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________________ ( २५१ ) श्रथवा तीन देवोंका सिद्धान्त मान्य है । यह ३४ वां देववाद की कल्पना है. फिर भी इसका अर्थ यहाँ यज्ञ आदि है। आपका कल्पित ईश्वर नहीं । आपने भी इसी स्थल में लिखा है कि-"इन दोनों स्थलों में प्रजापति यसका बावक है" अतः सिद्ध है, कि यहाँ यज्ञ अर्थ है ईश्वर नहीं । तथा आपके लिखे हुए मन्त्रमें भी लिखा है कि. ( प्रजापति करोति ) अर्थात्-यजमान प्रजापतिको बनाता है । तो क्या आपका ईश्वर भी बनाया जाता है। इसीलिये आपको 'प्रजापति करोति' का अर्थ 'प्रजापतिको जानने वाला बनाता हूँ" करना पड़ा जो कि बिलकुल ही मिथ्या है। परन्तु दुःख तो इस घातका है, कि फिर भी आप अपने मनोरथको पूर्ण करने में सर्वथा असफल रहे। क्योंकि आपके इस प्रमाण में लिखा है कि यह प्रजापति भरण धर्मा भी है। तो क्या आपका ईश्वर भी मरता रहता है ! अतः आपको फिर यहाँ मिथ्या अर्थ करना पड़ा और आपने लिखा है कि जो मरन धर्मा है वह भो प्रजापति ( का ही काम) है।' यहाँ आपने ( का ही काम ) यह शब्द अपनी तरफ से कोट में लिखकर अल्पज्ञों में भ्रम उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया है। अतः इस प्रकारके मिथ्या प्रयत्नोंसे किसीका मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकता है। आगे आपने लिखा है कि- वह जो यह पूर्ण पुरुष प्रजापति है. उसने कामना की कि मैं बहुत अर्थान् महिमा चाला हो जाऊँ प्रजा वाला होऊं उसने जगतके परमाणुओं को क्रिया देनेका श्रम किया. उसने ज्ञानरूप तप किया उसके धकने पर (क्रिया का चक्कर चल पड़ने पर ) और ज्ञानरूप नप होनेपर बेदको उसने सबसे पहले उत्पन्न किया इसी नयी वियाको यही उसकी प्रतिष्ठा है अर्थात आधार है। व्याहृतियों और वेद
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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