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________________ ( ५१७ ) मीमांसकों को उत्तरपक्ष अनिर्वचनीयवादीका कथन ठीक नहीं है । सनसे भिन्न असत् है, और असनसे भिन्न असत नहीं है तो सद्रूप होना चाहिए। एक का अभाव दूसरेकी सत्ता स्थापित करता है। अर्थात सत्का अभाव असनकी सत्ता और असत्का प्रभाव सत्की सत्ता स्थापित करता है । एक के प्रभाव से दोनोंका अभाव होजाय यह बात अशक्य है। अतः जगतको या तो सत् कहो या असत् कहो। जगत्की अनि चनीयता नहीं टिक सकती । वस्तुतः वही असत है जो कदापि प्रतीयमान न हो जैसे कि शशविषाण, प्रकाश कुसुम इत्यादि। और सत् भी वह है कि जिसकी प्रतीति कदापि पाघिप्त न हो जैसे आत्मतत्व । जगतकी प्रतीति शशविषाणकी तरह सदा के लिए वाधित नहीं. अतः उसे असत या अनिर्वचनीय नहीं कह सकते। किंतु अात्मतत्वकी तरह जगत्को सत् कहना चाहिए इसलिये जड़ और चेतन दोनोंकी सत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। और यदि इनकी सत्ता स्वीकार कर लोगे तो अद्वैतवाद के बजाय द्वैतवाद सिद्ध हो जायगा। अविद्यावाद वेदान्तर्गत अविद्यावादी कहता है कि वास्तविक सत्ता तो ब्रह्म की या आत्म तत्व की ही है। जगत् की कदाचित प्रतीत होती है यह अधिकृत है। मीमांसकों का परामर्श मीमांसक अविद्यावादी को पूछना है कि वह अविद्या प्रांतिरूप है या भ्रान्तिज्ञान का कारणरूप पदार्थन्तर है ? यदि कहो कि भ्रान्तिरूप है तो किसको होती है । ब्रह्म को भ्रान्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह स्वच्छ रूप है। जहां स्वच्छ विद्या है वहां भ्रान्ति
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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