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________________ ( ५६ ) रूपमें लाकर दस दस और कहो नो तेतीस होते हैं। इन सबको मिलानेसे ३३३८ होते हैं। यह संरूपा देवताओं की ऋ० ३।३१ह में कही है। परमार्थ यह है कि ये सब दिव्य शक्तियाँ जो छोटे छोटे अत्रान्तर भेदोंमें तो अधिक से अधिक कही जा सकती हैं और सामान्य रूपों में न्यूनसे न्यून होती हुई परम सामान्य में एक है । सर्वथा ये सारी विभूतियाँ परमात्माकी अलग अलग महिमाको प्रकाशित करती हुई अलग अलग देवता हैं और समष्टिरूप में एक ही अधिष्ठात्री शक्तिको प्रकाशित करती हुई एक देवता है । देवताओंके विशेष रूपका स्पष्टीकरण वेदमें इस विश्वको तीन भागों में विभक्त किया है - पृथिवी (यह लोक). if (ऊपरका प्रकाशमय लोक ) और अन्तरिक्ष ( इन दोनों का अन्तरालवर्ति लोक) । इसके अनुसार परमात्माकी जो दिव्यविभूतियाँ पृथिवी पर हैं, वे पृथियो स्थानी देवता, जो अन्तरिक्ष में हैं वे अन्तरिक्षस्थानी देवता और जो धो में हैं वे युस्थानी देवता कहलाते हैं। पृथिवी स्थानी देवताओं में प्रधान श्रभि है जो इस पृथिवी और पृथिवी पर होने वाले स्थावर जंगम के अन्दर वर्तमान होकर उनके जीवनका आधार है। अभि ही अपने विशेष धर्मो के आश्रयसे जातवेदस ( जो भी उत्पन्न हुआ है उस सबके पहचानने वाला) और वैश्वानर (सब जीवों में जठराग्निसे वर्तमान) यदि नामोंसे प्रकाशित किया है। अभि तेजोमय है प्रकाशमय है वह हमें तेजस्वी बनाता है, प्रकाश देता है, और बेरेको मिटाता है । यज्ञामिके रूपमें हमें धर्म कार्य प्रेरता है और किये यज्ञोंका स्विष्टकृत ( किये यज्ञको पूर्ण बनाने वाला) है। श्रमिके सम्मुख जब पुरुष दिव्य व्रतोंको धारता है तो वह उसे मानुष जीवनसे दिव्य जीवन में ले जाता है। इस प्रकार प्रकाश और धर्मको मनुष्य
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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