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________________ ( ११२ ) की अवस्था में कल्पना व तर्क का आश्रय ले विवेचकों को बेह की सत्ता स्वीकार करते भी अपनी राएँ देनी पड़ी जिससे उनमें विभिन्नता तो अवश्य आई पर सनातन तारतम्य बनाये रखने का यत्न भी समय २ पर श्रीमानों ने तत्परता से किया जिसके फलस्वरूप aौदिक धारणाओं से सुदूर आ जाने पर भी हिन्दू वेदों को प्रिय समझते रहे और अपनी श्रमिकता को वेद सम्मत रखने में गौरव माना स्तुत काल के विश्वबाद के तीन रूप संहिताओं में दिखाई पड़ते हैं । साधारण विचार था कि 'बाबा पृथ्वी (रोदसी-क्षोशी) आकाश व मृत्यु लोक एक में मिले हैं ये दो लोक है. दोनो बड़े की तरह मिले हैं या एक अक्ष के दो सिरों पर दो चक्र के समान स्थिर है। पृथ्वी भूमि, क्षमा-दा-मही, ग्मा, उर्वी- उत्ताना अपरा आदि और आकाश दिव-व्योमन-रोचन आदि नाम से भी ऋचाओं में वर्णित किये गए। पीछे विष्णु के त्रिसदस्य की कल्पना में इन दो के स्थान में तीन लोकों की धारा चल पड़ी। माना जाने लगा कि विश्व तीन लोकों में विभाजित है । पहला लोक यह रत्न बक्षा पृथ्वी हैं। जिसके ऊपर मनुष्य जीव, नदी पर्वतादि दिखाई पड़ते हैं, दूसरा लोक वायुमंडल का है जिसके ऊपर नक्षत्र लोक व नीचे पृथ्वी लोक है. बिजली, वायुवर्षा दल इसी दूसरे लोक के पत्रार्थ हैं और इसीलिए यह लोक कृष्ण वकिः जल वाला भी कहा गया है. तीसरा लोक. नक्षत्र या स्वर्ग लोक है जो वायु लोक के ऊपर है, वह देवताओं का स्थान है और देव सदृश अमर पितर भी उसी लोक में चन्द्रमा के साथ निवास करते हैं। पृथिवी के रत्न वहाँ पितरों को सहज ही प्राप्य हैं। मृतों के राजा यम से पितरों का साक्षात् कहीं होना है और उस देवमान-सदन में यम अपनी बहन यमी ·
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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