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________________ ( ३८० ) wi " "! सूक्त में किन्तु अन्यत्र भी व्यावहारिक सगुण नाम रूपात्मक विविध सृष्टि या इस सृष्टिकी मूल भूत त्रिगु णात्मक प्रकृति कैसी उत्पन्न हुई, तब तो हमारे प्रस्तुत ऋषिने भी मन, काम, असन और सम् जैसी द्वैती भाषाका ही उपयोग किया है. और अन्तमें स्पष्ट कह दिया है, कि यह मानत्री बुद्धिकी पहुँचके बाहर है। चौथी ऋचायें मूल ब्रह्मको ही सत् कहा है. परन्तु उसका अर्थ कुछ नहीं" यह नहीं मान सकते, क्योंकि दूसरी ऋचा में भी स्पष्ट कहा है कि वह है | न कि केवल इसी भाषाको स्वीकार करके हीं ऋग्वेद और वजसनेयी संहितामें गहन विषयोंका विचार ऐसे के द्वारा किया है०२० । ३८१७६ १० । ८१ । ४; बा० सं० १७ । २० देखो, जैसे दृश्य सृष्टिको यज्ञकी उपमा देकर प्रश्न किया है. कि इस यज्ञके लिये आवश्यक घृत, समिधा इत्यादि सामग्री प्रथम कहांसे आई ? (ऋ० १० ११३० । ३ ) अथवा घरका दृष्टान्त देकर प्रश्न किया है कि मूल एक निर्गुण से नेत्रोको प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली आकाश-वकी भव्य इमा रत को बनाने के लिये लकड़ी ( मूल प्रकृति ) कैसे मिली ? किं विद्वनं क उस वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी तिष्टत्तक्षुः । 1 इन प्रश्नों का उत्तर उपयुक्त सूक्त की चौथी पांचवी ऋना में जो कुछ कहा गया है, उससे अधिक दिया जाना संभव नहीं है ( बाज सं० ३३ । ७४ देखो ) और वह उत्तर यही हैं, कि उस अनिर्वाय अकेले एक ही के मन में सृष्टि निर्माण करने का काम - रूपी तत्व किसी तरह उत्पन्न हुआ और वस्त्र के के समान या सूर्य प्रकाश के समान उसी की शाखाएं तुरन्त नीचे ऊपर और बहुं ओर फैली गई तथा सन् का सारा फैलाव हो गया. अर्थात आकाश पृथ्वी की यह भव्य इमारत बन गई। उपनिषदों में इस सूक्त के अर्थ को फिर भी इस प्रकार प्रद किया है. कि --
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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