं लोकः मनो अंतरिक्ष लोकः प्राणोऽसौ लोकः ( ० १ ५१४ ) "वाणी है और वह स्वर्गलोक है।" पंच मुखी महादेव प्राणापानौ व्यानो दानौ || ( श्र० ११।८।२६) यहां प्राण, अपान व्यान, उदान आदि नाम आगये हैं। प प्राणोंके नाम वेदमें दिखाई नहीं दिये। किसी अन्यरूपसे होंगे, दो पता नहीं। यदि किसी विद्वानको इस विषय में ज्ञान हो, तो उसको प्रकाशित करना चाहिये। पंच प्राण ही पंचमुखी रुद्र हैं। रुद्रके जितने नाम हैं, वे सब प्राणवाचक ही हैं। महादेव शम्भु आदि मन रुद्र के नाम प्राण वाचक है। महादेव के पांच मुख जो पुराणों में हैं। उनका इस प्रकार मूल विचार है। महादेव मृत्युंजय कैसा है, इसका यहां निर्णय होता है। शतपथ में एकादश रुद्रों का वर्णन है। कतमे रुद्रा इति । दशेमे पुरुषे प्राणा श्रात्मैकादशः । | (शत० प्रा० १४/५ ) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . ३६४ ) "कौनसे रुद्र है ? पुरुष दश प्रारण है, और ग्यारहवां आत्मा है। ये ग्यारह रुद्र हैं।' अर्थात् प्राण है। रुद्र हैं और इसलिये भव. शर्व, पशुपति आदि देवसा के सब सूक्त अपने अनेक अयों में प्राण वाचक एक ही अर्थ व्यक्त करते हैं। पशुपति शब्द प्राण वाचक मानने पर पशु शब्द का अर्थ इन्द्रिय ऐसा ही होगा। इन्द्रियों का घोड़े, गौवों, पशु आदि अनेक प्रकार से वर्णन किया मया है। अब प्राणको सत्ता कितनी व्यापक है उमका वर्णन निम्न मन्त्रों में दस्विंये। .. प्राण का मोठा चाबुक महत्तपो विश्वरूपमस्याः समुद्रस्य खोतरेत आहुः । यत एति मधु कशा रराणातत्प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ।।२।। माता दित्यानां दुहिता बसुना प्राणः प्रजानाममृतस्य नाभिः । हिरण्यवर्णा मधुकशा घृताचीमहानगर्भश्चरति मत्येषु ॥४॥ (अ. १) "(अस्याः) इस पृथिबीकी और समुद्रकी बड़ी (रेतः) शक्ति तू है. ऐसा सब कहते हैं । जहाँसे चमकता हुआ मीठा चाबुक चलता है वही प्राण और वही अमृत है। आदित्योंकी माता वसुओंकी दुहिता प्रजाओंका प्राण और अमृतकी नाभि यह मीठा चाबुक है। यह तेजस्वी, तेज उत्पन्न करनेवाली और (मत्यैपुगर्भ ) मयों के अन्दर संचार करने वाली है। __इस मन्त्र में 'मधु कशा'; शब्द है । 'मधु का अर्थ मीठा स्वादु है और कशा' का अर्थ चाबुक है चाबुक घोड़ा गाड़ी चलाने वाले के पास होता है । यात्रुरु मारने से गाड़ी के घोड़े चलते हैं। उक्त मन्त्रों में 'मधुकशा अर्थात मीठे चावुकका वर्णन है। यह मीठा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बायुक अश्विनी देवोंका है। अश्वनीदेव प्राण रूपसे नासिका स्थान में रहते हैं। प्राण-अपान, श्वास उच्छवास, दांयें और बायें नाकका श्वास, यह अश्वनी देवीका प्राणमय रूप शरीरमें है। इस शरीर रूपी रथके इन्द्रिय रूप घोड़ोंको चला रहा है। देवताओंकी अनुकूलता जो ब्रह्मचारी देवताओं का निरीक्षण और ग्रहण करता है, उस में अ'श रूप से निवास करने वाले देवता जनके साथ अनुकूल वन कर रहते हैं। मत्र कहता है कि--"तस्मिन् देवाः स-मनसो भवन्ति ।" अर्थात उस प्रमचारी में सब देव अनुकूा मनके साथ रहते हैं. इसके शरीर में मिन देताओं के है, तब इस ब्रह्मचारीके मन के अनुकूल अपना मन बना कर उसके शरीर में निवास करते हैं। अपने शरीर में देवताओंका निवास निम्न प्रकार से होता है । देखिये. . १---अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद । २---बापुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत् । ३.-आदित्यश्चनुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविशत् । ४-दिशा श्रोत्रं भूत्वा की प्राविशन् । ५---औषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा स्वयं प्राविशन् । ६--चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत् । ७-मृत्युरपानो भूत्वा नाभि प्राविशत् । - ८-आपोरेतो भूत्वा शिश्न-प्राविशन् ॥ (ए०३०२।४) १-- अग्निवक्तृत्वका इंद्रिय बन कर मुखमें प्रविष्ट हुआ (.) वायु प्राण बन कर नासिकामें संचार करने लगा (३) सूर्यने Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुका रूप धारण करके श्रांखों के स्थानमें निवास किया १४) दिशाएं श्रोत्र बन कर फ्रानमें रहने लगी, (५) औषधिअनस्पतियां केश पन वयामें रहने लगी, (६) चन्द्रमा मन बन कर हृदय स्थानमें प्रविष्ट हुमा, (७) मृत्यु अपानका रूप धारण करके नाभि स्थानमें रहने लगा, (८) ज. देवता रेत धन कर शिश्न में रहने लगा। इस ऐतरेय उपनिषदके कथनानुसार अग्नि, वायु, रवि, दिशा, औषधि, चन्द्र, मृत्यु, आप इम पाठ देवताका निवास उक्त बाद स्थान में हुआ है। पाठक जान सकते है कि इसी प्रकार अन्य देवता. जो बाहर के जगत् में हैं और जिनका वर्णन वेदमें सर्वत्र है. उनके अश मनुष्य शरीरमे विविध स्थानों में रहते है। इस प्रकार हमारा एक २ शरीर सब देवतामीका दिव्य साम्राज्य हूँ और उसका अधिष्ठाता आत्मा है। तथा इसी आत्माफी शक्ति उक्त सब देवताओं में प्रविष्ट होकर कार्य करती है, इसका अधिक विचार करनेके पूर्व अथर्व वेश्के निम्न लिखित मंत्र देखने योग्य हूँ ! १-दश साकम जार्यत देवा देवेभ्या पुरा । यो चै तान्विद्यात्प्रत्यक्षं स वा अद्य महददेव ॥३॥ २- ये तासन् दश जाता देवा देवेभ्यः पुस । पुत्रेभ्यो लोक दुस्मा कस्मिस्ते लोक आसते ॥१०॥ ३-संसिको नाम ते देवा ये संभारान्समाभरम् । सर्व संसिच्य पत्ये देवाः धुरुष माविशन् ।। १३ ॥ ४–यदा त्वष्टा व्यतणत् पितात्वष्टुर्य उत्तरः । गृहं कृत्वामय देवाः पुरुषमाविशन् ॥ १८ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७ ) ५ --- अस्थि कृत्वा समिधं तदष्टापो असादयन् । रेतः कृत्वाऽऽज्यं देवाः पुरुषभाविशन् || २६ ॥ ६ - या श्रापो. याच देवता या विराड़ ब्रह्मणा सह । शरीरं ब्रह्म प्राविशच्छरीरेऽधि प्रजापतिः ||३०|| ७ – सूर्यश्च चुर्वातः प्राणं पुरुषस्य विभेजिरे । - अथास्वेतर मात्मानं देवाः प्रायच्छन्नप्रये ॥ ३१ ॥ ८ तस्माद्वै विद्वान पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते । सर्वास्मिन् देवता गावो गोष्ट इवास्ते || ३२ || (अथर्व० १/१८) " (१) सबसे प्रथम ( देवेभ्यः दश देवाः ) देवोंसे दस देव उत्पन्न हो गये। जो इनको प्रत्यक्ष (विधान) जानेगा, वह अन्य आज ही (महत् वदेत्) महत् के विषय में बोलेगा । (२) जां पहले देवोंसे दस देव हुए थे पुत्रोंको स्थान देकर स्वयं किस लोक में रहने लगे हैं ? (३) सिंचन करने वाले वे देव हैं कि जो सम्र सामग्रीको एकत्रित करते हैं । (देवाः) ये देव सघ (मत्य) मरण धर्मी शरीर को सिंचित करके पुरुषमें प्रविष्ट हुए हैं । (४) जो (ag: पिता) कारीगर देवका पिता (उत्तरः स्वष्टा) अधिक उत्तम कारीगर है, वह इस शरीर में छेद करता है, तत्र मरण धर्म वाला (गृह) घर बना कर सब देव इस पुरुषमें प्रविष्ट होते हैं । (५) हड्डियों की समिधायें बना कर रेसका घी बना कर (अ आपः ) आठ प्रकार के रसको लेकर सब देवोंने पुरुषमें प्रवेश किया है। (६) जो आप तथा अन्य देवताएं हैं और ब्रह्मके सत् वर्तमान जो विराट है ब्रह्म ही उन सबके साथ (शरीरं प्राविशन) शरीर में प्रविष्ट हुआ है, और प्रजापति शरीर में अधिष्ठाता हुआ - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। (७१ सूर्य चक्षु बना, वायु प्राण हुआ, और ये देव इस पुरुष में रहने लगे, तत्पश्चात् इसके इतर श्रारमाको देषोंने अमिके लिये अर्पण किया। (८) इसलिये इस पुरुषको (विद्वान् ) जानने वाला ज्ञानी (इदं ब्रह्म इति) यह ब्रह्म है, ऐसा ( मन्यते) मानता है । क्योंकि इसमें सब देवताएं उस प्रकार इकठे रहते हैं कि जैसी गौवें गौशालामें रहती हैं।" ____ इन मंत्रों में स्पष्ट कहा है कि अमि. वायु श्रादि देवताएं इस शरीर में निवास करते हैं । अर्थात् प्रत्येक देवताका थोड़ा २ अंश इस शरीरमें निवास करता है । यही देवोंका "अंशावतरण" है। जो इस प्रकार अपने शरीर में देवताओंके अंशोंको जानता है वह अपने श्रास्माकी शक्ति जान लेता है और जो शरीर में रहने वाले देवतामाकं समंत अपने प्रात्मा को जानता है, वही परमेष्ठी परमात्माको जानता है । इस विषयमें निम्न मंत्र देखिये ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्टिनम् । यो वेद मरमेष्ठिनं यश्च वेद प्रजापतिम् | ज्येष्ठं ये ब्राह्मणं विदुस्ते स्कंभ मनु संविदुः ।। (अथर्व०१०।७ । १७) "जो पुरुषमें ब्रह्म जानते हैं, वे परमेष्ठीको जानते हैं । जो परमेष्ठीको जानता है और जो प्रजापतिको जानता है, तथा जो (ज्येष्ठं ब्राह्मण) श्रेष्ठ ब्रह्मा हो जानते हैं, वे स्तंभको उत्तम प्रकार से जानते हैं । ___ इस मन्त्रमें, पुरुष, ब्रह्म, परमेठी, प्रजापति आदि सत्र नाम इसी खात्माके बताये हैं । जेठ ब्रह्म, व स्कम आदि भी इसी श्रात्माके वाचक है। परमात्मा भी इसी यात्माकी अवस्था विशेषका अथवा मुक्तस्माका नाम है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( ३६६ ) अपने शरीर के अन्दर ब्रह्मका अनुभव करनेका यह फल है परमात्मा के साक्षात्कारका यही मार्ग है। इसलिये अपने शरीर में देवा अशोका ज्ञान प्राप्त करके उन देवताओंका अधिष्ठाता जो एक आत्मा है, उसका अनुभव प्रथम करना चाहिये । पूर्वोक्त ऐतरेय उपनिषद् के वचनमें प्रत्येक देवताका भिन्न २ स्थान कहा है । उस स्थानमें उक्त देवताके अंशका स्थान समझना चाहिये। बाहरको सृष्टि श्रमि वायु आदि देवता विशालरूप में हैं। उनके अंश प्रत्येक शरीर में आकर रहते हैं, और इस प्रकार यह जीवात्माका साम्राज्य अर्थात शरीर बन जाता है। (वेद परिचय में पं० मानवलेकर) सोऽकामयत जाया मे स्यात् ( ० ० ११४ १७ ) मन एवास्यान्मा वाग् जाया । ( ११४५७ ) मन बाणी प्रारण आत्मा के अन्न हैं । 1 स प्राणमसृजन प्राणष्टां खं वायु ज्योतिरापः । पृथिवीन्द्रियं मनोऽस' पन्नायं तपो मन्त्राः | .. क लोकालोकेषु च नाम च । प्रश्न० ६ । ४ आत्मन ए प्राणो जायते यथैषा पुरुषावम्मितदा ततं मनो कुर्तनायात्यस्पिरे । प्रश्न ३ | ३ छायेव देहे, मनो कृतेन मनः संकल्पच्छादि निष्पन्न कर्मनिमितेनेत्येतत् । तदेव सक्रः सह कर्मणा ( वृ०४|४|१६) अथान - अत्माने कामनाकी कि मेरे जाया स्त्री हो जाया नाम चाणीका है, क्योंकि श्रुति में आया है कि, मन, इसकी आत्मा हैं. चारणी जाता है । उस आत्मानं प्राणको उत्पन्न किया. प्राणसे मा फी-आकाश, वायु ज्योति जल. पृथ्वी इन्द्रियोंको उत्पन्न किया Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पात्मासे यह प्राण छायाकी तरह उत्पन्न होता है, तथा इस शरीरमें मानसिक संकल्प व रा यह प्राण प्राता है। श्रारमा इस श्राये हुये प्रारणसे अधिष्ठान करा, देवता, रूपसे सम्पूर्ण इन्द्रियों की रचना करता है । सबसे प्रथम जब उसने संकल्प लिया जो उसमें स्पन्दन हलन चलन हुआ जिसको जैन परिभाषामें शोग' कहते हैं। यही मानो उसका मुस सुजा। इससे सामादि हरि उत्पन्न हुई, उनसे इन्द्रियांक गोलक बने. उसके पश्चा। उनमें प्रकाश आया. अर्थात् उनक देवताओंकी रचना हुई। यथा मुग्यसे "धक बाकसे अने, वाक हीका नाम अग्नि है अतः प्रथम कक से भावन्द्रिय आदि अभिप्रेत है, तथा अग्निसे जिला, के श्राकारका ग्रहण है । इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये । ___ अक्षि चक्षु, श्रादित्य. मन, उदय चंद्रमा ये सब यहां पर्याय माची शब्द हैं । जिनका अभिप्राय अधिष्ठानकरण, देवस हैं। प्रजापति का फैसना यह श्रात्मा (प्रजापति) अपने श्राप ग्रह भाव कम और द्रव्य कर्म अर्थान् कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर. और स्थूल शरीर रच कर अपने आप इसमें प्रवेश करता है. परन्तु-अथ बह इसमें से निकल नहीं सकता, उसका शास्त्र में एक सुन्दर आख्यान है। प्रजापतिः ग्रेजांसृष्टः प्रमणान पाविशत् । ताभ्यः पुनः सं भवितु ना शक्रोत । सोऽब्रवीत नवदिन स-यो मेतः पुनः संचिन बदिति । कृष्ण यजु ० ० ५। ५ । २ प्रजापतिने इस जगतका सर्जन कर इसमें प्रेमसे प्रवेश Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) किया । किन्तु उसमेंसे पुनः वह निकल न सका । उसने देवोंसे कहा कि जो मुझे इसमेंसे निकाल देगा वह ऋद्धिवान होगा।" उपरोक्त लेखां से यह प्रमाणित होगया कि वैदिक वाङमय में, पुरुष, त्र, ज्ये, स्कंभ, हिल्स में पति विद विश्वकर्मा आदि नामोंसे जिसका वर्णन हुआ है वह प्राण है तथा जीवात्मा भाव प्राणोंसे द्रव्य प्राणोंकी एवं द्रव्य प्राणोंसे स्थूल शरीरकी रचना करता है इसीको प्रजापति आदिकी सृष्टि रचना कहते हैं । अब हम उन सूक्तों पर प्रकाश डालेंगे जिनसे सृष्टि रचना तथा महा प्रलय आदिका प्रतिपादन किया जाता है। सबसे प्रथम सुप्रसिद्ध नासदीय सूक्त' (जिसको सृष्टि सूक्त भी कहते का विवेचन करते हैं नासदीय वा सृष्टि सूक्त 1 1 ऋग्वेद मं० १० के सू० १२६ का नाम नासदीय सूक है । यह नाम इसका इसलिये है कि इसका प्रथम मन्त्र 'नासदासीत् ' इस पदसे प्रारम्भ होता है । सुखे विषयका विचार करने वालोंके लिये यह सूक्त बड़े ही महत्वका है. यही कारण है कि प्रत्येक ऐति हासिक ने तथा प्रत्येक दार्शनिक लेखकने इस सूक्त पर अवश्य अपने विचार प्रकट किये हैं। अतः हम भी इस पर विचार करना ध्यावश्यक समझते हैं | प्रथम हुप यह सूक्त और इसका प्रचलित अर्थ लिखते हैं। पुनः अन्य विद्वानोंको सम्पत्तियां तथा Baat समालोचना लिखेंगे, तत्पश्चात् अपने अर्थ प्रकट करेंगे । * यहं वर्णन स्वरूपसे जीवात्माका है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) I नासदासीनो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो न व्योमापरायत् । किमrata: कुहकस्य शर्म॑न् नभ्यः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥ १ ॥ i अर्थ -- उस समय अर्थात् सृष्टि के आरम्भ कालमें न असत् था, न सन् था, न अन्तरिक्ष था. न अन्तरिक्ष के ऊपरका आकाश था । ऐसी अवस्था में किसने किस पर आवरण डाला ? किस स्थल पर डाला ? सैर किसी के लिये डाला? मगध और गम्भीर जन भी कहाँ रहा हुआ था ? न मृत्यु सीदमृतं न तहिंन राज्या अहना आसीत्प्रकेतः । श्रानीदवातं स्वधयातदेकं । तस्माद्धान्यन्नपः किंच नांस |२| अर्थ — उस समय मृत्यु शील - जगत भी नहीं था। वैसे ही अमृत - नित्य पदार्थ भी नहीं था। रात्रि और दिनका भेद समनेके लिये कोई प्रकेत साधन नहीं था । स्त्रधा - माया अथवा प्रकृतिके साथ एक वस्तु थी, जो कि बिना वायु ही स्वास ले रही थी। उसके सिवाय दूसरा उससे अन्य कुछ भी नहीं था । = = तप श्रासीतमसा गूल्हमग्रेऽग्रतं सलिलं सर्वमा इदम् | तुच्चय नाम्वपिहितं यदासीत् तप सस्तन्नाऽजायते क्रम् | ३ | अर्थ-अ = सृष्टिके पहले प्रलय दशा में अज्ञान रूप यह जगत तम माया से आच्छादित था । अप्रकेत = अज्ञात था । दृध और पानी की सरह एकाकार, एक रूप था। श्रमु = ब्रह्म, तुच्छ = मायासे श्राच्छादित था | वह एक झ तप की महिमा से प्रकट हुआ अर्थात् नाना रूप धारण किये । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामस्तदग्रे समवतंताधि, मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । सताबन्धु ममति निर्गवन्दन , हदि प्रतीण्या कायो मनीषा।४। अथान्-ब्रह्म के मन का जो प्रथम त था. वहीं मृष्टि के प्रारम्भ काल में मृष्टि बनाने की ब्रह्म की कामना अर्थात शक्ति धी। विद्वानों से चुछ अपने कृदयमें प्रतीक्षा करके इसी असन् - ब्रह्ममें सत् का विनाशी दृश्य-सृष्टि का प्रथम संबंध जाना। तिरश्चानो बिततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरिस्विदासीत् । रेतोधाभासम्महिमान श्रासन स्वधा अवस्तात्प्रयतिःपरस्तात __ अर्थ. अविद्या, काम और कर्म को मष्टि के हेतु रूप बताया गया । इनकी कृति सूर्य की किरलको तर म चीनीधी और तियक जगत में फैल गई। उत्पन्न हुप कमी में मुख्यतः रेतोधा = रन = बीज भूत कर्म का धारण करने वाले जीव थे । महिमान अर्थात् श्राकाश आदि महत्पदार्श थे. स्वधा भाग्य प्रपंच विस्तार और प्रकृति अर्थात भोक्त विस्तार । इनमें भाग्य विस्तार अधम्तात उतरती श्रेणी , और भाक्त विस्तार पदस्तात् ऊंची श्रेणी का है। को श्रद्धा वेद क इह प्रयोचत् : कुत प्राजाता कुत इयं विसृष्टिः। अवांग देवा अस्य विसर्ज नेना था, को वेद यत भावभूचा। अर्थ-इस जगन का विस्तार किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारणसे हुअा है यह परमार्थ रूपसे (निश्चयसे)कौन आन सकता है या इसका वणन कौन कर सकता हैं ? कोई नहीं कर सकता | क्या देवता नहीं कर सकते और कह सकने ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि देवता सृष्टि के बाद उत्पन्न हुये हैं इस लिये वे पहले की बात कैसे जान सकते हैं ? यदि देवताओंको भी Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ३७४ ) यह मालूम नहीं है तो उनके बाद उत्पन्न होने वाले मनुष्यादिककी तो बात ही क्या कहना ? अर्थात् मनुष्य कैंसे जान सकते हैं, कि अमुक निश्चित कारण ही यह सृष्टि उत्पन्न हुई है । इयं विसृष्टित वभूव यदि वा दधे यदि वान । सोऽस्याध्यचः परमे व्योपन, सो अंग वेद यदि वा न वेद |७| अर्थ- गिरि, नदी, समुद्रादि रूप यह विशेष सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई हैं उसे कौम जानता है ? श्रथवा इस सृष्टिको किसी ने धारणकी है या नहीं की हैं यह भी कौन जान सकता है ? क्योंकि इस सृष्टिके अध्यक्ष परमात्मा परम उच्च आकाशमें रहते हैं । उस परमात्मा को भी कौन जानता है ? वह परमात्मा स्वयं सृष्टि को जानता है या नहीं ? इसकी भी किसको खबर है ? सृष्टि सूक्त और तिलक "उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा कि सारे मोक्ष धर्मके मूल भूत अध्यात्म ज्ञान की परम्परा हमारे यहां उपनिषदों से लगा कर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास कबीरदास सूरदास तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है । परन्तु उपनिषदों के भी पहले यांनी अत्यन्त प्राचीन कालमें ही हमारे देश में इस ज्ञानका प्रादुर्भाव हुआ था. और तब से कम क्रमसे उपनिषदोंके विचारोंकी उन्नति होती चली गई है। यह बात पाठकों को भली भांति समझा देनेके लिये ऋग्वेदका एक प्रसिद्ध सूक्त भाषान्तर सहित यहां अन्स में दिया गया है, जो कि उपनिषन्तर्गत विवाका आधारस्तम्भ है। सृष्टिके अगम्य मूलतत्व और उससे विविध दृश्य सृष्टिकी उत्पत्तिके विषय में जैसे विचार इस सूक्त में प्रदर्शित किये गये हैं वैसे प्रगल्भ स्वतन्त्र Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मूल तत्वकी खोज करने वाले तत्व मानक मार्मिक विचार अन्य किसी भी धर्मके मूल ग्रन्थमं दिखाई नहीं देत । इतना ही नहीं, किन्तु ऐसे अध्यात्म विचारोसे परिपूर्ण और इतना प्राचीन लेख भी अब तक कहीं उपलब्ध नहीं हुआ है । इम लिये अनेक पश्चिमी पंडितोंने धार्मिक इतिहासको दृष्टि से भी इस सूक्त का अत्यंत महत्व पूर्ण जान कर आश्चर्यचकित हा अपनी अपनी भाषाओं में इसका अनुवाद यह दिखानेक लिग किया है , कि मनुष्यक मन की प्रवृत्ति हम नाशवान और नास-पास्मक मृष्टिके परे नित्य और अचिन्त्य ब्रह्म शक्तिकी ओर महज ही कैसे भुक जाया करता है। यह ऋग्वेदके दसवें मंडलका माँ सूक्त है. और इसके प्रारम्भिक शब्दांसे इसे ' नासदीय यूक्त' कहत है। यही सूक्त तैत्तिरीय ब्राह्मण (५ 1 ८16) में लिया गया है. और महाभारतान्तर्गत नारायणाय या भागवत-धर्ममें इसी सूक्तके आधार पर ग्रह यानं बतलाई गई है. कि भगवानको इक्छा पहल पहल सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई ( म भा. शो . ३४.८)] सर्वानुक्रमणिकार के अनुसार इस मुक्तका ऋषि परमेष्धि प्रजापनि है और देवता परमात्मा है. तथा इममें निष्प वृत्तके यानी म्यारह अक्षरों के चार चरगोंकी सात ऋचायें है । 'सत' और 'असत' शब्दों के दो दो अर्थ होते हैं, अतएव मृपिके मूलतत्वको 'सत्' कहनेक विषयमें उपनिषत्कारोंके जिस मनभेदका माल पहले हम इस प्रकरण में कर चुके हैं, वही मतभेदं ऋग्वेद में भी पाया जाता है उदाहरणार्थ इस मूल कारण के विषय में कहीं तो यह कहा गया है, कि एक सद्विप्रा बहुधा वदनि" (ऋ.१.१७४ ४६) अथवा "एक सन्तं बहुधा कल्पयन्ति (ऋ० १.११४. ५.)यह एक और सत् यानी सदैव स्थिर रहने वाला है . परन्तु उसी को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं, और कहीं इसके विरूद्ध Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३७६ । यह भी कहा है, कि देवानां पूर्व युगऽसतः समजायत" ऋ०१० ७२.७ )-देवताओं से भी पहल असन से अधीन अव्यक्त से 'मन' अर्थान व्यक्तमृष्टि उत्पन्न हुई। इसके अतिरिक्त किसी न किसी एक दृग् तत्व से मनि की उत्पग्नि के विषय में ऋग्वन हीमें भिन्न भिन्न अनेक वर्णन पाये जाते हैं, जैसे सृष्टि के प्रारम्भ में मूल हिरण्यगर्भ था अमृन और मृत्यु दोनों उसकी ही छाया है, और आगे श्सी से ना मृष्ट्र निर्मित हुई है (०२०/२.९।१.२. पहले विराट रूपी पुरुष था और उमसे यज्ञ के द्वारा मारी मुष्टि हुई (ऋ. १६) पहले पानी (आप) था, उसमें प्रजापति उत्पन्न हुश्रा(ऋ. १७२।६।१८८६) ऋत और सत्य पहले उत्पन्न हुए फिर रात्रि (अन्धकार) और जमके बाद समुद्र (पानी), संवत्सर इत्यादि उत्पन्न हुप ( ऋ० १... १६४, ५) । ऋग्वेदमें वर्णित इन्हीं मूल द्रव्योंका आगे अन्यान्य स्थानों में इस प्रकार उल्लेग्न किया गया है. जैसे:--(१) जलका नेत्तीय ब्राह्मण में 'आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत' यह सब पहले पतला पानी था (ले० प्राः । १ । ३ । ५) : (.) असनका. तैत्तरीय उपनिषद में 'असद्वा इदमग्र आसीत्' यह पहल असन था (ते. २ । ७) ; (३) सतका छांदोग्य में 'सदेव सौम्येदमन आमीन' यह सब पहले सत् ही था (छां । २) अथवा (४) श्राकाश का 'आकाशः परायणम् ५---आकाश ही सबका मूल है (छो १ | ह); (५) मृत्युका ) धृहदारण्य में Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७० ) 'नैवेह किंचनाग्र आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत् ' पहले यह कुछ भी न था, मृत्युसे सब श्रादित था, (बृह - १ १ २ । ५); और (६) समका मैयुपनिषद में 'तमो वा इदमग्र आसीदेकम् ' ( मैं० ५/२) - पहले यह सब अकेला तम ( तमोगुणी अन्धकार) था, - आगे उससे रज और सत्व हुआ । सारे वेदान्त शास्त्र का रहस्य यह है, कि नेत्रों का या सामान्यतः सब इंद्रियों को गोचर होने वाले विकारी और विनाशी नाम रूपात्मक अनेक दृश्यों के फंदे में फंसे न रह कर, ज्ञान-दृष्टि से यह जानना चाहिये कि इस दृश्यके परे कोई न कोई एक गौरत है । हो सानेके लिए उक्त सूक्त के ऋषिकी बुद्धि एक दम दौड़ पड़ी है, इससे यह देख पड़ता है, कि उसका अन्तर्ज्ञान कितना तीव्र था ! मूलारम्भमें अर्थात् सृष्टि के सारे पदार्थों के उत्पन्न होनेसे पहिले जो कुछ कहा था, वह सत्था या असत् मृत्यु था या अमर, आकांश या जल, प्रकाश था या अन्धकार ! ऐसे अनेक प्रश्न करने वालों के साथ वादविवाद न करते हुये उक्त ऋषि सबके आगे दौड़ कर यह कहता है, कि सत् और असत् मत्य और अमर अन्धकार और प्रकाश यच्छदन करने वाला और श्राच्छादित सुख देने वाला और उसका अनुभव करने वाला, ऐसे अद्वेत की परस्पर-सापेक्ष भाषा दृश्य सृष्टिकी उत्पत्ति के अनन्तर की है, अतएव सृष्टि में इन द्वन्दों के उत्पन्न होने के पूर्व अर्थात जब एक और दूसरा वह भेद ही नथ तय कौन किसे आच्छादित करता ? इसलिये आरम्भ ही में इस सूक्त का ऋषि निर्भय हो कर यह कहता है, कि मूलारम्भ के एक त्र्यं को म . , Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या असत्, आकाश या जल, प्रकाश या अन्धकार. अमृत या मूल्य. इत्यादि कोई भी परस्पर सापेक्ष नाम देना उचित नहीं जो कुछ था वह इन सब पदाथों से विलक्षण था, और अकेला एक चारों ओर अपनी अपरंपार शक्ति से स्फूर्तिमान् था। उसकी जोड़ी में या उसे आच्छादित करने वाला अन्य कुछ भी न था । दुसरी मा में नाजीति' द्विमा पद के 'अन्' धातु का अर्थ है. श्वासोच्छवास लेन्दा या स्कुरण होना, और 'प्राण' शब्द भी उसी धातु से बना है, परन्तु जो न सत् है और न असन् उसके विषय में कौन कह सकता है, कि वह सजीव प्राणियों के समान श्वासोच्छ वस लेता और श्वासोछ वास के लिये वहाँ वायु ही कहाँ है । अतएव 'अनोत' पद के साथ ही--'अवातं' = विना वायु को और स्वधया' -- स्वयं अपनी हो महिमा से इन दोनों पड़ा को जोड़ कर "सृष्ट का मूल तत्व जड़ नहीं था यह अद्वतावस्था का अर्थ दत्त की भाषा में बड़ी युक्ति से इस प्रकार कहा है, कि वह एक बिना वायु के केवल अपनी ही शक्ति से श्वासोच्छ वास लेता या स्फूर्तिमान होता श्रा ? इसमें वाह्य दृष्टि से जो विरोध दिखाई देता है, वह द्वैती भाषा की अपूर्णता से उत्पन्न हुन्मा हैं । 'नेति नेति' 'एकमेवाद्वितीयम्' या 'स्वमहम्नि प्रतिष्ठितः' (छा० २०२४११) अपनी ही महिमासे अर्थात् अन्य किसी को अपेक्षा न करते हुए अकेला ही रहने वाला इत्यादि. परब्रह्मके वर्णन उपनिषदामें पाये जाते हैं. वे भी उपरोक्त अथके द्योतक है । सारी सृष्टि के मूलारम्भमें कारों भोर जिस एक अनिर्वाच्य तत्वके स्कुरण होनेको Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धात इस सूक्तमें कड़ी गई है. यही तत्व सृष्टिका प्रलय होने पर भी निःसन्देह शेष रहेगा । अतएव गोतामें इसो परमका कुछ पर्णय से इस प्रकार वणन है. कि "सच पदार्थोंका नाश होने पर भी जिमका नाश नहीं होता" (गो० ८ । २) और आगे इसा सून के अनुसार सष्ट कहा है कि वह मन भी नहीं है" (गीता .३५ १२ परन्तु प्रश्न यह है , कि मष्तिो गुलाम में गिगा ना के सिया और कुछ भी न था, तो फिर वेदोंमें जो ऐसे वर्णन पाये जाते हैं कि आरंभमें पानी, अंधकार या प्राभु और तुच्छ की जोड़ी थी" उनको क्या व्यवस्था होगी ? अतएव तीसरी ऋचा में कविने कहा है. कि इस प्रकारके जिनने वएन ई जने कि सुधि के श्रारम्भमें अन्धकार था या अन्धकारसे अच्छदिन पानी था या बाभु (अस) और उसको आच्छादित करने वाली माया (तुच्छ) ये दोनों पहले थे इत्यादि-वे सब उस समयके हैं जाक अकेले एक मूल परब्रह्म के तप-महात्म्यसे उसका विविध रूप से फैलाव हो गया था--ये घणन मलारम्भके नहीं है. इस ऋचा 'तप' शब्दसे मूल ब्रह्मको ज्ञान मय मिल ज्ञण शक्ति विवक्षित है और उसीका वरणन चौयों ऋचा में किया गया है (मु०११)देखा 'एतावान् अस्य महिमाऽतोज्यायश्चि पूरुषः (ऋ०१०१8०1३) इस न्यायसे सारी सृष्टि ही जिमकी महिमा कहलाई. उस मूल इन्यके विषयों कहना न पड़ेगा कि वह इन सबके परे सबसे श्रेष्ठ और भिन्न है दृश्य वस्तु और दृष्टा भाक्त भोग्य परंतु आच्छादन करनेवाला और अच्छच अंधकार और प्रकाश मर्त्य और अमर इत्यादि मांग द्वैतांको इस प्रकार अलगकर यच प यह निश्चय किया गया कि केवल एक निर्मल चिद्रपबिल जण प ब्रह्म हा मूनारंभमें था तथापि जब यह बतलानेका समय शाया कि हम निर्वच्य निगुण अकेले एक तत्वसे आकाश जल इत्यादि बंद त्मक किनाशी Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) wi " "! सूक्त में किन्तु अन्यत्र भी व्यावहारिक सगुण नाम रूपात्मक विविध सृष्टि या इस सृष्टिकी मूल भूत त्रिगु णात्मक प्रकृति कैसी उत्पन्न हुई, तब तो हमारे प्रस्तुत ऋषिने भी मन, काम, असन और सम् जैसी द्वैती भाषाका ही उपयोग किया है. और अन्तमें स्पष्ट कह दिया है, कि यह मानत्री बुद्धिकी पहुँचके बाहर है। चौथी ऋचायें मूल ब्रह्मको ही सत् कहा है. परन्तु उसका अर्थ कुछ नहीं" यह नहीं मान सकते, क्योंकि दूसरी ऋचा में भी स्पष्ट कहा है कि वह है | न कि केवल इसी भाषाको स्वीकार करके हीं ऋग्वेद और वजसनेयी संहितामें गहन विषयोंका विचार ऐसे के द्वारा किया है०२० । ३८१७६ १० । ८१ । ४; बा० सं० १७ । २० देखो, जैसे दृश्य सृष्टिको यज्ञकी उपमा देकर प्रश्न किया है. कि इस यज्ञके लिये आवश्यक घृत, समिधा इत्यादि सामग्री प्रथम कहांसे आई ? (ऋ० १० ११३० । ३ ) अथवा घरका दृष्टान्त देकर प्रश्न किया है कि मूल एक निर्गुण से नेत्रोको प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली आकाश-वकी भव्य इमा रत को बनाने के लिये लकड़ी ( मूल प्रकृति ) कैसे मिली ? किं विद्वनं क उस वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी तिष्टत्तक्षुः । 1 इन प्रश्नों का उत्तर उपयुक्त सूक्त की चौथी पांचवी ऋना में जो कुछ कहा गया है, उससे अधिक दिया जाना संभव नहीं है ( बाज सं० ३३ । ७४ देखो ) और वह उत्तर यही हैं, कि उस अनिर्वाय अकेले एक ही के मन में सृष्टि निर्माण करने का काम - रूपी तत्व किसी तरह उत्पन्न हुआ और वस्त्र के के समान या सूर्य प्रकाश के समान उसी की शाखाएं तुरन्त नीचे ऊपर और बहुं ओर फैली गई तथा सन् का सारा फैलाव हो गया. अर्थात आकाश पृथ्वी की यह भव्य इमारत बन गई। उपनिषदों में इस सूक्त के अर्थ को फिर भी इस प्रकार प्रद किया है. कि -- Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) 'मोऽकामयत' । 'बस्था प्राजायेयेति । ( तै० श६। छा० ६।२३ ) उस पर ब्रह्म को ही अनेक होनेकी इच्छा हुई (ऋ:१४ देखो) और अथर्ववेद में भी ऐसा वर्णन है, कि इस मारा इश्य सूधि के मूलभूत द्रव्य से ही पहले पहल काम' हुश्रा (अथर्व ६।२।१६) परन्तु इस सूक्त में विशेषता यह है कि निगुण से सगुण की. असन से सन् की, निमून्द से द्वन्द्व की प्रथा प्रसंगसे संग को उत्पत्ति का प्रश्न मानवा बुद्धि के लिए अगम्प समझ कर सांख्यों के समान केवल तयश हो मूल प्रकृति हो को या उसके सदृश्य किसी दूसरे तस्त्र को स्वयंभू और स्वतंत्र नहीं माना हैं, किन्तु इस सूक्त का ऋषि कहता है कि जो बात समझमें नहीं आती; परन्तु उसके लिए शुद्ध बुद्धि से और प्रात्म प्रतीति में निश्चित क्रिट गरे अनिर्वाय PM को योग्यता की वैश्य मष्ट्रिय भाया की योग्यता के बराबर मत समझो, और न परब्रह्म के विषय में अपने अद्वैतभावको ही छोड़ो। इसके सिवाय यह सोचना चाहिए यद्यपि प्रकृति को भिन्न त्रिगुणात्मक स्वतन्त्र पदार्थ भी लिया जाये. तथापि इस प्रश्न का उत्तर तो दिया ही नहीं जासकला, कि कि उसमें सृष्टि का निर्माण करने के लिए प्रथमतः युद्धि (महान ) या अहंकार कैसे उत्पन्न हुश्रा। और जन कि यह दोष कभी टल ही नहीं सकता है तो फिर प्रकृति को म्वतन्त्र मामले में में क्या लाभ है ? सिर्फ इतना कहो. कि यह बात समझ में नहीं आती कि मूल ब्रह्म से लन् अर्थात् प्रकृति केमे निर्मित हुई। इसके लिये प्रकृति को स्वतन्त्र मान लेने की ही कुछ आवश्यकता नहीं है । मनुष्य की बुद्धि की कौन कहे, परन्तु देवताओं की दिव्य दृष्टि से भी सत् की उत्पत्ति का रहस्य समझ में आजाना सम्भव नहीं. क्यों कि देवता भी रश्य सृष्टि के श्रारम्भ होने Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) पर उत्पन्न हुए हैं, उन्हें पिछला हाल क्या मालूम ? (गीता १०० देखो)। परन्तु हिरण्यगर्भ देवताओं से भी बहुत प्राचीन और श्रेष्ठ है और ऋग्वे ही कहा है, जिनमें बदला ही"भूतस्य जातः पतिरेक आसीत" (ऋ० १०।१२।१) सारी सृष्टि का पति' अर्थान राजा या अध्यक्ष था। फिर उसे यह बात का कर मालूम न होगी ? और य द उसे मालूम होगी तो फिर कोई पूछ सकता है, कि इस बातको दुर्बोध या अगम्य क्यों कहते हो ? अतण्य उस सूक्त के ऋषि ने पहिले तो उस प्रश्न का औपचारिक उत्सर दिया है. हाँ. वह इस बात को जानता होगा !" परन्तु अपनी बुद्धि में ब्रह्म देव के भी-ज्ञान-सागर की थाह लेने वाले इस ऋषि ने आश्चर्य से सशंक हो अन्त में तुरन्त कह दिया है. कि "अथवा' म भी जानता हो ? कौन कह सकता है ? क्यों कि वह भी सत् की श्रेणी में है, इस लिये परम' कहलाने पर भी 'आकाश' ही में रहने वाले जगत् के इस अध्यक्ष को सत्. असत्, श्राकाश और जल के भी पूर्व की बातों का नाम निश्चित रूपमे कैसे हो सकता है ?" परन्तु यद्यपि यह बात समझ में नहीं आती. कि एक असन्' अर्थात् अव्यक्त और निर्गुण द्रव्य ही के साथ विविध काम-रूपात्मक सत् का अर्थात् मूल प्रकृति का सम्बन्ध कैसे हो गया. तथापि मूल ब्रह्म के एकत्व के विषय में ऋषि ने अपने अद्वत-भाष को डिगने नहीं दिया है, ? यह इस बातका एक उत्तम उदाहरण है, कि सात्विक श्रद्धा और निर्मल प्रतिभा के बल पर मनुष्य की बुद्धि अचिन्त्य वस्तुओं के सघन बन में सिंह के समान निर्भय होकर कसे निश्चय किया करती है. और वहां की श्रतस्य धातों का यथा शक्ति कैसे निश्चय किया करती है ? यह सचमुच हो आश्चर्य तथा गौरव की बात है कि ऐसा मुक्त अश्वेद में पाया Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८३ ) जाता है । हमारे देश में इस सूक्तके ही विषयका आगे ब्राह्मणों ( तैत्ति २२ । ८8 ) में उपनिषदों और अन्तर नेशन्स शास्त्र के ग्रन्थों में सूक्ष्म रीति से विवेचन किया गया है । और पश्चिमी देशों में भी अर्वाचीन काल के कान्ट इत्यादि तत्व ज्ञानियों ने उसी का अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षण किया है। परन्तु स्मरण रहे कि इस सूक्त के ऋषि की पवित्र बुद्धिमें जिन परम सिद्धान्तों की स्फूर्ति हुई हैं. वही सिद्धान्त आगे प्रतिपक्षियों को विवर्त-वाद के समान उचित उत्तर दे कर और भी दृढ़ स्पष्ट तर्क दृष्टि से निःसन्देह किये गये हैं- इसके आगे अभी तक न कोई बढ़ा है और न बढ़ने की विशेष आशा ही जा सकती है।" ( गीता रहस्य अध्यात्म प्रकरण ) सृष्टि विषय में तिलक महोदय के विचार आगे प्रगद करेंगे । यहाँ तो सृष्टि विषयक परस्पर विरोधा श्रुतियों को प्रगट कर दिया गया है। समीक्षा - परन्तु जैसा कि हम पहले सप्रमाण लिख चुके हैं कि यदि इस सूक्तको सृष्टि सूक्त माना जाये तथा उपरोक्त अथ ही ठोक माने जायें. तब तो 'मैकडोनल्ड' के इस कथन का समथन हा होता है कि "नासदीय सूक्त में उसी प्रकार के दोष हैं, जैसे भारतीय दर्शन मात्र में हैं । अर्थात विचार धारा अस्पष्ट और असंबद्ध है" * बा० सम्पूर्णानन्दजी ने इस तत्र को अनुभव किया, अतः 'भारतीय सृष्टिक्रम विचार' में आप लिखते हैं कि "यदि सत" और अतू' का प्रयोग यहां कोप और व्याकरण सम्मत 'होने' और न 'होने' के अर्थ में हुआ है तब तो यह कहना किन मत् था और असत् या निरर्थक वाक्य हो जाता हैं । फिर यह श्रुत्यन्तर के विरुद्ध भी है।" Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतःयह कहना अनुचित न होगा कि उपरोक्त प्रयत्नोंसे यह सूक्त और भी जटिल बना दिया गया है । सब से प्रथम हम सूरत में आये हुये, सन्. और असत् . शब्दों पर विचार करते है. क्यों कि सभी व्याख्याकारों ने इन शब्दों के भिन्न २ अर्थ किये हैं। ऋग्वेदमें एक मन्त्र हैभारत सधपहने ज्योलन क्षार दिने रुपये १०५७ अथात “दत्त के जन्म के समय अदिति के पास परम आकाश में 'असस' और 'सत; ये दो पदार्थ थे।" यदि नामदीय सूक्तके उपरोक्त अर्थ ही किये जायें तो उस सूक्तका यह प्रत्यक्ष विरोध है। क्यों कि नासदीय सूक्तम्लय काल में सत और असत् का प्रभाव बताता है और यह मन्त्र सत् और असतकी विद्यमानता बताता है तथा अथर्व बेदमें है कि असति सत प्रतिष्ठित सति भूत प्रतिष्ठितम् । भूतं ह भव्य अाहितं भव्यं भूते प्रतिष्टितम् । अथर्व० १७१११६ अर्थात् "अमत में सत प्रतिष्ठित है। अर्थात कारण में कार्य विद्यमान है । तथा सन में ( वर्तमान में ) भूत (जो बीत गया) प्रतिष्ठित है । और भूत में भविष्य निहित है। और भविष्य भूत में टिका है । " यहाँ सत और असत दो पदार्थ विद्यमान है । अथवा यू कह सकते हैं कि यह मन्त्र सत और असत् एवं इस लिये श्रापने इस सूक्तमें आये हुये, सत् असत्, मृत्यु और अमृत आदि शब्दों के प्रचलित अर्थोंभे विभिन्न दी अर्थ किये हैं। किन्तु जिन दापों को मिटाने के लिये आपने इतनी क्लिष्ठ कल्पनायें की हैं स्न दोषों को श्रार दूर न कर सके । तथा मष्टि कर्ता ईश्वर का तो आपने चिदविलास' में जिन प्रवल युक्तियों द्वारा खंडन किया है उनको हम उहत Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५ ) भूत और भविष्य को जमणेस मानकर भादवाइका कान करता है। तथा च यजुर्वेद अ० १३ मन्त्र ३ में (सनश्च योनिमसतश्च दिवः) सूर्य को सत और असत को योनि कड़ा है। अर्थात सूर्य से ही मूत व अमूर्त पदार्थ प्रकट होते हैं । अर्थात स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों का सूर्य ही उत्पादक है। यहां भाष्यकारों ने सूर्य को ही कारण माना है । इस प्रकार सत् और असत् का अनेक प्रकार से कथन किया है । परन्तु यह बणन वास्तविक रहस्य का प्रकट नहीं करता। इसका रहस्य ब्राह्मण ग्रंथोंने प्रकट किया है। यथा-- असत्-अथ यद सत् सई सा वाक् सोऽपानः | सत्-यत् सत् तत्साम तन्मनस्स प्रायः। जेब्रा० उ. ११५३२ अर्थात् बाणी और अपान का नाम असत् है, तथा मन और प्राणका नाम सत् है। अमृतम्-अमृतं वै प्राणः । मो० उ० १११३ अमृतं हि प्राणाः । श१० १०|शवार अमृतं मापः । गो० उ० १३ अमृत तत्वं वा श्रापः । कौ० ११ अर्थात् जल और प्राण आदि अमृत हैं। इस प्रकार शास्त्री में प्राणीको अमृत और इन्द्रिय आदि को मृत्यु कहा गया है। अतः नासदीय सूक्त में सत् और असत् श्रादि शब्द स्थूल प्राण व इन्द्रिय मोधक है । है नोट, वेदान्त दर्शन, २०२ । ४ । १ के भाष्य में अग बा इद मन सीत् ) ०3०१२ | ७ की इस अतिम पाये हुये असत् । का अर्थ (श्री स्वामी शंकराचार्यजीने शंकर भापमं) प्रागा ही किया है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) स्थूल का निषेध हैन के सृष्टि का जन्म से पूर्व तथाच स्वयं में मन्त्र गंगा प्रशाद की उपाध्याय, अनवाद' पुस्तक में आये हुवे देवाः शब्द का अर्थ इन्द्रियाँ करत हैं । यथा - ( अस्य विसज्जन अग देवाः ) इसके फैलने से पीछे देव अर्थात् न्द्रियां हुई । पृ० ३७४ 31 आगे आपने ३७३ में देवानां पूर्वे युगेऽमतः सद जावत । मन्त्र के अर्थ में भी लिखा है कि ' अर्थात इन्द्रियों के पहले युगमें सतसे सत हुआ ।" इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि यहां शरीर इन्द्रिय व प्राण आदि की रचना का प्रकरण है । तथा च मन्त्र ४ में था है कि - ( हृदि प्रतीच्या कवयो मनीषा ) अर्थात "असत में सत के बन्धु को विचार शील ऋषियों ने हृदय में धारण किया ।" अतः यदि यहाँ प्रलय अवस्थाका वर्णन है तो उस समय विचार शल ऋषि कहाँ थे जिन्हों ने असर में सत् के बन्धु को हृदय में धारण किया था। यह मन्त्र स्पष्ट रूप से कहता है. कि यह प्रकरण प्रलय अवस्था का नहीं है । अतः यही मानना युक्तियुक्त है कि यहां भाव प्राणोंसे द्रव्य प्राणोंकी तथा भाव इंद्रियों से द्रव्य इन्द्रियों की रचना का कथन है । तथा च प्रश्नोपनिषद में इस नासदाय सूक्तकी बड़ी सुन्दर व्याख्या की है । यथा: (१) एषोऽग्निस्तपति, एष सूर्यएष पर्जन्यो मघवानेष वायुः । एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं च यत् ॥ प्र०३०/२/५ ( २ ) -- विशेषके लिये माया प्रकरण देखें | Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) (२) अरा इत्र स्थ नाभौ प्राणे मा प्रतिष्ठितम् । ऋनो यजूषि सामानि गज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च । ६॥ (३) पाल्मन एष प्राणो जायते यथा पुरुषे छानम्मि न्नेन्दानतं मनोकृतेनाथान्यसञ्छरे । ३।३ (४) यथा मम्राडेवाधि कनान रिनिन । एतान् ग्रामानेनान् ग्रामानिितष्ठस्थ इत्व मेवेष प्राण इतरान्प्राणा:पृथ गेव संनिधत्ते ।। ४ ॥ (५) पायपस्थेऽानं चक्षुःश्रोत्रेमुखनासिकाभ्याम् प्राणः स्वयं प्रातिष्ठते मध्ये तु समानः । एमज़तद्धतमन्नं समनयतितम्मादेताःसाचिषो भवन्तिा! (६) अर्थकांचं उदानः पुण्येन पुण्यं लीक नयति पान पापमुभाभ्यामेव मनुष्य लोकम् ॥ ७ ॥ (७) यचिन्तम्तेनैषप्राणमायाति प्राणम्ते जमायुधः सहात्मना ___ यथा संकल्पितं लोक नयति ॥ १० ॥ {११ भात्रार्थ.- अन सूर्य पर्जन्य इन्द्र वाय. पृथिवी, रवि सत, अमन अमृत मृत्यु. मय प्राण ही है। अर्थात् में सम प्राणु के ही नाम व रूप श्रादि हैं । वेदोंमें इन सम्पूर्ण अग्नि आदि देवता वाचक शब्दों द्वारा प्राएकी हा महिमाका वर्णन है । यहां यह भी ध्वनित होता है कि मानद य मू में मन असत अमृत दिन रात. तमस आदि शब्दां हरा भी इस प्रणा । यिन किया गया है। (२) जिस प्रकार रथको ना मो श्रार ला रहा है उसीत्रक र ऋग्वेद आदि नथा क्षत्रियत्व व ब्राह्मणत्व आदि मब प्राणों में हो Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) स्थित हैं। अर्थात ज्ञान, विद्या और बलका यह प्राण ही केन्द्र है d (३) जिस प्रकार मनुष्य के शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है। उसी प्रकार यह प्रारण भी आत्मासे उत्पन्न होता है, अर्थात यह मानसिक इस शरीर में आ जाता है। (४) जिस प्रकार सम्राट पृथक पृथक ग्राम व नगरादिमें यथा योग्य अधिकारियोंको नियुक्त करता है, उसी प्रकार यह मुख्य ही अन्य प्राणों (इन्द्रियों) को पृथक पृथक नियुक्त करता है। यहां श्री शंकराचार्यने 'इतरान्प्राखान् का अर्थ चतु यदि इन्द्रियां ही किया है। (४) प्राणको पशु और उपस्थमें अपानको नियुक्त करता है, तथा नासिका, चक्षु और श्रोत्रमें स्वयं उपस्थित होता है । यह समान वायु (प्राण) ही खाये हुये अन्नको समभाव से शरीर में सर्वत्र ले जाता है। उम प्राण रूपी अमिसे दो नेत्र, दो कार्य दो नासारन्ध्र और एक रसना ये सात इन्द्रिय रूपो जलायें उत्पन्न होती हैं। . (६) सुषम्ना नामकी नाड़ी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने लाउदान वायु (इस जीवको) पुण्य कर्मसे स्वर्ग लोकमें तथा पपकमले नरक में और पाप और पुण्य दोनों प्रकारके मिश्रित कमसे मनुष्य लोक में ले जाता है । (3) इस जीवका जैसा संकल्प होता है, यह उसी प्रकार के भारतका श्रास करता है, वह प्राण तेजसे युक्त हो उस जीवको संकल्प किये हुये लोकमें ले जाता है। तथा च मुंडकोपनिषद श्रुति है यथा पमा चीयते मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् । १८ तन्नमभि जायते श्रनात् प्राणी Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( : ३८६) यह श्रात्मा तपसे कुछ फूल सा गया, उससे अन्न अर्थात् भाव प्राण उत्पन्न हुश्रा, ( अन्नं हि.प्राणाः) शतपथ ३८11८ लस भाव प्राणसे द्रव्य प्राण उत्पन हा तथा उससे मन तथा मनसे सत्य, अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियां उत्पन्न हुई , (चक्षुर्व सत्यं ते ३.३३५.) इत्यादि प्रमाणोंसे सत्य का अर्थ चक्षु आदि हैं । तत्पश्चात लोक अर्थात् स्थूल शरीर उत्पन्न हुना और फिर इस शरीर से कर्म तथा कम से कम का फल ( अमृत ) उत्पन्न हुआ । ग्रहो कर्म फल का नाम 'अमृत' है। यहां श्री शङ्कराचार्यजी लिखते हैं। - "यावरकर्माणि कल्पकोटि शतैरपि न विनश्यन्ति तावत्फलं न विनश्यति इत्यमृतम् ।" __ अर्थात जब तक ( किरोडौं कल्पों तक) कमों का नाश नहीं होता तब तक उनका फल भी नष्ट नहीं हो सकता इसलिये कर्मफल को 'अमृत, कहा है। उपरोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध है कि वैक्षिक प्रन्थों में सत असत् अमृन, च मृत्यु आदि प्राण याचक शब्द है । तथा नासदीय' सूक्त में मात्र प्राणों से हव्य प्राणों की तथा भाष इन्द्रियों से वन्य इन्द्रियों की रचना का वर्णन है । इसा प्रकार हिरण्यगर्भ केपुरुष सूक्तादि की व्यवस्था है। दूसरा सृष्टि सूक्त प्रस्वेतके मं सूत का नाम अघमर्षण, सूक्त है। यह सूत नित्य प्रति की संध्या में भी पठित है। अतः यह विशेष महत्व रखता है। इस सूक्त में तीन ही मन्त्र हैं। प्रथम हम उनको लिखकर उनका प्रचलित भाग्य लिखते हैं पुनः उनका सत्यार्थ लिम्गे 1 ऋतं च सत्यं चाभीद्धा-तपसोऽध्यजायतः। ततो राज्य जायत ततः समुद्रोऽणवः ॥१॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रादर्णवा दधि सम्बत्सरो अजायत । महो रात्राणि विदधद्विस्वस्य मिषनोजशी ॥२॥ सूर्याचन्द्रपौधाता यथा पूर्वमकल्पयन् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्ष मथोस्वः ।। ३ ॥ प्रचलित "अर्थ-तपे हुए ( अथवा विशेष प्रकार के ) तप में ऋत और सत्य उत्पन्न हुए। उनके बाद रात्रि अथवा अन्ध. कार उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् पानी वाले समुद्र उत्पन्न हुए ॥११॥ समुद्र के बाद सम्बत्सर अर्थात् काल उत्पन्न हुश्रा उस काल ने सूर्य दिनव रात्रि ) को उत्पन्न किया तथा वह सबका स्वामी हुआ काल के चिह्न स्वरूप सूर्य और चन्द्रमा को तथा पृथिरी और अंतरिक्ष (स्वग) को विधाता ने पूर्व की तरह बनाया ॥३॥” ___ उमेशचन्द्र विद्यारल ने इसी सूक्त पर वेद भाष्यकार पं. हलायुध का भाष्य यहां उद्धृन किया है । वह भी पठनीय है इसलिए हम उसको यहां लिखते हैं । "अव हलायुय मतम्-अस्य अघमर्षणस्य व्याख्यान माचारितु हतको जायते । यतः सर्ववेदसार भूताऽत्यन्त गुप्तश्चार्य मंत्रः । अस्प यद् पाठय त्राच अर्थबोधस्तत्रसौगम्यं नास्ति । ब्राह्मण निस्कादिकं च नास्न्येव । इत्थं एतदीय व्याख्यानानुगुणं कपि उपायं अप्राप्य यदेतस्य म्वरूपोष लभ मात्रेण व्याख्यान माचरणीयम् तदतीव माहसम् ।" अर्थात् इस अघमर्षण सूनका व्याख्यान करतेहुए हृदय प्रकंपित होता है क्योंकि यह सूत सम्पूण वेद का सार भूत अत्यन्त गुप्त है ।पाठमात्र आदि से इसका अर्थ करना सुलभ नहीं है । इसका Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९१ ) न ब्रमण है और न निरुक्त है, इसलिये व्याख्या करने का कोई सहारा नहीं है। अतः व्याकरण आदि से इसका अर्थ करना केवल साहसमात्र हो है. फिरभी जैसा समझ में आया है लिखताहूँ ___ आगे अपने यहो सृषि और प्रलग परक भाय्य किया है। पं० उमेशचन्द्र विद्यारन्त को सम्मति में यहां ऋत. सत्य, रात्रि, समुद्र, सम्वत्सर. सूर्य, चन्द्र, दिन. अंतरिक्ष श्रादि सब प्रांसवाचो शब्द हैं । ये सब जनपद थे तथा धाना यह प्रजापति सूपवेशियों का पुरोहित था तथा चन्द्रवंशियों का भो। इसो वाताने चन्द्रमा और सूयको पुनः राजगहों पर बिठाया, यही इस सूक के सासरे मंत्रमें कहा है। पूर्याचन्द्रप्रमो धाता यथा पूर्वमकल्पयत् ॥ * अभिप्राय यह है कि जितने विद्वान है उतने ही अर्थ हैं । परन्तु वास्तष सब अंधेर में ही निशाना लगा रहे हैं। हम भी इसी पहेलोका सुनमानेका प्रयत्न करते हैं श्राशा है विश पाठक इस पर विचार करेंगे। हमारी समझमें यहां प्राणविश का कथन है। ऋत, और सत् कारण कार्यरूप दो प्राण हैं। श्री शंकराचायने एतरेयोपनिषद भाध्यमें लिखा है कि-- ऋतं सत्यं मृर्तामुर्ताख्यम् प्राणः । २ । ३ । १८ अर्थात्-ऋत और सत्य मूत अमूते प्राण है। तथा वैदिक कोषमें भी (सत्यं वै प्राणाः) लिखा है अतः यहां ऋत और सत्य 4 धाता और विधाता, ऊषा और रात्रिके नाम हैं | यह हम सप्रमाण पृ०२६४ 'पर लिख चुके हैं, 'पटक यहीं देखनेकी कृपा करें । इस प्राधार से इस मंत्र का यह अर्थ हुअा कि रात्री ने चन्द्रमा को उत्पन्न किंवा श्रीः ऊपा ने सूर्य को | यह अर्थ युक्ति युक्त और वैदिक प्रक्रिया के अनुकत्ल है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंहर प्राणवाची शब्द हैं। इसी प्रकार समुद्र अव अह रात्रि, संवत्सर भो प्राणवाचक शब्द है । अह प्राका नाम है और रात्रि अपानका नाम है। समुद्र मनको कहते हैं। ओर बाक् (बारी) को संवत्सर कहते हैं। इस प्रकार यहां प्राणका कथन है न तो यहां प्रलयका कथन है और न सृष्टि उत्पत्तिका अतः इन मन्त्रोंका अर्थ हुआ। भाव और द्रव्य क्रिया (योग) सत और सत्य सूक्ष्म और स्थूल प्राण उत्पन्न होते हैं। उनसे रात्रि, तम, अज्ञान उत्पन्न होता है | उन्हीं प्राणोंसे समुद्र मन बाकू सूरुष वाणी उत्पन्न होती हैं, समुद्रात् उस सूक्ष्म वाणी से (क) स्थूल बाकू उत्पन्न होती है। और उससे स्थूल इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं। प्राण और अपानको इस (विश्वस्य) शरीरस्य । शरीर के स्वामीने धारण किया उसे धाता (आत्मा ने) सूर्य और चन्द्रमाको मन और वारणी आदिको (भाव प्राणों स े द्रव्य प्राणोंको) यथा पूर्वमकल्पयत् यथावत् बनाया तथा ( दियंच, पृथ्वी) अन्तरिक्ष, पैर, उदर, मस्तक यादि स्थूल शरीरको भी रखा । A 1 1 अभिप्राय यह है कि यह आत्मा जिस प्रकार मकड़ी अपने जालेको बनाती है उसी प्रकार अपने शरीरकी रचना भी स्वयं करती है। यह किस प्रकार होता है यही यहां बताया गया है। यही वेदोंका सार है जो इसको नहीं जानता, वह किस प्रकार ऐस े अत्यन्त गुप्त मन्त्रोंका अर्थ कर सकता है । ww.wl ܤܢ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) वेद और जगत ; १ - - त्रिनामि चक्रमजरमन वर्णम् ॥ १ ॥ २- - द्वादशारं नहि तज्जराय || १ || ३ - सनादेव न शीर्यते सनामि ॥ १३॥ ऋ००१ मूक १६४ ४--पश्य देवस्य काव्यं यो न मचार न जीर्यति ।" ५---धुवाद्यौ वा पृथ्वी ध्रुवास पर्वता इमे विश्वविद जगत् ।। ४ ।। ऋ० मं० १० मुक्त १७३ १ ) त्रिनाभि, तीन ऋतुओं वाला यह संवत्सर, अंजर अमर है । (२) इस सूर्य को १२ आरे रूपी सम्वत्सर, वृद्ध नहीं कर सकता । (३) ये सूर्य आदि लोक, मूल सहित कभी नष्ट नहीं होते । (४) उस देव की रचना को देखो जो न नष्ट होती है, न जी । (५ यह पृथ्वी, द्युलोक, अन्तरिक्ष, और यह सत्र जगत मिथ्य है। इसप्रकार वेद जगतकी नित्यता को बताकर आगे कहते हैं कि(१) को ददर्श प्रथमं जायमानम् ।। ऋ० १११६४|४ (२) कतरा पूर्वा कतरा परायाः कथा जाते कत्रयों को बिवेद । ० २११८५ १ , (३) को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाताकुत इयं विसृष्टिः । अङ्ग देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ वभूव ॥ ६ ॥ . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९४ (४) इयं विसृष्टि यत भावभूव, यदि वा दघे यदि वा न । योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन् , सो अंग वेद यदि था नवेद (१०१०११२६७) अर्धान्-( १ ) प्रथम जन्म ते हुए जगत को किसने देखा है अर्थात किसी ने नहीं देखा। ३) इन सूर्य, चन्द, नक्षत्र, पृथ्वी प्रादि में से प्रथम कौन उत्पन्न हुआ, तथा यह संसार किसने और क्यों बनाया इस बात को कौन तत्वदर्शी जानता है । अर्थात् कोई नहीं जानता। (३) यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ इसको निश्चयसे न किसीने जाना है तथा न किसीने कहा है। यदि बाप कहें कि देवता जानते होग तो वे भी सृष्टिके पश्चान बननेसे कैसे जान मकते हैं। (५) यह सृष्टि जिससे उत्पन्न हुई है, और जिसने धारण कर रक्षी है. यदि कहो कि यह उन उपरोक्त बातों को जानता है, तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि वह प्रजापति भी इन बातों को नहीं जानता है। क्योंकि प्रजापति स्वयं कहता है किन विजानामि यसरा परस्तात् । अये. कां.१७४३ इनमेंसे प्रथम कौन पदार्थ उत्पन्न हुआ यह मैं नहीं जानता। इसी प्रकार अन्य शास्त्रों में भी जगतकी नित्यता का कथन है। ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । क० उ० २ । ३।१ इस अति का भाष्य करते हुये श्रीशङ्कराचार्य जी ने लिखा हैएष संसार होऽश्वत्थोऽश्वत्यवत कामकर्मत्रानम्ति नित्य Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचलित स्वभाव स्वर्ग नरक तिर्यकत्रेतादिभिः शास्वाभिः आवाक्शाखः सनातनोनादिस्वाचिरप्रवृत्तः । यह संसाररूपी वृक्षप्रश्वत्थ है, अर्थात् अश्वत्थ वृक्षक समान कामना और कर्म रूप वायुसे प्रेरित, नित्य, चंचल स्वभाव वाला है । स्वर्ग, मरक, तिर्यक, प्रेतादि शाखाओंके कारण ग्रह नीचे की ओर फैली हुई शाखा बाला है तथा सनातन यानि अनादि होने के कारण चिरकाल से चला आ रहा है। ऊध्वंमूल मधः शान र प्राण्ययम् ॥ नरूप मस्येह तथोप लभ्यते नान्सो न चादिने च सं प्रतिष्ठा । __ श्री शङ्कराचार्य जी ने यहाँ लिखा है कि तं क्षण प्रध्वं सिनम् , अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्य. यम् ।। १॥ तथा न च श्रादिः इत पारम्प, इदं प्रवृत्तः इति न केनचिद् गम्यते । न च संप्रतिष्ठा स्थितिः मध्यम् अस्य न केनचिद् उपलभ्यते । __अर्थात-इसज्ञण भंगुर अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय ( नित्य ) कहते हैं । (यह पर्याय की अपेक्षा से क्षण भंगुर है, सथा द्रव्य की अपेक्षा नित्य ) यह संसार अनादिकाल से चला आ रहा है इसलिये ग्रह अव्ययह ॥१॥ इसका श्रादि भी नहीं है, अर्थात याहां से प्रारम्भ होकर यह संसार चला है, ऐसा किसी से नहीं जाना जा सकता । इस प्रकार इसका.अन्त भी कोई नहीं जनता कि इसका कत्र अन्त होगा यही अवस्था इसके मम्पकी है। क्योंकि अनादि पदार्थ का आदि अन्त नहीं होता है । इस प्रकार अन्ति स्मृति में जगत को नित्य माना है। इसी प्रकार अन्य अनक स्थल Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं जिनमें जगत की उत्पत्ति का स्पष्ट शद्रों में बाप्रबल युक्तियों से खंडन किया है। यथा-- ध्रुवा एवं बः पितरी युगे युगे नेम का मासा सद सो न . .गुज्यने । ००१०१४१२ . . - अर्थ---तुम्हारे पूर्वज पर्वन युगयुगास्तरोंसे स्थिर है, पूर्णाभि- : लावं हैं, और किसी भी कारण से अपना स्थान नहीं छोड़ने । वे अज्ञः अमर है और हरे वृक्षों में युक्त है। . इस प्रकार जब वेदोंसे इस जगतका नित्यत्व सिद्ध हो गया तो उनके ऋर्ताका प्रश्न हो शेष नहीं रहना । मीमांसा और ईश्वर यदा समिदं नासीन कास्था. तत्र गम्यताम् । प्रजापतेः क वा स्थानं कि रूपं च प्रतीयताम् ।।४।। नाता च कस्तदा तर यो जनांन बोधयिष्यति । उपलब्धेरिना चतत् कथमध्यवमायताम् ।। ४६ ॥ . प्रवृतिः कथमायां च जगतः से प्रतीयते । शरीगदेविना चाध्यकथमिच्छापि सर्जने ॥४॥ शरीराद्यतस्यम्यातम्योत्पत्तिने तस्कृता । तद्धन्य प्रसंगोऽपि नित्यं यदित्तदिष्यते ॥४॥ प्राणिनां प्रायो दुःखाच सिमृक्षाऽस्य न युज्यते ॥४६॥ : अभावाचोनु कम्प्यानां नानु कम्पास्य जायते । सृजे शुभमेवेक मनुकम्पा प्रयोजितः ॥ ५२ ।। .. माधन. चारूप धागद तथा किचन त्रिवाते । चच निस्माधनः कर्मा ऋश्चिास जति किंच न ५० Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७ ) संहारेच्छापि नैतस्यभवेद प्रत्ययात्मनः। .. न च कश्चिदौं ज्ञातुं कहाचिक्षषि शक्यते ॥ ७ ॥ न च तद् बचने नवप्रतिपत्तिः सुनिश्मिता। अमुष्टायपिह्य गौ ब्रूयादात्मेश्वर्य प्रकाशनात् ।। ६० ॥ . . . . श्लोक वार्तिक १०३ . भावार्थ:-जगत के पूर्व जब कुछ भी नहीं था, तो वह, ईश्वर, किस जगह रहता था। यदि आप कहें वह निराकार है, उसे पृथ्वी आदिके आधारकी आवश्यकता नहीं, लो निराकारमें इच्छा और प्रयत्न किस प्रकार सिद्ध करोगे । क्यों कि सर्व व्यापक निराकारमें आकाशवा क्रिया होना असंभव है। इसी प्रकार इच्छा शरीरका धर्म है अशरीरीके इच्छा नहीं होती। अत: निराकार मानने पर सृष्टिकर्ता सिद्ध नहीं हो सकता, यदि साकार और संशरीरी मानो तो उसके लिए आधारकी श्रावश्यकता है, परन्तु प्रायमें श्राधार रूप पृथ्वी आदि का श्राप प्रभाव मानते हैं अतः यह प्रश्न होता है कि यह रहता रहा था। अच्छा यदि आपको प्रसन्न करने के लिये हम यह मान लें कि ईश्वरने जगको अनाया. आप यह बता (ज्ञाता च कस्तई नस्थ) कि उसको बनाते हुए किमने देखा ( "कोददर्श प्रथमं जायमान इस वेद वाक्यका यह अनुरंद है) जिबने आकर जनता से कहा कि ईश्वरने मंसार बनाया है. यदि कहो कि किसी ने नहीं देखा तो श्राप में यह अन्धविश्वास कैसे कर लिया, तथा च श्राप यह भी अताने की कृपाकरे कि अान्य क्रिया किंमप्रकार प्रारम्भ हुई और किस स्थानसे प्रारम्भ हुई। यदि किसी स्थान विशेषसें तो इस विशेषताका क्या कारण हैं यदि सर्वत्र एक साथः क्रिया प्रारम्भ हुई तो सृधिका क्रम न रहा । पुनः प्राप प्रकाशाद् वायु' आदि क्रम बताते हैं वह न रह सकेगा : और उस Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९८ ) शान्त परमेश्वरमें यह अशान्तिप्रद इच्छा ही क्यों उत्पन्न हुई । ___(कतरा पूर्व कतरा परायोः कथा जाता)यह इस बास्यका युक्तिपूर्वक अनुवाद है । तथा च सर्व व्यापक ईश्वरकी क्रियासे जगत मनास यपि जित र दुधक पत्थर लोहे के चारों ओर होनेसे लोहा क्रिया नहीं कर सकता, इसी प्रकार, परमासुओंके चारों ओर ईश्वरकी सत्ता होनेसे तथा सत्र ओर से क्रिया देनेसे परमाणु भी बहीं स्थित रहेगा । यदि कहो कि परमात्मा परमाशुओंके अन्दर भी व्यापक है इस लिये वह अन्तः क्रिया देवा है, तो भी परमाणुओं में किया न हो सकेगी, क्योंकि परमाणुओंके जो बाहर ईश्वर है वह अन्तः क्रियाका अवरोधक है। अतः सर्व व्यापक ईश्वर विश्वको नहीं रख सकता । यदि कहो कि ईश्वर सशरीरी एक देशी है तो उस शरीरका सृष्टा कौन है। यदि उसका भी कोई शरीरी कर्ता है तो उसके शरारका कर्ता कौन है। इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा। तथा च--कोई भला आदमी किसीको दुःख देना नहीं चाहता पुनः इस दुःखमय जगतको रच कर अनन्त जीयोंको दुःख सागर में डाल दिया उससे उसको क्या लाभ हुआ । यदि यह इस दुःखमय जगत को न बनाता तो उसका क्या बिगड़ता यदि कहो उसका स्वभाव है तो वह अपने स्वभाव को सुधार क्यों नहीं लेता। यदि कहो कि यह ईश्वरकी क्या है तो प्रश्न यह होता है कि यह दया किस पर. दया तो दयनीय पर होती है, परन्तु प्रलयमें तो कोई दयनीय नहीं था सबके सब सुखी थे, क्या सुखी जीवोंको दुःखमें डालनेका नाम अनुकम्पा है। और यदि दया दिम्बलाना ही उद्देश्य था तो सुखमय संसारकी रचना करनी थी क्या ऐसा करना उसकी शक्ति के बाहर था । यदि कहो कि सुख दुख कर्मानुमार जीव भोगता है तो ईश्वर बीच में क्यों श्रा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) I धमका। क्या उसका अपना कोई स्त्रार्थ था । यदि कहो कि उसका स्वार्थ तो कुछ भी नहीं था, तो बिना प्रयोजनके वह इतना बड़ा क्यों करता है। मूर्ख स े मूर्ख भी बिना प्रयोजनके किसी काममें प्रवृत्त नहीं होता है। यदि कहो कि यह उसकी को अ लीला है, तो इस लीला अथवा खेलसरे संसार तंग आ चुका है। अब वह कब तक बालक बना रहेगा । और कब तक एसी ही कौड़ा करता रहेगा। अच्छा आप विश्व रचनाके बारे में कुछ उत्तर नहीं दे सकते तो यही बता दो कि वह प्रलय क्यों करता है । क्या । वह काम करता करता थक जाता है अतः तक आराम करने लगता है, अथवा उसके साधन खराब हो जाते हैं उनको ठीक करने लगता है । यदि कहो कि यह भी उसकी दयाका फल है । तो आपको दया के पारिभाषिक कुछ अन्य अर्थ करने पड़ेगे । क्यों कि अब तो दयाका अर्थ संरक्षण हो समझा जाता है. संसार नहीं । तथा च--बनाना और बिगाड़ना दो परस्पर विरुद्ध बातें हैं दोनोंका एक दया प्रयोजन नहीं हो सकता श्रतः ईश्वर जगतका सहार क्यों करता है इसका आज तक कोई विद्वान उत्तर नहीं दे सका है। यदि कहो कि जगत बनाने में मेद प्रमाण हैं तो यह कहो कि वे कथित पदार्थोका वेदके साथ संबन्ध है या नहीं। यदि कहो कि सम्बन्ध नहीं है तब तो वेद असत्य भाषण दोषी हैं। यदि कहो कि हैं, तो वेदोंके नित्य होनेसे उन २ पदार्थोंकी नित्यता स्वयं सिद्ध हो गई. अतः जगत रचनाकी कल्पना युक्ति और प्रमाण से खंडित होनेके कारण मिथ्या है। तथा च वेद बनाने वाले ने अपनी प्रशंसा प्रगट करनेके लिये उन वाक्योंको नहीं लिखा इसमें क्या प्रमाण है । तथा च मीमांसा दर्शनके भाष्यकार श्रीमत्पार्थं सारथि मिश्र, अ ५ पाद. १ अधिकरण ५ की व्याख्या करते हुये लिखते हैं कि - Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०० ) , "नच सांदीनां, कश्चित् कालोऽस्ति सर्वदा ईदृशमेवजगदिति दृष्टानुसारादेवगन्तुमुचितम् । न तु सकालोऽभूत यदा सर्वमिदनासादिति, प्रमाणाभावत् ।" . . अर्थः इस विश्व उत्पत्तिका कोई, एक समय नहीं है. कोई ऐसा समय था कि जब यह सथं कुछ नहीं था। क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है । श्रागे इस विज्ञान में जगत का खंडनमें अनेक प्रमाण दिये हैं। . . ईश्वर उत्पन्न हुआ. : अथर्व वेद में लिखा है कि मालोजार तमाचा (१ ) अर्थ-वह परमात्मा दिनसे उत्पन्न हुआ और दिन परमात्मा से उत्पन्न हुआ। सवै राज्या अजायत, तस्माद्ः रात्रिरजायत ॥ २ ॥ अर्थ--परमात्मा रात्रि से उत्पन्न हुया और रात्रि परमात्मा . से उत्पन्न हुई। . . . .. सबा अन्तरिक्षादजायत, तस्मादन्तरिक्षमजायत । ३॥.. अर्थ-वह परमात्मा अन्तरिक्ष से उत्पन्न हुआ और अन्तरिक्ष परमात्मा में उत्पन्न हुआ। .. ... , म वायोरजायत तस्माद् वायुर जायत ॥४॥ . अर्थ-वह ईश्वर वायु में उत्पन्न हुश्रा और वायु उसमे उत्पन्न हुश्रा । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०१ ) सबै दिवोऽजाया जाय ॥ ५ ॥ अर्थ- वह परमात्मा वर्गसे उत्पन्न हुआ और स्वर्गं परमात्मा से उत्पन्न हुआ। स वै दिग्भ्योऽजायत, तस्माद् दिशोजायन्त ॥ ६॥ अर्थ- वह परमात्मा दिशा से उत्पन्न हुआ और दिशाए परमात्मा से उत्पन्न हुई। सवै भूमे रजायत, तस्माद् भूमि रजायत । ७ ॥ अर्थ वह ईश्वर पृथ्वी से उत्पन्न हुआ और पृथ्वी परमात्मा से उत्पन्न हुई । सवा अग्ने रजायत, तस्मादग्निरजायत ॥ ८ ॥ अर्थ- वह परमात्मा श्रमि से उत्पन्न हुआ, और अभि परमामा से उत्पन्न हुई। स वा अद्द्भ्योऽजायत, तस्मादापोऽजायन्ते ॥ ६ ॥ अर्थ- वह परमात्मा पानीसे उत्पन्न हुआ और पानी परमात्म से उत्पन्न हुआ । : उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध है, कि वैदिक वाङ्गमय में जो प्रकरण जगत रचना परक प्रतीत होते हैं। वे वास्तव में सृष्टि रचना के विधायक नहीं हैं, अपितु वे अर्थ बाद मात्र हैं। जिसका वन विस्तार पूर्वक आगे किया जायगा । यदि ऐसा न मानें तो अथर्ववेद के कथनानुसार परमेश्वरकी भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी। तथाच अनेक स्थानों पर इस शरीर रचना का वन आलंकारिक ढंग से किया है, । जससे सृष्टि रचनाका भ्रम सा हो जाता है । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०२ ) सारांश सागेश यह है कि वर्तमान ईश्वर की कल्पना न वैदिक है और fares ही है। समाहित्य में जो भी वन प्राप्त होता है वह सब आलंकारिक वशन है, उससे न तो ईश्वर का कर्तृत्व सिद्ध होता है तथा न सृष्टे उत्पत्ति का ही। हम इस विषय में कुछ वैदिक उदाहरण उपस्थित करते हैं। अथर्ववेद के कां०] १९ में एक ब्रह्मचर्य सूक्त है, उसमें लिखा कि- ह्मचारिण पितरोदेवजनाः पृथक् देवा अनुवन्ति सर्वे । गन्धव एनमन्वायन त्रयस्त्रिंशत् त्रिशतः पट् सहस्राः । अथ० १११५ इयं समित् पृथिवीयद्वितीयो चान्तरिक्षं समिधा प्रखाति|४| वायस्तता ममसी उभे इमे ॥ ८ ॥ अर्थात् पितर देव, गन्धर्व आदि सब ब्रह्मधारी के अनुकूल रहते हैं। तथा ६३३३ वेब इस ब्रह्मचारी के पीछे पीछे फिरते हैं। आदि इसकी यह 'थी पहली समिधा (हवन करने की लकड़ी ) है तथा दूसरी समिधा है और अन्तरिक्ष तीसरी समिधा है । आचार्य ने पृथिवी और अन्तरिक्ष लोक को बनाया है । इत्यादि मन्त्र सब अर्थवाद मात्र है। क्योंकि न तो सम्पूर्ण देव हो यारी के पीछे पीछे अवारा गरों की तरह घूमने फिरने हैं और नहीं आचार्य ने पृथिवी आदि लोकों का निर्माण किया है। तथा न प्रथिवी की समिधायें बनाई जाती हैं। इस मन्त्र J 4 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रयोजन केवल प्रभारी को और भाचार्य की प्रशंसा करना ही है। आः यह अक्षवार है। अनजानदाधार विकीसुद्याम् । अथ का४५०१११ अर्थात का खाधने याद ये रे धिनी गाय अन्तरिक्ष आदि लोकों को धारण किया । अयं समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. राजाराम ओ ने लिखा कि “यह सूक्त अनवान (छकड़े को खींचने वाले की) खुति में है।" अथर्ववेद का०, ४ सू. २० में औषधि की स्तुति है। विस्रो दिवस्तिस्त्रः पृथिवीः षट् चेमादिशः पयक् । त्वया सर्वाभूतानि पश्यानि देश्याषधे ॥ २॥ अर्थात हे श्रोषधे. र प्रताप से मैं सम्पूर्ण लोका तथा संपूर्ण दिशाओं में देखू । यहां ओषधिका इतना प्रताप बताया गया है। इसी प्रकार अन्य स्थानों में भी उन उन पदाथों को स्तुति मात्र है। मामांसकों को परिभाषा में इसरे को अथवाद कहा है। नोट- आर्य विद्वानोंने मन्त्र के भावार्थमें लिखा है कि"पृथिवी आदि बनानेका भावार्थ है कि प्राचायले उपदेश द्वारा इनका प्रकाश किया।" यदि बनाने (उत्पन्न करने का यही अभिप्राय है तो पुरुष सूक्त हिरण्यगर्भ व स्कंभ आदि सूक्तों का भी यही भावार्थ मानकर यहाँ भी उपदेश द्वारा प्रकाश अर्थ करना चाहिये । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ( ४०४ ) लोकमान्य तिलक और जगत लोकमान्य तिलक महोदय स्वयं लिखते हैं कि एक और प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्योंकी इन्द्रियोंको देखने वाला यह सगुण दृश्य निर्गुण परश्रझमें पहले पहल किस क्रमसे कम और क्यों दीखने लगा। अथवा यही अर्थ व्यावहारिक भाषा में यूँ कहा जा सकता है कि नित्य और विदरूपी परमेश्वर ने नाम रूपात्मक विनाशी और जड़ सृष्टि कब और क्यों उत्पन्नकी ? परन्तु ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जैसा कि वर्णन किया गया है यह विषय मनुष्य के लिये ही नहीं अपितु देवताओंके लिये भी अगम्य है।" गीता रहस्य, कर्म विपाक और आत्म स्वातंत्र्य, अधिकार | ० २६३ | सत्यव्रत सामश्रमी आप निरुक्तलोचन में लिखते हैं कि - वस्तुतो वैदिक सृष्टि विवरणानि तुप्रायो रूपकाएयेवेति । तदेवः आदि सृष्टिकाल निर्णयो न कदापि भूतो भवतिभविष्यति वेति सिद्धान्तः । तव श्रूयते ध्रुवाय धुवापृथिवी ध्रुवासः पथैताइमे । ध्रुवं विश्वमिदं जगत् ध्रुवोराजा विशामयम् ऋ० १० । ११३ कोददर्श प्रथमं जायमानम् ॥ ऋ० ११६४।४ सिद्धाद्यौ सिद्धा पृथिवी सिद्धूमाकाशम् || पा० भा० ११११ इत्यादयश्च सिद्ध शब्दस्य चेदनित्यार्थं ता यथा अह पस्पशायां भगवान् स्तंजलिः नित्यपर्यायवाचकः मिद्धशब्दः । हति" www अर्थ- वास्तव में मृष्टिविषयक जो वेदों में वर्णन है वह सब रूपक में कहा गया है। अतः सृष्टि कब आरम्भ हुई इसका निर्णय Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कभी हुआ और न कभी होगा यह निश्चित सिद्धान्त है। तथा वेंदोंमें ही सृष्टि उत्पत्ति आदिका विरोध पाया जाता है, यथा 'ध्र वाग्यौ यह धुजाक पृथिवी लोक आदि सब नित्य हैं तथा च 'कोददर्श प्रथमं जायमानम्' इस जगतको उत्पन्न होते हुये किसने देखा है । तथा महाभाष्यमै भो सिद्धाद्यी' श्रादि कहकर पृथिवी आदि सत्र लोकोको नित्य माना है । तथा सिद्ध शब्दको नित्य का पर्यायवाची कहा है। . . श्री पांडेय रामावतार शर्मा "पृथिवी स्वर्ग और नरक के उपर्युक्त विचारोंके रहते भी संहितामें सृष्टि परक स्पष्ट विवरण नहीं मिलते। इस सम्बन्धके जो कुछ कथन रूपकोंमें कथित हैं, उनके शाब्दिक अर्थों से निश्चित अभिप्राय आज निकालना कठिन है । मन्त्रोंमें पिता माताके द्वारा सृजनके सदृश्य उल्लेख हैं। और जिन देवताओंसे विश्वका धारण किया जाना अर्णित है उनकी भी उत्पत्ति के संकेत दिये गये हैं। पुरुष. हिरवगर्भ, प्रजापति, उत्तानपाद मादि सूकोंमें जो बिखरी राये हैं उनमें सृष्टि विषयक अस्फुट बातें हैं । जिनको आधार बना कर ब्राह्मणकालमें प्रथिवीके बनने के सम्बन्ध में बराह, कच्छप, आदिके आख्यान उपन्यस्त किये गये।" (भारतीय ईश्वरवाद) श्री स्वा० विवेकानन्द जी "यह संसार किसी विशेष दिनको नहीं रचा गया। एक ईश्वर ने श्राकर इस जगतकी सृष्टि की, इसके बाद वह सो रहे यह कभी नहीं हो सकता।" पृ० "तथा च हम देख चुके हैं कि इम सृष्टिको बनाने वाला व्यक्तिगत ईश्वर सिद्ध नहीं किया जा सकता है। आज कोई बच्चा भी क्या ऐसे ईयरमें विश्वाल करेगा ? एक कुम्हार घड़ा बनाता है. इसलिये परमेश्वर भी यह संसार Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) बनाता है यदि ऐसा है तो कुम्हार भी परमेश्वर है। और यदि कोई कहे कि ईश्वर बिना सिर पैर और हाथोंके रचना करता है तो उसे तुम बेशक पागलखाने ले जा मकते हो। पृ० ६२ ( आप के भारत में दिये गये पाँच व्याख्यान ) श्री शंकराचार्य और जगत् भारत के महानाचार्य श्री शंकराचार्य जी ने उपनिषद भाष्य में लिखा है कि "यदि हि संवादः परमार्थ एवाभूत् एक रूप एवं संवादः सर्वं शाखास्व श्रोष्यत विरुद्धानेक प्रकरण नाश्रोष्यत । श्रूयते तु तस्मान्न तदर्ध्य संवादः तीनाम । तथोत्पत्ति शनि प्रत्येतानि कल्पसर्गभेदात्संवाद श्रुनीनामुत्पत्ति श्रुतिनांच प्रतिसर्गमन्यथात्वमिति चेत् १ न निष्प्रयोजन बाबू यथोक्त बुद्धयवतार प्रयोजन व्यतिरेकेण नान्य प्रयोजनत्वं संवादोत्पत्ति श्रुतीनां शक्यं कल्पयितुम् । तथान्यप्रतिपत्तये ध्यानार्थमिति चेन, कलहोत्पत्ति प्रलयानां प्रतिपचेरनिष्टम्वात् । तस्मादुच आदि श्रुनय श्रात्मैकत्व बुद्धचवतारायणि नान्यार्थाः कल्पयितुंयुक्ताः ।। " ( माण्डुक्य ० गौ० का ० १ ) अर्थ-शस्त्रों में देवासुर संग्राम तथा इन्द्रियोंका और प्राणों का परस्पर सम्बाद व कलह इसीप्रकार सृष्टि उत्पत्ति आदिका जो कथन है यह प्रत्येक वैदिक सुक्कोंमें और ब्राह्मणोंमें एवं उपनिषद् आदिमें परस्पर इतना विरुद्ध है कि उसकी संगति किसी प्रकार भी नहीं लग सकती । इसपर प्रतिवादीने शंका की कि क्या यह Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०७ ) उत्पति आदिकी कथन करने वाली शुसियां मिथ्या हैं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि यह सम्वाद अथवा उत्पत्ति आदि वास्तविक होते जो पूर्ण शास्त्रोंमें एक ही कारण वर्णन उपलब्ध होता. परस्पर विरुद्ध कथन कभी न प्राप्त होता । परन्तु परस्पर विरुद्ध लेख मिलता है अतः यह सिद्ध है कि इन श्रुतिका अभिप्राय यथा भुत अर्थ में नहीं है । इम प्रकार सृष्टि उत्पत्तिका कथन करने वाली श्रुतियों का प्रयोजन भी सृष्टि उत्पत्तिका कथन करना नहीं है इस पर यदि पुनः प्रश्न करता है कि यह विरोधी श्रुतियां पृथक सगको पृथक पृथक उत्पत्तिके प्रकारका कथन करती हैं। यदि ऐसा मानें तो ! sponden इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि यह फल्पना ठीक नहीं क्योंकि उन कल्पों के कथन का प्रयोजन नहीं है । अतः यह कल्पना निष्प्रयोजन है। अतः यह सिद्ध है कि इन प्रतियों का प्रयोजन एक मात्र आत्मा ववोध कराना है। प्रारंण संवाद और उत्पत्तिश्रुतियों का इससे भिन्न कोई उद्देश्य सिद्ध नहीं हो सकता शेष कल्पनायें निरत्वार और व्यर्थ हैं। यदि ध्यान के लिये उपरोक्त विरोधी श्रुतियां मानी जायें तो भी ठीक नहीं। क्योंकि कलह, उत्पत्ति आदिको आदर्श नहीं कहा जासकता । तथा न यह किसी को इष्ट ही है। अतः सृष्टि सि कथन करने वाली श्रुतियों का अभिप्राय सृष्टि की उत्पत्ति बताना नहीं है, अपितु उन कथानकों से आत्मभाव बोध कराना है। तथा च ऐतरेय उपनषि भाष्य में लिखते हैं कि f "अवास्मा ववोधपात्रस्य विवत्त्वात् सर्वोऽयमर्थवादः " अर्थात नष्ट उत्पत्ति को बनाने वाली श्रुतियों का अभियाच Prastध कराना है। यह re नार्थ मा Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.४% ) है। अर्थान आत्मा की स्तुति मात्र है । अभिप्राय यह है कि सृष्टि तो जैसी है वैसी ही है परन्तु इसकी उत्पत्ति और प्रलय का कथन वास्तविक नहीं है। उत्पत्तिका कथन करने वाली श्रुतियोंका केवल आत्मा की स्तुति करके आत्मज्ञान में अभिरुचि उत्पन्न करना प्रयोजन है। सृष्टि विषयमें अनेक वाद इच्छंति कृत्रिम सृष्टिवादिनः सर्वमेवमिति लोकम् । कृत्स्नं लोकं महेश्वरादयः सादि पर्यन्तम् ॥ ४२ ॥ . - व्याख्या-सृष्टि के बाद वाले सर्व लोक को ( सम्पूर्ण जगत् को) कृत्रिम (रचा हुआ ) मानते हैं, उनमें से महेश्वरादि से सृष्टि की उत्पति मानने वाले सृष्टिवादी हैं, वे सम्पूर्ण लोकको श्रादि और अंत वाला मानते हैं। मानीश्वरज केचित् केचित्सोमामि संभव लोकम् । . द्रव्यादिषड्विकल्पं जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ ४३ ॥ श्याख्या-मानी ईश्वर (अहंकारी ईश्वर ) मैं ईश्वर हूं ऐसे ईश्वर से लोक उत्पन्न हुआ है, ऐसा कितनेक मानते हैं कितनेक सोम और अग्नि से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं, और कितनेक इस जगत् को द्रव्यादि षट् विकल्प रूप मानते हैं सोई दिखाते हैं। द्रव्यगुणकर्म सामान्ययुक्तविशेष कणाशिनस्तत्वम् । . वैशेषिकमेनावत् जगदप्येतावदेताच ॥४४॥ व्याख्या-पृथिव्यादि नत्र प्रकार का द्रव्य, शब्दादि चौबीस गुण उत्क्षेपादि पांच प्रकार क्रम, सामान्य द्वि प्रकार संमवाय एक, और विशेष अनन्त, यह षट पदार्थ कणाद मुनि का तत्व है, वेशेषिक मत भी इतना ही है और जगत् भी इतना ही है । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबकम्मो नाम । एतरूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असुजत यत्सुजता कगेन् नादकगेभाणाकृष्यः कणो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति-श-का-७ अ० ५ ब्रा०-१ -५ ___भावार्थः-( स यकूर्मो नाम ) जो कूर्म नाम से वेदों में प्रसिद्ध है सो (एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः) एतन् अर्थात् कूम्म रूप को धारण करके प्रजापति परमश्वर । प्रज असृजन । प्रजा को उत्पन्न करत हुए । ताद करोत् ) वे प्रज़ पति, जिसमे सम्पूण जगत् को उत्पन्न करते भये (तस्मात्कूमः ) तिमी से कूम्म कहे गये हैं (कश्यपो वै कूर्मः) -निश्चय करके वही दूम कश्यप नाम से कहे गये हैं (तस्मान् ) तिसी से (आहुः) सम्पूर्ण ऋषि लोक कहते हैं कि (सर्वाः प्रजाः काश्यप्यइति) सम्भूण प्रजा कश्यप की हा है। तथा कितनेछ कहते हैं कि, यह सर्व जगत् मनु का रचा है 'तथाहि शतपथ ब्राह्मणे मनवे ह वै प्रातः अबनेग्यमुदकमाजहूर्य थेदं पाणिस्यापवने जनाया हन्ति एवं तस्या बने निजानस्य मत्स्यः पाणी आपेदे ॥१॥ भावार्थ-मनु जी के प्रति प्रातःकाल में भृत्यगण ( नोकर ) हस्त धोने को और तपरण के लि", जल का आहरण करते भये, तब मनुजीने जैसे इतर लोक वैदिककर्म निष्ठ पुरुष इम अवनेग्य जलको तपंण करने के लिये अपने दोनों हाथों करक ग्रहण कर है. इसी प्रकार तर्पण करते हुए मनुजीके हाथमें मछल का बच्चा भास्य अकस्मात् भागया, तब उसको देख कर मनु मी सोचने Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१० ) लगे. ताघदेव मनुजी के प्रति मत्स्य कहने लगा कि, हे मनु तू मेरा पालन कर, और हे मनु! मैं तेरा पालन करूँगा, तब उस मत्स्य की मनुष्य वाणी सुन श्राश्चर्य मान कर मनु जी बोले कि तू काहे से मेरी पालना करंगा, क्योंकि तू सो महा तुच्छ जीव है, तब मत्स्य ने कहा कि हे राजन् ! तू मुझे छोटा सा मत समझ, यह सम्पूर्ण प्रजा जो कुछ तेरे देखने में आती है, सो यह सब बड़े भारी जलों के समूह में डूब जायगी, कुछ भी न रहेगी, सो मैं तिस महा प्रलय कालके जाल समूहसे तेरा पालन करूंगा, अर्थात् उस प्रलय काल के जल में मैं तुझ को नही डूबने दूंगा। तब मनु जी बोले कि, हे मत्स्य तेरा पालन किस प्रकारसे होगा, सो भी कृपा करके आप ही बताइये । ___ तब मत्स्य ने कहा कि, जब तक हम लोग छोटे रहते हैं तब तक बहुत से पापी प्रजा धीवरादि हमारे मारने वाले होते हैं, और बड़े र मस्य और बड़ी २ मछलियां छोटे २ मत्य और छोटा र मछलियां को निगल जावे हैं, इससे प्रथम समय तो मेरे को अपने कमंडलु में रखलीजिये, तब मनु जी ने उस मत्स्य को कमंडलु में जल भर कर रख लिया. सो मत्स्य जब उस कमंडलु से भी अधिक बढ़ गया, तदनन्तर मनुने पूछा कि, अब अापका मैं कैसे पालन करू? सब मत्स्य ने कहा कि हे राजन् ! एक बड़ा गर्ता वा तालाब वा नदी खुदाकर उसमें 'मुझको पालन कर, सो मत्स्य जब नदी से भी अधिक बढ़ गया तक फिर मनु जी ने पूछा कि, अब मैं तुम्हारा कैसे पालन करू ? तब मत्स्य ने कहा कि, हे राजन् ! अब मुझको समुद्र में छोड़ दीजिये, तब मैं नाश रहित हो जाऊंगा। यह सुन कर मनुजी ने इस नदी को खुदा का समुद्र में मिला दिया. तब वह मत्स्य समुद्र में चला गया। । सो मत्स्य समुद्र में जाते ही शीघ्र ही बड़ा भारी मत्स्य हो Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, और सो फेर उससे भी बहुत बड़ा क्षरण २ में बढ़ने लगा। तदनन्तर यो मत्स्य राजा मनु से जिस वर्षको जिस तिधिको वो जलोंका समूह भाने वाला था. बतला कर कहता हुआ कि. जब यह समय आवे तब हे राजन ? तुम एक उत्तम नाव बनवा कर, और उस नावमें सवार होकर, मेरो उपासना करना; अर्थात् मेर । स्मरण करना । जब सो जलोंका समूह अवेगा तब मैं तेरा नौकाके पास हो आजाऊंगा, मार सचिन देगा मालामगा! ___ मनु जी तदुक्त क्रमसे उस मस्यको धारण पोषण कर समुद्र में पहुंचाते भये, सो मनु जिस तिथी और जिस संवमें नाव धनवा कर उस मत्स्य रूप भगवानको उपासना करते भये । तद्नंतर सो मनु, उन जलोंके समूहको उठा देख कर नावमें प्रारूढ़ हो जाते मये, तब वह मत्स्य सिंस मनु जीके समीप आकर ऊपर को ही उछले, तब मनु जीने उन मत्स्य भगवानको पछलते हुय देखा, तब मनु जी तिस मत्स्यके अंगमें अपनी नौकाका रस्सा डाल देते भये, तिस करके वह मत्स्य नौकाको खींचते हुये उत्तर गिरी (हिमालय) नामक पर्वतके पास शीघ्र ही पहुंचा देते भये। पर्वतके नीचे नौका को पहुंचा कर मत्य कहते भये कि, हे राजन ? निश्चय करके मैं तेरे को प्रलय जल में डूबनेसे पालन करता भया हूं, अब तुम नौकाको इस वृक्ष के साथ बांध दीजिये, तुम इस पर्वत के शिखर पर जब तक जल रहे तब तक रहना, और इस रस्सेको मत खोलना, फिर जब कि यह जन पर्वतके नीचे जैसे २ उतरता जाये तैसे २ ही तुम भी पर्वतके नीने उतरते श्राना, ऐसे मनुजाके प्रति समझा कर मस्प जो जज़में समा गर और सो मनुजा भी मस्प जीके कथनामुक्त जमे - जल -- रता गया तैसे २ इस जलके अनुकूल ही पर्वतके नीचे २ उतान आये. सो भी यह केवल पर्वतके ऊपरसे एक मनु का ही जो नीचे Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ ) Į श्रवसर्पण अर्थात अवतरा हुआ, सो एक मनु ही बस सृष्टिमें से याकर बचे और सपा प्रजातसमूह में ही लयहोगई तब फिर मनु जाने के रचना पर्यालोचन करतान किया इसी से यह प्रजा मानवी नामसे अब तक प्रसिद्ध हैं । और कितनेक ऐसा मानते हैं कि यह तीनों लोक दक्ष प्रजापति ने करे है केचित्प्रातिखिधर गतिका हरिः शिवो ब्रह्मा । शंभुजं जगतः कर्ता विष्णुः क्रिया ब्रह्मा ॥ ४६ ॥ व्याख्या कितने कहते हैं कि एक ही परमेश्वर की मूर्तिकी तीन गतियां हैं हरि (विष्णु) १. शिवर, और अ२ तिनमें शिष तो जगत्‌का कारण रूप है, कर्त्ता विष्णु है और क्रिया मझा है वैष्णवं केचिदिच्छति केचित् कालकृतं जगत् । ईश्वर प्रेग्स के च केचिह्नविनिर्मितम् ॥ ४७ ॥ 4 | व्य रूपा - कितनेक मानते हैं कि यह जगत् विष्णुमय वा विष्णुका रचा हुआ है. और कितनेक कालकृत मानते हैं और कितने कहते हैं कि कि जो कुछ इस जगत् में हो रहा है, सो सर्व ईश्वर की प्रेरणा से ही हो रहा है और कितनेक कहते हैं. यह जगत् मह्मा ने उत्पन्न करा है I , श्रव्यक्तप्रभवं सर्व विश्वमिच्छन्ति काविताः । विज्ञप्ति मात्रं शून्यं च इति शाकरस्य निश्वयः । ४८॥ व्याख्या - अव्यक्त | (प्रधान प्रकृति) निम असे सर्व जग : उत्पन्न होता है ऐसे कपिल के सतके मानने वाले मानते हैं, और शाक्य मुनिके मन्तानाय विज्ञानात क्षणिक रूप जगत् मान और किन तिमी सर्व जगतको शून्य ही मान Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष प्रभवं केचिन् दैवात् केचित् स्वभावतः | अक्षाव चारित केचित् केचिदण्डोनचं महत् ।। ४६ || ध्याख्या-कितनेक, पुरुपसे जगत् उत्पन्न हुआ मानते हैं, अथवा पुरुष मय सर्वं जग। माना है घुरूप एवेदं सर्व मित्यादि वचनात्” और कितनेक देवसे और स्वभाव जगत् उत्पन्न हुमा मानते हैं और कितनेक अक्षर ब्रह्म के झरनेसे, अर्थात् मायावाव होनसे जगत् की उत्पत्ति मानते हैं कोई बहुस्यामिति वचनान्' और कितनेक अंडेसे जगतकी उत्पत्ति मानते हैं। यादृच्छिकमिदं सर्व केचिद्भुत विकारजम् । केचिच्चानेक रूपं तु बहुधा सं प्रधाविताः ॥ ५० ॥ ध्याख्या-किलनेक कहते हैं, कि यह लोक गहन्छ। अर्थात् स्वतो हा उत्पन्न हुआ है, और किसनेक कहते हैं कि यहजगत् भूतों के विकार से उत्पन्न हुअा है और कितनेक जगन् का अनेक रूप ही मानते हैं. एसे बहुत प्रकार विकल्प मृष्टिविषय में लोकों ने अज्ञानवश में कथन करे हैं। "वैष्णवास्ताहु" जले विष्णुः स्थले विष्णु राकाशे विष्णु मालिनि । विष्णु मालाकुले लोके नास्ति किं चिद वैष्णवम् ।।५१ व्याख्या-वैष्णव मतवाले कहते हैं कि-जल में भी विद्या है, स्थलमें भा.विष्या है औरश्राकाशमें भी जो कुछ है. सो विष्णु कीही माला-पंक्ति हैसर्व लोक विष्णु की हो माला-पक्ति करके याकुल अर्थात् भरा हुश्रा है। इस वास्ते इस जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जोकि विष्णु का रूप नहीं है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१४ ) "कालवादिनबाहु"-- . कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ६१ ।। व्याख्या- कालवादी कहते हैं कि-काल ही जीवों को उत्पन्न करता है, और काल ही प्रजाका संहार करता है, जीवोंके सूते हुए रक्षा करणरूप काल ही जागता है. इस वास्ते काल का उल्लंघन करना दुष्कर है। "ईश्वर काकाचाप्रकृतीनां यथा राजा रक्षार्थमिह चोयतः । सथा विश्वस्य विश्वात्मा स जागति महेश्वरः ॥६२॥ व्याख्या-ईश्वरको कारण मानने वाले कहते हैं कि जैसे प्रजाकी रक्षाके वास्ते राजा उद्यत है तसे ही सर्व जगतकी रक्षाके वास्ते विश्वात्मा ईश्वर जागता है । "ब्रह्मवादिनचाहु"--- आसिदिदं तमोभूतमप्रज्ञातम लक्षणम् । अप्रतर्थ्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ।। ६५ ।। व्याख्या-ब्रह्मवादी कहते हैं कि इवं यह जगत् तममें स्थित लीन था प्रलय कालमें सूक्ष्म रूप करके प्रकृतिमें लीन था. प्रकृति भी ब्रह्मात्म करके अव्यक्त थी अर्थान् अलग नहीं इस वास्ते ही अप्रज्ञात प्रत्यक्ष नहीं था. अलक्षणम् अनुमानका विषय भी नहीं था अप्रतय॑म् तयितुम शक्यम् , तर्क करने योग्य नहीं था, याचक म्थूल शरुनके अभावसे इस वास्ते ही अविझेय था अर्थापत्तिके भी Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४१५ । अगोचर था, इस वास्ते सर्व प्रोरस सुतकी तरें स्वकार्य करणेमें असमर्थ था। "सारख्याचाहुः"-- पंच विध महाभूतं नाना विध देहनाम संस्थानम् । अव्यक्त समुत्थानं जगदेतत् केचिदिच्छन्ति ।। ६८ ।। व्यख्या--सांख्य मत वाले कहते हैं कि---पाँच प्रकार के महाभूत, नाना प्रकारका देह, नाम, संस्थान (आकार ) ये सर्व अध्यक्त प्रधान से ही समुत्थान ( उत्पन्न होते हैं, अर्थात् जगदुस्पत्ति प्रधान से मानते हैं। "शाक्याबाहुः".--- विज्ञप्ति मात्रमेवैत दसमर्थाव भासनात् । यथा जैन करिष्येह कोशकीटादि दर्शनम् ॥ ७४ ॥ व्याख्या-बौद्धमती कहते हैं कि जो कुछ दीखता है, सं. सर्व विज्ञान मात्र है, क्योंकि जो दीखता है सो असमर्थ होके भासन होता है अर्थात् युक्ति प्रमाणों से अपने स्वरूपको धारने समर्थ नहीं है. हे जैन ! जैसे तू कहता है कि, मैं कोशकीटकादि का दर्शन करता हूं वा करूंगा, परन्तु यह जो तुझको दीखता है.. सो उापाधि करके भान होता है, न तु यथार्थ स्वरूप से । "पुरुष वादिनचाहु"-- पुरुष एवेद , सवं यद्भुतं यच्च भाव्यम् । उतामृत स्वस्येशानो यदन्मेनाति रोइति ॥ आदि व्याख्या---पुरुषवादी कहते हैं, किं-पुरुष, आत्मा, एवशब्द Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९६) धारण में है, सो कर्म और मवानादि के व्यच्छेदार्थ है यह सर्व प्रत्यक्ष वर्तमान सचेतनाचेतन वस्तु इदं वाक्यालंकार में, जो कुछ अतीतकाल में हुवा, और जो आगे होगा. मुक्ति और संसार सो सर्व पुरुष ही है, उत्तशब्द अपि शब्दार्थ और अपि शब्द समु विष हैं ! अमृतस्य - अमरण म ( मोक्ष ) का ईशानः प्रभु है । यदि यक्वेति व शब्द के लॉप होने से जो अनेन आहार करके अति रोहित-अतिशय करके बुद्धि को प्राप्त होता है । "अपरेप्याहु:"-- विद्यमानेषु शास्त्रेषु ध्रियमाणेषु वक्तृषु । आत्मानं ये न जानन्ति ते में आत्महता नराः ॥ १ ॥ व्याख्या - और भी लोग कहते हैं कि-- शास्त्रों के विद्यमान हुए और वक्ताओं के धारण करते हुए भी जो पुरुष अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं. वे पुरुष निश्चय करके आत्मघाती है। "देव मादिनश्वाहु" स्वच्छन्दतो न हि धनं न गुणो न विद्या । नाप्येव धर्मचरणं न सुखं न दुःखम् || रु सारथि वशेन कृतान्त यानम् । देवं यतो जयति तेन यथा व्रजामि ॥ १ ॥ - व्याख्या - देववादी ऐसे कहिए है-स्वच्छंद धन गुण, विद्या धर्माचरण, सुख और दुःखादि नहीं हैं । किन्तु फाल रूपी यान ऊपर चढ़ा देव, तिसके वश से जहाँ देय ले जाता है नहाँ मैं जाता हूं । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१७ ) "स्वभाव वादिनश्वाहु:" कः कण्टकानां प्रकरोतितीक्ष्णुं विचित्रितां वा मृगपक्षिणचि । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृचं न कामचारोस्तिकुतः प्रयत्नः ॥ १ ॥ व्याख्या - स्वभाववादी हैंकों को are करता है ? और मृग पक्षियों को विचित्र रंग विरंगादि स्वरूप कौन करता है ? अपितु कोई भी नहीं करता । स्वभावसे हो सर्व प्रवृत्त होते हैं, इसवास्ते अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं होता है, इस वास्ते पुरुष का प्रयत्न ठीक नहीं है । -- "अक्षर वादिनश्राहु:" अक्षरात् क्षरितः कालस्तस्माद्वयापक इष्यते । व्यापकादि प्रकृत्यन्तः सैव सृष्टिः प्रचयते ॥ १ ॥ for the "ग्रपरेयाहु:" अक्षरशिस्ततो वायुस्तस्माजस्ततो अलम् । जलात् प्रभूता पृथिवी भूतानामेव संभवः ॥ २ ॥ व्याख्या -अक्षर वादी कहते हैं— अक्षर से क्षर का काल उत्पन्न हुआ। तिस हेतु से काल को व्यापक माना है, व्यापकादि प्रकृति पर्यन्त को हा सृष्टि कहते हैं । दूसरे ऐसे कहते हैं -- प्रथम अक्षरांश तिसमें वायु उत्पन्न हुआ। तिसवायु में तेज (अग्नि) उत्पन्न हुआ, अग्नि से जल उत्पन्न और जल से पृथिवी उत्पन्न हुई, इन भूतों का ऐसे संभव हुआ है। "अंडवादिनथाहु:" नारायणः परो व्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् । अण्डस्यान्तस्त्वमी भेदाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥ १ ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४१८ ) व्याख्या--अंड बादी कहते हैं---नारायण भगवान परम अव्यक्त में व्यक्त अंडा उत्पन्न हुना, और तिस अंडे के अन्दर ग्रह अब जो आगे कहते हैं, सातद्वीप वाली पृथिवी, गमेदिक वर्षण. चात्मा जल. समुद जरायु, मनुष्यादि और पर्वत तिस अंडे विषये यह लोक साता अर्थात् चौदहभुवन प्रतिष्ठित हैं, सो भगवान सिस अण्डे में एक वर्ष रह करके अपने ध्यान से तिस अण्डे के दो भाग करता हुआ । तिन दोनों टुकड़ों में ऊपर ले टुकड़े से आकाश और दुसर टुकड़े से भूमि निर्माण करना भया इत्यादि--- "अहेतुबादिनचाहु:"--- हेतु रहिता भवन्ति हि भावाः प्रतिसमयभाविनश्चित्राः । भावाहते न द्रव्यसंभव रहित खपुष्पमिव !! १ !!. व्याख्या-~-अहेतु बादी कहन हैं--प्रति समय होने वाले विचित्र प्रकार के जे भाव हैं, वे सर्व अहेतु से ही उत्पन्न होत हैं। और भाव से रहित द्रव्य का संभव नहीं है, आकाश के पुष्प की तरह । "परिणामवादिनचाहुः"-- प्रति समय परिणामः प्रत्यात्मगतश्च सर्व भावानाम् । संभवति नेच्छयापि स्वेच्छाक्रमवर्तिनी यस्मात् ।।१॥ ध्याख्या--परिणाम बादी कहते हैं- समय २ प्रति परिणाम प्रन आत्मगत, आत्मा २ प्रति प्राप्त हुश्रा, सर्व भावों को संभव होता है. इच्छासे कुछ भी नहीं होता है क्यों कि म्बेरछा क्रमवनि है. और परिणाम नो युगपत सब पदार्थोग है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४१६ ) "नियतवादिनचाहुः"प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण योधी, मोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभोवा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, ना भाव्यं भवति न भाविनोस्ति नाशः || १ || वारुया-नियति धादी कहते हैं-निति बनाश्रय करके जा अर्थ प्राप्तव्य प्राप्त होने योग्य है. लो शुभ वा अशुभ अर्थ पुरुषों को अवश्यमेव होता है । जीवों के बहुत प्रयत्न के करनेसे भी जो नहीं होन हार है, वो कदापि नहीं होता है, और जो होन हार है तिसका कदापि नाश नहीं होता है ।। "भृत वादिनचाहु:" पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्वानि तत्समुदाय शरीरेन्द्रिय विषय संज्ञामदशक्कियच्चैतन्यंजलबुदवदवज्जीयो चैतन्यविशिष्ट कायः पुरुष इति । व्याख्या-भूत वादी कहते हैं--पृथिवी १ पानी र अग्नि ३ और वायु ४; ये चार तत्व हैं, तिनका समुदाय सा ही शरीरेन्द्रिय विषय संज्ञा है और मद शक्ति की सरें चैनन्य उत्पन्न होता है. जल के धुदबुद की तरह जीव है अचैतन्य विशिष्ट काया है सो ही पुरुष है इति । "अनेकवादिनचाहु: कारणानि विभिन्नानि कार्याणि च यतः पृथक् । तस्मात्रिबपि कालेषु नैव कर्मास्ति निश्चयः ।। १ ।। व्याख्या अनेक वादी कहते हैं--कारण भी भिन्न है. और कार्य भी भिन्न है. तिसवारने तीनों ही कालों बिप कर्मों की अस्ति नहीं है । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२७ ) माण्डुक्य कारिका — सृष्टिके fere fra fभत्र विक विभूतिं सवं त्वन्येन्यन्ते सृष्टि चिन्तकाः । स्त्र माया स रूपेति सृष्टिरन्यैर्विकल्पिता ॥ ७ ॥ इच्छामा प्रभोः सृष्टि रिति सृष्टौ विनिश्चिताः । कालात्प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तकाः ॥ ८ ॥ भोगार्थं सृष्टि रिति अन्ये क्रीडार्थ मिति चापरे । देवस्यैष स्वभावोऽयमात कामस्य कास्पृहा || ६ ॥ अर्थ – कई लोग तो भगवानको विभूतिको ही जगतकी उत्पत्ति मानते हैं। तथा बहुतसे इसको स्वप्न मात्र ही मानते हैं ॥७॥ तथा परमेश्वरकी इच्छा मात्र ही सृष्ट है । तथा काल वादी कहते हैं कि सर्व प्राणियोंका उत्पत्ति काल से ही हुई है||८|| तथा कुछ सृष्टिको भाग्य के लिये मानते हैं । एवं बहुतसे सृष्टि को भगवानकी क्रीड़ा मानते हैं। परन्तु वास्तव में यह उस प्रभुका स्वभाव ही है, क्योंकि पूर्ण कामके इच्छा कहां ह । मूल तत्त्व सम्बन्धी विभिन्न मतवाद प्राण इति प्राणविदो भूतानीति च तद् विदः गुण इति गुणविदस्तत्वानीति च तद् विदः ॥ २० ॥ पाढ़ा इति पाद विदो विषया इति च तद् विदः । लोका इति लोक विदो देवा इति च तद्विदुः ॥ २१ ॥ वेदा इति वेद विदो यज्ञा इति च तद्विदः । भोक्रेति च भोक्तृदो मोज्यमिति च तद् विदः ||२२|| Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२१ ) सूक्ष्म इति सूक्ष्मविदः, स्थूल इति च तद् विदः । मूर्त इति मूर्त विदोऽमूर्त इति च तद् विदः || २३ || काल इति व काल विदो दिश इति च तद्विदः । वादा इति च वादविदो भुवनानीति तद्विदः || २४ ॥ मन इति मनो विदो बुद्धि रिति च तद् विदः | चितमिति चिराविदो धर्माधर्मौ च तद् विदः ॥ २५ ॥ पंचविशक इत्येके पडविंशति चापरे । एकत्रिंशक इत्याहु रनन्स इति चापरे ॥ २६ ॥ सृष्टि रिति सृष्टि विदो लय इति च तद् विदः । स्थितिरिति स्थिति विदः सर्वे चेह तु सर्वदा ॥ २७ ॥ 1 १ श्रर्थान् - मूलतत्व के विषय में अनेक मत हैं । कोई प्राणको मूल मानता है तो कोई भूतोंको। इसी प्रकार कोई गुण. पार, विषय लोक, देव, वेद, यज्ञ, भोक्ता, भोज्य, सूक्ष्म' स्थूल, मूर्त, अमूर्त काल दिशा, वाद, स्वभाव मन, चित्त, धर्म, अधर्म, आदि को मूल तत्व मानते हैं। 1 • ! सांरूपवादी २५ तत्वोंको मूल मानते हैं, तो कोई २६ सत्योंको तथा कोई कोई ३१ तत्वोंको मूल मानता है कोई सृष्टिको ही मूल मानता है तो कोई प्रलयको इस प्रकार उपरोक्त सब मत कल्पित हैं अभिप्राय यह है कि सृष्टि रचना आदिका जितना भी वर्णन हैं वह बौद्धिक व्यायाम मात्र हैं । यह कारण है कि वैदिक साहित्य में इस विषय में भयानक मतभेद पाया जाता है। जैसा कि हम पहले दिखा चुके हैं। यहां भी संक्षेपसे प्रकट करते हैं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२२ ) सृष्टि विषय में विरोध (१) असा दम आसीत ( तै० उप० २/७ ) अर्थ-टिके पूर्व यह जगत सद् रूप था | (२) सदेव सौम्येदमग्र आसीत (छान्दो० ६ २ ) अर्थ - उचालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतुसे कहते हैं कि सौम्य ? यह जगत पहले सद् रूप ही था । ये दोनों उत्तर परस्पर विरोधी हैं। एक कहता है कि जगत पहले सद् रूप था. दूसरा कहता है कि सद् रूप था। यह स्पष्ट विरोध पाया जाता है। ऋतु आगे और देखिये-(३) आकाशः परायणम् (छान्दो० ११६ ) अर्थ- सृष्टिके पूर्व आकाश नामका तत्व था क्योंकि वह परायण अर्थात् परात्पर अर्थात सबसे ऊपर है । (४) नैवेह किञ्चनाय श्रासीत् मृत्युर्वैवेदमासीत् ( वृ० १ २ १) अर्थ-स्पृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था. यह जगत मृत्यु से व्यास श्रा । (५) तमोवा इदमग्र आसीत् (मैत्र५० ५(२) अर्थ- सबसे पहले यह जगत अन्धकार मय था । यही भाव मनुरतिके प्रथम अध्यायके पांचवें श्लोक में भी वर्णित है. देखिये(६) प्रासीदिदं तमोभूत-मप्रज्ञातम लक्षणम् । प्रतक्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमित्र सर्वतः ॥ ( मनु० ११५ ) -= अर्थ - यह जगत सृष्टिके पूर्व अन्धकार मय था, अज्ञान - • प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं था, अलक्षण अनुमान गम्य नहीं था. श्रत - नर्कके योग्य नहीं था. विशेय शब्द प्रमाण द्वारा भी अज्ञेय था. और सभी आरसे घोर निद्रा में लीन ना था । == Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२३ ) सृष्टिकी प्रारंभावस्था के मतभेद जिस प्रकार प्रलयावस्थाके विषयमें मतभेद बताये गये हैं उसी प्रकार मृष्टिकी प्रारम्भावस्थाक विषयमें भी वेदमें मतभेद हैं यथा देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत । तदाशा अन्यजायन्त तदुत्तानपदस्परि ।। (ऋ०१०१७।३) अर्थ-- देवताओं की सृष्टि के पूर्व प्रथान सृष्टि के प्रारम्भ में असद् से सद् उत्पन्न हुश्रा , उसके बाद दिशाएं उत्पन्न हुई । और तत्पश्चात् उत्तान पद = वृक्ष आदि उत्पन्न हुए। पादो वश राजापन । अदितेदक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि ॥ (ऋ०१०७२।४ अर्थ-- पृची ने वृक्ष उत्पन्न कि 'भव' से दिशा पैदा हुई अदित से दक्ष और दक्षसे पुनः अदिति उत्पन्न हुई। अदितिर्वाजनिष्ट दक्ष ! या दुहिता सव ।। ता देवा अन्वजायन्तभद्रा अमृतबन्धवः।(ऋ०१०।७२१५). अर्थ-हे दक्ष : तरी पुत्री अदितिने भद्र = स्तुत्य और मृत्यु के बन्धनसे रहित देवोंको जन्म दिया. (अदित के अपत्य = पुत्र है इसलिये आदित्य यानी) देव कहलाते हैं। यद्देवा प्रदासलिले सुसंख्धा अतिष्ठत । अत्राचोनृत्यतामिव तीवो रेणुरपायत ॥(ऋ०१०७२।६) अर्थ- हे देयो? जब तुम उत्पन्न हुए तब पानी में नृत्य करते हुए तुम्हारा एक तीत्र रेणु (अंश) अंतरिक्ष में गया, (तात्पर्य यह कि वहीं रेशु सूर्य बन गया)। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२४ ) अष्टौ पुत्रासौ श्रदितेर्जातास्वन्वस्परि । देव उपप्रैरसप्तभिः परामार्ताण्डमास्यत् ।। (ऋ०१० |७२/८) अर्थ - अदित के शरीर से जो आठ पुत्र उत्पन्न हुए उनमें से सात पुत्रों के साथ अदिति स्वर्ग में देवताओं के पास गई, आठवाँ पुत्र जो मार्तण्ड = ( मृतावाज्जात इति मार्तण्ड :) (सूर्य) था उसे स्वर्ग में छोड़ गई । अदिति के आठ पुत्रों के नाम २ ३ fear aors, घाता चार्यमा च । ६ y अंशथ भगश्च इन्द्र विवस्वाशेत्येते ॥ ( तै००१ | १३ | १० ) अर्थ- प्रसिद्ध है, विवस्वान् अर्थात् सूर्य । तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेष नृम्यः । सद्यो जज्ञानो निरिणाति शत्रूननु यं विश्वे सदन्त्यूमाः ॥ ( ऋ० १० । १२० । १) अर्थ-जीनों लोक ज्येष्ठ प्रशस्त या सबसे प्रथम जगत् का आदि कारण वह ( प्रजापति ) था, उसने सूर्य रचा और उस सूर्यने उत्पन्न होते ही शत्रुओंका संहार किया । उस सूर्यको देख कर सभी प्राणी प्रसन्न होते हैं। छांदोग्योपनिषद् ३ १ १६ में लिखा है : प्रसदेवेदमग्र आसीत् । अर्थ- सृष्टिसे पहले प्रलय काल में यह जगत् असद्' अर्थात् था Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२५ ) तत्सदासीत् । अर्थ- वह असत् जगत् सत् यानी नाम रूप कार्यकी और अभिभावुक हुआ। तदाडं निवर्तत । अर्थ - श्रागे चल कर सह जगत अखे के रूपमें बना । तत्समभवत् । ; अंकुरी भूत बीज के समान क्रमसे कुछ थोड़ासा स्थूल बना तत्संवत्सस्य मात्रा मसयत । अर्थ- वह एक वर्ष पर्यन्त अंड रूपमें रहा । तभिरभिद्यत । अर्थ व अंडा एक वर्षके पश्चात् फूटा । ते श्राण्डकपाले रजतं च सुवर्णश्चाभवताम् । अर्थ-अंडे के दोनों कपालों में से एक चांदी और दूसरा सोने का बना । तद्यद रजवं सेयं पृथिवी । अर्थ-- उनमें ओ चांदीका था, उसकी पृथ्वी बनी 1 यत्सुवर्णं सा द्यौः । अर्थ-- जो कपाल सोनेका था उसका उर्ध्वलोक (स्वर्ग) बना । यज्जरा ते पर्वताः । अर्थ- जो गर्भका श्रेष्टन था उसके पर्वत बने । यदुवं स मेघो नीहारः । अर्थ - जो सूक्ष्म गर्भ परिवेष्टन था वह मेघ और तुषार बना । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या धमनयः ता नयः । अर्थ---जो धमनियां थी चे नदियां बन गईं। यदवारेतेय..मुदकं स समुद्रः। अच--जो मूत्राशयका जल था उसका समुद्र मना। अथ यत्त दजायत सोऽसावादित्यः । अर्थ-- अनन्तर अएडेमें से जो गर्भ रूपमें पैदा हुआ चढ़ आदित्य-सूर्य बना । भगवान स्वयंभू योग शक्ति से पूर्ववृत प्रकृति मय सूक्ष्म शरीरको छोड़ कर सर्व लोक पितामह प्रमाके रूप में उत्पन्न हुआ . तस्मिन्मएडे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् । खमेवात्मनो ध्यानातदण्डमकरोद्विधा ।। अर्थ-वह भगवान अंडे में ब्रह्माके एक वर्ष तक निरन्तर रहता रहा और अन्त में उसने अपने ही संकल्प-रूप ध्यानसे उस अण्डे के दो टुकड़े किये। ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमि च निममे । मध्ये व्योमदिशश्चाष्टावपां स्थानं च शाश्वतम् ।। मनु० (१ । १३) - अर्थ- तत्पश्चात् भगवानने उन दो टुकड़ोसे-ऊपरके टुकड़ेसे स्वर्ग और नीचेके टुकड़ेसे भूमि बनाई । बीचके भागसे आकाश और अाठ दिशायें तथा पानीका शाश्वत स्थान समुद्र बनाया । ___ अण्ड सृष्टिके पश्चात ब्राह्माकी तत्व सृष्टि व श्लोकसे शुरू होना है कारण कि गाथामें 'अमा मूल तथा असौ मंस्कृत शब्द म्राला परामर्शक है। दोकाकारने भी यही अर्थ बनलाया है। यहां Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं स्वयंभूका अधिकार प्राप्त होता है । वेदान्त सृष्टिसे प्रम स्वयंभू और ब्रह्मा एक प्रारम रूप ही है । जो भिन्नता है, केवल उपाधि जन्य है, अन्य कुछ नहीं । __अर्थात् ब्रह्म निराकार, निगुण है, स्वयंभू प्रकृति सप शरीर धारी है और बझा रजोगुण प्रधान है. इस प्रकार उपाधिभेद की विशेषता है। सांख्य को दृष्टि से स्वयंभू का शरीर अभ्यास प्रकृति रूप है तथा ग्राम का शरीर रजोगुण प्रधान व्याकृत प्रकृति रूप है. यह विशेषता है । बझा, प्राणी रचने के लिये सत्व सृष्टिका पारम्भ करता है। उद्ववहस्मिनश्चैव मनः सदसदात्मकम् । मनसश्चाप्यहं कारपभिमन्तार मीश्वरम् ॥ महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च । विषयाणां गृहीणिशनैः पंचेन्द्रियाणि च ।। (मनु० ॥१५-१५) अर्थ-प्रमाने स्वयंभू परमात्मा में से सत् (अनुमान आगम मिद्धः) असत् ( प्रत्यक्षा गौचर ) ऐसे मनका मृजन किया। मन से पहले अहंकार का निर्माण किया कि जिससे में ईश्वर ( सर्व कार्य करने में समर्थ ) हूँ, ऐसा अभिमान हुआ। अहंकार से पहले महसत्व की रचना की । टीकाकार मेधातिथि कहता है कि 'तत्त्र मुष्टिरिदानी मुख्यते' अर्थात् यहाँ से तत्व सृष्टि का वर्णन किया जाता है उक्त वाक्यमें तत्व शब्दका अर्थ महत्तत्व (बुद्धि) समझना चाहिये इस कथन से मन, अहंकार और महत्तत्व की उलदे कमसे संयोजना करनी चाहिये । अर्थात् सबसे प्रथम महत्तत्व है। उसके चाद अहंकार है और उसके बाद मन का नम्बर आता है । मनके पश्चाग पाँच तन्मात्रा की तीन गुणवाली विषय माहक पांच ज्ञाने Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९८ ) न्द्रियों की और 'च' से पांच कर्मेन्द्रियोंकी रचना की। तेषां स्वयवान् सूक्ष्मान् षण्णामध्यमितौजसाम् । सन्निवेश्यात्मात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे । ( प० १११६ ) अर्थ - परमित शक्तिशाली पांच तन्मात्राएं और अहंकार इन छ: तत्वों को और इन सूक्ष्म अवययों को आत्मा के सूक्ष्म अंशों में मिला कर देव, मनुष्य आदि सर्व भूतों का सृजन करता है, कारण कि उक्त मिश्रा ही सृष्टिका उपादान कारण हैं मेधातिथि तथा कल्लूक भट्ट दोनों टीकाकारोंका उपर्युक्त अभिप्राय है। परन्तु टीकाकार राघवानन्द दोनों से अलग रास्ते पर जाते हैं और अपना आश्रय नीचे करते हैं 'पण पन श्रादोनाममितौजसाम्। श्रात्ममात्रा अपरिच्छिन्नस्यैकस्यात्मन् उपाधिवशात् अवयव - प्रतीयमानेषु आत्मसु ॥ "ममेयांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" इति स्मृते । "शो नाना व्यपदेशादित्यादि सूत्र, तासुमन श्रादि षड्वयवान् सूक्ष्मान् संनिवेश्य सर्व भूतानि सर्वान् जीवान् निर्मम इत्यन्वयः ।" I अर्थात राघवानन्द ने पांच तन्मात्रा के उपरान्त छठे श्रहंकार के बदले मनको रक्खा है । श्रात्म मात्रा शब्द से एक ब्रह्म के उपाधिभेद से पृथक हुए अनेक अंश रूप जीवात्माओं का महण किया है । मन आदि छः तत्वों के अवयवों को आत्ममात्रा के साथ मिश्रण करके ब्रह्मा ने सब जोनों का निर्माण किया। इस प्रकार जीव रचना सम्बन्धी राघवानन्द का अभिप्राय है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) यन्मृर्त्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्ये मान्या अयन्ति षट् । तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूर्ति मनीषिणः ॥ मनु० १ । १७ अर्थ-ममा के शरीर के अवयव अर्थात् पांच तन्मात्रा और अहंकार पांच महाभूत तथा इन्द्रियों को उत्पन्न करत हैं । फलस्वरूप पांच महाभूत और इन्द्रिय रूप ब्रह्मा को मूर्ति को विद्वान लोग पडायतन रूप शरीर कहत है। इस भांति ब्रह्माके शरीरकी रचना पूरी होनेके साथ सांख्यके तत्वों को रचना पूरी हो जाता है १८वें श्लोक से ३० में श्लोक तक भूतों का कार्य आदि लूट कर मृष्टि बताई गई है परन्तु विस्तार बढ जाने के कारण उसका उल्लेख यहां न करके ३५ व श्लोक से ब्रह्मा की जो बाल मृष्टि वरिणत की गई है उनका थोड़ा सा दिग्दर्शन कराया जाता है। द्विधा कृत्यात्मनो देहमधेमन पुरुषोऽभवत् । अर्धन नारी तस्यां स विराजमसृजप्रभुः ।। मनु० ११३२ अथ-ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो टुकड़े किये एक टुकड़े का पुरुष बनाया और दूसरे पाये टुकड़े की स्त्रा बनाई। फिर वोमें विराट पुरुष का निर्माण किया। तपातप्त्या सृजयतु स स्वयं पुरुषो विगट् । तं मां वित्तास्य सस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः ॥ मनु० १ ३३ अर्थ-उस पुरुष ने तप का श्राचरण करके जिसका निर्माण किया बड़ में मनु हूं । हे श्रेषु विजो : निम्मोक्त समय लुष्टि का निर्माता मुझे समझो। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२८ ) मनु सृष्टि: श्रहं प्रजाः सिचुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् । पतीन् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश || मनु० १।३४ अर्थ - मनु कहते हैं कि दुष्कर तप करके प्रजा सृजन करने की इच्छा से मैंने प्रारम्भ में दश महर्षि प्रजापतियोंको उत्पन्न किया । मरोचि मत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं ऋतुम् । प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगु ं नारद मेव च ॥ मनुः १/३५ अर्थ- दस प्रजापतियों के नाम ये हैं: - ( १ ) मरीचि, (२) अत्रि, (३) अंगिरस ( ४ ) पुलस्य ( ५ ) पुलह, ( ६ ) ऋतु. (७) प्रचेतस, (८) वशिष्ठ (६) भृगु और ( १० ) नारद । एते मनस्तु सप्तान्या नसृजन्भूरितेजसः । देवान् देवनिकायांश्च महर्षी श्चामितौजसः । मनु० १ । ३६ अर्थ - इन प्रजापतियों ने बहुत तेजस्वी दूसरे सात मनुश्र को, देवों को देवों के स्थान स्वर्गादिकों को तथा अपरिमित तेज वाले महर्षियों को उत्पन्न किया। 3 : उपयुक्तरचना के सिवाय प्रजापतियों ने जो रचना की उसका वर्णन ३. वें श्लोक से ४० वे श्लोक तक इस प्रकार थाया है। यक्ष, राक्षस, पिशाच गन्धर्ण, अप्सरा, असुर, नाग (सर्प) गरुड़, पितृगण, विद्युत, गर्जना मेघ, रोहित ( दंडाकारतेज ) इन्द्र धनुष, उल्कापात उत्पातध्वनि, केतु ध्रुव अगस्त्यादि ज्योतिषी. किन्नर वानर मत्स्य, पक्षी, पशु. मृग मनुष्य सिंहादि कृमि. कीट, पतंग. जं मक्खी. खटमल बाँस मच्छर, वृक्षलता आदि अनेक प्रकार के स्थावर प्राणी उत्पन्न किये " : पूर्वी सात मनुष्यों में एक मनु तो यह प्रकृत मनु है । जो Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वायंभुव मनु के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरे छ: मनुओं के नाम मनुस्मृति के प्रथम अध्याय मे १२ में परमोनो मनाने गये हैं। वे इस प्रकार हैं:-स्वारोचिष १. उत्तम २. तामस ३. रैवत ४, चाक्षुस, विवस्वान । ये सातों अपने २ अन्तर काल में स्थायर जंगम रूप सृष्टि उत्पन्न करते हैं । एवं सर्वस सृष्टवेदं मा चाचिन्त्यपराक्रमः । आत्मन्यन्तर्दधे भूयः कालं कालेन पीडयन् ॥ मनु. १ | ५१ अर्थ-मनु. जी कहते हैं कि----अचिन्त्य, पराक्रमशाली ब्रह्मा इस भांति मुझे और सर्व प्रजाको सृजन कर अन्त में प्रलय काल के द्वारा सृष्टि काल का नाश करता हुआ पुनः आत्मा में अन्तर्धान लीन हो जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि इस प्रकार असंख्य सृष्टि प्रलय अतीत में हुए हैं और भविष्य में होते रहेंगे। यदा स देवो जागर्ति सदेदं चेष्टते जगत् । यदा स्वपिसि शान्तात्मा तदासर्व निमीलति ॥ मनु० १ । ५२ अर्थ-जब वह अमा जागता है, तब यहजगत् चेष्टा-पृवृत्ति युक्त हो जाता है । जब वह सोता है तब सारा जगत निश्चेष्ट हो जाता है । महाभारत में प्रलय का वर्णन इस प्रकार है: यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः । .. अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च ॥ अहः क्षयमथो वुद्ध्वा निशिस्वममनास्तथा । चोदयामास भगवानव्यक्तोऽहं कृतं नरम || Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) ततः शतसहस्रांशु रूयक्तेनामि चोदितः । कृत्वा द्वादश धात्मानमादित्योऽज्वलदाशिवत् || '' जगामितवलः केवल जगतीं ततः । अम्भसा वलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः ॥ ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भोयाति संक्षयम् । विनष्टेऽम्भसि राजेन्द्र ? जाज्वलत्यनलो महान् ।। सप्त | चिंषमथाज्ञ्जसा । भगवान वायुनाकोवली !! ''। समति प्रबलं भीममाकाशं ग्रसतेऽऽत्मना ॥ श्राकाशमप्यभिनदन् मनो ग्रसति अधिकम् । मनो ग्रसति भूतात्मा सोऽहंकारः प्रजापतिः ।। अहंकारो महानात्मा भूतभव्य भविष्यवित् । तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भुः प्रजापतिः ।। (म० भा० शान्ति प० ३१२ श्लो० २ से१३ ) 3 अर्थ - याज्ञवाल्क्य मुनि जनक राजा से कहते हैं कि-अनादि अनन्त नित्य, अक्षर ब्रह्मा जिस पद्धति से बारम्बार जन्मों का सर्जन एवं संहार करता है. वह सब तुम्हें विस्तार से समझता हूँ । दिन को समाप्त हुआ जान कर रात्रि में सोने की इच्छा रखने वाले अव्यक्त भगवान अहंकाराभिमानी रुद्र को Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरणाको करने लांब कर ले तूफ धारण कर उसके चारह विभाग कर, अग्नि जैसा प्रचंड ताप उत्पन्न किया । जरायुज. अंडज, स्वेदज और उद्भिज प्राणियों को जला कर पृथ्वी तत्वको भस्मीभूत किया। इसके वाद अधिक बलवान् वहीं सूर्य सम्पूर्ण पृथ्वी को जल से पूरित करता है। तदनन्तर अग्नि रूप धारण करके जल का तय करता है। अनि क श्राठी दिशा में बहने वाला वायु शान्त कर देता है । अनन्तर वायु को आकाश, अ.कश को मन. मन को भूतात्मा, प्रजापति को अहंकार, अहंकार को भूत भविष्यका ज्ञाता महासत्व-बुद्धिरूप अात्मा-इश्वर और उस अनुपम आत्मारूप विश्व को शंभु ( रुद्र ) पास कर जाता है। अर्थात् उक्त क्रम से समस्त जगत् का ईश्वर में लय हो जाता है। ब्रह्म पुराण के ३२२ अध्याय में प्रलयका वर्णन नीचे लिखे अनुसार किया गया है: सर्वेषामेव भूतानां त्रिविधः प्रति सञ्चरः । नैमित्तिका प्राकृतिक तथैवात्यन्तिकोमतः ॥१।। ब्राह्मो नैमित्तिकस्तेषां कल्पान्ते प्रति सञ्चः । आत्यन्तिको वै मोक्षश्च प्राकृतो द्विपरादिकः ॥२॥ अर्ध-सर्व भूतों का प्रलय तीन प्रकार का है-मित्तिक, माकतिक, और आत्यन्तिक । एक हजार चतुयुग-परिमित ब्रह्मा का एक दिवस होता है. वहीं कल्प कहलाता है । कल्प के अन्त में १४ मन्वन्तर पूरे हो जाने पर सृष्टि क्रम से विपरीत रूप में भू लोक यादि अखिल सृष्टि का ब्रह्मा में लय हो जाता है। पृथ्वी एकार्णव स्वाप बन जाती है और उस समय स्वयंभू जलमें शयन करता है वह नैमित्तिक प्रलय कहा जाता है । इसे ही अन्तर प्रलय अश्या खंड पलय भी कहते हैं। दो पराई वर्षों में तीन लोक के पदार्थों Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३४ ) का प्रकृति में या परमात्मा में जो लय होता है उसका नाम प्राकृ तिक प्रलय या महाप्रलय हैं। और किसी संस्कारी श्रात्मा की मुक्ति होना आत्यन्तिक प्रलय कहलाता है । सृष्टि की उत्पत्ति एकयाsस्तुवत | प्रजापतिरधिपतिरासीत् । तिसृभिरस्तुवत । ब्रह्माऽसृज्यत | ब्रह्मणस्पतिरधिपतिरासीत् । पश्चभिरस्तुवत | भूतान्यसृज्यन्त भूतानां परिधिपतिरासीत् । सप्तभिरस्तुवत | सप्तर्षयोऽसृज्यन्त । वाताधिपतिरासीत् । ( शु० यजु० माध्यं० सं० १४ | २८ ) श्रार्थ--राजाकी ने प्रदेष को कहा कि तुम मेरे साथ स्तुति में सम्मिलित होत्रो हम लोग स्तुति करके प्रजा उत्पन्न करें। देवताओंने यह बात स्वीकार कर ली। प्रजापतिने पहले अकेली बाणी साथ स्तुति की, जिससे प्रजापति के गर्भ रूप से प्रजा उत्पन्न हुई । उसका यह अधिपति हुआ । ( १ ) उसके बाद मारण, उदान और व्यान इन तीनों के साथ प्रजापति ने दूसरी स्तुति की, जिससे ब्राह्मण जाती उत्पन्न हुई, उसका अधिपति देवता ब्रह्मणस्पति हुआ । (२) उसके बाद पाँचों प्राणों के साथ तीसरी स्तुति की उससे पाँच मूत उत्पन्न हुये उनका अधिपति भूत बना 1 ( ३ ) तत्पश्चात् दो कान, दो आँख दो नाक और वाणी इनसानों के साथ प्रजापति ने चौथी स्तुति की तो उससे सप्तऋषि उत्पन्न हुए, धाता उसका अधिपति देव बना ४ · नवभिरस्तुत । पितरोऽसृज्यन्त । अदितिरधिपत्नी श्रासीत् । एकादशभिरस्तुत । ऋतवोऽसृज्यन्त । श्रार्तवा अधिपतय श्रासन् । त्रयोदशभिरस्तुवत । मासा असृज्यन्त । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत्सरोऽधिपतिरासीत् । पञ्चदशभिरस्तुवत । क्षत्रमसृज्यन्त । इन्द्रोऽधिपतिरासीत् सप्तदशभिरस्तुवत | ग्राम्याः पशवोऽसृज्यन्त । वृहस्पति, रासीत् । (शु० यजु० माध्य० सं० १४।३०:२६) अर्थ-दो आँख. दो कान, यो नाक एक वाणी, यह सात उर्ध्वप्राण तथा दो अधः प्राण इस प्रकार नौ प्राणों के साथ प्रजापति ने पांचवी स्तुति की जिससे पितरों की उत्पत्ति हुई । श्वदिति इनकी प्रतिपत्री हई । ५ १ दम प्राण और एक आत्मा इन ११ के साथ प्रजापति ने छठी स्तुति की जिससे ऋतुओं की उत्पत्ति हुई, आसवदेव इनका अधिपति बना (६) प्राण दो पोष एक आत्मा इन तेरह के साथ प्रजापति ने सातथी स्तुति की जिससे महीनों की उत्पत्ति हुई. संवत्सर इनका अधिपति बना (७) हाथों की दस अंगुलियां. दो हाथ. दो बाई और एक नाभि के ऊपर का भाग इन पन्द्रहों के साथ प्रजापतिने पाठवीं स्तुति की जिससे क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति हुई इन्द्र इसका अधिपति बना (८) पैरों की दस अंगुलियां. दो उरु, दो जंघार, और एक नाभि के नीचे का भाग, इन सत्रह के साथ प्रजापति ने नववीं स्तुति की. जिससे माम्य पशुओं की उत्पत्ति हुई, वृहस्पति इनका अधिपति हुमा (6) नव दशभिरस्तुघत । शूद्राविसृज्येतामहोरात्रे अधिपत्नी प्रास्ताम् । एकविंशत्याऽस्तुबत । एक शफाः पशवोऽमृज्यन्त वरुणोधियसिरामीन त्रयोविंशत्याऽस्तुक्त । क्षुद्रापशवोऽमृज्यन्त पूषाःधिपतिरासीन् । पञ्चविंशत्याऽस्तुवत | भारण्याः पशवोऽसृज्यन्त वायुर धिपतिरासीत्। सप्तविंशत्याऽ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) स्तुवत् । द्यावापृथिवीयतां । वसवो रुद्रा आदित्या अनुंव्यायंस्त एवाधिपतय आसन् । ( शु० यजु० माध्य० सं० १४|३०| ३० ) अर्थ - हाथों की इस अंगुलियां और ऊपर, नीचे रहे हुए शरीर के नौ छिद्र य १६ प्राणों के साथ प्रजापति ने दसवीं स्तुति की, जिससे शुद्ध और वैश्य उत्पन्न हुए अहोरात्र इनका अधिपति हुआ । (१०) हाथ और पैर को बीस अंगुलियाँ और एक अत्मा इन इक्कीस के साथ प्रजापति ने ११ वी स्तुति की जिससे एक खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति हुई. वरुण उसका अधिपति हुआ ( ११ ) हाथ पैर की बीस अंगुलिये दो पाँव एक आत्मा यो तेस के साथ प्रजापति ने १० वी स्तुति की जिससे क्षुद्र पशुओं की उत्पत्ति हुई. पूषा इनका अधिपति हुआ । ( १२ ) हाथ पाँव की बीस अंगुलियां दो हाथ दो पाँव एक आत्मा यो पच्चीस के साथ प्रजापति ने तेरहवीं स्तुति की जिससे श्रारण्यक पशुओं की उत्पत्ति हुई। वायु इनका अधिपति हुआ । ( १३ हाथ पांव की बीस अंगुलियां दो भुजाएं दो उर दो प्रतिष्ठा और एक आत्मा यों सत्तावीस के साथ प्रजापति ने चौदहवी स्तुति की, जिससे स्वर्ग और पृथ्वी उत्पन्न हुई वैसे ही आठ वसु स्यारह रुद्र और बारह आदित्य भी उत्पन्न हुए। और इनके अधिपति ये ही बने १४ नव विशत्याsस्तुत्रत। वनस्पतयाऽसृज्यन्त | सोमोडधिपतिरासीत् । एकत्रिशताऽस्तुवत । प्रजा असृज्यन्त । यत्राश्रायवाश्चाधिपतय श्रासन् । त्रयत्रिशताऽस्तुचत । भूतान्यश-म्बन प्रजापतिः परमेष्यति रासीत् । 1 (शु जु माध्यं० सं० १४ /३० / ३१ ) Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३७ ) अर्थ- हाथ पांवकी बीस अंगुलियां और नौ छिद्र रूप प्राण य०२ के साथ प्रजापति ने पन्द्रपत्रीं स्तुतिकी जिससे वनस्पतियें उत्पन्न हुई। सोम उनका अधिपति हुआ (१४), बीस अंगुलियों दस इन्द्रियों और आत्माओं इकोस के साथ प्रजापति ने सोलहवीं स्तुति की, जिससे उत्पन्न हुई, इसके अविपति यव और अयक देव हुए (१६) वीस अंगुलियां दस इन्द्रियाँ पाँच, और एक श्रात्मा यो तेतीसके साथ प्रजापतिने सत्रहवी ' स्तुतिकी, जिससे सभी प्राणी सुखी हुये। परमेष्ठी प्रजापति इनका अधिपति बना । १- सामन्य प्रजा २- ब्राह्मण ३-पांच भूत ४- सप्त ऋषि ५- पितर ६-- ऋतुएँ ७- मास ८-नक्षत्र सृष्टि क्रम कोष्टक हन्याम पशु १०- शुद्र और वैश्य ११- एक खुर वाले पशु १२- क्षुद्र पशु प्रजा यादि १३-जंगली पशु २४ - द्यावा. पृथ्वी, वसु आदि देवता १५-वनस्पति १६- सामान्य प्रजा सवै वरं तस्मा देकाकी न रमते । स द्वितीय मैच्छत् । सतावानास यथा स्त्री पुसी संपरिपक्कोस इपमेवात्मानं द्वापायत्ततः पतिश्वचाभवतां तस्मादिदमर्धमृगलमिवस्व इति ह स्माE Risaल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रियापूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या श्रजायन्त ! ( वहदा० १/४/३ ) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) अर्थ - इस प्रजापतिको चैन नहीं पड़ा। एकाकी होनेसे रति (आनन्द) नहीं हुई. वह दूसरेको इच्छा करने लगा, वह श्रालिंगित स्त्री पुरुष युगल के बड़ा हो गया. प्रजापरिने अपने दो भाग किये, उसमें एक भाग पति और दूसरा भाग पत्नी रूप मना । याज्ञवल्क्यने कहा कि जिस प्रकार एक चने की दालके दो भाग होते हैं वैसे ही दो भाग उसके हुये श्राकाशका आधा हिस्सा पुरुषसे और आधा हिस्सा स्त्रीले पूरित हुआ, पुरुष भागने स्त्री भाग के साथ रात क्रीड़ा की, जिससे मनुष्य उत्पन्न हुए | साहेयमीच चक्रेकथं वुमन एवजनयित्वा संभवति इन्त तिरोऽसानीति सा गौरभवदपभ ईतरस्तां समेवाभवत् नतो गावोऽजायन्त । वऽवेत्तराभवदश्वश्र्ष इतरा । गर्दभीतरा गर्दभ इतरस्तांसमेवाभवत्ततो एकशकमजायत । श्रज्ञेतरा त्रस्त इतरोऽचिरितरा मेष इतरस्ताँ समेवाभवत्ततोऽजाय तंत्रमेव यदिदं किंच मिथुन मायोपिल्लिकाभ्यजावयोस्वत्सर्वमसृजत । ( वृहदा० ११४/४ ) अर्थ- स्त्री भागका नाम शतरूपा रखा गया। वह शतरूपा विचार करने लगी कि मैं प्रजापतिकी पुत्री हूं क्यों कि उसने मुझे उत्पन्न किया है और पुत्रीका पिताके साथ सम्बन्ध करना स्मृति में भी निषिद्ध है, तब यह क्या अकृत्य कर डाला ? मैं कहीं छिप जाऊँ! ऐसा सोच कर वह गाय बन गई। तब प्रजापतिने बैल चन कर उससे समागम किया जिससे गायें उत्पन्न हुई। शतरूपा घोड़ी बनी तो प्रजापति घोड़ा चना, शतरूपा गद्दी बनी तो प्रजापति गदहा बना दोनोंका समागम हुआ जिससे एक खुर वाले प्राणियों की सृष्टि हुई पश्चात् शतरूपा बकरी बनी प्रजापति 1 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकरा बना, शतरूपा भेड़ बनी, प्रजापति भेड़िया बना दोनों के सम्भोगसे बकरे और भेड़ियोंकी सृष्टि हुई। इस प्रकार प्रत्येक प्राणियोंके युगल रूप बनने बनते कीड़ो मकोड़ों तककी सृष्टि उत्पन्न हुई। प्रजापति की सृष्टिका दशवाँ प्रकार प्रजापतिर्वैस्वां दुहितरमभ्यध्यायत् । तामृश्योभृत्वारोहितं भूता सभ्येसं देवा अपश्यन्नकृतं प्रजापतिः करोतीति ते समैच्छन्य एन मारिष्यत्येत मन्योऽन्यस्मिन्नाविन्दं स्तेषां या एवघोर तमास्तन्व आसंस्ता एकधा समभरस्ताः सं भृताएष देवोऽभवत्तदस्यैतद्भूतवनाम ।.............. तं देवा भबुवनयं वे प्रजापतिरकृतमकारिमं विध्येति स तथेत्य ब्रवीत्स बै बोवर घृणा इति वृणीष्वेति स एत्तमेव वरम वणीत पशनामाधिपत्यं तदस्यैतत्पशुमनाम ।..... __तमभ्यायल्पाविध्यत्पाविध्यत्सविद्ध ऊध्र्व उप्रपतत्तमेतं मृग इत्याचक्षते, य उ एव मृग व्याधः स उ एव स या सेहित्मा यो एवेषु खिकाण्डा सो एवेषु त्रिकाएडा । (ऐत० ब्रा० ३।३।६) अर्थ--प्रजापतिने अपनी पुत्रीका पत्नी बनाने का विचार किया। फिर प्रजापतिने मृग बन कर लाल वर्ण वाली भूगी रूप पुत्री के साथ समागम किया। यह देवताओंने देख लिया, देवताओंको विचार हुश्रा कि प्रजापति अकृत्य कर रहा है इस लिये इसे मार दालना चाहिये । मारने की इच्छामे देव लोग पसे Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . व्यक्तिको दंदने लगे जो प्रजापतिको मारने में समर्थ हो । किन्तु अपने में ऐसा कोई शक्तिशाली उन्हें नहीं मिला, इसलिये जो घोर = उप्रशरोर वाले थे वे सभी मिलकर एक रूप हुए. अर्थात् सब मिल कर एक बार शरीर बीघ लगा. उसका नाम द्र रक्खा गया। यह शरीर भूतोंसे निष्पन्न हुआ इस लिये उसका नाम भूतवन् या भूतपति भी प्रसिद्ध हुआ। देवताओंने रुद्रस कहा कि- प्रजापतिने अकृत्य किया है इस लिये उसे वाणसे छेद डालो। रुद्र ने यह बात स्वीकार कर ली। देवताओंने उससे कहा कि इस कार्यके बदलेमें तुम हमसे कुछ माँगों । रुद्रने पशुओंका अधिपत्य माँगा । देवताओंने यह स्वीकार कर लिया जिससे रुद्रका नाम पशुवत या पशुपति प्रसिद्ध हुआ। __ प्रजापतिको लक्ष्य करके रुद्रने धनुष खींच कर वाण छोड़ा, जिससे मृग रूपी प्रजापति वारणसे विंध कर अधोमुखसे ऊंचा उछला, और आकाशमें मृगशिर नक्षत्र के रूपमें रह गया। रुद्रने उसका पीछा किया। वह भी मृग व्याधके तारेके रूपमें आकाशम रह गया । लाल वर्ण वाली जो मृगी थी वह भी श्राकाशमें रोहिणी नक्षत्रके रूपमें रह गई। रुद्रके हाथसे जो वाण छुटा था वह अणीशल्य, और पाँव रूप तीन अवयव वाला. होनेसे त्रिकाण्ड तारा रूपसे रह गया । श्राज तक भी ये आकाशमें एक दुसरंक पीछे घूमा करते हैं। मनुष्य सृष्टि . तद्वा इदं प्रजापते रेतः सिक्तमधावत् तत्सरोऽभवत् ते देवो अत्रुवन् मेदं प्रजापते रेतो दुषदिति यदब्रुवन्मेदं प्रजापते रेतो दुषदिति तन्मादुषमभवत् तन्मादुषस्य पादुषत्वम् । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादुषं ह वै नामैततयन्मानुषं सन्मानुषमित्याचक्षते परोघेण परोक्षप्रिया इव हि देवाः । (ऐत. ब्रा० ३।३।६) अर्थ-मृगरूप प्रजापति ने मृगी में बी सिंचन किया. यह वीर्य बहुत होने में बाहर निकलकर पृथ्वी पर पड़ा. उमका प्रवाह चल कर ढालू जमीन में एक चित्त हुआ, जिससे तालाब बन गया । देवताओं ने प्रजापति का यह बोर्य दूषित न हो जाय इसलिये इस तालाबका नाम "मादुष" रख दिया। यही मादुषका मानुषपन है। लोगों ने पीछे भादुष शब्द में के द" के स्थान पर "न" कार जच्चारण किया जिससे मानुष शब्द (मनुष्य वाचक) बन गया। देवता परोक्ष प्रिय होते हैं इस लिये परोक्ष में जिस नकार का प्रवेश होकर मानुष शब्द बन गया। उसको देवताओंने स्वीकार कर लिया। तात्पर्य यह है कि प्रजापत्ति के द्वारा सिंचित वीर्य के तालाब में से मनुष्य सृष्टि उत्पन्न हुई। देव सृष्टि तदमिना पर्याद धुस्तनमरुतोऽन्वस्तदगिर्न प्राच्यावयत् तदग्निना वैश्वानरेण पर्यादथु स्तन्मरुतोऽधून्यस्तदग्निर्वैश्वानरः प्राच्यावयत्तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसाचादित्योऽभवद्यद् द्वितीय मासीत्तद् भृगुरभवतं वरुणान्यगृहीत तस्मात्स भृगु रुणि रथ यतृतीयमदीदेदिव त श्रादित्या अभवन । येणारा श्रासंस्तेगिरसोऽभवन् यदङ्गाराः पुनरवशान्ता उददीप्यन्त तद् वृहस्पतिरमन्त् । (ऐत. ब्रा० ३३१० अर्थ मनुष्य बनने के बाद जो प्रजापति का वीर्य अवशिष्ट Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) रहा उसको घनीभूत बनाने और उसमेंसे रहेहुए द्रवत्वको दूर करने के लिये देवों ने उस तालाब के चारों किनारों पर व्यभि प्रज्वलित की और वायु ने उसकी श्रार्द्रता को शोषित करने का प्रयत्न किया इतना करने पर भी वह वीर्य नहीं पका अर्थात् उसका गौलापन दूर नहीं हुआ । नव वैश्वानर नाम के अभि ने पकाने का काम किया और वायुने शोषण करना चालू रक्खा जिससे वह वीर्य पककर पिएडीभूत होगया उस पिएडमें से एक प्रथम पिंडिका उद्दीप्त हुई और प्रकाश करने लगी वह आदित्य-सूर्य बना । दूसरी पिटिका निकल। वह भृगु ऋषि बनी जिसको वरुण ने ग्रहण किया, जिससे भृगु वरुण कहलाया । तीसरी पिंडिका निकली उससे अदिति के सूर्य के सिवाय बाकी के पुत्र देव बने । जो बाग के अंगार बच रहे वे अंगिरा ऋषि बने और जो अंगर उत्कर्ष से fia हुआ। वह बृहस्पति बना । पशु सृष्टि यानि परिचाणान्या संस्ते कृष्णाः पशवोऽभवन् या लोहनी मृतिका ते रोहिता, अथ यद् भस्माऽऽसीत् तत्परुष्यं पद् गारोगय ऋश्यउष्ट्रो गर्दभ इति ये चैतेऽरुणाः पशवस्ते च । (ऐत० ना० ३।३ -- १०) अर्थ --- जो काले रंग की लकड़ियां रहीं, वे काले रंग के पशु बने । अमिदाह से जो मिट्टी लाल रंग की हो गई थी उससे लाल रंग के पशु बन गये। जो राख बन गई थी. उससे कठोर शरीर बाल गौर रोज मृग ऊंट गईभ, आदि आरण्यक - जंगली पशु अन गये और जंगल में फिरने लगे। पुराण की प्रलय-प्रक्रिया किन्हीं अंशों में पृथक है । वह Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्थक्य इस भांति है, :--महाभारत में प्रथम सूर्य तपता है जब कि ब्रह्म पुराणके प्रल गमें सर्व प्रथम सो वर्ष अनावृष्टि -- दुष्काल पड़ता है। इस काल में अल्पशक्ति बाले पार्थिव प्राणियोंका नाश हो जाता है । इसके बाद विष्णु रुद्र रूप धारण कर, सूर्य की सात किरणों में प्रवेश कर समुद्र तालाब आदि का समस्त जल पी जाता है । काष्टं ,मिट्टी और रास्त्र में से विविध प्रकार के पशु पैदा हुए हैं । आदि आदि । ॐकार सृष्टि - ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे, स खलु ब्रमा सृष्टि चिन्तामापेदे केनाहमेकेनाक्षरेण सर्वाश्चकामान् सर्वाश्च लोकान् सर्वांश्च वेदान सर्वांश्च यज्ञान् सर्वांश्च शब्दान सर्वाश्च व्युष्टीः सर्वा िच भूतानि स्थावर जंगमान्यनुभवेयमिति स ब्रह्मचर्यपचरत् । स प्रोमित्येतदक्षरमपश्यद् द्विवर्णचतुमात्रं सर्वव्यापि सर्व विम्बयातपाम ब्रह्म ब्राह्मी व्याहृति ब्रह्मदैवतं, तया सर्वांच कामान् सांश्च लोकान........ सर्वाणि च भूतानि स्थावरजंगमान्यन्वभवत् सस्य प्रध्य. मेन वर्णेनापस्नेहथान्वभवत् । तस्य द्वितीयेन वर्णेन तेजो ज्योतीष्यन्त्रभवत् । (गो. ब्रा० पू० भा० १।१६) अर्थ-ब्राहा ने ब्रह्मा मन को हृदय में उत्पन्न किया । उत्पन्न हो कर ब्रह्मा ने चिन्ता की कि में एक अक्षर मात्र से सर्व लोक सर्व देवता. सर्व देह. सर्व यज्ञ, सर्व शब्द, सर्व यसतियां. सर्व भूत स्थावर जंगम को किस प्रकार उत्पन्न करू ? ऐसी चिन्ता करके उसने ब्रह्मचर रूप ब्रह्म नपका श्राचरण किया। उसने आकार Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असर देखा जो कि दो अक्षर वाला, चार मात्राओं काला सर्व ध्यापी. सर्वशक्तिमान अयातयात-निर्विकार ब्रह्म वाला ग्रामी व्याति और ब्रह्म देवता वाला है। उस ओंकारसे ब्रह्मा ने सर्व काम, सर्व लोक. सर्व देव सर्व यन. सर्व शब्द सर्व वसतियां सर्व भूत और स्थावर जंगम रूप प्राणी उत्पन्न किये ओंकार के पहिले वर्ण से जल, और चिकनापन उत्पन्न किये । दूसरे वर्ण से ज्योति उत्पन्न की। तस्य प्रथमया स्वरमात्राया पृथिवी मग्निमोष धिवनस्पतीन् ऋग्वेदं भूरिति व्याहृतिर्गायत्रं छन्दस्त्रिवृत्तं स्तोमं प्राचीदिशं बसंतमृतुं वाच मध्यात्म जिह्वा रसमितीन्द्रियाण्यन्वभवत् । (गो. ब्रा० पू० भा० ११७) अर्थ- उस श्रीकार की प्रथम स्वर मात्रा स प्रक्षा ने पृथ्वी, अग्नि, औषधि, वनस्पति. ऋगवेद् भू नाम व्याहति. गायत्री छन्द ज्ञान, कर्म और उपासना युक्ति स्तोत्र स्तुति, पूर्व दिशा बसंतऋतु, अध्यात्म माणी. जिला और रस ग्राहक इन्द्रियाँ बनाई। तस्य द्वितीया स्वरमात्रामरिक्ष यजुर्वेद, भुव इति ध्यान हुतिस्त्रष्टुभं छन्दः पंचदर्श स्तोमं प्रतीची दिशं ग्रीष्मस्तु प्राणमध्यात्मभासिके गन्धघ्राणामितिन्द्रियाएयन्वभवत् । (गो. ब्रा० पू० भा० ११८) अर्थ-- उम्मकी दूसरी स्वर मात्रा से ब्रह्मा में अंतरिक्ष, वायु, यजुर्वेद भुव इस प्रकार की व्यानि त्रैष्टुम छन्द. पांच प्राण पांच इन्द्रियों और पांच भूत यो पन्द्रह प्रकार की स्तुति. पश्चिम दिशा ग्रीष्म ऋतु. आध्यात्मिक प्राण. नो नासिका और गंध ग्राहक प्रागणेन्द्रिय बनाये। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४५ ) तस्य तृतीयया स्वरमाश्रयादिव मादित्यं सामवेदं स्वरिति antaऋतु ज्योतिरध्यात्मं चक्षुषी दर्शनमितिन्द्रियाण्यन्व भवत् । (गो० ब्रा० भा० १११६) अथ उस ओंकार की तीसरी स्वर मात्रा से आ ने स्वर्ग लोक, आदित्य, सूर्य, सामवेद, स्वर, इस प्रकार की व्याहृति. जगति छंद दस दिशाएं सत्व रजस, तीन गुण, ईश्वर, जीव और प्रकृति इन सोलहों से युक्त सत्रहवां संसार यो सत्रह प्रकार की स्तुति, उत्तर दिशा, वर्षाऋतु अध्यात्म ज्योति दो आखें और रूप माइक इन्द्रियां उत्पन्न की। ५ - तस्य चकारमात्रयाऽऽपञ्चन्द्रमस पथर्ववेदं नक्षत्राणि, श्रमिति स्वमात्मानं जनदित्यं गिरसामानुष्टुभं छन्दः एकविंशं स्तोमं दक्षिणां दिशं शरदऋतु मनोऽध्यात्मं ज्ञानं ज्ञेयमितीन्द्रियान्यभवत् । (गे० ब्रा० पू० भा० १।२० ) अर्थ-उसको बकार मात्रा से ब्रह्मा ने पानी. अथर्म वेद, नक्षत्रश्र रूप अपने स्वरूप को उत्पन्न करते हुए ज्ञान, अनुष्टुप छन्द, पांच सूक्ष्म भूत, पांच स्थूल भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच कर्मेन्द्रियां और अंतः करण ये २१ स्तोत्र स्तुति, दक्षिणदिशा. शरदऋतु आध्यात्मिकमन, ज्ञान, जानने योग्य वस्तु और इन्द्रियां उत्पन्न की। -- 'चन्द्रमा' तस्य मकार श्रत्येतिहासपुराणं वाको वाक्यगाथा, नाराशंमीरूप निषदोऽनुशासनमिति पृधत् कुग्दू गुहन् महत्तच्छमोमिति व्याहृतिः स्वरशम्यनानातंत्रीः स्वरनृत्यगीतकादित्रा Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) एव भवत् चैत्ररथं देवतं द्यूतं ज्योतिर्वाहतं छन्दस्तुणवत् त्रयत्रिशस्तीपौ ध्रुवासू दिशं हेमन्त शिशिरावृत् श्रोत्र मध्यात्मं शब्दश्रवणमितिन्द्रियान्वभवत् । ०० ११९२ 11 अर्थ-उसकी मकार मात्रा से ब्रह्मने इतिहास, पुराण, बोलने की सामर्थ्य वाक्य, गाथा, और वीरनरोकी गुण कथाएं उपनिषद् अनुशासन शिक्षा उपदेश वृधत्-बुद्धि वाला परिपूर्ण ब्रह्म, करत् सृष्टिकर्ता ब्रह्म गुहत छिपा हुआ अन्तर्यामी ब्रह्म महतपूजनीय ब्रह्म नत् फैला हुआ ये पांच महाव्याहृतियां शम शान्ति रक्षक ब्रह्म सर्व रक्षक मझ, ये दोनों पांच में मिलने से सात महाव्याहृति, स्वर से शान्ति उपजाने वाली नाना प्रकार की बी । आदि विद्याएं स्वर, नृत्य, गीत वादित्र बनाए और विचित्र गुण वाले दिव्य पदार्थो के समूह विविध प्रकाश बाली ज्योति बेद वाणी युक्त छन्द तीनों कालों में स्तुति किये गये तैंतीस देवतासृष्टि प्रलय रूप दो स्तोम-स्तुति, ऊंची नीची दिशाएं. हेमंत और शिशिर ऋतु श्राध्यात्मिक श्रोत्र शब्द और सुनने की सामर्थ्य, ज्ञान कर्म साधनरूप इन्द्रियां ब्रह्म बनाई । स खलु पादाभ्यामेव पृथिवीं निरमिमत । उदरादन्तरिचम् | मृदनों दिवम् । स तां त्रल्लोकानभ्यश्राम्यदम्यतपन्समतपत् तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्तप्तेभ्यः सन्तप्तेभ्यस्त्रीन् देवान् निरमित वायुपादित्य मिति । स खलु पृथिव्या एवात्रिं निरमिमत अन्तरिक्षाद्वायुं दिव आदित्यं । सतस्त्रीन् देवानभ्यश्राम्यदम्यत्तपत् समतपत् तेभ्यः श्रान्तेभ्यस्तप्तेभ्यः : Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४७ ) संतप्तेभ्यस्त्रीन् वेदान्निरमिमत-ऋग्वेदं यजुर्वेदं सामवेदमिति अग्नेॠग्वेद, वायोर्यजुर्वेदमादित्यात् सामवेदम् | (गो० ना० पू० भा० २ १ | ६) अर्थ-उस ब्रझने पांव से पृथ्वीका निर्माण किया । उदरमें से अंतरिक्ष और मस्तक में से स्वर्गका निर्माण किया। उसके बाद उसने तीनों लोकों को तपाया, उसमें से अग्नि, वायु और श्रादित्य इन तीनों दोषोंकी उत्पत्ति हुई। उसने पृथ्वी में से अनि अन्तरिक्ष में से वायु और स्वर्ग में से आदित्यको उत्पन्न किया । उसने तीनों देवोंको तपाया तो उसमें से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद इन गीतों वेदोंकी उत्पत्ति हुई। ऋग्वेद, वायुसे यजुर्वेद, और आदित्य से सामवेद बना । , सभूयोऽश्राम्यत् भूयोऽतप्यत् भूय आस्मानं सपतपत्स मनस एवं चन्द्रमसतिरमिमत, नरवेभ्यो नक्षत्राणि, लोमस्य ओषधि वनस्पतीन् क्षुद्रेभ्यः प्रणिभ्योऽन्यान् बहून देवान् । (गो० त्रा० पू० भा० १।१२) अर्थ-उस ब्रह्मने भ्रमपूर्वक तप किया। मनसे चन्द्रमा, नखों से नक्षत्र रोम राजिसे औषधि तथा वनस्पति और शुद्र प्राणोंसे अन्य बहुत से देव उत्पन्न किये I धाता का सृष्टि क्रम १-ऋऋतु 3. सत्य ३- रात्रि ( अन्धकार ) ४- समुद्र ५-सम्वत्सर - काल ६- अहोरात्र सर्वभूत ७- सूर्य चन्द्र स्वर्ग ६- पृथ्वी १० अन्तरिक्ष } त्रैलोक्य Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( c ) असुर सृष्टि स इपा प्रतिष्ठा वित्वाऽकाम्यत-प्रजायेयेति । स तपोसप्यत । सोऽन्तर्वानभवत् । स जघनादसुरानसृजत । तेभ्योतृन्मये पात्रेऽन्नमदुहत । याऽस्य सातनूरासीत् । तापपाहत । स समिस्वाभवत् । (पृ. यजु० ते० प्रा० २।२६) अर्थ-~-उस प्रजापति को बैठने की जगह मिल जाने से उसने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा की । तप किया जिससे वह गर्भवान हुआ । अघन भाग में से असुरों को उत्पन्न किया और उनके लिये मिट्टा के पात्र में अन्न डाला, जो उनका शरीर था वह छोड़ दिया और उसका अन्धकार बन गया। अर्थात् रात्रि हो गई। मनुष्य सृष्टि सोऽकामयत प्रजा येयेति । स तपोऽतप्यत । सोऽन्तर्वा न भवत् । स प्रजन जादेव प्रजा असृजत । तस्मादिमा भूयिष्ठाः प्रजननाध्येन्तममृजत । ताभ्यो दारुमये पात्रेपयोऽदुहत् । याऽस्य सा तनूरासीत् वामपहस । सा ज्योत्स्नाऽभवत् । (व यजु० ते० प्रा० राइ) ___ अर्थ-उस प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा की फिर तप किया यह गर्भवान बना। जननेन्द्रिय से मनुष्यादि प्रजा उत्पन्न की। जननेन्द्रिय के कारण से प्रजा बहुता हुई उसे काष्ठ पात्रमें दूध दिया, जो उनका शरीर था उसे छोड़ा वह ज्योत्स्ना-प्रकाश रूप बन गया । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) ऋतु सृष्टि सोऽकामयत प्रजायेयेति । स तपोऽतथ्यत : सोऽन्तर्वान भवत् । स उपपक्षाभ्यामेवप्नसृजत । तेभ्यो रजते पात्रे घृतमहत् । यास्य तनूरासोत् तामपाहत | साऽहोरात्रियोः सन्धिरभवत् । (कु. यजु० ते ना. २६) अर्थ-प्रजापति ने उत्पन्न करने की इच्छा की तप किया. वह गर्मवान हुआ. दोनों पाश्यों (पासे)से ऋतु-कालाभि मानी नक्षत्रादि सृष्टि उत्पन्न की उन्हें चांदी के पात्र में घृत दिया, उन्होंने जो शरीर छोड़ा वह सन्ध्या रूप बना । देव सष्टि सोऽकामयत प्रजायेयेति । स तपाऽतप्यत । सोन्तर्वानमवत् । स मुखाद्देवानसृजत । तेभ्योहरते पात्रे सोममदुहत् । याऽस्य सा तनूरासीत् । तामपाहत । तदहरभवत् । (व० यजु० त० ब्रा० सराह) अर्थ- प्रजापति ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा की तप किया और गर्भवान् बना, मुंह में से देवों को उत्पन्न किया, उन्हें हरित पान में सोम रस दिया, जो शरीर धारण किया था उसे छोड़ा, उसका दिन हो गया । देव उत्पन्न करने वाला शरीर दिन रूप हुआ यही देवों का देवपन है। सृष्टि क्रमका कोष्ठक ५-प्रकाश २-श्रमि ५-बड़ी ज्वाला ३-ज्याला ६-भ्रूमादिका घन समुद्र Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४५० } अथवा १- पानी २ पृथ्वी ३ अन्तरिक्ष ४ स्वर्ग ५ असुर और रात्रि ५ मनुष्य और ज्योत्स्ना प्रकाश ऋतु नक्षत्रादि और सन्ध्या देवता और दिन । प्रजापतिकी सृष्टिका बड़ा प्रकार आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत् । तस्मिन् प्रजापतिर्वायुभूस्वाचरत् । य इमाम पश्यतां वराहो भूत्वाऽहस्तां विश्वकर्मा भूत्वा व्यया सा प्राथत। स पृथिव्य भवत्तत्पृथिव्यै पृथिवीत्वम् । (क्र० यजु० ० सं० ७११४) अर्थ- सृष्टि के पूर्व केवल पानी ही था. प्रजापति वायु रूप हो कर उसमें फिरने लगा : के को देखा। उसे देख कर प्रजापति ने वराह-सूअर का रूप धारण किया और पानी में से पृथ्वी को खोद कर ऊपर ले आया ? फिर बराह का रूप छोड़ कर प्रजापति विश्वकर्मा बना और पृथ्वी का म र्जन किया. फिर उसका विस्तार किया, जिससे वह बड़ी पृथ्वी बन गई। विस्तार के कारण से ही इस पृथ्वी का पृथ्वीपन है । आपो वा इदमग्रे सलिल मासीत । स प्रजापतिः पुष्करपर्णे वातो भूतोऽलेलायत् । स प्रतिष्ठां नाविन्दत । स एतदप कुलायमपश्यत् । तस्मिन्नमिचिनुत । तदियम भवत् । ततो म प्रत्यतिष्टत् । ( कु० यजु० ० ० ५/६ ४) अर्थ- सृष्टि के पूर्व केवल पानी ही था, वह प्रजापति पवन रूप हो कर कमल पत्र पर हिलने लगा, उसे कहीं भी स्थिरता नहीं मिली. इतने में उसे शेवाल (काई) दिखाई दी ? उस शेबाल Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५१ ) पर उसने ईटोंसे अग्निको (चुनना बनवाना) चुना जिससे पृथ्वी बन गई। उसके ऊपर उसे बैठने का स्थान (प्रतिष्ठा , मिल गया । प्रजापति की सृष्टिका सानवाँ प्रकार आपो वा इदपग्रे सलिल पासीत् । स एता प्रजापतिः प्रथमा चिति मपश्यत् । तामुपाधत्त तदियभवत् । (क. यज० स० सं० ५७५) अर्थ--सृष्टि के पहले केवल पानी था, प्रजापति ने प्रथम चिसि = अग्नि में दी जाने वाली आहुति देखी. प्रजापसिने उसकी अधिष्ठान बनाया. तब वह चिति पृथ्वी रूप बन गई। ते विश्वकर्माऽवीत । उपत्रायानाति नेह लोकोस्तीत्य प्रवीत् । स एतां द्वितीयां चितिमपश्यत् । सामुपायत्त । वदन्तरिक्षमभवत् । (कृ० यजु० ते० सं० ५७५) अर्थ-विश्वकर्मा ने प्रजापति को कहा कि--मैं तेरे समीप आऊँ ? प्रजापति ने उत्तर दिया कि यहां अवकाश नहीं है । इतने में विश्वकर्मा ने दूसरी चिति - श्राहुति देखी. उसका श्राश्रय किया तब वह चिति अन्तरिक्ष बन गया स यज्ञः प्रजापतिमब्रवीत् उप स्वायऽ । नीतिनेह लोकोऽन्तीत्य ब्रवीत् स विश्वकर्माणमब्रवीत् उपत्वाऽयानीति केनमोपैष्यतीति । दिश्यामिरित्य ब्रवीत्तम् । दिश्याभिरुतत्ता उपाधत्त । ता दिशोभवन् । (कृ० यजु० ते० सं ५५७५) अथं—उस यज्ञ पुरुष ने प्रजापति से कहा कि मैं तेरे समीप पृथ्वी पर पाऊं ? प्रजापति ने कहा कि यहां जगह नहीं है । तब उस यज्ञ पुरुष ने विश्वकर्मा को पूछा कि मैं तुम्हारे पास अन्तरिक्ष Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५२ ) में आऊं ? विश्वकर्मा ने पूछा कि क्या वस्तु लेकर तू मेरे पास आयेगा ? यक्ष पुरुषने कहा कि - दिशाओं में देने की आहुति लेकर आऊंगा ? विश्वकर्मा ने उसे स्वीकार कर लिया। यह पुरुष ने अन्तरिक्षमें दिशाका आश्रय किया और प्राची आदि दिशाएं बन गई स परमेष्ठी प्रजापतिमत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति । नेहलोकोऽस्तीत्यताम् । स एतां तृतीय चितिमपश्यत् । तामुपाधततदसावभवत् । (कृ० तजु० ० सं० ५७/५) - अर्थ - ( उसके बाद चौथा पतमेष्ठी आता है) परमेष्ठी ने प्रजापति विश्वकर्मा और यह पुरुष को पूछा कि मैं तुम्हारे पास आऊं ? तीनों ने उत्तर दिया कि हमारे पास जगह नहीं है । इतने मैं परमेष्ठी ने तीसरी चिति श्राहुति देखी उसका आश्रय लिया तो वह स्वर्ग बन गई : = स श्रादित्यः प्रजापतिमत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति नेहनोकोऽतीत्यत्रत् । स विश्वकर्माणं च यज्ञं चाब्रवीत् । उपत्रामध्य नाति । नेड लोकोऽस्तीत्यताम् । स परमेष्ठिन पत्रवीत् । उपत्वाऽयानीति । केनयोन्यसीति लोकं पृययेत् वीतम् | लोकं पृथयो चस्मादयातयाम्नी । लोकं वृणाऽयातयामा ह्यसावादित्यः । (कु०यजु० तै०सं० ५७५) अर्थ – उस सूर्य ने प्रजापति को कहा कि मैं तेरे पास आऊं ? प्रजापति ने कहा कि यहां अवकाश नहीं है । इसके बाद विश्वकर्मा और यज्ञ पुरुष को पूछा तो उन दोनों ने भी मना कर दिया। सब सूर्य ने परमेष्ठिको पूला परमेष्ठीने कहा कि क्या लेकर मेरे पास आयेगा ? सूर्य ने कहा लोकं प्रा बार बार उपयोग करनेपर भी जिसका तत्व क्षीण नहीं हो और चिति में जहा छिद्र हो जाय, ! Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां जिससे छिद्र बंद कियाजाय वह लोकपणा कहलाती है) लेकर मैं आऊंगा । परमेष्ठी में स्वीकार किया. सूर्य ने लोकंपूणा के साथ स्वर्ग में आश्रय लिया और प्रति दिन श्रावृति करके प्रकाश देने का कार्य चालू रक्खा] लोकपणा अक्षीण--सारा है. इस लिये सूर्य भी अक्षीण-सार है, अर्थान् अक्षय प्रकाश वाला है । तानृपयांऽत्रुवन्नुप व आयामेति । केन न उष्यथेति । भूम्नेत्यब्रुवन् तान् द्वाभ्यां चितीभ्यामुपायन्त । (कृ. यजु० ते० सं० ५।७।५) .. अर्थ-षियों ने प्रजापति आदि पांचों से पूछा कि हम तुम्हारे पास श्राय ? पांचों ने पूछा कि तुम हमें क्या होगे ? ऋषियों ने कहा कि हम बहुत बहुत देंगे। पाचों ने स्वीकार किया ऋषियोने चौथी और पांचवीं दो चित्तियोंके साथ श्राश्रय लिया। प्रजापतिकी अशक्तिका एक और नमूना देखि ये-- प्रजापतिः प्रजाः सृष्टा प्रेमणानुप्राविशत् । ताभ्यः पुनः सं भपितुंना शक्नोत् । सोऽब्रवीत् । ऋनवदित् स यो मेतः पुनः संचिन बदिति । तं देवाः समाचिन्वन् । ततो वै त प्राप्नुवन् । (कृ० यजु० ते० सं० १५२) अर्थ-प्रजापति ने मृष्टि सजन करके प्रेम से उस प्रमा में प्रवेश किया । किन्तु उसमें से पीछे निकल न सका तब उसने देवताओंको कहाकि जो मुझे निकाल देगा वहऋद्धिमान होगा। देवतानोने उसे बाहर निकाल दिया जिससे वे ऋद्धिवान होगये । यहाँ प्रजापति आत्मा तथा प्रजायें इन्द्रिय आदि हैं। (यह प्रकरण. स्थानकवासी जैन मुनि श्वी रसचन्द जी शतावधानी द्वारा लिखित 'सृष्टि बाद और ईश्वर के प्राघारसे लिखा गया है।) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (**) सृष्टि रचना रहस्य " सृष्टि के आरम्भ में केवल एक श्रात्मा ही था उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। उसने लोक रचना के लिये ईक्षण. विचार किया और केवल सङ्कल्पसे ही अम्भ मरीचि और मर इन तीनों लोकोंकी रचना की इन्हें रचकर उस परमात्मा ने उनके लिये लोकपालों की रचना करने का विचार किया और जल से ही एक पुरुष की रचना कर उसे अवयव मुक्त किया परमात्मा के सङ्कल्प से ही उस विराट पुरुष के इन्द्रिय, इन्द्रियगोलक और इन्द्रियाधिष्ठाता देव उत्पन्न हो गये। जब वे इन्द्रियाधाता देवता इस महा समुद्र में आये तो परमात्मा ने उन्हें भूख-प्यास से युक्तकर दिया। जब उन्होंने प्रार्थना की कि हमें कोई ऐसा आयसन प्रदान किया जाय जिसमें स्थित होकर हम अन भक्षण कर सकें । परमात्मा ने उनके लिये एक गौ का शरीर प्रस्तुत किया. किन्तु उन्होंने यह हमारे लिये उपयुक्त नहीं है ऐसा कहकर स्वीकृत कर दिया। तत्पश्चात् बोड़ेका शरीर लाया गया किन्तु वह भी अस्वीकृत हुआ । अन्त में परमात्मा उनके लिये मनुष्यका शरीर लाया । उसे देखकर सभी देवताओंने एक स्वर उसका अनुमोदन किया और वे सब परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न भिन्न अवयवों में बाक प्राण. चक्षु आदि रूपसे स्थित होगये फिर उनके लिये अन्न की रचना की गई। अन्न उन्हें देखकर भागने लगा देवताओं ने उसे वाणी. चक्षु, प्राण एवं श्रोत्रादि भिन्न २. करणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल नहीं हुये अन्त में उन्होंने उसे अपान द्वारा महण कर लिया इस प्रकार यह सृष्टि हो जाने पर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये, क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपत्र अकिञ्चत्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमा को Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदीर्ण कर उसके द्वारा उसमें प्रवेश कर गया । इस प्रकार जीव भाव को प्राप्त होने पर उसका भूती के साथ तादात्म्य हो जाता है। पीछे जब गुरु कृपा से बोध होने पर उसे अपने सर्व व्यापक शुद्ध स्वरुप का साक्षात्कार होता है ता उसे 'इदम्' इस तरह, अपरोक्ष रूप से देखने के कारण उसकी इन्द्र ' संज्ञा हो जाती है. . इस प्रकार ईक्षणसे लेकर परमात्माके प्रवेश पर्यन्त जो सृष्टि क्रम बतलाया गया है. इस ई विद्यारण्य स्वामोन ईश्वर सृष्टि कहा है। ईक्षणादि प्रवेशान्तः संसार ईश कल्पितः 1 इस श्राख्यायिका में । बहुतसी विचित्र बातें देखी जाती हैं । यों तो मायामें कोई भी बाल कुहलजनक नहीं हुआ करती, तथापि आचायका तो कथन है कि यह केवल अथवाद है । इसका अभिप्राय आत्मबोध कराने में है। __ यह लेख कल्याण प्रेस गोरखपुरसे छऐ शंकर भाष्य उपनिषद की भूमिका का है। उपरोक्त लेखसे यह सिद्ध है कि सृष्टि रचना का जो वर्णन है, वह जीवके शरीरादिको रचनाका ही घणन है। भारतके महान विद्वान् विद्यारण्य स्वामीने भी इसीको ईश सृष्टि माना है । यह श्रात्मा शरीर व प्राण प्रादिकी रचना किस प्रकार करता है इसका वर्णन हम विस्तार पूर्वक कर चुके हैं। फिर भी यहां हम एक प्रमाण उपस्थित करते हैं। पांच देव सुषिया तस्य ह वा एतस्य हृदयस्य पंचदेव सुषयः स योऽस्यप्राङ्सुषिः स प्राणास्त-चक्षुः स आदित्यस्तदेत तेजोऽनाद्यमित्युषासीत तेजस्व्यनादो भवति य एवं वेद । छा० उ० ३।१३।१ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) अथ योऽस्यदचिणः सुधिः स व्यानस्तच्छोत्रं स चन्द्रमास्तदेतच्छ्रीश्च यश्वेत्युपासीत श्रीमान् यशस्वी भवति य एवं वेद ॥ २॥ अथ योस्यप्रत्यङ्सुषिः सोऽपानः सा वाक् सोऽग्निस्तदेतद् ब्रह्मवचं समाधमित्युपासीत ब्रह्मवर्चस्यन्नादो भवति य एवं बेद ॥३॥ अथ योऽस्योदसुषिः स समानस्तन्मतः स पर्जन्यः ॥४॥ अथ योऽस्योंर्ध्वः सुषिः स उदानः स वायु स आकाशा अर्थात्-इस इश्यके देव सुशि (छिद्र) हैं। इसका जो पूर्व दिशावर्ती छिद्र है वह प्राण है, वह चक्षु है, वह आदित्य है, वहीं ग्रह तेज और वहीं अन्नाद्य है, इस प्रकार उपासना करे, जो इस प्रकार जानता है वह तेजस्वी और अन्नका भोक्ता होता है। तथा अन्य स्थानमें भी आया है कि"आदित्यो ह नै वासः प्राण" प्र० उ०३८ अर्थात-निश्चयसे वारा प्राणका नाम ही आदित्य है तथा च "स आदित्यः कस्मिन्प्रतिष्ठितः, इति चक्षुषि" ००३।ह "यह आदित्य किसमें स्थित है ? चक्षुमें" तथा इसका जो दक्षिण छिद्र हैं, वह व्यान है, वही श्रोत्र है, • वही चन्द्रमा है और वही यह श्री एवं यश है। अन्यत्र कहा है कि "श्रोत्रेण सृष्टादिशश्च चन्द्रमाश्च !" एवं इसका जो पश्चिम छिद्र है वह अपान है. वह वाक है, वह अग्नि है, आषि Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी लिये अतिमें कहा है कि-"मुखाग्निरजायन" अर्थात् मुखसे अग्नि (वाक) उत्पन्न हुई । तथा जो इसका उत्तरीय छिद्र है, वह मन है, वह मेघ है, और कीर्ति व देह का लावण्य है। इस लिये श्रुति कहती है कि "मनसा सृष्टा श्रापक्ष चरुन । इस अतिके अनुसार श्राप (जल) मेघसे ही होने वाले हैं। अभिप्राय यह है कि यहां जल आदि मानसिक भावोंके नाम हैं। सथा इसका जो ऊचे छिद्र है वह उदान है. वह वायु है, वह आकाश है, अर्थात् उदान वायुका नाम वायु और आकाश है। अतः जहां जहां घेदोंमें श्राकाशादिकी उत्पत्तिका कथन है वहां २ उदान वायु की उत्पत्तिका कथन समझना चाहिये । तीन लोक "प्रयो वा इमे लोकाः । श० १।२।४।२।। अर्थात्-तीन ही ये लोक हैं। तस्मात् .. 'त्रयो लोका असृज्यन्त पृथिव्यन्तरिक्ष यौ श० ११११ अर्थात्-उस प्रजापति परमात्माने . . . . 'तीन लोकोंको उत्पन्न किया । पृथिवी अन्तरिक्ष और धुलोक । इन्हीं तीन लोकों में प्रजापतिकी सब प्रकारको सृष्टि चल रही है। ये तीन लोक हमारी दृष्टिसे ही कहे गये हैं। वैसे तो लोक तीन प्रकार के हैं और अनेक हैं। किसी प्राचीन ब्राह्मणका पाठ श्रापस्तम्ब धर्मसूत्र ४। ७ । १६॥ में दिया है। एक रात्रं चेदतिथीन्वाजयेत्पार्थिवॉल्लोकान भिजयति Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५८ ) द्वितोय यान्तरिच्यास्तृतीया दिव्यां चतुर्थ्यां परावतो लोकान परिमिता भिरपरिमितॉल्लोकान भिजयतीति विज्ञायते । श्री यदि एक रात अतिथिको वास देता है. तो पार्थिव लोकांक जीतता है। दूसरी (रात देने से ) अन्तरिक्ष में होने वाले लःकोको तीसरी दिव्य लोकोंको, चौथीसे उनसे भी पर जो लोक हैं और अपरिमितसे अपरिमित लोकोको जीतता है ऐसा ब्राह्मण ज्ञान होता है । -J नित्य जीवात्मा अपने अपने कम के अनुसार इनमें से भिन्न भिन्न लोकों में जन्म लेता है। मनुष्य शरीर सबसे श्रेष्ट शरीर माना गया है। उस मनुष्यको इस पृथ्वी पर जिस प्रकार से परम सुख मिले, उसका विधान ब्राह्मण ग्रन्थ करते हैं । आज भी पश्चिम लौकिक विद्याने बहुत उन्नतिकी है । परन्तु उस सारी उन्नति में सुखकी मात्रा यद्यपि अधिक तो की गई है. पर ओ कर्म अन्य दुःख आने हैं. उनसे निक्टारका कोई उपाय नहीं सोचा गया पश्चिम वाले ऐसा कर भी नहीं सकते अमर आत्मामें उनका विश्वास नहीं है इसलिये प्रवाद रूपस क्रमोंके सिद्धान्तका उन्होंने नहीं जान।।" (पं भगवतदत्त जा ) यहां भी तीन लोकांसे शरीर के तीन लोकही अभिप्रेत है. क्योंकि यह जगत तो न कभी बनता है न कभी इसका नाश ही होता है। वा संपूर्णानन्द जी ने इसका अच्छा विवेचन किया है। यथा- सप्त लोक "जिस प्रकार वैदिक आर्य सात लोक, और सात आदित्य मानते थे उसी प्रकार पारसियों के यहां भी सात कवर और सात अधिमाने जाते हैं। उनका ऐसा विश्व है कि एक ही Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहुरमज्द सप्तधा होकर इन सात लाकोंका शामन करता है। इन मात असुरोको अमेष रेन्त ( अमर हितकारी ) कहते हैं। सातों कधरों के नाम अर्जहे सबहे मधफ्रगु-बियफश कौरूवरश्ति रजरे श्वित. रव्यनिरथ हेतुमन्त अशि और इनके मात असुके नामबहुमनो अशहिश्त. नेत्रत्रैर्य. स्पेन्त, आमैं त. हीतार, और अमरतार हैं । भर्लोक का रस्त्रनिरथ हैं। इसके स्वामी सवय हैं। जल और प्रकाश के लिये जैमा निरन्तर युद्ध वेदों में दिस्य लाया गया है। केसा ही अवेस्ता में वपिति है। कहीं तो रश्वतेना के प्रकाश के लिए पातर ( अग्नि ! और अजि ( अनि ) दहा के में लड़ाई होती है, कहीं अपौष वर्षों को रोक लेता है. तित्रत्र्य उसस से लड़ते हैं । पहिले हार जाते हैं. फिर यज्ञ से बल प्राप्त करके उसे अपनी गदा, अग्नि रूपी वाज़िश्त, से मारते हैं और फिर मरुती के बताए मार्ग से जल बह निकलता है । वेतन की कथा अत्रेस्ता में भी है। वह जिस रूप में है उसमें वेतन और त्रिन आप्त्य दोनों की कथाओं का मल है । इसमें भी अनुमान होता है कि वेतन और त्रित अाध एक ही है। अवेश्ता के अनुसार थू तीन अथव्य से ऋशि बहाक ( अहिदैत्य ) की जा स्वाष्ट्र की भांति तीन सिर और छः ऑख वाला था. चतुष्कोण घरेण (वरुण श्राकाश) में लड़ाई हुई। थे नोनने अहिको मारहाला" महाप्रलयाधिकरण _ 'यातो विशेष कारणों से किसी व्यक्ति को किसी समय भी मीद लग सकती है किन्तु कुछ ऐसी परिस्थिति होती है कि रात में एक ही समय लाखो मनुष्य सोये देख पड़ते हैं । सब एक दूसरसे पृथक हैं पर सबके व्यक्तित्व खोये हुए से रहते हैं। कभी कभारमा होता है कि पेसी अवस्था दीर्घकाल के लिए बहुत से जीवों की हो Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६० ) जाती है। ज्योतिषी निश्चय के साथ नहीं कह सकता कि किन खेचर पिएडों पर जीव थारी रहते हैं । सब प्रणियों के शरीर प्रथिवी पररहने व लोंके समान हैं. यह बात क्यों मानी जाय? ऐसी परिस्थति उत्पर मोहती जिनमें एक दूसनेमामलिन युग से पिण्ड एक साथ नष्ट हो जायं या बसने योग्य न रह जायें । सूर्य को किसी प्रकार का आघात पहुंचने से सौर मण्डल के सारे प्रहोंकी यही गति होगी। सूर्य धीरे २ ठण्डा हो रहा है। एक दिन उसकी ठण्डक इतनी बढ़ जायगी कि यदि उस समय उसके साथ कोई ग्रह बच रहा तो वह हम जैसे प्राणियोंके असनेके 'अयोग्य हो चुका होगा। सूर्य आकाश गल्ला में है । यदि इस नीहारिका के जस प्रदेश में, जिसमें सूर्य इस समय है. कोई तोम उत्पन्न हो तो मूर्य परिवार नष्ट हो जायगा। क्षोभ होगा नहीं, यदि होगा तो कब और कैसे होगा, यह सब हम अभी नहीं जानते । विज्ञान को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वायु की सक्रियता कम हो रही है अर्थात् धीरे धीरे सारे भौतिक पिण्ड निश्चेष्ट्र गति हीन होते जा रहे हैं। यदि ऐसा है तब भी संभवतः एक दिन इन पर प्राणी न रह सकेंगे। परन्तु जीव न नहीं होते, वह प्रसुप्त से हो जाते हैं। रसी दशाको जिसमें जगतका बहुत बड़ा भाग नष्ट या बसने या जीवों के भांग के अयोग्य हो जाता है महा प्रलय कहते है । महा प्रलय में उम वण्ड के जीव हिरण्यगर्भ में निमजित रहते हैं। जब फिर परिस्थिति अनुकूल होती है--और अनुकूल परिस्थिति का पुनः स्थापित होना अनिवार्य है. क्यों कि जीवों के भीतर ही तो सारी परिस्थितियोंका भंडार है-तो नयी सृष्टि होती है। जीयों की ज्ञातृत्वादि शक्तियां चिर मुषुप्त नहीं रह सकती क्योंकि अविद्या तो कहीं गयी नहीं है । शक्तियों जब जागरणोन्मुख होती है तो जीव हिरण्यगर्भसे पुनः निकलते हैं। प्रत्येक जीव अपने संस्कार Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) अपने साथ लाता है। फिर जिस प्रकार पिछले अध्याय के भूतविस्ताराधिकरण में दिखलाया गया है जीव जगत् निर्माण करते हैं। पिछले संस्कारों के कारण जीवोंमें बैलक्षण्य होता है. इसलिये एक ही प्रकार के शरीर से सत्र का काम नहीं चल सकता | परिस्थितियां बदलती हैं. सब को अपने अनुरूप शरीर मिल जातं हैं। यों ही मर्ग और प्रतिसर्ग का प्रवाह चला जाता है। महाप्रलय और नुतन सृष्टि के बीच में जितने काल तक जीष हिरण्यगर्भ में प्रलीन रहते हैं उतने दिनों तक उनके लिये नानात्व लुप्तप्राय रहता है । परन्तु यह लोप भी प्रात्यन्तिक नहीं है । उस अवस्था में भी ज्ञान शक्ति काम करती है और उसके बाद नानात्व का वृक्ष फिर हरा-भरा हो जाता है।" उपरोक्त लेख से बाबू सम्यूर्गा नन्न जी ने ग्रह सिद्ध कर दिया है कि एक देशीय खन्ड प्रलय का नाम ही महाप्रलय है और वह महाप्रलय भी परमाणु रूप नहीं होती अपितु पृथ्वी का कुछ भाग व्यबहार योग्य नहीं होने का नाम प्रलय है । तथा उस विभाग के व्यवहार योग्य हो जाने का नाम सृष्टि है । इससे हम भी पूर्णतया सहमत है। लोक मान्यतिलक व विश्व रचना "गुणा गुणेपु जायन्ते तत्रैव नि विशन्ति च । महामारत, शांति ३०४२३ इस बात का विवेचन हो चुका, कि कापिल सांख्य के अनुसार संसार में जो दो स्वतन्त्र मूल तत्व-प्रकृति व पुरुष है उनका स्वरूप क्या है. और जन्न इन दोनों का संयोग ही निमित्त कारण हो जाता है। तब पुरुष के सामने प्रकृति अपने Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) गुणों का जाल कैसे फैलाया करती है, और उस जल से हमको अपना छुटकारा किस प्रकार कर लेना चाहिये । परन्तु अब तक इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया कि प्रकृति अपने जाले को अनखे, संकर या ज्ञानेश्वर महाराजके राज्यों में प्रकृति की टकसाल' को किस क्रम से पुरुष के सामने फैलाया करती है. और उसका लय किस प्रकार हुआ करता है। प्रकृति के इस व्यापार ही को 'विश्वकी रचना और संहार कहते हैं और इसी विषयका विवेचन प्रस्तुत प्रकरण में किया जायगा। सांख्यमतके अनुसार प्रकृतिने इस जगत् या सृष्टिको श्रखं पुरुषोंके लाभ के लिए ही निर्माण किया है। 'दासबोध' में श्री समर्थ रामदास स्वामी ने भी प्रकृति से सारे ब्रह्माण्डके निर्माण होनेका बहुत अच्छा वर्णन किया है उसी वर्णन से 'विश्व की रचना और संहार शब्द इस प्रकरण में लिए गए हैं। इसी प्रकार भगवद्गीता के सातवें और आठवें अध्याय में मुख्यतः इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। और ग्यारहवें अध्यायके आरम्भ मैं अर्जुन ने श्री कृष्ण से जो यह प्रार्थना को है कि " “भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तारशोमय ।" भूतों की उत्पत्ति और प्रलय ( जो आपने ) विस्तार पूर्वक ( चतलाई उसको ) मैंने सुना, अब मुझको अपना विश्व रूप प्रत्यक्ष दिवाकर कृतार्थ कीजिये । उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि विश्व रचना और संहार तर — अक्षर-विचार ही का एक मुख्य भाग है। 'ज्ञान' वह है जिससे यह बात मालूम हो जाती है कि सृष्टि के अनेक (नाना ) व्यक्त पदार्थों में एक ही storeमूल द्रव्य है (गीता १०.२० ) और 'विज्ञान' उसे कहते हैं. जिससे यह मालूम हो कि एक ही मूलसून अव्यक्त द्रव्य से भिन्न अनेक पदार्थ किस प्रकार अलग अलग निर्मित हुए. (गीता १३।२० ) और इसमें न केवल क्षर-अक्षर विचार ह. का सभा t Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेश होता है किन्तु क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान और अध्यात्म विषयों का भी समावेश हो जाता है। भगवद्गीताके मतानुसार प्रकृति अपना खेल करनेया स्मृष्टिका का कार्य चलाने के लिये स्वतंत्र नहीं है, किन्तु उसे यह काम ईश्वरकी इक्छा अनुसार करना पड़ता है (गी: । १०)। परन्तु पहले बताया जा चुका है, कि कपिलाचायने प्रकृतिको स्वतंत्र माना है। सांख्य शास्त्र के अनुमार. प्रकृतिका संसार प्रारम्भ होने के लिये पुरुषका संयोग' ही मिमित्त-कारण बस हो जाता है . इस विषयमें प्रकृति और किसीकी भी अपेक्षा नहीं करती। सांख्योंका यह कथन है कि. ज्योंही पुरुष और प्रकृतिका सयोग होता है क्यों ही उसकी टकसाल जारी हो जाती है. जिस प्रकार बसन्त ऋतुमें वृक्षों में नय पत्ते देख पड़ते हैं, और क्रमशः फूल और फल आने लगते है (मभा० । शा० २६१ । ७३ ; मनु, ५ । ३८), उसी प्रकार प्रकृतिकी मूल साम्यावस्था नष्ट हो जाती हैं. और उसके गुणोंका विस्तार होने लगता है । इसके विरुद्ध वेद संहिता, उपनिषद् और स्मृति-अन्धों में प्रकृतिको मूल न मान कर परनाङ्गाको मूल माना है. और परमासे सृष्टिको उत्पत्ति होनेके विषयमें भिन्न भिन्न वर्णन किये गए हैं. जैसे "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्" - पहले हिरण्यगर्भ (ऋ०१० । १२१ । १) और इस हिरण्यगर्भ से अथवा सत्यसे सब सृष्टि उत्पन्न हुई ( ऋ०१२।७२।१८।१९८). अथवा पहले पानी उत्पन्न हुश्रा (ऋ० १० । ८३ । ६ ; लेकमा १ १६३ । ५ : ऐ८७० १ । १ ; ), और फिर उससे मृष्टि हुई, उस पानी में एक अण्डा उत्पन्न हुना और उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ, तथा ब्रह्मासे अथवा उस मूल अगडेसे ही सारा जगत उत्पन्न हुभा सनु १ । ८ १३ ; लां० ३ । १६) अथवा वही ब्रह्मा (पुरुष) आधे हिस्सेसे स्त्री हो गया (:. १ 1४ | ३ ; मनु. ३०.), अथवा पानी Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) उत्पन्न होनेसे पहले ही पुरुष था ( कठ० ४ । ६) अथवा पहले पर मझ से तेज, पानी और वो (अन्न) यहो तोन तत्व उत्पन्न हुए और पश्चात् उनके मिश्रण से सब पदार्थ बने (छ० ६ । २ । ६) | तव (२१३ १ - १५ ) में अन्तिम निर्णय यह किया गया है, कि आत्म रूपी मूल ब्रह्म से ही आकाश आदि पंच महाभूत क्रमशः उत्पन्न हुए हैं ( तै००२ । १) | प्रकृति महत् आदि तत्त्वांका भी उल्लेख कट (३ ११) मैत्रायणी (६ । १०), श्रवेताश्वर (४ । १०६ । १६) आदि उपनिषदों में स्पष्ट रीतिसे किया गया है। इसमें देख पड़ेगा कि यद्यपि वेदान्त मत वाले प्रकृतिको स्वतन्त्र न मानते हां, तथापि जब एक वार शुद्ध ब्रह्ममें ही मायात्मक प्रकृति-रूप विकार ढगोचर होने लगता है तब आगे सृष्टिके उत्पत्ति-क्रम सम्बन्ध में उनका और सांख्य मत वालोंका अन्तमें मेल हो गया, गया, और इसी कारण महाभारतमें कहा है कि “इतिहास, पुराण, अर्थशास्त्र आदिमें जो कुछ ज्ञान भरा है वह सब सांख्यों से प्राप्त हुआ है" (शां०३०१ । १०८ । १०६) उसका यह मतलब नहीं है, कि वेदान्तियोंने अथवा पौराणिकोंने यह ज्ञान कपिल प्राप्त किया है। किन्तु यहां पर केवल इतना ही अर्थ अभिप्रेत है, कि सृष्टि के उत्पति-क्रमका ज्ञान सर्वत्र एक सा देख पड़ता है। इतना ही नहीं किन्तु यह भी कहा जा सकता है, कि यहां पर सांख्य शब्दका प्रयोग 'ज्ञान' के व्यापक अर्थ में ही किया गया है। कपिलाचार्यने सृष्टिके उत्पत्ति-क्रमका वर्णन शास्त्रीय दृष्टिले विशेष पद्धति-पूर्वक किया है और भगवद्गीता में भी विशेष करके इसी सांख्य कर्म को स्वीकार किया है. इस कारण उसका विवेचन इस प्रकरण में किया जायगा । सांख्योंका सिद्धांत है. कि इन्द्रियोंको अगोचर अर्थात् अव्यक्त Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म और चारों ओर अखंडित भरे हुए एक ही निरव यब मूल द्रव्यसे सारी व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई है । यह द्धिान्त पश्चिमी देशों के अर्वाचीन अधिभौतिक शास्त्रज्ञोंको प्राहा है । प्राय होक्यों. अत्र तो उन्होंने यह भी निश्चित किया है, किसी मूल द्रव्यको शक्तिका क्रमशः विकास होता आया है. और इस पूर्वापर क्रमको छोड़ अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं हुआ है। इसी मतको उत्क्रांति-वाद या विकास सिद्धान्त कहते हैं । जब ग्रह सिद्धान्त पश्चिमी राष्ट्रोंमें, गत शताब्दी में पहले पहल ढूंढ़ निकाला गया तत्र यहां बड़ी खलबली मच गई थी। ईसाई धर्म पुस्तकों में यह वर्णन है, कि ईश्वरने पंचमहाभूतोंको और जंगम वर्गके प्रत्येक प्राणीको जातिको भिन्न भिन्न समय पर पृथक पृथक और स्वतन्त्र निर्माण किया है, और इसी मतको. उत्क्रान्तिवान के पहले सब ईसाई लोग सलमानते थे। एक जब दाई का काः सिद्धान्त उत्क्रान्ति-वादसे असत्य ठहराया जाने लगा. तब उत्क्रान्ति-वादियों पर खूब जोरसे आक्रमण और कटाक्ष होने लगे। ये कटाक्ष आज कल भी न्यूनाधिक होते ही रहते है । तथापि शास्त्रीय सत्यमें अधिक शक्ति होनेके कारण मृष्टि उत्पत्तिके सम्बन्ध में सम विद्वानोंका उत्क्रान्ति मत ही आज कल अधिक प्रास्त्र होने लगा है, इस मतका सारांश यह है:-सूर्य मालामें पहले कुछ एक ही सूक्ष्म द्रव्य था; उसकी गति अथवा उष्णताका परिणाम घटता गया; तब उक्त द्रव्यका अधिकाधिक संकोच होने लगा. और पृथ्वी समेत सब ग्रह क्रमशः उत्पन्न हुए, अंतमें जो शेष अंग अचा बही सूर्य है । पृथ्वीका भी सूर्यके सदृश पहले एक उष्ण गोला था. परन्तु ज्यों ज्यों उसकी उष्णता कम होती गई त्यो त्यों मूल द्रव्यों में से कुछ द्रव्य पतले और कुछ घने होगये, इस प्रकार पृथ्वीके ऊपरफी इथा और पानी लथा उसके नीचेका पृथ्वीका जड़ गोला Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .------- -- -- यं नान पदार्थ बने, और इसके बाद, इन तीनों के मिश्रण अथवा संयोगसे सब सजीव तथा निर्जीव सृष्टि उत्पन्न हुई है । डार्विन 'प्रभृति पंडितोंने तो वह प्रतिपादन किया है कि इसी तरह मनुष्य भी छोटे कीड़ेसे बढ़ते बढ़ते अपनी वर्तमान अवस्थामें आ पहुंचा है। परन्तु अब तक अधिभौतिक-वादियों में और अध्यात्म-वादियों में इस बात पर बहुत मतभेद हैं. कि इस सारी सृष्टिक मूल में श्रात्मा जैसे किसी भिन्न और स्वतन्त्र तत्वको मानना चाहिये या नहीं । हेकलके सहश कुछ पंडित यह मान कर. कि जड़ पदार्थोसे ही बढ़त बढ़त आत्मा और चैतन्यकी उत्पत्ति हुई,. जड़ातिका प्रतिपादन करते हैं, और इसके विरुद्ध कान्ट सरीखे अध्यात्मशानियोंका यह कथन है. कि हमें सृष्टिका जो ज्ञान होता है वह हमारी आत्माके एकीकरण-व्यापारका फल है. इसलिए आत्माको 'एक स्वतन्त्र तत्व मानना ही पड़ता है। क्योंकि यह कहना-कि जो आत्मा वाम सृष्टिका झाता है, वह उसी सृष्टिका एक भाग है अथवा उस सृष्टिही से वह उत्पन्न हुआ है-तर्क दृष्टिसे ठीक वैसा ही असमंजस या भ्रामक प्रतीत होगा. जैसे यह उक्ति कि हम स्वयं अपने ही कंधे पर बैठ सकते हैं । यही कारण है, कि सांख्य शास्त्रमें प्रकृति और पुरुष ये दो स्वतन्त्र तत्व माने गये हैं। सारांश यह है कि अधिभौतिक सृष्टि शान चाहे जितना बढ़ गया हा, तथापि अब तक पश्चिमी देशों में बहुतेरे बड़े बड़े पंडित यही प्रतिपादन किया करते हैं कि मष्टिके मूलतत्वके स्वरूपका विवेचन भिन्न पद्धतिहांस क्रिया जाना चाहिये । परन्तु, यदि केवल इतना ही विचार किया जाये. कि एक जड़ प्रकृतिसे आगे सब ठयक्त पदार्थ किस क्रमसे बने हैं तो पाठकोंको मालूम हो जायगा,कि पश्चिमी उत्क्रान्ति-मनमें और मान्य शास्त्रमें वर्णित प्रकृतिके कार्य संबंधी नत्वोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं है । क्यों कि इस - -- Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य सिद्धान्तसे दोनों सहमत हैं कि अव्यक्त सूक्ष्म और एक ही मूल प्रकृतिसे क्रमशः (सुक्ष्म और स्थूल) विविध तथा व्यक्त सृष्टि निर्मित हुई है। परन्तु अब आधिभौतिक शास्त्रोंके मानकी खूब वृद्धि हो जाने के कारण, सांख्य वादियों के 'सत्व. रज तम' इन तीनों गुणों के बदले. अाधुनिक सृष्टि शास्त्रझोंने गति, उषा और बाकर्षण-शक्तिका प्रधान गुण मान रक्खा है.। यह बात सच है. कि 'सत्व. रज, तम' गुणों की न्युनाधिकताके परिमाणों की अपेक्षा उष्णता अथवा श्राकर्षण शनिको न्युनाधिकताका वात प्राधिभौतिक शास्त्रकी सष्टिसे सरलता पूर्वक समझमें आ जाती है। तथापि, गुणों के विकास अथवा गुणोत्कर्षका जो यह तत्व है, कि "गुणा गुणेषु वर्तन्ते' (गी ३ | २८), यह दोनों ओर समान ही है। सांख्य शास्त्रज्ञोंका कथन है कि जिस तरह मोड़ दार पस्ने को धीरे धीरे खोलते हैं उसी तरह सत्व-रज-तमकी साम्यावस्थामें रहने वाली प्रकृतिकी सह जन धीरे धीरे खुलने लगती है. तब सब व्यक्त सृष्टि निर्मित होती है इस कथनमें और उत्क्रान्ति-बाद में वस्तुतः कुछ भेद नहीं है । तथापि यह भेद तात्विक धर्म-सृष्टिसे ध्यान में रखने योग्य है कि ईसाई धर्मके समान गुणोत्कर्ष-तत्वका अनादर न करते हुए, गीतामें और अंशतः उपनिषद् आदि वैदिक अन्थों में भी. अद्वैत वेदान्तके साथ ही साथ बिना किसी विरोधके गुणोत्कर्ष-बाद स्वीकार किया गया है। अब देखना चाहिए, कि प्रकृतिके विकासके विषयमें सांख्यशास्त्र कारों का क्या कथन है। इस क्रमको ही गुणोत्कर्ष अथवा गुण परिणाम-वाद कहते हैं । यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं. कि कोई काम प्रारम्भ करनेके पहले मनुष्य उसे अपनी बुद्धिसे निश्चित कर लेता है. अथवा पहले काम करनेकी बुद्धि या इच्छा उसमें उत्पन्न हुआ करती है । उपनिषदों में भी इस प्रकारका वर्णन Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६८) है. कि श्रारम्भमें मूल परमात्माको यह बुद्धि या इच्छा हुई, कि हमें अनेक होना चाहिए-बहुस्यां प्रजायेय' और इसके बाद सृष्टि सत्पन्न हुई (छो०६ । ।३ : ०२। ६) । इसी न्यायके अनुमार अव्यक्त प्रकृति भी अपनी साम्भावस्थाको भंग करके व्यक्त मृष्टिके निर्माण करने का निश्चय पहले कर लिया करती है अतएव, मांख्याने निश्चित किया है, कि प्रकृतिमें व्यवसायात्मिक बुद्धि' का गुण पहले उत्पन्न हुश्रा करता है। सारांश यह है, कि जिस प्रकार मनुष्यको पहले कुछ काम करनेकी इच्छा या बुद्धि हुअा करती है, उसी प्रकार प्रकृतिको भी अपना विस्तार करने या पसारा पसारनेकी बुद्धि पहले हुआ करती है । परन्तु इन दोनोंमें बड़ा भारी अंतर यह है कि मनुष्य प्राणी सचेतद होने के कारण. अर्थात् उसमें प्रकृति की बुद्धि के साथ चेतन पुरुषका ( आत्माका) संयोग होनेके कारण, वह स्वयं अपनी व्यवसायात्मिक धुद्धि को जान सकता है. और प्रकृति स्वयं अचेतन अर्थात् जड़ है, इस लिये उसको अपनी बुद्धिका कुछ ज्ञान नहीं रहता यह अंतर पुरुष के संयोगसे प्रकृति में उत्पन्न होने वाले चैतन्यके कारण हुआ करता है। यह केवल जड़ या अचेतन प्रकृतिका गुण नहीं है। अर्वाचीन आधिभौतिक सृष्टि शास्त्रज्ञ भी अब कहने लगे हैं कि यदि यह न माना जाये. कि मानवी इच्छाकी बराबरी करने वाली किंतु अस्वयवेदा शक्ति जड़ पदार्थों में भी रहती है, तो गुरुत्वाकर्षण अथवा रन यन-क्रियाका और लोह चुम्बकका आकर्षण तथा अपसारण प्रमृति केवल जड़ सृष्टिमें ही दम्गोचर होने वाले गुणोंका मूल कारण ठीक ठीक यतलाया नहीं जा सकता । आधुनिक सृष्टिशास्त्रज्ञोंके उक्त मत पर ध्यान देनेसे सांख्योंका यह सिद्धान्त आश्चर्य कारक नहीं प्रतीत होता कि प्रकृतिमें पहले बुद्धि-गुणका प्रादुर्भाव होता है। प्रकृतिमें प्रथम उत्पन्न होने वाले इस गुणको. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि आप चाहें तो अचेतन अथवा अस्वयं वेद्य अर्थात् अपने आपको शात न होने वाली बुद्धि कह सकतेहैं । परंतु. उसे चाहे जो करें. इसमें संदेह नहीं,कि मनुष्यको होने वाली बुद्धि और प्रकृतिकी होनेवाली बुद्धि दोनों मूल में एकही श्रेणी की हैं और इसी कारण दोनों स्थानों पर उनकी व्याख्याएं भी एक ही सी की गई हैं। उस बुद्धि के ह्रीं 'महत ज्ञानात्मा, आसुरी, प्रजा. ख्याति, आदि अन्य नाम भी हैं। मालूम होता है कि इनमेंसे मह्त (पुझिंग कर्ताका एक बचन महान्-बड़ा) नाम इस गुणकी श्रेष्टता के कारण दिया गया होगा, अथवा इसलिये दिया गया होगा.कि जब प्रकृति बढ़ने लगती है। प्रकृतिमें पहले उपन्न होने वाला महान अथवा बुद्धि-गुण सत्वरज-तम के मिश्नका ही परिणाम हैं. इसलिये प्रकृतिकी यह बुद्धि यधपि देखने में एक ही प्रतीत होती हो तथापि यह आगे कई प्रकारकी होसकती है। क्योंकि ये गुगा-सत्व रज और तम-प्रथम दृष्टिसे यद्यपि तीन ही है. तथापि सूक्ष्म दृष्टिसे प्रगट होजाता है, कि इनके मिश्रणमें प्रत्येक गुणका परिणाम अनेक रीतसे भिन्न र हुआ करता है, और इसीलिये, इन तीनों में से प्रत्येक गुणके अनंत भिन्न परिणामसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धि के प्रकार भी त्रिधातः अनंत हो सकते हैं । अव्यक्त प्रकृतिसे निर्मित होनेवाली यह बुद्धि भी प्रकृतिके ही सहश सूक्ष्म होती है। परन्तु पिछले प्रकरण में 'व्यक्त' और 'अध्यक्त , तथा 'सूक्ष्म और स्थूल' का जो अर्थ बतलाया गया है उसके अनुसार यह बुद्धि प्रकृतिके समान सूक्ष्म होने पर भी उसके समान अव्यक्त नहीं है मनुष्यको इसका झान हो सकता है। अतएव,अन यह सिद्ध हो चुका है कि इस बुद्धि का समावेश व्यक्त में (अर्थात् मनुष्यको गोचर होने वाले पदार्थों में) होता है; और सांख्य शास्त्र में, न केवल बुद्धि, किन्तु बुद्धिके आगे प्रकृति के सख विकार भी व्यक्त ही माने जाते हैं । एक मूल प्रकृतिके सिवा कोई भी अन्य तत्व अव्यक्त नहीं है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०० ) इस प्रकार यद्यपि अव्यक्त प्रकृति में व्यक्त व्यवसायात्मिक बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, तथापि प्रकृति अब तक एक ही नं रहती है। इस एकताका भंग होना और बहुधा पन या विविधत्य काल होना ही है। पारे का जमीन पर गिर पड़ना और उसकी अलग २ छोटी २ गोलियां बन जाना। बुद्धि के बाद जब तक यह प्रथकता या विविधता उत्पन्न न हो तब तक एक प्रकृति के अनेक पदार्थ हो जाना संभव नहीं । बुद्धि के आगे उत्पन्न होने वाली इस पृथकता के गुण को ही अहंकार ' कहते हैं। क्योंकि पृथकता मैं तू शब्दों से ही प्रथम व्यक्त की जाती है; और मैं तू का अर्थ ही अहंकार अथवा अहं अहं ( मैं मैं) करना है। प्रकृति उत्पन्न होने वाले अहंकार के इस गुण को यदि आप चाहे तो वे अर्थात् अपने आपको ज्ञात न होने वाला अहंकार कह सकते हैं। परन्तु स्मरण रहे कि मनुष्य में प्रकट होने वाला अहंकार, और वह " में - 3 1 " अहंकार कि जिसके कारण पेड़ पत्थर पानी अथवा भिन्न २ मूल परमाणु एक ही प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। ये दोनों एक ही जाति के हैं। भेद केवल इतना ही है, कि पत्थर में चैतन्य न होने के कारण उसे 'अहं' का ज्ञान नहीं होता. और मुंह न होने के कारण 'मैं तू' कह स्वाभिमान पूर्वक वह अपनी पृथक्ता किसी पर प्रकट नहीं कर सकता। सारांश यह कि दूसरों से पृथक रहने का अर्थात अभिमान या अहंकार तत्र सब जगह समान ही है इस अहंकार ही का तैजस अभिमान भूतादि और धातु भी कहते हैं। अहंकार बुद्धि हीं का एक भाग है, इसलिये पहले जब तक बुद्धि न होगी तब तक अहंकार उत्पन्न हो ही नहीं सकता । - अतएव सांख्यों ने यह निश्चित किया है कि अहंकार यह दूसरा अर्थात् बुद्धि के बाद का गुण हैं । अत्र यह बतलाने I ! . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०१ ) I 9 की आवश्यकता नहीं कि सात्विक राजस और तामस भेदों से बुद्धि के समान अहंकार के भी अनन्त प्रकार हो जाते हैं। इसी तरह उनके बाद के गुणों के भी प्रत्येक के विधातः अनन्त भेद हैं अथवा यह कहिये कि व्यक्त सृष्टि में प्रत्येक वस्तु के इसी प्रकार श्रनन्त सात्विक, राजस और वामस भेद हुआ करते हैं. और इसी सिद्धान्त को लक्ष्य करके, गीता में गुणत्रय - विभाग और श्रद्धात्रयविभाग बतलाये गये हैं ( गी० अ० १४ और १७ ) व्यसायात्मिक बुद्धि और अहंकार, दोनों व्यक्त गुग्छ, अब मूल साम्यावस्था का प्रकृति में उत्पन्न हो जाते हैं, तब प्रकृति की एकता भंग हो जाती है और उससे अनेक पदार्थ बनने लगते हैं तथापि उसकी सूक्ष्मता अब तक कायम रहती है। अर्थात् यह कहना अयुक्त न होगा कि अब नैय्याथिकोंके सूक्ष्म परमाणुयका आरम्भ होता है। क्योंकि अहंकार उत्पन्न होने के पहले प्रकृति अति और निरवयव थी। वस्तुतः देखने से तो प्रतीत होता है कि निरी बुद्धि और निरा अहंकार केवल गुण हैं, अतएव उपर्युक्त सिद्धान्तों से यह मतलब नहीं लेना चाहिये कि वे (बुद्धि और अहंकार ) प्रकृति के द्रव्य से पृथक् रहते हैं। वास्तव में बात यह है कि जब मूल और श्रवयव-रहित एक ही प्रकृति में वन गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, तब उसी को विविध और sara orक व्यक्त रूप प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जब अहंकार से मूल प्रकृति में भिन्न पदार्थ बनने की शक्ति आ जाती हैं, तब आगे उसकी बुद्धिकी दो शाखाएं हो जाती हैं। एक पेड़ मनुष्य आदि सेन्द्रिय प्राणियों की सृष्टि और दूसरी निरिन्द्रय पदार्थों की सृष्टि। यहां इन्द्रिय शब्दसे केवल इद्रिय' बान् प्राणियों की इन्द्रियों की शक्ति ' इतना अर्थ लेना चाहिये इसका अर्थ यह है कि सेन्द्रिय प्राणियोंके जब देहका समावेश जड़ 1 : Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यानी निरिन्द्रय सृष्टि में होता है, और इन प्राणियों का आरमा 'पुरुष' नामक अन्य यग में शामिल किया जाता है। इसीलिये सांख्य शास्त्र में सेन्द्रिय सृष्टि का विचार करते समय, देह और आत्मा को छोड़ कर केवल इन्द्रियोंका हीविचार किया गया है। इस जमत् में सेन्द्रिय और निरिन्द्रय पदार्थों के अतिरिक्त किसी तीसरे पदार्थ का होना सम्भव नहीं इसलिये कहनेकी आवश्यकता नहीं । कि अहंकार से अधिक शाखाएं निकल ही नहीं सकती। इनमें निरिन्द्रय सृष्टिको तामस (अर्थात्-तमोगुण के उल्कर्ष से होने वालो)कहते हैं । साराशं यह है , कि जब अहंकार अपनी शक्तिसे भिन्न पदार्थ उत्पन्न करने लगता है, तब उसी में एक बार तमोगुण का उत्कर्ष होकर एक ओर पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और जम मिलकर मंदिर सहित सभूषा ग्यारह इंद्रियां उत्पन्न होती हैं. और दूसरी ओर, तमोगुण उत्कर्ष होकर उसमें निरिन्द्रय सृष्टि के मूलभूत पांच तन्मात्र द्रव्य उत्पन्न होते हैं परन्तु प्रकृति की सूक्ष्मता अब तक कायम रही है, इसलिये अहंकार से उत्पन्न होने वाले ये सोलह तस्व भी सूक्ष्म ही रहते हैं शब्द, स्पर्श, रूप और रस की सन्मात्राएं-अर्थात् बिना मिश्रण हुए प्रत्येक गुणके भिन्नभिन्न अति सूक्ष्म मूल स्वरूप निरिन्द्रिय-सृष्टि के मूल तत्व हैं और जनसाहित ग्यारह इंद्रिय सेन्द्रिय सृष्टि की बीज हैं । इस विषय की सांख्य-शास्त्र की उत्पत्ति विचार करने योग्य है, कि निरिन्द्रिय सृष्टि के मूल तत्व (तन्मात्र ) पाँच ही क्यों और सेन्द्रिय सृष्टि के मूल तत्व ग्यारह ही क्यों माने जाते हैं । अर्वाचीन सृष्टि-शास्त्रज्ञो ने सृष्टि के पदार्थों के तीन भेद-धन, द्रव और वायुरूपी किये हैं, परन्तु सांख्य-शास्त्रकारों का वर्गीकरण इससे भिन्न है । उनका कथन है, कि मनुष्य को सृष्टि के सत्र पदार्थों का ज्ञान केवल पाँचज्ञानेन्द्रियों से हुआ करता है, और इन ज्ञानेन्द्रियों की रचना कुछ ऐसी विलक्षण है, कि एक Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७३ ) इन्द्रिय को सिर्फ एक ही गुण ज्ञानका हुआ करता है। आँखोंसे सुगन्ध नहीं मालूम होती और न कान से दीखता ही है, त्वचा से मीठा कडुआ नहीं समझ पड़ता और न जिह्वा से शब्द ज्ञान ही होता है, नाक से सफेद और रंग का भी नहीं मालूम होता । जब इस प्रकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियां और उनके पाँच विषय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध निश्चत हैं, तब यह प्रगट है, किं सृष्टि के सब गुण भी पाँच से अधिक नहीं माने जा सकते। क्योंकि यदि हम कल्पना से यह मान भी लें कि गुण पांच से अधिक हैं, तो कहना नहीं होगा कि उनको जानने के लिये हमारे पास कोई साधन या उपाय नहीं हैं। इन पांच गुणों में से प्रत्येक के अनेक भेद हो सकते हैं। उदाहरणार्थ यद्यपि 'शब्द' गुण एक ही है तथापि उसके छोटा, मोटा, कर्कश, भद्दा फटा हुआ, कोमल अथवा गायन शास्त्र के अनुसार निषाद, गांधार, षडज आदि और व्याकरण शास्त्र के अनुसार कंख्य, तालव्य, ओष्ठ्य आह अनेक प्रकार हुआ करते हैं। इसी प्रकार यद्यपि 'रूप' एक ही गुण है, तथापि उसके भी अनेक भेद हुआ करते हैं। जैसे सफेद काला. नीला. पीला, हरा श्रादि। इसी तरह यद्यपि 'रस' या 'रुचि' एक ही गुण है, तथापि उसके खट्टा मीठा, तीखा, कडुवा * खारा आदि अनेक भेद हो जाते हैं, और 'मिठास' गुड़ का मिठास और शक्कर का मिठास भिन्न भिन्न होता है, तथा इस प्रकार उस एक ही 'मिठास' के अनेक भेद हो जाते हैं। यदि भिन्न भिन्न गुणों के भिन्न भिन्न मिश्रणों पर विचार किया जाय तो यह गुण वैचित्र्य अनन्त प्रकार से अनन्त हो सकता है । परन्तु चाहे जो हो, पदार्थों के मूलगुण पांच से कभी अधिक नहीं हो सकते, क्योंकि इन्द्रियां पांच हैं, और प्रत्येक को एक ही गुण का बोध हुआ करता है । इस लिये सांख्यों ने यह निश्वत किया है. कि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७४ ) यद्यपि केवल शब्द गुण के अथवा केवल स्पर्शगुण से पृथक यानी दूसरे गुणों के मिश्रण रहित पदार्थ हमें देख न पड़ते हों, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि मूल प्रकृति में निश शब्द निरास्पर्श, निरारूप निरा रस और निरा गंध है। अर्थात शब्द तन्मात्र स्पर्शतन्मात्र, रूप तन्मात्र, रस तन्मात्र, और गन्ध तन्मात्र ही हैं, अर्थात् मूल प्रकृति के यहीं पांच भिन्न भिन्न सूक्ष्म सन्मात्र विकार अथवा द्रव्य निःसंदेह हैं। आगे इस बात का विचार किया गया है. कि पंच तन्मात्राओं अथवा उनसे उत्पन्न होनेवाले पंच महाभूतों के सम्बन्ध में उपनिषदकारों का कथन क्या है। " इस प्रकार निरिन्द्रिन - सृष्टि का विचार करके यह निश्चित क्रिया गया, कि उसमें पांच ही सूक्ष्म मूल तत्व हैं. और जब हम सेन्द्रिय-सृष्टि पर दृष्टि डालते हैं तब भी यही प्रतीत होता है, कि कि पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच कर्मेन्द्रियां और मन इन ग्यारह इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक इन्द्रियां किसी के भी नहीं हैं। स्थूल देह में हाथ-पैर आदि इन्द्रियां यद्यपि स्थूल प्रतीत होता है, तथापि इनमें से प्रत्येक की जड़ से किसी मूल सूक्ष्म तत्व का अस्तित्व माने बिना इन्द्रियों की भिन्नता का यथोचित कारण मालूम नहीं होता। पश्चिमी श्रधिभौतिक उत्क्रान्ति-वादियों ने इस बात की खूब चर्चा की है। वे कहते हैं कि मूल के अत्यन्त छोटे धीर गोलाकार जन्तुओं में सिर्फ त्वचा' ही एक इन्द्रिय होती हैं। और इस त्वचा ही से अन्य इन्द्रियां क्रमशः उत्पन्न होती है. उदाहरणार्थ मूल जन्तु की त्वचः से प्रकाश का संयोग होने पर आंख उत्पन्न हुई इत्यादि । आधिभौतकवादियों का यह तत्व कि प्रकाश आदि संयोग से स्थूल इन्द्रियों का प्रादुर्भाव ता है. सांख्यों को भी ग्राह्य हैं। महाभारत (शां- २११६ ) में सांख्य प्रक्रिया के अनुसार इन्द्रियों के प्रादुर्भाव का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है--- : Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७५ ) शब्दरागात् श्रोत्र मस्य जायते भावितात्मनः । रूपरागात् तथा चक्षुः प्राणे गन्ध जिघृ चथा || अर्थात् - "आत्मा को प्राणियों के शब्द सुनने की भावना हुई तब कान उत्पन्न हुआ. रूप पहचानने की इच्छा से आंख, और सूंघने की इच्छा से नाक उत्पन्न हुई" । परन्तु सांख्यों का यह कथन हैं, कि यद्यपि त्वचा का प्रादुर्भाव पहले होता हो. तथापि मूल प्रकृति में ही यदि भिन्न भिन्न इन्द्रियोंके उत्पन्न होने की शक्ति न हो, तो सजीव सृष्टि के अत्यन्त छोटे कीड़ों की त्वचा पर सूर्यप्रकाश का चाहे जितना आघात या संयोग होता रहे, तो भी उन्हें आँखें और वे भी शरीर के एक विशिष्ट भाग ही में कैसे प्राप्त हो सकती है ? डार्विनका सिद्धान्त सिर्फ यह आशय प्रगट करता है ? कि दो प्राणियों - एक चक्षु वाला और दूसरा चक्षु रहित निर्मित होने पर इस जड़ सृष्टि के कलह में चक्षु वाला अधिक समय टिक सकता है, और दूसरा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । परन्तु पश्चिमी आधिभौतिक सृष्टि - शास्त्रज्ञ इस बात का मूल कारण नहीं बतला सकते कि नेत्र आदि भिन्न २ इन्द्रियों की उत्पत्ति पहले हुई ही क्यों । सांख्योंका मत यह है, कि ये सब इन्द्रियां किसी एक ही मूल इन्द्रिय से क्रमशः उत्पन्न नहीं होती, किन्तु जब अहंकार के कारण प्रकृति में विविधिता श्रारम्भ होने लगती है. तब पहले उस अहंकार से ( पांच सूक्ष्म कर्मेन्द्रियां, और पांच सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियां और मन इनसब मिलाकर) ग्यारह भिन्न २ गुण ( शक्ति ) सत्र के सब एक साथ ( युगपत) स्वतंत्र होकर मूल प्रकृति में ही उत्पन्न होते हैं, और फिर उसके आगे स्थूल से न्द्रिय-सृष्टि उत्पन्न हुआ करती है। इन ग्यारह इन्द्रियों में से मन के बारे में पहले हो. छटवें प्रकरण में बतला दिया गया है. कि वह ज्ञानेन्द्रिय के साथ संकल्प-त्रिकपात्माक होता है. अर्थात ज्ञानेन्द्रियों के ग्रहण किये गये संस्कारों Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) की व्यवस्था करके वह उन्हें बुद्धि के सामने निर्णयार्थ उपस्थिति करता है, और कर्मेन्द्रियों के साथ बह व्याकणात्मक होता है, अर्थात् उसे बुद्धि के निर्णय को कर्मेन्द्रियों द्वारा अमल में लाना पड़ता है। इस प्रकार वह उभय विध, अश्रोत इंद्रय-भेद के अनु. सार भिन्न प्रकार के काम करने वाला होता है । उपनिषदों में इन्द्रियों को ही प्राण' कहा है, और सांख्यों के मतानुसार उपनिषत्कारोंका भी यही मत है. कि ये प्राण पञ्चमहाभूतात्मक नहीं हैं, (मुंड २।५ । ६) । इन प्रारणे को. अर्थात् इन्द्रियों की संख्या उपनिषदोंमें कहीं सात, कहीं दस, ग्यारह. बारह और कहीं कहीं तेरह वतलाई गई है। परन्तु वेदान्त सूत्रों के आधार से श्री शंकराचार्य ने निश्चित किया है, कि उपनिषदोंके सब बाक्यों की एक रूपता करने पर इन्द्रियों की संख्या ग्यारह ही होती है ( बेसूदशाभा । ४।५।६ और (गीता :३ । ५) अर्थात् इन्द्रियाँ दस और एक' अर्थात् ग्यारह हैं। अब इस विषय पर सांख्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं रहा । सांख्यों के निश्चित किये मत का सारांश यह है.-सात्विक अहंकार से सेन्द्रिय सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इन्द्रिय शक्तियां (गुरण) उत्पन्न होती है, और तामस अहंकार से निरिन्द्रिय-सृष्टि के मूल भूत पांच तन्मात्र द्रव्य निर्मित होते हैं. इसके बाद पञ्चतन्मात्र-द्रव्यों से क्रमशः स्यूल पन्चमहाभूत ( जिन्हें 'विशेष' भी कहते हैं) और स्थूल निरिन्द्रिय पदार्थ बनने लगने है. तथा यथा सम्भव इन पदार्थों का संयोग ग्यारह इन्द्रियों के साथ हो जाने पर, सेन्द्रिय सृष्टि बन जाती है । स्थूल पंच महाभूत और पुरुष को मिला कर कुल तत्वों की संख्या पञ्चीस है। इनमें से महान अथवा बुद्धि के बाद के तेईस गुण मूल प्रकृति के विकार हैं। किन्तु उनमें भी यह भेद है, कि Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) सूक्ष्म तन्मात्राएं और पांच स्थूल महाभूत द्रध्यात्मक विकार हैं और बुद्धि. अहंकार तथा इन्द्रियाँ केवल शक्ति या गुण हैं, ये सेईस तत्य व्यक्त हैं और मूल प्रकृति अव्यक्त है। साख्यों ने इन तेईस तत्वों में से आकाश तत्व ही में दिक और काल को भी सम्मिलित कर लिया है। वे 'प्राण' को भिन्न तत्व नहीं मानते, किन्तु जब सब इन्द्रियों के व्यापार प्रारम्भ होने लगते हैं. तष उसी को वे प्राण कहते हैं (सां का. २६) परन्तु बेदान्तियोंको यह मत मान्य नहीं है , उन्होंने प्राण को स्वतंत्र सत्व माना है ( वेसू०२।४।६।) यह पहले बतलाया जा चुका है, घेदान्ती लोग प्रकृति और पुरुष को स्वयभू और स्वतंत्र नहीं मानते । जैसा कि सांख्य-मतानुयायी मानते हैं, किन्तु उनका कथन है कि दोनों ( प्रकृति और पुरुष ) एक ही परमेश्वर की विभूतियां है । सांख्य और वेदान्त के उक्त भेदोको छोड़ कर शेष 'मृष्टि उत्पत्तिक्रम दोनों पक्षों को ग्राह्य है। उदाहरणार्थ, महाभारत में अनुगीता में ब्रह्म वृक्ष' अथवा 'ब्रह्मवन' का जो दो बार वर्णन किया है (मभा०३५१५०-२३, औरणा१२,१५ ) वह सांख्य तत्वों के अनुसार ही है। : अन्यक्क बीज प्रभवो बुद्धिस्कंधमयो महान् । महाहंकार विटपः, इन्द्रियान्तर कोटरा ।। महाभूत विशाखश्च विशेषप्रति शाखबान् । सदापणं; सदापुष्पः शुभाशुभ फलोदयः ॥ आजीव्यः सर्वभूतानां प्रमवृक्षः सनातनः । एवं बित्वा च भित्वा च तत्वज्ञानासिना बुधः ।। हित्वा सङ्गमयान् पाशान् मृत्यजन्मजरोदयान् । निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) अर्थात् -- अव्यक्त (प्रकृति ) जिसका बीज है' बुद्धि (महान) जिसका तना या पिंड है अहंकार जिसका प्रधान पल्लव है. मन और दस इंन्द्रियां जिसको अन्तर्गत खोखली या खोड़र है (सूक्ष्म ) महाभूत ( पश्च -तन्मात्रएं ) जिसकी बड़ी २ शाखाएं है , और विशेष अर्थात् स्थूल महाभूत जिसकी छोटी २ टहनियां हैं , इसी प्रकार सदापत्र , पुष्प और शुभाशुभ फल धारण करने वाला समस्त प्राणिमात्र के लिये प्राधार भूत यह सनातन वृहद् ब्रह्म वृक्ष है । ज्ञानी पुरुष को चाहिये, कि उसे तत्वज्ञान रूपी तलवार से काटकर एक दूक कर डाले. जन्म, जरा और मृत्यु उत्पन्न करने वाले संगमय पाशी का न करें और समय के तथा अहंकार को त्याग कर दे, तब वह नि:संशय मुक्त होता है संक्षेप में यही ब्रह्म वृक्ष प्रकृत्ति अथवा माया का खेल' जाला' या पसारा है । अत्यंत प्राचीन काल ह्री से ऋग्वेद काल ही से इसे वृक्ष कहने की रीति पड़ गई है और उपनिषदों में भी उसको 'सनातन अश्वत्थवृक्ष' कहा है (कठ ६१) परन्तु वेदों में इसका सिर्फ यही वर्णन किया गया है, कि उस वृक्ष का मूल ( परब्रह्म ) ऊपर है और शाखाएं (दृश्य सृष्टि का फैलाव ) नीचे हैं। इस वैदिक वर्णन को और साँख्यों के तत्वों को मिला कर गीना में अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन किया गया है। इसका स्पष्टी करण हमने गीताके १५५१-२ श्लोकोंमें अपनी टीकामें कर दिया है। ___ ऊपर बतलाये गये पचीस तत्वोंका वर्गीकरण सांख्य और वेदान्ती भिन्न भिन्न रीतिसे किया करते हैं, अतएव यहां पर उस वर्गीकरणके विषयमें कुछ लिखना चाहिये । सांख्योंका यह कथन है कि इन पच्चीस तत्वोंके चार वर्ग होते हैं अर्थात् मूल प्रकृति प्रकृति-विकृति.' विकृति और न प्रकृति न विकृति । (१) प्रकृति तत्व किसी दूसरेसे उत्पन्न नहीं हुआ है. अतएव उसे 'मूल प्रकृति Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं । (२) मूल प्रकृतिसे आगे बढ़ने पर जब हम दूसरी सीढ़ी पर पाते हैं तब महान नत्वका पता लगता है। यह महानतत्व प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है, इस लिये यह प्रकृतिकी विकृति या विकार है. और इसके बाद महान तत्वसे अहंकार निकलता है, अतएव 'महान' अहंकारकी प्रकृति अथवा मूल है। इस प्रकार महान अथवा बुद्धि, एक ओरसे यहंकारकी प्रकृति या मूल है, और दूसरी ओरसे, बह् मूल प्रकृति विकृति अथवा विकार है । इसोलिचे सांख्यों ने उसे प्रकृति विकृति' नामक वर्गमें रखा, और इसी न्यायके अनुसार अहंकार तथा पञ्चतन्मात्राओंका समावेश भी 'प्रकृति विकृति' वर्ग ही में किया जाता है । जो तत्व अथवागुण म्बयं दुसरेसे उत्पन्न (विकृति) हो. और आगे वही स्वयं अन्य तत्वों का मूल भूत (प्रकति) होजावे, उसे 'प्रकृति विकृति' कहते हैं । इस वर्गके सात सल ये हैं महान, अहंकर और पञ्च तन्मात्रा (३) परन्तु पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियां मन और स्थूल पञ्च महाभूत. इन सोलह तत्वोंसे फिर और अन्य तत्वोंकी उत्पत्ति नहीं हुई । किन्तु ये स्वयं दूसरे तत्वोंसे प्रादुर्भत हुए हैं। अतएव, इन सोलह तत्वोंको प्रकृति विकृति' न कह कर केवल विकृति, अथवा विकार कहते हैं । (1) पुरुष न प्रक्रति है और न विकृति, यह स्वतन्त्र और उदासीन दृष्टा है । ईश्वर करणने इसप्रकार वर्गीकरण करके फिर उसका स्पष्टीकरण यों किया है-- मूल प्रकृतिर विकृतिः महदायाः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।। अर्थात्-'यह मूल प्रतिक अविकृति है-श्रीन किसी का विकार नहीं है, मदादि सात (अर्थात महत. अहंकार, और पंचतन्माया) नवप्रकृति-विकृत है, और मन सहित ग्यारह इन्द्रियां Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूल पचमहाभूत मिल कर सोलह तत्वों को केवल विकृति अथवा विकार कहते हैं । पुरुष न प्रकृति है न विकृति" (सां का ३) । आगे इन्हीं पछीस तत्वों के और तीन भेद किये गये हैं-अव्यक्त व्यक्त और ज्ञ । इनमें से केवल एक मूल प्रकृति ही अव्यक्त है, प्रकृति से उत्पन्न हुए तेईस तत्व व्यक्त हैं. और पुरुष श है। ये हुए सांख्यों के वर्गीकरण के भेद । पुराण, स्मृति, महाभारत आदि वैदिक मार्गीय ग्रन्थों में प्रायः इन्हीं पचीस सस्वोका उल्लेख पाया जाता है (मैञ्यु ६ । १०. मनु० १४ । १५ देखो ) परन्तु उपनिषलों में वर्णन किया गया है, कि वे सब तत्त्व पर ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं और वहीं इनका विवेचन या वर्गीकरण भी नहीं किया गया है । उनमें इनका वर्गीकरण किया हुआ देख पड़ता है परन्तु वह उपयुक्ति सांख्यों के वर्गीकरण से भिन्न है। कुल सत्व पच्चीस हैं। इनमें से सोलह तत्व तो सांख्य मत के अनुसार ही विकार अर्थात् दूसरे तत्वों से उत्पन्न हुए हैं। इस कारण उन्हें प्रकृति में अथवा मूल भूत पदार्थों के वर्ग में सम्मिलित नहीं कर सकते । अब ये नौ तत्व शेष रहे-१ पुरुष,२ प्रकृति, ३-६ महत् अहंकार और पांच तन्मात्राएं । इनमें से पुरुष और प्रकृति को छोड़ शेष सात तत्वों को सांख्यों ने प्रकृति-विकृति कहा है। परन्तु वेदान्त शास्त्र में प्रकृति को स्वतन्त्र न मान कर यह सिद्धान्त निश्चय किया है. कि पुरुष और प्रकृति दोनों एक ही परमेश्वर से उत्पन्न होते हैं । इस सिद्धान्त को मान लेने से, सांख्या के 'मूल प्रकृति और 'प्रकृति-विकृति' भेदो के लिये, स्थान ही नहीं रह जाता। क्योंकि प्रकृति भी परमेश्वर से उत्पन्न होने के कारण मूल नहीं कही जा सकती किन्तु वह प्रकृति--विकृतिके ही वर्ग में शामिल होजाती है। अतएव सष्टयुत्पत्ति का वर्णन करते समय वेदान्ती कहा करते हैं. कि परमेश्वर से ही एक ओर जीव निर्धाण हुआ और दूसरी ओर Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (महदादि सात प्रकृति-विकृति सहित) अष्टधा अथात् पाठ प्रकार की प्रकृति निर्मित हुई (ममा शां ३०६।२६ और ३१०।१० देखो) अर्थात् वेदान्तियों के मत से पच्चीस तत्वों में से सोलह तत्वों को छोड़ शेष नौ तत्वों के केवल दो ही पर्ग किये जाते हैं-एक 'जीव' और दूसरी अष्टधा प्रकृति' भगवद्गीता में वेदान्तियों का यही वर्गीकरण स्वीकृत किया है। परन्तु इसमें भी अन्त में थोड़ा सा फर्क हो गया है। सांख्य-वादी जिसे पुरुष कहते हैं उसे ही गीता में जीव कहा है, और यह बतलाया है कि वह (जीव) ईश्वर की 'पराप्रकृति' अर्थात् श्रेष्ठ स्वरूप है, और सांख्य-वादी जिसे मूल प्रकृति तहते हैं, उसे ही गीता में परमेश्वर का 'अपर' अर्थात् कनिष्ठ स्वरूप कहा गया है (गी० ७ १ ४।५ । इस प्रकार पहले दो बड़े २ वर्ग कर लेने पर उनमें से दूसरे वर्ग के अर्थात् कनिष्ठ स्वरूप के जब और भी भेद या प्रकार भी बतलाने पड़ते हैं, तब इस कनिष्ठ स्वरूप के अतिरिक्त उससे उपजे हुए शेष तत्वों को भी बतलाना आवश्यक होता है । क्यों कि यह कनिष्ठ स्वरूप ( अर्थात् सांख्यों की मूल प्रकृति ) स्वयं अपना ही एक प्रकार या भेद हो नही सकता । उदाहरणार्थ जब यह बतलाना पड़ता है. कि बापके लड़के कितने हैं. तब उन लड़की में ही बापक गणना नहीं की जा सकती, अतएव परमेश्वर के कनिष्ठ स्वरूप के अन्य भेदोंको बतलाते समय यह कहना पड़ता है कि वेशान्तियोंकी अष्टधा प्रकृति में से मूल प्रकृति को छोड़ शेष सात तत्व ही ( अर्थान्-महान ) अहंकार और पांच तन्मात्राएं ) उस मूल प्रकृति के भेद या प्रकार हैं। परन्तु ऐसा करने से कहना पड़ेगा कि परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप (अर्थात मूल प्रति ) सात प्रकार का है, और ऊपर कह श्राये है, कि वेदान्ती तो प्रकृति को अश्या अर्थात् पाठ प्रकार की मानते हैं। अब इस स्थान पर यह विरोध देख पड़ता है, कि जिस प्रकृति को वेदान्ती अष्टधा या आठ प्रकारकी कहे उसीको गीता पाये हैं, का मूल प्रकृति ) सात प्रकार परमेश्वर का कनिष्ठ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८२ ) 1 सप्तधा या सात प्रकारकी कहें। परन्तु गीता कारको अभी था कि उस विरोध दूर हो जावे' और 'अष्टधा प्रकृति' का वन बना रहे. इसी लिए महान अहंकार और पंचतन्मात्राएं, इन सातों में st a ar are sो सम्मिलित करके गीता में बन किया गया है. परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप अर्थात् मूल प्रकृति धा हैं. ( गी० ७ १५ ) । इनमें से केवल मन ही में इस इन्द्रियों का और पंचतन्मात्राओं में पंच महाभूतों का समावेश किया गया है। अब यह प्रतीत हो गया कि गीता में किया गया वर्गीकरण सांख्यों और वेदान्तियों के वर्गीकरण से यद्यपि कुछ भिन्न है. तथापि इससे कुल तत्वों की संख्या में कुछ न्यूनाधिकता नहीं हो जाती । सब जगह तत्व ही माने गये हैं। परन्त वर्गीकरण पश्चीम की उक्त भिन्नता के कारण किसीके मनमें कुछ भ्रम न हो जायें इस लिये ये तीनों वर्गीकरण कोष्टक के रूप में एकत्र करके आगे दिय गये हैं। गीताके तेरहवें अध्याय (१३५ ) में वर्गीकरण के झगड़े में न पड़ कर. सांख्योंके पश्चीस तत्वोंका वर्णन ज्योंका त्यों पृथक पृथक किया गया है. और इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि या वर्गीकरण में कुछ भिन्नता हो तथापि तत्वों की संख्या दोनों स्थानों पर बराबर ही है । यहां तक इस बात का विवेचन हो चुका कि पहले मूल साम्यावस्था में रहने वाली एक ही अवयव रहित जड़ प्रकृति में व्यक्तमृष्टि उत्पन्न करने की अस्त्रयं बेय 'बुद्धि' कैसे प्रगट हुई. फिर उसमें अहंकार से अवयत्र सहित विविधता कैसे उपजी और इसके बाद 'गुणों से गुण' इस गुण परिणाम बाद के अनुसार एक ओर सात्विक (अर्थात् सेन्द्रिय) सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इंद्रियां, तथा दूसरी ओर तामज ( अर्थात् निरिन्द्रिय) सृष्टि की मूलभूत पाँच सूक्ष्म तन्मात्राणं कैसे निर्मित हुई। अब Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बादकी सृष्टि ( अर्थात् स्थूल पंच महाभूतों या उनमे उत्पन्न होने वाले अन्य जड़ पदार्थों की उत्पत्ति के क्रम का वर्णन किया जायेगा । सांख्य-शास्त्र में सिर्फ यही कहा है. कि सूक्ष्म तन्मात्राओं में स्थूल पंचमहाभून' अथवा 'विशेष' गुण परिणाम के कारण उत्पन्न हुये है। परन्तु वेदान्त शास्त्र के ग्रन्धी में इस विषय का अधिक विवेचन किया गया है इसलिये प्रसंगानुसार उसका भी संक्षीप्त वर्णन-इस सूचना के साथ कि यह वेदान्त शास्त्रका मत है. सांख्योंका नहीं कर देना आवश्यक जान पड़ता है. स्थूल. पृथ्वी.पानी. वेज. वायु. और आकाश, को पंचमहाभूत अथवा विशेष कहते हैं। इनका उत्पत्ति क्रम तैतिरीयोपनिषद् में इस प्रकार है :--- "आत्मनः आकाशः संभूतः । श्राकाशाद्वायः । बायोसंमः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथियो । पृथिव्या ओषधयः । इ." (ले० उ० २।१) अर्थात् पहले परमात्मा से ( जड़मूल प्रकृनिमे नहीं. जैमा कि सारख्य वादियोंका कथन है । आकाश से बाय, वायुसे अग्नि अग्निसे पानी और फिर पानीसे पृथ्वी उत्पन्न हुई है। सैतिरीयोपनिषद में यह नहीं बतलाया गया कि इस क्रमका कारण क्या है परन्तु प्रसीन होना है कि उत्तर-वेदान्त ग्रन्थोंमें पंच महाभूतों के उत्पत्ति क्रम के कारणों का विचार सांख्य शास्त्रोक्त गुण परिणाम के तत्व पर ही किया गया है । इन उनर वेदान्तियों का यह कथन है. कि गुणा गुणेषु वर्तन्ने इस न्याय से पहले एक ही गुण का पदार्थ उत्पन्न हुआ उससं नो गुणों के और फिर तीन गुणों के पदार्थ उत्पन्न हुए. इसी प्रकार वृद्धि होती गई पंच महामूर्ती में से श्राकाश का मुख्य रक गुण केवल शब्द ही है.. Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७४ ) इसलिये पहले आकाश उत्पन्न हुआ। इसके बाद वायु की उत्पत्ति हुई क्योंकि उसमें शब्द और स्पर्श दो गुए हैं। जब वायु जोर से चलती है, तब उसकी आवाज सुन पड़ती है, और हमारी स्पर्शेन्द्रिय को भी उसका ज्ञान होता है। वायुके बाद अभि की उत्पत्ति होती है, क्योंकि शब्द और स्पर्श के अतिरिक्त उसमें तीसरा गुण रूप भी हैं। इन तीनों गुणों के साथ ही साथ पानी में चौथा गुण, रुचि या रस होता है इसलिये उसका प्रादुर्भाव अग्नि के बाद ही होना चाहिये, और अन्त में इन चारों गुणों की अपेक्षा पृथ्वी में गंध गुग्ण विशेष होने से यह सिद्ध किया गया है कि पानी के बाद ही पृथ्वी उत्पन्न हुई । यास्काचार्यका यही सिद्धान्त है निरुक्त (४१४ ) तैतिरीयोपनिषद् में आगे चल कर वर्णन किया गया है कि उक्त क्रम से स्थूल पंच महाभूतों की उत्पत्ति हो चुकने पर "पृथिव्या श्रोषधयः । श्रोषधीभ्योऽन्नम् । श्रनात्पुरुषः ” पृथ्वी से वनस्पति वनस्पति से अन्न और अन्नसे पुरुष उत्पन्न हुआ ( तै० २१) | यह सृष्टि पंच महाभूतों के मिश्रण से बनती है, इसलिए इस मिश्रण - क्रियाको वेदान्त प्रन्थों में पंचीकरण कहते हैं पंचीकरणका अर्थ 'पंचमहाभूतों में से प्रत्येकका न्यूनाधिक भाग लेकर सबके मिश्रण से किसी नये पदार्थका बनना है। यह पंचीकरण स्वाभवतः अनेक प्रकारका होसकता है। श्री समर्थ रामदास स्वामीने अपने दासबोध में जो वर्णन किया है वह भी इसी बत को सिद्ध करता है देखिये - "काला और सफेद मिलानेसे नीला बनता है काला और पीला मिलानेसे हरा बनता है (दा० है | ६ ४०) । पृथ्वी में अनन्त कोटि बीजोंकी जातियां होती हैं, पृथ्वी और पानीका मेल होने पर उन बीजोंसे अंकुर निकलते हैं, अनेक प्रकार की बेले होती हैं. पत्र पुष्प होते हैं। और अनेक प्रकारके स्वादिष्ट Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८५ ) फल होते हैं··· अरडज जरायुज स्वेदज, उद्भिज सबका धीज पृथ्वी और पानी है, यही सृष्टि रचनाका अद्भुत चमत्कार है। इस प्रकार चार खानी, चार वाणी, चौरासी लाख जीव योनि, तीन लोक, पिण्ड, ब्रह्माण्ड सब निर्मित होते हैं" (दा० १३ । ३ । १० । १५) । परन्तु पंचीकरण से केवल जड़ पदार्थ अथवा जड़ शरीर ही उत्पन्न होते हैं। ध्यान रहे कि जब इस जड़ देहका संयोग प्रथम सूक्ष्म इंद्रियोंसे और फिर आत्मा से अर्थात् पुरुषसे होता है, तभी इस जड़ देहसे सचेतन प्राणी हो सकता है। यहां यही चाहिने पन्थोंमें वर्णित यह पंचीकरण प्राचीन उपनिषदोंमें नहीं है। हांदोग्योपनिपद्म पांच तन्मात्राएँ या पांच महाभूत नहीं माने गये हैं, किन्तु कहा है, कि 'तेज' अप (पानी) और अन्न (पृथ्वी) इन्हीं तीन सूक्ष्म मूल तत्वोंके मिश्रण से अर्थात् "त्रिवृत्करण" से सब विविध सृष्टि बनी है। और श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा है, कि अजामेकांलोहित शुक्ल कृष्ण ह्रीः प्रजाः सृजमानां सरूपा:" (श्वेता०४. ५) अर्थात् लाल (तेजो रूप), सफेद (जल रूप ) और काले ( पृथ्वीरूप) रंगों की (अर्थात् तीन तत्वों की एक अजा (बकरी) से नामरुपात्मक प्रजा (सृष्टि) उत्पन्न हुई । छांदोग्योपनिषद्के छठवे अध्याय में वेतकेतु और उसके पिताका सम्वाद हैं । सम्वाद के आरम्भ में ही श्वेतकेतुके पिताने स्पष्ट कह दिया है. कि अरे ? इस जगतके आरम्भ में एकमेवाद्वितीयं सत् के अतिरिक्त, अर्थात जहां तहां सब एक ही नित्य परब्रह्म के अतिरिक्त, और कुछ भी नहीं था । जो असत् (अर्थात नहीं है) उससे सम कैसे उम्पन्न हो सकता है ? अतएव आदिमें सर्वत्र सत् ही व्यप्त था । इसके बाद उसे अनेक अर्थात् विवि होने की इच्छा हुई और इससे क्रमश: सूक्ष्म तेज (अभि) आप (पानी) और अन्न (पृथ्वी) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८६ ) ' की उत्पत्ति हुई। पश्चात् इन तीन तत्वों में ही जीव रूपसे परब्रह्मका प्रवेश होने पर उनके त्रिवृत्करणसे जगत् की अनेक नाम रूपात्मक वस्तुएँ निर्मित हुईं। स्थूल अभि सूर्य या विद्युल्लताकी ज्योतिमें जो लाल (लोहित) रंग है, वह सूक्ष्म तंजो रूपी मूल तत्वका परिणाम है, जो सफेद (शुक्ल) रंग है वह सूक्ष्म आप तक परिणाम है, और जो कृष्ण (काला) रंग हैं वह सूक्ष्म पृथ्वी- तत्त्रका परिणाम है । इसी प्रकार, मनुष्य जिस का सेवन करता है उसमें भी सूक्ष्म तंज, सूक्ष्म आप और सूक्ष्म अन्न (पृथ्वी) - यही तीन तत्व होते हैं । जैसे दहीको मथनेसे मक्खन ऊपर आ जाता है. वैसे ही उक्त तीन सूक्ष्म तत्वोंसे बना हुआ अन्न जब पेटमें जाता हैं. तब उसमेंसे तेज तत्व के कारण मनुष्यके शरीर में स्थूल. मध्यम और सूक्ष्म परिणाम जिन्हें क्रमश: अस्थि मज्जा और वाणी कहते हैं, उत्पन्न हुआ करते हैं। इसी प्रकार आप अर्थात् जल तत्व से मूत्र रक्त और प्रारण, तथा अन्न अर्थात् पृथ्वी तत्त्रसे पुरीप, मांस और मन ये तीन द्रव्य निर्मित होते हैं" (०६२२६) । छांदोग्योप निपकी यही पद्धति वेदान्त सूत्रों (२११/२० ) में कही गई है, कि मूल महाभूतों की संख्या पांच नहीं. केवल तीन ही है, और उनके त्रिवृस्करण से सब दृश्य पदार्थो को उत्पत्ति भी मालूम की जा सकती है बादरायणाचार्य तो पंचीकरण का नाम तक नहीं लेते तथापि तैत्तिरीय (२१) प्रश्न (४८) बृहदारण्यक (४|४|१) आदि अन्य उपनिश्दिोंमें और विशेषतः श्येताम्बर (२1१ ) वेदान्त-सूत्र (२१ १४) तथा गीता ( ७/४, १३.५) में भी तीनके बदले पांच महाभूतोका वर्णन है। गर्भोपनिषद् के आरम्भ ही में कहा है कि मनुष्य देह पंचात्मक हैं और महाभारत तथा पुराणोंमें तो पंचीकरणका स्पष्ट ही किया गया है. (म्भा शा० १८४ १८६ इससे यही सिद्ध होता हैं कि यद्यपि त्रिकरण प्राचीन हैं तथापि जब महाभूतांकी संख्या तीनके बदले पांच मानी जाने लगी तब त्रिषूत्करण के उदाहरण ही Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८७ ) से पंचीकरणकी कल्पनाका प्रादुर्भाव हुआ और विधुत्करण पीछे रह गया एवं अन्त में पंचीकरणकी कल्पना सब शान्तियोंको प्राह्य हो गई धागे चलकर इसी पश्वीकरण शब्द के अर्थ में ग्रह बात भी शामिल होगई ! कि मनुष्यका शरीर केवल पंच महाभूतों खे ही बना नहीं है किन्तु इन पंचभूतों मेंसे हरएक पांच प्रकार से शरीरमें विभाजित भी हो गया है. उदाहरणार्थ ला . नांश. अस्थि मजा, और स्नायु ये पांच विभाग अन्नमय पृथ्वी तत्वके हैं इत्यादि (मभा:शां, १८४ | २० | २५) और ( नाम बांध १७३८ दम्रो) ; प्रतीत होता है, कि यह कल्पना भी उपयुक्त छांदोग्योपनिषद्के त्रिवृत्कराके वर्णनसे सूझ पड़ी है। क्योंकि, यहां भी अन्तिम वर्णन यही है कि तज आप और पृथ्वी. इन तीनों में से प्रत्येक, तीन तीन प्रकारसे मनुष्यके देहमें पाया जाता है।" उपरोक्त सृष्टि रचनाका क्रम बैदिक नहीं है. अपितु दार्शनिक है। यह भी परिवर्तित और परिबर्द्धित । वैदिक ऋषियोंने तो सृष्टिको अनादि अनन्त माना है जैसा कि हम प्रमाण सहित लिखचुके हैं। यदि इसको एक देशीय प्रलय व मृधि रचना माना जाये तो सबका समन्वय हो सकता है। श्रति-स्मृति-पुराणोक्त हिन्दू धममें कुमारिल और शंकर का स्थान अति स्मृति-पुराणोक्त हिन्दू धर्म की स्थापना की प्रारम्भ होने पर हिन्दू समाज में क्रान्ति कारक विचार-मर रिण और नवजीवन निर्माण करनेवाली हल चल उत्पन्न ही नहीं हुई । उसके बाद भार. तीय समाजमें विशेष उथल पुथलढुई ही नहीं । अपितु,अनेक राज्य उत्पन्न हो कर बिलीन हो गये परन्तु ममाज में संस्था का सामान्य Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरूप कायम ही रहा । ।यह स्थिति मौर्य साम्राज्य के पतन के अनन्तर की है। भारतीत समाज संस्था प्रफ दीर्घकालीन स्थैर्य युग में प्रविष्ट हुई। इस युगमें काव्य, नाटक, टीका, भाष्य, अलंकार और तर्क शास्त्र बढ़ रहे थे। आचार्य शङ्कराचार्य ने देखा कि हमारी धर्म-संस्था ब्रह्मबाद, मायावाद. मानव बुद्धिकी समीक्षक प्रमाण-पद्धितिसे सिद्ध नहीं हो सकती. तब उन्होंने श्रुति प्रामण्य का आश्रय लिया। इसका अर्थ यह हुआ कि उपनिषत्काल से लेकर विकिसित होने वाले भारतीय बुद्धिवाद और तत्ववाद ज्ञान को शुलन प्रमाण की शिला के नीचे पूरी तरह से जीते जी समाधि दची । और उसका अन्त कर दिया दर्शन अथवा तत्वज्ञान वस्तु की अथवा विश्व की मानव बुद्धि से की हुई छान बीन है । मनुष्य के प्रयत्न से नित्य विकिसित होने वाली वस्तु समीक्षा को हजारों वर्ष पहिले के वैदिक मानवों की बुद्धि से निर्वाण हुई चार पुस्तकोंके (वेदोंके) प्रामाण्यसे जकड़ डालनेका प्रयत्न शङ्कराचार्य ने किया और पुराने वैदिक लोगोंकी मर्यादित अपूर्ण बुद्धि को पूर्णत्व अर्पण करके वैदिक विकास की जड़े हो उखाड़ डाली। भारतीय समाज संस्था का जिस समय विकास ही रुक गया और जीर्णता शिथिलता और दुरवस्थाके कारण समाज में कोई भी आशा न रह गई, उस स्थिति में शङ्कराचार्य जैसे अलौकिक बुद्धि और विशाल प्रतिभा वाले पुरुषके तत्वज्ञान का उस स्थिति के अनुरूप यदि इस प्रकार का पर्यावसान हुआ तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । उस समय यदि विज्ञान युग का प्रारम्भ होने योग्य अनुकूल समान दशा होती, तो शंकराचार्य के प्रखर तर्कशास्त्र से विहीर्ण हुए तत्त्वज्ञान के विनाश से नवीन तर्कशास्त्र और नवीन भौतिकवाद उत्पन्न हुआ होता।सारे आध्यात्मवादी तत्त्वज्ञानाकी सर्वांगी जांच करने पर इसके सिवाय और प्रसन्न होने योग्य बात नहीं है। का पर्यावसान Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ भी निष्पन्न नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में या तो शुन्यबाद, संशयवाद और मायावाद उत्पन्न होता है। अन्वथा ऊंचे दर्जे का तर्कवाद और भौतिकवाद अवतरित होता है। उस समय की सामाजिक परिस्थिति विज्ञान के अनुकूल नहीं थी इसलिये उल्टा मायावाद उत्पन्न हुश्रा और सारा बौद्धिक पराक्रम व्यर्थ गया । समाज को दुर्गति के दीर्घ धने अंधकार से प्रस्त करने के बाद निंद्रा और दुःस्वप्न ही तो तत्त्वज्ञान के परिणाम निकल सकते हैं और दूसरा निकल ही क्या सकता है। अन्त में संसार के विरक्त ईश्वर शरणता और अनन्य भक्ति यही धर्म-रहस्य बाकी रह गये। वारहवी शताब्दि से लेकर हिन्द साम्राज्यों के अन्त होने तक मायावाद. भक्तिवाद और जातिभेदात्मक आचरण. यही सच्चा हिन्दू धर्म बन गया, मुसलमानों, मराटी और अंग्रेजों के राज्य में भी यही अव्याहत रूप से चलता रहा । __ तर्क रन पं० लक्ष्मण शास्त्रीजी लिखित हिन्दू धर्म समीक्षा से, उद्धृत पृष्ट १४४-१४५ । शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन आदि विश्व-धर्म इन धोका पुरस्कार वैदिकेत्तर वरिष्ठ वर्गों ने किया पुरोहिसाई से जिनका सम्बन्ध नहीं था से राजन्य उनकी प्रस्थापनामें अगुश्रा बने वैदिकोंकी ब्राह्मण प्रधान यज्ञ धर्म संस्था भीतरी और वाहिरी कारणों से जिस समय क्षीण होरही थी लगभग उसी समय पच्चीस सौ वर्ष पहिले इस नई धर्म संस्थामें जोर श्राने जगा | वैदिक धर्म की अपेक्षा इसका निराला बड़प्पम यह था कि इसमें सब मानवों के लिए श्रेयका मार्ग खोल देने वाली व्यापक Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६० ) I उदार भावना थी। किसी भी परिस्थितका जातिका और समाज का. उच्च नीच पतित और उन्नति मानव शुद्धि होकर धार्मिक परम पदवीको प्राप्त कर सकता है। हिन्दोस्थान में ऐसी घोषणा करने वाले विश्व धर्म दूसरे समाज-संस्था के राष्ट्रांकी अपेक्षा पहिले उदयमें आये। वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित-समाज संस्थाके विरुद्ध इन विश्व धर्मी ने सिर उठाया । वैदिक आर्य धर्मके अनुसार कि आर्य हो धर्मतः पवित्र माने गये थे वे अपनी परम्परागत पवित्रताके जोरपर श्रवैदिकों और शूद्रोंको हीन सामाजिक स्थित में पड़े रहनेके लिए लाचार करते थे, और स्वयं आधिभौतिक मुखोंके हकदार और धार्मिक पवित्रताकी स्वतंत्र योजनाको और अबोंदकतर सामान्य जतनाका जन्म सिद्ध अपवित्रताको नष्ट करने का प्रारम्भ इन विश्व धर्मों ने किया । शैव और वैष्णव धर्मोकी परम्परा वेद- पूर्वक से बालू श्री वैदिकेतर अनेक सुसंस्कृत संघों में ये धर्म चालू थे। उत्तर भारतके पश्चिम और वायव्य-विभाग में शैव और वैष्णव धर्मके नेताओं ने एकेश्वर भक्ति का जोरों से प्रचार करना शुरू किया । वेद कालीन वृष्धिक कुल में वासुदेवकी भक्तिका पंथ प्रचलित था इसको महाभारत में नारायणीयधर्म अथवा वाष्र्य अध्यात्म कहा है सामान्य लोगोंमें काश्मीरसे बंगालतक और हिमालय से रामेश्वर पर्यन्त शिव भक्ति चालू थी । उनमें भी बड़े २ तत्व वेत्ता उत्पन्न हुए इन धर्मोने वैदिकयज्ञ संस्था, पशु याग और ब्राह्मण महात्म्यका निषेध किया ईश्वर एकही है और उसको भक्तिसे सारे मनुष्य पवित्र होकर परमेश्वर पदको प्राप्त होते हैं परमेश्वर भक्ति के आगे वाकीकी धार्मिक विधियाँ व्यर्थ है नीतिके आचरण और भक्ति से ही मनुष्यका उद्धार होता है दात्री, वैश्य शूद्र ये सभी भगवद्भक्ति से शुद्धि होकर मुक्त होते हैं। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६१ ) इस दिन सर को एफेवर शक्ति के और वैष्णव सम्प्रदाने महत्व दिया । ये सम्प्रदाय पहिले वैदिक मार्गों के विरोधी थे परन्तु जय इन्हें वैदिक मार्गीय ब्राह्मणादिकोंने स्वीकार कर लिया तब इनका विरोध शान्त हो गया. बुद्धोत्तर कालीन हिन्दू समाज में इन्हीं धर्मों का महत्व है। वैष्णव के वैदिक धममें मिल जाने पर ही भगयद्गोता तैयार हुई है। इस एकेश्वर भक्ति सम्प्रदायका श्राश्रय लेने वाले लोगोंने हो पौराणिक धर्मका प्रचार किया । वैदिकेतर हीन धर्म कल्पनाओं को तो पुराणोंने बहुत महत्व दिया है। मुहूर्त्त ज्योतिष फल ज्योतिष, ग्रह-नक्षत्र पूजा वृत. तीर्थ, उद्यापन आदि को आगे इन्हीं सम्प्रदायको स्वीकार करने वाले ब्राह्मणांने महत्व देकर अपनी उपजीविका के लिये सामान्य समाज के अज्ञान और dearer पोषण किया। उत्तर- भारत के पूर्व भाग में काशी- और बिहार प्रांत में वैदिकेतर सुसंस्कृत मानव संघों से जैन और बौद्ध ये दो नये महान धर्म प्रकट हुए। ये भी विश्व-धर्म ही थे । कारण इनमें भी यह विचार मुख्य था कि सारे श्रेष्ट कनिष्ट दर्जेके मानव संयमसे और नीतिसे शुद्ध होकर निःश्रेयस के अधिकारी होते हैं । ये धर्म अधिक पाखंडी या वेद वाह्य नास्तिक थे । इन्होंने वेद देव और यक्ष तीनों पर आक्रमण किया। ये धर्म श्रयोंने निर्माण किये और श्रमण सप्ता धारी जवयादि वर्गके थे। ब्राह्मणोंकी श्रेष्ठता और उनकी रची हुई समाजिक पद्धति बदलने के लिए उन्हों ने वेद, देव और यज्ञ इस मूल आधार पर ही कुठाराघात किया । जैन श्रद्ध और न.झ मन्थोंसे जान पड़ता है कि श्रम और मुनिश्रोंने मुख्य मुख्य पखंड (धर्म) फैलाए । चार्वाक अत्यन्त मूल गामी परीक्षक पंडित था। परन्तु महाभारत में कहा है कि वह भी Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) भिक्षु मुनि था । परिव्राजिकों और श्रमकी संस्कृति पहिले वैदिकेतरोंमें उत्पन्न हुई थी कारण उसका समाज यहां वैदिकोंकी अपेक्षा पुराना था। सस धारी में दकोंको सामाजिक पद्धतिके दुष्परिणाम पहले उन्हें अधिक महसूस हुए। उन्हें भंसारकी नितान्त दुःखमयता पहले प्रतीत हुई। महाभारत के एक उल्लेख से मालूम होता है कि तक्षक (नाग कुलीन राजा) नम श्रमण हो गया था । आदि की सर्प-सूत्रका कथा से सूचित होना है कि वैदिक आर्य नागोंके बैरी थे। नागोंने जैन तीर्थंकरकी संकटसे रक्षाकी। और नाग तीर्थंकर के मित्र थे, ऐसा जैन कथाओंसे मालूम होता है बुद्ध देव गया सत्ताको पद्धतिमें रहने वाले समाजमें उत्पन्न हुए थे। कृष्णा वासुदेव भी गया तत्र समाज पद्धति वाले वृष्ण गंवाकुलमें उत्पन्न हुई पहल पहल पदिकेतर समाजमे भो जटिल (जटाधारी). मुंडा (मुडे सिर), तापस, परिब्राजक आजीवक, निम्रन्थ नाम और गोटकों के पथ निर्माण हुए और फिर वैदिक लोगों में भी इन मंत्रोंका जन्म हुआ । 1 हिन्दू धर्म समीक्षासे प्रष्ट १३३ - १३५ । "वैदिक आर्यों का श्रीत- स्मार्त धर्म" वैदिकतर लोगों को सामाजिक दासता में रखने के काम में श्रौतस्मार्त धर्म के अनुयायियों ने वैदिक धर्म की पवित्रता का उपयोग किया। उन्होंने दूसरोंको वैदिकधर्माचरणका या उसके स्वीकार करनेका अधिकार ही नहीं दिया। उन्होंने दूसरोंको व्रात्यस्तोम नामक विधि सामवेद के ताराज्य ब्राह्मण में और कात्यायन श्रौतसूत्र में कही गई है। अनुमान होता है कि उसका उद्देश्य श्रवैदिकों को वैदिक बना लेना हैं | परन्तु वह अमल में बहुत कम ही लाई गई I सोऽपश्यत् नम्र श्रमखं श्रगानम् । - महाभारत श्रादि पर्व । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६३ ) पुराने धर्मसूत्रों और स्मृतियोंमें करनेपर are की आशा है। वैदिक यज्ञ और स्मार्त धर्म से पवित्र हुआ आर्य ही समाज का सच्चा स्वामी था । उसे यह स्वामित्व. और श्रेष्ठत्व वैदिकमके जन्म सिद्धि अधिकार के कारण मिली हुई पत्रित्रता से ही प्राप्त होता था । यह पवित्रता ब्राह्म का पुरोहिताई से प्राप्त होती हैं। इसलिये ब्राह्मणों को समाज में श्रेष्ठ स्थान दिया गया कुछ लोग कल्पना करते हैं कि ब्राह्मण का अर्थ है त्यागी, ज्ञानी. संयमी तपस्वी । परन्तु श्रौत स्मात कायदे के अनुसार ब्राह्मण शब्द का यह वाच्याथ नहीं । ब्राह्मण यदि दूसरे वर्ष की स्त्रियों के साथ व्यभिचार करें तो उसके लिये स्मृतियों में बहुत हल्के दंड का विधान है और और उसके साथ उसे विवाह करने की भी आज्ञा दी गई हैं। शुद्ध स्त्रियों को रखेल के तौर पर रखने की तो बड़े धर्म स्मृतिकारों ने आज्ञा दी है। जिन्होंने नहीं दी है, वे वाकायदा कोई विशेष दंड भी नहीं बतलाते। इसके विपरीत यदि दूसरे वर्णका या शूद्र वर्णका पुरुष ब्राह्मण या श्रार्य स्त्री से विवाह करता है अथवा व्यभिचार करता है, तो उसे अत्यन्त तीन यातनाम प्राण दंड का विधान है। ब्राह्मणों को किसी भी अपराध में "प्राण दंड नहीं मिल सकता । त्याग. संयम और तप से विश्विलित हुए ब्राह्मण को तो दूसरे वरके समान ही दण्ड मिलना चाहिए परन्तु वेद और स्मृतियों में इससे उल्टा ही है ब्राह्मण और वैदिक आर्थीक वैदिकों की अपेक्षा जन्मसिद्धिं सुभीते और अधिकार बहुत ज्यादा दिये हैं। श्रौतस्मात कायदे में सम्पत्ति, सत्ता भोग और सम्मान के विषय में ब्राह्मणों को जितने सुभीते हैं उतने किसी को भी नहीं हैं। उन कायदों के दृष्टि से त्याग, संयम ज्ञात और तप को कोई अधिक महत्व नहीं दिया गया है । जिस ज्ञान को महत्व दिया है वह वेद-विद्या या पुरोहिताई का ज्ञान है। न्याय-दान का काम कानून के पंडित ब्राह्मणों को पहिले Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) मिलता था। क्षत्रियों और वैश्यों को ब्राह्मण न मिलने पर मिलता था । शूद्र चाहे कितना भी कानून का पंडित न हो. सू ब्राह्मण उससे अच्छा है, यह सारी स्मृतियोंमें जोर देकर कहा गया है। स्मृतियों का कायदा है कि ज की और लगान की दर ब्राह्मण के लिए सब से कम होनी चाहिये । पुरोहिती विद्या वाले ब्राह्मणको सारे कर माफ थे। स्मृति कहती है कि न्याय दान करने के समय ब्राह्मण का मुकदमा मत्र से पहिले चलाया जाये । ब्राह्मणों का अपने से नीचे के वर्णों के व्यवसाय करने की आज्ञा थी परन्तु नीचे के वर्णों को विशेष कर शुद्रों को उच्च वर्ण के किसी भी को करने की मनाही थी। प्राणान्तिक आपत्ति के समय भी नीचे के वर्ग वाले के लिए उच्च वके उद्योग या व्यवसाय करना स्मृतियोंके अनुसार बड़ा भारी अपराध था । हिन्दू धर्म समीक्षा से पृष्ट १२६ - १३० "आर्य समाज और वेद धर्मका पुनरुज्जीवन" आर्य समाज वेदों की प्रमाणता स्त्रीकार करने और स्मृतिः पुराणोक्त धर्म का त्याग करके निर्माण हुआ पंथ है। यह वेदों के ब्राह्मण भाग को वेद नहीं मानता। इस पंथ वालों ने समझ रक्खा है कि केवल मन्त्र भाग ही सच्चा छेद है चूंकि ब्राह्मण भाग का विस्तृत कर्म-कराड इस युग में बिल्कुल मूर्खता पूर्ण है। इस लिये उन्होंने उसका वेदत्व ही निकाल फेंका। इस पंथ के मुख्य आचार्य स्वामी दयानन्दने वेदों का नया अर्थ लगाया है। उन्होंने वेदों को एकेश्वरवाद की पोशाक दी है। मन्त्र भाग में जहां पशु यक्ष का प्रकरण आता है। वहां उनका रूपात्मक अर्थ बिठाया है। स्वामी दयानन्द की दृष्टि से वेद पूर्ण प्रमामा हैं 1 स्वामी दयानन्दमेाचीन वेद मंत्रोंका बड़ी खीच तान Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६५ ) के साथ अर्थ करके वेदों को नये युग के अनुरूप बनाने का व्यर्थ घटाटोप किया है वेदोंकी गई बीता कल्पनाओंका पुनरुज्जीवन करके नये सामाजिक जीवनके लिये उपयोगी नवीन अर्थ निर्माण करनेके प्रयत्न में बौद्धिक दृष्टि से स्वामी जी को जरा भी यश नहीं मिला आर्य समाज एक तरह से इस्लाम की प्रतिक्रिया है । एकदेव. और १ वे और एक धर्म का संदेश नवीन युग के अनुरूप नहीं हो सकता । बारह सौ वर्ष पहिले मुहम्मद साहब ने जो संदेश अरबों को दिया वैसा ही संदेश अन्धानुकरण से इस विज्ञान प्रधान युग में देना अत्यन्त अप्रासंगिक है- 1 कुछ लोग कहते हैं कि मूल वैदिकधर्मका पुनरुज्जीवन करनेसे हिन्दुओं का सचा उत्कर्ष होगा। युद्ध-पूर्व-धर्मका संदेश देनेसे हिन्दू पहिले जैसे पराक्रमी बनेंगे। परन्तु यह एक ऐतिहासिक असत्य है कि बुद्धोत्तर काल में हिन्दू दुबल और होन चन गये थे। वास्तव में युद्धं तर काल में हिन्दू दुवल और हीन बन गये वास्तव में बुद्धोतर काल में ही हिन्दुयोंके तीन चार बड़े बड़े साम्राज्य हुए हैं। उतने बड़े साम्राज्य बुद्ध पूर्व कालमें कभी थे, इसका इतिहास में कोई प्रमाण नहीं मिलता है। (दूसरी बात यह है कि वेदोंकी कल्पनाओ से तो हिन्दू आगे और भी अधिक निकृष्ट बनेंगे। कारण वेदों सृष्टि-विषयक और समाज-जोवन विषयक विचार अत्यन्त छे और भ्रामक हैं सृष्टि और समाज सम्बन्धी भ्रामक विचारों को मानने से मनुष्य दुर्बल ही अधिक बनेंगे। कारण वेदों के सृष्टि विषयक और समाजके) कार्य-कारण भावका यथार्थ ज्ञानही मनुष्य को अधिक पराक्रमी और समर्थ बनाता है। यह सच है कि वेदोंमें ऐहिक जीवनको न प्रतिवादको और भौतिक साधनों को बहुत महत्व दिया है, परन्तु साथ हा निसग शक्तियों में अनेक देवता रहते हैं और उनकी लाला लहर से सृष्टिमें गहन और विघटन होता है. यह महान अज्ञान भी उनमें भरा हुआ है। इसी तरह उनमें देव Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साओंकी आराधनाका शुक और व्यर्थ कर्मकाण्ड अथवा यज्ञ है। उस संख्यायसंख्यका और आडम्बरका इस समय अपनी संस्कृत के साथ जरा भी मेल नहीं बैठ सकता । उनमेंसे देव रूप और देव चरित्र आज कल के ज्ञान और नैतिक कल्पनाओंसे विल्कुल के मेल है। वर्तमान विज्ञान और समाजशास्त्रके साथ तुलना करने पर मालूम होता है कि वैदिक धर्म अनाड़ी समाजका था। ऐसी अंष्टता उस काल होम शोमा देने वाली और उस परिस्थित के अनुरूप थो । उन वेदोंकी इस समयकी सुधारण, और संस्कृति के साथ तुलना न करना ही अच्छा है । भास्कराचार्यका गणित वर्तमान गणितके सामने बिल्कुल अपूर्ण और क्षुद्र दिखता है. फिर भी उसकी ऐतिहानिक योग्यता और महत्ता कम नहीं है यही दशा वेदोंकी है। वेद उपनिषद् गीता और दशनोंका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है परन्तु धर्तमान जीवनमें उन्हें मार्गदशक बनाना आत्मघाती ही ठहरेगा। ___ तर्क रन पं० लक्ष्मण शास्त्री द्वारा लिखित हिन्दु धर्मकी समीक्षासे; पृष्ट १५० । १५ । * १ ब्रह्ममश, पितृ तर्पण, श्राद्ध आदि धार्मिक विधियोंमें जनेऊ कभी दाहिने कसे (अपसव्य) और कभी वाये कंधेसे ( सब्य ) लटकता रखना पड़ता है इस कर्मको सव्यायसव्य कहते हैं | इससे इस शब्दका अर्थ होता है व्यर्थका त्रास या जान बूझ कर अपने सिर लिया हुश्रा उपद्रव । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९७ ) मीमांसा दर्शन वैदिक दर्शनों में दो ही दर्शन वैदिक हैं। एक मीमांसा और दूसरा वेदान्त । इनको पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसाके नाम से कहा जाता है. शेष चार दर्शनका नाम मात्र लेते हैं परन्तु उनके सिद्धान्तों की न तो पुष्टि करते हैं और न विशेष उल्लेख ही । इन दो वैदिक दर्शनों में भी वेदान्तदर्शनका सम्बन्ध विशेषतया उपनिषदोंसे है सहिताओं से नहीं है । परन्तु मीमांसाका सम्बन्ध एक मात्र वैदिक संहिताओं से है। तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भी मीमांसा दर्शन सबसे प्राचीन है हम ईश्वर विषयमें क्या लिखते हैं इसीपर प्रकाश डालते हैं। वेदान्तदर्शन श्र० ३२१४० व्यासजी लिखते हैं कि प धर्म्म जैमिविरत एव । अर्थात् जैमिनि आर्चाय का कथन है कि धर्म अपना फल स्वयं देता है अतः कर्मके लिये अन्य देवता या ईश्वर आदि की कल्पना व्यर्थ है अतः यह स्पष्ट है कि मीमांसादर्शनकार कर्मफल के लिये ईश्वर आदि की आवश्यकता नहीं समझता है। जैसा कि लिखा है । यागादेव फलं तद्धि शक्ति द्वारेण सिध्यति । सूक्ष्म शक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोप जायते ॥ (तन्त्र वार्तिक) अर्थात् कर्म में एक प्रकारकी सूक्ष्म शक्ति होती हैं वही शक्ति कर्म फल प्रदान में समर्थ है, अतः कर्मका फल कर्म द्वारा ही प्राम Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होजाता है उसके लिए अन्य फल प्रदाताकी आवश्यकता नहीं है की तथा च मीमांसादर्शनके महानाचार्य श्रीकुमारिल भट्टने श्लोक दार्तिकमें मृष्टिकर्ता व कर्म फलदाताका अनेक प्रक्ल युक्तियों द्वारा लंडन किया है। जिनको हम पृ० ३६६ पर उधृत कर चुके हैं पाठक वहीं देखनेका कष्ट करें। मीमांसा पर विद्वानों की सम्मतियां भारतीय दर्शन शास्त्रका इतिहास में पं.देवराजजी लिखते हैं कि "वेदों में जहां ईश्वर की स्तुति है वह वास्तव में यज्ञों के अनुष्ठाता की प्रशंसा है। यज्ञ कर्राओं को तरह तरह के ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं । मीमांसक सृष्टि और प्रलय नहीं मानते । काल की किसी विशेष लम्बाई बीत जाने पर प्रलय और सृष्टि होती है. इस सिद्धान्त को मीमांसकों ने साहस पूर्वक ठुकरा दिया। जब सृष्टि का आदि ही नहीं है तो सृष्टि काकी कल्पना भी अनावश्यक है। कुमारिल का निश्चित मत है कि बिना उद्देश्य के प्रवृत्ति नहीं हो सकती, जगत के बनाने में ईश्वर का क्या प्रयोजन हो सकता है। उद्देश्य और प्रयोजन अपूर्णता के चिन्ह हैं. उद्देश्य वाला ईश्वर - अपूर्ण हो जायेगा। धर्म अधर्म के नियमन के लिये भी ईश्वर आवश्यक्ता नहीं है । यनकर्ता को फल प्राप्ति अपूर्व कराता है । आर्य समाजके प्रसिद्ध विद्वान, गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ के प्राचार्य प्रो. गोपाल जी ने मर्व दर्शनमीमांसा में लिखा है कि "काएट और मीमांसा भेद यह है कि मीमांसा समझता है कि जो पाल मिलना है वह एक नैतिक कर्भनियमके अनुसार है परन्तु काराः समझता है कि फल ईश्वर द्वारा मिलता है । ” पृ० ११२ यह आर्य सम्मानने भी यह स्वीकार कर लिया है कि--- मीमांसादर्शनके मतमें कर्म फल के लिए. ईश्वरकी श्रावश्यक्ता नहीं है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) शरीर न होना भी ईश्वर के कर्तव्य में वाधक है। संसार की दुःखमयता भी ईश्वर के विरुद्ध साक्षी देती है ।" । श्री बल्देव उपाध्याय. एम. ए, साहित्याचार्य । भारतीय दर्शन, सिर पर कि मंगलागलाद परिलोपिक भी मिला है) में लिखते हैं कि.--"तत्व-शानकी दृधिसे मीमांसा प्रपंच की नित्यता स्वीकार करती है। मीमांसा जगतकी मूल सृष्टि तथा श्रात्यन्तिक प्रलय नहीं मानती। केवल व्यक्ति उत्पन्न होते रहते हैं तथा नाशको प्राप्त करते रहते हैं. जगतकी सृष्टि तथा नाश कभी नहीं होता ब्रह्म सूत्र तथा प्राचीन मीमांसा ग्रन्थों के आधार पर ईश्वरकी सत्ता सिद्ध नहीं की जाती ।" मीमांसा दर्शन प्रकरणा । श्री राहुल सांकृत्यायनी. दर्शन दिग्दर्शन में लिखते है कि "ईश्वर के लिये मीमांसामें गुंजायश नहीं। जैमिनिको वेदोंकी स्वतः प्रमाणता सिद्ध कर यज्ञ कर्मकांड का रास्ता साफ करना था उसने ईश्वर सिद्धिके बखेड़ेमें पड़नेसे बेदको नित्य अनादि सिद्ध करना आसान समझा। आपने इस विषयमें पद्मपुराणका एक प्रमाण भी दिया हैं। यथा--- द्विजन्मना जैमिनिना पूर्व वेदमथार्थतः । निरीश्वरेण वादेन कृतं शास्त्रं महत्तरम् ॥ उत्तरखंड २६३ अर्थात्-जैमिनिने वेदके यथार्थ अर्थके अनुसार यह मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादात्मक रचा । प्रसिद्ध दार्शनिक बा, 'सम्पूर्णानन्दर्जा' ने चिदविलास में लिखा है कि:__'जो लोग ईश्वरके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करते उनमें कपिल, जैमिनि, बुद्धऔर महावीर जैसे प्रतिष्ठित आचार्य है।' पू१०३ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०० ) सारांश यह है कि नवीन न प्राचीन सभी स्वतन्त्र विधारकों ने सांख्य और मीमांसादर्शन को अनीश्वरवादी माना है यहां पमपुराणका श्लोक बड़े महत्वका है उससे यह स्पष्ट होगया है कि जैमिनि ने वेदोंके अर्थोंको लेकर यह शास्त्र अनीश्वर वादात्मक रचा है इस श्लोकने वेदोंमें भी ईश्वरवाद का खंडनकर दिया है। यहतो हुई मीमांसा की बहिरंग परीक्षा तथा इसकी अन्तरंग परीक्षाके प्रमाए हम प्रारंभमें ही दे चुके हैं अतः यह सिद्ध है कि मीमांसा और घेद दोनों में वर्तमान ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है। नीत पाण्डेय रामावतार शर्मा एम.प.ओ.एलने अपनी पुस्तक 'मागीय ईश्वस्त्रा में लेका . __ "पृथ्वी.स्वर्ग और नरकके उपयुक्त विचारोंके रहते भी संहिता में सृष्टि परक स्पष्ट विवरण नहीं मिलते । इस सम्बन्धके जो कुछ वर्णन रूपकोंमें कथित है उनके शाब्दिकार्थों से निश्चित् अभिप्राय निकालना आज कठिन है मन्त्रों में पिता-माता द्वारा सृजनके सहश्य उल्लेख है और जिन देवतानों से विश्व का धारण किया जामा वर्णित है. उनकी भी उत्पत्तिके संकेत दिये गये है। ....... पुरुष, हिरण्यगर्भ. प्रजापति, उत्तानपाद श्रादि सूक्तों में जो लिने गये हैं. उनमें सृष्टि विषयक अस्फुट पाते हैं। जिनको श्राशर बनाकर साक्षणकालमें पूथियीके बननेके सम्बन्धम वराह कच्छप आदिके आख्यान उपन्यस्त किये गये।" इस प्रकार सभी स्वतन्त्र विचारक विद्वान इसी परिणाम पर पहुंचे हैं। अतः स्पष्ट है कि संहिताओंमें न तो वर्तमान ईश्वरका वर्णन है और न सृष्टि उत्पत्ति श्रादिका । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०१ ) प्रलय सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान वेदतीर्थ श्री पं० नरदेवजीने अपनी पुस्तक, ऋग्वेदालोचन, में लिखा है कि--- वेदान्त सूत्रकार बादरायण व्यास और उनके भाष्यकार शंकराचार्य का नित्यत्व स्वीकार करते हैं. किन्तु एक बात fafe कहते हैं कि स्वयं शब्द नित्य नहीं हैं वे जिस वस्तु जाति के वाचक हैं वह जाति नित्य है. इसलिये इन्द्र आदि देवताओंके नाम अनित्य हैं तो भी वेदों के नित्यत्व में बाधा नहीं पड़ती क्यों कि— इन्द्र आदि देवताओंकी जाति नित्य है।" पु० ६३.६४ आगे आप लिखते हैं कि मीमांसाकार का मत है कि के हो अघि लोग अपनी स्मृति के बल पर पुनः वेदों का उद्धार करते हैं ४०६५ उपरोक्त लेख से यह स्पष्ट है कि वेदान्तदर्शन कार व्यास तथा जैमिनि और उनके भाष्यकार श्री शंकराचार्य आदि सभी विद्वानों ने इस जगन की एक देशीय प्रलयको स्वीकार किया है क्योंकि उन के मत में वेदो कथित सभी पदार्थ जातिरूपसे नित्यहैं तथा व्यकि रूप में नाशवान है अतः पृथ्वी चन्द्र सूर्य, मनुष्य, पशु आदि सभी जातिरूप से नित्य सिद्ध होगये । अतः इनसबका एकदम नाश होनेका तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । यहीं वैदिक मान्यता है । 4 इसी आचार्य जैमिनि ने स्पष्ट कर दिया, उन्होंने प्रलयका अर्थ इस पृथ्वी के एक खंड ( प्रान्त का प्रलय होना माना है तभी तो घेोद्धारक ऋषि बचे रह गये थे। जिन्होंने अपने स्मृति बल से वेदों का पुनरुद्धार किया जैनशास्त्र भी ऐसी प्रलयको स्वीकार करते हैं। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०२ ) सारांश सारांश यह है कि मीमांसकों की निम्न लिखित मान्यतायें सिद्ध हैं। (१) इस संसारकी वास्तविक स्वतन्त्र सत्ता है यह भ्रम, विज्ञानमात्र मायामात्र विवर्त, अथवा परिणाम, मिथ्या. स्वप्न, आदि नहीं है। . (6) यह जगत अनादि निधन है न यह कभी उत्पन्न हुआ है और न इसकी कभी प्रलय ही होगी। (३)का मान दाता कोई ईरानि नहीं है, प्रमिनु कर्म स्वयं ही फल प्रदान की शक्ति रखते हैं अथीत कों से अपूर्व (मस्कार) होता है और उस अधुर्च से फल प्राप्त होता है। तथा जगत नित्य होने से उसके कर्ताधरता की भी आवश्यक्ता नहीं है इसलिये ईश्वर नहीं है। (आत्मा प्रत्येक शरीर में पृथक २ है और वे अणुपरिमाण नहीं है अपितु महत परिमाण है। (५) वेदों में जो सृषि उत्पत्ति विषयक कथन प्रतीत होता है वह वास्तविक नहीं है अपितु अर्थवादमात्र है अर्थात भावुक भक्तों की स्तुति मात्र है। उपनिषद् व वेदान्त दर्शन मीमांसा के पश्चात् दूनरा बैंदिफदर्शन वेदान्तदर्शन है इसको उत्तर मीमांसा भी कहते हैं जिस प्रकार मीमांसा में ग्राह्मण ग्रन्थों के यज्ञादि का समन्यव किया गया है उसी प्रकार वेदान्तमें औपनिषद श्रुतियों का समन्वय किया है जिस समय बादरायण ने यह वेदान्त शारत्र बनाया था इस समय भारतवर्ष में पंद्धो का साम्राज्य थ1. अर्थान अनात्मवादका बोल बाला था उपनिषदों Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०३ ) तथा उनकी परस्पर श्रुतियों का प्रबल खंडन किया जा रहा था ऐसे समय में यह आवश्यक था कि उन सबका उत्तर दिया जाये तथा परस्पर विरुद्ध श्र तियों का समन्वय किया जाये. यही कार्य बादरायण ने किया । हम पहले लिख आये हैं कि वैदिक कालमें तथा Befresh समय तक भी वर्तमान कर्ता ईश्वरका आविष्कार नहीं हुआ था सबसे प्रथम हम गीता में इस ईश्वरवाद की झलक देखते उसके पश्चात तो यह सिद्धान्त सर्वोपरि बनता चला गया ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने वालोंके लिए यह विचारणीय है किं किस प्रकार वैदिक अध्यात्मवाद ने उपनिषदोंमें शनैशनै एक ब्रह्मवादका रूप धारण किया तथा पुनःवहीं एक ब्रह्मवाद सिद्धान्त अर्थात् अद्वैतवाद बन गया | हमारा ढ विश्वास है कि मूल वेदान्त सूत्रों में, मायाबाद या अविद्यावाद परिणामवाद, विवर्तवाद आदिका उल्लेख तक भी नहीं है। विशिष्टाद्वैतादि भी उसका विषय नहीं है । इसके प्रथम सूत्र में ब्रह्म की जिज्ञासा की गई है. यहां ब्रह्म नाम आत्मा का है यह ब्रह्म न तो शङ्कर का मायावच्छिन है और न नवीन नैया 1 - raों का कर्त्ता ईश्वर है । जन्माद्यस्य यतः ॥ २ ॥ इससूत्र भी सृष्टि उत्पत्तिका कथन नहीं है। हमें आश्चर्य होता है कि सम्पूर्ण आचार्यों ने यहां सृष्टि की उत्पत्ति श्रादि अर्थ किस प्रकार किये हैं। यहां शब्द जन्मदिहैं न कि सृजन प्रलय आदि जन्म शब्दसृष्टि की उत्पत्ति के लिए न तो कहीं शास्त्रों में ही प्रयुक्त हुआ है तथा न लोकमें ही इस शब्दका इस अर्थ में व्यवहार होता है। अतः इसका सरल अर्थ है इसके जन्म आदि जिससे होते हैं वह आत्मा है। ईश्वर का खंडन तो स्वयं सूत्रकार ने ही प्रबल युक्तियों से किया है। जिसका वर्णन सप्रमाण आगे है। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०४ ) अर्थात् यहां शरीर के जन्म व मरण आदि का कथन है । इसी प्रकारः शास्त्रयोनित्वात् ॥ ३ ॥ का अर्थ भी यह नहीं है कि जिससे ऋग्वेदादि उत्पन्न हुए हैं हा है। अपितु इसका अर्थ यही है कि 'शास्त्रं योनिः अस्य' अर्थात शास्त्र है योनि (कारण) जिसका यह श्रात्मा है। यहां शास्त्र उपलक्षण मात्र हैं, अर्थात् इससे अनुमानादि सभी प्रमाण गृहीत हैं। अभिप्राय यह है कि वह प्रमाणों से सिद्ध है। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि वह सम्पूर्ण भाषा व ज्ञान का कारण है। आत्माकी सिद्धि में ये दोनों हेतु बहुत ही प्रबल हैं। अतः इम बेदान्त के कुछ सूत्रों का वास्तविक अर्थ लिखते हैं। अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॥ १ ॥ अर्थ - - संसार की निस्सारसा जान लेने पर आत्म ज्ञान उपादेय है | ( अतः ) इस लिए ब्रह्म जिज्ञासा ब्रह्म-आत्मज्ञान की इच्छा करनी चाहिये । ( प्रश्न ) सूत्र में ब्रह्म शब्द, ईश्वर परमात्मा, अझ बाधक है आपने इसका अर्थ "आत्मा" किस प्रकार किया है । (उत्तर) श्रुतिमें आत्मा ही लक्ष ईश्वर आदि नाम हैं यथा"अयमास्मा aar" ६०० २।४।१६ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है सर्व साक्षी है । " आत्मापहतपाप्मा सोऽन्वेष्टव्यः " "स विजिज्ञासितव्यः छा० ८२७११ जो आत्मा पापों से मुक्त है उसका अन्वेषण करना चाहिये । "" "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः " ० २/४/५ आत्मा का दर्शन करना चाहिये उसको सुनना चाहिये, आदि Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०५ ) श्रुतियां आत्मा को जानने का उपदेश देती है, अतः यहां मारमा के जानने का उपदेश है । अभिप्राय यह है जिस प्रकार मैत्री को संसार से वैराग्य हो जाने पर याज्ञवल्क्यसे उसने कहा था कि येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम् ।" कृ० २|४|३ महाराज यदि इस विशाल वैभव से में मृत पक्ष की प्राप्त नहीं हो सकती तो इस धन का मैं क्या करूंगी. अतः मुझे वह वस्तु प्रदान करें। जिससे में जन्म मरण रूप दुःखों से मुक्त हो कर निस्य आनन्द को प्राप्त करूँ, इस पर महर्षि यशवल्क्य ने उसको आत्मज्ञान का उपदेश दिया था, और कहा था कि न हि सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति || कु० २|४|३ हे मैत्री ! संसार में पुत्र, स्त्री, पति, धन, शरीर आदि पुत्र. आदि के लिये प्रिय नहीं होते अपितु आत्मा के लिये सब कुछ प्रिय होता है इसलिये आत्माका दर्शन श्रवण, मनन आदि करना चाहिये | अतः श्रतिमें ज्ञातव्य पदार्थ एक मात्र आत्माको दी कहा है. अतः यहां भी महर्षि व्यास ने ब्रह्म शब्द से आत्मा का ही उपदेश किया है । तदात्मनमेव वेदाहं ब्रह्मास्मीति तस्मातत्सर्वमभवत | कृ० १/४ अर्थात् उसने अपने को मैं हूँ ऐसा जादा इसी से वह सत्र (सर्वज्ञ) हो गया । तरति शोकमात्मविदिति, छा० ७११/३ इत्यादि श्रुतियों से आत्मा और अक्ष की एकता का वर्णन Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है अतः यहां भी ब्रह्म शब्द से अात्मा अभिप्रेत है। इसी प्रकार जैन शास्त्रों में भी आत्म ज्ञान का उपदेश है । सिद्धः शुद्धात्मा सर्वज्ञः सर्वलोक दर्शी च । स जिनवर भणितः जानीहि त केवलज्ञानम् ।। अष्टपाहुड़ यथानाम कोऽपि पुरुषो सजानं ज्ञात्या अद्दधाति । ततस्तमनु चरति पुनाधिकः प्रयत्लेन ।॥ २० ॥ एवं हि जीव राजो ज्ञातव्यस्तैथव श्रद्धातव्यः । अनु चरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ॥ २१ ॥ तथा च स्मृति में है किमात्मा का देवता सर्वाः । मनु अ० १२ एतमेके वदन्त्यनि मनु मन्ये प्रजापतिम् । इन्द्रौके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।। मनु०अ०१२१६ अर्थान् अत्मा ही सर्व देव रूप है, इसी आत्मा को विद्वान, अग्नि. मनु. प्रजापति. इन्द्र, प्राण. ब्रह्म. शास्वत आदि नामों स कथन करते हैं। शरीरं यदवामोति य चाप्युत्क्रामतीश्वरः ॥ गीता, अ०१५ इस श्लोक का भाष्य करते हुये श्री शङ्कराचार्यजा ने लिखा है। "ईश्वरः, देहादि संघात स्वामी जोकः" अर्थात यहां 'ईश्वरका अर्थ देहादि संघातका स्वामी जीव' है, अतः सर्व शास्त्र एक मत से ब्रह्म का अर्थ प्रारमा करते हैं। वर्तमान इसलिये कालीन ईश्वर को रचना वैदिक समयमें नहीं हुई थी, अतः उसका कथन भी पैनिक बांगमय में नहीं मिलता। इस लिथ यहाँ अात्माका ही कथन है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखयोनित्वात् ॥ ३ ॥ सम्पूर्ण शास्त्रों का मूल कारण होने से. अात्म का सर्वत्रत्व सिद्ध है । शास्त्र में दो बातें होती हैं। १ भाषा र ज्ञान संसार की सम्पूर्ण पुस्तके किसी न किसी भाषा में लिखी हैं. इन भाषाओं का तथा उन पुस्तकों में जो झान है उन सबका मूल कारण आत्मा है. अतः श्रात्मा सर्वज्ञ सिद्ध होता है। क्यों कि आज तक जितना ज्ञान प्रकाशित हो चुका है. उसका भी अन्त नहीं है. इन समझानों का तथा सब भाषाओं का मूल कारण श्रात्मा ही हैं। यदि इसका मूल कारण प्रात्मा न होता तो जड़ पदार्थ भी भाषा बोलत नजर आते तथा वे भी पुस्तके निर्माण करते परन्तु श्राज तक कोई भी व्यक्ति किसी जड़से भाषा या ज्ञान नहीं सीखा. अतः ये आत्मा अस्तित्व में लथा सर्वझता में प्रमाण हैं। अभिप्राय यह हैकि अनादि कालसे आज तक जितनी भाषाओंका व ज्ञानका आविष्कार हुआ है । और भविष्य में जो श्राविकार होगा । उन सबका मूलकारण आत्मा था, आत्मा है. आत्मा होगा । अतः सम्पूर्ण ज्ञान, व भाषाओंका मूलकारण आत्मा है । अतः जिस आत्मा द्वारा अनन्त झान का प्रकाश हो चुका हो. लस श्रात्मा के सर्वश होने में सन्देह ही नहीं करना चाहिये। श्रात्मा को न मानने वालोंको श्रुति ललकारती है कि अन्त्रि ? नास्तिको जरा विचार करो ? येन वागम्युद्यते । येनाहर्मनोमतम् । येन चक्षुपि पश्यति, येन प्राणः प्रणीयने । केम-३० कि जिसके कारणसे तुम बोलते हो, मनन करत हो. देखतेहो. तथा जीते हो उसी आत्माको अस्वीकार करतेहो। यदि यह आत्मा Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पल भर के लिये इस शरीरसे निकल जाये, तो आपको झात हो जाये कि वास्तवमें हमारी क्या इस्ति है। वस जो तुम खातेहो. पीते हो, देखतहो, आनन्द लेते हो वह सब इस आत्माकी कृपाका फल है. सभी को न मानना अपने वापसे मुकरना है। अथवा ऐसा ही है, जैसा कोई कहे कि "मम मुखे जिला नास्ति' उससे कोई कहे कि जब आप के मुख में वाणी नहीं है, तो बोलते कैसे हैं ? यही बात सूत्रकार कहते हैं कि जो भाई यह कहते हैं आत्मा नहीं है, वे बोलते फिस के आधार पर हैं. क्या बाणी बोलती है. यदि यह बात है. तो मुरदोंकी भी बाणी बोलनी चाहिये, परन्तु हम ऐसा नहीं देखते अतः भाषा और ज्ञानका मूल कारण होनेसे आत्मा को मानना चाहिये । तथा च श्री शङ्कराचार्य जी ने इस "शास्त्रयानित्यातू" सूत्र का अर्थ निम्न प्रकार भी किया है-- "यथोक्लमृग्वेदादि शास्त्रं योनिः कारणं प्रमाणपस्य ब्राह्मणो यथावत् स्वरूपाधिगमे । शास्त्रादेव प्रमाणाद् जगतो जन्मादिकारणं प्रमादिगम्यत इत्यभिप्रायः ।" अर्थात् ब्रह्म के यथावत् स्वरूपाववोध के लिये शास्त्र ही ( योनिः ) प्रमाण हैं। अभिप्राय यह है कि शास्त्र के द्वारा ही ब्रह्म का सृष्टि कन्धि जाना जाता है।" यहां श्री शङ्कराचार्यजीने षष्ठी तत्पुरुष समास न करके बहुव्रीहि समास किया है। जिससे प्रथम के सब कल्पित एवं असंगत अर्थों का निराकरण हो कर सूत्र का वास्तविक और युक्तियुक्त श्रार्थ प्रगट हो गया है।। प्रक्ष शब्द आत्मा का बाचक है इसका विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम हो चुका है। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०६ ) माया और वेद श्री शङ्कराचार्यजीका अद्वैतवाद वैदिक नहींहै इसमें एक प्रमाण यह भी है कि माया शब्द का अर्थ जो अद्वैतवादी करते हैं वह अर्थ पूर्व समय में महीं था । क्यों कि वेदों में आये हुये 'माया' शब्द का अर्थ सष स्थानों पर बुद्धि तथा कर्म ही किया गया है। श्री पाण्डेय रामावतार जी शर्मा ने 'भारतीय ईश्वरवाद' नामक पुस्तक में अनेक मन्त्र इस विषयक उपस्थित किये हैं तथा अनेक भाष्य एवं निरुक्त श्रादि के भी प्रमाणों से इस विषय की पुष्टि की गई है। अतः सिद्ध है कि गैदिक साहित्य में माया शब्द प्रचलित अर्थों में प्रयुक्त नहीं रा है । अतः माया मजते विश्वमेतत् (श्वेताश्वरोपनिषद्) इन्द्रोमायाभिः पुरुरूप ईयते ( पृ. ॥२॥१६) आदि श्रुतियों का अर्थ हुआ-(मायो ) कोंमें लिन श्रात्मा इन शरीरादि की रचना करता रहता है । तथा च ( इन्द्र ) आत्मा ( मायाभिः ) कर्मों से अनेक शरीर धारण करता है। तथा च (इन्द्रामायाभिः) यह मन्त्र ऋग्वेद में भी पाया है। उसकी व्याख्या करते हुये निस्क्तकार यास्काचार्य ने माया का अर्थ बुद्धि ही किया है । अतः उपरोक्त श्रुतियों से वर्तमान मायावाद या अविद्यावाद का समर्थन करना ठीक नहीं है। ___ इसके अलावा हम घेदान्तके अन्य दो सम्प्रदायों का भी उहख करते हैं जो कि जगतको नित्य मानते हैं। (A) चैतन्य सम्प्रदाय |-इसका कथन है कि "जगत (प्रपंच) नितरां सत्यभूतपदार्थ है क्योंकि यह सत्य संकल्प हरिकी बहिरंग शक्तिका विलास है श्रुति तथा स्मृति एक स्वरसे जगतकी सत्यता प्रतिपादित करती हैं। यथा Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११० ) शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ( यजु०४०।८ तथा विष्णुपुराण (१२२।५८) इन्हें अक्षय नित्य कहता है प्रलय काल में भी भगवान के साथ जगतकी सूक्ष्म रूपेण अवस्थिति उस प्रकार रहती है जिस प्रकार रात के समय वनमें लीन विहंगमाकी स्थिति । 'भारतीय दर्शन ।। यह स्पष्ट रूपसे जगतकी नित्यताका कथन है । नथा जिस प्रकार रात्रि में विहंगमोंका नाश नहीं होता उसी प्रकार प्रल यमें जगतका नाश नहीं होता, अपितु उसका निगे भाव हो जाना है। (२) प्रत्यभिज्ञा (त्रिकदर्शन) यह भी जगतकी उत्पत्ति आदि नहीं मानना है । इमका कहना है कि- परम शिव ही इस विश्वका जन्मीलन स्वयं करने हैं। न किसी उत्पादनकी आवश्यकता है न किसी आधारकी । जगत पहले भी विद्यमान था, केवल उसका प्रकटीकरण मृष्टिकालमें शित्र शक्तिसे सम्पन्न होता है ।" भारतीय दर्शन । पृ. ५.२ । यहां भी सृष्टि रचनाका अर्थ सुष्धि उत्पत्ति नहीं अपितु इसका प्रकटीकरण मात्र है । अतः जगत नित्य है यह वेदान्तके आचार्यों के कथनोंसे ही सिद्ध हो जाता है । वेदान्त दर्शनका अपना तात्विक सिद्धान्त क्या था यह जानना अाज कठिनतर कार्य है । क्योंकि इस पर जितने भी भाष्य है के मब साम्प्रदायिक दृटियोंसे किये गगे हैं। उनमें निस्पक्ष तालिक भाषय कोई नहीं है । अतः वेदान्त दर्शनको ममझने के लिये इन भाष्योंका ही आसरा नहीं लेना चाहिये अपितु मूल सूत्रों का आशय समझाने का प्रयत्न करना चाहिये । हमारा विश्वास है कि मूल सूत्रोंमें इस अवैविक और Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५११ । प्रमाण आदिसे वाधित ईश्वरका कथन विल्कुल नहीं है। ईश्वर सृष्टि कता है इसका तो सूत्रोंमें खंडन किया गया है। पमपुराणमें शंकर मतको प्रच्छन्न बौद्ध बताया गया है । तथा दर्शन दिग्दर्शनमें एक श्लोक दिया है। वेदोऽनृतो युद्धकतागमोऽनृतः। प्रामाण्यमेतस्य च तस्य चानृतम् ॥ घोद्धाऽनृती बुद्धिफले तथानृते । यूयं च चौद्धाश्च समान संसदः ॥ रामानुजके वेदान्त भाध्यको टीका' (श्रुतप्रकाशिकाम) अर्थात् ह शंकरमतानुयायों ? तुम्हारे लिये वेद असत हैं इसी प्रकार बौद्धा के लिये बुद्ध बचन असत्य हैं। तुम्हारे लिये वेदका तथा उनके लिये बुद्ध बचनोंका प्रमाण होना मिथ्या है । उसीप्रकार बुद्धि(मान) और उसका फल मोक्ष भी मिथ्या है । इस प्रकार तुम और बौद्ध समान हो अस्तु ग्रहां यह प्रकरण नहीं है अतः अन्न हम यह दिखाते है कि श्री शंकराचार्यजीने भी मृष्टि आदिको उत्पत्तिको केवल अथवाद ही माना है। ___तथा च 'महाभारत मीमांसा में रायसाहब चिन्तामणि लिखते हैं कि-'उपनिषदाम परब्रह्म वाचा आत्मा है : प्रात्मा और परमात्माका भेद उपनिषदोंको ज्ञात नहीं है।" अभिप्राय यह हेकि उपनिषदोंम निश्चयनयको इष्ट्रिसे आत्माका सुन्दर वर्णन किया गया. अतः निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मा एक ही है। भेद ता कौके कारणसे है । वेदान्त दर्शन उपनिपदोंके भावोंको ही व्यक्त करने तथा उन्हें दार्शनिक रूप देनेके लिये लिया गया है । अतः उसमें भी मुक्तात्मासे भिन्न कोई जाति विशष अथवा व्यक्ति विशेष ईश्वर नहीं माना है । यह निश्चित है। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१२ ) वेदान्त दर्शन में ईश्वरका खंडन निम्न प्रकारसे किया है। पत्युरसामञ्जस्यात् । अ० २२१३७ संवन्धानुपपत्तश्च ॥ ३८ ॥ अधिष्ठानोपपत्तेश्च ॥ ३४ ॥ करणवच्चेन भोगादिभ्यः ॥ ४०१ अर्थात्-ईश्वर जगतका कर्त्ता सिद्ध नहीं होता है क्योंकि यह युक्तिके विरुद्ध है । जीव और प्रकृतिसे भिन्न. ईश्वर विना सम्बन्ध के जीव और प्रकृतिका अधिष्ठाता नहीं बन सकता। इनमें संयोग सम्बन्ध नहीं बन सकता क्योंकि यह सम्बन्ध दो एकदेशीय पदार्थोंमें होता है । परन्तु ईश्वरको एक देशीय नहीं माना जाता । इनमें समवाय सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि इनमें मानय और आश्रयीभाष नहीं है । कार्य कारण सम्बन्ध तो अभी असिद्ध ही है । अतः इनमें किसी प्रकारका सम्बन्ध न होनेसे ईश्वर जगत रचना नहीं कर सकता ॥२८॥ अधिष्ठानकी सिद्धि न होनेसे भी ईश्वर कल्पना मिथ्या है । क्योंकि निराकार ईश्वर कुम्हारकी तरह (मिट्टी) प्रकृतिको लेकर जगत रचना नहीं कर सकता ३६।। यदि यह कहो कि कुम्हारकी तरह उसके भी हस्त पादादि हैं। नां उसका ईश्वरत्व ही नष्ट हो गया । वह भी कुम्हारकी तरह कर्म करेगा उसका फल भी भोगना पड़ेगा ।।४।। विज्ञ पाठक वृन्द यहां देख सकते हैं किस प्रकारकी प्रबल युक्तियोंसे जगतकर्ताका खंडन किया गयाहै । तथा अध्याय,पा०३ के प्रारंभ से ही श्राकाशादिको उत्पत्ति बताने वाली तथा उनका विरोध करनेवाली श्रुतिर्थीका समन्वय किया गया है । भाध्यकारोंने वहां पर आकाश. वायु, तेज, प्राण, आदिको नित्य बताने वाली Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतियोंको गौण माना है तथा अनित्य वाली श्रुतियोंको मुख्य मान कर समन्वय किया है, वह विलकुल ही असंगत है । इस प्रकार उनको गौण मानने में कुछ भी युक्ति या प्रमाण नहीं है । वास्तवमें तो जैसा कि हम प्रथम श्री शंकराचार्यके प्रमाण से ही सिद्ध कर चुके हैं कि ये सन पदार्थ जाति रूपसे नित्य है तथा व्यक्ति रूपसे उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं। यही आशय यहां भी शास्त्रका है अतः यह सिद्ध है कि वेदान्त दर्शन भी जगत नित्य श्रकृतृम मानता है तथा इश्वरको जगत कत्ती नहीं मानता। तथा च ऐतरेयोपनिषद् द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में सृष्टि रचना आदिका विचित्र वर्णन है । इस पर प्रतिवादीने प्रश्न किया कि तो क्या इन सब बातोंको असम्भव माना जाये ? इसका उत्तर श्री शंकराचार्यजी देते हैं कि नहीं यह सब आत्मावबोध करानेके लिये अर्थवादमात्र है, अर्थात् आत्माकी प्रशंसा मात्र है, इस लिये कोई दोष नहीं है। (उत्तर) न अत्रात्मावबोधमानस्य विवक्षित्वात् । तथा जहां जहां इनकी उत्पत्ति आदिका कथन है, वहां वहां, शरीर या प्राण अर्थ है । जैसे, आत्मन आकाशः संभूतः, आकाशाद् वायुः। आदि । यहाँ आकाशका अर्थ सूक्ष्म प्राण, तथा वायुका अर्थ स्थूल प्राण है। इसी प्रकार जहां जहां अाकाश, वायु, तेज, प्राण आदिकी उत्पत्तिका निषेध किया है, वहां यहां वह सांसारिक पदाथों का वर्णन होता है। ___ श्रीयुत पं० माधवराव सप्रेने 'आत्मविद्या के पृ० ३६६ पर श्राकाशाद न्याय, इस श्रुतिका अर्थ जीवके अवतरण परक क्रिया है अर्थात् आत्माके परलोकसे लौटनेका क्रम इस अतिमें बताया गया है । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) सर्वोऽयमर्थवादा, इत्यदोषः। इस उत्तरसे स्पष्ट सिद्ध है कि जगन रचना श्रादिका कथन केवल आत्मा थबोध कराने के लिये आत्माकी स्तुति (प्रशंसा) मात्र है। वास्तवमें जगतकी रचना आदि नहीं होती । ब्रह्म सृष्टि और मीमांसादर्शन 'मृष्टिवाद और ईश्वर' में श्रीशतावधानी जो लिखते हैं कि "अद्यापि नासदीय सूक्त की सृष्टि रचना का प्रकार ऋषियों के संशय से श्राकान्त हैं और नासदीय सूक्त की छवी और सातवीं ऋचा इनका खण्डन भी कर चुकी है. तो भी व्यवस्थित विचार करने वाले दर्शनकाराने सृष्टि के विषय में क्या र निया है इसका किंचिन दिग्दर्शन कराते हैं । वेद के साथ सबसे अधिक सम्बन्ध रखने वाला पूर्वमीमांसा दर्शन है। इसके संस्थापक जैमिनि ऋषि हैं इनका सृष्टि के विषय में क्या अभिप्राय है, इसका मीमांसादर्शन की माननीय पुस्तकशास्त्रदीपिका भौर श्लोक वार्तिक श्रादि के आधार से निरीक्षण करते हैं। जैमिनि सूत्रके प्रथम अध्यायके प्रथमपादके पांचवें अधिकरण की व्याख्या करते हुए शास्त्रदीपिकाकार श्री मल्पार्थ सारथि मिश्र शब्द और अर्थका सम्बन्ध कराने वाला कौन है इसका परामर्श करते कहते हैं कि___ "जब सृष्टिकी आदि हुई हो वैसा कोई काल नहीं है । जगन सदा इसी प्रकारका है । यह प्रत्यक्षके अनुसार प्रचलित है, भूतकालमें ऐसा कोई समय न था जिसमें कि यह जगत् कुछभी न था इस जगतकी प्रलय आदिमें कोई भी प्रमाण नहीं है। ___ आगे बढ़ते हुये दीपिकाकार कहते हैं कि बिना प्रमाण के भी यदि यह मानलें कि कुछ भी नहीं था तो सृष्टि बनही नहीं सकती। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि भूष्टि कार्यरूप उपादेय है, उपादानके विना उपादेय नहीं बन सकता । मिट्टी हो तभी घट बन सकता है. मिट्टीके विना घड़ाबनते हुए कभी नहीं देखा गया यहाँ ब्रह्मवादी पूर्वपक्षरूपमें कहता है कि आत्मैवैको जगदादावासीत् स एव स्वेच्छया व्योमादि प्रपञ्चरूपेण परिणमति बीजाइव वृक्षरूपेण । चिदेकरसं ब्रह्म कथं जहरूपेण परिणमतीति चेन् न परमार्थतः परिणाम ब्रह्मणः किन्त्यपरिणतमेव परिणतवदेकमेव सदनेकपा मुखमिवादर्शादिष्वविघावशादिवर्तमानमात्मैवान्त्मानं चिद्रूपं जड़रूपपिवाद्वितीयं स द्वितीयेमिक्पश्यति । सेयमविद्योपादाना स्वमप्रपंचान्महदादि प्रपंच सृष्टिः। (शादी०१।११५-११०) _ अर्थ-जगत के आदिमें (प्रलय कालमें ) एक आत्मा ही था। वह आत्मा ही अपनी इच्छासे आकाश आदि विस्तार रूपमें परिणत होता है, जिस प्रकार कि बीज वृक्षरूपसे विस्तृत हो जाता है। शंका-(चैतन्य एक रसरूप)प्रक्ष.जरूपमें कैसे परिणत होसकता है? उत्तर-हम पारमार्थिक पारिणाम नहीं मानते किन्तु अपरिणत होता हुआ परिणस के समान, जैसे कि एक रूप होकर अनेक रूप-दर्पण में मुख दिखाई देता है,विवर्त प्राप्त करता है। अविशाके कारणसे आत्मा ही चिद्रूप आत्माको जड़रूप देखता है। अद्वितीय को सद्वितीयकी तरह चिप को जहरू देखता है अविधाका उपादाम करण वाली स्वप्नापंचवत् मदादि प्रपंचरूप यह सृष्टि है। मीमांसकों का उत्तर पक्ष किमिदानीममन्नेवायं प्रपंच प्रोमितिचेन्न । प्रत्यक्ष विरोधात् । न चाममेन प्रत्यक्ष् वाधः भवति । प्रत्य Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५१६ ) तस्य शीघ्रप्रवृत्तेन सर्वेभ्यो बलीयस्त्वान् ।' 'किंच प्रपंचा भावं प्रतीयताऽवश्यमागमोपि प्रपंचन्तिर्गतत्वादसदूपतया प्रत्येतव्यः । कथं चागमे नैवागमस्याभावः प्र तीयेत १ असद्रूपतया हि प्रतीयमाना न कस्यापिपदायर्थस्य प्रमाणं स्यात्। प्रामाण्ये वा नासत्यम् । ( शा० दी० २११५ पृष्ठ ११० ) ___ अर्थ-या वर्तमान में भी जगत् विस्तार असत है? जो जगत प्रत्यक्षसे सद्रूप दिखाई देता है उसका आगमसे बाधित होना संभक्ति नहीं है. कारण यह है कि प्रत्यक्ष सबसे बलवान है और आगमकी अपेक्षा इसकी प्रवृत्ति सबसे पहले होती है।। __ दूसरी बात यह है कि जगनको असदूप माननेवाले पुरुषको जगत के अन्दर रहे हुए श्रागमको असदू मानमा पड़ेगा, वहभी प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं किन्तु श्रागम प्रमाणसे इसमें विचारणीय यह बात है कि आगम स्वयं अपना अभाव किस तरह सिद्ध करेगा यदि आगम असद्रप सिद्ध होजायगा तो वह किसीभी अर्थके लिए प्रमाण स्वरूप न रह सकेगा। और अगर प्रमाणरूप रहेगा तो वह असनूप नहीं रह सकेगा ( असदृष और प्रामाण्य ये दोनों परस्पर बिरोधी हैं अतः एक वस्तु में नहीं टिक सकने । अनिर्वचनीयवाद वेदान्तर्गत अनिर्वचनीयवादी कहता है कि हम प्रपंच-जगत् को असत नहीं कहते क्योंकि असन् किस प्रकार कहा जाय ? किन्तु परमार्थ से सत् भी नहीं कह सकते क्योंकि श्रात्म ज्ञानसे बाधा आती है। अतः जगन् सत और असत दोनों से वाच्य न होकर अनिर्वचनीय है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१७ ) मीमांसकों को उत्तरपक्ष अनिर्वचनीयवादीका कथन ठीक नहीं है । सनसे भिन्न असत् है, और असनसे भिन्न असत नहीं है तो सद्रूप होना चाहिए। एक का अभाव दूसरेकी सत्ता स्थापित करता है। अर्थात सत्का अभाव असनकी सत्ता और असत्का प्रभाव सत्की सत्ता स्थापित करता है । एक के प्रभाव से दोनोंका अभाव होजाय यह बात अशक्य है। अतः जगतको या तो सत् कहो या असत् कहो। जगत्की अनि चनीयता नहीं टिक सकती । वस्तुतः वही असत है जो कदापि प्रतीयमान न हो जैसे कि शशविषाण, प्रकाश कुसुम इत्यादि। और सत् भी वह है कि जिसकी प्रतीति कदापि पाघिप्त न हो जैसे आत्मतत्व । जगतकी प्रतीति शशविषाणकी तरह सदा के लिए वाधित नहीं. अतः उसे असत या अनिर्वचनीय नहीं कह सकते। किंतु अात्मतत्वकी तरह जगत्को सत् कहना चाहिए इसलिये जड़ और चेतन दोनोंकी सत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। और यदि इनकी सत्ता स्वीकार कर लोगे तो अद्वैतवाद के बजाय द्वैतवाद सिद्ध हो जायगा। अविद्यावाद वेदान्तर्गत अविद्यावादी कहता है कि वास्तविक सत्ता तो ब्रह्म की या आत्म तत्व की ही है। जगत् की कदाचित प्रतीत होती है यह अधिकृत है। मीमांसकों का परामर्श मीमांसक अविद्यावादी को पूछना है कि वह अविद्या प्रांतिरूप है या भ्रान्तिज्ञान का कारणरूप पदार्थन्तर है ? यदि कहो कि भ्रान्तिरूप है तो किसको होती है । ब्रह्म को भ्रान्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह स्वच्छ रूप है। जहां स्वच्छ विद्या है वहां भ्रान्ति Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१८ ) संभव ही नहीं हो सकती । क्या कभी सूर्यमें अंधाकारका संभव हो सकता है ? कदापि नहीं । यदि कहो कि जीवों को भ्रान्ति होती है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि वेदान्त मत में ब्रह्म के सिवाय जीवों की पृथक सत्ता ही नहीं है। यदि भ्रान्ति स्थान का कारणरूप पदार्थान्तर स्वीकार करते हो तो अद्वैत सिद्धान्त को हानि पहुंचेगी और द्वैतवाद की सिद्धि हो जायगी । कदाचित् कारणान्तर न होने से ब्रह्म का स्वाभावरूप अविद्या मानी जाय तो यह भी संभिषित नहीं है। विद्यास्वभाव वाले ब्रह्म का अविद्यारूप स्वभाव हो ही नहीं सकता | विद्या और अविद्या परस्पर विरोधी है। दोनों विरोधी स्वभाव एक ब्रह्म में कैसे रह सकते हैं ? यदि अविद्या को वास्तविक मानोगे तो उसका विनाश किससे होगा ? आगमोक्त ध्यान स्वरूपज्ञान वगैरह से अविद्या का नाश हो जायगा ऐसा कहते होतो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्यज्ञानस्वरूप ा से अतिरिक्त ध्यानस्वरूप ज्ञानव गैरह है ही कहां कि जो अविद्या का नाश करें ? अतः इस मायाबाद की अपेक्षा तो बद्धों का महायानिकवाद ही ठीक है, जिसमें कि नील पीत आदि के वैचित्र्यका कार्य कारण भाव दिखाया गया है। अज्ञानवाद वेदान्तर्गत अज्ञानवादी कहता है कि यह प्रपंच अज्ञान से उत्पन्न होता है और ज्ञान के द्वारा उसका विनाश होता है । मृग जल या प्रपंच के समान | मीमांसकों का उहापोह मीमांसक कहता है कि कुलालादि व्यापार स्थानीय अज्ञान, घटस्थानीय जगत् और मूलस्थानीय ज्ञान मानेंगे तो भी जगत् Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१६ ) उत्पत्ति और विनाश के योग से अनित्य मात्र सिद्ध होगा किन्तु अत्यन्ताभाव रूप असत् सिद्ध न होगा । दूसरी बात ! ज्ञानसे जगत् का नाश होता है तो वह ज्ञान कौनसा है ? आत्मज्ञान या निष्प्रपंच आत्मज्ञान ? केवल' प्रात्म झान तो विरोधी न होने से जगत का विनाशक नहीं बन सकता निष्प्रपंच आत्मज्ञान को कदाचित् नाशक माना जाय तो उसमें आत्मज्ञान अंश तो अविरोधी है, । निष्प्रपंच माने प्रपंच का प्रभाव जब तक प्रपंच विद्यमान है तब तक उसके प्रभाव का ज्ञान कैसे हो सकता है ? उस झान के उत्पन्न हुय विना प्रपंच का नाश भी नहीं हो सकता। अतः अन्योन्याश्रयरूप दोष की आपत्ति प्राप्त होगी। इस लिये ज्ञान से भी जगन् की सत्ता का नाश नहीं हो सकता ! अबकि जगत पात्मज्ञान की तरह मत सिद्ध होजायगा तो अद्वैतवाद सिद्ध न ही कर द्वैतवाद की सिद्धि हो जायगी । मृग जल तो पहलेसे ही असत हैं अतः उसके नाशका तो प्रश्न ही नहीं ठहरता है। इसलिये यह दृष्टान्त यहां लागू नहीं पड़ता है। इत्यतिमतनिरासः । (शा० दी० १।१।५ पृ० १११) अर्द्ध जरतीय अद्वैतवादीका पूर्वपक्ष उपनिषद्को मानने वाला वेदान्ती अर्द्धजातीय अद्वैतवादी कहा जाता है । वह कहता है कि ब्रह्म या आत्मा स्वयं ही अपनी इकला से जगत् रूप में परिणत हो जाता है । जिस प्रकार बीज वृक्ष रूप सच्चे परिणाम को प्राप्त करता है । उसी प्रकार श्रात्मा भी श्राकाशादि भिन्न २ जगद् रूप में परिणत हो जाता हूँ । नामरूप भिन्न २ होते हुये भी मूल कारण रूप एक आत्मा का ही यह संघ विस्तार है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) जगत् के अनन्यवाद, अविद्यावाद, भ्रान्तिवाद, मायावाद, ये सब वाद अनित्य जगत के औपचारिक हैं। जिस तरह मुग तृष्णा रज्जुस्पं और स्वप्न प्रपंच थोड़े समय तक अविर्भूत हो कर पीले विलीन हो जाते हैं उसी तरह जगद्विस्तार भी अमुक समय तक अविर्भाव प्राप्त करके पीछे लग न हो रहा है । प्रतिमा जगत औपचारिक असत् हैं। आत्मा नित्य होने से पारमार्थिक सत्य है । जगत् का असत्यत्व नैराग्य पैदा करने के लिये है। श्रात्मा का परमार्थपन सत्य है मुमुक्षुओं के उत्साह की वृद्धि करने के लिये है । मृत्पिण्डके विकार का दृष्टान्त ग्रहां ठीक घटित होता है। मिट्टी के बर्तन घड़ा शराब इत्यादि अनेक नाम वाले होते हुये भी एक मिट्टी के विकार हैं। मिट्टी सत्य है। घड़ा शराब आदि वाचारंभमात्र हैं। नाम रूप भिन्नर हैं वस्तु भिन्न नहीं है किन्तु एक ही मिट्टी है । श्रात्मा और जगत् विषय में भी ऐसे ही समझलेना चाहिये । जगन् नानारूप दिखाई देता है सो एक श्रात्मा का विकार परिणाम रूप है । एक है किन्तु अन्तःकरणकी उपाधिके भेद से भिन्न भिन्न जीव वनते हैं। जीव के भेद से बन्ध मोक्ष की व्यवस्था हो सकती है। मीमांसकोंका उत्तर पक्ष आत्मा चैतन्य रुप होनेसे उसका जड़ रूप परिणाम नहीं अन सकता। दूसरी बात'. एक ही बास्ना माननेसे सब शरीरों में एक ही आत्माका प्रतिसंधान होगा । यज्ञदत और देवदत्त दोनों अलग २ प्रतीत न होंगे। देवदत्त के शरीरमें सुखको और यज्ञदत्त के शरीर में दुःखकी प्रतीति एक समयमें एक ही प्रांत्माको होगी। ___अन्तःकरणके भेदसे दोनोंके सुख दुःखकी भिन्न भिन्न प्रतीति हो जायगी ऐसा कहते हो तो यह भी ठीक नहीं है । अन्तःकरण Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; ५२१ ) अचेतन है अतः उसे सुख दुःखकी प्रतीति होनेका संभव ही नहीं हो सकता है। अनुभव करने वाला आत्मा एक होनेसे सबके सुख दुःखके अनुसन्धान कौन रोक सकता है ? कोई नहीं। अतः अर्द्ध जरतीय परिणाम-बाद भी ठीक नहीं है। (शा० दी. १ । १ । ५ ।) अद्वैतवादके विषयमें श्लोक वार्तिककार कुमारिल भट्ट का उत्तरपक्ष पुरुषस्य च शुद्धस्य, नाशुद्धा विकृति भवेत् ॥ ५-८२। स्वाधीनत्वाच धर्मादे स्नेन क्लेशो न सुज्यते । तद्ववशेन प्रवृत्तीवा, व्यतिरेक प्रसज्यते ॥ ५-८३ अर्थ—एक ही श्रात्मा अपनी इच्छासे अनेक रसमें परिणत होकर जगत प्रपंचको विस्तृत करती है. वेदान्तियाँके इस कथनका कुमारिल भट्टी उसर देते है कि पुरुष शुद्ध और ज्ञानानन्द स्वभाव वाला है वह अशुद्ध और विकारी कैसे बन सकता है ? पुरुषका जगत् रूपमें परिणत होना विकार है। अधिकारी को विकारी कहना घटित नहीं होता है । जगत जड़ और दुःख रूप है । चेतन पुरुषमें जड़ जगतकी उत्पत्ति मानना अशक्य बात है। धर्म अधर्म रूप अष्टके योगसे पुरुषमें सुख दुःख क्लेशरूप विकार उत्पन्न हो जायेगे ऐसा कहना भी चित नहीं है । पुरुष स्वतन्त्र है धर्म अधर्मके वश नहीं हो सकता है। धर्म, अधर्म, पुरुषके वश हो यह उचित हो सकता है। सृष्ट्रिके आदिमें यदि एक ही प्रल है तो धर्माधर्मकी सत्ता ही कहां रही? यदि धर्माधर्मकी सत्ता स्वीकार कर लोगे तो द्वैतताकी आपत्ति आयेगी। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२२ ) स्वयं च शुद्धरुपत्वादभावाचा न्यवस्तुनः । स्त्रमादिबदविद्यायाः प्रधुत्तिस्तस्य किं कृता ।। ५८४ अर्थ--जो ऐसा कहते हैं कि हम पुरुषका वास्तविक परिणाम होना नहीं कहते किन्तु अपरिणत होता हुश्रा भी अविद्याके चश पतिमान के समान विधाता नामी होड़ेग होने दुयं भी स्वप्न में जैसे हाथी घोड़े सामने खड़े हो जैसे दिखाई देते हैं छौसें ही अविद्याके घशमें पुरुष जगन् प्रपंचरूप प्रतीत होता है । वस्तुतः पुरुष जगत् रूपमें परिणत नहीं होता है, उन अविद्यावादी वेदान्तियोंके प्रति भट्टजी कहते हैं कि पुरुष स्वयं शुद्ध रूप है. अन्य कोई वस्तु उसके पास नहीं है जैसी हालतमें स्त्रानकी तरह अविद्या की प्रवृति कहांसे हो गई ? अविश भ्रान्ति है। भ्रान्ति किसी न किसी कारणसे होती है पुरुष विशुद्ध स्वभाव वाला है। उनके पास भ्रान्तिका कोई कारण नहीं है । बिना कारशके अविद्याकी उत्पत्ति कैसे हो गई,? यदि अविद्या सिद्ध न हुई तो उसके योगसे पुरुषकी जगत् रूपमें परिणति या प्रतीति भी कैसे हो सकती है ? अन्येनोषप्लवेऽभीष्टे, द्वैतवादः सज्यते । स्वाभाविकी पविद्या तु, नोच्छेत्तु कश्चिदहति ॥ ५-८५ विलक्षणोपपाते हि, नश्येत् स्वाभाविकी क्वचित् । नत्वेकात्माभ्युपायानां हेतुररित विलक्षणाः ।। ५-८६ अर्थ-विधाको उत्पन्न करनेवालापुरुषके सिवाय अन्य कारण माननेपर द्वैतवादका प्रसंग आयगा । अगर कारण न होनेसे पुरुष की तरह अविद्याको भी स्वाभाविक मामलोगेतो वह अनादि सिद्ध होगी । अनादि अविद्याका कभीभी उच्छेद नहीं होसकता। इसलिए किमीभी पुरुषका मोक्षभी नहीं होसकता। कदाचित् पार्थिव पर. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२३ ) मारकी श्यामता जिस प्रकार अभि संयोगसे नष्ट होजाती है उसी प्रकार अविद्या स्वाभाविक श्रविद्या भी ध्यानादि विलक्षण कारके योगसे नष्ट होजायगी ऐसा कहोगे तो मोदी पतितो दूर हो जायगीमगर एक ही श्रात्मा मानने वाले अद्वैतaratha आत्माके सिवाय ध्यानादि कोई विलक्षण कारणही नहीं है तो अविका उच्छेद कैसे होगी इस आपत्तिसे अद्वैतवाद नहीं टिक सकता इसलिए द्वैतवाद स्वीकार करना युक्ति संगत है। अद्ध तवाद के विषय में बौद्धोंका उत्तरपक्ष वापरात दर्शनं नित्यतोतिः । रूपशब्दादि विज्ञाने, व्यक्त मेदोपलक्षणम् ।। ( तै० सं३२६ एक ज्ञानात्मकत्वे तु रूपशब्द रसादयः । सकृद्वैतेः प्रसज्यंते नित्योऽवस्थान्तरं न च ॥ ( तै० सं० ३३० ) है अर्थ - पृथ्वी जलादिक अखिल जगत् नित्य ज्ञानके विवर्त्तप I और आत्मा नित्यानित्य रूप हैं । अतः नित्य विज्ञानके सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसप्रकार कहने वाले वेदान्तियों का जो कुछ अपराध है उसको शान्तिरक्षितजी इस प्रकार दिखाते हैं - अहो अद्वैतवादियो ! विज्ञान एक और नित्य है । रूपरस शब्द आदिका जो पृथक २ ज्ञान होता है वह तुम्हारे मतसे न होना चाहिए किन्तु एक ज्ञानसे एकही साथ रूप रसादि सब पदार्थों का एकरूप से ज्ञान होना चाहिए अगर तुम ये कहोगे कि जिस प्रकार एक ही पुरुषमें बाल्यावस्था, तरुणावस्था वृद्धावस्था भिन्नर होती है । उसी प्रकार ज्ञानकी भी भिन्न अवस्थाएं होंगी जिससेरूप विज्ञान रसविज्ञान इत्यादि की उत्पत्ति हो जायगी तो यह कथन भी ठीक . Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२.४ ) नहीं है। विज्ञानकी अवस्थाएं बदल जानेपर विज्ञान नित्य नहीं रह सकता क्योंकि अवस्था और अवस्थावानका अभेद होनेसे अवस्था के अनित्य होनेपर अवस्थावान भी अनित्य सिद्ध होगा । रूपादि वित्तितो भिन्नं, न झानमुपलभ्यते | तस्य प्रतिभेव || ( तै० सं० ३३२ ) 1 अर्थ - रूपरसादि ज्ञानसे पृथक कोई नित्य विज्ञान उपलब्ध नहीं होता हैं। जो उपलब्ध होता है बहुप्रतिक्षण बदलता रहता है चिरकाल तक रहने वाला कोई अभिन्नज्ञान नित्यविज्ञानन तो प्रत्यक्ष से उपलब्ध होता है और न अनुमानसे इन दोनों प्रमाणोंसे जो वस्तु सिद्ध नहीं है उसका स्वीकार करना ही व्यर्थ है । नित्य विज्ञान पक्षमें बन्धमोक्षकी व्यवस्था नहीं होती विपर्यस्ताविपर्यस्त - ज्ञान भेदो न विद्यते । एकज्ञानात्मके पुंसि बन्नतः ततः कथम् ॥ ( तै० सं० ३३३ ) अर्थ - नित्य एक विज्ञान पक्षमें विपरीत ज्ञान और अविपरीत ज्ञान. यथार्थज्ञान और अवार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान श्ररमिध्याज्ञान इस प्रकार भेद नहीं रह सकता तो एक ज्ञानस्वरूप आत्मामें बन्ध मोक्ष व्यवस्था कैसे होसकती है ? हमारे मत में मिथ्या ज्ञानका योग होने पर बन्ध और मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होनेपर सम्यग्ज्ञान के योगसे मोदकी व्यवस्था अच्छी तरह होसकती है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (BR) नित्य एक विज्ञानपक्षमें योगाभ्यासकी निष्फलता किं वा निवर्त्तयेद्योगी, योगाभ्यासेन साधयेत् । किं वा न हातुं शक्यो हि विपर्यासस्तदात्मकः ॥ तत्वाज्ञानं न चोत्पाद्यं तादात्म्यात् सर्वदा स्थितेः । योगाभ्यासी पितेनाय - मफलः सर्वएव च ॥ ( तै० [सं० ३३४-३३५ ) · ! अर्थ - नित्य विज्ञान पक्षमें यदि सिध्याज्ञानही नहीं है, तो योगी योगाभ्यास के द्वारा किसकी । निवृत्ति करेगा और किसकी साधना करेगा ? यदि नित्य विज्ञान को विपर्यासरूप अर्थात् 1. मिथ्याज्ञानरूप कहोगे तो उसका त्याग नहीं होसकता क्योंकि वह नित्य है । नित्यकी निवृत्ति अशक्य है। विज्ञान आत्मरूप होनेसे सदा : विद्यमान रहेगा । विद्यमान सत्यज्ञानकी उत्पत्ति अशक्य हैं, अतः तत्वज्ञानके लिए योगाभ्यासकी आवश्यकता नहीं रहती । इसलिए तुम्हारे मत से योगाभ्यास आदि सर्वप्रक्रिया निष्फल होजाती ।" श्रत खंडन श्री शङ्कराचार्यका कहना है कि जिस अवस्थामें द्वैत होता है वहाँ एक दूसरे को देखना सुनता है" 'जहां इसका सब अपना श्राप है वहां कौन किसको देखे सुने” ब्रह्म ही अपनी माया से अनेक रूप हो गया है" इत्यादि श्रुतियों से भी ब्रह्मातिरिक्त सब मिथ्या पाया जाता हैं, इस वेदार्थ में यह शंका ठीक नहीं कि प्रत्यक्ष से कार्य की Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२६ ) सत्यता पाई जाती है, क्योंकि उक्त प्रकार से कार्य का मिथ्यात्व सिद्ध है, और प्रत्यक्ष मी सन्मात्र की ही प्रतीति बतलाता है. यदि विरोध माना भी जाय तो श्रामोस होनेके कारण जिसमें दोष की सम्भावना नहीं की जासकसी ऐसा जो प्रमाण उसको अपने स्वरूप की सिद्धि के लिए प्रत्यक्षादिकों की आवश्यकता होने पर अपने विषय में प्रमाण को उत्पन्न करने के लिए निराकांक्ष होनेके कारण शास्त्र प्रमाण वलिष्ट है. इस लिए कारण ब्रह्म से भिन्न सब मिया है. यदि ऐसा कहो कि प्रपञ्च मिथ्या होने के कारण जीय भी मिथ्या है, सो ठीक नहीं क्योंकि ब्रह्म ही सब शरीर में जीव भाव को अनुभव कर रहा है, जैसा कि "प्रा ने ही जीव हो कर प्रवेश किया "एक देव ही सब तत्वों में छिपा हुआ है उससे भिन्न अन्य कोई द्रष्टा नहीं" इत्यादि श्रुतियों से ब्रह्म का ही जीव बन जाना पाया जाता है, ननु यदि ब्रह्म ही सब शरीरों में जीव भाब को अनुभव कर रहा है तो जैसे एक शरीर वाले जीव को यह प्रतीति होती है कि मेरे पांव में पीड़ा सिरमें नहीं। इस प्रकार सब शरीरों के सुःख दुःख का ज्ञान होना चाहिए, और अाके ही सब स्थानोंमें जीव होनेसे बद्ध. मुक्त, शिध्य गुरु. झानी अज्ञानी आदिकों की व्यवस्था न रहेगी. क्योंकि सब जीव ब्रह्वा का स्वरूप है, फिर कौन बद्ध कौन मुक्त कहा जाय ? इस प्रश्न का कई एक अद्वैतवादी यह उत्तर देते हैं कि ब्रह्म के प्रतिविम्बरप जीवों के सुखित्व दुःखित्वादि धर्म है जैमाकि एक मुख के प्रतिविम्षोंका लोटापन बड़ापन, मलीनता तथा स्थकछता आदि मणि कृपाणादि श से प्रतीत होते हैं, ननु "इस जीवरूप आत्म द्वारा प्रवेश करके नाम रूप को करू" इत्यादि श्रुतियों से ग्रह कथन कर आये हैं कि जीय ब्रा से भिन्न है. फिर उपाधि भेद से व्यवस्था कैसे हो सकेगी? Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२७ ) उत्तर-वस्तुतः ऐसा ही है, परन्तु कल्पित भेद को मान कर सुरू दुःखही व्यामा कही गई है, कहाँ पर पर होता है कि किस की कल्पना ? शुद्ध ज्ञानस्वरूप ब्रह्म तो कल्पना शून्य होने के कारण उसकी कल्पना कथन करना तो सर्वथा असङ्गत है और जीवों की कल्पना में यह दोष है कि कल्पना होतो जीव भाव बने और जीव भाव हो तो कल्पना बन सके । इस प्रकार परस्परालय दोष लगने से दूसरा पक्ष भी समीचीन नहीं ? इसका उत्तर यह है कि बीजांकुर न्याय की भांनि अविद्या तथा जीव भाव अनादि होने के कारण परस्पराश्रयदोष नही पासा, इस लिये जीवों की कल्पना मानने में कोई बाधा नहीं अर्थान् नानारूप वाली श्रवस्तु भूत अविद्या में गृह स्तम्भकी भाति परस्पराश्रयादि दोष नहीं श्रासे ता वास्तव में ब्रह्म से व्यतिरिक्त जीव स्वभाव से शुद्ध होने पर भी तलवार में प्रतिविम्बित मुख श्यामनादिकी भांति औपाधिक अशुद्धि कल्पना बन सकता है, क्योंकि प्रतिविम्ब गत श्यामतादि की भाँति जीव गत अशुद्धि भी भ्रांति है. यदि ऐसा माने तो मोक्ष बन सकेगा और जीवों का भ्रम रूप प्रवाह अनादि होने से भ्रांति का मूल दूदना ठीक नहीं । अब आगे का पूर्व पक्ष अद्वैतवाद को न समझे हुवे भदवादियों की ओर से किया जाता है कि जीव को कल्पिस स्वाभाविकापसे अविद्याका श्याश्रय मानने पर ब्रह्म ही अविद्याका आश्रय सिद्ध हुआ। और ब्रह्म भिन्न कल्पित श्राकार से अविद्याश्रय मानने पर ही अविद्याश्रय मानना पड़ेगा. परन्तु अद्वैतवादी लोग चिद्रप अचिद्रूप उक्त दोनों से पृथक् कोई श्राकार नहीं मानते यदि यह कहा जाय कि कल्पिताकार विशिष्ट रूपसे अविद्याश्रयस्त है तो ठीक नहीं है, क्योंकि अविद्यासे बिना अखएढेकरस स्वरूप से विशिष्ट रूपसे सिद्ध न हो सकने के कारण उसके विशिधरूपको ही अविद्यालयाकार कथन किया गया है, इसके अतिरिक्त यह भी Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२८ ) है कि अद्धैतवादी लोग जीव के नाश को ही मुक्ति मानते हैंसिद्धि के लिये अज्ञान को जीवाश्रित मानते हैं, पर यह व्यवस्था जीव के अज्ञानी मानने पर भी नहीं बन सकती क्यों कि यह लोग अविद्या, के नाश को ही मुक्ति मानते हैं. तब एकके मुक्त होने पर औरोंको भी मुक्त होना चाहिय, यदि यह कहा जाय कि अन्योंके मुक्त न होने के कारण अविद्या बनी रहती है तो एककी भी मुक्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अन्धका कारण अविद्या बनी हुई है. यदि यह कहें कि प्रत्येक जीवकी अविद्या पृथक् २ है. लिएको भविमा ना हो तो अपना और जिसकी बनी रहेगी यह बद्ध रहेगा,तो यहां प्रष्टव्य यह हैकि यह भेद स्वाभाविक है वा अविद्या कल्पित ? स्वाभाविक इसलिए नहीं कह सकते कि जीयाके भेदके लिए जो अविद्या की कल्पना की गई है वह व्यर्थ हो जायगी, यदि कहोकि वह भेद अविद्या कल्पित है तो प्रश्न यह है कि भेदकी कल्पना करने वाली अविद्या प्रामकी है वा जीवोंकी ? यदि बाकी है तो हमारी ही बात माननी पड़ेगी, कि एक अविद्याके नाश होनेसे सबकी मुक्ति कैसे हो जानी चाहिए, यदि जीवांकी है तो प्रथम जीव हो तो उनके आश्रित अविया बने और अविद्या हो तो जीवीका भेद हो सके यह इतरेतरामय दोष सर्वथा अनिवार्य बना रहेगा, अदि यह कहा जाय तो कि-बीजाकुरकी भांति उक्त दोष नहीं हो सकता. अर्थात् जैसे बोजसे अंकुर और अंकुरसे बीज इस प्रकार अविद्यासे जीव और जीवसे अविद्या होना सम्भव है. यह इस लिये ठीक नहीं कि बीजांकुर न्यायमें तो जिस बीजसे जो वृक्ष होता है उससे फिर वही बोज' नहीं होता किन्तु दूसरा होता है, और यहां तो जिस अविद्यासे जो जीव कल्पना किये जाते हैं उन्हीं जीवोंको आश्रय करके यह अविद्याथें रहती है. यदि कहा जाय कि बीजांकुर न्याय Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२६ ) की भांति पूर्व २ जीवाचित अविवाओं से उत्तर जीवोंकी कल्पना हो सकती है, ऐसा माननेसे जीव अनित्य होगा, और बिना किए हुए कर्मका फल मिलना यह दोष भी आयेगा, इसी बात से श्रझमें भी དག जल से उत्तरजीवक पनाका खण्डन समझ लेना चाहिए, अविद्याको प्रवाह रूपसे अनादि मानने पर तत्कल्पित जीवको भी प्रवाह रूपसे अनादि मानना पड़ेगा, इस लिए मोक्ष पर्यन्त जीव भावका नित्य रहना अद्वैतवाद में सिद्ध नहीं हो सकता और जो अविद्याको निर्वाचनीय मानकर उसमें इतरेतराभयादि दोषोंको भूषण-रूप माना है इसमें वक्तव्य यह है कि यदि ऐसा माना जाये तो मुक्त पुरुषोंको, और परझको भी श्रविद्या प्रस लेगी, यदि कहो कि वह शुद्ध और विद्या स्वरूप है, इसलिये उनको अविद्या नहीं लग सकतीं तो फिर किस तर्कसे शुद्ध चेतनको अविद्या आश्रमण कर सकती है और उक्त व्यक्तियों से जीव को भी आश्रयण नहीं कर सकती, क्योंकि अवियाके लगने से प्रथम वह भी शुद्ध था. इसके अतिरिक्त प्रव्य यह है कि Tea fares होने पर अथिया नाश परसे जीवका नाश होता है वा नहीं ? यदि होता है तो स्वरूप नाश रूप मोक्ष हुआ, यदि नहीं होता तो अविद्या के नाश होने पर भी मोक्ष नहीं होगा. अर्थात् ब्रह्म स्वरूपसे भिन्न जीव ज्योंका त्यों ही बना रहा फिर ब्रह्मात्मैकरव रूप मोक्ष मानना ठीक नहीं, क्योंकि अद्वैतवादियों के मनमें ब्रह्मसे प्रथक जीव बने रहने से मुक्ति नहीं होती और जो यह कहा गया है कि मपि नलवार और दर्पण आदिकों में जैसे मुख का मैलापन, वा शुद्धपन अथवा छोटापन आदि प्रतीत होता है siture उपाधिभेदसे शुद्ध अशुद्ध आदिकों की व्यवस्था हो सकेगी. यहां विचारणीय यह है कि अल्पल मलिनत्वादि जो उपाधिकृत दोष हैं वह कब नाश होंगे ? यदि कहा जाय कि तलवार आदि उपाधियोंके हट जानेसे. तो प्रश्न यह है कि े Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३० ) अल्पत्वादि प्रतिविम्ब रहेंगे वा नहीं ! यदि रहेंगे तो जीवके बने रहनेसे मुक्ति न होगी यदि मिट जायेगें तो फिरभी जीवका नाश रूपही मुक्ति हुई, और बात यह है कि जिसके मतमें अपुरुषार्थ रूप दोषोंकी प्रतीति वन्ध और उन दोषोंका नाशमुक्ति है, उसके मतमें प्रष्टव्य यह है कि औपाधिकदोषोंकी प्रतीति विम्बस्थीनाय ब्राको है अथवा प्रतिविम्ब स्थानीय जीवको वा किसी अन्यको है ? प्रथम दो विकल्मों में यह दृष्टान्त कि मालनादि दोष कृपाणाद उपाधिवश होते हैं नहीं घट सकते, क्योंकि ब्रह्म निराकार है उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता, यदि दोषोंका होना ब्रह्ममें माना जाय तो अविद्याका मानना पड़ेगा और वह प्रकाश स्वरूप होने के कारण अविद्याका श्राश्रय नहीं हो सकता, तीसरा विकल्प इस लिए ठीक नहीं कि ब्रह्मासे भिन्न जीव कोई अन्य-दृष्टा नहीं फिर प्रश्न यह है । कि अविद्या जड़ होनेके कारण स्वयं कल्पना नहीं कर सकती और जीव अपनी कल्पना इसलिए नहीं कर सकता कि आत्माश्रयका दोषका प्रसंग पाता है. यदि यह कहा जाय कि शुक्ति रजतादिकों की भांति जीव अविद्या कल्पित होने के कारण ब्रह्म ही कल्पना करनेवाला है तो ऐसा मानने पर ब्रामें अज्ञान आता है। यदि ब्राझमें अज्ञान माने तो प्रश्न यह होगा कि ब्रह्म जीवों को जानता है या नहीं ? यदि नहीं जानता तो ज्ञान पूर्वक सृष्टि नहीं रच सकता. यदि जानता है तो ब्रह्म में अविश्था बनी ही रही, क्योंकि अद्वैतवाद में विना अशानसे ब्रह्म में जानना नहीं होता, इसकथनसे मायाऔर अविद्या के विभागका खण्डन समझ लेना चाहिए क्यों कि बिना अज्ञानसे मायावाला ब्रह्मभी जीवोंको नहीं देखसकता यदि यह कहा जायकि ब्रह्माकी माया जीव दर्शन करानेकी शक्ति रखती हुई जीयाके मोहन करनेका हेतु हो सकती है तब शुद्ध अखण्ड ब्रह्म के प्रति झूठ जीवोंको दिखलानेवाली अविद्या ही माया नाम सेव्यवहत होती है अविद्या पृथक वस्त्वन्तर नहीं, यदि कहा Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३१ ) जाय कि विपरीत दर्शनका हेतु अविद्या है और मामेव जो मिथ्या जगत है इसको माया मिध्या ही दिखलाती है इसलिए विपरीत दर्शनका हेतु न होनेसे मायाको अबिया नहीं कहा जा सकता, यह बात ठीक नहीं, क्योंकि चन्द्रमाके एक जानने पर भी दो चांद ज्ञानका कारण अविशा है। तथा च श्रद्वतवाद श्री शङ्कराचार्य आदि ने वेदान्त आदि ग्रन्थों का अर्थ द्वैत परक किया है । परन्तु हमारी दृष्टिमें प्रस्थान त्रयोका यह अभिप्राय नहीं है क्योंकि यदि एक ब्रह्म ही सब शरीरों में जीव भाव को अनुभव कर रहा है तो जैसे एक शरीर वाले को यह प्रतीति होती है कि मेरे पेट में दर्द है बांखादिमें नहीं है इसी प्रकार उसे अन्य सब जीवोंके भी सुख व दुःखोंका ज्ञान होना चाहिये । परन्तु हम देखते हैं कि एक जीवको दूसरे जीवोंके सुख दुःख आदि का अनुभव नहीं होता अतः यह सिद्ध है कि श्रद्वैतवाद अयुक्त है। तथा सब जीवों के ब्रह्म होने से, बद्ध. मुक्त, गुरु, शिष्य, ज्ञानी अज्ञानी आदिकी व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। यदि यह कहा जाये कि सुख दुःख गुरु शिष्य ज्ञानी अज्ञानी सब कल्पना मात्र हैं वास्तविक नहीं है, तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये कल्पनायें किसकी हैं ? की या जीवकी ? यदि कहो कि ब्रह्म की कल्पनायें हैं तो ब्रह्म तो शुद्धस्वरूप है उसमें तो कल्पना का होना आपके सिद्धान्त के विरुद्ध है । और यदि जीव की कल्पनायें मानें तो योन्याश्रयदोष आता है क्योंकि कल्पना हो तब जीवत्य हो और जीवत्व होने से कल्पना हो सके । अतः परस्पराश्रयदोष होने से यह कल्पना भी युक्तियुक्त नहीं है। अन तथा च अद्वैतवाद मानने पर वेदादि शास्त्र भी मिथ्या सिद्ध Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२ ) हो जाते हैं। क्योंकि ये सब भी मायाकृत, कल्पित अथवा श्रविद्या अति भेद हैं, अतः पुनः इन मिथ्या शास्त्रों में वर्णित मोक्षके उपायों का भी कुल सार नहीं है । श्रतः वेदान्त दर्शनकारने स्वयं प्रद्वैतवादका निराकरण निम्न शब्दों में किया है। कृत्स्नप्रति निरवयव शब्दकोपो वा । २२२२६ अर्थात --दर्शनकार कहते हैं कि अद्वैतवाद माननेपर यह शंका होती है कि संपूर्ण माया के चकार में आया हुआ है अथवा उसका कुछ अंश ? यदि कहो कि समस्त ब्रह्म अविद्यासित है तब तो आज तक किसीको मोक्ष हुआ ही नहीं है क्योंकि अभी तक अखिल मा बन्धनमें है, जब अभीतक किसीको भी मुक्ति नहीं हुई तो आगे कोई मोक्ष प्राप्त करसकेगा इसमें क्या प्रमाण है, अतः मोक्ष आदि उपदेश मिथ्या है। और यदि कहो कि माका एक देश माया के बन्धनमें हैं तो मझ को निरंश निरवयय कहने बाली श्रुतियों का उनपर कोप होगा। अर्थात् उन श्रुतियों के विरुद्ध होनेसे यह कथन अमान्य होगा। इस प्रकारकी अनेक युक्तियोंसे इस कृत्स्न अधिकार' में अद्वैतवादका खंडन किया गया है. अतः यह सिद्ध है कि वेदान्त दर्शनमें अद्वैतवाद का समर्थन नहीं किया गया है । योग और ईश्वर प्रश्न यह है कि योग जो सेश्वर सांख्य कहलाता हैं उस योग ईश्वरका क्या स्वरूप हैं। इसका उत्तर स्वयं महाभारतकार देत हैं - युद्धः प्रतिबुद्धत्वाद् बुद्धमानं च तत्वतः । बुद्धमानं च बुद्धं च प्रादुर्योग निदर्शनम् ॥ महाभारत श्रादिपर्व ० ३०८-४८ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३३ ) अर्थात् योगदर्शनका ईश्वर बुद्ध ( ज्ञान ) स्वरूप है, परन्तु वह अज्ञानवश जीवदशाको प्राप्त होरहा है। अभिप्राय यह है कि योगकी परिभाषा में पदार्थ हैं, एक बुद्ध दूसरा बुद्धयमान । बुद्ध परमात्मा तथा बुद्धयमान जीवात्मा बुद्ध मानके 'बुद्ध' होजाने कोही योग सिद्धान्त कहते हैं, जीवात्मा से परमात्मा होना यही योगका फल है। आगे इसको औरभी स्पष्ट करते हैं. - यदा स केवली भूतः वडविंशमनुपश्यति । तदा स सर्वविद् विद्वान् पुनर्जन्म न विद्यते ॥! महाभारत आदिपर्व ० ३१६ अर्थात् जब वह जीवात्मा सम्पूर्ण कर्मों के बन्धनसे छूटकर 'केवली' निर्मल मुक्त होजाना है तो वह सर्वश (ईश्वर) होजाता है। फिर उसका जन्म आदि नहीं होता। वह सर्वज्ञ सम्पूर्ण अव स्थाओं को प्रत्यक्ष देखता है। यहां जैन दर्शनका जीवात्मा से परमात्मा बनना तथा उसका सर्वज्ञहोना ही सिद्ध नहीं है अपितु उसके 'केवली' आदि पारभाषिक शब्दोंकी भी समानता है। इसी बासको पंजयचंदजी विद्यालंकार ( गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक) ने भारतीय इतिहासकी रूपरेखा' में स्वीकार किया है। आप लिखते हैं कि योगका ईश्वर, बुद्ध महावीर, कृष्ण अथवा रामके समान मुक्तात्मा ही है 'वैदिक सिद्धान्त भी मुकामको ही ईश्वर मानता है | इन सब के अलावा योग में ईश्वर का बाचक, 'ओम्' बताया है । ॐ का अर्थ जीवात्मा ही है ग्रह हम सिद्ध कर चुके हैं अतः इससे भी सिद्ध होता है कि योग में भी कोई जगत कर्ता विशेष ईश्वर नहीं माना गया है। अपितु मुक्त श्रात्मा को ही ईश्वर माना गया Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। और वह ईश्वर योगी के लिये एक अबलम्बन मात्र है। तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये, कि इस योग सूत्र के कर्ता वे ही पतंजलि मुनि नहीं हैं, जो कि महाभाष्य के कर्मा हैं। क्योंकि महा भाष्य में कही भी ईश्वर शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुअर अतः यह पताञ्जलि अर्वाचीन व्यक्ति हैं। सांस्य भारतीय दर्शनों में सांख्य दर्शन का बड़ा महत्व पूर्ण उच्च स्थान है। इसके रचयिता महा मुनि कपिल है। इनका कथन वेदों में भी आता है। १ दर्शनामेकं कपिल समानम् । १११६ गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि सिद्धानां कपिलो मुनिः" अर्थान् सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ | अभिप्राय मह है कि सिद्धोंमें कपिल मुनि सर्व श्रेष्ठ हैं। अहियुध्न्य संहिता नामक ग्रन्ध में लिखा है कि कपिल त्रेता के आदि में हुचे (१० ५५) वहां आधान्सर तथा हिरण्यगर्भ और कपिल का वेता के प्रारम्भ में उत्पन्न झोना लिखा है कि इन्होंने वेद सभा सांख्य मार्ग एवं योग मार्ग को क्रमशः प्रचलित किया । यह प्रमाण कुछ अधिक मूल्य नहीं रखता । कारण यह कि प्रथम तो येही अत्यन्त विवादास्पद विषय है कि त्रेताका आदि कब था तथा तीनों ऋषियोंका एक साथ होना भी गलत है। तीसरी बात यह है कि यह पुस्तक नवीनतर है। संभवतः ईसासे बावकी यह रचना है। महाभारत सभापर्व अध्याय ७२ श्लोक ६ में युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें कपिल मुनि विद्यमान थे। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३५ ) याज्ञवल्क्यं च कपिलं च कापालं कौशिकं तथा । इससे स्पष्ट है कि सांख्य मतका प्रचार महाभारतके समय में हुआ। सांख्य सिद्धांत सामान्यतया सांख्यके २४ या २५ तत्व गिने जात है परन्तु इतिहाससे पता चलता है कि पहिले सांख्योंके तत्व निश्चित नहीं थे। महाभारत शान्ति पर्व अ० २७५ में असित और देवलका संयाद दिया है। उसमें सृष्टिके मत्व इस प्रकार गिनाये हैं। महाभूतानि पञ्चैते तान्याहु तचिन्तकाः । तेभ्यः सृजति भूतानि कान अात्म प्रचोदितः ।। एतेभ्यः यः परं ब्रूयादपत् ब्रूयादसंशयम् । इसमें स्पष्ट ही है कि सृष्टिके आठ कारण हैं। पांच महाभूत काल, बुद्धि, वासना । यह निश्चित्त है कि ये सत्व चार्वाक मतके नहीं थे । संभव है सांख्योंके ही ये तत्य हो क्योंकि असिन् व देवल कपिलके शिष्य थे। एक स्थान पर सोल्योंके १७ तत्वोंका उल्लेख है। यं त्रिधात्मानमात्मस्थं वृत्तं षोडपभिगुणः । पाहुः सप्तदशं सारख्यास्तस्मैं सांख्यात्मने नमः ॥ शान्ति पर्व भीष्मस्तव इसमें पांच महाभूत, दशेन्द्रिय और मन ये सोलह तत्व गिना कर ५, वां श्रात्मा मानकर १७ तत्व गिनाये हैं । प्रतीत होता है कि सांख्या में तथा योग मतमें पहिले यही १७ तस्व अथवा कुछ भेदसे दोनोंमें सामानतया माने जाते थे। परन्तु शदमें साल्यके अन्य पञ्चशिख आदि प्राचार्योने तत्वोंकी संख्या बढ़ाकर अथवा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३३ ) २५ कर दी। महाभारत तथा गीताके स्वाध्यायसे पता चलता है कि उस समय भारतवर्षमें सांख्य मतकी दुन्दुभी बज रही थीं, इसलिये शायद योगमत वालोंने भी इन तत्वोंको स्वीकार कर लिया हो, तथा उसमें आत्माके दो भेद करके २६ भेद माने गये हो । वास्तवमें न्योगमतके २५ या २६ नत्वोंकी प्रसिद्धि नहीं है। पुराणादि अन्य किसी अन्धसे इसकी साक्षी भी नहीं मिलती। सांख्य वेद विरोधी था महाभारतके शान्ति पर्व अध्याय २६८ में गाय और कपिल को एक कहानी लिखी है ! उस समय गोंमें गोबध होता था. गौ ने आकर कपिलसे रक्षाकी प्रार्थनाकी उन्होंने अपना स्पष्ट मत घोषित किया कि वाहरे वेद ! तेरी भी अजय लीला है तूने हिंसा कोही धर्म कह दिया है। प्रतीत होता है उन्होंने इसके विरुद्ध प्रचार भी किया होगा । सम्भवतः प्रामाणोंने इसीलिये इसका नास्तिककी पश्वी दी होगी। वहां स्पष्ट लिखा है कि हिंसा धर्म नहीं हो सकता चाहे वह श्रुतिमें छी क्यों न लिखा हो । ईश्वर और सौख्य सांख्यमत प्रारम्भसे ही ईश्वरका विरोधी है। महाभारत शान्ति पर्ष अ. ३०० में सांख्यवादियों और योग मागियोंके शास्त्रार्थका उल्लेख है । उसमें लिखा है कि योग वाले कहते थे कि ईश्वर है तथा सांख्य वाले कहते थे कि ईश्वर नहीं है, योगी लोग कहते थे कि यदि ईश्वर नहीं मानोगे तो मुक्ति कैसे होगी। सांख्या: सांख्य प्रशंसन्ति योगा योग द्विजातयः । अनीश्वरः कथं मुच्चेदित्येवं शत्र कर्शनः ॥३॥ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि योगियों का ईश्वर Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५३७ ) वर्तमान मान्यताके अनुसार सृष्टिकर्ता आदि गुणों वाला नहीं है, अपितु मुक्तिके लिये अवलम्बन मात्र है। मुक्त आत्मा ही योगमतका परमात्मा है. यह हम पूर्व योगके कथनमें दिखला चुके हैं श्रीमान लोकमान्य बाल गंगाधर जी तिलकने अपने गीता रहस्यमें स्पष्ट लिखा है कि “सांख्योंको छैनवानी अर्थात् प्रकृति और पुरुषको अनादि मानने वाला कहते है। वे लोग प्रकृति और पुरुषके पर ईश्वर. कालस्वभाव, या अन्य मूल तत्वको नहीं मानते। इसका कारण यह है कि यदि ईश्वर आदि सगुण हैं, तब तो उनके मनानुसार वे प्रकृतिसे उत्पन्न हुए हैं। और यदि निगुण मानें तो निर्गुण से सगुणा पदार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता।" गीता रहस्यमें ईश्वरकृष्ण रचित सांख्य कौमुदीका एक ऐसा श्लोक भी लिखा है जो प्राचीन पुस्तकों में था परन्तु बादमें किसी ईश्रर भक्तने निकाल दिया था। वह निम्न प्रकार है। कारणमीश्वरमेके ब्रुवते कालं परे स्वभावं वा । प्रजाः कथं निर्गुणतो व्यक्तः कालः स्वभावश्च ।। इस श्लोकमें तीनों कारणोंका स्पष्ट स्त्रए उन किया है। इस विषयमें गीता रहस्य अधिक सुन्दर ग्रन्थ है । वर्तमान सांख्य दर्शन से यह सांख्य तत्व कौमुदी' बहुत प्राचीन है और सांख्यों का वास्तविक अन्य यही है । ऐसा सभी विद्वानों का मत है । अतः सांख्यकार निरीश्वरवादी था यह सिद्ध है । . साँख्य और संन्यास जहां सांख्य वैदिक क्रिया काण्डका विरोधी था वहां सांख्य संन्यास का भी विरोधी था । शान्ति पर्व अ.. ३२० में लिखा है कि धर्मराज जनक पंचशिस्त्राचार्य का शिष्य था उसका और Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३८ ) सुलभा का वहां विवाद दिया है। सुलभा संन्यास के पक्ष में थी, और जनक पक्ष में था । जनक ने कहा कि त्रिदण्ड दिपु यथास्ति मोक्षे। ज्ञानेन कस्यचित् । त्रादि कर्म न स्यात् तुन्य हेतौ परिग्रहे ॥ ४२ ॥ इसका खण्ड सुलभा ने किया है। अतः स्पष्ट है कि सांख्य बादी उस समय के संन्यास के भी विरोधी थे । इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि कपिल वेद विरोधी मत था। योगी मतमें भी वैदिक क्रिया काण्डों के लिये कोई स्थान नहीं था । तथा न वह ईश्वर की ही कोई प्रथक सत्ता मानता था। इस लिये ये दोनों संप्रदाय एक ही समझे जाते थे। एक बात और भी है कि दोनों में अहिंसावाद की समानता थी तथा वैदिक हिंसा के दोनों ही विरोधी थे। परन्तु योगमत संन्यास को मानता था । उसमें तप प्रधान था। तथा सांख्य में केवल ज्ञान प्रधान था सांख्य मत उपवास आदि को भी नहीं मानता था। योगमत में क्योंकि तप की प्रधानता थी । और वह कठिनतर हो गई थी, अतः जनता उससे उब गई थी ऐसे समय में सांख्य ने अपने सुगम ज्ञान. मार्ग का प्रचार किया जनता तो प्रथम से ही किसी ऐसे सुलभ धर्म की खोज में थी बस जनता को कपिलका सहारा मिल गया इसलिये योगमत नष्ट प्राय होगया, और भारतमें सांख्य का शब्द गुन्जायमान होने लगा । एक समय था जब बौद्धमत की तरह सांख्य मत का भी भारत में साम्राज्य था। इसके अनेक आचार्य हुये हैं । सांख्य तत्वोंकी भिन्न २ मान्यतायें शान्तिपर्व ० ३०६ से ३०८ तक सांख्योंके २४तत्व इसप्रकार है। १ प्रकृति, २ महन. ३ अहंकार, ४ से ८ तक पांच सूक्ष्म भूतमें काठमूल प्रकृति हैं, तथा पांच स्थूलभूत और पांच इन्द्रियां, पांच Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३६ ) कर्मेन्द्रियां और मन ये २४ तत्व मांख्योंके नित किए हैं। ५ वा तत्व पुरुष अथवा आत्मा है। वनपर्वके युधिष्टर व्याध सम्बादमें भी २४ तत्वोंका उल्लेख है । परन्तु ये उपयुक्तसत्वोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं। महाभूतानि खं वायुरनिरापश्च ताश्च भूः। शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसोगन्धश्च तद्गुणाः ॥ पष्टश्च चेतना नाम मन इत्यभिधीयते । मी भवेद् बुद्धिरहंकारस्वतः परम् ।। इन्द्रि ण च पश्चास्मा रजः सत्वं तमस्तथा । इत्ये संसदशको राशिख्यक संज्ञकः ॥ सर्वैरिहेन्द्रियार्थै स्तु व्यक्ताव्यक्तः सुसंकृतः । शिक इत्येवं व्यक्ताच्यक्तमयोगुणाः । अ० २१० अभिप्राय यह कि ५ महाभूत ६ मन ७ बुद्धि ८ अहंकार ५ इन्द्रियां तथा ५ उनके अर्थ तन्मात्रायें । व्यक्त और अव्यक्त इस प्रकार २४ तत्व यहां माने गए हैं। परन्तु है गड़बड़ क्योंकि जब १७ तत्वांकी १ की राशिको अव्यक्त कह चुके हैं तो पुनः व्यक्त और अव्यक्त प्रथक कैसे गिना दिए । ___इत्यादि अनेक बातें यहां विचारणीय हैं। इसी प्रकार कहीं १७ सत्य हैं तो कहीं १६ माने गए हैं। कही २४ सो केही २५ और कहीं २६ भी कह दिये हैं। इन सब परस्पर सिद्ध बातोंसे स्पष्ट है कि उस समय तक सांख्य के तत्व निश्चित ना हुए थे और इन तत्वोंके मानने में भी विद्वानोंकी अनेक शंकायें 1 उसी समय चार्वाक मतका भी प्रचार होने लगा था। उसके अनुगायीआकाश को कोई तत्व नहीं मानतेथे। अन्य परोक्ष सरषों की तो बासकी क्या Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४० ) थी। इसीप्रकार सांख्य मतके साथ २ चार्वाक मतका भी भारत में जन्म हुआ उसने जनता में तर्फ बुद्धि उत्पन्न कर दी । इसीलिए सांख्य विषयक अनेक सिद्धान्तों में लोगों की शंकायें उठने लगों श्रीं । इन शंकाओंने शनैः अपना विकराल रूप धारण किया और जनक मतका चार उमत करने लगा। : अस्तु उपरोक्त कथन से सांख्योंकी प्राचीनता सिद्ध होती है। नाम करण सांख्य दर्शन का नामकरण ही इसके मूल सिद्धान्तका द्योतक है । यह सांख्य, शब्द संख्या से बना है। प्रकृति और पुरुष के विवेक को संख्या कहते हैं । सांख्य दर्शन में इस संख्या अर्थात प्रकृति और पुरुष का विवेक कथन किया गया है। इसलिये इसका नाम सांख्य है । इसके सिद्धान्त उपनिषदों तथा वेदों में भी बीज रूप से मिलते हैं। वर्तमान समय में सांख्य सिद्धान्त के दो प्रसिद्ध प्रन्थ हैं। (१) सांख्यकारिका (२) सांख्य सूत्र, इनमें सांख्यकारिका ही प्राचीन है। यह ऐतिहासिकों का सर्वमान्य सिद्धान्त हैं (श्री शङ्कराचार्य जी आदि प्राचीन आचार्यों ने सांख्य का समालोचना करते हुये कारिका की ही समालोचना की है, अतः सिद्ध है कि उस समय तक सांख्य सूत्रों की रचना नहीं हुई थी। सांख्य दर्शन और सांख्यकारिका दोनों ही ग्रन्थ अनीश्वरवादी है। तथा जगत का कारण एक मात्र प्रकृतिको ही मानते हैं। पुराणोंमें उस प्रकृति को ही शक्तिके रूपमें माना गया है। तथा देवी भागवतमें उसीका नाम देवी है। यही ईश्वरी जननी, माया आदि नामों से विख्यात है । Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४१ ) शक्ति त्वमेव जननी मूल प्रकृतिरीश्वरी, त्वमेवाद्य सृष्टिविध स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका । कामार्थे सगुणत्वं च वस्तुतो निगु स्वयम् परययस्वरूपात्त्वं हत्या नित्या सनातनी । तेजः स्वरुपा परमा भक्तानुग्रह विग्रहा, dear सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा । सर्ववीज स्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया, सर्वा सर्वतोभद्रा सर्वमंगल मंगला | ब्रह्म वैवर्तपुराण प्रकृति खण्ड २-६६-७-१० श्रहं वसुभिश्चरामि ऋग्वेद । मं० १०-२२५ प्रकृष्ट वाचकः प्रश्च कृतिश्च सृष्टि वाचकः । सृष्टी प्रकृष्टा या देवी प्रकृतिः सा प्रकीर्तिता । देवी मा० I I इस प्रकार मांख्यवादी प्रकृतिको ही इस जगतका एकमात्र स्वतन्त्र कारण मानते हैं तथा ऋग्वेद में जो वागांणी सूक्त वाया है, उसका अर्थ भी वे लोग प्रकृति ही करते हैं। अधिक क्या सांख्याचार्यों के मत में उन सब श्रुतियोंका (जिनमें ईश्वर का कथन बतलाया जाता है ) अर्थ भी प्रकृति परक ही किया जाता है । इसको स्वयं सांख्यसूत्र में ही माना गया है। जैसा कि हम आगे दिखलावेंगे श्री माधवाचार्यने सर्वदर्शन संग्रह में सांख्यका वाक्य इस प्रकार लिखा है । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४२ ) यस्तु परमेश्वरः करुणया प्रवर्तक इति परमेश्वरास्तित्य घादिनां डिंडिमः स प्रायेण गतः विकल्पानुपपतेः । शक्तिः सृष्टेः प्राक् प्रवर्तते सृष्टयुत्तरकाले वा । श्राधे शरीराद्यभावेन दुःखानुपत्तौ जीवानां दुःख ग्रहशोच्छानुत्पत्तिः । द्वितीये परस्पराश्रय प्रसंगः करुणया सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यमिति ॥ अर्थात- जो लोग सृष्टि रचना में ईश्वरका दयाभाव कारण है इस प्रकार बिगुल बजाते फिरते थे वह अब हवा हुआ। क्योंकि प्रश्न यह है कि ईश्वरकी प्रवृत्ति जगत से पहले थी या जगतके पश्चात् प्रवृत्ति हुई । यदि प्रवृत्ति पहले हुई तो करुणाका अभाव सिद्ध होगया क्योंकि सृष्टिसे पूर्व कोई भी दुखी नहीं था फिर गया किस पर आई। यदि कहो उसकी प्रवृति बादमें होती हैं तो जगत कर्त्ता न रहा क्योंकि उसकी प्रवृति से पूर्व ही सृष्टि थी। तथा यहां करुणा द्वारा जगत और जगतसे करुणा होने पर अन्योन्याश्रय दोष भी हैं। तथा वैदिक दर्शनके सुप्रसिद्ध तार्किक शिरोमणि वाचस्पति मिश्रने सांख्यकारिका नं०५७ की टीका करते हुए उपरोक्त प्रश्नोंके अलावा एक यह भी प्रश्न उठाया है कि यदि यह मानभी लिया जाय किं जगत्रचना में ईश्वर की दया ही कारण है फिर भी यह प्रश्न होता है कि उसने सब जीवोंको सुखी क्यों न बनाया यदि यह कहो कि विचित्रता कर्मानुसारहें तब ईश्वर तथा ईश्वरको दया कारण न रहा क्योंकि इस अवस्थामें ईश्वर अकिंचित कर रहा तथा जब कमका ही पल है तो दया न रही। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४३ ) अपि च करुणा प्रेरित ईश्वरः सुखिन एवं जन्तून सृजेदत्र कर्म विचित्राद्वैचित्र्यम् इति चेत् कृतमस्य प्रेक्षावतः कर्माधिष्ठानेन | इत्यादि । अभिप्राय यह है कि जब से कपिल मुनि हुये उस समय से आज तक के सभी विद्वानों ने यह माना है कि सांख्य दर्शन अनीवादी है । महाभारत के प्रमाण से यह सिद्ध होता है, कि कपिल लोग न सिर्फ अनीश्वरवादी थे अपितु वे ईश्वर के विरुद्ध खुले आम प्रचार भी करते थे । तथा इस विषय में शास्त्रार्थ भी करते थे । ये सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण इतने प्रवल हैं कि कोई बुद्धिमान इनका निरादर नहीं कर सकता। इसके पश्चात् भारतीय दर्शनकारों ने भी तथा उन दर्शनों के एवं सांख्य के भाष्यकारों ने भी इसकी पुष्टि की है कि यह दर्शन ईश्वर का विरोधी है। इसके अलावा जैन, बौद्ध आचार्यों ने भी इसको अनीश्वरवादी लिखा है। अर्थात् श्री शङ्कराचार्य श्री रामानुजाचार्य, माधवाचार्य. कुमारलाचार्य, आदि सभी श्राचार्यों ने तथा वाचस्पति मिश्र जैसे महान सभी विद्वानोंने इसकी अनीश्वरवादी माना है। इसके पश्चात् संसारके सभी प्राचीन भाष्यकारोंने भी ऐसा ही माना है वर्तमान समयके सभी स्वतन्त्र विचार वाले विद्वानों का तथा सभी ऐतिहासिक विशेषज्ञों का यही मत है। अतः यह स्पष्ट सिद्ध है कि सांख्य दर्शन ईश्वरका कट्टर विरोधी है परन्तु फिरभी यह बहिरंग परीक्षा है अतः अब हम इसकी अंतरंग परीक्षा करते हैं। क्योंकि वर्तमान के कुछ साम्प्रदायिक महाशयों का यह हठ है कि सांख्य दर्शन भी sacarat है. ! समय Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४४ ) दर्शन परिचय और सांख्य दर्शन दर्शन परिचयके विद्वान लेखकने लिखा है कि "सांख्य दर्शनको देखने पर यह स्पष्ट विदित होता है, कि उस में खूब खूब ईश्वरका खंडन किया गया है। सांख्यकारिकामें भी ईश्वरका खंडन किया है। छहाँ दर्शनों के टीकाकार प्रख्यात दार्शनिक वाचस्पति मिश्मने तो अपनी सांख्य तत्व कौमुदीमें एक बार ही ईश्वरको उड़ा दिया है। सांख्य दर्शनके प्रथमाध्यायका १३ वां सूत्र है-"ईश्वरासिद्ध" इस सूत्रका अभिप्राय यह है कि ईश्वर सिद्ध ही नहीं होता । प्रत्यक्ष प्रमाणका लक्षण करते हुए यह सूत्र आया है । पहले सूत्रमें दर्शनकारने लिखा है कि बाहरकी किसी भी चीजसे इन्द्रियोंका सन्निकर्ष या सम्बन्ध होने से प्रत्यक्ष ज्ञान होता है ।" इस लक्षण पर ग्रह संदेह उठाया गया है कि नहीं यह लक्षण ही ठीक नहीं है क्योंकि ईश्वर के पास तो कोई इन्द्रिय नहीं है और वह सब पदार्थोंका प्रत्यक्ष कर लेता है इसी शंकाका उत्तर देते हुए दर्शनकार कहते हैं। --ईश्वरा सिद्धे" अर्थात् जबकि ईश्वर ही प्रामाणिक या प्रसिद्ध है तब उसकी काहेकी इन्द्रियों और उसका कैसा प्रत्यक्ष ज्ञान ? किन्तु सांस्य य सूत्रीकी समालोचना करनेसे तो दिलमें यह! बात बैठती है कि सांख्यमें निरीश्वरवाद भरा पड़ा है। "ईश्वरासिद्ध के आगे वाले सूत्रों पर ध्यान देनेसे निरीश्वरवादकी पूरी पुष्टि होती है। "मुक्त बद्धयोरन्यतरा भाचानतत् सिद्धिः" ६३ ॥ "उभयथाप्य सत्करत्वम् ।" ६४॥ "मुक्तात्मनः प्रशंसा उपासासिद्धस्य का ६५ || “उभयश्चाप्य सत्करवा Meena Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३नका, अभिप्राय यह है कि यदि कोई ईश्वर है तो यह कैसा है, वह मोक्ष प्राप्त कर चुका है या बद्ध है। यदि ईश्वर मुक्त है तो उसे कभी कोई भी काम करनेकी न तो इच्छा होगी और न प्रन्ति । और पुनः आपका ईश्वर चिना इच्छाके कैसे सृष्टि बना सकता है। यदि कहोंकि ईश्वरकी अभी मुक्ति नहीं हुई है तो फिर पह भी हम अबोध जीवोंकी तरह जरासी शक्ति रखने वाला कोई जीव होने के कारण न तो सृष्टि ही बना सकता है और न पक्ष पात द्वैष और दुःखसे ही कर सकता है । इरा पायन कहो कि, जिन शास्त्रों में ईश्वरका कथन है वे क्या झूठे हैं। तो इस का उत्तर यह है कि ये सब शास्त्र मुक्त या सिद्ध आत्माओं की प्रशंसाके लिये उन्हें ईश्वर बताते हैं। तुम्हारे सृष्टिकर्ता ईश्वरके लिये वे कुछ नहीं कहते हैं। इन तीनो सूत्रोंसे भी महर्षि कपिलने ईश्वरका स्पष्ट खंडन किया है । और क्या प्रागे चलकर इस दर्शन के पाँचचे अध्यायमें कपिलजीने स्पष्ट कह दिया है कि प्रत्यक्ष, अनुभान, और शब्द इन तीनों ही प्रमाणोंसे ईश्वर सिद्ध नहीं होता। ईश्वर खंडनमें यहां ये सूत्र हैं "प्रमाणा भावानात् सिद्धिः ।" १० ॥ "सम्बन्धाभावान्नानुमानम्” ११ ।। "श्रुति रपि प्रधान कार्यत्वस्य" । १२ ।। प्रथम सूत्रका तात्पर्य यह है कि ईश्वरास्तित्वमें कोई भी प्रत्यक्ष प्रादि प्रमाण नहीं है । इसलिये वह आसिद्ध है। अब यदि यह कहा जाय कि अनुमान श्रादिप्रमाणोंसे ईश्वरकी सिद्धि है तो भी ठीक नहीं क्योंकि धूमादिकी तरह उसका किसीके साथ सम्बन्ध प्रसीत नहीं होता. अतः अनुमानसे भी ईश्वर प्रसिद्ध है। अब रहगया शब्द प्रमाण वह भी ईश्वरको संसारका का नहीं मानता Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद भी जगतको प्रकृतिका ही कार्य मानता है। वहां भी ईश्वरकी कोई आवश्यकता नहीं है। 1 जो लोग ईश्वरके अस्तित्व और अधिष्ठातृत्व में अन्यान्य युक्तियां दिखाते हैं। उनका भी सांख्यने खूब खंडन किया है। यह खंडन भी पाँचवें अध्याय में ही हैं। पहले पूर्व पत्र देखिये । कुछ लोग कहते हैं कि जैसे राजा अपने साम्राज्य में दुष्टों को दंड और सज्जनों का सम्मान करता है। वैसे ही ईश्वर भी प्राणियों के कर्मानुसार उन्हें फल देता है। इसपर सांख्य कहता है । ईश्वर कर्मासार फल प्रदान करता है या अपनी इच्छा अनुसार यदि कर्मानुसार तब कर्म ही अपने स्वभावानुसार जीवोंको फल दे लेगा ईश्वरकी क्या जरूरत है। यदि अपनी इच्छानुसार फल देता है तो यह प्रश्न सहज ही है कि इस इच्छामें उसका क्या स्वार्थ है । क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि किसी उद्देश्य या स्वार्थ के वश होकर ही कोई भी जीव काम करता है। फिर यदि ईश्वर भी अपने स्वार्थ के लिये ही कार्य करता है तो वह भी एक सामान्य राजा ही ठहरा, और राजाकी तरह वह भी दुखी होगा । स्पष्ट बात यह है कि बिना राग. या इच्छा के सृष्टि नहीं हो सकती । और राग वाला ईश्वर साधारण जीवों की तरह ही विनाशशील होगा हां एक बात और भी है। यदि प्रकृतिकी इच्छाशक्तिको संग ले कर तुम्हारा ईश्वर सब कर्म करता है । तो वह इस इच्छा था वासना संग दोषसे उसी तरह प्रसित हो जायगा जिस तरह एक साधारण जीवः । कोई २ यह भी कहते हैं कि प्रकृतिकी सहायतासे ईश्वर-धि कहता है। इस पर सांख्य कहता है कि तब तो सभी पुरुष ईश्वर हो सकते हैं। ऊपरी इन कई युक्तिोंसे सांख्य दर्शन ने.बिरीश्वरवाद स्थापित किया है। साथ ही तीसरे शुध्यायमें जो सिद्धिः सिद्धाः .." सूत्र है उससे, यह भो dev Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन पड़ता है कि सांख्यरचार्य लोग पूर्व कल्पके सिख जीवोंको ही ब्रह्मा, विष्णु, श्रादि के रूपोंमें प्रकट हुए मानते हैं। इस सूत्रे का अभिप्राय है कि विद्यक शानसे जो जीव ईश्वर हो गये हैं या जो अन्य ईश्वर हैं वे या उनका अस्तित्व सांख्य को स्वीकार है। सत्यार्थ प्रकाश और सांख्य दर्शन कुछ विद्वान अपनीपुधिमें सांख्यसूत्रोंके प्रमाणदेकर यह सिद्ध करनेका प्रयास करते हैं कि संयन में पो सूर ई. निषेधक हैं. उनमें उपादान कारण का निषेध है । अर्थात् सूत्रोंका अभिप्राय ईश्वरके निमित्त कारमाका निषेध करना नहीं। इस विचारका मूलकारण सत्यार्थ प्रकाश है। अर्थात् ये लोग अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से कुछभी विचार नहीं करते तथा न कभी इन दर्शनों के दर्शन करनेका कष्टही उठाते हैं। ये इन सूत्राँका उपरोक्त अर्थ इसलिए मानते हैं च्यू कि सत्यार्थ प्रकाश में ऐसा लिया है। अतः हम उसीपर प्रकाश बालते हैं। सस्या प्रकाश के सप्तम समुल्लास में, सांख्यदर्शनके तीन सूत्र नो पूर्व पक्षमे ( अर्थात् प्रमहपमें दिये हैं) उनमें एक तो यही प्रसिद्ध सूत्र । ईश्वरासिद्धेः । अ० १ । ६३ । तथा दो सूत्र पांचवी अध्यायके एक दसवा और ग्यारहवा । "प्रमाणाभावाम सत् सिद्धि" "भनुमानाभावान्नानुमानम्" इसी प्रकार उसर पक्षमें भी पांचवीं अध्यायके तीन सूत्र दिय Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४८ ) हैं। अर्थात् आठवां teri और वारgai | प्रतीत होता है कि सत्यार्थ प्रकाशके लेखकके पास या तो सांख्य दर्शनकी पुस्तक नहीं श्री. या उसमें से वे पृष्ट जिनमें ईश्वर निषेधके अन्य सूत्र हैं गुभ गये थे । अन्यथा प्रथम अध्यायका एक ही सूत्र लिखकर एकदम पांच अध्याय पर जा पहुंचने का और क्या कारण हो सकता है। इसके अलावा इन सूत्रोंका अर्थ भी नितान्त गलत है, यथासूत्र है । " सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम् ।। ५६ ।। आपने इसका अर्थ किया है कि जो चेतनसे जगत् की उत्पत्ति हो तो जैसा परमेश्वर सर्वेश्वर्य युक्त है वैसा संसार में भी सर्वेश्वर्यका योग होना चाहिये सो नहीं है, इसलिये परमेश्वर जगनक उपादान कारण नहीं अपितु निमित्त कारण है " इस सम्पूर्ण लेखका मूल सूत्र के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं, सूत्रमें तो इस लेखका ही खरडन है। क्योंकि सूत्रका सीधा-सादा और सरल अर्थ यह हैं कि यदि सत्ता मात्र से ही आपका ईश्वर, ईश्वर हैं, सब तो सम्पूर्ण पदार्थ ईश्वर कहलायेंगे. क्योंकि उनकी भी सत्ता है। इसमें उपादानं कारणका नहीं किन्तु निमित्त कारण का ही खरडन किया गया है। निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक प्रेरक अर्थात कर्ता दूसरा उदासीन अर्थात् निर्पेक्ष उसको सत्तामात्र से कारण कहते हैं। प्रेरक निनित्त कारणका खण्ड इससे प्रथम के सूत्र ू किया है। इसके पश्चात् सूत्र १० में प्रत्यक्ष प्रमाण और सूत्र. २१ में अनुमान प्रमाण तथा सूत्र १६ में शब्द प्रमा द्वारा ईश्वरका खण्डन किया है। अर्थात् आचार्यने यह सिद्ध किया है कि ईश्वरकी सिद्धि में न प्रत्यक्ष तथा न अनुमान प्रमाण है और न शब्द प्रभाशा ही। क्योंकि वेदादि शास्त्रों में कल्पित ईश्वरका कहीं संकेत तकभी नहीं है। यह तो हुई पांचवें अध्याय Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कथा । अब जरा प्रथम अध्याय परभी विचार करलें । इस अध्यायका अापने एक ही सूत्र दिया है. परन्तु उससे आगे भी ईश्वर खण्डनमें अनेक सूत्रहै। जिनको हमभाष्यसहित पहले लिख चुके हैं । वथा आगे भी लिखेंगे। इसके अलावा तीसरे अध्यायमें ईश्वरके विरोध में जो युक्तियां दीगई हैं उनको यहां क्यों नहीं लिखा गया । यह भी एक रहस्य है। आस्तिकवाद और सांख्यदर्शन आस्तिक बादमें प्रथम अध्याय का वही प्रथम सूत्र पूर्वपक्षमें रखकर उसके अर्थके लिये उससे पूर्व के तीन सूत्र और लिखकर ( ईश्चरासिद्धः । १ । ६३ । ) आप लिखते हैं कि यहाँ यह स्पष्ट होगया है कि यह सब सूत्र प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षणके ही सम्बन्धमें हूँ। ईश्वर सिद्धिका प्रकरण नहीं है। श्रागे आपने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि योगियों के प्रत्यक्षका तथा ईश्वरके प्रत्यक्षका यहाँ विरोध नहीं है। अपितु यहाँ यह अभिप्राय हैं कि ईश्वर सर्व साधारण प्रत्यक्षका विषय नहीं है। आगे लिखा है कि यहाँ एक बात और स्मरण रहनी चाहिये कि सूत्र में ईश्वरासिद्धेः" शब्द है । 'ईश्वराभावात् . नहीं श्रीन कपिल नास्तिक होते तो कहत । ईश्वर का अभाव होनेमे । अभावके स्थानमें असिद्धि' कहनेका तात्पर्य ही यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाणस ईश्वर का सम्बन्ध नहीं। आगे आपने कुछ सूत्र ईश्वरको सिद्ध करने के लिये दिये हैं तथा कुछ वेदोंको अपौरपेय बतलाने के लिये दिये हैं और कुछ सूत्र आपने कर्मफल के लिये दिये हैं । वेद और कर्मफल के विषयमें तो हम भागे यथा स्थान Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) लिखेंगे। यहाँ तो सृष्टिकर्ता ईश्वरका प्रकरण है अतः उन सूत्रों पर विचार करते हैं। जिनसे आपने ईश्वर की सिद्धी की है। स हि सर्ववित् सर्व कर्ता | ३ | ५६ | ईशेश्वर सिद्धिस्सिद्धा । ३ । ५७ । समाधि सुषुप्ति मोक्षेषु ब्रह्म रूपता । ५।११६ । द्वयोः सवीजमन्यत्र तद्धतिः | ५|११७ | इनका अर्थ करते हुये आप लिखते हैं कि- "अर्थात् वह ईश्वर सर्व और सर्वकर्ता है। इस सूत्र में ईश्वरको सर्व और सृष्टिकर्त्ता कहा है। यह ईश्वर नहीं तो क्या है। आस्तिक लोग यही तो कहते हैं कि ऐसी कोई सत्ता है जो सब चीजों का ज्ञान रखती है. और संसारको बनाती है ।। ५६ ।। इस प्रकारके ईश्वरकी सिद्धि सिद्ध है। किस प्रकार के ईश्वर की जो सर्वज्ञ और सृष्टिकर्ता हो ॥ २७ ॥ आदि ३- इस सूत्र में बताया गया है कि जीवको समाधि सुषुप्ति और मोक्ष दशामें ब्रह्मरूपता प्राप्त होती है। ४- समाधि और सुषुप्ति में तो दुःखका बीज रहता है और मोक्षमें वह भी नष्ट हो जाता है "आगे आपने पांचवी अध्यायके वे ही १०.११.१२ सूत्र लिखकर यह लिखा है कि ये सूत्र ईश्वर के उपादान कारणका खण्डन करते हैं। निमित्त कारणका नहीं ।" परन्तु आपकी इन युक्तियोंका तथा सत्यार्थमें किये गये अर्थो का खण्डन स्वयं आर्यसमाज के सुयोग्य विद्वानने ही किया है अतः उसको यहां लिख देते हैं। प्रपंच परिचय गुरुकुल कांगड़ीके सुयोग्य स्नातक प्रो. विश्वेश्वर सिद्धान्त ! : Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५१ ) 1 शिरोमणि सृष्टिकर्त्ता पर पच परिचय नामसे एक सुन्दर पुस्तक लिखी हैं। उसमें आपने भी सांख्यको ईश्वरवादी माना है। किन्तु उन्होंने इन पूर्वोक्त दोनों महानुभावोंकी तरह सूत्रोंके wara नहीं किया है। इसके लिये हम आपको धन्यवाद देते हैं । आपके लेखका सारांश यह है कि उन सूत्रोंका ( जिनसे सांख्य को अनीश्वरवादी कहा जाता है ) अर्थ तो वही है जो अनीश्वरवादी करते हैं। अर्थात् कपिलाचार्यने ईश्वरका एटन किया है यह तो ठोक हैं. परन्तु वह हृदयसे नहीं किया है। अपितु प्रतिपक्षीको चुप करनेके लिये दबी जवानसे खएडन किया है । आपने अपनी पुष्टिमें विज्ञानभिक्षु का प्रमाण भी दिया है । तथा वही युक्ति भी दी है कि सूत्रमें "ईश्वर सिद्धेः " शब्द ही यह सिद्ध करता है कि यह खण्डन प्रतिपक्षीको चुप करानेके लिये किया है श्रन्यथा आचार्य सूत्र "ईश्वराभावान" ऐसा बनाते। आगे आप ने भी पांचवा अध्यायके वे ही तीन सूत्र देकर यह सिद्ध किया है. कि यह सब खण्डन हार्दिक नहीं है क्योंकि दवी जवानसे किया गया है । यह सब आपने बड़ो लच्छेदार भाषा में लिखा है। जिसमें आप साहित्यिक सिद्ध होते हैं। हम आपके ही शब्दों में आपका भाव लिखते हैं। सूत्रका अर्थ यह है कि अभी तो ईश्वरकी सप्ताहो असिद्ध और विवादास्पद है। जब तक उसकी सिद्धि नहीं तब तक उस असिद्ध ईश्वरके आधार पर हमारे प्रत्यक्ष लक्षणको सदोष बतलाना कहां तक न्याय संगत ठहराया जा सकता है। आगे पांचवी अध्याय के सूत्रोंका अर्थ निम्न प्रकार किया है । " इन तीनों सूत्रों का आशय यह है कि ईश्वर की सत्ताका समर्थक कोई प्रमाण नहीं है। फिर बिना प्रमाणके उसकी सिद्धि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५२ ) कैसे होसकती हैं। ईश्वर सिद्धके लिये प्रत्यक्ष प्रमाणका आश्रय लेनेका दुःसाहस तो कट्टर से कट्टर प्रत्यक्षवादी भी नहीं करता, हां उसके लिये अनुमान या शब्द प्रमाणका ही दरवाजा खटखटाया जाता है परन्तु वहां भी ईश्वर सिद्ध के लिये स्थान नहीं है। सबसे पहले अनुमानके लिये व्याप्तिमहकी आवश्यकता है जो बिना प्रत्यक्ष के सिद्ध ही नहीं हो सकती, और प्रत्यक्ष बेचारा ईश्वरके विषय सर्वथा अन्यथा सिद्ध हैं। तब व्याप्तिग्रह सिद्ध न होनेपर अनुमान भी कैसे हो सकेगा । रहा शब्द सो वह ईश्वर के पक्ष में गवाही देने को तैयार नहीं है। क्योंकि श्रति (वेद) तो जगत्का प्रधान (प्रकृति) का कार्य बताती है। ईश्वरका विश्व विधान के लिये कोई प्रयोजन प्रतांत नहीं होता ।' आगे आप लिखते हैं कि 'इस प्रकृति पुरुषके भेद ज्ञान या ममत्वके नाशके लिये ईश्वर सिद्ध का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है । ईश्वरकी सिद्धि उनके उद्देश्य साधनमें विशेष उपयोगी तो है नहीं हां, यह उस साधकके वित्तको ऐश्वर्य प्राप्ति की ओर आकृष्ट करके विवेकाभ्यास में विघ्न अवश्य पैदा करती है इसलिये हम देखते हैं कि सांख याचार्यने ईश्वर के में अपना समय गंवानेका कष्ट नहीं किया है।" वास्तव में यह लेख उपरोक्त दोनों पुस्तकों का उत्तर रूप हैं । क्योंकि इसमें स्पष्ट है कि सूत्रोंमें ईश्वर की सत्ताका निषेध है । उपा दान कारणका नहीं अतः जो सन्नन इनसे उपादान कारणका निषेध बताते हैं । यह गलत है। अब रह गया प्रश्न 'अभाव' का अर्थात् सूत्रमें असिद्धि शब्द क्यों है। यदि उनको ईश्वर कानिषेध करना था तो वे 'ईश्वराभान' सूत्र रचते इसका उत्तर यह है कि यदि वे अभावान्' सूत्र रचते तो वे अपनी दार्शनिकता को बट्टा लगा लेते क्योंकि उस समय यह प्रश्न उपस्थित होता कि आपने अभाव कैसे जाना | तब पुनः उनको यही उत्तर देना पड़ता कि ¦ । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता इसलिये अभाव है अनः उन्होंने याह पहले ही प्रसिद्ध शब्द रख दिया ताकि प्रश्नका अवसर ही न यावे, तथा अभाव चार प्रकारके हैं उनमें से कौनसा अभाव है। इत्यादि अनेक प्रश्न उत्पन्न होते। यह तो योग्य स्नातकने अपने लेख में स्पष्ट स्वीकार किया है कि यह इंश्वर साधक की सिद्धि में विघ्नकारक हैं कि यह ठीक है परन्तु आपका यह लिखना ठोक नहीं कि फिर सांख्याचार्यने ईश्वरकी सिद्धिके झगड़ेमें अपना समय नहीं गंवाया क्योंकि सांख्याचार्य ने ईश्वरका खण्डन प्रवन युक्तियों और प्रमाणोसे क्रिया है । अतः लेखक को यह लिखना पाहिये था कि इसीलिये सोख्याचार्य ने ईश्वरका जोरदार खण्डन वित रहाया मम दयां आनकी उसका उत्तरतोआपने स्वयंसूत्रों का अर्थ करके दे दिया है। अतः ये सब बातें व्यर्थ हैं। शेष रहते हैं.ास्तिकवादमें दिये गये, सर्वक्ति भादि सूत्र जिनको उन्होंने ईश्वर सिद्धि में दिये हैं। अतः अब हम उनपर विचार करते हैं । प्रथम हम सूत्र लिखकर उसका अर्थ लिखने हैं पुनः शंकासमाधान । स हि सर्ववित् सर्वकर्ता । ३ । ५६ । प्राचीन प्राचार्योंने इसके दो अर्थ किये है । एक प्राचार्य तो 'स' शब्दसे प्रधान लेते हैं ।तथा दूमरे. आचार्य मुक्त पुरुष । ये दोनों ही अर्थ सांख्य प्रक्रिया के अनुकूल हैं। विज्ञानभिक्षु के भाष्यमें जिसको प्रेश्वर माध्य कहा जाता है लिखा है कि सः इत्यस्य पूर्वसर्गे कारण लीनः पुरुषएव गृह्यते स एव सर्गान्तरे सर्वविन , सर्वकर्ता, ईश्वरः आदि पुरुषो भवति । अर्थात्-यहाँ 'स' प्रकृति लीन महा योगी है । वह योगी ही सर्गान्तर में सर्व वित्त. सर्व का ईश्वर प्रादि पुरुष होता है । अर्थात् जीवन मुक्त महामात्माको ही ईश्वर कहते हैं। अब इस पर Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४) आपने यह प्रश्न किया है कि योगियों को या मुक्तात्माओं को तो चाँद सूरजका कर्त्ता जैन आदि भी नहीं मानते पुन: यह अर्थ किस प्रकार ठीक हो सकता है । उतर- आपके इस प्रश्नका उत्तर स्वयं सूत्रकारने दिया है. यहां यही प्रश्न किया गया है कि एवं तहिं स हि सर्ववित् सर्वस्य कर्ता इत्यादि श्रुतिवाघः मुक्तात्मनः प्रशंसा उपासासिद्धस्य वा । १ । ६५ अर्थात् जब आपने ईश्वरका खंडन कर दिया तो सहि सर्ववित् सर्व कत्ता अर्थात् वही सर्वज्ञ और सर्वकर्ता हैं, आदि श्रुतियोंके साथ विरोध होगा । इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि विरोध नहीं हैं क्योंकि उन श्रुतियोंमें जीवन मुक्तात्माओं की अथवा योगियोंकी प्रशंसा मात्र है । उन श्रुतियों का विशेष विवेचन हम पहले कर चुके हैं। स्वयं आस्तिकवादके लेखकने ही आचार्यको यौ और पृथ्वी आदिका कर्ता माना है । तो क्या वास्तवमें आचार्य इनका कर्त्ता है । इस पर कहा जाता है कि बनानेका अर्थ उपदेश देकर उनका प्रकाश करना है। ठीक यही अर्थ कर्त्ता यहां यह जीवन मुक्त जीवोंको उपदेश देकर इनका ज्ञान कराता है यही उसका जगत कर्तापन हैं । जैन शास्त्रों में भी उनको कर्ता आदि लिखा है । यथा विश्वयोनि farara कारणं कर्ता, भवान्तक, हिरण्यगर्भ विश्वभूद् विश्वसृज । ( जिनवाणी संग्रह ) Minister परिभाषामें इसीको अर्थवाद कहते हैं यहां भी यही भाव है, जो सांख्याचार्यका है। अर्थात वह मुक्तात्मा उपदेश द्वारा विश्वका ज्ञान करानेसे विश्वके कर्त्ता हैं। यही वैदिक मान्यता है। जिसको हम पहिले सिद्ध कर चुके हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि सांख्य दर्शनमें इस काल्पनिक ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं हैं। 1 I Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) वैशेषिक दर्शन भारतीय दर्शनों में वैशेषिकदर्शनका भी मुख्य स्थान है । - इसके रचयिता करदमुनि कहे जाते हैं। इनका जन्म कब और कहां हुआ यह भी निश्चित नहीं है । परन्तु वेदान्त सांख्य आदि दर्शनोंसे यह प्राचीन है यह बात निश्चित है। में भी है। उसके निम्न शेष कारण हैं । (१) वैशेषिकदर्शनमें न तो ईश्वर आदि शब्दोंका व्यवहार हुआ हैं, और न उसकी सृष्टि रचनामें ही आवश्यक्ता समझी गई है। (२) कर्मफलके लिये तथा जगत्रचना के लिये वैशेषिकने ईश्वर के स्थान की कल्पनाकी है। (३) प्राचीन आचार्योंने तथा भाष्यकारोंने इस दर्शनको भी अनीश्वरवादी ही मानते है। अतः अंतरङ्ग और बहिरन परीक्षासे यह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि वैशेषिकदर्शन भी ईश्वरका बिरोधी था सर्वप्रथम हम बहिरन परीक्षा करते हैं उसके लिये हम प्रथम वेदान्तसूत्रका प्रमाण उपस्थित करते हैं । इसका भाष्य करते हुये श्री शंकराचार्यने लिखा है कि--- L 'परमाणु जगतका कारण है करणादिका यह सिद्धान्त है परन्तु यह वन नहीं सकता, क्योंकि परमाणु उसके मत में स्वयं क्रिया नहीं कर सकता, और बिना क्रियाके जगत उत्पन्न नहीं होगा यदि आद्यकर्मका कारण अ मानें (जैसा कि कणाद मानता हैं) तो भी जगत नहीं बन सकेगा क्योंकि फिर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह कर्म आत्मा में है या अणुमें । दोनों प्रकार से Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५६ ) अमें कर्मका होना असंभव है क्योंकि अट अचेतन है और यदि श्रचेतन चेतन से अधिष्ठित न हो तो वह स्वतंत्रता से न तो प्रवृत्त ही हो सकता और न किसीको प्रवृत्त करा सकता है क्योंकि (करपादके मनमें) चैतन्य उत्पन्न न हुआ हो उस अवस्था में आत्मा तो अचेतन ही है। यदि अष्ट आत्मामें समवावी है ऐसा स्वीकार कर लो, तो भी वह अणुओं में कर्मका निमित्त नहीं बन सकता का बाग ही नहीं है। यदि कहोगे किश्रयुक्त पुरुषके साथ उसका (अणुओं का ) सम्बन्ध है । तो वह संबंध नित्य सिद्ध होगी, क्योंकि आपके यहां और कोई नियामक नहीं है। इस प्रकार कर्मका कोई नियत नियम नहीं मिलने से agrat meकर्म नहीं होगा। कर्मके अभाव से कर्मसे बनने वाला संयोग नहीं होगा। और संयोगके न होने से उससे होने बाला कार्य समूह भी उत्पन्न नहीं होगा । इसी प्रकार प्रलय काल में विभाग की उत्पत्तिके लिये कोई निमित्त देखने में नहीं आता क्योंकि वैशेषिक केमतमें) अष्ट भोगकी सिद्धिके लिये है प्रलयकी सिद्धिके लिये नहीं है। इसीलिए निमित्त के अभाव से अणुओं में संयोगकी या विभाग की उत्पत्तिके लिए कर्म नहीं बन सकता संयोग और वियोग के अभाव से उनसे होने वाले सृष्टि और प्रलयका प्रभाव स्वयं सिद्ध हो जाता है इसलिए परमाणुवाद युक्त है । उपरोक्त सूत्र और भाष्य में स्पष्ट प्रकट है कि वेदान्त-सूत्रके कर्ता तथा उसके भाष्यकार स्वामी शंकराचार्य दोनों ही वैशेषिकको अनीश्वरवादी मानते थे। "भारतीय दर्शनका इतिहास" नामक पुस्तक में देवराजजी ने लिखा है कि "इस आलोचना से मालूम होता है कि सूत्रकार और शंकराचार्य दोनों वैशेषिकको अनीश्वरवादी समझते थे. क्योंकि ईश्वर परमाणुओं के प्रथम संयोगका 1 Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५७ ) कारण होता है यह त धालोचनामें नहीं उठाया गया है । ३.३ तथा पू० २५३ पर श्राप लिखते हैं कि-- वैशेषिक सूत्रोंमें ईश्वरका वर्णन नहीं है । विद्वानोंका अनुमान है कि वैशेषिक पहले अनीश्वरवादी था। वास्तवमें न्याय और वैशेषिक दोनों में जड़वादी प्रवृति पाई जाती है। ___ तथा पृ. २५ पर लिखते हैं कि न्याय वैशेपिकका मत श्रोत या वेदमूलक नहीं है । उपनिषदोंमें ब्रह्म और मुक्त पुरुषके आनंद मय होनेका स्पष्ट वर्णन है। ___ तथा महाभारत मीमांसा (रायसाहबने) लिखा है कि "उपनिषदमें परब्रह्म वाची शब्द वात्मा है। श्रात्मा और परमात्माका भेद उपनिषद्को मालूम नहीं है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि न्याय और वैशेषिक, अवैदिक दर्शन हैं | क्योंकि ये अात्माको आनन्दमय नहीं मानते है । तथा भारतीय दर्शन में बल्देव उपाध्याय "लिखते हैं कि वैशेषिक मतमें परमाणु स्वभावतः शांत अवस्थामें निष्पन्द रूपसे निवास करते हैं। उनमें प्रथम परिस्पन्दका क्या कारण है। प्राचीन वैशेषिक लोग प्राणियों के धर्माधर्म रूपको इसका कारण बतलाते हैं। अहणकी दार्शनिक कल्पना बड़ी विलक्षण है । अयस्कान्तमणि की ओर सूईको स्वाभाविक गति, वृक्षोंके भीतर रसका नीचेसे ऊपर चढ़ना. अग्निकी लपटोका ऊपर उठना, चायुकी तिरछी गति मन तथा परमाणुओंकी श्राद्य स्पंदनात्मक क्रिया--अटके द्वारा जन्य बतलाई जाती है। पर पीछेके आचार्योंने अष्टको सहकारितासे ईश्वरकी इच्छासे ही परमाणुओंमें स्पन्दन तथा तजन्य सृष्ट्रि क्रिया मानी है। यहां भी स्पष्ट है कि वैशेषिक तथा उसके प्राचीन आचार्य Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LILLove L-TE अनीश्वरवादी श्रे. नदीन विदा लममें इनके साथ ईश्वरेच्छा भी जोड़ दी ! वादमें नैयायिकोंने अष्टको बिलकुल ही उड़ा दिया और उसका स्थान ईश्वरको दे दिया। ___एवं दर्शन दिग्दर्शनमें राहुलजी" लिखते हैं कि-"ईश्वरको पीछेके अन्धकारोंने आठ गुणों वाला माना है । किन्तु कणाद सूत्रोंमें ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं है । वहां तो ईश्वरका काम असे लिया गया है।" ___ इत्यादि अनेक प्रमाण इस विषयमें दिये जा सकते हैं परन्तु हम विस्तारभयसे यहीं समाप्त करते हैं। यदि अन्तरंग परीक्षा करें तो भी हम इसी परिणाम पर पहुंचेंगे कि वैशेषिक दर्शन में ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है। क्योंकि वैशेषिक जितने पदार्थ मानता है उनमें ईश्वर नामका कोई पदार्थ नहीं है । यथा वैशेषिक छह पदार्थ मानता है। द्रव्य, गुण, कर्म. सामान्य, विशेष, समवाय, इनमें द्रव्य नव प्रकारके होते हैं। पृथ्वी, जल, तेज. वायु. आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन । इनमें वैशेषिक पात्माको प्रति शरीर पृथक पृथक् असंख्य या अनंत मानता है । वह आत्मा के लिए कहता है कि यह स्वल्पविषयक अनित्य ज्ञानवान है। आत्मा के सामान्य गुण विशेषगुण (२) संख्या (१) बुद्धि (२) परिमाण (२) सुख (३) पृथक्त्व (३) दुःख (४) संयोग (५) इच्छा (५) विभाग (५) द्वेष Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पगल (७) भावना (E) धर्म (6) अधर्म मुक्त अवस्थामें केवल सामान्य गुण ही रह जाते हैं, और बुद्धि, सुख. दुःख, इच्छा आदि विशेष गुणाका नाश होजाता है। वैषशिक दर्शनके मूलसिद्धान्त निम्न हैं। (१) परमाणुवाद, जगतके मूल उपादान परमाणु हैं। भिन्न भिन्न परमाणुओंके संयोगसे भिन्न २ वस्तुयें बनी हैं। (२) परमाणुओंमें संयोगविभागका निमित्तकारण (अदृष्ट) जीवोंके कर्म अर्थात् धर्मा धर्म हैं। (३) अनेक आत्मवाद, आत्मा अनेक है तथा अपने २ अक्षनुसार कर्मफल भाग करने के लिये वे उपयुक्त शरीर धारणा करती हैं। (४) असत्कार्यबाद-कार्य अनित्य है, उत्पसिसे पूर्व कार्यका सर्वथा अभाव रहता है. विनाशके बाद फिर उसका अभाव हो जाता है। मन और आत्माके संयोगसे आत्मामें उत्पन्न होता है। (५) परमाणु नित्यवाद--परमाणु नित्य हैं. निरवयव होनेके कारण परमाणुओंका कभी नाश नहीं होता है. कार्य द्रव्य सापयय होने के कारण अनित्य हैं। अवयवोंका विच्छेद होना ही नाश कहलाता है। (६, षटपदार्थवाद-पदार्थ छ ही हैं जैसा कि पहले लिख आए। (७) मोक्ष. अात्माके विशेष गुणांके नाश होनेका नाम मोक्षहै। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) यह मोक्ष तत्वज्ञानसे प्राप्त होता है । (८) पुनर्जन्मवाद - यह जीव कर्मानुसार अनेक शरीरोंको धारण करता रहता है । (६) पीलुपाकबाद - पाक दो प्रकारके माने जाते हैं (१) पिठपाक (२) पीलुका | 1 (१) पिठरपाक - नैयायिकों का सिद्धान्त है कि घढेको आग में डालने पर, घढेका नाश नहीं होता अपितु सिद्रामेंसे होकर गरमी परमाणुओंके रंग को बदल देती है, अतः घड़ेका पाक होता है परमाणुओंका नहीं। इसका नाम पिठरपाक है। (-) पीलु (अणु) पाक, वैशेषिकके मत अनिके व्यापारसे परमाणु पृथक पृथक हो जाते हैं। पुनः वे ही परमाणु पक कर लाल होकर पुनः घटका रूप धारण करते हैं। इसे कहते हैं पीलुपाक अर्थात् परमापाक, वैशेषिक पीलुपाकवादी हैं। अभिप्राय यह है कि वैशेषिक के मत में ६ पदार्थ हैं उनमें से ईश्वर दव्य ही हो सकता है अतः हमने द्रव्यके भेद लिखे हैं । उन में माहीको ईश्वर कह सकते हैं शेष द्रव्योंको तो किसीने भी ईश्वर नहीं माना है । परन्तु वैशेषिकों का आत्मा ईश्वर नहीं हो सकता क्योंकि वह स्वभावसे ज्ञानशून्य एवं जड़ हैं तथा अनन्त हैं । परन्तु ईश्वरको स्वभावसे ही आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक और सर्व माना जाता है ( श्राष्ट जो कि जगतका निमित्त कारण है वह भी ईश्वर नहीं है क्योंकि वह भी जड़ है वास्तव में न्याय और वैशेषिक या दर्शन हैं। चार्वाककी तरह उनके यहां भी चैतन्य और ज्ञान आदि प्रकृतिके ही कार्य हैं। यही कारण हैं कि इनको अवैदिक दर्शन माना जाता था। किसी कविने कहा है कि Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तये सर्वजीवानां यः शिलात्वं प्रयच्छति, स एको गौतमः प्रोक्न: उलू कश्च तथापरः । वरं वन्दानेऽरण्ये शृगालत्वं भजाम्यहम् , न पुनशेषिकी मुक्ति प्रार्थयामि कदाचन ।। जो मुक्ति के लिये सब जीवोंको पत्थर बनता है वह एक तो गोतम (बैल) है और दूसरा उलूक (उल्लू ) है । वृन्दावनमें मैं शृगाल आदि बनकर रहना पसन्द करूंगा परन्तु वैशेषिककी मुक्तिकी कभी अभिलाषा नहीं करूंगा । इस जड़यादी दर्शनमेंसे भी ईश्वर भक्तोंने ईश्वरको निकालने का प्रयन किया है, उनका कथन है कितानाहानामा प्रामारपण ! में सू० ११३ इस सूत्रमें ईश्वरका कथन है क्योंकि इस सूत्रका अर्थ है नन् अर्थात उस ईश्वरका वचन होनेसे वेद प्रामाणिक हैं । हमें बह नियम ज्ञात नहीं जिसमें यह बताया गया है कि जहां जहां, स. या तत् , श्रादि शब्द आवे वहां वहां उनका अर्थ ईश्वर करना चाहिये । बदि ग्रह, नियम नगा आविष्कृत हुआ हो तो उसको प्रकाशित कर देना चाहिये । ताकि इससे जनता लाभ उठा सके। यदि ऐसा कोई नियम इजाद नहीं किया गया है तब तो यहां तत् , शब्दके अर्थ ईश्वर करना अपनी महान अज्ञानता प्रगट करना है, क्योंकि इससे पूर्व के सूत्र में धर्मका लक्षण किया गया है, यथायतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः सधर्मः ।। बैं० २०१२ उसीका आगे कथन है कि तद्अचनाद् अर्थात् यस धर्मका (जिसका पूर्वसूत्रमें लक्षण है) बचन होने से ही शास्त्र प्रमाण है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) जय न तो ईश्वरका पहले कथन है और न बादमें ही कहीं जिंकर है तो यहां 'तत्' में ईश्वर ने आकर कैसे प्रवेश कर लिया। अतः यहां ईश्वर अर्थ करना जनता में भ्रम फैलाना है तथा सुप्रसिद्ध वैशेषिक टीकाकार शंकर मिश्र ने अपनी उपस्कार नामक टीका तत् शब्दका अर्थ धर्मही किया है। इसी प्रकार अन्य भाष्यकारों ने तथा टीकाकारोंने भी यही अर्थ किया है। इसी प्रकार अध्याय २१२१८ में जहां योगियों के प्रत्यक्षका कथन है वहां भी इन भक्तोंने ईश्वरको घर घसीटा है ? इत्यादि व्यर्थ प्रयासों से इस दर्शनको ईश्वरवादी बनाने का प्रयत्न किया है, नवीन वैशेषिकों ने जो ईश्वर कल्पना की है, उसका विचार हम तर्क प्रकरण में करेंगे, यहां तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह बतलाया गया है कि करण के समय तक भी भारत में ईश्वर का आविष्कार नहीं हुआ था । बा० सम्पूर्णानन्दजी लिखते हैं कि "वैशेषिकका मत तो बहुत ही स्थूल है। आज अनात्मवादी वैज्ञानिक और समाजवादी दार्शनिक भी इतने स्वतंत्र पदार्थोंकी श्रावश्यकता नहीं समझता । परमाओं को सरेणु सूर्य किरणोंमें देख पड़ने वाले रजकरण के छह भाग के बराबर मानना हास्यास्पद है। उससे भी अधिक हास्यास्पद सोनेको शुद्ध तेज मानना है" 'भारतीय सृष्टिक्रम' यहां प्रश्न यह है कि इन द्रव्योंका (जो वैशेषिकदर्शनमें हैं ) नियामक क्या है तथा व जो इस दर्शन में ६ पदार्थ माने गये हैं उनका भी नियामक क्या है ? अर्थात् यह पदार्थ न्यूनाधिक नहीं हो सकने इसमें क्या प्रमारण हैं । तथा च मनको द्रव्य माना तो बुद्धिमें क्या दोष था जो उसको तिलाञ्जलि देदी । तथा यह नियम है कि स्वतन्त्र पार्थ किसीके आश्रित नहीं होता परन्तु करणादने गुण Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६३ ) और कर्मकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर भी उन्हें द्रव्यके आधीन कर दिया । जातिकी कल्पना भी एक अनोखी दर्शनकार कणाद पर श्रीमान पं० अशोकने आप लिखने से कि पांच से व्यक्ति छठे पदार्थका भी अस्तित्व बताता है उसे अपने सिर पर सीगोंका भी सद्भाव मानना चाहिये । सूझ है। वैशेषिकएक ताना कसा है। सामान्य रूपले जो पाँच तत्व अनुमान पांच या ६ वर्ष हुए जब काशी विश्व विद्यालय में पंचमहाभूत परिषद् हुई थी उसमें नवीन वैज्ञानिकों को भी निमंत्रण दिया गया था, वैज्ञानिकोंने कहा कि आप लोग सबसे पूर्व भूतका लक्षण करें इस पर वैदिक दार्शनिकोंने पृथ्वी, अमि वायु, जल. आकाशको मूल पदार्थ बताया। वैज्ञानिकोंने इसका जोरदार खंडन किया और कहा कि ये मूल भूत पदार्थ नहीं है। उन्होंने कहा कि- आप हमें जल के परमाणु दे दें हम उनकी भाग, हवा, आदि बना देंगे, इसी प्रकार आपके परमाणुओंसे जल आदि इसी तरह अन्य परमाणुओं से भी । वास्तव में जल आदि सब पदार्थ आक्सिजन आदि गैसों के समिश्रण से बने हैं। वैदिक है जहां यह वर्तमान विज्ञानके विरुद्ध हैं वहां यह पंचभूत कल्पना वैदिक साहित्य से भी सर्वथा विरुद्ध हैं। क्योंकि वेदों तथा ब्राह्मण उपभिषवादिमें कहीं भी इनको मूल पदार्थ नहीं माना अपितु इनको अनित्य माना है । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६४ ) "श्रात्मनः, आकाशः, सम्भूतः, आकाशादवायुः" वेदान्त सांख्य योग भी शालिवानी मा नौ, नौर, जैन शास्त्रोंने इस मान्यताका भयानक खंडन किया है। वास्तवमें यह भारतीय मान्यता नहीं है यह तो यूनानसे आईहुई सौगात है । क्या शब्द आकाशका गुण है ? इस नौज्ञानिक युगमें शब्दको आकाशका गुण मानना भी अपने हठधर्मका परिचय देना है । रेडियो तथा फोनोग्राफ व सिनेमाने यह सिद्ध कर दिया है कि शब्द गुण नहीं अपितु प्राकृतिक चित्र हैं। आज शब्दोंके चित्र भी लिये जाते हैं। आज उस को गतिका पता है आदि घातें शब्दके । होनेका प्रत्यक्ष खंडन है। इसीलिए जैन शास्त्रोंमें "स. शब्द द्गल श्वित्रः" लिखा है उन्हीं चित्रों को जैन भाषामें शम्द वर्गणा इते हैं। न्याय दर्शन पढदर्शनामें एक यही न ऐसा है जिसको कदर ईश्ववादी समझा जाता है । अतः अब इस दर्शनका विचार करते हैं (गी, रहस्यके पृ१५ में लिखा है, नैयायिक दो प्रकारके हैं। एक ईश्वर वादी तथा दूसरे अनीश्वरवादी अनीश्वरवादी नैयायिकके विषय में एक कथा प्रचलित है जब वह विद्धान अन्तिम शास ले रहाथा तो लोगोंने उससे कहाकि-अब तो ईश्वर ईश्वर जपो तो उसने उत्तर में पीलवः पाल का कहना शुरु कर दिया। परन्तु हमें यहां इस पर विचार नहीं करना है अपितु ऐसहासिक दृष्टिसे पहले सूत्रों . का ही विचार करना है। सूत्रोंके विषयमें सृष्टिवाद और ईश्वर में Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि रतनचन्दजी शतावधानी लिखते हैं कि न्यायदर्शनमें जो ईश्वरका कथन है. यह सूत्रकारका अपमा मत नहीं है। अपितु उन्होंने इसके मतका बलेख मान किया है। न्यायदर्शनकार गौतमऋषिने स्वतन्त्र रूपसे अपनी निजी मान्यता के रूपमें ईश्वरको स्वीकार नहीं किया है परन्तु चौथे अध्यायके पहले आहिकके १६ वे सबमें अन्यवादियों द्वारा स्वीकृत ईश्वर का उल्लेख किया है और अभाववादी.शून्यवादी स्वभाववादी इन सब वादियोंकी मान्यतायें तीन २ चार २ सूत्रों में दिखलाई हैं। साथ ही ईश्वरवादी की मान्यता भी तीन सत्रों में बसलाई है । सूत्रका शीपक बनाते हुये अवतरगाके रूपमें भाष्यकार वात्स्यायन भी यही कहते हैं कि 'अथापर श्राह् अर्थान अभाववादीकी ओर से अपनी मान्यता बता देने के पश्चात् अपर अर्थात् ईश्वरवादी कछता है कि ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् (न्या० सू०४।१।१६) न पुरुषकर्माभावे फलनिष्पत्तेः । (न्या० ० ४।१२०) तत्कारित्वादहेतुः। (न्या. मू० ४।२१) अर्थ, मनुष्यका प्रचन्न निष्फल न जाने पाय इसलिये कर्मफल प्रदाताके रूपमें ईश्वरको कारण मानना आवश्यक है। दुसरा बादी शंका करता हैकि ---ऐसा माननेमे तो पुरुष कर्मके बिना भी फलकी प्राप्ति होगी. कारण कि ईश्वरकी इच्छा नित्य है। __ ईश्वरवादी उत्तर देता है कि पुरुषकम भी तो ईश्वर प्रेरित ही होता है अतः तुम्हारा यह हेतु हेत्वाभास है, अर्थ साधक नहीं है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६ ) Frater कर्मफल के रूपमें स्वीकार करने वाले ईश्वरवादी के ऊपर कहे गये तीन सूत्रोंको गौतम मुनिने अपने न्याय दर्शनमें स्थान जरूर दिया है परन्तु वे दूसरे की मान्यता के रूपमें हैं अपनी मान्यता के रूप में नहीं। इससे यही कहा जा सकता है कि पतंजलि मुनिके समान गौतमने ईश्वरवाद को स्वीकार नहीं किया है कपिल के समान निषेध भी नहीं किया है और करणादके समान इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहने के लिये मौन भी नहीं रक्खा है । हां दूसरेकी मान्यताको अपने सन्दर्भ में मात्र स्थान दिया है यह मान्यता भाष्यकार तथा टीकाकारों को इष्ट होनेके कारण अन्यथा कहिये कि अपनी मान्यता के सम्बन्धमें अनुकूल एवं समर्थक मालूम होनेके कारण भाष्यकार तथा टीकाकार दोनों ही ने गौतम महर्षि अपनी निजी सूत्रोंके रूपमें उनपर अपनी ओरसे गहरी छाप लगा दी है। भाष्यकार वात्स्यायनने सूत्रके बिना भी स्वतन्त्र रूप में अपने न्याय भाष्य में ईश्वरका स्वरूप इस प्रकार प्रदर्शित किया है। "गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः । तस्यात्मकल्पात् कल्यान्तरानुपपत्तिः । अधर्ममिथ्याज्ञानप्रमादहाव्या धर्मज्ञानसमाधिसंपदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः तस्य च धर्मसमाधिफल मणिपाद्य विधमैश्यर्य संकल्पानुविधायी arer धर्मः प्रत्यात्मवृतीन् धर्माधर्ममंत्रयान् पृथ्व्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति । एवं च स्वकृताभ्यागमस्या लोपेन निर्माण प्राकाम्यमीश्वरस्य स्वतकर्मफलं वेदितव्यम् । अर्थं गुण विशेषसे युक्त एक प्रकारका आत्मा ही ईश्वर हैं । ईश्वर आत्मतत्व से कोई पृथक वस्तु नहीं है। अधर्म मिध्याज्ञान Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SI ( ५६७ ) तथा प्रमाद उसमें बिलकुल नहीं है इसके विपरीत धर्म ज्ञान तथा समाथि सम्पदा से वह पूर्णतया युक्त है। अर्थात् धर्मज्ञान, और समाधि विशिष्ट आत्मा ही वास्तव में ईश्वर है। धर्म तथा समाधि के फलस्वरूप आणिमा आदि आठ प्रकार का ऐश्वर्य उसके पास हैं ईश्वरको धर्म संकल्प मात्र से उत्पन्न होता है किसी प्रकार के क्रियानुष्ठानसे नहीं । ईश्वरका वह धर्म ही प्रत्येक धर्मा धर्म संचयको तथा पृथिवी आदि भूतोंको प्रवर्ताता है- अर्थात प्रवृत्ति कराता है इस प्रकार स्वीकार करने से स्वकृताभ्यगमका लोप न होकर ईश्वरको सृष्टि निर्माणादि कार्य स्वकृत कर्मका फल ही जानना चाहिये । ब्रह्म का खण्डन और ईश्वरका समर्थन भाष्यकार ब्रह्मका खंडन और ईश्वर का समर्थन करते हुए कहते हैं कि- " न तावदस्य बुद्धि विना कश्विद्धर्मो लिङ्गभृतः शक्य उपपादयितुम् बुद्धधादिभिश्वात्मलिङ्ग निरुपाख्यमीश्वरं प्रत्यचानुमानागम विषयातीतं कः शक्तः उपपादयितुम् । स्वकृताभ्यागमलोपेन च प्रवर्तमानस्यास्य यदुक्तं प्रतिषेध जातं । अक्रम निमित्ते शरीरसमें तत्सर्वं प्रसज्यते । अर्थ- बुद्धिके अतिरिक्त और कोई धर्म ईश्वरकी उपपत्ति या सिद्धि करनेमें लिङ्ग हेतु नहीं बन सकता। ब्रह्म तो बुद्धि आदि माने नहीं जाते. फिर बतलाइये प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम के सर्वधा अविषय भूत ब्रह्मकी कौन सिद्धि कर सकता है। तथा उसमें सृष्टिजनक स्वकृतधर्मरूप कर्मका अभ्यागम स्वीकार नहीं किया गया फलतः अकर्मनिमित्तक शरीर सर्गकी मान्यता में जितने Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) दोष आते हैं वे सत्र दोष यहां ब्रह्म सृष्टिमें भी ज्योंके त्यों उपस्थित होंगे उनका परिहार कैसे हो सकेगा ? भाष्यकारका श्राशय क्या है ? पाठक ऊपर के उद्धरणोंसे बहुत कुछ समझ गये होंगे ? भाष्यकार के माने हुए ईश्वर में बुद्धि संकल्प आदि होने के कारण संकल्पसे सृष्टिजनक धर्मरूप कर्म उत्पन्न होता है और उसके द्वारा सृष्टि निर्माणका कार्य सम्भव बनाया जाता है । परन्तु ब्रह्ममें तो बुद्धि संकल्प आदि कुछ भी न होनेसे सृष्टिजनक कर्म नहीं उत्पन्न हो पाता है। फलतः सृष्टि निर्माण भी सदा सर्वथा असंभावित ही बना रहता है। तथा ब्रह्मको जानने के लिए कोई प्रमाण भी नहीं है अतः प्रमारण बहि त ब्रह्मके कौन बुद्धिशाली मान सकता हूँ ? इस प्रकार ब्रह्मवाद को पराजित करनेके लिए ईश्वरवादका विस्तार शुरू हुआ। भाध्य कारकी तरफसे ईश्वरवाद पर इस भांति स्वीकार सचक छाप लग जानेसे न्याय कुसुमांजलि, न्याय वार्तिक, न्यायमञ्जरी, न्याय कंदली आदि अनेकानेक न्याय ग्रन्थोंमें ईश्वरवाद अधिकाधिक पल्लवित होता चला गया। आपके इस कथनको तुष्टि सर्व दर्शनसंग्रह भी होती है। वहां लिखा है कि- एवं च प्रतितंत्र सिद्धान्त पिपरमेश्वरप्रामाण्यं संगृहीतं भवति । अर्थात - इस प्रकार प्रतितंत्र सिद्धान्त द्वारा सिद्ध परमेश्वर संग्रहीत होता है । वन दिग्दर्शनमें राहुलजी लिखते हैं कि i. i अपादने ईश्वरको अपने ११ प्रमेयों नहीं गिना है । (?) और न कहीं उन्होंने साफ कहा है कि ईश्वरको भी वह आत्मा के अन्तरगत मानते हैं । ऊपर जो मनको आत्माका साधन कहा है Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५६६ ) उससे भी यही साबित होता है कि आत्मासे उनका मतलष जीव से है। अपने सारे दर्शनमें अक्षपादका ईश्वर पर कोई जोर नहीं है। और न ईश्वर वाले प्रकरण को हटा देनेसे उनके दर्शनमें कोई कमी र जाती है । जी भारत काय सूनों में यदि क्षेपक हुए हैं तो उनमें इन तीन सूत्रोंको भी ले सकते हैं। जिनमें ईश्वर की सत्ता सिद्धकी गई है। डा. सतीशचंद्र विद्याभूषणने जहां न्याय सूत्रके बहुतसे भागको पाछेका क्षपक मान लिया है फिर इन तीन सूत्रीका क्षेपक होना बहुत ज्यादा नहीं है" । अर्थात्---आपके मतमें ये तीन सूत्र जिनमें ईश्वरका कथन है प्रक्षिप्त हैं । हमारी अपनी धारणा यह है कि ईश्वरका अर्थ परमेश्वर नहीं है अपितु मीमांसाका अपूर्व तथा शैशेषिक का अदृष्ट ही न्याय दर्शनका ईश्वर है। क्योंकि संपूर्णदर्शनको यदि विचार दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि न्यायदर्शन में भी ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है. उसके निम्न कारण हैं । (१) प्रमेय न्यायाचार्य ने जब प्रमेय गिनायें तो उनमें ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं रखा । इससे सिद्ध होता है कि गौतममुनि की दृष्टिमें ईश्वर प्रमेय नहीं है, अर्थात् न तो बह शानका विषय है, और न उसका तत्व जाना जासकता है :. वादके नैयायिकोंने भाष्य आदि में आत्माके अन्तरगत ही ईश्चरको माना है इसलिये न्याय दर्शनमें आत्माका क्या स्वरूप है, यह जानना आवश्यक है। अतः हम उसका वर्णन करने हैं । नोट-प्रमेय १२ हैं, प्रमा विषयत्वं । अथवा यो, अर्थ: तत्वतः प्रमीयते तत्प्रमेयम् ।। अर्थान--को ज्ञान (बुद्धि) का विषय हो या जिसको तत्वतः जाना जाय वह प्रमेय है। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७८ ) श्रीमान पं० हरिदत्त जी शर्मा त्रिवेदी अमृतसरने रहस्य लहरी नामसे देश उपनिषद्का भाग्य किया है उसमें आप लिखते हैं कि "ईश्वरः कारणम्" तत्कारित्वाद हेतुः ||११|| इन सूत्रोंके वात्स्यायन भाष्य में ईश्वरका अर्थ जीव विशेष किया है । वहां लिखा है कि "नात्म कल्पादन्यः कल्पोऽस्ति" अर्थात जीव वर्गसे भिन्न वर्गका कोई ईश्वर विशेष नहीं है किसी योग यदि सामर्थ्य से धर्म ज्ञान वैराग्य जिसमें सबसे अधिक होगया है उससे यह सब व्याप्त है जी योगी जी के कर भोग करो 'ईशावास्य' इस श्रुतिका यह अभिप्राय है' अतः यह सिद्ध है कि न्याय दर्शनमें तथा वैदिकवांगमय में मुक्तात्माओं को ही परमात्मा, ब्रह्म ईश आदि नामोंसे संबोधित किया है। आत्मा न्यायदर्शनकी आत्मामें तथा वैशेषिक की आत्मा में कुछ भी भेद नहीं है । अर्थात् दोनों दर्शनों में आत्मा का स्वरूप एकसा है। न्यायका सिद्धान्त है कि 1 शरीरेन्द्रिय बुद्धिभ्यः पृथगात्मावि सुधु वः ॥ अर्थात- शरीर इन्द्रिय बुद्धिसे प्रथक आत्मा है और विभु है तथा नित्य है । यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्मा विभु है तब यह शरीर से संबंधित कैसे है। इसका उत्तर नयाचिक देते हैं कि " पूर्वकृत फलानुबन्धात् ।" अर्थात् पूर्वकर्मानुसार यह शरीर धारण करता है। इनका कहना हैं कि शरीर के साथ सम्बन्ध होने पर भी आत्मा का विभुपना बना रहता हूँ । यहाँ विमुका अर्थ सर्वव्यापक नहीं हैं । नैया Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यिक आत्माको जड़ पदार्थों में व्यापक नहीं मानते। अतः यहां प्रश्न होता है कि जीव एक हैं या अनेक इसका उत्तर ये लोग देसे हैं कि "जोवस्तु प्रतिशरीरं भिन्नः।" अर्थात्- प्रत्येक शरीरका जीव भिन्न भिन्न है । सूत्रकारने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान ये अात्माके चिह्न बत. लाए हैं। ये सब गुण औपाधिक हैं, अात्मा स्वभावसे न चैतन्य म ज्ञानवान् । अतः इन औपाधिक गुणोंके नाश होनेका नाम ही इनके मत में मुक्ति है। श्री हर्षने, नैषधमें लिखा है कि मुक्तये या शिलास्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । गौतमस्त्वर्थ वत्येव यथानित्य स्तथैव सः ।। अर्थात्- मोक्षमें जीवोंको पत्थर मनाने के लिए जिसने न्याय शास्त्र बनाया है. वह नामसे ही गोतम नहीं है । अर्थात् यह गोनम नाम उसका सार्थक है। अतः यह सिद्ध है कि न्याय दर्शनका आत्मा ईश्वर नहीं हो सकता ! तथा पाल्माके दो भेद (जीवात्मा और ईश्वर ) सूचकारने कहीं भी नहीं किये. यदि सूत्रकार की ईश्वरकी सिद्धि अभीष्ट होती तो अवश्य उसको प्रमेयोंमें लिखकर प्रमेय ५३ अनाते अथवा आरमाके ही दो भदों का जिकर करते । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः यह सिद्ध है कि मूत्रकार को ईश्वरकी मान्यता स्वीकार नहीं थी। (२) बुद्धि, सत्रकारने कहीं भी दो प्रकारकी बुद्धिका कथन नहीं किया है, किन्तु जब नवीन नैयायिकोंने ईश्वरकी कल्पना की तो बुद्धिको भी दो प्रकारका माना गया, एक अनित्य बुद्धि (ज्ञान) यह जीवात्माका है, तथा दूसरी नित्य बुद्धि, यह ईश्वर की है। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) न्याय और वेश षिक स में कहीं भी ईश्वरक गुणोंका कथन नहीं है । यदि ये दर्शन ईश्वरकी सत्ता मानते होते तो जिस प्रकार अन्य द्रव्यों सामान्य व विशेष गुणोंका कथन किया है इसी प्रकार ईश्वरके गुणोंका भी होना चाहिये था । वादके विद्वानोंने ईश्वरके पाठ गुण माने हैं। उनमें पांच सामान्य और तीन विशेष गुण । सामान्यगुण विशेषगुण (१) संख्या (१) बुद्धि (२) परिमाण (२) इझया (३) पृथक्त्व (३) प्रयत्न (४) संयोग (५) वियोग किन्तु सूत्रकारोंके मतमें ये तीनों ही विशेषगुण औपाधिक और नाशवान हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि सूत्रकार ईश्वरको नहीं मानते थे। () कारण और कार्य नैयायिकों ने तीन प्रकार के कारण माने हैं। एक समवायिकारण (२) असमवायिकारण [३) निमित्त कारण। इनमें समयायि कारण तो द्रव्य होता है. इसको हम उपादान कारण भी कह सकते हैं । तथा असमवायि कारण गुण औरकर्म होते हैं। अतः दोनों कारणों में से ईश्वर है महीं अब शेष रहजाता है निमित्त कारण, ईश्वरको जगतका निमित्तकारण ही माना जाता है। यह निमित्त कारण भी दो प्रकारका है एकमुख्य दूसरागौण । जैसे कुम्हार घटका मुख्यानिमित्तकारणहै तथा दण्डचक्र आदि गौण Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७३ ) कारणका लक्षण नैयायिकों के यहाँ है श्रन्यथा सिद्धिशून्यस्य, नियतापूर्वं चतिता । कारणत्वं भवेत्तस्य, त्रैविध्यं परिकीर्तितम् || अर्थात् अन्यथा सिद्ध न होकर कार्य से नियत पूर्ववर्ती हो वह कारण है, यहाँ अन्यथा सिद्ध भी समझ लेना चाहिये अन्यथा सिद्ध उसको कहते हैं जिसका कार्यके साथ साक्षात संबंध न हो। इसके पाँच भेद हैं इनमें तीसरा अन्यथा सिद्ध विभु Ara career माना गया है। जैसे आकाश, काल, दिग आदि. ये कार्य के लिये कारण नहीं मानेजाते क्योंकि ये विभु और नित्य होनेसे सम्पूर्ण कार्यों के साथ इनका समान संबंध है। अतः ये मुख्य कारण नहीं माने जाते । कर्मफल प्राप्ति के लिये वैदिक दर्शनका पूर्व अथवा अष्ट को कारण मानते थे जैसाकि मीमांसाने अपूर्व और वैशेषिकने माना है, दोनोंका अर्थ एक ही है। अतः उसी अपूर्वको न्याय में ईश्वर कहा गया है। यही प्राचीन भारतीय दार्शनिकोंकी मान्यता थी । अथवा हो सकता है न्याय दर्शनकी रचना के समय अपूर्व के स्थान में ईश्वर की कल्पना अंकुरित हो गई हो और उसीका उन्होंने उल्लेख कर दिया हो। जो कुछ भी हो यह स्पष्ट है कि उस समय तक भी ईश्वरको सृष्टिकर्ताका स्थान प्राप्त नहीं हुआ था | यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त हैं । तथा यह भी सिद्ध है कि उस समय तक 'अपूर्व श्रष्ट और ईश्वर से एकार्थ वाचक शब्द थे । इनका अर्थ या कर्मफल प्रादादशक्ति । न कि द्रव्य विशेष । उसके पश्चात् इसी शक्तिको जो कि जड़ थी, एक चैतन्य द्रव्यका रूप दिया गया है। यह कार्य सूत्र 1 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¦ ( ५७४ ) ग्रन्थोकी रचना बहुत काल पश्चात पंडितोंने किया है । परन्तु वात्स्यायन भाष्यके अनुसार जिसका प्रमाण हम इसी प्रकरण में दे चुके हैं। मुक्तात्मा का नाम ही ईश्वर है। जो कि हमें अभी है ही । तथा च. "ईश्वरः कारणम्" यह सूत्र पूर्व पक्षका है इसका उत्तर सूत्रकारने दिया है कि रेटको फलदाता माना जाएगा तो बिना कर्मके भी फलकी प्राप्ति होगी। क्योंकि ईश्वरवादियों के मतभ Farst rara क्रिया आदि नित्य है। अतः जीवको नित्य ही फल मिलना चाहिए I यह उत्तर अत्यन्त सारगर्भित है । इसका भाव है कि ईश्वरकी इच्छा आदिको नित्य मानोगे तब तो बिना कर्म के फल प्राप्त हो सकेगा। और यदि उसकी इच्छा क्रिया आदिको क्षणिक मानोगे तो ईश्वर विकारी व परिणमन शील हो जायेगा । पुनः वह साधारण जी की तरह जीव ही सिद्ध होगा । अतः ईश्वर कर्मफल दाता नहीं है, यदि ईश्वरवादी कहे कि "तत्कारित्वात" अर्थात् ईश्वर ही कर्म कराता है, तो यह "हेतु" तो दुष्ट हेतु है । क्योंकि ईश्वर तो कर्म कराये और उसका फल विचारे जीव भोगें यह कहांका न्याय है। अतः गौतम मुनि कहते हैं कि free fea नहीं हो सकती। यदि इस सूत्रका उपरोक्त अर्थ न किया जाये तो ईश्वर अन्यायी, कर. अत्याचारी सिद्ध होगा। क्योंकि वह परतन्त्र जीवोंको व्यर्थं ही फल देता है। जब ईश्वर कर्म कराता है। तो फल भी उसी करानेवाले ईश्वरको मिलाना चाहिये। वास्तिकवाद" कारने इस सूत्र का विल्कुल विपरीत अर्थ किया है। उस पर कर्म फल प्रकरण में विचार करेंगे। ܦ vu ܽ P Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक और नास्तिक ( लेखक-श्रीगोपाल शास्त्री, दर्शनकेसरी, काशी विद्या पीठ) संस्कृतवाङ्मयके परिशीलनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राचीन समयमें ईश्वर मानने या न मानने वालों के लिये आस्तिक नास्तिक शब्दका प्रयोग नहीं था क्योंकि ईश्वर शब्दका प्रयोग परमेश्वर-अर्थमें इधर आकर बहुत अर्वाचीन समय से संस्कृत साहित्यमें प्रयुक्त पाया जाता है। यद्यपि यह इतिहासका विषय है तथापि इतना यहां कह देना अप्रासङ्गिक न होगा कि पौराणिक कालमें आकर शैव सिद्धान्त में शिबके लिये जो ईश्वर शब्दका प्रयोग था वही पौराणिक काल के बाद इधर आकर शैव धर्म द्वारा भारतीय संस्कृतमें प्रविष्ट हो गया है. मानैः पनगावः अर्थ में भी वन प्रालित दो गया है, अब कोई ऐसी पुस्तक नहीं जिसमें ईश्रर शब्दसे परमेश्वरका अर्थ न लिया गया हो । इसकी पुष्टी के लिये थोड़ेसे प्रमाणीका संग्रह करना उचित प्रतीत होता है। पाणिनीय व्याकरणका सूत्र है "अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः" उससे अस्ति-नास्ति शब्द सिद्धहोते हैं उसके टीका कारोंने-- 'अस्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः १ तथा 'नास्ति परलोक इत्येवं पतिर्यस्य स नास्तिक' । अर्थान् जो परलोक माने वह 'आस्तिक' और जो न माने वह 'मास्तिक' नकि जो ईश्वरको माने वह 'बास्तिक' और जो न माने वह 'नास्तिक। ऐसा ही अर्थ दार्शनिक दृष्टि वालों के अतिरिक्त सर्व साधारण जनताके लिये वेद-कालमें भी प्रसिद्ध था । यह कठोप Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६ ) निघदमे प्रतीत होता है जब नचिकेता यमसे तीसरा वर मांगता है तब यही कहता है कि - "येयं प्रतेविचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तितिचेंके। एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥" अर्थान्–मरनेके पश्चात् आत्मा रहता है, ऐसा एक आस्तिक पक्ष वाले कहते हैं. नहीं रहता है ऐसा दूसरे नास्तिक पक्षवाले कहते हैं। हे यमराज? मैं आपके द्वारा अनुशासित होकर यह जान जाऊं कि इन पक्षों में कौन पक्ष ठीक है ग्रही उन वरोम से तीसरा वर हैं " इत्यादि । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वैदिक काल में परलोक मानना न मानना ही आस्तिक नास्तिकका व्यावहारिक अर्थ था। मनुने नो वेदकी निन्दा करने बालेको नास्तिक कहा है। (नास्तिको वेदनिन्दक:) औरभी, पाणिनीय सूत्रोंमें ईश्वर शब्दका प्रयोग -'अधिरीश्वरे १४६७ स्वामीश्वराधिपतिः २।३।२६.यस्मादधिकं यस्यचेश्वर वचनं तत्रसप्तमी २६।६। ईश्वरतोसुनकसुनौ ३।४ १३ तस्येश्वरः ६।११४२ इत्यादि सूबोंके उदाहरणों में ईश्वर शब्द स्वामी अर्थमें ही प्रयुक्त होता है। पतंजलीके उदाहरणों में ईश्वरका अर्थ राजाभी पाया जाता है जैसे--- 'तत्यया लोक ईश्वर आज्ञापयति प्रामादस्मान्मनुष्या अानीयन्तामिति । राजा आज्ञा देता है कि इस गोवसे मनुध्योंको ले जाओइत्यादि उदाहरणासे ईश्वर शब्दका राजा अर्थ होता है। इस अवस्थामें ईश्वर शब्दके परमेश्वर अर्थमें प्रयुक्त होनेसे पहले ही दर्शन सिद्धान्तोंके अाविष्कता दार्शनिकों की इष्टिमें ईश्वर Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७७ ) मानने वाला प्रास्तिक और उसका न मानने वाला नास्तिक,यह अर्थ हो सकता है। ऐसा कैसे कहा जा सकता है. जब उसकी उत्पत्ति एवं स्थिति ईश्वर मानने वाले आस्तिक और नास्तिक' इस भावमें श्रास्तिक-नास्तिक शब्दोंके प्रयुक्त होने के पहले ही सिद्ध हो चुकी है। इसी कारण झात होता है कि वैशेषिक ( कणाद ) सांख्य (कपिल और पूर्व मीमांसक (जैमिनि)ने अपने २ दर्शनी में ईश्वरका उल्लेख तक नहीं किया । नैयायिक गौतमने तथा योगी पतंजलिने क्रमशः "प्रसारण पुरुष ऋफिल्य दर्शना "क्क श कर्म विपाकाशयरपरामृष्टः पुरुष बिशेष ईश्वर!" इस तरह आनुषङ्गिक ईश्वर शब्दका प्रसङ्ग उठाया है। इन मुत्रोंमें परमेश्वरार्थक ईश्वर शब्दके प्रयोगसे इसकी पाणिनिसे प्राचीनता मी विचारणीय है तथा महाभाष्यकार पतञ्जलि और योग सूत्रकार पतञ्चखिकी अभिन्नता भी विचारणीय है। ___व्यासजी के ब्रह्मसूत्रोंमें तो नहीं. किन्तु उनकी श्रीमद्भगवद्गीतामें ईश्वर शब्दको प्रयोग कहीं गजा अर्थ में, कहीं परमेश्वरमें दोनों तरहका पाया जाता है जैसे "ईश्वरोऽहमह भोगीसिद्धोऽहं बलवान्सुखी" यहां ( मालिक ) राजा अर्थ में--- "ईश्वरः सर्व भूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति" यहां परमेश्वर अर्थम. यह विचारणीय है । वस्तुतः देखा जाय तो इसके सिद्धान्तोंमें ईश्वर कुछ आवश्यक वस्तु नहीं दीखता। करणादने अपने ब्लः पदार्थोंके झानसे Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७५ ) धर्म विशेषताद् द्रव्यगुण कर्म सामान्य विशेषप्रसूताद् द्रव्यगुण कर्म सामान्य विशेष समवायानां पदार्थानां साधर्म्य वै धम्यां तत्वज्ञानाभिः श्रेयसाधिगमः" (१।१।४० ) इस सूत्र से मुक्ति की प्राप्ति बतलाई है - ( इस सूत्र में अभाव नामक सप्तम पदार्थका उल्लेख नहीं है) और गौतमने अपने सोलह पदार्थोंके तत्वज्ञानसे "प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डा हेत्वाभास च्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वानान्निः श्रेयसाधिगमः” (१|१|१) इस सूत्रद्वारा मुक्तिक' उपाय बतलाया कपिलने प्रकृति पुरुष के भेदज्ञान से "दानुविकः सहा विशुद्धयातिशय युक्तः तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् " (का० २) तथा पतञ्जलि ने भी चित्तवृत्तिनिरोध " योगश्चित्त वृत्ति निरोधः " 'तदा द्रष्टुस्वरूपेऽवस्थानम् ' (१।३) आदि से मोक्ष प्राप्ति बतलाई है। इसी प्रकार जैमिनिने धर्मानुष्टान से नित्यसुख रूपी मोक्षकी सत्ता मानी है । ईश्वरका पूरा उपयोग तो इन दार्शनिकों के सिद्धान्तों में श्राता ही नहीं । आगे चलकर भाष्यकारों तथा अन्यान्य टीकाकारोंके साथ ही अन्यान्य अंधकारों (न्याय कुसुमाञ्जलिकार ईश्वरानुमान चिन्तामणिकार ने वैशेषिक और न्यायदर्शनमें ईश्वरका प्रवेश प्रस्थवतः कर दिया है, किन्तु मीमांसा और सांख्यमें तो आगे चलकर भी किसी ग्रन्थ में प्रत्यक्ष ईश्वर-सिद्धि का उल्लेख नहीं है । : Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - यहां एक बात विचारणीय प्रतीत होती है। वैशेषिक और सांख्यमें शङ्कराचार्यसे पहले ही कोई कोई दार्शनिक ईश्वरको निमित्त कारण मानकर इनके सिद्धान्तों में भी ईश्वरका प्रवेश करा चुके थे, क्योंकि वेदान्तसूत्रके मूल सूत्रों में जहां सांख्य और वंशेषिक मतके 'रचनानुपपत्तेश्च ( २।२।१ ) इत्यादि सूत्रों द्वारा प्रधान और परमाणु स्वाभाविक प्रवृत्ति मानने वालोंका खंडन है वहां प्रधान कारणवादी और परमाणु कारण वाही की ही हैसियतसे जगतका कारण केवल प्रधान (प्रकृति) जड़ नहीं हो सकता । उनमें ये दोष है, इत्यादि बालें विखाई गई हैं। और उन सूत्रों से किसी भी प्रकार यह सिद्ध नहीं हो सकता कि सांख्य और वैशेषिक सिद्धान्तोंमें भी ईश्वरका प्रवेश है। परन्तु, आगे चलकर, बौद्धमतोंके खंडन कर देने पर भी पशुपति ( माहेश्वर दर्शन ) मतके खंडनमें ___ 'पत्युरसामञ्जस्यात् सूत्र पर शङ्कराचार्यजी भाष्य करते हुए कहते हैं केचित्तावत्सांख्ययोगान्ययाश्रयात कल्पयन्ति प्रधानपुरुपयोः अधिष्ठाता केवलं निमित्तकारणमीश्वरः इतरेतर विलक्षणाः प्रधान पुरुषेश्वरा इति तथा वैशेषिकादयोषिकेचित् कथञ्चित्स्वप्रक्रियानुसारेण निमित्त कारण ईश्वर इति वर्णयन्ति अर्थान कोई कोई सांख्य योग सिद्धान्तका श्राश्रय लेकर प्रधान पुरुषसे विलक्षण उनका अधिष्ठाता जगतका केवल निमित्त Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - कारण ईश्वर मानते हैं और कोई २ वैशेषिक प्रक्रियाके अनुयायी भी अपनी प्रक्रियाके अनुसार ईश्वरको जगतका निमित्त कारण मानते हैं इत्यादि" इससे इतना सो स्पष्ट है कि सांख्य और धैशेधिक प्रक्रियाके मूल में ईश्वरका स्वीकार नहीं था। . इतना होने पर भी, श्रागे आकर कुछ लोगोंने ईश्वरका प्रवेश उनमें करा दिया है। ऐसे ही, मीमांसकों में भी कुछ लोगों ने मीमांसा में यह कहकर ईश्वरका प्रवेश कर दिया है कि कर्मोको ईश्वरको समर्पित कर देनेसे मुक्ति हो जाती है'इत्यादि-- ___ 'सोऽयं धोयदुद्दिश्य निहित दोग शिया दे॒तुः श्रीगोविन्दाणबुद्ध्या क्रियमाणस्तु निःश्रेयसहेतुः । (न्यायप्रकाश, पृष्ठ २६७) अस्तु । ___ जो कुछ हो, पर मेरी दृष्टिमें, इन दर्शनोंके प्राधीन वेद-संहिता के यम, सूर्य, प्रजापति, अग्नि और पुरुष तथा उपनिषद्के ब्रह्म, पुराणके ईश्वर, वर्तमान समयके ईश्वर. परमेश्वर, अल्लाह. खुदा म रहें तो कुछ बिगड़ता नहीं. क्योंकि वेदान्त-दर्शन ,जिसके आगे इन सभी दर्शनोंके सिद्धान्त पीछे पड़ जाते हैं) तो ब्रह्म, पुरुप ईश्वर चाहे जो भी कहिए सभीकी सिद्धिके लिये कमर कस कर ही बैठा है । संस्कृन दर्शनों में प्रस्थानत्रयींकी जो प्रथा है, उसका ध्यान न रहनेसे ही ये सब विवाद खड़े होते हैं । वस्तुतः भारतीय दर्शनोंमें दार्शनिकोंने 'शाखारुन्धती न्याय' से अपने अपने विचारोंको व्यक्त किया है, मूल सिद्धान्त में किसीका किसीस भी विरोध नहीं है। जिमकी दधि (दर्शन) में जो वस्तु अवश्त्र प्राप्त थी उसने उसकी अपना की और उसीको प्रधानला दी। अन्यान्य पदार्थोंको उसने अभ्युपगमवादसे अपने दर्शनके विषयों में गौण मानकर स्वीकार या खंडन किया है । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह पदार्थ सर्वथा मान्य नहीं है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) इसका आशय केवल यही होता है कि उस दर्शनके सिद्धान्त में उस पदार्थकी आवश्यकता नहीं है. क्योंकि संस्कृत शास्त्रोंको 'यत्परः शब्दः स शब्दार्थःहीकी शैली मानी गई है । यही बात विज्ञान भिन्तुने भी अपने सांख्य प्रवचनकी भूमिकायें कहीं है__नम्मादास्तिकदर्शनेए न कस्याप्यप्रामाण्यं विरोधो वा स्वस्त्रविषयेषु सर्वेषाम्बाधत अविरोधा" अर्थान्-श्रास्तिक दर्शनों में अपने अपने विषयोंमें बाधाभात्र और अविरोध होने के कारण किसी में भी अप्रमाण्य और विरोध नहीं है। तभी तो जैमिनिकी खास पूर्व मीमांसामें ईश्वरका उल्लेख नहीं है, बल्कि मीमांजक लोग तो किमन्तर्गडुना ईश्वरेण' कह कर ईश्वरका खंडन ही करते हैं। उनके विषयमें कर्मेति मीमांसका:ऐसी ही प्रसिद्धि है । हरि भद्रसूरिने भी पडदर्शन समुन्वयमें पूर्व मीमांसकोंको निरीश्वर वादी ही बताया है। जैसे--- "जैमिनीयाः पुनः प्राहुः सर्वज्ञादि विशेषणः । देवो न विद्यते कोपि यम्यमानं वचो भवेत् ॥" __अर्थान्-जैमनीय मतके मानने वाले मीमांसक कहते हैं कि सर्वन, विभु नित्य इत्यादि विशेषणों वाला कोई देव (ईश्वर) तो है नहीं जिसका बचन प्रसाण मान लें । कुमारिल भट्टने भी कहा है कि"अथापि बेदहेतुत्वाद् ब्रह्मविष्णु महेश्वराः । कामं भवन्तु सर्वज्ञाः सार्वज्ञं मानुषस्य किम् ।।" वेदकी रचना करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर सर्वज्ञ भले माने जाण: परन्तु मनुष्यकी सर्वज्ञता किस कामकी है । पर वेदान्त सूत्र में वादरायणाचार्य (व्यास) ने ईश्वर शब्दसे तो Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५८२ । नहीं किन्तु दूसरे शब्दोंसे उस विषयके जैमिनि महर्षिके विचारोंको पूरा पूरा व्यक्त किया है। देखिये निम्नांकित सूत्रोंका शाङ्करभाष्य "सनादप्यविरोधम्" जैमिनिः (१।२।२६) "सम्पत्तेरिति जैमिनिस्तथाहि दर्शयति" (श२०३१) "अन्यार्थन्तु जैपिनिप्रश्नव्याख्यानाभ्यामपिचके ।” (१।४।१८) "परं जैपिनिर्मुख्यत्वाद" (४।३।१२) "ब्राह्मण जैमिनिरूपन्यासादिभ्यः" (४५) इत्यादि इत्यादि ऊपर कहा हो गया है कि प्राचीन समयमें ईश्वर मानने या न माननेसे आस्तिक-नास्तिक नहीं कहे जाते थे. किन्तु परलोक (पुनर्जन्म) मानने न माननेके कारण प्रास्तिक-नास्तिक शब्दका प्रयोग होता था ! जैसा ऊपर पाणिनी सूत्र (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः)केटीकाकारों की व्याख्पामें तथा कठोपनिषद् के मन्त्रों द्वारा दिखाया गया है, और स्मृति कालमें वेद मानने न माननेके कारण भी प्रास्तिक और नास्तिक शब्दका व्यवहार थार-ऐसा दिखाया गया है। पर दार्शनिक परिभाषामें तो असद्वादी और सवादी को ही उससे नास्तिक और आस्तिक कहनेकी प्रथा प्रतीत होती है जैसा उपर्युक्त पाणिनी सुत्रका यदि केवल सूत्रार्थ लिया जाय तो. अर्थ होगा कि जो 'अस्ति'-~सवादको माने वह आस्तिक और जो नास्ति'-अलद्वादको माने वह नास्तिक कहा जाता है : छान्दोग्य श्रुतिने भी कहा है। "सदेव सोम्येदमग्र अमीदेकमेवा द्वितीयम्" "तद्ध्येक ग्राहुरसदेवेदमग्रामीदे कमेवाद्वितीयम्' "तस्मादसतरसज्जायते इनि" ( छा० ६२११) Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८३ ) अर्थात्-उत्पत्तिसे पहले यह संसार एक अद्वितीय सदूप (आस्ति रूप) में था उसीको एक प्राचार्य कहते हैं कि यह संसार उत्पत्तिसे पहले असत् (नास्ति) रूपमें था, इसलिये असतसे सा (अभावसे भाव) होता है । इस कार अमित मोलको मारिन कहा है जो संसारके मूल कारण सप्तको स्वीकार करता है। और जो असत् (अभाव-शून्य) से उत्पन्न मानता है उसको नास्तिक कहा है । गीतामें यही इस प्रकार कहा गया है "असत्यम प्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्पर संम्भूतं किमन्यत्काम हेतुकम ॥" इस नियमसे तो सिया बौद्ध दर्शनके अन्य सभी दर्शन जो अस्तिवादी (भावसे संसारकी उत्पत्ति मानने वाले हैं) आस्तिक कहे जा सकते है. क्योंकि चार्वाक दर्शन भी चार पदार्थोकी सत्ता (आस्तिकत्व) से ही सारे जगत् (जड़-चेतन) का परिणाम मानता है। __ शंकराचार्य ने भी अपने उपनिषद्भाष्य तथा शारीरिकभाध्यम श्रास्तिक और नास्तिक शब्दका ऐसा ही अर्थ किया है। वे नास्तिक, नासिक इत्यादि शब्दोंसे बौद्धोका आहान करते हैं, क्योंकि ये ही लोग उत्पत्तिसे पहले जगत्का प्रभाव मानते हैं "तथाहि एके वैनाशिका आहुः वस्तुनिरुप यन्तोऽ. सत्सद्भावमानं + + सद्भावमात्र प्रागुत्पत्तेस्तत्वं कथयन्ति चौद्धाः ( छा० ६.११ ) सोऽर्द्ध वैनाशिक इति वैनाशिकत्वस्यसाम्यात्सर्ववैनामिकत्वसाम्यात् सर्ववैनाशिकराद्धान्तो नितरामुपेक्षि तव्य इति + + + तत्रैते त्रयो बादिनो भवन्ति केचित् सर्वास्तित्ववादिनः केचित् विज्ञानास्तित्त्व Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८४ ) मात्रवादिनः अन्ये पुनः सर्वशून्यत्व वादिनः (चे० ५० शा० भा० २ । २ । ३८ ) । वस्तुतः देखा जाय तो बौद्ध दार्शनिक भी नास्तिवादी नहीं हैं, क्योंकि उनके भेदोंमें जो क्षणिक विज्ञानवादी योगाचार क्षणिक aftaari Tarfer और वाह्यानुमेयत्ववादी सौत्रान्तिक के नाम से प्रसिद्ध है, वे तो अतिवादी ही हैं। एक जो सर्व शून्यत्ववादी माध्यमिक हैं उनके मत में भी शून्यताका अर्थ अभाव नहीं माना गया है । किन्तु पदार्थके स्वतन्त्र स्वरूपका अभाव माना गया है। जैसे— " तस्मादिह प्रतीत्यसमुत्पन्नस्य स्वतन्त्रस्य स्वरूपविरतात् स्वतन्त्रस्य रूपरहितोऽर्थः शून्यतार्थ : " - "न सर्वाभावाभावोऽर्थः ++ तस्मादिह प्रतीत्यसमुत्पन्नं मायावत्" (आर्यदेव, चतुर्थशतक १४३७कारिकाकी चन्द्र कीर्तिव्याख्या) अर्थात् -" इसके लिये यहां प्रतीति मात्र से उत्पन्न पदार्थोंका स्वतन्त्र कोई स्वरूप न रहनेके कारण शून्यताका अर्थ है वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव, न कि सब भावोंका अभाव | इस कारण यहां प्रतीति मात्र तक उत्पन्न होकर रहने वाले पदार्थोंको मायाके समान समझना चाहिये, यह चन्द्रकीर्तिकी व्याख्याका तात्पर्य है । तभी तो अमरसिंह अपने अमरकोष में युद्धदेव के नामोंमें अद्वय वादी' भी एक नाम लिया है। इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध भी एक प्रकार के अद्वैतवादी" ही हैं. अन्तर केवल इतना ही है कि वे वेद या वेदान्त नहीं मानते जिससे स्मृति कालीन नास्तिको वेद निन्दकः नियमानुसार वे नास्तिक ठहरते हैं । इसी प्रकार चार्वाक और जैन भी वेदकी निन्दा करने के ही कारण पंडित समाज में नास्तिक शब्दसे प्रसिद्ध होगये हैं । परन्तु Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ( ५८५ ) यदि उपनिषद् और पाणिनि सूत्रके टीकाकारोंके मतानुसार तथा वेदकालीन सर्व साधारण में प्रसिद्ध पुनर्जन्म' को मानना न मानना ही 'आस्तिक नास्तिक' शब्दका अर्थ लिया जाय तो बौद्ध भी परम आस्तिक सिद्ध होते हैं । उनके सिद्धांतोंमें तो पुनर्जन्मकी ast मर्यादा है स्वयं बुद्धदेवने अपने अनेक जन्मोंकी पिछले घट ओका वर्णन किया है। जिनका उल्लेख ललितविस्तर बौधिचर्या. बौधिसत्वावदान कल्पलता प्रभृतियौद्ध ग्रन्थों में विस्तृत रूप से हैं, बौद्ध सम्प्रदाय में बुद्ध हो जाने वाले जीवोंकी पूर्वजन्म की अवस्थाको बोधिसत्वावस्था कहते हैं और उस बुद्ध जीवको पूर्व जन्ममें बोधिसत्व कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि बौद्ध सम्प्रदाय में पुर्वजन्म समय है। सरक्षित तत्र संग्रह से यह पता चलता है कि वेदी निमित्त शाखा में बुद्धदेवको सर्वज्ञ माना है इस शाखा को कुछ बौद्ध प्रामाण्य मानते थे । इससे यह सिद्ध है । कि वेदको प्रामाएय मानने वाले बौद्ध भो थे । जैसा लिखा पाया जाता है "किन्तु वेदप्रमाणत्वं यदि युष्माभिरिष्यते । तत् किं भगवतो मूढैः सर्वशत्वं न गम्यते" "निमित्तनाम्नि सर्वज्ञो भगवान मुनिसत्तमः । शाखान्तरेपि विष्पष्टं मुध्यते ब्राह्मणेर्बुधैः ।" अर्थात्-यदि बेदको प्रमाण मानना आपको अभीष्ट है तो हे मूर्खो, भगवान (बुद्ध) का सर्वशत्व क्यों नहीं मानते ? निमित्त नामकी दूसरी वेदशाखा में ब्राह्मण-पंडितों के द्वारा भगवान सर्वज्ञ कहा गया है जो स्पष्ट है अर्थात् अब वे प्रामाण्य मानने पर भी सर्वज्ञत्व स्वीकार क्यों नहीं करते ? इत्यादि इसी प्रकार जैन दर्शन भी आस्तिक दर्शन सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उस दर्शनमें भी पुनर्जन्म एवं नाना योनिप्रभृति बातें मानी Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई हैं : हरिभद्र सूरिने भी इसी अर्थको मान कर बौद्ध, जैन. नांख्य, नयायिक, वैशेषिक और पूर्व मीमांसकोंको आस्तिक कह हर सम्बोधित किया है "एवमेवास्तिकवादानां वृतं संक्षेप कीर्तनम्" "आस्तिकबादानां परलोकमति पुण्यपायास्तित्ववादिनां, बौद्धनैयायिक-सांख्य-जैन-वैशेषिक जैमिनिनानां संक्षेपकीर्तनम् कृत इति मणिभद्रकृतविकृतिः।" अर्थान---"प्रास्तिकवाद वे हैं जिनमें परलोक के लिये पाप पाप पुण्यको सत्ता मानी जाती है, जैसे बौद्ध . नैयायिक, सांख्य (कपिल) जैन वैशेषिक जैमिनीय (पूर्व मीमांसक) आदि उनवादों का मैंने संक्षेपसे वर्णन किया है ।" हरिभद्र सू रिकृत पछदर्शन समुच्चयकी ७-७ वीं कारिका पर मणिभद्र सूरिकी व्याख्या । ___पहले कहे हुए स्मृति कालोन अर्थमें (अर्थान् वेद-विरोधीको नास्तिक कहते हैं। श्रथया इसी अर्थके आधार पर चार्वाक , जैन, और बौद्ध भले ही नास्तिक कहे जायें, किन्तु वर्तमान कालिक पौराणिक मतके ईश्वर न मानने पालेको नास्तिक कहनेके अर्थके आधार पर तो वौद्ध. चावाक , जैन, कणाद, गौतम. सांख्यकार कपिल, और मीमांसक जैमिनि. सभी नास्तिक कहे जा सकते हैं। इसलिये कणादि प्रभूति छ: आस्तिक नामसे कहे जाने वाले दार्शनिक पुनजन्म माननेके कारण और वेद माननेके कारण श्रास्तिक शब्दसे पुकारे जाते हैं न कि ईश्वर माननेके कारण। यहां इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि इन छः दार्शनिकों में वस्तुतः दो ही दार्शनिक वैदिक है. शेष चार तो तार्किकदार्शनिक कहे जाते हैं उनका तो पैदिक दार्शनिकों में प्रवेश ही Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है? इस बातको बड़े गर्वसे शङ्कराचार्यजीने द्वितीय अध्याय के तर्कवादके ग्यारहवें और बारहवें सूत्रके भाष्यमें "न हि प्रधानवादी सर्वेषां ताकिंकाणांमध्ये उत्तम इति सर्वस्तार्किको परिगृहीतः बेनतदीयं मत सम्यग्ज्ञान मिति प्रति यद्यमहि". "वैदिकस्य दर्शनस्य प्रत्यासन्नत्वाद् गुरुतर्क विलेपत्वात" सभी नैयायिक तार्किक दार्शनिकोंमें प्रधानवादी ही उत्तमतार्किक है. ऐसा सभी तार्किकों ने मिलकर उसे सर्टिफिकेट नहीं दिया है। जिमसे हम वैदिक दार्शनिक ऐसा मान लें कि उसका कथन अच्छा है। सांख्यदान नैनिकके बहुत बळ माम मारता है। और बड़ी युक्तियों के बल पर वह खड़ा होता है इसीसे हमने उसे पूर्व पक्षियोंमें प्रधान स्थान दिया है इत्यादि । वाक्यों द्वारा, जहां कहीं भी मौका मिला है सभी दार्शनिकों को वैदिक श्रेणीसे बाहर निकाल करनेका ही प्रयत्न किया है । ये नैयायिक प्रभृति भी अपने अपने दर्शनको तर्क कसौटीपर अधिक कसनेका प्रयत्न करते हैं । हां जहां कहीं अबसर पाकर श्रुतिके अर्थीको केवल अपने मतके समर्थनमें खींच-खींचकर लगा देते हैं। ये दाशनिक सर्वदा श्रुति के आधीन नहीं चलते । सो भी आगेके टीकाकारोंकी ये बातें हैं, मूल सूत्रकारों के विषयमें तो ऊपर कहाही गया है कि ये लोग प्रस्थान-भेदसे 'शास्त्रा-रुन्धती' न्यायके अनुसार वेदके दार्शनिक अंगके एक एक पहलू लेकर अपने दर्शनोंका उपन्यास करते हैं। असे नैयायिक और वैशेषिक दोनों मिलकर आरम्भवावका, कपिल और पतञ्जलि परिणामवादका, चारों बौद्ध संघातवादका एवं वेदान्ती विवर्तवादका Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८८ ) ( यथा - हि आरम्भवादः कणभक्षवतः सांख्यादि पक्षः परिणामवादः | संघातवादस्तु भदन्तपक्षः, वेदान्त पक्षस्तु त्रिवर्तवादः - सर्वमुनिका संक्षेप शारीरिक ) | सर्वथावेद के दार्शनिक सिद्धान्तोंको व्यक्त करनेके लिये तां व्यास ही अग्रसर माने गये हैं। बल्कि देखा जाय तो 'reraigaon ' 'ह्यविशुद्धि तयाति शययुक्तः' इत्यादि युक्तियों से सांख्य वाले तोहके हेतुओं का भी तिरस्कार ही करते हैं। ऐसा ही 'वैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवाजुन' व्यासजी ने भी कहा है कि इन दोनों स्थानोंपर आनुश्रविक' और 'वेद' शब्दोंके अर्थ में संकोच करके क्रमशः कर्म कांडान्तर्गत वैदिक तथा कर्मकाण्ड मात्र वेदके लिये कहा गया है, ऐसा आधुनिक विद्वान अर्थ करते हैं। पर वेद पर एक प्रकारसे प्रहार तो हुआ हीं चाहे उसके किसी एक अंग परी हुआ तो क्या श्रस्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि सभी दार्शनिक वेदके अक्षरशः पोषक नहीं हैं। कुछ लोग तो बेत्रको केवल अपने तर्ककी पुष्टिके लिये मान लेते हैं। चार्वाक के ऐसा — 'यो वेदस्य कर्त्ता माडर्त निशाचराः' कहकर दिल्लगी नहीं उड़ाते यहीं उनकी विशेषता है। इन : दार्शनिकों में केबल वादरायणाचार्य और अमिनि है जो वेद मन्त्र पुष्पों में अपने सूत्रोको पिरोकर वैदिकाचार्यकी एक अच्छी सुव्यवस्थित मालाके रूपमें अपने दर्शनोंको उपस्थित करते हैं। यह दूसरी बात है कि बेकी ऋचाओं पर इन सभी दार्शनिकों का मन अवलम्बित हैं जैसे— Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८६ "द्यावा भूमिजनयन् देव एक भास्ते विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता" इस पर आधुनिक नैयायिकोंका कारणवाद अवलम्बित है। "अजामेका लोहित शुक्लकृष्णां बहीः प्रजाः मृजमानो मरूपाः अजोंधषो जुषमाणोऽनुशेते जहात्येना मुक्तभोगा मजोन्य। इस पर कपिलका प्रकृति-पुरुषवाद इत्यादि । इसका कारण तो बेदकी ध्यापकता है ( न कि इन दार्शनिकों का चेद मान लेना) जैसा-सदानन्दने अपने वेदान्तसारमें चार्वाक सिद्धान्तको भी..... "सवाएषपुरुषोन्नरसमय:"-"तमेवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति' इत्यादि ऋचाओंका उद्धरण करके चैदिक सिद्ध कर दिया। इससे यह तो नहीं कहा जा सकता कि चार्वाक-सिद्धान्त भी वैदिक है । उसो प्रकार व्यास और जैमिनिके अतिरिक्त सभी वैशेषिक प्रभृति दार्शनिक केवल तार्किक हैं, इन्हें वैदिक दार्शनिक नहीं कह सकते तथापि ये लोग आस्तिक दर्शनकार कहे जाते हैं। इसका कारण मेरी दृष्टि में तो यही ज्ञात होता है कि वेद उपनिषद् स्मृति पुराणादि संस्कृत के समस्त वामय-महार्णवमें प्रोत-प्रोत एवं भारतीय संस्कृनिका मेरुदण्ड पुनर्जन्मवाद या परलोक मानने के कारण ही ये सभी चार्शनिक आस्तिक कहे गये हैं और कई जाने चाहिए । इस परिभाषामें केवल चार्वाक महाशयको छोड़ कर जो लोकायत (लोकै; आयतः विस्तृतः) नामसे प्रसिद्ध होकर साधारण जनताके प्राथमिक अज्ञान-कालिक भावको व्यक्त करने Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) मात्र के लिए अन्यान्य दर्शनोंके पूर्व पक्षी रूपमें प्रतिनिधि माने गये हैं। भारतीय संस्कृति में स्वरूपतः सम्प्रदाय रूपमें जिनकी कहीं सत्ता नहीं है जिनका कोई सूत्र ग्रन्थ भी नहीं है. पुराणों में जिनके दर्शनके प्रचारका कारण भी निन्दित ही बताया गया है-अन्य सभी बौद्ध तथा जैन दार्शनिक भी आस्तिक कोटिसें आ जाते हैं । परस्पर एक दूसरे को नास्तिक कहना तो भारतकी पराश्रीनावस्था में फैला है। भूतकाल के विद्वानोंमें परस्पर मतभेद होत हुए भी इस तरह गैर नहीं चलता था जैसा कि इरके कानों में होने लगा है। देखिये बौद्धोंकी ओर से व्यङ्ग-योक्ति है "वेदे माग कस्य चित्कतृ वादः स्नाने धर्मेच्या जातिवादावलेपः। सन्ताने हा पापहानायचेति ध्वस्तप्रज्ञानां 1 पञ्चचिह्नानि जाड्ये ।" अर्थात् वेदकी प्रमाणता, किसीको— ईश्वरको कर्त्तामानना जातिवादका गर्न पापका प्रायश्चित इत्यादि मूखोंके लक्षण हैं। इस लेखक) निष्कर्ष यह है कि संक्षेपमें धास्तिक-नास्तिक शब्दों के अर्थ में चार प्रकार के विचार संस्कृत वाङ्गमय महार्णव में पाये गये हैं। वेद काल में, सर्व साधारण में, प्रसिद्ध अर्थ --- परलोक मानने बाला आस्तिक और न मानने वाला नास्तिक कहा जाता है । (२) दर्शनिकों में जो जगत्‌का कारण सन् (भाव) माना है. वह श्रास्तिक और जो असत् (अभाव) को जगत्‌का कारण मानता। है वह नास्तिक (प्रभाव वादी) वैनाशिक कहा जाता है। + (३) मनु आदि स्मृतिकाल में जो वेदको माने वह आस्तिक और जो न माने उसकी निन्दा करें वह नास्तिक कहा जाता है । (४) आज कल जो ईश्वर परमेश्वर, माने वह आस्तिक श्रीर जो न माने वह नास्तिक कहा जाता है । —— Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो संक्षेपमें आस्तिक-नास्तिक शझोंको समीक्षा, दार्शनिक पद्धतिसे विचार करने पर, वेदसे लेकर आधुनिक काल पर्यन्त संस्कृत वाङमय महावि द्वारा सिद्ध होती है । इत्यलमति प्रपञ्चे नेति विरम्यते । सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तुपाकश्चिदुःखभाग्भवेत् ॥ नास्तिक कौन है ? नास्तिक, काफिर, मिथ्यात्वी, आदि ऐसे शब्द हैं जिनका व्यवहार प्रत्येक सम्प्रदाय दूसरोंके लिये करता है। प्रत्येक भुसलमान ईसाई, हिन्दु यहूदी आदिको तो काफिर कहता ही है. अपितु गक मुसलमान दूसरे मुसलमानको भी काफिर कहता है, यथा शिया सुन्नियोंको काफिर कहते हैं और सुन्नी शिया लोगोंको। इसीप्रकार कादियानियोंको भी काफिर कहा जाता है। इसी प्रकार मिथ्यात्वी शब्दकी अवस्था है। नास्तिक शब्दका भी विचित्र हाल है । सब सनातनी श्रार्य समाज च स्वामी दयानन्दजीको नास्तिक कहते है तथा आर्य समाज सबको नास्तिक कहता है। सत्यार्थ प्रकाश पृ० २१७ से १६ तक पाठ नास्तिक गिनाये हैं। उनमें सथ दशनकारोंको नास्तिक लिखा है । यथा-- ५.-प्रथम नास्तिक. शून्य ही एक पदार्थ है सृष्टिके पूर्व शून्य था और आगे शून्य होगा। २-दूसरा, अभाषसे भागको उत्पत्ति मानता है (यह असस्कार्य वादी न्याय और पैशेषिक हैं। ३-तीसरा, कर्मके फलको ईश्वराधीन मानता है। ४-चौथा, फर्मके लिये निमित्त कारणकी आवश्यकताको नही मानता है। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-पांचवां, सब पदार्थोंको अनित्य मानना है । ६- छठा, पांच भूतोंके नित्य होनेसे जगत्को नित्य मानता है। -सातवां, सब पनार्थीको पृथक • मानता है, मूल एक नहीं । ६-अाठवां, कहता है कि एक दूसरेमें एक दूसरका प्रभाव होनेसे सबका अभाव है ।। इसमें न्याय, शेषिक, मीमांसा, वेदान्त, सांख्य आदि सबको नास्तिककी उपाधि दे दी गई है । वेदान्तको चतुर्थं मास्तिक कहा गया है। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक समुदायकी तरह, आर्यसमाजने भी एक शब्द नास्तिक ले लिया है और अपने घेरेसे बाहरके सब व्यक्तियों को वह भी ( मुसलमानादि की तरह ) नास्तिक कहता है। इसी प्रकार उसको अन्य सब नास्तिक कहते हैं । मार्थाः समाजकी अनि सब नास्तिक हैं, तथा सबकी दृष्टि में कह नास्तिक हैं। यही अवस्था अन्य मत वालों को है। इन बातोंको भी न छेड़े और इस पर तात्विक विचार करें तो . भी इन शब्दों में कुछ सार नहीं है । यथा-- वेद निन्दक मनु कहते हैं कि ( नास्तिकोवेद निन्दकः ) अर्थात् जो वेदकी निन्दा करता है, वह नास्तिक है । अब विचार यह उत्पन्न होता है कि वेद क्या है तथा उनकी निन्दा क्या है ? ___ सनातन धर्मके अनुसार वेदोंकी ११३१ शाखाये तथा प्रामणआदि सम्पूर्ण ग्रन्धवेद हैं. और स्वामीजी केवल चार शाखाओं को वेद मानते हैं । तथ ११२७१ शाखाओंको तथा अन्य श्राह्मण अन्थोंको वेद नहीं मानते रूप निन्दा करनेसे स्वामीजी प्रथम श्रेणी के नास्तिक सिद्ध होते हैं। क्योंकि नास्तिकः नास्तिक मतिर्यस्य' इसके अनुसार ब्राह्मणादि ग्रन्थ वेद नहीं हैं ऐसी बुद्धि वाला Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तिक है । यदि चार शाखाओं को ही वेद मानलें तो भी सभी वेदानुयायी नास्तिक ठहरते हैं। क्योंकि पूर्व के प्राचार्य अथर्ववेद को तो वेद नहीं मानते, वे तो तीन ही घेद स्वीकार करते हैं। मनुस्मृति भी उसी सम्प्रदाय की है। तीनों वेदोंमें भी यजुर्वेदी. सामवेद. की निन्दा करते हैं तथा सामवेदी यजुर्वेदकी। जैसे कि मनुस्मृतिमें ही सामवेदकी निन्दा की है। सामवेदः स्मृतः पिच्या, तस्माद तस्या शुचिर्ध्वनिः ॥ भं०४ ।। १२४ यहाँ सामवेदकी श्वनि लक को अपवित्र माना है। परन्तु गीताके श्र१० में "वेदानां सामवेदोऽस्मि" कह कर अन्य चेदोंसे सामवेदकी श्रेष्ठता दिखलाई है । अतः ये एक दूसरे बेदकी निन्दा के कारण स्वयं नास्तिक बनते हैं। गीता और वेद गीता अध्याय शोक २६ में "शुक्ल-कृष्ण-गती ोत" में दो गतियों का कथन किया है। प्रागे लिखा है-वेदेषु यन्त्रेषुतपः. सुधैव" अर्थात् वेदोंमें (बेदादि पढ़ने में ) तम. दानादि में जो पुण्य कहा है योगी उन सबको जानकर (इनकी निस्सारताको जानकर) वह इनका उल्लंघन कर जाता है। यहां वेदादिके पठनको भी कृष्ण मार्ग कहा है । तथा अध्याय ११ में "नाई वेदैन तपसा" कह कर वेदोंकी गौणता दिखाई है। और अध्याय १५ के प्रारम्भ में ही वेदोंको संसाररूपी वृक्ष के पत्ते बताकर वेदोंको संसारकी शोभा मात्र अथवा संसारको बढ़ाने वाला कहा है। तथा च अ. ह में विद्या मो सोमपाः' कह कर तीनों वेदोंका फल स्वर्ग कहा है तथा जष पुण्य समाप्त होजाते हैं तो वहांसे वापिस भी आजाता है, कह कर वेदोंको मुक्ति के लिये अनुपयुक्त कहा है. तथा अ.२ में Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यामिमा पुश्यितां वाचं अवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।। ४२ ।। अर्थात हे अर्जुन ! जो वेद वाक्यमें रत हैं वे स्वर्गादिकसेभिन्न मुक्ति को नहीं मानते. वे अविवेकीजन लुभाने वाली जन रंजनके लिये विस्तारपूर्वक संसारमें फंसाने वाली शोभायमान वाणी बोलत हैं । अत: हे अर्जुन ! त्रैगुण्या विषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवाजुन ।" संसारमें बांधकर रखने के लिये वेद तीन गुण रूपी रस्सी है,तू इससे मुक्ति पाकर त्रिगुणातीत होजा। आगे कहा कि "श्रति विप्रतिपना ते यदा स्थास्यति निश्चला।" हे अर्जुन : जब अनेक श्रुतियोंसे (परस्पर विरूद्ध वेद मन्त्रों के सुननेसे) विचलति हुई बुद्धि परमात्मा (शुद्धात्मा ) के स्वरूप में अचल ठहर जायगी, तब तू समत्वरूप योगको प्राप्त होगा। गीताके उपरोक्त शब्द इतने स्पष्ट हैं कि उनपर प्रकाश डालनेकी आवश्यकता ही नहीं है । यही कारण था कि स्वामी दयानन्दजी गीताको त्रिदोषज सन्निपातका प्रलाप कहते थे 1 के अभिप्राय यह है कि वेद-निन्दकको नास्तिक कहा जाय तो सम्पूर्ण हिन्दू जनता तथा आर्यसमाज भी नास्तिकोंकी श्रेणीमें आ जायेगा । उपनिषद् और वेद (१) ऋग्वेद मं० १० सू०४४ मं०६. में लिखा है कि"न ये शेकुझिया नावमारुह, मीमव ते न्यविशन्तकेपयः।" ___ जो यज्ञ रूप नौका पर सवार न हो सके, वे कुकर्मा हैं, शृणी हैं और नीच अवस्थामें ही दब गये हैं। इसका उत्तर उपनिषद्कार ऋषि देते हैं कि१ देवेन्द्रनाथजी लिखित स्वामीजीका जीवन चरित्र देखें पृ२०३-२०४ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६५ ) प्लवा श्रढ़ा यज्ञरूपा, अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छु यो येऽभिनन्दन्ति मृदा जरामृत्यु' ते पुनरेवापि यन्ति || ७ || सुएडोपनि० १ are वेद ! यह तेरी यश रूप नौकातो पत्थर की नौका है. वह भी जीर्ण शीर्ष है। तेरे जैसे मूर्ख जो इसको कल्याण कारक समझकर आनन्दित होते हैं, वे इस संसार रूपी सागर में जन्म मरण रूप गोते खाते रहते हैं । इसी उपनिषद् गीताकी तरह ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेदको अपरा (सांसारिक) विद्या कहा है यथा"तत्रापराग्वेद, यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेद: ।" 1 अन्य अनेक स्थानों पर भी ऐसा ही मत है। अतः उपनिषद् कार भी वेदों को मुक्तिका साधन नहीं मानते। तथा वैदिक क्रिया काकी निन्दा करते हैं । कपिल मुनि और वेद ऋग्न मं० १० सू०२७ । १६ में लिखा है कि " दशानामेकं कपिलं समानम् ।" अर्थात् दस अंगिरसोंमें कपिल श्रेष्ठ हैं उस कपिलके विषय में महाभारत शांति पर्व ० २६८ में गाय और कपिलका संवाद है । उस समय यज्ञोंमें गो बध होता था, गौ ने आकर कपिल मुनि से अपनी रक्षाकी प्रार्थना की। इस पर कपिलने दुःखित हृदयसे कहा कि बाहरे बेद ! मैंने हिंसाको ही धर्म बना दिया यही नहीं अपितु उन्होंने अपनी स्पष्ट घोषणा की कि हिंसा युक्त धर्म धर्म नहीं हो सकता चाहे वह वेदने ही क्यों न कहा हो। उन्होंने इस Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक धर्मका विरोध रूपमें प्रचार किया था। प्रतीत होता है कि इसी कारणसे प्राणोंने ऋपिलको नास्तिककी उपाधि दी थी,अभिप्राय यह है कि जिस कपिल मुनिकी वेद स्तुति करता है।वही वेदका विरोधी है। स्वयं दमें ही पक्ष रवि दुसा कि विरोध करता है। फिर किस ऋषिको शास्तिक मानाज-य और किसको नास्तिक मानस जाय । सब दार्शनिकोंको सत्यार्थ प्रकाशने नास्तिक कह ही दिया पुराणकारोंको तो वह गाली देकर मी सन्तुष्ट नहीं होते जय यह बात है तो जैनोंको नास्तिक लिखना क्या कठिन था । तैतरीय ब्राह्मण ३ । ३ । । । ११ में बोदोंको प्रजापतिके केश बताया है अर्थात बाल (केशा की तरह बेद भी व्यर्थ हैं। (प्रजापते वा एतानि श्मश्रुणि यवेदः ॥) इसी लिथे कौत्स्य ऋषि ोद मन्त्रोंको निरर्थक मानता था । निन्दा सत्यार्थ प्रकाश पृ० ६५ में निन्दा स्तुतिके विषयमें लिखा है कि गुराँमें दोष. दोषों में गुण लगाना वह निन्दा है और गुणोंमें गुण दोषाने दोपोंका कथन करना स्तुति कहानी है। अर्थात् मिश्या भाषणका नाम निन्दा है और सत्य भाषण का नाम स्तुति है। यदि इस कसोटी पर कसके देखा जाय तो श्री स्वामी दयानन्दजी और आर्यसमाज ही प्रथम श्रेणी के नास्तिक ठहरते हैं क्योंकि इन्होंने ही कोदोकी घोर निन्दाकी है। यथा नोट-इसी लिये मीमांसकों ने उपनिषदों को वेद का बंजर भाग Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६७ ) वेद अनेक ऋषिपोंके जाताये हुये हैं। * इसगुणको छिपा कर ये वेदोंको ईश्वरीय शान अथवा ईश्वर रघिस या निस्य कह कर निन्दा करते हैं। ४ (२) वेदों में इतिहास है, ये कहते हैं कि इतिहास नहीं है। (३) बोदोंमें मृतक श्राद्धका वर्णन है. ये कहते कि नहीं हैं। (४) वेदों में स्वर्ग. नरक आदि लोक विशेष माने हैं. ये विरोध करते हैं। (५) बोट कहता है, मुक्तिसे पुनरावृत्ति नहीं होती, ये कहते हैं होती है। (६) वेदमें अद्वैतवादका मंडन है ये उसे नास्तिक कहते हैं। * वेदत्रयोक्ताय धर्मास्तेऽनुश्टेयास्तु सात्विक । अधर्मोऽथर्व वेदोक्तो राजसै सामसैः श्चितः॥६३॥ (श्री शंकराचार्य बन्चित सर्व दर्शन संग्रह) अर्थ, सात्विपुरुपको वेदवत्रीमें कथन कियेहुए, धर्मका पालन करना चाहिए तथा राजसी ओर तामसी लोगोंको अथर्ववेदमें कहे हुए. अधर्मका पालन करना चाहिये ।। यहां स्पष्ट ही अथर्व बेदकी घोर निन्दा है। ज्ञात होता है यह अनार्य लोगोंका ग्रन्थ था | अनाओं के सहवास से श्रयों ने भी बादमें इसको अपना लिया। ___x बा० उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने ऋग्वेद के उपोद्घात प्रकरण के पृ० ६१ पर कौपीति की ब्राहाण का निम्न वाक्य उद्धत किया है । जिसका अर्थ है कि सामवेद और यजुर्वेद ऋग्वेदके सेवक हैं। मैक्समूलरने भी इसी प्रमाणको उद्धृत किया है... These two Vedas, the Yajur Veda and the Sam what they arc Called in the Kaushitaki Brabman the attendents of the Rigveda (S. T. Vol. II, P. 203) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८८ ) (७) वेद कहता है जगत नित्य है. ये कहते हैं. अनित्य है : (E) वेदोंमें यज्ञादिमें मांस व शरावका विधान है. ये कहते हैं निषेध है। (6)ोहोंमें पुनमक्त, परस्पर विरुद्ध. असम्भव, व्यर्थ श्रादि अनेक दोष हैं. ये कहते हैं नहीं है। (१०) वेदों में अनेक देवतावाद है. ये कहते हैं नहीं है। इस प्रकारसे श्री स्वामी दयानन्द जो य आयममाज वेदोंके निन्दक ही नहीं अपितु महान अमित्र भी हैं. क्योंकि उन्होंने वेदों की आवाज दया कर उनसे बलात् अपनो बातें कहलानेका प्रयत्न किया है । इस प्रकार ये ही वेद निन्दक ठहरे. और सनातन धर्मी और जैन श्रादि पारित करे। जोकि वे तो मान जो गुण है उन्हीं गुणोंको कह कर वेदोंकी स्तुति करते हैं। कलि कल्पना वेद आदि शास्त्रोंसे तथा वर्तमान विज्ञानसे भी ग्रह सिद्ध है। कि यह जगत अनादि निधन है इसपर भी सृषिकी उत्पत्ति मानने बालोंने इसकी रचनाकी तिथि आदि तक बतानेका साहस किया है । जोकि युगोंकी मान्यता पर निर्भर है. अतः । इन युगोंका ऐतिहासिक विवेचन भी श्रावश्यक है। स्वामी दयानन्दजी ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिकाके वेदोत्पत्ति प्रकरणमें मनुस्मृतिके श्लोकोंको उद्धृत करके लिखा है कि चार हजार वर्षका कृतयुग (सतयुग) होता है और तीन हजारवर्षका त्रेतायुग दो हफारवर्षका द्वापर एवं एक हजारवर्षका कलियुग । __इन सबके मन्धांशोंके २०० वर्ष मिलाने से १२.०० वर्षोंका एक चतुर्युग होता है। परन्तु ये वर्ष मनुष्योंके वर्ष नहीं अपितु देवोंके वर्ष हैं जो कि हमारेसे ३६० गुणा अधिक होते हैं इसलिये चतुर्युगका मान हुआ४३२४११०इसी प्रकार ७१ चतुर्युगोंका एक Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६ ) मन्वन्तर होता है तथा १४ मन्यन्तर एक सृष्टिके होते है एवं इतना ही काल प्रलयका होता है. अर्थात् चार अरब ३२ करोड़ वर्षकी सृष्टि होती है और उतनेही कालका प्राय होती है वर्तमान सृष्टि ६ मन्वन्तर तो बीत चुके तथा सातवें मन्वन्तर की २७ चतुर्युगियां भी बीत चुकीं अब २८ वीं चतुर्युगी बीत रही हैं इस हिसाब से सृष्टिकी उत्पत्तिको हुए आजतक १७६७२६४६०२३ सौ वर्ष हुए हैं। इसमें कल्पकी सन्धि भी गिनी गई है। इन प्रमाणों पर विचार इन प्रमाणों पर दो दृडियोंसे विचार किया जा सकता है। (२) ऐतिहासिक दृष्टि से (२) ज्योतिः शास्त्रकी दृष्टि से अगर हम ऐतिहासिक दृष्टिसे इस पर विचार करें, स्वदेशी तथा विदेशी सभी सामयिक ऐतिहासिक विद्वान इसमें एक मत है कि यह सतयुग आदिको वर्तमान मान्यता अत्यन्त आधुनिक है। प्राचीन ग्रन्थों में तथा प्राचीन खुदाई आदिमें इसका किसी स्थान पर उल्लेख नहीं मिलता। (१) गुरुकुलके सुयोग्य स्नातक पं० जयचन्दजी ने भारतीय इतिहासकी रूप रेखा में इसी मतकी पुष्टिमें अनेक युक्तियाँ दी हैं । (२) शिव शंकर काव्यतीर्थ जो कि आर्यसमाज के सर्व मान्य विद्वान थे. उन्होंने भी 'वेद ही ईश्वरीय ज्ञान हैं' नामक पुस्तक में यह स्पष्ट लिखा है कि यह कलियुग आदिकी मान्यता अवैदिक है। इनके अतिरिक्त पं० गोपीनाथ शास्त्री चुलैटने एक ग्रन्थ युग परिवर्तन नामसे ही लिखा है। उसमें विद्वान लेखकने राबर्टसिवेल, मैक्समूलर बेवर आदि पाश्चात्य विद्वानोंका विस्तार पूर्वकमत संग्रह किया है। खुदाई में सबसे पुराना लेख जिसमें कलियुगका संकेत है राना Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलिकिसन द्वितीयका है. यह चालुक्यका है. जो कि ई. सन ६३४-३५ का है __इससे पूर्वके किसी भी लेख में इन युगोंका कहीं भी पता नहीं लगता । इसलिये खुदाईके प्रमाणोंसे तो इसको प्राचीन कहा नहीं जा सकता | अब रह गया ग्रन्थोंका प्रमाण. पुस्तकोंमें सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद है. इसमें युग शब्दका अनेक बार प्रयोग हुआ है। इसलिये हम भी प्रथम ऋग्वेदमें आये हुये युग श्रादि शब्दों पर विचार करते हैं। • ऋग्वेद मं० १० सूत्र ६७ औषधी सूक्त है उसका प्रश्रम मंत्र या औषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुग पुरा ! इस मंत्रमें आये हुये ( त्रियुगं) शब्दसे कई विद्वानोंने सत्ययुग श्रादि अर्थ निकालने का प्रयास किया है पं० आर्यमुनि नी ने वेद कालका इतिहास, नामक पुस्तकमें लिखा है कि यहां त्रेता द्वापर, सथा कलियुगको न्यून कथन करके इस प्रथम ( सत्य ) को प्रधान सर्वोपरि माना है। आगे श्राप लिखते हैं कि यह वह समय था जब कि आर्य जाति तिब्बत में निवास करती थी। पं. रामगोविन्द जी वेदान्त शास्त्रीने भी अपने ऋग्वेद भाष्य में लिखा है कि तीन युगों (सत्य त्रेता और द्वापर या वसन्त वर्षा शरद ) में जो औषधियाँ प्राचीन देवोंने बनाई हैं । यही मन्त्र यजुर्वेद अ० १२ में भी आया है श्री स्वामीजी महाराज ने भी वहां युग शसके अर्थ सत्य युगादि तथा वष भी किये है। इन भाष्यों की समीक्षा इस सूक्त में २३ मन्त्र हैं, उन सबमें प्राय औषधी से रोग दूर करनेकी प्रार्थना की गई है । यथा दूसरे ही मन्त्रमें लिखा है कि Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे मातृरूप औषधियों तुम्हारे जन्म असीम हैं और तुम्हारेप्ररोहण अपरिमित है तुम सौ कर्मों वाली हो। तुम मुझे आरोग्य प्रदान करो ( मे अगदं कृत ) इससे स्पष्ट सिद्ध है कि कोई रोगी औषधी को सन्मुख देखकर अथवा रखकर उससे प्रार्थना कर रहाहै । फिर कसे माना जाये कि कोई व्यक्ति सत्ययुगमें तीन युग पहले अर्थात लाखों वर्ष पहले उत्पन्न हुई औषधो से प्रार्थना कर रहा है। यदि कोई व्यनि : करे भी तो नागल मनापके रिशना पयः माझा जायेगा । बहुत क्या विवादास्पद मन्त्रसे ही प्रथम लिखा है कि इन पीले रंगकी औषधियोंके १०७ स्थान मैं जानता हूँ बस स्पष्ट है किये औषधियां उसी समय विद्यमान थीं न कि लाखों वर्य पहले, अतः इससे वर्तमानयुगांकी कल्पना करना नितान्त भूल है। अब रह गया यह प्रश्न कि यहाँ युग शब्दके क्या अर्थ हैं ? यग शब्द का वैदिक अथ युग शब्द वेदों में अनेक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। (१)--(अतु) यजुर्वेदके भाष्यमें इसी प्रथम मन्त्रका भाइरस करते हुए युग शब्दका अर्थ तीन ऋतुमें , उन्चट. महाधर, ज्वालाप्रसाद मिश्र तथा पं. जयदेवजों आदि सभी विद्वानोंने किया है, तथा च ऋग्वेदालोचन में पं० नरदेवजी ने भी ऐसा ही अथं किया है। (२) मास । दीर्घतमा मामदेयो जुजुर्वनि दशमे युगे । ऋ० प्र० १.सू. १२५ । ८ यहां शिवशङ्कर जी काव्यतीर्थ वैदिक इतिहासार्थ निर्णयके पृष्ठ १७६ में युगके अर्थ मास महीने करते हैं। अन्य विद्वानोंने भी कई स्थानों पर ऐसा अर्थ किया है। ३- (पक्ष) यजुनेद अ०१२ मंत्र १११में महीधर आदि सभी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भाष्यकाराने युगका अर्थ पक्ष (पर्व) पूर्णिमा अमावस्या आदि किया है। - युगल ) जोड़ा. दो। उपरोक्त मन्त्रके भाष्यमें ही पं० जयदबजी ने युगका अर्थ जोड़ा किया है। ५--( चार ) चार की संख्या अर्थ भी इसका प्रसिद्ध ही है। वथा च यजुर्वेद अ.० ५.७ मंत्र ४५ के भाग्य में सभी विद्वानोंने ५ काँका युग माना है। जैन शास्त्रों में भो ५ वर्षका युग माना है। -(वर्ष ) एक वर्प. विवादास्पद मंत्रके भाष्यमें स्वामी दयानन्दजीने युगका अर्थ एक वर्ष भी किया है। ___ -( यज्ञ ) अथर्ववेद कां० २० सूक्त १०७ मं० १५ (युगानि निन्यते) का अर्थ सभी विद्वानोंने यन्त्र किया है अर्थान् यज्ञोंको --(दिन ) युगे युगे नव्यं घोषादमय॑म् । . अ० कां० २० सूत्र ६७२ प्रधान सोमदाताका आश्चर्य कम दिन प्रतिदिन नया हो । 6--(जुवा) चलों पर रखनेका जुवा (खें युगस्य ) अंकां० १४१ १ । ४५ यहां सबोंने युगका अर्थ जुवा किया है । इत्यादि अर्थात् दिन, पन. भास. ऋतु ( २ मास या ३ मास ) वर्ष. चार वर्ष, पांच वर्ष. गुगल ( जादा) यज्ञ, तथा जुत्रा आदि अोंमें इस शब्दका प्रयोग हुआ है । जब कि सम्पूर्ण वैदिक साहित्यमें कहीं भी वर्तमान युगौंकी कल्पनाको स्थान नहीं है तो युग शब्द आने मात्रसे सतयुग आदि अर्थ करना अनर्थ करना है। अतः मन्त्रार्थ निम्न प्रकार है Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०३ ) या औषधी: त्रियुगं पुरा पूर्वा जाता ! अर्थात् जो औषधि प्रथम तीन मास तक पक कर पूर्ण उत्पन्न हुई हैं । देवेभ्यः वह औषधि वैद्योंके लिये उपयुक्त है । उसका रंग व गहरा पीला होता है, ऐसा मैं जानता है. वह अनेक स्थानों पर प्राप्त हो सकती हैं। A अतः विवादास्पद मन्त्र से सतयुग आदिकी कल्पना निराधार तथा केवल कल्पना मात्र ही है। इस वेदमें से अन्य कोई मन्त्र किसी ने इस विषय में उपस्थित नहीं किया। यजुर्वेदः हां ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकामें श्री स्वामी जी महाराजने एक यजुर्वेद का प्रमाण उपस्थित किया है उस पर विचार अवश्य करना है । सहस्रस्य प्रमासि सहस्रस्य प्रतिमासि । यजु० १५/६५ श्री स्वामी दयानन्दजीने मन्यका कुछ भाग लिख कर इसका अर्थ इस प्रकार किया है:- हे परमेश्वर ! आप इस हज़ार चतुर्युगी के दिन और रात्री को प्रमाण अर्थात निर्माण करने वाले हो । श्री स्वामीजी महाराजने जो अधूरा मन्त्र लिखा है उसमें न तो युग शब्दका कहीं निशान हैं और न चतुर्युगी का हीं। हो सहस्त्र शब्द अवश्य आया है यदि सहस्र शब्द के आने मात्रसे सहस्र चतुर्युगी का अर्थ होता है ऐसा नियम किसी ग्रन्थ में हो तो वन्य हमारे देखने में तो आज तक नहीं आया है। दूसरी बात इसमें परमेश्वर शब्द भी नहीं है. पुनः परमेश्वर अर्थ फौदमी प्रक्रियासे किया गया है यह भी हमारे जैसा अल्पज्ञ नहीं समझ सकता । श्रागे है यह भी एक चल कर प्रमाण शब्दका अर्थ निर्माण किया गया " Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६०४ ) विचित्र अर्थ है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि "करता है" इस क्रियाकी कल्पना किस बाधार पर की गई है यह भी विचारणीय है । क्या इस प्रकारके अर्थ अथवा अध्याहार करने का अन्य किसीको भी अधिकार है यदि हाँ नब तो बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा। यदि नहीं तो ऐसा क्यों है ? श्री स्वामीजी महाराजने शतपथका एक प्रमाण देने की भी दया की है। "सर्वच सहस्र सर्वस्य दातासि"शतका ०७वा०२०१३ बहुत कुछ ध्यानपूर्यक दीर्घकाल तक विचार करने पर भी हम यह न समझ सके कि यह प्रमाण क्यों दिया गया है बहुत सम्भव हैं किमी प्रनिपक्षीकी ओर से यह प्रमाण स्वामीजीने लिखा हो तथा इसका जो उत्तर म्यामोजीने लिखा हो वह प्रार्य भाइयोंकी कृपाले छपना रह गया हो। कुछ भी हो इस प्रमाण के लिख जानेसे तो स्वामीजीके अर्थी का सर्वश्रा खण्डन होगया : क्योंकि इसमें दातासि" यह क्रिया स्पष्ट है। अब इस माझा के अनुसार मन्त्र के अर्थ हुये कि तू सत्र कुछ देने वाला है। सहस्त्रस्य प्रमासि सहस्रम्य प्रतिमासि । महसम्योन्मामि साहस्रोऽसिमहरयन्या ।। यजु०१५६५ इसका शब्दार्थ है कि तू सबका सहस्रका प्रमाण है. तश्रा सबका प्रतिमान (प्रतिनिधि) है तथाच सबका तराज है तू सबका पूज्य है सबके लिए तेरेको । _इस मन्त्रमें जो स्वा' आदि शब्द आये हैं उससे ईश्वरकी कल्पनाका निराकरण हो जाता है। क्योंकि ईश्वर न तो सबका प्रतिनिधि ही है और तराजू । यह सब कुछ होने पर भी ल्वा) तेरा. इस शब्दका ईश्वर विषयक स्वामीजी के अभमें किस प्रकार Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०५ ) घदित किया जायेगा । वास्तवमें तो यहां अग्नि तथा सूर्यका वर्णन हैं यह बात इस अध्यायके पाठसे सहज ही अवगत हो जाती है. इसी अध्यायके मन्त्र में आया है। "अयमग्नि चारतमो वयोधाः सहस्त्रियो घोतताम्" अर्थात्-ग्रह अग्नि वीरवर है, तथाच वग्रस (अनिका धारण करने वाला अथवा देने वाला है एवं सहस्रियः अर्थात सबका पूज्य है मामा जान्नकाला है नवाच इस मामले में लिखा है कि - अयमग्नि सहस्रिणो बाजस्य शतिनस्पति । अर्थात् यह अग्नि शत. सहस्र. अन्नोंके स्वामी है । मन्त्र ५ में सहस्रियः यद अप्टिका विशेषण है, जिससे स्पष्ट है कि यहां सहस्रके अर्थ हजार चतुर्थग किसी प्रकार नहीं लिये जा सकते मंत्र २१ में साहस और शत' यह अन्धका विशेषरण है । बस मंत्र ६५ में भी सहस्त्र सब्दक अर्थ अन्नके ही है अन्न नाम इवि का भी है, इसलिये यहां त्वा तेरेको यह शब्द महा है जिसका अर्थ है प्रश्न के लिये अथवा हविके लिये तुझके प्रज्वलित करता हूँ। यदि यह अर्थ न करके श्री स्वामी जी कृन नहन्त्र शन्नके अर्थ स्वीकार किये जाये तो हजार चतुगोंके लिये श्वरको क्या किया जायेगा. संभव है इनने समय तक ईश्वरको याज्ञा दी जाती हो कि आप इतने समय तक अनश्य ही स्मृष्टि उत्पन्न करें। ____ श्री स्वामी जी ने ही जो प्रथं इस मंत्रका स्वकीय भाष्यमें किया है हम उसीको उपस्थित करते हैं। पनार्थः-- हे विद्वान पुरुष : विदुषी स्त्री का, जिस कारण तू सहस्र असंन्यात पदाथोसे युक्त जगनक ( प्रमाण यथार्थ ज्ञान के तुल्य है । असंख्य विशेष पदार्थों के तोलन साधनके तुल्य हैं असंख्य स्थूल वस्तुओंके तोलनेकी तुलाके समान हैं। और Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०६ ) असंख्य पदार्थ और विद्याओं से युक्त है। इस कारण असंख्यात प्रयोजनों के लिये तुमको परमात्मा व्यवहारोंमें स्थित करें | क्या अब भी कोई पक्ष पाती यह कहने का साहस कर सकता है कि यहां युगों का ही वर्णन है। इतना ही नहीं अपितु श्री स्वामी जी महाराजने इस मंत्र के भावार्थमें इसको बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया है। यथा 'इस मंत्र में परमेष्ठी, सादयतु इन दो पदों की अनुवृत्ति श्राती है। तीन साधनों से मनुष्यके व्यवहार सिद्ध होते हैं । (२) यथार्थ विज्ञान (२) पदार्थ तोलनेक लिये तोलके साधन बांट और (३) तराजू आदि फिर भी भाष्य भूमिका में यह मंत्र किस प्रकार युगकी पुष्टिमें लिखा गया यह अवश्य कुछ रहस्यमय घटना है 1 अथर्ववेद श्रथ वेद भाष्यकार पं० क्षेमकररण दास जी ने का सू० २१२१ को इसी करण में लगाया है, तथा वैदिक सम्पत्ति (जिसका प्रचार आर्य समाज में विशेष है तथा सभी आर्य विद्वानों ने जिसकी प्रशंसा करने में अपना गौरव समझा है ) में भी यही मंत्र लिखकर सृष्टिकी आयु निकाली है। मंत्र निम्न प्रकार है: -- " शतं ते युतं हानान् द्वे युगे त्रीणि चत्वारि कृष्णः । इन्द्रानो विश्वे देवास्ते नु मन्यन्ताम हुगीयमान | २११ | उपरोक्त आर्य विद्वान तथा अन्य भी इस मंत्र का अर्थ इस प्रकार करते हैं कि अंकानां वामतो गति" के अनुसार ४३२ के अंक लिख कर उन पर सौकी तीन बिन्दु तथा अयुत दस हजार की विन्दु रखने से सृष्टिकी आयु ४३२००००००० सिद्ध हो गई। मुसलमानों आदिसे शास्त्रार्थों में भी आर्य विद्वान इस प्रमाणका दिया करते हैं तथा कहा करते हैं कि जिसने यह जगत स्वा है उसने इसकी आयु भी निश्चित की है। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०७ ) इस पर विचार जब हम इस सूक्तकी तथा इस मंत्र को देखते हैं और उपरोक पढ़ते हैं तो हमें बड़ा हो दुःख होता है । भारतवर्षके दुर्भाग्य का कारण श्रीस्वामी दयानन्दजीने ही विद्वानोंका पक्षपात बतलाया है उसका स्वत्रन्त उदाहरण यहां उपलब्ध होता है। हम इन भाइयों से इतना ही जानना चाहते हैं कि इस मंत्र में ( कृणमः ) यह जो बहु बचनान्त किया है उसका कर्त्ता कौन है. यदि ईश्वर है तो क्या ईश्वर भी बहुतसे है । तथा च इसमें (ते) यह शब्द किसके लिये आया हैं. और आगे इसी मन्त्रके उत्तरार्धमें जो यह कहा है कि इन्द्र, अमि सचदेव क्रोध न करते हुए हमारे इस वचनको स्वीकार करें। क्या यह ईश्वर इन देवोंसे प्रार्थना कर रहा है । और क्या ईश्वर इन देवोंके कोसे भयभीत होरहा है। क्या कहें वास्तव में तो इनके सम्पूर्ण सिद्धान्त ही निराधार हैं उनकी पुष्टिके लिए ये लोग इस प्रकारके घृणित प्रयत्न किया करते हैं। : इस सूक्तका विनियोग बालकके नाम करण संष्कार में है, और बालककी आयु वृद्धिके लिए इस मन्त्र में आशीर्वाद है । हम विशेष कुछ न लिख कर विवादास्पद मन्त्र से पूर्णके कुछ मन्त्र यथा पश्चात् के मन्त्र लिखकर उसके अर्थ लिख देते हैं जिससे पाठक भली प्रकार जान जर्के यदश्नासि यत पिवसि धान्यं कृष्णः पयः । यदाद्यं यदनाद्यं सर्वं ते विषं कृणोमि ॥ १६ ॥ अन्हे चत्वा रात्रये चोभाभ्यां परि दवसि । पेभ्यो जिareम्य इमं मे परिरक्षत ॥ २० ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०८ ) शतं ते युत हयनान द्वे युते त्रीणि चत्वारि कुण्मः | इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेनु मन्यन्ताम हणीयमानः ॥२१॥ शरदेवा हेमन्साय क्सन्ताय ग्रीष्माय परि दमसि । वर्षाणि तुभ्यं स्योनानि येषु वर्धन्त औषधीः ॥ २२ ॥ अर्थ-जो कुछ तू खाता है जो कुछ तू पत्तिाहूँ. अनाज जो कि पृथ्वीका रस हैं जो खाद्य पदार्थ है नथा जो अखाद्य हैं उन सब अन्नीको तेरे लिए विप रहित करता हूं ॥६तुझे दिन और रात दोनाका सौंपता हूं. भर इस (बालक) का उन अरायों (भूखों) से बचाओ जो इसे खाना चाहते हैं ||५०1] अब याज्ञिक आशावाद देते हैं । हे बालक : नरा १० वर्षकी पूण श्रायु को हम द्विगुना त्रिगुणा तथा चौगुना करते है । (अर्थात् तु चार सौ वर्ष तक जी हम यह आशीर्वाद देते हैं) इन्द्र अमिश्रादि सब देवता क्रोध न करते हुए (शान्त भावसे) हमारी इस शुभ कामनाको स्वीकार करें हम तुझे शरद, हेमन्त, बसन्त तथा प्रीष्मको सौंपते है वर्षायें जिनमें औषधियां बढ़ती हैं तर लिग सुखकारी हो ॥२॥ ___ उपरोक्त मन्त्र इतने सरल हैं कि प्रत्सक संस्कृतज्ञ सुगमतासे समझ सकता है । मन्त्र १८ में खाद्य अन्नोंका नाम भी ( चावल, जो) बतला दिया है । सबसे बड़े दुःस्त्रको बात तो यह है कि मन्त्र -३ तथा-४ में स्पष्ट (मा विभ) अर्थात् मय गत कर. तू मरेगा नहीं ऐसा लिखा है । कौन बिचार शील ऐसा होगा जो उपरोक्त मन्त्रोंसे सृष्टिको श्रायुका वर्णन समझेगा । हनने जो अर्थ इन मंत्रा. के दिये हैं प्रायः सभी भाष्यकारोंने यही अर्थ किये हैं। परन्तु मन्त्र .५ में आयें (अयुत)के अर्थ दस हजार वर्ष तथा युगके अथ चार किया है. अर्थात तू जुग जी एसा अर्थ भी किया है । आयं समाजके प्रतिष्ठित विद्वान पं० राजाराम जीने अपने अथर्व Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- ... - -- - { ६०० । बोद्भाध्यमें हमारे अर्थ की पुष्टिको है । हमारी सम्मनिमें ये सब अर्थ ठीक नहीं हैं, क्योंकि (अयुत) शब्द पूर्ण अर्थ में इसी चोदने पाया है। यथा-- अयुतोहमयुतो म आत्मा युतं मे चचु रयुतं श्रोत्रम् । . . . . अथर्ववेद कां० १६ सूत्र. ५१ मं०१ ' अर्थात् -- मैं अयुत (पूर्ण) हूं मेरी आत्मा. चक्षुः श्रोत्र आदि सब पूर्ण है। यहां अस शब्दके अन्य अर्थ हो ही नहीं सकने, अतः सभी भाष्यकारोंने यहां अचुतके अर्थ पूर्ण किए हैं। बस जय श्रयुतके अर्थ पूर्ण है तो यहां भी इस शब्द के अर्थ पूर्ण ही हैं। क्योंकि मनुष्यको पूर्ण आयु १०० वर्षकी मानना सर्वतंत्र अधिक सिद्धान्त है तथा अधिक से अधिक ४६. वर्ष की आयु का परिमाण भी श्री स्वामीजी महाराज ने स्वयं स्वीकार किया है ( रह गया युग शब्द का अर्थ सा तो यहां 'हे') शब्दका युगे' ऐसा विशेषणार्थ में युग शब्द का प्रयोग हुश्रा है। वास्तवमें तो यहां (युगे ) यह पद पाद पूर्ति के लिए रखा गया। अस्तु, जो कुछ भी हो। उपरोक्त वैविक प्रमाणाभास जो इस विषयमें दिये गए हैं उनकी निःसारता प्रकट हो चुकी तथा इन प्रमाणोंके अलावा किसी अन्य प्रमाणको देनेका किसी भी विद्वानने साहस नहीं किया अतः यह सिद्ध है कि वेदोंमें इस सृष्टि उत्पत्ति की वर्तमान मान्यताका कहीं वर्णन नहीं है। वेदों में कलि आदि शब्द वैदिक वाङमयमें कलि. आदि शब्दों का उग्रवहार ग्रूतके पासों के लिए हुआ है। वैदिक समयमें जूषा बड़े जोरोंसे स्खला जाता था मश्रा गन्धर्ष जाति की स्त्रियां इस विषयमें दक्ष हुआ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती थी. धनाढ्य जुवारी लोग इनको जूवा खेलने के लिए अपने पास रखते थे। बहेड़े की लकड़ी के बने हुए ५३ पासोंसे यह खेला जाता था, एक से पाश्च सक के पासे 'अयन कहलाते थे. इनमें पांचवां पासा कलि कहलाता था । तैत्तरीय प्रा० ११५११२१ जिसके पास कृत अर्थात् चारका अयन भाता था उसीकी विजय होती थी और पाँच वाले की हार इसी लिए ऋग्वेद मंडल, १ सूत्र १ में कृतका अयम पाने वाले जुवारीसे उरनेका उपदेश दिया गया है। तथा च निरुक्तकार बास्सने भी यही सलाह दी है । नि. ३ । १६ इन जुओंमें बभ्र, मामका जुषा सबसे भयानक होता था। यजुर्वेद अध्याय ३० मात्र १८ में अक्षराजाय निसनम् कृतीयादिनकर नेतायै कस्पिनर द्वापरावाधिकल्पिनमास्कादाय समा स्थागुम् । इसका अर्थ है कि जूवेके लिए जुवारीको, अब ये जुवारी कितने प्रकार के होते थे ग्रह अागे बसलाया है। संबले बहिवा जुवारीका नाम कितव' था यह कृतका अयन जीतने वाला बड़ा चालाक होता था। उससे नीचे दों के जुवारीका नाम 'नवपर्श' और उससे छोटेका नाम 'कल्पी' यह वेता चिन्ह वाले पालेको जाता था तथा उससे छादेको अधिकल्पी' कहते के, इस सूबेका वर्णन अथर्ववेद का० ४ सूत्र ३८ तथा का ७ सूत्र ५२-१४४ में दस्रने योग्य है। जब इस जुवेने भयानक रूप धारण कर लिया, सब इसके नियमोंका आविष्कार हुआ. परन्तु इसने पर भी इसकी वृद्धि न रुकी तो इसका निषध किया गया । "अक्षेर्मादीव्य कृषिमित्कृषस्न" (ऋग्वेद) जब इसका भी कुछ प्रभाव न छुआ तो इसको पापकी रूप दिया गया । तथा इसके लिये एका विधान हुश्रा । अस्सु प्रकृत Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६११ ) विषय बना ही है लि में भी शादि रानडोंकर वर्तमान कलि आदिके अर्थों में कहीं भी प्रयोग नहीं हुआ है। इसलिय सर्तमान युगोंकी कल्पना नितान्त नवीन तथा स्वकपोल कल्पित है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है । * ब्राह्मण ग्रन्थ और यग प्राण प्रन्यों में भी कलि आदि शब्दोंको देखते हैं. अतः वहाँ इनका क्या अर्थ है, इस पर विचार करना भी आवश्यक है। कनिः शयानी भवति सजिहानस्तु वापरः। उत्तिष्ट स्रोता भवति कृतं सम्पयत प्रान ॥४॥ ऐतरेय ब्राह्मण ७१५ यहां एक रोहित नामक राजाको कोई ऋषि उपदेशदेता है कि"भामा श्रान्ताय श्रीरस्ति इति रोहित शुभुमः ।" अर्थात्-हे रोहित हमने ऐसा सुना है कि पानसीके लिये लक्ष्मी नहीं है। आगे कहा है कि आलस्यमें पड़े रहना (सोना) कलि है और उठना अर्थात् परिश्रमका विचार करना द्वापर है, एवं उठ बैठना उस विचारके अनुसार कार्य करनेको उद्यत होना अथवा नियम अादि बनाना त्रेतायुग है और जब उसके अनुकूल -- - जैन ग्रन्थों में भी कलि' आदि शब्दों का प्रयोग-जाप के पास के लिये ही श्राया है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पूरे परिश्रमके साथ आचरण होता है तो वही कृत कहलाता है। इसी भात्रको मनुस्मृतिकारने स्पष्ट किया है कुतं त्रेता युगं चैव द्वापरं कलि रेव च । राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि गजा हि युग मुच्यते ।। . . . . . . .. . अ.. | ३०१ काल प्रसुप्तो भवति स. जाग्रदू-द्वापर युगम् ।। कर्म स्वभ्युद्यत स्वेता विचरेस्तु कृतं युगम् ॥ ३०२॥ अर्थात् कृत (सत्ययुग ) वेता श्रादि युग सब राजा के आचारणों के नाम हैं वास्तव में राजा ही का नाम युग है ।, जब वह ( राजो) पाल्सी रहता है । अथव ।कुकर्मों में फंस कर प्रजा की रक्षा श्रादि नहीं करता तो वह कलियुग है अर्थात् उस राजमें कलियुग कहा जाता है । जब वह जागता है तो द्वापर हो जाता . : -...-: -: -- ___ श्री स्वामी दयानन्दजी युगोंका यही नर्थ करते थे, जन मेलाचोंदापुर में शास्त्रार्थ हुंना तो स्वामीजी ने ऐतरेया के इसी प्रमाणकी देकर लिखा है । "हम श्रार्थ लोग युगोकी व्यवस्था इस प्रकारसे नहीं मानते, इसमें प्रमाण कलिः शयानो भवति समिहानन्नु द्वापरः। उनिष्ठ स्त्रेता भवति कृत सम्पद्यते चरम् || ऐतरेय बा ११५॥ अर्थात् जो पुरुष सर्वथा अधर्म करता है और नाम मात्र धर्म करता है, उनको कलि, और जो आधा धर्म, और और अधर्म करता है उसको द्रास, और जो एक हिस्सा अधर्म और तीन हिस्से धर्म करता है, उसको श्रेता, और जो सर्वथा धर्म करता है उसको सल्वयुग कहते हैं। सत्यधर्म विचार ..-. .-.-....-.--.... Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१३ ) है एवं जब कुछ क्रियाशील होता है। तब त्रेता कहलाता है तथा जय आलस्य को छोड़ कर अपना कार्य करता है तो कृतयुग कहलाता है । मनुस्मृतिकार ने “राजा हि युगमुच्यते" अर्थात् राजा को ही युग कहते हैं, ऐसा कहकर सम्पूर्ण विवाद को मिटा दिया है क्योंकि यहाँ 'हि' शब्द अन्य अर्थों के निवारणार्थ प्रयुक्त हुआ हैं । यही भाव ऐतरेय ब्राह्मण के हैं । अब यह बात सिद्ध हो गई कि ब्राह्मण काल में कृत युग आदि किसी समय विशेष का नाम नहीं था, अपितु राजा के नाम थे। यहां एक बात विचारणीय है कि फलि के लिये बुरे भाव अथवा इसे बुरा समझा जाना और कृतको अच्छा समकनेका भाव उस समय उत्पन्न हो गया था, इसका आधार क्या Į " इसका उत्तर स्प है कि वैदिक कालमें जूने के पासों का नाम कृत आदि था जैसा कि हम दिखला चुके हैं। उन पासों में कृत के आने से विजय होती थी और कलि के आने से हार। श्रतः स्वभावतः कलि शब्द के अर्थ खराब और कृत शब्द के अर्थ सुन्दर शुभ प्रचिलित हो गये थे, उसी भाव को यहाँ दर्शाया है। तथा च तैसिरोया में आया है कि . "ये पचस्तोमाः कलिः सः अर्थात पांचवां स्तोम कलि हैं। "ये वै चत्वारः सोमा कृतं तत् ।" . चतुर्थ सोमत है | स्तोम नाम यज्ञका प्रसिद्ध है। पूर्व समय में वर्ष में पाँच यश ऋतुओं के अनुसार हुआ करते थे घठी ऋतु शीत अधिक होने के कारण कुछ भी कार्य नहीं होता था. ऐसा कई विद्वानोंका मत है। जो भी हो, परन्तु पाँच यज्ञ होते थे, उनमें जो बसन्त ऋतु यज्ञ होता था उसका नाम कृत था. ग्रीष्मके का Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम त्रेता, वर्षाके यज्ञका यम द्वापर शरदकालुके यज्ञका नाम कलि पवं हेमन्त में जो बात होता था उसका नाम अभिभू था कई स्थानों पर कालिका नाम आस्कन्द और अभिभू भी मिलता है। यथा-एष बाऽअयनमभिर्यस्कलि रेष सनिशानाधि भवति । शतपथ प्रा० का० ५.४१ अर्थान यह अयन या अभिभू है. सो कलि ही अभिभू है। बाप प्रलमें उपरोक्त मोंमें ही इन शब्दों का प्रयोग हुअा है. इसलिये यह सिद्ध है कि प्राक्षम काल में भो यसमाम युगौंका प्रचार ' था । ब्राह्माण अन्योंके पश्चान् उपनिषद् काल है, परन्तु उनमें भी इम इस युग प्रथाका अभाव ही देखते हैं। इसी प्रकार दर्शन पत्र तथा प्रसूत्र नादिकी भी अवस्था है। महाभारत और युग एषा द्वादश साहस्त्री युगाख्या परिकीर्तिता । एतत्सहस्त्र पर्यन्तपही ब्राह्ममुदाहृतम् । महाभारत, बन पर्व अ. १८८ अर्थात् बारह हजार वर्षोंकी युग संज्ञा है। ऐसे ऐसे हजार युगोंका प्रयाका एक दिन होता है। चतुर्युगके बारह हजार वर्ष होते हैं यह कल्पना महाभारत काल ही में मिलती है। इससे यह ज्ञात होता है कि ब्राह्मण कालके पश्चात् और महाभारत ग्रन्थसे पूर्व इन युगोंकी कल्पना हुई. परन्तु उस समय इन चारों युगोंके १२ हजार वर्ष माने जाते थे। ___ बासंपूर्णानन्द जी ने आर्योंका श्रादि देश नामक पुस्तकके प्र०८८ में लिखा है-- जैसा कि हमने इस दसवें अध्यायमें लिखा है ४,३२०००वर्ष Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G ( ६१५ ) वापर का एक युग माना जाता है। कलिकी आयु १ युग होती है, की युग त्रेताकी ३ युग, और सतयुगकी ४ युग। इसप्रकार १० अर्थात् ४,३६,००० वर्षका एक चतुर्भुग या महाबुन होता है । ७१ महायुगा एक मन्वन्तर और १००० महायुगों का एक कल्प होता है। इस प्रकार एक कल्पमें १०६० ÷ ७१ होते हैं और ६ महायुग अन्य रहते है। १४ गम्यन्तर गोदिक आयका ही माम प्रचलित है। इसके हिसाब से अन्तिम सतयुग प्रारम्भ कालको, जोकि वैदिक समारम्भ -कोल था, १७.२८,००० १२,६६,००० ८.६.००० x ५००० ३८ ६३,००० वर्ष हुये । यांक मानके और भी कई प्रकार है। श्री गिरीन्द्रशेखर योष मे अपने पुराण प्रवेशमें इस प्रश्न पर अच्छी खोजकी है। उसका सारांश श्री पी०सी० महालनबीसके एक लेख में जो १६३६ जूनकी (संख्या) में छपा था दिया गया है। यह विषय रोचक है और वैदिक काल विद्यार्थियोंको विशेष महत्व रखता है। इसलिये हम यहाँ उसका थोड़े दिग्दर्शन कराये देते हैं। युगका अर्थ है जोड़, मिलना। जहां हो या दोसे अधिक से अधिक वीजका मेल होता है युग, युति योग होता है । विशेषतः युग वह मिलन है जो नियम कालके बाद फिर फिर होता रहता है। हमारे यहाँ चार प्रकारके मांस प्रचलित है। (१) उ० सूर्योदयोंका सावन मास. (२) एक राशिसे दूसरी राशि तकका सौर मास (३) पूर्णिमा से पूर्णिमा तकका चान्द्रमास और (४) चन्द्रमा का पृथ्वी परिक्रमा में लगने वाला मात्र भास इन सबकी एक दूसरे से मिस है यदि हम सब अधिक लघुतमसमायवर्च निकाला जाय तो हम देखते हैं कि ५ सौर वर्षाने ६० सौर मास. ६? सावन मास. ६० चान्द्र मास. और ६७ नाक्षत्र Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६ ) इसलिए ५ सौर वर्षो कलि ५ वर्ष, द्वापर १० मास आते हैं। पांच पांच वर्ष में यह चारों मास एकत्रित होते हैं। नाम बेदांग ज्योतिष में युग है । इस प्रकार सौर वर्ष, त्रेता १५ सौर वर्ष और सतयुग २.० सौर वर्ष और का एक गुहा । पर इतना पर्याप्त नहीं है । और लम्बे काल मानोंकी आवश्यकता प्रतीत होती है उनकी उपलब्धि इस प्रकार होती है । चांद्र वर्ष में ३५५ दिन और सौर वर्ष में ३६६ दिन होते हैं यो अपनी सुविधा के लिये प्रति तीसरे वर्ष एक महीना ओड़ कर दोनों को मिला लिया जाता है पर ऐसा न किया तो ३५५ सौर वर्षों में. दोनों फिर मिलेंगे । श्रतः ३४५ सौर वर्षों का भी एक प्रकार का युग है इसको मनुकाल कहते हैं । ३५५ को ५ से भाग देने से ७१ युग आता है। इसलिये कहा जाता है कि एक मन्वन्तर में ७१ युग होते हैं । १००० युग अर्थात् २००० सौर वर्षों का एक कल्प होता है। एक कल्प में १४ मनुकाल होते है । इन में ४० वर्ष लगे। दो दो मनुषों के बीच में दो वर्ष का सन्धिकाल होता है. इस प्रकार १५ सन्धि'लों में ५०००-४६७० - ३० वर्ष लगते हैं । कल्प का नाम धर्मयुग या महायुग हैं। वो युगों के बीच में काल होता है । सन्धिकाल युग की आयुका दशांश होता है । fat को मिलाकर यगों की इस प्रकार हुई । ु त्रेता १५०० वर्ष और सत कलि ५०० वर्ष द्वापर १००० वर्ष [ग] २००० वर्ष | " ग्र देवों का अहोरात्र उत्तरीय व प्रदेश ६ मासकी रात्री होती है। अनेक विद्वानों ने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि शास्त्रों में जो देवों के अहोरात्र का वर्णन है वह उसी स्थान का वर्णन है। अतः यह सिद्ध है कि यह कल्पना न वैदिक है और न प्राचीन है। | 1 I Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुगका कब प्रारम्भ हुमा इस सम्बन्धमें भी शास्त्रकारों तथा माधुनिक विद्वानों में भी भयानक मतभेद पाया जाता है। (१) मद्रासके सुप्रसिद्ध विद्वान विलन्डी के अय्यरका मत है कि कलियुगका आरम्भ १९५६ शक पूर्व है। (२) पं० रमेशचन्द्र दत्त और अनेक पाश्चात्य पशिजतोंका कथन है कि कलियुगका प्रारम्भ १३२. वर्ष शक पूर्ण है। (३) मिश्र बन्धुओंने सिद्ध किया है कि २०६६ वर्ष शक पूर्व कलिका प्रारम्भ हुमा । (४) राजतरंगणीके हिसाबसे २५२६ शक पूर्व कलिका प्रारम्भ ठहरता है। (५) वर्तमान पंचाङ्ग में तथा लोकमान्य तिलक आदिके मतसे ३१४६ वर्ष शक पूर्वका समय आता है । (1) फैलाशवासी माउकके मतसे कलिका प्रारम्भ ५०० वर्ष शक पूर्ण का है। (७) वेदान्तशास्त्री विलाजी रघुनाथ लेलेके मतसे ५३.६ वर्ष शकपूर्व कलिका प्रारम्भ हुला। हमने यहां मतोका दिग्दर्शन मात्र कराया है। इसी प्रकार अनेक मत है । यहाँ ५११६ वर्ष और ५३०६ वर्षकी संख्याओंका भेद कितना विशाल है। - इस पर जरा दृष्टि डालो। इस भारी अन्तरका कारण यही है कि वास्तव में कलि आरम्भ हुमा ही नहीं है, यह तो एक निराधार कल्पना मात्र, जो उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के विरोध में की गई थी। या उत्सर्पिणी और अवसपिणांके प्रचारको नष्ट करने के लिये की गई थी । यही कारण है कि किसीने कुछ अनु Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१८ ) मान बनाया वो किसने किसी प्रकारकी धारणाकी, इसी प्रकार कलियुग की समाप्तिके विषय में भी भारी मत भेद हैं। नागरीप्रचार णी पत्रिका भाग १८ अङ्क १ में एक लेख भारत के सुप्रसिद्ध ऐति हासिक विद्वान श्री काशीप्रशाद जी जायसवाल एम० ए० विद्या महोदधिका छपा था । उसमें अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि विक्रमादित्य पूर्ण ही कलियुग समाप्त हो चुका था। उसके पश्चात् विक्रम संवत् चला जिसको प्राधीन लेखों में कृत संवतके नामसे उद्धृत किया है. कृत- सतयुग इसकी पुष्टि श्रीजयचन्द fat fariकारने अपनी भारतीय इति । सकी रूप रेखा में की है। इस कल्पनाका कारण यही था कि जब ब्राह्मणोंने देखा कि विक्रमादिव्य के राज्यमे लोगोंको सुख और समृद्धि प्राप्त हैं, तो उन्होंने ये फतवा दे दिया कि कृतयुग (सतयुग) आरम्भ हो गया और उनके संवत्का नामभी कृत संवत रख दिया। परन्तु जब उनके पश्चात् फिर भी पूर्ववत् अनाचारादि होने लगे तो ब्राह्मणोंने कह दिया कि 'कलिवृद्धिर्भविष्यति' कलियुग की आयु बढ़ गई है और कलियुगकी आयु भी बढ़ा दी। इस विषय में हम भारत के ही नहीं परन्तु संसार में ज्योतिष विद्या सर्व विद्वान पं० बालकृष्ण जी दीक्षित का मत लिख देना ही पर्याप्त समझते हैं। आप लिखते हैं कि ज्योतिष ग्रन्थों के मन से ३१७६ वर्ष शकाब्द के पूर्व कलियुग का आरम्भ हुआ ऐसा कहते हैं सही किन्तु जिन ग्रन्थों में यह वर्णन है. वे ग्रन्थ २६०० वर्ष कॉल लगने के हैं। इन ज्योतिष मन्थों के अलावा प्राचीन ज्योतिष या धर्म शास्त्र आदि ग्रन्थों में कलियुग आरम्भ कब हुआ यह देखने में नहीं आया. न पुराणों में ही खोजने से मिलता है। हाँ यह बात तो अवश्य है कि कुछ ज्योतिष ग्रन्थों के कथनानुसार यह वाक्य मिलते हैं कि कलियुग के आरम्भ में सब . Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६ १ ग्रह एकत्रित ये किन्तु गणित से यह निश्चित नहीं होता कि ये किस समय एकत्रित थे। यदि थोड़ी देर के लिये ऐसा मान भी लें कि ये सब ग्रह अस्तंगत थे तो भारतादि प्राचीन पुराणों में इस का उल्लेख क्यों नहीं मिलता हाँ उल्लेख मिलता २६०० वर्ष के बाद बने हुये सूर्यसिद्धान्त आदि नवीन ग्रन्थोंमें "भारतीय ज्योतिष शास्त्र" पृष्ठ २६ इसी प्रकार कलियुग आरम्भ की कल्पना है। इस के विषय में भी शास्त्रों का मत हैं। जय सूर्य चन्द्रमा तथा बृहस्पति एक राशि में आते हैं तब कृत य ग श्रारम्भ होता है परन्तु ज्योतिर्विद जानने हैं कि इन का एक राशि में आना नितान्त असम्भव है।" श ऐतिहासिकोंने इस कल्पनाका एक अन्य कारण भी बताया है । वह यह है कि खाल्डियन लोगों में सृष्टि संवत् या युग ४३२०० वर्ष का माना जाता है. उसी के आधार पर इस कलि का जन्म देकर इसमें ४ विदियां और बढ़ा दी इसकी ४३२००००००० सृष्टि की आयु बनादी । मतलब यह है कि कलियुग आदि की कल्पना निराधार और नवीनतम है। प्राचीन समय में भारतवर्ष में उत्सर्पिणीका सिद्धान्त प्रचलित था. aौदिक ज्योतिष्क के प्राचीन ग्रन्थ आर्य सिद्धान्त अध्याय ३ श्लोक में है । ह 'उत्तरी गार्धं च पथादवसर्पिणी युगाधं च मध्ये युगस्य सुष्मादावन्ते दुध्यामेन्दु चाद" इस में काल के दो भेद किये हैं । पहिले के भाग का नाम उत्सर्पिणी और दूसरे का अवसर्पिणी रक्खा है। इन दोनों भाग Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mu के ६-६ विभाग सुष्मा दुष्मा श्रावि किये गये हैं। यदि उपरोक्त शोक के साथ चैदिक ज्योतिष का नाम न होता तो कोई भी ध्यक्ति इसको ठौदिक सिद्धान्त कहनेके लिये उद्यत न होगा क्यों कि शब्दकल्पद्रुमकोश, और प्राप्टेकी संस्कृत इङ्गलिश डिक्शनरी में भी इसको जैनियों की ही मान्यता यतलाई है। इसी काल चक्र का नाम विकासवाद तथा हासवाद है। कर्म फल और ईश्वर कर्म, फल कैसे देते हैं, इसके जानने के लिए सबसे पहले यह जानना श्रावश्यक है कि कर्म क्या वस्तु है ? भारतके दर्शनकारोंने मन, बचन, कायकी क्रियाको कर्म माना है । परन्तु जैन शास्त्र इसकी और भी अधिक गहराई में पहुंचा है, और उसने कर्मके दो विभाग किए हैं-(१) भावकम, (२) द्रव्यकर्म। भावकर्म मन, बुद्धिकी सूक्ष्म-क्रिया या आत्माके संकल्परूप प्रतिस्पंदन को भावकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्म यह जैनदर्शनका पारिभाषिक शन है। इसके समझनेके लिए कुछ अन्तष्टि होनेकी आवश्कता है। जैन शास्त्रके इस सिद्धान्त को, कि प्रत्येक क्रिया का चित्र उतरता है; विज्ञान ने स्वीकार कर लिया है । अतः वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सिद्ध हो चुका है कि आत्मा जो संकल्प करता है, उस संकल्पका इस वायुमण्डल में चित्र उतरता है। अमेरिका के बौझानिकों ने इन चित्रों का फोटो Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लिया है। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि यह चित्र समस्त संसारमें व्याप्त हो जाते हैं। इन मित्रों का नाम जैनदर्शनकी परिभाषामें "कार्माण वर्गणा" है. और ये लोकाकाशमें व्याप्त हैं। ___जब कोई प्रात्मा किसी तरहका संकल्प-विकल्प करता है तो उसी जातिकी कार्माण पर्गरणाएं उस आत्माके ऊपर एकत्रित हो जाती है। इसीको जैन शास्त्रोंमें “मानव" कहा गया है ये ही कार्माण वर्गणाएँ जन्म आत्मा के साथ चिपक जाती हैं तो वह प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अमुभाग बंध रूपसे आत्माको जकड़ लेती हैं, इसीका नाम द्रव्यकर्म' है । इसी द्रव्य कर्मोके शानावररणादि माठ () भेद हैं जो आत्माकी आठ मुख्य शक्तियों को या तो विकृत करते हैं या आवरण करते हैं। इनका अतिसूक्ष्म और विस्तारपूर्वक मनन करनेके लिए जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय नितान्त भावश्यक है। कर्म, फल कैसे देते हैं ? कर्म, फल कैसे देसे हैं ? इस के जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि फल किसे कहते हैं ? ___ यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । कर्म भी एक क्रिया है, अतः उसकी भी प्रतिक्रिया होती है । ये प्रतिक्रियाएँ अनेक प्रकारकी होती हैं । यथा-इस कर्मरूपी क्रिया की दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होंगी-(१) स्वगत (२) परगत। जिस क्रियाका प्रभाव हमारी पारमा, सूक्ष्म व स्थूल शरीर पर पड़ता है यह स्वगत प्रतिक्रिया है। जैसा कि शास्त्रकारों ने लिखा है- यो यः स एव सः"। भगवान कृष्ण गीतामें Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - . L L (१२२ ) कहते हैं कि मनुष्य जैसी श्रद्धा, संकल्प व विचार करता है उसी प्रकार का उस का सूक्ष्म व स्थूल शरीर बनता है. और जैसा स्थूल, सूक्ष्म शरीरादि होता है उसी प्रकार का उस के आस-पास का वायु मंडल भी हो जाता है। अतः वह तदाकार हो जाता है भगवान कृष्ण प्रागे कहने हैं: "ध्यायतो विषयान पंसः संमस्तेषपजायते । . संगात् संजायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद्भवनि संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥" ... ... -गीता न. ५, श्लोक ६२-६३ विषयों के चिन्तन से पुरुष इन विषय के साथ संग करता है उस से वासना राग द्वेष इच्छादि उत्पन्न होती है अर्थात अमुक पदार्थ प्राप्त होना ही चाहिए ऐसी कामना उत्पन्न होती है। इस कामनाकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करता है। यदि उसकी प्राप्ति न हो तो उसके मृदयमें क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह (अविवेक) होता है मोह से उसका स्मृति विभ्रम होता है, और उससे बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि का नाश होने से प्रात्माका सर्वस्व नाश हो जाता है । यह स्वगत प्रतिक्रियाका फल है। कर्मके अन्य प्रकारसे भी २ विभाग किए हैं ? पुण्य ५ पाप पुण्य का फल सुख और प.पका फल दुःख होता है। सुख दुःख का लक्षण करते हुए न्यायाचाोंने कहा है किअनुकूल वेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् । अर्थात्-श्रोत्माके अनुकूल जो वेदना होती है उसे मुख कहते हैं और प्रतिकूल वेदनाको दुःस्त्र । विचारणीय विषय यह है कि अनुकूलता और प्रतिकूलता Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पदार्थो में विद्यमान है। यदि ऐसा हो तो प्रत्येक पदार्थ प्रत्येक व्यक्ति को अनुकूल ही या प्रतिकूल ही प्रतीत होना चाहिए। परन्तु अनुभवसे यह सिद्ध है कि प्रत्येक पदार्थ न तो प्रत्येक के अनुकूल ही है और न प्रतिकूल ही, अतः यह सिद्ध हुमा कि अनुकूलता तथा प्रतिक लता. पदामि नहीं है । यथा एक व्यक्तिको पानी पीनेमें श्रानन्द पाता है अब अगर पानी में ही प्रानन्द है तो उसे हमेशा पानी ही पीते रहना चाहिये क्योंकि उसे आनन्द की इच्छा है और पानी में श्रानन्द है और एक व्यक्ति यदि पानी में डूबकर मर जाय तो उसे कहना चाहिये कि वह प्रानन्दमें डूब कर मर गया है । परन्तु यह बात लोकविरुद्ध है। अतः यह सिद्ध हुआ कि पदार्थ में आनन्द नहीं है अपितु आनन्द आत्मामें ही है। अतएव शास्त्रकारोंने कहा है "संतोषादनुत्तम सुखलामः” अर्थात-संतोषसे अत्युत्तम सुखकी प्राप्ति होती है। और "तृष्णाति प्रभवं दुःखं" अथत दुःस्त्र का मूल कारण तृष्णा ही है। ___ तृष्णा और संतोष आत्मा की स्वाभाविक और वैभाविक आदि परिणतियों का ही नाम है । अतः सुख दुःख कोई वस्तु विशेष न होकर आत्माने कल्पित किए हैं। मनुष्य के जितनी ही तृष्मा अधिक होगी उतना ही वह अधिक दुःखी होगा. यही उस कर्मवस्थ रूपी आत्मा का फल है और इसी का नाम स्वगत प्रतिक्रिया है। इसीसे पाप और पुण्यको भी समझ लेना चाहिए अर्थात् जो कर्म आत्मा पर अधिक गाढ़ दीर्घकालिक द्रव्य कर्म का बंध बांधते हैं वे सन्न पाप हैं और जिनसे पाप रूपी द्रव्यकमकी सम्बर और निजरा होती है उसीको पुण्य कहते हैं। जिस प्रकार के द्रव्यकर्मका हम अंध करते हैं वह द्रव्यकम उसी प्रकारले स्थूल सूक्ष्म शरीरकी रचना करते है और उसी प्रकारके स्वभावोंका निर्माण होता। मनुष्यमें पूर्व द्रव्य कर्मानुसार Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२४ ) ही उसकी आदते बनती हैं उसीके अनुकूल वह आचरण करता है और तवनुकूल ही सुख दुःख रूपी फल भोगता है। इस प्रकार हमारे कर्म रूपी क्रियाकी अनेक स्वगत प्रति क्रियायें हैं ? जैसे दो व्यापारी एक साथ एक ही तरह की पूजी से व्यापार करते हैं परन्तु उनमें किसीको घाटा तो होता है और किसी को लाभ होता है। इसका कारण सिर्फ यही है पहलेको तो पूर्वकर्मानुसार असद्बुद्धि उत्पन्न होती है, और तदनुकूल आवरण से वह ऐसा व्यापार करता है कि उसे घाटा होता है तथा दूसरेको ऐसी सुबुद्धि उत्पन्न होती है कि उससे वह ऐसा काम करता है जिससे लाभ होता है। इसी प्रकार मानो एक आदमी जा रहा है और रास्ते में सोनेका ढेला पड़ा हुआ है। जब वह सोनेके ढलेके पास भाता है तब उसे यह बुद्धि उत्पन्न होती है कि अंधे किस तरह चलते हैं इसका अनुभव करना चाहिये भतः वह भांख बंद करके चलने लगता है। जब वह टेलेसे दूर निकल जाता है तब प्रांखें खोख लेता है, इससे सिद्ध हुआ कि अन्तराय कर्मके उदयसे अंधा बनने की बुद्धि उत्पन्न हुई। इसी प्रकार कमोंके कारणही किसोका उदार स्वभाव है किसीका प्रोछा और कोई कंजूस है कोई दानीतो कोई चिड़चिड़ा है कोई ईर्ष्यालु कोई दयालु है कोई परोपकारी है तो कोई स्वार्थी है मस्त है कोई रोता ही रहता है इस प्रकार असंख्य मनोवृत्तियां अपने २ कर्मानुसार ही होती है। जैसी मनोवृत्तियां होती हैं वैसा ही वातावरण बन जाता है और तदनुकूलही वह आत्मा सुखी दुःखी होता है इसीका नाम कमका फल है। 1 स्वगत प्रतिक्रिया इंग्लेण्ड के मनोवैज्ञानिकोंने यह जानने के लिये कि हमारे संकल्पोंका प्रभाव हमारे शरीर पर कहां तक पड़ता है प्रयत्न किया Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) उन्होंने हाईकोर्ट में दरख्वास्त देकर एक ऐसे व्यक्तिको लेलिया जिसको फांसी होने वाली थी 1 उन डाक्टरोंने कहा कि तुम्हारा खून निकाला जावेगा और तुम्हारे खूनसे दवाई बनाई जावेगी। उस आदमीको उन्होंने संगमरमरकी मेज पर लिटा दिया । लिटा कर उसका अखें बन्द करदी और जमको कसकर बांध भी दिया जिससे कि उसका कोई अङ्ग हिल डुल न सके। एक बहुत बारीक इन्जेशनकी सुई लेकर उसके अङ्गमें एक जगह स्पर्श मात्र कराया और कहने लगे कि इसके बदनसे खून निकलने लगा, उस मेजके नीचे एक टप रक्खी हुई थी। टपमें वे बूदें भी गिराते जाते थे जिससे कि श्राबाज्र हो और उसे मालूम हो कि टपमें मेरा खून गिर रहा है। साथ ही लोग कहते आते थे कि अब तो बहुत खून निकलने लगा । उसकी नाड़ीकी गतिभी देखते जाते थे धीरे धीरे उसकी नाड़ी मंद पडती जाती थी और वह समझता जा रहा है कि मेरे खूनसे टप भर गई है। इस प्रकार से वह वेचास इसी विश्वास पर जीवनसे हाथ धो बैठा । ठीक इसी प्रकार हमार संकल्पोंका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है कोई बहादुर है, तो कोई कायर है: यह सब संकल्पीका ही प्रभाव हैं। एक हस्तरेखा विज्ञानवेत्ता क्रिसो हस्तरेखाओं और सारीरिक चिन्हों को देख कर उन के स्वभाव आदि और भूत भविष्यत में होने वाली प्रायः तमाम घटनाओं का वर्णन कर देता है । यह सिद्ध कर रहा है कि हमारे द्रव्य कर्मानुसार जैसा सूक्ष्म स्थूल शरीर धनता है, उसी प्रकार के हमारे स्वभावादि बनते हैं. और उसी प्रकार हम फल भोगते हैं यही तरीका कर्मों के फन देने का है। परगत प्रतिक्रिया जहाँ हमारे संकल्पों का प्रभाव हमारी आत्मा और हमारे Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२६ ) शरीर पर पड़ता है. वहाँ दूसरोंकी आत्मा और शरीर पर भी पड़ता है। जैसे हम किसी की प्रशंसा करते हैं तो यह प्रसन्न होता है और उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। यह हमारे शब्दों का दूसरों पर प्रभाव पड़ा। इसी प्रकार गालियाँ आदि का भी बुरा प्रभाव क्रोधादि उत्पन्न कर देता है। जिस प्रकार हमारे विचारोंका भी दूसरों पर प्रभाव पड़ता है । स्थूल दृष्टि से चाहे हम उसे भले ही न जान सकें । परन्तु आज मनोवैज्ञानिकों ने हस्तामलक की तरह सिद्ध कर दिया है और हम अपने जीवन में भी इस प्रकार के सैंकड़ों सवार देखते हैं । परन्तु उन पर हमारी दृष्टि नहीं जाती । इतिहास में भी इसके कम उदाहरण नहीं है । विभीषण रामचन्द्र जी से प्रेम करता था इसी लिये रामचन्द्र जी भी उससे प्रेम करते थे। जिस समय रावण से पृथक होकर वह रामचन्द्रजी की सेना में आया उस समय सभीके हृदयमें यह भाव उत्पन्न हुये कि यह कोई गहरी चाल हैं । परन्तु रामचन्द्रजी ने उसे गले से लगा लिया। इसी तरह भीष्म और द्रोणाचार्य का प्रेम पाण्डवों पर था तो पाण्डवोंकी भी हार्दिक श्रद्धा उन पर थी । एक प्रान्त भी लीजिये किसी समय एक राजा बीमार हुआ. बड़े बड़े बैद्य, डाक्टर उसके इलाज के लिये बुलाये गये, परन्तु अन्तमें सब निराश होगये उन्होंने कह दिया कि यह राजा कल मर जायेगा | पर विधि का विधान, दूसरे दिन वह नहीं मरा और उसी दिन से उस की तबियत अच्छी होने लगी और कुछ दिनों में वह अच्छा चंगा होगया | एक दिन राजा की सवारी निकली. राजा ने एक बनियेको देख कर अपने वजीर से कहा, वजीर ! तुम इस आदमी को अपने देश से निकाल दो। बजीर ने सोचा राजा साहब बीमारी से उठे हैं. इस लिये ऐसा कुछ खयाल हो रहा है । मन्त्रीने उस पर विशेष Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान नहीं दिया। थोड़े दिन बाद राजा की फिर सवारी निकली तो राजाने उसी बनिये को देख कर कहा-क्यों वजीर : आपने इसको निकाला नहीं : वजीर ने माफी माँगी और कहा कि अब निकाल देगा । इस पर वजीर के दम पर विचार उत्पन्न हुमा कि क्या कारण है राजा इसी वनियेको देखकर नफरत करता है इस पर वजीरने उस अनियेसे मित्रता बढ़ा ली और एक दिन बनिसे पूछा कि क्या बात है, जो आप इतने चिन्तित रहते हैं। इस राज्य में तो सारी प्रसा ही सुखी है. किसी को किसी प्रकारका कष्ट नहीं हैं, आपका चेहरा हर समय मुरझाया ही रहता है । इसपर यनिये ने कहा कि भाई यसमा नरामय हो चुका । ता की यह समझ कर कि अन्त्येष्टि संस्कार के लिये सेरी ही दूकान पर से सामान जायेगा, मैंने हजारों रुपये का सामान खरीद लिया था मगर राजा नहीं मरा. मैं सोचता हूँ कि राजा मर जाय नो मंरा सारा सामान विक जाय । बजीर समझ गया कि यही कारण है जो राजा इसे निकालने को कह रहा था । उसने अनिये का मारा सामान खरीद कर गरीबोंको बांट दिया । किसी दिन फिर राजाकी सवारी निकली तो राजा ने उस आदमी को देख कर का कहावजीर ! मैं गलती कर रहा था । तुमने ठीक किया जो इसे नहीं निकाला. यह तो बड़ा प्रकला आदमी है। यही कर्मोकी परगन प्रतिक्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार के सैकड़ों अनुभव अपने जीवनमें बराबर करता है किन्तु उन पर सूक्ष्म-दृष्टि से कभी ध्यान नहीं देता। बदला कर्मरूपी क्रियाकी अनेक प्रतिक्रियाओं में से एक बदला रूप भी प्रतिक्रिया है। इसके लिये साधु लोग एक दृष्टान्त दिया करते Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२८ ) हैं कि एक समय एक साधु और उनका शिष्य तीर्थ-यात्राको जा रहे थे। मार्ग में उनको एक मछुपा मछली मारता हुआ मिला। शिप्यने उग्ने अहिमाका उपदेश दिया परन्तु वह उपदेशने कम मानने वाला था जब वह न माना तो शिष्य उसके माथ झगड़ा करने लगा. इस पर साधु ने अपने शिष्य में कहा कि भाई. माधुओं का काम केवल उपदेश देना है लड़ना-झगड़ना नहीं । इस पर वे दोनों आगे चले गये। कुछ दिनोंके बाद जब वे तीर्थयात्रा करके वापिस पाये तो उसी स्थान पर ( जहां कि मळुवेसे वाद-विवाद हुआ था ) क्या देखते हैं कि एक सांप पड़ा हुश्रा है और हजारों कीड़ियां उसको खा रही है । सांप का यह घोर कष्ट देख कर शिष्य ने चाहा कि किसी प्रकार इस का कष्ट दूर किया जाय । इस पर साधु ने अपने शिष्य से कहा- 'यह वही मळुवा है जो पति गंगारा करता था और सिरे से नहीं मामा था और ये कोड़ियां वे ही मछलियां हैं जो कीड़ी के रूप में अपना बदला ले रही हैं। इसी प्रकार के ऐतिहासिक दृष्टान्त भी दिये जाते हैं, जैसे कि शिवाजी के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह पूर्व जन्म में एक मंदिर के महन्त थे और मन्दिर को मुसलमानों ने लूटा और महन्त को भी जान से मार डाला । मरते समय महन्त यह निदान करके मरा कि मैं मुसलमानों से इसका बदला लेॐ। उन्होंने किमप्रकार से बदला लिया इसका इतिहास साक्षी है। इसी प्रकार की एक घटना बहुत दिन हुये जब अखबारों में प्रकाशित हुई थी। ___ एक साहूकार जंगल से गुजर रहा था उसके पास बहुन सा माल था। रास्ते में एक डाकू ने उसका सारा माल लूट लिया और उसे भी मार डाला । मरते समय साहूकारने यह निदान बांधा कि मैं अपना धन अपने आप भोगू । उस डाकू ने डाकूपने का Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेशा छोड़ कर दूर जाकर किसी शहर में दूकान करली । उस दूकान से भी बहुत कुछ फायदा हुआ और वह बड़ा मालदार बन गया। उसकी शादी हो गई। कुछ दिनों के बाद उसके लड़का पैदा हुआ । उसके जन्मोत्सव में बहुत सा रुपया खर्च किया गया इसके बाद उसके लालन-पालन, शिक्षण में भी खूब व्यय किया गया । फिर उसकी शादी की गयी उसमें भी बहुत धन लुटाया गया । कुछ दिन बाद दुर्भाग्यवश लड़का बीमार पड़ गया । वर्षों हे वाक्य :- जैसले ईलाज माया गया जिसमें बेशुमार रुपया खर्च में पाया । अन्त में डाक्टर श्रादि सब निराश हो गये और उन्हीं ने जबाब दे दिया कि अब इसके बचने को कोई श्राशा नहीं । एक दिन लड़का एकान्त देख कर अपने पिता से कहने लगा--"पिता जी ! आपने मुझे पहिचाना ? इस पर सेठ बड़ा हैरान हुमा और कहने लगा, बेटा ! ग्रह तुम क्या कह रहे हो ? क्या आज तुम्हारी तबियत अधिक खराय है ?" इस पर उसने उस जंगल वाले किस्सेकी याद दिला कर कहा कि "लो मैं अब जा रहा हूँ। मैंने उतना ही धन प्रापसे खर्च करवाया है जितना कि आपने मुझसे लूटा था । उस धन का व्याज अश्यशिष्ट है उस व्याज से मेरी स्त्री का पालन करना यह कह कर उसने अपना शरीर छोड़ दिया । इसी प्रकार महाभारत में भीष्म पितामह और काशीराज की लड़की का वृत्तान्त पाता है। जो कि दूसरे जन्म में शिखण्डी घन कर भीष्म पितामहकी मृत्युका कारण हुआ। __इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं। जैनशास्त्रों में नो हजारों उदाहरण इस प्रकार के दिये हुए हैं जिनको दिखलाना पिष्टपेषण करना है। इसी बदले की भावना को जैनशास्त्रों में "निदान बन्ध" कहते हैं। इसी प्रकार और भी अनेक प्रतिक्रिया Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३० ) होती हैं, जिनका प्रभाव जातियों, कुलों तथा राष्ट्रों पर पड़ता है । इसका नाम कर्मफल देनेकी विधि है । हम अपने जीवन में नित्य प्रति देखते हैं कि किसी से राग हो जाता है. किसी से द्वेष हो जाता है. कोई हम से प्रेम करता है. कोई घृणा. कोई नुक्सान पहुंचाने का प्रयास करता है तो कोई सहायता पहुंचाता है । सहसा किसी को देख कर हमारे मन में सद्भावनाएँ उत्पन्न होती है और इच्छा होती है कि इससे मित्रता करें । इसी प्रकार किसी को देख कर खामखां नफरत हो जाती है । यह सब पूर्वोपाजित कर्मा का परिणाम है। जो हमारे अन्दर ( फल देने और दिलाने के लिए) अनेक प्रकार की बुद्धि उत्पन्न कर देता है । कर्मफल और दर्शन भारतीय दर्शन में तीन दर्शनों का ऊंचा स्थान है । १ - जैनदर्शन, २ - बौद्धदर्शन, ३ – वैदिकदर्शन | इनमें से जैनदर्शन और बौद्धदर्शन इस बात में एक मत हैं कि कर्मों का फल प्रदाता कोई ईश्वर- विशेष नहीं हैं। रह गया वैदिक दर्शन उसके छह विभाग हैं १ सांख्य, २ योग, ३ मीमांसा वेदान्त, ५ न्याय, वैशेषिक। इनमें से सांख्य और मीमांसाकार ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते इस लिए वे भी कर्मो का फल स्वयं कर्मों द्वारा ही प्राप्त होता है इस बात के समर्थक हैं । सां दर्शन का मत है कि लिंग शरीर बारंबार स्थूल शरीर को धारण करता है तथा पूर्व देह को त्यागता रहता है । सांख्य परिभाषा में इस का नाम संसरण हैं। सांख्य कारिका ४५ में लिखा है "नवन् व्यवतिष्ठते लिनम्" जिस प्रकार अभिनेत्री कभी राम कभी रावण कभी स्त्री कभी पुरुष, कभी राजा ? Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३१ ) कभी रंक आदि रूप धारण करती है उसी प्रकार लिङ्ग (सूक्ष्म ) शरीर कामना के वश होकर अनेक प्रकार के शरीर धारण करता रहता है। कभी देवता बन जाता है कभी नारकी, कभी पशु पक्षी तो कभी पुरुष मादि का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार लिङ्ग शरीर स्वयमेव बगैर किसी ईश्रर आवि की प्रेरणा या सहायता के अनेक प्रकार के शरीर धारण करता है और सुख दुःख भोगता रहता है । सांख्य दर्शन में आत्मा नो निलेप है ! न यह का है न भोक्ता है। सांख्य दर्शन कर्मफल के लिये भी ईश्वर की श्रावश्यकता नहीं समझता । इसी लिये सांख्यदर्शन अनीश्वरवादी प्रसिद्ध है। उसने ईश्वर का खुएडन किन प्रबल युक्तियों से किया है. इसका दार्शनिक और ऐतिहासिक विवेचन हम विश्वविचार" में कर चुके हैं। सांख्य दर्शन की तरह पूर्व मीमांसा भी अनीश्वरयादी है। उसके मतानुसार भी कर्मफल देने के लिये ईश्वर श्रादि की कल्पना करने की जरूरत नहीं है । तन्त्रवातिककार का कथन है। "यागादेव फलं तद्विशक्तिद्वारेण सिध्यति । मूक्ष्म शक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते ।" अर्थात कर्म से अपूर्व ( धर्माधर्म उत्पन्न करने की शक्ति) उत्पन्न होनी है उस अपूर्व रूप मुक्ष्म शक्ति से फल प्रार होता है। योगदर्शन योगदर्शन के अनुसार चित्त अनेकों लोशों की खान है। सम्पूर्ण क्लेश विपर्ययरूप हैं। इन सम्पूर्ण क्लेशोंका कारण अविद्या Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को ही माना जाता है । महत्तत्व अहंकारादि परंपरा से परिणाम को स्थापित करते हैं और आपस में एक दूसरे के अनुपाहक बन कर कर्मों के फलों को जाति, श्रायु, भीर रूप से निष्पन्न करते -योगदर्शन व्यास माध्य , ३ ___ योगदर्शनानुसार कर्मों से क्लोश उत्पन्न होते हैं और लोशों से कर्मों का बन्ध होता है । जनदर्शन में इसी को द्रव्यकर्म से भावकर्म और भाषकर्म से द्रव्यकर्म का उत्पन्न होना कहा है। श्रतः योगदर्शन भी कर्मफल देने के लिये ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता । योगदर्शनका ईश्वर सम्पूर्ण वैदिक दर्शनों से निराला है। जिस को हम मुक्तात्मा कह सकते हैं। वेदान्त दर्शन वेदान्तदर्शन के अनुसार तो जीव, कर्म, सुख, दुःस्य च संसार की सत्ता ही नहीं है। यह सब भ्रममात्र है। अतः कर्म और उसके फल के विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब निराधार सिद्ध हो जाता है। क्योंकि ईश्वर के सिवाय उसके मत में कोई वस्तु ही नहीं है । उसके मत में-बम भ्रमवश माया में फंस गया है । ग्रह माया क्या है यही एक जटिल समस्या है। जिसको सुलझाने में सार आचार्य असफल ही रहे हैं । अतः उसके विषय में हम विशेष विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं समझते । न्यायदर्शन न्याय श्रादि दर्शनों के विषय में हम विस्तार पूर्वक विवेचन दर्शन और ईश्वर प्रकरण में कर चुके हैं। न्यायके मूल सूत्रों में क्तमात ईश्वर के लिये स्थान नहीं है । न्यायदर्शन के प्राचार्यों में • सम्पादाय हैं। १ ईश्वरबादी. अनीश्वरवादी । अनीश्वरवादी के Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३३ ) विषय में कहने की कही है। ईश्वर वादी कर्मफल देने के लिये ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं उनके मत में ईश्वर सम्पूर्ण कर्मों का फल नहीं देता अपितु जिस कर्म का फल देना चाहता है, उसको देता है। "ईश्वरः कारणं पुरुष कर्माकल्यदर्शनात् । " अर्थात् - हम देखते हैं कि मनुष्य कम करता है और उसके फल को नहीं भोगता इससे जाना जाता है कि कर्मफल दाता कोई अन्य शक्ति है. वह जिस कर्मका फल देना चाहती है, उसीका देती हैं | न्यायमतानुसार फल को ईश्वराधीन माना है। स्वामी दयानन्द जी ने 'सत्यार्थप्रकाश में इसको तीसरे नास्तिक का नाम दिया है क्योंकि कर्मफलको ईश्वराधीन मानने में अनेक आपत्तियां हैं। जो ईश्वर किन्दी कमों का फल देता है किन्हीं का नहीं वह किन्हीं जीवां बगैर कर्म किए ही फल देता होगा। इस प्रकार वह पक्षपाती और अन्याय दोषका भागी ठहरेगा । स्वामीजी ऐसे स्वच्छन्द ईश्वरको ईश्वर माननेके लिये तैयार नहीं हैं इसलिये उन्होंने गौतम को नास्तिक की उपाधि सुशोभित किया है। ईश्वर किसी कर्मका फल देता है किसीका नहीं इसका कारण क्या है | क्या वह जीवों की भलाईका इच्छुक है ! यदि ऐसा है तो सभी जीवोंको सुखी बना देता या मुक्ति दे देता. जिससे जीव भी सुखी हो जाते और ईश्वर भी टोंसे छूट जाता। यदि और कुछ कारण है तो वह कारण गुप्त होगा जिसका रहस्य ईश्वर के सिवाय और कोई नहीं जान मुक्ता 1 वैशेषिकदर्शन 1 र गया वैशेषिक दर्शन । वैशेषिक दर्शन ईश्वरको मानता है या नहीं यह विद्वानोंके लिये आज भी विवादका विषय बना हुआ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४ ) हैं वैशेषिकदर्शन में कर्म फलका कोई विशेष विवेचन नहीं किया गया है और नहीं ईश्वरको कर्मफल दाता. माना है यह हम अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध कर चुके हैं। गोता कर्म, फल किस प्रकार देते हैं यह गीता के प्रमाणसे हम पहिले यता चुके हैं उसीसे यह सिद्ध हो जाता है कि कर्म फल देनेकेलिये किसी ईश्वर विशेषकी श्रावश्यकता नहीं है परन्तु गीताने इतने ही से संतोष नहीं किया उसने मों में काले तिरे ईश्वरकी श्रावश्यकता का निषेध किया है यथा "न कतत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्मफल संयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥" गीता ५।१४ वर्तमान समयके सर्वश्नेष्ट्र विद्वान लोकमान्य तिलकने इसका अर्थ इस प्रकार किया है । प्रमु ( परमात्मा) ने लोगोंके कर्मका या उनसे प्राप्त होने वाले कर्म फल संयोगका भी निर्माण नहीं किया। स्वभाव अर्थात प्रकृति ही सब कुछ किया करती है। आगे चल कर गीता कहती है"अज्ञानेनावतं ज्ञानं तेनमुह्यन्ति जन्तवः ।" गीता ५.१५ ज्ञान पर अज्ञान का परदा पड़ जाने से जीव मा हत (विवेक, हीन होकर सुख दुःख भोगता है। महाभारतमें लिखा है"यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विदन्ति मातरम् । तथा पूर्वकूनं कर्म-कर्तार मनुगच्छति ॥" शान्तिपर्व अ० १८१-१६ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३५ ) अर्थात - जिस प्रकार हजारों गायों में से बछड़ा अपनी मां को पहिचान कर उस के पास पहुंच जाता में उसी प्रकार किया हुआ कर्म कर्त्ता के पास आ जाता है । विज्ञान ने भी इस बातकी पुष्टि की है। जिस तरह से विद्यत जिस स्थान से चलती है लौट कर उसी स्थान पर वापिस आ जाती है। उसी प्रकार कर्म भी लौट कर वापिस आते हैं, और कर्त्ता को सुख दुःख देते हैं। अर्थात् भावकर्म इन कार्माण वर्गराओं को आकर्षित कर लेता है। यह माये हुए कर्म ( कार्मार वर्गणाएं ) आत्मा की मूल शक्ति (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) पर पर्दा डाल कर उसको प्राच्छादित कर देते हैं । उस स्वाभाविक शक्तिके तिरोभूत हो जाने से आत्मा अपने को तदनुसार समझ कर उन्हीं कर्मों के आधीन हो कर नवीन कर्म करता है। इसी को जैनशास्त्रों में विभाव परिति कहते हैं । इसी विभाव परिणति के कारण यह आत्मा अनादिकाल से कम के बन्धन में पड़ा हुआ मुख दुःख भोगता है। उपनिषद् और कर्मफल उपनिषद्कारों ने इस विषयको स्पष्ट किया है कि "काय एवायं पुरुष इति स यत्कामो भवति तत्कर्तुति यत्कर्तुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते" - वृहदारण्यकोपनिषद् ४-४-५ - अर्थात – यह पुरुष कामनामय है अतः उस कामना के अनुसार ही यह चिन्तन करता है और चिन्तनके अनुकूल ही कर्म करता है। और जैसा यह कर्म करता है वैसा वह बन जाता है। आगे कहते हैं "सईयते पत्र कामम" जैसा वह बन जाता है, उसके Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३६ ) अनुकुल वह जिस पदार्थ को पाने की इच्छा करता है वहां वह पहुंच जाता है. I "कामात्यः कामयते मन्यमानः समभिर्जयिते तत्र तत्र " - मुण्डकोपनिषद् ३-२-२ अर्थात् - जिस २ वस्तु की कामना से यह आत्मा शरीरको बोता है योनि या स्थान आदिमं जन्म लेकर पहुंच जाता है। " तदेव शक्रः म कति लिङ्ग मनो यत्र विक्रमश्र ।" वृहदारण्यकोपनिषद् ४-४-६ अर्थात् यह श्रात्मा जिस पर अनुराग करता है यह कर्म (लिङ्ग शरीर ) आत्माको उसी जगह ले जाता है। यही बात गीता में कही गई है। "यं यं वापिस्मरन भावं त्यजत्यन्ते कलेवरं । तं तमेवेति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥ " अर्थात् श्रात्मा जिस २ भाव से प्रभावित होकर शरीरका त्याग करता है । उसी भावको दूसरे जन्म में प्राप्त हो जाता है । कर्मफल और ईश्वर ऊपर हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि वैदिक साहित्य में भी ईश्वर को कर्मफल दाता नहीं माना है । अत्र हम तर्क द्वारा इसकी परीक्षा करते हैं कि ईश्वर कर्मफल दाता है या नहीं। इसके लिये बा० सम्पूर्णानन्द जी ने चिदविलास में बहुत ही अच्छा लिखा है आप लिखते हैं कि :. • कौन सा काम झा व कौन बुरा है" इसका निर्णय ईश्वर अपनी स्वतन्त्र इच्छा से करता है या इस बात की समीक्षा Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है कि वर्तमान परिस्थिति में क्या श्रेयस्कर है । क्रिस कामका क्यापुरस्कार या दण्ड दिया जाय, ६ वयोवार निर्भर है या नियम बढ़ है ! अर्थान--क्य। अमुक कामका अमुक फल. होगा ग्रह नियन है ? यदि इन बातों में ईश्वर की इक्छा स्वतन्त्र है तो समाचार निराश्रय हो जाता है। इच्छा का क्या भरोसा न जाने कब पलट जाय । जो पुण्य है वह पाप हो जाय. जो दण्ड है वह पुरस्कार्य हो जाय । यदि का कार्य का निर्णय वस्तुस्थिति की समीक्षा पर निर्भर है तो प्रत्येक मनुष्य को अपनी बुद्धिके अनुसार स्वयं समीक्षा करनी होगी। क्योंकि किसी समय विशेषपर ईश्वर को क्या सम्मति है इसके जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। कामका फल नियमानुकूल मिलता है तो ईश्वरका मानना वेकार है । ईश्वर फल देना है न कहकर यह कहना ठीक होगा कि नियति के अनुसार फल मिलता है । ऐसी स्थिति को वैदिक वाङ्गमय में पत्य का नाम दिया गया है। अपने से बाहर किसी ईश्वरकी और दृष्टि लगाये रहने की अपेक्षा कर्म और फल के अटल सम्बन्ध को जिसे कम सिद्धान्त कहते हैं बराबर सामने रखना सदाचार के लिये बढ़तर सहारा है।" पृ८६३३ । छामे आपने दर्शन और जीवन' नामक पुस्तकमें लिखा है कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि यह जगत् ईश्वर की मुष्टि है।" यदि यह बात ठीक है तो ईश्वर ने ही मनुष्य को पंक्षा किया। ईश्वरने ही उसके लिये एक विशेष प्रकारकी अार्थिक और और कौटुस्बिक चहार दीवाल बन्दी की । ईश्वरने ही उसे जन्मान्ध या बाल रोगी या बावला या प्रतिभा शाली बनाया । फिर यह सोचने की बात है ! कि उसके सत्कर्म के लिये पुरस्कार और दण्ड जसको मिलना चाहिये या ईश्वर को :: Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३८ ) उपरोक्त कथन इतना तात्विक और स्पष्ट हैं कि इसके ऊपर कुछ लिखने को आवश्यक्ता नहीं है। यहां सबसे प्रथम तो प्रश्न यह है कि कौन सा कर्म बुरा है और कौन सा अच्छा है, इसको पहचानने की कौनसी कसौटी है। शास्त्रकारों ने स्वयं कहा है। "न धम्मम्मों चरतः श्राव स्व इति " " अर्थात् धर्म और अधर्म घूमते नहीं फिरते और न यह कहते फिरते कि धर्म हूँ मैं हूँ जब श्रुति ही यह कहती है तो इस मनुष्य के पास कौनसा साधन है जिससे यह जान सके कि अमुक काम करने से ईश्वर पुरस्कार या दण्ड देगा। स्वयं आस्तिक बाद में ही लिखा है कि न कोई कर्म पुण्य है और न पाप' जब यह बात हैं तो ईश्वर फल किसका देता है । यदि यात पुरुषों के वचनों को धर्म माना जाय तो भी किस प्राप्त के वचन धर्म हैं यह कैसे सिद्ध होगा। क्योंकि सभी देशों में समय समय पर महापुरुष हुए हैं उन्होंने अपने अपने धर्म भी प्रचलित किये ← हैं साधारण जनता उन सभी को अस मानकर उनके धर्म पर चलती है अतः उनमें से किन धर्म को ईश्वर पसन्द करता है यह कैसे जाना जाय । जब ईश्वर ने मनुष्य को इस प्रकार के ज्ञानके लिये साधन नहीं दिये तो उसे उस कर्मका फल क्यों मिलना चाहिये मानलो एक बालक मुसलमान के वरमें उत्पन्न हुआ है माता पिता ने उस पर अपने धर्म के अनुसार ही संस्कार डाले हैं बचपन से ही उसने कुराम आदि अपनी धार्मिक किताबें पढ़ी है तथा मुसलमान महापुरुषों के ही जीवन चरित्र पढ़े हैं तथा उन्हींका इतिहास पढ़ा है. अब इन सबसे उसके मनमें यह दृढ विश्वास हो गया है कि मुसलमानों के सिवाय सब काफिर हैं और काफिरों को कत्ल करना, उनका माल लूटना, उनकी बहू बेटियों पर बलात्कार करके उनकी बेहनती करना परमधर्म है. 1 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३६ ) इससे खुदा खुश होकर हमेशा के लिये स्वर्ग में भेज देता है । इसलिये वह ऐसा ही करता है, तो यह पाप है या पुण्य ? तथा इसका फल इसको क्यों मिलना चाहिये ? क्योंकि इसका कुछ भी अपराध नहीं है, इसमें यदि अपराध है तो ईश्वरका है. क्योंकि उसने इसको ऐसे कुल में व धर्म व जाति में उत्पन्न किया कि जिसमें इसको ऐसी शिक्षा मिली और वह उस रूप हो गया । अतः ईश्वर की हो यह सब करतूत है, फल भी उसीका मिलना चाहिये इसलिये आत वचन को भी धर्म नहीं कह सकते । यदि सृष्टि नियमको धर्म मानें तो भी वही समस्या है कि सृष्टि नियम क्या है. यह जानना भी आज तक सम्भव नहीं हुआ I अतः यह साधन भी गलत है। बस जब यही ज्ञान नहीं है कि ईश्वर किस कार्य से प्रसन्न होता है और किससे नाराज होता है, तो हम उसको नाराज करके दस्त के भागी भी नहीं बन सकते । यदि कहो कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है उसमें जो लिखा है वह धर्म हैं। तो भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो वेद ईश्वरीय ज्ञान नहीं है । दूसरी बात यह हैं कि वेदों में क्या लिखा है इसी को आज तक किसी ने नहीं जाना है। मांस, शराब, जुआ. चोरी, व्यभिचार आदि सभी पापों की शिक्षा वेदोंसे प्राप्त हो जाती है तथा वेदोंमें ही इनका विरोध भी मिलता है, अतः कौनसे धर्मका प्रतिपादन है यह जानना भी कठिन ही नहीं अपितु असंभव ही है इसलिए यह साधन भी धर्मका ज्ञान नहीं करा सकता । स्वतन्त्रता कर्मका उत्तरदायी वही हो सकता है जो स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करता है, परन्तु हम संसार में देखते हैं कि कोई भी व्यक्ति कर्म — Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . करनेमें स्वतन्त्र नहीं है । इसके दो कारण है १-अन्तरंग कारमा २-बहिरंग परिस्थिति। अन्तरंग कारणों में इसके स्थूल और सूक्ष्म शरीर की रचना तथा पूर्व जन्मके और इस जन्मके संस्कार हैं । प्राणी इनसे विवश होकर अनेक प्रकार के कार्य करता है. इसलिए सबसे प्रथम हम शरीर आदि की रचनाका विचार करते हैं। श्री नारायण स्वामीने आत्मदर्शनमें लिखा है कि____ "मस्तिष्क और चित्तके सम्बन्धम योरोपके मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकोंमें मतभेद है । एक दल कहता है कि मस्तिष्क और चित्तमें सत्ताभेद नहीं. ये दोनों पर्यायवाचक है, दूसरा दल कहता है कि मस्तिष्क जड़ और "माइण्ड" (मात्मा ) का यन्त्र मात्र है। इस दलके अनुयायी "माइएल को वीमात्मा कहते हैं तीसरा विचार यह है कि मस्तिष्क और चित्त दोनासे पृथक आत्मा है और ये दोनों उसके यन्त्र मात्र हैं । जबादो नास्तिक . जो प्रात्माको स्वतन्त्र सस्ता नहीं मानते. पहिले दामें एक न एक प्रकारका मत रखते हैं, परन्तु आस्तिक जगत् अन्तिमवाद का समर्थक है । इसी जगह छम यह बता देना चाहते हैं कि भारतीय दर्शन और उपनिषद् इस विषय (शरीरके आन्तरिक व्यापार के सम्बन्ध) में क्या शिक्षा देते हैं जिससे विषयके तुलनात्मक झान प्राप्त होनेमें सुगमता हो। आंतरिक ब्यापार दर्शन और उपनिषद् जीवात्मा नित्य चेतन और स्वतन्त्र सन्तावान है शरीर उसे अपने गुणों ज्ञान और प्रयत्न को क्रियात्मक रूप देने के लिये मिलता है। शरीर के ३ भेद हैं- (९) स्थूल शरीर-जिससे हम सत्र Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) बाह्य कियायें किया करते हैं और जिसमें चतु आदि १० इंद्रियों के गोलक अथवा करता है । ( २ ) सूक्ष्म शरीर यह अदृश्य शरीर प्रकृति के उन अंशों से बनता है। जो स्थूल भूतोंके प्रादुर्भाव होनेसे पहिले सत, रज और तमकी साम्यावस्था रूप प्रकृति में विकार आने से उत्पन्न होते हैं । सूक्ष्म शरीर के १७ अवयव हे 1 ५ ज्ञानेन्द्रियों की अन्तारिक शक्ति x ५ प्राण ५ तन्मात्रा सूक्ष्मभूत x १मन १ बुद्धि x | ये सूक्ष्म शरीर को निर्माण करते हैं । समस्त जगत सम्बन्धी आन्तरिक क्रियायें इसी शरीर के अवयवों द्वारा हुआ करती है। ( ३ ) कारण - शरीर। यह कारण रूप प्रकृतिका वह अंश होता है जो विकृत नहीं होता। इसके विकास के परिणाम ही से मनुष्य योगी होता है और समाधिस्थ होनेकी योग्यता प्राप्त करता है। १७ द्रव्य मिल कर सूक्ष्म शरीर की कार्य प्रणाली म की प्रेरणा बुद्धि के माध्यम से मन को होता है। जो समस्त ज्ञान और कर्म इंद्रियों का अधिष्ठाता है। मन की प्रेरणा से समस्त इन्द्रियें अपना अपना कार्य करती हैं। सूक्ष्म शरीर के १० करण (५ ज्ञानेन्द्रिय + ४ उनके विषय सूक्ष्मभूत मस्तिष्क में रहते हैं । ५ प्राण समस्त शरीर में फैले रहते हैं। श्वासोच्छवास, भोजन मेदे में पहुंचना, रक्त, प्रवाह आदि उनके कार्य हैं जो निरंतर होते रहते हैं। बुद्धि मस्तिष्क में, मन चित्त और आत्मा शरीर के केन्द्र हृदयाकाश में रहते हैं। मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है। सूक्ष्म और कारण शरीर आत्मा के साथ मृत शरीर से निकलकर "यथा कर्म यथा श्रुतम् " दूसरी योनियों में आया जाया करते हैं। और आत्माके साथ बराबर उस समय तक रहते हैं जब तक जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेता । मुक्ति प्राप्त करने पर Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४२ ) इन्द्रियों के व्यवहार जर्मनी के वैज्ञानिक "पॉल फ्लैश जिग" ( Paul Flechrig of Leipzig) ने बतलाया है कि मस्तिष्क के भूरे मज्जाक्षेत्र (grey matter or Correx of the krain ) इन्द्रियानुभव के चार अधिष्ठान या भीतरी गोलक हैं जो इन्द्रिय-संवेदनाको ग्रहण करते हैं. उसने उनका इस प्रकार विवरण किया है- (१) स्पर्श ज्ञानका गोलक मस्तिष्क के खड़े लोध में । the sphere of tmch in the Vertical Loke. ( २ ) - प्राणका गोलक मस्तिष्क के सामने के लोथड़े में | the Sphere of smallin rhe Frontal Loke (३) - दृष्टिका गोलक पिछले लोथड़े में । the Sphere of Sight in the Occipital Loke. ( ४ ) -- श्रवणका गोलक कनपटीके लोथड़े में । the Sphere of hearing in the temporal Loke. और यह भी बतलाया कि इन चारों भीतरी इन्द्रिय गोलको के बीच में विचारके गोलक ( thought centres or centres of association, the real organs of mental life) हैं, जिनके द्वारा भावोंकी योजना और विचार आदि जटिल मानसिक व्यापार होते हैं" इस प्रकार यह शरीरोंको रचना अपने आप करता रहता है। जिस प्रकार के इसके भाव होते हैं. उसी प्रकारका इस का शरीर बन जाता है, जैसे शरीरकी बनावट होगी वैसा ही यह कार्य करता रहता है। आस्तिक वाद में भी लिखा है कि एक प्रकारसे जीव कम करने में स्वतन्त्र और दूसरी अपेक्षासे परतन्त्र भी हैं। अर्थात उसकी स्वतन्त्रताकी मर्यादा है, उससे बाहर वह Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४३ ) नहीं जा सकता, उन मर्यादाके भीतर ही उसकी अमुक काम करने न करने. उल्टा करने की स्वतन्त्रता है" यहां यह तो माना गया है कि जीव कम करने में स्वतन्त्र है भी और नहीं भी, अब यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होला है कि ग्रह कैसे जाना जाय कि जीव किस काम में स्वतन्त्र है और किसमें परतन्त्र । अापने एक चोरी का धान्त दिया है अर्थात आपने लिखा है कि जीव चोरी करने में स्वतन्त्र है । परन्तु यह बात बिलकुल गलत है। क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि चारी करनेवाले स्वभाववश होकर चोरी आदि करते हैं। उनके शरीर की आकृति श्रथवा बनावट से भी ज्ञान हो सकता है कि यह चोर प्रकृतिका मनुष्य है । हस्तरका विज्ञानसे भी इस छाप्तक! पता लग सकता है कि यह चोरी आदिके स्वभाव बाला है अथवा ईमानदार है। हम इस विषयका संक्षेपमें वर्णन करते हैं। (१) जिसका हाथ बहुत छोटा होकर जाड़ा (कठोर) मांसयुक्त हो वह प्रायः चारी का काम करने वाला होता है। (6) कनिष्ठिका अंगुली के तीसरे पर्व पर कुछ देदी यांकी रेखाएं होकर क्रासका चिन्ह बनाती हो तो भी चोर सिद्ध होता है । (३) बुधका पर्वत ऊंचा उठा हुआ होकर छोटी अंगुली की नोक मांसमय और मोटी हो। इनका और जीव का वियोग होता है और उस समय ये शरीर वापिस जाकर प्रकृति के उन्ही अंशो में मिल जाते हैं, जहां से नाये थे। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४)बुधके पर्वत पर ताराके चिन्ह हों व जालीके साशचिन्हहों (५) मस्तिक रेखा टेढ़ी और लाल वर्ण की हो। (३) छोटी अंगुली के जोड़ की मि मोदी और हा कठोर होना चोरके लक्षण हैं। खूनी १-मंगल का पर्वत ऊँचा उठा हुआ हो तथा उस पर तारा के चिन्द भी हो। २-शनि के नीचे मस्तिष्क रेखा पर नीले रंग की रेखा हो । फांसी का दण्ड तर्जनीसे रेखा निकल कर यदि अंगूटेकी प्रथम सन्धिके साथ जाकर मिली हो तो उसको फांसी होगी। शस्त्र से मौत मध्यमाके तीसरे पर्व पर नक्षत्रका चिन्ह हो तो शस्त्रसे मौत होगी। जानवर भय शनि और मंगलके पर्वत पर नक्षत्रका चिन्ह हो तो जंगली आमवरका भय है। अात्म हत्या (१) चन्द्र पर्वत पर कासके सदृश चिन्ह हो तथा यह चिन्ह धन रेखाके अन्त में भी होना चाहिये 1 ___(२) मस्तिष्क रेखा और श्रारोग्य रेखा परस्पर मिली हुई होकर आयु रेखा अन्य अनेक रेखाओंसे छेद न हुई हो तथा शनिका पर्षत ऊँचा हुया हो तो आत्मघात करेगा। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) (३) मध्यमाका प्रथम पर्व लम्बा होकर चतुष्कोण आकृतिका हो तथा बुध व मंगलके पर्वत पर कासका चिन्ह हो । दुष्ट के लक्षण मस्तिष्क रेखा व अन्तःकरण रेखा बिलकुल समीप रह कर बुधका पर्वत सबसे अधिक ऊँचा उठा हुआ हो । (२) अंगूठा छोटा होकर अंगुलियां लम्बी तथा चन्द्रका पर्वत सबसे अधिक ऊँचा उठा हुआ हो । (३) के पर्वत पर शुक्रकी रेखा आई हो । (४) मस्तिष्क व अन्तःकरण रेखाओं पर जगह जगह बिन्दु सदृश चिन्ह हो तथा आयु रेखा के अन्त में त्रिको चिन्ह हो । धनहीन (१) धन रेखा जंजीरके समान आकृति की | हो और बारीक चारीक रेखाओंसे धन रेखा व आयु रेखा छेदती हुई हो। (२) धन रेखा जगह जगह से टूटी हो, अन्तःकरण रेखा और धनरेखा स्थान स्थान पर अन्य रेखाओंसे छेदी हो । (३) धनरेखाका उदय मणिबन्धकी रेखाके नीचे के भाग में से होकर मध्यमाके तीसरे पर्व तक गया हो । (४) मणिबन्ध रेखा स्थान स्थान से टूटी हो । (५) शुक्र पर्वत पर क्रास या तारे का चिन्ह हो । (६) कोई रेग्वा शुक्र से होकर मंगल पर गई हो । (७) शुक्र पर्वत पर जाली समान चिन्ह होकर अन्तःकरण रेखा जगह जगह चिन्हांकित हो और धन रेखाका उदय चन्द्रके पर्वत होकर मस्तिष्क रेखा तक ही गया हो । (c) बुध पर्वत पर कासका चिन्ह होकर उसकी एक शाखा अन्तःकरण रेखा में मिली हो तो अकस्मात द्रव्य जाता है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (E) करतलके जी त्रिकोणाकृति स्थान है उसमें फूली या क्रास का चिन्ह है।। (१०) गुरु अथवा बुधके पर्वत पर कोई भी चिन्ह अधिक गहरा या उठावदार हे।। लोभी (1) मस्तिष्क रखा मूलमेंसे अन्त तक लम्यी चली गई हो, किर्मा किसी समय अन्तःकरण रेखासे मस्तिष्क रखा ही जोरदार व अधिक स्पध्र दाख पड़ती है तथा अनामिका अंगुली चतुष्कोण आकारकी हो तो वह लोभी होता है। . (२) मध्यमा और अनामिकाका तीसरा पर्व लम्बा व कम चौड़ा और चौकीन श्राकारका होना लोभीका मुख्य लक्षण है। (३) हाथका अंगूठा करतलको ओर झुका हुश्रा हो और सूर्यका पर्व अधिक ऊंचा हो तो भी लोभी होता है। (४) हाथके ऊपर अन्तःकरणरेखाका बिल्कुल अभाव हो। (५) एक रेखा अन्तःकरण रेखामेंसे निकलकर बुधकेपर्वत पर जाती है। तथा बुधका पर्वत भी अधिक ऊंचा हो । नोट (१) अन्तःकरण रेखा में से निकल कर मंगल के स्थान में से हो कर सूर्य के स्थानमें जाकर मिलती होतो उसको वृद्धअवस्था में जाकर धन लाभ होगा। (0) मस्तिष्क रेखा में से निकली हुई धन रेखा यदि दोनों हायों पर स्पष्ट हो तो भी यही फल मिलेगा। (३) जब कुछ छोटी छोटी रेखाएं आयु रेखा में से निकल कर मस्तिष्क रेखाको पार करके आगे जाये तो उसको वृद्ध अवस्था में व अन्य अवस्था में धन प्राप्त होगा परन्तु वह टिकेगा नहीं। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४६ ) इसी प्रकार अन्य सब पापों के और मलाइयों के भी चिन्ह होते हैं। जिनके हाथों में उपरोक्त चिन्ह होते हैं ये चोरी आदि के लिये विवश से होकर चोरी करते हैं। हमारा अपना अनुभव है. कि हमने अनेक व्यक्तियों के हाथों में उपरोक्त चिन्ह देखकर उनको बिना संकोच के चोर कह दिया और उन्होंने इस दोष को स्वीकार किया । उनमें से अनेकों ने यह भी स्वीकार किया कि हम इसको हर तरह छोड़ना चाहते हैं परन्तु फिर भी आदत यश कर अठते हैं। यही अवस्था अन्य पापों की है। महाभारत में दुर्योधन ने ठीक ही कहा है-- जानामि धर्म न च मे प्रवति, जानाम्य धर्म न च में निवृत्तिः फेनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथानियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥ ___अर्थात्--मैं धर्म को जानता हूँ परन्तु उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं है, तथा अधर्म और उसके फल को भी जानता हूँ परन्तु विवश उसमें ही मेरी प्रवृन्ति है । उससे निवृत्ति नहीं है, प्रतीत होता है कि मेरे हृदयमै कोई ऐसा देव ( संस्कार ) विराजमान है जो मुझे जिधर लेजाना चाहता है। लेजाता है। और मैं भी मन्त्रविमुग्ध सा हो कर उसी के अनुकूल आचरण करता हूं। अत: सिद्ध है कि यह जीव कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं है अपितु जैसा इसका स्वभाव है और जैसी इसके सूक्ष्म व स्थूल आदि शरीरोंकी रचना है उसी के अनुकूल यह कार्य करता है। जब यह स्वतन्त्र ही नहीं है तो परमेश्वर इसको फल किस कर्मका देता है। ईश्वरने स्वयं तो इस गरीबका चोरी आदि करनेका स्वभाव बना दिया तथा ऐसे ही कुल में भी भेज दिया जहां इसका बचपन से ही चोरी आदि की शिक्षा आदिप्राप्त होती रही है, जब सब बात ईश्वरने की सो इसके कर्मका उत्तरदायित्व उसी ईश्वरपर है न कि हम वेचारे जीव पर। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४८) एनी बेसेन्ट साहिवा के विधार गूढ़ तत्व विद्याके अनुसार यह विचार शक्ति ही शानों (रूप) की एक मात्र जड़ है । इसके लिए एच. पी. ब्लावेटस्की ने यह कहा है कि "विचार की विलक्षण शक्ति ओ उससे बाहरी गोचर सृष्टि अपने ही भीतरी बलसे रचवा देती है"।। ___जैसा कि ब्रह्माण्ड के पांचवें लोककी तरह मनुष्यकी भी पांचवें लोकमें अर्थान चिंतक या मनमें वह शक्ति रहती है जिससे सब वस्तुएं बनती हैं. और विचारकी इस रचना शक्तिमें ही पुनर्जन्म की विधिका भेद मिल सकता है। ४२. जो कोई यह निश्चय करना चाहै कि विचार से मूर्तियां या विचाराकार बनते हैं और यो सचमुच विचार कोई वस्तु है. तो उसको मिस्मैरिजम के अनुभवोंके वृत्तान्तों में जो अब ऐसे विस्तारसे फैले हुए हैं तलाश करनेसे इसका प्रमाण मिल जावेगा। किसी संकल्प (ख्याल) की मूर्ति कोरे कागज पर डाली जा सकती है और वहां वह मिस्मैरिज्मके बलसे सुलाये हुए साध्य पुरुषको दिखलाई पड़ जाती है या वह ऐसी उठी हुई बन जाती है कि वह साध्य पुरुषको देखने व छूनेसे ऐसी लगती है कि वह सचमुच स्थूल पदार्थ है। ऐसे ही भूत . विद्याका साधक भूतको अर्थात् किसी मनुष्यके मनकी बात किसी पासके मनुष्यके मनमें देख लेता है क्योंकि इस विचारकी शक्ल उसके क्रांतिमंडल में अर्थात् तेजके मंडल में छिप जाती है । या अगर कोई मनुष्य अपने मनमें कोई चित्र बनाने और मुंहसे कुछ न कहे केवल अपनी इच्छा शक्ति से उस तस्वीरको अपने मनमें भली भांति स्पष्ट करले तो कोई दिव्य दृष्टि वाला जो उसके पास हो चाहे समाधिमें हो सिवरेट डाक्टिन बाल्यूम १ पेज २६३ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहे जागता उस चित्रको पहनाद ला और बाला झाल मा देगा । जो लोम कि प्रायः मनमें चित्र बनाया करते हैं उन सबको कुछ न कुछ दिव्य दृष्टि होती है और अपने आप इसकी परीक्षा करके यह निश्चय कर सकते हैं कि इच्छासे वे सूक्ष्म मन लोकके पदार्थ (अणु) को सांचे में ढाल सकते हैं अर्थात् उसमें चित्र बन्ना सकते हैं। (४३) वासना लोक के पदार्थ के अणु, मन लोक के अणुओं से कुछ कम सूक्ष्म तो हैं परन्तु इसमें भी इसी प्रकार चित्र बन सकते हैं जैसे कि मैडम एच० पी० ब्लाचेटकोने एडी नामी किमान के घर पर मामूल* की वासना अणुओं के चित्र को ( इच्छा शक्ति से बदल कर उनमें उन लोगों के चित्र बना दिये जिनको स्वयं मैडम ही पहचानती थीं और कोई वहां पास नहीं था जा पहचानता हो । इसमें कुछ अचम्भे की बात नहीं गिनी जा सकती है जब हमको यह मालूम है कि विशेष प्रकार के विचार की देव डाल देने से हमारे स्थूल शरीर तक का आकार बदलता जाता है यहां तक कि बुढ़ाने की छपि चेहरे पर छप जाती है क्योंकि स्थूल शरीर की सुन्दरता श्राकार और रङ्ग में नहीं है किन्तु छवि में है। यह टम मानो अंदरके यात्माके सांचे पर दला हुआ भेष है। अगर किसी विशेष विचार ( खबाल ) या भलाई या बुराई को देव पर जाती है तो उसके संस्कार या अंक स्थूल शरीर के शकच पर अंकित हो जाते हैं और बिना दिव्य दृष्टि के ही हम यह कह सकते हैं कि किसी का स्वभाव उदार है या लालचा. धीरज करने वाला है या अविश्वासी. प्रेमी है या द्रोही । यह बात ऐसी साधारण है कि इसकी ओर हम दृष्टि ही नहीं ___*बह मनुष्य जिम के शरीर में दूसरी आत्माएं. या जाती हैं और जिसकी अामाओं के आवेश या चल से अमाचारमा अक्तियों से जानी हैं । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डालते परन्तु यह बात है बड़ी; क्यों कि अगर मन के विचारों के बल से शरीर का स्थूल पुतला दलने में इस प्रकार नर्म हो तो उसमें क्या अचरज या न मानने की बात है कि सूक्ष्म पदार्थ की शक्लें भी इतनी ही नर्म मान ली जावे कि जिससे इसमें इस अमर कारीगर अर्थात चितमन शक्ति वाला मनुष्य जो जो रूप अपनी कुशल अंगुलियों से बनाना चाहे वे सब इस में सहज ही बन जाव । ४४ यहां यह मानलिया है कि मन असल में रूप अथवा शकल बनाने वाली शक्ति है और गोचर अर्थात् बाहरी वस्तुओं के प्रगट करनेका क्रम इस भांति है कि पहले मन किसी विचारको निकालता है और वह विचार मन लोक में एक रूप धारण कर लेता है, यह काम मनोमय लोक में जाकर कुछ गाढ़ा हो जाता है, और यहां से आसना लोक में जाता है यहां और भी गाढ़ा हो जानेसे दिव्यदर्शी की भांख को दिखलाई पड़ सकता है। अगर किसी अभ्यासी ने अपनी इच्छा से इसको जान बूझकर भेजा है तो यह विचार भूलोक (जागृत) में तत्क्षणचला भाला है और यहां स्थूल अणुओं से मंड कर वनित हो जाता है, और इस प्रकार सबको दिखलाई पड़ने लगता है परन्तु अन्यथा प्रायः यह वासना लोकमै ही सांचे की नरह रह जाती है और स्थूल लोकमें अनुकूल देशकाल मिलने पर उस सोचे से स्थूल वस्तु बन जाती है । एक ऋपि ( गुरुदेव ] ने यह लिखा है कि "माहारमा उन शकलों को जोकि उसने कल्प. ना शक्ति से सूक्ष्म लोक की जड़ सामग्री से बनाया है, स्थूल लोक में डाल कर स्थूल बना देता है" । महात्मा कोई वस्तु नई नहीं बनाते हैं, तो वे केवल उन चीजों को जो उनके चारों ओर प्रकृतिने संचय कर रही है. उस सामग्री को कल्पांतरों में सब रूपों में रह चुकी है काम में लाते हैं । उन्हें ना केवल इतना करना होता है कि Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६५१ । जिस वस्तु की चाहना होती है उस वस्तु को चुन लेना पड़ता है और उसको बाहरी जगत में गोचर या स्थूल बना लेते हैं । * ४५ स्थूल लोक की प्रसिद्ध बातों का प्रमाण देने से हमारा पढ़ने वाला जान जायगा कि अवश्य अर्थात् सूक्ष्म कैसे दृश्य या स्थूल बन सक्ता है। मैं यह कह चुकी हूं कि मानसिक लोक से काम मानसिक में आने में और इससे वासनिक में और वासनिक से स्थूल में आने में रूप या चित्र कम धीरे गाढ़ा होता जाता है। एक कांच का पात्र लेलो जोकि देखने में रीता हो परन्तु अदृश्य हाइड्रोजन हवा और आक्सीजन हवासे भरा हुआ हो। इसमें एक चिनगारी लगने से ये दोनों हवाएँ मिलजाती हैं और पानी बन जाता है परन्तु वह होता है बायु के ! भाफ) रूपमें । कांचके पात्र को ठंडा करो तो धीरे धूएँ कीसी भाफ दिखलाई पड़ने लगती है फिर यह भाफ जम कर कांच पर बूढ़े सी बन जाती हैं. फिर यह पानी जम जाता है और ठोस बर्फ की कलमों की भिल्ली सी बन जाती है। 4 ऐसे ही जब मनकी चिनगारी चमक जाती है तो इसकी जसक से 'सूक्ष्म से अणु मिलकर एक विचार का चित्र बन जाता है, यह कुछ गाढ़ा पढ़कर काम मानसिक चित्र बन जाता है जैसे कि कांच में धूकी, सी भाफ बनी थी। यह काम मानसिक गाढ़ा होकर वासनिक चित्र बन जाता है जैसे कि पानी कांच में था। इसी तरह वासनिक से स्थूल Traा है जैसे कि बर्फ । गूढ़ तत्व विद्या का विद्यर्थी जानने लगेगा कि प्रकृति की क्रमोन्नति में सब बातें नियत क्रम से होती है और स्थूल लोक के पदार्थ जैसे हवा से द्रव और द्रव से ठोस बनते है उसीके अनुसार सूक्ष्म लोकों में भी होता है । परन्तु जिसने ब्रह्मविद्या नहीं पढ़ी है उसको यह उपमा इसलिये नोट – ग्राल्ट ई पुस्तक की पांचवी प्रति के सफा रु में देखो । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२) दजाती है कि स्थूल लोकमें जैसे पदार्थ क्रमसे गाड़े हो होकर रूप बदलते जाते हैं वैसे ही सूक्ष्म वस्तु गाड़ी हो होकर दृश्य अथवा स्थूल बन जाती है। १ मच तो यह है कि पतले से गढ़े होने की क्रिया रात दिन सव टौर देखनमें श्र.ती है। वनस्पनि वायु मण्डल में से हवा ले होकर श्रदती हैं और उनहाय ओंको द्रव (पानीसी) तथा ठोस बना लेती हैं। अश्य अर्थात सूक्ष्ममें से मृश्य शकले बनानेसे ही प्राण शक्ति की क्रिया प्रकट होती है। और विच र क्रिया अर्थात विचार से स्थूल तक बनने की क्रिया चाहे सरची है चाहे भूठी, परन्तु उसमें ऐसी कोई बात नहीं है कि जो अनहोनी या असाधारण ही हो । वियर किया तो साक्षीके प्रमश से सिद्ध है और यहां साख { गवाही ) उन लोगों की जो विचार के चित्रों को अलग लोको में देख सकते हैं निस्संदेह उन लोगों की गवाही से जो देख नहीं सक्ते हैं अधिक प्रमाणक है। अगर सौ अंधे पुरुष किसी दृश्य वस्तु के लिये यह कहें कि वह नहीं है तो उनका कहना कम प्रमाण का होगा. उस एक पुरुप के कहने के सामने जिसको सूझता हो और जो यह गवाही दे कि वह स्वयं उस वस्तु को देखता है। इस विषय में ब्रह्मविद्या के विद्यार्थी को धीरज रखना चाहिये क्योंकि उसको यह खबर है कि किसी के केवल न मानने से असली बातें बदल नही जाती हैं और संसार धीरे धीरे जानने लगेगा कि विचारोंके आकार वास्तव में होते हैं जैसे कि संसार कुछ दिन इसी कामको करने के पीछे अब कोई २ बातों को सभी जानने लगा है जिनको कि पिछली शतान्दी के अंत में (Mesmer) मेजमर ने प्रतिपादन किया था । ४७-यह देखा गया है कि जो घांते ( घटनायें) होती हैं वे पहले मानसिक या काम मानसिक लोकमें शुद्ध ( काम रहित ) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार या काम अथवा वासना की भावना के सपमें उत्पन्न होने हैं फिर में वासनिक रूप धारण कर लो और भन्न इस भूलोक में प्रत्यक्ष कर्म या घटना के रूपमें प्रकट हो जाते हैं। यों जो बातें या घदनाएं यहाँ होती हैं वे उन कारणोंके फल हैं जो कि मन में पहले से विद्यमान होते हैं । यह शरीर भी गूद तत्व झानके अनुसार ऐसा एक फल है और इसका सांचा वासनिक शरीर या लिंग शरीर है जिस शब्दसे हमारे विद्यार्थी परिचित हो गये होंगे इस बातको भली भांति समझ लेना चाहिये कि वासनिक सामग्री का शरीर सांचेका काम देता है जिसमें स्थूल सामग्री ढाली जाती है. और अगर पुनर्जन्मकी शैलीको कुछ भी समझना है, तो इस बातको थोड़ी देर के लिये मान लेना चाहिये कि पहलेसे विद्यमान त्रासनिक सांचेमें स्थूल कणोंके जमनेसे स्थूल शरीर बनता है। __५८-अब चिनकके विचारसे जो रूप अर्थान चित्र बनते हैं उनकी ओर लौदते हैं। यह विचार साधारण मनुष्य, अशुद्ध मन अर्थात् काम करता है क्योंकि शुद्ध मनके कामके तो हाल कुछ समय तक हमें बहुत चिन्ह मिलनेको पाशा नहीं हो सकती है। हमारे साधारण रात दिनकी रहनगतमे हम सोचा करते हैं और इससे हम विचाराकार अथवा मानसिक चित्र बनाया करते हैं। जैसा कि किसी महात्मा ने कहा है * मनुष्य जहां जहां होकर फिरता है वहां प्राकाशमें बराबर अपनी ही दुनियां बसाता रहता है जिसमें उसके मनकी तरंगें, कामनाएं, अकस्माती वेग. और काम क्रोधादिकी भीड़ रहती है। ४६-[ इसका दूसरे लोगों पर क्या असर पड़ता है उसका संबंध 'कर्म के साथ है और उसका वृत्तांत आगे दिया जावेगा।] ६९ देग्यो अकल्ट कल ईस पुन्तक पृष्ठ ६० Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५५ ) विचार करने वाले दिवारके विका " उस तेज में जो उसके शरीरके घास पास घिरा हुआ रहता है. ) बने रहते हैं और जैसे ये गिनती में बढ़ते जाते हैं वैसे ही इनका असर उस पर अधिक से अधिक बढ़ता जाता है। जो विचार बार बार किये जाते हैं उनके चित्र अलग नहीं बनते किन्तु पुराने उनसे चित्र दिन २ अधिक प्रबल बनते जाते हैं यहां तक कि बढ़ते बढ़ते किसी विचार चित्रकर उसके मन पर इतना अधिकार हो जाता है कि जब कभी ऐसे विचारका अवसर आता है, तब वह छानबीन नहीं करता किन्तु उसे सहज ही अंगीकार कर लेता है और ऐसे विचार संच से आदत पड़ जाती है । यों सुभाव बन जाता है और हमारा परिचय किसी ऐसे मनुष्यसे हो जिसका सुभाव परिपक्क ही गया हो तो हम प्रायः निश्चय कह सकते हैं कि यदि ऐसा ऐसा देशकाल हो तो उसका बर्ताव इस भांतिका होंगा। ५० -- जब मौतकी घड़ी आती है तब सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से अलग निकल आते हैं और उस स्थूल शरीर के साथ केवल लिंग शरीर धीरे धीरे बिखर जाता है। पिछले जन्मका विचारमय शरीर बना रहता है और इसमें पिछले संस्कारों के सार निकालने और उनको मिटानेको कई क्रियायें होती है। मरने के पीछे या जन्म लेनेसे पहले जो यह फेरफार होता है उसके केवल फुटकर संकेत संसारको बतलाये गये हैं और अगर किसी जिज्ञासु को सहायता न मिले तो इन फुटकर संकेतोंके सहारे ही जहां तक बन सके सम्ता टटोलना पड़ता है । परंतु इतना तो निश्चित है कि पुनर्जन्म होने के पहले यह विचारमय शरीर वासनिक लोक में आ जाता है यहां वासनिक द्रव्य लेकर नये जन्म के लिये लिंग शरीर बन जाता है। यह लिंग शरीर सांचेका काम देता है और हम सांचेके ऊपर ही स्थूल भेजा ( मस्तिष्क ) स्थूल Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६५५ ) शरीरके और सब अंग दलते है इसलिए यह भेजा ऐसा बनता है कि चाहे कितना ही चयूस यों न भी गातुन वा का मनुष्यके मनके स्वभाव और गुणोंका स्थूलमें दरसाने वाला होता है और अब जो शक्तियां कि पिछले संस्कारों के आधार से वह स्थूल में प्रगट कर सकता है उनके लिये यह ठीक बैठता हुआ शरीर होता है। ५१-उनाहरणकी तरह चुराई अर्थान् स्वार्थ वाले और भलाई अर्थात परोपकारी पुरुषों को लो । इनमें से एक मनुष्य तो बराबर स्वार्थता के विचार चित्र पैदा करता रहता है जैसे कि स्वार्थ की लालसापं स्वार्थ की भांति भोति की प्रास, स्वार्थकी जुगत; और इन चित्रोंके झुण्ड के मुएड उसके इर्द गिर्द मंडलाते रहते है और उसी पर अपना रङ्ग जमाते रहते हैं। इससे वह अपने स्वार्थम ऐसा अन्धा हो जाता है कि दूसरोंके अर्थका तिरस्कार करके अपने ही हित के जतन में लगा रहता है। यह अंत में मरता है और तब तक इसका स्वभाव पकने पकने कठोर स्वार्थीपन का नमूना अन जासा है । यह स्वभाव स्थिर हो जाता है और फिर क्रम से शक्ल बनकर आगे स्थूल में जन्म लेने के लिए सांचे का काम देता है। यह अपने स्वभाव से मिलते हुए धराने में और उन माँ बापों के यहां जन्म लेने को जाता है कि जिनके स्थूल शरीरसे इसके गुणों से मिलते हुये स्थूल अंश मिल सके. और वहां इस बासनिक साँचे में इसका स्थूल शरीर उलता है और इसके सिरका भेजा ऐसी शलाका बनता है कि उसमें जितनी अधिकता उन स्थूल अंशों की होती है जिनसे स्वार्थता को पशुत्तियां प्रगट हो सके उतना ही प्रभाव सदाचार के अच्छे २ गुणों के प्रगट करने वाले एल अंशों का होता है। अगर कोई बिरला मनुष्य एक जन्मभर लगातार अपने स्वार्थ ही में अंधा (स्वार्थान्य) बना रहे तो बागे Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म में इससे उसके सिर का भेजा उस चाल का बन जाता है. जिस को अपराधी कहते हैं और जब बच्चा ऐसे अधम औजार । को लेकर संसार में पैदा होता है तो वह चाहे जितना यत्न करे उसमें से प्रायः एक भी शुद्ध और मधुर स्वर नहीं निकल सकता। इस शरीर में यह मन की किरण (जीवात्मा ) जन्म भर मन्द, बिखरी हुई और काम के बादलों में ताफती रहेगी। यद्यपि देशकाल उल्टा रहंगा तो भी कमी २ उस किरण को चमक की झलक उसके स्थूल शरीर में कुछ न कुछ उजैला और सुधार कर देगी और बड़े कष्ट और परिश्रमसे बिरले अवसर ऐसे भी मिल जायेंगे कि वह अपनी नीच प्रकृतिको दवा लेगा और धीरे २ कटके साथ एक दो कदम आगे बढ़ ही जावेगा । परंतु जन्म भर पीछे (बुरे) संस्कार सर्वोपरि प्रबल बने रहेंगे और जो पापका प्याला पिछले जन्म में उन दिनों भरा गया था जिनका अब याद भी नहीं रही है उसकी बूंद २ कांपने हुए होंठोंसे चूसना पड़ेगा। .५२- दूसरी प्रकार का मनुष्य लगातार एसे विचार चित्र पैदा करता रहता है जैसे कि परमार्थ और दूसरों की सहायता की इच्छा. दूसरों की भलाई के लिए प्रेम भरी युक्तियां या बालसायें। ये चित्र उसके इर्द गिर्द झुण्ड के झुएड मंडलाते रहते हैं और फिर उसी पर अपना असर डालने लगते हैं और इससे वह स्वभाव परमार्थी हो जाता है और दूसरों की भलाई को अपने स्वार्थ से बढ़ कर मानने लगता है और इस प्रकार जब वह मरता है तो उसके स्वभाव में परोपकार रह जाता है और यों अंतकाल तक उसकी प्रकृति में परोपकारी भात्र रम जाता है । जब यह फिर जन्म लेता है तब उसके पहले जन्म के गुणों का दरसाने वाला वासना शरीर ऐसे कुज में खिच आता है कि जहाँ उसको पेसी शुद्ध स्थूल सामिग्री मिल सके कि जो उच्च मन के Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५० ) भावों के अनुकूल हो । इस मामिश्री से उसके वासना शरीर के ढाये में डलने से ऐसा भेजा ( मस्तिष्क ) बन जाता है कि जिस से परोपकारी गुण ही प्रगट हो सकते हैं न कि पशुओं की सी नीच वृतियाँ | याँ अगर कोई मनुष्य एक जन्म भर चयन्त परोपकार में लगा रहे तो आगे जन्म में उसका भेजा ( मस्तिष्क ) उदार और हितकारी शक्ल का बन जाता है और जब ऐसा इस भेजे के साथ पैदा होता है कि जिससे उत्तम से उत्तम प्रेम और करके मधुर इस अद्भुत प्रभाव पर जगत् भर अचम्भा करके यह मानने लगता है कि यह विधाता की स्वाभाविक देन है, न कि उस बच्चे की पहले जन्म की कमाई । परन्तु ये उत्तम प्रकृतियां जो सद्गुणों से भरपूर हैं, उन कष्टों का फल हैं जो कि बहुत काल तक वीरता के साथ सह गये हैं। ये कष्ट पिछले जन्मों में उठाये गये हैं जिसकी व याद नहीं है परन्तु अन्तरात्मा को इनका ज्ञान ( खबर ) है और एक दिन ऐसा होगा कि इनका ज्ञान स्थूल अर्थात जागृत अवस्था में भी होने लगेगा। ५३ -यों क्रमसे मनुष्यकी उन्नति होती जाती है । जम्म २ में हमारा सुभाव बनता जाता है और जो कुछ लाभ या हानि होती जाती है उसका लेख बासनिक शरीरोंमें बराबर होता रहता है. और इनके ही आधार पर आगे स्थूल शरीर बनता है । एक २ सद्गुण यों उन्नति की एक २ पंक्ति अर्थात् नीच प्रकृतिके बार २ जीत लेनेका बाहरी चिन्ह है। सो बुद्धि और भलाइयां कि जन्म से ही किसी बच्चे में पाई जाती हैं उनको उसका "सहज स्वभाष” कहते हैं और पहिले जन्मोंमें उसने विपदा ( आफसें ) झेली हैं. और उसकी हार और जीत हुई है उन सास सहज स्वभाव से पक्का पता और प्रमाण मिलता है। यह जान (सिद्धान्त ) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५८ ) उन लोगोंको तो बहुत बुरी लगेगी जो बुद्धि या शीलमें मन्द और जिनमें साहस ( हिम्मन ) नहीं है। परन्तु ऐसे वीर लोगोंको जो क्या मनुष्य क्या देव किसीसे दान पुरय लेनेकी लालसा हो रखते और केवल अपने पुरुषार्थ और परिश्रमसे धीरजके साथ कमाई करने पर भरोसा रखते हैं. ऐसे सिद्धान्त से अत्यन्त प्रसन्नता और उत्साह होता है। ५४-ऐडवर्ड कारपिटर साहबने अपनी पुस्तक प्रजातंत्रराज्य' में "शैतान और कालके मर्म के प्रसंगमें इस सिद्धान्त को यों भली भांति दरसाया है । सृष्टिरचना की विद्या और सब विद्याश्रय की भांति ( तरह ) सीखनेसे हो पाती है. बहुत से| वर्षोंमें धीरे २ तु अपने शरीरको बनाता है और इस आज कल के शरीरको बनाने का सामर्थ्य जैसा कुछ कि तुझमें अभी है इसको तूने पिछले समयमें दूसर शरीरोंमें प्राप्त ( हासिल ) किया था. जो सामय तुझको अब प्राप्त है, उसे तू अागे काममें लावेगा । परन्तु शरीर बनाने के सामर्थ्य में सत्र सामन्य शामिल हैं। जिन • चीजों की तुम चाहना करो उनको छांटने में सावधानी रखा. मैं यह नहीं कहता कि किस चीज की चाह करना चाहिये । क्योंकि अगर काई सिपाही लड़ाई पर जाता है तो वह ग्रह नहीं देखना कि कौन सी नई चीज में अपनी पीठ पर लसकता हूँ बल्कि यह देखता है कि किस चीज को मैं पीछे छोड़ सकंगा। इसलिये उसे मालूम है कि जो कोई नई चीज में अपने साथ ऐसी लेजाऊंगा कि भलिभांति चल न सके और काम में न अरसके वह मेरे लिये जंजाल कहा जावेगी। इसलिये अगर तुझे अपने लिये यश (न:मबरी) या सुख चन की चाह है तो जो बात चाहेगा उसकी शकल तुझ पर आचढ़ेगी और तुम पर उसके लिये २ फिरना पड़ेगा और जो शकलें Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५६ ) और शक्तियां किं तू इस तरह बुला लेगा वे तेरे चारों ओर से घिर आवेगी और तेरे लिये एक नया शरीर बनकर के अपने तोष और पोषण के लिये तुझे तंग करेंगी | और अमर इस कल को सूक्ष्म नहीं दूर कर सके तो तब भी नहीं दूर कर सकेगा। बल्कि तुम इस लिये फिरना पड़ेगा । इसलिये सचेन रहो कि यह और आनन्दका महल भनने के बदले यह तेरी कबर या कैखाना न धनजावे | ओर क्या नहीं देखता है कि बिना मरे त मौत को कभी नहीं जीत सक्ता है- क्योंकि इन्द्रियों के भांग की चीजों का दास हो जानेसे तू ऐस शरीर धारण करलेता है कि जिसका तू मालिक नहीं रहता इसलिये अगर यह शरीर नष्ट नहीं कर दिया जाये तो मनो तू जातेजी कर केंद्र होजावेग । परन्तु अब इस कबर मैं से कष्ट और दुःख से ही तेरा खुस्कारा हो सकेगा। और इस कष्ट के अनुभव ( तजुरवे ) से ही तू अपने लिये एक नया और उत्तमतर शरीर बनालेगा। और यही बहुत बार होते २ तेरे पर निकल आवेंगे और तेरे मांस ( के शरीर ) में सब देवी और आसुरी शक्तियां भर जावेंगी । और जो शरीर कि मैंने धारण किये थे उसके सामने तब गये और मेरे लिये सके अंगारे के कमरबंद की तरह थे परन्तु मैंने उनको अलग फेंक दिया। और जो कष्ट कि मैंने एक शरीर में सह आगे के शरीर में काम में लाने के लिये शक्तियां बन गये । ५२. ये बड़ी सिद्धान्त की बातें हैं और विशाल रीति से लिखी गई हैं और जैसे पूरब में कि इन बातों को सदा मानते आये हैं और अब भी मानते हैं वैसे ही पच्छम के देशों में भी एक दिन लोग इनको मानने लगेंगे। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. हजारों जन्मा तक अमर चिन्तक (पुरुष) या पशु मनुष्य को ऊपर लेजाने में हजारों जन्मों तक परिश्रम ( मेहनत ) करता रहता है जहां तक कि यह देव से मिलने के योग्य न हो जावे । क्रिमी एक जन्म में कदाचित् काय्य का केवल तनिक सा अंश पूरा हो पाता है तो भी जन्म होते समय जो वासनिक शरोरकी बनावट थी उसमें सुधरनेर अंतक ल के समय तक पशुपने में कुछ न कुछ कमी हो जाती है। आगे जो जन्म होगा उममें इस सुधरे हुए नमूने का मनुष्य जन्मेगा और मरने पर उसे घासनिक नमूना कुछ और भी सुधरा हुमा होगा अर्थान् जसमें पशुपन घटता जायेगा । योही बार बार जन्म जन्म में फल्पांतरों तक सुधार होता चला जावेगा । इस बीच में अनेक भूल चूक भी होती जायेगी। परन्तु यह संभल रूमल कर ठीक होती आयेगी। इस बीचमें अनेक घाव लगलग कर धीरे धीर भरते जायेंगे परन्तु इन सबके उपरांत उन्नति बराबर होती चली जावेगी, पशुपन घटता जावेगा और मनुध्यता बढ़ती जावेगी । घृतान्त उस ऋम का है जिससे मनुष्य की उन्नति चलनी है और जीवात्मा का कार्य देवीगति तक पहुंचने का सम्पूर्ण होता है । इस क्रम में एक दरजा ऐमा पाता है कि वासना शरीर कुछ कुछ पारदर्शक होजाते हैं जिससे इनमें अमर चिन्तक ( पुरुष ) की मलक पड़ने लगती है, और कुछ यह भान होने लगता है कि ये ( वासना शरीर ) कोई अलग जीव नहीं है किन्तु किसी अमर और सदा रहने वाली वस्तु से लगे हुये हैं । इनको अभी पूरार यह तो नहीं समझमें आता कि इनका अन्तिम लक्ष्य क्या है परन्तु जो : काश इनपर पड़ता है उससे इनमें कंपन और अकुलान होने लगती है जैसे कि वसंत ऋतुमें कलियां अपने बेठन में इसलिये अकुलाने लगती हैं कि वेठन को फाड़कर बाहर निकलने और सूरज के उलेले से बढ़ने लगे। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६१ ) जैन फिलोस फी जिस समय बहुत से परमाणु मिल कर स्कन्धके रूप में हो जाते हैं तब उनमें खास २ पदार्थ बनने की शक्ति हो जाती है। कोई स्कंद लोहा रूप बनता हैं, कोई पत्थर के रूप कोई ना कोई पानी रूप इत्यादि भिन्न तरह के स्कन्धों में भिन्न २ तरहके पदार्थ रूप हो जानेकी शक्ति हो जाती हैं। उन ही पुद्गल स्कन्धार्म एक तरह के स्कन्ध भी होते हैं जिनमें संसारी जोषके सूक्ष्म शरीर बनने की शक्ति (खासियत होती हैं । उन स्कन्धोंको काम स्कन्ध कहते हैं । जीव चुम्बक की तरह से आकर्षण शक्ति (अपनी ओर कशिश करने खींचने की ताकत) मौजूद है तथा उन कामीण स्कन्धों में लोहे की तरह ज की ओर खिच जानेकी शक्ति मौजूद हैं। लत्रनुसार संमारी जीव में मनके विचारोंसे, बोलने से अथवा शरीरकी किसी हरकतसे वह आकर्षण शक्ति हर एक समय जागृत ( हर एक रूप ) रहा करती है क्योंकि सोते जागते. उठते बैठते चलते आदि किसी भी हालत में सोचने बोलने या शरीर द्वारा कोई कार्य होने रूप यानी-मन, वचन, शरीरकी कोई न कोई हरकत अवश्य होगी अतः उस आकर्षण शक्ति ( जैन दर्शन में जिसे योग शक्ति" कहते हैं ) के द्वारा वे कार्माण स्कन्ध (कामण मेटर) आकर्षित (कशिश) होकर लिपटे रहते हैं। जैसे पानी में रक्खा हुआ लोहेक गर्म गोला अपनी ओर पानीको स्वीयता रहता है। तथा वह गोला जब तक गर्म बना रहेगा तब तक वह अपनी तरफ पानीको अवश्य स्त्रीचता रहेगा। इसी तरह संसारी जीव जब तक कांभ, अभिमान, हल, लोभ विषयवासना प्रेम. और यदि निमित्त मन वचन शरीरको हरकत (क्रिया) होती · Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - A - .. . रहेगी तब तक जीव कार्माण कन्धों को अपनी ओर बराबर खींचता रहेगा और त्रे ग्विधे हुए कार्माण स्कन्ध उस जीव के साथ एकमेक होते रहेंगे। ___जीवके साथ दूध पानीकी तरह एकमेक रूपसे मिला हुआ बह कार्माण स्कन्ध ही जीवके ज्ञान. सुख, शान्ति प्रादि गुणों को मैला करता रहता है, जोयको स्वतन्त्रता छोनकर उसको पराधीन अना देना है। और जीवको अनेक तरहके नाच मचाना रहता है। उसी कर्माण स्कन्ध को कर्म कहने हैं भाग्य. तकदीर. देव आदि सब उसीके दूसरे नाम हैं। ___जैसे ग्रामोफोनके रकाईमें गाने वाले की ध्वनि (आवाज) ज्यों की त्यों समा जाती है ठीक उसी तरह जीवके साथ मिलने वाले उन कामीण स्कन्धोंमें भी जीवको मन, बचन, शरीरसे होने वाली अली बुरी क्रिया (हरकत) की छाया ज्योंकी त्यों अंकित हो जाती है । जीव यदि अपने मनसे. बोलनेसे या शर से कोई अच्छी क्रिया कर रहा है तो उस समयके प्राकर्षित (कशश) हुए. कामाण स्कन्धोंमें अच्छा यानी मला करनेका असर पगा और यदि उस समय उसके विचार, बचन. या शरीरका क्रिया किसी लोम. अभिमान आदिके कारण बुरी है तो उन आकर्षित होने वाले कार्माण स्कंधोंमें बुरा यानी विगाड़ करनेका असर पड़ेगा। जिस तरह रेकार्ड प्रामोफोनके ऊपर सुईकी नोकसे उसी तरह की गानेकी अावाज निकालती है जैसी कि उसमें अंकित हुई थी। ठीक इसी तरह कमका नशा समय पर जीक्के मामने उसी रूपमें प्रकट होता है जिम रूपमें जीवने उसे अपने साथ मिलाया है। पानी--जिस क्रम में अच्छा असर पड़ा है, वह जीरको श्रमको नरह प्रेरित करके अच्छा सुख कर फल देगा और जो बुरे अमर बाला कर्म जी बने अपने साथ मिलाया है वह दुखदायक साधनों की ओर जीवको प्रेरित करके दुखी बनायेगा। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६३ ) कमों के भेद वैसे तो जीवों की अगणित ( वेतादाद ) तरह की क्रियाएँ होता है तदनुसार कर्म भी अगणित तरह के बना करते हैं। किंतु उनके मोटेरुपसे आठ भेद होते हैं । १ - ज्ञानावरण - दर्शनावरण, ३- वेदनीय ४- मोहनीय. ५ - आयु. ६- नाम - गोत्र. ८- अन्तराय । ५ १- ज्ञानावरण कर्म - यह कर्म है जो आत्मा के ज्ञान गुणको छिपाता है, उसको कमकर देता है। आत्मा में शक्ति है कि वह संसार का भूत ( गुजरा हुआ जमाना ) भविष्यत् ( श्राने वाला जमाना ) और वर्तमान ( मौजूदा वक्त ) समयकी सब बातोंको ठीक जान लेने किन्तु ज्ञानावरण कर्मके कारण आत्माकी वह ज्ञान शक्ति प्रगद नहीं होने पाती । जिस समय कोई मनुष्य दूसरे मनुष्यके पढ़ने लिखने मे रुकावट डालता है. पुस्तकका और पढ़ाने सिखाने वाले गुरुका अपमान करता है, अपनी विद्याका अभिमान करता है। तथा इसी प्रकार के और भी ऐसे अनुचित कार्य करता है जिससे दूसरेके या अपने ज्ञान बढ़ने में रुकावट पैदा हो तो उस समय उसके जो कार्मारण पुद्गल आकार कर्म बनता है, उसमें उसकी ज्ञान शक्तिको दबाने की तासीर पड़ती है। यदि कोई पुरुष अपनी अच्छी नियत से यह उद्योग करे कि सब कोई पढ़ लिखकर विद्वान बने, कोई मूर्ख न रहे तो उस समयकी उसकी उस कोशिश से उसका ज्ञानावरण कर्म ढीला हो जाता है। उसकी ज्ञानशकि अधिक प्रगट होती है । आज हम जो अपनी आंखों से किसी को मूर्ख किसी को विद्वान किसीको बुद्धिमान और किसी को बुद्धिशून्य देखने है, उसका कारण ऊपर कहे हुए दो तरह कार्य हा I Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) २-दर्शनावरण कर्म---यह कर्म है जो कि आत्माके दर्शन गुणोंको पूरा न प्रकट न होने दे दर्शन गुण आत्माका ज्ञानसे मिलता जुलता बहुत सूक्ष्म गुण है जो कि ज्ञानके पहिले हुआ करता है। ____जब कोई मनुष्य दृमरे मनुष्यके दर्शन गुणमें रुकावट डालता है. दूसरेकी ओर खराब करता है, अंधे मनुप्योंका मखौल उड़ाता है इत्यादि. उस समय उसके "दर्शनावरण कर्म बहुत जोर दार तैयार होता है जिस समय इनसे, उलटे अच्छे काम करता है सब उसका दर्शनावरण कर्म कमजोर होजाता है, साथ ही दर्शन गुण प्रगट होता जाता है। ३-वेदनीय कम-वह कर्म हैकि जिसके कारण जीवीको इन्द्रियों का सुख या दुख प्राप्त करने का अवसर (मौका मिलता है यानी जीवों को इस कर्म की वजह से सुख दुख मिलने वाली चीज मिलती हैं। यह कर्म दो प्रकारका है. साता और असाता । साता वेदनीय के कारण संसारी जीव इन्द्रियोंका सुख पाते हैं । और असाता वेदनीय कर्म का फल दुख मिलना होता है। ___ यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को बुरे विचार से मारे पोटे दुख देवे. मलाये रउज पैदा करावे अथवा खुद अाप ही अपने आपको बुरे भाव से दुख दे, रोवे, शोक करं, फांसी लगा ले अन्य तरहसे अात्म हत्या (खुदकशी ) करले इत्यादि, तो उसके इस प्रकारके कामोंसे असाता वेदनीय कर्म बनता है जो कि अपने समय पर दुख पैदा करता है ।। यदि कोई पुरुष दूसरों का उपकार करे अन्य जीवों के दुख हदानेका उद्योग करे.. शान्तिसे अपने दुःखीको सहे. दया करे आदि । यानी-अपने आपको तथा दुसरे जीवाको सेवा भायसे Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दया भावसे सुख पहुंचानेका काम करे तो उनके साता वेदनीयकर्म बनेगा जो कि अपना फल उसको सुखकारी देगा। ४-मोहनीय कर्म-वह है कि जो श्रात्मामें राग, द्वेष, क्रोध, अभिमान, छल, कपट, लोभ श्रादि बुरे २ भाव उत्पन्न करता है। शरीर. धन, स्त्री, पुत्र, मकान श्रादि से मोह ( प्रेम ) इसी कमके निमित्त से होता है। दूसरे को अपना शत्रु ( दुश्मन) मान लेना भी इसी कर्म के निमित्त से होता है। मा माइ कर्म भागमा पर तो मेहनी यशोमारण) डालता है कि जिससे श्रात्माको अपने भले बुरेका विचार जाता रहता है। जिन शांति, क्षमा, सत्य विनय, संसोष आदि धातासे 'आत्माकी भलाई होती है उन यासोंसे इस कर्मके कारण आत्मा दूर भागता है और जिन बातोंसे वैर. अशांति, लालच, क्रोध, धमंड. संसारी चीजोंसे मोह पैदा होता है उन बातोंकी और इस घात्माका खिषाव हो जाता है। जो जीव या मनुष्य दुत स्वभाव वाले, क्रोधी गुस्सा बाज) अभिमानी (घमंडी ) उपद्रव करने वाले, झगड़ालू . बोखेबाज लालची, हिंसक, निर्दयी ( बेरहम ) अधर्मी अन्यायी देखने में आते हैं उनका मोहनीय कर्म बहुत तीन है। तथा जो मनुष्य सदाचारी क्षमाशोल. निरभिमानी, सरल, परोपकारी, विरामी देखे जाते हैं; समझना चाहिये कि उनका मोहनीय कर्म बहुत क्रोध, मान, छल, लोभ, मोह और दुर्भावोके कारणसे प्रायः दूसरे २ बुरे भाव पैदा हुश्रा करते हैं और ऐसे ही बुरे विचारोंसे तथा खराब कार्योंसे बुरं कर्म बँधते हैं इसलिये असलियतमें मोहनीयकर्म ही अन्य सब कोंके बँधनका कारण समझना चाहिये । इसी कारण यह कम अन्य कर्मासे अधिक बुरा है। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६ ) हिंसा, घोस्त्रयाजी, घमंड, अन्याय, अत्याचार, लोभ, काम. श्री प्रादि कहने नेसून पळाला, गुरु शास्त्रकी निन्दा करने से, दूसरेको ठगने आदि बुरे कार्य करनेसे मोहनीय कर्म तैयार होता है। और इनसे अच्छे कार्य किये जायें तो मोहनीय कर्म हल्का होता जाता है, | ५- आयु कर्म -- वह है जो कि जीवको मनुष्य, पशु, देव, नरक इनमें से किसी एकके शरीर में अपनी आयु ( उ ) तक रोके रखता है । उस शरीरमेंसे निकल कर किसी दूसरे शरीर में नहीं जाने देता । जिस प्रकार जेलर किसी सख्त कैद वाले कैदीको कुछ समय के लिये काल कोठरी में बन्द कर देता है। उससे निकल कर दूसरी जगह नहीं जाने देता। उसी प्रकार यह कर्म भी पहले कमाये हुए कर्मके अनुसार पाये हुए मनुष्य श्रादिके शरीर में उस उम्र तक रोके रखता है जो कि उसने पहले जन्म में बांधी थी। जो जीव दयालु, परोपकारी. धर्मारमा सदाचारी होते हैं. हिंसा आदि पापोंसे दूर रहते हैं सन्तोषी होते हैं वे देव आयु कर्म बांधते हैं। जिन जीवोंके कार्य न बहुत अधिक अच्छे होते हैं और न बहुत अधिक खराब ही होते है, बिना कारण किसीको कम नहीं देते, अधिक लालची, अधिक कोधी नहीं होते. उनके मनुष्य श्रायु कर्म बंधता है। I जो जीव दूसरों के ठगने में धोखा देने में, छल कपट करने में झूठ बोलने में, माठी बातें बनाकर दूसरों को फंसा लेने में, विश्वासघात करने में प्रायः लगे रहते हैं वे पशु आयु कर्म को आगे के वास्ते लिये करते हैं। और जो जीव अधिक होते हैं ऐसा करना बिना कारण दूसरों का नाश करता सदा दूसरों के विगाह में लगे रहना, बल पूर्वक ( जबरदस्ती ) Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६७ ) दूसरोंका धर्म बिगाड़ना आदि बुरे निन्दनीय कर्म करनाही जिनका काम होता है पे जोय गरक श्रायु बांधते हैं। - न म कर्म वह है जिसके कारण संसारी जीवों के अच्छे बुरे शरीर बनजाने हैं। जैसे चित्र बनाने वाला अनेक तरहके चित्र ( तसवीरें ) बनाया करता है । उसी प्रकार नाम कर्म के कारण. सुडौल, बेडौल, लम्बा: ठिगना कुबड़ा काला गोरा, कमजोर, हड़ियों वाल मजबूत हड्डियों वाला श्रादि अनेक तरह के शरीर तैयार होते हैं। यह कर्म दो प्रकार का है शुभ और अशुभ जिसके कारण अच्छा, सुराना, सुडौल शरीर बनता है वह शुभ नाम कर्म है, और जिससे बेडौल, कुत्रड़ा, बदसूरत आदि खराब शरीर बनता है वह अशुभ नाम कर्म है । जो जीव कुडे, बौने, और लूले. लगडे आदि सुंदर ( बदसूरत ) जीवों को देखकर उनका मन्त्रील उड़ाते हैं। अपनी खूबसूरतीका घमण्ड करते हैं। अच्छे सदाचारी मनुष्यों को दोष लगाते है, दूसरे की सुंदरता बिगाड़ने का उद्योग करते हैं उनके अशुभ कर्म बनता है। और जो इनसे उल्टे अ कर्म करते हैं वे अपने लिये शुभ नाम कर्म तैयार करते हैं। ७ गोत्र कर्म-गोत्र कर्म वह है जो कि जीवों को ऊंचे नीचे कुल (जाति) में उत्पन्न करें। जिस प्रकार कुम्हार कोई नो धड़ा आदि ऐसा बर्तन बनाता है जिसको लोग ऊँचा रखते हैं उसीमें घी पानो रखकर पीते हैं तथा कोई कुन ली आदि ऐसा बर्तन बनाता है जो कि टट्टी खानेके लिये ही काम आता है जिसको कोई छूता भी नहीं है। इसी प्रकार गोत्र कर्मके कारण कोई जीव तो क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि अच्छे कुलीन घरमें पैदा होता है और कोई चमार मेहतर चांडाल, आदि नीच कुल में उत्पन्न होते हैं। जिनका नीच काम करके आजीविका करना ही खास काम होता है । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) देव तथा क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि मनुष्य ऊँच गोकर्म के निमित्त से होते हैं और चमार, चांडाल, आदि मनुष्य पशु तथा लरक वाले जीव, नीच गोत्रकर्मके क रण होते हैं। इस प्रकार नीच ऊँचके भेदसे यह कर्म दो प्रकार का है। ___ जो मनुष्य अपने बड़प्पनका घमएड करता है दूसरोंका छांटा समझता रहे. अपना बढ़ाई और दूसरोंकी निंदा करमा ग्यास काम हो, अपनी जाति कुल आदिका अभिमान कर कमीने ख्याल रक्खे. अच्छे पुरुषोंको तथा पूज्यदेव, गुरु, शास्त्र की विनय न करे घह जीव नीचगोत्रका कर्म बांधता है और जो इनके विरुद्ध अच्छे कार्य करते हैं उनके ऊँच गोत्र कर्म तैयार होते हैं। -अन्तराय कर्म-अंतराय कर्म वह है जो कि अच्छे कार्योंमें वि ( रुकावट ) डाल दिया करता है, था जिसके निमित्त से अच्छे कार्योंमें विन आ जाये । जैसे दो व्यापारियों ने एक साथ एक ही व्यापार शुरु किया। उनमें से एक ने तो उस व्यापारमें अच्छा धन पैदा किया, किन्तु दूसरे व्यापारीके माल बेचते समय बाजार मन्दा होगया और खरीदते समय महगा हो गया । घरमें पुत्र बीमार हो जानेसे यह ठीक समय पर जम कि उसे लाभ होता, खरीद विक्री नहीं कर पाया । फल यह हुवा कि उसने कुछ भी नहीं कमाया ! यह तो मान दूर रही किंतु अपनी पूंजीसे भी हाथ धो बैठा। यहां पहिले व्यापारी को अन्तराय कर्म नहीं दवाया था. जिससे कि उसको अपना व्यापार में कोई विन्न नहीं आया। इस कारण वह धम पैदा करने में सफल होगया और दूसरा व्यापारी का पहिला बाँधा हुआ कम अपना फल दे रहा था, इस कारण उसको निमित्त ऐसे मिले कि वह अपने व्यापारमें असफल ( ना कामयाब) रहा। । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६ ) दूसरे जीवों के स्वाने पीने में विघ्न करनेसे दूसरोंकी काम आने योग्य ahatet fairड़ने से साधारण जनता के विरुद्ध कोई लाभ उठाने से दान करने वाले को दान में कोई रुकावट खड़ी कर देनेसे इत्यादि बुरे कार्य से अंतराय कम बँधता है और इससे उलटे अच्छे कार्य करने से अंतराय कर्म का बोझ हल्का होता है। ' इन आठ कर्मो साता बेदनीय, मनुष्य आयु. देव आयु शुभ नाम कर्म, उच गोत्र कर्म' यह कर्म पुण्यकर्म (अच्छे कार्य ) माने गये हैं क्योंकि इनके कारण जीवोंको कुछ सांसारिक सुख शिक्षा है। इनके पिता शेष सभी पापकर्म ( दुखदायक ) बुरे कर्म हैं । जिस समय जीव अछे कार्य करता है. सत्य दया. हमा सरल व्यवहार करता है. परोपकार. विनय सदाचारसे कार्य करता है, तब उसके पुण्य कर्ममें अनुभाग ( रस ) बढ़ता है I जिससे वह आगामी समय में सुख पाता है । और जिस समय जीवहिंसा झूठ बोखेबाजी, व्यभिचारी, क्रोध. अभिमान, लोभ. अन्याय, अत्याच र करता है तब उसके पापकर्मोंमें रस बढ़ता हैं। ( वे ज्यादा मजबूत हो जाते हैं) जिसका नतीजा आगे चलकर बुरा भोगना पड़ता है। : स्थिति और अनुभाग पिछेल यह बताया जाचुका हैं कि मानसिक विचार, बचनकी धारा और शरीरकी किया जिस उद्देश( इरादे या मंशा के अनुसार होती है आकर्षित यांचे हुये ) कार्माण में उसी सरहका सुधार. बिगाड़, भला बुरा करने का असर पड़ता है। यहां पर एक यह बात ध्यान में और रखनी चाहिये कि जीव जो भी काम करता है वह या तो गहरी दिलचस्पी) करता है या मंद रूपसे यानी Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेमना ( दिल चस्पी न लेकर ) करता हैं इस यातका प्रभाव भी उस खींचे हुये और दृध पानी की तरह अपने आस्मा के साथ मिलाये हुये कर्म पर पड़ता है । तदनुसार उस कर्म में योड़े या बहुत समय नक, कम या अधिक सुख दुख आदि फल देने की शक्ति पड़ जाती है। जैसे एक मनुष्य अपना यदला लेने के लिये अड़े कोध के काम किमी को मार सहा मनुष्य का समाये हुये "असाता बेदनीय' कम में लम्बे समय तक. बहुत ज्यादा दुख देने का असर पड़ेगा और जो मनुष्य अपनी नौकरी की खातिर अपने मालिक की आज्ञा से लाचार होकर किसीको मार रहा है, वह भी साता वेदनीय कर्म बांधेगा किन्तु उसमें थोड़े समय तक हल्का दुख देने की शक्ति पड़ेगी। एक नौकर पुजारी भगवान की भक्ति पूजा ऊपरी मन से करता है उसको पुण्य कम थोड़े समय तक हल्का फल देने वाला बंगा जो स्वयं अपनी अन्तरंग प्रेरणा से बड़ा मन लगाकर भक्ति पूजन करता है उसका कमाया हुश्रा पुण्यकर्म अधिक समय तक अधिक सुखदायक फल देगा । समय की इमी सीमा (मियाद। को स्थिति और देने की क्रम अधिक शक्ति को अनुभाग कहते हैं। कर्म, फल कब देते हैं कम बन जाने के पीछे तत्काल ही अपना फल नहीं देने लगता किन्तुं कुछ समय बीत जाने पर उदय में आता है । जैसे हम भोजन करते हैं भोजन में खाये गये दूध, चावल . रोटः, फल आदि पदार्थ पेंट में पहुंचते ही रस नहीं बन जाते हैं कुछ समय तक पेंट की मशीन पर खाया हा भोजन पकता है. तब उस भोजन का रस, खून आदि बनता है । इसी तरह कामोरण स्कन्ध श्रात्मा के Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७१ ) साथ सूक्ष्म शरीर के रूप में मिलजात है तब कुछ समय बीत जाने पर अपने स्वभाव ( तासीर प्रकृति ) के अनुसार अच्छा बुरा फल देना शुरू करते हैं। जिस कर्म की जितनी लम्बी स्थिति (मियाद ) होती है. वह कर्मी के अनुसार कुछ समय पीछे उदय होता है जिसकी स्थिति थोड़ी होती है वह जल्दी फल देने लगता है । * जैस दूध, चावल, गन्ना, सन्तरा आदि हलके पदार्थ खावें तो वे जल्दी पच कर रस बन जाते हैं. और यदि कला, चाटी, बादाम आदि भारी गरिष्ठ चीजें खावें तो वे देर में पचते हैं और उनका रस दर से बनता है इसी के अनुसार लम्बी मियाद वाले देर से उदय में आते हैं, थोड़ी मियाद वाले कर्म जल्दी फल देने लगते हैं । संसार में बहुतसे पापी जीव घोर पाप करते हुये भी सुखी दीख पड़ते हैं, रात दिन व्यभिचार करने वाले भी वेश्याएं दुखी नहीं देखी जाती इसका कारण यही है कि अनेक कमाये हुये पाप कमि बुरा दुखदायी फल देने की शक्ति बहुत ज्यादा लम्बे समय लककी पड़ी है इस लिये उन पाप कर्मों का फल भी जरा देर से मिलेगा संभव है वह इस जन्म के पीछे दूसरे जन्म में मिले । जो जांब दलका पुण्य-पाप करते हैं उनके कम । ये कर्मोन थोड़ी मिड़ पड़ती है तदनुसार व उदय भी जल्दी हो आते हैं यानी— जल्दी फल मिल जाता है । फल देने के पीछे फल देने के पीछे कारण स्कन्ध निःस्मार हो जाते हैं उन में एक कोड़ा कोड़ी सागर ( असंख्य वर्षो ) का स्थिति वाला कर्म एक सौ वर्ष पीछे फल देगे योग्य होता है | Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७५ ) आत्मा के साथ लगे रहने की शक्ति नहीं रहती तब वे कार्मारण स्कन्ध अपने आप आत्मासे अलग हो जाते हैं। जैसे सर्पके शरीर का पुराना चमड़ा (केंचुल ) उसके शरीर से उतर जाती है उसी तरह कर्म भी अपना कार्य करके आत्मा से अलग हो जाते हैं । इस तरह पहले के कर्म अपना फल देकर आत्मा से अलग होते रहते हैं और नये कर्म आत्मा से बँधते रहते हैं। जिस तरह कि समुद्र में हजारों नदियों का पानी प्रति समय जाता रहता है और उधर सूर्य की गर्मी से उसका बहुत सा पानी भाफ बन कर उड़ता मीराता है। जिस प्रकार कोई की कर्जदार) मनुष्य पहले का कर्जा चुकाता हैं किन्तु लाचार होकर अपने खाने पीने के लिये नया कर्जा भी ले लेता है इस कारण वह कर्जे से नहीं छूट पाता इसी प्रकार संसारी जीव पहले कमाये कर्मों का फल भोगकर ज्यों ही उनसे छूटता त्योंही अपने भले बुरे कामोंसे और नयाकर्म कमा लेता है। इसी कम की उधेड़ बुन के कारण जीव संसार में हमेशा से ( श्रादि समय से ) अनेक योनियों में जन्मता भरता चला आ रहा है । कर्मों में उलटन पलटन कमाये हुये कर्मों में उलटन पलटन भी हुआ करती है। जिस तरह खाये हुये पदार्थ का असर हम बदल सकते हैं किसी आदमी ने भूल से या जान बूक कर विष खालिया और उसके पीछे विष नाशक दवा खाली तो वह विष उस आदमी पर असर नहीं कर पावेगा या बहुत थोड़ा असर करेगा। इसी तरह किसी मनुष्य ने क्रोध में आकर किसी को मारा जिससे उसने असातावेदनीय (दुखदायक ) कर्म वा किन्तु उसके बाद उसे अपने किये पाप पर पश्चाताप हु उसने फिर परोपकार, दया, क्षमा, शांति आदिसे Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६:४३ ) ऐसा जबरदस्त साता बेदनीय (सुख दायक ) कर्म बांधा कि जिसने पहले के दुख दायक कर्म को भी सुख बना दिया । इसी तरह बाँधे हुए कर्मोंके विपरीत ( खिलाफ ) काम करने से कर्मोकी तासीर (प्रकृति) पलट जाती है । तथा उनकी मियाद (स्थिति) तथा शक्ति घट जाती है और बांधे हुए कर्मके अनुकूल ( मुआफिक) कार्य करते रहने से बांधे हुए कम में शक्ति अधिक हो जाती है। उनकी स्थिति ( मियाद ) भी अधिक लम्बी हो जाती है। कोई २ ऐसे बज्र कर्म भी बांध लिये जाते हैं जिनके बांधते समय घोर पाप रूप या पुण्यरूप मानसिक विचार वचन या शारीरिक क्रिया होती है कि उन कमोंमें ऐसी अचल शक्ति पड़ जाती है जिसका जग मां हिलाया चलाया उलटा पलटा नहीं ज सकता | अतः वे अपना नियत ( मुकर्रर ) फल देकर ही जीव का पीछा छोड़ते हैं। ऐसे कर्म "निकाचित" कहलाते हैं। कर्म की तासीर (प्रकृति) बदल जानेको संक्रमण" तथा स्थिति अनुभाग घट जानेको अपकर्षण" और बढ़ जानेको "उत्कर्ष" कहते हैं । · काल को भी कारण माना है संचितानां पुनर्मध्यात् समाहृत्य कियत्किल, देहारम्भे चसमये कालः प्रेरयतिीय तत्" देवि भागवत स्कंध ६-१०-६-१२ अर्थात् संचित कर्म से जिस निर्दिष्ट अंशको भोगने के लिये नये जन्मसे पहिले काल प्रेरणा करता है, वही प्रारब्ध कर्म है। अतः पुराणकार भी कर्म फल देने के लिए ईश्वरकी सत्ता की आवश्यकता नहीं समझते I Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७५ ) स्वामी दयानन्द जी और कर्मफल सम्पूर्ण वैदिक साहित्यसे कम फल दाता ईश्वरकी सिद्धि जय न हो सकी तो स्वामीजीने कम फल के लिये कर्म और कर्म फल ईश्वर विषयक नवीन कल्पनाओंसे काम लिया। श्राप लिखते हैं कि "ईश्वर फल प्रदाता न हो तो पापके फल दुःखको जीप अपनी इच्छासे कभी न भागे। जैसे चार श्राधि चोरीका फल अपनी इच्छासे नहीं भोगत किन्तु राज व्यवस्थासे भोगते हैं। अन्यथा कर्म संकर हो जायेंगे अन्य कृत कम अन्यको भोगने पड़ेंगे।" ___ यहां स्वामीजीने कर्मों का फल दुःख माना है और वह दुःख जीचोंको परमात्मा देता है। वाहरे परमात्मा ! तेचे पेशा भी अपनाया तो बेचारे जीवोंको दुःख देनेका, अाज तो कोई भला आदमी भी किसीको दुःन देना नहीं चाहता और श्रापका वह परमात्मा जीवोंको दुःख देना मप कम करता है उसका फल भी देने वाला कोई नियुक्त करना चाहिये ताकि उसकी यह वृत्ति सीमित रह सके । क्योंकि इसने बंगाल, क्वेटा आदिमें लाखों जीवोंको दुःख देकर अपने इस अधिकारका दुरुपयोग किया है । आपने जो दृष्टान्त राज्य व्यवस्थाका दिया है यह जज ( न्यायाधीश ) अपने स्वार्थ (तन ) के लिये काम करता है और राज्यने यह व्यवस्था इस लिए कर रक्खी है कि कहीं प्रांतमें अराजकता न फैल जाय जिससे दूसर राजाको चढ़ाई करनेका अवसर मिल जाय और मैं वरवाद हो जाऊँ । प्रजा राजाको टैक्स भी इसी प्रबन्ध करनेका देती है। तो क्या परमात्मा वेतन लेता है ? अथवा टैक्स लेन की व्यवस्था करता है। या अन्य राजाके चढ़ आनसे ऐसा करता है। अगर जीव अपने आप दुख नहीं भोगना चाहता तो परमात्माका Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७५ ) इसमें क्या बिगड़ता है। वह क्यों इनको सुखी देख कर जलता है ? अगर कहो कि संसार में गड़बड़ फैल आवेगी तो ईश्वरको इसकी चिन्ता क्यों है ? यदि जीव दुःख नहीं भोगना चाहताइसलिये परमात्मा फल देता है. तो पुण्य का फल सुख क्या परमात्मा के बगैर दिये भोग लेता है। यदि ऐसा है तो आपका यह हेतु भागा सिद्ध हुआ । जीव दुःख तो भोगना नहीं चाहते. परन्तु दुःखको सुख समझ कर प्राप्त करनेकी इच्छा और प्रयत्न तोही कर रहै। स्वयं ऐसे अनेक बीमारों को देखा है जिनको यह अच्छी तरह विदित था कि अमुक स्वादिष्ट था गरि बीज खाने से हमें अत्यन्त दुःख भोगना होगा, परन्तु ये बार बार खाते थे और बार बार महान कष्ट भोगते थे। एक तपेदिक के बीमार को डाक्टरों ने-धों ने प्रारम्भ से ही मिर्च छोड़ने का किया । परन्तु वह न छोड़ सका और अन्त में अनेक कठिन यातनायें भोगता हुआ, इस शरीर को छोड़ कर संसार से चल दिया । उपरोक्त घटनाएं इस बातका प्रत्यक्ष उहर है कि जहाँ जो दुःख को सुख समझ कर भी उस का ग्रहण कर लेता है, यहाँ आदत से लाचार हो कर दुःख को दुःख लमझ करभी उसको बार बार ग्रहण करता है; और अनेक प्रकार के महान कष्टों को सहन करता है, फिर आपका यह कहना कि जीब स्वयं दुःख भोगना नहीं चाहता क्या अर्थ रखता है ? हम इन तमाम प्रश्नोंको न भी छेड़ें तो भी यह विचार हृदय में अवश्य उत्पन्न होता है कि ये दुख-सुख हैं क्या पदार्थ ? ये द्रव्य हैं ? या गुण हैं यदि द्रव्य हैं तो इनका गुण क्या है ? यदि कही गुण हैं तो फिर किसका गुण हैं ? परमात्मा का गुण तो आप मानते ही नहीं । प्रकृति जड़ हैं उस में सुख दुख के होने का प्रत्यक्ष प्रमाण विरोधी है। रह गया जीव तो क्या जीव का Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ( ६७६ ) सुख दुख हैं ? यदि ऐसा है तो परमात्मा देता क्या है ? क्योंकि सुख दुख उसका गुण होने से जीव के पास सदा रहेगा. क्योंकि गुण गुणी से पृथक नहीं होता। इस प्रकार तक की कसौटी पर रगड़ने से सुख दुख की कोई हस्ती सिद्ध नहीं होती । है भी वास्तव में ही बात, जीव ने सुख दुख की अपनी अज्ञानता से कल्पना कर रक्खी हैं। रह गया कर्मों के संकर होने का भय । सो तो कर्मफल के न समझ ने के कारण हुआ है। हम इसका विवंचन विस्तार पूर्वक पहले कर चुके हैं। यदि सामी जी समझ लेते तो इस प्रकार का भय नहीं रहता। इसके अलावा न्यायाधीश चोरी आदि के समय वहाँ उपस्थित नहीं रहता. यदि वह वहाँ उपस्थित हो तो वह गवाह बन सकेगा, जज नहीं । क्योंकि जज के लिये यह आवश्यक है कि कोई पूर्व से निश्चित न करली हो ! परन्तु आपका ईश्वर तो सर्वव्यापक होने से चोरी आदि के समय उस पापी को देखता रहता है। अतः उसे न्यायाधीश बनने का अधिकार नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि जब परमात्मा वहाँ मौजूद है तो पापी को पाप करने से रोकता क्यों नहीं । ! यह कहां का न्याय है कि पाप करते समय तो ईश्वर भी मजेसें आकर देखता रहे और फिर उस बेचारे को दण्ड आदि देने का स्वाँग भरे ? यदि कहो कि ईश्वर उनके मन में शङ्का आदि उत्पन्न करके रोकने का प्रयत्न करता है । परन्तु वह फिर मां जबरदस्ती पाप करता है तो ऐसे निर्धन व्यक्ति को ईश्वर क्यों बनाया गया है, जिसके मना करनेपर एक जीव भी नहीं मानता। फिर वह मन में ही शङ्का आदि उत्पन्न करके क्यों रह गया, वह वो सम्पूर्ण शरीर में भी व्यापक था. उसने शरीर को क्यों न जकड़ कर के रखा ? यदि इसने ऐसा नहीं किया तो क्यों न इससे जबाब तलब किया जाये। फिर यह ईश्वर दुख देता भी क्यों है ? यदि कहो जीवों की उन्नति के लिये ? तो क्या इसने Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रासतक ऐसी कोई जाँच कमेटी बनाई, जिससे यह जाना जा सके कि इस व्यवस्था से उसने कितने जीयों की उन्नति की । यदि कोई जांच कमेटी नहीं बनाई तो ये कैसे जाना जा सके कि यह सब खुराफात जीव की भलाई के लिये है। ___श्री स्वामी जी महाराज ने एक और युक्ति देनेका भी साहस किया है. सत्यार्थप्रकाश के १२ वें समुल्लास से [मद { शराव ) के नशे के समान कर्म स्वयं फल दे देते हैं ? ' का उत्तर देते हुवे लिखा है कि जो गेसा हो तो जैसे मद पान करने वाले.. को मन क्रम चढ़ता है और अनभ्यासी को बहुत चढ़ना है । वैसे बहुत पाप करने वाले को फल कम प्राप्त होगा और कभी कमी थोड़ा थोड़ा पाप पुण्य करने वालों को अधिक फल होना चाहिए !] ___ यहां पर स्वामी जी ने. 'कर्म का फल स्वयं प्राप्त होजाता है इस सिद्धान्त को तो स्वीकार कर लिया। रह गया प्रश्न न्यून और अधिकका. सो न्यून और अधिक तो सापेक्ष शब्द हैं। किसी दृष्टि से एक ही वस्तु छोटा है और किसी से बड़ी । इस लिये न्यूनाधिक की कोई विशेष यान नहीं है। हम पहले लिम्ब चुके हैं कि प्रत्येक कर्म के अनेक फल होते हैं अर्थात- --एक क्रियः को एक हो प्रतिक्रया हो ऐसा कोई नियम नहीं है। अत: कम कपः क्रियाका स्वगत परगन आदि अनेक प्रतिक्रियाएं होती है जिनका विस्तारपूर्वक हम पहिले वर्णन कर चुके हैं। अतः शराब पीने ऋय फल नशा हो नहीं अपितु नशा मा एक फल है और भी अनेक फल हैं जैसे अब वह शगदके बनारह नहीं सकता उसके लिये वह चोरी करता है भीख मांगता है श्रादि अनेक पाप करता है। शरःव. ममम कर कोई मला आदमी उसे अपने पास नहीं बैठने देना. काई उसका विश्वास नहीं करना । अतः वह सत्र जुअा आदि व्यसनों में फंस जाना है। जुए में हार जाता है तो Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) चिन्तित रहता है । चारी करता है, पकड़ा जाता है मार खाला है जेल भोगता है । इस प्रकार से उसका सर्वनाश शराबने ही तो किया है। __ जब उसने पहले पहल थोड़ी सी शराब पी थी तय तो उसे केवल नशा ही हुश्रा था परन्तु अब तो वह स्वयं नशारूष बन गया है आज सो इस शराबने उसको इस अवस्था में पहुंचा दिया है कि यदि इसके पास थोड़ी भी विवेक बुद्धि हो तो यह हजार स्वाँसे रोये और अपने किए पर पश्चाताप करे परन्तु हाय ! इम शरावने आज इसकी उस बुद्धिको भी छीन लिया है जिससे यह न रो सकता है, न पश्चाताप कर सकता है. इससे अधिक सर्वनाशका और क्या उदाहरण हो सकता है। अतः इसको न्यून फल कहना मारी भूल है। ग्रह लो नित्यप्रति भयानक रूप धारण करता जा रहा है। मनुस्मृति और कर्मफल मनुस्मृति अध्याय १२ में किस कर्मके अनुसार कौन कौन योनि मिलती है इसका संक्षेपसे वर्णन किया गया है वहाँ लिखा है कि जो गुण जिस जीत्रकी देह में अधिकतासे होता है. वह गुरुण उस जीवको अपने जैसा कर देता है। यदि शरीरमें तमो गुण अधिक है तो वह शरारको तामसिक बना देता है। इसी प्रकार रजोगुण रजोगुणी और सतोगुण सात्विक । जैसा जीव तमोगुणी या रजोगुणी आदि बन जाना है, वह आत्मा वैसा ही शरीरको प्राप्त कर लेता है अर्थात् तमोगुणी जीव तामसी योनियोंमें चला जाता है तमोगुणको प्रधानताका चिन्ह लिखा है-'तमसो लक्षणं कामः1" अर्थात-पुरुष यदि अधिक विषयी हो चोर ज्वारी, टुाकू हो तो समझना चाहिये कि इसमें नमोगुणकी प्रधानता Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक है । और जो पनका लोभी हो विषयवासनामें लिप्त हो तो राजसी । रजोगुण ) के लक्षण समझना चाहिये "विषयोपसेवा चाजल रासस गुणलक्षणं' "रजमा उस्यते ।" लोग र रजोगुणी जीव किन किन योनियोको प्राप्त करता है. उसके बारेमें लिखा है। हस्तिच तुरंमाश्च शुद्रा म्लेच्छाश्च गहिता । रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसी सुसमा मती ॥" अर्थात्-तामस स्वभाव वाले कछुमा, हाथी, घोड़ा. सांप, शूद्र, म्लेच्छ आदि तथा राक्षस. मांसाहारी, शराबी, डाकू, चार आदि नीच योनियों में जाता है तथा गृतपान प्रसक्ताश्च जघन्या राजसीगती ।" अर्थात्-जुएमें रत तथा व्यभिचारी व शराबी आदि के कुलोंमें शराबी जाता है, आदि आदि । स्वामीजी ने भी सत्यार्थप्रकाश में इन प्रमाणों को उद्धृत किया है और स्वामीजीके कथनानुसार परमात्मा जीवोंकी भलाई लिये काँका फल देता है, तो वह इन जीवोंको ऐसी जगह क्यों मेजता है जहाँ जाकर यह जीव अधिक बिगड़ता है । यथाजो कामी था शराबी था मांसाहारी चोर डाकू था उसको सांप. कछुया, सूअर, चांडाल आदि म्लेच्छ जंगली जाति राक्षस पिशाच श्रादि महापापी लोगोके कुलमें क्यों उत्पन्न किया ? क्योंकि कहाँ बजाय सुधरनेके और भयानक पाय करनेका श्रादी हो जाता है। उसके रिश्तेदार पड़ोसी सम्बन्धी जाति वाल सत्र इन पापोंके कारने में सहायक होते हैं. उसको उत्साहित करते हैं । उस कुल में जो ऐसा नहीं करता है उसका कायर. बुजदिल कुलफलंक आदि कार कर धिक्कारत हैं और उसे पाप करनेके लिये विवश करते हैं। बस, इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा जीकी Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलाई के लिये फल नहीं देना अपितु उसको और गर्नमें गिराने के लिये ऐसा करता है । ऐसा करना परमात्मा के योग्य नहीं समझा जाता । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा कर्मोका फल देने वाला नहीं है किन्तु कर्म अपने आप फल देते हैं। आस्तिकवाद और कर्मफल श्री पं० गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय एम ए ने आस्तिकवाद नामक एक गवेषणात्मक सन्दर प्रन्थ लिग्न में उममें कर्म और कर्मफल पर भी विचार किया है। उस पर भी विचार करना आवश्यक हैं। आपने कर्मका लक्षण करत हुए लिखा है कि कर्म उसको कहते हैं जिसमें कर्ता स्वतन्त्र हो अर्थात--करना न करना कर्ताके आधीन हो । जो कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक इकछासे किया जाय वह कर्म हैं। आप लिखते हैं कि हम स्वासादि लेते हैं वे क्रियायें तो हैं परंतु हम उनको इच्छापूर्वक नहीं करते इसलिये वे कर्म नहीं हैं। स्थूल द्रष्टि से देखने पर तो यह कथन कुछ ठीक सा प्रतीत होता है परन्तु मूक्ष्म दृषिसे देखने पर उपरोक्त कथन में कुछ सार नजर नहीं आता। क्योंकि इस शरीर में जो भी किया होती है यह जीव की इच्छा से ही होती है, विना जीव के किये इसमें कुछ भी क्रिया नहीं होती ! यह दूसरी बात है कि वह इच्छा इतनी सूक्ष्म हो कि हम उसको साधारण बुद्धि से न जान सके । यथा देखना सुनना आदि सब कम होत हैं, इच्छापूर्वक परन्तु उनको स्वाभाविक समझा जाता है। आपने स्वयं जीवात्मा नामक पुस्तक के ०२३१ पर लिखा है कि "शरीर का प्रत्येक व्यापार पहिले तो शरीर विकास के लिए और अन्त में मानसिक या आस्मिक विकास के लिए है. ! इन सत्र में प्रयोजनबत्ता है. प्रयोजन शून्य कुछ नहीं । " Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बस जब शरीर की प्रत्येक क्रिया का कुछ प्रयोजन है. सों श्वास प्रश्वास भी क्रियायें हैं। अतः इन का भी प्रयोजन है ! प्रयोजनवती क्रिया ज्ञान पूर्वक होती है। ज्ञानपूर्वक क्रिया के लिये इच्छा का होना परमावश्यक है। अतः श्वासादि भी इच्छापूर्वक होने से कम हैं। इससे आपने जो कम का लक्षण किया है वह ठीक महीं ! जिस प्रकार श्राप कर्म के लक्षण में भूल कर गये हैं. उसी प्रकार कम फल के लक्षण में भी आप से भूल हुई ! आपने लिखा है कि "जिस प्रयोजन से कम किया जाता है या जो कर्म का मन्त होता है उसको कम का फल नहीं कहते ।" आपने 'श्रास्तिकवाद' पुस्तक बेचने के लिये, मंगलाप्रसाद पारितोषक पुरस्कार अथवा आस्तिकता का प्रचार करने के लिए लिखी ! जब इन प्रयोजनों की पूर्ति हो गई तो क्या यह पुस्तक लिखनेरूपी कर्म का फल नहीं! कर्म का अंत आपने कर्म के अंत के विषय में परस्पर विरुद्ध बात लिखी है ! 'प्रास्तिकबाद 'पृ. २६८ में लिखा है--चोरी करने का अम्ल कभी धन की प्राप्ति तथा कभी पकड़ा जाना भी होता है, परन्तु हम इन दोनों को फल नहीं कह सकते। यहां पर आपने पकड़ा जामा या धन प्राप्ति चोरी रूपी फर्मका अन्त माना है, परन्तु भागे बल कर पृष्ट ३०८ पर लिखा है कि संस्कार कर्मका अन्त है । इन दोनों बातों में से कम का अन्त किस को माना जाय ! सच बात तो यह है कि कर्म का फलप्रदाता ईश्वर को मानने में अनेक शंकाएं हैं जिनका समाधान आज़ तक वैदिक दर्शन नहीं कर सका है। इसी लिये इस मिथ्या कल्पना को सिद्ध करने के लिये नित्य नई कल्पना घटती बढ़नी हैं। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि ये कल्पनाएं कुछ विचार पूर्वक की जाये तो कुछ फलप्रद हो सकती हैं पस्तु ऐसा न करके सर्वसाधारण को भ्रम में डालना ही इनका मुख्य उद्देश्य होता है। यही कारण है कि परिजत जी को इस पृष्ठ पहिले लिखी अपनी ही बात स्मरण न रह सकी । क्योंकि उसी आस्तिकवाद के पृष्ट ३८८ पर आप लिम्यते हैं कि स्थूल शरीर से किये हुये कर्म का स्थूल शरीर में अन्त नहीं हो जाता । मैंने यदि आज एक मनुष्य को गाली दे दी सो यह स्थूला शरीर फर्म हुश्रा। मैंने समझा कि यह कर्म यहाँ समाप्त हो गया, परन्तु नाही, यहाँ तो केवल प्रारम्भ हुआ है अन्त तब होगा जब कारण शरीर में इसका मार रूप बैठ जावेगा-बहुत से आदमी संस्कार को ही कर्मा का फल कहते हैं। गौण रूप से यह माना जा सकता है परन्तु वास्तविक रूप से यह ठीक नहीं। यहाँ पर आपने संस्कारोंको कर्मोका अन्त माना है और उन संस्कारों को अपने (गौण रूपसे ) कर्मोंका फलभी स्वीकार किया है फिर नहीं मालूम आपने पृष्ठ ३११ पर यह कैसे लिख दिया कि "जैनी लोगों को भ्रम कर्म की मीमांसा न समझने के कारण होता है । वह संस्कारको हो फल समझ बैठे हैं। वस्तुतः यह कर्म का अन्त है-फल नहीं।" संस्कारोंको गौण रूप के कौका फल तो आपने स्वयं ही पृष्ट ३८८ में स्वीकार किया है जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं। मालूम नहीं यह आपको किसने बहका दिया है कि जैनी लोग संस्कार का ही कर्म का फल मानते हैं । जैन धर्म के विषयमें इस तरह की मनघाईत बातें लिखना ही शायद आप लोगोंने अपना ध्येय बना लिया है या जनतामें भ्रम फैलाना हो वैदिक धर्म का शाबद्ध आदर्श हो। जैन धर्मके विषयमें आप को एक गुरु बता देते हैं कि जब श्राप जैन धर्म के विषय में कुछ लिखे या विचार करे तब आप ही के स्थान में भी' का प्रयोग Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया करें। ऐसा करने से जैनधर्म को समझने में बहुत सुविधा हो जावेगी । यहां भी हम यही कह देना चाहते हैं कि जैनशास्त्र संस्कार को ही नहीं, अपितु संस्कार को भी कम का फल मानते हैं। अर्थात्-कर्म रूपी क्रिया की अनेक प्रतिक्रियाओं में से संस्कार भी एक प्रकारकी प्रतिक्रिया है। इसको आप भी स्वीकार करते हैं। रह गया कर्म का अन्त ! इसके लिये हम इतना ही कहते हैं कि दुनिया में आज तक जितनी भाषा प्रचलित हुई है, उनमें से किसी में भी वस्तु के सार को वस्तु का अन्त नहीं माना है अगर आपको यह नई परिभाषा गढ़नी पड़ी हो तो इसे स्पष्ट करना चाहिये था । यदि अन्त से आपका अभिप्राय नाशसे है शो आप भारी भूल में हैं। ये संस्कार कर्मों का अन्त नहीं है, इसका शान तो आपको सत्यार्थप्रकाशसे ही होजाता ! संस्कारोंकी महिमा के लिये स्वामी जी को "संस्कार-विधि" बनानी पड़ी। इन संस्कारों से ही आत्मा उन्नत होतीहै और कुसंस्कारोंसे ही आत्मा अधोगति को चली जाती है। मनुस्मृति के अनुसार भी (जिसका स्वामीजी ने सत्यार्थप्रकाश के हवें समुल्लास में प्रमाण-रूप से उपस्थिति किया है,) ये संस्कार ही आत्मा को जन्मान्तर में नीच या उंच योनियों में ले जाते हैं। अापके कथनानुसार भी संस्कार वे ही कम हैं जो सार रूप से सूक्ष्म-शरीर में जा बैठते हैं, अतः संस्कारों को कम का अन्त कहना-कमफिलासफी से अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना है। .. कर्म और उसका फल जिस प्रकार आपने कम का अंत समझनेमें भूल की उसी प्रकार कर्म के फल के संबन्धमें मी भारी भूल की है। श्रास्तिक वाद के पृष्ट ३०८ में श्राप लिखते हैं कि “इष्टको सुरक्षित रखने के लिये सुख और अनिष्टको धोने के लिए दुःख होता है यही कम Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मला है।" यहां अपने सुख और दुःखको कम का फाल मामा हैं परन्तु आगे १ पृष्ठबाद ही पृष्ट ३०६ में आपने शरीर को कम फल माना है और उसमें न्याय नर्शन का प्रमाण भी दिया है. यथा "पूर्वकृत फलानुबंधात् तदुत्पतिः' अर्थात्-पूर्व जन्ममें किये हुए कम के फलस्वरूप शरीरकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् जो जन्म हमने इस समय पाया है वह पूर्व जन्म के संस्कारों में से इश्की रक्षा और श्रमिष्टके विनाश के लिए दिया जाता है । यहाँ आपने शरीरको कर्म का फल मान लिया और शरीर को पूर्व जन्मके संस्कारों में से दिया जाना माना। और संस्कारोंको आपने कम का सार मान लिया अतः स्पष्ट होगया कि कमों में से शरीर मिला, और अापके कथनानुसार शरीर हुया काँका फल । तो कम से ही फलकी उत्पत्तिको आपने भी मान लिया। और 'जादू वह जो सिर पर चढ़कर बोले" इस कहावसको चरितार्थ कर दिया । फिर नहीं मालूम आपने इस कर्म फलके दासा ईश्वरकी कल्पना करके उसके मएडन का क्यों साहस किया ? आगे चल कर श्राप इसको भी भूल गए. और लिख दिया कि "चोरीका फल कारागार है। यह दूसरसे मिला है. बोरी में से फूट नहीं निकला है। चोरी उसका निमित्त कारण है। पादान कारण नहीं, इसी प्रकार अध्यापक को जो चेतन मिलना है वह उसके पढ़ानेका फल है।" ___यहाँ आपने वेतन और कारागारको फन्न बना दिया. आपने पहिले तो दुख दुम्बके लिये यही फल है। इसमें यही लगा कर सथ का विरोध कर दिया. परन्तु फिर शरीरको फल मान लिया, और अच वेतन और कारागारको फल कहने लगे. अब आपके कथनानुसार किसको फल माना जावे ? क्या आपके मतानुसार शरीर, कारागार, वेतन आदि ही सुख दुख है। यदि ऐसा है. सब Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८५ ) तो आपको यह न कहना चाहिये यह मेरा शरीर है श्रद कहना चाहिये कि यह मेरा सुख दुःख है । परन्तु इस प्रकारका व्यवहार तो कहीं होता ही नहीं । श्रतः कारागारको भी यही कहना पड़ेगा कि यह दुःख है परन्तु हम देखते हैं कि बहुत से व्यक्ति कारागारोंमें ही मस्त रहते हैं और बाहर आकर भी वहीं जानेकी कोशिश करते हैं अतः कारागार भी सुख दुःख नहीं है। इसी प्रकार वेतनका भी डाल है। अतः यह कहना चाहिये कम के अनेक फलों में से ये भी फल हैं न कि यही फल हैं अगर चोरीका फल कारागार ही है तो अनेक धूर्त आयु भर चोरी आदि करते हैं परन्तु कभी पकड़े नहीं जाते। संयोग यश कभी पकड़े भी गये तो रिश्वत आदि देकर अथवा गवाहोंके बिगड़ने से और स.क्षीके न मिलने से छूट जाते हैं तो उनको चोरी का फल कहां मिला और उन्होंने उम्र भर चोरी करके जो धन एकत्रित किया और आनन्द लूटा वह किसका फल है। L सथा च लाखो देश भक्त बिना ही चोरी किए जला में पड़े हैं यह सिद्ध कर रहा है कि कारागार मिल जाता है। इससे चोरी का फल कारागार सिद्ध न हो सका क्योंकि इसमें अव्याप्ति और अति व्यामि दोनों ही दोष मौजूद है। इसी प्रकार वेतन को अध्यापनका फल कहने में भी अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोष है क्योंकि बहुतसे परोपकारी महानुभाव बिना वेतन लिए हुए पढ़ाते हैं तो क्या यह मानना होगा कि उन्हें पानेका कोई फल प्राप्त नहीं होगा ? क्योंकि आपके कथनानुसार तो उन्होंने वेतनरूपी फल लिया ही नहीं । और बहुतसे व्यक्ति वेतन तो लेते हैं परन्तु पढ़ाते हैं नहीं जैसे पेन्शनयाफ्ता कर्म - चारी । वास्तव में न तो वेतन फल है और न पढ़ना फल है। यह तो एक दूसरे का आदान प्रदान है। एक व्यक्ति को हमारे समय Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और हमारी विद्या की आवश्यकता थी और हमें रुपये की आवश्यकता थी । हमने रुपया लेकर विद्या और समय दे दिया जिस प्रकार एक के पास गेहूं है और दूसरे के पास घी उन्हों ने आपस में आदान प्रदान कर लिया। दोनों का काम चल गया इस में फल घों है या गेहूँ ! इसी प्रकार चोरी और कारागार में भी कम और फलका संपन्ध नहीं है,। एक व्यक्ति साधारण प्रजामें रह कर अव्यवस्था उत्पन्न कर रहा था। जिसके ऊपर व्यसभा की जिम्मेदारी श्री उस ने वहां से उस व्यक्ति को हटा कर एक पृषक जगह रख दिया। जिम प्रकार कमरे में कोई ( वस्तु अड़चन पैदा कर रही हो तो मकान वाला उस को दूसरी जगह रख दे तो क्या इस को कम का फल कहा जायगा । असल बात तो यह है कि कमों का फल प्रदाता ईश्वरको सिद्ध करने के लिये इस प्रकार को वारजाल रचा जाता है। श्रागे श्राप कम को फल का निमित्त कारण मानते हैं उपादान कारण नहीं । यदि फल का निमित्त कारण कम है तो ईश्वर क्या अन्यथा सिद्ध कारण है और यदि कम निमिस कारण है. तो फल का उपादान कारण क्या है यह आपने बताने का कष्ट क्यों नहीं किया । क्या इस लिए कि उससे आपका बनाया हुआ यह बालू का महल उम की हवा के थपेड़े से ढह जाता । और यह कहना कि इष्ट की रक्षा के लिए सुख और अनिष्ट को धोने के लिए दुःख दिया जाता है यह कहना भी निरी कल्पना मात्र है । क्यों कि इष्ट क्या और अनिष्ट क्या इसीका अाज तक कोई निर्णय नहीं कर सका । इस प्रकार सुख और दुःखको भी समस्या है जिसे समझना असम्भत्र सा हो रहा है । एक व्यक्ति के लिए जो सुख है वहीं दूसरे के लिए दुःख प्रतीत हो रहा है। हम कहां तक कहें इस गवेषणात्मक मुंदर ग्रन्ध में यह "कर्म और फल" प्रकरण ३सी प्रकारकी शास्त्र Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( ६८७ ) I तर्क, एवं विज्ञान विरुद्ध मिध्या कल्पनाओं से सुशोभित है। हमें यह कदापि आशा न थी कि एक सुयोग्य विद्वान इस प्रकरण को लिखने में इस तरह असफल होगा। संस्कारों के विषय में आपने पैसों रुपयों और नोटों का उदाहरण देकर हमारे इस कथन की पुष्टि कर दी है। क्यों कि वस्तुस्थिति इस के चिल्कुल विपरीत है। आप के जिस मनुष्य ने देवदत्त यज्ञदत सोमदत के यहां से चोरी की है कौन कहता है उस चोरी का रुपयों का और जिन के यहां चोरी की है उनका प्रभाव सूक्ष्म शरीर पर नहीं, अपितु स्थूल शरीर पर हैं ? श्रीमान् जी प्रभाव तो आत्मा पर हुआ न सूक्ष्म शरीर पर और न स्थूल शरीर पर | क्योंकि सूक्ष्म शरीर का आत्मा से निकट का सम्बन्ध है अतः सूक्ष्म शरीर पर ही अधिक और स्थायी संस्कार जमते हैं उनके नाम क्या स्थूल शरीर याद रखता है ! क्या उस स्थान को देखकर जहां आपके मनुष्य ने चोरीकी थी स्थूल शरीर को चोरी याद आ जाती है ? क्या याद करना स्थूल शरीर का कार्य है ? आज भी हम यहाँ बैठे हुए उन सम्पूर्ण शहरों के सूक्ष्म चित्रों को आंख बन्द कर देख लेते हैं जिनमें हमने भ्रमण किया है तो क्या यह स्थूल शरीर देख रहा है ? श्रीमान् जी आप तो एक बार चोरी का जिकर करते है। तथ्य तो यह है कि असंख्य जन्म जन्मान्तरोंमें जो इस जीवने कर्म किये हैं उन सब के चित्ररूप अलंकार स्वयं इसके सूक्ष्म शरीर में विद्यमान हैं। इसी लिए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है "बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तचार्जुन ? यान्यहं वेद सर्वाणि नत्वं वेत्थ परंतप ? हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं परन्तु तू उन्हें नहीं जानता है मैं उन सबको जानता हूं। क्या भगवान कृष्ण ने यह दावा अपने इस स्थूल शरीर पर पड़े हुये संस्कारों Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६cc ) को देखकर किया था, नहीं वे सूक्ष्म शरीर पर पड़े हुये अपने योग द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से उन संस्कारों को प्रत्यक्ष देखते थे। बस यह सिद्ध हुआ कि संस्कार (भले बुरे) स्थूल शरीरपर न पड़कर सूक्ष्म शरीर पर पड़ते हैं और उन्हीं सूक्ष्म शरीर पर पड़े हुये कुछ संस्कारों को लेकर स्थूल शरीर का निर्माण होता है । क्या आपने जो इतनी पुस्तके लिखी हैं या इतना पढ़ा है क्या वह आपके स्थूल शरीर में विद्यमान है ? क्या आप स्थूल शरीर पर लिखे हुये को पढ़ कर स्मरण करते हैं। यदि ऐसा है तो आपको स्मरण करत समय आँख बन्द नहीं करना चाहिये। अतः सिद्ध हुआ कि आत्मा जो कुछ करता है उसे सूक्ष्म शरीर पर लिखता रहता है यही उसका बहीखाता हैं । जन्मान्तरों के सम्पूर्ण कमों को इस में लिख रहा है। क्या ईश्वर कर्म फल दाता है ईश्वरको कम फल दाता किस प्रमाणसे सिद्ध किया जाता है प्रत्यक्ष से अथवा अनुमान से.? यदि कहो प्रत्यक्ष से तो यह असिद्ध है। क्यों कि ईश्वर को किसी भी व्यक्ति ने कम का फल देते हुये नहीं देखा अतः प्रत्यक्ष तो कह नहीं सकता । रह गया अनुमान, अनुमान के लिये पक्ष सपक्ष और विपक्ष होना अत्यावश्यक है। क्योंकि बगैर इनके अनुमान बनता ही नहीं । आप के इस पक्ष में सपस तो इस लिये नहीं है कि आज तक यह सिद्ध नहीं हो सका कि आपके ईश्वर के सिवाय कोई दूसरा ईश्वर कर्म फलदाता है। और विपक्ष इस लिये नहीं है कि ऐसा कोई स्थान आप सिद्ध नहीं कर सकते जहाँ ईश्वर कर्मका फल न देता हो और जीव कम का फल न भोगते हों । इस लिये अनुमानाभास है । लिस पक्ष के साथ सपक्ष और विपक्ष न हो वह पक्ष झूठा Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । जिस प्रकार -जहाँ जहाँ धूम है यहाँ यहां बन्हि होती है औरजहाँ जहाँ बन्हि नही होती वहां वहां धूम नहीं होता । इसी को अन्यय और व्यतिरेक भी कहते हैं परन्तु आपके अनुमान में न अन्वय है और मध्यतिरेक. क्योंकि आप ऐसा कोई स्थान नहीं मानते जहां ईश्वर को बगैर दिध कर्म का फल न मिलता हो मगर आप ऐसा मानते हैं कि ईश्वर तो वहां है परन्तु कर्म फल नहीं देता जैसा कि वेद में कहा है-"पादोऽस्य विश्रा भूतानि त्रिपादस्यामृतदिति" अर्थात परमात्मा के चार पाद हैं. एक पाद में जगत है और बाकी तीन पाद जगत से शून्य है। अभिप्राय यह है कि ईश्वर न तो कम का फल देता है न सृष्टि रचता है इसी को उपनिषद्कारों ने नाम ब्रह्म कहा है। ___ अतः ईश्वर का फनप्रदाता है. यह अनुमान से सिद्ध नहीं हो सकता । यदि कहीं शब्द प्रमाण है, तो यह साध्यसमा हेत्वाभास होगा। क्योंकि अभी तक यही सिद्ध नहीं हो सका कि जिस को तुम शब्द प्रमाण मानते हो, वह प्रमाण कहलाने के लायक है भी या नहीं ? अतः किसी भी प्रमाण से ईश्वर कम फलदाता सिद्ध नहीं हुअा । और यदि हम इन तमाम प्रश्नों को न भी उठायें तो भी आप के पास इसका क्या उत्तर है कि श्राप के माने हुए जज आदिकी तरह शरीरी अल्पज्ञ और एक देशी कर्मफलदातासे भिन्न निराकार फलदाता होता है। क्योंकि हम अशरीरी सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापकको कर्मफल दाता नहीं देखते । अतः आपका माना हुधा सर्वज्ञ, सर्वव्यापक परमात्मा कर्मफल दाता सिद्ध नहीं हो सकता। __ यदि हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि ईश्वर कमफल देता है तो भी यह प्रश्न शेष रहता है कि ईश्वर कर्म फल क्यों और कैसे देता है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-क्या ईश्वर जीवों को प्राज्ञा देता है कि तूने अमुक २ कर्म किए हैं इस लिए तू अमुक २ योनियों में जाकर अपने कर्मों का फल भोग और वह जीव उन की आज्ञा मान कर अपने आप कर्म फल भोगेने लगता है। २-क्या ईश्वर ने सिपाही वगैरह का इन्तजाम कर रखा है जो जीवों को पकड़ २ कर ईश्वर के पास लाते हैं और ईश्वर उन दूतों द्वारा कर्मों का फल दिलवाता है जैसा कि अथर्ववेद काण्ड ४ में घर के बूतों पर है। ३-अथवा ईश्वर स्वयं जीवों को पकड़ २ कर अनेक शरीरों में ढकेलता रहता है और वहां सुख दुःख देता रहता है। ४-अथवा ईश्वर प्राकृतिक पदार्थों को आना देता है कि तुम अमुक २ जीवों को अमुक २ सुख दुःख वेना । ५-च्या मानसिक सुख दुःख का देने वालाभी परमात्मा है? यदि हां तो क्या ईश्वर जीयों को चिन्ता, शोक, तृष्णा, लोभ, मोह आदि ( जिन से कि मानसिक दुःस्व होता है ) करने के लिए विवश करता है या जोब में इन गुणों को उत्पन्न कर देता है। यदि कहो ईश्वर मानसिक सुख दुःस्त्र का देने वाला नहीं तो मानसिक सुख दुःख देने वाला कौन है । ६-शारीरिक दुःख ईश्वर किस प्रकार देता है क्या ईश्वर जीव को अधिक खाने के लिये व खराव खाने के लिये बाध्य करता है। यदि कहो जीव स्वतन्त्रतापूर्वक खाता है तो क्या ईश्वर रोग के कीड़ों को यहां लाकर रख देता है या वहीं बैठा बैठा बनाता रहता है। यदि वह अधिक न खाय तो क्या ईश्वर कीड़े बनाने से महरूम रह जायगा। असल बना। . "- - - - T:- Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९१ ॥ ईश्वर प्रसिद्ध है बा० सम्पूर्णानन्द जी (शिक्षा मन्त्री यू०पी० ) चिविलास में एक अधिकरण में ईश्वर विषयक विचार इस प्रकार पर कि हैं। ईश्वर मनुष्य का परिवद्धित और परिशोधित संस्करण है। उसमें वे सत्र सद्गुण है जो मनुष्य अपने में देखना चाहता है। इसी लिये प्रत्येक संस्कृति व प्रत्येक व्यक्ति के ईश्वर में थोड़ा २ भेद हैं। किसीके लिये कोई गुण मुख्य है किसीके लिये गौण । जो एक एक की दृष्टि में सद्गुण हैं वह दूसरे की दृष्टि में दुर्गुण हो सकता है।" पृ० ११४ ऐसा मानना कि प्रत्येक वस्तु कर्तृक होती है साध्य सम है सूर्य चन्द्रमा कर्तृक है इसका क्या प्रमाण है ? समुद्र और पहाड़ को बनाये जाने किसने देखा है ? जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि प्रत्येक वस्तु का कर्ता होता है तब तक जगत का कोई कर्ता है. ऐसा सिद्ध नहीं होता। जो लोग जगत को कर्तृक मानते हैं उनके सामने अपने व्यवहारकी वस्तुयें रहती हैं घर बनाने के लिके राजगीर घड़ेके लिये कुम्हार, गहन के लिये सुनार और घड़ी के लिये बड़ी साज चाहिये । ये सब कारीगर किसी प्रयोजन इन वस्तुओं को बनाते हैं. ईश्वर का क्या प्रयोजन था।" पृ०४ पुनः इस जगत का उपादान क्या था । यदि उपादान अकर्तृक है तो जगत को अकर्तृक मानने में क्या आपसी है। यह कहना सन्तोष जनक नहीं है कि जगत ईश्वर की लीला है। निमद्देश्य खेल ईश्वर के साथ अनमेल है । क्या वह एकाकी घबराता था जो इतना प्रपंच रचा गया? यह भी ईश्वरत्व कल्पनासे असङ्गत । यह कहने से भी काम नहीं चलता कि ईश्वर अप्रतय है। इच्छा किसी ज्ञातव्य के जानने की किसी आशव्यके पाने की होती है। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्ररके लिये क्या अज्ञात और अप्राप्त था। और जब उसकी इच्छा ऐसी ही अकारण निस्प्रयोजन है तो अब उस पर कोई अंकुश तो लग नहीं गया है। वह किसी दिन भी सृष्टि का संहार कर सकता है। अंध विश्वास चाहे जो कहे परन्तु कितीकी बुद्धि स्वीकार नहीं कर सकती कि ऐसा होगा ! ईश्नरवादी कहते है कि ईश्वरका स्वभाव ही अंकुश है और नियम पतित्व उसका स्वभाव है। जगत में जो कुछ होरहा है वह नियमोंके अनुसार हो रहा है। इन सब नियमों को समष्टि को ऋत कहते हैं । ऋत ईश्वर का स्वभाव है । इस पर यह प्रश्न उठता है कि ग्रह स्वभाव ईश्वर का सदा से है या जगत रचना के बाद हुआ। यदि पीछे हुआ तो किसने यह दवाव डाला ? वह कौनसी शक्ति है जो ईश्वर से भी बलवती है ? यदि पहले से है तो जो इच्छा जगत का मूल थी वह ईश्वर के स्वभाव से अविरुद्ध रही होगी अर्थात् जगत को उत्पन्न करना ईश्वर का स्वभाव है परन्तु जहाँ स्वभाव होता है वहां पर्याय ( परिवर्तन ) रहते ही नहीं । ईश्वर की सिमृक्षा उसके स्वभाव के अनुकूल होगी। पानी का स्वभाव नीचे की ओर.की बहने का है, आग का स्वभाव गरमी है ईश्वर का स्वभाव जगत उत्पन्न करना है । न पानी नीचेको बहना. छोड़ सकता है और न ईवर जगतको उत्पन्न करना। उस अवस्था में उसको जगत का का कहना उतना ही होगा जितना आग को जलनका का कहना । कतत्व का व्यपदेश वहीं होसकता है जहां संकल्पकी स्वतन्त्रता हो. यह काम कर या न कर स्वभाव से इस प्रकारको स्वतन्त्रता के लिये स्थान नहीं रहता । अतः ये सब तक ईश्वरके अस्तित्वको सिद्ध नहीं करते।" पृ० १५-१.६ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगं पुरुषाय यो बा तो कुम्भकारी ( ६६३ ) श्री जिन सेनाचार्य लिखते हैं कि"कृतार्थस्य विनिर्मित्या, कशमेवास्ययुज्यते । अकृताथोंपिन सृष्टु, विश्वमीष्टे कुलालवत् ॥" अब यह कहो कि तुम्हारा सृष्टिकर्ता ईश्वर कृतार्थ है अथवा अकृतार्थ है ? यदि कृतार्थ हैं अर्थात उसे कुछ करना वाकी नहीं रहा. चागं पुरुषार्थीका साधन कर चुका है. तो उसका कतौ पन कैसे बनेगा ? वह मृष्टि क्यों बनावेगा ? और यदि अकृतार्थ है अपूर्ण है. उसे कुछ करना बाकी है, तो कुम्भकार के समान वह भी सृष्टि को नहीं माना मा ! को कार मी हो मालार्थ है इसलिये जैसे उससे स्मृष्टिकी रचना नहीं हो सकती है, उसी प्रकार से अकृतार्थ ईश्वरसे भी नहीं हो सकता है । अमूतो निष्क्रियो व्यापी कथमेषः जगत्सजेत् । न सिसमापि तस्यास्ति, विक्रिया रहितात्मनः ॥ यदि ईश्वर अमूर्त. निष्क्रिय और सर्वव्यापक है, ऐसा तुम मानते हो तो वह इस जगतको कैंस बना सकता है ? क्योंकि जो अमूर्त है, उससे मूर्तिक संसारकी रचना नहीं हो सकती है, जो किया रहित हैं. मृष्टि रचना रूप क्रिया नहीं कर सकता है. और जो सबमें व्यापक है. वह जुदा हाए बिना अव्यापक हुए विना सृष्टि नहीं बना सकता है। इसके सिधा ईश्वरको तुम बिकार रहित कहते हो। और स्मृष्टि बनाने की इच्छा होना एक प्रकारका विकार है-विभाव परिरणति है, तो बतलाओ उस निर्विकार परमात्माके जगत बनानेकी विकार चेष्टा होना कैसे सम्भव हो सकती है ? Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कविक्षः शरशाधि, मिना पायेधादे । नन्वेवमीश्वरो नस्याव, पारतन्ध्यात् कुविन्दवत् ॥" यदि सृष्टिकर्ता जीवोंके किये हुए पूर्व कर्मोंके अनुसार उनके शरीरादि बनाता है तो कोको परतन्त्रताके कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता है जैसे कि जुलाहा। अभिप्राय यह है कि जो स्वतन्त्र है समर्थ है उसीके लिये ईश्वर संज्ञा ठीक हो सकती है । परतन्त्र के लिये नहीं हो सकसी जुलाहा यद्यपि कपड़े बनाता है, परन्तु परतन्त्र है, और असमर्थ है. इसलिये उसे ईश्वर नहीं कह सकते। ईश्वर के प्रति श्री सम्पूर्णानन्दजी के विचार निर्धन के धन और निर्बल के बल कोई भगवान हैं ऐसा कहा जाता है। यदि है. तो उनसे किसी बलवान् या धनी को कोई आशंका नहीं है । वह उनके दरबार में रिश्वत पहूंचानेकी युक्तियां जानता है । पर उनका नाम लेने से दुर्बल और निर्धनका क्रोध शान्त हो जाता है । जो हाथ बनाने वालोंके विरुद्ध उठते हैं. वह भगवानके सामने बँध जाते हैं । पाखीकी क्रोधाग्नि प्रासू बनकर छलक जाती है । वह कमर तोड़कर भगवान्का आश्रय लेता है । इसका परिणाम कुछ भी नहीं होता। उसके अर्त हदयसे उमड़ी हुई कम्पित स्वर लहरी आकाश मण्डल को चीर कर भगवान के सूने सिंहासनसे टकराती है । टकराती है. और यशे की त्यों लौटती है । कबीर साहनक शब्दों में यहां कुछ है नहीं आज हजारों कुलबधुओंका सतीत्व बलात् लुट रहा है, हजारोंको पेटको ज्वाला बुझाने के लिये अवलाका एकमात्र धन बेचना पड़ रहा है। लाखों बैंकस, निरीह राजनीतिक और आर्थिक दमन और शोषण की Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यकी में पिस रहे हैं पर जो भगवान कभी खम्भे फाड़कर निकला करते थे और कोसों तक चीर बढ़ाया करते थे, वह आज उस कल्लाको भूल गये, गौः अनन्त सुख भोग रहे हैं। कि. भी उनके कामकी लकड़ी दीन दुखियोंको थमाई जाती है। जो लोग ऐसा उपदेश देते हैं वह खूब जानते हैं कि अशान्तोंको काबू में रखनेका इससे अच्छा दूसरा उपाय नहीं है। ईश्वरने विभिन्न मतानुयायियोंको विभिन्न उपदेश दे रखे हैं। आगजनक होकर भी बलि और कुरवानी से प्रसन्न होता है । एक पोर विश्वेश्वर बनता है. दूसरी ओर विधर्मियोंको और कभी-- कभी स्व धर्मियों को भी मार डालने तकका उपदेश देता है। एक ही अपराधके लिये अलग-अलग लोगों को दण्ड देता है, और एक ही सत्कर्म के पुरस्कार भी अलग अलग देता है । अपने भक्तोंके लिये कानूनकी पोथीको बैठनमें बन्द करके रख देता है। प्रायः सभी सम्प्रदायों का यह विश्वास है कि उनको सीधे ईश्वर से श्रादेश मिला है. पर हिन्दू का ईश्वर एक बात कहता है। मुसलमानका दूसरी और ईसाईका तीसरी । इटिलीकी सेनां श्रीसीनिया पर आक्रमण करती है, और उभय पक्ष ईश्वर, ईसा श्रीस ईसा की माता से विजय की प्रार्थना करते हैं । (समाजवाद पृष्ठ १५-१८. ११) ईश्वर के विषय में महात्मा गान्धी का अभिप्राय-ईश्वर है भी और नहीं भी है। मूल अर्थ से ईश्वर नहीं है। सम्पूर्ण ज्ञान है। भक्ति का सच्चा अर्थ आत्मा का शोध ही है। आत्मा को जब अपनी पहिचान होती है, तब भक्ति नहीं रहती फिर वहां ज्ञान प्रगट होता है। नरसी मेहता इत्यादिने ऐसी ही आत्माकी भक्ति की है। कृष्ण राम इत्यादिक अवतार थे. परन्तु हम भी अधिक पुण्य से वैसे हो Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं। जो श्रात्मा मोक्ष के प्रति पहुंचने के लगभग आ जाती है वही अवतार है । इनके विषय में उसी जन्म में सम्पूर्णता मानने की आवश्यकता नहीं । ( महात्मा गान्धी के मिति पत्र पृष्ट ४७) भगवद्गीताका अवतरण कत को न कर्माणि लोरमा जाति भावः । न कर्म फल संयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ गीता ५-१४ जगत का प्रभु न कर्तापन रचता है, न कर्म रनता है, म कर्म और फलका मेल साधता है । प्रकृति ही सब करती है। टिप्पणी ईश्वर का नहीं है 'कर्म का नियम अटल और अनिवार्य है, और जो जैसा करता है, उसको वैसा करना ही पड़ता है । नादसे कस्यचित्पापं, न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। ५-१५ ईश्वर किसीके पाप या पुण्यको अपने ऊपर नहीं प्रोढ़ता है। अज्ञान द्वारा ज्ञान हक जानेसे लोग मोहमें फंस जाते है। टिपणी-अज्ञानसे 'मैं करता हूँ" इस वृत्तिसे मनुष्य कमबन्धन बाँधता है, फिर भी वह भले बुरे कर्मका आरोप ईश्वर पर करता है, यह मोह जाल है। श्री मत परमहंस सोऽहं स्वामी का अभिप्राय जो वेदको ब्रह्मसे उत्पन्न मानता है, उसके लिये बाईबिल को ईश्वरके द्वारा निर्माण किया हुआ न मानमा. अथवा जो लोग Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६७ ) बाईथिलको ईश्वरको बनाई हुई मानते हैं। उनके लिये वेद का ब्रह्म से उत्पन्न न होना मानना युक्ति संगत नहीं है। 'जगत् के कर्या ने विविध नामोंसे प्रकट होकर विभिन्न देशों में देश-काल और पात्रके भेदसे अलग अलग धर्मका उपदेश किया है. इस पर जो लोग विश्वास करते हैं. क्या वे विविध देशोंके सृष्टितत्व विषयक मतों में जो भेद पड़ गया है उसका निर्णय कर सकते हैं ? (भगवद्गीताकी समालोचना-अनुगोपालचन्द वेदांत शास्त्री०१८) सारांश यह है कि, इस जगतका कर्ता हा कोई ईश्वर विशेष नहीं है । क्योकि प्रथम तो जगतका कार्यत्व ही प्रसिद्ध है, क्योंकि कार्यके लक्षण ही जगतमें नहीं घटते । यदि कार्यका लक्षण प्रागभाव प्रतियोगित्वम् ऐसा करें तब तो चाँद व सूर्य आदिका कभी अभाव था यह प्रसिद्ध है इसलिए यह लक्षण उसमें नहीं घटता । तथा वेदने स्वयं इसका स्पष्ट शब्दों में विरोध किया है। जिनके प्रमाण हम पहले लिख चुके हैं । वर्तमान विमानने भी यह सिद्ध कर दिया है कि इनका न कभी अभाव था और न कभी अभाव होगा यह भी विज्ञान प्रकरण में हम लिख चुके हैं । इसी प्रकार मीमांसा दर्शनके भी हम उन प्रमाणोंको लिख चुके हैं। सृष्टि रचना तथा प्रलयका जिन प्रपल युक्तियोंसे खण्डन किया है। पाठक 'मीमांसा' प्रकरणमें देख सकते हैं । अतः यह लक्षण तो कार्यत्वका जगतमें घटता नहीं है। श्री सम्पूर्णानन्दजी और ईश्वर यह बहुत पुराना और व्यापक विश्वास है कि इस जगत का कोई कर्ता है, किसी ने बनाया है। देख ही पड़ता है कि बहुत सी बाधाओं के रहते हुये भी मनुष्य जी रहा है. पशु पक्षी जी रहे हैं, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र, पहाइ, समुद्र, सभी बने हुये हैं, अतः Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६८ ) जगत का पालन भी हो रहा है। इस बात के मानने में लाघव होता है कि जो कर्त्ता हैं वहीं पालक है इसी प्रकार यह भी माना जाता है कि वही एक दिन जगतका संहार भी करेगा। इस कर्त्ता पाता संहरताको ईश्वर कहते हैं। ईश्वर प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अतः उसका ज्ञान अनुमान और शब्द प्रमाणसे ही हो सकता है। जब तक सर्व सम्मत श्राप्त पुरुष निश्चित न हो जाय तब तक शब्द प्रमाणसे काम नहीं लिया जासकता | विभिन्न सम्प्रदायोंमें जो लोग प्राप्त माने गये हैं उनका ईश्वर के सम्बन्ध में ऐक्य मत नहीं है। जो लोग के अस्तित्व को स्वाकार नहीं करते उनमें कपिल, जैमिनि बुद्ध और महावीर जैसे प्रतिष्ठित आचार्य हैं । अतः हमको शब्द प्रमाणका सहारा छोड़ना होगा | अथ के अनुमान था। इसमें हेतु व लाया जाता है कि प्रत्येक वस्तुका कोई न कोई रचयिता होता है इसलिये जगत का भी कोई रचयिता होना चाहिये। इस अनुमान में कई दोष हैं। हम यदि यह मान लें कि प्रत्येक वस्तुका कर्ता होता है तो फिर वस्तु होने से ईश्वरका भी कर्ता होगा और उस का कोई दूसरा कर्ता दूसरे का तीसरा ! यह परम्परा कहीं समाप्त न होगी । ऐसे तर्क में अनवस्था दोष होता है। इससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। यदि ऐसा माना जाय कि ईश्वर को कर्त्ता की अपेक्षा नहीं है तो फिर ऐसा मानने में क्या आपत्ति है कि विश्व को कर्त्ता की अपेक्षा नहीं है ? फिर ऐसा मानना कि प्रत्येक वस्तु कर्तृक होती है साध्यसम है। सूर्य चन्द्रमा कर्तृक हैं इसका क्या प्रमाण है। समुद्र और पहाड़ को बनाये जाते किसने देखा ? जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि प्रत्येक वस्तु का कत होता है तब तक जगत का कोई कर्त्ता है ऐसा सिद्ध नहीं होता । जो लोग जगत् को कटक मानते हैं उनके सामने अपने 1 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०६ ) व्यवहार की वस्तुएं रहती हैं। घर बनाने के लिये राजगीर घड़े के लिये कुम्हार. गहने बानाने के लिये सोनार, घड़ी के लिये घड़ा साज चाहिये । यह राजीगर ईट पत्थर मिट्टी सोला. पुलों से गृहादि का निर्माण करते हैं। कारीगर उपादन सामग्री को काम में लाता है। और निर्माण कार्य में लगनेमें कोई न कोई प्रयोजन होता है। वह प्रयोजन यदि हमको पहिले से भी न ज्ञात हो तो निर्मित वस्तु को देखने से समझ में आसकता है। अब यदि गृहादिकी भांति जगत मी कर्तृक है तो उसकी उपादान सामग्री क्या थी और सृष्टि करने में ईश्वरका प्रयोजन क्या था । जगतमें जो कुछ भीहै वह या तो जड़ है या चेतन, अतः जो भी उपादान रहा होगा वह या तो दो प्रकारका रहा होगा या उभय श्रात्मक । दोनों ही अवस्थामात बद प्रश्न है के ५६ की उत्पत्तिसे पूर्व कहाँसे श्राया। यदि उसका कोई कर्चा नहीं था तो जगतके लिए ही काकी कल्पना क्यों की जाये। यदि कर्ता था तो वह ईश्वरसे भिन्न था या अभिन्न । यदि भिन्न था तो ईश्वर की कल्पना क्यों की जाये | क्या जो व्यक्ति जड़ चेतनको उत्पन्न कर सकता था वह उनको मिलाकर जगत नहीं बना सकता था ? जड़ चेतनके बनने पर तो बिना किसी ईश्वरको माने भी जगतका विस्तार समझमें श्रा सकता है। यदि उपादान की ईश्वरसे भिन्न था अर्थात् ईश्वरने ही जड़ चेतनकी सृष्टिकी तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपत्से सत्की उत्पत्ति हुई जो प्रत्यक्षके विरुद्ध होनेसे अनुमानसे भी बाधित है। यदि यह माना जाय कि ईश्वरने अपने सत् स्वरूपसे जड़ चेतनको उत्पन्न किया तो यह प्रश्न होगा कि उसने ऐसा क्यों किया ऐसा करने में प्रयोजन क्या था । यह नहीं कह सकते कि जीवोंकी भोगोपलब्धिके लिए ऐसा किया गया क्यों कि जीवोंको तो उसी ने बनाया । न उनको बनाता न उनके लिए Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ७०० > भोगोंका प्रश्न उठता । जीवोंका मोक्ष भी उद्देश्य नहीं हो सकता क्योंकि अब जीव थे ही नहीं तो फिर उनका बन्धन कहां था जिस को तोड़ने के लिए जगत रचत्ता। यह कहना भी सन्तोष जनक नहीं हैं कि जगत ईश्वरकी लीला है। निरुद्देश्य खेल ईश्वर के साथ अनमेल है। क्या वह एकाकी घबराता था जो इतना प्रपंच रचा गया। यह भी ईश्वरत्व कल्पनासे असंगत हैं। यह कहने से भी काम नहीं चलता कि ईश्वर की इच्छा अप्रतक्र्य हैं । इच्छा किसी ज्ञातव्य को जानने की किसी आमव्य के पाने की होती है। ईश्वर के लिये क्या अज्ञात और क्या अप्राप्त था। फिर जब उसकी इच्छा ऐसी ही हैं अकारण, निष्प्रयोजन, हैं तो अब उस पर कोई अंकुश तो लग नहीं गया है। वह किसी सृष्टि का संहार कर सकता है. आग को शीतल कर सकता है. कमल के वृन्दपर चन्द्र सूर्य उगा सकता है । अन्ध विश्वास चाहे सो कहे परन्तु किसी की बुद्धि यह स्वीकार नहीं करती कि ऐसा होगा । ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर का स्वाभाव ही अंकुश है और नियम वर्तित्व उसका स्वभाव है । जगतमें जो कुछ होरहा है यह नियमानुसार हो रहा है । इन सब नियमोंकी समष्टि को ऋत कहते हैं । ऋत ईश्वर का स्वभाव है । इस पर प्रश्न उठता है कि यह स्वभाव ईश्वर का सदा से है या जगत की सृष्टि के पीछे हुआ। यदि पीछे हुआ तो किमने दबाव डाला । वह कौन सी शक्ति है जो ईश्वर से भी बलवती है। यदि पहले से है जो इच्छा जगतकी उत्पत्ति का मूल थी वह ईश्वर के स्वभाव से अविरुद्ध रही होगी। अर्थात् जगत् उत्पन्न करना स्वभाव है । परन्तु जहाँ स्वभाव होता है वहाँ पर्याय रहते ही नहीं। ईश्वर की मसिसृक्षा उसके स्वभाव के अनुकूल होगी। पानी का स्वभाव नीचेकी श्रोरच्हना है, आपका स्वभाव गरमी है ईश्वरका स्वाभाव जगत उत्पन्न करना है । न पानी नीचे बहना छोड़ सकता Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०१ ) 6 है । न ईश्वर जगतको उप करना लो दशा में उसको जगर का कर्त्ता कहना उतना ही उचित होगा जितना पानीके नदी या आगको जलनका कर्ता कहना । कर्तृवका व्यपदेश वहीं हो सकता है जहाँ संकल्प की स्वतन्त्रता हो। यह काम करूं या न करूं, स्वभाव से इस प्रकार के स्वतन्त्रता के लिये स्थान नहीं रहता । अतः यह सब तर्क ईश्वर के अस्तित्वको सिद्ध नहीं करते।" आदिर श्री सम्पूर्णानन्द जी ने इसी प्रकार इस पुस्तक में तथा दर्शन और जीवन में ईश्वर की मान्यता का शतशः प्रबल युक्तियों द्वारा खंडन किया है। हम आगे तर्कवाद में उन युक्तियों का खंडन करेंगे जो कि ईश्वर पक्ष में दी जाती हैं। यहां तो वैदिक प्रमाणों की परीक्षा करनी है। अतः यह सिद्ध है कि नासदीय सूक्त में आत्यन्तिक प्रलय का कथन श्री सम्पूर्णानन्द जी को स्वीकार नहीं है। तथा च न वे किसी ईश्वरको कर्त्ता मानते है । वे स्वतन्त्र विचारक होते हुये भी शङ्कर के अनुयायी प्रतीत होते हैं । पाश्चात्य - दर्शन आज से तीन हजार वर्ष पहले पश्चिम (यूनान, मिश्र आदि ) में अनेक देववादका हो प्रचार था। उनके देवता भी वैदिक देवतायोंकी तरह ही शक्तिशाली और सर्व दैविक गुणोंसे युक्त थे । गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक प्रोः प्राणनाथजीने नागरी प्रचारिणी पत्रिका वैदिक देवताओंका तथा ईरान मिश्र आदि देशों में प्रचलित प्राचीन देवताओंका बहुत सुन्दर मिलान किया है। आपने स्पष्ट लिखा है कि- ऋग्वेदके ऋषिके सन्मुख, बाईबिलकी आदम हवा तथा सांप के सदृश कोई प्राचीन उत्पत्तिकी गाथा अवश्य ही रही होगी, कारण उसने बिना वस्त्रोंमें रहने वालोंकी तरह ( बाप से ). .. Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०२ ) माथ साथ रहने वाले ( सध्रीचीना ;, यातेव इधर उधर फिरने वाले. बुद्धिका विस्तार करते थे (वितन्याथे धियोः) यह लिखा ।" __ सूर्य तथा चन्द्र, या शिव तथा शक्ति, या आदम तथा हव्वा को फलों के द्वारा प्रकट करना बेचिलिमीया आदि प्रदेशोंमें एक प्रथा सी बन गई थी 1 वेद मन्त्रोंके रचयिता इस प्रथासे अनभिज्ञ न थे। बहुत संभव है वे स्वयं ही इस प्रथाके जन्मदाता रहे हो" यही नहीं अपितु आपने इस लेख मालामें. उन देशोंमें प्रचलित प्राचीन देव मूर्तियोंसे वेद मन्त्रों में वर्णित देव स्तुतियोंके चित्र देकर यह सिद्ध कर दिया है कि वैदिक तथा ये देवता एक ही हैं । वहां प्रचलित प्राचीन देवोंसे वैदिक देवताओंकी समानताका कथन आपने शब्दशः विया है। इस विषयमें ग्रह लेख बहुत ही उपयोगी गवेषणापूर्ण एवं तात्विक है। अभिप्राय यह है कि उस समय पश्चिममें बहुदेववादका साम्राज्य था। उसके पश्चात् अनुमानतः २५०० वर्ष पहले यूनानमें तीन दार्शनिक हुये-(1) ओलीज, (२) एनेक्समेण्डर (३) एनेक्समेनीज | इन सबके सन्मुख एक मात्र प्रश्न यह था कि इस जगतका मूल तत्व क्या है ? उस समय तक संसारमें ईश्वरका आविष्कार नहीं हुआ था, और न पनिसमें श्रात्मज्ञानका ही उस समय तक उदय हुआ था । अतएव इनके मनमें ईश्वर या आत्माके लिये कोई प्रश्न ही न था। अतः थेलीजने तो निश्चय किया कि इस संसारका मूल सत्व जल है, कनेक्स मेएडरके मत्तसे एक अनियत द्रव्य ही इस संसारका मूल कारण निश्रित हुआ तथा एनक्समे नौजने वायुको ही संसारका मूल कारण बताया । ये सब सिद्धांत भारत में भी प्रचलित थे, जिनका वर्णन पहले हो चुका है। इसके पश्चात् हेरैलीट्स-नामक एक दार्शनिकने कहा कि प्रत्येक क्षश प्रत्येक पदार्थमें परिणमन होता रहता है. अतः विश्वका मूलकारण Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) कोई परिणमनशील पदार्थ ही होना चाहिये। अतः इसने यह निश्चय किया कि वह परिणमनशील पदार्थ अग्नि ही हो सकता है। अतएव उसने अमिको ही संसारका मूल कारण माना। यह दार्शनिक जगत्को नित्य भी मानता था । पारमेनिडीज-इस दार्शनिक मत से संसार सत्स्वरूप है, न इसका आदि है और न अन्त । इसके मत से जहां कालकी अपेक्षा जगन् नित्य है वहां देशकी अपेक्षा जगत अनन्त भी है। अर्थात् ऐसा कोई स्थान या आकाश नहीं है जहां यह ससार न हो। ____ क्सेनोफेन-सर्व प्रथम यूनानमें सेनोनने ही देवतावादका विरोध किया, इसने कहा कि लोग विश्वास करते हैं, कि देवना भी उसी तरह अस्तित्व में आय है कि हम ! और देवताकि पास भी इन्द्रियां, वाणी और काया है। उपयुक्त दार्शनिकका कहना था कि यदि पशुओंके भी वाणी और कल्पना शक्ति होती तो वे भी देवताओं की कल्पना करते । प्रत्येक पशुका अपना ( अपने ही आकार का ) देवता होता। जिस प्रकार मनुष्योंने अपने अपने वर्णानुसार अपने २ देवता बनाये हैं वैसे ही पशु भी बनाते । तात्पर्य यह कि यहांसे यूनानादिदेशोंमें देवसावादका द्वास प्रारम्भ हुआ, और वहां दार्शनिक विचारों का प्रचार बढ़ता गया। पिथागोरस---यह यूनान का महान दार्शनिक माना जाता है। कहते हैं यह भारत में आया था, शायद यहाँ इस को उपनिषदों का उपदेश प्राप्त हुश्रा हो। इसी ने यूनानमें आत्मवाद का प्रचार किया. इसका कथन था कि अग्नि आदि जगत के पदार्थ नहीं है । सथा उनका परमाणु ही मूल तत्व हैं। यह आकृति को ही मूल माना था तथा प्रात्मा को और पुनर्जन्म को भी मानता था। जिस प्रकार भारत में शब्द ब्रह्म की स्थापना हुई उसी प्रकार इसने Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ब्रह्म की स्थापना की । यह शङ्कराचार्य की तरह अद्वैतवादी था। इसका सिद्धान्त था कि दस हजार वर्ष बाद सम्पूर्ण संसार जैसा पहले हुआ था फिर ऐसा होजाता है। इसी दस हजार वर्षों को लेकर यहाँ चार वर्षों की कल्पना की गई तथा चतुर्युगी के भी दस हजार वर्ष माने गये हैं। यथा-सतयुग के चार हजार, त्रेता के तीन, द्वापर के दो और कलियुग का एक हजार वर्ष । देमोक्रितु–यह यूनान का सुप्रसिद्ध युगपरिवर्तक और एक महान दार्शनिक आचार्य हुआ था । यह अनुमानतः ईसा से ४५ वर्ष पूर्व हुआ था। यह परमाणुषादी तथा द्वैतवादो था। इसके मत से भाव और अभाव दो पदार्थ हैं। भाव यह है जिससे शून्य मटा दुपा है तथा प्रभव म प है ! भान पदार्थ अनेक परमाणुओंसे बना है। इसका कहना था कि परमाणुओं में परस्पर आकर्षण होनेसे जगत बना है। तथा परमाणुओं के विभाग से जगत का नाश हो जाता है परमाणुओं में गुरुत्व होने के कारण अनादिकाल से वे आकाश में नीचे गिरते जाते हैं । जो हलके हैं धीरे धीरे गिरते हैं और जो भारी हैं वे शीघ्र नीचे गिरते हैं। अग्नि के चिकने और गोल परमाणुओं से मनुष्य की आत्मा बनी है। श्रात्माके ये परमाणु शरीर भरमें व्याप्त है। सांस बाहर निकलने से आत्मा के परमाणु बाहर निकल जाते हैं. परन्तु इसकी पूर्ति प्राण वायु द्वारा आग्नेय परमाणुओं को अन्दर लेने से हो जाती है । इन्द्रियों और पदार्थों से कुछ परमाणु निकलकर मार्गमें मिलते हैं 1 उसासे पदार्थांका ज्ञान होता है। जिस आकार के परमाणु जिस इन्द्रियोंमें हैं उस इन्द्रियसे उसी प्रकार के आकार वाले पदार्थ का बोध होता है । यह भी जैन धर्म दर्शन की तरह मुल परमाणुओं को एक ही प्रकार के मानता है। अग्नि आदि सब एक ही प्रकार के परमाणुओं का विकार मात्र है। यही जैन Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( wok ) सिद्धांत है। इसके कुछ काल बादही यूनानमें एक अन्य दार्शनिक हुआ जिसका नाम इम्पीडो क्लेस था । उसका मत था कि परमा में इच्छा और द्वेष भी है। राहुलजीका कहना है कि भारत में परमाणुवाद इन्हीं से आया परन्तु हम इस बात से सहमत नहीं हैं क्योंकि म० महाबीर तथा उनके समय में ही कात्यायन भी परमाणुवादी था । तथा इनसे पूर्व भी चार्वाकके आचार्य भूतबादी थे ये सब थकू २ भूतों के पृथक परमाणु मानते थे । तथा वैशिषिक दर्शनकी भी आप नवीनता सिद्ध नहीं कर सकते हैं, अतः आपका यह मत केवल कल्पना मात्र है । तथा आपने भी इस कल्पना के सिपे एक भी आकर उपस्थित नहीं किया है. यह कल्पना बिल्कुल निराधार भी है। ईश्वर एनक्सागोरस - पश्चिम में सबसे पहला यह दार्शनिक है जिस ने ईश्वर की कल्पना का श्राविष्कार किया था। इससे पूर्व यूरुप आदि के लोगों को ईश्वर के विषय में कुछ भी ज्ञान न था। इसके मत से भी सृष्टि अनादि और अनन्त है। इस जगत के रचने के लिये ईश्वर की आवश्यकता नहीं. परन्तु इस जगत में जो सौन्दर्य हैं, तथा नियम आदि हैं उनके लिये ईश्वर भी आवश्यक है। इस तरह ईसा से ५०० वर्ष पहले पश्चिम में मनुष्य की बुद्धि ने ईश्वर की रचना की । महर्षि सुकरात और उसके बादके दार्शनिक सुकरात जिसे यूरोप में विज्ञानका पिता समझा जाता है, उस का मत आत्मा सम्बन्धमें इस प्रकार था: - सुकरातने शिमी Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) ( SHAMMI) को उत्तर देते हुये कहा कि मुझे विश्वास है. कि मृत पुरुष भी एक प्रकारका जीवन रखते हैं जैसा कि पूर्वजोंने कहा है – वह जीवन पापों की अपेक्षा सत्पुरुषोंके लिये श्रेष्ठ तर हैं " (२) " 2 जब तक हम यह शरीर रखते हैं और जब तक यह साधन शरीर हमारी आत्माओं से सम्पर्क रखता है उस समय तक हम इच्छित उद्देश्यको कदापि न प्राप्त कर सकेंगे" ( ४ ) + (३) चित्तकी शुद्धता शरीर से आत्मा को प्रथक करते हुए और पृथक करने की भावनाको दृढ़ करते हुए श्रायु विताना ही है। 3 शरीर से पृथक होना और छूटना ही मृत्यु है" । (५) सिवीने कहा - 4 तब हम इस बात में सहमत होगये क जिन्हें मुसे और मुर्दे जिन्देसे पैदा होते हैं और इसी लिए इस बात में भी हम सहमत हो गये कि यही यथेष्ट प्रमाण है कि मृत पुरुषोंकी आत्मा पहले कहीं अवश्य थी जहांसे वह फिर जन्म लेती है”। (६) सुकरात ने कहा 5 हो निसंदेह ऐसा ही है। हमने इस सिद्धान्त स्थिर करनेमें भूल नहीं की हैं मनुष्य मरकर अवश्य पुनः जन्म लेते हैं और उन्हीं मुद्दोंसे जीवित पुरुष उत्पन्न होते हैं और मृत पुरुषोंकी आत्मा अमर है" । (s) सुकरात - "सो आत्मा किससे साहश्य रखता है ?". 1 Trial and death of socrated P. 115 P. 120 2 P. 122 P. 130 P. 131 and 132 3 4 5 در " A >> " 35 35 " 32 " در 33 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकी-यह तो स्पष्ट ही है कि आत्मा देवी और शरीर मरणधर्म है। सुकरात--"जो कुछ मैंने कहा क्या उसका परिणाम यही निकला, कि जीवात्मा देवी, नित्य, वोधगम्य, समान, अविनाशी और अजर है, जब कि शरीर विनाशी, जड़, बहुविध, परिवर्तन शील और छिन्न भिन्न होने वाला है ? सित्री ! क्या तुम इसके विरुद्ध और कोई तक रखते हो ? सिबीने कहा नहीं 16 (८) फिर सिवी को उत्तर देते हुये सुकरात ने कहा कि जीवात्मा जो अदृश्य है जो अपने सदश शुङ निर्मल, अदृश्य लोक में पवित्र और शान मय ईश्वर के साथ रहने को जाता है जहां यदि भगवानकी इच्छा हुई तो मेरा आत्मा भी शीघ्र जायगा। क्या हम विश्वास करें कि जीवात्मा जो स्वभाव से ही ऐसा शुद्ध निर्मल और निराकार है, वह ह्वाके झोंकों में उड़ जायगा? और क्या शरीर से पृथक होते से ही छिन्न भिन्न हो आयगा । जैसा कि कहीं कहते हैं । ४ सुकरात ने यूनान के दर्शन का झुकाब बाहर (प्रकृति ) की ओर से हटाकर भीतर (आत्मा) की ओर कर दिया । वह सदैव अपने शिष्योंको शिक्षा दिया करता था कि "अपने को जानो" और यह कि "प्राचार परम धर्म है ।" प्राचार युक्त जीवन तप से प्राप्त होता है, तप इन्द्रिय संयम और दमको कहते हैं । ( जैन तीर्थंकरों का भी ग्रही उपदेश था) 6 , , P. 146 and 147 * Trail and Death of Socrates P. 148. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अफलातून ( प्लेटो) लेदो आत्मा के अमरत्वका उत्कृष्ट प्रचारक था । सुकरातकी मृत्यु के पश्चान वह इटली चला गया था । इस यात्रामें उसे पिथागोरस के मन्तव्योंका ज्ञान हुश्रा, वह श्रादर्शवादसे भी प्रभावित था । और अपने शिष्यों को सिखलाया करता था कि भेज के ख्यालम मेज से अधिक वास्तविकता है । उसकी प्रसिद्ध पुस्तक "फेडो" ( Phaedo ) प्रश्नोतर रूपमें है। पुस्तक में उसने श्रात्मा के अमरत्व पर अच्छा विचार किया है। उसका कथन है कि जीवात्मा अभाव से उत्पन्न नहीं हो सकता, इस लिये उसकी पूर्वसत्ता होनी चाहिये, और वह भी अनादिकाल से । इसी विचार की पुष्टि वह इस प्रकार करता है, कि केवल जीव ही उन आदर्शोंका विचारकर सकता है जो वस्तुओंकी सत्ता के कारण हैं. और जिनके द्वारा वस्तुओंकी उत्पत्ति हुश्रा करती है। परन्तु जीवोत्पत्तिके विचारको उसने कभी क्षणमात्रके लिये भी स्वीकार नहीं किया । यह सदैव उनकी निरन्तर सत्ताका उपदेष्टा और अभावसे भाव होनेका सर्वथा विरोधी रहा । उसका जीवन के संबंधमें यही विचार था कि शरीर से पृथक होने के बाद उसी प्रकार अन्तकाल तक बना रहता है, जिस प्रकार शरीरमें श्रानेसे पूर्व अनादिकाल से अपनी सत्ता रखता था, आचाहिन्छ" ( Archar Hind) जिसने । फेडों का संस्करण प्रकाशित किया था उसकी भूमिका में उपयुक्त विचारों को प्रकाशित करते हुए यह भी लिखा है कि प्लेटोका विचार था कि बुद्धिमान विज्ञान वेताओंको मृत्युसे भयभीत नहीं होना चाहिये। प्लेटो ( देखो रिपब्लिक का तृतीय भाग ) अपने शिष्योंको परलोक संबंधी ऐसे विचारों से जिनका पार्फियसकी शिक्षासे संबन्ध है, बचानेका यत्न किया था। क्योंकि वह उन्हें निस्सार समझता था । मृष्टि संबंधी उसका विचार था कि "आदर्श मुष्टि Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (use) सत्य और सौन्दर्य से भरपूर हैं, परन्तु ज्ञानेन्द्रियोंके जगत् में इनका अभाव है ।" वह धर्मके आदर्शको सर्वप्रधान बतलाते हुए उस आदर्श की सत्ता ईश्वरको समझता था। यह समाजको बड़ी महत्ता देता था, और व्यक्ति के कुछ अधिकार नहीं समझता था. उसका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति समाजके लिये जीता है। अफलातुनको नानादि स्वीकार था। अरस्तू ३२४-३२२ ई० पूर्व -- जीवात्मा संबंधी अरस्तू के जो विचार हैं उनके तीन भाग हैं ( १ ) एक भाग जीवनका वह हैं, जो वनस्पतियों और पशु पक्षियों में भी पाया जाता है । (२) दूसरा भाग इन्द्रिय ज्ञान का है. वह केवल पशु पक्षियों में पाया जाता है । ( ३ ) तीसरा भाग बुद्धि का है जो केवल मनुष्यों को मिलता है मनुष्यों में आत्मा का भाग पितासे आता है। इस प्रकार अरस्तू मानता हैं कि मनुष्य की आत्मा में एक भाग नाशवान है और दूसरा भाग अमर । वह भाग जो अमर है. बुद्धि है. और वह बुद्धि ( ज्ञान की शक्ति ) कामनाओं से उच्च आसन रखती हैं । जीव और शरीर के सम्बन्धमें उसका विचार यह कि शरीर सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा आकृतिका प्रकृतिदृष्टि का चक्षुओं और असली का अप्रगट से है। जीवात्मा जो आकृति, रूप और शरीरका वास्तविक अंश है न तो स्वयं शरीर ही है और न बिना शरीर के विचार में आने योग्य है। डाक्टर गोम्प ने लिखा है कि पांचवी शताब्दी के अन्त में जीवात्मा सम्बन्धी अरस्तू के मन्तव्य एम में इस प्रकार समझे जाते थे कि बुद्धि पूर्वक नियम मनुष्य में जन्म से पहले अंकुरित होते हैं १ : Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२० ) और शरीरके नष्ट होनेपर जहाँसे आये थे वापिस चले जाते हैं । ____पापले गुमले गुण रहे हुये अरस्तू लोगों को समझाया करता कि बुद्धिमान् को मृत्यु से भय भीत नही होना चाहिये किन्तु उसे अपनेको अमर समझकर कार्य करना चाहिये तभी सफलता प्राप्त कर सकता है। ऐपी क्यूरस ( Empicurus ) इसकी शिक्षा का सार था कि मनुष्य को प्रसन्नता के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिये।" खाश्रो पीओ और खुश रहो। ३४२ के ईसा से पूर्व भौतिक विज्ञान मनुष्यको अन्ध विश्वास बचाने के लिये है, जगत् की अन्य वस्तुओं की तरह मनुष्य भी ( सजीव ) प्राकृतिक अशुओंका एक समुदाय है। अर्थात् प्रत्येक जीव सूक्ष्म प्राकृतिक परमाणुओंसे बना हुआ है और गिलाफरूप शरीर स्थूल अणुओंका संधान है । शरीर और आत्मा दोनों मरण धर्मा है और एकसमय नष्ट होजायेंगे | उसका मन्तव्य था कि मूर्ख ही मृत्यु की खोज करते हैं परन्तु मृत्यु से डरना भी मूर्खता ही है मृत्यु प्राने पर शरीर अथवा जीय दोनों में से एक भी बाकी नहीं रहते । "ऐपीक्यूरस" की शिक्षा यूरोपमें बहुन फली और प्रकृतिवाद के विस्तार में उससे अच्छी सहायता मिली। उसी शिक्षाके विस्तारका कारण यह भी कहा जाता है, कि "त्यूक्रटियस" ( Lucrstious ) एक प्रसिद्ध कवि ने उस की शिक्षाओंको छदबद्ध करके अपनी पुस्तक "डिरोमनैचर" (DeRerumnature) द्वारा विस्तृन किया था। ---- -- * Greeak thinker by Dr. Gompery Vol. IV4 English Translation P. 209 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनो (Zsno)-ईसासे ३४० वर्ष पहले हुआ था, इसने "त्यागवाद" की स्थापनाकी । यह अद्वैतवादी था । इसका विचार था कि जीवात्मा प्राकृतिक है और शरीरके साथ ही उसका भो नाश होजाता है। प्रलय होने पर ईश्वरके सिवाय सब नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। जैनोंका त्यागवाद मुख्यतया श्राचारसे सम्बन्धित था । प्रो० सिजविक (Prot Henry Sedqwick)ने अपने प्रसिद्ध प्राचार संबन्धी इतिहासकी पुस्तकमें त्यागवाद का जीवके अमरत्वसे क्या सम्बन्ध था यह प्रश्न उठाया है, और इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला है उनके कथनका सार यह है । :--"त्याग बाबमें जीवकी अमरताका विश्वास बहुत संदिग्ध था, परन्तु बिल्कुल रह भी नहीं किया गया था। (इस वादके) पुराने शिक्षकों के विषय में हमें बतलाया जाता है कि "क्लीनथीस" (Cleanthis) के मतानुसार शरीरके नष्ट हो जाने पर जीय बाकी रहता है, और काईपिसस"(Cryseppus)कड्सा है कि जीय बाकी तो रहता है, परन्तु केवल बुद्धिमानोंका अद्वैतवाद के प्रभाव से वह अन्तको उसके भी घाकी रहनेका निषध करता है । इपिक्टेटस (Epictetus) अमरत्वके विश्वासके सषथा विरुद्ध था। दूसरी ओर "मैंनेका" (Senec) अपने कतिपय लेखाके भी शरीर रूपी बन्दीमहसे जोव के मुक्त होने का विवरण प्लेदोकी भांति देता है। परन्तु एक और स्थल पर परिवर्तन और नष्ट होने के मध्य में मार्कस ओरिलियस (Maruss Aurelins) की माँति अपनी सम्मति देता है। ___ पिर हो ( Pyrrho ) इसके उपरान्त "पिर हो" के संशय वाद का यूमानमें प्रारम्भ होता है. परन्तु जीव सम्बन्ध विचार की दृष्टि से भीक फिलासफी प्रायः यही समाप्त होती है । *History of Ethicps By. H. Sidgwick P. 102 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LA ( ७२. ) संशयके पश्चात सन २० और ३०० ई. के मध्यमें एक प्रकार के अद्वैतवादका प्रारम्भ यूनानमें हुअा । जिसका आचार्य प्लाटीनस ( Pilotinus jथा । अद्वैतवादियोंकी तरह वह भी जीयको शरीर की भांति उत्पन्न सत्ता बतलाता था। इसकी शिक्षा थी कि केवल ब्रह्म ही सत्य पदार्थ हैं. और वही जगत का अभिन्न निमत्तोपादान कारण है, परन्तु जगदुत्पत्ति उसके हाथ नहीं किन्तु विकास का परिणाम है । वह पहले बुद्धिं उत्पन्न करता है। बुद्धि से जीव उत्पन्न होता है । इत्यादि सुकरात प्रादिके ये सिद्धान्त और विचार नारायण स्वामी जी ने अपनी यात्मदर्शन" शीर्षक पुस्तकमें दिये हैं। इनमें सुकरात का आठवां उपदेश ईश्वर विषयक है, जो विशेष विचारणीय है। यह उपदेश जैन धर्म की प्रतिकृति ही है । जैनधर्म में भी श्रात्मा और परमात्माका यही रूप है। जिसका वर्णन सुकरात ने किया है। वैदिक धर्म की भी प्राचीन मान्यता यही थी। इसके अलावा सुकरात ने तप आदिसे आत्म शुद्धि का कथन भी जैनधर्मानुसार ही किया है। सुकरात ही पश्चिमीय विद्वान और दर्शन एवं धर्मका जन्मदाता समझा जाताहै। कारण यह है कि इनसे पूर्व जो सिद्धान्त प्रचलित थे उनमें परस्पर विरोध देखकर जनतामें अविश्वाससा उत्पन्न हो गया था । तथा मनुष्योंके हृदयोंमें अनेक प्रकार को शंकाएं भी उत्पन्न होती थी । सुकरात ने उन दर्शनोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया। तथा प्रत्येकको शंकाका समाधान भी किया। अतः यूनान में तथा यूरोप में इसी के मतका प्रचार अधिक हुआ । अभिप्राय यह है कि सुकरातने पश्चिममें एक नया युग और नया दोर आरम्भ किया जो कि अब तक प्रबल धेगके साथ चलता रहा है । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूरोपीय-दर्शन यूरोपके प्रसिद्ध दार्शनिक मने ईश्वर के विषयमें लिखा है कि जय ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता तो उसके होनेका प्रमाण क्या है ? उसके गुण आदि । किन्तु ईश्वर के स्वभाव, गुण, प्राज्ञा और पविष्य योजना के लिये हमारे पास कोई साधन नहीं है जिसस हम उनको जान सके । कार्य कारण के अनुमान द्वारा हम ईश्वर को सिद्ध नहीं कर सकते जब हम एक घरको देखते हैं तो निश्चित रूपसे यह समझ लेते हैं कि इसका कोई कारीगर बनाने वाला था क्योंकि हमने सदा मकान जाति के कार्यों को कारीगर जाति के कारणों द्वारा सम्पन्न होते देखा है। किन्तु विश्वजातिक कार्योको ईश्वर जाति के कारणों द्वारा सम्पन्न होत हमने नहीं देखा. इस लिये यहाँ घर और कारीगरके दृष्टान्तसे ईश्वरको सिद्ध नहीं कर सकते । आखिर अनुमानको जिस जाति के कार्यको जिम जाति के कारण से बनत देखा गया है. उसी जातक भीतर बहना पड़ता है। जगत पूर्ण नहीं अपूर्ण करता नथप एवं विषमतासे भरा हुआ हैं। और यह भी तब जब कि ईश्वर का अनन्तकाल से अभ्यास करते हुय वेदतर जगत बनाने का अभ्यास हुअा था । एसे जगत का कारण ईश्वर लोक या कोई कर अथवा संघर्ष प्रेमी हो Ent यूरोपके एक अन्य पार्शनिक ने ठीक हो कहा है कि ईश्वरको ठक पीट कर प्रत्येक दाशनिक अपने मन के अनुकूल उसका निवामा करना चाहता है । परन्तु प्रयोजन सबका एक ही है कि इस बंचार को खतरे से बचाना। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भारतीय दर्शनकारोंमें मतभेद है उसी प्रकार पश्चिमीय देशोंके शानक भी किसी एक परिणाम पर नहीं पहुंचने । काई ईश्वरको मानताहै कोई नहीं मानता। कोई चलना अतथाई तो काई जहादतवादी है। कोई ईश्वरको साकार Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१४ ) सगुण मानना है तो काई भी निराकार और कोई निगुण मानता है। इसी प्रकार जगत को कोई अनादि मानता है तो कोई सादि मानता है। अर्थान जितने विद्वान है उतने ही मत हैं। इनकी विभिन्नता ही इस कल्पना को निराधार सिद्ध कर रही है। विज्ञान और ईश्वर सन १९३३ में पानीपत में जैनियों के साथ ईश्वर सृष्टि की पर एक बड़े पैमाने पर लिखित शास्त्रार्थ हुआ था। उस समय आयसमाज की तरफ से मैंने शास्त्रार्थ में भाग लिया था. उम्म समय मैंने एक आर्य विद्वान की पुस्तक में कुछ वैज्ञानिक प्रमाण उपस्थित कर दिए उनका जो उत्तर आया तब उन प्रमाणां के अर्थ की जांच की गई तो मुझे अपना दुा एला । और न लेखकों के प्रति एक प्रकारकी अरुचिसी सुत्पन्न होगई । उसके उत्तर में जो कुछ लिखा गया सबसे प्रथम आपके सन्मुख में उसे ही उपस्थित करता हूँ । जैन समाज ने लिखा कि-आपने जो पहिला प्रमाण दिया है यही आप के मृति कनृत्ल बाद का पूर्णतया खएडन करता है। "And this conclusion is that there is no such thing as any primal creation any more than there can be any such thing as final destruction" अर्थात्-उनका मन्तव्य है कि जगत्की न कोई आदि सृष्टि है और नाही कोई इसका कोई अनिम प्रलय है, यानि जगत अनादि और अनन्त है। इसे कहते हैं 'जादु वह है जो सर पर चढ़कर ले महाशयी , तुम्हारा क्या दोष तुम्हारा ईश्वर ही तुम्हारी कर्तावाद रूप भ्रान्ति का नाश कर रहा है। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५५ ) आपने जो दूसरा प्रमाण (Charles Jhonston) का दिया है वह भी आपका उल्टा घातक है । वह तो जैनियों के उत्सर्पिणी और aafar raat स्थापना करता है। जैसा कि दिन के पश्चात रात्रि आती है और रात्रिके पश्चात् फिर दिन इसी तरह सर्पिणी और अवसर्पिणी का या अनादिवशी अनन्तकाल तक चलता रहता है। इसी प्रकार लोसरा प्रमाण देकर तो आपने कमाल हो कर दिया कौन नहीं जानता कि "कांट" विज्ञानवादी नहीं था। किन्तु वह तो एक अद्वैतवादी फिलोसफर था । अ लीजिये आधुनिक विज्ञान जिससे आपके सृष्टिकर्ताबाद का पूर्णतया खण्डन होता है । Hackel अपनी किताब The riddle of the universe में पृष्ठ रहद पर फरमाते हैं 1 (2) The duration of the world is equally infinite and unbounded, it has no beginning and no end, it is no eternity (3) substance is everywhere and always in uninterrupted movement and transformation nowhere is there perfect repose and rigidity, yet the infinite quantity of matter and of eternally changing force remains constant. अर्थात् यह विश्व भी अनादि और अनन्त है, इसका न कोई आरम्भ हैन अन्त यह सनातन है, जगत द्रव्य से परिपूर्ण हैं जो सदर रहिन परिणमनशील है। जगतमें कहीं पर भी सर्वथा निष्क्रियपन अथवा कूटस्थता नहीं है पुद्गलकी अनन्त मिकदार और उसकी सदा परिणमनशील शक्ति सदेव एकसी रहती है । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. ७१६ ) 2 -- Modern Inorganic Chemistry में J. W. Mellor D. Sc. g ८२४ पर मुद्गल व्यके सबन्धमे निम्र लिखित मन्तव्य प्रकट करते हैं- “We have here the principal of opposing reactions and the radioactivity of normal radium in an equilibrium value because the rates of production and disintegration of the emanation are evenly balanced" अर्थात् हम इस रेडियम में दो विभिन्न शक्तियोंको एक साथ काम करते हुए पाते हैं. साधारण रेडियो एक्टिविटी सदर एक सौं रहती है चूंकि उसकी शक्तिकी छटाकी उत्पत्ति और बाल की रफ्तार दोनों समान रहती हैं। 3- "The science for you" chapter 3 the Moon is our saviour. ४- यदि आपको अत्यन्त आधुनिक सृष्टि और प्रलय के सम्बन्ध में वैज्ञानिक तत्वको समझना है तो आप "Natur”3 Ist January 1931, Page 167 & 170 देखें, जिसमें प्रोः R. A. Millikam noble prize winner in Physics ने इस बात को सिद्ध करके दिखलाया है कि चूंकि अंतरिक्ष प्रदेशोंसे Cosmic Rays. (कारंगरेजी) पैदा हो कर सूर्य चन्द्र पृथ्वी आदि की निरन्तर ह्रास हुई शक्तियों की पूर्ति करती रहती हैं इसलिए विश्व के इतिहास में कोई समय ऐसा सम्भव नहीं हो सकता जब कि विश्वका सर्वथा परमाणुरूप विनाश हो जाय । अव रहा आपके जगतकी व्यवस्था सम्बन्ध में वैज्ञानिक मत मो भी देखये:— Inorganic Chemistry J. W. Mellor D. Sc. Page 861 पर Mayers Roating magnets के परीक्षण से सिद्ध करते हैं कि पुद्गलस्कन्धों की व्यवस्था Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मय प्राकृति, परमाग और सनिकट अन्य स्कन्धोंकी पारम्परिकआकर्षण शक्ति से बन जाया करती है। यही तथ्य उन्होंने पृष्ठ १७, १४७ पर Crystajisation का उल्लेख करते हुए सिद्ध किया है। और यह नित्य प्रति देखने में भी आता है कि हलबाईक सको में पड़ी हुई मीठेकी चाशनी कुछ ही कालमें कैसे सुन्दर २ मिश्रीके रवोंको प्राकृति धारण कर लेती है। महाशय जी ! जरा श्राप अपने प्रार्य समाज के प्रामाणिक प्रन्थों में यह तो दूदने का प्रन्यन्न कोजिये कि जगनके पैदा करने वाले ने इसको किस दिन अनाना श्रारम्भ किया और कितने समयमें बनाकर समाप्त किया २ इसका भी पता लगा कि दुनियां कहांसे बननी प्रारम्भ हुई और किस स्थान पर जाकर समान हुई । ३ यह भी फरमाइयं कि कौन चीज कैसे किसके पश्चात् कितने समयमें किन किन साधनों से बनकर तैयार हुई ? परमाणुवाद । प्राकृतिक अणुओं के सम्बन्ध में जो नई नई खोजें हुई है. उनसे प्रकट होता है कि परमाणु प्रकृतिका सबसे अधिक सूक्ष्मांश महीं है, जैसा कि अब तक वैज्ञानिक ममझते थे। वह विद्युत करणोंका समुदाय है। उनके भीतर एक केन्द्र होता है और विद्य त कण उसके चारों ओर उसी प्रकार नियम पूर्वक परिभ्रमण करते हैं. जिग्न प्रकार पृथिवी आदि ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। सर आलिवर लाज का कथन है कि सूर्य मण्डलके अन्यन्त सूक्ष्म सप परमाणु है उनके भीतर समस्त काग उनी प्रकार होते हैं । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१८ ) जिग्न प्रकार सूर्यमण्डल के अन्तर्गत । * नवीन खोजों में प्रकृति दो भागों में विभक्त हुई है-पक्त और अव्यक्त व्यक्त प्रकृति का सबसे सूक्ष्म अंश नियुक्त है + परंतु प्रो० बोटमली विशुत्करणको भी. आकाश (Ether) हा परिणाम समते हैं । * परन्तु इस आकाश के समय वैज्ञानिको को थोड़ा ज्ञान है। इस बात को खुले तौर से वैज्ञानिक स्त्रीकार करते हैं। कल तक जो द्रश्य भौतिक समझे जाते थे और जिनकी संख्या लगभग ८० क पहुंच चुकी थी. वह सच विद्युत्कण का समुदाय समझे जाने लगे हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि ह ईड्रोजन के एक परमाणु का एक हजार वां भाग विद्युत्क की मात्रा समझी जाती है। परन्तु अब विद्यत्वाद भी बदलता दिखलाई देता है। सर श्रालियर लाज ने हाल ही में अपने व्याख्यान में कहा है कि अब तक समझत जाना था कि विद्युत्कण से प्रकाश उत्पन्न होता था परन्तु ब मालूम यह होता है कि प्रकाश से विद्युत्का उत्पन्न होते हैं और इस प्रकार अग्नि ही प्रकृति का आदिम मूल तत्त्व प्रतीत होता * 1 (Vide the times Educational Supplement quoted in the Vedic Magazine for October 1923.) इस प्रकार व्यक्त प्रकृति जिसको कपिलने व्यक्ति "विकृति 'नाम दिया था प्रचलित विज्ञान में कतिपय श्रेणी में विभक्त हैं । सब से सूक्ष्म भाग आकाश ( ईथर ) है आकाश से विक विकिरण से परमाणु परमाणु अणु और असे पंचभूत की रचना होती है। I * Science and religion by Seven men of Science P. 18. + P 76. 63. . .. !? Evolution of matter by Gustove de Bon. ११ .. Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति वैज्ञानिकों ने अगुओंकी गति वेगवती बतलाई है। प्रत्येक अणु एक या अधिक परमाणुओंका बना होता है. और प्रत्येक परमाणु बड़े भरकर वेग से परिक्रमण करता रहता है। जहां पृश्रिी सूर्य की परिक्रमा १|| मील प्रतिसे केंड करती है वहां एक एक परमाणु अनेक सहस्र मील प्रति सेकंडके हिसाबसे प्रदक्षिणा करते रहते हैं। इस तरह ब्रह्मांडक सूर्यसे विशाल काय पिण्डोंसे लेकर अणुवीक्षणा यन्त्रसे भी अनावाच्य परमाणुओं तक गति शील हैं। और गति भी अधिक भयानक और निरन्तर । परन्तु सुक्ष्म परमाणुओंकी गतिसे ही गतिशीलता पूर्ण नहीं हो जाती. स्क परम.शु अनेक विद्युत कणोंका बना हुआ है । विद्युत्कण दो प्रकारके हैं । ऋणानु और धनाणु 1 धनाणु के चारों ओर ऋणानु प्रायः एक सेकंड में एक लाख अस्सी हजार मील तक वेगसे परिक्रमण करते हैं। और धनाशु ? धनारण तो परमाणुका केन्द्र है और वही तो अणु में धनासूत्रों को लिये हुए. उसी प्रकार चक्कर लगा रहा है जैसे गृहोपग्रहों को लिये हुए कृत्तिकाओं की प्रदक्षिणा सूर्य कर रहा है । ऋणानुओंमेंसे अनेक टूट दूद कर परमाणु मण्डल तो दूर भी भागते जाते हैं। और दूसरे परमाशुओंसे मिल कर भी अपने तन वेगको परित्याग नहीं करते । थे ऋणानु हो जो छिटकते हुए चलते हैं धारारूपसे. सूर्यसे, अमि से या विशतसे आते हैं। यहां तक संसारके वैज्ञानिकों का सिद्धान्त है । यह सब रामदासी गौड़ M. A. कल्याण के शक्ति अंकम है परमाणुओं का संयोग (१) परमाणुओंका संयोग सरल संख्या ही हाना है जो आठसे अधिक कभी नहीं बढ़नी । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) (२) मूल तत्वोंके विभिन्न परमाणु की संयोग शांत निश्चिन रहती है. इसी संयोग शक्ति के अनुसार वे परस्पर अपना संबंध स्थापित करते हैं। इस शक्तिकी मापका हिसाब वैज्ञानिकोंने इस प्रकार निकाला हैं । हाईड्रोजन, आक्सीजन, ऑक्सिजन के एक और हाइड्रोजन के हो परमाणु मिल कर जल बनता है । क्लोरीन के एक परमाणु और सोडियम के एक परमाणु से नमक बनता है। प्रकृति में इन परमाओं का अस्तित्व एकाकी रूपसे नहीं रहता । काग्गा कि प्राके उनकी शक्ति परितृप्त नहीं रहती हों ! रासायिनिक क्रियाओं में वे अवश्य भाग लेते हैं, परन्तु उसके पश्चात ही संयोग द्वारा वे अपनी संयोजन शक्तिको तृप्त करके स्थिर रूपमें आ जाते हैं। किसी मूलतत्व के परमारोंकी जब तक किसी अधिक आकर्षक नत्वके परम - धोके साथ अनुकूल दशाओं में मिलनेका अवसर नहीं दिया जाता है तब तक वे आपस में ही अनेक प्रकार से सहजीवन व्यतीत करते हैं। जिन समूहों में किसी तत्व के परमाणु इसप्रकार साथ साथ रहते हैं उन्हींको उस तत्व के अणु कहते हैं। यह सम संयोग भी संयोजन शक्ति के अनुसार ही होता है । सूर्य में गरमी (सौर परिवार ले गोरखप्रसाद D. Sc (Edin ) F. RR.S. Reader Allah. University) आधुनिक विज्ञानने पता लगाया है कि शक्ति न तो उत्पन्न की जा सकती है और न इसका नाश ही किया जा सकता है। जब मिट्टी के तेल वाले गंजन से शक्ति पैदा की जाती है, तब शक्ति उत्पन्न नहीं होती केवल वह शक्ति जो मिट्टी के तेल में जड़ रूप से Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२१ ) छिपी रहती है एंजन से गति रूपमें प्रकट होती है। जितनी शक्ति इस विश्व में हैं उतनी ही रहती है न घटती है नयढ़ती है। अब प्रश्न उठता है कि सूर्यमें इतनी शक्ति कहां से आती है कि करोड़ों वर्षों लगातार जनक गर्मी और मात्रा मे रहा है। यह तो प्रत्यक्ष है कि इसे शक्ति कहीं से बराबर मिला करती है क्योंकि यदि यह अपनी आदि शक्ति को ही व्यय किया I करता तो २-३ हजार वर्ष से अधिक न चमक सकता । यह बात भौतिक विज्ञान के वाले ठण्डा होने वाले नियम से तुरंत सिद्ध की जासकती है। एक वैज्ञानिक ने इस सिद्धान्तका प्रचार करना चाहा था कि सूर्य उल्काओं के बराबर गिरने से गरम रहता है इस सिद्धान्तको कोई भी नहीं मान सकता। क्योंकि ऐसी अवस्था में बल्काओं की मूसलाधार वर्षों होनी चाहिये परन्तु गणना करने से पता चला है कि यदि उल्काएं इतनी अधिक होती तो पृथिवी पर भी वर्तमानकी अपेक्षा करोड़ों गुणो अधिक सल्काएं गिरती । जर्मन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक "हेल्म होल्टस" ने सन् १८४४ में बताया कि सूर्य अपने ही आकर्षण के कारण दवा जारहा है । दवनेसे गरमो उत्पन्न होती है। सूर्य की नोल और नाप पर ध्यान रखते हुये इस यातको देखकर कि इससे कितनी गरमी आती है अनुमान किया गया है कि यदि इसका व्यास प्रति वर्ष २४० फुट घट जाय तो यह ठण्डा नहीं होने पावेगा । ४० फुट घटनेका अन्तर इतना कम क बड़े से बड़े दुरबीन यन्त्र से भी सूर्य के व्यास का अन्तर १० हजार वर्ष से पहिले नहीं चल सकता। परन्तु सर्क से जान पड़ता है कि यह सिद्धांत भी ठीक नहीं है। क्योंकि हिसाब लगानेसे यह सिद्ध होता है कि ऐसी अवस्था में सूर्य और पृथिवी की श्रायु २-३ करोड़ वर्षकी माननी पड़ेगी परन्तु पृथिवी इससे बहुत पुरानी है यह सिद्ध हो चुका है। अतः जान पड़ता है कि सूर्य में गरमी Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२२ ) या तो पूर्ण रूप से किसी अन्य रीति से आती है या कम से कम इसका कुछ अंश किसी अन्य रीति से आता है । पृथ्वी लावेल का विचार है कि समय पाकर पृथिवी भी मंगल की तरह समुद्र हीन हो जायेगी। उधर मंगल धीरे धीरे चन्द्रमा की तरह निर्जीव हो जायेगा ! पृथिवी भी इस दशा में पहुंच जावेगी परन्तु घबराने की बात नहीं है. इसमें प्राय: असंख्य वर्ष लगेंगे । १० ५५० आधुनिक सिद्धान्त इसके अतरिक्त वैज्ञानिकोंने पता लगाया है कि जिन २ मौलिक पदार्थों को रसायन घेत्ता बिल्कुल भिन्न समझते थे वे एक दूसरे में बदले जा सकते हैं। इस प्रकार हाईड्रोजनका जब अन्य पदार्थों में रूपान्तर होजाता है तब बहुत सी गरमी निकलती है, होसकता है कि सूर्य में भी इसी प्रकार की गरमी उत्पन्न होती हो । आइन्स्टाइन सब से आश्चर्य जनक " आइकटाइन" का प्रसिद्ध सापेक्षवाद है। सापेक्षवाद बतलाता है कि पदार्थ और शक्ति असल में एक ही हैं। एक सेर गरमी की बात करना वैसा ही न्याय संगत है जैसे एक लोहे की बात करना । परन्तु एक सेर गरमी सवा अरब मन पत्थर पिघला देगा। यदि सूर्य की गरमी इस सिद्धान्त के अनुसार पदार्थों के क्षय और इसके स्थान में शक्तिके प्रकट होने से आये तो भी पिछले दस खरब वर्षों में सूर्य का केवल सेर पीछे आधी रत्ती भर भी नाश हुआ होगा । इसलिये शायद यह हजारों अरब वर्षोंसे चमकता रहा है और हजारों शंख वर्ष तक चमकता रहेगा | सौर परिवार पु० २५२ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०३ } पृथ्वी की आय यूरेनियन युक्त पत्थरों की आयु लगभग १३० करोड़ वर्ष निकलती है। पृथ्वी अवश्य इन पत्थरोंसे अधिक पुरानी होगी। सौर परिवार २५० हैकल का द्रव्यवाद कल ने अपने बाद के प्रकाश में कुछेक सिद्धान्त स्थिर किये हैं। वे ये हैं :-- L ( १ ) यह जगत नित्य और असीम है ( २ ) जगत का द्र ( बड़ी हेकल का एक द्रव्य) अपने क्षे गुणों - प्रकृति और गति शक्ति के साथ नित्य है और अनादि काल से गति में है । ( ३ ) यह गतिं श्रखण्डशः क्रम के साथ असीम काल से काम कर रही है । सामयिक परिवर्तन ( जीवन, कण विकास हास ) उनके द्वारा हुआ करते हैं । ( ४ ) समस्त प्राणी- प्राणी जो विश्व में फैले हुए हैं सभा एक द्रव्यवाद से शासित और उसीके अधीन है (५) हमारा सूर्य असंख्य नष्ट होने वाले पिण्डोमेंसे एक हैं और हमारी पृथ्वी भी ऐसे ही छोटे-छोटे पिएड़ों ( न होने वालों ) में से हैं, जो सूर्यके चारों ओर भ्रमण करते हैं। (६) हमारी पृथ्वी चिरकाल तक ठंडो होती रही थी तब उस पर जलका प्रादुर्भाव हुआ। (७) एक प्रकार के मूल जीवसे क्रमश: असंख्य योनियों में उत्पन्न होने में करोड़ों वर्ष लगे हैं । ( ८ ) इस जीवोत्पास परम्परा के पिछले खेत्रे में जितने जीव उत्पन्न हुए रीढ़ वाले आणी गुलोक द्वारा सबसे बढ़ गए। (E) इन गढ़वाले प्राणियोंकीसच से प्रधान शाखा दूध पिलाने वाले जीव थलचरों और सरीसृपोंसे पैदा हुए। (१०) इन दूध पिलाने वाले जीवों में सबसे उन्नत चौर पूर्णता प्राप्त पुरुष ( Order of Primates ) जो लगभग Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२४ ) ३० लाख वर्षके हुए होंगे, कुछ जरायुज जंतुओं से उत्पन्न हुए । (१) इनकी पुरुष शाखाका सबसे नया और पूर्ण कला मनुष्य है जो कई लाख वर्ष हुए कुछ वन मानुषोंसे निकला था । हैकलने इन नियमोंका वर्णन करते हुए रेमोडको जगत्संबन्धी सात x प्रश्नों में से तीनका हल अपने एक द्रव्यवाट् बतलाया है। वे सात प्रश्न ये थे --- (१) द्रव्य और शक्तिका वास्तविक तत्व (२) गतिका मूल कारण (३) जीवनका मूल कारण (४) सृष्टिका इस कौशल के साथ कम विधान (५) संवेदना और चेतनाका मूल कारण । (६) विचार और इससे संबद्ध वाणीकी शक्ति (७) इच्छा का स्वातन्त्र्य । एक द्रव्यवादके उपर्युक्त ७ प्रश्नोंमेंसे ६ का हल उसने (हेक्लने) अपने एक द्रव्य से बतलाते हुए ईश्वर और जीव की स्वतन्त्र सत्ताको इनकार किया है और चेतनाकी उत्पत्ति जड़ प्रकृति से संभव समझी है । सारांश - उपरोक्त प्रमाणोंसे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि परमाणुओं में स्वाभाविक गति है, अतः वे प्रति समय क्रिया शील रहते हैं । ऐसा होनेपर जगतके प्रलयका प्रश्न नहीं होता। क्योंकि मलयवादी प्रलय अवस्था में परमाणुको निष्क्रिय मानते हैं। इसी लिये तो परमाणुओं में आद्य क्रिया देनेके लिये ईश्वरकी भावश्यकता है । परन्तु जब यह सिद्ध होगया कि परमाणुओं में गति किसी अन्य द्वारा नहीं आती अपितु गति परमाणुका स्वाभाविक इमिल डयू, बास, भौंड (Enil Du, Bois Raymond) १८६० ई० वालिन में एक व्याख्यान दिया था उसी में इन ७ प्रभों को उठा था। इनमें से उसने १, २, ५ को हल करने योग्य ठहराया था। शेष में से ३, ४, ६ को समझाया था कि इनका हल होता संभव है पर अत्यन्त कठिनता के साथ ७ वें और अंतिम प्रभको भी हलके अयोग्य ठहराया था । Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण है। ऐसी अवस्था में विज्ञान के भीतर ईश्वरवाद की गंध खोजना भ्रम मात्र है। सृष्टिकी आयु संसारके सबसे बड़े वैज्ञानिक आइन्स्टाइन" ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह सूर्य असंख्य वर्षोंसे इसी रूपमें चला आ रहा है । तथा आगे भी असंख्य वर्षों तक इसी रूपमें वर्तमान रहेगा । हैकल जैसे वैज्ञानिक लोगों ने इसीलिये स्पष्ट शब्दों में इस संसारके नित्य होनेकी घोषणा की । पंचभूत कल्पना वर्तमान विज्ञानने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वैशेषिक श्रादिकी पंचभूत कल्पना मिथ्या कल्पना है । वास्तव में मूल तत्व एक ही है शेष सब उसके प्रकार हैं। इस विषयके वैज्ञानिक प्रमाण ऊपर दिये हैं। वास्तवमें चैदिक साहित्यमें भी पंचभूतोंकी कल्पना नहीं है ।" भृष्टिवाद और ईश्वर' नामक पुस्तकमें वैज्ञानिक प्रमाण निम्न प्रकारसे दिये हैं तथा जैनशास्त्रानुसार भी मूल प्रकृति जिसे पुद्गल कहते हैं एक ही प्रकारकी है. अर्थात् अग्नि, जल, वायु, पृथिवी श्रादिके पृथक पृथक परमाणु नहीं है । अपितु ये सब एक ही मूल पदार्थ के विकार हैं। वैदिक दर्शनोंका भी पूर्व समयमें ऐसा ही सिद्धान्त था । वैदिक साहित्यमें प्रत्यक्ष ही इन महाभूतोंकी उत्पत्ति एक ही पदार्थ से लिखी है। हम इसका वर्णन क्रमशः करते हैं। गाना रहस्यमें विश्वकी रचना और संहार प्रकरण में इस बातको भली भांति सिद्ध किया है कि यह पर्चीकरण" पांच भूतोंकी कल्पना प्राचीन शास्त्रों में नहीं है। अपितु वहां तो त्रिवृत्तकी कल्पना है, Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थान् यहां तीन मत ही माने गये हैं। (१) अग्नि (तेज) () श्राप (पानी) (३) अन्न अर्थात पृथ्वी । छान्दोग्योपनिषद् में इसका स्पष्ट वर्णन है । छान्दो० (६२।६) । इसी प्रकार वेदान्तसूत्र में भी पांच महामत नहीं माने अपितु यहीं माने हैं। गांना रहस्य धृ० १८ । ४ भूत भारत वर्ष में एक चार्गक मत था जो नास्तिक मन के नाम से प्रसिद्ध था | उसके आचार्य चार्वाक थे। वे दुर्योधन के सस्था थे। उन्होंने चार ही भूतों का माना है. आकाश को नहीं माना। इसी प्रकार ग्रीक लोग भी चार ही भूत मानने है।। एक तत्व वास्तवमें यदि देखा जाय तो वैदिक साहित्यमें एक तत्व मान्य है । तैतिरियोपनिषद् में स्पष्ट लिखा है कि, प्रात्मनः, आकाशः. सम्भूना आकशाद्वायु । और वायु से अग्नि और अग्नि से जल तथा जल से पृथिवी उत्पन्न हुई है। (२१) तथा च ऋग्वेद में हम देखते हैं कि इसके विषय में भिन्न २ मत दिये हैं। यथा-नेवानां पूर्वे युगेऽसतः सदजायत । ऋ१० । १२ । ७ । __अर्थान-नेवताओं से भी पूर्व असत से सत् उत्पन्न हुआ। यहां असतका अर्थ अव्यक्त किया जाता है । तथा च-एक सन्तं बहुधा कल्पयन्ति । ऋ० १ । ११४ । ५। अर्थात् एक मूल कारणको अनेक नामोंसे कल्पित किया गया है । तथा च लिखा है कि पहले श्राप" (पानी । था। उससे यह सृष्टि उत्पन्न हुई । इसी प्रकार कहीं आकाशको ही मूल सत्व लिखा है छान्दो, ( १ | 8 ) तथा च इन सत्र का खण्डन. नासदीय सूक्त में कर दिया है। यह सब सू० ऋ० १०.१२६ । में है Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wai ) इस प्रकार वैदिक साहित्य मूलभूत एक ही तत्व को मानता है उसके पश्चात् तीन तत्वों की कल्पना हुई। और फिर चार भूत माने जाने लगे । पुन: पांच तत्व का सिद्धान्त प्रचलित हो गया । परन्तु आज भौतिक विज्ञानने यह सिद्ध कर दिया है कि पांच प्रकार के पृथक पृथक परमाणु नहीं हैं। अपितु मूल परमाणु एक ही प्रकार के हैं। और अग्नि आदि सब एक ही वस्तु के विकार हैं वास्तव में सांख्य शास्त्र का भी यही सिन्त था. वह इन पा महाभूतों को मूल तत्व नहीं मानता था अपितु इनको उत्पन्न हुआ मानता था । ये सब एक ही के विकार हैं ऐसा उनका स्पष्ट मत था । हां प्रकृति को कपिलदेव अवश्य त्रिगुणात्मक मानते थे परन्तु गुण भी मूल में नहीं थे, उसकी विकृति अवस्था में थे क्योंकि मूल प्रकृति तो अव्यक्त है । श्रव्यत्तमाहुः प्रकृति पर प्रकृति वादिनः तस्मात्महदसमुत्पन्नं द्वितीयः राजसतमम् । अहंकारस्तु महतस्तृतीयमिति नः श्रुतम् पंचभूतान्यहंकारादाहुः सख्यिात्मदर्शिनः ॥ शान्तिपर्व ० ३०३ . अर्थात्- सांख्यशास्त्रकार परा प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं । तथा उस परा प्रकृति से महत् उत्पन्न हुआ, और महान से अहंकार पैदा हुआ तथा उससे पांच सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुये। यहां स्पष्ट ही एक मूल तत्व माना है। जिसका नाम यहां परा प्रकृति अथवा अव्यक्त है। उसके पश्चात् उससे महत् और महन से अहंकार और उससे पांच सूक्ष्मभूल की उत्पत्ति बतलाई. श्रतः स्पष्ट है कि सांख्य में पांचभूत मूल तत्व नहीं है अपितु अव्यक्त ( पुद्गल ) का विकार है। जैन सिद्धान्त भी इनको विकार हो मानता है । इस विषय पर "विश्व विवेचन" नामक प्रन्थ में विशेष प्रकाश डालेंगे। यहां तो संक्षेप से इतना लिखना था कि प्राचीन Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनकारों ने अलग : पांच भूतों की कल्पना नहीं की थी। अपितु उनके भत में श्रात्मा ओर जड़, ये दो ही कारण इस सृष्टि के थे। जड़ के परमाण वे पृथक र जाति के नहीं मानते थे, अपितु मूल परमाणु एक ही प्रकार के माने जाते थे उन्हीं के संयोग से अग्नि, वायु, जल, पृथिवी आदि बनते थे। मूल पांच भूतों की कल्पना अवैदिक एवं नवीन और वर्तमान विज्ञान के विरुद्ध है । इस विषय में जैन सिद्धान्त ही सर्व श्रेष्ट है। जब इन ईश्वर भक्तों ने जगत् रचने की कल्पना की तो एक झूठ को सिद्ध करने के लिये सैकड़ों अन्य झूठी कल्पनाएं भी इन्हें निर्माण करनी पड़ी। उनमेंसे एक युगोंकी कल्पना है जिसकी पोल छम पहले खोल चुके हैं। दूसरी गप्प इनको तिब्धतपर सृष्टि उत्पन्न करनेकी है । अाज विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह हिमालय आदि जो कि सबसे ऊँचे पर्वत हैं. ये सबसे बादमें बने हैं। इनके स्थानमें समुद्र लहारहा था। तथा आज जहां समुद्र हैं वहां किसी समय नगर अस रहेथे । इसी प्रकार संसारमें परिवर्तन होता रहता है. परन्तु मूलतः इन पृथिवीं आदि का कभी नाश नहीं होता। रेडियम "यह पृथ्वी कितनी पुरानी है यह सिद्ध करने वाले वैज्ञानिकों ने रडियम नामक पदार्थ की खोज की है। रेडियम युरेनियम नामक पदाथसे निकलता है अर्थात युरेनियम रेडियम रूपसे परिवर्तित होता है। एक चांवल भर रेडियम तीस लाख चांवल भर युरेमियमसे प्राप्त होता है। युरेनियम के एक परमाणुको रेडियम सपमें परिणत होने में सात अरब पचास कडोर वर्ष लगते हैं ऐसा वैज्ञानिकोंक। मत है। इस रेडियमसे नासूर आदि रोगोंका नाश होता है । जो रोग बिजलोसे भी नष्ट नहीं होते थे रेडियमको शक्ति सं नष्ट होजाते हैं । यह रेडियम नामक धातु दुनियामें बहुत अल्प Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२६ ) प्रमाणमें प्राप्त हुई है। एक तोला भर रडियम की कीमत तेईस लाख रुपया है । जन कि रडियमके एक परमाणु के बनने के लिये तीस लाख गुने युरेनियमकी आवश्यकता होती है और उसे भी रेडियम रूपमें परिणत होने के लिये सात अरब पचास कडोर वर्ष चाहिये तब एक रत्ती भर या तोले भर रेडियम तय्यार होने में कितना युरेनियम चाहिये और उसे रेडियम रूप बनने में कितने वर्ष लगने चाहिये। गंगाविज्ञान अंक प्रवाह ४ तरंग लेखक-श्री अनन्त गोपल भिंगरन आइन्स्टाइन का सापेक्षवाद. पृथ्वीको प्राचीनता के विषयमें सबसे अधिक अाश्चर्य जनक बात आइन्स्टाइन के सापेक्षवादम मिलता है। आइन्स्टाइन इनके सिद्धान्तने अर्थात् सापेक्षवादने वैज्ञानिक संसारमें खलबली मचा दी है। ई सन् १९१६ में प्रायः सभी समाचार पत्रों में सापेक्षवाद की प्रमाणिकताके लेख छपाये जा रहे थे सापेक्षवाद कहता है कि 'पदार्थ और शक्ति वस्तुतः एक ही हैं। एक सेर गरमौकी बात करना एक सेर लोहेकी बात के बराबर है । एक सेर गरमीकी शक्ति सवा अरब मन पत्थरको पिघलाने में समर्थ है। __ कदाचित सूर्यकी गरमी इस सिद्धान्त के अनुसार पदार्थका क्षय करने और उसके स्थानमें शक्ति प्रकट करने में कम होती हो तो दस खर्व में एक सेर पीछे केवल आधी रत्ती भले ही एक कम हुई हो सेरमें आधी रत्तो कुछ महत्व नहीं रखती अतः सिद्ध हुआ कि वह सूर्य हजारों अरब वर्षांसे चमकता पारहा है और हजारों शंख वर्ष पर्यन्त चमकता रहेगा। (सो.प.अ५सारांश) जैन दृष्टि से समन्वय । बजानिका ने सूर्य और पृथ्वी के अस्तित्व का जो अनुमान खियम तथा पदार्थ और उसकी शक्ति की एकता के आधार पर Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांधा है वह निश्चित रूप से नहीं है किन्तु अन्दाजा है। उसमें डिंयम की बनावद से श्राज तक का काल निश्चित है किन्तु आगे पीछे का काल अज्ञात है ।आईन्ट रन का सापेक्ष वाद तो जैनों के नयवाद या स्याद्वाद से बहुत मिलता हुआ है। जैन द्रव्य गुण तथा पोय की भिन्न भिन्न मानते है । एक अपेक्षा से भिन्न है नो दूसरी अपेक्षा से अभिन्न है। आइन्स्टाइन का पदार्थ जैनों का द्रव्य है और शक्ति पर्याय है । आइन्स्टाइन के अन्दाज में अनिश्चिन शर्त है कि यदि ऐसा हो तो ऐसा होगा किन्तु जैनों के सि द्धान्त में शर्त नहीं है। उसमें निश्चित यात है कि पीयों का चाहे कितना ही परिवर्तन हो किन्तु द्रव्य न तो परिवर्तित होता है और न घटता ही है । द्रव्यांश ध्रु५-विधा है . ' स्टाहार कथनानुसार हजारों वर्षों में गरमी खतम हो जायगी। पदार्थ और शक्ति को एकान्त अभिन्न मानने पर यह हिसाव लागू होता है किन्तु अनेकान्स भादाभेद पद में लागू नहीं पड़ सकता । शक्ति चाहे कम ज्यादा होती हो किन्तु पदार्थ द्रव्य का नाश तो अनन्त काल में भी नहीं हो सकता । वस्तुतः गर्मी या शक्ति का जितना प्रमाणमें व्यय या नाश होगा उतनी ही श्रामदनी भी हो जायगी । क्योंकि लोक में गर्मी शक्ति के द्रय अनन्तानन्त हैं। द्रव्य उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है । इस लिये जर्मन विद्वान इल्म होल्टस को जो शक्ति नई उत्पन्न नहीं होती और पुरानी नष्ट नहीं होती है. मान्यता है वह ठीक है और वह जैनों को अक्षरशः लागू पड़ती है। किं बहुना ? शक्ति का खजाना सूर्य ईश्वर वानी कहते हैं कि ईश्वर जगत् उत्पन्न करता है और जीवों का पालन करता है, सोहार भी ईश्वर ही करता है अर्थात् ईश्वर सर्व शक्तिमान है। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घज्ञानिक कहते हैं कि इस पृथ्वी के सब जीवों को जीवनी शक्ति देने वाला सूर्य ही है। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि सूर्य की रश्मियों से ही रासायनिक परिवर्तन होता है जिसके जरिये से छोटे छोटे तृण से लेकर बड़े बड़े वृक्ष पर्यन्त सत्र वनस्पते हरी भरी रहती है । हरिण, शशक आदि पशुओं का जीवन भी इन्ही उद्भिन्न पदार्थों पर अवलम्बित है। इसी सूर्य के प्रकाश से वाष्प बनता है और वर्षा होती है। वर्षा से कई उद्भिज्ज्ञ पदार्थों और बलले फिरते प्राणियोंकी उत्पति होती है. यह बात किलोमे छिपी नहीं है । दक्षिण ध्रुव और उत्तर ध्रव की तरफ यात्रा करने वाले कहते हैं कि दोनों ध्र बों पर प्राण वनस्पति या वृक्षका नामोनिशान नहीं है। यह स्थान जीवन शून्य है। इसका कारण यह है कि वहां सूर्य का प्रकाश बहुन कम है। सूर्य की शक्ति के प्रभाव से वह प्रदेश प्राणी और वनस्पति से शून्य है। यहां ईश्वरवादियों से पूछना चाहिये कि ईश्वर तो सर्य ध्यापक है--ध्रुव प्रदेश पर भो उसकी शक्ति रही हुई है वैसी अवस्था में यहां वृक्षादि की सृष्टि क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर उनके पास नहीं है. जय कि वैज्ञानिकों ने इसका खुलासा ऊपर कर दिया है। सूर्यताप और विद्य त् धारा अलग अलग दो धातु के सलीये सूर्षके नाप में इस प्रकार रक्त्रे जायें कि उनमें से एक जोडा गम हो और दूसरा टएडा रहे तो उस कक्षा में विद्युतधारा होने लगती है। इस धातु के योग को 'ताप विद्युन्युग्म' Tsermo-Couple कहा जाना है । एक विशेष प्रकार का कांच जिसे एकीकरणताल ( Lens Condensing) कहते हैं उसे सूर्यकी कक्षामें रखने से ताप इतना Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़ जाता है कि उससे कागज कपड़ा श्रादि वस्तु जल सकती हैं। इसी सिद्धान्त के आधार पर इंजन के बोयलर का पानी गर्म हो कर बाहर रूप बनता है । अभी वर्लिन के वैज्ञानिक डाक्टर नोलेंगे ने अपनी प्रयोग शाला में एक ऐसे यन्त्र की रचना की हैं जिस सूर्य ताप निरंतर विद्यु तशक्ति में परिणत होता रहता है। इस यन्त्र की अंगभूत जट्स यदि हजारों की तादाद में तय्यार कराकर उपभोगमें कराई जायेगी तो उससे मील श्रादि कारखानों का कार्य भी चलाया जा सकेगा । यद्यपि जल प्रपात से भी विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है किन्तु इपकी अपेक्षा सूर्य ताप से उत्पन्न हाने वाले विद्यु न्-अवाह. . की यह विशेषता है कि वह हर स्थान पर उत्पन्न हो सकता है। सूर्य प्रकाश हर स्थान पर मिल सकता है। विशेष करके भूमध्य रेखा के पास उष्णाकटि बन्ध वाले देशों में विद्युत् शक्ति बहुत सस्ती पैदा की जा सकती है। यदि सूर्य से शक्ति ग्रहण करने का प्रयोग बहुतायत से किया गया तो को यल. तेल, लकड़ी आदि की श्रावश्यकता बहुत कम रह जायगी। डाक्टर लेंग की प्लेट का उपयोग अन्य भी कई प्रकारों से होता है । जैसे जहाज या वायुयान में इस यन्त्र के द्वारा भय की सूचना प्राप्त की जा सकती है। फोटोग्राफर की प्लेट पर लाल रंग की किरणे एकत्रित की जा सकती हैं। ___ गंगाविज्ञानाङ्क प्रवाह ४ तरंग । लेखक:-श्री गुन रामगोपाल सक्सेना सूर्य को गर्मी सूर्य की गर्मी वृक्ष, पशु, पक्षी मनुष्य प्रादि सब को जीवन प्रदान करती है । सूर्य को गर्मी से ही जमीन में पत्थर के कोयले बनते है। जिनसे पंजिन के जरिये मील आदि चलगे हैं। Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यूटन ने शोध की है कि सूर्य और पृथिव में पार्षण शक्ति है । सूर्य पृथिवी को अपनी ओर खींचता है और पृथिवी सूर्य को अपनी ओर । किन्तु सूर्य का बजन पृथिवी से तीन लाख तीस हजार गुना अधिक है, उसमें आकर्षण शक्ति है जिससे वह खींची जाती हुई सूर्य में नहीं मिलती किन्तु समान प्रान्तरे पर सूर्य के आस पास घूमती है । पृधित्री को अकर्षण शक्ति की अपेक्षा सूय की आकर्षण शक्ति अट्ठाईस गुनी अधिक है अर्थात्, जिस वस्तु का बजन प्रथिवी पर एक सेर है उसी वस्तु का वजन सूर्य पर कर ने पर अट्ठाईस सेर होगा । जिस मनुष्य का पृथिवी पर डेढ़ या दो मन बजन होगा सूर्य पर उसी का बजन ४२ मन गा ५६ मन होगा। मनुष्य अपने वजन से ही दब कर चूर चूर हो जायगा । वातावरण और शरदी गर्मी सूर्य की गरमी लदा समान रहती है तो मा सीयाले में एड और उन्हाले में गर्मी । किसों देश में शरदो अधिक और किसी में गर्मी अधिम मालूम पड़ता है। इसका कारण घायु मण्डल. है। पृथिवी के चारों शोर २८ माल तक वायु मण्डल-वातावरण है। इसमें किसी समय पानी वाष्प भाप अधिक होती है तो सूर्य की गरमी पृथिवी पर कम आती है और किसो वक्त वाष्प वर्षाके रूप में नीचे गिर जाती है तब शुष्क कतवरण से गर्मी अधिक बढ़ती है। किसी वक्त वातावरण से बर्फ गिरता है तब शरदी अधिक हो जाती है। ___षण काल में किसी देशमें तापमान ११० से ११५ या १२० तक पहुंच जाता है तब बहुत से पशु पक्षों मर जाते हैं। यदि तापमान इससे भी अधिक बढ़ जाय तो मनुष्य भी मर जाते हैं शरदी में शिमला जैसे प्रदेशों में तापमान घटता ४५-५० मिग्री तक रह . जाता है तब बहुत शरदी बढ़ जाता है। यदि ताप मान इससे भी Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३४ ) नीचे जाय तो मनुष्य, पशु, पक्षी श्रादि मर जाते हैं। ठण्डे देश में जन्मे हुये मनुष्य अधिक गर्मी सहन न कर सकने से गर्म देश में नहीं रह सकते रहते हैं तो मर भी जाते हैं। इसी प्रकार गर्म देश में जन्मे हुये ठडे देश में अधिक शरदी सहन नहीं कर सकते। बीमार हो जाते और मर भी जाते हैं। यही बात पशु पक्षियों के लिये भी है । कहिये मनुष्य आदि प्राणियों को जिलाने या मारने की शक्ति ईश्वर में है या वतावरण और सूर्य में ईश्वर शरीर रहित और वजन रहित होने से उसमें गर्मी भी नहीं है और आकर्षण शक्ति भी नहीं है। यदि यह कहो कि सूर्य और वातावरण को ईश्वर ने हो बनाया है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जो शक्ति गर्मी और स्वयं में नहीं है को दूसरों को कैसे दे सकता है। यदि ईश्वरमें भी गर्मी और आकर्षण माने जांय तो वह सर्व व्यापक होनेसे सर्वत्र गर्मी या शरदी समान रूप से होनी चाहिये। मगर ऐसा नहीं है। यन्त्रादि के द्वारा जो तापक्रम का माप किया जाता है उसका अन्य व्यक्ति नहीं होता अतः ईश्वर में उसकी कारणता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती । कारणता की यथार्थ खोज वैज्ञानिकोंने प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखा दिया है। ईश्वर वादियों ने विचार शून्य कल्पना पर अन्ध श्रद्धा रख करके बाद विवाद में निरर्थक समय व्यतीत किया है । श्रस्तु । 'गनं न शोचामि' (सौं० प० ० ५ सारांश) ว जल और वायु की शक्ति वायुसे कई स्थानों पर पवन चक्की चलती है। कूपका पानी ऊपर चढ़ाया जाता है। वाहन पर धा बांध कर के जरिये इष्ट दिशा की तरफ समुद्र में जहाज चलाया जा सकता है। जल प्रपात से भी पवन चक्की चलती हैं। अमेरिका के सुप्रसिद्ध जल प्रपात से बिजली की बड़ी बड़ी मशीनें चलाई जाती हैं। नायगरा Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२५ ) चलाने में कितना के जल प्रपात में अनुमानत: अस्सी लाख अश्व बलकी शक्ति है । प्रति घंटा बीस मील की चाल से चलने वाली सौ वर्ग फुटकी हवा में ४६० व बलकी शक्ति रही हुई है। पांच दस अश्ववल के तेल इंजिन खरीदने या खर्च होता है यह सब कोई जानते हैं । जब कि ऊपर बताई हुई ५६० अलवाली हवा और पानी में शक्ति कहाँ से आती है ? हवा कौन चलाता है ? पानीको पहाड़ों पर कौन चढ़ाता है ? उत्तर- सूर्य ! सूर्य ही प्रथिवीको गर्मी देता। गर्म पृथिवी पर हवा गर्म होती है। गर्मी से हवा पतली होकर ऊपर चढ़ती है और ऊपरकी नीचे आती है। इस प्रकार हलचल होने से हवा इधर उधर दौड़ती है और मुसाफिरी करती रहती हैं। सूर्य ही समुद्रके पानी को गर्म करके वाष्प रूप बनाता है। जब वाष्प ऊपर वायु-मण्डल में जाकर अमुक समयमें बरसता है, तब पहाड़ों पर पानी चढ़ता है और पहाड़से उतर कर बड़े प्रपात में गिरता है और नदी नालोंके रूपमें बहता हुआ समुद्र में रेत, मिट्टी, कंकड़ पत्थर ले जाकर उसमें पहाड़ों की रचना करता है। जहां ३० से ३५ इंच पानी पड़ता है वहां प्रतिवर्ग मील पर पांच कड़ोर मन से अधिक पानी सूर्य बरसाता है। जिस हवा के बिना प्राणी श्वासोच्छवास नहीं ले सकते और जिस जलका पान किये बिना कोई भी प्राणी जीवन धारण नहीं कर सकता उस हवा और पानीको उत्पन्न करने वाला सूर्य है। सूर्य ही में ये सब शक्तियां हैं न कि ईश्वर में । ० प० अ० ५ सारांश ) शक्ति खान के पत्थर से जैसे जो कोयले निकलते हैं दरअसल ये पत्थर या मिट्टी नहीं हैं किन्तु लकड़ी हैं। बहुत वर्ष पहले वृक्ष या वनस्पति मिट्टी के नीचे दब कर बहुत कालके दबाव से पत्थर जैसे ( सौ कोयलों में जलने को Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३६ ) घनी भूत बन गये वृक्षावस्था में जलने की शक्ति उनको सूर्य से प्राप्त हुई थी। सूर्य की रोशनी और गर्म में वृक्ष कारवोन द्वियोषिद से कारवीन हा ग्रहण करते हैं। कारबोन द्विषिद (Carbon dioxide) और कारवोनको अलग करने में शक्तिकी आवश्यकता | बहु शक्ति सूर्य के ताप से आती है। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है। वृक्ष म के ताप से जितनी शक्ति खींचते हैं उतनी ही शक्ति (न रत्ती कम न रती अधिक) जलने में लगाते हैं। घासलेट तेल और पेटरोल में भी यह नियम लागू पड़ता है। इस पर से ज्ञात हो जायगा कि कोयलों में जो शक्ति अभी हम देखते हैं वह शक्ति खान से निकलने के बाद प्राप्त नहीं हुई है, किन्तु लाखों करोड़ों वर्ष पहले जब वे वृक्ष के रूप में थे तब से उनमें संचित हैं। उन पर हजारों फीट मिट्टी के स्तर जम जाने पर और पत्थर रूप बन जाने पर भी सूर्य की रश्मियों से प्राप्त की हुई शक्ति ज्यों की त्यों कायम रख सके | और हजारों लाखों या करोड़ों वर्ष बाद उस शक्ति को दूसरे कोयले के अवतार में प्रकट कर सके । ( सौ० प० अ० ५ सरांश ) सूर्य से कितनी शक्ति आती है गर्मी नापने के यन्त्र से ज्ञात हुआ है कि वायु मण्डल को ऊपरी सतह पर जब खड़ी सीधी रश्मि गिरती है तब प्रति वर्गगज पीछे डेढ़ बलके बराबर शक्ति आती है । परन्तु वायु मण्डल के बीच थोड़ी गर्मी रुक जानेके कारण उत्तर भारत वर्ष के ताप में करीब दो वर्गगज पर सामान्यतया एक अश्वयल की शक्ति थाती है । इस हिसाब से सारी पृथिवी पर लगभग २३००००० ०००००० तेईस नील अश्वचल जितनी शक्ति उतरती हैं | यह तो अपनी पृथ्वी की बात हुई। सूर्य का साप तो अपनी पृथ्वी के बाहर भी चारों तरफ अन्य ग्रहों पर भी गिरता है। उन Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका हिसाब करें तो ज्ञात होगा कि सूर्य की सतह से प्रति वर्ग इंच ५४ अश्वबल की शक्ति निकलती है । सूर्य के प्रत्येक वर्ग से. सेण्टीमोटर से लगभग ५०००० मोमबत्ती की रोशनी निकला करती है। इस हिसाब से एक वर्ष में सूर्य से इतनी गर्मी निकलती है कि जो इग्यारह अंक पर तेईस शून्य लगाने पर जा संख्या होती है उतने मन पत्थर के कोयले जला सकती है। क्या सूर्य की गर्मी कम होती है ? इस प्रकार सूर्य की गर्मी निकलती रही तो कालान्तर में अवश्य घट जायगी। वैज्ञानिक कहते हैं कि नहीं घटेगी । एकसया तीन हजार वर्ष पुराने वृक्षके पीछेके भागका फोटो लिया गया था उसकी छाल पर से वर्षों की गिनती की गई । एक वर्षमें एक छाल नई आती है । वैसी छालें गिनने पर बनीस सौ वर्ष का उस वृक्ष का आयुष्मान माना गया । वृक्षकी वृद्धि जितनी चाज कल होती है। उतनी ही वृद्धि सषा तीन हजार वर्ष पूर्व भी हुई मालूम पड़ती है। इस पर से निश्चय होता हैं कि सवा तीन हजार वर्षों में जब गर्मी पड़ने में कुछ घटती नहीं हुई तो भविष्य में भी नहीं होगी। . . ! सौ प०अ०५ सारांश) बाय मण्डल का प्रभाव पहाड़ सूर्य के समीप में है और पृथ्वी उससे दूर में है अतः पहाड़ों पर गर्मो अधिक मिरनी चहिये और पृथ्वी पर कम पड़नी चाहिये । किन्तु होता है ठीक इनके विपरीत । पृथ्वी पर गर्मी अधिक पड़ती है। और पहाड़ों पर ठंडक रहती है । आयू और शिमला के पहाड़ों पर बैशास्त्र मास में भी गरमी न मालूम देकर शरदी मालूम पड़ती है : इसका क्या कारण है ? उत्तर-वायु मण्डल में हवा का हलन चलन। गर्म प्रदेश की हवा ठंडी होती है और वहां से चल कर ठंडे प्रदेशमें जानी है, यहाँ रुक जाती है। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३८ ) अर्थात् गर्म प्रदेश ठंडा हो जाता है। दूसरी बात यह है कि पृथ्वी दिनमें गर्म होती जाती है और रात्रिमें वह गर्मी वायु मंडल में रही हुई याप या बादल आदिसे रुक जाती है अर्थात् आय बढ़ती और व्यय कम होता है। इस प्रकार गर्मी बढ़ते २ वर्षा होती है तष गर्मी के जाने का मार्ग खुला हो जाने से प्राय की अपेक्षा अय बढ़ जाता है और वातावरण में शैत्य फैल जाता है। पहाड़ों पर गर्मी कमपड़ती है और ठंडक अधिक रहती है। ऊपरकी हवा स्वच्छ और हलकी विशेष है अतः गर्मी की आय की अपेक्षा व्यय बढ़ जाने से ठंड विशेष प्रमाण में रहती है । (सौ० ५० १०५ सारांश ) सूर्य में गर्मी कहाँ से आती है ? आधुनिक विज्ञानलसे सिद्ध हुआ है कि शक्ति नई उत्पन्न नहीं होती है और न विनष्ट होती है। जब घासलेट रेल के इंजन से शक्ति पैदा की जाती है तब वह शक्ति नई पैदा नहीं होती किन्तु जो शक्ति घासलेद तेल में जड़ रूप से छिपी हुई थी वही इंजिन की गति के रूप में प्रकट हुई । जब इंजिनसे कुछ काम नहीं लिया जाता तब वह शक्ति नष्ट नहीं होती. उस वक्त तैल भी खर्च नहीं होता । जितना तैल खर्च होता है, उतने ही प्रमाण में कल पुर्जीकी रगड़ और फटफट शब्द करने में शक्ति का व्यय होता है। इतने पर भी रगड़ से शक्ति का नाश नहीं होता है किन्तु रगड़ से पुणे में गर्मी उत्पन्न होती है। गर्मी शक्ति का ही एक रूप है। कितनी ही शक्ति हवामें चली जाती है। ___ यहाँ प्रश्न होता है कि सूर्य से प्रतिदिन सारी रोशनी गर्मी या शक्ति बहार निकल जाती है। तो दो तीन हजार वर्षों में वह शक्ति सारी समाप्त हो जानी चाहिये और सूर्य की चमक घट जानी चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं होता है । सूर्य हजारों, लाखों, करोड़ों Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ७३६ ) वर्ष पहले जैसा चमकता था वैसा श्राजभी चमकता है और पूर्व जिसनो ही शक्ति का व्य भी चालू है । तो उस शक्ति का पूरक कौन है ? ईश्वर तो नहीं है ? सर्य की अपेक्षा कोई अधिक शक्तिशाली होना चाहिये जिसके जरिये सूर्य को शक्ति प्राप्त हो सके। ईश्वर के मिना अन्य कौन हो सकता है ? ई. सन् १८६४ में जमन बैज्ञानिक हेल्महोल्टसने बताया है कि सूर्य अपने आकर्षण से ही दख रहा है । दवायस गर्मी उत्पन्न होती है। उदाहरण रूपसे अब साईफिलमें हवा भरी जाती है । तब पम्प गर्म होजाता है। गर्म होने का एक कारण रगड़ भी है। पम्प के अन्दर हशको घार २ यानेसे भीगर्मी उत्पन्न होती है इसी प्रकार सूर्यमें भी पाकर्षण शाति का केन्द्रकी तरफ दगन है । जिससे आकर्षण शक्ति गर्मी रूप से प्रकट होती जाती है और प्रकाश रोशनी या गर्मी ऊपर बताये प्रमाणसे बाहर निकलती जाती है। लाखों करोड़ों वर्ष ध्यतीत होनेपर भी कमी नहीं होती है और न भविष्यमें होगी। क्यों कि जितना व्यय है उतनी ही बामदनी श्राकर्षण शक्ति के दबान्न से चालू है। (सौ. प० अ०५ मारांश बोलो मीटर यन्त्र और ताप क्रम प्रकाश थोड़े परिणाम में होता है तो उसका रंग लाल होता है जैसे अग्निका। बिजली की बत्ती में ज्यों ज्यों प्रकाशका परिणाम बढ़ता जायगा त्यो त्यों रंग बदलता जायगा और गर्मी अधिक आती जायगी । प्रकाशमें अधिक गर्मी आनेपर श्वेतप्रकाश बन जाता है। लाल, नारंगी. पीत. हरिन आदि अनेक रंगों के सम्मिश्रणसे श्वेत रंग बनता है। प्रक रामें रंगके तारतम्यसे प्रकाश का सापक्रम मापा जाताहै। इस प्रकार म.पनेके यन्त्रका नाम बोला मीटर रखा गया है। इस का प्रथम शोध-अमेरिका निवासी ऐसपी लेंडलीने की है । इस यन्त्रसे प्रकाश को गर्मी रूपमें परिवर्तित किया Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है, प्रकाश में कितने ही रंग हो किन्तु जब वे काली वस्तुपर के जाय तो वह काली वस्तु प्रकाश के सर्व रंगों को खीच लेगी और उसमें गर्मी पैदा हो जायगी अर्थात प्रकाश गर्मी के रूप में बदल जाता है। बोलो मीटर यन्त्रमें भी काली की हुई पल्लेटिनम धातु का एक बहुत छोटा पत्तरा लगा हुया होता है उस पर प्रकाश गिरने से प्लेट गर्म हो जाती है उससे ताप क्रम की डिमी का पता लग जाता है । इस पृथ्वी पर अधिक से अधिक गर्मी बिजली में है। बिजली का ताप क्रम सीन हजार डिग्री तक पहुंचा है। सूर्य की सतहके पास बोलो मीटर यन्त्र से जांच करने पर छः हजार दिपी ताप कम होता है। सूर्यके केन्द्र में तो इससे भी अधिक गर्मी होगी । उबलते हुए पानी में सौ डिग्री गर्मी होती है। एक हजार डिग्री गर्मी से सोना पिघलता है। बाप क्रमके मापसे बैज्ञानिकोंने यह भी हिंसाब लगाया है कि सूर्यसे कितनी गर्मी निकलती है। इस बोलोमीटर यन्त्र से किस देशमें किस तुमें कितनी गर्मी या शरदी है, इसका निश्चित परिमाण बताया जाता है। ऐसे यन्त्रोंको सहायतासे ईश्वर वादियोंकी शाब्दिक कल्पना वैज्ञानिकोंके प्रत्यक्ष सिद्ध प्रमाणों के सामने जरा भी नहीं टिक सकती इस बातका पाठक स्वयं विचार करेंगे। (मौ० प० अ०५ सारांश) परमाणुवाद, प्रपंच परिचयमें प्रो० विश्वेश्वरजी लिखते हैं कि "पदार्थ विश्लेषण के नियम से हमारा प्राशय यह है कि यदि संसारके किसी पदार्थका विश्लेषण प्रारम्भ किया जाय तो क्रमशः उसे लघु. लघुनर भागों में विभक्त करते हुए हम एक ऐसी अवस्था पर पहुंचेगे कि जिसके आगे उस पदार्थका विभाग कर सकना असम्भव हो जायगा । दृश्यमान पदार्थ के इस अंतिम, Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४१ ) लघुतम भाग को वैज्ञानिक भाषा में मालीक्यूल Molecules कहते हैं। इस अवस्था तक पदार्थका अपना स्वरूप स्थिर रहता है । परन्तु इसके आगे विश्लेषण - पथमें एक पग भी और बढ़े तो उसके साथ ही पदार्थका अपना स्वरूप क्षीण हो जाता है और उसके स्थान पर दो भिन्न भिन्न तत्वों के परमाणु रह जाते हैं जिनके सम्मिश्रण से उस पदार्थ के अरंतु या मालोक्यूलकी रचना श्री । उदाहरं के लिये यदि इसी विश्लेषण नीतिका आश्रय लेकर जलका विश्लेषण किया जाय तो उसके लघुतम रूपमें जलके मालीक्यूल या जलके अणुओंकी उपलब्धि होगी, हरम्तु यदि विश्लेषण-पत्र में एक कदम और उठाया जाय, तो जलके मालीक्यूलसका भी विश्लेषण होकर दो भिन्न तत्वोंके तीन परमागु शेष रह जायेंगे, जिनमें ये दो परमाणु हाईड्रोजन के होंगे और एक परमाणु आक्सीजनका हाईड्रोजन और आकसीजन के भिन्नजातीय तीन परमाणुओं का इस नियत अनुपात से सम्मि श्रण होने पर जलको उत्पत्ति होती है। विश्लेषणात्मक परीक्षण के इस अन्तिम परिणाम से रूप में उपलब्ध होने वाले द्रव्य को ही परमाणु शब्द से निर्दि किया जाता है। यह परमाणु - विश्लेषण की चरम सीमा है, उसके मागे विश्लेषण हो सकना सर्वथा असम्भव है। भौतिक तत्वों के यो परमाणु इस समय विश्व के उपादान कारण हैं । पाञ्चात्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह परमाणु ८० प्रकारके होते हैं। भारतीय दार्शनिक साहित्य में इस परमाणुवाद के जन्मदाता वैशेषिक दर्शनके आचार्य महर्षि कणाद है। वैशेषिक दर्शन के प्रमाण भूत भाष्यकार श्री प्रशस्त पादाचार्य ने इस परमाणुवाद का स्वरूप बड़े सरल और सुन्दर रूपमें स्थापित किया है। उनके शब्द इस प्रकार हैं Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहेदानी चतुर्णा महाभूतानां सृष्टि संहार विधि रुच्यते । ब्राह्मण मानेन वर्षाले वर्तमानस्य दाणे अपवर्गकाले मंमार खिमानां मर्वेषां प्राणिनां निशि विधमार्थ सकल भुवनपतेः महेश्वरस्य संजिहीर्षासमकाले शरीरेन्द्रिय महाभूतोपनिवन्धकाना सर्वात्मगताना अदृष्टानां वृत्तिनिरोधे सति महेश्वरेच्छात्माणु संयोगजकर्मभ्यः शरीरेन्द्रियकारणाणुविभागेभ्यः तत् संयोग निवत्ती तेषां प्रापरमाएयन्ती विनाशः तथा पृथिव्युदकज्वलनपवजानापि महाभूतानां अनेनेव क्रमेण उत्तरस्मिन् सति पूर्वस्य नाशः ततः प्रविभक्ताः परमाणको अवतिष्ठन्ते । ___ श्री प्रशस्तपादाचार्य के विचार से सृष्टि के प्रारम्भ में महेश्वर सम्पूर्ण जगत के पितामह ब्रह्मा को उत्पन्न कर संसार संचालनका सारा भार उसको सौंप देते हैं। इस ब्रह्माकी आयु अझ परिणाम से सौ वर्ष की होती है। सौ वर्ष समाप्त होने पर ब्रह्माका अपवर्गकाल प्राजाता है। और उसके साथ ही सृष्टिकी प्रायु भी समाप्त हो जाती है। इस समय तक निरन्तर संस्करण-चक्र में पड़े जीव भी बहुत खिन्न हो उठते हैं । इस लिये उनको विश्राम के लिये अवसर देने की आवश्यकता भी प्रतीत होने लगती है। इन सब कारणों के एकत्र हो जानेसे इस अवसरपर महेश्वरके हृदय में संसार संहार की इच्छा उत्पन्न होती है । उस संहारेच्छा के उत्पन्न होने के साथ ही संसारी जीवों के धर्माधर्म की फल प्रदान की शक्ति भा समास हो जाती है, जिसके क.रण ससारको अगली वृद्धि विलकुल रुक जाती है । इधर अब तक के वर्तमान विश्व में महेश्वर की संहारेच्छा जीवात्मा और अणुओं के सयोग विशेष से उत्पन्न Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया के द्वारा, शरीर एवं इन्द्रिय आदि के कारण रूप अणुश्री में परस्पर विभाग प्रारम्भ हो जाता है, जिसके परिणाम में इस सयुक्त विश्व के पूर्व स'योग का नाश हो जाता है। इस प्रकार ऋमिक विभाग होतेहोते अंतमें प्रवि भक्ताः परमाणको अतिष्ठन्ते, एक दम अलग अलग परमाणु ही परमाणु रह जाते हैं । इस प्रकार भारत वर्ष के दार्शनिक साहित्यमें परमाणुवावकी उत्पत्ति हुई । यद्यपि सुदूर पूर्व और पश्चिम में स्वतन्त्र रूप में परमाणुवाद की सृष्टि हुई है, परन्तु उनमें कितना साम्य है ? साधारण तौर से पूर्व और पश्चिम के इस परमाणुवाद में कोई श्रन्तर प्रतीत नहीं होता। ऐसा मालूम होता है कि मानो एक ही दिमागसे दो विभिन्न स्थानों पर उसकी अभिव्यक्ति हुई हो । परन्तु इतनी अधिक समानता के रहते हुये भी उन दोनों में एक बहुत बड़ी विषमता है। पश्चिम का परमाणुवाद अपने में ही समाप्त हो जाता है, उसे प्रकृति निर्माण में किसी और सहायता की अपेक्षा नहीं रहती है, फिर भी उसमें एक बहुत बड़ी कमी है। परमाणुओं में आदिम क्रिया का विकास कैसे हुआ. इसका उपादान उसने नहीं किया । परमाणु जड़ पनायोंके अवयव है, उनमें सर्वथा निरपेक्ष स्वतः क्रिया की उत्पत्ति हो नहीं सकती फिर आदि क्रिया का विकास कैसे हुआ. इसका समुचित उत्तर देनेका सफल प्रयास परमाणुवादने नहीं किया। इसी कारण हम देखते हैं कि पाश्चात्य परमाणुवाद शीघ्र ही शिथिल पड़ गया है और उसके स्थान पर शक्तिवाद का अभिषेक किया गया है। शक्तिवाद--इस शक्तिवाद सिद्धांतक अनुसार प्रकृतिका सार शक्ति Energy or Force है । परमाणुवादके अनुसार परमाणु वह परम सीमा थी, जिसके प्रागे किसी प्रकार का विभाग असम्भव था । परन्तु शक्तिवाद इससे एक कदम आगे बढ़ गया है। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सिद्धान्तमें वह परमारण अनेक शक्तियोंके केन्द्र हैं । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारा सूर्य इस सौर मण्डल का। जिस प्रकार अनेक ग्रह, उपग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं । उसीप्रकार परमाणु, अनेक शक्तियों का केन्द्र है । अर्थात् इस सिद्धान्त में प्रकृति शक्तियों से भिन्न कोई वस्तु नहीं, और न जैसाकि साधारणतः समझा जाता है, शक्ति परमाणाओं का कोई धर्म है ! बतिक परमाणु और प्रकृति स्वयं शक्ति रूप है । उस शक्ति Energy or Force से भिन्न कोई अतिरिक्त वस्तु जगत में नहीं है। .. द्रव्य नियम अरनेस्ट हैकलने इस विश्व-व्याख्या करनेके लिये दूसरे नियम की रचना की है, जिसका नाम उसने Law of Substance रखा है । हैकलके उसी नियम को हम द्रव्य-नियम शब्द से निर्दिष्ट कर रहे हैं। हैकल का यह द्रव्य-नियम वस्तुतः कोई नया नियम या उसका अपना आविष्कार नहीं है, बल्कि उसकी रचना पुराने दो नियमके सम्मिश्रण कर देनेसे हुईहै. इनमेंसे पहिला नियम रासायनिक विज्ञान का द्रव्याक्षरत्व-वाद का है। और दूसरा भौतिक विज्ञान का शक्ति साम्य का सिद्धान्त है। संक्षेप में इस सिद्धान्त का आशय यह है कि इस अनन्त विश्व में व्यापक प्रकृति या द्रव्य का परिमाण सदा समान रहता है। उसमें कभी न्यूनाधिक्य नहीं होता न किसी वर्तमान द्रव्य का सर्वथा नाश होता है और न किसी सर्वथा नूतन द्रव्यकी उत्पत्ति होती है । साधारण दृष्टिसे जिसे हम द्रव्यका नाश हो जाना समझते हैं वह उसका रूपान्तरमें परिणाम मात्र है। उदाहरण के लिये कोयला जल कर राख हो जाता है. हम साधारणतः उसे नाश हो गया कहते हैं, परन्तु वह वस्तुतः Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ७४५ ) नाश नहीं हुआ बल्कि वायु मण्डल के षजनक अंश के साथ मिल कर कारबोनिक एसिट गैस के रूप में परिवर्तित होता है । इसी प्रकार शकर या नमक को यदि पानी में घोट दिया जाय, तो वह उनका भी नाश नहीं बल्कि संयम द्रव्य रूप में परिणत मात्र समझनी चाहिये । इसी प्रकार जहाँ कहीं किसी नवीन वस्तु को उत्पन्न होते देखते हैं, तो वह भी वस्तुतः किसी पूर्ववर्ती वस्तुका रूपान्तर मात्र हुँ' | उस स्थान पर भी किसी नवीन द्रव्यको उत्पत्ति नहीं होती। वर्षा को धारा आकाश में मेघरूप में विश्वरन करनेवाली बाष्प का रूपान्तर मात्र है । घर में अव्यस्थित रूपसे पड़ीर हने बाली कड़ाही आदि लोहे की वस्तुओं में प्रायः जंग लग जाता है यह क्या है? यहां भी जंग नामका किसी नूतन द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं हुई है, अपितु धातु की ऊपरी सतह जल और वायुमण्डल के भोजन के संयोग से लोहे के कसी हैडेट Oxy-hydrate के रूप में परिणत हो गई है । इसी को हम जंग कहते हैं । आज द्रव्याचरल वाद का यह सिद्धान्त रासायनिक विज्ञान का अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त समझा जाता है और तुला यन्त्र द्वारा किसी भी समय उसकी सत्यता की परीक्षा की जा सकती है । लगभग इसी प्रकार और शैली पर शक्ति साम्य के सिद्धान्त की व्याख्या भी की जा सकती है। संसार के संचालन के कार्य करनेवाली शक्ति, इनर्जी, या फोसेका परिणाम सदा सम रहता है। उसमें किसी प्रकार का न्यूनाधिक्य नहीं होता। हां परिणामवाद सिद्धान्त उसमें भी काम करता है, अर्थात् एक प्रकार की शक्ति दूसरे प्रकार की शक्ति के रूप में परित अवश्य हो जाती है। उदाहरण के लिये रेल का इंजिन जिस समय प्रशान्त रूपमें चल ने की तैयारी में स्टेशन पर खड़ा है, उस समय भी उसके भीतर शक्ति काम कर रही है, परन्तु इस समय वह शक्ति अन्तर्निहित Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४६ ) गुप्त या अनभिव्यक्त है, इसको विज्ञान के शब्दों में Potential Energy पोटेन्शियल इनर्जी कहते हैं । फिर जिस समय वहीं पंजिन रेल की पटरी पर अति गति से दौड़ सगळे जगता है, दस समय उसकी वही गुप्त अन्तर्निहित पोटेन्शियल इनर्जी Kinetic. Energy किनेटिक इनर्जी के रूप में परिणत होजाती है। इसप्रकार के अन्य अनेक उराहरण दिये जासकते हैं, जिनसे शक्ति विवर्तवाद का सिद्धान्त भली भांति परिपुष्ट होता है । द्रव्याक्षरत्ववाद की भांति ही आज शक्ति साम्यका सिद्धान्त भौतिक विज्ञानमें आदर पा रहा है । न केवल बहुत की हृष्टि से बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह सिद्धान्त महत्व पूर्ण है । सन् १८३७ में सब से पहले Bonn बांन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक Friedrich Mohr फीडरिख मोहर के मस्तिष्क में इस सिद्धान्त की कल्पना ने जन्म लिया था परन्तु फिर भी दुर्भाग्यवश उसके आविष्कार का श्रेय उसको प्राप्त नहीं हो सका 1 अनेक वर्ष इस सिद्धान्त के परिपोषक विविध परीक्षणों में featकर जब तक निश्चित सिद्धान्त के रूपमें वह इसकी घोषणा करें उसके पहले ही Rober Mayer राबर्ट मेयरने अपनी और उसे विघोषित कर दिया। गुणवाद इनके अतिरिक्त दार्शनिक जगत में प्रकृतिका एक और स्वरूप उपलब्ध होता है जिसकी उत्पत्ति केवल पूर्व में हुई है. और वह है सांख्याचार्यों का गुण बाद। सांख्याचार्यों के इस गुणवादके अनुसार सत्त्व रज और तम नामक तीन गुणों की समष्टि का नाम प्रकृति है । इस स्थल पर प्रयुक्त हुआ गुण शब्द बहुधा अमक हो जाता है, क्योंकि यहां वह अपने साधारण अर्थ में नहीं अपितु विशेष Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ৬৯७ ; अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। लौकिक भाव में किसी द्रव्य के भीतर पाये जाने वाले किसी विशेष धर्मके लिये गुण शब्दका प्रयोग होता है। महर्षि कणाद ने भी गुण का लक्षण करते हुये उसे द्रव्याश्रयी धर्म बतलाया है, परन्तु सांख्य के गुण वाद का गुण शब्द उससे भिन्न हैं। सत्व रज और तम किसी पदार्थ धर्म नहीं हैं. हां किसी रूप में उनको शक्ति कहा जासकता है। जिस प्रकार उपरिलिखित शक्तिवादके सिद्धान्त में परमाणु अनेक शक्तियांका केन्द्र मानाजाता है । परन्तु वह कोई ऐसी वस्तु नहीं जो शक्तिले भिन्न हो या जिसे शक्ति का आधार कहा जा सके, इसी प्रकार प्रकृति सत्व रज और मकी समष्टि का नाम हैं । उनमें भिन्न यह कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे उन गुणों का श्राश्रय कहा जा सके। यहां गुण शब्द गौण वृत्ति से अपने अर्थ का बोधन करता है । प्रकृति रूप समष्टि के भीतर कार्य करने वाली यह तीनों व्यष्टियां गुणों के भिन्न भिन्न कार्य हैं जिनका संग्रह सांख्यकारिका के लेखक ने इस प्रकार किया है। सत्वं लघुप्रकाशमिष्ट, उपष्टम्भकं चलं च रजः । गुरुवरणकमेव तमः । अर्थात् मूल प्रकृति के भीतर काम करने वाले इन गुणों में से प्रत्येक के दो दो कार्य है। सांख्याचार्य के मत में सत्व गुण लाघत्र और प्रकाश से युक्त है. रजोगुण उपलम्भक एवं चल है. और तमोगुण गुरु एवं आवरण करने वाला है। अभी सम्भवतः कारिकामें प्रयुक्त शब्दोंके स्पष्टीकरण के लिये कुछ पंक्तियोंकी अपेक्षा है। लाघवका अर्थ हैं हलकापन, जिसके कारण पदार्थ ऊपर को उठते हैं । प्रकाशके कारण पदार्थ अभिव्यक्त होते हैं । । उपष्टंभ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (we) शब्दका अर्थ है उत्साह देने वाला, उत्तेजना देने वाला । सत्व और तुमको यही रजोगुण कार्य में प्रवृत्त करता है, और स्वयं भी चल या गतिशील है । तमोगुणका धर्म गौरव, वोकीलापन है, और उसके साथ ही वह आवरक है। आवरक शब्द के भीतर गतिको रोकने का भाव भी अन्तर्निहित है। इस प्रकार यह तीनों गुण एक समष्टिमें भिन्न भिन्न प्रयोजन सम्पादन के लिये समाविष्ट | परन्तु एक प्रश्न यह रह जाता है कि इन तीनोंके ऊपर जिन कर्मोंका उत्तरदायित्व है, वह परस्पर अत्यन्त विपरीत हैं । इतने अधिक विरोधी गुण परस्पर कैसे मिल सकते हैं और उनका एक समष्टिमें मिलकर कार्य कर सकना कहां तक सम्भव है ? हमारे सांख्याचार्यने इस प्रश्नको अछूना ही नहीं छोड़ दिया है, अपितु उसके उपपादनका यत्न सफलता के साथ किया है। इस प्रश्नके उत्तर में उपर्युक्त कारिकाका चौथा चरण लिखा गया हैं I प्रदीपवचार्थतो वृत्तिः । जिस प्रकार दीपक के भीतर रुई भाग और तेल तीनों विरोधी और भिन्न प्रकृतिक वस्तुयें मिल कर कार्य करती दृष्टिगोचर होती हैं I साँख्य का गुणवाद उपरोक्त विज्ञान के साथ साथ सांख्यदर्शनके गुणवादका भी अवलोकन कर लेना चाहिये। अतः हम इसको भी उन्होंके शब्दों में पाठकोंके सन्मुख उपस्थित करते हैं। (१) इसी प्रकार तीनों भिन्न भिन्न वृत्ति वाले गुण परस्पर विरुद्ध होते हुये भी एक समष्टिमें सम्मिलित हो सकते हैं। इन तीनोंकी यह समष्टि या प्रकृति ही संसारका संचालन कर रही है। और जहां जैसी आवश्यकता होती है उसीके अनुसार कार्य करती है। Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४६ ) जिस प्रकार एक ही स्त्री अपने पतिको सुखका कारण तथा अपनी सष्ट स्त्रियोंको दुःखका कारण और किसी तीसरेके लिये मोहका कारण भी हो सकती है, इसी प्रकार तीनों गुणोंकी यह समष्टि प्रकृति भी अकेली होकर भिन्न भिन्न कार्योंका संचालन कर रही है। रसायनिक वैज्ञानिकों के अनुसार परमाणुओं के भीतर रसाय fre प्रीति और रसायनिक अप्रीति दोनों धर्म हैं. परन्तु कार्यके समय उनमें विरोधकी प्रतीति नहीं होती । जहां रसायनिक प्रीति का प्रयोजन होता है वहां यही कार्य देती है. रसायनिक अप्रीति उसके कार्य में किसी प्रकार की बाधा नहीं डालती । इसी प्रकार रसायनिक प्रीति के कार्य में रसायनिक प्रीति प्रतिवन्धक नहीं होती रसायनिक विज्ञानके इसी नियात्राओं की परस्पर विरोधी गुणेोकी समष्टि रूप प्रकृति भी संसार संचा नमें सर्वथा समर्थ समझी जा सकती है। गुणबादी सांख्याचायकी कलम से यह उपपादन बड़ा सुन्दर हुआ है, इसमें किसी आक्षेपका अवकाश नहीं है।" यह है दार्शनिक तथा वैज्ञानिक जगत रचनाका संक्षेपसे वर्णन। इसमें ईश्वर के लिये कहीं भी अवकाश नहीं है। प्रकृति अपना कार्यं स्वयं करने में पूरी तरह समर्थ है। यहां प्रशस्तवाद, भाष्त्रका ईश्वर भी एक अजीव प्रकार का ईश्वर है। वह स्वयं सृष्टि रचनाके में नहीं पड़ता श्रपितु जब बेकार बैठे २ वह घबरा जाता है तब उनके मन जगत रचनाकी इच्छा उत्पन्न होती हैं । अतः वह उसके लिये ब्रह्माको उत्पन्न करके उसको जगत रचना आदिका सारा भार दे देते हैं I पुनः वह ब्रह्मा इस विश्वकी रचना करता है और ईश्वर आरामसे पूर्ववत् सो जाता है। इस ब्रह्मा की आयु मौ वर्षकी होती है.. यह एक सौ वर्ष तक जगत रचना करता रहता है। घुनः जत्र इसकी आयु शेष होने को होती है तो ईश्वर भी जाग जाता है और 'अतः Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मद्वारा रचे हुये इस जगतकी प्रलय करके अपने में लीन कर लेता है । यही कारण है कि इस सृष्टि की आयु सौ वर्षकी है । वर्तमान ईश्वरकी कल्पना का शायद यह पूर्व रूप है तथा वैशेषिक दर्शनकी जो अनेक न्यूनता है, उनकी पूर्ति करनेका असफल प्रयास है। तर्क और ईश्वर क्यों ? महाभारत में मीमांसा में भी सन्य साहब ने यह प्रश्न उठाया है कि यह सृष्टि क्यों उत्पन्न हुई है ? अाप लिखते हैं कि यह देखते हुये कि तत्वज्ञान का विचार भारतवर्ष में कैसे बढ़ता गया हम यहां पर आ पहुंचे । अद्वैत वेदानी मानते हैं कि निष्क्रिय अनादि परसम से जड़ चेतनात्मक मच मटि उत्पन्न हुई फिन्तु कपिल के सांख्यानुसार पुरुष के सान्निध्य से प्रकृतिसे जड़ चेतना स्मक सृष्टि उत्पन्न हुई अब इसके आगे ऐसा प्रश्न उपरि ‘त होता है कि जो ब्रह्म अक्रिय है। उसमें विकार उत्पन्न ही कैसे होते हैं । अथवा जब कि प्रकृति और घुमघ का सानिध्य सदैव ही है. तब भी सृष्टि कैसे उत्पन्न होनी चाहिये । तत्वज्ञान के इतिहास में यह प्रश्न अत्यन्त कठिन है। एक ग्रन्थकार के कथनानुसार इस प्रश्न ने सब तत्वज्ञानियों को सम्पूर्ण दार्शनिकों को कठिनाई में डाल रखा है। जो लोग ज्ञान सम्पन्न चेतन परमेश्वर को मानते हैं. अथवा जो लोग केवल जह स्वभाव प्रकृति को मानते हैं, उन दोनों के लिये भी यह प्रश्न समान ही कठिन है । मियोप्लेटोनिस्ट ( नयेप्लेदोमतवादी ) यह उत्तर देते हैं कि-यद्यपि परमेश्वर निष्क्रिय और निर्षिकार हैं तथापि उसके पास पास एक क्रिया मण्डल इस भांनि घूमता है. जैसे प्रभा मण्डल सूर्य बिंध के पास पास हमा करता है । सूर्य यद्याप स्थिर है तो भी उसके पास पास प्रभा Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का चक्र बराबर घूमा करता है । सभी पूर्ण वस्तुओं से उसी प्रकार प्रभा मण्डल का प्रवाह, बराबर बाहर निकलता रहता है। इस प्रकार निष्क्रिय परमेश्वर से सृष्टिका प्रवाह सदैव जारी रहेगा। ग्रीस मेश के अणु सिद्धान्त यादी त्यसिपिस और डिमाद क्रिस का कथन है कि जगत का कारण परमाणु है । यह परमाण कभी स्थिर नहीं रहते हैं। गति उनका स्वभाविक धर्म है और वह अनादिया मनन्त है । ३६ के मतानुसार सात देश हे ही उत्पन्न होता रहेगा और ऐसे ही नाश होता रहेगा। परमाणुओं की गति चूकि कभी नष्ट नहीं होती, अतएव यह उत्पत्ति विनाश का क्रम कभी थम नहीं सकता | अच्छा अब इन निरीश्वर वादियों का मत छोड़ कर हम इसका विचार करते हैं कि. ईश्वरका अस्तित्व मानने वाले भारतीय आर्य दार्शनिकोंने इस विषयमें क्या कहा है? उपनिषदों में ऐसा वर्णन आता है कि "आत्मैव इदमन आसीत् सोऽमन्यत बहुस्याम प्रजाति पहले केवल परब्रह्म ही था। उसके मनमें आया कि मैं अनेक होऊँ, मैं प्रजा पालन करूं । निक्रिय परमात्माको पहले इच्छाहुई और उस इच्छाके कारण उसने जगत् उत्पन्न किया । वेदान्त तत्वज्ञानमें यही सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। वेदान्त सूत्रों में बादरायण ने 'लोकस्तु लीला कैवल्यम" यह एक सूत्र रखा है । जैसे लोगों में कुछ काम न होने पर मनुष्य अपने मनोरंजन के लिये केवल खेल खेलता है. उसी प्रकार परमामालीला से जगत का खेल खेलता है। यह सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की भांति ही संतोष जनक नहीं है। अर्थात् परमेश्वर की इच्छा की कल्पना सर्वदेव स्वीकार योग्य नहीं है। परमेश्वर यदि सर्व शक्तिमान् सर्वात और दयायुक्त है। ता लीला शब्द उसके लिये ठीक नहीं लगता। यह बात सयुक्तिक नहीं जान पड़ती कि, परमश्वर साधारण मनुष्ग की तरह खेल खलता है। इसके सिवा Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५२ ) परमेश्वर की करनी में ऐसा करता युक्त व्यवहार न होना चाहिये कि एक बार खेल फैला कर उसे बिगाड़ डालें स्वभाव यह संसार ईश्वरने क्यों रचा इसका उत्तर पृथक २ दिया जाता है। कुछ कहते हैं कि उसका यह खेल मात्र है, कुछ कहते हैं कि जीवों में कमका फल देनेके लिये विश्व रचता है। इन सब का समाधान ऊपर किया गया है। कर्मों के फलका उत्तर तो लोक वार्तिककारने बहुत ही वित्ता पूर्ण दिया है. जिसका कथन हम पहले प्रकरणमें कर चुके हैं। तथा करुणा और उसी की यह लीला है इसका भी उत्तर आ चुका है। परन्तु अनेक विद्वानोंका यह मत है कि जगतकी रचना आदि करना ईश्वर का स्वभाव है । अतः स्वभाव के लिये क्यों का प्रश्न ही नहीं होता । जिस प्रकार अभि गरम हैं जल शीतल है. उनके लिये यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता कि श्रम गरम क्यों है ? पानी ठंडा क्यों है ? इसी प्रकार ईश्वर के विषय में भी जगत रचना क्यों की यह प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसा कहने वाले इस समय बातका विचार नहीं करते कि हम सिद्ध तो यह कर रहे थे कि ईश्वर सृष्टिकर्त्ता है और युक्ति ऐसी दे रहे हैं जिस से हमारे पक्ष का ही घात होता है। क्योंकि स्वभाव को कार्य नहीं कहा जाता । न तो अभि को गरमी कर्त्ता कहा जाता । और न जल को शीत का। वास्तव में अभि और गरमी दो पृथक र पदार्थ नहीं है। जिससे कि गरमीका कर्त्ता कहा जा सके। इसी प्रकार जल का स्वभाव नीचे जाने का है. तथा अग्नि का स्वभाव उर्ध्व गमन है, इस लिये पानी नीचे को जाता है तो उसको इसका कर्त्ता नहीं कहा जा सकता। और न श्रम को ऊपर जाने का कर्त्ता कहा जा सकता है। अतः उस युक्ति से तो कर्त्ता न रहा। क्योंकि इन्छापूर्वक क्रियावान्को कर्त्ता Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५३ ) कहते हैं। अर्थात् जो करने न करनेमें तथा उल्टा करने में स्वतन्त्र होता है उसे कर्ता कहा जाता है। पाणिनी मुनिने इसी लिये कर्त्ता का लक्षण ( स्वतन्त्रः कर्त्ता ) किया है । परन्तु स्वभाव में स्वतन्त्रता नहीं रहती । अतः यह प्रश्न वैसा ही बना रहता है कि ईश्वर सृष्टि क्यों रचता है । स्वाभाविक इच्छा आस्तिकवाद में पं० गंगा प्रशाद जी ने ईश्वर की इच्छा को स्वाभाविक इच्छा लिखा है। तथा दृष्टान्त दिया है प्राणका अर्थात् जैसे मैं स्वभावसे प्राण लेता हूं। आदि। यह कथन ऐसा ही है जैसे किसने कहा कि मेरी माता बन्ध्या है। या मेरे मुखमें जीभ नहीं है. अथवा कोई कहे कि अभि शीतल है इसी प्रकारका यह शब्द है स्वाभाविक इच्छा | इन महानुभावों को इतना भी ज्ञान नहीं है कि इच्छा वैभाविक गुणों को कहते हैं। यदि इच्छा स्वाभाविक होती तो उसका मोक्ष अवस्था में भी सद्भाव पाया जाता | परन्तु न्याय वैशेषिक आदि सम्पूर्ण दर्शनों का इसमें एक मत है कि मोक्ष में इच्छा आदि नहीं रहते । इच्छा मनका गुण है। और मन है प्रकृतिका बना हुआ । अतः यह सिद्ध है कि इच्छा कहते हो वैभाविक गुण को हैं । तथा इच्छा अभिलाषा चाह एकार्थक वाची शब्द हैं। जिनका अर्थ है अप्राप्तकी आकांक्षा, अतः यह नियम है कि इच्छा सा अप्राप्त पदार्थ की ही होती है, अब यदि यह भी मान लें कि ईश्वरकी इच्छा स्वाभाविक होती है तब भी यह प्रश्न शेष रहता है कि उसको कौनसी वस्तु अप्राप्त थी जिसकी उसको इच्छा हुई। इसी प्रकार अन्य भी अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिनको हम उसी प्रकरण में उठायेंगे | आपने भी प्राणोंका दृष्टान्त देकर इच्छाको वैभाविक सिद्ध कर दिया है। क्योंकि जीवात्मा प्राण भी वैभाविक Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५४ ) गुणसे ही ले रहा है, यही कारण है कि आर्य समाजके प्रसिद्ध सन्यासी स्वा० दर्शनानन्द जी ईश्वर में इच्छा नहीं मानते थे । उनका कथन है कि इच्छापूर्वक क्रिया जीवक्री होती है तथा नियमः पूर्वक क्रिया ईश्वरकी। उन्होंने ईश्वर में इच्छा माननेका खण्डन अपनी पुस्तकोंमें तथा शास्त्रार्थ आदिमें भी किया है। (देखो शास्त्रार्थ अजमेर ) अतः ईश्वर में इच्छा बताना ईश्वरसे इन्कार करना है। अतः यह सिद्ध है कि न तो ईश्वर के स्वभावसे ही सृष्टि उत्पन्न हो सकती है, और न यह सृष्टि उसकी दयाका ही परिणाम है और न उसकी क्रीड़ा मात्र ही है। यह स्वयं सिद्ध अपने आप है, न कभी बनी और न कभी नष्ट होगी । __ आस्तिकवाद और ईश्वर पं. गंगाप्रसादजी उपाध्यायने "आस्तिकवाद" नामक पुस्तक में ईश्वर सृष्टिकर्ता के विषयमें अनेक युक्तियां व प्रमाण दिये हैं। इस विषयमें यह पुस्तक वर्तमान समयमें सर्वश्रेष्ठ समझी जाती है। विद्वान् लेखक को इस पर मंगला प्रसाद पारितोषिक भी मिली है। जिससे इसकी प्रसिद्धि और उपयोगिता बढ़ी है। यही कारण है कि इसको पाठकोंने अच्छा अपनाया है। श्रतः ईश्वर विषय पर कुछ लिखते हुए यह आवश्यक है कि इसमें दी हुई युक्तियों व प्रमाणादि का भी पर्यालोचन किया जावे । नियम दूसरे हेतु आपने नियम दिया है। भापका कहना है कि संसारमें हम सर्वत्र नियम देखते हैं । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ क्रमशः बढ़ता है, मनुष्य आदि सभी की वृद्धि का नियम है। भौगोलिक संसार की भी यही अवस्था है । नदी आदि सब नियम पूर्वक बहती हैं । इसी प्रकार खगोल विद्या भी नियम का उपदेश दे रही Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५५ ) है। पृथ्वी आदि प्रह सूर्य आदि तारागण, चन्द्र आदि सब क्या बिना नियम के चल रहे हैं। आदि आदि .. प्रश तीक्षा संसार एक वौद्धिक और दूसरे प्राकृतिक बौद्धिक नियमोंमें विधान आज्ञा या स्वतन्त्रता होती हैं। जैसे यह कार्य करनेसे इस प्रकारका दरड या पारितोषक मिलेगा आदि । बौखिक नियम में स्वतन्त्रता भी होती है। अर्थात् उन नियमों का पालन करना या न करना यह व्यक्तियोंकी इच्छा पर निर्भर है। परन्तु प्राकृतिक नियम विधानात्मक नहीं होते जैसे जल का नियम हैं नीचे को बहना, यह भी नियम है कि जल शीतल ही होता है। इसी प्रकार श्रमि ऊपर को जाती है और उष्ण होती है। परमाणु सूक्ष्म ही होता है, तथा जड़ ही होता है आदिर | नियमों का नाम स्वभाव है या धर्म कहलाते हैं अथवा न को प्राकृतिक नियम भी कह सकते हैं। आपने जितने भी उदाहरण दिये हैं वे सब प्रकृति के सभाव हैं। दूसरी बात यह है कि बोद्धिक नियम अपवादात्मक तथा परिवर्तनशील होते हैं। आपने जिनको नियम बताया है उनमें न तो अपवाद ही और न परिवर्तनशीलता है अतः यह सिद्ध हो गया कि जिनको आप नियम कहते हैं वे वास्तव में पुद्गल के स्वभाव हैं । अत्र यदि स्वभाव का भी कर्त्ता माना जायगा तो उस वस्तु का ही अभाव सिद्ध हो जायगा. क्यों fe धर्म और धर्मी कोई पृथक में पदार्थ नहीं है अपितु एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जैसे अभि और गरमी एक हो वस्तु हैं । यदि अमि में गरमी का नियामक कोई भिन्न माना जाय तो अभि का ही अभाव सिद्ध होगा। इसी प्रकार अन्य पदार्थों के विषय में भी है। दूसरी बात यह है कि इन नियमों का भो किसी को नियामक माना जायगा तो आपका ईश्वर भी अनित्य सि होगा. क्योंकि उसमें भी नियम हैं तब उनका भी कोई नियामक चाहिये इस 1 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५६ ) प्रकार अनवस्था दोष भी आयगा । यदि यह कहो कि ईश्वर का स्वभाव है, इसलिये उसके नियामक की आवश्यकता नहीं है तो यहाँ भी यही मानो कि ये सब पुद्गल के स्वभाव हैं, इनके लिये भी नियामककी आवश्यकता नहीं हैं। तथा जहाँ आपने उपरोक्त नियम दिखलाये हैं वह यह भी एक नियम दिखलाना चाहिये था कि नियामक सर्वथा सशरीरी और एक देश होता है । सर्व व्यापक और निराकार वस्तु कभी नियामक नहीं होती जैसे आकाश । अतः इन नियमों से भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रयोजन तीसरा हेतु आपने प्रयोजन दिया है, आप लिखते हैं कि-"तीसरी चीज जो संसार में दृष्टि गोचर होती है वह प्रयोजन 1 वस्तुतः नियम और एकता व्यर्थ होते यदि प्रयोजन न होता । सब लड़कों के साथ शाला में आने का नियम व्यर्थ नहीं है । इस का प्रयोजन हैं। प्रयोजन ही इस कार्य को सार्थक बनाता है । संसार की सभी वस्तुओं और घटनाओं से किसी विशेष प्रयोजन की सूचना मिलती है। जहां कही भिन्नता है उससे भी प्रयोजन की सिद्धि होती है। यह प्रयोजन कभी मनुष्य की समझ में श्राता है और कभी नहीं आता है। परन्तु प्रयोजन है अवश्य समझने की तो यह बात है कि एक मनुष्य का प्रयोजन दूसरे मनुष्य की समझ में नहीं आया करता । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई प्रयोजन है ही नहीं । एक समय एक यूरोप निवासी यात्री अरब के बदुओं के यहां मेहमान हुआ। एक दिन वह प्रातः काल उसके तम्बू के सामने टहलने लगा | बद्दलोग उसको देख कर हँसने लगे। उन्होंने समझा कि कैसा मूर्ख है कि निष्प्रयोजन एक ओर से दूसरी ओर टहल रहा है । परन्तु उस यात्री का प्रयोजन स्पष्ट था । यही हाल संसार का है यहाँ को सैकड़ों Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनाओं को हम अपने प्रयोजन से मिलाते हैं जो मिल जाती हैं उसको अर्थिक कहते हैं और जो नहीं मिलती जसको अर्थ निरर्थका वस्तुतः यही हमारी भूल है । यह जानना हमारे लिये कठिन है कि प्रयोजन क्या है । परन्तु संसार की गति ही बताती है कि प्रयोजन है अवश्य ।" आदि आदि समीक्षा-वर्तमान समय में दार्शनिकोंके दो मत हैं. एक प्रयोनयादी तथा दूसरा यन्त्र बादी यन्त्रवादी दल का कथन कि इस जगत में प्रयोजन नाम की कोई वस्तु नहीं है। जितनी प्रयोजन बनाये जाते हैं के पब अपनी २ बुद्धि अथवा निज निज स्वार्थ से कल्पित किये गये हैं, परन्तु यह किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता कि अमुक पदार्थ अमुक प्रयोजन के लिये बनाया गया है। जैसे श्रम स्वभावत: 'म चौर गाली व्यन सीन है, इनसे पृथक पृथक प्राणियोंके अनेक प्रयोजन सिद्ध होते हैं। परन्तु यह नहीं कह सकते कि अमि अमुक प्रयोजन के लिये गरम है और पानी किसी विशेष प्रयोजनके लिये ठण्डा है। वे तो नियोजन स्वभावतः ही ऐसे हैं। यदि इसपर विचार न करके श्राप ही की बात मानली जाय तो भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रयोजन किसका। ईश्वरका अथवा जीवों का । यदि ईश्वरका प्रयोजन है तब तो वह ईश्वरत्वसे गिरकर एक साधारण संसारी जीव बन गया, क्योंकि प्रयोजन वाला तो जीव हीहै, यदि ईश्वरको भी प्रयोजन घाला माने तोजीव और ईश्वर में कुछ भी भेद न रहा । यदि जीवों का प्रयोजन माना जाये तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जीवों के प्रयोजनको सिद्ध करने के लिये ईश्वर क्यों प्रयत्न करता है। और वह प्रयोजन (चाहे स्वयं ईश्वर का हो अथवा जीवों का ) अनादि काल से अध तक क्यों नहीं पूरा हुअा ? तथा भविष्य में यह प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा इसका क्या सबूत है । यदि कहो कि ईश्वरको ऐसा विश्वास Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो भी प्रश्न यही है कि उस विश्वास का आधार क्या है । यदि कहो कि प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा, तो ऐसे असंभव प्रयोजनके लिये ईश्वर क्यों अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है। तथा च प्राज तक ईश्वर ने जीवों को यह बताने की कृपा क्यों न की कि अमुक वस्तु मैने अमुक प्रयोजनके लिये बनाई। यदि वह इतना कष्ट और करता तो न तो मनुष्यों में इतना मत भेद ही रहता और न इस प्रकार का कलह ही । दूसरी चीज यह है कि-इस प्रयोजन बाद के अनुसार यह माना जाता है कि यदि एक जाति शासक है और दूसरी गुलाम तो इस में भी ईश्वर का विशेष प्रयोजन है। ___ इसी प्रकार, यूरुपके भयानक युद्धोंका तथा बंगाल के कहत व बाढ़ थानेका और न जोना , पसाब में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर राक्षसी भयानक अत्याचार किये हैं ये सब व्यर्थ नहीं हुये हैं, अपितु इन सबमें ईश्वरका विशेष प्रयोजन है। दूसर शब्दों में ये सब कुकृत्य किसी प्रयोजन वश ईश्वरने ही कराये है। अतः यह प्रयोजनवाद मनुष्यों को अकर्मण्य और गुलाम बनाने वाला है प्रयोजनवाद वास्तव में एक मानसिक विमारी का नाम है और कुछ भी नहीं है। यह प्रयोजनवाद पुरुषार्थ, स्वतन्त्रता, और उन्नतिका सबसे बड़ा और प्रवल शत्रु है। जब तक यूरूपमें यह प्रयोजन्याव प्रचलित था उस समय तक उसने विज्ञान आदिमं उन्नति नहीं की। परन्तु अब पुनः कुछ दार्शनिकों ने इसको अपनाना भारम्भ किया है। ये लोग इसका सहारा लेकर पुगने धर्मका ही प्रचार करना चाहते हैं । यूरूपमें इसका विरोध भी बड़े जोरोमें हुआ है। ___अापने स्वयं इस प्रयोजनवादको हिमायत करते हुये लिखा है कि यह कहना कि ये सब साधन ( सांप आदिके विषेले दांत शेर आदि के पंजे, व भिरह श्रादिके डंक) दुःख देने के लिये है Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रम मूलक है वस्तुतः इनका भी उपयोग है । इनसे शिकार को कम कष्ट पहुंचता है। आदि । पू० २२३ आगे आप लिखते हैं कि किसी मनुष्यकी मृत्युका ही दृप्रांत लीजिये। कल्पना कीजिये कि 'क' नामक एक मनुष्य मरता हूँ । यह एक छोटी सी घटना है, परन्तु इसी के द्वारा उसकी स्त्री को विधवा होनेका दण्ड मिलता है. उसके माता पिता को पुत्र हीन होने का. बच्चों को पितृहीन होने का और उनके शत्रुओं को शत्रु सखिल होनेका पुरस्कार मिलता है। पृ०.६० यह है इस प्रयोजन वाद का नंगा चित्र यदि लेखक महोदय के घर में डाकू या गुरखें श्राफर आपका माल लूट लें. और दस पांच आदमियों को कतल भी कर दे फिर मुलजिम पकड़े जायें, और उपरोक्त सफाई दें कि वास्तच में इसका भी प्रयोजन है। इनको दण्ड देना था और इनके शत्रुओंको पुरस्कार, तथा डाकुओंका मुजारा हो गया इसमें बुराई क्या हुई. उस समय लेखक महाशयको समझमें इस प्रयोजनवादका प्रयोजन आ सकता है। उस समय ये लोग कांगडे और कोइटे के भूचाली का तथा धंगालके अत्याचारोंमें भी ईश्वरका विशेष प्रयोजन है यह कहना भूल जायेंगे और न्याय को दुहाई देने लगेंगे। यदि यह प्रयोजनवाद मान लिया जाये तोन तो कोई अन्याय रहेगा और न अत्याचार । इन भले श्रादमियोंकी दृष्टि में बलात्कार और जबरन ससरीव नष्ट करने वा जबरन धर्म परिवर्तन जैसे पापों का भी कुछन कुछ ईश्वरीय प्रयोजन है । इस लिये यह प्रयोजनवादको हमारा दूरसे ही नमस्ते है । यदि आप लोगोंको प्रशन्न करने के लिये यह मान भी लिया जाये कि इस संसारकी घटनाओंका कुछप्रयोजन Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ( ७६० ) तभी आपके ईश्वर की सिद्धि नहीं होगी। वहाँ यह प्रश्न होगा कि ईश्वर का भी कोई प्रयोजन है या वह निष्प्रयोजन है । यदि प्रयोजन है तो उसके भी कर्ता की आवश्यता होगी और यवि निष्प्रयोजन ( बेकार ) है तो ऐसे ईश्वर का मानने से क्या लाभ है। आदि अनेक दोष है । विशालता आगे आपने जगत को विशालता का वर्णन करके यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि इस विशाल जगतको कोई अल्प शक्तिशाली व अल्प ज्ञानी नहीं बना सकता | सबसे प्रथम तो इस संसार का बनना असिद्ध पुन: बुद्धिमत्त कर्ता असिद्ध, यतः जब इसका बनना ही प्रसिद्ध है तो कर्ताका प्रश्न ही नहीं उठता। और यदि विशाल पदार्थका कर्ता कोई सर्वच व सर्व शक्ति मान होता है. तो ईश्वर भी विशाल है उसका भी कोई कर्ता होना चाहिये । पुनः उस दूसरे ईश्वरका भी इस प्रकार अवस्था दोष आवेगा । कर्ता हैं । आगे आपने लिखा है कि "अब हम मुख्य विषय पर आते हैं, कि क्या ईश्वर सृष्टिकर्ता है ? नैयायिकोंने ईश्वर में आठ गुण माने है । संख्यादयः पंच बुद्धिरिच्छायनोऽपि चेश्वरे । भाषापरिच्छेद || ३४ || अर्थात् ईश्वर में निम्न लिखित आठ गुण हैं। (१) संख्या (२) परिमाण (३) पृथकत्व ( ४ ) संयोग (५) विभाग (६) बुद्धि, (७) इच्छा (८) प्रयत्न | Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 138 ) इनमें संयोग और विभाग गुरु क्रिया जन्य हैं। तथा बुद्धि यत्न व इच्छा केवल निमित्त कारण होने वाले गुण हैं। तथा यह भी स्मरण रखना चाहिये कि वैशेषिक के मतानुसार बुद्धि क्षे ही प्रकारकी है (१) अनुभवात्मक (२) स्मृति | इन दोनोंके भी प्रमात्मक प्रमात्मकदो भेद है। आशय यह है नैयायिक, ईश्वरमें ज्ञान इच्छा और प्रयत्न, आदि गुरु मानते हैं । तथा ईश्वरको जगत का प्रयोजक कर्त्ता मानते हैं। उनका कथन है कि जिसप्रकार कुम्हार बुद्धि पूर्वक इच्छा सहित प्रयत्न करके घड़े को बनाता है। उसी प्रकार ईश्वर भी जगत को बुद्धि पूर्वक इच्छा सहित क्रिया करके बनाता है । इस लिये ये लोग ईश्वर को ब्रह्माण्ड कुलाल कहते हैं ।" समीक्षा -- जिस प्रकार मीमांसा दर्शनकारने तथा उनके भाष्य कारों ने ईश्वर के कर्त्तापने का खंडन किया है इसी प्रकार वेदान्त में भी व्यास जी ने ईश्वर का खंडन किया है । यथा— अधिष्ठानानुपपत्तेश्व ॥ २ । २ । ३६ इस सूत्र का श्री शङ्कराचार्य ने दो प्रकार से अर्थ किया है। ** ( १ ) तार्किकों की ईश्वर विषयक कल्पना भी अयुक्त है ( उनका कथन है) कि जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी को लेकर ( अपने कार्य में) प्रवृत्त होता है। उसी प्रकार ईश्वर भी पुद्गल प्रकृति या परमाणुओं को लेकर ( जगत रचना में) प्रवृत्त होता है। परन्तु यह कल्पना ठीक नहीं। क्योंकि निराकार ईश्वर परमाणुत्रोंसे नितान्त भिन्न होनेके कारण ईश्वर की प्रवृत्ति का श्राश्रय नहीं हो सकते। (२) अधिष्ठान का अर्थ शरीर है और ईश्वर के शरीर नहीं है, इस लिये यहां अधिष्ठानकी अनुपपत्ति अर्थात् उपलब्धि न होनेसे वह कर्त्ता नहीं होसकता। अभिप्राय यह है कि कर्ता की व्याप्ति शरीर के साथ है । परन्तु आप लोग ईश्वर के शरीर नहीं मानते Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६२ ) ऐसी अवस्था में बह अशरीर होने के कारण कर्ता नहीं हो सकतः 1 कारणवच्चेत् न भोगादिभ्यः ॥ ४० ॥ यदि इन्द्रियों की तरह उसकी ( ईश्वर की ) प्रवृत्ति मानो तो ठीक नहीं। क्योंकि उस अवस्था में ईश्वर भी भोगरोग में फंसकर ईश्वर गमा देगा | अन्तयत्व सर्वज्ञता वा ॥ ४१ ॥ अर्थ — अन्तवाला अथवा अल्पक्ष होनेसे नैयायिकों का कल्पित ईश्वर सिद्ध नहीं होता । ! अभिप्राय यह है कि नैयायिक लोग जीवों तथा परमाणुओं को भी अनन्त मानते हैं. तथा प्रत्येक जीव की तथा परमाणु की सखा भी भिन्न भिन्न मानते हैं। अब यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब ईश्वर, जीव परमाणु तीनों अनन्त माने जाते हैं. सो free अपने और जीवादिके अन्त को जानता है यान्तहीं। यदि कहो कि जानता है तब तो ईश्वर भी घन्त वाला हो गया तथा जीव भी अनन्त न रहे। ऐसी अवस्था में मोक्ष में जाते जाते एक दिन जीवों का संसार में प्रभाव भी हो जायेगा । उस समय यह सृष्टि आदि भी नहीं रहेंगी। फिर वह ईश्वर भी किस का रहेगा । यदि कहो कि ईश्वर अपना और जीवादि का अन्त नहीं जानता तो वह सर्वश न रहा । ऐसी अवस्था में भी उसका ईश्वरत्व गया । तथा तीनकी संख्या भी ईश्वर के अनन्त होने का खंडन करती हैं। प्रिय पाठक वृन्द ! श्री शङ्कराचार्य ने यहाँ ऐसी प्रवल और तात्विक युक्ति दी है कि ईश्वरवाद को जड़ सहित उखाड़ कर फेंक दिया है। आपका कि जब परमाणु और ईश्वर प्रथक जातिके द्रव्य हैं, तथा उनके गुण आदि सब भिन्नर हैं, एक जड़े हैं Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो एक चेतन सर्वज्ञ, पूर्णकाम और प्रानन्द मय अनन्त है । इन दो विभिन्न जाति वाले द्रव्यों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है । अर्थात् सम्बन्ध सजातांध का सजातीय संघाला है। यादे इस असम्भव बात को भी मानलें कि किसी प्रकार उनका सम्बन्ध हो गया तो भी ईश्वर का ईश्वरत्व नहीं रहेगा। क्यों कि उस अवस्था में यह मानना पड़ेगा कि आपके ईश्वर से अधिक शक्ति परमाणुओं में है जिन्होंने ईश्वर तक को भी मोहित कर लिया । ___ यदि कहो कि परमणुओंने मोहित नहीं किया अपितु ईश्वरने ही स्मथ इनसे सम्गन्ध स्थापित कर लिया तो भी ईश्वरत्व नष्ट हो गया क्यों कि ऐसी अवस्थामें वह एक पतित और बहुत ही श्रधार। व्यक्ति सिद्ध होता है जो व्यर्थ ही एक तुमछुतम चोज से सम्बन्ध स्थापित करता फिरना है। ऐसा विवेक हीन व्यक्ति ईश्वर नहीं हो दूसरी बात यह है कि यदि उसने इन्द्रियोंकी तरह इस जगतसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया है तो उसको इसके सुख दुरस्त्र आदि भी भोगने पड़ेंगे। क्यों कि संसर्गज दोषों का होना आवश्यक है। जिस प्रकार जीव कर्म का है तो उसको जनका फल भोगना पड़ता है, इसी प्रकार ईश्वर को भी सुख दुख अादि भोगने पड़ेंगे। यहां एक प्रश्न यह भी है कि जब सांसरिक दुःख भोगते २ एक समय प्राता है तथ इसको इस संसार से वैराग्य हो जाता है. और इससे मुक्ति चाहता है । ईश्वर का भी कभी २ इस प्रपंचसे वैराग्य होता है या नहीं। यदि होता है तो फिर कौन नी शक्ति है जो फिर भी इस वेचारको मुक्त नहीं होने देती। और यदि वैराम नहीं होता तो वह ईश्वर, अमन्य जीवों की तरह निष्कृष्ट रहा । जब वह अपना उद्धार नहीं कर सकता तो औरों का क्या खाक उद्धार करेगा । जो स्वयं ही बन्धनमें पड़ा है वह तो दूसरोंको कैसे Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६४ ) 1 छुड़ावेगा, इससे सिद्ध है कि ईश्वर कर्त्ता नहीं हो सकता । जिस प्रकार मीमांसा दर्शनने तथा वेदान्त ने ईश्वरका खण्डन किया है इस प्रकार आपके ही दर्शनकार ऋषि ने आपके इस कल्पित कर्त्ता का खण्डन किया है । 1 कार्यव आपने सबसे प्रथम इस जगतको कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है । परन्तु दार्शनिक जगत में कार्यत्व भी आज तक एक पहेली ही बनी हुई है, जिसको आज तक कोई हल नहीं कर सका है । यदि हम यह मान भी लें कि जगत कार्य हैं तो भी प्रत्येक कार्य के लिये कर्ताकी आवश्यकता है यह सिद्ध नहीं है। यदि हम यह भी मान लें तो भी यह सिद्ध नहीं हो सकता कि कर्ता ईश्वर है और अमुक का जीव तथा अमुकका कर्ता स्वयं जड़ अमुक कार्यका पदार्थ है। क्योंकि सत्यार्थ प्रकाशमें स्वयं स्वामीजी महाराज ने स्वीकार किया है कि "कहीं कहीं यमि. वायु आदि जड़ पदार्थोंके संयोगसे भी जड़ पदार्थ बनते रहते हैं" I यह बात प्रत्येक मनुष्य नित्यं प्रति प्रत्यक्ष भी देखता है यदि हम इन सब प्रश्नोंकों न भी उठायें और श्रापके इस जगतको कार्य ही मान लें तो भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कथनानुसार किं कार्य और कारण किसे कहते हैं ? क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक वस्तु कारण भी है तथा कार्य भी । आप ही ने इस लेख में पानी और बर्फका उदहरण देकर लिखा है कि पानी से बर्फ बनता है, अतः हम पानी को कारण और बर्फको कार्य कहेंगे। परन्तु आप जरा विचार करें कि जब वही वर्फ पिघल कर पानी हो गया तब पानी कार्य हुआ और वर्फ कारण । ठीक इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ कार्य भी है और कारण भी है। जैसा सोना जेवरका कारण है और पुनः जेवर से - Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६५ ) सोना होने पर सोना कार्य और जेवर कारण होता है । वास्तविक पिटे देखा जाश को हादी र नई ना सोने और जेवरमें कुछ भी अन्तर नहीं है। जेवरमें सोना मौजूद है तथा वफ में पानी विद्यमान है। यहां में' शब्दका प्रयोग भी उपचार मात्र है। निश्चय द्रष्टिसे पानी और धर्फ आदि में भेद नहीं है। धर्फ पानी की ही पर्याय अवस्था) विशेष है। इसी प्रकार कार्य और कारण भी पृथक पृथक नहीं है अपितु पूर्व अवस्थाका नाम कारण है और अन्तर अवस्थाको कार्य कहा जाता है। आपने स्वयं ही यहां पर दो प्रकार के कार्य माने हैं। एक संश्लेषणात्मक दूसरा विश्लेषणात्मक. श्राप के सुन्दर और तायिक शब्द है कि"वस्तुस: संसारकी सभी वस्तुयें संश्लेषण और विश्लेषण नामक दो क्रियाओं द्वारा बनती है। हम इन्हीं शब्दोको और सरल भाषा में कहे तो संश्लेषणका नाम "संघात और विश्लेषण का नाम भेद कह सकते हैं। जैनदर्शनमें भी लिखा है कि "मंदादरमुः। भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः'(तत्त्रार्थ सूत्र)अर्थात भेद (विश्लेषण)से अणुरूप कार्य सम्पादन होता है तथा स्थूल कार्य संघात (संश्लेषण) से या भेद और संघातसे होता है। अतः आपके कथनानुसार ही परमाणु भी कार्य सिद्ध हो गये। क्योंकि अपने स्वयं लिखा है कि सब वस्तुगें इन दो ही क्रिया से बनती हैं। अत: अापका यह लिखना कि संसार में एक स्थाई तत्व है श्रीर एक अस्थाई यह गलत सिद्ध हो गया। क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जगत में कोई भी पक्षर्थ स्थाई नहीं है अपितु प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण परिबर्तन शील है। यही कारण है कि जैन दर्शन ने 'स' का लक्षण ही जत्पाद व्ययनोव्ययुक्तं सत्" किया है। अर्थात् सत् वह है जिसमें उत्पाद और व्यय हो । अर्थात् प्रत्येक पदार्थ पर्यायरूपसे अस्थिर है और द्रव्यरूप से स्थिर है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्था प्रतिक्षण बदलती रहती है, एक पहली अस्थाका नाश तथा दूसरीका उत्पाद ( प्रकाश ) होता रहता है। परन्तु जिसमें ग्रह उत्पाद और व्यय होता है वह द्रव्य स्थाई है। उसी द्रव्यकी परमाणु भी एक अवस्था (पर्याय) है क्योंकि यह भी एक अवस्था है अतः अवस्था होनेसे यह भी स्थाई नहीं है। इसी सिद्धान्तको म निशाने नकार किया है । शा. यह है कि मापने स्वयं यह सिद्ध कर दिया है कि परमाणुसे लेकर सूर्य आदि तककी सब वस्तुयें बनी हुई है, कोई विश्लेषण क्रियासे बनी है तो कोई संश्लेषण क्रियासे । श्राप के सिद्धान्तानुसार संश्लेषण क्रियासे जगम अर्थात् पृथिवी, चाँद सूरज आदि बने हैं. और विश्लेषण क्रियासे प्रलय हुई अर्थात् परमाणु बने तो जिस प्रकार जगतका कतो ईश्वर है उसी प्रकार प्रलय में परमारों का कता भी ईश्वर सिद्ध होगया । तथा जब यह नियम भी सिद्ध हो गया कि जो कार्य है वही कारण भी है इसी प्रकार जो कारण है वही कार्य भी है तो यही नियम ईश्वर पर भी निर्धारित होता है अत: ईश्वर जब जगतका कारण है तो वह कार्य भी अवश्य होगा. जब कार्य होगा तब उसके कर्ताको भी आवश्यकता होगी. आदि आदि । परन्तु जहां श्रास्तिकवादने दो प्रकार के कार्य माने हैं, एक विश्लेषण किया परक और दूसरा संश्लेषण क्रिया परक वहां नैयायिकों ने काय का लक्षण मावयवत्व ही किया है। यथा-कार्यस्वमपि सिद्धं चेन आमादेः सावयवत्वतः" ( सर्व सिद्धान्त मंग्रह) अर्थात पृथिवी आदिका सावयवत्व होनेसे कार्य त्व सिद्ध है। उनका कथन है कि परमाणा और प्राकाशके बीच में जितने श्रवान्तर परिणाम वाले द्रव्य है वे सब कार्य हैं। क्योंकि वे सब कार्य है ! उनका मध्यम परिमाणत्व होना उनको सावयव सिद्ध करता है और जो सावयव है वह कार्य है।" अवान्तर महत्वेन वा कार्यत्वानुमानस्य सुकरत्वान्'" सारांश यह कि Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैयायिकों ने केवल सावयव पदार्थको ही कार्य माना है। और यह निर्विवाद है कि सावयबल्य संश्लेषणात्मक क्रियाका ही परिणाम है। अतः यह सिद्ध है कि नैयायिक लोग संश्लेषणात्मक कियाके लिये काकी श्रावश्यकता समझते हैं। इसका तो विशेष विवेचन मागे कर्ता' प्रकरण में करेंगे, यहां तो कार्य का प्रकरण है, अतः यहां तो यह देखना है कि नैयायिकीका यह लक्षण ठीक है या नहीं। काय कारण। संबंध दर्शनशास्त्र में चार सरहका माना गया है। ?) असत् से सत् की उत्पत्सि ( बौद्ध) (२)सन से असन् की उत्पत्ति ( वेदान्त ) {३) सन् से सत् की उत्पत्ति ( सांख्य ) (४) असत् कार्य पाद या प्रारंभवाद ( नैयायिक) इन नैयायिकों के सिद्धान्त का नाम प्रारम्भयाद अथवा असम् कार्यवाद है। इसका अभिप्राय यह है कि बोज के नाश होने पर अंकुर उत्पन्न होता है और अंकुर के नाश हो जाने पर वृक्ष उत्पन्न होता है इनका कथन है कि श्रीज में वृक्ष नहीं है अपितु वृज एक पृथक नया पदार्थ उत्पन्न हुआ है। प्रशस्तवाद भाष्य में कहा है कि मिट्टी से घट प्रत्यक्ष से ही पृथक देख रहे हैं । यदि दोनों एक होते तो घड़े का काम मिट्टी ही दे सकती थी. ऐसी अवस्था में घट बनाने की सावश्यकता न थी . परन्तु सांख्य दर्शनने और घेवान्त ने इस असत् कार्यवादका तीन स्वएडन किया है । वर्तमान विज्ञान ने भी इस बाद को अस्वीकार किया है । उसने अपने प्रयोगों द्वारा सत्कार्यव द की पुष्टि की है । सांख्यकार का कथन है कि कारण में कार्य विद्यमान रहता है. इस बात को सिद्ध करने के लिये ईश्वर कृष्ण निम्न प्रमाण देते हैंअसदकारणादुपादान ग्रहणासवैसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणाकारण भावाच सत्कार्यम्"(सा० का०६) Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६८ ) 'ई-- यदि भारत में पानी का मामीला ते श्राकाश पुष्प की तरह वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता। सन की उत्पत्ति होती है । उपादान का ही ग्रहण होता है, अर्थात शालि बीज़ ही शालिका उपादान कारण होता है. गेहूं श्रादि नहीं होते। सबसे सब वस्तुएं उत्पन्न नहीं होती. तिलासे ही नल निकलता है बालू यादि से नहीं, शक्तिमान कारण भी शक्य कार्य को ही जन्म देते हैं तथा कारण के होने पर ही कार्य होता है अतः इन पांच हेतुओं से ज्ञात होता है कि कारण में कार्य सदा विद्यमान रहता है । __ इसी प्रकार वेदान्त दर्शन के द्वितीय अध्यायमें श्री शङ्कराचार्य जी ने असत् कार्यवाद का बड़ी प्रवल युक्तियोंसे खंडन किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् भाष्यमें आपने सत्कार्यवादका बहुत ही सुन्दर और तात्विक विवेचन किया है। आप लिखते हैं कि सर्व हि कारणं कार्य मुत्पादयत् पूर्वोत्पश्नस्थ कार्यस्य तिरोधानं कुर्वन् कार्यान्तरं मुत्पादयति । एकस्मिन् कारणे युगददनेक कार्य विरोधात्"आदि अर्थात् जब कारण एक कार्य को उत्पन्न करता है, तब वह दूसरे कार्य का तिरोधान कर देता है, उस कार्य को छोड़ देता है क्यों कि एक कारण में एक साथ अनेक कार्यों को व्यक्त करने का विरोध है किन्तु एक कार्य के तिरोहित हो जाने मात्र से कारणका नाश नहीं होता, कार्योका अर्थ है अभिव्यक्त होना अर्थात् ( ज्ञान का विषय होना ) अब विद्यमान घट सूर्य के प्रकाश में नहीं दीखता इससे सिद्ध है असन कार्य की कभी प्रतीति नहीं हो सकती। जब तक घटकी अभिव्यक्ति नहीं होती उस समय तक घट मिट्टी पर्याय में विद्यमान रहता है। अतः उत्पत्तिसे पूर्व घट आदि विद्यमान रहते हैं, किन्तु उनमें स्वरूप पर अाघरण होने के कारण उनको Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६६) अभिव्यक्ति नहीं होती। गीता ने भी नासतो विद्यतेऽभावः नाभावो विद्यते सतः " कहकर इसका समर्थन किया । तथा छान्दो ग्यने "कथमतः संब्जायेत्" कहकर पुष्टिको अस्तु यहां प्रकरा यह है कि नैयायिकों का सिद्धान्त असत्कार्यवाद है । इसी लिये उन्होंने कार्य का लक्षण ( प्रागभाव प्रतियोगित्वं कार्यत्वम् ) किया अर्थात् जो प्राग अभाव का प्रतियोगी है वह कार्य हैं। यह लक्षण उत्पत्ति से पूर्व कार्य का अभाव प्रदर्शनार्थ ही किया है। यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, सावयव, कार्य की उत्पत्ति भी अवयव के नाश से ही माननी होगी। यदि ऐसा न मानें तब तो असत कार्यवाद समाप्त होता है। और यदि यह मानें कि अवयवों का नाश हो जानेपर सावयवस्त्र उत्पन्न होता है तो परमाणु नित्यत्ववाद का घात होता है। अतः उभयतः पाशा रज्जु" न्याय से नैयायिक बंध जाता है । अतः कार्य का लक्षण सावयत्व ठीक नहीं यदि सत्कार्यवाद को मान कर कार्यका लक्षण सावयवत्व किया जाय. तो भी हमारे पक्ष की पुष्टि होती है, उस अवस्था में सावत्र भी कार्य रहेगा तथा यहां कारण भी इसी प्रकार निरवयव कारण भी और कार्य भी। क्योंकि सत्कार्यवाद के अनुसार निरवयव में सावयवत्व विद्यमान हैं और सावयव में निरवयवत्व | वहां तो केवल प्रकट होने का नाम ही कार्य है । अथवा इसको यों भी कह सकते हैं कि कार्य और कारण सापेक्ष शब्द हैं। सोना तार का · — कारण है और तार जेवर का कारण है । अतः तार कारण भी है. और कार्य भी है. इसी प्रकार संपूर्ण पदार्थों के विषय में यही कार्य कारण भाव होता है। अतः यह सिद्ध हैं कि कार्य की कारण से पृथक सत्ता नहीं है, अपितु कारण की एक अवस्था का नाम कार्य है। तथा एक अवस्था का नाम कारण हैं। अतः जगत ही नहीं अपितु परमाणु आदि भी कार्य है। इसी प्रकार ईश्वर भी कार्य सिद्ध हो गया । Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७० ) कार्य यदि कार्य का लक्षण 'प्रागभाव प्रतियोगित्व' करें तो सूर्य आदि का प्रभाव सिद्ध नहीं है। स्वयं वेदों में भी इनको नित्य माना है । जैसा कि हम से सिप कर चुके हैं। वर्ततान विज्ञान ने उपरोक्त मतकी पुष्टि की है। अतः यह लक्षण जगत को कार्य सिद्ध करने में असमर्थ है । यदि कार्य का लक्षण, सावयवत्व करें तो भी ठीक नही क्यों कि उसमें भी अनेक दोष हैं। प्रथम तो यही प्रश्न है कि सावयत्र कहने का अभिप्राय क्या हैं । (२) क्या साचय्यका अर्थ अवयव प्रवृत्ति है ( अर्थात् अवयवों का अविष्कार ) ऐसा इसका अर्थ है। यदि यह अर्थ किया जाये तब तो यह लक्षण अवयवों में भी है। अतः लक्षण व्यभिचारी है । ( २ ) अवयवों से बना हुआ यह अर्थ करें, तो साध्य सम हेत्वाभास है । क्यों कि जगत का अभाव ही असिद्ध है। जैसा कि हम पहले लक्षण में लिख चुके हैं । ( ३ ) यदि इसका अर्थ अवयव ( बहुप्रदेशी ) बाला करें तो आकाशादि में अतिव्याप्ति हैं। क्यों कि वे भी बहुत अवयव वाले ( बहुप्रदेशी) हैं। ऐसी अवस्था में वे सब तथा स्वयं ईश्वर भी सकर्तृक सिद्ध होगा। क्यों कि वह भी सर्वव्यापक माना जाता है। पावोऽस्य विश्वाभूतानि” मन्त्र में ही उसके चार अवयव बताये गये हैं । अतः यह लक्षण भी अयुक्त हैं । | (४) शेष रहा 'विकारी' अर्थात् यदि सावयव का अर्थ विकारी अर्थात् परिणमन शील किया जाये तो प्रकृति परमाणु, आत्मा और ईश्वर भी सब कार्य हो जायेगे, पुनः उनका भी कर्त्ता मानना पड़ेगा। प्रकृति और परमाणु विकारी है यह हम पहले सिद्ध कर चुके Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७१ ) है आत्मा प्रत्यक्षमें हो विकारी है, विकारी होने के कारण ही यह मुक्ति की इच्छा करता है । शेष रहा आप का कल्पित ईश्वर उसको तो आपने ही जगतका कर्त्ता बना कर विकारी अना दिया। क्यों कि यह नियम है कि विकारी ही कर्म करने में प्रवृत्त होता है। अतः यह भी लक्षण ठीक नहीं है । सावयव के पूर्वोक्त चार ही अर्थ हो सकते हैं। उन चारों से आपके स्वार्थ सिद्धी नहीं हो सकती । अतः जगत कार्य नही है । जब आप इसको कार्य ही सिद्ध नहीं कर सकते तो इसके कर्ता का तो प्रश्न हो नहीं उत्पन्न होता । यदि "तुष्यन्तु दुर्जनाः " जय इस न्याय से जगत को आर्य स्टीकर की कर दिया तो भी इस कार्य सम्बन्ध का कर्ता ईश्वर सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि कारण और कार्य में अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध का पाया जाना आवश्यक है । अन्यत्र व्यतिरेक प्रो० हरिमोहन झा ( श्री० एन० कालेज पटना ) ने भारतीय दर्शन परिचय के वैशेषिक दर्शन में लिखा है कि- 'कारण कार्य अतिरेक सम्बन्ध रहता है। अर्थात् जहां कारण रहेगा वहां कार्य अवश्य होगा । जहां कारण न रहेगा वहां कार्य भी होगा 1 "कारणभावात् कार्य भावः " " कारणाभावात् कार्याभावः" वैशेषिक दर्शन पृ० १२८ अभिप्राय यह है कि कारण और कार्य का सम्बन्ध अन्य और व्यतिरेक से ही जाना जा सकता है। दूसरे शब्दों हम यह भी कह सकते हैं कि कारण और कार्य के सम्बन्ध की व्याप्ति के लिये सपक्ष और विपक्ष होना भी आवश्यक है । अतः हम संक्षेप Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) में पक्ष पक्ष विपक्ष का लक्षण करके इसको स्पष्ट कर देते हैं। ताकि पाठकों को समझने में सुगमता हो जाये । ( पक्ष ) " संदिग्ध साध्यवान पक्षः " अर्थात् जिसमें साध्य को सिद्ध करना है उसको पक्ष कहते हैं। जैसे पर्वत पर अग्नि है। यहां अग्नि जो साध्य है. उसको पर्वत पर सिद्ध करना है. अतः पर्वतं पक्ष हुआ । I ( सपक्ष ) निश्चित साध्यवान को सपक्ष कहते हैं "निश्चित साध्यवान् सपतः " अर्थात् - साध्य जिसमें निश्चित रूपसे हो वह सपक्ष है। जैसे रसोई घर में अग्नि निश्चित रूप से देखी गई है । अतः रसोई घर हुआ सपक्ष | ( विपक्ष ) " निश्चित साध्याभावान् विपक्षः ।" जहां निश्चित रूप से साध्य का अभाव है वह विपत है । जैसे तालाब में अग्नि नहीं है । अतः तालाब विपत है । अतः कारण कार्य सम्बन्ध सिद्ध करने के लिये इन तीनों की आवश्यकता होती है। जैसे यदि पर्वत पर अग्नि सिद्ध करने के लिये जहां पक्ष रूपी पर्वत की आवश्यकता है वहां उसके सपक्ष रसोई घर और विपक्ष तालाबकी भी आवश्यकता है । यह अन्य सपक्ष है और व्यतिरेकतालाब आदि हैं। यह अन्वयव्यतिरेक दो प्रकार के होते हैं । एक देश परक दूसरे काल परक । अब जो पदार्थ नित्य और सर्वव्यापक होता है। वह किसीका कारण कर्ता) नहीं हो सकता । क्यों कि नित्य और सर्व व्यापक में न तो अन्य सपक्ष बन सकता है और न व्यतिरेक ( विपक्ष ) ही बन सकता है। बिना अन्वय और व्यतिरेक के अविनाभाव सिद्ध नहीं हो सकता यही कारण है कि नैयायिकों ने नित्य विभु पदार्थ को कारण नहीं Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना । क्यों कि उन्हों ने कारणका लक्षण ही -"अनन्यथा सिद्ध नियत्त पूर्ववर्तित्व" किया है । अर्थात् जो अन्यथा-सिद्ध न हो और और नियत्त पूर्ववर्ति हो उसे कारण कहते हैं। नैयायिकों ने पांच अन्यथा सिद्ध माने हैं। उनमें विभु को तृतीय अन्यथा सिद्ध माना गया है अतः सिद्ध है कि ईश्वर जगम का कर्ता नहीं हो सकता जैन दर्शन ने भी कहा है। हेतुनान्वयरूपेण व्यतिरेकेण सिध्यति । नित्यस्याव्यतिरेकस्य कुतो हेतुत्व संभवः ॥ अभिप्राय यह है कि हेतु में दोनों बातें अन्वय और व्यतिरेक होनी चाहिये । जैसे जहां जहां ज्ञान है वहां वहां चेतनता है, जैसे भनुष्य पशु आदि यह तो हुअा अन्वय, इसका व्यतिरेक हुआ जहां जहां ज्ञान नहीं है वहां वहाँ चतन्य मी नहीं है जैसे दीवार मिट्टीके पात्रादि यह हुआ व्यतिरेक ! यह ही इस बातको सिद्ध करता है कि चैतन्यका और ज्ञानका साहचर्य है । परन्तु अआपके ईश्वरमें यह व्यतिरेक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि आप उसको सर्व व्यापक मानते है । अभिप्राय यह है कि अापके कथनानुसार जगतका कर्ता ईश्वर है. अब जहां जहां ईश्वर हैं यहां वहां जगत् है यह तो आप कह सकोगे परन्तु आप यह नहीं कह सकते कि अहार ईश्वर नहीं है वहां २ जगत् मी नहीं है। अतः इसका व्यतिरेक नहीं है। ऐसी अवस्थामें यह कार्यकी सिद्धि नहीं कर सकता। तथा च पक्षका. सपज्ञ व विपक्ष दोनों हों तभी पक्ष दक्ष कहला सकता है। यथा पर्वत पर अग्नि है. धूम होनेसे रसोई घरकी तरह। इसमें पर्वत पक्ष रसोई घर सपद तथा तालाब आदि विपक्ष है । इसी प्रकार आपका जगत है पक्ष, अब इसका न तो सपा है और न विपक्ष । अतः यह पक्ष भी नहीं बन सकता Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७४ ) तथा ईश्वरको सर्वदा और सर्वव्यापक माना जाता है। परंतु कभी २ प्रलय आदिमें कार्य नहीं भी है अतः अन्वय भी नहीं हो सकता । अतः ईश्वर जगत कर्ता नहीं है। कार्यत्व श्राप लिखते हैं कि-'विना अधिक परिश्रम किए या विना बाकी खाल निकाले भी यह तो शायद सभी मानते हैं कि जिन वस्तुणे या घटनालोको इम समय में देखते हैं ान सयका प्रारंभ होता है. अर्थात् यह अनित्य है। कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जिस पर कालका प्रभाव न हो। पुरानेसे पुराने वृक्षको लो। यह मानना पड़ेगा कि वह कभी उत्पन्न हुआ था। पुरानेसे पुराने पहाड़ को देखो। उसके आदिका भी पता लग जायगा । अाजकलके विज्ञान वेत्ता अपने परीक्षालयों में इसी बातका अन्वेषण करते रहते हैं कि अमुक पनार्थ कैसे बना ? ज्यों लो जी ( Geology ) अर्थात् भूगर्म विद्याने पता लगाया है कि अमुक पर्वत या अमुक चट्टानें किस प्रकार और कब बनी ? जिस हिमालय पर्वतको हम समस्त पृथ्वीस्थ पदार्थोंका पिता यह कह सकते हैं वह भी कभी तो उत्पन्न हुया ही होगा। भिन्न २ स्थानोंकी मिट्टो सृष्टि रचना की भिन्न २ अवस्थानोंका इतिहासमात्र है । एक वस्तु दूसरेकी अपेक्षा नहीं है क्योंकि उसके बननेका एक काल नियत है। वृक्षका फूल पत्त से नया है । पत्ता जड़से नया है । वृक्ष की जड़ उस मिट्टांसे नई है, जिसमें वह उत्पन्न हुआ। मिट्टी उस चट्टानकी अपेक्षा नई है जिस पर वह जमी हुई है, चट्टान पृथ्वीके तलको अपेक्षा नई है । पृथ्वी को भो कई अवस्थाएं बताई जाती हैं। कहते हैं कि पहले यह आग का गोला था जो ठंडा होते होते इम अवस्था में पहुंचा है। जिस प्रकार अंगार पर ठंडा होने के समय सिकुड़न Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७k ) पड़ जाती है उसी प्रकार पृथ्वीका गोला जब ठंडा होने लगा तो उसमें सिकुड़न पड़ गई ऊँचे स्थान पहाड़ बन गए और नीचे स्थान समुद्र बन गए। इस प्रकार (Physics) और रसायन शास्त्र ( Chemisty ) के पंडितोंने जल वायु आदिका भी विश्लेषण (Analysis ) किया और उनके उन तत्वों को अलग करके दिखा दिया जिनके संयोग से यह बने थे। यह दूसरी बात है कि इन पदार्थोंका आरम्भ काल हमारी आँखों के सामने नहीं है। परन्तु कुछ को तो हम अपनी आँखसे नित्य प्रति बनते देखते हैं और दूसरोंका विश्लेषण करके यह जान सकते हैं कि यह कभी बने थे । वस्तुतः किसीसे पूछा जाय कि बेचनी हुई चीज कौनसी है? तो वह न बता सकेगा। वह इन्द्रियां जिनसे हम ज्ञान प्राप्त करते हैं और वह पदार्थ जिनका ज्ञान प्राप्त किया जाता है यह दोनों ही बने हुए पदार्थ प्रतीत होते हैं। वैज्ञानिकोंका विशेष प्रयत्न ही इसी लिये होता है कि उन मूल तत्वोंका पता लगाया जाय जो स्वयं नहीं बने और जिनसे अन्य पदार्थ बने हैं। परन्तु दीर्घकाल के प्रयत्न से भी वह अपने इस काम में सफल नहीं हुए। जिनको पहले मौलिक तत्व समझा जाता था वह अव संयुक्त पदार्थ सिद्ध हो चुके हैं। और जिनको आज कल मूल तत्व समझा जाता है उनके लिये भी निश्चय करके यह कहना कठिन है कि उनके माता पिता कोई दूसरे तत्व तो नहीं है। फिर यदि निश्चित हो जाय कि अमुक पदार्थ मूल तत्व है तो भी जिस अवस्था में वह हमारे सम्मुख है। वह तो फिर भी बनी हुई ही है क्योंकि वह अपने ही परमाणुओं से बना है। उदाहरण के लिये माना कि सोना तत्व है । परन्तु सोनेकी डली तोड़ी जा सकती है. सोनेके जिन अणुओं से वह डेला बना है वह अवश्य किसी न किसी समय किसी न किसी साधन द्वारा संयुक्त हुए होगे Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७४६ ) जिस वस्तुको हम तोड़ सकते हैं उसके बना हुआ सिद्ध करनेमें क्या आपत्ति है ? और संसारमें ऐसी कौन सी वस्तु है जो तोड़ी नहीं जा सकती ? वस्तुतः संसारकी सभी वस्तुएं विश्लेषण ( analysis) और संश्लेषण ( synthesis ) नामक दो क्रियाओं हाया मागही है। मानो निहीं हो पानीको मिनर नई चीज चना देते हैं, जैसे फूलोंके गुलदस्ते या पहले कुछ चीजोंको तोड़ डालते हैं और उनके टुकड़ोंको जोड़ कर एक नई चीज अना देते हैं जैसे मकामका दरवाजा। ____यहां एक बात कही जा सकती है। साइन (science) वेत्ता यह कह सकते है कि संसारकी सभी वस्तुयें तत्वोंसे बनी हैं परंतु वह तत्व किसीसे नहीं बने । अर्थात् विश्लेषण करते करते हम परमाणुओंकी एक ऐसी अवस्था पर पहुंच सकते हैं कि जिसके आगे विश्लेषण हो ही नहीं सकता । इसलिए उन परमाणुओंका बनना सिल नहीं हो सकता यह तो हो सकता है कि उन परमाशुओंके मिलनेसे दूसरी चीज् बन गई. परन्तु यह कैसे माना जाय कि वह परमाणु भी किसी अन्य पदार्थसे बने हैं । यदि कभी यह सिद्ध भी हो गया कि जिनको हम परमाणु ( परम अणु) कहते हैं वह भी किन्हीं अन्य चीजोंके मिलनेसे बने है तो हम इन बनी हुई चीजोंको परमाणु न कह कर दूसरोंको परमाणु कहने लगेगे। इस प्रकार अंतको एक ऐसे स्थान पर अवश्य पहुंचना पड़ेगा जहांसे आगे नहीं चल सकते। इसी आक्षेप को महाशय J. S Mill ने अपनी Three essays in Rebgion नामक पुस्तकमें इस प्रकार वर्णन किया है: "सृधिमें एक स्थाई तत्य है, और एक अस्थायी । परिणाम सदा पहले परिणामों के कार्य रूप होते हैं। जहां तक हमको ज्ञात है स्थायी सत्तायें कार्य रूप है ही नहीं। यह सत्व है कि हम घट Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (us) नाओं तथा पदार्थों दोनों को ही कारणों से बना हुआ कहा करते हैं, जैसे पानी आक्सीजन और हाईड्रोजन से मिलकर बना है। परंतु ऐसा कहने से हमारा केवल इतना तात्पर्य होता है कि जब उनका अस्तित्व आरम्भ होता है तो यह आरम्भ किसी कारणका कार्य रूप होता है परन्तु उनके अस्तित्वका प्रारम्भ पदार्थ नहीं है किंतु घटना मात्र है। यदि कोई यह श्राक्षेप करे कि किसी वस्तु के अस्तित्व के आरम्भका कारण ही उस वस्तुका भी कारण है तो मैं शब्द प्रयोगके लिए इससे झगड़ा नहीं करता । परन्तु उस पदार्थ में वह भाग जिसके अस्तित्वका आरम्भ होता है सृष्टिके अस्थायी तत्व से सम्बन्ध रखता है। अर्थात् बाहिरी रूप यथा वह गुण जो rasih संयोग अथवा संश्लेषण से उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक पदार्थ में इससे भिन्न एक स्थायी तत्व भी है. अर्थात् एक या अनेक विशेष मौलिक सत्ताएं जिनसे वह पदार्थ बना है और उन इस ताके अपने धर्म । हम इनके अस्तित्व के आरम्भको नहीं मानते | जहां तक मनुष्य के ज्ञानको सीमा है वहां तक यही सिद्ध होता है कि उनका आदि नहीं और इसलिए उनका कारण भी नहीं। हाँ यह स्वयं प्रत्येक होने वाली घटना के कारण या सहायक कारण अवश्य हैं * 1 *There is in nature a permanent, element and also a changable the effects of previous change the permanent existances, so far as we know, are not effects at all. It is true we are accustomed to say not to only of events, but of objects, that they are produced by causes, as water by the union of hydrogen and oxygen. But by this we only mean that when they begin to exit there beginning is the Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) हमको मिल महोदयी यह बात माननेमें कुछ भी संकोच नहीं है । हमारा भी वस्तुनः यही मत है कि संसार स्थायी तथा अस्थायी इन दो वस्तुओंके मेल से बना है। अस्थायीको संस्कृतकी पुस्तकों में "नाम और रूप" से पुकारा है और स्थापीको मूल effect of a cause. But there beginning to exit is not an object, it is not an event. If it be objected that the causeof a thing's beginning to exit may he said with property to be the cause of the thing it self. I shall not quarrel with the expression, but that which in an object begins to exist is that in it which belongs to the chargeable elments in the pronature, the outward form and perties depending on mechanical or chemical combinations of its component parts. There is in every object another and a permanent element, Viz the specific elementry substance substances of which it consists and the inherent properties. These are not known to us as beginning to exist within the range of human knowledge they had no beginning, and consequently to cause. Though they themselves are cause or concauses of every thing that takes place. Experience therefore affords no evidence, not even analogies, to justify our extending to the apparently immutable, a generalsation grownded only on our observation of the changeable. or Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { जुजुह ) तत्व | परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि मूल तत्व और नाम रूपसे मिल कर ही जगत् बनता है । इस लिए जगत्का बनना अर्थात् कार्य सिद्ध होता है । • परमाणुओं के विषय में मौलिक विज्ञान वेत्ताओं में मतभेद है । साइंस सम्बन्धी अन्वेषण हो रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वस्तुतः परमाणु कोई चीज नहीं और वह मूल तत्व जिससे संसार बना है केवल शक्तिके केन्द्र हैं। परन्तु हमें इस मतके अनुसार भी यह मानना पड़ेगा कि कोई न कोई समय ऐसा अवश्य होगा जय शक्तिके यह केन्द्र अपनी मौलिक अवस्था से चल कर जगत् की वर्तमान अवस्था तक पहुंचे होंगे । अर्थात् यह सृष्टि रची गई होगी। यदि सृष्टि रची गई तो अवश्य इस को कार्य कहना पड़ेगा । 1 कुछ लोगों का यह भी कहना है कि सृष्टि के रचनेके लिये परमाधों में परस्पर मिलने की आवश्यकता नहीं है, सृष्टि में एक मूल सत्य है जिसको प्रकृति कहते हैं यही मूल तत्व परिणाम से सृष्टि के रूप में हो जाता है जिस प्रकार पानी बर्फ हो जाता है। हम इन भिन्न मतों की मीमांसा नहीं करते। इस स्थान पर हमारा यह प्रयोजन यह नहीं है कि हम मूल तत्वके विषय में कोई आलोचना करें | हम तो केवल एक बात को दर्शाना चाहते हैं वह यह है कि सृष्टिका आरम्भ है। कोई समय है जब यह सृष्टि बनती है। परिमावादियों के मत में भी परिणामका समय होता है। परिणाम भी एक प्रकारका कार्य ही है। माना कि वर्फका मूल तत्व वही है जो पानी का है परन्तु पानी और वर्फ एक ही वस्तु नहीं है, न कोई इन दोनों से एक ही आशय समझता है। पानी से बर्फ बनने में एक समय लगता है। बर्फ को हम कार्य और पानीको कारण कह सकते हैं। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हां दार्शनिकों का एक मत है जो सृष्टि के कार्यत्व पर किसी अंश में आक्षेप करा : यह है निवासी "अतात्विको अन्यथा भावः विवर्त इति उदीरितिः ॥" जो वस्तु न हो और मालूम पड़े जसका नाम वियत्त है जैसे सांप नहीं है, और मालूम पड़ता है। या जल नहीं है और प्रतीत होता है। कुछ दार्शनिकों का मत है कि संसार वस्तुतः एक भ्रमात्मक कल्पित वस्तु है, या यों कहना चाहिये कि कल्पना मात्र है। स्वप्न में मनुष्य को हाथी घोड़े वृक्ष आदि सभी दिखाई देते हैं । अांख खुलने पर कुछ नहीं रहता। इसी प्रकार इस संसार को भी स्वप्न के समान देख रहे है । जब हमारी ज्ञान की प्रांख खुलती है तो यह स्वप्न हमारी आंखसे लुप्त होजाता है। इस मतके अनुयायियों की दृष्टि में संसार कोई वस्तु नहीं फिर इस को कार्य कैसे माना जाय यहां स्थायी और अस्थायी का शश्न ही नहीं। इनका तो केवल यह कहना है कि जिसको हम व्यवहारिक बोल चाल में 'संसार" कहते हैं यह तात्विक दृष्टि से स्वप्न मात्र है। वस्तुतः संसार की यह भिन्न भिन्न वस्तुएं जिनकी भिन्नता ही एक विचित्रता उत्पन्न कर रही है, स्वप्न से अधिक और कुछ नहीं है, मूल तत्व एक है । जिसको ब्रह्म कहते हैं। हम यहां स्वमवाद" या "एक ब्रह्मवाद" पर कुछ नहीं कहना चाहते। यह ठीक हो या न हो। परन्तु जो लोग ससार को स्वप्न मात्र मानते हैं उनको यह तो अवश्य ही मानना पड़ेगा। निमित्त कारण श्रागे श्राप लिखते हैं कि ऊपर हम वैशेषिकों ने जो ईश्वरके पाठ गुण बताये हैं. उनका कथन कर आये हैं । नैयायिकों ने भी कहा है कि Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८१ ) इच्छापूर्वक कर्ता त्वम् प्रभुत्वमस्वरूपता । निमित्त कारणेष्वेव नोपादानेषु कहिं जित || अर्थात् इच्छ पूर्वक, क्रिया करनाप्रभु (स्वामी) होना तथा कार्य के समान स्वरूप वाला न होना यह निमित्त कारण में ही होता है, उपादान कारण में ये बातें नहीं होती। आदि. निमित्त कारण के लिये नैयायिकों का कथन है कि : जिसका अपना स्वरूप ही कार्याकार्य हो उसको उपादान" कारण कहते हैं। जैसे घटका उपादान कारण मिट्टी है. न्याय शास्त्र की परिभाषा में इसीको "समवायि" कारण कहते हैं. यह उपादान कारण दो प्रकार का है, एक आरम्भक उपादान. दूसरा परिणामि उपादान बहुत से पदार्थ मिले हुये अवयव से एक कार्य बन जाने का नाम "आरम्भक" और उस कारणरूप पदार्थ का परिणामस्वरूप बदल कर कार्य का हो जाना " परिणामी उपादान कहा है. जैसे दूध से दधि आदि, मायाबादी तीसरा विपत्तिसे उपादान भी मानते हैं । अन्य में अन्य की प्रतीति आदि, और यह अविद्या का परिणाम तथा चेतन का विवर्त्त है विषन्त' वास्तव में स्वस्वरूप न त्यागने को कहते हैं और निमित्ति कारण उसको कहते हैं जो कार्याकार न होकर और ज्ञान इच्छा, यत्न वाला होकर कार्यको बनाये, जैसे जीवात्मा अपने शरीर के बाहर भीतर के यथाशक्ति कार्यों का कर्त्ता है। और जो उपादान कारण में सम्बन्धी होकर कार्यका * जनक हो उसको असमवायि" कारण कहते हैं. जैसे तन्तुओं का संयोग पटका असमवायि कारण है और जो उक्त तीन प्रकार के कारगा से भिन्न हो वह साधारण' कारण कहलाता है. जैसे कि घटादिकों की उत्पत्ति देश काल आकाशादि साधारण कारण हैं । :: 4 Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (WER ) चास्तिकवाद और निमित्तकारण Dr. Ward gives us the very best and clearest example of cause that we can have "the influx of a man's mental volitions in to his bodily acts" (p. 35 ) “It not only follows ofter. It follows from. It is its result, its effects. The act of will is its cause" ( p 36) अर्थात् टर वार्ड ने कारण का सबसे अच्छा उदाहरण दिया है - मनुष्यको इच्छा शक्ति की उसके शारीरिक व्यापार में प्रविष्टि" ( ० ३५) " ( कार्य ) न केवल ( कारण से ) पीछे होता है किन्तु कारण के द्वारा होता है। यह उसका कार्य या परिणाम है । इच्छा शक्ति भी क्रियामें कारण हैं ।" ( ०३६ ) वार्ड से अच्छा लक्षण अन्नमभट्ट ने अपनी तर्क संग्रह का तर्क दीपिका में दिया है। उपादान गोचरा परोक्षज्ञान चिकीर्षाकृतिमत्वं कर्तृत्वं । अर्थात् कर्त्ता या निमित्त कारण वह है जिसमें नीचे लिखो तीन बातें हों । (१) उपादान गोचर अपरोक्ष ज्ञान अर्थात् उपादान कारणका अपरोक्ष या निकटतम ज्ञान जैसे कुम्हार को मिट्टी का । (२) चिकीषी ( काम करने की इच्छा ) Monday always comes before Tuesday, yet I never heard any one call Monday the cause of Tuesday, Darkness always comes before sunrise, yet darkness is not the cause of sunrise (p. 35 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) समीक्षा-उपरोक्त विवेचनसे यह सिद्ध है कि निमिति कारण के विषय में भी अनेक विवाद है । अतः जब तक यह सिद्ध नहो जाये कि निमित्त कारण किसे कहते हैं. उस समय तक ईश्वरको निमिति कारए बताना साध्यसम हेत्वाभास है । तथा च इन सब बातोंका उत्तर विस्तारपूर्वक दिया जाचुका है । तथा यहां भी संक्षेप में उत्तर लिख देते है कि ये सब प्रश्न उसी समय उपस्थित होसकते हैं जब कि यह सिद्ध हो जाये कि यह जगत अनादि नहीं है अपितु किसी समयविशेष में बना है। परन्तु यह सिद्ध कर चुके हैं कि यह जगत अनादि निधन है, न कभी बना और न कभी नष्ट ही होगा। यह न माना जाये तो भी ईश्वर का है यह कैसे सिद्ध हो गया ? क्यों कि ईश्वर सर्व व्यापक एवं निष्क्रिय माना जाता है श्रतः सर्थ व्यापक कर्ता नहीं हो सकता यह हम प्रबल प्रमाणों और अकाट्य युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं। रह गया अकस्मात बाद सो हम तो अकरमान् के सिद्धान्त को ही नहीं मानते. अतः हमारे लिये यह प्रश्न ही व्यर्थ है । यूनानी भाषा के या सेक्सपीयर के नाटक को तथा प्रपंच परिचय के श्लोक अक्षरों के संयोग से स्वयं नहीं बने और न बन सकते है यह तो ठीक है और ऐसा मानना कि ये सब स्त्रय बन गये अन्ध विश्वास है तो यह मानना कि सब निराकार ईश्वर ने बनाये हैं. यह महा अन्ध विश्वास है । हम पहले जिख चुके हैं कि मनुष्यकृत कार्यों को प्राकृत कार्यों के साथ नहीं मिलाया जा सकता। इसी प्रकार प्राकृतिक कार्यों को भी मनुष्य कृत नहीं कहा जा सकता। यदि यह ने माना जाय तो पशु पक्षी, कीट, पतंग, दीमक श्रादिक कार्यों को भी मनुष्य कृत कहाजा सकेगा क्यों कि कार्यत्व सब जगह समान हैं । अतः जो मखोल लड़ाई है वह उपहास, मुखों का मनोरंजन मात्र है । वृक्ष व फल, फूल आदि केवल जड़ . . . - ...- Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही नहीं है अपितु उनमें आत्मा भी है, तथा जिस प्रकार मनुष्यादि का शरीर आत्मा बीज द्वारा स्वयं निर्माण कर लेता है उसी प्रकार वृक्ष प्रादि की आत्माये भी उस उस शरीर का निर्माण यथा बीज कर लेती हैं। अथवा यूं कह सकते हैं, कि आत्माके योगसे पुगदल (कर्माण वर्गणा ) स्वय शरीर रचना करता है। इसका विशेष विवेचन कर्म फल प्रकरणमें मर चुके हैं । अागे आप लिखते हैं कि(३) कृति, अर्थात् क्रिया या प्रयत्न । ज्ञान चिकीर्षा तथा कृति में भी कारण कार्य का सम्बन्ध है। क्योंकि कोई क्रिया विना इच्छाके नहीं हो सकती और जब तक उस वस्तु का ज्ञान न हो जिस पर कर्मा की क्रिया पड़ती है उस समय तक उसमें इमचा भी नहीं हो सकती। एक प्रकारसे इच्छा शक्तिको भी कृर्तृत्वका विशेष लक्षण मान सकते हैं, क्योंकि जहां इच्छा है यहां शान पहले अवश्य रहा होगा और वहीं क्रिया के भी होने की सम्भावना है। इस प्रकार इच्छा शक्तिका कारणत्व' से विशेष सम्बन्ध है। जिस घटनामें इच्छा शक्ति विद्यमान नहीं होती उसको हम कारण नहीं कहते चाहे वह घटना दूसरी घटनासे पूर्व एक बार देखी गई हो अथवा कई बार । कल्पना कीजिये कि हम छतकी कड़ीसे लगातार सैकड़ी बार मिट्टी गिरते देखते हैं। परन्तु हमारा कभी यह विचार भी नहीं होता कि मिट्टी गिरानेका निमित्त कारण छतकी कड़ी है । परन्तु यदि एक बार भी हम किसी मनुष्यको छतसे मिट्टी गिराते देखते हैं तो झट कहने लगते हैं कि मिट्टी इस मनुष्य ने गिराई है । क्यों कि पहले उदाहरण में इच्छाशक्ति उपस्थित नहीं है और दूसरेमें उपस्थित है । प्रत्येक कार्य के लिये निमित्त कारण की आवश्यकता, और Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त कारण के लिये इच्छा-शक्ति की आवश्यकता, यह दोनों शातें मनुष्यके मस्तिष्क में प्रारम्भ से इस प्रकार जमी हुई हैं कि इनसे मुक्ति पाना दुस्तर ही नहीं किन्तु असम्भव है। आज कल जब दर्शन-शास्त्रका आधार मानवी ज्ञानके नियमों (Theory of Kowledge ) पर रखा जाना है और इस बात पर अधिक बल दिया जाता है कि तत्वज्ञानकी प्राप्ति के लिये ज्ञानतत्वकी प्राप्ति प्रायश्यक है, उस समय हम उन नियमों को सर्वथा उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकते जो मनुष्य के मस्तिष्क पर प्रत्येक युग और प्रत्येक देश में शासन करते रहे हैं । वस्तुतः प्रत्येक क्रिया के साथ किसी इच्छा शक्ति का संबंध जोड़ना मनुष्य के लिये इतना स्वाभाविक हैकि जहां उसकी इच्छा शक्तिका प्रकट रूप दिखाई नहीं देता वहां वह कोई न कोई कल्पित रूप मानने लगता है। जैसे जब वह किसी ग से मामाची देखता है और श्राग जलाने वाले को नहीं देखता तो कल्पना कर लेता है कि एक अदृष्ट देवी या देवता है जो इस अग्निको निकाल रही है।" आदि समीक्षा प्रयोजन-न्याय दर्शनकार लिखते हैं कि यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम् । अर्थात् जिस उद्देश्य को लेकर किसी कार्य में प्रवृत्ति होती हैं, उसे प्रयोजन कहते हैं । अथवा शरल शब्दों में यह कह सकते हैं किइच्छा पूर्वक क्रिया का जो कारण है उसे प्रयोजन कहते हैं। क्यों कि प्रयोजनमनुग्लिश्य मन्दोऽपिन प्रवर्तते" बिना प्रयोजन के मूर्ख भी किसी कार्यको नहीं करता यह अटल सिद्धान्त है ।सारांश यह है कि निमित्त कारणमें निम्न मुख्य बातें होनी ही चाहिये । . (१) निमित्त कारण के लिये सबसे मुख्य प्रयोजन है। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . .LI क्यों कि बिना प्रयोजन के म तो उस कार्य को करनेकी इच्छा ही होगी और न प्रवृत्ति । (२) इच्छा. (३) ज्ञान (४) प्रवृत्ति अर्थात् मानसिक व शारीरिक किया शारीरिक क्रियाको चेष्टा भी कह सकतेहै। जिसमें उपरोक्त बातें होंगी बही निमित्त कारण कहला सकेगा,इनमें यदि एकका भी अभाव होगा तो वह निमित्त कारण नहीं हो सकेगा। उपरोक्तसभी बातें मिल कर एक निमित्त कारण कहलाती है। पृथक पृथक नहीं इसके अलावा निमित्त कारण, कार्य में व्यापक नहीं होता। उपादान कारण ही व्यापक होता है । मकड़ी के जाले का दृष्टान्त और जीवात्मा का दृष्टान्त विषम है क्योंकि मकड़ी जालेमें व्यापक नहीं है अपितु उस जाल से हो । तथा जीव लोगो महाशयगण भी शरीर में व्यापक नहीं मानते अपितु उनके मतमें आत्मा अणु प्रमाण है। अतः यह भी दृष्टान्त उनके पक्ष का घातक है। इसका विचार फिर करेंगे 1 जैसे किसी मनुष्य को हजारों पदार्थों का ज्ञान है परन्तु वह ज्ञान मात्रसे ही निमित्त कारण नहीं बन सकता 1 यदि शामके साथ साथ उस कार्यको करनेकी इच्छाभो है फिर भा वह निमित्त कारण नहीं कहलाता। यदि इच्छा के साथ साथ मानसिक प्रवृत्ति न है (कार्यकरन के उपायोंका विचार) तो भी वह कर्ता नहीं हो सकता । अतः जब उससे शारीरिक क्रिया करके साधन आदि जुटाकर कार्य सिद्ध कर लिया उस समय वह कता या निमित्त कारण कहलाताहै। हमने ऊपर आस्तिकवादका प्रमाण दिया है उसमें भी उपाध्याय जो ने उपरोक्त कथन को ही पुष्टि की है । आप लिखते हैं कि--- "डाक्टर वार्डने कारण (निमित्त कारण) का सबसे अच्छा उदाहरण दिया है मनुष्यको इछा शक्तिकी नसके शारीरक व्यापारमें प्रवृत्ति' पृ०६५ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ७५७ ) अर्थात् निमित्त कार के लिए शरीरका होना भी आवश्यक है । इस बातको पं गंगाप्रसाद जो ने आस्तिकवाद में स्वीकार कर लिया है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो गया। इन सब प्रमाणों से कत्तोका लक्षण यह बना कि कारणमें व्यापक न होता हुआ प्रयोजन सहित ज्ञान पूर्वक इच्छा द्वारा शारिरिक क्रिया से कार्यको सिद्ध करने वाला कर्त्ता कहलाता है। यह लक्षण यदि ईश्वर में घट जाये तभी उसको कर्त्ता माना जा सकता है । परन्तु कर्त्तावादी न तो ईश्वरका कोई प्रयोजन ही सिद्ध कर सकते हैं, और न वह सर्व व्यापक होनेसे क्रिया ही कर सकता हैं । तथा न उसके शरीर ही माना जाता है । एवं न उसमें इच्छा ही का सद्भाव है। जब यह सब उसमें नहीं है तो वह कर्त्ता भी नहीं हो सकता क्योंकि कन चीजों होना है । यदि इनके बिना भी कर्त्ता हो सकता है तो उनको कर्त्ताका लक्षण ही अन्य करना पड़ेगा। परन्तु कर्त्ताका लक्षण जो हमने ऊपर दिया है उसके सिवा कुछ हो ही नहीं सकता । अतः कत्त वादियोंका कर्तव्य है कि या तो वे ईश्वर में भी शरीर आदि का अस्तित्व मानें अथवा कर्त्ताका लक्षण ऐसा करें जो इस कल्पित ईश्वर में चरितार्थ हो सके । अन्यथा ईश्वरको कर्त्ता माननेका नाम भी न लें। अब हम आस्तिकवादको युक्तियों पर विचार करते हैं | जो उन्होंने अपने पक्ष की सिद्धिमें दी है। आप लिखत है कि • " परन्तु याद रखना चाहिये कि जब संसारकी क्रियायोंके दो वर्ग हो गये एक 'प्राणिकृत' जो "सिद्धकोटि" में है। दूसरे अ सकृत' जो 'साध्यकोटि में है। तो हिटिक वस्तुएं तो दृष्टान्त का काम दे सकती हैं, परन्तु साध्य कोटिकी नहीं। किसी पक्षको यह अधिकार नहीं है कि साध्यकोटिकी किसी वस्तु को दृष्टान्तके रूपमें उपस्थित कर सके । " आदि Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (SEC) समीक्षा, यहां आपने प्रथम तो क्रियाको साध्य मान लिया है. परन्तु यहां तो साध्य ईश्वर है न कि क्रिया । क्रिया तो प्रत्यक्ष है वह साध्य किस प्रकार हो सकती है। आगे अपने वस्तुको साध्य मान लिया, इसलिए आपने लिखा है कि किसी पक्षको यह अधिकार नहीं है कि साध्यकोदि की किसी वस्तुको दान्तके रूप में उपस्थित कर सके ।" इसीसे कि पुस्तक लिखते समय आपने 'सिद्ध' और 'साध्य' का विशेषविचार पूर्वक अध्यन करने का कष्ट नहीं उठाया शेष रह गया क्रिया व कर्त्ताका प्रश्न सो तो आपने स्वयं ही दो प्रकारकी क्रियायें मानकर (एक प्रशिकृत दूसरी श्रप्राणिकृत अर्थात् जड़कृत) इसका निर्णय कर दिया । तथा आपके सो सिद्धान्धानुसार तो प्रत्येक किया जड़ कृत ही होती है। उसके मतानुसार पुरुष तो निष्क्रिय तथा अकर्त्ता है, वह तो साक्षी चेताफेचलो निर्गुणश्च ' है अर्थात पुरुष क्रिया शून्य हाता द्रष्टा व निगुण हैं । 1ww अतः जिसको आप प्राणिकृत कियायें बनाते हैं वे भी वास्तव में जड़ की क्रियायें हैं। जड़ के संयोग से प्राणि (जीव ) को भी क्रियाका कर्ता कहा जाता है। प्रशस्तपाद भाष्य में ही कर्म (क्रिया) के जहां लक्षण किये हैं वहां स्पष्ट कर दिया है कि क्रिया मूत्तं deaf ही होती है। वहां लिखा है कि-- पृथ्वी, जल, वायु. अग्नि और मन ही क्रिया के आधार हैं । आत्मा श्राकाश आदि में न किया है और न वह क्रिया देसकते हैं। क्योंकि जो स्वयं क्रिया रहित है वह दूसरों को किया नहीं देसकता जो स्वयं श्रज्ञ नीचे वह दूसरे कोज्ञ'न नहीं सकता । अतः यह सिद्ध है कि क्रिया जड़में ही होती है तथा जड़ ही देता है। चेतन तो निष्क्रय शान्त स्वभावी है। इस देह में रक्त संचालन, श्वासादि की जो क्रियायें होती हैं उनको भी वैशेषिक दर्शनकारने अदृष्टजन्य माना है। यह अभी जड़ है। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( wae ) इसी प्रकार सांख्यका सिद्धान्त है कि परिणाम प्रकृति का स्वाभाविक गुण हैं वह प्रतय अवस्था में भी प्रकृतिमें रहता है । सांख्य तत्व कौमुदी में लिखा है कि 'प्रशिक्षण परिणामी दिवाना ते चितिशक्त ेः। अर्थात् आत्मा को छोड़ कर शेष सब भाव प्रतिक्षण परिरामनशील हैं अर्थात् प्रलय अवस्था में भी प्रकृति में प्रतिक्षण परामन होता रहता है | तथा योग दर्शनके भाष्य में व्यासजी लिखते हैं कि 'प्रकृतिर्हि परिणमनशीला क्षणमपि अपरिणम्य नावतिष्ठते' अर्थात् --- परिणमन प्रकृतिका स्वभाव है, इस लिये वह बिना परिणमन के एक क्षण भी नहीं रहती । श्रतः स्पष्ट है कि क्रिया जड़ का स्वभाव है अतः जड़ में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती हैं। ( १ ) यही अवस्था अन्य वैदिक दर्शन की है. वे सब भी क्रिया को जड़ का स्वभाव मानते हैं । (२ तथा सम्पूर्ण वैदिक साहित्य आत्मा को निष्क्रिय मानता है। अतः क्रिया, ईश्वर की सिद्धि में साधक नहीं अपितु बाधक है । स्वयं सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि- "कहीं कहीं जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ जाता है। जैसे परमेश्वरके रचित बीज में गिरने और जल पाने से वृज्ञाकार हो जाते हैं। और यति आदि के संयोग से भी जाते हैं। यहां जड़ के संयोग से जड़का बनना और बिगड़ना तो सिद्ध है और बीज आदि ईश्वर रचित हैं यह साध्य है तथा यह भी मान लिया गया है कि जल प्रादि का संयोग भी जड़ कृत है। ईश्वर कृत नहीं हैं । अतः इन क्रियाओं को साध्य लिखना भूल है । Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J ( ७१० } (१) सांख्य मतानुसार प्रकृति का रजो गुण ही क्रिया कारक है । (२) जैन दर्शन द्रव्य मात्र को परिणमनशील मानता है । स्वामी दर्शनानन्द ने स्वभाववादियों के खण्डन में यह युक्ति दी है कि "यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव है तो वह कभी अलग न होंगे, सदा मिले रहेंगे, यदि उनमें अलग अलग रहने का स्वभाव है तो कभी मिलेंगे नहीं। इस प्रकार कोई वस्तु न बन सकेगी। यदि उनमें से कुछ का स्वभाव मिलने का है और कुछ का अलग रहनेका तो जिन परमाणुओं का आधिक्य होगा उन्हीं के अनुकूल कार्य होगा अर्थात् यदि मिलने के का प्राबल्य है तो वह सृष्टि को कभी बिगड़ने न देंगे। यदि अलग अलग रहने वाले परमाणुओं का प्राबल्य होगा तो यह सृष्टि को कभी बनने न देंगे। यदि दोनों बराबर होंगे तो भी सृष्टि न वन सकेगी क्योंकि दोनों ओरसे बराबर खींचातानी होगी और किसी पक्षको दूसरे पर विजय प्राप्त करनी कठिन होगी । वस्तुतः सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय तीनों अलग २ तथा सब मिलकर यही सिद्ध करती है कि इनका कारण एक चेतन शक्ति हैं। " समीक्षा - स्वा० दर्शनानन्दजी न तो ईश्वर में इच्छा मानते थे और न क्रिया । वास्तवमें वे ईश्वरको विज्ञान भिक्षु आदिकी तरह उदासीन कारण मानते थे। जैसे कि सृष्टि विज्ञान में मा० आत्मरामजी ने भी लिखा है कि "जिस प्रकार चुम्बकको सत्ता मात्र से लोहे में गति आ जाती है उसी प्रकार ईश्वरकी सत्ता मात्र से विश्व में गति फैल रही है।" इसी प्रकार दर्शनानन्दजी मानते थे, चुम्बक की तरह ईश्वर निष्क्रिय है परन्तु उसकी सत्ता मात्र से परमाणुओं में गति होती है। Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ? ) इसीका नाम उदासीन कारण है। हमारा भी सवासे यही मत था कि ईश्वर जगतका प्रेरक कारण नहीं है अपितु वह उदासीन कारण है। स्वादयान और हैं | पानीपत के लिखित शास्त्रार्थ में भी हमने उदासीन कारण की ही पुष्टि की थी। अब प्रश्न यह है कि परमाणुओं के स्वभाव से जगत नहीं बन सकेगा। इस प्रश्न में सब से बड़ी भूल यह हैं कि इस प्रश्नकर्ताकी बुद्धि में यह पहले से ही निश्चय है कि एक समय था जब यह संसार सर्वथा नहीं था । परन्तु उसको स्मरण रखना चाहिये कि ऐसा कोई समय नहीं था जब कि यह सम्पूर्ण लोक परमाणु रूप हो । अतः जब तक यह सिद्ध न हो जाये कि एक समय ऐसा था जब कि यह जगत परमाणुमय था उस समय तक इन प्रश्नोंका और इन युक्तियोंका कुछ भी मूल्य नहीं है । परन्तु यह प्रश्न sarai मानने से अवश्य उपस्थित होता है। प्रथम तो यही प्रश्न है कि ईश्वर सर्व व्यापक है अतः यह क्रिया नहीं कर सकता है । यस जो स्वयं निष्क्रिय है वह दूसरे को क्रिया दे भी नहीं सकता | चुम्बक पत्थर भी सक्रिय हैं यह बात वर्तमान युग के वैज्ञानिकोंने सिद्ध कर दी है। अतः यह सिद्ध है कि ईश्वर न क्रिया कर सकता है और न क्रिया दे ही सकता है। यदि यह मान भी लिया जाये कि ईश्वर गति करता है व गति देता है तो भी संसार नहीं बन सकेगा। क्योंकि ईश्वर सर्व व्यापक होने से क्रिया सब तरफ से होगी । ऐसी अवस्था में परमाणु गति हीन हो जायगा । जिस प्रकार लोहे के चारों तरफ चुम्बक रखने से लोहा क्रिया हीन हो जाता है। यदि कहो कि ईश्वर अन्तः क्रिया देता है क्योंकि यह परमाणु आदि में व्यापक है। तो भी ठीक नहीं क्योंकि ईश्वर परमाणु आदिके अन्दर व्यापक है प्रथम तो यही Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९२ ) गलत है क्योंकि उन अवस्थामें परमाणु की सत्ताका ही अभाव सिद्ध होगा। साइपके सुप्रसिद्ध विद्वान भूत पूर्व मिष्टर जे लार्क मेकसबेल एम एल एल, ड्रो एफ आर एल एम एल एण्ड ई० आनरेरी फेलो भाट्रिनिटी कालेज और प्रोफेसर श्राव एक्सपेरीमेण्टल फिजिक्स इन दो यूनिवर्सिटी प्राव कैम्ब्रिज अपनी मैंनुन्नल्स श्राव एलीमेण्टरी साइन्स सीरीज 'मैटर एण्ड मोशन' नामक पुर सकमें न्यूट्यकी थईला आरमोशन (क्रिया के तीसरे नियम ) की सिद्धि में पृष्ट ५८ में लिखते हैं कि “The fact that a magnet draws iron towards it was noticed by ancients, but no attention was paid to the force with which the iron attracts the magnet अर्थात यह विषय कि चुम्धक लोहे को अपनी ओर खींचता है पूर्व पुरुषोंसे जाना गया था परन्तु उस शक्ति पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था जिसके द्वारा लोहा चुम्बकको अपनी ओर खींचता है । अतः साइन्स द्वारा यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि चुम्बकमें भी परिस्पन्दात्मक क्रिया और अपरिस्पन्दास्मक परिणाम बराबर होता रहता है यह मानना कि "चुम्बक पत्थर स्वयं नहीं हिलता, परन्तु लोहे को हिला देता है ठीक नहीं है। श्रादि ..... __ अनेक सत्तायें आप फरमाते हैंकि-जैसे में एक सत्ता हूँ जो अपने शरीरको चलासा हूं । मेरा हाथ लिखता है। मेरा मुँह बोलता है, । मेरी अाँख देखती है । मैं बहुतसी वस्तुओंको तोड़ मरोड़ कर मन-मानी Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बना लेता हूं। इसी प्रकार मुझ जैसे करोड़ों मनुष्य हैं जो मुझसे कुछ कम या कुछ अधिक कार्य कर रहे हैं। फिर इनके अतिरिक्त अरबों पशु पक्षी तथा कीट पतंग है, जो मेरे बराबर काम नहीं करते परन्तु अपनी अपनी सत्तायें अलग अलग भली भांति दिखाते हैं । इस प्रकार असख्या छोटी छोटी सत्तायें हमको मिलती हैं। परन्तु इन ससाओं और उस सत्ता में भेद है जिसको हम समस्त सृष्टि में शासन करता हुआ पात हैं। यह छोटी छोटी सत्तायें विशेष नियमाके भीतर ही अपना प्रभाव जमा सकती हैं। वस्तुतः उन ससाओं को उन नियमों का पालन करना पड़ता है। वह नियमोंकी शासक नहीं किन्तु अनुचर हैं। जैसे यदि मनुष्यचाहे कि मैं घर बनाऊं तो उसे उन नियमों को जाननेकी श्रावश्यकता है, जो घर बनाने में साधक होंगे। यदि थोड़ी सी भी चूक हुई तो घर न बन सकेगा। इन छोटी सत्ताओं या चेतन वस्तुओं में केवल इतना भेद है कि जड़ वस्तुएं बिना ज्ञान के सृष्टि के नियमों का पालन करती हैं । वह सृष्टि के वर्तमान नियमों में से चुन नहीं सकती कि मैं इसका पालन करूं और इसका न करूं। परन्तु धेतन सत्ताएं कई नियमों में से अपने लिये कुछ नियम चुन लेती है। और उन्हीं के अनुसार काम करती है। जैसे मैं यह जानता हूँ कि खेती के नियम पालने में खेत में गेहूं पैदा कर सकूँगा इस लिये में इन दोनों में से अपने मन माने नियम चुन लेता हूं। चाहे खेती करू। चाहे पान बताऊं परन्तु लकड़ी अपने लिये नियमों का निर्वाचन नही कर सकती उसका चुनाव नियम स्वयं करते हैं।" आदि । समीक्षा:---आगे आपने स्वयं यह सिद्ध कर दिया कि इनका इनका कल्पित ईश्वर जड़ है। क्यों कि पाप के कथनानुसार चेतन, नियमोंको अपने लिये चुन लेता है। अब यदि यह माने Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६४ ) कि ईश्वर ने अपने लिये कुछ नियम चुन लिये हैं, तथा उनका पालन करने में भी वह स्वतन्त्र है. तो ऐसी स्वतन्त्रका प्रदर्शन यह क्यों नहीं करता ! यदि कहो कि यह उनकी इच्छा है तो इच्छा का कारण क्या है । अथवा कौनसी वह शक्ति है जो ईश्वर को नियत समय पर रचना के लिये चाप्ति करती है तथा प्रतिक्षण भी नियत समय पर उसको नियमानुसार कार्य कर ने के लिये विवश क्यों होना पड़ता है। यह विवशता ही आपके कथनानुसार उसे जड़ सिद्ध कर रही है। तथा श्रपने जब जड़को भी नियमों का पालन कर्ता मान कर यह सिद्ध कर दिया कि ईश्वर भी इसी प्रकार नियमों का पालन करता है। यदि आप कहें कि जड़ की तरह पालन नहीं करता है. तो कोई दृष्टान्त बतायें कि किस प्रकार पालन करता है। तथा क्यों पालन करता है ? आपके कथानुसार गेहूं से गेहूं और चसे से चणा उत्पन्न होता है यह सम्पूर्ण संसार में नियम है। जिस प्रकार चोरी की सजा कैद है. यहाँ पर प्रश्न है कि जिस प्रकार चोरी आदिकी सजा में परिवर्तन हो सकता है उसी प्रकार गेहूंसे गेहूँ बनने के नियम में भी परिवर्तन हो सकता है, या नहीं? यदि वह कर सकता है तो आज तक कहाँ कहाँ fear और आगे करेगा । इत्यादि बता देना चाहिये । यदि नहीं कर सकता तो परतन्त्र ठहरता है जो कि जड़ का लक्षण है । आगे आपने ऋत शब्द के अर्थ करने की कृपा की हैं। ग्रह ऋत एक है, इसके आधीन समस्त सृष्टि हैं। छोटे २ नियम एक एक शास्त्र या सायंस अलग अलग बनाते हैं उसी प्रकार बड़े बड़े शास्त्र भी उस "ऋत" के आधीन है। और यह ऋत अपार बुद्धि में निवास करती है जिसको आस्तिक लोग ईश्वर कहते हैं । समीक्षा:- हम अत्यन्त नम्रता पूर्वक यह प्रश्न करना Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहते हैं कि आपने यह जो ऋत का अर्थ किया है वह किस आधार से किया है । वास्तविक बात तो यह है कि इस प्रकार के अर्थ करके ये लोग वेदों का गौरव बढ़ाना चाहते हैं परन्तु परिएाम जलदा निकल रहा है। अस्तु प्रकरण यह है कि ग्रह ऋन उस अपार बुद्धि में निवास करती है, जिसको ईश्वर कहते हैं। पहली बात तो यह है कि ईश्वर किसे कहते हैं यहीं अभी साध्य है । फिर उसकी अपार बुद्धि है या नहीं यह भी साध्य और ऋत एस में रहता है यह सीना का भूत का है और इस का अस्तित्व है या नहीं यही अभी तक साध्य है। तथा राष्ट्र के जो नियम है उनको राष्ट्रने निर्माण किया है, इस का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि राष्ट्र जब चाहे उन नियमाम परिवर्तन कर सकता है यदि किन्हीं नियमों को ईश्वर ने बनाया है, तो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि ये नियम कब बनाये और क्यों बनाये, और इन नियमों में वह परिवर्तन क्यों नहीं करता। यदि कहो कि बनाये नहीं उसका स्वभाव है. तो आपके कथनानुसार ही वह जड़ सिद्ध होता है। अतः ये सब बातें ईश्वरको सिद्ध नहीं कर सकती । प्रागे मापने (ऋतं च सत्य च) यह मन्त्र दिया है आपने ऋतके अर्थ तो वह विशाल नियम जो समस्त विश्व पर शासन करता है। कर दिये । तथा सत्य के अर्थ श्रापने किये कि "सत्य वह शक्ति है जो उस निगमके आधीन रहने के लिये संसार की प्रत्येक वस्तु तथा वदना को बाधित करती है। जिस प्रकार सांसारिक दरवारा में पागधीश निश्चय करता है कि अमुक मनुष्य को यह दण्ड दिया जाये और पुलिस उसको दण्ड देती है, इसी प्रकार न को रखने वाली बुद्धि का नाम अभिद्ध" है और सत्य को रखने वाली शक्ति का नाम "तपस" है । यह बुद्धि तथा शक्ति सांसारिक न्यायाधीश तथा पुलिस के Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान अलास का नहीं है कि नासाले यो गुण है : लिया को हम ईश्वर कहते हैं। इस प्रकार ईश्वर एक ठहरता है अनेक नहीं। ___समीक्षा:--वैदिक शब्दोंका इस प्रकार अनर्थ करके भी बेचारे ईश्वर की सिद्धि न हो सकी यही दुःखका विषय है। यदि आपके ही इन अनर्थों को स्वीकार कर लिया जाये और प्रान एवं सत्यको ईश्वरकी दो क्रिया मान ली जायें तो भी आपने इसी पृष्ठमें मन्त्रका अर्थ करते हुए लिखा है कि "ऋत और सत्य अभिद्ध तथा 'तपस' से उत्पन्न हुए । '' आपने यहां ऋत' तथ। सत्य का उत्पन्न होना लिखा है । तथ यह सिद्ध हुआ कि ईश्वरमें ये शक्तियां सरद. “गसे नहीं है, अपितु उत्पन्न हुई है । कय उत्पन्न हुई है इस प्रश्नको अक्षर भयकता नहीं है। क्योंकि यहां सृष्टिका प्रकरण है अतः उसी समय ईश्वरी- ये शक्तियां पैदा होगई। _ प्रश्न यहाँ यह है कि ये शो ' क्तिया भावसे उत्पन्न हुई या अभाव से । यदि भावसे तो यह सिद्ध होगत. गा कि ये शक्तियां ईश्वरकी नहीं हैं अपितु अन्यद्रव्यकी हैं। और ईश्वरन पुनसे मांग कर या बल प्रयोगसे ले ली है। अथवा यह भी हो सकता है कि उन्हीं पदार्थीको (जिनके पास ये शक्तियां थीं) दया आ गई है और उन्होंने ईश्वरको बिना मांगे दे दी हो। यह भी संभव है कि ईजार और प्रकृति श्रादिके मेलसे ग्रह शक्ति ईश्वर में उत्पन्न हो गई हो । यदि ऐसा है तो वे शक्तियां विकृत कहलायेंगी और ईश्वर विकारी सिद्ध होगा । यदि अभावसे ही ये शक्तियां उत्पन्न होगई तो फिर ईश्वर की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर में ये शक्तियां अभावसे उत्पन्न हो गई उसी प्रकार अन्य पदार्थों में भी हो सकती है। क्योंकि अभावमें ईमें ही उत्पन्न करनेका कोई नियामक महीं है। अभिप्राय यह है कि ईश्वरकी सिद्धिके लिये जो जो युक्तियां दी जाती हैं ये सच ईश्वरके विरुद्ध सिद्ध Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) होसी है। क्योंकि ईश्वर जैसी असंभव वस्तु को सिद्ध करने के लिये जितनी भी कल्पना की जायेगी वे सब असंभव होंगी। उनको युक्तियोंसे सिद्ध करना नितान्त असम्भव है। __ क्या ईश्वर व्यापक है ? जो भाई ईश्वरको सर्च व्यापक मानने हैं वे ईश्वरको निमिस कारण नहीं कह सकते। क्योंकि यह नियम है कि निमित्त कारण हमेशा एक देशी ही होता है । और वह कार्य आदि में व्यापक नहीं होता । कार्यमें जो व्यापक रहता है, उसे 'समवायी' ( उपादान ) कारण कहते हैं। जैसा कि लिखा है-स्वसमवेत कार्योत्पादक समवाग्रि कारणम | " जिस कार्यमें कारणसमवेत रहता है उसे समवायी (उपादान) कारण कहते हैं । जैसे घटको मृत्तिकाके साथ समवाय सम्बन्ध है । घट मृति कासे कभी पृथक नहीं रह सकता । अतः मृत्तिका घटका समवायी (उपादान) कारण है। इसी प्रकार तन्तु पटका समवायी (उपादान) कारण है। आदि श्रादि । अभिप्राय यह है कि यह सातन्त्रिक सिद्धान्त है कि अपादान कारण वह है जो कार्य में व्यापक रहे और निमित्त कारण यह है जो कायमें व्यापक न रहे । अतः यह सिद्ध है कि निमित्त कारण वह है जो कायमै झ्यापक न रहे। अतः यह सिद्ध है कि निमित्त कारण सवथा अध्यापक व पक देशी ही होता है निमित्त कारण कार्य में व्यापक नहीं होता जे. एस, मिल, ने धर्म सम्बन्धी तीन “लेखों ( Three Essays on Religion ) में इस प्रश्नकी मीमांसा की है। प्रश्न वस्तुत: गूढ और विचारणीय है। घडीका बनाने वाला धड़ीमें व्यापक नहीं होता जिंस पुस्तक को मैं लिख रहा हूँ उसमें मैं Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vec) व्यापक नहीं हूँ। पुस्तक पाठकों के हाथमें होगी और मैं कई कोसों पर दूर बैठा हूंगा। इंजनका बनाने वाला इंजनमें कहां व्यापक होता है ? न कुम्हार ही घमें रहता है । परन्तु क्या घड़ा घड़ी. पुस्तक तथा इंजन अपना अपना काम नहीं करते ? यदि अल्पज्ञ कुम्हार का बनाया घड़ा उसको व्यापकता के बिना कई साल काम दे सकता है तो वह ईश्वर जिसकी शक्ति तथा ज्ञान अपार बताया जाता है सृष्टिके भीतर व्यापक रहनेके लिये अति किया जाय । बहुतसे वेदान्ती लोग इसीलिये ईश्वर को निमित्त कारण न मान कर उपादान कारण मानते हैं । इस लिये अनेक विद्वानों का मत है कि जिस प्रकार सूर्य एक विशेष स्थान पर है परन्तु उसका प्रकाश समस्त भूमण्डल पर जाता है, उसी भांति ईश्वर विशेष स्थान पर है, परन्तु उसका प्रकाश समस्त सृष्टि में उपस्थित है। इस प्रकार ईश्वर स्वतः तो व्यापक नहीं हैं किन्तु प्रकाश रूपसे व्यापक है । 1 1 इस पर आप लिखते हैं कि "सबसे पहले हम इस बात की मीमांसा करते हैं कि निमित्त कारण कार्य में व्यापक होता है. या नहीं। इतनी बात तो शायद सभी को माननीय है कि जहाँ कर्ता नहीं वहाँ वह कोई क्रिया भी नहीं कर सकता । मेरा उसी वस्तु पर श और अधिकार है जो मेरे हाथ में है । जहाँ मेरी पहुंच नहीं, वहाँ मेरे द्वारा कोई क्रिया भी नहीं हो सकती। कभी कभी ऐसा होता है कि एक क्रिया में कई छोटी बड़ी कियायें सम्मिलित होती हैं, उनमें से एक क्रिया एक पुरुष करता है । और शेष अन्य पुरुष । परन्तु कथन मात्र के लिये नाम एक का ही होता है । यह केवल कहने की शैली है। Taas F नही, जैसे कहते हैं कि ताजमहल का निर्माता शाहजहाँ था । ताजमहल का निर्माण एक क्रिया नहीं है किन्तु सहस्रों या लाखों Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पहल } छोटी छोटी क्रियाओं का एक समूह है। इच्छा शाहजहां ने की। रुपया देने के लिये आशा शाह से दी। नकराउ क विश्वकर्मा ने बनाया होगा। ईटें या पत्थर अन्य कर्ताओं ने उत्पादन किये होंगे। इस प्रकार यद्यपि शाहजहाँका नाम है तथापि लाखों मनुष्योंने क्रियायें कीं और तब ताजमल बना इन क्रियाओं में से जो क्रिया शाहजहां ने की उस किया के समय और देश में शाहजहाँ उपस्थित था । जो अन्यों ने की उसके साथ वे अन्य उपस्थित थे | यदि उनमें से एक की भी उपस्थिति न होती तो यह क्रिया न होती और ताजमहलके निर्माण में बाधा हो जाती ।" आदि समीक्षा -- यहां प्रश्न यह था कि निमित्त कारण कार्य में व्यापक होता है या नहीं ? इस प्रश्नको वा तक नहीं क्योंकि इस विषय में हमने जो युक्तियां दी थी वे इतनी प्रबलथी कि उनका समाधान असम्भव है । अत: आपने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि- जो क्रिया करते हैं उनमें वे अवश्य व्यापक होते हैं।" प्रतीत होता है कि थोड़ी देर के पश्चात् ही आपको इस कथन की निस्सारता का बोध हो गया. इसी लिये आपने आगे लिखा है कि "इस लिये यह सिद्ध हैं कि निमित्त कारण क्रिया के साथ रहता हैं । वस्तुतः क्रिया उसी समय तक होती है जब तक कि निमित्त कारण उपस्थित हैं । " ० १६२ उपरोक्त दोनों लेख परस्पर विरुद्ध हैं, क्योंकि साथ रहना और व्यापक होना एक नहीं है। आगे यह लिख कर कि किया उसी समय तक होती हैं, जब की निमित्त कारण उपस्थित होता है।" एक प्रकार की निराशा उत्पन्न की है, क्योंकि हम को आप से ऐसे तर्क हीन लेख की सम्भावना नहीं थी । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि कुम्हार की अनुपस्थिति में भी चाक में क्रिया होती है। जिस घड़ी का आपने दृष्टान्न दिया है उस में भी एक बार चावी देने पर Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (coo) चावी देने वालेकी उपस्थिति बिना भी उसमें क्रिया होती रहती है। सारांश यह है कि आपने इस लेख में शब्दाडंबर के सिवा एक भी युक्ति नहीं दी हैं । यदि निमित्त कारणको भी कार्य में व्यापक मान लिया जाय ( जो कि असंभव है ) तो निमिश्र कारण में और उपदान कारण में भेद ही क्या रहेगा । दार्शनिकों का यह निश्चित सिद्धान्त है कि- समवाय सम्बन्ध ( नित्य सम्बन्ध ) व्याप्य व्यापक सम्बन्ध समवायी कारण के साथ ही कार्य का होता है, जैसा कि हम प्रथम सिद्ध कर चुके हैं। तथा च ईश्वर को व्यापक मानने पर जीव और प्रकृति की सत्ता ही नहीं रह सकेगी। इस बातको आर्य समाज के अनुपम वैदिक विद्वान् पं० सातवलेकरजी ने ही 'ईश्वरका साक्षात् कार' पुस्तके प्रथम भाग में स्वीकार किया है। जिसको हमने इसी प्रन्धके पू० ३३६ पर उद्धृत किया है। पाठक वहीं देखनेका कष्ट करें। भय, शंका, लज्जा, दयालु आगे आपने ईश्वरको दयालु सिद्ध करने के लिये कुछ प्रश्न लिख कर उनके उत्तराभास देनेका प्रयत्न किया है । आप लिखते हैं कि "ईश्वर कल्याणकारी है । कल्याकारी का ही दूसरा नाम भला, सत् अथवा दयालु या न्यायकारी है । यह सब गुण भलाई से ही सम्बन्ध रखते हैं । वस्तुतः भाव एक ही है । अवस्थाओंके भेदसे शब्द भिन्न भिन्न हो गये हैं। इनकी व्याख्या आगे की जावेगी । सृष्टि के नियमों से भलाई का इतना प्रवल प्रमाण मिलता है कि बहुतसे विचारशील पुरुष इसीको ईश्वर के अस्तित्वका प्रमाण मानते हैं। ऋषि दयानन्दने सत्यार्थप्रकाशमें लिखा है: Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २००१ ) भय, शंका, लज्जा, " जब श्रात्मा मन इन्द्रियोंको किसी विषय में लगाना या चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करनेका जिस क्षण में आरम्भ करता है उस समय जीव की इच्छा ज्ञानादि उसी इति विषय पर झुक जाता है। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय शङ्का और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने मैं अभय, निःशङ्कता और आनन्दोत्सव उठना है वह जीवात्माकी ओरसे नहीं किन्तु परमात्मा की ओरसे है और जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्माका विचार करने में तत्पर रहता है उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं सत्यार्थप्रकाश. ( सप्तम समुल्लास ) 1 यहां ईश्वर सिद्धि का प्रकरण था अतः ज्ञात होता है कि स्वामी दयानन्द ईश्वर के अस्तित्वका एक प्रमाण यह भी समझते थे कि मनुष्य के अन्तःकरण में उचित और अनुचित में भेद करने की एक शक्ति है जो ईश्वर प्रदत्त है। अंगरेजीमें इसीको कांन्स (conscience) के नाम से पुकारते हैं। "कुल ग्रन्थकाराने सदाचार सम्बन्धी नियमको जो मनुष्य के अन्तःकरण (conscience ) द्वारा ज्ञात हो सकता है ईश्वर अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण माना है। उसकी दृष्टिमें अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता ही नहीं रहनी | जिस काएट ( Kant ) मे अपनी तर्क बुद्धिसे यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था कि जितना मनुष्य अपनी तर्क शक्ति का ईश्वर विषयमें प्रयोग करता जाय उतना ही वह भूल भुलइयों में फंसता जायगा. उसी कास्टको यह भी मानना पड़ा कि व्यवहारिक बुद्धि और अन्तःकरण द्वारा की ऐसी साक्षी मिलती है कि सन्देहवादके लिये कोई स्थान नहीं रहता । सर विलियम हैमिल्टन ने भी यही माना है कि ईश्वर Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८०२ ) अस्तित्व तथा जीवके अमर होनेका ग्रही उत्तम प्रमाण है कि मनुष्यमें आचार सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करनेकी योग्यता है। बाय जॉन न्यू मैन अन्तःकरण को धर्मका मूलाधार बताते हैं। उनका आग्रह है कि प्राकृतिक धर्मके सिद्धान्तों को इसी मुख्य नियम के आधार पर निश्चित करना चाहिय । जर्मनीके जीवित आस्तिकवादी डाक्टर शैकिलने अपने समस्त आस्तिकवादको आधार शिला' अन्त मरगा पर ही रमनी है। उनका श्रारम्भिक सिद्धान्त यह है कि अन्तःकरण यात्माकी धर्म सम्बन्धी इन्द्रिय है। और उनीसे हम ईश्वरका प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं" (फ्लिएटका आस्तिकवाद पू० २१०) समीक्षाः- यहां परस्पर विरुद्ध बातोंका इतना आधिक्य है कि कुछ कहा नहीं जाता। प्रथम तो सत्यार्थ प्रकाशके प्रमाणसे यह सिद्ध किया कि चोरी आदि पाप हैं और परोपकारादि पुण्य अथवा जिस कार्य में करने से ईश्वर की ओर से अन्तःकरण में भय. शंका. और लज्जा उत्पन्न हो वह पाप है। इसकी पुष्टि भी अनेक प्रमाणों से कर दी है। तन् पश्चात् आपको पाप और पुण्य के इस लक्षणमें अनेक त्रुदियां बीखने लगी । अतः श्रापने कहा कि स्वतः न तो कोई काम पाप ही है, और न पुण्य ही। आपने अपने इस सिद्धान्तको सिद्ध करनेके लिये भी एडीसे चोटी तकका पसीना बहा दिया। संभव है जब आप यह लिख रहे थे. उधर ईश्वरका ध्यान चला गया अतः उसने उसी समय आपके अन्तःकरणमें भय. शंका, लजा, आदि उत्पन्न कर दी हैं। अतः श्रापने पुण्यका लक्षण बनाया कि “लो अन्तिम उद्देश्य की पूर्ति करने वाला हो । तथा जो इसके विपरीत है वह पाप है। यहां यह प्रश्न शेष रह गया कि अन्तिम उद्देश्य क्या है यह Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३ । कैसे जाना जाये ? जब तक इस उद्देश्य का मान न हो उस समय तक पाप और पुण्य का ज्ञान नहीं हो सकता, इस अवस्थामें जीव जो भी काम करता है उस का उत्तरदायित्व जीव पर नहीं होना चाहिये, क्योंकि उसको आज तक पुण्य को न तो यह परिभाषा बताई गई और न अन्तिम उद्देश्य ही ।। आपने आगे लिखा है कि "ईश्वर ने संसार में पाप क्यों उत्पन्न किया ? इस प्रश्न का रूपान्तर यह होगा कि ईश्वर ने मनुषयों को अन्तिम उदश्य का और उसके साधन पाप करने या न करने को स्वतन्त्रता क्यों दी ?' इस रूपान्तर को बनाने के लिये इस पुस्तक के इतने पृष्ट काले किये । तथा अपनी सारी विद्वत्ता खर्च की है ? श्री मान जी इस प्रश्न का रूपान्तर यह है कि ईश्वर ने जोव मान को पाप और पुण्य का स्पष्ट शब्दों में ज्ञान क्यों न कराया ? तथा पुण्यात्मा बन ने के लिये प्राणियों को साधन सम्पन्न और स्वतन्त्र क्यों नहीं बनाया ? इस में तीन बाते हैं ( १) प्राणी मात्र को ज्ञान न देना। [२) साधन सम्पन्न न बनाना । ( ३) स्वतन्त्र न करना । पहली बात ज्ञान का न देना तो प्रत्यक्ष ही है यदि कहो कि वेदों का ज्ञान दिया है. तो एक भारी भूल है. क्यों कि वेद ईश्वर प्रदत्त नहीं है। इसका हमने वैदिक ऋषिवाद' नामक पुस्तक में सैकड़ों प्रमाणों और युक्तियों से भी सिद्ध किया है। यहां भी संक्षेप से आगे कहेंगे : यदि यह माना भी जाये कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है तो कुर.न आदि खुदा का इलहाम ठहरेंगे, अस्तु दूसरी बात है जीवों का साधन सम्पन्न न करना । यह भ, प्रत्यक्ष है। क्यों कि कोट. पतंग, पशु, पक्षी आदि अनन्तों जीवों के पास तो पाप और पुण्य को जानने के साधन बुद्धि प्रावि नहीं है यह तो निर्विवाद ही है। शेष प्रश्न रह गया मनुष्यों का । इन परषों मनुष्यों में करोड़ों हैं Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८०४ ) तो ऐसे देशों तथा कुलों में या जातियों में उत्पन्न कर दिये गये हैं. जो पशुओं जैसी ही है। उन्होंने भी धर्म और अधर्म को आज तक नहीं जाना है । यदि जाना है तो पाप को ही हुए जाना है । कुलों में ईश्वर का मनुष्यों को उत्पन्न करना यह सिद्ध करता है कि ईश्वर जीवों को कर पापी, अज्ञानी बनाना चाहता है। आप के अन्तिम को दो को ही ये नहीं सका है यदि समझते तो इस प्रकार की पुस्तक कभी न लिखते शेष रह गया स्वतन्त्रताका प्रश्न सो तो ऐसी ही स्वतन्त्रता है कि जैसे कि किमी के हाथ पैर बांध कर गेर दिया जाये और उस से कहा जाये कि I तू भाग ने में स्वतन्त्र है । अथवा सम्पूर्णानन्दजीके कथनानुसार हाथ पैर बांध कर समुद्र में डाल दिया जाये और फिर. उससे कहा जाये कि तू अपने वस्त्र भिगोने और न भिगोने में स्वतन्त्र है । इसी प्रकार आप भी मनुष्य को स्वतन्त्र बताते हैं "पनी जा" दार्शनिकका यन्त्र इसी के आधार पर हैं कि संभार स्वतन्त्रता नहीं है। उसका कथन है कि संसारमें कहीं भी स्वतन्त्रता नहीं है। सब कुछ अपने कारणों द्वारा नियन्त्रित या निर्धारित है जीवके व्यापार भी स्वतन्त्रता पूर्वक नहीं है । तथा आज हस्तरेखा विज्ञानने तथा शारीरिक विज्ञानने यह सिद्ध कर दिया है कि जो मनुष्य चोरी आदि करते हैं उनके शरीरकी रचना ही ऐसी होती है जिससे उनका स्वभाव ही वैसा हो जाता है । इसका विशेष वर्णन हम कर्मफल प्रकरण में कर चुके हैं। अतः यह सिद्ध है कि मनुष्य स्वतन्त्र नहीं हैं। जब न तो उसके पास साधन है और न यह स्वतन्त्र हो है फिर जो भी पाप अत्याचार आदि वह करता है उसका उत्तरदायित्व ईश्वर पर आता है। रह गई भय, शंका, और लज्जाकी बात । यदि वास्तवमें ऐसी बात है कि इनको ईश्वर उत्पन्न करता है, तब तो Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ì (उन यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर ही इन सब पापोंकी जड़ है । क्योंकि अनेक पापियोंके दिल में वह पापके लिये उत्साह और आनन्द उत्पन्न करता है. जैसे मुसलमानोंके दिल में कुरवानीके लिए तथा हिन्दुओं का कत्लेआम करनेके लिये तथा हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों को मारने के लिये । एवं जितने भी आदमी दंगों मारे गये हैं वे भी उत्साह और आनन्दसे मारे गये हैं। अनेक जंगली जातियां हैं, जिनमें व्यभिचार आदिको बुरा नहीं माना जाता अतः वे लोग उन पापको निशंक होकर करते हैं। चकरोते के पास ही पहाड़ी जातिमें बड़े भाईकी स्त्री ही अन्य सय भाइयों की स्त्री होती है। वे लोग न तो इसको पाप ही समझते हैं और न इस कार्य के लिये उनके हृदय में भय, शंका व खजादि ही उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार मांसाहारको धर्म मानने वालोंकी अवस्था है । अतः यह कहना कि पाप करने समय ईश्वर भय शंका व लब्जा आदि उत्पन्न कर देता है बिल्कुल निराधार है। उस जब पुण्य या पाप. और सदाचार की कोई व्याख्या ही आप नहीं कर सकते तो सदाचार ही सृष्टिका उद्देश्य किस आधार पर सिद्ध किया जा सकता है। यदि उपरोक्त प्रश्न न भी उठायें तो भी यह प्रश्न होता है कि जब सृष्टि रचनेका उद्देश्य सदाचार ही है. तो आज तक ईश्वरको इस उद्देश्य की पूर्ति में सफलता क्यों नहीं मिली। आदि अनेक शंकायें हैं जिनका समाधान करना असम्भव है । बा० सम्पूर्णानन्द जी शिक्षा मन्त्री यू० पीठ ने इन प्रश्नों पर प्रकाश डाला है, उसको इसने 'कर्मफल और ईश्वर' प्रकरण में लिखा है. पाठक यहां देख सकते हैं। दुःख ' इस बात कौन विरोध कर सकता है कि संसार दुःख Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fww ( ८०६ } और पीड़ाका स्थान है ? बड़े से बड़े आस्तिक तक यही कहते हैं कि संसार असार है, संसार दुःखमय है और ईश्वर का बनाया हुआ है, तो दुःख भी ईश्वरने ही बनाया होगा। फिर उसको कल्याणकारी कैसे कह सकते हैं ? संसारमें सुख है कहाँ ? कोई पुत्रके शोक में शेरहा है, कोई विधवा पतिके वियोग में चिल्ला रही है कोई पुत्र अनाथ होकर सिसकता फिरता है। यदि संसारके साक्षात नरक होने की साक्षी देखनी हो तो प्रातः काल ही अस्प तालोंकी सैर कर आया करो | कैसी कैसी भयानक बीमारियां मनुष्य के शरीर में उत्पन्न हो सकती और हुआ करती हैं। फिर कहीं रोग है, कहीं है. कहीं पर है. कहीं मित्र बियोग है इस पर भी आस्तिक कहते हैं कि ईश्वर कल्याणकारी हैं तो यह दुःख किसने उत्पन्न कर दिया था । दुःखकी उत्पत्ति किसी और ने की और सुखकी किसी और ने कथा सचमुच श्री सृष्टि श्रकल्याणकारी शैतान बनाता है और आधी कल्याणकारी ईश्वर ? क्या ईश्वर इतना निर्बल है कि शैतान ईश्वरकी इच्छा के बिना भी दुःख का प्रचार और प्रहार कर ही जाता है और ईश्वर की कुछ बनाये नहीं बनती। क्या जिस प्रकार दुर्बल राजा के राज्य में विद्रोही छापा मारे बिना नहीं रहते इसी प्रकार ईश्वर की प्रजा में शैतान की दाल गल ही जाया करती है । दूसरा प्रश्न यह है कि पाप इतना अधिक क्यों है ? क्या आस्तिक लोग स्वयं इस बातकी साक्षी नहीं देते कि संसार में Enter कम और अधर्मी अधिक है ? समचे कम और झूठे अधिक हैं । ईमानदार कम और बेईमान अधिक हैं ? आस्तिक लोग कहते हैं कि धर्म पर चलना और तलवार की धार पर चलना बराबर है. ऐसा क्यों है ? दयालु परमेश्वरने धर्म पथको फूलांका मार्ग क्यों नहीं बनाया कि सभी धर्मात्मा हो सकते ? क्या ईश्वर Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( cow) को मनुष्यों से ऐसा वैर था कि वह उनको धर्मात्मा होते देख नहीं सकता था ? क्या पौराणिक इन्द्रपुरी के इन्द्र के समान ईश्वरको उन लोगों से ईर्षा होती है जो धर्म पथ पर चलकर इन्द्रासन प्रण करना चाहते हैं " वस्तुतः स वाहिहि है ? क्या पाप भी दुःख के समान शैतान की कारीगरी है ! फिर ईश्वर उस शैतानको बनाया क्यों जिसने ईश्वर की समस्त कल्याण कारिता पर पानी फेर दिया ? या शैतान भी ईश्वर के समान शक्ति संपन्न है जिसके आगे ईश्वर महाशयको कुछ चलती चलाती नहीं ? दुःख ही प्राणियों की पूर्णता का साधन है। अर्थात् इसका परिणाम अच्छा होता है । इस परिणाम से ही इसकी उपयोगिता स्पष्ट होती है । यह उपयोगिता उस समय भी सिद्ध होती यदि पूर्णता का अन्त आनन्द न होता । मैं समझता हूं कि पूर्णता स्वयं उच्चकोटीका साध्य (प्रयोजन ) है । और जो दुःख इस प्रयोजन की सिद्धि करता है वह कभी बुरा नहीं हो सकता। इस आपके लिये चिन्ता करना व्यर्थ हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि प्राणिवर्ग के जीवन का आदर्श वह सुअर हो जिसको भली भांति खिलाया पिलाया जाता हो, जिसे कुछ काम न करना पड़ता हो, और वध करनेके लिये न बनाया गया हो । प्राणि वर्गकी शक्तियों के विकाश तथा उनकी प्रकृति की उन्नति के लिये जितने दुःख की आवश्यकता थी उतना ही दिया गया है, जब हम कहते हैं कि प्राणियों का मुख्य उद्देश्य सुख की प्राप्ति है तो हम ईश्वर की सृष्टि रचना प्रयोजनकी अवहेलना करते हैं। यदि दुःख केवल पूर्णता काही साधन होता और सुख का साधन न होता तो भी यह ईश्वर की परम दया सूचक होता परन्तु इससे तो और भी अधिक दयाका परिचय मिलता है कि दुःख न केवल पूर्णता का ही साधन है, किन्तु सुखका भी । जो दुःख प्रयत्न के लिये प्रेरणा करता है Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०८ ) और जो दुःख प्रयत्न करने में होता है यह दोनों ही अन्त में श्रानन्द को प्राप्त कराने वाले होते हैं । शायद सुख के अनुभव के लिय दुःस्व का अनुभव आवश्यक है। शायद प्राणियों के शरीर ही ऐसे बने हैं कि यदि वह दुःखका अनुभव न करले तो सुखका अनुवभ भी न कर सकते।" आदि, ___ समीक्षा योग दर्शन के प्राणता पतंजली मुनि कहते हैं कि सर्वमेव दुःखं विवेकिनः अर्थान विवेकी पुरुष के लिये सांसारिक सुख भी दुखरूप ही है । क्यों कि ये वास्तव में सुख नहीं हैं. अपितु सुखाभास है । इसी प्रकार संसार के सभी महा पुरुषों ने संसार को दुःख रूप बताया है। परन्तु श्राप कहते हैं कि संसार में दुःख आटे में नमकके बराबर है। इसके स्थान में यदि यह कहते तो ठीक था कि संसार में सुख आदे में नमक के बराबर भी नहीं है । यदि संसार में किंचित् भी सुख होता तो शास्त्रों में संसार त्याग का उपदेश और मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न ही व्यर्थ था | अब प्रश्न रह गयाकि दुख सुखका कारण है, तथा उन्नति विकास आदि का कारण है। यह तो तब ठीक समझा जाता जब उन्नति प्राप्त व्यक्तियों को दुःख न होता क्यों कि जिस कार्यके लिये दुःख दिया गया उस कार्य के होने पर दुःख की, समाप्ति होनी चाहिये । यदि कहा कि अभी तक विकास, और उन्नति पूरी नहीं हुई है, तो इसको काई सीमा है या नहीं है । तथा एक प्रश्न यह भी है कि उन्नति का लक्षण क्या है, और इसका उद्देश्य क्या है । तथा ईश्वर ने इनकी उन्नतिका भार अपने ऊपर क्यों लाद लिया है ? यदि उन्नति करने का भार लिया ही था तो अनादि कालसे आज तक वह जीवों की उन्नति क्यों नहीं कर सका। अब आगे वह इस कार्य को कर सकेगा इसमें क्या प्रमाण है। अतः ऐसे अयोग्य व्यक्ति का कर्तव्य . हैं कि इस उसरदायित्व से परांङमुख हो जाये यदि दुःख कर्मों का Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६) फल है तो ईश्वर इस फल देने में क्या करता है। यदि कहो फल देता है. तो प्रश्न यह है कि ईश्वर इस मामले में क्यों पड़ता है, उसका अपना कुछ स्वार्थ है या बिना ही प्रयोजन के कार्य करता रहता है । यदि कहो कि जीवों की भलाई के लिये ऐसा करता है तो वह भलाई श्राज तक क्यों न हो सकी ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं। आगे आपने विच्छूके डंक शेप का पंजा नामिछम आदि का प्रयोजन बताया है कि उससे शिकार को कष्ट कम होता है। इस प्रयोजन का ज्ञान उस समय होता जब ईश्वर को भी शिकार बना दिया जाता और शिकारी उसको मारता और जब यह शिकायत करता तो उससे कहा जाता कि घबराओ मत यह दुःख केरी उन्नति के लिये है। ___ इसीसे शुझे सुख प्रास होगा । तरे विकाश का मार्ग ही यह है और हम तेरे को दुःख भी अल्पमा ही देते हैं। अभिप्राय यह है कि संसार में भयानक पाप है और घार नारकीय दुःख है यह सिद्ध है। अब यदि ईश्वर को जगत कर्सा माना जाय तो वहीं इन पापों का और इन दुःखों का उत्तरदायी होता है। आगे श्राप लिखते हैं. कि- 'सम्राटका अपने नौकरों के मस्तिष्कों पर कुछ भी वश नहीं है। इसी प्रकार ईश्वरका भी उन सन्ताओं पर वश न होता और वह उसकी सृष्टिको इलट पुलट कर डालते जैसा बहुधा सम्राटके चाकर कर देते हैं। और जिसके लिये सन्नादको दण्ड देना पड़ता है । सम्राटके साम्राज्यमें सैकड़ों बातें ऐसी हो सकती हैं, जो सम्राटकी इच्छाके विरुद्ध होती है क्यों कि सम्राट प्रजाके घटके भीतर व्यापक नहीं होता। सृष्टिके अवलोकनसे इतनी बातों का पता चलता है(१) सृष्टि नियमानुकूल है।। (२) नियमोंसे अपार शुद्धिका परिचय होता है। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) (३) नियम अटल है । (४) ये नियम सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु पर भी शासन करते हैं और कोई वस्तु इनका उल्लंघन नहीं कर सकती । इस लिये सिद्ध है कि ईश्वर ! (१) नियन्ता है। (२) ज्ञानवान अर्थात् सर्वत्र है । (३) एक रस है । (४) सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थात् निराकार) और सर्वशक्तिमान है।" आदि · पहली तीन बातोंको तो सभी श्रास्तिक मानते हैं परन्तु चौथी बातमें बहुत मतभेद हैं। यह मतभेद दूसरे रूप में उपस्थित किया जाता है । यों तो कोई आस्तिक इस बात का निषेध नहीं करता कि ईश्वर सूक्ष्म और सर्व शक्तिमान है । परन्तु इसके साथ साथ ही बहुत से लोग मानते हैंकि ईश्वर साकार है या साकार होसकता हैं। निराकारवादियों और साकर वादियों का पुराना झगड़ा है और इस झगड़े के ऊपर ही अन्य बहुत से मतभेद की नीव रक्खी गई है। मैं समझता हूँ। कि यदि यह झगड़ा सुलझ जाय तो संसार के बहुत से नास्तिक आस्तिक परस्पर मिल जाये और बहुत से नास्तिक नास्तिकता छोड़कर आस्तिक बन जाये। परन्तु भिन्नर मस्तिष्क भिन्नर रीति से सोचते हैं । देखना चाहिये कि साकार का क्या अर्थ है ? आकार या आकृति का सम्बन्ध हमारी इन्द्रियोंसे हैं। साकार वस्तुको ख से देख सकते और हाथ से छू सकते हैं। जो ऐसी वस्तु नहीं है उसे निराकार कहते हैं । कि सृष्टि में दोनों प्रकार की वस्तुएं हैं। शतपथ ब्राह्मण १४|५|३ | १ में लिखा है । द्वेवाच ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामृतं । Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८११ ) अर्थात--सृष्टि के दो रूप है । एक साकार और एक निराकार पानी जब भाप बन कर उड़ जाता है। तो निराकार हो जाता है क्योंकि इष्टिमें नहीं आता। परन्तु जव भाप जम कर बादल बन जाती है तो साकार हो जाती है। वायु निराकार है । क्योंकि उसे देख नहीं सकने । आकाश निराकार है । अब प्रश्न यह होता है ईश्वर निराकार है या साकार । साकार बस्तु श्रत्रश्य स्थूल होगी। सृष्टिमें जितनी स्थूल वस्तुयें, सूक्ष्म वस्तुओं में व्यापक नहीं हैं। इसलिये या तो ईश्वर को सर्व व्यापक नमाना जाय या उसे साकार न माना जाय । साकार और सर्वव्यापक दोनों होना असम्भव है। यदि सर्व व्यापक नहीं मानते तो कत्ती भी नहीं भान सकते। यदि कसा नहीं मामले को ईश्वर ईश्वर ही नहीं रहता और आस्तिकताकी भित्ति धम्मसे गिरकर चकनाचूर हो जाती है । इस लिये आस्तिकों का ईश्वर को साकार मानना स्वयं अपने मत का खण्डन करना और नास्तिकों के सामने अपनी हंसी कराना है। ___ समीक्षा:-यहां आपने सम्राट और ईश्वरका दृष्टान्त देकर लिखा है कि- राजा क्योंकि प्रजादिके हृदय में व्यापक नहीं है इसलिये लोग उसकी इच्छाके विरुद्ध भी कार्य कर बैठते हैं. परन्तु ईश्वर सबके हृदयमें व्यापक है अतः जीव उसकी इच्छाके विरुद्ध कार्य नहीं कर सकते। यही कारण है अनेक विद्वानोंका यह कहना है कि यह जगत किसी पतित प्रात्माका कार्य है। क्यों कि वही सबसे पपादि कराता है। तथा पाप स्वयं कराता है और . फल इन निर्दोष वेचारे, जीवोंको दे देना है। जिस बातको आपने अनि संक्षेपमें कहा है पुराणकारोंने इसीको स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कास्यस्पेष एवैतान् जन्तून नाना शरीरगान् । भृत्यानिष्टानिव सदा कर्माणी साध्व साधुनी। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ (२) मानवं नरकं नेतुं समीच्छति महेश्वरः । एतान कारयति स्वामी पाप कर्मैव केवलम् | आत्मपुराण श्र० ४ - २३३-३४-३५ अर्थात् जिस प्रकार स्वामी अपने नौकरोंसे कार्य कराता है, उसी प्रकार महेश्वर जीवोंसे काम कराता है। जिनकी नरक भेजना चाहता है उनसे पाप कराता है, तथा जिनको स्वर्ग भेजना चाहता है उनसे पुण्य कराता है 1 आगे अपने सृष्टिमें जिन बातों को बताया है, ये सब बातें ईश्वर में भी सिद्ध यथा — (१) ईश्वर नियमानुकूल हैं । (२) नियम अटल है । (३) ये नियम ईश्वर पर शासन करते हैं अर्थात् इनके अनुफूल ईश्वरको कार्य करना पड़ता है। इसलिये सिद्ध है कि ईश्वरका कोई नियन्ता है। यदि कहो कि ईश्वर में नियम स्वाभाविक है उसका कोई नियामक नहीं है तो यही मानने में क्या आपत्ति है कि ये नियम जगतमें भी स्वाभाविक है उसका भी कोई नियामक नहीं है। यदि कहो कि नियम चेतन कृत होते हैं तो भी ठीक नहीं क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखने कि जलका नियम हैं नीचेको जाना तथा अमिका नियम है ऊपरको जाना | इत्यादि प्रत्येक जड़ पदार्थ नियम है। आगे आपने साकार और निराकारका प्रकरण प्रारम्भ किया है। यहां आपने जो वस्तु चक्षु इन्द्रियसे देखी जा सके उसे ही साकार माना है जो कि निराधार हैं। आगे आपने एक श्रुति दी है जिसमें 'ब्रह्म' आत्मा के दो रूपों का कथन है वहां आपने 'ना' के अर्थ सृष्टि कर लिये हैं जो कि Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१३ ) यह बिल्कुल गलत है। वास्तव में निराकार कोई द्रव्य नहीं होता है, एक मिथ्या कल्पना है । प्रथम तो आपने आकारका सम्बन्ध इन्द्रियोंसे बताकर लिखा कि साकार वस्तुको अांखसे देख सक्से और हाथसे लू सकते हैं। " फिर आपने वायु और बिजली श्रादिको जो प्रत्यक्ष ही इन्द्रियोंका विषय है उनको भी निराकार कह दिया। ये परस्पर विरोध है। अतः स्पष्ट है कि आपका यह साकार और निराकार का वर्णन भी भ्रम मात्र है। रह गया ईश्वरके साकार और निरा कारका प्रश्न सो प्रथम तो ईश्वरका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है तो साकार और निराकारका प्रश्न ही उपस्थित नहीं होना । प्रलय जगत की उत्पत्ति से प्रथम प्रलय का सिद्ध होना श्रावश्यक है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि वैदिक साहित्य में जहाँ सृष्टि उत्पति का विरोध किया है, वहां इस वर्तमान विश्व की प्रलय हो जायगी इसका भी विधान नहीं है। वास्तवमें प्रलयका अर्थ है किसी प्रान्त विशेष की भूमिका कुछ दिन के लिये वसने योग्य न रहना अथवा जैसा हम हिमालय की कथा में लिखचुके हैं. किसी समुद्र के स्थान पर पर्वत का हो जाना अथवा पृथिवी को जगह पर समुद्र का हो जाना। बस इसी खण्ड प्रलय का नाम शास्त्रों में प्रलय हैं। ऐसी प्रलयको जैन शास्त्र भी मानते हैं। ऐसी प्रलय का का इतिहास भी मिलता है। यह जलप्रलय " की किस्तीके नाम प्रसिद्ध है। वैदिक साहित्य में यह कथा "मनु" के नाम से प्रसिद्ध है । Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१४ ) जैन शास्त्र और प्रलय एवं गच्छति कालेऽस्मिन्नेतस्य परमावध, निःशेषं शेषामेतेषां शरीरमिव संक्षयम् ॥४४६ ॥ श्रति रुक्षा घरा तत्र भाविनी स्फुटिलस्फुटम् प्रलयः प्राणिनामेवं प्रायेणापि जनिष्यते ||४५२|| तेभ्यः शेषजनाः नश्यन्ति विषाग्नि वर्ष दग्धमही, एक योजन मात्रमधः चूर्णी क्रियते हि कालवशात्८६ त्रिलोक सार अर्थात् - छठे काल के अन्त में अभि विषादि की वर्षा से तथा अत्यन्त रुक्ष हवा के चलने से इस भारत वर्ष में प्रलय होगी। उस में प्रायः सभी जीव नष्ट हो जायेंगे। कुछ मनुष्यादि के जोड़े पर्वतों में शेष रह जायेंगे। उनसे पुनः सृष्टि उत्पन्न होगी। इस में यह पृथिवी भी एक योजन गहराई तक नष्ट हो जायगी आदि । श्रव मनुकी नौका वाली प्रलय का कथन करते हैं । मनु और प्रलय प्रलय I अथर्ववेद, कां.१६ सूक्त ३० मन्त्र - यत्र नाव प्रभ्रंशनं यत्र हिमवतः शिरः । तत्रामृतस्य चक्षणः ततः कुष्टो अजायत || इसका यह है कि जहाँ मनुकी नौका ठहराई गईथी वह हिमालय वहाँ पर कुछ औषधि उत्पन्न होती है। कई विद्वान उसको नहीं मानते वे कहते हैं कि यहाँ यह पाठ इस प्रकार का है. (न अव प्रभ्रंशन ) जिसका अर्थ जहां स्वतन नहीं होता ऐसा है । " Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१५ ) 1 अर्थात जहां से गिरना नहीं होता ऐसा मुक्ति स्थान है। परन्तु सम्पूर्ण सूक्त को देखने से ज्ञात होता है कि यह बात ठीक नहीं क्योंकि यहां औषधि का वर्णन है कि यह मुक्ति का। यह औषधि हिमालय पर उत्पन्न होती है तथा मनुकी नौका भी हिमाहाय में लेजाकर बांध बाई को यह कथा शतपथ ब्राह्मण का १८ । १ । १ में इस प्रकार आगई है कि मनु महाराज एक समय नंदी किनारे तर्पण कर रहे थे. उनके हाथ में एक मछली आगई मछली ने कहा कि आप मेरा पालन करे मैं आपको पार उतारूंगी मनु ने कहा तू कैसे पार उतारेंगी तो उसने कहा अभी प्रलय होने वाली है उस समय मैं तेरी प्रजा की रक्षा करूंगी. इस पर मनु ने एक बहुत बड़ा जहाज बना लिया तथा जब प्रलय हुई तो उस नाव को मछली के सींग के साथ बांध दिया, वह मछली उसको are feit चल गई। मत्स्य पुराण में इसी कथा को विस्तार पूर्वक लिखा है तथा उस मछली को वासुदेव का अवतार बना दिया है। मत्स्य पुराण की जो प्रलय है अर्थात् उस समय की प्रलय का जहां जैसा वर्णन है वैसा ही जैन पुराणकारों ने माना हैं। इसी मनु की कथा का ऐसा ही उद्धरेव कुरान बाईबिल च्यादि मन्थों में है। वहो "नह" का किश्तो प्रसिद्ध है। बाईबिल में लिखा है ईश्वर देखा कि पृथ्वीपर पाप बढ़ गया है तो वह पछताया और उसने सब प्राणियों के नाश की ठान ली । परन्तु उसकी कृपा दृष्टि नह पर भी अतः उसने नूह से कहा कि तू एक नौका " • बना हम प्रलय करेंगे । श्रतः तीसहाथ लम्बी तथा ५० हाथ चौड़ी और ३० हाथ ऊंची नौका बनाई गई। प्रलय हुई और नौका में एकर जोड़ा सब जीवों की बैठाया प्रलय हुई। सब प्राणी मर गये केवल उस नौका के प्रणी जीते रहे। मनुष्यों में केवल नूह और उसकी स्त्री जाति जीती रहीं जिससे पुनः सन्नति चली। मुसल Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) मानों के यहां भी ऐसी ही कथा है। वर्णनशैली का भेद है नह और उसका सारा कुटुम्ब बच गया तथा नौका जूदी पहाड़ की चोटी पर जाकर ठहरी। इसी प्रकार संसार के सभी धर्मों में तथा जातियों में इस प्रलय का वर्णन है । (१) चीन पाते इसको फोई की प्रलय कहते हैं । (२) यूनान वालों के यहां हुकेशियान । (३) असीरिया विसु के नामसे कहते हैं। इसी प्रकार अन्य लोगों के यहां भी इस प्रसिद्ध है । असीरिया की पुरानी खुदाई में इसका प्रमाण प्राप्त हुआ । अतः ऐतिहासिक विद्वान इसको १०००० हजार वर्ष से पूर्व की घटना बतलाते हैं, जो कुछ भी हो यह घटना सत्य है इस में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। यह प्रलय जैन मान्यताके अनुकूल है। सुना जाता है इस सूहकी का अयोध्या में है । मस्त्य पुराणके अनुसार यह वैवस्वत मनु है परन्तु वहां लिखा है कि जब प्रलय समाप्त होगई तो स्वयं मनु उस्पन्न हुए और उन्हींसे पुनः वंश चला वैवश्वत मनु सातवां मनु माना जाता है तथा स्वयंभू मनु पहला मनु माना जाता है तो फिर यह स्वयंभू मनु कांसे आ गये ? वास्तव में तो इस मस्त्य पुराणने मन्वन्तरोंकी कल्पनाको ही नष्ट कर दिया । अस्तु, हमने इतने मनुष्योंके प्रमाण उपस्थित किए हैं। (१) वैवस्वत (२) सावर्णि (३) स्वयंभू (४). स्त्रीमनु इन सबके विषय में ही ऐसी कहावत है कि इनके नामसे वंश चले तथा इनके नामसे भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ । सब १४ मनु हैं. उनमें ७ सावण हैं। यदि ऋग्वेद में हम उनका वर्णन मानें तो सात शेष रह जाते हैं । उनमें सबसे पहला स्वयंभू और सातवां वैवस्वत अतः शेष ५ की भी ऐसा ही समझा जा सकता है । श्रतः १४ मनु और एक काश्यपकी स्त्री मनु इन १५ व्यक्तियोंका एक समान वर्णन मिलता है। अतः यह प्रश्न स्वभावतः उठता है कि इनमें से | Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसको मानव. मानुष, मनुष्य, आदि जातिका कारण माना जाये। क्या ये सच कल्पना मात्र हैं। अथवा कुछ अन्य रहस्य है इत्यादि अनेक तर्क वितर्क पैदा हो सकते हैं। इन सब पर गवेषणात्मक दृष्टिसे विचार करना चाहिये । यदि ऐतिहासिक विद्वान इस पर विचार करेंगे तो हमारा अनुभव है कि वे भारतीय प्राचीन इतिहासकी अनेक उल्झने सुलझा सकेंगे। इसके अलावा जो प्रलय कही जाती है. उसका खण्डन तो मीमांसाचार्य कुमारिलभट्टने अपने श्लोक वार्तिक ग्रन्थमें ही विस्तार पूर्वक दिया है । यथाः जिस प्रकार विज्ञानने यह सिद्ध कर दिया कि यह सम्पूर्ण जगत न कभी उत्पन्न हुआ और न इसका कभी नाश होगा। क्योंकि न तो सत्का कभी नाश होता है और न अभावसे कोई वस्तु ही बनती है। अतः इस संस्थप जगतका भी कभी नाश न होगा । तथा न कभी ऐसा समय था जब यह जगत सर्वथा अभाव रूप हो । इस विषयमें वैदिक प्रमाण हम पूर्व लिख चुके हैं। तथा उनको पुनः यहाँ लिखते हैं ताकि विषय क्रमशः आगे चल सके। अमैथुनी सृष्टि अनेक युक्ति और प्रमाणों से हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि यह जगत नित्य है । जब यह सिद्ध हो चुका तो अब अमैथुनी सृष्टि का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । परन्तु फिर भी हम अमैथुनी इष्टि के विषय में जो युक्ति दी जाती है उनको लिख कर उन पर विचार करते हैं। इस विषय पर सबसे नवीनतर विचार आर्य समाज के प्रसिद्ध सन्यासी नारायण स्वामी ने अपनी पुस्तक वेद रहस्य में प्रकट किये हैं अतः हम उन्हीं को लिखते हैं । यथा. ''मनुष्यका स्वाभाविक छान पशुओंसे कम है। गाय बैल आदि Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशुओं के बच्चे स्वभावतः तैरना जानते हैं परन्तु मनुष्य सीखे बिना नहीं तैर सकता । कनुष्यों को पशुओं से जो विशेषता प्राप्त है. उसका कारण यह है कि वह नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करने और प्राप्त करके उसकी वृद्धि करने की योग्यता रखता है। यही नैमि तिक ज्ञान, मनुध्यत्वकी भिती ऊंची किया करता है। इसी योग्यता काभग पशुको ना हों से रोक दिया करता होस्वामी भाविक माने जन्म सिद्ध होता है। परन्तु नाममित्तिक ज्ञान अभ्यों से प्राप्त किया जाता है। इस समय वह माता, पिताऔर अध्यापक वर्गसे प्राप्त किया जाता है। परन्तु जगतके प्रारम्भमें जिसे दुनिया की पहली नस्ल कहा जाता है. अमथुनी सृष्टि होने के कारण इसे कोई शिक्षा देकर नैमित्तिक ज्ञान प्राप्त करने वाला नहीं होता था। इस सम्बन्ध में श्रमधुनी सृष्टि का समझ लेना कदाचित उपयोगी होगा । अमैथुनी सृष्टि महा प्रलय में जगत का अत्यन्ताभाव हो जाता है। कार्य रूप में परिणत प्रकृति का चिन्ह बाकी नहीं रहता, न कोई लोंक बाकी रहता है। सूर्य चन्द्र आदि सभी लोकलोकान्तर कारण रूपी प्रकृति की गोद में शयन करने लगते हैं। ऋग्वेद में इसी सत् रज और तमंकी साम्यावस्था अथवा जगत के कारण रूप प्रकृति में लीन हो जाने के लिथे "तमासीत्तमसागूढमने" ( ऋग्वेद १० । १२६ । ३) कहा गया है। प्रचलित विज्ञानने भी इस महाप्रलयबादका समर्थन किया है । क्लाशियस ( The fcunder of the mechantcal theory of heat )ने तापको दो भागों में विभक्त किंधा है (५) ब्रह्मोगल में स्थित साप स्थिरताके साथ काम आता रहता है। (6) दूसरो काममें न आने वाला ताप अधिक से अधिक होजानेकी और प्रवृत्त रहेता है। इसकी प्रवृति भीतर की ओर Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनेकी होती है। यह दूसरी शक्ति तापरूप में होकर शीतलता प्राप्त वस्तुओमें बँटकर आगे ताप रूपमें काममें आनेके अयोग्य हो जाती है। पहले प्रकारका ताप काम में आने के अयोग्य हो जाती है । पहले प्रकारका ताप काम में श्रा-आकर कम होता रहता है और दूसरा काममें न आने वाला ताप, पहले तापके व्ययसे, बढ़ता रहता है। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की कर्तृत्व शक्ति दूसरे प्रकारके ताप रूप में परिवर्तित होती रहती है और काममें नहीं आया करती। यह काम होते होते जगत से शीतोष्ण के अन्तरों को दूर कर देती है और पूर्ण रूप से उन वस्तुओं में समाविष्ट हो जाती है जिन्हें गदिशून्य . और काम के अयोग्य द्रव्य कहते हैं। ऐसा हो जाने पर प्राणियों का जीवन और गति समार हो जानी है ! जब यह दूसरा ताप पहले को समास करके पूर्णता प्राप्त कर लेता है तभी महाप्रलय हो जाता है। इस अवस्थाको प्राप्त हो जाने और नियत अवधि तक कायम रहनेके याद जब जगत उत्पन्न होता है, तब प्रत्येक लोक क्या और प्रत्येक योनि क्या, नये सिरेसे अन्नती है . यहां लोक नहीं किन्तु योनिके उत्पन्न होने के सम्बन्ध में विचार करना है।-भिन्न भिन्न प्राणियों के शरीर जैसा बैंशोषिक दर्शन में लिखा है दा प्रकार के होते हैं। (१) योनि' जो माताः पिढ़ाके संगसे उत्पन्न होते हैं, जिसे मैथुनी सृष्टि कहते हैं। * तत्र शरीरम् द्विविधा योनिजम योनिजं च | ( वैशे० ४।२।६) लोट--इस सूत्रके महायमें, प्राचार्य प्रशस्त पाद ने लिया है ।के जल, अग्नि और वायुसे उत्पन्न शरीर अयोनिज होते हैं । श्राच प्रशस्तपाद की यह बात प्रशस्त नहीं है। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८. ) (E) "अयोनिज" जो बिना माता पिता के संयोग के उत्पन्न होते हैं और जिसे अमैथुनी सृष्टि कहते हैं। समस्त प्राणी जो जगत में उत्पन्न होते हैं. उनकी उत्पत्ति चार प्रकारसे होती है (११ जरायुज-जिनके शरीर जरायु (मिल्लि) से लिपटे रहते हैं और बम जाय को फाड़कर. उत्पन्न हश्रा करते हैं, जैसे मनुध्य, पशु आदि। १२) अंडज-जो अण्डोंसे उत्पन्न होते हैं. जैसे पक्षी, साँप मछली आदि ... (३) स्वेदज-जो पसीने और सील आदिसे उत्पन्न होते हैं। (४) उद्भिज-जो पृथ्वी फाड़ कर उत्पन्न होते हैं । जैसे वृक्षादि । इनमेंसे अन्तिम दो की तो सदैव अमैथुनी सृष्टि हुआ करती है और प्रथम दो की मैथुनि और अमैथुनी दोनों प्रकारकी सृष्टि हुश्रा करती है। अमुथुनि सृष्टि का क्रम .. भूतोंकी उत्पत्ति के बाद, पृथ्वी से औषधी, औषधीसे अन्न अन्न से वीर्य ( अन्न से रज और वीर्य दोनों है ) और वीर्य से पुरुष उत्पन्न होता है। चाहे मैथुनी सृष्टि हो या अमैथुनी दोनों में प्राणी रज और वीर्यके मेल से ही उत्पन्न हुआ करता है। मथुनी सृष्टि में. रज और वीर्य के मिलने और गर्भको स्थापना का स्थान. माताका पद हुआ करता है परन्तु अमैथुनि मष्टिमें - --....-...--. --- -. - - ..... .-- -- --- --- ॐ तस्माद्वा एतस्मादात्मन अकाशः सम्भूतः । श्राकाशादायुः वायोरशिः अग्नेरापः । श्चद्रयः 'पृथ्वी । पृष्ट्या औषधयः | औषधीभ्योऽत्रम् | अन्नाद्रतः रेतसः पुरुषः। (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्द बल्ली, प्रशन अनुवादक) Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मेलका स्थान माता के न होने से. माता के पेटसे बाहर हुश्रा करता है । प्राणि शास्त्र के विद्वान बतलाते हैं कि अब भी ऐसे जन्तु पाये जाते हैं, जिनके रज और वीर्य माता के पेट से बाहर ही मिलते हैं और उन्हीं से बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से कुछ का विवरण नीचे दिया जाता है-- (१) समुद्र में एक प्रकारकी मछली होती है. जिसकी मादा मछलियों में नियत ऋतुम बहुसंख्या में रजकण ( ore ) प्रकट होजाते हैं और इसी प्रकार नर मछली के अण्डकोशीमें जो पेटके नीचे ( within the abdominal cavity) होते में वीर्यकरण ( Zoo sperml ) प्रादुर्भूत होने लगते हैं। जब माया मछली किसी जगह अण्डे देने के लिये रजकणोंको जो हजारोंकी संख्या में होते है. गिराता है (वह जगह प्रायः अ को निचली राह में रंतलो अथवा पथरीली भूमि होती है तब उसी समय नर वहां पहुंचकर उन रजकरणों पर चीय कणोंको छोड़ देता है जिनसे पेटके बाहर ही गर्भको स्थापना होकर अण्डे बनने लगते हैं। (२) इसी तरह एक प्रकार के मेंढक होने हैं जो रज और वीर्य कण बाहर हो छोड़ने हैं। नर मेंइक मादा मेंढकी पीठ पर बैठ जाता है जिससे मादाके छोइन हप रजकणों पर वायकरण गिरते जायं और इस प्रकार मेंढक के पेटसे बाहर ही. इनके अण्डे बना करते हैं। (३) एक प्रकारके कीट जिन्हें ट्रेप वर्म ( Tape worm) कहते हैं और जो मनुष्यों के भीतर पाचन क्रिया की नाली ( Human digestion canal ) में पाये जाते हैं। हजार श्रण्डे एक साथ एक कोट देता है एक अपडेले जब कीर निकलता हैं तो उसका एक मात्र शिर हुकोंके साथ जुड़ा हुथा होता है। ( It consist simply a head with hook ) उन हुकोंक Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) द्वारा वे प्रांतोंकी श्लैश्मिक ( Mucous Membranes of the intestine ) से जुड़ जाता है और उसी : शिरसे उसका शरीर विकशित होता है. और इस प्रकार उत्पन्न हुआ. शरीर अनेक भागों (Segments ) में विभक्त हो जाता है। वे इस प्रकार संहगा पौर प्रादान दिने जाने हैं. प्रत्येत. भात्री पुरुषके अंग होते हैं। जिनसे स्वयमेव विमा किसी बाह्य सहायता के गर्भकी स्थापना हो जाती है। कुछ कालके बाद पुराने भाग (Segrments) पृथक् होकर स्वतन्त्र कीद बन जाया करते हैं। इत्यादि। इन उदाहरणोंसे यह बात अच्छी सरह समझी जा सकती है कि सर्वथा सम्भव है कि रज और वीर्यका सम्मेलन मालाके पेटसे बाहर हो और उससे प्राणी उत्पन्न हो सके। इसी मर्यादाके अनुसार अमैथुनो दृष्टिमें मनुष्यका शरीर बनाने वाले रज और बीयका मेल माताके पेटसे बाहर होकर वृक्षों के चौड़े पत्ते रूपो मिल्ली में गर्भकी तरह सुरक्षित रहते हुये बढ़ता रहता है। रज और वीर्य किस प्रकार झिल्ली में आकर मिल जाले. इसका अनुमान फूलों के पौधों की कार्य प्रणाली से किया जा सकता है । फूलों के पौधे नर भी होते हैं और मादा भी नर पौधों से पक्षी वीर्य कण लाकर मादा पौध के रज कणों पर छोड़ देते हैं जिससे फूल और फन की उत्पत्ति हो जाती है। इसी लिये पक्षियोंको फूलोका पुरोहित, Marriage priest of flowers ) कहा करते हैं। अस्तु जब प्राणी .इस बाझ गर्भ में इतना बड़ा हो जाता है कि अपनी रक्षा आप कर सके तक वह : पत्ती रूपी भिल्लो फट जाती है और उसमेंसे प्राणी निकल पाया करता है। इसी का नाम अमैश्वनी सृष्टि है। Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२३ ) एक कीटका उदाहरण किस प्रकार विना प्राणियों के यत्न के रज और वीर्यका स्वयमेव सम्मेलन तथा प्राणी के पुष्ट और कार्य करने योग्य हो जाने पर झिल्ली का अपने नमः आदि किसे हो जाया करता है ? इसके लिये एक उदाहरण दिया जाता है-- मैं जब गुरुकुल वृन्दावन में था तो गुरुकुल की बाटिका में बने एक बंगले में रहा करता था उस बंगले के चारों ओर सुदर्शन के पौधे लगे हुये थे। इस सुहावने पौधे में एक प्रकार का की बहल जाता था जिससे उसके पसे और फूल सब खराब हो जाया करते थे: निम्न बातें प्रकट हुई: C " जब इस पौधे में नये पत्ते निकले तो ध्यान पूर्वक देख भाल करने से पता लगा कि एक काले रंग की तमाखू की तरह की कोई चीज कहीं से आकर एक पते पर जम गई और दो चार दिन बाद किसी अज्ञात विधि से वह - पते के मोटे दल और झिल्ली के बीच में आ गई। देखने से साफ मालूम होता था कि यह वही काली वस्तु है जो मोटे बोर पतले दलों के बीच में आ गई है। एक सप्ताह के भीतर अम उस वस्तु के एक ओर का पतला- पत्ते का वज्ञ (झिल्ली ) मी इतना मोटा हो गया कि अब वह वस्तु एक गांठ की की तरह पते में मालूम होने लगी । उसका रूप और रंग कुछ दिखाई नहीं देता था। अब वह बीज क्रमशः परोके भीतर लम्बाई में बढ़ती हुई दिखाई देने लगी और दस दिन के भीतर उसकी लम्बाई लगभग दो इंच के हो गई। ऐसा हो जाने के बाद एक सप्ताह के भीतर वह पत्ता फट गया और उस में से एक हरे रंगका कीड़ा जो दो सुनहरी रेखाओं से सीन हिस्सों में मनुष्य के हाथों की छोटी उंगली की तरह विभक्त था निकल आया यही कीड़ा Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) सुदर्शन के पत्तों और फूलों को खा-स्त्राकर खरान कर देने वाला सिद्ध हुआ । इस कीड़े को. एक शीशे की अलमारी में कुछ पत्तोंके साथ रख दिया गया । दस बारह दिनके बाद जब अलमारी खोली गई कीड़े का वहाँ चिल्ल भी बाकी नहीं रहा। इस परीक्षण से अमैथुनी मृष्टि की कार्य प्रणाली पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। साँचेका उदाहरण जिस प्रकार खिलौने श्रादि बनाने वाला पहले सांचा बनाता है, और फिर उसी सांचे से अनेक खिलौने ढाल लिया करता है, ठीक इसी प्रकार अमैथुनी सृष्टि सांच बनाने की कार्य प्रणाली है, और उसके बाद की मैथुनी सृष्टि सांचे से खिलौने आदि डालने का कार्यक्रम है। अमैथुनी सृष्टि सब प्रकार की होती है अमैथुनी सृष्टिमें केवल मनुष्य ही नहीं उत्पन्न होते. किन्तु पशु पत्ती इत्यादि सभी उत्पन्न होते है। ये भिन्न-भिन्न योनियां क्यों उत्पन्न होती है ? इस प्रश्न का उत्तर वैशेषिककारने. उनके पिछली सृष्टि में किये हुये कमाँ की भिन्नता दिया है। * महा प्रलय होने पर बैशेषिककार के मतमें किसी दिशा अथवा स्थानमें कोई प्राणी किसी योनि में याकी नहीं रहता । इसलिये अमैथुनी सृष्टि का होना अनिवार्य है । फिर उसने एक जगह लिखा है कि प्राचीन आर्य प्रथानुसार, अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियोंको पिताके नामसे नहीं पुकारते जैसे भरद्वाज का पुत्र भारद्वाज. बल्कि .. ... . . ... . .. .......... -. ___ * धर्म विशेषच (वैशेषिक ४ । २।८) | अनियतदिग्देश पूर्वकत्वात् ॥ (वैशेषिक ४२१७१) . Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UP: - -- उत्पन्न होने वाले व्यक्ति के मूल नाम ही लिये जाते हैं। जैसे अग्रि, वायु, आदित्य अंगिरा नथा ब्रह्म आदि । इस लिये कि इनके कोई माता पिता नहीं थे। उसने अपने मत की पुष्टि में अ थुना सृष्टि को श्रावश्यक बतलात हुए है उसके वेद से प्रगणत होने का भी उल्लख किया है। x बेद में एक जगह श्रमधुन स्मृष्टि में उत्पन्न मनुष्योंको मम्बोधित करते हुये कहा गया है। हे समस्त प्राणियो ' तुम न शिगु हो न कुमार किन्तु महान (युवा ). हा ।" : नैमित्तिक ज्ञान जब अप्रैथुनो सृष्टि होने के कारण. ज्ञान देने वाले माता पिता आदि नहीं होते तो उस समय वह साल किस प्रकार प्रासको इस प्रश्नका उत्तर न मिलने के कारण ईश्वरीय ज्ञान प्राप्ति इलहाम) की जाती है। इसी कल्पनाका संकेत योगदशन के इस प्रसिद्ध सूत्र में ' स एवं पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्" ( योगदर्शन २ । ३१) अर्थात् वह ईश्वर जो समयसे विभक्त नहीं हो सकता. पहले ऋषियोंका भी गुरु है।" ---- --... .... . . .-.- ..-..... .---.. -- + समाध्या भावाच ॥ तथा संज्ञाया श्रादित्वात् ।। (वैशेषिक ४/२।६।१०) ॐ सत्ययोनिजः ।। ( वैशेषिक ४।२।११) x वेद लिङ्गाच ।। (वैशेषिक ४१२।१२) : मह वो अस्त्वम को देवासो न कुमार काः । विश्वेससो महान्त त । (ऋग्वेद ८।३०।१) Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा आत्मा नान स्वरूप है, ज्ञान और आत्मा कोई पृथक पृथक पदार्थ नहीं हैं । अतः ज्ञान को नैमित्तिक कहना बड़ी भूल है । अग्नि में गरमी किसी लिमित्त से नहीं पाती है. क्यों कि गरमी अग्नि का स्वभाव है। इसी प्रकार श्राभा में शान भी नैमित्तिक नहीं आता है। निमित्त से तो अज्ञान आ सकता है। आपने स्वयं इसी पुस्तक में शिव संकल्प सूत्र के मन्त्र लिखे हैं जिनमें अपने लिखा है कि-"जो ( मन ) ज्ञान ( चेतनः) चिन्तन शक्ति और धैर्य से युक्त है, और जो प्रजाओं में अमृत और ज्योति है।' आदि इसमें आपने स्वयं मन को भी ज्ञान युक्त माना है, 1 पुनः श्रात्मा को तो बात ही क्या है। अतः आत्मा को किसी निमित्तसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता अपितु ज्ञान उसका स्वभाव ही है। इसका विशेष वर्णन हम 'नान और ईश्वर' प्रकरण में करेंगे। आगे श्राप का यह लिखना कि "महा प्रलय में जगत का अत्यन्ताभाव हो जाता है" यह आपके दार्शनिक शान का परिचय देता है क्यों कि "अत्यन्ताभाव' का लक्षण है जिसका कभी आदि और अन्त न हो "अनादिरनन्तोऽत्यन्ताभावः" क्यों कि यह अनादि अनन्त होता है । अतः आपने ये शब्द लिख कर जगत की रचना और प्रलय दोनों का प्रभाव सिद्ध कर दिया. पुनः अमैथुनी मुष्टि लिखना ही बात क्रीडा बत्त है। आगे आपने अमैथुनी मृष्टि का सिद्ध करने के लिये जो उदाहरण दिया है वे सब भी आपके सिद्धान्तों पर ही कुठाराघात करते हैं। घेद और विज्ञान में जगत रचना का तथा महा प्रलय का विरोध किया है यह पहले सिद्ध कर चुके हैं। तथा आपने अमैथुनी सृष्टि के लिये तीन उदाहरण दिये हैं . .१, मछली का (२) मैढकका (३) हेम वर्म कीटका, ये तान उदाहरण आप के मत का खण्डन करते हैं। क्यों कि आपके मतसे तो आदि में बिना Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (P) ही रज व वीर्य, मनुष्य आदि उत्पन्न हुये थे और यहां रज वीर्यं से ही जीवों की उत्पत्ति बनाई गई हैं। तथा रजवीर्य भी उन्हीं मछली मैंठक आदि से उत्पन्न हुये हे ईश्वरसे नहीं । अतः इनसे आपके मन की पुष्टि होने के बजाय उसका खण्डन ही होता है। आपने अपने गुरुकुल के परीक्षण का उदाहरण देकर तो कमाल किया हैं। श्रीमान जी आपको तो कोई ऐसा उदाहरण देना चाहिये था जिससे यह होता कि बिना ही बीज के वृक्ष बन गये तथा निरजवीर्य के मनुष्य आदि उत्पन्न हो गये तब तो आपके मत की पुष्टि होती यहां तो कीड़ा पहले ही विद्यमान हैं सिर्फ उसके रूप व आकार परिवर्तन हुआ है। यह तो प्रत्येक समय प्रत्येक वस्तु में होता है । चवं अन्दर जो कीडा होता है उसकी तितली वन जाती है। इसी प्रकार गौरव आदि में बिच्छू उत्पन्न हो जाते है। ये सब आपके मत के बाधक प्रमाण हैं 1 वर्तमान विद्वान ने भी सिद्ध कर दिया है कि बिना भए श्राविके कीट यादिकी उत्पत्ति असम्भव है। वर्षा ऋतु घास आदि अथवा सूक्ष्म से सूक्ष्म जन्तु भी अपने कारण या अण्डोंस ही उत्पन्न होते है । पहले के लोगों का रूप ल था कि मेंढक यदि पानी आदिसे एकाएक स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं. परन्तु यह सिद्धान्त परीक्षासे गलत सिद्ध हो चुका है। यही अवस्था सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से देखे जाने वाले कीटाणुओं की है। वैज्ञानिकोंका कथन है कि हम स्वयं जननका एक भी उदाहरण नहीं जानते । और अभीतक हमें एक भी ऐसा पुराने जीवित या मृत जीवका नमूना नहीं मालूम जिसके विषय में हम यह समझतें कि वह स्वयं पैदा हुआ होगा यहां पर हमें फिर अपनी लाचारीको मानना पड़ता है कि हम यह नहीं बता सकते Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (25) I या sि start विकाश सबसे पहले कैसे हुआ । यदि यह माना जाये कि पहले पहल जी किसी दूसरे वाकाश पिण्डसे तो यह नितान्त असंभव है, क्योंकि वह किसी भी अवस्थाने जीवित नहीं रह सकता । हमारी दुनियाँ पर प्रलय हो जानेके बाद शायद शुक्रपर जीवनके उनकी बारी आवे । विश्वभारती खं० १ ० ४४० J आगे आपने एक वेद मन्त्र देकर लिखा है कि में एक जगह अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को सम्बोधन करते हुये लिखा है कि हे समस्त प्राणियों ! तुम न शिशु हो न कुमार किंतु महान ( युवा हो ।" वे बेचारा अनाथ है. यही कारण है कि ये लोग इस पर इस प्रकारका अत्याचार करते हुए जरा भी संकोच नहीं करते | संपूर्ण वैदिक संहिताओं में तथा सम्पूर्ण वैदिक हम कहीं भी अमैथुनी सृष्टि शब्द भी नहीं है। प्रांत होता है स्वामी जी महाराजको रामपुरकी कुटिया में यह नया इलहाम हुआ है । श्रथवा जनता को धोका देनेका एक नया ढंग निकाला है । यदि श्रीमान् जी इससे आगेका दूसरा ही मन्त्र देख लेते तो भी इनको ज्ञात हो जाता कि यहां किसका वर्णन है। उसमें लिखा है कि "येच त्रयश्व त्रिंशश ।" श्र० ८ । २० । ६ अर्थात जिनको हमने महान (युवा) बताया है वे तैतीस देवता है । 11 समाप्त || Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिय पाठक वृन्द ! मेरी आन्तरिकल की कि विशु रूपमें आप लोगों के संमुख उपस्थित करू. किन्तु पूर्ण प्रयत्न करने पर भी इसमें बहुत सी अशुद्धियां रह ही गई जिसके लिये मुझे बहुत खेद हैं। अस्तु विशेष विशेष अशुद्धियोंका शुद्धिपत्र" दे रहा हूँ फिर भी जो अशुद्धियां रह गई हो उन्हें गुरोकपक्षपाती आप महानुभाव, स्वयं सुधार कर स्वाध्याय करें यही प्रार्थना है. I प्रध पंक्ति शुद्ध अधिष्ठातारः पुरुष विप्रहाः अधिष्ठाता (5) ७ 6. ११ ४१ १३ १४ १६ १६ १७ १७ १६ ११ १८. १६ · ४ १८ शुद्धाशुद्धि पत्र · अशुद्ध अधिष्टातारः 徵 दातरणाम् १४ रन्तरिसस्य सूर्यचक्षुषा वह्निस्पथा पुरुष विमाहाः अधिष्ठाता मरुदगण अमिवनस्पति यत सोऽनि स्वर्ग मनुष्म जनसे मरुद्गण अनिर्वनस्पति दातणाम् रन्तरिक्षस्य सूर्यश्चक्षुषा वह्निस्तथा ऋत सोऽग्निः स्वर्ग मनुष्य सबसे Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meas पंक्ति शुद्ध अशुद्ध इदमेवाग्नि इदमेवानि अग्नि अग्नि ददर्श ११ दर्दश रामानाथ अविलम्बित थी कोन है प्राय श्रावनी वद्यरूप राहित ने द्यावी पत्याश्रितः मध्यान सर्वाकारो परत्व विहन ३५ ४ रमानाथ अवलम्बित था कौन है प्रायः अश्विनौ वैद्यरूप सहित ने द्यावा पंसगानित: मध्यान्ह स कारपरत्व विन लोकस्य शुभ्रः उन्होंने लोकोद्धारक लोकचक्षु सोमप अन्तरिक्षस्थ आदित्य कहे. कर्म देवाः श्रोतकोत्पन्न शुभः ३. ३ उतने लोकोद्धार लाकचकृत सौमप श्रान्तरिक्षस्थ श्रादित्यों दिये फर्भ देवाः भात कोत्पन्न Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -. -.. -.. पृष्टव पंक्ति ४२११ अशुद्ध उयह सर्वाणुक्रमणी तस्थुषचेति सूर्यमण्डलास्थित सारगुत्राभरणी शुद्ध सबट सर्वानुक्रमणी तस्थुषश्चेति सूर्यमण्डल स्थिन सानुक्रमणी कृत्तिका कृतिका पुष्पा अश्लेषों घनिष्ठा जातिवेदम फलदानिता স্থান पांगमय उषाग्च भक्षोत्र क्षेत्रस्यपति अश्व एवं वहन्त्यग्नि माहाभाग्याद् क्षात्रा शाक्ल्य नित्रद मनिनमाहु करता अश्लेषा धनिष्ठा जातवेवस फलदातृता अधीन वाङमय ऽवाय মাস্ক क्षेत्रस्पति अश्व इव बहन्त्यग्नि महाभाग्याद् मात्र शाकल्य निविद् मनिमाड की Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ५६ ६१ ६६ ७३ ७३ ७८ ७% ६७ १०: ६६ १६ ७५ ७? ند ل ७४ ७% $% ري पंति: ॐ ११ ॐॐ ट ७८ ४ 23 12 भार ७४ १६ १६ १० ४ 2 १४ १५ ८ 7७ ג १ १३ २१ : ( 2 ) अशुद्ध तदेवान इन्द्रीय सन्निविष्ट फलथी अवाम नित्यत्वं सामवेदऽथर्वेदः शस्त्रों अध्यात्मिक अथया यांगमय भौतिका राशित मेवामिष्ट वाचित्व परिभाषिका जल चन्दमः प्रभृत तन्मुखदेव श्रुत अभिष्ट परिभाषिक अनुचाना देवताओके भ्रमात चोर शुद्ध ता इन्द्रिय सन्निविष्ट फलथः यावाम नित्यत्वं - सामवेदोऽथदः शास्त्रों अाध्यात्मिक अथवा वाङमय भौतिक राशिक मेवाभीष्ट श्राचित्वं पारिभाषिका जल चन्द्र प्रभृत मुख श्रुति अभीष्ट पारिभाषिक बनवाना देवताओंके भ्रमात् • चुरा Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __पंक्ति अशुद्ध ८१ ३ . श्रा ८११५ श्वेद ८२६ सूल मातण्ड शलापथ च्यामधे श्रीसहस्त्रा त्रिशच्च बददभिः प्रजापति ऋग्वेदलोचन दर भ्रंवं धं. १० . उत्तर ध्रवं ८५ १६ पचौली । आधिभौतिक ७. अधिौतिक शान्ति स्नातक JUNU HUN शुद्ध पृथवी ऋग्वेद सूक्त मातण्ड शनपथ ध्यांमध्ये त्रिसहस्त्रा त्रिंशच्च वदद्धिः ज़ा ऋग्वेदालोचन x . 11 ४ . . ." .. - "शोक उत्तर ध्र व पंचौली आधिभौतिक आधिभौतिक शान्ति स्नातक शोक उद्धव अंमत्य व्युत्पत्ति आलिंगी तथा मुपाहता अनुपरत ASS 13 " . ... . अमक्य व्युत्पत्ति খালিৰ্যান। मुपाहरम्तो अनुपरन्त .. Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ६ हए ६५ हुथू हुई ६ हद हट हह ££ पंक्ति १५ ५ ५ १२ ६६ हह हह हह १८ १०४ १०५ १०५ 中々弩 the wet १४ १६ عام १०० १६ १०५ १० १०१ २५ १०० ७ १.२ १०३ २० २५ ६ १५ २.१ ( ६ ) अशुद्ध श्रामिनन्नि स्ववं सुर वरुणों त्वां जगतीषु ब्रम वरणो प्रौत मातरिस्वान सत्यं 'तत्वदर्शी गरुत्वभाव पंडित गण मातरिश्वा मुक्त मध्यतो देव ऋदेव स्वास्ति नई है परम यथाथ ताम्र शुद्ध मामनन्ति ਚ ਕੋ सूर्यस्य वरुणो त्वां जगतीषु ब्रह्म वरुणो प्रोत मातरिश्वान सत्यं तत्वदर्शी गरुत्मान् पंडितगण मातरिश्वा अन्तर्भुक्त मध्यतो देखें ऋग्वेद स्वस्ति गई है परम वर्णित यथार्थ ताम्र Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १८५ २३ १८७ ३५ १०८ ४ १८६ १६ १०८ २३ १११ १६ ११२ ११२ १५२. ११३ ११४ ११४ ११६ ११७ ११२ ११२ ११८ १२६ १५ १२ १३२ १३२ १३३ १३३ क १७ २५ १ १० ५ १५ २६ 美 १२८ १७ १३० १३१ २१ ३ १६ २१ अशुद्ध शिचित मदभ्यो नायकों की मर्पित वणोत भाग ओर ज्ञा दिखाई ओर विकास हुये सूर्यासूक अनष्टान क्रियों में क्रियाबलि विकिसित धरियन दुरितानी सन्तिः शर्म बृहस्पति वृष्णो विभषि सामश्रमी } शुद्ध शिति महद्भयो नायकों को मर्पित वृणोतु भर्गो और क्ष्मा दिखाई और विकाश हुबे सूर्यसूत अनुष्ठान क्रियाओं में कियावली विकशित धरियन दुरितानि समित शर्म बृहस्पतिः विष्णो विभर्षि सामाश्रमी Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पं. अशुद्ध १३४६ हही १३४२० . सूर्य शुद्ध । एक ही . सुर्य विभर्ति १३८ १२ १४३ १४५ १४५ सूर्य बांगमय और वैदिक समधान झुढ़ा : हगा छटा । अथ विभर्ति मूर्ग वाचामय और न वैदिक समाधान जुड़ा ' हांगा छठा १४७३ १४६२ . अग्न १४६ ११ वेतन्य १५ . जब १७ .जय १४६ ५५ ... अंगोकी १४६ . अर्थ घट अग्नि चेतन . सष सष . . अंगोको नष्ट अभिन्न कुतूहलादिक थी तो पीछे तर्क . स्वयमेव . स्वयमेव . परिणाम १५१ १५५ __ १५७ १५८ १५ । अभन्न २५ कुतुहलादिक २५ थी पीछे २२:. . तक . स्वमेव १५ . स्वमेव ह. परिणामन Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 발품 १:३ E १६४ २.१ १६४ २३ १६५ १६५ १६६ १६६ १६६ १३६ १६७ १६७ १६० १६६ १६६ १६६ १६६ 中文 १७५ १७६ १८० १८१ १८१ पं १८१‍ १८२ १८३ .१० २.१. १० १३ १६ अशुद्ध शारीरादिक दर्शनाकार १३ वान्ध हेतापतिश्च समदसन से इभ्यंस भविष्या १८ ईश्वर कार न च भावो अगम तसंशयादि १० विधाय १३. १३ १६ भन्धुते यदोङ्करः ३-४ कि उसको पृथक और २३ सुर दीर्गिका ५० देवतों देवतो लोग भनेका मन गड़ंत अनेकानेक किस प्रकार श्री अपभ्रष्ट } शुद्ध शरीराविक दर्शनकार बांध द्वैतापत्तिश्च सदसन से इत्यलं विषया ईश्वरः कारणं नाभावो आगम पृथक मोर तत्संशयादि विधया मश्नुते यदोङ्कारः उसको सुर दीर्घिका देवताओं देवताओं लोगों के आनेका मन गढ़न अनेकानेक किस प्रकार की थी Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १८४ १८४ पंक्ति ५ १४ अशुद्ध हो गया कि अाहिसिक मनुष्म निरलस अतिष्ठस्तद पोषाक हो गया कि महिंसक मनुष्य निरालस अतिष्ठस्तद् पोशाक १८९ पोर १६० सैनिकों विविध (याही) इसी लगता तो FFEEEEEEEEEEEEER सैनियों विविधि इस ही लगा तो १६२ १२ हुश्रा असावधया १५४ करना देवतायों १६६ पोपण द्रवतपाणी . २०१५ हाना वासुदेवोंने अधिक खाल २०७३ पुण औदन सरस्वति है २. ७२३ रम्य असावधान करता देवताओं पोषण द्रवत्पारणी होना वसुओं ने अधिक वाले पूर्ण ओदन सरस्वती रहस्य Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शुद्ध पंक्तिः २०७५ . यानी अशुद्ध यानि दिखासी चिकित्सित टौना पुन्सवन मृत्य गंगगोदक भज्ञाभन सहश्य बदनारद निर्ण दीखती चिकित्सा टोना पुंसवन मृत्यु गंगोदक भल्याभस्य सहश उदयास्त निर्णय अदृष्ट अष्ट युगपदनेक सरश समावृतः द्रौपदी पश्चात् प्राणरूपे पृष्टरनं २२२ २२८६ २२६ १५ युगपवनेक सदृश्य जमार्थतः द्रोपदी पश्चान् प्रायारूप वृष्टरनं इसी जो शम-शनै प्रथक प्रथक परकी साहित्य इसी शनैः शनैः पृथक पृथक २३४ परक १६ साहित्य Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २३. मात्राश्न भिन्न है २३६१६ डामतप्त घद्धास्माका २३५ मानश्च भिन्न ह उम ऽमित्त बद्धवात्मा त्त शंयोर्भमकाय सथाप्रज्ञ वहिरोत्मा शब्द शब्द तद २४२ २४३ २४५ २४६ शंयोभकाय तथाप्राज्ञ बहिरात्मा १३ शद्वै २४७ ११ ई घा वर्णन २४८ २१ यान २४६ वषटकारश्च प्रजापति कपट कारश्च प्रजापति श्रुलियें श्रुतियां २५५ १७ २५८ पूषम् मात्र है विष्टा स्वरः श्रेष्ठः स्वर: वेध नष्ट यमि पूर्वम स्तुति मात्र है विष्ठा सुरज्येष्ठः सुरज्येष्ठ २५६१ २५६ यंदग्नि पृहद् Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - | प्रया पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २६३६ २६३ विराद जायस अथवाव रिस चाप्पजः मसिविष्णु · जाचक तिष्टन्तीं . प्रारण सम्बतसर दिन के है धानाधिपति किरोड़ों मात्मन बत्त विराद्ध जात्रत अर्थवाद रिति चाप्यजः मतिर्विष्णुः वाचकैः निष्ठन्ती प्रारणेन सम्वत्सर २२ २६०८ धनाधिपति करोड़ों मात्मन्धत स्तद् लोम न्ये व अर्जुन तिष्ठति तद्वेदान्तेषु २७३१६ लेम नयेव ऽर्जु निष्ठति वेवान्तेषु दह देह " दह थिषी २७६२ --" पृथिवी जीवः पतास्तत्व पादोऽस्य द्विराजायत जीवा उत्तमृतत्व पादोऽस्य दिग्खाजायत .-1 "--- ... Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति २७८ २७९ R:1xxn २८३ १२ २८३ १५ २८४३ २८४ १. २८५१ अशुख साभृतं संभृतं अरू उदस्य अरु सदस्य मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत = प्रोत्रा द्वायुश्च प्राणश्चमुखाद दमिरजायत । जगवस्था जगदेवस्था रमशश शुति श्रुति चाचार्य चार्य जैमुनि जैमिनि सहस्रा सहस्रो मनो वायुः सब सर्व सिचति सिंचति यस्माद चः यस्मात्र प . दय अमिष्ट अभीष्ट काल्पनिक काल्पनिक जगद्वथा जगदवस्था काय कार्य अन्नाद लान लीन विराट जायत विराबजायत सृपयादी सृष्टयादी अजायत दजायत वायु न५५ mox - १ . २६१ १५. ११ २६३ २६५७ २६५ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- श्रयते पृष्ठ पंक्ति २६६ २६६ १३: ६६ १६ २६७१५ तापनीये प्रविष्ट समिधः अशुद्ध अयते तापनीय प्रविष्ट समिध अग्नि साधनाः विराट सर्वन्याप्मन भावानुष्ठानः साध्या: विराट सर्वमात्मन भावानुष्ठानः ऽनुष्ठाने सृष्टि समिद दुर्जेय तमिव तमिदं टुज्ञेय तमिदं ३०८ १८ तस्मै सस्मै FEEEEEEEEEEEX ३१२ ३. x x अधिदायिक विदमो विजानिभः पसुसि वक्तेविष ममानये समान्याम ज्यान सहाय्य जकरा आधिदैविक विप्रो विजानीमः चक्षुषि बकेविन सामानाये सामान्यात् ध्यान साहाय्य राजकार्य Bf ३२२ ३२३ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पंत शुद्ध १६ ११ ३३० ३३० अशुद्ध अथववेद अग्नि “भूतनाथं पर सामान्यता शद्वक "धर्म बुद्धिमता से 'आफ्रिही अथर्ववेद यानः भूतान पर सामान्यत: 'शब्द के धर्म बुद्धिमत्ता से आफ्रिकी ३३२ ३३३ ३३३ ३३३ महापुरुष महापुरुष को ३ ३३४ वासियो ३३५ अर्थ वीसियों इसकी तथैकेऽग्नि • धमकाया संमिलिस मान्यतायें ३३५ ३३६. तकेडम धसकाया . समिलित मानतायें ८ ३३८ बड़ा कठिन कार्य 'थाड़ा व्यस्था परम्पर समप्रमादम् बड़ी कठिनता थोड़ा. ख्यवस्था परस्पर सदप्रमादम् षट २६ विशिष्ट विशिष्ठ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३४८ ३४८ अशुद्ध सदगुण जीवात्रा यश याज्ञयल्स्य ऋषयों रायः गिरजात है ३४६ ६५१ ३५१ ३५१ ६५१ १२ २० २२ . लगे कि भाषित ना कर उपनित श्रेष्ठता यस्मिन बृहदाण्यक बुद्धिस्तु विषयं स्तषु पांचवा जीवात्मा यक्ष मे याज्ञवल्क्य ऋषया साः गिरजाता है पाद लग. भासित न कर उपमित श्रेष्ठ ना यस्मिन वृहदारण्यक बुद्धिन्तु विषयास्तषु पांच यो श्रेष्ठ पापिष्ट श्रेष्ठ वशिष्ठ प्रजारित्वमा "घितणां प्राणस्येदं ३५३ २५३ ३५३ १४ श्रेष्ट you tub ३५४ पापिष्ट श्रेष्ट वशिष्ठ। प्रजास्त्विा मा पितणां प्राणस्पन १६ ३५५ ३५६ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३५६ पंक्ति २२ शुद्ध वाणी वाचा अष्टश्च श्रेष्ठश्च श्रेष्ठ ३५६८ प्रणिति प्राणीयते साहस महत्पमा भत्वा औषषि समभरन प्राणच्छष्ट उन्नं मनाद् तस्मिनेतदात श्रेष्ठ प्राणिति प्रणीयते साश्य महतमा भत्वा औषधि समाभरम् प्राणासष्टी उन्न मन्त्राद सस्मिन्नेरवातसम् प्रजा. प्रेमेनमप्राविशत् तुच्छेनाम्ब प्रेजों Mmmmmmmmmmmmm. rrm प्रमणान पाविशत् तुमछपेनाम्व गूल्ह बाल आमदन यपान आच्छादन व्य पदों अर्थ २० पदा अथ स्वे महनि परया वान स्वेमहिनि परना ३७६ वर्णन Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति अश्वद्ध प्रारम्भ शुद्ध भारंभ श्रेष्ठ श्रेष्ठ ३७६ ३७६ ३७६ द्रष्टा भोक्त द्वंदात्मक पृथ्वी की फैलती गई निगुण प्रश्न मानधी ३८१ 营智慧莫莫莫莫莫盘点盘点爱爱爱爱爱着紧紧靠留 ३८२ 1८३ ३८३ ३८६ मुटा भोक्त इंदत्मक पृश्य की फैली गई निगुण प्रश्न मानवा सदृश्य ५ स्वतंत्र सिह निर्भय ह तक १३ विरोधा १७ अथ समथन हा मूत वरान सर्क अमृतं मापः इनमानसीत शल तिष्ठस्थ साप्ताचिषों १३ यचिन्तः सत्र सिंह निर्भय तर्क विरोधी AN समर्थन ही मूर्त ३८५ वर्णन सोऽर्कः अमृत मापः इदमनासीत् ३८७ तिष्ठस्त्र सप्ताषिो यश्चित्तः ३८७ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - -. -. -JAPALL- AL · ·शुद्ध । पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ३८८ १० प्राणको ३८ १८ कमसे तत्पश्चात ३८६११ किरोड़ों प्राण कमसे तत्पश्चात करोड़ो द्रव्य ऽध्यजायतः इतकंपा ३६८१६ ३९२३ xxx v ओर विसृष्टियत तियकप्रेत शःस्वाभिः श्रावाकशाख शरीराद्यतस्य प्रायोदुःखाच अमष्टायपिह्य सौ दिशांजायन्त परमात्म वगन नदाधार लिगुरा ओर अध्यजायत हरकंपो हृदय भ.ग्र रत्न शन्द और विष्टियत तियकदप्रेतादिभिः शाखाभिः अवाकशाखः शरीरंयदितस्य प्रायशोदुःखात असृष्टावण्यसो दिशोऽजायन्न परमात्मा वर्णन नादधार ४०१ ४०४ ४०४४ निगुण और Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च ४०४ १५ ४०५ १३ ४०६ ५२. ४०६ १३ ४०६ ४०७ ४०७ ४०८ ४०६ ४०६ ४१३ ४१३ ११४ ४१४ ४१६ ४१६ الم ४.११ १ ४१२ १३ ४१६ ४१८ ४६६ ४१६ ४२० ४२० * ३ २४ ८ १६ १५ ७६ १ ४ १० १३ २२ २४ ( २१ ) निर्णयो महश्य श्रुतिनांच बुद्धयवतार तारायेरित्र वादि विवक्षत्वान वैशेषिक सम्पूर्ण अवनेग्य वहा प्रेरित स्वतो वैष्णव वास्ता श्रसिदिद अप्रतर्ध्य यदर्थ उन्त शब्द धःत्महता जे भाव हैं तस्मात्रिष्वपि शुद्ध निर्णयो सदृश श्रुतीनांच बुद्ध यत्रतार तारणायेवेति बादी विवक्षितत्वात् वैशेषिक सम्पूर्ण अत्रनेय बढ़ा और प्रेरित स्वत: वैष्णवस्त्वाहुः आसीदिदं अप्रतर्य छेदार्थ उनशब्द आरंमहना जो भाव है. तस्मात्पि अस्तित्व मन्यन्ते श्रस्ति पन्ते सृष्टिरिति पे डार्थमिति सृष्टिरितिक्रीडार्थ मिति Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ( २२ ) अशुद्ध उत्पत्ति मानते हैं १२२ ४२२ धादाम उचालक मृत्युर्वे वेदमासीत. अप्रतक्य नर्कण के असद् अर्थात् था ५२२ ५२५ उत्पत्ति का कारण मानते हैं व्यायाम उद्दालक मृत्युरेवेदमासीत अप्रतक्यं तर्क के মন মঘী কালি शमान था तत्सम्बत्सरस्य प्रत्यक्षागोचर स्ववयवान् सन्निवेश्यात्ममात्रासु अपरिमित स्यात्मन स्मृतेः षष्ठवयवान् मर्धन सिमृतस्तु ४२ १२८ ३२८ तत्संबत्सस्य प्रत्यक्षा गौचर त्वयवान सनिवेश्यात्मात्रासु अपरमित स्यात्मन् स्मृते षड्वयवान १५ । मधेन सिष्टदुस्तु सृष्टवेदं रहत्तेनाभि जगहरवा प्रसति अधिकम सर्वेषामेव ३ संसकारी ४२६ ४३१ रब्यक्तनाभि ३२ प्रसति चाधिकम् सर्वेषामेव संसारी ४३४ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति पृष्ठ ४३४ ४३६ ४३७ ४३७ द्वधा ४२७ ४॥ ४३८ ४५८ एसमेव ४१६ ४४० ४४१ अशुद्ध शुद्ध मपणास्पति ब्रह्मणस्पति अधिपति अधिपति शसाधीस सत्ताईस द्वधा पतिश्चचाभवतां पतिश्चाभवसां समभवततो समभवत्यतो कथं धु कथं तु इतरस्तां इवरस्तां ववेत्सराभवदश्चवृष अश्वीतरामवदश्वश्वेश्वरः जाययो जीवयो एतमेव अधिपत्य आधिपत्य नामततयन्मानुषं नामैतत् यन्मानुयं पर्याद धुस्तन मरुतो पर्यादधुरेस्तन्मरुतो भृगुरभवतं भृगुरभवत्तं यतृतीय यत्तृतीय मृतिका मृत्तिका काष्ट्र स्वभवन सस्य स्वभवसस्य मात्राया मानया गन्धघ्राणामितिन्द्रिया गन्धघ्राणमितीन्द्रिया नो नासिका दो नासिका दर्शन मितिन्द्रिया दर्शन मिसीन्द्रिया सनरहवा सत्रहवां । जनदिप जनयदित्य ४४ १४५ १२ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ".. E पृष्ठ पंक्ति २४५ १३ ४४५ १४ २१ ४४५. ४४६ ܪ ४४६ १६ ४४६ २३ બ્રેડ १३ ४४७ १४ ४४७. ४४८ ४४८ ४४८ ४४६ ४४६ ४५० ४५५ ४५५ ४५१ ४५२ १५ ४६५ ११ ४२३ ५४ ४५३ ४५५ १७ १८ १६ ४२४ २६ ११ ܀ ( २४ ) अशुद्ध शरद ऋतु न्द्रियारान् भवत बाको वाक्य त्रयत्रिश भूदनों दभ्यतत् चन्द्रमससिरमिमत नरवे. पो श्रभ्यां तपोसण्यत तृन्मये इतव्यत्त Sहोरात्रयोः ते पात्रे प्रत्यतिष्टत उपत्वायनीति ऽस्तोत्यत्रवीत दिश्यामरित्य परमेष्ठी प्रेमणानुप्राविशत संभमितुं किर अथवाद तदेतनजी शुद्ध शब्दलु न्द्रियाण्यन्त्रभवत् वाको वाक्यं त्रयस्त्रिंशौ मियाण्यन्वभवत् मूर्ध्ना दभ्यतपत् चन्द्रमसन्निरमिमत नवेभ्यो प्राणेभ्यो तपोऽतप्यत सृन्मये उसत्यत ऽहोराज्य: हरित पात्रे प्रत्यतिष्ठन् उपस्वाऽऽयानीति इस्तीत्यप्रचीत दिशाभिरित्य परमेष्ठी प्रेमेणानुप्राविशन संभवितुं श्रकिञ्चित्कर अर्थवाद तदेतसेजो Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति शुद्ध अशुद्ध मित्युषासीत स्योंर्ध्वः सुशि वाजयत् ४६२ ४६२ ४६४ ४६४ ४६५ १८ आर असखंय मिमित अवेताश्वर इंगीचर सकता इन्द्रियों ग्रास्त्र अधिभौतिक सृष्टि से धर्म-सृष्टि से नैय्यायिकोंके परमाणुयो का गुणज्ञान का निरिन्द्रिन 'बिकल्पात्माक व्याकरणात्मक स्वय मृत्य प्रति मिल्युपासी स्योर्ध्वः सुषि वासयेत् वर्णित है और असंख्य निमित्त श्वेताश्वसर दृष्टिगोचर सकता इन्द्रियों के ग्राह्य आधिभौतिक दृष्टि से धर्म दृष्टि से नैयायिकों के परमाणुओं का गुण का ज्ञान निरिन्द्रिय विकरूपात्मक व्याकरणात्मक स्वयंभू भूस्यु प्रकृति २६ Ye १८ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति ४८५ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ४७ प्रतिक ४८० २० प्रति ४८२ २५ तामज सामस ४८३७ संक्षीप्त संक्षिप्त १५-१६ परमात्मा से आकाशसे, परमात्मासे पाकाश, भकाश से ४५२ श्रद्रत वही वाली श्रेतकेतु श्वेतकेतु ४८५ २४ व्यप्त व्याप्त ४८ निर्वाण निमोण जतना का जनता का वागणे वाष्णाय श्रेष्ठ-कनिष्ट श्रेष्ठ-कनिष्ठ भयरहोंने भमणोंने ४६५ गणसत्र गणतंत्र ४६२ नम्र श्रवणं अगाछतम्, मम श्रवणं आगच्छतम् ४६३ वेदाध्यन वेदाध्ययन सास झान ४६४ पुनरशीयन पुनरुज्जीवन ४६४१५ करने करके न प्रकृतिवादको प्रतिवादको ४६६ शुष्क संख्याय संख्य सव्यापसव्य । प्रष्ट Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ५०५ पश्यति KsSAX655 अशुद्ध जैमिधि जैमिनि समन्बव समन्वय शनै शनै शनैः शनैः मैं सदात्मन तदात्मान तस्मातत्सर्वमभवत तस्मात्तत्सर्वमभवत् वसं इसलिये काली, नर्तमान कालीन मात्मका आत्माका पश्यति हस्ति है इस्ती है प्रकृतम अकृत्रिम दीपिका दीपिका मात्मैवान्त्मानं मात्मैवात्मानं स द्वितीयेमिव सद्वितीयमिष जहरू देखता है जड़ रूप देखता है प्रपंञ्चभिर्गतत्वा अपंचान्सर्गतत्वा संभवित संभावित वेदान्तर्गत वेदान्तान्तर्गत प्रदार्थन्तर पदार्थान्तर अंधाकार अंधकार स्वाभावरूप स्वभावरूप संभिवित संभावित इत्यद्वेतमत इत्यादैनमत आविर्भूत अविर्भाव माविर्भाव ५१६ ११६ ५२० अविर्भूत Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति धर्माधर्म xxx ५.२५ १५ ५२८ १६ अशुद्ध धर्माधर्म सेवामल्पा तेषामल्पा सकले सकता योगीभ्यास योगाभ्यास मष्फल निष्फल अविद्यास बिमा अविद्याके पिना विशिष्ट संपसे विशिष्ट रूपके कहा जाय तो कि कहा जाय कि वह इसलिये तो यह इसलिये पृषक विम्वस्थानाय विम्बस्थानीय मलिनादि मलिस्वादि प्रा? विशंभनु विशमनु पत्ताञ्जलि पतञ्जलि दर्शनामेक दर्शनानामेक सामानतय समानतया प्रथक प्राहु ५३२ २४ ५३३८ ५३४ ५३६ २२ २३ यद्यारित मत था योगीमत युधिष्ठर यस्ति मसका था योगमत युधिष्ठिर षष्टश्न ५३६ ५३९ १० २४ ख्यक्त बासकी पास ही Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुस्पसौ ५४३ » ru पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुश ४१ ४ निर्गुण निर्माणा ५४२ नुपत्ती ५४२ सष्टया सष्टया कुमारिलाचार्थ कुमारिल भट्ट ईश्वससिद्धे . ईन्धरासिद्धेः ५४५८ छैष कर्मासार कमोनुसार सर्वेश्वर्य सर्वस्वर्य ५४८ निनिस निमित ५४६ खसख अपौरषेय अपौरुषेय सुषुप्ति सुषुप्ति ५५२ सिद्ध सिद्धि ५५२ सिद्धके सिद्धिके ५५२ सांखयाशर्य सांख्यावार्य ५५२ ईश्वराभात् ईश्वरामावान ५५३ विस वित्त श्रुतियाधः श्रुतिवाधः कमादिका कणादका समवावी समभावी ५५७ धर्माधर्मरूपको धर्माधर्मको ५४६ ५५४ ५५८ प्रारमा उत्पा, मात्मा ज्ञान उत्पन्न ५५६ ५६० १५ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ५६१ नय ५६३ ५६४ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ४ न पुनर्व ५ बनता है অনাঃ १० लगिया १६-२० हैं आकाशाववायुः आकाशाद्वायुः शब्दकेण होनेका शब्द के गुण होने का स शब्द द्गख चित्र स शब्दः पुद्गलचित्र: वर्गणा हते हैं वर्गणा कहते हैं ऐतहासिक ऐतिहासिक २. अर्थ साधक अर्थात् साधक कर्म फल के कर्म फल दाता के मात्र स्थान स्थान मात्र मैश्ययं मैश्वर्य स्वकृताभ्यगम स्वकृताभ्यागम ईश्वर को ईश्वरका ब्रह्म तो ब्रह्म में तो ५६४ ५६५ - x.kSKHE ब्रह्मके ५६८ प्रक्षको पुष्टि प्रथक १६ तुष्टि धृथक लक्षण लक्षण प्रादात प्रदात १८ उसीसे उसी सूत्र से १-२ द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष प्रसूतात् अधिक पाठ है ३ निःश्रेयसधिगम निःश्रेयसाधिगमः ५७५ ५७८ - Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पू पूज ল ५८१ ५.८१ ५८३ ५८.३ ५८५ पूधू ५८६ ५८६ ५६६ भू८८ ५८६ ५६ ५६२ पंक्ति & १८ २१ Y २ २२ १४ १८ ४. ८-१ ५० १ २० २३ ५६४ २१ ६.४ २४ ६०८ २१ ६१० ११ ६१४ १२ ६१५ १५ ६१५. २५ ६१५ २५ ( ११ ) अशुद्ध तत्वानान्तिः योगाष्यया कारण ईश्वर भूमिकायें अप्रमाण्य भास्ति मिकत्व वेद को विष्पष्टं वृतं जैमिनिनानां पाप पाप आनुभविक भूमिजनन् दर्शनिकों में भानते गुण्या विषया शृणी और तराजू हमने त्रेतायें इससे विद्यार्थियों को समाय व लगनेवर के शुद्ध सत्वज्ञानाभिः योगाद्या कारणमीश्वर भूमिका में अप्रामाख्य अस्ति वैनाशिकत्व वेद में विस्पष्टं वृन्तं जैमिनीनाम् पाप अनुनधिक भूमीजनयन् दार्शनिकों में मानने त्रैगुण्य विषया ऋणी और न तराजू हमने त्रेताय इससे विद्यार्थियों के लिये समावर्त्य लगने के बादके Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ ६१६ ६२० १२० ६२४ ६३६ ६२४ ६३४ L ६३५ ६३५ पंकि १८ १८ पूर्ण १६ १० १२ ܘܢ २४ ६३६ ६३६ ६३६ ७ ६३६ १३ ६४० २२ ६४७ १ ६५० ६५० ६५० ६५१ ६५१ १८ ६५७ २२ ६५८ २५ પ r ( ३२ ) शह विदियां ज्योतिष्क विकास आवश्कता घाटातो होता है उपाधि सुशोभित, पत्र कामred प्रभु प्रभुः लोक मान्य लोकमान्य जाता में आता है बृहदान्यकोपनिषद्, बृहदारण्यकोपनिषद् - कामभिर्जि निषक्तमच तमेवेति सन्ताधान अन्थ चितमन पढ़ तो को कल्पान्तरों में सुकी हूँ शुद्ध विंदियां ज्योतिष विकाश मलाइयां कि उसके पच्छ्रम आवश्यकता घाटा होता है तो उपाधि से सुशोभित कामयते यत्र सकाममिर्जायते निवक्तव तमैचेवि सत्तावान अन्य चित्तमन (चिंतन) वे तो को जो कल्पान्तरोंमें चुका हूँ पड़ भलाइयां जो कि उसको पश्चिम : : 1 I ! | ! Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पृष्ठ पंक्ति ६६० १५ ६६॥ २० ६.७ ... ६३ ६ ६८४ ६८५ . अशुद्ध अंतकल अंतकाल वृतान्त यह घृत्तान्त पानी यानी न प्रकटन प्रकट न पिछले पीछे शराब शराबी भलाई लिये भलाईके लिये भाना है माना गया है अपने आपने कर्मों में से कौसे चाहिये यह चाहिये कि यह पाहिले को रहिये शिकाँके ईश्वर अप्रतयं है ईश्वरकी इच्छा अनवमी नियमोंको नियमोंके कामकी नामकी प्रतिष्ठित प्रतिष्ठित ईश्वर से भिन्न ईश्वर से अभिन्न ... २३ Arrur Fr9 १ ६६ १६ किसी सो कहे मसिमक्षा जगत के पदार्थ वर्षों की म. महावीर जिन्हें कभी भी जो कहे सिसृक्षा जगत के मूल पदार्थ युगों की ७०४४ ११ म० महावीर जिन्दे Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - पृष्ट पंक्ति & कोई ७२१ ७२२ अशुद्ध होते से होने से सन्वन्धी संबन्धी पूर्व भौतिक पूर्वका भौतिक काई भी चढ़ कर ले चढ़ कर बोले विज्ञान के बले विज्ञान के एक लोहे की एक सेर लोहे की तस्मात्महत् तस्मान्महत द्वितीयः राजसतमम् , द्वितीयं राजसंतमम् सूक्ष्मभूल सूक्ष्मभूत भादाभेद भेदाभेद गमी गर्मी सर्य ७३४८ सूर्य परंतु ७४२ मंसार संसार বিজলি पचनजाना शक्ति भा शक्ति भी पड़ीर हने पड़ी रहने अळूना अछूता सष्ट स्त्रियोंको सपत्नियों को महाभारतमें मीमासामे, महाभारत मीमांसा में - गरमी कर्ता गरमी का कर्ता वोद्धिक खाह यह भी वहां यह भी सखतेव सतीत्व ६५५ १४ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ ७६७ xv.esxxw MARA ७६१ ७७० ७७० FFFFFFFFFFFFERE ७७१ यह प्रयोजन इस प्रयोजन (२) स्मृति (२) स्मृत्यात्मक कारणवच्चेत करणवच्चेत् सरकार्यवद सत्कार्यवाव कार्यान्तरं मुत्पादयति, कार्यान्तरमुत्पादयति युगद्दनेक युगपदनेक प्रय विद्यमान अविद्यमान जनको उनकी विद्यतेऽभावः विधतेभावः संजाये सजायेत पासवान वर्तमान अविष्कार आविष्कार प्रकृत्ति प्रकृति कार्य सम्बन्धक कार्यका उसको कार्य कार्य होना परिमाण परिणाम विपत्ति से विवर्त चिकीषी चिकीर्षा निमित्ति निमित्त कृर्तृत्व का कर्तृत्व का जीव की जो जीव को तो प्रवृति प्रवृत्ति कत्त कर्ता अप्राकृत अप्राणिकृत निष्कय मिष्क्रिय ७७६ ७८६ २२ २४ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति 761 21 763 अशुद्ध परिणामिनी परिणामिनो ईश्वर सर्व व्यापक. ईश्वर के सर्वव्यापक इन दो में एक मैं एक पालने में पालने से स्वतनका स्वतन्त्रताका यही यह भी ईशररमें ईश्वर में भय, शंका. लजा क्ष्यालुता कार्य में 765 766 15 कार्य के 804 815 815 817 21 23 มี มี มี ม ม ม ม เ कोटि का ब्राह्मण काल पर थी संन्यासी नैमित्तिक कोटीका ब्रामणका पर भी सन्यासी नैमिमित्तिक करने “योनि अमुथुनि अनुवादक अण्डकोशों में कुमारकाः गोरव विद्वान ने ख्यल वांगमय "योनिज" अमैथुनी अनुवाक अण्डकोषों में कुमारकाः गोवर विद्वानों ने ख्याल वाङ्मय में 2712 827 825