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आचार- पालन में झूठ के त्याग, जुआड़ियों के दुःखद जीवन का उदाहरण ग्रहण और पारवारिक जीवन में एकता की शिक्षाएं भी की गईं। इसका अधिक भार ऋग्वेद पर ही था और उसने वरुण की स्तुतियों में उन्हें सदाचार का देवता बना रखा था । अथर्ववेद ने उसके अनुकूल वरुण देव से पाखरियों व अत्यवादियों को दरित करने की प्रार्थना की। ऋग्वेद की मानस्तुति के सादृश बचन कुन्ताप सूक्त में देकर विभूतियों के सम उपयोग की शिक्षा की और औषधियों के बगान से रोगों का नाश कर जीवन को नीरोग रखने का उपाय सोचा। इस प्रकार ऋग्वेद की आरम्भिक स्तुति की पूर्ति चारों सहिताओं की ऋचाओं में की गई और उनमें एक लक्ष्य का सम्पादन करते हुए इस भूतल पर स्वर्ग-सुख-साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रदर्शित किया गया, जिसकी स्मृति में आज तक आर्य ऋषिवंशज प्रसिद्ध गायत्री के पाठ में जपा करते हैं----
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।
वैदिक स्तुतियों में देवताओं के गुण-शौर्य-विवरण में विश्व - यादव सृष्टि-परक सम्मतियाँ भी ऋषियों ने व्यक्त कीं, पर वे इतनी गढ़ थीं कि वर्षों बाद का चिन्तन भी उन्हें स्पष्ट नहीं कर सका और 'वेदोऽखिलो धर्म मूलम' को स्वीकार करते हुये भारनीय दार्शनिक संहिता युगके बाद बराबर वैदिक विचारों पर मनन करते रहे। उसी मनन की श्रृङ्खला में अनेक दार्शनिक धारणाओं का प्रादुर्भाव हुआ। ऋचाओं के रहस्य को समझने में