SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 731
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनो (Zsno)-ईसासे ३४० वर्ष पहले हुआ था, इसने "त्यागवाद" की स्थापनाकी । यह अद्वैतवादी था । इसका विचार था कि जीवात्मा प्राकृतिक है और शरीरके साथ ही उसका भो नाश होजाता है। प्रलय होने पर ईश्वरके सिवाय सब नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। जैनोंका त्यागवाद मुख्यतया श्राचारसे सम्बन्धित था । प्रो० सिजविक (Prot Henry Sedqwick)ने अपने प्रसिद्ध प्राचार संबन्धी इतिहासकी पुस्तकमें त्यागवाद का जीवके अमरत्वसे क्या सम्बन्ध था यह प्रश्न उठाया है, और इस विषय पर कुछ प्रकाश डाला है उनके कथनका सार यह है । :--"त्याग बाबमें जीवकी अमरताका विश्वास बहुत संदिग्ध था, परन्तु बिल्कुल रह भी नहीं किया गया था। (इस वादके) पुराने शिक्षकों के विषय में हमें बतलाया जाता है कि "क्लीनथीस" (Cleanthis) के मतानुसार शरीरके नष्ट हो जाने पर जीय बाकी रहता है, और काईपिसस"(Cryseppus)कड्सा है कि जीय बाकी तो रहता है, परन्तु केवल बुद्धिमानोंका अद्वैतवाद के प्रभाव से वह अन्तको उसके भी घाकी रहनेका निषध करता है । इपिक्टेटस (Epictetus) अमरत्वके विश्वासके सषथा विरुद्ध था। दूसरी ओर "मैंनेका" (Senec) अपने कतिपय लेखाके भी शरीर रूपी बन्दीमहसे जोव के मुक्त होने का विवरण प्लेदोकी भांति देता है। परन्तु एक और स्थल पर परिवर्तन और नष्ट होने के मध्य में मार्कस ओरिलियस (Maruss Aurelins) की माँति अपनी सम्मति देता है। ___ पिर हो ( Pyrrho ) इसके उपरान्त "पिर हो" के संशय वाद का यूमानमें प्रारम्भ होता है. परन्तु जीव सम्बन्ध विचार की दृष्टि से भीक फिलासफी प्रायः यही समाप्त होती है । *History of Ethicps By. H. Sidgwick P. 102
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy