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________________ समुद्रादर्णवा दधि सम्बत्सरो अजायत । महो रात्राणि विदधद्विस्वस्य मिषनोजशी ॥२॥ सूर्याचन्द्रपौधाता यथा पूर्वमकल्पयन् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्ष मथोस्वः ।। ३ ॥ प्रचलित "अर्थ-तपे हुए ( अथवा विशेष प्रकार के ) तप में ऋत और सत्य उत्पन्न हुए। उनके बाद रात्रि अथवा अन्ध. कार उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् पानी वाले समुद्र उत्पन्न हुए ॥११॥ समुद्र के बाद सम्बत्सर अर्थात् काल उत्पन्न हुश्रा उस काल ने सूर्य दिनव रात्रि ) को उत्पन्न किया तथा वह सबका स्वामी हुआ काल के चिह्न स्वरूप सूर्य और चन्द्रमा को तथा पृथिरी और अंतरिक्ष (स्वग) को विधाता ने पूर्व की तरह बनाया ॥३॥” ___ उमेशचन्द्र विद्यारल ने इसी सूक्त पर वेद भाष्यकार पं. हलायुध का भाष्य यहां उद्धृन किया है । वह भी पठनीय है इसलिए हम उसको यहां लिखते हैं । "अव हलायुय मतम्-अस्य अघमर्षणस्य व्याख्यान माचारितु हतको जायते । यतः सर्ववेदसार भूताऽत्यन्त गुप्तश्चार्य मंत्रः । अस्प यद् पाठय त्राच अर्थबोधस्तत्रसौगम्यं नास्ति । ब्राह्मण निस्कादिकं च नास्न्येव । इत्थं एतदीय व्याख्यानानुगुणं कपि उपायं अप्राप्य यदेतस्य म्वरूपोष लभ मात्रेण व्याख्यान माचरणीयम् तदतीव माहसम् ।" अर्थात् इस अघमर्षण सूनका व्याख्यान करतेहुए हृदय प्रकंपित होता है क्योंकि यह सूत सम्पूण वेद का सार भूत अत्यन्त गुप्त है ।पाठमात्र आदि से इसका अर्थ करना सुलभ नहीं है । इसका
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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