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________________ मुख्य सिद्धान्तसे दोनों सहमत हैं कि अव्यक्त सूक्ष्म और एक ही मूल प्रकृतिसे क्रमशः (सुक्ष्म और स्थूल) विविध तथा व्यक्त सृष्टि निर्मित हुई है। परन्तु अब आधिभौतिक शास्त्रोंके मानकी खूब वृद्धि हो जाने के कारण, सांख्य वादियों के 'सत्व. रज तम' इन तीनों गुणों के बदले. अाधुनिक सृष्टि शास्त्रझोंने गति, उषा और बाकर्षण-शक्तिका प्रधान गुण मान रक्खा है.। यह बात सच है. कि 'सत्व. रज, तम' गुणों की न्युनाधिकताके परिमाणों की अपेक्षा उष्णता अथवा श्राकर्षण शनिको न्युनाधिकताका वात प्राधिभौतिक शास्त्रकी सष्टिसे सरलता पूर्वक समझमें आ जाती है। तथापि, गुणों के विकास अथवा गुणोत्कर्षका जो यह तत्व है, कि "गुणा गुणेषु वर्तन्ते' (गी ३ | २८), यह दोनों ओर समान ही है। सांख्य शास्त्रज्ञोंका कथन है कि जिस तरह मोड़ दार पस्ने को धीरे धीरे खोलते हैं उसी तरह सत्व-रज-तमकी साम्यावस्थामें रहने वाली प्रकृतिकी सह जन धीरे धीरे खुलने लगती है. तब सब व्यक्त सृष्टि निर्मित होती है इस कथनमें और उत्क्रान्ति-बाद में वस्तुतः कुछ भेद नहीं है । तथापि यह भेद तात्विक धर्म-सृष्टिसे ध्यान में रखने योग्य है कि ईसाई धर्मके समान गुणोत्कर्ष-तत्वका अनादर न करते हुए, गीतामें और अंशतः उपनिषद् आदि वैदिक अन्थों में भी. अद्वैत वेदान्तके साथ ही साथ बिना किसी विरोधके गुणोत्कर्ष-बाद स्वीकार किया गया है। अब देखना चाहिए, कि प्रकृतिके विकासके विषयमें सांख्यशास्त्र कारों का क्या कथन है। इस क्रमको ही गुणोत्कर्ष अथवा गुण परिणाम-वाद कहते हैं । यह बतलानेकी आवश्यकता नहीं. कि कोई काम प्रारम्भ करनेके पहले मनुष्य उसे अपनी बुद्धिसे निश्चित कर लेता है. अथवा पहले काम करनेकी बुद्धि या इच्छा उसमें उत्पन्न हुआ करती है । उपनिषदों में भी इस प्रकारका वर्णन
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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