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________________ ( ४६० ) I उदार भावना थी। किसी भी परिस्थितका जातिका और समाज का. उच्च नीच पतित और उन्नति मानव शुद्धि होकर धार्मिक परम पदवीको प्राप्त कर सकता है। हिन्दोस्थान में ऐसी घोषणा करने वाले विश्व धर्म दूसरे समाज-संस्था के राष्ट्रांकी अपेक्षा पहिले उदयमें आये। वैदिक आर्यों द्वारा निर्मित-समाज संस्थाके विरुद्ध इन विश्व धर्मी ने सिर उठाया । वैदिक आर्य धर्मके अनुसार कि आर्य हो धर्मतः पवित्र माने गये थे वे अपनी परम्परागत पवित्रताके जोरपर श्रवैदिकों और शूद्रोंको हीन सामाजिक स्थित में पड़े रहनेके लिए लाचार करते थे, और स्वयं आधिभौतिक मुखोंके हकदार और धार्मिक पवित्रताकी स्वतंत्र योजनाको और अबोंदकतर सामान्य जतनाका जन्म सिद्ध अपवित्रताको नष्ट करने का प्रारम्भ इन विश्व धर्मों ने किया । शैव और वैष्णव धर्मोकी परम्परा वेद- पूर्वक से बालू श्री वैदिकेतर अनेक सुसंस्कृत संघों में ये धर्म चालू थे। उत्तर भारतके पश्चिम और वायव्य-विभाग में शैव और वैष्णव धर्मके नेताओं ने एकेश्वर भक्ति का जोरों से प्रचार करना शुरू किया । वेद कालीन वृष्धिक कुल में वासुदेवकी भक्तिका पंथ प्रचलित था इसको महाभारत में नारायणीयधर्म अथवा वाष्र्य अध्यात्म कहा है सामान्य लोगोंमें काश्मीरसे बंगालतक और हिमालय से रामेश्वर पर्यन्त शिव भक्ति चालू थी । उनमें भी बड़े २ तत्व वेत्ता उत्पन्न हुए इन धर्मोने वैदिकयज्ञ संस्था, पशु याग और ब्राह्मण महात्म्यका निषेध किया ईश्वर एकही है और उसको भक्तिसे सारे मनुष्य पवित्र होकर परमेश्वर पदको प्राप्त होते हैं परमेश्वर भक्ति के आगे वाकीकी धार्मिक विधियाँ व्यर्थ है नीतिके आचरण और भक्ति से ही मनुष्यका उद्धार होता है दात्री, वैश्य शूद्र ये सभी भगवद्भक्ति से शुद्धि होकर मुक्त होते हैं।
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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