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________________ -LA ( ७२. ) संशयके पश्चात सन २० और ३०० ई. के मध्यमें एक प्रकार के अद्वैतवादका प्रारम्भ यूनानमें हुअा । जिसका आचार्य प्लाटीनस ( Pilotinus jथा । अद्वैतवादियोंकी तरह वह भी जीयको शरीर की भांति उत्पन्न सत्ता बतलाता था। इसकी शिक्षा थी कि केवल ब्रह्म ही सत्य पदार्थ हैं. और वही जगत का अभिन्न निमत्तोपादान कारण है, परन्तु जगदुत्पत्ति उसके हाथ नहीं किन्तु विकास का परिणाम है । वह पहले बुद्धिं उत्पन्न करता है। बुद्धि से जीव उत्पन्न होता है । इत्यादि सुकरात प्रादिके ये सिद्धान्त और विचार नारायण स्वामी जी ने अपनी यात्मदर्शन" शीर्षक पुस्तकमें दिये हैं। इनमें सुकरात का आठवां उपदेश ईश्वर विषयक है, जो विशेष विचारणीय है। यह उपदेश जैन धर्म की प्रतिकृति ही है । जैनधर्म में भी श्रात्मा और परमात्माका यही रूप है। जिसका वर्णन सुकरात ने किया है। वैदिक धर्म की भी प्राचीन मान्यता यही थी। इसके अलावा सुकरात ने तप आदिसे आत्म शुद्धि का कथन भी जैनधर्मानुसार ही किया है। सुकरात ही पश्चिमीय विद्वान और दर्शन एवं धर्मका जन्मदाता समझा जाताहै। कारण यह है कि इनसे पूर्व जो सिद्धान्त प्रचलित थे उनमें परस्पर विरोध देखकर जनतामें अविश्वाससा उत्पन्न हो गया था । तथा मनुष्योंके हृदयोंमें अनेक प्रकार को शंकाएं भी उत्पन्न होती थी । सुकरात ने उन दर्शनोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया। तथा प्रत्येकको शंकाका समाधान भी किया। अतः यूनान में तथा यूरोप में इसी के मतका प्रचार अधिक हुआ । अभिप्राय यह है कि सुकरातने पश्चिममें एक नया युग और नया दोर आरम्भ किया जो कि अब तक प्रबल धेगके साथ चलता रहा है ।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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