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ईश्वर प्रसिद्ध है बा० सम्पूर्णानन्द जी (शिक्षा मन्त्री यू०पी० ) चिविलास में एक अधिकरण में ईश्वर विषयक विचार इस प्रकार पर कि हैं। ईश्वर मनुष्य का परिवद्धित और परिशोधित संस्करण है। उसमें वे सत्र सद्गुण है जो मनुष्य अपने में देखना चाहता है। इसी लिये प्रत्येक संस्कृति व प्रत्येक व्यक्ति के ईश्वर में थोड़ा २ भेद हैं। किसीके लिये कोई गुण मुख्य है किसीके लिये गौण । जो एक एक की दृष्टि में सद्गुण हैं वह दूसरे की दृष्टि में दुर्गुण हो सकता है।" पृ० ११४
ऐसा मानना कि प्रत्येक वस्तु कर्तृक होती है साध्य सम है सूर्य चन्द्रमा कर्तृक है इसका क्या प्रमाण है ? समुद्र और पहाड़ को बनाये जाने किसने देखा है ? जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि प्रत्येक वस्तु का कर्ता होता है तब तक जगत का कोई कर्ता है. ऐसा सिद्ध नहीं होता। जो लोग जगत को कर्तृक मानते हैं उनके सामने अपने व्यवहारकी वस्तुयें रहती हैं घर बनाने के लिके राजगीर घड़ेके लिये कुम्हार, गहन के लिये सुनार और घड़ी के लिये बड़ी साज चाहिये । ये सब कारीगर किसी प्रयोजन इन वस्तुओं को बनाते हैं. ईश्वर का क्या प्रयोजन था।" पृ०४
पुनः इस जगत का उपादान क्या था । यदि उपादान अकर्तृक है तो जगत को अकर्तृक मानने में क्या आपसी है। यह कहना सन्तोष जनक नहीं है कि जगत ईश्वर की लीला है। निमद्देश्य खेल ईश्वर के साथ अनमेल है । क्या वह एकाकी घबराता था जो इतना प्रपंच रचा गया? यह भी ईश्वरत्व कल्पनासे असङ्गत । यह कहने से भी काम नहीं चलता कि ईश्वर अप्रतय है। इच्छा किसी ज्ञातव्य के जानने की किसी आशव्यके पाने की होती है।