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________________ ( 6 ) सत्र ज्ञान अविश्वारूप ही हैं। इस लोकका भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्यजी लिखते हैं--- " तस्य एव परस्य ब्रह्मण: प्रति देहं प्रत्यगात्मभावः स्वभावः ॥" अर्थात् — उस पर ब्रह्मका प्रत्येक शरीर में जो अन्तरात्म भाव हैं उसका नाम स्वभाव हैं। आगे और स्पष्ट करते हैं । "आत्मानं देहमधिय प्रत्यगात्मतया प्रवृत्तं परमार्थ ब्रह्मवसानम् उच्यते श्रध्यात्मशब्देन, अभिधीयते । ।" अभिप्राय यह हैं कि शरीरको आश्रय बनाकर जो अन्तरात्मा भावसे उसमें रहने वाला श्रात्मा है वह शुद्ध निश्वयनयसे तो परं ब्रह्म ही हैं । उसी तत्त्र ( स्वभाव ) की अध्यात्म कहते हैं । अर्थात आत्मा शुद्ध स्वभाव को श्रध्यात्म कहते हैं, तथा जिस विवा उस स्वभावका ज्ञान होता है उसे अध्यात्मविद्या कहते हैं। सांख्य मत प्रकृतिको भी अक्षर माना गया है इसीलिये लोक में अक्षर. के परम विशेषण लगाया गया है. जिससे यह शब्द आत्माका हो बोधक है। आगे अ० १० । ३२ | में (अध्यात्म विद्याविद्यानाम् ) कहकर इस मोक्षफल प्रादात्री अध्यात्म विद्याकी सर्व श्रेष्ठता बताई गई है। तथा च- अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वं तच्च ज्ञानार्थ दर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।। १३ । ११. यहाँ शंकराचार्यजी लिखते हैं कि- "आत्मादि विषयं ज्ञानं अध्यात्म ज्ञानं तस्मिन् नित्यभावो नित्यत्वम् ||"
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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