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________________ । ४१५ । अगोचर था, इस वास्ते सर्व प्रोरस सुतकी तरें स्वकार्य करणेमें असमर्थ था। "सारख्याचाहुः"-- पंच विध महाभूतं नाना विध देहनाम संस्थानम् । अव्यक्त समुत्थानं जगदेतत् केचिदिच्छन्ति ।। ६८ ।। व्यख्या--सांख्य मत वाले कहते हैं कि---पाँच प्रकार के महाभूत, नाना प्रकारका देह, नाम, संस्थान (आकार ) ये सर्व अध्यक्त प्रधान से ही समुत्थान ( उत्पन्न होते हैं, अर्थात् जगदुस्पत्ति प्रधान से मानते हैं। "शाक्याबाहुः".--- विज्ञप्ति मात्रमेवैत दसमर्थाव भासनात् । यथा जैन करिष्येह कोशकीटादि दर्शनम् ॥ ७४ ॥ व्याख्या-बौद्धमती कहते हैं कि जो कुछ दीखता है, सं. सर्व विज्ञान मात्र है, क्योंकि जो दीखता है सो असमर्थ होके भासन होता है अर्थात् युक्ति प्रमाणों से अपने स्वरूपको धारने समर्थ नहीं है. हे जैन ! जैसे तू कहता है कि, मैं कोशकीटकादि का दर्शन करता हूं वा करूंगा, परन्तु यह जो तुझको दीखता है.. सो उापाधि करके भान होता है, न तु यथार्थ स्वरूप से । "पुरुष वादिनचाहु"-- पुरुष एवेद , सवं यद्भुतं यच्च भाव्यम् । उतामृत स्वस्येशानो यदन्मेनाति रोइति ॥ आदि व्याख्या---पुरुषवादी कहते हैं, किं-पुरुष, आत्मा, एवशब्द
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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