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अथर्ववेद वी स्तुतियों से भी भर! हैं जिनमें रत्न धातम' के व्याख्यात्मक प्राप्य रत्न व उनके पाने के साधनों के विवरण दिए गए हैं। इसी कारण अथर्ववेद लौकिक विभूनियों से ही सम्बन्ध रखने वाली प्रार्थनाओं का संग्रह समझा जाता है । यदि ऋग्वेद में हेत-साधन को विधा है तो यजुर्वेद में व्यवहारात्मक विचार प्रदर्शन किए गए हैं और अथर्ववेद उनसे उत्पन्न होने बाली विभूतियों से सम्बन्ध रखता है । ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में म्नुनि विश्वपुरुप के विराट विश्व यज्ञ के सिद्धान्त का व्यवहारमय विवरण यजुर्वक सवमध पुरुषमेध अश्वमेध और प्रयग्य सम्बंधी मंत्री में किया गया । प्रवयं का स्पष्ट अभिप्राय है कि यह संसार एक कड़ाही रूप है जिसके नीचे कमां न प्रचलित हो रही है. उस कड़ाही में मनुष्य रूपो दूध उबालने की क्रिया जारी है, और जस कृत्य से प्रस्तुत यज्ञ फल विश्व पोषण निमित्त ही है । ये यज्ञ किसी के प्रतिहिंसा या घृणा या प्राधात नहीं चाहते, बल्कि उनका ध्येय है----
"मित्रस्याहश्च छु म मर्याणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे ।।"
इस सिद्धान्त का अनुसरण करने हुए अथर्ववेद में विभूति संचय के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया । विभूतियों की प्राप्ति के माग में श्राने वाले विघ्नों को दूर करने के उपाय मांचे गये, शत्रुक्षय के लिये युद्धप्रायोजन किए गए. वीरता की श्राश.एँ सुपुत्रों में रक्खी गईं. ब्रह्मचारियों के जीवन में मंगल व चल की कामना की गई और राजा व नायकों के सवल होने पर ध्यान दिया गया । जो चमत्कार द्वारा धनधान्य, स्वस्थ जीवन प्राप्त करने के उपाय जानते थे वे अपनी चेष्टा में रत हुए।