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________________ वीं शताब्दी में भी सूर्योपासना का पर्याप्त प्रभाव था. क्योंकि वैविक मर्यादा की रक्षा की रक्षा को प्रस्तुत भवभूति को भी अपने मालवीय माधव नाटक में सूत्रधार से उदित-भूयिष्ट एव भावान शेष भुवन द्वीप दीपः तदुपतिष्ठते' कहलाते बिहनशान्त्यर्थ उदित सूर्य की स्तुति कराने की अभिरुचि हुई पश्चान ५०२७ ई० तक के भिन्न स्थानों में प्राप्त शिलालेख तथा ताम्रपत्र भी उन र स्थानों में सूर्योपासना का प्रचार प्रमाणित करते हैं। १२ वीं और १३ वीं शताब्दी की सुय मूर्तियों से भी तत्कालीन प्रचार का प्रमाण मिलता है और ऐसी मूर्तियों में राज महल. संथाल परगना व बंगाली सूर्य प्रतिमाएँ. कोनारकके सूर्य मंदिर का सूर्य रथ और सिलोन के पोलोग्नारुवा को सूर्य मूर्तियां अपना विशेष महत्व रखती हैं। इन बिग्वरी सामग्रियों से भारत भर में तथा सिलान में भी सूर्योपासना के प्रचलन का पक्का प्रमाण मिलता है। और बोध होता है कि पुरातनकालसे १३ वीं शताब्दी तक सूर्य की पूजा भारत में जारी रही और इसका भी प्राधार वैदिक विचार ही रहे। १३ वीं शताब्दी से भक्तिवाद का प्रवाह प्रवल बेग से भारत के प्रत्येक भाग की ओर प्रवाहित हुया और उसके प्रभाव से कालान्तर में शैवमत व तांत्रिक कृत्यों की भांति सूर्योपासना की ज्योति भी मन्द प्रभ हो गई। ___ भरतार कर महोदय ने बराहमिहिर, भविष्यपुराण और गयाजिलान्तर्गत गोविन्दपुर के ११३७-६८ ई. के एक शिलालेम्ब के आधार पर भारतीय सूर्योपासना को वाह्य प्रभाव से ग्रस्त होने की धारणा प्रतिपादित की है, लेकिन शाकद्विपीमगी पार्मियों के मिहिर और मूर्तियों के घुटने तक की पोशाक द्वारा बाह्य प्रभावका समथन नहीं किया जा सकता. क्योंकि मांगों का इतिहास निश्चितरूप में ज्ञात नहीं पासियों का मिहिर वैदिक मित्र का ही
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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