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स्वेनादित्रं शवसा जघन्थ (इन्द्र) ७।२११६,६३।१६ वाह योजसा अहि नत्र हावधीत् (इन्द्र) ७६३।२,४,३२ नन् त्राणि ( बृहस्पति ), ६ । ७३ | १ । २ रहस्पतिन पुत्रसादम् । १० । ६५ । १० मरुतोवृत्रहसवः ( मरुत् ) ६ । ४८ । २१
प्रिय पाठक ! और एक विषय लक्ष्य करने योग्य है। यह बात सर्वत्र कहीं गई है कि इन्द्र, सामादिक सभी देवता पाप नाशक, कल्याणकारी हैं । एवं प्रत्येक देवताके आधीन एक भाषांध भिषज्ञ) है । यह औषधि मनुष्यों के दुःख, ताप अादि रोगकी भैषज है । जड़ पदार्थ कदापि पाप नाश नहीं कर सकते । सुतराम बंदिक ऋषिगण, देवता कहनेसे तन्मध्यगत चेतन सत्ता व कारण सत्ता या ब्रह्म सत्ता को ही समझने थे । हम इस सम्बन्ध में कुछ स्थूल उद्धृत करके दिग्वाते हैं।
नयातीन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् (इन्द्र) १०१६३३ विश्वा दुरिता तरेम (वरुण) ८।४२ । ३ अच्छिद्रं शर्म भुवनस्य गोपाः (मित्र और वरुण)
विश्वानि देववितरितानी परासुव (सविता) ५८२५ पर्जन्ये ... हंसि दुरितः (पर्जन्य), ५ १८३ । ५ सनः पर्जन्य ? मदिशम यच्छ-८ ! ८३।५ विश्वानि अग्ने दुरितानि पर्षि (अग्नि) ५ । ३ । ११ पूषा नः पातु दुरितात् (पूषा), ६ । ७५ । १०