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________________ ( ६३१ ) कभी रंक आदि रूप धारण करती है उसी प्रकार लिङ्ग (सूक्ष्म ) शरीर कामना के वश होकर अनेक प्रकार के शरीर धारण करता रहता है। कभी देवता बन जाता है कभी नारकी, कभी पशु पक्षी तो कभी पुरुष मादि का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार लिङ्ग शरीर स्वयमेव बगैर किसी ईश्रर आवि की प्रेरणा या सहायता के अनेक प्रकार के शरीर धारण करता है और सुख दुःख भोगता रहता है । सांख्य दर्शन में आत्मा नो निलेप है ! न यह का है न भोक्ता है। सांख्य दर्शन कर्मफल के लिये भी ईश्वर की श्रावश्यकता नहीं समझता । इसी लिये सांख्यदर्शन अनीश्वरवादी प्रसिद्ध है। उसने ईश्वर का खुएडन किन प्रबल युक्तियों से किया है. इसका दार्शनिक और ऐतिहासिक विवेचन हम विश्वविचार" में कर चुके हैं। सांख्य दर्शन की तरह पूर्व मीमांसा भी अनीश्वरयादी है। उसके मतानुसार भी कर्मफल देने के लिये ईश्वर श्रादि की कल्पना करने की जरूरत नहीं है । तन्त्रवातिककार का कथन है। "यागादेव फलं तद्विशक्तिद्वारेण सिध्यति । मूक्ष्म शक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते ।" अर्थात कर्म से अपूर्व ( धर्माधर्म उत्पन्न करने की शक्ति) उत्पन्न होनी है उस अपूर्व रूप मुक्ष्म शक्ति से फल प्रार होता है। योगदर्शन योगदर्शन के अनुसार चित्त अनेकों लोशों की खान है। सम्पूर्ण क्लेश विपर्ययरूप हैं। इन सम्पूर्ण क्लेशोंका कारण अविद्या
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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