SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अग्नि--सविता. मित्र, वरुण प्रभृति देयना धन प्रदाता अनि को धारण कर रहे हैं । रथ चक्र की परियों को जैसे नेमि व्याम किय है। अनि ? तुम भी वैसे मन को सर्व तो भाव से व्याप्त कर रह हो । तुम्हारे साहाय्य से बमरण स्वीय अत धारण करने हैं. मित्र अन्धकार नाश करने हैं. एवं अर्यमा मनुष्य की कामना ओं की मामी मान करते हैं । सब देवता श्रम का ही याग करते हैं. अग्नि में ही होम करत हैं। प्रथमाभिव्यक्त अग्नि का मब श्यता नमस्कार करते हैं । है अग्नि ? अन्य सत्र अमर देव वर्ग सुम में ही अवस्थित हो रही हैं. सभी देवता तुम्हारे श्राभित है। हे अग्नि ? तुम्हारा ही ऐश्वर्य देवताओंका ऐश्वर्य है। देवता अग्निमें प्रविष्ट होकर निवास करते हैं। प्राणियोंके हृदयमें अग्नि अचल ध्रुव ज्योति रूपले प्रविष्ट है। सब इन्द्रियाँ इस नित्य अग्नि के समीप ही विचिंध विज्ञान रूप उपहार प्रदान करती हैं। सभी इन्द्रियाँ इस अग्नि की क्रिया का अनुवर्तन करती हैं। पाठक गण विवेचना कर देखें, इन स्थलों में अनि. शब्द द्वारा सब देवताओं में अनुस्यूत कारण सत्ता ही जान पड़ती है । कारण सत्ता माने बिना, देवना अग्नि को धारण किये हैं, इस उक्ति का कोई अर्थ नहीं बनता 'ध्र य ज्योति' मन्त्र में अग्नि स्पष्ट ब्रह्म सत्ता रूप से वर्णित है। कठोर निंप में श्रात्मा के सम्पन्ध में अवकल ऐ.मी ही शत देखिये 'सर्व प्राण मुखयति अपार्न प्रत्य मत्यति । मन्ये वामन मा मीन विश्व देवा उपामते, २।५।३ हृदय पुण्डरीका काशे पानी में शुद्धाव भिव्यक्त ... सर्व देवा श्चक्षु रादयः रूपादि विज्ञानं बलि भुगदरस्ती विशाइब गजान . तादन अनुपरत व्यापारा भवन्तीत्यर्थः ( शंकर भाव ) पाठक 'पट ल, शुद में शनि का वर्णन भी ऐसा ही है । अन्य स्थान में भी पास स्य मम योजुन ६:११४ । नजान वंशक )
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy