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________________ कुछ भी निष्पन्न नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में या तो शुन्यबाद, संशयवाद और मायावाद उत्पन्न होता है। अन्वथा ऊंचे दर्जे का तर्कवाद और भौतिकवाद अवतरित होता है। उस समय की सामाजिक परिस्थिति विज्ञान के अनुकूल नहीं थी इसलिये उल्टा मायावाद उत्पन्न हुश्रा और सारा बौद्धिक पराक्रम व्यर्थ गया । समाज को दुर्गति के दीर्घ धने अंधकार से प्रस्त करने के बाद निंद्रा और दुःस्वप्न ही तो तत्त्वज्ञान के परिणाम निकल सकते हैं और दूसरा निकल ही क्या सकता है। अन्त में संसार के विरक्त ईश्वर शरणता और अनन्य भक्ति यही धर्म-रहस्य बाकी रह गये। वारहवी शताब्दि से लेकर हिन्द साम्राज्यों के अन्त होने तक मायावाद. भक्तिवाद और जातिभेदात्मक आचरण. यही सच्चा हिन्दू धर्म बन गया, मुसलमानों, मराटी और अंग्रेजों के राज्य में भी यही अव्याहत रूप से चलता रहा । __ तर्क रन पं० लक्ष्मण शास्त्रीजी लिखित हिन्दू धर्म समीक्षा से, उद्धृत पृष्ट १४४-१४५ । शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन आदि विश्व-धर्म इन धोका पुरस्कार वैदिकेत्तर वरिष्ठ वर्गों ने किया पुरोहिसाई से जिनका सम्बन्ध नहीं था से राजन्य उनकी प्रस्थापनामें अगुश्रा बने वैदिकोंकी ब्राह्मण प्रधान यज्ञ धर्म संस्था भीतरी और वाहिरी कारणों से जिस समय क्षीण होरही थी लगभग उसी समय पच्चीस सौ वर्ष पहिले इस नई धर्म संस्थामें जोर श्राने जगा | वैदिक धर्म की अपेक्षा इसका निराला बड़प्पम यह था कि इसमें सब मानवों के लिए श्रेयका मार्ग खोल देने वाली व्यापक
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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