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________________ ईश्ररके लिये क्या अज्ञात और अप्राप्त था। और जब उसकी इच्छा ऐसी ही अकारण निस्प्रयोजन है तो अब उस पर कोई अंकुश तो लग नहीं गया है। वह किसी दिन भी सृष्टि का संहार कर सकता है। अंध विश्वास चाहे जो कहे परन्तु कितीकी बुद्धि स्वीकार नहीं कर सकती कि ऐसा होगा ! ईश्नरवादी कहते है कि ईश्वरका स्वभाव ही अंकुश है और नियम पतित्व उसका स्वभाव है। जगत में जो कुछ होरहा है वह नियमोंके अनुसार हो रहा है। इन सब नियमों को समष्टि को ऋत कहते हैं । ऋत ईश्वर का स्वभाव है । इस पर यह प्रश्न उठता है कि ग्रह स्वभाव ईश्वर का सदा से है या जगत रचना के बाद हुआ। यदि पीछे हुआ तो किसने यह दवाव डाला ? वह कौनसी शक्ति है जो ईश्वर से भी बलवती है ? यदि पहले से है तो जो इच्छा जगत का मूल थी वह ईश्वर के स्वभाव से अविरुद्ध रही होगी अर्थात् जगत को उत्पन्न करना ईश्वर का स्वभाव है परन्तु जहाँ स्वभाव होता है वहां पर्याय ( परिवर्तन ) रहते ही नहीं । ईश्वर की सिमृक्षा उसके स्वभाव के अनुकूल होगी। पानी का स्वभाव नीचे की ओर.की बहने का है, आग का स्वभाव गरमी है ईश्वर का स्वभाव जगत उत्पन्न करना है । न पानी नीचेको बहना. छोड़ सकता है और न ईवर जगतको उत्पन्न करना। उस अवस्था में उसको जगत का का कहना उतना ही होगा जितना आग को जलनका का कहना । कतत्व का व्यपदेश वहीं होसकता है जहां संकल्पकी स्वतन्त्रता हो. यह काम कर या न कर स्वभाव से इस प्रकारको स्वतन्त्रता के लिये स्थान नहीं रहता । अतः ये सब तक ईश्वरके अस्तित्वको सिद्ध नहीं करते।" पृ० १५-१.६
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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