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________________ ( : ३८६) यह श्रात्मा तपसे कुछ फूल सा गया, उससे अन्न अर्थात् भाव प्राण उत्पन्न हुश्रा, ( अन्नं हि.प्राणाः) शतपथ ३८11८ लस भाव प्राणसे द्रव्य प्राण उत्पन हा तथा उससे मन तथा मनसे सत्य, अर्थात् चक्षु आदि इन्द्रियां उत्पन्न हुई , (चक्षुर्व सत्यं ते ३.३३५.) इत्यादि प्रमाणोंसे सत्य का अर्थ चक्षु आदि हैं । तत्पश्चात लोक अर्थात् स्थूल शरीर उत्पन्न हुना और फिर इस शरीर से कर्म तथा कम से कम का फल ( अमृत ) उत्पन्न हुआ । ग्रहो कर्म फल का नाम 'अमृत' है। यहां श्री शङ्कराचार्यजी लिखते हैं। - "यावरकर्माणि कल्पकोटि शतैरपि न विनश्यन्ति तावत्फलं न विनश्यति इत्यमृतम् ।" __ अर्थात जब तक ( किरोडौं कल्पों तक) कमों का नाश नहीं होता तब तक उनका फल भी नष्ट नहीं हो सकता इसलिये कर्मफल को 'अमृत, कहा है। उपरोक्त प्रमाणों से यह सिद्ध है कि वैक्षिक प्रन्थों में सत असत् अमृन, च मृत्यु आदि प्राण याचक शब्द है । तथा नासदीय' सूक्त में मात्र प्राणों से हव्य प्राणों की तथा भाष इन्द्रियों से वन्य इन्द्रियों की रचना का वर्णन है । इसा प्रकार हिरण्यगर्भ केपुरुष सूक्तादि की व्यवस्था है। दूसरा सृष्टि सूक्त प्रस्वेतके मं सूत का नाम अघमर्षण, सूक्त है। यह सूत नित्य प्रति की संध्या में भी पठित है। अतः यह विशेष महत्व रखता है। इस सूक्त में तीन ही मन्त्र हैं। प्रथम हम उनको लिखकर उनका प्रचलित भाग्य लिखते हैं पुनः उनका सत्यार्थ लिम्गे 1 ऋतं च सत्यं चाभीद्धा-तपसोऽध्यजायतः। ततो राज्य जायत ततः समुद्रोऽणवः ॥१॥
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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