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(४६८) है. कि श्रारम्भमें मूल परमात्माको यह बुद्धि या इच्छा हुई, कि हमें अनेक होना चाहिए-बहुस्यां प्रजायेय' और इसके बाद सृष्टि सत्पन्न हुई (छो०६ । ।३ : ०२। ६) । इसी न्यायके अनुमार अव्यक्त प्रकृति भी अपनी साम्भावस्थाको भंग करके व्यक्त मृष्टिके निर्माण करने का निश्चय पहले कर लिया करती है अतएव, मांख्याने निश्चित किया है, कि प्रकृतिमें व्यवसायात्मिक बुद्धि' का गुण पहले उत्पन्न हुश्रा करता है। सारांश यह है, कि जिस प्रकार मनुष्यको पहले कुछ काम करनेकी इच्छा या बुद्धि हुअा करती है, उसी प्रकार प्रकृतिको भी अपना विस्तार करने या पसारा पसारनेकी बुद्धि पहले हुआ करती है । परन्तु इन दोनोंमें बड़ा भारी अंतर यह है कि मनुष्य प्राणी सचेतद होने के कारण. अर्थात् उसमें प्रकृति की बुद्धि के साथ चेतन पुरुषका ( आत्माका) संयोग होनेके कारण, वह स्वयं अपनी व्यवसायात्मिक धुद्धि को जान सकता है. और प्रकृति स्वयं अचेतन अर्थात् जड़ है, इस लिये उसको अपनी बुद्धिका कुछ ज्ञान नहीं रहता यह अंतर पुरुष के संयोगसे प्रकृति में उत्पन्न होने वाले चैतन्यके कारण हुआ करता है। यह केवल जड़ या अचेतन प्रकृतिका गुण नहीं है। अर्वाचीन
आधिभौतिक सृष्टि शास्त्रज्ञ भी अब कहने लगे हैं कि यदि यह न माना जाये. कि मानवी इच्छाकी बराबरी करने वाली किंतु अस्वयवेदा शक्ति जड़ पदार्थों में भी रहती है, तो गुरुत्वाकर्षण अथवा रन यन-क्रियाका और लोह चुम्बकका आकर्षण तथा अपसारण प्रमृति केवल जड़ सृष्टिमें ही दम्गोचर होने वाले गुणोंका मूल कारण ठीक ठीक यतलाया नहीं जा सकता । आधुनिक सृष्टिशास्त्रज्ञोंके उक्त मत पर ध्यान देनेसे सांख्योंका यह सिद्धान्त
आश्चर्य कारक नहीं प्रतीत होता कि प्रकृतिमें पहले बुद्धि-गुणका प्रादुर्भाव होता है। प्रकृतिमें प्रथम उत्पन्न होने वाले इस गुणको.