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________________ ( * ) यात्रान्वा अमाकाशस्तावानेषोऽन्त देय श्राकाशउभे स्मिन् द्यावापृथिवी व्यंतरेव समाहिते उभावनिश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसा मौ विशुनक्षत्राणि यच्चाऽस्येहास्ति यश्च नास्ति सर्व तदस्मिन्समाहितम् || ३ || (छांदोग्य उप० ८५१) ० यही है वह हृदय अंदरका आकाश" | " जितना आकाश बाहर के विश्व में है. उतना ही गहरा आकाश हृदयके अन्दर है । और इस हृदयाकाशमें लोक और पृथिवी लोक अन्दर ही अंदर समाये हैं; अग्नि वायु, सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, नक्षत्र आदि सब जो कुछ हैं, वह सब इसमें समाया है।" यह अन्दरके आकाशके विषय में ऋषिका अनुभव है, ध्यान धारणा करने वाला मनुष्य इस बातका अनुभव स्वयं ले सकता है। मनुष्य के हृदयमें जो आकाश है. उसमें अंशरूप से उतने ही तेजस्वी पदार्थ हैं, जो कि वाह्य आकाश में हैं । हृदयाकाश में यह रहता है। बाहर सूर्यादि बड़े बड़े तेजली तारे जैसे हैं, वैसे ही उन सबके अंशरूप प्रतिनिधि अपने अन्दर हृदयाकाशमें हैं । तात्पर्य आकाश जीवात्मा के देहरूपी क्षेत्र में भी है। तथा और देखिये य एव विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञान पादाय य एषोऽन्त दय आकाशस्तस्मिन् शेतेतानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सद् गृहीत एव प्राणो भवति गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुगृहीतं क्षोत्रं गृहीतं मनः । ( वृहदारण्य, उप० २।१।१७ )
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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