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________________ अगं पुरुषाय यो बा तो कुम्भकारी ( ६६३ ) श्री जिन सेनाचार्य लिखते हैं कि"कृतार्थस्य विनिर्मित्या, कशमेवास्ययुज्यते । अकृताथोंपिन सृष्टु, विश्वमीष्टे कुलालवत् ॥" अब यह कहो कि तुम्हारा सृष्टिकर्ता ईश्वर कृतार्थ है अथवा अकृतार्थ है ? यदि कृतार्थ हैं अर्थात उसे कुछ करना वाकी नहीं रहा. चागं पुरुषार्थीका साधन कर चुका है. तो उसका कतौ पन कैसे बनेगा ? वह मृष्टि क्यों बनावेगा ? और यदि अकृतार्थ है अपूर्ण है. उसे कुछ करना बाकी है, तो कुम्भकार के समान वह भी सृष्टि को नहीं माना मा ! को कार मी हो मालार्थ है इसलिये जैसे उससे स्मृष्टिकी रचना नहीं हो सकती है, उसी प्रकार से अकृतार्थ ईश्वरसे भी नहीं हो सकता है । अमूतो निष्क्रियो व्यापी कथमेषः जगत्सजेत् । न सिसमापि तस्यास्ति, विक्रिया रहितात्मनः ॥ यदि ईश्वर अमूर्त. निष्क्रिय और सर्वव्यापक है, ऐसा तुम मानते हो तो वह इस जगतको कैंस बना सकता है ? क्योंकि जो अमूर्त है, उससे मूर्तिक संसारकी रचना नहीं हो सकती है, जो किया रहित हैं. मृष्टि रचना रूप क्रिया नहीं कर सकता है. और जो सबमें व्यापक है. वह जुदा हाए बिना अव्यापक हुए विना सृष्टि नहीं बना सकता है। इसके सिधा ईश्वरको तुम बिकार रहित कहते हो। और स्मृष्टि बनाने की इच्छा होना एक प्रकारका विकार है-विभाव परिरणति है, तो बतलाओ उस निर्विकार परमात्माके जगत बनानेकी विकार चेष्टा होना कैसे सम्भव हो सकती है ?
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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