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________________ आर्यों ने की उनसे भी इन्हीं की इच्छा की ग । इनकी प्राप्ति के मार्गके जिसने विन्न थे उनके नाशके लिये सुशिप्र--हरिताश्च इन्द्रकी अनेकानेक स्तुतियाँ वेदोंमें की गई और यथेच्छ सोम पान कराकर इन्द्र को शत्रुत्रों के नाश के लिये सर्वदा सम्पन्न रंकाया गया । इन्द्र ने अपने उपासकों के हितार्थ अहि-गण-शुष्मा-शंवर-नमुचि पिघ्र प्रभृति अार्यशत्रुओं का संहार ही लिया. जिस मारना की स्मृति में इन्द्र वृत्रहनोपाधि से विभूषित किये गये सुरेश्वर पद उन्हें वराबर के लिए प्रदान किया गया और उनकी श्लाघा में कहा गया-एको देवत्रा दयसे हि मान स्मिन्छूर सबने मादयास्त्र । ' एसी वीरता में इन्द्र को विष्णु ने बराबर साहाय्यं दिया और त्वष्टु ने वन प्रदान किया। जिसके कारण इन्द्र के बाद विष्णु को भी सम्मान दिया गया और समय पाकर अपने अन्य सद्गुणों के कारण विष्ा उपासना में स्थान पा सके। इन्द्र यद्यपि इन्द्रासन के अधिपति बने रहे उनका मान उपासक मण्डली में धीरे २ घटने लगा । जैसे २ विनों का भय जाता रहा अर केवल धन व विभूतियों के संचय का यत्न किया जाने लगा, तब विषणु के प्रतिउपासकों की धारणा हुई कि विष्णु के ही परमोच्चपद में अमृतत्व मधु-का मंजुल स्त्रोत है... उरु क्रमस्य स हि वंधुरिस्था विष्णोः पदे परमे मध्वउत्सः।” अब उपासक स्तोता विष्णु सुकृते सुकृत्तर' कहते विष्णु के सुन्दर सुखद् कृत्यों से धीरे २ परिचित होने लगे। उनने विष्णु को व्यापक देवता पाया, विधा का नाम उरकम देकर लोकत्रय में उनकी व्याप्ति की कल्पना की गई । विष्णु के त्रिपदों के भीतर चराचर का निवास माना गया और परम पद देवताओं का प्रमोदस्थल कहा गया आंचार के देवता वरुण को विष्णु का सम्बन्ध प्राचार से भी स्थिर किया गया। यजुर्वेद में विष्णु की ख्याति के जो मंत्र मिलते हैं उनमें
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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