SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४७३ ) इन्द्रिय को सिर्फ एक ही गुण ज्ञानका हुआ करता है। आँखोंसे सुगन्ध नहीं मालूम होती और न कान से दीखता ही है, त्वचा से मीठा कडुआ नहीं समझ पड़ता और न जिह्वा से शब्द ज्ञान ही होता है, नाक से सफेद और रंग का भी नहीं मालूम होता । जब इस प्रकार, पाँच ज्ञानेन्द्रियां और उनके पाँच विषय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध निश्चत हैं, तब यह प्रगट है, किं सृष्टि के सब गुण भी पाँच से अधिक नहीं माने जा सकते। क्योंकि यदि हम कल्पना से यह मान भी लें कि गुण पांच से अधिक हैं, तो कहना नहीं होगा कि उनको जानने के लिये हमारे पास कोई साधन या उपाय नहीं हैं। इन पांच गुणों में से प्रत्येक के अनेक भेद हो सकते हैं। उदाहरणार्थ यद्यपि 'शब्द' गुण एक ही है तथापि उसके छोटा, मोटा, कर्कश, भद्दा फटा हुआ, कोमल अथवा गायन शास्त्र के अनुसार निषाद, गांधार, षडज आदि और व्याकरण शास्त्र के अनुसार कंख्य, तालव्य, ओष्ठ्य आह अनेक प्रकार हुआ करते हैं। इसी प्रकार यद्यपि 'रूप' एक ही गुण है, तथापि उसके भी अनेक भेद हुआ करते हैं। जैसे सफेद काला. नीला. पीला, हरा श्रादि। इसी तरह यद्यपि 'रस' या 'रुचि' एक ही गुण है, तथापि उसके खट्टा मीठा, तीखा, कडुवा * खारा आदि अनेक भेद हो जाते हैं, और 'मिठास' गुड़ का मिठास और शक्कर का मिठास भिन्न भिन्न होता है, तथा इस प्रकार उस एक ही 'मिठास' के अनेक भेद हो जाते हैं। यदि भिन्न भिन्न गुणों के भिन्न भिन्न मिश्रणों पर विचार किया जाय तो यह गुण वैचित्र्य अनन्त प्रकार से अनन्त हो सकता है । परन्तु चाहे जो हो, पदार्थों के मूलगुण पांच से कभी अधिक नहीं हो सकते, क्योंकि इन्द्रियां पांच हैं, और प्रत्येक को एक ही गुण का बोध हुआ करता है । इस लिये सांख्यों ने यह निश्वत किया है. कि
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy