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को कारण-सत्ता या ब्रह्मस्वरूप मानने का बाध न होता. तो हम ऋग्वेद में सी उक्तियां देखने को न पाते ! यदि अग्नि कोई स्वतन्त्र जड पदार्थ ही है. तो फिर यह बताना पड़ेगा कि अन्यान्य देवता किस प्रकार अपने में उस अग्नि को धारण करते हैं. किस प्रकार देवता उस अग्नि का ब्रत थ कार्य पालन करते हैं, और क्यों उस जड़ अग्नि की स्तुति करने हैं ? इन प्रश्नों का समाधान नहीं मिल सकने से अनिवार्य रूपेण यही मानना पड़ता है कि अग्नि प्रभृति देवताओं में जो कारण-सना अनुप्रविष्ट है वह। म्तुत पात्र है, क्योंकि वही ब्रह्म सभा है। आगे हम कुछ मन्त्र लिखकर बनाते हैं।
"देवा अग्निं धारयत द्रविणोदाम्" अग्नि देवासो अग्निमिन्धते । ६ १६ । ४८ । स्वां विश्वे अमृत जायमानं शिशुन देवाः अभिनवन्ने
(६ । ७ ! ४) स्त्याहि अग्ने वरुणो धृतवृतो मित्रः शाद्रेि अययों सुदानवः । यत्सी मनुक्रतुना विश्वथा विभु अरान्न नेमिः परिभर जायथाः ॥ ६ । १४६ । ६ |F
वे अग्ने विश्वे अमृतासी अद्रहः ।।१।। नव श्रिया सुदृशो देव देवाः । ५।३ । ४ । अग्ने नेमिग्रॉ इव देवांस्त्वं परिभामि । ५११३।६। ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशयेकं मनो जाविष्ट पत्तयत्सु अन्तः । विश्वे देवाः समनसः सकेताऽएक क्रतुमागवियन्तिसाधु ।।
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