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। २२५ ) मनुष्य योग-सिद्धि, धान करके अनेक शरीर धारण कर सकता है, जैसा कि वचन है
आत्मनो वै शरीराणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्मही चरेत् ॥ प्राप्नुयाविषयान् कश्चित् कश्चिदुग्र तपश्चरत् । मंक्षिपेच पुनस्तानि सूर्यो रश्मिगणानिय ।।
किन्तु देवतामें अनेक शरीर धारण करनेकी योग्यता स्वर्यमेव होती है। अाचार्य शङ्करने वेदान्तक• विरोधः कर्मणीति चेम्नानेकप्रतिपनेर्देशनात् ।
इस सूत्र पर भाष्य करते हुए लिखा है-- देय स्मृतिरपि प्राप्ताणिमाद्यैश्वर्याणां योगिनामपि युगपकनेक
शरीरयोगं दर्शयति किम वक्तव्यमाजानसिद्धानां देवानाम् । ___मनुष्यों में पितासे पुत्र उत्पन्न होता है, पुत्रसे पिताकी उत्पत्ति नहीं हुश्रा करनी; किन्तु देवता एक दृमरेसे उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये याकने तिरुक्तमें देवनाओंके विषयमें कहा हूँ---
'इतरेतरजन्मानो भवन्तीतरेतरप्रकृतयः। साधनसम्पन्न मनुष्य मायाका प्राश्रय लेकर अपने रुपका परिवर्तन कर सकता है । मारीचका मृगरूप धारण करना रामायणमें सुप्रसिद्ध है । इसी प्रकार देवता भी मायासे अपने रूप का परिवर्तन कर सकते हैं। दमयन्तीक स्वयम्बरमें इन्द्रादि घार दिक्पालोका नल-रूप-धारण महाभारनमें प्रसिद्ध है। देवताओंके इसी रूप-परिवर्तनको लक्ष्यमें रखकर अति कह रही है कि