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________________ .मरुन नामक देवता के विषय में सुनिये-- यस्या देका उपस्थे ब्रता विश्वे धारयन्ते ।८६४ाश अात्मा देवानां वरुणस्थ गर्भः ११०११६८१४१ मा की गोद में प्राषित रह कर, देवता वर्ग निज निज व्रत वा क्रिया निर्वाह करते हैं। पाठक सोच लें, मरुत का अनुभव कारण-सत्ता रूप से यहां हो रहा है । इसलिये इन्द्र को 'ममत वान रुद्र को 'मरुन वान' कहा गया है । और इसी उद्देश्य से वायु को दूसरे मन्त्र में देवताओं का अात्मा माना है । वश के लियं लिखा है वरुणस्य पुरः "विश्वे देवा अनुव्रतम् ।।४१७॥ न वां देवा अमृत आमिनन्ति ब्रतानि मित्रा वरुणा ध्र वानि !५।६।४। यस्मिन् विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिवश्रिता ना४१६ वमण के ही सन्मुख सत्र देवता निज २ क्रिया सम्पादन करते हैं। हे मित्र वरूगा ? कोई भी देवता तुम्हारे कर्मों का परिमाण नहीं कर सकता । रथचक्र की नाभि में जैसे अरियां प्रथित रहती है. से ही वरुण में त्रिभुवन अथित है। इन स्थानों में वरुण. .--. .... ...- . ___ और यह भी है---"तव थिये मरुतो मजयन्तः । ५ । ३ । २ । यांग्स के ही प्रावार्थ मरुद्गण अन्तरिक्ष का मार्जन करते हैं यह भी देखते हैं कि- ही देवताओंका अन्म जानता है | ८ | ३६ । ६ । सर्वत्र ही अभि शन द्वारा कारण मना निर्देशित हुई है।" .--. -
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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