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________________ अपनी स्तुतियों को स्थिर कर लेने पर उनकी सत्यता का याज्ञिक कृत्यों की कसौटी पर कसने में तत्पर हुए और अनि मीले १ का क्रम समाप्त होने पर उनमें यज्ञों के अनुष्ठान की ओर विशेष ध्यान दिया । सामवेद और यजुर्वेद में इसी प्रगति का प्राधान्य है और ऋचाएँ भी वैसे ही यक्षों से सम्बन्ध रखती हैं जिन यज्ञों के बल पर श्रमि को देवताओं के पास जाने की प्रार्थना में कहा गया है-- अग्ने यं यज्ञ मध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।” पर इन यज्ञी. का विशेष स्थान पुरोहितम् के सुति-प्रधान मंत्र-युग के बाद है हर इसी से जमणा शाइना सी धीरे २ संहिता-माल की समाप्ति पर ब्राह्मण ग्रन्थ कालीन युग में हुआ। तीसरी श्रेणी का पद हैं 'रत्नधातमम्' जो स्तुति व यज्ञ द्वारा इष्ट लक्ष्य का परिचायक कहा जा सकता है। अनि की स्तुति की गई, वह हितैषी माना गया और यज्ञों के ऋत्विज-होता की उपाधियों से सम्मानित किया गया पर किस विशेषताके कारण ? स्पष्ट है कि वह रत्न को देने में समर्थ था और उसी रत्न के लाभार्थ सारा आयोजन उपासक को करना पड़ा। यह रत्न पृथ्वी के भीतर का केवल बहुमूल्य लाल-हीरा-जवाहरात ही नहीं थे पर अन्य मूल्यवान पदार्थ भी उनमें सम्मिलित थे और उन सबकी प्राप्ति के लिये उपासक की उपासना श्री। उसकी व्याख्या भी एक स्तुति में वशिष्ठ द्वारा कर दी गई है-- गोमायुरदाद जमायुरदास्पृश्निरदाद्धरिसो नो नसनि । गया मंडूका देदतः शतानि सहस्त्रसावे प्रतिरन्त प्रायुः ।। तदनुकूल धन, विभूतियाँ लम्बी आयु और वीरपुत्र थे मूल्य पान रल थे जिनका देने वाला- जान कर अग्निकी स्तुति की गई और अग्नि के अलावा भी जिन देवलाओंकी स्तुतियाँ उस काल के
SR No.090169
Book TitleIshwar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNijanand Maharaj
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages884
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size14 MB
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