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________________ ( २३७ ) प्रजापतिर्लोकानस्यतपसेोऽभिसप्तेभ्यस्त्रयी विद्या सं प्रास्रवत्तामस्यतपत्तस्पाभितप्ताया एतान्यक्षराणि सं प्रासवंत भूर्भुवस्वति ॥ २ ॥ तान्यभ्यत्तपत्तेभ्योऽभितप्तेभ्यः ॐकारः मं प्रावत् || ३ || ( छान्दो० उप० २।२३ ) "प्रजापतिने तीनों लोकोंको तपाया. उन सपे हुए तीनों लोकों से तीन विद्याएँ निकल आय: फिर उन विद्याओं को तपाया. उन से भूः भुवः स्वःये तीन अक्षर निर्माण हुए। फिर उनको तपाया उनसे ॐकार ( अर्थात) अ. उ. म. ये तीन अक्षर निर्माण हुए। " अर्थात् यह ॐकार सत्र लोकों और सब क्रियाओं का सार है । सब वेदोंका सत्य इसम हैं । इस प्रकार यह सारोंका मार किंवा तत्वांका तत्व है। सन्का भी यह परम सत् हैं। और इसका अर्थ मांडू उपनिपट बताया ही है, कि यह जीवात्मा की तीन अवस्थाएँ बताकर चौथी असली अवस्था की ओर इशारा करता है। इतना होने पर भी किसीको शंका हो सकती है कि, ॐकार से परम परमात्माका ही बांध केवल हो सकता है। और किसी अन्य पदार्थका नहीं. उसको उचित है कि, वह प्रश्नोपनिषद् का निम्नलिखित वाक्य देखे एतद्वै सत्य काम परं चापरं च ब्रह्म य श्रारः ॥ (प्रश्न० उप०५/२) “हे सत्यकाम ! यह 'ॐकार परम (मुक्तात्मा) और अपर ब्रह्मका बद्धात्मा वाचक है।" और उससे जीवात्माकी चार अवस्थायें ( १ ) जागृति (२) स्वप्न ( ३ ) और ( ४ ) तुर्या बतायी है। अकार
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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