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________________ ( ५३३ ) अर्थात् योगदर्शनका ईश्वर बुद्ध ( ज्ञान ) स्वरूप है, परन्तु वह अज्ञानवश जीवदशाको प्राप्त होरहा है। अभिप्राय यह है कि योगकी परिभाषा में पदार्थ हैं, एक बुद्ध दूसरा बुद्धयमान । बुद्ध परमात्मा तथा बुद्धयमान जीवात्मा बुद्ध मानके 'बुद्ध' होजाने कोही योग सिद्धान्त कहते हैं, जीवात्मा से परमात्मा होना यही योगका फल है। आगे इसको औरभी स्पष्ट करते हैं. - यदा स केवली भूतः वडविंशमनुपश्यति । तदा स सर्वविद् विद्वान् पुनर्जन्म न विद्यते ॥! महाभारत आदिपर्व ० ३१६ अर्थात् जब वह जीवात्मा सम्पूर्ण कर्मों के बन्धनसे छूटकर 'केवली' निर्मल मुक्त होजाना है तो वह सर्वश (ईश्वर) होजाता है। फिर उसका जन्म आदि नहीं होता। वह सर्वज्ञ सम्पूर्ण अव स्थाओं को प्रत्यक्ष देखता है। यहां जैन दर्शनका जीवात्मा से परमात्मा बनना तथा उसका सर्वज्ञहोना ही सिद्ध नहीं है अपितु उसके 'केवली' आदि पारभाषिक शब्दोंकी भी समानता है। इसी बासको पंजयचंदजी विद्यालंकार ( गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक) ने भारतीय इतिहासकी रूपरेखा' में स्वीकार किया है। आप लिखते हैं कि योगका ईश्वर, बुद्ध महावीर, कृष्ण अथवा रामके समान मुक्तात्मा ही है 'वैदिक सिद्धान्त भी मुकामको ही ईश्वर मानता है | इन सब के अलावा योग में ईश्वर का बाचक, 'ओम्' बताया है । ॐ का अर्थ जीवात्मा ही है ग्रह हम सिद्ध कर चुके हैं अतः इससे भी सिद्ध होता है कि योग में भी कोई जगत कर्ता विशेष ईश्वर नहीं माना गया है। अपितु मुक्त श्रात्मा को ही ईश्वर माना गया
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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